विचार / लेख

कश्मीरी पंडित और छत्तीसगढ़ी साहू
08-Jun-2025 10:19 PM
कश्मीरी पंडित और छत्तीसगढ़ी साहू

-घनाराम साहू आचार्य

दो दिन पहले एक चर्चा में एक ब्राह्मण मित्र ने कश्मीरी पंडितों के पलायन का संदर्भ देते हुए कहा कि छत्तीसगढ़ में साहू समाज के लोग भी धर्मांतरण कर रहे हैं। उनके इस कथन ने कश्मीर को लेकर मेरी जिज्ञासा को जगाया, और मैंने सन 1931 की जनगणना रिपोर्ट को सरसरी तौर पर पढ़ लिया।

रिपोर्ट में कुछ रोचक आंकड़े मिले, जिनमें दो बिंदुओं पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है। रिपोर्ट के अनुसार, 1931 में जम्मू और कश्मीर की कुल आबादी 36,46,243 थी, जिनमें 2,02,161 ब्राह्मण, 63,088 कश्मीरी पंडित और 15,843 तेली थे। यहाँ यह स्पष्ट होता है कि ब्राह्मणों की संख्या कश्मीरी पंडितों से तीन गुना अधिक थी।

अधिकांश लोग समझते हैं कि ‘कश्मीरी ब्राह्मण’ और ‘कश्मीरी पंडित’ एक ही होते हैं, लेकिन ये दो अलग-अलग जातियाँ हैं। हालांकि, मेरी जानकारी में इनके बीच वैवाहिक संबंध होते थे। सेंसस की तालिका को देखने से पता चलता है कि 1911 से 1931 के बीच अनेक हिंदू जातियाँ जम्मू-कश्मीर से पलायन कर चुकी थीं।

विगत 30-40 वर्षों से आतंकवाद के फैलाव के साथ कश्मीरी पंडितों के पलायन की चर्चा आम है। तो क्या आतंकी कश्मीरी ब्राह्मणों को नहीं सताते थे? और क्या कश्मीरी पंडितों में ऐसा क्या विशिष्ट था कि उन्हें ही विशेष रूप से निशाना बनाया गया?

अब जऱा तेली समाज की बात करें। जैसा कि ऊपर लिखा है, 1931 में जम्मू-कश्मीर में कुल 15,843 तेली थे, जिनमें से केवल 21 हिंदू धर्म के अनुयायी थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि अधिकांश तेली 1911 से 1931 के बीच वहां से पलायन कर गए होंगे।

अब यदि छत्तीसगढ़ के तेली समाज को देखें, तो लगभग 19 प्रकार की शाखाएँ पाई जाती हैं, जिनमें अधिकतर ‘साहू’ उपनाम लिखते हैं। ये शाखाएँ उनके मूल स्थान की पहचान से जुड़ी होती हैं।

मेरे स्वर्गीय पिताजी बताया करते थे कि हमारे परिवार में उनका विवाह ब्राह्मण पद्धति से हुआ था, जबकि उनके पूर्वजों का विवाह ‘मझली पद्धति’ से होता था, जिसमें ब्राह्मण पुरोहितों की आवश्यकता नहीं होती। हमारे जातीय संगठन के नियमों में मझली विवाह को आज भी सर्वोच्च स्थान प्राप्त है।

इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पिछले 100 वर्षों में साहू समाज में ‘ब्राह्मणीकरण’ की प्रक्रिया हुई है और आज अधिकांश साहू ब्राह्मण परंपराओं का अनुसरण करते हैं। फिर भी, अनीश्वरवादी साहूओं की संख्या भी कम नहीं है। बताया जाता है कि कुछ दशक पहले तक एक-तिहाई से अधिक साहू ‘कबीरहा’ थे।

जो लोग साहू समाज की आंतरिक सामाजिक संरचना से परिचित नहीं हैं, वे कुछ भी मानकर उस पर टीका-टिप्पणी कर सकते हैं। लेकिन सच यह है कि एक शाखा के साहू दूसरी शाखा की सभी परंपराओं का पालन नहीं करते। यह भी सच है कि साहू समाज की बड़ी आबादी गरीबी और अशिक्षा से ग्रस्त है और वे साहू संगठनों के प्रभाव में नहीं आते।

यह सही है कि गरीब साहू, अन्य जातियों की तरह, भौतिक सुविधाओं के लिए धर्मांतरण कर सकते हैं, लेकिन जनसंख्या के अनुपात में इनकी संख्या नगण्य है। जोशुआ प्रोजेक्ट के 2011 के आंकड़ों के अनुसार, छत्तीसगढ़ में लगभग 1,600 साहू ईसाई मतावलंबी हैं। मान लें कि यह संख्या बढक़र 2,000 भी हो गई हो, तो भी यह कुल आबादी का 0.1% भी नहीं होती।

यह भी सच है कि राजनीतिक कारणों से साहू समाज में धर्मांतरण का हल्ला मचाया जाता है। यदि उपरोक्त दोनों बिंदुओं पर किसी के पास और जानकारी हो, तो उनका स्वागत है।


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