विचार/लेख
-ललित गर्ग
दुनिया में आत्महत्या आज एक गहरी एवं विडम्बनापूर्ण वैश्विक चुनौती बन चुकी है। हर साल लाखों लोग अपनी ही जिंदगी से हार मान लेते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हर साल लगभग 7.2 लाख लोग आत्महत्या करते हैं। यह सिर्फ व्यक्तिगत त्रासदी नहीं बल्कि सामाजिक, भावनात्मक और आर्थिक संकट भी है। 15 से 29 वर्ष की आयु वर्ग में मृत्यु का चौथा सबसे बड़ा कारण आत्महत्या है। यही वजह है कि हर साल 10 सितंबर को विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस मनाया जाता है। 2024 से 2026 तक इसकी थीम ‘चेंजिंग द नैरेटिव ऑन सुसाइड’ रखी गई है, जिसका उद्देश्य है आत्महत्या पर खामोशी तोडक़र इसे एक निष्क्रिय विषय से संवाद और सहयोग का सक्रिय विषय बनाना। आत्महत्या पर दृष्टिकोण का यह बदलाव आत्महत्या के बारे में लोगों की सोच और बातचीत के तरीके को चुनौती देता है, खुले और ईमानदार संवाद को बढ़ावा देता है जो कलंक को तोड़ता है और समझ को बढ़ावा देता है। आत्महत्या के अलावा जीवन में और भी बेहतर विकल्प हैं। इसके अलावा एक ऐसी समाज-व्यवस्था को बढ़ावा देना है जहां लोग मदद लेने में हिचहिचाए नहीं, बल्कि एक-दूसरे के सहयोग के लिये आगे आये। निश्चित रूप से खुदकुशी सबसे तकलीफदेह हालात के सामने हार जाने का नतीजा होती है और ऐसा फैसला करने वालों के भीतर वंचना का अहसास, उससे उपजे तनाव, दबाव और दुख का अंदाजा लगा पाना दूसरों के लिए मुमकिन नहीं है। आत्महत्या शब्द जीवन से पलायन का डरावना सत्य है जो दिल को दहलाता है, डराता है, खौफ पैदा करता है, दर्द देता है।
आत्महत्या जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है, यह मनुष्य होने के अर्थ और गरिमा को धूमिल करती है। जब जीवन जीने का साहस कमज़ोर पड़ता है तो व्यक्ति निराशा और अंधकार में डूबकर स्वयं को समाप्त करने की ओर बढ़ता है। वैश्विक स्तर पर यह एक गंभीर समस्या है, दुनिया भर से आते नए आंकड़े इस चुनौती की गंभीरता को और उजागर करते हैं। 2021 में अनुमानित 7.27 लाख आत्महत्याएं हुईं और विश्व में हर 43 सेकेंड में कोई एक व्यक्ति खुदकुशी कर रहा है। 73 प्रतिशत आत्महत्याएं निम्न एवं मध्यम आय वाले देशों में होती हैं और सबसे अधिक असर युवा और गृहिणियों पर पड़ता है। भारत में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2021 की रिपोर्ट बताती है कि आत्महत्या करने वाली महिलाओं में 51.5 प्रतिशत गृहिणियां थीं। आत्महत्या की दर दो दशकों में 7.9 से बढक़र 10.3 प्रति एक लाख हो गई है। उत्तराखंड जैसे राज्यों में पारिवारिक कलह आत्महत्या का बड़ा कारण है। युवा वर्ग की महत्वाकांक्षा क्षमता से अधिक हो चुकी है, पारिवारिक सामंजस्य खत्म हो गया है, असफलता का डर और तनाव सहने की क्षमता कम हो गई है। यही कारण है कि पढ़ाई के दबाव, नौकरी में असफलता, रिश्तों के टूटने और आर्थिक अभाव से युवा और किशोर आत्महत्या की ओर धकेले जा रहे हैं।
भारत में स्थिति और भी चिंताजनक है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ( एनसीआरबी ) की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2022 में भारत में 1,70,924 आत्महत्याएं दर्ज की गईं, जो अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है और आत्महत्या दर 12.4 प्रति लाख जनसंख्या रही। यह दर पिछले वर्षों की तुलना में सर्वाधिक है। इनमें 18 से 45 वर्ष की आयु के लोगों की संख्या दो-तिहाई से अधिक है, जो दर्शाता है कि देश का युवा और कार्यशील वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित है। राज्यवार आंकड़े भी चिंताजनक हैं-सिक्किम में आत्महत्या दर लगभग 43 प्रति लाख रही जबकि बिहार में यह 1 से भी कम है। आत्महत्या के पीछे अनेक सामाजिक, आर्थिक और मानसिक कारण जुड़े हुए हैं। बेरोजग़ारी, गरीबी, पारिवारिक कलह, असफल प्रेम, नशे की लत और बीमारियां इसका बड़ा कारण बन रही हैं। मानसिक रोग और अवसाद ने इस समस्या को और गहरा किया है। एनसीआरबी के अनुसार 2018 से 2022 के बीच मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े कारणों से आत्महत्या के मामलों में 44 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 2022 के आँकड़े बताते हैं कि आत्महत्या के प्रमुख कारणों में 33 प्रतिशत मामले पारिवारिक समस्याओं से जुड़े थे, लगभग 19 प्रतिशत मामले बीमारियों के कारण हुए, जबकि 6-7 प्रतिशत मामले विवाह सम्बन्धी समस्याओं और 6 प्रतिशत मामले ऋण और कजऱ् से संबंधित थे। छात्र आत्महत्या का आंकड़ा भी बड़ा चिंताजनक है-2022 में यह कुल आत्महत्याओं का 7.6 प्रतिशत रहा। वैश्विक स्तर पर भी स्थिति गंभीर है, परंतु भारत में यह और ज्यादा जटिल इसलिए है क्योंकि यहां सामाजिक प्रतिस्पर्धा, उपभोक्तावादी जीवनशैली, परिवार का टूटता हुआ ढांचा और आर्थिक असमानता आत्महत्या की प्रवृत्ति को तेज़ कर रही है। आत्महत्या केवल एक जीवन का अंत नहीं है, बल्कि यह एक पूरे परिवार और समाज की आशाओं का विघटन है।
इस गंभीर समस्या से निपटने के लिए केवल व्यक्तिगत प्रयास पर्याप्त नहीं हैं बल्कि समाज और सरकार दोनों को संयुक्त रूप से कार्य करना होगा। भारत सरकार ने 2017 में मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम पारित करके आत्महत्या प्रयास को अपराध की श्रेणी से बाहर किया और 2020 में ‘किरण’ नामक राष्ट्रीय हेल्पलाइन शुरू की जो 13 भाषाओं में चौबीसों घंटे सहायता उपलब्ध कराती है। 2022 में राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति बनाई गई जिसका लक्ष्य 2030 तक आत्महत्या दर में 10 प्रतिशत की कमी लाना है। इसमें मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार, परामर्श केंद्रों की स्थापना, रोजगार सृजन, परिवारिक संवाद को मजबूत करना, मीडिया की संवेदनशीलता और सामाजिक सहयोग जैसे उपायों पर जोर दिया गया है। साथ ही स्वयंसेवी संस्थाओं और हेल्पलाइन सेवाओं-जैसे आसरा, वंद्रेवाला, समैरिटन्स मुंबई-की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। आत्महत्या को रोकने का सबसे बड़ा उपाय यही है कि व्यक्ति को निराशा के अंधकार में छोडऩे के बजाय उसके जीवन में आशा, साहस और सहयोग का संचार किया जाए क्योंकि कठिनाइयों का समाधान आत्महत्या में नहीं बल्कि संघर्ष, विश्वास और सहारा देने वाले समाज में है।
अमेरिका लंबे समय से भारत के हस्तकला उद्योग का बड़ा खरीदार रहा है, लेकिन डॉनल्ड ट्रंप के नए टैरिफ दर लागू होने के बाद से इस उद्योग पर संकट मंडरा रहा है. ऐसे में ग्रामीण कश्मीर के कारीगर अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं.
डॉयचे वैले पर रिफत फरीद का लिखा-
65 वर्षीय अख्तर मीर भारत प्रशासित कश्मीर के हवल में मिट्टी और ईंटों से बने एक पुराने तीन-मंजिला घर में अपने पेपर-मैशे कारीगरों का नेतृत्व करते हैं. कारीगर फर्श पर पालथी मारकर बैठे हैं और वह फूलों और पक्षियों के रंग-बिरंगे डिजाइनों से फूलदान, हाथी और सजावटी डिब्बियां बना रहे हैं. उनके हाथ पूरी तरह रंगों से सने हुए है. इन रंगों की महक वर्कशॉप में जगह-जगह फैली हुई है.
पिछली तीन पीढ़ियों से मीर का परिवार इस नफीस कला को सिखाता और इसके प्रति जुनून को आगे बढ़ाता रहा है. आज, यह वर्कशॉप ना सिर्फ मीर की पारिवारिक विरासत है, बल्कि दर्जनों स्थानीय कारीगरों के लिए उनके परिवार पालने का सहारा भी है.
हर साल मीर और उनकी टीम अमेरिका और यूरोप भेजे जाने वाले क्रिसमस के लिए खास पेपर मैशे उत्पाद तैयार करती है. डॉनल्ड ट्रंप प्रशासन के भारत पर नए टैरिफ लगाए जाने के बाद इस बार त्योहारों का मौसम अलग हो सकता है.
मीर ने डीडब्ल्यू को बताया, "हम नए टैरिफ को लेकर चिंता में हैं. अभी तक हमें क्रिसमस के लिए ऑर्डर नहीं मिले हैं.” उन्होंने कहा, "अगर हमें ऑर्डर नहीं मिले तो मेरे कारीगरों की रोजी-रोटी पर असर पड़ेगा.” हालांकि, चिंता की वजह सिर्फ ट्रंप के टैरिफ ही नहीं हैं. कश्मीरी कारीगर अपने बहुत से सामान सैलानियों को भी बेचते हैं. अप्रैल में पहलगाम हमले के बाद इस साल पर्यटकों की संख्या में भी भारी गिरावट आई है.
‘अब यह काम हमें खुशी नहीं देता'
शानदार कश्मीरी कालीन बुनने वाले लोग भी इस बात से चिंतित हैं कि कहीं अमीर अमेरिकी खरीदारों के नाम होने से उनका व्यापार ना खत्म हो जाए. उत्तर कश्मीर के कुंजर गांव के कालीन बुनकर अब्दुल मजीद ने कहा, "अब यह काम हमें खुशी नहीं देता, इसमें बस तनाव और अनिश्चितता है.”
अमेरिकी टैरिफ के आगे नहीं झुकेगा भारत
कई सालों से अमेरिका में कपड़े, कालीन और हस्तशिल्प की मांग ने कश्मीर के हस्तशिल्प उद्योग को काफी मजबूती दी है. रूस के तेल को लेकर वॉशिंगटन और नई दिल्ली के बीच हुए विवाद के चलते अमेरिका ने भारत से आने वाले कई सामानों पर50 फीसदी तक टैरिफ लगा दिया है.
इसके बाद विदेशी खरीदार, जो पहले से ही कश्मीरी हस्तशिल्प के लिए ऊंची कीमतें चुका रहे थे. उनके लिए अब नए टैरिफ लगने के बाद दाम और भी बढ़ गए हैं, जिससे मांग कम होने की आशंका है. इसकी वजह से हजारों कारीगरों की रोजी-रोटी खतरे में पड़ सकती है.
हस्तशिल्प में इटली बन सकता है भारत का प्रतिद्वंद्वी
कश्मीर चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (केसीसीआई) ने अमेरिकी टैरिफ को हस्तशिल्प क्षेत्र के लिए "विनाशकारी” करार दिया है.
केसीसीआई के अध्यक्ष जावेद अहमद टेंगा ने कहा, "हम मानते हैं कि सरकार इस पर काम कर रही है और निर्यातकों को प्रोत्साहन देकर व्यापार को काफी हद तक संतुलित कर सकती है.”
कश्मीर के हस्तशिल्प एवं हथकरघा विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने डीडब्ल्यू को बताया कि कश्मीर से सामान खरीदने के बजाय अमेरिकी ग्राहक इटली जैसे देशों का रुख कर सकते हैं, जहां अमेरिकी टैरिफ केवल 15 फीसदी तक ही सीमित है.
अधिकारी ने कहा, "इसका मतलब साफ है कि कश्मीर का हस्तशिल्प बाजार से बाहर धकेला जा रहा है. कई अमेरिकी ग्राहकों ने पहले ही अपने ऑर्डर रोक दिए हैं, जिससे हमारे करघे और कारीगरों को काम में लगाना मुश्किल हो रहा है. इसका नतीजा बेरोजगारी हो सकता है.”
अमेरिकी टैरिफ के बावजूद भारत खरीद रहा है रूस से सस्ता तेल
लगभग चार लाख कारीगरों के नाम राज्य सरकार के पास दर्ज हैं. एक अधिकारी ने नाम जाहिर नहीं करने की शर्त पर बताया, अगर उनके काम में कोई बड़ी बाधा आती है तो यह ना केवल रोजगार का नुकसान होगा, बल्कि इससे पारंपरिक कौशल भी खत्म हो सकता है.
अधिकारी ने कहा, "जब कोई कारीगर किसी और पेशे की ओर चला जाता है, तो हम ना सिर्फ मौजूदा कामगारों को खो देते हैं बल्कि भविष्य में इतनी उच्च-गुणवत्ता वाले सामान बनाने की क्षमता को भी गंवा बैठते हैं.”
अमेरिकी खरीदारों की पहुंच से बाहर हुए लग्जरी सामान
भारत और अमेरिका के बीच टैरिफ के तनाव से पहले, निर्यात किए जाने वाले सामान पर सिर्फ 8 से 12 फीसदी आयात शुल्क लगता था. उस समय अमेरिकी खरीदार हर साल करीब 1.2 अरब डॉलर खर्च कर भारत के लगभग 60 फीसदी हस्तशिल्प उत्पाद खरीदते थे.
कश्मीरी हस्तशिल्प निर्यातक, मुजतबा कादरी ने बताया कि ट्रंप के टैरिफ ने इस क्षेत्र के हस्तशिल्प उद्योग को गहरी चोट पहुंचाई है. कादरी के अनुसार, लग्जरी सामान बढ़ती कीमतों से सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं क्योंकि खरीदार ऐसे सामान की खरीद को टाल देते हैं या कई बार तो बिल्कुल छोड़ ही देते हैं.
उन्होंने कहा, "50 फीसदी टैरिफ बढ़ने के बाद कश्मीर से अमेरिका जाने वाला हर सामान जैसे कि शॉल, कालीन, पेपर मैशे, लग्जरी और गैर-जरूरी श्रेणी में आ गया है.” मी एंड के नाम की कश्मीरी ऊन की बुनाई और निर्यात करने वाली कंपनी चलाने वाले कादरी ने बताया, "हमारी कंपनी के 80 फीसदी निर्यात अमेरिका जाते हैं. इसलिए इसका असर बहुत बड़ा होगा. जैसे एक शॉल जिसकी कीमत पहले 300 डॉलर थी. वह अब 450 डॉलर में बिकेगी. जो कि एक बड़ा उछाल है. जिसका नतीजा यह हो सकता है कि ज्यादातर लोग अपने ऑर्डर रद्द कर देंगे.”
कारोबार पर अनिश्चितता का साया
विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि नए टैरिफ के कारण भारत का निर्यात आधा हो सकता है. जिससे लगभग पांच से सात लाख कारीगरों की नौकरियां खतरे में पड़ सकती हैं. कश्मीर की राजधानी, श्रीनगर के बाहरी इलाके जोनिमर में रहने वाली शॉल बुनकर अफरोजा जान भी इस दबाव को महसूस कर रही हैं.
अपने घर के करघे पर दिनभर काम करने वाली 39 वर्षीय अफरोजा ने डीडब्ल्यू को बताया, "यह बहुत मेहनत और मशक्कत का काम है. काम करते-करते मेरी आंखों में दर्द होता है, पीठ में भी तकलीफ होती है. लेकिन यह हमारा एकमात्र रोजगार है.”उन्होंने बताया , "हमारे डीलर ने भी कुछ ऑर्डर रद्द कर दिए हैं, यह कहकर कि बाजार में अनिश्चितता है.”
अफरोजा के पति और देवरानी भी लग्जरी शॉल बुनते हैं, जिन्हें बनाने में महीनों से लेकर सालों का समय भी लग जाता है. बड़े ऑर्डरों को पूरा करने के लिए उनके परिवार के दस से ज्यादा लोग मिलकर काम करते हैं. उन्होंने कहा, "अगर हम अपना काम खो देंगे तो इससे पूरा परिवार प्रभावित होगा.”
नेपाल सरकार ने कहा है कि वे फेसबुक, एक्स और यूट्यूब समेत ज्यादातर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों को अपने देश में ब्लॉक कर रहे हैं. नियमों के तहत रजिस्ट्रेशन ना करवाने की वजह से इन ऐप्स पर यह कार्रवाई की जा रही है.
डॉयचे वैले पर आदर्श शर्मा का लिखा-
नेपाल सरकार ने गुरुवार, 4 सितंबर को कहा कि फेसबुक और यूट्यूब समेत ज्यादातर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों को तत्काल प्रभाव से ब्लॉक किया जाएगा. सरकार का कहना है कि यह कंपनियां उन नियमों का पालन करने में विफल रही हैं, जिनके तहत उन्हें सरकार के पास अपना रजिस्ट्रेशन करवाना था. इनमें एक्स और लिंक्डइन जैसी बड़ी सोशल मीडिया कंपनियां भी शामिल हैं.
नेपाल के संचार एवं सूचना मंत्री पृथ्वी सुब्बा गुरुड ने कहा कि करीब दो दर्जन सोशल नेटवर्क प्लेटफॉर्म, जो नेपाल में काफी इस्तेमाल किए जाते हैं, उन्हें नोटिस दिया गया था कि वे आगे आएं और अपनी कंपनियों को नेपाल में आधिकारिक तौर पर रजिस्टर करें. इसके लिए कंपनियों को बुधवार, 3 सितंबर तक का समय दिया गया था.
न्यूज एजेंसी एपी के मुताबिक, टिकटॉक और वाइबर समेत केवल पांच सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों को ही नेपाल में चलते रहने की अनुमति दी गई है क्योंकि इन कंपनियों ने सरकार के पास अपना रजिस्ट्रेशन करवा लिया था. इनके अलावा, दो अन्य कंपनियों के रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया जारी है. वहीं, कुल 26 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म सरकार की कार्रवाई से प्रभावित हुए हैं.
सरकार के फैसले का विरोध कर रही जनता
नेपाल सरकार चाहती है कि ये कंपनियां देश में अपना एक स्थानीय संपर्क, शिकायतों का समाधान करने वाला अधिकारी और नियमों के पालन के लिए जिम्मेदार अधिकारी नियुक्त करें. इसके लिए सरकार संसद में एक बिल भी लेकर आई है जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों को ठीक ढंग से प्रबंधित किया जाए और वे जिम्मेदार और जवाबदेह रहें.
इस बिल पर अभी संसद में पूरी चर्चा नहीं हुई है. इस बिल की यह कहते हुए आलोचना की जा रही है कि यह सेंसरशिप का औजार है और ऑनलाइन विरोध जताने वालों को सजा देता है. अधिकार समूहों ने इसे सरकार द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने और नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने का प्रयास बताया है. आम लोग भी इस बिल का विरोध कर रहे हैं.
वहीं, नेपाली अधिकारियों का कहना है कि सोशल मीडिया की निगरानी के लिए कानून लाना जरूरी है. उन्होंने कहा कि यह सुनिश्चित करना भी जरूरी है कि इसके यूजर और प्लेटफॉर्म, दोनों इस बात के लिए जिम्मेदार और जवाबदेह रहें कि क्या शेयर किया जा रहा है, क्या पब्लिश हो जा रहा है और क्या कहा जा रहा है.
डिजिटल राइट्स नेपाल के अध्यक्ष भोलानाथ कहते हैं कि प्लेटफॉर्मों को अचानक से बंद करना, सरकार के "नियंत्रणकारी” रवैये को दिखाता है और "जनता के मौलिक अधिकारों को सीधे तौर पर प्रभावित करता है.” उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया को विनियमित करना गलत नहीं है लेकिन पहले हमें इसे लागू करने के लिए कानूनी ढांचा तैयार करना होगा.
क्या हैं भारत में सोशल मीडिया कंपनियों के नियम
नेपाल के पड़ोसी देश भारत में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों की जवाबदेही सूचना प्रौद्योगिक नियम, 2021 के जरिए तय की जाती है. इसमें 11 तरह के कंटेंट को गैर-कानूनी बताया गया है और सोशल मीडिया कंपनियों के लिए ऐसे कंटेंट को अपने प्लेटफॉर्म से हटाना कानूनी तौर पर जरूरी होता है. ऐसा ना करने पर कंपनियों को आईटी एक्ट के अनुच्छेद 79(1) के तहत दी गई छूट वापस ली जा सकती है और उन्हें गैर-कानूनी कंटेंट के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.
भारत के आईटी रूल्स के अनुसार, अश्लील, पॉर्नोग्राफिक, बाल यौन शोषण से संबंधित और दूसरों की शारीरिक निजता का उल्लंघन करने वाले कंटेंट को सोशल मीडिया पर प्रतिबंधित किया गया है. सोशल मीडिया पर गलत सूचना साझा करने पर भी प्रतिबंध लगाया गया है. साथ ही एआई की मदद से बनाए गए डीपफेक्स को भी बैन किया गया है.
किस नियम को लेकर होता है टकराव
आईटी रूल्स के तहत, भारत सरकार के पास यह अधिकार है कि वह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों को नियमों का उल्लंघन करने वाले कंटेंट को हटाने या भारत में उसे ब्लॉक करने के लिए कह सकती है और कंपनियों को इन आदेशों का पालन करना होता है. आईटी एक्ट के तहत, सरकार देश की संप्रभुता, अखंडता और सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए भी कंटेंट को ब्लॉक करने का निर्देश दे सकती है.
भारत के केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इसके लिए सहयोग पोर्टल बनाया गया है, जिसके माध्यम से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों को कंटेंट हटाने के लिए नोटिस भेजे जाते हैं. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स कर्नाटक हाईकोर्ट में इस पोर्टल के खिलाफ मुकदमा लड़ रहा है. एक्स का कहना है कि मोदी सरकार कंटेंट हटाने के नोटिस देने में नियमों का ठीक ढंग से पालन नहीं कर रही है और आईटी कानूनों का दुरुपयोग कर रही है. अभी इस मामले में अंतिम फैसला आना बाकी है.
भारत में लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने वाले एनजीओ ‘एजुकेट गर्ल्स’को 2025 का रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड मिला है। यह पहला भारतीय संगठन है, जिसे यह प्रतिष्ठित अवॉर्ड मिला है। साल 2007 में सफीना हुसैन ने इसकी शुरुआत की थी।
डॉयचे वैले पर आदर्श कुमार का लिखा-
भारतीय एनजीओ 'एजुकेट गर्ल्स' की स्थापना करने वालीं सफीना हुसैन का बचपन विषम परिस्थितियों में बीता। उन्हें गरीबी, हिंसा और दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा। एक समय पर उन्हें अपना स्कूल भी छोडऩा पड़ा। उनके घरवाले कम उम्र में ही उनकी शादी करना चाहते थे, लेकिन इस कठिन समय में एक रिश्तेदार ने उनकी मदद की, जिसके चलते वो अपनी पढ़ाई पूरी कर पाईं। सफीना हुसैन ने मार्च 2024 में द हिंदू को दिए एक इंटरव्यू में यह जानकारी साझा की थी।
सफीना हुसैन ने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से अपनी ग्रैजुएशन पूरी की और उसके बाद सैन फ्रांसिस्को में काम किया। साल 2007 में वे भारत लौटीं और गैर-लाभकारी संगठन ‘एजुकेट गर्ल्स' की स्थापना की। द हिंदू की खबर के मुताबिक, यह एनजीओ ग्रामीण और शैक्षिक रूप से पिछड़े इलाकों में पांच से 14 साल की उम्र की लड़कियों की पहचान करता है और उन्हें स्कूलों में भर्ती करवाता है।
लड़कियों की शिक्षा में योगदान के लिए मिला अवॉर्ड
रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड फाउंडेशन ने अपने बयान में लिखा है कि ‘एजुकेट गर्ल्स' संगठन को ‘शिक्षा के माध्यम से लड़कियों और युवतियों की सांस्कृतिक रूढि़वादिता को दूर करने, उन्हें निरक्षरता के बंधन से मुक्त करने और उन्हें अपनी पूर्ण मानवीय क्षमता प्राप्त करने के लिए कौशल, साहस और क्षमता प्रदान करने की प्रतिबद्धता’ के लिए जाना जाता है।
फाउंडेशन द्वारा जारी की गई सूचना किट में बताया गया है कि सफीना हुसैन ने दो साल तक इस समस्या का अध्ययन किया और उसके बाद ‘फाउंडेशन टू एजुकेट गर्ल्स ग्लोबली' एनजीओ की स्थापना की, जिसे ‘एजुकेट गर्ल्स' भी कहा जाता है। इस एनजीओ ने अपने काम की शुरुआत राजस्थान से की। वहां उन्होंने लड़कियों की शिक्षा के मामले में सबसे जरूरतमंद समुदायों की पहचान की।
ऐसी लड़कियां जो कभी स्कूल नहीं गई थीं या स्कूल छोड़ चुकी थीं, उनकी पहचान की गई और वापस स्कूल ले जाया गया। साल 2015 में इस एनजीओ ने कई नई पहलें कीं। उन्होंने दुनिया का पहला डेवलपमेंट इंपैक्ट बॉन्ड (डीआईबी) लॉन्च किया, जिसका मकसद आर्थिक मदद को हासिल किए गए लक्ष्यों से जोडऩा था। उनका यह प्रोजेक्ट खासा सफल रहा।
क्या किसी राज्यपाल को विधानसभा में पारित किसी विधेयक को अनिश्चितकाल तक रोकने का अधिकार है? हाल के महीनों में इस मुद्दे पर उपजे टकराव को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट की पांच-सदस्यीय संविधान पीठ में सुनवाई चल रही है।
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी का लिखा-
पश्चिम बंगाल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी है कि किसी विधेयक को मंजूरी देने का मुद्दा पूरी तरह राज्यपाल के विवेक पर छोडऩे का मतलब आम लोगों की इच्छा को नकारना है। राज्यपाल को विधानसभा में पारित किसी विधेयक की विधायी क्षमता की जांच करने का कोई अधिकार नहीं है। कोई व्यक्ति अदालत में किसी कानून को भले चुनौती दे सकता है। लेकिन राज्यपाल इसे रोक नहीं सकते।
दरअसल, पश्चिम बंगाल के अलावा केरल, हिमाचल, कर्नाटक और तमिलनाडु में हाल के महीनों में कई ऐसे मामले सामने आए हैं जब राज्यपाल ने कई विधेयकों को रोक कर रखा हो और बार-बार सरकार से सफाई मांग रहे हों। इस मुद्दे पर टकराव और बयानबाजी का दौर भी तेज रहा है।
पश्चिम बंगाल के मामले को ही लें तो बीते साल कोलकाता के आर।जी। कर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में एक जूनियर डॉक्टर के साथ रेप और उसकी हत्या की घटना के बाद राज्य सरकार ने सदन में अपराजिता विधेयक पारित किया था। इसके तहत 12 साल तक की उम्र की लड़कियों के साथ रेप के दोषियों को अनिवार्य रूप से मौत की सजा देने का प्रावधान था। इसके अलावा ऐसे मामलों के लिए अलग से फास्ट ट्रैक कोर्ट बना कर 21 दिनों में सुनवाई पूरी करने जैसे कई कड़े प्रावधान रखे गए थे। सरकार ने इसे मंजूरी के लिए राज्यपाल के पास भेजा था। लेकिन महीनों लटकाने और कई बार विभिन्न बिंदुओं पर सफाई मांगने के बाद उन्होंने इसे राष्ट्रपति के पास बेज दिया। वहां से यह विधेयक फिर राजभवन होते हुए सरकार को पास लौट आया है।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कई बार विधेयकों को मंजूरी देने में अनावश्यक देरी पर असंतोष जताती रही हैं। ममता आरोप लगा चुकी हैं कि विधेयकों को रोक कर राज्यपाल आनंद बोस राज्य प्रशासन को पंगु बनाने का प्रयास कर रहे हैं।
संविधान पीठ कर रही है सुनवाई
इस विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी।आर। गवई की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय संविधान पीठ इस विवाद की लगातार सुनवाई कर रही है। संविधान पीठ सामने यह सवाल भी है कि क्या अदालत राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपालों और राष्ट्रपति के विचार करने के लिए कोई समय सीमा निर्धारित कर सकती है।
बुधवार को इस मामले की सुनवाई के दौरान पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से पेश एडवोकेट कपिल सिब्बल ने कहा कि स्वाधीनता के बाद ऐसी कोई मिसाल नहीं मिलती जिसमें राष्ट्रपति ने जनता की इच्छा का हवाला देते हुए संसद में पारित किसी विधेयक को मंजूरी नहीं दी हो। उनकी दलील थी कि किसी विधेयक की विधायी क्षमता का जांच अदालतों में होनी चाहिए। किसी राज्यपाल को इसे मंजूरी देने से इंकार करने का अधिकार नहीं है।
राष्ट्रपति के सवाल
इस विवाद में अदालत के हस्तक्षेप के बाद बीती मई में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत मिली शक्तियों के तहत सुप्रीम कोर्ट से सवाल किया था कि क्या न्यायिक आदेश राज्य विधानसभाओं में पारित विधेयकों पर विचार करते समय राष्ट्रपति की ओर से विवेकाधिकार के प्रयोग के लिए समय सीमा निर्धारित कर सकते हैं? उन्होंने शीर्ष अदालत से कुल 14 सवाल पूछे थे। उसके बाद संविधान पीठ ने कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव की हद तक पहुंचते इस मुद्दे पर सुनवाई शुरू की थी।
दरअसल, इससे पहले इस साल आठ अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जे।बी।पादरीवाला और न्यायमूर्ति आर। महादेवन की खंडपीठ ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि किसी विधेयक पर तीन महीने के भीतर फैसला नहीं ले पाने की स्थिति में राष्ट्रपति को इसकी उचित वजह बतानी होगी। अदालत ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत उसे राष्ट्रपति के फैसले की समीक्षा का अधिकार है।
उसके बाद ही राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से उस फैसले पर स्पष्टीकरण मांगा था। इसमें पूछा गया था कि जब राज्यपाल के पास कोई विधेयक आता है तो उनके सामने कौन-कौन से संवैधानिक विकल्प होते हैं? क्या राज्यपाल फैसला लेते समय मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं? क्या राज्यपाल के फैसले को अदालत में चुनौती दी जा सकती है? उनका सवाल था कि अगर संविधान में राज्यपाल के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की गई है तो क्या कोर्ट कोई समय सीमा तय कर सकता है? क्या राष्ट्रपति के निर्णय को भी कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है? और क्या राष्ट्रपति के फैसलों पर भी कोर्ट समयसीमा तय कर सकता है?
राष्ट्रपति के इस प्रेसिडेंशियल रेफरेंस में ऐसे ही 14 सवाल थे।
आजकल स्मार्टफोन, टैबलेट और कंप्यूटर से भरी इस दुनिया में, बच्चों का किस उम्र में कितनी देर तक स्क्रीन देखना ठीक है? विशेषज्ञों की इस पर क्या राय है?
डॉयचे वैले पर आना कार्टहाउज का लिखा-
काफी रिसर्च और अध्ययन के बावजूद भी अभी तक यह साफ नहीं हो पाया है कि बच्चों के लिए कितनी स्क्रीन टाइम सुरक्षित है और इसके लिए कोई अंतरराष्ट्रीय मानक भी नहीं है। जैसे हर बच्चा अलग होता है, वैसे ही उनकी जरूरतें भी अलग होती हैं। जब तक विज्ञान सही राय देने के लिए पर्याप्त डाटा जुटा पाता है। तब तक तकनीक और समाज कई कदम आगे बढ़ चुका होता है।
ऐसे में डॉक्टर, मनोवैज्ञानिक, नशा विशेषज्ञ और मीडिया शिक्षा से जुड़े लोग कुछ बुनियादी सिद्धांतों पर सहमत हैं। यह सिद्धांत बच्चों की उम्र और उनके विकास के चरणों से जुड़े होते हैं और दुर्घटना से ‘सावधानी बेहतर है’ वाले नियम पर चलते हैं। मतलब, बाद में पछताने से बेहतर है कि पहले से ही यह मानकर चला जाए कि इलेक्ट्रॉनिक उपकरण नुकसान पहुंचा सकते हैं।
दुनिया को जानने-समझने के लिए होते हैं जीवन के शुरुआती साल
जर्मनी में बच्चों के लिए एक ही नारा है, ‘तीन साल तक स्क्रीन से दूरी है जरूरी।’ बच्चों के लिए मीडिया गाइडलाइंस बनाने वाली बाल रोग विशेषज्ञ, उलरीके गैसर कहती हैं कि इस उम्र में बच्चों को स्क्रीन की कोई जरूरत नहीं होती है।
हालांकि, विश्व स्वास्थ्य संगठन इस पर थोड़ा नरम रुख अपनाता है। उनके अनुसार दो साल से ऊपर के बच्चों के लिए स्क्रीन टाइम एक घंटे से ज्यादा नहीं होना चाहिए, बल्कि जितना कम हो तो उतना अच्छा है।
जीवन के पहले एक से दो साल में बच्चों के लिए अपने आसपास की चीजों को देखना, छूना और समझना जरूरी होता है क्योंकि इस दौरान उनके ध्यान केंद्रित करने की क्षमता विकसित होती है। यह तभी संभव हो सकता है, जब वे खुद ध्यान लगाना सीखें, न कि किसी स्क्रीन जैसी चीज के सामने बैठकर।
गैसर मानती हैं कि बच्चों को यह भी सिखाना जरूरी है कि उनकी जरूरतें तुरंत पूरी नही हो सकती है। जैसे रोने और माता-पिता से खाना मिलने के बीच थोड़ा समय लगता है। बच्चे के लिए यह समझना जरूरी है कि दुनिया को एक स्वाइप या बटन दबाकर बदला या गायब नहीं किया जा सकता है। इंतजार करना और स्वीकार करना जिन्दगी की कुछ बुनियादी सीखों में से एक है।
बच्चों के विकास का समय छीनती है स्क्रीन
येना यूनिवर्सिटी की बाल मनोवैज्ञानिक, यूलिया असब्रांड कहती हैं, ‘बच्चे दुनिया को काफी अलग तरीके से देखते हैं।’ यह बात फिल्मों और सोशल मीडिया पर भी लागू होती है। छोटे बच्चे जो कुछ भी वे देखते हैं, वह उन्हें सच लग सकता है। जिससे वे डर भी सकते हैं। इसलिए माता-पिता का बच्चों से पूछना जरूरी है कि ‘तुमने अभी क्या देखा?’ और ‘क्या तुम्हें उसके बारे में कोई सवाल है?’
विशेषज्ञों की चिंता यह है कि स्क्रीन पर बिताया गया समय बच्चों के असली विकास के समय को छीन लेता है यानी वह समय जिसमें उन्हें अपनी शारीरिक क्षमताओं को विकसित करना चाहिए, लोगों से मिलना-जुलना और सामाजिक अनुभव लेना चाहिए था।
हाल में शोध दिखते हैं कि स्क्रीन के सामने बिताए गए हर एक मिनट में बच्चे अपने माता-पिता के मुकाबले औसतन छह शब्द कम सुनते हैं। लंबे समय में यह बड़ी कमी पैदा कर देती है।
जितना ज्यादा समय बच्चे अकेले स्क्रीन के सामने बैठेंगे, उतनी ही उनकी भाषा कौशल बाद में कमजोर हो सकती है। स्क्रीन टाइम कम करने से बच्चों की भाषा, ध्यान, सामाजिक व्यवहार और हाथ-पैरों की बारीक गतिविधियों में सुधार देखा जा सकता है।
किंडरगार्टन:मेलजोल और कल्पना की दुनिया
बच्चे जब तक स्कूल नहीं जाते, तब तक उनके लिए यह बहुत जरूरी है कि वे अपने आसपास की दुनिया को देखे, चीजों को महसूस करें, जगह को समझें और दूसरों के साथ मेलजोल बढ़ाये। गैसर कहती हैं कि बच्चों को हर दिन कुछ घंटों तक ऐसा अनुभव मिलना चाहिए। जिसमें खेल के दौरान बच्चे सीखे कि दूसरों के विचार अलग भी हो सकते हैं और ऐसे में उन्हें बातचीत, जिद या समझौते का सहारा लेना पड़ सकता है और कभी-कभी कोई भी तरीके काम नहीं करते हैं।
यह समय बच्चों की कल्पना शक्ति विकसित करने के लिए जरूरी है। ताकि बच्चे दुनिया को समझना और गढऩा सीख सके ताकि वह खुद अपनी कल्पना से दुनिया बना सके। ऐसे में अगर उन्हें बार-बार स्क्रीन पर बनी बनाई चीजें दिखाई जाएंगी, तो उनकी कल्पना धीरे-धीरे कमजोर हो सकती है। इसलिए गैसर सलाह देती हैं कि इस उम्र में स्क्रीन टाइम को अधिकतम 30 मिनट तक ही सीमित रखना जरूरी है।
प्राथमिक स्कूल में मूल्यों की सीख
लगभग छह से नौ साल की उम्र के बीच बच्चे पहली बार अपने अंदर नैतिक दिशा-निर्देश विकसित करना शुरू करते हैं। ऐसे में गैसर पूछती है कि ‘क्या हम यह जिम्मेदारी इंटरनेट पर छोडऩा चाहते हैं?’ क्योंकि यही उम्र है, जब बच्चे अनुशासन, मेहनत, ज्ञान हासिल करने और खुद पर भरोसा करना सीखते हैं, न कि सिर्फ इंटरनेट पर मिली जानकारी पर निर्भर रहना। जर्मनी में इस उम्र के लिए सलाह दी जाती है कि बच्चों को अधिकतम 30 से 45 मिनट का स्क्रीन टाइम, वह भी माता-पिता की निगरानी में ही दिया जाए।
हालांकि, कम स्क्रीन टाइम हमेशा बेहतर है, लेकिन आजकल बहुत सी बातचीत डिजिटल प्लेटफॉर्म पर होती है। जैसा बाल मनोवैज्ञानिक, असब्रांड कहती हैं, ‘आपको एक के बदले दूसरी चीज से सौदा करना पड़ता है।’ उदाहरण के लिए, अगर बच्चा अपनी क्लास के व्हाट्सऐप ग्रुप में नहीं है, तो उसे अलग-थलग किया जा सकता है। खासकर आने वाले जीवन में यह स्थिति बच्चों के लिए और भी मुश्किल हो सकती है, इसलिए इसे पूरी तरह से नजरअंदाज करना भी ठीक नहीं है।
किशोरों की निगरानी मुश्किल
विशेषज्ञ मानते हैं कि बच्चों को स्मार्टफोन से पूरी तरह दूर रखना अब संभव नहीं है। इसलिए अब असली सवाल यह है कि मीडिया के बेहतर उपयोग की परिभाषा क्या हो सकती है। जर्मनी में डॉक्टर सलाह देते हैं कि 9 से 12 साल के बच्चों के लिए फुर्सत के समय में अधिकतम 45 से 60 मिनट स्क्रीन टाइम हो सकता है, 12 से 16 साल के बच्चों के लिए अधिकतम 1 से 2 घंटे और 16 से 18 साल के लिए लगभग 2 घंटे हो सकता है।
इस उम्र में बच्चे अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश करते हैं इसलिए माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों से खुलकर सवाल पूछें और उन्हें यह दिखाने का मौका दें कि वे ऑनलाइन क्या देख रहे हैं। असब्रांड कहती हैं, ‘सबसे बड़ी समस्या तब होती है, जब बच्चे छुपकर कुछ करते हैं। जिस कारण उन्हें ग्रूमिंग जैसी खतरनाक स्थितियों का सामना करना पड़ सकता है।’ (ग्रूमिंग यानी जब कोई वयस्क बुरी नीयत से बच्चे का विश्वास जीतने की कोशिश करता है) कभी-कभी बच्चे माता-पिता से यह बात साझा करने की हिम्मत नहीं कर पाते, क्योंकि उन्हें डर होता है कि ‘मुझे यह नहीं करना चाहिए था।’
-उमंग पोद्दार
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस अभय श्रीनिवास ओक का मानना है कि आज अभिव्यक्ति की आज़ादी और पर्सनल लिबर्टी यानी व्यक्तिगत आज़ादी जैसे मौलिक अधिकार खतरे में हैं।
उनका कहना है, ‘सत्ता में चाहे कोई भी पार्टी हो, अगर आप इतिहास देखें, तो सरकारों की इन मौलिक अधिकारों पर हमला करने की प्रवृत्ति हमेशा रही है।’
जस्टिस अभय ओक ने कऱीब 22 साल जज के तौर पर काम किया। वे इसी साल मई में सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हुए। इससे पहले वे बॉम्बे हाई कोर्ट के न्यायाधीश और कर्नाटक हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस रह चुके थे।
न्यायपालिका कैसे बदली है? न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे होती है? कैसे आज मौलिक अधिकार खतरे में हैं? बीबीसी हिन्दी से खास बातचीत में जस्टिस ओक ने इन्हीं सवालों के जवाब दिए हैं।
जस्टिस ओक बोले- ख़तरे में हैं मौलिक अधिकार
जस्टिस अभय ओक सुप्रीम कोर्ट के ऐसे कई अहम फैसलों का हिस्सा रहे हैं, जिनमें नागरिकों की व्यक्तिगत आजादी पर जोर दिया गया। इन फैसलों में लोगों को जमानत देना और प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी की शक्तियों पर लगाम लगाने जैसे फैसले भी शामिल हैं।
जस्टिस ओक ने अपने कई सार्वजनिक भाषणों में न्यायपालिका की आज़ादी पर ज़ोर दिया है। वह यह भी कहते रहे हैं कि जजों को किसी को नाराज करने से घबराना नहीं चाहिए।
हाल में ही एक भाषण में जस्टिस अभय ओक ने कहा था कि नागरिकों के मौलिक अधिकार किसी न किसी रूप में हमेशा खतरे में रहते हैं। हमने उनसे पूछा कि उनकी नजर में ऐसे कौन से अधिकार हैं जो आज खतरे में हैं?
उन्होंने कहा कि दो अधिकार उनके दिमाग में आते हैं। एक, अभिव्यक्ति की आजादी और दूसरा, पर्सनल लिबर्टी, यानी व्यक्तिगत आजादी का अधिकार।
उन्होंने कहा, ‘मैं यह नहीं कह रहा कि बोलने की आज़ादी केवल कार्यपालिका की वजह से ख़तरे में है। यह नागरिकों की वजह से भी खतरे में है। हम नागरिक एक-दूसरे के बोलने की आजादी की इज़्जत नहीं कर रहे हैं।’ उनकी राय है कि हर नागरिक का कर्तव्य है कि वह संविधान के दिए गए मौलिक अधिकारों की इज़्जत करे। जस्टिस अभय ओक कहते हैं, ‘हमें सच सुनना पसंद नहीं है।’
संविधान में व्यक्तिगत आज़ादी के अधिकार के बारे में उन्होंने कहा, ‘सिर्फ इसलिए कि आपके खिलाफ कोई अपराध का इल्जाम है, आपको गिरफ्तार करना जरूरी नहीं। अभियुक्त को गिरफ्तार किए बिना भी जाँच चल सकती है।’
‘कई ऐसे मामले हैं, जिनमें हम देखते हैं कि लोगों को झूठे मामलों में फंसाया जाता है और उन्हें ज़मानत नहीं मिलती। यह भी अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।’
संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत भारत में सभी को जीवन और व्यक्तिगत आज़ादी का मौलिक अधिकार है।
हमने सवाल किया कि वे ‘राजद्रोह’ कानून के बारे में क्या सोचते हैं? यह अभी भी ‘भारतीय न्याय संहिता’ के तहत अपराध है।
उन्होंने कहा, ‘मेरी व्यक्तिगत राय है कि हमें ‘राजद्रोह’ से जुड़े क़ानून पर फिर से विचार करना चाहिए।’
महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति पर क्या बोले जस्टिस ओक?
कॉलेजियम व्यवस्था के तहत सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए सरकार के पास नामों की सिफ़ारिश भेजते हैं। सरकार इन नामों पर विचार करने के बाद उन्हें नियुक्त करती है। हमने उनसे जानना चाहा कि क्या कॉलेजियम जजों की नियुक्ति के लिए सही व्यवस्था है?
उन्होंने जवाब दिया कि कॉलेजियम व्यवस्था में अलग-अलग लोगों के विचार शामिल होते हैं। जैसे, इंटेलिजेंस ब्यूरो, केंद्र सरकार और राज्य सरकार।
उन्होंने कहा, ‘कॉलेजियम व्यवस्था में कुछ खामियां हो सकती हैं। ऐसा भी हो सकता है कि हम कॉलेजियम व्यवस्था को ठीक से लागू नहीं कर रहे हैं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि अभी इससे बेहतर कोई व्यवस्था है। हम ऐसी व्यवस्था नहीं रख सकते जिसमें कार्यपालिका (सरकार) को वीटो का अधिकार हो।’
इस साल 25 अगस्त को कॉलेजियम ने सुप्रीम कोर्ट के लिए दो हाई कोर्ट के न्यायाधीशों के नाम की सिफारिश की थी।
वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने इन सिफारिशों की आलोचना की। इनमें किसी महिला जज का नाम शामिल नहीं था। उनके मुताबिक, कम से कम तीन महिला जज, सिफारिश किए गए एक न्यायाधीश से सीनियर थीं।
सुप्रीम कोर्ट में आखिरी बार महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति साल 2021 में हुई थी।
इस बारे में पूछे जाने पर जस्टिस अभय का कहना था, ‘कम से कम एक महिला जज को हाई कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नति के लिए विचार किया जाना चाहिए था। मैं इस पर टिप्पणी नहीं कर सकता कि उन्होंने उन तीन महिला न्यायाधीशों को क्यों नहीं चुना जो सिफारिश किए गए एक न्यायाधीश से सीनियर थीं।’
उन्होंने कहा, ‘मैं व्यक्तिगत रूप से महसूस करता हूं कि इन महिला जजों के बारे में विचार किया जाना चाहिए था।’
न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर जस्टिस ओक की राय
हमने जस्टिस अभय ओक से यह भी पूछा कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार का मुद्दा कितना बड़ा है?
उन्होंने कहा, ‘अगर कोई प्रामाणिक रूप से कह रहा है कि (न्यायपालिका में) भ्रष्टाचार है तो मैं इसे नकारने की स्थिति में नहीं हूं।’
उनके अनुसार कुछ मामलों में हो सकता है कि कोई दलाल किसी जज का नाम इस्तेमाल करके मुवक्किलों या वकीलों से पैसा ले ले और जज को पता तक न हो।
जब हमने उनसे जानना चाहा कि क्या उन्होंने भ्रष्टाचार का कोई उदाहरण देखा है, तो जस्टिस अभय ओक ने कहा, हमें ट्रायल कोर्ट के न्यायाधीशों के बारे में (भ्रष्टाचार की) शिकायतें मिलती हैं। हालांकि, मुझे कभी ऐसा मामला नहीं मिला, जिसमें बहुत ठोस सबूत हों।’
दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस यशवंत वर्मा के आवास पर कथित रूप से बड़ी मात्रा में नकदी मिली थी। उनके खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। हमने इस विवाद पर उनकी राय जाननी चाही।
जस्टिस अभय ओक ने इस पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि वह उस कॉलेजियम का हिस्सा थे, जिसने जस्टिस यशवंत वर्मा को दिल्ली से इलाहाबाद हाई कोर्ट ट्रांसफऱ किया था।
कोर्ट से ज़मानत कब मिलती है?
कई मामले ऐसे हैं, जिनमें लोग सालों से जेल में हैं। उन्हें जमानत नहीं मिलती, मुक़दमा भी शुरू नहीं होता। जैसे, साल 2020 के दिल्ली दंगों के मामले में कई अभियुक्त लगभग पांच सालों से जेल में हैं। वे ऐसे मामलों के बारे में क्या सोचते हैं?
जस्टिस अभय ओक ने जवाब दिया, ‘इस मामले में क़ानून बहुत साफ़ है। जब अदालत को लगे कि मुकदमे में बहुत ज़्यादा देरी हो रही है। मुक़दमा शुरू होने वाला नहीं है तो कोर्ट को ज़मानत देनी होती है। सिर्फ कुछ ख़ास मामलों को छोड़ दें, जिनमें अभियुक्त का पुराना आपराधिक इतिहास हो या वह ‘हिस्ट्री-शीटर’ हो।’
इसी सिलसिले में हमने उनसे यह भी जानना चाहा कि क्?या यह न्यायाधीश पर निर्भर करता है कि वे किसी को ज़मानत देना चाहते हैं या नहीं? उन्होंने जवाब दिया, ‘मुझे लगता है न्यायिक दृष्टिकोण एक समान होना चाहिए।’
उनके मुताबिक, खासकर ऐसे मामलों में जमानत देनी चाहिए, जिनमें मुकदमा लंबे वक्त से शुरू नहीं हुआ हो। बिना मुकदमा शुरू हुए कोई लंबे वक्त से जेल में पड़ा हो।
क्या जजों पर मीडिया का दबाव होता है?
जस्टिस अभय ओक लंबे वक्त तक न्यायाधीश रहे हैं। उन्होंने इस दौरान न्यायपालिका को कैसे बदलते हुए देखा?
इस बारे में जस्टिस ओक कहते हैं कि न्यायपालिका कई मायनों में बदली है। उनके अनुसार वकील अब लंबी दलीलें देने लगे हैं।
वह कहते हैं, ‘पहले लोग मजिस्ट्रेट कोर्ट या सेशंस कोर्ट से ज़मानत पा लेते थे। अब कई बार उन्हें हाई कोर्ट जाना पड़ता है।’
डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में ज़मानत मिलना क्यों मुश्किल होता है, इस सवाल पर उन्होंने कहा कि कारण बताना मुश्किल है। उनकी राय है, ‘शायद मीडिया कवरेज या जज के दृष्टिकोण में बदलाव की वजह से। या इन सब वजहों की मिली-जुली बात भी हो सकती है।’
क्या अदालती कार्यवाहियों की ज़्यादा मीडिया कवरेज का असर जजों पर भी हुआ है?
इस सवाल पर जस्टिस अभय ओक ने कहा, ‘यह सब अलग-अलग न्यायाधीशों पर निर्भर करता है। शायद कुछ जज सोचते होंगे कि उनके फ़ैसले को कैसे देखा जाएगा। लेकिन आज भी कई जज हैं जिन्हें इन सबकी परवाह नहीं होती।’
हालाँकि, उन्होंने यह भी जोड़ा, ‘कुछ हाई कोर्ट के फ़ैसलों से मुझे लगा कि शायद न्यायाधीश पर मीडिया में कवरेज का असर पड़ा है।’
उन्होंने ऐसे मामलों का जिक्र किया, जिनमें किसी को केवल छह महीने के लिए ज़मानत दी गई, जबकि यह साफ़ था कि मुकदमा खत्म होने में सालों लगेंगे।
-अशोक पांडेय
हवा को बींधती हुई इन पतली नोकीली मूंछों को आपने कभी न कभी जरूर देखा होगा। साल 2010 में हुए एक ओपिनियन पोल में इन्हें मानव सभ्यता की सबसे विख्यात मूंछें चुना गया। ये साल्वाडोर डाली की मूंछें है।
आधुनिक युग की सबसे बड़ी चित्रकार त्रयी वान गॉग-पिकासो-डाली में सबसे आकर्षक और विवादास्पद व्यक्तित्व के स्वामी साल्वाडोर डाली 1904 में स्पेन के फिगेरेस कसबे में जन्मे थे। मैड्रिड की आर्ट एकेडमी में पढ़ते हुए उन्होंने घोषित किया कि उनके काम को जज करने की औकात वहां की किसी भी फैकल्टी की नहीं है। उन्हें निकाल दिया गया। इसके बाद वे सीधे पेरिस गए जहां पाब्लो पिकासो और आंद्रे ब्रेतों से उनकी गहरी दोस्ती हुई। उसके बाद इनकी अगुवाई में बीसवीं सदी की चित्रकला का नया इतिहास लिखा गया। बेहद रंगबिरंगी और विवादों से भरपूर सृजनात्मक जिन्दगी जी चुकने के बाद 85 साल का होने के बाद डाली उसी फिगेरेस में मरे जहाँ पैदा हुए थे।
बहुत से मूंछ विशेषज्ञ आज भी मानते हैं कि इनके पीछे सत्रहवीं शताब्दी के बहुत बड़े चित्रकार दीएगो वेलास्केज की प्रेरणा थी। अलबत्ता जनवरी 1954 को एक अमेरिकी टीवी गेम-शो में हिस्सा लेते हुए साल्वाडोर डाली से जब पूछा गया -
‘ये आपकी मूंछ है या कोई लतीफा?’
अपनी ट्रेडमार्क मूंछ को हवा में दुलराते करते हुए डाली ने कहा था -
‘यह मेरी पर्सनालिटी का सबसे गंभीर हिस्सा है। यह एक साधारण हंगेरियन मूंछ है।’
प्रश्नकर्ता ने आगे जिज्ञासा जाहिर की कि वे उन्हें उस तरह हवा में खड़ा कैसे रख लेते हैं। इसपर डाली ने बताया कि वे अपनी मूंछों पर उसी ब्रांड का पोमेड इस्तेमाल किया करते हैं जिसे उनकी पिछली पीढ़ी के विश्वविख्यात फ्रेंच लेखक मार्सेल प्रूस्त किया करते थे। इस कदर प्रतिष्ठित साहित्यिक-कलात्मक विरासत से सृजित की गयी इन मूंछों को दुनिया भर में ख्याति मिलनी ही थी।
डाली के एक दोस्त होते थे फिलिप हॉल्समैन। अपने समय के सबसे बड़े फोटोग्राफरों में गिने जाने वाले फिलिप हॉल्समैन ने डाली के साथ मिल कर 1954 में ही उनकी मूंछों पर एक फोटो-बुक छपाई ‘डालीज़ मुस्टाश’। यह दो दोस्तों के बीच एक एब्सर्ड शाब्दिक और फोटोग्राफिक संवाद था जो अपने प्रकाशन के कुछ ही महीनों बाद एक कल्ट बन गया। दोनों ने किताब अपनी-अपनी बीवियों को समर्पित की। हॉल्समैन ने अपनी बीवी के लिए लिखा- ‘इवोन को जिसकी वजह से मुझे रोज़ हजामत करनी पड़ती है।’
उसी किताब को अपनी बीवी को डाली ने यूं समर्पित किया- ‘गाला नाम के फ़रिश्ते के लिए जो मेरी मूंछों की रखवाली भी करती है।’
किताब में डाली और उसकी मूंछों के कुल 28 फोटो हैं जिनमें से आखिऱी वाली के साथ दोनों के बीच हुए एक संवाद में हॉल्समैन पूछते हैं, ‘साल्वाडोर, अब जबकि मैं तुम्हारी मूंछों का राज जान गया हूँ, मुझे लगने लगा है तुम शायद पागल हो।’ डाली ने उत्तर दिया, ‘लेकिन यह निश्चित है कि मैं हर उस शख्स से कम पागल हूँ जिसने इस किताब को खरीद लिया है।’
डाली की मौत के बीस साल बाद मारिया पीलार आबेल नाम की एक औरत ने दावा किया कि वह डाली की अवैध संतान है और उसे अपने बाप की अकूत संपत्ति में हिस्सा मिलना चाहिए। लंबा कानूनी विवाद खींचा और आखिरकार 2017 में कोर्ट के आदेश पर डीएनए टेस्ट के लिए डाली के शरीर को कब्र से बाहर निकाला गया। डीएनए मैच नहीं हुआ और मारिया केस हार गयी।
-कैटी के
पिछले पाँच सालों में करियर प्लेटफॉर्म लिंक्डइन ने लगभग पाँच लाख लोगों से पूछा कि वे अपने करियर को लेकर कैसा महसूस करते हैं। इस साल के नतीजे साफ हैं। युवा बाकी सभी उम्र के मुकाबले कहीं ज़्यादा निराश नजऱ आ रहे हैं।
हेडलाइंस देखकर उनकी निराशा समझी जा सकती है। हर जगह ये खबरें आ रही हैं कि नए कॉलेज ग्रेजुएट्स के लिए पहली जॉब पाना कितना मुश्किल हो गया है।
2023 से अब तक अमेरिका में एंट्री-लेवल जॉब्स के विज्ञापन 35 फ़ीसदी से ज़्यादा घट गए हैं। लिंक्डइन के डेटा बताते हैं कि सर्वे में शामिल 63 प्रतिशत एग्जीक्यूटिव्स मानते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस अब वो काम करने लगेगा जिन्हें अभी एंट्री-लेवल एम्प्लॉइज़ संभालते हैं।
इस बात पर अलग-अलग राय है कि असली वजह एआई है या नहीं। लेकिन लिंक्डइन के नए नतीजे बताते हैं कि प्रोफेशनल्स सचमुच चिंतित हैं। 41 फ़ीसदी प्रोफेशनल्स का कहना है कि एआई में हो रहे तेज़ बदलाव उनकी मेंटल हेल्थ पर असर डाल रहे हैं।
इसी मुद्दे पर मैंने लिंक्डइन के चीफ़ इकोनॉमिक अपॉर्च्युनिटी ऑफि़सर अनीश रमन से बात की। उन्होंने हाल ही में न्यूयॉर्क टाइम्स में एक आर्टिकल लिखा था, जिसमें करियर की सीढ़ी टूटने और युवाओं पर उसके असर के बारे में बताया गया।
इस बातचीत में उन्होंने कई प्रैक्टिकल सुझाव दिए। ख़ास तौर पर ये कि आने वाले समय में युवाओं को किन स्किल्स की ज़रूरत होगी और क्यों करियर ग्रोथ का सीधा और तय रास्ता अब पहले जैसा भरोसेमंद नहीं रह गया है।
एंट्री लेवल जॉब्स पाना कितना मुश्किल?
कैटी के: मैं लगातार हेडलाइंस देख रही हूँ कि हाल ही में कॉलेज से निकले युवाओं के लिए एंट्री-लेवल जॉब्स पाना बहुत मुश्किल हो रहा है। असल में क्या हो रहा है और यह कितना गंभीर है?
अनीश रमन: यह सच है और बहुत अहम भी है। एंट्री-लेवल वर्कर्स और नए ग्रेजुएट्स एक तरह के ‘परफेक्ट स्टॉर्म’ का सामना कर रहे हैं। एक तरफ मैक्रोइकोनॉमिक माहौल की अनिश्चितता है जो हायरिंग पर असर डाल रही है। दूसरी तरफ एआई से होने वाला शुरुआती बदलाव भी नजऱ आ रहा है। नतीजा यह है कि युवाओं और नए ग्रेजुएट्स की बेरोजग़ारी नेशनल एवरेज से ज़्यादा है। हमारी स्टडीज़ के मुताबिक, जेन ज़ी अपने भविष्य को लेकर सबसे ज़्यादा निराश है।
लेकिन यही वह समय है जब स्थिर करियर पाथ से डायनेमिक करियर पाथ की ओर बढ़ा जा रहा है। इसे चार्ल्स डिकेन्स के शब्दों में कहें तो ‘यह सबसे अच्छा समय है और सबसे बुरा भी।’ मेरी राय में अगर करियर शुरू करने के लिए किसी एक पल को चुनना हो, तो यह वाकई बेहतरीन समय है। एआई के असर और इस बदलाव की प्रक्रिया के बाद एक नई इकोनॉमी बनेगी, जिसमें लोगों के पास अपने करियर बनाने के और ज़्यादा ऑप्शंस होंगे।
कैटी के: क्या कुछ ग्रेजुएट्स बाकी से ज़्यादा मुश्किल झेल रहे हैं? दस साल पहले हम सब चाहते थे कि हमारे बच्चे कंप्यूटर साइंस पढ़ें। क्या अब हमें उन्हें किसी और सेक्टर की पढ़ाई की ओर ले जाना चाहिए?
अनीश रमन:कंप्यूटर साइंस तब भी और आज भी नॉलेज इकोनॉमी का सबसे बड़ा चेहरा रहा है। लेकिन नॉलेज इकोनॉमी अब ख़त्म होने की ओर है और हम एक नई इकोनॉमी में प्रवेश कर रहे हैं। मैंने पिछले साल न्यूयॉर्क टाइम्स में इसी विषय पर एक आर्टिकल लिखा था जिसमें हमारे डेटा का जिक्र था।
उसमें पाया गया कि एक औसत कंप्यूटर सॉफ्टवेयर इंजीनियर के काम का 96 प्रतिशत हिस्सा या तो तुरंत या जल्द ही एआई से किया जा सकता है। इसका मतलब यह नहीं है कि ये जॉब्स खत्म हो जाएंगी, बल्कि यह कि कंप्यूटर साइंटिस्ट होने का मतलब बदल जाएगा।
अब हम यह भी देख रहे हैं कि एंप्लॉयर पूछते हैं, ‘अगर आपके पास कंप्यूटर साइंस की डिग्री है, तो क्या आपके पास फिलॉसफी में माइनर भी है ताकि आप मुझे यह सोचने में मदद कर सकें कि मैं जो बना रहा हूँ उसके एथिकल पहलू क्या होंगे।’
पहले करियर का रास्ता सीधा और तय था। ‘मैंने यह डिग्री ली है, अब मुझे वह जॉब दो।’ यह तरीका तब तक सही था जब तक आप डिग्री ले पाते। लेकिन यह उन लोगों के लिए ठीक नहीं था जो डिग्री का खर्च नहीं उठा सकते थे या जिनका बैकग्राउंड ऐसा नहीं था कि आसानी से डिग्री तक पहुंच पाते। अब सिफऱ् इतना कहना कि ‘मेरे पास डिग्री है’ काफी नहीं है। अब यह बताना ज़रूरी है कि उस डिग्री के असली मायने क्या हैं।’
मुझे लगता है कि आने वाले समय में रिटेल जॉब्स की अहमियत पहले से कहीं ज़्यादा होगी। नॉलेज इकोनॉमी में इन्हें उतना महत्व नहीं मिला, लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। अगर आप बता सकें कि आपने ऐसी जॉब की है जहाँ आपको लचीलापन और बदलाव के साथ तालमेल बिठाना पड़ा, तो यही वो स्किल्स हैं जिन्हें एंप्लॉयर ढूंढ रहे हैं। हम सबके पास अलग-अलग अनुभव हैं, अलग एनर्जी है और अलग सहनशक्ति है। आगे हायरिंग इन्हीं गुणों पर होगी और इन्हें सही तरीके से सामने रखना हमारे अपने हाथ में है।
वैश्विक स्तर पर सेमीकंडक्टर बाजार 600 अरब डॉलर का हो चुका है और भारत इस बाजार में एक बड़ी हिस्सेदारी हासिल करना चाहता है. पीएम मोदी का कहना है कि भारत में बनी छोटी चिपें, दुनिया में बड़ा बदलाव लेकर आएंगी.
डॉयचे वैले पर आदर्श शर्मा का लिखा-
भारत ने अपनी पहली स्वदेशी सेमीकंडक्टर चिप बनाने में सफलता हासिल कर ली है. केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने मंगलवार, 2 सितंबर को यह चिप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सौंपी. इस चिप को विक्रम नाम दिया गया है और इसे भारत की अंतरिक्ष एजेंसी इसरो की सेमीकंडक्टर लैब ने तैयार किया है. यह एक पूरी तरह से भारत में बना 32-बिट माइक्रोप्रोसेसर है, जिसे रॉकेटों में इस्तेमाल करने के लिए बनाया गया है.
इंडिया टुडे की खबर के मुताबिक, विक्रम चिप को इस हिसाब से बनाया गया है कि वह अत्यधिक तापमान और अंतरिक्ष की विषम परिस्थितियों का सामना कर सके. यह चिप पर्याप्त मात्रा में मेमोरी को संभाल सकती है और रॉकेटों की लॉन्चिंग के लिए जरूरी जटिल निर्देशों का पालन कर सकती है. इन खूबियों की वजह से इस चिप को रक्षा, विमानन, ऑटोमोटिव और ऊर्जा जैसे जरूरी क्षेत्रों में भी इस्तेमाल किया जा सकता है.
नई दिल्ली में सेमीकॉन इंडिया कॉन्फ्रेंस के उद्घाटन समारोह में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि सेमीकंडक्टर निर्माण के क्षेत्र में भारत की यात्रा भले ही देरी से शुरू हुई हो, लेकिन अब अब भारत को कोई नहीं रोक सकता. उन्होंने यह भी कहा कि वह दिन दूर नहीं है, जब भारत में बनी छोटी से छोटी चिपें, दुनिया में सबसे बड़े बदलाव लेकर आएंगी. उन्होंने चिप इनोवेशन के क्षेत्र में भारत को भविष्य का "वैश्विक केंद्र” भी बताया.
भारत में कब बननी शुरू होंगी सेमीकंडक्टर चिप
सेमीकॉन कॉन्फ्रेंस में अपने संबोधन में पीएम मोदी ने कहा कि वैश्विक स्तर पर सेमीकंडक्टर बाजार 600 अरब डॉलर का हो चुका है और आने वाले सालों में इसके एक हजार अरब डॉलर से अधिक का होने की उम्मीद है. उन्होंने भरोसा जताया कि सेमीकंडक्टर क्षेत्र में भारत के आगे बढ़ने की गति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भारत इस एक हजार अरब डॉलर के बाजार में अहम हिस्सेदारी हासिल करेगा.
उन्होंने बताया कि साल 2021 में सेमीकॉन भारत कार्यक्रम शुरू किया गया था. 2023 में भारत के पहले सेमीकंडक्टर प्लांट को स्वीकृति दी गई. 2024 में कई और प्लांटों को स्वीकृति मिली और 2025 में पांच अन्य परियोजनाओं को भी मंजूरी दी गई. उन्होंने आगे बताया कि फिलहाल दस सेमीकंडक्टर परियोजनाएं चल रही हैं, जिनमें 18 अरब डॉलर यानी 1.5 लाख करोड़ रुपये से अधिक का निवेश हुआ है.
पीएम मोदी ने बताया कि सीजी पावर कंपनी के पायलट प्लांट में 28 अगस्त, 2025 को काम शुरू हो चुका है और एक अन्य पायलट प्लांट में काम जल्द ही शुरू होने वाला है. इसके अलावा, टाटा और माइक्रोन के टेस्ट चिपों का पहले से ही उत्पादन हो रहा है. उन्होंने इस क्षेत्र में भारत की प्रगति को रेखांकित करते हुए कहा कि इस साल के अंत तक भारत में चिपों का वाणिज्यिक उत्पादन शुरू हो जाएगा.
इतनी जरूरी क्यों हैं ये छोटी सी चिप
सेमीकंडक्टर चिपें आधुनिक तकनीक का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. ये आकार में बहुत छोटी होने वाली चिपें, स्वास्थ्य सेवा, परिवहन, संचार और रक्षा से लेकर अंतरिक्ष क्षेत्र तक की जरूरी प्रणालियों को शक्ति प्रदान करती हैं. जैसे-जैसे दुनिया और ज्यादा डिजिटल और ऑटोमेटिक होने की दिशा में आगे बढ़ रही है, आर्थिक सुरक्षा और रणनीतिक स्वतंत्रता के लिए सेमीकंडक्टर चिपें बेहद जरूरी हो गई हैं.
पीएम मोदी ने इन चिपों को डिजिटल युग का हीरा बताया है. उन्होंने कहा कि जिस तरह पहले तेल को काला सोना कहा जाता था, उसी तरह अब चिप डिजिटल हीरा हैं. उन्होंने कहा कि 21वीं सदी की ताकत इन छोटी-छोटी चिपों में समाई हुई है, आकार में छोटी होने के बावजूद इन चिपों में वैश्विक प्रगति की गति बढ़ाने की क्षमता है.
भारत सरकार ने क्या किए प्रयास
सेमीकंडक्टर चिपों का उत्पादन शुरू करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने 2021 में इंडिया सेमीकंडक्टर मिशन (आईएसएम) शुरू किया था. इसके लिए सरकार ने 76 हजार करोड़ रुपये की उत्पादन आधारित प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना शुरू की थी. डिजाइन आधारित प्रोत्साहन योजना के तहत, स्टार्टअप्स और इनोवेटर्स की मदद करने के लिए 23 चिप डिजाइन परियोजनाओं को मंजूरी दी गई.
पीएम मोदी ने अपने संबोधन में कहा कि नोएडा और बेंगलुरु में विकसित किए जा रहे डिजाइन सेंटरों में दुनिया की कुछ सबसे आधुनिक चिपों पर काम हो रहा है और इन चिपों में अरबों ट्रांजिस्टर समा सकते हैं. उन्होंने कहा कि वैश्विक स्तर पर सेमीकंडक्टर क्षेत्र के सामने आने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए भी भारत सक्रिय रूप से काम कर रहा है.
-रजनीश कुमार
भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अपनी किताब ‘द इंडिया वे’ में लिखा है कि चीन बिना कोई युद्ध लड़े कई युद्ध जीत चुका है और अमेरिका बिना कोई युद्ध जीते कई युद्ध लड़ता रहा है।
जयशंकर अमेरिका और चीन को बख़ूबी समझते हैं लेकिन मुश्किल घड़ी में शायद आप समझ रखकर भी निर्णायक नहीं हो पाते हैं। ट्रंप के टैरिफ के बाद भारत के सामने ऐसी ही स्थिति है।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चीन दौरे पर अमेरिका में भी काफ़ी बहस हो रही है। अमेरिका में पीएम मोदी के दौरे को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से खऱाब हो रहे रिश्ते के आईने में देखा जा रहा है। केवल देखा ही नहीं जा रहा है बल्कि अमेरिकी मीडिया भारत को आगाह भी कर रहा है।
दरअसल, अमेरिका ने भारत पर 50 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाया है। अमेरिका का यह क़दम भारत की अर्थव्यवस्था के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं है।
अमेरिका ने पिछले साल भारत से 87.3 अरब डॉलर की क़ीमत का आयात किया था। यह भारत के कुल निर्यात का कऱीब 18 फ़ीसदी है। अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि ट्रंप के इस रुख़ से भारत का व्यापार घाटा बढ़ेगा और साथ ही यह इस साल भारत की जीडीपी को 0.5 प्रतिशत कम कर सकता है।
ऐसे में मोदी का चीन दौरा काफ़ी अहम हो जाता है।
मुंबई स्थित शोध संस्थान एक्सकेडीआर फोरम के सह-संस्थापक अजय शाह ने प्रोजेक्ट सिंडिकेट में लिखा है, ‘ट्रंप के टैरिफ़ से भारत की अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो सकती है। लेकिन इससे भी बड़ा ख़तरा यह है कि भारत की लंबी अवधि की रणनीतिक दिशा प्रभावित हो सकती है।’
ट्रंप के कारण भारत का बदला रुख़?
पीएम मोदी के चीन दौरे और शी जिनपिंग के साथ व्लादिमीर पुतिन से मुलाक़ात पर अमेरिकी प्रशासन की ओर से भारत की आलोचना थमी नहीं है। ट्रंप के सलाहकार पीटर नवारो आए दिन भारत को निशाने पर लेते रहते हैं।
रविवार को नवारो ने फॉक्स न्यूज़ से बातचीत में कहा, ‘मोदी महान नेता हैं लेकिन मैं यह समझ नहीं पा रहा हूँ कि वह पुतिन और शी जिनपिंग से कऱीबी क्यों बढ़ा रहे हैं। वह भी तब जब भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है।’
अमेरिकी मीडिया आउटलेट ब्लूमबर्ग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, ''चीन और भारत को ट्रंप के ट्रेड वॉर ने साथ आने की कोशिश को तेज़ कर दिया है। चीन और भारत के बीच 3,488 किलोमीटर सरहद लगती है लेकिन कोई स्वीकार्य सीमा रेखा नहीं है। दोनों देशों में सीमा विवाद है और ये आपस में उलझते रहते हैं।’
पीएम मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग की रविवार को चीन के तियानजिन में मुलाक़ात हुई थी। तियानजिन में ही एससीओ समिट चल रहा है।
शी जिनपिंग ने पीएम मोदी से मुलाक़ात में कहा था, ‘अंतरराष्ट्रीय हालात अस्थिर हैं। ऐसे में भारत और चीन के लिए यही उचित होगा कि दोनों ऐसे दोस्त बनें, जो अच्छे पड़ोसी के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखें। ऐसे साझेदार बनें जो एक दूसरे की सफलता में सहायक बनें।’
ब्लूमबर्ग से थिंक टैंक यूरेशिया ग्रुप में चीन और पूर्वोत्तर एशिया के वरिष्ठ विश्लेषक जर्मी चान ने कहा, ‘सीमा से जुड़े मुद्दों को छोड़ दें तो चीन और भारत कई क्षेत्रों में संबंध गहरा कर सकते हैं। दोनों देशों के बीच तनाव कहीं गया नहीं है। दोनों देशों के बीच पारस्परिक संदेह रहेगा। मोदी और शी जिनपिंग की बातचीत से रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता ख़त्म नहीं होने जा रही है।’
शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन (एससीओ) ने अपने बयान में जून 2025 में ईरान पर इसराइल और अमेरिकी हमले की निंदा की है। दूसरी तरफ़ इसी साल जून में भारत ने ईरान पर इसराइली हमले की निंदा वाले एससीओ के बयान से ख़ुद को अलग कर लिया था। ज़ाहिर है कि भारत के इस क़दम को भी ट्रंप के टैरिफ़ से जोड़ा जाएगा।
दक्षिण एशिया की राजनीति पर गहरी नजऱ रखने वाले विश्लेषक माइकल कुगलमैन मानते हैं कि मोदी के चीन दौरे से अमेरिका और भारत के संबंध बिखर नहीं जाएंगे।
असम सरकार ने दो भिन्न धर्म वाले लोगों के बीच जमीन की खरीद-फरोख्त और ट्रांसफर के लिए पुलिस की अनुमति अनिवार्य कर दिया है. यानी अब पुलिस की हरी झंडी के बिना किसी धर्म का व्य़क्ति दूसरे धर्म वालों को जमीन नहीं बेच सकेगा.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी का लिखा-
असम मंत्रिमंडल ने हाल में इस मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) नियम को मंजूरी दे दी है. लेकिन विपक्ष ने इसे असंवैधानिक करार दिया है. इससे पहले सरकार ने एक अक्तूबर से 18 साल से ज्यादा उम्र वाले किसी व्यक्ति को आधार कार्ड जारी करने की प्रक्रिया पर रोक लगाने का फैसला किया था.
मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा की दलील थी कि राज्य में आबादी से ज्यादा आधार कार्ड बन गए हैं जबिक आदिवासियों और चाय बागान मजदूरों के मामले में यह आंकड़ा 96 फीसदी ही है. इसी वजह से इस तबके को एक साल के लिए इस पाबंदी से छूट दी गई है.
क्यों बना नया नियम?
आखिर असम सरकार ने जमीन की खरीद-फरोख्त के मामले में नया नियम क्यों बनाया है. सरकार की दलील है कि राज्य में बढ़ती घुसपैठ और जनसांख्यिकी में होने वाले बदलाव के लिए ऐसा करना जरूरी है. राजधानी गुवाहाटी में पत्रकारों से बातचीत में मुख्यमंत्री का कहना था, अलग-अलग धर्मों के लोगों के बीच जमीन की बिक्री और हस्तांतरण के आवेदनों की जांच के लिए एक मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) को मंजूरी दे दी गई है.
पूर्वोत्तर में चीनी बांध से भारत के लिए पैदा होंगे कैसे खतरे
ऐसे मामलों में असम पुलिस की विशेष शाखा इस बात की जांच करेगी कि इस हस्तांतरण में कोई धोखाधड़ी या अवैध काम तो नहीं हुआ है. इसे मंजूरी देने से पहले खरीददार के धन के स्रोत के साथ ही इस बात की भी जांच की जाएगी कि ऐसे सौदे से सामाजिक सद्भाव तो नहीं बिगड़ने या राष्ट्रीय सुरक्षा का कोई खतरा तो नहीं होगा.
बाहरी एनजीओ पर भी लागू होगा
जमीन हस्तांतरण के ताजा नियम बाहरी राज्यों गैर-सरकारी संगठनों की ओर से बड़े पैमाने पर जमीन के मामले में भी लागू होगी. मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा कहते हैं कि असम के गैर-सरकारी संगठनों को इस नियम से छूट मिलेगी. लेकिन बाहरी संगठनों के मामले में उनके धन के स्रोत और जमीन खरीदने के मकसद की जांच की जाएगा. मुख्यमंत्री ने दावा किया है कि केरल के कई गैर-सरकारी संगठनों ने कछार, बरपेटा और श्रीभूमि जिलों में बड़े पैमाने पर जमीन खरीदी है. ऐसे संगठन कई और जगह सौदेबाजी कर रहे हैं.
आजादी के करीब आठ दशक बाद किस हाल में है पूर्वोत्तर?
राज्य सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर डीडब्ल्यू से कहते हैं, "हाल के वर्षो में सीमा पार से लगातार होने वाली घुसपैठ के कारण असम बेहद संवेदनशील राज्य बन गया है. घुसपैठ की वजह से कई इलाकों में आबादी का संतुलन बिगड़ रहा है और सामाजिक सद्भाव को खतरा पैदा हो गया है." वो बताते हैं कि सीमा पार से आने वाले घुसपैठिए राज्य में पहुंचने के कुछ दिनों बाद यहां जमीन और घर खरीद लेते हैं और खुद के भारतीय नागरिक होने का दावा करने लगते हैं. कई ऐसे मामलों के सामने आने के बाद ही सरकार ने नए नियम तय किए हैं.
वैसे, सरकार ने इससे पहले बीते साल मार्च में ही भिन्न धर्म वाले लोगों के बीच जमीन की खरीद-फरोख्त के लिए अनापत्ति प्रमाणपत्र (एनओसी) देने पर आंशिक पाबंदी लगा दी थी. उसके बाद बीते साल सितंबर में हिमंता बिस्वा सरमा ने कहा था कि सरकार किसी भी धर्म के व्यक्ति को अपनी जमीन बेचने से तो रोक नहीं सकती. लेकिन हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच जमीन के हस्तांतरण के लिए मुख्यमंत्री का अनुमोदन अनिवार्य बनाया जाएगा.
अवैध अतिक्रमण भी सुर्खियों में
असम में बीते कुछ समय से अवैध अतिक्रमण हटाने का अभियान भी सुर्खियों में रहा है. इस दौरान सरकार ने खासकर अल्पसंख्यक-बहुल इलाकों में बड़े पैमाने पर ऐसा अभियान चला कर सरकारी जमीन उनके कब्जे से वापस ली है. हालांकि इस अभियान पर काफी विवाद भी होता रहा है और सरकार पर अल्पसंख्यक विरोधी एजेंडा चलाने के आरोप लगे हैं.
राज्य के मुख्यमंत्री ने पत्रकारों से बातचीत में इस अभियान का बचाव करते हैं. उनका कहना था कि अब तक इस अभियान के तहत करीब 50 हजार एकड़ जमीन मुक्त कराई जा चुकी है. लेकिन अब भी 10 लाख एकड़ जमीन पर अवैध बांग्लादेशियों का कब्जा है. सरकार उससे अतिक्रमण हटाने के लिए कृतसंकल्प है. हिमंता बिस्वा सरमा बार-बार असम के मूल निवासियों का अस्तित्व खतरे में होने की बात दोहराते रहे हैं.
हमलावर विपक्ष
असम सरकार के ताजा फैसले की विपक्ष ने आलोचना की है और सरकार पर अल्पसंख्यक विरोधी एजेंडा लागू करने का आरोप लगाया है. कांग्रेस ने कहा है कि हिमंता सरकार सत्ता में आने के बाद लगातार यह एजेंडा चला रही है. इसी के तहत बाल विवाह के खिलाफ बड़े पैमाने पर अभियान चला कर हजारो लोगों को गिरफ्तार किया गया. इसके अलावा अवैध अतिक्रमण हटाने के नाम पर हजारों लोगों को बेघर कर दिया गया है.
कांग्रेस के प्रवक्ता अमन वदूद ने डीडब्ल्यू से कहा, "सरकार का ताजा फैसला असंवैधानिक है. मेरा सवाल है कि क्या सरकार के पास ऐसा कोई कड़ा है जिससे साबित हो कि दो भिन्न समुदाय के लोगों के बीच जमीन की खरीद-फरोख्त से सामाजिक सद्भाव और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा पैदा हो रहा हो."
अल्पसंख्यकों के संगठन ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) के नेता रफीकुल इस्लाम डीडब्ल्यू से कहते हैं, "असम में सत्ता संभालने के बाद से ही मौजूदा सरकार लगातार तुगलकी फैसले कर रही है. आधार कार्ड पर पाबंदी का फैसला भी ऐसा ही था. अगर कोई विदेशी घुसपैठिया यहां आता है तो उसकी शिनाख्त कर खदेड़ने की जिम्मेदारी सरकार की है. लेकिन ऐसा करने की बजाय वह आम नागरिकों को परेशान कर रही है. अब ताजा फैसले से किसी के लिए अपनी जमीन बेचना बेहद मुश्किल हो जाएगा. सरकार का अल्पसंख्यक विरोधी एजेंडा अब साफ हो गया है. यह तमाम फैसले राजनीति से प्रेरित हैं."
राजनीतिक विश्लेषक भी मानते हैं कि राज्य सरकार बीते चार साल से ऐसी गतिविधियां तेज की है जो अल्पसंख्यकों के खिलाफ हैं. विश्लेषक और सामाजिक कार्यकर्ता सकीना खातून डीडब्ल्यू से कहती हैं, "सरकार की मंशा साफ है. वह अल्पसंख्यकों को जमीन खरीदने से रोकना चाहती है. लेकिन यह तमाम अल्पसंख्यक स्थानीय निवासी हैं. बावजूद इसके सरकार उनको परेशान करने और विदेशी साबित करने के लिए नए-नए नियम बनाती रही है."
-अशोक पांडेय
गरीब घर में न जन्मी होती तो 23 साल की एडा ब्लैकजैक को उस अभागे अभियान का हिस्सा न बनना पड़ता। अलास्का के भीषण, बर्फीले इलाके में बसने वाले आदिवासी समुदाय में जन्मी एडा के जीवन में बचपन से ही दुर्भाग्य की छाया पड़ गई-8 की थी तो पिता की असमय मौत हो गई, माँ के पास पैसा न था तो उसे और उसकी बहन को एक मिशनरी अनाथालय में भेजना पड़ा। घर से दूर चले जाने की इस विवशता का नतीज़ा यह हुआ कि वह उन चीजों को नहीं सीख सकी जिन्हें उसके समुदाय में जीने के लिए सबसे ज़रूरी माना जाता था-उसे न शिकार करना सिखाया गया, न जंगली जानवरों के पैरों के निशान पहचानना, न अकेली रात में तारों को देखकर रास्ता पहचानना। इसके उलट उसका हाल यह था कि ध्रुवीय इलाकों में मिलने वाले सफेद भालुओं का जिक्र तक चलने से उसकी घिग्घी बंध जाया करती। अनाथालय में उसे अंग्रेज़ी लिखना-बोलना, अंग्रेजों वाला खाना पकाना और कपड़े सीना सिखाया गया।
14 की उम्र में उसने एक शिकारी से शादी की और तीन बच्चे पैदा किये जिनमें से दो शैशव में ही गुजऱ गए। जो बच्चा बच रहा था, उसे डॉक्टर ने टीबी बता रखी थी जिसका इलाज खासा महँगा होता। एक दिन उसका क्रूर पति उसे और उसके बेटे को अकेला छोड़ गया। यह एक अलग कहानी है कि वह पांच साल के बेटे के साथ किस तरह 64 किलोमीटर का मुश्किल सफर पैदल तय करने के बाद अपनी गरीब माँ के घर पहुँची जिसके पास खुद के खाने तक को पर्याप्त भोजन न था। कुछ ही दिनों बाद बेटा अनाथालय में रह रहा था और एडा लोगों के घरों में झाड़ू-बर्तन करने के अलावा कपड़े सीने का काम कर रही थी। उसे उम्मीद थी कि अपने प्यारे बेटे के इलाज के लिए ज़रूरी रकम वह जल्द जुटा लेगी। छोटी से जगह थी, सारे लोग उस अभागी युवा औरत से सहानुभूति रखा करते।
ऐसे में एक दिन एडा को शहर के पुलिस मुखिया ने एक अभियान के बारे में बताया। कनाडा से आये कुछ साहसी लोगों का समूह एक मुश्किल आर्कटिक अभियान पर निकल रहा था और उन्हें एक ऐसे सदस्य की जरूरत थी जिसे खाना पकाने के अलावा कपड़े सीना भी आता हो। महीने के पचास डॉलर मिलने थे-उस जमाने के लिहाज़ से यह बहुत बड़ी रकम थी। एडा को बताया गया अभियान में उसके समुदाय के कुछ और लोग भी होंगे। बच्चे के इलाज के लिए पैसा इकठ्ठा कर रही एक औरत के लिए इससे बेहतर मौका नहीं हो सकता था सो उसने हां कह दिया।
आखिरकार 21 सितम्बर, 1921 को जब अभियान का जहाज़ किनारे से निकला तो उसमें कुल पांच लोग थे-एडा को छोड़ चारों गोरी चमड़ी वाले अँगरेज पुरुष थे। ऐन समय पर स्थानीय सदस्यों ने अपना इरादा बदल लिया था। हाँ, समूह में एक छठा सदस्य भी थी-विक नाम की एक बिल्ली।
अभियान के कप्तान ने एडा से एक साल के लिए जिस अनुबंध पर दस्तखत कराये थे, उसके मुताबिक़ उसे उसकी तनख्वाह के अलावा मुफ्त रहना-खाना और मुश्किल काम न करवाए जाने जैसे बातें शामिल थीं, लेकिन एक बार जहाज अपनी मंजिल यानी रेंगल आइलैंड पहुंचा, तब जाकर एडा की समझ में आया कि अगले कुछ महीने उसकी जिंदगी के सबसे मुश्किल साबित होने वाले हैं। चूंकि बेटे का इलाज करवा सकना उसका पहला मकसद था, उसने दिल कड़ा किया और काम में जुट गई।
दरअसल रेंगल आइलैंड एक वीरान, बर्फीला द्वीप था और अभियान का मकसद था उस द्वीप पर अधिकार स्थापित कर उसे ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बनाना। कोई ढाई हजार वर्ग किलोमीटर तक फैली बर्फ के बीच वे कुल पांच जन थे।
अभियान के शुरुआती महीने ठीक ठाक निकले। पुरुष शिकार करते, स्लेज कुत्तों की देखभाल करते और मौसम संबंधी उपकरण लगात, एडा उनके जैकेट, हुड और अन्य कपड़ों की मरम्मत किया करती या खाना पकाती। भोजन के लिए लोमडिय़ों और सील जैसे प्राणियों का शिकार किया जाता।
धीरे-धीरे सर्दियां आईं, शिकार मिलना कम हो गया और खाने का भण्डार खत्म होने लगा। सर्दियाँ अपने चरम पर होतीं तो तापमान शून्य से पचास डिग्री नीचे पहुँच जाता। लोरने नाइट नाम का ग्रुप का एक सदस्य बहुत बीमार पड़ गया। मार्च के आते-आते जब भोजन तकरीबन समाप्त हो गया तो नाइट और एडा को वहीं छोडक़र बाकी तीन सदस्य बर्फ पर पैदल चलते हुए साइबेरिया की तरफ निकल गए। उन्होंने कहा कि वे जल्द ही रसद वगैरह लेकर लौटेंगे। वे कभी नहीं लौटे।
एडा के पास एक डायरी थी जिस पर उसने इसके आगे के अपने संघर्ष को पेंसिल से दर्ज किया। गोरी चमड़ी का होने के कारण लोरने नाईट की हेकड़ी बीमार होने के बाद भी कम नहीं हुई।
छह महीनों तक एडा नाइट की देखभाल करती रहीं-कभी नर्स, कभी डॉक्टर, कभी साथी, तो कभी शिकारी और जंगल की जानकार के रूप में। इसका अहसान मानने के बजाय नाइट ने एडा को अपने गुस्से और असहायता का शिकार बनाया। वह बिस्तर पर लेटा रहता और ताने देता कि उसकी ठीक से देखभाल नहीं की जा रही। उसने यहाँ तक कहा कि एडा का पति सही था जिसने उसे पीटा और छोड़ दिया और यह भी कि कोई आश्चर्य नहीं कि उसके दो बच्चे उसकी अक्षमता के कारण मर गए। वह बार-बार कहता था कि एडा उसे जानबूझकर भूखा रखकर मार डालना चाहती है।
यह सब उस समय कहा गया जब एडा खुद शिकार करती थी और मांस का सबसे अच्छा हिस्सा नाइट को देती थी। उसने नाइट को बोरियों के बिस्तर पर लिटाया, जिन्हें वह लगातार बदलती रहती थी ताकि उसके शरीर पर घाव न हो जाएं। वह उसके पैरों पर रेत की गर्म थैलियाँ भी रखती ताकि ठंड से वे गल न जाएँ। अप्रैल में महीने की उसकी डायरी की प्रविष्टियाँ बताती हैं कि उन दिनों उसकी आँखों में खतरनाक सूजन आ गयी थी जिसके बावजूद वह नाइट की सेवा करती रही।
-आरके जैन
वर्ष 2025 का एशिया के नोबेल पुरस्कार कहे जाने वाले मैग्सेसे अवार्ड भारत के एक एनजीओ 'एजुकेट गर्ल्स' को मिला है ।
भारत की गैर-लाभकारी संस्था 'एजुकेट गर्ल्स' ने 2025 का प्रतिष्ठित रेमन मैग्सेसे पुरस्कार जीतकर इतिहास रच दिया है।
यह पहली भारतीय संस्था है जिसे इस सम्मान से नवाजा गया है।
इस संस्था की संस्थापक सफीना हुसैन लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की स्नातक हैं। उन्होंने 2005 में अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में अपनी नौकरी छोड़कर भारत लौटने का फ़ैसला किया था, ताकि ग्रामीण और शैक्षणिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में लड़कियों की शिक्षा के लिए काम कर सकें।
'एजुकेट गर्ल्स' की स्थापना 2007 में राजस्थान के सुदूर गाँवों में सफीना हुसैन ने की थी। इसका उद्देश्य उन लड़कियों को स्कूलों में लाना था, जो शिक्षा से वंचित थीं, और उन्हें ऐसी शिक्षा देना था, जो उन्हें उच्च शिक्षा और रोजगार के लिए सक्षम बनाए।
इस संस्था ने अब तक 11 लाख से अधिक लड़कियों को स्कूलों में नामांकित किया है और इसका काफी सकारात्मक असर पड़ा है।
‘ एजुकेट गर्ल्स' ने 'टीम बालिका' मॉडल के माध्यम से लगभग 20,000 सामुदायिक स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित किया है, जो गाँव-गाँव जाकर परिवारों को लड़कियों की शिक्षा के लिए प्रेरित करते हैं।
यही नहीं इस संस्था ने 2015 में दुनिया का पहला 'डेवलपमेंट इम्पैक्ट बॉन्ड' शुरू किया और इसके अलावा, 'प्रगति' नामक एक ओपन-स्कूलिंग कार्यक्रम शुरू किया गया, जिसके तहत 15-29 वर्ष की युवतियों को शिक्षा पूरी करने का अवसर मिलता है। इस कार्यक्रम ने 31,500 से अधिक युवतियों को लाभ पहुँचाया है।
कौन है सफीना हुसैन ?
54 वर्षीय सफीना हुसैन का जीवन प्रेरणा का प्रतीक है। दिल्ली के स्लम क्षेत्रों में बचपन बिताने वाली सफीना को 13 वर्ष की उम्र में स्कूल छोड़ने और शादी करने के लिए मजबूर किया गया था। लेकिन उनकी मौसी के दखल से वे न केवल अपनी पढ़ाई पूरी कर पाईं, बल्कि लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से स्नातक भी हुईं।
1998 से 2004 तक सैन फ्रांसिस्को में 'चाइल्ड फैमिली हेल्थ इंटरनेशनल' की कार्यकारी निदेशक के रूप में काम करने के बाद सफीना ने 2005 में भारत लौटकर 'एजुकेट गर्ल्स' की नींव रखी।
सफीना का मानना था कि भारत को G20 देशों के समूह में महिलाओं के लिए सबसे खराब स्थिति वाला देश माना जाता था। सफीना ने कहा, 'जब एक लड़की शिक्षित होती है तो वह अपने साथ दूसरों को भी ले जाती है, जो परिवारों, पीढ़ियों और राष्ट्रों में बदलाव लाता है।' उनकी इस सोच ने 'एजुकेट गर्ल्स' को एक वैश्विक मंच पर पहुँचाया।
रिपोर्ट के अनुसार फाउंडेशन ने कहा, 'इसकी शुरुआत 50 पायलट गांव स्कूलों से हुई और अंततः यह भारत के सबसे वंचित क्षेत्रों के 30,000 से अधिक गांवों तक पहुंच गई, इससे दो मिलियन से अधिक लड़कियों को लाभ मिला।
रेमन मैग्सेसे पुरस्कार को एशिया का नोबेल पुरस्कार माना जाता है। यह उन व्यक्तियों और संगठनों को दिया जाता है, जिन्होंने समाज के लिए निस्वार्थ सेवा की हो। 'एजुकेट गर्ल्स' पहली भारतीय संस्था है, जिसे यह सम्मान मिला है।
'एजुकेट गर्ल्स' किन किन राज्यों में है।
'एजुकेट गर्ल्स' ने राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में सरकार के साथ साझेदारी कर 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' और शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत काम किया है। इसकी 'टीम बालिका' ने सामुदायिक स्तर पर मानसिकता बदलने में अहम भूमिका निभाई है।
सफीना हुसैन की अगुवाई में यह संस्था न केवल लाखों लड़कियों के जीवन को बदल रही है, बल्कि सामाजिक रूढ़ियों को तोड़कर एक समावेशी समाज की नींव रख रही है।
यह पुरस्कार भारत में लड़कियों की शिक्षा के लिए चल रहे जन-आंदोलन को वैश्विक मंच पर ले गया है और आने वाले समय में इसके और बड़े प्रभाव की उम्मीद है।
-संध्या त्रिपाठी
“होंगे राजे राजकुंवर हम बिगड़े दिल शहज़ादे
हम सिंहासन पर जा बैठे जब जब करें इरादे”
“आवारा हूँ या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ”
“किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार, जीना इसी का नाम है”
फुटपाथ पर सोने वाले बेघर, बेसहारा इंसान से लेकर दौलत के दरबान तक सब जिसके दीवाने थे उस शब्दों के जादूगर, गीतों के राजकुमार का नाम था शंकर दास केसरीलाल “शैलेन्द्र”.तीस अगस्त सन उन्नीस सौ तेईस को इनका जन्म रावलपिंडी में हुआ. पिता फौज में थे, सब ठीक चल रहा था किन्तु वक़्त ने कुछ ऐसी चाल चली कि पूरा परिवार आर्थिक बदहाली का शिकार हो गया. और शैलेन्द्र अपने परिवार सहित मथुरा में आ बसे. मथुरा में इनके बड़े भाई रेलवे में नौकरी करते थे. शंकरदास ने मथुरा के राजकीय इंटर कालेज से हाईस्कूल की परीक्षा में उत्तर प्रदेश में तीसरा स्थान प्राप्त किया. जिस शैलेन्द्र को हम जानते हैं वो बृजमाधुरी का ही बेटा था. हॉकी के शौक़ीन शंकरदास इतने स्वाभिमानी थे कि एक बार हॉकी खेलते समय एक जातिवादी कटाक्ष सुनते ही उन्होंने हॉकी स्टिक तोड़ कर हमेशा के लिए हॉकी को अलविदा कर दिया था.
शैलेन्द्र उन दिनों शचीपति के नाम से ‘साधना’, ‘हंस’, ‘नया पथ’ और ‘जनयुग’ में कविता लेखन करते रहे. कविताओं में वामपंथी रुझान स्पष्ट था. मथुरा से उनकी अगली यात्रा माटुंगा तक की रही जहाँ मैकेनिकल इंजीनियर ट्रेनी की नौकरी ज्वाइन की किन्तु कवि सम्मलेन/ मुशायरों में उनकी धूम मचती रही. कविता को क्रांति का जरिया बनाया. “तू जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत पर यकीन कर, अगर कहीं है स्वर्ग तो उतर ला ज़मीन पर” बहुत प्रसिद्ध कविता है उनकी. शायद बहुत कम लोग जानते हैं कि हर संघर्ष में इस्तेमाल किया जाने वाला नारा “हर जोर ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है” शैलेन्द्र द्वारा लिखा गया है. “जलता है पंजाब हमारा” कविता सुनकर राजकपूर ने उसको फिल्म आग में लेने की बात कही थी किन्तु शैलेन्द्र ने अपनी कविता बेचने से साफ़ इंकार कर दिया था, किन्तु कुछ समय बाद पैसे की आवश्यकता उन्हें फिर राजकपूर के पास ले गई और वहां से शुरू हुआ फिल्म में गीत लिखने का सफ़र. फिल्म बरसात का शीर्षक गीत “ बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम” और “पतली कमर है तिरछी नज़र है” जैसे गीतों से उनकी फ़िल्मी दुनिया में पदार्पण हुआ. और फिर शुरू हुआ शुद्ध चौबीस कैरट के एक से एक सुन्दर गीतों का एक अद्भुत सिलसिला.
आज़ादी के बाद शैलेन्द्र ने सिर्फ बीस बसंत देखे, किन्तु इतना काम कर गए कि सैकड़ो सालों तक हम उन्हें सुनते रहेंगे. ये वो कोहिनूर है जिसकी चमक उनके जाने के बाद और बढ़ी. जीवन का वो कौन सा रंग है जिस पर शैलेन्द्र जी ने अपनी कलम न चलाई हो. इश्क हो, दीवानगी हो, तड़प हो, मिलन हो, विछोह हो, गरीबी हो, गरीबी का विद्रोह हो, मानवता का प्रश्न हो, जीवन का फलसफा हो या फिर अध्यात्म हो, शैलेन्द्र के गीत आपके लिए हाज़िर हैं. जीवन दर्शन में उनका कोई जोड़ नहीं, दूर-दूर तक कोई उनके समकक्ष आ नहीं पाता,-
“अपनी कहानी छोड़ जा, कुछ तो निशानी छोड़ जा,
कौन कहे इस ओर तू फिर आये न आये मौसम बीता जाये”
“सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है न हाथी है न घोड़ा है वहां पैदल ही जाना है”
“वहां कौन है तेरा मुसाफिर जायेगा कहाँ”
“सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी
सच है दुनिया वालों के हम हैं अनाड़ी”
“जाने चले जाते हैं कहाँ दुनिया से जाने वाले”
“ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना”
एक से बढ़ कर एक न जाने कितने हीरे जैसे गीत. और ऐसा नहीं कि इश्क/ मुहब्बत पर उनके गीतों का जादू लोगों के सर चढ़ कर न बोला हो, -
“जोगी जब से तू आया मेरे द्वारे मेरे रंग गए सांझ सकारे
तू तो अंखियों से जाने जी की बतियाँ तोसे मिलना ही जुलुम भया रे”
“प्यार हुआ इकरार हुआ है प्यार से फिर क्यों डरता है दिल”
“दिन ढल जाए हाय रात न जाये, तू तो न आये तेरी याद सताए”
“ये रात भीगी भीगी ये मस्त फिजायें उठा धीरे धीरे वो चाँद प्यारा प्यारा”
“चढ़ गयो पापी बिछुआ”
सभी में प्रणय भाव पूरी गरिमा के साथ मौजूद है.
प्रकृति चित्रण में भी शैलेन्द्र का कोई जोड़ नहीं. फिल्म मधुमती के लिए जब प्रकृति की ख़ूबसूरती पर गीत लिखने की बात आई तो ये गीत रचा गया “सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं” पर इसके अंतरे के बोल के लिए शैलेन्द्र जी अपनी गाड़ी लेकर दूर कहीं प्रकृति की गोद में चले गए, वहां किसी नदी के तेज बहाव ने उनसे ये सुन्दर पंक्तियाँ लिखवाईं, -
“ये गोरी नदियों का चलना उछलकर के जैसे अल्हड़ चले पी से मिलकर”
बेघर, बेसहारा वर्ग के लिए लिखे इन गीतों को कौन भूल सकता है, -
“दिल का हाल सुने दिलवाला
सीधी सी बात न मिर्च मसाला
कह के रहेगा कहने वाला”
“अजब तोरी दुनिया ओ मोरे रामा
कोई कहे जग झूठा सपना पानी की बुलबुलिया
हर किताब में अलग अलग है इस दुनिया की हुलिया
सच मानो या इसकी झूठी मानो बेढब तोरी दुनिया”
बच्चों के लिए शैलेन्द्र के मन में अपार स्नेह रहा. उनके लिए भी उनकी कलम से ये सुन्दर रचनाएँ जन्मी, -
“नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए
बाकी जो बचा था काले चोर ले गए”
“जूही की कली मेरी लाडली
नाजों की पली मेरी लाडली”
वामपंथी विचारधारा रखने वाले शैलेन्द्र संस्कृति से भी हमेशा नज़दीक रहे, आज भी सम्पूर्ण उत्तर भारत में रक्षाबंधन का त्यौहार शैलेन्द्र के इस गीत के बिना अधूरा रहता है, -
“भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना”
और शायद ही कोई हो जिसकी फिल्म बंदिनी के इस गीत को सुनकर आँख नम न होती हो, -
“अबके बरस भेज भैया को बाबुल सावन में लीजो बुलाय”
और अब ज़िक्र उस दर्द का जिसके बिना शैलेन्द्र पर कोई भी बात अधूरी रहेगी. बहुत साल पहले फिल्म ‘मुसाफ़िर’ में शैलेन्द्र का लिखा एक गीत जिस पर उन्होंने अभिनय भी किया था, लगता है उसके बोल उन्ही पर एक दिन लागू हो जायेंगे. गीत के बोल थे, -
“टेढ़ी-टेढ़ी हमसे फिरे सारी दुनिया”
हर कोई नज़र बचा के चला जाए देखो
जाने काहे हमसे कटे सारी दुनिया”
लोक संस्कृति के सबसे बड़े चितेरे शैलेन्द्र के मन में एक इच्छा जाग्रत हुई कि फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ की कहानी “मारे गए गुलफाम” पर एक फिल्म बनाने की. उन्होंने रेणु को चिट्ठी लिखकर इस विषय पर उनकी सहमति मांगी, और सहमति मिल जाने पर जोर-शोर से यह कार्यक्रम आगे बढ़ने लगा.
-अशोक तिवारी
आज हरितालिका तीज का त्योहार है जिसे छत्तीसगढ़ में तीजा तिहार के नाम से मनाया जाता है। इस त्योहार के लिए बेटी, बहन, बुआ आदि को तीजा मनाने के लिए लिवाकर मायके लाया जाता है। मेरे घर में एकदम सामने के घर में उनकी बेटी जो बैंगलोर में टेक इंडस्ट्री में इंजीनियर है हर साल अपने मायके आती है, इस बार भी आई है। और ऐसा पूरे छत्तीसगढ़ में, लगभग सभी छत्तीसगढिय़ा परिवार में होता है ।तीजा छत्तीसगढ़ के सबसे प्रमुख त्योहारों में शामिल है, यह यहाँ की परंपरा का प्रतीक है, एक आइडेंटिटी मार्कर है।
आज मैंने छत्तीसगढ़ से बाहर देश और विदेश में रहने वाले छत्तीसगढिय़ा लोगों के बीच तीजा मनाने की परंपरा के प्रचलन के बारे में जानने की कोशिश की और इस क्रम में कई लोगों से बात भी की। और मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि मैंने जहाँ भी और जिनसे भी बात की, वे सभी तीजा मनाते हैं, एक परंपरा के निर्वहन, एक धार्मिक अनुष्ठान, और एक अपनी सांस्कृतिक धरोहर के रूप में।
असम, जहाँ डेढ़ सौ साल से भी अधिक समय से छत्तीसगढिय़ा लोग निवासरत हैं, वहाँ उनके बीच अभी भी तीजा त्योहार मनाया जाता है। महिलाएँ निर्जला व्रत रखती हैं। व्रत के पहले दिन, रात के भोजन के करू भात खाने की अभी भी परंपरा है । करेले की सब्जी अनिवार्य रूप से खाई जाती है, कुछ स्थानों पर चेंच भाजी और करेला भाजी खाने का भी रिवाज है। बहन- बेटियों को लिवाकर मायके लाया जाता है। वे मायके में ही रहकर उपवास करती हैं, चौबीस घंटे निर्जला व्रत रखने के बाद दूसरे दिन व्रत तोडऩे के लिए जो भोजन करती हैं उसे फरहार कहा जाता है, बिल्कुल वैसा ही जैसा छत्तीसगढ़ में होता है।
मैंने असम में अपर असम के डिब्रूगढ़, तिनसुकिया, गोलाघाट, चराइदेव और सिबसागर जिलों में निवास करने वाले प्रवासी छत्तीसगढिय़ों में से कुछ से बात की, उस सभी के बीच तीजा अभी भी वैसा ही मनाया जाता है जैसा कमोबेश छत्तीसगढ़ में मनाया जाता है । जिन परिवारों में बाहरी समाजों में विवाह हुए हैं, वहाँ पर कुछ मामलों में देखा गया है कि इसका प्रचलन प्रभावित हुआ है किंतु कुछ में बाहरी समाज से आई बहुएँ भी तीजा उपवास करती हैं। लोवर असम के नगाँव और होजाई जिले में इसका प्रचलन हर परिवार में अनिवार्य रूप से दिखाई देता है।
उत्तर पूर्व के त्रिपुरा, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश और बांग्लादेश में रहने वाले छत्तीसगढिय़ों के बीच भी आज तीजा मनाया जा रहा है। अरुणाचल के नामसाई जिला मुख्यालय में भी छत्तीसगढ़ी निवासरत हैं, यद्यपि वहाँ इनकी संख्या कम है फिर भी तीजा वहाँ पर न सिर्फ प्रचलित है बल्कि कुछेक मामलों में तो झारखंड मूल के परिवार से आई बहुएँ भी तीजा उपवास करती देखी गई हैं। इसी तरह से नागपुर, जमशेदपुर आदि स्थान और ओडिशा के पश्चिमी भाग के संबलपुर, झारसुगुड़ा, कालाहांडी, कोरापुट, नुआपड़ा, खरियार आदि जिलों में जहाँ काफ़ी संख्या में छत्तीसगढिय़ा लोग सैकड़ों वर्षों और अनेक पीढिय़ों से रह रहे हैं वहाँ पर भी तीजा त्योहार जोरशोर से मनाया जा रहा है, छत्तीसगढ़ के ही तरह ठेठरी, खुरमी, बिडिय़ा आदि छत्तीसगढ़ी व्यंजन के साथ ।
इन स्थानों के अतिरिक्त देश के अन्य भागों के शताधिक शहर और कस्बे जिनमें दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, बैंगलोर, जम्मू, भोपाल, इंदौर, जबलपुर, अहमदाबाद, प्रयाग, लखनऊ, पूना, हैदराबाद, विशाखापत्तनम आदि भी शामिल हैं, इस शहरों में रहने वाले हज़ारों छत्तीसगढिय़ा परिवारों में भी तीजा त्योहार मनाया जा रहा है।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में हुई जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर गंभीर सवाल उठे हैं. सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम पर आपत्तियों को छिपाने के आरोप भी लग रहे हैं.
डॉयचे वैले पर समीरात्मज मिश्र का लिखा-
सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की सिफारिश और राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने हस्ताक्षर के बाद आज पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस विपुल मनुभाई पंचोली और मुंबई हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस आलोक अराधे की सुप्रीम कोर्ट में जज के तौर पर नियुक्ति हो गई। इन दोनों जजों की नियुक्ति के साथ सुप्रीम कोर्ट में जजों की संख्या पूरी हो गई यानी सुप्रीम कोर्ट में अब कुल जजों की संख्या 34 हो गई जिनमें मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हैं।
लेकिन इस नियुक्ति पर एक बड़ा विवाद भी सामने आ गया। कॉलेजियम में दोनों जजों की नियुक्ति के बारे 4:1 के बहुमत से प्रस्ताव पारित किया गया था। कॉलेजियम की सदस्य जस्टिस बीवी नागरत्ना इससे सहमत नहीं थीं और उन्होंने असहमति का नोट दिया था। उनका कहना था कि जस्टिस पंचोली वरिष्ठता क्रम में काफी नीचे हैं और दूसरी बात ये कि वो गुजरात हाईकोर्ट के हैं और सुप्रीम कोर्ट में पहले से ही गुजरात के दो जज हैं। तीसरा जज लाने से क्षेत्रीय संतुलन बिगड़ेगा क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में कई राज्यों का कोई प्रतिनिधित्व ही नहीं है।
जस्टिस नागरत्ना की आपत्ति थी कि ऐसी नियुक्ति न्याय प्रशासन के लिए विपरीत असर डालेगी और कॉलेजियम सिस्टम की विश्वसनीयता भी सवालों के घेरे में होगी। जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि जस्टिस पंचोली मौजूदा जजों की अखिल भारतीय वरिष्ठता सूची में 57वें नंबर पर हैं, और उनकी सिफारिश करते वक्त कई प्रतिभाशाली और वरिष्ठ जजों को नजरअंदाज किया गया।
सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त करने की सिफारिश करने वाले 5 जजों के कॉलेजियम में मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बीआर गवई के अलावा जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रमनाथ, जस्टिस जेके महेश्वरी और बीवी नागरत्ना शामिल हैं।
कॉलेजियम के फैसले पर सवाल
इस मामले में विवाद तब बढ़ गया जब जस्टिस बीवी नागरत्ना के असहमति नोट को सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड नहीं किया गया। यह पहली बार था जब जस्टिस नागरत्ना ने कोई असहमति नोट लिखा था।
कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स, सीजेएआर नामक गैर सरकारी संस्था सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड किए गए कॉलेजियम के बयान को निराशाजनक बताया है। संस्था का कहना है कि इसमें उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि का विवरण नहीं है, जबकि पहले ऐसा हुआ करता था। इसके अलावा कॉलेजियम कोरम का भी जिक्र नहीं है और न ही यह बताया गया है कि वरिष्ठता में नीचे होने के बावजूद जस्टिस पंचोली को वरीयता क्यों दी गई। सीजेएआर ने जस्टिस नागरत्ना के असहमति नोट को प्रकाशित करने की मांग की है।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने कॉलेजियम की सिफारिश पर सवाल उठाते हुए कहा है कि पदोन्नति में तीन महिला जजों की अनदेखी क्यों की गई। डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘जस्टिस विपुल पंचोली से सीनियर कई जज हैं जिनमें कम से कम तीन महिला सीनियर जज हैं- गुजरात हाईकोर्ट की चीफ जस्टिस सुनीता अग्रवाल, बॉम्बे हाईकोर्ट कीजस्टिस रेवती मोहिते डेरे और पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट की जस्टिस लिसा गिल। साल 2021 में जस्टिस हिमा कोहली, जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस बेला त्रिवेदी की नियुक्तियों के बाद एक भी महिला जज की नियुक्ति नहीं हुई, जबकि चार चीफ जस्टिस के अधीन सुप्रीम कोर्ट में 28 न्यायिक नियुक्तियां की गईं।’
क्या है कॉलेजियम?
भारत में कॉलेजियम प्रणाली लंबे समय से बहस का विषय रही है। कॉलेजियम प्रणाली भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले की व्यवस्था है। संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 के मुताबिक, राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं। लेकिन राष्ट्रपति यह नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की सिफारिश पर करते हैं। उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के मामले में संबंधित राज्य के राज्यपाल और संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की परामर्श ली जाती है। लेकिन 1993 के दूसरे जजेज केस में सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था कर दी कि यह परामर्श केवल सलाह नहीं बल्कि बाध्यकारी होगी। इसके बाद जजों की नियुक्ति के बारे में अंतिम राय देने के लिए मुख्य न्यायाधीश और वरिष्ठतम न्यायाधीशों की एक समिति का प्रावधान किया गया, जिसे कॉलेजियम कहा जाता है। फिलहाल, सुप्रीम कोर्ट में पांच वरिष्ठतम न्यायाधीश और उच्च न्यायालयों में तीन वरिष्ठतम न्यायाधीश मिलकर कॉलेजियम बनाते हैं।
-लॉरा बिकर
बीजिंग के बीचोंबीच होने वाली सैन्य परेड में उत्तर कोरिया के नेता किम जोंग उन, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का साथ-साथ मौजूद होना अपने आप में बड़ा पल होगा।
यह शी जिनपिंग के लिए एक अहम कूटनीतिक जीत भी होगी।
चीनी राष्ट्रपति लंबे समय से दुनिया के सामने बीजिंग की ताकत दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। वह सिर्फ दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में नहीं, बल्कि एक मज़बूत कूटनीतिक खिलाड़ी के तौर पर भी अपनी पहचान बनाना चाहते हैं।
उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया है कि चीन एक स्थिर कारोबारी साझेदार है, जबकि ट्रंप के टैरिफ ने दुनियाभर के आर्थिक रिश्तों को अस्त-व्यस्त कर दिया है।
अब जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति यूक्रेन युद्ध को खत्म करने के लिए पुतिन के साथ समझौते से दूर हैं, शी जिनपिंग पुतिन की बीजिंग में मेजबानी की तैयारी कर रहे हैं।
किम की मौजूदगी, जिसका एलान अचानक किया गया है, कम अहम नहीं होगी। पिछले हफ्ते दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति से मुलाक़ात में ट्रंप ने कहा था कि वे एक बार फिर किम जोंग उन से मिलने की इच्छा रखते हैं।
शी जिनपिंग के लिए क्यों अहम है ये मुलाकात?
इस ‘अलग-थलग पड़े तानाशाह’ के साथ उनकी पिछली कूटनीतिक कोशिश किसी नतीजे तक नहीं पहुँची थी। दुनिया का ध्यान खींच लेने वाली दो शिखर वार्ताओं के बावजूद कोई ठोस सफलता नहीं मिली थी। अब ट्रंप संकेत दे रहे हैं कि वे फिर से कोशिश करना चाहते हैं।
इसी बीच चीनी राष्ट्रपति यह संकेत दे रहे हैं कि इस पूरे खेल के असली पत्ते उनके हाथ में हो सकते हैं। किम और पुतिन पर उनका प्रभाव सीमित ज़रूर है, लेकिन किसी भी समझौते में अहम साबित हो सकता है।
3 सितंबर को होने वाली परेड में चीन अपनी सैन्य ताकत का प्रदर्शन करेगा। यह आयोजन दूसरे विश्व युद्ध में जापान के आत्मसमर्पण की 80वीं बरसी की याद में होगा। तब चीन के हिस्सों पर उसका कब्जा खत्म हुआ था।
लेकिन अब शी जिनपिंग ने इसे कुछ और दिखाने का मंच भी बना दिया है और समय भी बेहद अहम है। व्हाइट हाउस ने इशारा किया है कि राष्ट्रपति ट्रंप अक्तूबर के अंत में इस क्षेत्र में हो सकते हैं और वे शी जिनपिंग से मिलने के लिए तैयार हैं।
उनके सामने बात करने के लिए कई मुद्दे होंगे। इनमें लंबे समय से टलता टैरिफ़ समझौता, अमेरिका में टिकटॉक की बिक्री और यह सवाल भी शामिल होगा कि क्या चीन पुतिन को यूक्रेन युद्ध में युद्धविराम या किसी समझौते के लिए राजी कर सकता है। अब जब शी जिनपिंग किम और पुतिन दोनों से मिल चुके होंगे तो ट्रंप से बातचीत करते समय उन्हें यह महसूस नहीं होगा कि उन्हें किनारे कर दिया गया है। बल्कि दोनों नेताओं के साथ उनके करीबी रिश्तों को देखते हुए संभव है कि उनके पास ऐसी जानकारी हो जो अमेरिकी राष्ट्रपति के पास न हो।
पश्चिमी दुनिया की नजर में रूस और उत्तर कोरिया दोनों अलग-थलग माने जाते हैं। किम अपने हथियार कार्यक्रम की वजह से पुतिन से कहीं पहले से पश्चिम के निशाने पर हैं, लेकिन रूस के यूक्रेन पर हमले का समर्थन करने से उनके खिलाफ निंदा फिर तेज हुई है।
ऐसे में बीजिंग का यह निमंत्रण किम के लिए बड़ा कदम है। आखिरी बार किसी उत्तर कोरियाई नेता ने चीन की सैन्य परेड में हिस्सा 1959 में लिया था।
2019 के बाद से शी और किम के बीच सार्वजनिक तौर पर बहुत कम संपर्क हुआ है। उस समय दोनों नेताओं ने चीन-उत्तर कोरिया संबंधों की 70वीं वर्षगांठ पर मुलाकात की थी। 2018 में भी किम जोंग उन की पहली विदेश यात्रा बीजिंग ही थी, जब वे राष्ट्रपति ट्रंप के साथ शिखर वार्ताओं से पहले प्योंगयांग के परमाणु कार्यक्रम को लेकर बातचीत करने निकले थे।
-अभीक देव-निकिता यादव
कार्तिक श्रीनिवास (बदला हुआ नाम) आज भी ऑनलाइन बेटिंग का जिक्र होते ही सिहर उठते हैं।
तेजी से पैसा कमाने के रोमांच के तौर पर शुरू हुई ये आदत अब लत में बदल गई। इस लत ने 26 वर्षीय कार्तिक की जमा-पूँजी, सुकून और लगभग उनका भविष्य छीन लिया।
2019 से 2024 के बीच कार्तिक ने 15 लाख रुपये से ज्य़ादा गंवा दिए। इसमें उनकी तीन साल की कमाई, बचत और दोस्तों और परिवार से लिए गए कर्ज भी शामिल थे।
वो कहते हैं, ‘मैंने सब कुछ आज़माया-ऐप्स, लोकल बुकी, अंतरराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म। मैं बुरी तरह फंस गया था।’
2024 तक आते-आते कार्तिक कर्ज में पूरी तरह डूब चुके थे। कार्तिक की कहानी भारत के कभी फलते-फूलते रियल मनी गेम्स इंडस्ट्री के स्याह पहलू को सामने लाती है।
यहां खिलाड़ी ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर पोकर, फैंटेसी स्पोर्ट्स और दूसरे खेलों पर अपने पैसे दांव पर लगाते हैं।
कुछ दिन पहले भारत ने इन खेलों पर पूरी तरह पाबंदी लगाने वाला क़ानून पास किया।
सरकार का कहना है कि ये खेल नशे की तरह लत लगाने वाले साबित हो रहे थे। लोग आर्थिक संकट में फंसते जा रहे थे।
सरकार का दावा, जुए से बचाने के लिए उठाया ये कदम
नए क़ानून के तहत ऐसी ऐप्स को बढ़ावा देना या उन्हें लोगों के लिए उपलब्ध कराना अब अपराध माना जाएगा।
इस प्रावधान का उल्लंघन करने पर दोषी पाए गए व्यक्ति को तीन साल तक की जेल और एक करोड़ रुपए तक का जुर्माना हो सकता है।
अगर कोई इन गेमिंग ऐप्स का प्रचार करता है तो उसे दो साल की सज़ा और पांच करोड़ रुपए तक का जुर्माना लग सकता है।
हालांकि इस कानून में खिलाडिय़ों को अपराधी नहीं बल्कि पीडि़त माना गया है।
सरकार का कहना है कि यह कदम लोगों को जुए से बचाने के लिए उठाया गया है।
ढाई लाख लोगों के रोजगार पर संकट
केंद्रीय आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने संसद में दावा किया कि ऑनलाइन मनी गेम्स से 45 करोड़ भारतीय प्रभावित हुए हैं।
उनके मुताबिक, लोगों को दो लाख करोड़ रुपए से ज़्यादा का नुक़सान हुआ है, कई लोग डिप्रेशन में चले गए और कुछ ने आत्महत्या तक कर ली। हालांकि इन आंकड़ों के स्रोत स्पष्ट नहीं हैं।
वहीं इंडस्ट्री से जुड़े लोगों का कहना है कि यह फैसला जल्दबाज़ी में लिया गया है, जिससे एक तेजी से बढ़ते सेक्टर को करारी चोट लगी है। उनका तर्क है कि इसका सबसे ज़्यादा नुक़सान उन्हीं लोगों को होगा, जिन्हें सरकार बचाने की कोशिश कर रही है।
पाबंदी से पहले भारत में लगभग 400 आरएमजी (रियल मनी गेम्स) स्टार्टअप काम कर रहे थे। इनसे सालाना लगभग 2.3 अरब डॉलर टैक्स मिलता था और ढाई लाख से ज़्यादा रोजग़ार जुड़े थे। इनमें से एक ड्रीम11, भारत की क्रिकेट टीम का स्पॉन्सर भी थी।
यह पहला केंद्रीय क़ानून है जिसने ऑनलाइन बेटिंग प्लेटफॉर्म पर रोक लगाई है। हालांकि इससे पहले ओडिशा, असम, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्य अपने स्तर पर पाबंदी लगा चुके थे।
2023 में केंद्र सरकार ने ऑनलाइन गेमिंग पर 28 फ़ीसदी टैक्स भी लगाया था।
इसके बावजूद यह इंडस्ट्री तेज़ी से बढ़ रही थी। विदेशी निवेश और विज्ञापनों की वजह से इसमें अच्छी ग्रोथ थी।
मुंबई में गेमिंग से जुड़े मुकदमे लडऩे वाले वकील जय सेता ने बीबीसी से कहा कि यह पाबंदी निवेशकों के लिए ‘भारी झटका’ है, जिन्होंने इन स्टार्टअप्स में करोड़ों डॉलर लगाए थे।
उनका कहना है कि इंडस्ट्री में रेग्युलेशन की ज़रूरत थी, लेकिन क़ानून बिना चर्चा और तैयारी के लागू कर दिया गया।
इस फैसले से सबसे ज़्यादा नुकसान ड्रीम11 (आठ अरब डॉलर की कंपनी) और माई11सर्कल (2.5 अरब डॉलर की कंपनी) जैसी कंपनियों को हुआ है।
ड्रीम11 कभी भारतीय क्रिकेट टीम की मुख्य स्पॉन्सर थी और माई11सर्कल इंडियन प्रीमियर लीग से जुड़ी थी।
दोनों कंपनियों ने अपने रियल मनी गेमिंग ऑपरेशन बंद कर दिए हैं।
इंडस्ट्री ने कहा, बिना सोचे-समझे लगाई गई पाबंदी
इंडस्ट्री का कहना है कि नए क़ानून ने ‘हुनर के खेल’ और ‘कि़स्मत की बाज़ी’ में कोई फर्क नहीं किया है और दोनों को ही बैन कर दिया गया है।
हुनर के खेल में फैसला लेने की क्षमता, प्रतिभा और ज्ञान की जरूरत होती है, जबकि किस्मत का खेल सिर्फ तकदीर पर निर्भर करता है।
भारत के कई उच्च न्यायालय पहले ही फैसला दे चुके हैं कि ऑनलाइन मनी गेम्स स्किल गेम्स हैं और जुए की कैटेगरी में नहीं आते।
कर्नाटक और तमिलनाडु में अदालतों ने इसी आधार पर राज्य स्तर पर लगाई गई पाबंदी हटा दी थी।
2022 में सुप्रीम कोर्ट ने भी पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के उस फैसले को बरकरार रखा था, जिसमें फैंटेसी स्पोर्ट्स को ‘स्किल का खेल’ बताया गया था।
ड्रीम11 में पॉलिसी कम्युनिकेशन का काम करने वालीं स्मृति सिंह चंद्रा ने लिंक्डइन पर लिखा कि यह पाबंदी ‘बिना तैयारी, बिना समझ और आर्थिक हकीकतों की परवाह किए बिना’ लागू कर दी गई।
वकील जय सेता का कहना है कि कंपनियों ने अदालतों के इन्हीं फैसलों के आधार पर अपना क़ारोबार खड़ा किया था।
भारत में तमाम कानूनों के बावजूद दहेज की प्रथा और इसकी वजह से होने वाली मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है. उत्तर प्रदेश में निक्की नामक एक महिला की मौत ने एक बार फिर इस सामाजिक कलंक को उजागर कर दिया है.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी का लिखा-
भारत के लिए न तो दहेज की प्रथा नई है और न ही इसके नाम पर होने वाली मौतें या हत्याएं. साक्षरता बनने और तमाम कानूनों के बावजूद अब तक इस सामाजिक कलंक से निजात नहीं मिल सकी है. नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं. इन आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2017 से 2022 के बीच दहेज की वजह से होने वाले उत्पीड़न के कारण हर साल औसतन सात हजार महिलाओं ने अपनी जान दे दी या फिर उनकी हत्या कर दी गई. वर्ष 2022 में यह आंकड़ा 6,450 था. यानी रोजाना 18 महिलाओं की मौत हुई थी.
यह तो सरकारी आंकड़ा है. लेकिन महिला संगठनों का दावा है कि कई मामले तो पुलिस के पास तक नहीं पहुंचते. महिला की मौत के बाद समाज के दबाव में दोनों पक्षों के बीच अदालत से बाहर ही समझौता हो जाता है. अगर उन मामलों को ध्यान में रखा जाए तो यह संख्या दोगुनी हो सकती है.
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2022 में हुई मौतों के मामले में उत्तर प्रदेश (2,218), बिहार )1,057) और मध्य प्रदेश (518) क्रमश पहले से तीसरे नंबर पर थे. इससे साफ है कि ऐसी ज्यादातर घटनाएं उत्तर और मध्य भारत के राज्यों में ही होती हैं.
तीन महीने में कई मामले
अब ताजा मामले में उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा में रहने वाली निक्की नामक एक महिला की शादी के करीब नौ साल बाद रहस्यमय परिस्थितियों में जलकर मौत हो गई. उसकी बहन कंचन की शादी भी उसी घर में हुई है. कंचन का आरोप है कि निक्की के पति और उसके ससुर ने ही उनकी बहन को जला कर मार डाला. निक्की और उसके पिता का आरोप है कि ससुराल वाले 36 लाख नकद और एक महंगी कार की मांग में निक्की पर शारीरिक अत्याचार करते थे और आखिर उसकी हत्या कर दी.
यह स्थिति तब है जब दिसंबर, 2016 में निक्की की शादी में उसके पिता भिखारी सिंह ने नोटबंदी के बावजूद दिल खोल कर खर्च किया था और एक कार भी दहेज में दी थी. पुलिस ने इस मामले में निक्की के पति, जेठ और सास-ससुर को गिरफ्तार कर लिया है.
वैसे, बीते तीन महीनों में ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं.
इससे पहले उत्तर प्रदेश के ही अलीगढ़ में एक महिला के शरीर पर गर्म इस्त्री (आयरन) सटाने के कारण उसकी मौत हो गई थी. उसके परिवार ने दावा किया कि दहेज के कारण उसका नियमित उत्पीड़न किया जाता था. उसके बाद इसी राज्य के पीलीभीत में कथित रूप से ससुराल पक्ष की दहेज की मांग पूरी नहीं कर पाने की वजह से एक महिला की जलाकर हत्या कर दी गई थी. इसी दौरान चंडीगढ़ में एक नवविवाहिता ने भी कथित रूप से दहेज उत्पीड़न से तंग आकर अपनी जान दे दी थी.
इसके अलावा दो घटनाएं तमिलनाडु से सामने आईं. पहली घटना में पोन्नेरी के पास एक महिला ने शादी के महज चार दिनों के भीतर ही कथित उत्पीड़न के कारण आत्महत्या कर ली. दूसरी घटना में भी इसी वजह से एक युवती ने शादी के दो महीने के भीतर ही अपनी जान दे दी.
यह घटनाएं इस बात का सबूत हैं कि कभी नवविवाहित जोड़ों की मदद के लिए दिए जाने वाले उपहार से शुरू हुई दहेज प्रथा नामक इस सामाजिक कुरीति की जड़ें कितनी गहरी हैं.
क्या कहता है कानून?
देश में दहेज प्रथा पर अंकुश लगाने के लिए कई कानून मौजूद हैं. बावजूद इसके यह प्रथा धड़ल्ले से जारी है. वर्ष 1961 में बने दहेज निषेध अधिनियम के मुताबिक, दहेज के लेन-देन या इसमें सहयोग करने वालों को पांच साल की सजा और 15 हजार तक के जुर्माने का प्रावधान है. दहेज उत्पीड़न से कई दूसरे भी कानून हैं जिनके तहत अभियुक्त को सात साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है.
भारत में अब भी कायम हैं दहेज प्रथा के वीभत्स परिणाम
भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) में भी दहेज हत्या और उत्पीड़न से निपटने के प्रावधानों को जस का तस रखा गया है. बीएनएस की धारी 80 (1) के तहत शादी के सात साल के भीतर अस्वाभाविक परिस्थिति में किसी महिला की मौत को दहेज हत्या की श्रेणी में रखा जा सकता है. धारा 80 (2) के तहत ऐसे मामले में दोषियों को सात साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा का प्रावधान है.
बीएनएस की धारा 86 के तहत जानबूझकर किए गए किसी भी ऐसी कार्रवाई को क्रूरता की श्रेणी में रखा गया है, जिससे किसी महिला को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया जा सकता हो या फिर उसे गंभीर शारीरिक या मानसिक नुकसान का अंदेशा हो.
क्या है वजहें?
सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि तमाम कानूनों के बावजूद अदालत में न्याय मिलने में होने वाली असामान्य देरी से दहेज मांगने वालों को मनोबल बढ़ता है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, हर साल सामने आने वाली सात हजार घटनाओं में से सिर्फ साढ़े चार हजार में ही समय से चार्जशीट दायर की जाती है. असामान्य देरी के कारण कई मामलों में सबूत के अभाव में दोषी बेदाग बच निकलते हैं. शुरुआत में पुलिस भी ऐसे मामले को गंभीरता से नहीं लेती. जो मामले अदालत में पहुंचते हैं उनमें से 90 फीसदी में असामान्य तौर पर देरी होती है.
महिला कार्यकर्ता सुष्मिता बनर्जी डीडब्ल्यू से कहती हैं, "दहेज अब सामाजिक कोढ़ बन चुका है. 21वीं सदी में भी इस मामले में समाज की मानसिकता नहीं बदली है. हर साल करीब सात हजार मामले सामने आते हैं. लेकिन उनमें से सौ मामलों का ही निपटारा संभव होता है." वो बताती हैं कि ऐसी घटनाओं में पुलिस और न्यायपालिका के बीच तालमेल नहीं होने की वजह से भी अदालती कार्रवाई में देरी होती है. खासकर ग्रामीण इलाकों में तो पुलिस पहले स्थानीय स्तर पर ही इन घटनाओं में मध्यस्थता कर उनको सुलझाने का प्रयास करती है. नतीजतन कई मामले अदालत तक ही नहीं पहुंचते.
एक कॉलेज में समाजशास्त्र की प्रोफेसर डॉक्टर शिवानी हालदार डीडब्ल्यू से कहती हैं, "कई मामलों में पीड़ितों के परिजन सामाजिक कलंक, कानूनी जागरूकता की कमी और परिवार व समाज के दबाव के कारण दहेज के कारण होने वाली मौतों की पुलिस में शिकायत दर्ज नहीं कराई जाती. कई मामलों में पुलिस की लापरवाही की वजह से दोषियों के खिलाफ ठोस सबूत नहीं मिल पाते."
कैसे लगेगा अंकुश?
समाजशास्त्रियों का कहना है कि दहेज उत्पीड़न या हत्या के मामलों की शिकायत दर्ज करने की प्रक्रिया आसान बनानी होगी. इसके साथ ही पुलिस को भी ऐसी शिकायतों का गंभीरता से संज्ञान लेकर आपराधिक मामलों की तरह इनकी जांच करनी होगी. इसके अलावा ऐसी घटनाओं की सुनवाई फास्ट ट्रैक अदालतों में कर अभियुक्तों को शीघ्र सजा सुनानी होगी. इन तमाम उपायों को एकीकृत तरीके से लागू करने पर ही इस कलंक से छुटकारा मिल सकेगा.
डा. शिवानी हालदार कहती हैं, "महिलाओं का आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना इस दिशा में पहला ठोस कदम है. बाल विवाह को रोकने वाले कानून और सूचना के अधिकार अधिनियम का इस्तेमाल कर लड़कियों की स्कूली शिक्षा पर जोर देना चाहिए ताकि कम उम्र में होने वाली शादियां रोकी जा सकें."
कलकत्ता हाईकोर्ट में एडवोकेट मीनाक्षी मित्र डीडब्ल्यू से कहती हैं, "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसी केंद्र और राज्य सरकार की विभिन्न योजनाओं को गंभीरता से लागू करना होगा. इसके अलावा दहेज प्रथा के खिलाफ बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाना जरूरी है." वो कहती हैं कि जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी, कोई भी कानून इस प्रथा पर अंकुश नहीं लगा सकता. इस प्रथा के जारी रहने तक इसकी वजह से होने वाली मौतों के सिलसिले को रोकना भी बेहद मुश्किल है.
-आनंद बहादुर
आज मैंने ‘चोरी’ शब्द पर गौर किया है। भारत में चोर शब्द कोई बहुत बुरा शब्द नहीं है। दरअसल, यहां जीवन स्थितियां इतनी कठिन हैं, इतनी विकराल, कि जीवित रहने के लिए हर कोई कुछ न कुछ चुराता रहता है। यह बात अति निम्न वर्ग, निम्न वर्ग, निम्न मध्यमवर्ग पर भी उतनी ही लागू होती है, जितनी उच्च वर्गों पर। निम्न वर्ग के लोग नदी-जंगल, खेत-खलिहान आकाश-पाताल से, लकड़ी-काठी-पत्ते, फल-सब्जियां, साग पात, खर-पतवार, मतलब जो कुछ उपयोगी लगे, खोंटकर बटोरकर, उठापठा करके अपने घर ले जाते हैं। इसको कोई चोरी नहीं कहता है, लेकिन 'जो मेरा नहीं है जरूरत हो तो उसको भी अपने घर ले जा सकते हैं’ इस बात को एक प्रकार की व्यापक मान्यता मिली हुई है, इसका यह प्रमाण है। क्योंकि दो जून का खाना ही नसीब नहीं है, तो नैतिकता का पलड़ा किससे सम्हले! निम्न वर्ग और निम्न मध्यमवर्ग की जीवन की जरूरत ही जब वर्तमान अर्थव्यवस्था से पूरी नहीं हो रही है। इसे आप उच्च वर्ग के घरों में काम करने वाले घरेलू सहायकों के मामलें में भी देख सकते हैं जो मौका मिलते ही कुछ न कुछ उठाकर अपने घर ले जाते हैं।
उच्च वर्ग और अति उच्च वर्ग में इस प्रकार का आचरण बहुत आम बात है। कामकाज में चोरी, श्रम करने में चोरी, सरकारी कामकाज में घूसखोरी, पैरवी, गलत तरीके से अपने लोगों को नौकरी लगा देना, नंबर बढ़ा देना, नंबर कम कर देना, परीक्षा में नकल करना- इस चोरी के अनेक रूप हैं और यह सार्वभौम तरीके से हमारे समाज में विद्यमान हैं। बिजनेस-व्यापार में थोड़ा सा कम तोल देना, 2-4 सड़े फल या सब्जियां तराजू में छुपा कर डाल देना, खराब माल सप्लाई कर देना, डॉक्टर को पर्चा लिखने के लिए जांच लिखने के लिए कमीशन देना, इंजीनियर को कट देकर खराब रोड बना देना, न्यायालय में प्रभाव में आकर निर्णय देना, पीत पत्रकारिता... यह सब अब हमारा स्थापित सामाजिक आचरण हो गया है। इसको पूरे भारत में मान्यता मिली हुई है और इसको कोई बुरा नहीं समझता, क्योंकि हर कोई किसी न किसी तरह से इस तरह की झुठखोरी में लगा हुआ है।
बहुत कम लोग हैं जो आदर्श रूप से एब्सोल्यूट टम्र्स में चोर नहीं हैं। (क्या पता उतने भर भी हैं या नहीं!) हमारे देश की समूची सभ्यता और संस्कृति की बनावट ही ऐसी हो गई है। हमारे यहां धर्म का पाखंड भी इस प्रकार की हरकत (देखिये, मैं इसे अभी भी चोरी नहीं कह रहा हूं) को बढ़ावा देता है। आम आदमी मानता है कि उसने अगर कोई गलत काम किया है, अगर कोई चीज बेचने में डंडी मारी है, कहीं से, किसी तरह से, किसी का हक छीना है, किसी को दुख दिया है, तो जाकर कहीं पर जल चढ़ा देने से, कहीं अगरबत्ती बार देने से, किसी नदी में डुबकी लगा लेने से, किसी पंडित जी से कथा सुन लेने से- वह पाप मिट जाएगा। इसलिए भारतीय लोग चोर और चोरी को बहुत गंभीरतापूर्वक नहीं लेते हैं। इसीलिए किसी को चोर कह देना बड़े-बड़े चुनावों का मुख्य मुद्दा नहीं बन पाता है। हालांकि की गई चोरी पूरे देश के सामने जगजाहिर होती है, उसकी सूचना न्याय को बंद लिफाफे में दी जाती है, और बंद लिफाफे की संस्कृति को स्वीकार भी कर लिया जाता है।
भारत में चोरी की तुलना में चरित्र का पतन अधिक बड़ा अपराध है। अगर आप किसी के बारे में कह सकें कि वह चरित्रवान नहीं है और इसको साबित कर दें, तो लोग उसको वोट नहीं देंगे। लेकिन आप अगर यह साबित कर भी दें कि कोई चोर है, तो लोग फिर भी उसको वोट दे देंगे। क्योंकि लोग जानते हैं कि वे भी अपने अंदर में किसी किसी ना किसी हद तक चोर हैं। जबकि अमेरिका में इससे ठीक उलट है। अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने जब मोनिका लेविंस्की के साथ अनैतिक संबंध बनाया, व्यभिचार किया, और उसको पूरे सीनेट में स्वीकार भी कर लिया, तो सीनेट ने उसे हँसते-खेलते माफ कर दिया, और यहां तक कि बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन ने भी अपने पति के तरफ से पैरवी की, और उनको सीनेट से माफी दिलवाई।
‘आज दुनिया में आर्थिक स्वार्थ वाली राजनीति है। सब कोई अपना-अपना करने में लगे हैं। उसे हम भलीभांति देख रहे हैं। हम पर दबाव बढ़ सकता है, लेकिन हम इसे सहन कर लेंगे।’
रूस से तेल खऱीदने पर ट्रंप प्रशासन ने भारत पर 25 फ़ीसदी अतिरिक्त टैरिफ लगाया है। यानी भारत पर कुल मिलाकर 50 फीसदी टैरिफ बुधवार सुबह साढ़े नौ बजे से लागू हो गए हैं।
इनके लागू होने से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात दौरे पर हैं। सोमवार को वहाँ एक कार्यक्रम में उन्होंने जो कुछ कहा उसमें से अधिकतर हिस्सा भारतीय अर्थव्यवस्था और ‘आत्मनिर्भर भारत’ से जुड़ा हुआ था। उन्होंने कहा कि आत्मनिर्भरता और स्वदेशी ही विकसित भारत के निर्माण की नींव है।
उन्होंने कहा कि भारत ने आत्मनिर्भरता को एक विकसित राष्ट्र बनाने की नींव बनाया है। यह तभी संभव है जब हमारे किसान, मछुआरे, पशुपालक और उद्यमी मजबूत हों। प्रधानमंत्री ने आश्वासन दिया कि उनकी सरकार छोटे उद्यमियों, किसानों, दुकानदारों और पशुपालकों के हितों की रक्षा करती रहेगी।
‘अहमदाबाद की धरती से मैं कहना चाहता हूं कि छोटे उद्यमियों और किसानों का कल्याण मेरे लिए सर्वोपरि है। हम उनके हितों को आंच नहीं आने देंगे।’
मंगलवार को गुजरात के हंसलपुर में उन्होंने स्वदेशी की अपनी परिभाषा बताई।
उन्होंने कहा कि जापान की ओर से भारत में किया जा रहा उत्पादन भी स्वदेशी है।
उन्होंने कहा, ‘यहाँ जापान के द्वारा जो चीज़ें बनाई जा रही हैं वह भी स्वदेशी है। मेरी स्वदेशी की व्याख्या बहुत सिंपल है। पैसा किसका लगता है, उससे लेना-देना नहीं है। डॉलर है, पाउंड है, वह करेंसी काली है या गोरी है, मुझे लेना-देना नहीं है। लेकिन जो प्रोडक्शन है उसमें पसीना मेरे देशवासियों का होगा।’
अमेरिका ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की तरफ से पहले की गई घोषणा के अनुसार भारतीय सामानों पर अतिरिक्त 25 प्रतिशत शुल्क लगाने का एक ड्राफ्ट नोटिस जारी कर दिया है।
भारत के खिलाफ ये टैरिफ 27 अगस्त यानी बुधवार से लागू होंगे। आदेश में कहा कि बढ़ा हुआ शुल्क उन भारतीय उत्पादों पर लागू होगा जिन्हें 27 अगस्त 2025 को रात 12 बजकर एक मिनट या उसके बाद उपभोग के लिए (देश में) लाया गया है या गोदाम से निकाला गया है।
अमेरिका, भारत का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है और उसका भारत के सामानों पर 50 फीसदी का टैरिफ लगाना मोदी सरकार और भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है, लेकिन पीएम मोदी कई मंचों से कह चुके हैं कि समय-समय पर लगने वाले इन झटकों से निपटने का स्थाई इंतजाम होना चाहिए और भारतीय अर्थव्यवस्था में ये ताकत है।
आखिर क्या है उनकी इस भरोसे की वजह और क्या वाकई भारतीय अर्थव्यवस्था में ‘बाहरी झटकों’ को सहने की क्षमता है। ‘आत्मनिर्भर और स्वदेशी’ के इस भरोसे की क्या वजहें हैं।
1. आउटलुक में सुधार
दरअसल, पिछले कुछ सालों में विदेशी निवेशकों का भारत पर भरोसा बढ़ा है और तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था तरक्की की राह पर रही है।
टैरिफ की बुरी ख़बरों के बीच पिछले दिनों रेटिंग एजेसियों एसएंडपी और फिच ने भी भारत की अर्थव्यवस्था पर भरोसा जताया है।
फिच के अनुसार, अमेरिकी टैरिफ में बढ़ोतरी का भारत की जीडीपी पर असर मामूली रहेगा क्योंकि अमेरिका को भारत का निर्यात कुल जीडीपी का तकरीबन 2 फीसदी है।
फिच की रिपोर्ट में कहा गया है, ‘हमारा अनुमान है कि वित्त वर्ष 2025-26 में जीडीपी वृद्धि 6।5 प्रतिशत रहेगी, जो पिछले वित्त वर्ष के मुक़ाबले कम नहीं है।’
एक और रेटिंग एजेंसी एसएंडपी ग्लोबल ने 18 साल बाद भारत की रेटिंग बढ़ाई है। एसएंडपी ने भारत की लंबे समय की सॉवरेन रेटिंग ‘बीबीबी-’ से बढ़ाकर ‘बीबीबी’ कर दी है। रेटिंग एजेंसी ने कहा है कि भारत दुनिया की सबसे शानदार प्रदर्शन करने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक बना हुआ है। कोविड महामारी के बाद से मजबूती के साथ सुधार और निरंतर विकास दिखा रहा है।
2. भारत का बहुत बड़ा घरेलू बाजार
दुनिया की कुल खपत में भारत की हिस्सेदारी 2050 तक बढक़र 16 प्रतिशत हो सकती है, जो कि 2023 में महज 9 प्रतिशत थी। यह जानकारी मैकिन्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट की इसी साल आई एक रिपोर्ट में दी गई है।
बताया गया कि 2050 तक 17 प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ केवल उत्तर अमेरिका ही भारत से आगे होगा।
यह अनुमान क्रय शक्ति समता के आधार पर लगाया गया है, जो देशों के बीच मूल्य अंतर को बराबर करता है।
दुनिया की कुल खपत में भारत की हिस्सेदारी बढऩे की वजह यहां अधिक युवा आबादी होना है।
3. जीएसटी कलेक्शन में बढ़ोतरी
जीएसटी का मतलब है गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स। यह टैक्स लोग सामान और सेवाएं खरीदते समय देते हैं।
जीएसटी कलेक्शन से सरकार खजाना भर रहा है। मई महीने के जीएसटी कलेक्शन के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, मई 2025 में जीएसटी कलेक्शन 16.4 फीसदी बढक़र 2,01,050 करोड़ रुपये हो गया है। मई 2024 में यह कलेक्शन 1,72,739 करोड़ रुपये था।
इससे पहले, अप्रैल में जीएसटी कलेक्शन 2.37 लाख करोड़ रुपये रहा था जो कि अब तक का सबसे अधिक कलेक्शन था।
जीएसटी कलेक्शन सरकार का खजाना भरना दिखाता है। ये दिखाता है कि घरेलू फ्रंट पर भारत की इकोनॉमी बेहतर कर रही है।
-अर्चना शुक्ला, रॉक्सी गागडेकर छारा और जी उमाकांत
तमिलनाडु के तिरुपुर में एन. कृष्णामूर्ति की एक गारमेंट मैन्युफैक्चरिंग यूनिट है। लेकिन आजकल वहाँ एक अजीब सन्नाटा पसरा हुआ है।
इस यूनिट की 200 सिलाई मशीनों में से केवल कुछ ही चल रही हैं। यहाँ काम करने वाले लोग अमेरिका के कुछ बड़े रिटेलर्स के लिए बच्चों के कपड़ों के आखऱिी ऑर्डर पूरे कर रहे हैं।
तिरुपुर भारत का सबसे बड़ा टेक्सटाइल एक्सपोर्ट हब है।
कमरे के एक कोने में नए डिज़ाइनों के कपड़ों के सैंपल धूल खा रहे हैं।
और ये सब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से भारत पर लगाए जा रहे 50 फीसदी टैरिफ की भेंट चढ़ गए हैं। ये टैरिफ 27 अगस्त से लागू होंगे।
भारत अमेरिका को कपड़े, झींगा मछली और जेम्स ऐंड ज्वैलरी समेत कई चीज़ों का बड़ा निर्यातक है।
ट्रेड एक्सपर्ट्स का कहना है कि इतने ऊँचे टैरिफ़ और रूस से तेल खऱीदने पर अतिरिक्त 25 फ़ीसदी की पेनल्टी, भारतीय सामान पर लगभग प्रतिबंध लगाने जैसा असर डालेंगे।
‘सितंबर में क्या होगा, पता नहीं’
बीबीसी संवाददाताओं ने भारत के कई बड़े निर्यात केंद्रों का दौरा किया ताकि देखा जा सके कि इन व्यापारिक अनिश्चितताओं का कारोबारियों और रोजगार पर क्या असर हो रहा है।
भारत के 16 अरब डॉलर के रेडी-टु-वियर गारमेंट एक्सपोर्ट में तिरुपुर की लगभग एक तिहाई हिस्सेदारी है। यहाँ से टारगेट, वॉलमार्ट, गैप और ज़ारा जैसे ब्रांडों को सप्लाई होती है। लेकिन टैरिफ के ऐलान के बाद यहाँ भविष्य को लेकर गहरी चिंता दिख रही है।
कृष्णमूर्ति कहते हैं, ‘सितंबर के बाद हमारे पास शायद कुछ करने को ही न बचे, क्योंकि ग्राहकों ने सभी ऑर्डर रोक दिए हैं।’
टैरिफ संकट की वजह से उन्हें हाल ही में अपने विस्तार की योजना रोकनी पड़ी और करीब 250 नए कर्मचारियों को काम पर रखने के बाद बैठा देना पड़ा।
डोनाल्ड ट्रंप ने टैरिफ़ की घोषणा ऐसे समय में की है जब टेक्सटाइल यूनिटों की लगभग आधी बिक्री होती है। क्रिसमस से पहले का समय बिक्री के लिए काफ़ी अहम होता है।
अब ये टेक्सटाइल यूनिट्स अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए घरेलू बाजार और आने वाले दिवाली सीजऩ पर निर्भर हैं।
हमने अंडरवियर बनाने वाली एक दूसरी फैक्ट्री में लगभग 10 लाख डॉलर का माल का स्टॉक देखा। ये सब अमेरिकी स्टोर्स के लिए था। लेकिन अब इनके खरीदार नहीं हैं।
इस फ़ैक्ट्री में उत्पादन करने वाली कंपनी राफ्ट गारमेंट्स के मालिक सिवा सुब्रमण्यम ने बताया, ‘हम उम्मीद कर रहे थे कि भारत और अमेरिका के बीच ट्रेड डील होगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस वजह से पिछले महीने से पूरा प्रोडक्शन चेन ठप है। अगर यही चलता रहा तो मैं अपने मज़दूरों को तनख्वाह कैसे दूँगा?’
ट्रंप की ओर से लगाए गए 50 फीसदी टैरिफ के बाद भारत में बनी 10 डॉलर की शर्ट की कीमत सीधे 16.4 डॉलर हो जाएगी। जबकि बांग्लादेश में बनी टी-शर्ट 13.2 डॉलर और चीन में बनी टी-शर्ट की कीमत 14।2 डॉलर हो सकती है। वियतनाम में बनी टी-शर्ट 12 डॉलर में मिल सकती है।
हीरे की तराश
अगर टैरिफ़ को घटाकर 25 फीसदी कर दिया जाए, तो भी भारत अपने एशियाई प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में कम प्रतिस्पर्धी होगा।
इस झटके को कम करने के लिए सरकार ने कुछ उपायों की घोषणा की है। इनमें कच्चे माल पर आयात शुल्क को निलंबित करने जैसे क़दम शामिल हैं।
दुनिया में भारतीय सामान के लिए नए बाज़ारों की तलाश में कई देशों के साथ व्यापार वार्ताएँ भी तेज़ हुई हैं। लेकिन कई लोगों को डर है कि यह सब करने में देर हो गई है।
ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव के अजय श्रीवास्तव ने कहा, ‘अमेरिकी खऱीदार मैक्सिको, वियतनाम और बांग्लादेश की ओर रुख़ कर रहे हैं।’
मुंबई के एक एक्सपोर्ट ज़ोन में सैकड़ों मज़दूर हीरे की पॉलिशिंग और पैकिंग में व्यस्त हैं। भारत कई बिलियन डॉलर के रत्न और आभूषण निर्यात करता है।
लेकिन अब आभूषण ब्रांड सितंबर और अक्तूबर के दौरान अपनी बिक्री पर टैरिफ़ के संभावित असर से चिंतित हैं। इन दो महीनों में तीन से चार अरब डॉलर के आभूषण अमेरिका निर्यात किए जाते हैं।
हालाँकि भारत की ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के साथ नई व्यापारिक साझेदारियों ने नए अवसर खोले हैं।
लेकिन क्रिएशन ज्वैलरी के आदिल कोटवाल कहते हैं कि अमेरिकी बाज़ार पर पकड़ बनाने के लिए वर्षों से किए गए प्रयास कुछ ही महीनों में विफल हो सकते हैं।
कोटवाल की कंपनी में बनने वाले 90 फ़ीसदी हीरे जडि़त आभूषण अमेरिका भेजे जाते हैं।
आदिल कोटवाल 3 से 4 फ़ीसदी के मामूली मार्जिन पर काम करते हैं, इसलिए 10 फ़ीसदी अतिरिक्त टैरिफ़ भी उन पर भारी पड़ सकता है।
कोटवाल ने बीबीसी को बताया, ‘इन टैरिफ को कौन झेल पाएगा? यहाँ तक कि अमेरिकी रिटेलर भी ऐसा नहीं कर पाएँगे।’
कोटवाल हीरे सूरत से मँगवाते हैं। सूरत दुनिया में हीरा तराशने और पॉलिश करने का केंद्र है। सूरत पर वैश्विक माँग में गिरावट और लैब में बनाए गए हीरों से मिल रही प्रतिस्पर्धा के कारण पहले ही मुसीबत के बादल मंडरा रहे हैं।
अब टैरिफ इस शहर के लिए दोहरी मार है।
अमेरिकी ग्राहक ग़ायब हो गए हैं और लगभग पाँच लाख लोगों की आजीविका चलाने वाले कारख़ाने अब महीने में मुश्किल से 15 दिन ही चल पा रहे हैं। सैकड़ों कर्मचारियों को अनिश्चितकालीन छुट्टी पर भेज दिया गया है।
सूरत में एक मंद रोशनी वाली हीरा पॉलिशिंग यूनिट के अंदर, धूल भरी, बेकार पड़ी मेजों की कतारें सन्नाटे के बीच फैली हुई हैं। पास ही टूटे हुए सीपीयू बिखरे पड़े हैं।
एक मज़दूर ने बताया, ‘यह जगह पहले बहुत गुलज़ार रहती थी। हाल ही में कई लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया। हमें नहीं पता कि अब हमारा क्या होगा।’
इस यूनिट के मालिक शैलेश मंगुकिया बताते हैं कि उनके यहाँ पहले 300 कर्मचारी थे। अब केवल 70 ही बचे हैं। हर महीने पॉलिश किए जाने वाले हीरों की संख्या 2,000 से घटकर मुश्किल से 300 रह गई है।
भावेश टांक जैसे स्थानीय ट्रेड यूनियन नेताओं का कहना है कि सूरत में मज़दूरों को 'कम वेतन, जबरन छुट्टी और घटती मासिक आय' का सामना करना पड़ रहा है।
-संजय श्रमण
डॉ अंबेडकर और संविधान के साथ जब भी धर्म और लोकतंत्र की बात छिड़ती है, वेदांती बाबाओं के गले में अचानक वर्ण और जाति का फंदा फँस जाता है।
बड़ी चतुराई से फिर वे भागने का रास्ता निकालते हैं। अंबेडकर को टुकड़ों-टुकड़ों में कोट करते हैं। उनके किसी भी वक्तव्य को पूरी तरह डिस्कस नहीं करते, और खासकर उनके बौद्ध बन जाने की तो बात ही नहीं करते। ऐसी चर्चाओं से भागने के लिए वे बड़ी-बड़ी जलेबियाँ बनाते हैं। सीधे सीधे इस मुद्दे पर बात ही नहीं करते। उनका अंतिम तर्क-ब्रह्म और आत्मा एक ही है की तरह आता है। लेकिन जैसे ही स्व या आत्मा में गहरे जाने की कोशिश होती है, वे भाग खड़े होते हैं।
भारत के अलावा किसी अन्य समाज पर भले ही ये लागू होता हो या ना लागू होता हो। भारत के बारे में बुद्ध से लेकर अंबेडकर और जिद्दू कृष्णमूर्ति तक बुद्धिमान लोगों का साफ़ कहना है कि अजर-अमर आत्मा और इसके पुनर्जन्म की मान्यता ही भारत की वास्तविक समस्या है।
इस बिंदु पर कभी बात नहीं होती। या होती भी है तो प्रश्न पूछने वाले या मॉडरेटर महोदय या श्रोतागण अचानक जाने किस श्रद्धा के जलाल में आकर हाँफने लगते हैं। जैसी ही ब्रह्म और आत्मा के बारे में हवा हवाई एकता की बात शुरू होती है, इस श्रद्धा का पैनिक अटैक सबको घेर लेता है और अचानक मुद्दा बदल जाता है। जबकि ठीक से देखें तो बात इसी बिंदु से शुरू होनी चाहिए। लेकिन असल बात शुरू होने के पहले ही वे पारी समाप्ति की घोषणा कर देते हैं। इस चर्चा में यही हो रहा है, इस वीडियो को ठीक से देखिए।
मॉडरेटर ज़मीनी सवाल पूछता है फिर वेदांती बाबा एक ख़ास गहराई में जाते हुए नजऱ आते हैं। लेकिन जैसे ही लगता है कि वेदान्त और अन्य शास्त्रों पर सीधा सवाल उठ सकता है-वे वहाँ से बचकर भागते हैं। इस तरह जब भारतीय वेदांती भागते हैं तो उनका सबसे बड़ा क्लेम होता है - भेदभाव मनुष्य का स्वभाव है, भेदभाव पूरी दुनिया में होता है। लेकिन ऐसा कहते हुए वे भूल जाते हैं कि दुनिया में अन्य समाजों का भेदभाव उनके ईश्वर और शास्त्रों द्वारा स्वीकृत नहीं हैं। लेकिन भारतीय समाज का भेदभाव भारतीय ईश्वर और शास्त्रों द्वारा स्वीकृत है। यही वो असली बात है जिससे वेदांती घबराते हैं। इसलिए मैं बार बार कहता हूँ। जब तक इस आत्मा के सिद्धांत का ख़ात्मा नहीं होता, कम से कम भारत में सभ्यता का सही अर्थों में जन्म नहीं हो सकता।
पश्चिम ने ईश्वर की हत्या करके सभ्यता और लोकतंत्र कमाया है।
भारत को आत्मा की हत्या करके ये सभ्यता और लोकतंत्र कमाना होगा।
सेमिटिक धर्मों के अंधविश्वास का केंद्र उनका ईश्वर है। भारतीय धर्मों के अंधविश्वास का केंद्र सनातन आत्मा और पुनर्जन्म है। ये बहुत गहरी और बड़ी जटिल बात है। जन्म जन्मांतर का ये सिद्धांत, धीरे धीरे जन्म जन्मांतर तक जाने वाले अच्छे और बुरे संस्कारों का सिद्धांत बन जाता है। इसी के आधार पर कोई जन्म से श्रेष्ठ, कोई दूसरा जन्म से नीच बन जाता है। इसी के आधार पर अमीर की अमीरी और गरीब की गरीबी को वैध ठहराकर बदलाव की चेतना हो खत्म किया जाता है।
गली मुहल्लों से लेकर अच्छे अच्छे विश्वविद्यालय के लोगों से बात करके देखिए। वे हर चीज को नकारने का साहस रखते हैं। लेकिन आत्मा और पुनर्जन्म की बात आते ही उनकी सारी पढ़ाई लिखाई धरी की धरी राह जाती है।
ख़ैर, ये बात यहाँ खुलकर नहीं बताई जा सकती लेकिन एक संकेत किया जा सकता है। आत्मा और पुनर्जन्म का सिद्धांत असल में एक राजनीतिक सिद्धांत है - राजा और राजसत्ता के लिए आम आदमी को मानसिक रूप से गुलाम बनाने की सबसे बेजोड़ टेक्नोलॉजी। वज्रयान में ईश्वर की कोई जगह नहीं थी। इसलिए उन्होंने अजर अमर आत्मा और पुनर्जन्म बनाया। आगे सहजयान में भी यही हो रहा है। सगुण-निर्गुण और न जाने क्या-क्या।
लगभग डेढ़ हज़ार सालों से भारत में जिस संप्रदाय को भारत का सबसे बड़ा धर्म या संप्रदाय कहा जाता है,
वो असल में बिगड़ा हुआ वज्रयान है। इसी वज्रयान ने ना जाने किस दुर्भाग्य के क्षणों में क्षण भंगुर आत्मा को अजर-अमर आत्मा निरूपित करके स्कंधों के पुनर्भव को आत्मा का पुनर्जन्म बता दिया था।
इसी तरह तिब्बत में भी दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में यही घटना घटी। फिर अवलोकितेश्वर का एक रूप विष्णु बना दूसरा शिव बना। तिब्बत में इसी अवलोकितेश्वर का एक रूप या अवतार दलाई लामा बना। ये सब वज्रयानियों की करामात है। ठीक यही वो समय है जब कम्बोडिया के खमेर राजाओं ने अवलोकितेश्वर के विष्णु रूप की कल्पना को बहुत बड़ा आकार दिया और अवलोकितेश्वर को समर्पित अंकोर वाट मंदिर बनाया।
इसी ग्यारहवीं सदी में भारत में शैव और वैष्णव संप्रदाय अपने अपने अवतारवादी फ्ऱेमवर्क को लेकर एक दूसरे से अलग हो जाते हैं।
ये आदिशंकर और अभिनवगुप्त के तुरंत बाद का समय है। एक तरफ़ अवलोकितेश्वर का विष्णु रूप दूसरी तरफ़ उन्हीं अवलोकितेश्वर का शिव रूप - दोनों अलग मार्ग पकड़ लेते हैं। दुर्भाग्य से ये दोनों संप्रदाय न सिफऱ् इंसान के बारंबार पुनर्जन्म का बल्कि एक काल्पनिक सृष्टिकर्ता के पुनर्जन्म (अवतार) का सिद्धांत भी ले आते हैं।
-राजेश अग्रवाल
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में कहा कि अगर उप राष्ट्रपति पद के कांग्रेस प्रत्याशी जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी ने 2011 में सलवा जुडूम के खिलाफ फैसला नहीं दिया होता, तो माओवाद 2020 तक खत्म हो जाता। जस्टिस रेड्डी ने जवाब में इसे सुप्रीम कोर्ट का सामूहिक निर्णय बताया और शाह को पूरा जजमेंट पढऩे की सलाह दी।
लेकिन क्या था वह फैसला?
मामला दरअसल मानवाधिकार हनन, कानून के राज का उल्लंघन और राज्य की जिम्मेदारी से जुड़ा है। 5 जुलाई 2011 को सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने यह फैसला दिया था, जिसमें जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी और एस.एस. निज्जर शामिल थे। केस का नाम था- नंदिनी सुंदर एंड अदर्स बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़। दोनों जजों की पीठ ने सलवा जुडूम को असंवैधानिक करार दिया। याचिका में क्या मांगा गया, कोर्ट ने किन तथ्यों पर गौर किया और फैसला किस बुनियाद पर था, यह जानना रुचिकर हो सकता है।
सन् 2007 में सामाजिक कार्यकर्ता नंदिनी सुंदर, इतिहासकार रामचंद्र गुहा, ईएएस शर्मा आदि ने सुप्रीम कोर्ट में एक रिट पिटीशन दाखिल की। मुख्य मुद्दा था छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम नाम से मिलिशिया का गठन और स्पेशल पुलिस ऑफिसर्स (एसपीओ) की भर्ती, जिनका माओवादियों के खिलाफ लड़ाई में इस्तेमाल हो रहा था। याचिका में आरोप लगाया गया कि सलवा जुडूम राज्य सरकार की शह पर चल रहा है। इसमें मानवाधिकारों के उल्लंघन के कई उदाहरण दिए गए, जैसे गांवों को जला देना, हत्याएं, बलात्कार और विस्थापन। जलाए गए गांवों की संख्या सैकड़ों, दर्जनों हत्याएं और बलात्कार और करीब एक लाख लोगों का आंध्रप्रदेश और ओडिशा जैसे राज्यों में भाग जाना।
याचिका में कहा गया कि एसपीओ के रूप में आदिवासी युवाओं को हथियार देकर राज्य उन्हें मौत के मुंह में धकेल रहा था, जो कानून के खिलाफ है। याचिका में मांग की गई कि सलवा जुडूम को भंग किया जाए, एसपीओ की भर्ती रोकी जाए और हिंसा की जांच हो। याचिका में छत्तीसगढ़ पुलिस एक्ट का हवाला दिया गया, जिसके तहत एसपीओ को सिर्फ ट्रैफिक कंट्रोल या आपदा राहत जैसे कामों की अनुमति है।
कोर्ट ने कई तथ्यों पर गौर किया। पहला, राज्य सरकार ने शुरू में कहा कि सलवा जुडूम एक स्वत:स्फूर्त आंदोलन है। बाद में यह प्रमाण सामने आ गए सरकार इसे फंड और समर्थन दे रही है।
कोर्ट ने ह्यूमन राइट्स रिपोर्ट्स का जिक्र किया। ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट में एसपीओ और सलवा जुडूम पर 600 से ज्यादा गांव जलाने, हजारों विस्थापन और हत्याओं के आरोप थे। मार्च 2011 में मोरपल्ली, ताडमेटला और तिम्मापुर गांवों में हुई हिंसा को कोर्ट ने गंभीरता से लिया, जहां एसपीओ और कोया कमांडो पर हमले का आरोप था। राज्य की ओर से दिए गए एफिडेविट को कोर्ट ने ‘सेल्फ-जस्टिफिकेशन’ बताया, न कि जिम्मेदारी का। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि एसपीओ की ट्रेनिंग अपर्याप्त थी। महज तीन महीने की। और वे अक्सर निर्दोषों पर अत्याचार करते थे। नाबालिग तक एसपीओ बना दिए गए, जो अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन था। केंद्र सरकार की भूमिका पर भी सवाल उठे, क्योंकि उन्होंने एसपीओ को समर्थन दिया था।
दिलचस्प यह है कि तब छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार थी, सलवा जुड़ूम के संस्थापक महेंद्र कर्मा कांग्रेस के थे। केंद्र में यूपीए की सरकार थी, तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम भी इसके पक्ष में थे। हालांकि छत्तीसगढ़ के कांग्रेस नेताओं में सलवा जुड़ूम को समर्थन देने के नाम पर मतभेद था।


