विचार/लेख
डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ़ बढ़ाने के फैसले पर पलटवार करते हुए चीन ने अमेरिका को चेतावनी दी है कि वह ‘किसी भी तरह के युद्ध’ के लिए तैयार है।
ट्रंप ने सभी चीनी वस्तुओं पर टैरिफ़ बढ़ा दिया है इसके बाद से दुनिया की शीर्ष दो अर्थव्यवस्थाओं में ट्रेड वॉर का ख़तरा बढ़ गया है।
इसके तुरंत बाद ही चीन ने अमेरिकी कृषि उत्पादों पर 10-15त्न टैरिफ़ लगाने की घोषणा की।
मंगलवार को चीनी दूतावास ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में लिखा, ‘चाहे टैरिफ़ वॉर हो, ट्रेड वॉर हो या कोई अन्य जंग, अमेरिका अगर जंग चाहता है तो हम इसके अंजाम तक जंग लडऩे को तैयार हैं।’
ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से चीन की ओर से यह सबसे तीख़ी बयानबाज़ी है और ऐसे मौके पर आई है जब नेशनल पीपुल्स कांग्रेस के सालाना अधिवेशन में बीजिंग में चीन के नेता इक_ा हुए है।
चीन ने पहले भी दी है चेतावनी
बुधवार को चीन के प्रधानमंत्री ली कियांग ने घोषणा की कि चीन इस साल अपने रक्षा खर्च में 7।2त्न की बढ़ोतरी करेगा।
उन्होंने कहा, ‘पूरी दुनिया में तेज़ गति से ऐसे बदलाव हो रहे हैं जिन्हें एक सदी में कभी नहीं देखा गया। ’
हालांकि रक्षा बजट में यह बढ़ोतरी उम्मीद के मुताबिक है और पिछले साल की घोषणा से मेल खाता है।
बीजिंग में नेता चीन की जनता को एक संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें भरोसा है कि देश की अर्थव्यवस्था ट्रेड वॉर के ख़तरों के बावजूद बढ़ सकती है।
ऐसा लगता है कि चीन अमेरिका के मुक़ाबले अपनी छवि को स्थिर और शांत देश के रूप में पेश करना चाहता रहा है।
बीबीसी संवाददाता लॉरा बिकर कहती हैं कि कनाडा और मेक्सिको जैसे अमेरिकी सहयोगियों पर ट्रंप के फ़ैसलों से पडऩे वाले असर को चीन अपने हित में मोडऩे की उम्मीद कर सकता है। लेकिन वह बयानबाज़ी को एक हद से अधिक नहीं बढ़ाना चाहता जिससे उसके संभावित नए वैश्विक पार्टनर डर जाएं।
चीन ने पहले भी कहा है कि वह जंग के लिए तैयार है। पिछले साल अक्तूबर में राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ताईवान के चारों ओर मिलिटरी ड्रिल के दौरान सैनिकों को जंग के लिए तैयार रहने को कहा था।
वॉशिंगटन में चीनी दूतावास ने एक दिन पहले विदेश मंत्रालय के बयान का हवाला दिया है, जिसमें कहा गया है कि ड्रग फ़ेंटानिल की तस्करी के लिए अमेरिका चीन पर बेवजह आरोप मढ़ रहा है।
चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता के अनुसार, ‘चीनी उत्पादों के आयात पर अमेरिकी टैरिफ़ बढ़ाने के लिए फ़ेंटानिल का मुद्दा एक कमज़ोर बहाना है।’
बयान के अनुसार, ‘धमकी से हम डरने वाले नहीं। दबंगई का हम पर कोई असर नहीं पड़ता। दबाव, ज़बरदस्ती या धमकियां, चीन से निपटने का सही तरीक़ा नहीं हैं।’
चीन से जंग को अमरीका तैयार-हेगसेट
चीन की कड़ी प्रतिक्रिया पर अमेरिकी रक्षा मंत्री पीट हेगसेट ने फॉक्स न्यूज़ के एक कार्यक्रम में कहा, ‘हम तैयार हैं। जो शांति चाहते हैं, उन्हें जंग के लिए भी तैयार रहना चाहिए।’
उन्होंने कहा, यही वजह है, ‘अमेरिका अपनी सेना को मजबूत कर रहा है और डिटरेंस बहाल कर रहा है।’
‘हम एक ख़तरनाक़ दुनिया में रह रहे हैं, जहां ऐसे शक्तिशाली और आगे बढ़ते देश हैं जिनकी बहुत अलग विचारधाराएं हैं। वे अपने रक्षा ख़र्च को तेज़ी से बढ़ा रहे हैं, टेक्नोलॉजी को अत्याधुनिक कर रहे हैं, वे अमेरिका की जगह लेना चाहते हैं।’
हेगसेट ने कहा कि सैन्य ताक़त बनाए रखना, तनाव से बचने का मुख्य तरीक़ा है।
उन्होंने कहा, ‘अगर हम चीन या अन्य देशों के साथ युद्ध को रोकना चाहते हैं तो हमें ताक़तवर होना होगा।’
‘और राष्ट्रपति (ट्रंप) जानते हैं कि इसी से शांति आएगी। उनके चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से अच्छे संबंध हैं।।।हम चीन के साथ युद्ध नहीं चाहते और न ही युद्ध करना चाहते हैं और राष्ट्रपति ने इस ऐतिहासिक मौके को इसके लिए इस्तेमाल भी किया।’
उन्होंने कहा, ‘रक्षा मंत्री के नाते मुझे ये सुनिश्चित करना होगा कि हम तैयार हैं, हमें रक्षा ख़र्च, क्षमता, हथियार और तेवर बनाए रखने की ज़रूरत है।’
अमेरिका और चीन के रिश्ते
अमेरिका और चीन के रिश्ते हमेशा से दुनिया में सबसे तनाव वाले रिश्ते रहे हैं।
एक्स पर जारी चीनी विदेश मंत्रालय के बयान को सोशल मीडिया पर काफ़ी साझा किया गया है और ट्रंप के कैबिनेट में चीन विरोधी नेताओं के लिए यह एक सबूत की तौर पर पेश किया जा सकता है कि बीजिंग विदेशी नीति के मामलों में और आर्थिक रूप से वॉशिंगटन का सबसे बड़ा ख़तरा है।
चीनी अधिकारियों को उम्मीद थी कि ट्रंप के शासन में अमेरिका और चीन संबंध बेहतर होंगे। गौरतलब है कि अपने शपथ ग्रहण समारोह में ट्रंप ने शी जिनपिंग को आमंत्रित किया था।
डोनाल्ड ट्रंप ने भी कहा था कि दोनों नेताओं के बीच फ़ोन पर ‘अच्छी बातचीत’ हुई थी।
शी जिनपिंग घरेलू स्तर पर घटते उपभोग, प्रापर्टी संकट और बेरोजग़ारी की चुनौती का सामना कर रहे हैं।
रक्षा बजट: अमेरिका बनाम चीन
चीन का रक्षा बजट 245 अरब डॉलर है, जोकि दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा रक्षा बजट है, लेकन यह अमेरिका से छोटा ही है।
स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार, बीजिंग अपनी सेना पर जीडीपी का 1।6त्न खर्च करता है जोकि अमेरिका और रूस के मुक़ाबले काफ़ी कम है।
हालांकि विश्लेषक मानते हैं कि चीन अपने रक्षा ख़र्च को कम करके दिखाता है। चीन का रक्षा बजट अब भी अमेरिका की तुलना में काफ़ी कम है।
अमेरिका हर साल अपने रक्षा बजट पर 800 अरब अमेरिका डॉलर से ज़्यादा ख़र्च करता है। या कहें चीन का रक्षा बजट, अमेरिकी रक्षा बजट का एक तिहाई है।
अमेरिका का रक्षा बजट 886 अरब डॉलर है और यह अपने जीडीपी का 3त्न इसपर ख़र्च करता है।
हालांकि दुनिया में सेना पर चीन अमेरिका के बाद सबसे अधिक खर्च करने वाला देश है।
साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट के अनुसार, चीन का लक्ष्य 2050 तक वर्ल्ड क्लास मिलिटरी बनने का है।
हाल के दिनों में चीन ने अपनी सेना के अधुनिकीकरण पर अधिक ज़ोर दिया है।
साल 2023 में अमेरिका ने चीन के परमाणु आधुनिकीकरण को लेकर आगाह भी किया था। तब अमेरिका ने अनुमान लगाया था कि चीन के पास 500 से ज़्यादा न्यूक्लियर वॉरहेड्स हैं, इनमें से 350 आईसीबीएम हैं।
अमेरिका की रिपोर्ट में कहा गया था कि 2030 तक चीन के पास 1000 वॉरहेड्स होंगे। अमेरिका और रूस का कहना है कि उनके पास 5000 से ज़्यादा वॉरहेड्स हैं।
चीन की मिलिट्री रॉकेट फोर्स को लेकर भी विवाद है। ये यूनिट ही परमाणु हथियारों को संभालती है।
अमेरिकी सेना की ताक़त
ग्लोबल फ़ायर पॉवर के मुताबिक, 2025 मिलिटरी स्ट्रेंथ रैंकिंग में अमेरिका पहले नंबर है।
अमेरिका के पास कुल 13,043 हवाई जहाज हैं, जिनमें 1790 फ़ाइटर जेट, अटैक टाइप 889, ट्रांसपोर्ट टाइप 918, ट्रेनर 2647, टैंकर फ़्लीट 605 और हेलीकॉप्टर की संख्या 5843 है।
जबकि अमेरिकी नौसेना के पास 11 विमानवाहक पोत हैं, 9 हेलीकॉप्टर कैरियर, 81 डिस्ट्रॉयर और 70 सबमरीन हैं।
अमेरिकी नौसेना की कुल क्षमता कऱीब 41 लाख टन है। अमेरिकी वायु सेना में 7,01,319 वायु सैनिक और थल सेना में कऱीब 14 लाख सैनिक हैं। अमेरिकी नेवी की ताक़त छह लाख 67 हज़ार है।
चीन की सैन्य ताक़त
ग्लोबल फ़ायर पॉवर के अनुसार, 2025 मिलिटरी स्ट्रेंथ रैंकिंग में चीन तीसरे नंबर पर आता है।
पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की थल सेना में 25।45 लाख सैनिक और नेवी में तीन लाख 80 हज़ार नौसैनिक हैं। वायुसेना में तकऱीबन चार लाख वायु सैनिक हैं।
पीएलए की वायुसेना में कुल 3309 जहाज हैं जिनमें 1212 फ़ाइटर जेट, अटैक टाइप 371, ट्रंपासपोर्ट टाइप 289, ट्रेनर 402, टैंकर फ़्लीट 10 और हेलीकॉप्टर 913 हैं।
हाल के सालों में चीन ने अपनी नेवी को बढ़ाने और अत्याधुनिक करने पर काफ़ी ध्यान दिया है।
मौजूदा समय में पीएलए की नेवी में तीन विमान वाहक पोत, चार हेलीकॉप्टर कैरियर, 50 डिस्ट्रॉयर, 47 फ्रिगेट्स, 72 कार्वेट्स और 61 सबमरीन हैं।
पीएलए नेवी की कुल क्षमता 28।6 लाख टन है। (bbc.com/hindi)
-नदीन युसूफ, जेम्स फिटज्जेराल्ड और ब्रैंडन ड्रेनन
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने उनके देश पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से लगाए भारी-भरकम टैरिफ की आलोचना की है और इसे ‘बेहद बेवकूफी भरा’ काम बताया है।
ट्रूडो ने अपने देश की अर्थव्यवस्था की रक्षा के लिए ‘बिना थके लड़ाई’ जारी रखने की कसम भी खाई है।
ट्रंप ने कनाडा और मैक्सिको से अमेरिका आने वाले उत्पादों पर 25 फीसदी टैरिफ़ लगा दिए हैं।
जवाब में कनाडाई प्रधानमंत्री ने भी अमेरिकी उत्पादों पर टैरिफ़ लगाए हैं और चेतावनी दी है कि ट्रेड वॉर दोनों देशों के लिए महंगी साबित होगी।
लेकिन ट्रंप ने ट्रूथ सोशल पर इससे भी आगे बढ़ते हुए लिखा, ‘कृपया कोई कनाडा के गवर्नर ट्रूडो को समझाए कि जब वो अमेरिका पर जवाबी टैरिफ़ लगाते हैं तो उसी समय हम भी उतना ही टैरिफ़ बढ़ा देंगे।’
‘हम अमेरिका का 51वां राज्य नहीं बनेंगे’
ट्रूडो ने अमेरिकी राष्ट्रपति पर आरोप लगाया है कि ‘उनकी योजना कनाडा की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह ध्वस्त करने की है, ताकि वो आसानी से कनाडा को अमेरिका में मिला सकें।’
जस्टिन ट्रूडो ने मंगलवार को पत्रकारों से बातचीत के दौरान कहा, ‘ये कभी नहीं होगा। हम कभी भी अमेरिका का 51वां राज्य नहीं बनेंगे। ये समय है पलट कर कड़ा जवाब देने का और ये दिखाने का है कि कनाडा के साथ लड़ाई में कोई विजेता नहीं होगा।’
ट्रूडो ने कहा कि कनाडा का मुख्य लक्ष्य अभी भी टैरिफ को हटाना है ताकि वे जरूरत से एक पल भी ज्यादा न रहें।
उधर ट्रंप ने टैरिफ़ लगाने की वजह अमेरिकी नौकरियों और निर्माण क्षेत्र की रक्षा को बताया है। इसके साथ ही उनकी कोशिश अवैध प्रवास और नशीली दवाओं की तस्करी को रोकने की भी है। अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि उनका लक्ष्य ओपिऑइड फेंटानिल पर लगाम लगाना है। उन्होंने इस दवा के अमेरिका में पहुंचने के लिए दूसरे देशों को दोषी ठहराया है।
इन आरोपों पर जवाब देते हुए ट्रूडो ने मंगलवार को कहा कि नए टैरिफ का कोई ‘औचित्य’ नहीं है। क्योंकि अमेरिकी सीमा पर जो फेंटानिल पकड़ी गई है उसका एक फीसदी से भी कम हिस्सा कनाडा से आता है।
ट्रूडो के शब्दों को मेक्सिको की राष्ट्रपति क्लाउडिया शिनबाम ने भी दोहराया। उन्होंने कहा कि ट्रंप के इस कदम के पीछे कोई मकसद, कोई कारण या औचित्य नहीं है।
मंगलवार को उन्होंने ये संकल्प किया कि वह अपनी ‘टैरिफ और गैर-टैरिफ से जुड़े कदम’ उठाएंगी लेकिन उन्होंने ये भी कहा कि इस पर अधिक जानकारी रविवार को मिलेगी।
ट्रंप के टैरिफ से ग्राहकों की जेब पर असर
अमेरिकन इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर जॉन रोजर्स कहते हैं कि ट्रंप के टैरिफ़ से अमेरिका और विदेशों में ग्राहकों के लिए कीमतें बढऩे की प्रबल संभावना है।
प्रोफ़ेसर रोजर्स का कहना है कि जिन उत्पादों पर सबसे जल्दी असर पड़ेगा उनमें खाद्य- जैसे फल, सब्जियां और अमेरिका में मैक्सिको से आने वाले अन्य उत्पाद शामिल होंगे। इसके बाद कनाडा से बड़ी मात्रा में आयात होने वाला तेल और गैस भी प्रभावित होगा।
प्रोफेसर रोजर्स चेताते हैं, ‘कीमतें जल्द ही ऊपर जा सकती हैं।’ हालांकि, वह ये बताने से बचे कि ऐसा कब तक होगा।
उन्होंने बीबीसी से कहा, ‘हम एक ऐसे दौर में हैं, जो पहले नहीं देखा।’
उनके लिए सबसे बड़ी चिंता अमेरिका के दीर्घकालिक कारोबारी साझेदारों को होने वाले संभावित नुकसान के लिए थी।
प्रोफेसर रोजर्स कहते हैं, ‘ये अपने पड़ोसियों को जानबूझकर परेशान करने जैसा है।’
उन्होंने ये भी कहा कि अगर अमेरिका-कनाडा-मेक्सिको के बीच ट्रेड वॉर छिड़ी तो इसमें ‘तीनों की हार’ होगी क्योंकि ये देश अमेरिका के शीर्ष व्यापारिक सहयोगी हैं। ऐसे में जवाबी टैरिफ़ जैसे कदम ने ट्रेड वॉर छिडऩे के डर बढ़ गया है।
प्रोफ़ेसर रोजर्स कहते हैं, ‘ट्रेड वॉर जीतने का कोई रास्ता नहीं है। हर कोई इससे जूझता है। क्योंकि आखिरकार हर कोई ऊंची कीमतें देता है और गुणवत्ता से भी समझौता करता है।’
कनाडा का जवाब - न्यूयॉर्क को महंगी बिजली, मस्क की कंपनी से टूटेगा करार
दूसरे देशों से आने वाले सामान पर लगने वाले कर को टैरिफ कहा जाता है। टैरिफ का उद्देश्य घरेलू स्तर पर व्यापार और नौकरियों को बढ़ावा देना होता है।
कनाडा ने जो जवाबी टैरिफ लगाने की घोषणा की है, वो 107 अरब अमेरिकी डॉलर के अमेरिकी उत्पादों पर लगाए जाएंगे।
इसमें से 30 अरब कनाडाई डॉलर के उत्पादों पर टैरिफ तत्काल रूप से प्रभावी होगा। वहीं बाकी बचे 125 अरब डॉलर के अमेरिकी उत्पादों पर लगा टैरिफ 21 दिनों के भीतर लागू हो जाएगा।
कनाडा के इमिग्रेशन मंत्री मार्क मिलर ने चेतावनी दी है कि अगर टैरिफ लागू होते हैं तो इससे कनाडा में लाखों नौकरियां खतरे में आ जाएंगी, क्योंकि दोनों देशों के बीच व्यापारिक रिश्ते घनिष्ठ हैं।
उन्होंने सोमवार को कहा, ‘हम एक ऐसी अर्थव्यवस्था को रातोंरात नहीं बदल सकते जिससे हमारा 80 फीसदी व्यापार है। इससे नुकसान होगा।’
‘सबका नुकसान’
समाचार एजेंसी एएफपी से बात करते हुए ओंटारियो प्रांत की एक कार बनाने वाली कंपनी के कर्मचारी ने कहा, ‘लोगों में वाकई नौकरी जाने का डर है। मैंने हाल ही में अपना पहला घर खरीदा है। मुझे शायद कहीं और काम ढूंढना पड़ेगा।’
ये सेक्टर नए टैरिफ से सबसे बुरी तरह प्रभावित होने वालों में से एक होगा। कारों के स्पेयर पार्ट बनने के दौरान ये कई बार अमेरिका-कनाडा सीमा से आर-पार जाते हैं। टैरिफ लगने से अब इनपर एक से अधिक बार कर वसूला जाएगा।
कनाडा के ओंटारियो के प्रीमियर डग फ़ोर्ड हैं। ये प्रांत कनाडा की ऑटो मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री का गढ़ है। फ़ोर्ड ने मंगलवार को आशंका जताई कि टैरिफ़ के परिणामस्वरूप सीमा के दोनों ओर असेंबलिंग प्लांट बंद हो जाएंगे।
कैनेडियन चैंबर ऑफ़ कॉमर्स ने टैरिफ़ को ‘लापरवाही’ भरा बताया है। चैंबर की अध्यक्ष कैंडेस लेंग ने चेताया है कि ये कदम कनाडा और अमेरिका दोनों को ‘मंदी, छंटनी और आर्थिक त्रासदी की ओर धकेलेगा।’
उन्होंने ये भी चेतावनी दी कि टैरिफ से अमेरिकियों के लिए भी महंगाई बढ़ेगी और इससे अमेरिकी कारोबारियों को भी दूसरे सप्लायर ढूंढने पर मजबूर होना पड़ेगा।
कनाडा के प्रांत अपने-अपने तरीके से अमेरिका के टैरिफ़ का जवाब देने की योजना बना रहे हैं।
ओंटारियो के प्रीमियर फ़ोर्ड ने कनाडा की ओर से बिजली आपूर्ति बंद करने और उच्च-गुणवत्ता वाले रासायनिक तत्व निकेल के निर्यात पर रोक लगाने की संभावना के बारे में विचार किया।
साथ ही मिशिगन, न्यूयॉर्क और मिनेसोटा के घरों तक बिजली पहुंचाने पर भी अतिरिक्त 25 फ़ीसदी निर्यात शुल्क लगाने की संभावना जताई।
फ़ोर्ड ने ये भी एलान किया कि एलॉन मस्क की सैटेलाइट इंटरनेट कंपनी स्टारलिंक के साथ 68 अरब डॉलर का सौदा भी रद्द किया जाएगा। (bbc.com/hindi)
‘एक भगोड़ा राजनीतिक दल या उसका नेतृत्व यह देश छोड़ कर चला गया है। लेकिन वो इस देश को अस्थिर करने का हरसंभव प्रयास कर रहे हैं।’- ये कहना है बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार प्रोफेसर यूनुस का।
प्रोफेसर यूनुस ने अपने नेतृत्व में अंतरिम सरकार के करीब सात महीने के कार्यकाल के दौरान देश में कानून और व्यवस्था की स्थिति, सुधार और चुनाव और छात्र नेताओं की ओर से नई पार्टी के गठन समेत विभिन्न राजनीतिक घटनाक्रमों के बारे में बीबीसी बांग्ला से विस्तार से बातचीत की है।
इस एक्सक्लूसिव इंटरव्यू के दौरान उन्होंने भारत के साथ संबंधों में गिरावट और आवामी लीग के भविष्य से जुड़े सवालों के जवाब भी दिए।
मुख्य सलाहकार के साथ यह बातचीत बीबीसी बांग्ला के संपादक मीर सब्बीर ने की है। यहां पेश है इस बातचीत के अंश।
सवाल: ठीक एक साल पहले मेरी आपसे आखिरी बातचीत हुई थी। उसके बाद से अब तक बांग्लादेश में बहुत कुछ बदल गया है। आप उस समय गिरफ्तारी के आतंक के बीच दिन गुजार रहे थे। उसके बाद आप मुख्य सलाहकार बने और अब इस बात को भी छह महीने से ज्यादा हो गए हैं। आप इस समय को किस तरह देखते हैं। मुख्य सलाहकार के तौर पर आप जो काम करना चाहते थे उसमें किस हद तक कामयाब रहे हैं?
जवाब: पहले आपकी बात को संशोधित करते हुए कहना चाहता हूं कि मुझे गिरफ्तारी का कोई आतंक नहीं था। एक संभावना थी कि मुझे ले जाएंगे। आई वाज़ टेकिंग इट एज़ कि ले गए तो ले जाएंगे। इसमें मैं तो कुछ नहीं कर सकता हूं।
देश में चूंकि कानून-व्यवस्था नामक कोई चीज नहीं बची है। ऐसे में वो जो चाहें कर सकते हैं। वैसी ही स्थिति में मेरे दिन बीत रहे थे। अंतरिम सरकार के गठन के समय मेरे दिमाग में कोई सोच नहीं थी। मैंने सोचा भी नहीं था कि अचानक एक सरकार का मुखिया बनूंगा और पूरे देश की जिम्मेदारी मिल जाएगी। वह भी एक ऐसा देश जहां सब कुछ बर्बाद हो चुका है।
सवाल: आपको क्या लगता है कि इस काम में कितनी कामयाबी मिली है?
जवाब: सुधार के मामले में? सुधार तो अभी शुरू ही नहीं हुए हैं...
सवाल: नहीं, वह आप जो कह रहे थे कि मुख्य सलाहकार के तौर पर कार्यभार संभालते समय एक अलग तरह की परिस्थिति थी...
जवाब: काफी बदलाव आया है...
सवाल: कितना बदलाव आया है? आपको कैसा लगता है?
जवाब: काफी बदलाव आया है। मैं कहूंगा कि अवशेष से बाहर निकल कर एक नई तस्वीर सामने आई है। अब यह साफ हो गया है कि हमने अर्थव्यवस्था को सहज बना दिया है। हमने देश-विदेश का भरोसा जीता है। यह तो साफ है कि हमने पूरी दुनिया में भरोसा कायम करने में कामयाबी हासिल की है। कोई यह सवाल नहीं उठा सकता कि हमने फलां देश का भरोसा नहीं जीता है।
आप तमाम देशों की सूची उठा कर देख लें। हर देश आगे आकर हमारा समर्थन कर रहा है। वो कह रहे हैं कि हम बांग्लादेश को हर जरूरी सहायता देंगे।
सवाल: आपने विदेशों में भरोसे और समर्थन की बात की है। अब अगर देश में कानून और व्यवस्था के सवाल पर आएं, तो इस मुद्दे पर काफी आलोचना हो रही है। पुलिस और मानवाधिकार संगठनों के आंकड़ों को ध्यान में रखें तो देश में अपराध काफी बढ़ गए हैं। तो आप लोग इसे नियंत्रित क्यों नहीं कर पा रहे हैं?
जवाब: मैंने भरोसे के सवाल से बात शुरू की थी। अब एक बार फिर उसी मुद्दे पर लौटता हूं। देश-विदेश में तो भरोसा है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि देश को लोगों को मुझ पर भरोसा है या नहीं।
मुझे लगता है कि देश के लोगों को भी हम पर काफी भरोसा है। यही सबसे बड़ा सबूत है। हम क्या कर रहे हैं या नहीं कर रहे हैं- यह छोटी बातें हैं। इनमें से कुछ अच्छी और कुछ खराब चीजें हो सकती हैं।
सवाल: आपकी राय में क्या बेहतर नहीं हो सका है?
जवाब: उस लिहाज से देखें तो कुछ भी अच्छा नहीं हुआ है। हमारी इच्छाएं तो अनंत हैं। हम रातों-रात देश को बदलना चाहते हैं। वह तो संभव नहीं है। इसमें समय लगेगा। हमने कई सुधार आयोगों का गठन किया है। उन आयोगों को 90 दिनों के भीतर रिपोर्ट सौंपनी थी। वो ऐसा नहीं कर सके।
‘अपराध एकदम नहीं बढ़े हैं’
सवाल: हम अगर कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर लौटें तो परिस्थिति में इतनी गिरावट आई है कि कई लोग डर और आतंक के बीच जीवन गुजारने की शिकायत कर रहे हैं। इसकी वजह यह है कि वह लोग अपनी आंखों से दिनदहाड़े सडक़ों पर अपराध होते हुए देख रहे हैं। आप इस पर काबू क्यों नहीं पा सके हैं?
जवाब: किस लिहाज से हालात में गिरावट आई है? मुझे यह तो बताना होगा। आपने कहा कि गिरावट आई है। किस आधार पर गिरावट की बात साबित होती है। वह नहीं बताने पर तो हम नहीं समझ सकते।
सवाल: बीते छह महीने के दौरान डकैती की घटनाएं पचास प्रतिशत बढ़ी हैं। यह पुलिस का आंकड़ा है। आंकड़ों में अंतर हो सकता है। लेकिन ऐसी घटनाएं हम अपनी आंखों के सामने घटते देख रहे हैं। इन पर अंकुश लगाने में क्या समस्या है?
जवाब: हम प्रयास कर रहे हैं। समस्या आप भी जानते हैं और मैं भी जानता हूं। शुरुआती दौर में यह समस्या थी कि हम जिस पुलिस बल से काम ले रहे थे, उसके जवान डर के मारे रास्ते पर नहीं उतर रहे थे। उन्होंने दो दिन पहले इन पर गोलियां चलाई थीं। इसलिए वो लोगों को देख कर डर जाते हैं। पुलिस बल को दुरुस्त करने में हमें कई महीने लग गए।
एकजुटता में दरार?
सवाल: आपके कार्यभार संभालने से पहले हुई बातचीत में तीन गुटों को सक्रिय देखा गया था। उनमें सरकार के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व करने वाले छात्रों के अलावा राजनीतिक दल और सेना शामिल थी। इन तीनों ने हमेशा आपका समर्थन करने का भरोसा दिया था। राजनीतिक दलों के साथ अंतरिम सरकार का जैसा संबंध था, क्या वो अब भी कायम है या फिर अब परिस्थिति बदल गई है?
जवाब: मुझे तो नहीं लगता कि परिस्थिति में कोई बदलाव आया है। मुझे इसकी कोई सूचना नहीं है कि कोई मेरा समर्थन नहीं कर रहा है। सब लोग समर्थन कर रहे हैं। सब चाहते हैं कि सरकार बेहतर तरीके से चलती रहे। तीनों पक्षों में एकता कायम है।
राजनीतिक टिप्पणियां अलग-अलग हो सकती हैं। लेकिन उसका मतलब यह नहीं है कि एकता में दरार पैदा हो गई है। अब तक ऐसी कोई घटना नहीं हुई है।
सवाल: मैं अगर एक हवाला दूं तो बीएनपी के कार्यवाहक अध्यक्ष तारिक रहमान ने कहा है कि अंतरिम सरकार की तटस्थता के सवाल पर आम लोगों के मन में आशंका है?
जवाब: आम लोगों के मन में...असली बात यह है कि उनके मन में संदेह हुआ है या नहीं।
सवाल: उनके मन में संदेह क्यों होगा?
जवाब: उन्होंने तो संदेह नहीं किया है। उन्होंने एक बात कही है। हमारी आपसी बैठक में तो कोई नहीं कहता कि मन में संदेह पैदा हुआ है। उनका कहना है कि हम आपके साथ हैं।
सवाल: इसका मतलब यह है कि आपके सामने कुछ और कह रहे हैं और अपने बयान में अलग बात कह रहे हैं। क्या ऐसा ही हो रहा है?
जवाब: वह अलग-अलग बात कह रहे हैं या यह आप लोग समझते हैं। लेकिन हमारे साथ संबंधों में कोई गिरावट नहीं आई है।
सवाल: अब छात्रों के मुद्दे पर आते हैं...छात्रों ने एक राजनीतिक दल का गठन किया है। बीएनपी समेत कुछ दलों ने आरोप लगाया है कि इस दल के गठन में सरकार ने सहायता की है। क्या सरकार ने उनकी सहायता की है या कर रही है?
जवाब: नहीं, सरकार ने कोई सहायता नहीं की है। जो राजनीति करना चाहता था वो खुद ही इस्तीफा देकर चला गया। सरकार में तीन छात्र प्रतिनिधि शामिल थे। जिसने राजनीति में सक्रिय होने का फैसला किया था, वह इस्तीफा देकर सरकार से बाहर निकल गए। वो निजी तौर पर राजनीति करना चाहते हैं तो यह उनका अधिकार है। इसमें कोई कैसे बाधा पहुंचा सकता है?
क्या सेना सहयोग कर रही है?
सवाल: क्या आपको सेना की ओर से सहयोग मिल रहा है?
जवाब: पूरी तरह से।
सवाल: आप तो जानते ही हैं कि सेना प्रमुख ने अपने हाल के एक बयान में कहा है कि कई मुद्दों पर वो और आप सहमत हैं। उन्होंने एक बात कही थी कि अगर सब लोग मिल कर काम नहीं कर सके तो देश की स्वाधीनता और संप्रभुता खतरे में पड़ सकती है। क्या आप इस टिप्पणी से सहमत हैं?
जवाब: यह उनका बयान है, वही बताएंगे। मुद्दा यह नहीं है कि मैं उनकी टिप्पणी का समर्थन करता हूं या नहीं।
सवाल: उन्होंने चूंकि कहा है कि आपसे कई मुद्दों पर बातचीत होती रहती है और आप कई मुद्दों पर उनसे सहमत हैं। लेकिन क्या स्वाधीनता या संप्रभुता खतरे में पडऩे का कोई अंदेशा है? सरकार के मुखिया के तौर पर आप क्या सोचते हैं?
जवाब: यह आशंका तो हमेशा रहती है। एक भगोड़ा राजनीतिक दल या उसका नेतृत्व देश छोड़ कर भाग गया है। अब वो देश को अस्थिर करने का हरसंभव प्रयास कर रहा है। यह खतरा तो हमेशा बना रहता है। हर क्षण, हर जगह पर। यह हमेशा बना रहेगा।
सवाल: क्या यह खतरा सत्ता से हटने वाली अवामी लीग की ओर से हैं?
जवाब: हां। यह तो स्वाभाविक है। वो बीच-बीच में घोषणा करते रहते हैं। भाषण दे रहे हैं। लोगों को संबोधित कर रहे हैं। हमने-आपने सबने सुना है। इससे लोग उत्तेजित हो रहे हैं।
सवाल: आपने अवामी लीग के बारे में जो बात कही है, वो तो राजनीतिक गतिविधियां चलाते रहते हैं। इसमें धमकी कहां है?
जवाब: यह वो जो भाषण दे रहे हैं। जागो और काम पर जुटो, जैसी अपील कर रहे हैं। विभिन्न कार्यक्रम तय कर रहे हैं कि हड़ताल करो, यह करो, वह करो। आप ही बताएं कि लोग इसे कैसे देखेंगे? क्या सब लोग हंसते हुए इसे स्वीकार करेंगे?
‘भारत के साथ कुछ टकराव पैदा हुआ है’
सवाल: जन आंदोलन के बाद भारत के साथ बांग्लादेश के संबंधों में गिरावट आई है। दोनों देशों के संबंध अब कैसे हैं?
जवाब: बहुत बढिय़ा। हमारे संबंधों में कोई गिरावट नहीं आई है। हमारे संबंध हमेशा बढिय़ा रहेंगे। अब भी बढिय़ा हैं और भविष्य में भी बढिय़ा रहेंगे।
बांग्लादेश और भारत के आपसी संबंध बढिय़ा ही होने होंगे। हमारे संबंध बेहद करीबी हैं। एक-दूसरे पर काफी निर्भरता है। ऐतिहासिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से हमारे संबंध इतने नजदीकी हैं कि हम उससे भटक नहीं सकते। लेकिन बीच में कुछ टकराव पैदा हुआ है। दरअसल, कुप्रचार के कारण ही ऐसी स्थिति पैदा हुई है। यह कुप्रचार किसने किया है, इसका फैसला दूसरे लोग करेंगे। लेकिन इसकी वजह से हमारे बीच एक गलतफहमी पैदा हो गई है। हम उस गलतफहमी से उबरने का प्रयास कर रहे हैं।
सवाल: क्या भारत सरकार के साथ आपका सीधा संपर्क है?
जवाब: हमेशा संपर्क होता है। वहां की सरकार के प्रतिनिधि यहां आ रहे हैं, हमारे लोग वहां जा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ पहले सप्ताह में ही मेरी बातचीत हुई है।
सवाल: हाल में एलन मस्क के साथ आपकी बातचीत हुई है और आपने उनको बांग्लादेश आने का न्योता भी दिया है। क्या यह अमेरिका के नए प्रशासन के साथ मजबूत संबंध बनाने की कोशिश है?
जवाब: यह बातचीत मूल रूप से स्टारलिंक के मुद्दे पर हुई थी। यह एक व्यावसायिक संबंध का मुद्दा था। हम स्टारलिंक का कनेक्शन लेना चाहते हैं। उसी मुद्दे पर बातचीत हुई थी।
अवामी लीग पर पाबंदी लगेगी?
सवाल: क्या इस मुद्दे पर आपका कोई स्पष्ट रुख नहीं है कि क्या अवामी लीग पर पाबंदी लगाई जाएगी। क्या वह राजनीति करेगी या चुनाव में हिस्सा लेगी?
जवाब: मैं इतने विस्तार में नहीं जाना चाहता। शुरू से ही मेरी सोच रही है कि हम सब इस देश के नागरिक हैं। इस देश पर हमारा समान अधिकार है। हम लोग भाई-भाई हैं। हमें मिल कर इस देश को बचाना होगा और आगे बढ़ाना होगा। इसलिए जो भी फैसला होगा, सब मिल कर करेंगे। इस देश में किसी का अधिकार नहीं छीना जा सकता। लेकिन जिसने अन्याय किया है, उसका विचार किया जाना चाहिए। उसका न्याय जरूरी है। बस इतना ही। (bbc.com/hindi)
-ग्रिगोर अतानेसियन
यूक्रेन पर हमले के बाद तीन साल तक, अमेरिका और उसके सहयोगियों ने रूस का बहिष्कार किया और उसे अंतरराष्ट्रीय कानून के उल्लंघन का दोषी माना।
अब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अलग रुख अपनाया है।
ट्रंप रूस के साथ अमेरिका के संबंधों को फिर से स्थापित कर रहे हैं। वो रूस को हमलावर कहने या यूक्रेन को युद्ध में पीडि़त घोषित करने से इंकार कर रहे हैं।
शुक्रवार को डोनाल्ड ट्रंप और यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की की बैठक हुई। इस दौरान यूक्रेन में युद्ध और इसे समाप्त करने के तरीके के बारे में खुलकर बहस हुई।
व्हाइट हाउस में ट्रंप और ज़ेलेंस्की के बीच हुई तीखी नोकझोंक के बाद कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि अब ‘उदार विश्व व्यवस्था’ खत्म होने वाली है। इस बड़े दावे में कितनी वास्तविकता है?
उदारवादी नेतृत्व का दौर
‘लिबरल वर्ल्ड ऑर्डर’ प्रतिबद्धताओं, सिद्धांतों और मानदंडों पर बनाए गए अंतरराष्ट्रीय संबंधों की एक व्यवस्था है। इसके मूल में अंतरराष्ट्रीय कानून और संयुक्त राष्ट्र की महासभा और सुरक्षा परिषद जैसी संस्थाएं हैं।
‘उदार विश्व व्यवस्था’ मुक्त व्यापार जैसे मूल्यों का भी प्रतिनिधित्व करती है, जिसे विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ), अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक जैसी संस्थाएं बरकरार रखती हैं।
इसमें सबसे बड़ी धारणा ये वैचारिक मान्यता है कि पश्चिमी उदार लोकतंत्र, सरकार के सर्वश्रेष्ठ मॉडल का प्रतिनिधित्व करता है। अंतरराष्ट्रीय कानून के उल्लंघन को संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्तावों या अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसलों के जरिए आधिकारिक रूप से उठाया जा सकता है।
ऐसे में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद आर्थिक प्रतिबंध लगा सकती है या चरम मामलों में सैन्य कार्रवाई को अधिकृत कर सकती है।
हालांकि, अक्सर प्रतिबंध और सैन्य हस्तक्षेप संयुक्त राष्ट्र की मंजूरी के बिना अमल में लाए जाते हैं। रूस इसकी लंबे समय से आलोचना करता रहा है।
साल 2007 के म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में बोलते हुए, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने घोषणा की थी, ‘बल का इस्तेमाल केवल तभी वैध माना जा सकता है, जब संयुक्त राष्ट्र द्वारा इसे मंज़ूरी दी गई हो। और हमें नेटो या यूरोपीय संघ को यूएन जैसी अहमियत देने की ज़रूरत नहीं है।’
यूक्रेन पर आक्रमण करके, रूस ने न केवल कई देशों की नजऱ में अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन किया, बल्कि वैश्विक मामलों के संचालन के तरीके को भी चुनौती दी।
साल 2014 से पुतिन ने खुद संयुक्त राष्ट्र की मंज़ूरी के बिना सैन्य बल का इस्तेमाल किया है। पश्चिमी दृष्टिकोण से, यूक्रेन के खिलाफ रूस की आक्रामकता शीत युद्ध के बाद से नियम-आधारित व्यवस्था का सबसे जबरदस्त उल्लंघन दिखाती है।
प्रिंसटन विश्वविद्यालय में राजनीति और अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफेसर जी। जॉन इकेनबेरी ने फाइनेंशियल टाइम्स को बताया, ‘हमने इस व्यवस्था के तीन प्रकार के कट्टर सिद्धांतों का उल्लंघन देखा है।’
उन्होंने आगे कहा, ‘पहला सिद्धांत यह है कि आप क्षेत्रीय सीमाओं को बदलने के लिए बल का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। दूसरा, आप युद्ध में नागरिकों के खिलाफ हिंसा नहीं कर सकते हैं। और तीसरा, आप परमाणु हथियारों का उपयोग करने की धमकी नहीं दे सकते। पुतिन ने पहले दो काम किए हैं और तीसरे की धमकी दी है। इसलिए यह नियम-आधारित व्यवस्था के लिए एक वास्तविक संकट है।’
जवाब में, रूस के विदेश मंत्री, सर्गेई लावरोव ने तर्क दिया है कि पश्चिमी दृष्टिकोण में अंतरराष्ट्रीय कानून और संयुक्त राष्ट्र संस्थाओं के प्रति कोई सम्मान नहीं है।
रूस अक्सर 1999 में यूगोस्लाविया पर नेटो की बमबारी, 2003 में इराक पर अमेरिका के नेतृत्व में आक्रमण और 2008 में कोसोवो की स्वतंत्रता को मान्यता देने को, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की मंजूरी के बिना की गई पश्चिमी कार्रवाइयों की मिसाल के तौर पर गिनाता है।
रूस का तर्क है कि इस तरह की कार्रवाई संयुक्त राष्ट्र चार्टर में निहित सिद्धांतों का उल्लंघन है।
उदार विश्व व्यवस्था सबसे महत्वपूर्ण आज़माइशों में एक इसराइल-हमास पर अमेरिका का एक अलग रुख था।
कई देशों ने इसराइल को सैन्य समर्थन देने के लिए बाइडन प्रशासन की तीखी आलोचना की। अमेरिका पर हजारों फिलस्तीनियों की मौत के प्रति उदासीन होने का आरोप लगाया गया।
वॉशिंगटन पोस्ट को दिए एक इंटरव्यू में तुर्की की संसद के अध्यक्ष नुमान कुर्तुलमस ने कहा, ‘यह बहुत स्पष्ट रूप से पाखंड है, दोहरा मापदंड है। यह एक तरह का नस्लवाद है, क्योंकि अगर आप फिलस्तीनी पीडि़तों को यूक्रेनी पीडि़तों के बराबर नहीं मानते हैं, तो इसका मतलब है कि आप मानवता के भीतर एक तरह का वर्गीकरण लाना चाहते हैं। यह अस्वीकार्य है।’
इकेनबेरी मानते हैं कि ‘उदार विश्व व्यवस्था’ संयुक्त राज्य अमेरिका, अमेरिकी डॉलर, अमेरिकी अर्थव्यवस्था से बहुत अधिक जुड़ी हुई थी। यह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से कहीं अधिक नेटो और गठबंधनों से जुड़ी थी।
संक्षेप में, वे कहते हैं, इसे अमेरिका के ‘उदार आधिपत्य’ के रूप में भी समझा जा सकता है।
ट्रम्प की कूटनीतिक पर अमेरिका के लोग क्या सोचते हैं?
मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को चुनौती देने की कोशिश करने वाले देशों को पारंपरिक रूप से ‘संशोधनवादी शक्तियां’ कहा जाता है।
अमेरिकी विश्लेषक और नीति निर्माता चीन और रूस को इस शब्द से जोडक़र देखते हैं। वह मानते हैं कि यह दोनों देश अमेरिका के वैश्विक प्रभाव को कम करना चाहते हैं।
प्रोफेसर इकेनबेरी कहते हैं कि हाल के महीनों में अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा संशोधनवादी शक्ति बन गया है। ट्रंप प्रशासन व्यापार, मानवाधिकार सुरक्षा और गठबंधन से लेकर लोकतांत्रिक एकजुटता तक ‘उदार विश्व व्यवस्था के लगभग हर पहलू’ को नष्ट करने का काम कर रहा है।
ट्रंप ने हाल ही में कहा था, ‘मेरा प्रशासन पिछले प्रशासन की विदेश नीति की विफलताओं और अतीत की विफलताओं को निर्णायक रूप से तोड़ रहा है।’
ट्रंप टीम के इन आमूल-चूल बदलावों को रोकना कांग्रेस और न्यायपालिका के लिए कठिन होगा। विदेश नीति पूरी तरह से राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में आती है।
इसे अमेरिकी हितों के अनुसार तैयार करके ही ट्रंप प्रशासन ने रूस के साथ मेल-मिलाप की दिशा में उठाए गए कदम को उचित ठहराया है।
अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस ने सोशल मीडिया पर लिखा, ‘हमारा मानना है कि जारी संघर्ष रूस के लिए बुरा है, यूक्रेन के लिए बुरा है और यूरोप के लिए बुरा है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए भी बुरा है।’
हालांकि, ट्रंप की कूटनीतिक क्रांति अमेरिकियों को रास नहीं आई है। हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि अमेरिकी उनकी आप्रवासन नीतियों का सबसे अधिक समर्थन करते हैं। वहीं रूस-यूक्रेन युद्ध और इसराइल-फ़लस्तीन संघर्ष पर ट्रंप के रुख़ को सबसे कम समर्थन मिला।
इस बीच, दो तिहाई से अधिक अमेरिकी यूक्रेन को अपना सहयोगी मानते हैं। इनमें से आधे लोग यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की के पक्ष में राय रखते हैं।
ट्रंप की कूटनीतिक उथल-पुथल
ऑक्सर्ड़ विश्वविद्यालय में रूस और यूरेशियाई मामलों की रिसर्च फेलो डॉ. जूली न्यूटन कहती हैं, ‘फरवरी 2025 तक, यह अमेरिका ही है जो इस नियम-आधारित व्यवस्था को खत्म करने की धमकी दे रहा है।’
सबूत के तौर पर, डॉ. जूली न्यूटन ने ट्रंप की यूक्रेन के प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण की मांग, उनकी ओर से रूस के साथ संबंध सामान्य करने की बात, ज़ेलेंस्की पर सार्वजनिक हमले और यूरोप के धुर दक्षिणपंथी पार्टिर्यों के लिए ट्रंप के सहयोगियों के समर्थन की तरफ इशारा किया।
24 फरवरी को यूक्रेन पर रूसी हमले की तीसरी वर्षगांठ थी।
इस मौके पर अमेरिका ने रूसी आक्रामकता और यूक्रेनी क्षेत्र पर उसके कब्जे की निंदा करने वाले संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव के खिलाफ मतदान किया।
अमेरिकी राजनयिकों ने 'रूस-यूक्रेन संघर्ष के दौरान हुई दु:खद जनहानि' पर शोक व्यक्त करते हुए एक साधारण बयान पेश किया। इस बीच ट्रंप ने घोषणा कर दी कि वह वॉशिंगटन और मॉस्को के बीच आर्थिक संबंधों को बहाल करने के लिए पुतिन के साथ बातचीत कर रहे हैं।
डॉ. जूली न्यूटन कहती हैं, ‘ट्रंप की कूटनीतिक क्रांति हेलसिंकी चार्टर के सिद्धांतों को तार-तार कर रही है और अमेरिका को अपने ही सहयोगियों की नजर में प्रतिद्वंद्वी बना रही है।’
हेलसिंकी समझौता अमेरिका, सोवियत संघ और यूरोप के देशों के बीच हुए थे। इसका उद्देश्य क्षेत्रीय अखंडता, सीमाई हिंसा को रोकना और एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में गैर-हस्तक्षेप के सिद्धांतों को मजबूत करना था।
जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी में रूस मामलों के विशेषज्ञ सर्गेई रैडचेंको कहते हें, ‘ट्रंप पुतिन की तरह सोचते हैं, 19वीं सदी के साम्राज्यवादी शासक की तरह।’
रैडचेंको कहते हैं,‘रूस पर दबाव बनाने के लिए यूरोप के पास पर्याप्त आर्थिक ताकत और वित्तीय हथियार हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ट्रंप पुतिन के साथ अपनी बातचीत को कितना आगे ले जाते हैं। यह कल्पना कठिन है कि यूरोपीय देश समानांतर रूप से रूस के साथ संबंध सामान्य कर रहे हैं।’
अटलांटिक काउंसिल के यूरेशिया सेंटर के शेल्बी मैगिड के अनुसार, ‘उदार विश्व व्यवस्था’ के अंत की घोषणा करना जल्दबाजी होगी। रूस पर अभी भी अमेरिकी प्रतिबंध लागू हैं और ट्रंप प्रशासन ने कहा है कि उन्हें तभी हटाया जाएगा, जब रूस यूक्रेन में युद्ध खत्म कर देगा।
मैगिड कहते हैं, ‘मैं इससे सहमत हूं कि समय से पहले और खतरनाक सामान्यीकरण का जोखिम है, लेकिन हम अभी तक पूरी तरह से वहां नहीं पहुंचे हैं। विश्व व्यवस्था का अंतिम परिणाम और स्थायी प्रभाव इस बात पर अधिक निर्भर करेगा कि युद्ध कैसे समाप्त होता है और शांति कैसे लागू की जाती है।’ (bbc.com/hindi)
- प्रकाश के रे
कभी लेनिन ने कहा था कि यूरोप में शांति का दौर इसलिए रहा था क्योंकि करोड़ों लोगों के ऊपर यूरोप का औपनिवेशिक शासन था, जो लगातार युद्धों से बनाये रखा जाता था, पर उन्हें युद्ध नहीं कहा जाता था क्योंकि वे यूरोपीय शासकों को युद्ध जैसे नहीं दिखते, बल्कि उनमें जघन्य जनसंहार और निहत्थे लोगों का समूल नाश किया जाता था।
लेनिन ने कठिन शर्तों पर पहले महायुद्ध में समझौता कर लिया था। उन्होंने अपने एक दूत को कहा था कि शांति के लिए जरूरी हो, तो स्कर्ट पहन के भी जाओ। हंगरी के प्रधानमंत्री ओर्बान ने ठीक कहा है कि मजबूत लोग शांति स्थापित करते हैं और कमज़ोर लोग लड़ाई करते हैं।
ज़ेलेंस्की और उनके यूरोपीय हैंडलरों ने यूक्रेन संकट को बहुत बढ़ा दिया है। भले यूरोप के कई नेता ज़ेलेंस्की के साथ खड़े रहने की घोषणा कर रहे हैं, पर सवाल यह है कि इस साथ खड़े होने का मतलब क्या है।
क्या यूरोपीय नेता ट्रम्प और उनके प्रशासन की योजना को बदल देंगे? क्या उनके पास ऐसी वित्तीय और सैनिक ताकत है, जो यूक्रेन को लंबे समय तक लडऩे में मददगार हो सके? क्या यूरोपीय देशों में और देशों के भीतर पूरी एकता है? हंगरी के प्रधानमंत्री ने ट्रम्प का समर्थन किया है। ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी में अनेक राजनीतिक दल अपनी सरकारों के साथ नहीं हैं। निवेशक भी भविष्य देख पा रहे हैं, इसी कारण व्हाइट हाउस में झगड़े के बाद यूरोपीय स्टॉक फ्य़ूचर्स में गिरावट आयी, तो वाल स्ट्रीट ऊपर चढ़ा।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री स्टार्मर ने ट्रम्प से फिर बात की है। असल में कुछ यूरोपीय नेता, विशेषकर फ्रांस के मैक्रों और ब्रिटेन के स्टार्मर, बस इतना चाहते हैं कि यूक्रेन पर होने वाले किसी समझौते में उनकी भी जगह हाई टेबल पर हो। पर यह न तो ट्रम्प को स्वीकार है और न ही पुतिन इसे मानेंगे।
दूसरे महायुद्ध में जब हिटलर के खिलाफ लाल सेना पूर्वी मोर्चे पर डटी हुई थी, तब अमेरिका के सहयोग से ब्रिटेन और कुछ यूरोपीय देशों ने नॉरमैंडी लैंडिंग कर फ्रांस में प्रवेश किया था तथा हिटलर के खिलाफ दूसरा मोर्चा खोल दिया था। क्या आज यूरोप ऐसा फिर से कर पाने में सक्षम है? अगर यूरोप इस लड़ाई को भडक़ायेगा, तो इसका नतीजा तो बड़ा युद्ध ही होगा। पश्चिम यूरोपीय शहरों पर मिसाइले गिरेंगी और पूर्वी यूरोप के अनेक छोटे-छोटे देशों पर रूस का कब्जा भी संभावित होगा।
अभी जो लड़ाई चल रही है, वह अब और बढ़ सकती है। रूस की बहुत इच्छा है ओडेसा पर कब्जे की। अब वह भी संभव है। अमेरिका ने एनर्जी ग्रिड मरम्मत की बड़ी मदद रोक दी है। यूक्रेन में दिये पैसे की जाँच की माँग हो रही है। वहाँ का इंटरनेट और सैटेलाइट संचार अमेरिका की कृपा से चल रहा है।
यूक्रेन में अधिक उम्र के लोग लड़ाई कर रहे हैं। उन्हें जबरदस्ती मोर्चे पर भेजा जा रहा है। बड़ी संख्या में सैनिक लड़ाई से भाग रहे हैं। बड़ी संख्या में युवा देश छोडक़र भाग चुके हैं। यूक्रेन की जमीन और संपत्ति की बिकवाली लंबे समय से हो रही है। लंपट नव-नाजी गिरोहों की हेकड़ी ख़त्म हो चुकी है।
ऐसे में जेलेंस्की को समझ जाना चाहिए कि अमेरिका और यूरोप ने उन्हें प्यादे के रूप में इस्तेमाल किया है। यूरोप तो खुद अमेरिका का पिछलग्गू है, वह क्या आगे मदद कर सकेगा! फादर के सामने नखरे चलते हैं, गॉडफ़ादर के सामने नहीं। कल दुनिया ने फिर यह देखा।
-रजनीश कुमार
रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने सोमवार को कहा था कि उन्होंने उस सुझाव पर सहमति दे दी है, जिसमें रूस और अमेरिका सैन्य बजट में बड़ी कटौती पर बात कर सकते हैं।
दोनों देशों के बीच सैन्य बजट में 50 फ़ीसदी तक की कटौती पर बात हो रही है।
पुतिन ने कहा था, ‘हम अमेरिका के साथ सैन्य खर्चों में कटौती को लेकर एक समझौते पर पहुँच सकते हैं। हम इसके खिलाफ नहीं हैं। यह ऐसा सुझाव है, जिससे मैं भी सहमत हूँ। अमेरिका अपने सैन्य बजट में 50 फ़ीसदी की कटौती करेगा और हम भी वैसा ही करेंगे। चीन भी चाहे तो इसमें शामिल हो सकता है।’
लेकिन चीन को पुतिन का यह सुझाव पसंद नहीं आया।
25 फऱवरी को समाचार एजेंसी एएफ़पी ने चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता लिन जिआन से पूछा कि पुतिन ने कहा है कि चीन भी इस प्रस्ताव में शामिल हो सकता है, क्या चीन इस प्रस्ताव का समर्थन करेगा? 24 फरवरी की रात राष्ट्रपति शी जिनपिंग और राष्ट्रपति पुतिन के बीच जो बातचीत हुई थी, उसमें क्या इस प्रस्ताव पर भी चर्चा हुई थी?’
इस सवाल के जवाब में चीन विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने लिन जिआन ने कहा, ‘राष्ट्रपति पुतिन और शी जिनपिंग के बीच फोन पर जो बातचीत हुई, उसका रीडआउट जारी किया जा चुका है। आपने रक्षा खर्चों की बात की। हाल के वर्षों में वैश्विक रक्षा खर्चों में भारी बढ़ोतरी हुई है।’
‘आँकड़ों के मुताबिक़ 2024 में वैश्विक रक्षा ख़र्च 2.43 ट्रिलियन डॉलर था, जो कि अब तक का रिकॉर्ड है। वैश्विक रक्षा खर्चों में भारी बढ़ोतरी बढ़ती वैश्विक असुरक्षा के कारण है। सभी देश वैश्विक सुरक्षा की चुनौतियों से जूझ रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को और ख़ास कर बड़े देशों को विश्व शांति के लिए पहल करनी चाहिए।’
चीन ने क्यों इनकार किया
लिन जिआन ने कहा, ‘चीन शांतिपूर्ण प्रगति के लिए प्रतिबद्ध है। राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा, विकास से जुड़े हित और विश्व शांति बनाए रखने को रक्षा खर्चों को सीमित करने से जोडऩा उचित नहीं है। चीन की अपनी आत्मरक्षा रणनीति है, जिसके तहत हम राष्ट्रीय सुरक्षा और अर्थव्यवस्था के बीच समन्वय बनाते हैं। चीन किसी भी देश से हथियारों की होड़ नहीं कर रहा है। हमारी नीति दुनिया की स्थिरता और शांति के पक्ष में है।’
चीन ने पुतिन के प्रस्ताव को स्वीकार तो नहीं किया लेकिन कुछ अहम बातें कहीं।
चीन ने कहा कि हाल के वर्षों में रक्षा खर्च दुनिया के कई इलाक़ों में तनाव के कारण बढ़ा है। चीन ने यह भी कहा कि बड़े देशों की जि़म्मेदारी है कि शांति के लिए काम करें।
लिन से पहले चीन के विदेश मंत्रालय ने इस महीने की शुरुआत में कहा था कि अमेरिका का सैन्य ख़र्च दुनिया भर में सबसे ज़्यादा है और उसे मिसाल पेश करना चाहिए।
चीन ने कहा था कि दुनिया के 90 प्रतिशत परमाणु हथियार रूस और अमेरिका के पास हैं। ऐसे में पहले इन्हें अपना परमाणु हथियार कम करना चाहिए तब बाक़ी देशों से कहना चाहिए।
क्या है चीन की मंशा
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में रूसी और मध्य एशिया अध्ययन केंद्र में असोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ राजन कुमार मानते हैं कि रक्षा खर्चों में कटौती के लिए पुतिन का तैयार होना बहुत हैरान नहीं करता है।
डॉ राजन कुमार कहते हैं, ‘हथियारों की होड़ रोकने के लिए अमेरिका और रूस के बीच समझौते होते रहे हैं। यहां तक कि सोवियत संघ और अमेरिका के बीच भी कई समझौते हुए थे। रूस की अर्थव्यवस्था इतनी अच्छी नहीं है कि वह अमेरिका के साथ हथियारों में होड़ कर सकता है। इससे फ़ायदा रूस को ही होगा।’
डॉ राजन कुमार कहते हैं, ‘अब असली होड़ चीन और अमेरिका के बीच है लेकिन चीन ऐसे किसी भी प्रस्ताव का समर्थन नहीं करेगा।’
‘चीन को लगता है कि वह अब भी सैन्य ताक़त के मामले में अमेरिका से पीछे है और जब तक अमेरिका की बराबरी नहीं कर लेगा तब तक रक्षा बजट में कटौती के लिए तैयार नहीं होगा। रूस यह भी नहीं चाहता है कि चीन सैन्य ताक़त के रूप में महाशक्तिशाली बन जाए। चीन रूस का पड़ोसी है।’
चीन की सैन्य ताक़त
1969 में आमूर और उसुरी नदी के तट पर रूस और चीन के बीच एक युद्ध भी हो चुका है। इस युद्ध में रूस ने चीन पर परमाणु हमले की धमकी तक दे डाली थी।
इसमें चीन को क़दम पीछे खींचने पड़े थे। 2004 में दोनों देशों के बीच समझौते हुए और सेंट्रल एशिया के कई द्वीपों को रूस ने चीन को सौंप दिया था।
यूक्रेन और रूस की जंग में चीन आधिकारिक रूप से तटस्थ रहा है लेकिन इस दौरान रूस से गैस और तेल सबसे ज़्यादा चीन ने ही आयात किया है। यूरोप का कहना है कि रूस-यूक्रेन जंग के दौरान पुतिन को चीन से काफी मदद मिली है।
लंदन स्थित थिंक टैंक इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट फोर स्ट्रैटिजिक स्टडीज़ (आईआईएसएस) ने 12 फऱवरी को अपनी रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले साल वैश्विक सैन्य खर्च 2।46 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँच गया था।
2024 में चीन का सैन्य खर्च 236 अरब डॉलर था। चीन ने 7.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी की थी। लेकिन कई विश्लेषक मानते हैं कि चीन का असली सैन्य ख़र्च आधिकारिक आँकड़ों से कहीं ज़्यादा होता है।
अमेरिकन एन्टरप्राइजेज इंस्टिट्यूट का अनुमान है कि पिछले साल चीन का सैन्य खर्च 711 अरब डॉलर था, जो अमेरिका के 850 अरब डॉलर से बहुत पीछे नहीं है।
हाल के दशकों में चीन ने पीपल्स लिबरेशन आर्मी का तेज़ी से आधुनिकीकरण किया है। शी जिनपिंग का लक्ष्य है कि जब चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के शासन का 2049 में 100 साल हो जाए तो एक वर्ल्ड क्लास आर्मी तैयार हो जानी चाहिए।
चीन की इसी तैयारी को अमेरिका चुनौती के रूप में देखता है। चीन की बढ़ती ताक़त से चिंता केवल अमेरिका की ही नहीं है बल्कि भारत, जापान और ताइवान भी चिंतित हैं। ताइवान को चीन अपना हिस्सा बताता है।
इंस्टिट्यूट फ़ॉर स्ट्रैटिजिक स्टडीज ने कहा, ‘2024 में एशियाई देशों के रक्षा बजट में मध्यम गति की वृद्धि देखने को मिली है। चीन के बढ़ते सैन्य खर्च और उत्तर कोरिया के परमाणु हथियारों के आधुनिकीकरण को आसपास के देश ख़तरे के रूप में देख रहे हैं। ऐसे में इन देशों ने रक्षा बजट को बढ़ाया है। ख़ास कर जापान ने।’
अमेरिका और रूस की बढ़ती कऱीबी पर दुनिया भर की नजऱें हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच भरोसा किस हद तक बढ़ता है, इसे लेकर अभी कुछ भी कहना मुश्किल है।
फऱवरी 2022 में यूक्रेन और रूस के बीच युद्ध शुरू होने के बाद रूस और चीन में गर्मजोशी बढ़ी थी। पश्चिम के कड़े प्रतिबंधों के कारण रूस के पास चीन के कऱीब जाने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं था। लेकिन ट्रंप अब रूस को लेकर जिस तरह की उदारता दिखा रहे हैं, उससे पूरा समीकरण बदलता दिख रहा है।
ट्रंप का कहना है कि जब यूक्रेन की समस्या सुलझ जाएगी तब रक्षा खर्चों और परमाणु हथियारों को कम करने पर बात शुरू होगी। ट्रंप राष्ट्रपति पुतिन से मिलने की तैयारी कर रहे हैं।
ट्रंप रूस से यूक्रेन में जारी जंग ख़त्म करने के लिए बात तो कर रहे हैं लेकिन इसमें न तो यूरोप शामिल है और न ही यूक्रेन। (bbc.com/hindi)
दुनिया में सालाना सबसे कम बच्चे दक्षिण कोरिया में पैदा होते हैं। कई लोग शादी नहीं करना चाहते और बच्चे भी कम ही पैदा करते हैं। लेकिन लंबे समय बाद इसमें सुधार आया है।
एक नए आंकड़े को देख कर पूरा दक्षिण कोरिया खुशी से झूम उठा है। असल में 9 साल बाद पहली बार देश की जन्म दर बढ़ी है। एक ऐसे देश के लिए ये बेहद खुशी की बात है, जिसकी जनसंख्या लगातार घट रही थी। दक्षिण कोरिया दुनिया में सबसे कम जन्म दर वाला देश है।
भारत के कुछ राज्य क्यों चाहते हैं कि लोग ज्यादा बच्चे पैदा करें?सरकारी सांख्यिकी कार्यालय के अनुसार, 2024 में देश की प्रजनन दर पिछले 9 सालों में सबसे ऊंचे स्तर पर थी। यह 0।72 से बढक़र 0।75 पर पहुंच गई है। हालांकि दक्षिण कोरिया की 5 करोड़ से ज्यादा की आबादी के संतुलन को बनाए रख पाने के वास्तविक आंकड़े (2।1) से फिलहाल यह अभी काफी दूर है।
सांख्यिकी एजेंसी के अनुसार, दक्षिण कोरिया की जनसंख्या जो 2020 में 5।1 करोड़ थी, इसके 2072 तक घटकर 3।6 करोड़ रह जाने का अनुमान है। राजधानी सियोल में मौजूद राष्ट्रीय संग्रहालय में एक राष्ट्रपति समिति के विज्ञापन बड़ी स्क्रीन पर लगे हैं, जिसे 2023 में घटती जन्म दर को सुधारने के तरीके खोजने के लिए बनाया गया था। सरकार ने जन्म दर बढ़ाने के प्रयास पर अरबों डॉलर खर्च किए हैं।
कम जन्म दर की वजह
विशेषज्ञ कम जन्म दर की वजह बच्चों को पालने पर होने वाला खर्च, घर और जमीन की ऊंची कीमतें और ज्यादा सैलरी वाली नौकरियों की कमी को मानते हैं। 41 साल की पार्क ये-जिन इस बात से दुखी हैं। वह कहती हैं, ‘मेरे बेटे ने हाल ही में पढ़ाई पूरी की लेकिन उसके साथ बहुत कम बच्चे थे। आखिरी दिन का समारोह बिल्कुल खाली लग रहा था।’
सरकार ने जन्म दर में हुई हालिया वृद्धि के लिए शादी के प्रति लोगों की सोच में आए बदलाव को भी एक कारण माना है। कोविड महामारी के बाद शादियों में हुई बढ़ोत्तरी और सरकारी नीतियां भी इसकी वजह बनीं। 2024 की दूसरी छमाही में जिन महिलाओं के दूसरे बच्चे पैदा हुए उनकी संख्या में 12 फीसदी और पहले बच्चे पैदा होने की संख्या में 11 फीसदी का उछाल आया।
जनसंख्या नीति के राष्ट्रीय सचिव यू ह्ये-मी ने रॉयटर्स को बताया, आने वाले सालों में जन्म दर में होने वाली बढ़ोत्तरी और तेज होगी।
सरकार इस साल तीन मुख्य क्षेत्रों में 19।7 ट्रिलियन वोन (13।76 अरब डॉलर) खर्च करने की योजना बना रही है, जो 2024 से 22 फीसदी ज्यादा है।
मॉर्गन स्टेनली की मुख्य अर्थशास्त्री कैथलीन ओह कहती हैं, ‘कोरिया दुनिया की सबसे चुनौतीपूर्ण जनसांख्यिकी का सामना कर रहा है। पिछले साल जून में जब सरकार ने राष्ट्रीय जनसांख्यिकी आपातकाल की घोषणा की, तो उसने मामले को बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बताया।’
सरकार के कदम
देश में नीतिगत बदलाव लाए जा रहे हैं। अब पेरेंटल लीव लेने वाले माता-पिता को छह महीने तक पूरा वेतन दिया जाएगा, जबकि पहले इसकी अधिकतम अवधि तीन महीने थी। इसके अलावा, अगर माता-पिता दोनों छुट्टी लेना चाहते हैं तो इसकी अधिकतम अवधि को बढ़ाकर अब एक साल से डेढ़ साल कर दिया गया है।
छुट्टी लेने पर सरकार छोटे और मध्यम आकार के उद्यमों (एसएमई) के कर्मचारियों को भी सैलरी देगी। इसी का नतीजा है कि 2024 में शादियों की संख्या तेजी से बढ़ी। पिछले साल हुए सरकारी सर्वे में 52 फीसदी से ज्यादा लोग शादी को लेकर सकारात्मक दिखे।
दक्षिण कोरिया में आखिरी बार जन्म दर में उछाल 1991-1996 में आया था। देश का लक्ष्य फिलहाल प्रजनन दर को बढ़ाकर 1 के आंकड़े पर ले जाना है। (डॉयचेवैले)
-टॉम गेरकन
एक ऐसी समस्या, जिसे समझने और सुलझाने में दस साल लग गए उसे एक नए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) टूल ने सिर्फ दो दिनों में सुलझा दिया।
इम्पीरियल कॉलेज लंदन के प्रोफ़ेसर जोस आर। पेनाडेस और उनकी टीम ने कई साल इस बात को समझने में लगाए कि कुछ सुपरबग्स एंटीबायोटिक्स के ख़िलाफ़ इम्यून (प्रतिरोधी) क्यों हो जाते हैं।
उन्होंने गूगल के बनाए गए टूल 'को साइंटिस्ट' से अपनी रिसर्च से जुड़ा एक छोटा-सा सवाल पूछा।
गूगल के इस टूल ने महज़ 48 घंटों में सवाल का जवाब दे दिया। यही जवाब खोजने में प्रोफ़ेसर और उनकी टीम को कई साल लगे थे।
बीबीसी से बात करते हुए प्रोफ़ेसर पेनाडेस ने बताया कि जब उन्होंने एआई के इस नतीजे को देखा तो वह हैरान रह गए क्योंकि उनकी रिसर्च अब तक पब्लिश नहीं हुई थी।
इसका मतलब था कि एआई को यह जानकारी कहीं से भी सार्वजनिक रूप से नहीं नहीं मिली है।
उन्होंने बीबीसी रेडियो 4 के ‘टुडे’ प्रोग्राम में कहा, ‘मैं किसी के साथ शॉपिंग कर रहा था, तभी मैंने उनसे कहा, 'मुझे एक घंटे के लिए अकेला छोड़ दीजिए, मुझे इस बात को समझने के लिए समय चाहिए।’
उन्होंने आगे कहा, ‘मैंने गूगल को मेल लिखा कि क्या आपके पास मेरे कम्प्यूटर का एक्सेस है।’
गूगल ने इस बात से साफ इनकार कर दिया।
वैज्ञानिकों का कहना है कि इस रिसर्च को पूरा करने में लगे दस सालों में से अधिकतर समय इस सिद्धांत (थ्योरी) को साबित करने में ही लग गया।
लेकिन वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर उन्हें इस प्रोजेक्ट की शुरुआत में ही एआई की दी गई हाइपोथीसिस (परिकल्पना) मिल जाती, तो उनके कई सालों की मेहनत बच सकती थी।
एआई क्या है और ये कैसे काम करता है?
प्रोफेसर जोस आर। पेनाडेस ने बताया कि एआई टूल ने रिसर्च की कॉपी, उनकी बनाई हुई कॉपी से ज्यादा अच्छी बनाई थी।
उन्होंने कहा, ‘ऐसा नहीं है कि टूल ने सिर्फ एक ही हाइपोथीसिस सही बताई हो। इसके अलावा टूल ने अलग से चार हाइपोथीसिस भी दी, जो एकदम सही थी।’
‘इनमें से एक हाइपोथीसिस ऐसी थी जिसके बारे में तो हमने कभी सोचा ही नहीं था और अब हम उस पर काम कर रहे हैं।’
सुपरबग्स की पहेली
वैज्ञानिक कई सालों से यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि ख़तरनाक बैक्टीरिया कैसे सुपरबग बन जाते हैं और कैसे उनपर एंटीबायोटिक्स का असर कैसे ख़त्म हो जाता है।
वैज्ञानिकों का मानना हैं कि सुपरबग अलग-अलग वायरस से एक तरह की पूंछ-सी बना लेते हैं, जिससे वे एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में आसानी से फैल सकते हैं।
प्रोफेसर पेनाडेस समझाते हैं, ‘सुपरबग्स के पास चाबियां होती हैं जिनसे वह एक घर से दूसरे घर यानी एक होस्ट से दूसरे होस्ट में बिना किसी रुकावट के जा सकते हैं।’
इस रिसर्च का सबसे ख़ास पहलू यह था कि यह हाइपोथीसिस (परिकल्पना) सिर्फ उनकी टीम की खोज थी और इसे अब तक कहीं भी प्रकाशित या साझा नहीं किया गया था।
इसलिए प्रोफ़ेसर पेनाडेस ने गूगल के नए एआई टूल को परखने के लिए इस हाइपोथीसिस का इस्तेमाल किया।
सिर्फ दो दिन के बाद, एआई ने कुछ हाइपोथीसिस दीं और इसमें से पहली हाइपोथीसिस वही थी जिसके बारे में प्रोफ़ेसर पेनाडेस की रिसर्च बताती है।
यानी सुपरबग्स सच में एक तरह अपनी ‘पूंछ’ बनाकर फैलते हैं।
रिसर्च पर कितना असर
एआई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) को लेकर काफी चर्चा हो रही है।
एआई के समर्थकों का कहना है कि इससे विज्ञान के क्षेत्र में तरक्की होगी, जबकि कुछ लोगों को डर है कि इससे नौकरियां ख़त्म हो सकती हैं।
प्रोफ़ेसर पेनाडेस ने कहा कि लोगों का यह डर समझ में आता है, लेकिन जब आप इस पर गहराई से सोचते हैं, तो यह महसूस होता है कि एआई एक बहुत ही ताकतवर और काम का टूल है।
उन्होंने बताया कि इस प्रोजेक्ट पर काम करने वाली टीम को पूरा यकीन है कि एआई भविष्य में बहुत फायदेमंद साबित होगा।
प्रोफेसर पेनाडेस ने कहा, ‘मुझे पूरा यकीन है कि एआई विज्ञान को पूरी तरह से बदल देगा। मैं एक ऐसी चीज के सामने खड़ा हूं जो अद्भुत है और इसका हिस्सा बनकर मैं बहुत खुश हूं।’
‘यह ठीक वैसा है जैसे आपको किसी बड़े मैच को खेलने का मौका मिला हो- मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं इस चीज के साथ चैंपियंस लीग का मैच खेल रहा हूं।’ ((bbc.com/hindi)
-रेहान फ़ज़ल
नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा देने के बाद जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ बनाने की घोषणा की तो आरएसएस के सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने उनसे वादा किया कि मैं पार्टी चलाने के लिए आपको 'पाँच सोने के टुकड़े' दूँगा.
इस वादे के तहत पाँच आरएसएस नेताओं को नई पार्टी की मदद के लिए भेजा गया. ये नेता थे दीनदयाल उपाध्याय, सुंदर सिंह भंडारी, बापूसाहेब सोहनी, बलराज मधोक और नानाजी देशमुख.
अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी उस समय अनुभवी नेताओं में नहीं गिने जाते थे क्योंकि यह 1950 के दशक की बात है.
नानाजी को भारतीय जनसंघ में उत्तर प्रदेश की ज़िम्मेदारी मिली. उनके प्रयास से उत्तर प्रदेश में भारतीय जनसंघ के विधायकों की संख्या 1957 में 14 बढ़कर 1967 में 100 हो गई.
नानाजी देशमुख के जीवनीकार मनोज कुमार मिश्र अपनी किताब 'नानाजी देशमुख एक महामानव' में लिखते हैं, "नानाजी ने अपने व्यवहार से दूसरे दलों के प्रमुख नेताओं से अपने संबंध बेहतर बना लिए थे. पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, डाक्टर संपूर्णानंद, चौधरी चरण सिंह से लेकर समाजवादी दिग्गज राम मनोहर लोहिया इनमें प्रमुख नाम थे."
डॉक्टर लोहिया संघ के विरोधी थे इसलिए उन्होंने नानाजी से दूरी बनाने के प्रयास किए, लेकिन नानाजी के व्यवहार ने न केवल उनको उनका करीबी बनाया बल्कि सन 1963 के फ़र्रुख़ाबाद लोकसभा उप-चनाव में लोहिया की जीत सुनिश्चित करने के लिए जनसंघ के कार्यकर्ताओं ने अपनी पूरी ताकत लगा दी."
दूसरे दलों से गठबंधन के लिए पहल
नानाजी देशमुख की पहल से ही जनसंघ ने अपनी नीति में परिवर्तन करते हुए दूसरे दलों से चुनाव पूर्व गठबंधन किए. इसका नतीजा ये रहा कि 1967 के चुनाव के बाद जनसंघ ने संयुक्त विधायक दल का सदस्य बनकर कई राज्यों में सरकार में भागीदारी की.
नानाजी देशमुख का जन्म 11 अक्तूबर, 1916 को महाराष्ट्र के परभणी ज़िले के कडोली गाँव में हुआ था. डॉक्टर हेडगेवार से प्रभावित होकर वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य बने. उनकी पढ़ाई पिलानी के बिड़ला कॉलेज में हुई.
वहाँ पर उन्होने संघ के प्रचार का काम शुरू किया. कॉलेज के संस्थापक घनश्याम दास बिड़ला ने उन्हें भोजन-आवास की सुविधा के अलावा 80 रुपए महीने पर अपना सहयोगी बनाने का प्रस्ताव दिया लेकिन नानाजी ने संघ के काम को प्राथमिकता देते हुए उस प्रस्ताव को नहीं माना.
उन्होंने कभी शादी नहीं की. नानाजी की ख़ासियत थी समाज के विभिन्न वर्ग के लोगों के साथ उनका आत्मीय संपर्क. कूमी कपूर अपनी किताब 'द इमरजेंसी अ पर्सनल हिस्ट्री' में लिखती हैं, "नानाजी को जनसंघ और आरएसएस के सदस्यों के साथ उनके बीबी बच्चों तक के नाम याद थे. उन्होंने विनोबा भावे के भूदान आँदोलन में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था."
पार्टी के लिए धन इकट्ठा करने में नानाजी की भूमिका
जनसंघ के लिए धन इकट्ठा करने में नानाजी देशमुख की बड़ी भूमिका थी.
विनय सीतापति अपनी किताब 'जुगलबंदी, द बीजेपी बिफ़ोर मोदी' में लिखते हैं, "नानाजी की ख़ासियत थी उनकी ईमानदारी. वो इस हद तक ईमानदार थे कि पार्टी उन्हें अकेले चंदा लेने भेजती थी. एनएम घटाटे ने मुझे बताया था, उनके बाद पार्टी दो लोगों के चंदा लेने भेजने लगी ताकि बेइमानी की कोई गुंजाइश नहीं रहे."
सत्तर के दशक से ही नानाजी टाटा, मफ़तलाल और नुस्ली वाडिया जैसे उद्योगपतियों के संपर्क में आ गए थे. नुस्ली वाडिया से तो वो साठ के दशक से ही संपर्क में आ गए थे.
सीतापति लिखते हैं, "नुस्ली ने ही उन्हें जेआरडी टाटा से मिलवाया था. नुस्ली वाडिया ने ही सबसे पहले जनसंघ के अख़बार 'मदरलैंड' में 'बॉम्बे डाइंग' के विज्ञापन देने शुरू किए थे."
बिहार आंदोलन में नानाजी की भूमिका
सन 1974 में हुए बिहार आंदोलन में नानाजी देशमुख की सक्रिय भूमिका थी. उनके संगठनात्मक गुणों को देखते हुए जयप्रकाश नारायण ने उन्हें लोक संघर्ष समिति का सचिव नियुक्त किया.
3 से 5 अक्तूबर, 1974 को बिहार बंद करवाया गया. इस बंद को सफल कराने के लिए नानाजी ने पूरे बिहार का दौरा किया.
सुब्रमण्यम स्वामी का मानना है कि यहाँ से अटल बिहारी वाजपेयी नानाजी देशमुख को अपने प्रतिद्वंदी के रूप में देखने लगे.
विनय सीतापति लिखते हैं, "स्वामी ने मुझे बताया था कि वाजपेयी ने मुझे नानाजी के साथ न जाने की सलाह दी थी. नानाजी को वाजपेयी की बिना मेहनत किए सुर्ख़ियाँ बटोरने की प्रवृत्ति नापसंद आने लगी. उन्होंने एक बार कहा भी, 'भीड़ हम लाते हैं, दरी हम बिछाते हैं, सारा श्रेय अटलजी ले जाते हैं.''
जेपी ने चार नवंबर को बिहार विधानसभा के घेराव की घोषणा की. नानाजी को पुलिस ने 30 अक्तूबर को सासाराम में बिहार निष्कासन का आदेश पकड़ा दिया.
मनोज कुमार मिश्र लिखते हैं, "नानाजी डाकिए के वेश में आरएमएस के डिब्बे में पटना पहुंचे और बचते-बचाते गाँधी मैदान में जेपी की छाया की तरह चलने लगे. एक सीआरपीएफ़ के जवान की लाठी जेपी के सिर पर पड़ने ही वाली थी कि नानाजी कूद कर सामने आ गए. उन्होंने लाठी का वार अपने हाथों पर लिया जिससे उनके हाथ की हड्डी टूट गई. लेकिन जेपी बच गए. वो गिर गए. उनका सिर्फ़ पैर ज़ख़्मी हुआ."
इमरजेंसी में हुए अंडरग्राउंड
25 जून, 1975 को रामलीला मैदान में विपक्षी नेताओं की रैली के बाद जब नानाजी देशमुख अपने घर लौट रहे थे तो उनके पास एक गुमनाम फ़ोन आया.
फ़ोन करने वाले ने उन्हें आगाह किया कि उस रात वो अपने घर पर न सोएं, वर्ना उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाएगा. इससे पहले कि वो और विवरण माँगते फ़ोन करने वाले ने फ़ोन रख दिया.
कूमी कपूर लिखती हैं, "उन्होंने वो रात अपने शिष्य डॉक्टर जेके जैन के वीपी हाउस के फ़्लैट पर बिताई. सुबह-सुबह वो जेपी से मिलने पालम हवाई अड्डे निकल गए जहाँ से जेपी पटना वापस जाने वाले थे.
वहाँ पर एक शख़्स ने नानाजी के पहचान लिया. उसने उनसे पूछा, जेपी को गिरफ़्तार कर लिया गया है. आप को अब तक हिरासत में क्यों नहीं लिया गया? नानाजी तुरंत वीपी हाउस लौटे.
उन्होंने डाक्टर जैन को जगाकर कहा, हमें यहाँ से तुरंत निकलना है.
कूमी कपूर लिखती हैं, "उसी समय उनके पास मदनलाल खुराना का फ़ोन आया जिन्होंने कहा कि उन्हें तुरंत भूमिगत हो जाना चाहिए. इसके बाद नानाजी देशमुख लगातार घर बदलते रहे और एक स्थान पर एक दिन से अधिक नहीं रुके."
नानाजी देशमुख की गिरफ़्तारी
नानाजी देशमुख एक उद्योगपति की दी गई सफ़ेद फ़िएट कार पर पूरे देश में घूम-घूम कर सरकार विरोधी गतिविधियों को हवा देते रहे.
उन्होंने अपना धोती-कुर्ता त्याग कर ढीला सफ़ारी सूट पहनना शुरू कर दिया. उन्होंने अपने सिर के बाल कटवा दिए. अपनी मूछों को काला कर लिया और गोल रिम वाला चश्मा पहनना शुरू कर दिया.
वो कार से दिल्ली से बंबई गए जहाँ उन्होंने अपने पुराने मित्रों से संपर्क किया लेकिन कुछ दिनों बाद नानाजी देशमुख को गिरफ़्तार कर लिया गया.
कूमी कपूर लिखती हैं, "उसी दिन जब सुब्रमण्यम स्वामी उनसे मिलने आए थे तो उन्होंने इलाके में पुलिस वालों की बड़ी भीड़ देखी. उन्होंने देशमुख से कहा कि उन्हें कुछ ठीक नहीं लग रहा है. मैं जा रहा हूँ. मेरी सलाह है कि आप भी मेरे साथ चलिए. लेकिन नानाजी निश्चिंत थे कि उन्हें कोई नहीं पकड़ेगा. थोड़ी देर बाद पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया."
उन्होंने अपना वेश इस हद तक बदल रखा था कि उन्हें गिरफ़्तार करने के बाद भी पुलिस को विश्वास नहीं था कि उसने सही व्यक्ति को गिरफ़्तार किया भी है या नहीं. नानाजी ने इस भ्रम का फ़ायदा उठाया और टॉयलेट में जाकर वो छोटी डायरी फ़्लश कर दी जिसमें उनके करीबी लोगों के टेलीफ़ोन नंबर लिखे हुए थे.
वो पूरे दो महीने भूमिगत रहे थे लेकिन पकड़े जाने से पहले उन्होंने अंडरग्राउंड नेटवर्क बना दिया था.
देशमुख को पहले तिहाड़ जेल में रखा गया. वहाँ से उन्हें अंबाला जेल ले जाया गया.
मंत्री पद ठुकराया
सन 1977 में लोकसभा चुनाव की घोषणा के तीन दिन बाद ही जनसंघ, लोकदल, संगठन कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टी का विलय कर जनता पार्टी का गठन किया गया. शुरू में मना करने के बावजूद जयप्रकाश नारायण के आग्रह पर नानाजी देशमुख ने बलरामपुर से चुनाव लड़ा और कांग्रेस की उम्मीदवार और बलरामपुर की रानी को भारी अंतर से पराजित किया.
मोरारजी देसाई नानाजी देशमुख को अपने मंत्रिमंडल में लेना चाहते थे लेकिन नानाजी ने इस पेशकश को अस्वीकार करते हुए मध्य प्रदेश के नेता ब्रजलाल वर्मा को अपनी जगह मंत्री पद के लिए नामांकित करवाया.
बीजेपी के बड़े नेता रहे गोविंदाचार्य इस प्रकरण की दूसरी कहानी बताते हैं.
विनय सीतापति को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, "संघ के दूसरे सबसे वरिष्ठ नेता राजेंद्र सिंह ने नानाजी से कहा, पार्टी के कोषाध्यक्ष के रूप में आपके कई उद्योगपतियों से अच्छे संबंध हैं लेकिन अगर आप उद्योग मंत्री बनते हैं तो इन संबंधों के बारे में सवाल उठाए जाएंगे. इससे आपकी और पार्टी की छवि ख़राब होगी. नानाजी ने बिना एक शब्द कहे अपने-आप को पीछे कर लिया."
सक्रिय राजनीति से लिया संन्यास
जनसंघ के संस्थापकों में से एक, नानाजी देशमुख वाजपेयी से सीनियर थे और सत्तर के दशक के बाद पार्टी में अकेले शख़्स थे जो उन्हें सीधे बिना 'जी' लगाए अटल कहकर संबोधित कर सकते थे.
जैसे-जैसे जनता पार्टी में सत्ता की लड़ाई बढ़ी, नानाजी देशमुख की खिन्नता बढ़ती गई. इस माहौल से तंग आकर उन्होंने जनता पार्टी के 60 साल की उम्र पार कर चुके नेताओं को राजनीति से अलग होने और युवा नेताओं को सत्ता सौंपने की सलाह दी.
आठ अक्तूबर, 1978 को जेपी की मौजूदगी में पटना में उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा कर दी. जब सन 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई तो उसके मंच पर उनकी अनुपस्थिति को पार्टी में पार्टी में उभर रहे मतभेद के तौर पर देखा गया, हालांकि लालकृष्ण आडवाणी ने इसका ज़ोरदार खंडन किया.
नलिन मेहता ने अपनी किताब 'द न्यू बीजेपी' में लिखा,"आडवाणी ने स्पष्ट किया कि देशमुख ने खुद उनसे और वाजपेयी से आग्रह किया था कि नए दल के गठन पर उन्हें दल के संगठनात्मक कार्यों से अलग रखा जाए. वाजपेयी को अपने भाषण में सफ़ाई देनी पड़ी कि नानाजी देशमुख इसलिए इस बैठक में नही आए हैं कि क्योंकि वो कुछ रचनात्मक काम कर रहे हैं, इसलिए नहीं कि उनके हमसे किसी तरह के मतभेद हैं."
इसके बाद उन्होंने फिर कभी राजनीति में वापसी नहीं की.
चित्रकूट के लोगों के बीच काम
उन्होंने उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित चित्रकूट को अपनी कर्मभूमि बनाया.
वो ग्रामीण शिक्षा स्तर में सुधार लाना चाहते थे इसलिए उन्होंने चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय की स्थापना की. ये भारत का पहला ग्रामीण विश्वविद्यालय था.
मनोज कुमार मिश्र लिखते हैं, "नानाजी ने आर्थिक स्वाबलंबन,शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास को भी उतना ही महत्व दिया. उन्होंने चित्रकूट ज़िले के गाँवों को मुक़दमेबाज़ी से मुक्त कराने के लिए अनोखी योजना आरंभ की. उन्होंने पीढ़ी-दर-पीढ़ी मुक़मेबाज़ी में फंसे परिवारों को समझा-बुझाकर आपस में बैठकर अदालत से बाहर मामला सुलझाने का अभियान चलाया. उनके प्रयास से करीब 500 गाँव विवादमुक्त श्रेणी में आ गए."
उन्हें सन 1999 में राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया. समाज सेवा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को देखते हुए उन्हें पहले पद्मविभूषण और सन 2019 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया.
शरीर को चिकित्सा कार्य के लिए सौंपा
दो बार सांसद रहते हुए उन्होंने कभी सरकारी आवास नहीं लिया. उन्होंने हमेशा सांसदों का वेतन बढ़ाए जाने का विरोध किया और जब उन्हें इसमें कामयाबी नहीं मिली तो उन्होंने बढ़ी हुई रकम प्रधानमंत्री सहायता कोष में दान कर दी.
उन्होंने सांसद निधि का पूरा पैसा चित्रकूट के विकास में लगाया. वो जीवन भर लिखने-पढ़ने का काम करते रहे. जब उनकी आँखों ने उनका साथ छोड़ दिया और उन्हें लिखने में परेशानी होनी लगी, तब भी वो बोलकर लिखवाया करते थे.
निधन से पहले उन्होंने हलफ़नामा देकर अपने शरीर को चिकित्सा कार्य के लिए सौंप दिया था.
27 फ़रवरी, 2010 को 93 वर्ष की आयु में उन्होंने इस संसार से विदा ली. ((bbc.com/hindi)
24 फरवरी 2022 को यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद से दुनिया काफी बदल गई है. इन बदलावों की सबसे गहरी छाप रूस के व्यापारिक संबंधों में दिखाई देती है. अब रूस चीन पर पहले से कहीं ज्यादा निर्भर हो गया है.
-पढ़ें डॉयचे वैले पर आर्थर सुलीवानका लिखा-
रूस के यूक्रेन पर बड़े पैमाने पर हमला करने के तीन साल बाद रूस के लिए आर्थिक रूप से सबसे बड़ा बदलाव उसके व्यापारिक संबंधों में देखने को मिला है।
ऑब्जर्वेटरी ऑफ इकोनॉमिक कॉम्प्लेक्सिटी (ओईसी) के अनुसार 2021 में रूस का लगभग 50 फीसदी निर्यात बेलारूस और यूक्रेन समेत कई यूरोपीय देशों के साथ हुआ करता था। निर्यात का ज्यादातर हिस्सा ऊर्जा उत्पाद जैसे- कच्चा तेल और गैस हुआ करते थे। लेकिन 2023 के अंत तक यह तस्वीर पूरी तरह बदल गई।
ओईसी के 2023 के आंकड़ों के अनुसार, अब चीन और भारत रूस के सबसे बड़े निर्यात बाजार बन चुके है। चीन 32.7 फीसदी और भारत 16.8 फीसदी सामान रूस से खरीदता है जो कुल निर्यात का आधा है। जबकि 2021 में, चीन के साथ 14.6 फीसदी और भारत के साथ केवल 1.56 फीसदी रूसी निर्यात हुआ था।
यानी चीन और भारत ने मिलकर पूरी तरह से उस बाजार का खामियाजा भर दिया, जो यूरोपीय देशों से प्रतिबंधों के बाद बना था। 2023 के आंकड़ों से पता चलता है कि यूरोप के देश अब रूस का सिर्फ 15 फीसदी सामान खरीदते हैं, जो दो साल पहले के लगभग 50 फीसदी से बहुत कम है।
ओईसी ने अभी तक 2024 के आंकड़े जारी नहीं किए हैं, लेकिन ब्रसेल्स स्थित ब्रूगल आर्थिक थिंक टैंक द्वारा प्रकाशित रूसी विदेशी व्यापार ट्रैकर जैसे अन्य स्रोतों के अनुसार रूस का निर्यात 2023 के आंकड़ों जैसा ही बना हुआ है।
मौजूदा व्यापारिक आंकड़ें केवल आधिकारिक आंकड़ों पर आधारित हैं, जिसका मतलब है कि रूस के शैडो फ्लीट के जरिए भेजा गया तेल इसमें शामिल नहीं है। ये ज्यादातर पुराने जहाज होते हैं जो बिना पश्चिमी बीमा के चलते है। अगर इन जहाजों को भी शामिल किया जाए, तो पता चलेगा कि चीन और भारत रूस से और भी ज्यादा तेल खरीद रहे हैं। कीव स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के अनुसार, रूस के कुल समुद्री कच्चे तेल के निर्यात का कम से कम 70 फीसदी हिस्सा इसी शैडो फ्लीट के जरिए होता है और चीन और तुर्की मिलकर इसका लगभग 95 फीसदी हिस्सा खरीदते हैं।
पश्चिम से पूर्व की ओर बदलाव
2022 के बाद से रूस के निर्यात ढांचे में बदलाव की दो मुख्य वजहें हैं, यूरोपीय संघ (ईयू) ने रूसी तेल और गैस खरीदना काफी हद तक कम कर दिया और उनकी जगह चीन और भारत मुख्य खरीदार बन गए है।
रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद, यूरोपीय संघ ने रूसी कच्चे तेल (क्रूड ऑयल) का आयात 90 फीसदी तक कम कर दिया है। इसके अलावा, उसने रूस से आने वाली गैस की मात्रा भी घटा दी है। 2021 में यूरोपीय संघ की कुल गैस आपूर्ति का 40 फीसदी हिस्सा रूस से निर्यात किया गया था लेकिन 2024 में यह घटकर सिर्फ 15 फीसदी रह गया है।
ब्रूगेल में रूसी व्यापार ट्रैकर पर काम करने वाले शोधकर्ता, जोएट दारवस ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘पश्चिमी देशों के बजाय इन देशों की ओर व्यापार में बड़ा बदलाव देखा गया है।’
‘चीन, तुर्की, कजाखस्तान और कुछ अन्य देश, जिन्होंने रूस पर प्रतिबंध नहीं लगाए। रूस ने उनके साथ अपने व्यापार को काफी बढ़ा लिया है।’ ओईसी के आंकड़ों के अनुसार, 2021 में तुर्की के साथ रूसी निर्यात 4.18 फीसदी था, जो 2023 में बढक़र 7.86 फीसदी हो गया। वहीं, कजाखस्तान और हंगरी ने भी 2021 के बाद से अपने व्यापार में काफी वृद्धि की।
‘रूस अब चीन के अधीन है’
रूस के लिए सबसे बडा बदलाव उसके चीन के साथ व्यापार और भू-राजनीति संबंधों में आया है। वाशिंगटन डी।सी। स्थित पीटरसन इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल इकोनॉमिक्स की अर्थशास्त्री एलीना रिबाकोवा ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘रूस अब चीन के अधीन हो चुका है।’
उन्होंने कहा कि रूस के लिए चीन की व्यापारिक अहमियत अब इतनी असंतुलित हो चुकी है कि इससे बीजिंग का मॉस्को पर भारी दबदबा बन गया है। उन्होंने आगे कहा, ‘चीन रूस का अब तक का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बन चुका है, जबकि रूस चीन के कुल निर्यात में बहुत ही छोटा हिस्सा रखता है। रूस के लिए अब चीन कुछ ज्यादा ही बड़ा व्यापारिक साझेदार बन गया है।’
दारवस का मानना है कि रूस, पश्चिमी प्रतिबंधों के चलते अब विभिन्न उपकरणों, हाई-टेक सामानों और निर्माण उत्पादों की आपूर्ति के लिए चीन पर कुछ ज्यादा ही निर्भर हो गया है। ‘रूस एक बड़ा देश है, लेकिन उसके पास आत्मनिर्भर बनने की क्षमता नहीं है, इसलिए उसे ये उत्पाद कहीं से तो मंगाने ही होंगे और इसके लिए अब वह तेजी से चीन पर निर्भर होता जा रहा है।’
रिबाकोवा का कहना है कि चीन ना सिर्फ अपने उत्पाद रूस को बेच रहा है, वह रूस को पश्चिमी देशों में बने उपकरणों की आपूर्ति में भी मदद कर रहा है। खासतौर पर ‘दोहरे उपयोग’ के सामान, जो नागरिक और सैन्य दोनों चीजों के लिए इस्तेमाल हो सकते है।
ओईसी के आंकड़ों के मुताबिक, 2023 में चीन ने रूस को उसके कुल आयात का 53 फीसदी मुहैया कराया, जो 2021 में 25।7 फीसदी था। तुर्की, कजाखस्तान और संयुक्त अरब अमीरात ने भी 2021 की तुलना में रूस को अधिक निर्यात किया है, जबकि भारत का निर्यात स्तर लगभग दो साल पहले जैसा ही बना हुआ है।
चीन से बढ़ते आयात ने यूरोप से होने वाले निर्यात की जगह ले ली है। 2021 में, यूरोपीय संघ और ब्रिटेन मिलकर रूस के कुल आयात का एक तिहाई से अधिक हिस्सा प्रदान करते थे, लेकिन 2023 के अंत तक यह घटकर 20 फीसदी से भी कम हो गया है।
ओईसी के आंकड़ों के अनुसार, 2023 में चीन ने रूस को 110 अरब डॉलर (104।8 अरब यूरो) का सामान बेचा, जिसमें 38 फीसदी मशीन उत्पाद और उनके पुर्जे थे। लगभग 21 फीसदी सामान परिवहन से जुड़ा था, जिसमें कारें, ट्रक, ट्रैक्टर और ऑटो पार्ट्स शामिल थे। इसके अलावा, चीन ने रूस को अरबों डॉलर की धातु, प्लास्टिक, रबर, रसायन उत्पाद और कपड़े भी बेचे।
एक नई दुनिया
भले ही रूस के व्यापार का तरीका पूरी तरह बदल चुका है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि इससे उसे कोई खास फायदा नहीं हुआ है।
दारवस का कहना है कि रूस ‘सिर्फ टिके रहने की कोशिश कर रहा है’, लेकिन उसे अब पहले जैसी गुणवत्ता वाले उत्पाद नहीं मिल रहे हैं, जिसका असर रूसी अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।
एलिना रिबाकोवा का मानना है कि रूस की आर्थिक स्थिति इतनी खराब नहीं हुई, जितना अनुमान लगाया गया था। उसके बदले हुए व्यापारिक साझेदार इस बात को दर्शाते हैं कि वह एक मल्टी-पोलर वैश्विक व्यवस्था को अपनाना चाहता है, और उसमें अपनी भूमिका निभाने की कोशिश कर रहे हैं।
रिबाकोवा ने कहा, ‘पुतिन के लिए यह एक सहज रास्ता है, क्योंकि वो ऐसी दुनिया चाहते हैं जहां चीन और अन्य देशों के साथ उनका गठजोड़ हो और वो शायद इसके लिए अपनी अर्थव्यवस्था पर पडऩे वाले असर को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं।’
हालांकि, उन्होंने चेतावनी दी कि चीन पर बढ़ती निर्भरता रूस को कमजोर बना सकती है। ‘चीन अब रूस के लिए व्यापार के दरवाजे खोलने या बंद करने वाला देश बन गया है। जहां, रूस के लिए चीन एक जरूरी सहयोगी है, लेकिन चीन के लिए रूस बस एक ‘साझेदार’ है, कोई परम मित्र नहीं।’ (डॉयचेवैले)
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिकी नागरिकता पाने की चाह रखने वाले प्रवासियों के लिए ‘गोल्ड वीज़ा स्कीम’ शुरू करने का एलान किया है।
इस योजना के ज़रिए 50 लाख डॉलर यानी करीब 44 करोड़ रुपये का भुगतान करके विदेशी नागरिकों के लिए अमेरिकी नागरिकता पाने का रास्ता साफ़ हो जाएगा। इस योजना के पहले चरण में करीब 10 लाख गोल्ड कार्ड जारी करने की योजना तैयारी की गई है।
राष्ट्रपति ट्रंप ने बताया है कि गोल्ड वीज़ा के लिए निवेशक जो भुगतान करेंगे, उससे अमेरिका के राष्ट्रीय कर्ज का भुगतान जल्दी किया जा सकेगा।
राष्ट्रपति ट्रंप की यह योजना भारतीय प्रवासियों के लिए महंगी पड़ सकती है। यूएस सिटिजऩशिप एंड इमीग्रेशन (यूएससीआईएस) के अनुसार करीब 10 लाख भारतीय ग्रीन कार्ड का इंतज़ार कर रहे हैं। यहां करीब 50 लाख भारतीय रहते हैं। वर्तमान में एच-1बी या ईबी-2/ईबी-3 वीज़ा पर रहने वाले भी गोल्ड कार्ड के लिए आवेदन कर सकते हैं लेकिन उन्हें भी इसके लिए 50 लाख डॉलर ही चुकाने होंगे।
क्या है ईबी-5 वीजा?
अमेरिका वर्ष 1990 में पांच श्रेणियों में वीज़ा प्रोग्राम लेकर आया था। इसे ईबी-1, ईबी-2, ईबी-3, ईबी-4 और ईबी-5 के नाम से जाना जाता है।
इन पांच श्रेणियों में अभी तक ईबी-5 वीज़ा सबसे आसान रास्ता माना जाता था।
10 लाख डॉलर यानी करीब 8।75 करोड़ रुपए निवेश करके इसे कोई भी व्यक्ति ईबी-5 वीज़ा हासिल कर सकता था। शर्त यह थी कि निवेश से कम से कम 10 लोगों को रोजग़ार पैदा हो।
गोल्ड कार्ड अप्रवासी निवेशक वीज़ा कार्यक्रम ईबी-5 की जगह लेगा।
राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा है कि यह वीज़ा खरीदकर लोग अमेरिका आएंगे और यहां बहुत ज्यादा टैक्स भरेंगे। वे खूब खर्च करेंगे और खूब रोजग़ार देंगे।
अब अमेरिका में निवेश से नागरिकता लोगों की लिए महंगी पड़ेगी। इसके साथ ही निवेश करने वालों का सत्यापन भी किया जाएगा।
वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड ल्यूटनिक ने इससे पहले ईबी-5 को लेकर कहा था कि यह भ्रष्टाचार का ज़रिया बन गया है। उन्होंने कहा, ‘हम यह सुनिश्चित करेंगे कि ये लोग अद्भुत विश्वस्तरीय शहरों से हों।’
ग्रीन कार्ड क्या है?
ग्रीन कार्ड अमेरिका में स्थायी रूप से रहने के लिए अनुमति प्रदान करने वाला दस्तावेज़ है। यह दस्तावेज़ किसी भी व्यक्ति को अमेरिकी नागरिकों की तरह ही लाभ और अधिकार देता है।
ग्रीन कार्ड धारक को वोट देने का अधिकार नहीं दिया गया है लेकिन देश में कहीं भी भ्रमण करने से लेकर काम करने तक का बराबर अवसर मिलता है।
इस कार्ड के मिलने के बाद अमेरिका की स्थायी नागरिकता का रास्ता खुल जाता है। यूएससीआईएस के अनुसार इसे परमानेंट रेजिड़ेंट कार्ड (स्थायी निवासी कार्ड) के रूप में जाना जाता है।
यह कार्ड एक बार में 10 साल के लिए जारी किया जाता है। इसके बाद इसे निरंतर रिन्यू कराया जा सकता है। अमेरिका इसे कई आधार पर विदेशी नागरिकों के लिए जारी करता है।
रूस के नागरिकों को भी मिलेगा गोल्ड कार्ड
ओवल ऑफिस में ट्रम्प ने बताया कि गोल्ड कार्ड क्यों ज़रूरी हैइमेज स्रोत,त्रश्वञ्जञ्जङ्घ ढ्ढरू्रत्रश्वस्
इमेज कैप्शन,गोल्ड कार्ड अमेरिकी नागरिकता के लिए एक बेहतर रास्ता हो गया है
अमेरिका में नागरिकता की चाह रखने वाले धनी लोगों के लिए गोल्ड कार्ड एक बेहतर रास्ता हो गया है। इस श्रेणी में कोई बैकलॉग नहीं है तो कार्ड लेने के बाद नागरिकता का रास्ता तेज़ी से खुला है।
अब तक 35 सालों के निवेश के बाद ईबी-5 वीज़ा मिलता रहा है। जिसके बाद भी नागरिकता हासिल करने में पांच से सात साल लगते थे।
गोल्ड कार्ड में अभी कोई प्रतिबंध की जानकारी सामने नहीं आई है। ऐसे में यह माना जा रहा है कि कार्ड लेने के बाद अमेरिकी नागरिकता की प्रकिया शुरू हो जाएगी।
एक पत्रकार के सवाल का जवाब देते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने यह भी कहा है कि इसे रूसी नागरिकों के लिए भी जारी किया जा सकता है।
भारत के निवेश को लग सकता है झटका
भारतीय निवेशक और अमीर बड़ी संख्या में देश छोड़ रहे हैं। दुनिया के अलग-अलग देशों की नागरिकता ले रहे हैं। अमेरिका ने इनके लिए बड़ा दरवाजा खोल दिया है।
एपिकल इमीग्रेशन के निदेशक और वीज़ा मामलों जानकार मनीष श्रीवास्तव ने बीबीसी संवाददाता आनंदमणि त्रिपाठी को बताया, ‘भारत में व्यवसाय आसान नहीं है। ईज़ ऑफ़ डूइंग बिजनेस इंडेक्स में भी भारत काफी नीचे है। ऐसे में अमेरिका की नागरिकता चाहने वाले बड़े कारोबारियों के लिए यह बड़ा अवसर है।’
वह कहते हैं कि ग्रीन कार्ड जैसी सुविधाएं मिलेंगी। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधांए फ्री होंगी। बच्चों का भविष्य बेहतर होगा। इसके कारण करोड़पतियों का पलायन और भी बढ़ सकता है।
भारत की नागरिकता छोडऩे वालों की संख्या बढ़ी है। इस तरह से नागरिकता दुनिया भर में कई देश दे रहे हैं।
पुर्तगाल, ग्रीस, और पोलैंड जैसे देशों में एक विला खरीदने पर ही नागरिकता मिल रही है। इसे सिटिजन बाई इन्वेस्टमेंट कहा जाता है।
मनीष श्रीवास्तव कहते हैं कि यह ग्रीन कार्ड का अपग्रेडेड वर्जन है।
बस शर्त यही है कि इसके लिए एक बड़ी राशि चुकानी होगी। निवेशक का बैकग्राउंड भी चेक किया जाएगा जिससे उसकी आर्थिक क्षमता का भी पता चले। ((bbc.com/hindi)
भारत और जर्मनी दोनों ही लोकतांत्रिक देश हैं. लेकिन इन दोनों देशों के चुनावी माहौल में काफी अंतर होता है. भारत में जहां चुनावी शोर जमकर सुनाई देता है, वहीं जर्मनी में विरोध प्रदर्शनों की गूंज दूर तक जाती है.
डॉयचे वैले पर आदर्श शर्मा का लिखा-
तारीख- 23 फरवरी, 2025। जर्मनी की राजधानी बर्लिन में आम दिनों की तरह चहलकदमी हो रही थी। सडक़ों पर गाडिय़ां रफ्तार भर रही थीं और फुटपाथ पर लोग घूम रहे थे। कुछ जगह पर पुलिस भी तैनात थी लेकिन माहौल देखकर इस बात का अंदाजा बिल्कुल नहीं लग रहा था कि ये जर्मनी के लिए बेहद खास दिन है। दरअसल, इस दिन यहां संसदीय चुनावों के लिए मतदान हो रहा था।
जर्मन: संसदीय चुनाव के नतीजे
भारत में जहां लोकसभा चुनाव के लिए कई चरणों में मतदान होते हैं और पूरी प्रक्रिया में लगभग डेढ़ महीने का समय लग जाता है वहीं, जर्मनी में संसदीय चुनाव एक दिन में ही पूरे हो जाते हैं। मतदान के बाद उसी दिन शाम से नतीजे आने की भी शुरुआत हो जाती है। यहां मतदान केंद्रों पर ही वोटों की गिनती की जाती है और फिर आंकड़े आगे भेज दिए जाते हैं। हालांकि, कुल मिलाकर देखें तो जर्मनी में संसदीय चुनाव की प्रक्रिया भारत की तुलना में कहीं अधिक जटिल है।
भारत से 16 गुना कम हैं जर्मनी में मतदाता
जर्मनी में एक दिन में संसदीय चुनाव पूरे होने की एक वजह यह भी है कि यहां पर मतदाताओं की संख्या भारत की तुलना में काफी कम है। भारत में पिछले साल हुए लोकसभा चुनावों के दौरान पंजीकृत मतदाताओं की संख्या करीब 98 करोड़ थी। वहीं, जर्मनी में लगभग 5।9 करोड़ लोगों के पास ही वोट देने का अधिकार है। इसके अलावा, जर्मनी में चुनाव के दिन हिंसा का खतरा भी बेहद कम होता है। इसलिए एक दिन में चुनाव करवाना आसान हो जाता है।
जर्मनी में चुनाव के नतीजों को लेकर भारत जितनी उत्सुकता भी नहीं रहती। इसकी वजह यह है कि यहां के चुनावी सर्वे काफी हद तक सटीक होते हैं। इससे लोगों को पहले ही एक अनुमान मिल जाता है कि किस पार्टी को कितने प्रतिशत वोट मिल रहे हैं। इस बार के नतीजे भी जनमत सर्वेक्षणों में बताए गए आंकड़ों के बेहद करीब हैं। चुनावी सर्वे के आंकड़ों और वास्तविक नतीजों में कोई चौंकाने वाला अंतर नहीं है।
जर्मनी में बैलेट पेपर से ही क्यों होता है चुनाव
इस बार क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (सीडीयू) और उसकी सहयोगी पार्टी क्रिश्चियन सोशल यूनियन (सीएसयू) को सबसे ज्यादा 28।6 फीसदी वोट मिले हैं। चांसलर ओलाफ शॉल्त्स की पार्टी सोशल डेमोक्रेटिक यूनियन (एसपीडी) को 16।4 फीसदी वोट मिले हैं। धुर-दक्षिणपंथी पार्टी अल्टरनेटिव फॉर डॉयचलैंड (एएफडी) के वोट पिछली बार के मुकाबले दोगुने हो गए हैं। उसे देश भर में 20।8 फीसदी वोट मिले हैं।
जर्मनी में अलग तरह से होता है चुनाव प्रचार
भारत में चुनाव के दौरान एक अलग ही माहौल होता है। प्रमुख नेताओं की बड़ी-बड़ी रैलियां और रोड शो होते हैं। सडक़-चौराहों पर बड़े-बड़े बैनर-पोस्टर लगाए जाते हैं। इसके अलावा, लाउडस्पीकर जैसे माध्यमों से भी प्रचार किया जाता है। लेकिन जर्मनी में चुनाव प्रचार इससे काफी अलग होता है। यहां छोटे-छोटे कार्यक्रमों के जरिए मतदाताओं को आकर्षित किया जाता है। इन कार्यक्रमों में शामिल होने वाले लोगों की संख्या बेहद सीमित होती है।
इसे एक उदाहरण से समझते हैं। डीडब्ल्यू हिंदी की टीम ने चुनाव के दौरान राजधानी बर्लिन और तीन राज्यों- थुरिंजिया, सैक्सनी और सैक्सनी-अनहाल्ट का दौरा किया था। थुरिंजिया की राजधानी एरफुर्ट में हमारी टीम ने सीडीयू पार्टी के एक कार्यक्रम को कवर किया। इस कार्यक्रम में थुरिंजिया के मुख्यमंत्री मारियो फॉइग्ट और सांसद पद के उम्मीदवार मिसाएल होसे समेत सीडीयू के कई बड़े नेता शामिल हुए थे। लेकिन कार्यक्रम में आए लोगों की संख्या 100 के आसपास ही थी।
जर्मनी में ज्यादातर चुनावी कार्यक्रम इसी तरह होते हैं। जिनमें राजनेता अपनी पार्टी का एजेंडा लोगों को बताते हैं और उन्हें प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। हालांकि, चांसलर पद के उम्मीदवारों के चुनावी कार्यक्रमों में ज्यादा लोग जुटते हैं। लेकिन वह संख्या भी भारत की तुलना में बेहद कम होती है। दरअसल, जर्मनी में चुनावी कार्यक्रमों में जुटने वाली भीड़ किसी पार्टी या राजनेता की लोकप्रियता का पैमाना नहीं होती।
विरोध प्रदर्शनों में जुटती है ज्यादा भीड़
जर्मनी में इस बार रिकॉर्ड 83।5 फीसदी मतदान हुआ। यह 1990 में हुए जर्मनी के एकीकरण के बाद सबसे ज्यादा है। यह आंकड़ा दिखाता है कि जर्मन नागरिक इन चुनावों को लेकर कितने गंभीर थे। युवाओं ने भी इस बार मतदान में बढ़-चढक़र हिस्सा लिया। उन्होंने सीडीयू और एसपीडी के बजाय एएफडी और लेफ्ट पार्टी को ज्यादा वोट दिए। 18 से 24 साल के 25 फीसदी मतदाताओं ने लेफ्ट पार्टी और 21 फीसदी ने एएफडी को वोट दिया।
जर्मनी की युवा आबादी राजनीतिक तौर पर काफी मुखर रहती है। युवा अपनी पसंदीदा पार्टियों का समर्थन करते हैं तो विरोधी पार्टियों के खिलाफ प्रदर्शन भी करते हैं। इन प्रदर्शनों में हजारों की संख्या में भीड़ जुटती है। ये प्रदर्शन काफी रचनात्मक होते हैं। इनमें गाने गाए जाते हैं, नारे लगाए जाते हैं और रंग-बिरंगे पोस्टर और झंडे लहराए जाते हैं। इन पोस्टरों पर अलग-अलग संदेश लिखे होते हैं। बर्लिन में तो प्रदर्शनों के लिए एक खास बस भी मौजूद है, जिसमें लाइटें और म्यूजिक सिस्टम जैसी कई चीजें लगी हैं।
इस बार सबसे ज्यादा विरोध प्रदर्शन एएफडी के खिलाफ हुए। ये प्रदर्शन अलग-अलग शहरों में और अलग-अलग समय पर हुए। चुनावों में सबसे ज्यादा वोट पाने वाली पार्टी सीडीयू भी इन प्रदर्शनों से अछूती नहीं रही। जनवरी में प्रवासियों से जुड़े एक बिल पर सीडीयू को एएफडी का साथ मिला था। इसके बाद, कई शहरों में सीडीयू के खिलाफ प्रदर्शन हुए थे। बर्लिन में हुए एक विरोध प्रदर्शन में तो डेढ़ लाख से ज्यादा लोग शामिल हुए थे। यहां विरोध की इस संस्कृति को लोकतंत्र का अहम हिस्सा माना जाता है। (dw.com/hi)
यूक्रेन और अमेरिका खनिज समझौते की शर्तों पर राज़ी हो गए हैं. यूक्रेन की राजधानी कीएव में एक वरिष्ठ अधिकारी ने बीबीसी को इसकी जानकारी दी है.
अधिकारी ने इसका ब्योरा तो नहीं दिया लेकिन कहा कि दोनों देश समझौते में अहम संशोधनों के लिए राजी हो गए ताकि इसे अंजाम दिया सके.
मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि अमेरिका ने यूक्रेन के खनिजों के इस्तेमाल से 500 अरब डॉलर की कमाई हासिल करने की शुरुआती शर्त छोड़ दी है.
लेकिन समझौते के बदले अमेरिका ने यूक्रेन को सुरक्षा की गारंटी नहीं दी है. ये डील के लिए यूक्रेन की ये प्रमुख शर्त थी.
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा है कि यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की इस सप्ताह इस डील पर दस्तख़्त करने वॉशिंगटन आ सकते हैं. इससे पहले दोनों नेताओं ने एक दूसरे के ख़िलाफ़ कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया था.
अतीत में यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की ट्रंप के खनिज समझौते के प्रस्ताव के ये कहते हुए ख़ारिज कर चुके हैं कि वो 'अपने देश को नहीं बेचेंगे.'
यूक्रेन के पास दुर्लभ खनिजों का एक बड़ा भंडार है. जिन क्षेत्रों ये खनिज हैं उनमें से कुछ फ़िलहाल रूस के कब्ज़े में हैं.
लेकिन 10 फ़रवरी को फॉक्स न्यूज़ को दिए इंटरव्यू में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था, "मैंने उनसे कह दिया है कि हमें $500 बिलियन के रेयर अर्थ मिनरल चाहिएं. और वो इसके लिए लगभग मान गए हैं."
इस इंटरव्यू के बाद ज़ेलेंस्की ने कहा था, "ये कोई गंभीर वार्तालाप नहीं था. मैं अपना देश नहीं बेच सकता."
क्या अब थमेगी जंग?
ट्रंप ने कहा था कि यूक्रेन अमेरिका को अपने रेयर अर्थ मिनरल्स का इस्तेमाल करने दे क्योंकि रूस के साथ युद्ध के दौरान जो बाइडन प्रशासन ने उसे अरबों डॉलर की मदद की थी.
ट्रंप ने मंगलवार को कहा था कि अमेरिका अब तक यूक्रेन को 300 से 500 अरब डॉलर की मदद कर चुका है. अमेरका ने ज़ेंलेस्की को तानाशाह कहा था और युद्ध शुरू करने लिए रूस को नहीं बल्कि यूक्रेन को जिम्मेदार ठहराया था.
इस खनिज समझौते को रूस के ख़िलाफ़ यूक्रेन को अमेरिका का समर्थन जारी रखने की अहम शर्त के तौर पर देखा जा रहा है.
ट्रंप प्रशासन का मानना है कि ये समझौता रूस के साथ यूक्रेन के युद्धविराम की राह में पहला कदम होगा.
मंगलवार को रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कहा था कि वो यूक्रेन के खनिजों तक अमेरिका की पहुंच में बाधा नहीं बनेंगे.
इसमें उन इलाकों के खनिज भी शामिल हैं, जिन पर रूस ने कब्जा कर रखा है.
अमेरिका ने इस समझौते के बदले भले ही यूक्रेन को सुरक्षा की गारंटी नहीं दी हो लेकिन माना जा रहा है कि इसके बाद युद्धविराम की कोशिशों में तेजी आ सकती है.
ट्रंप की यूक्रेन के खनिजों पर क्यों है नज़र
सवाल ये है कि ट्रंप यूक्रेन के खनिजों को हासिल करने पर इतना जोर क्यों दे रहे हैं.
दरअसल ट्रंप की नज़र यूक्रेन के जिस रेयर अर्थ मिनरल्स खजाने पर है उनका इस्तेमाल इलेक्ट्रिक कार से लेकर आधुनिक हथियारों और सैन्य साजो-सामान बनाने में होता है.
रेयर अर्थ मिनरल्स की ग्लोबल सप्लाई पर फिलहाल चीन का कब्जा है.
संभवत: चीन को रोकने के लिए ही ट्रंप रेयर अर्थ मिनरल्स के उत्पादन और सप्लाई पर अमेरिका का हिस्सा बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं.
पिछले कुछ दशकों में चीन रेयर अर्थ मिनरल्स के खनन और इसकी प्रोसेसिंग के मामले में सबसे बड़ा देश बन गया है. इन खनिजों के ग्लोबल प्रोडक्शन के 60 से 70 फ़ीसदी हिस्से पर उसका कब्जा है. प्रोसेसिंग क्षमता में भी 90 फ़ीसदी हिस्सेदारी चीन के पास है.
रेयर अर्थ मिनरल्स के लिए चीन पर अमेरिकी निर्भरता ट्रंप प्रशासन के लिए चिंता की बात है. इससे आर्थिक और सैन्य मोर्चे पर चीन के मुक़ाबले अमेरिकी दांव कमजोर पड़ सकता है.
यूक्रेन के पास कौन से खनिज हैं?
यूक्रेन के पास उन 30 खनिजों में से 21 के भंडार हैं जिन्हें यूरोपियन यूनियन 'बेहद अहम कच्चा माल' कहता है. यूक्रेन के पास इन खनिजों का जो भंडार है वो पूरी दुनिया में रेयर अर्थ मिनरल्स के रिजर्व का पांच फीसदी है.
यूक्रेन के रेयर अर्थ मिनरल्स के ज्यादातर भंडार क्रिस्टलाइन शील्ड के दक्षिण इलाके में हैं. ये इलाका अज़ोव सागर के दायरे में आता है. यहां ज्यादातर इलाकों पर फिलहाल रूस का कब्जा है.
फिलहाल यूक्रेन के पास ग्रेफाइट का 1.90 करोड़ टन का भंडार है. इसका इस्तेमाल इलेक्ट्रिक वाहन बनाने में होता है.
यूक्रेन के पास इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए इस्तेमाल होने वाली बैटरियों को बनाने के लिए जरूरी लिथियम का भी भंडार हैं. यूरोप में लिथियम का जितना बड़ा भंडार है उसका तिहाई हिस्सा अकेले यूक्रेन के पास है.
रूस के हमले से पहले यूक्रेन दुनिया के सात फ़ीसदी टाइटेनियम का उत्पादन करता था. इसका इस्तेमाल विमानों से लेकर पावर स्टेशनों के निर्माण में होता है.
यूक्रेन के रेयर अर्थ मिनरल्स के कुछ भंडारों पर रूस ने कब्जा कर लिया है. यूक्रेन के आर्थिक मामलों की मंत्री यूलिया स्वीरिदेंको के मुताबिक़ लगभग 350 अरब डॉलर के खनिज संसाधनों पर रूस का कब्जा हो चुका है.
रेयर अर्थ मिनरल्स क्या हैं?
रेयर अर्थ रासायनिक तौर पर 17 समान तत्वों का सामूहिक नाम है, जिनका इस्तेमाल आधुनिक टेक्नोलॉजी और उद्योगों में होता है.
स्मार्टफोन, कंप्यूटर, मेडिकल उपकरणों समेत कई चीजों को बनाने और तकनीकों में इनका इस्तेमाल होता है.
रेयर अर्थ मिनरल्स में स्केनडियम, वाईट्रियम, लेन्थनम, सेरियम, प्रेसिडोनियम, नियोडाइमियम, प्रोमेथियम, सैमेरियम, यूरोपियम, गैडोलिनियम, टर्बियम, डायसप्रोसियम, होलमियम, एरबियम, थुलियम और ल्युटेटियम शामिल हैं.
इन खनिजों को इसलिए 'रेयर' कहा जाता है क्योंंकि शुद्ध रूप मिलना लगभग दुर्लभ है. हालांकि पूरी दुनिया में इनके कुछ भंडार मौजूद हैं.
रेयर अर्थ मिनरल्स अक्सर थोरियम और यूरेनियम जैसे रेडियोधर्मी तत्वों के साथ पाए जाते हैं. लेकिन उन्हें इससे अलग करने के लिए काफी जहरीले रसायनों की जरूरत पड़ती है. लिहाजा इनकी प्रोसेसिंग काफी मुश्किल और महंगी हो जाती है. (bbc.com/hindi)
(बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित)
डॉनल्ड ट्रंप के व्हाइट हाउस में वापसी के बमुश्किल दो हफ्ते बीते हैं, लेकिन इन्हीं दो हफ्तों में अमेरिका के चार सहयोगियों ने शुल्क (टैरिफ) बढ़ाने और अन्य दंडात्मक उपायों की धमकी दिए जाने के बाद, अमेरिकी राष्ट्रपति की दबाव डालने वाली व्यापार नीति के सामने घुटने टेक दिए।
मेक्सिको और कनाडा ने इस हफ्ते अमेरिका से लगी अपनी सीमा पर सुरक्षा बढ़ाने का वादा किया है, ताकि अवैध प्रवासन और ड्रग तस्करी को रोका जा सके। इस कदम के बाद, उन्हें ट्रंप की ओर से पिछले हफ्ते घोषित 25 फीसदी शुल्क पर 30 दिन की राहत मिली है।
अमेरिका ने कोलंबिया को धमकी दी थी कि अगर वह अमेरिका से निकाले गए लोगों को वापस नहीं लेगा, तो उस पर शुल्क और अन्य प्रतिबंध लगा दिए जाएंगे। इसके बाद कोलंबिया ने अपना फैसला बदल दिया और अमेरिका से निकाले गए लोगों को वापस लेने के लिए तैयार हो गया।
इस बीच, पनामा ने पनामा नहर पर ट्रंप को रियायतें दी हैं। पनामा नहर एक महत्वपूर्ण जलमार्ग है जो मध्य अमेरिका में अटलांटिक को प्रशांत महासागर से जोड़ता है।
इस हफ्ते के अंत में, ट्रंप ने और आगे बढ़ते हुए, मौजूदा आयात शुल्क के अलावा एल्यूमिनियम और स्टील के आयात पर 25 फीसदी शुल्क लगाने का ऐलान किया। इससे अमेरिका के दूसरे सहयोगी परेशान हो गए हैं।
पहली नजर में देखें, तो अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपनी ताकत दिखाई और जिन्हें निशाना बनाया गया वे जल्द ही हार मान गए। हालांकि, इटली के अर्थशास्त्री मार्को बूटी का मानना है कि ट्रंप की शुल्क नीति ‘अनियमित रूप से' लागू की जा रही है और इस वजह से सहयोगियों की ओर से सीमित प्रतिक्रिया ही सामने आई है।
यूरोपीय आयोग में आर्थिक और वित्तीय मामलों के पूर्व महानिदेशक बूटी ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘अब तक ट्रंप ने जिन देशों (कनाडा और मेक्सिको) को धमकी देकर एकतरफा समझौते हासिल किए हैं, वे काफी हद तक प्रतीकात्मक हैं।’
उन्होंने कहा कि मेक्सिको और कनाडा ने सीमा पर कुछ नए उपायों को लागू करने का वादा किया है, लेकिन इन उपायों से नशे की दवा फेंटानिल की तस्करी की समस्या का समाधान नहीं होगा और ना ही इससे अवैध रूप से अमेरिका में आने वाले लोगों की संख्या कम होगी।
ट्रंप के शुल्क से वैश्विक स्तर पर पैदा हो रही आर्थिक अनिश्चितता
ट्रंप द्वारा कुछ देशों पर लगाए गए शुल्क और प्रस्तावित शुल्क के कारण उन देशों और अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा, इसका विस्तार से अध्ययन किया गया है। शुल्क का मतलब होता है कि आयातित सामानों पर ज्यादा टैक्स लगाना। इसलिए, अगर नए शुल्क लगाए जाते हैं, तो अमेरिकी लोगों को सामान खरीदने के लिए ज्यादा पैसे देने पड़ेंगे।
बूटी ने कहा, ‘ट्रंप द्वारा शुल्क लगाए जाने की वजह से वैश्विक तौर पर आर्थिक अनिश्चितता पैदा हो रही है। यह अर्थव्यवस्था में वृद्धि और आर्थिक समृद्धि के लिहाज से नुकसानदायक होगा।’
ऐसी आशंका जताई जा रही है कि ट्रंप की शुल्क धमकी से कनाडा और मेक्सिको की अर्थव्यवस्थाएं मंदी का शिकार हो सकती हैं। साथ ही, अमेरिकी मुद्रास्फीति में एक प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हो सकती है। इस वजह से, फेडरल रिजर्व को ब्याज दरों को पहले की तरह बनाए रखना या बढ़ाना पड़ेगा।
इन शुल्कों की वजह से कनाडा, अमेरिका और मैक्सिको के बीच सामानों की आपूर्ति में भी बाधा आ सकती है, विशेष रूप से ऑटोमोबाइल क्षेत्र में।
उत्तरी अमेरिका में कार बनाने के लिए कई देशों से सामान आते हैं और एक देश से दूसरे देश में जाते हैं। यह पूरा उद्योग अलग-अलग देशों से जुड़ा हुआ है। अगर इन सामानों पर शुल्क लगाया जाता है, तो कारों की कीमत बहुत बढ़ जाएगी। अगर कारें महंगी हुईं, तो लोग कम कारें खरीदेंगे। इससे कार बनाने वाली कंपनियों को नुकसान होगा। कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इससे लोगों की नौकरियां चली जाएंगी।
कील इंस्टीट्यूट फॉर द वर्ल्ड इकोनॉमी (आईएफडब्ल्यू-कील) के शोधकर्ता रॉल्फ लैंगहैमर ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘ट्रंप पुराने जमाने के विचारों वाले व्यक्ति हैं। उन्हें लगता है कि शुल्क लगाने से देश के घरेलू उद्योगों को फायदा होगा। शुल्क से मिलने वाले राजस्व से उन्हें घरेलू स्तर पर टैक्स में कटौती करने में मदद मिलेगी।’
लैंगहैमर ने बताया कि अमेरिकी सरकार को जो राजस्व मिलता है उसमें से सिर्फ 2 फीसदी हिस्सा शुल्क से आता है। जबकि, आयकर और कंपनियों पर लगने वाले टैक्स से लगभग 60 फीसदी राजस्व मिलता है।
अमेरिकी सहयोगियों ने उठाए एहतियाती कदम
ट्रंप की शुल्क से जुड़ी धमकियों ने दुनिया भर में हलचल मचा दी है। यहां तक कि कुछ देशों को अपने निर्यात पर शुल्क लगाने के किसी भी संभावित कदम को रोकने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने भारत पर आरोप लगाया था कि वह अमेरिकी कंपनियों को अपने देश में सामान बेचने में बहुत मुश्किलें पैदा करता है। इसके बाद, भारत ने मोटरबाइक और सैटेलाइट ग्राउंड इंस्टॉलेशन सहित कई उत्पादों पर अपने शुल्क को 13 फीसदी से घटाकर 11 फीसदी कर दिया है। नई दिल्ली ने इस सप्ताह 30 से अधिक अन्य उत्पादों पर शुल्क कम करने की योजना की घोषणा की है।
दक्षिण कोरिया और जापान ने कहा है कि वे अमेरिका से अधिक ऊर्जा और दूसरे सामान खरीदेंगे। जबकि, थाईलैंड ने घोषणा की है कि वह प्लास्टिक बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले इथेन सहित अमेरिकी कृषि उत्पादों के आयात को बढ़ाएगा।
फाइनेंशियल टाइम्स ने इस सप्ताह बताया कि ट्रंप के शुल्क लगाए जाने की धमकी के खिलाफ जवाबी कार्रवाई करने के लिए यूरोपीय संघ अपने नए बनाए गए एंटी-कोर्सियन इंस्ट्रूमेंट (एसीआई) का इस्तेमाल करने पर विचार कर रहा है, खास तौर पर अमेरिकी टेक्नोलॉजी कंपनियों के खिलाफ।
यूरोपीय संघ के आर्थिक हितों की रक्षा के लिए दिसंबर में एक नया नियम लागू किया गया था, जिसे एसीआई कहा जाता है। इस नियम के तहत, यूरोपीय संघ किसी देश के जरिए हो रहे निवेश को रोक सकता है या उसे अपने देश में व्यापार करने की अनुमति नहीं दे सकता है।
यूरोपीय संघ ने ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान यूरोपीय कारों पर शुल्क लगने से बचाव किया था। उस समय यूरोपीय आयोग के पूर्व प्रमुख ज्यां क्लोद युंकर ने राष्ट्रपति के साथ एक समझौता किया था। इसके तहत, ईयू के देशों ने अमेरिका से काफी मात्रा में लिक्विफाइड नेचुरल गैस (एलएनजी) और सोयाबीन खरीदे थे, लेकिन इस बार यह विकल्प काम नहीं कर सकता है।
बूटी ने कहा, ‘मुझे इस बात पर काफी संदेह है कि इस बार समझौता करने से काम चल जाएगा। हम बातचीत करने और शांतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन आपको जवाबी कार्रवाई की एक ऐसी रणनीति भी बनानी होगी जो विश्वसनीय और कठोर हो।’
अमेरिका की प्रतिष्ठा को नुकसान
ट्रंप की काफी ज्यादा दबाव वाली रणनीति थोड़े समय के लिए सौदेबाजी को जारी रखने या व्यापार लक्ष्यों को हासिल करने के लिए दूसरे देशों को मजबूर कर सकती है, लेकिन लंबे समय में यह रणनीति काम करेगी या नहीं, कुछ नहीं कहा जा सकता।
हाल ही में एक ब्लॉग पोस्ट में, वाशिंगटन के सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज के एक अर्थशास्त्री फिलिप लक ने राष्ट्रपति के दबाव की तुलना एंटीबायोटिक दवाओं से की।
लक ने चेतावनी भरे लहजे में कहा, ‘वे किसी खास समस्या को खत्म करने में बहुत कारगर होते हैं, लेकिन अगर इनका ज्यादा इस्तेमाल किया जाए, तो असर कम हो सकता है। जिस प्रकार बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं, उसी तरह अगर किसी देश पर बार-बार प्रतिबंध लगाए जाते हैं, तो वह देश अमेरिका के साथ व्यापार कम करके खुद को इन प्रतिबंधों से बचाने की कोशिश करेगा।’
मोदी की अमेरिका यात्रा से क्या मजबूत होंगे रिश्ते
अमेरिका के साथ व्यापार संबंधों में बढ़ती अनिश्चितता का सामना करते हुए, कई देशों के साथ-साथ यूरोपीय संघ को भी शुल्क के खतरे को कम करने के लिए वैकल्पिक बाजारों की तलाश करनी पड़ रही है।
बाइडेन प्रशासन ने यूरोपीय संघ पर दबाव डाला था कि वह चीन पर अपनी निर्भरता कम करे, ताकि इस एशियाई देश के बढ़ते प्रभाव को रोका जा सके। हालांकि, अब अपने सबसे करीबी सहयोगी से संभावित व्यापार युद्ध के चलते, ईयू के नीति निर्माता शायद अपनी रणनीति बदलने के लिए मजबूर हो जाएं।
शुल्क राहत के बावजूद, कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने इस हफ्ते शीर्ष कारोबारी नेताओं के साथ एक शिखर सम्मेलन आयोजित किया। इसका मकसद था कि कनाडा कारोबार के लिए सिर्फ अमेरिका पर निर्भर रहने की जगह अन्य देशों से व्यापार करे। वहीं, मेक्सिको की राष्ट्रपति क्लाउडिया शाइनबाउम ने ‘प्लान मेक्सिको' लॉन्च किया है, जिसका उद्देश्य भी प्रमुख व्यापारिक साझेदारों पर निर्भरता कम करना है।
ब्रसेल्स स्थित थिंक टैंक ब्रूगेल के रिसर्च फेलो निकोलस पोइटियर्स ने डीडब्ल्यू से कहा, ‘अब हर कोई पूछ रहा है कि क्या अमेरिका अभी भी एक विश्वसनीय साझेदार है? इन शुल्क से अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को बहुत नुकसान पहुंचा है।’ (डॉयचेवैले)
-इमरान कुरैशी
एक बस कंडक्टर और छात्र-छात्रा के बीच कन्नड़ और मराठी भाषा को लेकर हुए झगड़े ने कर्नाटक और महाराष्ट्र के बीच बस सर्विस को फिर बाधित कर दिया है।
इससे कर्नाटक के सीमावर्ती बेलगावी और महाराष्ट्र के कोल्हापुर जिले के बीच बस यात्रा करने वाले सैकड़ों यात्रियों को मुश्किलें आ रही हैं।
लेकिन लोगों को इस बात ने चौंकाया कि दोनों राज्यों के बीच 58 साल से पुराने इस सीमा विवाद में एक किशोर छात्र और छात्रा क्यों शामिल हुई।
इस विवाद में 51 वर्षीय बस कंडक्टर महादेवप्पा हुक्केरी पर हमला भी हुआ और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।
यहां तक कि मुक़दमा दर्ज कराने की कहानी में भी ट्विस्ट है। सबसे पहले कंडक्टर ने पुलिस में शिकायत की। कंडक्टर ने कहा कि उन्हें पीटा गया।
उन्होंने शुक्रवार को शाम साढ़े पांच बजे अपनी शिकायत दर्ज कराई। इसके बाद उसी रात एक बजे छात्रा ने शिकायत दर्ज कराई।
किशोरी छात्रा ने कंडक्टर के खिलाफ दर्ज शिकायत में कहा है का उनका ‘व्यवहार सही’ नहीं था। कंडक्टर केल खिलाफ पोक्सो के तहत शिकायत की गई है।
कर्नाटक के परिवहन मंत्री रामलिंगा रेड्डी ने बीबीसी हिंदी से कहा, ''पहली नजऱ में तो ये शिकायत अजीब लगती है क्योंकि बस में काफी पैसेंजर थे। हालांकि पुलिस मामले की छानबीन कर रही है। कर्नाटक के परिवहन मंत्री ने अस्पताल पहुंचकर कंडक्टर का हालचाल लिया था।’
आखिर हुआ क्या था?
ये घटना बेलगावी ग्रामीण तालुक में सामरा एयरपोर्ट जाने वाली सडक़ पर हुई। कंडक्टर ने बस में सफर कर रही लडक़ी को 'जीरो' टिकट दिया था। जीरो टिकट का मतलब फ्ऱी टिकट। क्योंकि कर्नाटक में सरकारी बसों में महिलाएं मुफ़्त में यात्रा कर सकती हैं।
कहा जा रहा है कि इस छात्रा के साथ सफर कर रहे किशोर ने कंडक्टर को टिकट दिखा कर बताया कि उसने टिकट ले लिया है।
लेकिन बताया जा रहा है कि कंडक्टर ने उससे कहा कि ‘जीरो’ टिकट सिर्फ लड़कियों या महिलाओं के लिए है।
कंडक्टर ने लडक़े से कहा कि उसे टिकट लेना पड़ेगा। कंडक्टर सिर्फ कन्नड़ में बोल सकते थे। जबकि लडक़े और लडक़ी ने सिर्फ मराठी में बात की।
पुलिस अधिकारियों ने बताया कि कंडक्टर और दोनों यात्रियों के बीच इस बात को लेकर बहस हुई।
कंडक्टर ने दोनों से कन्नड़ में बोलने को कहा। जबकि उन यात्रियों ने कंडक्टर से कहा कि वो मराठी में बोलें। हो सकता है कि इस विवाद में ड्राइवर में भी अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया हो।
लेकिन इसके बाद जो हुआ उसने अधिकारियों को आश्चर्य में डाल दिया। छात्र-छात्रा पर आरोप लगाया है इस झगड़े के दौरान उन्होंने अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को फोन कर अगले बस स्टैंड में बुला लिया।
इसके बाद चिक्का बालेकुंदरी गांव के पास अगले बस स्टैंड में लोगों के एक समूह बस में घुस आया और कंडक्टर की पिटाई कर दी।
इन लोगों ने कहा कि कंडक्टर ज़बरदस्ती कन्नड़ में बात करने को कह रहा था। ख़बरों के मुताबिक कंडक्टर पर हमला करने वाले 14 लोग थे। इनमें से सिफऱ् पांच लोगों की गिरफ्तारी हो पाई है।
‘जय महाराष्ट्र’ बनाम जय ‘कर्नाटक’
आंखों में आंसू लिए कंडक्टर ने संवाददाताओं से कहा कि उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि उन्होंने लडक़ी से क्या ‘अनुचित’ व्यवहार किया है।
उनके घर में भी उसी उम्र की लडक़ी है। जब कर्नाटक के रामालिंगा रेड्डी अस्पताल पहुंचे तो कंडक्टर अपने आंसू रोक नहीं पाए।
कर्नाटक की महिला और बाल विकास मंत्री लक्ष्मी हेब्बालकर ने इस मामले के कथित दोषियों की गिरफ़्तारी का आरोप सीधे तौर पर सर्किल इंस्पेक्टर पर मढ़ा। मंत्री रेड्डी उनके इस नज़रिये से सहमत थे।
इस घटना के बाद दोनों राज्यों की बसों को उनकी सीमाओं पर ही रोक दिया जा रहा है। इन पर नारे लिखे गए हैं, जिनमें कहा गया है कि अपने राज्य का समर्थन करें।
महाराष्ट्र के ड्राइवरों को जय महाराष्ट्र और कर्नाटक के ड्राइवरों पर जय कर्नाटक का नारा लगाने का दबाव डाला जा रहा है। एक तरफ शिवसेना और महाराष्ट्र एकीकरण समिति के कार्यकर्ता हैं तो दूसरी ओर कन्नड़ रक्षणा वेदिके के कार्यकर्ता सक्रिय हैं
सीमा विवाद क्यों भडक़ उठता है?
पिछले छह दशक के दौरान दोनों राज्यों के बीच कई बार सीमा विवाद भडक़ चुका है।
इसे लेकर दोनों ही राज्यों में विरोध-प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक संपत्तियों को नुक़सान पहुंचाया गया है। विवाद के केंद्र में बेलगावी, खानापुर, निप्पानी, नंदगड़ और करवार ( उत्तरी कन्नड़ जिला) जैसे सीमाई तालुक हैं।
महाराष्ट्र का दावा है चूंकि ये सभी तालुक मराठी भाषी इलाकों में पड़ते हैं इसलिए उन पर उसका हक है।
जबकि कर्नाटक का कहना है कि वो इस मामले में भारत के पूर्व चीफ जस्टिस मेहरचंद महाजन कमिटी की रिपोर्ट की सिफारिशें मानेगा।
मेहरचंद महाजन ने जम्मू-कश्मीर के भारत के विलय में अहम भूमिका निभाई थी।
कर्नाटक की सीमाएं महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल से मिलती हैं। इन सभी सीमाई इलाकों में लोग अलग-अलग भाषाएं बोलते हैं और वर्षों से शांतिपूर्वक रहते आए हैं।
राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर हरीश रामास्वामी ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘दरअसल इस मामले का संबंध राजनीतिक से ज्यादा आर्थिक कारणों से है। महाराष्ट्र इस मुद्दे को सुलगाए रखना चाहता है क्योंकि बेलगावी समृद्ध और सांस्कृतिक तौर पर महत्वपूर्ण शहर है। यहां काफी निवेश आता है। इस मामले पर कभी फैसला हुआ तो महाराष्ट्र को फ़ायदा हो सकता है।’
महाराष्ट्र के राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है ये ‘भाषाई पहचान’ का सवाल है।
महाराष्ट्र एकीकरण समिति और कर्नाटक रक्षणा वेदी दोनों इन इलाकों पर अपना-अपना दावा करते हैं।
महाराष्ट्र एकीकरण समिति के लोगों का दावा है कि इस इलाके में मराठी बोलने वाले लोग ज्यादा है। वहीं कर्नाटक के लोगों को कहना है कि कन्नड़ भाषी लोग ज्यादा हैं।
महाराष्ट्र एकीकरण समति के महासचिव मालोजीराव आश्तेकर ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘सरकारी दफ्तरों में सभी फॉर्म कन्नड़ में भरे जाते हैं। यहां बोर्डों पर सारी सूचनाएं कन्नड़ में लिखी होती हैं।’
कन्नड़ रक्षणा वेदिके के दीपक गुडानट्टी ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘त्योहारों को मौकों पर कन्नड़ भाषा में गाना बजाने पर यहां लोगों को पीटा जाता है। ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिला प्रशासनों ने यहां मराठी में फॉर्म उपलब्ध करवाने की बात मान ली है। उन्होंने भाषाई अल्पसंख्यक आयोग को इसका आश्वासन दे दिया है।’
हालांकि जिला प्रशासन से जुड़े एक अधिकारी ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘वैधानिक और संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक हम अंग्रेजी या कन्नड़ में लिख पाने में असमर्थ लोगों से मराठी और उर्दू दोनों में शिकायतें लेने को राजी हो गए हैं। भाषाई अल्पसंख्यक आयोग के अन्य सभी सुझावों पर हमने कानूनी राय मांगी है।’ ((bbc.com/hindi)
-दीपाली अग्रवाल
मां आनंद शीला का इंटरव्यू किया था, उसमें जो बातें थीं वो सबके सामने ही हैं लेकिन इसके अलावा भी उनसे बात हुई। उन दिनों वो बड़ोदा में थीं, एक दफा दिल्ली भी आई थीं लेकिन मुलाक़ात संभव नहीं हो सकी। इंटरव्यू के तुरंत बाद ही मेरी उनकी फोन पर बात हुई थी, तब उन्होंने बताया कि वो कितने ही इंटरव्यू कर चुकी हैं और वो जैसी हैं वैसे ही जवाब देती हैं। हालांकि यह लाइन अपने आप में एक राजनीति है। उस समय ओशो से उनके प्रेम को लेकर मैं चर्चा कर रही थी। हालांकि वो कभी इस बात को ना ही मानती हैं और ना ही बात करना चाहती हैं कि वह उस प्रेम में एकाधिकार चाहती थीं और अपना वर्चस्व, सामने वाले के व्यक्तित्व पर छा जाने की आकांक्षा जबकि परिपक्व प्रेम की परिभाषा पर ही ओशो ने इतनी बातें कही हैं। शीला ने इस इस प्रेम में कई जानें लेने की असफल कोशिशें भी कीं। वह एक टॉक्सिक प्रेम था, बल्कि प्रेम ही नहीं था। जब मैंने पूछा कि आपने कैसे उस व्यक्ति को अचानक छोड़ दिया जिससे आप इतनी प्रेम होने का दावा करती हैं तो उन्होंने बताया कि जब आप किसी काम को सौ प्रतिशत कर लेते हैं तो उससे जुड़े मोह समाप्त हो जाते हैं। वह ओशो के साथ अपने प्रेम को सौ प्रतिशत जी चुकी थीं।
मां आनंद शीला से बात करने के एकमात्र कारण ही ओशो हैं। हालांकि एक तीस साल की लडक़ी का अमेरिका में एक पूरा शहर बसा देना और फिर उसी कम्यून को छोडऩे के बाद जिस संघर्ष के बारे में शीला ने अपनी किताब में लिखा है, वो बहुत आसान नहीं है। फिर भी ओशो इतने बड़े हैं कि ये सब बातें बौनी ही जान पड़ती है। अगर वह ओशो की सेक्रेटरी न होतीं तो कोई लडक़ी जर्मनी में रहकर कैसा संघर्ष कर रही है इसमें बहुत लोगों की दिलचस्पी नहीं रहती। ओशो इन सब बातों पर आच्छादित हो जाते हैं। चूंकि शीला के महत्व को बढ़ाने वाले भी वही थे। ओशो अध्यात्म की दुनिया के एक रहस्यमयी कैरेक्टर हैं। ज्ञान से भरपूर, किसी बुद्ध पुरुष जैसे दिखने और बोलने वाले, लोगों को अपने आकर्षण में खींचने वाले, संन्यास के नए सूत्र देने वाले। लेकिन इसी अध्यात्म को शीला ने एक सिरे से नकार दिया, इसे उनका बाज़ार बताकर हर ध्यान, हर सूत्र को निरर्थक साबित करने की कोशिश की, यहां तक की बुद्ध को भी। मां आनंद शीला ने इंटरव्यू के दौरान अध्यात्म को ही नकार दिया यानी जिस व्यक्ति के प्रेम करती रहीं, उसके जीवन के सारे उद्देश्य और प्रयोगों के निरर्थक ही बता दिया।
जब उनसे पूछा गया कि कैसे तीस साल की स्त्री ने एक शहर खड़ा कर दिया तो जवाब में बताया कि प्रेम ने वो शक्ति दी, मैं इसका भौतिक और प्रेक्टिकल जवाब चाह रही थी। लेकिन जवाब बहुत ही पेचीदा और हाथ छुड़ाने वाला था। लोग सोचते हैं कि मां आनंद शीला के बहाने ओशो को व्यक्तिगत रूप से और जानने में और भी मदद मिलेगी, वे ऐसी बातें बताएंगी जो ऐसे किसी व्यक्तित्व को जानने में मदद करे और अध्यात्म के भीतर की और तह खोले लेकिन वे सारी बातें प्रेम शब्द के सहारे टिका देती हैं। प्रेम तो भावनात्मक पक्ष हुआ लेकिन व्यक्तित्व की रूपरेखा के नाम पर उनके पास इल्ज़ाम हैं ओशो के नाम गढऩे के लिए। जबकि अगर आप किसी व्यक्ति के साथ प्रेम में हैं तो अमूमन ही उसकी रुचि धीरे-धीरे अपनी रुचि भी बन जाती है। लेकिन शीला ने वर्चस्व और कम्यून को तो स्वीकारा और स्पिरिचुअलिटी को खारिज कर दिया। हालांकि उनके हाथ अंत में कुछ भी नहीं लगा।
लेकिन एक बात है कि कम्यून को छोडऩे के बाद ओशो की दोनों ही महिला सेक्रेटरी लक्ष्मी और शीला ने इसे ओशो की लीला मानकर स्वीकार किया। उन्हें लग रहा था कि दोनों को ही भीतर से और मजबूत बनाने के लिए ओशो ने उनको बाहर निकाला है। लक्ष्मी की तो मृत्यु हो चुकी है। शीला स्विट्जरलैंड में रहती हैं। कहती हैं कि ओशो को याद तो नहीं करतीं लेकिन अगल वे दैहिक रूप से भी होते तो बुरा तो नहीं लगता। उनका कहना है कि वह उनकी टीचिंग को ही जीती रहीं लेकिन ये पूछने पर कि कम्यून जैसे ख्याल क्या भारत की संस्कृतिवाहक परंपरा में काम करेगा, तो उन्होंने कहा कि यह जानना उनका विषय नहीं है। कुल मिलाकर मां आनंद शीला जिस रूप में रजनीश के साथ जुड़ी और जिस तरह का लाभ लेना चाहती थीं, वह उन्होंने लिया इसके आगे सब पॉडकास्ट है।
-ताबिन्दा कौकब
‘वेलकम टु दी फैमिली, अब आप हमारी बेटी हैं।’
शादी के दिन अपने ससुर से यह बात सुनकर कोई भी दुल्हन जरूर खुश होगी और आगे आने वाले दिनों के लिए काफी भरोसा भी महसूस करेगी। लेकिन शायद बहुत सारी भारतीय और पाकिस्तानी लड़कियों के लिए यह केवल एक टूटा हुआ सपना साबित हो।
यह डायलॉग एक ऐसी फि़ल्म का है जिसे पिछले कुछ दिनों से भारत और पाकिस्तान के सोशल मीडिया और गूगल पर सबसे ज़्यादा बार सर्च किया गया है।
फिल्म ‘मिसेज’ में हालांकि विषय वही पुराना है यानी लड़कियों पर शादी के बाद ससुराल में जिम्मेदारियों का बोझ, शादी से पहले सपनों का टूटना और पति के साथ दाम्पत्य जीवन की समस्याएं वग़ैरह। लेकिन यह एक संयुक्त परिवार में अरेंज मैरिज की कुछ सच्चाइयों को बयान करती है।
कुछ सीन दर्शकों के लिए बहुत परेशान करने वाले हैं लेकिन फिर भी कई महिलाएं इनमें अपनी जि़ंदगी की झलक देखती हैं।
इस फिल्म में जिस समस्या को उजागर किया गया है वह है पति-पत्नी का वैवाहिक संबंध।
सेक्स लाइफ में असंवेदनशील रवैया
शादी के दिन ऋचा और उनके पति दिवाकर में भावनात्मक अंतर साफ नजर आता है।
ऋचा के पति का रोमांस चार दिन में खत्म हो जाता है और इसके बाद वह रोजमर्रा अंदाज में केवल सेक्स के लिए उनके पास आते हैं।
दिवाकर को फिल्म में स्त्री रोग विशेषज्ञ दिखाया गया है लेकिन फिल्म देखने वालों की भी यही राय है कि गाइनेकोलॉजिस्ट होकर भी उन्हें सेक्स के दौरान औरत को होने वाली तकलीफ का एहसास नहीं।
ऋचा के पति को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि बीवी शारीरिक संबंध के लिए तैयार है भी या नहीं। इसकी वजह से ऋचा उन्हें यह कहते नजर आती हैं कि वह केवल ‘मैकेनिकल सेक्स’ नहीं करना चाहतीं।
फिल्म में पति जब एक मौके पर पत्नी को चूमने की कोशिश करता है तो वह कहती हैं कि उन्हें ‘बदबू आ रही है’, जिस पर पति कहता है, ‘तुमसे किचन की महक आ रही है और यह दुनिया की सबसे सेक्सी महक है।’
लेकिन थोड़ा वक्त बीतने के बाद यही पति पत्नी की ओर से प्यार करने और ‘फोरप्ले’ के लिए कहने पर उस पर ‘सेक्स एक्सपर्ट’ होने का तंज कसता है और कहता है कि तुमसे क्या प्यार करूं, ‘तुमसे तो हर वक्त किचन की बू आती है।’
सोशल मीडिया पर फि़ल्म के दर्शकों का कहना है कि यह एक महत्वपूर्ण समस्या है जिससे अक्सर मर्द नजर बचाते हैं।
फिल्म की मुख्य किरदार ऋचा की तरह कई महिलाएं इस वजह से सेक्स से बचने की कोशिश करती हैं क्योंकि इस संबंध में मर्द की तरफ़ से रोमांटिक पहल कम हो जाती है और घर के काम से थक जाने वाली महिलाएं और थकान से बचने के लिए कमरे में ही नहीं जातीं।
बिल्कुल ऐसे जैसे फिल्म में ऋचा एक सीन में लाउंज के सोफे पर सो जाती हैं।
सेक्स को लेकर महिलाओं का ऊहापोह
महिला अधिकारों की सक्रिय कार्यकर्ता और ब्रिटेन में बच्चों की विशेषज्ञ के तौर पर काम करने वाली डॉक्टर एविड डीहार कहती हैं, ‘शारीरिक लिहाज से महिलाओं के कई काम होते हैं। महिलाओं के हार्मोन्स मासिक चक्र के दौरान उतार-चढ़ाव के शिकार रहते हैं।’
उनका कहना है कि हार्मोन्स में यह मासिक तौर पर होने वाला उतार-चढ़ाव उदासी, थकावट और शरीर में ऊर्जा की कमी का कारण बन सकता है।
वो कहती हैं, ‘और ऐसी स्थिति में महिलाएं सेक्स को लेकर ऊहापोह का शिकार हो जाती हैं और उनकी यौन इच्छा कम या अधिक हो सकती है।’
‘इसलिए अगर पति अपनी पत्नी के शरीर और रवैए में होने वाले इन बदलावों को सही समय पर समझ पाए तो वह अपनी जीवनसाथी के साथ बेहतर यौन संबंध बनाए रख सकता है। महिलाओं के शरीर में हार्मोन्स की अस्थिरता का मतलब यह है कि वह हमेशा यौन संबंध बनाने के लिए तैयार नहीं हो सकतीं।’
एविड डीहार कहती हैं ‘ऐसी स्थिति में महिलाओं को सेक्स के लिए मजबूर करना खतरनाक हो सकता है और इससे उनके जननांग के नुकसान पहुंचने का खतरा होता है। इसके साथ-साथ महिलाओं को गंभीर मानसिक आघात लग सकता है। और फिर इससे उबरने के लिए प्रभावित महिलाओं को वर्षों शारीरिक और मानसिक इलाज की ज़रूरत पड़ सकती है।’
बेटे और बहू के लिए अलग-अलग रवैया
शादी के बाद लडक़ी घर के काम ही करेगी, इस सोच का पता शादी के तोहफों से भी लगता है। जैसे इस फिल्म की किरदार ऋचा को भी अधिकतर किचन के इस्तेमाल की चीजें तोहफे में मिलती हैं।
ऋचा भी ससुर और पति की ख़ुशी के लिए अपने डांस के शौक़ को भुलाकर न केवल सास की अनुपस्थिति में घर के कामों में लगी रहती है बल्कि बेहतर से बेहतर खाना पकाने की कोशिश भी करती है।
लेकिन वक्त के साथ-साथ उन्हें लगता है कि वह कुछ भी करें, उनकी तारीफ नहीं हो रही। ऋचा की मां भी उन्हें हालात से ‘एडजस्ट’ करने को कहती हैं।
एक मौके पर ऋचा के ससुर उन्हें कपड़े तक हाथ से धोने को कहते हैं क्योंकि उनके अनुसार मशीन में धुलाई से पसीने के दाग नहीं छूटते।
फिल्म देखने वालों के लिए वह सीन भी हैरान करने वाला था जब पीरियड आने पर ऋचा को उनके पति किचन में जाने से रोक देते हैं।
लेकिन इसका फ़ायदा यह होता है कि पांच दिन के लिए ऋचा को जि़म्मेदारियों से आज़ादी और आराम करने का समय मिल जाता है।
दूसरी ओर छुआछूत पर विश्वास करने वाले उनके पति और ससुर के लिए यह समय मुश्किल हो जाता है।
भारत और नेपाल के कुछ इलाक़ों में अब भी पीरियड के दिनों में औरतों को न केवल किचन में नहीं जाने दिया जाता बल्कि कुछ इलाक़ों में तो उन्हें घर की चारदीवारी से भी बाहर निकाल दिया जाता है। (बाकी पेज 8 पर)
ऋचा कामकाज की मुश्किलें तो सह जाती हैं लेकिन उस वकत दुखी हो जाती हैं जब उन्हें उनके शौक ‘डांस’ से न केवल रोका जाता है बल्कि सोशल मीडिया से डांस के पुराने वीडियोज भी डिलीट करने को कहा जाता है।
एक वकत आता है जब ऋचा को एहसास होता है कि कुछ भी करने का कोई फायदा नहीं। और वह घर छोड़ कर चली जाती हैं। लेकिन उनके माता-पिता उन्हें वापस जाने को कहते हैं।
तब वह कहती हैं, ‘आप जैसे मां-बाप ने बेटों को बिगाड़ रखा है। बेटा नहीं हूं, मैं बेटी हूं। जो इज्जत बेटों को मिलती है, वह बेटियों को भी मिलनी चाहिए।’
फिल्म के आखिरी सीन में ऋचा और दिवाकर को अपने-अपने जीवन में आगे बढ़ते दिखाया गया है।
ऋचा अपने डांस का शौक़ पूरा करती नजर आती हैं और दिवाकर के घर में एक नई बहू उसी जुस्तजू और मेहनत में मगन नजऱ आती हैं जो कभी ऋचा के जीवन का हिस्सा रहा था।
‘भारत-पाक की महिलाओं की जिंदगी का आईना’
भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में इस फिल्म पर सोशल मीडिया यूजर्स के कमेंट्स सामने आ रहे हैं।
जहां एक तरफ फिल्म की मुख्य भूमिका में नजर आने वाले मर्द अदाकारों की तस्वीरों के साथ यह कहा जा रहा है कि ‘इस वक्त सबसे ज़्यादा नफरत बटोरने वाले मर्द हैं’ तो दूसरी और महिलाओं की समस्याओं को इतने अच्छे ढंग से सामने लाने पर फिल्म की तारीफ भी हो रही है।
एक सोशल मीडिया यूजर मेहनाज अख्तर ने कमेंट किया, ‘अगर आप एक घरेलू महिला हैं तो इसमें आपके लिए कुछ नया नहीं है। जो 24म7 जीवन में चल रहा हो वही स्क्रीन पर क्या देखना, क्यों देखना? हां, मर्दों को मशवरा है कि वह यह फिल्म जरूर देखें। ऐसी फिल्में मर्दों के लिए ही खासतौर पर बनाई जाती हैं।’
इकरा बिन्त सादिक नाम की सोशल मीडिया यूजर ने कहा, ‘झगड़ा बर्तन धोने, चटनी पीसने या घर की सफाई खुद करने का नहीं है! कभी भी नहीं था! झगड़ा बस यह है कि अगर आपने किसी के लिए अपने घर या अपनी जिंदगी में यह किरदार तय किया है’ तो कम से कम इसको निभाने के लिए उसे इज्जत भी दें।’
मोमिना अनवर ने टिप्पणी करते हुए लिखा, ‘मिसेज़ केवल एक फिल्म नहीं, हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी औरतों की जिंदगी का आईना है। यह एक ऐसी फिल्म है जो हर औरत और मर्द को देखनी चाहिए। यह न केवल हमारे समाज की तल्ख हकीकतों को बेनक़ाब करती है बल्कि हमें सोचने पर मजबूर करती है कि रिश्तों में इज़्ज़त, बराबरी और इंसानियत का होना कितना ज़रूरी है।’
प्रसाद कदम नाम के एक यूजऱ का कहना था, ‘मुझे याद है, मैंने एक बार बिरयानी बनाई थी। मेरे मां-बाप ने मेरी तारीफ की थी लेकिन मेरी बहन ग़ुस्से में थी। उसने बहुत मेहनत की थी जबकि मैंने केवल बिरयानी में लगने वाले सामान को मिलाया था। मैंने बावर्चीखाने में गंदगी फैला दी, मुझे यह भी याद नहीं है कि उसे किसने साफ किया था। यह पितृसत्तात्मक सोच भारतीय घरानों की सच्चाई है। भारतीय मर्दों की परवरिश में कुछ ठीक नहीं है।’
एक और पुरुष यूजर ने हल्के-फुल्के मूड में एक वीडियो पोस्ट किया जिसमें वह कह रहे हैं, ‘मेरी बीवी ने अभी ‘मिसेज’ मूवी देखी है और वह मुंह फुलाकर बैठ गई है। मैं खाना बनाता हूं, अभी आलू के पराठे बना रहा हूं। फिल्म बनाने वाले यह डिस्क्लेमर दिया करें कि यह सबके लिए नहीं है। हर औरत एक जैसी नहीं होती और सभी मर्द एक जैसे नहीं होते।’ ((bbc.com/hindi)
-चंदन कुमार जजवाड़े
चुनावों में बीजेपी को फायदा पहुंचाने के राहुल गांधी और मायावती के आरोप-प्रत्यारोप में अब कई पार्टियों के नेता भी शामिल हो गए हैं।
राहुल गांधी के आरोपों के बाद उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बीएसपी प्रमुख मायावती ने कांग्रेस को बीजेपी की ‘बी’ टीम बताया है और कांग्रेस सांसद राहुल गांधी पर एक के बाद एक कई आरोप लगाए हैं।
दरअसल, राहुल गांधी ने मायावती पर बीजेपी को फायदा पहुंचाने का आरोप लगाते हुए कहा था कि अगर बीएसपी ‘इंडिया’ गठबंधन में होती तो पिछले साल के चुनावों में एनडीए की जीत नहीं होती।
इसके जवाब में मायावती ने कहा, ‘कांग्रेस ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में इस बार बीजेपी की ‘बी’ टीम बनकर चुनाव लड़ा। यह आम चर्चा है, जिसके कारण यहाँ (दिल्ली में ) बीजेपी सत्ता में आ गई है। वरना इस चुनाव में कांग्रेस का इतना बुरा हाल नहीं होता कि यह पार्टी अपने ज्यादातर उम्मीदवारों की जमानत भी न बचा पाए।’
राहुल गांधी ने क्या कहा जिस पर भडक़ीं मायावती
यहां ये जानने की कोशिश करते हैं कि नेताओं के बीच चल रही इस जुबानी जंग के पीछे केवल राहुल गांधी का आरोप है या उत्तर प्रदेश का दलित वोट बैंक।
मायावती ने राहुल गांधी को सलाह देते हुए कहा है कि राहुल गांधी को दूसरों पर उंगली उठाने से पहले अपने गिरेबान में जरूर झांककर देखना चाहिए।
दरअसल उत्तर प्रदेश के रायबरेली से कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी ने बुधवार को रायबरेली में हुई एक सभा में कहा था, ‘हम चाहते थे कि बहनजी बीजेपी के विरोध में हमारे साथ मिलकर लड़ें, मगर मायावती जी किसी न किसी कारण नहीं लड़ी। हमें तो काफी दुख हुआ था, अगर तीनों पार्टियां एक हो जाती, तो बीजेपी कभी नहीं जीतती।’
हालांकि मायावती इस साल हुए जिस दिल्ली विधानसभा चुनाव की बात कर रही हैं, उसमें कांग्रेस से पहले आम आदमी पार्टी ने ही अकेले चुनाव लडऩे की घोषणा की थी।
जबकि आम आदमी पार्टी भी पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव चुनावों को देखते हुए विपक्ष के इंडिया गठबंधन का हिस्सा बनी थी।
इस दौरान कांग्रेस के नेता अलग-अलग मुद्दों पर अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के साथ नजऱ आ रही थे। आप नेता कांग्रेस के साथ केंद्र सरकार के विरोध में दिखे थे।
लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और आप के बीच दिल्ली की सात लोकसभा सीटों के लिए गठबंधन भी हुआ था, हालांकि इसके बावजूद भी दिल्ली की सभी सीटों पर बीजेपी की जीत हुई थी।
दूसरी तरफ इंडिया गठबंधन के एक अन्य दल शिव सेना (उद्धव ठाकरे गुट) के नेता संजय राउत ने समाचार एजेंसी पीटीआई से बातचीत में राहुल गांधी के दावे का समर्थन किया है।
उन्होंने कहा, ‘हमने कांग्रेस और एसपी के गठबंधन का जादू लोकसभा चुनाव में देखा था। जिन सीटों पर उनकी जीत नहीं हो पाई थी उसके पीछे मायावती की बीएसपी वजह थी।’
क्या कहते हैं आंकड़े
सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के नेता ओम प्रकाश राजभर ने बीएसपी प्रमुख मायावती के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कांग्रेस और समाजवादी पार्टी दोनों पर निशाना साधा है और कहा है, ‘कांग्रेस और सपा दोनों बीजेपी की ‘बी’ टीम है। समय-समय पर दोनों बीजेपी की मदद करती हैं।’
अगर राहुल गांधी के आरोपों पर बात करें तो पिछले साल हुए लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में सबसे ज़्यादा 37 सीटें समाजवादी पार्टी को मिली थीं। समाजवादी पार्टी ने 33 फीसदी से ज़्यादा वोट भी हासिल किए थे।
इसके अलावा कांग्रेस को 6 सीटों पर जीत मिली थी और उसे करीब 10 फीसदी वोट भी मिले थे।
जबकि बीजेपी को उन चुनावों में सबसे ज़्यादा कऱीब 42 फीसदी वोट मिले थे और उसने राज्य की 33 लोकसभा सीटों पर कब्जा किया था।
ऐसे में अगर बीएसपी को मिले करीब 10 फीसदी वोटों की बात करें और वो ‘इंडिया गठबंधन’ का हिस्सा होतीं तो सामान्य गणित के हिसाब से विपक्ष के इस गठबंधन के पास पचास फीसदी से ज़्यादा वोट होते।
सीटों के लिहाज से बात करें तो साल 2024 के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की करीब 17 सीटों पर बीएसपी के उम्मीदवारों ने हार के बाद भी इतने वोट ज़रूर हासिल किए, जो इंडिया ब्लॉक के उम्मीदवारों के मिल जाते तो इन सीटों के नतीजे बिल्कुल अलग होते। इन सीटों में से ज़्यादातर बीजेपी के खाते में गईं जबकि कुछ सीटों पर एनडीए के अन्य घटक दलों की जीत हुई।
इनमें बिजनौर, अमरोहा, मेरठ, अलीगढ़, फतेहपुर, शाहजहांपुर, हरदोई, मिसरीख, उन्नाव, फर्रुखाबाद, अकबरपुर, फुलपुर, डुमरियागंज, दवरिया, बांसगांव, भदोही और मिर्जापुर लोकसभा सीट शामिल हैं।
लेकिन क्या चुनावी राजनीति में दो और दो चार का यह गणित लागू होता है? क्या मायावती के इंडिया गठबंधन में होने से इन सीटों के अलावा भी अन्य सीटों पर कुछ असर हो सकता था?
राहुल गांधी के दावे में कितना दम
चुनाव समीक्षक और सीएसडीए के प्रोफेसर संजय कुमार कहते हैं, ‘मायावती विपक्ष के गठबंधन में होतीं तो फायदा ही होता नुकसान तो नहीं हो होता और हो सकता है कि इससे बीजेपी यूपी में 10-12 सीटें और हार जाती। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या इससे बीजेपी को केंद्र में सरकार बनाने से रोका जा सकता था।’
राहुल गांधी के दावों के बाद बीजेपी नेता और यूपी के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने भी इस मुद्दे पर प्रतिक्रिया दी है।
उनका कहना है, ‘हमारी नजऱ में एसपी, कांग्रेस और बीएसपी सभी एक जैसे हैं। बीजेपी जीतेगी और इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता है कि वो साथ मिलकर चुनाव लड़ें या अलग-अलग।’
संजय कुमार का मानना है कि लोकसभा चुनाव हो चुके हैं और अब उसपर कोई फर्क़ नहीं पडऩे वाला है।
उनके मुताबिक राहुल गांधी इसकी शिकायत कम कर रहे हैं और यूपी के करीब 18 फीसदी दलित वोटरों को आगे के लिए संदेश दे रहे हैं कि मायावती सकारात्मक राजनीति नहीं करती हैं।
दरअसल पिछले कुछ चुनावों में और खासकर बीते दस साल में बहुजन समाज पार्टी का चुनावी प्रदर्शन लगातार काफी कमजोर दिख रहा है और उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर दलितों के नेता के तौर पर उभरने की कोशिश कर रहे हैं।
इसके अलावा दलित वोटों पर बीजेपी, कांग्रेस, एसपी और अन्य दलों की भी नजऱ रहती है।
संजय कुमार कहते हैं, ‘राहुल गांधी ने एक तीर से दो निशाने लगाने की कोशिश की है। पिछले कुछ साल के चुनावों पर नजर डालें, चाहे वो लोकसभा के चुनाव हों या राज्यों के विधानसभा के बीएसपी लगातार ढलान पर है और उसकी वापसी की कोई उम्मीद या संभावना भी नहीं दिखती है क्योंकि उसके नेता जमीन पर सक्रिय नजर नहीं आते हैं।’
उत्तर प्रदेश की राजनीति पर नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार बृजेश शुक्ला भी इस बात से सहमत दिखते हैं कि यह लड़ाई उत्तर प्रदेश के दलित वोटों की है, हालांकि उनका मानना है कि मायावती के साथ उनके जातीय वोट अभी भी बने हुए हैं।
हालांकि वो ताजा विवाद को एक अलग नज़रिए से देखते हैं।
बृजेश शुक्ला कहते हैं, ‘राहुल गांधी की नजऱ दलित वोटों पर है। वो संविधान की कॉपी लेकर घूमते हैं। लेकिन पता नहीं उन्हें किसने कह दिया है कि मायावती को लेकर नरम रहें। जबकि बीएसी के संस्थापक कांशीराम ने पहला हमला कांग्रेस पर ही किया था।’
‘अभी भी आप यूपी के गांवों में जाएंगे और दलितों से पूछेंगे तो पता चलेगा कि बीएसपी और मायावती ने गांव-गांव में अभियान चलाया था कि कांग्रेस ने बाबा साहब आंबेडकर का अपमान किया था। राहुल गांधी अभी भी इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं और मायावती को लेकर नरम दिखते हैं।’
कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में कमजोर हालत
कांग्रेस पार्टी लोकसभा सीटों के लिहाज के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में लगातार कमजोर होती चली गई है।
भले ही पिछले साल के लोकसभा चुनावों में उसे राज्य में छह सीटों पर जीत मिली है, लेकिन अपने दम पर उसके वोट प्रतिशत में बहुत सुधार नहीं माना जाता है।
इसकी एक तस्वीर साल 2022 में हुए राज्य विधानसभा चुनावों के नतीजों में भी दिखती है। उन चुनावों में कांग्रेस ने 399 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए और केवल दो की जीत हो सकी।
कांग्रेस पार्टी की हालत का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उसे पिछले विधानसभा चुनाव में दो फ़ीसदी से थोड़ा ही ज़्यादा वोट मिल सका और उसके 387 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई।
वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्ता कहते हैं, ‘कांग्रेस के पास उत्तर प्रदेश में 35 फ़ीसदी से ज्यादा वोट था और राज्य के दलित वोट कांग्रेस के खाते में जाते थे। लेकिन साल 1989 में केंद्र में चंद्रशेखर और यूपी में समाजवादी पार्टी को समर्थन देने से उसे भी समाजवादी पार्टी की ‘बी’ टीम माना जाने लगा और इसका बड़ा नुकसान कांग्रेस पार्टी को हुआ है।’
शरद गुप्ता मानते हैं, ‘ये पूरी लड़ाई दलित वोटों को लेकर है। राहुल गांधी दलितों को ये बताना चाहते हैं कि मायावती को उनकी परवाह नहीं है और वो ब्राह्मण, बनियों की पार्टी बीजेपी के साथ खड़ी हो जाती हैं। इससे दलित वोट वापस कांग्रेस के पास लौटने की उम्मीद है।’
शरद गुप्ता मानते हैं कि मायावती ने अपना भरोसा लगातार खोया है और जिन मुद्दों पर बीजेपी का विरोध करना चाहिए, उसपर भी समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के खिलाफ नजर आती हैं, उनका रुख स्पष्ट नहीं होता है, जिससे वो अपना वोट बैंक भी खो रही है। ((bbc.com/hindi)
-चंदन कुमार
परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष होमी सेठना ने 1972 में अपने विभाग में उप सचिव पद पर काम कर रहे टीएन शेषन की गोपनीय रिपोर्ट खराब कर दी थी।
इसके जवाब में शेषन ने अपना बचाव करते हुए कैबिनेट सचिव टी स्वामीनाथन को 10 पन्नों का पत्र लिखकर अनुरोध किया था कि उनके खिलाफ की गई टिप्पणी को उनकी गोपनीय रिपोर्ट से हटा दिया जाए।
तीन महीने बाद उनके पास प्रधानमंत्री कार्यालय से फ़ोन आया कि प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी उनसे मिलना चाहती हैं। जब शेषन उनके साउथ ब्लॉक के दफ़्तर में घुसे तो वो फ़ाइल पर कुछ लिख रही थीं।
अपनी आत्मकथा ‘थ्रू द ब्रोकेन ग्लास’ में टीएन शेषन लिखते हैं, ‘इंदिरा गाँधी ने फाइल से सिर उठा कर मुझसे पूछा तो आप शेषन हैं? आप इस तरह का दुव्र्यवहार क्यों कर रहे हैं? सेठना आपसे नाराज़ क्यों हैं? मैंने विनम्रतापूर्वक जवाब दिया मैडम मैंने ये बात आज तक किसी को नहीं बताई है। विक्रम साराभाई और होमी सेठना में गंभीर मतभेद हैं। मैं विक्रम के साथ काम कर रहा था इसलिए सेठना मेरे ख़िलाफ़ हो गए हैं। ’
इंदिरा ने पूछा, क्या आप आक्रामक हैं? मैंने जवाब दिया अगर मुझे कोई काम दिया जाता है तो मैं आक्रामक होकर उसे पूरा करता हूँ। इंदिरा गांधी का अगला सवाल था आप लोगों से रूखा व्यवहार क्यों करते हैं? मैंने कहा कि अगर कोई काम निश्चित समय के अंदर नहीं होता तो मेरा व्यवहार खराब हो जाता है।’ ‘इंदिरा ने फिर पूछा क्या आप लोगों को धमकाते हैं?
मैंने कहा मैं इस तरह का शख्स नहीं हूँ। इंदिरा गांधी ने अपने असिस्टेंट से कहा, ‘उन्हें बुलाइए’। तभी होमी सेठना इंदिरा गाँधी के दफ्तर में दाखिल हुए। इंदिरा ने मेरे सामने ही उनसे पूछा- आपने इस युवा शख़्स की गोपनीय रिपोर्ट में ये सब क्यों लिखा है?’
फिर उन्होंने मेरी तरफ इस तरह देखा मानो कह रही हों, अब तुम यहाँ क्या कर रहे हो? मुझे लगा कि इंदिरा गाँधी भी मुझसे नाराज हैं। लेकिन 10 दिन बाद मुझे सरकार का पत्र मिला कि मेरे खिलाफ़ सभी प्रतिकूल प्रविष्टियाँ मेरी गोपनीय रिपोर्ट से हटा दी गई हैं।’
-रजनीश कुमार
रूस ने यूक्रेन पर 24 फऱवरी 2022 को जब हमला किया था तो भारत पर चौतरफ़ा दबाव था कि रूस के ख़िलाफ़ खुलकर सामने आए।
तब अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा था कि यूक्रेन पर रूस की आक्रामकता के मामले में भारत का बहुत ही ढुलमुल व्यवहार है।
बाइडन ने मार्च 2022 में कहा था, ‘क्वॉड में भारत को छोड़ दें तो जापान और ऑस्ट्रेलिया रूस को लेकर बहुत सख्त हैं। भारत का रवैया थोड़ा ढुलमुल है। हम नेटो और पैसिफिक में पुतिन के खिलाफ पूरी तरह से एकजुट हैं।’
क्वॉड गुट में अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत हैं। बाइडन चाहते थे कि रूस के मामले में क्वॉड भी एकजुट रहे लेकिन भारत ने रूस के खिलाफ पश्चिम की लाइन लेने से इनकार कर दिया था।
पश्चिमी देशों की प्रेस में यूक्रेन पर रूस के हमले में भारत के रुख की तीखी आलोचना हो रही थी।
भारत ने पश्चिम के दबाव में झुकने की बजाय रूस से सस्ता तेल खऱीदना शुरू कर दिया था और दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार रिकॉर्ड 60 अरब डॉलर से ऊपर चला गया था।
बाइडन ने कहा था कि रूस से तेल खरीदना भारत के हित में नहीं है। अमेरिका के तत्कालीन डेप्युटी एनएसए दलीप सिंह अप्रैल 2022 में नई दिल्ली आए थे और उन्होंने कहा था कि अगर चीन फिर से एलएसी का उल्लंघन करता है तो रूस भारत के बचाव में नहीं आएगा।
पिछले साल आठ जुलाई को प्रधानमंत्री मोदी रूस के दो दिवसीय दौरे पर गए थे। इस दौरे को लेकर पूछे गए सवाल पर 12 जुलाई को अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलिवन ने कहा था कि रूस पर लंबी अवधि के लिए एक विश्वसनीय पाार्टनर के रूप में दांव लगाना भारत के लिए सही नहीं है।
भारत का झुकने से इनकार
जैक सुलिवन ने कहा था, ‘रूस चीन के करीब आ रहा है। यहाँ तक कि रूस चीन का जूनियर पार्टनर बन गया है। ऐसे में रूस भारत नहीं चीन का पक्ष लेगा। जाहिर है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन की आक्रामकता को लेकर चिंतित हैं। हाल के वर्षों में हमने चीनी आक्रामकता देखी भी है।’
पश्चिम के प्रेस में कहा जा रहा था कि भारत पुतिन को यूक्रेन के खिलाफ जंग में मदद कर रहा है। बाइडन प्रशासन भारत के रूस के साथ होने को लेकर काफी परेशान था। पिछले साल 11 जुलाई को भारत में अमेरिका के राजदूत एरिक गार्सेटी ने कहा था कि युद्ध के समय रणनीतिक स्वायत्तता जैसी कोई चीज नहीं होती है।
एरिक गार्सेटी ने नई दिल्ली में आयोजित इंडिया-यूएस एंड सिक्यॉरिटी पार्टनर्शिप कॉन्क्लेव में कहा था, ‘भारत रणनीतिक स्वायत्तता की बात करता है और मैं इसका आदर करता हूँ। लेकिन युद्ध के समय रणनीतिक स्वायत्तता जैसी कोई चीज नहीं होती है। संकट की घड़ी में हमें साथ रहने की जरूरत है। ज़रूरत के वक्त हमें विश्वसनीय साझेदार के रूप साथ रहना चाहिए।’
अंग्रेजी अखबार द हिन्दू के अंतरराष्ट्रीय संपादक स्टैनली जॉनी ने लिखा है, ‘आप कल्पना कीजिए कि भारत बाइडन और उनके यूरोपियन साझेदारों के दबाव में रूस के खिलाफ पश्चिम के प्रतिबंध में शामिल होकर संबंध सीमित कर लेता को आज किस लायक़ होता?’
ये बात अब इसलिए कही जा रही है कि ट्रंप ने ख़ुद ही पुतिन के प्रति नरमी दिखानी शुरू कर दी है और यूक्रेन समेत यूरोप को अलग-थलग कर दिया है। वहीं रूस तो भारत का ऐतिहासिक पार्टनर रहा है।
इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में अंतरराष्ट्रीय संबंध और अमेरिकी विदेश नीति के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ मनन द्विवेदी कहते हैं कि भारत ने यूक्रेन-रूस जंग में जो नीति अपनाई थी वो बिल्कुल सही लाइन थी।
भारत की दूरदर्शिता
डॉ. मनन द्विवेदी कहते हैं, ‘भारत जब रणनीतिक स्वायत्तता की बात करता था तो पश्चिम के लोग इसे गंभीरता से नहीं लेते थे। लेकिन ट्रंप ने आने के बाद जिस तरह की नीति अपनाई है, उससे यूरोप को भी अब अहसास हो गया है कि अमेरिका की हर बात सुनना या उस पर निर्भर होना ठीक नहीं है।’
‘ट्रंप ने यूक्रेन-रूस जंग में यूरोप को पूरी तरह से अलग-थलग कर दिया है। यूरोप अभी इस हालत में नहीं है कि बिना अमेरिकी मदद के यूक्रेन के लिए रूस लड़े। भारत रूस को किसी भी सूरत में अमेरिका के दबाव में नहीं छोड़ सकता था। अगर भारत झुक जाता तो आज जो ट्रंप कर रहे हैं, उसमें दोनों तरफ से जाता।’
डॉ. मनन द्विवेदी कहते हैं, ‘मोदी जब पिछले साल जुलाई में रूस गए थे और पुतिन को गले लगाया था तो यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने मखौल उड़ाया था। अब अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप जेलेंस्की का मखौल उड़ा रहे हैं। मोदी पिछले साल अगस्त में यूक्रेन भी गए थे और उनके वापस आने के बाद जेलेंस्की तंज कस रहे थे। अब जेलेंस्की को भी अहसास हो गया होगा कि जंग किसी के भरोसे नहीं लड़ी जाती है। भारत ने अपनी विदेश नीति बिल्कुल अपने हितों के हिसाब से रखी थी न कि किसी के दबाव में आकर।’
डॉक्टर मनन द्विवेदी मानते हैं कि यूक्रेन के मामले में ट्रंप पुतिन को लेकर जैसी नरमी दिखा रहे हैं, उससे अमेरिका की विश्वसनीयता और कमज़ोर हुई है।
अब स्थिति ऐसी हो गई है कि ट्रंप और जेलेंस्की एक दूसरे पर निशाना साध रहे हैं।
ट्रंप जंग ख़त्म कराने के लिए वार्ता कर रहे हैं लेकिन केवल पुतिन से। इस बातचीत में ट्रंप ने यूक्रेन और यूरोप को शाामिल नहीं किया है। अमेरिका पहले ही इस बात के लिए तैयार हो गया है कि यूक्रेन की सीमा 2014 से पहले की नहीं होगी यानी क्राइमिया रूस के पास ही रहेगा।
पुतिन की जीत और यूक्रेन की हार?
रूस ने 2014 में क्राइमिया पर क़ब्ज़ा कर लिया था। अमेरिका ने यह भी कहा है कि यूक्रेन नेटो का सदस्य नहीं बनेगा। जाहिर है कि पुतिन भी यही चाहते थे। यूक्रेन के अभी 20 फीसदी भूभाग पर रूस का नियंत्रण है और पुतिन ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि यूक्रेन से जंग समाप्त करने के लिए इस नियंत्रण को ख़त्म कर देंगे।
ट्रंप के रुख को लेकर यूरोप में भी भारी बेचैनी है। जिस नेटो की सदस्यता के लिए जेलेंस्की इतने परेशान थे और अब वही नेटो अप्रासंगिक होता दिख रहा है। नेटो एक सुरक्षा गारंटी देने वाला गुट है लेकिन ये आपस में ही तमाम मतभेदों से जूझ रहे हैं। ट्रंप की शिकायत है कि नेटो का ज़्यादातर वित्तीय बोझ अमेरिका पर आता है और वह ज्यादा दिनों तक इसे वहन नहीं करेगा।
ट्रंप के रुख को लेकर यूरोप के नेताओं की बेचैनी और दुविधा साफ दिख रही है।
ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने ट्रंप के रुख़ पर लिखा है, ‘हम यूरोप के लोग कब डोनाल्ड ट्रंप से नाराज़ होना बंद कर उन्हें जंग खत्म करने में मदद करना शुरू करेंगे? जाहिर है कि यूक्रेन ने जंग की शुरुआत नहीं की थी। आप यह भी कह सकते हैं कि अमेरिका ने जापान के पर्ल हार्बर पर हमला किया था। ये सच है कि यूक्रेन हिंसक हमले का सामना कर रहा है, ऐसे में चुनाव नहीं करा सकता है।’
जॉनसन ने लिखा है, ‘ब्रिटेन में भी 1935 से 1945 के बीच चुनाव नहीं हुआ था। यह बात भी सच है कि जेलेंस्की की रेटिंग्स चार प्रतिशत नहीं है। ट्रंप का बयान ऐतिहासिक रूप से सही नहीं है लेकिन यूरोप का रुख़ भी ठीक नहीं है। ख़ासकर अमेरिका बेल्जियम में 300 अरब डॉलर की रूसी संपत्ति फ्रीज़ किए जाने को देख सकता है। इस रक़म का इस्तेमाल यूक्रेन को भुगतान करने और अमेरिका की मदद में हो सकता है। पुतिन की इस नकदी को यूरोप ने फ्रीज करके क्यों रखा है? अमेरिका का मानना है कि बेल्जियम, फ्रांस और अन्य देशों ने इसे फ्रीज करके रखा है। यह बहुत ही खराब है। हमें इसे गंभीरता से लेना होगा और तत्काल।’
भारत की समझदारी?
सऊदी अरब में भारत के राजदूत रहे तलमीज अहमद कहते हैं कि भारत किसी भी सूरत में रूस को नहीं छोड़ सकता था। बाइडन को अंदाज़ा होना चाहिए था कि अमेरिका की विश्वसनीयता ट्रंप के पहले भी बहुत संदिग्ध रही है।
तलमीज अहमद कहते हैं, ‘भारत ने अतीत में अमेरिका को खूब अनुभव किया है। अफग़़ानिस्तान को अमेरिका ने युद्धग्रस्त इलाका बनाकर छोड़ दिया। इराक में क्या किया सबको पता है। सीरिया में कुर्दों के साथ क्या किया, पूरी दुनिया ने देखा। भारत ने ख़ुद भी पाकिस्तान के साथ जंग में अमेरिका का रुख़ देखा है। ऐसे में पश्चिम के देश कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि भारत रूस को छोड़ अमेरिका पर भरोसा करने लगे? भारत ने ईरान के मामले में ट्रंप की बात इसलिए मान ली थी कि बड़े पैमाने पर हित प्रभावित नहीं हो रहे थे। तेल खरीदने की ही बात थी और तेल बेचने वाले देशों की कमी नहीं है।’
भारत और रूस के संबंध ऐतिहासिक रहे हैं। जब भारत में ब्रिटिश हुकूमत थी तब ही सोवियत यूनियन ने 1900 में पहला वाणिज्यिक दूतावास खोला था। लेकिन दोनों देशों के बीच संबंधों में गर्माहट शीत युद्ध के दौरान आई।
आजादी के बाद से ही भारत की सहानुभूति सोवियत यूनियन से रही है। ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन की पॉलिटिकल साइंटिस्ट पिल्लई राजेश्ववरी ने लिखा है कि भारत की सोवियत यूनियन से सहानुभूति उपनिवेश और साम्राज्यवाद विरोधी भावना के कारण भी है।
यह भावना शीत युद्ध के दौरान शीर्ष पर रही। कहा जाता है कि यह भावना कई बार पश्चिम और अमेरिका विरोधी भी हो जाती है। शीत युद्ध के बाद भी भारत की सहानुभूति रूस से ख़त्म नहीं हुई। यूक्रेन युद्ध में भी भारत के रुख में कोई परिवर्तन नहीं आया।
यूक्रेन संकट में भारत के रुख़ से पश्चिम को भले निराशा हुई लेकिन भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ज़ोरदार और आक्रामक तरीके से अपनी नीति का बचाव करते रहे।
भारत का तर्क
जयशंकर भारत के रुख़ पर यूरोप की निराशा और सवालों का जवाब बहुत ही आक्रामक तरीके से दे रहे थए। 2022 के जून महीने के पहले हफ्ते में भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने स्लोवाकिया की राजधानी ब्रातिस्लावा में एक कॉन्फ्ऱेंस में कहा था, ‘यूरोप इस मानसिकता के साथ बड़ा हुआ है कि उसकी समस्या पूरी दुनिया की समस्या है, लेकिन दुनिया की समस्या यूरोप की समस्या नहीं है’
जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल के प्रोफेसर प्रभाष रंजन ने जयशंकर की इस टिप्पणी को तीन नवंबर, 1948 में संयुक्त राष्ट्र आम सभा में नेहरू के भाषण से जोड़ा था।
नेहरू ने कहा था, ''यूरोप की समस्याओं के समाधान में मैं भी समान रूप से दिलचस्पी रखता हूँ। लेकिन मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि दुनिया यूरोप के आगे भी है। आप इस सोच के साथ अपनी समस्या नहीं सुलझा सकते हैं कि यूरोप की समस्या ही मुख्य रूप से दुनिया की समस्या है।’
समस्याओं पर बात संपूर्णता में होनी चाहिए। अगर आप दुनिया की किसी एक भी समस्या की उपेक्षा करते हैं तो आप समस्या को ठीक से नहीं समझते हैं। मैं एशिया के एक प्रतिनिधि के तौर पर बोल रहा हूँ और एशिया भी इसी दुनिया का हिस्सा है।’
जयशंकर की इस टिप्पणी का हवाला देते हुए जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स ने फऱवरी 2023 में म्यूनिख सिक्यॉरिटी कॉन्फ्रेंस में कहा था, ‘भारतीय विदेश मंत्री की टिप्पणी में दम है। लेकिन अगर अंतरराष्टीय संबंधों में नियमों का पालन सख़्ती से किया जाए तो यह केवल यूरोप की समस्या नहीं रहेगी।’
लेकिन दिलचस्प यह है कि अब तक यूरोप यूक्रेन-रूस जंग में भारत को नसीहत दे रहा था और अब ख़ुद ही आत्ममंथन के लिए मजबूर है। ((bbc.com/hindi)
मुख्यमंत्री के जन्मदिन पर विशेष
-हर्षलता लोन्हारे
छत्तीसगढ़ के खूबसूरत वादियों में स्थित जशपुर जिला के ग्राम बगिया में जन्म लेने वाले मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय सज्जनता और सहृदयता के एक प्रतीक हैं। मात्र 14 माह के अपने मुख्यमंत्रित्व काल में छत्तीसगढ़ में विकास का एक नया आयाम गढ़ने वाले तथा राज्य के नागरिकों के दिलों में राज करने वाले साय आज अपनी लोकप्रियता के शिखर पर हैं। विष्णुदेव साय जनता के बीच के एक ऐसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री हैं जिनकी सदाशयता और दूरगामी योजनाओं से प्रदेश में विकास और प्रगति का रास्ता आसान हुआ है। मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय आदिवासी पृष्ठभूमि से आते हैं, इस समाज से आने वाले वे प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री हैं।
साय सरकार ने एक साल के भीतर छत्तीसगढ़ के किसान भाइयों के खाते में 52 हजार करोड़ रुपए भेजकर उन्हें उत्साह से भर दिया है। धान खरीदी समाप्त होने के एक सप्ताह के भीतर किसानों को भुगतान कर दिया गया है। 52 हजार करोड़ रुपए किसानों के खाते में आने से वे खेती-किसानी में भरपूर निवेश कर रहे हैं, और इससे बाजार भी गुलजार हुए हैं जिसका शहरी अर्थव्यवस्था पर सीधा असर दिख रहा है। ट्रैक्टर आदि की बिक्री ने रिकॉर्ड आंकड़ा छू लिया है। धान का उचित मूल्य मिलने से किसानों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई और इस साल 25 लाख 72 हजार किसानों ने 149 लाख 25 हजार मीट्रिक टन रिकॉर्ड धान बेचा।
उन्होंने एक साल के संक्षिप्त कार्यकाल में छत्तीसगढ़ को पूरे देश में एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया है। बहुत कम समय में मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने प्रदेश की जनता के बीच जाकर न केवल विश्वास जीता है, बल्कि उनके हित को ध्यान में रखकर उन्होंने ऐसी योजनाओं का क्रियान्वयन किया है जिससे छत्तीसगढ़ का समग्र विकास सम्भव हो पाया है।
मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने शपथ लेते ही प्रदेश की समस्त महिलाओं को महतारी वंदन योजना जैसी एक लाभकारी योजना की सौगात दी है। महतारी वंदन योजना से प्रदेश की महिलाओं को हर माह एक हजार रुपए की राशि दी जाती है जिससे वे स्वावलंबी बन सकें एवं स्वयं का रोजगार भी प्रारंभ कर सकें। साथ ही प्रदेश भर के किसानों को 2 साल का बकाया बोनस और 31 सौ रुपए प्रति क्विंटल की दर से धान खरीदी जैसे वादों को पूरा कर छत्तीसगढ़ के किसानों का मान बढ़ाया है।
इस खरीफ सीजन में उपज का वाजिब दाम 31 सौ रूपए प्रति क्विंटल की दर से धान ख़रीदा गया। सरकार ने किसानों से 21 क्विंटल प्रति एकड़ धान खरीदी की है। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ के 25 लाख 72 हजार किसानों ने 149 लाख 25 हजार मेट्रिक टन धान लिया है। यह अब तक की धान खरीदी का सबसे बड़ा रिकॉर्ड है। साय सरकार के माध्यम से किसानों के खाते में 52 हजार करोड़ रूपए ट्रांसफर हुए हैं।
हाल ही में नगर पालिका चुनाव में ऐतिहासिक जनादेश प्राप्त हुआ। प्रदेश में अब ट्रिपल इंजन की सरकार से नगरों का सर्वांगीण विकास होगा।
मुख्यमंत्री श्री साय ने अभी कहा है कि प्रदेश में बीते 13 महीनों में 305 नक्सली मारे जा चुके हैं, 1177 नक्सलियों को गिरफ्तार किया गया है और 985 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है।
मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने प्रदेश के हर वर्ग के लोगों को साथ लेकर चलने का बीड़ा उठाया है। उन्होंने प्रदेश के हर वर्ग की बुनियादी सुविधाओं और जरूरतों को ध्यान में रखते हुए पीएम आवास योजना, कृषक उन्नति योजना, नियद नेल्ला नार, अखरा निर्माण योजना जैसी योजनाओं का शुभारम्भ किया है।
छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय के नेतृत्व में यह पहली बार हुआ है कि स्कूलों में एक विशेष अवसर पर न्यौता भोजन का भी आयोजन किया जाता है। न्यौता भोजन सामुदायिक भागीदारी पर आधारित एक ऐसा उपक्रम है जिसके माध्यम से स्कूल के बच्चों को समाज से जोड़ा जा सके एवं उनके भीतर समानता की भावना विकसित किया जा सके।
मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय जनता के बीच और हर समुदाय के बीच एक ऐसा पुल बनाना जानते हैं जिससे सभी एक दूसरे से जुड़ सकें और सभी प्रदेश के हित में अपनी-अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह भी कर सकें।
अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने संघीय कर्मचारियों की संख्या में भारी कटौती करने की योजना बनाई है। अमेरिका की कई संघीय एजेंसियों में कर्मचारियों को सामूहिक रूप से बर्खास्त करने की शुरुआत भी हो चुकी है। हालांकि, अमेरिका में कर्मचारियों को भर्ती करने और निकालने से जुड़े नियम-कानून जटिल हैं। ऐसे में ट्रंप की योजना को मुकदमों और देरी का सामना करना पड़ सकता है।
अमेरिका में सरकार के लिए काम करने वाले सिविल कर्मचारियों की संख्या करीब 23 लाख है। ट्रंप ने 11 फरवरी को एक कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसमें एजेंसियों को कर्मचारियों की संख्या में बड़े स्तर पर कमी लाने और पदों को समाप्त करने के तरीके ढूंढऩे के निर्देश दिए गए हैं। इसमें यह भी कहा गया है कि एजेंसियां निकाले गए हर चार लोगों के बदले में सिर्फ एक व्यक्ति को भर्ती कर सकती हैं।
ट्रंप के पास नौकरी छीनने का कितना अधिकार
राष्ट्रपति होने के नाते, ट्रंप के पास संघीय कार्यबल में कमी लाने के व्यापक अधिकार हैं। लेकिन कर्मचारियों को नौकरी से निकालना इतना आसान भी नहीं है। कानूनी रूप से सिविल सेवा के ज्यादातर कर्मचारियों को उनके बुरे प्रदर्शन या बुरे व्यवहार के बाद ही नौकरी से निकाला जा सकता है। मनमाने ढंग से नौकरी छीने जाने पर उनके पास अपील करने का अधिकार होता है।
संघीय एजेंसियां तथाकथित 'बल में कटौती' प्रक्रिया के जरिए कर्मचारियों की संख्या कम कर सकती हैं। लेकिन यह एक जटिल प्रक्रिया हो सकती है क्योंकि इसमें बर्खास्तगी से जुड़े नियम-कानूनों का पालन करना होता है। इस प्रक्रिया में महीनों से लेकर सालभर तक का समय लग सकता है। इसमें कर्मचारियों को नोटिस देना जरूरी होता है और कुछ मामलों में उन्हें दूसरी सरकारी नौकरी में जाने का मौका भी देना होता है। इस प्रक्रिया में कर्मचारियों को निकालने की वैध कानूनी वजह भी बतानी होती है।
कर्मचारियों के पास क्या हैं अधिकार
संघीय कर्मचारी बर्खास्तगी के खिलाफ मेरिट सिस्टम्स प्रोटेक्शन बोर्ड में अपील कर सकते हैं। यह एक स्वतंत्र एजेंसी है, जो सिविल सेवकों की राजनीतिक प्रतिशोध और अन्य अवैध खतरों से सुरक्षा करने वाले कानूनों को लागू करती है। इनका बोर्ड विवादों की सुनवाई के लिए प्रशासनिक जजों को नियुक्त करता है। लेकिन आखिरी फैसला एजेंसी का तीन सदस्यीय बोर्ड ही सुनाता है।
ट्रंप ने इस बोर्ड की अध्यक्ष कैथी हैरिस को उनके पद से हटा दिया है। हैरिस ने इसके खिलाफ मुकदमा दाखिल किया है। उनका कहना है कि उन्हें सिर्फ प्रदर्शन के आधार पर हटाया जा सकता है। हालांकि, अगर कर्मचारियों के बोर्ड के पास अपील करने के मौके खत्म हो जाते हैं तो वे सीधे वॉशिंगटन स्थित संघीय सर्किट में अपील दाखिल कर सकते हैं।
कितने कर्मचारी खुद छोड़ रहे नौकरी
ट्रंप के राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद उनके प्रशासन ने कर्मचारियों को प्रस्ताव दिया था कि अगर वे अभी नौकरी छोड़ देते हैं तो उन्हें 30 सितंबर तक वेतन और दूसरे लाभ मिलते रहेंगे। ट्रंप के लिए कर्मचारियों की संख्या में कटौती करने का यह सबसे आसान तरीका था क्योंकि इसमें कर्मचारी अपनी मर्जी से नौकरी छोड़ते।
व्हाइट हाउस के मुताबिक, करीब 75 हजार कर्मचारियों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया है। यह कुल कर्मचारियों का करीब तीन फीसदी है। कर्मचारी संगठनों ने इस प्रस्ताव पर रोक लगवाने के लिए अपील भी दायर की थी लेकिन संघीय जज ने प्रस्ताव पर रोक लगाने से साफ इनकार कर दिया। हालांकि, 12 फरवरी को इस प्रस्ताव की समय अवधि खत्म हो गई, यानी कर्मचारी अब इसे नहीं चुन सकते हैं। (डॉयचेवैले)
पनामा नहर का निर्माण अमेरिका ने 1900 के दशक की शुरुआत में किया था और कई दशकों तक उसपर अपना नियंत्रण रखा. अब पनामा सरकार अटलांटिक और प्रशांत महासागर को जोड़ने वाली इस नहर का संचालन करती है. जानिए क्यों है ये इतनी अहम.
-पढ़ें डॉयचे वैले पर डार्को यानयेविच का लिखा-
अमेरिका के आगामी राष्ट्रपति ट्रंप ने कई बार धमकी दी कि वह फिर से पनामा नहर को अपने नियंत्रण में ले लेंगे। वहीं दूसरी ओर, पनामा सरकार ने साफ कहा कि वह नहर पर अपना अधिकार किसी भी हालत में नहीं छोड़ेगी। इसलिए, दुनिया की निगाहें एक बार फिर अटलांटिक और प्रशांत महासागरों के बीच इस रणनीतिक नौसैनिक मार्ग पर टिकी है।
ट्रंप यह याद दिलाने के लिए उत्सुक हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका ने एक सदी पहले इस नहर को बनाया था और मानव जीवन की बड़ी कीमत पर वैश्विक नौवहन में क्रांति लाई थी। 1914 से पहले, अटलांटिक से प्रशांत महासागर में जाने वाले जहाजों को दक्षिण अमेरिका के चारों ओर जोखिम भरी, महीनों लंबी यात्रा करनी पड़ती थी। आधुनिक जहाजों को भी यह यात्रा पूरी करने में लगभग दो सप्ताह लगते हैं, जबकि नहर को पार करने में सिर्फ 8 से 10 घंटे लगते हैं।
जब अमेरिका ने नहर बनवाई थी
ट्रंप ने हाल ही में दावा किया कि 1904 और 1914 के बीच पनामा नहर के निर्माण के दौरान 35,000 या 38,000 ‘अमेरिकी लोगों’ की मृत्यु हुई थी। हालांकि, यह बात कुछ हद तक सही है कि नहर के निर्माण के दौरान हजारों लोगों की जान गई थी। इन मौतों की वजह मलेरिया, पीले बुखार, दुर्घटनाएं और अन्य कारण थे, लेकिन ट्रंप ने जो आंकड़ा दिया है उसके पीछे की सटीक गणना स्पष्ट नहीं है। यानी, यह साफ नहीं है कि ट्रंप ने यह आंकड़ा कैसे निकाला।
अमेरिका द्वारा पनामा नहर के निर्माण के दौरान आधिकारिक तौर पर लगभग 5,600 लोगों की मृत्यु हुई थी। हालांकि, वास्तविक संख्या इससे अधिक भी हो सकती है, लेकिन इस निर्माण कार्य में सबसे ज्यादा मजदूर बारबाडोस से आए थे। ‘हेल्स गॉर्ज : द बैटल टू बिल्ड द पनामा कैनाल’ के लेखक मैथ्यू पार्कर के अनुसार, निर्माण के दौरान मरने वाले अमेरिकियों की संख्या संभवत: करीब 300 थी।
यह भी हो सकता है कि ट्रंप अमेरिका द्वारा जलमार्ग बनाने के प्रयास के दौरान हुए नुकसान को फ्रांस के पहले के असफल प्रयास के साथ जोड़ रहे हों। 1880 के दशक में फ्रांस की परियोजना में 20,000 से 25,000 श्रमिकों की जान चली गई थी, लेकिन उनमें से लगभग कोई भी अमेरिकी पनामा को नहर पर नियंत्रण कैसे मिला।
नहर के खुलने के बाद भी अमेरिका ने कई दशकों तक इसका संचालन जारी रखा। हालांकि, 1977 में राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने धीरे-धीरे इस क्षेत्र का नियंत्रण पनामा सरकार को सौंपने पर सहमति जताई। संधि में यह तय किया गया था कि जलमार्ग तटस्थ रहेगा और सभी देशों के जहाजों के लिए खुला रहेगा। अमेरिका ने इसे किसी भी खतरे से बचाने का अधिकार भी बरकरार रखा।
वर्ष 1999 में अमेरिका ने पनामा नहर पर अपना नियंत्रण पूरी तरह छोड़ दिया। इसके बाद से नहर का संचालन पनामा की सरकार कर रही है। अब, ट्रंप ‘चीन के अद्भुत सैनिकों’ पर नहर को अवैध तरीके से चलाने का आरोप लगा रहे हैं। वहीं, पनामा के राष्ट्रपति होजे राउल मुलिनो ने इन आरोपों को बकवास बताया। जनवरी की शुरुआत में मुलिनो ने कहा, ‘नहर में कोई चीनी सैनिक नहीं हैं।’
इस क्षेत्र में चीन की सैन्य उपस्थिति का कोई संकेत नहीं है, लेकिन कुछ अमेरिकी पर्यवेक्षकों ने दो बंदरगाहों के बारे में चिंता व्यक्त की है। नहर के प्रवेश द्वार पर स्थित इन बंदरगाहों का प्रबंधन लंबे समय से हांगकांग स्थित सीके हचिसन होल्डिंग्स की एक सहायक कंपनी कर रही है। इन पर्यवेक्षकों की चिंता है कि इन बंदरगाहों के माध्यम से अहम डेटा लीक हो सकता है। इसके अलावा, पनामा और चीन मिलकर नहर के ऊपर एक नए पुल का निर्माण कर रहे हैं। इस पुल के निर्माण के लिए चीन पनामा को पैसा दे रहा है। इससे अमेरिका की चिंताएं बढ़ गई हैं।
पनामा नहर क्यों महत्वपूर्ण है?
नहर के प्रबंधकों के मुताबिक, औसतन एक वर्ष में 13,000 से 14,000 जहाज 82 किलोमीटर (52 मील) लंबे इस जलमार्ग से गुजरते हैं। यहां बनाए गए सिस्टम की मदद से हर दिन दर्जनों जहाजों को एक छोर से दूसरे छोर ले जाया जाता है। जहाजों को ऊपर उठाने और फिर समुद्र तल पर लाने के लिए, इस सिस्टम में गेट, लॉक और कृत्रिम झील से भरे हुए जलाशयों का उपयोग किया जाता है। इस दौरान जहाजों को 26 मीटर (85 फीट) तक ऊपर उठाया जाता है। जहाजों से उनके आकार के आधार पर क्रॉसिंग के लिए शुल्क लिया जाता है।
अमेरिका, चीन और जापान पनामा नहर के मुख्य ग्राहक हैं। इस नहर से गुजरने वाले जहाजों का लगभग 72 फीसदी माल या तो अमेरिकी बंदरगाहों से आता है या अमेरिकी बंदरगाहों की ओर जा रहा होता है।
हाल ही में, पानी की कमी की वजह से नहर प्राधिकरण को क्रॉसिंग की संख्या कम करने के लिए मजबूर होना पड़ा। साथ ही, शुल्क को भी बढ़ाया गया। नहर के प्रबंधक ने वित्तीय वर्ष 2024 में 3.45 अरब डॉलर का शुद्ध लाभ कमाया है।
नहर के यातायात में अमेरिकी व्यापार का बहुत बड़ा योगदान होने के कारण, इसके व्यवसाय को भी बढ़ी हुई लागतों का खामियाजा भुगतना पड़ा। दिसंबर में, ट्रंप ने पनामा पर ‘बेतुका’ और ‘अत्यधिक’ फीस वसूलने का आरोप लगाया और इसे ‘धोखाधड़ी’ करार दिया। ट्रंप ने कहा, ‘हमें पनामा नहर के जरिए लूटा जा रहा है। यह नहर मूर्खतापूर्वक सौंप दी गई थी और अब वे हमसे अत्यधिक शुल्क वसूल रहे हैं।’
क्या अमेरिका नहर को वापस ले सकता है?
कार्टर द्वारा हस्ताक्षरित 1977 की संधि की शर्तों में स्पष्ट किया गया है कि पनामा को तटस्थता बनाए रखनी है, जिसका मतलब है कि उसकी सरकार अमेरिकी माल ले जाने वाले जहाजों के लिए कम शुल्क नहीं ले सकती। हालांकि, यह संभव है कि ट्रंप प्रशासन के दबाव के कारण सभी के लिए शुल्क कम किया जा सकता है या अगले संकट के दौरान नहर प्राधिकरण को अधिक शुल्क लेने से रोका जा सकता है।
एक और संभावित विकल्प यह है कि अमेरिका पनामा पर आक्रमण करके नहर पर सैन्य नियंत्रण कर ले।
अमेरिका ने 1989 के अंत में ऐसा किया था। उस समय अमेरिकी सैनिकों को सैन्य तानाशाह और पूर्व सीआईए एजेंट मैनुअल नोरिएगा को सत्ता से हटाने के लिए पनामा में तैनात किया गया था। हालांकि, इस बात की बेहद कम संभावना है कि ट्रंप सरकार ऐसा करेगी।
अमेरिकी आक्रमण के बाद, पनामा की अमेरिका समर्थित सरकार ने वहां की सेना को समाप्त कर दिया। करीब 45 लाख की आबादी वाला देश पनामा अब एक छोटा अर्धसैनिक बल रखता है। इन तमाम बातों के बीच, ट्रंप ने विवाद को सुलझाने में सेना के इस्तेमाल से इनकार नहीं किया है। (डॉयचेवैले)
- रजनीश कुमार
रेखा गुप्ता और अरविंद केजरीवाल में दो समानताएं हैं। अरविंद केजरीवाल की तरह रेखा गुप्ता भी हरियाणा की हैं और बनिया जाति से ताल्लुक रखती हैं।
अरविंद केजरीवाल, सुषमा स्वराज के बाद रेखा गुप्ता दिल्ली की तीसरी मुख्यमंत्री होंगी, जो हरियाणा से हैं। दिल्ली से पहले बीजेपी की 13 राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में सरकार थी लेकिन कोई भी महिला मुख्यमंत्री नहीं थी।
राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया के बाद बीजेपी का यह बॉक्स खाली था, जिसे अब रेखा गुप्ता ने भर दिया है।
अब भारत के 13 राज्य और दो केंद्रशासित प्रदेश बीजेपी शासित होंगे।
अब तक भारत के कुल 28 राज्यों और आठ केंद्र शासित प्रदेशों में ममता बनर्जी एकमात्र महिला मुख्यमंत्री थीं। दिल्ली की मुख्यमंत्री बनने के बाद रेखा गुप्ता अब दूसरी महिला मुख्यमंत्री होंगी।
भारत की चुनावी राजनीति में पिछले एक दशक से महिलाओं को नए वोट बैंक के रूप में देखा जा रहा है।
कहा जा रहा है कि महिलाओं को जाति और धर्म की पहचान से अलग राजनीतिक रूप से लामबंद किया जा सकता है। ऐसे में शायद बीजेपी इस आधी आबादी के बीच संदेश देना चाहती है कि उसकी प्राथमिकता में वे हैं।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी आम आदमी पार्टी और बीजेपी से लेकर कांग्रेस तक ने चुनावी वादों में महिलाओं को प्राथमिकता दी थी।
बीजेपी ने तो दिल्ली में चुनाव जीतने के बाद महिलाओं को हर महीने 2500 रुपए देने का वादा किया है।
ऐसे में रेखा गुप्ता को बीजेपी ने मुख्यमंत्री के लिए चुना तो यह उसकी इसी रणनीति के हिस्से के तौर पर देखा जा रहा है।
आरएसएस और विद्यार्थी परिषद की पृष्ठभूमि
कहा जाता है कि बीजेपी में बड़े नेता वही बनते हैं, जिनकी पृष्ठभूमि आरएसएस या अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की होती है।
बीजेपी के शीर्ष नेताओं की पृष्ठभूमि देखने के बाद इस बात की पुष्टि भी होती है। वो चाहे अटल-आडवाणी की जोड़ी हो या नरेंद्र मोदी और अमित शाह की। या फिर अरुण जेटली हों या नितिन गडकरी।
रेखा गुप्ता के साथ आरएसएस और एबीवीपी दोनों की पृष्ठभूमि हैं।
सुषमा स्वराज के बारे में कहा जाता है कि वह बीजेपी में शीर्ष या निर्णय लेने की क्षमता रखने वाली नेता बन सकती थीं लेकिन उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि न तो आरएसएस वाली थी और न ही एबीवीपी वाली। सुषमा स्वराज की शुरुआती राजनीतिक पृष्ठभूमि जनता पार्टी की थी।
रेखा गुप्ता भले पहली बार विधायक बनी हैं लेकिन दिल्ली की राजनीति के लिए नई नहीं हैं। वह दिल्ली नगर निगम की पार्षद रही हैं।
रेखा गुप्ता ने पिछली दो बार से दिल्ली में विधानसभा चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
इस बार शालीमार बाग से रेखा गुप्ता ने आम आदमी पार्टी की बंदना कुमारी को 29,595 मतों से मात दी। दिल्ली में विधानसभा चुनाव इतने बड़े मार्जिन से जीतना एक बड़ी जीत है।
दिल्ली में चुनाव जीतने के 10 दिन बाद बीजेपी ने मुख्यमंत्री कौन होगा से पर्दा हटाया।
इन 10 दिनों में कई नामों की चर्चा हुई। सबसे ज़्यादा चर्चा में प्रवेश वर्मा थे। प्रवेश वर्मा ने नई दिल्ली सीट से दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल को हराया था।
दिल्ली के चुनावी दंगल की वो पांच सीटें जिन पर हुआ बड़ा उलटफेर
प्रवेश वर्मा कैसे पिछड़ गए?
प्रवेश वर्मा ने 4089 मतों से अरविंद केजरीवाल को मात दी थी। प्रवेश वर्मा को कुल 30,088 वोट मिले और अरविंद केजरीवाल को 25,999 वोट मिले।
तीसरे नंबर पर कांग्रेस के संदीप दीक्षित रहे, जिन्हें कुल 4,568 वोट मिले। इस जीत के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर वर्मा की दावेदारी मजबूत हुई थी लेकिन रेखा गुप्ता भारी पड़ीं।
मीडिया में अब ये कयास लगाए जा रहे हैं कि प्रवेश वर्मा को उपमुख्यमंत्री की कुर्सी मिल सकती है।
प्रवेश वर्मा के पिता साहिब सिंह वर्मा 26 फऱवरी 1996 से 12 अक्तूबर 1998 तक दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे थे। बीजेपी कांग्रेस और बाक़ी क्षेत्रीय पार्टियों पर परिवारवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाती रही है। ऐसे में प्रवेश वर्मा को अगर दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाती तो पार्टी को विपक्ष की आलोचना का सामना करना पड़ सकता था।
बीजेपी मुख्यमंत्रियों के बेटों को मुख्यमंत्री बनाने से परहेज करती रही है। हिमाचल प्रदेश में प्रेम कुमार धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर को मुख्यमंत्री का अहम दावेदार माना जाता था लेकिन बीजेपी ने जयराम ठाकुर को चुना था।
दिल्ली में मुख्यमंत्री के चुनाव से पहले ये कहा जा रहा था कि किसान आंदोलन के कारण बीजेपी से जाटों की नाराजग़ी रही है और इसे पाटने के लिए प्रवेश वर्मा को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है।
लेकिन बीजेपी की एक रणनीति यह भी रही है कि जिस राज्य में किसी खास जाति का प्रभाव ज़्यादा है, उस जाति के बदले दूसरी जाति से सीएम बनाओ।
जैसे हरियाणा में जाट राजनीतिक और समाजिक रूप से प्रभावी हैं लेकिन बीजेपी ने उस जाति का सीएम पिछले 11 सालों से नहीं बनाया। इसी तरह महाराष्ट्र में मराठों का प्रभाव ज़्यादा है लेकिन बीजेपी ने विदर्भ के ब्राह्मण देवेंद्र फडणवीस को सीएम बनाया। इसी तरह झारखंड में आदिवासी मुख्यमंत्री के बदले तेली जाति से ताल्लुक रखने वाले रघुबर दास को सीएम बनाया था।
कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि प्रवेश वर्मा की छवि विवादित रही है, इसलिए भी बीजेपी ने उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी देने से परहेज किया।
प्रवेश वर्मा ने अक्तूबर 2022 में दिल्ली में विश्व हिन्दू परिषद के एक कार्यक्रम में एक खास समुदाय के संपूर्ण बहिष्कार की बात कही थी।
प्रवेश वर्मा ने कहा था, ‘मैं कहता हूँ, अगर इनका दिमाग़ ठीक करना है, इनकी तबीयत ठीक करनी है तो एक ही इलाज है और वो है संपूर्ण बहिष्कार।’
तब प्रवेश वर्मा पश्चिमी दिल्ली से सांसद थे। कहा जाता है कि पार्टी प्रवेश वर्मा के इस बयान से नाराज़ थी। 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रवेश वर्मा का महरौली से टिकट भी कट गया था।
लेकिन रेखा गुप्ता के भी पुराने ट्वीट सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं, जो राजनीतिक मर्यादा के बिल्कुल उलट हैं।
जब रेखा गुप्ता ये सब ट्वीट करती थीं तो किसी बड़े राजनीतिक पद पर नहीं थीं, इसलिए लोगों का ध्यान नहीं जाता था लेकिन प्रवेश वर्मा लोकसभा सांसद थे और उनके साथ एक राजनीतिक विरासत भी जुड़ी थी, इसलिए उनकी कही बात मीडिया में सुर्खियां बनी थी।
रेखा गुप्ता कौन हैं?
रेखा गुप्ता दिल्ली की राजनीति में पिछले 30 सालों से सक्रिय हैं। रेखा जब दिल्ली यूनिवर्सिटी के दौलत राम कॉलेज से बीकॉम कर रही थीं, तभी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत कर दी थी। 1992 में रेखा ने बीजेपी के छात्र विंग अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को जॉइन किया था।
बुधवार को दिल्ली में बीजेपी के 48 विधायकों ने उन्हें सर्वसम्मति से विधायक दल का नेता चुन लिया और आज यानी 20 फरवरी को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगी। रेखा गुप्ता ने मुख्यमंत्री के लिए चुने जाने पर कहा, ‘देश की हर महिला के लिए यह गर्व की बात है। बीजेपी ने दिल्ली में जो भी वादा किया है, उसे हम पूरा करेंगे। मेरी जिंदगी का यही मकसद है।’
रेखा गुप्ता ने आम आदमी पार्टी की तीन बार की विधायक बंदना कुमारी को मात दी थी। 50 साल की रेखा गुप्ता तीन बार शालीमार बाग से पार्षद रही हैं। रेखा गुप्ता 2000 के दशक में बीजेपी में आई थीं और संगठन में कई पदों पर रहीं। इनमें दिल्ली बीजेपी महासचिव, बीजेपी महिला मोर्चा की अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश महिला मोर्चा की उपाध्यक्ष का पद उनके नाम रहा। इसके अलावा रेखा गुप्ता बीजेपी युवा मोर्चा विंग की भी पदाधिकारी रही हैं।
रेखा गुप्ता को हार का भी सामना करना पड़ा है। शालीमार बाग से 2015 और 2020 में आम आदमी पार्टी की बंदना कुमारी से रेखा गुप्ता को हार मिली थी।
बीजेपी ने स्पष्ट संदेश देने की कोशिश की है कि आम आदमी पार्टी ने आतिशी को अस्थायी मुख्यमंत्री बनाया था लेकिन उसने एक महिला को स्थायी मुख्यमंत्री बना दिया है।
रेखा गुप्ता 1995 में दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन की सचिव बनी थीं और बाद में अध्यक्ष बनीं। जब रेखा गुप्ता डीयूएसयू में सचिव थीं, तब कांग्रेस के छात्र विंग एनएसयूआई से अल्का लांबा से अध्यक्ष थीं।
अल्का लांबा ने रेखा गुप्ता के मुख्यमंत्री चुने जाने पर डीयू के दिनों की अपनी एक तस्वीर शेयर करते हुए लिखा है, ‘1995 की यह यादगार तस्वीर है, जब मैंने और रेखा गुप्ता ने एक साथ शपथ ली थी। मैंने एनएसयूआई से दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ अध्यक्ष पद पर जीत हासिल की थी और रेखा ने एबीवीपी से महासचिव पद पर जीत हासिल की थी। रेखा गुप्ता को बधाई और शुभकामनाएं। दिल्ली को चौथी महिला मुख्यमंत्री मिलने पर बधाई और हम दिल्ली वाले उम्मीद करते हैं कि माँ यमुना स्वच्छ होंगी और बेटियां सुरक्षित। (bbc.com/hindi)
-सनियारा खान
1928 में यंग इंडिया में महात्मा गांधी ने लिखा था कि ईश्वर कभी भी हिंदुस्तान को पश्चिम के औद्योगिकरण को अपनाने की मानसिकता न दे। बड़े बड़े पश्चिमी देशों ने उन्नति के नाम पर प्रकृति को इस तरह दोहा है कि आज उन देशों में प्रकृति का प्रकोप दिखने भी लगा है। फिर एशिया के विकासशील देशों में भी ये प्रवृत्ति शुरू हो गई। हम भी उन्नति के नाम पर प्रकृति से छेड़छाड़ करने लग गए।
एक बच्चा जब जन्म लेता है, उसमें कोई लालच नहीं रहता है और न ही कोई हवस। लेकिन वह जब बड़ा होने लगता है तब औरों को देख-देखकर वह भी ज़्यादा पाने की लालच करना सीख जाता है। उसके बाद ‘मुझे और ज्यादा चाहिए’ वाली मानसिकता उसमें पनपने लगती है। बड़े होकर हम धन और क्षमता की लालच में एक विशाल चक्रव्यूह में फंसते जाते हैं। अंत तक इसी चक्रव्यूह में ही फंसे रह जाते हैं। ये लालच ही है जो हमें आवश्यकता से बहुत आगे तक धकेलती है। इसीलिए गांधीजी ने ये भी कहा था कि समाज में सभी लोगों की आवश्यकताएं पूरी होनी चाहिए।
ये धरती सभी की लालच के लिए नहीं बल्कि सभी की आवश्यकता की पूर्ति के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध कराती है। लेकिन चंद लोग लालच में डूबकर औरों के हिस्से की आवश्यकता को भी छीनकर अपने हिस्से में कर लेते हैं। आवश्यकता हमें सुकून से जीने देती है। लेकिन लालच हमारा सुकून छीन लेती है। जब हम लालची हो जाते हैं तब हिंसा और स्वार्थ भी हमारे अंदर आसानी से दाखिल हो जाता हैं। शहर तो शहर, हमारे गांव भी लालच के आंधी तूफान में बहने लगते हैं। क्यों हम हमारी सादगी भरी प्राचीन संस्कृति को भूलकर औरों का देखादेखी सारी कु संस्कृतियों को अपना कर सर्वनाश की राह पर चल पड़े हैं?
शायद इसीलिए ये कहा जाता है कि हमारी ही अपनी भूलों के कारण हमें कोरोना का सामना करना पड़ा। वैश्विक महामारी पर शोध करने वाली इको हेल्थ एलायंस नामक एक संस्था की प्रमुख पीटर दसजाक ने कहा भी कि कोरोना के लिए हम लोग सिर्फ चीन को ही दोष नहीं दे सकते हैं। धरती में जो जैव विविधता है, उसे मानव जाति निरंतर नुकसान पहुंचा रहे हैं। ये भी महामारी का एक कारण हो सकता है और बहुत बड़ा कारण हो सकता है ।
कोरोना को हमारे लिए अंतिम मुश्किल मानना गलत होगा। आने वाले दिनों में और भी बड़ी-बड़ी मुश्किलें हम पर आफत बनकर टूट सकती हैं! कम से कम अब तो हमें अपनी आदतें सुधारने के लिए कदम उठाना चाहिए! अभी के दिनों में, हम में से ज्यादातर लोग चीजों को खरीदकर जमा करना पसंद करते हैं। इस आदत को बदलकर हमें जिनके पास कुछ नहीं है,उनकी मदद करना चाहिए।
प्रकृति के कोप से अगर हम बचना चाहते हैं तो हम में से हर एक को दया और इंसानियत के ज़रिए पूरे विश्व को स्वस्थ करने की कोशिश करना होगा। घृणा, द्वेष और आत्ममुग्धता से हमें कुछ हासिल नहीं होगा। आज जो ये सारा विश्व प्राकृतिक आपदा और इंसानी आपदा से युद्ध कर रहा है, ये सब हमारी ही नकारात्मक गतिविधियों की देन हैं। हम जो खुदगर्ज जिंदगी जी रहे हैं, इसी के चलते मां बाप के मरते समय बच्चे पास नहीं होते... अपनों के अंतिम संस्कार में जाने कितने लोग हिस्सा ले नहीं पाते और तो और खुदगर्जी ने रिश्तों में भी दरार ला दिया है। किसी के लिए किसी के पास समय नहीं है। सिर्फ और सिर्फ कमाना और आगे बढ़ते जाना ही जीवन का स्वरूप हो गया है। इसी को अभी सभ्यता माना जा रहा है, भले ही इस सभ्यता के लिए हम बहुत बड़ी कीमत चुका रहे हैं! बहुत कम लोग समय रहते ये समझ पाते हैं कि ये सिर्फ कीमत ही नहीं, हमारे लिए सजा भी है।
शायद करोना के समय में हम सब को गृह बंदी बनाकर प्रकृति ने हमें यही समझाने की कोशिश की है कि हमारी अंतहीन लालच कई लोगों को भूखा रखती है। अब तो आत्ममंथन होना चाहिए कि बहुत सी चीजों के बगैर भी हम जी सकते हैं और उन चीजों को उन लोगों के लिए छोड़ देना चाहिए जिन्हें सच में उन चीजों की जरूरत है। इस तरह नहीं सोचेंगे तो हम लालच के पीछे दौड़-दौडक़र थक जायेंगे और अपने साथ साथ इस पृथ्वी को भी बीमार कर देंगे। कम से कम संसाधनों के साथ भी हम कैसे जी सकते हैं इसी बात को लेकर नेटफ्लिक्स में एक डॉक्यूमेंट्री मूवी भी आई थी- The Minimalists: Less Is Now अर्थात न्यूनतमवादी जीवनशैली को अपनाना।
इस मूवी में यही कहा गया है कि गैरजरूरी सामानों के भीड़ में फंसकर हम भूल जाते हैं कि जिंदगी जीने के लिए बहुत कम चीजों की हमें जरूरत होती है। लेकिन हम जैसे नासमझ और लालची इंसान इस धरा को पूरी तरह निचोड़ लेने की कोशिश करते करते ही प्रथम महायुद्ध, द्वितीय महायुद्ध, प्लेग, स्पेनिश फ्लू, इबोला, स्वाइन फ्लू और करोना को अपने घर तक बुला लिया है! करोना के बाद अब और भी कई नई नई बीमारियां इंसानों को डरा रही हैं। अगर हमने सही रास्ता नहीं अपनाया तो हमारी बर्बादी निश्चित है। प्रकृति के रोष से बचना है तो हमें अपने अहंकारी कदमों को रोकना ही होगा। युद्ध काल के विनाश को हम टीवी और सिनेमा के परदे पर देखते रहते हैं। शीत अंचल में बर्फ गलने से कैसे वहां के जीव जन्तु मर रहे हैं इस बारे में भी हम पढ़ते हैं और देखते हैं। इंसानी कचरों से आज हिमालय को भी डस्टबिन बनना पड़ रहा है। तो कब तक ये सब चलता रहेगा? हर शुरुवात का अंत तय होता है। इतना सब होने के बाद भी हम अगर सचेत नहीं होंगे तो शायद दूसरे ग्रह के प्राणी एक दिन टीवी में हमें देखेंगे और किस्से कहानियों में हमारे बारे में पढ़ेंगे। अन्त में रेचल कार्सन की लिखी हुई एक बात को हम सभी को समझने की जरूरत है।
....हम सब कुदरत के साथ इंसानों के रिश्तों को जितनी साफ नजर से देखना सीखेंगे, कुदरत के साथ अपने टकराव को उतना ही कम कर पाएंगे...सच्चाई तो यह है कि हम लोगों को हर कदम में ये बात याद रखना चाहिए कि हम पृथ्वी पर अतिथि बनकर आए हैं और हमें अतिथि की तरह ही जीना चाहिए।