विचार/लेख
-चैतन्य नागर
कुछ महीने पहले तक हमारी बहस का मुद्दा यह था कि हमारी शिक्षा प्रणाली में क्या खामियां हैं और वे कैसे दूर होंगी| महामारी ने हमें इस हालत में पहुंचा दिया है कि अब हमें यह भी नहीं मालूम कि शिक्षा के नाम पर जो कुछ हमारे पास है, उसका भी भविष्य क्या होगा | कोरोना वायरस से फैली बीमारी और उसके भय ने शिक्षा की दुनिया को महासंकट में डाल दिया है| देश में करीब 32 करोड़ छात्र और छात्राएं इस समय अपनी पढ़ाई-लिखाई को लेकर पशोपेश में हैं| यह संख्या अमेरिका की पूरी आबादी से थोड़ी ही कम है! इसके अलावा पूरी दुनिया में तो 193 देशों में 157 करोड़ बच्चों को लेकर असमंजस बना हुआ है| उनके स्कूल कब खुलेंगे, और खुलेंगें भी तो कैसे| एक वैश्विक महामारी के साए में अब किस तरीके से उन्हें पढ़ाया जाएगा? ये सवाल नेताओं, शिक्षाविदों, नीति निर्धारकों, शिक्षकों और छात्रों को लगातार परेशान कर रहे हैं|
शिक्षा के सम्बन्ध में फिलहाल कोई भी फैसला सही नहीं लग रहा रहा| हर जवाब के साथ कई सवाल, हर समाधान के साथ अगिनत समस्याएं भी सामने आ रही हैं| स्कूल और कॉलेज फिर से खोलने या न खोलने का फैसला संभवतः अब वायरस के गम्भीर वैज्ञानिक अध्ययन से आने वाले परिणामों पर ही निर्भर करेगा| आने वाले समय में वायरस की हरकतें कैसी होगी, क्या उसे किसी टीके की खोज के बाद काबू में कर लिया जाएगा, क्या ये टीके इस स्तर पर लोगों को उपलब्ध होंगें कि देश भर के स्कूल जाने वाले बच्चों, उनके सम्पर्क में आने वाले शिक्षकों और अन्य स्कूल कर्मियों को ये लगाये जा सकें और उन्हें सुरक्षित घोषित किया जा सके?
इस बात का फिलहाल अंदाजा नहीं कि स्कूल खुलेंगे कब| मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल ने थोड़े दिन पहले कहा कि स्कूल 15 अगस्त के बाद ही शायद खुल पायेंगें| केंद्र सरकार सभी राज्य सरकारों के साथ विचार विमर्श करने के बाद ही स्कूलों को खोलने का फैसला कर सकेगी| गौरतलब है कि इस सम्बन्ध में अंतिम फैसला राज्य सरकारों को ही लेना होगा| देश में कई अभिभावक संघों का मानना है कि वर्ष 2020-21 को ‘शून्य शैक्षणिक वर्ष’ घोषित कर दिया जाना चाहिए| मौजूदा हालात को देखते हुए यह बात काफी तर्कसंगत भी लगती है| रोज़-रोज़ नए फैसले करने और छात्रों को भ्रमित करने से बेहतर है कि इस बारे में एक बार स्पष्ट फैसला किया जाए| किसी भी वैज्ञानिक और बड़े चिकित्सक ने स्पष्ट तौर पर अभी तक यह नहीं कहा है कि ये महामारी कब इस हद तक नियंत्रित हो जायेगी कि छोटे बच्चों को लेकर कोई फैसला किया जा सकेगा| कई जगहों पर अभिभावकों ने कहा है कि जब उनके जिले में पिछले 21 दिनों में संक्रमण का एक भी मामला नहीं आएगा, तभी वे बच्चों को स्कूल वापस भेजने पर विचार करेंगें| कइयों ने कहा कि पूरे राज्य और देश में भी तीन हफ्ते तक एक भी मामला न आने पर वे बच्चों को स्कूल भेजेंगें| बड़ी संख्या में अभिभावकों ने साफ़-साफ कहा है कि जब तक टीका नहीं आएगा, और सभी को नहीं लगा दिया जाएगा, वे बच्चों को स्कूल नहीं भेजने वाले| शिक्षा में बच्चों के साथ अभिभावकों की भी समान हिस्सेदारी है| उनकी सहमति के बगैर न ही सरकार स्कूल खोल सकती है और न ही शिक्षा बोर्ड इस मामले में कोई निर्देशावाली जारी कर सकेंगें| इजराइल का उदाहरण सामने है| वहां स्कूल खुलने के दो हफ्तों बाद महामारी ने फिर से हमला किया और एक ही स्कूल में 130 संक्रमित मामले सामने आये| सरकार ने फिर स्कूल बंद किये, और नए निर्देशों के अनुसार जैसे ही किसी स्कूल में कोविड-19 संक्रमण का एक भी मामला आएगा, उसे बंद कर दिया जाएगा| स्कूलों को खोलने के फैसले के तुरंत बाद इजराइल में करीब 6800 छात्रों और शिक्षकों को क्वारंटाइन किया गया| चीन के शंघाई में बच्चों को स्कूल आने के समय और उसके बाद भी बार-बार थर्मल स्कैनर से जांच करवानी पड़ी है और पूरे स्कूल में जगह जगह पोस्टरों के माध्यम से बच्चों को संक्रमण से बचने के तरीके बताये गए हैं| स्कूल के डाइनिंग हॉल में हर बच्चे के पास एक स्क्रीन लगाई गयी जिससे वह बिलकुल भी दूसरे बच्चे के संपर्क में न आ पाए| हमारे देश के स्कूलों में इतनी जगह कहाँ कि इस तरह के नियमों का पालन हो सकेगा| एक कक्षा में कम से कम सत्तर बच्चे बैठते हैं, वहां कैसे शारीरिक दूरी के नियमों का पालन होगा? बहुत महंगे रिहायशी स्कूलों में भी इतनी जगह कहाँ है कि बच्चों को डाइनिंग हॉल में भोजन के समय दो या तीन मीटर की दूरी पर बैठाया जाए|
जीवन का प्रश्न शिक्षा से ज्यादा बड़ा प्रश्न है| जान है तो पढ़ाई-लिखाई है| सरकार को माता पिता,शिक्षकों और समूचे स्कूल समुदाय को पहले आश्वस्त करना होगा कि बच्चों, शिक्षकों और संस्थान में काम करने वाले बाकी लोगों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को कोई खतरा नहीं होगा| क्या स्कूल से संक्रमण फ़ैल सकता है, क्या वहां सफाई के लिए पर्याप्त व्यवस्था है? वहां काम करने वाले बाहर से भी आयेंगें, उनकी साफ़ सफाई और स्वच्छता पर कैसे निगरानी रखे जाएगी? क्लास रूम के आकार को कैसे बदला जायेगा, जिससे वहां सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों को माना जा सके? स्कूल को किस तरह की मानसिक और मनोवैज्ञानिक सहायता की जरूरत पड़ेगी और वह कैसे मुहैया करवाई जायेगी? हर देश में, और देश के भी हरेक राज्य में स्थितियां अलग-अलग हैं और उनको ध्यान में रखते हुए इन सवालों का जवाब ढूंढना होगा, तभी स्कूल-कॉलेज खोलने पर समेकित ढंग से विचार किया जा सकता है| यह एक ऐसा मामला है जिसमे स्वास्थ्य मंत्रालय और शिक्षा मंत्रालय को बहुत गहरा सामंजस्य और तालमेल बनाकर काम करना होगा, नहीं तो भविष्य में स्थितियां और भी ज्यादा बिगड़ने की संभावना है|
स्कूलों को भी इस बात पर विचार करना होगा कि क्या वे बदली हुई परिस्थितियों का सही तरीके से प्रबंधन करने के लिए प्रस्तुत हैं| क्या उसके पास पर्याप्त कर्मी हैं, इतने शिक्षक हैं कि वह इन तमाम शर्तों को पूरा करते हुए शिक्षा संस्थान खोल पायेंगें? यदि स्कूलों को दो शिफ्ट में चलाना पड़ा, तो क्या प्रबंधन और शिक्षक इस स्थिति के लिए तैयार होंगें? क्या सरकार को बड़े पैमाने पर अब होम स्कूलिंग, या घर से बच्चों को पढ़ाने को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए, जिससे कि बच्चे घरों में पढ़ सकें, और स्कूल के जरिये अपना पंजीकरण करवा कर इम्तहान दे सकें? इस विषय पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिए| मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग के परिवारों के लिए यह एक विचारणीय विकल्प होगा, पर यह सभी वर्ग के बच्चों पर लागू नहीं किया जा सकता|
अब जब स्कूल खुलेंगें तो उनका खुलने और बंद होने का समय भी बदलना पड़ सकता है| साथ ही रोज़ की समय-सारणी में भी बड़ा बदलाव लाना पड़ सकता है| स्कूल बसों से आने-जाने वाले बच्चों के लिए एक और सवाल सामने खड़ा हो जाएगा, और वह यह कि स्कूल क्षमता से आधे बच्चों को लेकर बसें कैसे चलाएगा| इस तरह की व्यवस्था से उसका खर्च बढ़ेगाऔर वह इस खर्च को अभिभावकों से फीस के रूप में वसूलने की कोशिश करेगा| अभिभावक फीस बढ़ाये जाने का विरोध करेंगें, क्योंकि उन्हें लगेगा कि किसी अजीबोगरीब आपदा के लिए उन्हें सज़ा दी जा रही है| इस तरह दोनों असहाय पक्षों के बीच अनावश्यक मनोमालिन्य बढेगा| बच्चों को किताब-कापियों और पानी की बोतलों के साथ सैनिटाइज़र और फेस मास्क भी सम्भालने पड़ेंगें| स्कूलों में शौचालयों की सफाई का विशेष ध्यान देना पड़ेगा और लगातार उनकी निगरानी करनी पड़ेगी| ये सारी बातें इतनी जरुरी है कि इनकी कल्पना से ही मन परेशान हो रहा है| स्कूल पढ़ाई-लिखाई की जगह कम और अस्पताल जैसे ज्यादा दिखेंगें| यह कितना भयावह है!
हाल ही में भारतीय जन स्वास्थ्य फाउंडेशन के अध्यक्ष के श्रीनाथ रेड्डी ने बताया कि अब यह समझ आ रहा है कि बच्चों में भी संक्रमण फैलने के खतरे बहुत अधिक हैं| उनके जल्दी ठीक होने की संभावना भी अधिक है, पर वे दूसरों में यह संक्रमण फैला सकते हैं| ख़ास कर स्कूलों में वे वयस्क शिक्षकों और अन्य कर्मियों के लिए खतरा बन सकते हैं| घर जाकर वे अपने परिवार वालों के लिए भी संक्रमण का स्रोत बन सकते हैं| यह खतरा इसलिए भी बड़ा है क्योंकि बच्चे शारीरिक दूरी के नियमों का पालन उतनी गंभीरता के साथ नहीं कर पाते| इस अनिश्चित स्थिति से निपटने के लिए सी बी एस ई ने पाठ्यक्रम को हल्का करने का निर्णय लिया पर जिन अध्यायों को हटाने के लिए उसने सिफारिश की वे लोकतान्त्रिक अधिकारों, संघीय ढाँचे, और धर्म निरपेक्षता से सम्बंधित थे| इसे लेकर एक राजनीतिक विवाद खड़ा हो रहा है| पाठ्यक्रम को हल्का करने के नाम पर ग़ालिब, अमीरखुसरो और टैगोर को भी किताबों से हटाने की चर्चा हुई है, और यह निर्णय भी आगे चल कर एक नया बवाल पैदा करेगा, इसकी पूरी आशंका है| इस तरह के फैसले शिक्षा विदों को लेने चाहिए, न कि सरकारी अफसरों को| और ये शिक्षाविद किसी ख़ास पार्टी से जुड़े नहीं होने चाहिए| तमाम उलझनें बनी हुईं हैं; प्रश्न आक्रामक मुद्रा में हैं, झेंपते हुए उत्तर बगलें झांक रहे हैं|
रश्मि त्रिपाठी
ये चित्र जब भी देखती हूं मन में प्रेम और गर्व सा मिश्रित भाव आ जाता है। सच में अगर आज कुछ सुकून देने लायक है तो कुछ पुराना पढिय़े और समझिये।
ये चित्र अपने आप में एक पूरा इतिहास समेटे हुये है। इंदिराजी देश की प्रधानमंत्री थीं तब मार्च 1983 का महीना विज्ञान भवन में गुटनिरपेक्ष देशों का शिखर सम्मेलन था। जबकि सैंकड़ों राष्ट्राध्यक्ष और ऑब्जर्वर वहां उपस्थित थे। शायद ही इतना बड़ा सम्मेलन इस देश में कभी हुआ हो।
संयुक्त राष्ट्र में भले ही हुआ हो। पर मुझे नही लगता कि और भी कहीं इतने राष्ट्राध्यक्ष कभी एक साथ मिलें हों।
इस चित्र की कहानी ये है कि जो लकड़ी का हथौड़ा होता है वो वर्तमान अध्यक्ष या मेजबान अगले मेजबान को सौंपेगा यही परम्परा होती है।
बस उसी समय जब इंदिराजी उनसे हथौडा लेने आईं तो लंबे-चौड़े से कास्त्रो ने उन्हें खींचकर ऐसे गले लगा लिया।
मुझे ऐसा लगता हैं इंदिरा जी को थोड़ी देर के लिए जरूर नेहरूजी की याद आई होगी।
वो कितना अद्भुत क्षण रहा होगा!
इस चित्र का नाम ही एक भालू हग हो गया।
चूंकि चार साल पहले सम्मेलन हवाना में हुआ था और हथौड़ा फिदेल को इंदिरा जी को देना था। इंदिरा जी ने जैसे ही हाथ बढ़ाया उनके भाव उमड़ पड़े और वो खुद को रोक नहीं पाये।
इस सम्मेलन में एक और घटना हुई थी और वहां भी कास्त्रो नेहरू बन गए। हुआ ये कि फिलिस्तीन के राष्ट्राध्यक्ष यासिर अराफात थोड़े नाराज से हो गये थे इंदिराजी से क्योंकि जार्डन को उनसे पहले संबोधित करने का मौका दे दिया गया था। वे तुरंत ही वापस लौटने का प्लान कर लिये थे इंदिरा चिंतित थीं ।
पता नही कैसे कास्त्रो को पता चल गया और वे तुरंत अराफात के पास पहुंचे और बोले ‘इंदिरा आपकी दोस्त हैं क्या?’
‘अरे नही वो तो बड़ी बहन की तरह हैं मेरे लिये’.... अराफात बोले...
‘तो छोटे भाई ही बने रहो मैन’..
कास्त्रो के इतना कहते ही अराफात ने अपना लौटने का प्लान स्थगित कर दिया।
इन बातों को जो समझेगा वो जानेगा कि हमारे संबध दुनिया में कैसे थे ?
एक बार मुझे किसी एनआरआई ने बताया था कि विदेशों में बहुत लोग इंडिया को न भी जानते हों तो भी गांधी, नेहरु, इंदिरा और राजकपूर, अमिताभ बच्चन को जानते हैं। पता नही ये कितना सच है ! पर सच कहूं तो फिदेल मुझे अपने हीरो लगते है एक ऐतिहासिक नायक !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गलवान घाटी के हत्याकांड पर चीन ने चुप्पी साध रखी है। लेकिन वह भारत पर सीधा कूटनीतिक या सामरिक हमला करने की बजाय अब उसके घेराव की कोशिश कर रहा है। घेराव का मतलब है, भारत के पड़ौसियों को अपने प्रभाव-क्षेत्र में ले लेना ! चीन के विदेश मंत्री ने पाकिस्तान, अफगानिस्तान और नेपाल के विदेश मंत्रियों के साथ एक संयुक्त वेबिनार किया।
पाकिस्तान के विदेश मंत्री कोरोनाग्रस्त हैं, इसलिए एक दूसरे मंत्री ने इस वेबिनार में भाग लिया। यह संयुक्त बैठक की गई कोरोना से लडऩे के उद्देश्य को लेकर उसमें हुए संवाद का जितना विवरण हमारे सामने आया है, उससे क्या पता चलता है ? उसका एक मात्र लक्ष्य था, भारत को दक्षिण एशिया में अलग-थलग करना। नेपाल और पाकिस्तान के साथ आजकल भारत का तनाव चल रहा है, चीन ने उसका फायदा उठाया। इसमें उसने अफगानिस्तान को भी जोड़ लिया है।
ईरान को उसने क्यों नहीं जोड़ा, इसका मुझे आश्चर्य है। वांग ने तीनों देशों को कहा और उनके माध्यम से दक्षिण एशिया के सभी देशों को कहा कि देखो, तुम सबके लिए अनुकरण के लिए सबसे अच्छी मिसाल है—— चीन—पाकिस्तान दोस्ती। इसी उत्तम संबंध के कारण इन दोनों ‘इस्पाती दोस्तों’ ने कोरोना पर विजय पाई है। सारी दुनिया कोरोना फैलाने के लिए चीन को जिम्मेदार ठहरा रही है लेकिन चीन उल्टा दावा कर रहा है और पाकिस्तान में कोरोना महामारी का प्रकोप दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा है लेकिन चीन द्वारा इस मिसाल का जिक्र इसीलिए किया गया है कि वह घुमा-फिराकर भारत-विरोध का प्रचार करे। वह यह भूल गया कि भारत ने दक्षिण एशियाई देशों को करोड़ों रुपए और दवाइयां दी हैं ताकि वे कोरोना से लड़ सकें। वांग ने कोरोना से लडऩे के बहाने चीन के सामरिक लक्ष्यों को भी जमकर आगे बढ़ाया। उसने अपनी ‘रेशम महापथ’ की योजना में अफगानिस्तान को भी शामिल कर लिया। चीन अब हिमालय के साथ हिंदूकुश का सीना चीरकर ईरान तक अपनी सडक़ ले जाएगा। यदि यह सडक़ पाकिस्तानी कश्मीर से होकर नहीं गुजरती तो शायद भारत इस पर एतराज नहीं करता लेकिन असली सवाल यह है कि दक्षिण एशिया में भारत की कोई गहरी और लंबी समर-नीति है या नहीं ? वह सारे दक्षिण एशिया को थल-मार्ग और जल-मार्ग से जोडऩे की कोई बड़ी नीति क्यों नहीं बनाता ?
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. राजू पाण्डेय
सीबीएसई ने कोविड-19 के बाद उत्पन्न विशिष्ट परिस्थितियों और शिक्षण दिवसों की संख्या में आई कमी का हवाला देते हुए 9वीं से 12वीं के पाठ्यक्रम में 30 प्रतिशत की कटौती की है। विशेषकर पॉलिटिकल साइंस और इकोनॉमिक्स विषयों में अनेक महत्वपूर्ण अध्यायों अथवा इनके भागों को पूर्ण या आंशिक रूप से हटाए जाने पर बहुत से शिक्षा विशेषज्ञ और बुद्धिजीवी आहत एवं हतप्रभ हैं। कक्षा नवमी के राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम से डेमोक्रेटिक राइट्स तथा स्ट्रक्चर ऑफ द इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन जैसे अध्यायों को हटा दिया गया है। जबकि नवमी कक्षा के ही अर्थशास्त्र के सिलेबस से फूड सिक्योरिटी इन इंडिया नामक अध्याय पर सीबीएसई के कर्ता धर्ताओं की कैंची चली है। इसी प्रकार कक्षा दसवीं के राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम से डेमोक्रेसी एंड डाइवर्सिटी, कास्ट रिलिजन एंड जेंडर एवं चैलेंजेज टू डेमोक्रेसी जैसे महत्वपूर्ण अध्यायों को हटा दिया गया है। कक्षा ग्यारहवीं के पॉलिटिकल साइंस के पाठ्यक्रम से फेडरलिज्म, सिटीजनशिप, नेशनलिज्म और सेक्युलरिज्म जैसे अध्याय हटा दिए गए हैं।
लोकल गवर्नमेंट नामक अध्याय से दो यूनिटें हटाई गई हैं- व्हाई डू वी नीड लोकल गवर्नमेंट्स? तथा ग्रोथ ऑफ लोकल गवर्नमेंट इन इंडिया। कक्षा 12 वीं के राजनीति विज्ञान के सिलेबस से सिक्युरिटी इन द कंटेम्पररी वल्र्ड, एनवायरनमेंट एंड नेचुरल रिसोर्सेज, सोशल एंड न्यू सोशल मूवमेंट्स इन इंडिया तथा रीजनल एस्पिरेशन्स जैसे चैप्टर्स हटा लिए गए हैं। प्लांड डेवलपमेंट नामक अध्याय से चेंजिंग नेचर ऑफ इकोनॉमिक डेवलपमेंट तथा प्लानिंग कमीशन एंड फाइव इयर्स प्लान्स जैसी यूनिट्स हटा ली गई हैं। वहीं भारत के अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अध्याय से इंडियाज रिलेशन्स विद इट्स नेबर्स : पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका एंड म्यांमार टॉपिक को हटाया गया है। बिजनेस स्टडीज के पाठ्यक्रम से जीएसटी और विमुद्रीकरण जैसे हिस्से विलोपित किए गए हैं। इधर राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने 12वीं के पाठ्यक्रम में परिवर्तन किया है। राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम में जम्मू- कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने पर एक अध्याय जोड़ा गया है। साथ ही जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद की राजनीति से जुड़ा पैराग्राफ हटा दिया गया है।
एनसीईआरटी के पूर्व डायरेक्टर कृष्ण कुमार ने एक साक्षात्कार में कहा- पुस्तकों से अध्यायों को हटाकर बच्चों के पढऩे और समझने के अधिकार को छीना जा रहा है। सीबीएसई ने जिन अध्यायों को हटाया है उनमें अंतर्विरोध है। आप संघवाद के अध्याय को हटाकर संविधान बच्चों को पढ़ाएं- ये कैसे होगा? आप सामाजिक आंदोलन के अध्याय को हटाएं और इतिहास पढ़ाएं- ये कैसे होगा? इतिहास सामाजिक आंदोलनों से ही तो जन्म लेता है। ये कटौती बच्चों में रटने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देगी।
विवाद के बाद सीबीएसई ने अपनी सफाई में कहा है कि कोविड-19 के परिप्रेक्ष्य में कक्षा 9 से 12 के पाठ्यक्रम में सत्र 2020-21 के लिए 30 प्रतिशत की कटौती करने हेतु उसका युक्तियुक्त करण किया गया है। यह 30 प्रतिशत की कटौती 190 विषयों में केवल एक सत्र हेतु ही की गई है।
सीबीएसई ने कहा कि यह कटौती कोविड-19 के कारण उत्पन्न स्वास्थ्य आपातकाल जैसी परिस्थितियों के मद्देनजर विद्यार्थियों को परीक्षा के तनाव से बचाने के लिए उठाया गया कदम है। हटाए गए अध्यायों से वर्ष 2020-21 की परीक्षा में कोई प्रश्न नहीं पूछे जाएंगे। यह हटाए गए विषय आंतरिक मूल्यांकन का भी हिस्सा नहीं होंगे। स्कूलों को एनसीईआरटी द्वारा तैयार अल्टरनेटिव एकेडमिक कैलेंडर का पालन करने के लिए कहा गया है। जिन विषयों को मीडिया में गलत ढंग से - पूरी तरह हटाया गया- बताया जा रहा है वह या तो एनसीईआरटी के अल्टरनेटिव एकेडमिक कैलेंडर का हिस्सा हैं या युक्तियुक्त किए गए पाठ्यक्रम का भाग हैं। सीबीएसई ने कहा कि हमने स्कूलों को निर्देशित किया है कि हटाए गए हिस्सों का यदि अन्य संबंधित विषयों को स्पष्ट करने हेतु पढ़ाया जाना आवश्यक हो तो उनकी चर्चा पढ़ाई के दौरान की जा सकती है। यद्यपि सीबीएसई ने हटाए गए अध्यायों और टॉपिक्स को अपने वेबसाइट में डिलीटेड पोरशन्स के रूप में ही अपलोड किया है।
केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने आलोचनाओं का उत्तर देते हुए कहा कि पाठ्यक्रम में कटौती को लेकर बिना जानकारी के अनेक प्रकार की बातें कही जा रही हैं। इन मनगढ़ंत बातों का उद्देश्य केवल सनसनी फैलाना है। शिक्षा के संबंध में राजनीति नहीं होनी चाहिए। यह दु:खद है। शिक्षा को राजनीति से दूर रखना चाहिए। उन्होंने कहा कि एक गलत नैरेटिव बनाया जा रहा है। पाठ्यक्रम में 30 प्रतिशत की कटौती करते समय मूल अवधारणाओं को यथावत और अक्षुण्ण रखा गया है। उन्होंने यह भी कहा कि पाठ्यक्रम कटौती के संबंध में उन्होंने सुझाव मांगे थे और उन्हें खुशी है कि लगभग डेढ़ हजार लोगों ने अपने सुझाव दिए।
इन तमाम सफाइयों के बावजूद यह बड़ी आसानी से समझा जा सकता है कि पाठ्यक्रम में यह कटौती शिक्षा के सिद्धांतों और मूलभूत उद्देश्यों के सर्वथा प्रतिकूल है बस यह तय करना शेष है कि यह कितनी अविचारित है और कितनी शरारतपूर्ण। सीबीएसई की सफाई जितनी सतही, लचर और औपचारिक है उससे भी ज्यादा उथला और असंगत है केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्री का बयान।
हमारे देश में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जबसे अंग्रेजों द्वारा सार्वजनिक परीक्षाओं को ज्ञान प्राप्ति का पर्याय बनाया गया तबसे पाठ्यक्रम निर्माताओं और परीक्षाओं के आयोजकों के बीच एक शाश्वत सा संघर्ष चलता रहा है। हमारे देश में परीक्षा का स्वरूप जिस प्रकार का बना दिया गया है उसमें किसी विषय पर अपनी अभिरुचि के अनुसार गहन अध्ययन करने, कल्पनाशील होने और स्वविवेक का प्रयोग करने के लिए कोई स्थान नहीं है। विद्यार्थी को उसकी पाठ्य पुस्तकों और मॉडल आंसर में जो कुछ लिखा है उसे यथावत उत्तर पुस्तिका में कॉपी करने पर सफल माना जाता है और उसे अच्छे अंक मिलते हैं। परीक्षा पद्धति के इस स्वरूप और परीक्षाओं को हमारे तंत्र में मिलने वाले महत्व के कारण ज्ञान प्राप्ति और वास्तविक अधिगम तथा परीक्षा प्रणाली में दूर दूर तक कोई संबंध नहीं रह गया है। शिक्षण का वास्तविक उद्देश्य विद्यार्थियों में मूलभूत मानवीय मूल्यों का विकास करना है। यह उद्देश्य अब गौण बना दिया गया है।
विभिन्न अवधारणाएं किस तरह परस्पर संबंधित हैं और किस प्रकार यह हमारे जीवन की पूर्णता में योगदान देती हैं, इस अन्तर्सम्बन्ध के अध्ययन के लिए कोई स्थान परीक्षा प्रणाली द्वारा नियंत्रित होने वाली शिक्षण पद्धति में नहीं है। यही कारण है कि सीबीएसई एक यांत्रिक तरीके से पाठ्यक्रम में तीस प्रतिशत की कटौती करने में कामयाब हो सका- एक ऐसी कटौती जो किसी विवेकवान शिक्षा मर्मज्ञ द्वारा पाठ्यक्रम के समग्र मूल्यांकन पर आधारित चयन नहीं लगती बल्कि किसी लिपिक द्वारा कैंची से काटकर पाठ्यक्रम संक्षिप्तीकरण की प्रक्रिया का निर्वाह अधिक प्रतीत होती है। सीबीएसई ने अपनी समझ से इस प्रकार परीक्षाओं का बोझ हल्का कर दिया।
बोर्ड को इस बात से कोई सरोकार नहीं लगता कि पाठ्यक्रम निर्माताओं के क्या उद्देश्य रहे होंगे और क्या कटौती के बाद पाठ्यक्रम एक बेहतर नागरिक और मनुष्य बनाने में सक्षम हो पाएगा। प्रोफेसर यश पाल ने 1993 में पाठ्यक्रम का बोझ हल्का करने के लिए बनाई गई एक समिति के प्रमुख के रूप में यह बताया था कि किस प्रकार कोई असम्बद्ध पाठ्यक्रम मूल अवधारणाओं की सही समझ विकसित करने में बाधक बन जाता है तथा अरुचिकर, असंगत व भार स्वरूप लगने लगता है। उन्होंने तब यह कल्पना भी नहीं की होगी कि पाठ्यक्रम का भार कम करने के लिए मूल अवधारणाओं पर ही कैंची चला दी जाएगी।
यदि पाठ्यक्रम में यह कटौती केवल सीबीएसई के कर्ताधर्ताओं की अज्ञानता और अनगढ़ सोच का ही परिणाम होती तो शायद क्षम्य भी होती। किंतु यह देश की माध्यमिक शिक्षा को संचालित करने वाले संस्थान की सत्ता के सम्मुख सम्पूर्ण शरणागति को प्रदर्शित करती है और इसीलिए चिंतित भी होना पड़ता है और भयग्रस्त भी।
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री ने विरोधी दलों द्वारा फेडरलिज्म, सिटीजनशिप, नेशनलिज्म और सेक्युलरिज्म, डेमोक्रेटिक राइट्स, स्ट्रक्चर ऑफ द इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन, डेमोक्रेसी एंड डाइवर्सिटी, कास्ट रिलिजन एंड जेंडर, चैलेंजेज टू डेमोक्रेसी, सोशल एंड न्यू सोशल मूवमेंट्स तथा लोकल गवर्नेंस जैसे अध्यायों को हटाए जाने पर किए जा रहे विरोध को राजनीति से प्रेरित बताया। यह सारे विषय हमारे प्रजातंत्र, संविधान, सामाजिक ढांचे और स्वाधीनता आंदोलन में निहित जिन मूल अवधारणाओं और बुनियादी मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं क्या वे मूल्य तथा अवधारणाएं राष्ट्रीय, सार्वभौमिक और सार्वत्रिक नहीं हैं?
क्या इन मूल्यों को भारत के विरोधी दलों द्वारा थोपे गए मूल्य कहा जा सकता है? क्या यह कहा जा सकता है कि स्वाधीनता के बाद देश का इन अवधारणाओं और मूल्यों से संचालित होना कांग्रेस समर्थक या वाम बुद्धिजीवियों का षड्यंत्र था? क्या इन मूल्यों और अवधारणाओं को विरोधी दलों की विरासत मानकर नहीं हटाया गया है? जो कुछ हुआ है वह कोई संयोग नहीं है बल्कि प्रयोग है। यह देखा जा रहा है कि इन आधारभूत मूल्यों एवं अवधारणाओं को रद्दी की टोकरी में डालने पर भारतीय जनमानस की क्या प्रतिक्रिया होती है? दुर्भाग्यवश अपने वेतन-भत्तों और सुरक्षित जीवन पर ध्यान केंद्रित करने वाला शिक्षक वर्ग शिक्षा को नौकरी मान रहा है और उसमें सडक़ पर आने का साहस नहीं है, वह गुरु की भूमिका में आने को तत्पर नहीं है। यह देखना आश्चर्यजनक है कि विरोधी दलों का विरोध प्रतीकात्मक है और बयानबाजी तक सीमित है।
यह समझने के लिए कि पाठ्यक्रम से हटाए गए विषय वर्तमान केंद्र सरकार को क्यों नापसंद हैं, हमें उन विचारकों की ओर जाना होगा जिनके प्रति केंद्र में सत्तारूढ़ दल असाधारण सम्मान प्रदर्शित करता है और यदि वह स्वयं को पार्टी विद डिफरेन्स कहता है तो संभवत: इन्हीं विचारकों के चिंतन की ओर संकेत करता है जिसमें बहुलवाद, प्रजातंत्र, भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अहिंसक व धर्मनिरपेक्ष स्वरूप तथा महात्मा गांधी की केंद्रीय भूमिका और आजाद भारत के स्वरूप को निर्धारित करने वाले संविधान का संपूर्ण नकार निहित है।
महात्मा गांधी की सविनय अवज्ञा और असहयोग की रणनीति श्री गोलवलकर उतनी ही विचलित करती थी जितना सीएए और एनआरसी का विरोध करती अहिंसक जनता वर्तमान सरकार की आंखों में खटकती है। श्री गोलवलकर एक ऐसी जनता की अपेक्षा करते हैं जो कत्र्तव्य पालक और अनुशासित हो। ऐसी जनता जिसकी प्रतिबद्धता लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति हो, न कि सत्तारूढ़ दल के प्रति, उन्हें स्वीकार्य नहीं है। वे गांधी जी की आलोचना करते हुए लिखते हैं- विद्यार्थियों द्वारा विद्यालय तथा महाविद्यालय के बहिष्कार की योजना पर बड़े-बडे व्यक्तियों ने यह कहकर प्रखर टीका की थी कि यह बहिष्कार आगे चलकर विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता, उद्दंडता, चरित्रहीनता आदि दोषों को जन्म देगा और सर्व नागरिक-जीवन नष्ट होगा।
बहिष्कारादि कार्यक्रमों से यदि स्वातंत्र्य मिला भी, तो राष्ट्र के उत्कर्ष के लिए आवश्यक, ज्ञानोपासना, अनुशासन, चरित्रादि गुणों की यदि एक बार विस्मृति हो गई, तो फिर उनकी प्रस्थापना करना बहुत ही कठिन है। शिक्षक तथा अधिकारियों में अवहेलना करने की प्रवृत्ति निर्माण करना सरल है, किंतु बाद में उस अनिष्ट वृत्ति को संभालना प्राय: अशक्य होगा, ऐसी चेतावनी अनेक विचारी पुरुषों ने दी थी। जिनकी खिल्ली उड़ाई गई, जिन्हें दुरुत्तर दिए गए, उनकी ही दूरदृष्टि वास्तविक थी, यह मान्य करने की सत्यप्रियता भी दुर्लभ है। (मराठी मासिक पत्र युगवाणी, अक्टूबर,1969)। श्री सावरकर गांधी जी की अहिंसक रणनीति के कटु आलोचक थे और गांधी गोंधल पुस्तक में संकलित अपने गांधी विरोधी आलेखों में वे शालीनता की सारी मर्यादाएं लांघ जाते हैं।
टेरीटोरियल नेशनलिज्म का उपहास श्री गोलवलकर ने अपनी पुस्तक बंच ऑफ थॉट्स के दसवें अध्याय में खूब उड़ाया है। उनके अनुसार भारत में पैदा हो जाने मात्र से कोई हिन्दू नहीं हो जाता उसे हिंदुत्व के सिद्धांत को अपनाना होगा। श्री सावरकर के मुताबिक केवल हिंदू भारतीय राष्ट्र का अंग थे और हिंदू वो थे - जो सिंधु से सागर तक फैली हुई इस भूमि को अपनी पितृभूमि मानते हैं, जो रक्त संबंध की दृष्टि से उसी महान नस्ल के वंशज हैं, जिसका प्रथम उद्भव वैदिक सप्त सिंधुओं में हुआ था, जो उत्तराधिकार की दृष्टि से अपने आपको उसी नस्ल का स्वीकार करते हैं और इस नस्ल को उस संस्कृति के रूप में मान्यता देते हैं जो संस्कृत भाषा में संचित है।
राष्ट्र की इस परिभाषा के चलते सावरकर का निष्कर्ष था कि ईसाई और मुसलमान समुदाय, जो ज़्यादा संख्या में अभी हाल तक हिंदू थे और जो अभी अपनी पहली ही पीढ़ी में नए धर्म के अनुयायी बने हैं, भले ही हमसे साझा पितृभूमि का दावा करें और लगभग शुद्ध हिंदू खून और मूल का दावा करें, लेकिन उन्हें हिंदू के रूप में मान्यता नहीं दी जा सकती क्योंकि नया पंथ अपना कर उन्होंने कुल मिलाकर हिंदू संस्कृति का होने का दावा खो दिया है।‘ सावरकर के अनुसार- हिन्दू भारत में-हिंदुस्थान में- एक राष्ट्र हैं जबकि मुस्लिम अल्पसंख्यक एक समुदाय मात्र।
सावरकर की हिंसा और प्रतिशोध की विचारधारा को समझने के लिए उनकी पुस्तक भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ का अध्ययन आवश्यक है। इस पुस्तक में भारतीय इतिहास का पांचवां स्वर्णिम पृष्ठ शीर्षक खण्ड के चतुर्थ अध्याय को सावरकर ने ‘सद्गुण विकृति’ शीर्षक दिया है। इस अध्याय में सावरकर लिखते हैं-इसके विपरीत महमूद गजनवी और मुहम्मद गोरी आदि तत्कालीन सुल्तानों के समय में दिल्ली से लेकर मालवा तक के उनके राज्य में कोई भी हिन्दू अपने मंदिरों के विध्वंस के संबंध एक अक्षर भी उच्चारित करने का साहस नहीं कर सकता था।
तत्कालीन इतिहास के सहस्रावधि प्रसंग इस बात के साक्षी हैं कि यहां शरणार्थी बनकर निवास करने वाले यही मुसलमान किसी बाह्य मुस्लिम शक्ति के द्वारा हिंदुस्थान पर आक्रमण करने पर विद्रोही बन जाते थे। वे उस राजा को समाप्त करने के लिए जी तोड़ कोशिश करते थे। यह सब बातें अपनी आंखों से भली भांति देखने के बाद भी हिन्दू राजा देश, काल, परिस्थिति का विचार न कर परधर्मसहिष्णुता, उदारता, पक्ष निरपेक्षता को सद्गुण मान बैठे और उक्त सद्गुणों के कारण ही वे हिन्दू राजागण संकटों में फंसकर डूब मरे। इसी का नाम है सद्गुण विकृति। सावरकर इसी पुस्तक के लाखों हिन्दू स्त्रियों का अपहरण एवं भ्रष्टीकरण उपशीर्षक में लिखते हैं - वे बलात्कार से पीडि़त लाखों स्त्रियां कह रही होंगी कि हे शिवाजी राजा! हे चिमाजी अप्पा!! हमारे ऊपर मुस्लिम सरदारों और सुल्तानों द्वारा किए गए बलात्कारों और अत्याचारों को कदापि न भूलना।
आप कृपा करके मुसलमानों के मन में ऐसी दहशत बैठा दें कि हिंदुओं की विजय होने पर उनकी स्त्रियों के साथ भी वैसा ही अप्रतिष्ठा जनक व्यवहार किया जाएगा जैसा कि उन्होंने हमारे साथ किया है यदि उन पर इस प्रकार की दहशत बैठा दी जाएगी तो भविष्य में विजेता मुसलमान हिन्दू स्त्रियों पर अत्याचार करने की हिम्मत नहीं करेंगे। लेकिन महिलाओं का आदर नामक सद्गुण विकृति के वशीभूत होकर शिवाजी महाराज अथवा चिमाजी अप्पा मुस्लिम स्त्रियों के साथ वैसा व्यवहार न कर सके। उस काल के परस्त्री मातृवत के धर्मघातक धर्म सूत्र के कारण मुस्लिम स्त्रियों द्वारा लाखों हिन्दू स्त्रियों को त्रस्त किए जाने के बाद भी उन्हें दंड नहीं दिया जा सका।
30 नवंबर 1949 के ऑर्गनाइजर के संपादकीय में लिखा गया- किन्तु हमारे संविधान में प्राचीन भारत में हुए अनूठे संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं हैं। मनु द्वारा विरचित नियमों का रचनाकाल स्पार्टा और पर्शिया में रचे गए संविधानों से कहीं पहले का है। आज भी मनुस्मृति में प्रतिपादित उसके नियम पूरे विश्व में प्रशंसा पा रहे हैं और इनका सहज अनुपालन किया जा रहा है। किंतु हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए यह सब अर्थहीन है।
ऑर्गनाइजर जब मनुस्मृति की विश्व व्यापी ख्याति की चर्चा करता है तब हमारे लिए यह जानना आवश्यक हो जाता है उसका संकेत किस ओर है। आम्बेडकर ने यह उल्लेख किया है कि मनुस्मृति से जर्मन दार्शनिक नीत्शे प्रेरित हुए थे और नीत्शे से प्रेरणा लेने वालों में हिटलर भी था। हिटलर और मुसोलिनी संकीर्ण हिंदुत्व की अवधारणा के प्रतिपादकों के भी आदर्श रहे हैं।
श्री विनायक दामोदर सावरकर भी भारतीय संविधान के कटु आलोचक रहे। उन्होंने लिखा- भारत के नए संविधान के बारे में सबसे ज्यादा बुरी बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है। मनुस्मृति एक ऐसा ग्रंथ है जो वेदों के बाद हमारे हिन्दू राष्ट्र के लिए सर्वाधिक पूजनीय है। यह ग्रंथ प्राचीन काल से हमारी संस्कृति और परंपरा तथा आचार विचार का आधार रहा है। आज भी करोड़ों हिंदुओं द्वारा अपने जीवन और व्यवहार में जिन नियमों का पालन किया जाता है वे मनुस्मृति पर ही आधारित हैं। आज मनुस्मृति हिन्दू विधि है। (सावरकर समग्र, खंड 4, प्रभात, दिल्ली, पृष्ठ 416)
श्री गोलवलकर ने बारंबार संविधान से अपनी गहरी असहमति की निस्संकोच अभिव्यक्ति की। उन्होंने लिखा- हमारा संविधान पूरे विश्व के विभिन्न संविधानों के विभिन्न आर्टिकल्स की एक बोझिल और बेमेल जमावट है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे अपना कहा जा सके। क्या इसके मार्गदर्शक सिद्धांतों में इस बात का कहीं भी उल्लेख है कि हमारा राष्ट्रीय मिशन क्या है और हमारे जीवन का मूल राग क्या है? (बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु बेंगलुरु,1996, पृष्ठ 238)।
आज मजबूत केंद्र के महाशक्तिशाली नेता के कठोर निर्णयों का गुणगान करने में मीडिया का एक बड़ा हिस्सा व्यस्त है। यह मजबूत सरकार राज्य सरकारों के लोकतांत्रिक विरोध को सहन नहीं कर पाती है। केंद्र का यह अहंकार संघवाद के हित में नहीं है। देश के संचालन की रीति-नीति में जो परिवर्तन दिख रहे हैं उनसे स्पष्ट है कि बहुसंख्यकवाद को वास्तविक लोकतंत्र के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश हो रही है, अल्पसंख्यक वर्ग को धीरे धीरे हाशिए पर धकेला जा रहा है।
अखंड भारत का स्वप्न देखते देखते हमने अपने सभी पड़ोसियों से संबंध खराब कर लिए है। ऐसी स्थिति में लोकतंत्र और हमारी समावेशी संस्कृति से जुड़ी मूल अवधारणाओं के माध्यमिक स्तर के पाठ्यक्रम से विलोपन की कोशिश शायद इसलिए की जा रही है कि आने वाली पीढ़ी यह जान भी न पाए कि उससे क्या छीन लिया गया है। आज नई शिक्षा नीति के आकर्षक प्रावधानों की प्रशंसा में अखबार रंगे हुए हैं, उस नीयत की चर्चा कोई नहीं कर रहा है जो भारतीय शिक्षा का भविष्य तय करेगी।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
(समग्र रूप से वर्तमान संदर्भ सहित राजस्थान के विशेष संदर्भ में)
-देवेंद्र वर्मा
सत्ता प्राप्ति के लिए राजनीतिक दलो के षड्यंत्र का आकलन किया जाना नामुमकिन है,किंतु राजनीतिक दल के षड्यंत्रो में राज्यपाल,अथवा विधानसभा के अध्यक्ष जैसे संवैधानिक पदों पर विराजमान सम्माननीय व्यक्ति भी यदि सम्मिलित हो जाएं और न्यायपालिका भी उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित न्याय निर्णयों, नजीरों के विपरीत निर्णय करने लगे, आम जनता भी इन संवैधानिक पदों एवं संस्थाओं के कार्यकरण से इनके प्रति आशंकित हो जाए,तब यह कहा जा सकता है कि प्रजातांत्रिक व्यवस्थाएं चाहे समाप्त ना हुई हो, किंतु कमजोर तो हो ही गई है।
राजस्थान में इस समय हमारे संविधान के साथ जो खिलवाड़ हो रहा है, उसमें राजनीतिक दलों से तो ज्यादा अपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि सत्ता प्राप्ति के लिए इनका आचरण, व्यवहार और कार्य करण संविधान के लागू होने के पश्चात से ही हम सब बेबस होकर देख रहे हैं। विधानसभा के अध्यक्षों की कार्य प्रणाली से भी 1985 तक जबकि दल बदल कानून लागू नहीं हुआ था,आम जनता निरपेक्ष ही रही, किंतु जब अध्यक्षों को दल बदल कानून के अंतर्गत विधान सभा के सदस्यों की अयोग्यता तथा राजनीतिक दलों के विभाजन पर निर्णय करने की अधिकारिता दी गई, अध्यक्ष के निर्णय किसी दल के सत्ता में बने रहने अथवा अपदस्थ होने के लिए निर्णायक हो गए, उसके पश्चात अध्यक्ष से राजनीतिक दलों के साथ-साथ जनता की अपेक्षाएँ भी बढ़ गई।
अध्यक्ष किसी भी दल के रहे हो,अपवाद स्वरूप कुछ निर्णयों को छोडक़र वर्ष 1985 से अध्यक्ष के निर्णय उनके मूल राजनीतिक दल जिस के टिकट पर वे विधायक निर्वाचित हुए,के प्रति निष्ठा प्रकट करने के प्रयास से प्रभावित रहे।
संसद एवं विधान सभाओं में जब से मिली जुली सरकार अथवा सहयोगी दल के साथ सरकार का गठन आरंभ हुआ,किसी भी एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होने की स्थिति में राजनीतिक दल अन्य राजनीतिक दलों, निर्दलीय सदस्यों के साथ जोड़-तोड़ करके सरकार गठित करने के लिए तोलमोल और षड्यंत्र कर के अपना-अपना बहुमत होने का दावा करने लगे, ऐसी स्थिति में राज्यपाल संविधान के अनुच्छेद 164 के अंतर्गत मुख्यमंत्री किसे नियुक्त करें? सरकार बनाने के लिए राज्यपाल किस राजनीतिक दल को आमंत्रित करें? मुख्यमंत्री किसे नियुक्त करें? का निर्णय, संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत अपने विवेक से करने लगे। राज्यपालों का तथाकथित विवेक भी उस राजनीतिक दल के प्रति प्रभावित होने लगा जिस राजनीतिक दल की अनुशंसा पर वे राज्यपाल नियुक्त हुए हैं। राज्यपालों के ऊपर भी आरोप लगना प्रारंभ हुआ।
राज्यपालों द्वारा मुख्यमंत्री को नियुक्त करने और अध्यक्षों द्वारा दल बदल कानून के अंतर्गत दिए गए निर्णय को न्यायालयों में चुनौती दी जाने लगी फल स्वरूप वर्ष 1985 से आज दिनांक तक अनेकों न्याय निर्णय के द्वारा अनेक सिद्धांत, विधी के स्वरूप में स्थापित हुए। कार्यपालिका विधायिका एवं न्यायपालिका के उच्च पद धारित जब विधि के सदृश्य स्थापित इन सिद्धांतों का पालन नहीं करते हैं,तभी ऐसी स्थिति निर्मित होती है, जो हम सब विगत लगभग एक डेढ़ वर्षो से देश के विभिन्न राज्यों और वर्तमान में सत्ता प्राप्ति के संघर्ष के लिए राजस्थान में चल रही उठापटक के संदर्भ में विगत 18 दिनों से अधिक समय से देख रहे हैं।
सत्ता प्राप्ति के लिए राजनीतिक दलों में हुए संघर्ष के फलस्वरूप उच्चतम न्यायालय के न्याय निर्णय के द्वारा अथवा विधि निर्माण के द्वारा स्थापित सिद्धांतों एवं विधियों में से वर्तमान संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण निम्नानुसार है :-
(1) संविधान की दसवीं अनु सूची (दल बदल कानून) के अंतर्गत किसी सदस्य अथवा सदस्यों के अयोग्यता अर्जित करने संबंधी अर्जी प्राप्त होने पर अध्यक्ष विधानसभा को ही केवल अर्जी पर निर्णय देने की अधिकारिता प्राप्त है, न्यायालयों को नहीं, और जब तक अध्यक्ष अर्जी पर निर्णय नहीं देते तब तक न्यायालय को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।
(2) अध्यक्ष के विचाराधीन किसी अर्जी पर यदि न्यायालय को कोई याचिका प्राप्त होती है तब भी न्यायालय उस याचिका पर किसी प्रकार का अंतरिम आदेश पारित नहीं कर सकते,यह अवश्य है कि अध्यक्ष द्वारा अर्जी पर अंतिम रूप से निर्णय दिए जाने के पश्चात, दिए गए निर्णय को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है, और न्यायालय विचार कर सकते हैं।
(3) सरकार के गठन होने के पश्चात गठबंधन में सम्मिलित अथवा बाहर से सरकार को समर्थन दे रहे दल अथवा अन्य विधायक अपना समर्थन वापस ले लेते हैं, / राजनीतिक दल के ही विधायक मूल दल जिसके प्रत्याशी के रूप में निर्वाचित हुए हैं, दल बदल कानून के पैरा 2(1)(क)(ख) के अंतर्गत अयोग्य घोषित होने, पर प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि, सरकार अल्पमत में आ गई है,ऐसी स्थिति में राज्यपाल मुख्यमंत्री से सभा में अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए अपेक्षा कर सकते हैं अथवा सदन के नेता अर्थात मुख्यमंत्री सभा में विश्वास का प्रस्ताव रखकर अपना बहुमत सिद्ध कर सकते हैं।
उच्चतम न्यायालय के द्वारा जब यह न्याय निर्णित हो गया कि बहुमत का निर्णय विधान मंडल के पटल पर होगा बाहर नहीं तब राज्यपालों के द्वारा राजभवन में विधायकों की परेड करवाने अथवा राज्यपाल द्वारा बहुमत का निर्णय करने की परिपाटी में रोक लगी और ऐसा आभास भी हुआ कि यह क्षेत्र अब राज्यपाल की मनमर्जी का नहीं रहा। यद्यपि विभिन्न कारणों से राज्यपाल की भूमिका पर सवाल उठते रहे लेकिन न्यायालय द्वारा न्याय निर्णय के पश्चात उनका निराकरण भी होता रहा।
यह अवश्य है कि ऐसे ही अवसरों पर न्यायपालिका ने विधायिका के कार्य क्षेत्र में अतिक्रमण करते हुए विधायिका को निर्देशित करना प्रारंभ कर दिया।फल स्वरूप सभा की कार्यवाही जिस पर संविधान में स्पष्ट प्रावधान है, कि सभा की कार्यवाही पर संपूर्ण नियंत्रण सभा का ही रहता है। न्यायपालिका,न्याय निर्णय में,सभा की बैठक कब होगी, कैसे होगी, मतदान की प्रक्रिया क्या रहेगी, बाहरी पर्यवेक्षक नियुक्त होंगे,मतदान का निर्णय घोषित नहीं किया जाएगा जब तक कि न्यायालय अनुमति न दे, आदि आदि।ऐसे न्यायनिर्णयों पर, विधायिका ने, ‘विधायिका और न्यायपालिका’ के बीच संबंध विषय पर समय-समय पर संगोष्ठी एवं सम्मेलनों के माध्यम से विधान मंडलों की ‘सार्वभौमिकता एवं न्यायालय’, जैसे विषयों पर विचार मंथन किया तथा स्वनियंत्रण का पालन करते हुए विधायिका के क्षेत्र में न्यायपालिका के अतिक्रमण पर समझदारी पूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त की।
प्रजातांत्रिक लोकतंत्र सुचारु रूप से लोक हित एवं लोक कल्याण के उद्देश्य से संचालित हो इस हेतु सबसे प्राथमिक आवश्यकता इस बात की है कि संविधान के आधार स्तम्भ विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका अपने अपने संविधान प्रदत्त कार्य क्षेत्र में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें और किसी दूसरे के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण का प्रयास न करें।
इस विषय में भिन्न-भिन्न मत हो सकते हैं कि यह सब प्रारंभ कब हुआ उदाहरणार्थ राज्यपालों द्वारा उनके द्वारा ली गई शपथ के विपरीत अपने नियोक्ता के प्रति निष्ठा को सर्वोपरि रखकर अल्पमत दल को सत्ता की बागडोर सोपना, जनमत की सरकारों को मनमाने तरीके से बर्खास्त करना, चुनी हुई सरकारों को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन थोपना, जन प्रतिनिधियों द्वारा जनता के विश्वास को खंडित करते हुए लोभ लालच के वशीभूत दल बदलना, दल बदल कानून का निर्वचन कानून की भावना के विपरीत अपने मनमाफिक तरीके से करते हुए अपने दल के प्रति निष्ठा प्रदर्शित करने को प्राथमिकता देना, उच्चतम न्यायालय द्वारा न्याय निर्णय से स्थापित सिद्धांत को नजऱअंदाज करते हुए अधिकारिता से बाहर जाकर निर्णय देना,ऐसे अवांछनीय, उदाहरण है जब आमजन को ऐसा प्रतीत हुआ कि संवैधानिक व्यवस्थाएं और संविधान के प्रावधानों की भावनाएं खंडित हो रही है। यही नहीं संविधान सभा जब संविधान के विभिन्न प्रावधानों को अंतिम रूप दे रही थी,और संविधान सभा के विद्वान सदस्य अपने अपने विचार रख रहे थे और भावनाएं प्रकट कर रहे थे, जिन भावनाओं के साथ संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों को बाबा साहब ने अंतिम रूप दिया गया, उच्च संवैधानिक पदों को धारण करने वाले पदाधिकारियों द्वारा उन भावनाओं के विपरीत कार्यकरण प्रारंभ किया।
वर्ष 1995 से भाजपा के मुख्य आधार स्तंभों में से एक आदरणीय अटल बिहारी वाजपेई ने संसद में अविश्वास प्रस्ताव, और अन्य अनेक अवसरों पर व्यक्त विचारों से देश के समक्ष जो आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किए, देश को आशा की एक किरण भाजपा के नेतृत्व कर्ता के रूप में दिखाई दी, 2003 में राजनीति में दल बदल रोकने के उद्देश्य से,तथा अध्यक्ष का पद विवाद का विषय ना बने उसकी प्रतिष्ठा एवं गरिमा बनी रहे दल बदल कानून में व्यापक संशोधन किए गए।
वर्ष 2014 में भाजपा की सरकार न केवल देश में अपितु प्रदेशों में भी भारी जनमत के साथ सत्ता में आई। एक चकाचौंध करने वाला नेतृत्व देश को प्राप्त हुआ, इस चकाचौंध नेतृत्व से विभिन्न राज्यों में भाजपा के नेतृत्व के भी चमकने का एहसास हुआ, आम जन आकर्षित हुआ, लेकिन राज्यों के परिपेक्ष में यह एहसास अल्प समय में ही विलुप्त हो गया।
जनता में राज्यों में नेतृत्व के प्रति व्याप्त हुई निराशा की भावना के फल स्वरूप देश की राजधानी दिल्ली सहित राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गोवा, मणिपुर, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, कर्नाटक, आदि राज्यों में जनता ने या तो भाजपा को पूरी तरीके से नकार दिया या फिर बहुमत से दूर कर दिया और 2014 मैं जागृत कांग्रेस मुक्त भारत की भाजपा की कल्पना धराशाई हो गई।फिर एक नया प्रयोग आरंभ हुआ, वर्ष 2019 के आम चुनाव आते आ ‘कांग्रेस मुक्त भारत के स्थान पर कांग्रेस युक्त भाजपा’ का।
1) पूंजीवाद और पैकेज के युग में प्रयोग को मूर्त रूप देने के लिए बाजार में खऱीदार आ गए बोली लगने लगी बाजार में माल बिकने के लिए उपलब्ध था।संवैधानिक पदों पर नियुक्त पदाधिकारियों जो संविधान की रक्षा की शपथ से बंधे थे, के आचरण से आम जनता का विश्वास संवैधानिक संस्थाओं के पदाधिकारियों से डगमगाने लगा।
2)वर्ष 2014 में जनता ने जिस प्रजातांत्रिक सिद्धांत युक्त राजनीति के प्रारंभ की कल्पना की थी, वह पूँजी प्रधान है,ऐसी धारणा बलवती होने लगी और इसके पीछे मुख्य कारण रहा केंद्र की सरकार द्वारा प्रदेशों की जनमत की सरकारों को अस्थिर करना।
3) आम निर्वाचन में बहुमत प्राप्त राजनीतिक दल के, जन प्रतिनिधि अचानक जनता के साथ विश्वासघात करते हुए जिस दल से जनता ने उन्हें 5 वर्ष के लिए निर्वाचित किया था,कालावधी पूर्ण किए बिना ही जनमत की सरकार को अपदस्थ करने के उद्देश्य से विधायक पद से इस्तीफा, पश्चात समारोह पूर्वक अन्य राजनीतिक दल की सदस्यता लेने, और जिस राजनीतिक दल में सम्मिलित हुए,उसके छद्म बहुमत में आने के फलस्वरूप नवगठित मंत्रिमंडल में मंत्री के पद पर नियुक्त करने ।
4) राज्यपाल द्वारा मंत्री परिषद की अनुशंसा पर विधानसभा का सत्र बुलाने के मंत्री परिषद के संवैधानिक अधिकार मैं अड़ंगा डालते हुए, मंत्री परिषद की विधानसभा के माध्यम से जनता के प्रति जवाबदेही में अवरोध उत्पन्न करने।
5)उच्चतम न्यायालय की 5 सदस्य की बेंच के विधि स्वरूप, न्याय निर्णय के विपरीत अध्यक्ष के क्षेत्राधिकार में न्यायपालिका का अतिक्रमण।
संविधान के लागू होने के पश्चात वर्ष 1964 में विधायिका एवं न्यायपालिका के मध्य अधिकारिता के संविधान प्रदत्त कार्य क्षेत्र में अतिक्रमण किए जाने पर राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय की पूरी संविधान पीठ को संदर्भित मामले में उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय कि संविधान के दोनों ही अंगों को एक दूसरे के कार्य क्षेत्र में अतिक्रमण नहीं करते हुए और विधायिका की सार्वभौमिकता को अक्षुण्ण रखते हुए समादर एवं सम्मान की भावना से कार्य करना चाहिए।
पूर्व में न्यायिक सक्रियता वाद के संबंध में भी अनेकों अवसरों पर संगोष्ठी एवं कार्यशाला में विचार विमर्श हुआ और निष्कर्ष यही रहा कि इन दोनों ही संस्थाओं के मध्य उचित तालमेल सबसे महत्वपूर्ण है और यदि वे अपनी संविधान प्रदत्त सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं तो यह व्यापक राष्ट्रीय हित में नुकसानदायक ही रहेगा।
वर्तमान में जिस प्रकार राज भवन एवं न्यायपालिका के द्वारा राजनीतिक कार्यपालिका एवं विधायिका के क्षेत्र में संविधान के प्रावधानों के विपरीत अवांछनीय अतिक्रमण किया जा रहा है, कि प्रबल भावना का आविर्भाव संपूर्ण देश में हुआ है वह संसदीय प्रजातांत्रिक प्रणाली के लिए नुकसानदायक है।
संसदीय प्रजातंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है कि कार्यपालिका विधायिका एवं न्यायपालिका संविधान के प्रति निष्ठावान होकर संवैधानिक व्यवस्था को अक्षुण्ण बनाए रखें।
(देवेंद्र वर्मा, पूर्व प्रमुख सचिव छत्तीसगढ़ विधानसभा संसदीय एवं संवैधानिक विशेषज्ञ)
-कुणाल पाण्डेय
कोरोनावायरस महामारी और इससे बचने के लिए लगाए गए लॉकडाउन ने “जूम” ऐप को रातोंरात लोकप्रिय बना दिया। मध्यम और उच्च वर्गीय शहरी तबका इसका इस्तेमाल ऑनलाइन कक्षाओं, दफ्तरों की मीटिंग, वेबिनार आदि में करने लगा। लेकिन देश का एक बड़ा तबका इससे अछूता ही रहा। कोरोना काल ने इन दो तबकों के बीच डिजिटल डिवाइड (विभाजन) को स्पष्टता से उजागर कर दिया। आर्थिक रूप से बेहद कमजोर इस बड़े तबके को समझने के लिए डाउन टू अर्थ मध्य प्रदेश के पन्ना जिले के सुदूर गांव कोटा गुंजापुर पहुंचा और यहां रहने वाले 13 वर्षीय छात्र बृज कुमार और उसकी मां से मिला।
आठवीं कक्षा का छात्र बृज आदिवासी समाज से आता है और उसकी मां हक्की बाई का बस एक ही सपना है कि इकलौती संतान अच्छे से पढ़ लिखकर इज्जत की जिंदगी जी ले। मजदूरी करके पेट भरने वाली हक्की बाई लॉकडाउन की वजह से सहमी हुई हैं। चार-पांच महीने से अधिक हो गए हैं और उनका बच्चा स्कूल जाना तो दूर, कॉपी-किताब को हाथ तक नहीं लगाता। वह कहती हैं, “नहीं मालूम यह सब कब तक चलेगा। बच्चे की पढ़ाई लगभग छूट सी गई है। डर लगता है कि अगर दो-चार महीने बाद स्कूल खुल भी जाए तो बच्चे का पढ़ने में मन लगेगा या नहीं।”
क्या फोन या इंटरनेट के माध्यम से स्कूल के संपर्क में नहीं है? इस सवाल के जवाब में हक्की बाई कहती हैं, “घर में फोन ही नहीं है। अगर कर्ज वगैरह लेकर फोन खरीद भी लें उसे चार्ज कैसे करेंगे। गांव में आज तक बिजली नहीं आई।”
जब शिक्षा के लिए फोन और इंटरनेट पर पूरा देश निर्भर हो गया है, तब हक्की बाई अकेली मां नहीं है जो ऐसी समस्या का सामना कर रही हैं। उनके गांव में एक प्राथमिक विद्यालय है। वहां करीब 31 छात्र-छात्राओं का नामांकन हुआ है। जब लॉकडाउन की अवधि बढ़ने लगी तब सरकारों ने विद्यालयों को आदेश दिया कि बच्चों को फोन या इंटरनेट के सहारे संपर्क में रखा जाए। इस आदेश के बाद, विद्यालय प्रशासन ने घर-घर घूमकर सभी से मोबाइल नंबर लेने की कोशिश की। कुल आठ घरों में मोबाइल नंबर मिले और इनमे से महज दो ही सक्रिय थे। यह जानकारी विद्यालय के प्रधानाध्यापक रोहणी पाठक ने दी। उनका कहना है कि अन्य गांव की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है। अधिकतर बच्चे आदिवासी समाज से आते हैं और इनके माता-पिता अपने जीवनयापन के लिए मजदूरी करते हैं। इन बच्चों को विद्यालय लाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है क्योंकि इनमें से अधिकतर शिक्षा को महत्व नहीं देते। पाठक सवाल करते हैं, “जरा सोचिए, महीनों तक अगर शिक्षक और छात्रों की आमने-सामने वाली मुलाकात न हो तो बच्चे पढ़ाई-लिखाई में कितना मन लगाएंगे।”
देश के तमाम राज्यों में बड़ी संख्या में ऐसे बच्चे हैं जो ऑनलाइन क्लास जैसी सुविधा का फायदा नहीं उठा सकते। पेशे से वकील और नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी से जुड़ी शोधकर्ता स्मृति परशीरा को हिमाचल प्रदेश के कई सरकारी विद्यालयों से संपर्क साधने का मौका मिला। यहां सरकारी विद्यालय के शिक्षक वाट्सऐप के माध्यम से बच्चों को संपर्क में रखने की कोशिश कर रहे हैं। वहीं निजी विद्यालयों के शिक्षक जूम जैसे ऐप का सहारा ले रहे हैं। दिक्कत यह है कि अधिकतर घरों में पांच के करीब सदस्य हैं और इनके बीच महज एक फोन है। इन घरों में तीन से चार पढ़ने वाले बच्चे हैं। घर का कोई सदस्य काम पर या खरीदारी करने बाजार जाता है तो उसको फोन साथ ले जाना होता है। घर के सभी लोग हमेशा उस एक फोन को पाने का संघर्ष करते दिखते हैं।
वंचित हुआ और वंचित
लॉकडाउन के बाद डिजिटल स्तर पर किए जाने वाले तमाम प्रयासों ने पिछड़े तबके को और पीछे धकेला है। तमाम क्षेत्रों में शिक्षा महज एक क्षेत्र है जिसने लॉकडाउन के दौरान ग्रामीण और शहरों में व्याप्त डिजिटल डिवाइड को समझने का मौका दिया है। लेकिन गौर से देखने पर यह खाई हर जगह दिखती है। चाहे वह इंटरनेट और फोन के द्वारा मिलने वाली तमाम सुविधाएं जैसे टेलीमेडिसिन, बैंकिंग, ई-कॉमर्स या ई-गवर्नेंस ही क्यों न हों। यह स्थिति तब है जब देश ने पिछले कुछ वर्षों में वायरलेस ग्राहकों की संख्या में काफी वृद्धि दर्ज की है।
भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) द्वारा 29 जून को जारी मासिक रिपोर्ट के अनुसार, फरवरी 2020 में देश में 116 करोड़ से अधिक वायरलेस ग्राहक थे। चार साल पहले यानी फरवरी 2016 में देश में वायरलेस या कहें मोबाइल फोन के ग्राहकों की संख्या 101 करोड़ के आसपास थी। यानी पिछले चार साल में ऐसे ग्राहकों की संख्या करीब 15 करोड़ बढ़ी है। इसमें शहरी ग्राहकों की संख्या 7.4 करोड़ और ग्रामीण ग्राहकों की संख्या 8.6 करोड़ बढ़ी है। लेकिन यह वृद्धि केवल बुनियादी दूरसंचार सुविधा को ही दर्शाती है। ऑनलाइन कक्षाओं, वित्तीय लेनदेन और ई-गवर्नेंस जैसी सेवाओं के लिए फोन के साथ साथ इंटरनेट, टैबलेट और कंप्यूटर जैसे इंटरनेट-सक्षम उपकरणों को संचालित करने की क्षमता की भी जरूरत होती है। इसे जाने बिना डिजिटल डिवाइड को नहीं समझा जा सकता। इन मामलों में डिजिटल डिवाइड की खाई कितनी बढ़ी है, इसका अंदाजा जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच किए गए एक सरकारी सर्वेक्षण से लगता है।

75वें दौर के राष्ट्रीय नमूना (प्रतिदर्श) सर्वेक्षण के अनुसार, महज 4.4 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास ही कंप्यूटर उपलब्ध है। शहरी क्षेत्र में यह आंकड़ा बढ़कर 14.9 प्रतिशत हो जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों के 14.9 प्रतिशत परिवारों को ही इंटरनेट सुविधा उपलब्ध हो पाती है, वहीं 42 प्रतिशत शहरी घरों में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है। अगर इंटरनेट चलाने की क्षमता की बात की जाए तो पांच साल से अधिक उम्र के महज 13 प्रतिशत ग्रामीण पर 37 प्रतिशत शहरी लोग इंटरनेट चलाने में सक्षम हैं।
हालांकि इसके बावजूद डिजिटल डिवाइड की वास्तविक तस्वीर नहीं स्पष्ट होती। दिल्ली स्थित इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक अपार गुप्ता कहते हैं, “शहरी क्षेत्र में प्रति 100 लोगों पर 104 इंटरनेट कनेक्शन हैं (कई फोन में दो सिम कार्ड होते हैं), जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति 100 लोगों पर लगभग 27 कनेक्शन हैं। इस आंकड़े से ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के बीच फैली डिजिटल डिवाइड के वास्तविक स्तर का पता चलता है।”
केंद्र सरकार में दूरसंचार विभाग में सचिव रही अरुणा सुन्दराजन के अनुसार, यह स्पष्ट है कि देश में बहुत कम लोगों की पहुंच इंटरनेट तक है। एक तरफ तो सब लोग यह मानने लगे हैं कि आज के समय में इंटरनेट की सुविधा मूलभूत जरूरतों में आती है पर दूसरी तरफ नीति-निर्माता अपनी प्लानिंग में इसको खास तवज्जो नहीं देते। सुन्दराजन केरल सरकार के कोविड-19 टास्क फोर्स की सदस्य भी हैं। वह कहती हैं, “कोविड-19 से लड़ाई में हमारी पहली सिफारिश यही थी कि लोगों को सुचारू रूप से इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध होती रहे। हमने सुझाव दिया कि जिन लोगों के पास इंटरनेट सुविधा उपलब्ध नहीं है, उन्हें यह सुविधा उपलब्ध कराई जाए।”
डिजिटल डिवाइड की खाई को लिंग के आधार पर भी देखा जा सकता है। दुनियाभर में मोबाइल नेटवर्क ऑपरेटरों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था जीएसएमए ने मार्च में जेंडर गैप रिपोर्ट 2020 जारी की। इसके अनुसार देश में 79 फीसदी पुरुषों के पास मोबाइल फोन है, वहीं महिलाओं के लिए यह संख्या महज 63 फीसदी है। मोबाइल इंटरनेट के इस्तमाल में यह फासला 50 फीसदी तक बढ़ जाता है। फोन और इंटरनेट की सुविधा का होना या न होना केवल एक आर्थिक स्थिति को बयान नहीं करता बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को भी दर्शाता है। परशीरा कहती हैं कि अगर एक परिवार में बस एक फोन उपलब्ध है तो पूरी संभावना है कि इस फोन को इस्तेमाल करने वालों की कतार में पत्नी या बेटी आखिरी पायदान पर होंगी।
कंप्यूटर की उपलब्धता या इंटरनेट चलाने में सक्षम लोगों की संख्या के मद्देनजर देखा जाए तो विभिन्न राज्यों की स्थिति अलग-अलग है। जैसे इंटरनेट की उपलब्धता में हिमाचल प्रदेश अग्रणी है, वह चाहे ग्रामीण क्षेत्र हो या शहरी। कंप्यूटर की उपलब्धता के मामले में उत्तराखंड का शहरी क्षेत्र सबसे आगे है। जबकि केरल में ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे अधिक कंप्यूटर हैं। कंप्यूटर की उपलब्धता के मामले में केरल एक ऐसा राज्य है, जहां ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच अंतर सबसे कम है।
पिछले पांच वर्षों में सरकार और निजी दोनों क्षेत्रों की तरफ से देश को डिजिटल बनाने की दिशा में काफी प्रयास हुए हैं (देखें, सुस्त चाल, पेज 43)। वर्तमान सरकार ने तो डिजिटल इंडिया की बड़ी हुंकार भरी है। 2017 में रिलायंस के जियो फोन की शुरुआत देश के इंटरनेट की दुनिया के लिए एक क्रांतिकारी कदम माना जाता है। जियो ने शुरुआती दौर में मुफ्त वॉयस कॉलिंग की सुविधा और डेटा पैक प्रदान किया। इसकी वजह से अन्य कंपनियों ने भी सस्ते दरों पर सुविधाएं उपलब्ध करानी शुरू कर दी। जियो की शुरुआत के बाद देश में इंटरनेट ट्रैफिक में बड़ी उछाल देखने को मिली। नोकिया द्वारा जारी एक रिपोर्ट से इसकी पुष्टि होती है। इसके अनुसार पिछले चार वर्षों में भारत में डेटा ट्रैफिक में 44 गुना वृद्धि हुई है।
परशीरा कहती हैं कि इसके बावजूद देश की बड़ी आबादी के पास इंटरनेट जैसी बुनियादी सुविधा उपलब्ध नहीं है। इनमें से अधिकतर वंचित समाज से आते हैं।
सुस्त चाल
पिछले एक दशक में, सरकारें देश में इंटरनेट का उपयोग बेहतर बनाने की कोशिश कर रही हैं ताकि अधिक से अधिक लोग इस सुविधा का इस्तेमाल कर सकें। वर्ष 2011 में, भारतनेट परियोजना की शुरुआत हुई। इसके तहत ढाई लाख पंचायतों को ऑप्टिकल फाइबर (100 एमबीपीएस) को जोड़ा जाना था। इस परियोजना पर काम 2014 में जाकर शुरू हुआ। इस योजना के तहत इन ढाई लाख गांव को मार्च 2019 तक इंटरनेट से जोड़ना था पर महज 118,000 गांव को ही जोड़ा जा सका। अब इस लक्ष्य के लिए निर्धारित समयसीमा को अगस्त 2021 तक बढ़ा दिया गया है।
वर्ष 2014 में सरकार ने राष्ट्रीय डिजिटल साक्षरता मिशन और डिजिटल साक्षरता अभियान शुरू किया। जनवरी 2019 में सूचना प्रौद्योगिकी पर स्थायी समिति ने कहा कि ये दोनों योजनाएं रूपरेखा में लगभग समान थीं। इसकी वजह से इन योजनाओं के लाभार्थियों के बीच भ्रम पैदा होने की गुंजाइश थी। वर्ष 2015 में सरकार ने पूरे देश को जोड़ने के लिए अपने डिजिटल इंडिया अभियान के तहत कई योजनाएं शुरू कीं।
इसमें 2017 में शुरू किया गया प्रधानमंत्री ग्रामीण डिजिटल अभियान भी शामिल है। इसके तहत ग्रामीण भारत के छह करोड़ घरों में डिजिटल साक्षर करना था। इस पर आने वाला खर्चा करीब 2,351 करोड़ रुपए है। वर्ष 2017-18 में सरकार को इसके लिए 1175.69 करोड़ रुपए की राशि देनी थी। इतनी ही राशि इसके अगले साल के लिए थी। लेकिन सरकार ने अब तक महज 500 करोड़ रुपए ही आवंटित किए हैं। जनवरी 2019 में सूचना प्रौद्योगिकी विभाग पर बनी स्थायी समिति ने निष्कर्ष निकाला कि सरकार की डिजिटल साक्षरता के प्रयास संतोषजनक नहीं हैं।(downtoearth)
विकसित एंटीबॉडीज 2 - 3 महीनों में शरीर में कम हो रहे हैं
-डॉ मेहेर वान
कोरोना वायरस महामारी ने पूरी दुनिया को बेहद गंभीर स्तर पर प्रभावित किया है. दुनिया भर के तमाम वैज्ञानिक और फार्मा कम्पनियां इस महामारी से निपटने के लिए एक वैक्सीन खोजने के काम में जुटी हुई हैं. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे वैक्सीन के कई उम्मीदवारों के रसायनों की दक्षता और उनके दुष्प्रभावों को जांचने के लिये परीक्षण किये जा रहे हैं. इनमें से कुछ ने प्रारंभिक ट्रायल्स पूरे करते हुए ऐसा विश्वास दिलाया है कि अब कोरोना वायरस की वैक्सीन बहुत दूर नहीं. रूस ने तो वैक्सीन बना लेने का दावा भी कर दिया है. भारत भी इस दौड़ में शामिल है और यहां भी कोरोना वायरस के दो टीकों के परीक्षण को हरी झंडी मिल चुकी है और कुछ और को जल्द ही मिल सकती है. दुनिया की सबसे बड़ी वैक्सीन निर्माता कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने भी ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय और एस्ट्राजेनेका द्वारा विकसित किये जा रहे कोविड-19 के वैक्सीन को भारत में बनाने के लिए एक समझौता किया है.
लेकिन हाल ही में प्रसिद्ध जर्नल नेचर मेडिसिन में प्रकाशित एक शोध के अनुसार कोविड-19 के संक्रमण से जूझ चुके मरीजों के शरीरों में विकसित हुए एंटीबॉडीज दो से तीन महीनों में कम होने शुरू हो जाते हैं. असल में एंटीबॉडीज वे खास तरह के प्रोटीन अणु होते हैं जिन्हें कोरोना वायरस से लड़ने के लिए हमारा प्रतिरोधक तंत्र विकसित करता है. ये एंटीबॉडीज हमारे शरीर में वायरस के आक्रमण के समय वायरस की बाह्य परत पर उपलब्ध उन चाभियों को ढंककर बेकार कर देते हैं जिनकी सहायता से वायरस हमारी कोशिकाओं को चकमा देकर उनकी झिल्लियों से अन्दर घुस जाते हैं. वायरस की बाह्य परत पर उपस्थित चाभियों पर एंटीबॉडीज के चिपक जाने से वायरस हमारे शरीर में उपस्थित कोशिकाओं के अन्दर नहीं घुस पाते और हम होने वाले संक्रमण से बच जाते हैं. बता दें कि कोरोना वायरस एक खास तरह के स्पाईक्स प्रोटीन अणुओं को हमारे शरीर की कोशिकाओं में झिल्ली पार करके घुसने के लिए इस्तेमाल करता है.
वानझोऊ पीपुल्स हॉस्पिटल, चीन के वैज्ञानिकों ने विभिन्न बिना-लक्षणों वाले और गंभीर लक्षणों वाले कई मरीजों के नमूनों का विश्लेषण करके पाया है कि कोविड-19 संक्रमण के कारण विकसित हुए एंटीबॉडीज दो से तीन महीनों में व्यक्ति के शरीर में कम होना शुरू हो रहे हैं और इसके बाद काफी जल्दी ही शरीर से विलुप्त हो रहे हैं. इन एंटीबॉडीज के शरीर से विलुप्त होने का मतलब यह है कि कोई व्यक्ति एक बार संक्रमित होने के बावजूद दोबारा संक्रमित होने के लिए असुरक्षित हो गया है.
वैज्ञानिकों ने प्रयोगों में यह भी पाया कि उन मरीजों में शरीर के प्रतिरोधक तंत्र ने अपेक्षाकृत कम संख्या में एंटीबॉडीज बनाये, जिन मरीजों में कोविड-19 के संक्रमण के लक्षण कमजोर थे. इसके विपरीत जिन मरीजों में कोविड-19 संक्रमण के लक्षण अधिक गंभीर थे, उनके प्रतिरोधक तंत्र ने अपेक्षाकृत अधिक संख्या में एंटीबॉडीज बनाए थे. गंभीर लक्षणों वाले संक्रमित मरीजों के शरीरों में यह प्रतिरोधक एंटीबॉडीज अधिक समय तक मौजूद भी रहे. जबकि कमजोर लक्षणों वाले संक्रमित मरीजों में एंटीबॉडीज अपेक्षाकृत कम समय के लिए विद्यमान रहे. यह समय लगभग दो से तीन महीने पाया गया. यह विश्लेषण प्रसिद्ध जर्नल नेचर मेडिसिन में 18 जून को प्रकाशित हुआ है.
इसके अलावा स्वतन्त्र रूप से शोध कर रहे किंग्स कॉलेज लन्दन के वैज्ञानिकों ने भी अपने प्रयोगों में पाया है कि ये एंटीबॉडीज संक्रमित लोगों के शरीर में लगभग 94 दिनों तक ही विद्यमान रहते हैं. इसके बाद इन एंटीबॉडीज की संख्या शरीर में तेजी से कम होने लगती है. कमजोर लक्षणों वाले लोगों या उन लोगों में जिनमें लक्षण आये ही नहीं ऐसे लोगों में ये एंटीबॉडीज एक ही महीने के बाद तेजी से कम होने लगते हैं. इन वैज्ञानिकों का यह शोध मेडआर्काइव में प्रीप्रिंट के रूप में प्रकाशित हुआ है.
ऐसे शोध वैक्सीन की दक्षता के सम्बन्ध में नए सवाल उठा रहे हैं. जैसे कि कोरोना वायरस की इन विशेषताओं के चलते भविष्य में बनने वाली वैक्सीन कितने दिनों तक लोगों को कोविड-19 यानी कोरोना वायरस के संक्रमण से बचाकर रख पाएगी? अगर कोरोना वायरस के पिछले संस्करणों की बात करें तो उनके कारण मानव शरीर में बने एंटीबॉडीज दो से तीन साल तक उपस्थित रहते हैं. उदाहरण के तौर पर मेर्स-कोव वायरस के कारण बने एंटीबॉडीज लगभग दो से तीन साल तक मानव शरीर में उपस्थित रहते हैं. पोलियो वायरस की वैक्सीन के कारण बने एंटीबॉडीज ताउम्र शरीर की सुरक्षा करते हैं. नए कोरोना वायरस से लड़ने वाले एंटीबॉडीज का शरीर से जल्दी ख़त्म हो जाना अच्छा संकेत नहीं है. और यह तथ्य वैक्सीन बनाने की राह और भी जटिल कर देता है.
अब वैज्ञानिकों को वैक्सीन के दुष्प्रभावों और दक्षता के साथ-साथ, इस दक्षता की समयावधि को सुनिश्चित करने के बारे में भी सोचना है ताकि लोगों को मंहगी वैक्सीन बार-बार न देनी पड़े और यह ज्यादा लोगों को मिल सके. इन शोधों से यह भी स्पष्ट होता है कि कोरोना वायरस से एक बार संक्रमित होकर ठीक हो चुके मरीज दो से तीन महीनों के बाद फिर से संक्रमित हो जाने के लिए असुरक्षित हो जाते हैं. ऐसे में वैज्ञानिक संक्रमण से बचे रहना ही बेहतर विकल्प मान रहे हैं, जिसके लिए मास्क लगाना सर्वोत्तम है.(satyagrah)
-इमरान क़ुरैशी
ऐसा लगता है कि सैकड़ों सालों पहले जो काम शासकों ने किया वही काम फिर से करने के लिए कोविड-19 महामारी ने एक सरकार को एक मौक़ा दे दिया है. कम से कम कर्नाटक सरकार तो यही मान रही है.
प्रदेश के प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा विभाग ने उस युग के शासकों के हथियार का इस्तेमाल करते हुए पाठ्यपुस्तकों से न केवल टीपू सुल्तान बल्कि शिवाजी महाराज, विजयनगर साम्राज्य, बहमनी, संविधान के कुछ हिस्से और इस्लाम और ईसाई धर्म से जुड़े कुछ हिस्से निकाल दिए हैं.
इसके पीछे वजह ये है कि कोरोना महामारी के कारण कक्षा छह से लेकर नौ तक पढ़ाई के लिए जो 220 दिन का समय था वो अब कम हो कर केवल 120 दिनों का रह गया है, और इस कारण पाठ्यक्रम को भी कम करना ज़रूरी हो गया है.
इन सभी विषयों को अब प्रोजेक्ट वर्क तक सीमित कर दिया गया है जिस पर छात्र घर से काम कर सकते हैं और चार्ट या प्रेज़ेन्टेशन बना सकते हैं.
पाठ्यक्रम से क्या कुछ हटाया गया है?
उदाहरण की बात करें तो कक्षा नौ के सामाजिक शास्त्र विषय में राजपूत राजवंशों, राजपूतों के योगदान, तुर्कों के आगमन, राजनीतिक निहितार्थ और दिल्ली के सुल्तानों के विषय पढ़ाने के लिए आम तौर पर छह कक्षाएँ होती थीं जिसे कम कर अब दो कर दिया गया है.
राजपूतों और दिल्ली के सुल्तानों के बारे में न पढ़ाने की दलील के पीछे तर्क ये है कि कक्षा छह में पहले ही इस विषय पर पढ़ाया जा चुका है.
इसी तरह मुग़लों और मराठाओं के बारे में पढ़ाने के लिए भी क्लास की संख्या पांच थी जिसके अब दो कर दिया गया है. इन चैप्टरों से मराठा राज के उत्थान, शिवाजी का प्रशासन और शिवाजी के उत्तराधिकारी के विषय को अब पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है.
ऐसा करने के पीछे कारण ये बताया जा रहा है कि इस विषय पर कक्षा सात में पहले ही पढ़ाया जा चुका है.
पाठ्यक्रम कम करने को लेकर क्या है प्रतिक्रिया?
टीपू सुल्तान एक्सपर्ट टेक्स्टबुक कमिटी के प्रोफ़ेसर टीआर चंद्रशेखर ने बीबीसी हिंदी को बताया, "कोरोना महामारी के कारण विषयों का सारांश देते हुए पाठ्यक्रम को 30 फीसदी तक घटा कर कम कर देना सही है लेकिन इसका असर किसी चैप्टर के मूल पर नहीं पड़ना चाहिए. लेकिन किसी चैप्टर को पूरी तरह की पाठ्यक्रम से हटा देना सही नहीं है."
बीते साल बीजेपी विधायक अपाच्चु रंजन ने स्कूल के पाठ्यक्रम से टीपू सुलतान से जुड़े चैप्टर हटाने की मांग की थी जिसके बाद इस मामले पर एक कमिटी बनी थी. इसी कमिटी के प्रमुख थे प्रोफ़ेसर टीआर चंद्रशेखर.
उस दौरान प्रोफ़ेसर चंद्रशेखर और कमिटी के दूसरे सदस्यों ने सरकार से स्पष्ट कहा था कि पाठ्यक्रम से मैसूर का इतिहास और टीपू सुल्तान की भूमिका का हिस्सा नहीं हटाया जा सकता.
प्रोफ़ेसर चंद्रशेखर कहते हैं, "छात्रों को जो विषय पढ़ाया जाता है उसमें हर क्लास में क्रमिक वृद्धि होती है. जैसे कि टीपू सुल्तान से जुड़े विषय में छोटी कक्षा में केवल शुरूआती जानकारी होती है जो बेहद कम होती है. सातवीं कक्षा में इस विषय को थोड़ा और विस्तार से छात्रों को पढ़ाया जाता है जैसे कि तकनीकि युद्ध में उनका योगदान, कृषि विकास, पशुपालन, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और हिंदू मंदिरों में उनके योगदान जैसे सामाजिक सुधार के उनके काम."
वो कहते हैं, "उस दौर में राजतंत्र हुआ करता था और और एक राजा दूसरे राजा से लड़ते थे इन लड़ाइयों से धर्म का कोई नाता नहीं था."
लेकिन बेंगलुरु के आर्चबिशप पीटर माचाडो ने बीबीसी हिन्दी से कहा, "हमें बताया गया था कि इस्लाम और ईसाई धर्म के बारे में कक्षा छह की किताबों से चैप्टर हटाए गए हैं क्योंकि इस विषय में छात्रों को कक्षा नौ में पढ़ाया जाएगा. अब कक्षा नौ के पाठ्यक्रम से ये विषय हटाए जा रहे हैं और कहा जा रहा है कि इस बारे में कक्षा छह में पहले ही पढ़ाया जा चुका है. ऐसे लग रहा है कि धोखा दिया जा रहा है और किसी एजेंडे पर काम किया जा रहा है."
आर्चबिशप का कहना है कि नन्ही सी उम्र में छात्रों को धर्म के बारे में जो जानकारी दी जाती है "उसमें कटौती करना ठीक बात नहीं है. ये वो उम्र है जब बच्चे किसी भी धर्म के क्यों न हो वो मानवता और सौहार्द्य की भावना के बारे में जानते-सीखते हैं और एक-दूसरे के साथ मिल कर जीना और उनकी सराहना करना सीखते हैं."
प्रदेश में विपक्ष में बैठी कांग्रेस के सवाल उठाने के बाद सत्तारूढ़ सरकार को इस मामले में विषय से जुड़े कमिटी की राय लेनी पड़ी थी.
प्रोफ़ेसर चंद्रशेखर कहते हैं, "हमें इस बारे में बुधवार को फ़ौन पर जानकारी दी गई है औक इस मामले में तीन अगस्त को बैठक होने वाली है."

क्या है सरकार का रुख़?
कर्नाटक टेक्स्ट बुक सोसायटी के प्रबंध निदेशक और विधायक मादे गौड़ा ने बीबीसी हिंदी को बताया, "हमने विषय से जुड़ी कमिटियों को इस मामले में फ़ैसला लेने के लिए कहा है. क्या हटानवा है ये हमने उनसे नहीं पूछा. अब प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा मामलों के हमारे मंत्री सुरकेश कुमार ने कहा है कि वो इस मामले में फ़ैसले की समीक्षा करेंगे. इसलिए, उन्होंने हमें इस पर फिलहाल फ़ैसला रोकने के लिए कहा है."
वो कहते हैं, ये जानकारी हमने कर्नाटक टेक्स्ट बुक सोसायटी की वेबसाइट पर प्रकाशित की है.
मादे गौड़ा बताते हैं कि हर कक्षा में छात्रों को संविधान की प्रस्तावना के बारे में भी बताया जाता है.
वो कहते हैं, "स्कूल की टेक्स्ट बुक से कोई चैप्टर नहीं हटाया गया है. किताब पहले ही छात्रों के पास पहुंच चुकी है और छात्रों के पास अब घर पर इसे पढ़ने का या प्रोजेक्ट बनने का विकल्प मौजूद है."
इधर अधिकारियों ने बताया है कि अगले साल के पाठ्यक्रम में इन चैप्टर्स को पढ़ाने के संबंध में कोई कमी नहीं की जाएगी.
इतिहास पढ़ना क्यों है ज़रूरी?
मैसूर विश्वविद्यालय में इतिहास के पूर्व प्रोफ़ेसर और टीपू सुल्तान के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर सेबेस्टियन जोसेफ़ कहते हैं, "आपका अतीत आपके भविष्य का ही प्रतिबिंब है इसलिए अतीत के बारे में जानना बेहद ज़रूरी है. आपके समाज को आपको उसी के अनुसार ढालना होगा. केवल राजनीतिक इतिहास ही नहीं बल्कि विज्ञान से जुड़े विषयों में भी इतिहास जानना महत्वपूर्ण है क्योंकि ये आपको कई बातों की प्रक्रिया के बारे में बताता है."
"जब तक हम सभी विषयों का इतिहास नहीं जानेंगे हम ये नहीं समझ पाएंगे कि हम आज जहां हैं, वहां हतक कैसे पहुंचे और हमें आगे किस दिशा में बढ़ने की ज़रूरत है."
वहीं आर्चबिशप पीटर माचाडो कहते हैं, "आप जानते हैं कि हमारे नेता मेड इन इंडिया और निर्यात बढ़ाने के बारे में बातें करते हैं, और जो सबसे अच्छी चीज़ हम पूरी दुनिया को निर्यात कर सकते हैं वो है हमारा धार्मिक सद्भाव और शांति है जो धार्मिक ध्रुवीकरण के बावजूद भी यहां मौजूद है."(bbc)
जिस देश का मीडिया युद्ध के नगाड़े बजाता हो, युद्ध का उन्माद पैदा करता हो तब पहला हमला उस देश के अपने ही नागरिकों की चेतना पर होता है।
मीडिया की तैयार की गई धुन पर देश में बज रहा राफ़ेल-संगीत और उस पर झूमते लोग इस बात का गवाह हैं।
इस कर्कश युद्ध-संगीत के शोर में देश की अब तक की सैन्य ताकत से लेकर राफ़ेल पर उठते सवाल मानो दब गए हैं।
अब न पड़ोसी देशों से मधुर संबंधों की ज़रूरत बची है, न सीमाओं के विवादों पर तर्कपूर्ण चर्चा की गुंजाइश।शांति की ज़रूरत तो अब डस्टबिन में है और सवालों के लिए तो जगह है ही नहीं।
एक देश खरीदने वाला और दूसरा बेचने वाला। बेचने वाले ने और भी देशों को यह फाइटर प्लेन बेचा है। लेकिन हम झूम रहे हैं। क्यों? पूछिये मत! पूछेंगे तो देशभक्ति पर सवाल उठेगा। कोरोना मरीज 15 लाख से ज़्यादा हो गए पर सवाल मत करिए क्योंकि अभी देश में राफ़ेल-उत्सव चल रहा है।
हम उत्सवी लोग हैं। चैनलों से भांग परोसी जाती है और हम नाचने लग जाते हैं। हम उत्सवी लोग हैं। अर्थव्यवस्था, रोजगार वगैरह हमारे सोचने का विषय नहीं है। हम उत्सवी लोग हैं। कोई चुनी हुई सरकार गिरा दी जाए तो विधायक का रेट नहीं पूछेंगे, नाचते-गाते फिर वोट की लाइन में लग जाएंगे। हम उत्सवी लोग हैं। कभी पूछेंगे नहीं कि देश क्या सिर्फ राफ़ेल से बच जाएगा या भीतर के हमलों से भी देश को बचाने की ज़रूरत है?
राजभवनों की दहलीज पर पड़ा जीर्णशीर्ण लोकतंत्र हम लोगों को नज़र नहीं आएगा क्योंकि अभी हम उत्सवग्रस्त हैं, क्योंकि अभी देश में राफ़ेल आ गया है!
राफ़ेल के आगमन पर सत्ता से लेकर मीडिया के अधिकांश हिस्से तक ने संकटग्रस्त देश में जिस तरह त्योहार का माहौल खड़ा कर दिया वो चिंतित करने वाला है।पहले हमें बताया जाता है कि हम कितने असुरक्षित हैं और फिर राफ़ेल आ गया !!!
जितना ज़रूरी देश की सीमाओं की सुरक्षा है क्या उतना ही ज़रूरी देश के भीतर लोकतंत्र की सुरक्षा भी नहीं है? कमज़ोर लोकतंत्र को ढहने से कोई राफ़ेल नहीं बचा सकेगा लेकिन क्या अब हमारे लिए लोकतांत्रिक मूल्यों के पोषण की ज़रूरत गैर जरूरी हो गई है? दरअसल ऐसा ही होता जा रहा है और ऐसा इसलिए भी होता जा रहा है क्योंकि मीडिया नाम के उद्योग में अब सवालों का उत्पादन बन्द ही हो गया है।
मीडिया की स्वतंत्रता पर तमाम बहसें आत्मनियंत्रण पर जा कर खत्म हो जाती हैं। फासिस्ट देशों के मीडिया की हालत देख कर नेहरूजी ने इस बारे में अपने समय में ही आगाह किया था।लेकिन हम तेज़ी से उस दौर में जा रहे हैं जहां हर वक़्त हमें एक असुरक्षित देश दिखेगा, हर वक़्त हमें दुश्मन देश नज़र आएंगे, हर वक़्त हमें अपनी सीमाएं खतरे में नज़र आएंगी, हर वक़्त हमारे सामने युद्ध के नगाड़े बजाता मीडिया होगा और हर वक़्त हम खुद को नागरिक से ज़्यादा मोर्चे पर तैनात एक सैनिक की तरह महसूस करेंगे।और तभी राफ़ेल आ जायेगा और तभी हमें सुरक्षा का बोध भी होगा लेकिन तब भी ना तो मीडिया का दायित्व-बोध मुद्दा होगा, ना सरकार से सवाल करने की मीडिया की ज़िम्मेदारी पर सवाल होंगे और न हम खुद को अमनपसंद या लोकतंत्रपसंद नागरिक की तरह ही देखना चाहेंगे।
राफ़ेल-उत्सव संकेत है। ये संकेत है कि समाज को युद्ध पसंद बना दिया जा रहा है। ये संकेत है कि मीडिया हमारे लोकतंत्र की रखवाली नहीं करेगा, मीडिया हमारी चेतना की परवरिश नहीं करेगा बल्कि मीडिया एक ऐसे औजार में तब्दील होता जा रहा है जिसका काम एक चेतनाविहीन, रक्तपिपासु पीढ़ी ही तैयार करना होगा।
राफ़ेल-उत्सव तो सिर्फ इशारा है। अगर हमारी चेतना पर ऐसे सुनियोजित हमले हो रहे हों तो ज़रूरी है कि हम खुद को थोड़ा झकझोरे। ज़रूरी है कि थोड़े सवाल उछालें। ज़रूरी है कि अतीत को कुरेदें और वर्तमान का विश्लेषण करें। ज़रूरी है कि हम बेहतर भविष्य की बात करें। ज़रूरी है कि हम अपनी अगली पीढ़ी को सैन्यतंत्र के बजाए एक मजबूत लोकतन्त्र सौंपें। हमें मजबूत सेना तो चाहिए, हमें आधुनिक हथियार तो चाहिए लेकिन ज़रूरी है कि हमारी चेतना का सैन्यीकरण न हो।इसलिए ज़रूरी है कि हम राफ़ेल-उत्सव मना रही मीडिया की धुन पर नाचना बन्द करें।
-रुचिर गर्ग
अनुराग भारद्वाज
जेआरडी की विचारधारा को उनके समकालीन राजनेता समझ नहीं पाए। 1992 में सरकार ने उन्हें ‘भारत रत्न’ से नवाज़ा था। अपने सम्मान में हुए कार्यक्रम के दौरान दिए गए भाषण के एक अंश से उनके विचारों को समझा जा सकता है। उन्होंने कहा था, ‘एक अमेरिकी अर्थशास्त्री ने कहा है कि आने वाली सदी में भारत आर्थिक महाशक्ति बन जायेगा। मैं ये नहीं चाहता। मैं चाहता हूं कि भारत एक ख़ुशहाल देश बने।’
जहांगीर रतनजी दादाभाई टाटा यानी जेआरडी या ‘जेह’, का नाम सुनते ही आपके ज़हन में ऐसे शख्स की तस्वीर उभरती होगी जो देश का सबसे पहला कमर्शियल पायलट रहा, जिसके साथ एयर इंडिया के बनने की दास्तां जुड़ी है, जिसने टाटा इंजीनियरिंग एंड लोकोमोटिव कंपनी (टेल्को) की स्थापना की और जिसने अपनी सारी संपत्ति टाटा संस के नाम कर दी। टाटा संस के इस चेयरमैन को अपने उसूलों के चलते कई बार नुकसान उठाना पड़ा।
पर एक इस शख्स की एक तस्वीर ऐसी भी है जिसकी जानकारी कम ही लोगों को है। आज राजनेताओं और कारोबारियों की आपसी नजदीकी के चर्चे आम हो चले हैं। लेकिन जेआरडी राजनीति और व्यापार के बीच दूरी के पक्षधर थे। जानकारों के मुताबिक यही वजह है कि देश के सबसे बड़े समूह का मुखिया होने के बाद भी शीर्ष राजनेताओं ने उन्हें और उनकी राय को दरकिनार किया। इस बात का जेआरडी को अफसोस भी रहा। लेकिन यह अफ़सोस निजी फ़ायदे के लिए नहीं, बल्कि देश के कारोबारी और सामाजिक अभियान में उचित भागीदारी न कर पाने को लेकर रहा।
महात्मा गांधी और जेआरडी
महात्मा गांधी प्रधानमंत्री नहीं थे पर जेआरडी के साथ उनके रिश्तों का जि़क्र ज़रूरी है। गांधी घनश्याम दास बिड़ला और जमनालाल बजाज जैसे कुछ अन्य व्यवसायियों को बेहद तवज्जो देते थे। बजाज के पुत्र कमलनयन को तो गांधी का चौथा बेटा कहा जाता था। गांधी के जीवन के अंतिम 144 दिन दिल्ली स्थित बिड़ला निवास में गुजऱे। पर जेआरडी को उन्होंने हाशिये पर रखा। एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि वे सिफऱ् तीन बार बापू से मिले थे।
गांधी ने 1945 में जेआरडी की अगुवाई में इंग्लैंड और अमेरिका जाने वाले चंद उद्योगपतियों के शिष्टमंडल का ज़बरदस्त विरोध किया था। इस कवायद का उद्देश्य आज़ादी के बाद देश में उद्योग के माहौल की रूपरेखा तैयार करने के साथ-साथ विदेश से कुछ ऑर्डर और मशीनें लाने का था। सात मई, 1945 को बॉम्बे क्रॉनिकल अखबार में गांधी ने लिखा, ‘उन्हें (उद्योगपतियों को) कहिए कि पहले देश के नेता आज़ाद हो जायें, फिर जाएं। हमें आज़ादी तभी मिलेगी जब ये बड़े उद्योगपति इंडो-ब्रिटिश लूट के टुकड़ों का मोह छोड़ दें।।। तथाकथित डेप्युटेशन जो ‘इंडस्ट्रियल मिशन’ के नाम से इंग्लैंड और अमेरिका जाने की सोच रहा है, ऐसा करने की हिम्मत भी न करे।’ इस लेख की भाषा और तकऱीर पढक़र जेआरडी हतप्रभ रह गए। उन्होंने ख़त लिखकर जवाब भी दिया पर शायद बापू संतुष्ट नहीं हुए।
एक वर्ग मानता है कि गांधी की जेआरडी से दूरी का कारण पूंजीवाद और समाजवाद की विचारधारा का टकराव नहीं हो सकता। क्योंकि अगर ऐसा होता तो अन्य उद्योगपति उनके नज़दीक न होते। फिर जो सामाजिक कार्य टाटा समूह ने बीसवीं सदी में शुरू कर दिए थे उनसे गांधी बखूबी वाकिफ़ रहे होंगे। इंडियन नेशनल कांग्रेस को सबसे ज़्यादा फंड देने वाले जीडी बाबू का एक कारोबारी के तौर पर आज़ादी में अहम योगदान है। वहीं, जमशेतजी टाटा के दूसरे बेटे रतन टाटा ने गांधी के दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी आंदोलन के लिए 1,25,000 रुपये दिए थे जिसका जि़क्र खुद गांधी ने भी किया था।
एसए सबावाला और रुसी एम लाला की कि़ताब, ‘कीनोट’ में दर्ज जेआरडी के एक भाषण के अंश में इस दूरी के कारण का संभावित संकेत है। वे कहते हैं, ‘जब मैं जवान था तब कांग्रेस पार्टी ज्वाइन करने का विचार आया था। पर जब देखा कि नेता बनकर जेल जाना होगा, वहां रखकर कुछ ख़ास नहीं कर पाऊंगा और न ही जेल के जीवन से अभ्यस्त हो पाऊंगा, इसलिए मैंने उद्योग के ज़रिये देश की सेवा करने का निश्चय किया।’ वहीं, दूसरी तरफ़, जीडी बाबू और बजाज आज़ादी के राजनैतिक आंदोलन में डूबे हुए थे। यह भी हो सकता है कि जेआरडी के इंग्लिश तौर-तरीके बापू को पसंद न आये हों।
जवाहर लाल नेहरू के साथ रिश्ते
इसके बावजूद कि वे देश के पहले प्रधानमंत्री के समाजवाद से प्रभावित नहीं थे, जेआरडी उनके प्रशंसक और दोस्त थे। हालांकि जवाहर लाल नेहरू ने कभी उनसे आर्थिक मामलों पर राय नहीं ली। एक इंटरव्यू में जेआरडी ने बताया था कि वे जब भी आर्थिक मसलों पर बात करते, नेहरू उन्हें अनसुना करके खिडक़ी से बाहर ताकने लगते।
जेआरडी की अध्यक्षता में देश का पहला आर्थिक ब्लूप्रिंट ‘बॉम्बे प्लान’ नेहरू ने खारिज कर दिया था। इसमें सभी उद्योगपतियों ने सरकार द्वारा देश में बड़े उद्योग स्थापित करने की बात कही थी। एयर इंडिया के राष्ट्रीयकरण को लेकर दोनों में मतभेद था। जेआरडी नहीं चाहते थे कि एयर इंडिया को सरकार चलाये। आखिरकार जीत नेहरू की हुई।
टाटा समूह कांग्रेस पार्टी को फंड करता था। 1961 में राजा गोपालाचारी ने जेआरडी को ख़त लिखकर ‘स्वतंत्र पार्टी’ के लिए चंदा मांगा। नेहरू के खि़लाफ़ जाना और राजाजी के आग्रह को टाल पाना, दोनों ही बातें उनके लिए मुश्किल थीं। जेआरडी ने असमंजस से बाहर निकलते हुए नेहरू को ख़त लिखा जिसका आशय था कि देश को कांग्रेस पार्टी का एक मज़बूत विकल्प चाहिए। जेआरडी की दलील थी कि वे नहीं चाहते कि कम्युनिस्ट पार्टी देश में दूसरे नंबर की पार्टी बनी रहे क्योंकि उसकी आत्मा में लोकतंत्र नहीं है, लिहाज़ा उन्होंने ‘स्वतंत्रता पार्टी’ को चंदा देकर मज़बूत बनाने का निर्णय लिया है। नेहरू का भी कमाल देखिये कि उन्होंने अपने दोस्त को इसके लिए प्रोत्साहित किया। पर साथ में यह भी लिखा कि ‘स्वतंत्र पार्टी’ देश में कभी मज़बूत स्थिति में नहीं आ पायेगी। वे सही साबित हुए।
मोरारजी देसाई और जेआरडी
जेआरडी के जीवन में सबसे खऱाब क्षण, खुद उनके हिसाब से, तब आया जब उनके एक समय के दोस्त और तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने उन्हें एयर इंडिया से बाहर करके उनके ही जूनियर अधिकारी को चेयरमैन नियुक्त कर दिया और इतनी ज़हमत भी न उठाई कि उन्हें इसकी ख़बर दी जाए। जब अखबारों ने इस बात को उछाल कर देसाई की किरकिरी की तो मोरारजी ने कुछ दिनों बाद रस्मी तौर पर जेआरडी को चि_ी लिखकर सरकार से निर्णय से अवगत कराया। इस बात से जेआरडी इतने आहत हुए कि उन्होंने मोरारजी देसाई को कभी माफ़ नहीं किया।
इंदिरा गांधी के साथ ताल्लुकात
जेआरडी उन चंद लोगों में से एक थे जिन्होंने इंदिरा गांधी के आपातकाल को ठीक माना था। उनके विचार थे कि इस दौरान हड़तालें और प्रदर्शन कम हुए जिसकी वजह से उद्योग जगत को फ़ायदा हुआ। इसका मतलब यह नहीं है कि वे मज़दूर विरोधी बात कर रहे थे। उनका नज़रिया था कि तमाम मज़दूर संगठन राजनेताओं के संरक्षण में पलते हैं जिनके अपने निहित स्वार्थ होते हैं।
दूसरी बात थोडा अचंभित करे पर यह सत्य है कि जेआरडी संजय गांधी के परिवार नियोजन के कार्यक्रम के पक्ष में थे। पर उस तरह से नहीं, जिस तरह से संजय गांधी इसे अमल में लाए थे। उनका मानना था कि जब तक जनसंख्या पर काबू नहीं पाया जाएगा, देश में तरक्की मुश्किल है। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को भी कई बार इस बात की ओर ध्यान देने के लिए कहा था। पर नेहरू का मानना था कि इस मुद्दे को ज़्यादा सरकारी अहमियत नहीं दी जा सकती और ये व्यक्तिगत फैसले का मामला है। इंदिरा के राष्ट्रीयकरण की पहल ने दोनों के बीच खाई पैदा की। जाहिर है जेआरडी इसके विरोधी थे। उनके मुताबिक़ इंदिरा गांधी की जब उनसे बातचीत में दिलचस्पी ख़त्म हो जाती तो वे उनके सामने ख़तों को खोलकर पढऩे लग जातीं।
राजीव गांधी और जेआरडी
राजीव गांधी जब अर्थव्यवस्था के बंद दरवाज़े खोल रहे थे तो उन्होंने आर्थिक मसलों पर उद्योगपतियों की राय जानने की कोशिश की। उन्होंने देश के सात अहम मसलों पर भी विभिन्न वर्गों की राय मांगी। इनमें से जनसंख्या वृद्धि एक था। जेआरडी के लिए वो ‘मोमेंट ऑफ़ ट्रूथ’ वाला दिन था। (बाकी पेज 8 पर)
1991 में जब अर्थव्यवस्था पूरी तरह से खुली तो तब 87 वर्ष के जेआरडी ने कहा था कि उन्हें इस बात से ख़ुशी और मलाल दोनों ही हैं। ख़ुशी इसलिए कि आखिऱ जो सही रास्ता है देश ने अपना लिया और मलाल इसलिए कि जीवन की इस सांझ में वे इसका हिस्सा नहीं बन पाएंगे।
अंतत:
जेआरडी ‘क्रोनी कैपिटलिस्ट’ यानी सत्ता की जी-हुजूरी करके अपना काम निकालने वाले कारोबारी नहीं थे। यह बात टाटा समूह को देखकर समझी जा सकती है। उनका मानना था कि समाजवाद से सिफऱ् अर्थव्यवस्था का ही नुकसान नहीं हुआ, कभी-कभी कुछ दूसरे उद्देश्य भी शहीद हो गए। उनकी नजऱ में भारतीय राजनेताओं की सोच उन्नीसवीं शताब्दी के उस पूंजीवाद से आगे नहीं बढ़ पाई जिसमें मुनाफ़ा व्यापार का केंद्रीय आधार था। इस दिग्गज का मानना था कि पूंजीवाद ने अपना स्वरूप बदला है और भारत जैसे गरीब देश में लोगों के जीवन स्तर को उठाने में सिर्फ यही कारगर है। जेआरडी संसदीय लोकतंत्र के बजाय अमेरिका की तरह राष्ट्रपति वाली व्यवस्था के पक्षधर थे। उनका कहा था कि नेहरू के बाद स्थिर सरकारें नहीं रहेंगी। यह भी कि भारत की मुश्किलों को हल करने के लिए विशेषज्ञों की ज़रूरत है न कि राजनेताओं और नौकरशाही की। और इसके लिए अमेरिका वाली शासन प्रणाली बेहतर विकल्प है।
जेआरडी की विचारधारा को उनके समकालीन राजनेता समझ नहीं पाए। 1992 में सरकार ने उन्हें ‘भारत रत्न’ से नवाज़ा था। अपने सम्मान में हुए कार्यक्रम के दौरान दिए गए भाषण के एक अंश से उनके विचारों को समझा जा सकता है। उन्होंने कहा था, ‘एक अमेरिकी अर्थशास्त्री ने कहा है कि आने वाली सदी में भारत आर्थिक महाशक्ति बन जायेगा। मैं ये नहीं चाहता। मैं चाहता हूं कि भारत एक ख़ुशहाल देश बने।’ अमेरिकी अर्थशास्त्री की बात तो अब सही होती लग रही है। जेआरडी की ख्वाहिश कब पूरी होगी, देखना होगा। (satyagrah.scroll.in)
ध्रुव गुप्त
अनारकली का नाम मुगलिया सल्तनत की सबसे रोमांचक प्रेम कहानी से जुड़ा हुआ है। सम्राट अकबर के बेटे सलीम की प्रेमिका के तौर पर प्रसिद्ध अनारकली को ज्यादातर लोग एक काल्पनिक पात्र मानते हैं। प्रचलित कथाओं में अनारकली अकबर के दरबार की एक खूबसूरत नर्तकी थी जिसे शहजादा सलीम दिल दे बैठा था और जो शाही अहंकार और गद्दी की सियासत की भेंट चढक़र दीवारों में चिनवा दी गई। वस्तुत: इस प्रेम कहानी की हकीकत कुछ और है। यह एक वर्जित और नाजायज रिश्ता था जिसे हमारे कुछ अदीबों और फिल्मकारों ने लैला-मजनू और शीरी-फरहाद की तजऱ् पर ट्रैजिक प्रेमकथा में तब्दील करने की नीयत से न सिर्फ इतिहास बल्कि नैतिक और पारिवारिक मूल्यों के साथ भी खिलवाड़ किया।
अनारकली के जिक्र इतिहास में कम, विदेशी पर्यटकों की यात्रा विवरणों में ज्यादा आए है। एक वास्तविक व्यक्ति के रूप में उसकी चर्चा ब्रिटिश लेखक सैमुअल परचास द्वारा संपादित 1625 की एक किताब ‘परचास हिज पिलग्रिम्स’ में हुई है। इस किताब में 1611 में लाहौर की यात्रा करने वाले अंग्रेज व्यापारी विलियम फिंच ने बाबा शेख फरीद की मस्जिद के पास अकबर की एक प्रिय बीवी अनारकली की कब्र देखने की बात कही है। उसने अनारकली को अकबर के एक बेटे दानियाल की मां बताया है जिसका शहजादे सलीम के साथ नाजायज़ रिश्ता था। तब अनारकली चवालीस साल की थी और सलीम तीस साल का। इस रिश्ते से नाराज अकबर ने अनारकली को महल की एक दीवार में चिनवा दिया था। सलीम ने बादशाह बनने के बाद अनारकली की याद में एक आलीशान मकबरा तामीर करने का आदेश दिया था जो फिंच की यात्रा के समय अभी निर्माणाधीन था। फिंच के पांच साल बाद ब्रिटेन के एक पादरी एडवर्ड टैरी ने अपनी यात्रा रिपोर्ताज में लिखा है कि अकबर ने अपनी सबसे प्रिय पत्नी नादिरा बेगम उर्फ अनारकली के साथ नाजायज रिश्ते के कारण शहजादे सलीम को उत्तराधिकार से वंचित कर दिया था। वह अनारकली के बेटे दानियाल को उत्तराधिकार सौंपना चाहता था, लेकिन दानियाल की मौत के कारण मृत्युशैया पर उसने अपना आदेश वापस ले लिया था। ‘द लास्ट स्प्रिंग : द लाइव्स एंड टाइम्स ऑफ द ग्रेट मुगलस’ के लेखक अब्राहम एराली ने भी अनारकली को अकबर की बीवी और उसके बेटे दानियाल की मां बताया है। इतिहासकार अब्दुल लतीफ ने ‘तारीख-ए-लाहौर’ में लिखा है कि सलीम से इश्क के चलते अकबर की एक बीवी अनारकली को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। इतिहासकार हेरंब चतुर्वेदी ने भी इस रिश्ते को नाजायज बताया है। कुछ लोग अनारकली को सिर्फ इसीलिए खारिज करते हैं कि अबुल फजल की किताब ‘आईने अकबरी’ में उसका जिक्र नहीं है। उन्हें समझना चाहिए कि अकबर के एक दरबारी इतिहासकार की किताब में ऐसे वर्जित संबंधों का जि़क्र हो भी कैसे सकता था ?
अनारकली अकबर के दरबार की रक्कासा नहीं, अकबर की एक प्रिय पत्नी और सलीम की सौतेली मां थी। उसकी वास्तविकता का सबसे बड़ा सबूत लाहौर में मौज़ूद अनारकली का मक़बरा और कब्र है। जहांगीर द्वारा अपने शासनकाल में बनवाए इस मकबरे को लोग दूसरा ताजमहल कहते हैं। इसी मकबरे के भीतर अनारकली की कब्र है जो उन्हीं दो दीवारों के बीच बनी बताई जाती है जिनमें अनारकली को चिनवा दिया गया था। कब्र पर जहांगीर ने दो मिसरे खुदवाए हैं जिनका अनुवाद देखिए-अगर मैं अपनी प्रिया का चेहरा एक बार फिर अपनी दोनों हथेलियों में थाम सकूं तो मैं कय़ामत के दिन तक ख़ुदा का शुक्रगुजार रहूंगा !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ऐसा लग रहा है कि राजस्थान की राजनीति पटरी पर शीघ्र ही आ जाएगी। राज्यपाल कलराज मिश्र का यह बयान स्वागत योग्य है कि वे विधानसभा का सत्र बुलाने के विरुद्ध नहीं हैं लेकिन उन्होंने जो तीन शर्तें रखी हैं, वे तर्कसम्मत हैं और उन तीनों का संतोषजनक उत्तर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत दे ही रहे हैं। यों भी अदालतों के पिछले फैसलों और संविधान की धारा 174 के मुताबिक विधानसभा सत्र को सामान्यतया राज्यपाल आहूत होने से रोक नहीं सकते। मंत्रिमंडल की सलाह मानना उनके लिए जरुरी है।
हालांकि गहलोत ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक गुहार लगा दी है और राजभवन के घेरे जाने की आशंका भी व्यक्त की है लेकिन वे यदि चाहते और उनमें दम होता तो वे खुद ही सारे विधायकों को विधानसभा भवन या किसी अन्य भवन में इक_े करके अपना बहुमत सारे देश को दिखा देते। राजभवन और अदालतें दोनों अपना-सा मुंह लेकर टापते रह जाते। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत ही दुखद बात है कि कोरोना के संकट के दौरान राजस्थान-जैसे राज्य की सरकार अधर में लटकी रहे। कलराजजी यों तो अपनी विवेकशीलता और सज्जनता के लिए जाने जाते हैं लेकिन राज्यपाल का यह पूछना कि आप विधानसभा का सत्र क्यों बुलाना चाहते हैं, बहुत ही आश्चर्यजनक है।
विधानसभा का सत्र बुलाने के लिए 21 दिन के नोटिस की बात भी समझ के बाहर है। 15 दिन पहले ही बर्बाद हो गए, अब 21 दिन तक जयपुर घोड़ों की मंडी बना रहे, यह क्या बात हुई ? कलराज मिश्रजी को मप्र के स्वर्गीय राज्यपाल लालजी टंडन का उदाहरण अपने सामने रखना चाहिए। उन्होंने 21 दिन नहीं, 21 घंटों की भी देर नहीं लगाई। क्या 21 दिन तक इसे इसीलिए लंबा खींचा जा रहा है कि सचिन पायलट के गिरोह की रक्षा की जा सके ? यदि सचिन-गुट कांग्रेस के पक्ष में वोट करेगा तो जीते-जी मरेगा और विरोध में वोट करेगा तो विधानसभा से बाहर हो जाएगा। जो भी होना है, वह विधानसभा के सदन में हो। राजभवन और अदालतों में नहीं। यदि गहलोत सरकार को गिरना है तो वह विधानसभा में गिर जाए। राज्यपाल खुद को कलंकित क्यों करें ? राज्यपाल का यह पूछना बिल्कुल जायज है कि विधानसभा भवन में विधायकों के बीच शारीरिक दूरी का क्या होगा ? उसका हल निकालना कठिन नहीं है। यदि अयोध्या में 5 अगस्त के जमावड़े को सम्हाला जा सकता है तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। यदि इस मुद्दे को बहाना बनाया जाएगा तो लोग यह भी पूछेंगे कि आपने कमलनाथ- सरकार को गिराने के लिए ही तालाबंदी (लॉकडाउन) की घोषणा में देरी की थी या नहीं ? भाजपा और केंद्र सरकार की प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए भी यह जरुरी है कि राजस्थान की विधानसभा का सत्र जल्दी से जल्दी बुलाया जाए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
29 जुलाई : ग्लोबल टाइगर डे
- सत्यप्रकाश पाण्डेय
हर साल पूरे विश्व में 29 जुलाई को विश्व बाघ दिवस मनाया जाता है। बाघ भारत का राष्ट्रीय पशु है। यह देश की शक्ति, शान, सतर्कता, बुद्धि और धीरज का प्रतीक माना जाता है। यह भारतीय उपमहाद्वीप में उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र को छोडक़र पूरे देश में पाया जाता है। शुष्क खुले जंगल, नम और सदाबहार वन से लेकर मैंग्रोव दलदलों तक इसका क्षेत्र फैला हुआ है। चिंता की बात ये है कि बाघ को वन्यजीवों की लुप्त होती प्रजाति की सूची में रखा गया है। लेकिन राहत की बात ये है कि सेव टाइगर जैसे राष्ट्रीय अभियानों की बदौलत देश में बाघों की संख्या में वृद्धि हुई है।
बाघ संरक्षण के काम को प्रोत्साहित करने, उनकी घटती संख्या के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए साल 2010 में रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में आयोजित एक शिखर सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस मनाने की घोषणा हुई थी। इस सम्मेलन में मौजूद विभिन्न देशों की सरकारों ने 2022 तक बाघों की आबादी को दोगुना करने का लक्ष्य तय किया था।
क्या है इस दिवस का महत्व
बाघों की लुप्त होती प्रजातियों की ओर ध्यान आकर्षित करने, उनकी रक्षा करने और बाघों के पारिस्थितिकीय महत्व बताने के लिए अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस मनाया जाता है। वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसाइटी ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2017 में 116 और 2018 में 85 बाघों की मौत हुई है। 2018 में हुई गणना के अनुसार बाघों की संख्या 308 है। साल 2016 में 120 बाघों की मौतें हुईं थीं, जो साल 2006 के बाद सबसे ज्यादा थी। वहीं, साल 2015 में 80 बाघों की मौत की पुष्टि की गई थी। इस दिवस के जरिए बाघ के संरक्षण के प्रति जागरूक किया जाता है।
बाघों को लेकर अच्छी खबर क्या है?
बाघों के बारे में यह जानकर आपको खुशी होगी कि देश में बाघों की संख्या बढ़ी है। विश्व बाघ दिवस की पूर्व संध्या पर मंगलवार को ही देश में बाघों की गणना की विस्तृत रिपोर्ट जारी करते हुए केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने यह जानकारी दी। उन्होंने बताया कि दुनिया के 70 फीसदी बाघ भारत में मौजूद हैं। मालूम हो कि बाघों की गणना की प्रारंभिक रिपोर्ट पिछले साल ही आ चुकी है। इसमें देश में बाघों की संख्या में भारी बढ़ोतरी का खुलासा हुआ था। साल 2018 की रिपोर्ट के तहत देश में बाघों की संख्या बढक़र 2967 हो गई है। पूर्व में हुई गणना के लिहाज से देखा जाए तो साल 2014 के मुकाबले 741 बाघों की बढ़ोतरी हुई है।
अन्य देशों की भी मदद करेगा भारत
बाघों के संरक्षण को लेकर भारत अब दुनिया के दूसरे देशों की मदद करेगा। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) ने दुनियाभर में 13 ऐसे देशों की पहचान की है, जहां मौजूदा समय में बाघ पाए जाते हैं, लेकिन संरक्षण के अभाव में इनकी संख्या कम है। ऐसे में भारत इन देशों को बाघों के संरक्षण के लिए बेहतर तकनीक और योजना मुहैया कराएगा।

राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) ने वर्ष 2018 में हुई बाघों की गणना की रिपोर्ट जारी कर दी है। इसमें अचानकमार टाइगर रिजर्व में केवल पांच बाघ होने की पुष्टि हुई है। जबकि 2014 की गणना में यहां 12 बाघ थे। एकाएक संख्या घटने से वन विभाग में हडक़ंप मचा हुआ है।
छत्तीसगढ़ की स्थिति बेहद चिंताजनक
राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के निर्देश पर चार साल में एक साथ देशभर के टाइगर रिजर्व में बाघों की गणना होती है। इसी के तहत 2018 में अंतिम में गणना हुई थी। ट्रैप कैमरे और पगमार्क के आधार पर टाइगर रिजर्व प्रबंधन ने रिपोर्ट भेजी। इसके आधार पर एनटीसीए ने 29 जुलाई 2019 को राज्यवार आंकड़ा जारी किया था। इसमें छत्तीसगढ़ की स्थिति बेहद चिंताजनक थी।
देशभर में जहां संख्या में 33 प्रतिशत इजाफा हुआ है। वहीं छत्तीसगढ़ में 60 प्रतिशत कमी आई है। रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ में 46 से घटकर बाघों की संख्या 19 पहुंच गई। एनटीसीए ने अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस के एक दिन पहले मंगलवार को आंकड़ा जारी किया। इसमें अचानकमार टाइगर रिजर्व में केवल पांच बाघ होने की पुष्टि की गई है।
-इसरार अहमद शेख़
ग़ाज़ियाबाद/लखनऊ: “कोविड-19 के संक्रमण को बढ़ने से रोकने और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर उसके दुष्प्रभाव को रोकने के लिए ज़रूरी है कि कोविड-19 के बायोमेडिकल कचरे को बाकी के बायोमेडिकल कचरे से अलग किया जाए,” नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के चेयरमैन जस्टिस आदर्श कुमार गोयल की अध्यक्षता वाली बैंच ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान 21 जुलाई 2020 को यह बात कही।
एनजीटी ने सुनवाई के दौरान बायोमेडिकल कचरे के प्रबंधन में अनियमितताएं पाईं और राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को इसका उचित ढंग से निपटारा करने के निर्देश दिए। एनजीटी उस याचिका की सुनवाई कर रही थी जिसमें ऐसे अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों को बंद करने की मांग की गई थी जहां बायोमेडिकल कचरे के निपटारे के लिए बनी गाइडलाइंस का पालन नहीं होता।
कोविड-19 महामारी के दौरान बायोमेडिकल कचरे का निपटारा एक चुनौती बन गया है। महामारी की वजह से यह कचरा कई गुना बढ़ गया है। बायोमेडिकल कचरा, इलाज और अनुसंधान के दौरान अस्पतालों और प्रयोगशालाओं से निकलता है। हाल ही में एनजीटी में पेश अपनी रिपोर्ट में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कहा था कि देश में लगभग आधे से अधिक अस्पताल, नर्सिंग होम और स्वास्थ्य केंद्र ऐसे हैं जिन्हें बायोमेडिकल कचरे के निपटारे से संबंधित अनुमति नहीं है।
तेज़ी से बढ़ रहे संक्रमण के मामलों के साथ ही उत्तर प्रदेश में भी बायोमेडिकल कचरे का निपटारा एक चुनौती बन गया है। हालांकि सरकार का कहना है कि उसके पास इस कचरे के निपटारे के समुचित उपाय मौजूद हैं लेकिन राज्य के अलग-अलग हिस्सों से आ रही मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि कईं जगहों पर यह कचरा ऐसे ही खुले में फेंका जा रहा है, जिससे संक्रमण का ख़तरा और बढ़ गया है।
बायोमेडिकल कचरे से संक्रमण का सबसे ज़्यादा ख़तरा सफ़ाई कर्मचारियों को होता है। कोरोना वार्ड की सफ़ाई का जिम्मा इन्हीं के पास होता है। हालांकि इनके लागातार टेस्ट किए तो जा रहे हैं पर उत्तर प्रदेश की कर्मचारी यूनियन ने इस प्रक्रिया में कई ख़ामियों की शिकायत की है।
इधर उत्तर प्रदेश सरकार ने बिना लक्षणों वाले मरीज़ों के लिए होम आइसोलेसन को मंज़ूरी तो दे दी है लेकिन इस दौरान निकलने वाले बायोमेडिकल कचरे के निपटारे के लिए कोई दिशा-निर्देश जारी नहीं किए हैं।
क्या होता है बायोमेडिकल कचरा
बायोमेडिकल वेस्ट नियम.1998 में मनुष्यों और जानवरों की बीमारियों के निदान, इलाज, टीकाकरण, अनुसंधान और जैविक उत्पादन और परीक्षण के दौरान निकलने वाले कचरे को बायोमेडिकल कचरा माना गया है। बायोमेडिकल कचरे के कईं प्रकार होते हैं। अस्पतालों और प्रयोगशालाओं में अलग-अलग तरह के बायोमेडिकल कचरे के लिए अलग-अलग प्रबंधन किया जाता है।
शारीरिक, रासायनिक, गंदे कपड़े, दवाइयों और प्रयोगशाला से संबंधित कचरे के लिए पीले रंग के कूड़ेदान होते हैं। ट्यूबिंग, प्लास्टिक की बोतलों, सीरिंज आदि के लिए लाल कूड़ेदान और कांच की बोतलों, शीशियों आदि के लिए नीला कूड़ेदान होता है।
देश भर में आमतौर पर लगभग 600 मीट्रिक टन बायोमेडिकल कचरा निकलता है, एनजीटी में पेश केंद्रीय प्रदूषण निंयत्रण बोर्ड के अनुसार।
कोविड-19 और बायोमेडिकल कचरा
देश भर में कोविड-19 के तेज़ी से फैल रहे संक्रमण की वजह से बायोमेडिकल कचरे की मात्रा भी तेज़ी से बढ़ती जा रही है। देश में कोविड-19 की वजह से हर रोज़ 101 मीट्रिक टन अतिरिक्त बायोमेडिकल कचरा निकल रहा है, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में पेश केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण की 17 जून 2020 की इस रिपोर्ट में बताया गया।
कोविड-19 की वजह से जो बायोमेडिकल कचरा निकल रहा है उसका आधे से अधिक यानी 50.2% सिर्फ़ चार राज्यों से निकल रहा है। महाराष्ट्र से 17.5, गुजरात से 11.7, दिल्ली से 11.1 और तमिलनाडु से 10.4 टन प्रतिदिन के हिसाब से कचरा निकल रहा है।
जिस तरह से कोरोनावायरस के मरीज़ों की संख्या बढ़ रही है, आने वाले वक़्त में इस कचरे की मात्रा और बढ़ेगी। अकेले 24 जुलाई को ही देश भर से एक दिन में 49 हज़ार से अधिक नए मामले सामने आए हैं। कोविड-19 से निकले बायोमेडिकल कचरे के लिए हाल ही में जारी संशोधित गाइडलाइंस से भी इस कचरे की मात्रा कईं गुना बढ़ने के आसार हैं। अब कोविड-19 अस्पतालों से निकलने वाला सभी प्रकार का कचरा बायोमेडिकल कचरे की श्रेणी में माना जाएगा, नई गाइडलाइंस के मुताबिक़। अब तक सिर्फ़ पीपीई किट और मास्क आदि ही इस श्रेणी के कचरे में शामिल था।
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट और एनजीटी का आदेश
साल 2019 तक देश भर के कुल 2.70 लाख अस्पतालों/स्वास्थ्य केंद्रों में से 1.1 लाख ने ही बायोमेडिकल कचरे के संबंध में ज़रूरी अनुमति ली है। बाकी के 1.6 लाख अस्पताल/स्वास्थ्य केंद्र बिना अनुमति के अवैध रूप से चल रहे हैं। इसके अलावा 1.1 लाख अस्पतालों/स्वास्थ्य केंद्रों ने इसके लिए आवेदन किया है जबकि लगभग 50 हज़ार अस्पताल/स्वास्थ्य केंद्र ऐसे हैं जिन्होंने इसके लिए आवेदन तक नहीं किया, एनजीटी में पेश अपनी 17 जून की अपनी रिपोर्ट में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने बताया।
लखनऊ के केजीएमयू में बने आइसोलेशन वार्ड से इकट्ठा किया गया कचरा यहां रखा जाता है। यहीं से कॉमन बायोमेडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट फैसेलिटी की टीम कचरे को ले जाती है। फ़ोटोः रणविजय सिंह
देश के 7 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों-अरुणाचल प्रदेश, अंडमान निकोबार द्वीप समूह, गोवा, लक्षद्वीप, मिज़ोरम, नागालैंड और सिक्किम- में बायोमेडिकल कचरे के निपटारे के लिए कोई सार्वजनिक सुविधा नहीं है।
ग्रीन ट्रिब्यूनल ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के आधार पर राज्यों को निर्देश दिया कि वो शीघ्र ही इस संबंध में कार्रवाई कर 31 दिसंबर 2020 तक बोर्ड को अपनी रिपोर्ट जमा करें। एनजीटी ने बायोमेडिकल कचरे के निपटारे की निगरानी के लिए हर ज़िले में एक कमेटी बनाने का भी निर्देश दिया।
उत्तर प्रदेश में भी कई गुना बढ़ा बायोमेडिकल कचरा
एनजीटी में पेश केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि उत्तर प्रदेश से कोविड-19 की वजह से हर रोज़ 7 टन कचरा निकल रहा है। यह रिपोर्ट 17 जून को एनजीटी में पेश हुई थी, तब से अब तक हालात बहुत बदल गए हैं। राज्य में 17 जून को कोरोनावायरस के कुल मामले 15,181 थे जो 26 जुलाई तक लगभग 4 गुना बढ़कर 66,988 हो गए। संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ने के साथ ही कोविड की वजह से निकले बायोमेडिकल कचरे में भी तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है।
“अभी उत्तर प्रदेश में क़रीब 20 टन कोविड वेस्ट हर दिन निकल रहा है। नॉन कोविड वेस्ट करीब 18 टन हर दिन निकल रहा है। राज्य में कुल 38 टन वेस्ट निकल रहा है और हमारी क्षमता 52 टन की है। यूपी में 18 कॉमन बायोमेडिकल वेस्ट फ़ैसिलिटी हैं जो सुचारू रूप से चल रही हैं,” उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मेंबर सेक्रेटरी आशीष तिवारी ने इंडियास्पेंड को बताया।
“अगर बहुत ज़्यादा मरीज़ बढ़ जाते हैं और 52 टन से भी ज़्यादा वेस्ट निकलता है तो कानपुर देहात में हमारे दो हेज़रडस वेस्ट इंसीनरेटर हैं, जिनकी क्षमता 68 टन प्रतिदिन की है। हमने वहां एक कमेटी बना दी है, जो इसकी तैयारियों में लगी है,” आगे की तैयारियों के बारे में पूछे जाने पर आशीष तिवारी ने बताया।
कोविड संक्रमण की वजह से बड़ी संख्या में राज्य के अस्पतालों और नर्सिंग होम्स में ओपीडी सेवाएं बंद हैं। उनके खुलने से इस कचरे की मात्रा और बढ़ेगी। इसके अलावा राज्य के कुल 15,046 अस्पतालों, नर्सिंग होम और स्वास्थ्य केंद्रों में से 6.573 ने ही बायोमेडिकल कचरे के निपटारे के संबंध में अनुुमति ली है, जैसा कि उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की साल 2018-19 की वार्षिक रिपोर्ट में बताया गया है।
“हमारे प्लांट पर आने वाले बायोमेडिकल कचरे में करीब 40% का इज़ाफा हुआ है। पहले हर दिन करीब 2 हज़ार किलो कचरा आता था, अब साढ़े तीन से लेकर 4 हज़ार किलो तक आता है। इस कचरे में पीले रंग की थैली वाले कचरे की मात्रा क़रीब 600 से 700 किलो तक होती है,” लखनऊ से 23 किलोमीटर दूर स्थित बायोमेडिकल कचरे का निपटारा करने वाली कंपनी ‘एसएमएस वॉटरग्रेस’ के एक अधिकारी ने अपना नाम ना लिखे जाने की शर्त पर बताया।
“हमें कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हमारा प्लांट जहां है उस एरिया के लोगों को डर लगने लगा है। कोरोना से संबंधित कचरा उसी सड़क से होकर जा रहा है जहां से उन्हें भी गुजरना है,” इस अधिकारी ने कहा।
लखनऊ की किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (केजीएमयू) से 18 जुलाई को पीले रंग की थैली में 392 किलो कचरा निकला। जबकि लाल रंग की थैली में 80 किलो कचरा निकला। इसी तरह 19 जुलाई को पीले रंग की थैली में 494 किलो और लाल रंग की थैली में 66 किलो कचरा निकला था। केजीएमयू में कोरोनावायरस के मरीज़ों के लिए 240 बेड उपलब्ध हैं। साथ ही यहां बड़ी संख्या में कोरोनावायरस की जांच होती है, जिससे बड़ी मात्रा में यहां से बायोमेडिकल कचरा निकल रहा है।
“यह कचरा बेहद संक्रमित होता है। बचाव के सारे उपाय अपनाने के बाद भी संक्रमण का डर तो रहता ही है। हमारे कर्मचारी भी पहले डरे हुए थे, कई काम छोड़कर भी चले गए,” केजीएमयू के एनवायरमेंट डिपार्टमेंट के प्रोफ़ेसर मो. परवेज़ ने इंडियास्पेंड को बाताय।
सफाई कर्मियों पर ख़तरा
कोरोनावायरस से संबंधित बायोमेडिकल कचरा, नष्ट होने से पहले यह अस्पताल से लेकर प्लांट तक कई लोगों के संपर्क में आता है। इसमें सबसे पहला नाम सफाई कर्मियों का है जो कोरोना वार्ड में यह कचरा इकट्ठा करते हैं।
“मेरी ड्यूटी कोरोना वार्ड में लगी थी। मैंने सारे नियमों का पालन किया, लेकिन पता नहीं कैसे कोरोना हो गया। मुझे लगता है जब मैं एक डेड बॉडी को भेज रहा था, तभी कुछ ग़लती हो गई,” राम मनोहर लोहिया में सफ़ाई कर्मचारी के तौर पर काम करने वाले प्रदीप (बदला हुआ नाम) ने बताया। हाल ही में हुई उनकी जांच के दौरान 20 साल के प्रदीप कोरोनावायरस से संक्रमित पाए गए हैं।
हाल ही में राम मनोहर लोहिया अस्पताल के कर्मचारियों ने उनकी अपनी जांच में लापरवाही का आरोप भी लगाया। “कोविड वार्ड में कर्मचारियों की ड्यूटी 14 दिन के लिए लगाई जाती है, लेकिन कर्मचारियों की कोरोनावायरस की जांच 12 दिन पर ही कर देते हैं। ऐसे में जांच के अगले दो दिन कर्मचारी कोविड वार्ड में ही ड्यूटी कर रहे हैं और उनके संक्रमित होने का ख़तरा बना हुआ है,” संविदा कर्मचारी संघ के महामंत्री सच्चितानंद मिश्र ने बताया।
”अब तक केजीएमयू में करीब 20 सफ़ाई कर्मचारी कोरोना से संक्रमित हो चुके हैं। डॉक्टर कोरोना वार्ड में नहीं जाते, लेकिन सफ़ाई कर्मियों को तो साफ़-सफ़ाई के लिए जाना ही होता है। ऐसे में वह कोरोना मरीज़ों या उनके कचरे के संपर्क में सीधे आ रहे हैं,” संयुक्त स्वास्थ्य आउट सोर्सिंग संविदा कर्मचारी संघ के प्रदेश अध्यक्ष रीतेश मल ने इंडियास्पेंड को बताया।
रीतेश मल की बात का समर्थन केजीएमयू के कोरोना वार्ड में काम करने वाले वार्ड बॉय अमित कुमार वाल्मीकि भी करते हैं। “केजीएमयू में करीब 50 स्वास्थ्य कर्मी संक्रमित हुए हैं। इसमें से क़रीब 20 डॉक्टर हैं और बाकी चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी हैं, जिसमें वार्ड बॉय, नर्स और सफ़ाई कर्मी शामिल हैं,” अमित ने बताया।
हालांकि, केजीएमयू के प्रवक्ता सुधीर सिंह का कहना है कि “अब तक कुल 28 स्वास्थ्यकर्मी संक्रमित हुए हैं, इसमें से 18 डॉक्टर हैं और 10 अन्य कर्मचारी हैं जिसमें सफ़ाई कर्मी भी शामिल हैं।”
केजीएमयू के अलावा अन्य अस्पतालों में भी बहुतायत में सफ़ाई कर्मचारी संक्रमित हो रहे हैं। 22 जुलाई को लखनऊ के सिविल अस्पताल में एक साथ 12 सफ़ाई कर्मचारी संक्रमित पाए गए। इस अस्पताल में कोरोनावायरस के मरीज़ों का सैंपल लिया जाता है। इसके अलावा लखनऊ के ही राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भी एक सफ़ाई कर्मचारी सहित 9 मेडिकल स्टाफ़ संक्रमित पाए जा चुके हैं।
होम आइसोलेशन के नियम से बढ़ेगी दिक्कत
इन सब के अलावा यूपी में बायोमेडिकल कचरे के प्रबंधन को लेकर चुनौतियां और बढ़ने वाली हैं। यूपी सरकार ने कोरोनावायरस के बढ़ते मामलों को देखते हुए बिना लक्षणों वाले मरीज़ों को होम आइसोलेशन की मंजूरी दी है। लेकिन सरकार की ओर से जारी आदेश में होम आइसोलेशन के दौरान कोरोनावायरस से संबंधित बायो मेडिकल कचरे पर कुछ नहीं कहा गया है।
हालांकि, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अपनी गाइडलाइंस में इसका जिक्र किया है। गाइडलाइंस के मुताबिक, घरों में साधारण कचरे एवं बायोमेडिकल कचरे के कूड़ेदान अलग होने चाहिए। होम आइसोलेशन की देखरेख करने वाले कर्मचारी को बायोमेडिकल कचरे का ट्रीटमेंट करने वाले कर्मचारियों को समय-समय पर बुलाना है। इन घरों से निकलने वाले बायोमेडिकल कचरे को ‘domestic hazardous waste’ के तौर पर ट्रीट करना है।
लखनऊ के राजाजीपुरम के रहने वाले विजय (बदला हुआ नाम) और उनकी मां कोरोना पॉजिटिव हैं। इन्हें कोई लक्षण नहीं है तो यह लोग होम आइसोलेशन में रह रहे हैं।
“मेरा तीन मंज़िल का मकान है। सबसे नीचे परिवार रह रहा है, दूसरे पर मैंने खुद को आइसोलेट किया है और तीसरी मंज़िल पर मेरी माता जी आइसोलेटेड हैं,” विजय बताते हैं।
विजय के मुताबिक उन्हें अलग से बायोमेडिकल कचरे से संबंधित कोई जानकारी नहीं दी गयी है। “वैसे तो ज़्यादा कचरा निकलता नहीं है क्योंकि मैं कमरे में ही रहता हूं, लेकिन जो भी थोड़ा बहुत कचरा निकल रहा है वो पन्नी में बांध कर कचरा इकट्ठा करने वाले को दे देते हैं,” विजय ने बताया।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की गाइडलाइंस के मुताबिक़, इस्तेमाल किये जा चुके मास्क और दस्तानों को डिस्पोज़ करने से पहले कम से कम 72 घंटे तक काग़ज़ की थैली में रखना है। साथ ही मास्क और दस्तानों को काट देना है जिससे यह फिर से इस्तेमाल करने लायक न रहें। यह नियम सभी पर लागू होता है, चाहे व्यक्ति संक्रमित है या नहीं है।(indiaspend)
- गायत्री यादव
‘एक लड़की को हमेशा अपने पिता के संरक्षण में रहना चाहिए। शादी के बाद पति उसका संरक्षक होना चाहिए और पति की मौत के बाद उसे अपने बच्चों की दया पर निर्भर रहना चाहिए यानी किसी भी स्थिति में एक महिला आज़ाद नहीं हो सकती।’ यह बात हिंदुओं के पवित्र ग्रन्थ माने जाने वाले ‘मनुस्मृति’ के पांचवे अध्याय के 148वें श्लोक में कही गई है। इस अध्याय में महिलाओं के कर्तव्य, उनकी पवित्रता और अपवित्रता के बारे में भी ‘निर्देश’ दिए गए हैं। हमारे पूरे सामाजिक इतिहास में उत्तर-वैदिक काल से ही धर्म एक ऐसा सामाजिक संस्थान रहा है जिसने मानवीय जीवन को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। धार्मिक ग्रंथों में लिखी बातें ही आज सामाजिक आचार संहिता के रूप में काम कर रही हैं। ये सामान्य समझी जाने वाली मान्यताएं भी औरतों की स्वतंत्रता के रास्ते में एक रुकावट की तरह काम करती हैं और हमारे परिवार सामाजिक संस्थान के रूप में महिलाओं के शोषण के ‘हथियार’ के रूप में काम करते हैं।
महिलाओं पर परिवार का सर्विलांस
परिवार एक ऐसी इकाई है जिसके निर्देशन के केंद्र में धार्मिक मान्यताएँ होती हैं। धार्मिक मान्यताओं का आधार धार्मिक ग्रंथों में लिखी गई बातें हैं। इस तरह धर्म और परिवार आपस में मिलकर एक ऐसी संस्कृति का निर्माण करते हैं जो महिलाओं के खिलाफ ‘सर्विलांस’ का काम करती है क्योंकि कई धार्मिक मान्यताओं का कहना है कि किसी भी स्थिति में एक महिला आज़ाद नहीं हो सकती।
इस पूरे सर्विलांस सिस्टम की जड़ें मानवीय सभ्यता के इतिहास से जुड़ी हुई हैं। सभ्यता के शुरुआती दौर में जब आदिम साम्यवादी समाज अस्तित्व में थी तो हर व्यक्ति भोजन के लिए खुद शिकार करता और अपना भरण-पोषण करता था। मगर जैसे-जैसे सामाजिक परिवर्तन हुआ उसके साथ ही संसाधनों का बंटवारा भी हुआ और श्रम विभाजन यानी ‘डिवीज़न ऑफ़’ लेबर अस्तित्व में आया। इसी के तहत महिलाओं को घर के अंदर कैद कर दिया गया।
सामंतवादी दौर आते-आते महिलाओं को घर की इज्ज़त का प्रतीक बना दिया गया और यह धारणा बनाई गई कि महिलाओं का घर से बाहर निकलना पूरे परिवार की इज्ज़त के लिए खतरा है। इसी धारणा के तहत महिलाओं को बाहरी दुनिया से काट दिया गया और पारिवारिक अस्मिता को सर्वोपरि रखते हुए, इसकी खातिर जान न्योछावर कर देने को भी न्यायसंगत बनाया गया। इतिहास में चर्चित ‘जौहर प्रथा’ इसी का एक परिणाम है।
फ़्रांस में ज्ञानोदय और औद्योगिक क्रांति के बाद कुछ सामाजिक परिवर्तन तो हुए मगर सामंती धारणा पूरी तरह खत्म नहीं हुई और इसके परिणामस्वरूप परिवार आज भी एक पितृसत्तात्मक संस्थान बना हुआ है। परिवार के अन्दर पुरुष की बेटी,बहन,पत्नी और मां आदि के रूप में महिलाओं को पुरुष के अधीन रहना सिखाया गया, जो महिलाओं की स्वायत्त पहचान पर एक हमला है। इस संस्कृति जिसके मूल में पितृसत्ता है, का अनुसरण करते हुए परिवार यह भी तय करने लगा कि घर की औरतें क्या पहनकर, किसके साथ और कितने बजे से कितने बजे तक घर से बाहर रहेंगी। ध्यान देने वाली बात यह है कि चूंकि यह नियम परिवार के मुखिया द्वारा तय किए जाते हैं इसलिए एक तरीके से एक पुरुष ही संस्थान के रूप में महिलाओं की देह को हर तरीके से नियंत्रित कर रहा है।
कामकाजी महिलाओं के खिलाफ पितृसत्ता का नैरेटिव
पितृसत्ता को सही ठहराने और महिलाओं की देह को नियंत्रित करने का काम बॉलीवुड की फ़िल्मों ने भी बखूबी किया है। ‘लस्ट स्टोरी’ का वह भाग याद करिए जिसमें भूमि पेडनेकर को घर के काम करने वाली बाई के रूप में दिखाया गया है। इस भाग में वह घर के मालिक के साथ सेक्स करते हुए दिखाई गईं हैं। हालांकि यह फिल्म महिलाओं की यौन इच्छाओं यानि सेक्शुअल डिज़ायर पर आधारित थी मगर हमें इस भाग को एक अलग सन्दर्भ में भी देखना होगा। महिलाओं की सेक्सुअलिटी को हमेशा से पुरुष ही नियंत्रित करते आये हैं। इसलिए पहले उन्होंने इससे संबंधित पैमाने भी बनाए और इन पैमानों में यह बात स्पष्ट थी कि वह महिला, जो अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के साथ शारीरिक संबंध बनाती है, वह चरित्रहीन है।
एक महिला का चरित्र हनन करना पितृसत्ता के मूल स्वाभाव में रहा है। इसी स्वाभाव की अभिव्यक्ति के रूप में फ़िल्मों के ऐसे सीन के ज़रिये एक धारणा बनाने की कोशिश की गई कि घर में काम करने वाली बाई के उस घर के पुरुष से नाजायज़ संबंध होते हैं। चूंकि वो बाई दरअसल कामकाजी औरत का प्रतीक है इसलिए एक प्रतीक के रूप में यह सम्पूर्ण कामकाजी औरतों के नीचा दिखाने के उद्देश्य से बनाया गया तंत्र है। साथ ही यदि इन महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि पर नज़र डाली जाए तो समझ आएगा कि कैसे यह नैरेटिव न सिर्फ महिलाओं बल्कि सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े तबके के भी खिलाफ है।
औद्योगीकरण के बाद महिलाओं का घर से बाहर निकल कर काम करना और खुद के दम पर परिवार का जीवन यापन करना पितृसत्ता पर एक आघात था। यह एक पुरुष की आन के खिलाफ़ था कि वह पत्नी का कमाया हुआ खाए। इसलिए महिलाओं, खासकर शादीशुदा महिलाओं के घर से बाहर निकलकर काम करने के खिलाफ़ नैरेटिव बनाए गढ़े गए। हमारे घर-परिवार में ठिठोली करते हुए ननद द्वारा अक्सर भाभी को यह कहा जाता है कि “भाभी भईया पर नज़र रखना कहीं उनका बाई से चक्कर न चलने लगे।” ठिठोली में कही गई यह बात दरअसल उसी धारणा का प्रतिबिम्ब है कि दूसरे के घरों में काम करने वाली महिलाओं के अपने मालिक से नाजायज़ संबंध होते हैं। असल में यह नैरेटिव पितृसत्ता द्वारा गढ़ा जाता है जिसके तहत महिलाओं को पूंजी से दूर रखने के पूरे प्रयास किए जाते हैं। चूंकि पूंजी ताकत का पर्याय है इसलिए महिलाओं को पूंजी से दूर किया जाना पितृसत्ता के वजूद के लिए आवश्यक है। यही कारण है कि ‘अकबरनामा’ का यह कथन कि ‘अच्छे घरों की महिलाएं घरों से बाहर नहीं निकलतीं’, आज भी पारिवारिक मान्यता का हिस्सा बना हुआ है।
शिक्षण संस्थानों का पितृसत्तात्मक चरित्र
हमारे आस-पास घर से बाहर निकल कर पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या अब भी पुरुषों के मुकाबले बेहद कम है। जो बाहर निकल भी रही हैं उनके परिवार की तरफ से सुरक्षित रहने की शर्त चस्पा कर दी गई है। यह शर्त अकेली नहीं है इसके साथ कुछ निर्देश शामिल हैं, जैसे इतने बजे से उतने बजे तक बाहर रहना है, लड़कों से दूर रहना है, किसी ‘चक्कर’ में नहीं पड़ना है, छोटे कपड़े नहीं पहनने हैं, किसी भी तरह के प्रदर्शन वगैरह में शामिल नहीं होना है आदि।
अभिभावकों के लिए अपनी लड़की की सुरक्षा के लिए सबसे मुफ़ीद जगह कॉलेज-यूनिवर्सिटी के हॉस्टल या फिर सख़्त नियमों वाले प्राइवेट पीजी हैं। खास बात यह है कि ‘घर से बाहर एक घर’ जैसे दावों के साथ स्थापित प्राइवेट पीजी केवल सुविधा के आधार पर ही यह दावा नहीं करते बल्कि ये उन्हीं पाबंदियों का पालन करते हैं जो घर में प्रचलित हैं। यही हाल यूनिवर्सिटी के हॉस्टल का भी है जहां अमूमन 8 से 9 बजे रात का सख्त कर्फ्यू यह सुनिश्चित करता है कि लड़की ज्यादा देर तक बाहर न रहे।
दरअसल जिस तरह के अपराधों का शिकार होने से तथाकथित रूप से बचाने के लिए यह सख़्त नियम बनाए गए हैं उनमें अपराध करने वाले पुरुष होते हैं मगर ताज्जुब की बात यह है कि लड़कियों के हॉस्टल के विपरीत लड़कों के हॉस्टल में अमूमन कोई भी कर्फ्यू टाइमिंग नहीं होती। इस तरह सुरक्षा के नाम पर लड़कियों को कैद करने की जो पितृसत्तात्मक नियम हमारा परिवार बनाता है। आधुनिक शिक्षा देने का दावा करने वाले यह शैक्षणिक संस्थान इस तरह के नियमों के ज़रिए उसे आधिकारिक मान्यता प्रदान कर देते हैं।
हमारे आस-पास जितनी मान्यताएं प्रचलित हैं उनमें से ज़्यादातर की शुरुआत हमारे परिवार से होती है। यह और बात है कि ये मान्यताएं हमारे परिवार में अचानक पैदा नहीं होती, इसके अपने सामाजिक कारण हैं। मगर इनके मूल में वही सामंतवादी सोच निहित होती है जिसका निर्माण इस लेख की शुरुआत में दिए गए श्लोक पर आधारित है। मुक्त व्यापार अस्तित्व में आने के बाद महिलाओं की प्रगति और सशक्तीकरण के अवसर बढ़ने चाहिए थे मगर सामाजिक चरित्र में सामंती सोच हावी होने के कारण इसके विपरीत हर संभव प्रयास किए गए ताकि उन्हें नियंत्रित रखा जाए। ‘अच्छी लड़की’ की परिभाषा ऐसे दी गई की उसका स्वतंत्र अस्तित्व ही ख़त्म हो जाए।
कॉलेज में पढ़ने वाली हर लड़की को यह डर रहता है कि यदि वह अपने बॉयफ्रेंड के साथ डेट पर जाती है या फिर किसी प्रदर्शन में हिस्सा लेती है तो उसकी पढ़ाई-लिखाई बंद करके उसकी शादी करा दी जाएगी। यह डर इसलिए भी लाज़मी हो जाता है क्योंकि शादी होने के बाद न सिर्फ स्वतंत्रता और भी कम हो जाती है बल्कि शोषण भी बढ़ जाता है। जो परिवार तथाकथित रूप से लिबरल हैं और शादी के बाद भी नौकरी करने की अनुमति देते हैं, वे भी इस बात का ख़ास ख़्याल रखते हैं कि ऑफ़िस ज़्यादा दूर न हो और शाम ढलने से पहले उनकी बहु घर वापस आ जाए। शादी से पहले तक जो पाबन्दी छोटे कपड़े पहनने तक होती है, शादी के बाद वह साड़ी पहनने और घूंघट रखने की अनिवार्यता तक पहुंच जाती है।
इस प्रकार स्वतंत्रता के तमाम पूंजीवादी दावों के बावजूद भी महिलाओं की कैद बरकरार है। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह कैद परिवार जैसा सामाजिक संस्थान है जिससे प्रत्येक व्यक्ति जन्म से ही भावनात्मक जुड़ाव रखता है. पुरुषों के विपरीत यही जुड़ाव महिलाओं के शोषण की धुरी बन जाता है। इसलिए महिलाओं की स्वतंत्रता के लिए पारिवारिक मान्यताओं का टूटना एक आवश्यक शर्त है।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
- विकास बहुगुणा
राजस्थान में सत्ताधारी कांग्रेस के भीतर उथल-पुथल जारी है. पार्टी की राज्य इकाई के अध्यक्ष के साथ-साथ उपमुख्यमंत्री पद से भी हटा दिए गए सचिन पायलट बागी रुख अपनाए हुए हैं. हालांकि कांग्रेस इसे भाजपा की साजिश बता रही है. पार्टी नेता अजय माकन ने बीते दिनों कहा कि यदि चुनी गई किसी सरकार को पैसे की ताकत से अपदस्थ किया जाता है, तो यह जनादेश के साथ धोखा और लोकतंत्र की हत्या है. पार्टी के दूसरे नेता भी कमोबेश ऐसी बातें कई बार कह चुके हैं.
इससे पहले विधायकों की बगावत के बाद कांग्रेस, भाजपा के हाथों कर्नाटक और मध्य प्रदेश की सत्ता गंवा चुकी है. तब भी उसने केंद्र में सत्ताधारी पार्टी पर लोकतंत्र की हत्या करने का आरोप लगाया था. कई विश्लेषक भी इस तरह सत्ता परिवर्तन को लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं बताते. हाल में सत्याग्रह पर ही प्रकाशित अपने एक लेख में चर्चित इतिहासकार रामचंद्र गुहा का कहना था, ‘अगर विधायक किसी भी समय खरीदे और बेचे जा सकते हैं तो फिर चुनाव करवाने का मतलब ही क्या है? क्या इससे उन भारतीयों की लोकतांत्रिक इच्छा के कुछ मायने रह जाते हैं जिन्होंने इन राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में वोट दिया था? अगर पैसे की ताकत का इस्तेमाल करके इतने प्रभावी तरीके से निष्पक्ष और स्वतंत्र कहे जाने वाले किसी चुनाव का नतीजा पलटा जा सकता है तो भारत को सिर्फ चुनाव का लोकतंत्र भी कैसे कहा जाए?’
ऐसे में पूछा जा सकता है कि जिस कांग्रेस पार्टी की सरकारें गिराने या ऐसा करने की कोशिशों के लिए भारतीय लोकतंत्र पर भी सवाल उठाया जा रहा है, उस कांग्रेस के भीतर लोकतंत्र का क्या हाल है? क्या भाजपा पर लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगा रही कांग्रेस खुद इस लोकतंत्र को कोई बेहतर विकल्प दे सकती है? क्या खेत की मिट्टी से ही उसमें उगने वाली फसल की गुणवत्ता तय नहीं होती है?
2019 के आम चुनाव में भाजपा की दोबारा प्रचंड जीत के बाद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस्तीफा दे दिया था. इससे एक सदी पहले यानी 1919 में मोतीलाल नेहरू पहली बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे. 1919 से 2019 तक 100 साल के इस सफर के दौरान कांग्रेस में जमीन-आसमान का फर्क आया है. तब कांग्रेस आसमान पर थी और उसके मूल्य भी ऊंचे थे. आज साफ है कि वह दोनों मोर्चों पर घिसट भी नहीं पा रही है.
मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरू के वक्त की कांग्रेस परंपरावाद से लेकर आधुनिकता तक कई विरोधाभासी धाराओं को साथ लिए चलती थी. नेतृत्व के फैसलों पर खुलकर बहस होती थी और इसमें आलोचना के लिए भी खूब जगह थी. 1958 के मूंदड़ा घोटाले के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है. यह आजाद भारत का पहला वित्तीय घोटाला था और इसने देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बड़ी किरकिरी की थी. इसकी एक वजह यह भी थी कि इसे उजागर करने वाला और कोई नहीं बल्कि उनके ही दामाद और कांग्रेस के सांसद फीरोज गांधी थे. इस घोटाले के चलते तत्कालीन वित्तमंत्री टीटी कृष्णमचारी को इस्तीफा देना पड़ा था.
इसी सिलसिले में 1962 का भी एक किस्सा याद किया जा सकता है. चीन के साथ युद्ध को लेकर संसद में बहस गर्म थी. अक्साई चिन, चीन के कब्जे में चले जाने को लेकर विपक्ष ने हंगामा मचाया हुआ था. इसी दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने संसद में यह बयान दिया कि अक्साई चिन में घास का एक तिनका तक नहीं उगता. कहते हैं कि इस पर उनकी ही पार्टी के सांसद महावीर त्यागी ने अपना गंजा सिर उन्हें दिखाया और कहा, ‘यहां भी कुछ नहीं उगता तो क्या मैं इसे कटवा दूं या फिर किसी और को दे दूं.’
अब 2020 पर आते हैं. क्या आज की कांग्रेस में ऐसी किसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है? एक ताजा उदाहरण से ही इसे समझते हैं. कांग्रेस प्रवक्ता रहे संजय झा ने कुछ दिन पहले टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार में एक लेख लिखा. इसमें कहा गया था कि दो लोकसभा चुनावों में इतनी बुरी हार के बाद भी ऐसा कुछ नहीं दिख रहा है जिससे लगे कि पार्टी खुद को पुनर्जीवित करने के प्रति गंभीर है. उनका यह भी कहना था कि अगर कोई कंपनी किसी एक तिमाही में भी बुरा प्रदर्शन करती है तो उसका कड़ा विश्लेषण होता है और किसी को नहीं बख्शा जाता, खास कर सीईओ और बोर्ड को. संजय झा का कहना था कि कांग्रेस के भीतर ऐसा कोई मंच तक नहीं है जहां पार्टी की बेहतरी के लिए स्वस्थ संवाद हो सके. इसके बाद उन्हें प्रवक्ता पद से हटा दिया गया. इसके कुछ दिन बाद उन्होंने राजस्थान के सियासी घटनाक्रम पर टिप्पणी की. इसमें संजय झा का कहना था कि जब सचिन पायलट के राज्य इकाई का अध्यक्ष रहते हुए कांग्रेस ने 2018 के विधानसभा चुनाव में शानदार वापसी की तो उन्हें ही मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए था. इसके बाद संजय झा को पार्टी से भी निलंबित कर दिया गया. इसका कारण उनका पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होना और अनुशासन तोड़ना बताया गया.
माना जाता है कि कांग्रेस के भीतर कभी मौजूद रही लोकतंत्र की शानदार इमारत के दरकने की शुरुआत इंदिरा गांधी के जमाने में हुई. वे 1959 में पहली बार कांग्रेस की अध्यक्ष बनी थीं. उस समय भी कहा गया था कि जवाहरलाल नेहरू अपनी बेटी को आगे बढ़ाकर गलत परंपरा शुरू कर रहे हैं. इस आलोचना का नेहरू ने जवाब भी दिया था. उनका कहना था कि वे बेटी को अपने उत्तराधिकारी के तौर पर तैयार नहीं कर रहे हैं. प्रथम प्रधानमंत्री के मुताबिक वे कुछ समय तक इस विचार के खिलाफ भी थे कि उनके प्रधानमंत्री रहते हुए उनकी बेटी कांग्रेस की अध्यक्ष बन जाएं.
हालांकि कई ऐसा नहीं मानते. एक साक्षात्कार में वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय कहते हैं, ‘नेहरू खुद इंदिरा को कांग्रेस के नेतृत्व की कतार में खड़ा करने, बनाए रखने और जिम्मेदारी सौंपने का प्रयास करते रहे. जब नेहरू की तबीयत थोड़ी कमजोर हुई तो उन्होंने इंदिरा को कांग्रेस की कार्यसमिति में रखा.’ यह भी कहा जाता है कि अध्यक्ष पद के लिए पहले दक्षिण भारत से तालुल्क रखने वाले धाकड़ नेता निजलिंगप्पा का नाम प्रस्ताव हुआ था, लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने इस पर चुप्पी ओढ़ ली और फिर जब इंदिरा गांधी के नाम का प्रस्ताव आया तो उन्होंने हामी भर दी.
महात्मा गांधी, सरदार वल्लभभाई पटेल और राजेंद्र प्रसाद जैसे कांग्रेसी दिग्गजों ने हमेशा कोशिश की कि उनके बच्चे उनकी राजनीतिक विरासत का फायदा न उठाएं. लेकिन इंदिरा गांधी इससे उलट राह पर गईं. जैसा कि अपने एक लेख में पूर्व नौकरशाह और चर्चित लेखक पवन के वर्मा लिखते हैं, ‘उन्होंने वंशवाद को संस्थागत रूप देने की बड़ी भूल की. अपने छोटे बेटे संजय को वे खुले तौर पर अपना उत्तराधिकारी मानती थीं.’ जब संजय गांधी की एक विमान दुर्घटना में असमय मौत हुई तो इंदिरा अपने बड़े बेटे और पेशे से पायलट उन राजीव गांधी को पार्टी में ले आईं जिनकी राजनीति में दिलचस्पी ही नहीं थी.
सोनिया गांधी की जीवनी ‘सोनिया : अ बायोग्राफी’ में वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई लिखते हैं, ‘इंदिरा और राजीव गांधी की इस पारिवारिक पकड़ ने पार्टी में नंबर दो का पद भी ढहा दिया था. हमेशा सशंकित रहने वाली इंदिरा गांधी ने राजीव को एक अहम सबक सिखाया - स्थानीय क्षत्रपों पर लगाम रखो और किसी भी ऐसे शख्स को आगे मत बढ़ाओ जो नेहरू-गांधी परिवार का न हो.’
इंदिरा गांधी ने खुद यही किया था. उनके समय में ही कांग्रेस में ‘हाईकमान कल्चर’ का जन्म हुआ और क्षेत्रीय नेता हाशिये पर डाल दिए गए. लंदन के मशहूर किंग्स कॉलेज के निदेशक और चर्चित लेखक सुनील खिलनानी अपने एक लेख में कहते हैं कि ऐसा इंदिरा गांधी ने दो तरीकों से किया - पहले उन्होंने पार्टी का विभाजन किया और फिर ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दीं कि पार्टी से वफादारी के बजाय इंदिरा गांधी से वफादारी की अहमियत ज्यादा हो गई.
इंदिरा गांधी ने यह बदलाव पैसे का हिसाब-किताब बदलकर किया. पहले पैसे का मामला पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व से अलग रखा जाता था. जवाहरलाल नेहरू आदर्शवादी नेता थे लेकिन उन्हें यह भी अहसास था कि कांग्रेस जैसी विशाल पार्टी को चलाने के लिए काफी पैसे की जरूरत होती है, तो उन्होंने यह काम स्थानीय क्षत्रपों पर छोड़ रखा था जो अपने-अपने तरीकों से पैसा जुटाते और इसे अपने इलाकों में चुनाव पर खर्च करते. सुनील खिलनानी लिखते हैं, ‘इंदिरा गांधी ने यह व्यवस्था खत्म कर दी. अब स्थानीय नेताओं को दरकिनार करते हुए नकदी सीधे उनके निजी सचिवों के पास पहुंचाई जाने लगी और उम्मीदवारों को चुनावी खर्च के लिए पैसा देने की व्यवस्था पर इंदिरा गांधी के दफ्तर का नियंत्रण हो गया. पैसा पहले ब्रीफकेस में भरकर आता था. बाद में सूटकेस में भरकर आने लगा.’ सुनील खिलनानी के मुताबिक इस सूटकेस संस्कृति के जरिये इंदिरा गांधी ने अपने चहेते वफादारों का एक समूह खड़ा कर लिया जिसे इस वफादारी का इनाम भी मिलता था. इस सबका दुष्परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस वोट पाने से लेकर विधायक दल का नेता चुनने तक हर मामले में नेहरू-गांधी परिवार का मुंह ताकने लगी.
यही वजह थी कि 1984 में जब अपने अंगरक्षकों के हमले में इंदिरा गांधी की असमय मौत हुई तो राजनीति के मामले में नौसिखिये राजीव गांधी को तुरंत ही पार्टी की कमान दे दी गई. उन्होंने अपनी मां से मिले सबक याद रखे. राशिद किदवई ने अपनी किताब में लिखा है कि शरद पवार, नारायण दत्त तिवारी और अर्जुन सिंह जैसे कई मजबूत क्षत्रपों पर लगाम रखने के लिए राजीव गांधी ने भी नेताओं का एक दरबारी समूह बनाया. कोई खास जनाधार न रखने वाले इन नेताओं को ताकतवर पद दिए गए. बूटा सिंह, गुलाम नबी आजाद और जितेंद्र प्रसाद ऐसे नेताओं में गिने गए. यानी इंदिरा गांधी ने कांग्रेस में लोकतंत्र के खात्मे की जो प्रक्रिया शुरू की थी उसे राजीव गांधी ने आगे बढ़ाया.
1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद भी वही हुआ जो 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुआ था. इस घटना के बाद दिल्ली में उनके निवास 10 जनपथ पर कार्यकर्ताओं की भारी भीड़ जमा थी. वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह भी वहां मौजूद थीं. इसी दौरान अपने एक सहयोगी से उन्हें खबर मिली कि कांग्रेस कार्यसमिति की एक बैठक हुई है जिसमें सोनिया गांधी को पार्टी की कमान देने का फैसला हुआ है. यह सुनकर वे हैरान रह गईं. अपनी किताब दरबार में वे लिखती हैं, ‘मैंने कहा कि वे तो विदेशी हैं और हिंदी तक नहीं बोलतीं. वे कभी अखबार नहीं पढ़तीं. ये पागलपन है.’ सोनिया गांधी तब कांग्रेस की सदस्य तक नहीं थीं. अपनी किताब में राशिद किदवई लिखते हैं, ‘सोनिया गांधी में नेतृत्व के गुण हैं या नहीं, उन्हें भारतीय राजनीति की पेचीदगियों का अंदाजा है या नहीं, इन बातों पर जरा भी विचार नहीं किया गया.’
हालांकि सोनिया गांधी ने उस समय यह पद ठुकरा दिया. एक बयान जारी करते हुए उन्होंने कहा कि जो विपदा उन पर आई है उसे और अपने बच्चों को देखते हुए उनके लिए कांग्रेस अध्यक्ष का पद स्वीकार करना संभव नहीं है. परिवार के सूत्रों के मुताबिक सोनिया गांधी को कांग्रेस कार्यसमिति का यह फैसला काफी असंवेदनशील भी लगा क्योंकि तब तक राजीव गांधी का अंतिम संस्कार भी नहीं हुआ था. राशिद किदवई के मुताबिक उस समय परिवार के काफी करीबी रहे अमिताभ बच्चन ने कहा कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी को भी इसी तरह पार्टी की कमान थामने को मजबूर किया गया था और कब तक गांधी परिवार के सदस्य इस तरह बलिदान देते रहेंगे.
इसके बाद अगले चार साल तक कांग्रेस की कमान तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के पास रही. 1978 में ब्रह्मानंद रेड्डी के बाद से यह पहली बार था जब पार्टी की अगुवाई गांधी परिवार से बाहर का कोई शख्स कर रहा था. हालांकि तब भी गांधी परिवार कांग्रेस के भीतर एक शक्ति केंद्र था ही. कहा जाता है कि नरसिम्हा राव से असंतुष्ट नेता सोनिया गांधी को अपना दुखड़ा सुनाते थे. राव के बाद दो साल पार्टी सीताराम केसरी की अगुवाई में चली.
तब तक 1996 के आम चुनाव आ चुके थे. इन चुनावों में सत्ताधारी कांग्रेस का प्रदर्शन काफी फीका रहा. पांच साल पहले 244 सीटें लाने वाली पार्टी इस बार 144 के आंकड़े पर सिमट गई. उधर, भाजपा का आंकड़ा 120 से उछलकर 161 पर पहुंच गया. कांग्रेस का एक धड़ा सोनिया गांधी को वापस लाने की कोशिशों में जुटा था. पार्टी की बिगड़ती हालत ने उसकी इन कोशिशों को वजन दे दिया. 1997 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में सोनिया गांधी को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता दिलाई गई और इसके तीन महीने के भीतर ही वे अध्यक्ष बन गईं.
कांग्रेस के अब तक हुए अध्यक्षों की सूची देखें तो सोनिया गांंधी राजनीति के लिहाज से सबसे ज्यादा नातजुर्बेकार थीं लेकिन, उन्होंने सबसे ज्यादा समय तक यह कुर्सी संभाली. वे करीब दो दशक तक कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं और अब फिर अंतरिम अध्यक्ष के रूप में पार्टी की कमान संभाले हुए हैं.
इसी तरह राहुल गांधी 2004 में सक्रिय राजनीति में आए. तीन साल के भीतर उन्हें पार्टी महासचिव बना दिया गया. 2013 में यानी राजनीति में आने के 10 साल से भी कम वक्त के भीतर राहुल गांधी कांग्रेस उपाध्यक्ष बन गए. 2017 में वे अध्यक्ष बनाए गए. 2019 में उन्होंने पद छोड़ा तो चुनाव नहीं हुए बल्कि सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष बन गईं. इसी तरह कोई चुनाव न जीतने के बाद भी प्रियंका गांधी कांग्रेस की महासचिव हैं. और परिवार में कथित तौर पर सबसे ज्यादा राजनीतिक परिपक्वता रखने के बाद भी सिर्फ पारिवारिक समीकरणों के चलते ही वे शायद पार्टी में बड़ी मांग होने पर भी उसके लिए खुलकर राजनीति नहीं कर पा रही हैं.
यानी कि अब भी कांग्रेस उसी तरह चल रही है जैसी राजीव और इंदिरा गांधी के समय चलती थी. इसका मतलब यह है कि पार्टी के भीतर लोकतंत्र पहले की तरह अब भी गायब है. अगर इससे थोड़ा आगे बढ़ें तो यह भी कहा जा सकता है कि जब गांधी परिवार के भीतर ही नेतृत्व का निर्णय लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित नहीं है तो इसकी उम्मीद पार्टी के स्तर पर कैसे की जा सकती है! राजीव-इंदिरा की तरह आज सोनिया गांधी के इर्द-गिर्द भी नेताओं की एक मंडली जमी रहती है और बाकियों को इसके जरिये ही उन तक अपनी बात पहुंचानी पड़ती है. राज्यों के चुनाव होते हैं तो विधायक दल का नेता चुनने का अधिकार केंद्रीय नेतृत्व को दे दिया जाता है जो अपनी पसंद का नाम तय कर देता है. संसदीय दल का नेता चुनने के मामले में भी ऐसा ही होता है.
2004 के आम चुनाव में तो मामला इससे भी आगे चला गया था. कांग्रेस सबसे ज्यादा सीटें लाई थीं और उसके नेतृत्व में गठबंधन सरकार बननी थी. लेकिन विदेशी मूल का हवाला देकर भाजपा ने सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने का विरोध शुरू कर दिया. इसके बाद सोनिया गांधी खुद प्रधानमंत्री नहीं बनीं लेकिन उनके एक इशारे पर ही मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया गया. लेकिन बात यहीं नहीं रुकी. प्रधानमंत्री को सलाह देने के लिए एक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद भी बन गई जिसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी थीं. इस तरह का काम भारतीय लोकतंत्र में पहली बार हुआ था और इसके चलते सोनिया गांधी को सुपर पीएम कहा जाने लगा था.
वे दिन अब बीत चुके हैं. बीते साल कांग्रेस को लगातार दूसरे आम चुनाव में भयानक हार का सामना करना पड़ा. 2014 में महज 44 लोकसभा सीटें लाने वाली पार्टी 2019 के आम चुनाव में इस आंकड़े में सिर्फ आठ की बढो़तरी कर सकी. इस तरह देखें तो पार्टी के एक परिवार पर निर्भर होने के लिहाज से भी इस समय एक दिलचस्प स्थिति है. ऐसा पहली बार है जब गांधी परिवार के तीन सदस्य कांग्रेस में तीन सबसे प्रभावशाली भूमिकाओं में हैं और ठीक उसी वक्त पार्टी सबसे कमजोर हालत में है. अभी तक कहा जाता था कि गांधी परिवार एक गोंद की तरह कांग्रेस को जोड़े रखता है क्योंकि इसका करिश्मा चुनाव में वोट दिलवाता है. लेकिन साफ है कि वह करिश्मा अब काम नहीं कर रहा. पवन के वर्मा कहते हैं, ‘सच ये है कि पार्टी एक ऐसे परिवार की बंधक बनी हुई है जो दो आम चुनावों में इसका खाता 44 से सिर्फ 52 तक पहुंचा सका.’ उनके मुताबिक कांग्रेस को नेतृत्व से लेकर संगठन तक बुनियादी बदलाव की जरूरत है और तभी वह एक ऐसा विश्वसनीय विपक्ष बन सकती है जिसकी लोकतंत्र को जरूरत होती है.
दबी जुबान में ही सही, कांग्रेस के भीतर से भी इस तरह के सुर सुनाई दे रहे हैं. कुछ समय पहले पार्टी नेता संदीप दीक्षित का कहना था कि ‘महीनों बाद भी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता नया अध्यक्ष नियुक्त नहीं कर सके. वजह ये है कि वे डरते हैं कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे.’ पूर्व सांसद ने यह भी कहा कि कांग्रेस के पास नेताओं की कमी नहीं है और अब भी कांग्रेस में कम से कम छह से आठ नेता हैं जो अध्यक्ष बनकर पार्टी का नेतृत्व कर सकते हैं. उनके इस बयान का पार्टी के वरिष्ठ नेता शशि थरूर ने भी खुला समर्थन किया. उन्होंने कहा, ‘संदीप दीक्षित ने जो कहा है वह देश भर में पार्टी के दर्जनों नेता निजी तौर पर कह रहे हैं.’ शशि थरूर का आगे कहना था, ‘मैं कांग्रेस कार्यसमिति से फिर आग्रह करता हूं कि कार्यकर्ताओं में ऊर्जा का संचार करने और मतदाताओं को प्रेरित करने के लिए नेतृत्व का चुनाव कराया जाए.’
लेकिन अध्यक्ष पद के लिए चुनाव एक ऐसी बात है जो कांग्रेस में अपवाद और अनोखी बात रही है. आखिर बार ऐसा 2001 में हुआ था जब सोनिया गांधी के सामने जितेंद्र प्रसाद खड़े हुए थे और महज एक फीसदी वोट हासिल कर सके थे. उससे पहले 1997 में कांग्रेस में अध्यक्ष पद का चुनाव हुआ था जिसमें सीताराम केसरी ने शरद पवार और राजेश पायलट को हराया था. और इससे पहले चुनाव की नौबत 1950 में तब आई थी जब जवाहरलाल नेहरू की नापसंदगी के बाद भी पुरुषोत्तम दास टंडन को ज्यादा वोट मिले थे और वे कांग्रेस के मुखिया बन गए थे. बाकी सभी मौकों पर पार्टी अध्यक्ष का चुनाव बंद कमरों में होता रहा है.
कांग्रेस के कई नेताओं के अलावा कुछ विश्लेषक भी मानते हैं कि किसी नए चेहरे का लोकतांत्रिक रूप से चुनाव ही भारत की सबसे पुरानी पार्टी को नया रूप देने का सबसे सही तरीका हो सकता है. अपने एक लेख में रामचंद्र गुहा कहते हैं कि इससे भी आगे बढ़कर वह प्रक्रिया अपनाई जा सकती है जो अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी अपनाती है और जो कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक है. वे लिखते हैं, ‘पार्टी सदस्यों तक सीमित रहने वाले चुनाव से पहले टेलीविजन पर बहसें और टाउन हॉल जैसे आयोजन हो सकते हैं जिनमें उम्मीदवार अपने नजरिये और नेतृत्व की अपनी क्षमता का प्रदर्शन करें. आखिर कांग्रेस इस बारे में क्यों नहीं सोचती?’
रामचंद्र गुहा का मानना है कि कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव उन लोगों के लिए भी खुला होना चाहिए जो कभी कांग्रेस में थे, लेकिन उसे छोड़कर चले गए. उदाहरण के लिए ममता बनर्जी. इस चर्चित इतिहासकार के मुताबिक ऐसे लोगों को भी उम्मीदवारी पेश करने की छूट दी जा सकती है जो कभी कांग्रेस पार्टी के सदस्य नहीं रहे. वे लिखते हैं, ‘मसलन कोई सफल उद्यमी या करिश्माई सामाजिक कार्यकर्ता भी दावेदार हो सकता है जिससे चुनाव कहीं ज्यादा दिलचस्प हो जाएगा.’ उनके मुताबिक उम्मीदवारों को साक्षात्कार-भाषण देने और व्यक्तिगत घोषणा पत्र जारी करने की छूट होनी चाहिए. रामचंद्र गुहा मानते हैं कि अगर कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव इतना लोकतांत्रिक और पारदर्शी हो जाए तो तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और वाईएसआर कांग्रेस जैसी वे पार्टियां उसके साथ आ सकती हैं जिनके नेताओं के बारे में माना जाता है कि वे सिर्फ इसलिए कांग्रेस छोड़कर चले गए कि उन्हें एक हद से आगे नहीं बढ़ने दिया गया.
कई और विश्लेषक भी मानते हैं कि कांग्रेस इस बात को समझ नहीं पा रही कि नेहरू गांधी परिवार को लेकर उसकी जो श्रद्धा है, वही उसके उद्धार की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है. अपने एक लेख में राशिद किदवई कहते हैं, ‘जो नए मतदाता हैं या जिसे हम न्यू इंडिया कहते हैं, वे जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, संजय गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी से ऊब चुके हैं. वे एक ही परिवार से हटना चाह रहे हैं.’ उनके मुताबिक जिस दिन कांग्रेस को यह समझ में आ जाएगा कि वह नेहरू-गांधी परिवार का इस्तेमाल भले करे, लेकिन राजनीतिक नेतृत्व किसी और को दे दे, उसी दिन से कांग्रेस में बदलाव शुरू हो जाएगा.’
सवाल उठता है कि क्या ऐसा होगा? अभी तो अध्यक्ष पद छोड़ने के बावजूद कांग्रेस के केंद्र में राहुल गांधी ही दिख रहे हैं. पार्टी से जुड़ी ज्यादातर बड़ी सुर्खियां उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस या ट्वीट पर ही केंद्रित होती हैं. अंदरखाने से आ रही खबरों के मुताबिक कांग्रेस के कई नेता इससे फिक्रमंद हैं. उनकी शिकायत है कि रणनीति तो राहुल गांधी अपने हिसाब से तय कर रहे हैं, लेकिन इस रण को लड़ने वाले संगठन से जुड़ी शिकायतों पर वे यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि वे अब पार्टी के अध्यक्ष नहीं हैं.(satyagrah)
ऑस्ट्रेलिया, स्विट्ज़रलैंड में मशहूर हैं इनके मोती
-कुमार देवांशु देव
यदि आपको लगता है कि मोती सिर्फ समुद्री सीपों में हो सकते हैं, तो आप गलत हैं। क्योंकि, केरल के कासरगोड इलाके के एक किसान पिछले दो दशकों से अपने आंगन में बाल्टी में मोती की खेती कर रहे हैं।
जी हां, आपने सही पढ़ा! 65 वर्षीय केजे माथचन अपने तालाब में हर साल 50 बाल्टी से अधिक मोतियों की खेती करते हैं। इनमें से अधिकांश मोतियों को ऑस्ट्रेलिया, सऊदी अरब, कुवैत और स्विट्जरलैंड निर्यात किया जाता है, जिससे उन्हें हर साल लाखों की कमाई होती है।
सिलसिला कैसे शुरू हुआ?

माथचन सऊदी अरब के ढरान में किंग फ़हद यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेट्रोलियम एंड मिनरल्स में दूरसंचार विभाग में प्रोफेसर के रूप में कार्यरत थे, इसी दौरान उन्हें अरामको ऑयल कंपनी की ओर से एक अंग्रेजी अनुवादक के रूप में चीन जाने का अवसर मिला।
इस विषय में माथचन द बेटर इंडिया को बताते हैं, “अपनी चीन यात्रा के दौरान, मैं वूशी स्थित दंशुई मत्स्य अनुसंधान केंद्र गया। मत्स्य पालन एक ऐसा क्षेत्र था, जिसमें मेरी हमेशा रुचि रही थी। इसलिए मैंने उनके कई पाठ्यक्रमों के बारे में जानकारियां इकठ्ठी करनी शुरू की। इसी क्रम में पता चला वे मोती उत्पादन से संबंधित डिप्लोमा कोर्स चला रहे हैं। यह मुझे कुछ नया लगा और मैंने इसमें दाखिला लेने का फैसला किया।“
माथचन ने कुछ हफ्ते बाद अपनी नौकरी छोड़ दी और डिप्लोमा करने के लिए चीन चले गए। उनका पाठ्यक्रम छह महीने में पूरा हुआ और साल 1999 में उन्होंने अपने तालाब में मोती की खेती करनी शुरू कर दी।
इस बारे में वह कहते हैं, “यह जल्दबाजी में लिया गया फैसला था और कई लोगों ने इसकी आलोचना की, लेकिन मुझे अहसास था कि यह कारोबार कमाल का साबित होगा और इसमें आगे बढ़ा सकता है।“
इसके बाद माथचन ने महाराष्ट्र और पश्चिमी घाटों से निकलने वाली नदियों से सीपों को लाया और उन्हें अपने घर में, बाल्टियों में उपचारित करने लगे और पहले 18 महीनों की खेती के फलस्वरूप 50 बाल्टी मोती उत्पादित हुआ।
माथाचन बताते हैं, “मैंने शुरुआत में लगभग 1.5 लाख रुपये खर्च किए थे और लगभग 4.5 लाख के मोतियों का उत्पादन हुआ, इस तरह मुझे 3 लाख रुपए का फायदा हुआ। इसके बाद हमारा कारोबार निरंतर आगे बढ़ रहा है और मैंने उन लोगों के लिए कक्षाएं लेने का लाइसेंस भी प्राप्त कर लिया है, जो मोती की खेती सीखना चाहते हैं।“
कैसे करते हैं मोतियों की खेती

माथचन बताते हैं, “मोती मूलतः तीन प्रकार के होते हैं- कृत्रिम, प्राकृतिक और संवर्धित। मैं पिछले 21 वर्षों से संवर्धित मोतियों की खेती कर रहा हूँ। इसकी खेती करना आसान है, क्योंकि भारत में ताजे पानी के शम्बुक आसानी से उपलब्ध होते हैं।“
वह नदियों से लाए गए सीपों को काफी सावधानी से खोलते हैं और इन्हें एक जीवाणु युक्त मेष कंटेनर में 15-25 डिग्री सेल्सियस गर्म पानी में पूरी तरह डुबो देते हैं। डेढ़ वर्षों में नाभिक, मोती के सीप से कैल्शियम कार्बोनेट जमा करके मोती का एक थैली बनाता है। इस पर कोटिंग की 540 परतें होतीं हैं, तब जाकर एक उत्तम मोती का निर्माण होता है।
माथचन के ज्यादातर मोतियों को ऑस्ट्रेलिया, कुवैत, सऊदी अरब और स्विट्जरलैंड निर्यात किया जाता हैं, जहाँ संवर्धित मोतियों की काफी मांग है।
माथचन इस विषय में बताते हैं, “भारतीय बाजार में अधिकांशतः कृत्रिम मोती उपलब्ध होते हैं और सिंथेटिक कोटिंग के कारण ये असली दिखते हैं। यही कारण है कि ये सस्ते होते हैं। एक असली मोती की कीमत लगभग 360 रुपये / कैरेट और 1800 रुपये प्रति ग्राम होती है।“
माथचन ने अपने बैकयार्ड में मोतियों के थोक उत्पादन के लिए एक कृत्रिम टैंक बनाया है। इसके बारे में यहाँ का दौरा करने वाले एक यूट्यूबर लीटन कुरियन बताते हैं, “टैंक की लंबाई लगभग 30 मीटर, चौड़ाई 15 मीटर और गहराई 6 मीटर है। मैंने इतना अनोखा बिजनेस आइडिया कभी नहीं देखा और जिस कोशिश के साथ सेटअप बनाया गया है, वह वास्तव में उल्लेखनीय है। माथचन अपनी शेष जमीन पर वनीला, नारियल और आम की कई किस्मों की भी खेती करते हैं।“
फिलहाल माथचन स्थानीय किसानों की मदद से खेती कार्यों का प्रबंधन करने के साथ ही कई रुचि रखने वाले लोगों को मोती उत्पादन का प्रशिक्षण भी दे रहे हैं।
लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन कक्षाएं

कोरोना महामारी के कारण पिछले कुछ महीनों से माथचन का कारोबार काफी मंद पड़ा हुआ है, लेकिन उन्होंने अपनी कक्षाओं को ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर ले जाने में सफलता हासिल की और अपने अनूठे बिजनेस आइडिया के कारण काफी ध्यान आकर्षित कर रहे हैं।
इस कड़ी में कोच्चि की आशा जॉन कहती हैं, “जब मैंने पहली बार मोती की खेती के बारे में सुना, तो मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। लेकिन, जब मैंने उनके फार्म को देखा तो मुझे अहसास हुआ कि यह कितना व्यवहारिक था। फिर, मैंने उनकी कक्षाओं की मदद से प्रक्रियाओं को स्पष्ट रूप से समझा और छोटे पैमाने पर खेती शुरू की।“
बी.कॉम अंतिम वर्ष में पढ़ने वाली आर्द्रा सहदेवा का भी कुछ ऐसा ही मानना है, वह कहती हैं, “28 दिनों की अवधि के दौरान माथचन सर कच्चा माल कहाँ से मंगाना है से लेकर खेती के लिए किन मानकों का इस्तेमाल करना चाहिए, हर छोटी प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बताते हैं। इसके लिए उनका धन्यवाद, मेरा लॉकडाउन काफी प्रोडक्टिव रहा है।”
इन वर्षों के दौरान, माथचन की खेती ने बहुत लोकप्रियता हासिल की है और यही वजह है कि, केरल के कई विश्वविद्यालयों और यहां तक कि कर्नाटक के मत्स्य विभाग के कई छात्रों ने उनके मोती फार्म का दौरा किया है। उन्होंने कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय, बेंगलुरु में इससे संबंधित कई व्याख्यान भी दिए हैं।
“यदि मैं सऊदी अरब में अपनी नौकरी जारी रखता तो अपने शहर के किसी दूसरे इंसान की तरह ही रहता। मैंने कुछ ऐसा करने की कोशिश की, जो अलग था। उस वक्त भारत में मोती की खेती पर कम बातें हुआ करती थी, शुक्र है कि मैंने इसे किया, यह अभी और समृद्ध हो रहा है,“ माथचन अंत में गर्व से कहते हैं।(thebetterindia)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास होनेवाला है, यह एक बड़ी खुश-खबर है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को सभी पक्षों ने मान लिया है, यह भारत के सहिष्णु स्वभाव का परिचायक है लेकिन राम मंदिर बनानेवाला हमारा यह वर्तमान भारत क्या राम चरित का अनुशीलन करता है ? हमारे नेताओं ने राम मंदिर बनाने पर जितना जबर्दस्त जन-जागरण किया, क्या उतना जोर उन्होंने राम की मर्यादा के पालन पर दिया ?
मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भगवान बनाकर हमने एक मंदिर में बिठा दिया, वहां जाकर घंटा-घडिय़ाल बजा दिया और प्रसाद खा लिया। बस इतना ही काफी है। हम हो गए रामभक्त ! पूज लिया हमने राम को ! यहां मुझे कबीर का वह दोहा याद आ रहा है, जिसमें उन्होंने कहा है कि ‘जो पत्थर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़।’ राम के चरित्र को अपने आचरण में उतारना ही राम की सच्ची पूजा है।
सीता पर एक धोबी ने उंगली उठा दी तो राम ने सीता को अग्नि-परीक्षा के लिए मजबूर कर दिया ? क्यों कर दिया? क्योंकि राजा या रानी या राजकुमारों का चरित्र संदेह के परे होना चाहिए। सारे देश या सारी प्रजा या सारी जनता के लिए वे आदर्श होते हैं। यही सच्चा लोकतंत्र है। लेकिन हमारे नेताओं का क्या हाल है ?
धोबी की उंगली नहीं, विरोधी पहलवानों के डंडों का भी उन पर कोई असर नहीं होता। देश के बड़े से बड़े नेता तरह—तरह के सौदों में दलाली खाते हैं, उन पर आरोप लगते हैं, मुकदमे चलते हैं। और वे बरी हो जाते हैं। नेताओं की खाल गेंडों से भी मोटी हो गई है। राम ने दशरथ की वचन-पूर्ति के लिए सिंहासन त्याग दिया और वन चले गए लेकिन आज के राम दशरथों को ताक पर बिठाकर सिंहासनों पर कब्जा करने के लिए किसी से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं। वनवासी राम ने किस-किसको गले नहीं लगाया ? उन्होंने जाति-बिरादरी, ऊंच-नीच, मनुष्य और पशु के भी भेदभावों को पीछे छोड़ दिया लेकिन राम नाम की माला जपनेवाले हमारे सभी नेता क्या करते हैं ? इन्हीं भेदभावों को भडक़ाकर वे चुनाव के रथ पर सवार हो जाते हैं। वे कैसे रामभक्त हैं ?
राम ने लंका जीती लेकिन खुद उसके सिंहासन पर नहीं बैठे। न ही उन्होंने लक्ष्मण, भरत या शत्रुघ्न को उस पर बिठाया। उन्होंने लंका विभीषण को सौंप दी। लेकिन हमारे यहां तो परिवारवाद का बोलबाला है। सारी पार्टिया—मां-बेटा पार्टी या भाई-भाई पार्टी या बाप-बेटा पार्टी या पति-पत्नी पार्टी बन गई हैं। राम ने राजतंत्र को लोकतंत्र में बदलने की कोशिश की लेकिन हम रामभक्त हिंदुस्तानी लोकतंत्र को परिवारतंत्र में बदलने पर आमादा हैं ! हम कैसे रामभक्त हैं ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
हेमंत मालवीय
नेपाल जहां भगवान राम और अयोध्या पर अपना दावा साबित करने के लिए पुरातात्विक अध्ययन की तैयारी कर रहा है, वहीं अब श्रीलंका रावण से जुड़ी अपनी विरासत को खोजने में लग गया है। श्रीलंका के सिविल एविएशन अथॉरिटी ने कहा है कि वह पौराणिक किरदार रावण और उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले हवाई मार्ग को लेकर एक शोध कराएगा।
सिंहल भाषा में छपे एक विज्ञापन में श्रीलंका के एविएशन अथॉरिटी ने लोगों से राजा रावण और अब लुप्त हो चुके प्राचीन वायु मार्गों को लेकर किसी भी तरह के दस्तावेज या साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध कराने के लिए कहा गया है।
एविएशन के एक अधिकारी ने बताया कि राजा रावण के बारे में एक आधिकारिक जानकारी जुटाने के लिए ये शोध किया जा रहा है क्योंकि रावण के बारे में तमाम तरह की कहानियां हैं। अधिकारी ने कहा कि रावण के विमान और उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने रास्तों को लेकर भी कई सालों से कहानियां चली आ रही हैं इसलिए हम इस मामले पर स्टडी करना चाहते हैं।
श्रीलंका का टूरिजम सेक्टर भारत से आने वाले पर्यटकों के लिए रामायण ट्रेल को भी प्रोत्साहित कर रहा है। हालांकि, भारत की रामायण के खलनायक रावण को सिंघल-बौद्ध आस्था की नजरों से देखते हैं। श्रीलंका में रावण को देश के एक बहादुर और विद्वान राजा के तौर पर देखा जाता है।
सिंहल-बौद्ध का एक समूह खुद को रावण बल्य कहता है जबकि श्रीलंका ने अपने पहले सेटेलाइट का नाम रावण-1 रखा था। 2016 में कोलंबो में हुए सिविल एविएशन की कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए तत्कालीन उड्डयन मंत्री निर्मला सिरिपाला ने कहा था कि आधुनिक एविएशन का इतिहास राइट ब्रदर्स से शुरू हुआ है लेकिन श्रीलंका में किवंदंती है कि रावण नाम का एक बहादुर राजा था जो दांदु मोनारा नाम का एक विमान उड़ाता था। रावण केवल श्रीलंका ही नहीं बल्कि पूरे क्षेत्र में विमान उड़ाता था।
सम्मेलन ने निष्कर्ष निकाला था कि रावण 5,000 साल पहले श्रीलंका से आज के भारत के लिए रवाना हुआ था और वापस आया। हालांकि, इन कहानियों को खारिज कर दिया गया कि रावण ने भगवान राम की पत्नी सीता का अपहरण किया था। सरकार ने यह दावा किया था कि यह एक भारतीय संस्करण था और इसके विपरीत रावण एक महान राजा था।
श्रीलंका में कई लोग मानते हैं कि रावण एक दयालु राजा और विद्वान था। कुछ भारतीय धर्मग्रंथ भी उन्हें ‘महा ब्राह्मण’ के रूप में वर्णित करते हैं, जिसका अर्थ है एक महान ब्राह्मण या एक महान विद्वान। रामायण के अनुसार, रावण के पास पुष्पक नाम का एक विमान था। इसी विमान पर उसने सीता माता का अपहरण किया था।
इससे पहले, नेपाल के प्रधानमंत्री के। पी। शर्मा ओली ने नेपाल के थोरी गांव को भगवान राम की असली जन्मभूमि बताया था। जिसके बाद अब वहां का पुरातत्व विभाग शोध की योजना बना रहा है। नेपाल का पुरातत्व विभाग बीरगंज के परसा जिले के थोरी गांव में खुदाई करने पर भी विचार कर रहा है।
स्मिता अखिलेश
डहरूराम एक बड़े शहर से प्रवासी मजदूर के रूप में अपने गांव वापिस आता है और उसके पास जमीन का एक छोटा टुकड़ा भी है जिन्हें वह जमानत में रखकर अपना किराना दुकान खोलना चाहता है। तो क्या सरकार द्वारा कोविड संकट से निपटने के लिए घोषित 20 लाख करोड़ का पैकेज उसके लिए कारगर है? इसी के मद्देनजर हमारे बैंक ने भी अपने यहां ऋण नीति की समीक्षा की थी। जिसमें कोरोना लॉकडाउन के बाद उपजी बेरोजगारी से निपटने के लिए 50000 तक रूपये उन वर्गो को मुहैया कराया जाना था जिनके पास जमीन को कोई छोटा टुकड़ा भी हो।
देखने में यह बहुत कारगर लगता है कि लोगों को अपने पैर में खड़े होने के लिए तुरंत बैंक द्वारा राशि मुहैया कराया जा रहा है जिससे ग्रामीण अपना छोटा-मोटा व्यवसाय शुरू करने में सक्षम हो सकेंगे। लेकिन इस योजना को लागू करने के बाद भी लोगों का रूझान उस ओर दिखता नजर नहीं आ रहा है क्योंकि मैदानी स्तर पर जब हितग्राही यह सवाल करता है कि क्या इस ऋण के ब्याज के लिए कोई राहत का प्रावधान है या इसके ईएमआई का भुगतान मोराटोरियम के अधीन है एक बैंकर्स होने के नाते हमारे पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं होता है।
गौरतलब है कि मोराटोरियम शब्द को ईएमआई के जमा करने के लिए अस्थायी राहत या वित्तीय निलंबन के लिए उपयोग किया जाता है । लेकिन बैंकिग स्तर के सॉफ्टवेयर में अभी बदलाव नहीं किए गए है। बैंक आपको ईएमआई के लिए नहीं कह रहे हैं लेकिन ब्याज भी नहीं बढ़ रहा है इसकी कोई गारंटी भी नहीं है। जो लोग वित्तीय रूप से इन तकनीकियों को नहीं समझ रहे है उन्हें बैंक में जाकर अपने ऋणों के ब्याज के संदर्भ में तस्दीक जरूर कर लेनी चाहिए। साथ ही बैंकिग के लिहाज से देखा जाए तो अभी की परिस्थिति में बैंकों द्वारा कर्ज देना भी बहुत जोखिम का काम है और इन कर्जो के बढते एनपीए से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
अगर कर्ज देने वाले ही डूबते कर्ज के बोझ से दबते जाएंगे, तो बैंकिग व्यवस्था कैसे चल पाएगी और बैंक कर्ज देने का जोखिम नहीं लेंगे तो कारोबार कैसे करेंगे। कर्ज देने और वसूली के जोखिम के बीच का रास्ता निकालते हुए संतुलन बनाने के लिए सरकार द्वारा और ठोस कदम उठाया जाना चाहिए। जिस तरह कल रिजर्व बैंक के गर्वनर ने कह भी दिया कि बैंकिग सेक्टर की मजबूती के लिए आवश्यक हुआ तो जरूरी कदम उठाये जायेंगे। लेकिन क्या बैंकों में नगदी प्रवाह ही बढ़ाकर इस समस्या का निराकरण किया जा सकता है।
फिलहाल डहरूराम बीड़ी सुलगाते हुए सोच रहा है कि इस चक्करघिनी में गोल गोल घूमू या नहीं। और मनरेगा की मजदूरी करते अपने सपनों को भी बीड़ी के साथ सुलगते हुए कातर नजरों से देख रहा है।
चैतन्य नागर
इंसान और छाते में एक बड़ी समानता है। अगर बरसात न होती, तो न हम होते, और न ही छाता होता। दोनों का अस्तित्व बहुत करीब से बरसात के साथ, जल के साथ ही जुड़ा है। छाता प्रतीक है सुरक्षा का। बरसात से बचाने का भी काम करता है, और कहीं-कहीं धूप से भी। जब गर्मी सताती है तो हम बड़ी बेसब्री से बारिश का इंतज़ार करते हैं, लेकिन बारिश होते ही छाते का इन्तजाम भी उतनी ही बेचैनी के साथ किया जाता है। बरसात हो रही हो तो छाते की उपस्थति में आश्वासन और चैन का अहसास होता है। लम्बे से छाते की मूठ पकड़ कर चलने में किसी साथी का हाथ पकड़ कर चलने का भान होता है।
छाते का भी एक इतिहास है। प्राचीन मिस्र, ईरान, चीन और भारत में छातों का इस्तेमाल ख़ास तौर पर धूप से बचने के लिए होता था। वे काफी बड़े हुआ करते थे, और छाता लेकर कोई सेवादार चलता था। जिसके सर पर वह छाता तान कर चलता था, उसके लिए छाते और सेवक का होना गर्व का प्रतीक था। वह उसके सम्मान और ताकत का प्रतीक था। प्राचीन यूनान ने यूरोप में छाते का परिचय करवाया। यूरोप में वह पोप और चर्च के बड़े अधिकारियों के लिए सम्मान का प्रतीक था। 18वीं सदी आने तक यूरोप में छाता लेकर चलना एक सामान्य बात हो गयी। स्त्रियों की त्वचा को वह धूप से बचाता था; पुरुषों ने भी 19वीं सदी के आस पास-छाते का उपयोग शुरू कर दिया। उनके छाते अक्सर काले हुआ करते थे। बाद में उन्होंने भी स्त्रियों की तरह रंग-बिरंगे छातों का इस्तेमाल शुरू किया। लन्दन में सिर्फ छाते बेचने वाली दुकान जेम्स स्मिथ एंड संस 1830 में शुरू हुई और अभी तक वह कारोबार कर रही है। पिछले कुछ वर्षों में हॉलैंड की कंपनी सेंज ने एक ऐसा छाता बना डाला है जो 100 कि. करते हैं। इस साल बारिश तो समय से आ गयी है, पर सडक़ पर लोग कम दिख रहे हैं। अभी वे भयभीत और सशंकित हैं। खुले में, खुले दिल से दोस्तों के साथ बरसात का स्वागत नहीं कर पा रहे। नहीं तो हर साल बारिश में सडक़ें खुले हुए छातों से पट जाया करती हैं।
छाते भी बरसात की प्रतीक्षा में रहते हैं। बरसात से पहले और बाद में छाता किसी को याद नहीं आता। उसकी हालत गर्मी के दिनों के स्वेटर की तरह हो जाती है। और जैसे ही बारिश की बूँदें पड़ती हैं, तुरंत छाते का ख्याल आता है। छाते को लेकर हम कितने इस्तेमालवादी हैं! मी. तक की हवाओं को भी झेल जाता है। कम्पनी ने छातों के ऐसे मॉडल भी बनाये हैं जो साइकिल के साथ जोड़े जा सकते हैं, अपने आप ही खुल जाते हैं और बंद भी हो जाते हैं। छाते सदियों से लोकप्रिय हैं, एमेज़ॉन पर करीब 500 मॉडल्स देखे जा सकते हैं और चीन के एक शहर सोंक्जिया में 1000 कारखानों में सिर्फ छाते ही बनते हैं, एक साल में करीब 50 करोड़!
छाते को लादना कइयों के लिए एक बड़ी समस्या है। लोग आजकल अपने साथ बैग, पर्स, लैपटॉप भी रखते हैं, और ऐसे में छाता एक आवश्यक बुराई की तरह साथ लेना पड़ता है, खुद को बचाने के लिए और हाथों में टंगे, या पीठ पर लदे सामान की सुरक्षा के लिए भी। कइयों को छाते से बड़ी शिकायतें हैं। हल्की बूंदा-बांदी के लिए तो वह ठीक है, पर तेज बौछारों से बचाने के लिए काम नहीं आता। क्योंकि वे तो चारों और से भिगोतीं हैं। पहाड़ों की बारिश में भी छाता बड़ी ही मासूमियत के साथ अपने हाथ झाड़ लेता है। वहां तो चारों तरफ बादल ही होते हैं और आपको भिंगोते हुए चलते चले जाते हैं। अब कोई छाता पूरे शरीर की रक्षा के लिए तो बना ही नहीं कि आप पहाड़ों की बारिश से बच जाएँ। मैदानी इलाकों में आप छाता भर धूप और पानी से बच जाते हैं। उसकी मदद से आप बारिश में थोड़ी देर बाहर तो जा सकते हैं और कुछ बूंदें आपका स्पर्श भी कर लेती हैं। यह क्या एक आशीष की तरह नहीं कि बूँदें बादल से निकल कर धरती में समाने से पहले आपको भिगोतीं हैं, थोड़ी सी आप की थकान, मु_ी भर आपका दर्द और दु:ख भी धरती को सौंप देती हैं? कोई अहसान जताए बगैर ही।
छातों से कभी-कभी हादसे भी होते है, अक्सर आँखों को बचाना पड़ता है। अचानक कोई अपना छाता खोले और उसकी तीलियाँ आँखों में धंस न जाएँ, इसकी फिक्र बनी रहती है। कुछ कम्पनियाँ इस खतरे को ध्यान में रखकर नए छाते डिजाइन कर रही हैं, जिसकी तीलियाँ नुकीली न हों और ज्यादा चोट न पहुंचाएं। जापान में एक ऐसा छाता भी बनाया जा रहा है जिसके ऊपर की तरफ कोई अवरोध नहीं, बस उसकी नली से तेज़ी के साथ गर्म हवा निकलेगी और ऊपर से आने वाली बरसात की बूंदों को इधर-उधर बिखेर देगी। भले ही कई तरह के नए डिजाईन आ जाएँ पर लम्बी डंडी वाले और खूबसूरत मूठ वाले काले छाते का अपना ही रोमांस है। लोगों को उससे लगाव हो जाता है, वे उसके प्रेम में पड़ जाते हैं।
छाते के साथ एक बहुत बड़ी समस्या जुड़ी हुई है, और वह है विस्मृति की समस्या। छाता कहीं भी भूल जाना एक आम बीमारी है। कई लोग इस बीमारी से इतने दुखी हो जाते हैं कि वे छाता कहीं ले जाने से ज्यादा भींगना ही पसंद करते हैं। अंग्रेजी के लेखक रॉबर्ट लिंड का मशहूर लेख है विस्मृति के बारे में, जिसमे वह कहते हैं: ‘छाता कहीं खो न जाए, इस भय से मैं उसे कहीं ले ही नहीं जाता। गंभीर से गंभीर छाता-वाहक के नसीब में भी यह उपलब्धि नहीं होगी कि उसने कोई छाता न खोया हो!’ यह अनुभव वास्तव में सभी को हुआ होगा। मैंने तो इतने छाते खोये हैं कि ऐसी भी एक स्थिति आ गयी कि किसी बैठक में जाते ही मैं घोषणा कर देता था कि अपने छाते संभाल कर रखें, मुझे किसी का भी मिलेगा तो मैं लेता जाऊँगा। जिन्होंने मेरी इस स्पष्ट और मासूम घोषणा को गंभीरता से नहीं लिया, उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। एक और दिलचस्प बात है कि पुरुष छाते को भूलने के मामले में स्त्रियों से काफी आगे होते हैं। यह क्यों होता है यह अध्ययन का विषय हो सकता है। क्या ऐसा इसलिए है कि उन्हें अपनी त्वचा की ज्यादा फिक्र होती है, वे धूप और बरसात से खुद को बचाना चाहती हैं, क्योंकि भींगते हुए रास्ते पर चलना उनके लिए ज्यादा असुविधाजनक होता है।
इन दिनों तो ज्यादा एहतियात की जरूरत है। हल्का सर्दी -ज़ुकाम भी हो जाए, तो लोगों के मन में तमाम तरह की दुश्चिंताएं आने लगती हैं। वैसे एक पैकेट प्रभावी एंटी- बायोटिक्स की कीमत भी किसी छाते से कम नहीं होती। इसलिए बेहतर है कि बारिश तेज़ होने से पहले ही अपने पुराने छातों की बढिय़ा से मरम्मत करवा ली जाए और नए छातों को हिफाज़त के साथ रखा जाए। समय खऱाब है और सावधानी आवश्यक है। समय की यही मांग है कि या तो सडक़ों पर निकला ही न जाए, और मजबूरी हो भी कहीं जाने की तो पूरी सजगता बरती जाए। छाता साथ हो, और दूसरी वे चीज़ें भी जिनके बगैर घर से निकलने की मनाही है। पर उन सभी चीज़ों में छाता तो हमेशा ही खास सम्मान और स्नेह के लायक है। सर्वेश्वर जी ने छाते की अहमियत को खूब समझा था और इसीलिए इतनी प्यारी कविता छाते के लिए लिख छोड़ी है। विपदाएँ आते ही, खुलकर तन जाता है/ हटते ही/ चुपचाप सिमट ढीला होता है/ वर्षा से बचकर/ कोने में कहीं टिका दो/ प्यार एक छाता है/ आश्रय देता है गीला होता है।
जेके कर
छत्तीसगढ़ में बिस्तरों की और कमी होगी
जिस तरह से छत्तीसगढ़ में रोज-रोज कोरोना के मरीज बढ़ रहें हैं उससे स्थिति बदतर होती जायेगी। इसे रोज ठीक होने वाले तथा नये मरीजों की संख्या के आधार पर समझा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ में 24 जुलाई को 338 नये मरीज मिले जबकि 180 मरीज ठीक हुए। इस तरह से अस्पताल में 158 नये बिस्तरों की आवश्यकता होगी। 26 जुलाई को 305 नये मरीज मिले जबकि 261 मरीज ठीक हुए। इसके अनुसार अस्पताल में 44 बिस्तरों की और आवश्यकता होगी। 24 और 26 जुलाई के आंकड़ों के आधार पर ही 202 बिस्तरों की आवश्यकता होगी।
दुनियाभर तथा देश के साथ छत्तीसगढ़ में भी कोरोना संक्रमण अपना विकराल रूप धारण कर रहा है। रोज संक्रमितों की संख्या बढ़ती जा रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसा कौन सा कारण है कि चंद्रमा और मंगलग्रह पर उपग्रह भेजने वाला मानव समाज कोरोना संक्रमण तथा उससे हो रही मौतों के सामने बेबस नजर आ रहा है। इसकी विवेचना करने के लिए हम तीन प्रस्थान बिन्दु तय कर सकते हैं। जिनके गहराई में जाकर स्थिति को समझने का प्रयास किया जा सकता है। उसके बाद फौरी तौर पर क्या हल निकाला जा सकता है उस पर भी सोचा जा सकता है।
पहली बात यह है कि कोरोना वाइरस से लडऩे के लिये अब तक न ही किसी सटीक दवा का ईजाद किया जा सका है और न ही कोई वैक्सीन अब तक बन पाई है। जो कुछ भी इलाज हो रहा है वह लक्षणों के आधार पर ही किया जा रहा है तथा जीवनरक्षक उपकरणों की मदद से मरीजों की जान बचाई जा रही है। दूसरा, पिछले कई दशकों से देश-दुनिया में गैर-संक्रमण से होने वाली बीमारियां कई गुना बढ़ी है जिस कारण से वैज्ञानिक-चिकित्सक तथा हेल्थ इन्फ्रास्ट्रकचर जीवन शैली के कारण होने वाली बीमारियों से जूझने में लगे हुए हैं। अब, अचानक कोरोना जैसे संक्रमण के महामारी बनने के कारण उससे लडऩे के लिये स्वास्थ्य व्यवस्था नाकाफी साबित हो रही है। तीसरा, केन्द्र तथा राज्य सरकारों ने कोरोना से लडऩे की जिम्मेदारी खुद ही उठा रखी है जिस कारण से सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर बोझ बढ़ गया है। हालांकि, बाद में कुछ हद तक निजी अस्पतालों को भी अधिकृत किया गया है लेकिन उससे इस विकराल समस्या का हल नहीं निकल सकता है।
एक बात को हम शुरू में ही साफ कर देना चाहते हैं कि हम जिस कल्याणकारी-राज्य की वकालत करते हैं उसमें स्वास्थ्य की जिम्मेदारी सरकार पर है तथा वह इसे मुफ्त में उपलब्ध कराये। लेकिन मौजूदा हालात में जब सरकारों ने स्वंय ही निजी स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ावा दिया है तथा उन्हें फलने-फूलने दिया है इस कारण से उनके वजूद को नकारा नहीं जा सकता। ऐसे समय में यदि कहा जाये कि कोरोना से लडऩे की जिम्मेदारी केवल केन्द्र तथा राज्य सरकारों की है तो यह जमीनी हालत को नकारने वाली अराजकतावादी सोच ही होगी। फौरी तौर पर कोरोना संकट से लडऩे निजी स्वास्थ्य क्षेत्र के चिकित्सकों, स्वास्थ्य कर्मियों तथा अधोसंरचना का उपयोग किया जाना चाहिये।
अब हम कुछ आंकड़ों तथा तथ्यों पर गौर फर्माते हैं। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट "ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड: ॥द्गड्डद्यह्लद्ध शद्घ ह्लद्धद्ग हृड्डह्लद्बशठ्ठ’ह्य स्ह्लड्डह्लद्गह्य" के अनुसार गैर-संक्रमण से होने वाली बीमारियां जहां साल 1990 में 30 प्रतिशत थी वह साल 2016 में बढक़र 55 प्रतिशत हो गई। इसी तरह से साल 1990 में गैर-संक्रमण से होने वाली बीमारियों से 37 प्रतिशत मृत्यु हुई थी वह 2016 में बढक़र 61 प्रतिशत हो गई हैं। इससे यह साबित होता है कि हमारे देश में बीमारियों से जो मौतें हुई उनमें 61 प्रतिशत उच्च रक्तचाप, डाईबिटीज, दमा, कैंसर, किडनी तथा श्वशन रोगों के कारण हुई है। इस कारण से पूरा जोर इन्हीं बीमारियों से लडऩे के लिए रहा है। दूसरी तरफ संक्रामक तथा उससे जुड़े रोग 1990 में 61 प्रतिशत थे जो 2016 में गिरकर 33 प्रतिशत के हो गए।
यदि छत्तीसगढ़ से जुड़े आंकड़ों की बात करें तो संक्रामक तथा उससे जुड़े रोगों की हिस्सेदारी 37.7 प्रतिशत, गैर-संक्रमण से फैलने वाले रोग 50.4 प्रतिशत तथा चोट व दुर्घटना के कारण हिस्सेदारी 11.9 प्रतिशत की रही है।
ऐसे में अप्रत्याशित रूप से कोरोना वाइरस जब महामारी का रूप ले लेता है तो संपूर्ण स्वास्थ्य सेवायें उससे जूझने के लिए अपने-आप को असमर्थ पाती हैं। इस कारण से चिकित्सक, पैरा-मेडिक स्टाफ, मास्क, सैनिटाइजऱ, पीपीई किट, अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या, ऑक्सीजन एवं वेंटिलेटर कम पड़े हैं अन्यथा अस्पतालों में कभी इनकी कमी महसूस नहीं की गई थी।
अब हम दूसरे (तीसरे) मुख्य मुद्दे पर आते हैं। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि बीमार पडऩे पर कितने फीसदी लोग सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की शरण में जाते हैं तथा कितने निजी क्षेत्र के चिकित्सकों तथा संस्थानों के पास जाते हैं। देशभर के आंकड़े थोड़े अलग-अलग है। यहां पर हम सरलता से समझने के लिए छत्तीसगढ़ का उदाहरण लेते हैं।
साल 2015-16 में जो नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे किया गया था उससे यह बात उभरकर सामने आई कि छत्तीसगढ़ में भी बड़ी संख्या में लोग बीमार पडऩे पर निजी चिकित्सा सेवाओं का लाभ उठाते हैं। जहां तक सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की बात है तो 50.5 प्रतिशत लोग यहां जाते हैं शहरी क्षेत्र के 37.6 प्रतिशत तथा ग्रामीण क्षेत्र के 54.65 प्रतिशत। वहीं बीमार पडऩे पर शहरों के 59.7 प्रतिशत तथा गांवों के 33,3 प्रतिशत, कुलमिलाकर 39.6 प्रतिशत लोग निजी क्षेत्र के स्वास्थ्य संस्थानों में जाते हैं। कई ऐसे भी लोग हैं जो सीधे दवा दुकानों से दवा खरीद कर खाते हैं। इनमें शहरों के 2 प्रतिशत तथा गांवों के 11.6 प्रतिशथ, कुल मिलाकर 9.3 प्रतिशत लोग शामिल हैं।
अब आपकों समझ में आ रहा होगा कि कोरोना वाइरस से संक्रमित होने पर क्यों हाहाकार मचा हुआ है। इसका कारण है कि जो लोग पहले निजी क्षेत्र में जाते थे वे भी सरकारी क्षेत्र में जाने के लिये मजबूर हो गए हैं तथा इस अतिरिक्त दबाव के कारण सरकारी स्वास्थ्य संस्थान नाकाफी साबित हो रहें हैं तथा लोगों को त्वरित चिकित्सा नहीं मिल पा रही है। कोरोना वाइरस से संक्रमण हुआ है कि नहीं उसकी जानकारी आने में ही दो-तीन दिन लग जा रहें हैं। उसके बाद कोरोना के लिये जिन सरकारी अस्पतालों को अधिकृत किया गया है वहां बिस्तर कम पड़ रहें हैं।
समाचार-पत्रों के हवाले से खबर है कि छत्तीसगढ़ में तीन निजी क्षेत्र के चिकित्सा संस्थानों को कोरोना के इलाज के लिए अधिकृत किया गया है। इनमें बिलासपुर के एक निजी क्षेत्र के कॉर्पोरेट अस्पताल का भी नाम है।
जब इन पक्तियों के लेखक ने इस अस्पताल से फेसबुक मैसेंजर के तहत जानकारी मांगी तो जवाब दिया गया कि कोविड-19 के इलाज के लिए मात्र 4 बिस्तर ही उपलब्ध हैं। जाहिर है कि निजी क्षेत्र की सुविधाओं का पूरा लाभ नहीं उठाया जा रहा है।
जरूरत इस बात की है कि छत्तीसगढ़ के कई शहरों के निजी-पैथोलैब को कोविड-19 की जांच के लिये अधिकृत किया जाये। हां, महाराष्ट्र सरकार के समान कोविड-19 टेस्ट के दाम जरूर तय कर दिये जाये। इसी तरह से निजी क्षेत्र के चिकित्सकों तथा संस्थानों को भी कोविड-19 के ईलाज़ के लिये अधिकृत किया जाये क्योंकि इसके करीब 85 प्रतिशत मरीजों को अस्पतालों में भर्ती करने की जरूरत नहीं पड़ती है। इससे सरकारी अस्पतालों पर पडऩे वाला बोझ कम होगा। हां, निजी चिकित्सक भी ढ्ढष्टरूक्र के दिशा-निर्देशों के अनुसार तथा सरकार द्वारा तय किये गये फीस के अनुसार ईलाज करेंगे।
केवल स्वास्थ्य सेवाओं पर एस्मा लगाना काफी नहीं है। जरूरत है दबाव न बनाकर निजी क्षेत्र के चिकित्सकों एवं संस्थानों को सरकार द्वारा पीपीई किट तथा दवा उपलब्ध करा के ईलाज़ करने के लिये माहौल बनाया जाए। जब तक कोरोना वाइरस की कोई दवा या वैक्सीन न बन जाए तब तक सरकारी तथा निजी क्षेत्र के चिकित्सकों तथा संस्थानों की मदद से मरीजों की मदद की जाए। हां, इस बात का ख्याल जरूर रखा जाये निजी एवं सरकारी क्षेत्र के सभी चिकित्सकों एवं संस्थानों से कोविड-19 का इलाज न कराया जाए। ज्यादातर को इससे मुक्त रखा जाए ताकि गैर-संक्रामक एवं जीवन-शैली के कारण होने वाले रोगों का इलाज बिना किसी बाधा के चलता रहे।
प्रकाश दुबे
आंध्र प्रदेश का पत्रकारिता में ज़माने से परचम लहरा रहा है। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का लेख उनके अखबार में छापने से मना करने वाले संपादक चलपति राव तेलुगुभाषी थे। स्वतंत्रता संग्रामी तेलुगुभाषी पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी को आंध्र प्रदेश अनूठा सम्मान बख्श रहा है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने दर्जन भर से अधिक सलाहकार नियुक्त किए हैं। ज्यादातर सलाहकार पत्रकार हैं। साक्षी अखबार या चैनल में नौकरी करते हैं, करते थे या लिखते-बोलते थे। देवनागरी वर्ण माला में अग्रणी आ यानी आंध्र प्रदेश की लीक पर कई राज्य चले। आंध्र प्रदेश के कीर्तिमानों की बराबरी करना आसान नहीं है। देश के 13 पत्रकारों की मौत का कारण कोरोना रहा। एक तिहाई से अधिक-पांच आंध्र प्रदेश के हैं। बालाजी के शहर तिरुपति के पत्रकार को भी कोरोना ने अपना निवाला बनाया। कडप्पा जिले में तीन पत्रकारों की जान गई। मुख्यमंत्री जगन्मोहन के पिता डा एस वाय राजशेखर रेड्?डी ने तेलुगु दैनिक साक्षी शुरु किया था। कड़प्पा पिता-पुत्र का घर। चुनावक्षेत्र। राजशेखर ने सोनिया गांधी को पहला लोकसभा चुनाव कड़प्पा से लडऩे के लिए आमंत्रित किया था। हालां कि सलाहकारों ने अकस्मात कर्नाटक के बलारी का चयन किया। उस समय बेल्लारी कहलाता था।
अंधेर का विक्रम
कोरोना संकट से जूझ रहे देश की बड़ी कंपनियों से प्रधानमंत्री ने कर्मचारियों के हित का ध्यान रखने का आग्रह किया था। सरकारों ने अनदेखी की। ऐसे में निजी संस्थानों से उम्मीद लगाना बेकार है। इंडियन न्यूजपेपर्स सोसायटी समेत समाचारों के संगठनों ने तो उल्टे राज्यों और केन्द्र सरकार से शिकायत की- विज्ञापन कम मिल रहे हैं। जो मिले उनका भुगतान बाकी है। वेतन बोर्ड के समक्ष पत्रकारों का मज़बूती से पक्ष तैयार करने वाले मनोहर अंधारे जीवन के नवें दशक के पास पहुंच चुके हैं। उनके दिवंगत सहयोगी प्रकाश देशपांडे की याद में सर्वोत्कृष्ट संगठक पुरस्कार दिया जाता है। अंधारे ने सैकड़ों किलोमीटर दूर से देशपांडे को याद किया। यह बात और है कि अब कोई वेतन बोर्ड की बात नहीं करता। नए वेतन बोर्ड की मांग मांग? मज़ाक मत करिए। कटौती और नौकरी से विदाई का संकट है। अंधारे और प्रकाश जिस संगठन के लिए काम करते थे, उसकी आजीवन मालिकी कब्जिया चुके लोग इन दिनों क्या कर रहे हैं? स्वायत्त समाचार संगठनों का विध्वंस करने के लिए उकसा रहे हैं। मनोहारी दृश्य है।
कोरोना-काल में संवाद
किसी पंचायत से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर के वेबिनार या ई संगोष्ठी में सबसे अधिक दिखने वाला चेहरा सुरेश प्रभू का है। प्रभू जी-20 आदि के लिए प्रधानमंत्री के शेरपा हैं। यह आप जानते हैं। प्रभु को पीछे छोडऩे वाले हैं-नितीन गडकरी। पांच करोड़ से अधिक लोगों से संवाद करने का कीर्तिमान सडक़ छाप और सूक्ष्म कारोबारी के नाम है। सडक़ और छोटे उद्योग उनके मंत्रालय हैं। गडकरी ने हाल में अमेरिकी व्यवसाय से जुड़े समुदाय से बात की। सरकारी संवाद माध्यमों ने पर्याप्त महत्व नहीं दिया। गडकरी का नाम लेने से शिखर की चमक दमक फीकी नहीं पडऩी चाहिए। संवाद माध्यमों में ई संगोष्ठी का सेहरा के जी सुरेश के सिर पर कायम है। पत्रकारिता से जुड़े विषयों पर विचारों का आदान प्रदान करने में वे अग्रणी हैं। सक्रिय पत्रकारिता के बाद सुरेश भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक बने। उनकी रचनात्मकता शायद नौकरशाहों को अखरी। पत्रकारिता प्रशिक्षण से नौकरशाह उन्हें नहीं रोक पाए।
संपादकी से सामना
पत्रकारों की अंतरराष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल फेडरेशन आफ जर्नलिस्ट्स ने 19 से 30 जून के बीच सर्वेक्षण कराया। भारत सहित 52 देशों की महिला पत्रकारों का हाल जाना। तीन चौथाई महिला पत्रकारों ने स्वीकार किया कि कोरोना-काल में तनाव बढ़ा। आधी से अधिक महिलाओं को महामारी के दौरान कई मोर्चों पर जूझना पड़ा। सेहत संबंधी परेशानी झेलने वाली महिलाओं में से 75 प्रतिशत की समस्या नींद से जुड़ी थी। साठ प्रतिशत को संस्थानों ने मर्जी के मुताबिक काम करने की छूट दी। 30 फीसदी घर से काम कर रही थीं। 15 प्रतिशत इस दौरान भी मैदानी दायित्व निभाती रहीं। रपट में कष्ट जाने। अब भारतीय महिलाओं से संबंधित खुश खबरी पर ध्यान दें। राजनीतिक दायित्व संभालने वाले नेता ने संपादकी त्याग कर प्रेमिका को संपादक नियुक्त किया। नेता के चरित्र पर शक मत करना। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की पत्नी रश्मि कोरोना-काल में सामना की संपादक बनीं। मराठी और हिंदी में निकलने वाला सामना शिवसेना का मुखपत्र है। मुख्यमंत्री यानी पूर्व संपादक का जन्मदिन पर इंटरव्यू कार्यकारी संपादक संजय राऊत ने किया। वर्तमान संपादक ने चाय पिलाई। एक और खबर। अंगरेजी के दि हिंदू की संपादक रह चुकीं मालिनी पार्थसारथी समूह की नई अध्यक्ष होंगी।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दक्षिण एशिया में आतंकी गतिविधियों पर संयुक्तराष्ट्र संघ की जो 26 वीं रपट आई है, उस पर सबसे ज्यादा ध्यान पाकिस्तान की इमरान सरकार का जाना चाहिए, क्योंकि इस रपट से पता चलता है कि दुनिया में आतंकवाद का कोई गढ़ है तो वह पाकिस्तान ही है। पाकिस्तान में अल-कायदा और ‘इस्लामिक स्टेट’ के दफ्तर हैं। पाकिस्तानी तालिबान आंदेालन भी वहीं से चलता है।
पाकिस्तान में जन्मा और पनपा यह आतंकवाद अफगानिस्तान और हिंदुस्तान को तबाह करने पर उतारु है। संयुक्तराष्ट्र की रपट के मुताबिक कम से कम 200 आतंकवादी ऐसे हैं, जो भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार में हमले की तैयारी कर रहे हैं। आईएसआईएस के ज्यादातर आतंकवादियों ने केरल और कर्नाटक को अपना ठिकाना बना रखा है। ‘विलायते-हिंद’ के नाम से जो नया संगठन पिछले साल बना है, उसका खास निशाना भारत ही है। भारत में भी वह कश्मीर पर ही सबसे ज्यादा अपना जोर आजमाएगा।
2015 में खुरासान के नाम से जो गिरोह खड़ा किया गया था, उसका लक्ष्य भी कश्मीर ही था। अफगानिस्तान में इस समय लगभग 6000 आतंकवादी सक्रिय हैं। अफगानिस्तान के आधे से ज्यादा जिलों पर उनका कब्जा या असर है। वे अपने आप को तहरीके-तालिबान पाकिस्तान कहते हैं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने तो यहां तक कहा था कि आतंकियों से खुद पाकिस्तान बहुत त्रस्त है। उनके मुताबिक पाकिस्तान में 40 हजार से ज्यादा आतंकवादी सक्रिय हैं।
पाकिस्तान की जनता द्वारा चुनी हुई सरकारें खुद इन आतंकियों का विरोध करती हैं, खास तौर से कुछ साल पहले पेशावार में एक सैनिक स्कूल पर हुए हमले के बाद, जिसमें फौजियों के करीब डेढ़ सौ बच्चे मारे गए थे। लेकिन पाकिस्तान की दिक्कत यह है कि उस राष्ट्र की अफगान-नीति और हिंदुस्तान-नीति वहां की फौज बनाती है। यदि पाकिस्तान की फौज अपना हाथ खींच ले तो दक्षिण एशिया के सारे आतंकवादी ढेर हो जाएंगे। इस फौज को कौन समझाए कि आतंकवाद से जितना नुकसान भारत और अफगानिस्तान को होता है, उससे कहीं ज्यादा पाकिस्तान को ही होता है। भारत इतना शक्तिशाली देश है कि तलवार के जोर पर पाकिस्तान उससे हजार साल तक लडक़र भी कश्मीर नहीं ले सकता।
हां, बातचीत से हल जरुर निकल सकता है। जहां तक अफगानिस्तान का सवाल है, पाकिस्तान के कई प्रधानमंत्रियों को मैं यह अच्छी तरह बता चुका हूं कि अफगान तालिबान गिलजई कबीले के हैं। गिलजई पठानों की रगों में आजादी दौड़ती है। वे सत्तारुढ़ हो गए तो वे पाकिस्तान के ‘पंजाबी मुसलमानों’ को ठिकाने लगाने में देर नहीं करेंगे। पाकिस्तान का भला इसी में है कि वह आतंकवाद को बिल्कुल भी सहारा न दे और काबुल और कश्मीर की उलझनों को लोकतांत्रिक तरीकों से हल करे।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-ललित मौर्य
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यदि अगले 10 वर्षों में 19,90,757 करोड़ रुपए (26,600 करोड़ डॉलर) का निवेश वन्यजीवों और जंगलों की रक्षा के लिए किया जाए तो इससे भविष्य में कोरोनावायरस जैसी महामारियों से बचा जा सकता है। इसे कोविड-19 से हुए नुकसान के मुकाबले देखें तो यह केवल उसके 2 फीसदी के ही बराबर है। अनुमान है कि कोरोनावायरस के कारण अब तक 8,60,66,575 करोड़ रुपए (11,50,000) करोड़ डॉलर का नुकसान हो चुका है जिसमें आर्थिक और जीवन क्षति दोनों को शामिल किया गया है। यह जानकारी प्रिंसटन यूनिवर्सिटी द्वारा किये एक शोध में सामने आई है जो अंतराष्ट्रीय जर्नल साइंस में प्रकाशित हुआ है।
वहीं इस शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता और प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर एंड्रयू डॉब्सन के अनुसार “यदि भविष्य में इस तरह की महामारियों से बचने की वार्षिक लागत को देखें, तो वह दुनिया के 10 सबसे अमीर देशों द्वारा सेना पर खर्च की जा रही धनराशि के केवल 1 से 2 फीसदी के बराबर है। ऐसे में यदि हम कोरोना महामारी को यदि एक युद्ध की तरह देखें तो यह निवेश बहुत साधारण है।”
हर साल औसतन 2 वायरस करते हैं इंसानों पर हमला
यदि पिछले 100 वर्षों में देखें तो हर साल करीब 2 वायरस अपने प्राकृतिक आवास से निकलकर इंसानों में फैले हैं। लेकिन जिस तेजी से आज प्रकृति का विनाश हो रहा है, उनके और ज्यादा तेजी से इंसानों में फैलने का खतरा बढ़ता जा रहा है। इंसान अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए तेजी से जंगलों को नष्ट कर रहा है, जानवरों को मार रहा है या फिर अपना पालतू बना रहा है। इनका व्यापर तेजी से सारी दुनिया में फैलता जा रहा है। ऐसे में इंसानों के इनके संपर्क में आने का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। हम खुद इन वायरसों को फैलने का मौका दे रहे हैं।
शोधकर्ताओं के अनुसार यदि पिछले 50 वर्षों में देखें तो 4 प्रमुख जूनोटिक डिजीज ने इंसानों को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है जो कोविड-19, इबोला, सार्स और एड्स हैं। इनमें से दो महामारियां तो जंगलों के विनाश और वन्यजीवों के व्यापार के कारण ही इंसानों में फैली हैं। यदि चमगादड़ों को देखें तो इनसे कोविड-19, सार्स और इबोला जैसे अनेकों वायरस होते हैं। लेकिन अंधेरे जंगलों में रहने वाले यह चमगादड़ आमतौर पर महामारी नहीं फैलाते पर जब इनके आवासों को नष्ट किया गया या इनको प्रभावित किया गया तभी इनसे वो वायरस इंसानों में फैले हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार अब तक जो भी साक्ष्य मिले हैं उनके अनुसार कोविड-19 महामारी के फैलने में चीन की फ़ूड मार्किट का बहुत बड़ा हाथ है क्योंकि यह वायरस भोजन के लिए व्यापार किये जाने वाले चमगादड़ की प्रजाति से ही फैला है। दुनियाभर में जंगली जीवों को भोजन से लेकर कई चीजों के लिए क़ानूनी और गैरक़ानूनी तरीके से ख़रीदा और बेचा जाता रहा है। इन वन्यजीवों को जिन परिस्थितियों में रखा जाता है वो कहीं से भी सुरक्षित नहीं होती है। ऊपर से न ही वहां नियमों का कोई ध्यान रखा जाता है और न ही साफ सफाई का, ऐसे में वायरस के फैलने का खतरा हमेशा बना रहता है।
बीमारियों की निगरानी और रोकथाम के लिए पड़ेगी हर वर्ष 1,856 करोड़ रुपए की जरूरत
चीन में यदि वन्यजीवों के व्यापार को देखें तो यह करीब 149,681करोड़ रुपए (2,000 करोड़ डॉलर) का व्यापार है| यह करीब 1.5 करोड़ लोगों को रोजगार देती है| शोधकर्ताओं के अनुसार चीन में वन्यजीवों के मांस व्यापार को रोकने के लिए हर वर्ष करीब 145,190 करोड़ रुपए (1940 करोड़ डॉलर) की जरूरत पड़ेगी।
शोधकर्ताओं का मानना है कि अवैध तरीके से किए जा रहे वन्यजीवों के व्यापार पर निगरानी रखना जरूरी है। साथ ही इसके लिए कड़े नियम भी जरूरी हैं| अनुमान है कि इस पर हर वर्ष करीब 3,742 करोड़ रुपए (50 करोड़ डॉलर) का खर्च आएगा जो कोविड-19 की तुलना में बहुत कम है। इनसे फैलने वाली बीमारियों की निगरानी और रोकथाम के लिए करीब 1,856 करोड़ रुपए (24.8 करोड़ डॉलर) की जरूरत है।
पिछले कुछ वर्षों में मवेशियों से भी कई वायरस जैसे एच5एन1, एच1एन1, निपाह वायरस और स्वाइन फ्लू इंसानों में फैले हैं, इसलिए इन पर भी ध्यान देना जरूरी है। शोध के अनुसार, इसके लिए हर वर्ष 4,969.4 करोड़ रुपए (66.4 करोड़ डॉलर) की जरूरत पड़ेगी| जंगलों के विनाश के कारण इंसानों तक फैलने वाली इन महामारियों की रोकथाम के लिए जंगलों को भी बचाना जरुरी है। शोध के अनुसार इसके लिए हर वर्ष करीब 41,910.7 करोड़ रुपए (560 करोड़ डॉलर) की जरूरत होगी जिससे 40 फीसदी प्रमुख स्थानों पर जंगलों के विनाश को रोका जा सके।
वन्यजीवों और जंगलों को बचाने पर किया निवेश न केवल हमें इन महामारियों के खतरे से सुरक्षित रखेगा, बल्कि इसके साथ ही इससे पर्यावरण पर बढ़ते दबाव, प्रदूषण को कम करने और जलवायु परिवर्तन के खतरे को सीमित करने में भी मदद मिलेगी। जंगल हमारी धरती के फेफड़े हैं, यदि यह सुरक्षित रहते हैं तो हमारा वातावरण भी सुरक्षित रहेगा। (downtoearth)


