विचार/लेख
-उमंग पोद्दार
सांसदों और विधायकों की तरह सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की संपत्ति की घोषणा सार्वजनिक करने की मांग लंबे समय से की जा रही थी। अब इस दिशा में सुप्रीम कोर्ट ने अहम कदम उठाया है।
दिल्ली हाईकोर्ट के जज यशवंत वर्मा के घर में आग लगने और वहां कथित तौर पर भारी मात्रा में नक़दी मिलने की घटना के बाद सुप्रीम कोर्ट ने यह फ़ैसला लिया। 14 मार्च को यह घटना हुई थी। इसके बाद पारदर्शिता को लेकर जूडिशियरी पर देशभर में बहस शुरू हो गई थी।
इसके कुछ दिन बाद, 1 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट की फुल कोर्ट मीटिंग में यह तय किया गया कि सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों को अपनी संपत्ति की जानकारी भारत के चीफ़ जस्टिस को देनी होगी और यह जानकारी कोर्ट की वेबसाइट पर सार्वजनिक रूप से पब्लिश भी की जाएगी।
अब तक जज अपनी संपत्ति की जानकारी सिफऱ् चीफ़ जस्टिस को सौंपते थे, लेकिन उसे वेबसाइट पर डालना ज़रूरी नहीं था। हाई कोर्ट में भी यही प्रक्रिया अपनाई जाती है यानी जज अपनी संपत्ति की जानकारी हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस को देते हैं, लेकिन वेबसाइट पर इसे तभी पब्लिश किया जाता है जब जज ख़़ुद इसकी अनुमति दें।
5 मई की रात को सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर कोर्ट के 33 में से 21 जजों की संपत्ति की घोषणा सार्वजनिक कर दी गई।
कोर्ट की ओर से बताया गया कि बाकी जजों की जानकारी प्रक्रिया में है और वह भी वेबसाइट पर अपलोड की जाएगी।
घोषित संपत्ति ब्योरे में ज़मीन, निवेश, चल संपत्ति, कज़ऱ् और जज के जीवनसाथी और बच्चों की संपत्ति की जानकारी शामिल है।
कई सालों से लगातार होती आई है ये मांग
सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की संपत्ति को सार्वजनिक करने की मांग कोई नई नहीं है। 1997 में सुप्रीम कोर्ट की एक फुल कोर्ट मीटिंग में तय किया गया था कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों को हर साल अपनी संपत्ति की जानकारी चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया को देनी होगी। हालांकि, ये भी तय किया गया था कि इस जानकारी को गोपनीय रखा जाएगा।
बाद में, 2009 की एक और फुल कोर्ट मीटिंग में फैसला हुआ कि जज अगर चाहें तो अपनी संपत्ति की घोषणा सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर कर सकते हैं। लेकिन यह पूरी तरह उनकी सहमति पर निर्भर होगा। हाल ही में आई संसद की स्थायी समिति (133वीं रिपोर्ट) ने बताया कि अब तक केवल 55 सुप्रीम कोर्ट जजों ने अपनी संपत्ति की घोषणा ख़ुद सार्वजनिक की है। आखऱिी बार यह घोषणा मार्च 2018 में हुई थी।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया था, ‘अगर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा करें तो इससे न्यायपालिका की विश्वसनीयता बढ़ेगी।’
इस साल 1 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट की हुई फुल कोर्ट मीटिंग में जो निर्णय लिया गया, उसका आधिकारिक रेज़ोल्यूशन अब तक कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड नहीं किया गया है। इसलिए ये साफ़ नहीं है कि हाई कोर्ट के जजों पर भी यह नियम अनिवार्य होगा या नहीं।
हालांकि, परंपरा यही रही है कि हाई कोर्ट आमतौर पर वही दिशा अपनाते हैं जो सुप्रीम कोर्ट लेता है। इसलिए उम्मीद की जा रही है कि अब हाई कोर्ट के जज भी सार्वजनिक घोषणा की तरफ़ बढ़ेंगे। 2023 में द इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट से पता चला था कि उस वक़्त देशभर में कुल 749 हाई कोर्ट जजों में से सिफऱ् 98 ने ही अपनी संपत्ति की जानकारी सार्वजनिक की थी।
धूम्रपान करने वालों के लिए वेपिंग और ई-सिगरेट को लंबे समय से सुरक्षित विकल्प माना जाता रहा है, लेकिन सवाल यह है कि क्या इनके इस्तेमाल से फेफड़े खराब नहीं होते हैं?
डॉयचे वैले पर एमी स्टॉकडेल का लिखा-
संयुक्त राज्य अमेरिका में एक 17 वर्षीय लडक़ी पिछले तीन साल से चोरी-छिपे वेपिंग कर रही थी। हाल ही में पता चला है कि उसे ‘पॉपकॉर्न लंग' नामक बीमारी हो गई है। ब्रोंकियोलाइटिस ओब्लिटरन्स के रूप में जानी जाने वाली यह लाइलाज स्थिति फेफड़ों में छोटी वायु थैलियों (ब्रोंकिओल्स) पर निशान छोड़ देती है, जिससे व्यक्ति की सांस लेने की क्षमता कम हो जाती है।
हालांकि यह मामला दुर्लभ है, लेकिन यह बड़ी समस्या की ओर इशारा कर सकता है। 2019 में, ई-सिगरेट या वेपिंग उत्पादों के इस्तेमाल की वजह से फेफड़ों में नुकसान (इसे ईवीएएलआई भी कहा जाता है) के लगभग 3,000 मामले यूएस सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल को रिपोर्ट किए गए थे। इस वजह से 68 लोगों की मौत हो गई, जिनमें ज्यादातर किशोर और युवा थे।
आयरलैंड के आरसीएसआई यूनिवर्सिटी ऑफ मेडिसिन एंड हेल्थ साइंसेज में रसायन विज्ञान के प्रोफेसर डोनल ओ'शे ने कहा, ‘कभी-कभी कुछ सबसे गंभीर मामले सुर्खियों में आ जाते हैं, लेकिन इन सबके पीछे छिपी हुई बात यह है कि वेपिंग करने वालों के फेफड़ों को धीरे-धीरे और लंबे समय तक नुकसान हो रहा है।’
हालांकि, वेपिंग को कभी-कभी सामान्य सिगरेट की तुलना में एक सुरक्षित विकल्प बताया जाता है, लेकिन वैज्ञानिक इस बात से परेशान हैं कि फेफड़ों की सेहत पर इसका लंबे समय में क्या असर होगा, इसके बारे में हमें बहुत कम जानकारी है।
वेप करने पर क्या होता है?
जब आप वेप से हवा अंदर खींचते हैं, तो बैटरी एक धातु की तार को गरम करती है और इससे अंदर मौजूद लिक्विड गर्म होता है। इससे भाप जैसा बनता है जिसे फेफड़ों में लिया जाता है।
वेप के लिक्विड में निकोटीन साल्ट और खुशबू (फ्लेवर) के साथ कई तरह के केमिकल मिले होते हैं। जब ये सब एक साथ मिलते हैं तो हजारों अलग-अलग तरह के केमिकल बन सकते हैं।
कोई नहीं जानता कि जब ये गरम केमिकल सांस के साथ फेफड़ों में जाते हैं तो क्या होता है। डोनल ने कहा, ‘जिस चीज को कभी टेस्ट नहीं किया गया है वह यह है कि इन केमिकल को एक मशीन में डालकर गरम करके सांस के साथ अंदर लेने पर क्या होगा। आप कोई भी केमिकल या चीज अपने शरीर में कैसे डालते हैं, इससे यह तय होता है कि वह कितना जहरीला हो सकता है।’
उन्होंने आगे कहा, ‘यह रसायन सबसे पहले किसके संपर्क में आएगा? यह संवेदनशील फेफड़े के नाजुक टिश्यू के संपर्क में आएगा जो खराब होने के बाद ठीक नहीं होते। इसी वजह से कई सालों में फेफड़ों के टिश्यू पर जो लम्बे समय तक निशान पड़ते रहेंगे या नुकसान होता रहेगा, आखिर में वो पॉपकॉर्न लंग बन जाएगा।’
क्या स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है वेपिंग?
शोधकर्ता अभी भी यह पता लगा रहे हैं कि वेपिंग का इंसानी शरीर पर क्या असर होता है, लेकिन कुछ चिंताजनक नतीजे सामने आ रहे हैं। अध्ययनों से यह भी पता चलता है कि वेपिंग से फेफड़ों में सूजन होती है। उपयोगकर्ताओं को खांसी, गले में जलन और सांस लेने में तकलीफ की शिकायत होती है।
डोनल ने कहा, ‘ऐतिहासिक रूप से, यह साबित करने में कई दशक लग गए कि तंबाकू वाले उत्पादों का धूम्रपान करने से बीमारियां होती हैं। इन उत्पादों को बेचने वाली कंपनियां इस बात से इनकार करती हैं कि इनसे कोई नुकसान होता है। दुर्भाग्य से, ऐसा लगता है कि हम वेपिंग के मामले में इतिहास को खुद को दोहराने दे रहे हैं।
वैज्ञानिक और डॉक्टर इस बात को लेकर परेशान हैं कि वेपिंग से लंबे समय में सेहत पर क्या असर होगा, इसके बारे में बहुत कम जानकारी है। सामान्य सिगरेट पर तो दशकों तक अध्ययन किया गया और यह पता चला कि इसके इस्तेमाल से कैंसर जैसी बीमारी हो सकती है। वहीं, वेप तो पिछले दशक में ही लोकप्रिय हुआ है। इसका मतलब है कि इससे लंबे समय में क्या असर होता है उसके बारे में ज्यादा अध्ययन नहीं हुआ है।
किशोरों में वेपिंग के खतरे
किशोरों में वेपिंग से जुड़े जोखिम भी अलग हो सकते हैं। डोनल ने बताया, ‘किशोरों में फेफड़े, हृदय और मस्तिष्क के टिश्यू अभी विकसित हो रहे होते हैं। इसलिए, ये जल्दी क्षतिग्रस्त हो सकते हैं। इस तरह वे इन विषाक्त पदार्थों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं जिन्हें वे सांस के जरिए अपने शरीर में ले रहे होते हैं।’
ज्यादातर वेप में निकोटीन मौजूद होता है और उसकी लत लगने की काफी ज्यादा संभावना होती है। कई किशोर बताते हैं कि पिछली बार वेप करने के कुछ घंटों बाद ही उन्हें घबराहट या गुस्सा आने लगता है।
स्वास्थ्यकर्मी इस बात को लेकर चिंतित हैं कि वेप्स से आसानी से निकोटीन की लत लग सकती है। डोनल कहते हैं, ‘दरअसल, हमें यह देखने को मिल रहा है कि युवा लोग बहुत जल्दी इसके आदी हो रहे हैं।’
अमेरिका में ईवीएएलआई के 3,000 मामलों में, मौत का मुख्य कारण विटामिन ई एसीटेट माना जाता है, जो चीजों को गाढ़ा करने वाला तत्व है। 2019 में, शोधकर्ताओं ने पाया कि जब इसे गर्म किया जाता है, तो यह केटीन नामक एक बहुत जहरीली गैस बनाता है जिसे सांस के जरिए अंदर लिया जा सकता है।
डॉनल्ड ट्रंप के टैरिफों के चलते कई देशों में आर्थिक उठापटक चल रही है. लेकिन भारत के लिए इस आर्थिक संकट में फायदा भी हो सकता है.
डॉयचे वैले पर साहिबा खान का लिखा-
ब्रिटेन और भारत ने 6 मई को लंबे समय से टलते आ रहे फ्री ट्रेड समझौते को आखिरकार अंजाम दे ही दिया। खास बात यह है कि यह तब हुआ जब अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप द्वारा टैरिफ उथल-पुथल के बाद दोनों पक्षों को व्हिस्की, कारों और खाद्य पदार्थों में अपने व्यापार को बढ़ाने के प्रयासों में तेजी लाने के लिए मजबूर होना पड़ा।
दुनिया की पांचवीं (भारत) और छठी (ब्रिटेन) सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच यह समझौता तीन साल की धचके भरी बातचीत के बाद संपन्न हुआ है। इसका लक्ष्य 2040 तक द्विपक्षीय व्यापार को 25।5 अरब पाउंड यानी 43 अरब डॉलर तक बढ़ाना है।
लेकिन इस फ्री ट्रेड समझौते को देखते हुए कई जानकारों का मानना है कि शायद चीन और बाकी देशों पर लगे ट्रंप के प्रतिबंध भारत के लिए एक चुनौती से ज्यादा, मौके के रूप में नजर आ रहे हैं।
भारत और ब्रिटेन के फ्री ट्रेड समझौते में क्या है खास?
2020 में ब्रिटेन के यूरोपीय संघ छोडऩे के बाद यह उसकी किसी देश के साथ अब तक की सबसे बड़ी डील मानी जा रही है। यह भारत द्वारा ऑटोमोबाइल समेत अपने लंबे समय से संरक्षित बाजारों को खोलने का प्रतीक भी है। यह दिखाता है कि एक दक्षिण एशियाई देश होकर भी भारत अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसी प्रमुख पश्चिमी शक्तियों से निपटने का बूता रखता है।
भारत के व्यापार मंत्रालय ने कहा कि इस सौदे के तहत 99 फीसदी भारतीय निर्यात को शून्य शुल्क यानी जीरो ड्यूटी से लाभ होगा, जिसमें कपड़ा भी शामिल है, जबकि ब्रिटेन को 90 फीसदी टैरिफ लाइनों में छूट मिलेगी।
ट्रंप के प्रतिबंध ले आए साथ
ट्रंप के प्रतिबंधों ने दुनिया भर के देशों को नए व्यापार साझेदारों की तलाश करने पर मजबूर कर दिया है। समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार, यूके-भारत वार्ता से परिचित लोगों ने कहा कि इस आर्थिक उथल-पुथल ने इस सौदे पर फोकस और बढ़ा दिया। यह समझौता कुछ चीजों, जैसे व्हिस्की, पर टैक्स कम करेगा, जिससे वे सस्ती हो जाएंगी। इससे ब्रिटेन की कंपनियों को भारत में ठेके लेने का मौका मिलेगा, और भारतीय कामगारों को ब्रिटेन में काम करना आसान होगा। दोनों ही देशों को इस समझौते से फायदा है।
ब्रिटेन के उद्योग संगठन सीबीआई ने कहा कि यह समझौता ‘दुनिया में बढ़ते व्यापारिक प्रतिबंधों के बीच एक उम्मीद की किरण' जैसा है। व्हिस्की पर टैक्स (शुल्क) जो पहले 150 फीसदी था, वह अब आधा होकर 75 फीसदी हो जाएगा और 10 साल में धीरे-धीरे घटकर 40 फीसदी रह जाएगा।
कारों पर टैक्स जो अभी 100 फीसदी से ज्यादा है, वह भी कोटा सिस्टम के तहत घटाकर 10 फीसदी कर दिया जाएगा। स्कॉच व्हिस्की संघ ने कहा कि यह समझौता उनके उद्योग के लिए ‘बदलाव' लाएगा। ब्रिटेन की ऑटो इंडस्ट्री संस्था एसएमएमटी ने भी इस समझौते को लेकर खुशी जताई है।
दो अर्थव्यवस्थाओं की लड़ाई का फायदा
बचपन में हम सभी ने दो बिल्लियों की कहानी सुनी होगी, जिनकी लड़ाई में बंदर रोटी लेकर भाग जाता है। कुछ ऐसा ही हाल इस समय दुनिया की तीन बड़ी अर्थव्यवस्थाओं – अमेरिका, चीन और भारत – का है। डॉनल्ड ट्रंप के टैरिफों ने भले ही चीन समेत कई देशों की नाक में दम कर दिया हो लेकिन इसमें भारत के लिए फायदा भी छुपा है। ट्रंप ने भारत पर भी 27 फीसदी का टैरिफ लगाया था लेकिन चीन और वियतनाम जैसे बड़े प्रतिद्वंदियों की स्थिति की तुलना में भारत की स्थिति बेहतर है।
न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए एक इंटरव्यू में बीजेपी नेता और सांसद प्रवीण खंडेलवाल ने कहा कि भारत के ट्रेड और व्यापार उद्योग के लिए इस समय बहुत बड़ा मौका हाथ लगा है।
भारत के लिए व्यापार में ‘खुद की सुरक्षा पहले’ आई काम
भारत दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी और एक विकासशील अर्थव्यवस्था है। लेकिन हमेशा से ही भारत वैश्विक व्यापार को लेकर सतर्क रहा है। भारत सभी देशों के उत्पादों के लिए अपने दरवाजे बहुत आराम से खोलने में हिचकिचाता आया है। इस कारण उसे कई बार वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पीछे ही रहना पड़ा। इसे कहते हैं ‘प्रोटेक्शनिज्म’ की नीति, यानी खुद को बाहरी प्रभावों से बचाकर रखना। डॉनल्ड ट्रंप ने भी भारत को प्रतिबंधों के राजा का दर्जा दिया था, जिसके बाद भारत ने अमेरिका के लिए अपनी प्रतिबंधों की दीवार कमोबेश गिरा ही दी थी।
प्रोटेक्शनिज्म की नीती के तहत भारत के टैरिफ ऊंचे हैं और इस वजह से वैश्विक निर्यात में इसकी हिस्सेदारी दो फीसदी से भी कम है। अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि भारत के विशाल घरेलू बाजार ने इसके विकास को बढ़ावा दिया है। इस वजह से भारत कई अन्य देशों से आगे निकला है। यह इसलिए भी है क्योंकि बाकी दुनिया में मंदी है। लेकिन ऐसे हालातों में, जहां वैश्विक व्यापार प्रतिबंधों की बड़ी चुनौती से गुजर रहा है, ऐसे में भारत की आत्मनिर्भरता की प्रवृत्ति एक अलग ढंग से उसका बचाव कर रही यही।
जहां कई देश अमेरिका के कभी भी लग जाने और हट जाने वाले प्रतिबंधों से निपट रहे हैं, वहीं भारत की आयत पर निर्भरता कम होने की वजह से उस पर बाकी देशों की तुलना में कम असर पड़ रहा है। बाकी देशों के विपरीत भारत ने अपने संरक्षण (खासकर कृषि और वाहन) के चलते बाहर से आई चीजें भारत में लाने से बचता रहा। इससे नुकसान यह हुआ था कि अब भारत के घरेलू निर्माताओं को बाहर की अच्छी क्वालिटी वाली चीजों से तुलना नहीं करनी पड़ती थी और इस कारण घरेलु उत्पादन की गुणवत्ता पर फर्क पड़ता था। लेकिन फिलहाल ऐसे माहौल में यह फैसला, थोड़े समय के लिए ही सही लेकिन, फायदेमंद साबित हो रहा है।
अगर निर्यात-संचालित अर्थव्यवस्थाएं टैरिफ दबाव के कारण धीमी पड़ जाती हैं, और भारत छह फीसदी की दर से वृद्धि जारी रखता है, तो तुलनात्मक रूप से वह ज्यादा मजबूत होगा – खासकर तब जब भारत अहम रूप से घरेलू बाजार पर अपना बोझ डाल सकता है।
-रजनीश कुमार
पाकिस्तान ने भारत से 1965 और 1971 की जंग तब लड़ी थी, जब शीत युद्ध का ज़माना था।
शीत युद्ध में पाकिस्तान अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी गठबंधन का हिस्सा था। शीत युद्ध के दौरान ही 1979 में अफग़़ानिस्तान पर सोवियत संघ ने हमला किया था।
सोवियत संघ अफग़़ानिस्तान में कम्युनिस्ट सरकार चाहता था और इस्लामी कट्टरपंथियों को सत्ता से दूर रखना चाहता था। दूसरी तरफ़ अमेरिका का अभियान था कि जिन देशों में कम्युनिस्ट सरकारें हैं, उन्हें कमज़ोर किया जाए।
अमेरिका अफग़़ानिस्तान में सोवियत संघ को हराने के लिए पाकिस्तान की मदद ले रहा था। इसके बदले में पाकिस्तान को अमेरिका से आर्थिक और सैन्य मदद मिलती रही।
अमेरिका की पाकिस्तान से कऱीबी उसकी रणनीतिक ज़रूरत के लिए थी और यह ज़रूरत अंतहीन नहीं थी।
अफग़़ानिस्तान में पाकिस्तान और अमेरिका ने जिन कट्टरपंथियों को आगे बढ़ाया, वही उनके लिए चुनौती बन गए और ये चुनौती आज तक कायम है।
1962 में चीन ने भारत पर हमला किया था। चीनी हमले के कऱीब तीन साल बाद पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया लेकिन उसका आकलन ग़लत साबित हुआ।
पाकिस्तान का आंकलन ग़लत साबित हुआ
तब पाकिस्तान को लगा था कि चीन से जंग के कारण भारत का मनोबल बहुत गिरा हुआ है, ऐसे में उसे हराया जा सकता है। लेकिन पाकिस्तान अपना मक़सद हासिल नहीं कर सका। 1965 की जंग में अमेरिका ने पाकिस्तान को कोई सैन्य मदद नहीं दी थी लेकिन भारत के प्रति उसका कोई समर्थन नहीं था।
1971 की जंग में अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद की थी। यहाँ तक कि अमेरिकी यु्द्धपोत यूएसएस एंटरप्राइज़ वियतनाम से बंगाल की खाड़ी में पहुँच गया था। कहा जाता है कि अमेरिका ने ऐसा सोवियत यूनियन को संदेश देने के लिए किया था कि अमेरिका पाकिस्तान को ज़रूरत पडऩे पर मदद कर सकता है।
हालांकि अमेरिका ने सीधे हस्तक्षेप के लिए कोई आदेश नहीं दिया था लेकिन डिप्लोमैटिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर पाकिस्तान के साथ था।
1971 के अगस्त महीने में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 'इंडिया-सोवियत ट्रीटी ऑफ़ पीस, फ्ऱेंडशिप एंड कोऑपरेशन' पर हस्ताक्षर किए थे। इस समझौते के तहत सोवियत यूनियन ने भारत को आश्वस्त किया कि युद्ध की स्थिति में वो राजनयिक और हथियार दोनों से समर्थन देगा।
1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच 13 दिनों का युद्ध हुआ था। यह युद्ध पूर्वी पाकिस्तान में उपजे मानवीय संकट के कारण हुआ था। इस युद्ध के बाद ही पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बना था। यानी पाकिस्तान को भारत दो टुकड़ों में बाँटने में कामयाब रहा था।
पाकिस्तान पश्चिम का सहयोगी था, तब भी भारत के ख़िलाफ़ हर युद्ध में उसे हार मिली। पाकिस्तान को भारत के ख़िलाफ़ न केवल पश्चिम का समर्थन हासिल था बल्कि खाड़ी के इस्लामी देश भी उसके साथ थे। शीत युद्ध ख़त्म होने के कऱीब नौ साल बाद 1999 में पाकिस्तान ने एक बार फिर करगिल में हमला किया और इस बार भी उसे अपने क़दम पीछे खींचने पड़े थे।
भारत दुनिया की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था
इन तीन युद्धों के बाद से दुनिया पूरी तरह बदल चुकी है। सोवियत संघ कई हिस्सों में बँट गया और अब रूस बचा है। लेकिन दुनिया दो ध्रुवीय से एक ध्रुवीय हुई और अब चीन दूसरे ध्रुव की मज़बूत दावेदारी कर रहा है।
दूसरी तरफ़ भारत भी दुनिया की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। बदलती दुनिया में भारत का भी अपना एक स्थान है लेकिन पाकिस्तान अब भी आर्थिक मोर्चों पर सऊदी अरब, चीन और वैश्विक संस्थाओं पर निर्भर है।
अमेरिका को अब अफग़़ानिस्तान में किसकी सरकार है इससे ख़ास मतलब नहीं है। ऐसे में उसे पाकिस्तान की भी पहले जैसी ज़रूरत नहीं है।
दो देशों के संबंध कितने गहरे और पारस्परिक हैं, अब इस बात पर भी निर्भर करता है कि दोनों एक दूसरे की अर्थव्यवस्था में कितना योगदान कर रहे हैं। दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं - अमेरिका और चीन से भारत का द्विपक्षीय व्यापार 100 अरब डॉलर के पार है जबकि खाड़ी के अहम देश यूएई से भी भारत का द्विपक्षीय व्यापार 100 अरब डॉलर पार हो चुका है। वहीं सऊदी अरब से भी भारत का सालाना द्विपक्षीय व्यापार कऱीब 50 अरब डॉलर पहुँच चुका है।
फऱवरी 2022 में यूक्रेन और रूस की जंग शुरू होने के बाद रूस से भी भारत का द्विपक्षीय व्यापार बढक़र 65 अरब डॉलर पार कर चुका है। भारत के तीन सबसे बड़े ट्रेड पार्टनर और सऊदी अरब या तो पाकिस्तान के दोस्त हैं या दोस्त थे। लेकिन पाकिस्तान के साथ इन देशों का द्विपक्षीय कारोबार कोई ख़ास नहीं है।
किसके साथ है तुर्की?
कोई भी देश नहीं चाहेगा कि पाकिस्तान के लिए भारत जैसे बड़े बाज़ार की उपेक्षा की जाए। जब सऊदी अरब ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म करने पर भारत का विरोध नहीं किया तो पाकिस्तान के विश्लेषकों का यही कहना था कि भारत के साथ उसके कारोबारी हित जुड़े हैं।
यहाँ तक कि हिन्दुत्व की छवि वाले पीएम मोदी को सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान बड़े भाई कहते हैं।
शीत युद्ध के बाद बदली दुनिया में भारत की प्रासंगिकता बढ़ी है जबकि पाकिस्तान अपनी पुरानी अहमियत बचाने में भी नाकाम रहा है।
ट्रंप इसी साल जनवरी में दूसरी बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने तो लेन-देन के संबंधों को और बढ़ावा मिला। यानी आप अमेरिका से कितना खऱीदते हैं और कितना बेचते हैं, ये ज़्यादा मायने रखता है न कि शीत युद्ध में कौन साथ था और कौन खिलाफ।
ट्रंप यहां तक चाहते हैं कि रूस से भी संबंध अच्छे हों। लेकिन पाकिस्तान अभी जिस आर्थिक कमज़ोरी से जूझ रहा है, उसमें न खऱीदने की बहुत गुंजाइश है और न ही बेचने की।
भारत और पाकिस्तान दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं और बढ़ते तनाव को देखते हुए वैश्विक स्तर पर दोनों देशों से शांति वार्ता की अपील की जा रही है। दुनिया भर के देशों की इन अपीलों से एक समझ बन रही है कि किसकी सहानुभूति पाकिस्तान के साथ है और किसकी भारत के साथ जबकि कौन पूरी तरह से तटस्थ है।
गुरुवार रात तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने एक्स पर एक पोस्ट में कहा, ''भारत और पाकिस्तान में बढ़ते तनाव को लेकर हम चिंतित हैं। ये तनाव युद्ध में बदल सकता है। मिसाइल हमलों के कारण बड़ी संख्या में आम नागरिकों की जान जा रही है। पाकिस्तान और यहां के लोग हमारे भाई की तरह हैं और उनके लिए हम अल्लाह से दुआ करते हैं।''
भारत के दौरे पर सऊदी और ईरान के मंत्री
अर्दोआन ने कहा, ‘पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ से फोन पर मेरी बात हुई है। मेरा मानना है कि जम्मू-कश्मीर में हुए भयावह आतंकवादी हमले की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जांच होनी चाहिए। कुछ लोग आग में घी डालने का काम कर रहे हैं लेकिन तुर्की तनाव कम करने और संवाद शुरू करने का पक्षधर है। हालात हाथ से निकल जाने से पहले हम चाहते हैं कि दोनों देशों में संवाद शुरू हो।’ अर्दोआन ने जो कहा है, वह पाकिस्तान की लाइन का समर्थन है।
पाकिस्तान भी मांग कर रहा है कि पहलगाम हमले की जांच अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कराई जाए। इसके अलावा अर्दोआन ने केवल पाकिस्तान में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि दी है और वहां के लोगों को भाई समान बताया है।
अर्दोआन के पास जब से तुर्की की कमान आई है, तब से पाकिस्तान के साथ सैन्य स्तर पर संबंध बढ़े हैं और भारत के साथ दूरियां बढ़ी हैं।
तुर्की और पाकिस्तान दोनों सुन्नी मुस्लिम बहुल देश हैं और दोनों इस्लामी देशों में एकता की बात करते रहे हैं। इसके बावजूद भारत और तुर्की में सालाना द्विपक्षीय व्यापार 10 अरब डॉलर पार कर चुका है जबकि पाकिस्तान से किसी तरह एक अरब डॉलर ही पार हुआ है।
दूसरी तरफ़ सऊदी अरब के विदेश राज्य मंत्री अदेल अल-जुबैर गुरुवार को अचानक भारत पहुँचे थे। अदेल अल-जुबैर का यह अघोषित दौरा था। गुरुवार को जुबैर ने भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मुलाक़ात की। कहा जा रहा है कि इसके बाद अदेल पाकिस्तान जाएंगे।
ईरान के विदेश मंत्री सैयद अब्बास अराग़ची भी भारत आए थे। ईरानी विदेश मंत्री इससे पहले पाकिस्तान गए थे। अराग़ची का दौरा पहले से ही तय था।
अदेल अल-जुबैर का अचानक भारत आना और पीएम मोदी तक से मिलना असामान्य माना जा रहा है। पीएम मोदी जब सऊदी अरब के दौरे पर थे, तभी पहलगाम में 22 अप्रैल को हमला हुआ था और 26 पर्यटक मारे गए थे। इस हमले के बाद पीएम मोदी ने बीच में ही दौरा छोड़ दिया था।
-नितिन श्रीवास्तव
भारत और पाकिस्तान के बीच जारी मौजूदा तनाव के दौरान भारत की पारंपरिक विदेश नीति और रणनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिला है.
22 अप्रैल को पहलगाम हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव लगातार बना हुआ है. इस हमले में 26 लोगों की मौत हो गई थी, जिनमें 25 पर्यटक थे.
भारत ने इस हमले के जवाब में 6 और 7 मई की दरमियानी रात को पाकिस्तान और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में हवाई हमले किए. भारत ने यह दावा किया कि यह हमला पाकिस्तान और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में मौजूद आतंकवादी ठिकानों पर किया गया. भारत के हमले के बाद दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ा और सीमा पर गोलीबारी भी हुई. यह तनाव लगातार बढ़ता दिख रहा है.
भारत ने जिस तरीके से इस बार हमला किया, उससे भारत की पारंपरिक रणनीति में बदलाव देखने को मिला है. और इसकी काफ़ी चर्चा है. विशेषज्ञ कह रहे हैं कि इस बार 'भारत ने अमेरिका और इसराइल वाली रणनीति अपनाई' है.
क्या भारत की रणनीति बदल गई है?
भारत ने आमतौर पर पुराने दौर में चरमपंथी हमलों के बाद कूटनीतिक स्तर पर कार्रवाई करने की कोशिश की है. 26 नवंबर 2008 को मुंबई हमलों का आरोप भी भारत ने लश्कर-ए-तैयबा पर लगाया था. इस मामले में भारत ने कई सबूत भी पेश किए थे.
भारी हथियारों से लैस दस चरमपंथियों ने मुंबई की कई जगहों और प्रतिष्ठित इमारतों पर हमला कर दिया था, जो चार दिन तक चला. मुंबई हमलों में 160 से अधिक लोग मारे गए थे.
हाल ही में मुंबई पर हुए 26/11 हमलों के अभियुक्त तहव्वुर राना का अमेरिका से भारत प्रत्यर्पण किया गया है.
लेकिन, अब ऐसे हमलों के बाद क्या भारत की रणनीति बदल गई है?
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर हैपीमोन जैकब कहते हैं, "मुझे लगता है कि ये जो 'ऑपरेशन सिंदूर' है, जिसके ज़रिए भारत ने पाकिस्तान पर जवाबी कार्रवाई की है, वो एक नई नीति अपनाने को दिखाता है.
"साल 2001 में जब संसद भवन पर हमला हुआ था, उसके बाद 26 नवंबर 2008 में मुंबई में हमला किया गया था तो भारत सरकार ने इसके बदले कुछ ख़ास कदम नहीं उठाए थे."
उनका कहना है, "ये डर हमेशा था कि पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार हैं. अगर हम उन पर पारंपरिक तरीके से सेना के ज़रिए हमला करेंगे, तो वो परमाणु हथियार का इस्तेमाल कर सकते हैं. ये डर भारत सरकार के मन में था, और भारतीय रणनीतिक विचारकों की भी यही सोच थी."
लेकिन साल 2016 में उरी में अपने 19 सैनिकों के मारे जाने के बाद भारत ने नियंत्रण रेखा के पार चरमपंथियों के शिविरों पर 'सर्जिकल स्ट्राइक' की थी.
साल 2019 में पुलवामा में विस्फोट हुआ जिसमें भारतीय अर्द्धसैनिक बलों के 40 जवान मारे गए थे. इसके बाद भारत ने बालाकोट में अंदर तक एयर स्ट्राइक की थी.
हैपीमोन जैकब कहते हैं, "अभी कुछ दिन पहले जो हमला किया गया है, मेरा मानना है कि इन तीनों हमले में एक नई नीति अपनाई जा रही है, जिसके तहत जब भी पाकिस्तान भारत के ऊपर सब-कंवेशनल तरीके से यानी आतंकी हमला करेगा, तब भारत इसके जवाब में पारंपरिक तरीके से यानी सेना का इस्तेमाल करके स्ट्राइक करेगा."
उनका मानना है, "इसका महत्वपूर्ण निष्कर्ष ये है कि पाकिस्तान को ये पता चलेगा कि जब भी उनकी तरफ़ से कोई टेररिस्ट ऑर्गेनाइजेशन भारत पर हमला करेगा तो भारत उसका जवाब ज़रूर देगा."
'भारत की नीति अमेरिका-इसराइल वाली'
हाल के समय में भारत ने जो हमले किए हैं उसके बाद सबूत पेश कर बताया कि भारत में क्या हुआ, जिसके बदले में भारत ने हमला किया है.
भारत ने किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर किसी चरमपंथी हमले के ख़िलाफ़ गुहार नहीं लगाई, जो पहले सामान्य तौर पर हुआ करता था.
ये भारत की विदेश नीति में कितना बड़ा मूलभूत बदलाव है, जो कह रही है कि, ''वी विल स्ट्राइक एट विल''. क्या यह मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने से कहीं आगे की रणनीति है?
प्रोफ़ेसर हैपीमोन जैकब कहते हैं, "अमेरिका में जब कोई हमला होता है तो अमेरिका किसी वैश्विक मंच में नहीं जाता है. इसराइल की भी यही नीति है, वो भी किसी मंच में नहीं जाकर बताता है कि हमारे यहां हमला हुआ है, क्या करें?"
"भारत ने भी यही रणनीति अपनाई है और यह संदेश दिया है कि हमारे लोग मारे गए हैं, तो हम कार्रवाई करेंगे. ये बात ज़रूर है कि ये बात अंतरराष्ट्रीय मंच में जाएगी तो वहां भी भारत के पक्ष में समर्थन दिख रहा है."
हैपीमोन जैकब कहते हैं, "मेरा ये मानना है कि अभी हम सबूत के तौर पर ये कहने वाले हैं कि पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन 'टीआरएफ़ द रेज़िस्टेंस फ्रंट' ने इसकी ज़िम्मेदारी ले ली है. जिसका संबंध लश्कर-ए-तैयबा के साथ है, और लश्कर-ए-तैयबा का हेडक्वॉर्टर है मुरीदके में, तो ये सबूत काफ़ी है."
हैपीमोन जैकब कहते हैं, "पाकिस्तान ने इस पर काफ़ी साल से कोई कार्रवाई नहीं की है और पाकिस्तान ने इस आतंकी संगठन को कई साल से ज़िंदा रखा है. यही सबूत है दुनिया के सामने, और भारत कहेगा कि इसी आधार पर इस आतंकी संगठन को डैमेज़ करने की योजना बनाई है, यही है 'ऑपरेशन सिंदूर'."
"जहां तक साइकोलॉजिकल इंप्लिकेशन का सवाल है तो उसको मैं एक अलग तरीके से देखना चाहूंगा. जब साल 2001 या 2008 में हमला हुआ था, तब अमेरिका एक ताक़तवर देश था. वो आज भी ताक़तवर है, पर उस समय अमेरिका वर्ल्ड पॉलिसमैन की तरह बर्ताव करता था. लेकिन आज अमेरिका की वैश्विक मुद्दों में इतनी दिलचस्पी नहीं है और भारत पहले की तुलना में बहुत ताक़तवर हो चुका है."
प्रोफ़ेसर हैपीमोन जैकब कहते हैं, "पड़ोसी देश या अंतरराष्ट्रीय संगठन क्या कहेंगे, भारत समझता है कि उस पर इतना ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है. अगर हमें पता है कि हमारे ख़िलाफ़ टेरर अटैक हुआ है और ये पता है कि यह किसने किया है तो हम कार्रवाई करेंगे."
भारत के 'ऑपरेशन सिंदूर' पर दुनिया के कई देशों ने चिंता जताई है, लेकिन ज़्यादातर देशों ने खुलकर इसका विरोध भी नहीं किया है.
स्वीडन के थिंक टैंक स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिपरी) की साल 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के पास 172 जबकि पाकिस्तान के पास 170 परमाणु वॉरहेड हैं.
हालांकि ये स्पष्ट नहीं है कि दोनों देशों के पास कितने परमाणु वॉरहेड तैनात हैं.
ऐसा माना जाता रहा है कि परमाणु शक्ति होने की वजह से इनमें से एक देश दूसरे देश पर कभी हमला नहीं करेगा, लेकिन हालिया संघर्ष के बाद क्या ऐसा कहा जा सकता है कि यह मान्यता बदल गई है?
प्रोफ़ेसर हैपीमोन जैकब कहते हैं, "सैद्धांतिक तौर पर कहें तो परमाणु हथियार आपको हमले से बचाते हैं, लेकिन ये न तो आतंकवादी हमलों को रोकते हैं और न ही पारंपरिक हमलों को. इसलिए ये कहना उचित होगा कि परमाणु शक्ति संपन्न होना सिर्फ़ एक सीमित स्तर तक सुरक्षा देता है."
उनका कहना है, "अब पाकिस्तान की एयरफ़ोर्स को लेकर भी चिंता है कि वो काफ़ी सक्षम है. लेकिन मेरा मानना है कि अगर पाकिस्तान की पारंपरिक ताक़त अच्छी है, तो वो परमाणु हथियार की तरफ नहीं जाएगा. और अगर कन्वेंशनल वॉर हुआ, तो सेना और अर्थव्यवस्था दोनों के मामले में भारत कहीं ज़्यादा ताक़तवर है."
प्रोफ़ेसर हैपीमोन जैकब मानते हैं कि वैश्विक स्तर पर भारत के पास अच्छे दोस्त हैं, जो पाकिस्तान के पास नहीं हैं. ऐसे में पारंपरिक युद्ध में भारत जीत सकता है और भारत का ये आकलन है कि परमाणु हथियार को इस समीकरण से बाहर रखें.
चिली के वर्षावनों में करीब 5,400 साल पुराना एक पेड़ है. हजारों साल से अपनी जगह पर डटे इस पेड़ की जान पर बन आई है. एक हाई-वे परियोजना उसके लिए खतरा बन गई है. क्या इस पेड़ और उसके जंगल को बचाने की कोशिश सफल होगी?
डॉयचे वैले पर सेरदार वारदार का लिखा-
कई साम्राज्यों का उदय हुआ और फिर वो मिट भी गए। कई भाषाएं पैदा हुईं और भुला दी गईं, लेकिन ‘ग्रान अबुएलो’ समय की कसौटी पर खरा उतरा है। अनुमानित तौर पर करीब 5,400 साल पुराने इस पेड़ ने न जाने कितनी सभ्यताओं को बनते और मिटते देखा है और आज भी अपनी जगह पर खड़ा है। स्पेनिश भाषा में 'ग्रान अबुएलो' का मतलब परदादा भी होता है और यह पेड़ अपने इस नाम को भी चरितार्थ करता है।
फ्रांस में काम करने वाले चिली के प्रसिद्ध वैज्ञानिक जोनातन बैरिकविक उसी नमी वाले जंगल में बड़े हुए हैं, जो अब एलेर्से कोस्तेरो नेशनल पार्क में संरक्षित है। उनके दादा अनीवल यहां पार्क रेंजर थे। उन्होंने ही साल 1972 में 'ग्रान अबुएलो' को खोजा था। जोनातन बताते हैं कि उस पल ने उनके परिवार के इतिहास और पेड़ के भविष्य को बदल दिया।
पुराने दिनों को याद करते हुए जोनातन ने बताया, ‘मैंने अपने दादा के साथ इस जंगल में पहला कदम रखा था। उन्होंने मुझे पढ़ाई शुरू करने से पहले ही पौधों के नाम सिखा दिए थे। मेरे बचपन की यादें मेरे वैज्ञानिक जुनून को और ज्यादा बढ़ाती हैं।’
अब जोनातन अपनी मां और शोधकर्ताओं की एक टीम के साथ मिलकर 'ग्रान अबुएलो' और अन्य पेड़ों से जुड़े रहस्यों को उजागर कर रहे हैं। वे ऐसी जानकारियां दे रहे हैं, जो जलवायु परिवर्तन को समझने और उससे लडऩे के हमारे तरीके को बदल सकती है।
इस जंगल के पेड़ जलवायु के तौर-तरीके भी बताते हैं
इस जंगल में पाए जाने वाले अलेर्से के पेड़, जिन्हें पेटागोनियन साइप्रस या फिट्जरोया क्यूप्रेसोइड्स के नाम से भी जाना जाता है, दूसरे पेड़ों की तुलना में सिर्फ पुराने नहीं हैं। यह प्रजाति दुनिया के सबसे ज्यादा जलवायु-संवेदनशील पेड़ों में से एक है। इसके तने के अंदर मौजूद हर छल्ला एक साल के मौसम का रिकॉर्ड है। इन छल्लों का अध्ययन करके शोधकर्ता हजारों साल पहले के मौसम के चक्र को फिर से बना सकते हैं। यह ऐसा डेटा है, जो इस क्षेत्र की किसी अन्य प्रजाति में नहीं मिलता।
चिली की वैज्ञानिक रोसीयो उरुतिया दशकों से इन पेड़ों का अध्ययन करती आई हैं। वह बताती हैं, ‘वे इनसाइक्लोपीडिया की तरह हैं।’ रोसीयो के शोध की मदद से 5,680 साल पुराने तापमान के आंकड़ों को दोबारा तैयार करने में मदद मिली है।
पेड़ की उम्र जानने के लिए, वैज्ञानिक अक्सर तने के एक हिस्से को निकालते हैं। इसके लिए 'इंक्रीमेंट बोरर' नामक उपकरण का इस्तेमाल किया जाता है। फिर कई वर्षों में बनने वाले छल्लों की संख्या गिनी जाती है।
कई पुराने पेड़ों ने अपने तने का मूल हिस्सा बहुत पहले खो दिया है। इसलिए वैज्ञानिकों को पेड़ की उम्र का अनुमान लगाने के लिए दिखाई देने वाले छल्लों के साथ-साथ सांख्यिकीय मॉडल पर भी निर्भर रहना पड़ता है, जो छल्लों की कुल संख्या का अनुमान लगाते हैं।
वैज्ञानिक यह भी मापते हैं कि जंगल कितना कार्बन सोखता है और कितना उत्सर्जित करता है। पेड़ जितना बड़ा होगा, प्रत्येक पेड़ के छल्ले के बीच की जगह उतनी ही मोटी होगी। ज्यादा बढऩे का मतलब है, ज्यादा कार्बन सोखना। यह मापना बहुत जरूरी है, ताकि पता चले कि धरती के गर्म होने पर जंगल में क्या बदलाव आता है।
जोनातन ने बताया, ‘जंगल हमारे कार्बन उत्सर्जन का लगभग एक तिहाई हिस्सा सोख लेते हैं।’ हालांकि, इस बीच बड़ा सवाल यह है कि क्या ऐसा तब भी होगा जब धरती गर्म होती रहेगी? अलग-अलग मौसम में पेड़ कैसे बढ़ते हैं, यह समझने से हमें जानकारी मिलती कि वे कितना कार्बन सोखते हैं। इससे यह पता चल सकता है कि क्या भविष्य में और ज्यादा गर्मी होने पर भी जंगल ग्लोबल वार्मिंग को धीमा करना जारी रख सकते हैं।
वर्षावन को खतरे में डाल रही है एक नई सडक़
अब इन सदियों पुराने पेड़ों पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। इसकी वजह यह है कि चिली सरकार ने नया राजमार्ग बनाने के लिए, पुरानी सडक़ को फिर से खोलने का प्रस्ताव दिया है। यह सडक़ संरक्षित राष्ट्रीय उद्यान के बीच से गुजरेगी। पुरानी सडक़ का इस्तेमाल लकड़ी काटकर ले जाने के लिए किया जाता था।
अधिकारियों ने तर्क दिया कि इस सडक़ से शहरों के बीच यातायात व्यवस्था बेहतर होगी और क्षेत्र में पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा। हालांकि, कुछ लोगों का कहना है कि यह सिर्फ दिखावा है। जोनातन ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘असली वजह संपर्क नहीं है। पास में एक और सडक़ पहले से मौजूद है। यह प्रस्तावित नई सडक़ सीधे कोरल के बंदरगाह से जुड़ेगी, जिसका इस्तेमाल लैटिन अमेरिका के सबसे बड़े पल्प निर्यातकों में से एक करता है।’
कई स्थानीय लोगों का कहना है कि असली मकसद लकड़ी तक पहुंच बनाना लगता है। अलेर्से के पेड़ अपनी मजबूत, अच्छी गुणवत्ता और सीधे बढऩे वाली लकड़ी के कारण बहुत कीमती होते हैं। रोसीयो उरुतिया समेत कई शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि सडक़ बनने से जंगल में आग लगने का खतरा बढ़ जाएगा। उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में 90 फीसदी से अधिक आग सडक़ों के पास लगती है।
ऐसा दुनियाभर में हो रहा है। अमेजन जंगलों में धधकने वाली करीब 75 फीसदी आग सडक़ से पांच किलोमीटर के दायरे में शुरू होती है। वहीं, अमेरिका में 95 फीसदी आग सडक़ से 800 मीटर के भीतर शुरू होती है। उरुतिया बताती हैं, ‘अलेर्से एक लुप्तप्राय प्रजाति है। हर पेड़ मायने रखता है। एक बड़ी आग आखिरी पेड़ तक को जला सकती है।’
-सौत्विक बिस्वास
भारत ने कहा है कि उसने पाकिस्तान और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में 9 जगहों पर मिसाइल और हवाई हमले किए हैं। भारत ने कहा कि ‘विश्वसनीय इंटेलीजेंस’ के आधार पर चरमपंथी ठिकानों को निशाना बनाया गया है।
मंगलवार आधी रात के बाद भारतीय समयानुसार 1.05 बजे से 01.30 बजे के बीच हुए हमले ने इस पूरे इलाक़े में दहशत पैदा कर दी और स्थानीय निवासी ज़बदरस्त धमाकों की आवाज़ से जगे।
पाकिस्तान का कहना है कि छह जगहों को निशाना बनाया गया और दावा किया कि उसने भारत के पांच लड़ाकू विमानों और एक ड्रोन को मार गिराया है। लेकिन भारत ने इसकी पुष्टि नहीं की है।
पाकिस्तान ने कहा है कि भारतीय हवाई हमले और एलओसी पर गोलाबारी में 31 लोग मारे गए जबकि 46 लोग घायल हुए हैं।
इस बीच भारतीय सेना ने कहा है कि एलओसी पर पाकिस्तान की ओर से हुई गोलाबारी में 15 नागरिक मारे गए।
पिछले महीने जम्मू कश्मीर के पहलगाम में पर्यटकों पर हुए घातक चरमपंथी हमले के बाद यह ताज़ा तनाव पैदा हुआ है और इसकी वजह से परमाणु हथियार संपन्न प्रतिद्वंद्वियों के बीच तनाव और बढ़ गया है।
भारत ने कहा है कि उसके पास पहलगाम हमले में पाकिस्तान के ‘आतंकवादियों’ और बाहरी कारकों के जुड़े होने के स्पष्ट सबूत हैं, जबकि पाकिस्तान ने इससे साफ़ इनकार किया है।
पाकिस्तान ने ये भी कहा है कि भारत ने अपने दावों के पक्ष में कोई सबूत नहीं दिए हैं।
1. क्या यह हमला संघर्ष भडक़ने का संकेत है?
साल 2016 में उरी में 19 भारतीय सैनिकों के मारे जाने के बाद भारत ने एलओसी के पार ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की थी।
2019 पुलवामा धमाके में भारत के अर्द्धसैनिक बलों के 40 जवान मारे गए थे, इसके बाद भारत ने 1971 के बाद पहली बार पाकिस्तान के अंदर बालाकोट के पास हवाई हमला किया था। इस दौरान जवाबी हमले हुए और हवा में लड़ाकू विमानों के बीच तीख़ी झड़प देखने को मिली थी।
विशेषज्ञों का कहना है कि पहलगाम हमले का बदला लेने के लिए की गई कार्रवाई का दायरा काफ़ी व्यापक है, जिसमें एक साथ पाकिस्तान के तीन प्रमुख चरमपंथी समूहों के ठिकानों को निशाना बनाया गया है।
भारत का कहना है कि उसने पाकिस्तान और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में नौ 'आतंकी ठिकानों' पर हमला किया, जिसमें लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी), जैश-ए-मोहम्मद और हिज़्बुल मुजाहिदीन के प्रमुख ठिकानों पर गहरी चोट की गई।
भारतीय प्रवक्ता के अनुसार, सबसे कऱीबी लक्ष्यों में सियालकोट में दो कैंप थे, जो सीमा से सिफऱ् 6-18 किलोमीटर दूर हैं।
भारत का कहना है कि हवाई हमले का सबसे दूरस्थ लक्ष्य, पाकिस्तान के 100 किलोमीटर अंदर बहावलपुर में जैश-ए-मोहम्मद का हेडक्वार्टर था।
प्रवक्ता के अनुसार, एलओसी से 30 किलोमीटर दूर और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर की राजधानी मुजफ़्फ़ऱाबाद में लश्कर के कैंप का संबंध भारत प्रशासित कश्मीर में हाल ही में हुए हमलों से है।
पाकिस्तान का कहना है कि उसके इलाक़े में छह जगहों को निशाना बनाया गया लेकिन अपने यइतिहासकार श्रीनाथ राघवन ने बीबीसी को बताया, ‘इस बार जो बात चौंकाने वाली है वो यह कि, भारत ने अतीत में किए गए हमलों के पैटर्न का दायरा बढ़ाया है। इससे पहले, बालाकोट जैसे हमलों में एलओसी के पार पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर पर ध्यान केंद्रित किया गया था, जहां सेना की भारी तैनाती है।’
वो कहते हैं, ‘इस बार भारत ने अंतरराष्ट्रीय सीमा के पार पाकिस्तान के पंजाब में घुसकर लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े आतंकी ढांचे, हेडक्वार्टर और बहावलपुर और मुरीदके में ज्ञात ठिकानों को निशाना बनाया है। उन्होंने जैश-ए-मोहम्मद और हिज़्बुल मुजाहिदीन के ठिकानों पर भी हमला किया है। यह एक व्यापक, भौगोलिक रूप से अधिक विस्तृत प्रतिक्रिया का संकेत है, जो बताता है कि कई समूह अब भारत के निशाने पर हैं और एक व्यापक संदेश देता है।’
भारत-पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय सीमा दोनों देशों को विभाजित करने वाली आधिकारिक रूप से मान्य सीमा है जो गुजरात से लेकर जम्मू तक फैली है।
पाकिस्तान में भारत के हाई कमिश्नर रह चुके अजय बिसारिया ने बीबीसी को बताया, ‘भारत ने जो किया वह ‘बालाकोट प्लस’ प्रतिक्रिया थी, जिसका मक़सद ज्ञात आतंकवादी केंद्रों को निशाना बनाकर प्रतिरोध स्थापित करना था, लेकिन इसके साथ ही तनाव कम करने का एक मजबूत संदेश भी था।’
बिसारिया कहते हैं, ‘ये हमले अधिक सटीक, निशाने पर और अतीत के मुक़ाबले अधिक प्रत्यक्ष थे। इसलिए पाकिस्तान की ओर से इंकार करने की संभावना बहुत कम थी।’
भारतीय सूत्रों का कहना है कि इन हमलों का मक़सद ‘प्रतिरोध को फिर से स्थापित करना’ था।
प्रोफ़ेसर राघवन कहते हैं, ‘भारत सरकार को लगता है कि 2019 में स्थापित की गई प्रतिरोधक क्षमता कमजोर पड़ गई है और इसे फिर से स्थापित करने की जरूरत है।’
उनके अनुसार, ‘इसमें इसराइल के उस सिद्धांत की झलक है कि प्रतिरोधी क्षमता के लिए समय-समय पर बार-बार हमले की ज़रूरत होती है लेकिन हम ये मान लेते हैं कि सिफऱ् हमला ही आतंकवाद को पीछे धकेल देगा, तो हम पाकिस्तान को भी जवाबी हमला करने को प्रोत्साहित करने का जोखिम उठाते हैं और यह जल्द ही हाथ से निकल सकता है।’
भारत के ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर मीडिया को जानकारी देने वाली दो महिला अधिकारी कौन हैं?
2.क्या यह व्यापक संघर्ष में बदल सकता है?
अधिकांश विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान की ओर से जवाबी कार्रवाई अपरिहार्य है और तब कूटनीति की ज़रूरत पड़ेगी।
बिसारिया कहते हैं, ‘पाकिस्तान की ओर से जवाब आना निश्चित है। चुनौती अगले स्तर के संघर्ष को संभालने की होगी। यहीं पर क्राइसिस डिप्लोमेसी मायने रखेगी।’
उनके अनुसार, ‘पाकिस्तान को संयम बरतने की सलाह मिल रही होगी। लेकिन पाकिस्तान की प्रतिक्रिया के बाद मुख्य बात कूटनीति होगी ताकि सुनिश्चित किया जा सके कि दोनों के बीच संघर्ष और तेज़ी से न बढ़े।’
लाहौर के राजनीतिक और सैन्य विश्लेषक एजाज़ हुसैन जैसे पाकिस्तान के एक्सपर्ट्स का कहना है कि भारत के सर्जिकल स्ट्राइक में मुरीदके और बहावलपुर जैसी जगहों को निशाना बनाने की 'आशंका तनावपूर्ण हालात की वजह से पहले से थी। डॉ. हुसैन का मानना है कि जवाबी हमला होने की संभावना है।
उन्होंने बीबीसी से कहा, ‘पाकिस्तानी सेना की मीडिया में बयानबाजी और बदला लेने के लिए घोषित संकल्प को देखते हुए आने वाले दिनों में जवाबी कार्रवाई, संभवत: सीमा पार सर्जिकल स्ट्राइक के रूप में, मुमकिन लगती है।’
लेकिन डॉ. हुसैन की चिंता है कि दोनों तरफ़ से सर्जिकल स्ट्राइक ‘एक सीमित कन्वेंशनल युद्ध’ में बदल सकती है।
अमेरिका में अल्बानी विश्वविद्यालय के क्रिस्टोफऱ क्लैरी का मानना है कि भारत के हमलों की व्यापकता, 'प्रमुख जगहों पर प्रत्यक्ष क्षति' और हताहतों की संख्या को देखते हुए पाकिस्तान की ओर से जवाबी कार्रवाई की पूरी आशंका है।
दक्षिण एशिया मामले के अध्ययन केंद्र से जुड़े क्रिस्टोफर क्लैरी ने बीबीसी से कहा, ‘ऐसा न करने से भारत को अपनी मजऱ्ी से पाकिस्तान पर हमला करने की छूट मिल जाएगी और यह पाकिस्तानी सेना की ‘बदले में जवाबी कार्रवाई' करने की प्रतिबद्धता से उलट होगा।’
उन्होंने कहा, ‘आतंकवाद और उग्रवाद से जुड़े समूहों और ठिकानों के भारत द्वारा बताए गए टारगेट को देखते हुए, मुझे लगता है कि यह संभव है कि पाकिस्तान खुद को भारतीय सैन्य ठिकानों पर हमलों तक ही सीमित रखेगा।’
बढ़ते तनाव के बावजूद, कुछ विशेषज्ञ अभी भी तनाव कम होने की उम्मीद जता रहे हैं।
क्लैरी कहते हैं, ‘इसकी भी ठीक ठाक संभावना है कि हम इस संकट से उबर जाएं और सिफऱ् एक-एक बार जवाबी हमले हों और कुछ समय के लिए एलओसी पर भारी गोलाबारी हो।’
हालांकि, संघर्ष के और बढऩे का जोखिम अभी भी बना हुआ है। इस वजह से यह 2002 के भारत-पाकिस्तान संकट के बाद 'सबसे ख़तरनाक' हालात हैं। ये 2016 और 2019 के गतिरोधों से भी अधिक ख़तरनाक है।
- पुष्य मित्र
युद्ध शुरू हो चुका है और हम सब इस युद्ध के बीच में हैं। युद्ध मुझे पसंद नहीं आते। क्योंकि यह न्याय का सही तरीका नहीं है। क्योंकि इसमें इस बात की बड़ी संभावना रहती है कि कई निर्दोष लोग इसके शिकार बन जाएं। न्याय का तकाजा यही है कि जो लोग दोषी हैं, उन्हें ही सजा मिले। यही आदर्श स्थिति है।
मगर कई बार युद्ध जरूरी भी हो जातें है। अगर दोषी पक्ष अपना दोष स्वीकार न करे। बार-बार हिंसा, घुसपैठ और आतंक का सहारा ले और आपसे नैतिक व्यवहार की अपेक्षा करने लगे।
इसमें किसी को कोई शुब्हा नहीं होना चाहिए कि पाकिस्तान अपनी कमजोर सामरिक शक्ति और भारत के साथ बार-बार युद्ध में पराजित होने की वजह से आतंकवाद और घुसपैठ का सहारा भारत को दिक्कत में डालने के लिए लेता रहा है।
कई जानकार कहते हैं कि 1971 में बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में पाकिस्तान की पराजय और उसका दो हिस्से में बंट जाना वहां के लोगों, सरकार और सेना के दिल में नासूर की तरह चुभा हुआ है। इसलिए वह आतंक के जरिये भारत को परेशान रखने की निरंतर कोशिश करता है।
मगर मैं इस तथ्य से बहुत सहमत नहीं। पाकिस्तान ने आजादी के ठीक बाद से ही युद्ध के इस गैरपारंपरिक तरीके का, आतंक और घुसपैठ का सहारा लेना शुरू कर दिया था। कश्मीर में कबायली घुसपैठ कराकर उस प्रांत को अपने कब्जे में लेने की कोशिश की थी। यह वहां की सेना का मूल स्वभाव है। उसकी बुनियादी सोच में शामिल है। उस वक्त भारतीय सेना ने वहां जाकर इन्हें कश्मीर से खदेड़ा था। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि कश्मीर भारत में इन्हीं परिस्थितियों के बीच शामिल हुआ। उसका कुछ हिस्सा जो पाकिस्तान के कब्जे में रह गया जिसे हम पीओके या पाकिस्तान ऑक्यूपाइड कश्मीर भी कहते हैं।
मैं गांधी जी के जीवन की घटनाएं पढ़ता रहता हूं। उनके जीवनकाल में कई युद्ध हुए। मगर आजाद भारत ने उनके जीवन में इकलौती सैन्य कार्रवाई कश्मीर में ही की थी।
जब यह कार्रवाई हो रही थी, तो लोग इसके विषय में गांधी जी के विचार जानकर हैरत में पड़ गये। 29 अक्टूबर, 1947 को शाम की प्रार्थना में उन्होंने कहा, ‘मैं यह माने बगैर नहीं रह सकता कि पाकिस्तान की सरकार ही इस घुसपैठ को प्रोत्साहन दे रही है। कहा जाता है कि सीमा प्रांत के मुख्यमंत्री ने इस आक्रमण को खुला बढ़ावा दिया है और इस्लामी दुनिया से सहायता की अपील भी की है। अत: भारत सरकार को जल्द से जल्द श्रीनगर सेना भेजकर उस सुंदर नगर को बचाना चाहिए।’
इसके बाद कहा जाने लगा कि अहिंसक गांधी को युद्ध के खिलाफ रहते थे, फिर उन्होंने इस सैन्य कार्रवाई का समर्थन कैसे किया। इस पर उन्होंने कहा, ‘अगर दो पक्ष जो हिंसा में विश्वास रखते हो और युद्धरत हो तो मेरा कर्तव्य उस पक्ष को समर्थन देना है, जो पीडि़त है। वैसे भी भारत सरकार का सेना में विश्वास है और अगर मैं भारत सरकार का समर्थन कर रहा हूं, तो यह मानकर चलता हूं कि सरकार आत्मरक्षा और पीडि़तों के पक्ष में सेना का इस्तेमाल करेगी। इससे मेरा अहिंसा धर्म भंग नहीं होता।’ गांधी ज्यादातर विवादित मामलों में मेरे लिए रोशनी का काम करते हैं।
इसके बावजूद मेरा मानना है कि युद्ध न होता तो अच्छा होता। काश पाकिस्तान यह समझ पाता कि आतंकवाद का रास्ता सही नहीं है। अगर वह जैसा कहता है कि इसमें उसका हाथ नहीं है, तो उसे खुद आगे बढक़र अपने देश में पल रहे आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए थी। तब ज्यादा बेहतर स्थिति होती। काश दुनिया में ऐसा कोई मजबूत संगठन होता जो ईमानदार तरीके से इस मसले का हल निकालता। फिर युद्ध की नौबत नहीं आती।
मगर जिस तरह कश्मीर में आम पर्यटकों की दहला देने वाली हत्या हुई, उसके बाद तो भारत सरकार की जिम्मेदारी थी कि वह अपने नागरिकों को न्याय दिलाये, दोषियों पर कार्रवाई करे। मगर दोषी पाकिस्तान में हैं। किसी स्वतंत्र देश की सीमा का अतिक्रमण करना कभी उचित नहीं कहा जा सकता। मगर फिर यह सवाल उठता है कि भारत सरकार के पास रास्ते क्या बचे हैं।
बलखाती हुई नदियां, चहचहाती हुई चिड़ियां, पत्तों की सरसराहट और बस यही बल्कि सिर्फ यही. स्लो टीवी हाल के समय में तेजी से लोकप्रिय हो रहा है. लेकिन उसमें इतना खास क्या है?
क्या आप हौले हौले तैरती जेलीफिश को देखना पसंद करते हैं? या ऊंचे पेड़ों पर अंडों को सेकते सारसों को? या फिर हिरणों को हरियाली की ओर दौड़ते हुए? बहुत से लोग अब ऐसे दृश्य लाइव देखना पसंद कर रहे हैं। जो ‘स्लो टीवी’ ने नाम से लोकप्रिय हो रहा है।
‘स्लो टीवी’ शब्द का मतलब है बिना किसी इंसानी टिप्पणी के लंबे कार्यक्रम का सीधा और वास्तविक प्रसारण। इसकी शुरुआत 2009 में हुई थी, जब नॉर्वे ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन (एनआरके) ने सात घंटे की ट्रेन यात्रा को बिना कांट-झांट किए पूरा प्रसारित किया था।
वह लंबी और शांत ट्रेन यात्रा लोगों को इतनी पसंद आई कि इसके बाद ऐसे कार्यक्रमों की एक नई लहर शुरू हो गई। लोगों ने नाव यात्राओं, रातभर बुनाई के कार्यक्रमों और पक्षियों को दाना चुगते, लाइव देखना शुरू कर दिया। यही से ‘स्लो टीवी’ की शुरुआत हुई, जो धीरे-धीरे कई देशों में लोकप्रिय हुआ।
दस साल बाद, स्वीडन के टीवी चैनल एसवीटी ने ‘ग्रेट एल्क ट्रेक’ के नाम से एक नया प्रयोग शुरू किया। इसका लाइवस्ट्रीम लगातार तीन हफ्तों तक चला। इसमें उत्तर स्वीडन के जंगलों में 32 कैमरे लगाए गए, जो जंगल के शांत और सुंदर नजारे लगातार दिखाते थे। इस दौरान कुछ हिरण भी कभी-कभार नदी पार करते हुए दिख जाते थे। लगभग 10 लाख लोगों ने इस लाइव स्ट्रीम को देखा। जिसमें स्वीडन के वन्य जीवन की प्राकृतिक आवाजें और दृश्य देखने को मिले। पिछले साल, यह लाइवस्ट्रीम और भी लोकप्रिय हो गई। जब इसे 90 लाख से भी ज्यादा लोगों ने देखा।
‘ग्रेट एल्क ट्रेक’ के प्रोजेक्ट मैनेजर योहान एरहाग मानते हैं कि इस शो की सफलता का राज है इसकी धीमी और शांत प्रकृति है, जो आज की तेज खबरों, लगातार बदलते हुए सोशल मीडिया और टीवी कार्यक्रमों से बिलकुल अलग है। उनका कहना है, ‘यहां शांति होती है और समय के साथ-साथ रोमांच भी आता है। इसमें आपको सोचने और आराम करने का पूरा समय मिलता है।’
ऐसा केवल इस लाइव स्ट्रीम के साथ ही नहीं है। बल्कि अमेरिका के कैलिफोर्निया में स्थित सैन डिएगो चिडिय़ाघर ने भी ऐसे कैमरे लगाए हैं, जिससे लोग ध्रुवीय भालू, हाथी, रेड पांडा और बाघ जैसे अनोखे जानवरों को लाइव देख सकते हैं।
इसी तरह, दक्षिणी इंग्लैंड के एक सारस का घोंसला भी चर्चा में है। इसमें अनिया और बारटेक नाम के दो सारस रहते हैं, जो 2020 से एक-दूसरे के साथ हैं। इस साल वसंत में इस घोंसले को दुनियाभर के 55,000 से भी ज्यादा लोग ऑनलाइन देख चुके हैं। घोंसला जमीन से बहुत ऊंचाई पर है, इसलिए लोग इसे ऊपर से लगे कैमरे के जरिए देखते हैं। इसमें दिखता है कि सारस अंडे दे चुके हैं, और उन्हें सेक रहे हैं और फिर उनसे बच्चे निकले। इस साल चार बच्चों ने घोंसला छोड़ा।
व्हाइट स्टॉर्क प्रोजेक्ट की मैनेजर लॉरा वॉन-हिर्श कहती हैं, ‘लोगों को इसे देखकर शांति और सुकून मिलता है। यह जंगल की जिंदगी के एक झरोखे जैसे है, जिससे लोगों को सीखने को मिलता है कि पक्षियों के बच्चे कैसे विकसित होते हैं।’
तनाव के बीच में सुकून
स्लो टीवी ना सिर्फ अलग-अलग दर्शकों को आकर्षित करता है बल्कि हर उम्र और हर रुचि के लोगों को भी पसंद आता है। बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक और साधारण दर्शकों से लेकर विशेषज्ञों तक, हर कोई इसे देखता है। स्वीडन के पश्चिमी शहर सुन्ने की प्री-स्कूल टीचर, ईडा लिंडबर्ग, अपने 5 और 6 साल के बच्चों के साथ दिन में दो बार 'ग्रेट एल्क ट्रेक' देखती हैं। वह इसे शिक्षा के नजरिये से देखती हैं। उनका कहना है कि हिरण आमतौर पर अकेले रहते हैं, लेकिन सालाना प्रवास के लिए समूह बना लेते हैं। यह बच्चों को प्रकृति, सामाजिक व्यवहार और यहां तक कि गणित के बारे में भी बहुत कुछ सिखाता है।
ईडा ने डीडब्ल्यू से कहा, ‘इससे बच्चों को पर्यावरण के महत्व का पता चलता है, और हम उम्मीद करते हैं कि जब वह बड़े होंगे तो वे जलवायु के नजरिये से सही फैसले लेंगे।’
एल्क ट्रेक सिर्फ एक लाइव स्ट्रीम नहीं है। यह सर्दियों से गर्मियों में आते बदलाव को भी दर्शाता है और कई लोगों के लिए तो अब यह एक सालाना परंपरा जैसा बन गया है। शार्लोट ऑटिलिया कम्पेबॉर्न, जो इसे शुरुआत से देख रही हैं, वह मानती हैं कि वह इस शो की आदी हो चुकी हैं। वह घर से काम करते समय इसे बैकग्राउंड में चलाती है क्योंकि इससे उन्हें बहुत शांति मिलती है खासकर आज के समय में, जब लोग आराम और सुरक्षा का अहसास ढूंढ रहे हैं। उनका कहना है कि दुनिया में अभी जैसी स्थिति है, उसमें संतुलित बनाए रखने के लिए ऐसी चीजे जरूरी हैं जिसमें भविष्य धुंधला नजर ना आए। और ऐसे में, प्रकृति को आज भी पहले की तरह से चलते देख सुकून मिलता है।
भारतीय सेना ने कहा है कि उसने मंगलवार और बुधवार की दरमियानी रात पाकिस्तान और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में 'ऑपरेशन सिंदूर' के तहत नौ ठिकानों पर 'आतंकवादियों के कैंपों' पर हमले किए हैं।
भारतीय सेना और विदेश मंत्रालय ने बुधवार सुबह एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस हमले के बारे में विस्तृत जानकारी दी है। इस प्रेस कॉन्फ्ऱेंस में कर्नल सोफिय़ा कुरैशी ने बताया कि भारतीय सेना के 'ऑपरेशन सिंदूर' में "नौ ठिकानों पर आतंकी कैंपों को निशाना बनाया गया और उन्हें पूरी तरह से बर्बाद किया गया।’
उधर पाकिस्तानी अधिकारियों का कहना है कि भारतीय हवाई हमलों में बच्चों और महिलाओं समेत 26 लोग मारे गए हैं और 46 घायल हुए हैं।
मंगलवार की देर रात एक बयान में पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता लेफ़्िटनेंट जनरल अहमद शरीफ़ चौधरी ने बताया कि भारत ने पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में अहमदपुर शरकिय़ा, मुरीदके, सियालकोट और शकरगढ़ जबकि पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में कोटली और मुजफ़्फ़ऱाबाद को निशाना बनाया है।
भारत ने किन जगहों पर किया हमला?
कर्नल सोफिय़ा कुरैशी ने बताया है कि "पाकिस्तान में पिछले तीन दशकों से टेरर इन्फ्ऱास्ट्रक्चर का निर्माण हो रहा है, जिसमें भर्ती, ट्रेनिंग और लॉन्च पैड भी शामिल थे, जो पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर में फैले हैं। ’
इस प्रेस कॉन्फ्ऱेंस में ऐसी जगहों के बारे में जानकारी दी गई थी जहां ‘आतंकी कैंप थे।’
किन जगहों पर हुए हमले?
अहमदपुर शरकिय़ा पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के बहावलपुर जि़ले का एक ऐतिहासिक क़स्बा है।
पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता के मुताबिक़ इस इलाक़े में मस्जिद सुब्हान को निशाना बनाया गया जिस पर चार हमले किए गए, जिनसे मस्जिद और उसकी आसपास की आबादी को नुक़सान पहुंचा।
उनका कहना है कि इन हमलों में पांच लोग मारे गए हैं, जिनमें एक तीन साल की बच्ची, दो महिलाएं और दो पुरुष शामिल हैं। उनका कहना था कि इन हमलों में 31 लोग घायल भी हुए हैं।
ध्यान रहे कि बहावलपुर प्रतिबंधित संगठन जैश-ए-मोहम्मद का हेडक्वार्टर भी रहा है और मदरसतुल साबिर और जामा मस्जिद सुब्हान उसी का हिस्सा हैं।
मुरीदके
मुरीदके पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के शेखूपुरा जि़ले का शहर है, जो लाहौर से लगभग 40 किलोमीटर उत्तर में स्थित है।
लाहौर के पास बसा यह शहर पहले जमात-उद-दावा के केंद्र दावा वल-इरशाद की वजह से भी ख़बरों में रहा है।
सेना के प्रवक्ता का कहना है कि मुरीदके में मस्जिद उम्मूल क़ुरा और उसके आसपास स्थित क्वार्टर चार भारतीय हमलों का निशाना बने हैं। इन हमलों में एक शख़्स मारा गया और एक घायल हुआ है, जबकि दो लोग लापता हैं।
बीबीसी के संवाददाता उमर दराज़ नांगियाना बुधवार की सुबह मुरीदके में उस जगह पहुंचे जहां रात में भारतीय हमला हुआ। उनके अनुसार मुरीदके में जो इमारत निशाना बनी है वह मुरीदके शहर से थोड़ी दूर जीटी रोड से हटकर, मगर आबादी के अंदर है जो एक बड़े रक़बे पर फैली हुई है और यहां चारों तरफ़ बाड़ लगी हुई है।
उन्होंने बताया कि 'स्थानीय लोगों के मुताबिक़ इस परिसर के अंदर एक अस्पताल और एक स्कूल है और उनके बिल्कुल पास की इमारत को निशाना बनाया गया है जिसके साथ एक बड़ी मस्जिद भी थी। हमले के बाद यह इमारत ध्वस्त हो गई और इसका मलबा दूर दूर तक फैला हुआ है। हमले से मस्जिद के भी एक हिस्से को नुक़सान पहुंचा है, जबकि इस कॉम्प्लेक्स पर भी असर पड़ा है।’
उमर दराज़ के अनुसार स्कूल और अस्पताल की इमारत के साथ कुछ और भी इमारतें थीं जो देखने में आवासीय परिसर का हिस्सा लग रही थीं जबकि एक तरफ़ कुछ क्वार्टर्स भी हैं जिनमें स्थानीय लोगों के अनुसार कर्मचारी रहते हैं।
बीबीसी संवाददाता के अनुसार पहले यह स्थान जमात-उद-दावा और उससे जुड़े संगठनों की कल्याणकारी गतिविधियों का केंद्र था जिसके लिए एजुकेशन कॉम्प्लेक्स और हेल्थ सेंटर बनाए गए थे। लेकिन इस संगठन पर पाबंदी लगने के बाद पाकिस्तान सरकार ने इस जगह की व्यवस्था अपने हाथों में लेकर उसे आम लोगों को सुविधा पहुंचाने के केंद्र के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था।
जम्मू की सीमा के कऱीब भी हुए हमले
मुजफ़्फ़ऱाबाद
यह शहर पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर की राजधानी है जहां कई महत्वपूर्ण दफ़्तर और सरकारी इमारतें हैं।
पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता ने बताया है कि यहां शवाई नाला में स्थित एक मस्जिद निशाना बनी है जिसका नाम मस्जिद-ए-बिलाल है।
बीबीसी की संवाददाता ताबिंदा कौकब के अनुसार शवाई नाला मुजफ़्फ़ऱाबाद में मेन रोड पर है जो ऊपर पहाड़ी तक जाता है और इस पहाड़ी के सबसे ऊपर वाली जगह को शहीद गली कहा जाता है।
वो बताती हैं कि हमले का निशाना बनने वाले शवाई और इससे लगे समां बांडी से कुछ लोग शहर के दूसरे इलाक़ों में जा रहे हैं। इस वक़्त गाडिय़ों की कतारें हैं, कुछ लोग अपने रिश्तेदारों की ख़ैरियत पूछने और उन्हें ले जाने के लिए पहुंचे हैं, जबकि सुरक्षा बल इलाक़े में पहुंच चुके हैं।
पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता का कहना है कि बिलाल मस्जिद पर सात हमले किए गए हैं, जिनमें एक बच्ची घायल हुई है।
कोटली
कोटली पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में इस्लामाबाद से लगभग 120 किलोमीटर की दूरी पर लाइन ऑफ़ कंट्रोल (एलओसी) के पास स्थित है।
सेना के प्रवक्ता का कहना है कि कोटली में भी एक मस्जिद निशाना बनी और इस हमले में एक 16 साल की लडक़ी और 18 साल के एक युवक की मौत हो गई जबकि दो महिलाएं जख़़्मी हुई हैं।
सियालकोट
सियालकोट चिनाब नदी के किनारे स्थित पंजाब प्रांत का एक अहम शहर है। यहां से जम्मू का इलाक़ा केवल 48 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर की दिशा में स्थित है।
पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता के अनुसार सियालकोट के उत्तर में गांव कोटली लोहारां पर दो गोले दागे गए हैं जिनमें से एक फट नहीं सका। उनका कहना है कि इस हमले में कोई जानी नुक़सान नहीं हुआ।
शकरगढ़
शकरगढ़ पंजाब के जि़ला नारोवाल की तहसील है। इसके पूर्व में भारत का जि़ला गुरदासपुर जबकि उत्तर में जम्मू का इलाक़ा है यानी इसकी सरहद पाकिस्तान और भारत की अंतरराष्ट्रीय सीमा दोनों से मिलती है।
पाकिस्तानी सेना के प्रवक्ता का कहना है कि शकरगढ़ पर भी दो गोले दागे गए जिनसे एक डिस्पेंसरी को मामूली नुक़सान पहुंचा है।
- प्रमोद भार्गव
2021 की जनगणना में पहली बार मुस्लिमों की जातिवार गिनती होगी। अभी तक मुस्लिमों की गणना एक धार्मिक समूह के रूप में की जाती रही है। इस गणना से मुस्लिम समाज में मौजूद अनेक जातियों और उनके सामाजिक-आर्थिक और षैक्षिणक स्थिति के ठोस आंकड़े सामने आएंगे। गणना की इस ऐतिहासिक पहल के दूरगामी परिणाम देखने में आ सकते हैं। भविष्य में एकजुट मुस्लिम वोट बैंक खंडित हो सकता है। मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति को झटका लग सकता है। पसमांदा और अन्य पिछड़े मुसलमानों को राजनीति में प्रतिनिधित्व के मार्ग खुल सकते हैं। ऐसा अनुमान है कि सकल मुस्लिम समाज में 85 प्रतिशत जनसंख्या पसमांदा मुसलमानों की है, जो अत्यंत पिछड़े हुए हैं। इसलिए उन्हें मुस्लिमों से जुड़ी धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक संस्थाओं में प्रतिनिधित्व से वंचित रखा जाता है। देश के सभी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाली संस्था ‘ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड‘ में भी एक भी पसमांदा मुसलमान सदस्य नहीं है। नरेंद्र मोदी सरकार ने वक्फ बोर्ड संशोधन कानून में दो पसमांदा मुसलमानों के सदस्य होने का प्रविधान किया है। वर्तमान में देष में कुल 32 वक्फ बोर्ड हैं, जिनमें एक भी पसमांदा मुस्लिम सदस्य नहीं है। इन्हें अनुसूचित जनजाति (एसटी) के अंतर्गत मिलने वाली सुविधाओं का भी लाभ मिलेगा।
एक बार नरेंद्र मोदी ने कहा था कि ‘मुसलमानों में जाति की बात आने पर कांग्रेस के मुंह पर ताला पड़ जाता है, लेकिन हिन्दू समाज की बात आते ही वह चर्चा जाति से करती है। क्योंकि वह जानती है कि जितना हिन्दू समाज बंटेगा ,उतना ही उसे राजनीतिक लाभ होगा।‘ मोदी के इस बयान को हिंदुओं की तरह मुसलमानों में भी जातियों की जनगणना कराए जाने के संकेत के रूप में देख गया था। अब मुस्लिमों के साथ ईसाईयों की भी जातिवार गिनती कराने का फैसला केंद्र सरकार ने ले लिया है। अतएव विपक्ष का यह मुद्दा हमेषा के लिए खत्म हो जाएगा। क्योंकि जातीयता का सियासी खेल खेलते हुए कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी दल अपनी जीत के लिए जातीय विभाजन और गठजोड़ के बेमेल समीकरण बिठाते रहे हैं। मायावती,लालू,मुलायम और नीतीश कुमार ने यही किया। अब कांग्रेस अपनी जीत का आधार इसी फार्मूले को बना रही है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल 2011 की जनगणना के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक और जातिवार आंकड़े जुटाए गए थे, इस गणना में जातियों की कुल संख्या 46.80 लाख के करीब थी। लेकिन 1931 में अंग्रेजी षासनकाल में हुई जातिवार जनगणना में कुल 4,147 जातियां थीं। 2011 के इन जातीय आंकड़ों को व्यावहारिक नहीं माना गया। इस कारण मनमोहन सिंह और फिर मोदी सरकार ने इसके आंकड़ों को जारी नहीं किया।
मुस्लिम धर्म के पैरोकार यह दुहाई देते हैं कि इस्लाम में जाति प्रथा की कोई गुंजाइश नहीं है। जबकि मुसलमान भी चार श्रेणियों में विभाजित हैं। उच्च वर्ग में सैयद, शेख, पठान, अब्दुल्ला, मिर्जा, मुगल, अशरफ जातियां शुमार हैं। पिछड़े वर्ग में कुंजड़ा, जुलाहा, धुनिया, दर्जी, रंगरेज, डफाली, नाई, पमारिया आदि शामिल हैं। पठारी क्षेत्रों में रहने वाले मुस्लिम आदिवासी जनजातियों की श्रेणी में आते हैं। अनुसूचित जातियों के समतुल्य धोबी, नट, बंजारा, बक्खो, हलालखोर, कलंदर, मदारी, डोम, मेहतर, मोची, पासी, खटीक, जोगी, फकीर आदि हैं।
मुस्लिमों में ये ऐसी प्रमुख जातियां हैं जो पूरे देश में लगभग इन्हीं नामों से जानी जाती हैं। इसके अलावा देश के राज्यों में ऐसी कई जातियां हंै जो क्षेत्रीयता के दायरे में हंैं। जैसे बंगाल में मंडल, विश्वास, चैधरी, राएन, हालदार, सिकदर आदि। यही जातीयां बंगाल में मुस्लिमों में बहुसंख्यक हैं। इसी तरह दक्षिण भारत में मरक्का, राऊथर, लब्बई, मालाबारी, पुस्लर, बोरेवाल, गारदीय, बहना, छप्परबंद आदि। उत्तर-पूर्वी भारत के असम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर आदि में विभिन्न उपजातियों के क्षेत्रीय मुसलमान हंैं। राजस्थान में सरहदी, फीलबान, बक्सेवाले आदि हैं। गुजरात में संगतराश, छीपा जैसी अनेक नामों से जानी जाने वाली बिरादरियां हैं। जम्मू-कश्मीर में गुज्जर, बट, ढोलकवाल, गुडवाल, बकरवाल, गोरखन, वेदा (मून) मरासी, डुबडुबा, हैंगी आदि जातियां हैं। इसी प्रकार पंजाब में राइनों और खटीकों की भरमार है। इसके आलावा मुसलमानों में सिया, सुन्नी, अहमदिया, उईगर और रोहिंग्या जैसे बड़े समुदाय भी हैं। कुछ भिन्नताओं के चलते इनमें आपस में खूनी संघर्श भी छिड़ा रहता है।
इतनी प्रत्यक्ष जातियां होने के बावजूद मुसलमानों को लेकर यह भ्रम की स्थिति बनी हुई है कि ये जातीय दुष्चक्र की गुंजलक में नहीं जकड़े हैं। दरअसल जाति-विच्छेद पर आवरण कुलीन मुस्लिमों की कुटिल चालाकी है। इनका मकसद विभिन्न मुस्लिम जातियों को एक सूत्र में बांधना कतई नहीं है। गोया, ये इस छद्म आवरण की ओट में सरकार द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं पर एकाधिकार रखना चाहते हैं। जिससे इनका और इनकी पीढिय़ों को लाभ मिलता रहे। 1931 में हुई जनगणना में बिहार और ओड़ीसा में मुसलमानों की तीन बिरादरियों का जिक्र है, मुस्लिम डोम, मुस्लिम हलालखोर और मुस्लिम जुलाहे। बाकी जातियों को किस राजनीतिक जालसाजी के तहत हटाया गया, इसकी पड़ताल होनी चाहिए ? यदि ऐसा होता है तो वास्तविक रूप से मुसलमानों में आर्थिक बद्हाली झेल रही जातियों को सरकारी लाभकारी योजनाओं और संवैधानिक प्रविधानों से जोड़ा जा सकेगा ?
वृहत्तर मुस्लिम समाज सामान्य तौर से यह जताता है कि इस्लाम में जाति व्यवस्था नहीं है। इस भ्रम के जरिए मुसलमानों में जातीय कुचक्र को अब तक छिपाया जाता रहा है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी इसे कानूनी कसौटी पर परखने का फैसला लिया है। दरअसल मुसलमानों में जातियां तो हैं, लेकिन दस्तावेजों में उनके लिखने का प्रचलन नहीं है। मुसलमानों में यह उदारता कुटिल चतुराई का पर्याय है। यह जांच नौकरियों में आरक्षण का लाभ लेने के सिलसिले में की जाएगी। अदालत का कहना है कि जब सरकारी रिकॉर्ड में जाति के आधार पर प्रमाणीकरण ही न किया गया हो तो फिर आरक्षण का लाभ कैसे मिल रहा है ? जब कोई व्यक्ति सरकारी दस्तावेजों में जाति या उपजाति का उल्लेख ही नहीं कर रहा है, तो उसे पिछड़ा वर्ग या अनुसूचित जाति अथवा जनजाति के कोटे में आरक्षण का लाभ कैसे मिल सकता है ? आरक्षण की व्यवस्था में वही व्यक्ति आरक्षण का लाभ उठाने का पात्र हैै, जिसे निर्धारित व्यवस्था के तहत आरक्षण पाने के लिए सक्षम अधिकारी द्वारा जाति प्रमाण-पत्र जारी किया गया हो।
-डॉ. आर.के. पालीवाल
इस समय तो यही कहा जा सकता है कि आप और आप के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल का निकट भविष्य काफी संकटपूर्ण और अंधकार मय है। यह भी सच है कि कठिन समय की आग में तपकर ही सार्वजनिक जीवन में कुछ लोग कुंदन बन जाते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के साथ भी एक समय ऐसे ही अत्यंत गंभीर संकट आए थे जब विपक्षी दलों के नेता तो उन्हें गुजरात दंगों पर चक्रव्यूह बनाकर चौतरफा घेर ही रहे थे उनके अपने दल के अटल बिहारी वाजपेई सरीखे उदार नेता भी उन्हें राजधर्म निभाने की नसीहतें दे रहे थे। यहां तक कि अमेरिका ने भी उन्हें अपने देश में आने पर पाबंदी लगा दी थी।नरेंद्र मोदी ने उस वक्त धैर्य से खुद को धीरे धीरे इतना मजबूत कर लिया कि आज उन्होंने अपने दल की पूरी कमान अपने हाथ में कर ली है। उनके सामने भारतीय जनता पार्टी के तमाम दिग्गज मार्गदर्शक मंडल की दर्शक दीर्घा में बैठे हैं, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी भाजपा के संगठन और सरकार में दबंगई नहीं कर पाता और कांग्रेस और आम आदमी पार्टी सरीखे उनके विरोधी एक एक कर कई राज्यों में विपक्ष की कतार में पहुंच गए। गुजरात से शुरू हुआ मोदी का सफर सुदूर असम और उड़ीसा तक पहुंच गया जहां वे जिसे चाहें टिकट दें जिसे चाहें मुख्यमंत्री बना दें । हकीकत में संकट के समय अधिकांश लोग टूटकर बिखर जाते हैं और केवल कुछ लोग ही तपकर बाहर आते हैं।
वर्तमान दौर में अरविंद केजरीवाल की स्थिति अपने दल, गठबंधन और राजनीति में उस मुकाम पर आ गई जहां से वे या तो सूर्यास्त की तरह गहरे अंधेरे में डूबते जा सकते हैं या सूर्योदय की तरह रात के अंधेरे की धूल झाडक़र पूरी ताकत से पुनर्वापसी कर सकते हैं। पहला रास्ता आसान है और दूसरा अत्यंत कठिन। अरविंद केजरीवाल की सबसे बड़ी गलती यह है कि उसने अपने दल, अपने पुराने दोस्तों और विरोधियों से एक साथ इतने ज्यादा मोर्चे खोलकर अनगिनत दुश्मनियां पैदा कर ली हैं कि उन सबसे एक साथ पार पाना असंभव नहीं तो मुश्किल बहुत होगा। इस दौरान नेता के रूप में केजरीवाल की विश्वसनियता लगभग नकारात्मक हो गई है। जब कोई अपने घर में ही अविश्वसनीय हो जाता है तो उसे समाज का विश्वास अर्जित करने के लिए सामान्य से कहीं अधिक प्रयास करने पड़ते हैं। केजरीवाल ने अपने दल के बाहर गठबंधन के साथियों में सबसे बड़े दल कांग्रेस को हरियाणा और दिल्ली विधानसभा चुनावों में लगातार दो बार नाराज किया है जिसका खामियाजा उन्हें काफी समय भुगतना पड़ सकता है।
-जितेश्वरी साहू
कभी-कभी, जि़ंदगी हमें ऐसे रास्तों पर ले जाती है जहाँ हम उनसे दूर हो जाते हैं जो हमारे दिल के सबसे करीब होते हैं। यह दूरी शारीरिक हो सकती है, लेकिन क्या यह दिलों के बीच के उस अदृश्य धागे को भी तोड़ सकती है जो बरसों के साथ ने बुना होता है? ‘द जापानीज़ वाइफ़’ फि़ल्म मुझे अक्सर उस अनकहे प्रेम की याद दिलाती है जो दूरियों में भी उतना ही सच्चा और गहरा होता है जितना पास रहने पर। इस फिल्म के केंद्र में जापान की मियागी और पश्चिम बंगाल के सुंदरबन में रहने वाले स्नेहमोय की प्रेम कथा है। मियागी और स्नेहमय ने कभी एक-दूसरे को छुआ भी नहीं, फिर भी उनका प्यार हर बंधन से परे था। यह दिखाता है कि प्रेम की असली पहचान शारीरिक नज़दीकी नहीं, बल्कि दो आत्माओं का गहरा जुड़ाव है।
जि़ंदगी के सफर में, हम कई मोड़ देखते हैं। कुछ मोड़ ऐसे होते हैं जहाँ रास्ते अलग हो जाते हैं, लेकिन यादें हमेशा साथ चलती हैं। वह हर लम्हा जो हमने साथ बिताया होता है, वह हमारे दिल में एक अनमोल खज़ाने की तरह सुरक्षित रहता है। दूरियाँ उस खजाने को और भी कीमती बना देती हैं। पर इस फिल्म में नजदीकियां थी तो केवल उन दोनों के पत्रों में लिखे उस प्रेम का जिसमें एक दूसरे के हाथों की छुअन का अहसास नहीं था बल्कि दो अदृश्य आत्माओं के मिलन का अहसास था। दोनों ने पत्रों के माध्यम से एक-दूसरे को जाना, समझा और उसी में एक दूसरे के हो गए। दूरियां गौण हो जाती है जब रूह एक-दूसरे के बहुत नजदीक आ जाती है।
-दीपक तिरुआ
मैंने अपने जीवन का लगभग 50त्न हिस्सा नैनीताल में बिताया है। मैं यहाँ 1998 में पढऩे आया था।
यानी 2002 में, गोधरा कांड और उसके बाद के बखेड़े वाले समय में भी, मैं नैनीताल में ही था। तब यहाँ भी एहतियातन 3-4 दिन का कफ्र्यू लगाया गया था।
मैं, जफर खान, असीम खान और सचिन जो कि रूम मेट थे। इस दौरान एक साथ एक रूम में बंद रहे थे।
इस कांड का हमारी दुनिया पे क्या असर हुआ, ये बात बाद में, पहले हम नैनीताल को तो जान लें।
मेरे जैसे, एक गांव से आए हुए, पहाड़ी किशोर की ख़ुशकिस्मती थी, कि नैनीताल टूरिस्ट प्लेस होने के अलावा साहित्य, कला और रंगमंच का गढ़ भी था।
यहाँ झील के किनारे एक शांत ख़ूबसूरत लाइब्रेरी थी। शारदा संघ था, जिसमें हर महीने शास्त्रीय संगीत और गीत गजल की बैठकी होती थी। कवि सम्मेलन होते थे। नंदा देवी का सालाना मेला तो था ही।
यहाँ की होली में गिर्दा जैसा कवि अपने जनपक्षधर गीत गाता था। यहाँ युगमंच था, जिसने रंगमंच की अपनी शानदार यात्रा का पच्चीसवें से लेकर चालीसवां साल तक मेरे सामने ही मनाया था। यहाँ जगमोहन जोशी मंटू , प्रभात शाह गंगोला, जहूर आलम, मंजूर हुसैन, राजेश आर्य, नवीन बेगाना, मदन मेहरा, मनु कुमार, सुभाष चंद्रा, मुक्की दा, जावेद हुसैन, दाऊद हुसैन, मिथिलेश पांडे, शबनी राणा, भारती जोशी जैसे समर्पित और मूर्धन्य कलाकारों की पीढिय़ां थीं।
जिन्होंने यहाँ की ख़ास होली और रामलीला से लेकर रंगमंच तक को नए आयाम दिए थे।
इसी दौरान नैनीताल हिंदी सिनेमा को निर्मल पांडे और इदरीस मलिक जैसे अभिनेता, शालिनी शाह जैसी नेशनल अवॉर्ड विनिंग डॉक्यूमेंट्री मेकर, राजेश शाह जैसे सिनेमेटोग्राफर दे रहा था।
हमारे पास राजीव लोचन शाह, महेश जोशी, गिर्दा जैसे लोगों से लैस नैनीताल समाचार जैसा प्रतिबद्ध अखबार भी था।
हमारे पास पहाड़ जैसी पत्रिका थी तो उत्तरा जैसी महिला पत्रिका भी। हमारे पास शेखर पाठक जैसे इतिहासकार थे और बटरोही जैसे साहित्यकार भी।
जब से पहलगाम हमला हुआ, तब से हर ओर इसी विषय की चर्चा थी और लोग अटकलें लगा रहे थे कि क्या भारत सरकार कोई बड़ी कार्रवाई करेगी?
मगर इसी बीच सरकार की ओर से बताया गया कि आगामी जनगणना में सरकार ने जातियों की गणना भी करवाने का फ़ैसला किया है।
1931 के बाद से अब तक भारत में जातिगत जनगणना नहीं हुई है। हालांकि 1951 से दलितों और जनजातियों की गणना होने लगी थी। आगे चलकर जैसे-जैसे जाति आधारित राजनीति बढ़ी, जातीय जनगणना की मांग भी बढ़ी।
2011 में सरकार ने सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर आधारित जातीय जनगणना करवाई मगर उसके आंकड़े जारी नहीं किए गए।
1931 में अन्य पिछड़ी जातियों का प्रतिशत 52 था मगर कई विश्लेषक ये मानते हैं कि अब ये संख्या उससे काफ़ी अधिक है।
पिछले कुछ समय में ख़ासतौर पर विपक्ष की ओर से जातिगत जनगणना की मांग ने काफ़ी ज़ोर पकड़ा। शुरू में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की ओर से बहुत स्पष्ट रुख़ नहीं आया।
पार्टी के कुछ नेता इसे समाज को तोडऩे वाला बताते रहे मगर इसी बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जब जातिगत जनगणना का समर्थन किया तो लगा कि पार्टी का झुकाव इस ओर बढ़ सकता है और आखऱिकार बीते हफ़्ते सरकार ने इसकी घोषणा कर दी।
इसके विरोधियों का कहना है कि जाति गिनने से समाज में दरार आ सकती है। लेकिन सामाजिक संगठनों और कई कार्यकर्ताओं और राजनेताओं का कहना है कि जब तक सही आंकड़े नहीं मिलते, तब तक वंचितों के लिए सही नीतियां बनाना मुमकिन ही नहीं है।
इस मुद्दे से जुड़े कई अहम सवाल हैं। जैसे, इस घोषणा के लिए यही समय क्यों चुना गया? बिहार के सर्वे से जो सवाल निकले क्या उनका जवाब मिला?
इन वर्गों की महिलाओं के लिए इस जनगणना के क्या मायने होंगे? क्या इससे जातीय समूहों के अंदर ही वर्चस्व का संघर्ष बढ़ सकता है?
क्या राजनीतिक दल वोट-बैंक के हिसाब से इसका फ़ायदा उठाएंगे और क्या इन आंकड़ों के बाद आरक्षण पर जो 50 प्रतिशत की सीमा है उसे हटाने की मांग बढ़ सकती है?
बीबीसी हिन्दी के साप्ताहिक कार्यक्रम, ‘द लेंस’ में कलेक्टिव न्यूज़रूम के डायरेक्टर ऑफ़ जर्नलिज़म मुकेश शर्मा ने इन्हीं सवालों पर चर्चा की।
इन मुद्दों पर चर्चा के लिए जदयू के वरिष्ठ नेता केसी त्यागी, ‘द हिंदू’ की सीनियर डिप्टी एडिटर शोभना नायर, दलित विषयों पर काम करने वाले पद्मश्री सुखदेव थोराट और आदिवासी व महिलाओं के विषयों पर मुखर नितीशा खल्को शामिल हुईं।
पहलगाम हमले के बाद जातिगत जनगणना की घोषणा क्यों?
जातिगत जनगणना को लेकर काफ़ी लंबे समय से मांग चल रही थी। ऐसे में सरकार ने इसी समय जातिगत जनगणना की घोषणा क्यों की?
इस सवाल पर शोभना नायर कहती हैं, ‘जातिगत जनगणना को लेकर पहले से ही संकेत मिल रहे थे। 2024 के जो चुनावी नतीजे आए उनमें उत्तर प्रदेश में बीजेपी को नुक़सान हुआ। उसके बाद से ही इस पर मंथन शुरू हो गया था। आरएसएस ने भी पालक्कड़ सम्मेलन में जातिगत जनगणना को समर्थन दिया था। ’
उन्होंने कहा कि इसी मार्च में ओबीसी नेताओं ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर काफ़ी कड़वे शब्दों का प्रयोग किया, ओबीसी का असंतोष कहीं न कहीं अपनी आवाज़ बुलंद कर रहा था।
शोभना नायर कहती हैं, ‘इसके अलावा बिहार चुनाव भी नज़दीक है और उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले अगर कोई सुधारात्मक क़दम उठाना है तो प्रक्रिया अभी से शुरू करनी होगी।’
शोभना कहती हैं कि ‘पहलगाम हमले के बाद इस घोषणा को कहीं न कहीं इसे ध्यान हटाने के लिहाज से देखा जा सकता है लेकिन मुझे लगता है कि यह योजना उससे बड़ी है।’
जातिगत जनगणना का किसे फ़ायदा होगा?
क्या जातिगत जनगणना वंचित जातियों को सशक्त बनाएगी या फिर उनका ध्रुवीकरण ही होगा? बिहार के जातिगत सर्वे से क्या सीख मिली है?
जदयू के वरिष्ठ नेता केसी त्यागी इस सवाल का जवाब देते हुए कहते हैं, ‘अति पिछड़े या समाज के वंचित लोगों को यह जानने का अधिकार है कि आज़ादी के 75 साल बाद उनका सशक्तीकरण हो पाया या नहीं हो पाया।’
केसी त्यागी कहते हैं, ‘इसमें सामाजिक और? शैक्षणिक पिछड़ापन, जातिगत जनगणना, 50 फ़ीसदी आरक्षण की कैपिंग को ख़त्म करना, निजी क्षेत्र में आरक्षण और न्यायिक व्यवस्था में आरक्षण शामिल है।’
त्यागी कहते हैं कि ‘जो इसका विरोध यह कहते हुए कर रहे हैं कि इससे विभेद होगा तो समाज में तो तीन हज़ार साल से विभेद है। आखऱि एक ही जाति के लोग गंदगी क्यों साफ़ कर रहे हैं?’
केसी त्यागी का बयान
केसी त्यागी कहते हैं, ‘इतिहास की त्रासदी यह है कि जब भी ये सवाल उठता है, सरकार ही गिर जाती है लेकिन आज किसी पार्टी के पास साहस नहीं है कि इस परिवर्तन को रोक ले।’
वह कहते हैं, ‘बिहार में नीतीश कुमार ने जातिगत सर्वे कराके पिछड़े वर्ग में भी जो अति पिछड़े हैं उनका वर्गीकरण किया।’
त्यागी कहते हैं कि केंद्र सरकार ने रोहिणी कमीशन बनाया हुआ है। इसके अंदर कोटा के अंदर कोटा किया जाएगा। इससे पिछड़े वर्ग में जो बहुत ही पिछड़े हैं उन्हें फ़ायदा मिलेगा।
जातिगत जनगणना से क्या समाज में बढ़ेगा विभाजन ?
क्या जातिगत जनगणना से समाज में विभाजन होगा? पद्मश्री सुखदेव थोराट इस सवाल का जवाब देते हुए कहते हैं, ‘ये गलत बात है कि इससे समाज टूटेगा। डॉक्टर आंबेडकर ने भी जब आरक्षण की बात की थी तब भी यही सवाल उठा था। समाज में जाति आधारित विभाजन और असंगति तो पहले से ही है।’
सुखदेव थोराट कहते हैं, ‘किसी समाज में अगर सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक असमानता है तो यह समाज में टकराव और संघर्ष और अतिवादी विचारधारा लेकर आता है। आरक्षण इसे समान बनाता है और समानता समाज में समरसता लेकर आती है।’
उन्होंने कहा कि जातिगत जनगणना सिर्फ आरक्षण की बात नहीं करेगी। यह आर्थिक और शैक्षणिक हैसियत का भी खुलासा करेगी। इससे यह पता चलेगा कि कौन सा समाज किस पृष्ठभूमि से है?
थोराट कहते हैं, ‘इससे पता चलेगा कि कौन सा समाज बिना भूमि के है? व्यवसाय में नहीं है। पूंजी नहीं है या नौकरी कर रहा है या फिर मज़दूरी कर रहा है। आरक्षण तो बहुत ही छोटी बात है। यह शैक्षणिक और आर्थिक सशक्तीकरण के लिए?नीतियां बनाने में मदद करेगा।’
महिलाओं को क्या होगा हासिल?
जातिगत जनगणना महिलाओं के लिए कितना प्रभावशाली होने जा रहा है?
इस सवाल पर नितीशा खल्को कहती हैं, ‘जातिगत जनगणना को वंचित तबका समर्थन तो दे ही रहा है लेकिन एक बड़ी आबादी महिलाओं की भी है। जिन्हें जानबूझकर बहुत सारे मामलों में पीछे रखा गया।’
खल्को कहती हैं, ‘हमें उम्मीद है कि जातिगत जनगणना में वंचित तबके, महिलाओं के साथ थर्ड जेंडर के भी हितों का ध्यान रखा जाएगा। इससे आशा है कि संसाधनों पर जो खास वर्गों और वर्णों की कब्ज़ेदारी रही है। वह टूटेगी।’
वह कहती हैं कि 'हमें उम्मीद है कि इससे जेंडर के हिसाब से भी चीज़ें बदलकर आएंगी। फिर चाहे वह महिला आरक्षण की बात हो या फिर कोटे के अंदर कोटे की बात हो।'
उन्होंने कहा, ‘इसके माध्यम से महिलाएं अपनी सुविधाजनक चीज़ें हासिल कर पाएंगी।’
क्या निजी और न्यायिक क्षेत्र में आरक्षण के लिए भाजपा मान जाएगी?
जातिगत जनगणना के बाद क्या भाजपा सहज रूप से निजी क्षेत्र में आरक्षण, न्यायिक क्षेत्र में आरक्षण या फिर 50 फ़ीसदी से अधिक आरक्षण देने की मांग को मानेगी?
इस सवाल पर केसी त्यागी कहते हैं, ‘अटल बिहारी वाजपेयी के समय की भाजपा और आज की भाजपा में बहुत अंतर है।’
वह कहते हैं, ‘बिहार की जनसभाओं में मोदी जी ने कहा कि ये एक दो बिरादरी या जातियों की पार्टी नहीं है। ये मल्टी कास्ट और मल्टी क्लास पार्टी है। ये पिछड़ों और दलितों की पार्टी है। ये भाषा कभी मधोक या वाजपेयी या आडवाणी के समय इस्तेमाल नहीं होती थी। इससे भाजपा के कार्यकर्ताओं की एक सोच बनी है।’
त्यागी कहते हैं, ‘बिहार की बीजेपी ने जातिगत सर्वे का विरोध नहीं किया था। बीजेपी में कुछ और राज्यों के लोग थे, जो दबी ज़ुबान से ऐसा कहते थे। लेकिन संघ प्रमुख ने भी इसमें भूमिका निभाई। ये बदला हुआ युग है।’
वह बताते हैं कि ‘जब कर्पूरी ठाकुर ने कोटा के अंदर कोटा लागू किया था तो जनता पार्टी में ही विरोध हुआ था। उन्हें जनता पार्टी ने हटाया। वीपी सिंह को कांग्रेस और बीजेपी ने ही हटाया। हमारे जनता दल में भी फूट हो गई थी।’
त्यागी कहते हैं कि जो आरक्षण विरोधी लोग थे उनका भी बड़ा भारी रोल था।
जातिगत जनगणना का परिसीमन पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
जातिगत जनगणना के परिणाम कितने अहम हैं और परिसीमन पर इसका क्या असर होगा?
शोभना नायर कहती हैं, ‘नवंबर 2023 में मोदी जी ने कहा था कि मैं सिफऱ् चार जातियां जानता हूं- महिला, युवा, गऱीब और किसान। अब इन्हीं की गणना होगी।’
नायर कहती हैं, ‘2011 में भी जो डेटा आया था। उसमें कई विषयों का मिलान ही हम नहीं कर पाए। यही वजह है कि उसे प्रकाशित भी नहीं किया गया।’
उन्होंने कहा, ‘एक वर्ग यह भी मानता है कि जातिगत जनगणना की घोषणा इसलिए भी की गई क्योंकि परिसीमन से दक्षिण के प्रदेश विचलित थे। भाजपा दक्षिण में विस्तार के लिए ज़मीन तलाश रही है। तमिलनाडु और केरल में काफी मेहनत कर रही है। इस घोषणा से अब मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस का मुंह बंद हो जाएगा।’
उन्होंने कहा कि जनगणना तो परिसीमन के लिए पहला कदम है, भाजपा ने जनगणना के साथ जातिगत जनगणना को जोड़ दिया है तो कांग्रेस इसकी आलोचना भी नहीं कर पाएगी।
-सलमान रावी
क्या पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने बीजेपी को हिंदुत्व के मोर्चे पर चुनौती देनी शुरू कर दी है।
जब से ममता बनर्जी ने राज्य के समुद्री तट दीघा में तीस हज़ार वर्ग मीटर में फैले भगवान जगन्नाथ के भव्य मंदिर का लोकार्पण (प्राण-प्रतिष्ठा) किया है तब से ये सवाल राजनीतिक गलियारों में उठने लगा है।
ये समारोह बुधवार को यानी 'अक्षय तृतीया' के अवसर पर आयोजित किया गया था जिससे राज्य के प्रमुख विपक्षी दल यानी भारतीय जनता पार्टी ने ख़ुद को दूर रखने की घोषणा की थी।
इस समारोह स्थल से महज 30 किलोमीटर दूर विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी ने एक समानांतर समारोह रखा।
शुभेंदु अधिकारी ने अपने इस समारोह का नाम ‘महान सनातनी दिवस’ रखा और राज्य के सभी हिंदू धार्मिक संगठनों और साधु संतों को इसमें आमंत्रित किया।
महान सनातन सम्मेलन का समारोह विपक्ष के नेता के आह्वान पर किया गया था लेकिन इसमें भारतीय जनता पार्टी के झंडे नदारद थे।
भारतीय जनता पार्टी, दीघा में मंदिर बनाए जाने का जोरदार विरोध दर्ज करती आई है।
पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सुकांत मजूमदार का कहना है कि दीघा एक ‘पर्यटन स्थल’ है जहां पुरी के भगवान जगन्नाथ के मंदिर की आकृति वाला एक मॉडल बनाया गया है। ये पर्यटकों के लिए ‘आकर्षण का केंद्र हो सकता है न कि भक्ति का।’
मजूमदार ने अप्रैल में ही मुर्शिदाबाद में उन मंदिरों का ‘जीर्णोद्धार’ करने की शुरुआत करवाई, जिन्हें वक्फ़ कानून के खिलाफ हो रहे प्रदर्शन के दौरान हिंसक हमलों में तोड़ दिया गया था।
भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष मजूमदार का कहना है, ‘मंदिर का निर्माण सरकार के पैसों से नहीं हो सकता बल्कि जन सहयोग से किया जाता है।’
यही बात विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी ने भी दोहराई है। नए मंदिर के निर्माण पर ममता सरकार ने 250 करोड़ रुपये की राशि आबंटित की थी।
-डॉ. संजय शुक्ला
मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ की एक क्रांतिकारी नज़्म है ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे, तेरा सुतवॉं जिस्म है तेरा।’ फैज़ साहब की ये शब्द हमारे सियासतदानों और दूसरे लोगों के सिर चढक़र बोल रहा है।
गौरतलब है कि भारत मे अभिव्यक्ति यानि बोलने की आजादी संविधान के मौलिक अधिकारों में शामिल है लेकिन हालिया दौर में इस आजादी का प्रकटीकरण उच्चश्रृंखलता या स्वच्छंदता के रूप में भी हो रहा है। देश में आपदा, महामारी, आतंकी हमलों, सांप्रदायिक दंगों और चुनावों के दौरान राजनेताओं, सेलेब्रिटियों और पत्रकारों के विवादास्पद बयानों या बदजुबानी के कारण सियासत और समाज शर्मसार हो रहा है। हाल ही में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद कुछ राजनेताओं, पत्रकारों और यूट्यूबर्स के बदजुबानी का ज्वार इतना बढ़ गया कि कुछ यूट्यूबर्स के खिलाफ जहां मामला दर्ज हुआ है वहीं कुछ पत्रकारों के यूट्यूब न्यूज चैनल पर बैन लगा दिया गया है।
सोशल मीडिया जिसे आम आदमी का संसद कहा जाता है इन दिनों नफरत फैलाने का सबसे बड़ा अड्डा बन चुका है। विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर यूजर्स ने इस आतंकी हमले पर जिस तरह धार्मिक नफरत के जहर घोला है उससे इस माध्यम की प्रासंगिकता पर ही प्रश्न चिन्ह लग चुका है। कुछ दिनों पहले ही बॉलीवुड के निर्देशक अनुराग कश्यप ने ब्राह्मण समुदाय पर की गई अत्यंत आपत्तिजनक टिप्पणी ने अभिव्यक्ति की आजादी के बेजा इस्तेमाल की पोल खोलकर रख दी है। अनुराग कश्यप ने विप्र समाज के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया है उसे सभ्य समाज कभी स्वीकार नहीं करता।
अलबत्ता अनुराग कश्यप के बयानों से जहां देश का ब्राह्मण समुदाय काफी उद्वेलित हो गया और उनके खिलाफ विभिन्न शहरों में विरोध-प्रदर्शन के साथ पुलिस में मामले भी दर्ज कराए गए। सोशल मीडिया से लेकर सडक़ों पर भारी बवाल के बीच आखिरकार अनुराग ने अपनी टिप्पणी पर सार्वजनिक माफी मांग ली लेकिन इस माफी के बाद भी जिस प्रकार कमान से निकली हुई तीर और जुबां से निकला हुआ शब्द वापस नहीं आता उसी प्रकार अनुराग के शब्द आगे भी टीस पैदा करती रहेगी।
इसी बीच लोकसभा के भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने वक्फ बिल पारित होने के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में हो रहे कथित ‘सिविल वार’ के लिए चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ‘सीजेआई’ जस्टिस संजीव खन्ना को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि यदि सुप्रीम कोर्ट को ही कानून बनाना है तो संसद और विधानसभाओं को बंद कर देना चाहिए। न्यायपालिका पर टिप्पणियों का सिलसिला यहीं नहीं थमा बल्कि राज्यसभा के भाजपा सांसद दिनेश शर्मा ने सुप्रीम कोर्ट पर कटाक्ष करते हुए कहा कि किसी को भी संसद या राष्ट्रपति को निर्देश जारी करने का अधिकार नहीं है। हालांकि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने अपने दोनों पार्टी सांसदों के बयानों से पार्टी को अलग बताते हुए इसे निजी बयान बता दिया। भाजपा अध्यक्ष के इस बचाव के बावजूद भाजपा सांसदों द्वारा की गई टिप्पणियों पर बवाल अभी थमा नहीं है।
गौरतलब है कि कालांतर में भी अनेक राजनेताओं, सेलेब्रिटियों और कुछ पत्रकारों के धर्म, जाति, महापुरुषों, वेशभूषा और महिलाओं के बारे में किए गए बदजुबानी से देश, सियासत और समाज शर्मसार हुआ है। बदजुबानी के पन्ने पलटें तो साल 2012 में दिल्ली के निर्भया के साथ बर्बरतापूर्ण दुष्कर्म के विरोध हो रहे प्रदर्शन में शामिल महिलाओं के बारे में कांग्रेस के पूर्व सांसद अभिजीत मुखर्जी ने काफी आपत्तिजनक बयान दिया था। इसी प्रकार समाजवादी पार्टी के प्रमुख स्व. मुलायम सिंह यादव के महिलाओं के साथ होने वाले बलात्कार पर ‘लडक़े हैं गलती हो जाती ह’ जैसी टिप्पणी उनके महिलाओं के प्रति सोच को प्रदर्शित किया। इसी पार्टी के पूर्व सांसद और महिलाओं के बारे में हमेशा अभद्र टिप्पणी करने वाले आजम खान के लोकसभा के पीठासीन सभापति और भाजपा सांसद रमादेवी और रामपुर से भाजपा प्रत्याशी जयाप्रदा पर की गई अत्यंत अशोभनीय टिप्पणी आज भी राजनीति के काले अध्याय में दर्ज है। महिला आरक्षण विधेयक पर चर्चा के दौरान तब के वरिष्ठ सांसद और राजनेता स्व. शरद यादव ने कहा था कि इस बिल से सिर्फ ‘परकटी औरतों’ को ही फायदा होगा जैसे बयान राजनीति में पितृसत्तात्मक व्यवस्था की चुगली करता है। अलबत्ता सिर्फ राजनेताओं के ही जुबां से बदजुबानी नहीं हुई है बल्कि राजनीति में सक्रिय नेत्रियों जैसे भाजपा की पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता नूपुर शर्मा, कंगना रनौत, कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत जैसे अनेक नेताओं ने ऐसे बयान दिए हैं जिसने मर्यादा की हदें लांघी है। बहरहाल बोलने की आजादी के नाम पर विवादास्पद टिप्पणियां सिर्फ राजनेता ही नहीं कर रहे हैं बल्कि अनेक पत्रकार, धर्मगुरु, मौलवी और पादरी भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चैनल्स के कार्यक्रमों और धार्मिक आयोजनों में कर रहे हैं जिससे देश में तनाव बढ़ रहा है।
आजकल कॉमेडी के नाम पर टीवी चैनलों और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर किसी राजनेता, व्यक्ति या महिलाओं के बारे में अत्यंत भौंडा, अश्लील और आपत्तिजनक टिप्पणियों या छींटाकशी का चलन काफी बढ़ रहा है। कुल दिनों पहले स्टैंड?-अप कॉमेडियन कुणाल कामरा ने अपने एक पैरोडी सांग में महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे पर आपत्तिजनक कटाक्ष किया था जिसके खिलाफ शिवसेना के कार्यकर्ताओं में काफी गुस्सा देखा गया और फिलहाल मामला अदालत में है।इसी तरह यूट्यूबर और सोशल मीडिया इन्फलुएंसर रणवीर अलाहबादिया ने ‘इंडिया गॉट लेटेस्ट’ शो में अपने माता-पिता के नितांत निजी क्षणों के बारे में जिस तरह से अत्यंत भद्दी टिप्पणी की उसने तो पूरे देश को शर्मसार कर दिया।
-डॉ. दानेश्वरी सम्भाकर
हर वर्ष 1 मई को हम श्रमिक दिवस मनाते हैं। यह एक ऐसा दिन जो श्रमिकों के अथक परिश्रम, संघर्ष और योगदान को सम्मान देने का अवसर प्रदान करता है। छत्तीसगढ़ अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और प्राकृतिक संपदा के लिए प्रसिद्ध है, राज्य की आर्थिक प्रगति में महिला श्रमिकों की महत्वपूर्ण भूमिका के लिए भी जाना जाता है।
कृषि, खनन, वनों से प्राप्त उत्पादों और छोटे उद्योगों पर आधारित अर्थव्यवस्था वाले छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचलों में महिलाएँ खेती-बाड़ी, तेंदूपत्ता संग्रहण और हस्तशिल्प निर्माण जैसे कार्यों में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं, जबकि शहरी क्षेत्रों में निर्माण कार्य, घरेलू सेवाएँ और छोटे व्यापारों में उनकी भागीदारी तेजी से बढ़ रही है। महिला श्रमिकों की भागीदारी दर राष्ट्रीय औसत से अधिक है।
विशेष रूप से असंगठित क्षेत्रों में, फिर भी उनकी मेहनत को अब भी उचित मान्यता और पारिश्रमिक नहीं मिल पाता। महिला श्रमिकों के सामने कई चुनौतियाँ हैं। जिनमें समान वेतन का अभाव, समान कार्य के बावजूद वेतन असमानता, खनन और निर्माण जैसे क्षेत्रों में असुरक्षित परिस्थितियाँ, प्रसूति लाभों और स्वास्थ्य सुविधाओं की सीमित पहुँच, कम पढ़ाई और तकनीकी प्रशिक्षण के कारण सीमित अवसर, पारंपरिक सोच और घरेलू जिम्मेदारियाँ उनकी स्वतंत्रता को सीमित करती हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार ने मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय के नेतृत्व में महिला श्रमिकों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण पहल की गई है। जिसमें मुख्यमंत्री महिला सशक्तिकरण मिशन के अंतर्गत ग्रामीण और शहरी महिलाओं को स्वरोजगार और उद्यमिता के लिए विशेष सहायता दी जा रही है। नई श्रमिक नीति द्वारा असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत महिला श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी की गारंटी और कार्यस्थल पर सुरक्षा मानकों को अनिवार्य बनाया गया है। महिला शक्ति केंद्रों के विस्तार से प्रत्येक जिले में महिला शक्ति केंद्र स्थापित कर महिला श्रमिकों को कानूनी सहायता, स्वास्थ्य सुविधा और रोजगार परामर्श उपलब्ध कराया जा रहा है। स्वयं सहायता समूहों को बढ़ावा देकर महिला स्वावलंबन के लिए राज्य सरकार द्वारा विशेष वित्तीय सहायता प्रदान की जा रही है। सखी वन स्टॉप सेंटर में हिंसा से पीडि़त महिलाओं के लिए त्वरित सहायता और पुनर्वास की व्यवस्था। मनरेगा में महिलाओं के भागीदारी बढ़ाने रोजगार दिवसों में महिलाओं के न्यूनतम 50 प्रतिशत भागीदारी सुनिश्चित करने की पहल शामिल हैं।
-दीपक मंडल
केंद्र सरकार देश में अगली जनगणना में जातियों की भी गिनती करेगी।
बुधवार को केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने राजनीतिक मामलों पर कैबिनेट कमेटी की बैठक में लिए गए सरकार के इस फ़ैसले की जानकारी देते हुए बताया कि जातियों की गिनती जनगणना के साथ की जाएगी।
वैष्णव ने कहा कि जनगणना केंद्र का विषय है और अब तक कुछ राज्यों में किए गए जातिगत सर्वे पारदर्शी नहीं थे। सवाल ये है कि अब तक जातिगत जनगणना से कतरा रही मोदी सरकार, इसके लिए राज़ी क्यों हो गई है?
अचानक जाति जनगणना का फ़ैसला क्यों?
कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल समेत कई विपक्षी दल लगातार देश में जाति जनगणना की मांग करते रहे हैं।
पिछले महीने गुजरात में कांग्रेस के दो दिवसीय सम्मेलन में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जाति जनगणना का मुद्दा उठाते हुए कहा था, ‘ये सबको पता होना चाहिए देश में कितने दलित, पिछड़े, आदिवासी और अल्पसंख्यक और गऱीब सामान्य वर्ग के लोग हैं। तभी पता चलेगा कि देश के संसाधनों में उनकी कितनी हिस्सेदारी है।’
हालांकि जनगणना में दलितों और आदिवासियों की गणना होती है।
जातियों की गिनती कराने के मोदी सरकार के फैसले के बाद राष्ट्रीय जनता दल के नेता और बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने कहा, ‘विपक्षी दलों की मांग के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने जाति जनगणना से इनकार कर दिया था।’
उन्होंने कहा, ‘पार्लियामेंट में मोदी सरकार के मंत्री इससे इनकार कर रहे थे लेकिन सरकार को अब हमारी बात माननी पड़ी है। जब नतीजे आएंगे तो हमारी मांग होगी कि पूरे देश के विधानसभा चुनावों में पिछड़े और अति पिछड़ों के लिए भी सीटें आरक्षित की जाएं। जितनी आबादी है उतनी भागीदारी होनी चाहिए।अब हमारी अगली लड़ाई यही होगी।’
जातिगत जनगणना कराने के केंद्र सरकार के फ़ैसले के एलान के बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके इसका श्रेय विपक्षी दलों को दिया।
उन्होंने कहा, ‘हमने संसद में कहा था कि हम जातिगत जनगणना करवा के ही मानेंगे, साथ ही आरक्षण में 50 फ़ीसदी सीमा की दीवार को भी तोड़ देंगे।’
उन्होंने कहा, ‘पहले तो नरेंद्र मोदी कहते थे कि सिर्फ चार जातियां हैं, लेकिन अचानक से उन्होंने जातिगत जनगणना कराने की घोषणा कर दी। हम सरकार के इस फैसले का पूरा समर्थन करते हैं, लेकिन सरकार को इसकी टाइमलाइन बतानी होगी कि जातिगत जनगणना का काम कब तक पूरा होगा?’
इस बीच, राजनीतिक हलकों में ये सवाल पूछा जा रहा है कि जिस मोदी सरकार ने जाति जनगणना से इनकार कर दिया था उसके सामने ऐसी क्या मजबूरी आ गई कि वो जनगणना में जातियों की गिनती कराने के लिए राजी हो गई।
इस सवाल पर राजनीतिक विश्लेषक डीएम दिवाकर ने बीबीसी से कहा, ''मोदी सरकार ने जब जाति जनगणना से इनकार किया तो महागठबंधन (विपक्ष) ने इसे पूरे देश में मुद्दा बना दिया।’
‘इस बीच बिहार और कर्नाटक ने अपने-अपने तरीके से जो जाति सर्वे कराया और उससे पता चल गया कि पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों की कितनी आबादी है और उस हिसाब से राजनीति में उनकी कितनी हिस्सेदारी बन सकती है।अब मजबूरी में मोदी सरकार को जाति जनगणना कराने का फैसला लेना पड़ा है।’
क्या बिहार में चुनावी लाभ लेना है मक़सद?
भारत में 1931 में जाति जनगणना हुई थी उसके बाद देश में होने वाली जनगणनाओं में जातियों की गिनती नहीं की गई।
जनगणना में दलितों और आदिवासियों की संख्या तो गिनी जाती है और उन्हें राजनीतिक आरक्षण भी मिला हुआ है।
लेकिन पिछड़ी और अति पिछड़ी (ओबीसी और ईबीसी) जातियों के कितने लोग देश में हैं इसकी गिनती नहीं होती है।
माना जाता है कि देश की आबादी में 52 फ़ीसदी लोग पिछड़ी और अति पिछड़ी जाति के हैं। ओबीसी समुदाय के नेताओं का मानना है कि इस हिसाब से उनकी राजनीतिक हिस्सेदारी काफ़ी कम है।
विश्लेषकों का कहना है कि राजनीतिक दल इन समुदायों का समर्थन हासिल करने के लिए जाति जनगणना का समर्थन कर रहे हैं।
उनका कहना है कि ये समझ से परे था कि बीजेपी अब तक जाति जनगणना से क्यों कतरा रही थी जबकि ये माना जा रहा है कि पार्टी ने उत्तर प्रदेश समेत तमाम राज्यों में पिछड़ी जातियों और दलितों की गोलबंदी कर सत्ता का सफर आसान बनाया है।
कहा जा रहा है कि बीजेपी इन समुदायों के वोट तो ले रही है लेकिन उनकी संख्या नहीं बताना चाहती है।
क्योंकि ऐसा करते ही पता चल जाएगा कि राजनीति और ब्यूरोक्रेसी में पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी कितनी कम है।
तो सवाल ये है कि क्या बीजेपी का ये डर ख़त्म हो गया है। या फिर उसने बिहार (जहां इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं) में चुनावी लाभ लेने के लिए ये क़दम उठाया है।
जाति जनगणना
क्या बीजेपी को जाति जनगणना कराने का फ़ायदा बिहार के चुनाव में मिल सकता है?
बीबीसी के इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक शरद गुप्ता ने कहा, ‘बीजेपी इसके खिलाफ थी। उसने जातिगत जनगणना को देश को बांटने की कोशिश करने वाला बताया था। लेकिन एनडीए में शामिल बीजेपी की ज्यादातर सहयोगी पार्टियां इसके पक्ष में हैं। बिहार में अब बीजेपी की सहयोगी जनता दल यूनाइटेड और आरजेडी के साथ रहते साल 2023 में जाति सर्वे हो चुका है। कर्नाटक में कांग्रेस सरकार ने भी सर्वे कराया है।’
जेडीयू और एलजेपी (रामविलास) ने भी जाति आधारित जनगणना की मांग की है। संसद की ओबीसी कल्याण समिति में जेडीयू ने इस बात को उठाया था।
उस समय बीजेपी ने न तो खुले तौर पर जाति आधारित जनगणना का विरोध किया था और न ही उस पर कोई टिप्पणी की थी।
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘सहयोगी दल और विपक्ष दोनों का दबाव रहा है सरकार पर। सरकार ने देखा कि जब कई राज्य जाति सर्वे करा चुके हैं तो वो भी जातियों का गिनती करा सकती है। मजेदार तो ये है कि यूपी में योगी आदित्यनाथ सरकार ने कहा था कि वो जाति जनगणना नहीं कराएगी। लेकिन अब जब केंद्र सरकार ही इसके लिए मान गई है तो वो क्या करेंगे।’
शरद गुप्ता का मानना है कि जातिगत जनगणना के आंकड़े 2026 या 2027 के अंत में आएंगे और तब तक बिहार और यूपी के चुनाव हो चुके होंगे। इसलिए इसका चुनावी लाभ लेने की बात सही नहीं है।
उन्होंने कहा, ‘बीजेपी ने हाल के वर्षों में पिछड़ों और दलितों समुदाय को अपने साथ जोडऩे में कामयाबी हासिल की है। बीजेपी इस जातिगत गणना से ये भी दिखाना चाहती है कि पिछड़ों के एक-आध समुदाय को छोड़ दें तो ओबीसी समुदाय का बड़ा हिस्सा उसके साथ है। ये ओबीसी समुदाय की गोलबंदी की उसकी कोशिशों पर स्वीकृति की मुहर होगी। ’
क्या संघ के इशारे पर हुआ ये फैसला
बीबीसी ने जब वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक अदिति फडणीस से इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, ‘दरअसल मोदी सरकार के अंदर ये बदलाव जाति जनगणना को लेकर आरएसएस का नज़रिया सामने आने के बाद हुआ है।’
‘2024 सितंबर में आरएसएस की एक बैठक के बाद कहा गया कि जाति जनगणना को लेकर उसे कोई आपत्ति नहीं है लेकिन इसका राजनीतिक फ़ायदा नहीं लिया जाना चाहिए। हालांकि निश्चित तौर पर राजनीतिक दल इसका फ़ायदा उठाना चाहते हैं।’
दरअसल सितंबर 2024 में आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने एक बयान देकर इसका समर्थन किया था लेकिन ये भी कहा था कि ये संवदेनशील मामला है और इसका इस्तेमाल राजनीतिक या चुनावी उद्देश्यों के लिए नहीं किया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा था कि इसका इस्तेमाल पिछड़ रहे समुदाय और जातियों के कल्याण के लिए होना चाहिए।
साथ ही उन्होंने कहा था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उप वर्गीकरण की दिशा में बिना किसी सर्वसम्मति के कोई क़दम नहीं उठाया जाना चाहिए।
आरएसएस का बयान ऐसे समय में आया था, जब विपक्षी इंडिया गठबंधन जाति आधारित जनगणना को जोर-शोर से मुद्दा बनाए हुए था।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने दीघा में 250 करोड़ रुपये की लागत से जगन्नाथ मंदिर का निर्माण किया है। विपक्ष इसे जनता के पैसे की बर्बादी और हिंदुत्व की राजनीति करार दे रहा है। मंदिर का...
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट-
यह मंदिर, पश्चिम बंगाल के समुद्रतटीय पर्यटन केंद्र दीघा में बनाया गया है। करीब 250 करोड़ रुपये की लागत से बने इस मंदिर का उद्घाटन 'अक्षय तृतीया' के मौके पर 30 अप्रैल को होना है।
ममता बनर्जी इसके लिए 28 अप्रैल से ही दीघा में हैं। वही इसका उद्घाटन करेंगी। विपक्ष ने इसे जनता के पैसों की बर्बादी करार देते हुए ममता बनर्जी पर हिंदुत्व की राजनीति करने का आरोप लगाया है।
मंदिर के निर्माण का खर्च किसने दिया?
ममता बनर्जी ने साल 2019 में इस मंदिर की योजना बनाई थी। तब इसकी अनुमानित लागत करीब 143 करोड़ रुपये आंकी गई थी। कोविड महामारी की वजह से इसमें देरी हुई और साल 2022 में निर्माण कार्य शुरू हुआ।
करीब 22 एकड़ इलाके में बने इस मंदिर पर करीब 250 करोड़ रुपए की लागत आई है। पूरी रकम सरकारी खजाने से खर्च की गई है। मंदिर के निर्माण में राजस्थान के लाल पत्थर, यानी सैंडस्टोन का इस्तेमाल किया गया है।
मंदिर के फर्श पर वियतनाम से आयातित मार्बल का इस्तेमाल किया गया ह। कलिंग स्थापत्य शैली से बने इस मंदिर के शिखर की ऊंचाई 65 मीटर है। इसके निर्माण के लिए 2,000 से ज्यादा कारीगरों ने तीन साल तक काम किया है। इनमें से करीब 800 कारीगरों को राजस्थान से बुलाया गया था।
मंदिर का निर्माण ‘वेस्ट बंगाल हाउसिंग इंफ्रास्ट्रक्चर कॉर्पोरेशन’ ने कराया है। मंदिर के संचालन के लिए राज्य के मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक ट्रस्ट का गठन किया गया। इसमें जिला प्रशासक और पुलिस अधीक्षक के अलावा इस्कॉन, सनातन ट्रस्ट और स्थानीय पुरोहितों के प्रतिनिधि शामिल हैं।
मंदिर में बने तीन मंडपों की क्षमता करीब दो, चार और छह हजार लोगों की है। वहां धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। मंदिर परिसर में श्रद्धालुओं के रहने और आराम करने की जगह के अलावा दमकल स्टेशन और पुलिस चौकी भी होगी।
हिंदुत्व की राजनीति करने का आरोप
कई राजनीतिक विश्लेषक इस मंदिर के निर्माण को ममता बनर्जी के लिए बीजेपी के उग्र हिंदुत्व के मुकाबले का हथियार बता रहे हैं। बीजेपी ने इस परियोजना को कटघरे में खड़ा करते हुए कहा है कि राज्य सरकार सार्वजनिक रकम का इस्तेमाल किसी धार्मिक संस्थान के निर्माण के लिए नहीं कर सकती।
कांग्रेस और सीपीएम ने भी इसके लिए सरकार की खिंचाई की है। तृणमूल कांग्रेस ने कहा है कि सरकार ने स्थानीय लोगों की इच्छा का सम्मान करते हुए ही दीघा में यह मंदिर बनवाया है।
विधानसभा में विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी ने डीडब्ल्यू हिन्दी से बातचीत में कहा, ‘लोगों को यह पता होना चाहिए कि सरकारी रकम से मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारे नहीं बनाए जा सकते। यह मंदिर नहीं, बल्कि जगन्नाथ धाम सांस्कृतिक केंद्र है। पुरी स्थित जगन्नाथ धाम चार पवित्र धामों में से एक है। उसकी नकल को हिंदू समुदाय स्वीकर नहीं करेगा।’
बीजेपी के नेता शुभेंदु अधिकारी ने यह सवाल भी उठाया कि क्या इस मंदिर में भी पुरी की तर्ज पर सिर्फ हिंदुओं को ही प्रवेश मिलेगा? उनके मुताबिक, अगर ऐसा नहीं होता तो इससे करोड़ों हिंदुओं की भावना को ठोस पहुंचेगा।
उधर मंदिर में 28 अप्रैल से ही धार्मिक कार्यक्रम शुरू हो गए हैं। बीजेपी ने उद्घाटन के ही दिन, यानी 30 अप्रैल को कई अन्य कार्यक्रमों का आयोजन किया है। पार्टी के अध्यक्ष सुकांत मजूमदार ने डीडब्ल्यू हिन्दी से कहा, ‘हम बुधवार (30 अप्रैल) को मुर्शिदाबाद की हालिया हिंसा में नष्ट मंदिरों की मरम्मत का काम शुरू कर वहां पूजा-अर्चना करेंगे। इसके लिए हिंदू समाज ही आर्थिक मदद करेगा।’
इससे पहले शुभेंदु अधिकारी ने इसी महीने रामनवमी के दिन अपने विधानसभा इलाके नंदीग्राम में अयोध्या की तर्ज पर प्रस्तावित राम मंदिर की आधारशिला रखी थी।
रूस-यूक्रेन जंग को तीन साल से ज्यादा समय बीत गया है। रूस के हमलों की लगातार आलोचना होती रही है।
कई देशों ने मिल कर यूक्रेन और उसके राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की का समर्थन किया। अमेरिका में अपने दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव लड़ रहे डोनाल्ड ट्रंप ने वादा किया था कि राष्ट्रपति बनते ही वो एक दिन में इस समस्या को सुलझा देंगे। उनके राष्ट्रपति बनने के सौ दिन बाद भी जंग ख़त्म नहीं हुई है लेकिन इस दिशा में कुछ कदम ज़रूर उठाए गए हैं।
राष्ट्रपति ट्रंप ने रूस और यूक्रेन को युद्धविराम की बातचीत के लिए राज़ी कर लिया था। उन्होंने दो बार रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से फ़ोन पर बात भी की।
राष्ट्रपति ट्रंप के दोबारा सत्ता में आने के बाद विश्व व्यवस्था में बदलाव आते दिख रहे हैं।
पुतिन के प्रति अमेरिका के रुख़ में बदलाव देखा गया है। इससे पहले पुतिन अंतरराष्ट्रीय मंच पर अलग थलग पड़ गए थे। मगर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ,रूसी राष्ट्रपति पुतिन के साथ बातचीत के पक्ष में हैं। इसलिए इस सप्ताह हम दुनिया जहान में यही जानने की कोशिश करेंगे कि राष्ट्रपति पुतिन अब क्या चाहते हैं?
पुतिन की दुनिया
यूरोपियन काउंसिल ऑन फ़ॉरेन रिलेशंस में वरिष्ठ शोधकर्ता कदरी लीक की राय है कि राष्ट्रपति ट्रंप के सत्ता में आने के बाद से विश्व व्यवस्था बदल रही है और उनके सत्ता में आने से पुतिन को बड़ा फ़ायदा हुआ है।
वो कहते हैं, ‘अमेरिकी चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत पुतिन के लिए सौगात साबित हुई है क्योंकि विश्व व्यवस्था के बारे में उनकी सोच राष्ट्रपति पुतिन से मिलती जुलती है। उन्होंने रूस को यह युद्ध जीतने का मौका दिया है। इससे पहले यह संभव नहीं था क्योंकि अगर रूस युद्ध के मैदान में जीत भी जाता तब भी दुनिया में वो अलग थलग पड़ा रहता।’
राष्ट्रपति ट्रंप ने यूक्रेन को समर्थन देने के बदले में दो शर्तें पेश की हैं। एक तो यह कि यक्रेन के परमाणु संयंत्र अमेरिका के नियंत्रण में आ जाएं और दूसरे अमेरिका को यूक्रेन की खनिज संपदा के दोहन का अवसर मिले। अमेरिकी रुख से पुतिन की स्थिति मज़बूत हुई है। भविष्य में किसी समझौते से वो इससे अधिक की उम्मीद भी कर सकते हैं।
कदरी लीक ने कहा कि अगर ट्रंप विश्व व्यवस्था का स्वरूप बदलना चाहेंगे तो रूस के लिए यूक्रेन युद्ध में राजनीतिक विजय का रास्ता खुल सकता है।
उन्होंने कहा, ‘जिस तरह ट्रंप संभवत: कनाडा, ग्रीनलैंड और पनामा को हथियाने की बात करते हैं उससे उनकी और पुतिन की सोच एक जैसी लगती है। लेकिन ट्रंप प्रशासन में जैसी अफऱातफऱी का माहौल है उसे देखते हुए नहीं लगता कि ट्रंप और पुतिन विश्व व्यस्था पर चर्चा करते होंगे।’
इस अफरातफरी में कूटनीतिक संतुलन बनाए रखना आसान नहीं है। हमने व्हाइट हाउस में ट्रंप और जेलेंस्की की कड़वाहट भरी मुलाकात में देखा कि हवा किस तेजी से बदल सकती है। शांति और सौहार्दपूर्ण बातचीत अचानक टकराव में बदल गई और उसके बाद राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की और उनकी टीम व्हाइट हाउस से बाहर निकल गई।
बीते महीने लिबरल पार्टी का नेता चुने जाने के बाद पूर्व बैंकर मार्क कार्नी ने कनाडा के नए प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। लेकिन इसके तुरंत बाद उन्हें चुनावों के लिए तैयारी शुरू करनी पड़ी।
जनवरी में पूर्व प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने लिबरल पार्टी के नेता पद से इस्तीफा दिया था। इसके बाद से ही कनाडा में कई नेता मतदान कराने की मांग कर रहे थे।
लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कनाडा पर लगाए गए टैरिफ़ और ट्रेड वॉर के बाद जल्द चुनाव करवाना कनाडा के लिए मुमकिन नहीं था। लेकिन अब कनाडा में 28 अप्रैल को वोटिंग होनी है।
क़ानूनन कनाडा में दो संघीय चुनावों के बीच पांच साल का अधिकतम अंतर होना चाहिए।
आधिकारिक तौर पर कनाडा में 20 अक्तूबर 2025 को चुनाव होने थे। लेकिन हालात कुछ ऐसे बने जिसकी वजह से यहां जल्दी चुनाव करवाए जा रहे हैं।
कनाडा में जल्द चुनाव तब होते हैं जब या तो गवर्नर जनरल प्रधानमंत्री की सलाह मानकर संसद को भंग कर दें, या फिर संसद में सरकार के बहुमत नहीं साबित करने के बाद गवर्नर जनरल प्रधानमंत्री का इस्तीफा स्वीकार कर लें।
मार्क कार्नी ने पहले विकल्प को चुना है।
-नवीन सिंह खडक़ा
क्या भारत सिंधु नदी और उसकी दो सहायक नदियों को पाकिस्तान में बहने से रोक सकता है?
भारत ने मंगलवार को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए चरमपंथी हमले के बाद छह नदियों के जल बंटवारे से संबंधित सिंधु जल संधि को निलंबित कर दिया है। उसके बाद ये सवाल कई लोगों के मन में है।
1960 में हुई सिंधु जल संधि दो युद्धों के बाद भी कायम रही। इसे सीमापार जल प्रबंधन के एक उदाहरण के रूप में देखा गया।
यह रोक भारत के पाकिस्तान के ख़िलाफ़ उठाए गए कई क़दमों में से एक है। भारत ने पाकिस्तान पर चरमपंथ को समर्थन देने का आरोप लगाते हुए ये क़दम उठाए हैं। हालांकि पाकिस्तान ने ऐसे आरोप का साफ़तौर पर खंडन किया है।
पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ जवाबी कार्रवाई भी की है। पाकिस्तान ने कहा है कि पानी रोकने को 'युद्ध की कार्रवाई' के रूप में देखा जाएगा।
इस संधि के तहत सिंधु बेसिन की तीन पूर्वी नदियों रावी, ब्यास और सतलुज का पानी भारत को आवंटित किया गया। वहीं तीन पश्चिमी नदियों सिंधु, झेलम और चिनाब का 80 फ़ीसदी हिस्सा पाकिस्तान को आवंटित किया गया।
विवाद पहले भी हुए हैं। पाकिस्तान भारत के हाइड्रोपावर और वाटर इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स पर आपत्ति जता चुका है उसने तर्क दिया था कि इससे नदी का प्रवाह प्रभावित होगा और ये संधि का उल्लंघन होगा। (पाकिस्तान की 80 फ़ीसदी से ज़्यादा कृषि और लगभग एक तिहाई हाइड्रोपावर सिंधु बेसिन के पानी पर निर्भर है।)
भारत जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों के मद्देनजऱ सिंचाई और पेयजल से लेकर हाइड्रोपावर तक।। बदलती ज़रूरतों का हवाला देते हुए संधि की समीक्षा और संशोधन पर ज़ोर देता रहा है।
पहली बार हुई है ऐसी घोषणा
पिछले कई सालों से भारत और पाकिस्तान विश्व बैंक की मध्यस्थता में की गई संधि के तहत क़ानूनी रास्ते अपनाते रहे हैं।
लेकिन पहली बार किसी देश ने इसके निलंबन की घोषणा की है। खासकर ये देश भारत है जिसके पास भौगोलिक लाभ हासिल है।
हालांकि निलंबन का असली मतलब क्या है? क्या भारत सिंधु नदी के पानी को रोक सकता है या उसका रुख़ मोड़ सकता है, जिससे पाकिस्तान को उसकी लाइफ़लाइन से वंचित होना पड़ सकता है? सवाल ये भी है कि क्या भारत ऐसा करने में सक्षम भी है?
-राजवीर कौर गिल
‘दादाजी, क्या आप औरतों को आकर्षित करने का प्रयास करते हैं?’
खुशवंत सिंह की पोती ने जब अपने 77 वर्षीय दादा से यह सवाल पूछा था तो उनकी मां और दादी भी वहीं बैठी थीं। दरअसल, यह 16 वर्षीय स्कूली छात्रा अपने दादा खुशवंत सिंह से महिलाओं के साथ उनके संबंधों के बारे में पूछ रही थी।
खुशवंत सिंह लिखते हैं, ‘मैंने इसका सीधा जवाब दिया। हाँ, बिलकुल, तुम्हें नहीं पता कि हर दिन कितनी खूबसूरत महिलाएँ मुझसे मिलने आती हैं?’
खुशवंत सिंह ने ये कि़स्सा अपनी एक किताब में दर्ज किया है।
पोती के इस सवाल की भी वजह थी। स्कूल में खुशवंत सिंह की एक कहानी पढ़ाते हुए अध्यापक ने कहा था कि खुशवंत सिंह ‘एक शराबी और लापरवाह व्यक्ति’ हैं।
इसके बारे में खुशवंत लिखते हैं, ‘मैं इसके लिए उन्हें दोषी नहीं मानता। आम लोग मुझे इसी नजऱ से देखते हैं। काफ़ी हद तक इसके लिए मैं ख़ुद ही जि़म्मेदार हूं। मैंने ख़ुद को इस तरह रंग लिया है लेकिन असलियत में ऐसा बिल्कुल नहीं हूँ। पिछले 50 सालों से मैं शराब पी रहा हूँ लेकिन एक भी दिन मैं नशे में नहीं रहा और न ही महिलाओं को लेकर मेरी मानसिकता ऐसी है।’
खुशवंत सिंह की ये बातें उनकी किताब ‘अनफ़ॉरगेटेबल खुशवंत सिंह’ में दर्ज है। ट्रेन टू पाकिस्तान और सिख इतिहास जैसे संवेदनशील विषयों पर लिखने वाले खुशवंत सिंह को उनके बेटे और लेखक राहुल सिंह ‘बहुत मूडी और बेफिक्र इंसान’ बताते हैं।
पंजाबी इतिहासकार हरपाल सिंह पन्नू कहते हैं, ‘खुशवंत सिंह पंजाब और पंजाबी को दुनिया के सामने ले आए। उनकी वजह से पंजाब को पूरी दुनिया में सम्मान मिला।’ अपनी आत्मकथा में महिलाओं के साथ रिश्तों के बारे में इतनी स्पष्टता से लिखने के कारण पाठकों के एक वर्ग में ख़ुशवंत की आलोचना भी हुई।
हालाँकि, इस आलोचना का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उन्होंने 99 सालों तक अपना जीवन अपने अंदाज़ में जिया।
-अमिता नीरव
‘हाफ-विडो’ 2017 की फिल्म है। हालाँकि कश्मीर की पृष्ठभूमि में कश्मीरी महिलाओं की स्थिति पर ये फिल्म बनाई गई है, मगर ये शब्द हाफ-विडो अटक गया। इस शब्द का उपयोग मूल रूप से कश्मीर की उन महिलाओं के लिए किया जाता है, जिन्हें अपना मेरिटल स्टेटस ही नहीं पता है, उन्हें ये भी नहीं पता कि उनके पति जिंदा भी हैं या नहीं?
नब्बे के दशक के मध्य में जब पंजाब से आतंकवाद का सफाया हो चला था, पंजाब के आतंकवाद पर कई लेख, रिपोर्ट्स और स्टोरीज आने लगी थी। ज्यादातर के केंद्र में वो रणनीति थी, जिससे पंजाब को आतंकवाद से मुक्त करवा लिया गया। उसी दौरान एक-दो रिपोर्ट्स उन लोगों पर भी पढ़ी थी, जिनके परिवार उनके लौट आने की आस लगाए दर-दर की ठोकरें खा रहे थे।
किसी एक रात युवा लडक़ों या पुरुषों को पुलिस पकडक़र ले जाती और फिर वे कभी नहीं लौटते। उनके पीछे उनके परिवारों की मानसिक स्थिति क्या होगी आप समझ नहीं सकते हैं।
हम जो शांत-क्षेत्रों में रहते हैं, हम कभी समझ ही नहीं पाएँगे कि जो आपदग्रस्त क्षेत्रों में रहते हैं, उनके जीवन क्या और कैसे होते होंगे! इसे ही समझने के लिए उन क्षेत्रों पर बनाई गई गंभीर फिल्में, कहानियाँ, रिपोर्ट्स से हम सिर्फ जान सकते हैं, भयावहता का तो अनुमान भी नहीं लगा सकते हैं।
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पिछले साल इन्हीं दिनों हम कश्मीर में थे औऱ दो दिन पहलगाम में बिताए थे। कई कश्मीरियों से बात की थी, उस भयानक आतंकवाद के दौर को याद करते सिहरते कश्मीरियों को देखकर सहानुभूति होने लगी थी। बहुत सरसरी तौर पर वे आपको बताते हैं कि वे और कुछ नहीं चाहते बस शांति चाहते हैं, सामान्य जीवन जीना चाहते हैं,कि आतंकवाद के दौर में उनके बच्चों की पढ़ाई नहीं होती है, उनके रोजगार नहीं चलते हैं। हर वक्त दो तरफा दहशत बनी रहती है, कब सुरक्षा बल शक के आधार पर हमें उठा कर ले जाएँगे और कब आतंकी आतंकवादी घटना को अंजाम देने के लिए हमारे घर और हमारे बच्चों का इस्तेमाल कर लेंगे।
फर्राटे से बंगाली बोलने वाले दो कश्मीरी भाई, जो मूलत: तो श्रीनगर के हैं, लेकिन पहलगाम में दुकान चलाते हैं। जब उनसे उनके इतनी अच्छी बंगाली बोलने का कारण पूछा तो वे अचानक गंभीर हो गए। बोले, ‘जिस वक्त यहाँ हालात खराब थे, उस वक्त यहाँ कोई बिजनेस नहीं था। अब्बा के साथ मैं कलकत्ता चला गया था। कई साल कलकत्ता में रहा, वहीं से बंगाली सीखी। अब भी मैं पंद्रह-पंद्रह दिनों के लिए सर्दियों के मौसम में कलकत्ता जाता हूँ, बिजनेस के सिलसिले में।’, मैं चकित थी।
नब्बे और उसके बाद के सालों में कश्मीर के हालात पर बात करते हुए उनकी आवाज अतिरिक्त रूप से सतर्क, गहरी और उदास हो उठती है। वे बताते हैं, ‘अपने घर की औरतों और बच्चों को यहीं छोडक़र हम कई साल बंगाल में क्यों रहे? व्यापार करना था, आखिर घर भी तो चलाना था, बच्चों की पढ़ाई का भी खर्च था।’
‘क्या माहौल था?’, मैं पूछती हूँ तो शब्बीर भाई बताते हैं, ‘माहौल तो खैर बहुत खराब था।’ छोटे भाई ने इसी बीच इंटरप्ट किया। बताने लगे, ‘मैं तीन साल रहा होऊँगा, 1992 में। उस वक्त ईदी तक पाँच रूपए मिलती थी, उस वक्त छोटे-छोटे बच्चों को पाँच-पाँच सौ रूपए और बंदूक दे दी जाती थी, सोचिए, पाँच रूपए ईदी मिलने वाले बच्चे को जब पाँच सौ रुपए दिए जाए तो वह क्या करेगा?’
इसी सारे माहौल की वजह से अब्बा हम दोनों को यहाँ से कलकत्ता ले गए। हम वहीं रहते और व्यापार करते थे। फिर बड़े भाई बताने लगे, ‘ये उन दिनों की बात है, जब इसकी (छोटे भाई की तरफ इशारा किया था) सगाई होनी थी। तमाम मेहमान आ गए थे, टेंट लग गए, खाना बन रहा था। गाना-बजाना हो रहा था कि एकाएक पुलिस की जीप घर के सामने आकर रूकी।’ वो चुप हो गए, हम सन्न होकर कहने का इंतजार करने लगे। वे फिर बोले, ‘पुलिस ने कहा, आपको पूछताछ करने लिए थाने चलना होगा। इससे पहले कि हम कुछ कहें, सोचें, करे, इसे पकडक़र जीप में बैठा लिया। अब मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूँ? इसका तो जो हैं सो है, लडक़ी वालों को क्या कहूँगा! फिर मोहल्ले में लोगों को पता चला तो सारा मोहल्ला इक_ा होकर पुलिस थाने गया। वहाँ जाकर धरना दिया, तब इसे छोड़ा गया।’