विचार / लेख

तो क्या बाजपेयी भी गलत थे?
26-May-2025 10:51 PM
तो क्या बाजपेयी भी गलत थे?

-आर.के.जैन

अगर सवाल पूछना गलत था और युद्ध के बीच में सत्र करवाना अगर ग़लत था तो क्या बाजपेयी भी?

1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान जब देश गंभीर संकट में था, तब एक युवा सांसद अटल बिहारी वाजपेयी ने ऐसा कदम उठाया जो भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में मिसाल बन गया। उस समय वाजपेयी सिर्फ 36 साल के थे और जनसंघ (जो आगे चलकर भाजपा बना) के राज्यसभा सांसद के रूप में अपना पहला कार्यकाल पूरा कर रहे थे। युद्ध के बीच उन्होंने सरकार से जवाबदेही की मांग की और संसद का विशेष सत्र बुलाने की अपील की।

20 अक्टूबर 1962 को चीन ने भारत पर हमला किया। छह दिन बाद, 26 अक्टूबर को अटल बिहारी वाजपेयी ने जनसंघ के चार सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात की। उन्होंने युद्ध और उससे जुड़ी परिस्थितियों पर संसद में चर्चा की मांग की। वाजपेयी की इस मांग पर नेहरू ने तुरंत सहमति जताई और इस बात को साबित किया कि लोकतंत्र में संवाद और पारदर्शिता कितनी महत्वपूर्ण होती है, चाहे हालात कितने भी गंभीर क्यों न हों।

8 नवंबर 1962 को संसद का विशेष सत्र बुलाया गया, जबकि युद्ध अब भी जारी था और चीनी सेनाएं भारतीय सीमा में घुसपैठ कर रही थीं। कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि यह सत्र बंद कमरे में गुप्त रूप से आयोजित किया जाए, लेकिन नेहरू ने साफ कहा कि यह विषय पूरे देश से जुड़ा है और संसद में खुलकर बहस होनी चाहिए।

इस विशेष सत्र के दौरान कुल सात दिन तक चर्चा चली और 165 सांसदों ने इसमें भाग लिया। 9 नवंबर को अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी बात रखी। उन्होंने सरकार की विदेश नीति और रक्षा तैयारियों की तीखी आलोचना की। उनकी इस बात को गंभीरता से सुना गया, जबकि युद्ध की स्थिति अब भी चिंताजनक बनी हुई थी।

वाजपेयी का यह कदम सिर्फ एक विपक्षी सांसद की भूमिका तक सीमित नहीं था, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र की गहराई और मजबूती का प्रतीक बन गया। उन्होंने यह दिखाया कि राष्ट्रीय संकट की घड़ी में भी लोकतांत्रिक संवाद जरूरी है और सरकार को संसद के प्रति जवाबदेह रहना चाहिए।

यह घटना आज भी याद की जाती है जब बात संसद में सैन्य या रणनीतिक मामलों पर चर्चा की होती है। बाद के वर्षों में कई ऐसे मौके आए जब सरकारों ने युद्ध या संघर्ष के दौरान संसद को ज्यादा जानकारी नहीं दी या बहस से बचती रहीं। ऐसे समय में 1962 की यह घटना एक आदर्श बनकर सामने आती है, जहां एक युवा नेता ने संसद को उसकी सही भूमिका दिलाई और प्रधानमंत्री ने खुलेपन के साथ उसे स्वीकार किया और आज वही भाजपा संसद सत्र तो दूर सवालों के जवाब भी नहीं दे रही, फर्क स्पष्ट है दोनों का जिस तरह युद्ध के बीच में भाजपा नेताओं ने सवाल किया क्या उन्हें भी आज वही कहा जाए जिसका वह आजकल विपक्ष पर कर रही है ?


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