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जॉन नेश के बहाने भारत में ज्ञान की परम्परा पर बात
27-May-2025 9:53 PM
जॉन नेश के बहाने भारत में ज्ञान की परम्परा पर बात

-संजय श्रमण

23 मई को जॉन नेश ने दुनिया को अलविदा कहा था, उनके बहाने भारत मे ज्ञान की परम्परा पर बात करना उपयोगी है।

गेम्स थ्योरी के जनक जॉन नेश के होने और न हो जाने से बहुत बड़े सवाल भारत के लिए भी खड़े होते हैं। वैसे भारत से जॉन नेश का या स्टीफन हॉकिंग का कोई संबंध नहीं है लेकिन जब बात आती है डाक्टर वशिष्ठ नारायण सिंह और श्रीनिवास रामानुजन की तब भारत की चिंता होती है।

जॉन नेश के जीवन, उनकी बीमारी और उनके पूरे करियर को ध्यान से देखें तो ये सीखा जा सकता है कि ज्ञान और ज्ञानी का सम्मान करना किसे कहते हैं। भारत में ज्ञान की कोई सुसंगठित समृद्ध परम्परा कभी नहीं रही है। जो रही भी है वो बहुत खंडित और सिर्फ धर्म दर्शन या अध्यात्म को केन्द्रित रही है। कुछ छिटके हुए टुकड़ों में अच्छे उदाहरण मिलते हैं लेकिन वे ज्ञान की गौरव गाथा कम कहते हैं और टाट में मलमल के पैबंद की तरह मुंह चिढाते हुए ज्यादा नजर आते हैं।

कई देशभक्त दावा करेंगे कि तक्षशिला था और नालंदा था इत्यादी, यहाँ बताना उचित होगा कि ये बौद्ध विद्या केंद्र थे जो कि इस देश के मुख्यधारा के हिन्दू समाज का हिस्सा नहीं था। पूरे भारतीय इतिहास में टुकड़ों टुकड़ों में बहुत सारा काम हुआ है लेकिन एक संगठित और टिकाऊ धारा नहीं बन सकी। शायद भौतिकवादी ज्ञान और तकनीक के अभाव में ये उस समय संभव भी न था।

फिर भी बौद्धों में ज्ञान, विज्ञान सहित भेषज और धातुकर्म पर बहुत काम हुआ है, न केवल इतना बल्कि नागार्जुन और वसुबन्धु ने समय और शून्य की जो अवधारणा दी है वो अपने आपमें चमत्कार है। जैन आचार्यों में भी वर्धमान महावीर और आचार्य कुन्दकुन्द ने पुद्गल और स्यात-वाद की जैसी धारणाएं दी हैं वे इतनी एडवांस हैं कि आज का क्वांटम फिजिक्स भी उसी दिशा में जाता दिखाई देता है। हिन्दू मनीषियों में भी समय की चक्रीय धारणा और युगों और कल्पों का विज्ञान बहुत विकसित किया गया खासकर वराहमिहिर और आर्यभट्ट ने खगोल में जो काम किया है वो अभी भी लाखों को प्रेरित करता है।

हिन्दुओं के हठयोग में फिजिओलॉजी और नाडी तन्त्र के संबंध में जो विस्तार से लिखा गया है वो भी आश्चर्यचकित करता है। खासकर तब जबकि हिन्दुओं में शरीर को जलाने की परम्परा रही है और मृत शरीर का चिकित्सा या चीर फाड़ में उपयोग पाप माना गया है (सिवाय तांत्रिक अनुष्ठानों के)। तब भी इतनी बारीकी से हिन्दुओं ने शरीर का नक्शा बनाया है या बात अचंभित करती है। योग के साथ आयुर्वेद की युति ने चिकित्सा में बहुत बड़ा काम कर दिखाया है।

लेकिन इनके होने का क्या मतलब है? खासकर आज के भारत में ये बड़ी बहस का मुद्दा है।

भारत में संगठित रूप से ज्ञान-विज्ञान के बड़े प्रयास हुए ही नहीं हैं। असल में धर्म, दर्शन और अध्यात्म से इतर किसी भी विषय को हेय माना गया है। उपनिषदों में परा और अपरा विद्या की बात है। मुण्डक उपनिषद के अनुसार परा विद्या अध्यात्म विद्या है जो मोक्ष में ले जाती है शेष सब भौतिक या लौकिक विद्याएँ जो गणित, विज्ञान, साहित्य, कला आदि सिखाती हैं वे बचकानी और हेय मानी गयी हैं।

यह बहुत बुनियादी और जहरीली मानसिकता है जिसने इस समाज को भौतिक जगत की श्रेष्ठताओं के संधान से रोके रखा। ये औपनिषदिक मूर्खता अभी भी जारी है। हमारे यहाँ आज भी बड़े वैज्ञानिक या दार्शनिक को कोई नहीं पूछता लेकिन छुटभैया बाबा हो या कथा बांचने वाला मूर्ख पंडित या तोतेवाला ज्योतिषी हो उसके आगे पीछे भीड़ लगी रहती है।

जॉन नेश का उदाहरण गौर करने लायक है। एक बेहद प्रतिभाशाली युवा जो गणित का दीवाना है और एकदम उसी मस्ती में रहता है उसे उसकी बीमारी के बावजूद जीवन की सामान्य सुविधाओं सहित सम्मान और सुरक्षा मुहैया करवाने का काम जो उसके समाज ने किया है वो अद्भुत है। यही स्टीफेंन हाकिंग के साथ कैम्ब्रिज में हो रहा है इसीलिये वो जि़ंदा हैं और रोज नए चमत्कार की खोज कर रहे हैं।

अब उदाहरण लीजिये डाक्टर वशिष्ठ नारायण का। मैं जब स्कूल में पढता था तब दूरदर्शन पर विनोद गुहा का एक साप्ताहिक समाचार कार्यक्रम आता था ‘परख’ के नाम से। उसमे बरसों पहले इस वैज्ञानिक की चर्चा हुई थी और राष्ट्रीय स्तर के अन्य अखबारों ने भी इसका उल्लेख किया था।

लेकिन सरकार तो छोडिये हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी समाज भी इनकी सुध लेने के लिए आगे नहीं आया। वो महानतम गणितज्ञ जिसने कई मायनों में आइन्स्टीन की गणितीय स्थापनाओं को चुनौती दी वो आज एक पागल समझा जाता है और एक फुटपाथ पर पड़े अपाहिज की तरह जि़ंदा है।

क्या इनका इलाज या सेवा नहीं हो सकती थी? शायद इनकी बीमारी ज्यादा गंभीर रही हो लेकिन एक वैज्ञानिक समुदाय क्या अपने एक सदस्य को बीमार मानकर ही अच्छी रहन सहन की सुविधा नहीं दे सकता ? और सबसे बड़ी बात ये कि वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी समुदाय को ये प्रेरणा क्यों नहीं होती कि अपने एक असहाय मित्र की मदद की जाए?

न सिर्फ ज्ञान का सम्मान करने में ये देश चूकता रहा है बल्कि अपने महानतम वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और नायकों को बचाने और उनकी देशना या शौर्यगाथा को सहेजने में भी जानबूझकर भूलें की जाती रही हैं। ये भूल नहीं असल में षड्यंत्र की परम्परा है।

अभी दो शताब्दी पहले तक अशोक को कोई नहीं जानता था, सिकंदर कब आया क्यों आया और उसका क्या हुआ ये भी कोई नहीं जानता था। ब्रिटिश पुरातत्वविदों ने गौतम बुद्ध का इतिहास खंगालने के लिए जो खुदाई और अन्वेषण किया उसमे अशोक और चन्द्रगुप्त की महिमा प्रगट हुई है।

निरपेक्ष रूप से ज्ञान का यहाँ कोई आदर नहीं रहा है। जीवन का एक स्वाभाविक नियम है कि एक भूल दूसरी भूल को सुलगाती चलती है। जैसे रेडियो एक्टिव पदार्थ में चेन रिएक्शन होती है उसी तरह। जब एक बार एक भूल जमकर बैठ गयी तब दूसरी और तीसरी भी पीछे चली आती हैं। आज ज्ञान की या ज्ञान के प्रबंधन की जो हालत इस देश में है वो अचानक ही नहीं बन गयी है। बहुत लंबी धार्मिक, दार्शनिक और सामाजिक मूर्खताओं ने ये तस्वीर रंगी है जो आज पूरी दुनिया में हमें मजाक का विषय बना देती है।

कल्पना कीजिये आप ब्रिटेन या अमेरिका की किसी यूनिवर्सिटी में खड़े हैं और सामने दीवार पर जाँन नेश और वशिष्ठ नारायण की फोटो लगी है और लोग आपसे पूछते हैं कि इस भारतीय वैज्ञानिक को क्या हुआ ? इसकी मदद क्यों नही की गयी? तब आप पर क्या गुजरेगी? कोई न पूछे तब भी बहुत गुस्सा आता है इस समाज पर कि वशिष्ठ जैसा विलक्षण आदमी हमने खो दिया।

यही मूर्खता श्रीनिवास रामानुजन के साथ हुई थी। धार्मिक अंधविश्वास उनपर इतना हावी था कि वे कट्टर ब्राह्मण होने के नाते दिन में तीन बार नहाते थे और सिर्फ अपने हाथ का पका हुआ दाल चावल ही खाते थे। अब ब्रिटेन की भारी सर्दी में पहले से ही कमजोर शरीर के होने से, पोष्टिक भोजन न लेने और तीन तीन बार नहाने का परिणाम हुआ कि वे निमोनिया से पीडि़त हुए फिर कई और रोग उन्हें लगे और उन्ही में वे मारे गए।

ये उदाहरण साफ़ दिखाता है कि यहाँ ठोस भौतिक और लौकिक ज्ञान की तुलना में अदृश्य और अलौकिक ज्ञान या धार्मिक अंधविश्वास को कितना मूल्य दिया जाता है। वे अपने क्षेत्र की नामागिरी नामक स्थानीय देवी के भक्त थे वे खुद कहा करते थे कि इसी देवी से उन्हें गणित का ज्ञान मिलता है। इसी कारण वे विदेश में दूसरों का बनाया भोजन नही लेते थे।

अब इस बात पर गौर करिए सामान्यजन तो छोडिये खुद रामानुजन जैसा प्रतिभाशाली गणितज्ञ धार्मिक अनुशासन की मूढ़ता से ऊपर नहीं उठ पाया था। इसी की कीमत उन्होंने अपनी जान देकर चुकाई।

इसलिए आज जॉन नेश को याद करते हुए भारत के बारे में सवाल उठाने का अच्छा अवसर है। यहाँ भी बहुत सारे जॉन नेश और स्टीफेन हाकिंग पैदा होते हैं लेकिन धर्म, अध्यात्म, और परम्परा के घनचक्कर के कारण उनमें वैज्ञानिक चित्त का ठीक से विकास ही नहीं हो पाता। विज्ञान पढ़ाने का जो ढंग इस देश में है वो गजब का है। न्यूटन और गैलीलियो को कहानी की तरह पढ़ाया जाता है।

बहुत सरल प्रयोग और खेल में बच्चों में विज्ञान की ललक जगाई जा सकती है लेकिन ये यहाँ नहीं होता। प्रयोगशाला और प्रयोग अजनबी शब्द हैं। यहाँ ज्ञान और ज्ञान के लोकतंत्र का भारी अभाव रहा है और आज भी बना हुआ है। ताज्जुब नहीं कि इसी कारण से कोई भी प्रतिभाशाली वैज्ञानिक या कलाकार हो वो सीधे अमेरिका भागता है।


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