विचार/लेख
-डॉ. दिनेश मिश्र
हिमाचल प्रदेश की कालका शिमला रेल मार्ग के बड़ोग की (ड्ढड्डह्म्शद्द) सुरंग भुतहा नहीं है, भूत-प्रेत जैसी मान्यताओं का कोई अस्तित्व नहीं होता। कर्नल बड़ोग के नाम पर बनी इस सुरंग (टनल) के भुतहा होने संबंध में कुछ स्थानीय लोगों व मीडिया के द्वारा फैलाई गई अफवाह तर्कहीन है। जबकि यह स्टेशन विश्व हेरिटेज यूनेस्को वल्र्ड हेरिटेज साइट की लिस्ट में है फिर भी समय-समय पर इसके संबंध में अन्धविश्वास, भ्रम फैलाया जाता रहा है जबकि उन्होंने अपने दल के साथ बड़ोग जाकर सच्चाई जानी।
20वीं सदी की शुरुआत में कालका शिमला रेलवे के निर्माण के दौरान सोलन के नजदीक बसाया गया एक छोटा सी बस्ती है। जिसका नाम एक इंजीनियर कर्नल बड़ोग के नाम पर रखा गया है, जिसने 1903 में उस क्षेत्र में रेलवे लाइन के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कर्नल बड़ोग एक ब्रिटिश रेलवे इंजीनियर थे, जो पहाड़ों में रेलवे के लिए सुरंग बनाने का काम करते थे। बरोग से पहाड़ में सुरंग बनाने के नापजोख में कुछ त्रुटि हो गई जिससे वजह से दोनो तरफ से बनने वाली सुरंग कभी मिल ही नहीं पाई, जिस से तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा उन पर कार्यवाही करते हुए एक रुपये का जुर्माना लगाया गया था। बड़ोग से यह अपमान सहन नहीं हुआ और उसी स्थान पर बड़ोग ने आत्महत्या कर ली। बाद में उन्हें एक अधूरी सुरंग के पास दफना दिया गया। इस स्थान को बाद में बड़ोग के नाम से जाना गया यह सुरंग मार्ग की सबसे लंबी सुरंग है।
डॉ. दिनेश मिश्र ने कहा कभी-कभी सिर्फ रोमांचक स्टोरी बनाने के फेर में मीडिया भी अंधविश्वास फैलाने का एक माध्यम बन जाता है जब मैंने इस सुरंग के बारे में जानकारी प्राप्त की, तब मुझे देश के बड़े-बड़े समाचार पत्रों में इस सुरंग के बारे में सिर्फ एकतरफा स्टोरी ही सुनाई व दिखाई दी यहां तक राष्ट्रीय अखबारों और कुछ चर्चित टीवी चैनलों तथा कुछ वेबसाइट में सिर्फ एकतरफा खबरें ही दिखाई और सुनाई पड़ी, कि इस सुरंग में कर्नल बड़ोग का भूत रहता है, वहां लोग आने से डरते हैं, शाम को कर्नल बड़ोग की चीखें सुनाई पड़ती है, रात में रहस्यमयी वातावरण हो जाता है आदि आदि। इस प्रकार की अफवाहें फैलती गईं कि बड़ोग स्टेशन को भुतहा (हॉन्टेड) स्टेशन के नाम से दुष्प्रचारित कर दिया गया, जबकि यह स्टेशन पहाडिय़ों व जंगलों के बीच अपनी प्राकृतिक छटा के कारण यूनेस्को वल्र्ड हेरिटेज साइट में शामिल है।
बड़ोग के संबंध में इस प्रकार की जानकारी होने के बाद हमने तय किया कि अपने साथियों के साथ वहां जाकर, परीक्षण कर कर्नल बड़ोग स्टेशन के संबंध में और इस स्टेशन के बारे में फैलाई जा रही अफवाहों के बारे में कुछ सही बातें और तार्किक की बातें लोगों को बताई जाए।
पिछले दिनों जब मेरा हिमाचल जाना हुआ, तब दिल्ली से चंडीगढ़ होते हुए हम कसौली पहुंचे, और फिर वहां से दूसरे दिन सालोन नामक स्थान पर पहुंचे जिसके जुड़ा हुआ ही बड़ौद स्टेशन है, स्टेशन से नीचे उतरने के लिए काफी कच्चा रास्ता है, काफी ढलान है, सकरी पगडंडी है, लेकिन आसपास के दृश्य अत्यंत सुंदर और प्राकृतिक हैं, चीड़ और देवदार के पेड़ों से भरे इस क्षेत्र में मेरे साथ में डॉ, सुभाष अग्रवाल, डॉ अतुल तिवारी, डॉ. मोनिका अग्रवाल, शताक्षी तिवारी और सुजाता मिश्र, हम छह लोगों का दल इस मुहिम में शामिल हुआ। हम सावधानीपूर्वक धीरे-धीरे नीचे उतरते चले गए, बड़ोग स्टेशन मुख्य सडक़ से करीब डेढ़ किलोमीटर नीचे है, जहां से स्टेशन के प्लेटफार्म पर पहुंचे। सबेरे 11 बजे भी प्लेटफार्म पर न ही कोई यात्री था और न ही कोई कर्मचारी और न कोई वेंडर। जब कि जब भी हम स्टेशन के प्लेटफार्म पर जाते हैं, यात्रियों की चहल पहल देखते हैं, वेंडरों की आवाजें सुनते है, कर्मचारियों की आवाजाही देखते हैं। प्लेटफार्म नंबर 1 पर कुछ दूरी पर एक बच्ची खेल रही थी उसने पूछने पर अपना नाम दीपिका बताया। उससे ही पूछा हमने उसने हमें वहां की कैंटीन का रास्ता बताया और स्टेशन मास्टर के ऑफिस के दिखाया। लंबा साफ सुथरा सुंदर प्लेटफार्म है जहां यूनेस्को द्वारा वल्र्ड हेरिटेज साइट का शिलालेख निर्मित है। जहां से चलते हुए हम लोग स्टेशन मास्टर के ऑफिस तक पहुंचे, उसके नजदीक सुरंग को भी देखा जो दूर से ही दिखाई दे रही थी, वहां लिखा हुआ है 33 नंबर इसके बारे में मीडिया के काफी हिस्से ने रहस्यमई सुरंग,भुतहा सुरंग कर्नल बड़ोग के भूत वाली सुरंग के नाम से प्रचारित किया है, सुरंग के द्वार पर ही बड़ोग सुरंग के सम्बन्ध में जानकारी अंकित है। यह पुरानी वास्तुकला से निर्मित है सुरंग, जिसमें से पटरिया गुजराती दिखती है, अंदर लाइटें भी लगी हैं, इसे सबसे लंबी सुरंग माना जाता है उसका सिग्नल भी वहीं है सुरंग के मुहाने व सुरंग के अंदर भी दूरी तक जाकर के हमने देखा, हमें कोई भी भय, डर की बात नहीं लगी। फिर बड़ोग के स्टेशन मास्टर कुलदीप भाया से मिले, जो पिछले 8 वर्षों से उसे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर के रूप में कार्य कर रहे हैं, उनसे बात की, उनसे चर्चा की, उन्होंने अपने इतने लंबे कार्यकाल के दौरान किसी भूत को भुतहा चीख की आवाज नहीं सुनी, उनसे काफी देर तक अनुभव सुने, उनके साथ फोटो भी खिंचवाई, सुरंग में फोटो खींची, सुरंग के बाहर फोटो खींची, दीपिका जो बच्ची वहां प्लेटफार्म पर खेल रही थी, उस बच्ची के साथ हम प्लेटफार्म से कुछ ऊंचाई पर बने कैंटीन पर गए, वहां मैनेजर, कर्मचारी से भी बातचीत हुई, जो नियमित रूप से वहां ड्यूटी करते हैं, कैंटीन में काम करने वाले कर्मचारी बड़ोग के समीप गांव से वहां पर काम करने आते हैं उन्होंने भी कोई चीखचीख नहीं सुनी, उन्हें कभी नहीं लगा कोई वहां पर भूत, आत्मा रहती है।
हमने उसे कैंटीन में बने ताजा कटलेट कभी आनंद लिया और चाय भी पी। प्लेटफार्म के नजदीक वहीं एक और पुरानी सुरंग है जिसे बंद कर दिया गया वहां तक भी पहुंचे करनाल बड़ोग कथित कब्र भी देखी, क्योंकि बड़ोग रेलवे स्टेशन था, कथित तौर पर भूतों का भी मामला था, डरने की भी कहानी भी चर्चा में थी, इसलिए हमने वहां पर अपने साथियों के साथ प्रतीकात्मक इंसानी रेल भी चलाई।
हमें स्टेशन मास्टर ने जानकारी दी, कि वहां पर शिमला जाने वाली ट्रेन जब आती है, तब कुछ लोग उतरते हैं क्योंकि वह शिमला जाती है वह पटरी कालका शिमला रूट है इसलिए स्टेशन पर उतरने वालों की संख्या बहुत ही कम होती है लेकिन उन्होंने अपनी ड्यूटी के दौरान कभी भी किसी भी भूत-प्रेत असामान्य बातों के न दर्शन हुए उन्होंने कभी ऐसा महसूस हुआ।
बड़ोग स्टेशन के पास ही गांव में बच्चों का स्कूल है, जहां आसपास के गांव से बच्चे पढऩे आते हैं, वहां पर वैक्सीनेशन के लिए जाती हुई
एक मितानिन से भी बातचीत हुई, जो बच्चों के लिए वैक्सीन लेकर जा रही थी उससे भी चर्चा की उसने बताया नजदीक के गांव से आना जाना करती है लेकिन उसे भी कभी वहां पर कोई भूत प्रेत नहीं दिखे और न डर लगा।
भूत-प्रेत जैसी मान्यताओं का कोई अस्तित्व नहीं है, यह बात सही है कि उस सुरंग के निर्माण में कुछ चुके हुई होगी जिसके कारण इंजीनियर कर्नल बड़ोग को आत्महत्या करने पड़ी, और यह भी सही कि उनको वहां पर दफना दिया गया, उस स्टेशन का नाम भी बड़ोग के नाम पर रख दिया गया है, स्टेशन में उनके संबंध में जानकारी भी वहां लिखी हुई है, लेकिन इस बात में कोई सच्चाई नहीं है कि स्टेशन बड़ोग में उनका भूत है, जिसकी चीखने चिल्लाने की आवाज रात में आती है, वह लोगों को तंग करता है, लोगों को नहीं वहां जाना चाहिए इत्यादि-इत्यादि।
भूत वाली बात पूरी तरह से काल्पनिक, अफवाहें हैं। आम लोगों को ऐसे अंधविश्वासों पर भरोसा नहीं करना चाहिए साथ में मीडिया को भी इस प्रकार की स्टोरी जो सिर्फ लोगों में अफवाह और अंधविश्वास फैलती है ऐसी स्टोरी प्रसारित करने से भी बचना चाहिए ।
जिस बड़ोग स्टेशन का नाम यूनेस्को के वर्ल्ड हेरिटेज में शामिल है, ऐसे प्राकृतिक सुंदरता वाले स्थान को आम पर्यटकों को देखने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि पर्यटन बढ़े।
-चंचल भू
5 अप्रैल बाबू जगजीवन राम का जन्म दिन है । बाबू जी बिहार से उठे और तमाम ‘असुविधाओं’ को झेलते हुए शिखर पर जा बैठे। काशी विश्व विद्यालय के छात्र थे , बिरला छात्रावास के कमरा नम्बर 19 उनके नाम से आवंटित हुआ। यहां उन्हें पाखंडी सनातनियों द्वारा बहुत अपमानित होना पड़ा था लेकिन इस विश्व विद्यालय का मोह वे कभी नही छोड़ पाए ।
हमारी उनसे जान पहचान 77 में हुई। हम संघ को हराकर छात्रसंघ का चुनाव जीते थे । इस खबर से बाबू जी बहुत खुश थे । इसके पहले ही वे हमारा नाम सुन चुके थे । आपातकाल के खत्म होने के बाद बाबू जी कांग्रेस से अलग ष्टस्नष्ठ बना लिए थे और सासाराम से प्रत्यासी थे। एक दिन सच्चिदा बाबू (भाई जगदानंद के बड़े भाई और प्रसिद्ध समाजवादी) बनारस आये थे और हमे चुनाव प्रचार के लिए सासाराम ले गए । वहां बहुत छोटी मुलाकात हुई । बाद में जब हम छात्रसंघ का चुनाव जीते तो बाबू जी को हमारे चुनाव जीतने की खबर सच्चिदा भाई ने ही दिया । बाबू जी ने सच्चिदा भाई से कहा इसे दिल्ली बुलाओ। जब ये बात हो रही थी तो उस समय बहुगुणा जी (स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा) वहां मौजूद थे , यह जिम्मेदारी बहुगुणा जी ने ले ली और हमारी मुलाकात बाबू जी हो गई । आजीवन मिलते रहे ।
इन लोगों में पंच और विट गजब का रहा। हम जब भी मिलते बाबू जी बे रोक टोक बोलते-आइए अध्यक्ष जी। और हम बोलते- जी मंत्री जी । और जोर का ठहाका लगता।
एक दिन बाबू जी ने कहा- हमारे साथ कोई फोटो नही खिंचवाना चाहते? कैमरा देखते ही खिसक जाते हो?
इतना भद्दा हूँ ? हमें अंदर से तकलीफ हुई। विश्वविद्यालय ने उनके साथ जो किया था, वो याद आ गया। हम चुपचाप संजीदा बने बैठे रहे। अचानक टाइम्स के फोटोग्राफर आ गए। हम उठे और बाबू जी के बगल में जाकर बैठ गए। फोटो हो गया। हम उठे, चलने को हुए, हाथ जोड़ कर नमस्कार किया , उन्हें कुछ असहज लगा। बोले - बैठिए अभी नहीं जाना है काफी पीकर जाओ ।
-सौतिक बिस्वास
डोनाल्ड ट्रंप के व्यापक टैरिफ ने वैश्विक व्यापार को हिला कर रख दिया है लेकिन बाधाएं कभी कभी अवसर भी पैदा करती हैं।
नौ अप्रैल से भारतीय निर्यात को 27त्न टैरिफ का सामना करना होगा। हालांकि ट्रंप ने जो टैरिफ चार्ट जारी किया है उसमें भारत पर 26त्न टैरिफ की बात कही है लेकिन आधिकारिक आदेश में 27त्न टैरिफ का जिक्र है। ऐसी अनियमितताएं अन्य देशों को लेकर भी देखी गई हैं।
टैरिफ़ बढ़ाने से पहले, व्हाइट हाउस के अनुसार, अपने ट्रेडिंग पार्टनर्स के साथ अमेरिका का औसत टैरिफ 3.3त्न हुआ करता था, जोकि वैश्विक स्तर पर सबसे न्यूनतम है, जबकि भारत का औसत टैरिफ 17त्न था।
हालांकि, चीन (54त्न), वियतनाम (46त्न), थाईलैंड (36त्न) और बांग्लादेश (37त्न) पर अपेक्षाकृत अधिक अमेरिकी टैरिफ भारत के लिए अवसर भी बन सकता है।
भारत के लिए निर्यात बढ़ाने का मौका है?
दिल्ली की ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (जीटीआरआई) के अनुसार, टेक्सटाइल्स, इलेक्ट्रॉनिक्स और मशीनरी के क्षेत्र में भारत के लिए यह एक मौका भी हो सकता है।
चीन और बांग्लादेश के निर्यातकों पर ऊंचा टैरिफ, भारतीय टेक्सटाइल उत्पादकों को अमेरिकी बाजार में अपनी जगह बनाने का रास्ता खोलता है।
अगर भारत अपने आधारभूत ढांचे और नीतियों को मजबूत करे, तो सेमीकंडक्टर्स के मामले में अग्रणी ताईवान के मुकाबले, भारत पैकेजिंग, टेस्टिंग और सस्ते चिप की मैनूफैक्चरिंग की जगह ले सकता है।
32त्न टैरिफ के चलते अगर, ताईवान से सप्लाई चेन में आंशिक बदलाव भी आता है तो यह भारत के लिए फायदेमंद हो सकता है।
मशीनरी, ऑटोमोबाइल्स और खिलौने के क्षेत्र में चीन और थाईलैंड अग्रणी हैं। इसलिए ये क्षेत्र टैरिफ की वजह से होने वाले ‘रिलोकेशन’ के लिए मुफीद है।
जीटीआरआई के अनुसार, निवेश को आकर्षित कर, उत्पादन और अमेरिका में निर्यात बढ़ाकर भारत इस मौके का फायदा उठा सकता है।
भारत को किस तरह का फ़ायदा हो सकता है?
ऊंचे टैरिफ ने ग्लोबल वैल्यू चेन पर निर्भर कंपनियों की लागत बढ़ा दी है, जिससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा करने की भारत की क्षमता पर भी असर पड़ा है।
मुख्यत: सेवा क्षेत्र के बूते बढ़ते निर्यात के बावजूद, भारत का व्यापार घाटा बहुत अधिक है। वैश्विक निर्यात में भारत की हिस्सेदारी महज 1.5' है। ट्रंप ने बार बार भारत को ‘टैरिफ़ किंग’ और व्यापारिक संबंधों का ‘सबसे बड़ा दुरुपयोग करने वाला’ कहा है।
अब उनकी नई टैरिफ़ घोषणाओं के बाद, इस बात का डर है कि भारतीय निर्यात और भी कम प्रतिस्पर्धी हो जाएंगे।
जीटीआरआई के अजय श्रीवास्तव कहते हैं, ‘कुल मिलाकर, अमेरिकी संरक्षणवादी टैरिफ़ नीति, वैश्विक सप्लाई चेन के पुनर्गठन से भारत को मिलने वाले फ़ायदे में एक बड़ी भूमिका अदा कर सकती है।’
उनके अनुसार, ‘हालांकि, इन मौकों का पूरी तरह फ़ायदा उठाने के लिए, भारत को ईज़ ऑफ़ डूईंग बिजऩेस को और बढ़ाना होगा, लॉजिस्टिक्स और आधारभूत ढांचे में निवेश करना होगा और नीतिगत स्थिरता बनाए रखनी होगी।’
‘अगर ये शर्तें पूरी होती हैं तो भारत आने वाले समय में एक प्रमुख वैश्विक मैन्यूफ़ैक्चरिंग और एक्सपोर्ट हब बनने की बहुत अच्छी स्थिति में है।’ हालांकि यह कहना आसान है, करना मुश्किल है।
दिल्ली के थिंक टैंक ‘काउंसिल फ़ॉर सोशल डेवलपमेंट’ से जुड़े ट्रेड एक्सपर्ट बिस्वजीत धर इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देश शायद भारत के मुकाबले अधिक अच्छी स्थिति में हैं।
धर ने कहा, ‘बांग्लादेश पर लगाए गए ऊंचे टैरिफ़ के कारण हो सकता है कि हम गार्मेंट सेक्टर में खोई हुई अपनी कुछ ज़मीन फिर से हासिल कर सकते हैं, लेकिन सच्चाई ये है कि हमने गार्मेंट सेक्टर को उतनी तवज्जो नहीं दी और इसमें निवेश करने में विफल रहे।’
‘बिना क्षमता बढ़ाए, टैरिफ़ से होने वाले बदलावों का हम फ़ायदा कैसे उठा सकते हैं?’
भारत को किस बात की है सबसे बड़ी चिंता?
फऱवरी से ही भारत ने ट्रंप का भरोसा जीतने की कोशिशें बढ़ा दी थीं। उसने अमेरिका से ऊर्जा आयात को 25 अरब डॉलर करने का वादा किया, वॉशिंगटन को अपना शीर्ष रक्षा आपूर्तिकर्ता बनाने के संकेत दिए और एफ़-35 फ़ाइटर जेट की खऱीद के समझौते पर भी बात चलानी शुरू की है।
व्यापारिक तनाव को कम करने के लिए इसने 6त्न डिजिटल एड टैक्स को ख़त्म कर दिया, अमेरिकी व्हिस्की पर टैरिफ को 150त्न से घटाकर 100त्न कर दिया और लग्जरी कारों और सोलर सेल्स पर आयात शुल्क में काफ़ी कटौती की है।
इस बीच एलन मस्क का स्टारलिंक, भारत में संचालन की मंज़ूरी मिलने के करीब पहुंच गया है। भारत के साथ 45 अरब डॉलर के व्यापार घाटे को कम करने के लिए दोनों देशों ने व्यापार मुद्दे पर वार्ता को तेज कर दिया है।
लेकिन अभी तक भारत इस टैरिफ वॉर से बच नहीं पाया है।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन ट्रेड में सेंटर फॉर डब्ल्यूटीओ स्टडीज के पूर्व प्रमुख अभिजीत दास कहते हैं, ‘भारत को चिंतित होना चाहिए, उम्मीद थी कि मौजूदा व्यापार वार्ताएं, रेसिप्रोकल टैरिफ से राहत दिलाएंगी। अब इन टैरिफ का लगना एक गंभीर झटका है।’
लेकिन एक मामले में भारत को छूट मिली है। वह है फॉर्मास्यूटिकल्स। यह भारत के जेनेरिक ड्रग मार्केट के लिए एक राहत की बात है। भारत अमेरिका में जरूरत की आधी जेनेरिक दवाएं निर्यात करता है, जहां ये सस्ती दवाएं 90त्न प्रेसक्रिप्शंस (डॉक्टरों द्वारा लिखी दवाएं) का हिस्सा होती हैं।
हालांकि इलेक्ट्रॉनिक्स, इंजीनियरिंग गुड्स, जैसे ऑटोमोबाइल पार्ट्स, इंडस्ट्रियल मशीन, और सी फ़ूड के निर्यात को झटका लग सकता है।
स्थानीय मैन्यूफ़ैक्चरिंग को बढ़ाने के लिए शुरू की गई भारत की फ़्लैगशिप स्कीम, ‘प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेटिव्स’ (पीएलआई) के माध्यम से हुए भारी निवेश को देखते हुए, सबसे अधिक दिक्कत इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर के लिए होगी।
धर का कहना है, ‘अपने निर्यातकों की क्षमता को लेकर मुझे संदेह है, अधिकांश छोटे निर्माता है, जो 27त्न टैरिफ़ वृद्धि के झटके को सहने में मुश्किलों का सामना करेंगे और यह उन्हें बाज़ार के कॉम्पटीशन से बाहर कर देगा। लॉजिस्टिक्स की ऊंची लागत, व्यावसायिक ख़र्च में बढ़ोत्तरी और खऱाब होते व्यापारिक ढांचे इस चुनौती को और बढ़ाते ही हैं। हम एक बड़ी मुश्किल घड़ी में शुरुआत कर रहे हैं।’
अमेरिका को भारत से क्या है शिकायत?
कई लोग टैरिफ को, भारत के साथ व्यापार वार्ता में ट्रंप की सौदेबाजी की रणनीति के रूप में देखते हैं।
व्यापार मामले पर वार्ता करने वाले अमेरिकी प्रतिनिधियों की ताज़ा रिपोर्ट में, भारत की व्यापार नीतियों के प्रति अमेरिका की हताशा व्यक्त की गई है।
सोमवार को जारी हुई इस रिपोर्ट में डेयरी, पोर्क और मछली के आयात पर भारत के कड़े नियमों की चर्चा की गई है जिसके तहत ग़ैर जीएमओ (जेनेटिकली मॉडिफाइड ऑर्गेनिज़्म) सर्टिफिकेशन जरूरी है।
इसमें जेनेटिकली मॉडिफाइड प्रोडक्ट्स को मंज़ूरी मिलने में देरी और स्टेंट और इम्प्लांट की कीमतों की सीमा तय करने की भी आलोचना की गई है।
बौद्धिक संपदा की चिंताओं के चलते भारत को ‘प्रियॉरिटी वॉच लिस्ट’ में डाला गया है और रिपोर्ट में कमजोर पेटेंट सुरक्षा और ट्रेड सीक्रेट लॉ की कमी का भी जिक्र किया गया है।
इस रिपोर्ट में डेटा लोकेलाइजेशन अनिवार्यताओं और कड़ी सैटेलाइट नीतियों को लेकर भी आलोचना की गई है, जिससे व्यापार संबंधों में तनाव बढ़ा है।
अमेरिका को डर है कि भारत का नियंत्रित करने वाला रुख अधिकाधिक चीन की तरह होता जा रहा है।
व्हाइट हाउस के अनुसार, अगर ये बाधाएं हटा दी जाती हैं, अमेरिकी निर्यात वार्षिक स्तर पर कम से कम 5.3 अरब डॉलर तक बढ़ सकता है।
धर का कहना है, ‘इससे बुरा समय नहीं हो सकता- ट्रेड वार्ता के बीच ये सब होना केवल हमारी मुश्किलों को बढ़ाता ही है। यह केवल बाज़ार खोलने का मामला नहीं है, यह पूरा पैकेज है।’
इसके अलावा, वियतनाम या चीन पर बढ़त हासिल करना रातों रात नहीं होगा, मौके तलाशना और प्रतिस्पर्धात्मक मजबूती हासिल करने में समय लगता है। (बीबीसी)ट्रंप का टैरिफ : क्या भारतीय उद्योगों
के लिए आपदा के बजाय अवसर है?
सौतिक बिस्वास
डोनाल्ड ट्रंप के व्यापक टैरिफ ने वैश्विक व्यापार को हिला कर रख दिया है लेकिन बाधाएं कभी कभी अवसर भी पैदा करती हैं।
नौ अप्रैल से भारतीय निर्यात को 27त्न टैरिफ का सामना करना होगा। हालांकि ट्रंप ने जो टैरिफ चार्ट जारी किया है उसमें भारत पर 26त्न टैरिफ की बात कही है लेकिन आधिकारिक आदेश में 27त्न टैरिफ का जिक्र है। ऐसी अनियमितताएं अन्य देशों को लेकर भी देखी गई हैं।
टैरिफ़ बढ़ाने से पहले, व्हाइट हाउस के अनुसार, अपने ट्रेडिंग पार्टनर्स के साथ अमेरिका का औसत टैरिफ 3.3त्न हुआ करता था, जोकि वैश्विक स्तर पर सबसे न्यूनतम है, जबकि भारत का औसत टैरिफ 17त्न था।
हालांकि, चीन (54त्न), वियतनाम (46त्न), थाईलैंड (36त्न) और बांग्लादेश (37त्न) पर अपेक्षाकृत अधिक अमेरिकी टैरिफ भारत के लिए अवसर भी बन सकता है।
भारत के लिए निर्यात बढ़ाने का मौका है?
दिल्ली की ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (जीटीआरआई) के अनुसार, टेक्सटाइल्स, इलेक्ट्रॉनिक्स और मशीनरी के क्षेत्र में भारत के लिए यह एक मौका भी हो सकता है।
चीन और बांग्लादेश के निर्यातकों पर ऊंचा टैरिफ, भारतीय टेक्सटाइल उत्पादकों को अमेरिकी बाजार में अपनी जगह बनाने का रास्ता खोलता है।
अगर भारत अपने आधारभूत ढांचे और नीतियों को मजबूत करे, तो सेमीकंडक्टर्स के मामले में अग्रणी ताईवान के मुकाबले, भारत पैकेजिंग, टेस्टिंग और सस्ते चिप की मैनूफैक्चरिंग की जगह ले सकता है।
32त्न टैरिफ के चलते अगर, ताईवान से सप्लाई चेन में आंशिक बदलाव भी आता है तो यह भारत के लिए फायदेमंद हो सकता है।
मशीनरी, ऑटोमोबाइल्स और खिलौने के क्षेत्र में चीन और थाईलैंड अग्रणी हैं। इसलिए ये क्षेत्र टैरिफ की वजह से होने वाले ‘रिलोकेशन’ के लिए मुफीद है।
जीटीआरआई के अनुसार, निवेश को आकर्षित कर, उत्पादन और अमेरिका में निर्यात बढ़ाकर भारत इस मौके का फायदा उठा सकता है।
भारत को किस तरह का फ़ायदा हो सकता है?
ऊंचे टैरिफ ने ग्लोबल वैल्यू चेन पर निर्भर कंपनियों की लागत बढ़ा दी है, जिससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में प्रतिस्पर्धा करने की भारत की क्षमता पर भी असर पड़ा है।
मुख्यत: सेवा क्षेत्र के बूते बढ़ते निर्यात के बावजूद, भारत का व्यापार घाटा बहुत अधिक है। वैश्विक निर्यात में भारत की हिस्सेदारी महज 1.5' है। ट्रंप ने बार बार भारत को ‘टैरिफ़ किंग’ और व्यापारिक संबंधों का ‘सबसे बड़ा दुरुपयोग करने वाला’ कहा है।
अब उनकी नई टैरिफ़ घोषणाओं के बाद, इस बात का डर है कि भारतीय निर्यात और भी कम प्रतिस्पर्धी हो जाएंगे।
जीटीआरआई के अजय श्रीवास्तव कहते हैं, ‘कुल मिलाकर, अमेरिकी संरक्षणवादी टैरिफ़ नीति, वैश्विक सप्लाई चेन के पुनर्गठन से भारत को मिलने वाले फ़ायदे में एक बड़ी भूमिका अदा कर सकती है।’
उनके अनुसार, ‘हालांकि, इन मौकों का पूरी तरह फ़ायदा उठाने के लिए, भारत को ईज़ ऑफ़ डूईंग बिजऩेस को और बढ़ाना होगा, लॉजिस्टिक्स और आधारभूत ढांचे में निवेश करना होगा और नीतिगत स्थिरता बनाए रखनी होगी।’
‘अगर ये शर्तें पूरी होती हैं तो भारत आने वाले समय में एक प्रमुख वैश्विक मैन्यूफ़ैक्चरिंग और एक्सपोर्ट हब बनने की बहुत अच्छी स्थिति में है।’ हालांकि यह कहना आसान है, करना मुश्किल है।
दिल्ली के थिंक टैंक ‘काउंसिल फ़ॉर सोशल डेवलपमेंट’ से जुड़े ट्रेड एक्सपर्ट बिस्वजीत धर इस ओर ध्यान दिलाते हैं कि मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देश शायद भारत के मुकाबले अधिक अच्छी स्थिति में हैं।
धर ने कहा, ‘बांग्लादेश पर लगाए गए ऊंचे टैरिफ़ के कारण हो सकता है कि हम गार्मेंट सेक्टर में खोई हुई अपनी कुछ ज़मीन फिर से हासिल कर सकते हैं, लेकिन सच्चाई ये है कि हमने गार्मेंट सेक्टर को उतनी तवज्जो नहीं दी और इसमें निवेश करने में विफल रहे।’
‘बिना क्षमता बढ़ाए, टैरिफ़ से होने वाले बदलावों का हम फ़ायदा कैसे उठा सकते हैं?’
भारत को किस बात की है सबसे बड़ी चिंता?
फऱवरी से ही भारत ने ट्रंप का भरोसा जीतने की कोशिशें बढ़ा दी थीं। उसने अमेरिका से ऊर्जा आयात को 25 अरब डॉलर करने का वादा किया, वॉशिंगटन को अपना शीर्ष रक्षा आपूर्तिकर्ता बनाने के संकेत दिए और एफ़-35 फ़ाइटर जेट की खऱीद के समझौते पर भी बात चलानी शुरू की है।
व्यापारिक तनाव को कम करने के लिए इसने 6त्न डिजिटल एड टैक्स को ख़त्म कर दिया, अमेरिकी व्हिस्की पर टैरिफ को 150त्न से घटाकर 100त्न कर दिया और लग्जरी कारों और सोलर सेल्स पर आयात शुल्क में काफ़ी कटौती की है।
इस बीच एलन मस्क का स्टारलिंक, भारत में संचालन की मंज़ूरी मिलने के करीब पहुंच गया है। भारत के साथ 45 अरब डॉलर के व्यापार घाटे को कम करने के लिए दोनों देशों ने व्यापार मुद्दे पर वार्ता को तेज कर दिया है।
लेकिन अभी तक भारत इस टैरिफ वॉर से बच नहीं पाया है।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन ट्रेड में सेंटर फॉर डब्ल्यूटीओ स्टडीज के पूर्व प्रमुख अभिजीत दास कहते हैं, ‘भारत को चिंतित होना चाहिए, उम्मीद थी कि मौजूदा व्यापार वार्ताएं, रेसिप्रोकल टैरिफ से राहत दिलाएंगी। अब इन टैरिफ का लगना एक गंभीर झटका है।’
लेकिन एक मामले में भारत को छूट मिली है। वह है फॉर्मास्यूटिकल्स। यह भारत के जेनेरिक ड्रग मार्केट के लिए एक राहत की बात है। भारत अमेरिका में जरूरत की आधी जेनेरिक दवाएं निर्यात करता है, जहां ये सस्ती दवाएं 90त्न प्रेसक्रिप्शंस (डॉक्टरों द्वारा लिखी दवाएं) का हिस्सा होती हैं।
हालांकि इलेक्ट्रॉनिक्स, इंजीनियरिंग गुड्स, जैसे ऑटोमोबाइल पार्ट्स, इंडस्ट्रियल मशीन, और सी फ़ूड के निर्यात को झटका लग सकता है।
स्थानीय मैन्यूफ़ैक्चरिंग को बढ़ाने के लिए शुरू की गई भारत की फ़्लैगशिप स्कीम, ‘प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेटिव्स’ (पीएलआई) के माध्यम से हुए भारी निवेश को देखते हुए, सबसे अधिक दिक्कत इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर के लिए होगी।
धर का कहना है, ‘अपने निर्यातकों की क्षमता को लेकर मुझे संदेह है, अधिकांश छोटे निर्माता है, जो 27त्न टैरिफ़ वृद्धि के झटके को सहने में मुश्किलों का सामना करेंगे और यह उन्हें बाज़ार के कॉम्पटीशन से बाहर कर देगा। लॉजिस्टिक्स की ऊंची लागत, व्यावसायिक ख़र्च में बढ़ोत्तरी और खऱाब होते व्यापारिक ढांचे इस चुनौती को और बढ़ाते ही हैं। हम एक बड़ी मुश्किल घड़ी में शुरुआत कर रहे हैं।’
अमेरिका को भारत से क्या है शिकायत?
कई लोग टैरिफ को, भारत के साथ व्यापार वार्ता में ट्रंप की सौदेबाजी की रणनीति के रूप में देखते हैं।
व्यापार मामले पर वार्ता करने वाले अमेरिकी प्रतिनिधियों की ताज़ा रिपोर्ट में, भारत की व्यापार नीतियों के प्रति अमेरिका की हताशा व्यक्त की गई है।
सोमवार को जारी हुई इस रिपोर्ट में डेयरी, पोर्क और मछली के आयात पर भारत के कड़े नियमों की चर्चा की गई है जिसके तहत ग़ैर जीएमओ (जेनेटिकली मॉडिफाइड ऑर्गेनिज़्म) सर्टिफिकेशन जरूरी है।
इसमें जेनेटिकली मॉडिफाइड प्रोडक्ट्स को मंज़ूरी मिलने में देरी और स्टेंट और इम्प्लांट की कीमतों की सीमा तय करने की भी आलोचना की गई है।
बौद्धिक संपदा की चिंताओं के चलते भारत को ‘प्रियॉरिटी वॉच लिस्ट’ में डाला गया है और रिपोर्ट में कमजोर पेटेंट सुरक्षा और ट्रेड सीक्रेट लॉ की कमी का भी जिक्र किया गया है।
-एनाबेल लियंग
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बुधवार को अमेरिका के हर ट्रेडिंग पार्टनर पर टैरिफ लगाने का एलान किया, इस दौरान उन्होंने चीन के लिए कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया।
घोषणा के बाद अपने भाषण में उन्होंने कहा, ‘चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मैं बहुत इज्जत करता हूं। लेकिन वो अमेरिका का बहुत ज़्यादा फ़ायदा उठा रहे हैं।’
ट्रंप ने एक चार्ट दिखाते हुए कहा कि जिन देशों ने अमेरिकी वस्तुओं के बिजनेस में मुश्किलें खड़ी की हैं वो इस तरह से हैं, ‘अगर आप देखें चीन 67 फीसदी के साथ पहले नंबर पर है। यह अमेरिका पर लगाया गया टैरिफ है, जिसमें मुद्रा हेरफेर और व्यापार से संबंधी बाधाएं शामिल हैं।’
उन्होंने कहा, ‘हम रेसिप्रोकल टैरिफ में छूट दे रहे हैं और 34 फीसदी टैरिफ ही लगा रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहूं तो हमारे ऊपर चार्ज लगा रहे हैं, हम उन पर चार्ज लगा रहे हैं। हम तो कम चार्ज लगा रहे हैं। तो फिर कोई निराश कैसे हो सकता है?’
लेकिन चीन के वाणिज्य मंत्रालय ने तुरंत इस कदम को 'एकतरफा धमकी' करार दिया। चीन ने कहा कि वो अपने हितों की रक्षा के लिए कदम उठाएगा।
चीन की सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ ने ट्रंप पर कारोबार को एक सामान्य ‘टिट फॉर टैट’ यानी ‘जैसे को तैसा’ के खेल में बदलने का आरोप लगाया।
हालांकि एक्सपर्ट्स का मानना है चीन के पास निराश होने की काफी वजहें हैं।
उनमें से एक ये एलान है जिसमें चीन की वस्तुओं पर पहले से लग रहे टैरिफ के अलावा 20 फीसदी अतिरिक्त टैरिफ लगाया गया है।
जब ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में चीन पर टैरिफ लगाए थे तो चीन ने बचने के लिए एक रास्ता निकाला था। लेकिन कंबोडिया, वियतनाम और लाओस सहित अन्य दक्षिण पूर्व एशियाई देशों पर भारी टैरिफ लगाकर ट्रंप ने उस रास्ते को बंद कर दिया है।
जिन 10 देशों पर सबसे ज्यादा टैरिफ लगाए गए हैं उनमें पांच एशियाई देशों के नाम शुमार हैं।
ट्रंप ने अमेरिका में आयात पर टैरिफ़ की एक लंबी लिस्ट की घोषणा की है और अमेरिकी समयानुसार, 5 अप्रैल से ज़्यादातर देशों पर 10 प्रतिशत का बेसलाइन टैरिफ़ भी लागू होगा, जबकि 9 अप्रैल से अमेरिका के कुछ सबसे बड़े व्यापारिक साझेदारों पर ऊंचा आयात शुल्क लागू होगा।
चीन के लिए टैरिफ में हो रही है बढ़ोतरी
जनवरी में व्हाइट हाउस में लौटने के बाद से ट्रंप ने चीन से आयात पर नए टैरिफ लगाए थे। अब इन्हें 20 फीसदी और बढ़ा दिया गया है।
एक हफ्ते से भी कम समय में ये टैरिफ बढक़र 54 फीसदी हो जाएंगे। इसके अलावा कार, स्टील और एल्युमीनियम जैसे उत्पादों पर टैरिफ कम होगा।
चीन को ट्रंप की वजह से बिजनेस से जुड़ी अन्य मुश्किलों का सामना भी करना पड़ रहा है।
इससे पहले बुधवार को राष्ट्रपति ने चीन से आने वाले कम मूल्य के पार्सल के प्रावधान को समाप्त करने के लिए एक कार्यकारी आदेश पर साइन किए।
इस प्रावधान से चीन के शीन और टेमू जैसे ई कॉमर्स प्लेटफॉर्म अमेरिका में 800 डॉलर की कीमत के पैकेज बिना किसी टैक्स के भेज पाते थे।
कस्टम डेटा के मुताबिक इस प्रावधान के तहत बीते वित्त वर्ष में 1.4 अरब डॉलर के पैकेज चीन से अमेरिका पहुंचे हैं।
प्रावधान हटने की वजह से चीन की कुछ कंपनियों को कस्टमर्स से अतिरिक्त चार्ज लेना होगा। इस वजह से अमेरिका में उनकी वस्तुओं की मांग कम हो सकती है।
हीनरीच फाउंडेशन से जुड़ीं डेबरा एम्स कहती हैं कि अगर देखा जाए तो इस वक्त चीन की मुश्किलें बढ़ती नजर आ रही हैं।
उन्होंने कहा, ‘ऐसा नहीं है कि नए टैरिफ चीन पर ही लगाए गए हैं। लेकिन जब चीन पर अमेरिका एक के बाद एक टैरिफ लगाता है तो फिर नंबर्स चौंकाने वाले होते हैं।’
‘चीन को पलटवार करना होगा। वो चुपचाप बैठकर ये सब होते हुए नहीं देख सकते हैं।’
सप्लाई चेन पर पड़ेगा असर
कंबोडिया, वियतनाम और लाओस पर ट्रंप ने 46 से 49 फीसदी तक टैरिफ लगाए हैं।
इन्वेसटमेंट फर्म एसपीआई एससेट से जुड़े स्टीफन इन्स ने कहा, ‘चीन की विस्तार की गई सप्लाई चेन पर हमला किया गया है।’
‘वियतनाम और अन्य देशों को अमेरिका की बिजनेस नीति से नुकसान पहुंच सकती है। ये कोई बदला नहीं है। लेकिन टैरिफ के जरिए रणनीतिक नियंत्रण है।’
कंबोडिया और लाओस इस क्षेत्र के सबसे गरीब देश हैं और वो चीन की सप्लाई चेन पर निर्भर करते हैं। हाई टैरिफ की वजह से इन देशों पर बुरा असर पड़ सकता है।
वियतनाम चीन का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है। ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान जब चीन और अमेरिका के बीच तनाव था तब वियतनाम को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा था।
ट्रंप ने साल 2018 में चीन पर टैरिफ लगाए। इसकी वजह से बिजनेस करने वालों ने इस बात पर विचार किया कि प्रोडक्ट कहां बनाए जाएं और उन्होंने इसके लिए वियतनाम को चुना।
चूंकि चीन की कंपनियां वियतनाम चली गईं, इसलिए वियतनाम से अमेरिका में किए जाने वाले आयात में बढ़ोतरी दर्ज हुई।
अंतरराष्ट्रीय व्यापार के एक्सपर्ट और अमेरिकी सरकार के लिए काम कर चुके स्टीफन ओल्सन ने बीबीसी को बताया, ‘चीन के साथ जुड़े होने की वजह से वियतनाम को निशाना बनाया गया है।’
नए आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका वियतनाम का सबसे बड़ा निर्यात बाजार बना हुआ है। वहीं चीन वियतनाम को सबसे ज़्यादा सामान सप्लाई करने वाला देश बन गया है।
इतना ही नहीं चीन वियतनाम के कुल आयात में एक तिहाई से अधिक का योगदान देता है।
वियतनाम में पिछले साल जो नए निवेश हुए उनमें से हर तीन में एक के पीछे चीन की कंपनी ही थी।
इनसीड बिजनेस स्कूल के प्रोफेसर पुशन दत्त का कहना है कि दक्षिण पूर्व एशिया पर लगाए गए नए टैरिफ चीन को रोकने के लिए हैं।
उन्होंने कहा, ‘चीन में डिमांड एक दिक्कत बन गई है। ट्रंप के पिछले कार्यकाल के दौरान चीन की कंपनियों ने अपने प्लांट चीन से दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में शिफ़्ट किए। लेकिन अब ये दरवाजा भी बंद हो गया है।’
लेकिन ट्रंप के टैरिफ का असर अमेरिका की उन कंपनियों पर भी पड़ेगा जो अपने प्रोडक्ट दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में बनाते हैं।
उदाहरण के लिए अमेरिका की बड़ी कंपनियों एपल, इंटेल और नाइकी पर भी इसका असर पड़ेगा क्योंकि इनकी अधिकतर फैक्ट्री वियतनाम में ही हैं।
वियतनाम में अमेरिकन चैंबर ऑफ कॉमर्स के हाल ही में किए गए सर्वे में पाया गया कि वहां अधिकांश अमेरिकी निर्माताओं को आशंका है कि अगर टैरिफ लगाया गया तो वे अपने कर्मचारियों की छंटनी कर देंगे।
आगे का मुश्किल रास्ता
सवाल ये है कि चीन के पास टैरिफ का जवाब देने का क्या रास्ता है क्योंकि इनके लागू होने में कुछ ही दिन का वक्त है।
ओल्सन कहते हैं कि चीन टैरिफ पर मजबूती से पलटवार कर सकता है और वो ऐसे कदम उठा सकता है जिससे अमेरिकी कंपनियों के लिए चीन में काम करना मुश्किल हो जाए।
वहीं प्रोफेसर दत्त मानते हैं कि चीन की अर्थव्यवस्था पहले ही चुनौतियों का सामना कर रही है और उसके सामने आगे का रास्ता बेहद मुश्किल है।
उन्होंने कहा, ‘अन्य क्षेत्रों में निर्यात करने से वहां औद्योगिकीकरण ख़त्म होने का खतरा है। वहां के राजनेता इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसका मतलब है कि चीन को अंत में घरेलू मांग को बढ़ावा देना होगा।’
ये टैरिफ चीन को उन अन्य एशियाई देशों के साथ गठजोड़ बनाने के लिए भी प्रेरित कर सकते हैं, जो टैरिफ का सामना कर रहे हैं।
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व सदस्य वांग वेयाओ कहते हैं कि इस मुश्किल वक्त में एशियाई देशों को एकजुट होकर काम करने की जरूरत है।
वो कहते हैं, ‘अंत में अमेरिका का प्रभाव खत्म हो जाएगा और वो अकेला महसूस करेगा।’
-विष्णु नागर
विनोद कुमार शुक्ल को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर व्यापक रूप से अनेक तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं,जो स्वाभाविक भी है। इन्हीं दिनों विनोद जी के स्वर में यह कविता फेसबुक पर सुनी तो मेरी इस प्रिय कविता पर लिखने का मन हुआ:-
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया
मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकडक़र वह खड़ा हुआ
मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था
हम दोनों साथ चले
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे
साथ चलने को जानते थे।
विनोद कुमार शुक्ल की यह कविता मुझे बार -बार अपनी ओर खींचती है, याद आती है। मैं इसे हिंदी की श्रेष्ठ कविताओं में से एक मानता हूं। यांत्रिक दृष्टि से देखें तो विनोद जी की कविता में जिस व्यक्ति की हताशा की बात की जा रही है और जो उस हताश व्यक्ति की ओर मदद का हाथ बढ़ाकर उसे खड़ा करने में मदद देता है, दोनों अमूर्त हैं।न उनका कोई नाम है, न वर्ग है। न उस हताशा का कोई नाम है। वह हताशा किन कारणों से उपजी है, किसकी है, इसका कोई सीधा संकेत कविता में नहीं है।
फिर भी थोड़ा ध्यान से देखने- सोचने पर जो व्यक्ति हताशा में बैठ गया है और जो उसकी ओर मदद का हाथ बढ़ा रहा है वे दोनों निम्नमध्यवर्गीय हैं। वे हताशा से गुजरते हैं मगर साथ चलने का मूल्य जानते हैं। साथ चलने में उनका विश्वास कायम है। कविता यह बात अधिक शब्दों में कहे, कहती है। इन ग्यारह पंक्तियों में कवि ने जो कह दिया है और जिस सहजता से कह दिया है, कविता को कविता न बनाने के अंदाज़ में कह दिया है, वह मामूली कवि का काम नहीं? है। ऐसी कविता रचने के लिए कविता में ही नहीं, जीवन में भी मनुष्य होना जरूरी है।
इस कविता में कविता बनाने की चिंता प्राथमिक नहीं दिखती। यहां किसी अनोखे सत्य को पा लेने का छुपा या प्रकट दंभ भी नहीं है। यह कविता एक साधारण सत्य को उसकी साधारणता में पकडक़र उसे असाधारण रूप देती है। अनोखे शब्द संयम के साथ और उसका किसी तरह का दिखावा किये बगैर, उसका शोर मचाये बिना यह काम करती है।
साधारण शब्दों में यह कविता कहती है कि हताश व्यक्ति कौन है, वह किसी का परिचित है या अपरिचित, इसे मत देखो, उसकी हताशा को देखो, उसे पहचानो और उसके साथ खड़े होओ। तुम खुद अपनी हताशा के क्षणों में किसी का हाथ पाकर खड़े हुए हो तो तुम्हारे अंदर वह माद्दा होना चाहिए कि तुम दूसरों की हताशा को भी पहचान कर, उनकी तरफ मदद का हाथ बढ़ाओ। जीवन के इस मामूली सत्य की यह कविता है। यह किसी की तरफ मदद का हाथ बढ़ाने की कविता है। यह कविता फिर बताती है कि जीवन के बेहद मामूली तथ्यों -सत्यों पर कविता लिखी जा सकती है, लिखी जानी चाहिए।
यह नहीं कह सकते कि इस सहज-सरल मार्मिकता में धंसी इस कविता में किसी तरह की निर्मित नहीं है मगर इसकी खूबी यह है कि कविता ऊंगली पकडक़र यह नहीं बताती। यह अपनी सादगी बनाए रखती है। उसका सारा प्रयास उस सत्य की ओर ले जाना है, किसी काव्यात्मक तामझाम से पाठक को प्रभावित करना नहीं। कवि यह कविता लिखकर स्वयं अनुपस्थित हो जाना चाहता है। अपने को ओट कर लेना चाहता है। इसके विपरीत कुंवर नारायण आदि की कविताओं में अतिरिक्त श्रम की बनावट साफ नजर आती है। वह कविता को कम, कवि को अधिक प्रकाशित करती हुई लगती है।
इन ग्यारह पंक्तियों में हर दो पंक्ति के बाद कवि ने पाठक के लिए स्पेस छोड़ा है ताकि वह उस स्पेस को अपने अनुभवजगत से भरे,उस स्थिति में स्वयं डूबे, जबकि आज अधिकांश कविता पाठक पर कुछ नहीं छोड़ती, जबकि कविता ही नहीं बल्कि किसी भी तरह की,किसी भी विधा में की गई रचना का बुनियादी काम अपने पाठक या श्रोता पर भरोसा करना है क्योंकि वह अंतत: उसके लिए है, उसकी है। जो कला अपने पाठक या श्रोता पर विश्वास नहीं करती, वह कला होने के मानक पूरे नहीं करती।
भारत के पूर्वोत्तर राज्यों का हवाला देते हुए चीन से अपनी अर्थव्यवस्था को विस्तार देने की अपील करके बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के नेता मोहम्मद यूनुस ने एक नया विवाद खड़ा कर दिया है।
उन्होंने पूर्वोत्तर के सातों राज्यों को लैंडलॉक्ड (ज़मीन से चारों ओर से घिरा) क्षेत्र बताया और बांग्लादेश को इस इलाक़े में समंदर का एकमात्र संरक्षक बताते हुए चीन से अपने यहां आर्थिक गतिविधि बढ़ाने की अपील की।
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने मोहम्मद यूनुस के बयान को 'आपत्तिजनक' बताया है। पूर्व भारतीय राजनयिकों ने भी यूनुस के इस बयान पर हैरानगी जताई है।
पिछले हफ़्ते ही यूनुस चीन के दौरे पर गए थे और इस दौरान बीजिंग के साथ कई समझौते हुए हैं। जिनमें तीस्ता रिवर कॉम्प्रिहेंसिव मैनेजमेंट एंड रेस्टोरेशन प्रोजेक्ट में चीनी कंपनियों को शामिल होने का न्योता भी दिया, जिसे भारत के लिए एक झटके के रूप में देखा जा रहा है।
इस यात्रा के दौरान बांग्लादेश को चीन और उसकी कंपनियों की ओर से तकरीबन 2।1 अरब डॉलर के निवेश, कजऱ् और अनुदान के रूप में मदद का आश्वासन मिला है।
मोहम्मद युनूस ने क्या कहा
मोहम्मद यूनुस ने 28 मार्च को बीजिंग में एक कार्यक्रम के दौरान पूर्वोत्तर को लेकर टिप्पणी की थीष
बांग्लादेश के लीडर ने कहा, ‘भारत के सात राज्य।।।भारत के पूर्वी हिस्से।।।जिन्हें सेवन सिस्टर्स कहा जाता है, ये भारत के लैंडलॉक्ड क्षेत्र हैं। समंदर तक उनकी पहुंच का कोई रास्ता नहीं है। इस पूरे क्षेत्र के लिए समंदर के अकेले संरक्षक हम हैं। इसलिए यह विशाल संभावना के द्वार खोलता है।’
उन्होंने आगे कहा, ‘इसलिए यह चीनी अर्थव्यवस्था के लिए विस्तार हो सकता है। चीजें बनाएं, उत्पादन करें। चीज़ें बाज़ार में ले जाएं।। चीजें चीन में लाएं और बाकी दुनिया तक पहुंचाएं।’
मोहम्मद यूनुस ने जल संसाधन को लेकर नेपाल और भूटान का भी जि़क्र किया और कहा, ‘नेपाल और भूटान के पास असीमित हाइड्रो पॉवर है। हम इन्हें अपने मकसद के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं, फैक्ट्रियां स्थापित कर सकते हैं। और बांग्लादेश के मार्फत आप कहीं भी जा सकते हैं क्योंकि समंदर हमारे ठीक पीछे है।’
चीन को लेकर उन्होंने कहा, ‘ये कोई ज़रूरी नहीं है कि किसी चीज़ का अपने यहां आप उत्पादन करें और दुनिया को बेचें, बल्कि बांग्लादेश में उत्पादन करें और चीन में भी बेचें। ये मौके हैं जिनका हम फ़ायदा उठाना चाहेंगे।’
उन्होंने कहा कि बांग्लादेश में चीजों का उत्पादन करना आसान है।
बांग्लादेश की सरकारी न्यूज़ एजेंसी बीएसएस के अनुसार, मोहम्मद यूनुस से मुलाक़ात के दौरान शी जिनपिंग ने कहा है कि चीन दूसरे देशों में विशेष चाइनीज़ इंडस्ट्रियल इकोनॉमिक ज़ोन और इंडस्ट्रियल पार्क बनाने का समर्थन करेगा।
मोहम्मद यूनुस ने अपने दौरे में नदी जल प्रबंधन में चीन की विशेषज्ञता की मदद मांगी, ख़ासकर तीस्ता नदी को लेकर।
हिमंत बिस्व सरमा ने क्या कहा?
यूनुस के इस बयान को लेकर असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने तीख़ी प्रतिक्रिया दी है।
हिमंत बिस्व सरमा ने एक्स पर लिखा, ‘बांग्लादेश की तथाकथित अंतरिम सरकार के मोहम्मद यूनुस का, पूर्वोत्तर भारत के सेवन सिस्टर्स राज्यों का को लैंडलॉक्ड बताना और बांग्लादेश को उनके लिए समंदर तक पहुंच का एकमात्र गार्जियन बताना, आपत्तिजनक और निंदनीय है।’
‘यह टिप्पणी भारत के रणनीतिक 'चिकन नेक' कॉरिडोर से जुड़े ख़तरे के लगातार नैरेटिव को रेखांकित करती है। ऐतिहासिक रूप से भारत के भीतर में भी अंदरूनी तत्वों ने पूर्वोत्तर को मेनलैंड से काटने का ख़तरनाक सुझाव दिया है। इसलिए, चिकन नेक कॉरिडोर के नीचे और उसके आसपास और भी मज़बूत रेलवे और सडक़ नेटवर्क विकसित करना ज़रूरी है।’
‘इसके अलावा, चिकन नेक को प्रभावी ढंग से दरकिनार करते हुए पूर्वोत्तर को मेनलैंड भारत से जोडऩे वाले वैकल्पिक सडक़ मार्गों की खोज को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।’
‘हालाँकि इसमें इंजीनियरिंग चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन दृढ़ संकल्प और इनोवेशन के साथ इसे हासिल किया जा सकता है।’
‘मोहम्मद यूनुस के ऐसे भडक़ाऊ बयानों को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए, क्योंकि ये गहरे रणनीतिक विचारों और लंबे समय से चले आ रहे एजेंडे को दर्शाते हैं।’
क्या कह रहे हैं एक्सपर्ट
बांग्लादेश में भारत की उच्चायुक्त रहीं वीना सीकरी ने बीबीसी को बताया, ‘भारत और बांग्लादेश के बीच व्यापार मार्गों के बारे में सटीक बॉर्डर एग्रीमेंट हैं और उनका सम्मान किया जाना चाहिए।’
उन्होंने कहा, ‘बांग्लादेश की मौजूदा लीडरशिप द्वारा भारत के पूर्वोत्तर के लैंडलॉक्ड होने वाले बयान का मैं कोई लॉजिक नहीं समझ पा रही हैं।’
साउथ एशियन यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर धनंजय त्रिपाठी ने बीबीसी से कहा, ‘चीन में भारत के पूर्वोत्तरी राज्यों का जि़क्र करते वक्त मोहम्मद यूनुस भूल जाते हैं कि यह भारत का हिस्सा है। बांग्लादेश के एक जि़म्मेदार राजनीतिक व्यक्ति के रूप में उन्हें किसी तीसरे देश में इस पर चर्चा नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह एक अच्छी कूटनीतिक प्रथा नहीं है।’
‘पूर्वोत्तर लैंडलॉक्ड नहीं है और भारत का हिस्सा है। इस हिस्से के बारे में अगर चीन से बात करनी हो तो भारत स्वयं कर सकता है। अगर यूनुस भारत के साथ बेहतर आर्थिक एकीकरण चाहते हैं तो द्विपक्षीय दृष्टिकोण अधिक कारगर हो सकता है। हालाँकि, इसके लिए बांग्लादेश में राजनीतिक स्थिरता की ज़रूरत होगी। ये वर्तमान में एक गंभीर चिंता का विषय है।’
भारत के विदेश सचिव रहे कंवल सिब्बल ने मोहम्मद यूनुस के बयान को ‘खतरनाक विचार’ बताया है।
उन्होंने एक्स पर लिखा, ‘बांग्लादेश में हसीना के पहले की राजनीति में यह चर्चा थी कि अगर भारत बांग्लादेश को तीन तरफ़ से घेरता है और उसकी हालत नाज़ुक है, तो बांग्लादेश भी हमारे पूर्वोत्तर को तीन तरफ़ से घेरता है और बांग्लादेश की ओर से इसे दबाव के बिंदु के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। उनका ग़लती से हमारे पूर्वोत्तर के राज्यों को एक देश कहना और फिर सुधार करना बहुत कुछ कहता है।’
‘पाकिस्तान के साथ बांग्लादेश के बेहतर होते सैन्य समबंधों के चलते, बीएनपी (बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी) के दिनों में जाने का जोखिम पैदा हो गया है। ऐसा लगता है कि यूनुस, बांग्लादेश के माफऱ्त हमारे पूर्वोत्तर क्षेत्र में चीन के प्रभाव को बढ़ाने, और समंदर के तट पर बांग्लादेश के नियंत्रण का लाभ उठाते हुए, हमारे पूर्वोत्तर के लैंडलॉक्ड राज्यों को चीन के प्रभाव में लाने के लिए चीन को और अधिक खुलकर प्रोत्साहित कर रहे हैं।’
‘हमें आधिकारिक रूप से इस पर उचित प्रतिक्रिया देनी चाहिए।’
अर्थशास्त्री संजीव सान्याल ने पूर्वोत्तर भारत के राज्यों को लैंडलॉक्ड वाले मोहम्मद यूनुस के बयान पर सवाल उठाए हैं।
उन्होंने यूनुस के बयान की एक वीडियो क्लिप को साझा करते हुए एक्स पर लिखा, ‘दिलचस्प है कि यूनुस चीन से सार्वजनिक रूप से अपील कर रहे हैं कि भारत के सात राज्य लैंडलॉक्ड हैं। बांग्लादेश में निवेश के लिए चीन का स्वागत है, लेकिन इसमें सात राज्यों के लैंडलॉक्ड होने का हवाला देने का असल मतलब क्या है?’
बांग्लादेश और चीन की कऱीबी पर पाकिस्तान में चर्चा
बांग्लादेश और चीन के बीच बढ़ती कऱीबी और मोहम्मद यूनुस के चीन दौरे को लेकर पाकिस्तान में हलचल है।
भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त रहे अब्दुल बासित ने कहा है कि ‘चीन को तीस्ता रिवर प्रोजेक्ट मिल गया।’
‘ऐसा लगता है कि ढाका ने चीन के साथ संबंधों को और मजबूत करने का फैसला किया है और इससे भारत की परेशानी बढ़ सकती है ख़ासकर तीस्ता को लेकर।’
अपने एक वीडियो ब्लॉग में उन्होंने कहा है कि ‘दोनों देशों ने अपने संबंधों को कॉम्प्रिहेंसिव स्ट्रेटिजिक कोआपरेटिव पार्टनरशिप, यह बहुत अहम सूत्रीकरण है और इससे लगता है कि दोनों देशों के बीच कऱीबी और बढ़ेगी।’
-भागीरथ
छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के उदंती-सीतानदी टाइगर रिजर्व के कोर क्षेत्र में बसे अमाड़ गांव के आदिवासियों को महुआ का मौसम लखपति बनने का पूरा अवसर देता है। गांव में जिसके पास जितने ज्यादा महुआ के पेड़ हैं, वह उतना ही अमीर है। उदाहरण के लिए अपने 60 महुआ के पेड़ों से करीब 20-25 क्विंटल महुआ हासिल करने वाले धनेश्वर इस मौसम में लखपति बन जाते हैं।
करीब 240 परिवारों वाले इस गांव में हर परिवार में औसतन 5-6 सदस्य हैं। कुछ परिवारों में 20 सदस्य भी हैं। गांव में बड़े परिवार का अर्थ है, महुआ संग्रहण के लिए अधिक हाथ और ज्यादा आय।
गांव की वन संसाधन प्रबंधन समिति के अध्यक्ष गणेश राम यादव बताते हैं कि 70-75 प्रतिशत परिवारों के पास महुआ के पेड़ हैं। गांव के अधिकार क्षेत्र में करीब 1,517 हेक्टेयर का जंगल है, जहां महुआ के पेड़ बहुतायत में हैं। जिन 20-25 प्रतिशत परिवारों के पास महुआ के पेड़ नहीं हैं, वे इस मौसम में जंगल पर पूरी तरह आश्रित हो जाते हैं।
उनका कहता है कि इसके अतिरिक्त जिन लोगों के पास अधिक पेड़ हैं और वे पूरा महुआ बीनने में सक्षम नहीं हैं, वे भी महुआ के पेड़ों से वंचित परिवारों को महुआ बीनने की इजाजत दे देते हैं।
इस तरह गांव का प्रत्येक परिवार इस सीजन में कम से कम पांच क्विंटल महुआ इक_ा कर ही लेता है। यादव के अनुसार, अधिकतम संग्रहण की कोई सीमा नहीं हैं। 15-20 सदस्यीय परिवार जंगल और निजी पेड़ों से आसानी से 20 क्विंटल तक महुआ संग्रहित कर करीब एक लाख रुपए तक की आय सृजित कर सकता है।
-शंभूनाथ
रामायण में बाली और सुग्रीव की कथा है। यह कथा आज की लड़ाइयों और बहसों का सामान्य चरित्र स्पष्ट करने के लिए काफी है। बाली से जो भी लड़ता था उसकी आधी ताकत घटकर बाली के पास चली जाती थी। बाली पहले से अधिक बलशाली हो जाता था।
आज बड़े–बड़े नेता और बुद्धिजीवी सांप्रदायिकता से जितना लड़ते हैं, सांप्रदायिकता उतनी मजबूत हो जाती है। वे जाति का प्रश्न जितना उठाते हैं, उच्च वर्णकेंद्रिक जातिवाद पिछड़ी– दलित जातियों को उतनी आसानी से निगल लेता है। स्त्री विमर्श जितना तीखा होता है, महिलाओं की कलश यात्राएं, प्रवचनों में उनकी भीड़ और उनकी धर्म–प्रवणता उतनी बढ़ जाती है। राष्ट्रवाद का जितना विरोध किया जाता है, राष्ट्रवाद उतना अधिक लोकप्रिय हो जाता है। बाजार के खिलाफ जितना बोलते हैं , बाजार की तानाशाही उतनी बढ़ जाती है। इस ’बाली सिंड्रोम’ को समझना चाहिए।
आज धार्मिक कर्मकांड, जातिवाद, पितृसत्तात्मकता, बहिष्कारपरक राष्ट्रवाद आदि ने उन्हें भी अपनी चपेट में ले लिया है जो इसकी चपेट से काफी बचे हुए थे। आज जो विपक्ष में हैं वे सभी कभी सत्ता में रहते हुए इतने ’पाप’ कर चुके हैं कि घड़ा अभी तक खाली नहीं हुआ है!लोगों को उनके अत्याचार और स्वार्थपूर्ति की बातें याद आ जा रही हैं। बाली क्यों न मजबूत हो!
मुख्य विडंबना यह नहीं है कि उधर फुटबॉल की 11 व्यक्तियों की सुगठित टीम है और इधर 11 के 11 खिलाड़ी ही कैप्टन हैं। मुख्य बात यह है कि हमारे देश का संपूर्ण विपक्ष बौद्धिक विकलांगता का शिकार है। वह तोता की तरह रटे हुए अपने उन्हीं पुराने विचारों की दुनिया में है जो अपना तर्क और अपनी जमीन खो चुके हैं। उसके विचारों में प्राण शेष नहीं है और आम जनता से उसके संबंध में दम नहीं है।
यह हाल फिलहाल सभी रंग के लोकतंत्रवादियों, वामपंथियों और विमर्शकारों का है। इन्होंने दुनिया को पाकर भी खो दिया, बल्कि अंतत: जर्जर होकर ऐसे कठोर हाथों में दुनिया को सौंप दिया है जिन्होंने इसमें आज आग लगा रखी है!
-सौत्विक बिस्वास
अमेरिका के लाख चाहने के बावजूद भी भारत शायद ही उससे मक्का खऱीदे।
अमेरिकी वाणिज्य सचिव हॉवर्ड लुटनिक ने हाल ही में भारत की व्यापार नीतियों की आलोचना करते हुए यह सवाल उठाया था। उन्होंने भारत के लगाए गए प्रतिबंध पर भी प्रश्न उठाया था।
लुटनिक ने एक साक्षात्कार में भारत पर अमेरिकी कृषि उत्पादों को ब्लॉक करने का आरोप लगाया था। उन्होंने भारत से कृषि बाजार को खोलने का भी अनुरोध किया।
अमेरिका दो अप्रैल से रेसिप्रोकल टैरिफ लगाने जा रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के ट्रेड वॉर में कृषि एक बड़ा मसला बनने जा रहा है।
टैरिफ अन्य देशों से आने वाली वस्तुओं पर लगाया जाने वाला कर है। ट्रंप ने बार-बार भारत को ‘टैरिफ किंग’ और व्यापार संबंधों का ‘दुरुपयोग’ करने वाला देश करार दिया है।
भारत में अनाज के भंडार
अमेरिका कई सालों से भारत पर कृषि क्षेत्र को व्यापार के लिए खोलने के लिए दबाव बना रहा है।
वो भारत को एक बड़े बाज़ार के रूप में देखता है लेकिन भारत खाद्य सुरक्षा, आजीविका और लाखों किसानों के हित का हवाला देकर इससे बचते रहा है।
जो देश कभी खाद्यान की कमी से जूझता था वो अब अनाज लेकर फल तक एक्सपोर्ट कर रहा है।
1950 और 60 के दशक में भारत अपने नागरिकों को खाना खिलाने के लिए विदेशी खाद्य सहायता पर निर्भर था लेकिन कृषि क्षेत्र में मिली कई सफलताओं ने इस तस्वीर का उलट दिया।
भारत को अब मुख्य खाद्य पदार्थों के लिए विदेशों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। भारत अब दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश भी बन गया है। बागवानी और मुर्गीपालन में भी तेजी से वृद्धि हुई है।
भारत आज न केवल अपने देश के 1।4 अरब लोगों को भोजन उपलब्ध करा रहा है बल्कि विश्व का आठवां सबसे बड़ा कृषि उत्पाद निर्यातक है। भारत दुनिया भर में अनाज, फल और डेयरी प्रोडक्ट्स भी भेज रहा है।
रोजगार के लिए कृषि पर निर्भर है आधी आबादी
कृषि में इस सफलता के बाद भी भारत उत्पादकता, बुनियादी ढांचे और बाजार में पहुंच के क्षेत्र में पिछड़ा हुआ है। दुनिया में दामों के उतार-चढ़ाव और जलवायु परिवर्तन इस चुनौती को और भी बढ़ा देते हैं।
भारत में फसल की पैदावार भी वैश्विक स्तर पर सबसे कम है।
छोटी जोत इस समस्या को और भी बदतर बना देती है। भारतीय किसान औसतन एक हेक्टेयर से भी कम जमीन पर काम करते हैं। वहीं 2020 में अमेरिका में एक किसान के पास 46 हेक्टेयर से अधिक जमीन थी।
भारत में खेती से देश की आधी आबादी करीब 70 करोड़ लोगों का भरण पोषण हो रहा है। यह भारत की रीढ़ बनी हुई है।
खेती भारत के करीब आधे कामगारों को रोजगार देती है लेकिन सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में इसका केवल 15 फीसदी योगदान है। वहीं अमेरिका की दो फीसदी से कम आबादी खेती पर निर्भर है।
मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में सीमित नौकरियों के कारण कम वेतन पाने वाले अधिक लोग खेती के कार्य में लगे हुए हैं।
अमेरिका ने कृषि उत्पादों पर लगाया है औसतन 5।3 फीसदी टैरिफ
कृषि सरप्लस यानी अधिशेष के बावजूद भी भारत अपने किसानों को बचाने के लिए आयात पर शून्य से 150त्न तक टैरिफ लगाता है।
दिल्ली स्थित थिंक टैंक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव (जीटीआरआई) के अनुसार, भारत में अमेरिकी कृषि उत्पादों पर लगाया जाने वाला औसत टैरिफ 37.7त्न है, जबकि अमेरिका में भारतीय कृषि उत्पादों पर यह 5।3त्न है।
भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय कृषि व्यापार मात्र 800 करोड़ रुपए का है। भारत मुख्य रूप से चावल, झींगा, शहद, वनस्पति अर्क, अरंडी का तेल और काली मिर्च का निर्यात करता है, जबकि अमेरिका बादाम, अखरोट, पिस्ता, सेब और दालें भेजता है।
दोनों देश एक व्यापार समझौते पर काम कर रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि अमेरिका अब भारत के साथ अपने 4500 करोड़ के व्यापार घाटे को कम करने के लिए गेहूं, कपास और मक्के का निर्यात करना चाहता है।
छोटे किसानों को तबाह कर सकती है प्रतिस्पर्धा
दिल्ली स्थित काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट थिंक टैंक के व्यापार विशेषज्ञ विश्वजीत धर कहते हैं, ‘अमेरिका इस बार बेरीज और अन्य सामान निर्यात करने पर विचार नहीं कर रहा है, खेल बहुत बड़ा है।’
विशेषज्ञों का तर्क है कि भारत पर कृषि शुल्क कम करने, समर्थन मूल्य में कटौती करने और आनुवंशिक रूप से संशोधित यानी जीएम फसलों और डेयरी के लिए रास्ता खोलने के? लिए दबाव डालना वैश्विक कृषि में मूलभूत विषमता की अनदेखी करना है।
उदाहरण के लिए, अमेरिका अपने कृषि क्षेत्र को भारी सब्सिडी देता है और फसल बीमा के माध्यम से किसानों को सुरक्षा भी प्रदान करता है।
जीटीआरआई के अजय श्रीवास्तव कहते हैं, ‘कुछ मामलों में, अमेरिकी सब्सिडी उत्पादन लागत से 100 फीसदी अधिक है। इससे असमान प्रतिस्पर्धा का माहौल बनता है और यह भारत के छोटे किसानों को तबाह कर सकता है।’
आजीविका बचाने के लिए आयात शुल्क
भारतीय विदेश व्यापार संस्थान में डब्ल्यूटीओ अध्ययन केन्द्र के पूर्व प्रमुख अभिजीत दास कहते हैं, ‘मुख्य बात यह है कि दोनों देशों में कृषि पूरी तरह से अलग है।’
‘अमेरिका में वाणिज्यिक कृषि होती है, जबकि भारत निर्वाहन खेती पर निर्भर है। यह लाखों भारतीयों की आजीविका बनाम अमेरिकी कृषि व्यवसाय के हितों का प्रश्न है।’ भारत की कृषि संबंधी चुनौतियाँ सिफऱ् बाहरी नहीं हैं।
धर कहते हैं कि इस क्षेत्र में चुनौतियों की अपनी वजह है। 90 फीसदी जोत के मालिक छोटे किसानों के पास निवेश की क्षमता नहीं है और निजी क्षेत्र को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है।
भारत के कुल सरकारी बुनियादी ढांचे के निवेश में खेती को छह फीसदी से भी कम निवेश मिलता है। इससे सिंचाई और भंडारण सुविधाओं को कम पैसा मिल पाता है।
सरकार लाखों लोगों की आजीविका को बचाने के लिए गेहूं, चावल और डेयरी जैसी प्रमुख फसलों पर आयात शुल्क लगाती है और समर्थन मूल्य की घोषणा करती है।
कैसे साधा जाए हितों का संतुलन?
चार वर्ष पहले, हजारों किसानों ने मुख्य रूप से गेहूं और चावल जैसे प्रमुख खाद्यान्नों के लिए बेहतर कीमतों और न्यूनतम सरकारी समर्थन मूल्य गारंटी के कानून की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन किया था।
धर कहते हैं, ‘अपेक्षाकृत समृद्ध किसान जो अपनी बची फसल बेचते हैं, उन्हें भी निकट भविष्य में कोई सुधार नजर नहीं आता और यदि उन्हें ऐसा लगता है, तो जीविका चलाने वाले किसानों की दुर्दशा की कल्पना कीजिए।’
घरेलू असंतोष के अलावा, व्यापार वार्ता जटिलता का एक और स्तर जोड़ती है।
दास कहते हैं कि भारत के लिए वास्तविक चुनौती यह होगी कि ‘अमेरिका के साथ ऐसा समझौता कैसे किया जाए जो कृषि क्षेत्र में अमेरिकी निर्यात और भारत के हितों के बीच संतुलन स्थापित करे।’
तो फिर आगे का रास्ता क्या है?
अजय श्रीवास्तव कहते हैं, ‘भारत को अपने कृषि क्षेत्र को खोलने के लिए अमेरिकी दबाव के आगे नहीं झुकना चाहिए। अगर भारत झुका तो लाखों लोगों की रोज़ी रोटी प्रभावित होगी। इससे खाद्य सुरक्षा को खतरा होगा और हमारे बाज़ार सस्ते में बिकने वाले विदेशी अनाज से भर जाएंगे।’
‘भारत को अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देनी चाहिए और अपनी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रक्षा करनी चाहिए। व्यापार सहयोग हमारे देश के किसानों, खाद्य संप्रभुता या नीति स्वायत्तता की कीमत पर नहीं होना चाहिए।’
विशेषज्ञों का कहना है कि भविष्य में भारत को अपनी कृषि को आधुनिक बनाना चाहिए ताकि खेती से ज़्यादा मुनाफ़ा हो सके।
-पंकज शर्मा
इस बुधवार लोकसभा में स्पीकर ओम बिरला को प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी का सदन के भीतर अपनी बहन प्रियंका के प्रति स्नेह का थोड़ाअनौपचारिक प्रदर्शन करना इतना खल गया कि उन्होंने हलके गुस्से से पगा तनाव भरा चेहरा लिए फऱमान सुनाया: ‘‘सदन में मेरे संज्ञान में ऐसी कई घटनाएं हैं, जब माननीय सदस्यों के आचरण सदन की उच्च परंपराओं-मापदंडों के अनुरूप नहीं है। इस सदन में पिता-पुत्री, मां-बेटी, पति-पत्नी सदस्य रहे हैं। इस परिप्रेक्ष्य में मेरी नेता प्रतिपक्ष से यह अपेक्षा है कि लोकसभा प्रक्रिया के पालनीय नियम 349 के अनुसार सदन में आचरण करें, जो सदन की मर्यादा और प्रतिष्ठा के अनुरूप रहना चाहिए। मैं पुन: आग्रह करता हूं कि सदन में विशेष रूप से प्रतिपक्ष के नेता से तो यह अपेक्षा की जाती है कि उचित आचरण रखें।’’ यह कहने के फ़ौरन बाद स्पीकर ने राहुल को कुछ कहने का मौक़ा दिए बिना सदन की कार्यवाही दो बजे तक के लिए स्थगित कर दी।
-दीपक मंडल
साल 1996 का वक्त। बनारस के रहने वाले श्याम सुंदर दुबे ने दिल्ली आकर केंद्र सरकार के मंत्रालय में अपनी नई नौकरी शुरू की थी। नए कर्मचारियों के उस बैच में झारखंड की सुनीता कुशवाहा भी थीं।
दोनों की नजदीकियां बढ़ीं और साल भर बाद उन्होंने शादी करने का फैसला किया। लेकिन न तो श्याम सुंदर और न ही सुनीता के घरवाले इस अंतरजातीय शादी को मंजूरी देने के लिए तैयार थे।
दुबे के घरवालों को ये मंजूर नहीं था कि ओबीसी समुदाय की कोई लडक़ी उनके परिवार में आए।
सुनीता के माता-पिता की नजर भी कुशवाहा समुदाय के एक ‘अच्छे लडक़े’ पर थी।
परिवार वालों की रज़ामंदी न मिलने पर श्याम सुंदर और सुनीता ने दिल्ली में कोर्ट मैरिज की।
दोनों के परिवारों ने वर्षों के बहिष्कार के बाद उन्हें स्वीकार किया।
दिल्ली में रह रहीं पत्रकार पूजा श्रीवास्तव ने भी जब 2013 में अपने सहकर्मी पवित्र मिश्रा के साथ शादी करने का फैसला किया तो दोनों के परिवार में इसका विरोध हुआ।
दोनों भारतीय समाज में ऊंची मानी जाने वाली जातियों से ताल्लुक रखते हैं।
लेकिन उनका परिवार इस अंतरजातीय प्रेम विवाह को सहमति देने के लिए तैयार नहीं था।
परिवार की मंजूरी न मिलने पर इस पत्रकार जोड़े को भी अदालत में शादी करनी पड़ी।
शादी की दीवारें
हल्द्वानी में वो जिस मोहल्ले में रहते हैं वहां ज्यादातर भट्ट (ब्राह्मण) लोग ही हैं। उनमें रिश्तेदारियां हैं।
संजय भट्ट का एक अनसूचित जाति की लडक़ी से शादी करना उन परिवारों में चर्चा का विषय बन गया।
2016 में जब संजय ने कीर्ति से शादी करने का फैसला किया तो उनके रिश्तेदारों ने उनके माता-पिता पर इस बात का दबाव बनाना शुरू कर दिया कि वो अपने बेटे को समझाएं।
संजय अपने फैसले को बदलने को तैयार नहीं थे और उनके माता-पिता को ये मंजूर नहीं था।
संजय ने कीर्ति से आर्य समाज मंदिर में शादी की। उस दौरान दोनों का कोई रिश्तेदार वहां मौजूद नहीं था।
शादी के बाद संजय को शहर में ही दूसरी जगह मकान तलाशना पड़ा।
सात साल बाद जब संजय और कीर्ति एक बच्चे के पैरेंट बने तब जाकर संजय के घरवालों से उनका बोलचाल शुरू हुआ।
ये तीनों कहानियां बताती हैं कि भारतीय समाज में अंतरजातीय शादियों को परिवार की मंजूरी मिलना अभी भी कितना मुश्किल है।
अंतरजातीय शादियों की कछुआ चाल
शहरीकरण, महिलाओं की शिक्षा, वर्किंग प्लेस में उनकी बढ़ती मौज़ूदगी के साथ महिला-पुरुषों के मिलने-जुलने के मौके बढऩे के बावज़ूद भारत में अंतरजातीय शादियां अभी भी काफी कम हैं।
देश में अंतर-जातीय शादियों को लेकर कोई निश्चित आंकड़ा नहीं है। क्योंकि केंद्र ने सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना में से जाति का आंकड़ा जारी नहीं किया है।
लेकिन सैंपल सर्वे के आधार पर किए गए अध्ययनों से ये साफ है कि भारतीय परिवारों में अंतरजातीय शादियों का विरोध काफी ज्य़ादा है।
2014 के एक सर्वे के मुताबिक़ उस समय तक भारत में सिर्फ पांच फ़ीसदी शादियां अंतरजातीय थीं।
2018 में अंतरजातीय शादियों के बारे में जानकारी जुटाने के लिए 1,60,000 परिवारों का सर्वे किया गया था। सर्वे के नतीजे बताते हैं कि 93 फ़ीसदी लोगों ने परिवारों की ओर से तय शादियां की थी। सिर्फ 3 फ़ीसदी ने प्रेम विवाह किया था।
सिर्फ दो फ़ीसदी प्रेम विवाहों को परिवार की मंजूरी मिल सकी थी।
भारत में बहुसंख्यक हिंदू परिवारों में ज्य़ादातर 'अरैंज्ड मैरिज’ (परिवार की ओर से तय) एक ही जातियों की भीतर होती हैं।
इस सर्वे के मुताबिक़ कई दशकों के बाद भी अंतरजातीय शादियों को मंजूरी मिलने की दर बेहद कम है।
2018 में हुए इस सर्वे में जिन बुजुर्गों से बात की गई ( अस्सी वर्ष की उम्र वालों से) उनमें 94 फ़ीसदी ने अपनी ही जाति में शादी की थी।
इसके मुताबिक़ 21 की उम्र या इससे बाद में शादी करने वालों में 90 फ़ीसदी ने अपनी ही जाति के युवक या युवती से शादी की थी।
यानी इतने दशकों के अंतराल के बाद अपनी ही जाति में शादी करने वालों का आंकड़ा सिर्फ चार फ़ीसदी कम हुआ था।
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-3 के 2005-06 के आंकड़ों के आधार पर किए गए अध्ययन के मुताबिक़ भारत में सभी धर्मों और समुदायों के बीच अंतरजातीय शादियों का आंकड़ा 11 फ़ीसदी था।
इसके तहत जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मेघालय और तमिलनाडु में जिन लोगों का सर्वे किया गया था उनमें 95 फ़ीसदी लोगों ने कहा था कि उनकी शादी जाति के भीतर हुई है।
पंजाब, गोवा, केरल में स्थिति थोड़ी बेहतर थी। वहां 80 फ़ीसदी लोगों ने कहा था कि उन्होंने अपनी जाति में शादी की।
इंडियन स्टेटस्टिकल्स इंस्टीट्यूट के रिसर्चरों ने इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे और नेशनल सैंपल सर्वे 2011-12 के आंकड़ों का हवाला देते हुए 2017 के एक पेपर में दिखाया था कि लोगों के पढ़े-लिखे होने के बावज़ूद भारतीय समाज में जाति बंधन कम नहीं हुआ है। ज्यादातर लोग जाति के अंदर शादी करने को प्राथमिकता देते हैं।
2016-17 में भी दिल्ली और उत्तर प्रदेश में किए गए एक सर्वे से पता चलता है कि उच्च शिक्षित और कम शिक्षित या गैर साक्षर लोगों के बीच अंतरजातीय या अंतर धार्मिक शादियों का विरोध लगभग समान था।
इस सर्वे में जिन लोगों से सवाल पूछे गए थे उनमें हर जाति, समुदाय और धर्म के लोग शामिल थे।
अड़चनें कहां हैं ?
अंतरजातीय और अंतर धार्मिक शादी करने पर परिवार में असुरक्षा या हिंसा का सामना करने वाले जोड़ों को सुरक्षा देने और लैंगिक समानता के लिए काम करने वाले एनजीओ ‘धनक’ के को-फाउंडर आसिफ़ इक़बाल का कहना है कि अंतरजातीय प्रेम विवाहों के लेकर परिवार के अंदर अभी भी हालात आसान नहीं है।
‘धनक’ के पास अक्सर ऐसे अंतरजातीय और अंतर धार्मिक जोड़े आते हैं, जिनकी शादियों का उनके परिवार या समुदाय में विरोध हो रहा होता है।
आसिफ़ कहते हैं, ‘भारतीय परिवारों के अंदर अभी भी अंतरजातीय शादियों को मंजूरी की दर ज्यादा नहीं है। इसके बजाय ऐसी शादी करने वालों जोड़ों के लिए परिवार के बाहर स्थिति ज्यादा आसान है। क्योंकि राज्य उन्हें सुरक्षा देता है। शादी का सर्टिफिकेट मिलते ही पुलिस और अदालत उनकी हिफ़ाजत के लिए आगे आ जाती है।’
वो कहते हैं, ‘गांवों में अंतरजातीय शादियों को लेकर हिंसा और विवाद ज्यादा दिखते हैं। शहरों में हिंसा की स्थिति नहीं दिखती। क्योंकि अंतरजातीय शादियों को राज्य और अदालतों की ओर से संरक्षण हासिल है। हालांकि शहरों में भी परिवारों के अंदर अंतरजातीय और अंतर धार्मिक शादियों की स्वीकार्यता बहुत कम है।’
विवेक कुमार दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल सिस्टम में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं।
वो अंतरजातीय शादियों की संख्या धीमी होने पर अचरज नहीं जताते। उनका मानना है कि इसकी जड़ें भारतीय समाज की संरचना में है।
विवेक कुमार कहते हैं कि भारत में पांच-सात फ़ीसदी अंतरजातीय विवाह भी हो रहे हैं तो ये यहां की आबादी के हिसाब से बहुत बड़ी संख्या है। हालांकि ऐसी शादियों के बढऩे की रफ़्तार धीमी है।
वो कहते हैं, ‘भारत में अभी भी 68 फ़ीसदी आबादी गांवों में रहती है। अभी तक एक ही गांव में रहने वाले युवक-युवतियों के बीच भाई-बहन का रिश्ता मानने की परंपरा चली आ रही है, चाहे वो किसी भी जाति के क्यों न हों। भारत में बहुसंख्यक हिंदुओं में भाई-बहन के बीच शादियां नहीं होती है। इसलिए अंतरजातीय विवाह कम हैं।’
विवेक कुमार का मानना है कि यूनिवर्सिटी में लड़कियों की संख्या कम होने से भी अंतरजातीय शादियां कम दिख रही हैं। उच्च शिक्षा संस्थानों में लडक़े-लड़कियां साथ पढ़ते हैं। जैसे-जैसे यहां लड़कियों की संख्या बढ़ेगी अंतरजातीय विवाह ज्यादा होंगे।
वो ये भी कहते हैं कि भारत में लड़कियों की तुलना में लडक़ों के विचार ज्यादा परंपरावादी हैं और अभी भी वो पितृसत्ता के बंधन में बंधे हैं और दहेज लेकर शादी करना पसंद करते हैं।
उनका कहना है कि चूंकि परिवार की ओर से तय अंतरजातीय शादियों में वर पक्ष को दहेज मिलता है इसलिए माता-पिता बेटे की मर्जी से होने वाली अंतरजातीय शादियों का विरोध करते हैं। क्योंकि ऐसी शादियों में दहेज मिलने की संभावना कम हो जाती है।
यहां भी हैं मुश्किलें
भारत में बहुसंख्यक हिंदुओं के साथ मुस्लिम, सिख और ईसाई जैसे अल्पसंख्यक समुदायों में भी जाति विभाजन है।
इस्लाम सैद्धांतिक तौर पर सभी मुसलमानों को बराबर मानता है लेकिन भारतीय मुस्लिमों में भी अंतरजातीय शादियां को परिवारवालों की मंजूरी की दर काफी कम है। देश में पसमांदा (पिछड़े) और दलित मुसलमानों के हकों के लिए लंबा आंदोलन करने वाले राजनीतिक नेता और सामाजिक कार्यकर्ता अली अनवर कहते हैं कि इस्लाम के मुताबिक़ सभी मुसलमान बराबर हैं। लेकिन भारत में मुस्लिमों में जातिगत भेदभाव मौजूद है।
अनवर कहते हैं कि मुसलमानों में ऊंची जातियों यानी अशराफ़ और अजलाफ़ (पसमांदा यानी पिछड़े) अरजाल जातियों (दलित मुसलमान) के युवक-युवतियों की आपस में शादियां बहुत कम देखने को मिलती है।
वो कहते हैं कि मुस्लिमों की 20 से 25 करोड़ (अनुमानित) आबादी में ऐसी शादियां इतनी कम हैं कि इसे नगण्य मानना चाहिए।
उन्होंने बीबीसी हिंदी से कहा,‘पांच-छह दशक पहले तो भारतीय मुसलमानों में इस तरह की शादियां बहुत कम दिखती थीं। लेकिन पिछले 20-30 साल से मुसलमानों में ऐसी अंतरजातीय शादियां दिखने लगी हैं, जिन्हें परिवारों की मंजूरी मिल रही है।’
हालांकि इसमें एक पेंच है। अनवर कहते हैं, ‘मुसलमानों में ऊंची जाति के माने जाने वाले लोग अपनी बेटियों की शादियां पिछड़ी जातियों (पसमांदा) के ऐसे मुसलमान युवकों से कराने के लिए तैयार दिखते हैं जो ऊंचे सरकारी ओहदे या बढिय़ा कारोबार वाला हो। लेकिन बहू लाने के वक़्त वो ऊंची जातियों के मुसलमान परिवारों को ही प्राथमिकता देते हैं। ऐसे लोग बहू लाते वक़्त वंशावली खोजने लगते हैं। कहते हैं कि पिछड़ी जाति से बहू लाकर क्या ख़ानदान की ‘हड्डी’ खऱाब करोगे।’
अली अनवर कहते हैं,‘मुसलमानों में अशराफ़ और अजलाफ़ के बीच तो छोड़ ही दीजिए अजलाफ़ और अरजाल यानी दलित मुस्लिमों के बीच भी विवाह संबंध बहुत ही कम हैं। ऐसी शादियों को बढ़ावा देने के लिए हमने पसमांदा आंदोलन के तहत पहल की थी लेकिन हालात ज्यादा बदले नहीं हैं।’
गांधी, आंबेडकर और लोहिया से मिला था बढ़ावा
भारत में लंबे समय से अंतरजातीय शादियों की वकालत की जाती रही है।
ऐसी शादियों को जातियों में बंटे भारतीय समाज में समरसता लाने का अहम औजार समझा गया।
महात्मा गांधी ने शुरुआती हिचकिचाहट के बाद अंतरजातीय शादियों की जरूरत समझी और वो इनका समर्थन करने लगे थे। वो इसे अपने अस्पृश्यता निवारण (छुआछूत विरोध) कार्यक्रम की सफलता के लिए जरूरी समझते थे। बाद में उन्होंने ये कहना शुरू किया कि वो उसी शादी समारोह में हिस्सा लेंगे जिसमें वर या वधू में से एक हरिजन हो।
भारत में दलितों के बड़े नेता बीआर आंबेडकर ने अंतरजातीय शादियों की जमकर वकालत की। उन्होंने अपने प्रसिद्ध भाषण ( जो उन्हें देने नहीं दिया गया था। बाद में ये पुस्तिका के तौर पर छपा) ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ में कहा था कि जाति तोडऩे की असली दवा अंतरजातीय शादियां हैं।
आंबेडकर का मानना था कि भारतीय समाज में जातियों के बीच रोटी-बेटी का संबंध कायम होने से एकता बढ़ेगी।
मशहूर समाजवादी नेता और राजनीतिक चिंतक राममनोहर लोहिया का कहना था कि भारत में जाति के बंधनों को कमजोर करने के लिए अलग-अलग जातियों के बीच ‘रोटी-बेटी’ का संबंध बेहद जरूरी है।
उन्होंने सुझाव दिया था कि सरकारी कर्मचारियों के लिए अंतरजातीय शादी अनिवार्य बना देना चाहिए।
1970 के दशक में सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान अंतरजातीय शादियों और उपनाम (जाति सूचक) न लगाने का चलन काफ़ी बढ़ा।
इस आंदोलन में शामिल बड़ी तादाद में युवक-युवतियों ने जाति के बाहर शादी की और उपनाम लगाना छोड़ दिया।
लेकिन इसके बाद देश के राजनीतिक आंदोलनों में इस तरह के सामाजिक सुधारों की वकालत कम दिखी।
माना गया कि बढ़ता शहरीकरण, औद्योगीकरण और शिक्षा का प्रसार खुद-ब-खुद जाति के बंधनों को तोड़ देगा। लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है।
भारतीय अख़बारों में छपने वाले मेट्रोमोनियल्स यानी शादी के लिए दिए जाने वाले विज्ञापनों में बाकायदा जातियों के कॉलम होते हैं। ये ‘जाति बंधन नहीं’ वाले कॉलम से बहुत बड़े होते हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता और दलित महिलाओं के संघर्ष को अपनी कविताओं का विषय बनाने वाली कवियित्री अनिता भारती ने अंतरजातीय शादियां कम होने की वजहों पर बीबीसी से बात करते हुए कहा, ‘भारत में जाति व्यवस्था थोड़ी ढीली पड़ी है लेकिन अभी भी अंतरजातीय शादियों को ज्यादा प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है। समाज में इसका सपोर्ट सिस्टम नहीं है।’
वो कहती हैं, ‘ हम अपने आसपास देखते हैं कि अंतरजातीय शादी करने वाले लोगों को संघर्ष करना पड़ता है। कई जोड़ों को अपने माता-पिता को मनाने में वर्षों लग जाते हैं और कइयों को उनकी मर्जी के खिलाफ शादी करनी पड़ती है। दरअसल हम जब तक जाति व्यवस्था के बंधनों को नहीं तोड़ेंगे ऐसी दिक्कतें बनी रहेंगीं। मैं तो कहूंगी कि अंतरजातीय ही नहीं अंतर धार्मिक शादियों को भी बढ़ावा मिले तभी भारत एक खूबसूरत समाज वाला देश बनेगा।’
अख़बार में छपा मेट्रोमोनियल्स
भारत में अंतरजातीय शादियों को प्रोत्साहन देने के लिए मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने 2006 में अंतरजातीय शादी करने वाले जोड़ों को 50 हजार रुपये देने की स्कीम शुरू की थी।
2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने डॉक्टर आंबेडकर फाउंडेशन के ज़रिये ऐसे जोड़ों के लिए ये राशि बढ़ा कर ढाई लाख रुपये कर दी थी।
इस स्कीम की शर्त थी कि शादी करने वाले जोड़े में से कोई एक ( वर या वधू) दलित हो।
शुरू में इस स्कीम के तहत हर साल 500 जोड़ों को ये राशि देने का लक्ष्य रखा गया था।
लेकिन 2014-15 में सिर्फ पांच जोड़ों को ये राशि मिली। 2015-16 में सिर्फ 72 जोड़ों को ये रकम मिली। जबकि 522 जोड़ों ने आवेदन किया था।
2016-17 में 736 आवेदनों में सिर्फ 45 मंजूर हुए। वहीं 2017-18 में 409 आवेदनों में से सिर्फ 74 मंजूर हुए।
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
आज देश में जनता का एक बड़ा हिस्सा व्रत की उन्मादना में डूबा है। इस प्रसंग में मुझे अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रसिद्ध निबंध ‘बांगलार व्रत ’ का ध्यान आ रहा है, इस प्रसिद्ध निबंध में उन्होंने लिखा है- व्रत मात्र एक इच्छा है। इसे हम चित्रों में देखते हैं : यह गान और पद्य में प्रतिध्वनित होती है, नाटकों और नृत्यों में इसकी प्रतिक्रिया दिखाई देती है। संक्षेप में व्रत केवल वे इच्छाएं हैं जिन्हें हम गीतों और चित्रों में चलते-फिरते सजीव रूपों में देखते हैं।’’ जो लोग सोचते हैं कि व्रत-उपवास का संबंध धर्म से है ,धार्मिक क्रिया से है,वे गलत सोचते हैं। अवनीन्द्रनाथ ने साफ लिखा है ‘‘व्रत न तो प्रार्थना है न ही देवताओं को प्रसन्न करने का प्रयत्न है।’’
दर्शनशास्त्री देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने लिखा है ‘‘व्रत में निहित उद्देश्य अनिवार्यत: क्रियात्मक उद्देश्य होता है। इसका उद्देश्य देवी देवताओं के समक्ष दंडवत करके किसी वर की याचना करना नहीं है। बल्कि इसके पीछे दृष्टिकोण यह है कि कुछ निश्चित कर्म करके अपनी इच्छा पूर्ण की जाए। वास्तव में परलोक या स्वर्ग का विचार व्रतों से कतई जुड़ा हुआ नहीं है। ’’
अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने साफ लिखा है व्रत-उपवास को धार्मिकता के आवरण में कुछ स्वार्थी तत्वों ने बाद में लपेटा था। अवनीन्द्रनाथ मानते हैं व्रत ‘‘संगीत के साथ समस्वर है।’’
व्रत की एक विशेषता यह है कि समान इच्छा को लेकर इसे अनेक लोगों को सामूहिक रूप में रखना होता है। यदि किसी व्यक्ति की कोई निजी इच्छा है और वह इसकी पूर्ति के लिए कोई कार्य करता तो इसे व्रत नहीं कहा जाएगा। यह केवल तभी व्रत बनता है जब एक ही परिणाम की प्राप्ति के लिए कई व्यक्ति मिलकर आपस में सहयोग करें।
अवनीन्द्रनाथ ने लिखा है ‘‘किसी व्यक्ति के लिए नृत्य करना संभव हो सकता है किंतु अभिनय करना नहीं। इसी प्रकार किसी व्यक्ति के लिए प्रार्थना करना और देवताओं को संतुष्ट करना संभव हो सकता है, किंतु व्रत करना नहीं। प्रार्थना और व्रत दोनों का लक्ष्य इच्छाओं की पूर्ति है, प्रार्थना केवल एक व्यक्ति करता है और अंत में यही याचना करता है कि उसकी इच्छा पूरी हो। व्रत अनिवार्यत:सामूहिक अनुष्ठान होता है और इसके परिणामस्वरूप वास्तव में इच्छा पूर्ण होती है।’’
-रेचल हेगन
म्यांमार और थाईलैंड में भूकंप के बाद वहां के लोग सहमे हुए हैं। भूकंप का ख़ौफ और सदमा उनकी बातों से साफ झलक रहा है।
शुक्रवार को म्यांमार में आए 7।7 तीव्रता के भूकंप ने दोनों देशों में कई इमारतों को ध्वस्त कर दिया। म्यांमार में कम से कम 144 लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है और सैकड़ों लोग घायल हैं।
म्यांमार के सबसे बड़े शहर यंगून में रहने वाले एक शख़्स ने बीबीसी को कहा कि भूकंप के झटके काफी तेज थे और लगभग चार मिनट तक ये जारी रहे।
बीबीसी वर्ल्ड सर्विसेज के न्यूजड़े प्रोग्राम को इस शख़्स ने बताया कि वो हल्की नींद लेकर उठे ही थे कि बिल्डिंग बुरी तरह कांपने लगी।
उन्होंने बताया,‘भूकंप के झटके तीन-से चार मिनट तक लगते रहे। मुझे अपने दूसरे दोस्तों से लगातार मैसेज मिल रहे थे। तब मुझे लगा कि सिर्फ यंगून में ही भूकंप नहीं आया। देश के दूसरे हिस्सों में भी भूकंप के झटके महसूस किए जा रहे हैं।’
म्यांमार के साथ ही थाईलैंड और चीन में भी भूकंप के झटके महसूस किए गए। भूकंप के तेज़ झटकों की वजह से थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में एक 30 मंजिला इमारत गिर गई और यहां काम करने वाले 43 मजदूर मलबे में फंस गए।
इमारतों के हिलने से लोग बुरी तरह डर गए और सडक़ों की ओर भागे। कई इमारतों के रूफटॉप पर बने स्वीमिंग पूल का पानी सडक़ों पर बहता दिखा।
‘ऐसा लगा कि हम पर पत्थर बरस रहे हैं’
बैंकॉक में रहने वाली सिरिन्या नकुता ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया कि वो अपने बच्चों के साथ अपने अपार्टमेंट में थीं। उन्होंने कहा, '' पहले तेज झटका आया फिर जमीन बुरी तरह हिलने लगी। मैंने सीढिय़ों से चीजों के गिरने की तेज आवाजें सुनीं। ऐसा लगा कि हम पर पत्थर बरस रहे हैं। मैंने अपने बच्चों को जल्दी से निकलने को कहा और हम ऊपर से तेजी से दौडक़र बाहर निकल आए।’
थाईलैंड में बांग सुई जिले के डिप्टी पुलिस चीफ वोरापत सुख़ताई ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया कि एक टॉवर ब्लॉक गिर गया था और उन्हें लोगों के चीखने की आवाज़ें सुनाई पड़ रही थी।
उन्होंने बताया, '' जब मैं वहां पहुंचा तो लोग मदद के लिए चिल्ला रहे थे। लोग जोर-जोर से चिल्ला कर कह रहे थे मदद कीजिए, मदद कीजिए। हमारा अनुमान है कि भूकंप में सैकड़ों लोग घायल हुए होंगे। लेकिन हम अभी भी ऐसे लोगों की संख्या के बारे में पता कर रहे हैं।''
भूकंप से जितनी भारी तबाही हुई उसे देखते हुए नेपीडॉ जनरल अस्पताल को 'मास कैजुअल्टी एरिया' घोषित कर दिया गया है।
वहां कई लोग अस्पताल के बाहर स्ट्रेचर पर लेटे देखे गए। कई लोगों को स्लाइन चढ़ाई जा रही थी।
सैन्य शासन ने की अंतरराष्ट्रीय मदद की अपील
म्यांमार में 2021 से ही सैन्य शासन है। सैन्य शासन ने अंतरराष्ट्रीय मदद की अपील की है।
सैन्य शासन आमतौर पर ऐसी अपील नहीं करता है। उसने देश के सभी छह इलाकों में इमरजेंसी की घोषित कर दी है।
सैन्य शासन प्रमुख मिन ऑन्ग हल्येंग को नेपीडॉ अस्पताल का दौरा करते देखा गया। उन्होंने विदेश से मदद की अपील की है।
उन्होंने कहा, ‘हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय से जितना संभव हो सके मदद की उम्मीद रख रहे हैं।’
सैन्य शासन वाले म्यांमार से सूचनाएं मिलने में दिक्कतें आती हैं। यहां इंटरनेट का इस्तेमाल सीमित कर दिया गया है। कम्यूनिकेशन लाइनें बंद लग रही हैं।
इस वजह से बीबीसी का ज़मीन पर काम कर रही सहायता एजेंसियों से संपर्क नहीं हो पाया है।
थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में मेट्रो और रेल सर्विस रोक दी गई है। वहां की रहने वाली सुज़सान्ना वारी-कोवेक्स ने बताया, ‘मैं रेस्तरां में बैठकर बिल का इंतजार कर रही थी तभी अचानक जमीन हिलने लगी। पहले तो लगा कि सिर्फ मुझे ही ऐसा महसूस हो रहा है लेकिन तभी मैंने देखा कि हर कोई अपने चारों ओर देख रहा है। हम तुरंत वहां से भागे।’
एक दूसरी महिला देवोरा पनमैस ने बताया कि वो अपना फोन चेक कर रही थी तभी अपनी कुर्सी पलट गई।
उन्होंने कहा, ‘ मैं अपने रीक्लाइनर में थी लेकिन अचानक ये तेजी से हिलने लगी। इसके बाद ये पलट गई और मेरा सिर मेज से टकरा गया।’
म्यांमार में इमारतें भरभरा कर गिर रही थीं
बैंकॉक में रह रहीं बीबीसी पत्रकार बुई थु ने कहा कि देश में इतना बड़ा भूकंप कम से कम पिछले एक दशक में नहीं आया था।
म्यांमार के दूसरे बड़े शहर मांडले से आ रही सोशल मीडिया तस्वीरों में इमारतें गिरती दिख रही हैं।
इसमें ऐतिहासिक रॉयल पैलेस का हिस्सा भी था। 90 साल पुरानी ये इमारत गिरती दिख रही है। इस शहर को यंगून से जोडऩे वाली मुख्य मार्ग का एक हिस्सा पूरी तरह फट गया है।
अमेरिका के जियोलॉजिक सर्वे ने रेड अलर्ट जारी करते हुए कहा है कि भूकंप से बड़ी तादाद में लोग हताहत हो सकते हैं। इससे भारी ताबही की आशंका है।
अभी तक ये पता नहीं चल पाया है कि कितने लोगों की मौत हुई है। लेकिन अमेरिकी जियोलॉजिकल सर्वे ने कहा कि हजारों लोगों की मौत की आशंका है।
-श्रवण गर्ग
इन दिनों एक ‘ग़ैर-ज़रूरी’ बहस चल रही है। बहस मुफ़्त के सोशल मीडिया पर ज़्यादा है और हमारे समय के लब्ध-प्रतिष्ठित कवि, कथाकार और उपन्यासकार 88-वर्षीय विनोद कुमार शुक्ल पर केंद्रित है। बहस शुक्ल जी को हाल ही में ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने की घोषणा के साथ प्रारंभ हुई है।
बहस के मूल में एक ऐसा सवाल है जो इस तरह के अवसरों पर कई बार पहले भी उठाया जा चुका है और आगे भी उठाया जाता रहेगा ! मानवाधिकारों की लड़ाई में सक्रिय एक कार्यकर्ता ने सोशल मीडिया पर जारी अपनी एक पोस्ट में सवाल उठाया था कि : ’शुक्ल जी के ठिकाने से महज़ सौ किलोमीटर दूर बस्तर में जल-जंगल-ज़मीन की रक्षा में लगे आदिवासियों/माओवादियों के ख़िलाफ़ सरकार का क्रूर दमन चक्र चल रहा है। कई लोग मारे गए हैं, कई गिरफ़्तार किए गए हैं। जो लड़ रहे हैं वे तेलुगू/अंग्रेज़ी में शानदार साहित्य भी रच रहे हैं। लेकिन शुक्ल जी के पूरे साहित्य से यह ‘झंझावात’ ग़ायब है।’ जो सवाल पूछा गया उसकी ‘पंचलाइन’ यह थी कि : ’इतनी उदासीनता कहाँ से आती है ?’
उठाए गए सवाल के कई जवाब हो सकते हैं ! एक तो यही कि लेखक, पत्रकार और साहित्यकार आदि को भी एक सामान्य नागरिक के रूप में स्वीकार करने से इंकार करते हुए उनसे वे सब अपेक्षाएँ की जाने लगतीं हैं जो किसी भौगोलिक बस्तर की तरह ही उसके उस यथार्थ से सर्वथा दूर होती हैं, जिसमें वह साँस लेना चाहता है !
दूसरा जवाब यह हो सकता है कि जिस ‘झंझावात’ को शुक्ल जी सौ किलोमीटर की दूरी से नहीं देख पा रहे हैं (या होंगे) क्या उसे वे पत्रकार, लेखक और साहित्यकार भी ठीक से देख कर अभिव्यक्ति प्रदान कर पा रहे हैं जो ठीक बस्तर की नाभि में विश्राम कर रहे हैं ? अपवादों में नहीं जाएँ तो अगर सैंकड़ों की संख्या में संघर्षरत आदिवासी/माओवादी मारे गए या गिरफ़्तार हुए तो उसके पीछे के कई कारणों में क्या एक इन्हीं लोगों में किसी की मुखबिरी या सत्ता में भागीदारी नहीं रहा होगा ?
कवि/कथाकार/उपन्यासकार और पत्रकार संपादक को भी अगर एक सामान्य नागरिक मान लिया जाए तो परेशानी कुछ कम हो जाएगी! ऐसा सामान्य नागरिक जो आए-दिन निरपराध लोगों के ख़िलाफ़ सडक़ों पर अत्याचार होते हुए तो देखता है पर कनखियों से यह सुनिश्चित करते ही कि उसका कोई अपना तो शिकार नहीं बन रहा नजऱें बचाकर निकल लेता है ! कुछ समुदायों में तो बच्चों को घुट्टी के साथ सीख दी जाती है कि सडक़ पर कहीं झगड़ा चल रहा हो तो रुकने का नहीं !
बरसों पहले (शायद) पत्रकार बरखा दत्त ने किसी अंग्रेज़ी अख़बार में चंडीगढ़ के आसपास की किसी घटना का जि़क्र करते हुए क्षोभ जताया था कि एक नागरिक जब आत्मदाह कर रहा था सैंकड़ों की भीड़ चुपचाप खड़ी देख रही थी, कोई उसे बचाने नहीं दौड़ा। हक़ीक़त यह है कि वही भीड़ अब ऐसी घटनाओं के वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर शेयर करने लगी है। हो सकता है ऐसी ही किसी भीड़ में कोई साहित्यकार, कवि या लेखक भी मौजूद होता हो जिसे आत्मदाह में भी किसी नई रचना के लिए कथानक नजऱ आ जाता हो। या कोई ऑफिस-गोअर होता हो जो यह कहते हुए भाग्य को कोसता हो कि कहाँ फँस गया,आधा घंटा लेट हो गया !
एक रिपोर्टर-संपादक के तौर पर अपने पचपन-साठ साल के लंबे पत्रकारिता जीवन के कई कि़स्से मुझे याद हैं पर उनमें भी डेढ़-दो साल पहले महाकाल और कालिदास की नगरी उज्जैन में जो हुआ वह लगातार विचलित करता रहता है। सतना के किसी गाँव की बारह साल की बलात्कार-पीडि़त बालिका लहूलुहान हालत में रात के वक्त घंटों तक उज्जैन की सडक़ों पर दौड़ती मदद के लिये गुहार लगती रही पर कोई दरवाज़ा नहीं खुला। जो खुले थे वे मदद की पुकार सुनते ही बंद हो गए। माना जा सकता है कि कोई एक तो कवि, कथाकार, उपन्यासकार कि़स्म का व्यक्तित्व सडक़ के आसपास के घरों में बसता होगा !
- SUNITA NARAIN
THIS IS not the time for energy transition, this is the time for energy addition,” said the US energy secretary Chris Wright to cheering applause. He was speaking at one of the largest energy conferences,
ceraweek, at Houston last month, and the room was overflowing with energy company heads and other experts. Attending the week-long conference, it was clear to me that our world has changed. Still, it is important to understand what and why this complete
rejection of climate change policies is happening in a world that is warming rapidly with catastrophic weather impacts. This is not the time to bury our heads in the sand and think that the Donald Trump administration’s energy policy will not lead to massive changes in their world and ours.
What is its reasoning for this shift? First, the gross national debt of the US has reached $36 trillion; interest payments are larger than what the country spends in defence. So, the answer is to “re-industrialize” and not “deindustrialize”, in the words of the US energy secretary. This thrust on onshore manufacturing will require more energy and more energy infrastructure. Second, China has taken the lead in many new areas, from supply chains and manufacturing of electric vehicles to solar. The Trump administration says it must not lose the Artificial Intelligence (AI) race to China. This means building energy-intensive data centres at a pace not seen before. The country has some 5,000 data centres today which consume 3 per cent of its grid-based electricity. This is expected to increase exponentially, and data centres are projected to consume 8-12 per cent of the electricity by the end of the decade. All of this means more generation of electricity.
Till now, as the country had reached its peak growth levels, electricity demand had more or less stagnated. Now it is expected to increase. Then, what will be the source of this “new” power generation? The Trump administration says it cannot depend on renewables to supply this electricity. Wright told the audience that renewables only met 3 per cent of US energy demand in spite of the huge investment, and so energy transition is not real. This, of course, is misleading because in terms of electricity generation, renewables have now overtaken coal in the US, contributing to 15-17 per cent of the electricity in the past year. But if total energy is taken as the measure, including the consumption of oil in transport and industry, the share of renewables in the energy mix decreases.
But this is not semantics for the Trump administration. It is convinced that there is a need for reversing the previous administration’s energy policies that were “myopically focused on climate change”. It also says this has led to increased cost of electricity, adding to the burden of households (again, there is no data on this but then the game is about perception and persuasion). So,
energy growth will be from the fossil fuel natural gas (there is even talk of coal) and the US administration is fast-tracking all that is needed to increase its production and generation. This will add to emissions of greenhouse gases, but as the energy secretary said, carbon dioxide, unlike carbon monoxide, is not a pollutant. Climate change is just a footnote in the US' plans.
ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के केलॉग कॉलेज में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भाषण के दौरान हंगामा हो गया और वहां मौजूद कुछ लोगों ने 'गो अवे' के नारे लगाए।
वामपंथी छात्र संगठन एसएफ़आई ने इस विरोध प्रदर्शन की जिम्मेदारी ली है जबकि बीजेपी ने कहा है कि बंगाली हिंदुओं ने विरोध किया।
हंगामा तब शुरू हुआ जब ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल के औद्योगिकरण के बारे में दावे कर रही थी, उसी समय श्रोताओं में से कुछ लोगों ने भारतीय मल्टीनेशनल कंपनी के नैनो कार प्लांट के राज्य से बाहर जाने पर सवाल उठाया।
जिसका जवाब देते हुए ममता बनर्जी ने टाटा ग्रुप की ओर से राज्य में अन्य जगहों पर किए गए निवेश का जि़क्र किया। हंगामा तब और बढ़ गया जब कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में ट्रेनी महिला डॉक्टर के साथ बीते साल हुए बलात्कार और हत्या पर उनसे सवाल किया गया।
इस दौरान ममता बनर्जी ने विरोध के लिए वामपंथी छात्र संगठन पर राजनीति करने का आरोप लगाया और भविष्य में उनके नेताओं के साथ भी ऐसा होने की चेतावनी दी।
उन्होंने विरोध के लिए 'अल्ट्रा लेफ़्ट और उनके सांप्रदायिक मित्रों' को जि़म्मेदार ठहराया। टीएमसी लगातार आरोप लगाती रही है कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी और सीपीएम मिलकर उसे हराने की कोशिश कर रहे हैं।
बंगाली हिंदू या वामपंथी छात्र, हंगामे के पीछे कौन?
यह विरोध प्रदर्शन किसने किया इसे लेकर अलग-अलग दावे किए जा रहे हैं।
सीपीएम के छात्र संगठन स्टूडेंट फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया (एसएफ़आई) की यूके विंग ने इस विरोध प्रदर्शन की जि़म्मेदारी लेते हुए अपने फ़ेसबुक हैंडल पर एक वीडियो जारी किया।
साथ ही एक बयान जारी कर वामपंथी छात्र संगठन ने कहा कि उसके सदस्यों ने ममता बनर्जी के ‘झूठ’ पर सवाल खड़ा किए और उनके ‘भ्रष्ट शासन’ का विरोध किया।
उधर बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने विरोध प्रदर्शन का एक वीडियो पोस्ट किया है जिसमें कुछ लोग तख़्तियां लिए खड़े हैं।
मालवीय ने एक्स पर लिखा, ‘बंगाली हिंदुओं ने लंदन के केलॉग कॉलेज में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का विरोध किया। उन्होंने गुस्से में नारे लगाए और आरजी कर मेडिकल कॉलेज में महिला डॉक्टर के बलात्कार और हत्या, संदेशखाली में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध, हिंदुओं के जनसंहार और व्यापक भ्रष्टाचार के मुद्दों पर उन्हें घेरा।’
टीएमसी ने इस विरोध प्रदर्शन की निंदा की है। टीएमसी सांसद सौगत राय ने एएनआई से कहा, ‘मैं इस तरह के व्यवहार की पूरी तरह निंदा करता हूं। इस मामले में यूनिवर्सिटी प्रशासन और इंग्लैंड पुलिस को कदम उठाना है।’
हंगामे पर ममता बनर्जी ने क्या कहा
ममता बनर्जी के पूरे भाषण का पूरा वीडियो टीएमसी ने अपने यूट्यूब चैनल पर डाला है।
ममता बनर्जी ने भाषण में अपने शासन के दौरान पश्चिम बंगाल में हर क्षेत्र में हुए विकास के आंकड़े दिए और कहा कि कोलकाता उद्योग का गेटवे बन गया।
हंगामा उनके भाषण के आधे घंटे बाद शुरू हुआ जब श्रोताओं में से कुछ लोगों ने उनके दावों पर सवाल उठाए।
हालांकि बीच-बीच में टोका-टाकी जारी रही। किसी ने कोलकाता में आरजी कर अस्पताल में बलात्कार और हत्या के मामले को उठाया तो ममता बनर्जी ने कहा, ‘यह मामला अदालत में है, इस केस को केंद्र सरकार ने अपने हाथ में ले लिया है।’
इस बीच श्रोताओं में से किसी ने पूछा कि पश्चिम बंगाल में हिंदू उत्पीडऩ हो रहा है और क्या वह कुछ कहना चाहेंगी। इस पर मुख्यमंत्री ने कहा, ‘मैं हर धर्म का समर्थन करती हूं। मैं हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी का सम्मान करती हूं।’
ममता बनर्जी ने साथ ही कहा कि इसे ‘राजनीतिक मंच मत बनाएं। आप बंगाल जाएं और अपनी पार्टी को और मजबूत करें।’
इस दौरान ममता बनर्जी ने एक फ़ोटो दिखाते हुए कहा, ‘आप मेरी यह तस्वीर देखिए, मुझे मारने की कोशिश कैसे की गई थी।’
हंगामा बढऩे पर ममता बनर्जी ने कहा, ‘आप मुझे बोलने दें। आप मेरा नहीं, बल्कि अपने संस्थान का अपमान कर रहे हैं। ये लोग हर जगह ऐसा करते हैं, जहां भी मैं जाती हूं।’
उन्होंने परोक्ष रूप से सीपीएम और हिंदुत्वादी संगठनों पर निशाना साधते हुए कहा, ‘अल्ट्रा लेफ्ट और सांप्रदायिक मित्रों ऐसा व्यवहार मत करो।’
लोगों ने ‘गो अवे’ के नारे लगाए तो इस पर ममता बनर्जी ने कहा कि 'ये इनकी आदत हो गई है।'
एसएफ़आई ने क्या कहा?
एसएफ़आई-यूके ने अपने एक बयान में कहा है, "ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में ममता बनर्जी के भाषण के ख़िलाफ़ एसएफ़आई-यूके ने प्रदर्शन किया। पश्चिम बंगाल में सामाजिक विकास के उनके दावों के सबूत मांगते हुए उनके सफ़ेद झूठ का खुलकर विरोध किया।’
बयान के अनुसार, ‘हमारे विचारों को शांतिपूर्वक ज़ाहिर करने देने की बजाय पुलिस बुला ली गई। हमने पीडि़त पर ही आरोप लगाने और आरजी कर मामले में बरती गई लापरवाही पर सवाल उठाए। जब ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में छात्रों और लोकतांत्रिक अधिकारों का समर्थन करने का दावा किया तो हमने पूछा कि पिछले छह सालों से यूनिवर्सिटी में छात्र संघ के चुनाव क्यों नहीं हो रहे हैं।’
बयान में जादवपुर यूनिवर्सिटी में छात्रों पर कथित हमले को लेकर भी सवाल पूछने की बात कही गई है।
बयान के अनुसार, बनर्जी ने दावा किया कि राज्य में महिला सशक्तीकरण बढ़ा है, इस पर हमने पूछा कि पिछले साल स्कूल स्तर पर लड़कियों के ड्रॉपआउट दर में 19त्न की वृद्धि हुई है और राज्य में क्यों बाल विवाह की घटनाएं अधिक हो रही हैं।
एसएफ़आई-यूके ने कहा कि उसने ममता बनर्जी और टीएमसी के भ्रष्ट और अलोकतांत्रिक शासन का विरोध किया।
हाल में एक समय हॉल में विरोध करने वालों और टीएमसी के समर्थकों के बीच ज़ुबानी कहासुनी भी होने लगी। हालांकि बाद में हंगामा करने वालों को हॉल से हटा दिया गया और फिर कार्यक्रम आगे बढ़ा।
भारत की जीडीपी को लेकर ममता की टिप्पणी
इस कार्यक्रम के दौरान बातचीत में भारत की जीडीपी को लेकर की गई ममता बनर्जी की टिप्पणी को लेकर भी विवाद हो रहा है।
बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रदीप भंडारी ने ममता बनर्जी के कार्यक्रम की एक वीडियो क्लिप साझा की है जिसमें इंटरव्यूअर के सवालों का वह जवाब दे रही हैं।
-सीलिन गिरित
हाल के वर्षों में तुर्की में प्रेस की आज़ादी को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है।
तुर्की के सबसे बड़े शहर इस्तांबुल में सरकार के ख़िलाफ विरोध प्रदर्शनों को कवर करने वाले कम से कम 10 पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया।
इन पत्रकारों की गिरफ्तारी ने सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों के सामने बढ़ते खतरों के बारे में चिंताओं को बढ़ा दिया है।
भ्रष्टाचार के आरोपों में इस्तांबुल के मेयर इकरम इमामोअलू की गिरफ्तारी के विरोध में तुर्की में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए। जिसके बाद पत्रकारों को 1,110 से ज्यादा व्यक्तियों के साथ हिरासत में लिया गया था।
इकरम इमामोअलू ने कहा है कि उनके ख़िलाफ़ लगाए गए आरोप राजनीति से प्रेरित हैं। जबकि तुर्की के मौजूदा राष्ट्रपति रेचेप तैयप्प अर्दोआन ने उनके इस दावे का खंडन किया है।
उसी दिन उन्हें तुर्की के मुख्य विपक्षी दल रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी (सीएचपी) ने अपना राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित किया। भविष्य में होने वाले किसी भी चुनाव में उन्हें अर्दोआन के सबसे ताकतवर प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखा जा रहा है।
तुर्की में राष्ट्रपति चुनाव 2028 में होने वाले हैं, हालांकि समय से पहले भी चुनाव होने की संभावना जताई जा रही है।
हिरासत में लिए गए ज़्यादातर पत्रकार फोटोग्राफर थे। उनमें से सात पत्रकारों पर अब सार्वजनिक समारोहों पर कानून का उल्लंघन करने का आरोप लगाया गया है। साथ ही, उन्हें हिरासत में भी भेज दिया गया है।
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) के तुर्की के प्रतिनिधि एरोल ओन्देरोग्लू कहते हैं, ‘फोटो लेने वाले पत्रकारों को जानबूझकर निशाना बनाना यह दिखाता है कि सार्वजनिक अशांति के समय में पत्रकारों के काम को दबाने के लिए न्यायपालिका को हथियार बनाया जा रहा है।’
उन्होंने बीबीसी से कहा, ‘यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि लोगों की राय को बदलने में पत्रकारिता की भूमिका कितनी अहम है और सरकार इसे कितना ख़तरनाक मानती है।’
बता दें कि 2024 वल्र्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में 180 दिशों की सूची में से तुर्की 158 वें स्थान पर है।
एविन बरिश आल्तिन्तस मीडिया एंड लॉ स्टडीज एसोसिएशन की अध्यक्ष हैं। मीडिया एंड लॉ स्टडीज एक ऐसा संगठन है जो तुर्की में हिरासत में लिए गए पत्रकारों की मदद करता है।
वह इस बात से सहमत है कि गिरफ्तारियां पत्रकारों के काम को दबाने और उनकी रिपोर्टिंग को प्रतिबंधित करने के लिए की जा रही है और इसके लिए सरकार अदालतों का इस्तेमाल कर रही है।
उन्होंने बीबीसी को बताया, ‘इन गिरफ्तारियों से दूसरे पत्रकारों पर भी नकरात्मक असर पड़ेगा, लेकिन इससे डरे बिना वे अपने काम को करना जारी रखेंगे।’
जैसे-जैसे तुर्की में विरोध प्रदर्शन तेज होते गए, वैसे-वैसे पुलिस ने पेपर स्प्रे और पानी की बौछारों से इसका जवाब देना शुरू कर दिया। इस दौरान सुरक्षा बलों के हाथों पत्रकारों के साथ बदतमीजी की भी अनेक खबरें सामने आई।
धार्मिक आजादी पर रिपोर्ट जारी करने वाला अमेरिकी कमीशन, अमेरिकी सरकार की एक सलाहकार संस्था है. यह दुनियाभर में धार्मिक आजादी पर नजर रखता है और अपने अध्ययन के हिसाब से अमेरिकी सरकार को नीतिगत सलाह देता है.
इस आयोग ने भारत की खुफिया एजेंसी रॉ पर विदेशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने का आरोप लगाया है। अंतरराष्ट्रीय धार्मिक आजादी पर अमेरिकी कमीशन की एक रिपोर्ट में यह आरोप लगाते हुए रॉ पर कठोर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की गई है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति खराब हो रही है।
यह रिपोर्ट 2024 में दुनिया भर में धार्मिक आजादी पर पड़े असर के बारे में बात करती है। मंगलवार को जारी की गई इस रिपोर्ट में 16 देशों को कंट्रीज ऑफ पर्टिकुलर कंसर्न यानी ऐसे देश कहा गया है जहां धार्मिक स्वतंत्रता की हालत बहुत ज्यादा खराब है। इन देशों में नॉर्थ कोरिया और पाकिस्तान के साथ, भारत, चीन, रूस और ईरान जैसे देशों को भी शामिल किया गया है।
इससे निचली श्रेणी स्पेशल वॉच लिस्ट में 12 देश शामिल किए गए हैं। स्पेशल वॉच लिस्ट में ऐसे देश हैं, जिनमें धार्मिक आजादी पर काफी खतरा है लेकिन यह खतरा कंट्रीज ऑफ पर्टिकुलर कंसर्न जितना नहीं है। इन 12 देशों में अल्जीरिया, मिस्र और इंडोनेशिया जैसे देश हैं। देशों के अलावा कुछ संगठनों को भी धार्मिक आजादी के लिए गंभीर खतरा बताया गया है। एंटिटीज ऑफ पर्टिकुलर कंसर्न की इस लिस्ट में अल-शबाब, बोको हराम और तालिबान जैसे आतंकी संगठनों के नाम हैं।
तुर्की में राष्ट्रपति रेचेप तैयप्प अर्दोआन के प्रमुख राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी इकरम इमामोअलू की गिरफ़्तारी के बाद बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हो रहे हैं।
प्रदर्शनकारी छठी रात भी उनके खिलाफ डटे रहे। जबकि अर्दोआन ने कहा है कि विपक्षी दल ‘हिंसक आंदोलन’ को हवा दे रहे हैं।
प्रदर्शन पिछले बुधवार को इंस्ताबुल में शुरू हुए थे। प्रदर्शनकारी इंस्ताबुल के मेयर और अर्दोआन के प्रमुख राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी इकरम इमामोअलू की गिरफ़्तारी के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे।
इकरम इमामोअलू ने कहा है कि उनके खिलाफ लगाए गए आरोप राजनीति से प्रेरित हैं। जबकि अर्दोआन ने कहा कि इमामओलू झूठ बोल रहे हैं।
तुर्की के मुख्य विपक्षी दल रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी (सीएचपी) ने रविवार को इमामोअलू को अपना राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित किया है।
पार्टी ने कहा है उनका प्रदर्शन मंगलवार को ख़त्म होगा। हालांकि उसने ये नहीं बताया कि आंदोलन के दौरान उसका अगला कदम क्या होगा।
तुर्की में क्यों हो रहे हैं प्रदर्शन
इमामोअलू विपक्षी रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी के सबसे बड़े नेता और इंस्ताबुल के मेयर हैं।
उन्हें अर्दोआन के सबसे ताक़तवर प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखा जाता है। 23 मार्च को अर्दोआन सरकार ने उनके ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार और चरमपंथी समूह को मदद करने का आरोप दाखिल किया।
प्रदर्शनकारियों ने इमामोअलू की हिरासत को गैरक़ानूनी और राजनीति से प्रेरित बताया है।
इमामोअलू ने अपनी गिरफ़्तारी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सोशल मीडिया पर लिखा, ‘ये लोगों की इच्छा पर की गई चोट है। मुझे गिरफ़्तार करने सैकड़ों पुलिसकर्मी मेरे दरवाजे पर पहुंच गए। लेकिन मुझे लोगों पर भरोसा है।’
हालांकि अदालत ने कुर्दिश राष्ट्रवादी संगठन पीकेके को समर्थन करने के आरोप में उनके खिलाफ दूसरा गिरफ़्तारी वारंट जारी करने से इंकार कर दिया है। पीकेके 1980 से ही तुर्की सरकार से लड़ रहा है।
तुर्की, अमेरिका और ब्रिटेन ने पीकेके को आतंकवादी संगठन घोषित करने के बाद इस पर प्रतिबंध लगा दिया है।
-जय सुशील
लिखने या लेखक होने का अर्थ सिर्फ झंडा लेकर खड़ा होना नहीं होता। जिन लोगों को ये लग रहा है कि विनोद कुमार शुक्ल ने अन्याय, शोषण आदि आदि आदि (जो उनके कथित मुद्दे हैं) उन पर नहीं लिखा, उनके लिए ज़रूरी है कि वे दोबारा विनोद कुमार शुक्ल को ठीक से पढ़ें.
अगर उन्हें विनोद जी के उपन्यासों में कविताओं में आम आदमी का जीवन नहीं दिखता है तो यह उनकी समस्या है विनोद जी की नहीं. नौकर की कमीज में अगर आपको पूंजीवाद से पीडि़त एक ऐसा व्यक्ति नहीं दिखता तो जो नौकरी की कमीज उतार कर अपना जीवन जीने की कोशिश करता है या फिर दीवाल में खिडक़ी रहती है में आपको यह नहीं दिखता कि वह करोड़ों भारतीयों का जीवन है (बिना किसी महागाथा के जैसा कि अंग्रेजी के उपन्यासों में होता है) तो फिर दिक्कत आपके पढऩे में है। लिखने वाले में नहीं।
असल में समस्या कुछ और है. दिक्कत हिंदी की है जिसके सबसे महान लेखक प्रेमचंद को लोगों ने गरीब गुरबों शोषितों का लेखक बनाकर एक लकीर खींच दी है कि हिंदी में लेखक वही होगा जो गरीबों के हक के लिए लड़ेगा लिखेगा। साहित्य की यह उथली समझ है। इसका कुछ नहीं किया जा सकता है।
साहित्य क्या है। हम रचते क्यों हैं। यह मूल प्रश्न है। लिखने वाला ज़रूरी नहीं कि झंडे और डंडे के ज़रिए ही अपनी समझ को रेखांकित करे। अफ्रीकी लेखक न्गूगी वा थियोंगो और चिनुआ अचेबे के उदाहरण से समझिए। न्गूगी रैडिकल लेखक हुए। वह अचेबे की भी आलोचना करते थे। न्गूगी के लेखन में आपको विरोध ही विरोध मिलेगा।
अचेबे कालजयी लेखक हुए। उनका लेखन मुलायम है। थिंग्स फॉल अपार्ट में वह अंग्रेज़ों का नाम लिए बिना पूरी किताब लिख देते हैं जिसे अंग्रेजी साम्राज्य के दुष्प्रभाव की कटुतम आलोचनाओं में गिना जाता है। इससे कोई छोटा बड़ा नहीं हो गया। दोनों बड़े लेखक हुए।
साहित्य क्या है। हम रचते क्यों हैं। हमारे रचे में क्या होता है। यह सब निर्भर करता है कि लेखक किस ज़मीन पर खड़ा है। दिल्ली का लेखक ज़रूरी नहीं वो लिखे जो छत्तीसगढ़ का लेखक लिखता है। कानपुर के लेखक की जमीन और कोलकाता के लेखक की ज़मीन और दुनिया की समझ अलग-अलग होगी। हर किसी को इस डंडे से क्यों हांकना कि मोदी के ख़िलाफ क्यों नहीं लिखा क्योंकि मैं तो मोदी के खिलाफ हूं तो आपको भी होना चाहिए।
एक सस्ते इतिहासकार ने दो तीन साल पहले ऐसे ही मूर्खतापूर्ण बात कही थी विनोद जी के बारे में। जबकि वह खुद विनोद जी के साथ फोटो खिंचवा कर फेसबुक पर लगा चुके थे।
साहित्य क्या है इस पर शम्सुर्रहमान फारूकी जी का एक लेक्चर है जो सुना जाना चाहिए। जिसका लब्बोलुआब यह है कि लिटरेचर होता क्यों है रचा क्यों जाता है। जब पूंजीवाद नहीं था तब भी लिटरेचर लिखा जा रहा था। जब लोग कंदराओं गुफाओं में रह रहे थे तब भी कविताएं बोली सुनी जा रही थीं। तब गरीब गुरबा शोषित कौन था? जानवर या इंसान।
राजाओं के तारीफ़ में लिखे हज़ारों पन्ने हैं साहित्य में। जिन्हें महान साहित्य माना ही जाता है। कालिदास ने तो मेघदूत और शाकुंतलम लिखा। वह किसी के विरोध में नहीं थे तो उन्हें कूड़ा कवि मान लेने में एतराज़ नहीं होना चाहिए? दुनिया कार्ल माक्र्स या स्टेट सिस्टम के आने के बाद से ही शुरू नहीं हुई है। उससे पहले भी दुनिया थी। राजा-महाराजाओं से पहले भी यह कायनात थी लोग थे, कविताएं थीं, कहानियां थीं।
इसलिए साहित्य की इस उथली समझ से बाहर निकलना चाहिए और देखना चाहिए कि लिखने वाला जो लिख रहा है उससे आपके अंदर कुछ नया कंपित हो रहा है या नहीं।
-संजीव कुमार
बात है 1958 की साउथ कैलिफोर्निया लॉस एंजेलिस में एक इंडियन म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट की एक बहुत फेमस दुकान हुआ करती थी। वह पूरे अमेरिका में इकलौती दुकान थी जहां ऑथेंटिक इंडियन म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट्स मिला करते थे। उस दुकान के मालिक हुआ करते थे डेविड बर्नार्ड।
एक दिन 35/ 36 साल का भारतीय युवा उस दुकान में आया और बड़े गौर से उन साज़ों को देखने लगा, साधारण वेशभूषा वाला यह आदमी वहां की सेल्स गर्ल्स को वहां के स्टाफ को कुछ अट्रैक्ट नहीं कर पाया।
फिर भी एक सेल्सगर्ल क्रिस्टीना उसके पास आकर बोली बताइए मैं क्या मदद कर सकती हूं। उस नौजवान ने सितार दिखने की मांग की, क्रिस्टीना ने उसे वहीं मौजूद सितारों का एक पूरा कलेक्शन दिखा दिया।
उस नौजवान को एक सितार खासतौर पर पसंद आ गया, और उसने कहा कि वह जरा उतार दीजिए उतारना कोई मुश्किल थी, क्रिस्टीना ने टालने की कोशिश की, लेकिन नौजवान जिद पर अड़ गया कि उसे वही सितार जो ऊपर शेल्फ में रखा है वही देखना है, तब तक दुकान के मालिक डेविड आ गए नौजवान की बात को सुना समझा और उनके आदेश पर सितार उतार दिया गया।
क्रिस्टीना बोली इसे बॉस सितार कहा जाता है, और आम सितार वादक इसे बजा नहीं सकते हैं, यह बहुत बड़े बड़े शो में इस्तेमाल होते हैं। वह नौजवान बोला आप उसे बॉस सितार कहते हैं मगर हम इसे सुरबहार सितार के नाम से जानते हैं। क्या मैं बजा कर देख सकता हूं, डेविड ने उस नौजवान का दिल नहीं तोड़ा, और बजाने की सहमति दी।
उस नौजवान ने सितार को ट्यून किया और बैठ गया और फिर उसने बजाना शुरू किया ऐसा बजाया ऐसा बजाया, कि आसपास के लोग भी वहां जमा हो गए, जब सितार उन्होंने बंद किया तो सन्नाटा छा गया था लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि वह ताली बजायें या मौन रहें। इतना सुन्दर संगीत उन्होंने पहले नहीं सुना था।
स्टैंड अप एक्ट पर उठे विवाद के बाद कुणाल कामरा ने कहा कि है कि वह महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के लिए की गई टिप्पणियों पर माफ़ी नहीं मांगेंगे।
कामरा ने सोमवार को एक बयान जारी कर, जिस जगह कॉमेडी शो को रिकॉर्ड किया गया था, वहां हुई तोडफ़़ोड़ की आलोचना की।
कामरा के माफ़ी न मांगने के बयान के बाद शिवसेना (शिंदे) की प्रतिक्रिया भी आई है।
पार्टी के नेता और महाराष्ट्र सरकार में मंत्री गुलाब रघुनाथ पाटिल ने मंगलवार को पत्रकारों को बताया, ‘वो माफ़ी नहीं मांगेगे तो हम अपने स्टाइल से उन्हें बताएंगे। वो माफ़ी नहीं मांगता है तो बाहर तो आएगा? कहाँ छिपेगा? सरकार क्या करेगी ये तो मुख्यमंत्री ने बता दिया है, शिवसेना अपना रुख़ अपनाएगी।’
पाटिल ने कहा कि वो अपनी पार्टी के नेता अपमान सहन नहीं करेंगे।
36 वर्षीय कॉमेडियन ने अपने एक ताज़ा शो में एक लोकप्रिय हिंदी फि़ल्म के गाने की पैरोडी बनाकर शिंदे के राजनीतिक करियर पर कटाक्ष किया था जिसके बाद महाराष्ट्र में एक बड़ा राजनीतिक तूफ़ान खड़ा हो गया।
कुणाल कामरा ने शो की रिकॉर्डिंग रविवार को अपने यूट्यूब चैनल पर पोस्ट की थी। इस पोस्ट को अब तक 34 लाख से अधिक बार देखा जा चुका है।
लेकिन शिव सेना (शिंदे) के कार्यकर्ताओं ने रिकॉर्डिंग की जगह तोड़ फोड़ की थी और कामरा को माफ़ी मांगने या नतीजे भुगतने की धमकी दी है।
लंबे अंतराल के बाद कुणाल कामरा ने ये वीडियो डाला है। उन्होंने अपना पिछला वीडियो पांच महीने पहले पोस्ट किया था।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा, ‘कामरा को अपनी 'निम्न स्तरीय कॉमेडी' के लिए माफ़ी मांगनी चाहिए।’
कुणाल कामरा ने बयान में क्या कहा
हंगामे, तोडफ़ोड़ और धमकियों के 24 घंटे बाद कुणाल कामरा ने एक्स पर एक लंबा बयान जारी किया।
इसमें उन्होंने लिखा, ‘मैं माफ़ी नहीं मागूंगा। मैंने ठीक वही कहा जो अजित पवार (प्रथम उप मुख्यमंत्री) ने एकनाथ शिंदे (दूसरे उप मुख्यमंत्री) के बारे में कहा था। मैं इस भीड़ से नहीं डरता और मैं बिस्तर के नीचे छिपकर मामला शांत होने का इंतज़ार नहीं करूंगा।’
उन्होंने लिखा, ‘एंटरटेनमेंट वेन्यू महज एक प्लेटफ़ॉर्म है। यह हर किस्म के शो का मंच है। हैबिटेट (या कोई भी जगह), मेरी कॉमेडी के लिए जि़म्मेदार नहीं है, और जो भी मैं कहता या करता हूं, उस पर उसका कोई अधिकार या नियंत्रण नहीं है। ना ही किसी और पार्टी का कोई अधिकार है। एक कॉमेडियन के कहे शब्दों के लिए किसी जगह को नुकसान पहुंचाना, वैसी ही नासमझी है जैसे अगर आपको चिकन नहीं परोसा जाता तो आप टमाटर के ट्रक को पलट दें।’
सबक सिखाने की धमकी देने वाले नेताओं को संबोधित करते हुए कुणाल कामरा ने लिखा, ‘बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार केवल ताक़तवर और धनी लोगों की चापलूसी के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए, भले ही आज के मीडिया ने हमें ऐसा ही बताया हो। एक ताक़तवर शख़्सियत की क़ीमत पर एक मज़ाक को बर्दाश्त करने की आपकी अक्षमता, मेरे अधिकार की प्रकृति को नहीं बदलती। जहां तक मुझे पता है, हमारे नेताओं और राजनीति तंत्र के तमाशे का मज़ाक उड़ाना क़ानून के ख़िलाफ़ नहीं है।’
‘हालांकि मेरे ख़िलाफ़ किसी भी क़ानूनी कार्यवाही के लिए मैं पुलिस और कोर्ट का सहयोग करने को तैयार हूं। लेकिन क्या उन लोगों पर भी निष्पक्ष और बराबर क़ानून लागू होगा, जिन्होंने एक कॉमेडी से आहत होकर तोडफ़ोड़ को एक वाजिब प्रतिक्रिया मान लिया? क्या ये बिना चुने हुए नगर निगम के सदस्यों पर भी लागू होगा जो आज बिना किसी पूर्व सूचना के हैबिटेट पर पहुंचे और हथौड़ों से उस जगह को तोड़ डाला?’
‘शायद मेरा अगला वेन्यू एलफिंस्टन ब्रिज होगा या मुंबई में कोई और जगह, जिसको ढहाने की सख़्त ज़रूरत है।’
बयान में कामरा ने उन लोगों पर भी निशाना साधा है जिन्होंने उनका नंबर लीक किया, ‘जो लोग मेरा नंबर लीक करने या लगातार मुझे कॉल करने में व्यस्त हैं, उनके लिए: मुझे यक़ीन है कि आपको अबतक पता चल गया होगा कि अनजान कॉल्स मेरे वाइसमेल में जा रहे हैं, जहां आपको वो गाना सुनाई देगा, जिससे आपको नफऱत है।’
और मीडिया को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘इस तमाशे की ईमानदारी से रिपोर्टिंग करें। याद रखें कि प्रेस की आज़ादी के मामले में भारत 159वें स्थान पर आता है।’
-जे के कर
हमने पाया कि छत्तीसगढ़ के अधिकांश शहरों में लेट्रोजोल नामक कैंसर की दवा को पुरूष तथा महिला बांझपन के लिये दवा कंपनियों द्वारा प्रचारित किया जा रहा है. जानकर आश्चर्य हुआ कि किस तरह से एक ही दवा पुरूष तथा महिला बांझपन के रोग में कारगार हो सकता है. हालांकि, मालूमात करने पर पता चला कि रायपुर एम्स के बाहर के दवा दुकानों में इसे केवल कैंसर के मरीज ही पर्ची लेकर लेने आते हैं. मूल रूप से लेट्रोजोल महिलाओं के स्तन कैंसर की दवा है. यूएसएफडीए भी इसे कैंसर की दवा मानता है. इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस दवा को पुरूष बांझपन के लिये पूरे देश में पेश तथा प्रचारित किया जा रहा है.
बता दें कि करीब दो दशक पहले हमारे देश में इस लेट्रोजोल दवा को एक भारतीय दवा कंपनी द्वारा महिला बांझपन के लिये प्रचारित किया जा रहा था. उस समय प्रतिष्ठित ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में इसको लेकर लेख भी प्रकाशित हुआ था. जिसमें भारत के मिम्स (मंथली इंडेक्स आफ मेडिकल स्पेशियालिटी) पत्रिका के संपादक सी एम गुलाजी ने कहा था कि अस्वीकृत उपयोग के लिये दवा को प्रचारित करना गैर-कानूनी है तथा इसके लिये जुर्माने एवं दंड का प्रावधान है. इसको लेकर दवा क्षेत्र के जानकारों ने अपना विरोध भी दर्ज कराया था. आखिरकार, 12 अक्टूबर 2011 में इस इंडीकेशन पर रोक लगा दी गई. कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने इसे 'आफ लेबल यूस' कहकर मामले को हल्का करने की कोशिश की. दरअसल, इस दवा का बिना अनुमति के गैर-कानूनी रूप से क्लीनिकल ट्रायल किया जा रहा था, देश की महिलाओं को गिनीपिग समझकर.
बाद में साल 2017 को Indian Council for Medical Research (ICMR) तथा Drugs Technical Advisory Board (DTAB) ने गहरी छानबीन तथा भारत में इसके उपयोग के आंकड़ों के आधार पर इस दवा को महिलाओं के बांझपन की दवा के रूप में अंततः इसके ऑफ-लेबल उपयोग पर कुछ छूट दी, बशर्ते डॉक्टर मरीजों को जोखिमों के बारे में स्पष्ट रूप से सूचित करें तथा इसका उपयोग केवल योग्य प्रजनन विशेषज्ञों (fertility specialists) द्वारा किया जाये. लेकिन अचानक से इसे पुरूष बांझपन के लिये प्रचारित करना तथा इसकी पर्ची लिखवाना हमारी समझ से परे हैं. हमने पाया कि इस लेट्रोजोल दवा के ब्रांड लीडर कंपनी के दवा के बक्से के साथ दी जाने वाली जानकारी में भी पुरूष बांझपन का कहीं उल्लेख नहीं है. इसे केवल स्तन कैंसर तथा महिला बांझपन की दवा बताया गया है.
बता दे कि CDSCO याने Central Drugs Standard Control Organisation ने अपने सूची में 2922 नंबर पर इसे महिला बांझपन के लिये अतिरिक्त दवा (for additional indication) की मान्यता दी है. दरअसल यह रजोनिवृत्ति वाले महिलाओं के स्तन कैंसर की दवा है. तो क्या दवा कंपनियों के द्वारा किये जाने वाले आडियो-विजुअल प्रेजेंटेशन या फोल्डर में पुरुष बांझपन की दवा होना बताया जा है. यदि यह सच है तो माना जाना चाहिये कि लेट्रोजोल दवा का पुरुष बांझपन पर अनैतिक क्लिनिकल ट्रायल किया जा रहा है या लेट्रोजोल का आफ लेबल यूस का प्रमोशन किया जा रहा है.
सबसे दिक्कत की बात है कि जब दवा कंपनियां चिकित्सक के कमरे में आडियो-विजुएल प्रमोशन करती है तो वहां पर ड्रग कंट्रोलर जनरल आफ इंडिया की पहुंच नहीं होती है तथा उन्हें जानकारी भी नहीं मिल सकती है.
यदि लेट्रोजोल पर क्लिनिकल ट्रायल की अनुमति ली भी गई है तो इसकी जानकारी चिकित्सकों एवं मरीजों को होना चाहिये जोकि नहीं हो रहा है. द्वितीय विश्वयुद्ध के समय नाजी चिकित्सकों के द्वारा कैदियों पर किये गये अनैतिक क्लिनिकल ट्रायल्स के बाद बनी 'न्यूरेमबर्ग कोड आफ क्लिनिकल ट्रायल्स' का मुख्य लब्बोलुआब यह है कि किसी भी क्लिनिकल ट्रायल के लिये मरीजों की सहमति आवश्यक है तथा उन्हें इस बात की जानकारी दी जानी चाहिये. क्या हमारी आवाज केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय तक पहुंच पायेगी.
-दिलनवाज पाशा
अमेरिका की एक अदालत ने हिरासत में लिए गए भारतीय मूल के शोध छात्र बदर ख़ान सूरी के प्रत्यर्पण पर अपने अगले आदेश तक रोक लगा दी है।
बुधवार को वर्जीनिया के एलेक्सेंड्रिया की डिस्ट्रिक्ट जज पेट्रीसिया गाइल्स ने ट्रंप प्रशासन के बदर ख़ान सूरी को वापस भारत भेजने के प्रयासों को रोक दिया था।
जज ने यह आदेश बदर ख़ान सूरी की पत्नी मफ़ाज़ यूसुफ़ सालेह की याचिका पर दिया था।
अमेरिका के होमलैंड सिक्योरिटी विभाग (डीएचएस) ने 17 मार्च को बदर ख़ान सूरी को फ़लस्तीनी संगठन हमास से संबंधों के आरोप में हिरासत में लिया था।
बदर ख़ान सूरी वॉशिंगटन डीसी की जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी में शोधार्थी हैं। उनकी पत्नी मफ़ाज़ सालेह फ़लस्तीनी मूल की अमेरिकी पत्रकार हैं। मफ़ाज़ कई सालों तक भारत में भी रही हैं।
भारतीय विदेश मंत्रालय ने इस मामले पर कहा है कि उसे मीडिया रिपोर्ट से ही इस मामले के बारे में पता है और ना ही सूरी और ना ही उनके परिवार ने मदद के लिए कोई संपर्क किया है।
पत्नी मफ़ाज़ से कैसे हुई मुलाक़ात?
बदर ख़ान की मुलाक़ात अपनी पत्नी मफ़ाज़ सालेह से गज़़ा में एक मानवीय यात्रा के दौरान साल 2011 में हुई थी।
इस यात्रा में जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के कई छात्रों समेत भारत के कई कार्यकर्ता शामिल थे, जो कई देश होते हुए गज़़ा पहुंचे थे।
इस यात्रा का मक़सद फ़लस्तीनी मुद्दों के लिए जागरूकता पैदा करना था। भारतीय अभिनेत्री स्वरा भास्कर भी तब इसका हिस्सा थीं। इसके अलावा भारत के कई और कार्यकर्ता इसमें शामिल हुए थे।
इस यात्रा से लौटने के बाद बदर अपने पिता के साथ दोबारा गज़़ा गए थे और वहां मफ़ाज़ से निकाह किया था।
शादी के बाद, बदर ख़ान सूरी और सालेह साल 2013 से भारत में रह रहे थे और कऱीब डेढ़-दो साल पहले अमेरिका चले गए थे।
कम बोलने वाले गंभीर छात्र
बदर ख़ान सूरी ने दिल्ली की जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के नेल्सन मंडेला सेंटर फ़ॉर पीस एंड कॉनफ्लिक्ट रिज़ोल्यूशन सेंटर से एमए किया है और इसी संस्थान से पीएचडी भी की है।
उन्होंने ‘ट्रांज़ीशन डेमोक्रेसी, डिवाइडेड सोसाइटीज़ एंड प्रोस्पेक्ट्स फ़ॉर पीस: ए स्टडी ऑफ़ स्टेट बिल्डिंग इन अफग़़ानिस्तान एंड इराक़' शीर्षक से थीसिस लिखी थी। अपने इस शोध पत्र में उन्होंने नस्लीय रूप से बंटे हुए और संघर्ष का सामना कर रहे राष्ट्र में लोकतंत्र स्थापित करने की चुनौतियों का अध्ययन किया था और तर्क दिया था कि ऐसे प्रयास पहले से मौजूद सामाजिक-बंटवारों के कारण कमज़ोर हो जाते हैं।
बदर ख़ान सूरी का परिवार मूल रूप से उत्तर प्रदेश के सहारनपुर का रहने वाला है, लेकिन फि़लहाल दिल्ली में रहता है। उनके पिता खाद्य विभाग में इंस्पेक्टर थे और अब रिटायर हो चुके हैं।
बदर के साथ जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पढऩे वाले उनके सहपाठी आमिर ख़ान बताते हैं, ‘वो आमतौर पर ख़ामोश रहने वाले एक गंभीर छात्र हैं। वो स्ट्रीट प्रोटेस्ट में हिस्सा नहीं लेते, लेकिन फ़लस्तीनी मुद्दों पर उनके अपने विचार हैं।’
आमिर के मुताबिक़, बदर ख़ान यूं तो बहुत कम बोलते हैं लेकिन जब बोलते हैं तो बहुत गंभीरता से अपनी बात रखते हैं।
बदर ख़ान सूरी इस समय वॉशिंगटन की जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ़ फ़ॉरेन सर्विस के अलवलीद बिन तलाल सेंटर फ़ॉर मुस्लिम क्रिश्चियन अंडरस्टेंडिंग में पोस्ट डॉक्टेरल फ़ैलो हैं।
बदर ख़ान सूरी एक वैध छात्र वीज़ा पर अमेरिका में दाख़िल हुए थे और जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी में अध्यापन कार्य भी कर रहे थे। उनके शोध का फ़ोकस अफग़़ानिस्तान और इराक़ में शांति स्थापित करने के प्रयास हैं।
क्यों लिया गया हिरासत में?
अमेरिका के होमलैंड सिक्योरिटी विभाग ने 17 मार्च यानी बीते सोमवार की रात वर्जीनिया के अर्लिंगटन में उनके घर के बाहर से उन्हें हिरासत में ले लिया था।
डीएचएस और इमिग्रेशन एंड कस्टम्स एंफ़ोर्समेंट (आईसीई) के नक़ाबधारी एजेंटों ने जब उन्हें हिरासत में लिया, तब उनकी पत्नी भी उनके साथ मौजूद थीं।
ट्रंप प्रशासन ने उन पर सोशल मीडिया के ज़रिए ‘हमास का प्रोपागेंडा’ फैलाने और ‘पहचाने हुए या संदिग्ध आतंकवादी’ से संपर्क के आरोप लगाए हैं।
फॉक्स न्यूज़ को दिए एक बयान में अमेरिकी अधिकारियों ने कहा था कि सूरी के हमास से संपर्क हैं और वो सोशल मीडिया पर एंटीसेमीटिक यानी यहूदी विरोधी कंटेंट शेयर कर रहे थे।
मीडिया को दिए गए बयान में अमेरिकी अधिकारियों ने कोई सबूत तो नहीं दिया, लेकिन ये ज़रूर कहा कि अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने आदेश दिया था कि बदर ख़ान सूरी को अमेरिका से वापस भेज दिया जाना चाहिए। सूरी पर यहूदियों के खिलाफ भावनाओं को बढ़ावा देने के आरोप भी लगाए हैं।
बदर ख़ान सूरी को फि़लहाल लूसियाना के एक हिरासत केंद्र में रखा गया है। ये जानकारी बदर ख़ान सूरी के अधिवक्ता ने दी है।
-हृदयेश जोशी
सूचना का अधिकार एक आम नागरिक को वह ताकत देता है जो चुने हुए जन प्रतिनिधि - कोई विधायक या सांसद - के पास है। जैसे जन प्रतिनिधि संसद या विधानसभा में सरकार से उसके काम के बारे में सवाल पूछ सकते हैं वैसे ही एक आम नागरिक सरकार की किसी भी योजना, उसके बनाये कोई भी कानून या किसी एक्शन के बारे में सरकार से सवाल कर सकता है। सूचना का अधिकार कानून दो दशक पहले 2005 में लागू हुआ तब से लगातार सरकार चला रहे मंत्रियों और नौकरशाहों पर इसने एक लगान की तरह काम किया है। आज देश में हर साल करीब 60 लाख आरटीआई अजिऱ्यां फाइल की जाती हैं और भ्रष्टाचार और शासन में खामियां उजागर करने में यह कारगर रहा है। यह दूसरी बात है कि पिछले कुछ सालों में सूचना अधिकार कानून को कमज़ोर करने की कोशिशें लगातार हुई हैं लेकिन डिजिटल डाटा प्रोटेक्शन क़ानून की एक धारा सूचना अधिकार कानून को पूर्णत: निष्प्रभावी कर देती है।
कई ट्रांसपरेंसी एक्टिविस्ट्स और सामाजिक संगठनों ने अब इस पर एक देशव्यापी आंदोलन चलाने की घोषणा की है ताकि सूचना अधिकार कानून में संशोधन को वापस लिया जाये। इन संगठनों ने कानून में बदलाव से होने वाले ख़तरों के बारे में शिक्षित करने के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों को आमंत्रित भी किया है। रणनीति सरकार पर डिजिटल डाटा प्रोटेक्शन कानून की वह धारा वापस लेने का दबाव बनाना है जो सूचना का अधिकार छीनती है। लेकिन पहले यह जानना ज़रूरी है कि आखिर डाटा प्रोटेक्शन कानून की वह धारा क्या है जो सूचना अधिकार कानून को बेकार कर देती है। अगस्त 2023 में मोदी सरकार ने डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन एक्ट डीपीडीपी एक्ट को संसद से पास कराया। यह कानून लोगों के निजी डिजिटल डाटा के प्रोटेक्शन के लिए लाया गया है ताकि कोई आपका डाटा जैसे नाम, फोटो, पता, जन्मतिथि, ड्राइविंग लाइसेंस या आधार नंबर आदि जानकारी को इक_ा या उसका दुरुपयोग न कर सके। इस कानून के तहत निजी डेटा को किसी व्यक्ति की सहमति पर केवल वैध उद्देश्य के लिए ही प्रोसेस किया जा सकता है। हालांकि केंद्र सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था और अपराधों की रोकथाम जैसे ग्राउंड्स पर सरकारी एजेंसियों को विधेयक के प्रावधानों से छूट दे सकती है।
आज नागरिकों का बहुत सारा डाटा सार्वजनिक स्पेस में है और कई बार बेवजह मांगा और इस्तेमाल किया जाता है और उसकी कोई प्रभावी सुरक्षा की व्यवस्था नहीं है। ऐसे में सिद्धांत रूप में डीपीडीपीए एक उपयोगी और बहुत आवश्यक क़ानून है लेकिन इस कानून की एक धारा से पारदर्शिता समाप्त होने का ख़तरा है। असल में सूचना अधिकार कानून की धारा 8 (1) (द्भ) में यह प्रावधान है कि आरटीआई एक्ट के तहत कोई निजी जानकारी नहीं मांगी जा सकती जब तक कि उसका संबंध जनहित से न हो क्योंकि वह अनावश्यक रूप से निजता का हनन है। मिसाल के तौर पर किसी अस्पताल में इलाज करा रहे किसी अधिकारी को क्या रोग है और वह क्या दवा खा रहा है यह उसकी व्यक्तिगत जानकारी है और इससे जनहित का कोई लेना देना नहीं है। इस प्रावधान का उद्देश्य है कि सूचना का अधिकार संरक्षित करते हुए किसी की प्राइवेसी का बेवजह हनन न हो। यानी सूचना अधिकार की यह धारा सूचना और निजता के अधिकारों के बीच एक संतुलन बिठाती है।
लेकिन अब डीपीडीपी एक्ट की धारा 44 (3) के ज़रिए किया गया संशोधन निजी जानकारी को हासिल करने पर पूरी तरह रोक लगाता है और सारा विवाद इसी कारण है।सरकार ने भले ही संसद में कहा हो कि डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन कानून का उद्देश्य आवश्यक विवरण और कार्रवाई योग्य रूपरेखा प्रदान करके डिजिटल व्यक्तिगत डेटा की सुरक्षा के लिए कानूनी ढांचे को मजबूत करना है।लेकिन इस प्रक्रिया में क्या वह निजता में दखल के सारे अधिकार अपने पास रखकर जनहित के लिए ज़रूरी निजी जानकारी को मांगने का सार्वजनिक अधिकार जनता से नहीं छीन रही। महत्वपूर्ण है कि सरकार ने इस कानून से जुड़े नियम, यानी एक्सक्यूटिव रूल्स तो बना दिये हैं लेकिन इसे अभी नोटिफाइ नहीं किया है। यानी अभी यह कानून प्रभावी नहीं हुआ है।