विचार/लेख
जब आप सपने देखते हैं, तब क्या आपको पता होता है कि आप सपना देख रहे हैं? अमेरिकी वैज्ञानिकों ने एक ऐप बनाया है, जिसके जरिए सपनों में जागरूक हुआ जा सकता है.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमारका लिखा-
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लूसिड ड्रीमिंग यानी सपने में यह जानना कि आप सपना देख रहे हैं। दशकों से यह विज्ञान और सपनों के शौकीनों के लिए दिलचस्पी का विषय रहा है। अब एक नए मोबाइल ऐप ने इसे आम लोगों के लिए आसान बना दिया है। यह ऐप लूसिड ड्रीमिंग की संभावना बढ़ाने के लिए खास तकनीक का इस्तेमाल करता है। इससे सपने देखने और चेतना की वैज्ञानिक रिसर्च में बड़ा बदलाव आ सकता है।
लूसिड ड्रीमिंग रेपिड आई मूवमेंट स्लीप (आरईएम) के दौरान होता है। यह वह नींद का चरण है जब हमारे सपने सबसे ज्यादा जीवंत होते हैं और दिमाग सक्रिय रहता है। कुछ लोग इस दौरान समझ पाते हैं कि वे सपना देख रहे हैं और कभी-कभी अपने सपने पर काबू भी कर सकते हैं।
पहले, इरादा करना और गैलेंटामाइन जैसे सप्लीमेंट्स से लूसिड ड्रीमिंग को बढ़ाने की कोशिश की गई। लेकिन ये तरीके मेहनत और तैयारी मांगते थे और हर बार सफल भी नहीं होते थे। इसके अलावा, प्रयोगशाला के माहौल में साउंड और लाइट क्यूज का इस्तेमाल किया जाता था, जो हर किसी के लिए व्यावहारिक नहीं था।
ऐप कैसे काम करता है?
अमेरिका के इलिनोय में इवानस्टोन की नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के न्यूरोसाइंटिस्टों की नई स्टडी ने यह पहली बार साबित किया है कि ‘टार्गेटेड लूसिडिटी रिएक्टिवेशन’ (टीएलआर) नाम की एक तकनीक बेहद कम तकनीकी संसाधनों के साथ भी सफल हो सकती है।
टीएलआर पद्धति को नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के केन पॉलर की स्लीप लैब में पहले इस्तेमाल किया गया था। अब इस पद्धति को एक स्मार्टफोन ऐप के जरिए टेस्ट किया गया, जो सेंसरी स्टिमुलेशन को जागरूक सपनों या लूसिड ड्रीमिंग के साथ जोड़ता है।
इस रिसर्च ने यह साबित किया कि टीएलआर पद्धति काम करती है। जिन लोगों ने इस ऐप का इस्तेमाल किया, उन्होंने औसतन 2.11 जागरूक सपने हर हफ्ते देखे। यह आंकड़ा पहले हफ्ते के औसत 0.74 सपनों से काफी ज्यादा था।
नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी की पोस्ट-डॉक्टोरल साइकोलॉजी फेलो, कैरेन कॉन्कोली ने एक बयान में बताया, ‘यह एक बड़ा बदलाव है, क्योंकि ज्यादातर लोगों के लिए एक हफ्ते में सिर्फ एक जागरूक सपना देखना भी बड़ी बात होती है।’
कैरेन ने कहा, ‘हमारा लक्ष्य यह जानना था कि सिर्फ एक स्मार्टफोन से कितने जागरूक सपने देखे जा सकते हैं। साथ ही, हम यह देखना चाहते थे कि यह पद्धति कितनी आसान और सुलभ है।’
रात में देर तक जागने वालों का दिमाग होता है ज्यादा तेज
ऐप ध्वनि के संकेतों का इस्तेमाल करता है। सोने से पहले, यूजर ऐप पर कुछ खास आवाजें (जैसे बीप्स) सुनते हैं और माइंडफुलनेस का अभ्यास करते हैं। फिर, लगभग छह घंटे बाद जब आरईएम स्लीप की संभावना ज्यादा होती है, ऐप वही आवाजें करता है। यह दिमाग को सपने के दौरान खुद को पहचानने में मदद करता है।
एक हफ्ते के प्रयोग में, 19 लोगों ने इस ऐप का इस्तेमाल किया। उनके लूसिड ड्रीम्स 0.74 प्रति हफ्ते से बढक़र 2.11 प्रति हफ्ते हो गए। उसके बाद 112 लोगों पर हुए परीक्षण में भी ऐप ने अच्छे नतीजे दिए।
ऐप की खासियत
यह ऐप लूसिड ड्रीमिंग के पारंपरिक तरीकों को सरल और ऑटोमैटिक बनाता है। पहले जो चीजें सिर्फ लैब में संभव थीं, अब वह एक मोबाइल ऐप के जरिए आम लोगों के लिए भी मुमकिन हो गई हैं।
लूसिड ड्रीमिंग से लोग अपने सपनों को बेहतर समझ सकते हैं और काबू कर सकते हैं। यह रचनात्मकता और समस्या सुलझाने की क्षमता को बढ़ा सकता है।
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यह ऐप पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसॉर्डर के मरीजों को बुरे सपनों से राहत दिलाने में मदद कर सकती है। मरीज अपने सपनों की पहचान कर उन्हें बदल सकते हैं।
यह ऐप बड़ी संख्या में लूसिड ड्रीमर्स से डेटा इक_ा करने में मदद कर सकता है। इससे चेतना और दिमाग के काम करने के तरीके को समझा जा सकता है।
चुनौतियां भी हैं
लूसिड ड्रीमिंग हर किसी के लिए आसान नहीं है। इसे करते वक्त नींद और जागने के बीच संतुलन बनाए रखना मुश्किल हो सकता है। साथ ही, ऐप का असर हर किसी पर एक जैसा नहीं होता।
नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के रिसर्चर कहते हैं कि ऐप के साथ कुछ पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल भी किया जा सकता है। जैसे दिनभर में खुद से पूछें, ‘क्या मैं सपना देख रहा हूं?’ या फिर, अपने सपनों को लिखें। इससे सपनों की पहचान करना आसान होगा। जल्दी उठकर थोड़ी देर बाद वापस सोने से लूसिड ड्रीमिंग की संभावना बढ़ती है। सोने से पहले खुद से कहें कि आपको सपना पहचानना है।
यह ऐप लूसिड ड्रीमिंग को आम लोगों के लिए सुलभ बना रहा है। चाहे मनोरंजन हो, थेरेपी हो या रिसर्च, यह तकनीक सपनों की दुनिया को बेहतर तरीके से समझने और उसे प्रभावित करने की दिशा में बड़ा कदम हो सकती है। (dw.comhi)
-एंजेल बरमूडेज
डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति पद की शपथ ले चुके हैं। उन्होंने बड़े बदलावों के एजेंडा के साथ व्हाइट हाउस में वापसी की है।
पिछले साल पांच नवंबर 2023 को ट्रंप ने अपने पहले राष्ट्रपति चुनावी भाषण में कहा था, ‘मैं इस सिद्धांत (मोटो) के तहत शासन करूंगा कि वादे किए गए और वादे निभाए गए।’ उसी रात डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था कि वह अमेरिका को दुनिया का सबसे महान देश बनाएंगे।
उनके प्रस्तावों या वादों में देश की सीमाओं को सील करने के लिए मेक्सिको के साथ सीमा पर दीवार का निर्माण जारी रखना और बिना दस्तावेज़ वाले लाखों विदेशियों को देश से बाहर निकालना है। इसके बारे में उनका दावा है कि यह अमेरिकी इतिहास का सबसे बड़ा ‘देश निकाला’ होगा।
उन्होंने सरकार की नौकरशाही यानी लालफ़ीताशाही को कम करने, टैक्स घटाने और विदेशी आयातों पर 10 से 20 फ़ीसदी तक का टैक्स लगाने का वादा भी किया है। यह टैक्स चीन के साथ आयात के मामले में 60 फीसदी तक पहुंच जाएगा। अपने इन वादों को पूरा करने के लिए ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी पर भरोसा कर रहे हैं, जो कि उनके समर्थन में एकजुट है।
पार्टी के पास संसद के दोनों सदनों प्रतिनिधि सभा (निचला सदन) और सीनेट (उच्च सदन) दोनों में बहुमत है। इसे अमेरिका में ‘ट्राईफ़ैक्टा’ या एकजुट सरकार कहते हैं।
अमेरिकी व्यवस्था में ‘ट्राईफैक्टा’ या एकजुट सरकार वह स्थिति है जब सत्ताधारी पार्टी का प्रतिनिधि सभा और सीनेट दोनों में ही बहुमत हो।
क्या कहते हैं एक्सपर्ट
प्रोफेसर मार्क पीटरसन बीबीसी मुंडों से कहते हैं, ‘एकजुट सरकार होने का मतलब है कि व्यवस्था एकसदनीय संसदीय प्रणाली की तरह काम करना शुरू कर देती है।’
‘जहां सरकार और संसद दोनों पर ही बहुमत हासिल करने वाली पार्टी का नियंत्रण होता है। यह एकजुट सरकार के तौर पर काम करता है और व्यवहारिक तौर पर जो चाहे कर सकता है।’
प्रोफेसर मार्क पीटरसन कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय लॉस एंजिल्स (यूसीएलए) में पब्लिक पॉलिसी, राजनीतिक विज्ञान और कानून के प्रोफेसर हैं।
इसके अलावा अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट देश की तीसरी स्वतंत्र इकाई है। इसमें भी मौजूदा समय में छह कंजर्वेटिव जज हैं। जिनमें से तीन को डोनाल्ड ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में नियुक्त किया था।
वहीं सुप्रीम कोर्ट में तीन लिबरल जज हैं। इसका मतलब यह है कि सरकार के फैसलों को असानी से सुप्रीम कोर्ट से हरी झंडी मिल सकती है।
तो क्या इसका मतलब यह है कि डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका में बिना किसी चेक-बैलेंस यानी बेलगाम होकर अपनी सरकार चलाएंगे?
ऐसा नहीं है। क्योंकि अमेरिकी व्यवस्था के अनुसार छह ऐसे बिंदु हैं जो डोनाल्ड ट्रंप को बेलग़ाम होने से रोकेंगे।
1.दोनों सदनों में बहुमत तो है पर...
भले ही रिपब्लिकन पार्टी के पास संसद के दोनों सदनो में बहुमत है। मगर ऐसी गारंटी नहीं है कि पार्टी आराम से अपने सभी प्रस्तावों को मंजूर करा सकेगी।
नवंबर में आए राष्ट्रपति चुनावी नतीजों में रिपब्लिकन पार्टी को 220 सीटें मिली हैं। वहीं डेमोक्रेटिक पार्टी को 215 सीटों पर ही जीत मिली है।
हालांकि, इसके बाद एक रिपब्लिकन कांग्रेस सदस्य ने अपना पद छोड़ दिया है। साथ ही दो और रिपब्लिकन कांग्रेस सदस्य जल्द ही सरकारी पदों पर जाने के लिए इस्तीफ़ा देने वाले हैं।
इसका मतलब है कि कम से कम प्रतिनिधि सभा में दो महीनों तक रूढि़वादी रिपब्लिकन पार्टी के पास बहुमत से केवल दो वोट ही ज़्यादा होगा। जो पार्टी के लिए आसान स्थिति नहीं होगी।
प्रोफेसर मार्क पीटरसन के मुताबिक, ‘आधुनिक समय में यह सबसे कमजोर बहुमत है। भले ही रिपब्लिकन पार्टी मजबूती से एकजुट है। लेकिन सदन में अपने नाममात्र के बहुमत के बलबूते सदन को नियंत्रित करने के लिए उन सभी को बहुत कठिन स्थिति में भी एकजुट रहना होगा। जो बहुत मुश्किल है।’
डोनाल्ड ट्रंप का बयान
सीनेट में डेमोक्रेटिक पार्टी के 43 सदस्यों के मुक़ाबले रिपब्लिकन पार्टी के 53 सदस्य हैं। इसका मतलब है कि रिपब्लिकन पार्टी के पास बड़े प्रस्तावों को पास कराने के लिए पूर्ण बहुमत से अभी भी सात वोट कम हैं।
प्रोफेसर मार्क पीटरसन के मुताबिक़, रिपब्लिकन जो कुछ भी करना चाहते हैं, उसके लिए उन्हें डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ बातचीत करनी होगी। क्योंकि डेमोक्रेटिक पार्टी लगभग किसी भी प्रस्ताव को वीटो के जरिए रोक सकती है।
बातचीत वह प्रक्रिया है जो सीनेट सदस्यों को बजट के प्रावधानों को साधारण बहुमत से (60 सदस्यों के बजाय 51 सदस्य) से मंज़ूर करने की अनुमति देती है।
पिछले कुछ दशकों में अमेरिकी कांग्रेस में ध्रुवीकरण की वजह से यह प्रक्रिया अपनाई गई थी। लेकिन सभी मामलों में ऐसा नहीं हो सकता।
प्रोफेसर पीटरसन कहते हैं, ‘जिन भी राष्ट्रपतियों के पास बड़े बदलाव करने के अवसर थे, वह बड़े बहुमत जैसे कि दोनों सदनों में 60 फीसदी के बहुमत के साथ सत्ता में आए थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है। लेकिन यह सच में चौंकाने वाला होगा कि ट्रंप अपने रिपब्लिकन सहयोगियों के साथ वास्तव में अपने चुनावी वादों पर काम कर पाएं।’
एक्सपर्ट्स कहते हैं कि अपने पहले कार्यकाल के शुरुआती दो सालों के दौरान भी डोनाल्ड ट्रंप के पास दोनों ही सदनों में मजबूत बहुमत था। लेकिन उस दौरान वह कर मैं कटौती का केवल एक अहम कानून ही पास करवा पाए थे।
2. एक स्वतंत्र न्यायपालिका
भले ही अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में कंजर्वेटिव जजों का बहुमत है, जिनमें से तीन ट्रंप के पहले शासन काल में नियुक्त हुए थे। लेकिन फिर भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि सभी प्रशासनिक पहलों की मंज़ूरी मिल ही जाएगी।
यह सच है कि अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने साल 1970 से ही मौजूद गर्भपात के अधिकार के संघीय संरक्षण को वापस ले लिया था। जैसा कि डोनाल्ड ट्रंप ने साल 2016 के दौरान अपने चुनावी अभियान में वादा किया था। इस फ़ैसले का नए नियुक्त किए गए जजों ने भी समर्थन दिया था।
सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक़, ‘अपने कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति को किसी भी आपराधिक अभियोजन से पूरी तरह से छूट का अधिकार है।’ इस वजह से ट्रंप ख़ुद के खिलाफ चल रहे कई मुकदमों से बरी भी हो गए।
हालांकि उस फ़ैसले में यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि निजी मामलों में राष्ट्रपति को यह छूट नहीं मिलेगी।
इसके अलावा कोर्ट ने डोनाल्ड ट्रंप और रिपब्लिकन पार्टी की उन शिकायतों को भी खारिज कर दिया था जिसमें, 2022 के राष्ट्रपति चुनावों के नतीजों को पलटने की कोशिश के आरोप लगाए गए थे।
कोर्ट ने ट्रंप प्रशासन के डीएसीए प्रोग्राम को ख़त्म करने की कोशिशों के प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया गया था। डीएसीए प्रोग्राम उन सैकड़ों या हजारों लोगों की रक्षा करता है जिन्होंने बिना कागजात के नाबालिग अवस्था में प्रवेश किया था।
सुप्रीम कोर्ट ने अफोर्डेबल केयर एक्ट (जिसे आमतौर पर ओबामाकेयर कहा जाता है) से कुछ सुरक्षा उपायों को बरकरार रखा था।
इसके साथ ही कार्यस्थल पर एलजीबीटीई+ लोगों को भेदभाव से बचाने वाले दूसरे प्रावधानों को भी सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा था। ये दोनों ही प्रावधान रिपब्लिकन पार्टी की योजनाओं के खिलाफ थे।
प्यू स्टडी सेंटर के अनुसार, ‘सुप्रीम कोर्ट के अलावा अमेरिका की जिला अदालतों के 60 फ़ीसदी जजों की नियुक्ति डेमोक्रेटिक जो बाइडन के कार्यकाल में हुई थी। जबकि जिला अदालतों के 40 फीसदी जजों की नियुक्ति ही रिपब्लिकन डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में हुई थी।’
प्रोफेसर पीटरसन कहते हैं, ‘न्यायपालिका आज़ादी के साथ अमेरिकी व्यवस्था का तीसरा अहम स्तंभ है। जिसके ज़्यादातर सदस्यों को ट्रंप या रिपब्लिकन पार्टी ने नियुक्त नहीं किया है।’ पीटरसन का मानना है कि जजों को अपने फैसले कानून या सुप्रीम कोर्ट के स्थापित निर्देशों के अनुसार देने चाहिए।
3.अमेरिका के अलग-अलग राज्यों की सरकारें
अमेरिका एक संघीय व्यवस्था वाला देश है। संघीय व्यवस्था व्हाइट हाउस से लागू किए गए बदलावों पर ज़रूरी सीमाएं लागू करती है।
अमेरिकी संविधान का 10वां संशोधन राज्य या प्रदेश की सरकारों को बड़े स्तरों पर शक्ति देता है। परंपरागत रूप से राज्यों के पास सुरक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक लाभ, शिक्षा, चुनावी प्रक्रिया, आपराधिक कानून, श्रम नियम और संपत्ति से जुड़े अधिकार रहे हैं।
इसी तरह काउंटी और शहरी प्रशासन के पास सार्वजनिक सुरक्षा, शहरी नियोजन, जमीनों का इस्तेमाल और इस तरह की दूसरी जि़म्मेदारियां हैं।
राज्यों, काउंटी और शहरी प्रशासन के पास ट्रंप सरकार की कुछ पहलों का विरोध करने की शक्ति है।
प्रोफेसर पीटरसन अनुमान लगाते हैं, ‘डेमोक्रेटिक पार्टी जरूर इन शक्तियों का इस्तेमाल ट्रंप प्रशासन के खिलाफ करेगी।’
उन्होंने कहा, ‘मैं कैलिफ़ोर्निया में रहता हूं जो कि अमेरिका का सबसे बड़ा राज्य है और विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। यह पूरी तरह से ना तो डोमोक्रेटिक है, ना ही लिबरल है और ना ही प्रोग्रेसिव है। लेकिन यह उस दिशा में मज़बूती से आगे बढ़ रहा है।’
प्रोफेसर पीटरसन के अनुसार, ‘कैलिफोर्निया ट्रंप प्रशासन की परवाह किए बिना या विरोध करते हुए ही काम करेगा। जैसे पिछले कुछ समय के दौरान टेक्सास और दूसरे राज्यों ने ओबामा और बाइडन प्रशासन की परवाह नहीं की थी।’
मौजूदा समय में अमेरिका के 50 में से 23 राज्यों में डेमोक्रेटिक पार्टी के गवर्नर हैं। इन राज्यों का सहयोग या विरोध ट्रंप प्रशासन की बड़ी संख्या में प्रवासियों को देश से बाहर निकालने जैसी योजनाओं के लिए अहम हो सकता है।
क्योंकि इस तरह के जटिल और कठिन कामों के लिए स्थानीय सरकारों के समर्थन की जरूरत पड़ती है।
कई शहरों और राज्यों ने ख़ुद को प्रवासियों के लिए ‘संरक्षित’ स्थान घोषित कर दिया है। जिस वजह से प्रवासियों के मुद्दे पर उनका सहयोग संघीय सरकार के साथ सीमित हो गया है।
4. एक पेशेवर नौकरशाही
डोनाल्ड ट्रंप के पहले कार्यकाल के दौरान, रिपब्लिकन पार्टी के भीतर ही यह शिकायतें उठने लगी थीं कि वह अपनी राजनीतिक योजनाओं को पूरी तरह से लागू नहीं कर पा रहे थे। इसकी वजह राज्य और नौकरशाही के कामकाज को समझने में कमी और सार्वजनिक अधिकारियों या सिविल सर्विसेज का विरोध भी था।
नौकरशाहों ने ट्रंप प्रशासन के आदेशों को गैरकानूनी या गलत मानते हुए उन्हें लागू करने में देरी की थी।
अपने पहले कार्यकाल के अंत में डोनाल्ड ट्रंप ने एक कार्यकारी आदेश की मंज़ूरी दी थी। जिसके जरिए वह हजारों सरकारी कर्मचारियों को नौकरी से निकाल कर उनकी जगह अपने समर्थकों को नियुक्त कर सकते थे।
लेकिन इस आदेश को बाइडन प्रशासन ने निरस्त कर दिया था। पर ट्रंप ने अपने अभियान के दौरान दोबारा से उनको हटाने वाले कार्यकारी आदेश पर विचार करने को कहा था।
वास्तव में इस दूसरे शासन के लिए डोनाल्ड ट्रंप के करीबी कंजरवेटिव ग्रुप ने ऐसे हज़ारों पेशवरों का डेटा बेस तैयार किया है, जो कि ट्रंप की राजनीतिक विचारधारा से ताल्लुक़ रखते हैं। ताकि उनको सरकारी अधिकारियों की जगह नियुक्त किया जा सके।
इस पहल को संस्थागत, कानूनी, राजनीतिक और मजदूर संगठनों के स्तर पर विरोध का सामना करना पड़ सकता है।
प्रोफेसर पीटरसन कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि अदालतें ट्रंप की इस पहल के खिलाफ प्रतिक्रिया देंगी। सार्वजनिक सेवाएं किसी वजह से बनाई गई हैं और एक कानून है जो इनकी रक्षा करता है। इसीलिए नई सरकार के गठन तक बड़े पैमाने पर संघीय कर्मचारियों के खिलाफ कोई बड़ा कदम नहीं उठाया जा सकेगा।’
हालांकि सीमित स्तर पर कुछ बातें ऐसी हो सकती हैं जिनसे असर पड़ेगा। जैसे कि जब सरकार किसी ऑफिस को वॉशिंगटन डीसी से बाहर किसी और जगह पर भेजने का फैसला करती है, तब कुछ अधिकारियों को इस्तीफा देना पड़ सकता है। क्योंकि वह अधिकारी अपने परिवारों को वहां लेकर नहीं जा सकते।
5. मीडिया और सिविल सोसाइटी
जब डोनाल्ड ट्रंप पहली बार राष्ट्रपति बने थे तब मीडिया ने उनके प्रशासन की आलोचना की थी। इसके अलावा अलग-अलग यूनियन और सिविल सोसाइटीज भी दबाव डालकर और अदालतों के जरिए ट्रंप के कई फैसलों को रोकने के लिए लामबंद हुए थे।
हालांकि मीडिया के मामले में स्थितियां थोड़ी सी बदली हैं। जैसे कि वॉशिंगटन पोस्ट ने ट्रंप के पहले कार्यकाल में इस बात का रिकॉर्ड रखा था कि उन्होंने कितनी बार झूठ बोला है या गलत जानकारी दी है। (चार साल में 30 हजार से भी ज़्यादा)।
हालांकि इसके ठीक उलट इस बार वॉशिंगटन पोस्ट ने अपने रोजाना छपने वाले संपादकीय लेख को ना छापने का फैसला किया। इस संपादकीय लेख में वॉशिंगटन पोस्ट चुनावों पर अपना नजरिया रखता था।
इसकी बजाय अखबार ने डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार कमला हैरिस को बढ़ावा देने की योजना बनाई थी।
पारंपरिक रूप से एक और लिबरल विचारधारा वाले अखबार ‘द लॉस एंजेलिस टाइम्स’ ने भी ठीक ऐसा ही किया था।
दरअसल एमेजॉन के संस्थापक और द वॉशिंगटन पोस्ट के मालिक जेफ बेजोस ने फ्लोरिडा स्थित ट्रंप के मार-ए-लागो निवास पर उनसे मुलाकात की थी। लेकिन कई दूसरे मीडिया संस्थानों ने ट्रंप सरकार के लिए अपना आलोचनात्मक रुख बरकरार रखा है।
इसके अलावा सिविल लिबर्टीज यूनियन (एसीएलयू) जैसे कई नागरिक समाज संगठनों के बारे में भी यही कहा जा सकता है। इस संगठन के 17 लाख सदस्य हैं और यह पहले से ही नए राष्ट्रपति के कुछ प्रस्तावों को रोकने की कोशिश करने के इरादे स्पष्ट कर चुका है।
एक बयान में संगठन ने कहा है, ‘जब ट्रंप पहली बार राष्ट्रपति पद पर थे तब हमने उनके प्रशासन के ख़िलाफ़ 430 बार कानूनी कदम उठाए थे। हमारे पास उनसे लडऩे और जीतने की रणनीति है।’
संगठन ने अपने एक और बयान में कहा, ‘इस बार अमेरिकी चुनावों में डोनाल्ड ट्रंप की जीत का यह मतलब भी है कि वह उन नीतियों को फिर से लागू करेंगे, जिसके बारे में उन्होंने साल 2020 में पद छोड़ते वकत कहा था। इसका मतलब है कि ज़्यादा से ज़्यादा प्रवासी अपने परिवार से अलग हो जाएंगे। ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को प्रजनन संबंधी प्रतिबंधों की वजह से सेहत का गंभीर नुकसान झेलना होगा। ट्रंप संघीय सरकार का इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ एक खतरनाक हथियार के तौर पर करेंगे।’
6. नागरिकों की प्राथमिकताएं
डोनाल्ड ट्रंप अपने सरकारी एजेंडे को कितना पूरा कर पातें हैं, यह इस बात पर भी निर्भर करेगा कि उनका एजेंडा नागरिकों की असल चिंताओं के साथ कितना फिट बैठ पाता है? और ट्रंप उन चिंताओं को कितना समझ पाते हैं?
यह खासतौर पर इसलिए भी अहम है क्योंकि ट्रंप पॉपुलर वोट में तो जीते हैं, लेकिन उन्हें नागरिकों से वास्तव में बहुत ज़्यादा समर्थन नहीं मिला है।
प्रोफेसर पीटरसन कहते हैं, ‘डोनाल्ड ट्रंप ने चुनाव जीता है। यह सच्चाई है। लेकिन उनको केवल 49.9 फीसदी ही पॉपुलर वोट मिले हैं जो कि कुल मतदाताओं का आधा हिस्सा भी नहीं है। वह कमला हैरिस से केवल 1.5 फीसदी वोटों के अंतर से जीते हैं। यह राष्ट्रपति चुनावों की सबसे करीबी जीतों में से एक है।’
एक्सपर्ट्स का यह भी कहना है कि चुनाव में जिन भी मतदाताओं ने ट्रंप का समर्थन किया, वह भी उनके कट्टर विचारों या प्रस्तावों का समर्थन नहीं करते हैं।
विशेषज्ञों के अनुसार, ‘इनमें भी एक बड़ा हिस्सा ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के समर्थकों का है। ट्रंप जो भी करना चाहते हैं वह उसका समर्थन करेंगे। वहीं दूसरा हिस्सा रिपब्लिकन पार्टी के समर्थकों का है, जो ट्रंप को ख़ासा पसंद नहीं करते हैं। वह बस ट्रंप को इसलिए चाहते हैं क्योंकि वह रूढि़वादी हैं। वह टैक्स में कटौती और कम रेगुलेशन चाहते हैं।’
जानकार कहते हैं, ‘इसके बाद ऐसे लोगों का समूह है जिन्होंने बढ़ती महंगाई की वजह से ट्रंप को वोट दिया था। वह बदलाव चाहते थे और उनके पास ट्रंप ही एक विकल्प थे।’
प्रोफेसर पीटरसन कहते हैं, ‘उनमें से भी कई लोग ओबामाकेयर को ख़त्म करने, सिविल सर्विसेज को खत्म करने या क्लाइमेट चेंज से जुड़ी पॉलिसी को ख़त्म करने जैसे फैसलों पर ट्रंप का समर्थन नहीं करेंगे।’
यह एक ऐसी स्थिति है जिससे सरकार पर संयम बरतने का दबाव होगा। इससे ना केवल ट्रंप की लोकप्रियता पर असर पड़ेगा, बल्कि साल 2026 में होने वाले मध्यावधि चुनावों में रिपब्लिकन पार्टी को नुकसान भी उठाना पड़ा सकता है।
लेकिन अगर ट्रंप को अपने किसी प्रस्ताव पर इस तरह के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा तो वह क्या करेंगे?
पीटरसन कहते हैं, ‘डोनाल्ड ट्रंप जरूरत के हिसाब से ख़ुद को ढालेंगे और अपने लक्ष्यों को हासिल ना कर पाने के लिए दूसरों को दोषी ठहराएंगे।’
वह कहते हैं, ‘डोनाल्ड ट्रंप के पहले कार्यकाल की शुरुआत में ही जब ओबामाकेयर की लोकप्रियता बढ़ी थी, तब सरकार ने उसे ख़त्म करने का फैसला किया था। लेकिन आखिर में व्हाइट हाउस को कुछ बदलावों के साथ अपने फैसले से पीछे हटना पड़ा।’ (bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
कनाडा और उसकी सरकार पिछले एक साल से गंभीर विवादों में उलझा है। यहां के कुछ इलाकों को मिनी पंजाब कहते हैं जहां भारत से गए सिख समुदाय के रिहायशी इलाके और गुरुद्वारे आदि के कारण पंजाब के किसी कस्बे या शहर में घूमने का अहसास होता है। सिख समुदाय अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और कर्मठता के लिए मशहूर है। उसने कड़ी मेहनत कर कनाडा में भी अच्छा खासा दबदबा बनाया है जो आर्थिक संपन्नता के साथ राजनीतिक शक्ति के रूप में भी सामने आया है। प्रधानमंत्री पद से हटे जस्टिन ट्रुडो के वोट बैंक में भी सिख समुदाय की अच्छी खासी भागीदारी बताई जाती है। यहीं से भारत और कनाडा के अंतरराष्ट्रीय रिश्तों में खटास की शुरुआत हुई थी। यह खटास बढ़ते बढ़ते उस स्तर पर पहुंच गई जहां से उसे सही पटरी पर लाने में बहुत ज्यादा मेहनत की आवश्यकता होगी।
भारत और कनाडा ने अपने देश से एक दूसरे के राजनयिकों को निष्कासित कर यह संदेश दिया था कि दोनों देश यह मामला अपने हिसाब से काफी गंभीरता से ले रहे हैं। भारत और कनाडा के संबंध केवल पंजाब से कनाडा गए भारतीयों के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं हैं बल्कि कनाडा में बसे अन्य प्रांतों के एन आर आई भी इससे प्रभावित हो रहे हैं। दूसरी तरफ कनाडा अमेरिका का पड़ोसी है इसलिए अमेरिका का बाइडेन प्रशासन अक्सर कनाडा की हां में हां मिलाने की कोशिश करता रहा है ताकि पड़ोसी से सौहार्दपूर्ण संबंध बने रहें। जिस तरह से कनाडा ने वहां रहने वाले खालिस्तान समर्थकों की हत्या करने के लिए भारत सरकार पर उंगली उठाई है वैसा ही कदम अमेरिका ने भी उठाया है।
2023 में जब कनाडा में खालिस्तानी आतंकी हरदीप सिंह निज्जर की गोली मारकर हत्या हुई थी तब कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो ने उसमें भारत सरकार से जुड़े लोगों के इस हत्या में शामिल होने की बात की थी। भारत सरकार शुरू से इस मामले से पल्ला झाड़ती रही है। हद तो तब हुई जब कनाडा ने अलगाववादी हरदीप निज्जर की हत्या के मामले में सीधे भारतीय उच्चायोग के सर्वोच्च अधिकारी उच्चायुक्त संजय कुमार वर्मा को ‘पर्सन ऑफ इंटरेस्ट’ यानी संदिग्ध बता दिया। अपने देश के सर्वोच्च राजनयिक अधिकारियों के खिलाफ बगैर पुख्ता सबूतों के इतना गंभीर आरोप किसी भी सरकार को कड़े कदम उठाने पर मजबूर करेगा। इसलिए केंद्र सरकार ने भी सख्त कदम उठाकर न केवल अपने उच्चायुक्त सहित दूसरे राजनयिकों को वापस बुलाने का फैसला लिया था , साथ ही कनाडा के राजनयिकों को भी वापसी के लिए कहा था।
हाल ही में कनाडा में कनाडा फर्स्ट अभियान के अंतर्गत यह निर्णय किया गया कि कनाडा में वहां के नागरिकों को ही प्राथमिकता के आधार पर नौकरी दी जाएगी। माना जा रहा है कि कनाडा सरकार के इस फैसले से वहां रह रहे भारतीय समुदाय के काफी लोगों को नौकरी से वंचित होना पड़ सकता है। वैसे भी कनाडा में ऐसी स्थिति में भारतीय समुदाय के लोगों का रहना मुश्किल होगा जब दोनों देशों के बीच राजनयिक रिश्ते निम्नतम स्तर पर पहुंच गए हैं। कनाडा और भारत के संबंध उस निम्नतम स्तर पर पहुंच गए जहां और नीचे जाने की गुंजाइश नहीं रहती। कनाडा सरकार जिस तरह से अपने नागरिक संरक्षण के नाम पर खालिस्तान समर्थकों को शै दे रही है उसे नजरअंदाज करना भारत सरकार के लिए असंभव है।
कनाडा में जिस तरह से हिंदू और सिख एक दूसरे के धर्मस्थलों तक को निशाना बना रहे हैं यह दोनों के लिए खतरनाक संकेत है। कनाडा में काफी संख्या में हिंदू और सिख युवा पढ़ाई और कमाई के लिए बसे हैं। यदि वे अपने संसाधन और ऊर्जा एक दूसरे को नीचा दिखाने में बर्बाद करेंगे तो यह उनके खुद के लिए, कनाडा में रहने वाले अप्रवासी भारतीय समुदाय और हमारे देश के लिए कष्टप्रद और शर्मनाक है। अभी तक अमेरिका कनाडा के सुर में सुर मिलाता रहा है। आशा की धुंधली किरण यही है कि आतंकवाद के खिलाफ जोरदार चुनावी भाषण देने वाले नव निर्वाचित अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इस मुद्दे पर कनाडा को समझाएंगे। जस्टिन ट्रुडो का प्रधानमंत्री पद से हटना भी भारत के लिए शुभ समाचार बन सकता है।
दुनिया भर के स्वास्थ्य विशेषज्ञों के एक समूह ने मोटापे की परिभाषा और इसका इलाज करने का एक नया तरीका सुझाया है। अब तक मोटापे की परिभाषा तय करने के लिए बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) पर ज्यादा जोर रहता है, लेकिन इस तरीके को लेकर वैज्ञानिकों के बीच काफी मतभेद हैं। नए तरीके में बीएमआई पर कम जोर दिया गया है और ऐसे लोगों की पहचान पर ध्यान दिया गया है जिन्हें मोटापे के कारण इलाज की जरूरत है।
इसी हफ्ते जारी सिफारिशों के मुताबिक, अब मोटापे को केवल बीएमआई के आधार पर परिभाषित नहीं किया जाएगा। इसके साथ-साथ कमर के माप और अतिरिक्त वजन से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं के आधार पर भी मोटापे की पहचान की जाएगी।
मोटापा दुनियाभर में एक अरब से ज्यादा लोगों को प्रभावित करता है। अमेरिकी सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के मुताबिक देश में, करीब 40 फीसदी वयस्क मोटापे से पीडि़त हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक हर साल 50 लाख से ज्यादा लोगों की मौत मोटापे के कारण होती है।
डॉ. डेविड कमिंग्स वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के मोटापा विशेषज्ञ हैं और इस रिसर्च रिपोर्ट के 58 लेखकों में से एक हैं। वह कहते हैं, ‘इसका मुख्य उद्देश्य मोटापे की सटीक परिभाषा देना है ताकि उनकी मदद की जा सके जिन्हें सबसे ज्यादा जरूरत है।’ यह रिपोर्ट ‘द लांसेट डायबिटीज एंड एंडोक्रिनोलॉजी’ पत्रिका में प्रकाशित हुई है।
मोटापे के दो नए वर्ग
रिपोर्ट में मोटापे के दो नए वर्ग दिए गए हैं। पहला है क्लीनिकल मोटापा, जिसमें बीएमआई और मोटापे के दूसरे संकेत शामिल हैं। इसके साथ ही दिल की बीमारी, हाई ब्लड प्रेशर, लिवर या किडनी की समस्या, या घुटने और कूल्हे के गंभीर दर्द जैसी समस्याएं होती हैं। ऐसे लोगों को डाइट, एक्सरसाइज और मोटापे की दवाओं जैसे इलाज के लिए पात्र माना जाएगा। दूसरे वर्ग को प्री-क्लीनिकल मोटापा कहा गया है। इसमें ऐसे लोग शामिल हैं जिन्हें इन बीमारियों का खतरा है, लेकिन फिलहाल कोई समस्या नहीं है।
बीएमआई का मतलब है बॉडी मास इंडेक्स। यह एक सरल मापदंड है जो किसी व्यक्ति के वजन और लंबाई के अनुपात के आधार पर यह बताता है कि उसका वजन उसके स्वास्थ्य के लिए सही है या नहीं। इसकी गणना के लिए वजन को ऊंचाई से भाग किया जाता है।
बीएमआई को हमेशा से एक अधूरा माप माना गया है। यह कई बार मोटापे का गलत या अधूरा आकलन करता है। अभी तक 30 या उससे ज्यादा बीएमआई वाले लोगों को मोटा माना जाता था। लेकिन रिपोर्ट बताती है कि हर बार बीएमआई 30 से ऊपर होने पर मोटापा नहीं होता। कभी-कभी ज्यादा मांसपेशियों वाले लोगों का बीएमआई ज्यादा हो सकता है, जैसे फुटबॉल खिलाड़ी।
नई परिभाषा के अनुसार, करीब 20 फीसदी ऐसे लोग जो पहले मोटापे की श्रेणी में आते थे, अब नहीं आएंगे। वहीं, 20 फीसदी ऐसे लोग जो गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे हैं, उन्हें अब क्लीनिकल मोटापा के वर्ग में माना जाएगा।
इस नई परिभाषा को दुनियाभर के 75 से ज्यादा मेडिकल संगठनों ने मंजूरी दी है। हालांकि इसे अपनाने में समय और पैसा लगेगा। स्वास्थ्य बीमा संगठनों के प्रतिनिधियों ने कहा कि यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि इन मानकों को कब और कैसे अपनाया जाएगा।
नई परिभाषा की चुनौतियां
मोटापा विशेषज्ञ डॉ। कैथरीन सॉन्डर्स कहती हैं कि कमर की माप लेना आसान नहीं है। अलग-अलग प्रोटोकॉल, डॉक्टरों की कमी और बड़े मेडिकल टेप मेजर का अभाव इस प्रक्रिया को जटिल बनाता है। इसके अलावा, क्लीनिकल और प्री-क्लीनिकल मोटापा तय करने के लिए हेल्थ असेसमेंट और लैब टेस्ट की जरूरत होगी।
रिपोर्ट के सह-लेखक डॉ। रॉबर्ट कुशनर कहते हैं, ‘यह प्रक्रिया का पहला कदम है। चर्चा शुरू होगी और समय के साथ बदलाव आएगा।’
कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि यह बदलाव जनता के लिए जटिल हो सकता है। यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन की न्यूट्रिशन एक्सपर्ट केट बाउर कहती हैं, ‘लोग आसान संदेश पसंद करते हैं, यह जटिल परिभाषा शायद ज्यादा असर नहीं डालेगी।’
फिर भी, विशेषज्ञों का मानना है कि इस बदलाव को अपनाने में वक्त लगेगा, लेकिन यह मोटापे की परिभाषा को सुधारने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
दुनिया में सबसे प्रभावशाली माने जाने वाले देश के राष्ट्रपति का कार्यकाल न केवल उस देश की नीतियों को प्रभावित करता है, बल्कि इसका वैश्विक स्तर पर भी दूरगामी असर होता है।
ये प्रभाव आर्थिक नीतियों से लेकर कूटनीतिक फ़ैसलों तक होते हैं।
20 जनवरी को डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत करेंगे। इस बार उनके साथ उप-राष्ट्रपति के रूप में जेडी वांस कार्यभार संभालेंगे।
ट्रंप को अक्सर ‘अनप्रिडिक्टेबल’ कहा जाता है, यानी किसी भी मुद्दे पर उनका रुख़ क्या होगा, इसका अंदाज़ा पहले से नहीं लगा सकते। कुछ लोग इसे उनकी ताकत मानते हैं, तो कुछ इसे उनकी कमजोरी मानते हैं।
अब जबकि ट्रंप दूसरा कार्यकाल शुरू करेंगे, पहले कार्यकाल के मुक़ाबले दुनिया काफ़ी बदल चुकी है और नई चुनौतियां सामने आ चुकी हैं।
ऐसे में ट्रंप के इस कार्यकाल में क्या संभावनाएं हो सकती हैं?
क्या भारत को अमेरिका के लिए सामान निर्यात करने पर ज़्यादा टैक्स देना पड़ेगा? अमेरिका और चीन के रिश्ते में क्या बदलाव आएगा? इसराइल और हमास के बीच जो संघर्ष विराम का समझौता हुआ है, वह मध्य पूर्व में कितनी स्थायी शांति लाएगा?
रूस-यूक्रेन युद्ध का अंत होने की क्या संभावना है? जलवायु परिवर्तन पर अमेरिका का रुख़ क्या होगा? और दक्षिण एशिया में भारत को अमेरिका से किस तरह की अपेक्षाएं रखनी चाहिए?
बीबीसी हिन्दी के साप्ताहिक कार्यक्रम, ‘द लेंस’ में कलेक्टिव न्यूज़रूम के डायरेक्टर ऑफ़ जर्नलिज़्म मुकेश शर्मा ने इन सभी सवालों पर चर्चा की।
इस चर्चा में कूटनीतिक मामलों की वरिष्ठ पत्रकार इंद्राणी बागची, कूटनीतिक विश्लेषक राजीव नयन और यरूशलम से वरिष्ठ पत्रकार हरिंदर मिश्रा शामिल हुए।
इसराइल के लिए कैसा होगा ट्रंप का दूसरा कार्यकाल?
इसराइली कैबिनेट ने गज़़ा में युद्धविराम और बंधकों की रिहाई के लिए हमास के साथ हुए समझौते को मंज़ूरी दे दी है। ये समझौता रविवार से लागू होगा।
अमेरिकी चुनाव अभियान के दौरान डोनाल्ड ट्रंप ने यूक्रेन-रूस और मध्य पूर्व में संघर्षों को लेकर कहा था कि अगर वो सत्ता में आए तो ये युद्ध जल्द से जल्द समाप्त हो जाएंगे।
उनके कार्यभार संभालने से पहले ही इसराइल और हमास के बीच गज़़ा युद्धविराम समझौते को मंज़ूरी मिल गई है। ऐसे में सवाल उठता है कि इस युद्धविराम में ट्रंप ने क्या भूमिका निभाई है।
इस पर यरूशलम से वरिष्ठ पत्रकार हरिंदर मिश्रा कहते हैं, ‘संघर्ष विराम की दिशा में ट्रंप की भूमिका को लेकर यहां एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसे ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी साझा किया।’
उनके मुताबिक़, ‘इस लेख में कहा गया है कि जो काम जो बाइडन अपने कार्यकाल के दौरान नहीं कर पाए, वही ट्रंप के एक विशेष दूत ने केवल एक मुलाक़ात में इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के साथ पूरा कर दिखाया।’
‘इस मुलाक़ात को लेकर कहा जा रहा है कि यह बहुत तनावपूर्ण थी और इसमें नेतन्याहू पर दबाव डाला गया कि किसी भी हालत में संघर्ष विराम हो और बंधकों की रिहाई होनी चाहिए।’
हरिंदर मिश्रा के अनुसार, ‘ऐसा माना जा रहा है कि ट्रंप के नए प्रशासन में वह उन देशों पर अधिक दबाव डालेंगे जो इसराइल के विरोधी हैं या जिनके इसराइल के साथ शत्रुतापूर्ण संबंध हैं।’
ट्रंप के पहले कार्यकाल में इसराइल के प्रति उनकी प्रतिबद्धता बहुत स्पष्ट थी और उन्होंने इसराइल की सुरक्षा को प्राथमिकता दी थी। अब उनके दूसरे कार्यकाल में भी यही उम्मीद की जा रही है कि उनका रुख़ पहले जैसा ही रहेगा।
हालांकि हरिंदर मिश्रा का ये भी कहना है कि, ‘ट्रंप के संभावित फ़ैसलों का अंदाज़ा लगा पाना मुश्किल बना रहेगा। यह हर किसी को सतर्क रखेगा कि उनके रुख़ के बारे में अभी कोई स्पष्टता नहीं है और यह अनिश्चितता बनी रहेगी।’
उन्होंने बताया, ‘नेतन्याहू और ट्रंप के रिश्ते पहले बहुत अच्छे थे, लेकिन ट्रंप का पहला कार्यकाल समाप्त होने और चुनाव हारने के बाद उनके बीच संबंध नहीं थे। अब नेतन्याहू की कोशिश है कि वह ट्रंप से अपने रिश्तों को फिर से सुधारें, लेकिन ट्रंप ने अभी तक इस पर कोई स्पष्ट संकेत नहीं दिए हैं। लेकिन यह ज़रूर है कि इसराइल की सुरक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता बरकरार रहेगी।’
कूटनीतिक मामलों की वरिष्ठ पत्रकार इंद्राणी बागची ने ट्रंप की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए कहा, ‘ट्रंप के पहले कार्यकाल में इसराइल के साथ उनके रिश्ते गहरे थे। उन्होंने अमेरिकी दूतावास को यरूशलम स्थानांतरित किया और 'अब्राहम अकॉर्ड' समझौते की प्रक्रिया शुरू की। मुझे लगता है कि अब्राहम समझौते का प्रभाव इस संघर्ष के बावजूद भी बना है, जो एक सकारात्मक संकेत है।’
इंद्राणी ने आगे कहा, ‘यह देखना होगा कि यह युद्धविराम समझौता कितनी देर तक क़ायम रहता है और क्या यह अंतत: एक स्थायी शांति समझौते में बदल सकता है या नहीं।’
उन्होंने यह भी कहा, ‘यह संघर्ष विराम समझौता 30 मई को हुआ था, लेकिन इसे लागू नहीं किया जा सका था। अब देखना यह होगा कि यह नया प्रयास कितनी दूर तक जाता है।’
सऊदी अरब से क्या चाहते हैं ट्रंप?
अब्राहम समझौते के तहत इसराइल को संयुक्त अरब अमीरात, मोरक्को, सूडान और बहरीन से मान्यता मिली और इसके लिए अमेरिका ने इन देशों को कई प्रस्ताव दिए।
अमेरिका का लक्ष्य यह है कि सऊदी अरब, जो इस क्षेत्र का सबसे प्रमुख देश है, वह भी इस समझौते में शामिल हो जाए, क्योंकि इससे स्थिति में बड़ा बदलाव आ सकता है।
अब तक, सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान इस समझौते से पूरी तरह सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि पहले फ़लस्तीन को एक स्वतंत्र देश का दर्जा मिलना चाहिए और उन्हें उनकी ज़मीन दी जानी चाहिए, तभी दूसरी चीज़ें हो सकती हैं।
सवाल यह है कि क्या ट्रंप प्रशासन इस अब्राहम समझौते को इतना आगे बढ़ा सकता है कि इसराइल फ़लस्तीन को पहचान दे?
इस पर कूटनीतिक विश्लेषक राजीव नयन ने ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के संदर्भ में सऊदी अरब और अन्य अरब देशों के भविष्य के रुख़ पर चर्चा करते हुए कहा, ‘हमारा मानना है कि इस क्षेत्र में फ़लस्तीन और अरब देशों के पक्ष में बहुत बड़ा परिवर्तन होने की संभावना नहीं है। जहां अमेरिका का वर्चस्व है, वहीं इसराइल का भी वर्चस्व रहेगा।’
उन्होंने आगे कहा, ‘सऊदी अरब और यूएई जैसे देश, जो पहले ‘ओपेक प्लस' की राजनीति में सक्रिय थे और रूस और चीन की ओर भी जा रहे थे, अमेरिका के साथ अपने संबंधों को संतुलित करने की कोशिश कर रहे थे। ऐसे में, अमेरिका यह नहीं चाहेगा कि ये देश लाभ का सौदा करें।’
राजीव नयन ने रूस की स्थिति पर भी टिप्पणी करते हुए कहा, ‘रूस, जो सीरिया में प्रभावी रूप से कुछ नहीं कर पाया क्योंकि वह खुद यूक्रेन संकट में फंसा हुआ है, उसकी क्षमता फिलहाल सीमित है। इस समय रूस की स्थिति इतनी मज़बूत नहीं है कि वह सीरिया में सक्रिय रूप से हस्तक्षेप कर सके।’
उन्होंने कहा, ‘अगर ट्रंप और पुतिन के बीच अच्छे संबंध बनते हैं, तो निश्चित रूप से सऊदी अरब, यूएई और अन्य अरब देशों पर दबाव बढ़ेगा।’
राजीव नयन ने कहा, ‘इन देशों के लिए यह चुनौती है कि वे अपने वैकल्पिक राजनीतिक दृष्टिकोण को लेकर इसराइल पर ज़्यादा दबाव नहीं बना पाएंगे, क्योंकि इन देशों की शक्ति और उनके पीछे कौन खड़ा है, इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करेगा।’
रूस-यूक्रेन संघर्ष पर कैसा होगा ट्रंप का रुख़?
मध्य पूर्व के संघर्ष के बाद, रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध भी एक महत्वपूर्ण वैश्विक मुद्दा बन गया है। यह चर्चा हो रही है कि जब ट्रंप राष्ट्रपति बनेंगे, तो वह रूस पर दबाव डालकर एक समझौते की स्थिति में पहुंचा सकते हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि ट्रंप रूस-यूक्रेन के बीच जारी संघर्ष को कैसे रोक सकते हैं?
वरिष्ठ पत्रकार इंद्राणी बागची ने ट्रंप की भूमिका पर चर्चा करते हुए कहा, ‘यह आशंका इस कारण व्यक्त की जा रही है क्योंकि ट्रंप और पुतिन के बीच एक पुराने रिश्ते की चर्चा है।’
उन्होंने स्पष्ट किया, ‘मुझे नहीं लगता है कि ट्रंप यूक्रेन को कहेंगे कि आप ऐसे ही रहिए, क्योंकि जिस शांति समझौते की उम्मीद होगी, वह यूरोपीय दृष्टिकोण से होगा। ऐसा नहीं होगा कि रूस को यह कहा जाए कि आपने जो क्षेत्र कब्ज़ा किया है, वह सही है। क्योंकि, जिस भी नज़रिए से देखा जाए रूस ने जो किया है वह अंतरराष्ट्रीय क़ानून के हिसाब से ग़लत है।’
इंद्राणी बागची ने कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि ट्रंप इस तरह के समझौते के लिए आ रहे हैं।’
इस पर राजीव नयन ने कहा, ‘बाइडन और ट्रंप के नेतृत्व में फर्क़ है। बाइडन ने पूरी तरह से यूक्रेन का समर्थन किया है, जबकि ट्रंप की स्थिति इससे अलग हो सकती है।’
उन्होंने आगे कहा, ‘वर्तमान में अमेरिकी जनमानस यूक्रेन के साथ खड़ा है और अगर ट्रंप इसे बदलने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें अमेरिकी जनमानस को तैयार करना होगा।’
राजीव नयन ने आगे कहा, ‘ट्रंप में क्षमता है कि बातचीत के ज़रिए कोई रास्ता निकाल सकते हैं। हो सकता है कि एक-दो दिन में रास्ता न निकले, लेकिन 5-6 महीने के अंदर आप आमूल परिवर्तन देखेंगे।’
क्या भारत को टैरिफ वॉर में उलझा देंगे ट्रंप?
भारत और अमेरिका के व्यापार संबंधों में एक नई दिशा देखने को मिल सकती है, क्योंकि ट्रंप प्रशासन ‘अमेरिका फस्र्ट’ नीति पर ज़ोर देता है, जिसका भारत को सामना करना पड़ सकता है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि भारत इस स्थिति को डिप्लोमैटिक तरीके से कैसे संभालेगा।
इस पर इंद्राणी बागची ने कहा, ‘पिछली बार भी ट्रंप ने भारत के स्टील और एल्युमिनियम पर टैरिफ लगाए थे। और कुछ हफ्ते पहले भी उन्होंने टैरिफ़ को लेकर बात कही थी।’
उन्होंने कहा, ‘देखना होगा कि मोदी सरकार इस बार अपने तीसरे कार्यकाल में अमेरिका के साथ समझौते को लेकर क्या रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाती है और यह न केवल भारत के लिए बल्कि अमेरिका के लिए भी लाभकारी हो।’
उन्होंने आगे कहा, ‘अगर हम कहते हैं कि भारत विश्व में चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है तो कोई हमारे साथ उस तरह से समझौता नहीं करेगा। हमें देखने की ज़रूरत है कि कहां पर हम अपने आप को मज़बूत कर सकते हैं।’
भारत, पाकिस्तान और अफग़ानिस्तान के बीच संतुलन बनाना अमेरिकी रणनीति के लिए महत्वपूर्ण है। इन तीन देशों का अपने-अपने संदर्भ में अमेरिका के साथ गहरा संबंध है और दक्षिण एशिया की अमेरिकी रणनीति में इन देशों की भूमिका बहुत अहम रहेगी।
दक्षिण एशिया में भारत, पाकिस्तान, अफग़़ानिस्तान, भूटान, नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश और मालदीव आते हैं। विश्व बैंक का अनुमान है कि इस इलाक़े में 1।94 अरब लोग रहते हैं। दक्षिण एशिया में भारत एक तेज़ी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था है।
इन देशों में भारत ने कुछ सालों में अपनी स्थिति मज़बूत बनाई है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भारत की स्थिति वैसे ही रहेगी?
इस पर इंद्राणी बागची ने कहा, ‘अमेरिका के साथ पाकिस्तान और अफग़ानिस्तान के बीच के रिश्ते में काफ़ी बदलाव आ चुका है।’
उन्होंने कहा, ‘पिछले कई हफ्तों में अमेरिका ने पाकिस्तान की मिसाइल संस्थाओं पर प्रतिबंध लगाए हैं। अमेरिका का कहना है कि पाकिस्तान एक लंबी दूरी वाली मिसाइल बना रहा है। अमेरिका ने सोचा कि ये मिसाइल उनके खिलाफ जा सकती है।’ (bbc.com/hindi)
अमेरिका, मिस्र और कतर के वार्ताकारों ने हमास और इस्राएल के बीच ताजा संघर्षविराम और बंधकों की रिहाई के लिए समझौता कराया है. संसाधन से भरपूर खाड़ी का छोटा सा देश कतर कूटनीति में इतना कामयाब कैसे हो रहा है?
कई हफ्तों तक दोहा में बातचीत करने के बाद आखिरकार गुरुवार को इस्राएल और हमास के बीच एक समझौते का एलान हुआ। अमेरिका, कतर और मिस्र ने इस समझौते के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभाई।
इस समझौते ने दोनों पक्षों के बीच जारी संघर्ष को फिलहाल रोक दिया है। यह 7 अक्टूबर 2023 को इस्राएल पर हमास के हमले के बाद से ही चला आ रहा था। इस हमले में 1,200 लोगों की मौत हुई और 250 से ज्यादा बंधक बनाए गए। इसके बाद इस्राएली सेना के गजा पर जवाबी हमलों में 46,000 से ज्यादा लोग मारे गए हैं। इनमें 18,000 से ज्यादा बच्चे थे। बुधवार की शाम एक प्रेस कांफ्रेंस में कतर के प्रधानमंत्री मोहम्मद बिन अब्दुलरहमान अल थानी ने कहा कि संघर्षविराम का पहला चरण रविवार को शुरू होगा और 42 दिनों तक चलेगा। हमास बाकी बचे 98 बंधकों में से 33 लोगों को रिहा करेगा। इसके बदले में इस्राएल के कब्जे में मौजूद सैकड़ों फलीस्तीनी कैदी रिहा होंगे। अल थानी ने बताया कि समझौते के बाद गजा के लिए मानवीय सहायता भी काफी ज्यादा बढ़ जाएगी।
इस्राएल हमास के युद्ध के बीच बंधकों को निकालने की कोशिश
यह पहली बार नहीं है कि कतर ने वैश्विक संकट के समाधान में मध्यस्थ की भूमिका निभाई हो। कतर ने ईरान, अफगानिस्तान और वेनेज्वेला में पकड़े गए अमेरिकी नागरिकों की रिहाई के लिए भी समझौते कराए हैं। रूस ले जाए गए यूक्रेनी बच्चों को वापस लाने के समझौते में भी कतर ने भूमिका निभाई थी।
कतर ने सूडान और चाड के अलावा इरिट्रिया और जिबूती के बीच राजनयिक समझौतों के लिए ही बातचीत की भी अध्यक्षता की। इतना ही नहीं 2011 में दारफुर शांति समझौता कराने में भी उसकी भूमिका थी।
2020 में कतर ने अमेरिका के अफगानिस्तान से निकलने के लिए तालिबान के साथ समझौता कराया। इसके बाद नवंबर 2023 में इस्राएल-हमास के बीच अस्थाई संघर्ष विराम में भी वह शामिल था।
‘शांति के लिए सहयोगी’
ब्रिटेन के थिंक टैंक रॉयल यूनाइटेड सर्विसेज इंस्टिट्यूट के सीनियर रिसर्च फेलो बुर्कु ओजेलिक ने डीडब्ल्यू से कहा, ‘कतर के प्रमुख मध्यस्थ के रूप में उभार ने उसकी कूटनीतिक स्थिति को मजबूत कर दिया है। उसे क्षेत्रीय रूप से पराया करने की बजाये दुनिया के मंच पर एक मजबूत खिलाड़ी में बदल दिया है।’
ओजेलिक ने यह भी कहा, ‘इस नई भूमिका ने दोहा का प्रभाव बढ़ा दिया है और वैश्विक समुदाय में उसे 'शांति के लिए सहयोगी' के रूप में अपरिहार्य बना दिया है।’
कतर क्यों खुद को दुनिया में मध्यस्थ के रूप में तैयार कर रहा है, इसका भी लेखा जोखा मौजूद है। कूटनीतिक मामलों में अपनी हद से बाहर जा कर कतर अस्थिर इलाके में स्वतंत्र रूप से अपने लिए सुरक्षा कायम करना चाहता है।
अपनी विदेश नीति को ढालने के लिए उदाहरण के तौर पर वह असंतुष्टों, विद्रोहियों के साथ ही क्रांतिकारी और चरमपंथी गुटों को मदद दे कर उनके साथ खड़ा हो रहा है। अपने पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी संयुक्त अरब अमीरात से मुकाबले का यह उसका एक तरीका है। रिसर्चर अली अबो रेजेग ने एकेडमिक जर्नल इनसाइट तुर्की में 2021 में लिखे एक पेपर में कहा कि कतर अपने पड़ोसी सऊदी अरब से भी आदेश लेने से इनकार कर रहा है।
मध्यस्थता में इतना अच्छा क्यों है कतर?
रिश्तेदारियां अहम हैं और कतर को अपने व्यापक और विस्तृत संपर्कों के नेटवर्क के लिए जाना जाता है। उसने कई गुटों को बेस, हथियार या फिर धन दे कर उनका समर्थन किया है। इसमें तालिबान से लेकर, मिस्र के मुस्लिम ब्रदरहुड, लीबिया की मिलिशिया और सीरिया, ट्यूनीशिया, यमन में सरकार विरोधी क्रांतिकारी भी शामिल हैं, जो कथित अरब वसंत के दौरान उठ खड़े हुए थे। 2012 में बराक ओबामा के नेतृत्व वाली अमेरिकी सरकार ने हमास की राजनीतिक शाखा को सीरिया से ईरान ले जाने के बजाय कतर में पनाह देने को कहा। ईरान में अमेरिका के लिए उन तक पहुंचना मुश्किल होता।
कतर ने ईरान के बजाय उसके पड़ोसी देशों के साथ आर्थिक रिश्ते और अच्छे संबंध बना कर रखे हैं। उनमें से कई ईरान को अपना दुश्मन मानते हैं। इतना ही नहीं, कतर ने 2001 से ही अमेरिका के एयरबेस को भी अपने देश में जगह दे रखी है। 10,000 से ज्यादा सैनिकों वाला यह अमेरिका का मध्यपूर्व में अब सबसे बड़ा सैनिक अड्डा है।
यूरोपियन काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस में खाड़ी देशों की विशेषज्ञ सिंजिया बियांको का कहना है, ‘कतर को निश्चित रूप से इन सब का फायदा मिला है क्योंकि पश्चिमी देशों की सरकारें और कुछ हद तक पूर्वी देश भी उसे एक उपयोगी दोस्त के रूप में देखते हैं।’
उदाहरण के लिए 2022 की शुरुआत में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कतर को प्रमुख गैर नाटो सहयोगी घोषित किया। इसकी एक वजह यह थी कि कतर ने अमेरिकी सेना को अफगानिस्तान से निकलने के लिए समझौता कराने में मदद दी। सभी पक्षों के साथ सहानुभूति रखना भी कतर के लिए मददगार है। विशेषज्ञों का कहना है कि अमेरिकी अधिकारियों के साथ करीब से काम करने के बावजूद कतर इलाके के इस्लामी संगठनों के लिए भी व्यावहारिक है। वह उन्हें ऐसी लोकप्रिय राजनीतिक क्रांतियों के रूप में देखता है जिन्हें अनदेखा या खत्म नहीं किया जा सकता। कुछ मामलों में उसे इनसे भी मदद मिली है। तालिबान के सदस्यों का कहना है कि वे कतर में ज्यादा सहज महसूस करते हैं। उनका मानना है कि वह सभी पक्षों को समझता है।
तटस्थता प्राथमिकता है
बियांको का कहना है कि कतर के वार्ताकारों के पास, जरूरी नहीं कि कोई खास हुनर हो। वे इस काम के लिए खुद को तैयार करते हैं। बियांकों के मुताबिक, ‘मैं यह नहीं कहूंगी कि यूरोप समेत दूसरी सरकारों के लिए काम करने वाले राजनयिकों की तुलना में यह कोई ज्यादा है। मुझे लगता है कि यह आपकी प्रवृत्ति के बारे में ज्यादा है, जहां आप जितना संभव है तटस्थ रहने की कोशिश करते हैं। उनके लिए यह बुनियादी रूप से मध्यस्थ की भूमिका निभाने के लिए जरूरी है।
इसका मतलब है कि वे इसे सब चीजों से ऊपर रखते हैं, जिसमें घरेलू और क्षेत्रीय राजनीति भी शामिल है’
बियांको के मुताबिक कतर की संपत्ति की भी इसमें भूमिका है। कतर के संसाधन उसकी सरकार को प्रतिभागियों की मेजबानी और कई समस्याओं पर एक साथ काम करने में सक्षम बनाते हैं।
इसका संबंध सीमित लाल फीताशाही से भी है। कतर के हमाद बिन खलीफा यूनिवर्सिटी में पब्लिक पॉलिसी के प्रोफेसर सुल्तान बरकत ने अकॉर्ड पत्रिका में फरवरी में लिखा था, ‘(कतर के) विदेश मंत्रालय के पास यह क्षमता है कि वह बिना लोगों की पूछ परख किए फैसले ले सकता है। इसका मतलब है कि वह निर्णायक रूप से काम कर सकता है।’ यह पत्रिका नियमित रूप से अंतरराष्ट्रीय शांति के लिए उठाए कदमों की समीक्षा करती है।
संतुलन की खतरनाक कवायद
इस्राएली राजनेताओं ने कतर पर ‘भेड़ की खाल में भेडिय़ा’ होने और आतंकवाद को धन देने का आरोप लगाया। अमेरिकी राजनेता भी कह रहे हैं कि अगर उसने हमास पर दबाव नहीं डाला तो वे कतर के साथ अपने रिश्तों की समीक्षा करेंगे। अप्रैल में रिपब्लिकन सीनेटरों ने कतर का गैर नाटो सहयोगी देश का दर्जा खत्म करने के लिए एक बिल पेश किया।
कतर बार बार यह कहता रहा है कि हमास पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है। बियांको कहती हैं, ‘जब आप गैर सरकारी हथियारबंद मिलिशिया के संपर्क में आते हैं तो जाहिर है कि खतरा आप पर मंडराता रहता है और लोग कहते हैं कि किसी ना किसी रूप में आप इन गुटों को मान्यता दिला रहे हैं, उन्हें ज्यादा वैधता या संसाधनों तक पहुंच हासिल हो रही है।’
उनके मुताबिक कतर की दलील है, ‘हां, हमारे उनसे संबंध हैं, लेकिन हम उसका इस्तेमाल अच्छे के लिए कर रहे हैं।’ देश भले ही शानदार ना हो लेकिन विशेषज्ञों की दलील है कि इस वक्त वह एक जरूरी भूमिका निभा रहा है।
स्विट्जरलैंड में यूएन इंस्टिट्यूट फॉर ट्रेनिंग एंड रिसर्च के कूटनीति विभाग के निदेशक राबिह अल हदाद का कहना है, ‘दो विश्व युद्धों से पहले आमने-सामने ना बैठने और बात ना करने की इंसानियत ने बड़ी कीमत चुकाई है। आज हमें ऐसे पक्षों की जरूरत है जो संघर्ष में जुटे लोगों की आपस में बात करा सकें और समझौतों, कूटनीति व अंतरराष्ट्रीय कानून के जरिए उनके मतभेद को दूर कर सकें।’
-चंदन कुमार जजवाड़े
देश की राजधानी दिल्ली में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए सियासी दल पूरी ताकत के साथ चुनाव प्रचार में जुटे हुए हैं। इन चुनावों में आप, बीजेपी और कांग्रेस तीनों ही ‘मुफ्त’ की कई योजनाओं के ज़रिए मतदाताओं को लुभाने की कोशिश में लगी है।
दिल्ली में 5 फऱवरी को विधानसभा चुनावों के लिए वोटिंग होनी है। इन चुनावों में दिल्ली की सत्ता को बचाए रखना आम आदमी पार्टी के लिए बेहद अहम है। वहीं तीन दशकों से राज्य की सत्ता पर काबिज़ होने के लिए बीजेपी भी संघर्ष कर रही है। जबकि कांग्रेस पार्टी भी दिल्ली में अपनी खोई हुई राजनीतिक ज़मीन को दोबारा हासिल करने की कोशिश में है और इन तीनों ही प्रमुख दलों के लिए लोकलुभावन वादे चुनाव प्रचार का अहम हिस्सा बनते दिख रहे हैं।
हम जानने की कोशिश करेंगे कि दिल्ली के वोटरों के सामने किए जा रहे इन बड़े-बड़े वादों को पूरा करने के लिए राज्य के पास कितना बजट है और क्या ऐसे ‘मुफ़्त की सुविधाओं’ से जुड़े वादे पूरे किए जा सकते हैं?
चुनावी वादे कितना बड़ा आर्थिक बोझ
भारत में कल्याणकारी योजनाएं पुराने समय से चलाई जा रही हैं। देश के कई इलाक़ों में फैली गऱीबी और लोगों की ज़रूरत के लिए इसे काफ़ी ज़रूरी भी माना गया है।
ऐसी योजनाओं में गऱीबों के लिए राशन, पीने का स्वच्छ पानी, बेसहारा, विधवा और बुज़ुर्गों के लिए पेंशन, गऱीबों के लिए चिकित्सा सुविधा जैसी कई योजनाएं शामिल हैं।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के पूर्व प्रोफ़ेसर पुष्पेंद्र कुमार कहते हैं, ‘अगर मुफ़्त की कही जानी वाली इन रेवडिय़ों से वोट मिलता है तो इसका सीधा मतलब है कि देश में वो ‘गऱीबी’मौजूद है जो लोगों को दु:ख देती है।’
उनका कहना है, ‘आजकल छोटे शहरों और कस्बों में भी आपको चमकते बाज़ार दिख जाते हैं और उसके पीछे यह गऱीबी दब जाती है। सरकार इस गऱीबी को स्वीकार करने से इनकार करती है, लेकिन उसे पता है कि इसपर ध्यान नहीं दिया तो लोगों का ग़ुस्सा फूट सकता है, इसलिए लोगों के खातों में पैसे ट्रांसफर किए जा रहे हैं।’
‘चाहे वो किसान सम्मान योजना हो, महिलाओं को पैसे देने हों या लाडली बहन जैसी योजना हो। इसका नुक़सान यह हो रहा है कि सरकार रोजग़ार और दूरगामी योजनाओं जैसी चीज़ों में निवेश नहीं कर रही है।’
हालांकि 1970 के दशक में भारत के दक्षिणी राज्यों में ऐसी कई योजनाएं शुरू की गईं और लोगों को सीधा सरकारी लाभ पहुंचाया गया। इनमें से कई योजनाएं काफी सफल भी रही हैं।
ऐसी योजनाएं धीरे-धीरे देश के अन्य राज्यों में भी लागू की गईं, जिनमें बिहार में महिलाओं के लिए साइकिल योजना और दिल्ली में 200 यूनिट तक फ्री बिजली की योजना भी शामिल है।
इसके अलावा केंद्र सरकार भी कई ऐसी योजनाएं चलाती हैं, जिसके तहत लोगों को मुफ़्त में राशन या किसानों को किसान सम्मान निधि देना शामिल है।
आर्थिक मामलों के जानकार शरद कोहली कहते हैं, ‘मुफ़्त की इन योजनाओं का सबसे बड़ा नुक़सान यह है कि लोग आज के छोटे फायदे के लिए कल का बड़ा नुक़सान कर रहे हैं। पहले आने वाली दो-तीन पीढिय़ों को ध्यान में रखकर योजना बनती थी, अब ऐसा नहीं हो रहा है।’
‘अगर दिल्ली की बात करें तो मुफ़्त की योजनाओं की वजह से पहली बार दिल्ली का बजट नुक़सान में जा सकता है, जो हमेशा सरप्लस रहता था। हमारा अनुमान है कि इस वित्त वर्ष के अंत तक दिल्ली का बजट 6 हज़ार करोड़ रुपये के नुक़सान का होगा।’
लोगों को सुविधाएं देने के मामले में राजनीतिक दलों में ऐसी होड़ देखी जा रही है कि अगर आम आदमी पार्टी ने महिलाओं के लिए 2100 रुपये देने का वादा किया तो बीजेपी ने 2500 रुपये देने का वादा कर दिया है।
वहीं, दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार 200 यूनिट बिजली फ्री देती है तो कांग्रेस ने इसे 300 यूनिट करने का वादा किया है।
शरद कोहली कहते हैं, ‘कई बार राजनीतिक दल ऐसे वादे कर देते हैं जिसे पूरा नहीं किया जा सकता है। जैसा पंजाब में हुआ है, जहां आम आदमी पार्टी की सरकार महिलाओं को पैसे नहीं दे पाई है।’
जाहिर है ऐसी योजनाओं को पूरा करने के लिए राज्य सरकार के पास संसाधन और बजट मौजूद होना चाहिए।
वरिष्ठ पत्रकार संजीव पाण्डेय कहते हैं, ‘पंजाब में आप सरकार को कई समस्याएं विरासत में मिली हैं। उसके पास दिल्ली की तरह टैक्स से मिलने वाला अपना राजस्व नहीं है। हिमाचल प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा मिलने के बाद लुधियाना, जालंधर और कई इलाक़ों से कारखाने पंजाब से हिमाचल चली गईं। इसके अलावा वाघा बॉर्डर बंद होने की वजह से पंजाब का पाकिस्तान से बिजऩेस बुरी तरह प्रभावित हुआ।’
वो कहते हैं, ‘पंजाब में किसानों को पहले से ही मुफ़्त बिजली मिल रही है। आप सरकार ने महिलाओं को मुफ़्त बस सेवा, कुछ तबकों को 300 यूनिट बिजली फ्री बिजली दी है। जो वादा पंजाब में आप सरकार पूरा नहीं कर पाई है, वो है ओल्ड पेंशन स्कीम और इसके पीछे केंद्र सरकार की भी बड़ी भूमिका है।’
बीजेपी के रुख़ में बदलाव
दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने लगातार दो चुनावों में बड़ी जीत हासिल की है, जिसमें उसकी मुफ़्त की योजनाओं का बड़ा योगदान माना जाता है।
साल 2013 में पहली बार अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस के समर्थन से 49 दिनों तक दिल्ली में सरकार चलाई थी।
इस दौरान अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आप सरकार ने दिल्ली के लोगों के लिए मुफ़्त बिजली, पानी और अन्य सुविधाओं की कई घोषणा की और इन चुनावों में वो इसे और आगे ले जाने का वादा कर रही है।
साल 1993 से दिल्ली की सत्ता में वापसी का इंतज़ार कर रही बीजेपी भी अब ऐसी ही 'मुफ़्त की योजनाओं' के रास्ते पर है और कांग्रेस पार्टी भी इसे ही आधार बनाकर दिल्ली में अपनी पुरानी ताक़त वापस हासिल करने के प्रयास में लगी है।
आम आदमी पार्टी ने अपने चुनावी वादों के दम पर साल 2015 के चुनावों में दिल्ली से कांग्रेस को पूरी तरह साफ कर दिया। 70 सीटों की विधानसभा में बीजेपी भी महज़ 3 सीटों पर सिमट गई। साल 2020 में भी आम आदमी पार्टी सरकार की योजनाओं का दिल्ली में उसे बड़ा लाभ मिला और उसने बड़ी जीत दर्ज की। मुफ़्त की योजनाओं का वोटरों पर हो रहे इस असर को अब बीजेपी और कांग्रेस भी समझ रही है और दोनों ही दलों ने ऐसे कई वादे वोटरों से किए हैं।
जबकि साल 2022 में प्रधानमंत्री मोदी ने गुजरात में चुनाव प्रचार के दौरान कहा था, ‘आजकल हमारे देश में मुफ्त की रेवड़ी बांटकर वोट बटोरने का कल्चर लाने की भरसक कोशिश हो रही है। ये रेवड़ी कल्चर देश के विकास के लिए बहुत घातक है। देश के लोगों को और खासकर मेरे युवाओं को बहुत सावधान रहने की जरूरत है।’
उस वक्त आम आदमी पार्टी भी गुजरात विधानसभा चुनावों में अपनी ताक़त आज़मा रही थी और चुनाव प्रचार में उसका दिल्ली में चल रही योजनाओं को जनता के सामने पेश करने पर काफ़ी जोर था। जबकि बीजेपी ने मौजूदा दिल्ली विधानसभा चुनावों के लिए अपने संकल्प पत्र में लिखा है, ‘दिल्ली में भाजपा की सरकार बनने पर न केवल मौजूदा कल्याणकारी योजनाएं जारी रहेंगी, बल्कि उन्हें और अधिक प्रभावी और भ्रष्टाचार मुक्त बनाएंगे।’
लोकलुभावन वादे
बीजेपी ने अपने संकल्प पत्र में हर गऱीब महिला को हर महीने 2500 रुपये देने का वादा किया है। इसमें वरिष्ठ नागरिकों के मिलने वाला पेंशन 2 हजार से बढ़ाकर 2500 करने का वादा किया गया है।
बीजेपी ने अन्य वादों के अलावा हर गर्भवती महिला को 21 हज़ार रुपये की आर्थिक मदद और 6 पोषण किट देने का वादा भी किया है। उसने हर गऱीब परिवार की महिला को 500 रुपये में एलपीजी गैस सिलेंडर और होली-दिवाली पर एक-एक सिलेंडर मुफ़्त देने का संकल्प भी लिया है।
दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने बीजेपी के संकल्प पत्र पर प्रतिक्रिया दी है और कहा है, ‘बीजेपी ने सरेआम खुले में स्वीकार किया कि दिल्ली में केजरीवाल की ढेरों कल्याणकारी योजनाएं चल रहीं हैं जिसका लाभ बीजेपी वालों के परिवारों को भी मिल रहा है। हमें राजनीति करनी नहीं आती, काम करना आता है और काम ऐसा करते हैं कि हमारे विरोधी भी उसकी तारीफ़ करते हैं।’
आम आदमी पार्टी की सरकार दिल्ली में मुफ़्त बिजली, पानी, इलाज, शिक्षा, महिलाओं को मुफ़्त बस यात्रा, बुज़ुर्गों की मुफ़्त तीर्थ यात्रा की योजना चला रही है।
उसने अब इसे और बढ़ाने का वादा किया है, जिसमें हर महिला को हर महीने 2100 रुपये, बुज़ुर्गों इलाज का पूरा खर्च, पुजारियों-ग्रंथियों को हर महीने 18 हज़ार रुपये का सम्मान और छात्रों को भी बसों में मुफ़्त यात्रा जेसे कई वादे किए हैं।
आप ने दिल्ली मेट्रो में छात्रों को 50 फ़ीसदी छूट देने का वादा भी किया है।
वहीं कांग्रेस पार्टी ने अपने लोकलुभावन वादों में आम सरकार की 200 यूनिट फ्री बिजली की योजना को बढ़ाकर 300 यूनिट करने का वादा किया है।
कांग्रेस ने महिलाओं के लिए ‘प्यारी दीदी योजना’, स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए ‘जीवन रक्षा योजना’, युवाओं के लिए ‘युवा उड़ान योजना’ और इसके अलावा ‘महंगाई मुक्ति योजना’ जैसे कई वादे किए हैं।
सुप्रीम कोर्ट में मामला
ऐसी सरकारी योजनाओं को सुप्रीम कोर्ट में भी चुनौती दी गई है और यह मामला अब भी चल रहा है। इससे जुड़ी दो याचिकाएं वकील अश्विनी उपाध्याय ने भी सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की है।
उनका कहना है, ‘मैंने साल 2022 में याचिका डाली थी, जिसपर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। मैनें मांग की है कि जनकल्याणकारी योजनाओं और मुफ़्त को योजनाओं को परिभाषित किया जाए। मेरा कहना है कि रोटी, कपड़ा और मकान से जुड़ी योजनाओं को ‘कल्याणकारी योजना’ और बाक़ी को मुफ्तखोरी माना जाए।’
अश्विनी उपाध्याय ने मांग की है कि चुनावी घोषणापत्र के लिए एक ‘फॉरमेट’ हो और हर दल उसके मुताबिक़ अपनी घोषणा करे, जिसमें राज्य पर मौजूदा कजऱ्, चुनावी वादों के बाद बढऩे वाला कर्ज और सरकार बनने पर इसकी भरपाई की योजना का जि़क्र हो।
अश्विनी उपाध्याय के मुताबिक़, ‘जब मैंने जनहित याचिका डाली थी तब भारत सरकार पर 150 लाख़ करोड़ रुपये का कजऱ् था, जो अब बढक़र 225 लाख़ करोड़ हो गया है। जबकि दिल्ली सरकार का कर्ज 55 हजार से बढक़र एक लाख़ करोड़ हो गया है।’
अश्विनी उपाध्याय ने मांग की है कि जो पार्टी 5 साल सरकार चलाने के बाद कजऱ् को कम नहीं कर सके, उसपर चुनाव लडऩे पर पाबंदी लगा दी जाए।
बीते साल बीजेपी नेता और विधायक जीतेन्द्र महाजन की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस जस्टिस मनमोहन सिंह की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा था कि आम आदमी पार्टी शहर में आधारभूत ढांचों को बेहतर करने में नाकाम रही है।
बीते साल नवंबर में इस मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा था कि सरकार ज़रूरी इंफ्रास्ट्रक्चर की मरम्मत करने की बजाय फ्रीबीज़ देने को प्राथमिकता दे रही है।
ये एक फ्लाईओवर की मरम्मत कर उसे लोगों के लिए खोलने से जुड़ा मामला था। सुनवाई के दौरान ये सामने आया था कि पीडब्ल्यूडी विभाग फ्लाइओवर बनाने वाले कॉन्ट्रेक्टर को 8 करोड़ रुपये का भुगतान नहीं कर सकी थी।
आंकड़ों में क्या है?
साल 2024-25 के दिल्ली के बजट के मुताबिक़ दिल्ली सरकार ने 78, 800 करोड़ का बजट पेश किया था।
इसके अनुसार दिल्ली में साल 2022-23 में 40 से ज्यादा करोड़ फ्री टिकट (दिल्ली की सरकारी बसों में महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा के लिए पिंक टिकट जारी किए जाते हैं) किए गए।
साल 2019 से पिछले साल तक 87 हजार बुजुर्गों को मुफ्त तीर्थ यात्रा कराई गई।
दिल्ली में करीब 59 लाख घरेलू उपभोक्ता बिजली के थे पिछले साल के बजट के मुताबिक एक साल में 3।41 करोड़ बिजली का बिल जीरो यानी शून्य रहा।
दिल्ली जल बोर्ड का बजट 7 हज़ार करोड़ से ज्यादा का है। सरकार हर परिवार को दो हजार लीटर मुफ्त पानी देती है।
पिछले साल के बजट में दिल्ली में हर महिला को 1000 रुपये हर महीने देने का वादा किया गया था, जिसका बजट 2000 करोड़ रखा गया था। अब आम आदमी पार्टी इसे 2100 करने का वादा कर रही है, यानी यह बजट 4000 करोड़ से ज्यादा का होगा।
वहीं मनीकंट्रोल ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि अगर आम आदमी पार्टी दिल्ली में हर महिला को 2,100 रुपये प्रतिमाह देने के वादे को चुनाव जीतने के बाद पूरा करती है तो उसे 2026 के बजट में 10 हजार करोड़ रुपये अतिरिक्त चाहिए होंगे, जो उसके सब्सिडी बिल का दोगुना होगा।
इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में हर साल 3600 करोड़ बिजली सब्सिडी, 200 करोड़ पानी सब्सिडी और बस ट्रेवल पर 70 करोड़ की सब्सिडी दी जा रही है।
बीते साल अक्तूबर में इस तरह की ख़बरें आई थीं कि दिल्ली सरकार का बजट 31 सालों में पहली बार घाटे में जा सकता है।
वित्त विभाग के हवाले से मीडिया में रिपोर्ट आई कि वित्त वर्ष 2024-2025 के ख़त्म होने से पहले दिल्ली का बजट घाटे में जा सकता है। अनुमानों के अनुसार जहां इस वर्ष राजस्व से आय 62,415 करोड़ है, वहीं खर्च 63,911 करोड़ हो सकता है।
इन बयानों के बीच 16वें वित्त आयोग आयोग के चैयरमैन अरविंद पनगढिय़ा का एक बयान बीते दिनों चर्चा में रहा था।
कुछ दिन पहले उन्होंने फ्रीबीज़ (रेवडिय़ों) के सवाल पर कहा था कि जो पैसा परियोजनाओं के लिए दिया जाता है उसे केवल परियोजनाओं के कार्यान्वयन में ही लगाया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा था, ‘ये पैसा मुफ्त रेवडिय़ों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। फ्रीबीज के लिए आम बजट में प्रावधान किया जाना चाहिए, जिसमें राज्यों से भी कर आता है।’
‘इस पर आयोग का न तो नियंत्रण है और न ही ऐसा कुछ उसे करना चाहिए, यानी राज्य सरकारें कैसे अपना पैसा खर्च करती हैं ये उनका फैसला है।’
‘आखिर में नागरिकों को ही फैसला लेना है। अगर नागरिक मुफ्त की रेवडिय़ों को देखते हुए अपनी सरकार चुनते हैं, तो वो रेवड़ी मांग रहे हैं। आखिर में नागरिकों को चुनना है उन्हें बेहतर सुविधाएं, बेहतर सडक़ें, पानी तक पहुंच चाहिए या फिर फिर कैश ट्रांसफर यानी...रेवड़ी चाहिए।’ (bbc.com/hindi)
गुरुवार को दिल्ली में बीबीसी इंडियन स्पोर्ट्सवुमन ऑफ द ईयर के पाँचवें संस्करण के लिए नामांकन की घोषणा हुई है। इसके लिए गोल्फऱ अदिति अशोक, निशानेबाज़ मनु भाकर और अवनि लेखरा को नामांकन मिला है। उनके अलावा क्रिकेटर स्मृति मंधाना और पहलवान विनेश फोगाट को भी इस नामांकन में जगह मिली है। यह पुरस्कार साल 2024 में भारतीय खिलाडिय़ों के अहम योगदान के लिए दिया जाएगा।
इस दौरान खेल पत्रकारों ने वहां मौजूद द्रोणाचार्य अवॉर्ड से सम्मानित कोच प्रीतम सिवाच और पेरिस पैरालंपिक में ब्रॉन्ज़ जीतने वाली पैरा एथलीट सिमरन शर्मा से सवाल भी पूछे।
प्रीतम सिवाच ने अपने ही देश की महिला कोच पर भरोसे की कमी की बात कही और इसपर नाख़ुशी जताई। उन्होंने कहा कि अभी भी बहुत से लोग भारतीय महिला कोच की क्षमताओं पर संदेह रखते हैं।
बीबीसी इंडियन स्पोर्ट्सवुमन ऑफ द ईयर के लिए नॉमिनेशन हासिल करने वालीं खिलाडिय़ों को अब वोटिंग की प्रक्रिया से होकर गुजऱना होगा। इसके लिए लोग भारतीय समय के मुताबिक़ शुक्रवार 31 जनवरी रात 11.30 बजे तक वोटिंग कर सकते हैं।
विजेता की घोषणा नई दिल्ली में एक ख़ास समारोह में सोमवार, 17 फरवरी को की जाएगी।
बीबीसी इंडियन स्पोर्ट्सवुमन ऑफ द ईयर के पाँचवें संस्करण को लेकर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस भी हुई।
महिला कोच की कमी पर क्या बोलीं प्रीतम सिवाच?
खेल पत्रकार शारदा उगरा ने प्रीतम सिवाच से पूछा कि वह इकलौती महिला द्रोणाचार्य अवॉर्ड विजेता हैं, उन्हें क्या लगता है कि महिला कोच की कितनी जरूरत है खेल में और कमी क्यों है? क्या महिला कोच को लेकर स्थिति बदली है?
इस पर प्रीतम सिवाच ने कहा, ‘अच्छा सवाल है, पुरुषों को बुरा नहीं लगना चाहिए। हमारे समाज और हिंदुस्तान में, मैं जो देखती हूं। कि यहां पर पुरुषों की प्रधानता है।’उन्होंने कहा, ‘कहते हैं कि महिलाएं बहुत आगे चली गई हैं लेकिन मैंने अपने क्षेत्र में देखा है बहुत सारे पत्रकार हैं जिन्होंने मुझे खेलते हुए देखा है, मेरा सारा करियर देखा है।’
‘मैंने अपनी जिंदगी खेल में लगाई है। पहले 20 साल खेलने में लगाए और आगे के 20 साल कोचिंग में लगाए।’
‘आज भी मुझे द्रोणाचार्य अवॉर्ड मिलने के बाद भी ये नहीं सोचते कि क्या एक महिला भारतीय टीम की कोच हो सकती है। उनका इतना कॉन्फिड़ेंस आजतक नहीं बना है। बाहर वाली गोरी को लेकर आ जाएंगे कि ये कोचिंग कर सकती हैं लेकिन हिंदुस्तान में ऐसा नहीं हुआ है।
ये बहुत बड़ी सच्चाई है। ऐसा सोचते हैं, ख़ासकर कोचिंग में, हमारे प्लेयर्स बैठे हैं वो बता सकते हैं। जबकि हमें भरोसा करना चाहिए। जब हम नीचे से खिलाड़ी बनाकर हिंदुस्तान के लिए तैयार कर के दे रहे हैं, तो क्या हम ऊपर काम नहीं कर सकते।
तो फिर हमें भरोसा बनाना होगा। जब ये अवॉर्ड मिलते थे तो मैंने दो साल अपना नाम भेजा, तो पूछा जाने लगा कि महिला को ये अवॉर्ड मिल सकता है क्या?
तभी मेरे मन ये सवाल आया कि महिला को क्यों नहीं मिल सकता? मैं लेकर दिखाऊंगी। मैंने चुनौती स्वीकार की। मैं चाहती हूं हर महिला को काम करना चाहिए।
बहुत सारी महिलाएं तो ये सोचकर पीछे हट जाती हैं कि छोड़ो ये तो आगे ही नहीं बढऩे देते। जब तक हम आगे नहीं आएंगे और लड़ाई नहीं करेंगे अपने लिए, तो हमें नहीं मिल पाएगा।
तो मैंने बहुत लड़ाई लड़ी है और सबको लडऩी चाहिए और महिलाओं को आगे आना चाहिए कोचिंग में आना चाहिए और हर चीज़ में आना चाहिए।’
रिपोर्टर्स ने पूछे कौन से सवाल
पति की सफ़लता के पीछे पत्नी का हाथ होता है, लेकिन पत्नी की सफलता के पीछे भी पति का हाथ होता है। आपके पति जो आर्मी में हैं, उन्होंने भी आपको ट्रेन किया है। ये जो प्रक्रिया रही है साथ में ट्रेनिंग करने की, ये प्रक्रिया कैसे और कब शुरू हुई?- कृति शर्मा, वेबदुनिया
सिमरन: साल 2017 में जब हमारी शादी हुई थी तब उन्होंने (मेरे पति ने) सवाल पूछा था कि जि़ंदगी में क्या करना है। तो मैंने कहा था कि मैं अपनी टीशर्ट पर इंडिया लिखा हुआ देखना चाहती हूं। मैंने तो हवाबाज़ी में कहा था। उन्होंने कहा कि इसके लिए बहुत मेहनत करनी होगी।
मुझे नहीं पता था कि लडक़े इतने सीरियस होते हैं। मेरे आसपास कोई था नहीं इतना सीरियस। शादी के अगले दिन कहा कि तैयार हो जाओ जिम जाना है।
पैरा एथलीट सिमरन शर्मा का बयान
मेरे हाथों में मेहंदी लगी हुई थी और मैं ट्रैक सूट में वापस आई और जब वापस आई तो मुंह दिखाई के लिए आए लोगों ने पूछा कि बहू कहां हैं? मैंने कहा कि मैं ही हूं जी। तो संघर्ष वहीं से शुरू हुआ था।
मेरी सास के ऊपर लोग टूट पड़े कि, कैसे कपड़े पहनती है? पता नहीं चलता कि बेटी कौन है बहू कौन है? तेरी बहू न्यारी है क्या जो घूंघट नहीं करेगी?
तो इन्होंने कहा कि मेरी तो पत्नी न्यारी ही है और जब ये ओलंपिक में जाएगी और शॉर्ट्स पहनकर दौड़ेगी तो क्या तुम देखोगी नहीं?
मैं हंसने लगी तो पूछा कि क्यों हंस रही हो? तो मैंने कहा कि तुम बात ही ओलंपिक की कर रहे हो मुझे तो पसीने आते हैं टीवी पर देखकर। तो इन्होंने कहा कि तुम नहीं कर सकती लेकिन मैं तुमसे करवा दूंगा।
मैं उस वक्त इतनी ताक़तवर नहीं थी लेकिन वो (मेरे पति) उस वक्त तैयार थे ये करवाने के लिए।
शादी के बाद दो-तीन साल बहुत मुश्किल निकले। उनके पास एक प्लॉट था जो उन्होंने बेच दिया क्योंकि प्रोफ़ेशनल स्पोर्ट्स में खर्च आता है।
कोच प्रीतम सिवाच ने अपनी स्पोर्ट्स जर्नी पर क्या बताया
प्रीतम जब आप खेली थीं कॉमनवेल्थ में तब आपका बेटा 7 महीने का था, तो अभी वो खेल रहा है या आपने कहा कि बैठ जा सिफऱ् मैं ही खेलूंगी?- नॉरेस प्रीतम, खेल पत्रकार
प्रीतम सिवाच: मेरे दोनों बच्चे हॉकी इंडिया लीग में खेल रहे हैं और सोनीपत में, मैं जहां कोचिंग देती हूं वहां के 11 बच्चे भी खेल रहे हैं।
जैसा इन्होंने (सिमरन ने) भी बताया, हमारी बहुत मिलती-जुलती कहानी है।
सिमरन तो आज की हैं मेरी कहानी तो 20-25 साल पहले की है। बहुत मुश्किलें आई थीं। ये सब चीज़ें आती हैं, लेकिन हमें इससे लडऩा है।
लोगों को जागरूक करना है समाज में। ऐसे ही मैंने सोचा था कि टीम बनाऊं। जितना संघर्ष मैंने किया, उम्मीद करती हूँ लड़कियां न करें। मेरे अंदर भी जुनून था। अच्छी बात है कि अर्जुन अवॉर्ड से सम्मानित हो गई और द्रोणाचार्य भी मिल गया।
सोचा कि इतने साल खेले समाज को वापस देना चाहिए। तो मैं 20 साल से कोचिंग दे रही हूं। मैं इकलौती महिला हूं हॉकी में जिसे द्रोणाचार्य अवॉर्ड मिला है। (bbc.com/hindi)
एक समझौते के अनुसार भारत और बांग्लादेश अपनी सीमा के 150 गज के इर्द गिर्द कोई भी रक्षा ढांचा नहीं बना सकते. यह फैसला कौन करेगा कि रक्षा ढांचा आखिर है क्या?
डॉयचे वैले पर साहिबा खान का लिखा-
काफी समय से सीमा पर ‘रक्षा ढांचे’ पर विवाद के चलते बीते सोमवार नई दिल्ली में भारत में बांग्लादेश के उच्चायुक्त मोहम्मद नूरुल इस्लाम को तलब किया गया। बांग्लादेश और भारत की सीमा पर भारत बाड़ लगा रहा है, जिस पर अभी काम जारी है। इस बाड़ पर बांग्लादेश ने आपत्ति जताई है। औपचारिक तौर पर इस बात का जिक्र करते हुए विदेश मंत्रालय ने कहा है कि भारत ने ‘फेंसिंग' के मुद्दे पर दोनों देशों की शर्तों और प्रोटोकॉल को उल्लंघन नहीं किया है।
विवाद यहां तक कैसे बढ़ा
सीमापार मसलों की विशेषज्ञ और ओ।पी जिंदल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर डॉ। श्रीधरा दत्ता ने डीडब्ल्यू से बातचीत में बताया कि अंतरराष्ट्रीय सीमा पर फेंसिंग लगाने की बीएसएफ की कोशिशें भारत और बांग्लादेश के बीच लंबे समय से विवाद का विषय रही हैं, हालांकि अभी इसे ज्यादा गंभीरता से लिया जा रहा है। डॉ दत्ता ने कहा, ‘ये परेशानियां और आपत्तियां पहले भी मौजूद थीं। दोनों देश लम्बे समय से इस पर बात करते आ रहे हैं। आम लोगों ने भी इसके साथ जीना सीख लिया है। लेकिन फिलहाल दोनों देशों के रिश्तों में खटास के चलते यह मसला तूल पकड़ रहा है।’
असल में बांग्लादेश ने भारत की ‘बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स की गतिविधियों' पर ‘गहरी चिंता' जताते हुए ढाका में भारत के उच्चायुक्त प्रणय वर्मा को पहले तलब किया था। उन्होंने कहा कि भारत ने अंतरराष्ट्रीय सीमा से संबंधित द्विपक्षीय समझौते का उल्लंघन किया है। फिर नई दिल्ली ने नूरुल इस्लाम को इस बात पर बुलावा भेजा। हाल ही में बॉर्डर गार्ड्स बांग्लादेश (बीजीबी) ने पश्चिम बंगाल के मालदा में अंतरराष्ट्रीय सीमा पर कांटेदार तार की बाड़ के निर्माण में बाधा डालने की कोशिश की थी। घटना का वीडियो फुटेज सोशल मीडिया पर भी वायरल हुआ। बांग्लादेश में शेख हसीना सरकार के गिरने के कुछ दिनों बाद अगस्त 2024 में ऐसी ही एक घटना पश्चिम बंगाल के कूच बिहार में हुई थी।
बांग्लादेश के साथ भारत की सबसे लम्बी सीमा
भारत और बांग्लादेश के बीच 4,096।7 किलोमीटर की सीमा है। यह सीमा भारत की किसी दूसरे मुल्क की तुलना में सबसे ज्यादा लम्बी सीमा है। मालदा में भी कुछ समय पहले इसी प्रकार की परेशानी आई थी। फिर पिछले हफ्ते बांग्लादेश ने एक बार फिर पश्चिम बंगाल के कूच बिहार जिले के मेखलीगंज में बाड़ लगाने पर आपत्ति जताई।
10 जनवरी को, मेखलीगंज के गांव वालों ने दहाग्राम-अंगरपोटा के बांग्लादेशी एन्क्लेव की सीमा के कुछ हिस्सों में बाड़ लगाना शुरू कर दी। इसे बनाने में लोगों ने बीएसएफ की मदद भी ली। तब बांग्लादेश के बॉर्डर गार्ड ने उन्हें चार फुट ऊंची कांटेदार तार की बाड़ लगाने से रोकने का प्रयास किया। भारत की तरफ गांव वालों का कहना था कि बांग्लादेश के मवेशी वहां भटकते हुए आ जाते हैं और उनकी फसल बर्बाद कर देते हैं, इसलिए बाड़ लगाई गई।
पूरा विवाद है सीमा पर ‘रक्षा ढांचों के निर्माण’ को लेकर
1975 में भारत और बांग्लादेश के बीच हुए एक समझौते के अनुसार सीमा के 150 गज के भीतर दोनों देशों में से कोई भी डिफेन्स इंफ्रास्ट्रक्चर यानी कि रक्षा ढांचा नहीं बना सकता।
हालांकि भारत की तरफ से अलग अलग इलाकों में बाड़ लगाने का काम जारी है। डॉ दत्ता बताती हैं, ‘भारत इन्हें रक्षा ढांचा नहीं मानता। भारत कहता है कि बाड़ सीमा पार अपराधों से बचने के लिए है और मवेशी, जो भटकते हुए चरने आ जाते हैं, उन्हें भी यह बाड़ काबू में रखती है।’
श्रीधरा आगे बताती हैं कि भारत और बांग्लादेश की सीमा 1971 में हुए विभाजन के कारण काफी पेचीदा रही है। ‘कई गांव सीमा से होकर गुजरते हैं। कहीं कहीं तो घरों के किचन सीमा पर हैं। कहीं फुटबॉल कोर्ट का एक गोल पोस्ट भारत में तो एक बांग्लादेश में है।’
उन्होंने आगे बताया कि बांग्लादेश में आबादी बहुत घनी है और वह एक कृषि आधारित देश है। इस वजह से गांव वालों और मवेशियों का आना-जाना लगा रहता है। लगभग 2200 किलोमीटर की सीमा में बाड़ के अंदर ही बांग्लादेश के कई गांव बसे हैं।
सीमा पर बसे गांव को ऐसे संभाल रहे दोनों देश
अगर कोई गांव सीमा पर ही है तो फेंसिंग लाइन में कुछ दरवाजे बना दिए गए हैं ताकि लोग आराम से आ-जा सकें। इन दरवाजों के खुलने और बंद होने का अपना समय है। हालांकि आपातकालीन स्थिति में बीएसएफ को सभी दरवाजों को एक साथ और जल्द खोलने के आदेश हैं। अब बांग्लादेश को आपत्ति ये है कि जब 1975 के समझौते में साफ तौर पर किसी भी तरह का रक्षा निर्माण करना प्रतिबंधित है तो फिर भारत इसका उल्लंघन क्यों कर रहा है। दूसरा तर्क है कि इससे गांव वालों को रोजमर्रा के कामों और आने जाने में दिक्कत होती है।
भारत की स्मार्ट फेंसिंग से भी है परेशानी
बांग्लादेश को केवल बाड़ से ही नहीं बल्कि स्मार्ट फेंसिंग से भी दिक्कत है, जो लाजमी है। स्मार्ट फेंसिंग में बाड़ बनती है और निगरानी के लिए उस पर लगते हैं आधुनिक कैमरे और बाकी आधुनिक उपकरण। बांग्लादेश का मानना है कि इन कैमरों के जरिए भारत उनके गांव पर भी नजर रख सकता है।
श्रीधरा ने बताया, ‘बांग्लादेश में कुछ गांव वालों ने कहा है कि भारत ने सीमा पर पहले ही फ्लैश लाइट लगा दी हैं जिससे बांग्लादेश वाले हिस्से में आगे तक का हिस्सा नजर आता है।’ जबकि भारत के अनुसार यह फेंसिंग सीमा पार अपराधों पर नजर रखने के लिए बनाई गई है और इस पर अभी भी बातचीत जारी है। दोनों पक्ष स्मार्ट फेंसिंग के निर्माण पर 5 सालों से चर्चा कर रहे हैं।
भारत ने अब तक इतनी बाड़ लगा दी है
भारत के गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, भारत-बांग्लादेश सीमा पर, पश्चिम बंगाल के साथ साथ सभी पूर्वी राज्यों को कवर करते हुए, कुल 4,156 किलोमीटर में से 3,141 किलोमीटर पर बाड़ लगा दी गई है।
2023 में असम में अवैध प्रवासियों को भारतीय नागरिकता देने से संबंधित नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई के दौरान केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि भारत सीमा पर बाड़ नहीं लगा पा रहा है क्योंकि पश्चिम बंगाल सरकार उसका साथ नहीं दे रही है।
पश्चिम बंगाल की बांग्लादेश के साथ 2,216।7 किलोमीटर लंबी सीमा है, जिसके 81.5 प्रतिशत हिस्से पर 2023 तक बाड़ लगाई जा चुकी थी। दत्ता कहती हैं, ‘ये सब काफी पहले से होता आ रहा है, इसलिए सीमा पर इतनी बाड़ पहले ही बन चुकी है।’ (dw.comhi)
-जेरेमी बोवेन
इसराइल और हमास के बीच सीजफायर पर बात बनना एक बड़ी उपलब्धि है। इसे बहुत पहले हो जाना चाहिए था।
पिछले साल मई से ही इस समझौते की अलग-अलग रूप चर्चा रही है। समझौते में हुई देरी के लिए हमास और इसराइल ने एक-दूसरे पर दोष मढ़ा है।
सात अक्तूबर 2023 को हमास के हमलों के बाद इसराइल की जवाबी कार्रवाई ने गज़़ा को बर्बाद कर दिया है।
हमास के हमले में करीब 1200 लोग मारे गए थे, जिनमें से अधिकांश इसराइली नागरिक थे। वहीं, अब तक गज़़ा में 20 लाख से अधिक लोग विस्थापित हो चुके हैं।
हमास संचालित स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, इसराइली हमलों में लगभग 50 हज़ार लोग मारे गए हैं। इनमें हमास के लड़ाके और आम लोग दोनों ही शामिल हैं।
लैंसेट मेडिकल जर्नल में हाल ही में छपे एक अध्ययन में कहा गया है कि ये संख्या असल में इससे कहीं अधिक हो सकती है।
समझौते की चुनौतियां
लेकिन समझौते के बाद पहली बड़ी चुनौती ये सुनिश्चित करना है कि युद्धविराम कायम रहे।
पश्चिमी देशों के कई सीनियर राजनयिकों को डर है कि 42 दिनों का पहला चरण खत्म होते ही जंग फिर शुरू हो सकती है।
गाजा में छिड़े युद्ध के पूरे मध्य-पूर्व में बहुत गहरे परिणाम देखने को मिले।
हालांकि, कई लोगों ने आशंका जताई थी कि ये युद्ध पूरे क्षेत्र में फैल जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसका श्रेय अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के प्रशासन ने लिया। लेकिन गजा की जंग ने पूरे क्षेत्र में एक उथल-पुथल भरा माहौल तो पैदा कर दिया।
इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू और उनके पूर्व रक्षा मंत्री पर अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय ने युद्ध अपराध का आरोप लगाया है। इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस भी दक्षिण अफ्रीका की ओर से इसराइल पर जनसंहार का आरोप लगाने से जुड़े मामले की जांच कर रहा है।
लेबनान में हिज़्बुल्लाह ने जैसे ही इस युद्ध में दखल दिया, उसे इसराइली हमले के ज़रिए कुचल दिया गया। यही वो वजह थी जिससे सीरिया में बशर अल-असद के शासन का पतन हुआ।
ईरान और इसराइल ने एक-दूसरे पर सीधे हमले किए, जिससे ईरान कमज़ोर हुआ। इसके सहयोगियों और प्रॉक्सी का नेटवर्क जिसे ईरान 'एक्सिस ऑफ़ रेजि़स्टेंस' कहता है वो भी पंगु हो गया है।
यमन में हूतियों ने यूरोप और एशिया के बीच लाल सागर से गुजऱने वाले अधिकांश मालवाहक जहाजों को रोक दिया है। ये देखना बाकी है कि क्या गाजा में युद्धविराम होने के बाद हूती विद्रोही हमलों को रोकने के अपने वादे को पूरा करेंगे।
जहां तक इसराइल और फिलस्तीनियों के बीच लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष की बात है- ये स्थिति पहले से ज़्यादा कड़वाहट भरी है।
अगर किस्मत साथ दे तो इस युद्धविराम से हत्याएं रुक सकती हैं और इसराइली बंधकों, फ़लस्तीनी कैदियों और बंदियों को उनके परिवारों के पास वापस भेजा जा सकता है।
लेकिन इस सीजफायर से एक सदी से भी अधिक पुराना संघर्ष खत्म नहीं होगा।
नेतन्याहू ने बाइडन से पहले ट्रंप को कहा शुक्रिया
इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के कार्यालय ने कहा है कि पीएम की ओर से इस समझौते के बारे में औपचारिक घोषणा की जाएगी। हालांकि, ये घोषणा समझौते को अंतिम रूप देने के बाद की जाएगी, जिसपर अभी काम हो रहा है।
हालांकि, इसराइली पीएम की ओर से आए इस बयान से पहले ही नेतन्याहू ने अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और राष्ट्रपति जो बाइडन दोनों को फ़ोन पर समझौता करवाने के लिए शुक्रिया कहा।
दिलचस्प ये है कि नेतन्याहू ने अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति से पहले डोनाल्ड ट्रंप को फ़ोन किया, जो 20 जनवरी को राष्ट्रपति पद संभालेंगे।
नेतन्याहू के कार्यालय की ओर से आए बयान के अनुसार, ‘पीएम ने ट्रंप और को बंधकों की रिहाई के लिए जोर देने में मदद के लिए शुक्रिया कहा।’
नेतन्याहू ने ट्रंप को उनके इस बयान के लिए भी धन्यवाद दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘गज़़ा कभी आतंकवाद का सुरक्षित ठिकाना न बने, ये सुनिश्चित करने के लिए अमेरिका इसराइल के साथ मिलकर काम करेगा।’
बयान के अनुसार, ‘ट्रंप और नेतन्याहू ने जल्द ही अमेरिका में मुलाकात पर सहमति जताई।’
बयान की आखऱिी लाइन में लिखा है, ‘प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने इसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन से बात की और बंधकों की रिहाई के लिए समझौते के लिए उनका भी धन्यवाद कहा।’
ये सीजफायर डील आने वाले रविवार से लागू होगी, जो राष्ट्रपति पद पर बाइडन का आखऱिी दिन होगा। इसके अगले दिन डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति पद की शपथ लेंगे।
वहीं, व्हाइट हाउस की ओर से एक ब्रीफि़ंग में ये बताया गया है कि हमास पर सैन्य दबाव था, जिसकी वजह से वह बातचीत को तैयार हुआ।
अमेरिकी प्रशासन के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार इस समझौते में डोनाल्ड ट्रंप के मिडिल ईस्ट राजदूत स्टीव विटकॉफ की भी भूमिका रही।
उन्होंने बताया कि विटकॉफ बातचीत के दौरान सक्रिय थे और वह मध्य पूर्व में जो बाइडन के शीर्ष सलाहकार ब्रेट मैकगर्क के साथ मिलकर काम कर रहे थे। (bbc.com/hindi)
प्रयागराज में महाकुंभ मेले के पहले स्नान पर्व मकर संक्रांति पर 3.5 करोड़ से भी ज्यादा लोगों के संगम पर स्नान करने का दावा है. मुख्य पर्व 29 जनवरी को है, उस दिन इससे कई गुना ज्यादा श्रद्धालुओं के आने की संभावना है.
डॉयचे वैले पर समीरात्मज मिश्र का लिखा-
14 जनवरी को प्रयागराज में चल रहे महाकुंभ का पहला शाही स्नान (अमृत स्नान) था और प्रशासन का दावा है कि इस दिन 3.5 करोड़ से ज्यादा लोगों ने पवित्र संगम में डुबकी लगाई। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने खुद अपने एक्स हैंडल पर ये जानकारी दी। देर शाम उन्होंने एक्स पर लिखा, ‘प्रथम अमृत स्नान पर्व पर आज 3.50 करोड़ से अधिक पूज्य संतों/ श्र?द्धालुओं ने अविरल-निर्मल त्रिवेणी में स्नान का पुण्य लाभ अर्जित किया।’
45 करोड़ श्रद्धालुओं के पहुंचने का अनुमान
मकर संक्रांति से एक दिन पहले पौष पूर्णिमा पर भी करीब डेढ़ करोड़ लोगों ने स्नान किया था। यानी सिर्फ दो दिनों में पांच करोड़ से ज्यादा लोगों के स्नान का दावा प्रशासन की ओर से किया जा रहा है। प्रयागराज में कुंभ मेला 13 जनवरी से शुरू हुआ है और 26 फरवरी तक चलेगा और इस दौरान तीन प्रमुख शाही स्नान होंगे। अगला शाही स्नान (अमृत स्नान) 29 जनवरी को अमावस्या को होगा और फिर 3 फरवरी को बसंत पंचमी के मौके पर होगा। इसके अलावा माघी पूर्णिमा और महाशिवरात्रि के दिन भी कुंभ स्नान किया जाएगा।
सबसे ज्यादा भीड़ अमावस्या पर होती है और अनुमान है कि उस दिन स्नान करने वालों का आंकड़ा दस करोड़ के आस-पास होगा। माना जा रहा है कि इस बार के महाकुंभ में करीब 45 करोड़ श्रद्धालु स्नान करेंगे।
हालांकि श्रद्धालुओं की इतनी बड़ी संख्या को लेकर कई तरह के सवाल भी उठते हैं लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि इस धार्मिकआयोजन में स्नान करने वालों यानी भीड़ के आंकड़े जुटाए कैसे जाते हैं? प्रशासनिक अधिकारियों का कहना है कि इसके लिए अब अत्याधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है लेकिन भीड़ के आंकड़े पहले भी आया करते थे और स्नान पर्वों पर भीड़ के तमाम रिकॉर्ड बनते और टूटते थे। आंकड़ों पर सवाल भी हमेशा उठते रहे हैं।
गिनती के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग
प्रयागराज के मंडलायुक्त विजय विश्वास पंत के मुताबिक, इस बार कुंभ मेले में आए श्रद्धालुओं की गिनती के लिए एआई तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है। उन्होंने बताया, ‘महाकुंभ में श्रद्धालुओं की सटीक गिनती के लिए इस बार एआई से लैस कैमरे लगाए गए हैं। यह पहली बार है जब एआई के जरिए श्रद्धालुओं की सटीक संख्या जानने की कोशिश की जा रही है। इसके अलावा श्रद्धालुओं को ट्रैक करने के लिए कुछ और भी इंतजाम किए गए हैं। मेला क्षेत्र में दो सौ जगहें ऐसी हैं जहां पर बड़ी संख्या में अस्थाई सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं। इसके अलावा प्रयागराज शहर के अंदर भी 268 जगहों पर 1107 अस्थाई सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं। इसके अलावा सौ से ज्यादा पार्किंग स्थलों पर भी सात सौ से ज्यादा सीसीटीवी कैमरे लगाए हैं जिनसे बाहर से आने वाले यात्रियों का अनुमान लगाया जाता है।’
श्रद्धालुओं की गिनती के लिए एआई लैस कैमरे हर मिनट में डेटा अपडेट करते हैं। ये सिस्टम सुबह तीन बजे से शाम 7 बजे तक पूरी तरह से सक्रिय रहेंगे। चूंकि मुख्य पर्वों पर स्नान काफी सुबह ही शुरू हो जाता है इसलिए इन्हें उससे पहले ही एक्टिव कर दिया जाता है।
मंडलायुक्त के मुताबिक, एआई का उपयोग करते हुए क्राउड डेंसिटी अलगोरिदम से लोगों की गिनती का भी प्रयास किया जा रहा है। एआई आधारित क्राउड मैनेजमेंट रियल टाइम अलर्ट जेनरेट करेगा, जिसके जरिए संबंधित अधिकारियों को श्रद्धालुओं की गिनती करना और उनकी ट्रैकिंग करना आसान होगा।
एक आदमी की एक बार से ज्यादा गिनती
इसके अलावा मेले में आने वाले श्रद्धालुओं की गिनती नावों और ट्रेनों, बसों और निजी वाहनों से आने वाले लोगों की संख्या से भी की जाती है। इसके अलावा मेले में साधु-संतों और उनके कैंप में आने वाले लोगों की संख्या को भी भी श्रद्धालुओं की कुल संख्या में जोड़ा जाता है और मेले से जुड़ी सडक़ों पर गुजरने वाली भीड़ को भी ध्यान में रखा जाता है।
हालांकि वास्तविक संख्या बता पाना अभी भी बहुत मुश्किल है क्योंकि तमाम यात्री अलग-अलग जगहों पर जाते हैं और यहां तक कि अलग-अलग घाटों पर भी जाते हैं। ऐसे में उनकी गिनती एक बार से ज्यादा ना हो, ऐसा कहना बहुत मुश्किल है।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास विभाग के अध्यक्ष रह चुके प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी ने कुंभ की ऐतिहासिकता पर चर्चित पुस्तक ‘कुंभ: ऐतिहासिक वांगमय' लिखी है। प्रोफेसर चतुर्वेदी साल 2013 के कुंभ मेले में कुंभ मेला कमेटी के सदस्य भी रह चुके हैं।
डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहते हैं, ‘2013 से पहले श्रद्धालुओं की गिनती के लिए मेला के डीएम और एसएसपी की रिपोर्ट को ही सच माना जाता था और उनकी रिपोर्ट इसी आधार पर तैयार होती थी कि कितनी बसें आईं, कितनी ट्रेनें आईं और उनसे कितने लोग उतरे। निजी वाहनों पर भी नजर रखी जाती थी। इसके अलावा अखाड़ों से भी उनके यहां आने वाले श्रद्धालुओं की जानकारी ली जाती थी।’
चतुर्वेदी का यह भी कहना है, ‘पहले बिल्कुल संगम के किनारे तक जाने देते थे, तब यह जानना बहुत आसान था कि कितने लोग निकले होंगे। लेकिन अब तो ज्यादातर लोगों को शहर के भीतर ही रोक दिया जाता है। 2013 में आईआईटी की मदद से जब डिजिटाइजेशन शुरू हुआ तब से कुछ वास्तविक आंकड़े आने लगे। हालांकि डिजिटाइजेशन के दौर में फजिंग भी बहुत होती है।’
भीड़ की गिनती का सांख्यिकीय तरीका
साल 2013 के कुंभ में पहली बार सांख्यिकीय विधि से भीड़ का अनुमान लगाया गया था। इस विधि के अनुसार, एक व्यक्ति को स्नान करने के लिए करीब 0.25 मीटर की जगह चाहिए और उसे नहाने में करीब 15 मिनट का समय लगेगा। इस गणना के मुताबिक एक घंटे में एक घाट पर अधिकतम साढ़े बारह हजार लोग स्नान कर सकते हैं। इस बार कुल 44 घाट बनाए गए हैं जिनमें 35 घाट पुराने हैं और नौ नए हैं। यदि सभी 44 घाटों पर लगातार18 घंटे स्नान कर रहे लोगों की संख्या जोड़ी जाए तो यह संख्या प्रशासन के दावे से काफी कम बैठती है, मुश्किल से एक तिहाई।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मीडिया स्टडीज विभाग में सीनियर फैकल्टी एसके यादव वरिष्ठ फोटोग्राफर हैं और साल 1989 से लगातार हर कुंभ और अर्ध कुंभ को कवर कर रहे हैं। डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहते हैं कि भीड़ को नापने का कोई मैकेनिज्म नहीं है, आज भी सिर्फ अनुमान ही लगाया जा रहा है भले ही हर जगह सीसीटीवी कैमरे लगे हों।
एसके यादव बताते हैं, ‘मकर संक्रांति के दिन मैं तो उसी जगह यानी संगम नोज पर ही था। सडक़ें इस बार काफी चौड़ी की गई हैं, फिर भी मुझे ऐसा लगता है कि मकर संक्रांति के मौके पर साल 2013 और 2019 के कुंभ में जितनी भीड़ थी, इस बार उतनी नहीं थी।’
प्रशासन दे रहा है संख्या की जानकारी
एसके यादव बताते हैं कि यह प्रशासनिक अधिकारियों की ओर से ही तय कर दिया जाता है कि संख्या कितनी बता दी जाए और यही किया जा रहा है। वो कहते हैं, ‘जितनी संख्या प्रशासन बताता है, मीडिया वही छाप देता है। लेकिन पहले ऐसा नहीं था। पहले अखबार और मीडिया हाउस अपनी तरफ से, अपने रिपोर्टरों और फोटोग्राफरों से जानकारी लेते थे और फिर अपने आधार पर भी आंकड़ों का अनुमान लगाते थे।’
यादव का कहना है कि पूरे प्रयागराज जिले की आबादी चालीस-पचास लाख है। और ये सारे लोग यदि संगम की तरफ चल पड़ें तो वहां जगह ही नहीं बचेगी। उन्होंने यह भी कहा, ‘मान लीजिए कि हर घंटे में एक लाख लोग ट्रेनों से बाहर भेजे जा रहे हैं तो 24 घंटे में 24 लाख लोग ही तो जाएंगे। अन्य साधनों से आने वालों को भी इतना मान लीजिए और प्रयागराज के स्थानीय लोगों को भी जोड़ लीजिए। यानी बहुत ज्यादा हुआ तो एक करोड़। इससे ज्यादा संख्या तो कहीं से भी तर्कसंगत नहीं लगती। कुल मिलाकर यह सब भारी-भरकम बजट को जस्टीफाइ करने की कोशिश है।’
जानकारों के मुताबिक, कुंभ में आने वाले यात्रियों की गणना का काम 19वीं सदी से ही शुरू हुआ था और अलग-अलग समय पर श्रद्धालुओं की गिनती के विभिन्न तरीके अपनाए गए। साल 1882 के कुंभ में अंग्रेजों ने संगम आने वाले सभी प्रमुख रास्तों पर बैरियर लगाकर गिनती की थी। इसके अलावा रेलवे टिकट की बिक्री के आंकड़ों को भी आधार बनाकर कुल स्नान करने वालों की संख्या का आकलन किया गया था और उस वक्त करीब दस लाख लोग मेले में पहुंचे थे। (dw.comhi)
- डॉ. परिवेश मिश्रा
मेरी पीढ़ी के बचपन में बम्बई के साथ जुड़े ग्लैमर में फिल्मी दुनिया के साथ साथ ब्रेबर्न स्टेडियम और उसमें होने वाले टेस्ट मैचों का भी बड़ा हिस्सा था। ब्रेबर्न स्टेडियम भारत में क्रिकेट के लिए बनने वाला पहला स्टेडियम था और इसे जो दर्जा हासिल था, उससे भारत के दूसरे स्टेडियम कोसों दूर थे।
इसलिए जब पहली बार मुझे वानखेड़े स्टेडियम देखने का मौक़ा मिला तो शुरुआत में वैसा रोमांच नहीं था जो ब्रेबर्न के लिए हुआ होता। पर वहाँ जाने के बाद स्थिति बदल गयी। मुझे लगा मैं ताजमहल देखने आया हूँ और शाहजहाँ मेरे गाईड हैं। दरअसल मुझे वानखेड़े स्टेडियम और पिच तक जाने का मौक़ा श्री वानखेड़े के साथ मिला था। यह सन 1978 की बात है और स्टेडियम का निर्माण पूरा हुए तीन साल हो चुके थे।
सारंगढ़ के राजा नरेशचंद्र सिंह का मुम्बई जाना हुआ था और उनकी पुत्री डॉ. मेनका देवी सिंह और मैं उनके साथ थे। राजा साहब के मित्र श्री वानखेड़े और श्री राजसिंह डूंगरपुर ने उनके सम्मान में वानखेड़े स्टेडियम में भोज का आयोजन किया था। एक अन्य मित्र श्री तिरपुड़े भी आमंत्रित थे। आज़ादी के तत्काल बाद राजा साहब को छत्तीसगढ़ की नव-विलीन रियासतों के प्रतिनिधि के रूप में मध्यप्रदेश विधानसभा में मनोनीत कर मंत्री बनाया गया था। राजधानी नागपुर में थी और श्री वानखेड़े वहाँ वकालत कर रहे थे। दो साल के बाद हुए पहले आम चुनाव में वानखेड़े चुनाव जीत कर विधानसभा में आ गये। एक और नये बने विधायक थे नासिक राव तिरपुड़े। उन्हें उप मंत्री बना कर राजा साहब के साथ संलग्न किया गया था। नया राज्य बनने पर राजा साहब मध्यप्रदेश की और बाक़ी दोनों महाराष्ट्र की राजनीति में सक्रिय रहे किन्तु मित्रता बरकरार रही। आगे चलकर वानखेड़े विधानसभा के उपाध्यक्ष और महाराष्ट्र के वित्त मंत्री बने। तिरपुड़े उपमुख्यमंत्री बने। राजसिंह डूंगरपुर पारिवारिक मित्र थे। लेकिन आगे बढऩे से पहले इन कारणों और परिस्थितियों की बात कर लें जिनके चलते अच्छे ख़ासे ब्रेबर्न स्टेडियम के रहते मात्र 700 मीटर की दूरी पर एक नया स्टेडियम अस्तित्व में आ गया।
1930 के दशक में बम्बई में बीसीसीआई और क्रिकेट क्लब ऑफ इंडिया (सीसीआई) की स्थापना हो चुकी थी। पर तब तक भारत में क्रिकेट मैच आयोजित करने के लिए कोई क़ायदे का स्थान उपलब्ध नहीं था। जमशेद जी टाटा के भांजे और टाटा समूह के अध्यक्ष सर नौरोजी सकलातवाला सीसीआई के अध्यक्ष थे। एंथनी डी-मेलो बीसीसीआई के सचिव थे। दोनों ने मिलकर भारत का पहला क्रिकेट स्टेडियम बम्बई में बनाने की योजना बनाई।
द्वीपों में बँटे बम्बई को एक महानगर का रूप देने की क़वायद अठारहवीं सदी में शुरू हो गयी थी। जहाँ जहाँ समुद्र के पानी ने प्रवेश कर बारीक दरारें बना ली थीं वहाँ ज़मीन को पाटा गया। मोटी किलेनुमा दीवार बना कर पानी को अंदर आने से रोका गया। 1930 के दशक तक समुद्र के किनारे काफ़ी नयी ज़मीन तैयार कर ली गयी थी। क्रिकेट क्लब वालों की नजऱ इसी ज़मीन की एक बड़े टुकड़े पर थी। स्टेडियम बनाने का सपना महँगा सौदा था। सकलातवाला ने निर्माण में होने वाले खर्च का बड़ा हिस्सा अपनी जेब से वहन करने का जि़म्मा लिया। लेकिन ज़मीन की क़ीमत फिर भी एक बड़ी समस्या थी।
बम्बई के अंग्रेज़ गवर्नर थे लॉर्ड ब्रेबर्न। सकलातवाला और डी-मेलो गवर्नर से मुलाक़ात करने पहुँचे। जो कहानी प्रचलित है उसके अनुसार मीटिंग से बाहर आने के पहले डि-मेलो ने गवर्नर से पूछा - आप ज़मीन की क़ीमत के रूप में सरकार के लिए धन चाहेंगे या अपने लिए अमरत्व? गवर्नर ने दूसरा विकल्प चुना। साढ़े तेरह रुपये प्रति गज़ की दर पर बैक-बे-रिक्लेमेशन स्कीम से हासिल ज़मीन में से नब्बे हज़ार वर्ग गज़ पर ब्रेबोर्न स्टेडियम के निर्माण का काम प्रशस्त हुआ।
निर्माण का ठेका मिला शापूरजी पालोनजी की कंपनी को। ये वही शापूरजी मिस्री थे जिन्होंने आगे चलकर मुग़ल-ए-आज़म फि़ल्म का निर्माण किया था। हालांकि शापूरजी का फि़ल्मों से दूर दूर का नाता नहीं था। वे रियल-एस्टेट के बहुत बड़े कारोबारी थे। बम्बई की रिज़र्व बैंक जैसी अनेक इमारतें उन्हीं की बनाई हुई हैं। साथ ही वे पैसा उधार देने का काम भी बड़े पैमाने पर करते थे। लेखक पत्रकार कूमी कपूर की पारसियों पर लिखी पुस्तक के अनुसार जो सज्जन मुग़ल-ए-आज़म की स्क्रिप्ट लिख कर बहुत समय से निर्माताओं से सौदा करते घूम रहे थे वे भी सेठ शापूरजी के कज़ऱ्दार थे। विभाजन के समय जब इन्होंने पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया तो उधारी चुकाने की स्थिति में नहीं थे। सो उसके एवज़ में अपनी लिखी स्क्रिप्ट को सौंप कर चले गये। जब एक के बाद एक अनेक लोगों ने आकर इस स्क्रिप्ट के बारे में सौदे की पेशकश की तो शापूरजी को इसकी व्यावसायिक संभावनाओं का अहसास हुआ। और शापूरजी ने पच्चीस हज़ार का निवेश कर स्वयं फि़ल्म बनाने का फ़ैसला कर लिया। बाद में खर्च बजट से अनाप-शनाप बढ़ा यह अलग कि़स्सा है। इन्हीं शापूरजी के पोते सायरस मिस्री को रतन टाटा के बाद टाटा समूह का अध्यक्ष बनने का मौक़ा मिला था।
ब्रेबोर्न स्टेडियम का निर्माण पूरा हुआ और भारत में टेस्ट मैच का सबसे प्रमुख सेंटर बना। यहाँ अनेक रिकॉर्ड बने। इनमें एक रिकॉर्ड 1960 में बना जब भारतीय बल्लेबाज़ अब्बास अली बेग के पचास रन बनते ही खचाखच भरे स्टेडियम के मैदान में दौड़ती हुई एक युवती ने पिच पर पहुँच कर बेग के गाल पर चुम्बन दर्ज कर दिया। इस घटना से प्रेरणा लेकर कैडबरी कम्पनी ने अपनी चॉकलेट के लिए विज्ञापन तैयार करवाया था - कुछ ख़ास हैज्,टैगलाईन थी - असली स्वाद जि़न्दगी का।
1964 में इंग्लैंड की टीम दौरे पर आयी थी। पता नहीं उन्होंने भारत में मिर्च मसाला खाने से परहेज किया था या नहीं पर बम्बई पहुँचते तक टीम के इतने सदस्य अनफिट हो गये थे कि फ़ील्डिंग के लिए भारत के दो खिलाड़ी - हनुमंत सिंह और ए.जी.कृपाल सिंह इंग्लैंड की ओर से खेले।
ब्रेबोर्न स्टेडियम की मिल्कियत तो सीसीआई के पास रही पर बम्बई में टेस्ट मैच समेत क्रिकेट के सारे मैच कराने का अधिकार बॉम्बे (बाद में मुम्बई) क्रिकेट एसोसिएशन (बीसीए) के पास था। किरायेदार के रूप में बीसीए का कार्यालय भी ब्रेबोर्न स्टेडियम में था। बीसीए की एक शिकायत दोनों के बीच शुरू से विवाद का कारण रही। जहां एक ओर सीसीआई के सारे मेंबर और उनके मित्र फ्री पास की बदौलत मैच देखा करते थे वहीं बीसीए को फ्री-पास के लाले पड़े रहते थे। ढेरों फ्री पास का सीधा असर बीसीए की आमदनी पर भी पड़ता था। 1970 का दशक आते तक यह विवाद अपने चरम पर पहुँच गया। सीसीआई के अध्यक्ष विजय मर्चेंट झुकने के लिए राज़ी नहीं थे। जब बात मूंछों पर बन आयी तो बीसीए के मुखिया शेषराव कृष्णराव वानखेड़े ने घोषणा कर दी कि बीसीए का अपना अलग स्टेडियम वे स्वयं बनाएँगे। और मात्र 13 महीने की छोटी अवधि में उन्होंने नया स्टेडियम खड़ा कर 1975 में उसमें टेस्ट मैच आयोजित कर दिखा दिया।
इस पृष्ठभूमि में अपने मित्र राजा नरेशचंद्र सिंह जी को अपनी इस बड़ी उपलब्धि को दिखाना श्री वानखेड़े के लिए ख़ुशी के साथ स्वाभाविक गर्व का मौक़ा था। वे हमें मैदान के बीचों-बीच भी ले कर गये। इसके पीछे का कारण पिच तक पहुँचने के बाद पता चला।
नया स्टेडियम बनाने की घोषणा ने बम्बई, और विशेष कर खेल की दुनिया में, भूचाल ला दिया था। ब्रेबोर्न स्टेडियम के पक्ष में एक बहुत मज़बूत लॉबी खड़ी हो गयी जो हर दिन एक नया तर्क सामने ला कर नये स्टेडियम के विचार का विरोध करती थी। इस लॉबी के मुख्य चेहरा थे के.एन. प्रभु। टाइम्स ऑफ़ इंडिया के खेल संपादक प्रभु भारत में खेल और क्रिकेट की दुनिया में बहुत बड़ा नाम थे। उन दिनों फि़ल्मी दुनिया में राजेश खन्ना और क्रिकेट की दुनिया में सुनील गावस्कर अचानक उभरने और रातों रात छा जाने वाले ऐसे सितारे थे जिनके व्यक्तिगत जीवन और पृष्ठभूमि के बारे में जानने की लोगों को बड़ी उत्कंठा थी। ‘आराधना’ फि़ल्म आने के कुछ ही समय के बाद सर्वाधिक बिकने वाली पत्रिका धर्मयुग ने बढ़ी हुई मुद्रित संख्या में लगातार तीन अंक राजेश खन्ना को समर्पित किए। ये अंक हाथों हाथ बिके थे।
यही हाल क्रिकेट खिलाडिय़ों का था। 1971 में वेस्ट इंडीज़ और उसके बाद इंग्लैंड के दौरों में धमाकेदार और ऐतिहासिक जीत से देश में भारतीय खिलाडिय़ों का क्रेज़ रातों-रात बढ़ा था। के. एन. प्रभु इन दौरों में भारतीय टीम के साथ थे और उन्होंने भारतीय खिलाडिय़ों को न केवल लिखने के लिये प्रोत्साहित किया
बल्कि उनकी सक्रिय मदद भी की। भारत लौटने के फ़ौरन बाद दो आत्मकथात्मक पुस्तकें बाज़ार में आयीं और बेस्ट-सेलर बन गयीं। सुनील गावस्कर की ‘सनी डेज़’ और कप्तान अजीत वाडेकर की ‘माय क्रिकेटिंग इयर्स’। माना जाता था कि इन पुस्तकों का लेखन प्रभु ने ही किया था। वाडेकर ने तो पुस्तक के कवर पर घोषणा भी की - ‘ऐज़ टोल्ड टू के.एन.प्रभु’।
नये स्टेडियम के विरोध में कहा गया कि यह समुद्र के बहुत पास है, इसे बनाना धन की बर्बादी है, विशेषकर सीमेंट की जिसकी उन दिनों बहुत कि़ल्लत थी, आदि। किंतु लोगों के लिए सबसे रोचक समाचार वह बना जिसमें के.एन. प्रभु ने चेतावनी भरा दावा किया था कि नया स्टेडियम चर्चगेट स्टेशन से जाने वाली रेल लाइन के इतने कऱीब बन रहा था कि खिलाडिय़ों के छक्कों से रेल यात्रियों को चोट लगने की संभावना थी।
पिच पर ले जाकर श्री वानखेड़े ने राजा साहब और साथ में मौजूद हम सब को स्टेडियम की ऊंचाई दिखाते हुए बताया कि प्रभु के जवाब के रूप में उन्होंने घोषणा की है कि जो बल्लेबाज अपने छक्के से गेंद को स्टेडियम के बाहर पहुँचाएगा उसे वे पचास हज़ार रुपये ईनाम में देंगे। मुझे नहीं लगता उन्हें यह राशि किसी को देने की नौबत आयी।
देखते देखते 2025 आ गया और वानखेड़े स्टेडियम की उम्र का अर्धशतक पूरा हो गया।
-दिलनवाज पाशा
कभी दिल्ली की राजनीति में एक मजबूत ताकत रही कांग्रेस पार्टी पिछले दो विधानसभा चुनावों में अपना खाता तक नहीं खोल पाई।
2013 में नवगठित आम आदमी पार्टी की सरकार बनने से पहले कांग्रेस ने लगातार पंद्रह साल दिल्ली पर शासन किया।
जब कांग्रेस दिल्ली में अपने शीर्ष पर थी तब उसके पास 40 फीसदी तक का वोट शेयर था। लेकिन 2020 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सिर्फ 4.26 प्रतिशत ही वोट हासिल कर सकी।
इससे पहले साल 2015 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 9.7 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। कांग्रेस 2015 और 2020 के विधानसभा चुनावों में एक भी सीट नहीं जीत पाई थी।
भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन से वजूद में आई आम आदमी पार्टी कांग्रेस की राजनीतिक ताक़त ‘खत्म’ कर सत्ता तक पहुंची।
आम आदमी पार्टी की फ्री बिजली, फ्री पानी, शिक्षा में सुधार और स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर करने की योजनाओं ने गऱीब और मध्यमवर्ग के मतदाताओं को आकर्षित किया।
इस वोटर वर्ग के छिटकने से कांग्रेस दिल्ली की राजनीति में और भी अलग-थलग पड़ गई।
हालांकि, इस दौरान, बीजेपी का कोर वोट बैंक उसके साथ ही रहा। बीजेपी ने साल 1993 में 42.82 प्रतिशत वोट हासिल करके सरकार बनाई थी।
इसके बाद के चुनावों में बीजेपी के वोट प्रतिशत में उतार चढ़ाव तो हुआ लेकिन पार्टी का समर्थक वर्ग उसके साथ ही रहा।
पार्टी ने 2015 में 32.2 प्रतिशत और 2020 में 38.51 प्रतिशत वोट हासिल किए।
ऊपर दिए आंकड़ों से ये स्पष्ट है कि दिल्ली में कांग्रेस के वोट बैंक में आम आदमी पार्टी ने सेंध लगाई।
पुराने वोट बैंक को हासिल करने की चुनौती
अब एक बार फिर दिल्ली में चुनाव हैं। इंडिया गठबंधन के तहत एक साथ लोकसभा चुनाव लडऩे वाली आम आदमी पार्टी और कांग्रेस पार्टी अब अलग-अलग चुनाव लड़ रही हैं और एक दूसरे पर आक्रामक हैं।
कांग्रेस की पूरी कोशिश है कि वो अपने पुराने मतदाता वर्ग को वापस अपनी तरफ आकर्षित करे।
विश्लेषक मानते हैं कि अगर ऐसा हुआ तो इसकी सीधी कीमत आम आदमी पार्टी को चुकानी पड़ सकती है।
वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं, ‘कांग्रेस के पास दिल्ली में खोने के लिए कुछ नहीं हैं। अब अगर कांग्रेस मज़बूती से लड़ती है और अपने वोट प्रतिशत में सुधार करती है तो इसका सीधा असर आम आदमी पार्टी पर पड़ सकता है।’
आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के मध्यम वर्गीय और गऱीब परिवारों को अपनी तरफ़ आकर्षित किया है। ये वर्ग कभी पारंपरिक रूप से कांग्रेस का वोटर हुआ करता था।
दिल्ली के शाहदरा इलाक़े में धूप सेंक रहे प्रकाश पासवान अपनी झुग्गी की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, ‘कांग्रेस ने हमें यहां बसाया था। हम जैसे ना जाने कितने लोगों को कांग्रेस शासन के दौरान रहने की जगह मिली। लेकिन अब कोई कांग्रेस के काम को याद नहीं रखता है।’
प्रकाश पासवान कहते हैं, ‘आप इस झुग्गी में ही देख लीजिए, लोग फ्री बिजली, फ्री पानी की तरफ ज्यादा आकर्षित हैं। बहुत से लोगों को याद भी नहीं होगा कि कांग्रेस ने ये झुग्गी बसाई थी, सडक़ पर सो रहे लोगों को रहने की जगह दी थी।’
विश्लेषक मानते हैं कि कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वो अपने पारंपरिक वोट बैंक को फिर से अपनी तरफ आकर्षित करे।
विनोद शर्मा कहते हैं, ‘फ्री बिजली और पानी के दौर में मतदाताओं को फिर से अपनी तरफ खींचना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा।’
हालांकि कांग्रेस के उम्मीदवारों को लगता है कि वो दिल्ली में पार्टी की विरासत और भविष्य के लिए योजनाओं के ज़रिए एक बार फिर मतदाताओं को अपनी तरफ खींच सकते हैं।
विरासत के दम पर मिलेगा वोट?
चांदनी चौक से कांग्रेस के उम्मीदवार मुदित अग्रवाल अपने परिवार की राजनीतिक विरासत और अपने मिलनसार व्यवहार के दम पर मतदाताओं तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं।
मुदित अग्रवाल कहते हैं, ‘दिल्ली में कांग्रेस की राजनीतिक विरासत रही है। हमने जो दिल्ली में किया है उसे लोगों को याद दिलाने की जरूरत है।’
हालांकि वो इस बात पर भी जोर देते हैं कि आम आदमी पार्टी के कार्यकाल की कमियों को सामने लाकर भी कांग्रेस पार्टी अपनी स्थिति को मजबूत कर सकती है।
मुदित अग्रवाल कहते हैं, ‘आम आदमी पार्टी की नाकामियों को उजागर करके ही हम अपने मतदाताओं को फिर से अपनी तरफ जोड़ सकते हैं। हमें लोगों को नया विजऩ देना है। अपने चुनाव अभियान में हम यही कर रहे हैं।’
दिल्ली में मुसलमान मतदाता पारंपरिक रूप से कांग्रेस के साथ रहे थे लेकिन पिछले चुनावों में ये वोटर वर्ग भी आम आदमी पार्टी की तरफ चला गया।
एक ऊर्दू चैनल के लिए दिल्ली में रिपोर्टिंग कर रहे एक पत्रकार अपना नाम ना ज़ाहिर करते हुए कहते हैं, ‘मुसलमान मतदाता असमंजस में नजऱ आते हैं। ये यदि कांग्रेस की तरफ गए तो कई सीटों के नतीजे बदल सकते हैं।’
आतिशी ने उठाया दिल्ली में धार्मिक स्थलों को गिराने का मुद्दा, एलजी ने दिया ये जवाब
‘आप’ पर कांग्रेस का आक्रामक रुख
कांग्रेस पार्टी ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी पर निशाना साधने की रणनीति बनाई है।
पार्टी के सीमापुरी से उम्मीदवार और दिल्ली प्रदेश कांग्रेस समिति के सदस्य राजेश लिलोठिया कहते हैं, ‘कांग्रेस ने लगातार दिल्ली में पंद्रह साल शासन किया। इस शहर के विकास की नींव रखी। इसे मॉडर्न बनाया। चौबीस घंटे बिजली दी, लेकिन बावजूद इसके पार्टी 2013 में सत्ता से बाहर हो गई क्योंकि आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की जनता को झांसा दिया।’
लिलोठिया कहते हैं, ‘दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने जनता के साथ जो धोखा किया है उसे उजागर करना ही पार्टी की रणनीति है।’
दिल्ली में चुनाव अभियान के तेज होते ही कांग्रेस पार्टी अचानक आम आदमी पार्टी पर हमलावर हुई है। पार्टी के ज़मीनी नेताओं से लेकर बड़े नेता तक, सीधे आम आदमी पार्टी पर निशाना साध रहे हैं।
वहीं, दूसरी तरफ, आम आदमी पार्टी ने आरोप लगाया है कि कांग्रेस दिल्ली में बीजेपी के इशारे पर काम कर रही है।
हालांकि विश्लेषक इन आरोपों से इत्तेफाक़ नहीं रखते। वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं, ‘आम आदमी पार्टी के आरोप अपनी जगह हैं लेकिन कोई भी राजनीतिक दल किसी दूसरे राजनीतिक दल के इशारे पर अपनी रणनीति नहीं बनाता है।’
विनोद शर्मा कहते हैं, ‘भले ही कांग्रेस दिल्ली में बहुत कुछ ना कर पाए, लेकिन कांग्रेस जहां खड़ी है यहां से जितना भी आगे बढ़ेगी उससे नुक़सान आप को ही होगा।’
कांग्रेस ने पिछले दो चुनावों में दिल्ली में कोई सीट नहीं जीती है। ऐसे में विश्लेषक ये मानते हैं कि पार्टी अगर दो-चार सीटें भी जीत पाई तो ये भी कांग्रेस के लिए सुधार ही होगा।
विनोद शर्मा कहते हैं, ‘यदि कांग्रेस तीन-चार सीटें भी जीतती है, तब भी पार्टी अपनी स्थिति को पहले से बेहतर ही करेगी। और अगर कांग्रेस किसी तरह दस सीटों तक पहुंच गई, तो दिल्ली में पार्टी के लिए हौसला बढ़ाने वाली बात होगी।’
दिल्ली में आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन से निकलकर सत्ता तक पहुंची थी। केजरीवाल ने भ्रष्टाचार खत्म करने का वादा किया था। लेकिन केजरीवाल और उनके उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया समेत कई बड़े नेता कथित भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जा चुके हैं। पार्टी दस साल से सत्ता में है। इतने लंबे शासन के बाद आमतौर पर एक सरकार विरोधी भावना भी होती है।
विश्लेषक मानते हैं कि दिल्ली की मौजूदा राजनीतिक स्थिति में कांग्रेस के सामने सिर्फ एक ही विकल्प है- ख़ुद को जमीनी स्तर पर मजबूत करना और कांग्रेस ऐसा सिर्फ आम आदमी पार्टी के मतों में सेंध लगाकर ही कर सकती है।
वोट प्रतिशत में सुधार की उम्मीद
वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्ता कहते हैं, ‘दिल्ली और यूपी-बिहार जैसे कई राज्यों में कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल भी नहीं हैं। कांग्रेस को अब ये समझ आ रहा है कि वह स्वयं को जमीनी स्तर पर मजबूत करके ही आगे बढ़ सकती है।’
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘दिल्ली में कांग्रेस को यदि मज़बूत होना है तो उसे आम आदमी पार्टी से अपनी राजनीतिक जमीन छीननी होगी।’
विश्लेषक ये मान रहे हैं कि आम आदमी पार्टी के दस साल के शासन और उसके बड़े नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बाद कांग्रेस के पास ये मौका है कि वो फिर से अपने मतदाता वर्ग से जुड़े।
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘कांग्रेस वोट प्रतिशत में जितना भी आगे बढ़ेगी, वह आम आदमी पार्टी की ही कटौती करेगी, ऐसे में बहुत से लोग ये कह सकते हैं कि इससे बीजेपी को फायदा होगा। भले ही कांग्रेस सीधे तौर पर बीजेपी को फायदा ना पहुंचाना चाहती हो, लेकिन बीजेपी भी जरूर ये सोच रही होगी कि कांग्रेस के वोट कुछ बढ़ें।’
कांग्रेस अगर दिल्ली में दो-चार सीटें भी जीतती हैं और वोट प्रतिशत में थोड़ा सुधार भी करती है तो पहले से बेहतर स्थिति में ही होगी।
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘मौजूदा माहौल को देखकर ये कहा जा सकता है कि कांग्रेस इस बार अपने वोट प्रतिशत में कुछ सुधार करेगी।’
पार्टी नेता राजेश लिलोठिया कहते हैं, ‘कांग्रेस पूरी मज़बूती से चुनाव लडऩे का प्रयास कर रही है। ये आपको नतीजों में दिखेगा।’
राहुल ने शुरू किया चुनाव अभियान
सोमवार को कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दिल्ली के सीमापुरी इलाके में अपनी पहली जनसभा की।
लिलोठिया कहते हैं, ‘जल्द ही कांग्रेस के बड़े नेता मैदान में होंगे। दूसरे दल झांसों और दावों के दम पर चुनाव लड़ रहे हैं, हम अपनी नीतियां लोगों तक लेकर जाएंगे।’
ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी का समर्थन किया है। ये दोनों ही दल अब लगभग बिखर चुके इंडिया गठबंधन में है जिसका नेतृत्व कांग्रेस कर रही है।
विश्लेषक ये मान रहे हैं कि दिल्ली के चुनाव में कांग्रेस यदि सिर्फ अपने हित को आगे रखकर रणनीति बनाती है तो उसे जरूर कुछ फायदा पहुंच सकता है।
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘सिर्फ कांग्रेस के प्रदेश स्तर के नेताओं को ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय नेताओं को दिल्ली में चुनाव अभियान में उतरना होगा। जो मतदाता सरकार से असंतुष्ट हैं, उन तक पहुंचने की रणनीति बनानी होगी।’
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘दिल्ली में कांग्रेस के पास अब खोने के लिए कुछ नहीं हैं। पार्टी पहले से ही जीरो पर है, ऐसे में अगर कांग्रेस के पास एक ही विकल्प है- पूरी मजबूती से चुनाव लडऩा। यदि कांग्रेस जमीन पर जोर लगाएगी तो उसे कुछ सकारात्मक नतीजे मिल सकते हैं।’
कांग्रेस दिल्ली में भले ही सत्ता तक ना पहुंच पाए। लेकिन पार्टी यदि कुछ सीटें भी जीत लेती है तो इससे उसमें नई जान जरूर पड़ेगी। (bbc.com/hindi)
इलॉन मस्क का धुर दक्षिणपंथी पार्टियों को समर्थन देना जर्मनी और यूरोप को रास नहीं आ रहा है. जर्मनी और यूरोपीय संघ की एजेंसियां यह पता लगाना चाहती हैं कि एएफडी को मस्क के समर्थनों से किन नियमों की अवहेलना हो रही है.
(DW.com/hi)
इलॉन मस्क ने गुरुवार को जर्मनी की धुर दक्षिणपंथी पार्टी अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) की नेता एलिस वाइडेल के साथ एक्स पर ऑनलाइन चर्चा की थी। इसके पहले ही वो पार्टी को जर्मनी के भविष्य की ‘अकेली उम्मीद’बताते हुए अपना समर्थन दे चुके हैं। इतना ही नहीं उन्होंने जर्मनी के मौजूदा नेतृत्व को भी बुरा भला कहा है। एफएफडी को छोड़
जर्मनी की लगभग सभी पार्टियों ने मस्क के बयानों को जर्मन राजनीति में सीधा दखल बता कर उसकी आलोचना की है।
‘अवैध चंदे’ पर जर्मन एजेंसियों की नजर
इलॉन मस्क की एक्स पर वाइडेल के साथ हुई ऑनलाइन बातचीत एएफडी को ‘अवैध पार्टी चंदा’ भी माना जा सकता है। ये बात लॉबी कंट्रोल के विशेषज्ञ ऑरेल एशमान ने डीडब्ल्यू की राजनीतिक संवाददाता गिलिया साउडेली से बातचीत में कही। उनका कहना है, ‘यहां अहम बात यह है कि बातचीत अपने आप में चंदा नहीं है, बल्कि एक्स प्लेटफॉर्म पर रीच बढ़ाना पार्टी के लिए चंदा बनेगा।’
इलॉन मस्क और एलिस वाइडेलइलॉन मस्क और एलिस वाइडेल
प्लेटफॉर्म पर कंटेंट की रीच बढ़ाना एक सर्विस है जिसके लिए आम तौर पर लोगों से पैसे लिए जाते हैं। इससे पहले इलॉन मस्क के कंटेंट की रीच अकसर बढ़ाई जाती है और उनकी सामग्री की रीच, ‘उतने ही फॉलोअर वाले अकाउंट की तुलना में बहुत ज्यादा होती है जो एक्स के मालिक नहीं हैं।’
विशेषज्ञों की दलील है कि यह सेवा इस बातचीत के जरिए एएफडी पार्टी को मुफ्त में दी गई है। एशमान ने कहा, ‘यह पार्टी के लिए चंदा होगा और जर्मनी में यूरोपीय संघ के बाहर की कंपनी से चंदा लेना गैरकानूनी है।’
एक्स से हट सकती है जर्मन सरकार
शुक्रवार को जर्मन सरकार के प्रवक्ता ने बताया कि सरकार एक्स प्लेटफॉर्म पर अपना अकाउंट बंद करने पर चर्चा कर रही है। सरकार को एक्स के अल्गोरिदम से चिंता है। वाइडेल और इलॉन मस्क की एक्स पर बातचीत के एक दिन बाद ही सरकार के प्रवक्ता ने यह जानकारी दी है।
प्रवक्ता ने कहा कि एक्स और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म में अल्गोरिदम है जो "एक शांत, निष्पक्ष और संतुलित संवाद को बढ़ावा नहीं देते हैं बल्कि उग्र और ध्रुवीकरण की तरफ जाते हैं।’
जर्मनी की 60 यूनिवर्सिटियां एक्स से दूर हुईं
शुक्रवार को जर्मनी की दर्जनों यूनिवर्सिटियों ने कहा कि अब वे सोशल नेटवर्क एक्स का इस्तेमाल नहीं करेंगी। यूनिवर्सिटियों ने इसके लिए नैतिक कारणों का हवाला दिया है।
60 से ज्यादा यूनिवर्सिटियों और शिक्षा संस्थानों ने संयुक्त बयान जारी कर कहा है कि एक्स उनके सिद्धांतों के हिसाब से अब उपयुक्त नहीं है।
इलॉन मस्क और एलिस वाइडेल की ऑनलाइन बातचीत मोबाइल में देखता शख्सइलॉन मस्क और एलिस वाइडेल की ऑनलाइन बातचीत मोबाइल में देखता शख्स
उनका कहना है, ‘प्लेटफॉर्म की मौजूदा दिशा संस्थान से जुड़े बुनियादी मूल्यों के हिसाब से उपयुक्त नहीं है, जिनमें दुनिया के लिए खुलापन, वैज्ञानिक एकीकरण, पारदर्शिता और लोकतांत्रिक संवाद शामिल हैं।’ रिसर्चरों का कहना है कि यह साइट अब गलत जानकारी देने वालों का स्वर्ग बन गई है।
यूरोपीय संघ की छानबीन
जर्मनी में अगले महीने 23 तारीख को संघीय चुनाव होने हैं। अब यूरोपीय आयोग इस बात की जांच कर रहा है कि क्या चुनाव से पहले किसी तरह की कोई गलत जानकारी प्रसारित करने की कोशिश हुई है। इसके लिए आयोग एक्स प्लेटफॉर्म पर वाइडेल और मस्क की चर्चा की भी छानबीन कर रहा है। यूरोपीय संघ का डिजिटल सर्विस एक्ट (डीएसए) चुनावों को प्रभावित करने के लिए नफरती भाषण या जान बूझ कर खबरों से छेड़छाड़ करने जैसी अवैध सामग्री से निपटता है।
सोशल मीडिया साइट एक्स 2023 से ही डीएसए के तहत जांच के दायरे में है। इस पर अवैध सामग्रियों को फैलाने का संदेह तो है ही इसके साथ ही सूचनाओं के साथ छेड़छाड़ को रोकने में यह कितना कारगर है यह भी देखा जा रहा है।
यूरोप की राजनीति में कितनी दखल दे रहे हैं मस्क
अमेरिका में पिछले साल डॉनल्ड ट्रंप को राष्ट्रपति बनने में खुले तौर पर समर्थन देने के बाद मस्क ने अब ब्रिटेन में दक्षिणपंथी रिफॉर्म पार्टी और जर्मनी की एएफडी को एक्स पर समर्थन देना शुरू कर दिया है।
पिछले महीने मस्क ने एक्स पर लिखा, "जर्मनी में पारंपरिक राजनीतिक पार्टियां पूरी तरह से नाकाम रही हैं। एएफडी जर्मनी के लिए अकेली उम्मीद है।’ आप्रवासी और इस्लाम विरोधी एएफडी को जर्मन सुरक्षा सेवाओं ने दक्षिणपंथी चरमपंथी घोषित किया है। इस पार्टी ने जर्मनी में एक डर पैदा किया है और देश की कोई पार्टी उसके साथ काम करने को तैयार नहीं है। जर्मनी के राजनीतिक दल एएफडी को खतरनाक और अलोकतांत्रिक मानते हैं।
पिछले दिनों माग्देबुर्ग की क्रिसमस मार्केट में जब एक सऊदी डॉक्टर ने पांच लोगों की हत्या कर दी तो मस्क ने जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स को एक्स पर, ‘अक्षम बेवकूफ’ कहा और उनसे इस्तीफा देने को कहा।
यूरोपीय संघ का डिजिटल सर्विस एक्ट (डिजिटल सर्विस एक्ट)
एक्स और मेटा जैसे बड़े ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के लिए डीएसए नियम बनाता है। इनमें वो प्लेटफॉर्म शामिल हैं जिनके यूरोपीय संघ में प्रतिमाह 4।5 करोड़ से ज्यादा यूजर हैं। इनमें ऐप स्टोर कंपनियां जैसे एप्पल और अल्फाबेट भी शामिल हैं। इसका प्रमुख मकसद अवैध और नुकसानदेह ऑनलाइन गतिविधियों और गलत सूचनाओं को फैलने से रोकना है। इलॉन मस्क की एक्स पहली कंपनी थी जिसकी अवैध सामग्रियों के लिए डीएसए के तहत दिसंबर, 2023 में जांच शुरू की गई। इसके तहत डीएसए के उल्लंघन पर किसी कंपनी पर उसके वैश्विक सालाना टर्नओवर का 6 फीसदी तक जुर्माना लगाया जा सकता है। इतना ही नहीं इसके लिए बताए उपायों को लागू करने में देरी करने पर प्रतिदिन के टर्नओवर का 5 फीसदी हिस्सा भी जुर्माने के तौर पर वसूला जा सकता है।
अगर उल्लंघन जारी रहता है और यूजरों को नुकसान पहुंचता है तो आयोग कंपनी को अपनी सेवाएं निलंबित करने के लिए भी कह सकता है। आयोग ने मेटा और चीन के अलीएक्सप्रेस, टेमू और टिकटॉक के खिलाफ भी मामले दर्ज किए हैं। इनमें से सभी मामले अभी खुले हुए हैं, सिवाए टिकटॉक के खिलाफ दर्ज हुआ एक मामला बंद हुआ है। इसमें कंपनी ने यूरोपीय संघ की चिंता दूर करने के लिए जरूरी उपाय कर दिए थे।
गुरुवार को आयोग ने क्या किया
यूरोपीय संघ के 15 कर्मचारी डीएसए को लागू करने की जिम्मेदारी उठाते हैं। ये सभी आयोग के ब्रसेल्स और स्पेन के दफ्तरों में काम करते हैं। यूरोपीय संघ के उद्योग आयुक्त थियरे ब्रेटन ने पहले ही वाइडेल को ध्यान दिला दिया था कि एक्स के बारे में डीएस के नियमों का मकसद चुनाव के इर्द गिर्द लोकतंत्र की रक्षा है। वरिष्ठ अधिकारियों ने भी मस्क से मिल रही चुनौती को स्वीकार किया है और इस बात पर जोर दिया है कि डीएसए अपना काम करेगा।
यूरोपीय आयोग के लोकतंत्र, न्याय और कानून का शासन और उपभोक्ता सुरक्षा आयुक्त मिषाएल मैक्ग्राथ का कहना है, ‘मिस्टर मस्क अपनी राय यूरोपीय संघ में ऑनलाइन और ऑफलाइन देने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन कानूनी सीमा के अंदर।’ (dw.com/hindi)
-चंदन कुमार जजवाड़े
लार्सन एंड टूब्रो के चेयरमैन एस। एन। सुब्रह्मण्यन का कहना है कि कर्मचारियों को सप्ताह में 90 घंटे काम करना चाहिए और लोगों को रविवार को भी काम करना चाहिए।
उनके इस बयान पर कई जाने माने लोगों ने प्रतिक्रिया दी है और इसपर एक बार फिर से बहस छिड़ी हुई है कि कर्मचारियों को सप्ताह में कितने घंटे काम करने चाहिए।
मशहूर अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने इंस्टाग्राम पर स्टोरी में इस मुद्दे पर लिखा कि कंपनियों में शीर्ष पदों पर बैठे लोगों की ओर से इस तरह के बयान आना चौंकाने वाला है। उन्होंने इस स्टोरी में #mentalhealthmatters यानी मानसिक स्वास्थ्य को महत्वपूर्ण बताने वाला हैशटैग भी इस्तेमाल किया।
इससे पहले इंफोसिस के फाउंडर नारायणमूर्ति भी सप्ताह में 70 घंटे काम करने की बात कह चुके हैं।
एस.एन. सुब्रह्मण्यन ने बीते दिनों कंपनियों के कर्मचारियों के साथ बीतचीत के दौरान ये बात कही। उनके वीडियो का एक हिस्सा रेडिट पर पोस्ट किया गया है।
वीडियो में सुब्रह्मण्यन ने कहा, ‘सप्ताह में 90 घंटे काम करना चाहिए। मुझे इस बात का अफसोस है कि मैं आपसे रविवार को काम नहीं करवा पा रहा हूं। अगर मैं ऐसा करवा सकता हूं तो मुझे ज़्यादा खुशी होगी क्योंकि मैं ख़ुद रविवार को काम करता हूं। घर पर बैठकर आप क्या करते हैं...’
एस। एन। सुब्रह्मण्यन ने यह भी कहा कि ‘आप घर पर बैठकर कितनी देर अपनी पत्नी का चेहरा देखेंगे।’
उनके इस बयान ने वक्र आवर (काम के घंटे), आराम की ज़रूरत और निजी जिंदगी को लेकर बड़ी बहस छेड़ दी है।
शादी डॉट कॉम के संस्थापक अनुपम मित्तल ने इस मुद्दे पर सोशल मीडिया एक्स पर चुटकी लेते हुए लिखा है, ‘लेकिन सर, अगर पति-पत्नी एक दूसरे को नहीं देखेंगे तो हम दुनिया में सबसे बड़ी आबादी वाला देश कैसे बनेंगे।’
किसने क्या कहा?
इस बहस में महिंद्रा ग्रुप के चेयरमैन आनंद महिंद्रा ने कहा, ‘मेरा मानना है कि हमने कितनी देर काम किया इसे छोडक़र हमें काम की गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए। यह चालीस घंटे, सत्तर घंटे या नब्बे घंटे काम करने का मामला नहीं है। आप क्या कर रहे हैं यह इसपर निर्भर करता है। आप 10 घंटे काम करके भी दुनिया बदल सकते हैं।’
‘मैं लोगों को बताना चाहता हूं कि मैं सोशल मीडिया एक्स पर इसलिए नहीं हूं, क्योंकि मैं अकेला हूं। मेरी पत्नी शानदार हैं और मुझे उनको निहारना पसंद है और उनके साथ वक़्त बिताना भी।’
सीरम इंस्टीट्यूट के सीईओ अदार पूनावाला ने भी एस एन सुब्रह्मण्यन के बयान पर चुटकी ली।
उन्होंने लिखा, ‘हां आनंद महिंद्रा, मेरी पत्नी मानती हैं कि मैं बढिय़ा हूं, वो रविवार को मुझे निहारना पसंद करती हैं। काम की गुणवत्ता मायने रखती है, काम के घंटे नहीं।’
उद्योगपति हर्ष गोयनका ने भी आनंद महिंद्रा की बातों का समर्थन करते हुए उनके बयान को अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर शेयर किया है।
उन्होंने लिखा, ‘सप्ताह में 90 घंटे काम? संडे (रविवार) का नाम बदल कर सन-ड्यूटी कर दिया जाए या फिर छुट्टी के दिन का धारणा को ही मिथक करार दे दिया जाए? मुझे लगता है कि मेहनत से और स्मार्ट तरीके से काम करना चाहिए, लेकिन क्या जि़ंदगी को लगातार एक ऑफि़स शिफ्ट में बदल दिया जाना चाहिए? मुझे लगता है कि ये थकने का तरीका है सफलता का नहीं।’
दरअसल भारत में फैक्टरी, दुकानों और व्यवसायिक प्रतिष्ठानों जैसी जगहों पर काम करने वालों के लिए वर्किंग आवर निर्धारित है और इसके संबंध में श्रम और रोजग़ार मंत्रालय के स्टैंडिंग ऑर्डर भी हैं।
क्या कहते हैं लोग
बीबीसी ने इस मुद्दे पर लोगों से भी उनकी राय मांगी थी कि काम के लिए कितने घंटे होने चाहिए। इस पर लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रिया देखने के मिली है।
किसी ने इस पर लिखा है कि है काम के लिए छह घंटे काफी हैं तो कोई बता रहा है कि काम के लिए आठ से नौ घंटे होने चाहिए। वहीं एक यूजर ने लिखा है, ‘बेरोजग़ार हाजऱ हों।’
फरहान खान नाम के एक यूजऱ ने इंस्टाग्राम पर अपने कमेंट में आरोप लगाया है कि एलएनटी के चेयरमैन श्रमिकों के शोषण की सलाह दे रहे हैं।
वहीं प्रदीप कुमार नाम के एक यूजऱ का कहना है, ‘काम पूरा होने तक काम करना चाहिए, यह काम के घंटों पर आधारित नहीं होना चाहिए।’
जबकि ब्रिजेश चौरसिया लिखते हैं, ‘यह सैलरी पर निर्भर करता है। हम चैरिटी के लिए काम नहीं करते हैं। हम अपने जीवन यापन के लिए काम करते हैं।’
‘जज़्बात का इज़हार’ नाम की एक आईडी की तरफ से कमेंट किया गया है, ‘मैं अगर मालिक हूं तो 24 घंटे।’
डॉक्टरों का क्या कहना है?
दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स में कम्यूनिटी मेडिसिन डिपार्टमेंट के डॉक्टर संजय राय बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, ‘सप्ताह में काम करने के लिए 48 घंटे रखे गए हैं तो इसके पीछे वजह भी है।’
‘आप क्या काम करते हैं, इस पर भी निर्भर करता है कि आप कितना काम कर सकते हैं।’
डॉक्टर संजय का कहना है, ‘अगर आप कंपनी के मालिक हैं तो आप किसी दबाव में काम नहीं करते हैं आप मालिकाना हक़ के साथ अपना काम करते हैं। और लोग दफ़्तर में दबाव के बीच काम कर रहे हैं या पैशन के साथ काम कर रहे हैं, इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है।’
वो बताते हैं कि ज़्यादा शारीरिक परिश्रम वाले काम या स्पोर्ट्स एक्टिविटी में आदमी जल्दी थकता है, और आमतौर पर पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को मेहनत वाले काम में थकावट जल्दी होती है।
पुणे के डी वाई पाटिल मेडिकल कॉलेज के एमेरिटस प्रोफेसर डॉक्टर अमिताव बनर्जी कहते हैं, ‘हमारे देश में आबादी बड़ी है तो आप इस तरह की बात कर सकते हैं, दूसरे देशों में तो आपको लोग ही नहीं मिलेंगे।’
‘असल बात है कि काम की परिभाषा क्या है? एक होता है फि़जिक़ल वर्क जिसमें आप आठ घंटे तक काम करते हैं। आप ज़्यादा काम करेंगे तो थकने के बाद वर्क एक्सिडेंट्स बढ़ जाएंगे। चाहे वो फ़ैक्टरी में हो, गाड़ी चलाने का काम हो या अकाउंट से जुड़ा काम हो। हर काम में हादसा हो सकता है।’
डॉक्टर अमिताव बनर्जी का कहना है, ‘क्रिएटिव लोग 24 घंटे काम कर सकते हैं। आप जब काम नहीं करते हैं तब भी आपका दिमाग़ क्रिएटिव काम कर रहा होता है और आपको आइडिया आता है। इस तरह के लोग सपने में भी काम कर सकते हैं, जैसे बेंज़ीन (एक रासायनिक कंपाउंड) की खोज सपने में हुई थी।’
‘आर्कमेडीज़ ने नहाते हुए साबुन को टब गिरते देखा और यूरेका। यूरेका चिल्लाए, फिर अपना सिद्धांत पेश किया। न्यूटन के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने पेड़ से फल को गिरते हुए देखा और गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत पेश किए।’
लोग आमतौर पर वर्क लाइफ बैलेंस की भी बात करते हैं और ज़्यादा काम की वजह से कई बार शारीरिक और मानसिक बीमारियों के शिकार भी हो जाते हैं।
हमने इसे समझने के लिए दिल्ली के बीएल कपूर मैक्स हॉस्पिटल के न्यूरोलॉजिस्ट डॉक्टर प्रतीक किशोर से बात की।
उनका कहना है, ‘ज़्यादा काम या मेहनत करने से आपकी नींद पर असर होता है। शरीर को आराम नहीं मिलेगा तो आपके हार्मोन्स लगातार सक्रिय रहेंगे, इससे हमारा स्ट्रेस हार्मोन बढ़ेगा। यह आर्टेरी को सख़्त बनाता है, आपका बीपी बढ़ सकता है, मोटापा, शुगर, कॉलेस्ट्रॉल बढऩे की संभावना होती है। हार्ट अटैक और ब्रेन अटैक की संभावना भी बढ़ जाती है।’
‘हमारे शरीर को एक निश्चित मात्रा में काम करना होता है और इसी तरह से आराम भी करना होता है। यह बीमारियों से लडऩे की हमारी क्षमता को भी प्रभावित करता है।’
वो कहते हैं, ‘आराम करने से शरीर के अहम अंगों की रिकवरी भी होती है। इस लिहाज से एक दिन में अधिकतम आठ घंटे काम किया जा सकता है, लेकिन हम घर आकर भी काम करते हैं। तो यह 10 घंटे तक पहुंच जाता है।’
‘जब कुछ काम नहीं आता,
कड़ी मेहनत काम आती है’
एम्स के पूर्व डॉक्टर और ‘सेंटर फ़ॉर साइट’ के संस्थापक डॉक्टर महिपाल सचदेवा इस बहस में थोड़ी अलग राय रखते हैं।
उन्होंने बीबीसी से बातचीत में कहा, ‘हर देश में काम और विकास का एक टाइम फ्ऱेम होता है। जैसे जापान के लोगों ने परमाणु हमले के बाद कड़ी मेहनत की और बहुत काम किया। आपको अगर आगे बढऩा है और आपमें काम का जुनून है तो आप ज़्यादा काम करेंगे। हालांकि इसके लिए आपके पास काम भी होना चाहिए।’
‘लोग क्वालिटी और क्वांटिटी की बात करते हैं। अगर ‘वर्क इज़ वर्शिप’ (कर्म ही पूजा ) है तो मेरा मानना है कि ये दोनों एक साथ क्यों नहीं हो सकते हैं। लेकिन आप लगातार काम नहीं कर सकते। इस तरह से काम करने में आपको आराम की ज़रूरत होती है।’
डॉक्टर सचदेवा कहते हैं कि किसी डॉक्टर के पास 50 मरीज़ हों तो, या तो वो सभी देखे या फिर देखने से मना कर दे, वह यही कर सकता है।
वो कहते हैं, ‘काम करने से तनाव होता है यह सही है। मैं आँख़ों का डॉक्टर हूं तो यह कहूंगा कि इससे आँखों में खिंचाव, सिर दर्द, आँखें लाल होना जैसी समस्या भी आ सकती है। लेकिन कौन कितना काम कर सकता है, यह हर इंसान के लिए अलग-अलग होता है। ऐसे इसलिए क्योंकि ये देखना होता है कि किसी का शरीर उसे कितना काम करने की अनुमति देता है।’
डॉक्टर सचदेवा कहते हैं, ‘हालांकि, अंत में एक बात ज़रूर कहूंगा, जब कोई उपाय काम नहीं करता है तब कड़ी मेहनत ही काम में आती है।’ (bbc.com/hindi)
-नदीम अशरफ
हाल ही में ब्रिटेन के कुछ सांसदों ने इंग्लैंड क्रिकेट बोर्ड से अपील की है कि वो आगामी फरवरी में चैंपियंस ट्रॉफ़ी में अफगानिस्तान के खिलाफ मैच का बहिष्कार करें।
हालांकि इंग्लैंड क्रिकेट बोर्ड (ईसीबी) कहा है कि अफगानिस्तान के साथ द्विपक्षीय सिरीज न खेलने के अपने फैसले को जारी रखेंगे लेकिन आईसीसी (इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल) के उन टूर्नामेंटों में हिस्सा लेंगे जिसमें अफगानिस्तान भी शामिल रहेगा।
ईसीबी के चेयरमैन रिचर्ड गाउल्ड मानते हैं कि ‘सदस्यों द्वारा एकतरफा कार्रवाई के बजाय आईसीसी स्तर पर एक तालमेल के साथ अपनाया गया व्यापक रवैया कहीं अधिक असरदार होगा।’
अफगानिस्तान क्रिकेट बोर्ड के पूर्व चेयरमैन नसीम दानिश चेतावनी दे चुके हैं कि अफगानिस्तान पर पाबंदी लगाए जाने का खतरा है।
कई सालों तक अफगानिस्तान क्रिकेट बोर्ड की अगुवाई करने वाले नसीम दानिश ने बीबीसी से कहा कि अफग़़ानिस्तान क्रिकेट बोर्ड पर बहुत अधिक दबाव है और हो सकता है कि अन्य क्रिकेट बोर्ड अफगानिस्तान के साथ धीरे-धीरे खेलना बंद कर दें।
उन्होंने कहा, ‘हो सकता है कि आने वाले समय में अफगानिस्तान क्रिकेट के खिलाफ प्रतिबंध लगा दिया जाए और इस तरह देश के लिए आखिरी खुशी और उम्मीद भी चली जाएगी।’
नसीम दानिश कहते हैं, ‘अगर महिलाओं की शिक्षा, काम और अन्य अधिकारों पर मौजूदा पाबंदियों के हालात जारी रहते हैं, तो मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि अफगानिस्तान क्रिकेट पर हमेशा के लिए प्रतिबंध लगाया जा सकता है।’
ब्रिटिश सांसदों की चि_ी पर प्रतिक्रिया देते हुए ईसीबी ने भी कहा है कि अफगानिस्तान के अंदर और विदेशों में अफगानों के लिए क्रिकेट ‘उम्मीद और सकारात्मकता का स्रोत’ है।
नसीम दानिश जोर देते हैं कि तालिबान को महिला अधिकारों के प्रति नरमी का रुख दिखाना चाहिए, वरना इसका नुकसान केवल अफगानिस्तान क्रिकेट को ही नहीं होगा बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी होगा।
वो कहते हैं, ‘अगर अफगानिस्तान क्रिकेट पर प्रतिबंध लगाया जाता है तो आईसीसी का फंड आना बंद हो जाएगा, प्रायोजक चले जाएंगे, घरेलू क्रिकेट खत्म हो जाएगा और कोई भी नहीं खेलेगा क्योंकि उन्हें इसका कोई भविष्य नजर नहीं आएगा। अफगानिस्तान क्रिकेट का वजूद ही खत्म हो जाएगा।’
पाबंदियां लगाने की अपीलें
हाल ही में उत्तरी आयरलैंड के पूर्व फस्र्ट मिनिस्टर बैरोनेस फ़ोस्टर ने इंग्लैंड टीम से अफगानिस्तान के साथ क्रिकेट न खेलने की अपील की है।
पिछले एक सप्ताह से, ब्रिटेन के महिला अधिकार कार्यकर्ता और पीयर्स मॉर्गन जैसे प्रमुख पत्रकार और राजनेता इस बात को सुनिश्चित करने की अपील कर रहे हैं कि इंग्लैंड की क्रिकेट टीम अफगानिस्तान के खिलाफ न खेले।
उनके कारण बिल्कुल स्पष्ट हैं- वे मानते हैं कि तालिबान सरकार के मातहत अफगानिस्तान में महिलाओं के अधिकारों को ‘रौंद’ दिया गया है, महिलाओं की शिक्षा पर पाबंदी लगा दी गई है और महिलाओं के खेलने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है।
ब्रिटेन के जाने माने प्रत्रकारों में से एक पीयर्स मॉर्गन ने अपने एक्स हैंडल पर लिखा, ‘26 फऱवरी को आईसीसी टैंपियंस ट्रॉफी के ग्रुप स्टेज में ईसीबी की पुरुष टीम को अफगानिस्तान के खिलाफ मैच खेलने को रद्द कर देना चाहिए।’
‘सभी खेलों से प्रतिबंधित किए जाने के साथ-साथ, अफगान महिलाओं के खिलाफ तालिबान का घृणित और लगातार बदतर होता दमन बर्दाश्त के बाहर है। समय आ गया है कि हम स्टैंड लें।’
आईसीसी के लक्ष्यों और हालात के बीच टकराव
ऐसा लगता है कि आईसीसी (इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल) ने अपने विचार विमर्श के बाद और एजेंडे से अफगानिस्तान क्रिकेट पर प्रतिबंध लगाने याउसे निलंबित करने के मुद्दे को जानबूझ कर किनारे कर दिया है।
किसी देश को एक पूर्ण सदस्य मानने या टेस्ट खेलने वाले देश के रूप में मान्यता देने के लिए आईसीसी की शर्तों में से एक है कि उस देश के पास एक महिला टीम होनी ज़रूरी है, लेकिन अफगानिस्तान के पास मौजूदा समय में कोई महिला क्रिकेट टीम नहीं है।
ऐसा लगता है कि आईसीसी इसे एक संवेदनशील मुद्दे के रूप में ले रही है और इसकी अहमियत को कम करने की कोशिश कर रही है।
लेकिन ऑस्ट्रेलिया के कड़े रुख़ और अब इंग्लैंड क्रिकेट बोर्ड और ब्रिटिश सांसदों की हालिया टिप्पणी से इस मुद्दे पर आईसीसी के अंदर भी फिर से बहस छिड़ सकती है।
आईसीसी का प्राथमिक मिशन क्रिकेट के खेल को पूरी दुनिया में बढ़ाना और फैलाना है और बीते दो दशकों में अफग़़ानिस्तान क्रिकेट को इसकी सबसे बड़ी उपलब्धियों में देखा गया है।
हाल ही में आईसीसी चेयरमैन के पद पर भारतीय जय शाह की नियुक्त हुई है और कई लोगों का मानना है कि वह संस्था के अंदर अफगानिस्तान की स्थिति को और मजबूत करेंगे।
हालांकि हालिया चर्चाओं में अफगानिस्तान क्रिकेट बोर्ड ने अभी तक कोई टिप्पणी नहीं की है लेकिन उसने लगातार ज़ोर देकर कहा है कि राजनीति और खेलों को अलग रखना चाहिए और देशों से अपील की है कि वो दबाव डालने की बजाय इस तरह के मुद्दों पर बातचीत और समझ पैदा करने में शामिल हों।
नस्लीय भेदभाव को लेकर साल 1970 में दक्षिण अफ्रीका की क्रिकेट टीम पर कऱीब 22 सालों तक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलने पर प्रतिबंध लगाया गया था और इसकी वजह से यह देश इंटरनेशनल क्रिकेट से दूर रहा।
अफगानिस्तान खिलाडिय़ों पर दबाव का असर
अफगानिस्तान की क्रिकेट टीम एकमात्र ऐसी संस्था है जिसमें तालिबान बदलाव करने या उसमें अपना प्रभाव डालने में कामयाब नहीं हो पाया है। टीम का लोगो, अफगानिस्तान का तिरंगा झंडा और पिछली सरकार का राष्ट्रगान-अंतरराष्ट्रीय मैदान पर यह टीम अभी भी इन्हीं का प्रतिनिधित्व करती है।
टीम ने तालिबान के झंडे तले खेलने से अभी तक इंकार किया है।
राशिद खान और मोहम्मद नबी समेत कई खिलाडिय़ों ने अफगानिस्तान में महिलाओं की शिक्षा और काम के अधिकार को लेकर बार-बार बात की है और तालिबान सरकार से अपील की है कि वे इन क्षेत्रों में अपने फैसलों पर पुनर्विचार करें।
जब ऑस्ट्रेलिया ने अफगानिस्तान के खिलाफ अपने मैच रद्द किए तो कई खिलाडिय़ों ने ऑस्ट्रेलिया के व्यावसायिक लीगों जैसे ‘बिग बैश’से खुद को अलग कर लिया।
नसीम दानिश का बयान
अफगानिस्तान क्रिकेट बोर्ड के पूर्व चेयरमैन नसीम दानिश मानते हैं कि अफगानिस्तान क्रिकेट को लेकर मौजूदा चर्चाएं भी खिलाडिय़ों पर बहुत अधिक दबाव डालेंगी।
हालांकि खिलाड़ी संभावित दबावों का टीम पर पडऩे वाले असर के बारे में आम तौर पर चर्चा नहीं कर रहे हैं, लेकिन घरेलू क्रिकेट खेलने वाले हजारों खिलाडिय़ों पर इसका असर साफ है, जिनकी आकांक्षा है कि वो अफगानिस्तान की राष्ट्रीय टीम की ओर से खेलें और उच्चस्तरीय क्रिकेट में मुकाम हासिल करें।
कॉमर्शियल लीग में खेलने वाले कई अफगान क्रिकेटर अच्छी कमाई कर रहे हैं, लेकिन जो केवल नेशनल टीम में खेलते हैं या घरेलू क्रिकेट पर अधिक ध्यान देते हैं, अगर दबाव बढ़ा या प्रतिबंध लगाया गया तो उनपर सबसे अधिक असर पड़ सकता है।
दानिश मानते हैं कि अगर अफगानिस्तान की टीम को अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं से प्रतिबंधित किया जाता है, तो कई घरेलू खिलाड़ी क्रिकेट ही छोड़ देंगे और युवा खिलाड़ी इस खेल में जाने से हतोत्साहित होंगे। परिवार अपने बच्चों को क्रिकेट अकादमी में फिर कभी नहीं भेजेंगे।
महिला अधिकार कार्यकर्ताओं में मतभेद
अफगानिस्तान क्रिकेट पर प्रतिबंध लगाने को लेकर महिला अधिकार कार्यकर्ताओं की भी अलग-अलग राय है।
अफगानिस्तान क्रिकेट पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगाने की वकालत करने वाले एक ग्रुप का दावा है कि अफगान खिलाड़ी तालिबान के प्रतिबंधों को खिलाफ पर्याप्त आवाज बुलंद नहीं कर रहे हैं।
हालांकि एक दूसरे ग्रुप का तर्क है कि प्रतिबंध लगाना बेहतरी करने की बजाय अधिक नुकसान पहुंचाएगा।
इनमें से अधिकांश कार्यकर्ता सोशल मीडिया पर अफगानिस्तान क्रिकेट के लिए अपना समर्थन जाहिर करते हैं और तर्क देते हैं कि महिला अधिकारों को लेकर खिलाडिय़ों ने लगातार आवाज उठाई है।
यहां तक कि कुछ का दावा है कि अगर अफगानिस्तान क्रिकेट पर प्रतिबंध लगाया जाता है तो ‘तालिबान को इससे सबसे अधिक फायदा होगा।’
अफगानिस्तान क्रिकेट बोर्ड के संचालन में तालिबान ने कोई सीधे दखल नहीं दिया है, लेकिन यह साफ है कि क्रिकेट में उनकी दिलचस्पी कम है, खासकर कंधार में मौजूद उनके नेता की।
हालांकि तालिबान के गृहमंत्री सिराजुद्दीन हक्कानी के भाई अनस हक्कानी को अक्सर क्रिकेट के मामलों में दिलचस्पी लेते हुए देखा गया है।
अनस हक्कानी ने बार-बार अफगान क्रिकेटरों की तारीफ की है और कुछ मौकों पर उनके साथ भी दिखे हैं। हालांकि तालिबान ने महिला क्रिकेट पर खासतौर पर कोई टिप्पणी नहीं की है, लेकिन महिला अधिकारों को लेकर उनका आम रवैया बदला नहीं है, जिसमें महिलाओं के खेलों पर पूर्ण प्रतिबंध और कई अन्य पाबंदियां शामिल हैं। (bbc.com/hindi)
पासपोर्ट एक यात्रा दस्तावेज है, जिसमें हमारी राष्ट्रीयता दर्ज होती है. इससे तय होता है कि हम कितने देशों में बिना वीजा के यात्रा कर सकते हैं. लेकिन पासपोर्ट प्रणाली शुरू होने से पहले विदेश यात्राएं कैसे हुआ करती थीं.
डॉयचे वैले पर स्टुअर्ट ब्राउन का लिखा-
ब्रिटेन के नागरिकों ने साल 2016 में यूरोपीय संघ (ईयू) से अलग होने के पक्ष में मतदान किया था। इसके बाद ब्रिटेन का पासपोर्ट रखने वाले लोगों के पास यह अधिकार नहीं रहा कि वे यूरोप में आजादी से घूम सकें। यूरोपीय संघ को छोडऩे से ब्रिटिश नागरिकों की एक तरह से पहचान बदल गई। अब वे यूरोपीय नहीं रहे थे।
जर्मनी में रह रहे कई ब्रिटिश नागरिकों ने तब जर्मन नागरिकता के लिए आवेदन करने का फैसला किया। ऐसा इसलिए क्योंकि जर्मन पासपोर्ट मिलने पर वे यूरोपीय संघ में बिना वीजा के रह सकते थे। लेकिन इसके चलते, कई ब्रिटिश नागरिकों में अपना देश छोडऩे का दुख और बढ़ गया।
लेकिन यह बहुत पुरानी बात नहीं है जब अन्य देशों में जाने के लिए पासपोर्ट की जरूरत ही नहीं होती थी। लोग आजादी के साथ एक देश से दूसरे देश में जा सकते थे।
करीब 100 साल पहले शुरू हुआ पासपोर्ट का चलन
पासपोर्ट को आज हम जिस रूप में देखते हैं, उसकी शुरुआत करीब 100 साल पहले हुई थी। यह कहना है हरमीन डीबोल्ट का, जो स्विट्जरलैंड के जेनेवा स्थित यूनाइटेड नेशंस लाइब्रेरी एंड आर्काइव्स में काम करती हैं।
जेनेवा में लीग ऑफ नेशंस का मुख्यालय हुआ करता था। प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद 1920 में लीग ऑफ नेशंस की स्थापना की गई थी। इसका मकसद विश्व में शांति बनाए रखना था। बाद में संयुक्त राष्ट्र ने इसकी जगह ले ली।
यह वह समय था, जब पुराने औपनिवेशक साम्राज्य ढह रहे थे और नए देशों और राज्यों का जन्म हो रहा था। लोग अब अपने राजाओं की प्रजा नहीं थे, बल्कि वे उन नए देशों के नागरिक थे। युद्ध की वजह से विस्थापित होने के चलते कई लोग दूसरे देशों में भी जा रहे थे। उस दौरान, लोग अपनी पहचान सिद्ध करने के लिए अपने स्थानीय दस्तावेज साथ लेकर चलते थे।
युद्ध के दौरान ही, जर्मनी, फ्रांस, यूके और इटली ने इस बात पर जोर देना शुरू कर दिया कि दुश्मन देशों के नागरिकों को उनके क्षेत्र में आने के लिए आधिकारिक पहचान दस्तावेजों की जरूरत होगी।
डाइबोल्ट कहती हैं, ‘सीमा पर तैनात अधिकारियों का सामना अलग-अलग तरह के यात्रा दस्तावेजों से होने लगा, जो अलग-अलग आकृति और आकार के थे। तब यह जानना मुश्किल होता था कि पासपोर्ट असली है या नहीं। इसलिए, उन्हें इस समस्या का समाधान ढूंढने की जरूरत थी।’
75 साल के नाटो को भविष्य
आखिरकार, 1920 में लीग ऑफ नेशंस ने पेरिस में दुनियाभर के नेताओं को इक_ा किया। जहां इन नेताओं ने पासपोर्ट और सीमा शुल्क जैसे मुद्दों पर हुई एक कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लिया। इसके बाद, आधिकारिक रूप से यह तय हो गया कि सभी जगहों पर पासपोर्ट एक जैसे दिखने चाहिए और उनमें एक तरह की जानकारी होनी चाहिए।
यह तय हुआ कि पासपोर्ट में 32 पेज होने चाहिए। उसका आकार छह गुणा चार इंच का होना चाहिए। साथ ही पासपोर्ट के कवर पर देश का नाम और आधिकारिक चिन्ह होना चाहिए। अभी भी पासपोर्ट इसी तरह बनाए जाते हैं।
पासपोर्ट से परेशान हुए लोग
डीबोल्ट बताती हैं कि जल्द ही पासपोर्ट का विरोध शुरू हो गया। विश्व के कई नेताओं का मानना था कि पहले वाली प्रणाली ही बेहतर थी, जब लोग किसी दस्तावेज की चिंता किए बिना आजादी से घूम सकते थे।
आम जनता और प्रेस तब पासपोर्ट को पसंद नहीं करते थे। लोगों को लगता था कि पासपोर्ट से उनकी आजादी और निजता कम हुई है। इसे जारी करने की प्रक्रिया में काफी नौकरशाही और लालफीताशाही भी शामिल थी।
1926 में न्यूयॉर्क टाइम्स के एक लेख में इस विरोध का जिक्र किया गया था। अखबार ने लिखा था, ‘क्या पासपोर्ट को यात्रा की एक स्थायी जरूरत के तौर पर बनाए रखना चाहिए। युद्ध के बाद प्रचलन में आई यह प्रणाली बोझिल और परेशान करने वाली है। यह देशों के बीच मुक्त आवाजाही में भी रुकावट पैदा करती है।’
लेकिन अब वापसी पुरानी स्थिति में वापसी करना मुश्किल था। लीग ऑफ नेशंस के सदस्य उस पुराने समय में जाने पर सहमत नहीं हुए जब सीमा नियंत्रण और पासपोर्ट नहीं हुआ करते थे। इसलिए पासपोर्ट चलन में बने रहे।
लाखों लोग नहीं हासिल कर सकते हैं पासपोर्ट
दुनिया में ऐसे लोग भी हैं, जिनकी कोई राष्ट्रीयता या नागरिकता नहीं है और इस वजह से उनके पास पासपोर्ट भी नहीं है। यूएस इंस्टीट्यूट ऑफ डिप्लोमेसी एंड ह्यूमन राइट्स के मुताबिक, दुनियाभर में लगभग एक करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें कोई भी देश अपने नागरिकों के तौर पर मान्यता नहीं देता। ऐसा अक्सर कुछ नस्लीय समूहों के खिलाफ भेदभाव होने के चलते होता है। जैसे- रोमा और सिंती समुदाय के लोग, जिनकी जर्मनी में लगभग 70 फीसदी आबादी अभी भी देशविहीन है।
लेकिन देशविहीन होना कोई नई बात नहीं है। ऐसा होने की शुरुआत लगभग उसी समय हुई, जब पासपोर्ट का चलन शुरू हुआ क्योंकि तब पहले विश्व युद्ध के बाद साम्राज्य खत्म हुए और नए देशों ने आकार लिया। उस समय यूरोप में लगभग 90 लाख लोग विस्थापित हुए थे। इस बीच, जब यूरोप के नक्शे को फिर से खींचा गया तो लाखों लोगों ने खुद को ऐसे देशों में मौजूद पाया जो या तो उनकी कानूनी पहचान को मान्यता नहीं देते थे या फिर उन्हें अपनी राष्ट्रीयता देने के लिए तैयार नहीं थे।
किस देश का पासपोर्ट है सबसे ज्यादा ताकतवर
दुनिया भर में लोगों के लिए, पासपोर्ट बहुत महत्व रखता है। एक व्यक्ति की राष्ट्रीयता तय करती है कि वे कहां यात्रा कर सकते हैं और कहां रह सकते हैं। इसलिए हर साल पासपोर्ट की रैंकिंग भी जारी की जाती हैं, जो बताती हैं कि किस देश का पासपोर्ट कितना ताकतवर है। यह रैंकिंग इस आधार पर तय होती हैं कि उस देश के पासपोर्ट के जरिए कितने देशों में बिना वीजा के यात्रा की जा सकती है।
ग्लोबल पासपोर्ट पावर रैंक 2025 में भारत 69वें स्थान पर है। पहला स्थान संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) का है जो तेल उत्पादन करने वाला अमीर देश है। पहले स्थान का मतलब है कि यहां के लोगों को अलग-अलग देशों में जाने की सबसे ज्यादा आजादी है। लेकिन यहां भी कुछ कमियां मौजूद हैं।
यूएई में युवा पासपोर्ट तभी हासिल कर सकते हैं, जब उनके पिता अमीराती हों। हालांकि, इसमें कुछ अपवाद भी हैं। इसके अलावा, अल्पसंख्यक समूहों या शासन कर रहे शाही परिवार के विरोधियों को अक्सर पासपोर्ट से वंचित कर दिया जाता है। यह सिर्फ एक उदाहरण है कि कैसे पासपोर्ट स्वतंत्रता और शोषण दोनों का ही शक्तिशाली साधन हैं।
पासपोर्ट रैंकिंग में सबसे नीचे अफगानिस्तान और सीरिया हैं। युद्ध से तबाह हो चुके इन देशों के नागरिकों को अन्य देशों में जाने की सबसे कम आजादी है। हालांकि, सीरिया में हाल ही में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद भविष्य में इसकी रैंकिंग में बदलाव हो सकता है। (dw.com/hi)
-राजीव
देश में कामकाज के घंटों पर छिड़ी बहस के पीछे क्या आपने सोचा है क्यों कॉर्पोरेट के मुखिया (सरगना लिखना चाहता था) इतनी बड़ी बात कर पा रहे हैं ? वह इसलिए की उन्हें इस बात का आभास है की सरकार कॉर्पोरेट संस्थाओं और पैसे की तरफ झुकी हुई है। बहुत सी ऐसी संस्थाएं जो अपने कामगारों को जड़ खरीद गुलाम समझती हैं वह बोलना तो यही चाहती हैं लेकिन लोक लॉज के कारण वह ये बात बोल नहीं पा रहीं हैं लेकिन मन तो हफ्ते में सत्तर या नब्बे घंटे काम कराने का उनका भी करता होगा।
इस पर एक दिलचस्प टिप्पणी सोशल मीडिया पर अंकित है कि पैसों की नजर से दुनिया को देखने वाले लोग प्रेम और परिवार को नहीं समझ पाएंगे।
मजदूर संगठन और मजदूरों की क्षीण हुई एकता ने ऐसे तमाम लोगों को इस तरह बेलगाम बोलने का अवसर दे दिया है। एक दिलचस्प किस्सा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले का है जो वर्षों पुराना है लेकिन निरंकुश सरकारों नकेल कसने का एक बहुत सटीक उदाहरण है।
बिलासपुर से नगर निगम के सफाई कर्मचारियों का मजदूर नेता सरदारी लाल गुप्ता (मेरे पिताजी) को बुलावा आया। सफाई कर्मचारी अपनी मांगों को लेकर आंदोलन करना चाहते थे। पिताजी और सत्येंद्र साधु जो कि मजदूर आंदोलन का एक और जाना पहचाना नाम था बिलासपुर पहुंचे। आंदोलन एक दिन पहले शुरू हो चुका था। वहां पहुंचने पर सभी सफाई कर्मचारियों (स्वीपर) लोगों ने आग्रह किया की आप दोनों नेता हमारी बस्ती के बीच जो मंदिर हैं उसी में रुक जाइए। बाहर कहीं भी रहने पर गिरफ्तारी का खतरा था। उस समय अधिकतर घरों में सूखा पैखाना हुआ करता था जिसको प्रतिदिन स्वीपर साफ करते थे इसलिए सभी को पता था की आंदोलन बहुत ज्यादा दिन खींच जाने की स्थिति में बहुत गंभीर परिणाम होंगे। प्रशासन तो आंदोलन को एक दिन से ज्यादा भी बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं था क्योंकि ऐसे पैखानों की सफाई प्रतिदिन आवश्यक थी।
पिताजी और सत्येंद्र साधु उनके आग्रह पर सफाई कर्मियों की बस्ती के मंदिर में ही रुक गए। अब खाने का क्या किया जाए? दोनों नेताओ ने खुद से कहा की जो तुम लोग खिला दोगे वही हम खाएंगे। इस एक बात ने आंदोलन और सफाई कर्मचारियों में जान भर दी कोई आज के समय में भी जिनको लोग छूने से बचते हैं दोनों नेताओं ने उनके हाथ का बना खाना खाना शुरु कर दिया। सभी आंदोलनरत लोगों को भरोसा हो गया कि यह लोग हमारे लिए लड़ाई लड़ेंगे। मजदूर और उसका आंदोलन करते उसके नेताओं के बीच का यह भरोसा अब लगभग खत्म हो गया है।
दूसरी एक बात जिसने आंदोलन में जान भरी वह इनके बीच वह भाषण था जिसमें मजदूर नेताओं ने एलान किया की नगर निगम के अध्यक्ष को हम 42 रूपये प्रतिदिन देंगे अगर वह सफाई करने को तैयार हो जायेंगे। नगर निगम के अध्यक्ष उस समय एक पूर्व मंत्री थे और स्वर्ण समाज से थे। उस समय सफाई कर्मचारियों की तनख्वाह 21 रूपये प्रतिदिन हुआ करती थी। आंदोलन को मुश्किल से 3 दिन ही हुए थे डीआईजी ने आंदोलनकारियों को बातचीत के लिए बुलाया। सफाई कर्मचारियों के बीच के ही पांच लोग डीआईजी से चर्चा करने पहुंचे। प्रशासन को आंदोलन की गहराई का अंदाजा नहीं था। बात-बात में डीआईजी साहब ने कुछ अपशब्द कह दिए, बातचीत करने गए लोगों में से एक महिला ने चप्पल निकालकर डीआईजी साहब को मार दी। बात बहुत बिगड़ गई और कुल 157 लोगों की गिरफ्तारी हुई और कर्फ्यू लगा दिया गया।
नगर निगम बिलासपुर ने सफाई करने के लिए उड़ीसा से सफाई कर्मचारी बुलवा लिए लेकिन बाहर बचे लोगों ने बहुत दमदारी से इसका विरोध किया और उड़ीसा से आए हुए लोगों को काम नहीं करने दिया। पांच दिन बाद पूरा प्रशासन इन आंदोलनरत सफाई कर्मचारियों के सामने हाथ जोड़े खड़ा था। लगभग सभी मांगे पांच दिन के आंदोलन में मान ली गई।
सत्ता इसलिए भी निरंकुश हो गई हैं कि पूरे देश से मजदूरों का कोई बड़ा संगठन नहीं है और मजदूरों की गतिशीलता लगभग इस देश में खत्म हो गई है। पहले यह आम धारणा थी कि अदालत में दर्ज मुकदमों में अदालतों का झुकाव विद्यार्थियों और मजदूर के पक्ष में होता है। एक स्वाभाविक सहानुभूति इन अदालतों की इन दोनों वर्ग की तरफ रहती है लेकिन हालिया अदालती फैसलों ने यह धारणा भी तोड़ दी है। मजदूरों से जुड़े कानून को सरकारों ने नियोक्ता की तरफ झुका दिया है। मजदूर संगठन और मजदूरों को गतिशील रहना होगा ताकि सरकारें मजदूरों से जुड़े कानूनों को और तोड़मरोड़ ना सकें। पिछले कुछ सालों में मजदूरों से जुड़े कानून को बहुत ज्यादा शिथिल कर दिया है लेकिन कोई मजबूत आवाज इनके पक्ष में खड़ी नहीं दिखी। कामगारों के हक की बात इस राष्ट्र के विमर्श से गायब है।
अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कनाडा को अमेरिका में शामिल करने की बात कर बहस छेड़ दी है।
कनाडा के लोग भी इस पर खुलकर प्रतिक्रिया दे रहे हैं और दुनिया भर के विशेषज्ञ अमेरिका की जमकर आलोचना कर रहे हैं।
ट्रंप लालच दे रहे हैं कि कनाडा अमेरिका में शामिल हो जाएगा तो टैरिफ से मुक्ति मिल जाएगी और टैक्स भी कम हो जाएगा। लेकिन कनाडा के लोगों को ट्रंप का यह आइडिया लुभा नहीं पा रहा है। दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार ट्रंप की नीतियों को लेकर अमेरिका को आड़े हाथों ले रहे हैं।
द हिन्दू के अंतरराष्ट्रीय संपादक स्टैनली जॉनी ने लिखा है, ‘ओबामा ने क्राइमिया पर क़ब्ज़ा के कारण रूस को जी-8 से निकाल दिया था। जॉन केरी ने इसे मध्यकालीन बर्बरता कहा था। इसके बाद अमेरिका ने रूस पर कड़े से कड़े प्रतिबंध लगाए। बाइडन रूस के खिलाफ यूक्रेन को फंड के साथ हथियार देते रहे और कहा कि पुतिन विस्तारवादी नीति पर चल रहे हैं। राष्ट्रपति बाइडन ने रूस के ख़िलाफ़ वैश्विक गठबंधन भी तैयार किया। अब अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति कनाडा, ग्रीनलैंड और पनामा नहर पर अपना नियंत्रण चाहते हैं।’
कनाडा में क्या कहा जा रहा है?
कनाडा की प्रमुख विपक्षी कंज़र्वेटिव पार्टी के नेता पिएरे पोलिएवे ने ट्रंप के बयान को ख़ारिज करते हुए कहा कि कनाडा कभी भी अमेरिका का 51वां राज्य नहीं बन पाएगा।
पिएरे ने एक्स पर लिखा, ‘हम एक महान और स्वतंत्र मुल्क हैं। हम अमेरिका के सबसे अच्छे दोस्त हैं। हमने 9/11 हमले के बाद अल-क़ायदा के खिलाफ कार्रवाई में अमेरिकियों की मदद के लिए अरबों डॉलर और सैकड़ों जानें दी हैं। हम अमेरिका को बाज़ार मूल्य से कम क़ीमतों पर अरबों डॉलर की उच्च गुणवत्ता वाली और पूरी तरह से विश्वसनीय ऊर्जा की आपूर्ति करते हैं। हम अरबों डॉलर का अमेरिकी सामान खरीदते हैं।’
उन्होंने लिखा, ‘हमारी कमज़ोर एनडीपी-लिबरल सरकार इन साफ़ बिंदुओं को बताने में विफल रही। मैं कनाडा के लिए लड़ूंगा। जब मैं प्रधानमंत्री बनूंगा तो हम अपनी सेना को दोबारा से खड़ा करेंगे और सीमा को वापस कब्जे में लेंगे ताकि कनाडा-अमेरिका सुरक्षित रहें। हम हमारे आर्कटिक का वापस नियंत्रण लेंगे ताकि रूस और चीन को बाहर रख सकें।’
‘हम करों में कटौती करेंगे, लालफ़ीताशाही को कम करेंगे और अपने देश में तनख़्वाहें और उत्पादन लाने के लिए बड़े पैमाने पर संसाधन परियोजनाओं को तेज़ी से हरी झंडी देंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो हम कनाडा को पहले स्थान पर रखेंगे।’
ट्रूडो की सरकार से समर्थन वापस लेनी वाली एनडीपी के नेता जगमीत सिंह ने डोनाल्ड ट्रंप की निंदा की है।
उन्होंने एक्स पर लिखा, ‘बस करो डोनाल्ड। कोई कनाडावासी आपको जॉइन नहीं करना चाहता। हम प्राऊड कनैडियन्स हैं। जिस तरह से हम एक दूसरे का ख़्याल रखते हैं और अपने देश की हिफ़ाज़त करते हैं, हमें उस पर नाज़ है।’
‘आपके हमले सरहद की दोनों ओर नौकरियों पर असर डालेंगे। अगर आप कनाडा के लोगों की नौकरियां खाएंगे तो अमेरिका को इसकी क़ीमत चुकानी होगी।’
कनाडा की विदेश मंत्री मेलेनी जोली ने लिखा, ‘नवनिर्वाचित राष्ट्रपति का बयान ये दिखाता है कि उन्हें इस बात की समझ नहीं है कि कनाडा एक मजबूत देश कैसे है। हमारी अर्थव्यवस्थ मज़बूत है। हमारे लोग मजबूत हैं। हम धमकियों के आगे कभी नहीं झुकेंगे।’
पीपल्स पार्टी ऑफ कनाडा के प्रमुख मैक्सिम बर्निअर ने लिखा है, ‘एक बात जो मुझे अमेरिका के बारे में हमेशा से नापसंद रही है, वह है वहाँ की नव-रूढि़वादी सरकारों का सैन्यवादी और साम्राज्यवादी रवैया। यह रवैया डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन दोनों पार्टियों में मौजूद है। दशकों से ये दूसरे देशों पर हमला करते रहे हैं, सरकारें बदलते रहे हैं, बमबारी करते रहे हैं और हजारों निर्दोषों की जान लेते रहे हैं। अमेरिका ये सब दुनिया को सुरक्षित बनाने के नाम पर करता है। अमेरिका के अब भी 80 देशों में 750 सैन्य ठिकाने हैं ताकि ये अपने साम्राज्य की रक्षा कर सकें।’
मैक्सिम बर्निअर ने लिखा है, ‘मैंने ट्रंप का समर्थन इसलिए किया था कि उन्होंने महंगे और अर्थहीन युद्धों का विरोध किया था। यहां तक कि उन्होंने यूक्रेन में रूस के साथ अमेरिका के छद्म युद्ध को भी खत्म करने की बात कही थी। ओबामा और बाइडन खुलकर युद्धों को बढ़ावा दे रहे थे। ट्रंप के नेतृत्व में रिपब्लिकन पार्टी शांति की समर्थक लग रही थी। अमेरिका वियतनाम से लेकर अफग़़ानिस्तान तक में अपमानित हुआ है। यूक्रेन में भी चीज़ें उसके हक़ में नहीं जा रही हैं। रूस के खिलाफ प्रतिबंध बैकफायर कर रहा है।’
मैक्सिम बर्निअर ने लिखा है, ‘ट्रंप का कहना है कि वह आर्थिक ताक़त का इस्तेमाल करेंगे। मतलब ट्रंप कनाडा से इकनॉमिक वॉर शुरू करना चाहते हैं।
ट्रंप हमारी अर्थव्यवस्था को तबाह करना चाहते हैं। ज़ाहिर है, इसका असर अमेरिका पर भी पड़ेगा, लेकिन कनाडा की तुलना में कम पड़ेगा। कनाडा अमेरिका से कोई भी युद्ध जीतने में सक्षम नहीं है। हम अमेरिका से आर्थिक जंग में भी देर तक नहीं टिक पाएंगे। कनाडा आर्थिक रूप से अमेरिका पर निर्भर है। अगर ट्रंप वाकई कनाडा को अमेरिका में शामिल करना चाहते हैं तो हम बिल्कुल एक अलग गेम में जा रहे हैं, जो बहुत ही ख़तरनाक होगा। ज़ाहिर है इसका कोई आसान समाधान नहीं होगा।’
संयुक्त राष्ट्र में कनाडा के राजदूत बॉब रे ने लिखा है, ‘संप्रभुता और स्वतंत्रता अंतरराष्ट्रीय कानून और संयुक्त राष्ट्र चार्टर का एक मूलभूत सिद्धांत है। मुझे यूक्रेन की स्वतंत्रता की रक्षा करने पर गर्व है। मुझे कनाडा की रक्षा करने पर भी गर्व है। कनाडा की संप्रभुता की रक्षा करना हर देशभक्त का कर्तव्य है। चाहे वह किसी भी पार्टी या क्षेत्र से संबंध रखता हो।’
हकीकत से परे कल्पना
डग फोर्ड कनाडा के ओंटेरियो प्रांत के प्रीमियर हैं। डग फोर्ड हाल के दिनों में ट्रंप की टैरिफ से जुड़ी धमकियों के खिलाफ खुलकर बोलते रहे हैं। फोर्ड ने कहा है कि दोनों देशों को उत्तरी अमेरिका की समृद्धि के लिए चीन की चुनौती से मिलकर लडऩा चाहिए।
उन्होंने कहा, ‘हमें मिलकर इस विलय के हास्यास्पद विचारों पर समय की बर्बादी की बजाय मेड इन कनाडा और मेड इन यूएसए के गौरव को बहाल करने की कोशिशों पर ध्यान देना चाहिए।’
फोर्ड के अलावा कई जानकार भी ये मानते हैं कि ट्रंप की सोच हकीकत से परे है।
कनाडाई अख़बार द ग्लोबल एंड मेल से कार्लटन यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय संबंधों और अमेरिकी विदेश नीति से जुड़े मामलों के विशेषज्ञ प्रोफेसर एरॉन एटिंगर ने कहा कि ट्रंप का रवैया हमेशा से अमेरिका की बड़ी अर्थव्यवस्था का इस्तेमाल छोटे साझेदारों पर दबाव बनाकर रियायतें पाने वाला रहा है।
उन्होंने कहा, ‘अगर ट्रेड वॉर छिड़ता है तो ये कनाडा को आर्थिक गुलाम बना सकता है लेकिन गुलामी हमारी संप्रभुता खोने से अलग है।’
प्रोफेसर एटिंगर ने कड़े शब्दों में कहा, ‘आखिर में ये सब बकवास बातें हैं।’
वहीं रॉयल मिलिटरी कॉलेज ऑफ़ कनाडा में डिफ़ेंस स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर ऐडम चैपनिक का कहना है कि ट्रंप को अपनी ही पार्टी के भीतर जंग लडऩी पड़ेगी। साथ ही कनाडा को अपना संविधान बदलना पड़ेगा जो वास्तव में अपने ‘अस्तित्व को खत्म’ करने के लिए होगा। इसके लिए कनाडा के हाउस ऑफ कॉमन्स और सीनेट में वोट जीतने होंगे और साथ ही हर प्रांत, क्षेत्र को एकसाथ लाना होगा।
उन्होंने कहा, ‘और जब बात किसी देश की आती है तो कई मुकदमें होंगे, जिनके निपटारे में दशकों न भी लगें लेकिन सालों जरूर गुजर जाएंगे।’
कनाडा में रह रहे अमेरिकियों
की राय क्या है?
पढ़ाई या काम के सिलसिले में कनाडा में रहने वाले अमेरिकियों की तादाद लाखों में है।
ट्रंप के बयान पर जब इन लोगों से कनाडा ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन (सीबीसी) ने सवाल पूछे तो जवाब मिले-जुले आए।
मॉन्ट्रियल की मैकगिल यूनिवर्सिटी में राजनीतिक विज्ञान की पढ़ाई कर रहीं जैकब वेसोकी ने कहा कि नवनिर्वाचित राष्ट्रपति का अपने सबसे करीबी सहयोगी पर ऐसा बयान निराशाजनक है।
उन्होंने कहा, ‘कनाडा में रहने वाले एक अमेरिकी के तौर पर ये देखना वाकई दुखद है।’ वेसोकी ने राष्ट्रपति चुनाव में कमला हैरिस को वोट दिया था।
लेकिन कनाडाई-अमेरिकी जॉर्जेन बुर्क ट्रंप की कट्टर समर्थक हैं। उनकी नजऱ में नवनिर्वाचित राष्ट्रपति शायद थोड़े-बहुत ट्रोल जैसे सुनाई पड़ रहे हैं। हालांकि, वो ट्रंप के एक्शन को कनाडा के लिए हानिकारक नहीं मानती हैं। वह कहती हैं, ‘वो कुछ भी गैर-जरूरी तो नहीं कह रहे।’
बुर्क ने कहा, ‘ट्रंप कनाडा विरोधी नहीं हैं लेकिन उनके पास सीमा पर आतंकवाद के खतरे पर चिंता की वाजिब वजहें हैं। साथ ही कनाडा नेटो के सैन्य खर्चे को भी पूरा नहीं दे पा रहा है।’
‘वो किसी ट्रोल जैसे सुनाई पड़ सकते हैं, चाहे लोग पसंद करें या न करें। लोग चाहे ये कहें कि अरे किसी राष्ट्रपति के लिए ये कहना सही नहीं या कुछ भी।।।लेकिन वो ऐसे ही हैं।’
वहीं, जैकब की नजऱ में ट्रंप दोनों देशों के बीच व्यापारिक सौदे में रियायत पाने के लिए टैरिफ वाली धमकियां दे रहे हैं। जैकब का अमेरिका-कनाडा के रिश्तों के लिए नज़रिया अभी भी आशावादी है।(bbc.com/hindi)
अमेरिका से राष्ट्रपति जो बाइडन की विदाई होने जा रही है और 20 जनवरी को डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति की कमान संभालने जा रहे हैं।
इस चलाचली के समय बाइडन प्रशासन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन भारत के दौरे पर आए थे और उन्होंने एक अहम घोषणा की। इस घोषणा को भारत के लिए काफ़ी ख़ास माना जा रहा है।
सोमवार को जेक सुलिवन ने नई दिल्ली में कहा कि अमेरिका जल्द ही इंडियन साइंटिफिक एंड न्यूक्लियर एंटिटीज को प्रतिबंधित लिस्ट से बाहर कर देगा।
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने जिस नागरिक परमाणु समझौते पर मुहर लगाई थी, उसी के तहत जेक सुलिवन ने यह घोषणा की है।
जेक सुलिवन ने दिल्ली स्थित आईआईटी में कहा कि अमेरिका और भारत के बीच न्यूक्लियर सेक्टर में सहयोग बहुत ही मज़बूत स्तर पर पहुँच गया है।
अमेरिकी एनएसए ने क्या-क्या कहा?
जेक सुलिवन ने कहा, ‘मैं आज घोषणा कर सकता हूँ कि अमेरिका अब उन ज़रूरी क़दमों को उठाने जा रहा है, जिनसे नागरिक परमाणु सहयोग में दोनों देशों की कंपनियों के बीच जो बाधाएं थीं, उन्हें ख़त्म किया जा सके। इस पर अंतिम फ़ैसला जल्द ही होगा।’
अब भारत की कंपनियों पर परमाणु सहयोग के लिए अमेरिका का कोई प्रतिबंध नहीं होगा। कहा जा रहा है कि भारतीय कंपनियों के लिए यह बड़ी घोषणा है।
जेक सुलिवन ने कहा कि अमेरिका के निजी क्षेत्र, वैज्ञानिक और टेक्नोलॉजिस्ट भारतीय कंपनियों के साथ अब मिलकर काम कर सकते हैं। सुलिवन ने कहा कि दोनों देशों के बीच नागरिक परमाणु सहयोग अब बढ़ेगा।
जेक सुलिवन ने कहा, ‘हालांकि जॉर्ज बुश और मनमोहन सिंह ने 20 साल पहले नागरिक परमाणु सहयोग की मज़बूत बुनियाद रख दी थी।’
जेक सुलिवन जब ये बातें कह रहे थे तो उनके साथ भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर भी थे। जयशंकर ने कहा, ‘भारत और अमेरिका के बीच वैश्विक रणनीतिक साझेदारी नई ऊंचाई पर पहुँच गई है। इनमें तकनीक, रक्षा, अंतरिक्ष, बायोटेक्नॉलजी और एआई भी शामिल हैं।’
सुलिवन के दौरे की अहमियत
जेक सुलिवन ने एनएसए के तौर पर अपने आखिरी दौरे में भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से भी मुलाकात की।
जेक सुलिवन से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मुलाकात की थी और इसे असामान्य माना जा रहा है।
दरअसल जेक सुलिवन अमेरिकी राष्ट्रपति कार्यालय के एक अधिकारी की हैसियत रखते हैं और उनकी मुलाक़ात पीएम मोदी से हुई।
अमेरिका के डेलावेयर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर मुक्तदर खान ने पाकिस्तान के अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ कमर चीमा से बातचीत में कहा, ‘मैं सोचता हूं कि मोदी ने जेक सुलिवन से मुलाकात क्यों की? अमेरिका में एनएसए का ओहदा एक अधिकारी से ज़्यादा नहीं होता है। आप सोचिए कि अजित डोभाल अमेरिका जाते हैं तो क्या बाइडन से मुलाकात होगी? असंभव है।’
मुक्तदर खान कहते हैं, ‘एक बड़ी प्रगति ज़रूर हुई है। भारत के जो निजी क्षेत्र के परमाणु प्रतिष्ठान थे, उन्हें अमेरिका ने परमाणु अप्रसार की सूची से निकाल दिया है। भारत के लिए यह बड़ी उपलब्धि है। इसका असर यह होगा कि भारत का प्राइवेट सेक्टर अब परमाणु और मिसाइल के मामलों में अमेरिकी कंपनियों से सीधे डील कर पाएगा। अब भारत की कंपनियां वहाँ जाकर रिसर्च भी कर सकती हैं। दूसरी तरफ पाकिस्तान को देखिए तो अमेरिका ने उनके मिसाइल प्रोग्राम पर प्रतिबंध लगा दिया है। वहीं भारत को प्रतिबंध की लिस्ट से बाहर निकाल दिया है।’
मुक्तदर खान ने कहा, ‘व्हाइट हाउस की वेबसाइट पर जाइए तो जेक सुलिवन के दौरे को इस रूप में बताया जा रहा है कि पिछले चार सालों में दोनों देशों के बीच सहयोग को अंतिम रूप दिया जा रहा है। बाइडन प्रशासन ने एक रोडमैप तैयार कर दिया है। दोनों देश सेमीकंडक्टर और एआई पर फोकस कर रहे हैं। इसे इस रूप में भी देख सकते हैं कि भारत का माइंड और अमेरिका का कैपिटल साथ मिलकर काम करेगा। बाइडन प्रशासन में दोनों देशों के बीच रणनीतिक सहयोग बढ़ा है।’
मुकतदर खान कहते हैं, ‘मेरे लिए यह पहेली की तरह है कि भारत के मामले को ब्लिंकन के बदले जेक सुलिवन क्यों डील कर रहे हैं? ब्लिंकन दक्षिण कोरिया गए लेकिन भारत नहीं आए। मेरा मानना है कि दुनिया में अभी तीन सबसे अहम देश हैं। अमेरिका, चीन और भारत। ट्रंप का रुख भी भारत के लिए सकारात्मक ही रहेगा। बाइडन ने तो जाते-जाते जापान को झटका दे दिया है। नीपॉन स्टील को जिस तरह टारगेट किया है, वह चौंकाने वाला है। जेक सुलिवन कोई डिप्लोमैट नहीं हैं लेकिन भारत को वही हैंडल कर रहे हैं।’
भारत और अमेरिका का पुराना कऱार
समाचार एजेंसी रॉयर्टस ने लिखा है कि 2000 के दशक से ही भारत अमेरिकी न्यूक्लियर रिएक्टर की आपूर्ति के लिए बातचीत कर रहा था।
भारत को भविष्य में ऊर्जा की जरूरतें और बढ़ेंगी। मनमोहन सिंह और जॉर्ज बुश ने 2007 में असैन्य परमाणु कऱार किया था और इसका लक्ष्य यही था कि अमेरिकी न्यूक्लियर रिएक्टर की सप्लाई हो।
दोनों देशों के बीच बाधा इस बात पर थी कि वैश्विक नियमों की कसौटी पर भारत के समझौते को कैसे कसा जाए। इस बात पर सहमति नहीं बन पा रही थी कि अगर कोई परमाणु दुर्घटना होती है तो उसकी जवाबदेही ऑपरेटर की होगी या न्यूक्लियर पावर प्लांट बनाने वाले की। अगर ऑपरेटर पर होगी तो इसकी जि़म्मेदारी भारत पर आएगी और न्यूक्लियर पावर प्लांट लगाने वाले की होगी तो अमेरिका की होगी।
हालांकि अब भी स्पष्ट नहीं हुआ है कि दुर्घटना की स्थिति में जवाबदेही किसकी होगी। जेक सुलिवन ने कहा है कि इस संदर्भ में औपचारिकताएं जल्द ही पूरी कर ली जाएंगी।
रॉयटर्स के अनुसार, 1998 में जब भारत ने परमाणु परीक्षण किया था तब अमेरिका ने भारत की 200 से अधिक कंपनियों पर पाबंदी लगा दी थी। लेकिन समय के साथ कई कंपनियों से पाबंदी हटा दी गई थी।
अमेरिकी वाणिज्य मंत्रालय की सूची में अब भी भारत के परमाणु ऊर्जा विभाग से जुड़ी चार एंटीटीज़ और कुछ भारतीय परमाणु रिएक्टर के साथ ही परमाणु ऊर्जा संयंत्रों पर पाबंदी हैं।
रॉयटर्स की रिपोर्ट कहती है कि परमाणु हादसों के लिए मुआवज़ों को लेकर भारत में कड़े क़ानून हैं। इसने अतीत में कई विदेशी पावर प्लांट बिल्डर्स के साथ भारत के सौदों को नुक़सान पहुंचाया है। ये रिपोर्ट कहती है कि भारत ने साल 2020 तक परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से अतिरिक्त 20 हज़ार मेगावॉट बिजली के उत्पादन का लक्ष्य रखा था, जिसे अब 2030 तक के लिए टाल दिया गया है।
साल 2019 में भारत और अमेरिका के बीच भारत में छह अमेरिकी परमाणु संयंत्र लगाने पर रज़ामंदी हुई थी। इसके बाद वर्ष 2022 में दोनों देशों ने सेमीकंडक्टर उत्पादन और आर्टिफि़शियल इंटेलिजेंस पर काम करने के लिए भी एक तकनीकी पहल शुरू की थी।
इस समझौते ने अमेरिकी कंपनी जनरल इलेक्ट्रिक और भारत के हिंदुस्तान एरोनोटिक्स के बीच भारत में जेट इंजन बनाने के लिए हुई साझेदारी में अहम भूमिका निभाई।
ऐसा माना जा रहा है कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की बढ़ती आक्रामकता से निपटने के लिए भारत और अमेरिका के बीच करीबी पिछले कुछ समय में बढ़ी है। बीते साल अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए राजकीय भोज का आयोजन किया था।
लेकिन एक साल पहले अमेरिका ने सिख नेता गुरपतवंत सिंह पन्नू की हत्या की साजि़श में भारत के अधिकारियों के शामिल होने के आरोप लगाए और इस मामले में एक भारतीय नागरिक को गिरफ़्तार भी किया। इसकी वजह से दोनों देशों के संबंधों में थोड़ा तनाव भी दिखा। (bbc.com/hindi)
घेस के जमींदार माधो सिंह और उनके परिवार के बलिदान का वीर गठन न केवल सनसनीखेज था बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक अविस्मरणीय अध्याय था। घेस के पांचवें जमींदार अर्जुन सिंह के पुत्र माधो सिंह को घेस की छोटी सी जमींदारी विरासत में मिली थी जिसमें बीस गांव शामिल थे। घेस जमींदारी, बोड़ासांभर जमींदारी का एक हिस्सा है जिसे 16वीं शताब्दी में बिनोद सिंह ने बनाया था और इसके वे पहले जमींदार थे। घेस के जमींदार बिंझाल (बिंझवार) जनजाति के थे जो विंध्य कुल के कई आदिम स्थानीय आदिवासी समूहों में से एक है। अन्य आदिवासी समूहों की तरह बिंझाल भी किसी भी कीमत पर अपनी राजनीतिक और सांस्कृतिक व्यवस्था की रक्षा करने और उसे बचाने की प्रवृत्ति रखते हैं। वे अपनी सांस्कृतिक पहचान के लिए किसी भी बाहरी सूत्र के आगमन पर ऐतिहासिक काल में एकजुट रहे।
प्राचीन काल से ही छत्तीसगढ़ और पश्चिमी ओडिशा के इस क्षेत्र में बिंझाल (बिंझवार), गोंड, कोंध, बैगा, सबरा (संवरा), ओरांव आदि अनेक मूल आदिवासी जनजातियाँ निवास करती रही हैं। इतिहास के आरंभिक काल में दुर्गम वन भूमि की इन जनजातियों ने अनेक रियासतें और राज्य व्यवस्थाएँ बनाई थीं। समय बीतने के साथ-साथ, जातिगत हिंदू प्रवासियों और उनके नेताओं के इस क्षेत्र में आने से इन जनजातियों की सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था नष्ट होने लगी और परिणामस्वरूप वे प्रवासी शासक शक्तियों के अधीन हो गए। लेकिन विजयी प्रवासी शक्तियों ने अपनी श्रेष्ठ सैन्य कुशलता और शक्ति के साथ कभी भी आदिवासी समूहों के सामाजिक-सांस्कृतिक लोकाचार को बाधित करना या उनका अनादर करना बुद्धिमानी नहीं समझा। बल्कि उन्होंने आदिवासी आस्था और विश्वासों को अपने में समाहित करके आदिवासियों को खुश करने का प्रयास किया। इस प्रकार आदिवासी देवता अपने अनुष्ठानों के साथ राजकीय दरबार में समाहित रूप में प्रवेश कर गए और उन्हें राजकीय संरक्षण प्राप्त हुआ। आदिवासी सुरक्षित महसूस करते थे, गैर-आदिवासी जाति हिंदू शासकों के आधिपत्य में भी उनकी सांस्कृतिक विशेषताएं अपरिवर्तित रहीं और यह सदियों तक जारी रहा।
लेकिन 19वीं सदी के शुरुआती सालों में चीजें बदलने लगीं जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 18 गढज़ात रियासतों वाले संबलपुर राज्य को अपने अधीन कर लिया। व्यापारिक कंपनी जो भारत की राजनीतिक मालिक बन गई और उनकी मातृभूमि यानी ब्रिटेन को खिलाने के लिए हमारे देश के सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक संसाधनों का दोहन करना शुरू कर दिया। इसका परिणाम 1857 के महान विद्रोह के रूप में भारतीय आक्रोश का विस्फोट था, जिसे भारतीय स्वतंत्रता के पहले युद्ध के रूप में भी जाना जाता है। इसी पृष्ठभूमि में हम संबलपुर में वीर सुरेंद्र साय और उनके साथी देशभक्तों जैसे घेस के माधो सिंह और उनके बहादुर बेटों के अलावा कई आदिवासी जमींदारों और उनके किसानों द्वारा ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रतिरोध और सशस्त्र संघर्ष की निडर भावना को देखते हैं।
जुलाई 1857 में हजारीबाग जेल से देश प्रेमी सिपाहियों द्वारा मुक्त किए जाने के बाद सुरेन्द्र साय संबलपुर पहुंचे और माधो सिंह की मदद से आदिवासी सरदारों को संगठित कर अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष की रणनीति बनाई। नागपुर-रायपुर और कटक के बीच ब्रिटिश प्रशासन के लिए संचार की रेखा को काटने के लिए एक रणनीति तैयार की गई थी। जब सुरेन्द्र साय को बारापहाड़ पहाड़ी को गंधमर्दन पर्वत से जोडक़र अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध क्षेत्र बनाने की योजना में बोरसांबर जमींदार से समर्थन नहीं मिल सका तब माधोसिंह और उनके बेटे हट्टे सिंह, कुंजल सिंह, बैरी सिंह और ऐरी सिंह आगे आए और इस नेक काम के लिए उनका पूरा समर्थन और सहायता की।
माधोसिंह ने अपनी प्रजा के दिल में आजादी की भावना जगाई और केईसीपाटी, पाटकुलंदा, भेड़ेन, पदमपुर, सोनाखान के गोंड और बिंझाल जमींदारों को संगठित कर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा तैयार किया। उन्होंने और उनके बहादुर बेटों ने सिंघोड़ा घाटी , निसा घाटी, शिशुपालगढ़ बरिहाडेरा, बड़पति, गुडगुडा घाटी, मानिकगढ़ और जूनागढ़ घाटी जैसे रणनीतिक पहाड़ी घाटियों की रक्षा की और ब्रिटिश सेना पर कहर ढाया। सबसे प्रसिद्ध सिंघोड़ा घाटी घेस क्षेत्र की रक्षा के लिए एक प्राकृतिक ढाल था। माधो सिंह और उनके बेटों ने इसे पूरी तरह से अपने नियंत्रण में ले लिया और नागपुर और संबलपुर के बीच सभी तरह के संपर्क काट दिए, जिसके लिए ब्रिटिश प्रशासन को अनगिनत दुर्दशा का सामना करना पड़ा। अंग्रेजों को मध्य भारत से पूर्वी भारत में प्रवेश करने से पूरी तरह से रोक दिया गया था।
ब्रिटिश प्रशासन के लिए संबलपुर में बिना किसी बाधा के जरूरी रसद और सैन्य सहायता की आपूर्ति सुनिश्चित करना अनिवार्य हो गया, जिसके लिए सिंघोड़ा घाटी का अधिग्रहण करना अत्यंत आवश्यक था। इस संबंध में ब्रिटिश सत्ता के बार-बार के प्रयासों से कोई परिणाम नहीं निकला। 26 दिसंबर, 1857 को कैप्टन वुड के नेतृत्व में रायपुर और नागपुर से ब्रिटिश सेनाओं ने सिंघोड़ा घाटी पर हमला किया। भीषण युद्ध में माधो सिंह की सेना ने कई ब्रिटिश सैनिकों को मार डाला और कैप्टन वुड गंभीर रूप से घायल होकर संबलपुर भाग गए। इस घटना से ब्रिटिश खेमे में सनसनी फैल गई। गुरिल्ला युद्ध की कला में निपुण घेस की सेना ने ब्रिटिश सेनाओं पर कहर बरपाया क्योंकि उन्हें (ब्रिटिश सेना) इस क्षेत्र की भूगोल जानकारी नहीं थी। घेस जमींदार के अभियान ने पहाड़ और घाटी के ऊपर से बड़े-बड़े पत्थर लुढक़ाकर रास्ता रोक दिया और दुश्मनों को घेरकर उन पर हमला कर दिया। कई अंग्रेज सैनिकों की जान चली गई और कैप्टन शेक्सपियर भागकर अपनी जान बचा पाए। ब्रिटिश तोपखाने की भारी गोलाबारी में हट्टे सिंह घायल हो गए। फिर भी सिंघोरा घाटी अजेय रहा।
सिंघोड़ा की लड़ाई की लड़ाई से अंग्रेज घबरा गए। माधो सिंह के साहस, कौशल और शक्ति के प्रति अंग्रेज अधिकारी आश्वस्त थे। फरवरी 1858 में कर्नल वुडब्रिज के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने पहाड़ श्रीगिड़ा पर घेस की सेना पर हमला करने का साहस किया, लेकिन कई ब्रिटिश सैनिकों के साथ वे स्वयं भी युद्ध में मारा गया । इस घटना ने ब्रिटिश अधिकारियों को माधो सिंह को सजा दिलाने के लिए अन्य तरीके और साधन तैयार करने के लिए मजबूर किया। संबलपुर के नए डिप्टी कमिश्नर मेजर फोर्स्टर ने जिले में आतंक का राज फैला दिया और वह माधो सिंह और उनके विद्रोही बेटों को पकडऩे के लिए दृढ़ संकल्प लिया था। बड़ी ब्रिटिश सेना और हथियारों की मदद से उसने घेस गांव पर हमला किया और उसे जला दिया। लेकिन इससे पहले ही जमींदार माधो सिंह ने अपने लोगों को गांव खाली कर जंगल में जाने का आदेश दिया था। घेस जमींदार और उसके लोगों की प्रतिरोध की भावना मेजर फोर्स्टर को परेशान कर रही थी।
उसने जासूसों को नियुक्त करके माधो सिंह के आंदोलन के बारे में जानकारी इक_ा करने का सहारा लिया। एक दिन जब माधो सिंह मटियामहुल नामक निकटवर्ती गांव की ओर जा रहे थे तभी गुप्तचरों से सूचना पाकर ब्रिटिश सेना ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। माधो सिंह को कड़ी सुरक्षा में संबलपुर ले जाया गया और बिना किसी सुनवाई के 31 दिसंबर 1858 को फांसी पर लटका दिया गया। इस प्रकार 72 वर्ष की आयु में राष्ट्र के एक महान शहीद का जीवन समाप्त हो गया। लेकिन उनके वीर पुत्रों हट्टे सिंह, कुंजल सिंह और बैरी सिंह ने संघर्ष को आगे बढ़ाया और इसमें अधिक वृद्धि की, जिससे ब्रिटिश ताकतों को काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। कई घटनाओं के बाद हट्टे सिंह को गिरफ्तार कर निर्वासित कर (काला पानी) दिया गया, कुंजल सिंह को संबलपुर जेल में फांसी दी गई और बैरी सिंह को संबलपुर में ही आजीवन कारावास की सजा दी गई। इससे पहले अंग्रेजों ने माधो सिंह के सबसे छोटे पुत्र ऐरी सिंह को एक गुफा के अंदर धुआं भरकर मार डाला था। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के पूरे इतिहास में माधो सिंह और उनके परिवार के सदस्यों का बलिदान एक दुर्लभ घटना है।
डॉ. भक्त पूरन साहू, सेवानिवृत्त प्रवाचक इतिहास,
घेस कॉलेज जिला बरगढ़।
शहीद माधो सिंह सोनाखान जमींदार शहीद वीर नारायण सिंह के ससुर थे और शहीद कुंजल सिंह शहीद वीर नारायण सिंह के पुत्र गोविंद सिंह के ससुर थे । शहीद वीर नारायण सिंह की पत्नी का नाम तुलसी और गोविंद सिंह की पत्नी का नाम पूर्णिमा था ।
आलेख संपादन घना राम साहू सह प्राध्यापक ।
पाकिस्तान को लगा था कि अफगानिस्तान से अशरफ गनी की सरकार के जाने और तालिबान के आने के बाद उसकी पकड़ मजबूत होगी।
15 अगस्त 2021 को जब तालिबान ने अफगानिस्तान को अपने नियंत्रण में लिया तो पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने कहा था कि अफगानिस्तान के लोगों ने गुलामी की जंजीरें तोड़ दी हैं।
तब पाकिस्तान में जश्न का माहौल था। ज़ाहिर है कि तालिबान को पाकिस्तान दशकों से मदद करता रहा है। लेकिन पिछले चार सालों में चीजें तेजी से बदली हैं। अब पाकिस्तान और तालिबान आमने-सामने हैं। दोनों ओर से एक-दूसरे पर हमले हो रहे हैं। पाकिस्तान के पूर्व डिप्लोमैट और पत्रकार अपनी सरकार पर तंज़ कर रहे हैं कि तालिबान के आने पर ख़ुशी मानने वाले अब कहाँ हैं?
भारत-अफगानिस्तान की करीबी
अफगानिस्तान से अशरफ गनी का जाना भारत के लिए बड़ा झटका माना जा रहा था।
ऐसा लग रहा था कि भारत ने अफगानिस्तान में जो अरबों डॉलर के निवेश किए हैं, उन पर पानी फिर जाएगा। लेकिन कुछ महीनों में तालिबान से भारत के संपर्क बढ़े हैं और एक बार फिर अफगानिस्तान और भारत के संबंधों में गर्मजोशी आती दिख रही है।
भारत के विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने आठ जनवरी को दुबई में तालिबान के कार्यकारी विदेश मंत्री आमिर ख़ान मुत्ताकी से मुलाकात की।
तालिबान के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि अफगानिस्तान भारत को अहम क्षेत्रीय और आर्थिक साझेदार के रूप में देखता है। 2021 में तालिबान के सत्ता में आने के बाद भारत के साथ यह अब तक की सबसे उच्चस्तरीय बैठक थी।
अफगानिस्तान के विदेश मंत्रालय ने कहा कि ईरान के चाबहार पोर्ट के जरिए भारत के साथ व्यापार बढ़ाने पर बात हुई है। भारत ईरान में चाबहार पोर्ट बना रहा है ताकि पाकिस्तान के कराची और ग्वादर पोर्ट को बाइपास कर अफगानिस्तान के साथ ईरान और मध्य एशिया से कारोबार किया जा सके।
अफगानिस्तान के विदेश मंत्रालय ने विक्रम मिस्री से मुलाकात के बाद जारी बयान में कहा, ‘हमारी विदेश नीति संतुलित और अर्थव्यवस्था को मजबूत करने पर केंद्रित है। हमारा लक्ष्य है कि भारत के साथ राजनीतिक और आर्थिक साझेदारी मजबूत हो।’
वहीं भारत के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि अफगानिस्तान में विकास की परियोजनाओं को फिर से शुरू करने पर विचार किया जा रहा है और साथ ही व्यापार बढ़ाने पर भी बात हुई है। दुनिया के किसी भी देश ने अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार को मान्यता नहीं दी है और भारत भी उन्हीं देशों में से एक है।
पाकिस्तान में हलचल?
दुबई में तालिबान और भारत की मुलाकात पर पाकिस्तान से काफ़ी प्रतिक्रिया आ रही है। यह मुलाकात पाकिस्तान को परेशान भी कर सकती है।
पाकिस्तान ने हाल के दिनों में अफगानिस्तान में हवाई हमले किए हैं। पाकिस्तान का कहना है कि अफगानिस्तान की जमीन से आतंकवादी हमलों को अंजाम दिया जा रहा है।
इसी हफ्ते भारत ने अफगानिस्तान में पाकिस्तान के हमले की निंदा की थी।
अंग्रेजी अखबार ‘द हिन्दू’ की पाकिस्तान में संवाददाता रहीं निरूपमा सुब्रमण्यम ने लिखा है, ‘तालिबान के लिए काबुल नदी पर शहतूत डैम प्राथमिकता है। भारत और अफगानिस्तान के बीच 2020 में 25 करोड़ डॉलर के प्रोजेक्ट पर समझौता हुआ था। लेकिन तालिबान के आने के बाद चीज़ें थम गई थीं। तालिबान अब भारत से कहा रहा है कि वह परियोजनाएं पूरी करे।’
अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत रहे हुसैन हक्कानी ने एक्स पर लिखा है, ‘भारतीय विदेश सचिव विक्रम मिस्री की तालिबान के विदेश मंत्री से मुलाक़ात पाकिस्तानी रणनीतिकारों के लिए एक सबक है, जो ऐसा सोच रहे थे कि अफग़़ानिस्तान में तालिबान के आने से पाकिस्तान को मदद मिलेगी और भारत का प्रभाव ख़त्म हो जाएगा।’
इससे पहले हक्कानी ने पाकिस्तानी न्यूज़ चैनल समा टीवी से कहा था, ‘ये तो काबुल फतह कर सोच रहे थे कि तालिबान वहाँ आएगा और पाकिस्तान का भविष्य सुरक्षित हो जाएगा लेकिन वो तो हमारे ही गले पड़ गए हैं। विदेश नीति को समझने वालों के नज़रिया ही देखना चाहिए। आप कभी किसी ब्रिगेड के कमांडर थे तो इसका मतलब यह नहीं है कि आपको सब कुछ समझ में आ रहा होगा।’
अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ अल्बानी में राजनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर क्रिस्टोफर क्लैरी ने लिखा है, ‘दशकों से अमेरिकी नीति निर्माता पाकिस्तान से कहते रहे कि तालिबान का समर्थन करने से शायद ही रणनीतिक रूप से फायदेमंद होगा। अब चीजें सामने आ रही हैं।’
अमेरिकी थिंक टैंक द विल्सन सेंटर में साउथ एशिया इंस्टिट्यूट के निदेशक माइकल कुगलमैन ने भारत और तालिबान के बीच बढ़ते संपर्क पर लिखा है, ‘कोई यह कह सकता है कि तालिबान से भारत की बढ़ती करीबी अफगानिस्तान में पाकिस्तान को मात देने की कोशिश है। लेकिन इसका व्यावहारिक पक्ष भी है कि भारत नहीं चाहता है कि अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल भारत में आतंकवादी हमले के लिए हो।’
‘इसके अलावा भारत ईरान के चाबहार के ज़रिए अफगानिस्तान से संपर्क भी बढ़ाना चाहता है। भारत यहीं से मध्य एशिया भी पहुँचेगा। भारत की इसी कोशिश के दम पर वहां की जनता में भरोसा भी बढ़ेगा। पाकिस्तान चाहता है कि तालिबान अफगानिस्तान में उसके विरोधियों को काबू में करे लेकिन तालिबान ऐसा करने के मूड में नहीं है और इसी का फायदा भारत को मिल रहा है। लेकिन भारत और तालिबान के संबंधों को पाकिस्तान के आईने में नहीं देखना चाहिए।’
भारत के अंग्रेज़ी अख़बार ‘द हिन्द’ के अंतरराष्ट्रीय संपादक स्टैनली जॉनी ने लिखा है, ‘2021 में भारत और तालिबान एक दूसरे से संपर्क बनाए रखना चाहते थे। इसके कई कारण हैं। भारत ने अफगानिस्तान में निवेश किया है और आतंकवाद पर भी चिंताएं हैं। पाकिस्तान फैक्टर भी अहम है। तालिबान चाहता है कि पाकिस्तान के दखल से मुक्त रहे और भारत के लिए यह मौका है। इसका मतलब यह नहीं है कि भारत तालिबान से संबंध सामान्य बनाने को लेकर कोई जल्दबाजी में है। यह अंतरराष्ट्रीय समझौते के बाद ही होगा। लेकिन भारत और तालिबान संपर्क बनाए रखेंगे और धीरे-धीरे नए अवसरों की तलाश करते रहेंगे।’
भारत से नाराजग़ी भी...
भारत में पाकिस्तान के पूर्व उच्चायुक्त अब्दुल बासित का कहना है कि अफगानिस्तान को लेकर पाकिस्तान की नीति बुरी तरह विफल रही है। इस बारे में कोई स्पष्ट नीति नहीं है।
वो कहते हैं कि एक ही समय पर दोनों देशों के बीच कारोबार और संबंध बढ़ाने की बात होती है और ठीक उसी समय पर हमले भी हो रहे होते हैं।
अब्दुल बासित अफगानिस्तान से संबंध बिगडऩे के केंद्र में पाकिस्तान तालिबान (टीटीपी) को देखते हैं। उनका कहना है कि पाकिस्तान में आतंकवादी हमले बढ़े हैं और पाकिस्तान सरकार टीटीपी (तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान) के खिलाफ कार्रवाई कर रही है लेकिन टीटीपी के सुरक्षित पनाहगाह अफगानिस्तान में हैं। इस तरह से ये पूरा मामला बेहद संवेदनशील हो जाता है।
अब्दुल बासित ने पाकिस्तानी न्यूज़ चैनल एबीएन न्यूज़ से कहा, ‘ये बड़ा संवेदनशील मामला है। अफगान तालिबान और पाकिस्तान तालिबान पूर्व में सहयोग करते रहे हैं। पाकिस्तान ये भी चाहता है कि काबुल के साथ उसके संबंध अच्छे हों, लेकिन ये हमले भी मजबूरी बन जाते हैं क्योंकि तालिबान सरकार पाकिस्तान तालिबान के खिलाफ कदम नहीं उठा रही है।’
अफगानिस्तान में तालिबान के साथ तालमेल न बैठा पाने के लिए राजनीतिक जानकार पाकिस्तान के सियासतदानों को जिम्मेदार ठहराते हैं।
एक यूट्यूब चैनल से बातचीत में पाकिस्तानी राजनीतिक विश्लेषक मोहम्मद आमिर राना ने कहा कि तालिबान जब सत्ता में आया तो उसको समझने में ग़लती हुई और पाकिस्तान ने ज़्यादा उम्मीदें लगा लीं।
उन्होंने कहा, ‘ग़लती ये हुई कि हमने हक्कानी की नजऱ से पूरे तालिबान को देखा कि हक्कानी हमारे हिमायती हैं। हमारे एसेट हैं तो ये हमें शायद मदद करेंगे। लेकिन ये नहीं हुआ।’
तालिबान से भारत के बढ़ते संपर्क को लेकर अफगान रिपब्लिक के डिप्लोमैट बहुत खफा हैं।
श्रीलंका, भारत और अमेरिका में रिपब्लिक और अफगानिस्तान के राजदूत रहे एम अशरफ़ हैदरी ने विक्रम मिस्री और तालिबान की मुलाक़ात पर कठोर शब्दों में लिखा है, ‘यह अफगानिस्तान की जनता, लोकतंत्र, स्वतंत्रता, मानवाधिकार, अफगानिस्तान की विविधता, अफगान हिन्दू, सिख, यहूदी और एक राष्ट्र के साथ धोखा है, जिन्होंने 2021 से पहले भारत के लिए अंतहीन ख़ून बहाया है। पाकिस्तान की तरह भारत भी जल्दी या देरी से अपने ही मूल्यों और हितों से धोखे के लिए अफ़सोस करेगा।
अशरफ हैदरी ने लिखा है, ‘आप यह मत भूलिए कि तालिबान कहता है कि हिन्दुओं ने उसके भाइयों और बहनों के कश्मीर पर कब्जा कर रखा है और कश्मीर की आजादी के लिए वह लड़ेगा। आप यह भी मत भूलिए कि बमियान में बुद्ध की मूर्तियां तालिबान ने ही तोड़ी थीं और ये मूर्तियां हमारी संस्कृति के लिए संपदा थीं।’
भारत में रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान के राजदूत रहे फरीद मामुन्दजई ने कहा है, ‘तालिबान सरकार के साथ कोई भी बातचीत उन लोगों को दरकिनार करके नहीं हो सकती, जो वहां लगातार अत्याचार के शिकार हो रही हैं। किसी भी बातचीत में महिलाओं को बच्चों के हितों को प्राथमिकता देनी होगी। वहां जो मानवीय संकट है उसे सुलझाना होगा। भारत वहां तालिबान के जुल्म को वैधता न दे।’ (bbc.com/hindi)
-संदीप राय
साल 2013 में नई नवेली आम आदमी पार्टी ने अपने पहले चुनाव में 70 में से 28 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया था।
उस समय बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस से मिलकर सरकार बनाई। लेकिन ये सरकार सिर्फ 49 दिनों तक चल पाई।
अरविंद केजरीवाल ने फरवरी 2014 में ये कहते हुए इस्तीफ़ा दे दिया कि ‘दिल्ली विधानसभा में संख्या बल की कमी की वजह से वो जन लोकपाल बिल पास कराने में नाकाम रहे हैं, इसलिए फिर से चुनाव बाद पूर्ण जनादेश के साथ लौटेंगे।’
2015 में जब चुनाव हुआ तो दिल्ली की राजनीति में इतिहास रचते हुए ‘आप’ ने 70 में से 67 सीटें जीत लीं।
इस बात को एक दशक बीत चुके हैं।
दिल्ली में कथित शराब घोटाले में जेल से रिहा होने के बाद केजरीवाल ने पिछले साल सितंबर में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया और एलान किया, ‘मैं सीएम की कुर्सी से इस्तीफ़ा देने जा रहा हूं और मैं तब तक सीएम की कुर्सी पर नहीं बैठूंगा जब तक जनता अपना फ़ैसला न सुना दे।’
और केजरीवाल तबसे दिल्ली की जनता के बीच हैं, सभाएं कर रहे हैं, यात्रा निकाल रहे हैं और नई घोषणाएं कर रहे हैं, जिनमें ‘पुजारी ग्रंथी सम्मान योजना’ और ‘महिला सम्मान योजना’ चर्चा में हैं।
विश्लेषकों का मानना है कि इस बार का चुनाव काफ़ी रोचक होने वाला है। जिस भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अन्ना आंदोलन के बीच से आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ, इसी मुद्दे पर बीजेपी केजरीवाल को घेरने की पुरज़ोर कोशिश कर रही है।
बीजेपी ने अभी अपने पूरे उम्मीदवारों की सूची भी जारी नहीं की है लेकिन चुनाव प्रचार अभियान के लिए पार्टी ने अपने स्टार प्रचारक पीएम नरेंद्र मोदी को उतार दिया है और उन्होंने अपनी पहली ही चुनावी सभा में आम आदमी पार्टी पर आक्रामक हमला बोला।
पीएम मोदी ने आम आदमी पार्टी को ‘आप-दा’ कहा। बीजेपी की ओर से मुख्यमंत्री रहते हुए अरविंद केजरीवाल के आधिकारिक आवास को ‘शीशमहल’ बनाने के आरोप पुरजोर तरीके से लगाए जा रहे हैं।
विश्लेषकों का कहना है कि यह चुनाव इसलिए भी रोचक होने जा रहा है क्योंकि इसके नतीजे राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करेंगे और सबसे ज़्यादा, आम आदमी पार्टी के भविष्य को तय करेंगे।
कड़ी टक्कर
बीते चार सालों में मुख्यमंत्री रहते अरविंद केजरीवाल, पूर्व उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया, पूर्व स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और उन्हें जेल भी जाना पड़ा।
आप के राज्यसभा सांसद संजय सिंह की भी गिरफ़्तारी हुई। हालांकि ये सभी लोग ज़मानत पर बाहर हैं, लेकिन बीजेपी ने इसे मुद्दा बनाया है और भ्रष्टाचार के खिलाफ एक क्रूसेडर की ‘आप’ की छवि को नुक़सान पहुंचाने की कोशिश की है।
राजनीतिक टिप्पणीकार और वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं कि बीजेपी इस चुनाव में अधिक आक्रामक है। इसकी वजह ये भी है कि पिछले दो चुनावों से इस बार उसकी स्थिति बहुत बेहतर है।
नीरजा चौधरी ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘टक्कर सिर्फ आम आदमी पार्टी और बीजेपी के बीच है। कांग्रेस कहीं पिक्चर में नहीं है और वह सिर्फ वोट कटवा होगी। इस चुनाव में केजरीवाल के लिए बहुत कुछ दांव पर लगा है। बाकी पार्टियां हार भी जाएं तो उनका बहुत कुछ दांव पर नहीं है।’
लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस की भूमिका दिलचस्प हो गई है। अगर बीजेपी तेजी से वोट शेयर का अंतर कम करती है तो कुछ सीटों पर जीत का फैसला इस बात पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस का प्रदर्शन कैसा रहता है।
नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘केजरीवाल की जीत में मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के बीच आम आदमी पार्टी की पैठ एक अहम कारक है। इसके अलावा महिला मतदाताओं का रुझान एक निर्णायक भूमिका निभाएगा। और केजरीवाल ने महिला सम्मान योजना की घोषणा कर उन्हें रिझाने की कोशिश की है।’
उन्होंने महाराष्ट्र चुनावों का उदाहरण दिया, जहां अभी हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों से ठीक पहले छत्रपति शिवाजी महाराज की मूर्ति टूटने में कथित भ्रष्टाचार का मुद्दा बहुत उछला लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की ‘लाडक़ी बहीन योजना’ भारी पड़ी और महायुति गठबंधन ने भारी बहुमत से सत्ता में वापसी की। जबकि महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी महाराज का मुद्दा बहुत भावनात्मक मुद्दा है।
नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘राजनीतिक तौर पर केजरीवाल बहुत चतुर हैं। वह समय के साथ अपनी रणनीति बदलने में माहिर हैं। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उन्होंने बीजेपी के नैरेटिव को जड़ नहीं पकडऩे दी। हालांकि मध्य वर्ग में उनका आधार कम हुआ हो सकता है लेकिन झुग्गी झोपड़ी और निम्न मध्यवर्गीय इलाक़ों में उनकी पकड़ अभी भी बरकऱार है और अपनी योजनाओं से उन्होंने इसे और मज़बूत ही किया है।’
वो यह भी कहती हैं कि बीजेपी और कांग्रेस की ओर से तमाम तीखे हमलों के बावजूद ‘यह चुनाव भी केजरीवाल के इर्द-गिर्द ही रहने वाला है।’
बीजेपी का आक्रामक प्रचार अभियान
बीजेपी भले ही बीते दो दशकों में दिल्ली की सत्ता पर काबिज नहीं हुई लेकिन इसके दौरान उसका वोट शेयर 32त्न से कम भी नहीं हुआ, बल्कि पिछले लोकसभा चुनाव में उसका वोट शेयर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के कुल वोट शेयर से अधिक ही रहा।
2020 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी ने 70 में से 62 सीटों पर जीत दर्ज की थी। बीजेपी को आठ सीटें मिली थीं और 2015 की तरह ही कांग्रेस को एक सीट भी नहीं मिल पाई।
2020 में बीजेपी को 38.51त्न वोट शेयर हासिल हुआ जो आम आदमी पार्टी के मुकाबले 15 प्रतिशत कम था। साल 2015 में यह अंतर 22 प्रतिशत से अधिक था।
वोट शेयर में कम होता अंतर और आठ महीने पहले हुए लोकसभा चुनावों में दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों पर जीत, बीजेपी की उम्मीद की बड़ी वजहें हैं।
पीएम मोदी की आक्रामक एंट्री ने इस चुनाव को और रोचक बना दिया है।
दिल्ली की राजनीति पर नजऱ रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘बीजेपी के चुनावी प्रचार अभियान की शुरुआत पार्टी के शीर्ष नेता पीएम नरेंद्र मोदी ने की है। उन्होंने आम आदमी पार्टी पर हमला किया है, यानी वह कांग्रेस को तो इस लड़ाई में गिन भी नहीं रहे हैं।’
हालांकि वो हैरानी जताते हैं, ‘आम आदमी पार्टी इतनी बड़ी चीज क्यों हो गई कि बीजेपी उसे हर हालत में हराना चाहती है!’
उनके अनुसार, ‘पीएम मोदी की ‘आक्रामक एंट्री’से यही लगता है कि बीजेपी अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है। लेकिन आम आदमी पार्टी का भी यही हाल है और उसने 20 से अधिक मौजूदा विधायकों का टिकट काट दिया। उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया समेत कई नेताओं की सीट बदल दी।’
प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘इससे पता चलता है कि आम आदमी पार्टी को सत्ता विरोधी लहर का डर है। जबकि बीजेपी की आक्रामकता की वजह है कि वह इस मौके पर नैरेटिव में छा जाना चाहती है और केजरीवाल के खिलाफ आरोपों को जनता के बीच फैला देना चाहती है।’
पीएम मोदी ने चुनावी तारीख़ें घोषित होने के पहले कई योजनाओं का शिलान्यास किया और दिल्ली को एक विश्वस्तरीय राजधानी बनाने का वादा किया।
इस तरह बीजेपी दो तरफा रणनीति अपना रही है, एक तरफ आप सरकार पर हमला और दूसरी तरफ विकास का नैरेटिव जनता में ले जाना।
कहां खड़ी है कांग्रेस?
दिल्ली में 1998 से 2013 तक 15 साल तक कांग्रेस थी। 2013 के चुनाव में भी वह तीसरी बड़ी ताक़त (आठ सीटें) थी और त्रिशंकु विधानसभा के चलते आम आदमी पार्टी (28 सीटें) को उससे हाथ मिलाकर सरकार बनानी पड़ी।
लेकिन उसके बाद से कांग्रेस का एक भी विधायक नहीं जीत पाया, न तो 2015 में न 2020 में। कांग्रेस का वोट प्रतिशत गिर कर 4.26त्न हो गया, जो कि 2015 में 10त्न से भी कम हो गया था।
दिल्ली में कांग्रेस के चुनावी प्रचार की अगुवाई संदीप दीक्षित कर रहे हैं। लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन का दोनों ही पार्टियों को फायदा नहीं मिला।
इसे लेकर कांग्रेस के अंदर भी मतभेद सामने आए। दिल्ली में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अजय माकन और संदीप दीक्षित इस गठबंधन के पक्ष में नहीं थे।
कहा यह भी जाता है कि हरियाणा विधानसभा चुनाव के बाद गठबंधन की संभावना और कम हुई। अब कांग्रेस और आप अकेले बूते पर चुनावी मैदान में हैं।
विश्लेषक कहते हैं कि कांग्रेस इस चुनाव को त्रिकोणीय बनाने की कोशिश करेगी, लेकिन अभी उसकी तरफ़ से कोई ख़ास रणनीति सामने नहीं आई है।
बीते नवंबर में राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा की तजऱ् पर कांग्रेस पार्टी की ओर से न्याय यात्रा शुरू की गई लेकिन ज़मीन पर ठंडी प्रतिक्रिया मिलने से कोई ख़ास माहौल नहीं बन पाया।
कांग्रेस के शीर्ष नेता अभी भी चुनाव प्रचार में नहीं उतरे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘संदीप दीक्षित मुखर हैं और आम आदमी पार्टी को लेकर हमलावर हैं लेकिन कांग्रेस दिल्ली में अपना कोई नैरेटिव नहीं खड़ा कर पा रही है। हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा लगता है, और ख़ासकर पिछले साल हुए लोकसभा चुनावों में, कि लोग चाहते हैं कि बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस कुछ काउंटर फोर्स के रूप में देश में उभरे।’
अगर ऐसा होता है तो कुछ दलित और अल्पसंख्यक वोट उसे ज़रूर मिल सकता है।
उनके अनुसार, ‘लेकिन समस्या ये है कि कांग्रेस का मनोबल इतनी जल्दी टूट जाता है कि हरियाणा और महाराष्ट्र में जैसे ही हार मिली, उसके बाद से वे खुद को उठा नहीं पा रहे हैं।’
नीरजा चौधरी कहती हैं कि ‘कांग्रेस अधिक से अधिक दिल्ली में वोट कटवा की भूमिका निभाएगी।’
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘कांग्रेस पार्टी का जैसे जैसे आधार खिसका है, उसका काफी हिस्सा आम आदमी पार्टी ने लेने की कोशिश की है। इसलिए कांग्रेस के लिए ‘आप’ की चुनौती प्रमुख है और अगर नतीजे आप के पक्ष में नहीं आते तो कांग्रेस खुश ही होगी।’
‘आप’ का दिल्ली मॉडल
आंदोलन की कोख से पैदा हुई आम आदमी पार्टी जितने कम समय में एक बड़ी पार्टी बनी, वह एक मिसाल है। आज दो जगहों दिल्ली और पंजाब में उसकी सरकार है। कई राज्यों में उसकी मौजूदगी है और उसे राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल है।
लंबे समय से देश की राजनीति को देखने वाली नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘स्वतंत्र भारत के इतिहास में आम आदमी पार्टी से पहले भी कई पार्टियां आंदोलन के बीच से जन्मीं, लेकिन वैसी सफलता किसी को नहीं मिली।’
‘असम में आसू (ऑल असम स्टूडेंट यूनियन) ने असम गण परिषद बनाया। लेकिन यह असम तक सीमित रहा। 1977 के जेपी आंदोलन में भी पार्टी बनाने की कोशिश हुई, अंतत: कई पार्टियों को मिलाकर जनता पार्टी बनाई गई, जिसने इंदिरा गांधी को हराया। 1989 में वीपी सिंह के सामने भी नई पार्टी बनाने का सवाल आया लेकिन उन्हें लगा कि यह मुश्किल काम है इसलिए सभी गैर कांग्रेसी पार्टियों को इक_ा किया और राजीव गांधी को हराया और प्रधानमंत्री बने।’
वो कहती हैं, ‘केजरीवाल ने न केवल पार्टी बनाई बल्कि उसे देशभर में ले गए। दिल्ली में वह चौथी बार चुनाव लड़ रहे हैं। अगर वह जीतते हैं तो राष्ट्रीय फलक पर उनकी भूमिका बढ़ेगी।’
केजरीवाल के लिए दिल्ली अपनी राजनीति को देशव्यापी बनाने का ‘स्प्रिंगबोर्ड’ साबित हुआ है लेकिन ‘दिल्ली मॉडल’ की छवि उन्होंने बहुत सावधानी से बनाई है।
दिल्ली के बजट में स्वास्थ्य और शिक्षा पर ख़र्च सबसे अधिक है, आप सरकार इसका श्रेय लेती भी है। मुख्यमंत्री आतिशी ने बीते अगस्त में कहा था दिल्ली सरकार ने शिक्षा पर बजट का सर्वाधिक 25 फीसद आबंटित किया, ऐसा करने वाला यह पहला राज्य है।
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘शिक्षा, स्वास्थ्य, फ्ऱी बिजली-पानी या अन्य सुविधाएं जैसे महिलाओं के लिए फ्री बस सेवा जैसे लोकप्रिय कदमों से दिल्ली मॉडल की छवि बनी।’
वो कहते हैं, ‘आम आदमी पार्टी के पास ये कहने को है कि हमने आम लोगों को ये सुविधाएं दीं और हमें हराने वाले चाहते हैं कि ये सुविधाएं बंद हों। ये चीज़ें उसे लोकप्रिय बनाने में मदद करती हैं और यह उनका एक मज़बूत हथियार है।’
हालांकि भ्रष्टाचार के जो आरोप लगे हैं, उससे एक धारणा टूटी है कि ‘नई रीति नीति और एक नई राजनीति’ लाने का दावा करने वाली ‘आप’ इन सालों में दूसरी पार्टियों जैसी ही बन गई है।
प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री आवास की साज सज्जा के बारे में जो ऑडिट रिपोर्ट आई है, उससे कोई भ्रष्टाचार साबित तो नहीं होता लेकिन इससे ये ज़रूर पता चलता है कि जो लोग बहुत सीधे साधे तरीके से बिना गाड़ी बंगला के रहना चाहते थे और देश की व्यवस्था को सुधारना चाहते थे, वे पाखंडी साबित हुए।’
दिल्ली के नतीजे राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करेंगे
आम आदमी पार्टी विपक्षी इंडिया गठबंधन का हिस्सा है और गठबंधन की एकमात्र पार्टी है जिसकी एक से अधिक राज्य में सरकार है।
इस गठबंधन की अगुवा पार्टी कांग्रेस से केजरीवाल के संबंध बहुत अच्छे नहीं रहे हैं, हालांकि इस ब्लॉक के अन्य नेताओं से उनकी कऱीबी ने कांग्रेस को पशोपेश में डाल रखा है।
बीते दिनों जब ममता बनर्जी ने गठबंधन के नेतृत्व पर दावा ठोंका तो आम आदमी पार्टी ने इसका समर्थन किया। कांग्रेस को छोडक़र गठबंधन के अन्य नेताओं से केजरीवाल के रिश्ते अच्छे हैं।
नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘आम आदमी पार्टी की दिल्ली में जीत का राष्ट्रीय राजनीति पर बहुत प्रभाव पड़ेगा। ममता बनर्जी की मांग का केजरीवाल समर्थन करेंगे। शरद पवार, लालू यादव पहले ही ममता के नेतृत्व का समर्थन करने की बात कह चुके हैं। ऐसे में गठबंधन में क्षेत्रीय पार्टियों के मुकाबले कांग्रेस की मुश्किल बढ़ जाएगी।’
‘आम आदमी पार्टी चौथी बार जीतती है तो केजरीवाल का राष्ट्रीय राजनीति में कद और बढ़ेगा। जनता की नजर में उन्हें राष्ट्रीय नेतृत्वकारी भूमिका में देखा जाने लगेगा।’
वो कहती हैं, ‘इसी साल के अंत में बिहार में चुनाव होने वाले हैं। दिल्ली के नतीजों का राजद और कांग्रेस के बीच गठबंधन के समीकरण पर भी असर होगा। लेकिन अगर आम आदमी पार्टी हारती है तो उसके लिए यह विनाशकारी साबित हो सकता है।’
नीरजा चौधरी के मुताबिक, ‘चौतरफा मुश्किलों में घिरी आम आदमी पार्टी के लिए हार अस्तित्व का संकट बन जाएगा। क्योंकि ऐसी स्थिति में पार्टी टूट फूट का शिकार होकर बिखराव की ओर जा सकती है।’
हालांकि जीत के बाद भी केजरीवाल के फिर से मुख्यमंत्री बन पाने में संशय है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की जमानत की शर्त में मुख्यमंत्री के रूप में कार्य करने पर कई बंदिशें लगाई गई हैं। फिर सवाल उठेगा कि क्या आतिशी ही मुख्यमंत्री बनेंगी या कोई और। (bbc.com/hindi)
पाकिस्तान के विदेश मंत्री इसहाक़ डार अगले महीने बांग्लादेश के दौरे पर जाएंगे।
पाकिस्तानी मीडिया में कहा जा रहा है कि पिछले साल अगस्त महीने में बांग्लादेश से भारत समर्थक सरकार के हटने के बाद पाकिस्तान और बांग्लादेश की करीबी बढ़ रही है।
2012 के बाद बांग्लादेश में किसी भी पाकिस्तानी विदेशी मंत्री का यह पहला दौरा होगा। पिछले गुरुवार को डार ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि बांग्लादेश के विदेश मंत्री के आमंत्रण पर वह अगले महीने फऱवरी में दौरा करेंगे।
डार ने इस बात की भी पुष्टि की थी कि बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख मोहम्मद युनूस ने पाकिस्तान आने का न्योता स्वीकार कर लिया है और दोनों देशों की सहमति से दौरे की तारीख़ की घोषणा की जाएगी।
हिना रब्बानी खार पाकिस्तान की आखऱिी विदेश मंत्री थीं, जो नवंबर 2012 में डी-8 समिट में हिस्सा लेने ढाका गई थीं। हिना रब्बानी खार का यह दौरा सिफऱ् पाँच घंटे का था।
डार ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह भी कहा था कि पाकिस्तान बांग्लादेश को हर संभव मदद करेगा। हालांकि बांग्लादेश ने पाकिस्तान से किसी तरह की मदद मांगी नहीं थी। इसके बावजूद डार ने बांग्लादेश को मदद की पेशकश की है।
डार की पेशकश पर सवाल उठ रहे हैं। लोग कह रहे हैं कि पाकिस्तान की तुलना में बांग्लादेश के पास विदेशी मुद्रा भंडार ज़्यादा है, आर्थिक वृद्धि दर ज़्यादा है, निर्यात ज़्यादा है तो मदद क्या मिलेगी?
भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त रहे अब्दुल बासित ने पाकिस्तानी न्यूज़ चैनल एबीएन से बात करते हुए कहा, ‘मुझे लगता है कि पाकिस्तान अफगानिस्तान वाली ग़लती बांग्लादेश में ना करे। इसहाक डार ने बांग्लादेश को लेकर जो कहा, उस पर मुझे सख्त आपत्ति है।’
‘डार ने बांग्लादेश का जिक्र करते हुए कहा कि वह उसे तरह की मदद करने के लिए तैयार हैं। ‘मदद करने के लिए तैयार हैं’ जैसी भाषा को डिप्लोमैसी में ख़ुद को सुपरियर दिखाने के रूप में देखा जाता है। पहले तो यही बताना चाहिए क्या बांग्लादेश ने हमसे मदद मांगी है?’
भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त रहे
अब्दुल बासित ने क्या कहा?
अब्दुल बासित ने कहा, ‘पाकिस्तान से बांग्लादेश कई मोर्चों पर आगे है। बांग्लादेश की जीडीपी पाकिस्तान से बेहतर है। प्रति व्यक्ति आय पाकिस्तान से बेहतर है। सबसे अहम बात तो यह है कि बांग्लादेश ने कोई मदद मांगी ही नहीं है। ऐसे में आप मदद की पेशकश क्यों कर रहे हैं?’
बासित ने कहा, ‘इसी चीज़ को बेहतर भाषा में कहा जा सकता था कि पाकिस्तान बांग्लादेश के साथ हर मोर्चे पर साथ मिलकर काम करना चाहता है। डिप्लोमैसी में बात ऐसे होती है। मुझे नहीं मालूम कि उन्हें कौन ऐसी स्क्रिप्ट लिखकर दे रहा है। इन्हें जानना चाहिए कि बांग्लादेश के लोग बहुत ही ग़ैरतमंद हैं। बांग्लादेश के लोगों ने पाकिस्तान बनाया था। मुझे लगता है कि पाकिस्तान को बांग्लादेश के मामले में थोड़ा एहतियात से काम लेना चाहिए।’
अब्दुल बासित ने कहा, ‘अफगानिस्तान को हमने जिस तरह से हैंडल किया है, उस पर शर्म आती है। ऐसी ग़लती हमें बांग्लादेश के साथ नहीं करनी चाहिए। पाकिस्तान के बांग्लादेश से संबंध अच्छे हो रहे हैं, इसमें पाकिस्तान की कोई मेहनत नहीं है। शेख़ हसीना को वहाँ के लोगों ने हटा दिया, इसलिए पाकिस्तान को बढ़त मिल गई है।
बासित ने कहा, ‘अफग़़ानिस्तान में तालिबान के आने पर हमने जश्न मनाया था लेकिन इसका क्या हुआ?इसीलिए बांग्लादेश के मामले में हमें बहुत ख़ुश होने की ज़रूरत नहीं है। हमें बांग्लादेश के साथ ताल्लुकात को भारत के लेंस से नहीं देखना चाहिए। सार्क को लेकर बांग्लादेश उत्साहित है। लेकिन भारत के बिना सार्क को सक्रिय नहीं किया जा सकता है।’
अब्दुल बासित ने कहा, ‘बांग्लादेश के मामले में हमें धीरे-धीरे और संभलकर आगे बढऩा चाहिए। संभव है कि बांग्लादेश की सरकार जनभावना के कारण भारत को लेकर आक्रामक हो। इसलिए हमें बहुत जल्दीबाज़ी में नहीं रहना चाहिए। लेकिन पाकिस्तान को अवसर मिला है और इस अवसर को अफगानिस्तान की तरह गँवाए ना।’
पाकिस्तान में बांग्लादेश की विदेश नीति पर बहस
पाकिस्तानी मीडिया में बांग्लादेश को लेकर ख़ासा उत्साह देखने को मिल रहा है। इस उत्साह की सबसे बड़ी वजह ये है कि भारत और बांग्लादेश के संबंधों में कड़वाहट आई है।
पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार नजम सेठी ने पाकिस्तानी न्यूज चैनल समा टीवी से कहा, ‘बांग्लादेश की विदेश नीति को लेकर बहस हो रही है। इसमें बात की जा रही है कि नई नीति में भारत की क्या भूमिका होगी और पाकिस्तान का क्या रोल होगा। मोहम्मद युनूस ने सार्क को जिंदा करने के लिए कहा है। मोहम्मद युनूस को लगता है कि सार्क को जि़ंदा कर दक्षिण एशिया में पाकिस्तान और बाक़ी देशों के साथ भारत को अलग-थलग किया जा सकता है। ये पहली दफ़ा है कि पाकिस्तान तो भारत विरोधी था ही लेकिन बाक़ी के पड़ोसियों में भी ये भावना बढ़ी है।’
नजम सेठी ने कहा, ‘ज़ाहिर है, भारत को तकलीफ़ हो रही है। पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच व्यापार शुरू हो रहा है। पाकिस्तान व्यापार समुद्र या हवाई मार्ग से ही कर सकता है। हवाई मार्ग से करने के लिए भारत के एयर स्पेस का इस्तेमाल करना होगा। दोनों देशों के बीच हवाई सेवा भी शुरू हो रही है लेकिन इसके लिए पैसेंजर भी तो होने चाहिए। ज़ाहिर है कि इसमें वक़्त लगेगा। बांग्लादेश में एक सोच बन रही है कि भारत तमाम तनाव के बावजूद पाकिस्तान से एक अरब डॉलर से ज़्यादा का कारोबार कर रहा है तो हम क्यों नहीं कर सकते हैं। अब ये सारे तथ्य सामने आ रहे हैं।’
नजम सेठी ने कहा, ''पाकिस्तान के लोग टेक्सटाइल उद्योगपति बांग्लादेश में अपना प्लांट लगाना चाह रहे हैं। बांग्लादेश में पाकिस्तान के कारोबारियों को आधारभूत संरचना मिलेगी और अपना कारोबार बढ़ा सकते हैं। यहाँ बिजली और श्रम दोनों सस्ते हैं। दूसरी तरफ बांग्लादेश चाहता है कि पाकिस्तानी आर्मी बांग्लादेश की आर्मी को ट्रेनिंग दे। ऐसे में भारत बहुत डरा हुआ है। बांग्लादेश की आर्मी पाकिस्तान से ट्रेनिंग लेगी तो भारत विरोधी होगी। ज़ाहिर है कि ट्रेनिंग से विचार भी बदलेगा। पाकिस्तान की सोच है कि अब उसे बांग्लादेश के ज़रिए भारत को निशाना बनाने का मौका मिलेगा। इसहाक़ डार इन्हीं चीज़ों पर मुहर लगाने जा रहे हैं।’
बांग्लादेश के लोगों में पाकिस्तान को लेकर भावना स्थायी या अस्थायी?
एजाज अहम चौधरी पाकिस्तान के पूर्व डिप्लोमैट हैं और उन्होंने हाल ही में बांग्लादेश का दौरा किया था।
पाकिस्तान के डॉन टीवी से अपना अनुभव साझा करते हुए एजाज अहमद ने बताया, ‘दो साल पहले जब मैं ढाका गया था तो एयरपोर्ट से निकलते ही शेख़ मुजीब-उर रहमान हर जगह दिखते थे लेकिन इस बार उनका नामोनिशान नहीं था। यानी शेख़ हसीना को लेकर बहुत ग़ुस्सा था। दूसरी तरफ़ हिन्दुस्तान को लेकर भी मुझे भारी नाराजग़ी वहां दिखी। मैं बे ऑफ बंगाल कन्वर्सेशन में गया था। उस सेशन के दौरान हॉल में एक युवा बांग्लादेशी लडक़ी ने कहा कि आप ट्रंप की नीति की बात न करें बल्कि मोदी की नीति की बात करें, जिन्होंने हमारी जनसंहारक प्रधानमंत्री को जगह दे रखी है।’
एज़ाज़ चौधरी ने कहा, ‘तीसरा रूझान मुझे दिखा कि बांग्लादेश में पाकिस्तान को लेकर बहुत सकारात्मक माहौल था। 1971 को लेकर कोई नाराजग़ी नहीं दिखी। दो साल पहले भी लोग पाकिस्तान से प्रेम दिखाते थे लेकिन शेख़ हसीना सरकार से डरते थे। लेकिन अब लोग खुलकर बोल रहे हैं। बांग्लादेश के लोग कहते थे कि पाकिस्तान जाने का ठप्पा पासपोर्ट पर लगता था तो फिर हिन्दुस्तान का वीज़ा नहीं मिलता था।’
एज़ाज़ अहमद से पूछा गया कि बांग्लादेश के लोगों में पाकिस्तान को लेकर जो अभी जज़्बा दिख रहा है वो अस्थायी है या स्थायी है?
इस सवाल के जवाब में एज़ाज़ चौधरी ने कहा, ‘ये सवाल बहुत वाजिब है। ढाका ट्रिब्यून में एक लेख पढ़ रहा था कि जिसमें लिखा था कि बांग्लादेश में हिन्दू 9 प्रतिशत हैं लेकिन सरकारी नौकरी में वे 15 फ़ीसदी हैं। हम अभी से ये नहीं कह सकते हैं कि शेख़ हसीना की अवामी लीग़ ख़त्म हो गई है। अब भी है। बांग्लादेश तीन तरफ़ से भारत से घिरा है। ऐसे में उसे भारत के प्रभाव से निकलना आसान नहीं होगा। मेरा भी मानना है कि पाकिस्तान को लेकर यह जज़्बा अभी अस्थायी है।’
बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तसलीमा नसरीन मानती हैं कि शेख़ हसीना के सत्ता से बेदख़ल होने के बाद बांग्लादेश में पाकिस्तान को लेकर उत्साह बढ़ा है।
तसलीमा नसरीन ने लिखा है, ‘कुछ महीने पहले बांग्लादेश में बांग्ला बोलने वाले पाकिस्तान समर्थकों ने मोहम्मद अली जिन्ना की पुण्य तिथि पर श्रद्धांजलि दी थी। उसके बाद जिन्ना की जयंती मनाई गई। बांग्लादेश में अचानक जिन्ना प्रेम क्यों बढ़ा है? सच यह है कि जिन्ना प्रेम कोई नया नहीं है बल्कि शुरू से ही था।’
‘बांग्ला बोलने वाले ये मुसलमान व्यापक इस्लामी दुनिया की सोच से संचालित होते हैं। मैं जानबूझकर इन्हें बांग्ला बोलने वाला कहती हूं, न कि बंगाली क्योंकि हर बांग्ला बोलने वाला व्यक्ति बंगाली नहीं हो सकता है। जो सच्चा बंगाली होगा, वह बंगाली संस्कृति से प्रेम करेगा।’ (bbc.com/hindi)
A Painful Memory of a Fellow Journalist
-Dipankar Ghosh
For two days, words have failed me. How do you begin to write a tribute to a journalist, a friend, a brother? What memories do you choose? How do you describe him when nothing really contains him?
The first time I met Mukesh Chandrakar was in December 2015, weeks after I had landed in Chhattisgarh as the Indian Express correspondent in the state. There was a story in Bastar, and I had reached Bijapur, one of India's most dangerous places to report, with very little to go on. There I was, at the district headquarters, in a run-down press club building among a group of journalists eyeing me suspiciously. The suspicion of "national journalists" is warranted. Very often, we climb on the shoulders of our regional colleagues, leave them to danger, or worse forget we ever knew them. The story spot was deep inside the forests, some 80 kilometres away. Impossible to access without help.
I asked loudly, sheepishly, if someone would come with me tomorrow. By come with me, I meant take me. In that moment, I was helpless. There was only one voice that said "Haan, kal chalenge aapke saath."
I went back to the relative comfort of my hotel in Jagdalpur. Mukesh went to the mechanic shop to repair his motorcycle for what lay ahead. The next day, at the agreed 5 am, we met at the Bijapur bus stop(there was no phone network except BSNL in Bastar in 2015), and set off. Me on the back of his bike. He was young, but he was my first teacher in Bastar. He taught me the dangers of relieving yourself on the sides of a freshly laid road, because that's where an IED would be. He taught me to stand up on the back of a bike to ensure that your muscles don't spasm under duress. We navigated paved roads, and then unpaved roads, and then no roads. Carried the motorcycle across streams. Waded through mud. He told me how to navigate a complicated world of hostile police, hostile Maoists, and beleaguered people. I was doing all this for my story. He too was doing all this for my story.
The piece appeared. It was an important story, and the state took note. I was congratulated for my work. The byline said my name, not his. I worked for the Indian Express, he didn't. For four and a half years, Mukesh did this over and over again. Not just for me, but for many others. It was on his back that stories of Bastar, of state-Maoist violence, of people were ever told.
For me, Mukesh was the personification of bravery. I'm not going to pretend that in a universe where media organisations he worked for didn't even pay for his petrol let alone a stable salary, sustenance wasn't a problem, and therefore some wires weren't crossed. But Mukesh loved journalism with a passion. When he was with you, nothing was impossible. He was always compassionate to people he reported on, always empathetic.
He was rooted in Bastar, but not limited by it. After a decade of jumping from one channel to the other, he realised organisations would never truly value its ground reporters in the region. He recognized the power of technology, and became an enterpreneur--starting Bastar Junction, a YouTube channel that at last count has 162 thousand followers. Go to YouTube now and watch his videos, and you will find more journalism than screaming television studios can ever offer. He reported and wrote from spots of attacks, crossed forests and mountains to get to victims of violence, reported from police camps, and from Naxal camps. If one core principle of journalism is to inform, to reach new areas, to give voice to the voiceless, journalists like Mukesh are peerless.
Journalism in Bastar has risks, and he bore them all. Getting to a spot is more physically arduous, more dangerous than most can imagine. Maoists threatened his life several times; the state threatened him when he exposed excess. He was often bullied by his own Bijapur fraternity for helping "national journalists" but he never, ever wavered. It was him, and my other dear friend Ganesh Mishra, who risked their lives and went deep into the forests to rescue a CRPF Jawan abducted by Maoists.
But Bastar claimed him. On December 24, Mukesh helped report a story of a road in Bijapur, being built at great cost, but with shoddy material and obvious corruption. The story caused an enquiry. A week later, one day after the new year, Mukesh was found dead, buried inside a septic tank in the home of the contractor that built that road.
The last time I met him was during the Chhattisgarh elections, when I spent the day with him, Ganesh Mishra. We reported, talked and laughed for hours. And then Mukesh took me home because he had cooked some lunch himself. We laughed and lamented my distance from Bastar, and friends like the two of them. His last message to me, in October, had the words "Pata nahi kab mulakat hogi, par mulakat ka intezaar humesha rahega." I told him, "jald hogi mulakat."
How does one begin to remember him? As a journalist? As a bridge to Bastar? As the voice of those that would never be heard otherwise? Remember him as them all. He was them all. To me, he was my friend, my brother--Mukesh Chandrakar. Go well, Bhai. Mulaqaat ka humesha intezaar rahega.