विचार/लेख
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि उन्होंने पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर को व्हाइट हाउस में आमंत्रित किया ताकि पाकिस्तान और भारत के बीच युद्ध को रोकने में उनकी भूमिका के लिए आभार व्यक्त किया जा सके। ट्रंप ने यह बात जनरल मुनीर से मुलाक़ात के बाद पत्रकारों से बातचीत के दौरान कही।
मुलाकात के बाद ट्रंप ने बताया कि जनरल मुनीर से ईरान के मुद्दे पर भी चर्चा हुई थी।
उन्होंने कहा, ‘वह (जनरल मुनीर) ईरान को बहुत अच्छी तरह जानते हैं, शायद दूसरों से बेहतर और वह मौजूदा हालात से ख़ुश नहीं हैं।’
अमेरिकी राष्ट्रपति ने आसिम मुनीर के सम्मान में व्हाइट हाउस में लंच आयोजित किया था। इस लंच में मीडिया को आने की अनुमति नहीं थी।
लंच के बाद मीडिया से बातचीत में ट्रंप ने कहा, ‘जनरल आसिम मुनीर ने पाकिस्तान-भारत युद्ध को रोकने में अहम भूमिका निभाई और मैं उनके साथ मुलाक़ात को अपने लिए सम्मान की बात मानता हूं।’
ट्रंप ने फिर कहा- मैंने युद्धविराम करवाया
राष्ट्रपति ट्रंप ने बताया कि कुछ सप्ताह पहले उनकी भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मुलाक़ात हुई थी।
उन्होंने कहा कि पाकिस्तान और भारत दोनों परमाणु ताक़तें हैं और उनके बीच परमाणु युद्ध हो सकता था, लेकिन ‘दो समझदार लोगों ने युद्ध रोकने का फ़ैसला किया।‘
उन्होंने यह भी कहा कि पाकिस्तान और भारत दोनों के साथ व्यापार समझौते पर बातचीत चल रही है।
लंच से पहले उन्होंने एक बार फिर ये बात कही कि उन्होंने ही भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध रुकवाई।
ट्रंप का यह बयान बुधवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से फ़ोन पर हुई बातचीत के बाद आया है।
बातचीत को लेकर विदेश सचिव विक्रम मिसरी ने कहा था, ‘प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रपति ट्रंप से स्पष्ट रूप से कहा कि इस पूरे घटनाक्रम (भारत-पाकिस्तान संघर्ष) के दौरान कभी भी किसी भी स्तर पर भारत-अमेरिका ट्रेड डील या अमेरिका द्वारा भारत-पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता जैसे विषयों पर बात नहीं हुई थी।’
ईरान पर हमले को लेकर ट्रंप ने क्या कहा?
पत्रकारों ने ट्रंप से पूछा कि क्या उन्होंने पाकिस्तानी जनरल से ईरान को लेकर कोई बातचीत की थी।
इस पर ट्रंप ने कहा, ‘वे (जनरल मुनीर) ईरान को बहुत अच्छी तरह जानते हैं, शायद किसी और से भी बेहतर, और वे मौजूदा हालात से ख़ुश नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि उनके इसराइल से संबंध खऱाब हैं। वे दोनों को जानते हैं और वास्तव में शायद ईरान को बेहतर जानते हैं। लेकिन वे जो कुछ हो रहा है, उसे देख रहे हैं और वे मुझसे सहमत हैं।’
अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा, ‘मैंने उन्हें यहां आमंत्रित किया क्योंकि मैं उन्हें धन्यवाद देना चाहता था कि उन्होंने जंग की ओर कदम नहीं बढ़ाया।’
ट्रंप पहले भी कई बार कह चुके हैं कि उनके प्रयासों से पाकिस्तान और भारत के बीच परमाणु युद्ध का खतरा टल गया।
उन्होंने आगे कहा, ‘मैं प्रधानमंत्री मोदी को भी धन्यवाद देना चाहता हूं, जो कुछ दिन पहले यहां आए थे। हम भारत और पाकिस्तान दोनों के साथ व्यापार समझौते पर काम कर रहे हैं।’
ट्रंप ने कहा कि ‘ये दोनों बहुत समझदार लोग हैं और उन्होंने उस युद्ध को आगे न बढ़ाने का फ़ैसला किया, जो संभावित रूप से परमाणु युद्ध बन सकता था। पाकिस्तान और भारत दोनों ही प्रमुख परमाणु शक्तियां हैं। इसलिए आज उनसे (आसिम मुनीर) मिलना मेरे लिए सम्मान की बात थी।’
पाकिस्तानी सेना प्रमुख 14 जून से अमेरिका की यात्रा पर हैं और अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ उनकी बैठक पहले से तय थी।
पाकिस्तान के सेना प्रमुख फील्ड मार्शल जनरल आसिम मुनीर और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच मंगलवार को व्हाइट हाउस में हुई बैठक को इस्लामाबाद में एक बड़ी कूटनीतिक सफलता के रूप में देखा जा रहा है।
यह बैठक ऐसे समय में हुई है, जब 13 जून को ईरान पर इसराइल के हमले के बाद दोनों देशों के बीच संघर्ष तेज़ हो गया है और यह अटकलें लगाई जा रही हैं कि अमेरिका क्या ईरान के ख़िलाफ़ किसी अभियान का हिस्सा बनेगा।
जब ट्रंप से पूछा गया कि क्या वह ईरान पर इसराइल के हमले में शामिल होंगे, तो उन्होंने जवाब दिया, ‘शायद शामिल हो सकता हूं, शायद नहीं। कोई नहीं जानता कि मैं क्या करने वाला हूं।’
ईरानी सरकार में बदलाव को लेकर पूछे गए सवाल पर उन्होंने कहा, ‘बिल्कुल, कुछ भी हो सकता है।’
ईरान और इसराइल के बीच जारी तनाव ने इस आशंका को बढ़ा दिया है कि यह संघर्ष फैल सकता है और इस इलाके के अन्य देश भी इसकी चपेट में आ सकते हैं।
आसिम मुनीर मई के अंत में ईरानी सेना के चीफ ऑफ स्टाफ जनरल मोहम्मद हुसैन बाकरी से भी मिले थे, जो इसराइली हमले में मारे गए।
आसिम मुनीर उस पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा भी थे, जिसने सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह अली खामेनेई से मुलाकात की थी।
यह पहला मौक़ा है, जब ट्रंप ने किसी विदेशी सेना प्रमुख को इस तरह की वन-ऑन-वन बैठक के लिए व्हाइट हाउस में आमंत्रित किया है।
इससे पहले 2001 में जनरल परवेज मुशर्रफ ने राष्ट्रपति और सेना प्रमुख दोनों की हैसियत से अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश से मुलाक़ात की थी।
-गोकुल सोनी
साथियों,
हस्ताक्षर (Signature) महज कुछ खींची हुई लकीरें नहीं होतीं, बल्कि वो इंसान की पहचान, उसकी जि़म्मेदारी और कभी-कभी उसके विश्वास का प्रतीक भी होती हैं।
बचपन से ही मेरी राइटिंग कुछ बेहतर रही है और हस्ताक्षर बनाने का मुझे खास शौक रहा है। कई मित्र आज भी मेरे बनाए हस्ताक्षर को अपने कार्यों में उपयोग करते हैं । यह मेरे लिए गर्व की बात है। लेकिन इसी हस्ताक्षर से जुड़ा एक ऐसा अनुभव है, जिसे मैं बरसों से दिल में दबाए बैठा हूँ। अब सोचता हूँ, क्यों न आप सबसे साझा कर लूं।
बात लगभग 40 साल पुरानी है। रायपुर की एक प्रतिष्ठित संस्था में करीब 150 कर्मचारी कार्यरत थे। अचानक उस संस्था के मालिक को विदेश जाना पड़ा। संयोग ऐसा बना कि महीने के अंत में जब वेतन देना था, संस्था के पास नकद राशि नहीं थी। ऑनलाइन लेन-देन का वह दौर भी नहीं था, और बैंक से पैसा निकालने के लिए मालिक के हस्ताक्षर वाला चेक जरूरी था, जो उस समय उपलब्ध नहीं था।
ऐसे में मेरे एक मित्र ने, जो उस संस्था कैशियर थे, मुझसे एक अजीब-सा अनुरोध किया। उन्होंने कहा-‘तुम मालिक जैसा हस्ताक्षर बना सकते हो, कर्मचारियों को वेतन मिल जाएगा।’ मैं चौंक गया। पहले साफ मना कर दिया। यह तो साफ-साफ ग़लत, अपराध है, शायद गैरकानूनी भी। लेकिन फिर उन्होंने कहा-‘सोचो, 150 घरों के चूल्हे नहीं जलेंगे। परिवारों की रोटियाँ रुक जाएंगी, सभी को बच्चों के स्कूल की फीस देनी है, कईयों को मकान का किराया देना है। बात मेरे दिल को छू गई। कुछ सोचकर, सबकी सहमति लेकर और जिम्मेदारी की भावना के साथ, मैंने वह हस्ताक्षर कर दिया। चेक बैंक में जमा हुआ और पैसा मिल भी गया। उस महिने कर्मचारियों को समय पर वेतन मिला।
आज भी जब उस दिन को याद करता हूँ, मन में दो भाव उमड़ते हैं। एक ओर अपराध बोध कि मैंने कुछ ऐसा किया जो शायद कानून की दृष्टि में गलत था। दूसरी ओर आत्मसंतोष कि मेरी वजह से 150 परिवारों की रोटी-पानी रुकी नहीं।
मित्रों, शायद जिंदगी में कुछ फैसले ऐसे होते हैं, जो सही और गलत के बीच की रेखा को धुंधला कर देते हैं। पर अब सोचता हूँ, वो हस्ताक्षर मेरा नहीं था, 150 घरों की ज़रूरत का हस्ताक्षर था। आप कमेंट करके बताईयें कि मैंने कितना सही किया और कितना गलत किया।
कर्नाटक में हाईकोर्ट के एक फैसले और राज्य सरकार के रवैए की वजह से लाखों लोगों की जिंदगी पटरी से उतर गई है। अदालत ने पूरे राज्य में बाइक टैक्सी पर पाबंदी लगा दी है। इसका असर लाखों लोगों की रोजी-रोटी पर पड़ा है।
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी का लिखा-
दक्षिण भारत के कर्नाटक राज्य की राजधानी बेंगलुरु में ही करीब एक लाख लोग बाइक टैक्सी चला कर अपनी रोजी-रोटी कमाते थे। छात्रों और नौकरीपेशा लोगों के लिए भी यह सेवा काफी मुफीद थी। एक तरफ यह सस्ती थी तो दूसरी तरफ ट्रैफिक जाम के लिए कुख्यात महानगर में कुछ हद तक राहत देने वाली। कई छात्र और छोटी-मोटी नौकरी करने वाले लोग भी पार्ट टाइम काम कर इसके जरिए कुछ पैसा कमा लेते थे। अब उनके सामने असमंजस की स्थिति है। दूसरी ओर, इस सेवा का इस्तेमाल करने वाले लोगों का खर्च भी दोगुना तक बढ़ गया है।
बाइक टैक्सी वालों की कमाई बंद
दिल्ली समेत देश के 14 राज्यों में बाइक टैक्सी के संचालन को कानूनी अनुमति हासिल है। इनमें दक्षिण भारत के गोवा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश के साथ ही कर्नाटक से सटा महाराष्ट्र भी शामिल है। मंगलुरू के रहने वाले दिलीश पी। रेड्डी भी यहां बाइक टैक्सी चला कर रोजाना करीब तीन हजार रुपए कमा लेते थे। इससे उनके परिवार और गांव में रहने वाले माता-पिता का खर्च भी चलता था।
रेड्डी डीडब्ल्यू ने डीडब्ल्यू से कहा, ‘अब समझ में नहीं आ रहा है कि आगे कैसे चलेगा?’ एक आईटी कंपनी में काम करने वाली सुमित्रा बनर्जी ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘मैं पहले घर से दफ्तर तक 50 रुपए में पहुंच जाती थी। लेकिन अब ऑटो वाले इसके लिए 120 से 150 रुपए तक ले रहे हैं। खर्च दोगुने से ज्यादा बढ़ गया है।’एम।कॉम की छात्रा लक्षिथा राव भी इसी समस्या से जूझ रही है।
कर्नाटक हाईकोर्ट ने बीते अप्रैल में ही कहा था कि अगर राज्य सरकार समुचित नियम और दिशानिर्देश तय नहीं करती तो 15 जून से इस बाइक टैक्सी के संचालन पर पाबंदी लगा दी जाएगी। सरकार ने नीतिगत फैसले के तहत ऐसा करने से इंकार कर दिया।
क्या बेंगलुरू अब एक मरता हुआ शहर है
ओला, उबर ओर रैपिडो जैसी कंपनियां यहां बाइक टैक्सियों का संचालन करती थीं। उन्होंने हाईकोर्ट के फैसले को बड़ी बेंच में चुनौती दी थी। हालांकि उसने भी इस पर रोक लगाने से इंकार कर दिया था। अदालत ने यह जरूर कहा कि अगर सरकार इस सेवा के नियम बनाने पर सहमति दे दे तो वह इस पर लगी रोक हटाने पर विचार कर सकती है। दूसरी तरफ सरकार ऐसा नहीं करने के अपने रुख पर अड़ी रही।
परिवहन मंत्री रामालिंगा रेड्डी ने बेंगलुरू में पत्रकारों से कहा, ‘सरकार की निगाह में यह सेवा गैरकानूनी है और इसे जारी रहने की अनुमति नहीं दी जा सकती।’ राज्य सरकार के एक शीर्ष अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर डीडब्ल्यू को बताया, ‘बाइक टैक्सी चलाने वालों के खिलाफ छेड़छाड़ और अश्लील हरकतों की बढ़ती शिकायतों की वजहों से ही सरकार ने इस मामले में कड़ा रुख अपना कर सेवा को बंद करने का समर्थन किया है।’ खासकर राजधानी में अक्सर ऐसी घटनाएं सुर्खियां बटोरती रही हैं।
बेंगलुरु में ट्रैफिक की समस्या
बेंगलुरु की ट्रैफिक जाम की समस्या अक्सर सुर्खियों में रही है। इसकी वजह भी है। करीब 1.4 करोड़ की आबादी वाली महानगर में 1.2 करोड़ गाडिय़ां हैं। इनमें से सबसे ज्यादा 67.20 प्रतिशत दोपहिया वाहन और 20.57 प्रतिशत कारें हैं। इनके अलावा तिपहिया यानी ऑटो की तादाद 2.81 प्रतिशत है। माल ढोने वाले हल्के और भारी वाहनों की तादाद 2.29 और 2.37 प्रतिशत है। इसके अलावा उपनगरों से रोजाना करीब 25 लाख लोग नौकरी और काम के सिलसिले में यहां पहुंचते हैं।
-सतीश जायसवाल
इन दिनों विनोद कुमार शुक्ल कुछ कुछ लिख रहे हैं ..
यह, सरल सा कुछ कुछ तब कुछ विशेष महत्व का हो जाता है, जब विनोद कुमार शुक्ल का संक्षिप्त सा उत्तर होता है। उनके इस संक्षिप्त से उत्तर ने मेरे लिए उनके साथ बात करने को एक छोटा सा रास्ता बना दिया। अन्यथा, मैं उनसे क्या बात कर सकता ?
मैं तो, वैसे ही संकोचग्रस्त था। यह उनके आराम का समय था और मैं पहुंच गया। उन्हें उठकर आना पड़ा।
मैंने उनसे पूछा, इन दिनों क्या लिख रहे हैं ?
यह एक रस्मी किस्म का सवाल था। लेकिन मैं सचमुच समझना चाहता था कि अब, ज्ञानपीठ पुरस्कार के बाद उनका क्या लक्ष्य हो सकता है?
अपने अ_ासी पर पहुंचने के बाद भी विनोद कुमार शुक्ल लिख रहे हैं। अनथक। उनका सहज सा उत्तर था, कुछ कुछ लिख रहा हूं।
इधर वह बच्चों के लिए लिख रहे थे।अभी भी लिख रहे हैं। बहुधा बड़े साहित्यकार कहते हैं, बच्चों के लिए लिखना चाहिए। लेकिन विनोद कुमार शुक्ल बच्चों के लिए लिख रहे हैं।
भारतीय भाषाओं के साहित्य का सबसे बड़ा, ज्ञानपीठ पुरस्कार दिल्ली से चलकर उनके दरवाजे आ रहा है ? छत्तीसगढ़ के लिए यह एक ऐतिहासिक अवसर होगा। मैं भी अपनी बधाई के साथ उनके घर पहुंचा था। पर उनका घर ढूंढने में मुझे काफी समय लगा।
मुझे भरोसा था कि यहां, शैलेन्द्र नगर, रायपुर में हर कोई उनका घर जानता होगा। मुझे बता देगा।लेकिन वहां के लोग अपने साहित्यकार का घर नहीं जान रहे थे। वह तो, उनके पुत्र शाश्वत ने अपने घर से बाहर निकलकर मुझे बुला लिया। अन्यथा मैं भटकता ही रह जाता।
विनोद कुमार शुक्ल छत्तीसगढ़ के हैं। संकोची स्वभाव के हैं। मिलने जुलने में संकोची। फिर भी हम लोगों के लिए सहज।
मैंने उन्हें उनके शुरुआती दिनों से देखा है। मौकों मौकों पर उनसे मिलने और एक दूसरे के हाल चाल पूछने के रस्मी मौके भी मिलते रहे हैं। मैंने एक तरह से, उन्हें क्रमश: बड़े होते हुए देखा है। स्वयं से बड़े होते हुए देखा है। पुरस्कार दर पुरस्कार बड़े होते हुए।
कनक तिवारी ने एक बार अपने किसी व्याख्यान में अपने से प्रश्न किया था, अब और कौन सा भारतीय पुरस्कार विनोद कुमार शुक्ल के लिए बच रहा है? ज्ञानपीठ के अतिरिक्त।’ अब वह भी उनके नाम हो चुका।
लेकिन इस ज्ञानपीठ ने उन्हें सहसा इतना बड़ा बना दिया कि वह कुछ दूर लगने लगे। अपनी पहुंच से कुछ बाहर। लेकिन यह दूरी उनकी तरफ से नहीं, मेरे अपने भीतर से उपजी थी।
मेरा अपना रचना समय उनके समय के ठीक पीछे पीछे चला है। मध्यप्रदेश में पहली बार, रचनाकारों के लिए कोई फेलोशिप शुरू हुई थी गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप।’ यह मेरे समय की बात है। स समय छत्तीसगढ़ अलग नहीं हुआ था।
वह फेलोशिप विनोद जी को मिली थी। उस फेलोशिप के लिए एक आवेदक मैं भी था। तब तक ज्ञानोदय, धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान वगैरह में प्रकाशित अपनी कहानियों को ही मैंने अपना आधार माना था।लेकिन मुक्तिबोध फेलोशिप के लिए मानक कुछ और थे।
अलबत्ता उस आधार पर विनोदजी के साथ मैं एक किस्म की समकक्ष करीबी महसूस करता रहा।कुछ कुछ रनर अप की तरह।अब उसका उल्लेख स्वयं मुझे एक ओछी बात लगने लगी है।
ईरान पर इस्राएल के हमले शुरू होने के 4 दिन बाद मुस्लिम देशों ने एकजुट हो कर इसकी निंदा की है और बातचीत से मामले को सुलझाने की मांग भी। मुस्लिम देशों ने बयान तो जारी कर दिया लेकिन उनकी मांग का इस्राएल पर कितना असर होगा?
डॉयचे वैले पर निखिल रंजन का लिखा-
शुक्रवार सुबह से शुरू हुए इस्राएल के हमले में ईरान के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों और परमाणु वैज्ञानिकों की मौत हो चुकी है। सरकारी टीवी चैनल और नतांज के परमाणु केंद्र को नुकसान पहुंचाने और 200 से ज्यादा लोगों के मरने के बाद अब सुप्रीम लीडर अयातोल्लाह अली खामेनेई पर भी खतरा मंडरा रहा है। डॉनल्ड ट्रंप खामेनेई को मारने से इस्राएल को रोकने का दावा कर रहे हैं लेकिन यह दबाव कब तक काम आएगा कोई नहीं जानता। इस समय पूरा ईरान इस्राएल के हवाई हमलों की चपेट में है।
मंगलवार को 21 मुस्लिम देशों ने बयान जारी कर हमले की निंदा की है। इन देशों ने कहा है कि ईरान के परमाणु ठिकानों को निशाना ना बनाया जाए, अंतरराष्ट्रीय कानून का सम्मान हो और बातचीत के जरिए मामले का समाधान ढूंढा जाए। उन्होंने मध्यपूर्व में संघर्ष को और फैलने से रोकने की भी मांग की है। जिन मुस्लिम देशों ने बयान जारी किया है उसमें सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, तुर्की, ओमान, मिस्र से लेकर कुवैत, कतर, पाकिस्तान, सूडान, सोमालिया, ब्रुनेई, चाड, बहरीन, जिबूती, कुवैत, लीबिया, अल्जीरिया जैसे देश शामिल हैं। इनमें से कई देशों के इस्राएल के साथ राजनयिक संबंध भी हैं।
हालांकि मुस्लिम देशों का यह गुट भले ही बहुत एकजुट और सुनने में संगठित लग रहा हो लेकिन जानकार मानते हैं कि यह सिर्फ चेहरा बचाने की कोशिश है। मध्यपूर्व के विशेषज्ञ और विश्व मामलों की भारतीय परिषद आईसीडब्ल्यूए के सीनियर फेलो फज्जुर रहमान का कहना है, ‘ईरान को हमलों से अब सिर्फ इस्राएल और अमेरिका ही बचा सकते हैं।’
डीडब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘इन देशों में इतना साहस नहीं है कि वे सीधे सीधे इस्राएल को चुनौती दे सकें। बयान सुनिए मगर कोई कदम उठाने की बात भूल जाइए। यह सिर्फ चेहरा बचाने की कोशिश है, वो यह दिखाना चाहते हैं कि विश्व में उनका भी कोई अस्तित्व है और वह इस तरह के मुद्दों पर बोल सकते हैं।’
कोई ईरान की मदद क्यों करेगा
इस्लामी एकता एक बात है लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में कोई मुस्लिम देश इस हालत में नहीं है कि ईरान की मदद के लिए इस्राएल के खिलाफ खड़ा हो सके। कई वजहों से उनकी इसमें बहुत दिलचस्पी भी नहीं है। सऊदी अरब जैसे देश तो उसके प्रतिद्वंद्वी ही रहे हैं, इराक, सीरिया और लेबनान जैसे देश पहले ही घुटने टेक चुके हैं। तुर्की और खाड़ी के देशों के अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ जुड़े कारोबारी हित उन्हें ईरान की मदद नहीं करनें देंगे। इंडोनेशिया या मलेशिया से ऐसी उम्मीद बेमानी है, तो फिर ईरान के लिए कौन लडऩे आएगा?
फज्जुर रहमान कहते हैं, ‘सऊदी अरब ने भले ही दिखावे की दोस्ती कर ली है लेकिन वह अपनी प्रतिद्वंद्विता भूल जाएगा ऐसा सोचना उचित नहीं है। अब वो दौर भी नहीं रहा कि मुस्लिम देश ऑयल इम्बार्गो जैसा कोई कदम उठाएं। सबसे बड़ी बात है कि ईरान की मदद करके इन देशों को क्या मिलेगा, उल्टे इस्राएल और अमेरिका की दुश्मनी गले पड़ जाएगी।’
ये देश इस्लाम के नाम पर भले एकजुट होने का दम भर रहे हैं लेकिन शिया सुन्नी विवाद इनके गले की भी फांस है।
परमाणु बम का हौव्वा
ईरान के पास परमाणु बम है या हो सकता है इसी आशंका की बात उठा कर इस्राएल ने ईरान पर हमले शुरू किए हैं। ईरान ने न्यूक्लियर नॉन प्रोलिफरेशन ट्रीटी यानी एनपीटी पर दस्तखत किए हैं। देश के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातोल्लाह अली खामेनेई पहले ही फतवा जारी कर चुके हैं उनका देश परमाणु बम नहीं बनाएगा। उनका मकसद परमाणु ऊर्जा का इस्तेमाल शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है। ईरान इस तकनीक के इस्तेमाल को अपना अधिकार भी मानता है।
अमेरिका और इस्राएल लगातार यह आरोप लगाते रहे हैं कि ईरान परमाणु बम बनाने की कोशिश कर रहा है और मध्यपूर्व में परमाणु बम का होना इलाके के लिए खतरा बन जाएगा। फज्जुर रहमान का कहना है, ‘अगर ईरान के पास परमाणु बम होता तो उस पर इतनी आसानी से हमला नहीं हो सकता था। कई दशकों से प्रतिबंध झेल रहा देश अपने लिए जरूरी चीजें नहीं बना पा रहा वह बम क्या बनाएगा यह तो पश्चिमी देशों का उठाया हौव्वा है।’
कई सालों से अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी आईएईए ईरान के परमाणु केंद्रों की नियमित निगरानी करती रही है। अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ परमाणु करार टूटने के बाद ईरान ने यूरेनियम के संवर्धन का स्तर जरूर बढ़ाया लेकिन वह बम बनाने लायक संवर्धन से अब भी दूर है।
ईरान ने पश्चिमी देशों को बातचीत की मेज पर लाने के लिए उसने संवर्धन का स्तर बढ़ाने को धमकियों के तौर पर जरूर इस्तेमाल किया है। इस्राएल के खिलाफ दागी उसकी कुछ मिसाइलों ने इस्राएल के एयर डिफेंस को भेद कर वहां तक जरूर पहुंची हैं और 24 लोगों की मौत भी हुई है लेकिन ये हमले इस्राएल को रोक सकेंगे यह नहीं कहा जा सकता।
दशकों के प्रतिबंधों से पस्त ईरान
ईरान बीते कई दशकों से प्रतिबंधों की आंच झेल रहा है। देश में आर्थिक विकास से लेकर मानव विकास के तमाम मापदंडों पर उसकी हालत खराब है। वहां जाने वाले लोग बताते हैं कि उसकी हालत देख कर समय के ठहरे होने का अहसास होता है। उद्योग से लेकर व्यापार तक सबकी हालत खराब है।
फज्जुर रहमान एक साल पहले तेहरान एक कांफ्रेंस के सिलसिले में गए थे। उन्होंने बताया, ‘तेहरान के मध्य में मौजूद जिस इमारत में इतनी बड़ी थिंक टैंक का दफ्तर है वहां सब कुछ जैसे अंधेरे में था। सडक़ों पर गाडिय़ों से लेकर शहर की इमारतों तक को देखकर ऐसा लगता है जैसे सब कुछ रुका हुआ हो।’
अगर ईरान के पास तेल का भंडार नहीं होता और भारत जैसे देश प्रतिबंधों के बावजूद उसका तेल नहीं खरीद रहे होते तो उसकी हालत और बुरी होती।
-सैयद मोजिज इमाम
ईरान और इसराइल के बीच जारी संघर्ष के बीच तकऱीबन चार हज़ार भारतीय छात्र-छात्राएं ईरान में फंसे हुए हैं। हवाई मार्ग बंद होने के कारण उनका भारत लौटना फि़लहाल मुश्किल हो गया है। भारत में उनके परिजन उनकी सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं।
इनमें ज़्यादातर छात्र-छात्राएं जम्मू-कश्मीर से हैं। इनके परिजनों ने रविवार को श्रीनगर में प्रदर्शन कर छात्रों की सुरक्षा की मांग की थी।
ईरान में भारतीय छात्रों को लेकर विदेश मंत्रालय ने बताया है, ‘तेहरान में भारतीय दूतावास हालात पर नजऱ बनाए हुए है। भारतीय छात्रों की सुरक्षा को लेकर सरकार चिंतित है। कुछ छात्रों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया है।’
भारत सरकार ने अपने सभी नागरिकों से अपील की है कि वे अपने स्तर पर तेहरान से निकलकर किसी सुरक्षित जगह पहुंच जाएं। विदेश मंत्रालय ने मंगलवार को भारतीय नागरिकों की मदद के लिए एक हेल्प सेंटर भी शुरू किया है।
सरकार की ओर से कुछ छात्रों को आर्मीनिया भी पहुंचाया गया है।
ईरान में पढ़ाई
जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा जि़ले के कलारूस इलाके के रहने वाले अशरफ़ भट्ट एक सरकारी स्कूल में शिक्षक हैं।
उनकी बेटी रौनक़ अशरफ़ ने इस साल तेहरान स्थित ईरान यूनिवर्सिटी ऑफ़ मेडिकल साइंसेज में एमबीबीएस की पढ़ाई के लिए दाख़िला लिया था। वह तीन महीने पहले ही भारत से ईरान गई थीं।
लेकिन अब बदले हालात में रौनक़ ईरान में फंस गई हैं। अशरफ़ भट्ट ने बीबीसी को बताया, ‘जब वह पढ़ाई के लिए जा रही थी, तो हम बहुत खुश थे कि वह अपना सपना पूरा करने जा रही है। लेकिन अब उसकी सुरक्षा को लेकर हम सभी परेशान हैं। हालांकि, भारतीय दूतावास ने बच्चों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया है।’
उन्होंने कहा, ‘हम भारत सरकार के शुक्रगुजार हैं।’
बीबीसी ने जब रौनक़ से फ़ोन पर संपर्क किया तो वह कुम शहर में थीं।
रौनक ने बताया, ‘हम सोमवार सुबह 6 बजे (ईरानी समयानुसार) तेहरान से निकले थे और 10 बजे यहां पहुंच गए। फिलहाल हम लोग होटल में रुके हुए हैं।’
उनका कहना है, ‘करीब एक हजार छात्र-छात्राएं यहां मौजूद हैं। इनमें से 180 छात्र मेरी ही यूनिवर्सिटी के हैं। बाकी देश के अलग-अलग हिस्सों से हैं।’
तेहरान के हालात पर रौनक़ ने बताया, ‘जिस टीवी स्टेशन पर हमला हुआ था, वह हमारी यूनिवर्सिटी से सिफऱ् दो मिनट की दूरी पर है। हालांकि, जब हम कॉलेज छोड़ रहे थे, तब तक वहां कोई बम नहीं गिरा था।’
फिलहाल भारतीय अधिकारियों ने छात्रों के भारत लौटने को लेकर कोई स्पष्ट जानकारी नहीं दी है, क्योंकि मौजूदा हालात में हवाई मार्ग बंद है और ईरान से निकलने के लिए किसी तीसरे देश का सहारा लेना पड़ सकता है।
कुपवाड़ा के ही ग़ुलाम मुहिद्दीन सराकरी, जो अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं, की बेटी नूर मुंतहा शीराज़ मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस के दूसरे वर्ष की छात्रा हैं।
ग़ुलाम मुहिद्दीन रविवार को श्रीनगर में हुए प्रदर्शन में शामिल थे। उन्होंने बताया, ‘आज (मंगलवार) सुबह मेरी बेटी ने वीडियो कॉल के ज़रिए बताया कि दूतावास उन्हें बसों के माध्यम से किसी सुरक्षित स्थान पर ले जा रहा है। लेकिन यह नहीं बताया कि वे कहां जा रहे हैं।’
मुहिद्दीन का कहना है, ‘हम चाहते हैं कि सरकार हमारे बच्चों को जल्द से जल्द वापस लाए।’
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, साल 2022 तक ईरान में लगभग 1500 भारतीय स्टूडेंट्स मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे।
मेडिकल के अलावा वहां ऐसे भारतीय स्टूडेंट्स भी हैं जो धार्मिक शिक्षा के लिए जाते हैं।
ईरान के तेहरान, कुम और शीराज़ जैसे शहरों में भारतीय छात्र-छात्राएं पढ़ते हैं। इसके अलावा क़ुम और मशहद में शिया समुदाय के बच्चे धार्मिक शिक्षा लेते हैं। इराक़ के नजफ़ के बाद क़ुम शिया धार्मिक शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र माना जाता है।
डॉक्टरी की पढ़ाई सस्ती
अशरफ़ भट्ट ने बताया कि उनकी बेटी ने नीट की परीक्षा दी थी, लेकिन उसमें सफल नहीं हो पाई। इसके बाद उन्होंने उसे ईरान भेजने का फ़ैसला किया, क्योंकि वहां एमबीबीएस की पढ़ाई अन्य देशों के मुकाबले काफी सस्ती है।
भारतीय छात्र मेडिकल की पढ़ाई के लिए यूक्रेन जैसे देशों में भी जाते रहे हैं, लेकिन वहां हालात खराब होने के कारण अब वे ईरान की ओर रुख कर रहे हैं।
अशरफ भट्ट के अनुसार, ईरान में छह साल की एमबीबीएस की कुल फ़ीस लगभग 15 से 30 लाख रुपये है, जबकि बांग्लादेश में यह फ़ीस दोगुनी यानी लगभग 60 लाख रुपये तक होती है।
ईरान में एमबीबीएस की पढ़ाई के लिए प्रमुख यूनिवर्सिटीज में तेहरान स्थित ईरान यूनिवर्सिटी ऑफ मेडिकल साइंसेज, इस्लामिक आज़ाद यूनिवर्सिटी ऑफ़ मेडिकल साइंसेज, शाहिद बेहेश्ती यूनिवर्सिटी और केरमान यूनिवर्सिटी शामिल हैं।
बीबीसी ने श्रीनगर स्थित एजुकेशन जोन से फोन पर संपर्क किया, जहां सज्जाद नामक एक कर्मचारी ने कॉल रिसीव किया। सज्जाद ने बताया कि उनके निदेशक भी इस समय ईरान में फंसे हुए हैं। एजुकेशन ज़ोन और इस तरह की कई एजेंसियां विदेश में भारतीय छात्रों को एडमिशन दिलाने में मदद करती हैं।
ईरान में एडमिशन प्रक्रिया में सहायता देने वाली एक एजेंसी के एक कर्मचारी ने नाम न बताने की शर्त पर बताया, ‘ईरान में वज़ीफा भी ठीक-ठाक मिलता है, इसी वजह से यहां के छात्र बड़ी संख्या में ईरान का रुख कर रहे हैं।’
विदेश में शिक्षा दिलाने वाली एजेंसियों के मुताबिक, ईरान में फ़ीस अन्य देशों की तुलना में काफ़ी कम है।
कश्मीर के छात्र-छात्राओं के ईरान जाने की एक बड़ी वजह कम फीस के साथ-साथ वहां का रहन-सहन और मौसम भी है, जो उन्हें अपने घर जैसा महसूस कराता है।
"आदाब-ओ-तहियात... मैं हूँ सहर एमामी... और इस वक़्त आप देख रहे हैं आईआरआईबी का ख़ास ब्रॉडकास्ट — आज फिर इज़राइली हमलों ने हमारे वतन को लहू-लुहान किया है... कई मासूम ज़ख़्मी हैं... और अफ़सोसनाक तौर पर, मौत की ख़बरें भी तस्दीक़ हो रही हैं... हम आपको दे रहे हैं ताज़ा-ओ-मुहिम ख़बरें, सीधा तेहरान से..."
यह शब्द उस वक्त गूंज रहे थे जब ईरान के सरकारी चैनल IRIB (Islamic Republic of Iran Broadcasting) की एंकर सहर एमामी लाइव बुलेटिन में थीं। कैमरा चल रहा था, बुलेटिन जारी था, और तभी...
एक ज़ोरदार धमाका — स्क्रीन थर्रा गई, कैमरा डगमगा गया। स्टूडियो की छत कांपी, और एक पल के लिए जैसे हर सांस थम गई।
यह एक इस्राइली मिसाइल हमला था — और वो भी ऐन उसी वक्त, जब सहर एमामी पूरी दुनिया को जंग की खबरें दे रही थीं।
सन्नाटा... फिर लौटी आवाज़
चंद लम्हों के लिए प्रसारण रुका, लेकिन सहर एमामी का हौसला नहीं। कुछ ही मिनटों बाद वही ऐंकर फिर कैमरे पर लौटीं — शायद कांपते हाथों से माइक संभाला हो, लेकिन आवाज़ में फिर वही स्थिरता, वही समर्पण।
"ये ऐंकर नहीं, हिम्मत की आवाज़ थी"
जब मिसाइलें गिर रही हों, दीवारें डोल रही हों, और फिर भी कोई सच को जनता तक पहुँचाने के लिए लौट आए — तो वो सिर्फ़ पत्रकार नहीं, ज़िंदा इतिहास होती हैं।
उनकी आंखों में डर नहीं था, बस जिम्मेदारी थी। उनके शब्द किसी हथियार से कम नहीं थे।
"ख़ामोशी भी चीख़ उठती है जब एक औरत हथियारों के बीच सच बोलती है।" — एक दर्शक की टिप्पणी
सहर — सुबह की पहली रौशनी
नाम के मुताबिक, सहर एमामी ने अंधेरे के बीच रौशनी की मिसाल पेश की। उन्होंने मिसाइलों की बारिश में भी पत्रकारिता का सूरज बुझने नहीं दिया।
"गर जवाब न दे सको, तो आवाज़ तो दो..."
सहर की आवाज़ वही जवाब थी।
ईरान की बेटी, जंग की रिपोर्टर
तेहरान के गलियों से लेकर सोशल मीडिया तक, हर ओर एक ही नाम था — सहर एमामी। लोग उन्हें कह रहे हैं:
"ایران کی بیٹی" — ईरान की बेटी
"جرأت کی آواز" — हौसले की सदा
"जब स्टूडियो बना रणभूमि, तब ऐंकर बनी आवाज़-ए-हक़" — फ़ैज़ान रिज़वी, वरिष्ठ पत्रकार
IRIB का बयान और सरकारी प्रतिक्रिया
IRIB ने आधिकारिक तौर पर सभी स्टाफ के सुरक्षित होने की पुष्टि की है। अंदरूनी सूत्रों के अनुसार, आपातकालीन प्रसारण योजना को तुरंत सक्रिय किया गया और प्रसारण जारी रखने की पूरी कोशिश की गई।
दुनियाभर की प्रतिक्रिया
BBC: "ब्रॉडकास्टिंग इतिहास का असाधारण क्षण"
The Guardian: "Iran’s Sahar defies bombs with a broadcast"
Al Jazeera: "Courage has a name tonight — Sahar Emami"
पत्रकारिता की मिशाल
"शोर-ए-ग़ुल से न दब जाए कोई सदा-ए-हक़, हम वो सदा हैं जो तिलिस्म-ए-ख़ौफ़ तोड़ते हैं।"
सहर एमामी की वापसी सिर्फ़ हिम्मत नहीं थी, यह उस पत्रकारिता की मिसाल थी जहाँ एक औरत, एक कलमकार, एक रिपोर्टर, अपनी जान की परवाह किए बिना अपने फर्ज़ को पूरा करती है।
इतिहास की मिसाल — क्या इससे पहले कभी ऐसा हुआ है?
जंग के मैदान से लाइव रिपोर्टिंग नई बात नहीं, लेकिन इस तरह लाइव टेलीविज़न स्टूडियो पर मिसाइल हमला और फिर भी उसी ऐंकर का लौटना — यह दृश्य पूरी दुनिया में पहली बार देखा गया है।
2003: Reuters के मैज़ेन दाना की मौत बग़दाद में
2014: गाज़ा में सिनोमी कैंमीली और अली अबू अफ़ाफ़ की मौत
मगर 2025 की तेहरान की इस रात — वो अलग थी। क्योंकि इस रात कलम और कैमरा बमों से भी न डरे।
मध्य पूर्व में पत्रकारिता का खतरा
CPJ रिपोर्ट (2024): 124 पत्रकार मारे गए, जिनमें 70% इस्राइल-गाज़ा युद्ध क्षेत्र से
IFJ रिपोर्ट: मध्य पूर्व में 77 पत्रकारों की जान गई
गाज़ा: अकेले 178 पत्रकार शहीद — 21वीं सदी का सबसे बड़ा ख़ूनख़राबा पत्रकारिता में
"ग़म-ए-हयात का क्या शिकवा करें, जब कलम चलती है तो बम भी थम जाते हैं।"
-क्रिस मेसन, फ्रैंक गार्डनर और रिच प्रेस्टॉन
ब्लेस मेत्रेवेली साल 1999 में ब्रिटेन की सीक्रेट इंटेलिजेंस सर्विस (एमआई-6) से जुड़ी थीं। अब वह इस एजेंसी की 18वीं प्रमुख बनने जा रही हैं।
वह इस साल रिचर्ड मूर की जगह लेंगी, जो मौजूदा चीफ हैं।
फिलहाल मेत्रेवेली के पास टेक्नोलॉजी और इनोवेशन विभाग की जिम्मेदारी है।
उन्हें जब एमआई-6 के नेतृत्व का प्रस्ताव मिला, तो उन्होंने इसे सम्मान की बात बताया।
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीएर स्टार्मर ने इस नियुक्ति को ‘ऐतिहासिक’ बताते हुए कहा कि आज के दौर में ब्रिटेन की खुफिया सेवाओं की भूमिका पहले से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गई है।
एमआई-6 का काम है विदेशों से ख़ुफिय़ा जानकारी जुटाकर ब्रिटेन की सुरक्षा को मज़बूत करना। इसका मुख्य मकसद आतंकवादी गतिविधियों को रोकना, दुश्मन देशों की संदिग्ध हरकतों पर निगरानी रखना और साइबर सुरक्षा सुनिश्चित करना है।
मेत्रेवेली ने क्या कहा
एमआई-6 के प्रमुख को आमतौर पर ‘सी’ कहा जाता है। यह इस खुफिया संस्था से जुड़ा एकमात्र पद है, जिसे सार्वजनिक रूप से लोग जानते हैं।
47 साल की मेत्रेवेली फिलहाल डायरेक्टर के पद पर हैं, जिसे ‘क्यू (क्त)’ कहा जाता है। वह टेक्नोलॉजी और इनोवेशन डिविजन की प्रमुख हैं। उनके ऊपर खुफिया सेवा के एजेंटों की जानकारी को गोपनीय रखने की जिम्मेदारी है। साथ ही, उनके पास ऐसे नए तरीके विकसित करने का काम भी है, जिनसे ब्रिटेन को दुश्मनों से बचाया जा सके।
मेत्रेवेली ने कहा, ‘एमआई-6, एमआई-5 और जीसीएचक्यू के साथ मिलकर एक अहम भूमिका निभाता है, जिससे ब्रिटेन के लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके और दूसरे देशों में ब्रिटेन के उद्देश्य पूरे किए जा सकें। मैं एमआई-6 के बहादुर अधिकारियों और अपने अंतरराष्ट्रीय सहयोगियों के साथ काम करने के लिए तैयार हूं।’
मेत्रेवेली ने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से एंथ्रोपोलॉजी की पढ़ाई की है। वह पहले एमआई-6 की सहयोगी और घरेलू सुरक्षा एजेंसी एमआई-5 में निदेशक स्तर पर काम कर चुकी हैं। उन्होंने अपना अधिकतर करियर मध्य पूर्व और यूरोप में कार्य करते हुए बिताया है।
ब्रिटिश विदेश नीति में योगदान के लिए उन्हें साल 2024 में किंग द्वारा ‘कंपेनियन ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ सेंट माइकल एंड सेंट जॉर्ज’ से सम्मानित किया गया।
दिसंबर 2021 में, अंग्रेजी अखबार ‘द टेलीग्राफ’ से बात करते हुए उन्होंने कहा था कि ब्रिटेन की सुरक्षा पर वास्तव में कई तरह के खतरे मंडरा रहे हैं।
उस वक्त वह एमआई-5 में ‘डायरेक्टर एम’ के छद्म नाम से जानी जाती थीं।
उन्होंने कहा था, ‘जिन ख़तरों की ओर हम इशारा कर रहे हैं, वे मुख्य रूप से सरकार, खुफिया सूचनाओं और हमारे लोगों की सुरक्षा से जुड़े हैं। हमारा काम है संभावित हमलों से मुकाबला करना, देश की अर्थव्यवस्था को सुरक्षित रखना, और संवेदनशील तकनीक व ज़रूरी जानकारियों की रक्षा करना।’
इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा, ‘रूस समर्थित गतिविधियां हमारे लिए लगातार खतरा बनी हुई हैं। साथ ही, दुनिया को बदलने वाला चीन, ब्रिटेन के लिए बड़े अवसर और चुनौती दोनों लेकर आ रहा है।’
‘सी’ का काम क्या है?
एमआई-6 के प्रमुख को ‘सी’ के नाम से जाना जाता है, जिसे औपचारिक रूप से खुफिया इंटेलिजेंस सर्विस का मुखिया कहा जाता है। यह पद विदेश मंत्री को रिपोर्ट करता है।
‘सी’ ज्वाइंट इंटेलिजेंस कमेटी का भी सदस्य होता है, जिसमें अन्य विभागों के प्रमुख और वरिष्ठ सरकारी अधिकारी शामिल होते हैं। यह कमेटी इंटेलिजेंस रिपोर्ट्स का विश्लेषण करती है और स्थिति के अनुसार ब्रिटिश प्रधानमंत्री को सुझाव देती है।
यह एक ग़लत धारणा है कि ‘सी’ का इस्तेमाल ‘चीफ’ के लिए किया जाता है। जबकि ऐसा नहीं है। ब्रिटेन की पहली जासूसी एजेंसी को सीक्रेट सर्विस ब्यूरो कहा जाता था, जिसकी स्थापना 1900 के दशक में हुई थी। इसका नेतृत्व रॉयल नेवी अधिकारी कैप्टन मैन्सफ़ील्ड कमिंग ने किया था। कमिंग अपने पत्रों पर हमेशा ‘ष्ट’ अक्षर से दस्तख़त करते थे, जो बाद में एक कोड नेम बन गया।
- समरेंद्र शर्मा
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में संभवतः सैकड़ों सीसीटीवी कैमरे गली, चौराहे और बाजार पर निगाहें टिकाए बैठे होंगे, लेकिन सवाल यह है कि जब कैमरे सब देख रहे हैं, तो फिर अपराध क्यों नहीं रुक रहे? और सबसे अहम कि जब वारदात हो रही होती है, तब पुलिस आखिर कहां होती है? यह सवाल अब शहर की हर सड़क, हर मोहल्ला और हर नागरिक की जुबान पर है।
राजधानी में तेजी से बढ़ती चाकूबाजी, मारपीट और गैंगवार जैसी घटनाओं ने न सिर्फ आम जनता की सुरक्षा को खतरे में डाला है, बल्कि पुलिसिंग की मौजूदा व्यवस्था और कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े कर दिए हैं। रायपुर, जो कभी अपनी साफ-सुथरी छवि और अनुशासित नागरिक व्यवस्था के लिए जाना जाता था, आज सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे अपराध के वीडियो और नाबालिगों के गिरोहों के कारण चर्चाओं में है।
दरअसल अब पुलिसिंग का अर्थ तकनीक, मोबाइल डेटा और सीसीटीवी फुटेज तक सीमित होता जा रहा है। यदि यह आधुनिकता की अनिवार्यता है, तो यह भी जरूरी है कि पुलिस की जमीनी उपस्थिति भी उतनी ही प्रभावी और दिखती हुई हो। अफसोस की बात है कि आज गश्त केवल औपचारिकता बनकर रह गई है। तेलीबांधा, डीडी नगर, गुढ़ियारी, टिकरापारा, नवा रायपुर जैसे इलाके लगातार अपराधों से जूझ रहे हैं, लेकिन स्थानीय पुलिस की उपस्थिति और तत्काल प्रतिक्रिया नगण्य है।
अक्सर देखा गया है कि वारदात के बाद पुलिस घटनास्थल पर तब पहुंचती है जब या तो आरोपी फरार हो चुके होते हैं या भीड़ पहले ही तितर-बितर हो चुकी होती है। एफआईआर दर्ज कराने की प्रक्रिया धीमी है और जांच तकनीकी उपकरणों जैसे मोबाइल लोकेशन और सीसीटीवी फुटेज तक सीमित रह जाती है, जबकि अपराधी इन तकनीकों से दो कदम आगे निकल जाते हैं।
एक समय था जब मोहल्लों में बीट प्रभारी नियमित रूप से घूमते थे, सिविल ड्रेस में पुलिसकर्मी स्थानीय गतिविधियों पर नजर रखते थे और थाने के मुखबिर तंत्र की पकड़ मजबूत होती थी। लेकिन आज सामुदायिक पुलिसिंग नाम की कोई चीज व्यवहार में दिखाई नहीं देती। न ही बीट प्रभारी आम नागरिकों से संवाद करते हैं, न ही मोहल्लों में पुलिस की नियमित मौजूदगी दिखती है।
पुलिस चौकी और मोहल्ला चौपाल जैसी अवधारणाएं अब केवल योजनाओं तक सिमट गई हैं। थानों की कार्यशैली में जनसहयोग की भावना की जगह अब दूरी और अविश्वास ने ले ली है।
दूसरी ओर, अपराध की घटनाओं पर नजर डालें तो चौंकाने वाला तथ्य सामने आता है कि 40 फीसदी से अधिक मामलों में आरोपी नाबालिग हैं। ये नाबालिग अब फेसबुक पोस्ट, रील विवाद या मामूली बहस पर चाकू निकालने से नहीं चूकते। उनके लिए हिंसा एक ‘ताकत दिखाने’ और ‘वायरल होने’ का जरिया बन गई है।
पुलिस के पास इस बढ़ती चुनौती से निपटने के लिए कोई स्पष्ट रणनीति नहीं है। पुलिसिंग को हाईटेक बनाना समय की मांग है, लेकिन यह तभी प्रभावी हो सकता है जब तकनीक के साथ मानवीय हस्तक्षेप, संवेदनशीलता और जमीनी सक्रियता भी जुड़ी हो। सिर्फ कैमरे अपराध नहीं रोकते, वो केवल रिकॉर्ड करते हैं। अपराध रोकने के लिए बीट पुलिस, रात्रि गश्त, लोकल इंटेलिजेंस नेटवर्क और स्थानीय संवाद जैसे पुराने तरीकों को फिर से सक्रिय करना होगा।
शहरी अपराध और नाबालिग गैंगों पर नियंत्रण के लिए स्पेशल टास्क फोर्स गठित किया जाना चाहिए। थाना स्तर पर गश्त, केस समाधान और नागरिक संतुष्टि पर आधारित प्रदर्शन मापदंड तय हों। हर मोहल्ले में नियुक्त बीट प्रभारी नागरिकों से सीधा संवाद बनाए रखें। हर महीने स्थानीय समुदाय के साथ खुली बैठकें (जनसंवाद) हों। सीसीटीवी का फीड सीधे थानों और मुख्यालय को मिले, ताकि त्वरित कार्रवाई सुनिश्चित हो सके।
-सच्चिदानंद जोशी
दिवाकर जी के आमंत्रण पर लिटरेचर फेस्टिवल के एक सत्र में ‘सोशल मीडिया पर बढ़ती अश्लीलता’ विषय वक्ता के तौर पर जाना था ।उस पंच तारांकित होटल के आहते में घुसते ही दरबानों ने रोका,
‘आप कौन! पास कहां है ?’
‘पास’ चौंक कर मैने कहा।
‘अरे मैं स्पीकर हूं ’ मैंने अपनी स्थिति बताने की कोशिश की।
‘सुबह से सब स्पीकर ही आ रहे हैं, सुनने वाला कोई है भी या नहीं ’ दरबान ने अपने साथी से व्यंग्य करते हुए कहा।
दूसरे दरबान को संवाद बढ़ाने में रुचि न थी, बोला ‘स्पीकर है तो वो कार्ड होगा न गले में लटकने वाला वो कहां है।’
मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा था कि अब कैसे उसे यकीन दिलाऊं कि मैं स्पीकर ही हूं।
तभी पीछे से आ रहे लडक़े ने दरबान से कहा ‘अरे छोड़ो इन्हें , ये तो हमारे स्पीकर हैं।’ काले शर्ट और काली पतलून में सजे उस युवक की बात सुनकर दरबान ने मुझे अंदर जाने दिया।
‘आप मुझे पहचानते हैं’ मैंने उत्साह से उस युवक से पूछा। उसने बड़ी मासूमियत से उत्तर दिया , ‘पहचानता तो नहीं लेकिन मैने इस पोस्टर पर आपका चेहरा देखा तो लगा कि आप इस लिटरेचर फेस्टिवल के स्पीकर ही होंगे।’ उसने सामने लगे एक बड़े से पोस्टर की तरफ इशारा किया। उस पोस्टर पर छोटे छोटे कई सारे चेहरे लगे थे। इनमें एक चेहरा मेरा भी था। फिर उसने कहा ‘सर आप उधर आगे चले जाइए, वहां हमारी कंपनी का दूसरा लडक़ा बैठा है जो स्पीकर्स को कोऑर्डिनेट कर रहा है। वो आपको स्पीकर वाला बैज दे देगा और बता भी देगा कि आपका सेशन कहां है।’
मुझे समझ में आ गया कि वो युवक इवेंट कंपनी का कोई बंदा था। उसने वाकी टाकी पर अपने साथी को बता दिया कि मैं आ रहा हूं। बताते हुए उसने मेरा नाम मुझसे पूछ कर साबित कर दिया कि वो मुझे सचमुच जानता नहीं था।
काउंटर पर बैठे उसके साथी ने मेरा बैज भी दे दिया और बता भी दिया कि मेरा सत्र लॉन की दूसरी ओर बने योगा हाल में है। साथ ही यह भी जता दिया कि फेस्टिवल के सारे वेन्यू में यही एक एयर कंडीशंड हॉल है।
मैं लॉन से होकर योगा हाल की तरफ जाने लगा। साथ ही लिटरेचर फेस्टिवल की रंगत भी देखता जा रहा था। चारों तरफ कई सारे लडक़े लड़कियां झुंड बना कर इधर से उधर जा रहे थे। लॉन में कुछ मंच भी बने थे जिन पर वक्ता चर्चा में व्यस्त थे। वक्ता गर्मजोशी से चर्चा कर रहे थे लेकिन श्रोताओं की संख्या नरम ही थी।फिर कहीं कोई गेम दिखा रहा था तो कोई गाना सुना रहा था।मेले जैसा माहौल था जिसमें लिटरेचर कम और किसी स्कूल कॉलेज के फेस्ट जैसा माहौल ज्यादा था। एक आध मदारी या रस्सी पर चल कर करतब दिखाने वाला और होता तो हमारे छतरपुर के मेला जलविहार जैसा माहौल हो जाता।
मैं योगा हॉल की ओर बढ़ ही रहा था कि लडक़े लड़कियों के एक झुंड ने घेर लिया ‘सर आपके साथ एक सेल्फी ले लें।’ मैं मन ही मन खुश हुआ कि चलो कम से कम इन बच्चों ने तो मेरा साहित्य पढ़ा है। उन बच्चों ने अलग अलग एंगल से मेरे साथ सेल्फी ली । मैं उनसे पूछने ही वाला था कि इनमें से किस किस ने मेरा ताजा उपन्यास पढ़ा है । तभी एक लडक़ा बोला ‘सर आप कौन है ?’ दूसरे ने उसे झिडक़ा ‘पागल देखता नहीं इस बैज पर इनका नाम लिखा है।’
उनमें से कुछ ने अपने अपने मोबाइल में मेरा नाम दर्ज कर लिया तो कुछ ने मेरे बैज का फोटो ही ले लिया।
मुझसे न रहा गया , मैने उन बच्चों से पूछ ही लिया , ‘अगर तुम्हे ये भी नहीं पता कि मैं कौन हूं तो मेरे साथ सेल्फी लेने का क्या मतलब है।’
उनमें से एक लडक़ी मासूमियत से बोली ‘सर हमारा असाइनमेंट है। हर एक को कम से कम पांच स्पीकर के साथ सेल्फी लेकर इंस्टा पर अपलोड करनी है।’
दूसरी ने पूरक जानकारी दी, ‘हमारी यूनिवर्सिटी कोस्पॉन्सर है न इस लिट फेस्ट की।’
‘लेकिन तुम्हे कैसे पता कि मैं स्पीकर हूं।’ मेरी जिज्ञासा अभी भी शांत नहीं हुई थी।
‘आपके बैज से। स्पीकर के बैज पर लाल स्ट्रिप है।’
आगे संभाषण बढ़ता इतने में उनका लीडर दिखने वाला लडक़ा बोला ‘चलो अभी मेन हॉल में पहुंचना है जल्दी।’
और वो बच्चों का झुंड जिस तेजी से आया था उस तेजी से गायब भी हो गया।
योगा हॉल पहुंचा तो सत्र का समय लगभग हो चुका था। बाहर ही एक स्वयंसेवक नुमा व्यक्ति ने स्वागत किया ‘अरे सर आप आ गए । बस अब इस सत्र के एंकर भी आते ही होंगे। उनके आते ही हम सत्र शुरू करेंगे।’
‘लेकिन दिवाकर जी कहां हैं। मैं तो उनके ही आमंत्रण पर आया हूं।’
‘आते ही होंगे। क्या हैं न कि तीन चार सत्र पैरेलल चल रहे हैं न।’ उस व्यक्ति ने कहा। फिर दिलासा देते हुए बोला ‘चिंता मत कीजिए , हम हैं न! इस सत्र की जिम्मेदारी दिवाकर जी हमें ही दिए हैं।लीजिए आपके एंकर आरजे रोहित भी आ गए हैं।बहुत मशहूर एंकर है। गजब की फॉलोइंग है उनकी।’उस व्यक्ति ने एक ओर इशारा करते हुए कहा।
देखा भीषण गर्मी में टाय सूट में एक युवक चला आ रहा है। उसके चेहरे से साफ झलक रहा था कि वो बहुत परेशान है और बहुत जल्दी अपना गुस्सा उतारने वाला है किसी पर।
‘क्या गुलशन जी आप गेट पर नहीं आ सकते थे लेने। कितनी परेशानी हुई ढूंढने में।’
‘अरे रोहित जी हम आने ही वाले थे। लेकिन हमको दिवाकर जी स्पीकर की जिम्मेदारी भी सौंप दिए हैं न तो उधर आ नहीं पाए।’ गुलशन ने मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा।
फिर रोहित ने मुझे यूं देखा मानो मैं अजायबघर से छूटा कोई प्राणी हूँ।
‘आप..’ उसने पहचानने की कोशिश की।
‘अरे इन्हें नहीं जानते। ये स्पीकर है आज के। बड़े साहित्यकार हैं।’ गुलशन ने मेरा नाम मेरे बैज से पढ़ते हुए कहा। रोहित के चेहरे पर अब भी पहचान के भाव नहीं थे। जाहिर है उसे मेरा नाम भी नहीं मालूम था।
‘ये दिवाकर जी भी न। न जाने कहां कहां फंसा देते है हमे।’ रोहित ने प्रतिक्रिया दी। नाम तो मैने भी रोहित का पहली बार ही सुना था। लेकिन उसकी झांकी और रौब दाब देखकर लग रहा था कि उसका नाम मालूम न होना भी मेरा ही कसूर है।
‘और दो स्पीकर आ गए?’ रोहित ने एक और प्रश्न आयोजक प्रतिनिधि गुलशन की ओर दागा।
‘आ गए ! अरे आए और खाना वाना खाकर एक नींद भी ले लिए। एसी हाल है न। दोनों के खर्राटों की जुगलबंदी चल रही है अंदर हॉल में।’
‘अरे तो हम बाहर क्यों खड़े हैं , सत्र शुरू कीजिए न। ’ मंैने अपनी उपस्थिति का अहसास दिलाते हुए कहा।
‘और कोई अंदर हो तब न शुरू करेंगे सत्र। ‘गुलशन बोला।’ अंदर इकौ आदमी नहीं है। कॉलेज के बच्चे भी ससुरे भाग गए उस मेन हॉल में। वहां वो जालिम बाबा आया है न।’
‘जालिम बाबा? ये कौन है? ‘मैने अपना अज्ञान प्रकट करते हुए कहा। ’
इसराइल ने पिछले हफ्ते जब ईरान पर हमला किया, तो एक ध्रुवीकृत दुनिया में भारत के लिए किसी का भी पक्ष लेना आसान नहीं था।
लेकिन करीब एक महीने पहले ही भारत ने पाकिस्तान के कुछ इलाकों में हमला किया था, तो इसराइल खुलकर भारत के समर्थन में था।
पाकिस्तान के मामले में इसराइल के लिए भारत का पक्ष लेना आसान है, क्योंकि पाकिस्तान ने अब तक एक राष्ट्र के रूप में इसराइल को स्वीकार नहीं किया है।
दूसरी तरफ ईरान से भारत के संबंध अच्छे रहे हैं और कहा जाता है कि दोनों मुल्कों में सभ्यता के स्तर के संबंध हैं।
भारत में बीजेपी की सरकार का रुख इसराइल को लेकर बाकी सरकारों की तुलना में उदार रहा है। इसके बावजूद पश्चिम एशिया में भारत का रुख किसी के प्रति झुके होने की तुलना में संतुलन का होता था।
पिछले कुछ दिनों में ऐसी कई घटनाएं हुईं, जिसके बाद ऐसा कहा जा रहा है कि भारत इसराइल के पक्ष में ज़्यादा झुका हुआ है।
जैसे 12 जून को संयुक्त राष्ट्र महासभा में गाजा में तत्काल यु्द्धविराम को लेकर वोटिंग हुई।
149 देशों ने युद्धविराम के पक्ष में वोट किया। 12 देशों ने युद्धविराम के खिलाफ वोट किया और 19 देशों ने ख़ुद को वोटिंग से दूर रखा। भारत इन्हीं 19 देशों में एक था।
इन 19 देशों को देखेंगे तो भारत को छोड़ सभी देश वैश्विक राजनीति में बहुत अहमियत नहीं रखते हैं। ये देश हैं- पनामा, साउथ सूडान, टोगो, मालावी इत्यादि।
जिन 12 देशों ने युद्धविराम के खिलाफ वोट किया, उनमें अमेरिका शामिल है। लेकिन बाकी के 11 देश वैसे हैं, जिनका अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कोई खास दखल नहीं है। ये देश हैं- फिजी, पलाऊ, पापुआ न्यू गिनी, टोंगा इत्यादि।
लेकिन जिन 149 देशों ने युद्धविराम के पक्ष में मतदान किया, उनमें लगभग सभी अहम देश हैं, जिनका वैश्विक राजनीति में दखल है।
चीन, जापान से लेकर पूरा यूरोप तक इनमें शामिल हैं। लेकिन भारत इन अहम देशों के साथ नहीं है। यहाँ तक कि भारत जिन वैश्विक संगठनों का सदस्य है, वहाँ भी इसराइल के मामले में वो अलग है।
जब पहली बार इंसान ने चांद पर कदम रखा था, उसके लगभग 60 साल बाद अब अंतरिक्ष एजेंसियां और निजी कंपनियां चांद से होते हुए मंगल पर पहुंचने की कोशिश कर रही हैं. लेकिन बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है.
डॉयचे वैले पर फ्रेड श्वालर का लिखा-
सबसे पहले तो ये जान लीजिए:-
* अब इंसानों के लिए चंद्रमा पर जाना पहले से कहीं ज्यादा आसान हो गया है, क्योंकि अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी, नासा और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी, ईएसए मिलकर आर्टेमिस प्रोग्राम पर काम कर रहे हैं।
* हाल में चीन और भारत ने कई सफल चंद्रमा मिशन पूरे किए हैं।
* अंतरिक्ष एजेंसियां और निजी कंपनियां अब चंद्रमा का इस्तेमाल वैज्ञानिक शोध और मंगल पर पहुंचने के लिए करना चाहती हैं।
चंद्रमा में बढ़ती दिलचस्पी
आर्टेमिस प्रोग्राम उत्तर अमेरिकी और नासा द्वारा संचालित एक मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम है। जिसमें यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए) सहित 55 अंतरराष्ट्रीय सहयोगी भाग ले रहे हैं।
चांद के दक्षिणी ध्रुव पर एक स्थायी बेस बनाना नासा का लक्ष्य है। जिसे ‘आर्टेमिस बेस कैंप’ कहा जाएगा। साथ ही, वह चंद्रमा की कक्षा में एक नया अंतरिक्ष स्टेशन ‘गेटवे’ भी लॉन्च करने की योजना बना रहा है। वहीं दूसरी तरफ, चीन और रूस की साझेदारी में 13 अंतरराष्ट्रीय भागीदार साथ मिलकर एक चंद्र बेस बनाने की योजना बना रहे है, जिसे ‘इंटरनेशनल लूनर रिसर्च स्टेशन’ कहा जाएगा और इसे 2035 तक पूरा किये जाने की उम्मीद है।
आर्टेमिस बेस कैंप और इंटरनेशनल लूनर रिसर्च स्टेशन, दोनों को वैज्ञानिक उद्देश्यों के लिए बनाया जा रहा है। अगर यह योजनाएं सफल होती हैं, तो इनमें अंतरिक्ष यात्री कुछ समय के लिए रह सकेंगे और रोबोटिक उपकरणों को स्थायी रूप से वहां स्थापित किया जा सकेगा।
लेकिन चांद रणनीतिक रूप से भी महत्वपूर्ण है। शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत रूस ने न केवल जमीन पर बल्कि अंतरिक्ष में भी अपना वैचारिक मतभेद जाहिर किया था। और आज के समय में भी ऐसा ही देखा जा रहा है। फर्क बस इतना है कि अब इसमें और भी देश शामिल हो चुके हैं। अमेरिका ने तो खुले तौर पर कहा ही है कि वह खुद को एक ‘स्पेस रेस’ में देखता है और उसे वह जीतना चाहता है।
इस दौड़ में जीतना काफी मायने रखता है क्योंकि:-चांद में बढ़ती दिलचस्पी का एक कारण यह भी है कि वह संसाधनों से भरपूर है। जैसे:-
* लोहा
* सिलिकॉन
* हाइड्रोजन
* टाइटेनियम
* दुर्लभ खनिज तत्व (रेयर अर्थ)
हालांकि, इन संसाधनों को निकालना और धरती तक लाना बहुत महंगा है। लेकिन धरती पर खनिजों के अभाव में उन्हें धरती पर लाया जा सकता है। अंतरिक्ष में छिपे विशाल खनिज भंडार, खासकर एस्टेरॉइड्स में मौजूद खजाने को हासिल करने की दिशा में चांद पर खनन की शुरुआत करना पहला कदम हो सकता है।
चांद से निकाले गए ज्यादातर संसाधनों का इस्तेमाल उन्हीं चीजों की जगह किया जाएगा, जिन्हें अब तक धरती से ले जाना पड़ता है। इससे चांद पर बनाए जाने वाले बेस की खनिजों के लिए धरती पर निर्भरता खत्म या ना के बराबर हो जाएगी।
उदाहरण के लिए, चंद्रमा की मिट्टी (रेगोलिथ) का उपयोग विकिरण (रेडिएशन) से सुरक्षा और चांद पर निर्माण कार्यों के लिए किया जा सकता है।
पानी, जिसकी खोज 2008 में भारत के चंद्रयान-1 मिशन ने की थी। उसका पीने, खाना उगाने और उपकरणों को ठंडा रखने के लिए इस्तेमाल हो सकेगा।
चंद्रयान-1 के बाद किए गए मिशनों ने दिखाया है कि चांद के ध्रुवों पर बर्फ की मात्रा काफी ज्यादा है। यही कारण है कि पहला चंद्र-बेस शायद चांद के दक्षिणी ध्रुव पर बनाए जाए सकता है। भले ही वहां उतरना चुनौतीपूर्ण हो।
इस बेस को मंगल पर जा रहे अंतरिक्ष यात्रियों के लिए ‘ट्रांजिट लाउंज’ यानी बीच के पड़ाव की तरह भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
ऊर्जा के लिए अभी कुछ अंतरिक्ष यान और सैटेलाइट सौर ऊर्जा का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन रेगोलिथ और बर्फ का उपयोग रॉकेट के लिए ईंधन बनाने में भी किया जा सकता है।
चांद पर हीलियम-3 भी बड़ी मात्रा में पाया गया है, जो भविष्य में न्यूक्लियर फ्यूजन से बिजली बनाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
इसलिए, मंगल मिशन के लिए चांद पर रुकना और वहां से ईंधन भरना और जरूरी हो गया है।
चांद पर वैज्ञानिक शोध
यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए) के ‘मून एक्सप्लोरेशन प्रोग्राम’ की मैनेजर, सारा पास्टर ने डीडब्ल्यू को एक ईमेल में बताया कि चांद से जुड़े वैज्ञानिक शोध ईएसए के मिशन का मुख्य हिस्सा है। और यह बात बाकी अंतरिक्ष एजेंसियों पर भी लागू होती है।
पिछले 20 वर्षों से इंसान अंतरिक्ष में लगातार मौजूद रहा है, खासकर इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (आईएसएस) पर। लेकिन आईएसएस धरती से सिर्फ 400 किलोमीटर (लगभग 250 मील) की दूरी पर है, जहां पहुंचने के लिए लॉन्च के बाद सिर्फ चार घंटे लगते हैं। इसके मुकाबले चांद धरती से चार लाख किलोमीटर (250,000 मील) दूर है, यानी वहां पहुंचने में लगभग तीन दिन लगते हैं। और यह सफर अंतरिक्ष यात्रियों के लिए कहीं ज्यादा जोखिम भरा होता है। इसलिए चांद पर शुरुआती रिसर्च का मकसद इस सफर को सुरक्षित और आसान बनाना होगा।
इसके बाद बात आती है पर्यावरण विज्ञान की। सारा पास्टर के अनुसार, ‘वैज्ञानिक यह पता लगाएंगे कि चांद का वातावरण कैसा है? उसके विशेष हालात इंसान के स्वास्थ्य पर क्या असर डालते हैं और रोबोटिक मिशनों पर क्या प्रभाव होता है। इसके अलावा इंसानी गतिविधियां चांद के पर्यावरण को कैसे प्रभावित करती हैं।’
वैज्ञानिक यह भी जानना चाहते हैं कि चांद पर मौजूद पानी, धातु और अन्य संसाधनों का इस्तेमाल लंबे समय तक चांद पर टिके रहने के लिए कैसे किया जा सकता है, और उन्हें सबसे प्रभावी तरीके से कैसे निकाला जा सकता है। सारा पास्टर ने बताया, ‘ईएसए, पर्यावरण के रेडिएशन को मापने वाले उपकरण, खुदाई और नमूना विश्लेषण, भूगर्भीय अध्ययन और अंतरिक्ष में चांद के मौसम को जांचने के लिए उपकरण विकसित कर रहा है।’
-जेम्स लैंडेल
फि़लहाल इसराइल और ईरान के बीच लड़ाई दो देशों के बीच ही सीमित दिखती है। संयुक्त राष्ट्र में और अन्य जगहों पर व्यापक रूप से दोनों से संयम बरतने की अपील की जा रही है।
हालांकि दोनों देशों ने एक-दूसरे पर हमला करना जारी रखा है और इसराइल ने लगातार दूसरे दिन भी ईरान पर हवाई हमले करने के दावे किए हैं। लेकिन क्या होगा अगर संयम की अपीलों पर दोनों देश ध्यान नहीं देते हैं? तब क्या होगा अगर लड़ाई और भडक़ती है, और फैलती है?
यहां चंद संभावित सबसे खराब हालात के बारे में अनुमानों पर चर्चा की गई है।
अगर इस जंग में अमेरिका शामिल होता है?
अमेरिका के तमाम खंडनों के बावजूद ईरान स्पष्ट रूप से मानता है कि इसमें अमेरिकी बलों की भूमिका है और कम से कम उसने इसराइली हमलों में मदद की है।
ईरान पूरे पश्चिम एशिया में अमेरिकी ठिकानों पर हमला बोल सकता है, जैसे कि इराक़ में स्पेशल फ़ोर्सेज, खाड़ी में सैन्य अड्डे और इस क्षेत्र में मौजूद राजनयिक मिशनों पर।
हमास और हिज़्बुल्लाह जैसे ईरान के प्रॉक्सी बलों की ताकत बहुत कुछ कम हो चुकी है लेकिन इराक में इसके समर्थक मिलिशिया अभी भी हथियारबंद हैं और एकजुट हैं।
अमेरिका को डर है कि ऐसे हमले हो सकते हैं और इसी वजह से उसने अपने कुछ सैनिकों को वापस बुला लिया है।
सार्वजनिक रूप से अमेरिका ने ईरान को अमेरिकी ठिकानों पर किसी तरह के हमले की स्थिति में नतीजे भुगतने की कड़ी चेतावनी दी है।
उन हालात में क्या होगा अगर अमेरिकी नागरिक मारे जाते हैं, जैसे कि तेल अवीव या कहीं और?
ऐसी स्थिति में डोनाल्ड ट्रंप खुद को कार्रवाई करने के लिए मजबूर पा सकते हैं।
इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू पर लंबे समय से आरोप लगता रहा है कि वो ईरान को हराने की लड़ाई में अमेरिका को घसीटना चाहते हैं।
सैन्य विश्लेषकों का कहना है कि अमेरिका के पास ऐसे बमवर्षक विमान और बंकर बस्टर बम हैं जो बहुत गहराई में मौजूद ईरानी परमाणु प्रतिष्ठानों तक पहुंच सकते हैं, खासकर फॉरदाओ में।
ट्रंप ने मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) के प्रशंसक वोटरों से वादा किया है कि वह पश्चिम एशिया में कथित तौर पर ‘अनंतकाल तक चलने वाले किसी युद्ध’ की शुरुआत नहीं करेंगे। लेकिन दूसरी तरफ कई रिपब्लिकन समर्थक। इसराइली सरकार और इसके नज़रिए का समर्थन करते हैं कि तेहरान में सत्ता बदलने का समय आ गया है। अगर अमेरिका इस जंग में सक्रिय भागीदारी करता है तो इसके साथ ही जंग और भडक़ेगी और इसके विनाशकारी परिणाम की आशंका बढ़ जाएगी।
अगर खाड़ी के देश शामिल होते हैं?
अगर ईरान इसराइल के बहुत सुरक्षित सैन्य और अन्य ठिकानों को नुक़सान पहुंचाने में नाकामयाब रहता है, तो जैसा कि वह करता है वह खाड़ी में अन्य आसान लक्ष्यों पर अपने मिसाइल इस्तेमाल करेगा। ख़ासकर उन देशों के खिलाफ जिनके बारे में उसका मानना है कि वो उसके दुश्मनों को मदद और प्रोत्साहन देता है। इस इलाके में बहुत सारे ऊर्जा और आधारभूत ढांचे वाले टार्गेट हैं।
ये याद रखना होगा कि ईरान पर आरोप लगा था कि 2019 में उसने सऊदी अरब के तेल क्षेत्र को निशाना बनाया था और इसके हूती प्रॉक्सी बल ने 2022 में यूएई के ठिकानों पर हमला किया था। हालांकि इसके बाद से इस क्षेत्र के कुछ देशों के बीच ईरान ने रिश्ते सुधारे हैं।
लेकिन ये देश अमेरिकी एयरबेस की मेजबानी करते हैं। कुछ ने तो पिछले साल गुपचुप तरीके से ईरानी मिसाइल हमलों से इसराइल की रक्षा करने में भूमिका निभाई थी।
अगर खाड़ी देशों पर हमला हुआ, तो वे अपनी और इसराइल की सुरक्षा के लिए अमेरिकी लड़ाकू विमानों की मांग कर सकते हैं।
अगर इसराइल ईरान की परमाणु क्षमता नष्ट करने में विफल रहता है?
तब क्या होगा जब इसराइली हमले विफल रहते हैं? अगर ईरान के परमाणु प्रतिष्ठान जमीन के बहुत अंदर हुए, बहुत सुरक्षित हुए तब क्या होगा?
ईरान के पास 400 किलोग्राम तक 60त्न एनरिच्ड यूरेनियम होने का अनुमान है जो कि दस या इससे ज़्यादा परमाणु बम बनाने के लिए पर्याप्त है और ईरान हथियार के स्तर का यूरेनियम बनाने से चंद कदम ही दूर है, अगर इसे नष्ट नहीं किया जा सका तब क्या होगा?
माना जाता है कि यह गोपनीय खदानों में कहीं गहरे छिपाकर रखे गए हैं। भले ही इसराइल ने कुछ परमाणु वैज्ञानिकों को मार दिया हो लेकिन कोई भी बम ईरान की जानकारी और विशेषज्ञता को नष्ट नहीं कर सकता।
क्या होगा अगर इसराइल के हमले ईरान के नेतृत्व को सोचने के लिए मजबूर कर दें कि आगे और हमलों को रोकने के लिए जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी परमाणु हथियार बना लेना चाहिए?
और तब क्या होगा जब नए सैन्य नेता अपने मृत पूर्ववर्तियों के मुक़ाबले अधिक अडिय़ल और कम सतर्क हों?
कम से कम, यह इसराइल को और हमले करने के लिए मजबूर करता है, जिससे इस क्षेत्र में लगातार हमले और जवाबी हमले जारी रह सकते हैं। इस रणनीति के लिए इसराइलियों के शब्दकोश में एक क्रूर शब्दावली है: वे इसे ‘घास साफ़ करना’ कहते हैं।
- सेबेस्टियन अशर
इसराइल ने ईरान पर जो ताजा हमला किया है वो पिछले साल अंजाम दिए गए उसके दो सैन्य ऑपरेशनों की तुलना में ज्यादा व्यापक और भयावह है।
ऐसा लगता है कि इस हमले में उसने वैसी ही रणनीति अपनाई है, जैसी पिछले साल नवंबर में लेबनान में हिज्बुल्लाह के खिलाफ हमले के दौरान इस्तेमाल की गई थी।
इसका मकसद न सिर्फ ईरान के मिसाइल बेस पर हमला करना था बल्कि ये भी सुनिश्चित करना था कि बड़ा जवाबी हमला होता है तो भी तुरंत कार्रवाई कर ईरान की यह क्षमता खत्म कर दी जाए।
पिछले साल नवंबर में जब इसराइल ने हिज़्बुल्लाह के खिलाफ अभियान चलाया था तो उसका मकसद इस संगठन के नेताओं को मारना था।
इसराइल की इस कामयाबी ने हिज़्बुल्लाह के जवाबी हमला करने की क्षमता को भारी चोट पहुंचाई थी।
ईरान से इसराइल के हमले के जो फुटेज हासिल हुए हैं, उनमें दिख रहा कि वैसी ही इमारतों पर हमला किया गया है जैसा पहले बेरूत के दक्षिणी उपनगरों की इमारतों पर किया गया था।
ऐसे ही हमलों में हिज़्बुल्लाह के नेता हसन नसरल्लाह को मार दिया गया था।
इसराइल ने ईरान के बहुत बड़े कद के नेता को नहीं मारा है। उसने ईरान के सर्वोच्च नेता अली ख़ामेनेई को भी निशाना नहीं बनाया है।
लेकिन ईरान के ताक़तवर रिवोल्यूशनरी गार्ड्स के कमांडर हुसैन सलामी और देश के कई शीर्ष परमाणु वैज्ञानिकों को सैन्य ऑपरेशन के शुरुआती घंटों में मारकर ईरान की सत्ता के उच्च वर्ग को अभूतपूर्व चोट पहुंचाई है।
बिहार में प्रति 1,000 लडक़ों पर मात्र 891 लड़कियों का जन्म हो रहा है। यह देश के सभी राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों में सबसे कम लिंगानुपात है। लेकिन क्यों?
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार का लिखा-
रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया द्वारा जारी नागरिक पंजीकरण प्रणाली (सीआरएस) पर आधारित नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, बिहार में 2022 में पूरे देश में जन्म के समय सबसे कम लिंगानुपात (एसआरबी) देखा गया है।
इसके अलावा महाराष्ट्र, गुजरात तथा तेलंगाना में भी लिंगानुपात में गिरावट दर्ज की गई है। केंद्र सरकार ने लगभग चार साल की देरी से बीते सप्ताह साल 2022 के लिए सीआरएस और एमसीसीडी (मेडिकल सर्टिफिकेशन ऑफ कॉज ऑफ डेथ) जारी किया है।
क्या तस्वीर दिखाते हैं आंकड़े
बिहार में प्रति 1,000 लडक़ों पर मात्र 891 लड़कियों का जन्म हो रहा है। यह देश के सभी राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों में सबसे कम लिंगानुपात है। 2020 में यह अनुपात 964, जो 2021 में गिरकर 908 पर आया और 2022 में यह और भी नीचे 891 पर आ गया। यानी साल 2020 से हर साल जन्म के समय लिंगानुपात प्रदेश में लगातार घटता जा रहा है।
इसके विपरीत पिछले सालों में इस मामले में खराब प्रदर्शन करने वाले असम राज्य में वर्ष 2021 में एसआरबी (सेक्स रेशियो एट बर्थ) जहां 863 थी, वह 2022 में बढक़र 933 हो गई। वहीं, महाराष्ट्र, तेलंगाना और गुजरात में यह क्रमश: 906, 907 और 908 रही। ये आंकड़े बिहार से बहुत अधिक नहीं हैं, किंतु इन राज्यों में बिहार की तरह लगातार गिरावट नहीं देखी गई है। वहीं, नागालैंड में सबसे अधिक एसआरबी दर्ज की गई जो 1,068 रही। इसके बाद अरुणाचल प्रदेश (1,036), लद्दाख (1,027), मेघालय (972) तथा केरल (971) का स्थान रहा।
क्या कहती हैं राज्य की महिलाएं
महिलाओं के लिए काम करने वाली संस्था की सदस्य जायना शबनम कहतीं हैं, ‘ये आंकड़े लैंगिक असंतुलन की ओर तो इशारा कर ही रहे हैं। इनका तात्कालिक असर भले ही न दिखे, दीर्घकालिक परिणाम तो भयावह ही होगा। बिहार के समाज में बेटियां अभी भी स्वीकार्य कहां बन सकी हैं। तमन्ना तो यही रहती है कि बेटा ही हो।’
वहीं, बीएससी की छात्रा कलश कश्यप कहती हैं, ‘हमारे समाज में बेटियों के प्रति एक पूर्वाग्रह तो छिपा ही है। सोच बदली है, किंतु अभी भी दोनों के बीच सम्मान और समानता में गहरी खाई बरकरार है। बेटियों से सीधे कह दिया जाता है, तुमसे न होगा। जबकि, जहां-जहां हमें मौका दिया गया, हमने कर दिखाया। ऐसा न होता तो बिहार पुलिस में सर्वाधिक महिलाएं न होतीं। वे अपना काम तो मुस्तैदी से कर ही रही हैं ना।’
जन्म के मामले में तीसरे स्थान पर बिहार
प्रति एक हजार लडक़ों पर 943 लड़कियों की एसआरबी के राष्ट्रीय औसत से बिहार भले ही काफी पीछे रहा हो, किंतु 2022 में सर्वाधिक जन्म (बर्थ) के मामले में यह राज्य तीसरे स्थान पर रहा। यहां कुल 30 लाख 70 हजार बच्चों का जन्म हुआ, जिनमें 13 लाख 10 हजार लड़कियां थीं और 14 लाख 70 हजार लडक़े थे। आशय यह कि लडक़े-लड़कियों की संख्या में 1,60,000 का अंतर रहा, जो देश भर में सबसे अधिक अंतर रहा।
प्रतिशत में देखा जाए तो 2022 में 52.4 फीसद लडक़े तथा 47.6 फीसद लड़कियों का जन्म हुआ। लगभग 43 प्रतिशत जन्म ग्रामीण क्षेत्रों में तो 56.5 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में रजिस्टर्ड किए गए। अच्छी बात है कि 2022 में बर्थ रजिस्ट्रेशन की संख्या में अच्छी वृद्धि हुई है। हालांकि, 2022 के लिए एसआरएस (सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम) रिपोर्ट के आंकड़े अभी तक सामने नहीं आए हैं।
जातिवार गणना की रिपोर्ट में दिखा था सुधार
राज्य के मुख्य सचिव अमृत लाल मीणा ने इस रिपोर्ट को खारिज करते हुए राज्य में किए जातिवार गणना की रिपोर्ट को प्रमाणिक बताया है, जिसके अनुसार बिहार में लिंगानुपात 2011 में 918 से बढक़र 2023 में 953 हो गया है। उनका मानना है कि राज्य में हुए जातिवार गणना के आंकड़े ही प्रमाणिक हैं, लिंगानुपात इतना खराब कभी भी नहीं था।
वैसे, जातिवार गणना की इस रिपोर्ट में पिछले 12 साल में प्रति हजार महिलाओं की संख्या में 35 की वृद्धि हुई है। इस गणना के अनुसार राज्य में पुरुषों की कुल संख्या 6.41 करोड़ तो महिलाओं की संख्या 6.11 करोड़ थी। सीआरएस के 2022 के आंकड़ों पर सामाजिक चिंतक इला गोस्वामी कहती हैं, ‘संभव है ये आंकड़े पूरी तरह सत्य न हों। कुछ खामियां हों, जो संभवत: ऐसे सर्वे में रहती हैं । किंतु, यदि ये सही हैं तो भविष्य में एक गंभीर सामाजिक अंसतुलन की ओर इशारा कर रहे। इतनी गिरावट तो कन्या भ्रूण हत्या के बिना शायद संभव नहीं है। हालांकि, इसकी कल्पना अभी बेमानी ही होगी। वैसे, अगली जनगणना में सब कुछ साफ हो जाएगा।’
दिसंबर 2024 में केंद्र स्वास्थ्य मंत्रालय की स्वास्थ्य प्रबंधन सूचना प्रणाली 2023-24 की रिपोर्ट में भी बिहार में घटते सेक्स रेशियो पर चिंता जाहिर की गई थी। बिहार इस संदर्भ में सबसे खराब प्रदर्शन करने वालों राज्यों में शामिल था। इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार में जन्म के समय लिंगानुपात प्रति एक हजार पुरुषों पर 882 था, जबकि 2022-23 में यह 894 तथा 2021-22 में 914 था। 2023-24 के आंकड़ों के अनुसार बिहार के वैशाली जिले में तो यह अनुपात 800 से भी नीचे था।
-मनीष सिंह
विलियम बोइंग का सपना था-शानदार इंजीनियरिंग कम्पनी बनाना। जो एविएशन के मायने बदल दे।
1916 में उन्होंने जो कम्पनी बनाई, उसने सचमुच एविएशन को बदल दिया।
00
सुंदर, किफायती, सुरक्षित, उड़ाने मे आसान एयरक्राफ्ट बनाकर बोइंग ने, कमर्शियल एयरलाइन बिजनेस को वो रूप दिया, जो हम देखते हैं।
अब साधारण लोग उड़ सकते है। दूर देश आ-जा सकते हैं। पर्यटन, होटल, व्यवसाय, एमएनसी जैसी नए जमाने मे पले बढ़े सेक्टर, बोइंग के कर्जदार है।
हजारों प्लेन्स, कई मॉडल और दुर्घटना रहित उड़ान सबसे सुरक्षित रिकार्ड बोइंग का था।यह रुतबा उसका 20 सदी में कोई छीन नही सका।
कहानी इसके बाद बदलती है।
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बोइंग विमान बनाती है।
जो इंजीनियरिंग है। तो बोइंग में इंजीनियर ही किंग था। बोल्ड था, मुखर था, परफेक्शनिस्ट था। उसकी सुनी जाती, मानी जाती। मोटी तनख्वाह थी, सो महंगा भी था।
ये कल्चर बोइंग ने दशकों में विकसित किया था। तो कई-कई बिलियन्स के विमान बेचकर भी, उसका मुनाफा सीमित होता था।
रिसर्च और डेवलपमेंट में पैसा पानी की तरह बहता।
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1990 के दशक में यूरोप में एयरबस कम्पनी आयी। नए फीचर्स, कम्प्यूटराइज्ड कॉकपिट, मॉर्डन, सेफ प्लेन्स देने लगी। बोइंग को तगड़ा कम्पटीशन मिला। उसने मार्किट शेयर बढ़ाने को नई रणनीति बनाई।
अमेरिका में एक प्रतिद्वंद्वी था। मैकडोनल्ड डगलस और बोइंग, एक जमाने मे कोक और पेप्सी की तरह राइवल थे। लेकिन फिर, ष्ठष्ट बहुत पीछे रह गया।
उसने युद्धक विमानों पर फोकस किया। खूब पैसे बनाए। थोड़ा बहुत कमर्शियल एयरलाइनर बनाने में भी हाथ था। 1996 में बोइंग ने इसी मैकडोनल्ड डगलस से मर्जर कर लिया।
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मर्जर कुछ इस तरह हुआ कि नई विशाल बोइंग कम्पनी का चेयरमैन, डगलस का सीईओ बना।
अब अच्छे दिन आ गए।
बोइंग का मुनाफा तेजी से बढऩे लगा। शेयर प्राइज बढऩे लगे। इन्वेस्टर भर भर कर पैसे लगाने लगे। कम्पनी का वैल्यूएशन इतना बड़ा हो गया कि कई देशों के जीडीपी पीछे छूट जाएं।
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मुनाफा बढ़ा नए मैनेजमेंट की कॉस्ट कटिंग से, टैक्स मैनेजमेंट से, आउट सोर्सिंग से। अब डीसी का मैनेजर कल्चर, बोइंग के इंजीनियर कल्चर पर हावी था।
कम्पनी का हेडक्वार्टर सियेटल से 1000 किमी दूर, अन्य स्टेट में जाया गया, क्योकि सियेटल में टैक्स ज्यादा थे। इससे मेन प्लांट और मैनेजमेंट की दूरी बढ़ गयी।
कॉस्ट कटिंग के लिए सप्लाई ठेकों में तगड़ा नेगोशिएशन करके कम्पनी के पैसे बचाये गए। लेकिन मिलने वाले उपकरणों की गुणवत्ता घट गई।
दसियों हजार ‘महंगे’ इंजीनियर नौकरी से निकाल दिए गए। ये अनुभवी लोग थे। इनकी जगह रूक्च्र मैनजरों ने ली।
मैनजर होशियार थे। हर काम सस्ते में काम कराना आता था।
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सबसे गजब था- ग्लोबल आउटसोर्सिंग।
चक्का बने जापान में, उसका नट जर्मनी में, बोल्ट इटली से आये। लागत में जबरजस्त कमी। बस, इसे अमेरिका में असेंबल करना था। अगर थोड़ा नाप जोख का फर्क आया तो की फर्क पेंदा ए।
ठोक पीट कर मैनेज करो, जोड़ो, बेच दो। पैसा ही पैसा। बोइंग के मैनजेमेंट और इन्वेस्टर मालामाल हो गए।
80 साल पहले विलियम बोइंग ने इतने पैसे की कल्पना भी न की थी।
00
और फिर बोइंग में तकनीकी खराबियों की शिकायतें आने लगीं। कभी कोई प्रणाली काम करना बंद कर देती, कभी कोई सिस्टम फाल्ट करता।
कई नए सिस्टम्स क्र&ष्ठ के बाद, पूरी तरह सुरक्षा मानकों पर कसे नहीं गए। लेकिन मार्केटिंग तगड़ी थी। 737, 747, ड्रीमलाइनर, मैक्स.. धकाधक बिके।
लेकिन शिकायतें बढ़ी, बिक्री पर असर पड़ा। विमान वापस मंगाना, सुधार करना बढ़ता गया।
फिर बोइंग क्रैश भी होंने लगे।
-प्रदीप सुरीन
क्या आप जानते हैं कि एविएशन कवर करने वाले ज़्यादातर पत्रकार एयर इंडिया से यात्रा करने को सबसे लास्ट ऑप्शन रखते हैं। पिछले पंद्रह सालों में (जब से मैंने एविएशन कवर करना शुरु किया) मेरी भी सबसे लास्ट चॉइस एयर इंडिया ही रही।
ये जो आज अहमदाबाद में बोइंग 787 ड्रीमलाइनर क्रैश हुआ इससे कोई भी पुराना एविएशन रिपोर्टर हैरान नहीं है। बस ये घटना इतने सालों बाद क्यों हुआ ये मेरे लिए सरप्राइज़ था।
एयर इंडिया में बोइंग 787 ड्रीमलाइनर आने के दो साल बाद ही इसके महँगे मेंटेनेंस को लेकर सवाल उठने लगे थे। पायलटों की हड़ताल और एयर इंडिया के खस्ताहाल के बीच जो सबसे हैरानी वाली बात निकलकर आई थी, जिसे कोई पत्रकार हिम्मत करके भी नहीं छाप पाया था वो ये है कि एयर इंडिया की इंजीनियरिंग टीम ने एक रिपोर्ट तैयार की थी जिसमें साफ लिखा गया था कि कंपनी के पास अपने एयर क्राफ्ट्स के नए स्पेयर पार्ट्स खरीदने तक के पैसे नहीं है। और कई सालों तक तो पुराने घिसे पिटे पार्ट्स को ठीक करके ही प्लेन उड़ाए गए। शायद आज भी वैसा ही हो रहा है।
पिछले दो दशकों में ऐसी कई घटनाएँ हुई जिसमें आम यात्रियों को ये बोला जाता रहा कि कुछ टेक्निकल कारणों से एयर इंडिया की फ़्लाइट रद्द हो गई है। लेकिन एयर इंडिया के पायलट और इंजीनियर दोस्त बताते रहे कि फटे-पुराने टायरों या फिर घटिया स्पेयर पार्ट्स की वजह से प्लेन नहीं उड़ पाए।
मुझे ये बताने में बिल्कुल भी हिचक नहीं है कि जब भी मुझे मजबूरन एयर इंडिया की फ़्लाइट लेनी पड़ी मैंने हर फ्लाइट से पहले प्लेन के टायरों की तरफ देखा कि कहीं ये घिसे हुए तो नहीं हैं?
2013 में मैंने अपनी आखिरी बार बोइंग 787 ड्रीमलाइनर में दिल्ली से लंदन तक की यात्रा की। लेकिन उस वक्त भी प्लेन की हालत बेहद खराब थी। इंजन काफी वाइब्रेट कर रहे थे और लैंडिंग इतनी हार्ड थी कि लगा नेपाल के किसी थर्ड हैंड फ्लाइट में सफर कर रहे हों।
अब सवाल ये है कि अहमदाबाद की घटना क्यों हुई और जिम्मेदार कौन?
तो इसे सीधे शब्दों में समझिए। सरकार एयर इंडिया बेचना चाहती थी और ये टाटा समूह को ही बेचना चाहती थी। रतन टाटा की दिली ख्वाहिश भी थी कि एयर इंडिया एक बार फिर टाटा समूह के पास आ जाए। लेकिन अगर एयर एशिया और सिंगापोर एयरलाइंस के पेंच को हटा भी दें तो भी टाटा की मैनेजमेंट एयर इंडिया की खस्ताहाल की वजह से इसे खरीदने से कतराती रही। मौजूदा सरकार ने एक तरह से जबरन करोड़ों रुपए के रीबेट के साथ एयर इंडिया को टाटा समूह की झोली में डाल दिया।
बाढ़, लू और चक्रवात जैसी चरम मौसमी घटनाएं अब भारत में पहले से कहीं ज्यादा हो रही हैं। जिसका नकारात्मक प्रभाव लोगों के स्वास्थ्य, देश के विकास और अर्थव्यवस्था पर सीधे पड़ रहा है।
डॉयचे वैले पर मुरारी कृष्णन का लिखा-
पिछले हफ्ते, दिल्ली के रिसर्च इस्टिट्यूट, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने भारत के पर्यावरण पर अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी की। जिसमें दिखाया गया है कि चरम मौसमी घटनाएं देश की बड़ी आबादी को किस तरह प्रभावित कर रही हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले साल भारत में चरम मौसम संबंधी घटनाओं के कारण लगभग 3,000 लोगों की मौत, 20 लाख हेक्टेयर फसल बर्बाद और 80,000 से अधिक घर तबाह हो गए। यह भी सामने आया कि 2024 के 88 फीसदी दिनों में भारत के किसी ना किसी हिस्से में चरम मौसमी घटनाएं घट रही थीं। वर्तमान में पूरा उत्तर भारत भीषण गर्मी से जूझ रहा है और ऐसी गर्मी के दिन आने वाले सालों में और बढऩे की आशंकाएं हैं।
सीएसई की निदेशक, सुनीता नारायण ने डीडब्ल्यू को बताया कि यह रिपोर्ट भारत में नीति बनाने वालों के लिए एक चेतावनी है। उन्होंने कहा, ‘यह रिपोर्ट बेहद अहम है क्योंकि यह दिखाती है कि हमें अब पर्यावरण के लिए और सजग प्रशासन, बेहतर स्वास्थ्य सेवा और जलवायु नीतियों की जरूरत है, ताकि इन समस्याओं का डट कर सामना किया जा सके।’ कुछ शहरों ने गर्मी से बचने के लिए कदम उठाए हैं लेकिन गर्मी की तीव्रता को देखते हुए इन्हें पर्याप्त नहीं कहा जा सकता।
वायु प्रदूषण, गर्मी और बाढ़
दुनिया में सबसे खराब वायु गुणवत्ता स्तर अक्सर भारत के शहरों में ही दर्ज किए जाते हैं। रिपोर्ट के अनुसार, 2021 से अब तक दिल्ली समेत भारत के 13 शहरों में हर तीन में से एक दिन लोगों को प्रदूषित और असुरक्षित हवा में सांस लेना पड़ता है। विभिन्न अध्ययनों में पाया गया है कि वायु प्रदूषण के कारण दिल्लीवासियों का जीवन औसतन लगभग आठ साल घट जाता है।
हालांकि भारत में अप्रैल से लेकर जून तक का महीना पारंपरिक रूप से गर्म ही होता है, लेकिन पिछले एक दशक में गर्मी की तीव्रता खतरनाक तरीके से बढ़ी है। इसके साथ-साथ बारिश और बाढ़ की तीव्रता भी साफ तौर पर बढ़ी हैं।
सीएसई की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की लगभग 80 फीसदी आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है, जो हीटवेव या गंभीर बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील हैं। जिसका मतलब हुआ कि देश की एक बड़ी आबादी लगातार जलवायु खतरों की चपेट में रहती है।
अंतरराष्ट्रीय विकास संगठन, आईपीई ग्लोबल के जलवायु परिवर्तन और सस्टेनेबिलिटी विभाग के प्रमुख, अबिनाश मोहंती ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘यह रिपोर्ट एक असहज सच्चाई को उजागर करती है। भारत इस समय एक तूफान के केंद्र में है। जहां जलवायु अराजकता, स्वास्थ्य संकट और विकास की कमी एक साथ भारत पर हावी हो रहे हैं।’
मोहंती ने बताया कि यह रिपोर्ट आईपीई ग्लोबल की 2024 की स्टडी के निष्कर्षों की भी पुष्टि करता है। जिसमें पता चला था कि भारत के 80 फीसदी जिले चरम मौसमी घटनाओं के प्रति संवेदनशील हैं।
उन्होंने कहा, ‘यह केवल एक आंकड़ा नहीं है बल्कि वास्तविक संकट है, जो हमारे सामने खड़ा है।’ उन्होंने बताया कि अगर भारत को इस संकट का सामना करना है, तो विकास मॉडल को दोबारा नए ढंग से बनाने और लागू करने की जरूरत होगी ताकि बढ़ते तापमान, जैव विविधता में आ रही गिरावट और पानी के संकट से निपटा जा सके।
उन्होंने यह भी कहा, ‘अगर आज हमने कोई ठोस कदम नहीं उठाया, तो कल को इस संकट को टालना नामुमकिन हो जाएगा।’
-अली हुसैनी
अफगानिस्तान में तालिबान सरकार की आलोचना करने वाले कई धार्मिक विद्वानों को पिछले कुछ हफ्तों से गिरफ्तार करने का सिलसिला जारी है।
गिरफ्तार होने वालों में से कुछ ‘इस्लामी और जिहादी मूल्य का समर्थन’ नाम की काउंसिल के मेंबर हैं। इस काउंसिल ने जनवरी में काबुल में एक बैठक के दौरान तालिबान सरकार की तीखी आलोचना की थी।
हाल की रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले हफ्ते दो अज्ञात बंदूकधारी उलेमा को अग़वा कर अनजान जगह पर ले गए थे।
इन धार्मिक विद्वानों के रिश्तेदारों को लगता है कि उन्हें तालिबान की ख़ुफिय़ा एजेंसियों ने पकड़ा है।
एजेंसी ने मीडिया को कोई जवाब नहीं दिया और न ही यह पता है कि इस दावे पर उसका क्या कहना है।
तालिबान सरकार के प्रवक्ता ने अभी तक हाल की गिरफ़्तारियों के बारे में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।
अब किन लोगों की गिरफ़्तारी हुई है?
उन उलेमा में से एक मौलवी अब्दुल कादिर हैं जो काबुल में उलेमा काउंसिल के पूर्व प्रमुख हैं और जिन्हें तीन बार गिरफ्तार किया जा चुका है।
लगभग एक हफ्ते पहले आम लिबास में कई बंदूकधारियों ने उन्हें और उनके बेटे को काबुल में उनके घर से अग़वा कर लिया था। बताया गया है कि उनका बड़ा बेटा गिरफ्तारी के डर से फरार हो चुका है।
चार दिन पहले इस काउंसिल के एक और सदस्य और अब्दुल कादिर के दोस्त सिराजुद्दीन नबील को गिरफ़्तार किया गया था। मौलवी बशीर अहमद हनफी इससे पहले गिरफ़्तार हो चुके थे।
कुछ सूत्रों ने बीबीसी को बताया कि तालिबान सरकार की एक अदालत ने हनफी को कई माह कैद की सजा सुनाई और दो साल के लिए उनकी यात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया है।
हनफी पर आम लोगों की राय बिगाडऩे और उन्हें प्रशासन के खिलाफ उकसाने जैसे आरोप हैं।
इन सूत्रों ने सुरक्षा कारणों से नाम न बताने की शर्त पर जानकारी दी कि हनफी को मिस्र से वापसी के एक दिन बाद गिरफ्तार किया गया था।
बशीर अहमद हनफी तालिबान की ‘इस्लामी इमारत (राज्य)’ का बचाव करते हैं और महिलाओं और लड़कियों की शिक्षा के अधिकार पर लगे प्रतिबंधों की आलोचना करते हैं।
उनके मुताबिक, ‘अगर अफगान लड़कियों को इस्लामी सिद्धांतों के साथ स्कूलों में शिक्षा नहीं दी जाती तो दुश्मन उन्हें गैर इस्लामी दृष्टिकोण से शिक्षा देगा।’
उन्होंने कहा, ‘मजहब, लोग, शरीअत और इस्लाम की शिक्षा कहती है कि स्कूलों के दरवाजे हमारे कायदे-कानून के मुताबिक खोले जाएं।’
हाल में तीन धार्मिक विद्वानों की गिरफ़्तारी के अलावा एक विश्वसनीय सूत्र ने बीबीसी को बताया कि तालिबान सरकार अब तक कई दूसरे उलेमा को भी हिरासत में ले चुकी है।
उनमें मौलवी अब्दुल कादिर, मौलवी महमूद हसन, मौलवी अब्दुल अजीज शुजा, मौलवी अब्दुल फत्ताह फाइक, मौलवी अब्दुल शकूर, मौलवी बशीर अहमद हनफी और मौलवी सिराजुद्दीन नबील शामिल हैं।
सूत्रों के मुताबिक उनमें से कुछ को कई बार गिरफ्तार किया जा चुका है। इन सूत्रों का कहना है कि तालिबान सरकार की आलोचना करने वाले धार्मिक विद्वानों की गिरफ्तारियां इसी आलोचना की वजह से की जा रही हैं।
मौलवी अब्दुल क़ादिर ने मीडिया आउटलेट ‘अफगानिस्तान पॉलिटिक्स’ से बातचीत में कहा कि अफगानिस्तान की जनता के अधिकारों का किसी न किसी तरह हनन किया गया है।
उन्होंने तालिबान सरकार से मांग की है कि महिलाओं को शिक्षा हासिल करने और नौकरी करने का अधिकार दिया जाए।
उन्होंने कहा कि तालिबान को ऐसे कदम उठाने से बचना चाहिए जो आम लोगों को दीन (धर्म) से दूर करने की वजह बनें।
मौलवी महमूद हसन पिछली सरकार में हज और वकफ विभाग के प्रांतीय प्रमुख रह चुके हैं। वह उन धार्मिक विद्वानों में शामिल हैं, जिन्हें तालिबान सरकार की इंटेलिजेंस एजेंसी ने हिरासत में लिया है। वह एक ऐसे धार्मिक नेता हैं जो तालिबान की सरकार चलाने की शैली की आलोचना करते आए हैं।
एक सभा में तालिबान को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘इंसाफ को बुनियाद बनाएं। सभी क़ौमों और क़बीलों को एक छतरी के नीचे लाएं और जनता को उनके अधिकार दें।’
‘सरकार सबकी होनी चाहिए। उसे कंधार तक सीमित न रखें बल्कि दूसरे राज्यों तक विस्तार दें। अफगानिस्तान के दूसरे इलाकों के लोग भी इस देश का हिस्सा हैं।’
मौलवी अब्दुल अजीज शुजा का संबंध तख़ार से है और वह एक मस्जिद के इमाम भी रहे हैं। उन्हें एक सभा में भाषण के बाद गिरफ़्तार किया गया।
हिरासत में रखे गए एक आलिम (विद्वान) के रिश्तेदार ने बीबीसी को बताया, ‘गिरफ्तारी के दौरान सशस्त्र बलों के अधिकारियों का रवैया क्रूर और अपमानजनक था। वह धार्मिक विद्वान को इंटेलिजेंस के दफ्तर ले गए, जहां उनसे दर्जनों पन्नों पर लिखे सवालों के जवाब मांगे गए।’
उनके घर वालों के अनुसार इंटेलिजेंस एजेंसी ने उन पर विदेशी संस्थाओं से संपर्क रखने और अमरुल्लाह सालेह व विरोधी धड़े के नेताओं के समर्थन का आरोप लगाया। उनसे उन संस्थाओं के नाम भी पूछे गए।
उनके रिश्तेदार ने बताया कि तालिबान अधिकारियों ने उन्हें एक विद्रोही बताया ‘जिसने इस्लामी इमारत (राज्य) के खिलाफ बगावत की और ‘अमीरुल मोमिनीन’ (मुसलमानों के प्रमुख) का अपमान करके गद्दारी की है।’
इस शख्स ने बातचीत के आखिर में बताया कि तालिबान के एक वरिष्ठ नेता ने बाद में उन्हें माफ कर दिया।
-प्रमोद भार्गव
संदर्भ: जिनेवा स्थित आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र की पिछले एक दषक के जारी आंकड़ों के अनुसार बेघर हुए लोग
दुनिया में प्राकृतिक आपदाओं के कारण पिछले एक दषक 2015 से 2024 के दौरान आंतरिक विस्थापन के कारण पर्यावरण शरणार्थियों की संख्या में बढ़ी वृद्धि दर्ज की गई है। इस कारण कुछ क्षेत्रों में अपेक्षाकृत अनेक बार प्राकृतिक आपदा के तीव्र और व्यापक खतरे उत्पन्न हुए। परिणामस्वरूप 210 देषों में 26.48 करोड़ लोगों को आंतरिक विस्थापन झेलना पड़ा है। जो न केवल एक रिकॉर्ड के रूप में सर्वाधिक है, बल्कि 2.65 करोड़ के दषकीय औसत से कहीं अधिक है। इस मामले में पूर्व और दक्षिण एशिया सबसे अधिक प्रभावी क्षेत्र रहे। देशों के स्तर पर बीते एक दशक में चीन, फिलीपींस, भारत, बांग्लादेश और अमेरिका में दर्ज विस्थापन के आंकड़े सबसे ज्यादा हैं। चीन में 4.69 और फिलीपींस में 4.61 करोड़ लोगों को अपने ही देष में विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा है। इसी कालखंड में भारत में बाढ़, तूफान और भू-स्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं के चलते 3.23 करोड़ लोगों को आंतरिक विस्थापन का संकट उठाना पड़ा है। किसी देश के अंदर विस्थापित होने वाले लोगों की संख्या के लिहाज से चीन और फिलीपींस के बाद भारत विष्व में तीसरे स्थान पर हैं। जिनेवा स्थित आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र (आईडीएमसी) की एक नई रपट में यह दावा किया गया है।
रपट के मुताबिक वैष्विक स्तर पर 90 फीसदी आपदा जनित विस्थापन बाढ़ और तूफान का परिणाम रहा है। सबसे ज्यादा तूफान के कारण 12.09 करोड़ लोगों को विस्थापन की परेषानी उठानी पड़ी है। इसी अवधि में बाढ़ के कारण 11.48 करोड़ लोगों का विस्थापन हुआ। वर्ष 2020 में वैश्विक स्तर पर समुद्री तूफान से हुए लोगों के विस्थापन में ‘अंफान’ सहित अन्य चक्रवातों की हिस्सेदारी 92 प्रतिशत रही। इस रिपोर्ट के अनुसार गरीब और निर्बल सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। उन्हें बार-बार और लंबे समय तक पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा है। सामाजिक असमानता और आर्थिक विसंगति के कारण इन लोगों को इन प्राकृतिक आपदाओं का भीशण संकट झेलना पड़ा है। जलवायु परिवर्तन के कारण दुनियाभर में हर साल औसतन 3 करोड़ लोगों को समुद्र और नदी तटीय बाढ़, सूखा और चक्रवती तूफानों के चलते भविश्य में भी ऐसी आपदाओं से विस्थापन का संकट झेलना होगा। यानी पर्यावरण शरणार्थियों की संख्या भविष्य में और विकराल रूप में पेश आएगी।
जलवायु विषेशज्ञों का मानना है कि इस विराट व भयानक संकट के चलते यूरोप, एशिया और अफ्रीका का एक बड़ा भूभाग इंसानों के लिए रहने लायक ही नहीं रह जाएगा। तब लोगों को अपने मूल निवास स्थलों से जिस पैमाने पर विस्थापन या पलायन करना होगा,वह मानव इतिहास में अभूतपूर्व होगा। इस व्यापक परिवर्तन के चलते खाद्यान्न उत्पादन में भारी कमी आएगी। अकेले एशिया में कृषि को बहाल करने के लिए हर साल पांच अरब डॉलर का अतिरिक्त खर्च उठाना होगा। बावजूद इसके दुनिया के करोड़ों लोगों को भूख का अभिशाप झेलना होगा। प्रकृति के अंधाधुंध दोहन के दुष्परिणामस्वरूप दुनियाभर में प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं।
विज्ञान पत्रिका ‘साइंस‘ में प्रकाषित अध्ययन में कहा गया है कि यदि वैष्विक तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो हिंदू कुष हिमालय के हिमखंडो की बर्फ इस सदी के अंत तक 75 प्रतिषत तक पिघल जाएगी। हिंदू कुश पर्वत के ये ग्लेशियर कई नदियों के उद्गम स्थल हैं और ये नदियां 2 अरब लोगों की आजीविका का साधन बनती हैं। यदि दुनिया के देश इस तापमान वृद्धि को पूर्व औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर सकें तो हिमालय और काकेशस पर्वत में स्थित हिमनदों की बर्फ 40 से 45 प्रतिशत सुरक्षित रह सकती है। इसके विपरीत यदि इस सदी के अंत तक दुनिया 2.60 डिग्री सेल्सियस गर्म होती है तो वैश्विक स्तर पर ग्लेशियर की बर्फ का केवल एक चौथाई हिस्सा ही बचेगा।
अध्ययन में कहा है कि मानव समुदायों के लिए सबसे अहम ग्लेशियर क्षेत्र जैसे कि यूरोपियन आल्प्स, पश्चिमी अमेरिका और कनाडा की पर्वत श्रृंखलाएं एवं आइसलैंड बुरी तरह से प्रभावित होंगे। दो डिग्री सेल्सियस तक तापमान पर यह क्षेत्र अपनी समूची बर्फ खो सकते हैं और 2020 के स्तर पर केवल 10-15 प्रतिशत ही बर्फ बची रह पाएगी। स्कैंडिनेविया पर्वत का भविष्य और भी भयावह हो सकता है, क्योंकि इस स्तर के तापमान में वहां के ग्लेशियरों पर बर्फ बचेगी ही नहीं। 2015 के पेरिस समझौते के द्वारा निर्धारित 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य तक तापमान को सीमित करने से सभी क्षेत्रों में कुछ ग्लेशियर पर बर्फ को संरक्षित करने में मदद मिलेगी। ये हालात मानव जीवन को अभूतपूर्व रूप में प्रभावित कर खतरे में डाल देंगे। इस कारण अकेले एशिया में 2 अरब लोगों को आजीविका का संकट झेलना पड़ सकता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि 2050 तक दुनिया भर में 25 करोड़ लोगों को अपने मूल निवास स्थलों से पलायन को मजबूर होना पड़ सकता है। जलवायु परिवर्तन की मार मालदीव और प्रषांत महासगर क्षेत्र के कई द्वीपों के वजूद को पूरी तरह लील होगी। इन्हीं आशंकाओं के चलते मालदीव की सरकार ने पर्यावरण संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण पहल करते हुए चर्चा के लिए समुद्र की गहराई में बैठकर औद्योगिक देशों का ध्यान अपनी ओर खींचा था ताकि ये देष कार्बन उत्सर्जन में जरूरी कटौती कर दुनिया को बचाने के लिए आगे आएं।
सीटू तिवारी
बिहार में फर्जी थाने से जुड़ी ये पहली घटना नहीं है। इससे पहले साल 2022 में बांका जिले में भी एक ऐसा ही मामला सामने आया था जिसमें दरोगा से लेकर चौकीदार तक सभी फर्जी थे। साल 2024 में जमुई के सिकंदरा थाना क्षेत्र से एक फर्जी आईपीएस भी पकड़ा गया था।
बिहार के पूर्णिया जिले में फर्जी थाना खोलकर नौकरी देने के नाम पर ठगी का मामला सामने आया है। ये मामले जिले की मोहनी पंचायत में सामने आया है जहां पर आरोप है कि थाने का कैंप ऑफि़स बनाकर कथित ट्रेनिंग और नौकरी दिलाने के नाम पर ठगी की गई।
यह कथित ट्रेनिंग बिहार ग्राम रक्षा दल और होम गार्ड में नौकरी दिलाने के नाम पर दिसंबर 2024 से जनवरी 2025 के बीच हुई।
हालांकि पूर्णिया एसपी कार्तिकेय के। शर्मा ने बीबीसी से कहा, ‘फर्जी थाने जैसा कोई मामला नहीं है। पंचायती राज विभाग के अंतर्गत ग्राम रक्षा दल की 30 दिन की ट्रेनिंग दी जाती है। मुख्य अभियुक्त राहुल कुमार साह इसी बिहार ग्राम रक्षा दल से जुड़ा है।’
कार्तिकेय के। शर्मा के मुताबिक़, ‘राहुल ने कुछ लोगों से नौकरी दिलाने के नाम पर ठगी की है। अभी तक हमें ऐसी 25 शिकायतें मिली हैं। इस पूरे मामले में स्थानीय मुखिया की भूमिका की भी जांच हो रही है।’
क्या है मामला?
बिहार में पूर्णिया जि़ले के कसबा थाना क्षेत्र में मोहनी नाम की पंचायत के मध्य विद्यालय, बेतौना में दिसंबर 2024 में बिहार राज्य दलपति एवं ग्राम रक्षा दल का एक बैनर लगाकर एक महीने की कथित ट्रेनिंग दी गई।
बिहार ग्राम रक्षा दल एवं दलपति ग्रामीण इलाक़ों में किसी भी आपात स्थिति में काम करते हैं। इसमें 18 से 30 साल के नौजवानों को रखा जाता है जो आग लगने, बाढ़ आने, महामारी, शांति बनाए रखने, भीड़ को व्यवस्थित करने आदि के लिए काम करते है।
इसी ट्रेनिंग को पूरा कर चुके युवक-युवतियों ने अब नौकरी के नाम पर ठगी किए जाने की शिकायत की है।
बीबीसी ने इस संबंध में ठगी का सामना करने वाले कई शिकायतकर्ताओं से बात की है।
23 साल की संजना कुमारी बी। कॉम की पढ़ाई कर रही हैं। उन्होंने भी कसबा थाने में शिकायत दर्ज कराई है।
संजना बताती हैं, ‘तकरीबन नौ महीने पहले हमसे डेढ़ हज़ार रुपये लिए गए थे। हम कुछ दिन स्कूल (मध्य विद्यालय, बेतौना) में ट्रेनिंग लेने भी गए थे। राहुल ने कहा था कि अगर ग्राम रक्षा दल को मान्यता मिल जाती है तो हम सबको सरकारी नौकरी मिल जाएगी। लेकिन अब तो राहुल फऱार हैं।’
एक अन्य महिला ने बताया, ‘हम उनको एनसीसी से जानते हैं और भाई मानते थे। पिछले एक साल से उसने कऱीब 300 लोगों को ठगा है। उसने सरकारी स्कूल में थाना बनाया और दारोगा बनकर घूमता था जबकि उसने ग्रेजुएशन भी नहीं किया है।’
‘उसने मेरी मम्मी को भी वर्दी दी और कहा कि सरकारी नौकरी हो गई है। लेकिन मम्मी को एक बार भी सैलरी नहीं मिली। वर्दी में बीजीआरडी (बिहार ग्राम रक्षा दल) लिखा है। वो दस से पंद्रह हज़ार रुपये मांगता था और कहता था कि 22 हज़ार रुपये सैलरी मिलेगी। उसने मुझे भी ज्वाइन करने को कहा था लेकिन मुझे संदेह हो गया।’
कई लोगों का दावा है कि राहुल ने भागलपुर, सुपौल, पूर्णिया, कटिहार सहित कई जिलों के नौजवानों को नौकरी के नाम पर ठगा है।
एक व्यक्ति नरेश कुमार राय बताते हैं, ‘बेरोजग़ारी में हमने ग्राम रक्षा दल का फ़ॉर्म भरा था, जिसके बाद हमें राहुल का फ़ोन आया कि हमारा चयन हो गया है। हमने कज़ऱ्ा लेकर उसे पहले डेढ़ हज़ार रुपये और उसके बाद ढाई हज़ार रुपये दिए थे। उसने कहा था कि नौकरी मिल जाएगी लेकिन वो बाद में धमकाने लगा।’
कसबा थाने की ‘मोहनी’ ब्रांच
स्थानीय पत्रकार सैयद तहसीन अली बताते हैं, ‘बेतौना में एक उप स्वास्थ्य केन्द्र की बिल्डिंग में एक तरफ स्कूल चलता है जबकि दूसरी तरफ एक छोटी बिल्डिंग ख़ाली पड़ी है। राहुल ने इस खाली पड़ी बिल्डिंग को ही थाना बना लिया था।’
‘ये एक तरह से कसबा थाने की मोहनी (पंचायत) ब्रांच थी जिसमें पुलिस की वर्दी में बैठकर वो बेरोजगारों को ठगता था। गांव वालों और लोगों पर रौब दिखाने के लिए वो पुलिस वालों के साथ सेल्फी लेकर सोशल मीडिया पर डालता था।’
करीब 25 साल के राहुल कुमार साह के बारे में इतनी जानकारी मिल पाई है कि वो एनसीसी कैडेट रहा है और उनका ज़्यादातर लोगों से एनसीसी के जरिए ही संपर्क हुआ था।
राहुल ने दिसंबर 2024 मध्य विद्यालय, बेतौना में बिहार राज्य दलपति एवं ग्राम रक्षा दल का बैनर लगाया था। इस बैनर की जो तस्वीरें अभी उपलब्ध हैं, उसमें इसके नीचे कसबा थाना लिखा है।
राहुल ने ही ख़ाली पड़े स्कूल में एक महीने की ट्रेनिंग कराई और 26 जनवरी 2025 को कथित ट्रेनिंग पूरी होने पर मोहनी के मुखिया श्यामसुंदर उरांव को बाकायदा अतिथि के तौर पर बुलाया था।
श्यामसुंदर उरांव ने कथित ट्रेनिंग पूरी कर चुके युवक युवतियों को सम्मानित किया। राहुल कुमार साह ने बाकायदा इस ट्रेनिंग के बाद पहचान पत्र बांटा।
श्यामसुंदर उरांव ने बीबीसी को बताया, ‘मुझको कुछ भी मालूम नहीं था। राहुल आया और ट्रेनिंग दिया। हमको लगा थाने को मालूम होगा। वो लडक़े लड़कियों की तीन घंटे ट्रेनिंग करवाता था। हम मुखिया हैं, हमको कोई भी किसी समारोह में बुलाएगा तो हम जाएंगे।’
क्या स्कूल में इस तरह की गतिविधि की इजाज़त थी? इस पर वो कहते हैं, ‘गांव के स्कूल के टीचर उससे बार बार कैंप लगाने के बारे में सरकारी पत्र मांगते रहते थे, लेकिन राहुल ने कभी दिया नहीं। वह बार-बार ये कहकर टाल जाता था कि पटना से आ रहा है। बाकी पूरी ट्रेनिंग के दौरान ऐसा कुछ हुआ नहीं कि शक हो।’
राहुल कुमार साह फरार हैं और मुखिया श्यामसुंदर उरांव की भूमिका की जांच भी पुलिस कर रही है।
-प्रियंका
भारत में 16 साल बाद जनगणना होने जा रही है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बीते बुधवार को बताया था कि एक मार्च, 2027 जनगणना की रेफऱेंस डेट होगी।
पहली बार देश में डिजिटल जनगणना होने जा रही है और आज़ाद भारत में पहली बार जातियों की गणना भी इसमें शामिल की जाएगी।
केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से जारी बयान के अनुसार जनगणना दो चरणों में कराई जाएगी।
पहले चरण में केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख़ और जम्मू-कश्मीर के साथ ही हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड राज्यों के बफऱ्ीले इलाक़ों में जनगणना की रेफऱेंस डेट एक अक्तूबर 2026 होगी। दूसरा चरण एक मार्च 2027 से मैदानी इलाक़ों में होगा।
रेफऱेंस डेट वो समय होता है, जिसके लिए आबादी का डेटा इक_ा किया जाता है। हालांकि, सरकार ने अभी तक ये नहीं बताया है कि जनगणना शुरू किस तारीख़ से होगी और ख़त्म किस तारीख़ पर होगी।
क्या होती है जनगणना
देश और यहां रहने वाले लोगों के विकास के लिए, ये जानना ज़रूरी होता है कि देश में रहने वाले लोग कौन हैं। वो किस स्थिति में हैं, कितने पढ़े-लिखे हैं, कौन क्या करता है, कितने लोगों के पास रहने को घर हैं, कितनों के पास नहीं हैं। उनकी सामाजिक स्थिति क्या है। जनगणना इन्हीं सब आंकड़ों को जुटाने की प्रक्रिया है।
किसी देश या क्षेत्र विशेष की आबादी के बारे में जनसांख्यिकीय, आर्थिक और सामाजिक डेटा इक_ा करने, उसके संकलन, विश्लेषण और सार्वजनिक करने को ही जनगणना कहा जाता है।
इसके तहत आबादी की आयु, लिंग, भाषा, धर्म, शिक्षा, व्यवसाय और निवास आदि को लेकर विस्तृत जानकारी जुटाई जाती है। इनका इस्तेमाल नीति बनाने और कल्याणकारी योजनाओं आदि के लिए किया जाता है।
भारत में 1872 से जनगणना हो रही है और आज़ाद भारत में अभी तक ये प्रक्रिया जारी रही।
देरी से क्यों हो रही है जनगणना?
भारत की जनगणना, जनगणना अधिनियम, 1948 के प्रावधानों के तहत की जाती है।
केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत आने वाला ऑफि़स ऑफ़ रजिस्ट्रार जनरल एंड सेंसस कमिश्नर जनगणना करवाता है।
भारत में हर 10 साल के अंतराल पर जनगणना कराई जाती है। पिछली जनगणना 2011 में दो चरणों में की गई थी।
अगली जनगणना 2021 में होनी थी लेकिन कोरोना महामारी की वजह से इसे टाल दिया गया था और अब ये करीब छह साल की देरी से कराई जाएगी।
इस साल एक फरवरी को पेश किए गए बजट में जनगणना के लिए 574।80 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। जबकि साल 2021-22 के बजट में इसके लिए 3 हज़ार 768 करोड़ रुपये का आबंटन किया गया था।
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अब बजट में कटौती के बारे में जानकारी दी है।
केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रवक्ता ने जानकारी दी है, ‘जनगणना का आयोजन 2021 में किया जाना था और जनगणना की सभी तैयारियां पूरी कर ली गई थीं। लेकिन, देशभर में कोविड-19 महामारी के प्रकोप के कारण जनगणना का काम स्थगित करना पड़ा। कोविड-19 का असर काफ़ी समय तक जारी रहा।’
‘जिन देशों ने कोविड-19 के तुरंत बाद जनगणना कराई, उन्हें जनगणना के आंकड़ों की गुणवत्ता और कवरेज से संबंधित समस्याओं का सामना करना पड़ा। सरकार ने जनगणना की प्रक्रिया तत्काल शुरू करने का निर्णय लिया है, जो जनगणना की संदर्भ तिथि अर्थात 01 मार्च, 2027 को पूरी होगी।’
एक्स पर दी जानकारी में कहा गया है, ‘जनगणना के लिए बजट कभी बाधा नहीं रहा है क्योंकि धनराशि आवंटन हमेशा सरकार द्वारा सुनिश्चित किया जाता रहा है।’
इस बार की जनगणना में क्या है अलग?
जनगणना की प्रक्रिया को जल्दी और सुचारू रूप से पूरा करने के लिए पहली बार 2027 की जनगणना डिजिटल माध्यम से होगी।
हालांकि, 1931 से लेकर अब तक की जनगणना में पूछे जाने वाले सवाल लगभग एक से होते हैं। लेकिन एक सवाल जो 1951 से नहीं होता था वो था संबंधित व्यक्ति की जाति से जुड़ा हुआ।
हालांकि, इसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़ी जानकारी होती थी लेकिन अन्य जातियों के बारे में ये जानकारी नहीं दी जाती थी।
मगर इस बार की जनगणना में हर शख़्स को अपनी जाति बताने का विकल्प दिया जाएगा, जिसे एक बड़े बदलाव के तौर पर देखा जा रहा है।
आज़ादी के बाद या 1931 के बाद ये पहली बार है जब जातिगत जनगणना, जनगणना का हिस्सा होगी।
विपक्षी पार्टियों की ओर से लंबे समय से जातिगत जनगणना कराए जाने की मांग हो रही थी। इसी साल अप्रैल महीने में सरकार ने एलान किया था कि अगली जनगणना में जातिगत जनगणना भी शामिल होगी।
बिहार में अपराध और दंबगई के मामले इन दिनों सुर्खियो में है। इलाज के अभाव में बलात्कार पीडि़त दलित बच्ची की मौत के बाद अब मामला एक बलात्कार पीडि़त के मददगार की पिटाई का है, जिसकी जान बड़ी मुश्किल से बची है।
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट-
गया में बीते दिनों बलात्कार के आरोपियों ने उस ग्रामीण चिकित्सक को एक पेड़ से बांध कर पीटा, जो पीडि़ता के घर कथित तौर पर उसकी मां का इलाज करने पहुंचा था। उसे इतना पीटा गया कि वह लहुलूहान हो गया। गांव में कोई उसकी मदद करने नहीं आया। एक बच्ची ने डॉक्टर जीतेंद्र यादव को पिटते देखा तो भाग कर मुख्य सडक़ पर पहुंची और संयोगवश वहां से गुजर रही की पुलिस की गाड़ी को रोक कर इसकी जानकारी दी।
पुलिस को देख बदमाश भाग गए। पुलिसकर्मियों ने उस डाक्टर को मुक्त कराया और फिर पास की क्लिनिक में ले जा कर इलाज कराया। बाद में उसे मेडिकल कॉलेज भेज दिया गया। अब तक मिली जानकारी के मुताबिक बताया गया कि डॉक्टर जीतेंद्र जिस महिला के घर आया था, उस घर की एक बच्ची के साथ साल 2021 में उस गांव के ही तीन-चार लोगों ने बलात्कार किया था। मामला अदालत में है।
पीडि़ता की मां का कहना है कि बलात्कार के आरोपी लगातार मुकदमा वापस लेने का दबाव बना रहे थे। इससे पहले भी मारपीट की थी। कुछ लोगों का कहना है कि आरोपियों को शक था कि डॉ जीतेंद्र मुकदमा लडऩे में पीडि़ता की मां की मदद कर रहे हैं। इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। उसके बाद इस मामले में एक जांच टीम गठित की गई है।
डॉक्टर को पीटे जाने के पहले ही मुजफ्फरपुर जिले में ही रेप के दो मामले को लेकर बिहार की सियासत गर्म थी। विपक्षी दल लगातार एनडीए सरकार पर निशाना साध रहे थे। दलित समुदाय की एक दस साल की बच्ची की बलात्कार के बाद हत्या की कोशिश की गई थी। इस बच्ची की छह दिनों बाद पटना मेडिकल कालेज अस्पताल में मौत हो गई। इसके इलाज मेें लापरवाही की बात को लेकर सरकार की खूब किरकिरी भी हुई। बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी प्रसाद यादव के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर डॉक्टर की पिटाई का पोस्ट डालने के बाद मामले ने तूल पकड़ लिया।
अपराधी की ओर से केस वापस लेने का दबाव
सामाजिक कार्यकर्ता मनिता श्रीवास्तव कहती हैं, ‘बलात्कार करने वाले या उनके सहयोगियों ने जो अपराध किया वह तो है ही, लेकिन उस गांव में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो उन बदमाशों को रोक सकता था।’ पूरा गांव मूकदर्शक बना रहा।
कई बार पुलिस जब किसी को पकडऩे जाती है या फिर कथित तौर पर मनमानी करती है तब तो यही लोग एकजुट होकर उन पर हमला करने या हिरासत में लिए गए व्यक्ति को छुड़ाने में लग जाते हैं।पुलिस ने इस मामले में दस नामजद लोगों में से तीन लोगों को गिरफ्तार कर लिया है। जीतेंद्र के बयान पर इस मामले में तीन महिलाएं भी नामजद की गई है।
आखिर क्यों पुलिस को टारगेट कर रही है बिहार की पब्लिक
दंबगई का यह पहला मामला नहीं है। बीते साल अगस्त में भी मुजफ्फरपुर कोर्ट परिसर में एक बलात्कार पीडि़ता को ही मुकदमा वापस नहीं लेने पर सरेआम पीटा गया था। सडक़ पर गिरी पीडि़ता बचाने की गुहार लगाती रही, लेकिन पूरे परिसर में कोई उसे बचाने नहीं आया। उसके परिजन जब बचाने पहुंचे तो उनके साथ भी मारपीट की गई। पुलिस के आने के बाद ही हमलावर भागे।
इस मामले में आरोपी युवक ने शादी का झांसा देकर लडक़ी का यौन शोषण किया था और शादी का दबाव बनाने पर वह मुकर गया था। इस मामले में जमानत याचिका खारिज होने पर उसके घरवाले और दूसरे आरोपी केस उठाने का दबाव बना रहे थे।
-विकास शर्मा
बस्तर की किस्मत बदलने वाला सपना, जो अधूरा रह गया था
अब फिर से पूरा होता दिख रहा है
छत्तीसगढ़ की बहुप्रतीक्षित बोधघाट परियोजना को लेकर एक बार फिर उम्मीदें जगी हैं। मुख्यमंत्री विष्णु देव साय की पहल पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस परियोजना को दोबारा शुरू करने के प्रस्ताव पर सहमति जताई है। साथ ही महानदी–इंद्रावती नदी लिंक योजना को लेकर भी बातचीत आगे बढ़ी है।
बोधघाट कोई नई बात नहीं है। इसकी योजना 50 साल पहले बनी थी। लेकिन लगातार अटकते-अटकते यह सपना अधूरा रह गया। अब जब फिर से केंद्र से समर्थन मिल रहा है, तो माना जा रहा है कि ये सिर्फ एक बिजली या सिंचाई परियोजना नहीं, बल्कि पूरे बस्तर के विकास की लाइफलाइन बन सकती है।
इंद्रावती नदी पर शुरू हुआ था विचार
1955 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू बस्तर दौरे पर आए थे, तभी इंद्रावती पर पनबिजली संयंत्र का विचार आया। फिर 1970 में पहली रिपोर्ट बनी जिसमें 240 मेगावॉट की क्षमता वाली तीन इकाइयों का प्रस्ताव था। इसके अलावा भविष्?य में नेलगोरा, कुटरू और माजिमेन्द्री जैसे इलाकों में बिजली संयंत्र लगाने की योजना भी थी।
डॉ. नागराजा राव की रिपोर्ट ने यह भी बताया था कि इस इलाके में खनिज और वन आधारित उद्योगों की बड़ी संभावनाएं हैं।
कभी 37 करोड़, अब 29 हज़ार करोड़!
जब योजना बनी थी, तब लागत सिर्फ 37.5 करोड़ रुपये आंकी गई थी। लेकिन फाइलें घूमती रहीं और कीमतें बढ़ती गईं।
1986 तक ये 600 करोड़ हो गई। जब 2020 में इसे मुख्य रूप से सिंचाई परियोजना के रूप में फिर से लाया गया, तब इसकी लागत 22 हज़ार करोड़ थी। अब इसका अनुमानित खर्च 29 हज़ार करोड़ पहुंच चुका है।
विश्व बैंक तक पहुंची थी योजना
लागत बढ़ती देख भारत सरकार ने 1983 में विश्व बैंक से कर्ज लेने की मंजूरी दी। वाशिंगटन तक चर्चा हुई और 1985 में विश्व बैंक ने 300 मिलियन डॉलर देने का फैसला भी कर लिया।
शिलान्यास और शुरुआती काम
1979 में जब पर्यावरणीय मंजूरी मिल गई, तो प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई खुद बारसूर पहुंचे और शिलान्यास किया। एमपी विद्युत मंडल की टीम तैनात हुई। पुल, सुरंग, आवास, हेलीपैड – सबका काम शुरू हो गया था। 53 लाख रुपये देकर 500 हेक्टेयर ज़मीन का अधिग्रहण भी हो चुका था।
-इमरान कुरैशी
भारतीय लेखिका बानू मुश्ताक़ को उनके जिस लघु कथा संकलन ‘हार्ट लैंप’ के लिए इस साल अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से नवाज़ा गया है, वो कि़ताब लगभग 35 विदेशी भाषाओं और 12 भारतीय भाषाओं में पब्लिश होगी।
ये जानकारी ख़ुद बानू मुश्ताक़ ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में दी है। उन्होंने बताया कि 'हार्ट लैंप' पर एक ऑडियो बुक भी बन रही है।
बीबीसी के लिए वरिष्ठ पत्रकार इमरान क़ुरैशी ने बानू मुश्ताक़ से उनके साहित्य के सफऱ और जि़ंदगी की चुनौतियों पर बात की है।
पढि़ए उस लेखिका की कहानी, जिसकी मूल रूप से कन्नड़ में लिखी कि़ताब ने दुनिया में नाम कमाया है।
‘पिता के दोस्त ने कहा था... बहुत किताबें लिखेगी’
बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि शुरू में जब स्कूल में उनका नाम लिखाया गया था, तब वो कुछ भी नहीं सीख पाई थीं। इसकी वजह ये थी कि उनका दाखिला उर्दू मीडियम स्कूल में कराया गया था, जहां का माहौल उन्हें पसंद नहीं था।
इस बारे में बानू मुश्ताक़ कहती हैं, ‘हमारे यहां प्रैक्टिस ऐसी थी कि लडक़ों को कन्नड़ मीडियम में पढ़ाया जाता था और लड़कियों को उर्दू मीडियम स्कूल में, ताकि लड़कियां मज़हबी साहित्य से वाकिफ़ हों और वो घरेलू माहौल में ढल सकें।’
‘जब मेरा नाम उर्दू मीडियम स्कूल में लिखवाया गया, तो पता नहीं क्यों मुझे वो माहौल पसंद नहीं आया। वो टीचर्स भी पसंद नहीं आए। और मैं बिल्कुल भी नहीं पढ़ी। मैं एक साल तक स्कूल जाती रही, लेकिन एक अक्षर तक नहीं सीखा।’
बानू मुश्ताक़ के मुताबिक़ इस बात से उनके पिता बहुत परेशान हुए थे क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि उनकी बेटी कुछ बनेगी।
अपने पिता की इस उम्मीद की वजह के बारे में वो बताती हैं, ‘मेरे अब्बा के बहुत सारे ब्राह्मण दोस्त थे। जब मैं पैदा हुई, तो एक दोस्त ने उनको कुछ लिखकर दिया था, वो मैंने भी पढ़ा है। उसमें लिखा था कि ये बड़ी होकर बहुत सारी कि़ताबें लिखेगी और दुनिया में नाम कमाएगी।’
बानू मुश्ताक़ कहती हैं कि जब उनके पिता ने देखा कि वो कुछ पढ़ नहीं रही हैं तो उनका नाम कन्नड़ मीडियम स्कूल में लिखवाया गया।
वो बताती हैं कि उनकी उम्र उस वक्त कक्षा तीन-चार में जाने की हो गई थी। इस स्कूल में वो एक हफ़्ते में ही अल्फ़ाबेट सीख गईं और इसके बाद छह महीनों में वो कन्नड़ भाषा की कि़ताबें पढऩे में सक्षम हो गई थीं।
किन चुनौतियों का सामना किया?
बानू मुश्ताक़ कहती हैं कि उन्होंने वो सभी दुश्वारियां और पाबंदियां झेली हैं, जो एक भारतीय, एक मुस्लिम और एक महिला की पहचान के तहत सामने आती हैं।
बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि वो कॉलेज में काफी एक्टिव रहती थीं, वो डिबेट में हिस्सा लेती थीं, लिटरेरी फोरम में भी एक्टिव रहती थीं।
वो बताती हैं कि उनकी शादी जिन व्यक्ति से हुई, वो कॉलेज में उनके सीनियर थे और कॉलेज में बानू की इसी पहचान के नाते वो उन्हें पसंद करते थे।
वो बताती हैं कि जब उनकी शादी हुई, तब समाज में ये माना जाता था कि अगर किसी भी पत्नी को काम करना है तो टीचर बनकर दस से पांच बजे तक का काम करे।
बानू मुश्ताक़ कहती हैं, ‘मैं टीचर तो थी ही, शादी के बाद मैंने रिज़ाइन किया था। इसकी वजह थी कि मैं घर की बड़ी बहू थी, मेरे ऊपर थोड़ी जि़म्मेदारियां थीं। हालांकि, रिज़ाइन करके मैं खुश नहीं थी। मुझे घर के बाहर भी लाइफ़ चाहिए थी, कुछ स्पेस चाहिए था।’
वो बताती हैं, ‘इस वजह से मेरे और मेरे पति के बीच झगड़े होते थे, लेकिन वो भी नहीं चाहते थे कि मैं पाबंदियों में रहूं। वो ख़ुद मज़बूर थे, वो भी कुछ नहीं कर सकते थे।’
बानू मुश्ताक़ कहती हैं, ‘जो मैं ये बोल रही थी कि मैं अपने हालात पर नाख़ुश थी, इसका ये मतलब नहीं कि कोई मुझ पर ज़ुल्म कर रहा था। ऐसा कुछ नहीं था।’
बानू मुश्ताक़ अपनी चुनौतियों के साथ उस सपोर्ट के बारे में भी बताती हैं, जो उनको अपने पिता और पति से मिला।
वो कहती हैं, ‘मेरे अब्बा हर तरह से कोशिश करते थे कि मेरा ओवरऑल डेवलपमेंट हो। मेरे पति भी चाहते कि मैं कुछ बनूं, कभी भी नहीं चाहते थे कि मैं घरेलू काम करूं। वो कहते थे कि मैं अपना काम करूं।’
वो बताती हैं, ‘जब मेरी बड़ी बेटी तीन महीने की थी। शायद पोस्टपार्टम डिप्रेशन भी होगा, मुझे पता नहीं, मगर मेरे पति को महसूस हो गया था। मुझे गुस्सा आ रहा था कि बस मेरा काम यही होगा कि मैं बीवी बनूं, मां बनूं और दूसरा क्या? ऐसा गुस्सा करती थी, झगड़ा करती थी।’
बानू मुश्ताक़ कहती हैं कि इस दौरान उन्होंने सुसाइड तक की कोशिश की। हालांकि, उनके पति ने उन्हें संभाल लिया। उनके मुताबिक़ ख़ुद को नुक़सान पहुंचाने का उनका ख़्याल कुछ पलों का था।
उनके पति ने समझाया कि अभी जि़ंदगी बाकी है, वो जो करना चाहती हैं, ज़रूर करेंगी।
महत्वपूर्ण जानकारी-
मानसिक समस्याओं का इलाज दवा और थेरेपी से संभव है। इसके लिए आपको मनोचिकित्सक से मदद लेनी चाहिए, आप इन हेल्पलाइन से भी संपर्क कर सकते हैं-
सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्रालय की हेल्पलाइन- 1800-599-0019 (13 भाषाओं में उपलब्ध)
इंस्टीट्यूट ऑफ़ ह्यमून बिहेवियर एंड एलाइड साइंसेज- 9868396824, 9868396841, 011-22574820
हितगुज हेल्पलाइन, मुंबई- 022- 24131212
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस- 080 - 26995000 )
एक्टिविस्ट बानू ने जब म्यूनिसिपल इलेक्शन जीता
बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि वो पहले एक्टिविस्ट बनीं।
कर्नाटक में उस वक्त कई तरह के सोशल मूवमेंट चल रहे थे, समाज में जागरुकता लाने का प्रयास चल रहा था। उस दौरान उन्होंने ऐसे आंदोलन में हिस्सा लिया, नारे लगाए, भाषण दिए। वो कहती हैं कि उनका ये काम बहुत से लोगों को पसंद नहीं आता था।
वहीं एक बार जब म्यूनिसिपल इलेक्शन हो रहे थे, तो उनके पिता को एक दोस्त ने सलाह दी कि वो उन्हें म्यूनिसिपल इलेक्शन लडऩे दें।
बानू मुश्ताक़ कहती हैं, ‘मेरे अब्बा आए और उन्होंने मेरा नॉमिनेशन फाइल करा दिया। हमने अलग तरह का कैंपेन किया था। हमने माइक वगैरह का इस्तेमाल नहीं किया। हमने हाथ से पर्चे बनाए, हम दोनों ने घर-घर जाकर वो पर्चे बांटे। मैं जीत गई।’
बानू मुश्ताक़ अपने पत्रकार बनने की कहानी भी बताती हैं।
वो कहती हैं, ‘एक बार फिर जब मैं उदास रहने लगी थी, तब मेरे पति मेरे लिए बहुत सारी कि़ताबें और मैगज़ीन लेकर आते। एक बार वो लंकेश पत्रिका लेकर आए। लंकेश पत्रिका पढक़र मुझे महसूस हुआ कि वो कुछ अलग है और इसमें मैं भी लिख सकती हूं।’
बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि उन्होंने इस्लाम और महिलाओं से जुड़े एक विषय पर एक आर्टिकल लिखकर लंकेश पत्रिका को भेजा था, जो उन्होंने छाप दिया।
इसके बाद उन्हें अलग-अलग मुद्दे पर लिखने के लिए कहा गया। बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि उन्होंने लंकेश पत्रिका के लिए 10 साल तक रिपोर्टिंग की।