विचार / लेख

जेन-जी के लडक़े-लड़कियों की राजनीतिक राय में बड़ा फर्क
04-Jun-2025 10:53 PM
जेन-जी के लडक़े-लड़कियों की राजनीतिक राय में बड़ा फर्क

नए दौर के युवा राजनीति को अलग-अलग नजरिए से देख रहे हैं। लडक़े और लड़कियों की राय में फर्क है। यह अंतर ना केवल राजनीति बल्कि समाज पर भी असर डाल रहा है।

 डॉयचे वैले पर सोनम मिश्रा का लिखा-

दूसरी पीढिय़ों के साथ तो जेन-जी (90 के दशक के मध्य के बाद जन्मे लोग) के मतभेद व्यापक है ही, हाल में हुए चुनावों में जेन-जी का आपसी मतभेद भी खुलकर सामने आ रहा है। अधिकतर युवकों का झुकाव दक्षिणपंथी विचारों की ओर है जबकि युवतियां वामपंथी विचारों का समर्थन करती नजर आ रही हैं।

यह अंतर ना केवल किसी एक देश में, बल्कि एशिया समेत पश्चिमी देशों में भी साफ देखा जा रहा है। पर्यवेक्षकों के अनुसार युवा पुरुष खुद को पिछड़ा हुआ महसूस करते हैं, जिसके लिए वह विविधता को जिम्मेदार मानते हैं। वहीं, युवा महिलाओं का मानना है कि अब नौकरी के अवसरों में समानता आ रही है।

दक्षिण कोरिया चुनाव में महिलाओं का आक्रोश

उम्मीद की जा रही है कि दक्षिण कोरिया के आगामी चुनावों में युवा महिलाएं मुख्य रूढि़वादी पार्टी के खिलाफ मतदान कर सकती हैं। महीनों से चल रहे उथल-पुथल का नतीजा 3 जून को होने वाले चुनाव के नतीजों में दिख सकता है।

फैशन : विंटेज खजाने की खोज में जेन जी

हालांकि युवा पुरुष इस विरोध में उनका साथ देंगे, ऐसे आसार बहुत कम हैं। कोविड महामारी से पहले तक आमतौर पर दोनों ही वर्ग प्रगतिशील विचारों के लिए वोट करते थे, लेकिन अब यह बदल गया है। हाल के चुनावों में, चाहे उत्तरी अमेरिका हो, यूरोप या एशिया, यह बदलाव साफ दिख रहा है। युवा पुरुष, खासतौर पर 20 साल की उम्र के आस-पास वाले, दक्षिणपंथ का रुख कर रहे हैं। जबकि, युवतियों का झुकाव वामपंथ की ओर है।

पहली बार वोट देने जा रहे दक्षिण कोरियाई युवा, ली जियोंग-मिन ने बताया कि वह 3 जून को राइट-विंग रिफॉर्म पार्टी के उम्मीदवार, ली जून-सिओक को वोट देने वाले हैं।

उम्मीदवार, ली जून-सिओक ने लैंगिक समानता मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ जेंडर इक्वालिटी) को बंद करने का वादा किया है। यह वादा ली जियोंग-मिन जैसे पुरुषों को आकर्षित कर रहा है। उनका मानना है कि केवल पुरुषों के लिए सैन्य सेवा अनिवार्य होना ठीक नहीं है।

उन्होंने कहा, ‘एक युवक होने के नाते मुझे कोरिया का यह नियम बहुत गलत लगता है। जब हम 21 या 22 साल के होते हैं, तब हमें समाज में हिस्सा लेने का पूर्ण मौका नहीं मिल पाता है, क्योंकि उस समय हमें 18 महीने की अनिवार्य सैन्य सेवा करनी पड़ती है।’

युवा पीढ़ी के आलसी होने के आरोप गलत

दक्षिण कोरिया में गैलप कोरिया के किये गए सर्वे में सामने आया कि 18 से 29 वर्ष के लगभग 30 फीसदी पुरुष और केवल 3 फीसदी महिलाएं रिफॉर्म पार्टी का समर्थन करते हैं।

किंग्स कॉलेज लंदन की राजनीतिक अर्थशास्त्री, सूह्युन ली बताती हैं कि बहुत से दक्षिण कोरियाई युवा पुरुषों को लगता है कि वह समाज की अच्छी नौकरी पाना, शादी करना, घर खरीदना और परिवार बसाना जैसी उम्मीदों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं।

उनमें से कई पुरुष इसके लिए नारीवाद को जिम्मेदार मानते हैं। उनका तर्क है कि महिलाओं को नौकरियों में प्राथमिकता दी जाती है। ली ने बताया कि दक्षिण कोरिया में प्रवास काफी कम है। इसलिए अपनी नाकामयाबी का दोष वह आराम से महिलाओं पर मढ़ देते है।’

लोकतंत्र से नाराज गुस्सैल युवा पुरुष

दक्षिण कोरिया समेत कई लोकतांत्रिक देशों में जेन-जी पुरुषों को लग रहा है कि अब उनके पास पहले जैसी सामाजिक ताकत नहीं रही। महामारी के बाद से यह स्थिति अधिक गंभीर हो गई है। कुछ देशों में तो 20 साल के आसपास के युवाओं में वेतन का अंतर भी महिलाओं के पक्ष में अधिक हो गया है।

यूरोपिय संघ के आंकड़ों के अनुसार, फ्रांस में 18-34 साल के पुरुषों ने पिछले साल के चुनावों में दक्षिणपंथी नेता, मरीन ले पेन की पार्टी को महिलाओं की तुलना में अधिक दिया।  ब्रिटेन में भी युवा पुरुषों की तुलना में महिलाएं कंजर्वेटिव पार्टी को कम वोट करती हैं। सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि 16-24 वर्ष के पुरुष महिलाओं की तुलना में काम और पढ़ाई दोनों पीछे हैं।

पश्चिमी देशों में भी दक्षिण कोरिया जैसा ही चलन आमने आ रहा है। यहां युवक नौकरियों में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के लिए आप्रवासन और विविधता से जुड़े कार्यक्रमों को  जिम्मेदार ठहराते हैं।

जर्मनी में फरवरी में हुए आम चुनाव में प्रवासी विरोधी पार्टी ‘अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी’ (एएफडी) ने रिकॉर्ड 20.8 फीसदी वोट हासिल किए। युवा पुरुषों के समर्थन ने उन्हें मजबूती दी। हालांकि इस पार्टी की नेता खुद एक महिला हैं। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 18-24 साल के पुरुषों में से 27 फीसदी ने एएफडी को वोट दिया। जबकि 35 फीसदी युवा महिलाओं ने वामपंथी पार्टी, ‘लिंके’ का समर्थन किया।

बर्लिन की 18 वर्षीय वोटर, मॉली लिंच, ने लिंके को जलवायु परिवर्तन और आर्थिक असमानता पर उसके रुख की वजह से वोट दिया। उन्होंने कहा, ‘बहुत से युवा पुरुष दक्षिणपंथी प्रचार के झांसे में आ रहे हैं क्योंकि वह परेशान हैं। उन्हें लगता है कि वह अपनी ताकत खो रहे हैं। जबकि असल में वह महिलाओं पर उस ताकत को खो रहे हैं, जो कभी बराबरी की थी ही नहीं।’

यह विभाजन केवल जेन-जी तक सीमित नहीं है। बल्कि, मिलेनियल्स, जो अब 30 से 40 की उम्र में हैं। वह भी इस बदलाव को काफी समय से महसूस कर रहे हैं।

कनाडा में पिछले महीने हुए चुनाव में 35-54 साल के पुरुषों में से 50 फीसदी ने विपक्षी कंजर्वेटिव पार्टी को वोट दिया। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के कनाडा पर लगाए गए टैरिफ के कारण यह चुनाव पूरी तरह से प्रभावित हुआ था। हालांकि, लिबरल पार्टी को हार का डर था लेकिन वह महिला मतदाताओं की बदौलत ट्रंप विरोधी लहर के जरिये फिर से सत्ता में लौट आए।

पोलिंग फर्म, इप्सोस के पब्लिक अफेयर्स के वैश्विक प्रमुख, डैरेल ब्रिकर ने कहा, ‘वह पुरुष जो जिंदगी में कुछ अनुभव ले चुके हैं। अब वह उस मोड़ पर खड़े हैं, जहां वह कहते हैं, ‘यह सब मेरे पक्ष में काम नहीं कर रहा, अब मुझे बदलाव चाहिए।’

कनाडा की पोलिंग कंपनी, नानोस रिसर्च की संस्थापक, निक नानोस सहमति जताते हुए बताती हैं कि सोशल मीडिया लोकतंत्र के गुस्सैल युवा पुरुष की मानसिकता को बढ़ावा दे रहा है। खासकर उन इलाकों में जहां ब्लू कॉलर नौकरियां यानी मजदूरी व कारखानों की नौकरियां खत्म हो चुकी हैं।

 

भारत के चुनावों में लैंगिक अंतर

भारत में इस तरह का विभाजन इतना व्यापक नहीं है। भारत में अब तक ऐसा कोई विश्वसनीय सर्वे सामने नहीं आया है। जिसमें जेन-जी मतदाताओं के राजनीतिक झुकाव का अंतर साफ हो। हालांकि द हिन्दू में छपे सीएसडीएस-लोकनीति के 2024 के पोस्ट-पोल सर्वे में सामने आया कि 37 फीसदी पुरुषों ने और 36 फीसदी औरतों ने दक्षिणपंथी, बीजेपी का चुनाव किया। जबकि उनके खिलाफ कांग्रेस पार्टी को 22 फीसदी महिलाओं और 21 फीसदी पुरुषों ने समर्थन किया।

2016 में सीएसडीएस-सीएस के किए एक सर्वेक्षण के अनुसार, शहरी युवा पुरुषों (81 फीसदी) की तुलना में केवल 46 फीसदी शहरी युवा महिलाएं राजनीति में रुचि रखती हैं। यह अंतर शिक्षा स्तर के साथ बढ़ता है; अधिक शिक्षित महिलाओं में राजनीतिक मुद्दों पर ‘कोई राय नहीं’ की प्रवृत्ति ज्यादा देखी गई।

राजनीति में रुचि रखने वाली शहरी महिलाओं में से केवल 25 फीसदी ही चुनावी गतिविधियों में भाग लेती हैं, जबकि पुरुषों में यह संख्या 54 फीसदी है। ग्रामीण भारत में, पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी 44 फीसदी है, जबकि लोकसभा में यह मात्र 9 फीसदी है। अक्सर उन्हें केवल नाम मात्र का नेता समझा जाता है, लेकिन वे जल और स्वच्छता जैसे मुद्दों पर प्रगतिशील नीतियां बनाती हैं।

24 वर्षीय राहुल (बदला हुआ नाम) बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से पोस्ट-ग्रेजुएट है। उन्होंने बताया कि वह बीजेपी को वोट देते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी अच्छा काम करती है।

जब डीडब्ल्यू ने उनसे पूछा कि क्या लैंगिक अंतर के आधार पर वह वोट देते हैं? उन्होंने कहा कि उन्होंने इस विषय पर कभी विचार नहीं किया है।

25 वर्षीय भूमि (बदला हुआ नाम) जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पोस्ट-ग्रेजुएशन कर रही हैं और वह भी दक्षिणपंथी विचारों की समर्थक हैं। उन्होंने बताया, ‘ऐसा लगता है वामपंथी केवल बराबरी की बात करती है पर असल में जमीनी तौर पर इसका कोई असर नहीं दिखता है। जबकि दक्षिणपंथी जो बोलते हैं, वह साफ बोलते हैं। वह किसी तरह का झूठा दिखावा नहीं करते हैं।’  रीती (बदला हुआ नाम) पोस्ट-ग्रेजुएट हैं और वामपंथी विचारों की समर्थक हैं। उन्होंने बताया कि वह जाति और धर्म आधारित राजनीति में विश्वास नहीं रखती हैं। इसलिए वह इसी अनुसार चुनाव में हिस्सा लेती हैं।

क्या यह विभाजन एक अंतहीन संघर्ष है?

2024 के राष्ट्रपति चुनावी में डॉनल्ड ट्रंप ने युवा श्वेत और हिस्पानियाई पुरुषों को आकर्षित करने के लिए निर्माण क्षेत्र के पुनर्जागरण और विविधता कार्यक्रमों के खिलाफ प्रचार किया। जिस कारण युवा महिलाओं से उनकी दूरी बन गई और मौजूदा लिंग आधारित राजनीतिक खाई और गहरी हो गई।

आंकड़ों के अनुसार, 18-29 साल के लगभग 50 फीसदी पुरुषों ने ट्रंप को वोट दिया, जबकि 61 फीसदी युवा महिलाओं ने उनकी प्रतिद्वंद्वी, कमला हैरिस को चुना। युवा ब्लैक मतदाता, चाहे पुरुष रहे हों या महिला, उन्होंने बड़ी संख्या में कमला हैरिस का समर्थन किया।

ऑस्ट्रेलिया में इसी महीने चुनाव हुए हैं। वहां जेन-जी का यह लिंग आधारित ‘राजनीतिक मतभेद’ चुनाव में दिखाई नहीं दिया। वहां कोई बड़ा विभाजन देखने को नहीं मिला। जिसका एक कारण वहां की अनिवार्य वोटिंग व्यवस्था हो सकती है। ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी के राजनीतिक वैज्ञानिक, इंतिफार चौधरी ने कहा, ‘अनिवार्य मतदान अक्सर कट्टर विचारों और विचारधाराओं को दबा देता है।’

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर सरकारें घर की बढ़ती कीमतें, अनिश्चित नौकरियों और युवा पुरुषों के मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों को हल नहीं करतीं हैं, तो यह लिंग आधारित राजनीतिक लड़ाई लंबी चल सकती है। विशेष रूप से युवा पुरुषों में आत्महत्या की दर एक गंभीर नीति चुनौती बन गई है। (dw.com/hi)


अन्य पोस्ट