संपादकीय
ओडिशा के बालासोर में एक सरकारी कॉलेज की छात्रा ने कॉलेज कैम्पस में ही आत्मदाह की कोशिश की, और उसे 90 फीसदी जली हालत में अस्पताल में दाखिल कराया गया है। चिकित्सा विज्ञान का अब तक का अनुभव कहता है कि इस वक्त जब यह लिखा जा रहा है, तब तक हो सकता है कि वह चल भी बसी हो। उसने 30 जून को कॉलेज में एक शिक्षक पर अपना यौन-शोषण करने का आरोप लगाया था, लेकिन कॉलेज प्रशासन और पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की, उससे निराश होकर उसने अपने आपको आग लगा ली। अब इस घटना के बाद सरकार ने इस सहायक प्रोफेसर, और प्रिंसिपल को निलंबित कर दिया है, और जांच कमेटी बनाई है। स्थानीय भाजपा सांसद प्रताप चरण सारंगी का कहना है कि उन्हें भी यह शिकायत मिली थी, और तब कॉलेज ने उनसे कहा था कि पांच दिन में जांच रिपोर्ट तैयार हो जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आत्मदाह की खबर मिलने पर उन्होंने प्रिंसिपल को फोन किया, लेकिन उन्हें कोई जवाब नहीं मिला। यह केन्द्र और ओडिशा, दोनों जगह सत्तारूढ़ भाजपा के सांसद का कहना है।
लेकिन हम इस एक घटना से परे भी पूरे देश के स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालयों में छात्राओं और शिक्षिकाओं के यौन-शोषण के मामलों पर बात करना चाहते हैं जो कि खबरों में तो बहुत कम आते हैं, लेकिन होते धड़ल्ले से हैं। किसी छात्रा को प्रैक्टिकल में अधिक नंबर देने के नाम पर, किसी को टीम में रखने के नाम पर नोंचा जाता है। विश्वविद्यालयों में शोध छात्राओं का शोषण एक बड़ी आम बात है, और अधिकतर छात्राएं इसकी शिकायत करने का हौसला भी नहीं कर पाती हैं, क्योंकि उससे या तो उनकी पीएचडी अधूरी रह जाएगी, या फिर हो चुकी पीएचडी की साख चौपट हो जाएगी कि उसने रिसर्च गाईड को उपकृत करके पीएचडी हासिल की है। कई मामलों में विश्वविद्यालय की बड़ी कुर्सियों पर जमे हुए मर्द एक-दूसरे को बचाने में लग जाते हैं, क्योंकि या तो वे खुद ऐसे धंधे में शामिल रहते हैं, या मुजरिम प्रोफेसर उन्हें भी इसी तरह उपकृत करने का वायदा करते हैं। इसके अलावा हिन्दुस्तान में धड़ल्ले से चलने वाले रूपयों के लेन-देन से भी मामले दबते ही होंगे।
यह देखना बहुत ही निराशा की बात है कि छत्तीसगढ़ के सरकारी स्कूलों में भी जगह-जगह शिक्षक, हेडमास्टर, और प्रिंसिपल नाबालिग छात्राओं के देह-शोषण में शामिल मिले हैं, कई जगहों पर आदिवासी इलाकों की आश्रम शालाओं में रहने वाली छात्राओं का संगठित तरीके से शोषण हुआ है, कई जगहों पर छात्राएं गर्भवती हुई हैं, और कई मामलों में गिरफ्तारियां भी हुई हैं। कुल मिलाकर शैक्षणिक संस्थाओं में माहौल लडक़ी के लिए खतरे का ही रहता है, और जो लोग छात्राओं पर ऐसी नजर रखते हैं, वे सहकर्मी शिक्षिकाओं को अच्छी नजर से तो नहीं ही देखते होंगे। अभी कुछ हफ्ते पहले ही एक स्कूल में वहीं के प्रिंसिपल ने महिला शौचालय में अपने मोबाइल फोन को वीडियो रिकॉर्डिंग शुरू करके छुपा रखा था, और वह इस काम को दो महीने से करते आ रहा था। जब शिक्षिकाओं ने उसके मोबाइल को पकड़ लिया, तब जाकर भांडा फूटा, और उसकी गिरफ्तारी हुई। अब ऐसा प्रिंसिपल छात्राओं के साथ क्या-क्या कोशिश नहीं करता होगा?
भारतीय समाज में यौन-शोषण की शिकार लडक़ी या महिला को ही सबसे बड़ा मुजरिम मानने की सोच बड़ी मजबूत है। नतीजा यह होता है कि दो-चार फीसदी मामले ही पुलिस तक पहुंचते होंगे, और बाकी मामले परिवार मन मारकर छुपा लेते होंगे। जब शोषण का एक मामला छुप जाता होगा, तो ऐसे हिंसक शिक्षक-प्राध्यापक, या खेल प्रशिक्षक-रिसर्च गाईड जैसे लोगों का हौसला बढ़ जाता होगा, और वे बाकी लोगों का शोषण करना अपना हक, और महफूज मान लेते होंगे। किसी एक जुर्म की शिकायत न होने पर वैसे ही और जुर्म होने का खतरा बढ़ जाता है। लेकिन शोषण की शिकायत करने वाली लडक़ी या महिला को जिस तरह की सामाजिक प्रताडऩा झेलनी पड़ती है, वह भी बहुत हिंसक रहती है। अभी फेसबुक पर एक महिला लेखिका के साथ एक बड़े चर्चित और विवादास्पद लेखक की यौन-छेड़छाड़ का मामला बहस का सामान बना हुआ है। इस मुद्दे पर लिखने वाले अधिकतर मर्द चुनौती के अंदाज में लेखिका को यह कह रहे हैं कि वह पुलिस में क्यों नहीं जा रही? मानो उन्हें यह अहसास नहीं है कि पुलिस में जाने का मतलब किसी महिला के लिए कई बरस का सुख-चैन खो देना होता है, और उसके बाद भी हमलावर मर्द को किसी सजा की गारंटी नहीं रहती। पंजाब की एक सीनियर आईएएस महिला के साथ वहां के डीजीपी रहे के.पी.एस.गिल ने शारीरिक छेडख़ानी की थी, लेकिन बरसों की मुकदमेबाजी के बाद सुप्रीम कोर्ट से गिल को महज अदालत उठने तक की सजा हुई थी, और इस महिला को चारों तरफ से तोहमतें मिलती रहीं कि पंजाब के आतंक से लडऩे वाले अफसर की एक हरकत को उसने बर्दाश्त नहीं किया। महिला बर्दाश्त करे तो हमलावर मर्द का हौसला और बढ़ता है, महिला बर्दाश्त न करे तो भी उसे ही तोहमत मिलती है।
अभी सोशल मीडिया पर एक नोट की फोटो चल रही है जिसमें मुस्लिम समाज के किसी प्रमुख व्यक्ति के पूरे नाम, ओहदे, और शहर के साथ-साथ उसके कुछ कथित कुकर्मों का जिक्र है, और किसी एक महिला से उसके अवैध संबंध होने का भी जिक्र है। एक रबर स्टाम्प बनवाकर यह सारी जानकारी नोट पर छाप दी जा रही है। अब ऐसे नोट की फोटो बताती है कि किसी एक नोट पर सचमुच ही, या फोटो एडिटिंग करके ऐसे सील लगाई गई है, लेकिन ऐसे लाखों नोटों से बात जहां तक पहुंचती, वहां तक सोशल मीडिया में दूसरे लोगों के पोस्ट करने पर यह बात पहुंच गई है। लोगों को याद होगा कि पिछले कई बरस से हिन्दुस्तान में किसी सोनम के नाम से नोट पर लिखा हुआ चारों तरफ घूमता था कि सोनम बेवफा है, लेकिन उसके साथ इस नाम की और कोई शिनाख्त नहीं थी, इसलिए किसी एक लडक़ी की बदनामी नहीं हो पाई, या दूसरी तरफ यह खतरा भी था कि इस नाम की जितनी लड़कियां थीं, उनकी सबकी बदनामी हो रही थी। जो भी हो, मीडिया और सोशल मीडिया पर खासे जिम्मेदार लोग भी ऐसी फोटो बढ़ा रहे थे, और फिर यह एक खेल की तरह कई अलग-अलग नोटों पर हाथ से लिखकर फैलाने का शगल हो गया था। अब जिस मुस्लिम आदमी के नाम की रबर सील लगाकर एक नोट की फोटो चलाई जा रही है, वह भी सोशल मीडिया के स्वयंसेवकों (कोई गलतफहमी न हो, इसलिए साफ कर देना ठीक है, वालंटियर) की मेहरबानी से फैल रही है।
हर दिन दो-चार ऐसे फोटो-वीडियो आते हैं जिनमें कहीं किसी खेत में एक आदमी किसी औरत के साथ पकड़ा गया, और जिनके बारे में आपत्तिजनक हालत में पकड़ाने का विशेषण तुरंत जोड़ दिया जाता है। कहीं हाईवे पर सेक्स, तो कहीं कोई व्यक्ति किसी महिला को लेकर किसी रेस्ट हाऊस, या गेस्ट हाऊस में जा रहा है। लोगों को याद होगा कि इस किस्म का एक सबसे बड़ा स्कैंडल छत्तीसगढ़ में हुआ था, जब रमन सिंह सरकार के ताकतवर मंत्री राजेश मूणत का सिर चिपकाकर एक सेक्स-वीडियो कांग्रेस के लोगों ने फैलाने और छपवाने की कोशिश की थी, और महीनों तक उसी की चर्चा चलती रही। यह तो भारत की न्यायपालिका की मेहरबानी है कि सात बरस बाद भी सीबीआई उस मामले में शायद पहली-दूसरी सुनवाई भी नहीं करवा पाई है, और उस मामले में गिरफ्तार भूपेश बघेल जमानत पर छूटने के बाद अभियुक्त रहते हुए भी पांच बरस मुख्यमंत्री रह लिए, इसी सेक्स सीडी कांड में फंसे, गिरफ्तार, जमानत पर छूटे हुए, और कटघरे में खड़े उनके करीबी सहयोगी विनोद वर्मा पांच बरस मुख्यमंत्री के राजनीतिक सलाहकार रह लिए। लेकिन भारत की न्यायपालिका के चेहरे पर कोई उलझन नहीं है। आज हम इस सेक्स-सीडीकांड के जुर्म पर जाना नहीं चाहते, जो कि राजेश मूणत की लिखाई गई रिपोर्ट पर दर्ज है। हम यह सोचकर हैरान हैं कि मूणत के चेहरे को फर्जी तरह से चिपकाकर जो वीडियो बनाया गया, बांटा गया, छपवाने की कोशिश की गई, उस वीडियो में जो महिला दिख रही है, क्या इस बदनामी में जुटे लोगों को पल भर के लिए भी उसकी निजता का अहसास हुआ? क्या एक महिला की इस तरह बदनामी का किसी को भी कोई मलाल हुआ? आज भी जो लोग किसी नेता, अफसर, या चर्चित व्यक्ति के साथ किसी अनजानी महिला के फोटो-वीडियो फैलाते हैं, क्या उन्हें यह समझ नहीं रहती कि वे एक, या दोनों ही, बेकसूर की बदनामी कर रहे हैं?
यह पूरा सिलसिला भयानक इसलिए है कि सात बरस पहले जब मूणत की फर्जी वीडियो क्लिप बनाई गई, और जाने उसके रास्ते किस बदनामी करने, और राजनीतिक फायदा पाने की कल्पना की गई थी, उस वक्त तो एआई जैसे औजार भी नहीं थे। आज तो इंटरनेट पर मौजूद मुफ्त के औजारों से लोग किसी भी औरत-मर्द की फोटो डालकर उन्हें एक-दूसरे को चूमता हुआ दिखा सकते हैं, और भी कई तरह के वीडियो बनाए जा सकते हैं। अब सवाल यह उठता है कि ऐसी सनसनीखेज फोटो, और ऐसे वीडियो तो चारों तरफ फैल रहे हैं, इनको पोस्ट करने, आगे बढ़ाने, री-पोस्ट करने के पहले लोगों को अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए या नहीं? किसी के नाम-पते, ओहदे के साथ उसकी बदचलनी का जिक्र करके अगर एक नोट की असली या नकली फोटो सोशल मीडिया पर डालने से खासे जिम्मेदार लोग भी महज मजा लेने के लिए उसे आगे बढ़ा रहे हैं, तो इसका पहला मतलब तो यही है कि किसी की इज्जत की मिट्टीपलीद करना, बच्चों के खेल सरीखा आसान हो गया है। दूसरी बात यह कि सोशल मीडिया पर असल जिंदगी के बड़े जिम्मेदार लोग भी छिछोरेपन पर उतर आते हैं क्योंकि वहां का माहौल ही कुछ ऐसा रहता है। लेकिन यह सिलसिला थमेगा कहां? आज जिसकी जिससे दुश्मनी हो, उसके नाम के साथ कोई अश्लील बात लिखकर एक नोट की फोटो खींची जाए, और उसे पोस्ट भर कर दिया जाए। फिर चाहें तो उस नोट को बाजार में चला भी लें, ताकि वह कई और हाथों तक चले जाए, कई और लोग उसकी फोटो खींच लें, पोस्ट कर दें, और आपका मकसद मुफ्त में टारगेट से अधिक पूरा होता रहे। यह सब इस कदर आसान हो गया है कि क्या कहें।
ओडिशा की खबर है कि वहां रायगड़ा जिले में एक ही गोत्र के युवक-युवती के बीच प्रेम हो जाने से समाज और गांव ने उन्हें सजा देने के लिए हल में बैलों की जगह जोता, खेत जुतवाया, और कोड़े मार-मारकर गांव से निकाल दिया। इसका वीडियो जब चारों तरफ फैला, तो अब पुलिस ने मामले की जांच चालू की है, लेकिन यह जोड़ा अब कहीं मिल नहीं रहा है। इन्हें सजा देने के पहले गांव में देवी की पूजा करवाई गई, और वहां के आदिवासी समाज की प्रचलित प्रथाओं के मुताबिक इस वर्जित संबंध पर सामाजिक बैठक ने सजा तय कर दी, और इस तरह इस अवांछित जोड़े से छुटकारा पा लिया गया। यह जोड़ा किसी दूसरी जगह बसकर जिंदगी गुजार सकता है, या यह धरती ही छोडक़र जा सकता है। दोनों ही नौबतों में इस जोड़े से उसका गांव छूट जा रहा है। भारतीय समाज में जगह-जगह ऐसा होता है, और हर कुछ दिनों में कहीं न कहीं से प्रेमीजोड़े की खुदकुशी की खबर आती है।
हम अपने अखबार में अपने या दूसरों के प्रति जानलेवा हिंसा के बारे में कम से कम लिखना चाहते हैं, लेकिन समाज की जैसी नौबत है, उसमें इस बारे में अधिक से अधिक लिखने की एक बेबसी रहती है। ऐसे मुद्दों पर लिखना इसलिए भी जरूरी लगता है कि समाज में समझ की कमी है, और हो सकता है कि हमारी लिखी किसी बात से कुछ लोगों की सोच बदल सके। यह चर्चा करते हुए भारत के अलग-अलग प्रदेशों, अलग-अलग धर्म या जातियों की चर्चा भी की जा सकती है, की जानी चाहिए, लेकिन इससे परे यह बात भी होनी चाहिए कि गांव या शहर ऐसे मामलों में किस तरह अलग-अलग बर्ताव करते हैं। बहुत से लोगों के दिमाग में गांवों को लेकर एक बड़ी रूमानियत की कल्पना रहती है, उन्हें कुछ लेखकों या कवियों की गांवों की गौरव-गाथा सूझती है, और किस तरह वे सोचते हैं कि रिटायरमेंट की जिंदगी वे गांव जाकर ही गुजारेंगे। इस तरह के प्रेमीजोड़े के साथ जो बर्ताव हुआ है, उसे देखते हुए भारत के गांवों के बारे में एक बार फिर सोचने की जरूरत है।
शहरों में आबादी इतनी अधिक रहती है, बाहर से आए हुए लोग इतने अधिक रहते हैं किसके पड़ोस में आकर कौन रहने लगे, इसकी भी कोई मामूली सी जानकारी हो जाए तो हो जाए, लोग बहुत हद तक एक-दूसरे से अलग-थलग भी रह लेते हैं। फिर यह भी है कि शहरों में धर्म और जाति की व्यवस्था तो टूट ही रही है, शादी नाम की संस्था भी शहरों में कुछ कमजोर पड़ रही है क्योंकि देश में अब अनगिनत अविवाहित जोड़े जब तक चाहें साथ रह लेते हैं, उन्हें किराए पर मकान पाने के लिए चाहे कोई मामूली सा झूठ बोलना पड़ता हो, काम खींचतान कर चल जाता है। शहरों में लोग कामकाज में लगे रहते हैं, और अपने काम से काम अधिक रहता है। गांवों की हालत यह है कि वहां न सिर्फ एक सामंती सामाजिक व्यवस्था चली आ रही है जिसमें कोई बड़े किसान, या कि ऊंची समझी जाने वाली जाति के कोई व्यक्ति दबदबा रखते हैं, और वे पंच-सरपंच जैसे चुनावों में भी रूतबा और दखल रखते हैं। वे गांवों में कई किस्म की अघोषित सरपंची भी करते हैं, और जमीन-जायदाद के झगड़ों का निपटारा उनके बाहुबल से हो जाता है, और समाज की दूसरी बातों में भी उनका असंवैधानिक दखल रहता है। जाति व्यवस्था बड़ी मजबूत रहती है, और कई जगहों का तजुर्बा लोगों ने बताया है कि वहां ऊंचे हिस्से में ऊंची कही जाने वाली जातियों की बसाहट रहती है, और नीची कही जाने वाली जातियां ढलान पर नीचे रहती हैं, ताकि इन जातियों का पानी ‘ऊंची जातियों’ की बस्ती तरफ न जाए। राजस्थान और मध्यप्रदेश से हर महीने ऐसी खबरें आती हैं कि गांवों में किसी दलित दूल्हे को बारात में घोड़ी पर चढऩे से पुलिस हिफाजत के बावजूद ‘ऊंची जातियों’ के लोगों ने मारा, और सावधानी बरतते हुए कई बारातों में दूल्हे सहित पुलिसवाले भी हेलमेट लगाकर चलने को मजबूर रहते हैं ताकि ‘ऊंची जातियों’ के पथराव से बच सकें। गांवों में बलात्कार के आंकड़ों को देखें, तो दलित-आदिवासी तबके की लड़कियां और महिलाएं ही सबसे अधिक शिकार होती हैं।
गांव और शहर के माहौल के ऐसे फर्क में प्रेमीजोड़े गांवों में शादी तक पहुंचने के पहले बहुत से मामलों में ऊपर पहुंच जाते हैं, और कई मामलों में उनके प्रेम को तुड़वा दिया जाता है। अब समाज में एक नई चेतना आने के बाद यह भी हो रहा है कि ऐसे पुराने प्रेमीजोड़े शादी से अलग कर दिए गए हैं, लेकिन शादी के बाद भी उनका प्रेम सुलगते रहता है, और वे किसी हिंसा तक पहुंच जाते हैं। यह सब इसलिए होता है कि गांवों में प्रेम के खिलाफ बगावत का एक माहौल रहता है, लोग जात का ख्याल करते हैं, गोत्र का ख्याल करते हैं, अमीरी-गरीबी का फर्क मानकर चलते हैं, और कुछ पीढिय़ों पहले की दुश्मनी को भी हिन्दी फिल्मों की तरह असल जिंदगी में निभाते हैं। इसलिए गांव एक किस्म से प्रेम के दुश्मन रहते हैं, लेकिन लड़कियों और महिलाओं के शोषण के लिए उपजाऊ जमीन रहते हैं।
देश की राजधानी से लगे हरियाणा के गुरूग्राम में दूसरे बच्चों को टेनिस सिखाने वाली एक होनहार खिलाड़ी राधिका यादव के अकादमी चलाने, और रील बनाने से खफा उसके पिता ने उसे गोलियों से भून डाला। खबरों में कहा गया है कि अड़ोसी-पड़ोसी इस बाप को ताने कसते थे कि बेटी की कमाई उससे अधिक हो गई है। वह राज्य स्तर की टेनिस खिलाड़ी थी, और कई मुकाबले जीत चुकी थी। एक बहुत ही प्यारे चेहरे वाली, हँसमुख दिखती 25 बरस की इस युवती का यह अंत अपने पिता के हाथों हुआ। उसकी तस्वीर ही हैरान करती है कि भला कौन सा पिता ऐसी होनहार और हँसमुख बच्ची को मार सकता है। आज जब इस उम्र की बहुत सी लड़कियां तरह-तरह की अश्लील फिल्में बनाकर रोजाना पोस्ट करती हैं, उससे अपनी कमाई करती हैं, तब यह लडक़ी दूसरे खिलाडिय़ों को सिखाकर अपना काम कर रही थी, और बाप को उस पर सिर्फ फख्र होना था। लेकिन उस इलाके की संस्कृति शायद ऐसी थी कि पड़ोसी बाप को बेटी की कामयाबी पर ताने देते थे।
यह तो इस किस्म की कातिल घटना हो गई, इसलिए इस पर चर्चा भी हो रही है। लेकिन भारत के आम परिवारों में करोड़ों लड़कियां अपने बाप-भाई की मर्दाना दादागिरी को रोज ही झेलती हैं। उसकी कोई भी बात नापसंद होने पर परिवार के मर्द उसकी बेइज्जती करने से लेकर उस पर हाथ उठाने तक, उसे घर में कैद कर लेने तक कई किस्म से उसे प्रताडि़त करते हैं। यही उत्तर भारत का इलाका है जहां हर हफ्ते-पखवाड़े खबरें आती हैं कि बेटी मर्जी से शादी करना चाहती थी तो बाप-भाई ने मिलकर कहीं उसके प्रेमी को मार डाला, तो कहीं उसे मार डाला, तो कहीं शादी हो जाने पर नए जोड़े को मार डाला। ऐसे कत्ल में परिवार के चाचा-ताऊ भी खुशी-खुशी शामिल हो जाते हैं, जबकि ऐसे हर कत्ल के बाद जेल जाने का एक असल खतरा हर किसी को मालूम है। ऐसे खतरे को देखते हुए भी लोग परिवार की तथाकथित इज्जत को बचाने के लिए कत्ल भी कर देते हैं ताकि समाज को कह सकें कि लडक़ी ने परिवार का ‘मुँह काला’ कर दिया था, तो उन्होंने उसे मार ही डाला। ऐसी ऑनरकिलिंग भारत के बाहर भी ब्रिटेन जैसी जगह पर भारत और पाकिस्तान के परिवार करते हैं। आज सुनीता विलियम्स के महीनों अंतरिक्ष में रहकर आ जाने के बाद भी उत्तर भारत के अनगिनत परिवारों की इज्जत कन्या का दान करने की सोच से जुड़ी हुई है। हिन्दू शादियों में कन्या का दान करना एक रस्म है, और यह रस्म पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह सोच मजबूत करते चलती है कि कन्या किसी सामान, या पशु की तरह है जिसे कि दान किया जा सकता है, दान किया जाना चाहिए। जिस तरह पशु को मालिक जिस खूंटे से बांधे, वहीं बंधे रहना उसका नसीब होता है, परिवार अपनी लड़कियों को वैसा ही देखना चाहते हैं। पुरूष प्रधान भारतीय समाज को कन्या भ्रूण हत्या से लेकर ऑनरकिलिंग, दहेज-हत्या, बलात्कार, जबरिया गर्भपात, विधवा-जीवन या सतीप्रथा जैसी तमाम बातें सुहाती हैं। अब यह तो इस देश का घटिया कानून है जो कि मर्दों को इनमें से कई बातें करने नहीं देता है, और उन्हें जुर्म करार देता है।
औरतों पर मर्द अपनी मर्जी कितनी चलाना चाहते हैं, यह जगह-जगह निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधियों के मामले में देखने मिलता है, जहां कहीं पर उनके पति पद की शपथ लेते हैं, कहीं वे ही सरकारी मीटिंग लेते हैं, और कहीं वे खुद रिश्वत लेकर निर्वाचित पत्नी से अंगूठा लगवाते हैं, या दस्तखत करवाते हैं। इस बात को वे खुद का हक भी मानते हैं, और छत्तीसगढ़ में हमने कई मामले देखे जिनमें पंचायत अधिकारियों ने पतियों को ही पत्नी की जगह पद की शपथ दिलवाई, उन्हीं से बैठक में दस्तखत ले लिए, और निर्वाचित महिलाओं की मौजूदगी के बिना बैठक हो भी गई। समाज में जो बहुत पढ़ा-लिखा तबका भी माना जाता है, उसमें भी महिला को किस तरह पुरूष के नियंत्रण में ही रहना है, यह सोच बार-बार दिखती है। अब भारत में तरह-तरह के नामों से सेक्स-टॉय बिकने लगे हैं। फेसबुक जैसा सोशल मीडिया इस तरह के इश्तहारों से भी भरा हुआ है। शुरू में तो अधिकतर महिलाओं के काम के ऐसे मसाजर जैसे खिलौने उन्हीं के आनंद और उनकी संतुष्टि की विज्ञापन-फिल्मों वाले आते थे। अब कुछ समय से ऐसे इश्तहार आने लगे हैं जिनमें कोई महिला बैठे-बैठे, या चलते-चलते अचानक ही कामसुख से झनझनाने लगती है, और फिर दिखता है कि किस तरह उसका कोई पुरूष साथी अपने मोबाइल फोन से उस महिला के कपड़ों के भीतर रखा गया कोई सेक्स-टॉय नियंत्रित कर रहा है। अधिकतर लोगों को तो यह इश्तहार वयस्क लेकिन साधारण लगेगा। लेकिन इसके पीछे की सोच देखने की जरूरत है कि अगर कोई लडक़ी या महिला किसी सेक्स-टॉय से कामसुख पाना चाह रही है, तो उसका नियंत्रण भी उसके पुरूष साथी के हाथ में रहेगा, और वही उसकी रफ्तार, उसकी कंपकंपाहट, और उसके दूसरे फीचर-फंक्शन तय करेगा। यह सोच एक मर्दाना मानसिकता पर टिकी हुई कल्पनाशीलता से उपजी है, और इसे मासूम नहीं मानना चाहिए। पूरी दुनिया में जिन इश्तहारों पर रोक सकती है, उनमें महिला की देह को लेकर तरह-तरह के अपमान रहते हैं, उसकी बेइज्जती रहती है। ऐसे मामलों में हिन्दुस्तान विकसित, और पश्चिमी देशों के मुकाबले खासा आगे है, और यहां पर सेनेटरी पैड जैसी महिला जरूरत की एक अनिवार्य चीज को भी सेक्स से जोडक़र देखा जाता है, और अभी कुछ बरस पहले तक स्कूल-कॉलेज में इसका नाम तक नहीं लिया जाता था।
गुजरात से कल यह भयानक खबर आई कि करीब एक किलोमीटर लंबे एक पुल के बीच का एक हिस्सा टूटकर नदी में गिर गया, और कई बड़ी गाडिय़ां सौ फीट से ज्यादा नीचे पानी में जा गिरीं। हादसे में 13 लोगों की मौत हुई है। इस खबर में ही कहा गया है कि 1985 में बने इस पुल में अभी पिछले चार साल में पुल के पिल्लर, और उसकी स्लैब के बीच फासला खड़ा हो गया था, और उस इलाके के एक जिला पंचायत सदस्य ने 2022 में ही कलेक्टर को इसकी शिकायत की थी। समाचार बताता है कि पुल में बड़ी खामी पाई गई थी, लेकिन इसे चालू रखा गया। पिछले चार साल में गुजरात में यह 16वां पुल टूटा है। कल के इस हादसे में मौतें और भी बहुत अधिक हो सकती थीं, अगर इसमें गिरी 9 गाडिय़ों में मुसाफिर बसें भी होतीं। अब इतनी बड़ी संख्या में अगर पुल गिरे हैं, तो यह गुजरात सरकार की साख पर भी आंच है। पिछले 25 से अधिक बरसों से वहां पर सिर्फ भाजपा की ही सरकार चल रही है, और आज देश में एक और दो नंबर के सबसे बड़े नेता, नरेन्द्र मोदी, और अमित शाह बरसों तक गुजरात को चलाए हुए हैं, और ऐसा न मानने की कोई वजह नहीं है कि आज भी गुजरात पर उनकी पैनी नजर नहीं रहती होगी। ऐसे में इस तरह के हादसे थोड़ा हैरान करते हैं।
कहने के लिए तो इस पुल की तोहमत कांग्रेस पर डाली जा सकती है जिसके राज में आज से 40 बरस पहले 1985 में यह पुल बना और चालू हुआ था। लेकिन पुल तो आधी-एक सदी के लिए बनते हैं, और सरकारें तो पांच-पांच बरस में आती-जाती रहती हैं। जो पुल 40 बरस चल गया, उसके बनने में तो कोई खामी रही नहीं होगी, वरना देश में जगह-जगह बनते-बनते पुल और फ्लाईओवर, ओवरब्रिज या मेट्रो के लिए ढांचे गिरते रहे हैं। अब 1985 के बाद से जो भी सरकारें आई हैं, उन सरकारों को अपने पहले बने हुए ढांचों का रखरखाव ठीक से करना था। आज भी भारत में अंग्रेजों के बनाए हुए हजारों पुल काम कर रहे हैं, जिनमें से बहुत से तो पत्थरों से बने हुए रेलवे ब्रिज हैं, जिन पर से लाखों रेलगाडिय़ां निकल चुकी होंगी। नदियों के ऊपर, खाई के ऊपर बने ऐसे ब्रिज अब तक काम कर रहे हैं, जिससे पता लगता है कि अंग्रेजों के वक्त नेता-अफसर-ठेकेदार का बरमूडा ट्रैंगल उस तरह काम नहीं करता था जिस तरह आज वह इस देश के हितों को डुबाने का काम करता है।
लेकिन हम अकेले पुल की बात को लेकर आज यहां चर्चा नहीं कर रहे। एक दूसरी खबर कल की है जिसमें केन्द्र सरकार के शिक्षा मंत्रालय के राष्ट्रीय सर्वेक्षण परख के नतीजे आए हैं। पिछले बरस दिसंबर में 36 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के करीब पौन लाख स्कूलों में केन्द्र सरकार ने यह सर्वे कराया था, और इसमें अलग-अलग प्रदेशों में स्कूली बच्चों की पढ़ाई की हालत दिखाई गई है। दिलचस्प बात यह है कि जो तीन राज्य अलग-अलग कई पैमानों पर देश में सबसे ऊपर पाए गए हैं, उनमें पंजाब, हिमाचल, और केरल के नाम हैं। ये राज्य कल प्रकाशित खबर के हर पैमानों पर सबसे ऊपर है। केरल देश में पहले, दूसरे, या तीसरे नंबर पर है। दूसरी तरफ जिन पांच राज्यों की हालत स्कूली पढ़ाई में सबसे खराब मिली है, उनमें कुछ हैरान करने वाली बात यह है कि सबसे नीचे के पांच राज्यों में एक राज्य सबसे कमजोर साबित हुआ है, और वह गुजरात है। कक्षा 3 में बच्चों की गणित की समझ में गुजरात देश में सबसे कमजोर पाया गया है, जबकि गुजरात कारोबारियों का प्रदेश माना जाता है, जहां गणित लोगों की जुबान पर होना चाहिए था। कक्षा 6वीं में बच्चों की समझ के पैमाने पर गुजरात पूरे देश में आखिर से दूसरे नंबर पर है। और आंकड़ों का औसत निकालने के मामले में गुजरात के बच्चे देश में आखिरी पाए गए प्रदेश उत्तरप्रदेश से जरा ही ऊपर है, आखिरी से दूसरे नंबर पर। अब चूंकि यह सर्वे केन्द्र सरकार का ही करवाया हुआ है, इसलिए कोई यह भी नहीं कह सकते कि यह भारत के खिलाफ पूर्वाग्रह रखने वाली किसी विदेशी संस्था के गलत आंकड़े हैं। गुजरात देश का एक अधिक संपन्न प्रदेश है, वहां उद्योग-व्यापार बड़े पैमाने पर विकसित है, और गुजरातियों की पूरी दुनिया में आवाजाही को भी सब अच्छी तरह जानते हैं, और देश भर गुजराती जहां जाते हैं, वहां वे सफल और संपन्न कारोबारी बनते हैं। इसके बाद भी अगर स्कूली शिक्षा के मामले में गुजरात इतना फिसड्डी साबित हुआ है, तो इसकी तोहमत हम वहां के बच्चों को नहीं देते, हम वहां की सरकार को इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं, और हमें यह लगता है कि यह मोदी और शाह के लिए फिक्र की बात भी रहनी चाहिए। ऐसे आंकड़े किसी को भी अपने प्रदेश को सुधारने का एक मौका देते हैं।
लोगों का जितना बड़ा नुकसान किसी एक मामले में फंसने से होता है, उससे कई गुना अधिक नुकसान तब होता है जब सरकार या जांच एजेंसी, अदालत या मीडिया की नजरें उस गलत पर जाकर टिक जाती हैं। अब ऐसा एक गलत संस्थान छत्तीसगढ़ में रावतपुरा सरकार के नाम पर चलने वाले शिक्षण संस्थान हैं, जिनके एक भ्रष्टाचार को सीबीआई ने पकड़ा, तो तथाकथित आध्यात्मिक-धार्मिक गुरू कहे/माने जाने वाले रविशंकर महाराज का नाम भी रिश्वत देने वालों की लिस्ट में सीबीआई ने अदालत में पेश कर दिया है। और अब नेशनल मेडिकल कमीशन से लेकर दूसरी कई रेगुलेटरी एजेंसियों की नजरें जब इस मेडिकल कॉलेज, और इससे जुड़े हुए रावतपुरा विश्वविद्यालय, और कई तरह के कॉलेज पर पड़ी है, तो घपले ही घपले सामने आ रहे हैं। अपने मेडिकल कॉलेज के लिए सीटें बढ़ाने को रिश्वत देते हुए रंगे हाथों गिरफ्तार होने के बाद अब यह भी पता लग रहा है कि अलग-अलग कई कोर्स के लिए रावतपुरा के संस्थान अंधाधुंध फीस वसूली कर रहे थे। आज प्रकाशित एक रिपोर्ट बता रही है कि रावतपुरा शैक्षणिक संस्थाओं में इसी शहर में बिना मान्यता के पैरामेडिकल कोर्स चलाए जा रहे थे, और उनमें दाखिला लेने वाले पांच हजार छात्रों का भविष्य अब अंधकारमय दिख रहा है क्योंकि केन्द्र की मोदी सरकार की मातहत सीबीआई ने रिश्वत देकर मान्यता पाने का यह केस बनाया है, और राज्य की भाजपा सरकार की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह ऐसे भ्रष्ट संस्थान की गड़बडिय़ों की जांच करवाए। इसीलिए कहा जाता है कि बिल्ली जब दूध पीकर जाती है, तो नुकसान सिर्फ दूध का नहीं होता, इस बात का भी होता है कि बिल्ली ने दूध रखने की जगह देख ली है। अब राज्य की कॉलेज-यूनिवर्सिटी जांचने-परखने वाली एजेंसियों और इनसे जुड़े हुए विभागों की यह जिम्मेदारी बन जाती है कि ऐसे घपलेबाज संस्थानों की ठीक से जांच की जाए। कुछ नागरिक संगठनों ने इस भ्रष्टाचार को उजागर भी किया है, और आर्थिक अपराध ब्यूरो से इसकी जांच करवाने की मांग की है। रावतपुरा सरकार कहे जाने वाले रविशंकर महाराज को कांग्रेस का करीबी माना जाता है, लेकिन कल तो राजधानी रायपुर में कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई ने इस विश्वविद्यालय जाकर जमकर प्रदर्शन किया है, और कहा है कि चार साल से यह विश्वविद्यालय, गैरकानूनी कोर्स चला रहा है, और छात्रों को धोखा दे रहा है। इस विश्वविद्यालय के बारे में ये भी आरोप सामने आए हैं कि बीएड जैसे कोर्स करने वाले लोगों से हाजिरी की छूट देने के लिए एक-एक सेमेस्टर में 35-35 हजार रूपए तक वसूल किए जा रहे हैं।
रावतपुरा सरकार शैक्षणिक संस्थानों का यह भांडाफोड़ बताता है कि कोई धार्मिक या आध्यात्मिक मूल्य ऐसे नहीं होते जो भ्रष्टाचार करने, धोखाधड़ी और जालसाजी से मान्यता पाने, और गैरकानूनी तरीके से दाखिले देने, मनमानी वसूली करने से किसी को रोक लें। तमाम तरह की नैतिकता की नसीहतें भक्तजनों को बेवकूफ बनाने के लिए रहती हैं, और ऐसे संस्थान हर किस्म की धोखाधड़ी, बेईमानी, और भ्रष्टाचार से अपने अरबों के साम्राज्य को खड़ा करते हैं। कुछ नागरिक संगठनों ने राज्यपाल और मुख्यमंत्री से पत्र लिखकर मांग की है कि रावतपुरा के शैक्षणिक संस्थानों को बंद किया जाए। सरकार बंद करे या न करे, इसकी जांच करना तो उसकी संवैधानिक जिम्मेदारी है कि अगर बिना मान्यता के यहां पर कोर्स चलाए जा रहे हैं, और छात्र-छात्राओं से मोटी फीस वसूली जा रही है, तो इस पर धोखाधड़ी, और जालसाजी का जुर्म दर्ज किया जाए, और ऐसे संस्थानों की संपत्ति जब्त करके धोखा खाए हुए इन छात्र-छात्राओं को मुआवजा दिया जाए क्योंकि उनकी जिंदगी के ये कीमती बरस बर्बाद हुए, उन्होंने जाने कहां से इंतजाम करके ऐसी मोटी फीस दी, और अब ऐसी फर्जी डिग्री या डिप्लोमा की वजह से आगे नौकरी पाने की उनकी उम्र भी निकल जाएगी। यह मामला छत्तीसगढ़ के निजी कॉलेज-यूनिवर्सिटी के धोखाधड़ी के मामलों में सबसे ही बड़ा है, और यह केन्द्र और राज्य सरकार दोनों की जिम्मेदारी है कि भ्रष्टाचार के ऐसे पुख्ता मामले को जब सीबीआई ने स्थापित किया है, तो केन्द्र और राज्य दोनों की तमाम एजेंसियों को इसे ठोक-बजा लेना चाहिए, और इसके साथ-साथ कई और निजी विश्वविद्यालय फर्जी डिग्री बेचने के धंधे में लगे हुए हैं, जिनके बारे में बेरोजगारों के बाजार में बहुत से लोगों को जानकारी है, और इन लोगों पर भी कार्रवाई होनी चाहिए।
महाराष्ट्र में भाषा को लेकर एक ताजा विवाद चालू हुआ है जिसमें ताजा-ताजा साथ आए ठाकरे बंधु सडक़ों पर हिंसा करके मानो अपने साथ आने, और शिवसेना के पुराने तेवर लौटने की मुनादी कर रहे हैं। वहां राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ताओं ने कुछ इलाकों में गैरमराठी दुकानदारों, और ठेलेवालों पर इस बात को लेकर हमले किए कि वे मराठी नहीं बोलते। इसमें नया कुछ भी नहीं है। शिवसेना के संस्थापक बाला साहब ठाकरे के रहते हुए यह सैकड़ों बार हो चुका है, और शायद शिवसेना की स्थापना भी मुम्बई में बाहर से आकर काम करने वाले लोगों के खिलाफ एक हमलावर संगठन के रूप में ही हुई थी। बाद के बरसों में बाला साहब के भतीजे राज ठाकरे घरेलू पार्टी से बाहर हो गए, और एक के बाद दूसरे चुनाव ने यह साबित किया कि वे अप्रासंगिक भी हो गए, परिवार से बाहर जाने पर वे सेना-समर्थकों के दिलों से भी बाहर हो गए। उद्धव ठाकरे अकेले ही पार्टी के सर्वेसर्वा बने रहे, और महाराष्ट्र की घरेलू राजनीति के चलते वे एनसीपी और कांग्रेस के साथ एक गठबंधन में आए, जो शुरूआती कामयाबी के बाद अब इसलिए खत्म सरीखा हो गया कि एनसीपी दो फाड़ हो गई, और भतीजा अजीत पवार पार्टी के विधायकों को लेकर सरकार में शामिल हो गया, और चाचा शरद पवार महज अपनी बेटी को स्थापित करते हुए बची हुई एनसीपी में रह गए। शिवसेना का तो और भी बुरा हाल हुआ जब एकनाथ शिंदे ने विधायकों के बहुमत को लेकर भाजपा के साथ गठबंधन में जाना तय किया, और बाद में तो चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट तक यही साबित हुआ कि शिंदे ही असली शिवसेना है, और उद्धव ठाकरे अपने घर में ही बेघर हो गए। शायद ऐसे माहौल में उद्धव ठाकरे को भी अब यह लग रहा होगा कि उन्हें शिवसेना के पुराने तेवरों में लौटने की जरूरत है, क्योंकि कांग्रेस-एनसीपी के साथ गठबंधन ने पार्टी के चिन्ह शेर की धारियां उतारकर रख दी थीं, और घोर हिन्दुत्व, घोर मराठीवाद की धार खत्म हो गई थी, जो कि शिवसेना की पहचान थीं। ऐसे में अब जब राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत महाराष्ट्र की भाजपा-सेना-एनसीपी गठबंधन सरकार ने पहली से पांचवीं तक हिन्दी को अनिवार्य रूप से तीसरी भाषा बनाने का आदेश दिया, तो ठाकरे बंधुओं की अगुवाई में बड़ा विरोध हुआ। महाराष्ट्र, और खासकर मुम्बई महानगर उग्र क्षेत्रवाद, और भाषावाद के लिए जाने जाते हैं। इसलिए वहां इस भावना को भडक़ाना बड़ा आसान था कि यह मराठी की उपेक्षा है। जबकि हिन्दी को पढ़ाई का माध्यम नहीं बनाया जा रहा था, उसे महज एक भाषा के रूप में लागू किया जा रहा था। महाराष्ट्र का हिन्दी विरोध का तमिलनाडु किस्म का कोई लंबा इतिहास भी नहीं रहा है, लेकिन किसी भावनात्मक मुद्दे की तलाश में रात-रात फटफटी पर घूमते हुए ठाकरे बंधुओं के हाथ यह बटेर लग गई, और उनके लोग सडक़ों पर गैरमराठीभाषी लोगों को पीटकर अपना महाराष्ट्र-प्रेम साबित करने लगे।
सोशल मीडिया की मेहरबानी से अब अखबारों के आम पाठकों को कई ऐसे आक्रामक लेखकों का लिखा हुआ पढऩे मिल जाता है जिन्हें अखबार अपने विचार के पन्नों पर शायद नहीं छापते। बहके-बहके अंदाज में भडक़ाऊ बातें लिखने वाले ऐसे लेखकों को महाराष्ट्र के ताजा भाषा विवाद में एक नया मसाला मिल गया, और आमतौर पर संतुलित लिखने वाले, गैरमराठीभाषी, गैरमहाराष्ट्रनिवासी लोग भी इन हमलों को सही करार देने में लग गए कि महाराष्ट्र में रहना है, तो मराठी बोलना है, में कुछ गलत नहीं है। कुछ लोगों ने तो यह भी लिखा कि राज ठाकरे के लोग मराठी न बोलने वाले लोगों को पीटते हुए दो जूते उनकी तरफ से भी मारें। एक हिंसक क्षेत्रवाद को भी अच्छे-खासे लोकतांत्रिक और समझदार लोगों में अपने चीयरलीडर्स मिल गए, यह बात कुछ हैरान करने वाली रही। भारत में दर्जनों भाषाएं बोली जाती हैं, और सैकड़ों बोलियां। कामकाज और रोजी-रोटी के फेर में, या सरकारी-निजी नौकरियों में तबादले के चलते लोगों को देश भर में कहीं भी जाना पड़ता है, रहना और काम करना पड़ता है। जिस मुम्बई को देश का सबसे अधिक सुलझा हुआ, और विविधताभरा महानगर माना जाता था, उस मुम्बई ने ठाकरे बंधुओं की इस ताजा राजनीति का शिकार होकर एक बार फिर गैरमहाराष्ट्रवासियों को परदेसी सा साबित करने की कोशिश की है। हम पूरी मुम्बई पर यह तोहमत लगाना नहीं चाहते, क्योंकि ठाकरे बंधु मुम्बई के सबसे बड़े बाहुबलि हो सकते हैं, लेकिन वे मुम्बई की आम जनता के प्रतिनिधि नहीं हैं। आज सत्ता की राजनीति के चलते शिवसेना को अपने पुराने तेवरों वाली वही पहचान फिर से पानी है, इसलिए भाईयों की यह जोड़ी बदन पर शेर की धारियां पेंट करवाकर अपने को असली शिवसेना साबित करना चाहती है। देश को यह बात अच्छी तरह समझना चाहिए कि यह सिर्फ भाषा विवाद नहीं है, यह उग्र क्षेत्रवाद का सिलसिला है, जो कि चुनाव जीतने के लिए किसी-किसी राज्य में, कभी-कभी मददगार भी होता है। छत्तीसगढ़ जैसा राज्य अभी तक उग्र क्षेत्रवाद, और उग्र भाषावाद से बचा हुआ है, और यही वजह है कि इनके नाम पर राजनीति करने वाले कोई लोग अब तक न पार्टी बना पाए, न कोई सीट जीत पाए। महाराष्ट्र आधुनिक महानगर होने के बावजूद इस उग्र क्षेत्रवाद का शिकार रहा है। देश के हिन्दीभाषी राज्यों को एक नजर देखें, तो यूपी, बिहार, एमपी-सीजी, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा में से शायद ही किसी में उग्र भाषावाद या क्षेत्रवाद पनप पाया हो। लेकिन गैरहिन्दीभाषी राज्यों में अलग-अलग समय पर, अलग-अलग मुद्दों को लेकर यह सामने आया। इसमें तमिलनाडु हिन्दीविरोध में सबसे अधिक आक्रामक रहा, लेकिन हाल ही में अभिनेता कमल हासन के एक बयान को लेकर कर्नाटक में घोर तमिलविरोधी भावनाएं भडक़ गई थीं। महाराष्ट्र तो हमेशा से ऐसी खबरों में रहा है, और लोगों को याद होगा कि एक वक्त ओडिशा में मारवाड़ी भगाओ आंदोलन चला था, और इस व्यापारिक समुदाय के हजारों लोगों को राज्य छोडक़र पड़ोसी छत्तीसगढ़ में काम शुरू करना पड़ा था। असम में बंगालियों के खिलाफ एक माहौल बने रहता है, और गैरहिन्दीभाषी कुछ और राज्यों में आक्रामकता और हिंसा के दर्शन होते रहते हैं। यह बात हम हिन्दी के लिए किसी रियायत को न्यायोचित ठहराने के लिए नहीं कह रहे, राज्यों के मुद्दों को याद करते हुए अचानक यह बात सूझी है।
रिटायर्ड चीफ जस्टिस डी.वाई.चन्द्रचूड़ जब तक नौकरी में रहे, उनसे जुड़े विवाद कम ही रहे। लेकिन अब एक ऐसे मामले में उनका नाम उलझा है, जो कि सबके मुंह का स्वाद खराब कर रहा है। वे नवंबर 2024 में रिटायर हुए, और अब 8 महीने बाद यह मुद्दा बन रहा है कि मुख्य न्यायाधीश के मकान में वे अब तक बने हुए हैं, और उनसे मकान खाली करवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अब केन्द्र सरकार को लिखा है। इस मामले की जो खबर छपी है उसके मुताबिक चन्द्रचूड़ को कई बार अतिरिक्त समय दिया गया कि वे अपना दूसरा इंतजाम कर लें। लेकिन इसके बाद भी वे कोई इंतजाम नहीं कर सके, और केन्द्र सरकार से उन्हें अगले कुछ महीनों के लिए किराए पर आबंटित मकान का हवाला देते हुए उन्होंने कहा है कि उनकी दोनों बेटियों की विशेष चिकित्सकीय जरूरतें हैं, और उसके मुताबिक इस मकान को तैयार करने में थोड़ा सा समय लग रहा है। यह बात सुनने में बड़ी खराब लग रही है कि कुछ महीनों की पात्रता के बाद कई और महीने सीजेआई के सरकारी बंगले में रहते हुए भी चन्द्रचूड़ अगला इंतजाम नहीं कर पाए थे, और सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ा है कि उसके कुछ जज गेस्ट हाऊसों में रह रहे हैं, इसलिए उसे तुरंत बंगले की जरूरत है।
हो सकता है कई लोगों को यह बात आम शिष्टाचार के खिलाफ लगे कि रिटायर्ड चीफ जस्टिस को इस तरह नोटिस देकर बंगला खाली करवाया जा रहा है। लेकिन इस मामले को एक दूसरे नजरिए से भी देखने की जरूरत है। चन्द्रचूड़ को यह मालूम था कि वे 10 नवंबर 2024 को रिटायर होंगे, और उसके बाद शायद तीन महीने में उन्हें मकान खाली करना होगा। भारत के मुख्य न्यायाधीश रह चुके व्यक्ति को केन्द्र से मकान आबंटित कराने में बहुत मशक्कत भी नहीं करनी पड़ी होगी। और अपनी बेटियों की खास जरूरतों का भी उनको अहसास रहा ही होगा। ऐसे में अगर वे रिटायर होने के पहले ही ऐसा खाली मकान छांटकर उसे तैयार करवा लेते तो आज ऐसी अप्रिय नौबत नहीं आती, और ऐसी कड़वाहट नहीं फैलती। अगर उनसे पहले भी कुछ जजों ने निर्धारित सीमा से अधिक तक सरकारी मकान रखे थे, तो भी उन्हें कोई अच्छी मिसाल नहीं माना जा सकता, और चन्द्रचूड़ ऐसी नौबत से बच सकते थे। दूसरी तरफ कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा चीफ जस्टिस अपने एक रिटायर्ड सीनियर के प्रति कुछ अतिरिक्त सद्भावना और शिष्टाचार दिखा सकते थे, और कुछ और हफ्ते बर्दाश्त कर सकते थे। नियम तो जाहिर तौर पर चन्द्रचूड़ को एक कमजोर जगह पर खड़ा करते हैं, और इससे बचना ही समझदारी होती।
लेकिन हम इसी अकेली बात पर आज की बात खत्म करना नहीं चाहते। ऐसा बहुत सी जगहों पर होता है कि किसी तारीख का लोगों को पहले से पता होता है, लेकिन उसके मुताबिक तैयारी नहीं की जाती। केन्द्र की प्रतिनियुक्ति से कई अफसर जब राज्य वापिस लौटते हैं, तो राज्य महीनों तक उन्हें कोई पोस्टिंग नहीं देते, जबकि बाकी वक्त ऐसे राज्य अफसर कम होने का रोना रोते रहते हैं। जब कई दिन पहले से पता रहता है कि किस तारीख को कोई अफसर लौटेंगे, तो सरकार उनके मुताबिक काम भी तैयार रख सकती है। महीनों तक विश्वविद्यालयों के कुलपति तय नहीं हो पाते, और संभागीय कमिश्नर को कार्यकारी कुलपति बना दिया जाता है। जबकि कुलपति का कार्यकाल किस तारीख को खत्म होगा, यह तो उसकी नियुक्ति के दिन ही तय रहता है, ऐसे में दो-चार महीने पहले से चयन प्रक्रिया शुरू हो सकती है, और कुलपति की कुर्सी एक दिन भी खाली न रखने का इंतजाम आसानी से हो सकता है। लेकिन हर सरकार ऐसी कुर्सियों को खाली रखती है, और जब सूरज दो बांस चढ़ चुका रहता है, तब वह जागती है, और महीनों से खाली कुर्सी के लिए पसंदीदा इंसान ढूंढती है। प्रदेशों में जो संवैधानिक आयोग अनिवार्य कर दिए गए हैं, उनका मकसद सरकार पर नकेल कसना भी रहता है। इसलिए सूचना आयोग, मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग, एसटीएससी आयोग, बाल कल्याण परिषद, तरह-तरह की अपील की संस्थाएं, रेरा, और ऐसी दर्जन भर दूसरी संस्थाओं की कुर्सियां बरसों तक खाली रखी जाती हैं, जबकि उनके खाली होने की तारीख पहले से तय रहती है। नतीजा यह होता है कि ऐसी संवैधानिक संस्थाओं से जनता को जो राहत मिलनी चाहिए, उसकी गुंजाइश खत्म ही हो जाती है। यह एक अलग बात है कि सत्ता जब किसी को मनोनीत करती भी है, तो भी वह अपने ऐसे भरोसेमंद और चहेते को मनोनीत करती है कि वे सत्ता के लिए असुविधा खड़ी न करें, लेकिन वह एक अलग मुद्दा है।
अमरीका के टेक्सास में कल अचानक आई बाढ़ में 50 से अधिक लोगों के मरने की खबर है जिसमें तकरीबन आधे तो ऐसे बच्चे हैं जो कि एक किसी कैम्प में इकट्ठा थे। अचानक हुई भयानक बारिश से नदी में और सूखी जगहों पर भी बाढ़ इस रफ्तार से आई कि लोग उसे समझ ही नहीं सके कि यह क्या हो रहा है। वहां के गवर्नर ने बताया कि वहां की बड़ी नदी गुआदालूपे में जल स्तर 45 मिनट के भीतर 26 फीट बढ़ गया। 26 फीट यानी ढाई मंजिला इमारत! और यह ऊंचाई किसी इमारत की नहीं है, यह नदी में जल स्तर की है। आमतौर पर लोग यह उम्मीद करते हैं कि अगर पानी ऊपर आएगा, खतरे के निशान तक पहुंचेगा, तो उसके लिए अधिकतर जगहों पर इंच-इंच के निशान लगे रहते हैं, और पुलों या किसी और दीवार पर बने इन निशानों को देखकर कहा जाता है कि पानी का स्तर कितना ऊंचा हुआ है। लेकिन पौन घंटे में 26 फीट पानी ऊपर जाने का मतलब हर दो मिनट से कम में एक फीट से अधिक पानी बढ़ जाना! इसके पहले अमरीका के कुछ राज्यों में 12 या 24 घंटों में 26 फीट का रिकॉर्ड रहा है, लेकिन इस बार के टेक्सास के रिकॉर्ड की मिसाल ढूंढने पर भी इतिहास में नहीं मिल रही है। मतलब यह कि मौसम की सबसे बुरी मार रिकॉर्ड तोड़ते चल रही है, और वह अकल्पनीय सीमा के पार जा रही है।
आज दुनिया में अधिकतर जगहों पर जलवायु परिवर्तन से वैदर-एक्स्ट्रीम कही जाने वाली घटनाएं जल्दी-जल्दी बढ़ रही हैं, और उनकी भयावहता भी बढ़ती चल रही है। हाल के दशकों में लोगों की सुख और सहूलियत की चाह ने धरती के पर्यावरण का संतुलन मरम्मत की सीमा के बाहर तक बिगाड़ दिया है। लोग इतनी बिजली खा रहे हैं, सामानों की इतनी खपत कर रहे हैं, निजी गाडिय़ों का इतना भयानक इस्तेमाल कर रहे हैं कि धरती का पर्यावरण इतना नुकसान झेल नहीं पा रहा है। लोगों की बिजली की बढ़ती हुई मांग पूरी करने के लिए कोयले के बिजलीघर बढ़ते चल रहे हैं, उनमें खपत बढ़ती चल रही है, उससे प्रदूषण बढ़ते चल रहा है, और उससे पर्यावरण का संतुलन खत्म हो चला है। इस मुद्दे पर लिखना जलवायु परिवर्तन पर एक निबंध लिखने सरीखा होगा, और इस निबंध को पढऩे वाले भी लोग अब कम से कम अमरीकी राष्ट्रपति भवन में नहीं हैं। डोनल्ड ट्रम्प ने दुनिया के सबसे अधिक खपत वाले देश अमरीका को जिस तरह पेरिस जलवायु समझौते से बाहर कर दिया है, और जलवायु परिवर्तन के पूरे मुद्दे को जिस तरह वह ग्रीन-धोखाधड़ी कहता है, उससे यह जाहिर है कि दुनिया पर्यावरण की अधिक बर्बादी की तरफ बढ़ रही है, और अमरीका इस बर्बादी का झंडाबरदार बना हुआ है। दुनिया का सबसे बड़ा मवाली ही जब पर्यावरण का दुश्मन बन जाए, तो बाकी दुनिया पर से नैतिक दबाव खत्म हो जाता है। नतीजा यह है कि आज अमरीका का एक राज्य धरती के इतिहास की सबसे तेज रफ्तार बर्बादी भुगत रहा है, और ट्रम्प के हाथ नगद रकम भेजने से परे और कुछ नहीं रह गया है।
सीबीआई ने देश के कई राज्यों में मेडिकल कॉलेजों को मान्यता देने के मामले में चल रहे व्यापक और लगातार भ्रष्टाचार में दर्जनों लोगों के खिलाफ अदालत में चार्जशीट पेश की है, और कई लोगों को गिरफ्तार किया है जिनमें छत्तीसगढ़ स्थित श्री रावतपुरा मेडिकल कॉलेज के ट्रस्टी और डॉक्टर भी हैं। इनके साथ चार्जशीट में रावतपुरा सरकार के नाम से चर्चित मध्यप्रदेश के एक धार्मिक-आध्यात्मिक व्यक्ति समझे जाने वाले रविशंकर महाराज उर्फ रावतपुरा सरकार का नाम भी लिखा गया है, जिनके नाम पर यह मेडिकल कॉलेज है। सीबीआई की इस एफआईआर से नेशनल मेडिकल कमीशन के व्यापक भ्रष्टाचार का भांडाफोड़ होता है जिसमें केन्द्र सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग जैसे कई महत्वपूर्ण संस्थानों के लोग मेडिकल कॉलेजों को फर्जी मान्यता देने में शामिल मिले हैं। इसी सिलसिले में ये गिरफ्तारियां हुईं, और इनमें यूजीसी के चेयरमेन रहे हुए डीपी सिंह का नाम भी शामिल है, जो गोपनीय सूचनाएं मेडिकल कॉलेजों को गैरकानूनी तरीके से बेचते थे। इस भयानक भ्रष्टाचार में मान्यता-कमेटी के सदस्य डॉक्टर भी गिरफ्तार हुए हैं, और महिला और पुरूष सभी इसमें शामिल हैं। देश में उत्तर और दक्षिण के बीच जो विभाजन चल रहा है, वह भी यहां काम नहीं आया, और उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक के लोगों ने इस जालसाजी, धोखाधड़ी, और रिश्वतखोरी में पूरी तरह से भाई-बहनचारा निभाया है। अब मान लो सीबीआई का भांडाफोड़ किया हुआ इतना व्यापक भ्रष्टाचार काफी न हो, तो सीबीआई ने गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में फार्मेसी काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमेन डॉ.मोन्टू पटेल का 54 सौ करोड़ रूपए का घोटाला पकड़ा है जो कि उसने देश के 12 हजार से अधिक फार्मेसी कॉलेजों से उगाही करके इकट्ठा किए हैं। सीबीआई का कहना है कि मोन्टू पटेल फरार हो गया है, और वह राजनीतिक संरक्षण से अब तक तमाम आरोपों के बाद भी फार्मेसी काउंसिल ऑफ इंडिया का चेयरमेन बना हुआ था, और अब अंडरग्राउंड होकर विदेश भागने के चक्कर में है। सीबीआई का ही कहना है कि उसने हवाला रैकेट से पैसा देश के बाहर भी भेज दिया है।
ये दोनों मामले देश की मेडिकल शिक्षा, और मेडिकल कारोबार से जुड़े हुए हैं, और इन दोनों में ऐसा व्यापक, संगठित, और परले दर्जे का भ्रष्टाचार यह सोचने को मजबूर करता है कि देश में चिकित्सा शिक्षा, चिकित्सा सेवा, और दवा कारोबार का क्या हाल है। यह सब तो उसके बाद है जब पता लगता है कि भारत से दुनिया भर के देशों में गई हुई ढेरों किस्म की दवाईयां घटिया, बेअसर, और मिलावटी मिली हैं। पहले तो यहां से गए हुए कफ सिरप से कुछ देशों में बच्चे मारे गए थे, और अभी यह पता लगा है कि बहुत से देशों में भारत से गई हुईं कैंसर की दवाईयां घटिया, नकली, और बेअसर निकली हैं। अब कैंसर मरीजों को ये दवा देने के बाद वहां के डॉक्टर और मरीज बेफिक्र हो गए होंगे कि उनका इलाज चल रहा है, और अब दवाईयों के ऐसे मिलने पर उनकी जिंदगी के वे गुजरे हुए दिन लौट भी नहीं सकते, वे जाने कितने अरसे से बेइलाज चल रहे थे। इससे परे देश भर में जगह-जगह चिकित्सा घोटाले मिल रहे हैं, छत्तीसगढ़ में भी जांच एजेंसियां लगातार लगी हुई हैं कि पिछले बरसों में इस राज्य में कैसी घटिया दवाएं खरीदी गईं, बिना मशीन री-एजेंट खरीद लिए गए, बिना टेक्नीशियन मशीन खरीद ली गई, और इंसान, मशीन, और री-एजेंट के बीच कोई रिश्ता ही नहीं रखा गया।
इन सब बातों को मिलाकर देखें, तो भारत की धार्मिक भावना पर भरोसा पुख्ता होने लगता है कि इतना सब होने पर भी अगर देश की आबादी 140 करोड़ बनी हुई है, बढ़ती चली जा रही है, तो यह सब ऊपरवाले की मेहरबानी है। बिना भगवान भरोसे इतनी जिंदगियां, ये डॉक्टर, ये दवाएं, और ये अस्पताल तो बचा नहीं सकते थे। कोई न कोई अदृश्य ताकत ऐसी है जो कि हिन्दुस्तानियों को जिंदा रखे हुए है। अब हैरानी की दूसरी बात यह है कि हर किस्म के कॉलेजों को मान्यता देने के लिए देश में जो ढांचा बना हुआ है, वह भ्रष्टाचार से बुरी तरह सड़ चुका है। चाहे इंजीनियरिंग कॉलेज हों, चाहे नर्सिंग, या दूसरे कोई पैरामेडिक कॉलेज हों, सबकी मान्यता में यही हाल है। इस पूरे कारोबार के एक जानकार, ऐसे एक कॉलेज संचालक राजीव गुप्ता ने हमारे यूट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल पर कई महीने पहले यह कहा था कि बिना रिश्वत दिए कोई मान्यता नहीं मिलती, और अभी सीबीआई के इन छापों से यह बात सही साबित हो रही है। हैरानी यह है कि नेशनल मेडिकल कमीशन के पहले मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया होती थी जो कि मेडिकल कॉलेजों की मान्यता का काम करती थी, और वह भी इसी दर्जे की बदनाम संस्था हो गई थी, और उसके उस वक्त के अध्यक्ष गुजरात के एक डॉ.केतन देसाई थे, जिन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों पर ही हटाया गया था। वे भी अहमदाबाद के मेडिकल कॉलेज में पढ़ाते थे, और बाद में आईएमए के अध्यक्ष बने, वल्र्ड मेडिकल एसोसिएशन के भी अध्यक्ष बने, और एमसीआई के भ्रष्टाचार की वजह से हाईकोर्ट ने उन्हें हटाया था, एक मेडिकल कॉलेज को मान्यता देने के लिए दो करोड़ रिश्वत लेते हुए डॉ.देसाई को गिरफ्तार किया गया था, और जेल भेजा गया था। ऊपर लिखी गई संस्थाओं के अलावा वे डेंटल काउंसिल ऑफ इंडिया का भी अध्यक्ष रहे। नगद रकम के अलावा सीबीआई ने देसाई के घर से डेढ़ किलो सोना, 80 किलो चांदी भी जब्त की थी, और 2020 में सरकार ने एमसीआई को खत्म करके नेशनल मेडिकल कमीशन बनाया, जिसने पांच साल के भीतर ही भ्रष्टाचार की नई ऊंचाईयां पा लीं।
भारत में शहरी विकास को लेकर केन्द्र सरकार बहुत बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाती है, लेकिन जब शहरों की जमीन पर बात उतरती है, तो उसमें राज्य सरकार की योजनाएं, राज्य स्तर की राजनीतिक दखल, शहरी विकास मंत्रालय का नियंत्रण, और स्थानीय निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की अपनी प्राथमिकताएं, ये सब जुड़ जाती हैं, और मनमाना काम होने लगता है। केन्द्र सरकार ने कई बरस पहले स्मार्टसिटी की योजना शुरू की, उसके लिए केन्द्रीय मद से हजारों करोड़ रूपए दिए, उसी के साथ राज्यों को भी पैसा देना पड़ा, और अधिकतर म्युनिसिपलों ने उस पैसे को बड़ी रफ्तार से खर्च और खत्म किया कि कोई पैसा वापिस न चले जाए। अब शहर तो स्मार्ट नहीं हुए, वहां के लोग भी स्मार्ट नहीं हुए, शहरों को अपनी सडक़ को साफ रखना भी नहीं सीखा, लेकिन स्मार्टसिटी के हजारों करोड़ खत्म हो गए।
हम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर जैसे देश के बहुत से शहरों को देखते हैं तो शहरी जिंदगी की एक सबसे बड़ी जरूरत, सार्वजनिक परिवहन पर कहीं पर काम हुआ है, और कहीं पर काम नहीं हुआ है। अब जबकि पूरी विकसित दुनिया में यह निर्विवाद रूप से मान लिया गया है कि सार्वजनिक परिवहन के बिना किसी शहर का कोई भविष्य नहीं हो सकता, दुनिया के अधिकतर महानगर मेट्रो की तरफ बढ़ चुके हैं, मेट्रो तक पहुंचने के लिए, या वहां से निकलने के बाद बसों का ढांचा भी अधिकतर जगहों पर है। योरप के कई शहरों या देशों में सार्वजनिक परिवहन को मुफ्त भी कर दिया गया है ताकि लोग निजी गाडिय़ों का कम से कम इस्तेमाल करें। इसके बिना शहरों से ट्रैफिक का बोझ कम नहीं होना है। आज दिल्ली मेट्रो को देखें, तो वह जितने मुसाफिर रोज ढोती है, अगर वह वक्त रहते शुरू नहीं हुई होती, तो आज दिल्ली की सडक़ों पर पैर धरने को जगह नहीं बची होती।
लेकिन आज जब एक तरफ सार्वजनिक परिवहन के लिए बसों की योजना केन्द्र सरकार के पैसों से देश भर के शहरों में आगे बढ़ रही है, और रायपुर में भी सौ इलेक्ट्रिक बसें आनी हैं, उनके लिए ढांचा विकसित किया जा रहा है। लेकिन इसके पहले भी पिछले कुछ बरसों में हम इसी शहर को एक मिसाल की तरह लें, तो यहां पर बहुमंजिला पार्किंग बनाई गईं, और ऐसी दो पार्किंग में शहर के सबसे व्यस्त इलाकों में सरकारी जमीन पर 35-40 करोड़ रूपए खर्च किए गए। इनकी बदहाली ऐसी है कि लोग यहां गाड़ी रखना नहीं चाहते, चार-पांच मंजिला ऊपर गाड़ी रखने के बाद नीचे आने-जाने के लिए लिफ्ट काम नहीं करती, चारों तरफ गंदगी का बुरा हाल रहता है, और गाडिय़ों की हिफाजत का भी ठिकाना नहीं है। अब बिना लिफ्ट के चार-पांच मंजिल पार्किंग से वे लोग कैसे आ-जा सकते हैं, जो उम्रदराज हैं, या जिन्हें चलने-फिरने में कोई दिक्कत है? फिर गिनी-चुनी कुछ सौ कारों के हिसाब से बनी हुई ऐसी महंगी पार्किंग को इस तरह बना दिया गया है कि गाडिय़ां मानो वहां उडक़र पहुंचेंगी। जब पार्किंग का इंतजाम होगा तो लोग गाडिय़ों का इस्तेमाल अधिक करेंगे, और उसका सीधा मतलब यह है कि सडक़ों पर गाडिय़ां बढ़ेंगी। पार्किंग को बढ़ाने से शहर की हालत नहीं सुधरती, बल्कि सडक़ों पर भीड़ बढ़ जाती है, और उसका नतीजा प्रदूषण की शक्ल में भी होता है। देश की राजधानी दिल्ली एक सबसे प्रदूषित शहर है, और यहां पर किसी भी बाजार में गाडिय़ों की कई कतारें पार्किंग के लिए लग जाती हैं, और जगह बन जाने का नतीजा यह रहता है कि लोग गाडिय़ां लेकर ही निकलते हैं। हम रायपुर शहर की बात करें, तो यहां पर 35-40 करोड़ से फिजूल की दो पार्किंग बनाने के बजाय इतने पैसों से अगर सिटी बसें चलाई जातीं, तो हो सकता है कि कारों का इस्तेमाल भी कम होता। इतने में सौ सिटी बसें आ जातीं, और सडक़ों से कारों की भीड़ भी घटती।
दिल्ली के एक महंगे रिहायशी इलाके लाजपत नगर में एक महिला और उसका 14 बरस का बेटा दोनों अपने घर में मरे हुए मिले। घर के बाहर तक खून बहकर निकल रहा था, इस पर महिला के पति और पड़ोसियों ने पुलिस को खबर की। मां-बेटे की लाशें अलग-अलग पड़ी मिलीं, दोनों खून से सनी थीं, और धारदार हथियार से गला रेतकर दोनों को मारा गया था। शक के आधार पर घर के नौकर को पकड़ा गया तो पूरे मामले का खुलासा हुआ। उसे इस महिला ने किसी बात पर डांटा था, उससे नाराज होकर उसने महिला का गला काट दिया, और यह कत्ल करते हुए बेटे ने देख लिया था, तो उसने उसे भी मार डाला। यह कैसी भयानक नौबत है कि जिस घरेलू कामगार को लोग इतने भरोसे के साथ रखते हैं, वे ही गला काटने पर उतारू हो जाएं! बड़े शहर हों, या छोटे शहर, संपन्न तबके के लोगों में यह आम बात रहती है कि वे घरेलू नौकर-नौकरानी रखते हैं, और उनकी पहुंच सारे घर तक होती है, तमाम लोगों तक रहती है। लेकिन इससे कुछ और सवाल भी उठ खड़े होते हैं जिनके बारे में हर किसी को सोचना चाहिए।
यह लोगों के अपने मिजाज पर रहता है कि वे घर-दफ्तर, या दुकान पर अपने मातहत काम करने वाले लोगों से कैसा बर्ताव करते हैं। जो लोग भले रहते हैं, उनका व्यवहार भी अच्छा रहता है, और उनके साथ काम करने वाले लोग दस-बीस बरस तक भी उन्हें छोडक़र नहीं जाते। लेकिन कुछ लोग ऐसे रहते हैं जिनकी जुबान पर गालियां बसी ही रहती हैं, जो अपने मातहत काम करने वाले लोगों का जीना हराम किए रहते हैं, और बात-बात पर उनको बेइज्जत करते रहते हैं। ऐसे लोगों के नौकर-चाकर कब उनके साथ बुरा करने या दगा करने की सोच लें, इसकी कोई गारंटी तो रहती नहीं है। और यह तो इस नौकर ने घर के दो लोगों के गले काट दिए, तो कत्ल की वजह से यह बात खबरों में आई, लेकिन अगर वह अपने अपमान का बदला लेने के लिए खाने-पीने में कुछ मिलाते चलता, घर की दवाईयों में कोई छेड़छाड़ करते रहता, सामानों की बर्बादी होने देता, तो ऐसी कई बातें तो अनदेखी भी रह जातीं, और गृहस्वामी को इसकी खबर भी नहीं होती।
जब लोग अपने निजी कामकाज के लिए घर, दफ्तर, या कार में किसी कामगार पर निर्भर करते हैं, तो उनको अपमानित करने से बचना चाहिए। कुछ लोग अपने ड्राइवर को भला-बुरा कहने के आदी रहते हैं, और अपमानित ड्राइवर जब तनाव और नफरत में गाड़ी चलाते हैं, तो जाहिर है कि वे गाड़ी मालिक के लिए भी एक खतरा तो रहते ही हैं। पुराने वक्त में तो यह बात भी कही जाती थी कि खाना पकाने वाले लोग जैसे मन से खाना पकाते हैं, वैसे ही वह खाना तन को लगता है। इसीलिए लोग यह मानते हैं कि मां के हाथ से बने हुए खाने से अच्छा और कोई खाना नहीं हो सकता, क्योंकि वह बहुत मोहब्बत के साथ बनाया जाता है। अब अगर लोग घर पर खाना बनाने वाले को बात-बात में भला-बुरा कहते रहें, तो जाहिर है कि वे पकाकर तो धर देंगे, लेकिन उसके साथ उनकी शुभकामनाएं नहीं रहेंगी।
दिल्ली की इस घटना के पहले भी कुछ और जगहों पर ऐसी घटनाएं हुई हैं। हो सकता है कि ऐसे कामगार भी बदमाश और मुजरिम हों, लेकिन यह भी हो सकता है कि मालिक-मालकिन का बर्ताव बर्दाश्त के बाहर हो। लोगों को अपनी खुद की सेहत और हिफाजत के लिए निजी कामगारों से संबंध एक सीमा से अधिक खराब नहीं करने चाहिए। और अगर साथ में गुजारा बिल्कुल भी मुमकिन न हो, तो कामगारों को बिदा कर देना चाहिए, कुछ दूसरे लोगों को ढूंढ लेना चाहिए। यहां पर हम उन तरीकों और तरकीबों को गिनाना नहीं चाहते जिनसे निजी कामगार बदला निकाल सकते हैं, क्योंकि जिन्हें ऐसी बातें सूझ नहीं रही होंगी, वे भी इन्हें तरकीबों की एक लिस्ट की तरह इस्तेमाल करने लगेंगे। लेकिन यह मानकर चलिए कि आपके एकदम आसपास काम करने वाले लोग अगर आपसे बहुत खफा हैं, आपका बर्ताव उनके साथ बहुत खराब है, तो आप खुद भी सुरक्षित नहीं हैं।
मध्यप्रदेश और राजस्थान की दो खबरें आज के एक अखबार में एकसाथ हैं जिनमें इकतरफा मोहब्बत के चलते सिरफिरे और हिंसक दो लोगों ने एक लडक़ी, एक महिला को मार डाला। ऐसा जगह-जगह हो रहा है, लोगों की आवाजाही, उनका उठना-बैठना, उनका लोगों के साथ संपर्क बढ़ते चल रहा है। आज शहरीकरण के साथ-साथ लड़कियों और लडक़ों की दोस्ती बढ़ रही है। ऐसे में कब किसी के मन में किसी दूसरे के लिए इकतरफा तथाकथित प्यार पनपने लगे, और वह दीवानगी की हद तक जाकर हत्यारा हो जाए, इसे समझना बड़ा मुश्किल रहता है। लेकिन आज चारों तरफ ऐसी हिंसा जितनी अधिक हो रही है, उसे देखते हुए समाज को इस उलझन को सुलझाने की जरूरत है, वरना लाशें गिरती रहेंगी।
जिस समाज में लोगों के उठने बैठने पर कम या अधिक हद तक बंदिश रहती हैं, वहां पर इकतरफा मोहब्बत का खतरा बड़ा अधिक रहता है। और यह मोहब्बत इस हद तक बावलापन पैदा कर देती है कि दुतरफा, या इकतरफा मोहब्बत जब टूटती है, तो उसके बाद भी आमतौर पर पुरूष या नौजवान युवक यह बर्दाश्त नहीं कर पाते कि उनकी पुरानी प्रेमिका की जिंदगी में उनका कोई नया प्रेमी भी आ जाए। ऐसा एक भूतपूर्व और वर्तमान का मिला-जुला प्रेम त्रिकोण भी इन दिनों कई मामलों में कातिल होने लगा है। और समाज में खबरें तो कत्ल जैसी घटना हो जाने के बाद या खुदकुशी के बाद ही आती हैं, जब तक हिंसा न हो तब तक का तो किसी को पता भी नहीं चलता कि लोगों के रिश्ते हिंसक हो रहे हैं।
अब यह समझना होगा कि लोग इकतरफा मोहब्बत का शिकार होने से बच कैसे सकते हैं? अक्सर तो यह होता है कि जिस स्कूल-कॉलेज, या जिस किशोर-नौजवान समूह में कोई एक लडक़ी बहुत अधिक खूबसूरत हो, तो कई नौजवान उसके आशिक बन जाते हैं, उन सबकी इकतरफा मोहब्बत उससे हो जाती है। लेकिन एक अनार, सौ बीमार होने पर अनार के एक-दो दाने भी किसी एक मरीज को नहीं मिल पाते। एक अकेली सुंदर लडक़ी, भला कितने प्रेमियों को बर्दाश्त कर सकती है? ऐसे में यह खतरा बड़ा रहता है कि खूबसूरत लडक़ी और औसत लडक़े के बीच की मोहब्बत अगर लडक़े की तरफ से इकतरफा है, तो जिस दिन लडक़ी मना करती है, वह लडक़ा अपने खुद के प्रति, या लडक़ी के प्रति हिंसा की बात सोचने लगता है। ऐसे में सबसे बड़ी सावधानी लडक़ों के मां-बाप को बरतनी चाहिए जो कि अपने लडक़े की किशोरावस्था शुरू होते ही उसे यह बात समझाएं कि कोई भी लडक़ी अपनी मर्जी से ही किसी लडक़े से रिश्ता रख सकती है, किसी दूसरे की चाहत को अपने सिर पर टोकरे की तरह नहीं ढो सकती। और टोकरा बनने की ऐसी हसरतें लडक़ों को सीधे जेल भिजवा सकती हैं। जिन लडक़ों के मां-बाप अपनी औलाद को समझदार और जिम्मेदार नहीं बना पाते हैं, वे बाद में अस्पताल में उनकी मलहम-पट्टी करवाते खड़े रहते हैं, या अदालत से उनकी जमानत करवाते हुए। फिर यह भी है कि लडक़े जब ऐसे किसी एक मामले में एक बार बदनाम हो जाते हैं, तो उनकी पढ़ाई-लिखाई, आगे नौकरी या किसी कामकाज की संभावना, सभी कुछ खत्म हो जाता है। दूसरी तरफ लड़कियों के मां-बाप को भी उन्हें समझाने की जरूरत है कि आज वे जिनके साथ उठ-बैठ रही हैं, उनके बारे में उन्हें अच्छी तरह तौल और परख लेना चाहिए। एक गलत लडक़े से संगत किसी लडक़ी को किसी अश्लील वीडियो में फंसा सकती है, बलात्कार या सामूहिक बलात्कार तक ले जा सकती है, और कल की जो दो घटनाएं हैं, उस तरह सडक़ों पर कत्ल भी करवा सकती हैं। इसलिए किशोरावस्था आते ही लडक़े हों, या लड़कियां, उनके मां-बाप को अपनी औलाद को व्यवहारिक समझ देनी चाहिए, जिसके बिना आज समाज में खतरे बहुत हो गए हैं।
ऐसे कई मामले हमारे सामने आए हैं जिनमें किसी लडक़े ने इकतरफा मोहब्बत जारी रखने के लिए लडक़ी को धमकाते हुए उसके कुछ फोटो-वीडियो रिवेंज-पोर्न की तरह इधर-उधर पोस्ट किए, अब उस लडक़े के मां-बाप कॉलेज से उसे निकाले जाने के बाद उसके लिए किसी औने-पौने कॉलेज का इंतजाम कर रहे हैं, और अदालत में भी खड़े हुए हैं। इकतरफा मोहब्बत को एक मानसिक रोग मानने के पहले उसे लालन-पालन की कमी से जोडऩे की जरूरत है। अब वह वक्त नहीं रह गया है जब लडक़े-लड़कियों का मिलना-जुलना ही कम होता था, आज की पढ़ाई-लिखाई, खेलकूद, ट्यूशन और कोचिंग, इनमें से हर जगह लडक़े-लड़कियों का मिलना-जुलना चलते ही रहता है, ऐसे में सर्फ की खरीददारी की तरह, पहले समझाने में ही समझदारी है।
मुम्बई फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ी हुई एक चर्चित अभिनेत्री शेफाली जरीवाला की कम उम्र में ही अचानक मौत हो जाने की जांच चल रही है। ऐसी चर्चा है कि वे जवान बनी रहने के लिए कई किस्म की दवाईयां लेती रहती थीं, और शायद उन्होंने खाली पेट भी ऐसी दवाईयां ले ली थीं। अब पुलिस पोस्टमार्टम करवा रही है, इसलिए हम इस मामले में अटकल लगाना नहीं चाहते, लेकिन इस किस्म की जीवनशैली के बारे में बात करना जरूर चाहते हैं कि लोग आज जवानी बरकरार रखने के लिए अपनी आर्थिक क्षमता के मुताबिक क्या-क्या नहीं कर रहे हैं, और कैसे-कैसे खतरे नहीं झेल रहे हैं?
लोगों को याद होगा कि अपनी मर्जी का रंग-रूप पाने के लिए दुनिया का सबसे चर्चित मामला पॉप सिंगर माइकल जैक्सन का था जिसने अपने चेहरे की अनगिनत प्लास्टिक सर्जरी करवाई थी, खाना-पीना तक सीमित कर दिया था, और बाद में ऐसी ही कई दवाईयों का हाथ उसकी कमउम्र में मौत के पीछे शायद था। आज प्लास्टिक सर्जरी, और तरह-तरह के कॉस्मेटिक ट्रीटमेंट के लिए लोगों की कतार लगी रहती है। चेहरे की मरम्मत करवाने, उसे नया रूप देने, और बदन को नया आकार देने से बढ़ते-बढ़ते दीवानगी अब महिलाओं के उन निजी अंगों तक पहुंच गई है जिन्हें गोरा करने, उनका आकार बदलने के खुले इश्तहार होने लगे हैं। यह बात समझने की जरूरत है कि खूबसूरती के बाजारू पैमानों को बेचने वाला बाजार लोगों को मुफ्त बेचैनी बेचता है, और फिर इस बेचैनी के चलते लोग अपने बदन के साथ तरह-तरह का खिलवाड़ करने लगते हैं। न सिर्फ विकसित दुनिया में, बल्कि भारत जैसे विकासशील देश में भी सबसे ऊपर की कमाई वाले पांच-दस फीसदी लोगों में बाजार ऐसी बेचैनी का रोपा लगाने में कामयाब हो गया है, और इसके बाद वह उनकी जेब से अपनी फसल काटते चल रहा है। इस बेचैनी का हमारे पास कोई इलाज नहीं है, क्योंकि यह एक आभासी समस्या, आभासी हीनभावना, और सपनों के पीछे दौडऩे की दीवानगी है, जिसका इलाज किसी के पास नहीं हो सकता, और एक मरम्मत के बाद लोग दूसरी मरम्मत के लिए भागने लगते हैं।
लोगों को इस बात का अहसास नहीं रहता कि अमरीका से शुरू हुआ बाजार किस हिंसक तरीके से बाकी तमाम देशों पर काबू कर लेता है। वहां एक बार्बी नाम की गुडिय़ा बनाई गई, और उसके असंभव किस्म के बदन के आकार को लेकर दुनिया की लड़कियों और महिलाओं में अपने बदन को उस जैसे नाप में ढालने की दीवानगी छा गई। लड़कियां खाना-पीना छोड़ दे रही हैं, क्योंकि उन्हें जीरो साईज का फिगर चाहिए। एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव इस गुडिय़ा का पूरी की पूरी पीढिय़ों पर ऐसा पड़ा कि लोगों का खाना-पीना छूट गया। बाजार ऐसी बेचैनी लोगों के बीच मुफ्त में फैलाता है, और उसके बाद लोग खर्च खुद होकर करते हैं। एक अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा के होंठ देखकर महिलाएं और लड़कियां अपने होठों का बोटाक्स ट्रीटमेंट कराने पर आमादा हो जाती हैं, और ऐसे ट्रीटमेंट से जितने चेहरे अधिक मादक और सुंदर होते हैं, उससे अधिक चेहरे बर्बाद हो जाते हैं। आज हालत यह है कि पश्चिम के कई देशों में ऐसे कॉस्मेटिक सर्जरी और ट्रीटमेंट वाले क्लीनिक में काम करने वाली नर्सें, और दूसरी कर्मचारी अपने घर पर सस्ते में इस तरह के प्रोसीजर कर रही हैं, जिनमें लोगों की मौतें तक हो रही हैं। चीन में ऐसे हजारों गैरकानूनी क्लीनिक चल रहे हैं, जो कि चीनियों की आंखों को बड़ा करने का वायदा करते हैं।
ओडिशा के जगन्नाथपुरी में सालाना रथयात्रा दुनिया का एक सबसे भीड़भरा मौका रहता है जब एक रथ को खींचने के लिए लाखों लोग इकट्ठे होते हैं, और यह समारोह कई दिनों तक चलते रहता है। जगन्नाथ की पूजा के विधि-विधान कई दिनों तक चलते हैं, इस बीच भगवान कभी मौसी के घर जाते हैं, कभी बीमार पड़ते हैं, और हर रीति-रिवाज से लाखों भक्त जुड़े रहते हैं। इस रथयात्रा के लिए लकड़ी का जो विशेष रथ बनाया जाता है, उसे लेकर अंग्रेजी भाषा में एक शब्द भी जोड़ा गया है। जो अतिविशाल गाडिय़ां या वाहन रहते हैं, उन्हें अंग्रेजी में जगरनॉट कहा जाता है। यह शब्द जगन्नाथ के रथ से लिया गया है। ऐसी रथयात्रा के दौरान कल इतवार की सुबह मुंहअंधेरे भगदड़ मची, और तीन भक्तों की मौत हो गई, 50 लोग घायल हो गए। इसके पहले भी भीड़ में दबने और दम घुटने से सैकड़ों लोगों को अस्पताल में भर्ती किया गया, जिनमें से कई की हालत खराब बताई गई थी। राज्य के मुख्यमंत्री मोहन माझी ने लोगों से माफी मांगी है, और लिखा है कि यह लापरवाही अक्षम्य है, सुरक्षा में कमी की तत्काल जांच होगी, और जिम्मेदारों के खिलाफ उदाहरणीय कार्रवाई की जाएगी। उन्होंने आगे लिखा कि रथयात्रा के दिन प्रभु जगन्नाथ के रथ को खींचने में बेहिसाब देरी को महाप्रभु की इच्छा करार देना, एक शर्मनाक बहाना है, जो प्रशासन की जिम्मेदारी से पल्ला झाडऩे की कोशिश है।
हादसा तो हो चुका है, लेकिन उसके बाद सबसे अच्छी बात यही हो सकती है कि घायलों की मदद की जाए, और घटना से सबक लिया जाए। इसके साथ-साथ यह भी जरूरी रहता है कि जिम्मेदार लोगों को हटाया जाए, और सरकार अपनी जिम्मेदारी माने। ओडिशा के भाजपा मुख्यमंत्री की इस बात के लिए तारीफ करनी होगी कि उन्होंने खुलकर सरकार की बदइंतजामी और लापरवाही, दोनों को माना है, कलेक्टर और एसपी को तुरंत बदला है, जांच के आदेश दिए हैं, और खुलकर माफी मांगी है। हम इतनी उम्मीद और करते हैं कि सरकार इससे एक सबक भी लेगी। इसके पहले भी कभी-कभी रथयात्रा के दौरान ऐसे हादसे हुए हैं, और अपार बेकाबू भीड़ में कुछ मौतें भी हुई हैं। हादसे का यह पहला मौका नहीं है, लेकिन इस बार जो कुछ पहलू सामने आ रहे हैं, उनकी भी जांच करने की जरूरत है, और अगली बार से ऐसा न हो, इसके लिए एक लिखित निर्देश अभी से जारी होने चाहिए।
इस बार की रथयात्रा में एक अलग ‘वीआईपी कल्चर’ देखने मिला, और ओडिशा के विपक्षी नेताओं से परे, बहुत से चश्मदीद गवाहों ने भी इसका जिक्र किया है। लोगों का कहना है कि घटना के एक दिन पहले शनिवार सुबह अडानी समूह के अध्यक्ष गौतम अडानी के लिए अलग इंतजाम किया गया, ताकि वे रथ को खींच सकें, इसके लिए रथ के रास्ते को खाली कराया गया। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि शुक्रवार की शाम जान-बूझकर तीनों रथों को बीच रास्ते रोक दिया गया था, ताकि शनिवार सुबह अडानी को रथ खींचने का मौका दिया जा सके। एक अलग समाचार बताता है कि भगदड़ के वक्त भक्तों के निकलने के गेट को बंद कर दिया गया था, क्योंकि वहां से ‘वीआईपी’ लोगों को भीतर ले जाया जा रहा था, और इसमें भीड़ बढ़ती चली गई, और बाद में भगदड़ हुई। जो भी हो, भारत के धर्मस्थलों पर अरबपतियों, नेताओं, और बड़े अफसरों या जजों के लिए अलग से इंतजाम कोई अनोखी बात नहीं है, और जिस तिरुपति में लोगों को 24-24 घंटे लाईन में लगने के बाद सिर्फ पलक झपकने जितनी देर के लिए प्रतिमा के दर्शन हो पाते हैं, उसी तिरुपति में देश के सबसे संपन्न लोगों के पहुंचने पर पूरा ट्रस्ट उनके साथ पूजा की वर्दी में चलकर फोटो खिंचवाता है, और देव प्रतिमा के सामने से बाकी भक्तों को हटवाता है। यह देश के अधिकतर तीर्थस्थानों पर होता है, और देवस्थानों से परे भी।
कल का ही एक वीडियो यूट्यूब, और फेसबुक पर देखने मिल रहा है जिसमें उत्तर भारत में कहीं पर एक पुल की मरम्मत चल रही है, बैरियर पर मरम्मत का बैनर लगाकर गार्ड खड़े हैं, वहां से निकलने वाले एक शव वाहन को रोक दिया गया है, और परिवार के लोग शव को पैदल ले जा रहे हैं, और वहां पहुंचे विधायक महोदय की गाड़ी को रास्ता देने के लिए बैरियर हटाया जा रहा है, लाश पैदल जा रही है, और विधायक की बड़ी सी गाड़ी उसी मरम्मत-पुल पर जाने दी जा रही है। यह जगह-जगह देखने मिलता है। कई जगह तो नेताओं के काफिले में एम्बुलेंस फंसती है, मरीज मर जाते हैं। कई जगह चौराहों पर नेताओं के काफिले रोके जाते हैं, और बारिश में भीगते हुए बाकी लोग खड़े रहते हैं। भारतीय लोकतंत्र में यह सामंती मिजाज और इंतजाम बड़ा ही आम हैं, और हर खास व्यक्ति अपने वक्त को अधिक कीमती मानते हुए आम लोगों को गुठली की तरह इस्तेमाल करते हैं।
किसी चकलाघर, स्पा सेंटर, या किसी और जगह पर पुलिस का छापा पड़ता है, तो उसके प्रेसनोट में गिरफ्तारी वगैरह के बाकी जिक्र के साथ-साथ यह बात भी आती है कि वहां से कुछ आपत्तिजनक सामग्री बरामद हुई। यह आपत्तिजनक सामग्री आमतौर पर कंडोम रहती है जिसे जब्त करके पुलिस यह साबित करने की कोशिश करती है कि वहां पर कोई वयस्क गतिविधि चल रही थी। लेकिन ऐसे प्रेसनोट का जो बड़ा नुकसान होता है, वह यह है कि पहले से अतिसंवेदनशील चल रहे भारतीय समाज में कंडोम को आपत्तिजनक मान लिया जाता है। हो सकता है कि अदालत में यह पुलिस को एक सुबूत की तरह कोई बात साबित करने में काम आए, लेकिन एक मासूम से सामान को इस तरह बदनाम करके पुलिस लोगों के बीच बचाव के इस साधन को आपत्तिजनक करार देती है।
अब कल्पना करके देखें कि अगर ऐसे किसी छापे में कंडोम जब्त न हों, तो क्या उससे समाज का, अपना बदन या अपनी सेवा बेचने वाली महिला का, या उसे खरीदने वाले पुरूष का कुछ भला हो जाएगा? विज्ञान और टेक्नॉलॉजी ने अवांछित गर्भ को रोकने के लिए, और तरह-तरह की सेक्स बीमारियों को रोकने के लिए यह आसान सा सामान बनाया है। सैकड़ों बरस पहले भी जब रबर से बने कंडोम का जमाना नहीं आया था, तब भी कुछ जानवरों की अंतडिय़ों से बना हुआ कंडोम अभी-अभी एक नीलामी में सामने रखा गया है। एक वक्त ऐसा था जब सेक्स से फैलने वाली बीमारियों का इलाज भी नहीं था, और उनसे बचाव ही सबसे बड़ी हिफाजत थी। उस वक्त से लेकर अब तक गर्भ और बीमारी इन दोनों को रोकने के लिए इससे आसान कोई जरिया नहीं है। और ब्रिटेन जैसा विकसित देश अपनी स्कूल की बड़ी कक्षाओं के बच्चों के लिए स्कूलों में ही कंडोम उपलब्ध कराता है क्योंकि वह इन बच्चों के स्कूली जीवन में ही मां-बाप बनने को रोकना चाहता है। और अगर वहां पर बच्चों के बीच किशोरावस्था में सेक्स हो रहा है, जिसे रोक पाना संभव नहीं है, तो फिर उसे सुरक्षित बनाना ही समझदारी की बात है। कोई भी समझदार समाज ऐसी समझदारी की बात करता है, न कि हिन्दुस्तानी पुलिस की तरह कंडोम को आपत्तिजनक करार देता है।
अभी चार दिन पहले छत्तीसगढ़ में एक धर्मस्थल के पास की पहाड़ी में एक बाबा का आश्रम पकड़ाया, और करोड़पति बाबा गांजा बेचते मिला। यह भी पता लगा कि उसके गोवा में गुजारे बरसों के दौरान उसके जो विदेशी संपर्क थे, वहां के लोग अभी भी बाबा के आश्रम में योग, या नशा, या शायद दोनों करने के लिए आते रहते थे, और आश्रम में कई तरह के सेक्स टॉयज भी मिले। अब पुलिस और समाचारों में इनको आपत्तिजनक सामान करार दिया जा रहा है। पुलिस तो आमतौर पर अदालती जरूरतों को समझते हुए इस तरह के पिटे हुए ढर्रे का काम करती रहती है, लेकिन पुलिस प्रेसनोट देखकर मीडिया भी उसे ज्यों का त्यों आपत्तिजनक लिखने लगती है। हमारे हिसाब से कंडोम का इस्तेमाल, उसे रखना आपत्तिजनक नहीं है, उसे आपत्तिजनक लिखना आपत्तिजनक है। क्या बिना कंडोम सेक्स-संबंध समाज के हित में हैं? क्या विज्ञान ऐसा सुझाता है, क्या दुनिया के कोई भी डॉक्टर ऐसा सुझा सकते हैं? तो फिर नैतिकता के पाखंड की वजह से कंडोम से परहेज कहां की समझदारी है? इसके साथ-साथ दूसरा सवाल यह भी उठता है कि लोगों के अपने देह सुख के लिए बनाए गए सेक्स-खिलौनों में कौन सी बात आपत्तिजनक है? भारत में सैकड़ों बरस पहले के बने हुए हाथीदांत के सेक्स-खिलौनों का इतिहास अच्छी तरह दर्ज है, और बाकी दुनिया में भी लोगों ने अपने-अपने तरीके से सुख पाने के रास्ते निकाले हुए हैं। दरअसल भारत में नैतिकता के नाम पर पाखंड इतना अधिक है कि किसी भी किस्म के सेक्स-सुख के खिलाफ बड़े-बड़े प्रवचनकर्ता इसे वासना करार देते हुए इसे एक जुर्म बताने लगते हैं, और इसे लेकर लोगों के बीच आत्मग्लानि भर देते हैं। जीवन में जो कुछ सुख दे सकते हैं, उन सबके खिलाफ धर्म, और समाज की तथाकथित नैतिकता कोई न कोई तर्क ढूंढ लेते हैं। लोगों को अपराधबोध से भर देते हैं। दूसरी तरफ धर्म के बताए हुए पाखंड को मानने वाले लोगों को मरने के बाद स्वर्ग या जन्नत में इन्हीं सब चीजों का वायदा भी करते हैं। अरे, जो धरती पर पाप है, वह स्वर्ग में जाकर उपहार बन जाएंगे?
ममता बैनर्जी की बंगाल की राजधानी कोलकाता में कल एक लॉ कॉलेज में तृणमूल कांग्रेस से जुड़े हुए कुछ छात्र-नौजवानों ने वहां की एक छात्रा के साथ कॉलेज में ही गैंगरेप किया, और उसका वीडियो बनाकर उसे चुप रहने की धमकी भी दी। पुलिस ने इनमें से तीन छात्रों को गिरफ्तार किया है, जो अलग-अलग स्तर पर तृणमूल कांग्रेस छात्र परिषद से जुड़े हुए थे। इसे लेकर बंगाल में प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा ने मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी को घेरा है, और यह मुद्दा बनाया है कि बंगाल में लड़कियां और महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। जो तीन नौजवान कल गिरफ्तार किए गए हैं, उनमें से दो, प्रमित मुखर्जी, और जे.अहमद इसी कॉलेज में पढ़ते हैं, और तीसरा अभियुक्त मनोजित मिश्र यहां का भूतपूर्व छात्र है। इन्होंने छात्रा को कॉलेज छात्रसंघ का अध्यक्ष बनाने की बात कहकर बुलाया था, और वहां गार्डरूम में उसके साथ तीनों ने बलात्कार किया। अब तृणमूल कांग्रेस यह कहकर हाथ झाड़ रही है कि अभियुक्त सालों पहले उसके छोटे-मोटे पद पर थे, और उन्हें कोई बड़ा पद नहीं दिया गया था। इसके जवाब में विपक्ष इन अभियुक्तों की तृणमूल नेताओं के साथ तस्वीरें सामने रख रहा है।
देश भर में बलात्कार राजनीतिक दलों को तभी दिखता है जब वह किसी विपक्षी पार्टी के राज में होता है। अपनी पार्टी के राज का बलात्कार पारदर्शी रहता है। अभी पिछले हफ्ते अमरीकी सरकार की अपने नागरिकों के लिए यह चेतावनी सामने आई कि महिलाओं को भारत में अकेले नहीं घूमना चाहिए, क्योंकि यहां बलात्कार और यौन अपराध बहुत होते हैं, और अकेली महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। इस पर कांग्रेस ने कई जगह इसे मुद्दा बनाया, लेकिन खुद कांग्रेस का राज रहते हुए कई प्रदेशों में बलात्कार की घटनाएं बहुत ज्यादा होती रहीं। हमने भारत में आबादी के अनुपात में अलग-अलग प्रदेशों में बलात्कार के आंकड़े देखे, तो वे कुछ विश्वसनीय नहीं लग रहे। भारत सरकार के नेशनल क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरो में वही आंकड़े जाते हैं, जो राज्य सरकार में पुलिस रिपोर्ट मेें दर्ज होते हैं। इनमें बड़े राज्यों में राजस्थान सबसे आगे है जहां प्रति एक लाख महिला आबादी पर 13.8 मामले दर्ज हो रहे हैं। इसके तुरंत बाद हरियाणा और दिल्ली का नंबर है। लेकिन देश की राष्ट्रीय प्रति लाख आबादी औसत बलात्कार दर 4.7 है, लेकिन जो पांच राज्य सबसे ऊपर हैं, उत्तराखंड, चंडीगढ़, राजस्थान, हरियाणा, और दिल्ली, इनमें राष्ट्रीय औसत से तीन गुना अधिक तक बलात्कार दर्ज हो रहे हैं। ऐसे में बंगाल में यह संख्या राष्ट्रीय औसत के आधे से भी कम है, 2.3 जो कि इस बात से भी प्रभावित हो सकती है कि कुछ राज्यों में पुलिस को जुबानी हुक्म रहते हैं कि वे बलात्कार की शिकार महिलाओं का रिपोर्ट दर्ज कराने का हौसला न बढ़ाएं। उत्तरप्रदेश में भी बलात्कार राष्ट्रीय औसत से बहुत कम 3.27 प्रति लाख महिला आबादी दर्ज हुए हैं। भाजपा के ही शासन वाले राजस्थान में यह आंकड़ा 13.84 प्रति लाख महिला है, और यूपी में 3.27, यह कुछ हैरान करता है कि अगल-बगल के दोनों हिन्दीभाषी प्रदेशों में इतना फर्क कैसे हो सकता है, सिवाय इसके कि इन जगहों पर पुलिस की रिपोर्ट लिखने में उदासीनता में फर्क हो।
लेकिन इन आंकड़ों से परे एक और चीज को देखने की जरूरत है कि देश में बलात्कार के दर्ज मामलों में कुल एक चौथाई लोगों को ही सजा हो पाती है। बाकी लोगों के मामले या तो झूठे रहते हैं, या जांच और सुबूत जुटाने में पुलिस कमजोरी करती है, या फिर दोनों पक्षों में कोई समझौता हो जाता है, या जांच और सुनवाई में जिस भ्रष्टाचार की आम चर्चा रहती है, उसके चलते भी लोग छूट जाते हैं। हम आए दिन खबरें देखते हैं कि बलात्कार के किसी आरोपी को जब जेल भेजा जाता है, तो उसका परिवार या उसका गिरोह शिकायतकर्ता के परिवार का जीना हराम कर देते हैं। ऐसे में बहुत सारे मामलों में लडक़ी या महिला शिकायत वापिस ले लेते हैं। दूसरी तरफ जमानत पर छूटकर आते ही आरोपी बहुत से मामलों में शिकायतकर्ता पर फिर हमला करते हैं, कहीं चाकू भोंकते हैं, कहीं तेजाब फेंकते हैं, और कहीं मार डालते हैं। इसलिए भारत में लडक़ी या महिला बलात्कार की रिपोर्ट लिखाते हुए यह भी ध्यान में रखती हैं कि उसके बाद वे कितनी सुरक्षित रह सकेंगी, या उन पर कितना खतरा बढ़ जाएगा। इस हिसाब से हमें एक पल को बंगाल और यूपी ेमें आंकड़े एकदम कम होने की एक वजह समझ में आती है कि वहां शिकायतकर्ता को अपनी हिफाजत खतरे में लगती है, इसलिए वे रिपोर्ट लिखाती नहीं हैं। बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी पहले भी बलात्कार की शिकार नाबालिग लडक़ी और महिला को राजनीतिक साजिश का हिस्सा बता चुकी हैं, और उत्तरप्रदेश में कई किस्म की अराजकता के राज एक-दूसरे के समानांतर चलते हैं, वहां जाति के असर से, या राजनीतिक ताकत से, पुलिस की मनमानी से, कई मुजरिम फंसते हैं, कई बचते हैं। इसलिए भी हो सकता है कि यूपी में शिकायत कम दर्ज होती हो।
गुजरात के अहमदाबाद में रथयात्रा बड़ी विख्यात रहती है। आज इस वक्त दोपहर 12 बजे वहां रथयात्रा निकल रही है, और सडक़ों पर एक भगदड़ भी मची हुई है। यात्रा की झांकियों में शामिल कई हाथी बेकाबू हो गए हैं, और सडक़ों पर मनमानी भाग रहे हैं। साधुओं सरीखे कपड़ों में उनके महावत दौड़-दौडक़र उनको काबू में करने की कोशिश कर रहे हैं। ये वीडियो देखना भी डरावना लग रहा है क्योंकि सडक़ें लोगों से पटी हुई हैं, और उससे भी अधिक यह कि चारों तरफ बहुत तेज आवाज में लाउडस्पीकर बज रहे हैं जो कि भारत में हर धार्मिक त्यौहार का आम हाल है। अब अगर इन हाथियों के विचलित हो जाने के पीछे यह शोरगुल जिम्मेदार होगा, तो हमें जरा भी हैरानी नहीं होगी। जो आवाज अंधभक्तों को छोडक़र बाकी किसी को भी बर्दाश्त नहीं हो सकती, उस दर्जे के शोरगुल से हाथी जैसे बड़े कानों वाले प्राणी विचलित होना, आपा खोना, और उस जगह से भाग निकलने की कोशिश करना बड़ा स्वाभाविक लगता है। अब हाथियों को लेकर सरकार के जो भी नियम हों, उनमें अगर नहीं भी है, तो भी इस बात को जोड़ा जाना चाहिए कि हाथी, ऊंट, घोड़े जैसे जानवरों को किसी भी शोभायात्रा में, या लाउडस्पीकरों वाली जगह पर न ले जाया जाए। अगर वे आपा खोकर हिंसक नहीं भी होते हैं, तो भी वे किस बुरी हद तक प्रताडि़त होते हैं, इसे वे ही समझ सकते हैं। इंसान तो फिर भी कानों में रूई लगा सकते हैं, कान बंद कर सकते हैं, या अपनी अंधभक्ति की वजह से उस शोरगुल का मजा भी ले सकते हैं, लेकिन जानवरों की तो ऐसी कोई अंधभक्ति होती भी नहीं है। इस मुद्दे पर लिखना इसलिए भी जरूरी लग रहा है कि यह तो सालाना एक बार की रथयात्रा है, लेकिन हम अपने ही शहर में तरह-तरह के राजनीतिक, धार्मिक, और सामाजिक जुलूस ऐसे देखते हैं जिनमें डीजे के भयानक शोरगुल के बीच इन जानवरों को सजाकर, इनके ऊपर संपन्न तबके के लोगों को, उनके बच्चों को बिठाकर शोभायात्रा निकाली जाती है, और इसे शान-शौकत की बात माना जाता है कि किस जुलूस में हाथी-घोड़ा-पालकी, कितने थे।
छत्तीसगढ़ में हाईकोर्ट राज्य के प्रमुख चौकीदार की तरह लाठी लेकर राज्य सरकार के पीछे लगा हुआ है कि डीजे का शोरगुल बंद कैसे होगा। अब तक सरकार को जारी नोटिसों की शायद सेंचुरी ही पूरी हो चुकी होगी। इस राज्य में डीजे के शोरगुल की वजह से मौतें भी हो चुकी हैं, और कत्ल भी हो चुके हैं। लेकिन जुर्म, और अस्पताल के आंकड़ों से परे शोरगुल से लोग जितना प्रताडि़त होते हैं, उसके कोई आंकड़े नहीं होते। शोरगुल को लेकर देश के तकरीबन हर हाईकोर्ट ने कई बार आदेश दिए हैं, सुप्रीम कोर्ट के कई आदेश हैं, लेकिन सरकारें इसलिए अमल नहीं करती हैं कि शोरगुल करने वाले किसी धर्म, जाति, राजनीतिक दल, या किसी संगठन के संगठित लोग रहते हैं, और जहां कुछ हजार लोगों की संगठित भीड़ हो, वहां पर सत्ता को ठंड में भी पसीना आने लगता है। सरकार किसी भी भीड़ को नाराज करना नहीं चाहती, नतीजा यह होता है कि भीड़ चाहे रेल के डिब्बे में बारात की हो, स्टेशन पर किसी सुरक्षा एजेंसी की हो, सडक़ों पर धर्म, या जाति की हो, वह एक अराजक और हिंसक हमलावर टोली की तरह कानून तोड़ती है, और पुलिस उन्हें ही हिफाजत देते हुए साथ-साथ चलती है। छत्तीसगढ़ में यह देखना बड़ा हैरान करता है कि हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस अपनी ही दर्जनों नोटिसों के बाद थककर और निराश होकर यह कहते हैं कि अफसर उसके हुक्म, और कानून मानना ही नहीं चाहते, और हाईकोर्ट की इस बात में जरा भी ज्यादती नहीं है, बस जजों की बेबसी है। कभी-कभी तो हमें लगता है कि अगर जज सरकार को कटघरे में खड़ा करके कहें कि उनसे गलती हो गई थी जो कि सरकार को नोटिस जारी किया था, और अब उन्हें अपनी सीमित, और सरकार की असीमित ताकत का अंदाज हो गया है, और सरकार से वे माफी चाहते हैं, उन्हें राज्य जैसा चलाना हो, चलाए।
अहमदाबाद की इस घटना से और कोई सबक ले या न ले, अदालतों की बात कोई सुनते हों, या न सुनते हों, सुप्रीम कोर्ट को इस घटना का नोटिस लेना चाहिए, और गुजरात सहित देश की हर सरकार से जवाब मांगना चाहिए कि बेबस जानवरों की शोरगुल और भीड़ के बीच ऐसी प्रताडऩा की इजाजत वे कैसे देती हैं, और इसे रोकने के लिए उनकी क्या योजना है। हमारा यह भी मानना है कि सुप्रीम कोर्ट को जनहित के ऐसे अलग-अलग कई मामलों में भरोसेमंद और साख वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों, या कुछ रिटायर्ड अफसरों को अपना जांच कमिश्नर बनाना चाहिए जो कि अदालत की तरफ से देश भर में ऐसे मामलों पर नजर रख सकें, और अदालत को समय-समय पर इन मुद्दों पर देश के हालात बता सकें। अदालतें कई मामलों में ऐसा करती हैं, कहीं वे जांच कमिश्नर बनाती हैं, कहीं वे किसी जटिल अदालती मामले को समझने के लिए अपनी मदद के लिए किसी निष्पक्ष वकील को न्यायमित्र नियुक्त करती हैं। हमने छत्तीसगढ़ के संदर्भ में इस बात को पहले भी लिखा था कि हाईकोर्ट को प्रदेश स्तर पर एक जांच कमिश्नर बनाकर, हर जिले में कुछ पर्यवेक्षक रखकर ऐसे सामाजिक लोगों से रिपोर्ट मंगानी चाहिए, और उस पर फिर राज्य सरकार और जिला प्रशासन से जवाब मांगना चाहिए।
कल एक जगह एक महिला घर पर नहा रही थी कि उसे अहसास हुआ कि बाथरूम के रौशनदान से कोई उसकी फोटो ले रहा है। फ्लैश की चमक देखकर उसने आवाज लगाई, तो पति और बेटों ने जाकर पकड़ा, तो पता लगा कि पास का एक व्यक्ति जो कि जमानत पर जेल से छूटकर आया था, वही यह काम कर रहा था, और पकड़े जाने पर उसने अपने भाईयों के साथ इस परिवार के लोगों को पीटा भी। बाद में मामला बढऩे पर उसे गिरफ्तार किया गया। दिक्कत की एक बात यह भी थी कि महिला का परिवार हिन्दू था, और फोटो खींचने वाला मुस्लिम था। यह अकेला मामला नहीं है, देश में जगह-जगह कई ऐसे दूसरे मामले भी हो रहे हैं, जिनमें हिन्दू लड़कियों या महिलाओं से मुस्लिम लडक़े या मर्द किसी तरह का गलत काम कर रहे हैं, और वे कहीं भोपाल में सुबूतों सहित पकड़ा रहे हैं, या छत्तीसगढ़ में कोई शादीशुदा अधेड़ मुस्लिम किसी कमउम्र हिन्दू लडक़ी से शादी कर रहा है, और उसे लेकर सामाजिक तनाव हो रहा है।
हिन्दू-मुस्लिम तनाव के देश के इस माहौल में कुछ लोगों को यह लिखना अटपटा लग सकता है कि हम आग में घी या पेट्रोल झोंक रहे हैं। लेकिन हमारा मानना है कि जिंदगी के असल मुद्दों को अनदेखा करने, या उन्हें कालीन के नीचे छुपा देने से, लपेटकर ताक पर धर देने से वे सुलझ नहीं जाते। भारत में हिन्दू-मुस्लिम तनाव चाहे कितना ही नाजायज क्यों न हो, वह एक हकीकत है। ऐसे में दोनों समुदायों के लोगों को इस बात के लिए तो सावधान रहना ही पड़ेगा कि अगर दूसरे समुदाय से कोई शिकायत आती है, तो क्या होगा? कानून तो बाद में अपना काम करेगा, भीड़ तब तक अपना काम कर चुकी रहेगी। इससे परे भी एक दूसरी चीज हमको लगती है कि प्रेमसंबंध हों या देहसंबंध, इन सबमें लोगों को इस सामाजिक हकीकत को याद रखना चाहिए कि ऐसी एक शादी किसी शहर में दंगा करवाने के लिए काफी हो सकती है। हो सकता है कि किसी हिन्दू को मुस्लिम से, या मुस्लिम को हिन्दू से मोहब्बत हो जाए, लेकिन उनका एक होना आज बहुत बड़े सामाजिक तनाव के साथ ही मुमकिन होगा। यह तनाव किस हद तक बढ़ेगा, इसका भी ठिकाना नहीं है, यह देश जगह-जगह भीड़त्या भी देखते आया है।
दूसरी बात यह कि आज जब इस देश में वैसे भी मुस्लिमों के आर्थिक बहिष्कार के फतवे चलते ही रहते हैं, तब यह भी देखने की जरूरत है कि एक हिन्दू-मुस्लिम तनाव ऐसे फतवों को और बढ़ावा देने की क्षमता रखता है। फिर यह भी है कि देश में कहीं लोग मुस्लिमों के लाए हुए खाने को लेने से इंकार कर रहे हैं, कहीं टैक्सी का मैसेज बताता है कि ड्राइवर मुस्लिम है, तो लोग बुकिंग कैंसल कर देते हैं, मुंबई जैसे महानगर में भी किसी मुस्लिम को किसी हिन्दू बहुल इमारत में फ्लैट किराए पर, या खरीदने के लिए नहीं मिलता। जब देश में एक अघोषित और घोषित सामाजिक बहिष्कार बड़े पैमाने पर चल रहा है, तो ऐसे में कम से कम मुस्लिमों को यह ध्यान रखने की जरूरत है कि किसी हिन्दू लडक़ी से उनकी मोहब्बत, या शादी, किस तरह उनके पूरे परिवार, उनके पूरे पेशे, और उनके पूरे समुदाय के लिए बहिष्कार का फतवा ला सकती है। हम न तो हिन्दू-मुस्लिम मोहब्बत के खिलाफ हैं, न ही हिन्दू-मुस्लिम शादी के, लेकिन आज देश में जो तनाव है उसे देखते हुए ही लोगों को ऐसी मोहब्बत या शादी में पडऩा चाहिए। कानून में तो बहुत सारी चीजों की इजाजत रहती हैं, लेकिन देश की सरकारें ऐसी हर हिफाजत को लागू नहीं कर पातीं, और कई बार तो कई सरकारें ऐसा लागू करना चाहती भी नहीं हैं। देश में कई प्रदेशों में सरकारें ही साम्प्रदायिकता को बढ़ा रही हैं, और देश का कानून भी उन सरकारों का कुछ नहीं बिगाड़ पा रहा। सुप्रीम कोर्ट तक हेट-स्पीच के मामले में पूरे देश की सरकारों को नोटिस देकर चुप बैठ गया है। देश भर में हेट-स्पीच का सैलाब चलते ही रहता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के साफ-साफ नोटिस के बावजूद स्थानीय सरकारें, और उनकी मातहत पुलिस कोई जुर्म दर्ज नहीं करतीं। देश में जब माहौल ऐसा है, तो हिन्दू-मुस्लिम के बीच का रिश्ता बहुत सारे खतरे लेकर आता है, और ऐसी एक शादी भी अनगिनत मुस्लिमों की नौकरी की संभावनाएं छीन लेती है, क्योंकि इसके बाद लोग अपने घर-दफ्तर, या कारोबार की किसी और जगह पर किसी मुस्लिम को काम पर रखने से कतराते हैं। हम हिन्दू-मुस्लिम अलगाव की वकालत नहीं कर रहे हैं, लेकिन आज के माहौल में इनका किसी भी तरह का मिलन दोनों समुदायों के बीच की खाई को और गहरा, और चौड़ा करते चल रहा है।
कुछ लोग अखबारों की खबरों से घबराने लगे हैं कि रात-दिन पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका, इन सबकी हिंसक खबरों को पढक़र, या टीवी पर देखकर लोगों का प्रेम और परिवार के रिश्तों पर से भरोसा उठते जा रहा है। अब तो हिंसा की खबरों से परे उन पर आधारित हँसी-मजाक के ऐसे वीडियो बनने लगे हैं जो कि प्रेम, शादी, और हनीमून में मरने-मारने के तौर-तरीकों का मजाकिया जिक्र करते हैं, और कहीं कोई नीला ड्रम गिनाते हैं, तो कहीं हनीमून पर उत्तर-पूर्व जाने की बात करते हैं। हम इस मामले पर पहले भी लिख चुके हैं, लेकिन इस पर और लिखने की जरूरत इसलिए है कि ऐसी पारिवारिक, सामाजिक, और प्रेमसंबंधों की हिंसा पर फिक्र जरूरी है। अगर ऐसी हिंसा को कम करना है, तो फिर इसकी जड़़ों तक पहुंचना होगा। वैसे तो प्रेम और विवाह, इन दोनों ही किस्म के संबंधों में पुरूष की हिंसा हमेशा से सिर चढक़र बोलती रही है, और लहू तो महिला का ही बिखरते रहा है, हमने इसी जगह पर दो-चार दिन पहले ही पिछले पांच बरस के आंकड़े गिनाए थे कि किस तरह आज भी पत्नी की करवाई गई पति-हत्या साल भर में अधिकतम 271 हुई है, और पत्नी की हत्या कम से कम 6000 तो हुई ही है, और अधिकतम तो 6700 है। इस मुद्दे पर आज फिर से लिखने की जरूरत इसलिए लग रही है कि इस एक बड़ी सामाजिक समस्या, और खतरे के बहुत से पहलू हैं जिन पर एक बार में लिखना नहीं हो पाता, और आज हम उसी के कुछ दूसरे पहलुओं पर लिखना चाहते हैं।
आज जब लड़कियां कॉलेज तक पढ़ रही हैं, कई किस्म के काम में लग रही हैं, शहरीकरण की वजह से शहरों में जाकर, वहां की आधुनिक जिंदगी में जीकर कामकाजी हो जाती हैं, तो फिर वे भी अपने आपको परंपरागत लडक़ी या महिला से अलग, एक इंसान समझने लगती हैं। उनके भीतर की भावनात्मक और मानवीय बातें उन्हें महत्वाकांक्षी बनाती हैं। एक-दूसरे से मेलजोल की वजह से लोगों में प्रेमसंबंध भी होते हैं, और आखिर में जाकर जब मां-बाप को पता लगता है कि बेटी अपनी मर्जी से शादी करना चाहती है, तो उनके भीतर का शहंशाह अकबर तलवार लेकर उठ खड़ा होता है, और बेटी की पसंद को दीवार में चुनवाने की कोशिश करने लगता है। दूसरा धर्म, दूसरी जाति न भी हो, तो भी कई मां-बाप अपनी लडक़ी की पसंद को सिर्फ इसलिए खारिज कर देते हैं कि अपनी जाति के भीतर भी लडक़े की जाति कुछ नीची समझी जाती है। लोगों को याद होगा कि किस तरह हिन्दुस्तान का एक नेत्रहीन धर्मगुरू वीडियो-कैमरों के सामने ही यह गिनाता है कि ब्राम्हणों के भीतर कौन-कौन से ब्राम्हण नीचे माने जाते हैं, और उनसे रिश्ता नहीं किया जाता है। इस तरह मां-बाप, खासकर लडक़ी का परिवार बेटी की पसंद पर इसलिए भी विचलित हो जाता है कि भारतीय समाज में कन्या तो दान की वस्तु रहती है, और किसी वस्तु की भला क्या पसंद हो सकती है?
इसलिए आज जब लड़कियां पढ़-लिखकर कामकाजी हो रही हैं, तो वे महत्वाकांक्षी भी हो रही हैं। और प्रेमसंबंधों में, विवाह संबंध में जब उनके साथ कोई धोखा होता है, उन्हें कोई निराशा होती है, तो वे भी ठीक उसी तरह बेवफाई की सोचने लगती हैं, जिस तरह मर्द हमेशा से ही सोचते आए हैं। अब तक होता यही था कि जानलेवा हिंसा हो, या पारिवारिक प्रताडऩा, पुरूष उसे करता था, और महिला उसे सहती थी। लेकिन अब पुरूष का यह एकाधिकार खत्म हो गया है। अब चाहे पांच फीसदी सही, उतनी प्रेमिकाएं या पत्नियां एक सीमा के बाद प्रताडि़त होने पर किसी प्रेमी की मदद से, या सुपारी-हत्यारा ढूंढकर अपने प्रेमी या पति को निपटाना भी जान रही हैं। यह बात गौरवशाली भारतीय परंपरा से कुछ अलग है, और नई और अटपटी है। पुरूषों को यह समझ ही नहीं पड़ता कि वे भी धोखा खा सकते हैं, क्योंकि अब तक तो वे धोखा देते ही आए थे।
अभी अहमदाबाद विमान हादसे के बाद, और उसके पहले भी लगातार विमानतलों, और सरकारों को कई तरह की धमकियां मिल रही थीं, कि किसी प्लेन में बम रखा है, या किसी और तरह का खतरा है। ऐसी हर धमकी के बाद उड़ान को वापिस ले जाया जाता है, बारीकी से जांच होती है, और घंटों बर्बाद होते हैं। लोगों का निजी समय तो लगता ही है, देश की अर्थव्यवस्था भी इससे खराब होती है, और सुरक्षा एजेंसियों की अंधाधुंध दौड़-भाग होती है जिससे यह खतरा भी खड़ा हो जाता है कि उसी वक्त कहीं सचमुच का खतरा रहे, तो उसके लिए सुरक्षा साधन कम पड़ें। ऐसे में पूरी दुनिया में यह देखा गया है कि कई किस्म के लोग ऐसी झूठी धमकियां भेजने का शौक रखते हैं। आमतौर पर इनको किसी और से हिसाब चुकता करना रहता है, और अपनी भड़ास निकालने के लिए वे इसको एक जरिया बना लेते हैं।
पिछले एक साल में गुजरात सहित 11 राज्यों को इसी तरह बमों की धमकी भेजने वाली एक कामकाजी महिला को अहमदाबाद पुलिस ने गिरफ्तार किया है जो कि चेन्नई की रहने वाली है, और एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में वरिष्ठ सलाहकार के पद पर काम कर रही है। यह किसी व्यक्ति से एकतरफा प्रेमसंबंध में थी, और उसकी शादी किसी और से हो जाने से वह बदला निकालने के लिए उसके नाम से एक फर्जी ईमेल आईडी बनाकर बमों की झूठी धमकी भेजती थी, ताकि वह व्यक्ति परेशानी में फंसे। चूंकि यह जानकार कामकाजी थी, उसने डार्कवेब, और इसी किस्म की कुछ दूसरी इंटरनेट ईमेल सुविधाओं का इस्तेमाल किया जिससे वह तो बच सके, और जिससे वह प्रेम करती थी, वह फंस जाए। साइबर पुलिस को भी इसकी पहचान करते हुए इसे पकडऩे में साल भर लग गया, वह भी वह एक गलती के चलते पकड़ में आई।
अब अगर यह देखें कि इंटरनेट और साइबर औजारों की मामूली जानकार एक महिला भी असफल प्रेम का बदला लेने के लिए अगर इस हद तक जा सकती है, तो फिर जो लोग सचमुच ही हैकर दर्जे के साइबर विशेषज्ञ हैं, वे क्या नहीं कर सकते? और अब तो दिनोंदिन हालत यह हो रही है कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के इस्तेमाल से लोगों की इस किस्म की ताकत बढ़ती चली जा रही है, और घुसपैठ आसान होती जा रही है। हमने दो ही दिन पहले यह लिखा था कि किस तरह 16 सौ करोड़ पासवर्ड चोरी कर लिए गए, और उन्हें इंटरनेट पर अपराधियों के डार्कवेब पर बेचा जा रहा है। इसके पहले भी कई हैकिंग इस किस्म की हो चुकी हैं, और अब कल्पना करें कि चुराए गए एक-एक पासवर्ड से अगर दुनिया भर में लोग इसी तरह की धमकियां भेजते रहें तो क्या होगा? आज वैसे भी दुनिया में रिवेंज पोर्न नाम से कल तक के प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे के अंतरंग पलों के फोटो-वीडियो पोस्ट करते रहते हैं, और अब जांच-पड़ताल एक किस्म से पुलिस की क्षमता को पार कर रही है। अब कुछ अधिक ऊंचे दर्जे के मुजरिम अगर चुराई गई शिनाख्त, या गढ़ी गई किसी शिनाख्त से ऐसी और धमकियां भेजने लगेंगे, तो क्या होगा? दुनिया भर में हर पल हजारों विमान उड़ान भरते रहते हैं, और अगर इंटरनेट लोगों को झूठी पहचान गढक़र धमकियां भेजने की छूट देगा, जो कि अभी चल भी रहा है, तो फिर धमकियों और बदहवासी का यह सिलसिला कहां तक नहीं पहुंचेगा?
ईरान पर अमरीका के हवाई हमले से बातचीत का आखिरी रास्ता भी फिलहाल तो खत्म हो गया है। अमरीका का यह निर्वाचित बेदिमाग, और बददिमाग तानाशाह अपने दोस्तों और दुश्मनों, दोनों के साथ के सारे पुल गिराते चल रहा है। उसने पूरे के पूरे योरप, और नाटो को धोखा दिया, उसने भारत सहित दर्जनों देशों के साथ बदसलूकी की, नीचा दिखाया, उसने रूस के साथ एक अप्राकृतिक प्रेम दिखाते हुए, ईरान को लेकर उसे भी बुरा झटका दिया। राष्ट्रपति बनने के बाद से ट्रंप ने संयुक्त राष्ट्र की सारी संस्थाओं को खारिज कर दिया, जलवायु समझौते को खारिज कर दिया, अमरीकी विश्वविद्यालयों को नीचा दिखाया, और उनका दीवाला निकाल देने का काम किया, दुनिया भर में अमरीकी मदद करने वाले यूएस-एड को खत्म किया, और तो और उसने अभी पिछले पखवाड़े अपने जिगर के टुकड़े एलन मस्क से भी दुश्मनी कर ली। उसने दुनिया के सबसे बदनाम और घटिया देशों में से एक, इजराइल को बाप बनाकर सिर पर बिठाकर रखा है, और अमरीकी राजनीतिक-कार्टूनिस्ट कार्टून बना रहे हैं कि इजराइली प्रधानमंत्री ट्रंप के चेहरे वाले कुत्ते को चेन से बांधकर चल रहा है, और उससे ईरान के सुप्रीम नेता को कटवा रहा है। अमरीकी जनता के बीच यह बात उठ रही है कि उसने वोट ट्रंप को दिया था, और अब वह इजराइली प्रधानमंत्री की गुलाम बन गई है।
ऐसी तमाम बातों के बीच यह भी देखने की जरूरत है कि जो ईरान लगातार अमरीका के साथ एक परमाणु समझौते के लिए मेज पर बैठकर बात कर रहा था, बातचीत जारी ही थी, कि ट्रंप की दी गई 60 दिनों की समय सीमा पूरी हुई, और 61वें दिन ट्रंप के आज के सबसे बड़े हमबिस्तर इजराइल ने ईरान पर हवाई हमला शुरू कर दिया। इसके बाद ईरान हमलों के बीच भी यूरोपीय देशों के साथ बातचीत कर रहा था, और उसके दो दिन के भीतर बिना किसी नए घटनाक्रम के ट्रंप ने ईरान पर दुनिया के इतिहास के सबसे बड़े बम गिराए, और इस पर गर्व करते हुए ट्रंप आने वाले दिनों के लिए भी ईरान को धमकियां दे रहा है। नतीजा यह हुआ है कि पूरी दुनिया में तेल का संकट आते दिख रहा है, और तेल के दाम लगातार बढ़ सकते हैं जिससे कि दुनिया की हर अर्थव्यवस्था पर चोट पहुंचेगी। फिर इस जंग के आगे बढऩे की आशंका में दुनिया भर के शेयर बाजार डूब रहे हैं। वैसे भी ट्रंप की तूफानी लहरों की तरह ऊपर-नीचे आती-जाती अप्रत्याशित टैरिफ-नीतियों के चलते खुद अमरीकी कारोबारी भयानक आशंकाओं से घिरे हुए हैं, और पूरी दुनिया का कारोबार अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है। ऐसे में ईरान में एक निहायत नाजायज, और गैरजरूरी फौजी मोर्चा खोलकर ट्रंप ने खुद अमरीका को एक ऐसी नई मुसीबत में डाला है जिसे उसी की रिपब्लिकन पार्टी के सांसद पसंद नहीं कर रहे हैं, बाकी का अमरीका तो इस फिजूल के जंगी एडवेंचर के खिलाफ है ही।
हम जरा सा पुराना देखें, तो अभी 2016 के राष्ट्रपति चुनाव के प्रचार में ट्रंप ने अपने पिछले एक रिपब्लिकन राष्ट्रपति बुश के इराक पर हमले की कड़ी आलोचना की थी। सार्वजनिक रूप से बार-बार कहा था कि अमरीका को यह युद्ध लडऩा ही नहीं चाहिए था। उसने अपनी ही पार्टी की सरकार के बारे में साफ-साफ कहा था कि यह हमला इराक पर जनसंहार के हथियारों का जखीरा रखने का झूठा आरोप लगाकर किया गया था, और यह एक बहुत महंगा गलत फैसला था जिसने मध्य-पूर्व को अस्थिर भी कर दिया था। ट्रंप ने चुनाव प्रचार में खुलकर यह आलोचना की थी, और आज पश्चिमी रेडियो-टीवी स्टेशन उसकी वह रिकॉर्डिंग निकालकर याद दिला रहे हैं कि ट्रंप ने इस बार 2024 के चुनाव प्रचार में बार-बार यह कहा था कि अमरीका दुनिया की किसी भी जंग में हिस्सा नहीं लेगा। और कुछ महीनों के भीतर ही ट्रंप ने ईरान पर यह पूरी तरह बेबुनियाद तोहमत लगाकर असाधारण हमला किया है, जो कि अमरीका को एक लंबी जंग में खींच सकता है। इस तरह ट्रंप ने 2016 और 2024 की अपनी खुद की घोषणाओं, और वायदों के खिलाफ जाकर यह हमला बोला है। फिर यह भी है कि फिलीस्तीन पर अमानवीय युद्ध-अपराध लगातार करने वाले इजराइल को लेकर आज जब विश्व समुदाय उसके खिलाफ हो चुका है, उस वक्त अमरीका न सिर्फ फिलीस्तीन पर बरसाने के लिए इजराइल को हथियार दे रहा है, बल्कि वह लेबनान से लेकर ईरान तक दूसरी कई जगहों पर इजराइली हमलों में उसके साथ सबसे बड़ा मददगार बनकर खड़ा हुआ है, और अमरीका के खरबों डॉलर डुबा भी रहा है।
अहमदाबाद विमान दुर्घटना हुई, और सैकड़ों लोग पल भर में मारे गए, तो उसके बाद सोशल मीडिया पर एक पोस्ट का सैलाब सा आ गया। गीता की एक कॉपी की फोटो चल निकली कि जब सब कुछ जल गया, तब भी गीता का बाल बांका नहीं हुआ। बाद में कुछ दूसरे लोगों ने यह भी लिखा कि यह गीता विमान पर सवार नहीं थी, यह नीचे मेडिकल कॉलेज के हॉस्टल में रखी हुई थी, जिसके ऊपर यह विमान गिरा था, और हॉस्टल के कमरों में तो आग लगी नहीं थी। इन दिनों हवा कुछ ऐसी है कि लोग अपनी पसंदीदा झूठ को, शायद यह जानते-समझते भी कि वह शायद झूठ भी हो सकता है, आगे बढ़ाते चलते हैं। फिर आबादी का एक हिस्सा ऐसा है जो धर्म से जुड़ी किसी भी अफवाह को, या झूठ को आगे बढ़ाना अपनी धार्मिक जिम्मेदारी मानता है। नतीजा यह हुआ कि गीता को करोड़ों लोग फायरप्रूफ साबित करने लगे, और एक किस्म से ऐसा माहौल बनने लगा कि आग या किसी दूसरे हादसे से बचना हो, तो गीता साथ रखना चाहिए।
पौने तीन सौ लोगों की मौत वाली इस हवाई दुर्घटना में जितनी हमदर्दी बेमौत मरने वालों के लिए जाहिर की गई, तकरीबन उसी टक्कर की उपलब्धि एक गीता के न जलने की बेबुनियाद खबर को माना गया। इससे यह भी लगा कि लोगों की जिंदगी में असल इंसानों की जिंदगी, और एक किताब की जिंदगी में अधिक अहमियत किस बात की हो गई है! ऐसे में शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने कैमरों के सामने एक शानदार हौसले की बात कही कि लोग कह रहे हैं कि गीता बच गई। उन्होंने सवाल किया कि इतनी बड़ी संख्या में, सैकड़ों लोग मर गए, और गीता बच गई, तो कौन सी बड़ी बात हो गई? उन्होंने कहा चमत्कार तो तब होता जब गीता जल जाती, और लोग बच जाते। उन्होंने कहा कि ऐसी कहानियां उन्हें खुश नहीं करती हैं, दुखी ज्यादा कर देती हैं। उन्होंने कहा कि जहां मानव जीवन की हानि हुई है, वहां ऐसी रिपोर्टिंग भी दुखी करती है जहां मीडिया किताब को हाथ में लेकर यह बताता है कि यह नहीं जली।
गीता चूंकि एक धर्म से जुड़ी हुई किताब है, इसलिए इसी धर्म के एक प्रमुख जब साफ-साफ इस बात को कहते हैं, तो भारत के अभिभूत धर्मालुओं पर थोड़ा-बहुत असर होने की एक गुंजाइश बनती है। हालांकि अधिक सनसनीखेज बात गीता का बचना है, और इसलिए इंसानों के जलने पर उतनी हैरानी नहीं हुई, इंसान तो जलते ही रहते हैं। यह सब देखकर लगता है कि धर्म का सबसे बड़ा असर दिमाग, तर्कशक्ति, और न्यायप्रियता को खत्म करने का होता है। धर्म लोगों को इस कदर हिंसक बना देता है कि वे धर्म के नाम पर नाबालिग बच्चों को सेक्स-गुलाम बनाने को भी धर्मानुकूल मान लेते हैं। अफगानिस्तान और उसके आसपास के तालिबानों ने क्या नहीं किया? और सब कुछ धर्म के नाम पर किया, आज भी धर्म के नाम पर कर रहे हैं। वेटिकन से जुड़े पादरियों ने लाखों बच्चों का यौन-शोषण किया, और वेटिकन ने उन्हें बचाने में पूरी ताकत लगा दी, और यह सब भी धर्म के ही नाम पर हुआ। लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान में स्वर्ण मंदिर में भिंडरावाले के आतंकी अपने फौजी दर्जे के हथियारों के साथ डेरा डालकर रहते थे, वहां से बाहर निकलते थे, छांट-छांटकर गैरसिक्खों को मारते थे, और वापिस आकर फिर मंदिर में डेरा डालते थे। न धर्म ने उन्हें रोका, न उन्होंने इसे धर्म का हिस्सा नहीं माना। भारत के बगल के म्यांमार में जिस तरह रोहिंग्या मुस्लिमों को दसियों लाख की संख्या में मार-मारकर देश से भगाया गया, उसे बौद्ध मठों की पूरी मंजूरी रही, और आज ये शरणार्थी होकर कई देशों में किसी तरह जिंदा हैं। म्यांमार में 2012 से ही कई बौद्ध मठों ने रोहिंग्या को निकालने की मांग की, बौद्धभिक्षुओं ने उन्मादी रैलियां निकालीं, मठों से भडक़ाऊ भाषण और पर्चे जारी हुए, और उन्होंने धार्मिक अस्मिता और राष्ट्रवाद का सहारा लेकर बड़े-बड़े हत्याकांड की जमीन तैयार की। अब जो बुद्ध दुनिया में शांति का प्रतीक हैं, उनके नाम पर पलने वाले भिक्षुओं ने भारत के आसपास का यह सबसे बड़ा मानव संहार किया, और एशिया के इस हिस्से में 21वीं सदी की सबसे बड़ी बेदखली भी। इसलिए जो लोग धर्म का गुणगान करते हैं, उसे कल्याणकारी बताते हैं, उन्हें धर्म का इतिहास जरूर पढऩा चाहिए जो कि उनके धार्मिक पूर्वाग्रहों की चर्बी पर कुछ जोर जरूर डालेगा।
देश के अखबार व टीवी चैनल पिछले कुछ महीनों से लगातार पारिवारिक हिंसा की बढ़ती हुई खबरों से भरे हुए हैं। एक छोटा सा फर्क यह है कि पारिवारिक हिंसा करने वाले अब तक मर्द रहते थे, अब किसी-किसी मामले में महिलाएं भी हिंसा करने लगी हैं। चूंकि महिलाएं भी अकेले, प्रेमी के साथ मिलकर, या भाड़े के हत्यारे से कुछ मामलों में मर्दानी हिंसा को टक्कर दे रही हैं, इसलिए समाज हड़बड़ा गया है। अभी एक बड़े अखबार ने नेशनल क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरो और कुछ दूसरे स्रोतों से अधिकृत जानकारी जुटाकर चौंकाने वाले आंकड़े सामने रखे हैं। इनके मुताबिक पांच बड़े राज्यों में पांच साल में 785 पत्नियों ने अपने पतियों की हत्या की है। मतलब यह कि हर बरस डेढ़ सौ से कुछ ज्यादा ऐसी हत्याओं का औसत रहा इन पांच राज्यों में। अब इससे एक ऐसी भयानक तस्वीर बनती है कि बहुत से कुंवारे लोग शादी का इरादा ही छोड़ दें। लेकिन भारत की आबादी बहुत तेजी से न गिर जाए इसलिए हमने इस अखबार के ऐसे आंकड़ों के साथ-साथ कुछ दूसरे आंकड़ों को भी रखने की कोशिश की है।
हमने चैटजीपीटी और कुछ दूसरे एआई औजारों से जब आंकड़े निकाले तो उनसे भारत के मर्दों की दहशत कुछ कम होनी चाहिए। इन पांच बरसों में से तीन बरसों के ही आंकड़े मारी जाने वाली पत्नियों, और मारे जाने वाले पतियों के बारे में मिल पाए हैं, पहले और आखिरी बरस के आंकड़े पति द्वारा हत्या के तो मिले हैं, पत्नी द्वारा हत्या के नहीं मिले हैं। देश भर के आंकड़े बताते हैं कि 2021 में दो सौ, 2022 में 271, और 2023 में 250 पत्नियों ने पतियों को मारा, या मरवाया। दूसरी तरफ पत्नी की हत्या करने वाले पतियों के आंकड़े 2020 में 6700, 2021 में 6589, 2022 में 6450, 2023 में 6000 से अधिक, और 2024 में भी 6000 से अधिक हैं। मतलब यह कि पति की हत्या साल भर में अधिकतम 271 हुई है, और पत्नी की हत्या कम से कम 6000 तो हुई ही है, और अधिकतम तो 6700 है। पत्नियों की हत्या में अभी भी चल रही दहेज-हत्याएं शामिल हैं जो कि सैकड़ों में हैं, और इनमें देश में 2022 में यूपी सबसे ऊपर, फिर बिहार, और फिर मध्यप्रदेश है। इस बरस देश में सबसे कम दहेज-हत्याएं केरल में दर्ज हुई हैं, यूपी में 2218, बिहार में 1057, एमपी में 518, और केरल में कुल 11 हैं।
हम आंकड़ों पर आधारित विश्लेषण को आंख मूंदकर मंजूर नहीं करते, लेकिन जब सरकारी, अधिकृत, या मीडिया में दर्ज घटनाओं के आधार पर आंकड़े निकाले गए हैं, तो पतियों की हिंसा, और पत्नियों की हिंसा के आंकड़ों की तुलना तो की ही जा सकती है। कुछ गिनी-चुनी घटनाओं के चलते हुए आज पूरे देश में महिलाओं को बेवफा, और कातिल करार दिया जा रहा है, इसलिए यह तुलना जरूरी है कि अभी तक हत्यारी-पत्नियां, हत्यारे-पतियों के मुकाबले पांच फीसदी भी नहीं हैं। अब भारत लैंगिक समानता वाला लोकतंत्र है, महिलाओं को न सिर्फ बराबरी का दर्जा प्राप्त है, बल्कि कानून में कई तरह की हिफाजत औरत-मर्द के बीच सिर्फ औरत को मिली हुई है। दहेज-हत्या का कानून महिलाओं को बचाने के लिए बनाया गया है, बलात्कार या दूसरे यौन शोषण के मामलों में महिला को अधिक हिफाजत हासिल है, भ्रूण लिंग परीक्षण को जुर्म बनाना भी कन्या भ्रूण को बचाने के लिए किया गया था, सतीप्रथा महिला को बचाने के लिए खत्म की गई, और बालविवाह में अधिक नुकसान नाबालिग लडक़ी का होता था, उसे भी कानून बनाकर रोका गया। महिलाओं को पंचायतों और म्युनिसिपलों में 50 फीसदी तक आरक्षण दिया गया, जबकि वे इन सीटों से परे भी अनारक्षित सीटों पर भी लड़ सकती हैं। देश के अलग-अलग प्रदेशों में महिलाओं को सरकारी नौकरियों में आने के लिए उम्र सीमा में बहुत बड़ी छूट दी गई है, ताकि वे शादी और बच्चों की जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाने के बाद भी नौकरी के लिए अर्जी दे सकें। कानून और सरकारों ने तो अपने हिस्से का काम किया है, यह एक अलग बात है कि सरकार और अदालत हांकने वाले मर्द इन महिला-कानूनों को ठीक से लागू नहीं होने देते, ठीक उसी तरह जिस तरह कि मीडिया में महिला की की गई हिंसा, या करवाई गई हिंसा बढ़-चढक़र दिखाई जाती है क्योंकि मीडिया की फैसले लेने वाली कुर्सियों पर अमूमन मर्द ही काबिज हैं।
लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस कभी खत्म ही नहीं होती है। देश, काल, और परिस्थितियों के चलते धार्मिक या नैतिक भावनाओं के पैमाने बदलते रहते हैं, और इन्हीं के साथ-साथ लोगों के अभिव्यक्ति के तौर-तरीके भी बदलते हैं। टेक्नॉलॉजी तरह-तरह के माध्यम खड़े करती है, और एक वक्त अखबारों में कुछ छपने के लिए अनुभवी पत्रकारों की नजरों से गुजरना जरूरी रहता था, लेकिन अभी पिछली चौथाई सदी से इंटरनेट और सोशल मीडिया के चलते आम लोग भी अपनी बातों को खुलकर लिखने लगे हैं, और उन्हें न तो कानून की समझ रहती, न ही वे नैतिकता या धार्मिक भावनाओं की अधिक परवाह करते। ऐसे में जब किसी देश में एक राष्ट्रवाद का सैलाब और बिखरा हुआ हो, लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत होने के लिए एक पैर पर खड़ी रहती हों, तो माहौल बड़ा तनावपूर्ण हो जाता है। अभी सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में ऐसी ही भावनाओं को लेकर जो सवाल खड़े किए हैं, वे बड़े जायज हैं, और उन पर हर किसी को सोचना-विचारना चाहिए।
हुआ यह है कि तमिल और कन्नड़ भाषाओं को लेकर तमिल अभिनेता कमल हासन ने कुछ दिन पहले ऐसा बयान दे दिया कि कन्नड़ तमिल से निकली हुई भाषा है। अब दक्षिण के राज्यों में भाषा को लेकर जो संवेदनशीलता है, वह सिर्फ हिन्दीविरोध तक सीमित नहीं है, वह आपस में भी उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर देती हैं। आज हालत यह हो गई कि जिस कमल हासन की नई फिल्म के लिए पूरा दक्षिण भारत इंतजार करता है, उसका विरोध करते हुए कर्नाटक में उनकी नई फिल्म के बहिष्कार का फतवा दिया गया है, और कर्नाटक के सिनेमाघरों में वह रिलीज नहीं हो पा रही है। सुप्रीम कोर्ट ने इस फिल्म की रिलीज और उसे सुरक्षा देने के लिए पहुंचे हुए निर्माता के मामले में दखल देने के लिए कन्नड़ साहित्य परिषद भी पहुंच गया है, और उसने कहा कि कमल हासन का बयान फिल्म के प्रचार का हथकंडा है, और ऐसे बयान से कन्नड़ लोगों की भावनाएं आहत हुई हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने इस सुनवाई के दौरान सवाल किया कि क्या किसी एक टिप्पणी के कारण, फिल्म, कोई कॉमेडी शो, या कविता पाठ रोक देना चाहिए? जस्टिस उज्जल भुईयां और जस्टिस मनमोहन ने इस पूरे विवाद पर कहा कि भारत में भावनाओं को ठेस पहुंचने का कोई अंत नहीं है। अगर कोई स्टैंडअप कॉमेडियन कुछ कहता है तो भावनाएं आहत हो जाती हैं, तोडफ़ोड़ होने लगती है, अदालत ने सवाल किया कि हम जा कहां रहे हैं? फिल्म निर्माता ने अदालत को बताया कि कर्नाटक में इसके रिलीज न होने से अब तक 30 करोड़ रूपए का नुकसान हो चुका है। बाकी पूरे देश में यह फिल्म दिखाई जा रही है, लेकिन कर्नाटक में आशंका है कि कमल हासन के बयान से उबले हुए लोग इसके प्रदर्शन पर कुछ हिंसा भी कर सकते हैं। ऐसे में अदालत ने कर्नाटक सरकार को भी याद दिलाया है कि फिल्म और कमल हासन को धमकी देने वालों पर कार्रवाई करना राज्य शासन की जिम्मेदारी है। अदालत ने कहा कि कमल हासन को कोई माफी मांगने की जरूरत नहीं है, जैसा कि कन्नड़ आंदोलनकारी मांग कर रहे हैं। जजों ने कहा कि हम देश में ऐसा नहीं होने दे सकते कि एक विचार की वजह से चीजों को रोक दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट के इस रूख के पहले जब यह मामला कर्नाटक हाईकोर्ट में ले जाया गया था, तो वहां जज ने राज्य सरकार को फिल्म को सुरक्षा देने का निर्देश देने से भी मना कर दिया था। इसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। और अब इस अदालत का रूख देखकर यह समझ पड़ता है कि कर्नाटक हाईकोर्ट का रूख स्थानीय कन्नड़ आंदोलनकारियों के लिए हमदर्दी का था। सुप्रीम कोर्ट में कमल हासन ने यह साफ किया कि वे बंदूक की नोंक पर कोई माफी नहीं मांगने वाले।