विचार/लेख
मतलब साफ है ये सबको अच्छे लगते हैं। गेंद तो अब पब्लिक के पाले में है।’ शायद, इसलिए सौरभ कहते हैं, ‘जाति, परिवारवाद और दागी उम्मीदवार धीरे-धीरे राजनीति के पर्याय बनते जा रहे हैं। दागियों में सभी गंभीर अपराध के आरोपी नहीं हैं। कई ऐसे भी हैं, जो साजिशन इस दायरे में आ गए हैं। अब यह तो जनता को तय करना है, वैसे इनकी स्वीकार्यता हमेशा बनी रहेगी।’
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार का लिखा-
बिहार विधानसभा चुनाव में सभी प्रत्याशी चुनाव मैदान में जोर आजमाइश करने उतर गए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित सभी दलों के दिग्गज नेताओं का दौरा लगातार जारी है। कोई कोर वोटरों को साधने की कोशिश कर रहा तो कोई दूसरे के वोट बैंक में सेंधमारी की जुगत में है। यूं तो सभी पार्टियां अपने-अपने प्रत्याशियों को पाक-साफ बता कर उन्हें विजयी बनाने की अपील कर रहीं, लेकिन किसी भी पार्टी के उम्मीदवारों पर नजर डाली जाए तो यह साफ दिख रहा कि जातिवाद, परिवारवाद और दागियों से किसी भी राजनीतिक दल का मोहभंग नहीं हो रहा। यहां तक कि येन-केन-प्रकारेण जीत हासिल करने के चक्कर में यह बढ़ता ही जा रहा है।
मंगलवार की शाम पांच बजे बिहार के 18 जिलों के 121 विधानसभा क्षेत्रों में छह नवंबर को होने वाले पहले चरण के लिए चुनाव प्रचार का शोर थम गया। इस चरण में करीब 3,75,13,302 वोटर 45324 पोलिंग बूथ पर 1314 उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला करेंगे। प्रत्याशियों में 1,192 पुरुष और 122 महिलाएं हैं। वोटरों की संख्या के हिसाब से सबसे अधिक 45,7867 मतदाता पटना जिले के दीघा विधानसभा क्षेत्र में हैं, वहीं सबसे कम 2,31,998 मतदाता शेखपुरा जिले के बरबीघा विधानसभा क्षेत्र में हैं। सबसे अधिक 20-20 उम्मीदवार कुढऩी तथा मुजफ्फरपुर, जबकि सबसे कम पांच-पांच प्रत्याशी गोपालगंज जिले के भोरे तथा खगडिय़ा जिले के अलौली एवं परबत्ता विधानसभा क्षेत्र में हैं।
जीते कोई भी, जाति होगी एक
राजनीतिक दल दावे भले ही जो भी कर लें, किंतु जीत सुनिश्चित करने को सभी ने प्रत्याशियों के चयन में जातीय समीकरण का पूरा ख्याल रखा है। एनडीए और महागठबंधन दोनों ने ही कई सीटों पर एक ही जाति के उम्मीदवार उतारे हैं। करीब 36 से अधिक विधानसभा क्षेत्र में ऐसी स्थिति है कि दोनों गठबंधनों में से जीत किसी की भी हो, विधायक एक ही जाति का चुना जाएगा। इनमें सबसे अधिक संख्या यादवों की है। दोनों गठबंधनों ने पांच सीटों पर ब्राह्मण, छह सीटों पर राजपूत, आठ पर भूमिहार तथा सात सीटों पर कुर्मी-कुशवाहा प्रत्याशी दिए हैं।
आरजेडी ने एम-वाई समीकरण का ख्याल रखते हुए इस तबके से सबसे अधिक प्रत्याशी उतारा है तो जेडीयू ने पिछड़ा-अति पिछड़ा को केंद्र में रख कर टिकट दिया है। आरजेडी की 143 सीटों में से सबसे अधिक 51 सीटों पर यादव, 19 पर मुस्लिम, 11 पर कुशवाहा तथा 14 सीट पर सामान्य श्रेणी के उम्मीदवार उतारे हैं। इसी तरह जेडीयू ने अपने 101 में से पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को 37 तथा अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) को 22 तथा सामान्य श्रेणी को 22 एवं मुस्लिम को चार सीटें दी हैं।
अगर महिलाओं की बात करें तो सभी जातियों से 13 प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारे हैं। बीजेपी ने सबसे अधिक सीट सामान्य वर्ग को दिया है। इस वर्ग से 49 प्रत्याशी हैं, जिनमें 16 भूमिहार, 21 राजपूत, 11 ब्राह्मण और एक कायस्थ हैं। वहीं, पिछड़ा वर्ग की बात करें तो इस समाज 24 और अति पिछड़ा वर्ग से 16 को मौका दिया गया है। इसी तरह कांग्रेस, वाम दलों ने टिकटों के बंटवारे में जातीय और सामाजिक समीकरणों का पूरा ख्याल रखा है। महागठबंधन तथा एनडीए के 23-23 प्रत्याशी कुशवाहा जाति से हैं। अगर कुर्मी जाति के प्रत्याशियों की संख्या जोड़ दी जाए तो यह आंकड़ा 50-55 के आसपास पहुंच जाता है। इनमें कम से कम 30 ऐसी सीट हैं, जहां कुशवाहा उम्मीदवारों की जीत संभावित है।
राजनीतिक समीक्षक आर.के. शुक्ला कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि जाति पर चुनाव केवल बिहार में ही होता है, दक्षिण के राज्यों में भी यही स्थिति है। यहां इसका शोर ज्यादा है और जकडऩ कुछ अधिक है। इसे ऐसे समझिए कि नवादा जिले की एक सीट है हिसुआ, यहां विधानसभा बनने के बाद से अब तक भूमिहार जाति के ही प्रत्याशी जीतते रहे हैं। कई बार दूसरी जाति के प्रत्याशियों ने कड़ी टक्कर दी, लेकिन जीत भूमिहार उम्मीदवार की हुई। ज्यादातर चुनाव यहां भूमिहार बनाम भूमिहार ही रहा।’
इस बार भूमिहारों पर एनडीए और महागठबंधन का थोड़ा ज्यादा ही भरोसा दिख रहा। एनडीए ने इस जाति से 32 तो महागठबंधन ने 15 उम्मीदवार खड़े किए हैं। इसलिए कई सीटों पर भूमिहार बनाम भूमिहार की स्थिति है। इनमें सर्वाधिक चर्चित पटना जिले की मोकामा सीट है, जहां से बाहुबली अनंत सिंह और बाहुबली सूरजभान सिंह की पत्नी आमने-सामने हैं। इसी विधानसभा क्षेत्र में नीतीश और लालू दोनों के करीबी रहे और अब जनसुराज पार्टी के समर्थक व हिस्ट्रीशीटर दुलारचंद यादव की हत्या हुई है। जिसके आरोप में अनंत सिंह को जेल भेज दिया गया है। लखीसराय से डिप्टी चीफ मिनिस्टर व बीजेपी नेता विजय कुमार सिन्हा का मुकाबला भी भूमिहार जाति के कांग्रेस प्रत्याशी अमरेश अनीश से ही है।
बिहार में 203 हैं जातियां, सर्वाधिक अति पिछड़ी
2023 में गांधी जयंती के अवसर पर बिहार सरकार द्वारा जारी जातीय सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार राज्य में 203 नोटिफाइड जातियां हैं। इनमें हिन्दुओं में ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ और भूमिहार तथा मुसलमानों में शेख, पठान और सैय्यद को सामान्य श्रेणी में रखा गया है। जबकि 112 को अति पिछड़ी, 30 को पिछड़ी, 22 को अनुसूचित जाति और 32 को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में रखा गया है। वहीं आबादी के लिहाज से देखें तो अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) की सर्वाधिक 36.01 प्रतिशत, अन्य पिछड़ा वर्ग(ओबीसी) की 27.12 फीसद, अनुसूचित जाति (एससी) की 19.65 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति (एसटी) की 1.68 फीसद तथा सामान्य श्रेणी की करीब 15.52 प्रतिशत है।
राजनीतिक समीक्षक शुक्ला कहते हैं, ‘कोई भी चुनाव हो, पार्टी भी जाति देख प्रत्याशी देती रही है और ठीक इसी तरह मतदाता भी जाति देख वोट देते रहे हैं। ऐसे इस बार के चुनाव में सवर्णों को हर पार्टी ने थोड़ी ज्यादा तवज्जो दी है। 14 प्रतिशत से अधिक यादवों की आबादी है और 17 फीसद से अधिक मुस्लिम हैं, दोनों को जोड़ दें तो यह 31 प्रतिशत से अधिक हो जाता है। इन्हीं आंकड़ों को समझ लालू प्रसाद ने एमवाई समीकरण बनाया था, जो आज भी उतनी ही मजबूती से आरजेडी के साथ इन्टैक्ट है।'' यादव, मुस्लिम, कुर्मी-कोइरी, सवर्ण हिंदू, वैश्य, रविदास, और पासवान यहां की प्रमुख जातियां हैं, जो चुनाव जीत-हार तय करती हैं।
-पंकज कुमार झा
कल विनोदजी को देखने अस्पताल जाना हुआ। छत्तीसगढ़ साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष शशांक शर्माजी के साथ। मुख्यमंत्रीजी का संदेश उन्हें दिया, स्वास्थ्य के बारे में पूछा। उन्होंने बस यही कहा कि मुझे घर जाना है। लगा जैसे कोई बच्चा स्कूल की घंटी बजने की प्रतीक्षा में हो।
थोड़ा तेज सुनते हैं। जिस व्यक्ति की आवाज कभी ऊंची नहीं हुई हो, उनसे ऊंची आवाज में बात करना साहस का काम है। अधिक बातों का भावानुवाद पुत्र शास्वतजी ही कर रहे थे। प्रधानमंत्रीजी के फोन करने की बात आयी तो प्रसन्न दिखे। बताया भी कि क्या-कहा मोदीजी ने।
बात वापस फिर से घर वापसी कर लिखना प्रारंभ करने की हुई। शशांक जी ने कहा कि हर वाक्य में अर्ध और पूर्णविराम आता है न, इसे यही समझिए। ‘अगला वाक्य’ फिर घर जा कर लिख लीजिएगा। मुस्कुराने लगे, लगा अपनी कविता में ही कह बैठेंगे कि मैं विराम को नहीं जानता, लिखने को जानता हूं। या कि इलाज को नहीं जानता, घर जाने को जानता हूं। या कि लिखेंगे तो देखेंगे।
पिछले दिन से थोड़े अधिक बेहतर दिखे। फिजियो वाले आए, फेफड़े का एक्सरसाइज कराया। उपकरण में फूक मारते हुए ऐसा लग रहे थे मानों कोई बालक गुब्बारा फुला रहा हो। टहलने भी ले जाया गया परिसर में। घूमकर आए। पिछले दिन जैसी न थकान हुई टहलने में, न ही ऑक्सीजन स्तर आदि उतना असामान्य हुआ, अर्थात् बेहतर हुए हैं पहले से।
साथ फोटो लेने का साहस नहीं हुआ। शाश्वतजी से बाद में निवेदन किया कि सर का कोई एक फोटो बाद में भेज देंगे। वे अच्छे फोटोग्राफर हैं और सेवा-सुश्रुषा के बीच-बीच में तस्वीर लेते रहते हैं। अनेक वायरल चित्र उनके लिए हुए ही हैं। तन्मयता से पिताजी की सेवा में लगे देखना सुखकर है। इस पोस्ट के साथ पोस्ट हुआ फोटो उन्होंने ही भेजा है।
अस्पताल में भी लिखने या लिखाने बैठ जाते हैं इस हाल में भी विनोदजी। एक बड़ी पत्रिका के लिए तो इस हाल में भी लंबा साक्षात्कार उन्होंने देर रात तक लिखबा दिया है। वे शीघ्र स्वस्थ होकर घर वापस जायेंगे और लिखने का सिलसिला चलता रहेगा। अब तो विनोदजी बाल साहित्य लिखने लगे हैं, स्वयं बच्चे सा होकर। इतना बड़ा कवि जब बच्चों की साहित्य लिखेगा तो बाल साहित्य की विधा ही कितना बड़ा आसमान पायेगा, कल्पना कीजिए।
अभी बहुत लिखना है विनोदजी को। उन्हें जीने के लिए लिखना ही होगा क्योंकि लिखने को ही तो जीया है उन्होंने जीवन भर।
बकौल आलोक पुतुलजी, विनोदजी अपनी कविताओं में विराम चिह्न का उपयोग करते भी नहीं है।
-पंकज कुमार झा
कल विनोदजी को देखने अस्पताल जाना हुआ। छत्तीसगढ़ साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष शशांक शर्माजी के साथ। मुख्यमंत्रीजी का संदेश उन्हें दिया, स्वास्थ्य के बारे में पूछा। उन्होंने बस यही कहा कि मुझे घर जाना है। लगा जैसे कोई बच्चा स्कूल की घंटी बजने की प्रतीक्षा में हो।
थोड़ा तेज सुनते हैं। जिस व्यक्ति की आवाज कभी ऊंची नहीं हुई हो, उनसे ऊंची आवाज में बात करना साहस का काम है। अधिक बातों का भावानुवाद पुत्र शास्वतजी ही कर रहे थे। प्रधानमंत्रीजी के फोन करने की बात आयी तो प्रसन्न दिखे। बताया भी कि क्या-कहा मोदीजी ने।
बात वापस फिर से घर वापसी कर लिखना प्रारंभ करने की हुई। शशांक जी ने कहा कि हर वाक्य में अर्ध और पूर्णविराम आता है न, इसे यही समझिए। ‘अगला वाक्य’ फिर घर जा कर लिख लीजिएगा। मुस्कुराने लगे, लगा अपनी कविता में ही कह बैठेंगे कि मैं विराम को नहीं जानता, लिखने को जानता हूं। या कि इलाज को नहीं जानता, घर जाने को जानता हूं। या कि लिखेंगे तो देखेंगे।
पिछले दिन से थोड़े अधिक बेहतर दिखे। फिजियो वाले आए, फेफड़े का एक्सरसाइज कराया। उपकरण में फूक मारते हुए ऐसा लग रहे थे मानों कोई बालक गुब्बारा फुला रहा हो। टहलने भी ले जाया गया परिसर में। घूमकर आए। पिछले दिन जैसी न थकान हुई टहलने में, न ही ऑक्सीजन स्तर आदि उतना असामान्य हुआ, अर्थात् बेहतर हुए हैं पहले से।
बिहार विधानसभा चुनाव में ऐसे कई मुद्दे हैं जिनकी मालूमात तो अरसे से है, लेकिन हल अब तक नहीं निकला. पलायन और रोजगार इनमें से सबसे अहम मुद्दे हैं, लेकिन क्या इनका असर इस बार के चुनाव पर दिखेगा?
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट –
बिहार विधानसभा चुनाव के बीच छठ महापर्व के मौके पर घर लौट रहे और फिर यहां से वापस जाने वाले लोगों की परेशानियों ने एक बार फिर पलायन का सच उजागर किया है. गुजरात का उधना रेलवे स्टेशन हो या देश के किसी भी हिस्से से बिहार आने वाली रेलगाड़ियों-बसों में जगह लेने के लिए लोगों की लंबी कतारें हों, इन्होंने एक बार फिर कोरोना काल की याद ताजा कर दी. दावे जो भी किए जा रहे हों, मगर सच यही है कि आज भी रेलगाड़ियों-बसों में भर-भरकर लोग रोजगार की तलाश में अपने घरों से सैकड़ों मील दूर जा रहे हैं. कोरोना काल में की गई तमाम घोषणाएं भले ही कुछ समय तक धरातल पर उतरती दिखीं, लेकिन बाद में धराशायी हो गईं.
पलायन: अरसे पुराना नासूर
पलायन बिहार की एक स्थायी समस्या बन चुकी है. पिछले चुनावों की तरह इस बार भी पलायन एक बड़ा मुद्दा है. राजनीतिक विश्लेषक एस.के. सिंह कहते हैं, ‘‘जनसुराज पार्टी के मुखिया प्रशांत किशोर इस चुनाव में क्या करेंगे, यह तो 14 नवंबर को पता चलेगा. पिछले विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने नौकरी को अहम मुद्दा बना दिया था. उसी तरह इस बार प्रशांत किशोर की बच्चों का चेहरा देखकर वोट करने की बार-बार की गई अपील ने सभी पार्टियों को पलायन और इससे जुड़े रोजगार जैसे मुद्दों पर मुखर होने के लिए मजबूर कर दिया है. मुझे लगता है, यह युवाओं के लिए अवश्य ही निर्णायक मुद्दा होगा.''
प्रशांत किशोर तो पिछले तीन साल से गांव-गांव घूमकर लोगों को यह समझा रहे हैं कि जब तक आप जात-पात से इतर अपने बच्चों का मुंह देखकर वोट नहीं डालेंगे, तब तक स्थिति यथावत ही रहेगी. वह लोगों से कहते रहे हैं कि दस-पंद्रह हजार रुपये की खातिर बच्चे घर से दूर मेहनत-मजदूरी कर दूसरे शहरों को संवारने में लगे रहेंगे, लेकिन इससे उनका कायाकल्प नहीं होगा.
प्रशांत किशोर अपने चुनाव अभियान में जनता से कहते रहे हैं कि उनके वोट लेकर फैक्ट्री गुजरात में लगाई जा रही है और बिहारी बच्चे मजदूरी के लिए वहां जा रहे हैं.
बिहार विधानसभा चुनाव पर दूसरे राज्यों में रह रहे लोगों की नजर तो है ही, विदेशों में रह रहे प्रवासी भी गंभीरता से स्थिति का आकलन कर रहे हैं. कनाडा में बिहार एसोसिएशन ऑफ कनाडा नामक प्रवासियों के संगठन के सदस्यों का कहना है कि अवसर मिले, तो वे भी बिहार में ही नौकरी करना चाहेंगे. इससे जुड़ी नेहा शुभम कहती हैं, ‘‘वाकई, हम घर लौटना चाहते हैं, लेकिन रोजगार आज भी हमारे लिए बड़ा मुद्दा है. लोगों से हम अपील भी कर रहे हैं कि वे शिक्षित और ईमानदार प्रत्याशियों को ही चुनें.''
पलायन की टीस पड़ रही भारी
मौका चुनाव का है, तो सत्तारूढ़ पार्टी भी रोजगार के लिए किए गए अपने कार्यों को गिना रही है. साथ ही, नई घोषणाएं भी की गईं. विपक्षी दल भी वादे कर रहे हैं. चुनावी सभा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हो या कांग्रेस नेता राहुल गांधी की, दोनों ही रोजगार की बात कर रहे हैं. बीते दिनों पीएम मोदी ने नमो ऐप के जरिए युवाओं से संवाद में कहा कि बिहार का युवा अब बाहर नहीं जाएगा, बिहार में ही रहकर नाम कमाएगा. मोदी ने कहा कि इसके लिए सरकार प्रदेश के हर जिले में स्टार्ट अप हब विकसित करेगी, जिससे युवाओं को पलायन नहीं करना पड़ेगा और वे अपने ही राज्य में आजीविका कमा सकेंगे.
राहुल गांधी ने भी नालंदा व शेखपुरा जिले में अपनी जनसभा में कहा, "बिहार के लोग जहां भी जाते हैं, अपनी मेहनत से वहां की तकदीर बदल देते हैं, लेकिन बिहार की तकदीर नहीं बदल रही. पिछले 20 सालों में बीजेपी-जेडीयू ने हर अवसर छीनकर उन्हें या तो मजबूर बनाया या फिर मजदूर."
प्रशांत किशोर अपने चुनाव अभियान में जनता से कहते रहे हैं कि उनके वोट लेकर फैक्ट्री गुजरात में लगाई जा रही है और बिहारी बच्चे मजदूरी के लिए वहां जा रहे हैं.
बिहार विधानसभा चुनाव पर दूसरे राज्यों में रह रहे लोगों की नजर तो है ही, विदेशों में रह रहे प्रवासी भी गंभीरता से स्थिति का आकलन कर रहे हैं. कनाडा में बिहार एसोसिएशन ऑफ कनाडा नामक प्रवासियों के संगठन के सदस्यों का कहना है कि अवसर मिले, तो वे भी बिहार में ही नौकरी करना चाहेंगे. इससे जुड़ी नेहा शुभम कहती हैं, ‘‘वाकई, हम घर लौटना चाहते हैं, लेकिन रोजगार आज भी हमारे लिए बड़ा मुद्दा है. लोगों से हम अपील भी कर रहे हैं कि वे शिक्षित और ईमानदार प्रत्याशियों को ही चुनें.''
पलायन की टीस पड़ रही भारी
मौका चुनाव का है, तो सत्तारूढ़ पार्टी भी रोजगार के लिए किए गए अपने कार्यों को गिना रही है. साथ ही, नई घोषणाएं भी की गईं. विपक्षी दल भी वादे कर रहे हैं. चुनावी सभा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हो या कांग्रेस नेता राहुल गांधी की, दोनों ही रोजगार की बात कर रहे हैं. बीते दिनों पीएम मोदी ने नमो ऐप के जरिए युवाओं से संवाद में कहा कि बिहार का युवा अब बाहर नहीं जाएगा, बिहार में ही रहकर नाम कमाएगा. मोदी ने कहा कि इसके लिए सरकार प्रदेश के हर जिले में स्टार्ट अप हब विकसित करेगी, जिससे युवाओं को पलायन नहीं करना पड़ेगा और वे अपने ही राज्य में आजीविका कमा सकेंगे.
राहुल गांधी ने भी नालंदा व शेखपुरा जिले में अपनी जनसभा में कहा, "बिहार के लोग जहां भी जाते हैं, अपनी मेहनत से वहां की तकदीर बदल देते हैं, लेकिन बिहार की तकदीर नहीं बदल रही. पिछले 20 सालों में बीजेपी-जेडीयू ने हर अवसर छीनकर उन्हें या तो मजबूर बनाया या फिर मजदूर."
नौकरी व रोजगार पर वादों की बहार
बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर एनडीए ने 31 अक्टूबर को अपना संकल्प पत्र जारी कर दिया. इसमें 25 घोषणाएं की गई हैं. इनमें किसानों, महिलाओं, विद्यार्थियों के लिए रेवड़ियां तो हैं ही, नौकरी-रोजगार के उपक्रम की सर्वाधिक चर्चा भी है. इसमें एक करोड़ सरकारी नौकरी-रोजगार, हर जिले में मेगा स्किल सेंटर, प्रत्येक जिले में फैक्ट्री व 10 नए औद्योगिक पार्कों का निर्माण, 100 एमएसएमई पार्क व 50,000 से अधिक कुटीर उद्यम, सेमी कंडक्टर मैन्यूफैक्चरिंग पार्क की स्थापना व महिला रोजगार योजना से महिलाओं को दो लाख तक की सहायता राशि देने की बातें कही गई हैं.
इसी तरह महागठबंधन ने 'तेजस्वी का प्रण' नाम से जारी घोषणा पत्र में महिलाओं, किसानों तथा अन्य वर्गों के अलावा खासतौर पर युवा वोटरों को साधने के उद्देश्य से एक बार फिर नौकरी के अपने पुराने वादे को ही दोहराया है. 2020 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने दस लाख सरकारी नौकरी देने का वादा किया था. इस बार इससे एक कदम आगे बढ़कर उन्होंने 20 महीने में हर घर में एक सदस्य के लिए सरकारी नौकरी का वादा किया है.
अर्थशास्त्र के अवकाश प्राप्त व्याख्याता अविनाश के.पांडेय कहते हैं, ‘‘इस बार के चुनाव में युवा मतदाताओं की संख्या करीब 1.63 करोड़ है. ये 18 से 35 साल के आयुवर्ग में हैं. इनके लिए नौकरी अहम मुद्दा है. तेजस्वी यादव ने जिस तरह से घोषणा की है, उस तरह तो करीब 2.8 करोड़ सरकारी नौकरी उन्हें देनी होंगी. इसके लिए इतनी भारी संख्या में नौकरी और वेतन की राशि कहां से लाएंगे, यह तो यक्ष प्रश्न ही है.''
राजनीतिक विश्लेषक रेखांकित करते हैं कि चुनावी घोषणाएं जनता को लुभाती तो हैं, लेकिन उन्हें यह भी समझने की जरूरत है कि क्या ये संभव हैं और अतीत का रिकॉर्ड क्या बताता है.
प्रशासनिक सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहीं सबीना कहती हैं, ‘‘सरकारी नौकरी के लिए बिहार में होने वाली परीक्षाओं का क्या हाल है, यह किसी से छुपा नहीं है. पेपर लीक, समय पर रिजल्ट नहीं निकलना तो आम बात है. जब अभ्यर्थी इसका विरोध करते हैं, तो किसी न किसी बहाने उनपर लाठियां चलाई जाती हैं. मुझे लगता है इस बार युवा इन बातों को ध्यान में रखकर ही वोटिंग करेंगे.''
वहीं, राजनीतिक समीक्षक समीर सौरभ इस विषय पर कहते हैं, "अगर लोगों ने जातीय समीकरण को देखने की जगह बेरोजगारी या पलायन के मुद्दे पर वोट किया होता, तो बीते पांच सालों में आंशिक सुधार ही सही लेकिन कुछ तो देखने को मिलता.
नौकरी व रोजगार पर वादों की बहार
बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर एनडीए ने 31 अक्टूबर को अपना संकल्प पत्र जारी कर दिया. इसमें 25 घोषणाएं की गई हैं. इनमें किसानों, महिलाओं, विद्यार्थियों के लिए रेवड़ियां तो हैं ही, नौकरी-रोजगार के उपक्रम की सर्वाधिक चर्चा भी है. इसमें एक करोड़ सरकारी नौकरी-रोजगार, हर जिले में मेगा स्किल सेंटर, प्रत्येक जिले में फैक्ट्री व 10 नए औद्योगिक पार्कों का निर्माण, 100 एमएसएमई पार्क व 50,000 से अधिक कुटीर उद्यम, सेमी कंडक्टर मैन्यूफैक्चरिंग पार्क की स्थापना व महिला रोजगार योजना से महिलाओं को दो लाख तक की सहायता राशि देने की बातें कही गई हैं.
इसी तरह महागठबंधन ने 'तेजस्वी का प्रण' नाम से जारी घोषणा पत्र में महिलाओं, किसानों तथा अन्य वर्गों के अलावा खासतौर पर युवा वोटरों को साधने के उद्देश्य से एक बार फिर नौकरी के अपने पुराने वादे को ही दोहराया है. 2020 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने दस लाख सरकारी नौकरी देने का वादा किया था. इस बार इससे एक कदम आगे बढ़कर उन्होंने 20 महीने में हर घर में एक सदस्य के लिए सरकारी नौकरी का वादा किया है.
अर्थशास्त्र के अवकाश प्राप्त व्याख्याता अविनाश के.पांडेय कहते हैं, ‘‘इस बार के चुनाव में युवा मतदाताओं की संख्या करीब 1.63 करोड़ है. ये 18 से 35 साल के आयुवर्ग में हैं. इनके लिए नौकरी अहम मुद्दा है. तेजस्वी यादव ने जिस तरह से घोषणा की है, उस तरह तो करीब 2.8 करोड़ सरकारी नौकरी उन्हें देनी होंगी. इसके लिए इतनी भारी संख्या में नौकरी और वेतन की राशि कहां से लाएंगे, यह तो यक्ष प्रश्न ही है.''
राजनीतिक विश्लेषक रेखांकित करते हैं कि चुनावी घोषणाएं जनता को लुभाती तो हैं, लेकिन उन्हें यह भी समझने की जरूरत है कि क्या ये संभव हैं और अतीत का रिकॉर्ड क्या बताता है.
प्रशासनिक सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहीं सबीना कहती हैं, ‘‘सरकारी नौकरी के लिए बिहार में होने वाली परीक्षाओं का क्या हाल है, यह किसी से छुपा नहीं है. पेपर लीक, समय पर रिजल्ट नहीं निकलना तो आम बात है. जब अभ्यर्थी इसका विरोध करते हैं, तो किसी न किसी बहाने उनपर लाठियां चलाई जाती हैं. मुझे लगता है इस बार युवा इन बातों को ध्यान में रखकर ही वोटिंग करेंगे.''
वहीं, राजनीतिक समीक्षक समीर सौरभ इस विषय पर कहते हैं, "अगर लोगों ने जातीय समीकरण को देखने की जगह बेरोजगारी या पलायन के मुद्दे पर वोट किया होता, तो बीते पांच सालों में आंशिक सुधार ही सही लेकिन कुछ तो देखने को मिलता.''
नीतीश कुमार की दुर्लभ राजनीति
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का बार बार गठबंधन बदलने में शायद ही कोई मुकाबला हो. वो 17 सालों में पांच बार गठबंधन बदल चुके हैं.
'इंडिया' गठबंधन में भूमिका
2024 के लोकसभा चुनावों के लिए विपक्ष ने जो 'इंडिया' गठबंधन बनाया था, नीतीश कुमार की उसमें अहम भूमिका रही. उनकी पार्टी के कई नेताओं की मांग थी कि उन्हें गठबंधन का संयोजक बनाया जाए. महीनों की खींचतान के बाद जनवरी, 2024 में उन्हें संयोजक बनाने की घोषणा कर दी गई, लेकिन उन्होंने पद ठुकरा दिया.
इमरजेंसी से शुरुआत
नीतीश कुमार ने राजनीति में शुरुआत इमरजेंसी का विरोध करने के लिए कई दलों के साथ आने से बनी जनता पार्टी से की थी. बाद में जब जनता पार्टी के टूटने से कई दल बने तो इन टूटे दलों में से कुछ ने मिल कर बनाई जनता दल और कुमार इसमें शामिल हो गए. 1985 में वो जनता दल से ही पहली बार विधायक बने.
नई पार्टी का जन्म
1994 में नीतीश कुमार ने जॉर्ज फर्नांडिस के साथ मिल कर समता पार्टी की स्थापना की. 1996 में कुमार ने पहली बार बीजेपी का दामन थामा और एनडीए में शामिल हो गए. उन्होंने लोक सभा चुनावों में जीत हासिल की और वाजपेयी सरकार में उन्हें केंद्रीय मंत्री बनाया गया.
एक और नई पार्टी
2000 में कुमार पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने लेकिन बहुमत ना जुटा पाने की वजह से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. तब भी वो बीजेपी के साथ ही थे. 2003 में उन्होंने जनता दल और समता पार्टी को मिला कर जनता दल (यूनाइटेड) की स्थापना की.
मुख्यमंत्री पद हुआ हासिल
2005 के विधान सभा चुनावों में जेडीयू के सबसे ज्यादा सीटें जीतने के बाद मुख्यमंत्री पद पर कुमार की वापसी हुई. बीजेपी के साथ मिल कर उन्होंने बिहार में एनडीए की सरकार बनाई.
पहली बार बीजेपी से तकरार
2010 में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन ने फिर से चुनावों में जीत हासिल की और कुमार फिर मुख्यमंत्री बने. लेकिन 2012 में नरेंद्र मोदी को एनडीए की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनाए जाने का कुमार ने विरोध किया और 2013 में उन्होंने बीजेपी के साथ अपना गठबंधन तोड़ दिया.
पुराने प्रतिद्वंदी से मिलाया हाथ
जनता परिवार में कभी नीतीश कुमार के सहयोगी रहे लालू यादव बाद में अपनी पार्टी आरजेडी बना कर कुमार के प्रतिद्वंदी बन गए थे. लेकिन 2015 में जब एनडीए से अलग हो जाने के बाद कुमार को सत्ता पाने के लिए नए साझेदार की जरूरत महसूस हुई तो उन्होंने करीब 25 साल से उनके प्रतिद्वंदी रहे लालू यादव से हाथ मिला लिया. जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस ने मिल कर महागठबंधन की रचना की और कुमार फिर मुख्यमंत्री बन गए.
एनडीए में वापसी
यह महागठबंधन सिर्फ दो सालों तक चल सका. 2017 में कुमार ने आरजेडी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए महागठबंधन को अलविदा कह दिया और एक बार फिर बीजेपी का हाथ थाम कर मुख्यमंत्री बन गए. 2020 के विधान सभा चुनावों में इसी गठबंधन की फिर से जीत हुई.
महागठबंधन में 'वापसी'
अगस्त 2022 में कुमार ने 2017 के घटनाक्रम को दोहरा दिया, लेकिन इस बार मुख्य किरदारों की भूमिका बदल गई थी. 2017 में वो कार्यकाल के बीच में महागठबंधन छोड़ कर एनडीए में चले गए थे, लेकिन 2022 में उन्होंने कार्यकाल के बीच में ही एनडीए को छोड़ कर फिर से महागठबंधन का दामन थाम लिया.
कहीं अन्य मुद्दे गौण न हो जाएं
बिहार विधानसभा चुनाव में दोनों ही प्रमुख गठबंधन पूरी एकता का दावा तो कर रहे हैं, लेकिन उनका आपसी विरोधाभास भी समय-समय पर जाहिर हो रहा है. साथ ही, दोनों गठबंधनों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी शुरू हो चुका है.
राहुल गांधी ने एक जनसभा में कह दिया कि नरेंद्र मोदी वोट के लिए मंच पर डांस भी कर सकते हैं. प्रत्यारोप में केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा कि डांस की संस्कृति राहुल गांधी के परिवार से जुड़ी है. राहुल गांधी ने छठ महापर्व पर भी मोदी द्वारा ड्रामा किए जाने की बात कही. इसके बाद छठ पर राजनीति तेज हो गई.
पीएम मोदी ने मुजफ्फरपुर की जनसभा में कहा कि छठ बिहार और देश का गौरव है, लेकिन राजद और कांग्रेस के नेता छठ पर व्रत करने वाली मां-बहनों का अपमान कर रहे हैं. लालू प्रसाद यादव के बड़े पुत्र तेजप्रताप यादव ने भी राहुल पर तंज कसते हुए कहा कि राहुल गांधी को क्या पता कि छठ क्या होता है, "जो बार-बार विदेश भाग जाता है, वह छठ क्या जाने." राजनीतिक दलों के बीच हो रहे आरोप-प्रत्यारोप पर समीर सौरभ कहते हैं, ‘‘इस बार भ्रष्टाचार, विकास, लॉ एंड ऑर्डर, एसआईआर, महिला सशक्तिकरण पर भी खासी चर्चा हो रही है, यह अच्छी बात है. किंतु, ध्यान रखा जाना चाहिए कि व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप की आड़ में ये मुद्दे कहीं गौण न पड़ जाए.''
नौकरी व रोजगार पर वादों की बहार
बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर एनडीए ने 31 अक्टूबर को अपना संकल्प पत्र जारी कर दिया. इसमें 25 घोषणाएं की गई हैं. इनमें किसानों, महिलाओं, विद्यार्थियों के लिए रेवड़ियां तो हैं ही, नौकरी-रोजगार के उपक्रम की सर्वाधिक चर्चा भी है. इसमें एक करोड़ सरकारी नौकरी-रोजगार, हर जिले में मेगा स्किल सेंटर, प्रत्येक जिले में फैक्ट्री व 10 नए औद्योगिक पार्कों का निर्माण, 100 एमएसएमई पार्क व 50,000 से अधिक कुटीर उद्यम, सेमी कंडक्टर मैन्यूफैक्चरिंग पार्क की स्थापना व महिला रोजगार योजना से महिलाओं को दो लाख तक की सहायता राशि देने की बातें कही गई हैं.
इसी तरह महागठबंधन ने 'तेजस्वी का प्रण' नाम से जारी घोषणा पत्र में महिलाओं, किसानों तथा अन्य वर्गों के अलावा खासतौर पर युवा वोटरों को साधने के उद्देश्य से एक बार फिर नौकरी के अपने पुराने वादे को ही दोहराया है. 2020 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने दस लाख सरकारी नौकरी देने का वादा किया था. इस बार इससे एक कदम आगे बढ़कर उन्होंने 20 महीने में हर घर में एक सदस्य के लिए सरकारी नौकरी का वादा किया है.
अर्थशास्त्र के अवकाश प्राप्त व्याख्याता अविनाश के.पांडेय कहते हैं, ‘‘इस बार के चुनाव में युवा मतदाताओं की संख्या करीब 1.63 करोड़ है. ये 18 से 35 साल के आयुवर्ग में हैं. इनके लिए नौकरी अहम मुद्दा है. तेजस्वी यादव ने जिस तरह से घोषणा की है, उस तरह तो करीब 2.8 करोड़ सरकारी नौकरी उन्हें देनी होंगी. इसके लिए इतनी भारी संख्या में नौकरी और वेतन की राशि कहां से लाएंगे, यह तो यक्ष प्रश्न ही है.''
राजनीतिक विश्लेषक रेखांकित करते हैं कि चुनावी घोषणाएं जनता को लुभाती तो हैं, लेकिन उन्हें यह भी समझने की जरूरत है कि क्या ये संभव हैं और अतीत का रिकॉर्ड क्या बताता है.
प्रशासनिक सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहीं सबीना कहती हैं, ‘‘सरकारी नौकरी के लिए बिहार में होने वाली परीक्षाओं का क्या हाल है, यह किसी से छुपा नहीं है. पेपर लीक, समय पर रिजल्ट नहीं निकलना तो आम बात है. जब अभ्यर्थी इसका विरोध करते हैं, तो किसी न किसी बहाने उनपर लाठियां चलाई जाती हैं. मुझे लगता है इस बार युवा इन बातों को ध्यान में रखकर ही वोटिंग करेंगे.''
वहीं, राजनीतिक समीक्षक समीर सौरभ इस विषय पर कहते हैं, "अगर लोगों ने जातीय समीकरण को देखने की जगह बेरोजगारी या पलायन के मुद्दे पर वोट किया होता, तो बीते पांच सालों में आंशिक सुधार ही सही लेकिन कुछ तो देखने को मिलता.''
नीतीश कुमार की दुर्लभ राजनीति
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का बार बार गठबंधन बदलने में शायद ही कोई मुकाबला हो. वो 17 सालों में पांच बार गठबंधन बदल चुके हैं.
'इंडिया' गठबंधन में भूमिका
2024 के लोकसभा चुनावों के लिए विपक्ष ने जो 'इंडिया' गठबंधन बनाया था, नीतीश कुमार की उसमें अहम भूमिका रही. उनकी पार्टी के कई नेताओं की मांग थी कि उन्हें गठबंधन का संयोजक बनाया जाए. महीनों की खींचतान के बाद जनवरी, 2024 में उन्हें संयोजक बनाने की घोषणा कर दी गई, लेकिन उन्होंने पद ठुकरा दिया.
नीतीश कुमार ने राजनीति में शुरुआत इमरजेंसी का विरोध करने के लिए कई दलों के साथ आने से बनी जनता पार्टी से की थी. बाद में जब जनता पार्टी के टूटने से कई दल बने तो इन टूटे दलों में से कुछ ने मिल कर बनाई जनता दल और कुमार इसमें शामिल हो गए. 1985 में वो जनता दल से ही पहली बार विधायक बने.
1994 में नीतीश कुमार ने जॉर्ज फर्नांडिस के साथ मिल कर समता पार्टी की स्थापना की. 1996 में कुमार ने पहली बार बीजेपी का दामन थामा और एनडीए में शामिल हो गए. उन्होंने लोक सभा चुनावों में जीत हासिल की और वाजपेयी सरकार में उन्हें केंद्रीय मंत्री बनाया गया.
2000 में कुमार पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने लेकिन बहुमत ना जुटा पाने की वजह से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. तब भी वो बीजेपी के साथ ही थे. 2003 में उन्होंने जनता दल और समता पार्टी को मिला कर जनता दल (यूनाइटेड) की स्थापना की.
2005 के विधान सभा चुनावों में जेडीयू के सबसे ज्यादा सीटें जीतने के बाद मुख्यमंत्री पद पर कुमार की वापसी हुई. बीजेपी के साथ मिल कर उन्होंने बिहार में एनडीए की सरकार बनाई.
2010 में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन ने फिर से चुनावों में जीत हासिल की और कुमार फिर मुख्यमंत्री बने. लेकिन 2012 में नरेंद्र मोदी को एनडीए की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनाए जाने का कुमार ने विरोध किया और 2013 में उन्होंने बीजेपी के साथ अपना गठबंधन तोड़ दिया.
पुराने प्रतिद्वंदी से मिलाया हाथ
जनता परिवार में कभी नीतीश कुमार के सहयोगी रहे लालू यादव बाद में अपनी पार्टी आरजेडी बना कर कुमार के प्रतिद्वंदी बन गए थे. लेकिन 2015 में जब एनडीए से अलग हो जाने के बाद कुमार को सत्ता पाने के लिए नए साझेदार की जरूरत महसूस हुई तो उन्होंने करीब 25 साल से उनके प्रतिद्वंदी रहे लालू यादव से हाथ मिला लिया. जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस ने मिल कर महागठबंधन की रचना की और कुमार फिर मुख्यमंत्री बन गए.
एनडीए में वापसी
यह महागठबंधन सिर्फ दो सालों तक चल सका. 2017 में कुमार ने आरजेडी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए महागठबंधन को अलविदा कह दिया और एक बार फिर बीजेपी का हाथ थाम कर मुख्यमंत्री बन गए. 2020 के विधान सभा चुनावों में इसी गठबंधन की फिर से जीत हुई.
महागठबंधन में 'वापसी'
अगस्त 2022 में कुमार ने 2017 के घटनाक्रम को दोहरा दिया, लेकिन इस बार मुख्य किरदारों की भूमिका बदल गई थी. 2017 में वो कार्यकाल के बीच में महागठबंधन छोड़ कर एनडीए में चले गए थे, लेकिन 2022 में उन्होंने कार्यकाल के बीच में ही एनडीए को छोड़ कर फिर से महागठबंधन का दामन थाम लिया.
कहीं अन्य मुद्दे गौण न हो जाएं
बिहार विधानसभा चुनाव में दोनों ही प्रमुख गठबंधन पूरी एकता का दावा तो कर रहे हैं, लेकिन उनका आपसी विरोधाभास भी समय-समय पर जाहिर हो रहा है. साथ ही, दोनों गठबंधनों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी शुरू हो चुका है.
राहुल गांधी ने एक जनसभा में कह दिया कि नरेंद्र मोदी वोट के लिए मंच पर डांस भी कर सकते हैं. प्रत्यारोप में केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा कि डांस की संस्कृति राहुल गांधी के परिवार से जुड़ी है. राहुल गांधी ने छठ महापर्व पर भी मोदी द्वारा ड्रामा किए जाने की बात कही. इसके बाद छठ पर राजनीति तेज हो गई.
पीएम मोदी ने मुजफ्फरपुर की जनसभा में कहा कि छठ बिहार और देश का गौरव है, लेकिन राजद और कांग्रेस के नेता छठ पर व्रत करने वाली मां-बहनों का अपमान कर रहे हैं. लालू प्रसाद यादव के बड़े पुत्र तेजप्रताप यादव ने भी राहुल पर तंज कसते हुए कहा कि राहुल गांधी को क्या पता कि छठ क्या होता है, "जो बार-बार विदेश भाग जाता है, वह छठ क्या जाने." राजनीतिक दलों के बीच हो रहे आरोप-प्रत्यारोप पर समीर सौरभ कहते हैं, ‘‘इस बार भ्रष्टाचार, विकास, लॉ एंड ऑर्डर, एसआईआर, महिला सशक्तिकरण पर भी खासी चर्चा हो रही है, यह अच्छी बात है. किंतु, ध्यान रखा जाना चाहिए कि व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप की आड़ में ये मुद्दे कहीं गौण न पड़ जाए.''
राजनीतिक हत्याओं का क्रम भी शुरू
30 अक्टूबर को पटना जिले के मोकामा विधानसभा क्षेत्र में 'बाहुबली' से नेता बने जनसुराज पार्टी के समर्थक दुलारचंद यादव की हत्या कर दी गई. हत्या उस समय हुई, जब वे प्रत्याशी पीयूष प्रियदर्शी के साथ चुनाव प्रचार कर रहे थे. हत्या का आरोप जेडीयू के प्रत्याशी व 'बाहुबली' अनंत सिंह के समर्थकों पर लगा है.
इसी दिन देर रात आरा में एनडीए के घटक दल राष्ट्रीय लोकतांत्रिक मोर्चा के समर्थक पिता-पुत्र की हत्या कर दी गई. 31 अक्टूबर को पंडारक में मोकामा से ही आरजेडी प्रत्याशी व 'बाहुबली' सूरजभान की पत्नी वीणा देवी के काफिले पर पथराव किया गया. इन घटनाओं पर सौरभ कहते हैं, ‘‘अब तो राजनीतिक हत्याओं का क्रम भी शुरू हो गया है. इसे जातीय रंग देने की कोशिश होगी. जाहिर है, इसका असर चुनाव पर भी पड़ेगा. 'बाहुबली' नेताओं को प्रचार करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए''
नीतीश कुमार की दुर्लभ राजनीति
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का बार बार गठबंधन बदलने में शायद ही कोई मुकाबला हो. वो 17 सालों में पांच बार गठबंधन बदल चुके हैं.
'इंडिया' गठबंधन में भूमिका
2024 के लोकसभा चुनावों के लिए विपक्ष ने जो 'इंडिया' गठबंधन बनाया था, नीतीश कुमार की उसमें अहम भूमिका रही. उनकी पार्टी के कई नेताओं की मांग थी कि उन्हें गठबंधन का संयोजक बनाया जाए. महीनों की खींचतान के बाद जनवरी, 2024 में उन्हें संयोजक बनाने की घोषणा कर दी गई, लेकिन उन्होंने पद ठुकरा दिया.
इमरजेंसी से शुरुआत
नीतीश कुमार ने राजनीति में शुरुआत इमरजेंसी का विरोध करने के लिए कई दलों के साथ आने से बनी जनता पार्टी से की थी. बाद में जब जनता पार्टी के टूटने से कई दल बने तो इन टूटे दलों में से कुछ ने मिल कर बनाई जनता दल और कुमार इसमें शामिल हो गए. 1985 में वो जनता दल से ही पहली बार विधायक बने.
1994 में नीतीश कुमार ने जॉर्ज फर्नांडिस के साथ मिल कर समता पार्टी की स्थापना की. 1996 में कुमार ने पहली बार बीजेपी का दामन थामा और एनडीए में शामिल हो गए. उन्होंने लोक सभा चुनावों में जीत हासिल की और वाजपेयी सरकार में उन्हें केंद्रीय मंत्री बनाया गया.
2000 में कुमार पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने लेकिन बहुमत ना जुटा पाने की वजह से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. तब भी वो बीजेपी के साथ ही थे. 2003 में उन्होंने जनता दल और समता पार्टी को मिला कर जनता दल (यूनाइटेड) की स्थापना की.
मुख्यमंत्री पद हुआ हासिल
2005 के विधान सभा चुनावों में जेडीयू के सबसे ज्यादा सीटें जीतने के बाद मुख्यमंत्री पद पर कुमार की वापसी हुई. बीजेपी के साथ मिल कर उन्होंने बिहार में एनडीए की सरकार बनाई.
2010 में जेडीयू-बीजेपी गठबंधन ने फिर से चुनावों में जीत हासिल की और कुमार फिर मुख्यमंत्री बने. लेकिन 2012 में नरेंद्र मोदी को एनडीए की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनाए जाने का कुमार ने विरोध किया और 2013 में उन्होंने बीजेपी के साथ अपना गठबंधन तोड़ दिया.
जनता परिवार में कभी नीतीश कुमार के सहयोगी रहे लालू यादव बाद में अपनी पार्टी आरजेडी बना कर कुमार के प्रतिद्वंदी बन गए थे. लेकिन 2015 में जब एनडीए से अलग हो जाने के बाद कुमार को सत्ता पाने के लिए नए साझेदार की जरूरत महसूस हुई तो उन्होंने करीब 25 साल से उनके प्रतिद्वंदी रहे लालू यादव से हाथ मिला लिया. जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस ने मिल कर महागठबंधन की रचना की और कुमार फिर मुख्यमंत्री बन गए.
यह महागठबंधन सिर्फ दो सालों तक चल सका. 2017 में कुमार ने आरजेडी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए महागठबंधन को अलविदा कह दिया और एक बार फिर बीजेपी का हाथ थाम कर मुख्यमंत्री बन गए. 2020 के विधान सभा चुनावों में इसी गठबंधन की फिर से जीत हुई.
महागठबंधन में 'वापसी'
अगस्त 2022 में कुमार ने 2017 के घटनाक्रम को दोहरा दिया, लेकिन इस बार मुख्य किरदारों की भूमिका बदल गई थी. 2017 में वो कार्यकाल के बीच में महागठबंधन छोड़ कर एनडीए में चले गए थे, लेकिन 2022 में उन्होंने कार्यकाल के बीच में ही एनडीए को छोड़ कर फिर से महागठबंधन का दामन थाम लिया.
-रविन्द्र श्रीवास्तव
छत्तीसगढ़ राज्य को जन्मे पच्चीस वर्ष हुए। आनन्द एवं आयोजन का दिन है उसी तरह जैसे जन्मे बालक या बालिका के युवा अवस्था के प्राप्त कर लेने पर। वह युवा या युवती जो शारीरिक रूप से विकास को प्राप्त है, आकर्षक है और जिसने लगभग लगभग एक आवश्यक स्तर की शिक्षा भी प्राप्त कर ली है। लेकिन जिसकी जीवन यात्रा जिम्मेदारियों से भरी अब इसके बाद प्रारंभ होती है। इसके बाहु में बल है, ललाट में तेजस्व है, आँखों में सपने हैं मगर उसे बुद्धि और समझ की भी आवश्यकता है। इसी तरह हमारा राज्य युवा अवस्था को प्राप्त हो गया है। इसका शारीरिक विकास तो होता दिखा है लेकिन बहुत और की ज़रूरत है। इसकी यात्रा में अभी प्रथम चरण इसने पूरा किया है। यह इसकी यात्रा का आरंभ है, अंत नहीं। कुछ सपने पूरे हुए हैं, कुछ होने की राह में हैं और कुछ को पूरा होने में समय लगेगा। अगर मनोइच्छा है तो जरूर पूरे होंगे। मगर यह सपना आम आदमी को देखना होना होगा और उसे ही पूरा करना होगा। राजनीतिक एवं प्रशासनिक तंत्र तो केवल साधन मात्र है। उन पर निर्भरता आवश्यकता से अधिक व्यर्थ है एवं अनुचित भी। अगर हम चाहते हैं कि हमारे घर के साथ साथ, घर का बाहर एवं आस पास साफ-सुथरा हो तो यह जिम्मेदारी हमें स्वयं लेनी होगी।
बहरहाल, जब पच्चीस वर्ष का युवा बड़ा सफऱ आरंभ करने के पूर्व एक चौराहे पर खड़ा होता है तो उसे एक समावलोकन और आत्मचिंतन अवश्य करना चाहिए; क्या हासिल किया और क्या करना है? मैं मानता हूँ मेरी तरह बहुत से लोग इस अवसर पर बहुत कुछ सोचते होंगे। ऐसा ही नहीं बल्कि और अच्छा भी सोचते होंगे। सोचने के अलावा चलिए आसपास देखें भी।
एक हिस्से में सडक़ें चौड़ी हो गई हैं मगर यातायात सुरक्षित नहीं है, नई ऊँची ऊँची इमारतें खड़ी हो गईं हैं मगर घर नहीं है, जगमगाहट है, चकाचौंध है बिजली की लेकिन दिव्य रोशनी नहीं है; एक वर्ग समृद्ध हुआ है, धनवान और अधिक धनवान हुआ है साथ बलवान भी हुआ है; प्रभावशाली है, शक्ति का केंद्र है, मगर बड़ी संख्या में अभागे लोग अभी भी न्यूनतम जीवन स्तर को जीने के लिए सूनी आँखों से टकटकी लगाए बैठे हैं; उनकी आशा निराशा में बदल रही है। बड़े-बड़े बाजार, शॉपिंग माल में महंगे ब्रांड के माल बिक रहे हैं, वहीं छोटे छोटे बाजार जहाँ ताजा फल सब्जियां मिलती हैं, उजड़ रहे हैं। कहीं एक वर्ग के लोग बड़े भोग विलास के साथ भोजन करते हैं और मजे की बात है जो खाते हैं उससे अच्छा अपने पालतू श्वान को खिला देते हैं या बचा हुआ कूड़े में फेंक देते हैं। वहीं बहुत से लोग कहीं कहीं हफ़्ते में लगने वाले हाट में नून चाउर खरीदकर गुज़ारा करने की कोशिश करते हैं। ऐसी दशा को मैं विकास नहीं मानता। इसे एक दुर्भाग्यपूर्ण पैराडॉक्स मानता हूँ। ऐसा दृश्य मुझे वैसा ही लगता है जैसे अमीर पिता के धन का दोहन कर अक्सर उनके सपूत कपूत धन प्रदर्शन करते हुए शहरों में एवं आसपास उछलकूद करते दिखते हैं। छत्तीसगढ़ में अपार नैसर्गिक प्राकृतिक धन संपदा है, कुछ लोग इसका दोहन अपनी धन संपदा के लिए करने में सफल हैं। वो लोग विकास का चेहरा नहीं हो सकते।
मैं मानता हूँ राज्य के अंदर अधोसंरचना के विकास के अलावा, आम नागरिक का व्यक्तिगत बौद्धिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विकास आवश्यक है। समग्र रूप से हर व्यक्ति का जीवन स्तर विकसित होना चाहिए। गरीबी भुखमरी नाम लेने वाला भी कोई न हो। मैं चाहता हूँ, राज्य एक समृद्ध संस्कृति का केंद्र बने, बौद्धिक क्षमता, सोच विचार की शक्ति बढ़े। सकारात्मक प्रतियोगिता का जज्बा हर व्यक्ति के अंदर जागृत हो। मानवता के लिए कुछ कर गुजरने की आग अंदर जल उठे। उपलब्धियों के नए कीर्तिमान व्यक्ति विशेष के बनें। सोच में विज्ञान का समावेश हो, अंधविश्वास का अंधेरा नहीं। जिनमें सामर्थ्य है वे समाज शोषक नहीं समाज सेवक बनें। राज्य में तंत्र हावी न हो बल्कि प्रजा के लिए प्रजा के अधीन हो। लोक नीतियों का निर्माण आम जनता की रायशुमारी से, उनकी भागीदारी से पारदर्शिता के साथ विशुद्ध मन एवं प्रण के साथ हो। हर सरकारी निर्णय का प्रयोजन लोभ लुभावन न हो ; कुछ कठोर, अप्रिय निर्णय भी हों। लोकप्रियता की लालसा में सर्वहारा वर्ग का अहित न हो। तंत्र का मंत्र हो; अस्पताल, स्कूल, कॉलेज को धर्म स्थलों से अधिक महत्व मिले। धर्म और भक्ति के नाम पर स्मारक न बनाए जाएं, प्रभु का वास किसी स्थान विशेष पर नहीं बल्कि हृदय में हो। आस्था की आज़ादी हो। धार्मिक रीतियों का अर्थ मन में पीड़ा प्रेम और करुणा हो और ये सब व्यक्ति पर छोड़ दिया जाए। उस पर भावना के तोल-मोल में बोझ न लादा जाये।
शैक्षणिक संस्थाओं की संख्या के साथ शिक्षा की गुणवत्ता बढ़े ; केवल पैसे लेकर डिग्री बाँटने की फैक्ट्री बनकर न रह जाएँ। शिक्षा का रूप- स्वरूप, मानदंड, कार्यक्रम, शिक्षाविदों के हाथ में रहे। सरकारी तंत्र की भागीदारी केवल उतनी हो जितनी अर्थ व्यवस्था मुहैया कराने के लिए जरूरी। सरकार के लिए स्वास्थ्य एवं शिक्षा के मामले सर्वोच्च प्राथमिकता के हों। योजनाओं का रूप प्रदर्शन नारों और पोस्टरों से नहीं, जमीनी हकीकत से हो।
लाख हम विकास और समृद्धि का दंभ भर लें, लेकिन सब कुछ अधूरा है जब तक उच्च स्तर का बौद्धिक विकास हर व्यक्ति विशेष का ना हो और उसके बल पर समाज और प्रदेश का। बौद्धिकता से ही नैतिकता का और नैतिकता से ही चरित्र का निर्माण हो सकता है। बौद्धिक विकास से ही जीवन के मूल्य को समझा जा सकता है और तभी एक आदर्श नागरिक बोध (सिविक सेंस) हासिल हो सकता है ; उसके बिना समाज अविकसित-अव्यवस्थित ही रहेगा। भ्रष्टाचार एवं अन्य कुरीतियों से संघर्ष केवल चारित्रिक एवं नैतिक बल से ही किया जा सकता है।
चाहे वो जीवन के रहन-सहन का स्तर हो या लाइफ स्टाइल का बेढंगा ढंग या नैसर्गिक वातावरण का विघटन, इसने सभी वर्ग के लोगों में शरीर की बीमारी को बढ़ाया है। भयंकर किस्म की बीमारियों से लोग पीडि़त हैं। समर्थ को इलाज और शेष लाइलाज है । यह तंत्र की विफलता तो है ही ,एक गंभीर विडंबना भी है। एक वर्ग तरण ताल में तैरने की विलासिता भोगता है, और एक वर्ग ऐसा भी है जहाँ मनुष्य एवं गाय बैल, भैंस, पशु मवेशी एक ही तालाब में नहाते हैं और उसी का पानी भी पीते हैं। यह कलंक है। छत्तीसगढ़ स्वस्थ होगा तो सब कुछ होगा।
न्यायदान महादान है। पवित्र हाथों से सुपात्र जनों के लिए। न्याय के हाथ अपवित्र नहीं, लंबे होने चाहिए। विवाद कम होने चाहिए और अगर हों तो पीडि़तों को बिना किसी लाग लगाव के, बिना किसी पूर्व मत से प्रभावित न्याय मिले; केवल कागज में लिखे हस्ताक्षरित आदेश नहीं। न्याय समुचित और अर्थ पूर्ण होना चाहिए शॉर्ट कट के द्वारा नहीं। मुकदमों का निपटारा न हो, हर मुकदमे में सच्चा न्याय हो गरीबों और कमजोर को न्याय की आवश्यकता जीवन से जुड़ी है, व्यापारी और कॉर्पोरेट के लिए उनकी बैलेंस शीट से। इस आधार और प्राथमिकता तय होनी चाहिए। न्याय व्यवस्था से जुड़े लोग बेहद संवेदनशील हों। व्यवसाय में स्तर की गुणवत्ता, श्रम की क्षमता, व्यावसायिक दक्षता, निर्भीकता, स्वस्थ एवं व्यापक स्तर पर प्रतियोगिता एवं उत्तरदायित्व की भावना, सबसे ज़्यादा अपने अन्नदाता के प्रति। धन उपार्जन तो हो ही जाना है। यह भी एक लक्ष्य हो, इसमें कोई बुराई नहीं, मगर सीधे साधे ढंग से।
(लेखक छत्तीसगढ़ के पहले महाधिवक्ता रह चुके हैं, अभी सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)
-तपेश झा
आँकड़ों का आईना: और. हमारी अपनी ‘सोच’? ‘खूंखार हाथी का आतंक, एक और व्यक्ति की कुचलकर मौत!’
ये पढ़ते सुनते ही, सबके मन में एक सिहरन दौड़ जाती है। गुस्सा आता है, डर लगता है और जितना ज्यादा ज्यादा इस तरह के समाचार सामने आते जाते हैं उतना ही हाथी और वन्य प्राणियों के लिए एक पूर्वाग्रह से ग्रसित खराब माहौल बनने लग जाता है। यह माहौल कुछ इस कदर बन गया है थोड़ा रुक कर आंकड़ों को थोड़ा दूसरे ढंग से देखने की तथ्यात्मक ढंग से देखने की कोशिश भी नहीं हो रही है।
पहला सच: (जो हमें दुखी करता है)
ये बिल्कुल सच है कि हाथी और इंसान का टकराव एक बड़ी समस्या है। सरकारी आँकड़े बताते हैं कि 2023 में, इस टकराव में हमने 606 जानें खो दीं। ओडिशा, झारखंड, बंगाल... हर जगह से दिल दुखाने वाली खबरें आती हैं। किसानों की लाखों हेक्टेयर फसलें बर्बाद होती हैं, घर टूटते हैं। ये नुकसान बहुत बड़ा है और हर एक जान कीमती है।
...लेकिन अब एक
दूसरा सच: (जो हमें चौंकाता नहीं, पर चाहिए)
ये वो आँकड़े हैं जो हमें रोज़ दिखते हैं, पर शायद हमें इनकी ‘आदत’ हो गई है।
जरा 2023 के ही इन आँकड़ों पर नजऱ डालिए:
सडक़ हादसों में मौतें: 1,72,000 से ज़्यादा! (यानी हर दिन 474 लोग!)
ट्रेन हादसों में मौतें: 24,000
हत्या (ष्टह्म्द्बद्वद्ग): 27,721
आग लगने से मौतें: 7,435
हाथी के हमले से दिन में औसतन 1 या 2 मौतें (1.7) होती हैं। और हमारी अपनी बनाई सडक़ों पर, हमारी अपनी लापरवाही से, हर दिन 474 लोग मर जाते हैं! हाथी के हमलों से 284 गुना ज़्यादा मौतें हमारी सडक़ों पर हो रही हैं!
‘हाथी का हमला’ नेशनल न्यूज़ बन जाता है, और सडक़ पर मरते 474 लोग बस एक छोटी सी खबर बनकर रह जाते हैं?
यहीं पर सारा खेल है ‘सोच’ का
सडक़ हादसा: ‘अरे यार, ये तो होता रहता है।’
अपराध: ‘दुनिया ही खराब हो गई है।’
ये सब हमारे लिए ‘स्वीकार्य’ (्रष्ष्द्गश्चह्लड्डड्ढद्यद्ग) जोखिम बन गए हैं। और कोई ताज्जुब नहीं कि इस स्वीकार्यता के चलते इन क्षेत्रों में रोज नई नई तकनीकों का इस्तेमाल करके समस्याओं के समाधान भी सहज रूप से सामने आते जा रहे हैं।।
लेकिन हाथी का हमला: ‘ये जानवर पागल हो गए हैं!’ ‘जंगल से बाहर क्यों निकलते हैं?’ ‘ये एक आपदा है!’
वन्य प्राणी के क्षेत्र के लिए मानव समाज में स्वीकार्यता का अभाव ही पहली सबसे बड़ी समस्या है। तथ्यात्मक आंकड़ों के स्वीकार्यता के इस अभाव में भावनात्मक तीव्रता हावी हो जाती है जिसके चलते आगे की सोच रुक जाती है। ना आगे कोई समाधान की दिशा में वैज्ञानिक और तकनीकी उत्कृष्ट प्रयास ही हो पाते हैं।
सबसे कड़वा सच: ‘अधिकार’ का फर्क
हम सब एकतरफा क्यों सोचते हैं? क्योंकि फर्क ‘अधिकारों’ का है।
हमारे पास, आपके पास, देश के सबसे गऱीब इंसान के पास भी ‘मौलिक अधिकार’ हैं (्रह्म्ह्लद्बष्द्यद्ग 21: जीवन का अधिकार)। हमारे पास ‘वोट’ की ताकत है। हमारी एक ‘आवाज़’ है, जिसे हम उठा सकते हैं।
उस हाथी के पास क्या है?
न कोई मौलिक अधिकार।
न कोई राजनीतिक आवाज़।
न कोई प्रतिनिधि। न कोई वोट से अपने फायदे के मोलभाव का मौका
न बोलकर बताने की क्षमता कि वो सिफऱ् अपने बच्चे को बचाने के लिए दौड़ा था, या भूख के मारे फ़सल खाने आया था। वो सिफऱ् ‘खलनायक’ है।
आत्ममंथन का सवाल...
आज जब ये सारे तथ्य सामने हैं, तो मन में यह सवाल भी उठता है कि हमारे समाज के दबे-कुचले इंसानों की आवाज बनने के लिए, उन्हें उनके हक दिलाने के लिए बाबासाहेब आंबेडकर और महात्मा गांधी जैसे नेतृत्व आए। तो कुछ कानून बने, कुछ सोच बनी, और समस्याएं सुनहरे अवसरों में बदल गई।
क्या इन बेजुबान जानवरों को... इन हाथियों को... भी अपने ‘अंबेडकर’ का इंतजार है।
कोई ऐसा, जो उनके लिए जन-आंदोलन खड़ा न भी कर सके, तो कम से कम हमारे दिमाग़ में उनके खिलाफ जो ‘नफरत’ और ‘डर’ भरा जा रहा है, उसे तो रोक सके। जो हमें बता सके कि हर कहानी का दूसरा पहलू भी होता है और फैसले ‘भावनाओं’ में बहकर नहीं, ‘तथ्यों’ के आधार पर हो तो समस्या का स्वरूप एक सहज समाधान के रूप में स्वत: स्वीकार्य हो जाता है। और फिर हल करने के रास्ते अपने आप खुलने लगते हैं।
कैद-ए-हयात ओ बंद-ए-गम अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए क्यूँ
-संजीव शुक्ला
पिछले दिनों एक मित्र ने कहा कि आप कितने सामाजिक हैं यह देखना हो तो अपने मोबाइल की कॉल लिस्ट देखिए। देखें कि एक माह में आप कितने लोगों से बात कर रहे हैं इनमें से ऐसी कॉल जो व्यवसाय से संबंधित लोगों को की गई है उन्हें अलग कर दें, फिर देखें कि आपने महीने भर में कितने लोगों से बात करते हैं। यदि यह सूची पचास की है तो आप सामाजिक संबंधों के मामले में समृद्ध हैं।
मैंने अपनी कॉल लिस्ट देखी निजी संबंधी जिनसे मेरी नियमित बात होती है यह लिस्ट तीस से अधिक नहीं है। माता पिता पत्नी भाई बहन बच्चों के अतिरिक्त मात्र कुछ मित्र ही हैं जिनसे हम नियमित बातचीत करते हैं शेष सभी व्यावसायिक संबंध ही हैं। जैसे ही हम सेवानिवृत होते हैं या व्यवसाय से अलग होते है ये व्यावसायिक संबंध खत्म हो जाते हैं। इस अनुसार यदि मैं ख़ुद का मूल्यांकन करता हूँ तो मुझे लगता है कि व्यक्तिगत संबंधों को निभाने में मैं बहुत कमजोर हूँ। आप सभी भी इस आधार पर अपना मूल्यांकन करें और देखें कि व्यक्तिगत संबंधों के मामले में आप कितने समृद्ध हैं।
हम सभी सामाजिक प्राणी है हमारे जीवन का आधार केवल भौतिक सुख सुविधाएं ही नहीं है बल्कि प्रेम पारस्परिक सहयोग और भावनात्मक जुड़ाव भी है। यह हमें परिवार और समाज से ही मिलता है।
मैं महसूस करता हूँ कि जब संचार के साधन कम थे तब हमारे संबंध अधिक विस्तृत और प्रगाढ़ होते थे। जब से मोबाइल व्हाट्सएप फेसबुक इंस्टा आदि से हम जुड़े तब से हम व्यक्तिगत संबंधों के मामले में कृपण होते गए। फेसबुक इंस्टा पर तो हमारे मित्रों की संख्या हजारों में है लेकिन मन की बात खुल कर सके ऐसे छात्रों की संख्या बड़ी मुश्किल से दहाई में पहुंचाती है। व्हाट्सएप पर तो हम सैकड़ों को गुड मॉर्निंग और दिवाली की बधाई दे देते है किंतु व्यक्तिगत रूप से मित्रों के घर जाकर बधाई देने की परम्परा से हम दूर होते जा रहे हैं।
-सिद्धार्थ ताबिश
आपकी ज़्यादातर किताबें और साहित्य आपको ये सिखाते हैं कि ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है’.. मगर ये बात सच्चाई से बहुत दूर है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी नहीं है.. वो कभी नहीं रहा है.. मनुष्य सामाजिक सिर्फ ‘असुरक्षा’ की भावना के तहत होता है। जैसे ही उसकी ‘असुरक्षा’ की भावना हटती है, मनुष्य तुरंत ‘असामाजिक’ प्राणी हो जाता है। मनुष्य को अगर आप ‘सामाजिक’ प्राणी कहते हैं तो ये ऐसे ही है जैसे आप ये कहें कि ‘मनुष्य भगवान/ख़ुदा से प्रेम करता है’। नहीं मनुष्य किसी भी भगवान या ख़ुदा से प्रेम नहीं करता है.. वो ‘डरता’ है भगवान और ख़ुदा से इसलिए ‘प्रेम’ करने का नाटक करता है।
संसार में जितने भी लोग जो आर्थिक रूप से सामथ्र्य हो जाते हैं, वो सबसे पहले समाज का त्याग करते हैं.. एक व्यक्ति जो मध्यम वर्गीय परिवार में पला बढ़ा होता है, वो जैसे ही आर्थिक रूप से संपन्न होता है, और उसके भीतर से असुरक्षा की भावना कम हो जाती है, वो सबसे पहले अपना मध्यम वर्गीय समाज छोड़ के दूर चला जाता है.. फिर जब उसकी असुरक्षा की भावना और कम होती है और वो आर्थिक रूप से और सुरक्षित हो जाता है, वो संपन्न लोगों का भी समाज छोड़ कर और दूर चला जाता है.. जिनके भीतर असुरक्षा की भावना पूरी तरह से खत्म हो जाती है वो कहीं दूर जंगल या पहाड़ में जा कर अपना आशियाना बना कर वहां रहने लगते हैं और उसी समाज की खूब बुराइयां करते हैं जिनमें रहकर कभी वो स्वयं और दूसरों को ‘सामाजिक प्राणी’ साबित करते थे।
मनुष्य पारिवारिक प्राणी भी नहीं है.. वो पारिवारिक सिफऱ् इसलिए है क्योंकि बचपन से उसकी कंडीशनिंग और ट्रेनिंग हम ऐसी करते हैं.. कोई भी लडक़ा, जिसे आप ऐसे समाज में पैदा करें जहां शादी ब्याह, परिवार और जिम्मेदारी वाला माहौल नहीं होगा, वो लडक़ा एक ‘अपारिवारिक’ लडक़ा ही बनेगा.. प्राकृतिक रूप से हम सब असामाजिक और अपारिवारिक ही हैं.. समाज और परिवार प्रकृति ने नहीं बनाया है और ये हमारा मूल स्वभाव नहीं है
हम दूसरे जानवरों और दूसरी नस्लों द्वारा मार दिए जाते थे इसलिए हमने गुट में और कबीले में रहना शुरू किया। असुरक्षा की भावना ने हमें एकजुट किया और हमने समाज बना कर स्वयं को सामाजिक कहना शुरू किया। भीड़ बनाकर रहने को हमने ‘सामाजिक’ कहना शुरू कर दिया जबकि भीड़ कोई समाज नहीं होती है। आपकी हर छोटी सी भीड़ में हज़ारों समाज रहते हैं। कोई हिंदू, कोई मुस्लिम, कोई दलित, कोई पंडित, कोई अंसारी, कोई सैय्यद, फिर कोई लखनवी, कोई बरेलवी, कोई आर्यसमाजी, कोई राधास्वामी कोई कुछ और कुछ और सब एक दूसरे से भिन्न समाज में रहने का दावा करते हैं और सब एक दूसरे को नापसंद करते हैं। जितना मनुष्य एक दूसरे को नापसंद करते हैं उतना दुनिया का कोई भी अन्य प्राणी एक दूसरे को नहीं करता है.. सामाजिक प्राणी एक दूसरे को नापसंद नहीं करते हैं। जो भी प्राणी झुंड में रहते हैं वो कभी एक दूसरे को नापसंद नहीं करते हैं।
-अशोक पांडे
तालिबान की प्रेस कांफ्रेंस से महिला पत्रकारों को बाहर निकाले जाने की हालिया चर्चा के बीच मुझे ओरियाना फल्लाची याद आईं। अयातुल्ला खुमैनी की अगुवाई में ईरानी में घटी इस्लामी क्रान्ति के बाद आधुनिकता की तरफ तेजी से बढ़ रहा ईरान मध्यकाल में खदेड़ दिया गया था। औरतों से उनकी आज़ादी छीन ली गई और उन्हें हर वक्त लबादेनुमा परदा पहने रहना होता था।
खुमैनी के गद्दीनशीन होने के कुछ ही महीनों बाद बाद इटली की बेखौफ, तेज-तर्रार पत्रकार ओरियाना फालाची उसका इंटरव्यू लेने तेहरान पहुँचीं। इंटरव्यू से पहले उन्हें निर्देश मिला कि उन्हें एक काले परदे से खुद को ढंकना होगा। इंटरव्यू ज़रूरी था सो थोड़ी ना-नुकुर के बाद वे मान गईं। वे फर्श पर टांगें मोडक़र बैठीं और खुमैनी से सवाल शुरू किए-औरतों की आजादी पर, परदे पर और इस्लामी हुकूमत पर। हर सवाल तीखा!
खुमैनी ने कहा, ‘जो औरतें परदा नहीं करतीं, वे नंगी हैं, गुनहगार हैं।’
फल्लाची ने मुस्करा कर उलटा सवाल पूछा- ‘दुनिया की औरतें तरह-तरह के कपड़े पहनती हैं, क्या सारी दुनिया गुनहगार है?’
फिर वह घटा जिसे पत्रकारिता के इतिहास में दर्ज हो जाना था। बातचीत के बीच अचानक ओरियाना उठीं और बोलीं- ‘अब बहुत हो गया-यह बेवकूफ़ाना, मध्ययुगीन चिथड़ा मैं नहीं ओढ़ सकती!’
और उन्होंने झटके से परदा उतार फेंका।
सन्नाटा हो गया। खुमैनी गुस्से में उठकर बाहर चला गया। कमरे में मौजूद लोगों को लगा इंटरव्यू खत्म हो गया लेकिन कुछ देर बाद वह शांत लौटा और उसने इंटरव्यू पूरा किया।
मेडिकल कॉलेजों में पढ़ रहे छात्र व्यवस्थाओं से खुश नहीं हैं। उन्हें अपने काम की जगह ‘टॉक्सिक' लगती है। हाल ही में जारी एक रिपोर्ट इन कॉलेजों में लैब, दवाई और प्रशिक्षित प्रोफेसरों की कमी को दिखाती है।
डॉयचे वैले पर शिवांगी सक्सेना की रिपोर्ट –
भारत में मेडिकल कॉलेजों में शिक्षा की व्यवस्था, इंफ्रास्ट्रक्चर और छात्रों की मानसिक स्थिति को लेकर गंभीर चिंताएं सामने आई हैं। एक सर्वे से इसका पता चला है। फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया मेडिकल एसोसिएशन (फाइमा) की ओर से किए एक सर्वे में देश के 40 फीसदी मेडिकल स्टूडेंट्स ने अपने कॉलेज में काम के माहौल को ‘टॉक्सिक' बताया है। जबकि 55 फीसदी स्टूडेंट्स ने स्टाफ की कमी की शिकायत की है। इस सर्वे में 28 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के 2000 से अधिक मेडिकल स्टूडेंट, टीचर और प्रोफेसरों को शामिल किया गया। इनमें 90 फीसदी प्रतिभागी सरकारी अस्पताल और मेडिकल संस्थानों के हैं।
मेडिकल छात्रों ने कॉलेजों में खराब इंफ्रास्ट्रक्चर को पढ़ाई में बाधा का मुख्य कारण बताया है। लगभग 89 फीसदी प्रतिभागियों को लगता है कि कॉलेजों की बिल्डिंग, लैब और बाकी सुविधाएं अच्छी नहीं हैं। वहीं सिर्फ 54।3 फीसदी स्टूडेंट्स को रेगुलर क्लास मिलती है। मेडिकल क्षेत्र में पढ़ाई के साथ-साथ प्रैक्टिकल अनुभव की अहमियत भी होती है। फिर भी केवल 44 प्रतिशत कॉलेजों में स्किल्स लैब उपलब्ध हैं। जबकि 69 फीसदी स्टूडेंट्स का कहना है कि उन्हें लैब और मशीनों की सुविधा संतोषजनक लगती है।
सरकारी कॉलेजों और अस्पतालों में इलाज कराने आने वाले मरीजों की संख्या ज्यादा होती है। इसलिए इन कॉलेजों में पढ़ रहे छात्रों को काफी अनुभव हो जाता है। उन पर काम का बोझ भी बहुत ज्यादा होता है। इन प्रतिष्ठित कॉलेजों से पढक़र निकलने के बाद माना जाता है कि अब ये छात्र बिना सीनियर की मदद के खुद से मरीजों का इलाज कर सकेंगे। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि इन कॉलेजों में से निकलने वाले सिर्फ 57 फीसदी स्टूडेंट ही खुद को डॉक्टर बनकर अकेले काम करने के लिए तैयार मानते हैं।
कहां है भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था?
हाल ही में देश के गृह मंत्री अमित शाह ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि सरकार ‘समग्र स्वास्थ्य प्रणाली' विकसित करने पर काम कर रही है। उन्होंने बताया था कि साल 2014 में स्वास्थ्य बजट 37 हजार करोड़ रुपये था जो अब 1।27 लाख करोड़ रुपये हो गया है। अमित शाह ने यह भी कहा था कि मोदी सरकार के कार्यकाल में लगभग 65 हजार करोड़ रुपये स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर में खर्च किए गए हैं।
भारत स्वास्थ्य के क्षेत्र पर अपनी कुल जीडीपी का लगभग 3।8 प्रतिशत खर्च करता है। यह विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के कम से कम 5 प्रतिशत के सुझाव से यह बहुत कम है। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने इस साल 31 जनवरी को संसद में जो आर्थिक सर्वेक्षण 2024-25 पेश किया था, उसमें उन्होंने भारत के स्वास्थ्य खर्च को लेकर एक सकारात्मक तस्वीर पेश की थी। रिपोर्ट में कहा गया था कि सरकार ने 2024-25 में स्वास्थ्य पर कुल 6 लाख करोड़ रुपए का खर्चा किया। यह साल 2020-21 में किए 3।2 लाख करोड़ रूपए का दुगना है।
काम के बोझ तले दबे स्वास्थ्यकर्मी और डॉक्टर
कोविड महामारी के समय भारत की स्वास्थ्य प्रणाली की कमजोरियां पूरी दुनिया के सामने आईं। इस पर बात हुई कि देश के कई हिस्सों में अस्पतालों में जरूरी उपकरण, डॉक्टरों की कमी और बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं का अभाव कितना गंभीर है। फिर भी ग्रामीण और छोटे शहरों में हालात अब भी बेहद खराब बने हुए हैं। फिलहाल एक भारतीय डॉक्टर पर 1500 मरीजों का भार है। जबकि डब्लूएचओ के सुझाए मानक के अनुसार एक डॉक्टर अधिकतम 1000 मरीजों को ही देख सकता है।
इसी तरह नर्सों की स्थिति भी चिंताजनक है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट खुद बताती है कि सरकारी अस्पतालों, खासकर तालुक, जिला और मेडिकल कॉलेजों में डॉक्टरों, नर्सों और पैरामेडिकल स्टाफ की भारी कमी है। दवाइयों की उपलब्धता में भी कमी पाई गई है। फाइमा के सर्वे में भी यही बातें सामने आई हैं।
इस सर्वे के चीफ कोऑर्डिनेटर डॉ सजल बंसल बताते हैं कि नेशनल मेडिकल कमीशन (एनएमसी) इन कॉलेजों में नियम पालन ना किए जाने को लेकर पहले ही चेतावनी दे चुका है। सरकारी मेडिकल कॉलेज और अस्पतालों में स्टाफ की कमी के चलते एमबीबीएस और रेजिडेंट डॉक्टरों को उनका भी काम करना पड़ता है। डॉक्टर हफ्ते में 100 से 120 घंटे काम करते हैं। जबकि पिछले साल एनएमसी के टास्क फोर्स ने सुझाव दिया था कि रेजिडेंट डॉक्टर से हफ्ते में 74 घंटे से ज्यादा काम नहीं कराया जा सकता।
अस्पतालों में सबसे जरूरी बुनियादी सुविधाएं भी पूरी नहीं होतीं। उदाहरण के लिए अस्पतालों में मरीजों को ले जाने के लिए पर्याप्त स्ट्रेचर नहीं हैं। दिल्ली के आरएमएल जैसे बड़े सरकारी अस्पतालों में भी अक्सर पैरासिटामोल जैसी सामान्य और जरूरी दवाइयां नहीं मिलतीं। जिसकी वजह से इन एमबीबीएस छात्रों और पीजी कर रहे डॉक्टरों को इलाज करने में देरी और परेशानी होती है।
ज्यादातर जगहों पर अब भी महिलाएं पब्लिक स्पेस में असुरक्षित महसूस करती हैं. सड़क हो, या पार्क, या बाजार, उन्हें कई चुनौतियों से जूझना पड़ता है. अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने के लिए वे कई संभावित खतरों का सामना करती हैं.
डॉयचे वैले पर रीतिका की रिपोर्ट –
सार्वजनिक जगहों में महिलाओं के इकट्ठा होने का इतिहास बहुत पुराना नहीं है. पश्चिमी देशों में 19वीं शताब्दी के आस-पास 'टी रूम्स' महिलाओं का सेफ स्पेस बने. यहां से उन्होंने मतदान का अधिकार हासिल करने के के आंदोलन की शुरुआत की. वहीं, भारत में स्वतंत्रता आंदोलन और अन्य सामाजिक अभियानों ने महिलाओं के घर से बाहर निकलने की राह आसान बनाई.
औद्योगिक क्रांति और विश्व युद्ध जैसी
व्यापक घटनाओं ने इस तस्वीर को पूरी तरह बदलकर रख दिया. घर की सीमा से निकलकर सार्वजनिक जगहों में दाखिल होने और नजर आने की महिलाओं की कोशिशों को इन वैश्विक घटनाओं ने बहुत रफ्तार दी. अब महिलाएं सिर्फ आंदोलनों के लिए नहीं, बल्कि काम के लिए बाहर निकलने लगी थीं.
विश्व युद्ध और औद्योगिक आंदोलन ने बदली तस्वीर
यूरोप जहां बड़ी संख्या में पुरुष युद्ध लड़ रहे थे. उनकी अनुपस्थिति से पैदा हुई खाली जगह भरने के लिए महिलाओं को बाहर निकलना पड़ा, क्योंकि देश को कामगारों की जरूरत थी. बढ़ी हुई जरूरतों के मुताबिक कारखानों में उत्पादन जारी रहे, इसके लिए काम करने वाले लोग चाहिए थे. पूंजीवादी व्यवस्था को एहसास हुआ कि महिलाओं का श्रम पुरुषों के मुकाबले सस्ता है.
सड़कों, कारखानों, दुकानों पर महिलाओं का दिखना एक असामान्य बात नहीं रह गई. महिलाओं को एहसास हुआ कि उनकी आर्थिक और सामाजिक हैसियत को बदलने के लिए पब्लिक स्पेस में उनकी मौजूदगी बेहद जरूरी है. हालांकि, यहां ध्यान देना जरूरी है कि महिलाएं इन बदलावों के लिए तैयार थीं, लेकिन सार्वजनिक जगहें उनके अनुरूप नहीं ढल पाई थीं. पब्लिक स्पेस में महिलाओं की समान हिस्सेदारी और उसे उनकी सहूलियत के हिसाब से ढालने का संघर्ष अब तक जारी है.
जेंडर से जुड़ा है पब्लिक स्पेस में आपकी मौजूदगी का अनुभव
भारत के इंदौर शहर में ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम की दो खिलाड़ियों के उत्पीड़न की घटना सामने आई. बीजेपी नेता और मध्य प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने कहा कि खिलाड़ियों से भी अपनी सुरक्षा में चूक हुई. सोशल मीडिया पर कई लोगों ने सलाह दी कि खिलाड़ियों को इस तरह बाहर निकलने से पहले अपनी सुरक्षा का ध्यान रखना चाहिए था.
महिला अधिकार समर्थक रेखांकित करते हैं कि इन मशविरों की आड़ में यह भाव भी है कि कहीं-ना-कहीं लोगों ने यह भी स्वीकार किया कि पब्लिक स्पेस में महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं. चाहे वह कोई आम महिला हो, या कोई मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी.
इसी दौरान सोशल मीडिया पर ऑस्ट्रेलिया गए भारतीय पुरुष क्रिकेट टीम के खिलाड़ियों का एक वीडियो वायरल हुआ. इसमें तीन क्रिकेटर्स एक कैब में बैठे. कैब ड्राइवर काफी हैरान नजर आया कि उसकी टैक्सी में इतने जाने-माने खिलाड़ी बैठे हैं. एक 'क्यूट मोमेंट' बताते हुए सोशल मीडिया पर इस वीडियो को काफी शेयर किया गया. एक ही खेल खेलने वाले खिलाड़ी, दो अलग-अलग देश, लेकिन पब्लिक स्पेस में उनके अनुभवों में एक बहुत बड़ा फर्क नजर आया. इस अंतर के पीछे सिर्फ एक बड़ी वजह है, उनका जेंडर.
पब्लिक स्पेस को लेकर एक आम धारणा है कि यहां महिलाओं की कोई जगह नहीं है. अगर महिलाएं पब्लिक स्पेस में दिख रही हैं, तो वे कई संभावित जोखिमों के साथ अपनी मौजूदगी दर्ज करवा रही हैं. जाति, वर्ग से जुड़े विशेषाधिकार के आधार पर ये जोखिम कम ज्यादा जरूर हो सकते हैं.
हालांकि, तमाम विशेषाधिकारों के बावजूद जेंडर के आधार पर कोई-ना-कोई जोखिम जरूर जुड़ा होता है. मसलन ऑस्ट्रेलियाई महिला क्रिकेटरों का बिना किसी को बताए, बिना किसी सुरक्षा के बाहर निकल जाना या किसी कामगार महिला का देर रात अकेले दफ्तर से लौटना.
कैलाश विजयवर्गीय का बयान भी इस आम मानसिकता को दिखाता है कि अगर वे खिलाड़ी बाहर निकलीं, तो उन्हें खुद ही अपनी सुरक्षा का इंतजाम करके जाना चाहिए था. ये उदाहरण घूम-फिरकर इसी बिंदु पर ले आते हैं कि पब्लिक स्पेस महिलाओं के लिए कभी बनाए ही नहीं गए.
क्यों पब्लिक स्पेस में सुरक्षित महसूस नहीं करती महिलाएं
आम सोच के मुताबिक दिन ढलने के बाद एक तय समय के आगे, किसी सुनसान जगह या जहां सुरक्षित महसूस ना हो या जहां पुरुषों की संख्या अधिक हो, वहां लड़कियों और महिलाओं को नहीं जाना चाहिए. लैंगिक गैरबराबरी वाले समाज में अधिकांश लड़कियां और महिलाएं इन्हीं नसीहतों के साथ बड़ी होती हैं. हालांकि, यह बात दीगर है कि संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक महिलाओं और लड़कियों के लिए सबसे असुरक्षित जगह उनका घर है ना कि सार्वजनिक जगहें.
विशेषज्ञों के अनुसार, पब्लिक स्पेस में महिलाओं के सुरक्षित ना महसूस करने के पीछे पहली वजह यह सोच है कि ऐसी जगहों से उनका कोई वास्ता होना ही नहीं चाहिए. जेंडर के आधार पर ना सिर्फ निजी, बल्कि सार्वजनिक स्थानों पर भी महिलाओं के भीतर असुरक्षा की भावना पैदा की जाती है, ताकि उनके अंदर कमजोर होने का एहसास बना रहे.
इसके लिए अलग-अलग तरह की हिंसा का सहारा लिया जाता है. असहज करने वाले, या हिंसक अनुभव प्रभावित महिला के भीतर अगले मौकों में भी असुरक्षा पैदा करते हैं. मसलन अगर किसी के साथ बस यात्रा के दौरान उत्पीड़न होता है, तो अगली बार बस में चढ़ते वक्त उसके मन में कई आशंकाएं पैदा होती हैं.
पब्लिक स्पेस में पुरुषों के व्यवहार पर की गई स्टडीज बताती हैं कि वे महिलाओं के साथ सड़कों या दूसरी जगह पर ऐसा व्यवहार इस सोच के अधीन ही करते हैं कि महिलाओं की जगह तो घर में ही है. यहां तक कि ऑनलाइन स्पेस में भी मुखर महिलाओं के खिलाफ सबसे ज्यादा इस्तेमाल की गई लाइनों में से एक है, "गो बैक टू द किचन," यानी रसोई में वापस चली जाओ.
महिलाओं के लिए बने ही नहीं पब्लिक स्पेस
एक और बड़ी वजह यह कि सार्वजनकि जगहों को महिलाओं के लिए डिजाइन नहीं किया गया. अगर इसकी कोशिश की भी जाती है, तो सबसे पहला विरोध पुरुषों की तरफ से ही आता है. जैसे, बस में महिलाओं के लिए कुछ सीटें या मेट्रों में एक डिब्बा आरक्षित करने जैसे कदमों की आलोचना की जाती है.
रिसर्च और सर्वे बताते हैं कि पब्लिक स्पेस को महिलाओं की सुरक्षा या सहूलियत को ध्यान में रखकर नहीं बनाया जाता. साथ ही, इन्हें बनाने वालों में महिलाओं की संख्या भी बहुत कम है. जैसे, सड़कों पर पर्याप्त रोशनी का होना कैसे महिलाओं को सुरक्षित महसूस करवाता है यह बहुत हद तक अनुभवों के आधार पर समझा जा सकता है.
विशेषज्ञों के अनुसार, पब्लिक ट्रांसपोर्ट में महिलाओं के लिए डिब्बे आरक्षित करना जरूरी हैं, क्योंकि पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा महिलाएं आवाजाही के लिए सार्वजनिक यातायात पर निर्भर होती हैं. वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में करीब 84 फीसदी महिलाएं पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करती हैं. विशेषज्ञ रेखांकित करते हैं कि पब्लिक स्पेस को डिजाइन करते और बनाते वक्त ऐसे बिंदुओं को शामिल किया जाना बेहद जरूरी है.
आंकड़े क्या कहते हैं
संस्था 'सेफ्टी पिंस' की 2024 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में करीब 83 फीसदी महिलाएं पब्लिक स्पेस में असुरक्षित महसूस करती हैं. वहीं, वर्ल्ड वाइड मार्केट रिसर्च नाम की संस्था के एक ग्लोबल सर्वे के मुताबिक, दुनियाभर में करीब 46 फीसदी महिलाएं रात में अकेले कहीं जाने से डरती हैं. यहां तक कि अपने खुद के मोहल्ले में भी वे सुरक्षित नहीं महसूस करतीं.
दिक्कत केवल विकासशील या कम आयवर्ग वाले देशों तक सीमित नहीं है. उदाहरण के लिए, जर्मनी में भी सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं को सुरक्षित माहौल मुहैया कराना संभव नहीं हो पाया है. हाल ही में फंक मीडिया ग्रुप के लिए 'कवे रिसर्च इंस्टिट्यूट' ने एक सर्वे करवाया. इस ऑनलाइन सर्वे में 18 साल से अधिक उम्र के 5,000 लोगों को शामिल किया गया. सर्वे में शामिल 55 फीसदी महिलाओं ने कहा कि उन्हें सड़कों, पब्लिक ट्रांसपोर्ट और पार्क जैसी जगहों पर डर लगता है. सबसे ज्यादा तो महिलाएं क्लब और ट्रेन स्टेशनों पर खुद को असुरक्षित पाती हैं.
सर्वे के मुताबिक, महज 14 फीसदी महिलाओं ने इन जगहों पर सुरक्षित महसूस होने की बात कही. इस सर्वे में ना सिर्फ महिलाएं, बल्कि पुरुषों के भी अनुभव शामिल किए गए. करीब 49 फीसदी प्रतिभागियों ने कहा कि वे इन सार्वजनिक स्थानों पर बिल्कुल सुरक्षित महसूस नहीं करते.
कैसा हो जब पब्लिक स्पेस महिलाओं के लिए भी सुरक्षित और सहज बन जाएं
सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं की मौजूदगी और बराबर की हिस्सेदारी को लेकर अब बहसें तेज हुई हैं. अब नारावादी शहरों और सार्वजनिक जगहों की बात की जाने लगी है. हालांकि, बात जब पब्लिक स्पेस में महिलाओं की सुरक्षा की आती है, तो पहला सुझाव यह आता है कि उन्हें इन जगहों पर पुरुषों से अलग कैसे रखा जाए या उनके लिए कैसे जगहें बांट दी जाएं.
विशेषज्ञ ध्यान दिलाते हैं कि यह सोच जेंडर आधारित बंटवारे को और मजबूत करती है. नारीवादी डिजाइनर्स के मुताबिक, पब्लिक स्पेस को इस तरह आकार देने की जरूरत है जिसका उद्देश्य यह बताना हो कि ऐसी जगहें महिलाओं की भी उतनी ही हैं, जितनी पुरुषों की. साथ ही, किसी भी सार्वजनिक जगह पर किसी भी वक्त महिलाओं की मौजूदगी अचरज का भाव पैदा ना करे.
पब्लिक स्पेस को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने में डिजाइनिंग दूसरा पड़ाव है. पहला पड़ाव इस सोच को बदलना है कि सार्वजनिक जगहों तक महिलाओं की पहुंच एक तय सीमा के अंदर ही होनी चाहिए. यह सिर्फ उनकी मौजदूगी तक सीमित नहीं है, बल्कि इन जगहों का सुरक्षित होना महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा के लिए भी बेहद जरूरी है.
-प्रिया गौतम
केरल भारत का ऐसा पहला राज्य बन गया है जो अत्यधिक गरीबी से मुक्त हो गया है । राज्य के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने केरल को अत्यधिक गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों से मुक्त राज्य की औपचारिक घोषणा कर दी है, अब 1 नवंबर को इसका भव्य आयोजन होने जा रहा है।
केरल अब ऐसा राज्य है जहां अब कोई भी अत्यधिक गरीबी रेखा के नीचे नहीं है, यहां सभी लोग अत्यंत गरीबी रेखा से ऊपर जी रहे हैं।
हालांकि इस घोषणा के बाद इसके श्रेय को लेकर भी राजनीतिक पार्टियां और आमने-सामने हैं। लेकिन इन सबके बीच ये जानना बेहद जरूरी है कि अत्यधिक गरीबी आखिर होती क्या है? और केरल राज्य इससे कैसे मुक्त हुआ है तथा पूरे भारत और अन्य राज्यों की क्या स्थिति है?
क्या गरीबी रेखा और अत्यधिक गरीबी रेखा में अंतर है? कोई राज्य कैसे गरीबी रेखा से मुक्त होता है? इन सभी सवालों के जवाब विस्तार से नीचे दिये गए हैं ।
सवाल- क्या होती है अत्यधिक गरीबी रेखा?
जवाब- गरीबी रेखा एक न्यूनतम आय या उपभोग स्तर है, जो यह निर्धारित करती है कि कोई व्यक्ति अपनी बुनियादी जरूरतों (जैसे भोजन, आश्रय) को पूरा करने में सक्षम है या नहीं । जो लोग इस रेखा से नीचे आते हैं, उन्हें गरीबी रेखा से नीचे (BPL) माना जाता है और वे अक्सर सरकारी सहायता के पात्र होते हैं । वहीं जो लोग बुनियादी जरूरतों जैसे भोजन, पानी, कपड़े और आश्रय की जरूरतों को भी पूरा नहीं कर पाते हैं तो वे अत्यधिक गरीब की श्रेणी में आते हैं।
सवाल- पूरे भारत में कितने गरीब हैं? अन्य राज्यों में क्या स्थिति है?
जवाब- नीति आयोग के आंकड़े (2021) बताते हैं कि पूरे भारत में गरीबी रेखा के नीचे 14.96 प्रतिशत लोग हैं । गुजरात में 11.66 प्रतिशत, बिहार में 33.76 प्रतिशत और यूपी में 22.93 प्रतिशत लोग गरीब हैं । गरीबी रेखा के इस पैमाने को बहुआयी गरीबी ( Multidimensional Poverty Index (MPI) के रूप में परिभाषित किया गया है । इसमें आर्थिक आय-व्यय नहीं, बल्कि जीवन-स्तर, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी चीजें शामिल होती हैं।
सवाल- केरल किससे हुआ है मुक्त?
जवाब- केरल अब अत्यधिक गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों से मुक्त हुआ है। यानि यहां रहने वाले हर व्यक्ति के पास बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त संसाधन मौजूद हैं।
सवाल- भारत में गरीबी रेखा का राष्ट्रीय औसत क्या है?
जवाब-भारत में ग्रामीण क्षेत्रों के लिए गरीबी रेखा का राष्ट्रीय औसत 1,059.42 रुपये प्रति महीना है और शहरी क्षेत्रों के लिए 1,286 रुपये प्रति माह है । यह खर्च प्रति व्यक्ति पर आधारित है और इसमें भोजन, कपड़े, आवास और अन्य बुनियादी जरूरतों की लागत शामिल है। यानि अगर कोई व्यक्ति इतना खर्च हर महीने नहीं कर पा रहा है तो वह गरीबी रेखा से नीचे है।
सवाल- केरल की इस उपलब्धि का निर्धारण कैसे हुआ?
जवाब- नीति आयोग की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार केरल में सिर्फ 0.7 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा ( इसे अत्यधिक गरीबी भी कहा जाता है) के नीचे थे । केरल सरकार ने इन 0.7 प्रतिशत परिवारों के चिन्हित किया और इनकी गरीबी को खत्म करने के लिए इन परिवारों के पास उपलब्ध खाद्य सामग्री, स्वास्थ्य,जीविकोपार्जन के साथ और आवास की सुविधा मुहैया कराई गई ।
नीति आयोग की 2023-24 की रिपोर्ट (SDG India index 2023-24) बताती है कि केरल मानव विकास सूचकांक में भारत का शीर्ष प्रदेश है। नीति आयोग ने केरल को 79 अंक दिए थे, 78 अंक के साथ तमिलनाडु दूसरे स्थान पर है। जबकि बिहार को 57 अंक दिए गए हैं । बिहार और केरल के बीच 22 अंक का अंतर है । इस अंक में मानव विकास से जुड़े 16 बड़े लक्ष्य शामिल थे ।
कई महिलाओं का लगता है कि आठ घंटे की नींद उनके लिए काफी नहीं है। इसकी वजह हार्मोन, परिवार या सामाजिक दबाव वजह कुछ भी हो सकता है। साइंस भी सहमत है कि महिलाओं को वाकई ज्यादा नींद की जरूरत है।
डॉयचे वैले पर कौकब शायरानी का लिखा-
अच्छी नींद हर इंसान की जरूरत है, लेकिन हर इंसान एक तरीके से नहीं सोता। रिसर्च बताते हैं कि ना केवल महिलाओं के सोने का तरीका पुरुषों से काफी अलग होता है, बल्कि पुरुषों के मुकाबले उन्हें ज्यादा नींद की भी जरूरत है।
डीडब्ल्यू ने दुनिया के कई हिस्सों में महिलाओं से बात की। कमोबेश सभी महिलाओं ने बताया कि वे जितना सो पाती हैं, वह उन्हें पर्याप्त महसूस नहीं होता। उन्होंने यह भी बताया कि कथित ‘स्लीप डेट’ का उनपर क्या असर पड़ता है। आपके शरीर को जितनी नींद चाहिए और आप जितनी देर सो पाती हैं, उनके बीच का कुल जमा अंतर ‘स्लीप डेट’ कहा जाता है।
दफ्तर में देर रात तक काम करने के बाद ऑफिस की ही एक मेज पर सिर टिकाकर सो रही महिला। सांकेतिक तस्वीर। दफ्तर में देर रात तक काम करने के बाद ऑफिस की ही एक मेज पर सिर टिकाकर सो रही महिला। सांकेतिक तस्वीर।
सना अखंद, न्यूयॉर्क की एक टेक कंपनी में नौकरी करती थीं। वह एचआर विभाग की प्रमुख थीं। सना ने बताया कि नौकरी करते हुए वह हमेशा थकान महसूस करती थीं। उन्हें समझ आया कि इससे उनकी मानसिक सेहत पर भी असर पड़ रहा है। आखिरकार, थक-हारकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी।
सना ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘मैं हर रात वाइन लेकर टीवी के सामने बैठ जाती थी और वहीं सो जाती थी। मैं बहुत थक चुकी थी। मुझमें बिलकुल भी ताकत नहीं बची थी।’
सेहतमंद महसूस करने के लिए अब सना नींद को सबसे ज्यादा अहमियत देती हैं। उन्होंने बच्चे ना करने का फैसला किया और अच्छी नींद भी इसकी एक वजह है। वह हर रात 10 बजे सो जाती हैं और नौ घंटे की नींद लेती हैं। सना बताती हैं कि वह अपनी नींद से कोई समझौता नहीं कर सकती हैं, ‘मैं हर सुबह आठ बजे उठती हूं। मेरे शरीर को इसकी जरूरत है।’
इस बारे में विज्ञान क्या कहता है?
औसतन, महिलाएं हर रात पुरुषों के मुकाबले करीब 11 से 13 मिनट ज्यादा सोती हैं। कुछ अध्ययनों के अनुसार, महिलाओं को अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के मुश्किल कामों, जैसे कि एक साथ कई काम करना, भावनाओं को नियंत्रित करना या हार्मोनल संतुलन बनाना और पीरियड्स वगैरह में खुद को संभालने के लिए 20 मिनट तक की अतिरिक्त नींद चाहिए।
पीरियड्स के शुरुआती आधे हिस्से (फॉलिक्युलर फेज) में एस्ट्रोजन का स्तर बढऩे से नींद की गुणवत्ता बेहतर होती है। साथ ही, आरईएम नींद यानी वह अवस्था जिसमें सपने आते हैं और याददाश्त, भावनाएं मजबूत होती हैं, वह भी बढ़ जाती है।
पीरियड्स के दूसरे हिस्से, यानी ल्यूटियल फेज में प्रोजेस्टेरोन हार्मोन बढ़ जाता है। यह महिलाओं को सुस्त और उनींदा महसूस कराता है। मगर विरोधाभास यह दिखता है कि इस दौरान नींद की गुणवत्ता घट जाती है। बार-बार नींद टूटती है और गहरी नींद में करीब 27 फीसदी तक की कमी आ जाती है।
बॉडी इंटेलिजेंस कोच, शांतनी मूर ने डीडब्ल्यू को बताया कि वह अपने पीरियड्स और नींद के अनुसार अपनी दिनचर्या को तय करती हैं।
उन्होंने कहा, ‘मैंने बहुत सोच-समझकर अपनी जिंदगी में यह तरीका अपनाया है। जब मेरी नींद पूरी नहीं होती है, तो बहुत थकान और बेचैन महसूस होती है। इससे ध्यान लगाने में दिक्कत होती है। गलत फैसले लेने लगती हूं। अपने पार्टनर को झिडक़ देती हूं। उन चीजों के लिए 'हां' कहने लगती हूं, जिसके लिए नहीं कहना चाहिए था।’
नींद, परिवार, काम, घर के काम और फिर नींद
करांची की रहने वालीं सबरीना (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि उनकी थकान की सबसे बड़ी वजह रोजमर्रा की जिम्मेदारियां और काम है। उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि उन्हें केवल छह से सात घंटे की ही नींद मिल पाती है। वह बताती हैं, ‘मेरे दिमाग को पूरे हफ्ते ताजगी महसूस करने के लिए कम-से-कम 12 घंटे की नींद चाहिए। यह औसतन आठ घंटे की नींद से ज्यादा अवधि है।’
जब उनकी 12 घंटे की नींद पूरी नहीं होती, तो वह झपकी लेकर उसकी कमी पूरी करने की कोशिश करती हैं। कई बार ये झपकियां मिनटों की जगह घंटों में बदल जाती है। वह बताती हैं, ‘30 मिनट की झपकी चार घंटे की नींद हो जाती है।’
सबरीना बताती हैं, ‘मुझे सिर्फ ऑफिस के काम से ही थकावट नहीं नहीं होती, बल्कि लगातार चल रहा मानसिक और घरेलू काम मुझे थकाता है। सुबह कपड़े प्रेस करने से लेकर दोपहर का खाना बनाने और फिर रात का खाना तैयार करते-करते बहुत थक जाती हूं।’
विशेषज्ञों का कहना है कि यह कोई व्यक्तिगत मसला नहीं, बल्कि एक सामाजिक समस्या है।
एमर्सन विकवायर, अमेरिकी की मैरीलैंड यूनिवर्सिटी में नींद विशेषज्ञ हैं। वह बताते हैं, ‘पुरुषों की तुलना में महिलाओं को ‘शिफ्ट वर्क डिसऑर्डर’ ज्यादा होता है। वह जितना गैर-परंपरागत शिफ्टों में काम करती हैं, उतना ही नकारात्मक असर भी झेलती हैं।’ उन्होंने आगे बताया, ‘अगर सुबह नौ बजे से शाम पांच बजे को काम का आम समय माना जाए, तो महिलाएं इससे कहीं अधिक काम करती हैं।’
रूस, भारत के कच्चे तेल के आयात का सबसे बड़ा स्रोत है. रूसी तेल कंपनियों पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगा दिया है. इसके बाद, भारतीय नियामक संस्थाएं और प्रमुख तेल रिफाइनरियां जोखिमों और विकल्पों का आकलन कर रही हैं.
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने रूसी तेल कंपनियों 'लुकऑइल' और 'रोजनेफ्ट' पर प्रतिबंध लगा दिया है. इससे भारत पर अपनी ऊर्जा रणनीति को नए सिरे से तय करने का दबाव बढ़ रहा है. राष्ट्रपति ट्रंप ने पिछले हफ्ते सैंक्शन लगाने की घोषणा की थी.
ट्रंप के इन कदमों का मतलब है कि भारतीय तेल रिफाइनरियों के साथ-साथ बैंकों और शिपिंग कंपनियों के लिए भी जोखिम बढ़ गया है. अगर वे 21 नवंबर की अंतिम तिथि तक ब्लैक लिस्ट की गई इन रूसी कंपनियों के साथ अपना व्यापारिक लेन-देन खत्म नहीं करती हैं, तो उन पर भी द्वितीयक प्रतिबंध (सेकेंडरी सैंक्शन) लग सकते हैं.
रूस पर लगाए गए नए प्रतिबंधों से ईयू-भारत संबंधों पर कितना असर होगा?
इससे पहले, अगस्त में ट्रंप सरकार ने कहा था कि भारत लगातार रूसी तेल की खरीद कर रहा है. इस वजह से अमेरिका, भारत से आने वाली चुनिंदा वस्तुओं पर 50 फीसदी का शुल्क लगाएगा.
वैश्विक कारोबार का विश्लेषण करने वाली कंपनी 'केप्लर' के आंकड़ों के मुताबिक, इस साल सितंबर में भारत ने प्रतिदिन लगभग 16 लाख बैरल रूसी कच्चा तेल खरीदा.
ट्रंप ने हालिया हफ्तों में कई बार यह भी दावा किया कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनसे कहा था कि भारत रूसी तेल खरीदना बंद कर देगा. मोदी सरकार ने इन दावों की न तो पुष्टि की है और न ही खंडन, सिवाय 17 अक्टूबर को भारतीय विदेश मंत्रालय के एक बयान के.
संबंधित बयान में जोर दिया गया कि भारत का लक्ष्य "स्थिर ऊर्जा कीमतें सुनिश्चित करना" है और "बाजार की स्थितियों के मुताबिक अपने ऊर्जा स्रोतों को व्यापक बनाना और उनमें विविधता लाना है
ट्रंप ने हालिया हफ्तों में कई बार यह भी दावा किया कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनसे कहा था कि भारत रूसी तेल खरीदना बंद कर देगा. मोदी सरकार ने इन दावों की न तो पुष्टि की है और न ही खंडन, सिवाय 17 अक्टूबर को भारतीय विदेश मंत्रालय के एक बयान के.
संबंधित बयान में जोर दिया गया कि भारत का लक्ष्य "स्थिर ऊर्जा कीमतें सुनिश्चित करना" है और "बाजार की स्थितियों के मुताबिक अपने ऊर्जा स्रोतों को व्यापक बनाना और उनमें विविधता लाना है."
[रूस के लेनिनग्राद में तेल की एक रिफाइनरी] [रूस के लेनिनग्राद में तेल की एक रिफाइनरी]
साल 2022 में यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद, भारत ने भारी छूट पर रूसी कच्चा तेल खरीदना शुरू कर दिया. रूस, भारत के कच्चे तेल के आयात का सबसे बड़ा स्रोत बन गयातस्वीर: ITAR-TASS/IMAGO
रूसी कच्चे तेल की खरीदारी कम करने के संकेत
मीरा शंकर, अमेरिका में भारत की पूर्व राजदूत रही हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि यह दिलचस्प है कि अमेरिकी प्रतिबंध रूसी तेल पर नहीं, बल्कि रूस की दो बड़ी ऊर्जा कंपनियों पर लगाए गए हैं. उन्होंने कहा, "वैश्विक बाजार से रूसी तेल को पूरी तरह हटा दिया जाए, तो ऊर्जा की कीमतें बढ़ जाएंगी. यह स्थिति अमेरिका या यूरोप, किसी के लिए भी राजनीतिक या आर्थिक रूप से सही नहीं होगी."
भारत जल्दबाजी या दबाव में समझौते नहीं करता: पीयूष गोयल
मीरा शंकर आगे बताती हैं, "अधिकांश रूसी तेल, भारत में निजी कंपनियां आयात कर रही हैं. वे कोई भी फैसला अपने मुनाफे के हिसाब से लेंगी. भारत सरकार ने खरीदारी के स्रोत में विविधता लाने की अपनी कोशिशों के तहत अमेरिका से ऊर्जा खरीद बढ़ाने की पेशकश की है."
रिलायंस इंडस्ट्री इस समय रूस से सबसे ज्यादा कच्चा तेल खरीदती है. रिफाइंड पेट्रोलियम, उत्पाद का सबसे बड़ा निर्यातक भी है. इस कंपनी ने संकेत दिया है कि वह 'रोजनेफ्ट' से अपनी खरीदारी कम करने की तैयारी कर रही है. पिछले हफ्ते समाचार एजेंसी 'रॉयटर्स' ने कई रिफाइनरी सूत्रों के हवाले से यह जानकारी दी है.
ट्रंप ने भारत पर लगाया 25% टैरिफ
रिलायंस के एक प्रवक्ता ने आधिकारिक तौर पर कहा कि उनकी रिफाइनरी रूसी तेल पर हाल ही में पश्चिमी देशों की ओर से लगाए गए प्रतिबंधों के 'असर का आकलन' कर रही है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि वह 'लागू प्रतिबंधों और नियामक ढांचों' के अनुपालन से जुड़ी जरूरी शर्तों को पूरा करने के लिए 'रिफाइनरी के संचालन में जरूरी बदलाव' करेंगे.
अगर भारत और चीन रूसी तेल खरीदना बंद कर दें तो क्या होगा?
इस अनुपालन में यूरोपीय संघ की ओर से जारी किए गए नए दिशानिर्देशों का पालन करना भी शामिल है. ये दिशानिर्देश रूसी-स्रोत वाले रिफाइंड पेट्रोलियम प्रॉडक्ट के आयात पर प्रतिबंध लगाते हैं, या उन्हें सीमित करते हैं. रिलायंस ने आगे कहा कि जब भी "भारत सरकार से कोई दिशानिर्देश" आएगा, वह उसका "पूरी तरह से पालन" करेगा.
ट्रंप ने बढ़ाया दबाव
साल 2022 में यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद, भारत ने भारी छूट पर रूसी कच्चा तेल खरीदना शुरू कर दिया. इससे रूस अब भारत के कच्चे तेल के आयात का सबसे बड़ा स्रोत बन गया है. जबकि, यूक्रेन युद्ध से पहले भारत आने वाले कच्चे तेल में रूसी तेल की हिस्सेदारी बेहद कम थी. भारत में मुख्य रूप से मध्य पूर्व से तेल आता था.
भारत की ओर से खरीदे जाने वाले रूसी कच्चे तेल की कीमत अब थोड़ी बढ़ गई है, फिर भी सस्ते रूसी तेल के आयात से भारत को अरबों डॉलर की बचत हुई है. हालांकि, रूस के युद्ध का समर्थन करने के लिए भारत की आलोचना की गई है, लेकिन पश्चिमी देशों ने वैश्विक स्तर पर तेल की कीमतों में स्थिरता लाने के लिए रूसी कच्चे तेल के आयात का अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन किया है. अब ट्रंप सरकार, रूसी सरकार के खजाने पर और दबाव बना रही है.
अमेरिकी वित्त मंत्रालय ने कहा कि इस कदम का मुख्य लक्ष्य यह है कि 'युद्ध से जुड़ी गतिविधियों के लिए धन जुटाने की रूसी सरकार की क्षमता को कम किया जाए.'
ऐसे में भारत को अब यह फैसला लेना है कि क्या वह रूसी तेल की खरीद जारी रखकर अमेरिका के सेकेंडरी सैंक्शन का जोखिम लेगा, या फिर अमेरिका के साथ होने वाले एक संभावित महत्वपूर्ण व्यापार समझौते को पूरा करने के लिए रूसी तेल से दूरी बना लेगा.
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर अरुण कुमार ने डीडब्ल्यू को बताया, "भारत के पास अमेरिकी प्रतिबंधों के आगे झुकने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि इससे हमारे बैंकों और ऊर्जा क्षेत्र की कंपनियों पर द्वितीयक प्रतिबंध लगने का खतरा है. अतीत में भी अमेरिका ने भारत से कहा था कि वह ईरान और वेनेजुएला से तेल आयात बंद कर दे. भारत ने ऐसा किया भी था."
ट्रंप ने बढ़ाया दबाव
साल 2022 में यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद, भारत ने भारी छूट पर रूसी कच्चा तेल खरीदना शुरू कर दिया. इससे रूस अब भारत के कच्चे तेल के आयात का सबसे बड़ा स्रोत बन गया है. जबकि, यूक्रेन युद्ध से पहले भारत आने वाले कच्चे तेल में रूसी तेल की हिस्सेदारी बेहद कम थी. भारत में मुख्य रूप से मध्य पूर्व से तेल आता था.
भारत की ओर से खरीदे जाने वाले रूसी कच्चे तेल की कीमत अब थोड़ी बढ़ गई है, फिर भी सस्ते रूसी तेल के आयात से भारत को अरबों डॉलर की बचत हुई है. हालांकि, रूस के युद्ध का समर्थन करने के लिए भारत की आलोचना की गई है, लेकिन पश्चिमी देशों ने वैश्विक स्तर पर तेल की कीमतों में स्थिरता लाने के लिए रूसी कच्चे तेल के आयात का अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन किया है. अब ट्रंप सरकार, रूसी सरकार के खजाने पर और दबाव बना रही है.
अमेरिकी वित्त मंत्रालय ने कहा कि इस कदम का मुख्य लक्ष्य यह है कि 'युद्ध से जुड़ी गतिविधियों के लिए धन जुटाने की रूसी सरकार की क्षमता को कम किया जाए.'
ऐसे में भारत को अब यह फैसला लेना है कि क्या वह रूसी तेल की खरीद जारी रखकर अमेरिका के सेकेंडरी सैंक्शन का जोखिम लेगा, या फिर अमेरिका के साथ होने वाले एक संभावित महत्वपूर्ण व्यापार समझौते को पूरा करने के लिए रूसी तेल से दूरी बना लेगा.
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर अरुण कुमार ने डीडब्ल्यू को बताया, "भारत के पास अमेरिकी प्रतिबंधों के आगे झुकने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि इससे हमारे बैंकों और ऊर्जा क्षेत्र की कंपनियों पर द्वितीयक प्रतिबंध लगने का खतरा है. अतीत में भी अमेरिका ने भारत से कहा था कि वह ईरान और वेनेजुएला से तेल आयात बंद कर दे. भारत ने ऐसा किया भी था."
भारत की रणनीतिक स्वायत्तता
अजय बिसारिया, पूर्व भारतीय राजनयिक और अब भू-राजनीति पर कॉर्पोरेट सलाहकार हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि भारत ऊर्जा नीति को लेकर दीर्घकालिक रणनीति पर काम कर रहा है. उसका मुख्य उद्देश्य आपूर्ति स्रोतों और व्यापारिक फैसलों में अधिकतम लचीलापन बनाए रखना है.
उन्होंने कहा, "ऊर्जा के प्रति भारत का दृष्टिकोण रणनीतिक स्वायत्तता पर आधारित है, जिसका लक्ष्य हमेशा अपने उपभोक्ताओं के लिए सबसे किफायती तेल उपलब्ध कराना रहा है. आदर्श रूप से, भारत एक ऐसा वैश्विक बाजार चाहता है जहां ऊर्जा के स्रोत आसानी से बदले जा सकें. हालांकि, भू-राजनीतिक हकीकत और अमेरिकी नीति में अप्रत्याशित बदलावों ने अब इस पूरी स्थिति को काफी जटिल बना दिया है."
बिसारिया ने आगे बताया, "हालांकि, भारत मध्यम अवधि में रूसी तेल खरीदने से इनकार नहीं कर रहा है, लेकिन नए अमेरिकी प्रतिबंधों ने इस क्षेत्र में काम कर रही भारतीय कंपनियों के लिए बड़ी बाधाएं पैदा कर दी हैं. फिर भी, सरकार रूसी आयात को रोकने के लिए कंपनियों को स्पष्ट आदेश देने से बच रही है. इससे वह आपूर्ति में लचीलापन और अंतरराष्ट्रीय मामलों में अपनी सौदेबाजी की शक्ति, दोनों को बरकरार रख पाएगी."
अमेरिकी टैरिफ के बावजूद भारत खरीद रहा है रूस से सस्ता तेल
भारत-अमेरिका व्यापार समझौते को लेकर जारी बातचीत के बीच रूसी तेल आयात को रोकने से कूटनीतिक राहत मिलेगी. साथ ही, यह लचीलापन भी बना रहेगा कि जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हालात सुधरेंगे, तो भारत फिर से रूसी तेल आयात कर पाएगा.
बिसारिया कहते हैं, "जब ये प्रतिबंध हटा लिए जाएंगे, तो व्यापार पहले की तरह सामान्य रूप से शुरू हो जाएगा. ये पाबंदियां भारत के लिए फैसले लेना सिर्फ मुश्किल बनाएंगी, लेकिन भारत को मजबूरन कोई फैसला लेने के लिए बाध्य नहीं करेंगी."
'टाइम्स ऑफ इंडिया' अखबार से बात करते हुए भारतीय विश्लेषकों ने कहा कि उन्हें रूसी कच्चे तेल के आयात में निकट भविष्य में गिरावट की उम्मीद है, लेकिन रिफाइनरियां बिना प्रतिबंध वाले तीसरे पक्ष के मध्यस्थों के माध्यम से रूसी तेल खरीदना जारी रखेंगी.
कैसे काम करता है सस्ते रूसी तेल का गणित?
फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि यह पूरी परिस्थिति कब और किस पैमाने तक बदलेगी. इसके अलावा, यह अनिश्चितता भी बनी हुई है कि क्या अमेरिका भविष्य में आपूर्ति के इन वैकल्पिक मार्गों को भी प्रतिबंधों के दायरे में ला सकता है.
एनएससीएन (आई-एम) गुट के प्रमुख टी. मुइवा छह दशकों बाद मणिपुर के उखरूल जिले में अपने पैतृक गांव लौटे हैं. वह और उनका गुट नागालैंड में दशकों तक उग्रवाद का पर्याय रहे हैं. उनका दौरा सवालों के घेरे में हैं.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट –
छह दशक बहुत लंबा समय होता है, खासतौर पर राजनीतिक रूप से प्रासंगिक को अप्रासंगिक, लोकप्रिय को अलोकप्रिय बना देने के लिए. लेकिन, आधी सदी से भी ज्यादा वक्त तक अपनी जमीन से दूर रहने के बाद टी. मुइवा जब अपने गांव लौटे तो उन्होंने खूब सत्कार पाया. 91 साल के मुइवा, नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालिम (इसाक-मुइवा) के महासचिव हैं. यह नागा विद्रोहियों के सबसे मजबूत धड़ों में से एक था.
नागालैंड को 1 दिसंबर 1963 को अलग राज्य का दर्जा मिला था. स्थानीय जनजातियों ने भारत में विलय को कभी मंजूर नहीं किया. यही वजह है कि राज्य में सशस्त्र उग्रवादी आंदोलन का लंबा इतिहास रहा है.
पूर्वोत्तर का यह अकेला राज्य है, जो अब तक उग्रवाद से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सका है. बीते करीब 28 वर्षों से राज्य में शांति प्रक्रिया की कवायद जारी रहने के बावजूद जमीनी परिस्थिति में खास बदलाव नहीं आया है.
जातीय हिंसा से जूझता मणिपुर
नागालैंड से सटा मणिपुर भी बीते करीब ढाई वर्षों से मैतेई और कुकी नागा समुदाय के बीच जातीय हिंसा का सामना कर रहा है. राज्य में अब भी रह-रहकर हिंसा भड़क उठती है. पूरे राज्य में इन दोनों समुदाय के बीच दरार है.
इन परिस्थितियों में टी. मुइवा के अपने पैतृक गांव सोमदल के सप्ताह-व्यापी दौरे ने कई आशंकाओं को जन्म दिया है. वह एक दौर में शीर्ष उग्रवादी संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड के इसाक-मुइवा गुट के संस्थापकों में थे.
आशंका है कि इस दौरे से राज्य में हिंसा और भड़क सकती है. इसके साथ ही नागालैंड में जारी शांति प्रक्रिया पर भी सवाल उठ रहे हैं. यह प्रश्न भी पूछा जा रहा है कि क्या मुइवा के दौरे से जमीनी तस्वीर में कोई बदलाव आएगा? नागालैंड में शांति प्रक्रिया कई विरोधाभासों से जूझती रही है. अब एनएससीएन के आईएम गुट भी पहले जैसा ताकतवर नहीं रहा है.
कौन हैं मुइवा?
मुइवा का जन्म साल 1933 में म्यांमार से सटे उखरूल जिले के सोमदल गांव में हुआ था. तब मणिपुर ब्रिटिश अधिकारियों के अधीन था, लेकिन वहां बोधिचंद्र सिंह का राज था. बचपन में अपने पिता के साथ राजधानी इंफाल में मजदूरी करने वाले मुइवा ने उखरुल से स्कूली पढ़ाई पूरी की.
इसके बाद उन्होंने शिलांग के एक कालेज से स्नातक किया और 1964 में नागा नेशनल काउंसिल (एनएनसी) में शामिल हो गए. अगले साल ही उन्हें महासचिव चुन लिया गया. उसके बाद वह नागा उग्रवादियों के पहले समूह के साथ सशस्त्र प्रशिक्षण के लिए चीन चले गए और वहां करीब 10 साल तक रहे. इस दौरान वह वहां के शीर्ष नेता माओ के करीबी हो गए थे.
साल 1975 में नागा नेशनल काउंसिल और केंद्र सरकार के बीच शिलांग समझौता हुआ. मुइवा ने उसे खारिज करते हुए अलग नागा राज्य के लिए संघर्ष जारी रखने का एलान किया. इससे नागा संगठन में मतभेद पैदा हो गया.
साल 1980 में इसाक चिशी स्वू के साथ मिलकर उन्होंने एनएससीएन की स्थापना की, लेकिन 1988 में इस संगठन में दो हिस्से हो गए. उसके बाद इसमें से कई अलग गुट बन गए, जो एक-दूसरे को पछाड़ने में जुटे रहे.
शांति प्रक्रिया पर सहमति
धीरे-धीरे मुइवा को एहसास होने लगा कि उनके आंदोलन की राह भटक गई है. उन्होंने केंद्र के साथ शांति प्रक्रिया में शामिल होने पर सहमति दे दी. संगठन का मुइवा गुट शुरू से ही नागालैंड के साथ ही मणिपुर और असम के नागा-बहुल इलाकों को मिलाकर नागालिम या ग्रेटर नागालैंड के गठन की मांग करता रहा है.
शांति प्रक्रिया शुरू होने के तीन बरस बाद, साल 2000 में मुइवा को बैंकॉक एयरपोर्ट पर गिरफ्तार कर लिया गया. कुछ महीनों बाद जेल से रिहा होने पर शांति प्रक्रिया दोबारा शुरू हुई. केंद्र ने मणिपुर के नागा-बहुल इलाकों में भी युद्धविराम के विस्तार का फैसला किया.
पहले भी गांव आने की कोशिश की थी
मुइवा ने जून 2001 में भी अपने पैतृक गांव का दौरा करने की कोशिश की थी. मैतेई संगठनों ने इसका भारी हिंसक विरोध किया और विधानसभा भवन को भी आग लगा दी थी. दरअसल, राज्य के कुछ इलाकों को ग्रेटर नागालैंड में शामिल करने की मुइवा की मांग मैतेई संगठनों की नाराजगी की प्रमुख वजह थी.
साल 2016 में इसाक चिशी की मौत के बाद अब मुइवा ही संगठन के सर्वेसर्वा हैं. जब वह हेलिकॉप्टर से उखरुल पहुंचे, तो मौके हजारों की भीड़ जमा थी. साफ है कि नागा शांति प्रक्रिया के किसी मुकाम पर नहीं पहुंचने के बावजूद इस 91 वर्षीय उग्रवादी नेता की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है.
कहां रह रहे हैं मुइवा?
भारत सरकार के साथ शांति प्रक्रिया शुरू होने के बाद से ही मुइवा बैंकॉक और नीदरलैंड में रहते आए हैं. सुरक्षा के लिहाज से उनके निवास की जगह को सार्वजनिक नहीं किया गया है.
हालांकि, मणिपुर के एक नागा नेता ने बताया कि मणिपुर आने के कुछ दिन पहले से वह दीमापुर में अपने गोपनीय ठिकाने पर रह रहे थे, वहीं से हेलिकॉप्टर से मणिपुर में अपने पैतृक गांव आए.
मणिपुर में सबसे बड़ा नागा संगठन यूनाइटेड नागा काउंसिल (यूएनसी), सेनापति जिला मुख्यालय में 29 अक्टूबर को मुइवा के सम्मान में एक स्वागत समारोह आयोजित कर रहा है. संगठन ने इस मौके पर 'गेन्ना,' यानी पारंपरिक अवकाश का एलान किया है.
इस अवसर पर सम्मान दिखाने के लिए तमाम दुकानें, बाजार और आर्थिक गतिविधियां बंद रहेंगी. संगठन के अध्यक्ष एनजी. लोर्हो ने एक बयान में कहा, "गेन्ना सिर्फ मुइवा के सम्मान नहीं, बल्कि नागा एकता, पहचान और आत्मनिर्णय के प्रतीक के तौर पर भी मनाया जाएगा.
स्वागत समारोह के बाद मुइवा हेलिकॉप्टर से ही दीमापुर जाएंगे. आगे की योजना क्या है, इसका खुलासा नहीं किया गया है.
नागालैंड में उग्रवाद का भविष्य
तमाम प्रमुख संगठन कई हिस्सों में बंट चुके हैं. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि नागा संगठनों को इसी बात का संतोष है कि केंद्र सरकार ने उनकी पहचान और अनूठे इतिहास को मान्यता दे दी है. अब अलग राज्य कोई बड़ा मुद्दा नहीं रह गया है.
क्या पटरी पर लौटेंगे मणिपुर के जमीनी हालात?
मणिपुर की राजधानी इंफाल में वरिष्ठ पत्रकार के. सरोज सिंह ने डीडब्ल्यू से कहा, "मुइवा के इस दौरे को राजनीति की रोशनी में देखना सही नहीं होगा. उन्होंने छह दशकों के लंबे अंतराल के बाद निजी तौर पर घर वापसी की है. राजनीतिक तौर पर प्रासंगिक बने रहने के लिए वह नागालैंड के लिए अलग झंडे और संविधान की मांग तो उठाते रहेंगे, लेकिन ग्रेटर नागालैंड का मुद्दा अब पृष्ठभूमि में चला गया है."
एक विश्लेषक टी. ज्ञानेश्वर ने डीडब्ल्यू से बात करते हुए बताया, "इस दौरे से मणिपुर के मैतेई तबके में कुछ आशंकाएं जरूर पैदा हुई हैं, लेकिन वे निराधार हैं. कभी हिंसक तरीके से अलग राज्य की मांग करने वाले एनएससीएन के सुर भी अब नरम हो गए हैं. जहां तक शांति प्रक्रिया का सवाल है, वह कब तक चलेगी, यह कोई नहीं बता सकता."
फिर लौटा अफस्पा; मणिपुर में कब सामान्य होंगे हालात?
कई राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि मुइवा को 91 साल की उम्र में अपनी जन्मभूमि को देखने की कशिश ही यहां खींच लाई है. अब दोबारा शायद ही उनकी वापसी हो.
-अशोक पांडे
हलवाई शब्द की उत्पत्ति हलवे से हुई है और हलवा अपने आप में निखालिस अरबी चीज है और अरबी शब्द ‘हल्व’ से निकला है जिसका मतलब होता है मीठा। एक जमाने के तुर्की में तिल के बीजों को पीसकर उसमें शहद मिलाकर भी हलवा बनाया जाता था।
चौदहवीं शताब्दी के मशहूर यात्री इब्न बतूता ने अपने सफरनामे में दर्ज किया है उसने आम भारतीयों की रसोई में हलवा पकाया जाता देखा था। बग़दाद की शाही रसोई में सुलतान के लिए ग्यारह देगों में ग्यारह तरह का हलवा पकता जिनके मुकर्रादा और लुक्मेतुज्कादी जैसे लज़्ज़तदार नाम थे। तुर्की के कास्तामोनू नगर में उसने पाया कि फहरुद्दीन बेग के जाविये में पधारने वाले दरवेशों की खिदमत में डबलरोटी, चावल और मांस के अलावा हलवा भी परोसा जाता था।
कल्ट मानी जाने वाली किताब ‘गुजि़श्ता लखनऊ’ में मौलाना हलीम शरर कयास करते हैं कि हलवा अरब से ईरान होता हुआ हिन्दुस्तान पहुंचा। मौलाना लिखते हैं- ‘लेकिन बजाहिर यह आम फैसला नहीं हो सकता। इसमें मतभेद है। तर हलवा जो अमूमन हलवाइयों के यहाँ मिलता है और पूरियों के साथ खाया जाता है, वह खालिस हिन्दू चीज है जिसे वह मोहनभोग भी कहते हैं। मगर हलवा सोहन की चार किस्में – पपड़ी, जौजी, हबशी और दूधिया – निखालिस मुसलमानों की मालूम होती हैं।’
सोहन हलवे की हिस्ट्री में प्रविष्ट होते हुए मौलाना कलकत्ते के मटियाबुर्ज के एक रईसजादे मुंशीयुस्सुल्तान बहादुर का जिक्र करते हैं जो ‘छटांक भर समनक (गेहूँ का गूदा) में दो ढाई सेर घी खपा देते। उनका पपड़ी हलवा सोहन बजाय जर्द के धोये कपड़े के मानिंद उजला और सफ़ेद होता।’ हो सकता है हलवा हमारे यहां और भी पहले से हो लेकिन पांचेक सौ बरस पहले उसे दिल्ली की मुग़लिया सल्तनत के बावर्चीखानों में ऊंची जगह मिली जिसके बाद उसने समूचे भारत को अपने कब्जे में ले लिया।
मेरा ठोस यकीन है कि पृथ्वी की सतह पर उगने वाले किसी भी अन्न, साग, फल, जड़, तने, फूल या बौर को हलवे में बदल सकने वाले हमारे देश के हलवाई इस दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिक हैं। अमरीका वाले कितने ही एटम बम बना-फोड़ लें, रूस वाले मंगल-बृहस्पति पर कितने ही स्पुतनिक पहुंचा दें, लौकी जैसी भुस चीज को सुस्वादु हलवे में रूपांतरित करना सीखने के लिए उन्हें इन्हीं मनीषियों की शरण में आना होगा। इन वैज्ञानिकों की अनुकम्पा से हमारे देश में पाए जाने वाले हलवे की विविधता हमारे भौगोलिक विस्तार जितनी ही वृहद और विषद बन चुकी है।
-अमनदीप गुजराल
5 जुलाई 1859 को जन्मी कादम्बरी देवी का ब्याह रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बड़े भाई ज्योतिरिन्द्रनाथ के साथ हुआ। तब वे सिफऱ् नौ वर्ष की थीं और उनके पति उन्नीस वर्ष के। कादम्बरी देवी को रवीन्द्रनाथ नोतुन बोउठान कहते थे। वय में वे कादम्बरी देवी से दो साल छोटे रवीन्द्रनाथ उनके बचपन के संगी रहे। कहते हैं बड़े घरों के बहुत उलझे हुए रिश्ते रहे हैं।
महज 25 वर्ष की उम्र में कादम्बरी देवी ने आत्महत्या कर ली। उस समय रवीन्द्रनाथ के विवाह को मात्र चार महीने ही बीते थे। जिससे यह प्रश्न उठता है कि क्या उनके विवाह ने कादम्बरी और रवीन्द्रनाथ के बीच के संबंधों को प्रभावित किया था? कहा जाता है कि जो सुसाइड नोट कादम्बरी देवी ने लिखा उसको उनके ससुर, ठाकुर परिवार के मुखिया महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर की आज्ञानुसार मिटा दिया गया। यह उपन्यास इस रहस्य को उजागर करने का प्रयास करता है कि ऐसा क्या था उस पत्र में, क्यों इस साक्ष्य को मिटा देना आवश्यक समझा गया?
कादम्बरी देवी के पिता ठाकुरबाड़ी के बाजार-सरकार अर्थात हाट-बाजार करने वाले श्याम गांगुली थे। कादम्बरी देवी उनकी तीन नम्बर की कन्या थीं। वे रोज अपने पिता को अपमानित होते देखतीं, दु:खी होतीं। उनकी माँ हालांकि नहीं चाहती थीं कि जुलाई महीने में जन्मी कादम्बरी देवी का विवाह भी उसी महीने यानी कि जुलाई में हो। किन्तु 5 जुलाई 1868 के दिन, नौ वर्ष की उम्र में कादम्बरी देवी का विवाह उन्नीस वर्षीय ज्योतिरिन्द्रनाथ के साथ हुआ।
उपन्यास इस कल्पना पर आधारित है, कि कादम्बरी देवी और युवा रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बीच भावनात्मक निकटता होने के साथ-साथ दोनों में गहरे साहित्यिक, बौद्धिक और आत्मिक संबंध थे। रवींद्रनाथ ठाकुर की रचनात्मकता की प्रेरणा-स्रोत तो थी ही साथ ही कादम्बरी देवी, रवीन्द्रनाथ की पहली पाठिका, प्रशंसिका और आलोचक भी थीं।
सत्रह बरस एक दूसरे के अभिन्न मित्र रहे थे कादम्बरी देवी और रवीन्द्रनाथ ठाकुर। जब रवीन्द्रनाथ का विवाह मृणालिनी देवी से होता है, तो कादम्बरी देवी अचानक अकेली और उपेक्षित महसूस करती हैं। यह विवाह उनकी दुनिया को बेतरह झकझोर देता है, और उनके भीतर एक अंतर्द्वंद्व और खालीपन पैदा होता है। परिवार के सदस्यों द्वारा हमेशा से उपेक्षा की शिकार रही कादम्बरी देवी का अनायास ही अपने अभिन्न मित्र की प्राथमिकता सूची से गायब हो जाना उन्हें अवसाद की ओर ढकेल देता है।
रंजन बंद्योपाध्याय द्वारा रचित और शुभ्रा उपाध्याय द्वारा अनूदित, ‘कादम्बरी देवी का सुसाइड नोट’ उपन्यास तथ्य और कल्पना की सीमाओं के मध्य खड़े रह कर 19वीं सदी के बंगाल की सामाजिक संरचना, प्रतिष्ठित साहित्यिक परिवार में स्त्री की स्थिति और एक त्रासद प्रेमकथा को अत्यंत संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करता है। इस उपन्यास की भाषा-शैली, प्रतीकात्मकता और संवादों में गहन भावनात्मकता और साहित्यिक सौंदर्य निहित है।
कादम्बरी देवी की मन की असीम पीड़ा, मानसिक व्यथा, और उनकी दबी हुई इच्छाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति लेखक ने गहन आत्मसंवादों और विचारों के माध्यम से की है। कादम्बरी देवी की यात्रा में, उनकी पीड़ा में पाठक उनका सहभागी बन जाता है।
- लक्ष्मण सिंह देव
एक दिन मैं जहांगीर पटेल से मिलने गया, जो पारसी समुदाय की सबसे पुरानी और सबसे लोकप्रिय पत्रिका ‘पार्सियाना’ (Parsiana) के एडिटर-इन-चीफ हैं। यह पत्रिका 1964 में स्थापित हुई थी और दुनिया भर के पारसी समुदाय की मुखपत्र मानी जाती है। विशेष रूप से भारत के वे पारसी जो अंग्रेज़ी भाषा में निपुण हैं, उनके लिए यह एक मंच की तरह है।
मेरे एक लेख को लगभग एक साल पहले पार्सियाना में प्रकाशित किया गया था, इसलिए जहांगीर मुझे अच्छी तरह जानते हैं। हम पहले भी कई बार बातचीत कर चुके हैं। उस दिन उन्होंने मुझे एक दुखद समाचार दिया-उन्होंने बताया कि पत्रिका का प्रकाशन अक्टूबर माह में बंद किया जा रहा है।
यह खबर मेरे लिए बहुत चौंकाने वाली थी, क्योंकि शापूरजी पालोनजी, टाटा समूह और गोदरेज समूह जैसी बड़ी कंपनियाँ इस पत्रिका की प्रायोजक हैं। मैंने उनसे पूछा- ‘आप लोग प्रकाशन क्यों बंद कर रहे हैं? क्या आर्थिक संकट है?’
उन्होंने कहा, ‘पैसा कोई समस्या नहीं है, समस्या यह है कि हमारे पास पर्याप्त पारसी स्टाफ नहीं है जो पत्रिका के लिए काम कर सके। हमारे पास धन है, लेकिन लोग नहीं हैं। हम केवल पारसी लोगों को ही नियुक्त करते हैं, किसी गैर-पारसी को नहीं।’
भारत में पारसी सबसे सम्पन्न अल्पसंख्यक समुदाय हैं। करीब 15 वर्ष पहले तक अगर कोई पारसी व्यक्ति 80,000 रुपये प्रति माह से कम कमाता था, तो उसे गरीब माना जाता था, और बॉम्बे पारसी पंचायत उसकी आर्थिक सहायता करती थी। यह पंचायत पारसी समुदाय की सर्वोच्च संस्था है।
भारत और पाकिस्तान में पारसियों के सभी धार्मिक स्थल गैर-पारसियों के लिए निषिद्ध हैं। वे अपनी अलग पहचान बनाए रखने के लिए अन्य समुदायों से एक सुरक्षित दूरी बनाए रखते हैं। उनका तर्क है कि जब वे 8वीं शताब्दी में गुजरात के तट पर आए थे, तो उन्होंने हिंदू राजा सिद्दी राणा से यह वादा किया था कि वे किसी हिंदू को अपने धर्म में परिवर्तित नहीं करेंगे और भारत की संस्कृति में ऐसे घुल-मिल जाएंगे जैसे दूध में शहद मिल जाता है।
किंवदंती के अनुसार, पारसी नेता ने राजा से कहा कि एक गिलास दूध लाओ। जब राजा ने कहा कि उनके राज्य में नए लोगों के लिए जगह नहीं है, तो उस नेता ने दूध में शहद मिलाया और कहा- ‘हम भी ऐसे ही घुल-मिल जाएंगे और आपके राज्य को मधुर बना देंगे।’
परंतु पुरातात्विक प्रमाणों के अनुसार यह ‘संजान’ की कहानी काल्पनिक है, जिसे 15वीं शताब्दी में एक पारसी पुजारी ने गढ़ा था। वास्तव में पारसी भारत में पहली बार 8वीं शताब्दी में नहीं आए थे- जैसा कि मैंने अपने एक शोध लेख में प्रमाणित किया है।
अब सवाल उठता है कि वे गैर-पारसियों को अपने अग्नि-मंदिरों में प्रवेश क्यों नहीं करने देते? इसका कारण काफी कटु है। उनका मानना है कि गैर-पारसी अशुद्ध होते हैं, और अगर कोई गैर-पारसी उनके पवित्र अग्नि को देख ले, तो वह अग्नि अपवित्र हो जाएगी। 1960 के दशक में जब एक पवित्र अग्नि गुजरात से मुंबई लाई जा रही थी, तो पुलिस की व्यवस्था की गई थी ताकि कोई ‘अशुद्ध’ व्यक्ति उस अग्नि को न देख सके।
लोकप्रिय धारणा के विपरीत पारसी ‘अग्नि की पूजा’ नहीं करते-वे केवल अग्नि को पवित्र प्रतीक मानते हैं।
यह भी कहा जाता है कि पारसी शांतिप्रिय होते हैं और झगड़ा नहीं करते, पर यह पूरी तरह सत्य नहीं है। 16वीं शताब्दी में गुजरात के एक तटीय नगर में जब पारसी बहुसंख्यक हो गए, तो उन्होंने एकमात्र हिंदू बनिया व्यापारी को ‘अशुद्ध’मानकर नगर से निकाल दिया। क्रोधित बनिया दो वर्ष के लिए दूसरे नगर चला गया और फिर कोली और राजपूत योद्धाओं को लेकर लौटा। उसने पारसियों को हराया और उन्हें मजबूर किया कि वे उसे नगर में दोबारा बसने दें। यह घटना स्वयं पारसी इतिहास ग्रंथों में भी वर्णित है।
इतिहास में दो बार हिंदू–पारसी दंगे और कई बार मुसलमान-पारसी संघर्ष दर्ज हैं। वास्तव में बड़ी संख्या में पारसी 10वीं शताब्दी में भारत आए, जब ईरान में उन पर अत्याचार बढ़ गया था।
-राज गोपाल सिंह वर्मा
(लंदन के स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज (SOAS) में हिंदी की जानी-मानी स्कॉलर और प्रोफेसर फ्रांसेस्का ऑर्सिनी को सोमवार रात भारत में आने से रोक दिया गया। रिपोर्ट के मुताबिक, उनके पास पांच साल का वैध ई-वीजा था, फिर भी उन्हें दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर अधिकारियों ने प्रवेश नहीं करने दिया। फ्रांसेस्का ऑर्सिनी चीन में एक अकादमिक सम्मेलन में भाग लेने के बाद हांगकांग से दिल्ली पहुंची थीं। उन्हें इस बात का कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया कि उन्हें क्यों रोका गया। अब यह घटना की सोशल मीडिया पर काफी तेजी से वायरल हो रही है। विपक्ष इस मामले को लेकर केंद्र सरकार पर हमलावर है।)
वीजा विवाद को अलग रखकर बात सिर्फ लेखन दृष्टि और शोध वैचारिकता की। उन्हें जानना है तो उनके काम को बिना किसी पूर्वाग्रह के जानना होगा।
फ्रांसेस्का ऑर्सिनी पर आरोप यह भी है कि वे उर्दू और हिन्दी के अंतरसंबंधों पर अधिक जोर देती हैं, उनके इतिहास को कुछ अधिक ही सकारात्मक रूप से रेखांकित करती हैं, और इस प्रकार आज की परिस्थितियों में इस ‘विवाद’ को बढ़ाने की भी जिम्मेदार हैं।
पर वास्तविकता यह है कि उन्होंने हिन्दी और उर्दू साहित्य के बीच जो संबंध खोजे, वे केवल भाषिक या व्याकरणिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और आंशिक रूप से राजनीतिक हैं। उन्होंने अपने शोध कार्यों से साबित करने का प्रयास किया कि हिन्दी और उर्दू दो अलग दिशाओं में जाने वाली भाषाएँ नहीं हैं, बल्कि एक साझा सांस्कृतिक परंपरा के दो प्रवाह हैं। उनका यह दृष्टिकोण औपनिवेशिक और उत्तर–औपनिवेशिक भाषा–राजनीति को चुनौती देता दिखता है, जो हिन्दी और उर्दू को एक-दूसरे का ‘विरोधी’ या ‘प्रतिद्वंद्वी’ बनाकर देखती रही।
उनकी किताब Before the Divide: Hindi and Urdu Literary Culture (2010) इस विषय पर एक मील का पत्थर है। इस ग्रंथ में उन्होंने यह तर्क दिया है कि भारत में हिन्दी और उर्दू का अलगाव कोई प्राचीन या प्राकृतिक प्रक्रिया नहीं थी, बल्कि यह औपनिवेशिक शासन और 19वीं सदी के बाद की सांप्रदायिक राजनीति का परिणाम था। उन्होंने कहा कि विभाजन से पहले, उत्तर भारत में भाषा का संसार बहुत अधिक सह-अस्तित्वकारी था। साहित्य, कवि-सम्मेलन, कहानी-कथाएँ, गीत-गज़़ल—ये सब हिन्दुस्तानी सांस्कृतिक जीवन का साझा हिस्सा थे।
ऑर्सिनी ने अपने विश्लेषण में ब्रज, खड़ीबोली, फारसी और अवधी के साथ-साथ दरबारी और लोकभाषाओं को भी समान रूप से देखा। उन्होंने स्पष्ट किया कि जब दिल्ली और लखनऊ जैसे सांस्कृतिक केन्द्रों में कविता और गद्य रचा जा रहा था, तो वह एक ही ‘भाषाई वातावरण’ में हो रहा था। उदाहरण के लिए, मीर, ग़ालिब, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, इन सबकी भाषा में फर्क तो था, पर सांस्कृतिक दृष्टि से ये सभी ‘हिन्दुस्तानी साहित्य’ की एक निरंतर कड़ी थे।
उनका एक प्रसिद्ध लेख ‘Afterword: The Hindi–Urdu Divide’ में वे यह सवाल उठाती हैं कि क्या हमें इन दोनों भाषाओं के इतिहास को दो अलग-अलग राष्ट्रों के रूप में देखना चाहिए, या एक साझा भाषायी और साहित्यिक सद्भाव के रूप में? उनका उत्तर था; न हिन्दी शुद्ध थी, न उर्दू, बल्कि दोनों का जन्म और विकास परस्पर आदान-प्रदान से हुआ।
ऑर्सिनी ने यह भी बताया है कि किस तरह औपनिवेशिक काल में अंग्रेजी प्रशासन ने भाषा को धर्म से जोडक़र एक नई पहचान-राजनीति गढ़ी। उर्दू को मुसलमानों की भाषा और हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा कहा गया, जिससे पहले से मौजूद साझा परंपराएँ टूटने लगीं। उन्होंने दिखाया कि 19वीं सदी के अखबारों, पत्रिकाओं, नाटकों और कवि-सम्मेलनों में दोनों भाषाओं का प्रयोग समान रूप से होता था। उस समय ‘रीडरशिप’ एक ही थी, और पाठक सहजता से दोनों लिपियों (देवनागरी और नस्तालीक) में लिखे ग्रंथ पढ़ लेते थे।
उनका मानना है कि ‘साहित्य का धर्म नहीं होता, उसकी भाषा उसका संसार बनाती है।’ यही कारण है कि उन्होंने हिन्दी और उर्दू के विभाजन को ‘राजनीतिक निर्मिति’ कहा। वे यह भी कहती हैं कि किसी भी भाषा की समृद्धि उसकी ‘दूसरी भाषाओं से बातचीत’ में होती है, न कि अलगाव में। उनके लिए हिन्दी और उर्दू का संबंध वही था जो दो पड़ोसी नदियों का होता है- कभी साथ बहती हैं, कभी अलग होती हैं, पर एक ही धरातल से जन्म लेती हैं।
उन्होंने अपने कई लेखों में उर्दू कविता और हिन्दी गद्य के समानांतर विकास की तुलना की। उदाहरण के लिए, उन्होंने दिखाया कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और मीर अनीस दोनों ने अपने-अपने समाज की नैतिकता, आधुनिकता और नागरिकता के प्रश्नों को लगभग एक ही ऐतिहासिक बिंदु से देखा। हिन्दी नाट्य परंपरा और उर्दू शायराना मिज़ाज दोनों ही नवजागरण के सामाजिक विमर्श में सक्रिय थे।
-अशोक पांडे
‘हमें अकेला छोड़ दिए जाने की ज़रूरत नहीं है। कभी-कभार हमें सचमुच झकझोर दिया जाना चाहिए। याद करो आखिऱी दफा ऐसा कब हुआ था जब तुम किसी बात से सचमुच परेशान हुए थे? किसी ज़रूरी बात से – किसी असल बात से?’
यह पंक्ति रे ब्रैडबरी के उपन्यास फारेनहाइट 451 में एक जगह आती है। 1953 में छपी इस किताब में भविष्य के एक ऐसे समाज की कल्पना है जिसमें किताबें पढऩा जुर्म बन चुका है। सरकार ने नागरिकों के सोचने की ताकत पर काबू कर लिया है। अनवरत चलने वाले मनोरंजन और लगातार बदलती, विकसित होती टेक्नोलॉजी ने लोगों को इस कदर सुन्न बना दिया है कि वे न सवाल पूछते हैं, न किसी बारे में बात करते हैं।
सरकार ने बहुत सारे फायरमैन नियुक्त किये हैं जो आग बुझाने का काम नहीं करते। उल्टे उन्हें जहां भी किताबों के होने की खबर लगती है, वे वहां पहुँच कर किताबों को जला डालते हैं। उन्हें सुनिश्चित करना है कि कैसा भी ज्ञान या चेतना किसी भी नागरिक तक न पहुँच सके।
मॉन्टैग एक ऐसा ही फायरमैन है। वह अपना काम पूरी निष्ठा से करता है। एक दफ़ा उसकी मुलाक़ात पड़ोस में रहने वाली एक सादा और ईमानदार लडक़ी क्लैरिस से होती है। दोनों दोस्त बन जाते हैं। कुछ समय बाद लडक़ी उससे पूछती है, ‘क्या तुम वाकई खुश हो?’
यह इकलौता सवाल मॉन्टैग को भीतर तक उद्वेलित कर देता है। धीरे-धीरे उसकी समझ में आता है कि किताबें में सिर्फ शब्द नहीं होते। कि वे इंसान के तजुर्बों की परछाइयां होती हैं।
- अनिल गोस्वामी
बिहार में दो गठबंधन चुनाव लड़ रहे हैं। एनडीए में प्रमुख जनता दल यूनाइटेड और भाजपा है। दोनों दल बहुमत के आंकड़े से भी कम सीटें लड़ रहे हैं।
इसलिए एनडीए की सरकार बनने पर मिली जुली सरकार बनेगी। यह तय बात है।
महागठबंधन में आरजेडी और कांग्रेस प्रमुख रूप से भागीदार हैं, साथ में माले भी। आरजेडी बहुमत के आंकड़े से ज्यादा सीटें लड़ रही है, 143+ सीटें लड़ने वाले से उम्मीद की जा सकती है वो बहुमत प्राप्त कर सकता है। लेकिन आरजेडी के लिए बड़ा मुश्किल टास्क है।
एनडीए में शामिल चिराग़ पासवान ने 2020 में अलग से चुनाव लड़ा था , जिसका भारी नुक़सान जनता दल यूनाइटेड को हुआ था, सीटों के रूप में।इस दफे चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास पासवान, एनडीए का पार्ट है। इसलिए जनता दल यूनाइटेड के एनडीए खेमे में सबसे ज्यादा सीटें जीतने की उम्मीद है।
बिहार में जनता दल यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी लम्बे समय से सत्ता में काबिज है। साथ में नरेंद्र मोदी भाजपा एनडीए नई दिल्ली में भी सत्ता पर काबिज है।
भाजपा को एंटीइनकमबेंसी का सामना करना है। इसे जनरली भारी मात्रा में टिकट काट कर, नया उम्मीदवार देकर दूर किया जाता रहा है। एक और तरीका है, एक नया फ्रेश दल खड़ा किया जाये जो सरकार विरोधी मतों को अपनी और खींचें, अपने प्रमुख विरोधी तक ना जाने दें। यह काम भाजपा के लिए प्रशांत किशोर कर रहे हैं।और वो इसे एक ऐजेंसी की तरह ही कर रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि की वो खुद चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। और वो जेडीयू भाजपा सरकार के कुरूप चेहरे, सम्राट चौधरी पर हमलावर हैं।
बिहार में आरजेडी की घोषणाएं, ताज़ा है, संभव है, करने योग्य है, समर्थन योग्य है।यह चुनाव ऐसा है, इसमें जनता को नीतीश कुमार को हरवाकर दुख नहीं होगा, कारण नीतीश को बहुत मौका मिल चुका है।
जनता को अब नया चाहिए, जिसे डेढ़-दो दशक तक देख सकें, साथ चल सकें।
इसके लिए चिराग पासवान, तेज प्रताप यादव, प्रशांत किशोर,और तेजस्वी यादव यादव फेस मौजूद हैं।
चिराग पासवान, तेज प्रताप को आरजेडी, भाजपा, या जनता दल यूनाइटेड के पीछे रह कर चलना होगा, अपने हिसाब से सरकार नहीं चला पाएंगे, इसलिए जनता इन्हें मुख्यमंत्री के रूप में नहीं देख रही है।
-लिंडसे गैलोवे
साल 2025 में जब दुनिया के कई हिस्सों में युद्ध हो रहे हैं, सीमाओं की सुरक्षा बढ़ाई जा रही है और देशों के बीच व्यापारिक तनाव भी बढ़ रहा है, तब भी कुछ देश ऐसे हैं जो अब भी शांति का झंडा थामे हुए हैं।
2025 की ग्लोबल पीस इंडेक्स (जीपीआई) रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया में देशों के बीच संघर्षों की संख्या दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे ज्यादा हो गई है। इस साल तीन नए संघर्ष शुरू हुए हैं। इसके बाद कई देशों ने अपनी सैन्य ताक़त बढ़ाने पर ध्यान दिया है।
यह रिपोर्ट इंस्टीट्यूट फॉर इकनॉमिक्स एंड पीस तैयार करता है। इसमें देशों का मूल्यांकन 23 अलग-अलग मानकों के आधार पर किया जाता है। इनमें बाहरी झगड़े, रक्षा पर खर्च, आंतरिक सुरक्षा और आतंकवाद की स्थिति जैसे कारक शामिल होते हैं।
इस लिस्ट में जो देश लगातार टॉप पर बने हुए हैं, वे लगभग 20 सालों से अपनी नीतियों में स्थिरता बनाए हुए हैं। यह दिखाता है कि अगर किसी देश की नीतियां शांतिपूर्ण और स्थिर हों, तो वह लंबे समय तक सुरक्षित रह सकता है।
हमने दुनिया के सबसे शांत देशों के लोगों से बात की ताकि यह समझा जा सके कि उनकी सरकारों की नीतियां और सामाजिक मूल्य उनके रोजमर्रा के जीवन में शांति और सुरक्षा की भावना को कैसे प्रभावित करते हैं।
आइसलैंड
साल 2008 से अब तक आइसलैंड दुनिया का सबसे शांतिप्रिय देश बना हुआ है।
इस साल इसमें दो प्रतिशत का सुधार दर्ज किया गया है, जिससे यह दूसरे देशों से और आगे निकल गया है।
यहाँ सुरक्षा और भरोसे की भावना लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है।
इंट्रेपिड ट्रैवल नॉर्थ यूरोप की जनरल मैनेजर इंगा रोस एंटोनियुसदोत्तिर कहती हैं, ‘सर्दियों का मौसम कभी-कभी मुश्किल होता है। लेकिन लोगों के बीच का अपनापन ही असली सुरक्षा देता है। यहाँ आप रात में अकेले निकल सकते हैं। डर नहीं लगता। कैफे और दुकानों के बाहर बच्चे अपनी गाडिय़ों में आराम से सोते दिखते हैं जबकि उनके माता-पिता पास में खाना खा रहे होते हैं या काम निपटा रहे होते हैं। यहाँ की पुलिस के पास बंदूक तक नहीं होती।’
इंगा कहती हैं कि देश में लैंगिक समानता की नीतियों ने महिलाओं को सुरक्षित और आत्मविश्वासी बनाया है।
वो कहती हैं, ‘समान अवसर और मज़बूत सामाजिक व्यवस्था समाज को हर किसी के लिए बेहतर और सुरक्षित बनाती है।’
इंगा सलाह देती हैं कि अगर आप आइसलैंड की इस शांति को महसूस करना चाहते हैं, तो स्थानीय लोगों की तरह यहाँ का जीवन जिएं।
वो कहती हैं, ‘गर्म पानी के पूल में तैरें, हॉट टब में अनजान लोगों से बातें करें या किसी पहाड़ पर चढ़ाई करें। असली आइसलैंड आपको उसके संगीत, कला और हर मौसम में बदलती प्रकृति में मिलेगा।’
आयरलैंड
बीसवीं सदी के अंत में संघर्षों से गुजऱने के बावजूद आज आयरलैंड शांति और स्थिरता का प्रतीक माना जाता है।
इस देश को हर साल सैन्यीकरण में कमी और किसी भी तरह के टकराव में गिरावट के लिए ऊंचे अंक मिलते हैं। सामाजिक सुरक्षा और अपराध नियंत्रण के मामले में भी यह दुनिया के 10 सबसे सुरक्षित देशों में शामिल है।
किल्डेयर के रहने वाले और किल्किया कैसल में ‘डायरेक्टर ऑफ़ एक्सपीरियंस’ जैक फिट्जसिमन्स बताते हैं, ‘यहाँ लोग सच में एक-दूसरे का ध्यान रखते हैं। अगर आप किसी अनजान व्यक्ति से मदद मांगें, तो वह आपकी मदद करने की पूरी कोशिश करेगा।’
वो कहते हैं, ‘यहाँ की दोस्ताना संस्कृति और गहरी सामुदायिक भावना हर किसी को अपनापन महसूस कराती है, चाहे आप छोटे कस्बे में हों या किसी बड़े शहर में। यहाँ की मज़बूत सामाजिक व्यवस्था और सामुदायिक कल्याण पर ध्यान देने से असमानता और तनाव दोनों कम हुए हैं।’
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आयरलैंड ने सैन्य तटस्थता की नीति अपनाई है। यही वजह है कि यह नेटो का हिस्सा नहीं है।
यहाँ विवादों को बातचीत और कूटनीति के ज़रिए सुलझाने को प्राथमिकता दी जाती है। देश अपनी प्राकृतिक सुंदरता और सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा पर भी विशेष ध्यान देता है और पर्यटकों का हमेशा गर्मजोशी से स्वागत करता है।
फिट्जसिमन्स कहते हैं, ‘हमारे यहाँ आतिथ्य संस्कृति का हिस्सा है। विदेशी मेहमानों के प्रति हमारी स्वाभाविक मेहमाननवाजी उन्हें हमेशा प्रभावित करती है।’
वह कहते हैं, ‘यहाँ जि़ंदगी की रफ्तार थोड़ी धीमी है। लोग आज भी बातचीत और कहानियाँ सुनने-सुनाने को अहमियत देते हैं। कभी भी आप किसी किले, शांत जंगल या किसी छोटे पब में बजते पारंपरिक संगीत से ज़्यादा दूर नहीं होते। यही अपनापन और सुकून आयरलैंड को ख़ास बनाता है।’
न्यूजीलैंड
इस साल न्यूजीलैंड दो स्थान ऊपर बढक़र दुनिया का तीसरा सबसे सुरक्षित देश बन गया है। सुरक्षा और शांति के क्षेत्र में सुधार, साथ ही प्रदर्शनों और आतंकवाद से जुड़ी घटनाओं में कमी इसकी मुख्य वजह रही है।
प्रशांत महासागर में बसा यह सुंदर द्वीपीय देश भौगोलिक रूप से बाहरी संघर्षों से सुरक्षित है। इसकी आंतरिक नीतियाँ नागरिकों में स्थिरता और भरोसे की भावना पैदा करती हैं।
ग्रीनर पास्चर्स फर्म की डायरेक्टर मिशा मैनिक्स-ओपि कहती हैं, ‘न्यूज़ीलैंड के हथियारों से जुड़े क़ानून दुनिया के सबसे सख्त कानूनों में से हैं और यही लोगों में सुरक्षा की भावना को मजबूत करते हैं।’
वो बताती हैं, ‘यहाँ बच्चे अकेले स्कूल पैदल जाते हैं। लोग अपने घरों के दरवाजे खुले छोड़ देते हैं और सडक़ किनारे किसी की गाड़ी खऱाब दिखे तो राहगीर ख़ुद मदद के लिए रुक जाते हैं। यहाँ लोगों को व्यवस्था और एक-दूसरे पर पूरा भरोसा है।’
मैनिक्स-ओपि कहती हैं, ‘यहाँ की सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ ही नहीं बल्कि प्रकृति से जुड़ाव भी लोगों की जिंदगी का अहम हिस्सा है। लोग समुद्र तट पर सैर करते हैं, जंगलों में पैदल चलते हैं या तारों के नीचे बैठकर शांति का अनुभव करते हैं।’
वह कहती हैं, ‘पोस्टकार्ड जैसे सुंदर नज़ारों से परे, न्यूजीलैंड की असली खूबसूरती यहाँ के लोगों में है। माओरी संस्कृति आज भी जीवंत है और जिंदगी की धीमी, सुकून भरी रफ्तार लोगों के सोचने का नज़रिया बदल देती है।’
-हेमंत कुमार झा
अंजना ओम कश्यप बिहार आई हैं। अपने आने को और बिहार चुनाव के अपने कवरेज को विज्ञापित करते हुए उनका छोटा सा वीडियो यूट्यूब पर अभी दिखा। वे बोल रही थी, ‘बिहारी गिर कर उठते हैं, गिरते हैं, फिर उठते हैं।’ वे आगे भी कुछ बोल रही थी जो शब्दश: तो ध्यान में नहीं लेकिन ऐसा ही कुछ था कि ‘बिहारी आसमान को नया रंग देते हैं...।’
रिमोट का बटन दबा तो अगला वीडियो भी आजतक न्यूज चैनल का ही आया। कोई रिपोर्टर रेलवे स्टेशन पर रुकी बिहार आने वाली किसी ट्रेन के स्लीपर क्लास में बैठे यात्रियों को दिखा रहा था, ‘ये देखिए बिहार जाने वाली ट्रेन, स्लीपर क्लास में किस तरह यात्री ठुंसे हुए हैं, स्लीपर का हाल भी जनरल क्लास जैसा ही है।’
रिपोर्टर आगे बढ़ता है और ट्रेन के टॉयलेट की टूटी खिडक़ी में कैमरा फोकस कर बताता है, ‘ये देखिए, टॉयलेट में भी लोग भरे हुए हैं, गेट पर इतनी भीड़ है कि घुसना नामुमकिन है लेकिन लोग हैं कि घुसे जा रहे हैं।’
तभी, वही रिपोर्टर चिल्लाता हुआ आगे दौड़ता है और ट्रेन की खिडक़ी से भीतर घुसते हुए लोगों पर कैमरा केंद्रित कर लगभग हांफते हुए बोलता है, ‘ये देखिए, गेट से घुसने में मुश्किल है तो ये भाई साहब खिडक़ी से ही घुसे जा रहे हैं।’ खिडक़ी में घुसते यात्री को ऊपर उठा कर घुसाने में मदद करने के बाद खुद भी खिडक़ी में जाने का प्रयास करते साथी से रिपोर्टर पूछता है, ‘बिहार में कहां जा रहे हैं?’ ‘जहानाबाद...’, यात्री जवाब देता है। फिर रिपोर्टर प्लेटफार्म पर की भयानक भीड़ पर कैमरा घुमाते हुए अपनी रिपोर्टिंग जारी रखता है, ‘यही है बिहार, यही हैं बिहारी, अपनी मिट्टी से, अपनी संस्कृति से, अपने पर्व त्योहार से कितना प्रेम है इन्हें, ये हम यहां देख पा रहे हैं। ये अपनी माटी, अपनी संस्कृति को नहीं भूलते और इतना कष्ट सह कर भी छठ में अपने गांव जा रहे हैं।’
कैमरा प्लेटफार्म की भीड़ में शामिल चेहरों पर जूम होता है। धंसी आंखों, असमय बूढ़े हुए अधेड़ों के सूखे चेहरे, ऊर्जा से सराबोर लेकिन थके टूटे चेहरे लिए नौजवान, भीड़ देख कर आंखों में भय का बोझ समेटे महिलाओं के झुंड, भीड़ की रेलमपेल से हैरान परेशान बच्चे...।
यहां दानापुर, पटना, आरा, मोकामा स्टेशनों पर ऐसी ही ट्रेनों में जानवरों की तरह ठुंसे हुए आए और अब उतरे परेशान हाल यात्रियों के आगे पीछे रिपोर्टर्स की भीड़ दौड़ती है, ‘बिहार में चुनाव है, आप वोट देने के लिए रुकेंगे कि छठ के बाद लौट जाएंगे? किसको वोट देंगे? क्या लगता है आपको, चुनाव में क्या मुद्दा है?’ कोई यात्री रिपोर्टर को अनसुना कर आगे बढ़ जा रहा है, कोई जवाब देता है, ‘अपना काम देखेंगे कि वोट देखेंगे, छठ के बाद जल्दी नहीं जाएंगे तो काम से भी जाएंगे, चुनाव तो नेतवन के लिए है, हमारे लिए क्या है, भर दिन मजदूरी करते हैं तो शाम को बाल बच्चा खाता है।’
रिमोट का अगला बटन दबता है। कोई परिचर्चा चल रही है। एक गंभीर से दिख रहे विश्लेषक बोल रहे हैं, ‘बिहार के वोटर बहुत मेच्योर हैं। बिहार देश की राजनीति को रास्ता दिखाता रहा है। इस बार का चुनाव दोनों पक्षों के उलझे समीकरणों को देखते हुए लगता है कि जनता ही लड़ेगी।’
अगला विश्लेषक पिछले की बात को आगे बढ़ाता है, ‘और जब जनता चुनाव लड़ती है तो राजनीति बदल जाती है, इस बार का चुनाव कैसे परिणाम लाएगा इस पर अभी कुछ नहीं कह सकते, लेकिन इतना कह सकते हैं कि बिहारी वोटर ने कई बार देश को चौंकाया है, इस बार भी ऐसा ही कुछ लगता है।’
बिहार, बिहार के नौजवान, बिहार के श्रमिक, बिहार की मिट्टी, बिहार की संस्कृति, बिहार के वोटर...एक रूमानियत...निष्ठुर रूमानियत सी छाई रहती है जब रिपोर्टर्स या विश्लेषक इन पर चर्चा करते हैं। जी करता है कि इनमें से किसी को पकड़ कर किसी ट्रेन के शौचालय में खड़ी भीड़ में धकेल दें और कहें कि 24-26 घंटे इस शौचालय में खड़े खड़े यात्रा करो और याद करो कि कितनी फिलासफी, कितना विश्लेषण झाडऩे लायक तुम रह जाओगे।
अभी पिछले सप्ताह ही एक रिपोर्टर बनारस की संकरी गलियों में अंधकूप से बने ब्वायज हॉस्टल्स के अंधेरे कमरों में दिखा रहा था कि बिहार से गए बच्चे किस तरह वहां रह रहे हैं। बिना किसी खिडक़ी के भयानक उमस भरे उन बेहद छोटे छोटे अंधेरे कमरों में तीन तीन बेड लगे थे जहां कुर्सी रखने की जगह भी नहीं थी, टेबल की कौन कहे। निम्न मध्यवर्गीय परिवारों के लग रहे वे बच्चे, जो उन कमरों में रह रहे थे, रिपोर्टर को बता रहे थे, ‘मैंने बिहार में फलां यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया था, लेकिन जब यहां के कॉलेज में हो गया तो वहां का एडमिशन कैंसिल करवा लिया।’ बच्चे बता रहे थे, ‘बिहार में जिस कॉलेज में मेरा एडमिशन हुआ था वहां तो मेरे सब्जेक्ट में सिर्फ एक टीचर थे, कई सब्जेक्ट में तो टीचर थे ही नहीं, क्या करते हम लोग, यहां एडमिशन मिल गया तो आना पड़ा।’
रिपोर्टर दिन के उन उमस भरे अंधेरों में कमरे में जलते बल्बों पर कैमरे को फोकस करता बोल रहा था, ‘बिहार के बच्चों के जीवट का लोहा सारा देश मानता है। ये लोग पत्थर पर उगी दूब की तरह अपनी प्रतिभा और अपनी मेहनत के बल पर देश की किसी भी परीक्षा में अग्रणी स्थान हासिल करते हैं।’ वह बिहार की मिट्टी में समाई जिजीविषा का महिमा गान करता अपनी बातों को आगे बढ़ा रहा था।
-अपूर्व गर्ग
उनका चेहरा एक बोलती हुई तस्वीर है। एक सुंदर तस्वीर जो आज भी उतनी ही आकर्षक है जितनी दशकों पहले रही हो। उनकी आँखों में चमक है, आत्मविश्वास है, संतोष है और कहानियाँ हैं, इतिहास है।
उन गौरव कथाओं को जानना चाहिए और आँखों में बसे इतिहास के पन्नों को पलटना चाहिए। जितने पन्ने हम पलटेंगे
उतनी संघर्ष कथाएं सामने आएँगी, आंदोलनों का स्वर्णिम इतिहास निकलकर सामने आएगा कि कैसे एक बेहद विनम्र पर अटल-अविचल, सीधे-सादे सादगी से भरपूर पर उतने ही जोश और ऊर्जा से भरे प्यारे पर मुद्दों पर तीखे तेवर रखने वाले सज्जन ने शहर के मजदूर, किसान और कर्मचारियों का शानदार नेतृत्व कर एक सरदार के तौर पर धारदार आंदोलन किये।
गरीब आदमी और उनके हक़ की लड़ाई के बीच सेतु बने ये सरदार हमारे सरदारी लाल गुप्ता जी हैं जिन्होंने दस दशक यानी सौ बरस पूरे किये। हम सब की खुशनसीबी है कि दशकों तक जनता की आवाज बने सरदारी लालजी सौ बरस से आगे का सफर इसी तरह तय करेंगे और उनकी उपस्थिति शहर के लिए हमेशा प्रेरणादायी रहेगी।
हम इन्हें देखेंगे और याद करेंगे कैसे सरदारीलाल जी की उपस्थिति आन्दोलनों के लिए रीढ़ की तरह होती और आंदोलनकारी झुकते नहीं।
बरसों पहले किसानों की पानी की मांग के आंदोलन को लेकर प्रशासन उग्रता से टूट पड़ा था पर तब सबसे आगे ये सरदार थे जिन्होंने दृढ़ता से सीना तान कर मुकाबला किया और परिणाम किसानों के लिए नहर से पानी छोड़ा गया था।
अखबार कर्मचारियों की आवाज़ बने थे सरदारीलाल जी और अखबार में हड़ताल हो जाने का इतिहास दजऱ् हो गया था पर बाद में उन वर्कर्स की अधिकाँश मांगें पूरी हुई थीं ।
एक सरकारी कारपोरेशन में ठेकेदार महिला कर्मचारियों को धमकाता था, गुंडागर्दी करता पर सरदारी लाल जी ने उन पीडि़त महिला वर्कर्स की आवाज बनकर जोरदार लड़ाई लड़ी, प्रशासन से टकराये जेल गए पर उन महिलाओं को वेतन संबंधी उनके अधिकार दिलवाये। वैसे आंदोलनों के चलते सरदारीलाल जी के लिए जेल जाना कोई नयी बात न थी, इमरजेंसी के दौरान करीब उन्नीस महीने जेल में गुजारे और कोई समझौता नहीं किया।
बिलासपुर नगर निगम के कर्मियों के सफाई कर्मचारियों के बीच रहकर उनके साथ भोजन कर वे उनके लिए लड़े ।सिर्फ संगठनों के लिए ही नहीं उनसे जुड़े एक-एक व्यक्ति की पीड़ा को अपनी पीड़ा, अपना मुद्दा बनाकर वो लड़ते।
जापान को पहली बार एक महिला प्रधानमंत्री मिली हैं, लेकिन उन्होंने बड़े मुश्किल वक्त में देश का नेतृत्व संभाला है। जापान की जनता महंगाई से परेशान है। आर्थिक और सुरक्षा चुनौतियों से निपटना सनाए ताकाइची की प्राथमिकता होगी।
डॉयचे वैले पर यूलियन रयाल का लिखा-
जापान की रूढि़वादी नेता सनाए ताकाइची देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बन गई हैं। मंगलवार, 21 अक्टूबर को संसद के निचले सदन में हुए मतदान में ताकाइची ने बहुमत हासिल कर इतिहास रचा। वह देश की पहली महिला प्रधानमंत्री चुनी गईं।
प्रधानमंत्री पद पर चुने जाने के तुरंत बाद उन्होंने अपने मंत्रिमंडल का गठन शुरू कर दिया। पीएम ताकाइची ने उम्मीद जताई है कि यह मंत्रिमंडल उन्हें सामाजिक, आर्थिक और राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी उन बदलावों को लागू करने में मदद करेगा, जो उनकी सरकार के लिए जरूरी हैं। ऐसा करके वह पक्का करना चाहती हैं कि उनकी सरकार का कार्यकाल लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी (एलडीपी) की कई हालिया सरकारों की तरह संक्षिप्त न हो।
ताकाइची ने जापान की संसद के निचले सदन में प्रधानमंत्री पद के लिए डाले गए 465 मतों में से 237 मत हासिल किए। उनकी कंजर्वेटिव पार्टी एलडीपी को जापान इनोवेशन पार्टी (जेआईपी) का समर्थन प्राप्त था। जेआईपी दक्षिणपंथी झुकाव की पार्टी और एलडीपी की नई गठबंधन सहयोगी है।
जेआईपी का मुख्य आधार जापान का ओसाका शहर है। यह एक छोटी क्षेत्रीय पार्टी है और पूरे देश में अपनी राजनीतिक पकड़ और लोकप्रियता बढ़ाना चाहती है। गठबंधन सहयोगी होने के बावजूद एलडीपी के साथ उसके कुछ गंभीर राजनीतिक मतभेद हैं। फिर भी, जेआईपी का नेतृत्व मानता है कि सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल होने से उसे राजनीतिक मान्यता मिलेगी और देशभर में चुनाव लडऩे के साथ-साथ अपनी पहुंच बढ़ाने में भी मदद मिलेगी।
हालांकि, नई सरकार के सामने आने वाली गंभीर चुनौतियों को देखते हुए यह भी संभव है कि निराश मतदाता अगले चुनाव में एलडीपी और जेआईपी, दोनों के खिलाफ वोट करें। इसका मतलब है कि अगर ताकाइची अपने पूर्ववर्ती शिगेरु इशिबा से ज्यादा समय तक सत्ता में रहना चाहती हैं, तो उन्हें बिल्कुल भी समय नहीं गंवाना होगा। इशिबा ने 386 दिनों तक सत्ता में रहने के बाद 21 अक्टूबर की सुबह औपचारिक रूप से इस्तीफा दे दिया था।
पहली प्राथमिकता : एलडीपी में दरार को पाटना
टेम्पल यूनिवर्सिटी जापान (टीयूजे) में एशियाई अध्ययन के निदेशक जेफ किंग्स्टन बताते हैं, ‘नई प्रधानमंत्री की पहली प्राथमिकता पार्टी के भीतर गहरी दरार को पाटना और एलडीपी के प्रति जनता का विश्वास फिर से बहाल करना होगा।’
किंग्स्टन ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘इसके साथ ही उन्हें वह तरीका भी खोजना होगा जिससे इस अजीबोगरीब गठबंधन को कामयाब बनाया जा सके। फिलहाल, यह गठबंधन अस्पष्ट वादों और बिना किसी समयसीमा वाले एजेंडे पर आधारित मालूम होता है।’
किंगस्टन ने कहा कि जापान के आम लोग ऐसी नीतियां चाहते हैं, जो कम-से-कम उनके ‘आर्थिक दर्द’ को कम करें। उन्होंने कहा, ‘देश में आर्थिक निराशा का माहौल है। लोग आर्थिक तंगी महसूस कर रहे हैं। ऐसे में नई सरकार के लिए यह जरूरी है कि वह रोजमर्रा की चीजों की आसमान छूती कीमतों को कम करने के तरीके खोजे। इसकी वजह यह है कि ज्यादातर लोगों को महसूस हो रहा है कि वे इस समय गहरे वित्तीय संकट में हैं।’
टोक्यो स्थित ‘अमोवा ऐसेट मैनेजमेंट’ की मुख्य वैश्विक रणनीतिकार नाओमी फिंक ने कहा कि दिवंगत पूर्व जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे को अपना गुरु मानने वाली ताकाइची से यह उम्मीद की जा रही है कि वह आबे की कई नीतियों को फिर से लागू कर सकती हैं।
इस बीच, टोक्यो स्टॉक एक्सचेंज ने ताकाइची को पीएम चुने जाने पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी। वह सरकारी खर्च बढ़ाने और आसान मौद्रिक नीतियों की समर्थक मानी जाती हैं। उम्मीद है कि उनके नेतृत्व में जापान की घरेलू राजनीतिक स्थिति में भी स्थिरता आएगी। इन्हीं उम्मीदों के कारण 21 अक्टूबर को ‘निक्केई स्टॉक इंडेक्स’ रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया और 49,000 अंकों के ऊपर बंद हुआ।
महंगाई और स्थिर वेतन
फिर भी, वेतन में वृद्धि न होने और जापान के कामकाजी लोगों में अस्थायी नौकरियों की बढ़ती संख्या को लेकर चिंताएं बनी हुई हैं। यह एक और बड़ा मुद्दा है, जिसपर पीएम ताकाइची को तुरंत ध्यान देना होगा।
तादाशी एन्नो, टोक्यो की सोफिया यूनिवर्सिटी में राजनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर हैं। वह बताते हैं कि जुलाई में संसद के ऊपरी सदन के लिए हुए चुनाव में मतदाताओं ने एलडीपी के प्रति अपनी नाराजगी जाहिर की। पहले से ही अल्पमत सरकार चला रही पार्टी के लिए यह नतीजा बेहद खराब था। यही नतीजा आखिरकार इशिबा के कार्यकाल खत्म होने की वजह बना।
तादाशी एन्नो ने बताया, ‘लोगों ने अर्थव्यवस्था की हालत, कमजोर मुद्रा (येन) और बढ़ती कीमतों पर अपनी नाराजगी जताई है।’ एन्नो आगे बताते हैं कि एलडीपी और जेआईपी ने रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों के दाम घटाने पर चर्चा तो की है, लेकिन यह अभी साफ नहीं है कि ये प्रस्ताव कितनी जल्दी पास होंगे और लोगों को आर्थिक मुश्किलों से निजात दिलाने में कितने असरदार होंगे।
निकट भविष्य में एक और चुनौती अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की तीन दिवसीय आधिकारिक यात्रा है। वह दक्षिण कोरिया जाने से पहले 27 अक्टूबर को टोक्यो पहुंचेंगे। जापान ने राष्ट्रपति ट्रंप को 550 अरब डॉलर के निवेश पैकेज से संतुष्ट कर दिया है, लेकिन टोक्यो को अब भी चिंता है कि वह और भी मांग कर सकते हैं।
इस विषय पर एन्नो ने कहा, ‘ट्रंप क्या करेंगे, यह अनुमान लगाना मुश्किल है। सुरक्षा के मोर्चे पर, जापान ने 2022 में रक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का दो फीसदी खर्च करने का वादा करके बड़ा नीतिगत बदलाव किया है। हालांकि, ऐसा महसूस होता है कि अमेरिका चाहता है कि जापान को इस मामले में और अधिक कदम उठाने की जरूरत है। मुझे लगता है कि अमेरिका इसी बात को लेकर जापान पर नए दबाव डाल सकता है।’
एन्नो ने अनुमान जताया कि सरकार की मौजूदा वित्तीय स्थिति के कारण ऐसा करना मुश्किल हो सकता है। हालांकि, टोक्यो को यह अच्छी तरह पता है कि डॉनल्ड ट्रंप पहले भी अपनी मांगें न माने जाने पर जापान और दक्षिण कोरिया जैसे सहयोगी देशों से अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाने की धमकी दे चुके हैं। ऐसे में पीएम ताकाइची अपनी तरफ से हर संभव प्रयास करेंगी, ताकि उन्हें इस संवेदनशील मुद्दे पर कोई सीधी चेतावनी न मिले।
कानूनी तौर पर ताकाइची को 2028 के पतझड़ तक कोई आम चुनाव कराने की जरूरत नहीं है। अनुमान है कि वह इस समय का उपयोग करते हुए जेआईपी के साथ अपने गठबंधन के दम पर मुख्य समस्याओं को दूर करने और प्रमुख सरकारी कार्यों को पूरा करने की कोशिश करेंगी। इनमें सबसे महत्वपूर्ण वह बजट है, जिसे फरवरी के अंत तक हर हाल में मंजूरी दिलानी है। इसके लिए प्रधानमंत्री को सहयोग की जरूरत होगी। हालांकि, वह बिना बहुमत वाली सरकार का नेतृत्व कर रही हैं। इसलिए, एकजुट विपक्ष उनके लिए राजनीतिक तौर पर मुश्किलें खड़ी कर सकता है।


