विचार/लेख
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
एक वेनेज़ुएला-अमेरिकी होने के नाते, मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि मचाडो क्या दर्शाती हैं: वाशिंगटन की शासन-परिवर्तन मशीन का मुस्कुराता हुआ चेहरा, प्रतिबंधों, निजीकरण और विदेशी हस्तक्षेप का एक शिष्ट प्रवक्ता, जिसे लोकतंत्र का जामा पहनाया जाता है।
जब मैंने ‘मारिया कोरिना मचाडो को नोबेल शांति पुरस्कार मिला’ शीर्षक देखा, तो मैं इस बेतुकेपन पर लगभग हँस पड़ा। लेकिन हँसा नहीं, क्योंकि किसी ऐसे व्यक्ति को पुरस्कृत करने में कोई मज़ाक नहीं है जिसकी राजनीति ने इतनी पीड़ाएँ दी हों। जो कोई भी जानता है कि वह किस विचारधारा की समर्थक हैं, वह जानता है कि उनकी राजनीति में जऱा भी शांति नहीं है।
अगर 2025 में यही ‘शांति’ मानी जाती है, तो पुरस्कार ने अपनी विश्वसनीयता का एक कतरा भी खो दिया है। मैं वेनेज़ुएला-अमेरिकी हूँ, और मुझे अच्छी तरह पता है कि मचाडो क्या प्रतिनिधित्व करती हैं। वह वाशिंगटन की सत्ता-परिवर्तन मशीन का मुस्कुराता हुआ चेहरा हैं, प्रतिबंधों, निजीकरण और विदेशी हस्तक्षेप की लोकतंत्र के रूप में प्रच्छन्न प्रवक्ता हैं।
मचाडो की राजनीति हिंसा में डूबी हुई है। उन्होंने विदेशी हस्तक्षेप की माँग की है, यहाँ तक कि गाजा के विनाश के सूत्रधार, इजऱाइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू से सीधे अपील की है कि वे ‘आज़ादी’ के नाम पर बमों से वेनेज़ुएला को ‘आज़ाद’ कराने में मदद करें। उन्होंने प्रतिबंधों की माँग की है, युद्ध का वह मौन रूप जिसके प्रभावों ने—जैसा कि द लैंसेट और अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित अध्ययनों से पता चला है-युद्ध से ज़्यादा लोगों की जान ली है, और पूरी आबादी के लिए दवा, भोजन और ऊर्जा की आपूर्ति ठप कर दी है।
मचाडो ने अपना पूरा राजनीतिक जीवन विभाजन को बढ़ावा देने, वेनेज़ुएला की संप्रभुता को कम करने और वहाँ के लोगों को सम्मान के साथ जीने के अधिकार से वंचित करने में बिताया है।
मारिया कोरिना मचाडो किसी को फ़ॉलो नहीं कर रही हैं।
उन्होंने 2002 के तख्तापलट का नेतृत्व किया, जिसने एक लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित राष्ट्रपति को कुछ समय के लिए अपदस्थ कर दिया, और कार्मोना डिक्री पर हस्ताक्षर किए, जिसने संविधान को मिटा दिया और रातोंरात सभी सार्वजनिक संस्थानों को भंग कर दिया।
उन्होंने सत्ता परिवर्तन को उचित ठहराने के लिए वाशिंगटन के साथ मिलकर काम किया, और अपने मंच का इस्तेमाल करके वेनेजुएला को बलपूर्वक ‘आज़ाद’ करने के लिए विदेशी सैन्य हस्तक्षेप की माँग की।
उन्होंने डोनाल्ड ट्रम्प की आक्रमण की धमकियों और कैरिबियन में उनकी नौसेना तैनाती का स्वागत किया, जो एक ऐसा शक्ति प्रदर्शन था जिससे ‘मादक पदार्थों की तस्करी से निपटने’ के बहाने क्षेत्रीय युद्ध छिडऩे का खतरा था। जहाँ ट्रम्प ने युद्धपोत भेजे और संपत्तियाँ ज़ब्त कीं, वहीं मचाडो उनके स्थानीय प्रतिनिधि के रूप में काम करने के लिए तैयार रहीं, और वेनेजुएला की संप्रभुता को थाली में परोस कर देने का वादा किया।
उन्होंने अमेरिकी प्रतिबंधों को आगे बढ़ाया, जिसने अर्थव्यवस्था का गला घोंट दिया, यह जानते हुए कि इसकी कीमत किसे चुकानी पड़ेगी- गरीब, बीमार, और मज़दूर वर्ग।
उन्होंने तथाकथित ‘अंतरिम सरकार’ के निर्माण में मदद की, जो वाशिंगटन समर्थित एक कठपुतली शो था जिसे एक स्वयंभू ‘राष्ट्रपति’ चला रहा था, जिसने विदेशों में वेनेजुएला के संसाधनों को लूटा जबकि घर में बच्चे भूखे मर रहे थे।
उन्होंने यरुशलम में वेनेजुएला के दूतावास को फिर से खोलने की कसम खाई है, और खुले तौर पर खुद को उसी रंगभेदी राज्य के साथ जोड़ लिया है जो अस्पतालों पर बमबारी करता है और इसे आत्मरक्षा कहता है। अब वह देश के तेल, पानी और बुनियादी ढांचे को निजी निगमों को सौंपना चाहती हैं। यह वही नुस्खा है जिसने 1990 के दशक में लैटिन अमेरिका को नवउदारवादी दुख की प्रयोगशाला बना दिया था।
मचाडो 2014 के विपक्षी अभियान ला सालिडा के राजनीतिक शिल्पकारों में से एक थे, जिसने ग्वारिम्बा रणनीति सहित तीव्र विरोध प्रदर्शनों का आह्वान किया था। वे ‘शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन’ नहीं थे जैसा कि विदेशी प्रेस ने दावा किया था; वे देश को पंगु बनाने और सरकार को गिराने के लिए संगठित बैरिकेड थे। सडक़ों को जलते हुए कूड़े और कंटीले तारों से अवरुद्ध कर दिया गया, मज़दूरों को ले जा रही बसों में आग लगा दी गई, और चाविस्टा होने के संदेह में लोगों को पीटा गया या मार डाला गया। यहाँ तक कि एम्बुलेंस और डॉक्टरों पर भी हमला किया गया। कुछ क्यूबाई चिकित्सा ब्रिगेडों को लगभग जि़ंदा जला दिया गया। सार्वजनिक इमारतों, खाने के ट्रकों और स्कूलों को नष्ट कर दिया गया। पूरे मोहल्ले भय से बंधक बन गए, जबकि मचाडो जैसे विपक्षी नेता किनारे से तालियाँ बजा रहे थे और इसे ‘प्रतिरोध’ कह रहे थे।
वह ट्रम्प की उस ‘निर्णायक कार्रवाई’ की प्रशंसा करती हैं जिसे वह ‘आपराधिक उद्यम’ कहती हैं, और खुद को उसी व्यक्ति के साथ जोड़ लेती हैं जो प्रवासी बच्चों को पिंजरे में बंद कर देता है और आईसीई की निगरानी में परिवारों को तोड़ देता है, जबकि वेनेज़ुएला की माताएँ अमेरिकी प्रवासन नीतियों द्वारा गायब हुए अपने बच्चों की तलाश कर रही हैं।
अगर हेनरी किसिंजर शांति पुरस्कार जीत सकते हैं, तो मारिया कोरिना मचाडो क्यों नहीं? हो सकता है अगले साल वे ‘कब्जे के दौरान करुणा’ के लिए गाजा मानवतावादी फाउंडेशन को एक पुरस्कार दें।
-आर.के.जैन
रोजगार, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य। बिहार में फिर लापता है। असल मुद्दे से भटक गया है बिहार का चुनाव।
आज पूरी दुनिया में शासन के बेहतरीन मॉडल के रूप में पश्चिमी लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्वीकार कर लिया गया है। जहां भी यह व्यवस्था लागू है, वहां हर चुनाव का मुद्दा हालात में बदलाव का वाहक होता है। लोग जब मतदान केंद्रों पर वोट डालने जाते हैं तो उनके मन में बदलाव का चेहरा गहरे तक पैठ बनाए होता है।
लेकिन क्या बिहार के मतदाताओं को इन मानकों पर देखा-परखा जा सकता है?
आजादी के बाद पहले तीन दशकों तक बिहार भारत का सबसे तेजी से आगे बढ़ता हुआ राज्य था । उद्योगों से लेकर शिक्षा और कृषि तक। लेकिन इसके बाद इसकी गाड़ी पटरी से उतर गई।
बिहार के पहले कांग्रेस के मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह थे उनका राज्य पर शासन 23 सालों तक चला । इसमें उन्होंने सामाजिक और आर्थिक सुधारों पर काफी काम किया । इस दौर में बिहार में कई बड़े उद्योग जैसे बोकारो स्टील प्रोजेक्ट, थर्मल पावर प्लांट्स, फर्टिलाइजर रिफाइनरी और टिस्को (जो बाद में टेलको बना) जैसे बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठान स्थापित हुए। शिक्षा के क्षेत्र में भी बिहार में बड़े कदम उठाए। अच्छे कॉलेज और बिहार इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी जैसे प्रीमियर इंस्टीट्यूट की स्थापना की गई।
बिहार में 1950 और 1980 के बीच औद्योगीकरण की कोशिशें की गईं, जिसमें डालमियानगर में बड़े कृषि-औद्योगिक शहर का विकास, बरौनी में तेल रिफाइनरी, उर्वरक संयंत्र, थर्मल पावर स्टेशन, फतुहा में मोटर स्कूटर संयंत्र और मुजफ्फरपुर में बिजली संयंत्र स्थापित किए गए। बिहार ने चीनी उत्पादन और बागवानी में भी अच्छा प्रदर्शन किया। 1960 के दशक के मध्य तक भारत के कुल चीनी उत्पादन का 25त्न बिहार से था।
लोकतंत्र की जननी के रूप में प्रतिष्ठित बिहार की धरती उलटबांसियों से भरी पड़ी है। साक्षरता दर के लिहाज से आज का बिहार देश के कई राज्यों से पीछे है। लेकिन यहां के वोटरों में राजनीतिक जागरूकता नजर आती है। ऐसी स्थिति में बिहार की स्थिति बेहतर होनी चाहिए थी। मगर हकीकत इससे दूर है। आज भी राष्ट्रीय स्तर पर बिहार की छवि मजदूर-कामगार सप्लायर के रूप में है।
मराठी मानुष के नाम पर राज ठाकरे जैसों की राजनीतिक सेना बिहारी मूल के छात्रों और कामगारों पर कभी रोजगार , तो कभी स्थानीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर हमले करती है ।
स्पष्ट है कि उसके पीछे बिहार को लेकर बनी विशेष छवि का असर है। लेकिन बिहार मे इस छवि को बदलने की गंभीर सोच और मुद्दे पर शायद ही 90 के दशक के बाद कोई चुनाव लड़ा गया हो।
आज देश में प्रति व्यक्ति आय एक लाख 14 हजार 710 रुपये सालाना है, लेकिन बिहार का औसत निवासी आम भारतीय की तुलना में एक तिहाई से भी कम यानी महज 32 हजार 227 रुपये ही कमा पाता है।
जो कर्नाटक राज्य कभी बिहार से काफी पीछे था, वहां की प्रति व्यक्ति औसत आय राष्ट्रीय औसत से भी ज्यादा है। कर्नाटक में प्रति व्यक्ति आय एक लाख नब्बे हजार रुपये सालाना है। बिहार का उपहास उड़ाने का मौका अन्य राज्यों के लोगों को इसलिए मिलता है, क्योंकि उनके राज्यों की प्रति व्यक्ति आय बिहार से करीब छह गुना ज्यादा तक है, यानी एक लाख 80 हजार रुपये सालाना है।
आजादी के तत्काल बाद के आंकड़ों को देखें तो देश के चीनी उत्पादन में बिहार का योगदान चौथाई था, जबकि धान और गेहूं की पैदावार में उसकी भागीदारी 29 प्रतिशत थी। देश का आधा बागवानी उत्पादन बिहार में ही होता था। तब बिहार में चीनी और वनस्पति तेल उद्योग फलता-फूलता कारोबार था। तब यहां डालमियानगर और टाटानगर जैसे कागज और स्टील उत्पादन के अहम केंद्र थे। लेकिन बाद के दिनों में बिहार की स्थिति बिगड़ती गई।
नब्बे के दशक में सामाजिक न्याय के शासन ने पिछड़ी और दलित जातियों को आवाज तो दी, लेकिन कानून-व्यवस्था का सवाल गहरा होता चला गया। इसकी वजह से विकास की रफ्तार थमी। उद्योगों ने बिहार से किनारा कर लिया। सामाजिक न्याय के खिलाड़ी इसके लिए कथित ब्राह्मणवादी मानसिकता को जिम्मेदार ठहरा कर एक तरह से अपनी कमियों को ढंकने का बहाना तलाश लेते हैं।
-स्वयं प्रकाश
जापान में साल भर से ज्यादा समय से रह रहे एक भारतीय व्यक्ति ने जापान में एक अजीब बात देखी कि उसके जापानी मित्र विनम्र और मददगार थे, किंतु उसे कोई भी अपने घर नहीं बुलाता था। एक कप चाय के लिए भी नहीं।
हैरान और आहत होकर, आखिरकार उसने एक जापानी मित्र से पूछा कि ऐसा क्यों?
काफी देर तक चुप रहने के बाद, उस दोस्त ने जवाब दिया कि, ‘हमें भारतीय इतिहास पढ़ाया जाता है, किंतु प्रेरणा लेने के लिए नहीं, बल्कि एक चेतावनी के तौर पर।’
उस भारतीय व्यक्ति ने हैरान होकर पूछा, ‘चेतावनी, भारतीय इतिहास चेतावनी के तौर पर पढ़ाया जाता है? प्लीज़ बताओ क्यों।’
जापानी दोस्त ने उससे पूछा, ‘कितने अंग्रेजों ने भारत पर राज किया?’
भारतीय व्यक्ति ने कहा, ‘शायद...लगभग 10,000?’
जापानी व्यक्ति ने गंभीरता से हाँ में सिर हिलाया और पूछा उस समय भारत में 30 करोड़ से ज्यादा भारतीय रहते थे। हैं ना?’
‘तो फिर तुम्हारे लोगों पर अत्याचार किसने किया? उन्हें कोड़े मारने, यातना देने और गोली मारने के आदेशों का पालन किसने किया?’
उसने जोर देकर पूछा कि, ‘जब जनरल डायर ने जलियांवाला बाग में गोली चलाने का आदेश दिया, तो ट्रिगर किसने दबाया था? क्या वे अंग्रेज़ सैनिक थे?नहीं, वे भारतीय थे। किसी ने भी जनरल डायर पर अपनी राइफल क्यों नहीं तानी? ‘उसने आगे कहा, ‘तुम जिस गुलामी की बात करते हो ना यही तुम्हारी असली गुलामी थी। शरीर की नहीं, आत्मा की।
वह भारतीय व्यक्ति जड़वत, मौन और शर्मिंदा खड़ा सुनता रहा। जापानी मित्र ने आगे कहा, ‘मध्य एशिया से कितने मुग़ल आए थे? शायद कुछ हजार? और फिर भी उन्होंने सदियों तक तुम पर राज किया। मुगलों ने अपने संख्या बल से भारत में शासन नहीं किया बल्कि तुम्हारे अपने लोगों ने सिर झुका कर मुगलों को सलाम किया। अपने लोगों से द्रोह किया और मुगलों की वफादारी की। या तो जिंदा रहने के लिए या चाँदी के सिक्कों के लिए।’
‘तुम्हारे अपने ही लोगों ने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया। अपनी बहन-बेटी मुगलों से ब्याह दी।
तुम्हारे ही लोगों ने तुम्हारे नायकों को अंग्रेजों को सौंप दिया। चंद्रशेखर आजाद के साथ विश्वासघात किसने किया? वे अल्फ्रेड पार्क में छुपे हैं ये खबर अंग्रेजों को किसने दी?
भगत सिंह को उन लोगों (गांधी-नेहरू) की अनुमति के बिना फाँसी पर चढ़ाना आसान था क्या? जो कि खुद को देशभक्त कहते थे।’
‘तुम भारतीयों को विदेशी दुश्मनों की जरूरत नहीं है। तुम्हारे ही लोग सत्ता, पद और निजी लाभ के लिए बार-बार तुम्हें धोखा देते हैं। इसीलिए हम भारतीयों से दूरी बना कर रखते हैं।’
-डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी
आजकल Gen Z के आंदोलन मोरक्को में चल रहे हैं। इसके पहले नेपाल, पेरू, मेडागास्कर, इंडोनेशिया आदि में ऐसे हिंसक आंदोलन हो चुके हैं। परिणाम बड़े हुए हैं। मोरक्को 2030 में फुटबॉल के फीफा वर्ल्ड कप में स्पेन और पुर्तगाल के साथ सह मेजबान है और वहां स्टेडियम और अन्य सुविधाओं पर सरकार करीब 16 अरब डॉलर के खर्च कर रही है।
युवा आंदोलनकारियों का कहना है कि :
-मोरक्को में बेरोजगारी चरम पर है।
-बीमार लोगों के लिए अस्पताल नहीं है।-राजशाही वाली सरकार फीफा के लिए अरबों डॉलर क्यों खर्च कर रही है।
-अस्पताल टूट रहे हैं, लेकिन मोरक्को 3 नये स्टेडियम बना रहा है और 6 अन्य स्टेडियम का विस्तार कर रहा है। जो 16 अरब डॉलर का खर्च है, वह स्वास्थ्य और शिक्षा पर होना चाहिए।
मोरक्को में युवा बेरोजगारी दर 35.8% है, जबकि कुल बेरोजगारी 12.8%। आर्थिक विकास 3त्न के आसपास है, जो लक्ष्य (6%) से कम है। युवा स्नातक भी नौकरियां नहीं पा रहे। सार्वजनिक अस्पतालों और स्कूलों में स्टाफ और उपकरणों की कमी है। सितंबर 2025 में अगादिर के एक अस्पताल में प्रसव के दौरान 8 महिलाओं की मौत ने गुस्से को भडक़ाया, जो स्वास्थ्य व्यवस्था की कमजोरी का प्रतीक बन गया।
मोरक्को के आंदोलन ने हाल ही में वैश्विक सुर्खियां बटोरीं। आंदोलनकारियों की मांगें है कि सरकार इस्तीफा दे, प्रधानमंत्री कैबिनेट को भंग करें और और राजा मोहम्मद VI से नई शुरुआत हो। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी युवाओं की मांगों का समर्थन किया है।
यह आंदोलन मुख्य रूप से युवाओं द्वारा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के जरिए संगठित किया गया है। यह लीडरलेस है और राजनीतिक दलों या यूनियनों से अलग है। आंदोलन की शुरुआत 27 सितंबर 2025 को रबात के कामगार इलाकों से हुई, जो अब कसाब्लांका, अगादिर, उज्दा और अन्य शहरों तक फैल चुका है।
केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने ‘धार्मिक, आहार संबंधी’ चिंताओं के चलते पशु प्रोटीन-आधारित बायोस्टिमुलेंट्स को दी गई मंजूरी वापस ले ली है. इसका फसलों पर क्या असर होगा?
डॉयचे वैले पर साहिबा खान का लिखा-
हाल ही में केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने "धार्मिक और आहार संबंधी समस्याओं" की वजह से, मुर्गी के पंख, ऊतक, गोवंश की खाल और कॉड मछली के छिलके सहित पशुओं से मिलने वाले 11 जैव-उत्तेजकों यानी बायोस्टिमुलेंट्स की बिक्री के लिए दी गई मंजूरी वापस ले ली है. पहले धान, टमाटर, आलू, खीरा और मिर्च जैसी फसलों के लिए इनके इस्तेमाल को मंजूरी दी गई थी लेकिन अब इस फैसले को वापस ले लिया गया है.
बायोस्टिमुलेंट्स क्या होते हैं?
साधारण शब्दों में, बायोस्टिमुलेंट्स वो पदार्थ हैं जो पौधों के विकास में मदद करते हैं. ये पौधों की पोषक तत्व ग्रहण करने की क्षमता बढ़ाते हैं और फसल की गुणवत्ता सुधारते हैं. ये उर्वरकों की तरह सीधे पौधों को पोषण नहीं, और ना ही कीटनाशकों की तरह कीड़ों को मारते हैं.
फॉर्च्यून बिजनेस इनसाइट्स के अनुसार, भारतीय बायोस्टिमुलेंट्स मार्केट 2024 में 295 अरब रुपये यानी 355.53 मिलियन डॉलर का था और 2032 तक इसके 943 अरब रुपये यानी करीब 1.1 बिलियन डॉलर तक पहुंच जाने का अनुमान है. देश में प्रमुख निर्माता कंपनियों में कोरोमंडल इंटरनेशनल, सिंगेंटा और गोदरेज एग्रोवेट शामिल हैं. बायोस्टिमुलेंट्स आमतौर पर तरल या स्प्रे के रूप में बेचे जाते हैं.
सरकार ने क्यों रोकी बिक्री?
दरअसल, सरकार की ये कार्रवाई खासतौर पर प्रोटीन हाइड्रोलाइसेट वाले बायोस्टिमुलेंट्स को लेकर हुई है. ये प्रोटीन को तोड़कर बनाए जाने वाले अमीनो एसिड और पेप्टाइड्स का मिश्रण होते हैं. ऐसे हाइड्रोलाइसेट पौधों से भी आ सकते हैं, जैसे सोयाबीन, अल्फाल्फा, और मक्का, और जानवरों से भी, जैसे गाय की खाल, मुर्गी के पंख या सूअर का ऊतक.
30 सितंबर को कृषि मंत्रालय ने 11 ऐसे बायोस्टिमुलेंट्स को इस्तेमाल सूची से बाहर कर दिया है. ये उत्पाद हरे चने, टमाटर, मिर्च, कपास, खीरा, सोयाबीन, अंगूर और धान जैसी फसलों में इस्तेमाल किए जाते थे. जानवरों से बने होने की वजह से इसमें गाय की खाल, बाल, मुर्गी के पंख, सूअर का ऊतक, हड्डियां और कॉड व सार्डीन मछली के छिलके जैसी चीजें शामिल थीं.
2021 तक, भारतीय बाजार में बायोस्टिमुलेंट्स एक दशक से भी ज्यादा समय तक खुलेआम बेचे जा रहे थे, और उनकी सुरक्षा, बिक्री या प्रभावी इस्तेमाल के लिए कोई खास सरकारी नियम नहीं थे. लेकिन 2021 में, सरकार ने बायोस्टिमुलेंट्स को फर्टिलाइजर कंट्रोल ऑर्डर यानी एफसीओ के तहत ला दिया, जिसका मतलब था कि कंपनियों को इन उत्पादों को पंजीकृत कराना होगा और सुरक्षा व प्रभाव साबित करना होगा. इसके बावजूद, उन्हें 16 जून, 2025 तक बेचने की अनुमति थी, बशर्ते इसके लिए एप्लीकेशन पहले ही जमा करा दी गई हो.
इन जैव-उत्तेजकों को भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) की ओर से मंजूरी दिए जाने के बाद इस साल की शुरुआत में अलग-अलग अधिसूचनाओं के जरिए उर्वरक (गैर कार्बनिक, कार्बनिक या मिश्रित) (नियंत्रण) आदेश (एफसीओ), 1985 की अनुसूची VI में शामिल किया गया था. इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के महानिदेशक मांगी लाल जाट ने भारतीय अखबार इंडियन एक्सप्रेस से कहा कि इन पशु स्रोत-आधारित बायोस्टिमुलेंट्स के लिए फिलहाल अनुमति ‘रद्द' कर दी गई है.
अंडे के कुछ मजेदार फंडे
सेहत के लिए तो अंडे अच्छे होते ही हैं, साथ ही कुछ जगहों पर तो इनका साज सजावट के लिए भी इस्तेमाल होता है. जानिए अंडों से जुड़ी कुछ मजेदार बातें.
ताजा या बासी?
वैसे तो अंडे बहुत जल्दी खराब नहीं होते लेकिन अगर आपको शक है तो पानी के ग्लास में अंडा डाल दें. अगर वह नीचे चला जाता है तो अंडा ताजा है और अगर पानी में ऊपर ही तैरता रहता है तो समझ लें कि बासी है.
खाएं या ना खाएं
अगर अंडे में थोड़ा हिस्सा लाल निकल आए, तो अक्सर लोग उसे खाने में संकोच करते हैं. लेकिन इसे खाना हानिकारक नहीं है. ये अंडे की जर्दी से जुड़ी हुई कुछ रक्त कोशिकाएं होती हैं.
उबला या नहीं?
अगर आप अंडा तोड़ने से पहले सुनिश्चित करना चाहते हैं कि वह ठीक से उबला है या नहीं, तो उसे मेज पर छोड़ दें. अगर अंडा ठीक से घूम रहा है, तो वह अंदर तक पक गया है और अगर इधर उधर लड़खड़ा रहा है, तो अब भी अंदर से कच्चा है.
पीला या सफेद?
अंडे के सफेद हिस्से में 57 फीसदी प्रोटीन होता है. अधिकतर लोग मानते हैं कि पीले हिस्से में कॉलेस्ट्रॉल के अलावा और कुछ भी नहीं होता लेकिन ऐसा नहीं है. अंडे की जर्दी में विटामिन ऐ, बी, डी और ई होता है.
कितनी पीली जर्दी?
जर्दी के पीलेपन से उसके पोषण का कोई लेना देना नहीं है. जर्दी का रंग मुर्गी के आहार पर निर्भर करता है. इसीलिए हर जगह के अंडे देखने में थोड़े अलग होते हैं.
हैंगओवर का इलाज
अगर रात में पार्टी में जरूरत से ज्यादा पी ली है, तो अगली सुबह नाश्ते में अंडे खाने से मदद मिलती है. अंडा शरीर में मौजूद विषैले तत्वों को सोख लेता है और हैंगओवर से बचाता है.
सिर्फ मुर्गी के ही नहीं
हालांकि आम तौर पर मुर्गी के ही अंडे खाए जाते हैं लेकिन दरअसल बतख, बटेर, हंस और यहां तक कि शुतुरमुर्ग के अंडे भी खाए जा सकते हैं.
सारा साल अंडे
एक मुर्गी एक साल में लगभग 250 से 280 अंडे दे सकती है. मुर्गियां सारा साल अंडे देती हैं. अंडे देने का कोई खास सीजन नहीं होता. दुनिया भर की अंडों की 40 प्रतिशत पैदावार चीन में होती है.
कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पिछले साल भी अनियमित बायोस्टिमुलेंट्स पर चिंता जताई थी. उन्होंने कहा, "लगभग 30,000 बायोस्टिमुलेंट कई सालों तक बिना किसी जांच के बेचे जा रहे थे. पिछले चार सालों में करीब 8,000 ऐसे उत्पाद भी बाजार में उपलब्ध थे. सख्त जांच के बाद अब संख्या लगभग 650 रह गई है.
शाकाहार और धर्म का मसला
भारत में शाकाहारी होने की प्रवृत्ति सांस्कृतिक, धार्मिक, जातीय और सामाजिक जड़ों से जुड़ी हुई है. हालांकि, हाल के वर्षों में मांसाहारी भोजन की खपत में बढ़ोतरी देखी गई है, फिर भी एक बड़ी आबादी शाकाहारी है.
प्यू रिसर्च सेंटर की ओर से 2021 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, भारत में लगभग 39% वयस्क खुद को शाकाहारी मानते हैं. इस अध्ययन में करीब 30 हजार भारतीय वयस्कों से बात की गई थी, जो 26 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों से थे. इसमें पाया गया था कि जैन समुदाय में शाकाहारी होने की दर 92 फीसदी है, जबकि मुस्लिम समुदाय में यह दर केवल 8 फीसदी है. हिंदू समुदाय में यह दर 44 फीसदी है, और अन्य धर्मों में यह दर अलग अलग है.
वर्ल्ड ऐटलस के अनुसार, भारत में 38 फीसदी लोग शाकाहारी हैं, यानी यह दुनिया में सबसे अधिक शाकाहारी आबादी वाला देश है. यह रिपोर्ट 2023 में आई थी.
क्या सब के शाकाहारी हो जाने से खत्म हो जाएगा भूख का संकट
हालांकि सोशल एक्टिविस्ट और कृषि विशेषज्ञ कविता कुरुघंटी का कहना है कि इस आधार पर इन बायोस्टिमुलेंट्स पर रोक लगाना उनकी समझ से से परे है. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "गाय का दूध तो गाय से आता, फिर भी वो शाकाहार है. कुछ पूर्वी राज्यों में मछली को शाकाहार समझा जाता रहा है. केवल पेड़ों से बनने वाली चीजें ही शाकाहारी नहीं होतीं. इसलिए सरकार का यह कहकर इन बायोस्टिमुलेंट्स पर रोक लगाना मुझे समझ नहीं आता.”
भारत में त्योहारों से लेकर रोजमर्रा के जीवन में खान पान संबंधित कई मामले सामने आए हैं जिन्हें ध्रुवीकरण का नतीजा भी कहा जाता रहा है. इस कारण फसलों में ऐसे उत्पाद इस्तेमाल करना और उनकी बिक्री, शाकाहार और उससे जुड़ी ध्रुवीकरण राजनीति पर भी असर डालते हैं.
कितने असरदार होते हैं जानवरों वाले बायोस्टिमुलेंट्स?
पौधों की बढ़त के लिए बायोस्टिमुलेंट्स पर कई शोध हुए हैं. 2021 में साइंस डायरेक्ट नाम के ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर छपे एक शोध के अनुसार पौधों से बने बायोस्टिमुलेंट्स, जैसे प्रोटीन हाइड्रोलाइसेट, अक्सर जानवरों से बने स्टिमुलेंट्स की तुलना में पौधों को जल्दी बड़ा होने में मदद करते हैं. इसमें अमीनो एसिड की संरचना और जैविक सक्रियता की बड़ी भूमिका होती है. यानी अगर आप ज्यादा स्थिर और लगातार फायदा चाहते हैं, तो पौधों से बने बायोस्टिमुलेंट्स ज्यादा भरोसेमंद हैं.
दूसरी तरफ, 2018 में फ्रंटियर्स पर छपे एक बड़े शोध में से एक आर्टिकल का कहना था कि जानवरों से बने बायोस्टिमुलेंट्स भी कुछ फसलों जैसे टमाटर और लेटस में असर दिखा सकते हैं, लेकिन उनका फायदा वातावरण, फसल की किस्म और लगाने के तरीके पर निर्भर करता है. इसलिए इनका इस्तेमाल करते समय थोड़ी सावधानी जरूरी है.
कुल मिलाकर कहा जाए तो, पौधों से बने बायोस्टिमुलेंट्स ज्यादातर परिस्थितियों में बेहतर और सुरक्षित विकल्प हैं, जबकि जानवरों से बने बायोस्टिमुलेंट्स कुछ खास स्थितियों में ही ज्यादा असरदार हो सकते हैं.
किसानों और उद्योग के लिए असर
फिर भी कृषि विशेषज्ञ कविता कुरुघंटी कहती हैं कि सरकार किस बुनियाद पर उत्तेजकों को बांट रही है, वो भी साफ नहीं है. वो पूछती हैं, "दूध, घी आदि जैसी दूध से बनी चीजों से प्राप्त पंचगव्य का वर्गीकरण कैसे किया जाएगा? जीवामृत में गाय के गोबर और मूत्र का क्या? क्या यह पशु-जनित नहीं है?”
बहरहाल इस फैसले से किसानों पर तत्काल असर पड़ सकता है, खासकर जो जानवरों से बने बायोस्टिमुलेंट्स का इस्तेमाल कर रहे थे. वहीं, उद्योग को भी अपने उत्पादों और मार्केटिंग रणनीति पर बदलाव करना पडेगा.
-हृदयेश जोशी-अशोक पांडे
बचपन में अपनी असाधारण प्रतिभा से हैरान कर देने वाले कितने ही बच्चों को भोंदू वयस्कों में बदलते हुए हर किसी ने देखा ही होगा। चार-पांच साल के बच्चे किसी एक्सपर्ट की तरह कम्प्यूटर चलाते, सितार बजाते, कविता लिखते, या ऐसा ही कुछ करते नजर आते हैं तो हम झट कह उठते हैं, ‘जीनियस पैदा हुआ है!’ गोया जीनियस आनुवंशिक विरासत में मिला कोई गुण हो। यही जीनियस अक्सर उनके बारह-पंद्रह को होते न होते टें बोल जाता है और आगे जाकर ये बच्चे बेहद साधारण मनुष्य के तौर पर जीवन जीते दिखाई देते हैं।
हालांकि इस बारे में कुछ भी तयशुदा तरीक़े से नहीं कहा जा सकता लेकिन हंगरी के एक मनोवैज्ञानिक पिता द्वारा किया गया एक अद्वितीय प्रयोग अनेक धारणाओं को चुनौती देता है। हंगरी के रहने वाले लैस्लो पोल्गर ने जीनियस की अवधारणा को खारिज करते हुए अपनी तीन बेटियों के साथ एक अभिनव प्रयोग किया – सबसे पहले उन्होंने अपनी पत्नी क्लारा को विश्वास में लिया और आपसी सहमति से अपनी किसी भी संतान को स्कूल भेजने के बजाय घर पर पढ़ाने का फैसला किया।
उनकी तीन बेटियाँ हुईं-1969 में सूजन, 1974 में सोफिय़ा और 1976 में जूडिथ।
तीनों बच्चियों को बिल्कुल बचपन से शतरंज खेलने का प्रशिक्षण दिया गया – जूडिथ याद करती हैं कि उनके घर के हर कमरे में शतरंज से जुड़ी चीज़ें और किताबें अटी रहती थीं। इसके लिए लैस्लो पोल्गर को खासा विरोध भी झेलना पड़ा लेकिन उनका मानना कि वे न सिर्फ अपनी बेटियों को बड़ा खिलाड़ी बनाएंगे, उन्हें महिला वर्ग तक ही सीमित भी नहीं रहने देंगे।
सबसे बड़ी सूजन ने जुलाई 1984 में, जब उनकी उम्र सिर्फ पंद्रह साल थी, दुनिया की नंबर वन महिला शतरंज खिलाड़ी बनकर सबको हैरान कर दिया। उसके बाद पूरे तेईस वर्षों तक वे विश्व की शीर्ष तीन महिला खिलाडिय़ों में बनी रहीं। 1986 में उन्होंने पुरुष विश्व शतरंज चैम्पियनशिप चक्र में क्वालीफाई करने वाली पहली महिला बनकर इतिहास बना डाला। यह किसी अभेद्य दीवार को तोडऩे जैसा कारनामा था। 1996 से 1999 तक वे क्लासिकल टाइम कंट्रोल की महिला विश्व चैम्पियन रहीं। 1992 में उन्होंने विश्व ब्लिट्ज और रैपिड चैम्पियनशिप दोनों जीतकर यह साबित कर दिया कि गति और गहराई—दोनों में वे बेमिसाल हैं। अक्टूबर 2005 में उनका रेटिंग स्कोर 2577 तक पहुँचा, और वे दुनिया की नंबर दो महिला खिलाड़ी रहीं।
सबसे छोटी सोफिय़ा की कहानी भी किसी किंवदंती से कम नहीं। सिफऱ् चौदह साल की उम्र में रोम के एक टूर्नामेंट में उन्होंने नौ में से साढ़े आठ पॉइंट्स अर्जित कर शतरंज जगत में तहलका मचा दिया। उनके ओवरऑल रेटिंग 2879 थी जिससे इतिहास की सबसे ऊँची रेटिंग्स में से एक गिना जाता है। उन्होंने दस बार विश्व चैम्पियनशिप के उम्मीदवार रह चुके महान विक्टर कोर्चनोय को मात दी। हार के बाद विक्टर ने तंज भरे गर्व से कहा था, ‘यह पहली और आखिरी बार है जब वह मुझसे जीती है।’ यह और बात है कि वे फिर कभी आमने-सामने नहीं खेले। सोफिय़ा अब इजऱाइल में रहती हैं, जहाँ उन्होंने तीन बार शतरंज ओलंपियाड में भाग लिया। उनकी टीम ने 1990 और 1998 में स्वर्ण पदक, और 1994 में रजत पदक जीता। व्यक्तिगत रूप से उन्होंने 1990 में एक और 1994 में दो स्वर्ण पदक अपने नाम किए।
बहनों में से सबसे बड़ा नाम मंझली जूडिथ का हुआ जिन्हें आज तक के शतरंज के इतिहास की सबसे मजबूत महिला शतरंज खिलाड़ी माना जाता है। 2700 से अधिक रेटिंग हासिल करने वाली वे पहली और अब तक की अकेली महिला हैं। 2005 में उन्होंने विश्व रैंकिंग में आठवाँ स्थान हासिल किया – कोई भी दूसरी महिला खिलाड़ी आज तक इस जगह नहीं पहुँची है। कुल पंद्रह साल और चार महीने की उम्र में वे इतिहास की सबसे कम उम्र की ग्रैंडमास्टर बनीं। जूडिथ इकलौती महिला हैं जिन्होंने विश्व के नंबर वन खिलाड़ी को हराया है।
जूडिथ ने जिन खिलाडिय़ों को धूल चटाई उनमें मैग्नस कार्लसन, अनातोली कार्पोव, गैरी कास्परोव, व्लादिमीर क्रामनिक, बोरिस स्पास्की, वासिली स्मिस्लोव, वेसेलिन टोपालोव और विश्वनाथन आनंद जैसे वर्तमान शतरंज के सभी बड़े नाम शामिल हैं।
सीजेआई के हमलावर वकील को कोई पछतावा नहीं
-आर.के. जैन
सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में भारत के चीफ जस्टिस (सीजेआई) बी आर गवई पर जूता फेंकने की कोशिश करने वाले 72 वर्षीय वकील राकेश किशोर ने कहा है कि उसे अपने कृत्य के लिए कोई पछतावा नहीं है, जबकि उसके परिवार ने इसके लिए उनकी कड़ी निंदा की है।
पुलिस पूछताछ में राकेश किशोर ने बताया कि उसने यह कदम इसलिए उठाया क्योंकि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने खजुराहो के वाद विषय पर एक याचिका न सुनने का आदेश दिया था। उस याचिका में भगवान विष्णु की मूर्ति को पुनर्स्थापित करने की मांग की गई थी।
न्यायालय की उस टिप्पणी पर उसने आपत्ति जताई कि “मंदिर के विषय में यह मामला ASI (पुरातत्व सर्वेक्षण) का विषय है।” यह भी कहा था कि “ईश्वर से कहो कि वे कुछ करें।”
राकेश ने कहा कि इस निर्णय के बाद “मैं चैन से नहीं सो सका, रातों को ईश्वर मुझसे पूछ रहे थे कि मैं कैसे आराम कर सकता हूँ।” उन्होंने यह भी कहा कि वे किसी राजनीतिक दल से नहीं जुड़े हैं और जेल जाने के लिए तैयार हैं। “अगर मैं जेल में होता तो अच्छा होता। मेरा परिवार बहुत दुखी है, उन्हें मेरा यह कदम समझ नहीं आ रहा है।”
घटना के समय, वह “सनातन का अपमान नहीं सहेगा हिंदुस्तान” कहता हुआ ले जाया गया। Supreme Court Bar Association के संयुक्त सचिव ने कहा कि किशोर से मिलने पर उन्होंने देखा कि वह अपराधबोध महसूस नहीं कर रहा था।
पुलिस ने यह भी पुष्टि की कि उसके पास वैध कोर्ट प्रवेश अनुमति थी। जिसमें बार काउंसिल ऑफ इंडिया कार्ड और अस्थायी SCBA सदस्यता शामिल थी।
सीजेआई गवई का शांत व्यवहार 57 साल पहले चाकू से हमला करने वाले एक व्यक्ति के साथ कोर्ट रूम में एक जज के साथ हुई घटना की याद दिलाता है।
13 मार्च, 1968 को, भारत के तत्कालीन चीफ जस्टिस एम. हिदायतुल्लाह ने अपने साथी जज जस्टिस ए.एन. ग्रोवर की जान बचाने के लिए अदालत कक्ष में चाकू लिए एक व्यक्ति से हाथापाई की। एक पुलिस अधिकारी द्वारा हमलावर को हथकड़ी लगाने के बाद, चीफ जस्टिस ने पुलिस अधिकारी से कहा कि वह उस व्यक्ति के साथ नरमी से पेश आए और मारपीट न करें।
मौजूदा सीजेआई बी.आर. गवई पर जब यह निंदनीय कोशिश की गई तो वह एकदम शांत रहे। उन्होंने परेशान वकीलों से बिना रुके अदालती कार्यवाही जारी रखने को कहा। जस्टिस गवई का शांत रहना उस घटना की याद दिलाता है जब स्व. सीजेआई हिदायतुल्लाह अपने साथी जज ए.एन. ग्रोवर की जान बचाने के लिए चाकू से लैस हमलावर से जूझ गए थे। फिर पुलिस वालों से कहा कि उस हमलावर से मारपीट न की जाए।
सीजेआई कुछ दिन बाद रिटायर होने वाले हैं और यह घटना भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाएगी। लेकिन ऐसी घटनाओं से न्यायपालिका को चोट पहुंचाने की कोशिश है।
-नियाज फारूकी
अफगानिस्तान में तालिबान शासन के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी यात्रा प्रतिबंधों से छूट मिलने के बाद अगले हफ्ते भारत दौरा करने वाले हैं। अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ क्षेत्रीय हालात के मद्देनजर इस दौरे को अहम बता रहे हैं।
भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में मुत्तकी को दी गई छूट की पुष्टि की लेकिन यह नहीं बताया कि तालिबानी नेता भारत आएंगे या नहीं।
लेकिन तालिबान विदेश मंत्रालय के एक अधिकारी ने बीबीसी से पुष्टि की कि मुत्तकी भारत आएंगे लेकिन उन्होंने अधिक जानकारी देने से इनकार कर दिया।
अफगान तालिबान नेता यात्रा प्रतिबंधों के कारण संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से छूट हासिल करने के बाद ही किसी अन्य देश की यात्रा कर सकते हैं। अगस्त 2021 में तालिबान के अफग़़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा करने के बाद से यह तालिबान सरकार के किसी मंत्री की पहली आधिकारिक भारत यात्रा होगी।
भारत ने अभी तक तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी है लेकिन हाल के दिनों में संपर्क तेज हुए हैं। मई 2025 में कश्मीर के पहलगाम में हुए हमले के बाद भारत के विदेश मंत्री एस। जयशंकर ने तालिबान सरकार के विदेश मंत्री से फोन पर बात की थी।
भारत ने कैसे बढ़ाए तालिबान सरकार से संपर्क
अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञों का कहना है कि मुत्तकी का ये दौरा भारत और अफगानिस्तान दोनों के लिए एक अहम कूटनीतिक क्षण है। क्योंकि इससे दशकों पुरानी भारत और तालिबान की दुश्मनी समाप्त होने की उम्मीद जगी है।
भारत अतीत में अफगान तालिबान के विरोधी समूहों का समर्थन करता रहा है। इनमें वे समूह भी शामिल हैं जिन्होंने 2021 तक अफगान सरकार का नेतृत्व किया था। जबकि तालिबान को भारत के प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान का एक हथियार माना जाता था।
मुत्तकी की भारत यात्रा ऐसे समय में हो रही है जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने काबुल के पास बगराम एयर बेस को वापस लेने की घोषणा की है।
जिंदल यूनिवर्सिटी में अफगान अध्ययन के प्रमुख प्रोफेसर राघव शर्मा का कहना है कि इस समय मुत्तकी का आना इसलिए अहम है क्योंकि अफगानिस्तान में चीन का प्रभाव बढ़ रहा है।
रूस ने भी तालिबान के साथ राजनयिक संबंध बढ़ाए हैं।
राघव शर्मा के मुताबिक, ‘पाकिस्तानी सरकारों के साथ तालिबान के नजदीकी रिश्तों के कारण भारत उनके साथ अपने रिश्तों को लेकर सतर्क रहा है।’
शर्मा कहते हैं, ‘मुत्तकी का दौरा ऐसे समय में हो रहा है जब अफगान मोर्चे पर बहुत कुछ हो रहा है। यह इस तथ्य की ओर इशारा करता है कि तालिबान के सत्ता में आने के बाद से भारत का उससे बहुत धीमा और सतर्क तालमेल अब अपना असर दिखा रहा है।’
कोलकाता में आलिया विश्वविद्यालय में अफगान-भारत संबंधों के रिसर्चर मोहम्मद रियाज़ का कहना है कि 2010 से यह साफ हो गया था कि अफगान तालिबान अफगानिस्तान के राजनीतिक परिदृश्य पर फिर से उभर रहा है।
उनके मुताबिक, ‘उस समय दुनिया भर के विभिन्न देशों ने तालिबान से संपर्क शुरू कर दिया था लेकिन भारत ने उनसे संपर्क करने में देरी की।
वो कहते हैं, ‘भारत पहले तालिबान से दूरी बनाए रखता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है।’
हालांकि तालिबान के काबुल पहुंचने के बाद भारत ने अपने राजनयिक कर्मचारियों को वापस बुला लिया और सीधा संपर्क स्थगित कर दिया। लेकिन जल्द ही उसने अपनी रणनीति बदल दी।
भारत को अहसास हो गया था कि तालिबान से पूरी तरह दूरी बनाना संभव नहीं है’
दिल्ली में रहने वाले अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफेसर अजय दर्शन बहिरा कहते हैं, ‘भारत ने जल्द ही पर्दे के पीछे बातचीत शुरू कर दी ताकि तालिबान से यह आश्वासन मिल सके कि वे अपने क्षेत्र का इस्तेमाल भारत विरोधी गतिविधियों के लिए नहीं होने देंगे।’
उनके अनुसार, ‘भारत को यह एहसास हो गया है कि तालिबान से पूरी दूरी बनाए रखने की नीति व्यावहारिक नहीं है।’
प्रोफ़ेसर बहिरा का कहना है कि तालिबान सरकार को मान्यता दिए बिना उसे मदद मुहैया करना और साझेदारी के बगैर वहां मौजूद रहना तालिबान के प्रति भारत की नीति में संतुलन को दर्शाता है।
भारत और तालिबान की प्राथमिकताएं
स्थानीय मीडिया रिपोर्टों के अनुसार,जब दोनों पक्षों के बीच कुछ विश्वास बहाल हुआ तो तालिबान ने 2022 में अपने एक राजनयिक को दिल्ली भेजा।
हालांकि भारत ने अभी तक उसे अफगान दूतावास का कार्यभार संभालने की अनुमति नहीं दी है।
2024 में ऐसी खबरें आईं कि एक तालिबान राजनयिक ने मुंबई वाणिज्य दूतावास का प्रभार संभाल लिया है लेकिन दोनों ओर से इस पर कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया गया।
2022 में भारत ने काबुल में अपना दूतावास सीमित आधार पर फिर से खोला और 2025 में विदेश सचिव विक्रम मिसरी ने दुबई में मुत्तकी से मुलाकात की, अंतत: मई 2025 में पहलगाम हमले के बाद दोनों विदेश मंत्रियों ने फोन पर बात की। लेकिन एस। जयशंकर और मुत्तकी के बीच हुई इस बातचीत के बाद दोनों देशों की ओर से जारी किए गए बयानों में उनकी राष्ट्रीय प्राथमिकताएं दिखीं।
भारत ने राष्ट्रीय सुरक्षा की बात की क्योंकि वह चाहता है कि अफगानिस्तान फिर से भारत विरोधी चरमपंथी समूहों के लिए पनाहगाह न बने। जबकि अफगानिस्तान ने वीजा और व्यापार का उल्लेख किया क्योंकि वे अंतरराष्ट्रीय मान्यता और निवेश चाहते हैं।
तालिबान सरकार के साथ चीन और रूस के घनिष्ठ संबंधों के बावजूद तालिबान नेता संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंधों के कारण बिना अनुमति के अंतरराष्ट्रीय यात्रा नहीं कर सकते हैं। इसलिए वैश्विक स्तर पर उनके लिए अवसर सीमित हैं।
मुत्तकी के संभावित दौरे का एजेंडा घोषित नहीं किया गया है लेकिन विशेषज्ञों को उम्मीद है कि यह दोनों सरकारों की प्राथमिकताओं को बताएगा। हालांकि ये जरूरी नहीं कि ये एक-दूसरे से मेल खाती हों।
मोहम्मद रियाज कहते हैं, ‘अफगानिस्तान में भारत के कई हित हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
खासकर तब जब तालिबान विरोधी गुट बिखरे हुए हैं और उन्हें वैश्विक ताकतों का समर्थन नहीं मिल रहा। उनके अनुसार, ‘भारत अफगानिस्तान में अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए तालिबान सरकार के साथ नजदीकी बढ़ा रहा है। इसके साथ ही वो अपने पूर्व अफगान सहयोगियों को भी अलग-थलग कर रहा है।
विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को अफगानिस्तान में मानवाधिकार की स्थिति पर आपत्ति है लेकिन इसके बावजूद वह तालिबान को नजरअंदाज नहीं कर सकता।
रियाज़ का कहना है कि अफगान तालिबान के साथ भारत की क्षेत्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दे शामिल हैं। इसमें पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियों की ओर से तालिबान और अन्य सशस्त्र समूहों को प्रॉक्सी के रूप में इस्तेमाल करने की चिंता भी शामिल है।
उनके मुताबिक भारत अफगानिस्तान में चीन के प्रभाव को कम करने के लिए वहां दीर्घकालिक निवेश विकल्पों पर भी विचार कर रहा है।
प्रोफेसर बहिरा का कहना है कि भारत ने बीच का रास्ता अपनाया है और तालिबान को औपचारिक मान्यता दिए बिना उसके साथ सीमित लेकिन सार्थक संबंध सुनिश्चित किए हैं। उन्होंने कहा, ‘यह दृष्टिकोण संवाद के रास्ते खुले रखता है अफगानिस्तान को भारत विरोधी आतंकवादी समूहों के लिए आश्रय स्थल बनने से रोकता है।’
-गोकुल सोनी
टिकरापारा रायपुर के बुलामल बाड़ा में हमारा परिवार पिछले 24 सालों से भी ज़्यादा समय तक रहा। इस दौरान न जाने कितनी यादें जुड़ीं, ढेरों मजेदार किस्से बने। कल मैंने उस महान सफाईकर्मी की कहानी सुनाई थी, और आज एक और ऐसा वाकया आपके सामने लेकर आया हूँ, जो शायद ही आपने पहले कभी सुना हो।
हमारे बाड़े में मोहल्ले की एक बेहद खूबसूरत, शालीन और हँसमुख लड़की अक्सर आया करती थी। बाड़े के हर घर में उसकी पहचान थी और सब उसे बहुत पसंद करते थे। उम्र बढ़ रही थी, वह शादी के योग्य भी हो चुकी थी, लेकिन उसकी शादी नहीं हो पा रही थी। कारण समझ से परे था ।
उसका एक बड़ा भाई था – पढ़ा-लिखा, किसी सरकारी दफ्तर में बड़ा अफसर। बहन की शादी को लेकर वह चिंतित रहने लगा। आखिर किसी की सलाह पर वह उसे एक प्रसिद्ध ज्योतिषी के पास ले गया। उस समय उस ज्योतिषी के छोटे-छोटे विज्ञापन बड़े-बड़े अख़बारों में छपते थे। वह ज्योतिष का अपना नया कारोबार शुरू कर रहे थे।
जब युवती और उसका भाई उनके पास पहुंचे और भाई ने अपनी बहन की शादी में हो रही देरी के बारे में बताया, तो ज्योतिषी पहले कुछ देर चुप रहे और फिर बोले–
"आप सही समय पर आये हैं। इसकी कुंडली में अभी और इसी वक्त विवाह का अत्यंत प्रबल योग बन रहा है!"
भाई थोड़ा चौंका और पूछा – "कब ?"
ज्योतिषी ने मुस्कुरा कर कहा –
"अभी! इसी क्षण! लड़का भी तैयार है
भाई हैरान रह गया – "कौन लड़का ?"
ज्योतिषी ने जवाब दिया –
"मैं!"
जी हाँ, आप सही पढ़ रहे हैं। खुद ज्योतिषी महोदय ने उस युवती से शादी की इच्छा जाहिर की और बताया कि वह पहले से शादीशुदा हैं, लेकिन उनकी पहली पत्नी की सहमति से वे दूसरी शादी करना चाहते हैं।
अब आप सोच रहे होंगे कि लड़की के भाई ने क्या किया ?
अचरज की बात यह है कि न जाने उस पल उसे क्या सूझा, वह तैयार हो गया! कुछ ही दिनों में दोनों की शादी हो गई। आज भी वह ज्योतिषी अपनी दोनों पत्नियों के साथ सुकून से रह रहे हैं।
अब आगे एक और नाटकीय मोड़ सुनिए...
जब मेरी शादी हुई, तो मैंने यह किस्सा हँसते-हँसते अपनी पत्नी को सुनाया। मैंने उस लड़की का नाम भी बताया। वह झट से समझ गई। उसने कहा –
"अरे! वह तो मेरी दीदी की बहुत अच्छी सहेली थी। कई बार हमारे घर भी आती थी। वो अक्सर दीदी से कहती थी कि वो एक लड़के को चाहती है, लेकिन दोनों की शादी नहीं हो पा रही है।"
कहते हैं न – "नसीब का खेल बड़ा निराला होता है!"
जिससे वह प्रेम करती थी, उससे शादी नहीं हो पाई, लेकिन विवाह हुआ तो सीधे एक ज्योतिषी से – और वो भी उस समय जब वह अपनी कुंडली दिखाने गयी थी!
-ध्रुव गुप्त
शरद पूर्णिमा की रात साल की सबसे खूबसूरत रात है और इस रात का चांद सबसे बड़ा जादूगर। शीत के हल्के स्पर्श और स्निग्ध चांदनी के तिलिस्म के मेल से तन मन में रूमान जगाने वाली रात। यह प्रेमियों की रात है। यह वही रात है जब मधुबन में कदंब के वृक्षों के तले कृष्ण ने प्रेमाकुल गोपियों के साथ महारास रचाया था। कहा जाता है कि आज की चांदनी में प्रेमी जोड़ें अगर साथ नहा लें तो वे जन्म जन्मांतर के अटूट बंधन में बंध जाते हैं। बचपन में हममें से बहुत लोगों ने गांव में कदंब के वृक्ष के नीचे इस रात का आनंद लिया होगा। चांदनी में नहाई खीर भी खाई होगी। जवानी में जब तक इस रात का रूमान समझ आया तब तक बहुत कुछ बदल चुका था। कदंब के पेड़ लुप्त हो चुके थे। आकाश के धवल चांद की चमक कृत्रिम रोशनी ने छीन ली थी। कोलाहल ने उसका एकांत। जीवन की आपाधापी ने साहचर्य का सुख। शहर में रहने वाले लोगों के लिए यह रात अब किताबों में ही रह गई है। जो लोग गांवों में हैं वे इस रात का रूमान भूल चुके हैं। यह रात अब कर्मकांडियों के हवाले है।
परिस्थितियां आज चाहे जितनी बदल गई हों,आकाश में शरद पूर्णिमा का चांद तो अब भी उगता है। कदंब से छनकर आती चांदनी का तिलिस्म और प्रेम का कोई एकांत कोना भले अब न बचा हो, शीतल चांदनी में नहाई हमारे घर की छत और कल्पनाओं का खुला आकाश तो अब भी हमारे पास है न ? तो चलिए, आज की रात खीर का कटोरा चांदनी के हवाले कर इत्मीनान से बैठ जाएं। आसपास की चकाचौंध और शोर को नजरअंदाज कर देह पर चांदनी का मुलायम स्पर्श और सरकती हवा की गुदगुदी महसूस करें। आप अपने प्रेम के साथ हैं तो चांद उंगली पकड़कर आपको प्रेम की आंतरिक,अजानी अनुभूतियों तक ले जाएगा। आप परिवार के साथ हैं तो ऐसा महसूस होगा कि चांद मासूम बच्चे की तरह चुपके से आकर आपके बीच बैठ गया है। आप अकेले हैं तो चांद को निहारिए। उसकी खूबसूरती और अदा पर कुछ शेर वेर कहिए। पूरे साल सजने संवरने के बाद आज की रात जो चांद सौंदर्य का चरम और भावनाओं के इतने शेड्स लेकर हमारे सामने उपस्थित है, वह हमारी थोड़ी तारीफ और मुहब्बत का हकदार तो है ही। क्या हुआ जो वह हमारी पहुंच से बहुत दूर है। ये फासले न हों तो प्रेम टिकता भी कहां है इसका जादू भी फासले का है जादू, ऐ दिल / चांद मिल जाए तो फिर चांद कहां रहता है !
आप सबको शरद पूर्णिमा की शुभकामनाएं !
-संजय श्रमण
आज बड़ा महत्वपूर्ण दिन है। गांधी का जन्मदिन और अंबेडकर की धम्मदीक्षा का दिन। आइये इस बहाने दोनों पर थोड़ी बातें कर लें।
गांधी और अंबेडकर में असहमतियों के बावजूद निरन्तर संवाद होता था। मेरी नज़र में ये दोनों आधुनिक भारत के सबसे बड़े संवाद पुरुष थे। गांधी एक सुख सुविधा भरे परिवार में जन्म लेकर जैन-वैराग्यवादी आध्यात्मिक चेतना से अपनी व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन की यात्रा का प्रस्थान बिंदु डिफ़ाइन करते हैं। वहीं अंबेडकर ग़रीबी और जातीय शोषण दलदल में ख़ुद को पाते हैं, वहीं से एक एक कदम मुक्ति की तरफ़ अपनी यात्रा तय करते हैं और थेरवाद (मूल बौद्ध धर्म) की चेतना में समर्पित होते हैं।
एक संवाद पुरुष श्रमण जैन जीवनदृष्टि से आरंभ करता है, दूसरा संवाद पुरुष श्रमण बौद्ध जीवनदृष्टि में समर्पित होता है। यह मज़ेदार संयोग है। ऐसा ही एक और संयोग है। गांधी जीवन भर तात्कालिक विवशताओं और रणनीतिक सावधानीवश सार्वजनिक जीवन में धर्म को प्रमुखता देते हैं और अंत में राज्य की शक्ति और संविधान और धर्मनिरपेक्षता की तरफ़ आते हैं। वहीं अंबेडकर जीवन भर राज्य की शक्ति, क़ानून संविधान आदि को प्रमुखता देते हैं और अंत में एक नये (या कहें कि भारत के सबसे प्राचीन) धर्म की तरफ़ झुक जाते हैं।
ये दोनों जहां से शुरू करते हैं, वहाँ से फिर ये पश्चिमी ज्ञान, संस्कृति और धर्म को भी बारीकी से देखते समझते हैं। भारतीय मनीषा के श्रेष्ठतम में जड़ें जमाए हुए ये दोनों पश्चिम से लोकतंत्र धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे मूल्यों को ग्रहण करते हैं, अपने अपने ढंग से आगे बढ़ाते हैं। वे घर में और घर से दूर परदेस में - निरंतर संवाद कर रहे हैं।
जिन कंधों पर समाज और राष्ट्र के भविष्य की ज़िम्मेदारी हो वे बहुत सारे प्रयोग करते हैं। वे कहीं जमकर, जड़ होकर नहीं बैठ जाते। वे समाज, इतिहास, वर्तमान और सर्वाधिक महत्वपूर्ण रूप से - अपने वैचारिक प्रतिद्वंद्वियों से भी संवाद करते हैं। आप भारत के अतीत में गौर से झांककर देखिए। भारत एक निरंतर संवाद का नाम है।
गांधी के जीवन में आरंभ से ही अहिंसा और उसके लिए संघर्ष का आग्रह प्रमुख रहा, अंबेडकर के जीवन में समता का आग्रह और उसके लिये संघर्ष प्रमुख रहा। अब आप तात्विक रूप से देखें तो समता और अहिंसा बहुत हद तक एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहां ऊँच नीच होगी वहाँ हिंसा आ ही जाएगी, जहां अहिंसा होगी वहाँ समता आने लगेगी। अब चूँकि गांधी और अंबेडकर के प्रस्थान बिंदु भिन्न हैं, वे जिन समुदायों को एड्रेस कर रहे हैं उनकी समस्यायें समाधान और अपेक्षायें भिन्न हैं, इसलिए उनके मार्ग भी कई मौक़ों पर एकदूसरे से भिन्न हैं। कई बार तो आपस में टकराते भी हैं।
गांधी के लिये भारत की आज़ादी प्राथमिक लक्ष्य है और औपनिवेशिक ताक़तों के षड्यंत्रों से एक एक इंच बचते हुए भारत के सभी समुदायों को एक साथ जोड़े रखना चरम मूल्य है। अंबेडकर के लिए भारत की सत्तर प्रतिशत से अधिक दलित वंचित और आदिवासी आबादी को अपने ही मुल्क में आज़ाद करना प्राथमिक लक्ष्य है ब्राह्मणवाद के शोषण से मुक्त करना चरम मूल्य है। आज आप देखें तो आपको नज़र आएगा कि गांधी एक तात्कालिक और सीधे साफ़ लक्ष्य के लिए संघर्ष कर रहे थे। अंबेडकर एक बहुत दूरगामी और बहुत ही जटिल लक्ष्य के लिए काम कर रहे थे।
लेकिन मज़े की बात ये भी है कि तात्कालिक लक्ष्य पूरा नहीं होता तो हम दूरगामी लक्ष्य के बारे में भी नहीं सोच सकते थे।
मान लीजिए कि कोई इंसान गंभीर बीमारी से पीड़ित है, और बेरोज़गार है। तो उसके जीवन में ख़ुशियाँ लाने के दो कदम होंगे। पहले उसका जीवन बचाया जाये। फिर उसे रोज़गार दिया जाए ताकि वो नज़रें उठाकर समाज में इज्जत से जी सके। गांधी पहले लक्ष्य के लिए प्राथमिक रूप से समर्पित हैं, वे दूसरे लक्ष्य के प्रति भी पर्याप्त जागरूक और सक्रिय हैं।
इधर अंबेडकर दूसरे लक्ष्य के लिए प्राथमिक रूप से समर्पित हैं, वे दूसरे लक्ष्य के ज़रिए पहले लक्ष्य को और बहुआयामी बना रहे हैं। वे गांधी के बाद सक्रिय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में आते हैं। वे देश विदेश के अनुभवों से और ख़ास तौर से विश्वयुद्धों के बाद बदलती वैश्विक राजनीति और शक्ति संतुलन को बहुत क़रीब से देखकर समझ रहे थे कि भारत आज नहीं तो कल आज़ाद हो ही जाएगा। अरबिन्दो घोष भी इसी नतीजे पर पहुँचकर किसी और तरह के काम में लग जाते हैं। ऐसे में आज़ादी के बाद भारत के सत्तर प्रतिशत से अधिक शोषित वंचित आबादी का क्या होगा? उनके लिए ये प्रश्न ही आज़ादी का सबसे बड़ा सवाल था।
आज का भारत देखिए। गांधी और अंबेडकर दोनों सही नज़र आयेंगे। गांधी ने ग़रीब बेरोज़गार इंसान को बचा लिया, भारत को भारत की तरह बचा लिया। अब अंबेडकर की लड़ाई शुरू होती है। अब उस बेरोज़गार को शिक्षा, रोज़गार सम्मान और हक़ दिलाने की बात है।
लेकिन क्या गांधी का काम पूरी तरह ख़त्म हो गया? नहीं, क्योंकि जिस गंभीर बीमारी से वो बेरोज़गार युवक पीड़ित था उसने एक नये रूप में फिर हमला कर दिया है। जिस उपनिवेशवादी शक्ति से हम आज़ाद होकर निकले हैं, उससे भी बड़ी, ज़्यादा पुरानी और ज़्यादा बर्बर शक्ति ने भारत पर क़ब्ज़ा कर लिया है। और आप मानें या ना माने गांधी और अंबेडकर दोनों जीवन भर इस शक्ति से भी लड़ते रहे। अंबेडकर की इस शक्ति से लड़ाई बहुत ज़ाहिर तौर से नज़र आती है। गांधी की इस शक्ति से लड़ाई बहुत ज़ाहिर तौर से नज़र नहीं आती - ये हमारे देखने की सीमा के कारण है।
आज के भारत को और इसके भविष्य के प्रश्न को देखिए। आज गांधी की प्राथमिकता और अंबेडकर की प्राथमिकता - दोनों हमारे लिए चरम लक्ष्य बन गये हैं। अब आप भारत को भारत की तरह एक भी रखना होगा और उसके सभी नागरिकों को हर तरह के शोषण और भेदभाव से मुक्त भी करना होगा। आज़ादी के इतने दशकों बाद अब तात्विक रूप से गांधी और अंबेडकर के लक्ष्य अब भिन्न नहीं रह गये हैं।
कई गांधीवादी अंबेडकर को पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाते। कई अम्बेडकरवादी हैं जो गांधी को पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाते। इसमें भी अम्बेडकरवादियों में गांधी और गांधीवाद के प्रति जो आक्रामक असंतोष है वो बहुत उग्र और आत्मघाती बन चुका है।इसके अपने कारण भी हैं। आज़ादी के बाद के दशकों में गांधीवादी नीति की उदारता में दीक्षित होना और उसके गीत गाना अपेक्षाकृत आसान है, इसके आलोक में अंबेडकर, नेहरू, पटेल, मार्क्स, लोहिया, सुभाष, अरबिन्दो आदि का सत्व पहिचानना और उसका सम्मान कर पाना भी आसान है। किंतु जाति के दलदल में सब तरह के अभावों और आजीवन बरसाने वाली भयानक नफ़रत से शुरुआत करते हुए गांधी, नेहरू, मार्क्स, लोहिया, पटेल, एमएन रॉय आदि के सत्व को पहिचानना और उसका सम्मान करना बहुत मुश्किल है।
व्यक्तिगत जीवन के अनुभव से ये बात मैं बार बार कहता हूँ। जब आप पर अकारण हर मौक़े पर भेदभाव और शोषण बरसता है तो आपकी चेतना में उदारता और विशालता का प्रवेश कठिन हो जाता है। इस दुर्भाग्य को आप करोड़ों लोगों की सामाजिक और राजनीतिक चेतना पर एक साथ रखकर देखिए। आपको भारत के बहुसंख्य (दलितों, ओबीसी और आदिवासी) शोषितों में गांधी के प्रति असंतोष का कारण मिल जाएगा। हालाँकि ये असंतोष भी बहुत बारीकी से तराशकर उभारा गया है। इस खेल में बड़ी-बड़ी शक्तियाँ शामिल रहीं है। ख़ुद गांधीवादियों और नेहरूवादियों ने अपनी सत्ता के शिखर पर जाति और सांप्रदायिकता के प्रश्न पर जो ग़लतियाँ की हैं उन्हें कैसे नज़रंदाज़ किया जा सकता है भला?
गांधी को समझना आसान नहीं हैं, उनपर छोटे बड़े आरोप बड़ी आसानी से लगाये जा सकते हैं। अंबेडकर की पीड़ा और उनके चरम लक्ष्य का सम्मान कर पाना भी आसान नहीं है। उन पर भी तमाम तरह के आरोप लगाये जा सकते हैं। लग ही रहे हैं, किसे नहीं पता?
ख़ैर, आज का दिन महत्वपूर्ण है। आज गांधी को सलाम करते हुए अंबेडकर को भी याद कीजिएगा। अंबेडकर और बुद्ध को नमन करते हुए गांधी को भी नमन कीजिएगा। आप ऐसा करना चाहेंगे या नहीं आप तय कीजिए।
वैसे गांधी और अंबेडकर को इस तरह एक साथ रखने के बाद आज मैं सब तरह की गालियाँ खाने को तैयार हूँ।
आप सबका मंगल हो।
-दीप्तिमान तिवारी
कल तक 370 को कोसने वाले लद्दाखी आज पछता रहे हैं।
कभी शांति और प्राकृतिक सुंदरता के लिए पहचाने जाने वाला लद्दाख आज एक बड़े सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल का गवाह बन रहा है।
लेह अपेक्स बॉडी यानी एबीएल के सह-अध्यक्ष और लद्दाख बौद्ध संघ यानी एलबीए के प्रमुख चेरिंग दोरजे लकरूक ने अनुच्छेद 370 के खात्मे को लद्दाख की मौजूदा स्थिति का एक बड़ा कारण बताया। उन्होंने कहा कि पहले लद्दाख के लोग अनुच्छेद 370 को बड़ी बाधा मानते थे, लेकिन अब पता चला कि वह अनुच्छेद तो उनकी जमीन और आजीविका की सुरक्षा का ढाल था।
चेरिंग दोरजे लकरूक ने ये बातें 'द इंडियन एक्सप्रेस' को दिए एक साक्षात्कार में कही हैं । लकरूक ने बताया कि 2019 में अनुच्छेद 370 के खात्मे और लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने के बाद क्षेत्र की स्थिति बदल गई।
पहले वे अनुच्छेद 370 को केंद्र शासित प्रदेश की मांग में बाधा मानते थे, लेकिन अब उन्हें एहसास हुआ कि यह 70 साल तक उनकी जमीन और आजीविका की रक्षा करता रहा।
लकरूक ने कहा, 'अनुच्छेद 370 के रहते जम्मू-कश्मीर के लोग भी यहाँ जमीन नहीं खरीद सकते थे। अब पूरा भारत लद्दाख में जमीन खरीद रहा है। बड़े होटल चेन आ रहे हैं, जिससे स्थानीय लोगों की आजीविका छिन रही है।'
उन्होंने बताया कि केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद कोई नई नौकरियां सृजित नहीं हुईं। पहले जम्मू-कश्मीर सरकार के तहत भर्ती अभियान चलते थे, जिनमें स्थानीय युवाओं को नौकरी मिलती थी। अब ये अभियान बंद हो गए हैं।
जो नौकरियां मिल रही हैं, वे अनुबंध आधारित हैं, जिन्हें लकरूक ने 'गुलामी जैसा' करार दिया। उन्होंने कहा, 'ये युवा लंबे घंटे तक काम करने को मजबूर हैं और उन्हें अपमान सहना पड़ता है, क्योंकि उन्हें पता है कि उनकी नौकरी कभी भी जा सकती है।'
लकरूक के अनुसार, हाल ही में लेह में हुए हिंसक प्रदर्शन पूरी तरह से स्वत:स्फूर्त थे। अंग्रेज़ी अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने कहा कि कऱीब 4000-5000 लोग सडक़ों पर उतरे, जिनमें ज्यादातर बेरोजगार युवा थे। उन्होंने कहा, ‘ये सभी शिक्षित बेरोजगार युवा थे, जिन्हें अब ‘त्रद्गठ्र्ठ ं’ कहा जाता है।
हो सकता है कि भीड़ में कुछ असामाजिक तत्व शामिल हों, लेकिन मुख्य रूप से यह छह साल से दबी हुई कुंठा का परिणाम था।’
प्रदर्शनकारियों ने बीजेपी कार्यालय पर हमला किया, जहां उन्होंने बीजेपी के झंडों को फाड़ दिया, लेकिन तिरंगे को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। लकरूक ने इसे युवाओं की जागरूकता का सबूत बताया, जो बाबासाहेब आंबेडकर और लामा जी की तस्वीरों को भी सुरक्षित निकालकर बिल्डिंग में आग लगाई।
एक जवाब में लकरूक ने नेपाल में हाल की क्रांति से प्रेरणा की संभावना को स्वीकार किया, क्योंकि आज हर युवा के हाथ में स्मार्टफोन है और वे विश्व की घटनाओं से अवगत हैं। लेकिन उन्होंने जोर देकर कहा कि मुख्य कारण स्थानीय बेरोजगारी और गरीबी है।
उन्होंने कहा, ‘ये युवा गरीब परिवारों से हैं। जिन्हें हिरासत में लिया गया, वे होटल मालिकों या व्यापारियों के बच्चे नहीं हैं। ये वो लोग हैं, जिन्होंने बड़ी मुश्किल से पढ़ाई पूरी की, लेकिन नौकरी नहीं मिली।’
लकरूक ने केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद प्रशासनिक बदलावों की आलोचना की। उन्होंने कहा कि सरकार ने पांच नए जिले बनाने की घोषणा तो की, लेकिन ये केवल कागजों पर हैं। उन्होंने कहा, 'नए जिले बनाए गए, लेकिन न तो नए डिप्टी कमिश्नर नियुक्त किए गए, न ही वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक और न ही विभागीय प्रमुख। एक भी चपरासी की भर्ती नहीं हुई। लेह और कारगिल में केवल दो डिप्टी कमिश्नर हैं, बाकी जिले हवा में हैं।'
लद्दाख ऑटोनॉमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल यानी एलएएचडीसी के पास पहले महत्वपूर्ण शक्तियां थीं, अब कऱीब कऱीब निष्क्रिय हो चुकी है। परिषद के कर्मचारी अब केंद्र शासित प्रशासन के लिए काम कर रहे हैं और उनकी निष्ठा प्रशासन के प्रति है।
लकरूक ने महाराजा हरि सिंह के समय के ऐलान नंबर 38 जैसे पुराने कानूनों को रद्द करने की आलोचना की, जो बंजर जमीन को खेती के लिए पट्टे पर देने की अनुमति देता था। अब इस जमीन पर घर या होटल बनाने की अनुमति नहीं दी जा रही, जिससे स्थानीय लोगों को परेशानी हो रही है।
इसके अलावा, दो वन्यजीव अभयारण्यों के आसपास केवल दो कनाल जमीन पर गेस्ट हाउस बनाने की अनुमति है, जबकि बाकी जमीन बड़े निवेशकों के लिए खुली है। उन्होंने सवाल उठाया कि स्थानीय गेस्ट हाउस मालिक बड़े होटलों से कैसे मुकाबला करेंगे?
लद्दाख की लेह एपेक्स बॉडी और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस यानी केडीए पिछले पांच साल से चार मुख्य मांगों के लिए आंदोलन कर रहे हैं-
1. पूर्ण राज्य का दर्जा देना
2. संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करना
3. लेह और कारगिल के लिए अलग लोकसभा सीटें
4. मौजूदा सरकारी रिक्तियों को भरना।
लकरूक ने कहा कि सरकार के साथ छह साल की बातचीत के बाद भी केवल डोमिसाइल आधारित आरक्षण हासिल हुआ, वह भी 100त्न नहीं। उन्होंने कहा, 'हमारी मुख्य मांगों पर अभी तक चर्चा भी शुरू नहीं हुई। क्या इसके लिए और छह साल इंतजार करना होगा?'
लकरूक ने कहा कि छठी अनुसूची स्थानीय लोगों को सशक्त बनाती है और उनकी जमीन, जंगल और रीति-रिवाजों की रक्षा करती है।
पहले जम्मू-कश्मीर प्रशासन उनके स्थानीय मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता था, लेकिन अब केंद्र शासित प्रशासन गांव के बुजुर्ग मुखियाओं को उम्र के आधार पर हटा रहा है, जो पारंपरिक रीति-रिवाजों को संभालते हैं। उन्होंने कहा कि यह बुजुर्ग ही हमारे रीति-रिवाजों को सबसे बेहतर जानते हैं।
उत्तराखंड में कथित तौर पर परीक्षा के प्रश्नपत्र लीक होने के कारण सरकार सवालों के घेरे में है. व्यवस्था की नाकामी का आरोप लगाते हुए युवा विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी का लिखा-
कथित पेपर लीक के खिलाफ 'उत्तराखंड बेरोजगार संघ' के नेतृत्व में विरोध प्रदर्शन जारी है. आरोप है कि उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग (यूकेएसएसएससी) द्वारा विभिन्न विभागों में स्नातक स्तर के पदों के लिए आयोजित परीक्षा के प्रश्नपत्र लीक हुए.
इसके बाद राज्य के विभिन्न हिस्सों में हजारों युवा लामबंद हो गए हैं. वे सीबीआई जांच और 21 सितंबर को हुई परीक्षा को रद्द करने की मांग कर रहे हैं. प्रदर्शनों के कारण पुष्कर धामी के नेतृत्व वाली राज्य सरकार पर दबाव बढ़ रहा है.
रिपोर्टों के मुताबिक, कथित तौर पर यह पेपर खालिद मलिक नाम के एक अभ्यर्थी ने अपनी बहन को भेजा था. फिर उसने इसे कॉलेज की एक प्रोफेसर को उत्तर देने के लिए भेजा. लेकिन प्रोफेसर ने इसे एक युवा नेता बॉबी पंवार को भेज दिया. बॉबी पंवार ने इसे ऑनलाइन शेयर करते हुए आयोग के स्तर पर धांधली का दावा किया.
पिछले हफ्ते, खालिद और उसकी बहन सबिया को गिरफ्तार किया गया. साल 2021 में इसी परीक्षा का पेपर लीक करने के आरोपी, पूर्व बीजेपा नेता हकम सिंह को परीक्षा से एक दिन पहले गिरफ्तार किया गया था. उन्होंने कथित तौर पर उम्मीदवारों को पास कराने के लिए 15 लाख रुपये की मांग की थी.
कथित पेपर लीक पर घिरे मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस घटना को "नकल जिहाद" करार दिया है. धामी ने इसे महज "पेपर लीक" न मानते हुए "चीटिंग केस" बताया और कहा कि "नकल माफिया" को कुचल दिया जाएगा. उन्होंने यहां तक कहा कि "नकल जिहादियों को मिट्टी में मिला दिया जाएगा."
पेपर लीक को धामी ने बताया "नकल जिहाद"
मुख्यमंत्री धामी के बयान के संदर्भ में कई जानकार यह सवाल उठ रहे हैं कि अगर सिर्फ चीटिंग का मामला था, तो तीन पन्नों का प्रश्नपत्र बाहर कैसे आया और सोशल मीडिया पर वायरल कैसे हुआ. आलोचकों का कहना है कि यह सिस्टम की विफलता है और इसे "जिहाद" से जोड़ना बिल्कुल गलत है.
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उत्तराखंड पेपर लीक को "नकल जिहाद" कहे जाने के संदर्भ में वैज्ञानिक, उर्दू शायर और सामाजिक कार्यकर्ता गौहर रजा कहते हैं इस 'ट्रेंड' की शुरूआत "लव जिहाद शब्द" से हुई. उन्होंने कहा, "लव जिहाद को अगर हम अंग्रेजी में अनुवाद करें, तो 'यह स्ट्रगल फॉर लव' होता है. इससे बेहतर और खूबसूरत चीज ही नहीं हो सकती, जिसको इतना गंदा और बांटने वाला बना दिया गया. और, इस शब्द का इस्तेमाल समाज में नफरत बढ़ाने के लिए किया गया."
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उन्होंने आरोप लगाया, "जहां भी नफरत फैलाई जा सकती है, जिस तरह भी नफरत फैलाई जा सकती है, उसमें ये सब चीजें जोड़ी जा रही हैं. ये एक बड़े प्रोजेक्ट का हिस्सा है. पेपर लीक होना सिस्टम की विफलता है, लगभग पूरे देश में दिख रहा है कि यह एक सिस्टम की विफलता है. इसकी बड़ी वजह यह कि बड़े पैमाने पर परीक्षा कराने की कोशिश की जा रही है. पूरे के पूरे शिक्षा सिस्टम को सेंट्रेलाइज्ड करने की कोशिश की जा रही है. अगर आप सेंट्रेलाइज्ड करने की कोशिस इस तरह से करेंगे, तो जाहिर है कि सिस्टम इसका बोझ नहीं उठा पाएगा."
सालों की तैयारी पेपर लीक से बर्बाद
देहरादून में सैकड़ों कोचिंग सेंटर हैं, जहां राज्यभर के छात्र भर्ती परीक्षाओं की तैयारी में सालों बिता देते हैं. पटवारी, लेखपाल, ग्राम विकास अधिकारी और स्नातक स्तर के छह अन्य पदों के लिए 21 सितंबर को हुई परीक्षा में 416 रिक्तियां थीं. अकेले देहरादून में ही 121 केंद्रों पर 40,000 से ज्यादा उम्मीदवार परीक्षा के लिए बैठे थे.
वर्षों की मेहनत के बाद जब पेपर लीक की खबर छात्रों के बीच फैली, तो उनके भीतर बेचैनी घर कर बैठी. उत्तराखंड में यह पहली बार नहीं है जब कथित पेपर लीक ने भर्ती प्रक्रिया को ठप किया हो. इससे पहले भी कई बार परीक्षाएं रद्द हो चुकी हैं और हजारों युवाओं का भविष्य अधर में पड़ चुका है. जानकारों के अनुसार, यही वजह है कि इस बार उम्मीदवार ज्यादा गुस्से में दिख रहे हैं.
बेरोजगार युवाओं की चुनौतियां
सामाजिक कार्यकर्ता प्रोफेसर सतीश प्रकाश कहते हैं कि अब सरकारें परीक्षा केंद्र दूर रखती हैं. इसके समर्थन में सरकार की दलील यह है कि इससे परीक्षा केंद्र में किसी तरह की "सेटिंग" नहीं हो पाती. प्रोफेसर प्रकाश के मुताबिक, यह दलील बिल्कुल गलत क्योंकि उम्मीदवारों का यह हक बनता है कि वे कम-से-कम संसाधन खर्च करके परीक्षा दे सकें.
प्रोफेसर प्रकाश बताते हैं, "एक-एक परीक्षा के लिए दस-दस हजार रुपये खर्च होते हैं. जब छात्र को पता चलता है कि पेपर लीक हो गया है तो उसके साथ यह एक तरह का धोखा है. क्योंकि वह पहले से ही बेरोजगार है, उसके पास पैसे नहीं होते. हमारे पास तकनीक है और फिर भी पेपर लीक हो रहा है, तो इसमें साफतौर पर सरकार की खामियां हैं और यह सिस्टम की विफलता है."
2019 में जम्मू-कश्मीर से लद्दाख को अलग कर केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था। अब स्थानीय लोगों को लग रहा है कि इस वजह से उनकी सांस्कृतिक पहचान, भूमि अधिकार और रोजगार की सुरक्षा खतरे में हैं।
डॉयचे वैले पर साहिबा खान का लिखा-
2019 में संसद में भारी हंगामे के बीच गृह मंत्री अमित शाह ने जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के दौरान कहा था कि यह कदम कश्मीर को बाकी भारत के साथ बेहतर तरीके से मिलाने के लिए उठाया जा रहा है। साथ ही उन्होंने कहा था कि लद्दाख को अपनी अनूठी सांस्कृतिक और भौगोलिक विशेषताओं के कारण केंद्रीय शासन से लाभ होगा। अब छह साल बाद लद्दाख की जनता गुस्से में है और सडक़ों पर उतर आई है।
क्यों उतरी जनता सडक़ों पर
लद्दाख, भारत का एक दूरस्थ और ऊंचाई वाला रेगिस्तानी क्षेत्र है जो हाल ही में हिंसक प्रदर्शनों के कारण सुर्खियों में है। 24 सितंबर 2025 को लेह शहर में हुए हिंसक प्रदर्शनों में चार लोगों की मौत हो गई और दर्जनों लोग घायल हुए। प्रदर्शनकारी लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा, भूमि अधिकारों की सुरक्षा और स्थानीय शासन चाहते हैं। इन विरोध प्रदर्शनों पर्यावरणीय संकट, सांस्कृतिक पहचान के संकट और आर्थिक असुरक्षा के मुद्दे को भी उठाया गया।
प्रदर्शनकारियों का नेतृत्व प्रमुख जलवायु कार्यकर्ता सोनम वांगचुक कर रहे थे, जिन्होंने 14 दिनों तक भूख हड़ताल की थी। हिंसा के बाद उन्होंने अपनी हड़ताल समाप्त की और बाद में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर आंसू गैस और रबर की गोलियों का इस्तेमाल किया, जबकि प्रदर्शनकारियों ने पुलिस वाहनों और बीजेपी कार्यालय में आग लगा दी। अधिकारियों ने कर्फ्यू लगाया, मोबाइल इंटरनेट सेवा निलंबित की और वांगचुक के एनजीओ का लाइसेंस रद्द कर दिया।
प्रदर्शनकारियों की मांगें
वरिष्ठ नेता चेरिंग दोरजे के नेतृत्व में एपेक्स बॉडी लेह के प्रदर्शनकारियों की मुख्य आवाज बन गई है। दोरजे ने कहा कि उन सभी को गुलामों की तरह इस्तेमाल किया गया है और वो आगे आने वाले दिनों में इस आंदोलन को जारी रखेंगे।
2019 में जम्मू-कश्मीर से लद्दाख को अलग कर केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था, जिससे लद्दाख की स्वायत्तता समाप्त हो गई। स्थानीय लोगों को लग रहा है कि इस वजह से उनकी सांस्कृतिक पहचान, भूमि अधिकार और रोजगार की सुरक्षा खतरे में हैं। वकील मुस्तफा हाजी ने एएफपी को बताया, ‘जम्मू और कश्मीर का हिस्सा रहते हुए हमारे पास जो सुरक्षा थी, वो अब खत्म हो गई है।’
प्रदर्शनकारी लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची के तहत विशेष दर्जा देने की मांग कर रहे हैं, जिससे स्थानीय विधानसभा को भूमि उपयोग और रोजगार पर कानून बनाने का अधिकार मिलेगा। सरकार ने पहले ही 85 प्रतिशत नौकरियां स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित कर दी हैं और 2036 तक कोई भी बाहरी व्यक्ति यहां का डोमिसाइल नहीं ले सकता। हालांकि दोरजे कहते हैं, ‘हमारे सामने अभी लंबा रास्ता है।’
भूमि और पर्यावरणीय संकट
लद्दाख में बड़े पैमाने पर सौर ऊर्जा और औद्योगिक परियोजनाओं की योजना बनाई गई है, जिसके लिए हजारों एकड़ भूमि की जरूरत होगी। स्थानीय लोग डरते हैं कि इससे पश्मीना बकरियों के चरागाह और पारंपरिक पशुपालन पर असर पड़ेगा। दोरजे ने कहा, ‘इस सदियों पुराने व्यवसाय को खतरा है, जो हजारों पश्मीना बकरीपालकों की जिंदगी से जुड़ा है।’
लद्दाख में भारी सैन्य तैनाती है, और 2020 में चीन के साथ सीमा पर झड़प के बाद तनाव और बढ़ गया है। नए सैन्य क्षेत्र और बफर जोन के कारण चारागाह और सिकुड़ गए हैं। हाजी कहते हैं, ‘जब आपकी जमीन और पहचान की कोई सुरक्षा नहीं है, तो वह अच्छी स्थिति तो नहीं है।’
-संजय श्रमण
अपहरण फिल्म का ये एक मशहूर डायलॉग याद है आपको? जब अपहरणकर्ता फिरौती की रकम पर बातचीत कर रहा होता है, और एक नेताजी उस रक़म में अपनी हिस्सेदारी की बात ठोंकते हुए कहते हैं, ‘इसमें मेरे हिस्से का भी ध्यान रखना।’ ये सुनकर अपहरणकर्ता ठेठ बिहारी अन्दाज़ में बमकता है और ये गन्ने वाला डायलॉग नेताजी के मुँह पर मारता है।
फिर एक और फि़ल्म का संवाद है जिसमें माधुरी दीक्षित अपने पति से कहती है ‘पति हैं तो पति ही रहिए, परमेश्वर बनने की कोशिश मत कीजिए’
ऐसे अनगिनत संवाद हैं, ये संवाद केवल प्रकाश झा की फिल्मों में ही संभव है।
उनकी कलम से निकली भाषा, लोकजीवन की बोली-बानी, और मुहावरों का सटीक इस्तेमाल करती है और दिमाग़ को ऐसे भेदती है जैसे तेज तलवार की धार। वो सच, जिसे हम सब जानते हैं लेकिन कहने की हिम्मत कम ही लोग कर पाते हैं। इस सच को न केवल कहना बल्कि सबको स्वीकृत भी करवा देना - ये प्रकाश झा की फि़ल्मकारी का कमाल है।
25 सितंबर को प्रकाश झा आईटीएम विश्वविद्यालय, ग्वालियर के ‘मीटिंग ऑफ माइंड्स’कार्यक्रम के 45 वें आयोजन में छात्रों से मुख़ातिब थे। वे ‘सिनेमा एज़ ए केटेलिस्ट फॉर सोशल चेंज’विषय पर बोल रहे थे। इस कार्यक्रम श्रृंखला में छात्रों को जानी मानी हस्तियों से मुखातिब होने का अवसर मिलता है।
प्रकाश झा साहब कुछ समय से दल-बल सहित आईटीएम विश्वविद्यालय परिसर ग्वालियर में ही अपनी फि़ल्म जनादेश के अंतिम हिस्से की शूटिंग कर रहे हैं। कार्यक्रम में उन्होंने अपने लेखन, निर्देशन और फि़ल्म निर्माण की प्रक्रिया पर विस्तार से बात की।
अपनी फि़ल्मों की पटकथा लिखने में उन्हें वर्षों लगते हैं, तीन साल, पाँच साल, सात साल तक का समय! फिर आखऱि में फि़ल्म पूरी होने पर एक राउंड लेखन और होता है -एडिटिंग के दौरान। उन्होंने साफ़ कहा कि अगर फि़ल्म का डायरेक्टर लेखक भी हो तो फि़ल्म में चार चाँद लग जाते हैं। अच्छे डायरेक्टर हमेशा अच्छे लेखक भी होते हैं, क्योंकि निर्देशन का पहला कदम लेखन से होकर ही गुजरता है। हालाँकि सभी डायरेक्टर लेखक नहीं होते।
आजकल लेखन की अनदेखी हो रही है। नई पीढ़ी न पढ़ रही है, न लिख रही है। और जब पढ़ेगी-लिखेगी ही नहीं, तो समाज की भविष्य की सोच कहाँ से आएगी?
शिक्षा पर बोलते हुए उन्होंने अपनी फि़ल्म राजनीति का जि़क्र किया, जहाँ अमिताभ बच्चन के संवाद के माध्यम से उन्होंने कहा था कि भारत में ‘इंडियन टीचिंग सर्विसेज’ जैसी एक व्यवस्था होनी चाहिए, जहाँ बेहतरीन शिक्षकों को आईएएस से भी ज़्यादा सम्मान और सुविधाएँ मिलें। लेकिन असलियत ये है कि आज का शिक्षक सबसे ‘बेचारा’ हो गया है। नतीजा ये है कि बच्चे अब या तो इंजीनियर बन रहे हैं या मैनेजर, और मानविकी विषय- दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र, साहित्य - लगभग उपेक्षित हो गए हैं।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ के संयुक्त राष्ट्र महासभा में भाषण का भारत ने जवाब दिया है।
संयुक्त राष्ट ्रमें भारतीय राजनयिक पेटल गहलोत ने राइट टू रिप्लाई का इस्तेमाल करते हुए कहा कि ‘अगर तबाह रनवे, जले हैंगर जीत है तो पाकिस्तान आनंद ले सकता है।’
दरअसल शहबाज शरीफ ने दावा किया था कि ‘पाकिस्तान ने भारत के साथ युद्ध जीत लिया है’ और अब उनका देश शांति चाहता है।
लेकिन भारत ने कहा कि इसके लिए पाकिस्तान को अपने यहां सक्रिय चरमपंथियों के कैंप बंद करने होंगे और भारत में वॉन्टेड चरमपंथियों को उसे सौंपना होगा।
संयुक्त राष्ट्र में भारतीय राजनयिक पेटल गहलोत ने कहा है ‘यही पाकिस्तान था जिसने ओसामा बिन लादेन को एक दशक तक छिपाए रखा।’
भारत ने क्या-क्या कहा?
संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी मिशन की फस्र्ट सेक्रेटरी पेटल गहलोत ने कहा, ‘इस सभा ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की बेतुकी नौटंकी देखी, जिन्होंने एक बार फिर आतंकवाद का महिमामंडन किया, जो उनकी विदेश नीति का मूल हिस्सा है।’
उन्होंने कहा कि नाटक और झूठ का कोई भी स्तर सच्चाई को छिपा नहीं सकता।
पहलगाम हमले का जिक्र करते हुए गहलोत ने कहा, ‘यह वही पाकिस्तान है जिसने 25 अप्रैल, 2025 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में, जम्मू और कश्मीर में पर्यटकों पर हुए बर्बर जनसंहार के लिए रेजिस्टेंस फ्रंट (चरमपंथी संगठन) को जवाबदेही से बचाया।’
भारतीय राजनयिक ने कहा, ‘याद कीजिए, यही पाकिस्तान था जिसने ओसामा बिन लादेन को एक दशक तक छिपाए रखा, जबकि वह आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में साझेदार होने का दिखावा कर रहा था।’
गहलोत ने कहा, ‘सच्चाई यह है कि पहले की तरह ही, भारत में निर्दोष नागरिकों पर आतंकवादी हमले के लिए पाकिस्तान ही जि़म्मेदार है।’
उन्होंने कहा, ‘पाकिस्तान के मंत्रियों ने हाल में ये माना है कि उनका देश दशकों से आतंकवादी शिविर चला रहा है।’
पेटल गहलोत ने कहा, ‘इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि एक बार फिर पाकिस्तान का ढोंग सामने आ गया है। इस बार ये प्रधानमंत्री के स्तर पर दिखा है। एक तस्वीर हज़ार शब्दों को बयां करती है और इस बार हमने बहावलपुर और मुरीदके के आतंकवादी परिसरों में ऑपरेशन सिंदूर में मारे गए आतंकवादियों की कई तस्वीरें देखीं।
उन्होंने कहा, ‘हमने देखा कि पाकिस्तानी सेना के सीनियर अफ़सर और नागरिक सार्वजनिक तौर पर खूंखार आतंकवादियों का महिमामंडन करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे थे। इस शासन का झुकाव किस तरफ है, क्या इसे लेकर कोई शक बाकी रह गया है।’
‘पाकिस्तान शांति चाहता है तो आतंकवादियों को सौंप दे’
उन्होंने कहा, ‘पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने हाल में भारत के साथ हुए संघर्ष का अजीब ब्योरा पेश किया। इस मामले में रिकॉर्ड क्लियर है। नौ मई तक पाकिस्तान और हमले करने की धमकी दे रहा था लेकिन 10 मई को उसकी सेना ने हमसे सीधा अनुरोध किया कि लड़ाई रोक दी जाए।’
पेटल गहलोत ने कहा, ‘पाकिस्तान की सेना ने इसलिए ये अनुरोध किया क्योंकि भारतीय वायुसेना ने कई पाकिस्तानी एयरबेस पर हमला कर उसे नुकसान पहुंचाया था। इसकी तस्वीरें सार्वजनिक तौर पर मौजूद हैं। अगर तबाह रनवे और जले हुए हैंगर जीत की तरह दिखते हैं, जैसा कि प्रधानमंत्री दावा कर रहे हैं तो पाकिस्तान इसका आनंद ले।’
उन्होंने कहा, ‘सच तो ये है कि पहले की तरह ही पाकिस्तान भारत के बेकसूर नागरिकों पर आतंकवादी हमले के लिए जि़म्मेदार है। हमने अपने लोगों का बचाव करने के अपने अधिकारों का इस्तेमाल किया है। इस तरह की कार्रवाई से हमला करने वालों और इसकी साजिश रचने वालों को जवाब दे दिया गया है।’
उन्होंने कहा, ‘पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने कहा है कि वो भारत के साथ शांति चाहते हैं। अगर वो वास्तव में गंभीर हैं तो इसके लिए रास्ता साफ़ है। पाकिस्तान अपने सभी आतंकवादी कैंप तुरंत बंद करे और भारत में वॉन्टेड सभी आतंकवादियों को हमें सौंप दे।’
उन्होंने कहा, ‘ये विडंबना ही है कि जो देश नफऱत, धर्मांधता और असहिष्णुता में डूबा हुआ है वो हमें सिद्धांतों की सीख दे रहा है। पाकिस्तान में जो राजनीतिक और सार्वजनिक विमर्श चल रहा है वो उसका असली स्वरूप दिख रहा है। साफ है कि उसने आईने में बहुत दिनों से खुद को नहीं देखा है।’
‘पाकिस्तान और भारत के बीच काफी पहले ही इस बात पर सहमति बनी थी कि दोनों देशों के बीच कोई भी मामला द्विपक्षीय होगा। तीसरे पक्ष की कोई जगह नहीं है। लंबे समय से हमारी यही पोजीशन रही है।’
‘जहां तक आतंकवाद की बात है तो हम साफ़ कह रहे हैं कि आतंकवादियों और इसके स्पॉन्सर्स में कोई अंतर नहीं किया जाएगा। दोनों जिम्मेदार ठहराए जाएंगे। और न ही न्यूक्लियर ब्लैकमेलिंग के तहत की जाने वाली आतंकवादी गतिविधियों की इजाज़त दी जाएगी। भारत ऐसी धमकियों के आगे नहीं झुकेगा। दुनिया को हमारा संदेश साफ़ है। आतंकवाद पर हमारी जीरो टॉलरेंस की नीति है।’
भागलपुर के पीरपैंती में अदाणी को 1,050 एकड़ जमीन लीज पर मिली. विपक्षी दल कांग्रेस ने इसपर विरोध जताया. पेड़ों की कटाई और मुआवजे पर सवाल उठे. चुनावी राज्य बिहार में इस विवाद के मायने क्या हैं?
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार का लिखा-
बिहार में उद्योगपति अदाणी चर्चा में हैं. मामला भागलपुर जिले के पीरपैंती में अदाणी पावर को 1,050 एकड़ जमीन दिए जाने से संबंधित है. इस जमीन पर एक थर्मल पावर प्लांट बनाने की योजना है. जमीन 33 साल की लीज पर दी गई है. कीमत, एक रुपया सालाना.
इस मामले पर कांग्रेस के राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी पवन खेड़ा ने दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस की. फिर कांग्रेस ने पटना में प्रदर्शन किया. अदाणी को "राष्ट्र सेठ" की संज्ञा देते हुए पवन खेड़ा ने कई गंभीर आरोप लगाए.
इनमें से प्रमुख आरोप यह है कि अदाणी को जमीन देने के लिए किसानों पर दबाव डाला गया, पेंसिल से जबरन हस्ताक्षर करवाए गए और औने-पौने दाम पर जमीन ले ली गई. इसके अलावा एक मुद्दा यह भी उठाया गया कि प्रॉजेक्ट के लिए करीब 10 लाख पेड़ काटे जाएंगे.
बिजली की उपलब्धता और रोजगार मुहैया कराने का दावा
इस बीच 15 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अदाणी पावर की 2,400 मेगावाट क्षमता वाली इस ताप विद्युत परियोजना का पूर्णिया से वर्चुअल शिलान्यास भी कर दिया. अदाणी ग्रुप इसके लिए बिहार में करीब 26,000 करोड़ का निवेश करेगा. बिहार की एनडीए सरकार इस परियोजना को पूर्वोत्तर भारत में अब तक का सबसे बड़ा निवेश बता रही है.
अदाणी समूह ने इस संबंध में बिहार राज्य विद्युत उत्पादन कंपनी लिमिटेड (बीएसपीजीसीएल) के साथ बिजली आपूर्ति समझौते पर हस्ताक्षर किया है. कंपनी का कहना है कि पीरपैंती में बनने वाले 'ग्रीन फील्ड अल्ट्रा सुपर क्रिटिकल थर्मल पावर प्रॉजेक्ट' से बिहार को बिजली भी उपलब्ध कराई जाएगी. दावा है कि इस परियोजना के कारण 10 से 12 हजार लोगों के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे.
पीरपैंती थर्मल पावर प्लांट: अधिग्रहण और मुआवजा
दरअसल, पीरपैंती प्रखंड के हरिनकोल, सुंदरपुर, रायपुरा, श्रीमतपुर और टुंडवा-मुंडवा मौजा (राजस्व ग्राम) में थर्मल पावर प्रॉजेक्ट के लिए भूमि अधिग्रहण का मामला काफी पुराना है. साल 2011 में भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू की गई थी.
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प्रॉजेक्ट के लिए कुल 1,020 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया. इसमें 988.335 एकड़ जमीन किसानों की है. शेष जमीन बिहार सरकार और रेलवे की है. साल 2015-16 तक लगभग 80 प्रतिशत जमीन मालिकों को मुआवजे की रकम दे दी गई. सरकारी दावे के मुताबिक, जुलाई 2025 तक 97 प्रतिशत जमीन मालिकों को मुआवजा दिया जा चुका है.
'एक रुपया सालाना' पर जमीन लीज
पावर प्रॉजेक्ट के लिए 'बिहार स्टेट पावर जनरेशन' कंपनी को साल 2022 में ही सांकेतिक दर 'एक रुपया सालाना' की लीज पर हस्तांतरण की स्वीकृति दी गई थी. दावा किया गया कि बिजली की कीमत कम रहे, इसलिए इसे चयन प्रक्रिया का हिस्सा बनाया गया.
उद्योग मंत्री नीतीश मिश्रा का कहना है, "जमीन का स्वामित्व पूरी तरह से बिहार सरकार के ऊर्जा विभाग के पास ही रहेगा. इसके लिए ई-टेंडर आमंत्रित किया गया था, जिसकी अंतिम तारीख 11 जुलाई 2025 थी. टेंडर की प्रक्रिया टैरिफ बेस्ट कंपीटिटिव बिडिंग (टीबीसीबी) के तहत संचालित की गई. अदाणी पावर ने सबसे कम दर 6.075 रुपये कोट कर इसे हासिल किया."
बांग्लादेश ने अदाणी पावर से बिजली खरीद की आधी
उनके मुताबिक, कांग्रेस पार्टी नाहक ही भ्रम फैला रही है. पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, असम व महाराष्ट्र जैसे कई राज्यों ने पहले इसी प्रणाली के तहत पावर प्लांट के लिए निविदा निकाल कर बिजली खरीद की प्रक्रिया अपनाई है.
पर्यावरणीय मुद्दे: पेड़ों की कटाई का मामला एनजीटी पहुंचा
'किसान चेतना व उत्थान समिति' की शिकायत पर यह मामला अब राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) में पहुंच चुका है. समिति के अध्यक्ष श्रवण सिंह राजपूत कहते हैं, "पावर प्लांट की प्रस्तावित जमीन पर 25-30 साल पुराने आम के लगभग 10 लाख पेड़ लगे हैं. बीते दिनों यहां हेलीपैड बनाने के लिए 50-60 पेड़ काट डाले गए थे."
बिहार के कई जिलों में हैंडपंप से लेकर तालाब तक सब सूखे
शिकायत में यह भी कहा गया है कि 20 किलोमीटर की परिधि में दो थर्मल पावर प्लांट होने से वायु प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है. जिन दो पावर प्लांटों की बात है, उनमें से एक भागलपुर जिले के कहलगांव में एनटीपीसी का है. और, दूसरा प्लांट पड़ोसी जिला गोड्डा में अदाणी पावर का है.
"जमीन सरकार को दी थी, कंपनी को नहीं"
सुदामा प्रसाद, 'अखिल भारतीय किसान मोर्चा' के महासचिव और सीपीआई (एमएल) से आरा के सांसद हैं. स्थानीय किसानों से मुलाकात के बाद उन्होंने कहा, "यह जमीन किसानों ने सरकार को दी थी, किसी प्राइवेट कंपनी को नहीं. यहां करीब 10 लाख आम के पेड़ काटने पड़ेंगे, जिनमें भारी संख्या में 25 साल पुराने पेड़ हैं."
सरकार का दावा कहता है कि भूमि अधिग्रहण के समय 10,055 पेड़ गिनती में शामिल किए गए थे. इनमें अधिकांश पेड़ 2010-11 के बाद लगाए गए. केवल पावर प्लांट एरिया (लगभग 300 एकड़) और कोल हैंडलिंग एरिया में ही कुछ पेड़ काटे जाएंगे.
इसके बदले 100 एकड़ में ग्रीन बेल्ट विकसित किया जाएगा, ताकि पर्यावरण में संतुलन बना रहे और लोकल ईकोसिस्टम को कोई नुकसान ना हो. वन विभाग के एक वरीय अधिकारी ने नाम ना छापने की शर्त पर कहा, "उतने एरिया में मुश्किल से 50,000 पेड़ होने चाहिए, वह भी बहुत हो गया. आरोप भले ही जो लगा दिए जाएं."
पीएम और सीएम के नाम कांग्रेस के सवाल
बिहार कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता राजेश राठौड़ ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में सवाल किया, "एक पेड़ मां के नाम का छलावा करने वाली बीजेपी यह बताए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 10 लाख आम-लीची जैसे नकदी वृक्षों की कुर्बानी और देशभर में सबसे महंगी दर पर बिजली बिक्री की इजाजत किसके फायदे के लिए दे रहे हैं?"
राजेश राठौड़ ने आगे कहा, "नियम के अनुसार, पांच साल तक अधिग्रहित जमीन का इस्तेमाल ना होने पर जमीन मालिकों को वापस करने और फिर नई दर पर मुआवजा देने का प्रावधान है. फिर अदाणी पावर को जमीन देने के पीछे मंशा क्या है. एनटीपीसी जैसी सरकारी कंपनियों के रहते अदाणी पावर को 1,200 एकड़ जमीन क्यों और किसके इशारे पर दी जा रही है."
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इस विषय पर पत्रकार रवि रंजन बताते हैं, "बिहार औद्योगिक निवेश प्रोत्साहन पैकेज- 2025 में योग्य निवेशकों को एक रुपये के टोकन मनी पर जमीन देने की पेशकश की गई है. निवेश की राशि और रोजगार की संख्या के आधार पर मुफ्त जमीन देने का भी प्रावधान है. पेड़ों को लेकर देखिए अब एनजीटी का क्या निर्देश आता है. बिहार सरकार के जवाब के बाद ही सही संख्या का पता चल पाएगा."
मुआवजे की पारदर्शिता पर भी सवाल
पावर प्लांट के लिए ली गई जमीन के मुआवजा वितरण में भी अनियमितता का आरोप लगा है. मोहम्मद मोजाहिद, पीरपैंती प्रखंड के महेशराम पंचायत (अब नगर पंचायत) के पूर्व मुखिया हैं. उन्होंने बताया कि पावर प्लांट के लिए उनकी भी जमीन ली गई. मुआवजे के सवाल पर उन्होंने आरोप लगाया, "मुआवजा देने में तो हेराफेरी की ही गई है. कई मामले तो अदालत तक भी पहुंचे. साल 2011 में मेरी भी एक एकड़ 40 डिसमिल जमीन ली गई, जिसपर आम का बगीचा था. मुझे 32 लाख रुपये प्रति एकड़ का मुआवजा दिया गया. वहीं, 2013 में जिसकी जमीन ली गई, उसको 85 लाख रुपये तक के हिसाब से पैसा दिया गया. पेड़ का पैसा भी मुझे नहीं मिला. किसी-किसी को तो काफी कम पैसा दिया गया."
मो. मुजाहिद आगे कहते हैं, "हमलोगों ने यह समझकर जमीन दी थी कि एनटीपीसी पावर प्लांट बनाएगा. फिर हुआ कि सोलर प्लांट लगेगा और अब जमीन अदाणी को दे दी गई. इसका तो दुख है, सरकार यहां पावर प्लांट बनाती."
मुआवजा देने में अनियमितता को लेकर 'किसान चेतना एवं उत्थान समिति' ने पिछले दिनों मुख्यमंत्री को पत्र लिखा और पूरे मामले की उच्चस्तरीय जांच का आग्रह किया. इसमें एक प्लॉट में समान रकबा के लिए अलग-अलग हिस्सेदारों को अलग-अलग दर से भुगतान का आरोप लगाया गया था.
समिति ने "एक परियोजना, एक दर" के हिसाब से निर्माण के पहले भुगतान सुनिश्चित करने एवं अन्य आरोपों का जिक्र करते हुए जिला भू-अर्जन कार्यालय से भी पत्राचार किया था. हालांकि, जिला भू-अर्जन पदाधिकारी कार्यालय ने बिंदुवार जवाब देते हुए किसी भी तरह की अनियमितता से इंकार किया है.
पूर्ण राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची के विस्तार की मांग को लेकर बुधवार को लद्दाख में हिंसा भड़क गई, जिसमें चार लोगों की मौत हो गई और 50 के करीब लोग घायल हो गए. केंद्र ने हिंसा के लिए सोनम वांगचुक को जिम्मेदार ठहराया है.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी का लिखा-
लेह में बुधवार, 24 सितंबर को आंदोलनकारियों और पुलिस की झड़प में चार लोगों की मौत के बाद गुरुवार को शहर शांत था. अधिकारियों ने कहा कि बुधवार शाम से हिंसा की कोई रिपोर्ट नहीं है. प्रशासन ने स्थिति को नियंत्रण में रखने के लिए चार या उससे अधिक लोगों के इकट्ठा होने पर प्रतिबंध लगा दिया है. बुधवार की पुलिस फायरिंग का विरोध करने और लेह के साथ एकजुटता दिखाने के लिए, कारगिल ने गुरुवार को हड़ताल का एलान किया. जबकि प्रशासन ने पहले से ही कारगिल में लोगों के जमा होने को प्रतिबंधित कर दिया है. स्थिति को नियंत्रण में रखने के लिए बड़ी संख्या में पुलिस और अर्धसैनिक बलों को तैनात किया गया है.
अधिकारियों ने मीडिया से कहा कि बुधवार की हिंसा के बाद स्थिति नियंत्रण में है, जिसमें चार मौतों के अलावा, 50 से अधिक लोग घायल हो गए थे. पुलिस ने उग्र प्रदर्शनकारियों पर उस वक्त फायरिंग कर दी जब उनमें से कुछ ने स्थानीय बीजेपी कार्यालय को आग लगा दी. केंद्र सरकार का कहना है कि पुलिस ने आत्मरक्षा में गोली चलाई. रिपोर्टों में इसे साल 1989 के बाद लद्दाख का सबसे हिंसक दिन बताया गया.
कैसे उठी चिंगारी
23 सितंबर की शाम भूख हड़ताल पर बैठे दो आंदोलनकारी 72 साल के त्सेरिंग आंगचुक और 60 वर्षीय ताशी डोल्मा की अचानक तबीयत बिगड़ गई. उन्हें गंभीर हालत अस्पताल में भर्ती कराया गया. ऐसा कहा जा रहा है कि दोनों के अस्पताल में भर्ती होने ने लेह के युवाओं को भड़काने का काम किया. इसके अगले दिन यानी 24 सितंबर की सुबह तक बंद का एलान हुआ और लेह के शहीद मैदान में भीड़ जमा हो गई. इसके बाद आंदोलनकारियों ने हिंसक रूप ले लिया.
पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, "दो आंदोलनकारियों की स्थिति बिगड़ गई थी और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा. हो सकता है कि यही हिंसक प्रदर्शन की तात्कालिक वजह बना." यह आंदोलनकारी पिछले 35 दिनों से अनशन पर थे.
क्या हैं मांगें
आंदोलन के केंद्र में चार मांगें हैं: लद्दाख के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा, छठी अनुसूची का विस्तार, लेह और कारगिल के लिए अलग लोकसभा सीटें और रोजगार में आरक्षण. प्रदर्शनकारियों का तर्क है कि छठी अनुसूची के तहत मिलने वाली सुरक्षा के बिना, लद्दाख के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र, भूमि अधिकारों और सांस्कृतिक पहचान को गंभीर खतरों का सामना करना पड़ता है.
भारतीय संविधान की छठी अनुसूची के तहत जातीय और जनजातीय क्षेत्रों में स्वायत्त जिला परिषदों और क्षेत्रीय परिषदों को अपने-अपने क्षेत्रों के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया गया है. फिलहाल, भारत के चार राज्य मेघालय, असम, मिजोरम और त्रिपुरा के दस जिले इस अनुसूची का हिस्सा हैं. वांगचुक की मांग है कि लद्दाख को भी इस अनुसूची के तहत विशेषाधिकार दिए जाएं.
इन मांगों को लेकर विरोध प्रदर्शन सालों से हो रहे हैं और वांगचुक ने कई बार भूख हड़ताल भी की है. यह मुद्दा 2019 से चला आ रहा है, जब 2019 में केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटा दिया था और पूर्ण राज्य का दर्जा खत्म कर दिया था. इसके बाद जम्मू-कश्मीर एक अलग केंद्र शासित प्रदेश बना जबकि लेह और कारगिल को मिलाकर लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था.
जम्मू-कश्मीर में विधानसभा तो है लेकिन लद्दाख में कोई विधानसभा नहीं है. ना ही लद्दाख में कोई स्थानीय परिषद है. लद्दाख की राजनीतिक और कानूनी स्थिति तब से विवादास्पद बनी हुई है, जो केंद्र शासित प्रदेश के लोगों को प्रत्यक्ष केंद्रीय प्रशासन के तहत लाती है. पिछले छह साल से लद्दाख के लोग राज्य का दर्जा और लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग कर रहे हैं.
दिल्ली में हिरासत में क्यों लिए गए सोनम वांगचुक समेत 150 लोग
विरोध प्रदर्शनों में वांगचुक की भूमिका क्या है?
हाल के वर्षों में, वांगचुक ने लद्दाख के प्रशासन में स्वायत्तता से संबंधित मुद्दों को जोर शोर से उठाया है. वांगचुक ने कहा है कि छठी अनुसूची के तहत सुरक्षा 2019 में बीजेपी द्वारा किया गया एक चुनावी वादा था और भारत सरकार को अपना वादा निभाना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि लद्दाख के लोगों ने सत्ता के विकेंद्रीकरण की मांग की है क्योंकि वे मानते हैं कि "नौकरशाही के निचले स्तर पर बैठे लोग औद्योगिक शक्तियों और कॉरपोरेट घारानों से प्रभावित" हो सकते हैं, जो लद्दाख में "खनन करने की योजना" बना रहे हैं.
इससे पहले, पिछले साल मार्च में गृह मंत्रालय के साथ बातचीत के दो दिन बाद, लेह एपेक्स बॉडी और कारगिल डेमोक्रेटिक एलायंस वार्ता से बाहर हो गई, जिसके बाद वांगचुक और अन्य लोगों ने लेह में नमक और पानी के साथ आमरण अनशन किया. यह अनशन 21 दिनों तक चला.
इसके बाद इन्हीं मांगों को लेकर वांगचुक और 150 अन्य लोगों ने सितंबर 2024 में लेह से दिल्ली तक एक पैदल यात्रा निकाली थी. हालांकि पुलिस ने उन्हें दिल्ली में दाखिल होने से पहले ही रोक लिया.
ताजा मामले में भी वांगचुक पिछले 15 दिनों से अनशन पर थे और उन्होंने 24 सितंबर की हिंसा के बाद अपना अनशन खत्म कर दिया. एक्स पर पोस्ट किए गए एक बयान में वांगचुक ने लोगो ने शांति की अपील की. उन्होंने कहा, "युवा पीढ़ी पांच साल से बेरोजगार हैं, एक के बाद एक बहाने करके उन्हें नौकरियों से बाहर रखा जा रहा है और लद्दाख को संरक्षण नहीं दे रहे हैं."
केंद्र सरकार ने क्या कहा
केंद्र ने बुधवार को आरोप लगाया कि लद्दाख में भीड़ को सोनम के "उत्तेजक बयानों" द्वारा भड़काया गया, और कुछ "राजनीतिक रूप से प्रेरित" व्यक्ति सरकार और लद्दाखी समूहों के प्रतिनिधियों के बीच चल रही बातचीत में हुई प्रगति से खुश नहीं थे.
गृह मंत्रालय ने बयान में कहा है कि सोनम वांगचुक ने कई नेताओं द्वारा अपील करने के बाद भी अपना अनशन नहीं रोका और अरब स्प्रिंग-शैली के प्रदर्शनों और नेपाल में जेन-जी के प्रदर्शनों का उल्लेख करते हुए लोगों को गुमराह किया.
बयान में आगे कहा गया, "24 सितंबर को सुबह करीब साढ़े 11 बजे, उनके भड़काऊ भाषणों से उत्तेजित हुई भीड़ अनशन स्थल से निकल गई और एक राजनीतिक पार्टी के दफ्तर और सीईसी लेह के सरकारी कार्यालय पर हमला कर दिया. उन्होंने इन कार्यालयों में आग लगा दी, सुरक्षाकर्मियों पर हमला किया और पुलिस वाहन को जला दिया."
मांगों को लेकर डटी हैं लद्दाख की महिलाएं
बयान के मुताबिक, "बेकाबू भीड़ ने पुलिसकर्मियों पर हमला किया जिसमें 30 से ज्यादा सुरक्षाकर्मी घायल हो गए. भीड़ ने सार्वजनिक संपत्तियों पर हमला करना और पुलिसकर्मियों पर हमला करना जारी रखा. आत्मरक्षा में पुलिस को गोलीबारी करनी पड़ी, जिसमें दुर्भाग्य से कुछ लोगों की मौत होने की खबर है."
बयान में कहा गया है, "यह सबको मालूम है कि भारत सरकार सक्रिय रूप से शीर्ष लेह एपेक्स बॉकी और कारगिल डेमोक्रेटिक एलायंस के साथ सक्रिय बातचीत करती रही है. उच्च शक्ति वाली समिति के औपचारिक चैनल के साथ-साथ उप-समिति और नेताओं के साथ कई अनौपचारिक बैठकों के माध्यम से बैठकों की श्रृंखला उनके साथ आयोजित की गई थी और इसके उल्लेखनीय नतीजे सामने आए हैं."
लद्दाख के उपराज्यपाल कविंदर गुप्ता ने हिंसा की निंदा की है और इसे "दिल से दहलाने वाला" करार दिया. उन्होंने कहा कि लद्दाख की शांति को भंग करने की साजिश रचने वालों को नहीं छोड़ा जाएगा.
ट्रंप प्रशासन ने एच1बी वीजा फीस में भारी बढ़ोतरी कर दी. इसने अमेरिकी स्वास्थ्य सेवा समूहों की चिंता बढ़ा दी है. चिकित्सक संगठनों का कहना है कि इस फैसले से देश में डॉक्टरों की कमी और गहरी हो जाएगी.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी का लिखा-
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप द्वारा एच1बी वीजा आवेदनों की फीस बढ़ाने की घोषणा ने स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में हलचल मचा दी है. इस फैसले से विदेशी डॉक्टरों और अन्य चिकित्सा पेशेवरों की अमेरिका में नियुक्ति कठिन हो सकती है. पहले से ही मुश्किलों का सामना कर रहे हेल्थ सेक्टर पर दबाव और बढ़ सकता है. अमेरिकी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र से जुड़े समूहों और चिकित्सकों का मानना है कि इस कदम के नकारात्मक प्रभाव पड़ेंगे.
21 सितंबर से एच1बी वीजा फीस बढ़ाकर 1,00,000 डॉलर कर दी गई है. पहले यह रकम 4,500 डॉलर थी. मौजूदा वीजा धारकों या "नवीनीकृत" आवेदकों को बढ़ी हुई फीस से छूट मिलेगी. ट्रंप प्रशासन का कहना है कि एच1बी वीजा सिस्टम का सबसे ज्यादा दुरुपयोग होता है. यह वीजा उन लोगों के लिए है जो बहुत ज्यादा स्किल वाले हैं और ऐसे सेक्टर में काम करते हैं, जिनमें अमेरिकियों की हिस्सेदारी कम है.
ट्रंप ने एच1बी वीजा फीस बढ़ाकर 1 लाख डॉलर की, बढ़ेंगी भारतीयों की मुश्किलें
विदेशी डॉक्टरों की कमी कैसे पूरा करेगा अमेरिका
अमेरिकी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र एच1बी वीजा का व्यापक रूप से इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय मेडिकल ग्रैजुएट्स और विदेश में ट्रेंड डॉक्टरों की भर्ती के लिए करता है. ये देश के विभिन्न हिस्सों, खासकर ग्रामीण और कम सेवा प्राप्त क्षेत्रों में स्टाफ की कमी को पूरा करते हैं. इन पेशेवरों की उपलब्धता अमेरिकी हेल्थ सिस्टम के लिए बेहद अहम है. आशंका है कि वीजा फीस में भारी वृद्धि से उनकी नियुक्ति प्रक्रिया पर गंभीर असर पड़ सकता है.
अमेरिकन एकेडमी ऑफ फैमिली फिजिशियंस (एएएफपी) के मुताबिक, अमेरिका में काम करने वाले फैमिली डॉक्टरों में पांच में एक से अधिक अंतरराष्ट्रीय ग्रैजुएट्स हैं. उनके ग्रामीण इलाकों में सेवा देने की संभावना अधिक होती है.
अमेरिकी नागरिकता एवं आव्रजन सेवा (यूएससीआईएस) के आंकड़ों के मुताबिक, वित्तीय वर्ष 2025 में सभी क्षेत्रों में एच1बी वीजा प्रोग्राम के लाभार्थियों की संख्या लगभग 4,42,000 थी. इनमें से 5,640 आवेदन स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण क्षेत्र के लिए मंजूर किए गए थे.
1 लाख डॉलर की फीस सिर्फ नए एच1बी आवेदनों के लिए: अमेरिका
मेडिकल स्टाफ की कमी से जूझता अमेरिका
अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (एएमए) के अध्यक्ष बॉबी मुकामाला कहते हैं, "संयुक्त राज्य अमेरिका पहले से ही डॉक्टरों की कमी का सामना कर रहा है. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय मेडिकल ग्रैजुएट्स के लिए यहां प्रशिक्षण और काम करना कठिन होने का मतलब है कि मरीजों को इलाज के लिए लंबा इंतजार करना होगा. उन्हें इलाज के लिए दूर जाना होगा."
अस्पताल और डॉक्टर समूहों ने भी चेतावनी दी है कि वीजा फीस बढ़ने से अमेरिका में विदेशी प्रशिक्षित डॉक्टरों का आना काफी कम हो सकता है. इससे उन अस्पतालों पर और बोझ पड़ सकता है, जो पहले ही स्टाफ की कमी से जूझ रहे हैं. इसके कारण विशेषज्ञों की कमी होगी और स्थानीय चिकित्सा कर्मचारियों पर दबाव बढ़ेगा.
ट्रंप की वीजा नीति से हार्वर्ड में पढ़ रहे भारतीय छात्रों में डर
अमेरिकन हॉस्पिटल एसोसिएशन (एएचए) का कहना है कि यह वीजा प्रणाली अस्पतालों को उन क्षेत्रों में काम करने वाले योग्य विदेशी पेशेवरों की भर्ती का अवसर देती है, जहां घरेलू वर्कफोर्स की उपलब्धता सीमित है.
एएचए के एक प्रवक्ता ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया, "एच1बी वीजा कार्यक्रम अस्पताल क्षेत्र में बेहद कुशल डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों की भर्ती करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, ताकि समुदायों और मरीजों के लिए देखभाल तक पहुंच सुनिश्चित की जा सके."
अमेरिका में वीजा की मुश्किल बढ़ने पर सोशल मीडिया की सफाई में जुटे विदेशी छात्र
विदेशी डॉक्टर नहीं आएंगे, तो कौन करेगा इलाज
एएएफपी के मुताबिक "लगभग 2.1 करोड़ अमेरिकी ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं, जहां विदेशी प्रशिक्षित चिकित्सकों का अनुपात 50 प्रतिशत है."
कोविड-19 महामारी के बाद से कई अमेरिकी अस्पतालों को स्टाफ की कमी की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. ओहायो हेल्थ, क्लीवलैंड क्लीनिक, सेडार्स-सिनाई और मास जनरल ब्रिगहम जैसे प्रमुख अस्पताल समूहों ने रॉयटर्स को बताया कि वे ट्रंप प्रशासन द्वारा एच1बी वीजा फीस में की गई भारी वृद्धि के असर का आंकलन कर रहे हैं.
एसोसिएशन ऑफ अमेरिकन मेडिकल कॉलेज के अनुसार, साल 2036 तक अमेरिका में डॉक्टरों की मांग, आपूर्ति की तुलना में तेजी से बढ़ेगी. इसके कारण देश में 13,500 से 86,000 चिकित्सकों की कमी हो सकती है.
'गोल्ड कार्ड' वीजा: 44 करोड़ में मिल जाएगी अमेरिकी नागरिकता
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने हाल ही में अमेरिकी नागरिकता हासिल करने का एक सीधा लेकिन खर्चीला तरीका शुरू करने की योजना बनाई है. इसे नाम दिया गया है 'गोल्ड कार्ड वीजा' स्कीम, आइए इसके बारे में जानते हैं.
'50 लाख डॉलर दें, नागरिकता लें'
डॉनल्ड ट्रंप की प्रस्तावित गोल्ड कार्ड वीजा स्कीम के जरिए अमेरिका में 50 लाख डॉलर (करीब 44 करोड़ रुपये) का निवेश करने वाले लोगों को अमेरिकी नागरिकता आसानी से मिल जाएगी. ट्रंप इस योजना के जरिए भविष्य में 10 लाख गोल्ड कार्ड जारी करने की तैयारी में हैं.
क्या है ग्रीन कार्ड
यदि कोई स्थायी तौर पर अमेरिका में बसना चाहता है तो उसे ग्रीन कार्ड की जरूरत होती है. ग्रीन कार्ड हासिल करने का मतलब है, अमेरिकी नागरिकता हासिल करना. कुछ शर्तें पूरी करने के बाद जिन लोगों को ग्रीन कार्ड मिल जाता है, वे स्थायी तौर पर अमेरिका में रह सकते हैं. हालांकि ग्रीन कार्ड धारकों को वोटिंग का अधिकार नहीं मिलता.
कितने तरह का वीजा
अमेरिकी में गैर-आप्रवासी और आप्रवासी कैटिगरी के तहत अलग-अलग तरह का वीजा जारी किया जाता है. जो लोग घूमने, बिजनस करने, पढ़ाई या किसी अस्थायी काम से कुछ समय के लिए अमेरिका जाते हैं, उन्हें गैर-आप्रवासी कैटिगरी के तहत अस्थायी वीजा और अमेरिका में स्थायी रूप से रहने वालों को दूसरी कैटिगरी में वीजा दिया जाता है.
पहले भी थी ऐसी योजना
अमेरिका में ईबी5 वीजा कैटिगरी में निवेश के जरिए पहले भी अमेरिका की नागरिकता हासिल की जा सकती थी. इसके तहत 10 लाख डॉलर (करीब 8 करोड़ रुपये) का निवेश करके कोई भी इस वीजा के जरिए अमेरिका में स्थायी तौर पर रह सकता था. माना जा रहा है कि गोल्ड कार्ड वीजा इसी की जगह लेगा.
तस्वीर: Valentyn Semonov/Zoonar/picture alliance
[अमेरिकी पासपोर्ट] [अमेरिकी पासपोर्ट]
अमेरिका का फायदा
डॉनल्ड ट्रंप का साफ कहना है कि इस स्कीम के जरिए जो पैसा अमेरिका को मिलेगा उससे न सिर्फ देश के राष्ट्रीय कर्ज को चुकाने के लिए धन मिलेगा बल्कि जो लोग इतनी रकम चुकाकर अमेरिका आएंगे वे ढेर सारा टैक्स देंगे और नई नौकरियां पैदा करेंगे.
तस्वीर: Kevin Lamarque/REUTERS
[मंच पर भाषण देते डॉनल्ड ट्रंप] [मंच पर भाषण देते डॉनल्ड ट्रंप]
बिकती है नागरिकता
दुनिया के कई देशों में निवेश के जरिए नागरिकता हासिल की जा सकती है. ब्रिटिश कंपनी हेनली एंड पार्टनर्स के अनुसार 100 से ज्यादा देशों में इस तरह की योजनाएं लागू हैं. ब्रिटेन, ग्रीस, कनाडा और इटली समेत कई देशों में इसी तरह नागरिकता हासिल की जा सकती है. कई देशों में तो महंगा घर खरीदने से भी नागरिकता मिल जाती है.
भारत के लिए फायदा या नुकसान
अमेरिका में रह रहे भारतीय प्रवासियों के लिए ये महंगा सौदा है. यूएससीआईएस के अनुसार ग्रीन कार्ड की राह देख रहे करीब 10 लाख भारतीयों की उम्मीदों को इससे झटका लग सकता है. साथ ही इससे भारत से बाहर जाकर निवेश का रास्ता ढूंढ़ रहे लोगों को नया अवसर हासिल होगा, जिससे लोगों का पलायन बढ़ सकता है.
तस्वीर: Mykhailo Polenok/PantherMedia
[भारतीय पासपोर्ट] [भारतीय पासपोर्ट]
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने गुरुवार को नए टैरिफ़ का एलान किया है.
ट्रंप ने कहा है कि अमेरिका के बाहर बनी ब्रांडेड दवाओं पर 100 फ़ीसदी टैरिफ़ लगेगा और ये एक अक्तूबर 2025 से लागू हो जाएगा.
ट्रंप ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ट्रुथ सोशल पर जिन नए सामानों पर टैरिफ़ का एलान किया है, उनमें हैवी-ड्यूटी ट्रक, किचन और बाथरूम कैबिनेट भी शामिल हैं.
हैवी-ड्यूटी ट्रकों पर 25 और किचन और बाथरूम कैबिनेट पर 50 फ़ीसदी टैरिफ़ लगेगा.
भारत अमेरिकी बाजार में दवाओं का बड़ा निर्यातक है. अमेरिका पहले ही भारतीय निर्यात पर 50 फ़ीसदी का टैरिफ़ लगा चुका है.
ट्रंप ने ट्रुथ सोशल पर लिखा, ''एक अक्तूबर 2025 से हम हर ब्रांडेड या पेटेंट वाले फार्मा प्रोडक्ट्स पर 100 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाने जा रहे हैं. यहाँ बनने वाली दवाओं को इससे बाहर रखा जाएगा.''
उन्होंने लिखा, ''एक अक्तूबर 2025 से हम सभी किचन कैबिनेट्स, बाथरूम वैनिटीज़ और इससे जुड़े प्रोडक्ट्स पर 50 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाएँगे. इसके अलावा अपहोल्स्टर्ड फ़र्नीचर पर 30 फ़ीसदी टैरिफ़ लगेगा. क्योंकि दूसरे देशों से ये प्रोडक्ट बड़े पैमाने पर बाढ़ की तरह आ रहे हैं. यह अनुचित है, लेकिन हमें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर को बचाना होगा.''
उन्होंने हैवी ट्रकों पर टैरिफ़ लगाने को सही ठहराते हुए कहा, ''अपने ट्रक निर्माताओं को अनुचित विदेशी प्रतिस्पर्द्धा से बचाने के लिए मैं एक अक्तूबर 2025 से दुनिया के अन्य हिस्सों में बने सभी "हैवी ट्रकों" पर 25 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाने जा रहा हूँ."
''इस प्रकार हमारे प्रमुख बड़े ट्रक निर्माता, जैसे पीटरबिल्ट, केनवर्थ, फ़्रेटलाइनर, मैक ट्रक्स और दूसरी कंपनियाँ बाहरी बाधाओं से सुरक्षित रहेंगीं.''
भारतीय दवा कंपनियों पर असर
व्यापार अनुसंधान एजेंसी जीटीआरआई (ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनीशिएटिव) के मुताबिक़ फार्मास्युटिकल क्षेत्र भारत का सबसे बड़ा औद्योगिक निर्यात है.
भारत हर साल अमेरिका को क़रीब 12.7 बिलियन डॉलर की दवाओं निर्यात करता है.
लेकिन इसमें से अधिकतर दवाएँ जेनेरिक ड्रग्स होती हैं.
भारत से अमेरिका में ब्रांडेड दवाइयाँ भी निर्यात होती हैं, भले ही ये व्यापार जेनेरिक ड्रग्स की तुलना में बहुत कम है.
डॉ रेड्डीज़, ल्यूपिन और सन फार्मा जैसी भारतीय कंपनियाँ अमेरिका को ब्रांडेड ड्रग्स निर्यात करती हैं.
जब ट्रंप ने भारतीय आयात पर 50 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाया था, तब जीटीआरआई ने कहा था कि अमेरिकी टैरिफ़ लगने से जेनेरिक और ब्रांडेड दवाओं की लागत बढ़ जाएगी.
जीटीआरआई के मुताबिक़ बड़े पैमाने पर अमेरिका को दवाइयाँ बेच रही भारतीय कंपनियाँ बहुत कम मार्जिन पर काम करती हैं.
उत्तरी अमेरिका भारत की फार्मा कंपनियों की आय का एक बड़ा साधन है.
इन कंपनियों की कमाई में अधिकांश योगदान इसी क्षेत्र का है और यह लाभ में एक तिहाई का योगदान देता है.
निशाने पर आयरलैंड?
निशाने पर आयरलैंड?
क्या ब्रांडेड दवाइयों पर टैरिफ़ का निशाना आयरलैंड है?
दरअसल आयरलैंड ब्रांडेड ड्रग्स के बड़े निर्माताओं में से एक है.
दुनिया की एक दर्जन से ज़्यादा बड़ी दवा कंपनियों के आयरलैंड में कारखाने हैं, जिनमें से कुछ दशकों पुराने हैं.
कई कंपनियाँ अमेरिकी बाज़ार के लिए दवाएँ बनाती हैं.
मर्क फार्मा आयरलैंड की राजधानी डबलिन के पास कैंसर के लिए दुनिया की सबसे ज़्यादा बिकने वाली प्रिस्क्रिप्शन दवा कीट्रुडा का उत्पादन करती है.
एबवी वेस्टपोर्ट में बोटॉक्स इंजेक्शन बनाती है, जबकि एलाई लिली का किंसले प्लांट मोटापे की दवाओं की बढ़ती अमेरिकी माँग को पूरा करने में मदद करता है.
रॉयटर्स के मुताबिक़ ट्रंप कई बार आयरलैंड पर कम कॉरपोरेट टैक्स दरों के ज़रिए जॉनसन एंड जॉनसन और फ़ाइज़र जैसी अमेरिकी कंपनियों को लुभाने का आरोप लगाते रहे हैं.
रॉयटर्स के अनुसार अमेरिकी वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड लुटनिक ने भी आयरलैंड की नीतियों को एक "घोटाला" बताया है जिसे ट्रंप प्रशासन रोक देगा.
भारत अमेरिका में जेनेरिक दवाओं का भी बड़ा सप्लायर
अमेरिका में बिकने वाली लगभग आधी जेनेरिक दवाइयाँ अकेले भारत से आती हैं. जेनेरिक दवाइयाँ ब्रांड वाली दवाओं का सस्ता संस्करण होती हैं.
अमेरिका में ऐसी दवाइयाँ भारत जैसे देशों से आयात की जाती हैं और 10 में से 9 प्रिस्क्रिप्शन इन्हीं दवाओं के होते हैं.
इससे अमेरिका को स्वास्थ्य सेवा लागत में अरबों डॉलर की बचत होती है.
कंसल्टिंग फर्म आईक्यूवीआईए के एक अध्ययन के अनुसार, 2022 में, भारतीय जेनेरिक दवाओं से 219 अरब डॉलर की बचत हुई.
जानकारों के मुताबिक़ व्यापार समझौते के बिना डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ़ के कारण जेनेरिक दवाइयाँ बनाने वाली कुछ भारतीय कंपनियों को बाज़ार से बाहर निकलने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है.
इससे अमेरिका में मौजूदा दवा की कमी और भी बढ़ सकती है.
-शालिनी श्रीनेत
तमाम उन मंच के संस्थापकों संरक्षकों से मेरा आग्रह है कि जब पता चल जाए कि किसी व्यक्ति पर किसी महिला द्वारा आरोप लगाया गया है, तो जब तक ये सिद्ध नहीं हो जाता कि वो निर्दोष है, तब तक उसे अपने मंच पर ना बुलाएं। इसके आपके मंच की गरिमा बढ़ेगी और आपका सम्मान भी।
इधर लगातार इस तरह चीजें देखने को मिलीं कि किसी लडक़ी ने जिस पुरुष पर आरोप लगाया है उसे सम्मानित किया गया, मंचों पर बुलाया गया, उसके पक्ष में सीनियर लेखकों द्वारा लिखा गया,किसी पत्रिका द्वारा संपादकीय छापा गया, प्रकाशकों द्वारा किताबें छापी गईं, एक्टिविटी पर वाहवाही होती रही... बचाव में कुछ स्वार्थी स्त्रियां भी उतरीं।
किसी संस्थान ने कहा- हमने आवश्यक कदम उठाए, हमारी जांच की और उसके बाद उठाए गये कदम से शिकायतकर्ता पूर्णतया संतुष्ट हैं, किसी ने कहा आरोप अभी सिद्ध नहीं हुए हैं, किसी ने कहा हमें नहीं मालूम सच क्या है, किसी ने नौकरी से निकाल दिया।
जरा सोचिए ये सब देख कर उन लड़कियों पर क्या गुजरती होगी, जिन लड़कियों को इन पुरुषों ने हरेस किया। पुरुष द्वारा चलाए जाने वाले मंच तो कर ही रहे है, जिसके संपादक स्त्रीवादी थे और अब स्त्री संभाल रही हैं, वो भी स्त्रियों का सम्मान नहीं कर पा रही हैं।
एक लडक़ी बहुत जद्दोजहद के बाद अपनी बात रख पाती है। अपने समाज की बनावट और बुनावट ऐसी है कि लड़कियों को चुप रहने की ही सलाह दी जाती है।
मायके में चाचा, भाई ,जीजा और पड़ोसी ने सेक्सुअल हैरेसमेंट किया, तो चुप करा दी गयी कि बात बाहर नहीं जानी चाहिए, नहीं तो शादी विवाह में दिक्कत आयेगी। कौन करेगा शादी ऐसी लडक़ी से। जैसे उस लडक़ी ने ही कुछ ग़लत किया हो।
ससुराल में ससुर, देवर, जेठ, पड़ोसी, बुआ जी के बेटे ने सेक्सुअल हैरेसमेंट किया तो भी चुप ही रहना है, घर की इज्जत की बात हैं कोई क्या कहेगा।
कार्यस्थल पर सहकर्मी-बॉस द्वारा सेक्सुअल हैरेसमेंट होता है और चुप करा दिया जाता है कि ऑफिस की बदनामी होगी।
कई बार लड़कियां खुद चुप रह जाती हैं। अपने घर के हालात देखते हुए,नौकरी के चले जाने के खतरे से डर कर। चुप रहना ही चुनती है, और इस चुप्पी का फायदा पुरुष समाज उठाता रहता है बिना ये सोचे कि किसी की आत्मा मर रही है धीरे-धीरे ।
नेपाल में हाल ही में हुए हिंसक प्रदर्शनों में दर्जनों लोग मारे गए. इनमें अधिकतर युवा थे और वे भ्रष्टाचार व बेरोजगारी के खिलाफ थे. बड़ी संख्या में नेपाली रोजगार की कमी के कारण नौकरी की तलाश में विदेश जाने को मजबूर हैं
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी का लिखा-
नेपाल में हुए व्यापक विरोध प्रदर्शनों ने तत्कालीन सरकार को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया. हालिया घटनाक्रम उन ग्रामीण युवाओं के संघर्षों को रेखांकित करता है, जो अपने देश की स्थिति से निराश होकर विदेश में बेहतर अवसरों की तलाश में हैं.
इन्हीं युवाओं में से एक हैं, संतोष सोनार. 31 साल के संतोष बेरोजगार हैं और बहुत बेताब होकर नौकरी की तलाश कर रहे हैं. उन्हें यह भी डर है कि जिस दिन उन्हें अपने गृह क्षेत्र से बाहर नौकरी मिल जाएगी, उनका परिवार और बिखर जाएगा. संतोष की पत्नी काम के सिलसिले में विदेश में हैं. वह अपनी बेटी और मां के साथ रहते हैं. बाहर नौकरी मिलने पर उन्हें अपनी बेटी को मां के पास छोड़कर जाना होगा.
"यहां नौकरी के अवसर नहीं हैं"
काठमांडू के ग्रामीण इलाके फारपिंग में रहने वाले संतोष बताते हैं, "यहां शिक्षा पूरी करने के बाद भी नौकरी के मौके नहीं हैं." नेपाल में उनके जैसे अनगिनत युवा हैं, जो अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद लगातार किसी-न-किसी तरह की आजीविका की तलाश में रहते हैं.
विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, नेपाल में 15 से 24 वर्ष की आयु का हर पांचवां युवा बेरोजगार है. आश्चर्यजनक रूप से, देश का 82 प्रतिशत कार्यबल किसी-न-किसी अनौपचारिक क्षेत्र में काम करता है. इस हिमालयी देश के सकल राष्ट्रीय उत्पाद में सामान्य श्रमिकों का प्रति व्यक्ति योगदान केवल 1,447 अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष के बराबर है.
नेपालः विरोध प्रदर्शनों के आगे झुके प्रधानमंत्री ओली, 19 मौतों के बाद इस्तीफा
देश में नौकरी नहीं, विदेश जाने को मजबूर
कितनी बड़ी संख्या में नेपाली विदेश में काम करते हैं, इसका अंदाजा कुछ हद तक इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि संतोष के गृह क्षेत्र फारपिंग के हर दूसरे घर का एक व्यक्ति विदेश में रहता और काम करता है.
संतोष की पत्नी अमृता 22 साल की हैं. वह दुबई में वेट्रेस का काम करती हैं. संतोष, जो पहले भारत के बेंगलुरु शहर में काम करते थे, बताते हैं, "मैं और मेरी पत्नी एक-दूसरे को बहुत याद करते हैं."
संतोष कहते हैं, "एक पुरुष के लिए अपनी पत्नी से दूर रहना बहुत मुश्किल होता है. फिर यह सोचना और भी दर्दनाक हो जाता है कि जब मुझे नौकरी मिल जाएगी, तो मुझे अपनी छोटी बेटी और मां को छोड़ना पड़ेगा. लेकिन हम क्या कर सकते हैं?" नेपाल की आबादी लगभग तीन करोड़ है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पिछले साल ही आठ लाख से ज्यादा नेपाली काम की तलाश में देश छोड़कर चले गए.
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देश की अंतरिम प्रधानमंत्री सुशीला कार्की के सामने अब भ्रष्टाचार और बेरोजगारी जैसी समस्या से निपटना बड़ी चुनौती है. पद संभालने के बाद उन्होंने कहा कि अंतरिम सरकार छह महीने में नई सरकार के लिए चुनाव कराएगी. कार्की ने युवाओं के प्रदर्शनों के दौरान हुई तोड़फोड़ की जांच कराने की भी बात कही है.
संतोष कहते हैं कि उन्होंने विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा नहीं लिया था, लेकिन वे इसका समर्थन करते हैं. उनकी 48 साल की मां माया सोनार एक ऐसे भविष्य का सपना देखती हैं, जब युवाओं को भोजन और परिवार के बीच चुनाव न करना पड़े. वह कहती हैं, "हमें एक परिवार की तरह रहना याद आता है, लेकिन मुझे भी पता है कि युवाओं के पास कोई और विकल्प नहीं है."
भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर वॉशिंगटन में अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो से मुलाकात करेंगे. भारत और अमेरिका के बीच चल रही तनातनी के मद्देनजर इस बैठक पर सबकी नजरें हैं.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी का लिखा-
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की ओर से भारतीय सामानों पर लगाए गए भारी-भरकम आयात शुल्क के बाद पहली बार विदेश मंत्री एस जयशंकर सोमवार (22 सितंबर) को वॉशिंगटन में अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो से मुलाकात करने वाले हैं. अमेरिका ने भारत पर रूसी तेल खरीदने के कारण 25 प्रतिशत का अतिरिक्त शुल्क लगाया है. इसे मिलाकर भारत पर कुल अमेरिकी टैरिफ 50 फीसदी हो गया.
अमेरिकी विदेश विभाग के सार्वजनिक कार्यक्रम के अनुसार, दोनों नेता न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र (यूएनजीए) से इतर मुलाकात करेंगे. यह मुलाकात ऐसे वक्त में हो रही है, जब भारत और अमेरिका के बीच व्यापार वार्ता चल रही है.
भारत पर लगे ट्रंप के टैरिफ की चपेट में कश्मीरी कारीगर
बैठक के एजेंडे पर क्या अनुमान?
यह बैठक भारत-अमेरिका संबंधों को मजबूत करने के प्रयास का हिस्सा मानी जा रही है. कई विशेषज्ञों के अनुसार, हालिया महीनों में दोनों देशों के पसरे तनाव में सुधार के संकेत दिख रहे हैं.
जयशंकर और रुबियो की पिछली मुलाकात जुलाई महीने में हुई थी. मौका था, वॉशिंगटन में हुई 10वीं क्वाड विदेश मंत्रियों की बैठक. इससे पहले दोनों के बीच जनवरी की शुरुआत में भी बातचीत हुई थी. हालांकि, राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा भारतीय वस्तुओं पर भारी शुल्क लगाए जाने के कारण बढ़े तनाव के बाद यह उनकी पहली आमने-सामने की मुलाकात होगी.
इकोनॉमिक टाइम्स अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक, रुबियो के साथ जयशंकर की चर्चा व्यापार वार्ता और ट्रंप प्रशासन के एच-1बी वीजा शुल्क बढ़ाने के हालिया फैसले पर केंद्रित हो सकती है. ट्रंप द्वारा कुशल विदेशी कर्मचारियों के लिए वीजा फीस बढ़ाकर एक लाख डॉलर (लगभग 88 लाख रुपये) कर दी गई है.
एच-1बी वीजा उन कुशल विदेशी कर्मचारियों के लिए अमेरिका आकर काम करने का एक रास्ता बनाता है, जो सीमित समय (आमतौर पर तीन साल) के लिए कानूनी रूप से अमेरिका में काम करना चाहते हैं. अमेरिकी की टेक कंपनियां इस वीजा कार्यक्रम का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करती हैं.
बड़ी संख्या में भारतीय कर्मचारी इसी वीजा के सहारे अमेरिका में जाकर काम करते हैं. हालांकि, व्हाइट हाउस ने बाद में साफ किया कि यह फीस केवल नए आवेदकों पर लागू होगी, ना कि वर्तमान वीजा धारकों पर. इस स्पष्टीकरण के बाद भी टेक कंपनियां बढ़ी हुई वीजा फीस को लेकर चिंतित हैं.
वार्ता के बीच वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल भी अमेरिका में
जयशंकर और रुबियो की मुलाकात उसी दिन हो रही है, जिस दिन भारत और अमेरिका के बीच अमेरिका में द्विपक्षीय व्यापार समझौता (बीटीए) पर वार्ता शुरू हो रही है. भारतीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल भारतीय पक्ष का नेतृत्व कर रहे हैं. वह वॉशिंगटन में व्यापार पर मंत्रिस्तरीय वार्ता करेंगे.
वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के एक बयान के मुताबिक, 16 सितंबर को अमेरिका व्यापार प्रतिनिधि कार्यालय के अधिकारियों की भारत यात्रा के दौरान "सकारात्मक चर्चा" हुई. दोनों पक्ष समझौते को अंतिम रूप देने की दिशा में प्रयास तेज करने पर सहमत हुए. ट्रंप द्वारा अधिक सौहार्दपूर्ण लहजे में यह कहने के बाद व्यापार वार्ता दोबारा शुरू हुई कि उनकी टीम नई दिल्ली के साथ बाधाओं को दूर करने के लिए प्रयास जारी रखे हुए है.
भारत और अमेरिका ने इस साल मार्च में बीटीए पर बातचीत शुरू की थी. इस समझौते का पहला चरण अक्टूबर-नवंबर 2025 तक पूरा होने की उम्मीद है. अब तक दोनों देशों के बीच पांच दौर की वार्ताएं हो चुकी हैं. छठा चरण अगस्त में होना था, लेकिन ट्रंप द्वारा टैरिफ लगाए जाने के बाद उसे स्थगित कर दिया गया.
भारत और चीन, रूसी तेल ना खरीदें तो क्या होगा
16 सितंबर को अमेरिका के असिस्टेंट ट्रेड रिप्रेजेंटेटिव ब्रेंडन लिंच ने नई दिल्ली में वाणिज्य मंत्रालय के विशेष सचिव राजेश अग्रवाल से मुलाकात की थी. दोनों ने अगले कदमों पर चर्चा की और जल्द-से-जल्द एक पारस्परिक रूप से लाभकारी समझौते पर पहुंचने के लिए प्रयास तेज करने पर सहमति जताई थी.
भारत को रूस से दूर करने के लिए यूरोपीय संघ की नई रणनीति
ट्रंप दे रहे हैं नरमी के संकेत
इस महीने की शुरुआत में भारत के लिए नामित अमेरिकी राजदूत सर्जियो गोर ने कहा था कि अमेरिकी प्रशासन ने दोनों देशों के बीच व्यापार तनाव को हल करने के लिए गोयल को वॉशिंगटन में आमंत्रित किया था. गोर ने यह भी कहा था कि कुछ हफ्तों में मुद्दों का समाधान हो जाएगा.
वॉशिंगटन, भारत पर रूस से तेल खरीदकर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की युद्ध मशीन को फंडिंग करने का आरोप लगाता रहा है.
जवाब में भारत का रुख यह है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ भी रूस से उत्पाद खरीद रहे हैं, लेकिन उसे अनुचित तरीके से निशाना बनाया जा रहा है. ट्रंप प्रशासन के अतिरिक्त टैरिफ के फैसले के बाद कुछ खबरें ऐसी भी आई थीं कि भारतीय तेल कंपनियों ने रूस से तेल खरीदना बंद कर दिया है. लेकिन भारतीय तेल कंपनियां अभी भी रूस से तेल खरीद रही हैं.
अमेरिकी टैरिफ के बावजूद भारत खरीद रहा है रूस से सस्ता तेल
हालांकि, जब ट्रंप ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जन्मदिन की शुभकामना देने के लिए फोन किया, तो संबंधों में सुधार आने की उम्मीद जताई गई. मोदी को अपना "घनिष्ठ मित्र" बताते हुए ट्रंप ने उम्मीद जताई कि दोनों देशों के बीच जल्द ही एक व्यापार समझौता हो सकता है. यह तीन महीने में दोनों नेताओं के बीच हुई पहली ज्ञात बातचीत थी.
-अपूर्व गर्ग
जैसा समाज है वैसी ही पुलिस रहेगी। वे अंतरिक्ष से नहीं उतरते बल्कि आपके हमारे और हम सबके घरों से निकलकर पुलिस वाले बनते हैं। एक सीधा सवाल सबको बहुत ईमानदार, अनुशासित, शिष्ट और विद्वान पुलिस की अपेक्षा है। बिलकुल सही अपेक्षा है पर ये समाज ऐसी खरी अपेक्षा के लिए खुद ऐसा कौन सा आदर्श सामने रख पा रहा?
इस बात को यहीं छोड़ते हैं दूसरा सीधा सवाल आम जनता ने ये ‘सिंघम -सिंघम’ क्या रट लगा रखी है और क्यों ?
‘सिंघम’ एक फि़ल्मी चरित्र है जो बुनियादी तौर पर गैर-लोकतांत्रिक है, हिंसक है। धरातल पर खड़े होकर बात करें तो ये चरित्र देश के मूल स्वभाव और संविधान से कितना ज़्यादा उलट है!
जिस तरह गब्बर सिंह की दरिंदगी , हैवानियत ,हिंसक चरित्र के बावजूद समाज ने उसे हीरो बना दिया वैसा ही काम कई दशकों से कई चरित्रों को लेकर जनता ने ये काम किया।
आपको सिंघम क्यों चाहिए?
कानून-संविधान के तहत जान की बाजी लगाकर काम करने वाले जीते जागते ईमानदार पुलिस वाले सिपाही से लेकर आईपीएस तक हमारे बीच हैं ,वो क्यों नहीं चाहिए ?
सुनिए, किसी एक नहीं सभी प्रदेशों में पूरे देश में जब -जब पुलिस वाले सोशल मीडिया में अपनी तस्वीर डालते हैं ..सिंघम ..सिंघम कमेंट्स की बौछार शुरू हो जाती है।
जनता उस पुलिस वाले को ‘सिंघम’ के रूप में देखना ही नहीं चाहती, सोशल मीडिया में ऐसे पोस्ट खंगालती है और उकसाती है।
नतीजा कई पुलिस वालों की रील पर रील और तस्वीरों पर तस्वीरें। इसके बाद लोगों की शिकायत भी कि ये तो बस रील बनाते हैं और सोशल मीडिया में रहते हैं। ऐसी शिकायतों से भी अखबार में खबरें भरी हैं।
हमारा ध्यान कभी इस बारे में जाता है कि इसी पुलिस विभाग में ढेर विद्वान वक्ता, साहित्यकार, कवि, समाज विज्ञानी, डॉक्टर, इंजीनियर, लेखक भरे हैं।
सिंघम जैसों की बजाये ये आदर्श क्यों नहीं हैं?
क्यों पुलिस वालों से फि़ल्मी प्रतिगामी चरित्र की जगह ऐसे विद्वानों की अपेक्षा नहीं करते ?
आप जानते हैं छत्तीसगढ़ के पूर्व डीजीपी विश्वरंजन साहित्यकार फिराक गोरखपुरी के नाती ही नहीं खुद बड़े कवि और साहित्यकार हैं. बताते हैं राजधानी रायपुर से रवाना होने से पहले विश्वरंजन ने अपनी लाइब्रेरी से लगभग दो हजार किताबें लाइब्रेरी को दान में दी थी।
पूर्व पुलिस महानिदेशक विभूति नारायण राय शहर में कर्फ्यू, किस्सा लोकतंत्र, तबादला, प्रेम की भूतकथा और रामगढ़ में हत्या जैसे कई उपन्यासों के लेखक हैं। नौकरी में रहते हुए ही ज़्यादातर उपन्यास लिखे . इसमें खासतौर पर शहर में कर्फ्यू, साम्प्रदायिक दंगे और भारतीय पुलिस सर्वाधिक पठित और चर्चित है। पुलिस महानिदेशक पद से अवकाश प्राप्त विभूति नारायण राय को सराहनीय सेवाओं के लिए इंडियन पुलिस मैडल और उत्कृष्ट सेवाओं के लिए राष्ट्रपति का पुलिस मैडल भी मिला। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति रहे।
कर्नाटक के पूर्व पुलिस महानिरीक्षक खलील उर रहमान उर्दू के विख्यात साहित्यकार रहे जिन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था।
कैसर खालिद महाराष्ट्र के वरिष्ठ आईपीएस अच्छे शायर और कवि हैं।
पूर्व आईपीएस विकास नारायण राय कवि और प्रगतिशील लेखक जिनकी किताबें ‘भगत सिंह से दोस्ती’, ‘आरक्षण बनाम रोजग़ार’ , ‘दंगे में प्रशासन’ ‘लड़कियों का इंकलाब जि़न्दाबाद’और कविता संग्रह ‘मेरा बयान’ जरूर पढि़ए और सोचिये फिल्मी हिंसक चरित्र चाहिए या समझदार विद्वान अफसर।
बरसों पहले जब मेरी आँख खुली ही थी तो सबसे अच्छी किताबों की चर्चा और जानकारी पूर्व आईपीएस दिलीप आर्य जी ने दी थी। सिर्फ इतना ही नहीं जिंदगी की सबसे अच्छी चुनिंदा अंग्रेजी क्लासिकल फिल्में भी उन्होंने उस ज़माने में वीसीआर से दिखाईं।
-आर.के.जैन
भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) की नई रिपोर्ट सामने आई है। यह रिपोर्ट डराने वाली है। कैग के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले 10 सालों में सभी 28 राज्यों का कुल कर्ज बहुत बढ़ गया है। 2013-14 में यह कर्ज 17.57 लाख करोड़ रुपये था। 2022-23 में यह बढक़र 59.60 लाख करोड़ रुपये हो गया।
कैग के के. संजय मूर्ति ने यह रिपोर्ट स्टेट फाइनेंस सेक्रेटरीज कॉन्फ्रेंस में जारी की। रिपोर्ट में राज्यों की वित्तीय स्थिति का विश्लेषण किया गया है। इसके अनुसार, 2022-23 के अंत तक 28 राज्यों पर कुल 59,60,428 करोड़ रुपये का कर्ज था। यह कर्ज उनके कुल सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का 22.96 फीसदी है।
सबसे ज्यादा कर्ज पंजाब पर है। वहीं, ओडिशा पर सबसे कम कर्ज है। 11 राज्यों ने अपने खर्चों को पूरा करने के लिए उधार लिए गए पैसे का इस्तेमाल किया।
द इंडियन एक्सप्रेस ने कैग की इस रिपोर्ट का विश्लेषण किया है। कैग की रिपोर्ट के अनुसार, 2022-23 के अंत तक सभी 28 राज्यों पर कुल 59,60,428 करोड़ रुपये का कर्ज था। यह कर्ज उनके कुल जीएसडीपी का 22.96 फीसदी है।
जीएसडीपी का मतलब है कि एक राज्य के अंदर एक साल में जितनी भी चीजें और सेवाएं बनाई जाती हैं, उनकी कुल कीमत कितनी है। 2013-14 में राज्यों का कुल कर्ज 17,57,642 करोड़ रुपये था। यह जीएसडीपी का 16.66 फीसदी था। रिपोर्ट बताती है कि 2022-23 में यह कर्ज 3.39 गुना बढ़ गया। यह जीएसडीपी का 22.96 फीसदी हो गया।
सबसे ज्यादा कर्ज वाले राज्य-
पंजाब 40.35%
नागालैंड 37.15%
पश्चिम बंगाल 33.70%
रिपोर्ट में कहा गया है कि 31 मार्च 2023 तक आठ राज्यों पर उनके जीएसडीपी का 30 फीसदी से ज्यादा कर्ज था। छह राज्यों पर उनके जीएसडीपी का 20 फीसदी से कम कर्ज था। बाकी 14 राज्यों पर उनके जीएसडीपी का 20 से 30 फीसदी के बीच कर्ज था।
राज्यों का कुल कर्ज 2022-23 में देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 22.17 फीसदी था। उस समय देश की जीडीपी 2,68,90,473 करोड़ रुपये थी।


