विचार/लेख
-प्रमोद भार्गव
संदर्भ: जिनेवा स्थित आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र की पिछले एक दषक के जारी आंकड़ों के अनुसार बेघर हुए लोग
दुनिया में प्राकृतिक आपदाओं के कारण पिछले एक दषक 2015 से 2024 के दौरान आंतरिक विस्थापन के कारण पर्यावरण शरणार्थियों की संख्या में बढ़ी वृद्धि दर्ज की गई है। इस कारण कुछ क्षेत्रों में अपेक्षाकृत अनेक बार प्राकृतिक आपदा के तीव्र और व्यापक खतरे उत्पन्न हुए। परिणामस्वरूप 210 देषों में 26.48 करोड़ लोगों को आंतरिक विस्थापन झेलना पड़ा है। जो न केवल एक रिकॉर्ड के रूप में सर्वाधिक है, बल्कि 2.65 करोड़ के दषकीय औसत से कहीं अधिक है। इस मामले में पूर्व और दक्षिण एशिया सबसे अधिक प्रभावी क्षेत्र रहे। देशों के स्तर पर बीते एक दशक में चीन, फिलीपींस, भारत, बांग्लादेश और अमेरिका में दर्ज विस्थापन के आंकड़े सबसे ज्यादा हैं। चीन में 4.69 और फिलीपींस में 4.61 करोड़ लोगों को अपने ही देष में विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा है। इसी कालखंड में भारत में बाढ़, तूफान और भू-स्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं के चलते 3.23 करोड़ लोगों को आंतरिक विस्थापन का संकट उठाना पड़ा है। किसी देश के अंदर विस्थापित होने वाले लोगों की संख्या के लिहाज से चीन और फिलीपींस के बाद भारत विष्व में तीसरे स्थान पर हैं। जिनेवा स्थित आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र (आईडीएमसी) की एक नई रपट में यह दावा किया गया है।
रपट के मुताबिक वैष्विक स्तर पर 90 फीसदी आपदा जनित विस्थापन बाढ़ और तूफान का परिणाम रहा है। सबसे ज्यादा तूफान के कारण 12.09 करोड़ लोगों को विस्थापन की परेषानी उठानी पड़ी है। इसी अवधि में बाढ़ के कारण 11.48 करोड़ लोगों का विस्थापन हुआ। वर्ष 2020 में वैश्विक स्तर पर समुद्री तूफान से हुए लोगों के विस्थापन में ‘अंफान’ सहित अन्य चक्रवातों की हिस्सेदारी 92 प्रतिशत रही। इस रिपोर्ट के अनुसार गरीब और निर्बल सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। उन्हें बार-बार और लंबे समय तक पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा है। सामाजिक असमानता और आर्थिक विसंगति के कारण इन लोगों को इन प्राकृतिक आपदाओं का भीशण संकट झेलना पड़ा है। जलवायु परिवर्तन के कारण दुनियाभर में हर साल औसतन 3 करोड़ लोगों को समुद्र और नदी तटीय बाढ़, सूखा और चक्रवती तूफानों के चलते भविश्य में भी ऐसी आपदाओं से विस्थापन का संकट झेलना होगा। यानी पर्यावरण शरणार्थियों की संख्या भविष्य में और विकराल रूप में पेश आएगी।
जलवायु विषेशज्ञों का मानना है कि इस विराट व भयानक संकट के चलते यूरोप, एशिया और अफ्रीका का एक बड़ा भूभाग इंसानों के लिए रहने लायक ही नहीं रह जाएगा। तब लोगों को अपने मूल निवास स्थलों से जिस पैमाने पर विस्थापन या पलायन करना होगा,वह मानव इतिहास में अभूतपूर्व होगा। इस व्यापक परिवर्तन के चलते खाद्यान्न उत्पादन में भारी कमी आएगी। अकेले एशिया में कृषि को बहाल करने के लिए हर साल पांच अरब डॉलर का अतिरिक्त खर्च उठाना होगा। बावजूद इसके दुनिया के करोड़ों लोगों को भूख का अभिशाप झेलना होगा। प्रकृति के अंधाधुंध दोहन के दुष्परिणामस्वरूप दुनियाभर में प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं।
विज्ञान पत्रिका ‘साइंस‘ में प्रकाषित अध्ययन में कहा गया है कि यदि वैष्विक तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो हिंदू कुष हिमालय के हिमखंडो की बर्फ इस सदी के अंत तक 75 प्रतिषत तक पिघल जाएगी। हिंदू कुश पर्वत के ये ग्लेशियर कई नदियों के उद्गम स्थल हैं और ये नदियां 2 अरब लोगों की आजीविका का साधन बनती हैं। यदि दुनिया के देश इस तापमान वृद्धि को पूर्व औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर सकें तो हिमालय और काकेशस पर्वत में स्थित हिमनदों की बर्फ 40 से 45 प्रतिशत सुरक्षित रह सकती है। इसके विपरीत यदि इस सदी के अंत तक दुनिया 2.60 डिग्री सेल्सियस गर्म होती है तो वैश्विक स्तर पर ग्लेशियर की बर्फ का केवल एक चौथाई हिस्सा ही बचेगा।
अध्ययन में कहा है कि मानव समुदायों के लिए सबसे अहम ग्लेशियर क्षेत्र जैसे कि यूरोपियन आल्प्स, पश्चिमी अमेरिका और कनाडा की पर्वत श्रृंखलाएं एवं आइसलैंड बुरी तरह से प्रभावित होंगे। दो डिग्री सेल्सियस तक तापमान पर यह क्षेत्र अपनी समूची बर्फ खो सकते हैं और 2020 के स्तर पर केवल 10-15 प्रतिशत ही बर्फ बची रह पाएगी। स्कैंडिनेविया पर्वत का भविष्य और भी भयावह हो सकता है, क्योंकि इस स्तर के तापमान में वहां के ग्लेशियरों पर बर्फ बचेगी ही नहीं। 2015 के पेरिस समझौते के द्वारा निर्धारित 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य तक तापमान को सीमित करने से सभी क्षेत्रों में कुछ ग्लेशियर पर बर्फ को संरक्षित करने में मदद मिलेगी। ये हालात मानव जीवन को अभूतपूर्व रूप में प्रभावित कर खतरे में डाल देंगे। इस कारण अकेले एशिया में 2 अरब लोगों को आजीविका का संकट झेलना पड़ सकता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि 2050 तक दुनिया भर में 25 करोड़ लोगों को अपने मूल निवास स्थलों से पलायन को मजबूर होना पड़ सकता है। जलवायु परिवर्तन की मार मालदीव और प्रषांत महासगर क्षेत्र के कई द्वीपों के वजूद को पूरी तरह लील होगी। इन्हीं आशंकाओं के चलते मालदीव की सरकार ने पर्यावरण संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण पहल करते हुए चर्चा के लिए समुद्र की गहराई में बैठकर औद्योगिक देशों का ध्यान अपनी ओर खींचा था ताकि ये देष कार्बन उत्सर्जन में जरूरी कटौती कर दुनिया को बचाने के लिए आगे आएं।
सीटू तिवारी
बिहार में फर्जी थाने से जुड़ी ये पहली घटना नहीं है। इससे पहले साल 2022 में बांका जिले में भी एक ऐसा ही मामला सामने आया था जिसमें दरोगा से लेकर चौकीदार तक सभी फर्जी थे। साल 2024 में जमुई के सिकंदरा थाना क्षेत्र से एक फर्जी आईपीएस भी पकड़ा गया था।
बिहार के पूर्णिया जिले में फर्जी थाना खोलकर नौकरी देने के नाम पर ठगी का मामला सामने आया है। ये मामले जिले की मोहनी पंचायत में सामने आया है जहां पर आरोप है कि थाने का कैंप ऑफि़स बनाकर कथित ट्रेनिंग और नौकरी दिलाने के नाम पर ठगी की गई।
यह कथित ट्रेनिंग बिहार ग्राम रक्षा दल और होम गार्ड में नौकरी दिलाने के नाम पर दिसंबर 2024 से जनवरी 2025 के बीच हुई।
हालांकि पूर्णिया एसपी कार्तिकेय के। शर्मा ने बीबीसी से कहा, ‘फर्जी थाने जैसा कोई मामला नहीं है। पंचायती राज विभाग के अंतर्गत ग्राम रक्षा दल की 30 दिन की ट्रेनिंग दी जाती है। मुख्य अभियुक्त राहुल कुमार साह इसी बिहार ग्राम रक्षा दल से जुड़ा है।’
कार्तिकेय के। शर्मा के मुताबिक़, ‘राहुल ने कुछ लोगों से नौकरी दिलाने के नाम पर ठगी की है। अभी तक हमें ऐसी 25 शिकायतें मिली हैं। इस पूरे मामले में स्थानीय मुखिया की भूमिका की भी जांच हो रही है।’
क्या है मामला?
बिहार में पूर्णिया जि़ले के कसबा थाना क्षेत्र में मोहनी नाम की पंचायत के मध्य विद्यालय, बेतौना में दिसंबर 2024 में बिहार राज्य दलपति एवं ग्राम रक्षा दल का एक बैनर लगाकर एक महीने की कथित ट्रेनिंग दी गई।
बिहार ग्राम रक्षा दल एवं दलपति ग्रामीण इलाक़ों में किसी भी आपात स्थिति में काम करते हैं। इसमें 18 से 30 साल के नौजवानों को रखा जाता है जो आग लगने, बाढ़ आने, महामारी, शांति बनाए रखने, भीड़ को व्यवस्थित करने आदि के लिए काम करते है।
इसी ट्रेनिंग को पूरा कर चुके युवक-युवतियों ने अब नौकरी के नाम पर ठगी किए जाने की शिकायत की है।
बीबीसी ने इस संबंध में ठगी का सामना करने वाले कई शिकायतकर्ताओं से बात की है।
23 साल की संजना कुमारी बी। कॉम की पढ़ाई कर रही हैं। उन्होंने भी कसबा थाने में शिकायत दर्ज कराई है।
संजना बताती हैं, ‘तकरीबन नौ महीने पहले हमसे डेढ़ हज़ार रुपये लिए गए थे। हम कुछ दिन स्कूल (मध्य विद्यालय, बेतौना) में ट्रेनिंग लेने भी गए थे। राहुल ने कहा था कि अगर ग्राम रक्षा दल को मान्यता मिल जाती है तो हम सबको सरकारी नौकरी मिल जाएगी। लेकिन अब तो राहुल फऱार हैं।’
एक अन्य महिला ने बताया, ‘हम उनको एनसीसी से जानते हैं और भाई मानते थे। पिछले एक साल से उसने कऱीब 300 लोगों को ठगा है। उसने सरकारी स्कूल में थाना बनाया और दारोगा बनकर घूमता था जबकि उसने ग्रेजुएशन भी नहीं किया है।’
‘उसने मेरी मम्मी को भी वर्दी दी और कहा कि सरकारी नौकरी हो गई है। लेकिन मम्मी को एक बार भी सैलरी नहीं मिली। वर्दी में बीजीआरडी (बिहार ग्राम रक्षा दल) लिखा है। वो दस से पंद्रह हज़ार रुपये मांगता था और कहता था कि 22 हज़ार रुपये सैलरी मिलेगी। उसने मुझे भी ज्वाइन करने को कहा था लेकिन मुझे संदेह हो गया।’
कई लोगों का दावा है कि राहुल ने भागलपुर, सुपौल, पूर्णिया, कटिहार सहित कई जिलों के नौजवानों को नौकरी के नाम पर ठगा है।
एक व्यक्ति नरेश कुमार राय बताते हैं, ‘बेरोजग़ारी में हमने ग्राम रक्षा दल का फ़ॉर्म भरा था, जिसके बाद हमें राहुल का फ़ोन आया कि हमारा चयन हो गया है। हमने कज़ऱ्ा लेकर उसे पहले डेढ़ हज़ार रुपये और उसके बाद ढाई हज़ार रुपये दिए थे। उसने कहा था कि नौकरी मिल जाएगी लेकिन वो बाद में धमकाने लगा।’
कसबा थाने की ‘मोहनी’ ब्रांच
स्थानीय पत्रकार सैयद तहसीन अली बताते हैं, ‘बेतौना में एक उप स्वास्थ्य केन्द्र की बिल्डिंग में एक तरफ स्कूल चलता है जबकि दूसरी तरफ एक छोटी बिल्डिंग ख़ाली पड़ी है। राहुल ने इस खाली पड़ी बिल्डिंग को ही थाना बना लिया था।’
‘ये एक तरह से कसबा थाने की मोहनी (पंचायत) ब्रांच थी जिसमें पुलिस की वर्दी में बैठकर वो बेरोजगारों को ठगता था। गांव वालों और लोगों पर रौब दिखाने के लिए वो पुलिस वालों के साथ सेल्फी लेकर सोशल मीडिया पर डालता था।’
करीब 25 साल के राहुल कुमार साह के बारे में इतनी जानकारी मिल पाई है कि वो एनसीसी कैडेट रहा है और उनका ज़्यादातर लोगों से एनसीसी के जरिए ही संपर्क हुआ था।
राहुल ने दिसंबर 2024 मध्य विद्यालय, बेतौना में बिहार राज्य दलपति एवं ग्राम रक्षा दल का बैनर लगाया था। इस बैनर की जो तस्वीरें अभी उपलब्ध हैं, उसमें इसके नीचे कसबा थाना लिखा है।
राहुल ने ही ख़ाली पड़े स्कूल में एक महीने की ट्रेनिंग कराई और 26 जनवरी 2025 को कथित ट्रेनिंग पूरी होने पर मोहनी के मुखिया श्यामसुंदर उरांव को बाकायदा अतिथि के तौर पर बुलाया था।
श्यामसुंदर उरांव ने कथित ट्रेनिंग पूरी कर चुके युवक युवतियों को सम्मानित किया। राहुल कुमार साह ने बाकायदा इस ट्रेनिंग के बाद पहचान पत्र बांटा।
श्यामसुंदर उरांव ने बीबीसी को बताया, ‘मुझको कुछ भी मालूम नहीं था। राहुल आया और ट्रेनिंग दिया। हमको लगा थाने को मालूम होगा। वो लडक़े लड़कियों की तीन घंटे ट्रेनिंग करवाता था। हम मुखिया हैं, हमको कोई भी किसी समारोह में बुलाएगा तो हम जाएंगे।’
क्या स्कूल में इस तरह की गतिविधि की इजाज़त थी? इस पर वो कहते हैं, ‘गांव के स्कूल के टीचर उससे बार बार कैंप लगाने के बारे में सरकारी पत्र मांगते रहते थे, लेकिन राहुल ने कभी दिया नहीं। वह बार-बार ये कहकर टाल जाता था कि पटना से आ रहा है। बाकी पूरी ट्रेनिंग के दौरान ऐसा कुछ हुआ नहीं कि शक हो।’
राहुल कुमार साह फरार हैं और मुखिया श्यामसुंदर उरांव की भूमिका की जांच भी पुलिस कर रही है।
-प्रियंका
भारत में 16 साल बाद जनगणना होने जा रही है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बीते बुधवार को बताया था कि एक मार्च, 2027 जनगणना की रेफऱेंस डेट होगी।
पहली बार देश में डिजिटल जनगणना होने जा रही है और आज़ाद भारत में पहली बार जातियों की गणना भी इसमें शामिल की जाएगी।
केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से जारी बयान के अनुसार जनगणना दो चरणों में कराई जाएगी।
पहले चरण में केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख़ और जम्मू-कश्मीर के साथ ही हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड राज्यों के बफऱ्ीले इलाक़ों में जनगणना की रेफऱेंस डेट एक अक्तूबर 2026 होगी। दूसरा चरण एक मार्च 2027 से मैदानी इलाक़ों में होगा।
रेफऱेंस डेट वो समय होता है, जिसके लिए आबादी का डेटा इक_ा किया जाता है। हालांकि, सरकार ने अभी तक ये नहीं बताया है कि जनगणना शुरू किस तारीख़ से होगी और ख़त्म किस तारीख़ पर होगी।
क्या होती है जनगणना
देश और यहां रहने वाले लोगों के विकास के लिए, ये जानना ज़रूरी होता है कि देश में रहने वाले लोग कौन हैं। वो किस स्थिति में हैं, कितने पढ़े-लिखे हैं, कौन क्या करता है, कितने लोगों के पास रहने को घर हैं, कितनों के पास नहीं हैं। उनकी सामाजिक स्थिति क्या है। जनगणना इन्हीं सब आंकड़ों को जुटाने की प्रक्रिया है।
किसी देश या क्षेत्र विशेष की आबादी के बारे में जनसांख्यिकीय, आर्थिक और सामाजिक डेटा इक_ा करने, उसके संकलन, विश्लेषण और सार्वजनिक करने को ही जनगणना कहा जाता है।
इसके तहत आबादी की आयु, लिंग, भाषा, धर्म, शिक्षा, व्यवसाय और निवास आदि को लेकर विस्तृत जानकारी जुटाई जाती है। इनका इस्तेमाल नीति बनाने और कल्याणकारी योजनाओं आदि के लिए किया जाता है।
भारत में 1872 से जनगणना हो रही है और आज़ाद भारत में अभी तक ये प्रक्रिया जारी रही।
देरी से क्यों हो रही है जनगणना?
भारत की जनगणना, जनगणना अधिनियम, 1948 के प्रावधानों के तहत की जाती है।
केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत आने वाला ऑफि़स ऑफ़ रजिस्ट्रार जनरल एंड सेंसस कमिश्नर जनगणना करवाता है।
भारत में हर 10 साल के अंतराल पर जनगणना कराई जाती है। पिछली जनगणना 2011 में दो चरणों में की गई थी।
अगली जनगणना 2021 में होनी थी लेकिन कोरोना महामारी की वजह से इसे टाल दिया गया था और अब ये करीब छह साल की देरी से कराई जाएगी।
इस साल एक फरवरी को पेश किए गए बजट में जनगणना के लिए 574।80 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। जबकि साल 2021-22 के बजट में इसके लिए 3 हज़ार 768 करोड़ रुपये का आबंटन किया गया था।
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अब बजट में कटौती के बारे में जानकारी दी है।
केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रवक्ता ने जानकारी दी है, ‘जनगणना का आयोजन 2021 में किया जाना था और जनगणना की सभी तैयारियां पूरी कर ली गई थीं। लेकिन, देशभर में कोविड-19 महामारी के प्रकोप के कारण जनगणना का काम स्थगित करना पड़ा। कोविड-19 का असर काफ़ी समय तक जारी रहा।’
‘जिन देशों ने कोविड-19 के तुरंत बाद जनगणना कराई, उन्हें जनगणना के आंकड़ों की गुणवत्ता और कवरेज से संबंधित समस्याओं का सामना करना पड़ा। सरकार ने जनगणना की प्रक्रिया तत्काल शुरू करने का निर्णय लिया है, जो जनगणना की संदर्भ तिथि अर्थात 01 मार्च, 2027 को पूरी होगी।’
एक्स पर दी जानकारी में कहा गया है, ‘जनगणना के लिए बजट कभी बाधा नहीं रहा है क्योंकि धनराशि आवंटन हमेशा सरकार द्वारा सुनिश्चित किया जाता रहा है।’
इस बार की जनगणना में क्या है अलग?
जनगणना की प्रक्रिया को जल्दी और सुचारू रूप से पूरा करने के लिए पहली बार 2027 की जनगणना डिजिटल माध्यम से होगी।
हालांकि, 1931 से लेकर अब तक की जनगणना में पूछे जाने वाले सवाल लगभग एक से होते हैं। लेकिन एक सवाल जो 1951 से नहीं होता था वो था संबंधित व्यक्ति की जाति से जुड़ा हुआ।
हालांकि, इसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़ी जानकारी होती थी लेकिन अन्य जातियों के बारे में ये जानकारी नहीं दी जाती थी।
मगर इस बार की जनगणना में हर शख़्स को अपनी जाति बताने का विकल्प दिया जाएगा, जिसे एक बड़े बदलाव के तौर पर देखा जा रहा है।
आज़ादी के बाद या 1931 के बाद ये पहली बार है जब जातिगत जनगणना, जनगणना का हिस्सा होगी।
विपक्षी पार्टियों की ओर से लंबे समय से जातिगत जनगणना कराए जाने की मांग हो रही थी। इसी साल अप्रैल महीने में सरकार ने एलान किया था कि अगली जनगणना में जातिगत जनगणना भी शामिल होगी।
बिहार में अपराध और दंबगई के मामले इन दिनों सुर्खियो में है। इलाज के अभाव में बलात्कार पीडि़त दलित बच्ची की मौत के बाद अब मामला एक बलात्कार पीडि़त के मददगार की पिटाई का है, जिसकी जान बड़ी मुश्किल से बची है।
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट-
गया में बीते दिनों बलात्कार के आरोपियों ने उस ग्रामीण चिकित्सक को एक पेड़ से बांध कर पीटा, जो पीडि़ता के घर कथित तौर पर उसकी मां का इलाज करने पहुंचा था। उसे इतना पीटा गया कि वह लहुलूहान हो गया। गांव में कोई उसकी मदद करने नहीं आया। एक बच्ची ने डॉक्टर जीतेंद्र यादव को पिटते देखा तो भाग कर मुख्य सडक़ पर पहुंची और संयोगवश वहां से गुजर रही की पुलिस की गाड़ी को रोक कर इसकी जानकारी दी।
पुलिस को देख बदमाश भाग गए। पुलिसकर्मियों ने उस डाक्टर को मुक्त कराया और फिर पास की क्लिनिक में ले जा कर इलाज कराया। बाद में उसे मेडिकल कॉलेज भेज दिया गया। अब तक मिली जानकारी के मुताबिक बताया गया कि डॉक्टर जीतेंद्र जिस महिला के घर आया था, उस घर की एक बच्ची के साथ साल 2021 में उस गांव के ही तीन-चार लोगों ने बलात्कार किया था। मामला अदालत में है।
पीडि़ता की मां का कहना है कि बलात्कार के आरोपी लगातार मुकदमा वापस लेने का दबाव बना रहे थे। इससे पहले भी मारपीट की थी। कुछ लोगों का कहना है कि आरोपियों को शक था कि डॉ जीतेंद्र मुकदमा लडऩे में पीडि़ता की मां की मदद कर रहे हैं। इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। उसके बाद इस मामले में एक जांच टीम गठित की गई है।
डॉक्टर को पीटे जाने के पहले ही मुजफ्फरपुर जिले में ही रेप के दो मामले को लेकर बिहार की सियासत गर्म थी। विपक्षी दल लगातार एनडीए सरकार पर निशाना साध रहे थे। दलित समुदाय की एक दस साल की बच्ची की बलात्कार के बाद हत्या की कोशिश की गई थी। इस बच्ची की छह दिनों बाद पटना मेडिकल कालेज अस्पताल में मौत हो गई। इसके इलाज मेें लापरवाही की बात को लेकर सरकार की खूब किरकिरी भी हुई। बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी प्रसाद यादव के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर डॉक्टर की पिटाई का पोस्ट डालने के बाद मामले ने तूल पकड़ लिया।
अपराधी की ओर से केस वापस लेने का दबाव
सामाजिक कार्यकर्ता मनिता श्रीवास्तव कहती हैं, ‘बलात्कार करने वाले या उनके सहयोगियों ने जो अपराध किया वह तो है ही, लेकिन उस गांव में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो उन बदमाशों को रोक सकता था।’ पूरा गांव मूकदर्शक बना रहा।
कई बार पुलिस जब किसी को पकडऩे जाती है या फिर कथित तौर पर मनमानी करती है तब तो यही लोग एकजुट होकर उन पर हमला करने या हिरासत में लिए गए व्यक्ति को छुड़ाने में लग जाते हैं।पुलिस ने इस मामले में दस नामजद लोगों में से तीन लोगों को गिरफ्तार कर लिया है। जीतेंद्र के बयान पर इस मामले में तीन महिलाएं भी नामजद की गई है।
आखिर क्यों पुलिस को टारगेट कर रही है बिहार की पब्लिक
दंबगई का यह पहला मामला नहीं है। बीते साल अगस्त में भी मुजफ्फरपुर कोर्ट परिसर में एक बलात्कार पीडि़ता को ही मुकदमा वापस नहीं लेने पर सरेआम पीटा गया था। सडक़ पर गिरी पीडि़ता बचाने की गुहार लगाती रही, लेकिन पूरे परिसर में कोई उसे बचाने नहीं आया। उसके परिजन जब बचाने पहुंचे तो उनके साथ भी मारपीट की गई। पुलिस के आने के बाद ही हमलावर भागे।
इस मामले में आरोपी युवक ने शादी का झांसा देकर लडक़ी का यौन शोषण किया था और शादी का दबाव बनाने पर वह मुकर गया था। इस मामले में जमानत याचिका खारिज होने पर उसके घरवाले और दूसरे आरोपी केस उठाने का दबाव बना रहे थे।
-विकास शर्मा
बस्तर की किस्मत बदलने वाला सपना, जो अधूरा रह गया था
अब फिर से पूरा होता दिख रहा है
छत्तीसगढ़ की बहुप्रतीक्षित बोधघाट परियोजना को लेकर एक बार फिर उम्मीदें जगी हैं। मुख्यमंत्री विष्णु देव साय की पहल पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस परियोजना को दोबारा शुरू करने के प्रस्ताव पर सहमति जताई है। साथ ही महानदी–इंद्रावती नदी लिंक योजना को लेकर भी बातचीत आगे बढ़ी है।
बोधघाट कोई नई बात नहीं है। इसकी योजना 50 साल पहले बनी थी। लेकिन लगातार अटकते-अटकते यह सपना अधूरा रह गया। अब जब फिर से केंद्र से समर्थन मिल रहा है, तो माना जा रहा है कि ये सिर्फ एक बिजली या सिंचाई परियोजना नहीं, बल्कि पूरे बस्तर के विकास की लाइफलाइन बन सकती है।
इंद्रावती नदी पर शुरू हुआ था विचार
1955 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू बस्तर दौरे पर आए थे, तभी इंद्रावती पर पनबिजली संयंत्र का विचार आया। फिर 1970 में पहली रिपोर्ट बनी जिसमें 240 मेगावॉट की क्षमता वाली तीन इकाइयों का प्रस्ताव था। इसके अलावा भविष्?य में नेलगोरा, कुटरू और माजिमेन्द्री जैसे इलाकों में बिजली संयंत्र लगाने की योजना भी थी।
डॉ. नागराजा राव की रिपोर्ट ने यह भी बताया था कि इस इलाके में खनिज और वन आधारित उद्योगों की बड़ी संभावनाएं हैं।
कभी 37 करोड़, अब 29 हज़ार करोड़!
जब योजना बनी थी, तब लागत सिर्फ 37.5 करोड़ रुपये आंकी गई थी। लेकिन फाइलें घूमती रहीं और कीमतें बढ़ती गईं।
1986 तक ये 600 करोड़ हो गई। जब 2020 में इसे मुख्य रूप से सिंचाई परियोजना के रूप में फिर से लाया गया, तब इसकी लागत 22 हज़ार करोड़ थी। अब इसका अनुमानित खर्च 29 हज़ार करोड़ पहुंच चुका है।
विश्व बैंक तक पहुंची थी योजना
लागत बढ़ती देख भारत सरकार ने 1983 में विश्व बैंक से कर्ज लेने की मंजूरी दी। वाशिंगटन तक चर्चा हुई और 1985 में विश्व बैंक ने 300 मिलियन डॉलर देने का फैसला भी कर लिया।
शिलान्यास और शुरुआती काम
1979 में जब पर्यावरणीय मंजूरी मिल गई, तो प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई खुद बारसूर पहुंचे और शिलान्यास किया। एमपी विद्युत मंडल की टीम तैनात हुई। पुल, सुरंग, आवास, हेलीपैड – सबका काम शुरू हो गया था। 53 लाख रुपये देकर 500 हेक्टेयर ज़मीन का अधिग्रहण भी हो चुका था।
-इमरान कुरैशी
भारतीय लेखिका बानू मुश्ताक़ को उनके जिस लघु कथा संकलन ‘हार्ट लैंप’ के लिए इस साल अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से नवाज़ा गया है, वो कि़ताब लगभग 35 विदेशी भाषाओं और 12 भारतीय भाषाओं में पब्लिश होगी।
ये जानकारी ख़ुद बानू मुश्ताक़ ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में दी है। उन्होंने बताया कि 'हार्ट लैंप' पर एक ऑडियो बुक भी बन रही है।
बीबीसी के लिए वरिष्ठ पत्रकार इमरान क़ुरैशी ने बानू मुश्ताक़ से उनके साहित्य के सफऱ और जि़ंदगी की चुनौतियों पर बात की है।
पढि़ए उस लेखिका की कहानी, जिसकी मूल रूप से कन्नड़ में लिखी कि़ताब ने दुनिया में नाम कमाया है।
‘पिता के दोस्त ने कहा था... बहुत किताबें लिखेगी’
बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि शुरू में जब स्कूल में उनका नाम लिखाया गया था, तब वो कुछ भी नहीं सीख पाई थीं। इसकी वजह ये थी कि उनका दाखिला उर्दू मीडियम स्कूल में कराया गया था, जहां का माहौल उन्हें पसंद नहीं था।
इस बारे में बानू मुश्ताक़ कहती हैं, ‘हमारे यहां प्रैक्टिस ऐसी थी कि लडक़ों को कन्नड़ मीडियम में पढ़ाया जाता था और लड़कियों को उर्दू मीडियम स्कूल में, ताकि लड़कियां मज़हबी साहित्य से वाकिफ़ हों और वो घरेलू माहौल में ढल सकें।’
‘जब मेरा नाम उर्दू मीडियम स्कूल में लिखवाया गया, तो पता नहीं क्यों मुझे वो माहौल पसंद नहीं आया। वो टीचर्स भी पसंद नहीं आए। और मैं बिल्कुल भी नहीं पढ़ी। मैं एक साल तक स्कूल जाती रही, लेकिन एक अक्षर तक नहीं सीखा।’
बानू मुश्ताक़ के मुताबिक़ इस बात से उनके पिता बहुत परेशान हुए थे क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि उनकी बेटी कुछ बनेगी।
अपने पिता की इस उम्मीद की वजह के बारे में वो बताती हैं, ‘मेरे अब्बा के बहुत सारे ब्राह्मण दोस्त थे। जब मैं पैदा हुई, तो एक दोस्त ने उनको कुछ लिखकर दिया था, वो मैंने भी पढ़ा है। उसमें लिखा था कि ये बड़ी होकर बहुत सारी कि़ताबें लिखेगी और दुनिया में नाम कमाएगी।’
बानू मुश्ताक़ कहती हैं कि जब उनके पिता ने देखा कि वो कुछ पढ़ नहीं रही हैं तो उनका नाम कन्नड़ मीडियम स्कूल में लिखवाया गया।
वो बताती हैं कि उनकी उम्र उस वक्त कक्षा तीन-चार में जाने की हो गई थी। इस स्कूल में वो एक हफ़्ते में ही अल्फ़ाबेट सीख गईं और इसके बाद छह महीनों में वो कन्नड़ भाषा की कि़ताबें पढऩे में सक्षम हो गई थीं।
किन चुनौतियों का सामना किया?
बानू मुश्ताक़ कहती हैं कि उन्होंने वो सभी दुश्वारियां और पाबंदियां झेली हैं, जो एक भारतीय, एक मुस्लिम और एक महिला की पहचान के तहत सामने आती हैं।
बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि वो कॉलेज में काफी एक्टिव रहती थीं, वो डिबेट में हिस्सा लेती थीं, लिटरेरी फोरम में भी एक्टिव रहती थीं।
वो बताती हैं कि उनकी शादी जिन व्यक्ति से हुई, वो कॉलेज में उनके सीनियर थे और कॉलेज में बानू की इसी पहचान के नाते वो उन्हें पसंद करते थे।
वो बताती हैं कि जब उनकी शादी हुई, तब समाज में ये माना जाता था कि अगर किसी भी पत्नी को काम करना है तो टीचर बनकर दस से पांच बजे तक का काम करे।
बानू मुश्ताक़ कहती हैं, ‘मैं टीचर तो थी ही, शादी के बाद मैंने रिज़ाइन किया था। इसकी वजह थी कि मैं घर की बड़ी बहू थी, मेरे ऊपर थोड़ी जि़म्मेदारियां थीं। हालांकि, रिज़ाइन करके मैं खुश नहीं थी। मुझे घर के बाहर भी लाइफ़ चाहिए थी, कुछ स्पेस चाहिए था।’
वो बताती हैं, ‘इस वजह से मेरे और मेरे पति के बीच झगड़े होते थे, लेकिन वो भी नहीं चाहते थे कि मैं पाबंदियों में रहूं। वो ख़ुद मज़बूर थे, वो भी कुछ नहीं कर सकते थे।’
बानू मुश्ताक़ कहती हैं, ‘जो मैं ये बोल रही थी कि मैं अपने हालात पर नाख़ुश थी, इसका ये मतलब नहीं कि कोई मुझ पर ज़ुल्म कर रहा था। ऐसा कुछ नहीं था।’
बानू मुश्ताक़ अपनी चुनौतियों के साथ उस सपोर्ट के बारे में भी बताती हैं, जो उनको अपने पिता और पति से मिला।
वो कहती हैं, ‘मेरे अब्बा हर तरह से कोशिश करते थे कि मेरा ओवरऑल डेवलपमेंट हो। मेरे पति भी चाहते कि मैं कुछ बनूं, कभी भी नहीं चाहते थे कि मैं घरेलू काम करूं। वो कहते थे कि मैं अपना काम करूं।’
वो बताती हैं, ‘जब मेरी बड़ी बेटी तीन महीने की थी। शायद पोस्टपार्टम डिप्रेशन भी होगा, मुझे पता नहीं, मगर मेरे पति को महसूस हो गया था। मुझे गुस्सा आ रहा था कि बस मेरा काम यही होगा कि मैं बीवी बनूं, मां बनूं और दूसरा क्या? ऐसा गुस्सा करती थी, झगड़ा करती थी।’
बानू मुश्ताक़ कहती हैं कि इस दौरान उन्होंने सुसाइड तक की कोशिश की। हालांकि, उनके पति ने उन्हें संभाल लिया। उनके मुताबिक़ ख़ुद को नुक़सान पहुंचाने का उनका ख़्याल कुछ पलों का था।
उनके पति ने समझाया कि अभी जि़ंदगी बाकी है, वो जो करना चाहती हैं, ज़रूर करेंगी।
महत्वपूर्ण जानकारी-
मानसिक समस्याओं का इलाज दवा और थेरेपी से संभव है। इसके लिए आपको मनोचिकित्सक से मदद लेनी चाहिए, आप इन हेल्पलाइन से भी संपर्क कर सकते हैं-
सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्रालय की हेल्पलाइन- 1800-599-0019 (13 भाषाओं में उपलब्ध)
इंस्टीट्यूट ऑफ़ ह्यमून बिहेवियर एंड एलाइड साइंसेज- 9868396824, 9868396841, 011-22574820
हितगुज हेल्पलाइन, मुंबई- 022- 24131212
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस- 080 - 26995000 )
एक्टिविस्ट बानू ने जब म्यूनिसिपल इलेक्शन जीता
बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि वो पहले एक्टिविस्ट बनीं।
कर्नाटक में उस वक्त कई तरह के सोशल मूवमेंट चल रहे थे, समाज में जागरुकता लाने का प्रयास चल रहा था। उस दौरान उन्होंने ऐसे आंदोलन में हिस्सा लिया, नारे लगाए, भाषण दिए। वो कहती हैं कि उनका ये काम बहुत से लोगों को पसंद नहीं आता था।
वहीं एक बार जब म्यूनिसिपल इलेक्शन हो रहे थे, तो उनके पिता को एक दोस्त ने सलाह दी कि वो उन्हें म्यूनिसिपल इलेक्शन लडऩे दें।
बानू मुश्ताक़ कहती हैं, ‘मेरे अब्बा आए और उन्होंने मेरा नॉमिनेशन फाइल करा दिया। हमने अलग तरह का कैंपेन किया था। हमने माइक वगैरह का इस्तेमाल नहीं किया। हमने हाथ से पर्चे बनाए, हम दोनों ने घर-घर जाकर वो पर्चे बांटे। मैं जीत गई।’
बानू मुश्ताक़ अपने पत्रकार बनने की कहानी भी बताती हैं।
वो कहती हैं, ‘एक बार फिर जब मैं उदास रहने लगी थी, तब मेरे पति मेरे लिए बहुत सारी कि़ताबें और मैगज़ीन लेकर आते। एक बार वो लंकेश पत्रिका लेकर आए। लंकेश पत्रिका पढक़र मुझे महसूस हुआ कि वो कुछ अलग है और इसमें मैं भी लिख सकती हूं।’
बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि उन्होंने इस्लाम और महिलाओं से जुड़े एक विषय पर एक आर्टिकल लिखकर लंकेश पत्रिका को भेजा था, जो उन्होंने छाप दिया।
इसके बाद उन्हें अलग-अलग मुद्दे पर लिखने के लिए कहा गया। बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि उन्होंने लंकेश पत्रिका के लिए 10 साल तक रिपोर्टिंग की।
-अनुराग चतुर्वेदी
आज वॉशिंगटन पोस्ट ने एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसमें यह उजागर किया गया है कि भारत के प्रमुख न्यूज़ चैनलों ने 9 मई की रात पाकिस्तान में तख्तापलट और युद्ध जैसी मनगढ़ंत खबरें फैलाईं, जो पूरी तरह झूठी साबित हुईं। रिपोर्ट में बताया गया है कि किस तरह व्हाट्सएप संदेशों, अज्ञात सूत्रों और सोशल मीडिया अफवाहों के आधार पर भारतीय मीडिया ने एक काल्पनिक युद्ध का तानाबाना बुना, जिसे न तो सेना ने पुष्टि की और न ही सरकार ने। यह रिपोर्ट भारतीय मीडिया की विश्वसनीयता, निष्पक्षता और पेशेवर जवाबदेही पर गंभीर सवाल खड़े करती है। आप भी पढ़ें:
नई दिल्ली: 9 मई को आधी रात के कुछ समय बाद, एक भारतीय पत्रकार को प्रसार भारती, जो कि भारत का सरकारी प्रसारक है, से एक व्हाट्सएप संदेश प्राप्त हुआ। संदेश में लिखा था कि पाकिस्तान के सेना प्रमुख को गिरफ्तार कर लिया गया है और एक तख्तापलट चल रहा है।
कुछ ही मिनटों में, उस पत्रकार ने यह जानकारी ङ्ग (पूर्व में ट्विटर) पर साझा कर दी, और अन्य पत्रकारों ने उसका अनुसरण किया। जल्द ही यह खबर भारत के प्रमुख समाचार चैनलों पर फैल गई और सोशल मीडिया पर वायरल हो गई।
यह ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ पूरी तरह से झूठी थी। पाकिस्तान में कोई तख्तापलट नहीं हुआ था। जनरल असीम मुनीर न केवल सलाखों के बाहर थे, बल्कि जल्द ही उन्हें फील्ड मार्शल के पद पर पदोन्नत किया गया।
यह पिछले महीने भारत और पाकिस्तान जैसे परमाणु हथियार संपन्न देशों के बीच दशकों की सबसे हिंसक रातों के दौरान भारतीय न्यूज़रूम में फैलने वाली गलत सूचना का सबसे स्पष्ट, लेकिन अकेला उदाहरण नहीं था।
वॉशिंगटन पोस्ट ने भारत के कुछ सबसे प्रभावशाली समाचार नेटवर्कों से जुड़े दो दर्जन से अधिक पत्रकारों और वर्तमान व पूर्व भारतीय अधिकारियों से बात की, यह जानने के लिए कि देश की सूचना प्रणाली कैसे झूठ और भ्रम से भर गई और कैसे इसने एक निर्णायक क्षण के बारे में जनता की समझ को विकृत कर दिया। पत्रकारों ने अपने नाम और नियोक्ता गोपनीय रखने की शर्त पर बात की, क्योंकि वे पेशेवर बदले का डर महसूस कर रहे थे। अधिकांश अधिकारियों ने संवेदनशील जानकारी पर चर्चा करने के लिए गुमनाम रहना स्वीकार किया।
भारत की पूर्व विदेश सचिव निरुपमा राव ने कहा कि जैसे-जैसे लड़ाई हर रात तेज होती गई, वैसे-वैसे कुछ ही भारतीय अधिकारी सामने आए जिन्होंने बताया कि वास्तव में हो क्या रहा है। इस खालीपन को टीवी समाचारों ने ‘अतिराष्ट्रवाद’ और ‘असामान्य विजयोल्लास’ से भर दिया, जिसे राव ने ‘एक समांतर वास्तविकता’ कहा।
टाइम्स नाउ नवभारत ने बताया कि भारतीय सेनाएं पाकिस्तान में घुस गई हैं; टीवी9 भारतवर्ष ने दर्शकों से कहा कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने आत्मसमर्पण कर दिया है; भारत समाचार ने दावा किया कि वे एक बंकर में छिपे हुए हैं। इन सभी चैनलों ने जी न्यूज, एबीपी न्यूज और एनडीटीवी जैसे बड़े नेटवर्कों के साथ बार-बार दावा किया कि पाकिस्तान के प्रमुख शहरों को नष्ट कर दिया गया है।
इन झूठे दावों का समर्थन करने के लिए, चैनलों ने गाज़ा और सूडान के संघर्षों, फिलाडेल्फिया में एक विमान दुर्घटना और यहां तक कि वीडियो गेम के दृश्य दिखाए। ज़ी न्यूज़, एनडीटीवी, एबीपी न्यूज़, भारत समाचार, टीवी9 भारतवर्ष, टाइम्स नाउ और प्रसार भारती ने इस पर टिप्पणी के अनुरोधों का जवाब नहीं दिया।
‘यह टीवी समाचार चैनलों के एक वर्ग द्वारा किए जा रहे काम का सबसे खतरनाक रूप है, जो पिछले एक दशक से बिना किसी नियंत्रण के जारी है,’ न्यूज़लॉन्ड्री की मीडिया आलोचक और प्रबंध संपादक मनीषा पांडे ने कहा। ‘इस बिंदु पर, वे फ्रेंकनस्टीन के राक्षसों की तरह हो गए हैं—पूरी तरह नियंत्रण से बाहर।’
‘बुरे फिक्शन लेखक’
भारत दुनिया के सबसे विस्तृत और भाषाई रूप से विविध मीडिया परिदृश्यों में से एक है। 900 टेलीविजऩ चैनल हर शाम भारत के शहरों और कस्बों में लाखों दर्शकों को आकर्षित करते हैं; ग्रामीण क्षेत्रों में अखबार अब भी व्यापक रूप से पढ़े जाते हैं।
पिछले कई दशकों में, देश की स्वतंत्र प्रेस ने सरकार के भ्रष्टाचार को उजागर करने और सत्ता को जवाबदेह ठहराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हालांकि, पिछले एक दशक में, विशेष रूप से टेलीविजऩ समाचार में, वह स्वतंत्रता क्षीण हो गई है। विश्लेषकों का कहना है कि भारत के कुछ सबसे बड़े चैनल अब नियमित रूप से सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के विचारों को दोहराते हैं—या तो वैचारिक मेल के कारण, या राज्य के दबाव के चलते, जिसने पत्रकारों को आतंकवाद, राजद्रोह और मानहानि कानूनों के तहत अभियोजन, नियामक धमकियों और कर जांचों के जरिए चुप कराने की कोशिश की है।
पांडे इस बदलाव को अवसरवाद से भी जोड़ती हैं। ‘इनमें से अधिकांश एंकरों के लिए सत्ता से मेल खाना एक सुनियोजित करियर कदम है,’ उन्होंने कहा।
इन न्यूज़रूम्स में पत्रकार संघर्ष के दौरान तथ्यों की जांच के अभाव से निराश थे। ‘पत्रकारिता अब बस वह चीज बन गई है जो आपके व्हाट्सएप पर किसी से भी आ जाए,’ एक प्रमुख अंग्रेजी भाषा के समाचार चैनल के पत्रकार ने कहा। ‘ऐसे समय में इसकी कीमत समझ में आती है।’
8 मई की आधी रात से ठीक पहले, द पोस्ट द्वारा देखे गए एक व्हाट्सएप संदेश विनिमय में, एक प्रमुख हिंदी भाषा के नेटवर्क के पत्रकार ने सहयोगियों को संदेश भेजा: ‘भारतीय नौसेना जल्द ही हमला कर सकती है,’ बिना नाम बताए सूत्रों का हवाला देते हुए। एक अन्य स्टाफर ने बस ‘कराची’ जवाब दिया, लेकिन स्रोत के बारे में कोई जानकारी नहीं दी। कुछ ही मिनटों में, चैनल झूठी रिपोर्ट प्रसारित कर रहा था कि भारतीय नौसेना ने कराची बंदरगाह पर हमला कर दिया है, जो पाकिस्तान का सबसे बड़ा शहर है।
‘चैनलों पर बुरे फिक्शन राइटर्स का कब्जा हो गया था,’ एक नेटवर्क कर्मचारी ने कहा।
एक अन्य न्यूज़रूम के पत्रकार ने बताया कि उनके चैनल ने रिपोर्ट तब प्रसारित की जब उन्हें भारतीय नौसेना और वायु सेना से ‘पुष्टि’ मिली। भारतीय सेना ने टिप्पणी के अनुरोध का जवाब नहीं दिया।
दूसरों ने स्वीकार किया कि उन्होंने यह खबर सत्तारूढ़ पार्टी के करीबी सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स या ओपन-सोर्स इंटेलिजेंस खातों से प्राप्त पोस्टों के आधार पर प्रसारित की।
स्वेता सिंह, जो कि इंडिया टुडे की एक लोकप्रिय एंकर हैं, ने ऑन एयर घोषणा की कि ‘कराची 1971 के बाद अपना सबसे बुरा सपना देख रहा है,’ उस वर्ष की ओर इशारा करते हुए जब दोनों देशों के बीच सबसे विनाशकारी युद्ध हुआ था। ‘यह पाकिस्तान को पूरी तरह खत्म कर देता है,’ उन्होंने जोड़ा। सिंह ने टिप्पणी के अनुरोधों का उत्तर नहीं दिया।
9 मई की सुबह 8 बजे के आसपास, कराची पोर्ट ट्रस्ट ने ङ्ग पर पोस्ट किया कि कोई हमला नहीं हुआ है। लेकिन कुछ हिंदी अखबार पहले ही यह खबर अपने पहले पन्ने पर छाप चुके थे।
जब झूठी रिपोर्टें भारतीय चैनलों पर गूंज रही थीं, रिटायर्ड सैन्य अधिकारियों ने पैनल चर्चाओं में उन्हें सत्यता प्रदान की। ब्रेकिंग न्यूज़ बैनर के साथ लड़ाकू विमानों की एनिमेटेड ध्वनियाँ चल रही थीं। एक समय तो सरकार को सार्वजनिक सलाह जारी करनी पड़ी, जिसमें प्रसारकों को चेतावनी दी गई कि वे अपने ग्राफिक्स में एयर रेड साइरन का उपयोग न करें, क्योंकि इससे जनता वास्तविक आपात स्थितियों के प्रति असंवेदनशील हो सकती है।
सरहद पार पाकिस्तानी मीडिया ने अपनी झूठी खबरें चलाईं—कि भारत ने अफगानिस्तान पर बमबारी की और पाकिस्तान ने भारत के सेना ब्रिगेड मुख्यालय को नष्ट कर दिया। इनमें से कुछ झूठे दावे पाकिस्तानी सैन्य प्रवक्ता लेफ्टिनेंट जनरल अहमद शरीफ चौधरी द्वारा लाइव समाचार सम्मेलनों के दौरान सीधे आए; एक में, चौधरी ने एक भारतीय प्रेस कॉन्फ्रेंस की क्लिप दिखाई जिसे इस तरह से एडिट किया गया था कि ऐसा लगे कि भारत ने पाकिस्तान पर नागरिक ढांचे को निशाना बनाने का आरोप नहीं लगाया।
पाकिस्तानी सेना के मीडिया विभाग ने पोस्ट को एक बयान में कहा, ‘हम उन सूचनाओं और प्रेस विज्ञप्तियों पर कायम हैं जो हमारे पास उपलब्ध सत्यापित खुफिया जानकारी और डिजिटल साक्ष्यों पर आधारित हैं।’
भारत में इस पूरे अराजकता का बड़ा कारण था प्रतिस्पर्धा। एनडीटीवी पर, जो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के रॉयटर्स इंस्टीट्यूट के अनुसार देश का सबसे अधिक देखा जाने वाला समाचार चैनल है, एक फील्ड रिपोर्टर की ‘हॉट माइक’ पर नियंत्रण कक्ष से झुंझलाहट रिकॉर्ड हो गई- ‘पहले आप कहते हो, ‘अपडेट दो, अपडेट दो,’ और फिर कहते हो, ‘क्यों गलत दे दिया?’
हिंदी समाचार चैनल आज तक के एक टॉक शो में, दर्शकों में एक युवक ने पूछा कि ‘अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने जो शर्मिंदगी हुई, जब हमारे चैनलों ने अपुष्ट खबरें फैलाईं, उसका क्या?’ रिपोर्टर ने माइक घुमा दिया, ताकि वह सवाल पूरा न कर सके।
टीवी टुडे (जो आज तक और इंडिया टुडे को संचालित करता है) के जनसंपर्क प्रमुख ने टिप्पणी के अनुरोधों का उत्तर नहीं दिया।
एक प्रमुख अंग्रेजी समाचार चैनल के एंकर ने पोस्ट से कहा, ‘मैं इस स्थिति से अवसाद में चला गया था। अब आत्ममंथन का समय है।’
-घनाराम साहू आचार्य
दो दिन पहले एक चर्चा में एक ब्राह्मण मित्र ने कश्मीरी पंडितों के पलायन का संदर्भ देते हुए कहा कि छत्तीसगढ़ में साहू समाज के लोग भी धर्मांतरण कर रहे हैं। उनके इस कथन ने कश्मीर को लेकर मेरी जिज्ञासा को जगाया, और मैंने सन 1931 की जनगणना रिपोर्ट को सरसरी तौर पर पढ़ लिया।
रिपोर्ट में कुछ रोचक आंकड़े मिले, जिनमें दो बिंदुओं पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है। रिपोर्ट के अनुसार, 1931 में जम्मू और कश्मीर की कुल आबादी 36,46,243 थी, जिनमें 2,02,161 ब्राह्मण, 63,088 कश्मीरी पंडित और 15,843 तेली थे। यहाँ यह स्पष्ट होता है कि ब्राह्मणों की संख्या कश्मीरी पंडितों से तीन गुना अधिक थी।
अधिकांश लोग समझते हैं कि ‘कश्मीरी ब्राह्मण’ और ‘कश्मीरी पंडित’ एक ही होते हैं, लेकिन ये दो अलग-अलग जातियाँ हैं। हालांकि, मेरी जानकारी में इनके बीच वैवाहिक संबंध होते थे। सेंसस की तालिका को देखने से पता चलता है कि 1911 से 1931 के बीच अनेक हिंदू जातियाँ जम्मू-कश्मीर से पलायन कर चुकी थीं।
विगत 30-40 वर्षों से आतंकवाद के फैलाव के साथ कश्मीरी पंडितों के पलायन की चर्चा आम है। तो क्या आतंकी कश्मीरी ब्राह्मणों को नहीं सताते थे? और क्या कश्मीरी पंडितों में ऐसा क्या विशिष्ट था कि उन्हें ही विशेष रूप से निशाना बनाया गया?
अब जऱा तेली समाज की बात करें। जैसा कि ऊपर लिखा है, 1931 में जम्मू-कश्मीर में कुल 15,843 तेली थे, जिनमें से केवल 21 हिंदू धर्म के अनुयायी थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि अधिकांश तेली 1911 से 1931 के बीच वहां से पलायन कर गए होंगे।
अब यदि छत्तीसगढ़ के तेली समाज को देखें, तो लगभग 19 प्रकार की शाखाएँ पाई जाती हैं, जिनमें अधिकतर ‘साहू’ उपनाम लिखते हैं। ये शाखाएँ उनके मूल स्थान की पहचान से जुड़ी होती हैं।
मेरे स्वर्गीय पिताजी बताया करते थे कि हमारे परिवार में उनका विवाह ब्राह्मण पद्धति से हुआ था, जबकि उनके पूर्वजों का विवाह ‘मझली पद्धति’ से होता था, जिसमें ब्राह्मण पुरोहितों की आवश्यकता नहीं होती। हमारे जातीय संगठन के नियमों में मझली विवाह को आज भी सर्वोच्च स्थान प्राप्त है।
इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पिछले 100 वर्षों में साहू समाज में ‘ब्राह्मणीकरण’ की प्रक्रिया हुई है और आज अधिकांश साहू ब्राह्मण परंपराओं का अनुसरण करते हैं। फिर भी, अनीश्वरवादी साहूओं की संख्या भी कम नहीं है। बताया जाता है कि कुछ दशक पहले तक एक-तिहाई से अधिक साहू ‘कबीरहा’ थे।
-डॉ आर के पालीवाल
बेतवा नदी के कुछ महीने पहले सूखे उदगम स्थल को पुनर्जीवित करने के लिए हम लोगों ने जन सहयोग का एक भागीरथ प्रयास का आव्हान किया था। हम लोगों ने बेतवा नदी के अध्ययन एवं जन जागरण समूह की तरफ से मध्य प्रदेश के प्रकृति प्रेमी नागरिकों से अपील की थी कि वे 25 मई से 31 मई तक सामूहिक श्रमदान से नदी के उदगम स्थल के कैचमेंट एरिया में जगह जगह चैक डैम बना कर बेतवा नदी के उदगम स्थल को पुनर्जीवित करने के लिए जल संरक्षण करने के रचनात्मक कार्य में सहभागिता करें। इस आव्हान पर अमल होना थोड़ा मुश्किल दिखता था क्योंकि यही नौतपा की सड़ी गर्मी का दौर था और जल संरक्षण के कार्य बरसात के पहले ही संपन्न हो सकते हैं। पुरानी कहावत है कि मुश्किल वक्त में ही लोगों की अग्नि परीक्षा भी होती है, इस दृष्टि से यह आव्हान हम सब प्रकृति प्रेमियों के लिए चुनौती भी थी।
25 मई को जब यह अभियान शुरू हुआ तो तपती गर्मी में भोपाल और विदिशा के लगभग एक दर्जन लोग ही श्रमदान के लिए पहुंचे। हमारे दो साथी अरविंद द्विवेदी और विनोद पटेरिया ने श्रमदान से पहली रात झिरी गांव में रात्रि विश्राम कर ग्रामवासियों से भी श्रमदान की अपील की। गांव के बच्चों ने उनकी बात पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया और कई बच्चे उत्सुकता वश श्रमदान में शामिल हुए। पहले दिन सुबह और शाम के सत्र में केवल दो चैक डैम बन सके। दूसरे दिन श्रमदान में कुछ और साथी जुड़े और बच्चों की संख्या में भी इजाफा हुआ और इस दिन तीन चैक डैम बने। जैसे जैसे सप्ताह के दिन आगे बढ़े श्रमदानियों की संख्या और उत्साह निरंतर बढ़ता रहा। इस बीच भोपाल और दिल्ली से प्रकाशित होने वाले कई समाचार पत्रों में श्रमदान की चर्चा होने से काफी लोगों का ध्यान इस अभियान पर गया। श्रमदान के पांचवें और छठे दिन भोपाल, विदिशा, इंदौर, हरदा, बैतूल और गंजबासौदा के श्रमदानी समूहों का अदभुत सहयोग मिला। सप्ताह समाप्त होते होते सैकड़ों साथियों ने मन से श्रमदान कर मई की सड़ी गर्मी में मात्र सात दिन में 55 चैक डैम बनाकर अविश्वसनीय और अकल्पनीय इतिहास रच दिया।
बेतवा अध्ययन और जन जागरण समूह के माध्यम से पिछले तीन साल से हम बेतवा प्रेमी लोग बेतवा नदी की बदहाली पर समाज, सरकार, प्रकृति एवं पर्यावरण प्रेमियों और मीडिया का ध्यान आकर्षित करते आ रहे हैं। जब सरकार की तरफ से कोई ठोस प्रयास होता नहीं दिखा तो समूह ने मार्च 2025 में यह निर्णय किया कि हम सरकार के भरोसे हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठेंगे और बरसात से पहले भोपाल और आसपास के जिलों के जमीनी कार्यकर्ताओं को जोड़कर बेतवा उदगम स्थल का जल स्तर बढ़ाने के लिए जल संरक्षण के कुछ ठोस कार्य करेंगे। जगह जगह चैक डैम बना कर बरसात के पानी को बहने से रोकना सबसे जरूरी काम था इसलिए मई का अंतिम सप्ताह सामूहिक श्रमदान के लिए निश्चित किया गया। इस अभियान को आशातीत सफलता मिली। हमें विश्वास नहीं हो रहा कि हम लोगों ने एक सप्ताह में पचपन चैक डैम बना दिए क्योंकि मध्य प्रदेश सरकार पिछले तीन महीने में केवल तीन चैक डैम बनाकर पल्ला झाड़ लिया। हमारा यह अभियान इसीलिए संभव हो पाया कि हमें पूरे प्रदेश से समर्थन और सहयोग मिला। अब उम्मीद बनी है कि बरसात में ये चैक डैम काफी जल संरक्षण करेंगे और बेतवा उदगम स्थल का जल स्तर बढ़ाकर उसे पुनर्जीवित कर सकते हैं।
भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान ने कहा है कि पहलगाम हमले के बाद पाकिस्तान में की गई भारत की कार्रवाई के बारे में उसे पांच मिनट बाद ही बता दिया गया था।
सावित्री बाई फुले यूनिवर्सिटी पुणे में मंगलवार को ‘फ्यूचर वॉर्स एंड वॉरफ़ेयर’ पर एक ख़ास लेक्चर में जनरल चौहान ने कहा, ‘हमने जिस दिन ( 7 मई) हमला किया उसी दिन पाकिस्तान को इसके बारे में बता दिया था। हमने रात एक से डेढ़ के बीच हमला कया। इस ऑपरेशन के ख़त्म होने के पांच मिनट के बाद ही हमने पाकिस्तान को बताया कि हमने ये (हमला) किया है।’
जनरल चौहान ने कहा कि भारतीय सेना ने सीमा पार हमले के दौरान ‘बहुत ही तर्कसंगत’ तरीके से कार्रवाई की। ‘सिर्फ आतंकी ठिकानों पर हमले किए और नागरिक और सैन्य ठिकानों पर कार्रवाई से परहेज किया।’
भारत ने कश्मीर के पहलगाम में चरमपंथी हमले में 26 लोगों की हत्या के बाद पाकिस्तान स्थित 'आतंकवादी ठिकानों’ पर हमले के लिए 7 मई को ‘ऑपरेशन सिंदूर’ शुरू किया था।
जनरल चौहान ने कहा, ‘हमने उनके (पाकिस्तान के) डायरेक्टर जनरल ऑफ मिलिट्री ऑरपरेशंस को बता दिया था कि हमारा हमला सिर्फ आतंकवादियों के ठिकानों पर हुआ है। इसमें सैन्य ठिकाने शामिल नहीं हैं। साथ ही हमने ये सुनिश्चित किया है कि कोई अतिरिक्त नुकसान न हो, खास कर नागरिकों को।’
सिंगापुर में जनरल के बयान की क्यों थी चर्चा
इससे पहले, जनरल चौहान ने पाकिस्तान के साथ मई महीने में हुए सैन्य संघर्ष के दौरान भारत के लड़ाकू विमान गिराए जाने के सवालों पर जवाब दिया था। पिछले शनिवार को ‘ब्लूमबर्ग टीवी’ को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘ये जरूरी नहीं कि विमान गिराया गया, जरूरी ये बात है कि ऐसा क्यों हुआ।’
इसमें उन्होंने पाकिस्तान की ओर से छह विमानों को नुक़सान पहुंचने के दावे को सिरे से खारिज कर दिया था। जनरल चौहान के सिंगापुर में दिए गए इस इंटरव्यू की ख़ासी चर्चा हुई थी। कुछ विशेषज्ञों ने सीडीएस के बयान की आलोचना की थी तो कुछ ने ‘पाकिस्तान के पक्ष में एक तरह का नैरेटिव गढऩे’ का आरोप लगाया था।
प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने भी सीडीएस के इस बयान की आलोचना करते हुए कहा था कि ये सवाल (पाकिस्तान की ओर से भारतीय विमानों को मार गिराने के दावे के बारे में) तभी पूछे जा सकते हैं जब तत्काल संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए।
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा था, ‘मोदी सरकार ने देश को गुमराह किया है। अब धीरे-धीरे तस्वीर साफ़ हो रही है। कांग्रेस पार्टी कारगिल समीक्षा समिति की तर्ज पर एक स्वतंत्र विशेषज्ञ समिति से हमारी रक्षा तैयारियों की व्यापक समीक्षा की मांग करती है।’
जबकि सामरिक मामलों के जानकार ब्रह्मा चेलानी ने सीडीएस के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि यह खराब कूटनीति है।
उन्होंने एक्स पर लिखा था, ‘खराब सार्वजनिक कूटनीति। मोदी सरकार ने गैर-जरूरी तरीके से भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ़ को सिंगापुर भेजा, जहां उन्होंने रॉयटर्स को दिए इंटरव्यू में भारतीय लड़ाकू विमानों के नुकसान को स्वीकार करके पाकिस्तान को प्रोपगेंडा विक्ट्री सौंप दी।’
ब्रह्मा चेलानी ने लिखा ‘ऐसी स्वीकारोक्ति भारत की ज़मीन में की जानी चाहिए थी। साथ ही इस संघर्ष में पाकिस्तान को हुए नुक़सान के बारे में भारत को अपना आकलन बताना चाहिए।’
उन्होंने एक अन्य पोस्ट में कहा था प्रधानमंत्री मोदी ने समय से पहले सैन्य अभियान रोके जाने वाले नैरेटिव को रोकने के लिए रोड शो किए। लेकिन सीडीएस के बयान ने मोदी की कोशिशों को जटिल बना दिया है।
वहीं रक्षा विशेषज्ञ सी उदय भास्कर ने कहा था कि सीडीएस ने बहुत ही उचित जवाब दिया है।
उन्होंने कहा, ‘सीडीएस जनरल चौहान ने जो कहा वह बहुत उचित है। क्योंकि भारत के लिए यह नुक़सान से ज़्यादा एक सामरिक नुक़सान था। हम इसका सामना कैसे करते हैं यह महत्व रखता है। अगर आप उनके बयान को देखेंगे तो उन्होंने कहा है कि हमने किस तरह उन ग़लतियों और खामियों पर क़ाबू पाया जिनके कारण यह नुक़सान हुआ।’
उदय भास्कर ने कहा था कि भारत ने इससे पहले भी प्रेस ब्रीफिंग में नुकसान के बारे में बताया है। उन्होंने कहा था, ‘अगर आप सेना के ब्रीफिंग को याद करें तो एयर मार्शल एके भारती ने कहा था कि नुकसान होगा लेकिन हमें अपने उद्देश्य देखने होंगे।’
‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर बयान देकर घिरे थे जयशंकर
भारत के ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बारे में ‘पाकिस्तान को सूचना देने’ के विदेश मंत्री एस जयशंकर के बयान पर कांग्रेस पार्टी ने एक प्रेस कॉफ्रेंस कर केंद्र सरकार पर सवाल खड़े किए थे।
एस जयशंकर के बयान के बाद कांग्रेस नेता पवन खेड़ा ने प्रेस कॉफ्रेंस में कहा था, ‘एस जयशंकर के बयान के कारण पाकिस्तान और पूरी दुनिया में हमारी हंसी उड़ रही है।’
एस जयशंकर के बयान पर हंगामा शुरू होने के बाद भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) ने सफाई दी।
पीआईबी की फैक्ट चेक यूनिट ने सोशल मीडिया एक्स पर एक पोस्ट में लिखा, ‘केंद्रीय मंत्री डॉक्टर एस जयशंकर के बयान को गलत संदर्भ में पेश किया जा रहा है। पीआईबी फ़ैक्ट चेक ने सोशल मीडिया पर किए जा रहे ऐसे दावों का पूर्व में खंडन किया है।’
विदेश मंत्री एस जयशंकर पर राहुल गांधी के आरोपों के बाद बीजेपी प्रवक्ता सीआर केसवन ने कहा था कि राहुल गांधी का ट्वीट पूरी तरह से भ्रामक और खतरनाक है।
उन्होंने कहा था, ‘यह सच्चाई को तोड़-मरोड़ कर पेश करता है और हमारे सशस्त्र बलों को बदनाम करने के लिए तथ्यों को ग़लत तरीके से पेश करता है।।’
पत्रकारों के साथ बातचीत के एक वीडियो में विदेश मंत्री एस जयशंकर कहते नजऱ आ रहे हैं, ‘ऑपरेशन की शुरुआत में हमने पाकिस्तान को मैसेज भेजा था, जिसमें कहा था कि हम आतंकी ढांचों पर हमला कर रहे हैं। हम सेना पर हमला नहीं करेंगे। इसलिए सेना के पास एक विकल्प है कि वो इससे अलग रहें और इसमें दखल न दें। उन्होंने इस सलाह को न मानने का फ़ैसला किया।’
नए दौर के युवा राजनीति को अलग-अलग नजरिए से देख रहे हैं। लडक़े और लड़कियों की राय में फर्क है। यह अंतर ना केवल राजनीति बल्कि समाज पर भी असर डाल रहा है।
डॉयचे वैले पर सोनम मिश्रा का लिखा-
दूसरी पीढिय़ों के साथ तो जेन-जी (90 के दशक के मध्य के बाद जन्मे लोग) के मतभेद व्यापक है ही, हाल में हुए चुनावों में जेन-जी का आपसी मतभेद भी खुलकर सामने आ रहा है। अधिकतर युवकों का झुकाव दक्षिणपंथी विचारों की ओर है जबकि युवतियां वामपंथी विचारों का समर्थन करती नजर आ रही हैं।
यह अंतर ना केवल किसी एक देश में, बल्कि एशिया समेत पश्चिमी देशों में भी साफ देखा जा रहा है। पर्यवेक्षकों के अनुसार युवा पुरुष खुद को पिछड़ा हुआ महसूस करते हैं, जिसके लिए वह विविधता को जिम्मेदार मानते हैं। वहीं, युवा महिलाओं का मानना है कि अब नौकरी के अवसरों में समानता आ रही है।
दक्षिण कोरिया चुनाव में महिलाओं का आक्रोश
उम्मीद की जा रही है कि दक्षिण कोरिया के आगामी चुनावों में युवा महिलाएं मुख्य रूढि़वादी पार्टी के खिलाफ मतदान कर सकती हैं। महीनों से चल रहे उथल-पुथल का नतीजा 3 जून को होने वाले चुनाव के नतीजों में दिख सकता है।
फैशन : विंटेज खजाने की खोज में जेन जी
हालांकि युवा पुरुष इस विरोध में उनका साथ देंगे, ऐसे आसार बहुत कम हैं। कोविड महामारी से पहले तक आमतौर पर दोनों ही वर्ग प्रगतिशील विचारों के लिए वोट करते थे, लेकिन अब यह बदल गया है। हाल के चुनावों में, चाहे उत्तरी अमेरिका हो, यूरोप या एशिया, यह बदलाव साफ दिख रहा है। युवा पुरुष, खासतौर पर 20 साल की उम्र के आस-पास वाले, दक्षिणपंथ का रुख कर रहे हैं। जबकि, युवतियों का झुकाव वामपंथ की ओर है।
पहली बार वोट देने जा रहे दक्षिण कोरियाई युवा, ली जियोंग-मिन ने बताया कि वह 3 जून को राइट-विंग रिफॉर्म पार्टी के उम्मीदवार, ली जून-सिओक को वोट देने वाले हैं।
उम्मीदवार, ली जून-सिओक ने लैंगिक समानता मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ जेंडर इक्वालिटी) को बंद करने का वादा किया है। यह वादा ली जियोंग-मिन जैसे पुरुषों को आकर्षित कर रहा है। उनका मानना है कि केवल पुरुषों के लिए सैन्य सेवा अनिवार्य होना ठीक नहीं है।
उन्होंने कहा, ‘एक युवक होने के नाते मुझे कोरिया का यह नियम बहुत गलत लगता है। जब हम 21 या 22 साल के होते हैं, तब हमें समाज में हिस्सा लेने का पूर्ण मौका नहीं मिल पाता है, क्योंकि उस समय हमें 18 महीने की अनिवार्य सैन्य सेवा करनी पड़ती है।’
युवा पीढ़ी के आलसी होने के आरोप गलत
दक्षिण कोरिया में गैलप कोरिया के किये गए सर्वे में सामने आया कि 18 से 29 वर्ष के लगभग 30 फीसदी पुरुष और केवल 3 फीसदी महिलाएं रिफॉर्म पार्टी का समर्थन करते हैं।
किंग्स कॉलेज लंदन की राजनीतिक अर्थशास्त्री, सूह्युन ली बताती हैं कि बहुत से दक्षिण कोरियाई युवा पुरुषों को लगता है कि वह समाज की अच्छी नौकरी पाना, शादी करना, घर खरीदना और परिवार बसाना जैसी उम्मीदों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं।
उनमें से कई पुरुष इसके लिए नारीवाद को जिम्मेदार मानते हैं। उनका तर्क है कि महिलाओं को नौकरियों में प्राथमिकता दी जाती है। ली ने बताया कि दक्षिण कोरिया में प्रवास काफी कम है। इसलिए अपनी नाकामयाबी का दोष वह आराम से महिलाओं पर मढ़ देते है।’
लोकतंत्र से नाराज गुस्सैल युवा पुरुष
दक्षिण कोरिया समेत कई लोकतांत्रिक देशों में जेन-जी पुरुषों को लग रहा है कि अब उनके पास पहले जैसी सामाजिक ताकत नहीं रही। महामारी के बाद से यह स्थिति अधिक गंभीर हो गई है। कुछ देशों में तो 20 साल के आसपास के युवाओं में वेतन का अंतर भी महिलाओं के पक्ष में अधिक हो गया है।
यूरोपिय संघ के आंकड़ों के अनुसार, फ्रांस में 18-34 साल के पुरुषों ने पिछले साल के चुनावों में दक्षिणपंथी नेता, मरीन ले पेन की पार्टी को महिलाओं की तुलना में अधिक दिया। ब्रिटेन में भी युवा पुरुषों की तुलना में महिलाएं कंजर्वेटिव पार्टी को कम वोट करती हैं। सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि 16-24 वर्ष के पुरुष महिलाओं की तुलना में काम और पढ़ाई दोनों पीछे हैं।
पश्चिमी देशों में भी दक्षिण कोरिया जैसा ही चलन आमने आ रहा है। यहां युवक नौकरियों में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के लिए आप्रवासन और विविधता से जुड़े कार्यक्रमों को जिम्मेदार ठहराते हैं।
जर्मनी में फरवरी में हुए आम चुनाव में प्रवासी विरोधी पार्टी ‘अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी’ (एएफडी) ने रिकॉर्ड 20.8 फीसदी वोट हासिल किए। युवा पुरुषों के समर्थन ने उन्हें मजबूती दी। हालांकि इस पार्टी की नेता खुद एक महिला हैं। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 18-24 साल के पुरुषों में से 27 फीसदी ने एएफडी को वोट दिया। जबकि 35 फीसदी युवा महिलाओं ने वामपंथी पार्टी, ‘लिंके’ का समर्थन किया।
बर्लिन की 18 वर्षीय वोटर, मॉली लिंच, ने लिंके को जलवायु परिवर्तन और आर्थिक असमानता पर उसके रुख की वजह से वोट दिया। उन्होंने कहा, ‘बहुत से युवा पुरुष दक्षिणपंथी प्रचार के झांसे में आ रहे हैं क्योंकि वह परेशान हैं। उन्हें लगता है कि वह अपनी ताकत खो रहे हैं। जबकि असल में वह महिलाओं पर उस ताकत को खो रहे हैं, जो कभी बराबरी की थी ही नहीं।’
यह विभाजन केवल जेन-जी तक सीमित नहीं है। बल्कि, मिलेनियल्स, जो अब 30 से 40 की उम्र में हैं। वह भी इस बदलाव को काफी समय से महसूस कर रहे हैं।
कनाडा में पिछले महीने हुए चुनाव में 35-54 साल के पुरुषों में से 50 फीसदी ने विपक्षी कंजर्वेटिव पार्टी को वोट दिया। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के कनाडा पर लगाए गए टैरिफ के कारण यह चुनाव पूरी तरह से प्रभावित हुआ था। हालांकि, लिबरल पार्टी को हार का डर था लेकिन वह महिला मतदाताओं की बदौलत ट्रंप विरोधी लहर के जरिये फिर से सत्ता में लौट आए।
पोलिंग फर्म, इप्सोस के पब्लिक अफेयर्स के वैश्विक प्रमुख, डैरेल ब्रिकर ने कहा, ‘वह पुरुष जो जिंदगी में कुछ अनुभव ले चुके हैं। अब वह उस मोड़ पर खड़े हैं, जहां वह कहते हैं, ‘यह सब मेरे पक्ष में काम नहीं कर रहा, अब मुझे बदलाव चाहिए।’
कनाडा की पोलिंग कंपनी, नानोस रिसर्च की संस्थापक, निक नानोस सहमति जताते हुए बताती हैं कि सोशल मीडिया लोकतंत्र के गुस्सैल युवा पुरुष की मानसिकता को बढ़ावा दे रहा है। खासकर उन इलाकों में जहां ब्लू कॉलर नौकरियां यानी मजदूरी व कारखानों की नौकरियां खत्म हो चुकी हैं।
यौन रुझान कई तरह के हो सकते हैं। आप बड़े होकर किस लिंग के प्रति आकर्षित होंगे, यह किशोरावस्था में तय होता है। आपके शरीर और आसपास के माहौल का इस पर काफी ज्यादा असर होता है।
डॉयचे वैले पर अलेक्जांडर फ्रॉयंड का लिखा-
दुनिया भर में लाखों लोग 35 साल पहले अचानक ‘स्वस्थ’ हो गए। वह दिन था 17 मई, 1990। जब विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने समलैंगिकता को इंसानी रोगों की सूची से हटा दिया था। तब तक, समलैंगिक प्रेम को एक तरह की मानसिक बीमारी माना जाता था। प्रभावित लोगों को अक्सर सैनिटोरियम या जेलों में बंद कर दिया जाता था। बिजली के झटके देने वाली थेरेपी और दूसरी संदिग्ध मनोचिकित्सक पद्धति से ‘इलाज’ किया जाता था।
बर्लिन चैरिटी अस्पताल में सेक्सोलॉजी और यौन चिकित्सा संस्थान के निदेशक क्लाउस एम बायर ने कहा कि समलैंगिक, उभयलिंगी और ट्रांससेक्सुअल लोग बीमार नहीं हैं और कभी नहीं थे। बायर ने कहा कि इंसानों में यौन आकर्षण अलग-अलग तरह का होता है।
होमोसेक्शुएलिटी पर अब भी सवाल क्यों?
वह कहते हैं, ‘आजकल यह बात समझ में आ गई है कि कोई भी व्यक्ति अपनी पसंद से यह तय नहीं करता कि वह किस लिंग के व्यक्ति के प्रति आकर्षित होगा। यह किस्मत की बात है, अपनी मर्जी की नहीं। यौन रुझान, जिसे विशेषज्ञ ‘यौन पसंद की संरचना' कहते हैं, किशोरावस्था के दौरान विकसित होता है। यह व्यक्ति के सेक्स हार्मोन से प्रभावित होता है। इसी समय यह तय होता है कि उन्हें शारीरिक रूप से क्या आकर्षक लगता है और वे किस तरह का यौन संबंध चाहते हैं।’
बायर के मुताबिक, किशोरावस्था में इस बदलाव के बाद, जो यौन पसंद बनती है वह आमतौर पर बदलती नहीं है। उन्होंने कहा, ‘यौन रुझान किशोरावस्था में विकसित होता है और फिर जीवन भर के लिए स्थिर हो जाता है। भले ही, कुछ लोगों में यौन रुझान बदलने की इच्छा हो। उदाहरण के लिए, अगर सामान्य लोगों की तरह बनने का सामाजिक दबाव हो।’
समलैंगिकता कई जगहों पर समस्या बन गई है
सभी इंसानों के अधिकारों में अपनी यौन पसंद की स्वतंत्रता शामिल है। यौन आकर्षण हमेशा से अलग-अलग तरह का रहा है। यह ना तो कोई नया शौक है, और ना ही सिर्फ खुले विचारों वाले समाजों में ऐसा होता है।
बायर ने कहा, ‘हमारे पास मौजूद आंकड़ों के अनुसार, समलैंगिक रुझान लगभग 3 से 5 फीसदी आबादी में होता है और यह हर संस्कृति में ऐसा ही है। इंसानों में आकर्षण इसी तरह अलग-अलग होता है और इसे किसी और तरीके से नहीं देखा जा सकता है।’ इसलिए, किसी व्यक्ति के यौन रुझान की वजह से उसकी निंदा करना या उसका आकलन करना गलत है।
नेपाल में समलैंगिक शादी को मान्यता
इसके बावजूद, लोगों की यौन पसंद पूरे समाज को दो हिस्सों में बांट देती है। कई बार, इसकी वजह से उन्हें अलग-थलग किया जाता है, उनके साथ भेदभाव होता है और उन्हें सताया जाता है। उदाहरण के लिए, कम से कम 67 देशों में समलैंगिक होना जुर्म है और सात देशों में तो समलैंगिक यौन संबंधों के लिए मौत की सजा भी दी जा सकती है।
-बर्न्ड डेबुसमैन जूनियर
मस्क के जाने की घोषणा भी उसी दिन हुई जब अमेरिका में बीबीसी के सहयोगी सीबीएस ने मस्क के साथ एक साक्षात्कार का हिस्सा जारी किया। इसमें मस्क ने कहा था कि वह ट्रंप के ‘बिग ब्यूटीफुल ‘बजट बिल से ‘निराश’ हैं।
ट्रंप प्रशासन में एलन मस्क का उथल-पुथल भरा 129 दिनों का कार्यकाल समाप्त हो गया है। इस दौरान दुनिया के सबसे अमीर आदमी ने सरकारी खर्च में कटौती की, जिसे लेकर काफी विवाद भी हुआ था।
दक्षिण अफ्रीका में जन्मे अरबपति एलन मस्क ने इसी सप्ताह की शुरुआत में अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर राष्ट्रपति ट्रंप को डिपार्टमेंट ऑफ गवर्नमेंट एफिशिएंसी (डीओजीई) में उनके कार्यकाल के लिए धन्यवाद दिया था।
ट्रंप ने बताया कि वह शुक्रवार को मस्क के साथ ओवल ऑफिस में एक संवाददाता सम्मेलन आयोजित करेंगे।
उन्होंने लिखा, ‘यह उनका आखऱिी दिन होगा। वास्तव में ये आखिरी दिन नहीं होगा क्योंकि वह हमेशा हमारे साथ रहेंगे और हर तरह से हमारी मदद करेंगे।’
ट्रंप सरकार में मस्क का कार्यकाल चार महीने से कम था लेकिन सरकारी विभाग में उनके कार्यशैली ने अमेरिकी सरकार में उथल-पुथल मचा दी। इसका असर वॉशिंगटन में सत्ता के गलियारों से लेकर पूरी दुनिया में दिखा।
आइए कुछ ऐसे तरीकों पर नजर डालते हैं जिनसे मस्क ने अपनी छाप छोड़ी है।
डीओजीई के जरिये कटौतियों का सिलसिला
ट्रंप के व्हाइट हाउस में मस्क ने एक ही मिशन के साथ नौकरी स्वीकार की थी। वह थी सरकारी खर्च में यथासंभव कटौती करना।
उन्होंने ‘कम से कम दो ट्रिलियन डॉलर’ के लक्ष्य के साथ शुरुआत की जो बाद में एक ट्रिलियन डॉलर और अंत में 150 अरब डॉलर तक आ गई।
डीओजीई ने दावा किया है कि उसने आज तक संपत्तियों की बिक्री, पट्टे और अनुदान के रद्दीकरण, ‘धोखाधड़ी और अनुचित भुगतान में कमी’, नियामक बचत और 20 लाख 30 हजार केंद्रीय कार्यबल में से 2 लाख 60 हजार लोगों की कटौती कर 175 अरब डॉलर की बचत की है।
हालांकि आकंड़ों के विश्लेषण में बीबीसी ने पाया कि इस दावे के साक्ष्यों में कमी रही है।
इस मिशन के कारण कई बार विवाद भी पैदा हुआ। इसमें कुछ ऐसे उदाहरण भी शामिल हैं, जिसमें केंद्रीय न्यायाधीशों ने सामूहिक बर्ख़ास्तगी पर रोक लगा दी और कर्मचारियों को फिर से बहाल करने का आदेश जारी कर दिया।
अन्य मामलों में भी प्रशासन को बर्खास्तगी के फैसले से पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा।
फरवरी में हुए एक उल्लेखनीय घटनाक्रम में राष्ट्रीय परमाणु सुरक्षा प्रशासन ने सैकड़ों केंद्रीय कर्मचारियों की बर्खास्तगी पर रोक लगा दी।
इसमें से कुछ अमेरिकी परमाणु हथियार सुरक्षा की जिम्मेदारी संभाल रहे कर्मचारी संवेदनशील पदों पर काम कर रहे थे।
मस्क ने स्वयं कई बार दोहराया कि सामूहिक बर्खास्तगी में अनिवार्य रूप से गलतियां होंगी।
फरवरी में डीओजीई ने मोजाम्बिक के एक क्षेत्र को हमास नियंत्रित गज़़ा समझकर सहायता कार्यक्रम में कटौती कर दी थी।
इसके बाद उन्होंने कहा था, ‘हम गलतियां करेंगे लेकिन हम किसी भी गलती को सुधारने के लिए तुरंत कार्रवाई भी करेंगे।’
डीओजीई का डेटा तक पहुंच बनाने की कोशिश के कारण भी विवाद पैदा हुआ। विशेष तौर पर संवेदनशील ट्रेजरी विभाग तक पहुंच बनाने के लिए किया गया प्रयास, जो लाखों अमेरिकियों की निजी जानकारी नियंत्रित करता है।
सर्वेक्षण बताते हैं कि अमेरिकी नागरिकों के बीच सरकारी खर्च में कटौती लोकप्रिय बनी हुई है, लेकिन मस्क की लोकप्रियता में कमी आई है।
व्यवसाय और राजनीति के बीच धुंधली रेखाएं
ट्रंप के व्हाइट हाउस में एलन मस्क की उपस्थिति ने लोगों को चौंका दिया और संभावित हितों को लेकर सवाल भी उठे। मस्क एक गैर-निर्वाचित ‘स्पेशल गवर्नमेंट एम्पलॉय’ हैं और अमेरिकी सरकार उनकी कंपनियों की ग्राहक है।
उनके कारोबारी साम्राज्य में कई बड़ी कंपनियां शामिल हैं जो अमेरिका और विदेश की सरकारों के साथ व्यापार कर रही हैं।
कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के अनुसार, स्पेसएक्स का अमेरिकी सरकार के साथ 22 अरब डॉलर का अनुबंध है।
कुछ डेमोक्रेट्स ने मस्क पर अपनी सैटेलाइट इंटरनेट सेवा कंपनी स्टारलिंक के लिए विदेश में कारोबार बढ़ाने के लिए अपने पद का लाभ उठाने का भी आरोप लगाया। मार्च में व्हाइट हाउस पर आरोप लगाया गया था कि उसने व्हाइट हाउस के लॉन में उनकी संकट से जूझ रही कार कंपनी टेस्ला के निर्मित वाहनों का प्रदर्शन करके मस्क के व्यवसाय की मदद की। मस्क और ट्रंप दोनों ने ही इस बात को खारिज कर दिया है कि सरकार के साथ उनका काम? विरोधाभाषी या नैतिक रूप से समस्या पैदा करने वाला है।
क्या यह अलगाववाद को बढ़ावा देने वाला कदम है?
दुनिया भर में डीओजीई के साथ मस्क के काम की सबसे ज़्यादा चर्चा उस समय हुई जब विभाग ने छह सप्ताह की समीक्षा के बाद यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (यूएस एड) के 80 फीसदी से ज़्यादा कार्यक्रमों को खत्म कर दिया और बाकी को विदेश मंत्रालय ने अपने में मिला लिया।
मस्क और डीओजीई के नेतृत्व में की गई कटौती ट्रंप प्रशासन द्वारा विदेशों में खर्च को अपने ‘अमेरिका फस्र्ट’ दृष्टिकोण के मुताबिक लाने के लिए व्यापक प्रयास का हिस्सा थी।
यूएस एड में कटौती के कारण अकाल का पता लगाने, टीकाकरण और संघर्ष क्षेत्रों में खाद्य सहायता जैसे कार्य की परियोजनाओं पर शीघ्र ही प्रभाव पडऩे लगा।
इसमें युद्ध से जूझ रहे सूडान में सामुदायिक रसोईघर, तालिबान से बचकर भागी युवा अफगान महिलाओं के लिए छात्रवृत्ति और भारत में ट्रांसजेंडर लोगों के लिए क्लीनिक भी शामिल हैं।
यूएस एड को पूरी दुनिया में अमेरिकी ‘सॉफ्ट पावर’ का एक महत्वपूर्ण साधन माना जाता था। इसके कारण कुछ आलोचकों ने इस बंद किए जाने को वैश्विक मंच पर अमेरिका के घटते प्रभाव का संकेत करार दिया।
अमेरिका की पांच छोटी कंपनियों द्वारा दायर की गई याचिका पर फैसला देते हुए एक अमेरिकी अदालत ने डॉनल्ड ट्रंप के लगाए टैरिफों को अवैध करार दिया। कुछ लोगों ने ‘न्यायपालिका का तख्तापलट‘ बताया है।
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार का लिखा-
अमेरिका के वर्मोंट प्रांत में एक ऑनलाइन साइकिल स्टोर चलाने वाले एक छोटे व्यापारी, न्यूयॉर्क की वाइन आयातक कंपनी और वर्जीनिया की एक इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी समेत कुल पांच छोटे व्यापारियों ने अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की पूरी आर्थिक नीति की चूलें हिला दी हैं। इन कंपनियों की अपील पर अमेरिका की इंटरनेशनल ट्रेड कोर्ट ने ट्रंप के टैरिफ को अवैध बताते हुए रद्द कर दिया। हालांकि ट्रंप सरकार ने फैसले के खिलाफ अपील कर दी है, लेकिन अमेरिका में ट्रंप के टैरिफ के खिलाफ उठती आवाजों को इस फैसले से मजबूती मिली है।
वाइन इंपोर्टर कंपनी वीओएस सेलेक्शंस की अगुआई में अमेरिकी छोटे व्यापारियों ने राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की वैश्विक टैरिफ नीति को अदालत में चुनौती दी थी। कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति ने अपने संवैधानिक अधिकारों से आगे जाकर यह फैसला लिया, जिससे व्यापारियों को आर्थिक नुकसान हुआ।
एक छोटी कंपनी, एक बड़ी लड़ाई
न्यूयॉर्क स्थित पारिवारिक वाइन आयातक कंपनी वीओएस सेलेक्शंस ने अमेरिकी न्याय प्रणाली में एक ऐतिहासिक कदम उठाया। ट्रंप द्वारा लगाए गए व्यापक टैरिफों के खिलाफ उन्होंने अदालत में याचिका दायर की, जिसे वर्मोंट के एक ऑनलाइन साइकिल स्टोर और वर्जीनिया की एक इलेक्ट्रॉनिक्स निर्माता कंपनी का भी समर्थन मिला।
वीओएस सेलेक्शंस ने कहा, ‘ये टैरिफ न केवल हमारे व्यवसाय को खतरे में डालते हैं, बल्कि उन पारिवारिक किसानों की आजीविका पर भी असर डालते हैं, जिनकी वाइन हम अमेरिका में बेचते हैं।’ कंपनी ने अपने बयान में यह भी कहा कि इस नीति से छोटे और मंझोले आयातकों को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है, क्योंकि वे बड़े कॉर्पोरेशनों की तरह कीमतों में बदलाव नहीं झेल सकते।
राष्ट्रपति ट्रंप ने अप्रैल में आयात पर एकतरफा और वैश्विक टैरिफ लगाने का ऐलान किया था, जिनमें 10 फीसदी की सामान्य दर से लेकर चीन और यूरोपीय संघ जैसे भागीदारों पर 150 फीसदी तक शुल्क शामिल थे। इन टैरिफों को उन्होंने राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति बताते हुए लागू किया, और इसका आधार बनाया 1977 का अंतरराष्ट्रीय आपातकालीन आर्थिक शक्तियों अधिनियम को।
कोर्ट ने तय की राष्ट्रपति की सीमाएं
अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय व्यापार अदालत ने बुधवार को दिए अपने फैसले में स्पष्ट रूप से कहा कि राष्ट्रपति ने इस कानून का दुरुपयोग किया। अदालत ने कहा कि 1977 का अधिनियम राष्ट्रपति को असीमित टैरिफ लगाने का अधिकार नहीं देता है।
तीन जजों की बेंच ने अपने फैसले में लिखा, ‘कोर्ट यह नहीं मानती कि अधिनियम राष्ट्रपति को इतनी असीमित शक्तियां देता है कि वह दुनिया के लगभग हर देश से आने वाले सामान पर मनमाने टैरिफ लगा सकें।’ अदालत ने ट्रंप द्वारा लगाए गए ज्यादातर टैरिफों को अवैध करार दिया और कहा कि यह कांग्रेस के ‘पावर ऑफ द पर्स’ यानी बजट नियंत्रित करने के अधिकारों का उल्लंघन है।
फैसले के अनुसार, व्हाइट हाउस को 10 दिनों में टैरिफ हटाने की प्रशासनिक प्रक्रिया पूरी करनी होगी। हालांकि इनमें से कई टैरिफ पहले ही अप्रैल की शुरुआत में 90 दिन के लिए स्थगित किए जा चुके हैं। अदालत के फैसले के बाद यदि अपील में भी यही निर्णय कायम रहता है, तो जिन व्यापारियों ने टैरिफ का भुगतान किया है, उन्हें ब्याज सहित उसका रिफंड मिल सकता है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) के हालिया आंकड़ों के मुताबिक़, भारत जापान को पीछे छोडक़र दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का दर्जा हासिल करने की ओर है। इस ख़बर के बाद देशभर में इसकी चर्चा तेज हो गई है।
एक ओर कुछ लोग इसे केंद्र सरकार की नीतियों- जैसे ‘डिजिटल इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’ और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर विशेष जोर का परिणाम मानते हैं। उनका कहना है कि इन पहलों ने भारत को वैश्विक मंच पर एक नई पहचान दिलाई है और साथ ही किसानों, मजदूरों और मध्यम वर्ग के लिए उम्मीदें जगाई हैं।
वहीं दूसरी ओर, कुछ आलोचक इस विकास को सतही मानते हैं। उनका तर्क है कि जब तक हर नागरिक को रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिलतीं, तब तक भारत विकसित देशों के बराबर नहीं हो सकता।
इन आंकड़ों पर कई सवाल उठते हैं, जैसे- भारत के इस मुकाम तक पहुंचने में मोदी सरकार की किन नीतियों की मुख्य भूमिका रही?
सवाल ये भी है कि अर्थव्यवस्था के तेजी से बढऩे के बावजूद बेरोजगारी दर अब भी ऊँची क्यों है? इस विकास का असली लाभ किन तबकों को मिल रहा है? डिजिटल क्रांति ने इस बदलाव में कैसी भूमिका निभाई?
अगर सब कुछ इतना बेहतर है, तो फिर अमीर-गरीब के बीच की खाई क्यों बढ़ रही है? और सबसे अहम सवाल- इस आर्थिक प्रगति का आम नागरिक की जिंदगी पर असल असर क्या पड़ा है?
इन सवालों पर चर्चा के लिए ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के वाइस प्रेसिडेंट गौतम चिकरमाने और आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर और अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा शामिल हुए।
आम लोगों की जिंदगी कितनी बदली?
पिछले शनिवार को नीति आयोग के सीईओ बीवीआर सुब्रह्मण्यम ने एक बयान जारी कर भारत के जापान को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का दावा किया।
इस घोषणा के बाद जहां कुछ अर्थशास्त्रियों ने इसकी सराहना की, वहीं कई विशेषज्ञों ने इस दावे पर सवाल भी उठाए। हर बार जब इस तरह के आंकड़े सामने आते हैं, तो आम लोगों के मन में यह सवाल जरूर उठता है कि क्या इस आर्थिक तरक्की का असर उनकी रोजमर्रा की जिंदगी पर भी पड़ा है।
इस सवाल पर आईआईटी दिल्ली की प्रोफेसर और अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा ने कहा, ‘अगर एक परिवार में एक व्यक्ति पांच लाख रुपये कमा रहा है और दूसरे परिवार में चार लोग मिलकर पांच लाख कमा रहे हैं, तो सिफऱ् आमदनी देखकर यह कहना कि दोनों बराबर हैं, ग़लत होगा। क्योंकि एक परिवार में उस राशि से एक व्यक्ति का ख़र्च चल रहा है, जबकि दूसरे में चार लोगों का।’
‘इसी तरह, देशों की तुलना करते समय भी केवल जीडीपी के आंकड़ों से निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं है। जापान और जर्मनी जैसे देशों की जीडीपी की तुलना भारत से करना उचित नहीं है, क्योंकि भारत की जनसंख्या कहीं ज़्यादा है।’
उन्होंने बताया कि यह जरूर है कि अगर देश में आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ती हैं तो उम्मीद की जाती है कि इसका फायदा सभी वर्गों तक पहुंचेगा। लेकिन इसके दो अहम पहलू हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
उन्होंने पहलुओं को समझाते हुए कहा, ‘पहला सवाल यह है कि आर्थिक गतिविधि किस सेक्टर में हो रही है? अगर निर्माण क्षेत्र (कंस्ट्रक्शन) में विकास हो रहा है, तो निर्माण मजदूरों तक इसका सीधा लाभ पहुंच सकता है। लेकिन अगर यह वृद्धि फाइनेंशियल सेक्टर में हो रही है, तो इसका लाभ सीमित लोगों तक ही रहेगा- और वो पहले से ही ठीक वर्ग के लोग हैं।’
प्रोफेसर और अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा ने कहा कि यह समझना जरूरी है कि देश किन क्षेत्रों में निवेश और विकास पर जोर दे रहा है। कौन-से सेक्टर तेजी से बढ़ रहे हैं और उनका बाकी अर्थव्यवस्था के साथ कितना गहरा जुड़ाव है।
रीतिका खेड़ा ने कहा, ‘जब हम जीडीपी ग्रोथ रेट की बात करते हैं, तो हमें यह सेक्टर-वाइज देखना चाहिए- जैसे कृषि में कितनी वृद्धि हुई, मैन्युफैक्चरिंग में कितना विकास हुआ। इससे यह साफ होता है कि क्या यह आर्थिक प्रगति सभी तक समान रूप से पहुंच रही है या केवल कुछ सीमित क्षेत्रों में ही सिमट कर रह गई है।’
लेकिन ऑब्जर्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के वाइस प्रेसिडेंट गौतम चिकरमाने का मानना है कि हर अर्थव्यवस्था में कुछ वर्ग असंतुष्ट हो सकते हैं।
गौतम चिकरमाने ने कहा, ‘मुझे समझ नहीं आता कि ये आलोचना आ कहां से रही है। ऐसा कौन-सा कॉन्स्टिट्यूएंसी है जिसे आर्थिक विकास का लाभ नहीं मिला? मुझे एक भी ऐसा क्षेत्र नहीं दिख रहा जिसका इससे कोई फ़ायदा न हुआ हो- चाहे वो कृषि हो, मैन्युफैक्चरिंग, एंटरप्रेन्योरशिप या न्यूनतम वेतन। हर क्षेत्र में किसी न किसी रूप में फ़ायदा हुआ है।’
उन्होंने कहा, ‘हर अर्थव्यवस्था में कुछ वर्ग असंतुष्ट हो सकते हैं, और लोकतंत्र में तो ये आवाज़ें उठना स्वाभाविक भी है।’
आलोचना पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा, ‘मुझे ये भी समझ नहीं आता कि लोग किस डेटा के आधार पर कह रहे हैं कि असमानता बढ़ गई है, अमीर और अमीर हो गए हैं, और गऱीब वहीं के वहीं हैं।’
सरकारी आंकड़ों पर सवाल क्यों?
चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के इन दावों के बीच कुछ लोगों का कहना है कि भारत एक विशाल आबादी के साथ आर्थिक रूप से सही दिशा में प्रगति कर रहा है जबकि कुछ अर्थशास्त्रियों ने जीडीपी के बारे में दावा करने में जल्दबाजी करने की ओर इशारा किया है।
सरकार जब भी कोई आर्थिक आंकड़ा जारी करती है, तो उस पर अक्सर सवाल उठते हैं। लेकिन ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के वाइस प्रेसिडेंट गौतम चिकरमाने का मानना है कि इतने बड़े स्तर पर आंकड़े केवल सरकार ही जुटा सकती है, और उन्हीं पर भरोसा किया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा, ‘दुनिया भर में एक ही डेटा प्वाइंट होता है, और वो डेटा सरकारें ही इक_ा करती हैं। किसी और के पास इतनी क्षमता नहीं है। अगर आप कहें कि सरकार ग़लत है, वर्ल्ड बैंक ग़लत है, आईएमएफ़ ग़लत है, एडीबी (एशियन डेवलपमेंट बैंक) ग़लत है, यूनाइटेड नेशंस भी ग़लत है- तो फिर सही कौन है? ये मुझे बता दीजिए, मैं उन आंकड़ों से बहस करने को तैयार हूं।’
इस मुद्दे पर रीतिका खेड़ा ने कहा कि सरकारी आंकड़ों पर सवाल उठाना कोई नई या गलत बात नहीं है।
उन्होंने समझाया, ‘मान लीजिए किसी देश में केवल दो लोग हैं- एक की आय एक लाख है और दूसरे की चार लाख। ऐसे में कुल जीडीपी पांच लाख हो गई और औसतन प्रति व्यक्ति आय 2।5 लाख हो गई। लेकिन इससे असल आर्थिक स्थिति नहीं समझी जा सकती। अगर सरकार अमीर व्यक्ति से दो लाख लेकर गऱीब को दे दे, तो कुल जीडीपी तो वही रहेगी, लेकिन गऱीब की हालत बेहतर हो जाएगी।’
उन्होंने कहा कि यही वजह है कि ‘हमें आय के वितरण पर ध्यान देना चाहिए। अगर अमीरों से लेकर गऱीबों को दिया जाए, तो असमानता के मुद्दे काफ़ी हद तक सुलझ सकते हैं।’
सरकारी आंकड़ों को लेकर उन्होंने कहा, ‘जीडीपी के आंकड़े कैसे कैलकुलेट होते हैं, उस पर लंबे समय से विवाद होते आए हैं। मेरे हिसाब से हमें सरकारी आंकड़े जरूर देखने चाहिए, लेकिन उन पर सवाल उठाना भी जरूरी है और यह बिल्कुल जायज़ है।’
उन्होंने कहा, ‘जहां तक भारत के जीडीपी रैंक की बात है, मुझे फिलहाल उस आंकड़े पर कोई खास शक नहीं है, लेकिन मैं मानती हूं कि यह सही पैमाना नहीं है। अगर हमें किसी चीज़ से तुलना करनी है, तो वह प्रति व्यक्ति आय होनी चाहिए, न कि कुल जीडीपी।’
- नित्या पांडियन
‘दोपहर का समय था। मेरी मां, मैं और मेरी बहन पिता के आने का इंतजार कर रहे थे। उस दिन रविवार था और घर में नॉन वेज बना था। लेकिन पापा के आने में देर हो गई। मां ने मुझे और बहन को खाना खिला दिया और खुद उनके आने का इंतज़ार करती रहीं। उस दिन दोनों ने शाम के पाँच बजे दोपहर का खाना खाया।’
‘पिछले 30 सालों में, मेरी मां ने शायद हर दिन इसी तरह से अपना खाना खाया होगा। मुझे याद नहीं कि कभी उन्होंने हमारे साथ बैठकर खाना खाया हो।’
चेन्नई में रहने वाले प्रशांत बीबीसी से अपनी बात कुछ ऐसे कहते हैं।
मैंने घरों में महिलाओं के खाने के तौर-तरीकों पर जहां भी बात की, ज़्यादातर जगहों पर यही स्थिति देखने को मिली।
खाना, यानी महिलाएं जो खाती हैं, एक ऐसी गतिविधि है जिस पर बहुत कम बात होती है।
लेकिन बहु-सांस्कृतिक भारतीय समाज में महिलाओं के खाने को लेकर चर्चा आखऱि कब होती है?
क्या कभी महिलाओं के स्वास्थ्य को गंभीरता से लिया जाता है?
खाने की राजनीति में महिलाओं के हिस्से के खाने को किस नजऱ से देखा जाता है?
क्या हमारे खाने की संस्कृति में भी पितृसत्तात्मक सोच गहराई से शामिल है?
परंपरा के तौर पर अपनाना
बीबीसी से कई महिलाओं ने कहा, ‘महिला को अक्सर त्याग की देवी के तौर पर दर्शाया जाता है। कई मौकों पर महिलाओं से ये अपेक्षा की जाती है कि वह ख़ुद से ऊपर परिवार नामक संस्था को रखे। यह अपेक्षा महिलाओं से पीढिय़ों से रखी जा रही है।’
चेन्नई में रहने वाली आनंदी ने बीबीसी से बात करते हुए उस सलाह को याद किया जो उनकी मां ने उन्हें शादी के दौरान दी थी। उस समय आनंदी 21 साल की थीं।
आनंदी बताती हैं, ‘मां खुद के लिए कुछ नहीं पकाती हैं। सबके खाने के बाद जो कुछ खाना बचता था, वो वही खाना खा लेती थीं। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं चाहती हूं कि तुम भी ऐसी ही बनो।’
आनंदी ने कहा, ‘मुझे नहीं पता कि मेरी मां और दादी ने कभी अपनी पसंद का खाना पकाया या नहीं। लेकिन उन्होंने हमेशा सबके खाने के बाद ही खाना खाया होगा।’
सत्या एक किसान परिवार से आती हैं। उन्होंने बीबीसी को बताया, ‘जब मेरी शादी हुई तो एक दिन दोपहर में मुझे भूख लग रही थी, मैंने खुद के लिए खाना बनाकर खा लिया। इसके बाद जब शाम को मेरी सास आईं तो उन्होंने कहा कि क्या चार बजे किसान के घर खाना बना कर खाने से परिवार में समृद्धि आएगी।’
‘उसके बाद से मैंने शाम को खाना खाना पूरी तरह से बंद कर दिया। भले ही मुझे कितनी भी भूख क्यों न लगी हो।’
क्या ये चलन हर जगह है?
बीबीसी से कई महिलाओं ने अपने अनुभवों को साझा किया।
एक महिला ने कहा, ‘हमारे घर में पुरुषों को जब खाना दिया जाता है तो उन्हें खाना अच्छे तरीके से भरपूर सब्जियों के साथ परोसा जाता है जबकि महिलाओं की थाली में बचा हुआ खाना ही आता है।’
‘नॉन वेज खाने में से भी मीट का सबसे अच्छा हिस्सा हमेशा पुरुषों को ही परोसा जाता है।’
उन्होंने कहा, ‘अगर हमारे घर में पिता और भाई नहीं होते हैं तो हमारे घर में उस दिन नॉन वेज खाना नहीं बनता है।’
सुमैया मुस्तफा एक ऐसे तमिल मुस्लिम परिवार से आती हैं जहां समाज मातृ-सत्तात्मक व्यवस्था में जीता है।
वह कहती हैं, ‘अन्य समुदायों की तुलना में यहां भोजन की राजनीति थोड़ी अलग है। हमारे इलाके़ में शादी के बाद पुरुषों के अपनी पत्नी के घर आकर रहने की परंपरा है। चूंकि महिलाएं घर की मुखिया होती हैं, इसलिए उन्हें पुरुषों की तुलना में अधिक सुविधाएं और विशेषाधिकार मिलते हैं।’
सुमैया एक लेखिका हैं जो भारत के तटीय शहरों में रहने वाले छोटे जातीय समूहों की संस्कृति और भोजन पर रिसर्च कर रही हैं। वे थुथुकुडी जिले के कयालपट्टिनम की मूल निवासी हैं।
कभी सोचा है कि आपका पेंशन, निवेश और पैसे खर्च करने का तरीका भी जलवायु को प्रभावित करता है? और टिकाऊ तरीके असल में असरदार होते भी हैं या नहीं?
डॉयचे वैले पर हॉली यंग का लिखा-
कई लोग इस बात से अनजान होते हैं कि पैसे खर्च करने का उनका निजी फैसला, जलवायु परिवर्तन पर कितना असर डालता है। लोग अक्सर खाने-पीने, यात्रा और खरीदारी करने जैसे फैसलों में तो पर्यावरण का ध्यान रखते हैं, लेकिन पैसों से जुड़े फैसले लेते वक्त वह पर्यावरण को नजरअंदाज कर देते हैं। यूनाइटेड किंगडम की संस्था, माय मनी मैटर के एक विश्लेषण में सामने आया कि अगर लोग अपने पेंशन स्कीम के लिए एक सस्टेनेबल कंपनी को चुनते हैं तो उनका कार्बन फुटप्रिंट बाकी तरीकों जैसे शाकाहारी बनने और बिजली कंपनियां बदलने की तुलना में 20 फीसदी अधिक घटाया जा सकता है।
जीवाश्म ईंधन को बैंक कैसे बढ़ावा देते हैं?
अनुमानित तौर पर 2023 में दुनिया के 60 सबसे बड़े बैंकों ने जीवाश्म ईंधन उद्योग में लगभग 705 अरब डॉलर लगाए और 2015 में हुए पेरिस समझौते के बाद से लेकर अब तक कुल 6.9 ट्रिलियन डॉलर का निवेश किया जा चुका है। इस पैसे का ज्यादातर हिस्सा ऐसे प्रोजेक्टों में लगाया जा रहा है, जो तेल, कोयला और गैस के स्रोतों को बढ़ावा देने के लिए है। जबकि वैज्ञानिक पहले ही साफ कह चुके हैं कि ऐसा करना जलवायु संकट को और गंभीर बना देगा।
अमेरिकी रिसर्च संगठन, ऑइल चेंज इंटरनेशनल के रणनीतिकार, एडम मैकगिब्बन ने कहा कि हमारा पैसा कई बार जाने-अनजाने में इसके लिए जिम्मेदार बन जाता है। वह बैंक खाता, पेंशन फंड या बीमा किसी भी रूप में हो सकता है, जिसे कई बार हमारी जानकारी के बिना जीवाश्म ईंधनों में निवेश कर दिया जाता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि निजी पैसे से जीवाश्म ईंधनों को मिल रहे फंड का सटीक अनुमान लगाना मुश्किल है, क्योंकि इनकी वित्तीय प्रणाली काफी जटिल होती है और हर व्यक्ति का निवेश करने का तरीका भी अलग होता है।
कॉर्पोरेट बैंकों के फाइनेंस का लेखा-जोखा रखने वाले अंतरराष्ट्रीय एनजीओ, बैंकट्रैक के नीति विश्लेषक, क्वेंटिन ऑबिनो बताते हैं कि इस तरह की फंडिंग उनके रिटेल हिस्से के जरिये नहीं होती, जहां आम लोगों का पैसा रखा जाता है। बल्कि ज्यादातर बैंकों के कॉर्पोरेट होते हैं, जिसके जरिए जीवाश्म ईंधन से जुड़े प्रोजेक्टों के लिए कंपनियों को लोन देते हैं।
अगले कई सालों तक गर्मी से नहीं मिलने वाली राहत
मैकगिब्बन यह भी बताते हैं कि बैंक हमारे पैसे का इस्तेमाल अपने बिजनेस को बढ़ाने, ज्यादा मुनाफा कमाने और निवेशकों को आकर्षित करने के लिए भी करते हैं। उनके मुताबिक, बैंक हमारी बचत का इस्तेमाल’ अपनी बैलेंस शीट को बड़ा दिखाने के लिए करते हैं ताकि वह उन कॉर्पोरेट क्लाइंट को सेवाएं दे सकें,’ जो जीवाश्म ईंधन के व्यवसाय से जुड़े होते हैं।
हमारा पैसा और लगातार बढ़ता वैश्विक तापमान
यूके के ट्रांजिशन पाथवे इनिशिएटिव सेंटर की कार्यकारी निदेशक, कारमेन नूजो ने कहा कि जब निवेश की बात आती है, तो स्टॉक या बॉन्ड के जरिए कुछ व्यक्तिगत निवेश सीधे तौर पर जीवाश्म ईंधन उद्योग में चला जाता है।
उन्होंने कहा, ‘इसमें तेल और गैस कंपनियों में निवेश शामिल है, जो हाल के वर्षों में काफी आकर्षक और लाभकारी रहे हैं। इसके अलावा उन कंपनियों में भी भारी निवेश होता है, जो अपने उत्पादन और सेवाओं के लिए जीवाश्म ईंधन पर निर्भर हैं, जैसे स्टील उद्योग या विमानन क्षेत्र।’
इसके अलावा बहुत से लोग पेंशन फंडों के जरिए भी ‘ब्राउन कंपनियों’ में निवेश कर रहे होते हैं। ब्राउन कंपनियां यानी ऐसी कंपनियां जो सबसे ज्यादा ग्रीनहाउस गैसें और कार्बन उत्सर्जन करती हैं। पेंशन फंड आमतौर पर सरकार, नियोक्ता या निजी कंपनियों द्वारा नियंत्रित किए जाते हैं।
मैकगिब्बन ने कहा, ‘आप अपनी पेंशन के लिए पैसा जमा करते हैं। फिर वह पैसा आपके बदले निवेश किया जाता है, वह भी ऐसी कंपनियों में, जो यह करने में जुटी हैं कि आपकी रिटायरमेंट तक दुनिया अस्थिर और जीने के लिहाज से मुश्किल हो जाए।’
हाल ही में हुए अध्ययनों के मुताबिक, अगर दुनिया का तापमान 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है, तो एक आम व्यक्ति औसतन 40 फीसदी तक गरीब हो जाएगा। इसके अलावा, अमेरिका और कनाडा में पेंशन फंड से मिलने वाला लाभ भी 2040 तक 50 फीसदी घट सकता है, क्योंकि उनके निवेश जलवायु से जुड़ी गंभीर घटनाओं की चपेट में होंगे।
पेंशन फंड दुनिया के सबसे बड़े जीवाश्म ईंधन निवेशकों में से एक हैं। एक अमेरिकी-कनाडाई अभियान, क्लाइमेट सेफ पेंशन्स के अनुसार, पेंशन फंडों से इस उद्योग में करीब 46 ट्रिलियन डॉलर का निवेश किया गया है और वह इस क्षेत्र के 30 फीसदी शेयरों के मालिक हैं। इसके अलावा यह फंड अफ्रीका में जीवाश्म ईंधन विस्तार के सबसे बड़े फाइनेंसरों में से एक हैं। 2023 में जर्मनी की खोजी पत्रकारिता संस्था, करेक्टिव ने खुलासा किया कि जर्मनी के 16 में से 10 राज्यों ने अपने पेंशन फंड का निवेश जीवाश्म ईंधन क्षेत्र में किया हुआ है।
साफ निवेश के विकल्प कौन से हैं?
हालांकि, जरूरी नहीं कि सभी ग्रीन बैंक बेहतर विकल्प दें, लेकिन जर्मन गैर-सरकारी संगठन, उर्गेवाल्ड की वित्तीय शोधकर्ता, कातरीन गांसविंट ने कहा कि पर्यावरण को लेकर जागरूक लोगों में अब टिकाऊ और पर्यावरण-अनुकूल वित्तीय विकल्पों की मांग तेजी से बढ़ रही है।
आजकल ऐसे कई ग्रीन बैंक हैं, जो यह वादा करती हैं कि वे जीवाश्म ईंधन कंपनियों को कर्ज नहीं देंगी और केवल जलवायु-अनुकूल परियोजनाओं में ही निवेश करेंगी। इसके अलावा, जैसे-जैसे जागरूकता बढ़ रही है। वैसे-वैसे कई ऑनलाइन विकल्प भी सामने आ रहे हैं जैसे बैंक डॉट ग्रीन, जो उपभोक्ताओं को यह परखने में मदद करता है कि कौन सा बैंक पर्यावरण के प्रति कितना जिम्मेदार है।
नूजो बताती हैं कि वित्तीय जानकारी की कमी अब भी एक बड़ी चुनौती है। वह कहती हैं, ‘जिन देशों में ज्यादातर लोगों के पास पेंशन होती है। वहां लोग यह नहीं जानते कि उनकी पेंशन का निवेश कहां किया जा रहा है या फिर वह नियमित रूप से अपने विकल्पों को जांचते नहीं हैं।’
गांसविंट ने बताया कि पेंशन जैसी चीज, जो लंबी अवधि निवेश है, बदलाव लाने का एक प्रभावी जरिया हो सकती है। वह कहती हैं, ‘पेंशन फंड का असर बड़ा होता है, क्योंकि निवेश के तौर पर वह बहुत बड़ी रकम होती है।’ मेक माय मनी मैटर के अनुमान के अनुसार यूके की पेंशन इंडस्ट्री 2035 तक लगभग 1.2 ट्रिलियन यूरो का निवेश अक्षय ऊर्जा और जलवायु समाधान के क्षेत्र में कर सकती है। हालांकि, ग्रीन पेंशन का परिदृश्य अब बदल रहा है। उदाहरण के तौर पर नीदरलैंड के सरकारी कर्मचारियों, शिक्षकों और स्वास्थ्यकर्मियों के पेंशन फंडों ने जीवाश्म ईंधन कंपनियों से अपना निवेश वापस ले लिया है और यूके की बड़े पेंशन योजनाओं के लिए अब यह अनिवार्य कर दिया गया है कि वह अपने निवेश के जलवायु जोखिमों की रिपोर्ट दें।
-संदीप राय
भारत के वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह ने गुरुवार को महत्वपूर्ण डिफेंस सिस्टम की खरीद और उसकी डिलीवरी में हो रही देरी पर चिंता जाहिर करते हुए घरेलू रक्षा क्षेत्र पर कुछ गंभीर सवाल खड़े किए।
एक कार्यक्रम में उन्होंने किसी भी डिफ़ेंस प्रोजेक्ट के समय से पूरा न होने का जिक्र किया और घरेलू डिफेंस डील पर कुछ अहम बातें कहीं।
भारतीय वायुसेना सैन्य हार्डवेयर की कमी से लंबे समय से जूझ रही है और उसके पास अत्याधुनिक स्टेल्थ विमान नहीं हैं। भारतीय रक्षा मंत्रालय ने हाल ही में ‘पांचवीं पीढ़ी के स्टेल्थ’ लड़ाकू विमानों के घरेलू उत्पादन को मंजूरी दी है। लेकिन अभी इसके बनने और फिर तैनाती में काफी वक्त है।
वायुसेना प्रमुख के बयान का पूर्व वायुसेना प्रमुख एयर चीफ़ मार्शल वीआर चौधरी (रिटायर्ड) ने समर्थन किया है।
समाचार चैनल एनडीटीवी से बात करते हुए एयर चीफ मार्शल वीआर चौधरी (रिटायर्ड) ने कहा, ‘जिन लोगों को आप ऑर्डर देते हैं, उनसे ठोस आश्वासन लेने की जरूरत है कि वादे के मुताबिक तय सीमा के भीतर काम पूरा करेंगे। यदि वे काम पूरा करने में विफल रहते हैं, या अगर उन्होंने हमें कुछ साल पहले बताया होता कि हम समय-सीमा में काम पूरा नहीं कर पाएंगे, तो शायद वैकल्पिक रास्ते खोजे जा सकते थे।’
रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि रक्षा खरीद और डिलीवरी में एक लंबा गैप और तय समय से कई गुना ज़्यादा देरी के कारण हताशा बढ़ रही है और एयर चीफ मार्शल का बयान इसी को दर्शाता है।
पिछले महीने 22 अप्रैल को जम्मू और कश्मीर के पहलगाम में हुए चरमपंथी हमले और सात मई को पाकिस्तान के अंदर भारत के हवाई हमले के बाद दोनों देश आमने-सामने आ गए थे। 10 मई को संघर्ष विराम पर सहमति बनने से पहले चार दिनों तक दोनों ओर से ड्रोन, मिसाइल से हमले और सीमा पर भारी गोलाबारी हुई। चार दिन की इस सैन्य झड़प के बाद भारत में रक्षा तैयारियों को तेज़ करने पर चर्चा ने जोर पकड़ लिया है।
विशेषज्ञों का कहना है कि एयर चीफ मार्शल के बयान को भारत की तैयारियों में और अधिक फुर्ती लाने की जरूरत के संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
एयर चीफ़ मार्शल ने क्या कहा?
गुरुवार को कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआईआई) के सालाना बिजनेस सम्मेलन में बोलते हुए एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह ने कहा कि ‘ऐसा एक भी प्रोजेक्ट नहीं है, जो समय पर पूरा हुआ हो।’
एयर मार्शल ने कहा, ‘हमें डील पर साइन करते वक़्त ही ये पता होता है कि वो चीजें समय पर कभी नहीं आएंगी। समय सीमा एक बड़ा मुद्दा है और मुझे तो ये लगता है कि एक भी परियोजना अपने तयशुदा समय पर पूरी नहीं हुई है। हम ऐसा वादा क्यों करें जो पूरा नहीं हो सकता?’
दिल्ली में हुए इस सम्मेलन के दौरान उन्होंने कहा, ‘हम सिर्फ ‘मेक इन इंडिया’ की बात नहीं कर सकते। अब वक़्त है ‘डिज़ाइन इन इंडिया’ का भी।’
भारत सरकार स्वदेशी हथियार विकसित करने की कोशिश में लगी है। लेकिन अभी भी भारत के हथियारों का बड़ा हिस्सा विदेश से आता है। कई बार इनकी खरीद के फैसले और डिलीवरी में देरी हो जाती है। एयर चीफ मार्शल इसी संदर्भ में बात कर रहे थे।
उन्होंने कहा, ‘कांट्रैक्ट पर हस्ताक्षर करते हुए, हमें यक़ीन होता है कि यह जल्द अमल में नहीं आने जा रहा लेकिन हम ये सोचकर इस पर हस्ताक्षर करते हैं कि आगे क्या करना है, बाद में देखेंगे। स्वाभाविक रूप से प्रक्रिया पटरी से उतर जाती है।’
एयर चीफ़ मार्शल के इस बयान को 83 हल्के लड़ाकू विमान तेजस एमके 1ए की डिलीवरी में देरी के संदर्भ में देखा जा रहा है जिसके लिए हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) से साल 2021 में करार हुआ था।
एचएएल से ही भारतीय वायुसेना ने 70 एचटीटी-40 बेसिक ट्रेनर विमान की खऱीद पर भी समझौता किया था, जिनकी तैनाती इसी साल सितंबर में तय है।
एयर चीफ मार्शल ने कहा, ‘जहां तक एयर पॉवर का सवाल है, हमारा फोकस इस बात पर है कि हमारे पास क्षमता और सामर्थ्य हो। हम सिर्फ भारत में उत्पादन के बारे में बात नहीं कर सकते, हमें भारत में ही डिज़ाइनिंग और डेवलपमेंट का काम शुरू करने ज़रूरत है।’
उन्होंने रक्षा बलों और उद्योग के बीच भरोसा और खुले संवाद की ज़रूरत पर बल देते हुए कहा, ‘जहां तक मेक इन इंडिया प्रोग्राम की बात है, आईएएफ अपनी पूरी कोशिश लगा रही है।’
उन्होंने कहा कि पहले आईएएफ बाहरी चुनौतियों पर अधिक ध्यान दे रही थी लेकिन मौजूदा हालात ने उसे यह बात महसूस कराई है कि आत्मनिर्भरता ही एकमात्र समाधान है।
उन्होंने कहा, ‘अब हमें भविष्य के लिए तैयार होने के लक्ष्य से तैयारी करने की जरूरत है। यही चिंता है। हो सकता है कि अगले 10 सालों में भारतीय उद्योग और रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) और अधिक उत्पादन करें लेकिन आज जिस चीज की जरूरत है, वह आज की जरूरत है।’
उनका कहना कि अभी तैयार हो रही चीजों के लिए थोड़ी तेजी वाले ‘मेक इन इंडिया’ प्रोग्राम की जरूरत है।
क्या कहते हैं एक्सपर्ट?
रक्षा मामलों के जानकार राहुल बेदी ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि ‘रक्षा मंत्रालय में जो सिस्टम चल रहा है, उससे सैन्य बलों में भी हताशा है क्योंकि समय की कोई पाबंदी नहीं है।’
राहुल बेदी कहते हैं, ‘किसी भी रक्षा समझौते की प्रक्रिया में ये स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कॉन्ट्रैक्ट शुरू होने के बाद प्रोजेक्ट को 36 से 40 महीने में पूरा हो जाना चाहिए। इस दौरान 12 चरण से होकर गुजऱना पड़ता है और हर चरण में कोई न कोई रुकावट और देरी होती है। इसीलिए इन प्रोजेक्ट्स में औसतन सात से दस साल लग जाते हैं।’
वह ताजा ‘एडवांस्ड मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट’ (एएमसीए) का उदाहरण देते हैं जिसको भले अभी मंज़ूरी दी गई हो लेकिन इसका पहला प्रोटोटाइप 2035 में आएगा और इसके उत्पादन में तीन साल और लगेंगे। यानी इसे वायुसेना में शामिल होने में लगभग 13 साल लग जाएंगे, वह भी तब जब सब कुछ ठीक से चले।
राहुल बेदी कहते हैं, ‘एफ़जीएफए यानी पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान को विकसित करने की बातचीत भारत ने साल 2007-08 में रूस के साथ शुरू की थी। 11 साल तक इस पर बातचीत होती रही और इस पर लगभग 24 करोड़ अमेरिकी डॉलर भी ख़र्च हुए लेकिन 2018 में इसे असफल मानकर छोड़ दिया गया। लेकिन रूस इस पर काम करता रहा और आज रूस का एफजीएफए सुखोई-57 के रूप में हमारे सामने है। अगर हम इसमें बने रहते तो हमारे पास एक स्टेल्थ फाइटर जेट होता।’
उन्होंने बताया कि ‘भारतीय वायुसेना में लड़ाकू विमानों के कऱीब 42 स्क्वाड्रन मंज़ूर हैं लेकिन अभी उसके पास 30 स्क्वाड्रन हैं। इनमें दो से तीन स्क्वाड्रन अगले एक से दो साल में रिटायर होने वाली हैं। इसका मतलब है कि वायुसेना के पास कऱीब 28 स्क्वाड्रन रह जाएंगी।’
राहुल बेदी का बयान
भारतीय वायुसेना ने 2018-19 में 114 लड़ाकू विमानों का प्रस्ताव दिया था जिस पर आज तक कोई प्रगति नहीं हुई है। राहुल बेदी कहते हैं कि एयर चीफ़ मार्शल का दर्द इससे समझा जा सकता है।
राहुल बेदी का कहना हैं, ‘ऑपरेशन सिंदूर और उसके बाद जो कुछ हुआ उसमें भारतीय वायुसेना की अहम भूमिका रही है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में ये दावा किया गया कि भारत के कुछ एयरक्राफ़्ट गिरे हैं जबकि भारत की तरफ़ से इस पर कुछ स्पष्ट नहीं कहा गया। निश्चित रूप से भारतीय वायुसेना अपनी तैयारी का आंकलन कर रही है।’
वह कहते हैं कि डिफेंस खरीद में देरी का एक और उदाहरण रफ़ाल है जिसके कॉन्ट्रैक्ट पर बात शुरू हुई 2007-08 में और उसे हरी झंडी मिली 2016 में जब पीएम मोदी फ्रांस के दौरे पर गए। फिर इसकी डिलीवरी 2018 से शुरू हुई।
वो कहते हैं, ‘तेजस के रूप में लाइट कॉम्बेट एयरक्राफ़्ट (एलसीए) जो आज हमारे सामने है, इस पर बातचीत 1981 में शुरू हुई थी। कैग की रिपोर्ट में बताया गया कि इसके 45 प्रतिशत हार्डवेयर इम्पोर्टेड हैं। दिलचस्प है कि किसी एयरक्राफ्ट का सबसे क्रिटिकल पार्ट है इंजन। जो हाल ही में स्टेल्थ फ़ाइटर जेट को मंज़ूरी मिली है उसका इंजन हम नहीं बना रहे। हम अपना इंजन विकसित ही नहीं कर पाए। किसी भी चीज का हम इंजन नहीं बना पाए।’
‘हेलीकॉप्टर के इंजन की तकनीक फ्रांस से ली है और उसके लाइसेंस से निर्माण हो रहा है। अर्जुन टैंक का इंजन जर्मन है, तेजस का इंजन अमेरिका से आता है। छोटे से छोटा इंजन भी इम्पोर्टेड है। स्वदेशी फाइटर जेट विकसित करने में यह भी एक बड़ी बाधा है।’
राहुल बेदी के अनुसार, ‘एयर चीफ मार्शल के बयान का मतलब ये भी है कि अगर घरेलू स्तर पर कोई उपकरण नहीं बन पाता है तो उसकी बाहर से खरीद की जाए ताकि आज की जरूरत को पूरा किया जा सके।’
-ध्रुव गुप्त
कुछ फिल्मी गीत जीवन की किसी न किसी दौर से ऐसे जुड़ते हैं कि याद रह जाते हैं। पुरानी फिल्म ’अलबेला’ का ’शाम ढले खिडक़ी तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो’ मेरे लिए ऐसा ही एक गीत रहा है। कल रात एक बार फिर से यह गीत सुनकर अपनी बेचारगी के दिन एक बार फिर याद आए। बचपन से लेकर जवानी तक मैंने मुंह से सीटी निकालने की बहुत कोशिशें की, लेकिन असफल रहा।
एक लंबी फुस्स के अलावा मुंह से कभी कुछ निकला ही नहीं। ये तमाम कोशिशें मैंने अकेले में की थी। किसी लडक़ी को देखकर सीटी मारने की हिम्मत तब नहीं थी। पहली बार यह दुस्साहस मुझसे पोस्टग्रेजुएट के दिनों में हो गया। तब बड़े रोमांटिक ख्याल मन में आते थे। एक खूबसूरत लडक़ी को सामने देखकर अपने को रोक नहीं सका और उंगलियां अपने आप होठों तक पहुंच गईं। नतीजे में फिर वही फुस्स की आवाज। लडक़ी मुझे हैरत से देखती हुई आगे बढ़ गई। कुछ दूर जाने के बाद वह पलटी और मेरे ठीक सामने आकर उसने इतनी जोरदार सीटी मारी कि मैं भीतर तक दहल गया।
-सुभोजित बागची
तेलंगाना के वारंगल जि़ले में स्थित कड़वेंदी गांव बाहर से देखने पर एक आम भारतीय गांव जैसा ही लगता है। लेकिन इसे अलग बनाते हैं, वहां सफेद रंग किए गए ईंट-पत्थर के घरों के बीच बने दर्जनों बड़े लाल रंग के समाधि-स्थल। गांव के बीचों-बीच डोड्डी कोमुरैय्या की एक समाधि है, जो कड़वेंदी में जन्मे एक किसान नेता थे।
4 जुलाई 1946 को उनकी हत्या इसी गांव में कर दी गई थी। गांव के बारे में निज़ाम कॉलेज, हैदराबाद में इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष और एसिस्टेंट प्रोफेसर रामेश पन्नीरू लिखते हैं, ‘कोमुरैय्या की शहादत ने ही तेलंगाना के सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत की।’
1946 से 1951 के बीच तेलंगाना में हुआ किसान विद्रोह, आगे चलकर भारत में माओवादी आंदोलन की प्रेरणा बना। कोमुरैय्या की शहादत के बाद कड़वेंदी के सैकड़ों लोगों ने इस आंदोलन में हिस्सा लिया और अपनी जान गंवाई। गांव की समाधियों पर खुदे उनके नाम आज भी उनकी ‘कुर्बानी’ की गवाही देते हैं।
अप्रैल की एक गर्म और उमस भरी दोपहर को, राजशेखर अपनी बहन गुमुदावेल्ली रेणुका की याद में बन रही एक नई समाधि का काम देख रहे थे।
रेणुका भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की मीडिया प्रभारी थीं और दक्षिणी छत्तीसगढ़ में इस प्रतिबंधित संगठन की दंडकारण्य विशेष जोनल कमिटी की सदस्य थीं। 31 मार्च को रेणुका की मौत सीपीआई (माओवादी) के खिलाफ चल रहे सुरक्षाबलों के एक ऑपरेशन के दौरान हुई थी।
सरकार ने एलान किया है कि वह मार्च 2026 तक माओवादी आंदोलन को पूरी तरह खत्म कर देगी।
राजशेखर कहते हैं, ‘कोमुरैय्या से लेकर रेणुका तक यह सफऱ 70 सालों का है, जिसमें हर साल कड़वेंदी में एक नई समाधि जुड़ती जाती है।’ लेकिन 21 मई को यह सफर एक नए मोड़ पर आकर रुक-सा गया, जब सीपीआई (माओवादी) के महासचिव नंबाल्ला केशव राव उर्फ बसवराजू छत्तीसगढ़ में सुरक्षाबलों से लड़ते हुए मारे गए।
कई लोगों को लगता है कि बसवराजू की मौत के साथ भारत में माओवादी आंदोलन खत्म हो सकता है। या हो सकता है कि यह आंदोलन बस कुछ समय के लिए रुका हो और फिर किसी और रास्ते से दोबारा शुरू हो जाए, जैसा पहले कई बार हुआ है।
भारत में माओवादी आंदोलन
1946 में तेलंगाना में जो सशस्त्र किसान आंदोलन शुरू हुआ था, उसके लगभग दो दशक बाद, 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी नाम के कस्बे में जमींदारों के खिलाफ एक किसान विद्रोह हुआ। यही आंदोलन धीरे-धीरे भारत में माओवादी विचारधारा की नींव बना।
1970 के दशक में यह माओवादी आंदोलन तेज़ी से फैला और बंगाल, बिहार, झारखंड, आंध्र प्रदेश और आज के छत्तीसगढ़ के कई हिस्सों तक पहुंच गया।
साल 2004 में सीपीआई (माओवादी) का गठन हुआ। यह पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माक्र्सवादी-लेनिनवादी), पीपुल्स वॉर ग्रुप (जिसे पीडब्ल्यूजी के नाम से जाना जाता था) और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर ऑफ़ इंडिया (एमसीसीआई) के विलय से बनी।
पिछले कई सालों से माओवादियों की मुख्य गतिविधियां छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके से संचालित हो रही थीं, जो क्षेत्रफल में लगभग केरल राज्य जितना बड़ा है। हाल ही में बस्तर के अंदरूनी हिस्से में माओवादी नेता बसवराजू की मौत हुई। इससे संकेत मिला कि माओवादियों की आखिरी मजबूत पकड़ भी अब टूट चुकी है और यह प्रतिबंधित संगठन अब पूरी तरह ख़त्म होने की कगार पर है।
हालांकि, हैदराबाद में मौजूद सामाजिक विश्लेषक और पत्रकार एन। वेणुगोपाल ऐसा नहीं मानते। माओवादी आंदोलन पर वे एक दर्जन से अधिक किताबें लिख चुके हैं।
वेणुगोपाल कहते हैं, ‘थोड़ी शांति जरूर आएगी, लेकिन पहले भी जब सत्तर के दशक में माओवादी नेताओं की हत्या हुई थी, तब भी आंदोलन नहीं रुका। आज भी हम नक्सलवाद पर बात कर रहे हैं।’
उनका मानना है कि माओवादियों ने दलितों और आदिवासियों के बीच आत्मविश्वास पैदा किया, जातिगत शोषण का विरोध किया और गरीबों में जमीन का बंटवारा सुनिश्चित किया।
वेणुगोपाल कहते हैं, ‘आज भी आप अक्सर टीवी पर लोगों को यह कहते सुनेंगे कि ‘अन्नालु’ (नक्सलियों के लिए प्रचलित शब्द, जिसका मतलब होता है ‘बड़ा भाई’) ने नेताओं की तुलना में ज़्यादा सामाजिक न्याय दिया।’
हैदराबाद के एक मुख्य कारोबारी, जो 1970 के दशक में नक्सलियों के छात्र संगठन रेडिकल स्टूडेंट्स यूनियन (आरएसयू) के नेता थे, वो भी इस सोच से सहमत हैं। नाम न छापने की शर्त पर उन्होंने बताया कि 70 और 80 के दशक में ‘तेलुगु भूमि’ (आंध्र प्रदेश और तेलंगाना) के कई शिक्षित लोग बड़ी संख्या में आरएसयू से जुड़े थे।
उन्होंने कहा, ‘हमारी पीढ़ी के लोग यह कभी नहीं भूलेंगे कि हम अपने बच्चों को यूनिवर्सिटी भेज पाए क्योंकि अन्नालु ने उस दौर में छुआछूत जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ संघर्ष किया, जब सरकार तीन दशकों तक नाकाम रही थी।’
हालांकि 1980 के दशक के मध्य तक तेलंगाना में माओवादी हिंसा को काफी हद तक रोक दिया गया। सरकार ने दोहरी रणनीति अपनाई, एक ओर सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत किया गया तो दूसरी ओर, पिछड़े इलाकों के लिए विशेष कल्याण योजनाएं शुरू कीं। इनमें स्वरोजगार के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण और आर्थिक सहायता जैसे कार्यक्रम शामिल थे।
साल 2016 में एक सेवानिवृत्त अधिकारी ने हमें बताया था कि आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के पुनर्वास की योजना ने विशेष रूप से अहम भूमिका निभाई। बाद में यही रणनीति छत्तीसगढ़ में भी अपनाई गई।
माओवाद : तेलंगाना से लेकर छत्तीसगढ़ तक
चंबला रविंदर पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के सैन्य कमांडर रह चुके हैं। साल 2010 में, जब वे बस्तर में पार्टी की उत्तरी इकाई के प्रमुख थे, तो उन्होंने बीबीसी को बताया था कि 70 और 80 के दशक में माओवादी गुट, पीडब्ल्यूजी ने कई अच्छे काम किए थे, ‘लेकिन जब सरकार की सख्त कार्रवाई शुरू हुई, तो वे उस काम को बचा नहीं पाए।’
उन्होंने बताया कि इस अनुभव से सबक लेते हुए माओवादियों ने छत्तीसगढ़ में अपनी रणनीति बदली।
15 साल पहले उन्होंने बीबीसी से कहा था, ‘बस्तर में हमने शुरुआत से ही सैन्य संगठन बनाने पर जोर दिया।’
रविंदर ने साल 2014 में आत्मसमर्पण कर दिया और अब हैदराबाद के एक कॉलेज में सुरक्षा प्रभारी के तौर पर काम कर रहे हैं।
पिछले हफ्ते उन्होंने अफसोस जताते हुए कहा, ‘न तो तेलंगाना में किया गया सामाजिक काम टिक पाया और न ही छत्तीसगढ़ में जंगलों के लोगों की सुरक्षा के लिए बनाई गई गुरिल्ला सेना कारगर साबित हुई।’
लेकिन एन। वेणुगोपाल बताते हैं कि कुछ वजहों से माओवादी बीते सालों में छत्तीसगढ़ में एक बड़ी ताकत बन गए।
छत्तीसगढ़ प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर राज्य है।
इंडियन ब्यूरो ऑफ माइन्स की साल 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक, यह राज्य टिन कंसन्ट्रेट और मोल्डिंग सैंड का इकलौता उत्पादक है। साथ ही ये कोयला, डोलोमाइट, बॉक्साइट और अच्छी गुणवत्ता वाले लौह अयस्क का भी प्रमुख उत्पादक है।
वेणुगोपाल का मानना है कि माओवादियों की सबसे बड़ी सफलता यह रही कि उन्होंने खनन कंपनियों को इन संसाधनों तक पहुंचने से रोके रखा।
वे कहते हैं, ‘माओवादियों ने ‘जल, जंगल, ज़मीन’ के सिद्धांत पर आंदोलन खड़ा किया। इस सोच के साथ कि जंगल और जमीन आदिवासियों की है, मल्टीनेशनल कंपनियों की नहीं। इसी वजह से अब तक कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां इन इलाकों में घुस नहीं सकीं।’
छत्तीसगढ़ में माओवादियों का पतन
हाल ही में माओवादियों के खिलाफ सुरक्षाबलों की कार्रवाई जिसमें बसवराजू की मौत सबसे अहम घटना रही, ऐसे वक्त में हुई है जब गृह मंत्रालय ने अपनी पिछली रिपोर्ट (2023-24) में बताया था कि ‘केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों की तैनाती, इंडिया रिजर्व बटालियन की मंजूरी, राज्य पुलिस बलों को बेहतर बनाने और आधुनिक सुविधाएं देने, सुरक्षा से जुड़ी लागत की भरपाई, राज्यों की विशेष खुफिया शाखाओं और विशेष दस्तों को मजबूत करने की कोशिश की गई।’
इसमें कहा गया है, ‘पुलिस थानों को बेहतर तरीके से तैयार करने , माओवादी इलाकों में ऑपरेशन के लिए हेलिकॉप्टर की सुविधा देने, राज्य पुलिस को प्रशिक्षण में मदद करने, खुफिया सूचनाएं साझा करने, राज्यों के बीच तालमेल बढ़ाने और स्थानीय लोगों से जुड़ाव बढ़ाने जैसे कदम उठाए गए थे।’
ये सारे कदम नेशनल पॉलिसी एंड एक्शन प्लान टू एड्रेस एलडब्ल्यूई के तहत उठाए गए थे, जिसे नरेंद्र मोदी सरकार ने 2015 में मंज़ूरी दी थी।
गृह मंत्रालय में एलडब्ल्यूई विभाग के पूर्व संयुक्त सचिव एम। ए। गणपति ने कहा, ‘इस नीति की वजह से छत्तीसगढ़ पुलिस ने ‘बहुत सटीक हमले करने’ की क्षमता विकसित कर ली है।’
गणपति, जिन्होंने नक्सलियों से निपटने के लिए राष्ट्रीय नीति का मसौदा तैयार किया था, बताते हैं, ‘केंद्रीय अर्धसैनिक बल पुलिस कैंप स्थापित करने, जमीन पर मौजूदगी बनाए रखने और राज्य पुलिस के लिए अनुकूल माहौल तैयार करने जैसे होल्डिंग ऑपरेशन करते रहे। इस दौरान राज्य पुलिस ने खुफिया सूचनाएं जुटाईं और विशेष बलों ने अभियान चलाए।’
उन्होंने कहा ‘ऑपरेशन के दौरान अर्धसैनिक बलों ने घेराबंदी की, ताकि माओवादी भाग न सकें। ये जिम्मेदारियों का साफ बंटवारा और अच्छा समन्वय था।’
दक्षिण छत्तीसगढ़ के पत्रकार कमल शुक्ला, जो कई वर्षों से इस संघर्ष को करीब से देख रहे हैं, बताते हैं कि राज्य पुलिस की नक्सल विरोधी इकाई, डिस्ट्रिक्ट रिजर्व फोर्स (डीआरएफ) में पूर्व नक्सलियों की भर्ती से पुलिस की लड़ाकू क्षमता में बढ़ोतरी हुई है।
उन्होंने कहा, ‘सरेंडर किए हुए नक्सली इलाके को अच्छी तरह जानते थे और छिपने की जगहों की पहचान कर सकते थे। साथ ही उन्हें विद्रोहियों की ताकत और कमजोरियों की भी बेहतर समझ थी, जिससे पुलिस को काफ़ी मदद मिली।’
माओवादियों ने भी 25 मई को जारी अपनी एक प्रेस विज्ञप्ति में माना कि जिन नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया था, उनमें से कुछ ने बसवराजू के मारे जाने में अहम भूमिका निभाई।
बयान में कहा गया, ‘पिछले छह महीनों में, माड़ (अबूझमाड़) क्षेत्र के कुछ सदस्य कमजोर पड़ गए और उन्होंने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। वे गद्दार बन गए।’
हालांकि, अर्द्धसैनिक बलों ने भी मोर्चा संभाला और हेलिकॉप्टर से अभियान जारी रहा।
शुक्ला ने बताया, ‘हेलिकॉप्टरों का इस्तेमाल पहले भी होता रहा है, लेकिन इस बार बड़ी संख्या में ड्रोन तैनात किए गए, जो इस अभियान का एक नया पहलू था।’
माओवाद से निपटने की नेशनल पॉलिसी के तहत, केंद्र सरकार की एजेंसियों को हेलिकॉप्टर संचालन और नक्सल प्रभावित इलाकों में सुरक्षा कैंपों के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे को मजबूत करने के लिए 765 करोड़ रुपये दिए गए हैं।
केंद्रीय गृह मंत्रालय में पूर्व अधिकारी और नक्सल विरोधी अभियानों के विशेषज्ञ एम। ए। गणपति का कहना है कि अब माओवादी विचारधारा नई पीढ़ी को आकर्षित नहीं कर पा रही है, इसी वजह से उनके संगठन से जुडऩे वाले लोगों की संख्या लगातार घटती गई है।
उन्होंने बताया कि माओवादी जनता की बदलती सोच और जरूरतों को समझने में असफल रहे।
गणपति का कहना है, ‘जब मोबाइल फोन और सोशल मीडिया का दौर आया, तो लोग बाहरी दुनिया से जुडऩे लगे। ऐसे हालात में आप जंगल के किसी कोने में बैठकर, समाज से कटकर ज़्यादा समय तक सक्रिय नहीं रह सकते। माओवादी भी अब नई सामाजिक सच्चाइयों से कटे हुए रहकर, छिपकर काम नहीं कर सकते।’
इसके अलावा, केंद्र सरकार ने ‘सडक़ और टेलीकॉम कनेक्टिविटी जैसे बुनियादी ढांचे को सुधारने और स्थानीय लोगों के कौशल विकास के लिए विशेष योजनाएं शुरू कीं।’ यह बात 2023-24 की रिपोर्ट में दर्ज है।
एक पूर्व नक्सली नेता, जो 1980 के दशक में बिहार में सक्रिय थे, उन्होंने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि छत्तीसगढ़ में हिंसा कहीं ज़्यादा भीषण रही, क्योंकि वहां माओवादियों की सैन्य ताकत तेलंगाना की तुलना में कहीं अधिक थी।
उन्होंने कहा, ‘तेलंगाना में माओवादी कई स्क्वॉड, प्लाटून, कंपनी और बटालियन गठित करने में कामयाब रहे। जबकि बंगाल, बिहार और तेलंगाना के कुछ इलाकों में वो केवल स्क्वॉड तक ही सीमित रह गए। बिहार में कुछ गुरिल्ला प्लाटून जरूर बने थे, लेकिन वे भी पारंपरिक सेना के मुकाबले काफी छोटे थे।’
इन प्रयासों और रणनीतिक बदलावों का असर यह हुआ कि गृह मंत्रालय की सालाना रिपोर्ट के अनुसार, 2013 के मुकाबले 2023 में माओवादी हिंसा की घटनाओं में 48 फीसदी की गिरावट आई (1136 से घटकर 594 मामले), और इस हिंसा में नागरिकों और सुरक्षाबलों की मौतों की संख्या 65 फीसदी घटी (397 से घटकर 138 मौतें)।
जर्मन चांसलर फ्रीडरिष मैर्त्स का कहना है कि गाजा में इस्राएल की कार्रवाई को "हमास के आतंकवाद के खिलाफ जंग के तौर पर उचित नहीं ठहराया जा सकता." इस्राएल ने गाजा में हमले तेज किए हैं, जिनमें हर दिन लोगों की मौत हो रही है.
डॉयचे वैले पर निखिल रंजन का लिखा-
बर्लिन की एक कांफ्रेंस में मैत्र्स ने कहा कि इजराइल पर प्रतिक्रिया देने में जर्मनी को किसी और देश की तुलना में ज्यादा संयम रखना पड़ता है। मैर्त्स का कहना है, ‘हालांक, अगर सीमा पार की गई, जहां अंतरराष्ट्रीय मानवता कानूनों का उल्लंघन होता है, तो जर्मन चांसलर को भी इस पर जरूर कुछ कहना होगा।’
जर्मनी और इजराइल के करीबी संबंधों पर जोर देते हुए मैर्त्स ने कहा, ‘इस्राएली सरकार को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिसे उसका बेहतरीन दोस्त स्वीकार करने के लिए तैयार ना हो।’
इजराइलने गाजा में बीते हफ्तों से हमले बढ़ा दिए हैं। जंग से बदहाल इलाके में हर दिन इन हमलों की वजह से दर्जनों मौत लोगों की हो रही हैं। इजराइली हमलों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निंदा हो रही है। यह चेतावनी भी दी जा रही है कि गाजा के करीब 20 लाख लोग भुखमरी की आशंका में जी रहे हैं क्योंकि इस्राएल ने राहत सामग्री की सप्लाई पर घेरा डाल दिया है।
सरकार या प्रधानमंत्री की आलोचना कर सकता है जर्मनी
चांसलर की प्रतिक्रिया विदेश नीति के विशेषज्ञ आर्मिन लाशेट के एक बयान के बाद आई है। लाशेट ने जर्मनी के एक टीवी चैनल से कहा कि इजराइल के सहयोगी देशों के संयुक्त बयान का फलस्तीनी लोगों की जिंदगी बचाने में कोई असर नहीं हुआ है। पिछले हफ्ते ब्रिटेन, फ्रांस और कनाडा ने संयुक्त बयान जारी कर गाजा में इस्राएल की सैन्य कार्रवाई को ‘अनुपयुक्त’ कहा था। लाशेट का कहना है कि गाजा में मानवीय सहायता का पहुंचना सुनिश्चित करने में इस बयान से कोई फर्क नहीं पड़ा।
लाशेट जर्मन संसद के निचले सदन में विदेश मामलों की समिति के प्रमुख हैं। उनका कहा है कि जर्मनी की नई सरकार की इजराइल के लिए ‘खामोश कूटनीति’ और ‘स्पष्ट शब्द’ बार-बार के प्रस्तावों और नारों से ज्यादा कारगर हैं।
यूरोपीय संघ के दूसरे देशों की तुलना में जर्मनी ने इस्राएल की आलोचना करने में ज्यादा सावधानी बरती है। गाजा में इस्राएल की कार्रवाई 7 अक्टूबर 2023 को हमास के चरमपंथियों के हमले के बाद शुरू हुई है। होलोकॉस्ट की ऐतिहासिक जिम्मेदारी की वजह से इस्राएल की सुरक्षा को वह ‘राज्य की सर्वोच्च नीति’ के तौर पर देखता है। हालांकि लाशेट का कहना है कि इसका मतलब यह नहीं कि ‘आप इजराइल की आलोचना नहीं कर सकते, सहायता पहुंचाने की मांग नहीं कर सकते, आप प्रधानमंत्री की आलोचना नहीं कर सकते।’ लाशेट का कहना है, ‘आप यह सब कह सकते हैं।’ लाशेट का कहना है, ‘आप यह भी कह सकते हैं कि सरकार में दक्षिणपंथी चरमपंथी मंत्री हैं, आप यह भी कह सकते हैं कि युद्ध का लक्ष्य गलत है।’
इजराइली सरकार और इजराइल अलग
जर्मन सरकार के एंटी सेमिटिज्म आयुक्त फेलिक्स क्लाइन ने भी सोमवार को इसी तरह के विचार रखे। आरबीबी रेडियो स्टेशन से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘हमें निश्चित तौर पर इस्राएली सरकार और पूरे इजराइल की कार्रवाई में अंतर करके देखना चाहिए। इनमें बड़ा फर्क है।’ हालांकि उन्होंने जर्मन संसद में मध्य वामपंथी सांसदों की इस मांग को खारिज किया कि जर्मनी इस्राएल को हथियार का निर्यात बंद कर दे।
-सिद्धार्थ ताबिश
मैं देखता हूँ कि मेरे दोस्तों और आस पड़ोस के लोगों के बच्चे, जो अभी पढ़ रहे हैं, आई फोन लेकर घूमते हैं। और उनके माता पिता इस बात पर हैरान होते हैं कि मेरे सत्तरह साल (17) के लडक़े के पास आई फोन तो दूर की बात, अभी साधारण मोबाइल तक नहीं है। घर में एक पुराना फोन पड़ा है जिसमे ठीक से आवाज भी नहीं आती है, वही बस रहता है। अगर मेरी पत्नी घर में नहीं हैं तो मुझे बच्चों का हाल लेने के लिए उसी पुराने फोन पर फोन करना होता है, जिसमें रुक-रुक कर आवाज आती है। और मेरे बच्चों को इस से कोई दिक्कत नहीं है। मेरे सत्रह साल के बेटे के पास कोई मोबाइल नहीं है।
मेरी पत्नी हैं नहीं आजकल, वो दस दिन के लिए विपस्सना ध्यान के लिए गईं हैं, तो न ही उनसे फ़ोन पर बात हो सकती हैं और न ही उनका कोई हाल मिल सकता है। घर में ज़्यादातर सारा काम हम और बच्चे कर रहे हैं। आज सुबह मेरे बड़े बेटे की स्कूल वैन नहीं आई थी तो मैं स्कूल छोडऩे गया था।
बेटा बारहवीं में है। वो खाना लेकर नहीं गया था क्यूंकि जल्दी जाना था उसे। खाना बन नहीं पाया था। जब मैंने उसे स्कूल छोड़ा तो पूछा कि तुम क्या खाओगे आज, तो कहने लगा कि पापा मेरे पास बहुत पैसे हैं मैं यहीं कैंटीन में कुछ ले लूंगा। मैंने पूछा कितने पैसे हैं तुम्हारे पास? तो उसने जेब से बीस रुपये निकाले। मैंने कहा बेटा इतने में शायद ठीक से न खा पाओ, तो कहने लगा नहीं पापा, इस से ज्यादा पैसे मुझे नहीं चाहिए होते हैं। मैंने जबरदस्ती उसे 100 रुपये दे दिए। वो किसी तरह से नहीं ले रहा था, कह रहा था कि मैं इतने सारे पैसे का क्या करूँगा। मुझे पता था कि वो उसमें से सारे पैसे बचा के घर ले आएगा। अभी मैने पूछा तो पता चला कि 80 रुपए बचा कर लाया है।
ये सब मैंने अपने बच्चों को कभी नहीं सिखाया है। ये सब वो खुद से देखकर सीख रहे हैं। मैं अपने बच्चों से सब कुछ शेयर करता हूँ। पैसों की समस्या उनको बताता हूँ, काम अच्छा चलता है तब बताता हूँ। एक एक बात अपने बच्चों से शेयर करता हूँ मैं। मेरा बेटा जब कभी मेरे साथ कहीं बाहर जाता है तो कुछ भी खरीदने से पहले मुझ से धीरे से पूछ्ता है ‘पापा आपके पास पैसे हैं क्या?’ भले उसे एक टी शर्ट ही क्यूँ न लेनी हो
मेरे बच्चों को पता है कि उनके पापा सैमसंग का फ़ोन इस्तेमाल करते हैं तो वो क्यूँ आई फ़ोन मांगें। और घर में जब सारी सुविधाएँ हैं तो किसलिए किस बात का उन्हें दिखावा करना है? मैं हर कुछ दिन पर अपने बच्चों से कहता रहता हूं कि बेटा तुम लोग बहुत किस्मतवाले हो। जो तुम्हें मिला है वो भारत में नब्बे प्रतिशत लोगों को नहीं मिलता है।। ये बात उनके दिल में घर कर गयी है। इसीलिए वो अब हर चीज में खुश रहते हैं।
-डेविड ग्रिटन
गाजा में भोजन बांटने का मामला उलझता जा रहा है। मंगलवार को मदद बांटने वाले एक विवादास्पद संगठन ने वहाँ काम करना शुरू किया लेकिन जल्द ही स्थिति बिगड़ गई।
हजारों फिलस्तीनियों ने दक्षिणी गाजा में खुले गाजा ह्यूमनेटेरियन फाउंडेशन (जीएचएफ) नाम के इस संगठन के अड्डे को तहस-नहस कर दिया है।
संगठन ने कहा कि भोजन लेने वालों की भारी संख्या के कारण उनकी टीम को पीछे हटना पड़ा है। इसराइली सेना ने कहा कि संगठन की सुरक्षा करने वालों ने चेतावनी के तौर पर गोलियाँ चलाईं।
इस संगठन को अमेरिका और इसराइल का समर्थन हासिल है और ये संयुक्त राष्ट्र को दरकिनार कर गाजा में मदद करने का इरादा रखता है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र ने इसे अनैतिक और अव्यवहारिक बताते हुए ख़ारिज कर दिया है।
इससे पहले जीएचएफ ने कहा था कि भोजन से लदे उसके ट्रक गाजा में सुरक्षित ठिकानों पर पहुंच गए हैं और लोगों को खाना बांटना भी शुरू कर दिया है। लेकिन ये नहीं बताया था कि अब तक कहां और कितनी मदद पहुंचाई गई है।
ये संगठन हथियारबंद सुरक्षा गार्डों का इस्तेमाल कर रहा है।
विशेषज्ञों को गाजा में पिछले 11 सप्ताह से चली आ रही नाकेबंदी की वजह से बड़े पैमाने पर अकाल की चिंता सता रही है। उन्होंने इसके बारे में चेतावनी दी है।
संगठन का विरोध क्यों?
संयुक्त राष्ट्र और गाजा में मदद पहुंचाने वाले दूसरे संगठनों ने जीएचएफ के साथ सहयोग करने से इनकार कर दिया है। इन संगठनों का कहना है कि जीएचएफ के काम करना का तरीका मानवता के सिद्धांतों के खिलाफ है और ऐसा लगता है कि ये संगठन ‘मदद को हथियार’ के तौर पर इस्तेमाल करना चाहता है।
जीएचएफ ने सोमवार को पत्रकारों को भेजे एक बयान में कहा है कि उसने ‘गाजा में अपना ऑपरेशन’ शुरू कर दिया है।
संगठन की ओर से जारी तस्वीरों में दिख रहा है कुछ लोग किसी अनाम जगह से पेटियां उठाए चले जा रहे हैं।
बीबीसी ने जीएचएफ से पूछा है कि अब तक गाजा में सहायता सामग्री की कितनी गाडिय़ां आई हैं और कितने लोगों ने ये मदद हासिल की है। लेकिन जीचएफ की ओर से जवाब मिलना बाकी है।
जीएचएफ के बयान में कहा गया है कि अब जॉन एक्री संगठन के अंतरिम कार्यकारी निदेशक हैं। जॉन एक्री यूएएसएड़ में सीनियर मैनेजर रह चुके हैं। यूएसएड विदेशों में मदद करने वाली अमेरिका की सरकारी एजेंसी है।
एक्री ने जेक वुड की जगह ली है। उन्होंने इस पद से रविवार को इस्तीफा दे दिया था।
वुड ने कहा था जीएचएफ का सहायता बांटने वाला सिस्टम ‘मानवता, तटस्थता, निष्पक्षता और स्वतंत्रता के सिद्धांतों पर बरकरार रहते हुए अपना मक़सद पूरा नहीं कर सकता।’
जीएचएफ ने इस आलोचना को खारिज करते हुए कहा, ‘कुछ लोग मदद को आने देने की तुलना में इस व्यवस्था को तोडऩे पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।’
गाजा ह्यूमेनेटेरियन फ़ाउंडेशन ने कहा है कि उसका सिस्टम पूरी तरह से मानवता के सिद्धांत पर काम करता है।
संगठन ने दावा किया वो इस सप्ताह के अंत तक 10 लाख लोगों तक राशन पहुंचा चुका होगा।
-इमरान कुरैशी
कांग्रेस सांसद शशि थरूर भले ही इस वक्त ऑपरेशन सिंदूर के बाद बने सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों में से एक की अगुवाई कर रहे हों लेकिन वे केरल में सियासी पारा गिरने नहीं दे रहे। केरल की वामपंथी सरकार पर उनका ताज़ा हमला तुर्की को लेकर है।
दरअसल साल 2023 में केरल ने तुर्की को भूकंप के दौरान 10 करोड़ रुपये की मानवीय मदद दी थी। थरूर ने इसी मदद पर सवाल उठाया है।
शशि थरूर ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, ‘मुझे उम्मीद है कि दो साल बाद तुर्की के व्यवहार को देखते हुए केरल सरकार अपनी अनुचित उदारता पर विचार करेगी। यह तो बताने की ज़रूरत ही नहीं है कि वायनाड के लोग उन दस करोड़ रुपयों का कहीं बेहतर इस्तेमाल कर सकते थे।’
संजय झा के नेतृत्व वाले एक अन्य प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा और सीपीएम के राज्यसभा सांसद जॉन ब्रिटास ने तुरंत इसका जवाब सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर दिया।
उन्होंने लिखा, ‘शशि थरूर के लिए मेरे मन में सम्मान है, लेकिन यह टिप्पणी एकतरफा याददाश्त का लक्षण है। यह हास्यास्पद और हैरान करने वाला है कि उन्होंने केरल को नीचा दिखाने की कोशिश की। वह अच्छी तरह जानते हैं कि मोदी सरकार ने खुद तुर्की की मदद के लिए ‘ऑपरेशन दोस्त’ शुरू किया था।’
सवाल उठ रहे हैं कि आखिर शशि थरूर करना क्या चाह रहे हैं? क्या बीजेपी से उनकी नज़दीकियां बढ़ रही हैं? हमने इन्हीं सवालों का जवाब जानने के लिए दो विश्लेषकों से बात की।
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक एमजी राधाकृष्णन बीबीसी हिंदी को बताया, ‘शशि थरूर के लिए बीजेपी में शामिल होना मुश्किल होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि वो राजनीतिक रूप से बहुसंख्यकवादी हिंदू विचारधारा का विरोध करते हैं। वो कमलनाथ की तरह ‘सॉफ्ट हिंदू’ व्यक्ति हैं। वो हमास के आलोचक हैं और उनका इसराइल की ओर झुकाव है। थरूर आपातकाल के भी कट्टर आलोचक रहे हैं।’
राजनीतिक विश्लेषक और पूर्व कुलपति प्रोफ़ेसर जे प्रभाष इस मामले को अलग नजरिए से देखते हैं।
उन्होंने बीबीसी को बताया, ‘थरूर के मन में निश्चित रूप से कुछ चल रहा है। वह हिंदू वोट को साधने की कोशिश कर रहे हैं। यह हो सकता है कि वो अपनी पार्टी के नेतृत्व को कोई संदेश देना चाह रहे हों। यह तो सबको पता है कि वह केरल के मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं।’
थरूर की मंशा
शशि थरूर ने अंग्रेजी के 43 शब्दों में केरल में कम्युनिस्टों पर निशाना साधा और कांग्रेस नेतृत्व को संदेश दिया कि तुर्की को दिए गए दस करोड़ रुपये वायनाड में आई बाढ़ के पीडि़तों के लिए इस्तेमाल हो सकते थे।
वायनाड से प्रियंका गांधी सांसद हैं।
इस पोस्ट के ज़रिए उन्होंने भारत-पाकिस्तान संघर्ष के दौरान तुर्की के पाकिस्तान के साथ खड़े रहने की ओर भी ध्यान खींचा।
इस साल फरवरी में, थरूर अपनी ही पार्टी से नाराजग़ी का सामना कर रहे थे। केरल में वामपंथी सरकार और कांग्रेस दोनों आमने-सामने हैं लेकिन थरूर निवेश आकर्षित करने की केरल सरकार की कोशिशों में मदद करने को तैयार हो गए थे।
जाहिर है ये बात उनकी पार्टी को नागवार गुजऱी थी।
इसी महीने बीजेपी ने उन्हें ऑपरेशन सिंदूर के बाद बने प्रतिनिधिमंडल की अध्यक्षता के लिए चुना। थरूर ने पेशकश स्वीकार की लेकिन अपनी पार्टी के नेतृत्व को इस बारे में सूचना नहीं दी।
हाल के महीनों में उनके बयान और काम केरल के राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बने हुए हैं।
प्रधानमंत्री की ओर से डेलिगेशन की अगुवाई करने के उनके ताज़ा फ़ैसले के बाद कई कांग्रेस नेता सोच रहे हैं कि न जाने थरूर कब पार्टी छोड़ दें। लेकिन अब भी कांग्रेस में ऐसे बहुत से लोग हैं जो मानते हैं कि पूरे देश में युवाओं के बीच में उनकी बड़ी लोकप्रियता है।
लेकिन कई वरिष्ठ कांग्रेसी उनके रवैये की खुलेआम आलोचना कर रहे हैं।
राज्य सभा के पूर्व डिप्टी चेयरमैन पीजे कूरियन ने पिछले सप्ताह साफ़ कहा, ‘अगर कोई सोचता है कि शशि थरूर का झुकाव बीजेपी की ओर बढ़ रहा है, तो इसबात पर शक नहीं करना चाहिए। उनका पक्षपाती रवैया बहुत साफ़ है।’ आम तौर पर शांत रहने वाले केरल के वित्त मंत्री केएन बालागोपाल ने भी थरूर की आलोचना की।
एक बयान में उन्होंने कहा, ‘यह बेवजह की उदारता नहीं है। एक बड़ी आपदा के समय, हमें एक मानवीय नज़रिया अपनाना था। तुर्की को दी जाने वाली सहायता भारतीय विदेश मंत्रालय के ज़रिए दी गई थी। साल 2023 की घटना को 2025 के सीमा संकट से जोडऩा ग़लत है। साल 2023 में राज्य ने मानवीय आधार पर तुर्की का समर्थन किया था। दो साल बाद, तुर्की को दी गई मदद की गलत व्याख्या करना सही नज़रिया नहीं है।’
सीपीएम सांसद जॉन ब्रिटास की तरह विश्लेषक एमजी राधाकृष्णन भी मानते हैं कि थरूर को मोदी सरकार के ऑपरेशन दोस्त का भी जि़क्र करना चाहिए था।
-संजय श्रमण
23 मई को जॉन नेश ने दुनिया को अलविदा कहा था, उनके बहाने भारत मे ज्ञान की परम्परा पर बात करना उपयोगी है।
गेम्स थ्योरी के जनक जॉन नेश के होने और न हो जाने से बहुत बड़े सवाल भारत के लिए भी खड़े होते हैं। वैसे भारत से जॉन नेश का या स्टीफन हॉकिंग का कोई संबंध नहीं है लेकिन जब बात आती है डाक्टर वशिष्ठ नारायण सिंह और श्रीनिवास रामानुजन की तब भारत की चिंता होती है।
जॉन नेश के जीवन, उनकी बीमारी और उनके पूरे करियर को ध्यान से देखें तो ये सीखा जा सकता है कि ज्ञान और ज्ञानी का सम्मान करना किसे कहते हैं। भारत में ज्ञान की कोई सुसंगठित समृद्ध परम्परा कभी नहीं रही है। जो रही भी है वो बहुत खंडित और सिर्फ धर्म दर्शन या अध्यात्म को केन्द्रित रही है। कुछ छिटके हुए टुकड़ों में अच्छे उदाहरण मिलते हैं लेकिन वे ज्ञान की गौरव गाथा कम कहते हैं और टाट में मलमल के पैबंद की तरह मुंह चिढाते हुए ज्यादा नजर आते हैं।
कई देशभक्त दावा करेंगे कि तक्षशिला था और नालंदा था इत्यादी, यहाँ बताना उचित होगा कि ये बौद्ध विद्या केंद्र थे जो कि इस देश के मुख्यधारा के हिन्दू समाज का हिस्सा नहीं था। पूरे भारतीय इतिहास में टुकड़ों टुकड़ों में बहुत सारा काम हुआ है लेकिन एक संगठित और टिकाऊ धारा नहीं बन सकी। शायद भौतिकवादी ज्ञान और तकनीक के अभाव में ये उस समय संभव भी न था।
फिर भी बौद्धों में ज्ञान, विज्ञान सहित भेषज और धातुकर्म पर बहुत काम हुआ है, न केवल इतना बल्कि नागार्जुन और वसुबन्धु ने समय और शून्य की जो अवधारणा दी है वो अपने आपमें चमत्कार है। जैन आचार्यों में भी वर्धमान महावीर और आचार्य कुन्दकुन्द ने पुद्गल और स्यात-वाद की जैसी धारणाएं दी हैं वे इतनी एडवांस हैं कि आज का क्वांटम फिजिक्स भी उसी दिशा में जाता दिखाई देता है। हिन्दू मनीषियों में भी समय की चक्रीय धारणा और युगों और कल्पों का विज्ञान बहुत विकसित किया गया खासकर वराहमिहिर और आर्यभट्ट ने खगोल में जो काम किया है वो अभी भी लाखों को प्रेरित करता है।
हिन्दुओं के हठयोग में फिजिओलॉजी और नाडी तन्त्र के संबंध में जो विस्तार से लिखा गया है वो भी आश्चर्यचकित करता है। खासकर तब जबकि हिन्दुओं में शरीर को जलाने की परम्परा रही है और मृत शरीर का चिकित्सा या चीर फाड़ में उपयोग पाप माना गया है (सिवाय तांत्रिक अनुष्ठानों के)। तब भी इतनी बारीकी से हिन्दुओं ने शरीर का नक्शा बनाया है या बात अचंभित करती है। योग के साथ आयुर्वेद की युति ने चिकित्सा में बहुत बड़ा काम कर दिखाया है।
लेकिन इनके होने का क्या मतलब है? खासकर आज के भारत में ये बड़ी बहस का मुद्दा है।
भारत में संगठित रूप से ज्ञान-विज्ञान के बड़े प्रयास हुए ही नहीं हैं। असल में धर्म, दर्शन और अध्यात्म से इतर किसी भी विषय को हेय माना गया है। उपनिषदों में परा और अपरा विद्या की बात है। मुण्डक उपनिषद के अनुसार परा विद्या अध्यात्म विद्या है जो मोक्ष में ले जाती है शेष सब भौतिक या लौकिक विद्याएँ जो गणित, विज्ञान, साहित्य, कला आदि सिखाती हैं वे बचकानी और हेय मानी गयी हैं।
यह बहुत बुनियादी और जहरीली मानसिकता है जिसने इस समाज को भौतिक जगत की श्रेष्ठताओं के संधान से रोके रखा। ये औपनिषदिक मूर्खता अभी भी जारी है। हमारे यहाँ आज भी बड़े वैज्ञानिक या दार्शनिक को कोई नहीं पूछता लेकिन छुटभैया बाबा हो या कथा बांचने वाला मूर्ख पंडित या तोतेवाला ज्योतिषी हो उसके आगे पीछे भीड़ लगी रहती है।
जॉन नेश का उदाहरण गौर करने लायक है। एक बेहद प्रतिभाशाली युवा जो गणित का दीवाना है और एकदम उसी मस्ती में रहता है उसे उसकी बीमारी के बावजूद जीवन की सामान्य सुविधाओं सहित सम्मान और सुरक्षा मुहैया करवाने का काम जो उसके समाज ने किया है वो अद्भुत है। यही स्टीफेंन हाकिंग के साथ कैम्ब्रिज में हो रहा है इसीलिये वो जि़ंदा हैं और रोज नए चमत्कार की खोज कर रहे हैं।
अब उदाहरण लीजिये डाक्टर वशिष्ठ नारायण का। मैं जब स्कूल में पढता था तब दूरदर्शन पर विनोद गुहा का एक साप्ताहिक समाचार कार्यक्रम आता था ‘परख’ के नाम से। उसमे बरसों पहले इस वैज्ञानिक की चर्चा हुई थी और राष्ट्रीय स्तर के अन्य अखबारों ने भी इसका उल्लेख किया था।
लेकिन सरकार तो छोडिये हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी समाज भी इनकी सुध लेने के लिए आगे नहीं आया। वो महानतम गणितज्ञ जिसने कई मायनों में आइन्स्टीन की गणितीय स्थापनाओं को चुनौती दी वो आज एक पागल समझा जाता है और एक फुटपाथ पर पड़े अपाहिज की तरह जि़ंदा है।
क्या इनका इलाज या सेवा नहीं हो सकती थी? शायद इनकी बीमारी ज्यादा गंभीर रही हो लेकिन एक वैज्ञानिक समुदाय क्या अपने एक सदस्य को बीमार मानकर ही अच्छी रहन सहन की सुविधा नहीं दे सकता ? और सबसे बड़ी बात ये कि वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी समुदाय को ये प्रेरणा क्यों नहीं होती कि अपने एक असहाय मित्र की मदद की जाए?
न सिर्फ ज्ञान का सम्मान करने में ये देश चूकता रहा है बल्कि अपने महानतम वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और नायकों को बचाने और उनकी देशना या शौर्यगाथा को सहेजने में भी जानबूझकर भूलें की जाती रही हैं। ये भूल नहीं असल में षड्यंत्र की परम्परा है।
अभी दो शताब्दी पहले तक अशोक को कोई नहीं जानता था, सिकंदर कब आया क्यों आया और उसका क्या हुआ ये भी कोई नहीं जानता था। ब्रिटिश पुरातत्वविदों ने गौतम बुद्ध का इतिहास खंगालने के लिए जो खुदाई और अन्वेषण किया उसमे अशोक और चन्द्रगुप्त की महिमा प्रगट हुई है।