विचार/लेख
बिहार की मतदाता सूची की विशेष समीक्षा करने के चुनाव आयोग के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। कोर्ट ने इस प्रक्रिया पर रोक लगाने से तो इनकार किया लेकिन आधार कार्ड के जरिए मतदाताओं को सुविधा देने की कोशिश की है।
डॉयचे वैले पर आदर्श शर्मा का लिखा-
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार में वोटर लिस्ट रिवीजन की प्रक्रिया पर रोक लगाने से इनकार किया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वे एक संवैधानिक निकाय को उसका काम करने से नहीं रोक सकते। हालांकि, कोर्ट ने केंद्रीय चुनाव आयोग से कहा है कि वह बिहार में वोटर लिस्ट के ‘विशेष गहन संसोधन’ के लिए आधार कार्ड, वोटर आईडी कार्ड और राशन कार्ड को स्वीकार करने पर विचार करे।
सुप्रीम कोर्ट ने वोटर लिस्ट रिवीजन की टाइमिंग पर भी सवाल उठाए हैं क्योंकि यह प्रक्रिया प्रस्तावित विधानसभा चुनावों से कुछ ही महीने पहले हो रही है। कोर्ट ने इस प्रक्रिया को विधानसभा चुनावों से जोड़े जाने को लेकर भी सवाल पूछे हैं। कोर्ट ने चुनाव आयोग से यह भी पूछा कि क्या चुनाव से पहले यह प्रक्रिया पूरी हो पाएगी और कहा कि इस प्रक्रिया को काफी पहले शुरू कर दिया जाना चाहिए था।
चुनाव आयोग के किस फैसले पर हो रहा विवाद
बिहार में इस साल अक्टूबर-नवंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं। उससे पहले चुनाव आयोग ने मतदाता सूची की विशेष समीक्षा करने की घोषणा की है। बिहार में करीब सात करोड़ 90 लाख वोटर हैं, जिनमें से करीब दो करोड़ 93 लाख मतदाताओं को अपनी जानकारी की पुष्टि करानी होगी, जिनके नाम मतदाता सूची में 2003 के बाद जोड़े गए हैं।
इसके लिए चुनाव आयोग ने 11 दस्तावेजों की एक सूची जारी की थी जिनमें से कोई भी एक दस्तावेज जमा करके मतदाता अपनी जानकारी की पुष्टि करवा सकते हैं। अगर किसी भी मतदाता की जानकारी की पुष्टि नहीं हो पाती है, तो उसका नाम सूची से हटा दिया जाएगा। चुनाव आयोग द्वारा जारी की गई दस्तावेजों की सूची में आधार कार्ड, वोटर आईडी कार्ड और राशन कार्ड को शामिल नहीं किया गया था।
चुनाव आयोग की इस घोषणा का विपक्षी पार्टियों ने जमकर विरोध किया था और इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं भी लगाई गई थीं। याचिकाकर्ताओं में आरजेडी सांसद मनोज कुमार झा, टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा, कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल समेत कई पार्टियों के नेता और एनजीओ एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) शामिल है। गुरुवार को जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की बेंच ने इस मामले पर सुनवाई की।
-नासिरुद्दीन
आजकल अक्सर यह शोर सुनाई देता है कि स्त्रियों के हाथों मर्दों की जिंदगी खतरे में है। खासकर ऐसा तब-तब होता दिख रहा है, जब-जब किसी मर्द की हत्या में उसकी पत्नी या साथी का हाथ होने का शक होता है। पिछले कुछ महीनों में ही ऐसी कई खबरें सामने आई हैं। देखते ही देखते ये ख़बर के माध्यमों और सोशल मीडिया में छा गईं।
ऐसी खबरों के बाद ऐसा माहौल बनाया जाता है, मानो हर तरफ, हर स्त्री अपने पति या साथी की हत्या करने की ताक में बैठी है।
कुछ घटनाएँ याद करें। एक पुरुष का शव किसी नीले ड्रम में मिला। तो किसी की हत्या शादी के चंद दिनों बाद ही खास जगह पर ले जाकर कर दी गई। या कहीं दावा किया गया कि किसी पुरुष को पत्नी ने शादी के बाद पहली ही रात में चाकू से धमका दिया।
इसके बाद इन घटनाओं को तरह-तरह के विशेषण से नवाजा गया। सोशल मीडिया पर दसियों पोस्ट या वीडियो आ गए। ये वीडियो घटना की गंभीरता बताने के लिए नहीं बल्कि मजाहिया ज़्यादा थे।
फिर तो नीला ड्रम किसी पति को डराने का सामान बन गया। कई वीडियो और पोस्ट तो यही दिखाने के लिए सामने आए। यही नहीं, इससे ऐसा बताने की कोशिश की गई कि हर पत्नी धमका रही है और हर पति डरा-सहमा है।
हालाँकि, इनसे कोई डरा भले न हो, हँसा जरूर...क्योंकि ये चुटकुले ही थे। इसलिए इन पर गंभीर चर्चा होने की बजाय सतही तू-तू, मैं-मैं ज़्यादा हुई।
यही नहीं, ऐसा लगा मानो महिलाओं के खिलाफ बात करने का एक मजबूत आधार मिल गया। कुछ लोग तो इस लहजे में बात करते नजर आए, देखिए हम कहते थे न.. महिलाएँ ऐसी ही होती हैं।
लेकिन क्या मामला इतना ही सीधा है? राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) और दूसरे स्रोतों से मिले आँकड़े यही बताते हैं कि हर उम्र में स्त्रियों को स्त्री होने की वजह से हिंसा झेलनी पड़ती है।। क्या मर्दों के साथ ऐसा होता है? नहीं न।
तो इससे एक और बात साफ हुई। हमारे घर-परिवार-समाज में स्त्रियों के साथ हिंसा सामान्य बना दी गई है। इसलिए उस पर तब तक नजर नहीं जाती जब तक उसमें कुछ असमान्य या खास न हुआ हो। विभत्स न हो।
लेकिन मर्दों के साथ हिंसा चूँकि आम नहीं है, इसलिए छोटी-बड़ी हर घटना, बड़ी बनाकर पेश की जाती है। मानो पुरुष जाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है।
जी, महिलाएँ भी हिंसा करती हैं
यह सच मानने से किसे गुरेज़ होगा कि महिलाएँ भी हिंसा करती हैं।
महिलाएँ उन्हीं विचार, मूल्यों और सामाजिक पैमाने के बीच परवरिश पाती हैं, जिनकी नींव में मर्दों की सत्ता या पितृसत्ता है। सत्ता और ताक़त का पैमाना ख़ास तरह की हिंसक मर्दानगी बनाती है। यही हिंसक और ज़हरीली मर्दानगी, जब चारों तरफ़ फैली हो तो इससे स्त्रियों का बच पाना कैसे मुमकिन है।
किसी को हर तरह से अपने काबू में रखना, गाली देना या मारना या दबा कर रखना या किसी को अपने से नीचा समझना या हत्या कर देना।। ये ज़हरीली मर्दानगी की चंद निशानियाँ हैं। मर्द इन्हीं के सहारे सदियों से अपनी व्यवस्था चलाते आ रहे हैं। यानी ये सत्ता और ताकत की निशानियाँ हैं। तो कई स्त्रियाँ इसे ही सही या यही एक रास्ता मानकर इस सत्ता और ताकत का इस्तेमाल करती हैं। वे भी हिंसा के अलग-अलग रूपों का सहारा लेती हैं।
स्त्री और मर्द पर होने वाली हिंसा
कतई नहीं। एक की हिंसा की जड़ में गैरबराबरी, भेदभाव, सत्ता और ताकत का विचार है। इसने हिंसा की पूरी व्यवस्था बनाकर रखी है। यह व्यवस्था हिंसा के अलग-अलग रूपों को जायज़ या सामान्य बना देती है। इसीलिए हमें स्त्री पर होने वाली हिंसा आसानी से नहीं दिखती। उसे गलत मानने में भी अक्सर दिक्कत होती है। इसलिए उसे बार-बार दिखाना पड़ता है। बताना पड़ता है कि कानून की नजर में यह गलत है।
दूसरी ओर, स्त्री की ओर से की गई हिंसा में ज़्यादातर ऐसा नहीं है। उसमें तात्कालिक कारण या व्यक्तिगत हित-लाभ की ख्वाहिश ज़्यादा है। यही नहीं, कई बार वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था से उपजे हालात का नतीजा भी है।
यही नहीं, जानलेवा हिंसा और अपराध की ऐसी घटनाओं में अक्सर उसके साथ एक या एक से ज़्यादा मर्द सहयोगी होते हैं। यानी मर्द की सक्रिय मदद के बिना ज़्यादातर हिंसक या जानलेवा घटना नहीं होती।
ये भी मुमकिन है, मर्द ही प्रेरक स्रोत हों।
यहाँ यह साफ करना जरूरी है कि यह बात स्त्री की हिंसा को जायज ठहराने के लिए नहीं, बल्कि समझने के लिए की जा रही है।
सावन महीने में होने वाली कांवड़ यात्रा की शुरुआत आगामी 11 जुलाई से होनी है लेकिन कांवड़ मार्गों पर नेमप्लेट संबंधी विवाद अभी से सामने आने लगे हैं।
डॉयचे वैले पर समीरात्मज मिश्र का लिखा-
यूपी के मुजफ्फरनगर में कुछ संगठनों के लोग जबरन दुकानदानों की पहचान कर रहे हैं और आरोप हैं कि इसके लिए उनके कपड़े तक उतारे जा रहे हैं। लेकिन सवाल है कि इस जांच का अधिकार इन संगठनों को किसने दिया है?
आगामी 11 जुलाई से देश के तमाम हिस्सों में कांवड़ यात्रा शुरू होने वाली है लेकिन यात्रा शुरू होने से पहले विवाद शुरू हो गए हैं। यह यात्रा सावन के महीने में होती है जब दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तमाम हिंदू तीर्थयात्री गंगाजल लेने के लिए पैदल चलकर उत्तराखंड जाते हैं और फिर वहां से गंगाजल लाकर शिव मंदिरों में चढ़ाते हैं। देश के अन्य हिस्सों में भी पवित्र नदियों के जल इसी तरह कांवड़ में भरकर लाए जाते हैं और शिवालयों में चढ़ाए जाते हैं।
सरकार ने क्या निर्देश दिए हैं
यूपी और उत्तराखंड सरकारों ने निर्देश जारी किए हैं कि कांवड़ मार्गों पर खुले में मांसाहारी भोजन की बिक्री पर सख्त रोक रहेगी। इसके अलावा सभी विक्रेता अपने नाम, पते और मोबाइल नंबर स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करेंगे। निर्देश के मुताबिक, जुलूस के मार्गों पर प्रतिबंधित जानवरों का प्रवेश रोका जाएगा और खाद्य वस्तुओं की कीमतें तय की जाएंगी ताकि श्रद्धालुओं से मनमानी वसूली न हो।
दुकानों के सामने नेम प्लेट लगाने को लेकर पिछले साल भी आदेश जारी हुआ था और सरकार के इस फैसले की सख्त आलोचना हुई थी। यहां तक कि मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा था और सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाते हुए उस फैसले पर तत्काल रोक लगा दी थी और ऐसे निर्देश जारी करने वाली राज्य सरकारों को नोटिस जारी किए थे। लेकिन इस बार फिर यात्रा शुरू होने से पहले ये निर्देश जारी कर दिए गए हैं।
कांवड़ यात्रा को सुचारू संपन्न कराने के लिए सरकार और प्रशासन पूरी तैयारी कर रहे हैं लेकिन दुकानदारों की पहचान कुछ संगठनों के लोग भी कर रहे हैं जिनकी वजह से विवाद हो रहा है। ताजा घटनाक्रम के तहत यूपी के मुजफ्फरनगर जिले में कांवड़ मार्ग पर कुछ दुकानदारों की पहचान के सिलसिले में एक संगठन के लोगों ने कुछ दुकानदारों के कपड़े तक उतरवा लिए जिसे लेकर काफी हंगामा हुआ।
कौन लोग कर रहे हैं अतिरिक्त जांच
कांवड़ मार्ग पर मुजफ्फरनगर जिले का भी बड़ा हिस्सा पड़ता है। यहां स्वामी यशवीर नाम के एक महंत के समर्थकों ने पिछले दिनों एक अभियान चलाया जिसमें दुकानदारों की पहचान की जा रही थी। इसी के तहत दिल्ली-देहरादून नेशनल हाईवे पर स्थित एक ढाबे पर उनकी टीम ने कर्मचारियों से आधार कार्ड मांगे। आरोप हैं कि ढाबे के मालिक के मुस्लिम समुदाय से होने की वजह से वहां के एक कर्मचारी को जबरन कमरे में ले जाकर उसका पैंट उतारने की कोशिश की गई।
स्वामी यशवीर की टीम जब दुकानदारों और वहां काम करने वालों की तलाशी का अभियान चला रही थी उस वक्त कुछ स्थानीय पत्रकार भी वहां मौजूद थे। योगेश त्यागी भी उन पत्रकारों में से एक हैं। योगेश त्यागी घटना के बारे में बताते हैं, ‘जिस ढाबे पर यह घटना हुई है, वह तो एक शर्मा जी का है लेकिन उन्होंने उसे चलाने के लिए मैनेजर नियुक्त कर रखा है। पहले मैनेजर कोई मुस्लिम थे लेकिन इस वक्त हिन्दू ही मैनेजर हैं। स्वामी यशवीर के लोग जब काम करने वालों के पहचान पत्र मांग रहे थे तो एक व्यक्ति के पास पहचान पत्र नहीं था। ये लोग उसे मारते हुए कमरे की ओर ले गए और पैंट उतारने की कोशिश करने लगे। लेकिन तब तक वहां मौजूद पत्रकारों ने इसका विरोध किया और फिर वो व्यक्ति वहां से भाग निकला।’ जिस व्यक्ति के साथ ये घटना हुई उसने यशवीर के लोगों से अपना नाम गोपाल बताया था लेकिन उसका वास्तविक नाम तजम्मुल है। बाद में तजम्मुल ने पत्रकारों को बताया कि उसने डर के मारे अपना नाम गोपाल बता दिया था।
दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई
इस घटना के बाद काफी हंगामा हुआ और मामला बढऩे पर पुलिस ने कुछ लोगों को नोटिस भी जारी किए, लेकिन अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। कार्रवाई के बारे में मुजफ्फरनगर के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से बात करने की कोशिश की गई, लेकिन बात हो नहीं पाई।
उधर, स्वामी यशवीर ने कुछ टीवी चैनलों के साथ बातचीत में किसी के कपड़े उतारने की बात से तो इनकार किया है लेकिन अपने साथियों द्वारा दुकानदारों की पहचान करने और इसके लिए अभियान चलाने की बात न सिर्फ स्वीकार की है बल्कि उसका समर्थन भी किया है।
उन्होंने कहा, ‘ढाबे पर काम कर रहे व्यक्ति ने अपना नाम गोपाल बताया लेकिन हमारे लोगों ने जब इसकी पड़ताल की तो पता चला कि उसका नाम तजम्मुल है और वो पास के ही गांव का रहना वाला है।’
नोटिस जारी करने के मामले में स्वामी यशवीर ने पुलिस को चेतावनी भी दी है कि यदि उनके समर्थकों के खिलाफ कार्रवाई होगी तो वो इसके खिलाफ आंदोलन करेंगे।
पुलिस और प्रशासन पर सवाल
लेकिन सवाल ये उठ रहे हैं कि आखिर सरकार के किसी नियम या आदेश को लागू कराने की जिम्मेदारी किसी निजी संगठन के लोग या फिर उनके कार्यकर्ता कैसे ले रहे हैं और पुलिस खामोश क्यों है?
डीडब्ल्यू से बातचीत में समाजवादी पार्टी के नेता और पूर्व सांसद एसटी हसन कहते हैं, ‘शासन ने दुकानदारों को नेम प्लेट लगाने के आदेश दिए हैं। इस मामले में किसी को कोई आपत्ति नहीं है लेकिन इसका पालन तो प्रशासनिक अधिकारी कराएंगे। इन लोगों को ये अधिकार किसने दिया है कि वो ढाबों पर काम करने वालों की चेकिंग करें। जिस तरह से लोगों का धर्म जानने के लिए ढाबे के कर्मचारियों के कपड़े उतरवाकर चेकिंग की गई, वो तो आतंकियों जैसा सलूक है। पहलगाम में भी आतंकियों ने ऐसा ही कृत्य किया था। चेकिंग का काम सिर्फ प्रशासन का है, किसी और को नहीं।’
उत्तर प्रदेश में कांवड़ यात्रा के दौरान खानपान और दुकानदारों की पहचान को लेकर यूपी में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने पिछले साल कई कड़े फैसले लिए थे ताकि कांवड़ यात्रा मार्गों पर साफ-सफाई, श्रद्धालुओं की आस्था की सुरक्षा और खाद्य मिलावट पर रोक लग सके। इस साल भी कांवड़ यात्रा से पहले ये फैसले लिए गए हैं।
पिछले साल मुख्यमंत्री कार्यालय से जारी आदेश में कहा गया था कि पूरे उत्तर प्रदेश में कांवड़ यात्रा मार्गों पर खाने-पीने की चीजें बेचने वाली सभी दुकानों पर नेम प्लेट लगाना अनिवार्य होगा। हर दुकानदार को अपने नाम, पते और मोबाइल नंबर बताने होंगे। बाद में उत्तराखंड और मध्य प्रदेश की बीजेपी सरकारों ने भी ऐसे निर्देश जारी किए।
लेकिन सरकार के इस आदेश की काफी आलोचना हुई और इसे सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती दी गई। 22 जुलाई 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार के आदेश पर अंतरिम रोक लगा दी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि दुकानदार केवल अपने भोजनालयों में परोसे जा रहे भोजन की किस्म का ही प्रदर्शन कर सकते हैं।
- क्रिस्टोफर गाइल्स, रिद्धि झा, रफिद हुसैन और तारेकुज्जमां शिमुल
पिछले साल बांग्लादेश में हुए विरोध प्रदर्शनों पर घातक कार्रवाई का आदेश तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख़ हसीना ने दिया था। बीबीसी आई ने हसीना की फ़ोन कॉल का वह ऑडियो सुना है जिसमें वो कार्रवाई का आदेश देते हुए सुनी जा सकती हैं।
लीक हुए ऑडियो में हसीना कहती हैं कि उन्होंने अपने सुरक्षा बलों को प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ 'घातक हथियारों का इस्तेमाल' करने की अनुमति दी है।
ऑडियो में हसीना को ये कहते हुए भी सुना जा सकता है कि ‘सुरक्षाबलों को जहां भी प्रदर्शनकारी मिलेंगे, वे उन्हें गोली मार देंगे।’
बांग्लादेश के अभियोजक इस रिकॉर्डिंग को हसीना के खिलाफ महत्वपूर्ण साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल करने की तैयारी में हैं। हसीना पर मानवता के विरुद्ध अपराधों के लिए एक विशेष ट्राइब्यूनल में उनकी गैर-मौजूदगी में मुकदमा चलाया जा रहा है।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, पिछली गर्मियों में बांग्लादेश में हुए विरोध प्रदर्शनों के दौरान 1,400 से अधिक लोग मारे गए थे। इसके बाद शेख़ हसीना भारत आ गई थीं। उनकी अवामी लीग पार्टी ने हसीना के खिलाफ लगे सभी आरोपों को ख़ारिज कर दिया है।
हसीना की पार्टी अवामी लीग का जवाब
अवामी लीग पार्टी के प्रवक्ता ने इस बात से इनकार किया कि सामने आए ऑडियो से किसी ग़ैर-क़ानूनी इरादे का कोई संकेत मिलता है। उन्होंने ‘ज़्यादती भरी किसी कार्रवाई से’ इंकार किया है।
एक अज्ञात वरिष्ठ सरकारी अधिकारी के साथ हसीना की बातचीत का लीक हुआ ऑडियो, उनके ख़िलाफ़ अब तक का सबसे महत्वपूर्ण सबूत है। इससे पता चलता है कि उनकी सरकार ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने की सीधी अनुमति दी थी।
ये विरोध प्रदर्शन बांग्लादेश में 1971 के स्वतंत्रता संग्राम में लडऩे वालों के रिश्तेदारों के लिए नौकरियों में आरक्षण के विरोध में शुरू हुए थे। बाद में यह एक बड़ा आंदोलन बन गया। इस आंदोलन ने 15 साल से पीएम रहीं हसीना को सत्ता से बेदखल कर दिया।
1971 के युद्ध के बाद से बांग्लादेश में यह सबसे भीषण हिंसा थी।
पांच अगस्त की हिंसा
बांग्लादेश में पांच अगस्त, 2024 के दिन हिंसा अपने चरम पर थी। इसी दिन हसीना, ढाका स्थित अपने आवास पर भीड़ के हमले से पहले, हेलीकॉप्टर से भाग निकलीं।
बीबीसी की पड़ताल में ढाका में प्रदर्शनकारियों पर पुलिस की कार्रवाई के नए विवरण मिले हैं। इनके अनुसार मृतकों की संख्या कहीं ज़्यादा थी।
लीक हुए ऑडियो की जानकारी रखने वाले एक सूत्र ने बीबीसी को बताया कि 18 जुलाई को हुई इस बातचीत के दौरान शेख़ हसीना ढाका स्थित अपने आवास (गणभवन) में थीं।
यह प्रदर्शनों का एक निर्णायक क्षण था। बीबीसी ने जो पुलिस के दस्तावेज़ देखे हैं, उनके अनुसार बातचीत के बाद के दिनों में, ढाका में सुरक्षाबलों ने प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ राइफलों का इस्तेमाल किया।
बीबीसी ने जिस रिकॉर्डिंग की जांच की है, वह शेख़ हसीना से जुड़ी कई कॉलों में से एक है। इसे बांग्लादेश के राष्ट्रीय दूरसंचार निगरानी केंद्र (एनटीएमसी) ने रिकॉर्ड किया था। यह संस्था देश में संचार पर निगरानी रखने के लिए जि़म्मेदार सरकारी निकाय है।
इस कॉल का ऑडियो इस साल मार्च की शुरुआत में लीक हुआ था लेकिन यह साफ़ नहीं है कि इसे किसने लीक किया था। विरोध प्रदर्शनों के बाद से, हसीना की कॉल के कई क्लिप ऑनलाइन सामने आए हैं, जिनमें से कई ऑडियो की पुष्टि नहीं की जा सकती है।
लीक हुई 18 जुलाई की रिकॉर्डिंग को बांग्लादेश पुलिस के आपराधिक जांच विभाग ने शेख़ हसीना की आवाज से मिलान किया है।
क्या कह रहे हैं जानकार
बीबीसी ने ऑडियो फॉरेंसिक विशेषज्ञ इयरशॉट के साथ रिकॉर्डिंग साझा करके स्वतंत्र सत्यापन भी किया। इसमें इस बात का कोई सबूत नहीं मिला कि बातचीत को एडिट किया गया हो या इसमें कोई हेरफेर की गई हो। इयरशॉट ने कहा कि इस बात की भी संभावना नहीं है कि रिकॉर्डिंग को फर्ज़ी तरीके से बनाया गया हो और लीक हुई रिकॉर्डिंग शायद एक कमरे में ली गई होगी, जहां फोन कॉल के वक्त स्पीकर ऑन था।
इयरशॉट ने कहा कि पूरी रिकॉर्डिंग के दौरान इलेक्ट्रिक नेटवर्क फ्रीक्वेंसी (ईएनएफ़) भी मिली।
रिकॉर्डिंग डिवाइस में अन्य उपकरणों से होने वाले हस्तक्षेप की वजह से ये फ्रीक्वेंसी होती है। यह इस बात का भी संकेत है कि ऑडियो के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई।
इयरशॉट ने शेख़ हसीना की बातचीत में बोलने की लय, आवाज़ का उतार-चढ़ाव और सांस लेने की आवाज़ का भी विश्लेषण किया। उन्होंने रिकॉर्डिंग में लगातार रहने वाले शोर के स्तर को भी पहचाना। जांच में ऑडियो से छेड़छाड़ के कोई निशान नहीं मिले।
ब्रिटिश अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार वकील टोबी कैडमैन बांग्लादेश के इंटरनेशनल क्रिमिनल ट्रिब्यूनल (आईसीटी) को सलाह दे रहे हैं, जो हसीना और अन्य लोगों के ख़िलाफ़ मामलों की सुनवाई कर रहा है।
टोबी कैडमैन ने बीबीसी को बताया, ‘इस मामले में रिकॉर्डिंग उनकी भूमिका स्थापित करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। वे (रिकॉर्डिंग) स्पष्ट हैं और उचित रूप से प्रमाणित हैं। इसके अलावा अन्य सबूत भी हैं।’
अवामी लीग के प्रवक्ता ने कहा, ‘हम इस बात की पुष्टि नहीं कर सकते कि बीबीसी जिन टेप रिकॉर्डिंग का जि़क्र कर रहा है वो विश्वसनीय है या नहीं।’
-लक्ष्मण सिंह देव
1992 में जब मैं किशोर था तो मैंने नवभारत टाइम्स में एक खबर पढ़ी थी जिसमें लिखा था कि दिल्ली का मालचा महल है जो जंगलों के बीच है उसमें एक शाही परिवार रहता है जिसमें एक महिला है जिसका नाम विलायत महल है और वो दो बच्चों और करीब एक दर्जन नौकरों के साथ और कुत्तों के साथ रहती है और वो किसी से भी मिलना पसंद नहीं करती और वो सिर्फ विदेशी पत्रकारों से मिलना पसंद करती है और उस महिला ने बताया कि मैं अवध के राजवंश की उत्तराधिकारी हूँ। इस कहानी की शुरुआत तब हुई जब इस महिला ने बताया कि मैं अवध के भूतपूर्व नवाब परिवार वाजिद अली शाह की उत्तराधिकारी हूँ और हमें रहने के लिए कोई महल दिया जाना चाहिए और इस मांग को लेकर उसने उन्नीस सौ पचहत्तर में दिल्ली नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के वीआईपी गेस्ट रूम में धरना देना शुरू किया।
उसके बाद वो धरना दस साल तक चलता रहा और विलायत महल ने अपनी मांग रखी कि उसे रहने के लिए एक महल दिया जाए। सरकार ने उसकी बातों पर ध्यान दिया और उसे कई विकल्प दिए, जैसे कि दिल्ली में एक डुप्लेक्स फ्लैट देने की पेशकश की। लेकिन जब सरकार ने विलायत महल की पृष्ठभूमि की जांच करने की कोशिश की, तो लखनऊ में अवध के शाही परिवार के लोगों से संपर्क किया गया, जिन्होंने विलायत महल के दावे को खारिज कर दिया। बाद में पता चला कि विलायत महल का परिवार मूल रूप से कश्मीरी था और उसका पति लखनऊ विश्वविद्यालय में रजिस्ट्रार के पद पर था। इसके बावजूद, सरकार ने विलायत महल को मालचा महल आवंटित कर दिया, जो 14वीं शताब्दी में फिरोज शाह तुगलक द्वारा बनाई गई एक शिकारगाह थी और दिल्ली के रिज क्षेत्र में जंगलों के बीच स्थित है। विलायत महल और उसका परिवार वहाँ रहने लगे, लेकिन वहाँ न तो बिजली का कनेक्शन था और न ही पानी का कनेक्शन था।
उन्नीस सौ चौरानवे में बेगम विलायत महल ने आत्महत्या कर ली, ऐसा माना जाता है कि उन्होंने हीरों को पीसकर खाकर अपनी जान दे दी। उनकी उम्र उस समय बासठ साल थी।।अपनी माता की मृत्यु के बाद करीब दस दिन तक साइरस और बहन सकीना उसकी लाश से लिपट कर सोते थे। उनकी बेटी सकीना जिसकी मृत्यु भी कुछ सालों बाद हो गई। उनका एक छोटा भाई भी था, जिसका नाम शहजादा साइरस था। ये लोग किसी से मिलते-जुलते नहीं थे और बताते थे कि वे अवध के शाही परिवार से हैं। वे बार-बार यही कहते थे कि नई व्यवस्था, यानी लोकतंत्र ने उन्हें बर्बाद कर दिया। उनका व्यवहार बहुत अजीब था। इनके कई नौकर थे और बहुत सारे शिकारी कुत्ते पाल रखे थे और जो भी महल में घुसने की कोशिश करता उस पर कुत्ते छोड़ देते थे।
Abhimanyu Kumar, जो जेएनयू में स्पैनिश भाषा में मेरे जूनियर रहे हैं, इस पर एक किताब लिखी है जिसका नाम है ‘हाउस ऑफ अवध’। इस किताब में बताया गया है कि कई लोगों ने, जिनमें न्यूयॉर्क टाइम्स के पत्रकार एलन बेरी भी शामिल थे, इस परिवार के इतिहास की जांच की और दावा किया कि वे धोखेबाज थे। हालांकि, अभिमन्यु ने अपनी किताब में एक साल के रिसर्च के बाद और कश्मीर जाकर उनके परिचितों से बात करने के बाद पता लगाया कि वास्तव में इन लोगों का अवध के शाही परिवार से संबंध था, जो शायद शियाओं में होने वाले अस्थाई विवाह के माध्यम से था। जब अभिमन्यु लखनऊ आया इसी के बारे में शोध के सिलसिले में तो हमारी भी इस मुद्दे पर काफी बात हुई।
-मयूरेश कोण्णुर
पिछले कुछ दिनों से महाराष्ट्र, ख़ासकर मुंबई में भाषा के मुद्दे पर राजनीतिक जंग छिड़ी हुई है। इस विवाद के केंद्र में हिंदी भाषा है।
महाराष्ट्र सरकार के एक फैसले से शुरू हुआ यह विवाद केवल बयानबाजी तक सीमित नहीं रहा, बल्कि राजनीतिक दलों ने सडक़ पर उतरकर विरोध किया।
पिछले हफ्ते भाषा विवाद से जुड़ी कम से कम तीन घटनाएं मुंबई और आस-पास के इलाकों में हुई हैं। इन घटनाओं में शामिल होने का आरोप राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) और पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की पार्टी शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) के कार्यकर्ताओं पर लगा है।
लेकिन दोनों दलों का कहना है कि वे किसी भाषा के खिलाफ नहीं हैं और अहिंसा का रास्ता अपनाते हुए विरोध कर रहे हैं।
मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार का कहना है कि किसी भी तरह की गुंडागर्दी बर्दाश्त नहीं की जाएगी और पुलिस कार्रवाई करेगी।
भाषा विवाद में हुईं हिंसक घटनाएं
स्कूल में पहली से तीसरी कक्षा तक हिंदी भाषा सिखाने के महाराष्ट्र सरकार के फ़ैसले पर विरोध ने देखते ही देखते आंदोलन का रूप ले लिया। जिस मुंबई में भाषा की राजनीति का मुद्दा पहले भी गरम रहा हो, वहां इस मुद्दे पर हिंसा की घटनाएं भी सामने आईं।
सबसे पहले मुंबई से सटे मीरा भायंदर में एक मिठाई की दुकान में मारपीट की घटना सामने आई। इसमें मनसे के कार्यकर्ताओं पर दुकान मालिक के साथ मारपीट करने का आरोप लगा और 29 जून को इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया।
आरोपों के मुताबिक़, यहां ‘जोधपुर स्वीट्स एंड नमकीन’ के मालिक बाबूलाल चौधरी पर सात लोगों ने हमला किया। यह मारपीट तब की गई जब उन्होंने कथित तौर पर मराठी भाषा में बातचीत से मना कर दिया।
पुलिस ने इस मामले पर कार्रवाई शुरू कर दी है लेकिन इस घटना के बाद कारोबारी ग़ुस्से में हैं। घटना के दूसरे ही दिन कारोबारियों ने मीरा भायंदर में एक दिन के बंद का ऐलान करते हुए महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के खिलाफ रैली निकाली।
ऐसी ही पिटाई की घटना मुंबई से सटे ठाणे से आई। ठाणे रेलवे स्टेशन के बाहर किरण जाधव नाम के स्थानीय व्यक्ति के साथ तीन लोगों ने मारपीट की। ख़बरों के मुताबिक यह झगड़ा मोबाइल चार्जिंग को लेकर हुआ था। इस मामले में भी स्थानीय पुलिस ने कार्रवाई की और मारपीट करने वालों को पकड़ भी लिया। लेकिन पुलिस ने उन्हें जल्दी ही छोड़ दिया। शिवसेना (यूबीटी) के कार्यकर्ताओं ने थाने पहुंचकर इसका विरोध भी किया। इसके बाद एक और वीडियो सामने आया। आरोपों के मुताबिक़, वीडियो में किरण जाधव के साथ मारपीट करने वाले तीनों लोगों को एक दफ़्तर में लाया गया है, जहां किरण जाधव से माफ़ी मांगने को कहा जा रहा है। इस दौरान तीनों लोगों के साथ मारपीट करने का आरोप भी लगा। कथित तौर पर इस वीडियो में किरण जाधव ने तीनों से पूछा, ‘मराठी आती है क्या?’ और उनसे जबरन मराठी भी बोलने को कहा गया। आरोप है कि जब यह सब हो रहा था तो शिवसेना (यूबीटी) के ठाणे के पूर्व सांसद राजन विचारे भी वहां मौजूद थे।
मराठी और हिंदी भाषा को लेकर चल रहे विवाद के बीच जब इस मामले ने तूल पकड़ा तो शिवसेना (यूबीटी) के नेता और विधायक आदित्य ठाकरे ने कहा, ‘यह विवाद मोबाइल चार्जिंग को लेकर हुआ था और यही बात पुलिस की एफआईआर में दर्ज है। इसे भाषा के विवाद का रंग नहीं देना चाहिए।’
चार जुलाई को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और गृह मंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा था, ‘महाराष्ट्र में मराठी भाषा का अभिमान रखना कोई गलत बात नहीं है। लेकिन भाषा के चलते अगर कोई गुंडागर्दी करेगा तो उसे हम नहीं सहेंगे। कोई भाषा के नाम पर मारपीट करेगा तो उसे भी सहा नहीं जाएगा। पुलिस ने कार्रवाई की है और अगर आगे भी ऐसा हुआ तो कानून के मुताबिक कार्रवाई होगी। हमें भी मराठी का अभिमान है मगर देश की किसी भी अन्य भाषा के साथ अन्याय नहीं किया जा सकता, यह भी ध्यान में रखना चाहिए।’
सुशील केडिया नाम के एक व्यवसायी ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ‘एक्स’ पर राज ठाकरे को लेकर एक पोस्ट लिखी।
सुशील केडिया ने लिखा, ‘राज ठाकरे... मुंबई में तीस साल रहने के बाद भी मैं सही तरीके से मराठी नहीं सीख पाया हूं और आपके गलत बर्ताव की वजह से मैंने प्रतिज्ञा की है कि जब तक आप जैसे लोग मराठी का ख़्याल रखने का दावा करते रहेंगे, मैं मराठी नहीं सीखूंगा।’
इस पर एमएनएस के कार्यकर्ताओं की तरफ से फिर से प्रतिक्रिया आई। पांच जुलाई को सुशील केडिया के ऑफिस पर पत्थरबाजी भी की गई, जिसके आरोप में मुंबई पुलिस ने मनसे के पांच कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार भी किया है। इसके बाद सुशील केडिया ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो पोस्ट कर माफ़ी मांगी और अपना बयान वापस ले लिया।
‘बाहर से आए हैं, मगर हम सब मराठी से प्यार करते हैं’
भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई में मराठी भाषी लोगों की संख्या सबसे अधिक है, मगर हिंदी और गुजराती समेत अन्य भारतीय भाषाएं बोलने वाले लोग भी कई साल से यहां रह रहे हैं।
व्यापार या फिर नौकरी के लिए यहां आ कर बसे ऐसे परिवारों की संख्या अब यहां की राजनीति में भी अहम हो गई है।
मुंबई के कुर्ला में रहने वाले हस्ती जैन एक चार्टर्ड अकाउंटेंट और व्यापारी हैं।
वह कहते हैं, ‘हमारे यहां जो राज्य बने हुए हैं वे भाषा से बने हुए हैं। यही इतिहास है। सब अपने राज्य से प्यार करते हैं और मुंबई में सब मराठी से प्यार करते हैं। उसमें कोई बहस नहीं। मगर हर किसी को मराठी नहीं आती। कई व्यापारी परिवार दूसरे राज्यों से आए हुए हैं इसलिए वे अच्छी मराठी नहीं बोल पाते। लेकिन वह कोशिश ज़रूर करते हैं। मुझे लगता है कि यह बात हर किसी को समझनी चाहिए। हम सब भारतीय हैं। ऐसी बातों से लोगों में डर पैदा होता है। ख़ास तौर पर व्यापारी समुदाय में।’
ललित जैन मुंबई में कई साल से गहनों का कारोबार करते हैं। उन्हें लगता है कि फि़लहाल भाषा को लेकर विवाद तो है, मगर मुंबई के लिए यह नई बात नहीं है।
ललित जैन का कहना है, ‘मेरा तो जन्म यहीं हुआ है। मैं जन्म से बढिय़ा मराठी बोलता हूं। परिवार में हम सब को मराठी आती है। दूसरे राज्यों से आए बहुत कम हैं जिनको मराठी नहीं आती। तनाव की ऐसी घटनाएं बीच-बीच में होती रहती हैं। अभी भी मुंबई में जो कुछ हुआ है वह कुछ दिनों की बात है। यहां फिर से सब कुछ सामान्य हो जाएगा।’
मुंबई के कारोबारी संगठनों ने भी इस हिंसा का विरोध किया है और सरकार पर सवाल खड़े किए हैं।
मुंबई के 'फ़ेडरेशन ऑफ़ रिटेल ट्रेडर्स वेलफ़ेयर एसोसिएशन’ के अध्यक्ष वीरेन शाह ने कहा, ‘मैं यह मानता हूं कि मुंबई और महाराष्ट्र में रह कर बिजऩेस करने के लिए मराठी जानना और बोलना ज़रूरी है। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि किसी के पास किसी भी व्यापारी या दुकानदार को डराने-धमकाने का अधिकार है। कोई दुकानदार किसी भाषा में नहीं बोल रहा है इसलिए उसे मारना कानून के खिलाफ है। हम इसका विरोध करते हैं और हैरान हैं कि ‘वीडियो’ में सब कुछ साफ दिखने के बाद भी सरकार सख्ती से पेश क्यों नहीं आ रही?’
मराठी और हिंदी को लेकर पैदा हुए हालात से मराठी आंदोलन से जुड़े साहित्यकार भी चिंतित हैं। उन्हें लगता है कि जो मुद्दा किसी भाषा की शिक्षा से जुड़ा हुआ है, वह ऐसी घटनाओं से गैर-जरूरी राजनीति में बदल जाता है। लेखिका प्रज्ञा दया पवार ऐसी हिंसा से आहत हैं और उसका विरोध करती हैं। उन्होंने फेसबुक पोस्ट में भाषा के आंदोलन से जुड़ी हिंसा की निंदा की है।
प्रज्ञा दया पवार ने बीबीसी से कहा, ‘हम सब को पता है कि मराठी भाषा का आंदोलन जो महाराष्ट्र में खड़ा हो रहा है, उसमें सबसे अहम बात है पहली कक्षा से ‘तीसरी भाषा’ को पाठ्यक्रम में शामिल करना।
कई विद्वानों ने यह कहा है कि बच्चों के लिए यह ठीक नहीं है, हम उसका विरोध कर रहे हैं। मगर मुझे लगता है कि हिंदी बोलने वालों के साथ मारपीट या फिर हिंसा से इस आंदोलन की अहमियत पर असर पड़ रहा है। यह नहीं होना चाहिए।’
गॉसिप आपकी छवि को नुकसान पहुंचा सकती है, गॉसिप आपके व्यवहार और व्यक्तित्व का आईना भी हो सकती है, कुछ के लिए गॉसिप मनोरंजन है तो बहुतों के लिए यह एक ‘पाप’ है।
लेकिन क्या ये बातें सही हैं, इस बारे में रिसर्च और एक्सपर्ट की राय क्या है?
मानवविज्ञानी (एंथ्रोपोलॉजिस्ट) मानते हैं कि गॉसिप ऐसा व्यवहार है जो लगभग हर संस्कृति में देखा जाता है, चाहे वह शहर हो या गांव।
वॉशिंगटन स्टेट यूनिवर्सिटी में इवोल्यूशनरी एंथ्रोपोलॉजी की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. निकोल हेजन हेस कहती हैं, ‘हर संस्कृति में, सही माहौल मिलने पर लोग गॉसिप ज़रूर करते हैं।’
आम तौर पर गॉसिप को किसी की ग़ैर-हाजिऱी में उसकी बुराई करना माना जाता है।
लेकिन डॉ. हेस गॉसिप का दायरा इससे कहीं बड़ा मानती हैं। उनके मुताबिक, गॉसिप वह हर बातचीत है जिसमें किसी दूसरे व्यक्ति की ‘प्रतिष्ठा से जुड़ी बात’ साझा की जाती है।
उनका कहना है कि इसमें वो सारी बातें शामिल हो सकती हैं जो हमारे दोस्त, परिवार, सहकर्मी या यहां तक कि हमारे विरोधी भी हमारे बारे में कहते हैं।
डॉ. हेस बताती हैं, ‘मेरे हिसाब से जरूरी नहीं कि गॉसिप हमेशा तीसरे व्यक्ति की गैर-हाजिरी में ही की जाए। वे सामने भी खड़े हो सकते हैं। अगर आप उनके कपड़ों या उनके किसी काम के बारे में बात कर रहे हैं, तो मैं उसे भी गॉसिप ही मानूंगी।’
लेकिन इंसानों में ऐसा व्यवहार क्यों आया, यह सवाल आज भी शोधकर्ताओं के लिए एक पहेली है।
आइए जानते हैं कि गॉसिप की आदत के क्या कारण हो सकते हैं।
बॉन्डिंग का जरिया है गॉसिप
समाज में गॉसिप की एक अच्छी भूमिका भी हो सकती है। इस विचार को इवोल्यूशनरी एंथ्रोपोलॉजी के प्रोफेसर रॉबिन डनबार ने लोकप्रिय बनाया।
उनके मुताबिक़, ‘प्राइमेट’ यानी बंदर और नरवानर वर्ग में ग्रूमिंग सिर्फ सफाई के लिए नहीं, बल्कि सामाजिक रिश्तों को मजबूत करने, तनाव कम करने और झगड़े के बाद सुलह करने का तरीका भी है।
डनबार इसे ‘एलोग्रूमिंग’ कहते हैं। उनका मानना है कि इंसानों में गॉसिप इसी एलोग्रूमिंग का आधुनिक रूप है। वे यहाँ तक कहते हैं कि शायद भाषा का विकास भी इसलिए हुआ ताकि लोग गॉसिप कर सकें।
अमेरिका की डार्टमाउथ यूनिवर्सिटी की 2021 की एक रिसर्च में पाया गया कि जो लोग मिलकर गॉसिप करते हैं, वे न सिफऱ् एक-दूसरे की सोच को प्रभावित करते हैं, बल्कि उनके बीच नज़दीकियां भी बढ़ती हैं।
शोधकर्ताओं ने लिखा, ‘हमारा मानना है कि प्रतिभागियों ने आपस में समानता महसूस की, जिससे एक 'साझा हक़ीक़त' बनी। इससे उन्होंने एक-दूसरे के व्यवहार और नज़रिए को तो बदला ही, साथ ही उनके भीतर का सामाजिक जुड़ाव का भाव भी पूरा हुआ।’
रिसर्च में यह भी सामने आया कि गॉसिप ग्रुप में सहयोग को बढ़ाती है। जब लोगों को आपस में गॉसिप करने का मौका मिला, तो उन्होंने ग्रुप गेम में ज़्यादा पैसे देने की इच्छा भी दिखाई।
शोधकर्ताओं ने कहा, ‘गॉसिप सिर्फ बेकार की बातें नहीं हैं। यह इससे कहीं ज़्यादा जटिल चीज है।’
पॉडकास्ट ‘नॉर्मल गॉसिप’ में आम लोग अपने गॉसिप के अनुभव साझा करते हैं। इसकी होस्ट केल्सी मैकिनी जानती हैं कि कैसे एक मज़ेदार कहानी अनजान लोगों को भी करीब ला सकती है।
कोविड के वक्त जब लोग क्वारंटीन में थे, तब ऐसी कहानियों की अहमियत और बढ़ गई।
केल्सी कहती हैं, ‘मुझे समझ आया कि हम सबको इसकी कितनी कमी महसूस हो रही थी।’
उनका मानना है, ‘हम जो बातें करते और सुनते हैं, उसी से दुनिया को देखने का हमारा नज़रिया बनता है। इसमें जोखिम तो है, लेकिन इससे बहुत कुछ अच्छा भी होता है।’
-सनियारा खान
आज विश्व भर के कुछ शक्तिशाली लोग किसी न किसी बहाने से हमें ये सिखाने की कोशिश रहे हैं कि अब के समय में हमारे लिए युद्ध सब से ज़्यादा ज़रूरी हो गया है। हम सभी को कठोर बन कर एक दूसरे को मारना आना चाहिए। लेकिन ऐसे ही समय में पूर्वोत्तर के एक राज्य मिजोरम से एक छह साल का छोटा बच्चा डेरेक चि ललछानहाईमा (Derek C.Lalchhanhima) हम सभी को इंसानियत का पाठ पढ़ाने की कोशिश कर रहा है।
एक दिन डेरेक खेल-खेल में अपनी छोटी सी साइकिल चला रहा था। तभी अचानक उसकी साइकिल के नीचे पड़ोसी के यहां की एक मुर्गी का चूजा आ गया। ये देख कर डेरेक बहुत ज़्यादा दुखी हो गया। वह उस घायल चूज़े को उठा कर पास ही के एक हॉस्पिटल में ले गया। उसके पास उसकी पॉकेट मनी के रूप में दस का एक नोट था। उसे लगा कि डॉक्टर दस रुपया फीस ले कर उस चूजा को ज़रूर अच्छा कर देंगे। वह जा कर एक डॉक्टर के हाथ पैर पकड़ कर चूज़े को ठीक कर देने की विनती करने लगा। लेकिन वह चूजा पहले ही मर चुका था।
डॉक्टर की बात सुनकर वह रोने लगा। आंसू बहाते हुए वह डॉक्टर से कह रहा था कि वे कैसे भी उसे अच्छा कर दें। उसी समय उसकी तस्वीर ली गई थी। वह तस्वीर सोशल मीडिया में वायरल हो गई। रोते हुए उस चूज़े को ठीक करने के लिए वह बच्चा जिस तरह डॉक्टर से विनती कर रहा था, उस तस्वीर से लोगों के दिल पिघलने लगे। उसकी वह निर्दोष और मासूम तस्वीर देखकर हर कोई उसके बारे में बातें करने लगे है। उसकी स्कूल में उसे जानवरों के लिए प्रेम देख कर प्रमाणपत्र दिया गया। साथ ही उसे एक मिजो शाल दे कर सम्मानित भी किया गया। जानवरों के लिए उस बच्चे के दिल में जो प्यार था, उसे देख कर PETA India की तरफ से भी उसे एक संवेदनशील बच्चा मान कर पुरस्कार दिया गया।
-अशोक पांडेय
आज दलाई लामा को याद करने का दिन है। चौदहवें दलाई लामा तेनजिन ग्यात्सो आज नब्बे बरस पूरे कर रहे हैं। कल शाम उन्होंने कहा कि बोधिसत्व की कृपा से वे अब भी तंदुरुस्त हैं और उन्हें अगले चालीस बरस और जी पाने की उम्मीद है।
उनके अनुयायियों और उनसे प्रेरणा हासिल करने वाले, दुनिया भर में फैले तमाम लोगों के लिए यह कैसी हौस जगाने वाली बात है!
उनकी मुस्कुराती हुई तस्वीरें बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दियों की सुन्दरतम छवियों में हैं। उनके जैसा पूरी दुनिया में कोई नहीं। वे उम्मीद और रोशनी का अजस्र स्रोत हैं। बच्चों सरीखी उनकी खिलखिलाहट दुनिया के सबसे ताकतवर लोगों को निहत्था बना देती है।
मशीनों ने दलाई लामा को बचपन से ही आकर्षित किया। पोटाला महल में जो भी मशीन दिखाई देती, पेंचकस वगैरह लेकर उसके उर्जे-पुर्जे खोल कर अलग करना और उन्हें फिर से जोडऩे का खेल उन्हें पसंद था। वे दलाई लामा बन कर 1940 में पोटाला पहुंचे। पूरे ल्हासा में तब कुल तीन कारें थीं। तीनों उन्हीं की थीं। उन्होंने इन कारों को भी कई दफा खोला-जोड़ा।
ऑस्ट्रियाई पर्वतारोही हाइनरिख हैरर एक बेहद मुश्किल और दुस्साहस-भरे अभियान के बाद 1946 में जब तिब्बत पहुंचे तो उनकी मुलाक़ात किशोर दलाई लामा से हुई। यह मुलाक़ात एक बेहद अन्तरंग मित्रता में तब्दील हुई और 2006 में हुए हैरर के देहांत तक बनी रही। हैरर ने तिब्बत के अपने अनुभवों को ‘सेवेन ईयर्स इन तिब्बत’ के नाम से प्रकाशित किया। इस बेस्टसेलर पर इसी नाम से फिल्म भी बनी है।
फ्रांस के सैन्य अधिकारियों और खुफिया एजेंसी का कहना है कि चीन अपने दूतावासों के जरिए रफाएल विमानों के बारे में शंका फैला रहा है। भारत पाकिस्तान के संघर्ष के बाद दुष्प्रचार का अभियान चलाने के आरोप लगाए गए हैं।
डॉयचे वैले पर निखिल रंजन का लिखा-
फ्रेंच अधिकारियों ने चीन पर रफाएल की छवि और बिक्री पर असर डालने की कोशिश करने का आरोप लगाया है। मई में भारत पाकिस्तान के संघर्ष में इन विमानों का भारत ने इस्तेमाल किया था। फ्रांस अपने इन विमानों को बेहद उन्नत बताता है।
फ्रांस की खुफिया एजेंसी की तैयार एक रिपोर्ट की कॉपी समाचार एजेंसी एपी ने देखी है। इस रिपोर्ट में चीन के दूतावासों में डिफेंस अटैचियों को रफाएल की बिक्री को घटाने के लिए काम करने को कहा गया है। खासतौर से उन देशों को यह समझाने की कोशिश की जा रही है जिन्होंने रफाएल को खरीदने के ऑर्डर पहले से दे रखे हैं।
इनमें एक प्रमुख नाम इंडोनेशिया का है। रिपोर्ट के मुताबिक इन देशों को समझाया जा रहा है कि वे और रफाएल ना खरीदें और चीन में बने विमानों का विकल्प चुनें। खुफिया एजेंसियों की ये रिपोर्ट फ्रांस के एक सैन्य अधिकारी ने एपी को इस शर्त पर दी कि उसका नाम सामने नहीं आएगा।
भारत पाकिस्तान संघर्ष के बाद ‘फैला दुष्प्रचार’
भारत पाकिस्तान संघर्ष में फ्रांस और चीन के विमान
मई में भारत पाकिस्तान के बीच हुआ संघर्ष बीते कई सालों में सबसे गंभीर था। इसमें दोनों तरफ के दर्जनों विमानों ने एक दूसरे के इलाके में हवाई हमले किए। सैन्य अधिकारी और रिसर्चर इस संघर्ष के बाद से ही यह पता लगाने में जुटे हैं कि पाकिस्तान के चीन में बने सैन्य उपकरणों का प्रदर्शन भारत के सैन्य उपकरणों के आगे कैसा था। खासतौर से फ्रांस में बने रफाएल लड़ाकू विमान। भारत ने पहली बार इन विमानों का इस संघर्ष में इस्तेमाल किया था।
रफाएल और दूसरे हथियार फ्रांस की रक्षा उद्योग का बड़ा कारोबार है। यह फ्रांस सरकार को दूसरे देशों के साथ संबंधों को मजबूत करने में भी काफी मदद करता है। खासतौर से एशिया में जहां चीन एक क्षेत्रीय ताकत बनने की पुरजोर कोशिश कर रहा है। फ्रांस ने चीन के इस कथित गलत सूचना फैलाने के अभियान से लड़ रहा है।
पाकिस्तान का दावा है कि उसने लड़ाई में भारत के पांच विमानों को मार गिराया, जिसमें तीन रफाएल विमान भी शामिल थे। फ्रांस के अधिकारियों के मुताबिक इसके तुरंत बाद उन देशों में दासों के बनाए इन विमानों के प्रदर्शन के बारे में सवाल उठे हैं, जिन्होंने ये विमान खरीदे हैं। लड़ाई में रफाएल के गिरने की यह पहली घटना है। फ्रांस ने आठ देशों को ये विमान बेचे हैं।
भारत ने विमानों के गिरने की बात मानी है लेकिन यह नहीं बताया कि कितने विमान गिरे। फ्रांस की वायु सेना के प्रमुख जनरल जेरोम बेलांगर का कहना है कि उन्होंने जो सबूत देखे हैं उनसे तीन विमानों के गिरने का पता चलता है। इनमें एक रफाएल, एक सुखोई और एक मिराज 2000 विमान है। बेलांगर का कहना है, ‘निश्चित रूप से जिन देशों ने रफाएल खरीदे हैं, वो अपने आप से सवाल कर रहे हैं।’
फछ्वांस के अधिकारी विमान की छवि धूमिल होने से बचाने के लिए प्रयासों में जुटे हैं। उनका आरोप है कि रफाएल के बारे में बुराई करने का एक अभियान चल रहा है, जिसमें पाकिस्तान और उसका सहयोगी चीन गलत जानकारियों का ऑनलाइन प्रसार करने में जुटे हैं।
सोशल मीडिया के इस्तेमाल का आरोप
फ्रेंच अधिकारियों का कहना है कि इस अभियान में सोशल मीडिया पर वायरल पोस्ट भी शामिल है जिसमें तस्वीरों से छेड़छाड़ करके रफाएल का संभावित मलबा दिखाया जा रहा है, एआई से बनाए हुए कंटेंट और वीडियो गेम का भी सहारा लिया जा रहा है, जिसमें संभावित युद्ध को सिम्युलेट किया जा रहा है।
ऑनलाइन गलत जानकारी के प्रसार के विशेषज्ञ फ्रेंच रिसर्चरों के मुताबिक भारत पाकिस्तान के संघर्ष छिडऩे के बाद 1,000 से ज्यादा सोशल मीडिया के नए अकाउंट बनाए गए हैं। इनके जरिए चीनी के तकनीकी दबदबे की बात का प्रचार किया जा रहा है। फ्रांस से सैन्य अधिकारियों का कहना है कि उन्हें रफाएल के खिलाफ चल रहे ऑनलाइन दुष्प्रचार का चीन की सरकार से सीधा लिंक नहीं मिला है। खुफिया विश्लेषण से यह जरूर पता चला है कि चीनी अधिकारी संभावित खरीदारों को फ्रांस से विमान सौदे रद्द कराने के लिए खेमेबाजी कर रहे हैं।
फ्रांस की खुफिया एजेंसी का कहना है कि चीनी दूतावास के डिफेंस अटैचियों ने दूसरे देशों के रक्षा अधिकारियों के साथ बैठकों में इस तरह की बातें कही है। चीनी अधिकारी दलील दे रहे हैं कि भारतीय वायु सेना के रफाएल का प्रदर्शन खराब रहा और और चीन में बने हथियार बढिय़ा हैं।
खुफिया एजेंसी ने कहा है कि चीन के डिफेंस अटैचियों का ध्यान उन देशों पर है जिन्होंने या तो रफाएल के लिए ऑर्डर दे दिए हैं या फिर इसे खरीदने पर विचार कर रहे हैं। फ्रेंच अधिकारियों को उन बैठकों के बारे में पता चला है जिनमें देशों को अप्रोच किया गया है।
फ्रांस के सैन्य अधिकारियों और खुफिया एजेंसी का कहना है कि चीन अपने दूतावासों के जरिए रफाएल विमानों के बारे में शंका फैला रहा है। भारत पाकिस्तान के संघर्ष के बाद दुष्प्रचार का अभियान चलाने के आरोप लगाए गए हैं।
डॉयचे वैले पर निखिल रंजन का लिखा-
फ्रेंच अधिकारियों ने चीन पर रफाएल की छवि और बिक्री पर असर डालने की कोशिश करने का आरोप लगाया है। मई में भारत पाकिस्तान के संघर्ष में इन विमानों का भारत ने इस्तेमाल किया था। फ्रांस अपने इन विमानों को बेहद उन्नत बताता है।
फ्रांस की खुफिया एजेंसी की तैयार एक रिपोर्ट की कॉपी समाचार एजेंसी एपी ने देखी है। इस रिपोर्ट में चीन के दूतावासों में डिफेंस अटैचियों को रफाएल की बिक्री को घटाने के लिए काम करने को कहा गया है। खासतौर से उन देशों को यह समझाने की कोशिश की जा रही है जिन्होंने रफाएल को खरीदने के ऑर्डर पहले से दे रखे हैं।
इनमें एक प्रमुख नाम इंडोनेशिया का है। रिपोर्ट के मुताबिक इन देशों को समझाया जा रहा है कि वे और रफाएल ना खरीदें और चीन में बने विमानों का विकल्प चुनें। खुफिया एजेंसियों की ये रिपोर्ट फ्रांस के एक सैन्य अधिकारी ने एपी को इस शर्त पर दी कि उसका नाम सामने नहीं आएगा।
भारत पाकिस्तान संघर्ष के बाद ‘फैला दुष्प्रचार’
भारत पाकिस्तान संघर्ष में फ्रांस और चीन के विमान
मई में भारत पाकिस्तान के बीच हुआ संघर्ष बीते कई सालों में सबसे गंभीर था। इसमें दोनों तरफ के दर्जनों विमानों ने एक दूसरे के इलाके में हवाई हमले किए। सैन्य अधिकारी और रिसर्चर इस संघर्ष के बाद से ही यह पता लगाने में जुटे हैं कि पाकिस्तान के चीन में बने सैन्य उपकरणों का प्रदर्शन भारत के सैन्य उपकरणों के आगे कैसा था। खासतौर से फ्रांस में बने रफाएल लड़ाकू विमान। भारत ने पहली बार इन विमानों का इस संघर्ष में इस्तेमाल किया था।
रफाएल और दूसरे हथियार फ्रांस की रक्षा उद्योग का बड़ा कारोबार है। यह फ्रांस सरकार को दूसरे देशों के साथ संबंधों को मजबूत करने में भी काफी मदद करता है। खासतौर से एशिया में जहां चीन एक क्षेत्रीय ताकत बनने की पुरजोर कोशिश कर रहा है। फ्रांस ने चीन के इस कथित गलत सूचना फैलाने के अभियान से लड़ रहा है।
पाकिस्तान का दावा है कि उसने लड़ाई में भारत के पांच विमानों को मार गिराया, जिसमें तीन रफाएल विमान भी शामिल थे। फ्रांस के अधिकारियों के मुताबिक इसके तुरंत बाद उन देशों में दासों के बनाए इन विमानों के प्रदर्शन के बारे में सवाल उठे हैं, जिन्होंने ये विमान खरीदे हैं। लड़ाई में रफाएल के गिरने की यह पहली घटना है। फ्रांस ने आठ देशों को ये विमान बेचे हैं।
भारत ने विमानों के गिरने की बात मानी है लेकिन यह नहीं बताया कि कितने विमान गिरे। फ्रांस की वायु सेना के प्रमुख जनरल जेरोम बेलांगर का कहना है कि उन्होंने जो सबूत देखे हैं उनसे तीन विमानों के गिरने का पता चलता है। इनमें एक रफाएल, एक सुखोई और एक मिराज 2000 विमान है। बेलांगर का कहना है, ‘निश्चित रूप से जिन देशों ने रफाएल खरीदे हैं, वो अपने आप से सवाल कर रहे हैं।’
फछ्वांस के अधिकारी विमान की छवि धूमिल होने से बचाने के लिए प्रयासों में जुटे हैं। उनका आरोप है कि रफाएल के बारे में बुराई करने का एक अभियान चल रहा है, जिसमें पाकिस्तान और उसका सहयोगी चीन गलत जानकारियों का ऑनलाइन प्रसार करने में जुटे हैं।
सोशल मीडिया के इस्तेमाल का आरोप
फ्रेंच अधिकारियों का कहना है कि इस अभियान में सोशल मीडिया पर वायरल पोस्ट भी शामिल है जिसमें तस्वीरों से छेड़छाड़ करके रफाएल का संभावित मलबा दिखाया जा रहा है, एआई से बनाए हुए कंटेंट और वीडियो गेम का भी सहारा लिया जा रहा है, जिसमें संभावित युद्ध को सिम्युलेट किया जा रहा है।
ऑनलाइन गलत जानकारी के प्रसार के विशेषज्ञ फ्रेंच रिसर्चरों के मुताबिक भारत पाकिस्तान के संघर्ष छिडऩे के बाद 1,000 से ज्यादा सोशल मीडिया के नए अकाउंट बनाए गए हैं। इनके जरिए चीनी के तकनीकी दबदबे की बात का प्रचार किया जा रहा है। फ्रांस से सैन्य अधिकारियों का कहना है कि उन्हें रफाएल के खिलाफ चल रहे ऑनलाइन दुष्प्रचार का चीन की सरकार से सीधा लिंक नहीं मिला है। खुफिया विश्लेषण से यह जरूर पता चला है कि चीनी अधिकारी संभावित खरीदारों को फ्रांस से विमान सौदे रद्द कराने के लिए खेमेबाजी कर रहे हैं।
फ्रांस की खुफिया एजेंसी का कहना है कि चीनी दूतावास के डिफेंस अटैचियों ने दूसरे देशों के रक्षा अधिकारियों के साथ बैठकों में इस तरह की बातें कही है। चीनी अधिकारी दलील दे रहे हैं कि भारतीय वायु सेना के रफाएल का प्रदर्शन खराब रहा और और चीन में बने हथियार बढिय़ा हैं।
खुफिया एजेंसी ने कहा है कि चीन के डिफेंस अटैचियों का ध्यान उन देशों पर है जिन्होंने या तो रफाएल के लिए ऑर्डर दे दिए हैं या फिर इसे खरीदने पर विचार कर रहे हैं। फ्रेंच अधिकारियों को उन बैठकों के बारे में पता चला है जिनमें देशों को अप्रोच किया गया है।
- प्रियंका
स्पेसएक्स की सैटेलाइट इंटरनेट सेवा स्टारलिंक श्रीलंका में पैर रखते ही फिर से चर्चा में है।
भूटान और बांग्लादेश के बाद श्रीलंका दक्षिण एशिया का तीसरा देश है, जहाँ स्टारलिंक इंटरनेट की शुरुआत हुई है।
स्पेसएक्स के फाउंडर और सीईओ एलन मस्क ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर श्रीलंका में स्टारलिंक की एंट्री के बारे में घोषणा की।
स्टारलिंक के जल्द ही भारत में भी आने की ख़बरें हैं। समाचार एजेंसी पीटीआई ने एक रिपोर्ट में बताया था कि स्टारलिंक को भारत के दूरसंचार विभाग से अपनी सेवाएं यहाँ शुरू करने के लिए मंज़ूरी मिल गई है।
कुछ समय पहले भारती एयरटेल और रिलायंस जियो जैसी बड़ी भारतीय टेलीकॉम कंपनियों ने स्टारलिंक के संबंध में स्पेसएक्स के साथ समझौते की भी घोषणा की थी।
स्टारलिंक एक लो अर्थ ऑर्बिट (एलईओ) सैटेलाइट इंटरनेट सेवा है, जिसे इस तरह डिजाइन किया गया है कि ये किसी दूरदराज के इलाके में भी हाई स्पीड इंटरनेट दे।
मगर ये उन टेलीकॉम ब्रॉडबैंड नेटवर्क से कैसे अलग है, जिनका इस्तेमाल हम अभी तक करते आ रहे हैं और इसके भारत आने से यूजर्स के लिए क्या बदलेगा?
स्टारलिंक है क्या?
स्टारलिंक सैटेलाइट यानी उपग्रहों का एक नेटवर्क है, जो इंटरनेट सेवा देता है। ये स्पेसएक्स कंपनी की ओर से शुरू की गई सेवा है।
इसकी वेबसाइट के मुताबिक, ‘स्टारलिंक दुनिया का पहला और सबसे बड़ा सैटेलाइट समूह है, जो स्ट्रीमिंग, ऑनलाइन गेमिंग, वीडियो कॉल के साथ ही और भी बहुत कुछ करने में सक्षम ब्रॉडबैंड इंटरनेट सेवा देने के लिए पृथ्वी की निचली कक्षा का इस्तेमाल करता है।’
साल 2019 में ये सेवा शुरू की गई थी। मौजूदा समय में इस टेलीकम्युनिकेशन प्रोजेक्ट के तहत लगभग 8 हज़ार छोटे सैटेलाइट पृथ्वी की निचली कक्षा में हैं।
ये सैटेलाइट आमतौर पर पृथ्वी की सतह से 200-2000 किलोमीटर की ऊंचाई तक ही चक्कर लगाते हैं।
साल 2024 के आखिर तक, स्टारलिंक के 100 से अधिक देशों में करीब 46 लाख से अधिक यूजर्स थे।
यूटलसेट वन वेब और जियो सैटेलाइट कम्युनिकेशंस के बाद स्टारलिंक तीसरी कंपनी है, जिसे भारत में डिपार्टमेंट ऑफ टेलीकम्युनिकेशंस की ओर से सैटलाइट इंटरनेट सर्विस देने के लिए लाइसेंस मिल गया है।
सैटेलाइट इंटरनेट कैसे काम करता है?
सैटेलाइट इंटरनेट अंतरिक्ष में मौजूद सैटेलाइट को यूजर के डिवाइस से सिग्नल भेजकर काम करता है।
ये इंटरनेट से जुड़े ग्राउंड स्टेशन तक डेटा पहुंचाता है। ग्राउंड स्टेशन इस डेटा को वापस सैटेलाइट के ज़रिए यूजऱ के डिश पर भेजता है, जिससे कनेक्शन पूरा होता है।
ऐसा नहीं है कि अभी सैटेलाइट इंटरनेट मौजूद नहीं है। लेकिन ये उन सैटेलाइट का इस्तेमाल करते हैं, जो हाई अर्थ ऑर्बिट (एचईओ) में हैं। ये सैटेलाइट पृथ्वी की सतह से 30 हज़ार किलोमीटर ऊपर चक्कर लगाते हैं।
विज्ञान मामलों के जानकार पल्लव बागला स्टारलिंक इंटरनेट के इस्तेमाल का अपना अनुभव साझा करते हुए बताते हैं, ‘इस प्रक्रिया में किसी फाइबर ऑप्टिक केबल की या टावर की जरूरत नहीं होती। स्टारलिंक इंटरनेट को इस्तेमाल करने के लिए एक सैटेलाइट एंटीना चाहिए। एक छोटा सा ट्रैकिंग सॉफ्टवेयर लेना होता है, जो लैपटॉप से कनेक्ट हो जाए। एंटीना से अलग-अलग सैटेलाइट जो ऊपर से गुजर रहे हों, वो ट्रैक हो जाते हैं और ऐसे आपको इंटरनेट मिल जाता है।’
भारत में स्टारलिंक आया तो क्या होगा?
इसी साल मार्च महीने में भारत की दो दिग्गज टेलीकॉम कंपनियों- भारती एयरटेल और रिलायंस जियो ने स्टारलिंक के साथ अलग-अलग डील की थी। हालांकि, ये डील स्टारलिंक के उपकरणों को भारतीय बाजार में उपलब्ध कराने से जुड़ी थी।
इटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया ने मार्केटिंग डेटा और एनालिटिक कंपनी कैंटर के साथ मिलकर एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इसके मुताबिक, भारत में साल 2025 के आखिर तक इंटरनेट यूजर्स की संख्या 90 करोड़ को पार कर जाएगी।
स्पेसएक्स साल 2021 से भारत में अपनी सैटेलाइट इंटरनेट सेवा करने की कोशिश कर रहा है लेकिन उसे हरी झंडी अभी तक नहीं मिली है। मगर ये भारत आया तो इसका दूसरी टेलीकॉम कंपनियों और भारतीय यूज़र्स पर क्या असर देखने को मिल सकता है?
फिलहाल भारतीय यूजर्स फाइबर ऑप्टिक केबल्स, डिजिटल सब्सक्राइबर लाइन्स यानी डीएसएल या सेल्युलर टावर के जरिए इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं।
पल्लव बागला कहते हैं कि इसके उलट स्टारलिंक एलईओ सैटेलाइट टेक्नोलॉजी के ज़रिए काम करता है, जिससे ये उन इलाकों में भी इंटरनेट पहुंचाएगा जहां ब्रॉडबैंड का अब तक चला आ रहा इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं है।
उन्होंने कहा, ‘ये दूरदराज के इलाके, जहां 4जी और 5जी के टावर नहीं हैं और जहां उन्हें लगाना भी संभव नहीं, जहां पर फाइबर ऑप्टिक केबल नहीं जा सकता है। वहां ये सैटलाइट बेस्ड सर्विस सबसे प्रभावी होगी।’
उनका कहना है कि खासकर हमारी फौज के लिए ये बहुत उपयोगी होगा, क्योंकि जो दूरदराज की चौकियां हैं, वहां भी इंटरनेट कनेक्टिविटी होगी। हालांकि, उनकी नजर में स्टारलिंक फाइबर ऑप्टिक से बेहतर इंटरनेट स्पीड नहीं दे सकता।
साथ ही इसकी कीमत भी ऊंची होगी। इस वजह से ये आम लोगों के बीच शायद ही लोकप्रिय हो सके।
पल्लव बागला कहते हैं, ‘भारत में इंटरनेट बहुत सस्ता है। मुझे लगता है कि स्टारलिंक की सेवाएं सेना, नौसेना, उद्योग क्षेत्र आदि में ज़्यादा इस्तेमाल की जाएगी, जिन्हें सुदूर क्षेत्रों में काम करना होता है। ये महंगी सेवा है इसलिए इसका मौजूदा कंपनियों की ओर से मुहैया कराई जाने वाली इंटरनेट सेवा पर कोई ख़ास असर नहीं होगा।’
-लक्ष्मण सिंह देव
1992 में जब मैं किशोर था तो मैंने नवभारत टाइम्स में एक खबर पढ़ी थी जिसमें लिखा था कि दिल्ली का मालचा महल है जो जंगलों के बीच है उसमें एक शाही परिवार रहता है जिसमें एक महिला है जिसका नाम विलायत महल है और वो दो बच्चों और करीब एक दर्जन नौकरों के साथ और कुत्तों के साथ रहती है और वो किसी से भी मिलना पसंद नहीं करती और वो सिर्फ विदेशी पत्रकारों से मिलना पसंद करती है और उस महिला ने बताया कि मैं अवध के राजवंश की उत्तराधिकारी हूँ। इस कहानी की शुरुआत तब हुई जब इस महिला ने बताया कि मैं अवध के भूतपूर्व नवाब परिवार वाजिद अली शाह की उत्तराधिकारी हूँ और हमें रहने के लिए कोई महल दिया जाना चाहिए और इस मांग को लेकर उसने उन्नीस सौ पचहत्तर में दिल्ली नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के वीआईपी गेस्ट रूम में धरना देना शुरू किया।
उसके बाद वो धरना दस साल तक चलता रहा और विलायत महल ने अपनी मांग रखी कि उसे रहने के लिए एक महल दिया जाए। सरकार ने उसकी बातों पर ध्यान दिया और उसे कई विकल्प दिए, जैसे कि दिल्ली में एक डुप्लेक्स फ्लैट देने की पेशकश की। लेकिन जब सरकार ने विलायत महल की पृष्ठभूमि की जांच करने की कोशिश की, तो लखनऊ में अवध के शाही परिवार के लोगों से संपर्क किया गया, जिन्होंने विलायत महल के दावे को खारिज कर दिया। बाद में पता चला कि विलायत महल का परिवार मूल रूप से कश्मीरी था और उसका पति लखनऊ विश्वविद्यालय में रजिस्ट्रार के पद पर था। इसके बावजूद, सरकार ने विलायत महल को मालचा महल आवंटित कर दिया, जो 14वीं शताब्दी में फिरोज शाह तुगलक द्वारा बनाई गई एक शिकारगाह थी और दिल्ली के रिज क्षेत्र में जंगलों के बीच स्थित है। विलायत महल और उसका परिवार वहाँ रहने लगे, लेकिन वहाँ न तो बिजली का कनेक्शन था और न ही पानी का कनेक्शन था।
उन्नीस सौ चौरानवे में बेगम विलायत महल ने आत्महत्या कर ली, ऐसा माना जाता है कि उन्होंने हीरों को पीसकर खाकर अपनी जान दे दी। उनकी उम्र उस समय बासठ साल थी।।अपनी माता की मृत्यु के बाद करीब दस दिन तक साइरस और बहन सकीना उसकी लाश से लिपट कर सोते थे। उनकी बेटी सकीना जिसकी मृत्यु भी कुछ सालों बाद हो गई। उनका एक छोटा भाई भी था, जिसका नाम शहजादा साइरस था। ये लोग किसी से मिलते-जुलते नहीं थे और बताते थे कि वे अवध के शाही परिवार से हैं। वे बार-बार यही कहते थे कि नई व्यवस्था, यानी लोकतंत्र ने उन्हें बर्बाद कर दिया। उनका व्यवहार बहुत अजीब था।इनके कई नौकर थे और बहुत सारे शिकारी कुत्ते पाल रखे थे और जो भी महल में घुसने की कोशिश करता उस पर कुत्ते छोड़ देते थे।
बिहार के लोग जब इस बार राज्य के चुनाव में वोट डालेंगे तो उनके सामने जनसुराज पार्टी के रूप में एक तीसरा विकल्प भी होगा। तकरीबन 35 सालों से लालू यादव और नीतीश कुमार के शासन में रहा बिहार क्या प्रशांत किशोर के लिए बदलेगा?
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार का लिखा-
तारीख : 01 जुलाई, 2025। बिहार के सीवान जिले का मैरवां ब्लॉक। उमस भरी गर्मी के बीच दिन ढलने की तैयारी में है। मुख्य मार्ग पर जगह-जगह खड़े लोग बता रहे हैं, वे यह सुनने आए हैं कि बिहार कैसे बदलेगा? इसी बीच दिख जाते हैं धीरे-धीरे बढ़ते काफिले में फूलों से लदी एक गाड़ी पर खड़े हो लोगों का अभिवादन करते जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर (पीके)।
सफेद कुर्ता-पजामा पहने, कंधे पर लाल बॉर्डर वाला पीला गमछा रखे पसीने से लथपथ प्रशांत लोगों से बार-बार सभास्थल की ओर बढऩे का आग्रह कर रहे हैं। हालांकि लोगों की आकुलता काफिले की रफ्तार को धीमा कर दे रही है। इसी जद्दोजहद के साथ मंच पर पहुंचे पीके, जहां जमा थी हर वय के पुरुषों-महिलाओं की भीड़।
मंच पर पहुंचते ही उन्होंने लोगों से जय बिहार का नारा लगवाया। जवाब में लोगों की आवाज सुन ठेठ भोजपुरी में कहा, ‘नेता लोगों ने इतना खून चूस लिया है कि मुंह से आवाज कैसे निकलेगा।’ फिर दिया अपना परिचय, ‘मैं ही हूं प्रशांत किशोर।’ इसके बाद पीके ने तीन साल पहले सब कुछ छोड़ बिहार के गांवों-गलियों में भटकने का कारण बताया। हिंदी और भोजपुरी मिश्रित संबोधन में पीके ने कहा, ‘तीन साल पहले हमने महसूस किया कि नेता के जीतने से जनता का जीवन नहीं बदलता है। जीतने वाला तो निकल जाता है, लेकिन आप और आपके बच्चे जहां थे, वहीं रह जाते हैं। इसलिए सोचा, नेता को सलाह देने से उनकी जिंदगी तो बदल गई, अब बिहार की जनता को सलाह देकर उनकी जिंदगी बदलने में मदद करूं। इसी प्रयास में आपके सामने हूं।’
प्रशांत किशोर इन दिनों अपनी बिहार बदलाव यात्रा पर हैं। बिहार में अक्टूबर-नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए वे अपनी यात्रा में वे पूरे राज्य में लोगों से मिल रहे। पीके उन्हें समझाने की कोशिश कर रहे कि बिहार की सूरत-सीरत को कैसे संवारा जा सकता है। दो साल पहले भी प्रशांत किशोर ने 17 जिलों के साढ़े पांच हजार गांवों में पांच हजार किलोमीटर की जन सुराज पदयात्रा की थी। दो अक्टूबर, 2024 को जन सुराज अभियान,जन सुराज पार्टी बन गई जो इस बार के विधान सभा चुनाव में खम ठोकने की तैयारी में है। भारत की राजनीति में अब तक सलाहकार की भूमिका में रहे प्रशांत किशोर अब खुद जमीन पर उतर कर राजनीति में जुट गए हैं।
प्रशांत किशोर वोट नहीं मांगते
यात्रा में मिल रहे लोगों से पीके साफगोई के साथ कहते हैं, ‘हम नेता नहीं है। वोट मांगने नहीं आये हैं। कांग्रेस के बाद लालू-नीतीश को वोट देने के बावजूद आपका और आपके बच्चों का जीवन नहीं सुधरा। आखिर क्यों।’ पीके बिहार में घूम घूम कर लोगों से यही कह रहे हैं ‘जब तक आप अपने बच्चों का चेहरा देखकर वोट नहीं देंगे, तब तक ना तो पढ़ाई की स्थिति सुधरेगी और ना ही रोजगार के अभाव में यहां से पलायन रुकेगा।’
लोगों के दिलो-दिमाग पर वह इन दो चीजों की छाप छोडऩे की भरसक कोशिश करते हैं। बार-बार लोगों से हां या ना में अपने प्रश्नों का जवाब मांगते हैं। मैरवां में मौजूद लोगों से जब उन्होंने पूछा कि कितने लोगों ने अपने बच्चों की पढ़ाई और उनके रोजगार के नाम पर वोट दिया है, वहां चुप्पी छा गई।
लोगों की चुप्पी पर पीके ने कहा, ‘आपने तो वोट दिया है मंदिर-मस्जिद के नाम पर, पांच किलो अनाज के लालच में, सिलेंडर के नाम पर और बिजली मिलने के नाम पर तो ये सभी चीजें आपको मिल रहीं। अयोध्या में रामलला का मंदिर बन गया, जाति जनगणना की बात हो ही रही। जब आपने आज तक आपने बच्चों की पढ़ाई और रोजगार के नाम पर वोट ही नहीं दिया, तो लालू-नीतीश या किसी और को गाली क्यों देते हो।’
लोगों को उनकी गलती का अहसास कराते पीके
भीड़ में पीछे की कुर्सी पर बैठे जीरादेई के मनोहर पंडित भोजपुरी में कहते हैं, ‘बात तो ठीक ही कह रहे हैं। गांव के बच्चों के शरीर पर पूरा कपड़ा और पैर में चप्पल तो नहीं ही रहता है।’ वहीं खड़े एक व्यक्ति ने कहा, ‘सच है कि कभी इतनी गंभीरता से नहीं सोचा। गांव-समाज का जो माहौल रहता है, उसी के अनुसार तय कर लेते हैं।’
उधर मंच से प्रशांत किशोर कह रहे हैं, ‘आप महंगाई और गरीबी का वास्ता देते हैं। प्रधानमंत्री मोदी जी तो आपका वोट लेकर अपनी सरकार बनाते हैं और विकास गुजरात का करते हैं। यहां तो फैक्ट्री नहीं लगाते। तब तो आपका बच्चा दस-बारह हजार की नौकरी करने गुजरात जाता है। पूरा बिहार का बच्चा अनपढ़ और मजदूर बन गया है।’
लोगों से सीधे संवाद का सरल तरीका
भीड़ का मनोविज्ञान समझने और अपनी बात समझाने में माहिर पीके लोगों को उनकी गलतियों और राजनीतिक चयन के तरीके पर सवाल उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। वे पूरे जोश में लोगों से पूछते हैं कि आपके बच्चों की चिंता है कि नहीं? तो लोग कहते हैं, हां है। यह जवाब सुनते ही पलटकर पीके कहते हैं, ‘मैरवां में पूरा गांव, समाज सब झूठ बोल रहा है। जिन नेताओं ने आपका ये हाल किया है चार महीने बाद आप उन्हीं नेताओं को वोट देंगे जाति के नाम पर, हिंदू-मुसलमान का नारा लगा कर मंदिर-मस्जिद के नाम पर, लालू के डर से बीजेपी और बीजेपी के डर से लालू को।’
प्रशांत बच्चे की चिंता के संदर्भ में आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव का उदाहरण देते हुए उनकी प्रशंसा करते हैं। पीके ने कहा, ‘अभी भी वे अपने नौवीं फेल बेटे को राजा बनाना चाहते हैं। यही है अपने बच्चों की वास्तविक चिंता। आप कभी अपने बच्चों को राजा बनाने की चिंता कर लो।’
पीके ने यह भी कहा, ‘मोदी का 56 इंच का सीना तो आपकी समझ में आता है, लेकिन अपने बच्चों का सीना सिकुड़ कर 15 इंच का हो रहा, यह आपको नहीं समझ में आता है, तो भोगेगा कौन। सौ बिहारी मिलकर भी आज एक गुजराती के बराबर नहीं कमा रहा है। एक गुजराती सौ बिहारी को अपना नौकर बनाकर रखा हुआ है। आप अपना नहीं, अपने बच्चों का चेहरा जरूर देखिए।’ साथ ही वे यह भी कहते हैं, ‘बिहार के आदमी को सुधरना नहीं है। जब तक आप नहीं सुधरेंगे, तब तक बिहार नहीं सुधरेगा।’
-संजीव कुमार
वह रोज की तरह अपनी किराने की दुकान बंद करके गली में थोड़ी देर टहलने निकले ही थे कि पीछे से एक मासूम सी आवाज आई — ‘अंकल... अंकल...’
वे पलटे। एक लगभग 7-8 साल की बच्ची हांफती हुई उनके पास आ रही थी।
‘क्या बात है... भाग कर आ रही हो?’ उन्होंने थोड़े थके मगर सौम्य स्वर में पूछा।
‘अंकल पंद्रह रुपए की कनियाँ (चावल के टुकड़े) और दस रुपए की दाल लेनी थी...’ बच्ची की आंखों में मासूमियत और ज़रूरत दोनों झलक रहे थे।
उन्होंने पलट कर अपनी दुकान की ओर देखा, फिर कहा —
‘अब तो दुकान बंद कर दी है बेटा... सुबह ले लेना।’
‘अभी चाहिए थी...’ बच्ची ने धीरे से कहा।
‘जल्दी आ जाया करो न... सारा सामान समेट दिया है अब।’ उन्होंने नर्म मगर व्यावसायिक अंदाज़ में कहा।
बच्ची चुप हो गई। आंखें नीची कर के बोली —
‘सब दुकानें बंद हो गई हैं... और घर में आटा भी नहीं है...’
उसके ये शब्द किसी हथौड़े की तरह उनके सीने पर लगे।
वे कुछ देर चुप रहे। फिर पूछा, ‘तुम पहले क्यों नहीं आई?’
‘पापा अभी घर आए हैं... और घर में...’ वो रुकी, शायद आँसू रोक रही थी।
उन्हें कुछ और पूछने की ज़रूरत नहीं थी। उन्होंने बच्ची की आंखों में देखा और बिना कुछ कहे, ताले की चाबी जेब से निकाल ली। दुकान का ताला खोला, अंदर घुसे, और समेटे हुए सामान को हटाते हुए कनियाँ और दाल बिना तोले ही थैले में डाल दी।
बच्ची ने थैला पकड़ते हुए कहा-‘धन्यवाद अंकल...’
‘कोई बात नहीं। अब घर ध्यान से जाना।’
इतना कह कर उन्होंने दुकान फिर से बंद कर दी।
उस रात वह जल्दी सो नहीं पाए। मन में बच्ची की उदासी, उसका मासूम चेहरा और वो शब्द ‘घर में आटा भी नहीं है...’ गूंजते रहे।
उन्हें अपना बचपन याद आ गया।
एक ब्रिटिश चैरिटी की रिपोर्ट के मुताबिक चीनी दवा ‘एजियाओ’ की मांग के कारण दुनिया भर में हर साल लगभग 60 लाख गधों को मार दिया जाता है। यह स्थिति गधों के व्यापक अवैध व्यापार को जन्म दे रही है।
पारंपरिक चीनी औषधि ‘एजियाओ’ की बढ़ती मांग के कारण दुनिया भर में हर साल लगभग 60 लाख गधों को मारा जा रहा है। इससे अफ्रीकी गांवों में रहने वाले लाखों लोगों का दैनिक जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। यह बात ब्रिटेन स्थित चैरिटी संस्था ‘द डॉन्की सैंक्चुरी’ द्वारा हाल ही में जारी एक रिपोर्ट में कही गई है।
एजियाओ एक जेली जैसा हेल्थ सप्लीमेंट है, जिसमें गधे की खाल से प्राप्त कोलेजन का इस्तेमाल किया जाता है। चीन की रिसर्च कंपनी कियानझान के मुताबिक, चीन में इस उद्योग का मूल्य 6।8 अरब डॉलर तक पहुंच गया है और यह लगातार बढ़ता जा रहा है।
दवा के लिए मारे जा रहे गधे
साल 1992 में चीन में गधों की आबादी 1 करोड़ दस लाख थी जो साल 2023 में घटकर 15 लाख रह गई है। उसने अपनी मांग को पूरा करने के लिए अफ्रीका और पाकिस्तान का रुख किया है।
गधों की तेजी से घटती आबादी को देखते हुए अफ्रीकी संघ ने पिछले साल गधों के वध पर 15 साल का प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन इसके बावजूद अवैध व्यापार जारी है।
द डॉन्की सैंक्चुरी ने कहा कि एजियाओ उद्योग बड़े पैमाने पर वैश्विक व्यापार की तरह चलाता है और इसका अधिकांश हिस्सा अवैध है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले साल अकेले दुनिया भर में 59 लाख गधे मारे गए, जबकि अनुमान है कि 2027 तक एजियाओ उद्योग को कम से कम 68 लाख गधों की खाल की जरूरत होगी।
फि़ल्म निर्माता और निर्देशक इम्तियाज अली का सोशल मीडिया पर ट्रेंड करना कोई नई बात नहीं है लेकिन पिछले 29 जून को उनका अचानक ट्रेंड करना थोड़ा अजीब सा था।
जब इसकी वजह जानने के लिए ट्रेंड देखना शुरू किया तो पता चला कि एक न्यूज चैनल पर उनका इंटरव्यू आया है, जिसकी वजह से वह ट्रेंड कर रहे हैं।
एक यूजऱ के कॉमेंट ने अपनी ओर ध्यान खींच लिया, जिसमें लिखा गया था कि इम्तियाज़ अली फि़ल्मों का निर्देशन नहीं करते बल्कि वह भावनाओं का निर्देशन करते हैं।
एनडीटीवी के प्रोग्राम ‘क्रिएटर मंच’ पर इम्तियाज़ अली ने अपनी फिल्मों के बारे में बात की, जहां उनसे प्यार को परिभाषित करने के लिए कहा गया।
जवाब में उन्होंने कहा, ‘जो प्यार पूरा हो जाता है, वह ख़त्म हो जाता है, जो अधूरा रह जाता है, वह जि़ंदा रहता है और यही वजह है कि ‘हीर-रांझा’ से लेकर ‘लैला-मजनूं’ तक मोहब्बत की सभी महान दास्तानें अधूरी हैं।’
अधूरा प्यार
उन्होंने विस्तार से बताया, ‘सब पूरा होकर ख़त्म हो जाता है। जो आधा है, वह जि़ंदा है क्योंकि जब कोई चीज़ अपने अंजाम को पहुंच जाती है तो वह ख़त्म हो जाती है। फिर इसमें कोई जिज्ञासा बची नहीं रहती।’
‘कोई दिलचस्पी नहीं रह जाती है, कोई ऊर्जा नहीं रह जाती है लेकिन जब कोई चीज अधूरी रह जाती है तो वह शख़्स और उसे देखने वाला उसके बारे में सोचता रहता है। वह चीज़ उसकी जिंदगी का हिस्सा बनी रहती है, शायद यही वजह है।’
जब उनसे यह कहा गया कि उनकी फिल्मों और ख़ास तौर पर 'रॉकस्टार' में हीर अपने पति को धोखा दे रही होती है, तो उन्होंने कहा, ‘आप मोहब्बत की सभी बड़ी दास्तानें देखें तो उसमें महिलाएं शादीशुदा होती हैं लेकिन वह अपने प्यार को भुला नहीं पातीं और अपने प्रेमी से मिलती हैं।’
दिलजीत सिंह पर सवाल
एनडीटीवी के पत्रकार और प्रोग्राम के प्रेज़ेंटर शुभंकर मिश्रा ने इम्तियाज़ अली से दिलजीत सिंह के बारे में भी एक सवाल किया। यह सवाल था कि उनका पाकिस्तानी अभिनेत्री के साथ काम करना कितना सही था?
इम्तियाज अली ने उनके साथ ‘अमर सिंह चमकीला’ बनाई है।
इम्तियाज अली ने कहा कि वह दिलजीत सिंह को व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं, इसलिए कह सकते हैं कि ‘वह एक देशभक्त हैं और इस धरती के बेटे हैं। वह कंसर्ट्स के अंत में भारत का झंडा लहराते हैं और पंजाब की धरती का बखान करते हैं।’
उन्होंने कहा कि किसी कलाकार को फि़ल्म में कास्ट करना किसी अभिनेता का नहीं बल्कि यह फिल्म बनाने वालों का फैसला होता है।
इससे पहले ‘हाईवे’ और ‘रॉकस्टार’ जैसी संवेदनशील और सुपरहिट फिल्में बनाने वाले डायरेक्टर इम्तियाज अली ने एक बार कहा था कि फिल्मी दुनिया के लोग राजनीतिक बयानों के लिए फिट नहीं हैं।
उन्होंने कहा था कि डायरेक्टर और फि़ल्म प्रोड्यूसर के तौर पर, ‘मैं मानता हूं कि देश या विदेश में होने वाली घटनाओं से हम प्रभावित ज़रूर होते हैं। हम उन्हें समझ सकते हैं, दिखा भी सकते हैं लेकिन पूरी जानकारी के बिना इस पर कोई राय नहीं दे सकते।’
उनसे एक सवाल उनके व्यक्तिगत जीवन में प्रेम के बारे में किया गया जिस पर उन्होंने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि वह अपनी मोहब्बत को ढूंढने में एक दिन कामयाब हो जाएंगे।
-जैस्मिन फॉक्स स्केली
दुनिया के कई हिस्सों में वीगन खाने का चलन बढ़ रहा है। हालांकि इस बारे में आंकड़े सीमित हैं लेकिन 2018 में दुनिया की लगभग तीन फ़ीसदी आबादी वीगन खाना खा रही थी।
वीगन भोजन में नॉन वेज और डेयरी उत्पाद समेत कोई भी एनिमल प्रोडक्ट शामिल नहीं होते हैं। सिफऱ् पेड़-पौधों से मिलने वाले खाद्य पदार्थों को ही खाया जाता है।
अमेरिका में 2023 में हुए एक गैलप पोल में एक फ़ीसदी लोगों ने कहा कि वे वीगन डायट लेते हैं। हाल में द वीगन सोसाइटी के सर्वे में कहा गया है कि ब्रिटेन की लगभग तीन फ़ीसदी आबादी यानी लगभग 20 लाख लोग पूरी तरह वीगन खाना खाते हैं।
वीगन भोजन के फ़ायदों के पुष्टि हो चुकी है। पहला तो ये कि इसमें मांस और डेयरी प्रोडक्ट का इस्तेमाल नहीं होता, जो पर्यावरण को नुक़सान पहुंचाने वाले माने जाते हैं। दूसरी ओर पेड़-पौधों से मिलने वाला भोजन ज़्यादा टिकाऊ विकल्प माना जाता है।
संतुलित और विविधता से भरे वीगन आहार सेहत के लिए फ़ायदेमंद हैं, इसके सबूत भी हैं।
हालांकि कुछ मामलों में शिशुओं में गंभीर कुपोषण के मामले सामने के बाद लोगों ने कहना शुरू किया कि वीगन डायट बच्चों के लिए ठीक नहीं है।
लेकिन इस बारे में विशेषज्ञों की राय बँटी हुई है कि वीगन डायट से बच्चों को नुक़सान पहुंचता है।
अमेरिका और ब्रिटेन के आधिकारिक पोषण संगठनों का कहना है कि सही तरीके से प्लान किया जाए तो ये शिशुओं और बच्चों के लिए सुरक्षित हो सकता है। लेकिन फ्रांस, बेल्जियम और पोलैंड में स्वास्थ्य अधिकारी इसे लेकर चिंता जताते रहे हैं।
दुर्भाग्य से अभी तक बच्चों के स्वास्थ्य पर वीगन डायट के असर पर बहुत कम रिसर्च हुई है। हालांकि अब जो अध्ययन हो रहे हैं वो इस बारे में नई जानकारी दे रहे हैं।
आखिर वीगन आहार लेने वाले क्या नहीं खाते हैं।
दरअसल वो कोई भी एनिमल प्रोडक्ट नहीं खाते। वो मांस, मछली, दूध और अंडे से परहेज करते हैं। उनके आहार में फल, फूल, सब्जिय़ां और पत्तियां होते हैं। इनमें सब्जियां, फल, मेवे, बीज, दालें, ब्रेड,पास्ता और हमस जैसी चीज़ें शामिल हैं।
रिसर्च क्या बताती है?
इंपीरियल कॉलेज लंदन की पोषण वैज्ञानिक और जेओई कंपनी में प्रमुख पोषण विशेषज्ञ फेडेरिका अमाती कहती हैं, ‘हमें इस आहार का सबसे बड़ा लाभ हृदय स्वास्थ्य को बेहतर रखने में दिखा है। जो लोग वीगन डायट लेते हैं, उनका एलडीएल कोलेस्ट्रॉल (खऱाब कोलेस्ट्रॉल) कम होता है। रक्त धमनियों में ब्लॉकेज कम होते हैं और हार्ट अटैक और स्ट्रोक का जोख़िम कम होता है। वे आम तौर पर दुबले-पतले होते हैं। उनमें मोटापा बढऩे का ख़तरा कम होता है।’
वीगन आहार मेटाबॉलिक बीमारियों जैसे टाइप 2 डायबिटीज और कुछ कैंसर जैसे कोलोरेक्टल कैंसर के ख़तरे को भी कम करता है।
दरअसल पौधे फाइबर से भरपूर होते हैं। फाइबर वह पोषक तत्व है, जिसकी कमी 90 फ़ीसदी लोगों में पाई जाती है। पौधों में पॉलीफेनोल पाए जाते हैं। इनमें एंटीऑक्सीडेंट होते हैं, जो हार्ट अटैक, स्ट्रोक और डायबिटीज जैसी बीमारियों के ख़तरे को कम करते हैं।
मीट और डेयरी प्रोडक्ट में आम तौर पर सेचुरेटेड फैट होता है। इन्हें ज़्यादा खाने से शरीर में खऱाब कोलेस्ट्रॉल बढ़ सकता है। ये हृ़दय रोग का ख़तरा बढ़ाता है।
अमाती कहती हैं, ‘भोजन के मामले में यह देखना ज़रूरी है कि वह हमारे शरीर को क्या दे रहा है और किस तरह दे रहा है।’
‘अगर आप एक स्टीक (बीफ का टुकड़ा ) खा रहे हैं, तो आपको उससे प्रोटीन, आयरन, जिंक और कुछ माइक्रो न्यूट्रिएंट्स मिलते हैं। लेकिन इसके साथ ही आप सेचुरेटेड फैट और कार्निटिन जैसे केमिकल भी ले रहे होते हैं। इस तरह का भोजन आपकी एनर्जी बढ़ा सकता है लेकिन माना जाता है कि यह आंत में सूजन बढ़ा सकता है।’
वो कहती हैं, ‘लेकिन अगर आप एडामेमे (एक तरह का सोयाबीन) खा रहे हैं तो इसमें भरपूर प्रोटीन होता है। इसमें फाइबर, विटामिन, खनिज और पॉलीफेनोल जैसे हेल्दी कंपाउंड भी होते हैं।’
लेकिन वीगन डायट तभी अच्छा हो सकता है, जब ये संतुलित हो।
भोजन के लिए पौधों पर बहुत ज़्यादा निर्भरता से आपके शरीर में कुछ ज़रूरी पोषक तत्वों की कमी हो सकती है। ये पोषक तत्व सिर्फ मांस मछली, अंडे और दूध में मिलते हैं।
विटामिन बी-12 की कमी
शरीर में विटामिन बी12 की पूर्ति एक बड़ी चुनौती है। ये एक माइक्रो न्यूट्रिएंट्स है, जो केवल जानवरों के शरीर में पाए जाने वाले बैक्टीरिया बनाते हैं और यह मांस, मछली, अंडे, डेयरी प्रोडक्ट वगैरह में पाया जाता है।
इसके वीगन स्रोत हैं-न्यूट्रिशनल यीस्ट, मार्माइट, नोरी सीविड फोर्टिफाइड दूध या अनाज और सप्लीमेंट्स। लेकिन वीगन भोजन करने वाले बहुत से लोग सप्लीमेंट नहीं लेते हैं। उनमें ये कमी दिखती है।
विटामिन बी12 मस्तिष्क में नसों के लिए जरूरी होता है और स्वस्थ लाल रक्त कोशिकाएं बनाने में भी मदद करता है।
वयस्कों में इसकी कमी देर से सामने आती है क्योंकि उनका शरीर इसे स्टोर कर सकता है। लेकिन बच्चों में ये कमी जल्द दिख सकती है। जैसे, कुछ रिपोर्ट में पाया गया कि वीगन डायट लेने वाली मांओं के स्तनपान पर निर्भर शिशुओं में बी12 की कमी की वजह से न्यूरोलॉजिकल दिक्कतें आईं।
अमाती कहती हैं, ‘बच्चों को सबसे ज़्यादा पोषण की ज़रूरत होती है, क्योंकि वे उनके शरीर में नए टिश्यू बन रहे होते हैं। आपके सामने उनका शरीर बन रहा होता है।’
वो कहती हैं, ‘अगर बच्चों के शरीर बढऩे के इस अहम दौर में उन्हें बी12 जैसे पोषक तत्व न मिलें, तो यह तंत्रिका तंत्र और लाल रक्त कोशिकाओं को नुक़सान पहुंचाता है। इससे उनके सीखने की क्षमता और मस्तिष्क के विकास पर असर पड़ सकता है।’
ओमेगा-3 की भी हो सकती है कमी
वीगन डायट लेने वाले बच्चों में ओमेगा-3 फैटी एसिड की भी कमी हो सकती है।
ये पॉली अनसेचुरेटेड फैट एक ऐसा बिलिपिड झिल्ली बनाता है।
ये शरीर की हर कोशिका को घेरे रहती है। मस्तिष्क के काम करने के लिए ये बहुत जरूरी है।
ओमेगा-3 सेहत को ये फ़ायदा पहुंचाते हैं। लेकिन ईपीए (इकोसापेंटेनोइक एसिड) और डीएचए (डोकोसाहेक्सैनोइक एसिड), केवल मछली और शैवाल में पाए जाते हैं।
ओमेगा-3 की एक किस्म, अल्फा-लिनोलेनिक एसिड (एएलए) चिया सीड्स और अलसी के बीजों के साथ-साथ पत्तीदार हरी सब्जियों में पाई जाती है।
हालांकि एएलए सेहत के लिए उतना फ़ायदेमंद नहीं हैं, जितने ईपीए और डीएचए।
अन्य पोषक तत्व जैसे कैल्शियम, विटामिन डी और आयोडीन भी पौधों में मिलते हैं, लेकिन कम मात्रा में।
पोषण की कमी
वीगन आहार लेने वाले बच्चोंं में पोषण के कुछ अलग-अलग लेकिन गंभीर मामले सामने आए हैं।
2016 में, इटली के मिलान शहर में एक साल के वीगन बच्चे को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। क्योंकि उसके खूऩ में कैल्शियम का स्तर ख़तरनाक तौर पर कम था।
2017 में बेल्जियम में एक सात महीने के शिशु की मौत हो गई। उसके माता-पिता उसे केवल वीगन दूध (जई, अनाज, चावल, किनोआ से बना) पिला रहे थे।
वीगन लोगों के लिए ये अच्छी बात है कि इन न्यूट्रिएंट्स की कमी सप्लीमेंट्स और फ़ोर्टिफाइड अनाज और दूध से पूरी की जा सकती है।
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन की क्लीनिकल डाइटिशियन और मानद रिसर्च फेलो मालगोर्टज़ा डेसमंड कहती हैं, ‘बी-12 की कमी को हम पूरी तरह सप्लीमेंट से पूरी कर सकते हैं। इसके लिए ये सबसे आसान तरीका है।’
लेकिन आयरन और जि़ंक जैसे अन्य पोषक तत्वों पर ज्ज्यादा ध्यान जरूरी है।
ये तत्व हरी सब्जियों में होते हैं, लेकिन मांस या डेयरी प्रोडक्ट की तुलना में शरीर में इनका अवशोषण कम होता है।
हालांकि एक बच्चे को सभी ज़रूरी पोषक तत्व सप्लीमेंट्स और योजना बना कर तैयार किए गए आहार से मिल जाएं। लेकिन अध्ययन बताते हैं असल में हमेशा ऐसा नहीं होता।
सावधानी से करनी होगी डायट प्लानिंग
2021 में, डेसमंड और उनके सहयोगियों ने पोलैंड में 187 बच्चों पर एक अध्ययन किया। ये बच्चे या तो वीगन थे या शाकाहारी या फिर वीगन या ग़ैर वीगन आहार, दोनों ले रहे थे।
दो-तिहाई वीगन और शाकाहारी बच्चों ने बी-12 सप्लीमेंट्स लिए थे। लेकिन कुल मिलाकर वीगन बच्चों में कैल्शियम का स्तर कम था और वो आयरन, विटामिन डी और बी-12 की कमी के जोखिम से जूझ रहे थे।
इस अध्ययन के मुताबिक़ वीगन बच्चों का स्वास्थ्य दोनों तरह यानी वीगन और एनिमल प्रोडक्ट खाने वाले बच्चों से कुछ मामलों में अलग था।
हालांकि अच्छी बात ये थी कि वीगन डायट लेने वाले दुबले-पतले थे और उनमें कोलेस्ट्रॉल का स्तर कम था। इससे भविष्य में उनके हृदय रोग से जूझने की आशंका कम हो सकती थी। उनके शरीर में सूजन के भी कम संकेत मिले।
बच्चों की लंबाई पर असर
अध्ययन के मुताबिक़ वीगन डायट लेने वाले बच्चों की एनिमल प्रोडक्ट लेने वाले बच्चों से लंबाई कम पाई गई।
वीगन डायट लेने वाले बच्चे उनसे तीन से चार सेंटीमीटर छोटे पाए गए। हालांकि वीगन डायट लेने वाले बच्चों की लंबाई उनकी उम्र के हिसाब से सामान्य थी।
डेसमंड कहती हैं, ‘वे (वीगन डायट लेने वाले बच्चे) कद में थोड़े छोटे और वजन में हल्के हो सकते हैं। लेकिन हमें ये नहीं पता कि क्या ये किशोरावस्था आने तक ये कद में उन बच्चों की बराबरी कर लेंगे या नहीं, जो एनिमल प्रोडक्ट ले रहे थे।’
हालांकि ज्य़ादा चिंता की बात यह थी कि शाकाहारी बच्चों की हड्डियों की बोन डेनसिटी एनिमल प्रोडक्ट लेने वाले बच्चों की तुलना में छह फ़ीसदी कम थी।
इसका मतलब ये कि भविष्य में उन्हें ऑस्टियोपोरोसिस और फ्रैक्चर का खतरा अधिक हो सकता है।
डेसमंड कहती हैं, ‘हमारे पास हड्डियों को मज़बूत बनाने का समय बहुत सीमित होता है। यह लगभग 25 से 30 वर्ष की उम्र तक ही होता है। इसके बाद हमारी हड्डियों में मिनरल्स की मात्रा धीरे-धीरे कम होती जाती है। अगर आपकी हड्डियों में 25 साल की उम्र तक पर्याप्त मिनरल नहीं बने तो फिर ये कम ही होने लगता है।’
वीगन आहार लेने वाले वयस्क लोगों पर हुई रिसर्च के मुताबिक़ उनकी हड्डियों में भी एनिमल प्रोडक्ट लेने वालों की तुलना में मिनरल्स डेनसिटी कम होती है। जिससे उनमें फ्रैक्चर का खतरा बढ़ जाता है।
हालांकि इस मिनरल की कमी का सही वजह अभी पूरी तरह समझी नहीं जा सकी है।
विटामिन डी और कैल्शियम दोनों ही हड्डियों को मज़बूत बनाने और बनाए रखने के लिए जरूरी हैं लेकिन डेसमंड का कहना है कि 2021 के उनके अध्ययन में वीगन बच्चों में कैल्शियम का सेवन दूसरों बच्चों की तुलना में कम था। लेकिन ये अंतर बहुत ज्य़ादा नहीं था।
डेसमंड कहती हैं, ‘मुझे लगता है ये कई वजहों का मेल है। यह केवल कैल्शियम की गोली लेने से हल नहीं होगा।’ क्योंकि यह पौधों से मिलने वाले प्रोटीन की गुणवत्ता पर भी निर्भर हो सकता है, जो पशु प्रोटीन की तुलना में बच्चों के विकास को कम रफ़्तार से बढ़ाता है।’
माना जाता है कि ज्यादा एनिमल प्रोटीन से शरीर का विकास ज्यादा हो सकता है। बच्चों के विकास के लिए शरीर के अंदर जो स्राव होती उसें इससे तेजी आ सकती है। आमतौर पर प्रोटीन शरीर को तेजी से बढऩे के संकेत भेजते हैं।
ये हड्डियों के विकास और मरम्मत दोनों में अहम भूमिका निभाते हैं।
हालांकि अमाती बताती हैं कि ये नतीजे सिर्फ एक स्टडी से लिए गए हैं। इसलिए बचपन में वीगन डायट और हड्डियों की डेनिसिटी के बीच कोई पक्की कड़ी अभी साबित नहीं हुई है।
-सुजाता
हाल ही में अहमदाबाद विमान दुर्घटना की एक ख़बर ने पूरे देश का दिल दहला दिया। इस हादसे में कई मासूम लोग, जिनमें बच्चे भी शामिल थे, अपनी जान गंवा बैठे।
अचानक इस त्रासदी के बीच खबरें आने लगीं कि विमान में रखी भगवद गीता का एक प्रतिलिपि जलने से बच गई जिसे कोई पैसेंजर अपने साथ ले गया? होगा।
न्यूज चैनलों ने इस बात को चमत्कार बता कर बार-बार दिखाया। लोगों ने भी इसे ‘ईश्वर की महिमा’ बताकर सोशल मीडिया पर फैलाना शुरू कर दिया।
लोगों की तो बात खैर रहने ही दीजिए लेकिन इन जिम्मेदार न्यूज़ चैनल्स को तो इस दुर्घटना पर अतिवादी होने से बचना चाहिए था।
लेकिन अब इस पूरे प्रकरण पर जब देश के प्रमुख धर्मगुरु शंकराचार्य ने प्रतिक्रिया दी तो उन्होंने एक सच्चाई की ओर ध्यान खींचा। उन्होंने कहा —‘इतने मासूम लोग जलकर मर गए, फूल से बच्चे मर गए और एक गीता बच गई और ये लोग इस बात का बखान कर रहे हैं।
बात तो तब होती कि जब गीता जल जाती लेकिन लोग और फूल से बच्चे बच? जाते।’
शंकराचार्य का यह कथन न केवल तार्किक है, बल्कि सनातन धर्म और अध्यात्म की सच्ची भावना से ओत-प्रोत है। क्या सचमुच कोई भी ईश्वर, चाहे वह सनातन धर्म का हो या किसी भी मत का, यह चाहेगा कि उसकी किताब तो सुरक्षित रहे लेकिन उसके ही बनाए जीव नष्ट हो जाएं?
आप और हम सब जानते हैं कि गीता क्या सिखाती है।
गीता स्वयं कहती है कि आत्मा अमर है। शरीर का नाश होना प्रकृति का नियम है। गीता तो ज्ञान का स्रोत है, और उसका सच्चा पालन तभी है जब हम उसके संदेश को जीवन में उतारें , यानी करुणा, धर्म, और जीव रक्षा को महत्व दें। अगर किसी दुर्घटना में किसी ग्रंथ की पुस्तक बच जाए तो यह केवल भौतिक घटना है, इसे चमत्कार कहना हमारी समझ का अपमान है।
हम सभी जानते हैं कि गीता का उपदेश देने वाले श्रीकृष्ण ने स्वयं कितने लोगों की रक्षा की है!
उन्होंने अर्जुन को धर्म युद्ध का मर्म समझाया,
द्रौपदी की लाज बचाई, गोकुल में पूतना, कालिया नाग, कंस जैसे अत्याचारियों से निर्दोषों को बचाया,
हर युग में संकट में पड़े जन को अपनी लीला से उबारा।
श्रीकृष्ण का जीवन स्वयं यह बताता है कि ईश्वर की कृपा केवल किताबों में नहीं,
बल्कि हर जीव की रक्षा में है।
जो कृष्ण ने सिखाया- ‘सबसे पहले जीवन की रक्षा करो, धर्म उसकी सेवा में है।’
यही गीता का सार है, यही हमारा कर्तव्य भी है।
मीडिया और अंधविश्वास-
अक्सर हम मीडिया की सनसनी में उलझ जाते हैं। किताब बच गई, मंदिर बच गया, मूर्ति पर खरोंच नहीं आई — ऐसे शीर्षक हमें तसल्ली जरूर देते हैं लेकिन क्या इससे उन परिवारों का दु:ख कम होता है जिन्होंने अपने लोग खो दिए? नहीं। असली चमत्कार तो तब होता जब कोई हादसा ही न होता, या हादसे के बावजूद हर मानव जीवन बचा लिया जाता।
-कनुप्रिया
औरतें भी कोई सती सावित्री नहीं हैं, इतनी निहायत ही फालतू और सदियों पुरानी बात कहकर कम से कम ठरकी यौन अपराधियों को डिफेंड मत कीजिये।
हाँ नहीं हैं सती सावित्री, और कम से कम आपकी मर्जी से तो नही ही होंगी। और न भी हों तब भी किसी भी यौन अपराधी को उन्हें छूने का हक़ नहीं है। हरेक की देह उसकी अपनी होती है उसकी मर्जी के बिना छूना उसका boundary violation है, ये बात बिल्कुल ठीक से समझ आ जानी चाहिए। हालाँकि यह बात लागू तो शादी में भी होनी चाहिये क्योंकि मैरिटल रेप भी बड़ी समस्या हैं, मगर वहाँ ॥ ज़्यादा हैं और हमारा समाज भी अभी मानसिक और कानूनी तौर पर उतना विकसित नही हुआ है कि उसकी complexity को हैंडल कर सके। इसके अलावा शादी में conjugal relationship न होना उसके टूटने का भी आधार बनती है, वो विमर्श और भी ज़्यादा व्यापक है। और मुझे यकीन है कि आज से 10 साल बाद उस पर भी ख़ूब बात होगी।
मगर शादी के बाहर तो कोई भी रिश्ता, कम या ज़्यादा, किसी भी हद तक बिना consent के नही होना चाहिए। ‘अदाएँ प्यार की पहचानता ही नहीं’ वाला युग गया। हँसी तो फँसी वाला भी। अगर मुस्कुराए तो हाँ नहीं है, हँस दे तो हाँ नही है, शर्माए तो भी हाँ नहीं है, सकुचाए या confused हो तो भी नही, और ना तो बिल्कुल भी हाँ नहीं है, सिर्फ हाँ ही हाँ है।
और जितना आप स्त्रियों के चरित्र पर ही सवाल उठाते रहेंगे दिक्कत आपको ही होगी, क्योंकि वो हाँ नहीं करेंगी, पहल नहीं करेंगी, और स्क्रीन शॉट्स आपके ही लगेंगे।
जहाँ तक इज़्ज़त की बात है तो वो अब भी स्त्रियों के लिये ही बड़ा मसला है , वो यौन शोषित होकर भी हज़ार बार सोचती हैं FIR करने से पहले क्योंकि यौन अपराधी के अब भी सीना चौड़ा करके घूमने के
चांस विक्टिम के सर उठाकर चलने से ज़्यादा हैं।
-परमानंद वर्मा
जिस काम को भगवान श्रीकृष्ण नहीं कर सके, भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य और अश्वत्थामा जैसे महारथी भी असफल रहे, उसी तरह के कठिनतम, दुष्कर कार्य को अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने चुटकी बजाते हुए चंद मिनटों में कर दिखाया। द्वापर में महाभारत युद्ध तो होकर ही रहा लेकिन कलियुग में ट्रम्प ने भारत-पाकिस्तान और ईरान-इजराइल के मध्य जारी युद्ध को रुकवाने का श्रेय ले लिया। एक महाविनाश रुक गया। उनके शांति प्रस्ताव के प्रयास से इसी संदर्भ में पढिय़े यह छत्तीसगढ़ी आलेख...
वाह... वाह..! कतेक कमाल के हस ट्रम्प साहेब, थैंक्यू... थैक्यूं...! जरूर नोबेल पुरस्कार के हकदार हस। अउ ये तोला मिलना चाही। चाही का मिल के रइही।
मंय ओला केहेंव, अतेक बड़े दू-दू ठन युद्ध आतंक ला रुकवा देय, ये दोनों काम कम बड़े बात हे? भारत-पाकिस्तान अउ इजराइल-ईरान जिहां घमासान मचे रिहिसे, जन, धन, घर दु्आर सबके नुकसान होवत रिहिसे, चारों डहर हाहाकार मचे रिहिसे, आगी कस बरत रिहिस ओ देश मन तेला रोकवा देस, कोनो कम बड़े बात हे? थैंक्यू... थैंक्यू...।
सुखराम जब अमरीका के राष्ट्रपति ट्रंप संग मोबाइल मं बात करते रिहिसे तब ओकर नाती राम परसाद ओकर मन के बात ला सुनत रिहिसे।
राम परसाद अपन बबा सुखराम ल हांसत कहिथे- ये बबा, तंय बिलकुल आज ले अड़हा के अड़हा रहिगेस गा।
नाती पूछथे-‘कइसे का होगे रे बुजा, तेमा मोर बात ल सुनके हांसत हस।
‘हांसत येकर सेती हौं बबा, अरे ओतेक बड़े काहत लागे अमरीका के राष्ट्रपति ट्रम्प अउ ओला तैं ठैंक्यू...ठैंक्यू... काहत हस, तोला कोन मास्टर अंगरेजी पढ़ाय हे, कोदो देके पढ़ाय हे का तोर दाई-ददा मन।
- कइसे का होगे संगवारी, कुछु गलती बोल परेंव का, तैं हासत हस?
- ठैंक्यू...ठैंक्यू नहीं, थैक्यू... थैक्यू बोले जाथे। नइ आवय अंगरेजी तब छत्तीसगढ़ी मं जोहार साहेब... जोहार साहेब बोले कर। अपन भाखा मं बात करे मं कांही लाज शरम के बात नइहे।
फेर हमर मास्टर हा तो तीन-तीन विषय मं एम.ए. करे रिहिसे। अंगरेजी, संस्कृत अउ छत्तीसगढ़ी में। अतेक बड़े विद्वान करा पढ़े हौं। कोनो कम बात हे का? आजकल के टूरा तुमन का जानिहौ अंगरेजी? ट्यूशन पढ़-पढक़े बोदा होगे हौ, अउ आय हस मोर गलती निकाले बर।
-‘गलती तो गलती हे बबा, तोर बात ला सुनके मोला हांसी घला आवत हे। ओतेक बड़े धनी-मानी देश अमरीका के राष्ट्रपति ट्रंप अउ तंय भारत जइसन छोटे देस के छोटे शहर के रहइया अउ पटवारी हस तेकर से भला ओहा का बात करही?
सुखराम बबा नाती राम परसाद ल समझावत कहिथे- तंय नइ जानस रे लपरहा, हमर ओकर मन के कतेक पारिवारिक संबंध हे। हमर गांव के गउंटिया गनेश राम नायक विधायक रिहिसे तेकरे संग हमर ददा अमरीका गे रिहिसे. तब ट्रम्प के बाप संग विधायक के अच्छा दोसती रिहिसे। ओ सब बात ला मोला बताय रिहिसे तब ले ट्रंप के परिवार संग हमर मन के संबंध आज ले बने हे।
राम परसाद कहिथे- अइसे का, अतेक बड़े मनखे से तोर संबंध बने हे। बड़े खुशी के बात हे, अतेक दिन ले काबर नइ बताय बबा?
मौका परे मं कोनो बात खुलथे। आज ओ ट्रम्प अमरीका के राष्ट्रपति बने हे, एकर पहिली घला चुने गे रिहिसे तभो ओला ठैंक्यू... ठैंक्यू... के हे रेहेंव फोन लगा के।
- ‘फेर उही ठैंक्यू... ठैंक्यू... काहत हस, जब मंय तोला सुधार के बतावत हौं थैंक्यू... थैंक्यू... काह तब ले...!
- ‘ठीक हे बेटा, अब सुधार के बोलिहौं।
यूरोपीय संघ की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इस्राएल गजा में मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रहा है। ऐसे में यूरोपीय संघ स्राएल के साथ एक बड़ा व्यापारिक समझौता रोक सकता है लेकिन वह ऐसा कर नहीं रहा है।
डॉयचे वैले पर एला जॉयनर का लिखा-
यूरोपीय संघ की एक रिपोर्ट में गाजा में इस्राएल के मानवाधिकार रिकॉर्ड को लेकर गंभीर सवाल उठाए गए हैं। जिसके बाद स्पेन के प्रधानमंत्री, पेद्रो सांचेज ने यूरोपीय संघ कड़ी आलोचना की है। उन्होंने कहा कि जब गाजा में ‘नरसंहार जैसी भयानक स्थिति’ बन रही है, तब भी ईयू इस्राएल के साथ व्यापारिक समझौते बंद करने के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठा रहा है।
हमास प्रशासित गाजा के अधिकारियों के अनुसार, पिछले 18 महीनों में इस्राएल हमलों में 55,000 से ज्यादा फलीस्तीनियों की मौत हो चुकी है। हालांकि, इस्राएल नरसंहार के आरोपों को सख्ती से खारिज करता है और कहता है कि वह हमास के खिलाफ युद्ध लड़ रहा है। हमास ने अक्टूबर, 2023 में इस्राएल पर बड़ा आतंकी हमला किया था।
यूरोपीय संघ की विदेश नीति सेवा ने हाल ही में सदस्य देशों के बीच एक रिपोर्ट साझा की, जिसमें अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की जांच और आरोपों के आधार पर यह कहा गया कि इस्राएल मानवाधिकारों का सम्मान करने की अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रहा है।
हालांकि, यह दस्तावेज सार्वजनिक नहीं है, लेकिन डीडब्ल्यू ने इसकी कॉपी देखी है। इसमें बताया गया है कि इस्राएल की ओर से आम लोगों को निशाना बनाकर किए गए हमले, भोजन और दवाओं की नाकेबंदी, और अस्पतालों पर हमले मानवाधिकार का उल्लंघन हैं। रिपोर्ट में साफ कहा गया है, ‘ऐसे संकेत हैं कि इस्राएल अपने मानवाधिकार संबंधित कर्तव्यों का उल्लंघन कर रहा है।’
ब्रसेल्स में ईयू शिखर सम्मेलन में पहुंचे स्पेन के प्रधानमंत्री, पेद्रो सांचेज ने कहा, ‘यह तो बिल्कुल साफ है कि इस्राएल, ईयू-इस्राएल समझौते के अनुच्छेद-2 का उल्लंघन कर रहा है।’
उन्होंने आगे कहा, ‘हमने रूस के खिलाफ यूक्रेन पर हमले को लेकर 18 बार प्रतिबंध लगाए हैं, लेकिन जब बात इस्रायल की आती है, तो यूरोप अपनी दोहरी नीति दिखाता है। और एक सामान्य समझौते को निलंबित करने की भी हिम्मत नहीं करता है।’
समझौता रद्द होने की कोई संभावना नहीं
ईयू के 27 देशों में से केवल स्पेन और आयरलैंड ही हैं, जो खुलकर इस्राएल के साथ हुए समझौते को पूरी तरह से निलंबित करने की मांग कर रहे हैं। हालांकि ऐसा फैसला तभी लिया जा सकता है, जब सभी सदस्य देश एकमत हो और यही कारण है कि यह मांग गंभीर रूप से सामने नहीं आ पाई है। हालांकि, ग्रीस, जर्मनी, हंगरी, ऑस्ट्रिया और बुल्गारिया जैसे देश अभी भी इस्राएल के नजदीकी सहयोगी बने हुए हैं।
खासकर जर्मनी ने इस मुद्दे पर अपना रुख साफ कर दिया है। जर्मन चांसलर फ्रीडरिष मैर्त्स ने इस प्रस्ताव को खारिज करते हुए कहा, ‘जर्मनी की संघीय सरकार के लिए यह फैसला विचार योग्य नहीं है।’
इस्राएल पर दबाव बनाने के लिए स्पेन में अरब और यूरोपीय देशों की बैठक
अगर इस समझौते को निलंबित किया जाता है, तो यह एक बड़ी व्यापारिक बाधा हो सकती है। खासकर इस्राएल के लिए, जो अपना एक-तिहाई सामान यूरोपीय संघ से खरीदता है। यह समझौता साल 2000 से चल रहा है। जिसमें दोनों पक्षों के बीच व्यापार (जो सिर्फ वस्तुओं के मामले में ही हर साल 50 अरब डॉलर तक का है), राजनीतिक बातचीत और शोध व तकनीकी सहयोग तक सब कुछ शामिल है।
एक और विकल्प यह हो सकता है कि समझौते का आंशिक निलंबन किया जाए। जैसे मुक्त व्यापार से जुड़े प्रावधानों को रोका या फिर इस्राएल को यूरोपीय संघ के रिसर्च फंडिंग प्रोग्राम से बाहर किया जा सकता है। हालांकि, इसके लिए 27 में से कम से कम 15 देशों की सहमति जरूरी है। कुछ कूटनीतिक सूत्रों ने डीडब्ल्यू को बताया कि इतने समर्थन की संभावना दिख नहीं रही है।
इस्राएल को ‘सजा देना’ उद्देश्य नहीं
इस सप्ताह की शुरुआत में यूरोपीय संघ के विदेश मामलों के प्रमुख, काया कलास ने यह रिपोर्ट औपचारिक रूप से सदस्य देशों के सामने पेश की। जिसमें उन्होंने साफ कर दिया कि तुरंत कोई सख्त कदम नहीं उठाया जा सकता है।
उन्होंने सोमवार को कहा, ‘इसका मकसद इस्राएल को सजा देना नहीं है, बल्कि गाजा के लोगों के जीवन में सुधार लाना है। अगर हालात नहीं सुधरे, तो जुलाई में हम इस पर फिर से चर्चा कर सकते हैं और आगे के कदमों पर विचार कर सकते हैं।’ गुरुवार को ब्रसेल्स में यूरोपीय संघ के नेताओं की बैठक में इस रिपोर्ट को केवल ‘नोट’ किया गया यानी रिपोर्ट को ध्यान में लाया गया। इसमें इस्रायल की ओर से मानवाधिकार उल्लंघन का कोई जिक्र नहीं किया गया। नेताओं ने सिर्फ यह कहा कि इस मुद्दे पर अगले महीने फिर से चर्चा होना चाहिए। साथ ही, 27 देशों के नेताओं ने एक स्वर में गाजा की भयावह मानवीय स्थिति, आम नागरिकों की मौत, और भुखमरी के हालात पर चिंता जताई।
-सुशान्त कुमार
सम्पादक दक्षिणकोसल
भारत की आजादी का ही नहीं, दुनिया का इतिहास बहादुर और ताकतवरों का इतिहास रहा है। जिसे चालक शासक वर्ग ने अपने हिसाब से लिखा। जिन्होंने 1857 में मंगल पांडेय के नेतृत्व में हुए सिपाही विद्रोह को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम घोषित किया उन्हें यह भी जान लेना चाहिए कि 30 जून 1855 को सिदो-कान्हू, चांद-भैरव एवं फूलो-झानो के नेतृत्व में लगभग 30,000 से अधिक संथालों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह कर दिया था, जिसमें लगभग 15,000 संथाल मारे गये थे एवं सिदो-कान्हू को फांसी पर लटकाया गया था। आपको यह जानकार हैरानी होगी कि मंगल पांडे नहीं, तिलका मांझी और सिदो-कान्हू और उनके परिवार के लोग थे पहले स्वतंत्रता संग्रामी। आदिवासी नेत्री दयामनी बारला कहती है कि मैं आजादी की पहली लड़ाई यानी संथाल हूल को ही मानती हूं। चारों भाइयों सिदो, कान्हू, चांद और भैरव के साथ फूलो और झानो ने अंग्रेजों और महाजनों से जमकर लोहा लिया था। रानी लक्ष्मीबाई से काफी पहले इन्होंने आजादी की ज्वाला जलाई थी। फूलो-झानो को इतिहास में शायद ही लोग जानते हैं। अब समय आ गया है कि इतिहास को दुरूस्त करें इन्हें झांसी की रानी के पहले लोग नाम लें।
हूल दामिन ए कोह (पुराना संताल परगना) के क्षेत्र में बसने वाले संथालों और अन्य ग्रामीण-गरीब खेतिहर समाज के लोगों द्वारा अपनी खोई हुई जमीन की वापसी, सूदखोर-महाजनों और सरकारी अमलों के शोषण तथा अंग्रेजी शासन से मुक्ति पाने हेतु एक स्वाधीन राष्ट्र कायम करने के लिए था। इसमें नेतृत्व भले ही संथालों का था, लेकिन इसमें शामिल होकर हूल की अग्नि में न्योछावर तथा गिरफ्तार हुए कई लोगों में गैर-संताल समुदाय के लोगों का नाम भी सरकारी दस्तावेजों में देखे जा सकते हैं। संथालों ने अंग्रेज आला अफसरों के पास कई बार अपने कष्टों का शिकायत-पत्र भेज कर गुहार लगायी, जिसमें महाजनों-जमींदारों द्वारा सूदखोरी, जमीन से बेदखली, सरकारी अमलों द्वारा लूट और ब्रिटिश हुकूमत द्वारा इन समस्याओं के प्रति उपेक्षा की ढेरों शिकायतें थीं।लेकिन हुकूमत द्वारा उसे अनसुना किये जाने से थक-हार कर विद्रोह करना ही एकमात्र विकल्प रह गया था। आज का दिन कई मायनों में महत्व का है अर्थात आज संथाल हूल दिवस है। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का दिन। ब्रिटिश इतिहास के दृष्टि से देखा जाए तो अंग्रेजों के खिलाफ पहला विद्रोह 1857 है, यहां हमारे इतिहास को दुरूस्त कर देखने की जरूरत है अर्थात आदिवासियों के इतिहास के नजरिए से देखते हैं तो पहला विद्रोह 1771 में ही तिलका मांझी ने शुरू किया था।
इसके बाद एक ही परिवार के छह लोगों ने 30 जून 1855 को संथाल आदिवासियों ने सिदो, कान्हू, चांद, भैरव, फूलो, झानो के नेतृत्व में साहिबगंज जिले के भोगनाडीह में 400 गांव के लगभग 30,000 आदिवासियों ने अंग्रेजों को मालगुजारी देने से साफ इंकार कर दिया था। गिरधारी राम गंझू कहते हैं कि संथाल हूल में पहली बार नारे लगे ‘अबुआ राज’, ‘करो या मरो’, ‘अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो’, ‘हमने खेत बनाए हैं, इसलिए ये हमारे हैं’। आंदोलन राजमहल, बांकुड़ा, हजारीबाग, गोला, चास, कुजू, बगोदर, सिंदरी, हथभंगा, बीरभूम, जामताड़ा, देवघर, पाकुड़, गोड्डा, दुमका, मधुपुर सहित कई क्षेत्रों में फैल गई। सिदो ने इस पर जोर देते हुए कहा था, ‘समय आ गया है अंग्रेजों को खदेड़ देश से बाहर भगाने का। अंग्रेजों ने तुरंत इन चार भाइयों को गिरफ्तार करने का आदेश जारी किया। गिरफ्तार करने आये दारोगा को संताल विद्रोहियों ने गर्दन काटकर हत्या कर दी। इसके बाद संथाल परगना के सरकारी अधिकारियों में आतंक फैल गया। जब जब आदिवासी इतिहास, परंपरा, संस्कृति तथा उनके जल, जंगल जमीन को अधिग्रहण की कोशिश हुई है जन प्रतिरोध भडक़ उठी है। महाजनों, जमींदारों और अंग्रेजी शासन द्वारा जब आदिवासियों की जमीन पर कब्जा करने का प्रयास किया गया तब तब उनके खिलाफ आदिवासियों (मूलनिवासियों) का गुस्सा बिना समर्पण के इस लड़ाई में एक ही परिवार के छह लोग सिदो, कान्हू, चांद, भैरव, फूलो, झानो सहित लगभग 20 हजार संतालों ने जल, जंगल, जमीन की हिफाजत के लिए अपनी जान न्योछावर कर दिए।
इतिहासकारों के अनुसार इसके पूर्व गोड्डा सब-डिवीजन के सुंदर पहाड़ी प्रखंड की बारीखटंगा गांव का बाजला नामक संताल युवक की विद्रोह के आरोप में अंग्रेजी शासन द्वारा हत्या कर दी गई थी। अंग्रेज इतिहासकार विलियम विल्सन हंटर ने अपनी किताब ‘द एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’ में लिखा है कि अंग्रेजों का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था जो आदिवासियों के बलिदान को लेकर मुंह की नहीं खाई हो। अपने ही बीच मौजूद विभीषण के कारण सिदो और कान्हू को पकड़ लिया गया और भोगनाडीह गांव में सबके सामने एक पेड़ पर टांगकर फांसी दे दी गई। बताया जाता है कि लगभग 20 हजार संथालों ने जल, जंगल, जमीन जैसे सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा के लिए न्योछावर हो गए। प्रसिद्ध इतिहासकार बीपी केशरी कहते लिखते हैं कि संथाल हूल ऐसी घटना थी, जिसने 1857 के संग्राम की पृष्ठभूमि तैयार की थी। इस आंदोलन के बाद ही अंग्रेजों ने संथाल क्षेत्र को बीरभूम और भागलपुर से हटा दिया। 1855 में ही संथाल परगना को ‘नॉन रेगुलेशन जिला’ बनाया गया। क्षेत्र भागलपुर कमिश्नरी के अंतर्गत था, जिसका मुख्यालय दुमका था। 1856 में पुलिस रूल लागू हुआ। 1860-75 तक सरदारी लड़ाई, 1895-1900 ई. तक बिरसा आंदोलन इसकी अगली कड़ी थीं। अंग्रेजों ने प्रशासन की पकड़ कमजोर होते देख आंदोलन को कुचलने के लिए सेना को मैदान में उतारा और मार्शल लॉ लागू कर दिया। हजारों संताल आदिवासियों को गिरफ्तार किया गया, लाठियां चली, गोलियां चलाई गई। यह लड़ाई तब तक जारी रही, जब तक अंतिम आंदोलनकारी जिंदा रहा।
विशद कुमार लिखते हैं कि इसके पूर्व 1771 से 1784 तक तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाडिय़ा ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लंबी और कभी न समर्पण करने वाली लड़ाई लड़ी और सामंती महाजनों-अंग्रेजी की नींद उड़ा दी। पहाडिय़ा लड़ाकों में सरदार रमना अहाड़ी और अमड़ापाड़ा प्रखंड (पाकुड़, संताल परगना) के आमगाछी पहाड़ निवासी करिया पुजहर और सिंगारसी पहाड़ निवासी जबरा पहाडिय़ा भारत के पहले आदिविद्रोही हैं। जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाडिय़ों पर अंग्रेजी हुकूमत के दांत खट्टे कर दिए। इन पहाडिय़ा लड़ाकों में तिलका मांझी ने 1778 ई. में अंचल के सरदारों से मिलकर रामगढ़ कैंप पर कब्जा करने वाले अंग्रेजों को खदेडक़र कैंप को मुक्त कराया था। 1784 में जबरा ने क्लीवलैंड को मार डाला। बाद में आयरकूट के नेतृत्व में जबरा की गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ जिसमें कई लड़ाके मारे गए और तिलका को गिरफ्तार कर लिया गया। कहते हैं उन्हें चार घोड़ों में बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया। पर मीलों घसीटे जाने के बावजूद वह तिलका मांझी जीवित था। बताया जाता है कि खून में डूबी उसकी देह तब भी गुस्सैल थी और उसकी लाल-लाल आंखें ब्रितानी राज को डरा रही थीं। अंग्रेजों ने तब भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष पर सरेआम लटका कर उनकी जान ले ली। हजारों की भीड़ के सामने तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर लटका दिए गए। वह दिन 13 जनवरी 1785 का था।
तिलका मांझी संथाल थे या पहाडिय़ा इसे लेकर विवाद है। इतिहासकार बताते हैं कि तिलका मांझी मूर्म गोत्र के थे। अनेक लेखकों ने उन्हें संताल आदिवासी बताया है। परंतु तिलका के संथाल होने का कोई ऐतिहासिक दस्तावेज और लिखित प्रमाण मौजूद नहीं है। वहीं, ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार संथाल आदिवासी समुदाय के लोग 1770 के अकाल के कारण 1790 के बाद संथाल परगना की तरफ आए और बसे।वे आगे लिखते हैं कि ‘द एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’, 1868 के पहले खंड (पृष्ठ संख्या 219-227) में सर विलियम विल्सर हंटन ने लिखा है कि संथाल लोग बीरभूम से आज के सिंहभूम की तरफ निवास करते थे। 1790 के अकाल के समय उनका पलायन आज के संथाल परगना तक हुआ। हंटर ने लिखा है, ‘1792 से संतालों का नया इतिहास शुरू होता है’ (पृ. 220)। 1838 तक संथाल परगना में संथालों के 40 गांवों के बसने की सूचना हंटर देते हैं जिनमें उनकी कुल आबादी 3000 थी (पृ. 223)। हंटर यह भी बताता है कि 1847 तक मि. वार्ड ने 150 गांवों में करीब एक लाख संतालों को बसाया गया (पृ. 224)।1910 में प्रकाशित ‘बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: संथाल परगना’, वॉल्यूम 13 में एलएसएस ओ मेली ने लिखा है कि जब मि. वार्ड 1827 में दामिने कोह की सीमा का निर्धारण कर रहा था तो उसे संथालों के 3 गांव पतसुंडा में और 27 गांव बरकोप में मिले थे। वार्ड के अनुसार, ‘ये लोग खुद को सांथार कहते हैं जो सिंहभूम और उधर के इलाके के रहने वाले हैं।’ (पृ. 97) दामिने कोह में संथालों के बसने का प्रमाणिक विवरण बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर:संथाल परगना के पृष्ठ 97 से 99 पर उपलब्ध है।
-सुजाता चोखेरबाली
हफ्ता भर पुरानी बात है। गाड़ी चला रही थी। रेडियो में एक एंकर बोल रहा था-भाई, बड़े मुश्किल दिन हैं लडक़ों के, आजकल लडक़े हनीमून मनाने जाते हैं लोटे में वापस आते हैं। मुझे नहीं याद कौन चैनल था, कौन एंकर। मैं बस हैरान थी कि औरतों के खिलाफ हिंसा को जिन्होंने धर्म की किताबों में भी जायज बताया है वे एक औरत के क्राइम से डर गए? जबकि उनके साथ पूरा इतिहास, समाजशास्त्र, परम्पराएँ, रीति-रिवाज, नियम-कानून, पॉवर, सत्ता और सो कॉल्ड सुपर मर्दानगी भी है!!
जबकि किसी महिला ने महिलाओं के क्राइम करने को जस्टिफ़ाई नहीं किया जैसे मर्द करते हैं मर्दों को! ऐसी दलील देकर कि कपड़े छोटे पहने होंगे, रात को अकेली बाहर निकली होगी, ज़बान लड़ाती होगी, खाना टाइम पर नहीं देती होगी, अफ़ेयर होगा किसी और से, बेटा पैदा नहीं किया होगा, बांझ होगी, कैरेक्टर ठीक नहीं होगा वगैरह-वगैरह।
क्या यह एंकर न्यूज़ नहीं देखता? इसे देखना चाहिए अपने आस-पास कि कैसे डरे हुए मर्द पत्नियों का गला घोट कर मार रहे हैं अपनी ही बच्चियों के सामने, बाप-भाई के साथ मिलकर छत से नीचे पटक के मार रहे हैं पत्नी को, बलात्कार तो रुकने का नाम ही नहीं लेते, इतने डरे हुए मर्द रोज़ औरतों के इनबॉक्स में कूद रहे हैं यह सोचकर कि शायद फँस जाए!
बदला कुछ नहीं है। क्राइम अगेंस्ट वुमन अब भी वैसे ही बदस्तूर पितृसत्ता के हवाले है। इसके जवाब में आप क्राइम अगेंस्ट मैन जैसा फ्रेज बना नहीं सकते क्योंकि वहाँ औरतें नहीं मर्द ही दोषी मिलेंगे। हत्या, चोरी, डकैती, लड़ाई, झगड़ा, युद्ध, षड्यंत्र सबमें मर्द मर्दों को मार रहे हैं।
पुरुष को पुरुष होने के लिए स्त्रियां मार रही हैं ऐसा कोई साक्ष्य इतिहास में नहीं। एक समाज जिसमें पुरुष का जन्म एक उत्सव हो स्त्री के लिए, गर्व का विषय हो, वहाँ मर्दों के खिलाफ जेंडर्ड क्राइम नहीं होता बल्कि वहाँ मर्द पॉवर के लिए मर्दों से संघर्ष करता है और उसी में सबसे ज़्यादा हताहत होता है। स्त्री का जन्म अब भी लानत है, अपने आस पास के शिक्षित परिवारों को मत देखिए सिर्फ। उन पाँच बहनों को भी देखिए जिनका जन्म एक लडक़े की आस में हुआ है।
एकाध सोनम के आ जाने से सूरज पश्चिम से नहीं उगने लगेगा यह उन्हें भी पता है जो कह रहे हैं मर्द डरे हुए हैं! मर्द बस शॉक में हैं क्योंकि क्राइम औरत पर सूट नहीं करता, क्योंकि उन्हें लगता था औरतें पीटी जाती हैं, जलाई जाती हैं, भोगी जाती हैं, इस्तेमाल की जाती हैं, मवेशी की तरह पाली जाती हैं, बेची-खऱीदी जाती हैं, अगवा की जाती हैं, दास बनाई जाती हैं और औरतों पर आँसू, मजबूरी, त्याग, बलिदान, असहायता सूट करती है। वह रोती, बिलखती, दया की भीख मांगती ही अच्छी लगती है।
स्त्री अधिकारों की किसी जंग में एक क़तरा ख़ून नहीं बहा है।
उन्हें मर्दों के बहकावे में आकर अपना जीवन नहीं खऱाब करना चाहिए।
मैं भी कहती हूँ, औरतों पर क्राइम सूट नहीं करता!
-रमेश अनुपम
बस्तर से मेरे रिश्ते को अर्धशती होने जा रहा है। वर्ष 1980 से मेरा बस्तर से प्रगाढ़ रिश्ता रहा है। वर्ष 1980 से लेकर वर्ष 1992 तक मैं बस्तर के बैलाडीला ,दंतेवाड़ा ,जगदलपुर और कांकेर जैसी जगहों पर डाक विभाग और बाद में शासकीय महाविद्यालयों में पदस्थ रहा ।
कामरेड लक्ष्मण झाड़ी , कामरेड रामनाथ सर्फे, पत्रकार मित्र किरीट दोषी, भरत अग्रवाल ,धनुज साहू से मित्रता के चलते मुझे बस्तर के दुर्गम इलाकों में घूमने फिरने और भटकने का अनेक बार अवसर मिला । संभवत: इन्हीं सब आत्मीय मित्रों के कारण मैं बस्तर को थोड़ा बहुत जान पाया।
याद करता हूं मैने अबूझमाड़ की पहली दुर्गम यात्रा वर्ष 1983 में की थी , जब अबूझमाड़ में प्रवेश करने से पूर्व गृह मंत्रालय मध्य प्रदेश से अनुमति लेने की जरूरत पड़ती थी ।
लेकिन हम लोगों ने इस तरह की कोई अनुमति नहीं ली थी और एक जोखिम भरी यात्रा को अंजाम दिया था। हमें मालूम था कि मध्य प्रदेश सरकार हमें अबूझमाड़ जाने की अनुमति कभी देगी ही नहीं ।
’देशबंधु’ के बस्तर ब्यूरो भरत अग्रवाल तब तक मेरे मित्र और उससे बढक़र मेरे अग्रज हो चुके थे । एक दिन वे कांकेर आए तब तक मैं शासकीय महाविद्यालय कांकेर में सहायक प्राध्यापक के पद पर आ चुका था उन्होंने मेरे सामने अबूझमाड़ चलने का प्रस्ताव रखा । तब तक मैं नारायणपुर भी नहीं देख पाया था । मुझे भरत भाई का यह प्रस्ताव अच्छा लगा। हम दोनों बिना देर किए बस में बैठकर नारायणपुर की ओर रवाना हो गए । रात हम दोनों ने नारायणपुर के सरकारी डाक बंगला में गुजारी ।
दूसरे दिन भरत अग्रवाल के साथ हम पी .डब्लू. डी. विभाग की शासकीय जीप में जो भरत अग्रवाल ने अपने नारायणपुर में पदस्थ पी डब्ल्यू डी के एस डी ओ मित्र कुमरावत से नारायणपुर में जुगाड़ कर ली थी , हम जैसे _तैसे अबूझमाड़ की ओर रवाना हुए । हमें अबूझमाड़ के विकास खंड या कहें प्रवेश द्वार ओरछा पहुंचना था।
नारायणपुर के ओरछा के रास्ते में मैंने पहली बार बस्तर की शानदार बीयर कही जाने वाली सल्फी पी थी और उसके अपूर्व स्वाद को मैं जान पाया था । सल्फी , लांदा और महुआ से बनने वाली शराब बस्तर के आदिवासियों की जीवन संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है।
सल्फी से पहले 1980 के दिनों में बचेली के मेरे मित्र पत्रकार धनुज साहू के साथ कभी बैलाडीला के किसी दुर्गम गांवों में तो कभी बचेली में ही लक्ष्मी के देशी दारू के अड्डे पर बस्तर के महुआ का स्वाद मैं चख ही चुका था ।
धनुज साहू के साथ बैलाडीला के आदिवासी गांवों में न जाने मेरी कितनी रातें पिकी लोगों के साथ अलाव के सामने महुआ पीते हुए बीती थी। तब मैं फ़ख्त अठ्ठाईस वर्ष का एक नवयुवक था, जो माना कैंप के समुद्र से भटकते हुए न जाने कैसे बैलाडीला के बंदरगाह पहुंच गया था।
फिलहाल मैं अपने पत्रकार मित्र भरत अग्रवाल के साथ अबूझमाड़ के प्रवेश द्वार ओरछा की दुर्गम यात्रा पर था । जीप अपनी गति से आगे बढ़ रही थी, दूर दूर तक किसी भी तरहके वाहन को देखने के लिए तरस गए थे । कुछ आदिवासी पैदल चलते हुए जरूर दिख जाते थे ।
ओरछा अभी दूर था । रास्ते भर सागौन और तरह _ तरह के वृक्ष जैसे अपने बाहे पसार कर हमारा स्वागत कर रहें थे । मन रोमांचित हो रहा था एक दुर्गम अंचल को देखने के लिए, जो अबूझ है और माड़ भी। अबूझ को भला कौन बूझ सकता है मैं तो केवल अबूझ से इस माड़ से मिलने चला आया था ।
शाम होने में अभी काफी देर थी ।
एक जगह एक छोटा सा जलाशय देख जीप रुकवा देते हैं । वहां तीन चार आदिवासी नवयुवतियां नहा रहीं थीं । यह जीप के रुक जाने पर ही हम देख पाए थे। हमें जीप से उतरते देख कर वे वहां से भागने लगी थीं। वे कमर के नीचे एक छोटा सा वस्त्र भर लपेटी हुई थी। यह दृश्य मेरे लिए बहुत भयानक और हृदय विदारक था । शायद हमारे जैसे शहरी लोगों को देख कर भागना उनका सही फैसला था ।
जीप पर सवार जंगल विभाग के अफसरान , ठेकेदार के चरित्र से वे पहले से ही भली भांति वाकिफ थीं कि किस तरह ये सभ्य कहे जाने वाले शहरी बाबू आदमी के भेष में छिपे हुए भेडि़ए से कम नहीं होते हैं ।
हम शाम होने के पहले ही ओरछा पहुंच गए थे। तब तक ओरछा एकदम छोटा सा गांव भर था । भरत अग्रवाल नारायणपुर मेंं हीं पता कर चुके थे कि ओरछा में दो कमरों का एक नया रेस्ट हाउस बन गया है। हम सीधे रेस्ट हाउस पहुंचते हैं। रेस्ट हाउस एकदम नया है । दरवाजे खिड़कियां नए हैं , दीवारों में पेंट होना अभी बाकी है।
हम शायद इस रेस्ट हाउस में रुकने वाले पहले लोग थे । पता नहीं तब तक न जाने कैसे बी डी ओ साहब को हमारे आने की खबर मिल चुकी थी । वे अपनी मोटरसाइकिल में रेस्ट हाउस पहुंच गए थे। भरत अग्रवाल ने उन्हें अपना परिचय दिया । उन्हें बताया कि हम दो दिनों तक यहां रुककर विभिन्न गांवों का सर्वे कर यहां हुए विकास कार्यों को देखेंगे ।
बी डी ओ साहब हमें रेस्ट हाउस के ठीक सामने एक छोटे से और ओरछा के एक मात्र होटल में ले जाकर चाय पिलाते हैं। होटल में बाहर कडक़नाथ मुर्गा बंधा हुआ है । बी डी ओ साहब होटल वाले से रात के भोजन में कडक़नाथ बनवाने के लिए कहते हैं । तब तक मैं कडक़नाथ के लोभ में गिरफ्त हो चुका था । बी डी ओ के इस अनोखे प्रस्ताव से मैं मन ही मन खुश भी हो रहा था यह जानते हुए भी कि भरत भाई विशुद्ध शाकाहारी प्राणी हैं।
लेकिन भरत अग्रवाल तो एक अलग ही तरह के खाटी इंसान है । वे होटल वाले से कहते हैं कि रात के खाने में खाली दाल और चावल बनाना यह भी कि खाने का पेमेंट हम करेंगे । यह सुनकर बी डी ओ साहब के चेहरे पर मायूसी तैर आई थी । भरत भाई उन्हें जल्दी विदा कर देते हैं।
शाम ढल चुकी है। अंधेरा गहराने लगा है । भरत भाई किसी का इंतजार कर रहे हैं । थोड़ी देर में एक स्थानीय आदिवासी नवयुवक उसेंडी रेस्ट हाउस में भरत अग्रवाल से मिलने आ पहुंचा है । भरत अग्रवाल ने ही अपने संपर्क सूत्रों से उसे ढूंढकर बुलवाया है।
भरत भाई उसआदिवासी नवयुवक उसेंडी से मेरा परिचय करवाते हैं कि ये दो दिनों तक हमारे साथ रहेंगे और दुभाषिया का काम करेंगे , ये आसपास के गांवों से भी अच्छी तरह से परिचित हैं इसलिए इनका साथ रहना हमारे लिए अच्छा रहेगा। तय होता है कि कल तीन सायकिल का इंतजाम किया जाएगा और अबूझमाड़ की यात्रा पर हम सुबह _सुबह निकल पड़ेंगे ।
अभी उस टपरे नुमा होटल में खाना बनने में देर है ,अभी अंधेरा पूरी तरह से घिरा नहीं है । सात भी नहीं बजे होंगे ।
बी डी ओ साहब अपनी मोटर साइकिल में फिर आ गए हैं और आसपास के गांवों में जाने से हमें मना कर रहें हैं। वे हमें सचेत करते हुए कहते हैं कि साइकिल से भी आस पास के गांवों में पहुंचना दुरूह और एक तरह से जोखिम भरा काम है ,रास्ते में नदी _नाले हैं, उसे पार करना मुश्किल है । भरत अग्रवाल कहते हैं कि कल की कल देखेंगे । वे किसी तरह बी डी ओ साहब को फिर विदा करते हैं ।
हमारा दुभाषिया उसेंडी एक तेज मुरिया नवयुवक है। उसकी आंखों में चीते जैसी चमक है । थोड़ा पढ़ा लिखा होने के कारण वह हिंदी समझता और बोल लेता है । अभी खाना बनने में देर है और ठीक सामने ही होटल है ,सो इत्मीनान है कि किसी तरह की कोई हड़बड़ी की जरूरत नहीं है ।
हम उस दुभाषिए नवयुवक उसेंडी के साथ गपशप में लग जाते हैं।
उसके परिवार के बारे में पूछते हैं । वह कुछ देर के लिए जैसे किसी और दुनिया में खो जाता है , फिर हम दोनों के चेहरे पर गहरी दृष्टि डालते हुए कुछ देर के लिए चुप हो जाता है । शायद वह तय नहीं कर पा रहा है कि वह क्या कहे । थोड़ी देर बाद उसके गले से बमुश्किल आवाज निकलती है।
वह बताना शुरू करता है। अभी दो _ तीन महीने पहले उसकी छोटी बहन ने आत्म हत्या कर ली है । वह बताता है कि मेरी छोटी बहन इस वर्ष आठवीं कक्षा पास करके नवमी में पहुंची थी। वह पूरे अबूझमाड़ में पहली लडक़ी थी जो नवमी कक्षा तक पहुंच सकी थी। उसका गला रूंध आया है आवाज में एक अजीब सी बेबसी उभर आई है।