विचार/लेख
इसराइल ने पिछले हफ्ते जब ईरान पर हमला किया, तो एक ध्रुवीकृत दुनिया में भारत के लिए किसी का भी पक्ष लेना आसान नहीं था।
लेकिन करीब एक महीने पहले ही भारत ने पाकिस्तान के कुछ इलाकों में हमला किया था, तो इसराइल खुलकर भारत के समर्थन में था।
पाकिस्तान के मामले में इसराइल के लिए भारत का पक्ष लेना आसान है, क्योंकि पाकिस्तान ने अब तक एक राष्ट्र के रूप में इसराइल को स्वीकार नहीं किया है।
दूसरी तरफ ईरान से भारत के संबंध अच्छे रहे हैं और कहा जाता है कि दोनों मुल्कों में सभ्यता के स्तर के संबंध हैं।
भारत में बीजेपी की सरकार का रुख इसराइल को लेकर बाकी सरकारों की तुलना में उदार रहा है। इसके बावजूद पश्चिम एशिया में भारत का रुख किसी के प्रति झुके होने की तुलना में संतुलन का होता था।
पिछले कुछ दिनों में ऐसी कई घटनाएं हुईं, जिसके बाद ऐसा कहा जा रहा है कि भारत इसराइल के पक्ष में ज़्यादा झुका हुआ है।
जैसे 12 जून को संयुक्त राष्ट्र महासभा में गाजा में तत्काल यु्द्धविराम को लेकर वोटिंग हुई।
149 देशों ने युद्धविराम के पक्ष में वोट किया। 12 देशों ने युद्धविराम के खिलाफ वोट किया और 19 देशों ने ख़ुद को वोटिंग से दूर रखा। भारत इन्हीं 19 देशों में एक था।
इन 19 देशों को देखेंगे तो भारत को छोड़ सभी देश वैश्विक राजनीति में बहुत अहमियत नहीं रखते हैं। ये देश हैं- पनामा, साउथ सूडान, टोगो, मालावी इत्यादि।
जिन 12 देशों ने युद्धविराम के खिलाफ वोट किया, उनमें अमेरिका शामिल है। लेकिन बाकी के 11 देश वैसे हैं, जिनका अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कोई खास दखल नहीं है। ये देश हैं- फिजी, पलाऊ, पापुआ न्यू गिनी, टोंगा इत्यादि।
लेकिन जिन 149 देशों ने युद्धविराम के पक्ष में मतदान किया, उनमें लगभग सभी अहम देश हैं, जिनका वैश्विक राजनीति में दखल है।
चीन, जापान से लेकर पूरा यूरोप तक इनमें शामिल हैं। लेकिन भारत इन अहम देशों के साथ नहीं है। यहाँ तक कि भारत जिन वैश्विक संगठनों का सदस्य है, वहाँ भी इसराइल के मामले में वो अलग है।
जब पहली बार इंसान ने चांद पर कदम रखा था, उसके लगभग 60 साल बाद अब अंतरिक्ष एजेंसियां और निजी कंपनियां चांद से होते हुए मंगल पर पहुंचने की कोशिश कर रही हैं. लेकिन बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है.
डॉयचे वैले पर फ्रेड श्वालर का लिखा-
सबसे पहले तो ये जान लीजिए:-
* अब इंसानों के लिए चंद्रमा पर जाना पहले से कहीं ज्यादा आसान हो गया है, क्योंकि अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी, नासा और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी, ईएसए मिलकर आर्टेमिस प्रोग्राम पर काम कर रहे हैं।
* हाल में चीन और भारत ने कई सफल चंद्रमा मिशन पूरे किए हैं।
* अंतरिक्ष एजेंसियां और निजी कंपनियां अब चंद्रमा का इस्तेमाल वैज्ञानिक शोध और मंगल पर पहुंचने के लिए करना चाहती हैं।
चंद्रमा में बढ़ती दिलचस्पी
आर्टेमिस प्रोग्राम उत्तर अमेरिकी और नासा द्वारा संचालित एक मानव अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम है। जिसमें यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए) सहित 55 अंतरराष्ट्रीय सहयोगी भाग ले रहे हैं।
चांद के दक्षिणी ध्रुव पर एक स्थायी बेस बनाना नासा का लक्ष्य है। जिसे ‘आर्टेमिस बेस कैंप’ कहा जाएगा। साथ ही, वह चंद्रमा की कक्षा में एक नया अंतरिक्ष स्टेशन ‘गेटवे’ भी लॉन्च करने की योजना बना रहा है। वहीं दूसरी तरफ, चीन और रूस की साझेदारी में 13 अंतरराष्ट्रीय भागीदार साथ मिलकर एक चंद्र बेस बनाने की योजना बना रहे है, जिसे ‘इंटरनेशनल लूनर रिसर्च स्टेशन’ कहा जाएगा और इसे 2035 तक पूरा किये जाने की उम्मीद है।
आर्टेमिस बेस कैंप और इंटरनेशनल लूनर रिसर्च स्टेशन, दोनों को वैज्ञानिक उद्देश्यों के लिए बनाया जा रहा है। अगर यह योजनाएं सफल होती हैं, तो इनमें अंतरिक्ष यात्री कुछ समय के लिए रह सकेंगे और रोबोटिक उपकरणों को स्थायी रूप से वहां स्थापित किया जा सकेगा।
लेकिन चांद रणनीतिक रूप से भी महत्वपूर्ण है। शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत रूस ने न केवल जमीन पर बल्कि अंतरिक्ष में भी अपना वैचारिक मतभेद जाहिर किया था। और आज के समय में भी ऐसा ही देखा जा रहा है। फर्क बस इतना है कि अब इसमें और भी देश शामिल हो चुके हैं। अमेरिका ने तो खुले तौर पर कहा ही है कि वह खुद को एक ‘स्पेस रेस’ में देखता है और उसे वह जीतना चाहता है।
इस दौड़ में जीतना काफी मायने रखता है क्योंकि:-चांद में बढ़ती दिलचस्पी का एक कारण यह भी है कि वह संसाधनों से भरपूर है। जैसे:-
* लोहा
* सिलिकॉन
* हाइड्रोजन
* टाइटेनियम
* दुर्लभ खनिज तत्व (रेयर अर्थ)
हालांकि, इन संसाधनों को निकालना और धरती तक लाना बहुत महंगा है। लेकिन धरती पर खनिजों के अभाव में उन्हें धरती पर लाया जा सकता है। अंतरिक्ष में छिपे विशाल खनिज भंडार, खासकर एस्टेरॉइड्स में मौजूद खजाने को हासिल करने की दिशा में चांद पर खनन की शुरुआत करना पहला कदम हो सकता है।
चांद से निकाले गए ज्यादातर संसाधनों का इस्तेमाल उन्हीं चीजों की जगह किया जाएगा, जिन्हें अब तक धरती से ले जाना पड़ता है। इससे चांद पर बनाए जाने वाले बेस की खनिजों के लिए धरती पर निर्भरता खत्म या ना के बराबर हो जाएगी।
उदाहरण के लिए, चंद्रमा की मिट्टी (रेगोलिथ) का उपयोग विकिरण (रेडिएशन) से सुरक्षा और चांद पर निर्माण कार्यों के लिए किया जा सकता है।
पानी, जिसकी खोज 2008 में भारत के चंद्रयान-1 मिशन ने की थी। उसका पीने, खाना उगाने और उपकरणों को ठंडा रखने के लिए इस्तेमाल हो सकेगा।
चंद्रयान-1 के बाद किए गए मिशनों ने दिखाया है कि चांद के ध्रुवों पर बर्फ की मात्रा काफी ज्यादा है। यही कारण है कि पहला चंद्र-बेस शायद चांद के दक्षिणी ध्रुव पर बनाए जाए सकता है। भले ही वहां उतरना चुनौतीपूर्ण हो।
इस बेस को मंगल पर जा रहे अंतरिक्ष यात्रियों के लिए ‘ट्रांजिट लाउंज’ यानी बीच के पड़ाव की तरह भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
ऊर्जा के लिए अभी कुछ अंतरिक्ष यान और सैटेलाइट सौर ऊर्जा का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन रेगोलिथ और बर्फ का उपयोग रॉकेट के लिए ईंधन बनाने में भी किया जा सकता है।
चांद पर हीलियम-3 भी बड़ी मात्रा में पाया गया है, जो भविष्य में न्यूक्लियर फ्यूजन से बिजली बनाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
इसलिए, मंगल मिशन के लिए चांद पर रुकना और वहां से ईंधन भरना और जरूरी हो गया है।
चांद पर वैज्ञानिक शोध
यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी (ईएसए) के ‘मून एक्सप्लोरेशन प्रोग्राम’ की मैनेजर, सारा पास्टर ने डीडब्ल्यू को एक ईमेल में बताया कि चांद से जुड़े वैज्ञानिक शोध ईएसए के मिशन का मुख्य हिस्सा है। और यह बात बाकी अंतरिक्ष एजेंसियों पर भी लागू होती है।
पिछले 20 वर्षों से इंसान अंतरिक्ष में लगातार मौजूद रहा है, खासकर इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (आईएसएस) पर। लेकिन आईएसएस धरती से सिर्फ 400 किलोमीटर (लगभग 250 मील) की दूरी पर है, जहां पहुंचने के लिए लॉन्च के बाद सिर्फ चार घंटे लगते हैं। इसके मुकाबले चांद धरती से चार लाख किलोमीटर (250,000 मील) दूर है, यानी वहां पहुंचने में लगभग तीन दिन लगते हैं। और यह सफर अंतरिक्ष यात्रियों के लिए कहीं ज्यादा जोखिम भरा होता है। इसलिए चांद पर शुरुआती रिसर्च का मकसद इस सफर को सुरक्षित और आसान बनाना होगा।
इसके बाद बात आती है पर्यावरण विज्ञान की। सारा पास्टर के अनुसार, ‘वैज्ञानिक यह पता लगाएंगे कि चांद का वातावरण कैसा है? उसके विशेष हालात इंसान के स्वास्थ्य पर क्या असर डालते हैं और रोबोटिक मिशनों पर क्या प्रभाव होता है। इसके अलावा इंसानी गतिविधियां चांद के पर्यावरण को कैसे प्रभावित करती हैं।’
वैज्ञानिक यह भी जानना चाहते हैं कि चांद पर मौजूद पानी, धातु और अन्य संसाधनों का इस्तेमाल लंबे समय तक चांद पर टिके रहने के लिए कैसे किया जा सकता है, और उन्हें सबसे प्रभावी तरीके से कैसे निकाला जा सकता है। सारा पास्टर ने बताया, ‘ईएसए, पर्यावरण के रेडिएशन को मापने वाले उपकरण, खुदाई और नमूना विश्लेषण, भूगर्भीय अध्ययन और अंतरिक्ष में चांद के मौसम को जांचने के लिए उपकरण विकसित कर रहा है।’
-जेम्स लैंडेल
फि़लहाल इसराइल और ईरान के बीच लड़ाई दो देशों के बीच ही सीमित दिखती है। संयुक्त राष्ट्र में और अन्य जगहों पर व्यापक रूप से दोनों से संयम बरतने की अपील की जा रही है।
हालांकि दोनों देशों ने एक-दूसरे पर हमला करना जारी रखा है और इसराइल ने लगातार दूसरे दिन भी ईरान पर हवाई हमले करने के दावे किए हैं। लेकिन क्या होगा अगर संयम की अपीलों पर दोनों देश ध्यान नहीं देते हैं? तब क्या होगा अगर लड़ाई और भडक़ती है, और फैलती है?
यहां चंद संभावित सबसे खराब हालात के बारे में अनुमानों पर चर्चा की गई है।
अगर इस जंग में अमेरिका शामिल होता है?
अमेरिका के तमाम खंडनों के बावजूद ईरान स्पष्ट रूप से मानता है कि इसमें अमेरिकी बलों की भूमिका है और कम से कम उसने इसराइली हमलों में मदद की है।
ईरान पूरे पश्चिम एशिया में अमेरिकी ठिकानों पर हमला बोल सकता है, जैसे कि इराक़ में स्पेशल फ़ोर्सेज, खाड़ी में सैन्य अड्डे और इस क्षेत्र में मौजूद राजनयिक मिशनों पर।
हमास और हिज़्बुल्लाह जैसे ईरान के प्रॉक्सी बलों की ताकत बहुत कुछ कम हो चुकी है लेकिन इराक में इसके समर्थक मिलिशिया अभी भी हथियारबंद हैं और एकजुट हैं।
अमेरिका को डर है कि ऐसे हमले हो सकते हैं और इसी वजह से उसने अपने कुछ सैनिकों को वापस बुला लिया है।
सार्वजनिक रूप से अमेरिका ने ईरान को अमेरिकी ठिकानों पर किसी तरह के हमले की स्थिति में नतीजे भुगतने की कड़ी चेतावनी दी है।
उन हालात में क्या होगा अगर अमेरिकी नागरिक मारे जाते हैं, जैसे कि तेल अवीव या कहीं और?
ऐसी स्थिति में डोनाल्ड ट्रंप खुद को कार्रवाई करने के लिए मजबूर पा सकते हैं।
इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू पर लंबे समय से आरोप लगता रहा है कि वो ईरान को हराने की लड़ाई में अमेरिका को घसीटना चाहते हैं।
सैन्य विश्लेषकों का कहना है कि अमेरिका के पास ऐसे बमवर्षक विमान और बंकर बस्टर बम हैं जो बहुत गहराई में मौजूद ईरानी परमाणु प्रतिष्ठानों तक पहुंच सकते हैं, खासकर फॉरदाओ में।
ट्रंप ने मागा (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) के प्रशंसक वोटरों से वादा किया है कि वह पश्चिम एशिया में कथित तौर पर ‘अनंतकाल तक चलने वाले किसी युद्ध’ की शुरुआत नहीं करेंगे। लेकिन दूसरी तरफ कई रिपब्लिकन समर्थक। इसराइली सरकार और इसके नज़रिए का समर्थन करते हैं कि तेहरान में सत्ता बदलने का समय आ गया है। अगर अमेरिका इस जंग में सक्रिय भागीदारी करता है तो इसके साथ ही जंग और भडक़ेगी और इसके विनाशकारी परिणाम की आशंका बढ़ जाएगी।
अगर खाड़ी के देश शामिल होते हैं?
अगर ईरान इसराइल के बहुत सुरक्षित सैन्य और अन्य ठिकानों को नुक़सान पहुंचाने में नाकामयाब रहता है, तो जैसा कि वह करता है वह खाड़ी में अन्य आसान लक्ष्यों पर अपने मिसाइल इस्तेमाल करेगा। ख़ासकर उन देशों के खिलाफ जिनके बारे में उसका मानना है कि वो उसके दुश्मनों को मदद और प्रोत्साहन देता है। इस इलाके में बहुत सारे ऊर्जा और आधारभूत ढांचे वाले टार्गेट हैं।
ये याद रखना होगा कि ईरान पर आरोप लगा था कि 2019 में उसने सऊदी अरब के तेल क्षेत्र को निशाना बनाया था और इसके हूती प्रॉक्सी बल ने 2022 में यूएई के ठिकानों पर हमला किया था। हालांकि इसके बाद से इस क्षेत्र के कुछ देशों के बीच ईरान ने रिश्ते सुधारे हैं।
लेकिन ये देश अमेरिकी एयरबेस की मेजबानी करते हैं। कुछ ने तो पिछले साल गुपचुप तरीके से ईरानी मिसाइल हमलों से इसराइल की रक्षा करने में भूमिका निभाई थी।
अगर खाड़ी देशों पर हमला हुआ, तो वे अपनी और इसराइल की सुरक्षा के लिए अमेरिकी लड़ाकू विमानों की मांग कर सकते हैं।
अगर इसराइल ईरान की परमाणु क्षमता नष्ट करने में विफल रहता है?
तब क्या होगा जब इसराइली हमले विफल रहते हैं? अगर ईरान के परमाणु प्रतिष्ठान जमीन के बहुत अंदर हुए, बहुत सुरक्षित हुए तब क्या होगा?
ईरान के पास 400 किलोग्राम तक 60त्न एनरिच्ड यूरेनियम होने का अनुमान है जो कि दस या इससे ज़्यादा परमाणु बम बनाने के लिए पर्याप्त है और ईरान हथियार के स्तर का यूरेनियम बनाने से चंद कदम ही दूर है, अगर इसे नष्ट नहीं किया जा सका तब क्या होगा?
माना जाता है कि यह गोपनीय खदानों में कहीं गहरे छिपाकर रखे गए हैं। भले ही इसराइल ने कुछ परमाणु वैज्ञानिकों को मार दिया हो लेकिन कोई भी बम ईरान की जानकारी और विशेषज्ञता को नष्ट नहीं कर सकता।
क्या होगा अगर इसराइल के हमले ईरान के नेतृत्व को सोचने के लिए मजबूर कर दें कि आगे और हमलों को रोकने के लिए जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी परमाणु हथियार बना लेना चाहिए?
और तब क्या होगा जब नए सैन्य नेता अपने मृत पूर्ववर्तियों के मुक़ाबले अधिक अडिय़ल और कम सतर्क हों?
कम से कम, यह इसराइल को और हमले करने के लिए मजबूर करता है, जिससे इस क्षेत्र में लगातार हमले और जवाबी हमले जारी रह सकते हैं। इस रणनीति के लिए इसराइलियों के शब्दकोश में एक क्रूर शब्दावली है: वे इसे ‘घास साफ़ करना’ कहते हैं।
- सेबेस्टियन अशर
इसराइल ने ईरान पर जो ताजा हमला किया है वो पिछले साल अंजाम दिए गए उसके दो सैन्य ऑपरेशनों की तुलना में ज्यादा व्यापक और भयावह है।
ऐसा लगता है कि इस हमले में उसने वैसी ही रणनीति अपनाई है, जैसी पिछले साल नवंबर में लेबनान में हिज्बुल्लाह के खिलाफ हमले के दौरान इस्तेमाल की गई थी।
इसका मकसद न सिर्फ ईरान के मिसाइल बेस पर हमला करना था बल्कि ये भी सुनिश्चित करना था कि बड़ा जवाबी हमला होता है तो भी तुरंत कार्रवाई कर ईरान की यह क्षमता खत्म कर दी जाए।
पिछले साल नवंबर में जब इसराइल ने हिज़्बुल्लाह के खिलाफ अभियान चलाया था तो उसका मकसद इस संगठन के नेताओं को मारना था।
इसराइल की इस कामयाबी ने हिज़्बुल्लाह के जवाबी हमला करने की क्षमता को भारी चोट पहुंचाई थी।
ईरान से इसराइल के हमले के जो फुटेज हासिल हुए हैं, उनमें दिख रहा कि वैसी ही इमारतों पर हमला किया गया है जैसा पहले बेरूत के दक्षिणी उपनगरों की इमारतों पर किया गया था।
ऐसे ही हमलों में हिज़्बुल्लाह के नेता हसन नसरल्लाह को मार दिया गया था।
इसराइल ने ईरान के बहुत बड़े कद के नेता को नहीं मारा है। उसने ईरान के सर्वोच्च नेता अली ख़ामेनेई को भी निशाना नहीं बनाया है।
लेकिन ईरान के ताक़तवर रिवोल्यूशनरी गार्ड्स के कमांडर हुसैन सलामी और देश के कई शीर्ष परमाणु वैज्ञानिकों को सैन्य ऑपरेशन के शुरुआती घंटों में मारकर ईरान की सत्ता के उच्च वर्ग को अभूतपूर्व चोट पहुंचाई है।
बिहार में प्रति 1,000 लडक़ों पर मात्र 891 लड़कियों का जन्म हो रहा है। यह देश के सभी राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों में सबसे कम लिंगानुपात है। लेकिन क्यों?
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार का लिखा-
रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया द्वारा जारी नागरिक पंजीकरण प्रणाली (सीआरएस) पर आधारित नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, बिहार में 2022 में पूरे देश में जन्म के समय सबसे कम लिंगानुपात (एसआरबी) देखा गया है।
इसके अलावा महाराष्ट्र, गुजरात तथा तेलंगाना में भी लिंगानुपात में गिरावट दर्ज की गई है। केंद्र सरकार ने लगभग चार साल की देरी से बीते सप्ताह साल 2022 के लिए सीआरएस और एमसीसीडी (मेडिकल सर्टिफिकेशन ऑफ कॉज ऑफ डेथ) जारी किया है।
क्या तस्वीर दिखाते हैं आंकड़े
बिहार में प्रति 1,000 लडक़ों पर मात्र 891 लड़कियों का जन्म हो रहा है। यह देश के सभी राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों में सबसे कम लिंगानुपात है। 2020 में यह अनुपात 964, जो 2021 में गिरकर 908 पर आया और 2022 में यह और भी नीचे 891 पर आ गया। यानी साल 2020 से हर साल जन्म के समय लिंगानुपात प्रदेश में लगातार घटता जा रहा है।
इसके विपरीत पिछले सालों में इस मामले में खराब प्रदर्शन करने वाले असम राज्य में वर्ष 2021 में एसआरबी (सेक्स रेशियो एट बर्थ) जहां 863 थी, वह 2022 में बढक़र 933 हो गई। वहीं, महाराष्ट्र, तेलंगाना और गुजरात में यह क्रमश: 906, 907 और 908 रही। ये आंकड़े बिहार से बहुत अधिक नहीं हैं, किंतु इन राज्यों में बिहार की तरह लगातार गिरावट नहीं देखी गई है। वहीं, नागालैंड में सबसे अधिक एसआरबी दर्ज की गई जो 1,068 रही। इसके बाद अरुणाचल प्रदेश (1,036), लद्दाख (1,027), मेघालय (972) तथा केरल (971) का स्थान रहा।
क्या कहती हैं राज्य की महिलाएं
महिलाओं के लिए काम करने वाली संस्था की सदस्य जायना शबनम कहतीं हैं, ‘ये आंकड़े लैंगिक असंतुलन की ओर तो इशारा कर ही रहे हैं। इनका तात्कालिक असर भले ही न दिखे, दीर्घकालिक परिणाम तो भयावह ही होगा। बिहार के समाज में बेटियां अभी भी स्वीकार्य कहां बन सकी हैं। तमन्ना तो यही रहती है कि बेटा ही हो।’
वहीं, बीएससी की छात्रा कलश कश्यप कहती हैं, ‘हमारे समाज में बेटियों के प्रति एक पूर्वाग्रह तो छिपा ही है। सोच बदली है, किंतु अभी भी दोनों के बीच सम्मान और समानता में गहरी खाई बरकरार है। बेटियों से सीधे कह दिया जाता है, तुमसे न होगा। जबकि, जहां-जहां हमें मौका दिया गया, हमने कर दिखाया। ऐसा न होता तो बिहार पुलिस में सर्वाधिक महिलाएं न होतीं। वे अपना काम तो मुस्तैदी से कर ही रही हैं ना।’
जन्म के मामले में तीसरे स्थान पर बिहार
प्रति एक हजार लडक़ों पर 943 लड़कियों की एसआरबी के राष्ट्रीय औसत से बिहार भले ही काफी पीछे रहा हो, किंतु 2022 में सर्वाधिक जन्म (बर्थ) के मामले में यह राज्य तीसरे स्थान पर रहा। यहां कुल 30 लाख 70 हजार बच्चों का जन्म हुआ, जिनमें 13 लाख 10 हजार लड़कियां थीं और 14 लाख 70 हजार लडक़े थे। आशय यह कि लडक़े-लड़कियों की संख्या में 1,60,000 का अंतर रहा, जो देश भर में सबसे अधिक अंतर रहा।
प्रतिशत में देखा जाए तो 2022 में 52.4 फीसद लडक़े तथा 47.6 फीसद लड़कियों का जन्म हुआ। लगभग 43 प्रतिशत जन्म ग्रामीण क्षेत्रों में तो 56.5 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में रजिस्टर्ड किए गए। अच्छी बात है कि 2022 में बर्थ रजिस्ट्रेशन की संख्या में अच्छी वृद्धि हुई है। हालांकि, 2022 के लिए एसआरएस (सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम) रिपोर्ट के आंकड़े अभी तक सामने नहीं आए हैं।
जातिवार गणना की रिपोर्ट में दिखा था सुधार
राज्य के मुख्य सचिव अमृत लाल मीणा ने इस रिपोर्ट को खारिज करते हुए राज्य में किए जातिवार गणना की रिपोर्ट को प्रमाणिक बताया है, जिसके अनुसार बिहार में लिंगानुपात 2011 में 918 से बढक़र 2023 में 953 हो गया है। उनका मानना है कि राज्य में हुए जातिवार गणना के आंकड़े ही प्रमाणिक हैं, लिंगानुपात इतना खराब कभी भी नहीं था।
वैसे, जातिवार गणना की इस रिपोर्ट में पिछले 12 साल में प्रति हजार महिलाओं की संख्या में 35 की वृद्धि हुई है। इस गणना के अनुसार राज्य में पुरुषों की कुल संख्या 6.41 करोड़ तो महिलाओं की संख्या 6.11 करोड़ थी। सीआरएस के 2022 के आंकड़ों पर सामाजिक चिंतक इला गोस्वामी कहती हैं, ‘संभव है ये आंकड़े पूरी तरह सत्य न हों। कुछ खामियां हों, जो संभवत: ऐसे सर्वे में रहती हैं । किंतु, यदि ये सही हैं तो भविष्य में एक गंभीर सामाजिक अंसतुलन की ओर इशारा कर रहे। इतनी गिरावट तो कन्या भ्रूण हत्या के बिना शायद संभव नहीं है। हालांकि, इसकी कल्पना अभी बेमानी ही होगी। वैसे, अगली जनगणना में सब कुछ साफ हो जाएगा।’
दिसंबर 2024 में केंद्र स्वास्थ्य मंत्रालय की स्वास्थ्य प्रबंधन सूचना प्रणाली 2023-24 की रिपोर्ट में भी बिहार में घटते सेक्स रेशियो पर चिंता जाहिर की गई थी। बिहार इस संदर्भ में सबसे खराब प्रदर्शन करने वालों राज्यों में शामिल था। इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार में जन्म के समय लिंगानुपात प्रति एक हजार पुरुषों पर 882 था, जबकि 2022-23 में यह 894 तथा 2021-22 में 914 था। 2023-24 के आंकड़ों के अनुसार बिहार के वैशाली जिले में तो यह अनुपात 800 से भी नीचे था।
-मनीष सिंह
विलियम बोइंग का सपना था-शानदार इंजीनियरिंग कम्पनी बनाना। जो एविएशन के मायने बदल दे।
1916 में उन्होंने जो कम्पनी बनाई, उसने सचमुच एविएशन को बदल दिया।
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सुंदर, किफायती, सुरक्षित, उड़ाने मे आसान एयरक्राफ्ट बनाकर बोइंग ने, कमर्शियल एयरलाइन बिजनेस को वो रूप दिया, जो हम देखते हैं।
अब साधारण लोग उड़ सकते है। दूर देश आ-जा सकते हैं। पर्यटन, होटल, व्यवसाय, एमएनसी जैसी नए जमाने मे पले बढ़े सेक्टर, बोइंग के कर्जदार है।
हजारों प्लेन्स, कई मॉडल और दुर्घटना रहित उड़ान सबसे सुरक्षित रिकार्ड बोइंग का था।यह रुतबा उसका 20 सदी में कोई छीन नही सका।
कहानी इसके बाद बदलती है।
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बोइंग विमान बनाती है।
जो इंजीनियरिंग है। तो बोइंग में इंजीनियर ही किंग था। बोल्ड था, मुखर था, परफेक्शनिस्ट था। उसकी सुनी जाती, मानी जाती। मोटी तनख्वाह थी, सो महंगा भी था।
ये कल्चर बोइंग ने दशकों में विकसित किया था। तो कई-कई बिलियन्स के विमान बेचकर भी, उसका मुनाफा सीमित होता था।
रिसर्च और डेवलपमेंट में पैसा पानी की तरह बहता।
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1990 के दशक में यूरोप में एयरबस कम्पनी आयी। नए फीचर्स, कम्प्यूटराइज्ड कॉकपिट, मॉर्डन, सेफ प्लेन्स देने लगी। बोइंग को तगड़ा कम्पटीशन मिला। उसने मार्किट शेयर बढ़ाने को नई रणनीति बनाई।
अमेरिका में एक प्रतिद्वंद्वी था। मैकडोनल्ड डगलस और बोइंग, एक जमाने मे कोक और पेप्सी की तरह राइवल थे। लेकिन फिर, ष्ठष्ट बहुत पीछे रह गया।
उसने युद्धक विमानों पर फोकस किया। खूब पैसे बनाए। थोड़ा बहुत कमर्शियल एयरलाइनर बनाने में भी हाथ था। 1996 में बोइंग ने इसी मैकडोनल्ड डगलस से मर्जर कर लिया।
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मर्जर कुछ इस तरह हुआ कि नई विशाल बोइंग कम्पनी का चेयरमैन, डगलस का सीईओ बना।
अब अच्छे दिन आ गए।
बोइंग का मुनाफा तेजी से बढऩे लगा। शेयर प्राइज बढऩे लगे। इन्वेस्टर भर भर कर पैसे लगाने लगे। कम्पनी का वैल्यूएशन इतना बड़ा हो गया कि कई देशों के जीडीपी पीछे छूट जाएं।
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मुनाफा बढ़ा नए मैनेजमेंट की कॉस्ट कटिंग से, टैक्स मैनेजमेंट से, आउट सोर्सिंग से। अब डीसी का मैनेजर कल्चर, बोइंग के इंजीनियर कल्चर पर हावी था।
कम्पनी का हेडक्वार्टर सियेटल से 1000 किमी दूर, अन्य स्टेट में जाया गया, क्योकि सियेटल में टैक्स ज्यादा थे। इससे मेन प्लांट और मैनेजमेंट की दूरी बढ़ गयी।
कॉस्ट कटिंग के लिए सप्लाई ठेकों में तगड़ा नेगोशिएशन करके कम्पनी के पैसे बचाये गए। लेकिन मिलने वाले उपकरणों की गुणवत्ता घट गई।
दसियों हजार ‘महंगे’ इंजीनियर नौकरी से निकाल दिए गए। ये अनुभवी लोग थे। इनकी जगह रूक्च्र मैनजरों ने ली।
मैनजर होशियार थे। हर काम सस्ते में काम कराना आता था।
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सबसे गजब था- ग्लोबल आउटसोर्सिंग।
चक्का बने जापान में, उसका नट जर्मनी में, बोल्ट इटली से आये। लागत में जबरजस्त कमी। बस, इसे अमेरिका में असेंबल करना था। अगर थोड़ा नाप जोख का फर्क आया तो की फर्क पेंदा ए।
ठोक पीट कर मैनेज करो, जोड़ो, बेच दो। पैसा ही पैसा। बोइंग के मैनजेमेंट और इन्वेस्टर मालामाल हो गए।
80 साल पहले विलियम बोइंग ने इतने पैसे की कल्पना भी न की थी।
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और फिर बोइंग में तकनीकी खराबियों की शिकायतें आने लगीं। कभी कोई प्रणाली काम करना बंद कर देती, कभी कोई सिस्टम फाल्ट करता।
कई नए सिस्टम्स क्र&ष्ठ के बाद, पूरी तरह सुरक्षा मानकों पर कसे नहीं गए। लेकिन मार्केटिंग तगड़ी थी। 737, 747, ड्रीमलाइनर, मैक्स.. धकाधक बिके।
लेकिन शिकायतें बढ़ी, बिक्री पर असर पड़ा। विमान वापस मंगाना, सुधार करना बढ़ता गया।
फिर बोइंग क्रैश भी होंने लगे।
-प्रदीप सुरीन
क्या आप जानते हैं कि एविएशन कवर करने वाले ज़्यादातर पत्रकार एयर इंडिया से यात्रा करने को सबसे लास्ट ऑप्शन रखते हैं। पिछले पंद्रह सालों में (जब से मैंने एविएशन कवर करना शुरु किया) मेरी भी सबसे लास्ट चॉइस एयर इंडिया ही रही।
ये जो आज अहमदाबाद में बोइंग 787 ड्रीमलाइनर क्रैश हुआ इससे कोई भी पुराना एविएशन रिपोर्टर हैरान नहीं है। बस ये घटना इतने सालों बाद क्यों हुआ ये मेरे लिए सरप्राइज़ था।
एयर इंडिया में बोइंग 787 ड्रीमलाइनर आने के दो साल बाद ही इसके महँगे मेंटेनेंस को लेकर सवाल उठने लगे थे। पायलटों की हड़ताल और एयर इंडिया के खस्ताहाल के बीच जो सबसे हैरानी वाली बात निकलकर आई थी, जिसे कोई पत्रकार हिम्मत करके भी नहीं छाप पाया था वो ये है कि एयर इंडिया की इंजीनियरिंग टीम ने एक रिपोर्ट तैयार की थी जिसमें साफ लिखा गया था कि कंपनी के पास अपने एयर क्राफ्ट्स के नए स्पेयर पार्ट्स खरीदने तक के पैसे नहीं है। और कई सालों तक तो पुराने घिसे पिटे पार्ट्स को ठीक करके ही प्लेन उड़ाए गए। शायद आज भी वैसा ही हो रहा है।
पिछले दो दशकों में ऐसी कई घटनाएँ हुई जिसमें आम यात्रियों को ये बोला जाता रहा कि कुछ टेक्निकल कारणों से एयर इंडिया की फ़्लाइट रद्द हो गई है। लेकिन एयर इंडिया के पायलट और इंजीनियर दोस्त बताते रहे कि फटे-पुराने टायरों या फिर घटिया स्पेयर पार्ट्स की वजह से प्लेन नहीं उड़ पाए।
मुझे ये बताने में बिल्कुल भी हिचक नहीं है कि जब भी मुझे मजबूरन एयर इंडिया की फ़्लाइट लेनी पड़ी मैंने हर फ्लाइट से पहले प्लेन के टायरों की तरफ देखा कि कहीं ये घिसे हुए तो नहीं हैं?
2013 में मैंने अपनी आखिरी बार बोइंग 787 ड्रीमलाइनर में दिल्ली से लंदन तक की यात्रा की। लेकिन उस वक्त भी प्लेन की हालत बेहद खराब थी। इंजन काफी वाइब्रेट कर रहे थे और लैंडिंग इतनी हार्ड थी कि लगा नेपाल के किसी थर्ड हैंड फ्लाइट में सफर कर रहे हों।
अब सवाल ये है कि अहमदाबाद की घटना क्यों हुई और जिम्मेदार कौन?
तो इसे सीधे शब्दों में समझिए। सरकार एयर इंडिया बेचना चाहती थी और ये टाटा समूह को ही बेचना चाहती थी। रतन टाटा की दिली ख्वाहिश भी थी कि एयर इंडिया एक बार फिर टाटा समूह के पास आ जाए। लेकिन अगर एयर एशिया और सिंगापोर एयरलाइंस के पेंच को हटा भी दें तो भी टाटा की मैनेजमेंट एयर इंडिया की खस्ताहाल की वजह से इसे खरीदने से कतराती रही। मौजूदा सरकार ने एक तरह से जबरन करोड़ों रुपए के रीबेट के साथ एयर इंडिया को टाटा समूह की झोली में डाल दिया।
बाढ़, लू और चक्रवात जैसी चरम मौसमी घटनाएं अब भारत में पहले से कहीं ज्यादा हो रही हैं। जिसका नकारात्मक प्रभाव लोगों के स्वास्थ्य, देश के विकास और अर्थव्यवस्था पर सीधे पड़ रहा है।
डॉयचे वैले पर मुरारी कृष्णन का लिखा-
पिछले हफ्ते, दिल्ली के रिसर्च इस्टिट्यूट, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) ने भारत के पर्यावरण पर अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी की। जिसमें दिखाया गया है कि चरम मौसमी घटनाएं देश की बड़ी आबादी को किस तरह प्रभावित कर रही हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले साल भारत में चरम मौसम संबंधी घटनाओं के कारण लगभग 3,000 लोगों की मौत, 20 लाख हेक्टेयर फसल बर्बाद और 80,000 से अधिक घर तबाह हो गए। यह भी सामने आया कि 2024 के 88 फीसदी दिनों में भारत के किसी ना किसी हिस्से में चरम मौसमी घटनाएं घट रही थीं। वर्तमान में पूरा उत्तर भारत भीषण गर्मी से जूझ रहा है और ऐसी गर्मी के दिन आने वाले सालों में और बढऩे की आशंकाएं हैं।
सीएसई की निदेशक, सुनीता नारायण ने डीडब्ल्यू को बताया कि यह रिपोर्ट भारत में नीति बनाने वालों के लिए एक चेतावनी है। उन्होंने कहा, ‘यह रिपोर्ट बेहद अहम है क्योंकि यह दिखाती है कि हमें अब पर्यावरण के लिए और सजग प्रशासन, बेहतर स्वास्थ्य सेवा और जलवायु नीतियों की जरूरत है, ताकि इन समस्याओं का डट कर सामना किया जा सके।’ कुछ शहरों ने गर्मी से बचने के लिए कदम उठाए हैं लेकिन गर्मी की तीव्रता को देखते हुए इन्हें पर्याप्त नहीं कहा जा सकता।
वायु प्रदूषण, गर्मी और बाढ़
दुनिया में सबसे खराब वायु गुणवत्ता स्तर अक्सर भारत के शहरों में ही दर्ज किए जाते हैं। रिपोर्ट के अनुसार, 2021 से अब तक दिल्ली समेत भारत के 13 शहरों में हर तीन में से एक दिन लोगों को प्रदूषित और असुरक्षित हवा में सांस लेना पड़ता है। विभिन्न अध्ययनों में पाया गया है कि वायु प्रदूषण के कारण दिल्लीवासियों का जीवन औसतन लगभग आठ साल घट जाता है।
हालांकि भारत में अप्रैल से लेकर जून तक का महीना पारंपरिक रूप से गर्म ही होता है, लेकिन पिछले एक दशक में गर्मी की तीव्रता खतरनाक तरीके से बढ़ी है। इसके साथ-साथ बारिश और बाढ़ की तीव्रता भी साफ तौर पर बढ़ी हैं।
सीएसई की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की लगभग 80 फीसदी आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है, जो हीटवेव या गंभीर बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील हैं। जिसका मतलब हुआ कि देश की एक बड़ी आबादी लगातार जलवायु खतरों की चपेट में रहती है।
अंतरराष्ट्रीय विकास संगठन, आईपीई ग्लोबल के जलवायु परिवर्तन और सस्टेनेबिलिटी विभाग के प्रमुख, अबिनाश मोहंती ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘यह रिपोर्ट एक असहज सच्चाई को उजागर करती है। भारत इस समय एक तूफान के केंद्र में है। जहां जलवायु अराजकता, स्वास्थ्य संकट और विकास की कमी एक साथ भारत पर हावी हो रहे हैं।’
मोहंती ने बताया कि यह रिपोर्ट आईपीई ग्लोबल की 2024 की स्टडी के निष्कर्षों की भी पुष्टि करता है। जिसमें पता चला था कि भारत के 80 फीसदी जिले चरम मौसमी घटनाओं के प्रति संवेदनशील हैं।
उन्होंने कहा, ‘यह केवल एक आंकड़ा नहीं है बल्कि वास्तविक संकट है, जो हमारे सामने खड़ा है।’ उन्होंने बताया कि अगर भारत को इस संकट का सामना करना है, तो विकास मॉडल को दोबारा नए ढंग से बनाने और लागू करने की जरूरत होगी ताकि बढ़ते तापमान, जैव विविधता में आ रही गिरावट और पानी के संकट से निपटा जा सके।
उन्होंने यह भी कहा, ‘अगर आज हमने कोई ठोस कदम नहीं उठाया, तो कल को इस संकट को टालना नामुमकिन हो जाएगा।’
-अली हुसैनी
अफगानिस्तान में तालिबान सरकार की आलोचना करने वाले कई धार्मिक विद्वानों को पिछले कुछ हफ्तों से गिरफ्तार करने का सिलसिला जारी है।
गिरफ्तार होने वालों में से कुछ ‘इस्लामी और जिहादी मूल्य का समर्थन’ नाम की काउंसिल के मेंबर हैं। इस काउंसिल ने जनवरी में काबुल में एक बैठक के दौरान तालिबान सरकार की तीखी आलोचना की थी।
हाल की रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले हफ्ते दो अज्ञात बंदूकधारी उलेमा को अग़वा कर अनजान जगह पर ले गए थे।
इन धार्मिक विद्वानों के रिश्तेदारों को लगता है कि उन्हें तालिबान की ख़ुफिय़ा एजेंसियों ने पकड़ा है।
एजेंसी ने मीडिया को कोई जवाब नहीं दिया और न ही यह पता है कि इस दावे पर उसका क्या कहना है।
तालिबान सरकार के प्रवक्ता ने अभी तक हाल की गिरफ़्तारियों के बारे में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।
अब किन लोगों की गिरफ़्तारी हुई है?
उन उलेमा में से एक मौलवी अब्दुल कादिर हैं जो काबुल में उलेमा काउंसिल के पूर्व प्रमुख हैं और जिन्हें तीन बार गिरफ्तार किया जा चुका है।
लगभग एक हफ्ते पहले आम लिबास में कई बंदूकधारियों ने उन्हें और उनके बेटे को काबुल में उनके घर से अग़वा कर लिया था। बताया गया है कि उनका बड़ा बेटा गिरफ्तारी के डर से फरार हो चुका है।
चार दिन पहले इस काउंसिल के एक और सदस्य और अब्दुल कादिर के दोस्त सिराजुद्दीन नबील को गिरफ़्तार किया गया था। मौलवी बशीर अहमद हनफी इससे पहले गिरफ़्तार हो चुके थे।
कुछ सूत्रों ने बीबीसी को बताया कि तालिबान सरकार की एक अदालत ने हनफी को कई माह कैद की सजा सुनाई और दो साल के लिए उनकी यात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया है।
हनफी पर आम लोगों की राय बिगाडऩे और उन्हें प्रशासन के खिलाफ उकसाने जैसे आरोप हैं।
इन सूत्रों ने सुरक्षा कारणों से नाम न बताने की शर्त पर जानकारी दी कि हनफी को मिस्र से वापसी के एक दिन बाद गिरफ्तार किया गया था।
बशीर अहमद हनफी तालिबान की ‘इस्लामी इमारत (राज्य)’ का बचाव करते हैं और महिलाओं और लड़कियों की शिक्षा के अधिकार पर लगे प्रतिबंधों की आलोचना करते हैं।
उनके मुताबिक, ‘अगर अफगान लड़कियों को इस्लामी सिद्धांतों के साथ स्कूलों में शिक्षा नहीं दी जाती तो दुश्मन उन्हें गैर इस्लामी दृष्टिकोण से शिक्षा देगा।’
उन्होंने कहा, ‘मजहब, लोग, शरीअत और इस्लाम की शिक्षा कहती है कि स्कूलों के दरवाजे हमारे कायदे-कानून के मुताबिक खोले जाएं।’
हाल में तीन धार्मिक विद्वानों की गिरफ़्तारी के अलावा एक विश्वसनीय सूत्र ने बीबीसी को बताया कि तालिबान सरकार अब तक कई दूसरे उलेमा को भी हिरासत में ले चुकी है।
उनमें मौलवी अब्दुल कादिर, मौलवी महमूद हसन, मौलवी अब्दुल अजीज शुजा, मौलवी अब्दुल फत्ताह फाइक, मौलवी अब्दुल शकूर, मौलवी बशीर अहमद हनफी और मौलवी सिराजुद्दीन नबील शामिल हैं।
सूत्रों के मुताबिक उनमें से कुछ को कई बार गिरफ्तार किया जा चुका है। इन सूत्रों का कहना है कि तालिबान सरकार की आलोचना करने वाले धार्मिक विद्वानों की गिरफ्तारियां इसी आलोचना की वजह से की जा रही हैं।
मौलवी अब्दुल क़ादिर ने मीडिया आउटलेट ‘अफगानिस्तान पॉलिटिक्स’ से बातचीत में कहा कि अफगानिस्तान की जनता के अधिकारों का किसी न किसी तरह हनन किया गया है।
उन्होंने तालिबान सरकार से मांग की है कि महिलाओं को शिक्षा हासिल करने और नौकरी करने का अधिकार दिया जाए।
उन्होंने कहा कि तालिबान को ऐसे कदम उठाने से बचना चाहिए जो आम लोगों को दीन (धर्म) से दूर करने की वजह बनें।
मौलवी महमूद हसन पिछली सरकार में हज और वकफ विभाग के प्रांतीय प्रमुख रह चुके हैं। वह उन धार्मिक विद्वानों में शामिल हैं, जिन्हें तालिबान सरकार की इंटेलिजेंस एजेंसी ने हिरासत में लिया है। वह एक ऐसे धार्मिक नेता हैं जो तालिबान की सरकार चलाने की शैली की आलोचना करते आए हैं।
एक सभा में तालिबान को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘इंसाफ को बुनियाद बनाएं। सभी क़ौमों और क़बीलों को एक छतरी के नीचे लाएं और जनता को उनके अधिकार दें।’
‘सरकार सबकी होनी चाहिए। उसे कंधार तक सीमित न रखें बल्कि दूसरे राज्यों तक विस्तार दें। अफगानिस्तान के दूसरे इलाकों के लोग भी इस देश का हिस्सा हैं।’
मौलवी अब्दुल अजीज शुजा का संबंध तख़ार से है और वह एक मस्जिद के इमाम भी रहे हैं। उन्हें एक सभा में भाषण के बाद गिरफ़्तार किया गया।
हिरासत में रखे गए एक आलिम (विद्वान) के रिश्तेदार ने बीबीसी को बताया, ‘गिरफ्तारी के दौरान सशस्त्र बलों के अधिकारियों का रवैया क्रूर और अपमानजनक था। वह धार्मिक विद्वान को इंटेलिजेंस के दफ्तर ले गए, जहां उनसे दर्जनों पन्नों पर लिखे सवालों के जवाब मांगे गए।’
उनके घर वालों के अनुसार इंटेलिजेंस एजेंसी ने उन पर विदेशी संस्थाओं से संपर्क रखने और अमरुल्लाह सालेह व विरोधी धड़े के नेताओं के समर्थन का आरोप लगाया। उनसे उन संस्थाओं के नाम भी पूछे गए।
उनके रिश्तेदार ने बताया कि तालिबान अधिकारियों ने उन्हें एक विद्रोही बताया ‘जिसने इस्लामी इमारत (राज्य) के खिलाफ बगावत की और ‘अमीरुल मोमिनीन’ (मुसलमानों के प्रमुख) का अपमान करके गद्दारी की है।’
इस शख्स ने बातचीत के आखिर में बताया कि तालिबान के एक वरिष्ठ नेता ने बाद में उन्हें माफ कर दिया।
-प्रमोद भार्गव
संदर्भ: जिनेवा स्थित आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र की पिछले एक दषक के जारी आंकड़ों के अनुसार बेघर हुए लोग
दुनिया में प्राकृतिक आपदाओं के कारण पिछले एक दषक 2015 से 2024 के दौरान आंतरिक विस्थापन के कारण पर्यावरण शरणार्थियों की संख्या में बढ़ी वृद्धि दर्ज की गई है। इस कारण कुछ क्षेत्रों में अपेक्षाकृत अनेक बार प्राकृतिक आपदा के तीव्र और व्यापक खतरे उत्पन्न हुए। परिणामस्वरूप 210 देषों में 26.48 करोड़ लोगों को आंतरिक विस्थापन झेलना पड़ा है। जो न केवल एक रिकॉर्ड के रूप में सर्वाधिक है, बल्कि 2.65 करोड़ के दषकीय औसत से कहीं अधिक है। इस मामले में पूर्व और दक्षिण एशिया सबसे अधिक प्रभावी क्षेत्र रहे। देशों के स्तर पर बीते एक दशक में चीन, फिलीपींस, भारत, बांग्लादेश और अमेरिका में दर्ज विस्थापन के आंकड़े सबसे ज्यादा हैं। चीन में 4.69 और फिलीपींस में 4.61 करोड़ लोगों को अपने ही देष में विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा है। इसी कालखंड में भारत में बाढ़, तूफान और भू-स्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं के चलते 3.23 करोड़ लोगों को आंतरिक विस्थापन का संकट उठाना पड़ा है। किसी देश के अंदर विस्थापित होने वाले लोगों की संख्या के लिहाज से चीन और फिलीपींस के बाद भारत विष्व में तीसरे स्थान पर हैं। जिनेवा स्थित आंतरिक विस्थापन निगरानी केंद्र (आईडीएमसी) की एक नई रपट में यह दावा किया गया है।
रपट के मुताबिक वैष्विक स्तर पर 90 फीसदी आपदा जनित विस्थापन बाढ़ और तूफान का परिणाम रहा है। सबसे ज्यादा तूफान के कारण 12.09 करोड़ लोगों को विस्थापन की परेषानी उठानी पड़ी है। इसी अवधि में बाढ़ के कारण 11.48 करोड़ लोगों का विस्थापन हुआ। वर्ष 2020 में वैश्विक स्तर पर समुद्री तूफान से हुए लोगों के विस्थापन में ‘अंफान’ सहित अन्य चक्रवातों की हिस्सेदारी 92 प्रतिशत रही। इस रिपोर्ट के अनुसार गरीब और निर्बल सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। उन्हें बार-बार और लंबे समय तक पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा है। सामाजिक असमानता और आर्थिक विसंगति के कारण इन लोगों को इन प्राकृतिक आपदाओं का भीशण संकट झेलना पड़ा है। जलवायु परिवर्तन के कारण दुनियाभर में हर साल औसतन 3 करोड़ लोगों को समुद्र और नदी तटीय बाढ़, सूखा और चक्रवती तूफानों के चलते भविश्य में भी ऐसी आपदाओं से विस्थापन का संकट झेलना होगा। यानी पर्यावरण शरणार्थियों की संख्या भविष्य में और विकराल रूप में पेश आएगी।
जलवायु विषेशज्ञों का मानना है कि इस विराट व भयानक संकट के चलते यूरोप, एशिया और अफ्रीका का एक बड़ा भूभाग इंसानों के लिए रहने लायक ही नहीं रह जाएगा। तब लोगों को अपने मूल निवास स्थलों से जिस पैमाने पर विस्थापन या पलायन करना होगा,वह मानव इतिहास में अभूतपूर्व होगा। इस व्यापक परिवर्तन के चलते खाद्यान्न उत्पादन में भारी कमी आएगी। अकेले एशिया में कृषि को बहाल करने के लिए हर साल पांच अरब डॉलर का अतिरिक्त खर्च उठाना होगा। बावजूद इसके दुनिया के करोड़ों लोगों को भूख का अभिशाप झेलना होगा। प्रकृति के अंधाधुंध दोहन के दुष्परिणामस्वरूप दुनियाभर में प्राकृतिक आपदाएं बढ़ रही हैं।
विज्ञान पत्रिका ‘साइंस‘ में प्रकाषित अध्ययन में कहा गया है कि यदि वैष्विक तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो हिंदू कुष हिमालय के हिमखंडो की बर्फ इस सदी के अंत तक 75 प्रतिषत तक पिघल जाएगी। हिंदू कुश पर्वत के ये ग्लेशियर कई नदियों के उद्गम स्थल हैं और ये नदियां 2 अरब लोगों की आजीविका का साधन बनती हैं। यदि दुनिया के देश इस तापमान वृद्धि को पूर्व औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर सकें तो हिमालय और काकेशस पर्वत में स्थित हिमनदों की बर्फ 40 से 45 प्रतिशत सुरक्षित रह सकती है। इसके विपरीत यदि इस सदी के अंत तक दुनिया 2.60 डिग्री सेल्सियस गर्म होती है तो वैश्विक स्तर पर ग्लेशियर की बर्फ का केवल एक चौथाई हिस्सा ही बचेगा।
अध्ययन में कहा है कि मानव समुदायों के लिए सबसे अहम ग्लेशियर क्षेत्र जैसे कि यूरोपियन आल्प्स, पश्चिमी अमेरिका और कनाडा की पर्वत श्रृंखलाएं एवं आइसलैंड बुरी तरह से प्रभावित होंगे। दो डिग्री सेल्सियस तक तापमान पर यह क्षेत्र अपनी समूची बर्फ खो सकते हैं और 2020 के स्तर पर केवल 10-15 प्रतिशत ही बर्फ बची रह पाएगी। स्कैंडिनेविया पर्वत का भविष्य और भी भयावह हो सकता है, क्योंकि इस स्तर के तापमान में वहां के ग्लेशियरों पर बर्फ बचेगी ही नहीं। 2015 के पेरिस समझौते के द्वारा निर्धारित 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य तक तापमान को सीमित करने से सभी क्षेत्रों में कुछ ग्लेशियर पर बर्फ को संरक्षित करने में मदद मिलेगी। ये हालात मानव जीवन को अभूतपूर्व रूप में प्रभावित कर खतरे में डाल देंगे। इस कारण अकेले एशिया में 2 अरब लोगों को आजीविका का संकट झेलना पड़ सकता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि 2050 तक दुनिया भर में 25 करोड़ लोगों को अपने मूल निवास स्थलों से पलायन को मजबूर होना पड़ सकता है। जलवायु परिवर्तन की मार मालदीव और प्रषांत महासगर क्षेत्र के कई द्वीपों के वजूद को पूरी तरह लील होगी। इन्हीं आशंकाओं के चलते मालदीव की सरकार ने पर्यावरण संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण पहल करते हुए चर्चा के लिए समुद्र की गहराई में बैठकर औद्योगिक देशों का ध्यान अपनी ओर खींचा था ताकि ये देष कार्बन उत्सर्जन में जरूरी कटौती कर दुनिया को बचाने के लिए आगे आएं।
सीटू तिवारी
बिहार में फर्जी थाने से जुड़ी ये पहली घटना नहीं है। इससे पहले साल 2022 में बांका जिले में भी एक ऐसा ही मामला सामने आया था जिसमें दरोगा से लेकर चौकीदार तक सभी फर्जी थे। साल 2024 में जमुई के सिकंदरा थाना क्षेत्र से एक फर्जी आईपीएस भी पकड़ा गया था।
बिहार के पूर्णिया जिले में फर्जी थाना खोलकर नौकरी देने के नाम पर ठगी का मामला सामने आया है। ये मामले जिले की मोहनी पंचायत में सामने आया है जहां पर आरोप है कि थाने का कैंप ऑफि़स बनाकर कथित ट्रेनिंग और नौकरी दिलाने के नाम पर ठगी की गई।
यह कथित ट्रेनिंग बिहार ग्राम रक्षा दल और होम गार्ड में नौकरी दिलाने के नाम पर दिसंबर 2024 से जनवरी 2025 के बीच हुई।
हालांकि पूर्णिया एसपी कार्तिकेय के। शर्मा ने बीबीसी से कहा, ‘फर्जी थाने जैसा कोई मामला नहीं है। पंचायती राज विभाग के अंतर्गत ग्राम रक्षा दल की 30 दिन की ट्रेनिंग दी जाती है। मुख्य अभियुक्त राहुल कुमार साह इसी बिहार ग्राम रक्षा दल से जुड़ा है।’
कार्तिकेय के। शर्मा के मुताबिक़, ‘राहुल ने कुछ लोगों से नौकरी दिलाने के नाम पर ठगी की है। अभी तक हमें ऐसी 25 शिकायतें मिली हैं। इस पूरे मामले में स्थानीय मुखिया की भूमिका की भी जांच हो रही है।’
क्या है मामला?
बिहार में पूर्णिया जि़ले के कसबा थाना क्षेत्र में मोहनी नाम की पंचायत के मध्य विद्यालय, बेतौना में दिसंबर 2024 में बिहार राज्य दलपति एवं ग्राम रक्षा दल का एक बैनर लगाकर एक महीने की कथित ट्रेनिंग दी गई।
बिहार ग्राम रक्षा दल एवं दलपति ग्रामीण इलाक़ों में किसी भी आपात स्थिति में काम करते हैं। इसमें 18 से 30 साल के नौजवानों को रखा जाता है जो आग लगने, बाढ़ आने, महामारी, शांति बनाए रखने, भीड़ को व्यवस्थित करने आदि के लिए काम करते है।
इसी ट्रेनिंग को पूरा कर चुके युवक-युवतियों ने अब नौकरी के नाम पर ठगी किए जाने की शिकायत की है।
बीबीसी ने इस संबंध में ठगी का सामना करने वाले कई शिकायतकर्ताओं से बात की है।
23 साल की संजना कुमारी बी। कॉम की पढ़ाई कर रही हैं। उन्होंने भी कसबा थाने में शिकायत दर्ज कराई है।
संजना बताती हैं, ‘तकरीबन नौ महीने पहले हमसे डेढ़ हज़ार रुपये लिए गए थे। हम कुछ दिन स्कूल (मध्य विद्यालय, बेतौना) में ट्रेनिंग लेने भी गए थे। राहुल ने कहा था कि अगर ग्राम रक्षा दल को मान्यता मिल जाती है तो हम सबको सरकारी नौकरी मिल जाएगी। लेकिन अब तो राहुल फऱार हैं।’
एक अन्य महिला ने बताया, ‘हम उनको एनसीसी से जानते हैं और भाई मानते थे। पिछले एक साल से उसने कऱीब 300 लोगों को ठगा है। उसने सरकारी स्कूल में थाना बनाया और दारोगा बनकर घूमता था जबकि उसने ग्रेजुएशन भी नहीं किया है।’
‘उसने मेरी मम्मी को भी वर्दी दी और कहा कि सरकारी नौकरी हो गई है। लेकिन मम्मी को एक बार भी सैलरी नहीं मिली। वर्दी में बीजीआरडी (बिहार ग्राम रक्षा दल) लिखा है। वो दस से पंद्रह हज़ार रुपये मांगता था और कहता था कि 22 हज़ार रुपये सैलरी मिलेगी। उसने मुझे भी ज्वाइन करने को कहा था लेकिन मुझे संदेह हो गया।’
कई लोगों का दावा है कि राहुल ने भागलपुर, सुपौल, पूर्णिया, कटिहार सहित कई जिलों के नौजवानों को नौकरी के नाम पर ठगा है।
एक व्यक्ति नरेश कुमार राय बताते हैं, ‘बेरोजग़ारी में हमने ग्राम रक्षा दल का फ़ॉर्म भरा था, जिसके बाद हमें राहुल का फ़ोन आया कि हमारा चयन हो गया है। हमने कज़ऱ्ा लेकर उसे पहले डेढ़ हज़ार रुपये और उसके बाद ढाई हज़ार रुपये दिए थे। उसने कहा था कि नौकरी मिल जाएगी लेकिन वो बाद में धमकाने लगा।’
कसबा थाने की ‘मोहनी’ ब्रांच
स्थानीय पत्रकार सैयद तहसीन अली बताते हैं, ‘बेतौना में एक उप स्वास्थ्य केन्द्र की बिल्डिंग में एक तरफ स्कूल चलता है जबकि दूसरी तरफ एक छोटी बिल्डिंग ख़ाली पड़ी है। राहुल ने इस खाली पड़ी बिल्डिंग को ही थाना बना लिया था।’
‘ये एक तरह से कसबा थाने की मोहनी (पंचायत) ब्रांच थी जिसमें पुलिस की वर्दी में बैठकर वो बेरोजगारों को ठगता था। गांव वालों और लोगों पर रौब दिखाने के लिए वो पुलिस वालों के साथ सेल्फी लेकर सोशल मीडिया पर डालता था।’
करीब 25 साल के राहुल कुमार साह के बारे में इतनी जानकारी मिल पाई है कि वो एनसीसी कैडेट रहा है और उनका ज़्यादातर लोगों से एनसीसी के जरिए ही संपर्क हुआ था।
राहुल ने दिसंबर 2024 मध्य विद्यालय, बेतौना में बिहार राज्य दलपति एवं ग्राम रक्षा दल का बैनर लगाया था। इस बैनर की जो तस्वीरें अभी उपलब्ध हैं, उसमें इसके नीचे कसबा थाना लिखा है।
राहुल ने ही ख़ाली पड़े स्कूल में एक महीने की ट्रेनिंग कराई और 26 जनवरी 2025 को कथित ट्रेनिंग पूरी होने पर मोहनी के मुखिया श्यामसुंदर उरांव को बाकायदा अतिथि के तौर पर बुलाया था।
श्यामसुंदर उरांव ने कथित ट्रेनिंग पूरी कर चुके युवक युवतियों को सम्मानित किया। राहुल कुमार साह ने बाकायदा इस ट्रेनिंग के बाद पहचान पत्र बांटा।
श्यामसुंदर उरांव ने बीबीसी को बताया, ‘मुझको कुछ भी मालूम नहीं था। राहुल आया और ट्रेनिंग दिया। हमको लगा थाने को मालूम होगा। वो लडक़े लड़कियों की तीन घंटे ट्रेनिंग करवाता था। हम मुखिया हैं, हमको कोई भी किसी समारोह में बुलाएगा तो हम जाएंगे।’
क्या स्कूल में इस तरह की गतिविधि की इजाज़त थी? इस पर वो कहते हैं, ‘गांव के स्कूल के टीचर उससे बार बार कैंप लगाने के बारे में सरकारी पत्र मांगते रहते थे, लेकिन राहुल ने कभी दिया नहीं। वह बार-बार ये कहकर टाल जाता था कि पटना से आ रहा है। बाकी पूरी ट्रेनिंग के दौरान ऐसा कुछ हुआ नहीं कि शक हो।’
राहुल कुमार साह फरार हैं और मुखिया श्यामसुंदर उरांव की भूमिका की जांच भी पुलिस कर रही है।
-प्रियंका
भारत में 16 साल बाद जनगणना होने जा रही है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बीते बुधवार को बताया था कि एक मार्च, 2027 जनगणना की रेफऱेंस डेट होगी।
पहली बार देश में डिजिटल जनगणना होने जा रही है और आज़ाद भारत में पहली बार जातियों की गणना भी इसमें शामिल की जाएगी।
केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से जारी बयान के अनुसार जनगणना दो चरणों में कराई जाएगी।
पहले चरण में केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख़ और जम्मू-कश्मीर के साथ ही हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड राज्यों के बफऱ्ीले इलाक़ों में जनगणना की रेफऱेंस डेट एक अक्तूबर 2026 होगी। दूसरा चरण एक मार्च 2027 से मैदानी इलाक़ों में होगा।
रेफऱेंस डेट वो समय होता है, जिसके लिए आबादी का डेटा इक_ा किया जाता है। हालांकि, सरकार ने अभी तक ये नहीं बताया है कि जनगणना शुरू किस तारीख़ से होगी और ख़त्म किस तारीख़ पर होगी।
क्या होती है जनगणना
देश और यहां रहने वाले लोगों के विकास के लिए, ये जानना ज़रूरी होता है कि देश में रहने वाले लोग कौन हैं। वो किस स्थिति में हैं, कितने पढ़े-लिखे हैं, कौन क्या करता है, कितने लोगों के पास रहने को घर हैं, कितनों के पास नहीं हैं। उनकी सामाजिक स्थिति क्या है। जनगणना इन्हीं सब आंकड़ों को जुटाने की प्रक्रिया है।
किसी देश या क्षेत्र विशेष की आबादी के बारे में जनसांख्यिकीय, आर्थिक और सामाजिक डेटा इक_ा करने, उसके संकलन, विश्लेषण और सार्वजनिक करने को ही जनगणना कहा जाता है।
इसके तहत आबादी की आयु, लिंग, भाषा, धर्म, शिक्षा, व्यवसाय और निवास आदि को लेकर विस्तृत जानकारी जुटाई जाती है। इनका इस्तेमाल नीति बनाने और कल्याणकारी योजनाओं आदि के लिए किया जाता है।
भारत में 1872 से जनगणना हो रही है और आज़ाद भारत में अभी तक ये प्रक्रिया जारी रही।
देरी से क्यों हो रही है जनगणना?
भारत की जनगणना, जनगणना अधिनियम, 1948 के प्रावधानों के तहत की जाती है।
केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत आने वाला ऑफि़स ऑफ़ रजिस्ट्रार जनरल एंड सेंसस कमिश्नर जनगणना करवाता है।
भारत में हर 10 साल के अंतराल पर जनगणना कराई जाती है। पिछली जनगणना 2011 में दो चरणों में की गई थी।
अगली जनगणना 2021 में होनी थी लेकिन कोरोना महामारी की वजह से इसे टाल दिया गया था और अब ये करीब छह साल की देरी से कराई जाएगी।
इस साल एक फरवरी को पेश किए गए बजट में जनगणना के लिए 574।80 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। जबकि साल 2021-22 के बजट में इसके लिए 3 हज़ार 768 करोड़ रुपये का आबंटन किया गया था।
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अब बजट में कटौती के बारे में जानकारी दी है।
केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रवक्ता ने जानकारी दी है, ‘जनगणना का आयोजन 2021 में किया जाना था और जनगणना की सभी तैयारियां पूरी कर ली गई थीं। लेकिन, देशभर में कोविड-19 महामारी के प्रकोप के कारण जनगणना का काम स्थगित करना पड़ा। कोविड-19 का असर काफ़ी समय तक जारी रहा।’
‘जिन देशों ने कोविड-19 के तुरंत बाद जनगणना कराई, उन्हें जनगणना के आंकड़ों की गुणवत्ता और कवरेज से संबंधित समस्याओं का सामना करना पड़ा। सरकार ने जनगणना की प्रक्रिया तत्काल शुरू करने का निर्णय लिया है, जो जनगणना की संदर्भ तिथि अर्थात 01 मार्च, 2027 को पूरी होगी।’
एक्स पर दी जानकारी में कहा गया है, ‘जनगणना के लिए बजट कभी बाधा नहीं रहा है क्योंकि धनराशि आवंटन हमेशा सरकार द्वारा सुनिश्चित किया जाता रहा है।’
इस बार की जनगणना में क्या है अलग?
जनगणना की प्रक्रिया को जल्दी और सुचारू रूप से पूरा करने के लिए पहली बार 2027 की जनगणना डिजिटल माध्यम से होगी।
हालांकि, 1931 से लेकर अब तक की जनगणना में पूछे जाने वाले सवाल लगभग एक से होते हैं। लेकिन एक सवाल जो 1951 से नहीं होता था वो था संबंधित व्यक्ति की जाति से जुड़ा हुआ।
हालांकि, इसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़ी जानकारी होती थी लेकिन अन्य जातियों के बारे में ये जानकारी नहीं दी जाती थी।
मगर इस बार की जनगणना में हर शख़्स को अपनी जाति बताने का विकल्प दिया जाएगा, जिसे एक बड़े बदलाव के तौर पर देखा जा रहा है।
आज़ादी के बाद या 1931 के बाद ये पहली बार है जब जातिगत जनगणना, जनगणना का हिस्सा होगी।
विपक्षी पार्टियों की ओर से लंबे समय से जातिगत जनगणना कराए जाने की मांग हो रही थी। इसी साल अप्रैल महीने में सरकार ने एलान किया था कि अगली जनगणना में जातिगत जनगणना भी शामिल होगी।
बिहार में अपराध और दंबगई के मामले इन दिनों सुर्खियो में है। इलाज के अभाव में बलात्कार पीडि़त दलित बच्ची की मौत के बाद अब मामला एक बलात्कार पीडि़त के मददगार की पिटाई का है, जिसकी जान बड़ी मुश्किल से बची है।
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट-
गया में बीते दिनों बलात्कार के आरोपियों ने उस ग्रामीण चिकित्सक को एक पेड़ से बांध कर पीटा, जो पीडि़ता के घर कथित तौर पर उसकी मां का इलाज करने पहुंचा था। उसे इतना पीटा गया कि वह लहुलूहान हो गया। गांव में कोई उसकी मदद करने नहीं आया। एक बच्ची ने डॉक्टर जीतेंद्र यादव को पिटते देखा तो भाग कर मुख्य सडक़ पर पहुंची और संयोगवश वहां से गुजर रही की पुलिस की गाड़ी को रोक कर इसकी जानकारी दी।
पुलिस को देख बदमाश भाग गए। पुलिसकर्मियों ने उस डाक्टर को मुक्त कराया और फिर पास की क्लिनिक में ले जा कर इलाज कराया। बाद में उसे मेडिकल कॉलेज भेज दिया गया। अब तक मिली जानकारी के मुताबिक बताया गया कि डॉक्टर जीतेंद्र जिस महिला के घर आया था, उस घर की एक बच्ची के साथ साल 2021 में उस गांव के ही तीन-चार लोगों ने बलात्कार किया था। मामला अदालत में है।
पीडि़ता की मां का कहना है कि बलात्कार के आरोपी लगातार मुकदमा वापस लेने का दबाव बना रहे थे। इससे पहले भी मारपीट की थी। कुछ लोगों का कहना है कि आरोपियों को शक था कि डॉ जीतेंद्र मुकदमा लडऩे में पीडि़ता की मां की मदद कर रहे हैं। इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। उसके बाद इस मामले में एक जांच टीम गठित की गई है।
डॉक्टर को पीटे जाने के पहले ही मुजफ्फरपुर जिले में ही रेप के दो मामले को लेकर बिहार की सियासत गर्म थी। विपक्षी दल लगातार एनडीए सरकार पर निशाना साध रहे थे। दलित समुदाय की एक दस साल की बच्ची की बलात्कार के बाद हत्या की कोशिश की गई थी। इस बच्ची की छह दिनों बाद पटना मेडिकल कालेज अस्पताल में मौत हो गई। इसके इलाज मेें लापरवाही की बात को लेकर सरकार की खूब किरकिरी भी हुई। बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी प्रसाद यादव के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर डॉक्टर की पिटाई का पोस्ट डालने के बाद मामले ने तूल पकड़ लिया।
अपराधी की ओर से केस वापस लेने का दबाव
सामाजिक कार्यकर्ता मनिता श्रीवास्तव कहती हैं, ‘बलात्कार करने वाले या उनके सहयोगियों ने जो अपराध किया वह तो है ही, लेकिन उस गांव में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो उन बदमाशों को रोक सकता था।’ पूरा गांव मूकदर्शक बना रहा।
कई बार पुलिस जब किसी को पकडऩे जाती है या फिर कथित तौर पर मनमानी करती है तब तो यही लोग एकजुट होकर उन पर हमला करने या हिरासत में लिए गए व्यक्ति को छुड़ाने में लग जाते हैं।पुलिस ने इस मामले में दस नामजद लोगों में से तीन लोगों को गिरफ्तार कर लिया है। जीतेंद्र के बयान पर इस मामले में तीन महिलाएं भी नामजद की गई है।
आखिर क्यों पुलिस को टारगेट कर रही है बिहार की पब्लिक
दंबगई का यह पहला मामला नहीं है। बीते साल अगस्त में भी मुजफ्फरपुर कोर्ट परिसर में एक बलात्कार पीडि़ता को ही मुकदमा वापस नहीं लेने पर सरेआम पीटा गया था। सडक़ पर गिरी पीडि़ता बचाने की गुहार लगाती रही, लेकिन पूरे परिसर में कोई उसे बचाने नहीं आया। उसके परिजन जब बचाने पहुंचे तो उनके साथ भी मारपीट की गई। पुलिस के आने के बाद ही हमलावर भागे।
इस मामले में आरोपी युवक ने शादी का झांसा देकर लडक़ी का यौन शोषण किया था और शादी का दबाव बनाने पर वह मुकर गया था। इस मामले में जमानत याचिका खारिज होने पर उसके घरवाले और दूसरे आरोपी केस उठाने का दबाव बना रहे थे।
-विकास शर्मा
बस्तर की किस्मत बदलने वाला सपना, जो अधूरा रह गया था
अब फिर से पूरा होता दिख रहा है
छत्तीसगढ़ की बहुप्रतीक्षित बोधघाट परियोजना को लेकर एक बार फिर उम्मीदें जगी हैं। मुख्यमंत्री विष्णु देव साय की पहल पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस परियोजना को दोबारा शुरू करने के प्रस्ताव पर सहमति जताई है। साथ ही महानदी–इंद्रावती नदी लिंक योजना को लेकर भी बातचीत आगे बढ़ी है।
बोधघाट कोई नई बात नहीं है। इसकी योजना 50 साल पहले बनी थी। लेकिन लगातार अटकते-अटकते यह सपना अधूरा रह गया। अब जब फिर से केंद्र से समर्थन मिल रहा है, तो माना जा रहा है कि ये सिर्फ एक बिजली या सिंचाई परियोजना नहीं, बल्कि पूरे बस्तर के विकास की लाइफलाइन बन सकती है।
इंद्रावती नदी पर शुरू हुआ था विचार
1955 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू बस्तर दौरे पर आए थे, तभी इंद्रावती पर पनबिजली संयंत्र का विचार आया। फिर 1970 में पहली रिपोर्ट बनी जिसमें 240 मेगावॉट की क्षमता वाली तीन इकाइयों का प्रस्ताव था। इसके अलावा भविष्?य में नेलगोरा, कुटरू और माजिमेन्द्री जैसे इलाकों में बिजली संयंत्र लगाने की योजना भी थी।
डॉ. नागराजा राव की रिपोर्ट ने यह भी बताया था कि इस इलाके में खनिज और वन आधारित उद्योगों की बड़ी संभावनाएं हैं।
कभी 37 करोड़, अब 29 हज़ार करोड़!
जब योजना बनी थी, तब लागत सिर्फ 37.5 करोड़ रुपये आंकी गई थी। लेकिन फाइलें घूमती रहीं और कीमतें बढ़ती गईं।
1986 तक ये 600 करोड़ हो गई। जब 2020 में इसे मुख्य रूप से सिंचाई परियोजना के रूप में फिर से लाया गया, तब इसकी लागत 22 हज़ार करोड़ थी। अब इसका अनुमानित खर्च 29 हज़ार करोड़ पहुंच चुका है।
विश्व बैंक तक पहुंची थी योजना
लागत बढ़ती देख भारत सरकार ने 1983 में विश्व बैंक से कर्ज लेने की मंजूरी दी। वाशिंगटन तक चर्चा हुई और 1985 में विश्व बैंक ने 300 मिलियन डॉलर देने का फैसला भी कर लिया।
शिलान्यास और शुरुआती काम
1979 में जब पर्यावरणीय मंजूरी मिल गई, तो प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई खुद बारसूर पहुंचे और शिलान्यास किया। एमपी विद्युत मंडल की टीम तैनात हुई। पुल, सुरंग, आवास, हेलीपैड – सबका काम शुरू हो गया था। 53 लाख रुपये देकर 500 हेक्टेयर ज़मीन का अधिग्रहण भी हो चुका था।
-इमरान कुरैशी
भारतीय लेखिका बानू मुश्ताक़ को उनके जिस लघु कथा संकलन ‘हार्ट लैंप’ के लिए इस साल अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से नवाज़ा गया है, वो कि़ताब लगभग 35 विदेशी भाषाओं और 12 भारतीय भाषाओं में पब्लिश होगी।
ये जानकारी ख़ुद बानू मुश्ताक़ ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में दी है। उन्होंने बताया कि 'हार्ट लैंप' पर एक ऑडियो बुक भी बन रही है।
बीबीसी के लिए वरिष्ठ पत्रकार इमरान क़ुरैशी ने बानू मुश्ताक़ से उनके साहित्य के सफऱ और जि़ंदगी की चुनौतियों पर बात की है।
पढि़ए उस लेखिका की कहानी, जिसकी मूल रूप से कन्नड़ में लिखी कि़ताब ने दुनिया में नाम कमाया है।
‘पिता के दोस्त ने कहा था... बहुत किताबें लिखेगी’
बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि शुरू में जब स्कूल में उनका नाम लिखाया गया था, तब वो कुछ भी नहीं सीख पाई थीं। इसकी वजह ये थी कि उनका दाखिला उर्दू मीडियम स्कूल में कराया गया था, जहां का माहौल उन्हें पसंद नहीं था।
इस बारे में बानू मुश्ताक़ कहती हैं, ‘हमारे यहां प्रैक्टिस ऐसी थी कि लडक़ों को कन्नड़ मीडियम में पढ़ाया जाता था और लड़कियों को उर्दू मीडियम स्कूल में, ताकि लड़कियां मज़हबी साहित्य से वाकिफ़ हों और वो घरेलू माहौल में ढल सकें।’
‘जब मेरा नाम उर्दू मीडियम स्कूल में लिखवाया गया, तो पता नहीं क्यों मुझे वो माहौल पसंद नहीं आया। वो टीचर्स भी पसंद नहीं आए। और मैं बिल्कुल भी नहीं पढ़ी। मैं एक साल तक स्कूल जाती रही, लेकिन एक अक्षर तक नहीं सीखा।’
बानू मुश्ताक़ के मुताबिक़ इस बात से उनके पिता बहुत परेशान हुए थे क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि उनकी बेटी कुछ बनेगी।
अपने पिता की इस उम्मीद की वजह के बारे में वो बताती हैं, ‘मेरे अब्बा के बहुत सारे ब्राह्मण दोस्त थे। जब मैं पैदा हुई, तो एक दोस्त ने उनको कुछ लिखकर दिया था, वो मैंने भी पढ़ा है। उसमें लिखा था कि ये बड़ी होकर बहुत सारी कि़ताबें लिखेगी और दुनिया में नाम कमाएगी।’
बानू मुश्ताक़ कहती हैं कि जब उनके पिता ने देखा कि वो कुछ पढ़ नहीं रही हैं तो उनका नाम कन्नड़ मीडियम स्कूल में लिखवाया गया।
वो बताती हैं कि उनकी उम्र उस वक्त कक्षा तीन-चार में जाने की हो गई थी। इस स्कूल में वो एक हफ़्ते में ही अल्फ़ाबेट सीख गईं और इसके बाद छह महीनों में वो कन्नड़ भाषा की कि़ताबें पढऩे में सक्षम हो गई थीं।
किन चुनौतियों का सामना किया?
बानू मुश्ताक़ कहती हैं कि उन्होंने वो सभी दुश्वारियां और पाबंदियां झेली हैं, जो एक भारतीय, एक मुस्लिम और एक महिला की पहचान के तहत सामने आती हैं।
बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि वो कॉलेज में काफी एक्टिव रहती थीं, वो डिबेट में हिस्सा लेती थीं, लिटरेरी फोरम में भी एक्टिव रहती थीं।
वो बताती हैं कि उनकी शादी जिन व्यक्ति से हुई, वो कॉलेज में उनके सीनियर थे और कॉलेज में बानू की इसी पहचान के नाते वो उन्हें पसंद करते थे।
वो बताती हैं कि जब उनकी शादी हुई, तब समाज में ये माना जाता था कि अगर किसी भी पत्नी को काम करना है तो टीचर बनकर दस से पांच बजे तक का काम करे।
बानू मुश्ताक़ कहती हैं, ‘मैं टीचर तो थी ही, शादी के बाद मैंने रिज़ाइन किया था। इसकी वजह थी कि मैं घर की बड़ी बहू थी, मेरे ऊपर थोड़ी जि़म्मेदारियां थीं। हालांकि, रिज़ाइन करके मैं खुश नहीं थी। मुझे घर के बाहर भी लाइफ़ चाहिए थी, कुछ स्पेस चाहिए था।’
वो बताती हैं, ‘इस वजह से मेरे और मेरे पति के बीच झगड़े होते थे, लेकिन वो भी नहीं चाहते थे कि मैं पाबंदियों में रहूं। वो ख़ुद मज़बूर थे, वो भी कुछ नहीं कर सकते थे।’
बानू मुश्ताक़ कहती हैं, ‘जो मैं ये बोल रही थी कि मैं अपने हालात पर नाख़ुश थी, इसका ये मतलब नहीं कि कोई मुझ पर ज़ुल्म कर रहा था। ऐसा कुछ नहीं था।’
बानू मुश्ताक़ अपनी चुनौतियों के साथ उस सपोर्ट के बारे में भी बताती हैं, जो उनको अपने पिता और पति से मिला।
वो कहती हैं, ‘मेरे अब्बा हर तरह से कोशिश करते थे कि मेरा ओवरऑल डेवलपमेंट हो। मेरे पति भी चाहते कि मैं कुछ बनूं, कभी भी नहीं चाहते थे कि मैं घरेलू काम करूं। वो कहते थे कि मैं अपना काम करूं।’
वो बताती हैं, ‘जब मेरी बड़ी बेटी तीन महीने की थी। शायद पोस्टपार्टम डिप्रेशन भी होगा, मुझे पता नहीं, मगर मेरे पति को महसूस हो गया था। मुझे गुस्सा आ रहा था कि बस मेरा काम यही होगा कि मैं बीवी बनूं, मां बनूं और दूसरा क्या? ऐसा गुस्सा करती थी, झगड़ा करती थी।’
बानू मुश्ताक़ कहती हैं कि इस दौरान उन्होंने सुसाइड तक की कोशिश की। हालांकि, उनके पति ने उन्हें संभाल लिया। उनके मुताबिक़ ख़ुद को नुक़सान पहुंचाने का उनका ख़्याल कुछ पलों का था।
उनके पति ने समझाया कि अभी जि़ंदगी बाकी है, वो जो करना चाहती हैं, ज़रूर करेंगी।
महत्वपूर्ण जानकारी-
मानसिक समस्याओं का इलाज दवा और थेरेपी से संभव है। इसके लिए आपको मनोचिकित्सक से मदद लेनी चाहिए, आप इन हेल्पलाइन से भी संपर्क कर सकते हैं-
सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्रालय की हेल्पलाइन- 1800-599-0019 (13 भाषाओं में उपलब्ध)
इंस्टीट्यूट ऑफ़ ह्यमून बिहेवियर एंड एलाइड साइंसेज- 9868396824, 9868396841, 011-22574820
हितगुज हेल्पलाइन, मुंबई- 022- 24131212
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस- 080 - 26995000 )
एक्टिविस्ट बानू ने जब म्यूनिसिपल इलेक्शन जीता
बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि वो पहले एक्टिविस्ट बनीं।
कर्नाटक में उस वक्त कई तरह के सोशल मूवमेंट चल रहे थे, समाज में जागरुकता लाने का प्रयास चल रहा था। उस दौरान उन्होंने ऐसे आंदोलन में हिस्सा लिया, नारे लगाए, भाषण दिए। वो कहती हैं कि उनका ये काम बहुत से लोगों को पसंद नहीं आता था।
वहीं एक बार जब म्यूनिसिपल इलेक्शन हो रहे थे, तो उनके पिता को एक दोस्त ने सलाह दी कि वो उन्हें म्यूनिसिपल इलेक्शन लडऩे दें।
बानू मुश्ताक़ कहती हैं, ‘मेरे अब्बा आए और उन्होंने मेरा नॉमिनेशन फाइल करा दिया। हमने अलग तरह का कैंपेन किया था। हमने माइक वगैरह का इस्तेमाल नहीं किया। हमने हाथ से पर्चे बनाए, हम दोनों ने घर-घर जाकर वो पर्चे बांटे। मैं जीत गई।’
बानू मुश्ताक़ अपने पत्रकार बनने की कहानी भी बताती हैं।
वो कहती हैं, ‘एक बार फिर जब मैं उदास रहने लगी थी, तब मेरे पति मेरे लिए बहुत सारी कि़ताबें और मैगज़ीन लेकर आते। एक बार वो लंकेश पत्रिका लेकर आए। लंकेश पत्रिका पढक़र मुझे महसूस हुआ कि वो कुछ अलग है और इसमें मैं भी लिख सकती हूं।’
बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि उन्होंने इस्लाम और महिलाओं से जुड़े एक विषय पर एक आर्टिकल लिखकर लंकेश पत्रिका को भेजा था, जो उन्होंने छाप दिया।
इसके बाद उन्हें अलग-अलग मुद्दे पर लिखने के लिए कहा गया। बानू मुश्ताक़ बताती हैं कि उन्होंने लंकेश पत्रिका के लिए 10 साल तक रिपोर्टिंग की।
-अनुराग चतुर्वेदी
आज वॉशिंगटन पोस्ट ने एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसमें यह उजागर किया गया है कि भारत के प्रमुख न्यूज़ चैनलों ने 9 मई की रात पाकिस्तान में तख्तापलट और युद्ध जैसी मनगढ़ंत खबरें फैलाईं, जो पूरी तरह झूठी साबित हुईं। रिपोर्ट में बताया गया है कि किस तरह व्हाट्सएप संदेशों, अज्ञात सूत्रों और सोशल मीडिया अफवाहों के आधार पर भारतीय मीडिया ने एक काल्पनिक युद्ध का तानाबाना बुना, जिसे न तो सेना ने पुष्टि की और न ही सरकार ने। यह रिपोर्ट भारतीय मीडिया की विश्वसनीयता, निष्पक्षता और पेशेवर जवाबदेही पर गंभीर सवाल खड़े करती है। आप भी पढ़ें:
नई दिल्ली: 9 मई को आधी रात के कुछ समय बाद, एक भारतीय पत्रकार को प्रसार भारती, जो कि भारत का सरकारी प्रसारक है, से एक व्हाट्सएप संदेश प्राप्त हुआ। संदेश में लिखा था कि पाकिस्तान के सेना प्रमुख को गिरफ्तार कर लिया गया है और एक तख्तापलट चल रहा है।
कुछ ही मिनटों में, उस पत्रकार ने यह जानकारी ङ्ग (पूर्व में ट्विटर) पर साझा कर दी, और अन्य पत्रकारों ने उसका अनुसरण किया। जल्द ही यह खबर भारत के प्रमुख समाचार चैनलों पर फैल गई और सोशल मीडिया पर वायरल हो गई।
यह ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ पूरी तरह से झूठी थी। पाकिस्तान में कोई तख्तापलट नहीं हुआ था। जनरल असीम मुनीर न केवल सलाखों के बाहर थे, बल्कि जल्द ही उन्हें फील्ड मार्शल के पद पर पदोन्नत किया गया।
यह पिछले महीने भारत और पाकिस्तान जैसे परमाणु हथियार संपन्न देशों के बीच दशकों की सबसे हिंसक रातों के दौरान भारतीय न्यूज़रूम में फैलने वाली गलत सूचना का सबसे स्पष्ट, लेकिन अकेला उदाहरण नहीं था।
वॉशिंगटन पोस्ट ने भारत के कुछ सबसे प्रभावशाली समाचार नेटवर्कों से जुड़े दो दर्जन से अधिक पत्रकारों और वर्तमान व पूर्व भारतीय अधिकारियों से बात की, यह जानने के लिए कि देश की सूचना प्रणाली कैसे झूठ और भ्रम से भर गई और कैसे इसने एक निर्णायक क्षण के बारे में जनता की समझ को विकृत कर दिया। पत्रकारों ने अपने नाम और नियोक्ता गोपनीय रखने की शर्त पर बात की, क्योंकि वे पेशेवर बदले का डर महसूस कर रहे थे। अधिकांश अधिकारियों ने संवेदनशील जानकारी पर चर्चा करने के लिए गुमनाम रहना स्वीकार किया।
भारत की पूर्व विदेश सचिव निरुपमा राव ने कहा कि जैसे-जैसे लड़ाई हर रात तेज होती गई, वैसे-वैसे कुछ ही भारतीय अधिकारी सामने आए जिन्होंने बताया कि वास्तव में हो क्या रहा है। इस खालीपन को टीवी समाचारों ने ‘अतिराष्ट्रवाद’ और ‘असामान्य विजयोल्लास’ से भर दिया, जिसे राव ने ‘एक समांतर वास्तविकता’ कहा।
टाइम्स नाउ नवभारत ने बताया कि भारतीय सेनाएं पाकिस्तान में घुस गई हैं; टीवी9 भारतवर्ष ने दर्शकों से कहा कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने आत्मसमर्पण कर दिया है; भारत समाचार ने दावा किया कि वे एक बंकर में छिपे हुए हैं। इन सभी चैनलों ने जी न्यूज, एबीपी न्यूज और एनडीटीवी जैसे बड़े नेटवर्कों के साथ बार-बार दावा किया कि पाकिस्तान के प्रमुख शहरों को नष्ट कर दिया गया है।
इन झूठे दावों का समर्थन करने के लिए, चैनलों ने गाज़ा और सूडान के संघर्षों, फिलाडेल्फिया में एक विमान दुर्घटना और यहां तक कि वीडियो गेम के दृश्य दिखाए। ज़ी न्यूज़, एनडीटीवी, एबीपी न्यूज़, भारत समाचार, टीवी9 भारतवर्ष, टाइम्स नाउ और प्रसार भारती ने इस पर टिप्पणी के अनुरोधों का जवाब नहीं दिया।
‘यह टीवी समाचार चैनलों के एक वर्ग द्वारा किए जा रहे काम का सबसे खतरनाक रूप है, जो पिछले एक दशक से बिना किसी नियंत्रण के जारी है,’ न्यूज़लॉन्ड्री की मीडिया आलोचक और प्रबंध संपादक मनीषा पांडे ने कहा। ‘इस बिंदु पर, वे फ्रेंकनस्टीन के राक्षसों की तरह हो गए हैं—पूरी तरह नियंत्रण से बाहर।’
‘बुरे फिक्शन लेखक’
भारत दुनिया के सबसे विस्तृत और भाषाई रूप से विविध मीडिया परिदृश्यों में से एक है। 900 टेलीविजऩ चैनल हर शाम भारत के शहरों और कस्बों में लाखों दर्शकों को आकर्षित करते हैं; ग्रामीण क्षेत्रों में अखबार अब भी व्यापक रूप से पढ़े जाते हैं।
पिछले कई दशकों में, देश की स्वतंत्र प्रेस ने सरकार के भ्रष्टाचार को उजागर करने और सत्ता को जवाबदेह ठहराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हालांकि, पिछले एक दशक में, विशेष रूप से टेलीविजऩ समाचार में, वह स्वतंत्रता क्षीण हो गई है। विश्लेषकों का कहना है कि भारत के कुछ सबसे बड़े चैनल अब नियमित रूप से सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के विचारों को दोहराते हैं—या तो वैचारिक मेल के कारण, या राज्य के दबाव के चलते, जिसने पत्रकारों को आतंकवाद, राजद्रोह और मानहानि कानूनों के तहत अभियोजन, नियामक धमकियों और कर जांचों के जरिए चुप कराने की कोशिश की है।
पांडे इस बदलाव को अवसरवाद से भी जोड़ती हैं। ‘इनमें से अधिकांश एंकरों के लिए सत्ता से मेल खाना एक सुनियोजित करियर कदम है,’ उन्होंने कहा।
इन न्यूज़रूम्स में पत्रकार संघर्ष के दौरान तथ्यों की जांच के अभाव से निराश थे। ‘पत्रकारिता अब बस वह चीज बन गई है जो आपके व्हाट्सएप पर किसी से भी आ जाए,’ एक प्रमुख अंग्रेजी भाषा के समाचार चैनल के पत्रकार ने कहा। ‘ऐसे समय में इसकी कीमत समझ में आती है।’
8 मई की आधी रात से ठीक पहले, द पोस्ट द्वारा देखे गए एक व्हाट्सएप संदेश विनिमय में, एक प्रमुख हिंदी भाषा के नेटवर्क के पत्रकार ने सहयोगियों को संदेश भेजा: ‘भारतीय नौसेना जल्द ही हमला कर सकती है,’ बिना नाम बताए सूत्रों का हवाला देते हुए। एक अन्य स्टाफर ने बस ‘कराची’ जवाब दिया, लेकिन स्रोत के बारे में कोई जानकारी नहीं दी। कुछ ही मिनटों में, चैनल झूठी रिपोर्ट प्रसारित कर रहा था कि भारतीय नौसेना ने कराची बंदरगाह पर हमला कर दिया है, जो पाकिस्तान का सबसे बड़ा शहर है।
‘चैनलों पर बुरे फिक्शन राइटर्स का कब्जा हो गया था,’ एक नेटवर्क कर्मचारी ने कहा।
एक अन्य न्यूज़रूम के पत्रकार ने बताया कि उनके चैनल ने रिपोर्ट तब प्रसारित की जब उन्हें भारतीय नौसेना और वायु सेना से ‘पुष्टि’ मिली। भारतीय सेना ने टिप्पणी के अनुरोध का जवाब नहीं दिया।
दूसरों ने स्वीकार किया कि उन्होंने यह खबर सत्तारूढ़ पार्टी के करीबी सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स या ओपन-सोर्स इंटेलिजेंस खातों से प्राप्त पोस्टों के आधार पर प्रसारित की।
स्वेता सिंह, जो कि इंडिया टुडे की एक लोकप्रिय एंकर हैं, ने ऑन एयर घोषणा की कि ‘कराची 1971 के बाद अपना सबसे बुरा सपना देख रहा है,’ उस वर्ष की ओर इशारा करते हुए जब दोनों देशों के बीच सबसे विनाशकारी युद्ध हुआ था। ‘यह पाकिस्तान को पूरी तरह खत्म कर देता है,’ उन्होंने जोड़ा। सिंह ने टिप्पणी के अनुरोधों का उत्तर नहीं दिया।
9 मई की सुबह 8 बजे के आसपास, कराची पोर्ट ट्रस्ट ने ङ्ग पर पोस्ट किया कि कोई हमला नहीं हुआ है। लेकिन कुछ हिंदी अखबार पहले ही यह खबर अपने पहले पन्ने पर छाप चुके थे।
जब झूठी रिपोर्टें भारतीय चैनलों पर गूंज रही थीं, रिटायर्ड सैन्य अधिकारियों ने पैनल चर्चाओं में उन्हें सत्यता प्रदान की। ब्रेकिंग न्यूज़ बैनर के साथ लड़ाकू विमानों की एनिमेटेड ध्वनियाँ चल रही थीं। एक समय तो सरकार को सार्वजनिक सलाह जारी करनी पड़ी, जिसमें प्रसारकों को चेतावनी दी गई कि वे अपने ग्राफिक्स में एयर रेड साइरन का उपयोग न करें, क्योंकि इससे जनता वास्तविक आपात स्थितियों के प्रति असंवेदनशील हो सकती है।
सरहद पार पाकिस्तानी मीडिया ने अपनी झूठी खबरें चलाईं—कि भारत ने अफगानिस्तान पर बमबारी की और पाकिस्तान ने भारत के सेना ब्रिगेड मुख्यालय को नष्ट कर दिया। इनमें से कुछ झूठे दावे पाकिस्तानी सैन्य प्रवक्ता लेफ्टिनेंट जनरल अहमद शरीफ चौधरी द्वारा लाइव समाचार सम्मेलनों के दौरान सीधे आए; एक में, चौधरी ने एक भारतीय प्रेस कॉन्फ्रेंस की क्लिप दिखाई जिसे इस तरह से एडिट किया गया था कि ऐसा लगे कि भारत ने पाकिस्तान पर नागरिक ढांचे को निशाना बनाने का आरोप नहीं लगाया।
पाकिस्तानी सेना के मीडिया विभाग ने पोस्ट को एक बयान में कहा, ‘हम उन सूचनाओं और प्रेस विज्ञप्तियों पर कायम हैं जो हमारे पास उपलब्ध सत्यापित खुफिया जानकारी और डिजिटल साक्ष्यों पर आधारित हैं।’
भारत में इस पूरे अराजकता का बड़ा कारण था प्रतिस्पर्धा। एनडीटीवी पर, जो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के रॉयटर्स इंस्टीट्यूट के अनुसार देश का सबसे अधिक देखा जाने वाला समाचार चैनल है, एक फील्ड रिपोर्टर की ‘हॉट माइक’ पर नियंत्रण कक्ष से झुंझलाहट रिकॉर्ड हो गई- ‘पहले आप कहते हो, ‘अपडेट दो, अपडेट दो,’ और फिर कहते हो, ‘क्यों गलत दे दिया?’
हिंदी समाचार चैनल आज तक के एक टॉक शो में, दर्शकों में एक युवक ने पूछा कि ‘अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने जो शर्मिंदगी हुई, जब हमारे चैनलों ने अपुष्ट खबरें फैलाईं, उसका क्या?’ रिपोर्टर ने माइक घुमा दिया, ताकि वह सवाल पूरा न कर सके।
टीवी टुडे (जो आज तक और इंडिया टुडे को संचालित करता है) के जनसंपर्क प्रमुख ने टिप्पणी के अनुरोधों का उत्तर नहीं दिया।
एक प्रमुख अंग्रेजी समाचार चैनल के एंकर ने पोस्ट से कहा, ‘मैं इस स्थिति से अवसाद में चला गया था। अब आत्ममंथन का समय है।’
-घनाराम साहू आचार्य
दो दिन पहले एक चर्चा में एक ब्राह्मण मित्र ने कश्मीरी पंडितों के पलायन का संदर्भ देते हुए कहा कि छत्तीसगढ़ में साहू समाज के लोग भी धर्मांतरण कर रहे हैं। उनके इस कथन ने कश्मीर को लेकर मेरी जिज्ञासा को जगाया, और मैंने सन 1931 की जनगणना रिपोर्ट को सरसरी तौर पर पढ़ लिया।
रिपोर्ट में कुछ रोचक आंकड़े मिले, जिनमें दो बिंदुओं पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है। रिपोर्ट के अनुसार, 1931 में जम्मू और कश्मीर की कुल आबादी 36,46,243 थी, जिनमें 2,02,161 ब्राह्मण, 63,088 कश्मीरी पंडित और 15,843 तेली थे। यहाँ यह स्पष्ट होता है कि ब्राह्मणों की संख्या कश्मीरी पंडितों से तीन गुना अधिक थी।
अधिकांश लोग समझते हैं कि ‘कश्मीरी ब्राह्मण’ और ‘कश्मीरी पंडित’ एक ही होते हैं, लेकिन ये दो अलग-अलग जातियाँ हैं। हालांकि, मेरी जानकारी में इनके बीच वैवाहिक संबंध होते थे। सेंसस की तालिका को देखने से पता चलता है कि 1911 से 1931 के बीच अनेक हिंदू जातियाँ जम्मू-कश्मीर से पलायन कर चुकी थीं।
विगत 30-40 वर्षों से आतंकवाद के फैलाव के साथ कश्मीरी पंडितों के पलायन की चर्चा आम है। तो क्या आतंकी कश्मीरी ब्राह्मणों को नहीं सताते थे? और क्या कश्मीरी पंडितों में ऐसा क्या विशिष्ट था कि उन्हें ही विशेष रूप से निशाना बनाया गया?
अब जऱा तेली समाज की बात करें। जैसा कि ऊपर लिखा है, 1931 में जम्मू-कश्मीर में कुल 15,843 तेली थे, जिनमें से केवल 21 हिंदू धर्म के अनुयायी थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि अधिकांश तेली 1911 से 1931 के बीच वहां से पलायन कर गए होंगे।
अब यदि छत्तीसगढ़ के तेली समाज को देखें, तो लगभग 19 प्रकार की शाखाएँ पाई जाती हैं, जिनमें अधिकतर ‘साहू’ उपनाम लिखते हैं। ये शाखाएँ उनके मूल स्थान की पहचान से जुड़ी होती हैं।
मेरे स्वर्गीय पिताजी बताया करते थे कि हमारे परिवार में उनका विवाह ब्राह्मण पद्धति से हुआ था, जबकि उनके पूर्वजों का विवाह ‘मझली पद्धति’ से होता था, जिसमें ब्राह्मण पुरोहितों की आवश्यकता नहीं होती। हमारे जातीय संगठन के नियमों में मझली विवाह को आज भी सर्वोच्च स्थान प्राप्त है।
इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पिछले 100 वर्षों में साहू समाज में ‘ब्राह्मणीकरण’ की प्रक्रिया हुई है और आज अधिकांश साहू ब्राह्मण परंपराओं का अनुसरण करते हैं। फिर भी, अनीश्वरवादी साहूओं की संख्या भी कम नहीं है। बताया जाता है कि कुछ दशक पहले तक एक-तिहाई से अधिक साहू ‘कबीरहा’ थे।
-डॉ आर के पालीवाल
बेतवा नदी के कुछ महीने पहले सूखे उदगम स्थल को पुनर्जीवित करने के लिए हम लोगों ने जन सहयोग का एक भागीरथ प्रयास का आव्हान किया था। हम लोगों ने बेतवा नदी के अध्ययन एवं जन जागरण समूह की तरफ से मध्य प्रदेश के प्रकृति प्रेमी नागरिकों से अपील की थी कि वे 25 मई से 31 मई तक सामूहिक श्रमदान से नदी के उदगम स्थल के कैचमेंट एरिया में जगह जगह चैक डैम बना कर बेतवा नदी के उदगम स्थल को पुनर्जीवित करने के लिए जल संरक्षण करने के रचनात्मक कार्य में सहभागिता करें। इस आव्हान पर अमल होना थोड़ा मुश्किल दिखता था क्योंकि यही नौतपा की सड़ी गर्मी का दौर था और जल संरक्षण के कार्य बरसात के पहले ही संपन्न हो सकते हैं। पुरानी कहावत है कि मुश्किल वक्त में ही लोगों की अग्नि परीक्षा भी होती है, इस दृष्टि से यह आव्हान हम सब प्रकृति प्रेमियों के लिए चुनौती भी थी।
25 मई को जब यह अभियान शुरू हुआ तो तपती गर्मी में भोपाल और विदिशा के लगभग एक दर्जन लोग ही श्रमदान के लिए पहुंचे। हमारे दो साथी अरविंद द्विवेदी और विनोद पटेरिया ने श्रमदान से पहली रात झिरी गांव में रात्रि विश्राम कर ग्रामवासियों से भी श्रमदान की अपील की। गांव के बच्चों ने उनकी बात पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया और कई बच्चे उत्सुकता वश श्रमदान में शामिल हुए। पहले दिन सुबह और शाम के सत्र में केवल दो चैक डैम बन सके। दूसरे दिन श्रमदान में कुछ और साथी जुड़े और बच्चों की संख्या में भी इजाफा हुआ और इस दिन तीन चैक डैम बने। जैसे जैसे सप्ताह के दिन आगे बढ़े श्रमदानियों की संख्या और उत्साह निरंतर बढ़ता रहा। इस बीच भोपाल और दिल्ली से प्रकाशित होने वाले कई समाचार पत्रों में श्रमदान की चर्चा होने से काफी लोगों का ध्यान इस अभियान पर गया। श्रमदान के पांचवें और छठे दिन भोपाल, विदिशा, इंदौर, हरदा, बैतूल और गंजबासौदा के श्रमदानी समूहों का अदभुत सहयोग मिला। सप्ताह समाप्त होते होते सैकड़ों साथियों ने मन से श्रमदान कर मई की सड़ी गर्मी में मात्र सात दिन में 55 चैक डैम बनाकर अविश्वसनीय और अकल्पनीय इतिहास रच दिया।
बेतवा अध्ययन और जन जागरण समूह के माध्यम से पिछले तीन साल से हम बेतवा प्रेमी लोग बेतवा नदी की बदहाली पर समाज, सरकार, प्रकृति एवं पर्यावरण प्रेमियों और मीडिया का ध्यान आकर्षित करते आ रहे हैं। जब सरकार की तरफ से कोई ठोस प्रयास होता नहीं दिखा तो समूह ने मार्च 2025 में यह निर्णय किया कि हम सरकार के भरोसे हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठेंगे और बरसात से पहले भोपाल और आसपास के जिलों के जमीनी कार्यकर्ताओं को जोड़कर बेतवा उदगम स्थल का जल स्तर बढ़ाने के लिए जल संरक्षण के कुछ ठोस कार्य करेंगे। जगह जगह चैक डैम बना कर बरसात के पानी को बहने से रोकना सबसे जरूरी काम था इसलिए मई का अंतिम सप्ताह सामूहिक श्रमदान के लिए निश्चित किया गया। इस अभियान को आशातीत सफलता मिली। हमें विश्वास नहीं हो रहा कि हम लोगों ने एक सप्ताह में पचपन चैक डैम बना दिए क्योंकि मध्य प्रदेश सरकार पिछले तीन महीने में केवल तीन चैक डैम बनाकर पल्ला झाड़ लिया। हमारा यह अभियान इसीलिए संभव हो पाया कि हमें पूरे प्रदेश से समर्थन और सहयोग मिला। अब उम्मीद बनी है कि बरसात में ये चैक डैम काफी जल संरक्षण करेंगे और बेतवा उदगम स्थल का जल स्तर बढ़ाकर उसे पुनर्जीवित कर सकते हैं।
भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान ने कहा है कि पहलगाम हमले के बाद पाकिस्तान में की गई भारत की कार्रवाई के बारे में उसे पांच मिनट बाद ही बता दिया गया था।
सावित्री बाई फुले यूनिवर्सिटी पुणे में मंगलवार को ‘फ्यूचर वॉर्स एंड वॉरफ़ेयर’ पर एक ख़ास लेक्चर में जनरल चौहान ने कहा, ‘हमने जिस दिन ( 7 मई) हमला किया उसी दिन पाकिस्तान को इसके बारे में बता दिया था। हमने रात एक से डेढ़ के बीच हमला कया। इस ऑपरेशन के ख़त्म होने के पांच मिनट के बाद ही हमने पाकिस्तान को बताया कि हमने ये (हमला) किया है।’
जनरल चौहान ने कहा कि भारतीय सेना ने सीमा पार हमले के दौरान ‘बहुत ही तर्कसंगत’ तरीके से कार्रवाई की। ‘सिर्फ आतंकी ठिकानों पर हमले किए और नागरिक और सैन्य ठिकानों पर कार्रवाई से परहेज किया।’
भारत ने कश्मीर के पहलगाम में चरमपंथी हमले में 26 लोगों की हत्या के बाद पाकिस्तान स्थित 'आतंकवादी ठिकानों’ पर हमले के लिए 7 मई को ‘ऑपरेशन सिंदूर’ शुरू किया था।
जनरल चौहान ने कहा, ‘हमने उनके (पाकिस्तान के) डायरेक्टर जनरल ऑफ मिलिट्री ऑरपरेशंस को बता दिया था कि हमारा हमला सिर्फ आतंकवादियों के ठिकानों पर हुआ है। इसमें सैन्य ठिकाने शामिल नहीं हैं। साथ ही हमने ये सुनिश्चित किया है कि कोई अतिरिक्त नुकसान न हो, खास कर नागरिकों को।’
सिंगापुर में जनरल के बयान की क्यों थी चर्चा
इससे पहले, जनरल चौहान ने पाकिस्तान के साथ मई महीने में हुए सैन्य संघर्ष के दौरान भारत के लड़ाकू विमान गिराए जाने के सवालों पर जवाब दिया था। पिछले शनिवार को ‘ब्लूमबर्ग टीवी’ को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘ये जरूरी नहीं कि विमान गिराया गया, जरूरी ये बात है कि ऐसा क्यों हुआ।’
इसमें उन्होंने पाकिस्तान की ओर से छह विमानों को नुक़सान पहुंचने के दावे को सिरे से खारिज कर दिया था। जनरल चौहान के सिंगापुर में दिए गए इस इंटरव्यू की ख़ासी चर्चा हुई थी। कुछ विशेषज्ञों ने सीडीएस के बयान की आलोचना की थी तो कुछ ने ‘पाकिस्तान के पक्ष में एक तरह का नैरेटिव गढऩे’ का आरोप लगाया था।
प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने भी सीडीएस के इस बयान की आलोचना करते हुए कहा था कि ये सवाल (पाकिस्तान की ओर से भारतीय विमानों को मार गिराने के दावे के बारे में) तभी पूछे जा सकते हैं जब तत्काल संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए।
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा था, ‘मोदी सरकार ने देश को गुमराह किया है। अब धीरे-धीरे तस्वीर साफ़ हो रही है। कांग्रेस पार्टी कारगिल समीक्षा समिति की तर्ज पर एक स्वतंत्र विशेषज्ञ समिति से हमारी रक्षा तैयारियों की व्यापक समीक्षा की मांग करती है।’
जबकि सामरिक मामलों के जानकार ब्रह्मा चेलानी ने सीडीएस के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि यह खराब कूटनीति है।
उन्होंने एक्स पर लिखा था, ‘खराब सार्वजनिक कूटनीति। मोदी सरकार ने गैर-जरूरी तरीके से भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ़ को सिंगापुर भेजा, जहां उन्होंने रॉयटर्स को दिए इंटरव्यू में भारतीय लड़ाकू विमानों के नुकसान को स्वीकार करके पाकिस्तान को प्रोपगेंडा विक्ट्री सौंप दी।’
ब्रह्मा चेलानी ने लिखा ‘ऐसी स्वीकारोक्ति भारत की ज़मीन में की जानी चाहिए थी। साथ ही इस संघर्ष में पाकिस्तान को हुए नुक़सान के बारे में भारत को अपना आकलन बताना चाहिए।’
उन्होंने एक अन्य पोस्ट में कहा था प्रधानमंत्री मोदी ने समय से पहले सैन्य अभियान रोके जाने वाले नैरेटिव को रोकने के लिए रोड शो किए। लेकिन सीडीएस के बयान ने मोदी की कोशिशों को जटिल बना दिया है।
वहीं रक्षा विशेषज्ञ सी उदय भास्कर ने कहा था कि सीडीएस ने बहुत ही उचित जवाब दिया है।
उन्होंने कहा, ‘सीडीएस जनरल चौहान ने जो कहा वह बहुत उचित है। क्योंकि भारत के लिए यह नुक़सान से ज़्यादा एक सामरिक नुक़सान था। हम इसका सामना कैसे करते हैं यह महत्व रखता है। अगर आप उनके बयान को देखेंगे तो उन्होंने कहा है कि हमने किस तरह उन ग़लतियों और खामियों पर क़ाबू पाया जिनके कारण यह नुक़सान हुआ।’
उदय भास्कर ने कहा था कि भारत ने इससे पहले भी प्रेस ब्रीफिंग में नुकसान के बारे में बताया है। उन्होंने कहा था, ‘अगर आप सेना के ब्रीफिंग को याद करें तो एयर मार्शल एके भारती ने कहा था कि नुकसान होगा लेकिन हमें अपने उद्देश्य देखने होंगे।’
‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर बयान देकर घिरे थे जयशंकर
भारत के ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बारे में ‘पाकिस्तान को सूचना देने’ के विदेश मंत्री एस जयशंकर के बयान पर कांग्रेस पार्टी ने एक प्रेस कॉफ्रेंस कर केंद्र सरकार पर सवाल खड़े किए थे।
एस जयशंकर के बयान के बाद कांग्रेस नेता पवन खेड़ा ने प्रेस कॉफ्रेंस में कहा था, ‘एस जयशंकर के बयान के कारण पाकिस्तान और पूरी दुनिया में हमारी हंसी उड़ रही है।’
एस जयशंकर के बयान पर हंगामा शुरू होने के बाद भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) ने सफाई दी।
पीआईबी की फैक्ट चेक यूनिट ने सोशल मीडिया एक्स पर एक पोस्ट में लिखा, ‘केंद्रीय मंत्री डॉक्टर एस जयशंकर के बयान को गलत संदर्भ में पेश किया जा रहा है। पीआईबी फ़ैक्ट चेक ने सोशल मीडिया पर किए जा रहे ऐसे दावों का पूर्व में खंडन किया है।’
विदेश मंत्री एस जयशंकर पर राहुल गांधी के आरोपों के बाद बीजेपी प्रवक्ता सीआर केसवन ने कहा था कि राहुल गांधी का ट्वीट पूरी तरह से भ्रामक और खतरनाक है।
उन्होंने कहा था, ‘यह सच्चाई को तोड़-मरोड़ कर पेश करता है और हमारे सशस्त्र बलों को बदनाम करने के लिए तथ्यों को ग़लत तरीके से पेश करता है।।’
पत्रकारों के साथ बातचीत के एक वीडियो में विदेश मंत्री एस जयशंकर कहते नजऱ आ रहे हैं, ‘ऑपरेशन की शुरुआत में हमने पाकिस्तान को मैसेज भेजा था, जिसमें कहा था कि हम आतंकी ढांचों पर हमला कर रहे हैं। हम सेना पर हमला नहीं करेंगे। इसलिए सेना के पास एक विकल्प है कि वो इससे अलग रहें और इसमें दखल न दें। उन्होंने इस सलाह को न मानने का फ़ैसला किया।’
नए दौर के युवा राजनीति को अलग-अलग नजरिए से देख रहे हैं। लडक़े और लड़कियों की राय में फर्क है। यह अंतर ना केवल राजनीति बल्कि समाज पर भी असर डाल रहा है।
डॉयचे वैले पर सोनम मिश्रा का लिखा-
दूसरी पीढिय़ों के साथ तो जेन-जी (90 के दशक के मध्य के बाद जन्मे लोग) के मतभेद व्यापक है ही, हाल में हुए चुनावों में जेन-जी का आपसी मतभेद भी खुलकर सामने आ रहा है। अधिकतर युवकों का झुकाव दक्षिणपंथी विचारों की ओर है जबकि युवतियां वामपंथी विचारों का समर्थन करती नजर आ रही हैं।
यह अंतर ना केवल किसी एक देश में, बल्कि एशिया समेत पश्चिमी देशों में भी साफ देखा जा रहा है। पर्यवेक्षकों के अनुसार युवा पुरुष खुद को पिछड़ा हुआ महसूस करते हैं, जिसके लिए वह विविधता को जिम्मेदार मानते हैं। वहीं, युवा महिलाओं का मानना है कि अब नौकरी के अवसरों में समानता आ रही है।
दक्षिण कोरिया चुनाव में महिलाओं का आक्रोश
उम्मीद की जा रही है कि दक्षिण कोरिया के आगामी चुनावों में युवा महिलाएं मुख्य रूढि़वादी पार्टी के खिलाफ मतदान कर सकती हैं। महीनों से चल रहे उथल-पुथल का नतीजा 3 जून को होने वाले चुनाव के नतीजों में दिख सकता है।
फैशन : विंटेज खजाने की खोज में जेन जी
हालांकि युवा पुरुष इस विरोध में उनका साथ देंगे, ऐसे आसार बहुत कम हैं। कोविड महामारी से पहले तक आमतौर पर दोनों ही वर्ग प्रगतिशील विचारों के लिए वोट करते थे, लेकिन अब यह बदल गया है। हाल के चुनावों में, चाहे उत्तरी अमेरिका हो, यूरोप या एशिया, यह बदलाव साफ दिख रहा है। युवा पुरुष, खासतौर पर 20 साल की उम्र के आस-पास वाले, दक्षिणपंथ का रुख कर रहे हैं। जबकि, युवतियों का झुकाव वामपंथ की ओर है।
पहली बार वोट देने जा रहे दक्षिण कोरियाई युवा, ली जियोंग-मिन ने बताया कि वह 3 जून को राइट-विंग रिफॉर्म पार्टी के उम्मीदवार, ली जून-सिओक को वोट देने वाले हैं।
उम्मीदवार, ली जून-सिओक ने लैंगिक समानता मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ जेंडर इक्वालिटी) को बंद करने का वादा किया है। यह वादा ली जियोंग-मिन जैसे पुरुषों को आकर्षित कर रहा है। उनका मानना है कि केवल पुरुषों के लिए सैन्य सेवा अनिवार्य होना ठीक नहीं है।
उन्होंने कहा, ‘एक युवक होने के नाते मुझे कोरिया का यह नियम बहुत गलत लगता है। जब हम 21 या 22 साल के होते हैं, तब हमें समाज में हिस्सा लेने का पूर्ण मौका नहीं मिल पाता है, क्योंकि उस समय हमें 18 महीने की अनिवार्य सैन्य सेवा करनी पड़ती है।’
युवा पीढ़ी के आलसी होने के आरोप गलत
दक्षिण कोरिया में गैलप कोरिया के किये गए सर्वे में सामने आया कि 18 से 29 वर्ष के लगभग 30 फीसदी पुरुष और केवल 3 फीसदी महिलाएं रिफॉर्म पार्टी का समर्थन करते हैं।
किंग्स कॉलेज लंदन की राजनीतिक अर्थशास्त्री, सूह्युन ली बताती हैं कि बहुत से दक्षिण कोरियाई युवा पुरुषों को लगता है कि वह समाज की अच्छी नौकरी पाना, शादी करना, घर खरीदना और परिवार बसाना जैसी उम्मीदों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं।
उनमें से कई पुरुष इसके लिए नारीवाद को जिम्मेदार मानते हैं। उनका तर्क है कि महिलाओं को नौकरियों में प्राथमिकता दी जाती है। ली ने बताया कि दक्षिण कोरिया में प्रवास काफी कम है। इसलिए अपनी नाकामयाबी का दोष वह आराम से महिलाओं पर मढ़ देते है।’
लोकतंत्र से नाराज गुस्सैल युवा पुरुष
दक्षिण कोरिया समेत कई लोकतांत्रिक देशों में जेन-जी पुरुषों को लग रहा है कि अब उनके पास पहले जैसी सामाजिक ताकत नहीं रही। महामारी के बाद से यह स्थिति अधिक गंभीर हो गई है। कुछ देशों में तो 20 साल के आसपास के युवाओं में वेतन का अंतर भी महिलाओं के पक्ष में अधिक हो गया है।
यूरोपिय संघ के आंकड़ों के अनुसार, फ्रांस में 18-34 साल के पुरुषों ने पिछले साल के चुनावों में दक्षिणपंथी नेता, मरीन ले पेन की पार्टी को महिलाओं की तुलना में अधिक दिया। ब्रिटेन में भी युवा पुरुषों की तुलना में महिलाएं कंजर्वेटिव पार्टी को कम वोट करती हैं। सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि 16-24 वर्ष के पुरुष महिलाओं की तुलना में काम और पढ़ाई दोनों पीछे हैं।
पश्चिमी देशों में भी दक्षिण कोरिया जैसा ही चलन आमने आ रहा है। यहां युवक नौकरियों में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के लिए आप्रवासन और विविधता से जुड़े कार्यक्रमों को जिम्मेदार ठहराते हैं।
जर्मनी में फरवरी में हुए आम चुनाव में प्रवासी विरोधी पार्टी ‘अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी’ (एएफडी) ने रिकॉर्ड 20.8 फीसदी वोट हासिल किए। युवा पुरुषों के समर्थन ने उन्हें मजबूती दी। हालांकि इस पार्टी की नेता खुद एक महिला हैं। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 18-24 साल के पुरुषों में से 27 फीसदी ने एएफडी को वोट दिया। जबकि 35 फीसदी युवा महिलाओं ने वामपंथी पार्टी, ‘लिंके’ का समर्थन किया।
बर्लिन की 18 वर्षीय वोटर, मॉली लिंच, ने लिंके को जलवायु परिवर्तन और आर्थिक असमानता पर उसके रुख की वजह से वोट दिया। उन्होंने कहा, ‘बहुत से युवा पुरुष दक्षिणपंथी प्रचार के झांसे में आ रहे हैं क्योंकि वह परेशान हैं। उन्हें लगता है कि वह अपनी ताकत खो रहे हैं। जबकि असल में वह महिलाओं पर उस ताकत को खो रहे हैं, जो कभी बराबरी की थी ही नहीं।’
यह विभाजन केवल जेन-जी तक सीमित नहीं है। बल्कि, मिलेनियल्स, जो अब 30 से 40 की उम्र में हैं। वह भी इस बदलाव को काफी समय से महसूस कर रहे हैं।
कनाडा में पिछले महीने हुए चुनाव में 35-54 साल के पुरुषों में से 50 फीसदी ने विपक्षी कंजर्वेटिव पार्टी को वोट दिया। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के कनाडा पर लगाए गए टैरिफ के कारण यह चुनाव पूरी तरह से प्रभावित हुआ था। हालांकि, लिबरल पार्टी को हार का डर था लेकिन वह महिला मतदाताओं की बदौलत ट्रंप विरोधी लहर के जरिये फिर से सत्ता में लौट आए।
पोलिंग फर्म, इप्सोस के पब्लिक अफेयर्स के वैश्विक प्रमुख, डैरेल ब्रिकर ने कहा, ‘वह पुरुष जो जिंदगी में कुछ अनुभव ले चुके हैं। अब वह उस मोड़ पर खड़े हैं, जहां वह कहते हैं, ‘यह सब मेरे पक्ष में काम नहीं कर रहा, अब मुझे बदलाव चाहिए।’
कनाडा की पोलिंग कंपनी, नानोस रिसर्च की संस्थापक, निक नानोस सहमति जताते हुए बताती हैं कि सोशल मीडिया लोकतंत्र के गुस्सैल युवा पुरुष की मानसिकता को बढ़ावा दे रहा है। खासकर उन इलाकों में जहां ब्लू कॉलर नौकरियां यानी मजदूरी व कारखानों की नौकरियां खत्म हो चुकी हैं।
यौन रुझान कई तरह के हो सकते हैं। आप बड़े होकर किस लिंग के प्रति आकर्षित होंगे, यह किशोरावस्था में तय होता है। आपके शरीर और आसपास के माहौल का इस पर काफी ज्यादा असर होता है।
डॉयचे वैले पर अलेक्जांडर फ्रॉयंड का लिखा-
दुनिया भर में लाखों लोग 35 साल पहले अचानक ‘स्वस्थ’ हो गए। वह दिन था 17 मई, 1990। जब विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने समलैंगिकता को इंसानी रोगों की सूची से हटा दिया था। तब तक, समलैंगिक प्रेम को एक तरह की मानसिक बीमारी माना जाता था। प्रभावित लोगों को अक्सर सैनिटोरियम या जेलों में बंद कर दिया जाता था। बिजली के झटके देने वाली थेरेपी और दूसरी संदिग्ध मनोचिकित्सक पद्धति से ‘इलाज’ किया जाता था।
बर्लिन चैरिटी अस्पताल में सेक्सोलॉजी और यौन चिकित्सा संस्थान के निदेशक क्लाउस एम बायर ने कहा कि समलैंगिक, उभयलिंगी और ट्रांससेक्सुअल लोग बीमार नहीं हैं और कभी नहीं थे। बायर ने कहा कि इंसानों में यौन आकर्षण अलग-अलग तरह का होता है।
होमोसेक्शुएलिटी पर अब भी सवाल क्यों?
वह कहते हैं, ‘आजकल यह बात समझ में आ गई है कि कोई भी व्यक्ति अपनी पसंद से यह तय नहीं करता कि वह किस लिंग के व्यक्ति के प्रति आकर्षित होगा। यह किस्मत की बात है, अपनी मर्जी की नहीं। यौन रुझान, जिसे विशेषज्ञ ‘यौन पसंद की संरचना' कहते हैं, किशोरावस्था के दौरान विकसित होता है। यह व्यक्ति के सेक्स हार्मोन से प्रभावित होता है। इसी समय यह तय होता है कि उन्हें शारीरिक रूप से क्या आकर्षक लगता है और वे किस तरह का यौन संबंध चाहते हैं।’
बायर के मुताबिक, किशोरावस्था में इस बदलाव के बाद, जो यौन पसंद बनती है वह आमतौर पर बदलती नहीं है। उन्होंने कहा, ‘यौन रुझान किशोरावस्था में विकसित होता है और फिर जीवन भर के लिए स्थिर हो जाता है। भले ही, कुछ लोगों में यौन रुझान बदलने की इच्छा हो। उदाहरण के लिए, अगर सामान्य लोगों की तरह बनने का सामाजिक दबाव हो।’
समलैंगिकता कई जगहों पर समस्या बन गई है
सभी इंसानों के अधिकारों में अपनी यौन पसंद की स्वतंत्रता शामिल है। यौन आकर्षण हमेशा से अलग-अलग तरह का रहा है। यह ना तो कोई नया शौक है, और ना ही सिर्फ खुले विचारों वाले समाजों में ऐसा होता है।
बायर ने कहा, ‘हमारे पास मौजूद आंकड़ों के अनुसार, समलैंगिक रुझान लगभग 3 से 5 फीसदी आबादी में होता है और यह हर संस्कृति में ऐसा ही है। इंसानों में आकर्षण इसी तरह अलग-अलग होता है और इसे किसी और तरीके से नहीं देखा जा सकता है।’ इसलिए, किसी व्यक्ति के यौन रुझान की वजह से उसकी निंदा करना या उसका आकलन करना गलत है।
नेपाल में समलैंगिक शादी को मान्यता
इसके बावजूद, लोगों की यौन पसंद पूरे समाज को दो हिस्सों में बांट देती है। कई बार, इसकी वजह से उन्हें अलग-थलग किया जाता है, उनके साथ भेदभाव होता है और उन्हें सताया जाता है। उदाहरण के लिए, कम से कम 67 देशों में समलैंगिक होना जुर्म है और सात देशों में तो समलैंगिक यौन संबंधों के लिए मौत की सजा भी दी जा सकती है।
-बर्न्ड डेबुसमैन जूनियर
मस्क के जाने की घोषणा भी उसी दिन हुई जब अमेरिका में बीबीसी के सहयोगी सीबीएस ने मस्क के साथ एक साक्षात्कार का हिस्सा जारी किया। इसमें मस्क ने कहा था कि वह ट्रंप के ‘बिग ब्यूटीफुल ‘बजट बिल से ‘निराश’ हैं।
ट्रंप प्रशासन में एलन मस्क का उथल-पुथल भरा 129 दिनों का कार्यकाल समाप्त हो गया है। इस दौरान दुनिया के सबसे अमीर आदमी ने सरकारी खर्च में कटौती की, जिसे लेकर काफी विवाद भी हुआ था।
दक्षिण अफ्रीका में जन्मे अरबपति एलन मस्क ने इसी सप्ताह की शुरुआत में अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर राष्ट्रपति ट्रंप को डिपार्टमेंट ऑफ गवर्नमेंट एफिशिएंसी (डीओजीई) में उनके कार्यकाल के लिए धन्यवाद दिया था।
ट्रंप ने बताया कि वह शुक्रवार को मस्क के साथ ओवल ऑफिस में एक संवाददाता सम्मेलन आयोजित करेंगे।
उन्होंने लिखा, ‘यह उनका आखऱिी दिन होगा। वास्तव में ये आखिरी दिन नहीं होगा क्योंकि वह हमेशा हमारे साथ रहेंगे और हर तरह से हमारी मदद करेंगे।’
ट्रंप सरकार में मस्क का कार्यकाल चार महीने से कम था लेकिन सरकारी विभाग में उनके कार्यशैली ने अमेरिकी सरकार में उथल-पुथल मचा दी। इसका असर वॉशिंगटन में सत्ता के गलियारों से लेकर पूरी दुनिया में दिखा।
आइए कुछ ऐसे तरीकों पर नजर डालते हैं जिनसे मस्क ने अपनी छाप छोड़ी है।
डीओजीई के जरिये कटौतियों का सिलसिला
ट्रंप के व्हाइट हाउस में मस्क ने एक ही मिशन के साथ नौकरी स्वीकार की थी। वह थी सरकारी खर्च में यथासंभव कटौती करना।
उन्होंने ‘कम से कम दो ट्रिलियन डॉलर’ के लक्ष्य के साथ शुरुआत की जो बाद में एक ट्रिलियन डॉलर और अंत में 150 अरब डॉलर तक आ गई।
डीओजीई ने दावा किया है कि उसने आज तक संपत्तियों की बिक्री, पट्टे और अनुदान के रद्दीकरण, ‘धोखाधड़ी और अनुचित भुगतान में कमी’, नियामक बचत और 20 लाख 30 हजार केंद्रीय कार्यबल में से 2 लाख 60 हजार लोगों की कटौती कर 175 अरब डॉलर की बचत की है।
हालांकि आकंड़ों के विश्लेषण में बीबीसी ने पाया कि इस दावे के साक्ष्यों में कमी रही है।
इस मिशन के कारण कई बार विवाद भी पैदा हुआ। इसमें कुछ ऐसे उदाहरण भी शामिल हैं, जिसमें केंद्रीय न्यायाधीशों ने सामूहिक बर्ख़ास्तगी पर रोक लगा दी और कर्मचारियों को फिर से बहाल करने का आदेश जारी कर दिया।
अन्य मामलों में भी प्रशासन को बर्खास्तगी के फैसले से पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा।
फरवरी में हुए एक उल्लेखनीय घटनाक्रम में राष्ट्रीय परमाणु सुरक्षा प्रशासन ने सैकड़ों केंद्रीय कर्मचारियों की बर्खास्तगी पर रोक लगा दी।
इसमें से कुछ अमेरिकी परमाणु हथियार सुरक्षा की जिम्मेदारी संभाल रहे कर्मचारी संवेदनशील पदों पर काम कर रहे थे।
मस्क ने स्वयं कई बार दोहराया कि सामूहिक बर्खास्तगी में अनिवार्य रूप से गलतियां होंगी।
फरवरी में डीओजीई ने मोजाम्बिक के एक क्षेत्र को हमास नियंत्रित गज़़ा समझकर सहायता कार्यक्रम में कटौती कर दी थी।
इसके बाद उन्होंने कहा था, ‘हम गलतियां करेंगे लेकिन हम किसी भी गलती को सुधारने के लिए तुरंत कार्रवाई भी करेंगे।’
डीओजीई का डेटा तक पहुंच बनाने की कोशिश के कारण भी विवाद पैदा हुआ। विशेष तौर पर संवेदनशील ट्रेजरी विभाग तक पहुंच बनाने के लिए किया गया प्रयास, जो लाखों अमेरिकियों की निजी जानकारी नियंत्रित करता है।
सर्वेक्षण बताते हैं कि अमेरिकी नागरिकों के बीच सरकारी खर्च में कटौती लोकप्रिय बनी हुई है, लेकिन मस्क की लोकप्रियता में कमी आई है।
व्यवसाय और राजनीति के बीच धुंधली रेखाएं
ट्रंप के व्हाइट हाउस में एलन मस्क की उपस्थिति ने लोगों को चौंका दिया और संभावित हितों को लेकर सवाल भी उठे। मस्क एक गैर-निर्वाचित ‘स्पेशल गवर्नमेंट एम्पलॉय’ हैं और अमेरिकी सरकार उनकी कंपनियों की ग्राहक है।
उनके कारोबारी साम्राज्य में कई बड़ी कंपनियां शामिल हैं जो अमेरिका और विदेश की सरकारों के साथ व्यापार कर रही हैं।
कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के अनुसार, स्पेसएक्स का अमेरिकी सरकार के साथ 22 अरब डॉलर का अनुबंध है।
कुछ डेमोक्रेट्स ने मस्क पर अपनी सैटेलाइट इंटरनेट सेवा कंपनी स्टारलिंक के लिए विदेश में कारोबार बढ़ाने के लिए अपने पद का लाभ उठाने का भी आरोप लगाया। मार्च में व्हाइट हाउस पर आरोप लगाया गया था कि उसने व्हाइट हाउस के लॉन में उनकी संकट से जूझ रही कार कंपनी टेस्ला के निर्मित वाहनों का प्रदर्शन करके मस्क के व्यवसाय की मदद की। मस्क और ट्रंप दोनों ने ही इस बात को खारिज कर दिया है कि सरकार के साथ उनका काम? विरोधाभाषी या नैतिक रूप से समस्या पैदा करने वाला है।
क्या यह अलगाववाद को बढ़ावा देने वाला कदम है?
दुनिया भर में डीओजीई के साथ मस्क के काम की सबसे ज़्यादा चर्चा उस समय हुई जब विभाग ने छह सप्ताह की समीक्षा के बाद यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (यूएस एड) के 80 फीसदी से ज़्यादा कार्यक्रमों को खत्म कर दिया और बाकी को विदेश मंत्रालय ने अपने में मिला लिया।
मस्क और डीओजीई के नेतृत्व में की गई कटौती ट्रंप प्रशासन द्वारा विदेशों में खर्च को अपने ‘अमेरिका फस्र्ट’ दृष्टिकोण के मुताबिक लाने के लिए व्यापक प्रयास का हिस्सा थी।
यूएस एड में कटौती के कारण अकाल का पता लगाने, टीकाकरण और संघर्ष क्षेत्रों में खाद्य सहायता जैसे कार्य की परियोजनाओं पर शीघ्र ही प्रभाव पडऩे लगा।
इसमें युद्ध से जूझ रहे सूडान में सामुदायिक रसोईघर, तालिबान से बचकर भागी युवा अफगान महिलाओं के लिए छात्रवृत्ति और भारत में ट्रांसजेंडर लोगों के लिए क्लीनिक भी शामिल हैं।
यूएस एड को पूरी दुनिया में अमेरिकी ‘सॉफ्ट पावर’ का एक महत्वपूर्ण साधन माना जाता था। इसके कारण कुछ आलोचकों ने इस बंद किए जाने को वैश्विक मंच पर अमेरिका के घटते प्रभाव का संकेत करार दिया।
अमेरिका की पांच छोटी कंपनियों द्वारा दायर की गई याचिका पर फैसला देते हुए एक अमेरिकी अदालत ने डॉनल्ड ट्रंप के लगाए टैरिफों को अवैध करार दिया। कुछ लोगों ने ‘न्यायपालिका का तख्तापलट‘ बताया है।
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार का लिखा-
अमेरिका के वर्मोंट प्रांत में एक ऑनलाइन साइकिल स्टोर चलाने वाले एक छोटे व्यापारी, न्यूयॉर्क की वाइन आयातक कंपनी और वर्जीनिया की एक इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी समेत कुल पांच छोटे व्यापारियों ने अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की पूरी आर्थिक नीति की चूलें हिला दी हैं। इन कंपनियों की अपील पर अमेरिका की इंटरनेशनल ट्रेड कोर्ट ने ट्रंप के टैरिफ को अवैध बताते हुए रद्द कर दिया। हालांकि ट्रंप सरकार ने फैसले के खिलाफ अपील कर दी है, लेकिन अमेरिका में ट्रंप के टैरिफ के खिलाफ उठती आवाजों को इस फैसले से मजबूती मिली है।
वाइन इंपोर्टर कंपनी वीओएस सेलेक्शंस की अगुआई में अमेरिकी छोटे व्यापारियों ने राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की वैश्विक टैरिफ नीति को अदालत में चुनौती दी थी। कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति ने अपने संवैधानिक अधिकारों से आगे जाकर यह फैसला लिया, जिससे व्यापारियों को आर्थिक नुकसान हुआ।
एक छोटी कंपनी, एक बड़ी लड़ाई
न्यूयॉर्क स्थित पारिवारिक वाइन आयातक कंपनी वीओएस सेलेक्शंस ने अमेरिकी न्याय प्रणाली में एक ऐतिहासिक कदम उठाया। ट्रंप द्वारा लगाए गए व्यापक टैरिफों के खिलाफ उन्होंने अदालत में याचिका दायर की, जिसे वर्मोंट के एक ऑनलाइन साइकिल स्टोर और वर्जीनिया की एक इलेक्ट्रॉनिक्स निर्माता कंपनी का भी समर्थन मिला।
वीओएस सेलेक्शंस ने कहा, ‘ये टैरिफ न केवल हमारे व्यवसाय को खतरे में डालते हैं, बल्कि उन पारिवारिक किसानों की आजीविका पर भी असर डालते हैं, जिनकी वाइन हम अमेरिका में बेचते हैं।’ कंपनी ने अपने बयान में यह भी कहा कि इस नीति से छोटे और मंझोले आयातकों को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है, क्योंकि वे बड़े कॉर्पोरेशनों की तरह कीमतों में बदलाव नहीं झेल सकते।
राष्ट्रपति ट्रंप ने अप्रैल में आयात पर एकतरफा और वैश्विक टैरिफ लगाने का ऐलान किया था, जिनमें 10 फीसदी की सामान्य दर से लेकर चीन और यूरोपीय संघ जैसे भागीदारों पर 150 फीसदी तक शुल्क शामिल थे। इन टैरिफों को उन्होंने राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति बताते हुए लागू किया, और इसका आधार बनाया 1977 का अंतरराष्ट्रीय आपातकालीन आर्थिक शक्तियों अधिनियम को।
कोर्ट ने तय की राष्ट्रपति की सीमाएं
अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय व्यापार अदालत ने बुधवार को दिए अपने फैसले में स्पष्ट रूप से कहा कि राष्ट्रपति ने इस कानून का दुरुपयोग किया। अदालत ने कहा कि 1977 का अधिनियम राष्ट्रपति को असीमित टैरिफ लगाने का अधिकार नहीं देता है।
तीन जजों की बेंच ने अपने फैसले में लिखा, ‘कोर्ट यह नहीं मानती कि अधिनियम राष्ट्रपति को इतनी असीमित शक्तियां देता है कि वह दुनिया के लगभग हर देश से आने वाले सामान पर मनमाने टैरिफ लगा सकें।’ अदालत ने ट्रंप द्वारा लगाए गए ज्यादातर टैरिफों को अवैध करार दिया और कहा कि यह कांग्रेस के ‘पावर ऑफ द पर्स’ यानी बजट नियंत्रित करने के अधिकारों का उल्लंघन है।
फैसले के अनुसार, व्हाइट हाउस को 10 दिनों में टैरिफ हटाने की प्रशासनिक प्रक्रिया पूरी करनी होगी। हालांकि इनमें से कई टैरिफ पहले ही अप्रैल की शुरुआत में 90 दिन के लिए स्थगित किए जा चुके हैं। अदालत के फैसले के बाद यदि अपील में भी यही निर्णय कायम रहता है, तो जिन व्यापारियों ने टैरिफ का भुगतान किया है, उन्हें ब्याज सहित उसका रिफंड मिल सकता है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) के हालिया आंकड़ों के मुताबिक़, भारत जापान को पीछे छोडक़र दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का दर्जा हासिल करने की ओर है। इस ख़बर के बाद देशभर में इसकी चर्चा तेज हो गई है।
एक ओर कुछ लोग इसे केंद्र सरकार की नीतियों- जैसे ‘डिजिटल इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’ और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर विशेष जोर का परिणाम मानते हैं। उनका कहना है कि इन पहलों ने भारत को वैश्विक मंच पर एक नई पहचान दिलाई है और साथ ही किसानों, मजदूरों और मध्यम वर्ग के लिए उम्मीदें जगाई हैं।
वहीं दूसरी ओर, कुछ आलोचक इस विकास को सतही मानते हैं। उनका तर्क है कि जब तक हर नागरिक को रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिलतीं, तब तक भारत विकसित देशों के बराबर नहीं हो सकता।
इन आंकड़ों पर कई सवाल उठते हैं, जैसे- भारत के इस मुकाम तक पहुंचने में मोदी सरकार की किन नीतियों की मुख्य भूमिका रही?
सवाल ये भी है कि अर्थव्यवस्था के तेजी से बढऩे के बावजूद बेरोजगारी दर अब भी ऊँची क्यों है? इस विकास का असली लाभ किन तबकों को मिल रहा है? डिजिटल क्रांति ने इस बदलाव में कैसी भूमिका निभाई?
अगर सब कुछ इतना बेहतर है, तो फिर अमीर-गरीब के बीच की खाई क्यों बढ़ रही है? और सबसे अहम सवाल- इस आर्थिक प्रगति का आम नागरिक की जिंदगी पर असल असर क्या पड़ा है?
इन सवालों पर चर्चा के लिए ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के वाइस प्रेसिडेंट गौतम चिकरमाने और आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर और अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा शामिल हुए।
आम लोगों की जिंदगी कितनी बदली?
पिछले शनिवार को नीति आयोग के सीईओ बीवीआर सुब्रह्मण्यम ने एक बयान जारी कर भारत के जापान को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का दावा किया।
इस घोषणा के बाद जहां कुछ अर्थशास्त्रियों ने इसकी सराहना की, वहीं कई विशेषज्ञों ने इस दावे पर सवाल भी उठाए। हर बार जब इस तरह के आंकड़े सामने आते हैं, तो आम लोगों के मन में यह सवाल जरूर उठता है कि क्या इस आर्थिक तरक्की का असर उनकी रोजमर्रा की जिंदगी पर भी पड़ा है।
इस सवाल पर आईआईटी दिल्ली की प्रोफेसर और अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा ने कहा, ‘अगर एक परिवार में एक व्यक्ति पांच लाख रुपये कमा रहा है और दूसरे परिवार में चार लोग मिलकर पांच लाख कमा रहे हैं, तो सिफऱ् आमदनी देखकर यह कहना कि दोनों बराबर हैं, ग़लत होगा। क्योंकि एक परिवार में उस राशि से एक व्यक्ति का ख़र्च चल रहा है, जबकि दूसरे में चार लोगों का।’
‘इसी तरह, देशों की तुलना करते समय भी केवल जीडीपी के आंकड़ों से निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं है। जापान और जर्मनी जैसे देशों की जीडीपी की तुलना भारत से करना उचित नहीं है, क्योंकि भारत की जनसंख्या कहीं ज़्यादा है।’
उन्होंने बताया कि यह जरूर है कि अगर देश में आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ती हैं तो उम्मीद की जाती है कि इसका फायदा सभी वर्गों तक पहुंचेगा। लेकिन इसके दो अहम पहलू हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
उन्होंने पहलुओं को समझाते हुए कहा, ‘पहला सवाल यह है कि आर्थिक गतिविधि किस सेक्टर में हो रही है? अगर निर्माण क्षेत्र (कंस्ट्रक्शन) में विकास हो रहा है, तो निर्माण मजदूरों तक इसका सीधा लाभ पहुंच सकता है। लेकिन अगर यह वृद्धि फाइनेंशियल सेक्टर में हो रही है, तो इसका लाभ सीमित लोगों तक ही रहेगा- और वो पहले से ही ठीक वर्ग के लोग हैं।’
प्रोफेसर और अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा ने कहा कि यह समझना जरूरी है कि देश किन क्षेत्रों में निवेश और विकास पर जोर दे रहा है। कौन-से सेक्टर तेजी से बढ़ रहे हैं और उनका बाकी अर्थव्यवस्था के साथ कितना गहरा जुड़ाव है।
रीतिका खेड़ा ने कहा, ‘जब हम जीडीपी ग्रोथ रेट की बात करते हैं, तो हमें यह सेक्टर-वाइज देखना चाहिए- जैसे कृषि में कितनी वृद्धि हुई, मैन्युफैक्चरिंग में कितना विकास हुआ। इससे यह साफ होता है कि क्या यह आर्थिक प्रगति सभी तक समान रूप से पहुंच रही है या केवल कुछ सीमित क्षेत्रों में ही सिमट कर रह गई है।’
लेकिन ऑब्जर्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के वाइस प्रेसिडेंट गौतम चिकरमाने का मानना है कि हर अर्थव्यवस्था में कुछ वर्ग असंतुष्ट हो सकते हैं।
गौतम चिकरमाने ने कहा, ‘मुझे समझ नहीं आता कि ये आलोचना आ कहां से रही है। ऐसा कौन-सा कॉन्स्टिट्यूएंसी है जिसे आर्थिक विकास का लाभ नहीं मिला? मुझे एक भी ऐसा क्षेत्र नहीं दिख रहा जिसका इससे कोई फ़ायदा न हुआ हो- चाहे वो कृषि हो, मैन्युफैक्चरिंग, एंटरप्रेन्योरशिप या न्यूनतम वेतन। हर क्षेत्र में किसी न किसी रूप में फ़ायदा हुआ है।’
उन्होंने कहा, ‘हर अर्थव्यवस्था में कुछ वर्ग असंतुष्ट हो सकते हैं, और लोकतंत्र में तो ये आवाज़ें उठना स्वाभाविक भी है।’
आलोचना पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा, ‘मुझे ये भी समझ नहीं आता कि लोग किस डेटा के आधार पर कह रहे हैं कि असमानता बढ़ गई है, अमीर और अमीर हो गए हैं, और गऱीब वहीं के वहीं हैं।’
सरकारी आंकड़ों पर सवाल क्यों?
चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के इन दावों के बीच कुछ लोगों का कहना है कि भारत एक विशाल आबादी के साथ आर्थिक रूप से सही दिशा में प्रगति कर रहा है जबकि कुछ अर्थशास्त्रियों ने जीडीपी के बारे में दावा करने में जल्दबाजी करने की ओर इशारा किया है।
सरकार जब भी कोई आर्थिक आंकड़ा जारी करती है, तो उस पर अक्सर सवाल उठते हैं। लेकिन ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के वाइस प्रेसिडेंट गौतम चिकरमाने का मानना है कि इतने बड़े स्तर पर आंकड़े केवल सरकार ही जुटा सकती है, और उन्हीं पर भरोसा किया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा, ‘दुनिया भर में एक ही डेटा प्वाइंट होता है, और वो डेटा सरकारें ही इक_ा करती हैं। किसी और के पास इतनी क्षमता नहीं है। अगर आप कहें कि सरकार ग़लत है, वर्ल्ड बैंक ग़लत है, आईएमएफ़ ग़लत है, एडीबी (एशियन डेवलपमेंट बैंक) ग़लत है, यूनाइटेड नेशंस भी ग़लत है- तो फिर सही कौन है? ये मुझे बता दीजिए, मैं उन आंकड़ों से बहस करने को तैयार हूं।’
इस मुद्दे पर रीतिका खेड़ा ने कहा कि सरकारी आंकड़ों पर सवाल उठाना कोई नई या गलत बात नहीं है।
उन्होंने समझाया, ‘मान लीजिए किसी देश में केवल दो लोग हैं- एक की आय एक लाख है और दूसरे की चार लाख। ऐसे में कुल जीडीपी पांच लाख हो गई और औसतन प्रति व्यक्ति आय 2।5 लाख हो गई। लेकिन इससे असल आर्थिक स्थिति नहीं समझी जा सकती। अगर सरकार अमीर व्यक्ति से दो लाख लेकर गऱीब को दे दे, तो कुल जीडीपी तो वही रहेगी, लेकिन गऱीब की हालत बेहतर हो जाएगी।’
उन्होंने कहा कि यही वजह है कि ‘हमें आय के वितरण पर ध्यान देना चाहिए। अगर अमीरों से लेकर गऱीबों को दिया जाए, तो असमानता के मुद्दे काफ़ी हद तक सुलझ सकते हैं।’
सरकारी आंकड़ों को लेकर उन्होंने कहा, ‘जीडीपी के आंकड़े कैसे कैलकुलेट होते हैं, उस पर लंबे समय से विवाद होते आए हैं। मेरे हिसाब से हमें सरकारी आंकड़े जरूर देखने चाहिए, लेकिन उन पर सवाल उठाना भी जरूरी है और यह बिल्कुल जायज़ है।’
उन्होंने कहा, ‘जहां तक भारत के जीडीपी रैंक की बात है, मुझे फिलहाल उस आंकड़े पर कोई खास शक नहीं है, लेकिन मैं मानती हूं कि यह सही पैमाना नहीं है। अगर हमें किसी चीज़ से तुलना करनी है, तो वह प्रति व्यक्ति आय होनी चाहिए, न कि कुल जीडीपी।’
- नित्या पांडियन
‘दोपहर का समय था। मेरी मां, मैं और मेरी बहन पिता के आने का इंतजार कर रहे थे। उस दिन रविवार था और घर में नॉन वेज बना था। लेकिन पापा के आने में देर हो गई। मां ने मुझे और बहन को खाना खिला दिया और खुद उनके आने का इंतज़ार करती रहीं। उस दिन दोनों ने शाम के पाँच बजे दोपहर का खाना खाया।’
‘पिछले 30 सालों में, मेरी मां ने शायद हर दिन इसी तरह से अपना खाना खाया होगा। मुझे याद नहीं कि कभी उन्होंने हमारे साथ बैठकर खाना खाया हो।’
चेन्नई में रहने वाले प्रशांत बीबीसी से अपनी बात कुछ ऐसे कहते हैं।
मैंने घरों में महिलाओं के खाने के तौर-तरीकों पर जहां भी बात की, ज़्यादातर जगहों पर यही स्थिति देखने को मिली।
खाना, यानी महिलाएं जो खाती हैं, एक ऐसी गतिविधि है जिस पर बहुत कम बात होती है।
लेकिन बहु-सांस्कृतिक भारतीय समाज में महिलाओं के खाने को लेकर चर्चा आखऱि कब होती है?
क्या कभी महिलाओं के स्वास्थ्य को गंभीरता से लिया जाता है?
खाने की राजनीति में महिलाओं के हिस्से के खाने को किस नजऱ से देखा जाता है?
क्या हमारे खाने की संस्कृति में भी पितृसत्तात्मक सोच गहराई से शामिल है?
परंपरा के तौर पर अपनाना
बीबीसी से कई महिलाओं ने कहा, ‘महिला को अक्सर त्याग की देवी के तौर पर दर्शाया जाता है। कई मौकों पर महिलाओं से ये अपेक्षा की जाती है कि वह ख़ुद से ऊपर परिवार नामक संस्था को रखे। यह अपेक्षा महिलाओं से पीढिय़ों से रखी जा रही है।’
चेन्नई में रहने वाली आनंदी ने बीबीसी से बात करते हुए उस सलाह को याद किया जो उनकी मां ने उन्हें शादी के दौरान दी थी। उस समय आनंदी 21 साल की थीं।
आनंदी बताती हैं, ‘मां खुद के लिए कुछ नहीं पकाती हैं। सबके खाने के बाद जो कुछ खाना बचता था, वो वही खाना खा लेती थीं। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं चाहती हूं कि तुम भी ऐसी ही बनो।’
आनंदी ने कहा, ‘मुझे नहीं पता कि मेरी मां और दादी ने कभी अपनी पसंद का खाना पकाया या नहीं। लेकिन उन्होंने हमेशा सबके खाने के बाद ही खाना खाया होगा।’
सत्या एक किसान परिवार से आती हैं। उन्होंने बीबीसी को बताया, ‘जब मेरी शादी हुई तो एक दिन दोपहर में मुझे भूख लग रही थी, मैंने खुद के लिए खाना बनाकर खा लिया। इसके बाद जब शाम को मेरी सास आईं तो उन्होंने कहा कि क्या चार बजे किसान के घर खाना बना कर खाने से परिवार में समृद्धि आएगी।’
‘उसके बाद से मैंने शाम को खाना खाना पूरी तरह से बंद कर दिया। भले ही मुझे कितनी भी भूख क्यों न लगी हो।’
क्या ये चलन हर जगह है?
बीबीसी से कई महिलाओं ने अपने अनुभवों को साझा किया।
एक महिला ने कहा, ‘हमारे घर में पुरुषों को जब खाना दिया जाता है तो उन्हें खाना अच्छे तरीके से भरपूर सब्जियों के साथ परोसा जाता है जबकि महिलाओं की थाली में बचा हुआ खाना ही आता है।’
‘नॉन वेज खाने में से भी मीट का सबसे अच्छा हिस्सा हमेशा पुरुषों को ही परोसा जाता है।’
उन्होंने कहा, ‘अगर हमारे घर में पिता और भाई नहीं होते हैं तो हमारे घर में उस दिन नॉन वेज खाना नहीं बनता है।’
सुमैया मुस्तफा एक ऐसे तमिल मुस्लिम परिवार से आती हैं जहां समाज मातृ-सत्तात्मक व्यवस्था में जीता है।
वह कहती हैं, ‘अन्य समुदायों की तुलना में यहां भोजन की राजनीति थोड़ी अलग है। हमारे इलाके़ में शादी के बाद पुरुषों के अपनी पत्नी के घर आकर रहने की परंपरा है। चूंकि महिलाएं घर की मुखिया होती हैं, इसलिए उन्हें पुरुषों की तुलना में अधिक सुविधाएं और विशेषाधिकार मिलते हैं।’
सुमैया एक लेखिका हैं जो भारत के तटीय शहरों में रहने वाले छोटे जातीय समूहों की संस्कृति और भोजन पर रिसर्च कर रही हैं। वे थुथुकुडी जिले के कयालपट्टिनम की मूल निवासी हैं।