विचार/लेख
-अभीक देव-निकिता यादव
कार्तिक श्रीनिवास (बदला हुआ नाम) आज भी ऑनलाइन बेटिंग का जिक्र होते ही सिहर उठते हैं।
तेजी से पैसा कमाने के रोमांच के तौर पर शुरू हुई ये आदत अब लत में बदल गई। इस लत ने 26 वर्षीय कार्तिक की जमा-पूँजी, सुकून और लगभग उनका भविष्य छीन लिया।
2019 से 2024 के बीच कार्तिक ने 15 लाख रुपये से ज्य़ादा गंवा दिए। इसमें उनकी तीन साल की कमाई, बचत और दोस्तों और परिवार से लिए गए कर्ज भी शामिल थे।
वो कहते हैं, ‘मैंने सब कुछ आज़माया-ऐप्स, लोकल बुकी, अंतरराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म। मैं बुरी तरह फंस गया था।’
2024 तक आते-आते कार्तिक कर्ज में पूरी तरह डूब चुके थे। कार्तिक की कहानी भारत के कभी फलते-फूलते रियल मनी गेम्स इंडस्ट्री के स्याह पहलू को सामने लाती है।
यहां खिलाड़ी ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर पोकर, फैंटेसी स्पोर्ट्स और दूसरे खेलों पर अपने पैसे दांव पर लगाते हैं।
कुछ दिन पहले भारत ने इन खेलों पर पूरी तरह पाबंदी लगाने वाला क़ानून पास किया।
सरकार का कहना है कि ये खेल नशे की तरह लत लगाने वाले साबित हो रहे थे। लोग आर्थिक संकट में फंसते जा रहे थे।
सरकार का दावा, जुए से बचाने के लिए उठाया ये कदम
नए क़ानून के तहत ऐसी ऐप्स को बढ़ावा देना या उन्हें लोगों के लिए उपलब्ध कराना अब अपराध माना जाएगा।
इस प्रावधान का उल्लंघन करने पर दोषी पाए गए व्यक्ति को तीन साल तक की जेल और एक करोड़ रुपए तक का जुर्माना हो सकता है।
अगर कोई इन गेमिंग ऐप्स का प्रचार करता है तो उसे दो साल की सज़ा और पांच करोड़ रुपए तक का जुर्माना लग सकता है।
हालांकि इस कानून में खिलाडिय़ों को अपराधी नहीं बल्कि पीडि़त माना गया है।
सरकार का कहना है कि यह कदम लोगों को जुए से बचाने के लिए उठाया गया है।
ढाई लाख लोगों के रोजगार पर संकट
केंद्रीय आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने संसद में दावा किया कि ऑनलाइन मनी गेम्स से 45 करोड़ भारतीय प्रभावित हुए हैं।
उनके मुताबिक, लोगों को दो लाख करोड़ रुपए से ज़्यादा का नुक़सान हुआ है, कई लोग डिप्रेशन में चले गए और कुछ ने आत्महत्या तक कर ली। हालांकि इन आंकड़ों के स्रोत स्पष्ट नहीं हैं।
वहीं इंडस्ट्री से जुड़े लोगों का कहना है कि यह फैसला जल्दबाज़ी में लिया गया है, जिससे एक तेजी से बढ़ते सेक्टर को करारी चोट लगी है। उनका तर्क है कि इसका सबसे ज़्यादा नुक़सान उन्हीं लोगों को होगा, जिन्हें सरकार बचाने की कोशिश कर रही है।
पाबंदी से पहले भारत में लगभग 400 आरएमजी (रियल मनी गेम्स) स्टार्टअप काम कर रहे थे। इनसे सालाना लगभग 2.3 अरब डॉलर टैक्स मिलता था और ढाई लाख से ज़्यादा रोजग़ार जुड़े थे। इनमें से एक ड्रीम11, भारत की क्रिकेट टीम का स्पॉन्सर भी थी।
यह पहला केंद्रीय क़ानून है जिसने ऑनलाइन बेटिंग प्लेटफॉर्म पर रोक लगाई है। हालांकि इससे पहले ओडिशा, असम, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्य अपने स्तर पर पाबंदी लगा चुके थे।
2023 में केंद्र सरकार ने ऑनलाइन गेमिंग पर 28 फ़ीसदी टैक्स भी लगाया था।
इसके बावजूद यह इंडस्ट्री तेज़ी से बढ़ रही थी। विदेशी निवेश और विज्ञापनों की वजह से इसमें अच्छी ग्रोथ थी।
मुंबई में गेमिंग से जुड़े मुकदमे लडऩे वाले वकील जय सेता ने बीबीसी से कहा कि यह पाबंदी निवेशकों के लिए ‘भारी झटका’ है, जिन्होंने इन स्टार्टअप्स में करोड़ों डॉलर लगाए थे।
उनका कहना है कि इंडस्ट्री में रेग्युलेशन की ज़रूरत थी, लेकिन क़ानून बिना चर्चा और तैयारी के लागू कर दिया गया।
इस फैसले से सबसे ज़्यादा नुकसान ड्रीम11 (आठ अरब डॉलर की कंपनी) और माई11सर्कल (2.5 अरब डॉलर की कंपनी) जैसी कंपनियों को हुआ है।
ड्रीम11 कभी भारतीय क्रिकेट टीम की मुख्य स्पॉन्सर थी और माई11सर्कल इंडियन प्रीमियर लीग से जुड़ी थी।
दोनों कंपनियों ने अपने रियल मनी गेमिंग ऑपरेशन बंद कर दिए हैं।
इंडस्ट्री ने कहा, बिना सोचे-समझे लगाई गई पाबंदी
इंडस्ट्री का कहना है कि नए क़ानून ने ‘हुनर के खेल’ और ‘कि़स्मत की बाज़ी’ में कोई फर्क नहीं किया है और दोनों को ही बैन कर दिया गया है।
हुनर के खेल में फैसला लेने की क्षमता, प्रतिभा और ज्ञान की जरूरत होती है, जबकि किस्मत का खेल सिर्फ तकदीर पर निर्भर करता है।
भारत के कई उच्च न्यायालय पहले ही फैसला दे चुके हैं कि ऑनलाइन मनी गेम्स स्किल गेम्स हैं और जुए की कैटेगरी में नहीं आते।
कर्नाटक और तमिलनाडु में अदालतों ने इसी आधार पर राज्य स्तर पर लगाई गई पाबंदी हटा दी थी।
2022 में सुप्रीम कोर्ट ने भी पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के उस फैसले को बरकरार रखा था, जिसमें फैंटेसी स्पोर्ट्स को ‘स्किल का खेल’ बताया गया था।
ड्रीम11 में पॉलिसी कम्युनिकेशन का काम करने वालीं स्मृति सिंह चंद्रा ने लिंक्डइन पर लिखा कि यह पाबंदी ‘बिना तैयारी, बिना समझ और आर्थिक हकीकतों की परवाह किए बिना’ लागू कर दी गई।
वकील जय सेता का कहना है कि कंपनियों ने अदालतों के इन्हीं फैसलों के आधार पर अपना क़ारोबार खड़ा किया था।
भारत में तमाम कानूनों के बावजूद दहेज की प्रथा और इसकी वजह से होने वाली मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है. उत्तर प्रदेश में निक्की नामक एक महिला की मौत ने एक बार फिर इस सामाजिक कलंक को उजागर कर दिया है.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी का लिखा-
भारत के लिए न तो दहेज की प्रथा नई है और न ही इसके नाम पर होने वाली मौतें या हत्याएं. साक्षरता बनने और तमाम कानूनों के बावजूद अब तक इस सामाजिक कलंक से निजात नहीं मिल सकी है. नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं. इन आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2017 से 2022 के बीच दहेज की वजह से होने वाले उत्पीड़न के कारण हर साल औसतन सात हजार महिलाओं ने अपनी जान दे दी या फिर उनकी हत्या कर दी गई. वर्ष 2022 में यह आंकड़ा 6,450 था. यानी रोजाना 18 महिलाओं की मौत हुई थी.
यह तो सरकारी आंकड़ा है. लेकिन महिला संगठनों का दावा है कि कई मामले तो पुलिस के पास तक नहीं पहुंचते. महिला की मौत के बाद समाज के दबाव में दोनों पक्षों के बीच अदालत से बाहर ही समझौता हो जाता है. अगर उन मामलों को ध्यान में रखा जाए तो यह संख्या दोगुनी हो सकती है.
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2022 में हुई मौतों के मामले में उत्तर प्रदेश (2,218), बिहार )1,057) और मध्य प्रदेश (518) क्रमश पहले से तीसरे नंबर पर थे. इससे साफ है कि ऐसी ज्यादातर घटनाएं उत्तर और मध्य भारत के राज्यों में ही होती हैं.
तीन महीने में कई मामले
अब ताजा मामले में उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा में रहने वाली निक्की नामक एक महिला की शादी के करीब नौ साल बाद रहस्यमय परिस्थितियों में जलकर मौत हो गई. उसकी बहन कंचन की शादी भी उसी घर में हुई है. कंचन का आरोप है कि निक्की के पति और उसके ससुर ने ही उनकी बहन को जला कर मार डाला. निक्की और उसके पिता का आरोप है कि ससुराल वाले 36 लाख नकद और एक महंगी कार की मांग में निक्की पर शारीरिक अत्याचार करते थे और आखिर उसकी हत्या कर दी.
यह स्थिति तब है जब दिसंबर, 2016 में निक्की की शादी में उसके पिता भिखारी सिंह ने नोटबंदी के बावजूद दिल खोल कर खर्च किया था और एक कार भी दहेज में दी थी. पुलिस ने इस मामले में निक्की के पति, जेठ और सास-ससुर को गिरफ्तार कर लिया है.
वैसे, बीते तीन महीनों में ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं.
इससे पहले उत्तर प्रदेश के ही अलीगढ़ में एक महिला के शरीर पर गर्म इस्त्री (आयरन) सटाने के कारण उसकी मौत हो गई थी. उसके परिवार ने दावा किया कि दहेज के कारण उसका नियमित उत्पीड़न किया जाता था. उसके बाद इसी राज्य के पीलीभीत में कथित रूप से ससुराल पक्ष की दहेज की मांग पूरी नहीं कर पाने की वजह से एक महिला की जलाकर हत्या कर दी गई थी. इसी दौरान चंडीगढ़ में एक नवविवाहिता ने भी कथित रूप से दहेज उत्पीड़न से तंग आकर अपनी जान दे दी थी.
इसके अलावा दो घटनाएं तमिलनाडु से सामने आईं. पहली घटना में पोन्नेरी के पास एक महिला ने शादी के महज चार दिनों के भीतर ही कथित उत्पीड़न के कारण आत्महत्या कर ली. दूसरी घटना में भी इसी वजह से एक युवती ने शादी के दो महीने के भीतर ही अपनी जान दे दी.
यह घटनाएं इस बात का सबूत हैं कि कभी नवविवाहित जोड़ों की मदद के लिए दिए जाने वाले उपहार से शुरू हुई दहेज प्रथा नामक इस सामाजिक कुरीति की जड़ें कितनी गहरी हैं.
क्या कहता है कानून?
देश में दहेज प्रथा पर अंकुश लगाने के लिए कई कानून मौजूद हैं. बावजूद इसके यह प्रथा धड़ल्ले से जारी है. वर्ष 1961 में बने दहेज निषेध अधिनियम के मुताबिक, दहेज के लेन-देन या इसमें सहयोग करने वालों को पांच साल की सजा और 15 हजार तक के जुर्माने का प्रावधान है. दहेज उत्पीड़न से कई दूसरे भी कानून हैं जिनके तहत अभियुक्त को सात साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है.
भारत में अब भी कायम हैं दहेज प्रथा के वीभत्स परिणाम
भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) में भी दहेज हत्या और उत्पीड़न से निपटने के प्रावधानों को जस का तस रखा गया है. बीएनएस की धारी 80 (1) के तहत शादी के सात साल के भीतर अस्वाभाविक परिस्थिति में किसी महिला की मौत को दहेज हत्या की श्रेणी में रखा जा सकता है. धारा 80 (2) के तहत ऐसे मामले में दोषियों को सात साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा का प्रावधान है.
बीएनएस की धारा 86 के तहत जानबूझकर किए गए किसी भी ऐसी कार्रवाई को क्रूरता की श्रेणी में रखा गया है, जिससे किसी महिला को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया जा सकता हो या फिर उसे गंभीर शारीरिक या मानसिक नुकसान का अंदेशा हो.
क्या है वजहें?
सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि तमाम कानूनों के बावजूद अदालत में न्याय मिलने में होने वाली असामान्य देरी से दहेज मांगने वालों को मनोबल बढ़ता है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, हर साल सामने आने वाली सात हजार घटनाओं में से सिर्फ साढ़े चार हजार में ही समय से चार्जशीट दायर की जाती है. असामान्य देरी के कारण कई मामलों में सबूत के अभाव में दोषी बेदाग बच निकलते हैं. शुरुआत में पुलिस भी ऐसे मामले को गंभीरता से नहीं लेती. जो मामले अदालत में पहुंचते हैं उनमें से 90 फीसदी में असामान्य तौर पर देरी होती है.
महिला कार्यकर्ता सुष्मिता बनर्जी डीडब्ल्यू से कहती हैं, "दहेज अब सामाजिक कोढ़ बन चुका है. 21वीं सदी में भी इस मामले में समाज की मानसिकता नहीं बदली है. हर साल करीब सात हजार मामले सामने आते हैं. लेकिन उनमें से सौ मामलों का ही निपटारा संभव होता है." वो बताती हैं कि ऐसी घटनाओं में पुलिस और न्यायपालिका के बीच तालमेल नहीं होने की वजह से भी अदालती कार्रवाई में देरी होती है. खासकर ग्रामीण इलाकों में तो पुलिस पहले स्थानीय स्तर पर ही इन घटनाओं में मध्यस्थता कर उनको सुलझाने का प्रयास करती है. नतीजतन कई मामले अदालत तक ही नहीं पहुंचते.
एक कॉलेज में समाजशास्त्र की प्रोफेसर डॉक्टर शिवानी हालदार डीडब्ल्यू से कहती हैं, "कई मामलों में पीड़ितों के परिजन सामाजिक कलंक, कानूनी जागरूकता की कमी और परिवार व समाज के दबाव के कारण दहेज के कारण होने वाली मौतों की पुलिस में शिकायत दर्ज नहीं कराई जाती. कई मामलों में पुलिस की लापरवाही की वजह से दोषियों के खिलाफ ठोस सबूत नहीं मिल पाते."
कैसे लगेगा अंकुश?
समाजशास्त्रियों का कहना है कि दहेज उत्पीड़न या हत्या के मामलों की शिकायत दर्ज करने की प्रक्रिया आसान बनानी होगी. इसके साथ ही पुलिस को भी ऐसी शिकायतों का गंभीरता से संज्ञान लेकर आपराधिक मामलों की तरह इनकी जांच करनी होगी. इसके अलावा ऐसी घटनाओं की सुनवाई फास्ट ट्रैक अदालतों में कर अभियुक्तों को शीघ्र सजा सुनानी होगी. इन तमाम उपायों को एकीकृत तरीके से लागू करने पर ही इस कलंक से छुटकारा मिल सकेगा.
डा. शिवानी हालदार कहती हैं, "महिलाओं का आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना इस दिशा में पहला ठोस कदम है. बाल विवाह को रोकने वाले कानून और सूचना के अधिकार अधिनियम का इस्तेमाल कर लड़कियों की स्कूली शिक्षा पर जोर देना चाहिए ताकि कम उम्र में होने वाली शादियां रोकी जा सकें."
कलकत्ता हाईकोर्ट में एडवोकेट मीनाक्षी मित्र डीडब्ल्यू से कहती हैं, "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसी केंद्र और राज्य सरकार की विभिन्न योजनाओं को गंभीरता से लागू करना होगा. इसके अलावा दहेज प्रथा के खिलाफ बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाना जरूरी है." वो कहती हैं कि जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी, कोई भी कानून इस प्रथा पर अंकुश नहीं लगा सकता. इस प्रथा के जारी रहने तक इसकी वजह से होने वाली मौतों के सिलसिले को रोकना भी बेहद मुश्किल है.
-आनंद बहादुर
आज मैंने ‘चोरी’ शब्द पर गौर किया है। भारत में चोर शब्द कोई बहुत बुरा शब्द नहीं है। दरअसल, यहां जीवन स्थितियां इतनी कठिन हैं, इतनी विकराल, कि जीवित रहने के लिए हर कोई कुछ न कुछ चुराता रहता है। यह बात अति निम्न वर्ग, निम्न वर्ग, निम्न मध्यमवर्ग पर भी उतनी ही लागू होती है, जितनी उच्च वर्गों पर। निम्न वर्ग के लोग नदी-जंगल, खेत-खलिहान आकाश-पाताल से, लकड़ी-काठी-पत्ते, फल-सब्जियां, साग पात, खर-पतवार, मतलब जो कुछ उपयोगी लगे, खोंटकर बटोरकर, उठापठा करके अपने घर ले जाते हैं। इसको कोई चोरी नहीं कहता है, लेकिन 'जो मेरा नहीं है जरूरत हो तो उसको भी अपने घर ले जा सकते हैं’ इस बात को एक प्रकार की व्यापक मान्यता मिली हुई है, इसका यह प्रमाण है। क्योंकि दो जून का खाना ही नसीब नहीं है, तो नैतिकता का पलड़ा किससे सम्हले! निम्न वर्ग और निम्न मध्यमवर्ग की जीवन की जरूरत ही जब वर्तमान अर्थव्यवस्था से पूरी नहीं हो रही है। इसे आप उच्च वर्ग के घरों में काम करने वाले घरेलू सहायकों के मामलें में भी देख सकते हैं जो मौका मिलते ही कुछ न कुछ उठाकर अपने घर ले जाते हैं।
उच्च वर्ग और अति उच्च वर्ग में इस प्रकार का आचरण बहुत आम बात है। कामकाज में चोरी, श्रम करने में चोरी, सरकारी कामकाज में घूसखोरी, पैरवी, गलत तरीके से अपने लोगों को नौकरी लगा देना, नंबर बढ़ा देना, नंबर कम कर देना, परीक्षा में नकल करना- इस चोरी के अनेक रूप हैं और यह सार्वभौम तरीके से हमारे समाज में विद्यमान हैं। बिजनेस-व्यापार में थोड़ा सा कम तोल देना, 2-4 सड़े फल या सब्जियां तराजू में छुपा कर डाल देना, खराब माल सप्लाई कर देना, डॉक्टर को पर्चा लिखने के लिए जांच लिखने के लिए कमीशन देना, इंजीनियर को कट देकर खराब रोड बना देना, न्यायालय में प्रभाव में आकर निर्णय देना, पीत पत्रकारिता... यह सब अब हमारा स्थापित सामाजिक आचरण हो गया है। इसको पूरे भारत में मान्यता मिली हुई है और इसको कोई बुरा नहीं समझता, क्योंकि हर कोई किसी न किसी तरह से इस तरह की झुठखोरी में लगा हुआ है।
बहुत कम लोग हैं जो आदर्श रूप से एब्सोल्यूट टम्र्स में चोर नहीं हैं। (क्या पता उतने भर भी हैं या नहीं!) हमारे देश की समूची सभ्यता और संस्कृति की बनावट ही ऐसी हो गई है। हमारे यहां धर्म का पाखंड भी इस प्रकार की हरकत (देखिये, मैं इसे अभी भी चोरी नहीं कह रहा हूं) को बढ़ावा देता है। आम आदमी मानता है कि उसने अगर कोई गलत काम किया है, अगर कोई चीज बेचने में डंडी मारी है, कहीं से, किसी तरह से, किसी का हक छीना है, किसी को दुख दिया है, तो जाकर कहीं पर जल चढ़ा देने से, कहीं अगरबत्ती बार देने से, किसी नदी में डुबकी लगा लेने से, किसी पंडित जी से कथा सुन लेने से- वह पाप मिट जाएगा। इसलिए भारतीय लोग चोर और चोरी को बहुत गंभीरतापूर्वक नहीं लेते हैं। इसीलिए किसी को चोर कह देना बड़े-बड़े चुनावों का मुख्य मुद्दा नहीं बन पाता है। हालांकि की गई चोरी पूरे देश के सामने जगजाहिर होती है, उसकी सूचना न्याय को बंद लिफाफे में दी जाती है, और बंद लिफाफे की संस्कृति को स्वीकार भी कर लिया जाता है।
भारत में चोरी की तुलना में चरित्र का पतन अधिक बड़ा अपराध है। अगर आप किसी के बारे में कह सकें कि वह चरित्रवान नहीं है और इसको साबित कर दें, तो लोग उसको वोट नहीं देंगे। लेकिन आप अगर यह साबित कर भी दें कि कोई चोर है, तो लोग फिर भी उसको वोट दे देंगे। क्योंकि लोग जानते हैं कि वे भी अपने अंदर में किसी किसी ना किसी हद तक चोर हैं। जबकि अमेरिका में इससे ठीक उलट है। अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने जब मोनिका लेविंस्की के साथ अनैतिक संबंध बनाया, व्यभिचार किया, और उसको पूरे सीनेट में स्वीकार भी कर लिया, तो सीनेट ने उसे हँसते-खेलते माफ कर दिया, और यहां तक कि बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन ने भी अपने पति के तरफ से पैरवी की, और उनको सीनेट से माफी दिलवाई।
‘आज दुनिया में आर्थिक स्वार्थ वाली राजनीति है। सब कोई अपना-अपना करने में लगे हैं। उसे हम भलीभांति देख रहे हैं। हम पर दबाव बढ़ सकता है, लेकिन हम इसे सहन कर लेंगे।’
रूस से तेल खऱीदने पर ट्रंप प्रशासन ने भारत पर 25 फ़ीसदी अतिरिक्त टैरिफ लगाया है। यानी भारत पर कुल मिलाकर 50 फीसदी टैरिफ बुधवार सुबह साढ़े नौ बजे से लागू हो गए हैं।
इनके लागू होने से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात दौरे पर हैं। सोमवार को वहाँ एक कार्यक्रम में उन्होंने जो कुछ कहा उसमें से अधिकतर हिस्सा भारतीय अर्थव्यवस्था और ‘आत्मनिर्भर भारत’ से जुड़ा हुआ था। उन्होंने कहा कि आत्मनिर्भरता और स्वदेशी ही विकसित भारत के निर्माण की नींव है।
उन्होंने कहा कि भारत ने आत्मनिर्भरता को एक विकसित राष्ट्र बनाने की नींव बनाया है। यह तभी संभव है जब हमारे किसान, मछुआरे, पशुपालक और उद्यमी मजबूत हों। प्रधानमंत्री ने आश्वासन दिया कि उनकी सरकार छोटे उद्यमियों, किसानों, दुकानदारों और पशुपालकों के हितों की रक्षा करती रहेगी।
‘अहमदाबाद की धरती से मैं कहना चाहता हूं कि छोटे उद्यमियों और किसानों का कल्याण मेरे लिए सर्वोपरि है। हम उनके हितों को आंच नहीं आने देंगे।’
मंगलवार को गुजरात के हंसलपुर में उन्होंने स्वदेशी की अपनी परिभाषा बताई।
उन्होंने कहा कि जापान की ओर से भारत में किया जा रहा उत्पादन भी स्वदेशी है।
उन्होंने कहा, ‘यहाँ जापान के द्वारा जो चीज़ें बनाई जा रही हैं वह भी स्वदेशी है। मेरी स्वदेशी की व्याख्या बहुत सिंपल है। पैसा किसका लगता है, उससे लेना-देना नहीं है। डॉलर है, पाउंड है, वह करेंसी काली है या गोरी है, मुझे लेना-देना नहीं है। लेकिन जो प्रोडक्शन है उसमें पसीना मेरे देशवासियों का होगा।’
अमेरिका ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की तरफ से पहले की गई घोषणा के अनुसार भारतीय सामानों पर अतिरिक्त 25 प्रतिशत शुल्क लगाने का एक ड्राफ्ट नोटिस जारी कर दिया है।
भारत के खिलाफ ये टैरिफ 27 अगस्त यानी बुधवार से लागू होंगे। आदेश में कहा कि बढ़ा हुआ शुल्क उन भारतीय उत्पादों पर लागू होगा जिन्हें 27 अगस्त 2025 को रात 12 बजकर एक मिनट या उसके बाद उपभोग के लिए (देश में) लाया गया है या गोदाम से निकाला गया है।
अमेरिका, भारत का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है और उसका भारत के सामानों पर 50 फीसदी का टैरिफ लगाना मोदी सरकार और भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है, लेकिन पीएम मोदी कई मंचों से कह चुके हैं कि समय-समय पर लगने वाले इन झटकों से निपटने का स्थाई इंतजाम होना चाहिए और भारतीय अर्थव्यवस्था में ये ताकत है।
आखिर क्या है उनकी इस भरोसे की वजह और क्या वाकई भारतीय अर्थव्यवस्था में ‘बाहरी झटकों’ को सहने की क्षमता है। ‘आत्मनिर्भर और स्वदेशी’ के इस भरोसे की क्या वजहें हैं।
1. आउटलुक में सुधार
दरअसल, पिछले कुछ सालों में विदेशी निवेशकों का भारत पर भरोसा बढ़ा है और तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था तरक्की की राह पर रही है।
टैरिफ की बुरी ख़बरों के बीच पिछले दिनों रेटिंग एजेसियों एसएंडपी और फिच ने भी भारत की अर्थव्यवस्था पर भरोसा जताया है।
फिच के अनुसार, अमेरिकी टैरिफ में बढ़ोतरी का भारत की जीडीपी पर असर मामूली रहेगा क्योंकि अमेरिका को भारत का निर्यात कुल जीडीपी का तकरीबन 2 फीसदी है।
फिच की रिपोर्ट में कहा गया है, ‘हमारा अनुमान है कि वित्त वर्ष 2025-26 में जीडीपी वृद्धि 6।5 प्रतिशत रहेगी, जो पिछले वित्त वर्ष के मुक़ाबले कम नहीं है।’
एक और रेटिंग एजेंसी एसएंडपी ग्लोबल ने 18 साल बाद भारत की रेटिंग बढ़ाई है। एसएंडपी ने भारत की लंबे समय की सॉवरेन रेटिंग ‘बीबीबी-’ से बढ़ाकर ‘बीबीबी’ कर दी है। रेटिंग एजेंसी ने कहा है कि भारत दुनिया की सबसे शानदार प्रदर्शन करने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक बना हुआ है। कोविड महामारी के बाद से मजबूती के साथ सुधार और निरंतर विकास दिखा रहा है।
2. भारत का बहुत बड़ा घरेलू बाजार
दुनिया की कुल खपत में भारत की हिस्सेदारी 2050 तक बढक़र 16 प्रतिशत हो सकती है, जो कि 2023 में महज 9 प्रतिशत थी। यह जानकारी मैकिन्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट की इसी साल आई एक रिपोर्ट में दी गई है।
बताया गया कि 2050 तक 17 प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ केवल उत्तर अमेरिका ही भारत से आगे होगा।
यह अनुमान क्रय शक्ति समता के आधार पर लगाया गया है, जो देशों के बीच मूल्य अंतर को बराबर करता है।
दुनिया की कुल खपत में भारत की हिस्सेदारी बढऩे की वजह यहां अधिक युवा आबादी होना है।
3. जीएसटी कलेक्शन में बढ़ोतरी
जीएसटी का मतलब है गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स। यह टैक्स लोग सामान और सेवाएं खरीदते समय देते हैं।
जीएसटी कलेक्शन से सरकार खजाना भर रहा है। मई महीने के जीएसटी कलेक्शन के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, मई 2025 में जीएसटी कलेक्शन 16.4 फीसदी बढक़र 2,01,050 करोड़ रुपये हो गया है। मई 2024 में यह कलेक्शन 1,72,739 करोड़ रुपये था।
इससे पहले, अप्रैल में जीएसटी कलेक्शन 2.37 लाख करोड़ रुपये रहा था जो कि अब तक का सबसे अधिक कलेक्शन था।
जीएसटी कलेक्शन सरकार का खजाना भरना दिखाता है। ये दिखाता है कि घरेलू फ्रंट पर भारत की इकोनॉमी बेहतर कर रही है।
-अर्चना शुक्ला, रॉक्सी गागडेकर छारा और जी उमाकांत
तमिलनाडु के तिरुपुर में एन. कृष्णामूर्ति की एक गारमेंट मैन्युफैक्चरिंग यूनिट है। लेकिन आजकल वहाँ एक अजीब सन्नाटा पसरा हुआ है।
इस यूनिट की 200 सिलाई मशीनों में से केवल कुछ ही चल रही हैं। यहाँ काम करने वाले लोग अमेरिका के कुछ बड़े रिटेलर्स के लिए बच्चों के कपड़ों के आखऱिी ऑर्डर पूरे कर रहे हैं।
तिरुपुर भारत का सबसे बड़ा टेक्सटाइल एक्सपोर्ट हब है।
कमरे के एक कोने में नए डिज़ाइनों के कपड़ों के सैंपल धूल खा रहे हैं।
और ये सब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से भारत पर लगाए जा रहे 50 फीसदी टैरिफ की भेंट चढ़ गए हैं। ये टैरिफ 27 अगस्त से लागू होंगे।
भारत अमेरिका को कपड़े, झींगा मछली और जेम्स ऐंड ज्वैलरी समेत कई चीज़ों का बड़ा निर्यातक है।
ट्रेड एक्सपर्ट्स का कहना है कि इतने ऊँचे टैरिफ़ और रूस से तेल खऱीदने पर अतिरिक्त 25 फ़ीसदी की पेनल्टी, भारतीय सामान पर लगभग प्रतिबंध लगाने जैसा असर डालेंगे।
‘सितंबर में क्या होगा, पता नहीं’
बीबीसी संवाददाताओं ने भारत के कई बड़े निर्यात केंद्रों का दौरा किया ताकि देखा जा सके कि इन व्यापारिक अनिश्चितताओं का कारोबारियों और रोजगार पर क्या असर हो रहा है।
भारत के 16 अरब डॉलर के रेडी-टु-वियर गारमेंट एक्सपोर्ट में तिरुपुर की लगभग एक तिहाई हिस्सेदारी है। यहाँ से टारगेट, वॉलमार्ट, गैप और ज़ारा जैसे ब्रांडों को सप्लाई होती है। लेकिन टैरिफ के ऐलान के बाद यहाँ भविष्य को लेकर गहरी चिंता दिख रही है।
कृष्णमूर्ति कहते हैं, ‘सितंबर के बाद हमारे पास शायद कुछ करने को ही न बचे, क्योंकि ग्राहकों ने सभी ऑर्डर रोक दिए हैं।’
टैरिफ संकट की वजह से उन्हें हाल ही में अपने विस्तार की योजना रोकनी पड़ी और करीब 250 नए कर्मचारियों को काम पर रखने के बाद बैठा देना पड़ा।
डोनाल्ड ट्रंप ने टैरिफ़ की घोषणा ऐसे समय में की है जब टेक्सटाइल यूनिटों की लगभग आधी बिक्री होती है। क्रिसमस से पहले का समय बिक्री के लिए काफ़ी अहम होता है।
अब ये टेक्सटाइल यूनिट्स अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए घरेलू बाजार और आने वाले दिवाली सीजऩ पर निर्भर हैं।
हमने अंडरवियर बनाने वाली एक दूसरी फैक्ट्री में लगभग 10 लाख डॉलर का माल का स्टॉक देखा। ये सब अमेरिकी स्टोर्स के लिए था। लेकिन अब इनके खरीदार नहीं हैं।
इस फ़ैक्ट्री में उत्पादन करने वाली कंपनी राफ्ट गारमेंट्स के मालिक सिवा सुब्रमण्यम ने बताया, ‘हम उम्मीद कर रहे थे कि भारत और अमेरिका के बीच ट्रेड डील होगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस वजह से पिछले महीने से पूरा प्रोडक्शन चेन ठप है। अगर यही चलता रहा तो मैं अपने मज़दूरों को तनख्वाह कैसे दूँगा?’
ट्रंप की ओर से लगाए गए 50 फीसदी टैरिफ के बाद भारत में बनी 10 डॉलर की शर्ट की कीमत सीधे 16.4 डॉलर हो जाएगी। जबकि बांग्लादेश में बनी टी-शर्ट 13.2 डॉलर और चीन में बनी टी-शर्ट की कीमत 14।2 डॉलर हो सकती है। वियतनाम में बनी टी-शर्ट 12 डॉलर में मिल सकती है।
हीरे की तराश
अगर टैरिफ़ को घटाकर 25 फीसदी कर दिया जाए, तो भी भारत अपने एशियाई प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में कम प्रतिस्पर्धी होगा।
इस झटके को कम करने के लिए सरकार ने कुछ उपायों की घोषणा की है। इनमें कच्चे माल पर आयात शुल्क को निलंबित करने जैसे क़दम शामिल हैं।
दुनिया में भारतीय सामान के लिए नए बाज़ारों की तलाश में कई देशों के साथ व्यापार वार्ताएँ भी तेज़ हुई हैं। लेकिन कई लोगों को डर है कि यह सब करने में देर हो गई है।
ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव के अजय श्रीवास्तव ने कहा, ‘अमेरिकी खऱीदार मैक्सिको, वियतनाम और बांग्लादेश की ओर रुख़ कर रहे हैं।’
मुंबई के एक एक्सपोर्ट ज़ोन में सैकड़ों मज़दूर हीरे की पॉलिशिंग और पैकिंग में व्यस्त हैं। भारत कई बिलियन डॉलर के रत्न और आभूषण निर्यात करता है।
लेकिन अब आभूषण ब्रांड सितंबर और अक्तूबर के दौरान अपनी बिक्री पर टैरिफ़ के संभावित असर से चिंतित हैं। इन दो महीनों में तीन से चार अरब डॉलर के आभूषण अमेरिका निर्यात किए जाते हैं।
हालाँकि भारत की ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के साथ नई व्यापारिक साझेदारियों ने नए अवसर खोले हैं।
लेकिन क्रिएशन ज्वैलरी के आदिल कोटवाल कहते हैं कि अमेरिकी बाज़ार पर पकड़ बनाने के लिए वर्षों से किए गए प्रयास कुछ ही महीनों में विफल हो सकते हैं।
कोटवाल की कंपनी में बनने वाले 90 फ़ीसदी हीरे जडि़त आभूषण अमेरिका भेजे जाते हैं।
आदिल कोटवाल 3 से 4 फ़ीसदी के मामूली मार्जिन पर काम करते हैं, इसलिए 10 फ़ीसदी अतिरिक्त टैरिफ़ भी उन पर भारी पड़ सकता है।
कोटवाल ने बीबीसी को बताया, ‘इन टैरिफ को कौन झेल पाएगा? यहाँ तक कि अमेरिकी रिटेलर भी ऐसा नहीं कर पाएँगे।’
कोटवाल हीरे सूरत से मँगवाते हैं। सूरत दुनिया में हीरा तराशने और पॉलिश करने का केंद्र है। सूरत पर वैश्विक माँग में गिरावट और लैब में बनाए गए हीरों से मिल रही प्रतिस्पर्धा के कारण पहले ही मुसीबत के बादल मंडरा रहे हैं।
अब टैरिफ इस शहर के लिए दोहरी मार है।
अमेरिकी ग्राहक ग़ायब हो गए हैं और लगभग पाँच लाख लोगों की आजीविका चलाने वाले कारख़ाने अब महीने में मुश्किल से 15 दिन ही चल पा रहे हैं। सैकड़ों कर्मचारियों को अनिश्चितकालीन छुट्टी पर भेज दिया गया है।
सूरत में एक मंद रोशनी वाली हीरा पॉलिशिंग यूनिट के अंदर, धूल भरी, बेकार पड़ी मेजों की कतारें सन्नाटे के बीच फैली हुई हैं। पास ही टूटे हुए सीपीयू बिखरे पड़े हैं।
एक मज़दूर ने बताया, ‘यह जगह पहले बहुत गुलज़ार रहती थी। हाल ही में कई लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया। हमें नहीं पता कि अब हमारा क्या होगा।’
इस यूनिट के मालिक शैलेश मंगुकिया बताते हैं कि उनके यहाँ पहले 300 कर्मचारी थे। अब केवल 70 ही बचे हैं। हर महीने पॉलिश किए जाने वाले हीरों की संख्या 2,000 से घटकर मुश्किल से 300 रह गई है।
भावेश टांक जैसे स्थानीय ट्रेड यूनियन नेताओं का कहना है कि सूरत में मज़दूरों को 'कम वेतन, जबरन छुट्टी और घटती मासिक आय' का सामना करना पड़ रहा है।
-संजय श्रमण
डॉ अंबेडकर और संविधान के साथ जब भी धर्म और लोकतंत्र की बात छिड़ती है, वेदांती बाबाओं के गले में अचानक वर्ण और जाति का फंदा फँस जाता है।
बड़ी चतुराई से फिर वे भागने का रास्ता निकालते हैं। अंबेडकर को टुकड़ों-टुकड़ों में कोट करते हैं। उनके किसी भी वक्तव्य को पूरी तरह डिस्कस नहीं करते, और खासकर उनके बौद्ध बन जाने की तो बात ही नहीं करते। ऐसी चर्चाओं से भागने के लिए वे बड़ी-बड़ी जलेबियाँ बनाते हैं। सीधे सीधे इस मुद्दे पर बात ही नहीं करते। उनका अंतिम तर्क-ब्रह्म और आत्मा एक ही है की तरह आता है। लेकिन जैसे ही स्व या आत्मा में गहरे जाने की कोशिश होती है, वे भाग खड़े होते हैं।
भारत के अलावा किसी अन्य समाज पर भले ही ये लागू होता हो या ना लागू होता हो। भारत के बारे में बुद्ध से लेकर अंबेडकर और जिद्दू कृष्णमूर्ति तक बुद्धिमान लोगों का साफ़ कहना है कि अजर-अमर आत्मा और इसके पुनर्जन्म की मान्यता ही भारत की वास्तविक समस्या है।
इस बिंदु पर कभी बात नहीं होती। या होती भी है तो प्रश्न पूछने वाले या मॉडरेटर महोदय या श्रोतागण अचानक जाने किस श्रद्धा के जलाल में आकर हाँफने लगते हैं। जैसी ही ब्रह्म और आत्मा के बारे में हवा हवाई एकता की बात शुरू होती है, इस श्रद्धा का पैनिक अटैक सबको घेर लेता है और अचानक मुद्दा बदल जाता है। जबकि ठीक से देखें तो बात इसी बिंदु से शुरू होनी चाहिए। लेकिन असल बात शुरू होने के पहले ही वे पारी समाप्ति की घोषणा कर देते हैं। इस चर्चा में यही हो रहा है, इस वीडियो को ठीक से देखिए।
मॉडरेटर ज़मीनी सवाल पूछता है फिर वेदांती बाबा एक ख़ास गहराई में जाते हुए नजऱ आते हैं। लेकिन जैसे ही लगता है कि वेदान्त और अन्य शास्त्रों पर सीधा सवाल उठ सकता है-वे वहाँ से बचकर भागते हैं। इस तरह जब भारतीय वेदांती भागते हैं तो उनका सबसे बड़ा क्लेम होता है - भेदभाव मनुष्य का स्वभाव है, भेदभाव पूरी दुनिया में होता है। लेकिन ऐसा कहते हुए वे भूल जाते हैं कि दुनिया में अन्य समाजों का भेदभाव उनके ईश्वर और शास्त्रों द्वारा स्वीकृत नहीं हैं। लेकिन भारतीय समाज का भेदभाव भारतीय ईश्वर और शास्त्रों द्वारा स्वीकृत है। यही वो असली बात है जिससे वेदांती घबराते हैं। इसलिए मैं बार बार कहता हूँ। जब तक इस आत्मा के सिद्धांत का ख़ात्मा नहीं होता, कम से कम भारत में सभ्यता का सही अर्थों में जन्म नहीं हो सकता।
पश्चिम ने ईश्वर की हत्या करके सभ्यता और लोकतंत्र कमाया है।
भारत को आत्मा की हत्या करके ये सभ्यता और लोकतंत्र कमाना होगा।
सेमिटिक धर्मों के अंधविश्वास का केंद्र उनका ईश्वर है। भारतीय धर्मों के अंधविश्वास का केंद्र सनातन आत्मा और पुनर्जन्म है। ये बहुत गहरी और बड़ी जटिल बात है। जन्म जन्मांतर का ये सिद्धांत, धीरे धीरे जन्म जन्मांतर तक जाने वाले अच्छे और बुरे संस्कारों का सिद्धांत बन जाता है। इसी के आधार पर कोई जन्म से श्रेष्ठ, कोई दूसरा जन्म से नीच बन जाता है। इसी के आधार पर अमीर की अमीरी और गरीब की गरीबी को वैध ठहराकर बदलाव की चेतना हो खत्म किया जाता है।
गली मुहल्लों से लेकर अच्छे अच्छे विश्वविद्यालय के लोगों से बात करके देखिए। वे हर चीज को नकारने का साहस रखते हैं। लेकिन आत्मा और पुनर्जन्म की बात आते ही उनकी सारी पढ़ाई लिखाई धरी की धरी राह जाती है।
ख़ैर, ये बात यहाँ खुलकर नहीं बताई जा सकती लेकिन एक संकेत किया जा सकता है। आत्मा और पुनर्जन्म का सिद्धांत असल में एक राजनीतिक सिद्धांत है - राजा और राजसत्ता के लिए आम आदमी को मानसिक रूप से गुलाम बनाने की सबसे बेजोड़ टेक्नोलॉजी। वज्रयान में ईश्वर की कोई जगह नहीं थी। इसलिए उन्होंने अजर अमर आत्मा और पुनर्जन्म बनाया। आगे सहजयान में भी यही हो रहा है। सगुण-निर्गुण और न जाने क्या-क्या।
लगभग डेढ़ हज़ार सालों से भारत में जिस संप्रदाय को भारत का सबसे बड़ा धर्म या संप्रदाय कहा जाता है,
वो असल में बिगड़ा हुआ वज्रयान है। इसी वज्रयान ने ना जाने किस दुर्भाग्य के क्षणों में क्षण भंगुर आत्मा को अजर-अमर आत्मा निरूपित करके स्कंधों के पुनर्भव को आत्मा का पुनर्जन्म बता दिया था।
इसी तरह तिब्बत में भी दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में यही घटना घटी। फिर अवलोकितेश्वर का एक रूप विष्णु बना दूसरा शिव बना। तिब्बत में इसी अवलोकितेश्वर का एक रूप या अवतार दलाई लामा बना। ये सब वज्रयानियों की करामात है। ठीक यही वो समय है जब कम्बोडिया के खमेर राजाओं ने अवलोकितेश्वर के विष्णु रूप की कल्पना को बहुत बड़ा आकार दिया और अवलोकितेश्वर को समर्पित अंकोर वाट मंदिर बनाया।
इसी ग्यारहवीं सदी में भारत में शैव और वैष्णव संप्रदाय अपने अपने अवतारवादी फ्ऱेमवर्क को लेकर एक दूसरे से अलग हो जाते हैं।
ये आदिशंकर और अभिनवगुप्त के तुरंत बाद का समय है। एक तरफ़ अवलोकितेश्वर का विष्णु रूप दूसरी तरफ़ उन्हीं अवलोकितेश्वर का शिव रूप - दोनों अलग मार्ग पकड़ लेते हैं। दुर्भाग्य से ये दोनों संप्रदाय न सिफऱ् इंसान के बारंबार पुनर्जन्म का बल्कि एक काल्पनिक सृष्टिकर्ता के पुनर्जन्म (अवतार) का सिद्धांत भी ले आते हैं।
-राजेश अग्रवाल
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में कहा कि अगर उप राष्ट्रपति पद के कांग्रेस प्रत्याशी जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी ने 2011 में सलवा जुडूम के खिलाफ फैसला नहीं दिया होता, तो माओवाद 2020 तक खत्म हो जाता। जस्टिस रेड्डी ने जवाब में इसे सुप्रीम कोर्ट का सामूहिक निर्णय बताया और शाह को पूरा जजमेंट पढऩे की सलाह दी।
लेकिन क्या था वह फैसला?
मामला दरअसल मानवाधिकार हनन, कानून के राज का उल्लंघन और राज्य की जिम्मेदारी से जुड़ा है। 5 जुलाई 2011 को सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने यह फैसला दिया था, जिसमें जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी और एस.एस. निज्जर शामिल थे। केस का नाम था- नंदिनी सुंदर एंड अदर्स बनाम स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़। दोनों जजों की पीठ ने सलवा जुडूम को असंवैधानिक करार दिया। याचिका में क्या मांगा गया, कोर्ट ने किन तथ्यों पर गौर किया और फैसला किस बुनियाद पर था, यह जानना रुचिकर हो सकता है।
सन् 2007 में सामाजिक कार्यकर्ता नंदिनी सुंदर, इतिहासकार रामचंद्र गुहा, ईएएस शर्मा आदि ने सुप्रीम कोर्ट में एक रिट पिटीशन दाखिल की। मुख्य मुद्दा था छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम नाम से मिलिशिया का गठन और स्पेशल पुलिस ऑफिसर्स (एसपीओ) की भर्ती, जिनका माओवादियों के खिलाफ लड़ाई में इस्तेमाल हो रहा था। याचिका में आरोप लगाया गया कि सलवा जुडूम राज्य सरकार की शह पर चल रहा है। इसमें मानवाधिकारों के उल्लंघन के कई उदाहरण दिए गए, जैसे गांवों को जला देना, हत्याएं, बलात्कार और विस्थापन। जलाए गए गांवों की संख्या सैकड़ों, दर्जनों हत्याएं और बलात्कार और करीब एक लाख लोगों का आंध्रप्रदेश और ओडिशा जैसे राज्यों में भाग जाना।
याचिका में कहा गया कि एसपीओ के रूप में आदिवासी युवाओं को हथियार देकर राज्य उन्हें मौत के मुंह में धकेल रहा था, जो कानून के खिलाफ है। याचिका में मांग की गई कि सलवा जुडूम को भंग किया जाए, एसपीओ की भर्ती रोकी जाए और हिंसा की जांच हो। याचिका में छत्तीसगढ़ पुलिस एक्ट का हवाला दिया गया, जिसके तहत एसपीओ को सिर्फ ट्रैफिक कंट्रोल या आपदा राहत जैसे कामों की अनुमति है।
कोर्ट ने कई तथ्यों पर गौर किया। पहला, राज्य सरकार ने शुरू में कहा कि सलवा जुडूम एक स्वत:स्फूर्त आंदोलन है। बाद में यह प्रमाण सामने आ गए सरकार इसे फंड और समर्थन दे रही है।
कोर्ट ने ह्यूमन राइट्स रिपोर्ट्स का जिक्र किया। ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट में एसपीओ और सलवा जुडूम पर 600 से ज्यादा गांव जलाने, हजारों विस्थापन और हत्याओं के आरोप थे। मार्च 2011 में मोरपल्ली, ताडमेटला और तिम्मापुर गांवों में हुई हिंसा को कोर्ट ने गंभीरता से लिया, जहां एसपीओ और कोया कमांडो पर हमले का आरोप था। राज्य की ओर से दिए गए एफिडेविट को कोर्ट ने ‘सेल्फ-जस्टिफिकेशन’ बताया, न कि जिम्मेदारी का। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि एसपीओ की ट्रेनिंग अपर्याप्त थी। महज तीन महीने की। और वे अक्सर निर्दोषों पर अत्याचार करते थे। नाबालिग तक एसपीओ बना दिए गए, जो अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन था। केंद्र सरकार की भूमिका पर भी सवाल उठे, क्योंकि उन्होंने एसपीओ को समर्थन दिया था।
दिलचस्प यह है कि तब छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार थी, सलवा जुड़ूम के संस्थापक महेंद्र कर्मा कांग्रेस के थे। केंद्र में यूपीए की सरकार थी, तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम भी इसके पक्ष में थे। हालांकि छत्तीसगढ़ के कांग्रेस नेताओं में सलवा जुड़ूम को समर्थन देने के नाम पर मतभेद था।
रिचर्ड एटनबरो (29 अगस्त 1923-24 अगस्त 2014) ऐसे प्रतिभाशाली अँग्रेज अभिनेता, निर्देशक व निर्माता हैं जिन्हें अकादमी पुरस्कार, बैफ्टा और तीन बार गोल्डेन ग्लोब पुरस्कार से सम्मानित किया गया । उन की गाँधी फि़ल्म को साल 1983 में दो श्रेणियों में ऑस्कर पुरस्कार मिला था। एटेनबरा को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का अवॉर्ड मिला था जबकि गांधी फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का।
गांधी’ फिल्म एक बहुत महान फिल्म बनी बिल्कुल गांधी की ही तरह। यह फि़ल्म पूरे देश की फिल्म हो गई। गांधी की हत्या के बाद हमारे देश की हवा में अफवाह की शक्ल में उन्हें जिस तरह से कुप्रचारित किया गया इस फिल्म ने हिंदुस्तानी सिनेमा के पर्दे पर गांधी के वास्तविक रूप को विशाल जनता के सामने रख दिया। गांधी जी को देखने व समझने में नारायण भाई देसाई की डायरियां ,तेंदुलकर की आठ खण्डों में पुस्तकें और 98 खण्डों में संकलित रचनाएं मौजूद हैं परंतु इस फिल्म ने हमारे दिलों में राष्ट्रपिता की छवि को न केवल भारत के सामने अपितु पूरे विश्व के सामने उभार दिया। गांधी को हमने देखा नहीं है क्योंकि उनकी हत्या के 18 वर्ष बाद मेरा जन्म हुआ। लेकिन मुझे बेन किंग्सले में ही गांधी की छवि दीखती है ठीक वैसे ही जैसे जवाहरलाल नेहरू की छवि रोशन सेठ में दिखती है।
1962 में लंदन से भारतीय हाई कमीशन के अधिकारी मोतीलाल कोठारी जो एक गांधीवादी थे उनके आग्रह से गांधी फिल्म बनने का सफर शुरू हुआ। युवा रिचर्ड एटनबरो गांधी पर फि़ल्म बनाने के लिए प. नेहरू से मिलते हैं। उनसे लंबा चौड़ा मशविरा होता है। नेहरू एटनबरो को अपने निवास के बाहर के गेट तक छोडऩे आते हैं और उनसे कहते हैं ‘आप गांधीजी पर फिल्म बनाइये पर आप उन्हें फिल्म में देवता मत बनाना उन्हें इंसान के रूप में ही चित्रित करना। क्योंकि हम गांधी पर बात करते हैं तो उनमें ईश्वरीय गुणों का निवेश कर देते हैं।और कहते हैं कि उन्होंने वह हासिल किया जो हम तुच्छ प्राणी हासिल कभी नहीं कर सकते। इससे नुकसान यह होता है कि गांधी पूजा की वस्तु में तब्दील हो जाते हैं,और फिर उन पर पूरी बातचीत व्यर्थ हो जाती है।’
एटनबरो ने नेहरू के सुझाव को पूरा करने के लिए बेन किंग्सले को गांधी के रूप में चयनित किया। बेन किंग्सले के पिता भारतीय गुजराती थे लेकिन बेन ब्रिटिश थे। बेन ‘गांधी’ की शूटिंग के दौरान छह महीने अशोका होटल में रहे, वहां उनके कमरे को पूरा खाली कराया गया। वे गांधी की तरह फर्श पर सोते, गांधी की तरह ही सोकर उठते, पालती मारकर बैठना सीखते थे, शराब को छूते नहीं थे। और गांधी की तर्ज पर व्रत रखते थे। गांधी फि़ल्म के शूटिंग के सेट पर पहुंचने के लिए उनके मेकअप साढ़े तीन घंटे लगते थे। जब बेन किंग्सले पहली बार गांधी बनकर सेट पर पहुंचे थे, सारे गांव वालों ने उनके पांव छुए थे। 1982 में जब गांधी फि़ल्म पूरी हुई तो वह पूरे विश्व की फि़ल्म बन गयी। उसे 8 आस्कर मिले। एटनबरो की जिंदगी का यह सबसे बड़ा दिन था।
इस फि़ल्म में बेन किंग्सले ने कई दृश्य बहुत मार्मिक दिखाए हैं जिनमें गांधी सजीव हो उठते हैं। दक्षिण अफ्रीका में युवा गांधी अपनी पत्नी कस्तूरबा (रोहिणी हट्टाकदी) को घर से धक्का देते हुए बाहर ले जाते हैं। कहते हैं कि अगर पाखाने की बाल्टी साफ नहीं कर सकतीं तो इस घर में नहीं रहोगी। जिसे हम गंदा कहते हो और जिसे साफ करने के लिए हमने एक पूरी जाति बना रखी है। हमको उसी गंदे को खुद साफ करना होगा। रोहिणी हट्टागदी कस्तूरबा के रोल में रोती हुई कहती हैं यहां विदेश में मुझे तुम लाये हो और इस तरह बाहर धक्का दे रहे हो मैं कहाँ रहूंगी? गांधी को पछतावा होता है अपने खुद के बर्ताव के चलते लेकिन अपने सिद्धांत के चलते नहीं।
दूसरा मार्मिक दृश्य नोआखाली का है जिसमें एक हिन्दू (नहरी) ओमपुरी के रूप में खटिया पर आमरण अनशन पर लेटे गांधी के सामने अपनी तलवार फेंकता है और कहता है कि आप यही चाहते थे कि मैं हथियार आपके कदमों में फेंक दूं? तो लीजिए अब मुझे इस तलवार की जरूरत नहीं । उन्होंने मेरे बच्चे का कत्ल किया मैंने एक 11 साल के मुसलमान बच्चे को दीवार पर उसका सर पटक पटक कर मार डाला। मेरा पश्चाताप पूरा हुआ। गांधी उस हत्यारे की बातें बड़े ध्यान से सुनते हैं । उनकी खटिया के एक ओर सुहरावर्दी दूसरी ओर नेहरू खड़े हुए हैं। गांधी उपवास की हालत में इशारे से ओमपुरी को बुलाते हैं और कहते हैं कि तुम्हारा पश्चाताप अभी पूरा नहीं हुआ है। तुम 11 साल के एक मुस्लिम यतीम बच्चे को गोद लो उसे मुस्लिम पद्धति से पालकर बड़ा करो यही तुम्हारा सच्चा पश्चाताप होगा।
-श्रुति व्यास
क्या होता है जब कोई राष्ट्र-राज्य मिट जाता है या मिटा दिया जाता हैं?सामान्य जवाब है—कुछ भी नहीं। कुछ दिनों तक जरूर शोर-शराबा, टूटे दिल और एकजुटता के हैशटैग चलेगें। फिर भूलने की बीमारी आ जाती है। गायब होना स्मृति के किसी कोने में दर्ज होता जाता है। सामान्य ज्ञान की किसी एक पुस्तक, एक खंड में सिमट कर रह जाता है। राजनीति में प्रतिक्रिया थोड़ी भारी ज़रूर होती है, लेकिन उतनी ही खोखली। बड़े-बड़े शब्दों में निंदा, और उससे भी बड़े शब्दों में पलटवार। ठंडी, रोशन कमरों में गुनगुनी चाय के बीच प्रस्ताव लिखे जाते हैं, नीतियाँ बहस में फँसी रहती हैं, बयान पढ़े जाते हैं। और फिर-सन्नाटा। जो राज्य मिटा दिया गया, वह इतिहास और इतिहास की किताबों भर मे ही जीवित रहता है।
देश-राज्य सचमुच गायब होते हैं, हो चुके हैं। 1947 से पहले कितने देश, राजा-रजवाड़े थे। कईयों को अंग्रेजों ने भी सिर पर बैठा रखा था। ऐसे ही पूरी दुनिया में इतिहास भरा हुआ है। पर राष्ट्र-राज्य कभी गर्जना के साथ, कभी लगभग बिन आवाज, और कभी पूरी दुनिया की आँखों देखी मिट जात है। इतिहास हमें बताता है कि सरहदें रातों-रात खींची जा सकती हैं, हालांकि उनके परिणाम लंबे, खूनी और स्थायी भी होते हैं। और इस वक्त, एक ऐसा ही मिटाया जाने का मामला हमारी आँखों के सामने घट रहा है।
आज, फिलिस्तीन को मिटाए जाने का ख़तरा है। इजरायल ने एक ऐसी बस्ती योजना को मंज़ूरी दी है, जो सिफऱ् कब्ज़े के लिए नहीं बल्कि फि़लिस्तीनी राज्य की धारणा को ही मिटाने के लिए बनाई गई है। यह है श्व1 प्रोजेक्ट, जो पश्चिमी तट (वेस्ट बैंक) को दो हिस्सों में बाँट देगा और उसे पूर्वी यरुशलम से काट देगा। पिछले हफ्ते इसकी घोषणा वित्त मंत्री बेजालेल स्मोट्रिच ने की, जो नेतन्याहू की सरकार के कट्टर राष्ट्रवादी धड़े से आते हैं। बुधवार को रक्षा मंत्रालय की योजना समिति ने इस पर अंतिम मुहर लगाई। स्मोट्रिच ने शब्दों के पीछे छिपने की कोशिश भी नहीं की। उनका ऐलान था- ‘फिलिस्तीनी राज्य मेज से हटा दिया गया है, नारे से नहीं, बल्कि काम से।’
जाहिर है यह पुरानी शैली का टैंकों और संधियों वाला अधिग्रहण नहीं है, बल्कि एक सुनियोजित नक्शा है। सडक़ों और बस्तियों को इस तरह खींचना कि जमीन बिखर जाए और राज्य पहचान धूमिल और मिट जाए। अगर यह लागू हुआ तो श्व1 प्रोजेक्ट पश्चिमी तट को उत्तर और दक्षिण में बाँट देगा, फिलिस्तीनी राज्य के फैलाव, निरंतरता मिटेगी और रामल्ला, पूर्वी यरुशलम और बेथलहम के बीच का शहरी गलियारा काट देगा। यह भूगोल के साथ धीमी हिंसा है-मिटाना किसी नाटकीय आघात से नहीं, बल्कि सीमेंट, ज़ोनिंग कानूनों और जमीन पर ‘तथ्य गढऩे’ से होगा।
राष्ट्र-राज्यों को मिटते हुए हमने पहले भी देखा है। 1950 में जब चीन ने तिब्बत को निगल लिया, दुनिया ने नजऱें फेर लीं। बहुत दूर, बहुत जटिल, बहुत असुविधाजनक। पहाड़ों ने चीख़ों को दबा दिया। दुनिया का सबसे ऊँचा राष्ट्र चीन के एक प्रांत में बदल गया। मठ गोलाबारी में ढह गए, भिक्षु भूमिगत हो गए। जिन लोगों का अपना झंडा, अपनी लिपि, अपनी प्रार्थनाएँ थीं, उनसे कहा गया कि अब वे बस ‘चीनी’ हैं। दलाई लामा हिमालय पार कर भारत आए। एक पल को लगा, दुनिया जाग उठेगी। लेकिन नहीं, सन्नाटा बना। होनी मान ली। तिब्बत नक्शों से मिटा दिया गया और निर्वासन में ठेल दिया गया। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने उसे ‘खोई हुई लड़ाइयों’ की श्रेणी में रख दिया। यहाँ तक कि भारत-जिसने दलाई लामा को शरण दी, जहाँ आज भी निर्वासित तिब्बती सरकार है, उसने भी तिब्बत को भुला सा दिया है। हम इसे तभी याद करते हैं जब बीजिंग को चुभाना हो, उसके मक़सद के लिए नहीं।
धर्मशाला में युवा भिक्षुओं के मंत्र, मैक्लॉडगंज में लहराते प्रार्थना झंडे-ये सब उस संघर्ष के अवशेष हैं जिसे भारत ने भुला दिया है। निर्वासन में जन्मे तिब्बतियों के लिए उनका वतन अब सिर्फ स्मृति और मिथक है-दादा-दादी की कहानियों में ल्हासा, गीतों में, अनुष्ठानों में जो भूगोल से आगे जीते हैं। बाक़ी दुनिया के लिए तिब्बत एक पर्यटक पोस्टकार्ड है, कोई राजनीतिक घाव नहीं। यही है मिटाए जाने का तरीका-दुनिया एक देश के बिना जीना सीख लेती है, भले ही उसके लोग उसे कभी भूलते नहीं।
-पुष्य मित्र
सरकार कोई हो, सच्ची पत्रकारिता को बर्दाश्त नहीं कर पाती। ताजा खबर झारखंड से है, जहां सरकार ने लोकतंत्र 19 चैनल के दो पत्रकारों तीर्थ नाथ 'भूमिपुत्र' और सुनीता मुंडा को पुलिस ने हिरासत में ले लिया था। हालांकि बाद में जनदबाव में इन्हें छोड़ दिया गया।
वजह यह थी कि ये पत्रकार लगातार संथाल परगना के सामाजिक कार्यकर्ता सूर्या हांसदा के फेक एनकाउंटर के खिलाफ आवाज उठा रहे थे। सूर्या हांसदा अपने गांव में बच्चों के लिए स्कूल चलाते थे, हालांकि वे एक उग्र एक्टिविस्ट भी थे और कई गलत मसलों के खिलाफ आवाज भी उठाते थे। उन पर कई मुकदमे भी थे।जानकारी यह है कि टाइफाइड से पीडि़त हांसदा को पुलिस हाथ पांव बांध कर ले गई और उसका एनकाउंटर कर दिया।
इतना ही नहीं झारखंड की सरकार अब उस नगड़ी में रांची का दूसरा रिम्स खोलने की तैयारी कर रही है, जहां की जमीन बचाने के लिए झारखंड के एक्टिविस्टों ने 2012 में एक लंबा और सफल आंदोलन किया था।
-डॉ. आर.के. पालीवाल
कल वरिष्ठ नागरिक दिवस था। किसी भी समाज के ठीक से विकास के लिए बच्चों की शिक्षा, युवाओं की कर्मशीलता और वरिष्ठ नागरिकों के उचित मार्गदर्शन की जरूरत होती है। जहां तक वरिष्ठ नागरिकों का प्रश्न है, समाज के लिए उनके सर्वोत्तम उपयोग के लिए निम्न तीन चीजें जरूरी हैं...
1. हमारे वरिष्ठ नागरिक सबसे पहले स्वयं को समर्थ और सक्षम समझें। उनमे यह आत्म विश्वास होना चाहिए कि वे समाज निर्माण में अप्रतिम योगदान कर सकते हैं। आम धारणा यह बना दी गई है कि सेवानिवृत्त वरिष्ठ नागरिक फ्यूज बल्ब की तरह हैं। उन्हें बहुत से चुटकुलों में ऐसा ही बताया जाता है। जबकि हकीकत इसके उलट है। वरिष्ठ नागरिक अपने लम्बे जीवन अनुभवों से बच्चों और युवाओं को प्रेरित कर सकते हैं। हमारे अपने आसपास भी इस तरह के बहुत से उदाहरण हैं। उत्तर भारत के सैकड़ों गांवों में स्कूल और कॉलेज खोलने वाले स्वामी कल्याण देव, देश विदेश में तीन भाषाओं में गांधी कथा कहने वाले नारायण देसाई, बस्तर की आदिवासी बालिकाओं को शिक्षित कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाने वाले धर्मपाल सैनी, इंदौर के विसर्जन आश्रम में शहर की तीन पीढिय़ों को निशुल्क योग प्रशिक्षण देने वाले किशोर भाई, गुजरात के आदिवासी समुदाय में शिक्षा की अलख जगाने वाले भीखू भाई और कोकिला बेन दंपत्ति, गांधी मूल्यों को आजीवन लोगों तक पहुंचाने वाले न्यायमूर्ति चंद्रशेखर धर्माधिकारी, सुदूर गांव में रहकर बहुत से गांवों में समग्र विकास करने वाले कांति भाई शाह, अपने जीते जी अपनी संपत्ति समाजसेवी संस्थाओं को बांटने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट संतोष खण्डेलवाल आदि ऐसे बहुत से उदाहरणों के हम भी साक्षी रहे है जिन्होंने उम्र के बढ़ते आंकड़ों को गति अवरोधक नहीं माना और उम्र के सातवें, आठवें और नौवें दशक में भी युवाओं सरीखे जोश के साथ समाज उत्थान के रचनात्मक कार्यों को अंजाम देते रहे। स्वामी कल्याण देव जैसे संत समाजसेवी तो सौ वर्ष पार करने के बाद भी बच्चों जैसे उत्साह से काम करते थे और कहते थे कि आदमी को अंतिम साँस तक मनुष्य जीवन का सार्थक उपयोग करना चाहिए ताकि मन में यह भाव न आए कि हम समय रहते अमुक काम नहीं कर पाए। शायद इसीलिए ईश्वर ने उन्हें तीन शताब्दियों में फैला 127 साल लम्बा जीवन दिया था जिसका सार्थक उपयोग उन्होंने अद्भुत समाजसेवा के लिए किया।
-समरेन्द्र शर्मा
छत्तीसगढ़ में मंत्रिमंडल का विस्तार आखिरकार हो गया। महीनों से अटका पड़ा यह मामला जैसे ही निपटा, लोग ऐसे समीक्षा में लगे हैं कि मानो पड़ोसी के घर शादी में मिठाई कम पड़ गई हो। मजेदार बात यह है कि जिनका इससे दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं, वही सबसे ज्यादा माथापच्ची कर रहे हैं।
विस्तार से पहले यही लोग हल्ला मचा रहे थे कि सरकार अधूरी है, जगह खाली है। किसी को भी बनाओ तो सही और अब जब विस्तार हो गया तो सुर बदल गए। सवाल दागे जाने लगे कि इसको क्यों लिया, उसको क्यों छोड़ा, अमुक संभाग से क्यों नहीं लिया और जातीय समीकरण क्यों बिगाड़ दिया। हाल वही ना खाने देंगे, ना चैन से सोने देंगे।
गली-मोहल्लों में पान दबाए बैठा हर दूसरा शख्स अपने-अपने हिसाब से कैबिनेट का गणित निकालना शुरू कर दिया है। कोई कह रहा है अजय को किनारे कर दिया, अमर को छोड़ दिया, रेणुका और लता की अनदेखी कर दी। पर सच तो यह है कि अगर इन्हें भी ले लिया जाता तो यही लोग ठीकरा फोड़ते। दरअसल, आपत्ति करना ही इनका पेशा है।
उधर, विपक्ष का अपना ही राग है। जिनका नाम मंत्रिमंडल में नहीं आया, उनके लिए दु:ख भरी प्रेस कांफ्रेंस हो रही है। जिनका नाम आ गया, उन पर भी तंज कसे जा रहे हैं। विपक्ष का काम ही यही है कि खिचड़ी में नमक कम है, का गीत गाते रहो, चाहे थाली में पुलाव ही क्यों न परोसा गया हो।
हमारे मुखिया जी ने खूब समझदारी दिखाई। विस्तार किया और फौरन प्रदेश के लिए निवेश तलाशने फॉरेन निकल गए। यही तो दूरदर्शिता है। यहां रुककर हर किसी की पटर-पटर सुनने से कहीं बेहतर है कि बाहर जाकर राज्य का भला करना। वैसे भी लौटते-लौटते आलोचना की भैंस पानी पी जाएगी और शोर अपने आप थम जाएगा।
-पंकज कुमार झा
राजनीति इतनी सारी विडंबनाओं को जन्म देता है कि पूछिए मत। आप अरविन्द केजरीवाल के बारे में सोचिए। वे पैदा ही हुए थे भारतीय राजनीति में जिस विषय को लेकर उसका नाम ‘लोकपाल’ था। ऐसा माहौल बना दिया गया था देश भर में, इस तरह समाचार माध्यमों ने एजेंडा के साथ इस विषय को आगे बढ़ाया था कि नई सदी में पैदा हुए बच्चे सोचने लगे थे कि इधर लोकपाल आया, उधर देश की सारी समस्याएं छू मंतर हो जाएगी। जंतर-मंतर ने यही संदेश देश भर में फैला दिया था।
उस कथित लोकपाल की सबसे बड़ी बात क्या थी, पता है? अरविंद केजरीवाल उसके माध्यम से यह मांग करते थे कि प्रस्तावित लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री को भी लाया जाय।
फिर वह आंदोलन परवान चढ़ा। अन्ना हजारे से उस आंदोलन को हड़प कर, अन्ना को वापस रालेगन-सिद्धि ठेल कर अरविंद राजनीतिक दल बना बैठे थे। आगे सफल हुए और एक-एक कर संघर्ष के दिनों के अपने सभी साथियों को बाहर किया। ये सब तो खैर इतिहास है अब।
असली बात यह कि सीएम बन जाने के बाद कभी देखा आपने उन्हें फिर लोकपाल नामक किसी व्यवस्था का जिक्र भी करते हुए? ऐसे दोहरे रवैये की तो आप अनेक और उदाहरण दे सकते हैं जो अरविंद के चालाक चरित्र का हिस्सा रहा है। लेकिन विडंबना देखिए। आज वास्तव में एक विधेयक संसद में रखा गया है जिसके भीतर पीएम-सीएम सभी आने वाले हैं। जेल जाने पर सबकी कुर्सी जाएगी। पर इस कानून के नाम से ही किस व्यक्ति का चेहरा सबसे पहले सामने आता है। जाहिर है अरविंद केजरीवाल का ही। है न? इसलिए नहीं क्योंकि उन्होंने कोई आंदोलन किया था, इसलिए क्योंकि भ्रष्टाचार में गंभीर आरोपों के कारण जब वे जेल गए तो इस्तीफा देने का तमीज नहीं दिखाया, शर्मनाक तरीके से वे जेल से ही सरकार चलाते रहे। यह उस व्यक्ति ने किया, जिसकी पैदाइश ही कथित भ्रष्टाचार के मंथन से हुआ था।
विडंबना यह भी है ही कि जिस कांग्रेस के भ्रष्टाचार के विरुद्ध अरविंद पैदा हुए, उसी के साथ सरकार बना ली। बच्चों की कसम तक का मान नहीं रखा। उस सजायाफ़्ता लालू यादव तक से गलबहियाँ करते रहे जिन्हें भ्रष्टाचार शिरोमणि होना अदालतों ने भी मान लिया है। स्वयं जिस कांग्रेस प्रमुख राहुल गांधी ने लालू यादव को राजनीति से बाहर करने के लिए मनमोहन सिंहजी के अध्यादेश को सरेआम फाड़ दिया था, वे सभी आज इस कानून का विरोध करने एक साथ खड़े हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की ओर से स्टील पर 50 फीसदी शुल्क लगाए जाने के बाद भारत में छोटी फाउंड्रीज यानी ढलाई कारखानों में हड़कंप मच गया है. बड़े पैमाने पर मजदूरों की छंटनी की आशंका है और कंपनियां बंद होने की कगार पर हैं.
कोलकाता भारत की स्टील फाउंड्रीज यानी ढलाई कारखानों का एक प्रमुख केंद्र है और सैनिटरी कास्टिंग का निर्यात करता है. यहां अब इस उद्योग में काम कम होता जा रहा है. कई कारखाने बंद होने की कगार पर पहुंच गए हैं या बंद हो गए हैं. कारोबार मालिक निजी तौर पर तो इस संकट की चर्चा करते हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से ज्यादा कुछ कहने से बचते हैं. वहीं, कर्मचारी अपने भविष्य को लेकर असमंजस में हैं. उन्हें डर सता रहा है कि कहीं किसी दिन वे बेरोजगार तो नहीं हो जाएंगे.
हालांकि, कुछ कारोबारी अब इस संकट पर खुलकर बोलने लगे हैं. कलकत्ता आयरन उद्योग के मालिक विजय शंकर बेरीवाल इस संकट के लिए, अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की ओर से स्टील और एल्युमीनियम पर लगाए गए 50 फीसदी आयात शुल्क को जिम्मेदार ठहराते हैं. यह शुल्क जून में लागू हुआ था.
ट्रंप ने इस कदम के लिए 1962 के अमेरिकी व्यापार विस्तार अधिनियम की धारा 232 के तहत राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी चिंताओं का हवाला दिया था. स्टील पर शुल्क के अलावा, ट्रंप ने ज्यादातर भारतीय वस्तुओं पर 25 फीसदी का ‘पारस्परिक शुल्क' भी लगाया है. रूसी तेल खरीदने के कारण अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत पर अतिरिक्त 25 फीसदी शुल्क लगाने का प्रस्ताव रखा है, जो इस महीने के अंत से लागू हो सकता है.
भारत के प्रति सख्त, लेकिन चीन के प्रति उदार क्यों हैं ट्रंप?
बेरीवाल कहते हैं, "अभी बाजार पर इसका पूरा असर नहीं पड़ा है, लेकिन दबाव दिखने लगा है. जिनके पास पहले से ही अमेरिका से ऑर्डर है, वे तेजी से काम पूरा कर रहे हैं और जल्द से जल्द ऑर्डर की डिलीवरी करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन नए ऑर्डर कम मिल रहे हैं या मिलने बंद हो गए हैं. कई फाउंड्रीज में काम बंद हो गया है.”
ट्रंप की संरक्षणवादी व्यापार नीतियों के तहत, स्टील और एल्युमीनियम पर लगाए गए 50 फीसदी शुल्क से पूर्वी भारत की निर्यात-आधारित फाउंड्रीज और छोटे-मझोले उद्योगों (एमएसएमई) पर गहरा असर पड़ रहा है. ये उद्योग अमेरिकी बाजार पर काफी हद तक निर्भर हैं. इतना ज्यादा शुल्क उनके कारोबार को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है. ये उद्योग गंभीर खतरे में आ गए हैं.
वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, भारत ने पिछले वर्ष अमेरिका को 4.56 अरब डॉलर के लोहा, स्टील और एल्युमीनियम उत्पादों का निर्यात किया था. इसमें 58.75 करोड़ डॉलर का लोहा और स्टील, 3.1 अरब डॉलर के लौह या स्टील उत्पाद और 86 करोड़ डॉलर के एल्युमीनियम उत्पाद शामिल हैं. यह भारत से अमेरिका को किए गए कुल 86.51 अरब डॉलर के निर्यात का लगभग 5.3 फीसदी हिस्सा है.
छोटी फाउंड्रीज को बड़ा झटका
इनकी हिस्सेदारी अपेक्षाकृत कम होते हुए भी भारत के फाउंड्री सेक्टर में इनका योगदान काफी अहम माना जाता है. इस सेक्टर में 5,000 से ज्यादा कारखानों में 2 लाख से अधिक लोग काम करते हैं. इनमें से 95 फीसदी से ज्यादा कारखाने लघु उद्योग की श्रेणी में आते हैं.
क्या लागू होकर रहेगा भारत पर लगा 25 पर्सेंट अतिरिक्त टैरिफ?
इसके अलावा, पूर्वी भारत का फाउंड्री उद्योग, महाराष्ट्र या तमिलनाडु के फाउंड्री उद्योग से अलग है. जहां महाराष्ट्र और तमिलनाडु में फाउंड्रीज घरेलू ऑटोमोटिव और निर्माण बाजार की मांगों को पूरा करती हैं, वहीं पूर्वी भारत की फाउंड्रीज मुख्य रूप से निर्यात के लिए उत्पाद बनाती हैं. यही कारण है कि अमेरिकी शुल्क जैसे व्यापारिक झटकों से उन पर सबसे ज्यादा असर पड़ता है.
भारतीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने स्टील और एल्युमीनियम पर टैरिफ के असर को कम करके आंका है. उनका तर्क है कि अमेरिका को भारत से स्टील और एल्युमीनियम का निर्यात बहुत कम होता है. बंगाल चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा, "अगर आप 14.5 करोड़ टन में से 95,000 टन निर्यात नहीं कर पा रहे हैं, तो इससे क्या फर्क पड़ता है?”
चीनी स्टील की डंपिंग का असर
निर्यात के ऑर्डर कम होने से, कंपनियां अपना सारा माल भारत के बाजार में ही बेच रही हैं. इससे बाजार में बहुत ज्यादा सामान आ गया है और प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है.
कोलकाता स्थित इंडस्ट्रियल कास्टिंग कॉर्पोरेशन के मालिक आर.के. दमानी कहते हैं, "कुछ ग्राहक कीमतों में 5 फीसदी कटौती की मांग कर रहे हैं. वहीं, कुछ उधार पर सामान लेने की बात कर रहे हैं. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था.
फेडरेशन ऑफ इंडियन एक्सपोर्ट ऑर्गनाइजेशन (एफआईईओ) का अनुमान है कि अमेरिका को निर्यात किए जाने वाले स्टील में 85 फीसदी तक की कमी आ सकती है. इसका मतलब है कि भारत में बहुत ज्यादा स्टील जमा हो जाएगा. देश में स्टील की कीमतें 6 से 8 फीसदी तक कम हो सकती हैं. इससे छोटे और मझोले उद्योगों के लिए पैसा कमाना और भी मुश्किल हो जाएगा. उनका मुनाफा काफी कम हो जाएगा.
एफआईईओ के महानिदेशक अजय सहाय ने कहा, "शुल्क के बाद, बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ जाएगी. बाजार में वही टिकेगा जो कम कीमत पर सामान बेचेगा. चीन जैसे देश बहुत कम कीमत पर सामान बेच सकते हैं. भारतीय छोटे और मझोले उद्योग शायद उनका मुकाबला नहीं कर पाएंगे.”
हालांकि, उनका बयान मुख्य रूप से कपड़ा जैसे क्षेत्रों के बारे में है, लेकिन स्टील क्षेत्र को भी इसी तरह के दबाव का सामना करना पड़ रहा है. इसकी वजह यह है कि चीन कम लागत वाले स्टील भारत में भेज सकता है और इससे छोटे उत्पादकों के लिए खतरा पैदा हो सकता है.
इंडियन स्टेनलेस स्टील डेवलपमेंट एसोसिएशन (आईएसएसडीए) का कहना है कि वित्त वर्ष 2023-24 से भारत तैयार स्टील का शुद्ध आयातक बन गया है, यानी वह शुद्ध स्टील का जितना निर्यात कर रहा है उससे ज्यादा आयात कर रहा है. 2021 से 2024 के बीच स्टील के आयात में काफी तेजी आई है, जिसमें से ज्यादातर आयात चीन से हो रहा है.
ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव के संस्थापक अजय श्रीवास्तव कहते हैं, "स्टील निर्यात की सबसे बड़ी समस्या यह है कि सभी विकसित देश बाजार बंद कर रहे हैं. यूरोपीय संघ 2018 से ही शुल्क वसूल रहा है. जनवरी 2026 से वह कार्बन बॉर्डर अडजस्टमेंट मैकेनिज्म (सीबीएएम) लागू करने जा रहा है.”
सरकारी हस्तक्षेप
यूरोपीय संघ की ओर से लगाए गए शुल्कों की वजह से भारत का स्टील और एल्युमीनियम निर्यात पहले से ही दबाव में है. अब ज्यादा कार्बन उत्सर्जन वाले उत्पादों के आयात पर लगाए जाने वाले सीबीएएम यानी कार्बन टैक्स से भारत की प्रतिस्पर्धा क्षमता और कमजोर हो सकती है. इससे भारतीय कारोबारियों के लिए बाजार में बने रहना मुश्किल हो जाएगा.
भारत का फाउंड्री सेक्टर ज्यादातर छोटी कंपनियों से मिलकर बना है, जिनका मुनाफा पहले ही बहुत कम होता है. अब 50 फीसदी शुल्क की वजह से अमेरिकी बाजार से ऑर्डर लेना महंगा और घाटे का सौदा हो गया है. दूसरी ओर, इन कंपनियों के पास इतना समय और पूंजी नहीं है कि वे तुरंत अपने निर्यात को मध्य-पूर्व या दक्षिण-पूर्व एशिया जैसे नए बाजारों की ओर मोड़ सकें.
भारतीय सरकार इस स्थिति से निपटने के लिए कई मोर्चों पर काम कर रही है. वाणिज्य मंत्रालय अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते पर बातचीत कर रहा है, ताकि शुल्क कम किए जा सकें. वहीं, एमएसएमई सेक्टर को सहारा देने के लिए ब्याज पर सब्सिडी, लोन गारंटी और सर्टिफिकेशन फीस में कमी जैसे कदमों पर विचार किया जा रहा है.
साथ ही, डायरेक्टोरेट जनरल ऑफ ट्रेड रेमेडीज (डीजीटीआर) ने चीनी डंपिंग से घरेलू बाजार को बचाने के लिए स्टील के कुछ उत्पादों पर 12 फीसदी सुरक्षा शुल्क (सेफगार्ड ड्यूटी) लगाने का प्रस्ताव भी रखा है.
कलकत्ता लौह उद्योग के मालिक बेरीवाल को उम्मीद है कि सरकार फाउंड्रीज को बचाने के लिए हस्तक्षेप करेगी. उन्होंने कहा, "इस उद्योग को बचाने के लिए सरकार से तत्काल कुछ मदद की जरूरत है. हम सरकार के पास एक प्रस्ताव लेकर जाएंगे, लेकिन अभी हम इंतजार कर रहे हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति आगे क्या कदम उठाते हैं.”
इस बीच, उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि अगर सरकार ने जल्द कुछ नहीं किया, तो 2026 की शुरुआत तक एमएसएमई में छंटनी शुरू हो सकती है और कंपनियां बंद होनी शुरू हो सकती हैं.
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की ओर से स्टील पर 50 फीसदी शुल्क लगाए जाने के बाद भारत में छोटी फाउंड्रीज यानी ढलाई कारखानों में हड़कंप मच गया है. बड़े पैमाने पर मजदूरों की छंटनी की आशंका है और कंपनियां बंद होने की कगार पर हैं.
डॉयचे वैले पर दीपांजन सिन्हा का लिखा-
कोलकाता भारत की स्टील फाउंड्रीज यानी ढलाई कारखानों का एक प्रमुख केंद्र है और सैनिटरी कास्टिंग का निर्यात करता है. यहां अब इस उद्योग में काम कम होता जा रहा है. कई कारखाने बंद होने की कगार पर पहुंच गए हैं या बंद हो गए हैं. कारोबार मालिक निजी तौर पर तो इस संकट की चर्चा करते हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से ज्यादा कुछ कहने से बचते हैं. वहीं, कर्मचारी अपने भविष्य को लेकर असमंजस में हैं. उन्हें डर सता रहा है कि कहीं किसी दिन वे बेरोजगार तो नहीं हो जाएंगे.
हालांकि, कुछ कारोबारी अब इस संकट पर खुलकर बोलने लगे हैं. कलकत्ता आयरन उद्योग के मालिक विजय शंकर बेरीवाल इस संकट के लिए, अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की ओर से स्टील और एल्युमीनियम पर लगाए गए 50 फीसदी आयात शुल्क को जिम्मेदार ठहराते हैं. यह शुल्क जून में लागू हुआ था.
ट्रंप ने इस कदम के लिए 1962 के अमेरिकी व्यापार विस्तार अधिनियम की धारा 232 के तहत राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी चिंताओं का हवाला दिया था. स्टील पर शुल्क के अलावा, ट्रंप ने ज्यादातर भारतीय वस्तुओं पर 25 फीसदी का ‘पारस्परिक शुल्क' भी लगाया है. रूसी तेल खरीदने के कारण अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत पर अतिरिक्त 25 फीसदी शुल्क लगाने का प्रस्ताव रखा है, जो इस महीने के अंत से लागू हो सकता है.
बेरीवाल कहते हैं, "अभी बाजार पर इसका पूरा असर नहीं पड़ा है, लेकिन दबाव दिखने लगा है. जिनके पास पहले से ही अमेरिका से ऑर्डर है, वे तेजी से काम पूरा कर रहे हैं और जल्द से जल्द ऑर्डर की डिलीवरी करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन नए ऑर्डर कम मिल रहे हैं या मिलने बंद हो गए हैं. कई फाउंड्रीज में काम बंद हो गया है.”
ट्रंप की संरक्षणवादी व्यापार नीतियों के तहत, स्टील और एल्युमीनियम पर लगाए गए 50 फीसदी शुल्क से पूर्वी भारत की निर्यात-आधारित फाउंड्रीज और छोटे-मझोले उद्योगों (एमएसएमई) पर गहरा असर पड़ रहा है. ये उद्योग अमेरिकी बाजार पर काफी हद तक निर्भर हैं. इतना ज्यादा शुल्क उनके कारोबार को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है. ये उद्योग गंभीर खतरे में आ गए हैं.
वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, भारत ने पिछले वर्ष अमेरिका को 4.56 अरब डॉलर के लोहा, स्टील और एल्युमीनियम उत्पादों का निर्यात किया था. इसमें 58.75 करोड़ डॉलर का लोहा और स्टील, 3.1 अरब डॉलर के लौह या स्टील उत्पाद और 86 करोड़ डॉलर के एल्युमीनियम उत्पाद शामिल हैं. यह भारत से अमेरिका को किए गए कुल 86.51 अरब डॉलर के निर्यात का लगभग 5.3 फीसदी हिस्सा है.
छोटी फाउंड्रीज को बड़ा झटका
इनकी हिस्सेदारी अपेक्षाकृत कम होते हुए भी भारत के फाउंड्री सेक्टर में इनका योगदान काफी अहम माना जाता है. इस सेक्टर में 5,000 से ज्यादा कारखानों में 2 लाख से अधिक लोग काम करते हैं. इनमें से 95 फीसदी से ज्यादा कारखाने लघु उद्योग की श्रेणी में आते हैं.
इसके अलावा, पूर्वी भारत का फाउंड्री उद्योग, महाराष्ट्र या तमिलनाडु के फाउंड्री उद्योग से अलग है. जहां महाराष्ट्र और तमिलनाडु में फाउंड्रीज घरेलू ऑटोमोटिव और निर्माण बाजार की मांगों को पूरा करती हैं, वहीं पूर्वी भारत की फाउंड्रीज मुख्य रूप से निर्यात के लिए उत्पाद बनाती हैं. यही कारण है कि अमेरिकी शुल्क जैसे व्यापारिक झटकों से उन पर सबसे ज्यादा असर पड़ता है.
भारतीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने स्टील और एल्युमीनियम पर टैरिफ के असर को कम करके आंका है. उनका तर्क है कि अमेरिका को भारत से स्टील और एल्युमीनियम का निर्यात बहुत कम होता है. बंगाल चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा, "अगर आप 14.5 करोड़ टन में से 95,000 टन निर्यात नहीं कर पा रहे हैं, तो इससे क्या फर्क पड़ता है?”
चीनी स्टील की डंपिंग का असर
निर्यात के ऑर्डर कम होने से, कंपनियां अपना सारा माल भारत के बाजार में ही बेच रही हैं. इससे बाजार में बहुत ज्यादा सामान आ गया है और प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है.
कोलकाता स्थित इंडस्ट्रियल कास्टिंग कॉर्पोरेशन के मालिक आर.के. दमानी कहते हैं, "कुछ ग्राहक कीमतों में 5 फीसदी कटौती की मांग कर रहे हैं. वहीं, कुछ उधार पर सामान लेने की बात कर रहे हैं. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था.
फेडरेशन ऑफ इंडियन एक्सपोर्ट ऑर्गनाइजेशन (एफआईईओ) का अनुमान है कि अमेरिका को निर्यात किए जाने वाले स्टील में 85 फीसदी तक की कमी आ सकती है. इसका मतलब है कि भारत में बहुत ज्यादा स्टील जमा हो जाएगा. देश में स्टील की कीमतें 6 से 8 फीसदी तक कम हो सकती हैं. इससे छोटे और मझोले उद्योगों के लिए पैसा कमाना और भी मुश्किल हो जाएगा. उनका मुनाफा काफी कम हो जाएगा.
एफआईईओ के महानिदेशक अजय सहाय ने कहा, "शुल्क के बाद, बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ जाएगी. बाजार में वही टिकेगा जो कम कीमत पर सामान बेचेगा. चीन जैसे देश बहुत कम कीमत पर सामान बेच सकते हैं. भारतीय छोटे और मझोले उद्योग शायद उनका मुकाबला नहीं कर पाएंगे.”
हालांकि, उनका बयान मुख्य रूप से कपड़ा जैसे क्षेत्रों के बारे में है, लेकिन स्टील क्षेत्र को भी इसी तरह के दबाव का सामना करना पड़ रहा है. इसकी वजह यह है कि चीन कम लागत वाले स्टील भारत में भेज सकता है और इससे छोटे उत्पादकों के लिए खतरा पैदा हो सकता है.
इंडियन स्टेनलेस स्टील डेवलपमेंट एसोसिएशन (आईएसएसडीए) का कहना है कि वित्त वर्ष 2023-24 से भारत तैयार स्टील का शुद्ध आयातक बन गया है, यानी वह शुद्ध स्टील का जितना निर्यात कर रहा है उससे ज्यादा आयात कर रहा है. 2021 से 2024 के बीच स्टील के आयात में काफी तेजी आई है, जिसमें से ज्यादातर आयात चीन से हो रहा है.
ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव के संस्थापक अजय श्रीवास्तव कहते हैं, "स्टील निर्यात की सबसे बड़ी समस्या यह है कि सभी विकसित देश बाजार बंद कर रहे हैं. यूरोपीय संघ 2018 से ही शुल्क वसूल रहा है. जनवरी 2026 से वह कार्बन बॉर्डर अडजस्टमेंट मैकेनिज्म (सीबीएएम) लागू करने जा रहा है.”
-सम्यक ललित
सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली एन.सी.आर. क्षेत्र से आवारा कुत्तों को पकड़ कर उन्हें शरणस्थलियों में बंद रखने का आदेश दिया है। कोर्ट के इस आदेश पर पशु-प्रेमियों और आवारा कुत्तों से त्रस्त लोगों के बीच एक तीखी बहस छिड़ गई है। एक ओर पशु-प्रेमी कह रहे हैं कि गलियों-सडक़ों पर रहने वाले ये कुत्ते हमारे सामान्य रहन-सहन का अभिन्न हिस्सा हैं, वहीं दूसरी ओर इन कुत्तों के काटने से त्रस्त लोग कुत्तों को इंसानी आबादी से दूर रखने के पक्षधर हैं। मैं यहाँ इस बहस का एक अन्य पक्ष सामने रखना चाहता हूँ। मैं यहाँ कुत्तों की समस्या को हल करने के किसी उपाय की बात नहीं कर रहा हूँ-मैं बस विकलांगजन के दृष्टिकोण से इस समस्या का एक पक्ष सामने रख रहा हूँ।
विकलांगजन के लिये आवारा कुत्ते एक बहुत बड़ी मुसीबत होते हैं। मेरी बैसाखियों को देखकर कुत्तों को लगता है कि मैं उन पर हमला कर सकता हूँ। इसके प्रतिक्रिया-स्वरूप कुत्तों ने मुझ पर अक्सर हमला किया है। अपना संतुलन खो देने के कारण मैं कई बार इनके बीच गिरा भी हूँ। बैसाखियों से (बेवजह) आतंकित कुत्तों ने कभी मुझे काटा तो नहीं क्योंकि बैसाखियों के कारण वे नज़दीक आने से डरते हैं-लेकिन स्कूल के दिनों में इन्होनें मेरे मन में दहशत भर दी। कई कुत्ते मिल कर जब आपको गिरा लें और आप भाग भी न पायें तो कैसी दहशत आपके मन में होगी इसका आप अनुमान लगा सकते हैं।
विकलांगजन अक्सर किसी सहायक उपकरण का प्रयोग करते हुए बाहर निकलते हैं। बैसाखी, व्हीलचेयर, सफेद छड़ी, लाठी जैसी चीजें कुत्तों को खतरनाक लगती हैं। किसी दृष्टिबाधित व्यक्ति के लिये कुत्तों का हमला कैसा हो सकता है इसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। कोई व्यक्ति जो सुन नहीं सकता उस पर अचानक कुत्तों का हमला -जऱा सोचिये।
एक समय कुत्तों के कारण मैंने घर से बाहर निकलना बंद कर दिया था- लेकिन स्कूल जाना मेरे लिये बेहद जरूरी था इसलिये मैं अधिक समय तक रुक नहीं पाया और मैंने उसी दहशत के बीच स्कूल-कॉलेज आना-जाना जारी रखा-प्रश्न यह है कि क्या विकलांगजन का कुत्तों की दहशत में रहना स्वीकार्य हो सकता है? आवारा कुत्तों के हमले में अनेक बच्चों की जान गई है, अनेक लोगों की मौत रेबिज के कारण हो चुकी है। क्या यह इन घटनाओं को सामान्य जीवन का हिस्सा माना जा सकता है?
-रजनीश कुमार
अमेरिका के वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट ने 13 अगस्त को कहा था कि राष्ट्रपति पुतिन और ट्रंप के बीच अलास्का में बातचीत नाकाम रही तो भारत पर 25 फीसदी का अतिरिक्त टैरिफ और बढ़ सकता है।
इस ख़बर को एक्स पर रीपोस्ट करते हुए जियोपॉलिटिक्स और अर्थशास्त्र पर गहरी नजर रखने वाले फ्रांस के अरनॉड बरट्रैंड ने लिखा, ‘यह स्पष्ट रूप से भारत की मल्टी-अलाइनमेंट डिप्लोमैटिक रणनीति की नाकामी है। इस रणनीति से भारत को सबके लिए ज़रूरी बनना था लेकिन सबके लिए गैर-जरूरी बन गया।’
‘दूसरे शब्दों में कहें तो भारत ने ख़ुद को ऐसा बना लिया है कि जिसे लोग बिना किसी जोखिम के आसानी से चोट दे रहे हैं। चीन से पंगा लिए बिना जब ट्रंप को प्रतिबंधों के ज़रिए कड़ा संदेश देना होता है तो वह भारत को धमकाते हैं क्योंकि भारत इतना बड़ा है कि थोड़ी अहमियत रखता है लेकिन इतना ताकतवर नहीं है कि प्रभावी पलटवार कर सके।’
अरनॉड बरट्रैंड ने लिखा है, ‘जब आप हर किसी के दोस्त बनने की कोशिश करते हैं तो आप हर किसी के लिए प्रेशर वॉल्व बन जाते हैं। खास करके तब जब आप अपना।ख मनवाने की क्षमता नहीं रखते हैं।’
मल्टी-अलाइनमेंट का मतलब है कि भारत सभी गुटों के साथ रहेगा। इसे नेहरू के नॉन अलाइनमेंट यानी गुटनिरेपेक्ष से अलग माना जाता है लेकिन कई लोग मानते हैं कि बस शब्द का फर्क है क्योंकि जब आप सबके साथ होने का दावा करते हैं तो किसी के साथ नहीं होते हैं।
मल्टी-अलाइनमेंट की नीति क्या नाकाम हो रही है?
लेकिन अरनॉड की भाषा छह दिन बाद भारत को लेकर बदली दिखी। 19 अगस्त को पीएम मोदी ने चीनी विदेश मंत्री वांग यी से मुलाकात की तस्वीर पोस्ट की थी। इसी पोस्ट को रीपोस्ट करते हुए अरनॉड ने लिखा है, ‘भारत के बारे में आप चाहे जो कुछ भी कह सकते हैं लेकिन मोदी में वो राजनीतिक साहस है, जो यूरोप में नहीं है। आप कल्पना कीजिए कि अगर यूरोप ने यही काम रूस के साथ किया होता तो ट्रंप को इतना मौक़ा नहीं मिलता। यूरोप को ट्रंप की मध्यस्थता की ज़रूरत नहीं पड़ती।’
‘मैं तो इस बारे में बात भी नहीं कर रहा हूं कि कैसे ट्रंप ने यूरोप के नेताओं से स्कूली बच्चों की तरह व्यवहार किया और आर्थिक नुक़सान पहुँचाया। हालात ये हैं कि यूरोप को हर तरह से भुगतना पड़ रहा है। एक तो अमेरिका के पिछलग्गू के रूप में अपमान हो रहा है और ट्रंप इस स्थिति का आर्थिक दोहन भी कर रहे हैं। यूरोप को छद्म युद्ध की क़ीमत भी चुकानी पड़ रही है और अपने पड़ोस से बैर भी मोल लेना पड़ रहा है। वहीं ट्रंप रूस से संबंध सुधार रहे हैं।’
अरनॉड ने लिखा है, ‘चीन को लेकर भारतीयों के मन में जिस तरह की शत्रुता का भाव है, वैसा यूरोप में रूस को लेकर नहीं है। यानी भारत के लिए ये सब करना यूरोप की तुलना में राजनीतिक रूप से ज़्यादा मुश्किल था। एशिया के नेता जिस तरह से रणनीतिक स्वायत्तता को लेकर प्रतिबद्ध दिख रहे हैं, वैसी प्रतिबद्धता यूरोप में नहीं है।’
अरनॉड के इस बदले।ख़ पर अंग्रेजी अखबार ‘द हिन्दू’ के अंतरराष्ट्रीय संपादक स्टैनली जॉनी ने लिखा है, ‘देश लंबी अवधि के लिए सोचते हैं और विश्लेषक छोटी अवधि के लिए।’
फ्रांस में भारत के राजदूत रहे जावेद अशरफ से पूछा कि वाकई मोदी सरकार की मल्टी-अलाइनमेंट की नीति नाकाम हो रही है?
जावेद अशरफ़ कहते हैं, ‘मैं ऐसा नहीं मानता हूँ। नरेंद्र मोदी एससीओ समिट में जा रहे हैं तो इसका मतलब ये नहीं है कि अमेरिका के खिलाफ जा रहे हैं। ट्रंप के आने से पहले से ही चीन से संबंधों में सुधार की कोशिश शुरू हो गई थी। अमेरिका के साथ भी संबंध ट्रेड के स्तर पर खऱाब है, बाकी संबंध तो वैसे ही हैं।’
जावेद अशरफ कहते हैं, ‘भारत और अमेरिका में कोई समझौता न होने का कारण यह भी है कि भारत ने अपने हितों से समझौता नहीं किया। यानी भारत अमेरिका से बात रणनीतिक स्वायत्तता के साथ ही कर रहा है। चीन और रूस ज़्यादा शक्तिशाली हैं, इसलिए ये अमेरिका को जवाब उसी की भाषा में दे रहे हैं। अगर हमारे पास भी वो ताक़त होती तो हम भी जवाब देते। अंतर बस इतना ही है।’
थिंक टैंक ब्रूकिंग्स इंस्टिट्यूशन की सीनियर फेलो तन्वी मदान मानती हैं कि भले ट्रंप के ।ख से मोदी के चीन दौरे को जोड़ा जा सकता है लेकिन चीन से संबंध सुधाने की यह प्रक्रिया कोई अचानक नहीं शुरू हुई है।
तन्नी मदान ने ब्लूमबर्ग से कहा, ‘पिछले साल रूस के कजान में भी पीएम मोदी की मुलाकात चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से हुई थी। भारत चीन के साथ रिश्ते सुधारने के लिए इसलिए कोशिश कर रहा है ताकि वह अपना रणनीतिक और आर्थिक दायरा बढ़ा सके और सीमा पर तनाव को ना बढऩे दे।’
‘लेकिन सवाल यह है कि क्या चीन इन प्रतिबद्धताओं पर खरा उतरेगा? हमने देखा है कि बातचीत की कई कोशिशें सीमा पर तनाव की वजह से अधूरी रह गईं। अगर चीन भारत को कमज़ोर देखता है तो सीमा पर तनाव की घटनाएं और देखने को मिल सकती हैं।’
पीएम मोदी का चीन दौरा
चीन के विदेश मंत्री वांग यी 18 और 19 अगस्त को भारत के दौरे पर थे। इसके बाद वह 21 अगस्त को पाकिस्तान पहुँचे हैं। भारत के बाद वांग यी के पाकिस्तान दौरे के कई मायने निकाले जा रहे हैं।
शंघाई के फ़ुदान यूनिवर्सिटी में दक्षिण एशिया से चीन के संबंधों के एक्सपर्ट लिन मिनवांग ने न्यूयॉर्क टाइम्स से कहा, ‘अगर भारत चीन से संबंधों को सुधारना चाहता है तो चीन इसका स्वागत करेगा लेकिन भारत को कोई छूट नहीं मिलेगी। चीन अपने हितों से समझौता नहीं करेगा और न ही पाकिस्तान को समर्थन देना बंद करेगा।’
अमेरिका ने भारत के खिलाफ 50 फीसदी टैरिफ लगाया है। अगर 27 अगस्त से भारत के खिलाफ ये 50 फीसदी टैरिफ लागू हो जाता है तो अमेरिका से व्यापार करना मुश्किल हो जाएगा।
पिछले चार सालों से अमेरिका भारत का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है। 2024-25 में भारत का अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार 131.84 अरब डॉलर का था।
अगर अमेरिका के साथ इतना बड़ा व्यापार बाधित होता है तो भारत की अर्थव्यवस्था पर असर पडऩा लाजिमी है। ऐसे में भारत के ऊपर दबाव है कि वह या तो अमेरिका के साथ संबंध सुधारे या फिर नए बाजार की तलाश करे।
ब्लूमबर्ग ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है, ‘भारत अगर डिप्लोमैसी के बदले अमेरिका के सामने झुकने से इनकार करना चुनता है तो उसे अपना सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर और दुनिया का सबसे बड़ा कंज्यूमर मार्केट खोना पड़ सकता है। चीन के साथ भाईचारा बढ़ाना या देश में आर्थिक सुधार जैसे क़दम अच्छे हैं लेकिन इससे अमेरिका की जगह की भरपाई नहीं हो पाएगी।’
अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और चीन दूसरे पायदान पर है। भारत भी एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है, ऐसे में अमेरिका और चीन से खऱाब संबंध रखकर अपनी मुश्किलें और नहीं बढ़ाना चाहता है। लेकिन यह सच्चाई है कि दोनों देशों से संबंधों में गर्मजोशी नहीं है। ऐसा तब है, जब अमेरिका और चीन दोनों ही भारत के शीर्ष के कारोबारी साझेदार हैं। चीन भारत का दूसरा सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है। 2024-25 में चीन के साथ भारत का द्विपक्षीय व्यापार 127।7 अरब डॉलर का था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तियानजिन में 31 अगस्त से एक सितंबर तक आयोजित एससीओ (शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन) समिट में शामिल होने चीन जा रहे हैं। मोदी सात साल बाद चीन जा रहे हैं।
बिहार में एसआईआर और चुनावी प्रक्रिया में कथित धांधली को लेकर विपक्ष चुनाव आयोग, खासकर मुख्य चुनाव आयुक्त पर हमलावर है. आखिर, चुनाव आयोग जैसी संस्था विवादों में कैसे फंस गई और क्या है चुनाव आयुक्तों को हटाए जाने का तरीका?
डॉयचे वैले पर समीरात्मज मिश्र का लिखा-
बिहार में मतदाता सूची की गहन जांच यानी एसआईआर और वोट चोरी जैसे आरोपों के बीच विपक्ष अब मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रहा है. विपक्षी इंडिया गठबंधन की तरफ से ये बातें तब आईं जब रविवार को मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने दो अन्य चुनाव आयुक्तों के साथ एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और विपक्षी दलों पर एक बार फिर चुनाव आयोग के खिलाफ भ्रम फैलाने का आरोप लगाया.
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रविवार की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) ज्ञानेश कुमार पर सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी के प्रवक्ता की तरह बात करने और व्यवहार करने के सीधे आरोप लगे. हालांकि ये आरोप विपक्ष पहले भी लगा रहा था लेकिन रविवार को हुई ज्ञानेश कुमार की पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस ने विपक्ष का गुस्सा काफी भड़का दिया.
इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के अगले ही दिन विपक्षी दलों की बैठक हुई जिसमें इस मुद्दे पर चर्चा की गई. बैठक के बाद इंडिया गठबंधन के कई सांसदों ने इस बात के संकेत दिए कि मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ विपक्ष संसद में महाभियोग का प्रस्ताव भी ला सकता है.
शिवसेना (यूबीटी) के राज्य सभा सदस्य संजय राउत ने मीडिया को बताया कि बैठक में न सिर्फ इस मुद्दे पर गंभीरता से चर्चा की गई बल्कि सीईसी ज्ञानेश कुमार के खिलाफ महाभियोग लाने की तैयारी भी शुरू कर दी गई है.
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चुनाव आयोग पर आरोप
दरअसल, चुनाव आयोग पर तमाम आरोप पहले से लग रहे हैं, विपक्षी दलों ने सैकड़ों की संख्या में लिखित शिकायतें की हैं लेकिन चुनाव आयोग ने अब तक किसी का संज्ञान नहीं लिया और हर बार विपक्ष के आरोपों को सिरे से खारिज करता रहा. एसआईआर का मामला तो अब सुप्रीम कोर्ट में है जहां शुक्रवार को एक बार फिर सुनवाई होनी है. लेकिन इस सुनवाई से पहले ही चुनाव आयोग ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के ‘वोट चोरी' के आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया.
विपक्षी सांसदों के साथ हुई बैठक के बाद कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव केसी वेणुगोपाल ने मीडिया को बताया कि मुख्य चुनाव आयुक्त एक संवैधानिक संस्था के प्रमुख की तरह नहीं बल्कि सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के प्रवक्ता की तरह व्यवहार कर रहे हैं. उनका कहना था, "प्रेस कॉन्फ्रेंस में सीईसी ज्ञानेश कुमार ने नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी और अन्य दलों के उठाए गए एक भी सवाल का जवाब नहीं दिया. बल्कि सवाल उठाने के लिए विपक्ष का ही मजाक उड़ा रहे थे. यह सीईसी का तरीका नहीं है. यदि उन्हें राजनीति करनी हो तो किसी पार्टी में शामिल हो जाएं.”
केसी वेणुगोपाल का भी कहना था कि सीईसी के खिलाफ महाभियोग की तैयारियां चल रही हैं और विपक्ष के पास इसे पारित कराने के लिए पर्याप्त संख्या बल है.
‘वोट चोरी' बना मुद्दा
लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने गत सात अगस्त को मतदाता सूची में खामियों को लेकर एक लंबा प्रेजेंटेशन दिया था. इसमें उन्होंने कर्नाटक की बेंगलुरु सेंट्रल लोकसभा के बारे में मतदाता सूची में धांधली और फिर इस धांधली के जरिए बीजेपी उम्मीदवार की जीत का दावा किया था. उन्होंने बताया था कि बेंगलुरु सेंट्रल संसदीय सीट के तहत आने वाली महादेवपुरा विधानसभा सीट में एक लाख से ज्यादा फर्जी मतदाता जोड़े गए. राहुल गांधी ने यह भी दावा किया कि लोकसभा चुनावों के साथ-साथ महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में भी मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर धांधली की गई है.
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उस वक्त चुनाव आयोग ने राहुल गांधी के आरोपों को भ्रम फैलाने वाला बताते हुए कहा था कि यदि राहुल गांधी अपने दावे को सही मानते हैं तो उन्हें यह शिकायत एफिडेविट के साथ देनी चाहिए. रविवार को अचानक हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी सीईसी ज्ञानेश कुमार ने यही बातें दोहराईं. उनका कहना था, "इन आरोपों की जांच बिना हलफनामा दाखिल किए नहीं हो सकती है. या तो राहुल गांधी हलफनामा दें या फिर देश से माफी मांगें. उन्हें 7 दिनों के अंदर हलफनामा देना होगा या पूरे देश से माफी मांगनी होगी. अन्यथा यह समझा जाएगा कि ये आरोप बेबुनियाद हैं.”
राहुल गांधी अभी भी अपने आरोपों पर कायम हैं और संसद में भी विपक्ष इन आरोपों और बिहार में हो रहे एसआईआर पर चर्चा की लगातार मांग कर रहा है लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त की इस भाषा और शैली पर विपक्ष कई तरह के सवाल उठा रहा है. यही नहीं, राहुल गांधी ने आरोप सात अगस्त को लगाए लेकिन चुनाव आयोग की प्रेस कॉन्फ्रेंस दस दिन बात हुई और वो भी अचानक. प्रेस कॉन्फ्रेंस का दिन भी रविवार को रखा गया.
चुनाव आयोग की प्रेस कॉन्फ्रेंस पर सवाल
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह लंबे समय से चुनाव आयोग को कवर कर रहे हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहते हैं, "मैं 1987 से चुनाव आयोग कवर कर रहा हूं. मुझे याद नहीं है कि चुनाव आयोग ने रविवार को कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई होगी, वो भी अचानक. वो भी बिना किसी अर्जेंट मैटर के. दरअसल, मुख्य चुनाव आयुक्त की भाषा और तरीके के अलावा प्रेस कॉन्फ्रेंस की टाइमिंग की वजह से भी उन पर सत्तारूढ़ पार्टी के साथ सांठ-गांठ के आरोप लग रहे हैं. उसी दिन बिहार में इंडिया गठबंधन की वोटर अधिकार यात्रा शुरू हो रही है और चुनाव आयोग उसी दिन उन आरोपों का जवाब देने के लिए छुट्टी के दिन प्रेस कॉन्फ्रेंस बुला रहा है, जो आरोप दस दिन पहले लगाए जा चुके हैं.”
यही नहीं, मुख्य चुनाव आयुक्त की तरफ से बार-बार हलफनामा देकर शिकायत करने की जो बातें की जा रही हैं, उस पर भी सवाल उठ रहे हैं. सवाल न सिर्फ राजनीतिक बल्कि कानूनी पहलू से भी उठ रहे हैं. समाजवादी पार्टी ने तो अठारह हजार शपथ पत्रों का हवाला देकर चुनाव आयोग से पूछा कि इनका जवाब कहां है.
हलफनामा क्यों
सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत पाराशर कहते हैं कि इस मामले में हलफनामे का तो कोई औचित्य ही नहीं है. उनके मुताबिक, यह सब तो सवालों से पीछा छुड़ाने और जवाब देने से बचने का तरीका है, और कुछ नहीं.
डीडब्ल्यू से बातचीत में दुष्यंत पाराशर कहते हैं, "हलफनामा या एफिडेविट तब दिया जाता है जब मुकदमे में या किसी बात में शपथ देकर कहना होता है. यहां तो वो उन आंकड़ों को दे रहे हैं जो आंकड़े खुद चुनाव आयोग के हैं. हलफनामा तो साक्ष्य को प्रमाणित करने के लिए एक सपोर्टिंग दस्तावेज होता है कि जो मैं कह रहा हूं वो सत्य है और ये सारी बातें मैं रिकॉर्ड पर कह रहा हूं और नोटरी के सामने उसे नोटिफाई किया जाता है. इस मामले में हलफनामे की कोई जरूरत नहीं दिखती. हलफनामा एक तकनीकी पक्ष है. उससे चीजें बदलती नहीं हैं. डेटा अपने आप में साक्ष्य है. चुनाव आयोग की साइट से लिए गए आंकड़े हैं. बहुत ही हास्यास्पद सा है चुनाव आयोग का इस मामले में हलफनामा मांगना.”
दुष्यंत पाराशर का कहना है कि देश की इतनी बड़ी और अहम संवैधानिक संस्था पर इतने गंभीर आरोप लगे हैं, ऐसे में आयोग को अपनी विश्वसनीयता साबित करने के लिए सारे आरोपों का जवाब देना चाहिए, न कि हलफनामा मांगने जैसी बातें. उनके मुताबिक, राहुल गांधी जो बात कह रहे हैं कि देश में इतने बड़े पैमाने पर लोगों को वोटर लिस्ट से बाहर किया जा रहा है, तो ये देश का मामला है. इसमें एफिडेविट की कई जरूरत नहीं है.
अरविंद कुमार सिंह भी कहते हैं कि हलफनामा चुनाव आयोग में तब लगता है जब पार्टियों के सिंबल इत्यादि का मामला होता है. हर जगह हलफनामा नहीं लगता.
हेपेटाइटिस का संक्रमण हर बार घातक नहीं होता लेकिन कुछ तो लिवर को इतना नुकसान करते हैं कि ट्रांसप्लांट की नौबत आ जाती है. विशेषज्ञों का कहना है कि खानपान को नियमित रखने के साथ साफ-सफाई से लिवर सुरक्षित रखा जा सकता है.
डॉयचे वैले पर रामांशी मिश्रा का लिखा-
यूपी के सीतापुर जिले के सोनसरी गांव में जुलाई के आखिरी हफ्ते में एक साथ 96 लोगों में हेपेटाइटिस B और C संक्रमण सामने आया. स्वास्थ्य विभाग के सघन स्क्रीनिंग अभियान में 56 और नए संक्रमित लोग सामने आए. कुल 152 संक्रमितों का मिलना एक छोटे से गांव के लिए न केवल डराने वाला बल्कि बेहद चिंताजनक भी है.
इस संक्रमण के फैलने के पीछे का कारण जानने के लिए नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल (NCDC) की टीम ने ग्रामीणों से बातचीत कर संक्रमण का स्रोत जानने की कोशिश की. इसमें संक्रमण के संभावित कारणों में सैलून में बिना सैनिटाइज किए उपकरणों का इस्तेमाल प्रमुख तौर पर सामने आया.
लिवर में इन्फ्लेशन या इन्फेक्शन
लिवर हमारे शरीर का बहुत जरूरी अंग है. यह खून को साफ करता है, खाना पचाने में मदद करता है और शरीर से टॉक्सिक पदार्थ बाहर निकालता है. हेपेटाइटिस एक प्रकार का यकृत (लिवर) संक्रमण है जो विभिन्न वायरसों के कारण होता है. लिवर में सूजन (इन्फ्लेमेशन) और संक्रमण (इन्फेक्शन) तब होता है जब लिवर पर कोई बाहरी या अंदरूनी असर पड़ता है. जब लिवर को कोई नुकसान पहुंचता है, तो वह खुद को बचाने के लिए प्रतिक्रिया देता है और इसी प्रक्रिया में सूजन आ जाती है.
सूजन कई वजहों से हो सकती है- जैसे अगर किसी को हेपेटाइटिस वायरस लग जाए जैसे A, B, C, या कोई बहुत ज्यादा शराब पीता हो या लिवर में चर्बी जमा हो जाए तो इससे फैटी लिवर हो सकता है. कुछ दवाएं जैसे पेनिसिलिन, स्टेरॉयड्स या कोई अन्य केमिकल लिवर को नुकसान पहुंचाकर इन्फ्लेमेशन पैदा कर सकते हैं. संक्रमण तब होता है जब कोई वायरस, बैक्टीरिया या परजीवी लिवर में घुसकर उसे बीमार कर देता है. हेपेटाइटिस वायरस इसका सबसे आम कारण है.
क्या है हेपेटाइटिस का संक्रमण
लिवर संक्रमण के कई पहलुओं पर एम्स नई दिल्ली के डॉ. एन. आर. दास ने डीडब्ल्यू से बात की. डॉक्टर दास एम्स के गैस्ट्रोसर्जरी विभाग के प्रोफेसर हैं. उन्होंने बताया कि हेपेटाइटिस को "साइलेंट किलर" यानी चुपचाप मारने वाली बीमारी इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह शुरुआती दौर में कोई खास लक्षण नहीं दिखाती, लेकिन अंदर ही अंदर लिवर को गंभीर नुकसान पहुंचाती रहती है.
डॉ. दास कहते हैं कि हेपेटाइटिस B और C वायरस बहुत छोटे घावों या कट्स से भी शरीर में प्रवेश कर सकते हैं. सीतापुर के मामले में सैलून से संक्रमण फैलना संभव है. नाई एक ही रेज़र या कैंची का कई लोगों पर प्रयोग करते हैं, जिससे वायरस फैल सकता है. इसलिए लोगों को सलाह दी जाती है कि वे डिस्पोजेबल ब्लेड का इस्तेमाल करें और संभव हो तो अपनी शेविंग किट साथ लाएं.
हेपेटाइटिस B और C के अलावा भी इसके कई प्रकार होते हैं. इसमें हेपेटाइटिस A, B, C, D और E शामिल हैं. हेपेटाइटिस C को इन सबमें सबसे घातक माना जाता है क्योंकि यह अक्सर क्रॉनिक होता है. ये लंबे समय तक शरीर में रह सकता है, इसलिए इससे लिवर को गंभीर नुकसान पहुंचता है.
क्यों होता है संक्रमण
हेपेटाइटिस का संक्रमण कई कारणों से हो सकता है और इसकी प्रकृति इस बात पर निर्भर करती है कि कौन-सा प्रकार है. हर प्रकार का वायरस अलग तरीके से फैलता है और उसके जोखिम भी अलग होते हैं. हेपेटाइटिस A और E आमतौर पर दूषित भोजन और पानी के माध्यम से फैलते हैं. गंदे हाथों से बने और खुले में बिकने वाले अस्वच्छ भोजन और बिना उबाले पानी का सेवन करने वाला व्यक्ति इससे संक्रमित हो सकता है अगर हेपेटाइटिस का वायरस इसमें मौजूद हो.
हेपेटाइटिस B, C और D मुख्य रूप से संक्रमित रक्त के संपर्क में आने से फैलते हैं. यदि किसी व्यक्ति को बिना जांचे हुए रक्त चढ़ाया जाए या दूषित सुई का उपयोग किया जाए, तो संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है. इसके अलावा, असुरक्षित टैटू या पियर्सिंग उपकरण, संक्रमित रेजर या ब्लेड का साझा उपयोग और ड्रग्स के लिए सुई साझा करने से भी संक्रमण हो सकता है. डॉ. दास बताते हैं, "हेपेटाइटिस C का संक्रमण अक्सर बिना किसी लक्षण के दिखे शरीर में कई वर्षों तक बना रहता है. ऐसे में व्यक्ति को पता ही नहीं चलता कि वह संक्रमित है. धीरे-धीरे यह संक्रमण लिवर में सूजन, फाइब्रोसिस और सिरोसिस का कारण बनता है, जो आगे चलकर लिवर फेल होने या लिवर कैंसर में बदल सकता है.”
डॉ. दास कहते हैं कि कभी-कभी यौन संबंधों के माध्यम से भी हेपेटाइटिस B और C का संक्रमण हो सकता है. यदि किसी व्यक्ति के साथ असुरक्षित यौन संबंध बनाए जाएं और वह व्यक्ति संक्रमित हो, तो वायरस स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर सकता है. इसके अलावा कई लोगों के साथ यौन संबंध बनाना या सुरक्षा के उपाय न अपनाना इस संक्रमण को बढ़ावा देता है.
भारत में हेपेटाइटिस संक्रमण कितनी बड़ी समस्या
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की ग्लोबल हेपेटाइटिस रिपोर्ट-2024 के अनुसार, भारत में लगभग 2.9 करोड़ लोग हेपेटाइटिस B और 55 लाख लोग हेपेटाइटिस C से संक्रमित हैं. इसका मतलब है कि कुल मिलाकर 3.4 करोड़ से अधिक भारतीय इन दो प्रकार के वायरल हेपेटाइटिस से ग्रस्त हैं. असल में ये संख्या वैश्विक मामलों का लगभग 11.6 फीसदी है, जो भारत को चीन के बाद दूसरा सबसे अधिक प्रभावित देश बनाती है.
हेपेटाइटिस सी वायरस की खोज करने वाले वैज्ञानिकों को इस साल का नोबेल पुरस्कार
साल 2022 में भारत में हेपेटाइटिस B और C के कारण 1.23 लाख लोगों की मौत हुई. यह आंकड़ा बताता है कि हेपेटाइटिस व्यापक होने के साथ जानलेवा भी है. यही कारण है कि इसे ‘साइलेंट किलर' कहा जाता है. हेपेटाइटिस के इलाज की स्थिति और भी चिंताजनक है. हेपेटाइटिस B के महज 2.4 फीसदी मामलों और हेपेटाइटिस C के 28 फीसदी मामलों का ही भारत में निदान हो पाता है.
अब तक कोई वैक्सीन उपलब्ध नहीं
इस संक्रमण की एक और गंभीर बात यह है कि हेपेटाइटिस C के लिए कोई वैक्सीन अब तक उपलब्ध नहीं है. जबकि हेपेटाइटिस A और B के लिए टीके मौजूद हैं. डॉ. दास बताते हैं कि हेपेटाइटिस C से बचाव के लिए केवल सावधानी ही एकमात्र उपाय है. हालांकि अब इसके इलाज के लिए कुछ प्रभावी दवाएं उपलब्ध हैं, लेकिन यदि संक्रमण का पता देर से चले तो नुकसान की भरपाई संभव नहीं है.
हेपेटाइटिस A और E आमतौर पर हल्के होते हैं और अपने आप ठीक हो जाते हैं. डॉ. एन. आर. दास बताते हैं कि हेपेटाइटिस D भी गंभीर हो सकता है, लेकिन यह केवल उन्हीं लोगों में गंभीर हो सकता है जो पहले से हेपेटाइटिस B से संक्रमित रहे हों. इसके अलावा गर्भवती महिलाओं में हेपेटाइटिस E जानलेवा साबित हो सकता है.
हेपेटाइटिस के संक्रमण में साफ-सफाई की भूमिका
लखनऊ के संजय गांधी स्नाकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान (SGPGI) की सीनियर डायटीशियन रमा त्रिपाठी का कहना है कि गर्भवती महिलाओं के मामले में, पेटाइटिस B और C मां से बच्चे को प्रसव के दौरान या स्तनपान के समय संक्रमित कर सकते हैं. इसलिए यदि महिला संक्रमित हो, तो नवजात को जन्म के तुरंत बाद वैक्सीन देना आवश्यक होता है ताकि उसे संक्रमण से बचाया जा सके.
कई अन्य मामलों में व्यक्तिगत स्वच्छता की कमी भी संक्रमण का एक बड़ा कारण पाया गया है. रमा त्रिपाठी बताती हैं, "संक्रमित व्यक्ति के साथ तौलिया, ब्रश, रेजर आदि साझा करना, हाथ न धोना, या सार्वजनिक शौचालयों का अस्वच्छ उपयोग वायरस के फैलाव को बढ़ा सकता है. इसलिए साफ-सफाई और व्यक्तिगत हाइजीन का ध्यान रखना बेहद जरूरी है.”
हेपेटाइटिस के लक्षण
बदलती खानपान की आदतों के कारण ही लिवर का संक्रमण शरीर में घर करता है. रमा बताती हैं कि जब लिवर में वसा जमा हो जाता है तो वह कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाकर सूजन पैदा करता है. यह स्थिति मोटापे, डायबिटीज और अस्वस्थ जीवनशैली से जुड़ी होती है.
ऐसे संक्रमण में तेज बुखार, पेट में दर्द, कमजोरी और कभी-कभी पीलिया जैसे लक्षण दिखते हैं. अगर लिवर में सूजन या संक्रमण लंबे समय तक बना रहे, तो यह लिवर को गंभीर नुकसान पहुंचा सकता है. इसलिए अगर किसी को थकान, पेट दर्द, भूख न लगना, या आंखों में पीलापन दिखे, तो डॉक्टर से जांच कराना जरूरी होता है. डॉ. दास कहते हैं कि कुछ लक्षण पहचान में मदद कर सकते हैं जैसे कि लगातार थकान और कमजोरी रहना, पेट के ऊपरी दाहिने हिस्से में दर्द होना, त्वचा और आंखों का पीला पड़ना (पीलिया), भूख में कमी, उल्टी या मिचली आना या बुखार आना (खासकर इन्फेक्शन में).
-अभिनय गोयल
मुस्लिम लड़कियों की शादी की उम्र से जुड़े एक अहम मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (19 अगस्त) को फैसला सुनाया है।
कोर्ट ने 16 साल की मुस्लिम लडक़ी की शादी को मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत सही ठहराया है।
यह फैसला जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस महादेवन की खंडपीठ ने सुनाया। खंडपीठ ने शादी पर सवाल उठाने वाले राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) को फटकार भी लगाई है।
आयोग ने लडक़ी की उम्र का हवाला देते हुए शादी पर सवाल उठाया था और इसे पॉस्को अधिनियम (यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण) का उल्लंघन बताया था।
इस फैसले के बाद बाल विवाह कानून बनाम पर्सनल लॉ की बहस और तेज़ हो गई है। भारत में बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006 के तहत लडक़ी की शादी की न्यूनतम उम्र 18 साल है।
समय-समय पर अदालतों, ख़ासकर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे कई अहम फैसले दिए हैं, जिनका मुस्लिम महिलाओं के जीवन पर सीधा असर पड़ा है।
1. जावेद और आशियाना केस
साल 2022 में 26 साल के जावेद और 16 साल की मुस्लिम लडक़ी आशियाना के प्रेम विवाह को हाई कोर्ट ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत वैध माना था।
यह मामला पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट में तब पहुंचा था जब दोनों ने अपनी सुरक्षा की मांग की थी। हाई कोर्ट ने शादी को वैध मानते हुए सुरक्षा भी प्रदान की थी।
लाइव लॉ के मुताबिक हाई कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था, ‘मुस्लिम लडक़ी का विवाह मुस्लिम पर्सनल लॉ से शासित होता है। सर दिनशॉ फरदुनजी मुल्ला की लिखी 'मोहम्मडन लॉ के सिद्धांत' किताब के अनुच्छेद 195 के अनुसार याचिकाकर्ता नंबर 2, सोलह साल से अधिक होने के कारण अपने पसंद के व्यक्ति के साथ विवाह अनुबंध करने के लिए सक्षम है।’
दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष रहे जफ़रुल इस्लाम ख़ान का कहना है, ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ में शादी के लिए लडक़ी की कोई उम्र तय नहीं है। लड़कियों में जब प्यूबर्टी आती है, तब उसे शादी के लायक माना जाता है।’
कोर्ट का कहना था कि इससे बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम (पॉक्सो) का उल्लंघन नहीं होता।
एनसीपीसीआर ने हाई कोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, जिसे कोर्ट ने खारिज़ कर दिया।
लाइव लॉ के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘एनसीपीसीआर के पास ऐसे आदेश को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं हैज्अगर दो नाबालिग बच्चों को हाई कोर्ट संरक्षण देता है तो एनसीपीसीआर ऐसे आदेश को कैसे चुनौती दे सकता है।’
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की तारीफ करते हुए जफ़रुल इस्लाम कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला मुनासिब है। अंग्रेजों के बाद से ही हिंदुस्तान की हुकूमतों का स्टैंड इस्लामी पर्सनल लॉ में दखल नहीं देने का रहा है।’
वहीं दूसरी तरफ नेशनल काउंसिल ऑफ वूमन लीडर्स की नेशनल कन्वीनर और मानवाधिकार कार्यकर्ता मंजुला प्रदीप का कहना है कि लड़कियों को सामाजिक रीति रिवाज से मुक्त करने की जरूरत है।
बीबीसी से बातचीत में वे कहती हैं, ‘प्यूबर्टी की उम्र में लडक़ी शारीरिक बदलावों से गुजरती है। ये मुश्किल समय होता है। ऐसे में वह खुद शादी जैसे फैसले नहीं ले पाती। उसके फैसले परिवार लेता है।’
‘लड़कियों को मौका मिलना चाहिए कि वे पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो पाएं और अपने फैसले ले पाएं।’
2. शायरा बानो केस
साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-बिद्दत यानी 'तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित कर दिया था।
इस मामले की याचिकाकर्ता उत्तराखंड की रहने वालीं शायरा बानो थीं। उनकी शादी साल 2002 में हुई थी। करीब 15 साल बाद उनके पति ने उन्हें एक चि_ी भेजकर तीन तलाक दे दिया था।
पांच जजों की संविधान पीठ ने 3-2 के बहुमत से फ़ैसला सुनाया था। कोर्ट का कहना था कि यह महिलाओं की समानता और गरिमा के खिलाफ है।
उस वक्त शायरा बानो के वकील बालाजी श्रीनिवासन ने बीबीसी से बात करते हुए कहा था, ‘ये पहला मौका है जब एक मुस्लिम महिला ने अपने तलाक़ को इस आधार पर चुनौती दी कि इससे उनके मूल अधिकारों का हनन हुआ।’
इस फ़ैसले का कानूनी असर ये हुआ था कि साल 2019 में संसद ने मुस्लिम महिला अधिनियम पास किया। इसके तहत तीन तलाक को गैरकानूनी और दंडनीय अपराध घोषित किया गया।
हालांकि कई धार्मिक संगठनों ने इस फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा था कि यह मुस्लिम पर्सनल लॉ में दखल है।
जफरुल इस्लाम कहते हैं, ‘पर्सनल लॉ को मुस्लिम समाज पर छोड़ देना चाहिए। दीन के जो मसले हैं, उसमें किसी हुकूमत को दखलंदाजी नहीं करनी चाहिए।’
वहीं मंजुला प्रदीप का कहना है, ‘महिला होने के नाते मैं यह कभी स्वीकार नहीं कर सकती कि कोई तीन शब्द बोलकर किसी महिला को खुद से अलग कर दे। ये अन्याय है।’
वे कहती हैं, ‘तीन तलाक को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद महिलाओं में हिम्मत बढ़ी है। वे क़ानून का सहारा ले सकती हैं।’
-द्वारिकाप्रसाद अग्रवाल
मैंने बिस्मिल्लाह खाँ के घर का पता पूछा तो मालूम पड़ा कि बगल से दाल मंडी को रास्ता जाता है, कुछ दूर पर उनका घर है॰ बनारस की गलियों में पूछते-ढूँढते पंद्रह मिनट में मैं सराय हरहा के एक पुराने से मकान के सामने जा पहुंचा जहाँ एक छोटी सी नामपट्टिका में अंग्रेजी में लिखा हुआ था- 'भारतरत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां'. घर के अन्दर से शहनाई वादन की मीठी आवाज़ आ रही थी॰ सिर झुकाकर मैंने घर के अंदर प्रवेश किया॰ एक वयोवृद्ध सज्जन क़ुरान पढ़ रहे थे, कुछ देर में उन्होंने पुस्तक बन्द की, मेरी ओर देखा और पूछा- 'फरमाइए जनाब॰'
'मैं छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से आया हूँ.' मैंने अपना परिचय दिया.
'कैसे तकलीफ़ की आपने?'
'खां साहब तो रहे नहीं, उनके घर को सलाम करने आया हूँ.'
'वाह, क्या बात है, मैं उनका बेटा नय्यर हुसैन खां हूँ. आप आए, बहुत अच्छा लगा. मेरे अब्बाहुज़ूर गज़ब के फनकार थे और वादा निभाने वाले इंसान थे. एक क़िस्सा बताऊँ आपको?'
'जी, ज़रूर.'
'सायराबानो की माँ नसीमबानो को एक बार अब्बा ने वादा किया था कि सायरा की शादी में वे ज़रूर शहनाई बजाएँगे. बात आई-गई हो गई. कई साल बाद की बात है, एक दिन दिलीपकुमार अब्बा के पास आए और अपने घुटनों के बल उनके सामने बैठ गए. अब्बा ने पूछा- ''बोलो यूसुफ, कैसे आए?''
''सायरा के साथ मेरा निकाह होने वाला है, आपको शहनाई बजानी है॰'' दिलीपकुमार ने गुजारिश की॰
''वाह, कमाल है अल्लाह का, सायरा की माँ को किया गया वादा निभाने का मौका अपने-आप मेरे पास आ गया! मैं आऊँगा, ज़रूर आऊँगा.'' अब्बा ने कहा और दिलीप-सायरा की शादी के जश्न में उन्होंने खूब शहनाई बजाई'.
उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ के बेटे नय्यर हुसैन खां अब पचहत्तर साल के हैं॰ अकेले हो गए हैं, दिन भर उसी घर में अपना समय कुरान पढ़कर बिताते हैं॰ रोज़ाना शाम ५ बजे अब्बा की मज़ार पर जाते हैं, दो-ढाई घंटे चुपचाप वहीं बैठते हैं, उसी चुप्पी में शायद अब्बा से बातें करते हैं और 8 बजे रात को सीधे घर वापस आ जाते हैं. उनकी बहू जो देती है, चुपचाप खा लेते हैं और खुदा की याद करते हुए सुबह तीन बजे जागने के लिए सो जाते हैं. मैंने उनसे पूछा- 'शहनाई बजाने में जो महारत आपके अब्बा को हासिल थी, क्या आपने कोशिश की?'
'बहुत कोशिश की, उनकी सोहबत में बहुत रहा और देश-विदेश जाकर उनके साथ संगत भी की. शहनाई तो कोई भी बजा सकता है लेकिन अब्बा की शहनाई जैसा दर्द पैदा करना सबके बूते की बात नहीं. मैं उतना समय नहीं दे पाता था क्योंकि अब्बा बीस-पच्चीस साल बम्बई में रहे तो घर-गृहस्थी देखने की ज़िम्मेदारी मुझपर थी, हम लोग पाँच भाई थे. बम्बई से जब वे वापस आए तब भी घर में नहीं रहते थे, पास में बालाजी मंदिर है, वहीं रहते और संगीत साधना करते. सच्ची बात यह है कि वे बम्बई की फिल्मी दुनियाँ में शहनाई बजाया करते थे, उनकी वहाँ बहुत इज्ज़त थी लेकिन 'उस्ताद' वे तब बने जब उस दुनियाँ को छोड़कर बनारस वापस आए और सुरों की साधना की. बालाजी मंदिर में एक रात उनको लगा कि जैसे खुशबू का एक झोंका आया, कोई उनके सामने खड़ा हुआ दिखा और कहा- "जा, मज़ा कर." तुरन्त वह छाया गायब हो गई, अब्बा उसे खोजने कमरे के बाहर दौड़े, बहुत खोजे लेकिन रात के सन्नाटे के सिवाय वहाँ कुछ न था.' उन्होंने बताया.
'और किसी दूसरे भाई ने शहनाई में कोशिश नहीं की ?'
'की, तीसरे नंबर के भाई में वह कशिश थी, वो मक़बूल भी हुआ. उसका चेहरा बिलकुल अब्बा जैसा था लेकिन खुदा को कुछ और मंजूर था, सन 2009 में उसका इंतकाल हो गया.
'मैंने खाँ साहब को बिलासपुर में सन 1965 में सुना था, मुझे अच्छी तौर से याद है, उस दिन शहनाईवादन में वे बहुत देर बिना रुके लगातार बजाते रहे, बजाते ही रहे॰ अचानक उनकी नज़रें मुझसे मिली, हम दोनों की नज़रें एक दूसरे पर टिकी रह गई॰ मुझे ऐसा लगा जैसे उस 'हाल' में केवल हम दोनों रह गए हैं॰ उस घटना को मैं कभी नहीं भूल सकता॰ मुझे यह समझ नहीं आया कि बिना साँस तोड़े उतनी देर तक वे कैसे बजा लेते थे?' मैंने पूछा.
'अब्बा रोजाना साँस का अभ्यास करते थे, प्राणायाम॰ वे घड़ी देखकर ढाई मिनट के लिए अपनी साँस रोक लिया करते थे॰' उन्होंने बताया.
'एक बात मैंने गौर की, आपका घर खोजते समय मैंने जिससे भी घर का पता पूछा, सबने बड़ी मुहब्बत से मुझे रास्ता बताया॰'
-ध्रुव गुप्त
भारतीय संगीत के युगपुरूष, शहनाई के जादूगर , भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां देश के कुछ सबसे सम्मानित संगीत व्यक्तित्वों में एक हैं। पूरा देश उनका मुरीद है लेकिन दिलचस्प बात यह है कि वे ख़ुद अपने दौर की तीन गायिकाओं के मुरीद थे। उनमें पहली थी बनारस की रसूलन बाई। किशोरावस्था में वे काशी के बालाजी मंदिर में रियाज़ को जाया करते थे। रास्ते में रसूलन बाई का कोठा पड़ता था। जानते हुए भी कि कोठे के साथ एक बदनामी जुड़ी होती है, वे छिपकर वहां पहुंच जाते थे। एक कोने में खड़े होकर रसूलन को गाते हुए बड़े ध्यान से सुनते थे। रसूलन की खनकदार आवाज़ में ठुमरी, टप्पे, दादरा सुनकर भाव, खटका और मुर्की की बारीकियां उन्होंने सीखी थीं। यह चोरी पकड़ लेने के बाद एक दिन जब उनके बड़े भाई ने कहा कि ऐसी नापाक जगहों पर आने से अल्लाह नाराज़ होता है तो उनका जवाब था - दिल से निकली हुई आवाज़ में क्या नापाक होता होगा भला ?' उस्ताद जीवन भर रसूलन बाई को संम्मान के साथ याद करते रहे थे।
लता मंगेशकर उनकी दूसरी प्रिय गायिका थी। उन्हें तो वे देवी सरस्वती का साक्षात रूप ही कहते थे और मानते थे कि अगर देवी सरस्वती होंगी तो वे लता जैसी ही सुरीली होंगी। उन्होंने लता के गायन में त्रुटियां निकालने की कोशिशें की लेकिन कभी सफल नहीं हुए। वैसे तो लता जी के बहुत सारे गीत उन्हें पसंद थे लेकिन जो एक गीत वे अक्सर गुनगुनाया करते थे, वह था हमारे दिल से न जाना, धोखा न खाना, दुनिया बड़ी बेईमान।
भारत ने आधी बिजली स्वच्छ तरीके से बनाने की क्षमता विकसित कर ली है. लेकिन फिर भी देश कोयले से बनने वाली बिजली पर इतना भरोसा क्यों करता है.
डॉयचे वैले पर ओंकार सिंह जनौटी का लिखा-
भारत की कुल ऊर्जा क्षमता का अब आधा हिस्सा गैर जीवाश्म ईंधन से आ रहा है. भारत के नवीन ऊर्जा मंत्री प्रह्लाद जोशी ने इसे "भारत की ऊर्जा परिवर्तन यात्रा में एक मील का पत्थर" करार दिया है. जोशी के मुताबिक यह लक्ष्य "पांच साल पहले" हासिल किया गया है. भारत 2070 तक नेट-जीरो उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना चाहता है.
जलवायु विशेषज्ञ अवंतिका गोस्वामी के मुताबिक, 50 फीसदी का यह लक्ष्य हासिल करना एक बड़ी कामयाबी है, लेकिन इसे कुछ हद तक सीमित छलांग ही कहा जा सकता है. नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायर्न्मेंट (CSE) की गोस्वामी कहती हैं, "पूरी तस्वीर देंखे तो अक्षय ऊर्जा स्रोतों का वास्तविक उत्पादन अब भी काफी कम बना हुआ है."
इसका कारण बताते हुए वह कहती हैं कि अब भी करीब एक तिहाई बिजली, खूब प्रदूषण करने वाले कोयला बिजली संयंत्रों से आ रही है. यह चुनौती तब और गंभीर हो जाती है, जब हम कोयले पर भारत की निर्भरता को देखते हैं.
कोयला गंदा तो है लेकिन भरोसेमंद बना हुआ है
कोयले की खपत घटाने के बजाए, भारत ने पिछले साल कोयले से मिलने वाली बिजली का प्रोडक्शन पांच फीसदी बढ़ा दिया. भारत अब भी दुनिया में सबसे ज्यादा कोयला खपत करने वाले देशों में दूसरे नंबर पर है. कोयला मंत्रालय के मुताबिक, 2024 में भारत ने एक अरब टन कोयला खोदा. मंत्रालय के मुताबिक, "कोयला अब भी अहम बना हुआ है."अक्षय ऊर्जा का उत्पादन बढ़ने के साथ ही बिजली का स्टोरेज अब भी चुनौती है. देश के कोयला मंत्रालय का कहना है कि, "कोयला सेक्टर अब भी भारत की मिश्रित ऊर्जा में अहम भागीदार बना हुआ है, यह 74 फीसदी से ज्यादा देश को बिजली देता है और स्टील और सीमेंट जैसे अहम उद्योगों की नींव बना हुआ है."
इस निर्भरता की वजह से भारत, अमेरिका और चीन के बाद ग्रीनहाउस गैसों का तीसरा बड़ा उत्सर्जक है.
हालांकि प्रति व्यक्ति ग्रीनहाउस उत्सर्जन देखें तो 1.4 अरब की आबादी वाला देश वैश्विक औसत का एक तिहाई उत्सर्जन ही करता है. सतत संपदा क्लामेट फाउंडेशन के प्रमुख और जलवायु कार्यकर्ता हरजीत सिंह कहते हैं, "भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन देखें तो भारत जो कोशिशें कर रहा है, वह बहुत अच्छी जा रही हैं."
देश ने 2030 तक इस उत्सर्जन को 45 फीसदी घटाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है. हालांकि तब तक भारत की बिजली मांग भी दोगुनी होने का अनुमान है. अवंतिका गोवास्मी के मुताबिक, "उस मांग का कुछ हिस्सा अक्षय ऊर्जा से पूरा किया जा सकेगा."
स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन के बावजूद कहां फंसा है मामला
फिलहाल भारत 484.4 गीगावॉट बिजली, गैर जीवाश्म स्रोतों से हासिल कर रहा है. इस उत्पादन में सबसे ज्यादा हिस्सा सौर ऊर्जा का है, (119 गीगावॉट). सौर ऊर्जा उत्पादन के मामले में भारत दुनिया में तीसरे नंबर पर है. भारत फिलहाल, बड़े बड़े सौर और पवन ऊर्जा फार्म बनाने में जुटा है. रेगिस्तान में बन रहे ऐसे फार्मों का आकार सिंगापुर के क्षेत्रफल के बराबर है.
बांधों से मिलने वाली बिजली, पवनऊर्जा और परमाणु ऊर्जा की हिस्सेदारी दो फीसदी से भी कम है. समाचार एजेंसी एएफपी की रिपोर्ट के मुताबिक भारत की बिजली स्टोर करने की क्षमता 505 मेगावॉट ऑवर ही है. नवीन ऊर्जा मंत्री प्रह्लाद जोशी के मुताबिक हर साल 25 से 30 गीगावॉट स्टोरेज सुविधा जोड़ी जा रही है. लेकिन वह यह भी कहते हैं कि, "स्टोरेज के बिना, या तो हम ऊर्जा बर्बाद करेंगे या फिर अक्षय ऊर्जा में गिरावट आते ही कोयले पर निर्भर हो जाएंगे."
बिजली स्टोरेज बढ़ाने के लिए बड़े बैटरी प्लांटों की जरूरत पड़ती है. ऐसी बैटरियां बनाने के लिए दुर्लभ खनिजों की जरूरत पड़ती है. फिलहाल भारत का पड़ोसी चीन रेयर अर्थ मेटल्स की 70 फीसदी सप्लाई नियंत्रित करता है. हरजीत सिंह के मुताबिक, इस मामले में भारत अब भी चीन पर निर्भर है.
डॉनल्ड ट्रंप, रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों को और टाइट करने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे में अगर रूसी तेल के व्यापार पर कड़ा कदम उठाया जाता है, तो वैश्विक तेल बाजारों और चीन-भारत जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं पर इसका कितना असर पड़ेगा?
डॉयचे वैले पर निक मार्टिन का लिखा-
अमेरिका के प्रतिबंधों के बावजूद भारत और चीन अब भी रूसी तेल कंपनियों के साथ कारोबार कर रहे हैं. इसे देखते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने दोनों देशों पर सेकेंडरी प्रतिबंध लगाने की चेतावनी दे चुके हैं. सेकेंडरी प्रतिबंध का मतलब है, किसी ऐसे देश या कंपनी पर टैरिफ लगाना, जो प्रतिबंधित देश के साथ व्यापार में हो. भारत और चीन ने इस धमकी की कड़ी आलोचना की और साफ किया कि वे अपनी ऊर्जा सुरक्षा और आर्थिक संप्रभुता से समझौता नहीं करेंगे. चीन ने इसे अमेरिका की "जबरदस्ती और दबाव” करार दिया.
भारत ने पश्चिमी देशों पर आरोप लगाया कि भले ही यूरोपीय संघ ने युद्ध शुरू होने के बाद से रूस पर अपनी निर्भरता काफी कम की हो लेकिन अभी भी वह काफी हद तक रूसी ऊर्जा का आयात कर रहा है.
भारत ने इस ओर भी इशारा किया कि एक समय पर वॉशिंगटन ने खुद रूस से भारत के तेल आयात का समर्थन किया था ताकि वैश्विक तेल कीमतों को स्थिर रखा जा सके. यह आयात, रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के तुरंत बाद तेजी से बढ़ा. 2021 से 2024 के बीच भारत का रूसी तेल आयात लगभग 19 गुना बढ़कर 0.1 से 1.9 मिलियन बैरल प्रतिदिन हो गया. वहीं, चीन का आयात भी 50 फीसदी बढ़कर 2.4 मिलियन बैरल प्रतिदिन तक पहुंच गया.
लिथुआनिया स्थित सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (सीआरईए) के ऊर्जा विश्लेषक, पेट्रस कटिनस ने डीडब्ल्यू को बताया कि रूस के दूसरे सबसे बड़े तेल खरीददार, भारत ने 2022 से 2024 के बीच अपने ऊर्जा खर्च में कम से कम 33 अरब अमेरिकी डॉलर की बचत की. कटिनस के अनुसार, जब अमेरिका और यूरोप ने रूसी तेल और गैस पर अपनी निर्भरता घटाई, तो मॉस्को ने भारत को काफी सस्ती दरों पर तेल बेचा. सस्ते रेट पर रूसी कच्चे तेल की खरीद का फैसला भारत की पारंपरिक विदेश नीति के अनुरूप था, जिसके तहत वह अमेरिका, रूस और चीन के साथ संबंधों में संतुलन बनाए रखता है और किसी एक को प्राथमिकता नहीं देता. इस पूरे दौर में भारत ने स्पष्ट कर दिया कि उसकी प्राथमिकता कोई देश नहीं, बल्कि ऊर्जा सुरक्षा और किफायती दरें हैं.
ट्रंप की नई पाबंदी धमकियों से तेल बाजार में हलचल
डॉनल्ड ट्रंप ने पहले ही भारतीय आयात पर 25 फीसदी का टैरिफ लगाया हुआ है लेकिन इसके बाद भी नया आदेश जारी किया गया. जिसके तहत अब मौजूद 25 फीसदी के टैरिफ पर 25 फीसदी का अतिरिक्त शुल्क लगाया जाएगा. इस एलान के बाद कच्चे तेल की कीमतें बढ़ गई. भारतीय मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, इस नए शुल्क के कारण भारत की तेल बिलिंग लगभग 11 अरब डॉलर तक महंगी हो सकती है.
नई दिल्ली ने इस अतिरिक्त शुल्क को "अनुचित, अन्यायपूर्ण और अस्वीकार्य” करार दिया है. ट्रंप ने कहा कि ये टैरिफ 21 दिनों में लागू होंगे, ताकि भारत और रूस को अमेरिकी सरकार के साथ बातचीत का पर्याप्त समय मिल सके.
विशेषज्ञों का मानना है कि अगर अमेरिका सेकेंडरी टैरिफ भी लगाता है, तो पहले से ही पश्चिमी पाबंदियों से जूझ रही रूसी अर्थव्यवस्था के लिए यह एक और बड़ा झटका हो सकता है. रूस का बजट पहले से ही भारी दबाव में है. उसका रक्षा खर्च कुल जीडीपी के छह फीसदी से भी अधिक बढ़ चुका है. आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार रूस में महंगाई दर नौ फीसदी तक है लेकिन विश्लेषकों का अनुमान है कि वास्तविक महंगाई दर 15-20 फीसदी तक पहुंच चुकी है.
रूस के साथ तेल व्यापार घटा सकता है भारत
नई पाबंदियां वैश्विक ऊर्जा कीमतों और व्यापार के लिए घातक साबित हो सकती हैं. इसका हाल 2022 जैसा हो सकता है, जब तेल की कीमतें अचानक बढ़ गई थी और रूस ने पश्चिमी प्रतिबंधों से बचने के लिए दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के साथ सस्ते दामों पर ऊर्जा सौदा करना शुरू कर दिया था.
नई दिल्ली स्थित ऊर्जा शोध संस्थान कप्लर की तेल विश्लेषक, सुमित रितोलिया ने डीडब्ल्यू से कहा, "अगर भारत ने 2022 में रूस से कच्चा तेल नहीं खरीदा होता, तो तेल की कीमत कितनी बढ़ जाती, इसका सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है-100 डॉलर, 120 डॉलर, या शायद 300 डॉलर प्रति बैरल तक भी कीमतें बढ़ सकती थी.” युद्ध से पहले के हफ्तों में कच्चे तेल की कीमत 85 से 92 डॉलर प्रति बैरल के बीच थी.
लेकिन अब ट्रंप के लगाए गए 25 फीसदी सेकेंडरी टैरिफ भारत को मजबूर कर सकते हैं कि वह रूस से अपने तेल व्यापार कम करे. ऐसे में अगर और प्रतिबंध लगाए गए, तो स्थिति और भी गंभीर हो सकती है. पेट्रस कटिनस का कहना है कि सेकेंडरी प्रतिबंध माहौल को और बिगाड़ सकते हैं. इससे भारतीय कंपनियों की अमेरिकी वित्तीय प्रणाली तक पहुंच खतरे में पड़ सकती है और वैश्विक बाजारों से जुड़े बैंकों, रिफाइनरियों और शिपिंग कंपनियों पर भी गंभीर असर पड़ सकता है.
तेजी से बढ़ सकती हैं तेल की कीमतें
विश्लेषकों का मानना है कि अगर रूस का पांच मिलियन बैरल प्रतिदिन तेल अचानक से वैश्विक बाजार से हटा दिया जाएगा, तो तेल की कीमतों में जबरदस्त उछाल आ सकता है. जिससे प्रभावित देशों को तुरंत वैकल्पिक स्रोतों की तलाश करनी पड़ेगी. और हाल ही में ओपेक द्वारा की गई उत्पादन वृद्धि भी इतनी बड़ी मात्रा की भरपाई करने के लिए काफी नहीं हो पाएगी क्योंकि उत्पादन क्षमता सीमित है.
सेंटर फॉर यूरोपियन पॉलिसी एनालिसिस के सीनियर फेलो अलेक्जेंडर कोल्यान्दर ने ब्रिटिश अखबार, द इंडिपेंडेंट को बताया, "इस पांच मिलियन बैरल का विकल्प तुरंत ढूंढ पाना असंभव है, इसलिए तेल की कीमतों को बढ़ने से रोकना नामुमकिन हो जाएगा.”
तेल विशेषज्ञ, सुमित रितोलिया ने डीडब्ल्यू से कहा कि अगर भारत को रूसी तेल पर अपनी निर्भरता कम करनी पड़ती है, तो इसमें भारतीय कंपनियों को कम से कम एक साल का समय लग सकता है.
तेल की कीमते बढ़ने से बढ़ेगी महंगाई
अगर तेल महंगा होता है, तो इसका असर न सिर्फ अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया में महंगाई के रूप में पड़ेगा. अमेरिकी केंद्रीय बैंक (फेड) का अनुमान है कि कच्चे तेल की कीमत में हर 10 डॉलर की वृद्धि से अमेरिका में लगभग 0.2 प्रतिशत महंगाई बढ़ जाती है. भारतीय रिजर्व बैंक का भी यही अनुमान है. अगर मौजूदा कीमत 66 डॉलर प्रति बैरल से बढ़कर 110–120 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच जाती है, तो महंगाई में लगभग एक प्रतिशत की और बढ़ोतरी हो सकती है. जिससे उपभोक्ताओं और कंपनियों की लागत तेजी से बढ़ेगी, खासकर ऊर्जा, परिवहन और खाद्य क्षेत्र में.
चीन बच निकलेगा, जबकि भारत भुगतेगा?
कटिनस का कहना है कि अमेरिका के साथ चीन का कुल व्यापार भारत की तुलना में चार गुना से भी अधिक है. ऐसे में संभव है कि नई अमेरिकी कार्रवाइयों से चीन को छूट मिल जाए. दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच 580 अरब डॉलर से अधिक का व्यापारिक संबंध है, और अपनी विशाल आर्थिक ताकत के चलते चीन के पास वह मौका हो सकता है, लेकिन भारत के पास यह नहीं है.
इसके अलावा, चीन की "रेयर अर्थ मेटल्स” (दुर्लभ धातुओं) पर पकड़ है, जो लंबे समय से अमेरिका-चीन संबंधों में विवाद का विषय भी रहा है. बीजिंग इसे इस्तेमाल कर ट्रंप के दबाव को सीमित कर सकता है.
जबकि भारत के पास ऐसा कोई प्रभावशाली तरीका नहीं है. यही कारण है कि ट्रंप ने पिछले हफ्ते भारत पर दबाव और बढ़ा दिया और कहा कि रूस और भारत पर लगाई गई उनकी नई पाबंदियां दोनों देशों की "मरी हुई अर्थव्यवस्थाओं को एक साथ गिरा देंगी.”
-संजीव शुक्ला, आईपीएस
विगत दिनों एक मित्र का फोन आया। वे एक अर्धशासकीय प्रतिष्ठान में वरिष्ठ अधिकारी हैं। उन्होंने कहा- यार मेरा बेटा 17 साल का है, वो अपनी होंडा बाइक को मॉडिफाई करवाकर डबल साइलेंसर लगवा लिया है और शहर में हवाई जहाज़ की तरह बाइक उड़ाता है। ट्रैफिक पुलिस के अधिकारी को कहकर गाड़ी जब्त करवा दे और उसे थोड़ा डाँट दिलवा दें ताकि वो ठीक से बाइक चलाए । मैंने उनसे कहा कि एक तो उसके लाइसेंस बनाने की अभी उम्र नहीं हुई है तो उसे बाइक क्यों दी और दूसरी बात कि तुम क्यों नहीं डाँटते? उसने कहा यार उसके बहुत से दोस्तों के पास बाइक है इसलिए दिलवा दी और इकलौता बेटा है। हमारी सुनता नहीं, डाँट से नाराज होकर कहीं चला ना जाए। इस डर से मैं कुछ नहीं बोल रहा हूँ। तुम पुलिस वाले से ही मना करवा दो।
मैं सोच रहा हूँ कि समाज और परिवार की व्यवस्था एक ही पीढ़ी में कितनी बदल गई। माता-पिता अपने ही बच्चे को सही-ग़लत का भेद नहीं समझा पा रहे हैं, उनकी गलतियों पर उन्हें रोक-टोक नहीं पा रहे हैं। आज नाबालिग बच्चों के द्वारा किए जाने वाले अपराध अप्रत्याशित रूप से बढ़ रहे हैं। इस सबके लिए कौन जिम्मेदार है? मुझे लगता है कि इन सभी परिस्थितियों के लिए सिर्फ और सिर्फ हम ही जिम्मेदार हैं। मुझे इसके कई कारण लगते हैं।
पहला कि बच्चे हमें देखकर ही सीखते हैं। हमारे संस्कार ही वो अपनाते हैं। हम सभी व्यक्तिगत जीवन में सफलता के लिए अपनाये जाने वाले रास्ते एवं साधन सही है या गलत इस पर ध्यान नहीं देते। अनेक अवसर पर हम वो कार्य करते हैं जो समाज में वर्जित हैं। बच्चे सब देखते हैं, ऑब्जर्व करते हैं, और फिर वे भी जीवन जीने का सरल और शॉर्टकट रास्ता अपनाते हैं और तब हम इन सबके लिए बच्चों को जिम्मेदार ठहराते हैं जबकि वास्तव में जिम्मेदार हम खुद होते हैं।
दूसरा मुझे लगता है हम अपने बच्चों को उतना समय और अटेन्शन नहीं देते जितना हमें हमारे माता-पिता ने दिया और समय नहीं देने के अपने गिल्ट को दूर करने के लिए उसे उम्र से पहले मोबाइल, आई पैड, बाइक इत्यादि वो सब कुछ दे देते हैं जिसके लिए वो इस समय तैयार नहीं होता। बच्चों को समय नहीं देने का एक बड़ा नुकसान यह भी होता है कि उसके बाल मन में जो जिज्ञासा होती है वे उसे भी हमसे साझा नहीं कर पाते और फिर उन सभी प्रश्नों के जवाब वे गूगल, यूट्यूब और सोशल मीडिया पर ढूँढते हैं। सोशल मीडिया और सर्च इंजन से मिले जवाब को ही सही मानकर उनका अनुशरण करते हैं। हम जब बच्चों को समय देते हंै, उनकी जिज्ञासाओं का जवाब देते हैं तो हम उनमें संस्कार का निर्माण करते हैं जिसका विकल्प गूगल कभी नहीं हो सकता ।
तीसरा हमने ऐसी जीवन शैली अपना ली है जो हमें परिवार, रिश्तेदार, समाज से दूर कर देती है। सही अर्थों में हम सामाजिक नहीं रह जाते और इस जीवन शैली में पलने वाले हमारे बच्चों में भी एडजस्ट करने का गुण ही विकसित नहीं हो पाता है। याद करिए अपना बचपन, जब गर्मियों की छुट्टियों में मौसी, मामा, चाचा, बुआ आदि परिवार के साथ घर आते और हम सब एक कमरे में ही बिस्तर लगाकर साथ रह लेते थे। आज बच्चे को रूम शेयर करने को कहिए उसे दिक्कत होगी। सच तो यह है कि उस जीवन शैली में बिना किसी प्रयास के हम एडजस्ट करना अपने आप सीख जाते थे। हमने बच्चों को उससे दूर कर दिया। उनमें दूसरों के साथ एडजस्ट करने का गुण विकसित ही नहीं होने दिया और दोष बच्चे को देते है कि उन्हें एडजस्ट करना नहीं आता।
चौथा पिछली पीढ़ी में बच्चों को अनुशासित करने का दायित्व और अधिकार माता-पिता, शिक्षक, अड़ोस-पड़ोस के वरिष्ठ लोगों आदि सभी के पास होता था। बच्चों की गलतियों पर सभी को रोकने-टोकने और छोटा-मोटा दंड देने का अधिकार होता था और सभी मिलकर उसे अनुशासन सिखाते थे किंतु अब हमने अन्यों के साथ-साथ स्वयं से भी वो अधिकार ले लिया। यही कारण है कि अपने बच्चे को भी अनुशासित करने के लिए हम तथाकथित पढ़े-लिखों को अब पुलिस की जरूरत पड़ रही है।