विचार/लेख
-शालिनी श्रीनेत
कहते हैं कुत्ते वफादार होते हैं। पर इधर जिस तरह की खबरें आ रही हैं, लोग अपने और अपनों के अनुभव शेयर कर रहे हैं, क्या किसी कारण इनकी वफादारी कम हुई है?
कोई कितना भी कहे कि काटता नहीं है या काटती नहीं, पर मैं सावधान ही रही।
मेरी जेठानी के घर में दो कुत्ते थे। उन्होंने कभी अपने को उसकी मम्मी और भइया को पापा नहीं कहलवाया, न मुझे चाची।
बस एक काम करती थीं- उन दोनों से अंग्रेजी में बोलती थीं, बाकी परिवार से हिंदी में।
मैं दोनों के लिए खाना बनाती थी, पूरे दिन ध्यान रखती थी क्योंकि जेठ-जेठानी ऑफिस चले जाते थे, पर डरती थी कहीं काट न लें। हालांकि बहुत प्यार करते थे। सुबह-सुबह मुझे जगाते थे, अपने अगले पैरों से बाल में खुजली करने लगते थे। मैं जल्दी से उठकर वहां से चली जाती थी। जरा सोचिए, जब टहलाने जाइए तो ये ऐसी-ऐसी चीजों पर मुंह मारते हैं कि घिन लगती है। और हम मनुष्य उन्हें भर दिन पुच्ची करते रहते हैं, अपने पेट पर सुला लेते हैं। कुछ समय न दिखें तो चिंता हो जाती है।
इतना समय हम अपने बच्चे को देंगे तो कुछ एक्स्ट्रा एक्टिविटी करा लेंगे।
बड़े-बुजुर्ग को देंगे तो उनकी बेहतर सेवा हो जाएगी और वो खुश रहेंगे, दुआएं देंगे।
मेरे पड़ोस में एक भाभी रहती हैं, उनकी शादीशुदा बेटी अपने कुत्ते को लेकर आती है। किसी-किसी बात पर कहती हैं कि जाओ, नानी से मांग लो या उनके पास चले जाओ।
भाभी एक मीटिंग में बताईं कि उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं कुत्ते की नानी कहलाना।
सच बताऊं तो मुझे भी किसी कुत्ते की आंटी, मौसी, नानी, बुआ या मम्मी नहीं बनना।
Dog lover की एक बहुत मजेदार बात होती है, कहते हैं काटेगा नहीं, बस दोस्ती कर रहा है। हे भगवान! पूरा शरीर चाटने लगते हैं। ये दोस्ती करना है तो नहीं करनी दोस्ती। मानव दोस्त बहुत हैं।
जब हम छोटे थे, तब कुत्ता किसी चीज में मुंह लगा दे या चाट ले तो वो चीज फेंक दी जाती थी। अब कुत्ता लोगों को चाटता है भाई।
कुत्ता प्रेम देखिए, अपने मांस नहीं खाते, पर उसके लिए तरह-तरह का मांस आता है, बनाया जाता है और खिलाया जाता है।
और मजेदार बात-कुत्ता भर दिन घर के सदस्यों को चाटता रहता है और बिना नहाए शाम को मंदिर में दिया जला दिया जाता है, भगवान का भोग लगा दिया जाता है।
गजब तो ये कि मामा के बेटी की शादी में नहीं जाएंगे, कुत्ते को कौन देखेगा?
मतलब, रिश्तों से बड़ा कुत्ते का रिश्ता है भाई।
पहले, अपने बड़े भइया के समय में, गोरखपुर में कई अफसरों के घर में कुत्ते थे, पर जाने पर जब हम गेट पर पहुंचते, तभी कुत्ता बांध दिया जाता था। किसी चाचा, चाची और मौसी-दीदी से परिचय नहीं कराया जाता था।
ये तो हुई पालतू कुत्तों की बात।
अरे हां, बताना तो भूल ही गई, किसी पालतू कुत्ते को ‘कुत्ता’ कह दीजिए तो उनके मालिक (मम्मी-पापा) नाराज हो जाते हैं।
-रजनीश कुमार
अमेरिका ने इसी महीने बलोच लिबरेशन आर्मी (बीएलए) को ‘अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठन’ के रूप में मान्यता दी तो इसका एक मतलब यह भी निकाला गया कि बलूचिस्तान में अमेरिका रेयर अर्थ मिनरल्स के खनन के लिए सोच रहा है।
‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद अमेरिका और पाकिस्तान के संबंधों में आश्चर्यजनक रूप से सुधार हुआ है। दोनों देशों में रेयर अर्थ मिनरल्स को निकालने पर भी बात हो रही है। रेयर अर्थ मिनरल्स 17 मैटेलिक तत्वों का समूह हैं, जो कई हाई-टेक उत्पादों के लिए अनिवार्य होते हैं।
रेयर अर्थ मिनरल्स के बिना स्मार्टफोन्स, इलेक्ट्रिक गाडिय़ां और विन्ड टर्बाइन्स बनाना संभव नहीं है।
रेयर अर्थ मिनरल्स पर अभी चीन का दबदबा है और चीन जब किसी देश से नाराज़ होता है तो इसकी आपूर्ति कम कर देता है या रोक देता है। भारत के मामले में भी चीन ऐसा कर चुका है।
सुहैल वड़ायच पाकिस्तान के उर्दू अख़बार जंग के सीनियर एडिटर हैं। इसी हफ़्ते ब्रसेल्स में वड़ायच की मुलाकात पाकिस्तान के सेना प्रमुख और फील्ड मार्शल आसिम मुनीर से हुई।
इस मुलाक़ात को लेकर वड़ायच ने जंग में 16 अगस्त को ‘फील्ड मार्शल के साथ पहली मुलाकात’ शीर्षक से एक कॉलम लिखा है। इस कॉलम में उन्होंने आसिम मुनीर से हुई बातों का भी जिक्र किया है।
वड़ायच के कॉलम के मुताबिक़, ‘आसिम मुनीर ने कहा कि पाकिस्तान के आर्थिक संकट को लेकर उनके पास एक मुकम्मल रोडमैप है। इस योजना के मुताबिक़ पाकिस्तान अगले पाँच से 10 वर्षों में दुनिया के विकसित देशों की लाइन में आ सकता है।’
वड़ायच लिखते हैं, ‘मुनीर ने कहा कि अगले साल से बलूचिस्तान के चगाई जिले के रेको डिक से हर साल दो अरब डॉलर का मुनाफा होगा और साल दर साल यह मुनाफ़ा बढ़ता जाएगा। आसिम मुनीर मानते हैं कि पाकिस्तान के पास रेयर अर्थ मिनरल्स का खज़़ाना है और इसके दम पर कर्जे को कम किया जा सकता है। पाकिस्तान जल्द ही सबसे संपन्न देशों की पंक्ति में शामिल हो जाएगा।’
आसिम मुनीर ने भारत पर क्या कहा?
सुहैल वड़ायच से बीबीसी हिंदी ने आसिम मुनीर से मुलाकात के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि यह उनकी पहली मुलाकात थी और बहुत अच्छी बातचीत हुई।
सुहैल वड़ायच ने बातचीत का अनुभव साझा करते हुए कहा, ‘बहुत ही खुलकर बात हुई। आसिम मुनीर से मेरी कई बातों पर असहमति भी थी लेकिन उन्होंने उसे सुना। ऐसा मुशर्रफ़ के साथ भी था। उनके सामने भी असहमति जताने के लिए स्पेस होता था। आसिम मुनीर के साथ भी ऐसा ही रहा।’
क्या भारत को लेकर भी उनकी बात हुई?
इस पर सुहैल वड़ायच कहते हैं, ‘भारत को लेकर भी लंबी बात हुई। हर बात तो मैं नहीं कह सकता। आसिम मुनीर ने मुझसे कहा कि भारत पाकिस्तान की शांति भंग नहीं कर सकता है। मुझे लगता है कि अब पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में कोई टकराव नहीं होगा लेकिन सिंधु का पानी रोकने की कोशिश हुई तो बात बिगड़ सकती है। सिंधु नदी का पानी पाकिस्तान के लिए लाइफ लाइन है और मुझे नहीं लगता है कि पाकिस्तान इस पर चुप रहेगा।’
सिंधु जल संधि को भारत ने पहलगाम में हुए हमले के बाद स्थगित करने की घोषणा की थी। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि ख़ून और पानी एक साथ नहीं बह सकता है। यानी भारत का कहना है कि ‘पाकिस्तान सीमा पार से आतंकवाद को बढ़ावा देते हुए सिंधु का पानी हासिल नहीं कर सकता है।’
पाकिस्तान के एक संपादक से बीबीसी हिंदी ने पूछा कि क्या वाकई वहाँ रेयर अर्थ मिनरल्स हैं?
इस सवाल के जवाब में उन्होंने नाम नहीं ज़ाहिर करने की शर्त पर कहा, ‘रेको डिक में खनिज संपदा तो है। यहाँ खनन के लिए लंबे समय तक अदालती लड़ाई भी चली है। यह इलाक़ा खनिज संपदा के लिए ही जाना जाता है। यहाँ सोना और अन्य मेटल्स हैं। कनाडा के इंजीनियर्स यहाँ काम भी कर रहे हैं। यहाँ पिछले 10-12 सालों से काम चल रहा है। खनन को लेकर समझौते भी हो गए हैं। ये दो अरब डॉलर के अनुमान विदेशी एक्सपर्ट्स के ही हैं। धीरे-धीरे चीजें और पता चल जाएंगी।’ ब्रसेल्स में थिंक टैंक साउथ एशिया डेमोक्रेटिक फोरम के सीनियर फेलो हृदय शर्मा ने पिछले महीने 28 जुलाई को अंग्रेज़ी अख़बार हिन्दुस्तान टाइम्स में बलूचिस्तान में रेयर अर्थ को लेकर एक आर्टिकल लिखा था।
पाकिस्तान में वाक़ई रेयर अर्थ मिनरल्स हैं?
इसमें हृदय शर्मा ने बताया था, ‘एक अनुमान के मुताबिक बलूचिस्तान में छह से आठ ट्रिलियन डॉलर की खनिज संपदा है, जिनका इस्तेमाल अभी तक नहीं हुआ है। इनमें रेयर अर्थ एलिमेंट्स भी हैं। बलूचिस्तान के मुस्लिम बाग़ और ख़ुज़दार ओफियोलाइट से संपन्न इलाक़े हैं। ऐसा माना जा रहा है कि इन इलाकों में रेयर अर्थ मिनरल्स भी हैं और इसीलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन इलाक़ों को लेकर आकर्षण है। पाकिस्तान के पास खनन क्षमता नहीं है, ऐसे में बलूचिस्तान में वैश्विक शक्तियों के बीच होड़ शुरू हो गई है।’
अप्रैल 2025 में इस्लामाबाद में पाकिस्तान मिनरल्स इन्वेस्टमेंट फोरम आयोजित हुआ था और इसमें सऊदी अरब, चीन, अमेरिका के साथ यूरोपियन यूनियन के प्रतिनिधिमंडल शामिल हुए थे। उस समय सबने खनन में साझेदारी को लेकर दिलचस्पी दिखाई थी।
हृदय शर्मा ने लिखा है कि अमेरिका के लिए यह केवल निवेश नहीं है बल्कि रणनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है। अमेरिका रेयर अर्थ मिनरल्स के मामले में चीन पर निर्भरता ख़त्म या कम करना चाहता है। रेयर अर्थ मिनरल्स के वैश्विक सप्लाई चेन में चीन का नियंत्रण करीब 90 प्रतिशत हिस्से पर है।’
हृदय शर्मा ने लिखा है, ‘रेको डिक में कनाडाई फर्म बैरिक गोल्ड के साथ समझौता हुआ है। यहाँ 37 सालों में 73 अरब डॉलर के आउटपुट का अनुमान है। इससे पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था नया आकार ले सकती है।’
मार्च 2024 में बैरिक गोल्ड कोऑपरेशन के एक प्रतिनिधिमंडल ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ से रेको डिक प्रोजेक्ट पर बात की थी।
द डिप्लोमैट की जून 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, रेको डिक प्रोजेक्ट में बैरिक सात अरब डॉलर का निवेश कर रहा है और उसके पास 50 प्रतिशत शेयर होगा। बाक़ी 50 प्रतिशत पाकिस्तान और बलूचिस्तान सरकार के पास होंगे।
सुहैल वड़ायच ने कहा, ‘आसिम मुनीर का मानना है कि पाकिस्तान के पास चीन और अमेरिका के बीच संतुलन बनाए रखने का लंबा अनुभव है। हम एक के लिए दूसरे दोस्त को नहीं छोड़ सकते हैं। आसिम मुनीर ने कहा कि ट्रंप की शांति की कोशिश ईमानदार थी और इसीलिए उन्हें नोबेल सम्मान के लिए सिफ़ारिश की। हमारी सिफ़ारिश के बाद ही दुनिया के दूसरे देशों ने ट्रंप को नोबेल के लिए नामित करना शुरू किया।’
सुहैल वड़ायच से बीबीसी हिंदी ने पूछा कि जिस ट्रंप ने गाजा में इसराइल को कुछ भी करने की छूट दे रखी है और दूसरी तरफ़ पाकिस्तान अमेरिकी राष्ट्रपति को नोबेल के लिए नामित कर रहा है। क्या पाकिस्तानी अवाम इससे सहमत है? सुहैल वड़ायच ने कहा, ‘मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता।’
श्रीलंका के चेम्मानी इलाके में सामूहिक कब्रों की खुदाई ने एक बार फिर से देश के खूनी इतिहास को सामने खड़ा कर दिया है. ऐसे में तमिल समुदाय अंतरराष्ट्रीय समाज से अपील कर रहा है कि वह इस मामले में उनकी मदद करें
डॉयचे वैले पर जीवन रवीन्द्रन का लिखा-
श्रीलंका में जब भी किसी सामूहिक कब्र की खुदाई होती है, थम्बीरासा सेलवरानी पूरी रात सो नहीं पाती हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "हमें अब तक नहीं पता कि हमारे परिजनों के साथ क्या हुआ था. जब-जब खुदाई होती है, मुझे घबराहट होने लगती है.”
54 वर्षीय सेलवरानी अपने पति मुथुलिंगम ज्ञानसेल्वम की तलाश में बेचैन हैं, जो मई 2009 में लापता हो गए थे. उस समय श्रीलंकाई गृहयुद्ध के अंत में उन्होंने सरकार के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था. दशकों तक चले इस संघर्ष का अंत लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई) की हार के साथ हुआ.
तब से अब तक कई जगहों सामूहिक कब्रें खोदी जा चुकी है. पिछले तीन महीनों से पुरातत्वविद चेम्मानी इलाके (श्रीलंका के उत्तरी प्रांत की राजधानी जाफना शहर के बाहरी हिस्से) में खुदाई कर रहे हैं. अब तक इस खुदाई में 140 कंकाल मिल चुके हैं, जिसमें बच्चों के कंकाल भी शामिल हैं.
उथली सी कब्र में मिला लाशों का 'ढेर'
सन 1998 से ही चेम्मानी में सामूहिक कब्र होने का अंदेशा था. उस समय कृष्णांथी कुमारस्वामी नामके एक पूर्व सेना कॉर्पोरल पर एक स्कूली छात्रा के बलात्कार और हत्या के मामले में मुकदमा चल रहा था. उसकी सुनवाई के दौरान आरोपी ने बताया था कि जिस इलाके में पीड़िता लड़की का शव मिला है, वहां उसके साथ-साथ सैकड़ों और लाशें भी दफन हैं.
डीडब्ल्यू से बातचीत में वकील वी. एस. निरंजन बताते हैं कि वे उन परिवारों के साथ काम कर रहे हैं, जिनके रिश्तेदार 1990 के दशक में चेम्मानी के आसपास के इलाकों से लापता हो गए थे. अब तक की खुदाई में सामने आया है कि शवों को "बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के, अस्त-व्यस्त तरीके से, कब्रों में एक साथ डालकर” दफना दिया गया था. उन्होंने कहा, "हमें लगता है कि उनमें से कुछ को तो जिंदा ही दफना दिया गया था. क्योंकि अगर वे पहले से मृत होते तो उनके शव इस तरह मुड़े हुए नहीं होते.”
कई कंकालों के अंग टेढ़े-मेढ़े पाए गए हैं. कंकालों के साथ कई अन्य सामान भी मिले हैं. जैसे कि चप्पलें, बच्चे की दूध की बोतल और स्कूल बैग.
पुराने जख्म खुरच जाते हैं
जाफना स्थित अदायालम सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की कार्यकारी निदेशक, अनुशनी आलागराजाह ने बताया कि चेम्मानी का इतिहास "बहुत ही दर्दनाक और आघात भरा है, खासकर जाफना के लोगों के लिए.”
आलागराजाह ने डीडब्ल्यू को बताया, "उस समय हमारे कई दोस्तों के भाई, पिता और बहनें लापता हो गई थी. अब इस घटना को 25 साल से भी अधिक हो गया है. यह सिर्फ परिवारों के ही नहीं, बल्कि पूरी कम्युनिटी, पूरे जाफना के पुराने घावों को फिर से हरा कर रहा है. यह याद दिलाता है कि आप ऐसे घाव कभी भूल नहीं सकते.”
चेम्मानी की खुदाई अब तक श्रीलंका में हुई सामूहिक कब्रों की खुदाई की सबसे चर्चित जांच बन गई है. इसने अंतरराष्ट्रीय निगरानी की मांगों को भी जन्म दिया है, खासकर देश के तमिल समुदाय के बीच.
जून में इस जगह का दौरा करते हुए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त, फोल्कर ट्युर्क ने कहा कि "श्रीलंका ऐसे जवाबदेह तंत्रों के साथ संघर्ष करता रहा है, जिन पर पीड़ितों का भरोसा और विश्वास हो. यही कारण है कि श्रीलंकाई लोग न्याय के लिए बाहर की ओर देख रहे हैं और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहायता की मांग कर रहे हैं.”
विदेशी मदद लेने की मांगें
तमिल कार्यकर्ताओं ने फोल्कर ट्युर्क की यात्रा के दौरान विरोध प्रदर्शन किया. थंबिरासा सेल्वारानी भी इस कार्यक्रम में शामिल हुई थी और उन्होंने ट्युर्क से सीधे मुलाकात की थी. उन्होंने उनसे कहा कि उन्हें श्रीलंकाई न्याय व्यवस्था पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं है.
सेल्वारानी, अम्पारा जिले में स्थित एसोसिएशन ऑफ रिलेटिव्स ऑफ एनफोर्स्ड डिसअपीयरेंसेस की अध्यक्ष हैं. वह चाहती हैं कि उनके जिले में भी सामूहिक कब्रों की खुदाई की जाए.
उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "हमें डर लगता है. हमें नहीं पता कि अगली बार किसका शव मिलेगा, किसकी पहचान होगी. मैं दिन-रात इस बारे में ही सोचती रहती हूं. मुझे न नींद आती है, न खाना खाया जाता है. मैं बहुत परेशान महसूस करती हूं.”
सेल्वारानी ने बताया, "पिछले 17 सालों से, जब-जब राष्ट्रपति बदलते हैं. हम उनसे पूछते आ रहे हैं कि हमारे बच्चों और परिजनों के साथ क्या हुआ था.” लेकिन इसकी रफ्तार बहुत धीमी रही है. उनका कहना है कि जब भी वह विरोध प्रदर्शनों में जाती हैं, श्रीलंका की आपराधिक जांच विभाग (सीआईडी) के अधिकारी उन्हें डराते-धमकाते हैं. उन्होंने बताया, "वे कहते हैं – ‘तुम्हें वहां नहीं जाना चाहिए, तुम्हारे रिश्तेदार मर चुके हैं, फिर भी तुम यहां-वहां क्यों जाती रहती हो?'”
सरकार नई, मुद्दे वही पुराने
श्रीलंका की परंपरागत वंशवादी राजनीति से अलग हटकर, सितंबर 2024 में देश ने वामपंथी नेता, अनुरा कुमारा दिसानायके को राष्ट्रपति चुना. लेकिन वकील निरंजन अब भी संदेह में हैं. उनका कहना है कि "इतिहास से साफ है” कि सरकारों पर भरोसा नहीं किया जा सकता. वे हमेशा से अंतरराष्ट्रीय निगरानी का विरोध करती रही हैं.
उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "यह सरकार जातीय समस्याओं को समझती ही नहीं है. वे सोचते हैं कि अगर हम भ्रष्टाचार खत्म कर दें तो देश में शांति आ जाएगी. लेकिन वे यह नहीं समझते कि जातीय समस्याएं भी इस देश के कर्ज में डूबने का एक बड़ा कारण हैं.”
मानवाधिकार वकील और श्रीलंका की राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की पूर्व आयुक्त, अम्बिका सत्कुनानाथन भी इस अविश्वास पर सहमति जताती हैं. उन्होंने कहा, "इतिहास में लगभग हर श्रीलंकाई सरकार अलग-अलग जवाबदेही प्रक्रियाओं में अंतरराष्ट्रीय मदद लेने से कतराती रही है.”
सत्ता में आने से पहले ही राष्ट्रपति दिसानायके ने कहा था कि वे युद्ध अपराधों के लिए जिम्मेदार लोगों पर मुकदमा नहीं चलाएंगे. डीडब्ल्यू से बात करते हुए सत्कुननाथन ने इस बात पर जोर दिया कि पीड़ितों को राज्य पर भरोसा नहीं है कि वह उन्हें न्याय दिलाने के लिए तत्पर हैं.
-श्रुति व्यास
वही हुआ जो होना था। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी क्लास या कि अपनी जात वापिस बताई! दुनिया ने फिर जाना कि ‘अमेरिका फस्र्ट’ और उसके ‘प्रथम नागिरक’ राष्ट्रपति ट्रंप को पुतिन जैसों की संगत पसंद है! ट्रंप ने पहले कार्यकाल में उत्तर कोरिया के राष्ट्रपति किम जोंग-उनसे दोस्ती साधी थी और अब दूसरे कार्यकाल में पहले दिन से अब तक वे राष्ट्रपति पुतिन को सखा बताते हुए उन्हें वह सब दे रहे हैं जो उनके सहयोगी योरोपीय देशों के लिए सदमे से कम नहीं है। तभी आश्चर्य नहीं जो अलास्का में ट्रंप-पुतिन की बातचीत से निकला कुछ नहीं लेकिन पुतिन विजयी होकर घर लौटे। उन्होंने अगली मुलाकात के लिए ट्रंप को मास्को आने का न्यौता दिया तो यह भी कहा कि यदि ट्रंप राष्ट्रपति बने रहते तो वे यूक्रेन से लड़ते ही नहीं।
दुनिया ने लाईव देखा ही नहीं फील भी किया होगा कि ट्रंप और पुतिन में कितनी गहरी दोस्ती है। ट्रंप ने लाल कालीन पर पुतिन का सीधे स्वागत किया। सभी को समझ आ गया होगा कि विश्व राजनीति को रचने का उनका और उनकी रिपब्लिकन पार्टी का कैसा रोडमैप बना हुआ है।
तभी पुतिन अलास्का से लगभग सब कुछ लेकर गए—शक्ति, तस्वीरें और मंच। राष्ट्रपति ट्रंप की यात्रा का भी मकसद यही समझ आता है कि जैसे उन्हें अपने प्रिय ‘स्ट्रॉन्गमैन’ (पुतिन) से मान्यता प्राप्त करनी थी। शायद उन्हें यह चुभन है कि पश्चिमी देशों की बिरादरी में उन्हें पहले जैसा मान-सम्मान नहीं मिल रहा है इसलिए उन्हें भी एक फोटो-ऑप, पीठ पर थपकी चाहिए थी। प्रासंगिकता का भ्रम बनाना था।
सो अलास्का से दुनिया को कहीं गहरा नतीजा मिला है। एक तरह से नई विश्व-व्यवस्था की बेरहम सच्चाई। ट्रंप की दुनिया में रूस की औकात बढ़ रही है, निरंकुश शासकों की संगत हावी हो रही है। कह सकते हैं इससे खुद अमेरिका की दिशा, औकात, उसकी नैतिक आभा सब कुछ उसके राष्ट्रपति, एक आदमी के अहंकार में सिमटती जा रही है।
नज़ारा अजीब था-अलास्का के भारी आसमान तले, दो ‘स्ट्रॉन्गमैन’ आमने-सामने। पश्चिम का खुद को महान बताने वाला दबंग, पूरब के बहिष्कृत, युद्ध अपराधी के सामने झुकता दिखा। यह चौंकाने वाला हो सकता था, यदि यह इतना जाना-पहचाना न लगता। ट्रंप ने पहले खुद का मजाक उड़ाया और फिर उस ‘ग्रेट अमेरिका’ का, जिसे वे बार-बार ‘फिर महान’ बनाने का दावा करते हैं। यह राजनीतिक रंगमंच था-हताशा से सना, उस व्यक्ति का शो जिसे पता है कि वह अब मुख्य पात्र नहीं। फिर भी, वहीं थे-लाल कालीन बिछाते, कैमरों के लिए दाँत निपोरते, एक युद्ध-अपराधी को ‘द बीस्ट’ में साथ सवारी कराते हुए और इस बैठक को ‘टेन आउट ऑफ़ टेन’ बताते हुए।
परिणाम? न युद्धविराम, न कोई दिशा। बस तस्वीरें-एक ऐसी दुनिया के लिए फिटिंग, जहाँ इमेज अब इरादे पर हावी है। और ट्रंप-जिन्होंने अपनी पहचान अक्खड़पन से बनाई-पुतिन के आगे झुके हुए दिखे।
पुतिन इसके विपरीत-शांत, आत्मविश्वासी और पूरी तरह नियंत्रण में। तकनीकी रूप से दुश्मन की जमीन पर, पर किसी दबाव के बिना। 2007 के बाद पहली बार अमेरिकी धरती पर आए, और निकले मुस्कुराहटों, गर्मजोशी और वैश्विक छवि के ‘नरम पुर्नवास’ के साथ। राष्ट्रपति ट्रंप ने उन्हें सब दे दिया—बिना शर्त वैधता, बिना सिद्धांत प्रशंसा, और परमाणु बराबरी की तस्वीर। और सबसे महत्वपूर्ण, अपने ही घोषित लक्ष्य-यूक्रेन युद्धविराम—को छोडक़र पुतिन की ‘शांति योजना’ के समर्थन की भाषा बोली, जिसमें यूक्रेन को अपनी जमीन छोडऩी पड़ सकती है। आगे ट्रंप की ‘आर्ट ऑफ द डील’ असल में नाटो देशों की ‘आर्ट ऑफ रिट्रीट’ साबित हो सकती है।
असल बात शौर, दिखावे और तस्वीरों में थी। मुस्कुराता पुतिन, झुकता ट्रंप। और अंतिम परत—रूसी राष्ट्रपति अमेरिकी धरती से बाहर निकलते हुए, जैसे यह वार्ता नहीं, बल्कि पाठ हो कि दुनिया का गुरुत्वाकर्षण अब कहाँ शिफ्ट हो चुका है। ‘अगली बार मॉस्को में’, पुतिन बोले। ट्रंप का जवाब-‘थोड़ी आलोचना होगी, लेकिन हो सकता है।’ संदेश साफ था-अमेरिका की नैतिक रेखाएँ धुंधली हो रही हैं।
यह सिर्फ रंगमंच नहीं था-यह पुतिन के लिए भू-राजनीतिक तोहफा था। वर्षों से उनकी नीति यही रही है-शीतयुद्ध के बाद की व्यवस्था को तोडऩा, नाटो को कमजोर करना। यूक्रेन पर हमले से उल्टा हुआ-नाटो बड़ा और मज़बूत हुआ, फिनलैंड और स्वीडन तक जुड़ गए। पर अलास्का में, ट्रंप ने वही किया जो पुतिन नहीं कर सके—नाटो के भीतर अविश्वास बोया। युद्धविराम की बात छोडक़र पुतिन के शब्द दोहराए-‘व्यापक शांति समझौता’, यानी यूक्रेन की जमीन छोडऩा और यूरोप-नाटो में शामिल होने का सपना ख़त्म करना। यह न सिफऱ् सहयोगियों को उलझाने वाला था, बल्कि उनके सबसे बुरे डर की पुष्टि भी-कि ट्रंप की वापसी, अमेरिका की प्रतिबद्धताओं को अंदर से तोड़ देगी।
फॉक्स न्यूज को दिए इंटरव्यू में ट्रंप ने कहा—‘दो परमाणु शक्तियों का साथ आना अच्छा है। हम नंबर वन हैं, वे नंबर टू।’ एक झटके में चीन और यूरोपीय संघ नक़्शे से मिटा दिए गए। यह रणनीति नहीं, नाटक था-पुतिन के घाव पर मरहम। और मॉस्को में इसे ऐसे ही समझा गया-वहा राष्ट्रीय चैनलों पर ख़ुशी के फव्वारे फूट पड़ है, पटाखे छूट रहे हैं।
यही है ‘स्ट्रॉन्गमैन’ राजनीति की क़ीमत। चापलूसी को एक नीति में बदल देना। तानाशाहों को बिना सुधार वैधता देना। और दुनिया को यह संदेश देना कि अमेरिका अब ‘फ्री वल्र्ड’ का नेता नहीं, बस स्ट्रांगमैन फोटो-ऑप मंडली का हिस्सा है।
-कनक तिवारी
लाश को खुद के खेत में गडऩे की हैसियत नहीं है। वर्ष 2025 की जनवरी में ही छत्तीसगढ़ के बस्तर के गांव छिंदवड़ा तहसील डबरा से पेचीदा, मर्मांतक और इंसानियत को तार-तारकर देने वाला एक मामला सुप्रीम कोर्ट में भी जाकर औंधे मुंह गिर पड़ा। हमारे संविधान को भी अब न्यायपालिका से शत-प्रतिशत उम्मीद नहीं होनी चाहिए। सुभाष बघेल नामक एक व्यक्ति जन्म से महार या महरा दलित जाति में पैदा होकर ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गया था। वर्ष 1986-1987 से उसने पास्टर या पादरी का काम भी किया। लंबी बीमारी के कारण बघेल की मृत्यु 7 जनवरी 2025 को हो गई। बेटे और परिवार ने अपने ही गांव छिंदवड़ा में ईसाई प्रथा के मुताबिक पिता के षव को दफनाना चाहा। लेकिन गांव के अन्य व्यक्तियों के समूह द्वारा उन्मादित विरोध के कारण दफनाना नहीं हो सका। बेटे ने उसी दिन डबरा के थानेदार और टोकापाल के अनुविभागीय अधिकारी को लिखित शिकायत कर उनसे संरक्षण मांगा। कोई मदद नहीं मिली। तो उसने छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में तत्काल रिट याचिका दायर की कि अपने पिता को गांव में कब्रिस्तान के अब तक की नियत जगह पर दफनाना चाहता है। वहीं उसके कुछ पूर्वजों को दफनाया जा चुका है।
छिदवड़ा तथा अन्य निकट ग्राम पंचायतों ने जवाब में लिखा कि उनके गांव में ईसाइयों को दफनाने के लिए कोई जगह पंचायत द्वारा पंचायत अधिनियम के तहत अधिसूचित नहीं की गई है। याचिकाकार ने कहा कि ग्र्राम पंचायत द्वारा वर्षों से उसी जगह कब्रिस्तान में ईसाई शवों को दफनाने की मौखिक मंजूरी दी जाती रही है। उसने कई पिछले उदाहरण और फोटोग्राफ भी पेश किए। जवाब में राज्य ने फिर कहा कि कभी भी पंचायत ने लिखित में ऐसी अनुमति नहीं दी है। आसपास के चार गांवों छिंदवड़ा, मुंगा, तीरथगढ़ और दरभा को मिलाकर छिंदवड़ा से बीस पच्चीस किलोमीटर दूर ग्राम करकापार में ईसाइयों के लिए निर्धारित कब्रिस्तान में शव को दफनाया जा सकता है। ज्यादा दिमागपच्ची नहीं करते हुए हाईकोर्ट ने बस इतने से ही संतुष्ट होकर याचिका खारिज कर दी। यह भी कह दिया शव छिंदवड़ा में ही दफनाने की कोशिश भी की जाएगी तो आम जनता में असंतोष और लोक व्यवस्था के भडक़ने की संभावना होगी। बल्कि सुझाव दे दिया कि शव को ग्राम करकापाल में ही दफनाना बेहतर होगा।
सरकार की ओर से अतिरिक्त पुलिस सुपरिंटेंडेंट ने शपथ पत्र में बताया कि छिंदवड़ा की कुल आबादी 6450 है। उनमें 6000 आदिवासी तथा 450 महरा जाति के दलित हैं। उनमें 350 हिन्दू महरा दलित हैं। केवल 100 लोग महरा ईसाई हैं। रमेश बघेल के दादा लखेश्वर बघेल और अन्य रिश्तेदार शांति बघेल को वहीं शव दफनाने की इजाजत दी गई थी क्योंकि वे ईसाई नहीं हिन्दू थे। हालांकि सरकार ने इसका कोई सबूत नहीं दिया। शपथ में कहा जन्म, मृत्यु, विवाह आदि कर्मकांड परंपराओं से चलते हैं। जिसने भी ये परंपराएं छोड़ दीं। उन्हें इनसे वंचित होना पड़ेगा। इसलिए भी हिन्दू से ईसाई बने व्यक्ति के शव को वहीं दफनाने की इजाजत नहीं मिल सकती। मृतक परिवार ने विकल्प नहीं होने पर षव को जगदलपुर के मेडिकल कॉलेज के सरकारी अस्पताल के शव गृह में भेज दिया।
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस नागरत्ना ने फैसले में लिखा कि छत्तीसगढ़ पंचायत राज अधिनियम 1993 की धारा 49 (12) के अनुसार शवों, पशु शवों, पशुओं और अन्य घृणोत्पादक पदार्थों के (डिस्पोजल) के लिए स्थानों का रेगुलेशन पंचायतों को करना है। अधिनियम के तहत नियम 3 के मुताबिक किसी व्यक्ति की मृत्यु होने के 24 घंटे के अंदर उसके शव को गाडऩे, जलाने या अन्यथा डिस्पोजल करने के लिए संबंधित व्यक्तियों और ग्राम पंचायतों के अधिकारियों को कार्यवाही करनी होगी। नियम 5 के तहत ग्राम पंचायतों द्वारा सम्यक रूप से ग्राम में प्रशिक्षित, लिखित आदेश द्वारा अनुमोदित स्थान से भिन्न स्थान जो श्मशान घाट हो, या जो कब्रिस्तान हो, या सरकार द्वारा अवधारित हो, या शासकीय अभिलेखों में स्थान हो से भिन्न स्थान में शव को जलाकर, गाडक़र या उसे अन्यथा डिस्पोजल के लिए उपयोग में नहीं लाया जाएगा। पिछले वर्षों में जब भी कोई विवादित मृत्यु हुई है। बार-बार पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा है। सरकार ने कहा कि यदि पहले ईसाई मृतकों के शव को दफनाने के लिए कोई मौखिक अनुमति दी भी गई होगी, तो उससे किसी मृतक के पक्ष मेंं कोई अधिकार पैदा नहीं होता। सरकार ने मृतक के शव को करकापाल के कब्रिस्तान तक ले जाने के लिए एम्बुलेन्स और न्यायिक सुरक्षा का प्रबंध करने का आश्वासन दिया।
बेटे रमेश बघेल ने छिंदवड़ा के पटवारी द्वारा बनाया गया एक नजरी नक्शा भी पेश किया क्योंकि गांव मेंं भूमि का सेटलमेन्ट नहीं हुआ है। उस नक्शे में ईसाईयों को शवों को दफनाने की व्यवस्था दर्शाई गई है। याचिकाकार के वकील कॉलिन गोंजाल्वीज ने दो टूक कहा कि संविधान में है कि रमेश बघेल पिता का शव अपने ही खेत में दफना सकता है। चतुर सुजान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने संवैधानिक बहस से बचते हुए केवल व्यावहारिक सुझाव दिया कि मृत्यु तिथि से 20 दिन हो चुके हैं।
इसलिए षव को करकापाल के शव गृह में ले जाकर दफनाने का आदेश दिया जाए। गोंसालवीज ने पटवारी द्वारा बनाए नक्शे का भी हवाला दिया कि उसी जगह पर ईसाईयों के शवों को दफनाया जाता रहा है। हिन्दुओं के लिए अलग अलग स्थान का निर्धारण किया जा चुका है। उन्हें कुछ कब्रों के फोटो तक पेश किए गए। 14 उन ईसाइयोंं के शपथ पत्र भी पेश किए गए जिनके रिश्तेदारों को भी उसी जगह दफनाया गया था। सरकार ने भी माना कि पहले 20 ईसाई व्यक्तियों को उसी जगह दफनाने की मौखिक इजाजत दी गई थी।
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि मामले को अनावश्यक रूप से भडक़ाया जा रहा है। जस्टिस नागरत्ना ने कहा पिछले व्यवहार से साफ नजर आता है कि ईसाई महरा समुदाय के षवों को दफनाने की अनुमति मिलती रही है। कोर्ट ने आपत्ति की नियम 3 के अनुसार शव को दफनाने का निराकण 24 घंटे में हो जाना चाहिए। लेकिन ग्राम पंचायतों और अधिकारियों की उपेक्षा के कारण मामले को उलझाया गया। ग्राम पंचायत ने कब्रिस्तान और श्मशान के संबंध में अधिसूचना प्रकाशित करने में चूक तो की है। खमियाजा दूसरा क्यों भुगते? करकापाल गांव में ही ईसाईयों को दफनाने को लेकर कोई विश्वसनीय दस्तावेज सरकार द्वारा पेश नहीं किया जा सका। कुल मिलाकर कोर्ट ने माना कि सरकार के तर्कों में कोई दम नहीं है। कोर्ट ने कहा हाईकोर्ट को यह देखना चाहिए था कि यदि रमेश बघेल द्वारा अपनी ही कृषि भूमि में पिता के शव को दफनाने की अनुमति मांगी गई। तो उस पर आपत्ति के बावजूद विचार क्योंं नहीं किया गया।
जस्टिस नागरत्ना ने अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक के षपथ पत्र पर कड़ी टिप्पणी की कि यदि कोई परंपरा से अलग हो जाता है। तो उसे षव को दफनाने का अधिकार नहीं मिलेगा। इससे तो सीधे सीधे अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन हुआ है। अचरज है एक जिम्मेदार पुलिस अधिकारी ने इस तरह की बेतुकी बात की। उन्होंने इस प्रकरण में संविधान के मकसद ‘धर्मनिरपेक्षता’ और बंधुत्व (स्नह्म्ड्डह्लद्गह्म्ठ्ठद्बह्ल4) का भी अपमान हुआ लगता है। मृतक को सम्मानजनक ढंग से दफना दिया जाता, तो संवैधानिक मर्यादा में अनुकूल गरिमामय स्थिति हो सकती थी।
जस्टिस नागरत्ना समझदार, तर्कशील, विवेकशील जज और भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ई. एस. वेेंकटरमैया की सुपुत्री हैं। उन्होंने शत-प्रतिशत संवैधानिक लेकिन व्यावहारिक फैसला भी दिया, जिससे पीडि़त परिवार की प्रतिष्ठा और मृतक को अंतिम रूप से दफनाना सम्मानजनक हो तथा गांव में किसी तरह की दुश्मनी भी नहीं पनपे। हालांकि उन्होंने दोयम दर्जे का विकल्प चुना। उन्होंने माना भी कि मृतक के परिवार के साथ संवैधानिक अन्याय हुआ है।
बेहतर होता कनिष्ठ सहयोगी जज सतीश चंद्र शर्मा फैसले को जस का तस कबूल कर लेते। तो बतंगड़ नहीं बनता। अचरज है जस्टिस षर्मा जस्टिस नागरत्ना के समाधानकारक सुझाव से सहमत नहीं हो पाए। सुप्रीम कोर्ट को अनुच्छेद 142 में आदेश देने के असाधारण अधिकार हैं। जब लगे कि विषय में पूर्ण न्याय करना है। अन्यथा पूर्ण न्याय नहीं किया जा सकता। जस्टिस शर्मा का तर्क अचरज पैदा करता है और अटपटा भी लगता है।
उन्होंने माना कि किसी व्यक्ति को दफनाना मृतक व्यक्ति के भी मूल अधिकार में शामिल है। लेकिन दावा नहीं किया जा सकता कि उसे दफनाने का स्थान चुनने की भी आजादी है। तर्क किया कि हर मृतक क्यों न हो मूल अधिकार अनुच्छेद 21 में हैं। अनुच्छेद 21 कहता है किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं। ग्राम पंचायत अंतिम क्रियाकर्म के लिए स्थान तय करने का अधिनियम में अधिकार रखती है।
जो उसने घोषित नहीं किया। ईसाई व्यक्ति के निधन के लिए ग्राम छिंदवड़ा में दफनाए जाने का स्थान ही नहीं, अन्य धर्मों के लिए भी तो घोषित नहीं किया।
एक हाइपोथीसिस जस्टिस शर्मा ने बना दी कि किसी भी व्यक्ति को अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता, अंत:करण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता, लोक व्यवस्था संबंधी प्रावधानों के तहत ही होगी। ग्रामीणों के उत्तेजक विरोध के या शांति भंग होने तथा हिंसक गतिविधियों के भी हो जाने की संभावना को जज ने लोक व्यवस्था भंग होना क्यों समझा? लोक व्यवस्था को बनाए रखने की जवाबदेही जिस राज्य की है। उसने सुझा दिया है कि ग्राम करकापाल के ईसाई कब्रिस्तान में मृतक को दफनाया जा सकता है। शर्मा ने कहा कि इस तरह मृतक और उसके परिवार को अबाधित अधिकार नहीं मिलता कि उसे कहां दफनाया जाए। अचरज है जज ने कहा कि यह नहीं कहा जा सकता कि राज्य ने लोक व्यवस्था के भंग होने की आशंका का कोई बहाना बनाया है। छ: हजार लोगों के एक गांव में इसके पहले 30, 35 पुलिस वाले पहुंचकर लोक व्यवस्था सम्हाल लेते थे। तब क्या अजूबा हो जाता? लोक व्यवस्था की परिभाषा इतनी कामचलाऊ नहीं होती। जिस बस्तर में नक्सलियों के उन्मूलन के नाम पर हज़ारों लाखों पुलिसकर्मी मौजूद हैं, और कत्लेआम और हत्याएं सैकड़ों, हजारों में हो रही हैं, एक गांव के कुछ ग्रामीण संविधानिक प्रावधानों का विरोध करें तो लोकव्यवस्था भंग होने का खतरा मान लिया जाए।
दो जजों की बेंच में मतभेद हो गया। सुप्रीम कोर्ट की परंपरा है कि जो जज फैसला लिखे। साथी जज को अवलोकन के लिए भेजे। जस्टिस शर्मा की असहमति ने एक समाधानकारक फैसले में उलझन पैदा कर दी। 7 जनवरी से मृत व्यक्ति के शव को कब्रिस्तान के चयन के लिए बीस दिनों तक अस्पताल/मेडिकल कॉलेज की निगरानी में पड़ा रहना पड़ा। मृतक के साथ कैसा हादसा हुआ। अपमान हुआ। अन्याय हुआ।
मामला तीसरे जज के पास जाता। तो हफ्तों, महीनों भी लग सकते थे। शायद जस्टिस नागरत्ना को मन मसोसकर अपने साथी जज सतीषचंद्र षर्मा की बात को मानने में उदार होकर अपने फैसले के विरुद्ध व्यावहारिक दृष्टि अपनानी पड़ी। कानूनी पेचीदगियों से परे फैसला किया कि सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 के अपने असाधारण क्षेत्राधिकार का उपयोग करेगा क्योंकि विषय के संबंध में पूर्ण न्याय करना चाहता है। केवल 100 क्रिश्चियन परिवार उस गांव में हैं। तो भी संविधान अंकगणित के आधार पर अन्याय नहीं कर सकता था। जस्टिस नागरत्ना ने अपने फैसले के अंत में राष्ट्रपिता गांधी को भी याद किया कि हमारा जीवन तो क्षणिक है। सौ बरस भी जिएं तो अनंत काल में उसका क्या महत्व। लेकिन यदि हम इंसानियत के समुद्र में डूब जाते हैं। तो हम उसकी गरिमा के साथ जीते हैं।
द हिंदू में प्रकाशित CSDS Lokniti Survey के अनुसार, भारत के निर्वाचन आयोग (ईसीआई) का विशेष मतदाता सूची संशोधन अभियान (एसआईआर) गरीब तबके में जबरदस्त आलोचना का विषय बन गया है।
एसआईआर में जिन दस्तावेजों की जरूरत है, गरीब और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के पास वो दस्तावेज नहीं हैं। इसलिए उनके मताधिकार पर खतरा मंडरा रहा है। इस अभियान में मतदाता सूची को पूरी तरह ठीक करने के लिए जिन दस्तावेजों की मांग की जा रही है, जिसके अभाव में लाखों लोग मतदाता सूची से
बाहर हो सकते हैं। यह स्थिति न केवल गरीबों के लिए खतरा है, बल्कि निर्वाचन आयोग की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठा रही है।
लोकनीति-सीएसडीएस के एक अध्ययन में यह सामने आया है कि ग्रामीण और शहरी गरीब समुदायों, खासकर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों के पास आवश्यक दस्तावेजों की कमी है।
इस अध्ययन में शामिल विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि दस्तावेजों की अनिवार्यता से समाज के कमजोर वर्गों को मतदान के अधिकार से वंचित किया जा सकता है।
गांवों में 20% लोगों के पास आधार तक नहीं है ।
अध्ययन के अनुसार, भारत में लगभग 20% आबादी के पास आधार कार्ड या अन्य वैध पहचान पत्र नहीं हैं। विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां लोग अक्सर अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करते हैं, उनके पास जन्म प्रमाण पत्र, पैन कार्ड या राशन कार्ड जैसे दस्तावेज नहीं होते।
इसके अलावा, बेघर लोग, प्रवासी मजदूर और स्लमवासियों जैसे समूहों को इस प्रक्रिया में और अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि बिहार जैसे राज्यों में हाल ही में हुए विशेष संशोधन अभियान में हजारों मतदाताओं के नाम सूची से हटा दिए गए, जिसके बाद विपक्षी दलों ने "वोट चोरी" का आरोप लगाया। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस मुद्दे पर लोगों से आवाज उठाने की अपील की, जबकि बीजेपी ने राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, स्टालिन और ममता बनर्जी जैसे नेताओं के निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाता सूची में अनियमितताओं का आरोप लगाया।
लेकिन चुनाव आयोग ने राहुल गांधी से हलफनामा मांगा। जबकि बीजेपी नेताओं से अभी तक कोई हलफनामा नहीं मांगा गया। अब तो चुनाव आयोग ने राहुल को अल्टीमेटम भी दे दिया है।
निर्वाचन आयोग का यह कदम, जो मतदाता सूची को अधिक पारदर्शी और सटीक बनाने के लिए उठाया गया है, अब विवादों के घेरे में है। विशेषज्ञों का कहना है कि दस्तावेजों की अनिवार्यता से न केवल गरीबों का मताधिकार छिन सकता है, बल्कि यह आयोग की निष्पक्षता पर भी सवाल उठाता है।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ईसीआई ने हाल ही में तेज राजनीतिक होड़ के बीच फंसे होने की बात स्वीकार की है। उल्लेखनीय है कि कांग्रेस ने चुनाव आयोग पर बीजेपी का एजेंट होने का आरोप लगाया है।
लोकनीति-सीएसडीएस ने सुझाव दिया है कि निर्वाचन आयोग को दस्तावेजों की अनिवार्यता को लचीला करना चाहिए और वैकल्पिक तरीकों, जैसे सामुदायिक सत्यापन या शपथ पत्र, को अपनाना चाहिए। इसके अलावा, मतदाता जागरूकता अभियान चलाकर लोगों को दस्तावेज प्राप्त करने में मदद करने की भी आवश्यकता है।
रिपोर्ट में इस बात पर भी जोर दिया गया है कि अगर इस मुद्दे का समाधान नहीं किया गया, तो यह न केवल लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर करेगा, बल्कि समाज के सबसे कमजोर वर्गों के प्रति अन्याय को और बढ़ाएगा।
CSDS की रिपोर्ट यह बताने की कोशिश कर रही है कि विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) प्रक्रिया में किसे नुकसान होगा और चुनावों तथा चुनाव आयोग में नागरिकों के विश्वास पर इसके क्या प्रभाव होंगे।
जब भारत ने 1948 के लंदन ओलंपिक में भाग लिया तो पूरे दल में एक भी महिला खिलाड़ी नहीं थी। 78 सालों के बाद भी इस स्थिति में कुछ खास बदलाव नहीं आया है। खेल के क्षेत्र में भारत की लड़कियां आज भी संघर्ष कर रही हैं।
डॉयचे वैले पर आयुष यादव का लिखा-
उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले की रहने वाली अमीषा रावत के लिए पहाड़ों के पथरीले रास्ते उतनी बड़ी बाधा नहीं थे जितना उनके आस पास मौजूद लोग। शारीरिक विकलांगता की वजह से साथ पढऩे वाले बच्चे न सिर्फ उन्हें लाचारी भरी निगाह से देखते थे बल्कि मजाक भी उड़ाते थे।
ऐसे लोगों को जवाब देने के लिए अमीषा ने अपने काम और सफलता को जरिया बनाया। अमीषा ने आगे चलकर न सिर्फ देश में अपने खेल (शॉट पुट) से नाम कमाया बल्कि पेरिस पैरालंपिक के लिए भी क्वालिफाई किया।
भारत में आज भी अमीषा जैसी तमाम लड़कियां हैं, जो न सिर्फ खेलों में बेहतर प्रदर्शन कर सकती हैं बल्कि देश के लिए सोने, चांदी और कांसे के तमगे भी ला सकती हैं। लेकिन सामाजिक रूढि़वादिता, लैंगिक असमानता जैसे तमाम रोड़े उनके रास्ते की रुकावट बनते हैं।
खेलों में महिलाओं की भागीदारी
आजादी के बाद भारत में महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय लक्ष्य रहा है। खेल का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है, जहां महिलाओं की भागीदारी न केवल शारीरिक स्वास्थ्य और व्यक्तिगत विकास के लिए जरूरी है, बल्कि यह सामाजिक रूढि़वादिता को तोडऩे, लैंगिक समानता को बढ़ावा देने और इसमें सफल करियर बनाने का एक शक्तिशाली माध्यम भी है।
बावजूद इसके खेलों का महाकुंभ माने जाने वाले ओलंपिक में महिलाओं की भागीदारी बमुश्किल ही पुरुषों के बराबर पहुंच पाई है। 2024 में हुए पेरिस ओलंपिक में भारत की तरफ से कुल 117 खिलाडिय़ों ने भाग लिया, जिसमें 70 पुरुष और महज 47 महिलाएं थीं।
ओलंपिक की आधिकारिक वेबसाइट पर मौजूद जानकारी के अनुसार, भारत की तरफ से ओलंपिक में शामिल होने वाली पहली महिला नोरा पॉली हैं, जिन्होंने 1924 में पेरिस ओलंपिक में टेनिस में भारत का प्रतिनिधित्व किया।
आजादी के बाद 1948 के लंदन ओलंपिक में भारतीय दल में एक भी महिला खिलाड़ी नहीं थी लेकिन 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में नीलिमा घोष, मैरी डिसूजा, डॉली नाजिर और आरती साहा ने देश का झंडा उठाया।
भारत में खेल और शारीरिक गतिविधि (एसएपीए) में भागीदारी के स्तर में लैंगिक असमानता बढ़ रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, मौजूदा समय में केवल43 फीसदीभारतीयमहिलाएं ही सुझाई गई शारीरिक गतिविधियों में शामिल होती हैं। हालांकि, अगर आजकल का रुझान ऐसे ही जारी रहा, तो 2030 तक यह संख्या घटकर 32 फीसदी रह जाने की संभावना है।
एक नहीं, दो नहीं हजार समस्याएं
महिलाओं के लिए खेलों से दूरी घर से ही शुरू हो जाती है। ये कहना है डॉ। दिलप्रीत कौर का, जो खुद लंबे समय तक ट्रैक एंड फील्ड एथलीट रही हैं और पुणे की श्री बालाजी यूनिवर्सिटी के स्पोर्ट्स साइंस विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं।
उन्होंने डीडब्ल्यू हिंदी से बात करते हुए बताया, हर खेल की अपनी डिमांड होती है और बेहतर नतीजे हासिल करने के लिए हमें उसके हिसाब से चलना पड़ता है। लेकिन कई बार लड़कियों को सिर्फ इसलिए रोका जाता है क्योंकि उन्हें छोटे कपड़े पहनने पड़ते हैं।
अल्मोड़ा की रहने वाली ज्योति तलवार बताती हैं कि उन्हें खेलने के लिए परिवार की तरफ से हमेशा सपोर्ट मिला लेकिन स्कूल में शिक्षकों का साथ नहीं मिलता था। उनकी टीचर अक्सर कहती थीं कि अगर दो नावों की सवारी की तो डूबना तय है।
ट्रैक एंड फील्ड में मास्टर डिग्री ले चुकी ज्योति ने न केवल दो नावों की सवारी की बल्कि उन्हें पार भी लगाया। ज्योति कहती हैं कि स्कूलों में ही अगर सही समय पर प्रतिभा की पहचान कर ली जाए तो भारत को बड़े स्तर पर अच्छे खिलाड़ी मिल सकते हैं।
डॉ. दिलप्रीत कौर खेल के दौरान चोट लगने, कोचिंग और स्पॉन्सरों के अभाव, फंडिंग, मीडिया कवरेज और ह्यूमन परफॉर्मेंस लैब की कमी, जेंडर गैप और असुरिक्षत माहौल को भी बड़ा कारण मानती हैं। उन्होंने बताया कि भारत में जितने स्पोर्ट्स सेंटर हैं, वो फिलहाल काफी नहीं हैं। मौजूदा सेंटरों में इतनी कम जगह है कि ज्यादातर लड़कियों को खेल का खर्च उठाने के लिए परिवार से मदद लेनी पड़ती है। वो कहती हैं, ‘हम खर्च तब करते हैं जब मेडल आ जाता है। जबकि खर्च मेडल लाने से पहले करना चाहिए।’
स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एसएआई) की वेबसाइट पर मौजूद जानकारी के अनुसार राष्ट्र्रय उत्कृष्टता केंद्र के 24 सेंटरों पर महज 1,514 लड़कियां और एसएआई प्रशिक्षण केंद्रों में महज 1,383 लड़कियां हैं।
पीरियड्स भी एक बड़ी वजह
भारत में आमतौर पर पीरियड्स को लेकर जागरूकता का अभाव है और बात खेलों की हो तो तमाम भ्रांतियां मौजूद हैं। पैरा एथलेटिक्स कोच अभिषेक चौधरी भी यही मानते हैं। डीडब्ल्यू हिंदी से बात करते हुए उन्होंने बताया, ट्रेनिंग के दौरान कई बार ऐसा होता है कि हमें शारीरिक क्षमता का ध्यान रखते हुए शेड्यूल बनाना होता है लेकिन कई बार लड़कियां कोच को खुलकर बता नहीं पाती हैं।
वो यह भी कहते हैं कि भारत में ऐसे डॉक्टरों की कमी है जिन्हें खेल से जुड़ी चोटों या अन्य मामलों की जानकारी हो। उन्होंने कहा, हमारे एथलीट्स को अगर यूरोपीय देशों जैसी आधी सुविधाएं भी मिल जाएं तो हमारी लड़कियां न सिर्फ लडक़ों से ज्यादा मेडल लाएंगी बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतर स्थान दिलाएंगी।
महिला कोच बेहतर या पुरुष कोच
इस सवाल का जवाब देते हुए अमीषा रावत ने हमें बताया कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोचिंग एक महिला दे रही है या पुरुष। वो कहती हैं, हमारे देश में वैसे ही कोच की कमी है इसलिए पहले तो कोच मिलना ही बड़ी बात होती है।
अभिषेक भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं। वो कहते हैं, ‘मैं कई महिला खिलाडिय़ों को प्रशिक्षण देता हूं। फर्क सिर्फ इससे पड़ता है कि आप अपने खेल को लेकर कितने सीरियस हैं और क्या हासिल करना चाहते हैं।’
स्टेट ऑफ स्पोर्ट्स एंड फिजिकल एक्टिविटी रिपोर्ट (2024) के अनुसार, शारीरिक गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी कम है। 40 फीसदी महिलाएं घरेलू कामों को ही एक शारीरिक गतिविधि के रूप में देखती हैं और 12 फीसदी से कम महिलाएं ऐसी एक्सरसाइज करती हैं जिससे मांसपेशियों मजबूत होती हैं।
- समरेन्द्र शर्मा
हेडिंग अजीब लग सकती है, लेकिन छत्तीसगढ़ के धमतरी में हुई घटना ने इसे भयावह सच बना दिया है। तीन युवाओं की बेरहमी से हत्या, मोबाइल कैमरे में कैद चीखें, सडक़ों पर बिखरा खून और वार करते हाथ। यह सब न सिर्फ देखा गया, बल्कि जानबूझकर रिकॉर्ड किया गया। यह अब महज अपराध नहीं रहा, बल्कि हमारे समय का सबसे डरावना आईना बन गया है। यह वह दौर है जब अपराधी हिंसा को छुपाते नहीं, बल्कि गर्व से ‘प्रदर्शन’ में बदल देते हैं। मानो यह भी एक वीडियो कंटेंट हो, जिसे सोशल मीडिया पर ‘पसंद’ और ‘शेयर’ के लिए बेचा जा सके।
अपराधियों का यह दुस्साहस रातोंरात पैदा नहीं होता। यह तभी संभव है जब कानून का भय मिट जाए, नैतिकता की जड़ें सड़ जाएं और समाज की सामूहिक जिम्मेदारी खोखली हो जाए।
आज का एक बड़ा युवा वर्ग आभासी दुनिया में इतना डूब चुका है कि असली और नकली के बीच की रेखा धुंधली हो गई है। सोशल मीडिया, रील्स, हिंसक वेब सीरीज और वीडियो गेम मनोरंजन के नाम पर हिंसा को सामान्य, यहां तक कि ‘शौर्य’ के प्रतीक के रूप में पेश कर रहे हैं। मीडिया अध्ययन की ‘कल्टीवेशन थ्योरी’ बताती है कि हिंसा के दृश्य बार-बार देखने से इंसान उसे जीवन का स्वाभाविक हिस्सा मानने लगता है। यह बदलाव अब हमारी नई पीढ़ी की सोच में गहराई तक पैठ चुका है।
इस मानसिक जहर में नशाखोरी घातक तडक़ा लगा रही है। शराब, ड्रग्स और अन्य मादक पदार्थ अब आसानी से मिलते हैं। नशे की गिरफ्त में विवेक और आत्म-नियंत्रण खो चुके युवक कब खतरनाक अपराध कर बैठें, कहना मुश्किल है। इसके ऊपर ऑनलाइन चाकू, तलवार और हथियार की आसान उपलब्धता हिंसा को और आसान बना देती है। लेकिन खतरा केवल नशा या हथियार नहीं, बल्कि पुलिस व्यवस्था का बेबस होना भी है। अपराधियों के मन से भय खत्म हो गया है। किसी भी राज्य का आधार है कानून द्वारा नियंत्रित ‘विधिसम्मत हिंसा का एकाधिकार’। जब यह कमजोर पड़ता है, तो अराजकता का फैलना तय है।
इस स्थिति का हल निकालने कई मोर्चों पर एक साथ काम करना होगा। परिवारों को बच्चों में नैतिक मूल्यों, सहिष्णुता और अनुशासन की नींव मजबूत करनी होगी।
-दिनेश आकुला
आज हम अटल बिहारी वाजपेयी जी की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उनके कार्यों और उनके नेतृत्व ने न केवल भारतीय राजनीति को आकार दिया, बल्कि भारतीय समाज में एक स्थायी छाप भी छोड़ी। इस दिन, वाजपेयी जी को याद करते हुए मुझे अपनी पत्रकारिता के शुरुआती दिनों का एक अजीब और अविस्मरणीय पल याद आ रहा है।
यह घटना उनके पहले प्रधानमंत्री कार्यकाल के दौरान हुई थी, जब वे भुवनेश्वर जाने के लिए विमान से यात्रा कर रहे थे। दुर्भाग्यवश, खराब मौसम के कारण उनका विमान रायपुर के माना एयरपोर्ट पर एक छोटे ब्रेक के लिए रुक गया था। उस समय मध्यप्रदेश था, और छत्तीसगढ़ राज्य अभी हाल ही में अस्तित्व में आया था।
मैं उस दिन प्रोटोकॉल अधिकारी के साथ बैठा था, तभी अचानक यह खबर आई कि प्रधानमंत्री का विमान रायपुर में रुकने वाला है। मैंने तुरंत प्रोटोकॉल अधिकारी के साथ कदमताल किया। मुझे कुछ मदद मिली, जिससे मैं एयरपोर्ट की सुरक्षा को पार कर पाते हुए कुछ सीनियर बीजेपी नेताओं और स्थानीय सुरक्षा अधिकारियों से कुछ निवेदन कर पाया। इसके बाद, आखिरकार मैं बारीकेज के किनारे तक पहुंचने में सफल हो पाया।
जब वाजपेयी जी विमान से उतरे, तो उनका स्वागत करने के बाद, वे वीआईपी लाउंज में कुछ समय के लिए बैठे। लेकिन जैसे ही वे वहां से चलने लगे, मैंने हिम्मत जुटाकर जोर से कहा, ‘वाजपेयी जी, हम यहां इंटरव्यू के लिए हैं!’
-दिनेश आकुला
आज दिलीप सिंह जूदेव जी की 12वीं पुण्यतिथि है। 14 अगस्त 2013 को उनका निधन हुआ था। अपने बड़े बेटे सतॄंजय सिंह जूदेव के दिल के दौरे से अचानक निधन के बाद, उन्होंने मानो जीवन में रुचि ही खो दी थी। यह ऐसा आघात था, जिससे वे पूरी तरह उबर नहीं पाए।
मेरा जूदेव जी से जुड़ाव सन 2000 में हुआ, जब मैं हिंदुस्तान टाइम्स में काम कर रहा था। शुरुआत से ही उन्होंने यह तय कर रखा था कि किसी भी विवाद या बड़ी खबर पर पहला बयान मुझे ही देंगे। 2003 में, जब उन पर कुख्यात रिश्वत कांड का आरोप लगा, तो सुबह 6 बजे उन्होंने मुझे फोन कर कहा कि मामला साफ होते ही वे सबसे पहले मुझे ही इंटरव्यू देंगे।
मुझे याद है, स्टार न्यूज़ में असाइनमेंट डेस्क पर मेरे पूर्व सहयोगी रजनीश का फोन आया था। उन्होंने बताया कि इंडियन एक्सप्रेस के पहले पन्ने पर जूदेव जी के रिश्वत मामले की खबर छपी है। यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। जो कोई भी जूदेव जी को जानता था, वह विश्वास नहीं कर पा रहा था। लेकिन वे अडिग थे और उनकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही बेबाक— ‘पैसा खुदा तो नहीं, पर खुदा की कसम, खुदा से कम भी नहीं।’
जूदेव जी अक्सर मजाक में कहते, ‘दिनेश बाबू, दारू पिया करो।’ जशपुर हो या राजकुमार कॉलेज का रेस्ट हाउस, उनसे मिलने पर यह जुमला ज़रूर सुनने को मिलता।
एक इंटरव्यू में, जब वे छत्तीसगढ़ में बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे, उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा कि वे पक्के शायर हैं और सडक़ किनारे दिख जाए तो शायरी की किताब ज़रूर खरीद लेते हैं। उनका पसंदीदा गीत था— मेरे देश की धरती सोना उगलेज्
जब मैंने पूछा कि क्या यह उनका पहला विवाद है, तो जशपुर के राजकुमार मुस्कुराए, मूंछों पर हाथ फेरते हुए बोले‘मेरी मूंछें भी मशहूर हैं और कॉलेज के दिनों में जो दो रिवॉल्वर लेकर चलता था, वे भी।’
कॉलेज के दिनों में उनके पास काली बुलेट मोटरसाइकिल थी, जिसे वे बेहद धीमी गति से चलाते थे, जैसे सफर का आनंद ले रहे हों। एक बार जिला प्रशासन ने उन्हें लोहरदगा में बीजेपी की बैठक में जाने से रोकने की कोशिश की। उस समय वे जीप चला रहे थे। उन्होंने कहा— ‘हम ज़रूर जाएंगे; अगर रोक सकते हैं तो रोक लो।’ और फिर वे इतनी तेज़ी से निकले कि पुलिस की गाडिय़ां पीछा नहीं कर पाईं।
-अपूर्व झा
एक तंग कमरे में राजेश विश्वकर्मा चुपचाप बैठे हैं। तेरह महीने तक वह जेल में रहे। वह जेल में इसलिए नहीं रहे कि उन्होंने कोई अपराध किया था, बल्कि इसलिए कि उन्होंने किसी की मदद करने की कोशिश की थी। वह एक दिहाड़ी मजदूर हैं। उनके पास न जमीन है, न माता-पिता और न ही कोई कानूनी जागरूकता। वह व्यवस्था का शिकार बन गए।
एनडीटीवी के रिपोर्ट के अनुसार, 16 जून 2024 को राजेश अपने पड़ोस की एक बीमार महिला को डीआईजी बंगले के पास एक अस्पताल ले गए। वह दर्द से कराह रही थी। राजेश ने वही किया जो कोई भी सभ्य इंसान करता। उसे अस्पताल में भर्ती कराया और काम पर निकल गए। शाम तक महिला की मौत हो चुकी थी। अगली सुबह राजेश को हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।
राजेश ने बताया कि वह उस महिला को इसलिए अस्पताल ले गए क्योंकि उसने उनसे कहा था। शाम को पुलिस उसे उठा ले गई, पूछताछ की और अगले दिन गिरफ्तार कर लिया गया। उन्होंने पुलिस को बताया कि वह उसे इलाज के लिए ले गए थे। पुलिस ने उन्हें परिवार से भी बात नहीं करने दी। उन्हें नौ दिनों तक थाने में रखा, फिर सीधे जेल भेज दिया गया। उनके पास वकील करने के पैसे नहीं थे।
राजेश ने कहा, ''पुलिस ने बिना किसी चेतावनी के उनके किराए के कमरे पर ताला लगा दिया। अब मुझे 13 महीने का किराया देना है। कोई मुझे काम नहीं दे रहा है। सब कहते हैं कि मैं जेल से आया हूं। मैं निर्दोष था, फिर भी सलाखों के पीछे रहा। मेरे पास न जमीन है, न माता-पिता, कुछ भी नहीं। मुझे बदनाम भी किया गया है।" एक साल से ज्यादा समय तक राजेश बिना किसी सुनवाई के जेल में सड़ता रहा। उसे न तो कोई वकील मिला और न ही परिवार।
उसकी बहन कमलेश को उसकी गिरफ्तारी के नौ दिन बाद इसकी सूचना दी गई। राजेश की बहन ने बताया, "उन्होंने मुझे शाम 4 बजे फोन किया और कोर्ट आने को कहा। मैं अकेली थी इसलिए नहीं जा सकी। एक हफ्ते बाद जब मैं उनसे मिली तो उन्होंने मुझे सब कुछ बताया। जब मैं उनका आधार कार्ड और फोन लेने थाने गई तो उन्होंने मुझे इधर-उधर दौड़ाया और 500 रुपए वापस मांगे। अगर पुलिस ने ठीक से जांच की होती तो ऐसा कभी नहीं होता। हमारे परिवार में कोई भी पढ़ा-लिखा नहीं है। जब भी मौका मिलता, मैं उनसे मिलने जाती थी।"
कोर्ट द्वारा नियुक्त कानूनी सहायक वकील रीना वर्मा ने राजेश की रिहाई का मार्ग प्रशस्त किया। कोर्ट ने आखिरकार राजेश को निर्दोष करार दिया। रीना वर्मा ने बताया कि उसके पास वकील रखने के लिए पैसे नहीं थे। कोर्ट ने मुझे नियुक्त किया। हम न्याय सुनिश्चित करने के लिए पूरी ईमानदारी से काम करते हैं। यह पूरी तरह से मुफ्त सुविधा है।
बाल्टिक सागर किनारे रेत का किला बनाना हो या रविवार को खरीदारी करना, जर्मनी के अजीबोगरीब कानून आपको मुसीबत में डाल सकते हैं.
डॉयचे वैले पर स्टुअर्ट ब्राउन का लिखा-
दूसरे देशों के मुकाबले जर्मनी वैसे तो काफी खुले विचारों का देश नजर आता है. खुले में सिगरेट पीना हो या सार्वजनिक जगहों में बिना कपड़ों के खुले में बैठना या फिर 16 साल की उम्र में बियर पीना सब दूसरे देशों में गैर-कानूनी हो सकता है लेकिन जर्मनी में इसकी पूरी छूट है. हालांकि कई नियम ऐसे हैं जो बाकी देशों के लोगों को अटपटा लग सकता है. जर्मनी में इनके लिए भारी जुर्माना देना पड़ सकता है.
गुड फ्राइडे पर डांस और फिल्मों पर रोक
जर्मनी के 16 राज्यों में से ज्यादातर में गुड फ्राइडे को "साइलेंट पब्लिक हॉलीडे” माना जाता है. मध्ययुग से ही इस दिन डांस करना मना है. हालांकि, राजधानी बर्लिन में इस "तांस फरबोट” (डांस पर रोक) को लेकर रवैया थोड़ा उदार है. यहां गुड फ्राइडे को सुबह 4 बजे से रात 9 बजे तक ही यह रोक लागू रहती है. दक्षिणी, कैथोलिक राज्य बवेरिया में यह पाबंदी गुरुवार से शनिवार तक यानी पूरे 70 घंटे चलती है. इस कानून को तोड़ने वालों पर €10,000 (लगभग ₹10 लाख) तक का जुर्माना लग सकता है.
इस धार्मिक दिन पर शांति बनाए रखने के लिए शोरगुल वाली दूसरी गतिविधियां भी मना है, जैसे कार धोना या घर बदलना.
इस दौरान, जर्मनी के अलग-अलग राज्यों में करीब 700 फिल्मों पर भी रोक लगाई गई है. "पब्लिक हॉलीडे इंडेक्स” में "घोस्टबस्टर्स”, 1975 की कार्टून क्लासिक "हाइडी” और मोंटी पाइथन की 1979 में आई धार्मिक व्यंग्य फिल्म "लाइफ ऑफ ब्रायन” शामिल हैं.
हालांकि, जर्मन लोग ईस्टर के दौरान डांस करने की मांग लगातार करते आ रहे हैं और इस बैन के खिलाफ कई प्रदर्शन भी होते रहते हैं. 2013 में ये प्रदर्शन इस हद तक पहुंच गए थे कि पश्चिमी जर्मनी नॉर्थ राइन-वेस्टफालिया राज्य के बोखुम शहर में इस नियम के विरोध में "लाइफ ऑफ ब्रायन” की पब्लिक स्क्रीनिंग आयोजित की गई थी.
रात में मशरूम और दिन में जंगली लहसुन तोड़ने पर रोक
जर्मनी में रात के समय जंगल से मशरूम तोड़ना गैरकानूनी है. यह नियम इसलिए ताकि रात में जंगली जानवरों को परेशानी ना हो. ऐसे ही पेस्टो सॉस या सूप बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाले जंगली लहसुन को भी जड़ों सहित निकालना मना है. इसकी वजह यह है कि नम, छायादार जंगलों और बाढ़ग्रस्त इलाकों में जहरीले पौधों, लिली ऑफ द वैली को जंगली लहसुन समझ कर तोड़ा जासकता है.
निजी उपयोग के लिए इस्तेमाल होने वाले जंगली लहसुन की पत्तियों को तो जर्मनी में आराम से कितनी भी मात्रा में तोडा जा सकता है. लेकिन पौधों को उखाड़ना या संरक्षित इलाकों में पत्तियों को तोड़ना कानूनी तौर पर वर्जित है.
बाल्टिक सागर के किनारे रेत के किले बनाने की मनाही
जर्मनी के नॉर्थ-सी और बाल्टिक सागर के किनारे छुट्टी मनाने वाले कई द्वीपों पर बच्चों का रेत के किले बनाना मना है. छुट्टियों में समुद्र किनारे बच्चे तैर तो सकते हैं, लेकिन रेत के किले बनाने या गहरे गड्ढे खोदने पर लगभग €1,000 (यानी एक लाख) का जुर्माना लग सकता है.
इन द्वीपों पर रेत के किले बनाने पर पाबंदी की एक ठोस वजह यह है कि रेत खोदकर इधर-उधर करने से समुद्र तट का कटाव (बीच इरोशन) हो सकता है.
हालांकि, बाल्टिक सागर के रयूगेन द्वीप के बिन्ज और सेलिन रिसॉर्ट्स में रेत के किले बनाने की अनुमति है, लेकिन शर्त यह है कि उनकी ऊंचाई 30 सेंटीमीटर (11.8 इंच) और परिधि 3.5 मीटर (11.5 फीट) से अधिक नहीं होनी चाहिए.
संडे को नहीं कर सकते शॉपिंग या गार्डन की कटाई
जर्मनी में रविवार को घास काटने की मशीन या कोई भी पावर टूल चलाने पर हो सकता है कि पड़ोसी नाराज हो जाएं और पुलिस को शिकायत कर दे.
यहां, रविवार के रूहेसाइट (यानी शांत समय) का पालन काफी सख्ती से किया जाता है. ऐसे में रविवार या किसी भी पब्लिक हॉलीडे पर लॉन काटने की मशीन समेत किसी भी मोटर वाले औजार का इस्तेमाल करना मना है. इसका पालन नहीं करने वालों पर भारी जुर्माना लग सकता है.
रविवार की यह शांति सड़कों तक फैली होती है. लाडेनश्लुसगेजेत्स (दुकान बंदी कानून) नाम का एक जर्मन कानून 1956 से लागू है, जिसके तहत रविवार या पब्लिक हॉलीडे पर दुकान खोलना मना है. हालांकि, 2006 से राज्यों को अपना नियम बनाने की छूट मिली है, लेकिन अब भी ज्यादातर जगहों पर रविवार को खरीदारी नहीं की जा सकती. साल में केवल कुछ गिने-चुने खास रविवारों और कुछ चुनिंदा दुकानों पर यह संभव हो सकता है.
ऑटोबान पर नहीं खत्म होना चाहिए गाड़ी में तेल
जर्मन ऑटोबान यानी एक्सप्रेस हाईवे पर गाड़ी में तेल खत्म होना भी एक तरह का अपराध है.गाड़ियों के शौकीन जर्मनी में अगर कोई ड्राइवर ऑटोबान पर निकलने से पहले अपनी टंकी ठीक से नहीं भरता है, तो उसे लापरवाह माना जाता है. ऐसा करने पर वह ना केवल खुद को बल्कि दूसरों को भी खतरे में डालता है, इसलिए उस पर जुर्माना लग सकता है क्योंकि जर्मन ऑटोबान पर गाड़ियां बिना किसी स्पीड लिमिट के बहुत तेजी से दौड़ती हैं.
ऑटोबान पर सिर्फ किसी इमरजेंसी में ही गाड़ी रोकी जा सकती है वो भी निर्धारित जगह पर.
-श्रुति व्यास
सन्नाटा और आसमान भारी और हवा नमी से लदी हुई। इन दिनों सुबह भी ठहरी सी होती है। न अखबार के हॉकर का इंतजार होता है और न दूधवाले की या ब्रेड-अंडा बेचने वाले की घंटी या टनटनाहट! अब तो ब्लिंकिट के ईवी साईकिल की घर्राहट होती है। डिलीवरी बॉय उतरता है, हाथ में झूलता कागज का थैला-दूध, ब्रेड, अंडे जैसे सुबह के जरूरी सामान। वह दो कदम भी नहीं चला होता कि रुस्तम आ टपकता है! कहाँ से? जैसे परछाईं से निकला हो। अचानक झपट, तेज, गूँजती भौंक जो कॉलोनी की दीवारों से टकराकर लौटती हैं। ब्लिंकिट का डिलीवरी बॉय घबरा जाता है, थैले की पकड़ ढीली पडऩे लगती है। वह पीछे हटता है, हाथ हिलाकर रुस्तम को भगाने की कोशिश करता है, पर इससे कुत्ते की गुर्राहट और सख्त हो जाती है-अब और तेज भौंकने लगता है। लडक़ा जोखिम नहीं लेता-ग्राहक को फ़ोन करता है, सीढिय़ों पर सामान छोडऩे की बात कहता है, और अपनी ईवी पर जितनी जल्दी हो सके वापस लौट जाता है।
दिल्ली ही नहीं, देश रुस्तमों से भरा हुआ है। सालों पहले मैंने भी एक आवारा कुत्ते से दोस्ती की थी-उसे बिस्कुट खिलाए, कान के पीछे खुजलाया, पार्क में उसका इंतज़ार किया। उस साथ में एक सीधी-सादी ख़ुशी होती है। पर मैं डर भी जानती हूँ-जब पार्क में कुत्तों का कोई अनजाना झुंड रास्ता रोक ले, जब जॉगिंग याकि दौड़ में पीछे आए कुत्ते से पीछा छुड़ाने की जद्दोजहद होती है। तब रास्ता बदलना होता है, दूर से ही खतरा बूझकर, लंबा चक्कर लगा कर, कुछ गेट्स से बचकर रास्ता बनाना पड़ता है।
मेरी गली का रुस्तम हमेशा ऐसा नहीं था। कुछ महीने पहले वह हमारी कॉलोनी में आया—पतला, धूल-धूसरित, बड़ी बादामी आँखों वाला एक आवारा, हल्की-सी पूँछ हिलाता, इतना विनम्र कि किसी के साथ चुपचाप चल पडता था। फिर ‘डॉग लवर्स’ ने उसे नोटिस किया-कभी बिस्कुट, कभी बचे-खुचे खाने के टुकड़े, सिर पर हाथ फेरना, उसकी आज्ञाकारी प्रकृति पर दुलार। पर थाली खाली होते ही, प्यार के पल बीतते ही, उस कुत्ते को वहीं सडक पर लावारिश छोड़ दिया जाता।
कुछ समय बाद उसका एक घर का दरवाज़ा ठिकाना बन गया। वह वहीं सोने लगा, वहीं से दुनिया देखने लगा। और इसी ‘इलाके’ में, कहीं न कहीं, वह नरमदिल आवारा चौकन्ना चौकीदार बन गया—पहचाने चेहरों के प्रति वफ़ादार, अजनबियों के लिए आक्रामक। पड़ोसियों के लिए मुफ़्त सुरक्षा; दूसरों के लिए-एक साया, तेज़ दाँतों के साथ।
इस एक आवारा कुत्ते की कहानी को लाखों में गुणा कीजिए-आपको दिल्ली की हर गली, हर कोने में रूस्तम मिल जाएगे। गली के शेर। जब चाहे तब शौर मचाते हुए। दिल्ली अब वह महानगर है जहां यहां तो राजनीति का शौर है या आवारा कुत्तों की भौं-भौं है। और वैसे ही राजधानी की सडक़ें और अदालतें अब आवारा कुत्तों के भविष्य पर भी बँटी हुई हैं। शहर के कई हिस्सों में, कुत्ते ढांचे का हिस्सा बन गए हैं-चाय की दुकानों के नीचे लेटे, फलों की रेहडिय़ों के बीच से निकलते हुए। कुछ जगहों पर वे इलाकाई बैरिकेड हैं-जहाँ पैर रखना मतलब पीछा कराए बिना नहीं लौटना।
पिछले साल, एक कश्मीरी दोस्त पहली बार दिल्ली आया-साथ में ले गया एक अनचाही याद: ग़लत शॉर्टकट लेने के बाद घिरकर काटे जाने का सदमा। और यह सिफऱ् कुत्तों की बात नहीं—बंदर, गाय, लफ़ंगे, जेबकतरे, सभी से दिल्ली भरी पड़ी है। हमारी सडक़ें केवल अव्यवस्थित नहीं, असुरक्षित भी हो गई हैं। तभी मैं अक्सर सोचती हूँ—कितना बोझ एक शहर के नागरिक को सिफऱ् अपने ही रास्तों पर सुरक्षित चलने के लिए उठाना पडता है या उठाना चाहिए?
सो सोमवार को कुत्तों पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया तो राहत थी तो सवाल भी? आदेश के मुताबिक क्या आठ हफ़्तों में सार्वजनिक जगहों से सभी आवारा कुत्तों को हटाना, नसबंदी और टीकाकरण करना, सीसीटीवी निगरानी वाले शेल्टर बनाना संभव है? स्वभाविक है जो शहर बँट गया। कुत्तों ने जिनको काटा, दौड़ाया या डराया उनके लिए तो यह देर से मिला न्याय है। जबकि पशु-अधिकार समूहों के एक्टिविस्ट लोगों के लिए-यह नागरिक व्यवस्था के खोल में लिपटी एक क्रूरता है।
पीटा इंडिया जैसी संस्थाएँ कहती हैं कि कुत्तों का इस तरह विस्थापन अमानवीय ही नहीं, बेअसर भी है—कुत्ते लौट आएँगे या उनकी जगह दूसरे ले लेंगे, जब तक मूल कारणों पर काम नहीं होता: अनियंत्रित प्रजनन, फेंका हुआ खाद्य अपशिष्ट, अवैध ब्रीडर और अनियमित पालतू दुकानों पर लगाम। और सबसे बड़ी बात हाल के सालों में कुत्तों को राहु, केतु का पर्याय मान उनकों भक्तों द्वारा बिस्कुट, दूध, खाना खिलाने का धर्म-कर्म है।
मैं सोचती हूँ कि कुत्तों को हटाने का विरोध करने में कार्यकर्ताओं की आवाज तेज़ है लेकिन ज़्यादा शेल्टर बनाने की माँग पर लोग क्यों नहीं ज्यादा बोल रहे है? कुत्तों को गोद लेने, उन्हे घर में पालने के कार्यक्रमों के लिए, सुरक्षित स्थानों के लिए, जहाँ आवारा सार्वजनिक सुरक्षा को खतरा बने बिना रह सकें-इसके लिए उतनी ही मुखर मुहिम क्यों नहीं है? क्या सडक़ पर कुत्तों का रहना सचमुच एक अच्छे शेल्टर से ज़्यादा मानवीय है? और सबसे अहम-जब बच्चों को आवारा कुत्तों ने मार डाला, तब नैतिक आक्रोश कहाँ था?
पश्चिम के कई देशों में आवारा कुत्ता दुर्लभ है-क्योंकि वहाँ व्यवस्था नाम की एक प्रणाली है। माइक्रोचिप से कुत्तों के मालिकों का पता लगाया जाता है। शेल्टर होते हैं। नसबंदी होती है। अनक्लेम्ड कुत्तों को नया घर मिलता है-कुछ को इच्छामृत्यु दी जाती है। मतलब सडक़ कोई विकल्प नहीं। मगर भारत में तो, सडक़ ही वह स्थान, वह व्यवस्था है-जिसे कार्यकर्ता, डॉग लवर्स, मेनका गांधी जैसे राजनीतिक संरक्षक और वे लोग इसलिए पसंद करते है क्योंकि सभी तो बिना जि़म्मेदारी के मुफ्त सुरक्षा चाहते हैं। यह वफ़ादारी भी पालती है और खतरा भी। आपके गेट के बाहर बैठा कुत्ता उसे चोरों से बचा सकता है, पर दूधवाले से या आपके ही मेहमानों, राहगीरों को डराने, काटने का आंतकी भी हो सकता है।
हाँ, कुत्तों को दोष देना गलत है-समस्या तंत्र में है। पर जब खतरा रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन जाए, तो कार्रवाई ज़रूरी हो जाती है। अदालत आगे भी जा सकती थी-क्यों सिर्फ कुत्ते? क्यों नहीं बंदरों और गायों पर भी, जिनकी सडक़ पर मौजूदगी उतनी ही ख़तरनाक है, पर जो धार्मिक-राजनीतिक रूप से अछूते हैं? गौमाता है, उनके लिए गौशालाओं का धर्मादा है बावजूद वे सडकों पर (बारिस में तो खासकर) घूमती या बैठी रहती है। ऐसे ही नील गाय हो या बंदर। बंदरों के कैले खिलाकर तीर्थस्थान से लेकर खेत-खलिहान तक इनकी आबादी इतनी बढ़वा दी गई है कि वह दिन दूर नही है जब भारत का किसान खेती से तौबा कर कह बैठे कि अमेरिका से ही अनाज मंगा कर खा लो।
-सनियारा खान
आजादी की लड़ाई में सब से कम उम्र में शहीद होने वाली लडक़ी के रूप में असम की कनक लता बरुआ का चेहरा ही सामने आ जाता है। उनका नाम भले ही असम के लोगों के लिए जाना पहचाना और स्मरणीय नाम हो, लेकिन बाकी देश के शायद मु_ी भर लोग ही उनके बारे में जानते होंगे। ये बड़े अफसोस की बात है कि आज़ादी की लड़ाई लडऩे वाले और लड़ कर जान देने वाले हमारे देश के अलग अलग प्रांतों के बहुत से नामों को हम जानते ही नहीं हैं या फिर जानने के बाद भी धीरे धीरे भूल जाते हैं।
कनक लता बरुआ, स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले कर देश के लिए जान देने वाली असम की पहली महिला थी। सन 1924 में 22 दिसम्बर के दिन जन्म लेने वाली कनक लता एक सम्भ्रांत परिवार से थी। उनके मामा देवेंद्र नाथ बरा एक जाने-माने कांग्रेसी नेता थे। छोटी उम्र से ही मामा और बाकी लोगों से वे ये सब बातें सुनती रहती थी कि कैसे सात समंदर पार से आ कर अंग्रेजों ने हमारे मुल्क पर कब्जा कर लिया था और कैसे अपने मुल्क को उनसे आज़ाद करने के लिए हमारे भारतीय भाई बहन सभी अपनी जानों की परवाह न करते हुए लड़ रहे थे! गांधीजी की बातों से वे कम उम्र में ही प्रभावित हो गई थी। लेकिन एक समय वे दिलों जान से आजाद हिन्द फौज में शामिल होना चाहती थी। शायद वे तय कर नहीं पा रही थी कि किसके साथ मिल कर देश बचाने की राह में आगे बढ़े! तभी असम के प्रख्यात गीतकार और नाट्यशिल्पी ज्योति प्रसाद आगरवाला जी द्वारा गठित ‘मृत्यु बाहिनी’ नामक लड़ो या मरो मानसिकता रखने वाली एक संगठन के बारे में कनक लता बरुआ को पता चला। ये संगठन देशप्रेमी और जांबाज युवक युवतियों से भरा हुआ था।
-उमंग पोद्दार
साल 2023 में भारत सरकार ने डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट पारित किया। यह कानून नागरिकों के निजी डेटा की सुरक्षा सुनिश्चित करने के मकसद से लाया गया था।
कई मसौदों पर विचार के बाद अगस्त 2023 में यह विधेयक संसद के दोनों सदनों में पारित हुआ और इसके बाद इसे राष्ट्रपति की मंजूरी मिली।
हालांकि, कानून के बनने के बाद से ही इसकी आलोचना हो रही है। आलोचकों में पत्रकार भी शामिल हैं, जिनका मानना है कि इस कानून से पत्रकारिता की स्वतंत्रता प्रभावित हो सकती है।
बीते 28 जुलाई को कई पत्रकार संगठनों ने इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (एमईआईटीवाई) के सचिव एस कृष्णन से मुलाकात की। इस बैठक में उन्होंने सरकार से कानून के कुछ प्रावधानों में संशोधन की मांग की।
फिलहाल डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट लागू नहीं हुआ है। इस कानून में कई ऐसे प्रावधान हैं, जिन पर केंद्र सरकार को नियम बनाने होंगे।
जनवरी 2025 में सरकार ने इस क़ानून से संबंधित ड्राफ्ट रूल्स जारी किए थे, जिन पर अभी विचार किया जा रहा है।
आइए समझते हैं कि यह क़ानून क्या है और इसके लागू होने से पत्रकारिता पर क्या और किस तरह का असर पड़ सकता है।
क्या है कानून?
साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने निजता को एक मौलिक अधिकार का दर्जा दिया था, जिसके बाद यह क़ानून लाया गया। इस क़ानून के तहत अगर कोई भी व्यक्ति या संगठन किसी के व्यक्तिगत डेटा का इस्तेमाल करता है, तो उसे कुछ शर्तों का पालन करना होगा।
मिसाल के तौर पर किसी का भी निजी डेटा लेने से पहले उस व्यक्ति से सहमति लेनी होगी, डेटा का इस्तेमाल वैध मक़सद के लिए करना होगा और साथ ही डेटा की सुरक्षा का भी ध्यान रखना होगा। इसके मुताबिक, कोई व्यक्ति अपना निजी डेटा देने के बाद उसे हटवाने की भी माँग कर सकता है।
इस कानून का उल्लंघन करने पर 250 करोड़ रुपये तक का जुर्माना लग सकता है। सरकार इस जुर्माने को बढ़ाकर 500 करोड़ रुपये तक भी कर सकती है।
निजी डेटा में वह सारी जानकारी शामिल है जिससे किसी की पहचान सार्वजनिक हो सकती है। इसमें नाम, पता, फोन नंबर, तस्वीर, सेहत और वित्तीय मामलों से जुड़ी जानकारी और किसी व्यक्ति की इंटरनेट ब्राउजि़ंग हिस्ट्री जैसे विवरण शामिल हैं। साथ ही, इस क़ानून में डेटा को ‘प्रोसेस’ करने की भी परिभाषा दी गई है। इसमें डेटा इक_ा करना, उसे स्टोर करना और प्रकाशित करना शामिल है।
इस कानून को लागू करने की जि़म्मेदारी केंद्र सरकार की संस्था ‘डेटा प्रोटेक्शन बोर्ड ऑफ इंडिया’ की होगी। यह बोर्ड जुर्माना लगाने, शिकायतों पर सुनवाई करने जैसे कई मामलों में काम करेगा।
पत्रकार क्यों कर रहे हैं विरोध ?
पत्रकार संगठनों का कहना है कि निजी डेटा का इस्तेमाल लगभग हर तरह की पत्रकारिता में होता है।
उदाहरण के तौर पर, अगर कोई पत्रकार किसी अफसर के भ्रष्टाचार पर रिपोर्ट कर रहा है, तो उसमें उस अफसर के निजी डेटा का जि़क्र आ सकता है।
इसलिए पत्रकारों ने इस क़ानून के कई प्रावधानों पर आपत्ति जताई है। जैसे कि इस क़ानून के तहत सरकार कुछ परिस्थितियों में किसी व्यक्ति का डेटा साझा करने का आदेश दे सकती है।
पत्रकारों को आशंका है कि अगर सरकार इस तरह का आदेश जारी करती है, तो उनके गुप्त सूत्रों की पहचान उजागर हो सकती है। कई बार रिपोर्टिंग में ऐसे स्रोत शामिल होते हैं जिनकी गोपनीयता बनाए रखना ज़रूरी होता है।
फरवरी 2024 में एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया ने केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव को चि_ी लिखकर इस कानून के कई प्रावधानों पर चिंता जताई थी। गिल्ड ने लिखा था कि यह क़ानून ‘पत्रकारिता के अस्तित्व के लिए खतरा पैदा कर सकता है।’
अश्विनी वैष्णव केंद्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री हैं।
पत्रकारों का कहना था कि इस क़ानून से इंटरव्यू और दूसरी चीजें प्रभावित न भी हों लेकिन खोजी पत्रकारिता और संवेदनशील रिपोर्टिंग पर इसका असर पड़ सकता है।
25 जून को 22 प्रेस संगठनों और एक हज़ार से ज़्यादा पत्रकारों ने भी सरकार को ज्ञापन भेजा, जिसमें क़ानून में बदलाव की माँग की गई।
इन पत्रकारों में अख़बार, टीवी, यूट्यूब और फ्रीलांसर पत्रकार शामिल हैं।
पत्रकारों की क्या माँग है?
पत्रकारों की माँग है कि पत्रकारिता के कार्यों के लिए इस कानून से छूट दी जानी चाहिए। वर्तमान में कुछ उद्देश्यों, जैसे अपराध की जाँच के लिए डेटा प्रोटेक्शन कानून से छूट दी गई है।
जब इस कानून का पहला ड्राफ्ट साल 2018 में प्रकाशित हुआ था, तब उसमें पत्रकारिता से संबंधित कई प्रावधानों से छूट दी गई थी।
साल 2019 में जब यह विधेयक पहली बार संसद में पेश हुआ, तब भी ऐसी छूट दी गई थी। इसी तरह साल 2021 के ड्राफ्ट बिल में भी पत्रकारिता के लिए कुछ छूट थी।
हालांकि, साल 2023 में जब यह कानून पारित किया गया, तो पत्रकारिता से जुड़ी छूट हटा दी गई। यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसा क्यों किया गया।
पत्रकारों ने सरकार से इस पर जवाब माँगा है। इसके साथ ही पत्रकार संगठनों का कहना है कि 'पत्रकार की परिभाषा' को केवल मीडिया संस्थानों में काम करने वाले लोगों तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए।
एडिटर्स गिल्ड ने अपनी चि_ी में यह भी उल्लेख किया है कि यूरोप और सिंगापुर जैसे देशों के डेटा प्रोटेक्शन कानूनों में पत्रकारिता को छूट दी गई है। इस विषय पर 2018 की जस्टिस बी। एन। श्रीकृष्ण कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया था कि अगर पत्रकारों को डेटा प्रोटेक्शन क़ानून का पूरी तरह पालन करना पड़ा, तो इसका अर्थ होगा कि कोई व्यक्ति अपने ख़िलाफ़ रिपोर्ट के लिए सहमति नहीं देगा।
30 जुलाई को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया की उपाध्यक्ष, पत्रकार संगीता बरुआ पिशारोती ने बताया कि उन्होंने 28 जुलाई को इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के सचिव से मुलाकात की थी।
उनके अनुसार, ‘सरकार की ओर से कहा गया है कि इस क़ानून से पत्रकारों को कोई मुश्किल नहीं होगी। मंत्रालय के सचिव ने हमें एफएक्यूज (फ्रीक्वेंटली आस्क्ड क्वेश्चन्स) तैयार करके देने को कहा है।’
उन्होंने कहा कि पत्रकार संगठन क़ानून में संशोधन की माँग कर रहे हैं और तब तक पत्रकारों को इससे अस्थाई तौर पर छूट दी जानी चाहिए।
भारतीय तकनीकी संस्थान (आईआईटी) मद्रास के शोधकर्ताओं की एक टीम ने कृषि के कचरे से बढिय़ा गुणवत्ता वाली एक ऐसी बायोडिग्रेडेबल पैकेजिंग सामग्री विकसित की है जो प्लास्टिक के इस्तेमाल को खत्म कर सकती है।
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी का लिखा-
आईआईटी मद्रास के रिसर्चरों की टीम का दावा है कि यह शोध प्लास्टिक प्रदूषण और कृषि कचरे के निपटान जैसी दो प्रमुख समस्याओं का स्थायी समाधान कर समाज और पर्यावरण में सकारात्मक बदलाव लाने में सक्षम है। प्लास्टिक के विपरीत यह मिट्टी में घुल सकता है। आईआईटी मद्रास की शोधकर्ता सैंड्रा रोज बीबी, विवेक सुरेंद्रन और डॉ। लक्ष्मीनाथ कुंदानती की यह शोध रिपोर्ट 'बायोसोर्स टेक्नोलॉजी रिपोर्ट्स' के जून अंक में छपी है। इस अध्ययन के लिए आईआईटी के अलावा केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने जरूरी रकम मुहैया कराई थी।
कौन है इस खोज के पीछे
आईआईटी मद्रास में डिपार्टमेंट ऑफ एप्लाइड मेकैनिक्स एंड बायोमेडिकल इंजीनियरिंग में असिस्टेंट प्रोफेसर और प्रमुख शोधकर्ता डा। लक्ष्मीनाथ कुंडानती ने एक अन्य शोधकर्ता के साथ मिल कर नेचरवर्क्स टेक्नोलॉजीज नामक एक स्टार्ट-अप की स्थापना की है। इसका मकसद नए उत्पादों को विकसित कर उनके व्यावसायिक उत्पादन को बढ़ावा देना है।
डॉ. कुंदानती डीडब्ल्यू से बातचीत में बताते हैं, ‘अब हम इस तकनीक के प्रचार-प्रसार और बड़े पैमाने पर इसका लाभ उठाने के लिए भागीदारों की तलाश कर रहे हैं। ऐसे समझौतों के तहत भागीदारों को तकनीक का हस्तांतरण भी किया जाएगा।’ उनका कहना था कि कृषि और कागज के कचरे पर उगाए गए माइसीलियम-आधारित यह बायोकंपोजिट पैकेजिंग सामग्री बेहतर गुणवत्ता के साथ ही बायोडिग्रेडेबल भी होते हैं।
वो कहते हैं कि अब हमारा लक्ष्य इस तकनीक के प्रसार के लिए सरकारी वित्तीय सहायता वाली योजनाएं हासिल करना और इस शोध का ठोस सकारात्मक सामाजिक प्रभाव सुनिश्चित करना है। डा। कुंदानती बताते हैं, "भारत में हर साल करीब 350 मिलियन टन से ज्यादा कृषि कचरा पैदा होता है। इसमें से ज्यादातर को जला दिया जाता है या सडऩे के लिए छोड़ दिया जाता है। इससे बड़े पैमाने पर जिससे वायु प्रदूषण तो होता ही है, बेशकीमती संसाधन भी बर्बाद होते हैं।’
यहां इस बात का जिक्र प्रासंगिक है कि हर साल हरियाणा और आसपास के इलाकों में पराली जलाने के कारण दिल्ली समेत पूरे एनसीआर इलाके में बड़े पैमाने पर वायु प्रदूषण फैलता है। इस दौरान हवा की गुणवत्ता में भारी गिरावट दर्ज की जाती है।
ईको फेंडली होने के साथ-साथ किफायती भी
शोधकर्ताओं का कहना है कि इस शोध का मकसद किफायती और पर्यावरण-अनुकूल पैकेजिंग विकल्प तैयार करना है। यह पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले प्लास्टिक की जगह लेने के साथ ही पर्यावरण की सेहत सुधारने में अहम भूमिका निभा सकता है। इसके व्यावसायिक उत्पादन से रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे।
डॉ. कुंदानती बताते हैं, ‘कृषि कचरे से तैयार इस कंपोजिट को संशोधित करने के बाद थर्मल और ध्वनि इन्सुलेशन सामग्री तैयार करने जैसे इंजीनियरिंग की विभिन्न शाखाओं में भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है।’
शोधकर्ताओं की टीम की सदस्य सांद्रा रोज बीबी डीडब्ल्यू को बताती हैं, ‘पहले जितने शोध कार्य हुए हैं उनमें एकल सब्सट्रेट या फंगस पर ध्यान केंद्रित किया जाता रहा था। लेकिन हमने फंगस की दो किस्मों का इस्तेमाल करते हुए पांच सब्सट्रेटों पर इसके असर का तुलनात्मक अध्ययन किया। इस शोध से यह बात सामने आई कि कार्डबोर्ड, लकड़ी का बुरादा, कागज, कोकोपीथ और घास जैसे अलग-अलग सब्सट्रेट माइसेलियल के विकास के घनत्व और दूसरी चीजों को कैसे प्रभावित करते हैं। उसके बाद उनमें से बेहतर या आदर्श सबस्ट्रेट-फंगस कंबीनेशन को चुना गया।’
आईआईटी मद्रास आईआईटी मद्रास
शोधकर्ता टीम के एक अन्य सदस्य विवेक सुरेंद्रन डीडब्ल्यू को बताते हैं, ‘हमारा नजरिया सर्कुलर इकोनॉमी के अनुरूप था। हमारा मकसद कम कीमत वाले कृषि और कागज के कचरे को उच्च कीमत वाले बायोडिग्रेडेबल पैकेजिंग सामग्री में बदलना था। इसके साथ ही इसके यांत्रिक गुणों को पेट्रोलियम से पैदा होने वाले फोम के बराबर या उससे बेहतर बनाए रखने की भी चुनौती थी।’
-मुकीमुल अहसन
बीते साल बड़े पैमाने पर एक विरोध प्रदर्शन के जरिए डेढ़ दशक पुरानी अवामी लीग सरकार के पतन के बाद से बांग्लादेश की कूटनीति में काफी बदलाव आया है।
शेख हसीना की सरकार के जाने के बाद लंबे समय से सहयोगी रहे भारत के साथ संबंधों में तनाव भी आया है। बीते एक साल में बांग्लादेश की विदेश नीति भारत से हटकर चीन के नज़दीक जाती दिखी है। इसके साथ ही, पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने की कोशिश भी देखी गई है।
इस बीच बांग्लादेश के साथ भारत के आर्थिक और व्यापारिक संबंध भी बिगड़े हैं और सीमा पर भी संघर्ष की स्थिति पैदा हुई है। शेख़ हसीना सरकार के गिरने के बाद से भारत की ओर से सीमा के अंदर लोगों को धकेलने के कई मामले सामने आए हैं।
राजनयिकों और विश्लेषकों का कहना है कि बीते एक साल में बांग्लादेश का सबसे बड़ा कूटनीतिक बदलाव किसी ‘एक देश पर केंद्रित विदेश नीति’ से पीछे हटना है।
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के शिक्षक प्रोफेसर साहब इनाम खान ने बीबीसी बांग्ला से कहा, ‘बांग्लादेश की नई सरकार पहले से ज़्यादा व्यावहारिक हो गई है। किसी ख़ास देश-केंद्रित विदेश नीति से हटने के कारण बांग्लादेश का भू-राजनीतिक महत्व भी बढ़ गया है।’
विश्लेषकों का मानना है कि पिछले साल के विरोध प्रदर्शनों के दौरान हुई हत्याओं पर संयुक्त राष्ट्र के फैक्ट-फाइंडिंग मिशन की रिपोर्ट, प्रोफेसर यूनुस के लिए एक बड़ी कूटनीतिक सफलता है।
इस बीच, इस बात पर काफी चर्चा है कि डोनाल्ड ट्रंप के दोबारा सत्ता में आने के बाद सभी देशों पर लगाए गए टैरिफ़ से बांग्लादेश कैसे निपटेगा।
हालांकि म्यांमार में रोहिंग्या मुद्दे को लेकर प्रोफेसर मोहम्मद यूनुस की सरकार की आलोचना भी हुई है।
अंतरिम सरकार के पहले साल में कूटनीति के क्षेत्र में बांग्लादेश कितना सफल रहा, यह सवाल भी उठ रहा है।
भारत के साथ संबंधों में ‘ठंडापन’
पिछले डेढ़ दशक में अवामी लीग सरकार के दौरान भारत-बांग्लादेश संबंधों के जिस ऊंचाई पर पहुंचने की बात कही जा रही थी, वह भी 5 अगस्त 2024 को शेख़ हसीना की सरकार के गिरने के साथ लगभग ढह गई। रिश्ते सुधरने के बजाय और धीरे-धीरे बिगड़ते चले गए।
बांग्लादेश में तख़्तापलट के बाद से भारतीय मीडिया और सोशल मीडिया पर अल्पसंख्यकों और हिंदुओं के खिलाफ हमलों और अत्याचारों की खबरों और अफ़वाहों ने भी दोनों देशों के रिश्तों की गिरावट में भूमिका निभाई।
पूर्व राजनयिक एम हुमायूं कबीर ने बीबीसी बांग्ला को बताया, ‘बांग्लादेश से भागकर भारत गईं शेख़ हसीना के खिलाफ बांग्लादेशी अदालतों में मुक़दमा चल रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना दिल्ली में कई बार राजनीतिक बयान देती देखी गई हैं। इस वजह से भी दोनों देशों के रिश्ते और जटिल हो गए।’
इस साल अप्रैल में बैंकॉक में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख सलाहकार प्रोफेसर यूनुस के बीच हुई बैठक में भी इस मुद्दे पर चर्चा हुई थी।
इसके अलावा, पिछले एक साल में दोनों पड़ोसी देशों के बीच आर्थिक और वाणिज्यिक संबंधों में कई बदलाव आए हैं। पिछले एक साल में, भारत और बांग्लादेश ने एक-दूसरे पर कई व्यापारिक प्रतिबंध भी लगाए हैं।
भारत ने बांग्लादेशी नागरिकों के लिए वीजा नियम भी कड़े कर दिए हैं। खासतौर पर, शेख हसीना के सत्ता से हटने के बाद पर्यटक वीज़ा जारी करना निलंबित कर दिया गया है। बहुत कम बांग्लादेशियों को सिफऱ् इलाज के लिए भारत वीजा दे रहा है। पहले लगभग 20 लाख बांग्लादेशी हर साल इलाज, शिक्षा, व्यापार और पर्यटन जैसे कई उद्देश्यों के साथ भारत जाते थे।
पहले की तुलना में अब वीजा स्वीकार करने की दर में 80 फीसदी से अधिक की कमी आई है। पिछले साल दिसंबर में अगरतला में बांग्लादेश सहायक उच्चायोग कार्यालय पर हुए हमले के बाद भी काफी नाराजगी देखी गई थी।
बांग्लादेश में जिस घर को सत्यजीत रे के परिवार का बताया जा रहा है, आखिर वह किसका है?
बांग्लादेश-चीन संबंधों की स्थिति क्या है?
सत्ता से बेदख़ल होने से पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख हसीना ने जुलाई 2024 की शुरुआत में चीन का दौरा किया था। तख्तापलट के बाद अंतरिम सरकार के सत्ता में आने के बाद प्रमुख सलाहकार प्रोफेसर मोहम्मद यूनुस ने जिस देश की अपनी पहली राजकीय यात्रा मार्च में की, वह चीन की थी।
उस यात्रा के दौरान बांग्लादेश में चीनी निवेश, नदी प्रबंधन और रोहिंग्या संकट जैसे कई मुद्दों पर चर्चा हुई और दोनों देशों के बीच कई समझौतों और ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किए गए।
बातचीत के दौरान चीन ने कहा कि वह मोंगला बंदरगाह के विकास पर काम करेगा। अतीत में चीन और भारत इस परियोजना को अमली जामा पहनाने कोशिश करते रहे हैं। विश्लेषकों का मानना है कि चीन अब अकेले पूरा काम कर सकता है।
इलाज के लिए चीन का रुख
भारत की यात्रा के लिए वीजा से जुड़ी मुश्किलें पैदा होने की वजह से चीन अब बांग्लादेशी मरीज़ों के लिए एक नया केंद्र बनने का प्रयास कर रहा है।
चीनी सरकार ने कुनमिंग में चार अस्पतालों को बांग्लादेशियों के इलाज के लिए तय कर किया है।
बांग्लादेश के साथ संबंध सुधारने के लिए चीन के कई कदमों में बांग्लादेशी राजनेताओं, पत्रकारों और विभिन्न व्यवसायों के लोगों को देश की यात्रा पर ले जाना भी शामिल है।
इसके तहत चीन ने पिछले साल बीएनपी, जमात-ए-इस्लामी, एनसीपी और वामपंथी संगठनों के नेताओं को अपने देश की यात्रा पर बुलाया है।
दूसरे शब्दों में कहें तो चीन ने बांग्लादेश और भारत के बीच राजनयिक संबंधों की कमी का फ़ायदा उठाया है। प्रोफेसर साहब इनाम ख़ान ने बीबीसी बांग्ला को बताया, ‘चीन के लिए बांग्लादेश का महत्व पहले भी उतना ही था जितना अब है। हालांकि, भारत पर निर्भरता कम होने के कारण चीन बांग्लादेश को विशेष महत्व दे रहा है। ऐसा लगता है कि चीन इस समय न केवल सरकार के साथ, बल्कि राजनीतिक दलों के साथ भी ख़ास रिश्ते बना रहा है।’
विश्लेषकों के अनुसार, चीन बांग्लादेश के साथ अपने संबंधों को उसी स्तर पर ले जाना चाहता है, जिस स्तर पर हसीना के दौर में भारत-बांग्लादेश के रिश्ते थे। साथ ही, बांग्लादेश भी चीन के साथ संबंधों को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा है, जिसे कुछ लोग प्रोफ़ेसर यूनुस सरकार की कूटनीतिक सफलता मानते हैं।
पाकिस्तान के साथ संबंधों में सुधार
पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच संबंध हमेशा से एक संवेदनशील मुद्दा रहा है। हालांकि, अवामी लीग के दौर में और खासकर युद्ध अपराधों के मुक़दमों के दौरान, दोनों देशों के बीच संबंध तेज़ी से बिगड़ते चले गए। हालांकि, शेख हसीना सरकार के पतन के बाद से जिस तरह भारत के साथ रिश्ते ठंडे पड़ गए हैं, उसी तरह पाकिस्तान के साथ मुश्किल रिश्तों पर जमी बफऱ् पिघल गई है। दोनों देशों के बीच अप्रैल में विदेश सचिव स्तर की औपचारिक बैठक भी हुई थी। डेढ़ दशक बाद हुई इस बैठक को इस्लामाबाद के साथ संबंधों को मज़बूत करने की एक दिशा के रूप में देखा जा रहा है। बैठक में बांग्लादेश ने 1971 में पाकिस्तानी सशस्त्र बलों के बांग्लादेश के ख़िलाफ़ किए गए कथित नरसंहार के लिए पाकिस्तान से औपचारिक माफ़ी की मांग की, साथ ही तीन लंबित मुद्दों का समाधान करने की भी मांग की।
बीते साल जून में बीजिंग में हुई चीनी विदेश सचिव स्तरीय बैठक में बांग्लादेश और पाकिस्तान भी शामिल थे। इस दौरान एक त्रिपक्षीय गठबंधन बनाने पर चर्चा होने की ख़बरें थीं। हालांकि, बाद में विदेश मंत्रालय ने घोषणा की कि बांग्लादेश इस गठबंधन का हिस्सा नहीं होगा।
28 जुलाई को न्यूयॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान बांग्लादेश और पाकिस्तान के बीच हुई बैठक में द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने का संकल्प लिया। देश में सत्ता बदलने के बाद पाकिस्तान ने बांग्लादेश के साथ संबंधों को मजबूत करने के प्रयास किए हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय संबंध विश्लेषक इसे ‘सजावटी’ मानते हैं।
प्रोफेसर साहब इनाम खान ने बीबीसी बांग्ला को बताया, ‘बांग्लादेश के साथ पाकिस्तान के रिश्ते बहुत ही बयानबाज़ी भरे हैं। भविष्य में शायद बांग्लादेश-पाकिस्तान संबंधों को व्यावसायिक पहलुओं से फ़ायदा हो सकता है।’ हालांकि, उनका यह भी कहना है कि बांग्लादेश की विदेश नीति के मुताबिक़, दुनिया के किसी भी देश के साथ सामान्य राजनयिक संबंध बनाए रखना महत्वपूर्ण है।
80 साल पहले जापान पर हुए परमाणु बम हमले से जिंदा बचे लोग यानी ‘हिबाकुशा’ अब कम ही बचे हैं। इसलिए कहानीकारों की एक नई पीढ़ी उनकी जगह ले रही है जो दुनिया को उन हमलों का दर्द कभी भूलने नहीं देना चाहती।
डॉयचे वैले पर जूलियान रायल का लिखा-
जापान के हिरोशिमा में 6 अगस्त को और नागासाकी में 9 अगस्त को परमाणु बम हमलों की बरसी पर श्रद्धांजलि समारोह आयोजित किए जा रहे हैं। इन समारोहों में पूरी दुनिया से हजारों लोगों के शामिल होने की उम्मीद है। हालांकि, एक दुखद सच यह भी है कि पिछले साल के मुकाबले इस बार ‘हिबाकुशा’ यानी हमलों में बचे हुए लोगों की संख्या कम होगी।
मार्च में जारी एक सरकारी रिपोर्ट में पुष्टि की गई है कि अब सिर्फ 99,130 हिबाकुशा जीवित हैं, जो पिछले साल की तुलना में 7,695 कम हैं। इसकी वजह यह है कि बढ़ती उम्र अब उनकी संख्या को कम करती जा रही है। फिलहाल, जीवित बचे लोगों की औसत आयु 86।13 वर्ष है।
दुनिया में अब तक सिर्फ एक बार युद्ध में परमाणु हथियारों का इस्तेमाल हुआ है। समय के साथ यह चिंता बढ़ रही है कि इन हमलों की भयावहता और असर, उन्हें अपनी आंखों से देखने वाले लोगों की कहानियों के साथ कहीं गुम न हो जाए। इसी को ध्यान में रखते हुए, कई संग्रहालय, अलग-अलग संगठन और लोग इन कहानियों को हमेशा के लिए जिंदा रखने के लिए आगे आ रहे हैं। वे चाहते हैं कि आने वाली पीढिय़ां भी इन दर्दनाक घटनाओं के बारे में जाने और परमाणु हथियारों के खतरों को समझ सकें।
शुन सासाकी को लगा कि वह अपने गृहनगर पर हुए परमाणु हमले और उसके बाद की भयावहता को दुनिया तक पहुंचाने में मदद कर सकते हैं। हैरानी की बात है कि उन्होंने अगस्त 2021 से ही हिरोशिमा मेमोरियल पीस पार्क के मुख्य स्थलों के बारे में विदेशी पर्यटकों को बताना शुरू कर दिया था। उस समय उनकी उम्र महज आठ साल थी। आज भी, 12 साल की उम्र में वह यही काम कर रहे हैं।
शुन सासाकी अपने गृहनगर पर हुए परमाणु हमले और उसके बाद की भयावहता को दुनिया तक पहुंचाने में मदद कर रहे हैंशुन सासाकी अपने गृहनगर पर हुए परमाणु हमले और उसके बाद की भयावहता को दुनिया तक पहुंचाने में मदद कर रहे हैं।
सासाकी ने डॉयचे वेले से फर्राटेदार अंग्रेजी में बात करते हुए कहा, ‘जब मैं स्कूल में पहली कक्षा में था, तो मैंने परमाणु बम डोम को देखा। वह बहुत बुरी हालत में था, तो मैंने सोचा कि इसे क्यों नहीं हटाया गया? फिर मैंने इंटरनेट पर खोज की और पीस मेमोरियल म्यूजियम जाकर उस बम के बारे में जाना, जो यहां गिराया गया था।’
गृहनगर की त्रासदी ने झकझोर दिया
अपने गृहनगर के दुखद इतिहास को लेकर सासाकी की रुचि तब और बढ़ गई, जब उन्हें पता चला कि उनकी परदादी 6 अगस्त, 1945 के हमले में बच गई थीं, लेकिन बाद में कैंसर से उनकी मृत्यु हो गई। उन्होंने कहा, ‘जब बम गिराया गया था, तब वह 12 साल की थीं। अपने घर के अंदर थीं, जो हाइपोसेंटर से लगभग 1।5 किलोमीटर दूर था। वह जली नहीं थीं, लेकिन रेडिएशन के संपर्क में आ गई थीं। जब उन्हें बाहर निकाला जा रहा था, तब वह ‘काली बारिश' की चपेट में आ गई थीं।
दरअसल, ‘काली बारिश’ धूल, बम से लगी आग की कालिख और रेडियोएक्टिव कणों का खतरनाक मिश्रण थी। बम फटने के बाद कई घंटों तक यह शहर पर बारिश के रूप में गिरी थी। सासाकी की परदादी, युरिको, 38 साल की उम्र में स्तन कैंसर और 60 साल की उम्र में कोलन कैंसर से पीडि़त हो गई थीं। 69 साल की उम्र में उनका निधन हो गया।
शुन सासाकी को उनके पहले जन्मदिन के मौके पर अंग्रेजी सीखने के खिलौने दिए गए थे। वे चार साल की उम्र तक आते-आते अंग्रेजी में बात करना सीख गए थे। आज वे कहते हैं कि उन्हें जापानी के बजाय अंग्रेजी बोलना ज्यादा पसंद है। इससे उन्हें उन विदेशी लोगों से बात करने का भी मौका मिलता है, जो हिरोशिमा आते समय 1945 की घटना को लेकर पहले से ही कुछ धारणाएं बनाए होते हैं।
सासाकी उन्हें बताते हैं कि कैसे ‘लिटिल बॉय' नामक यूरेनियम बम, परमाणु बम डोम के करीब ठीक ऊपर फटा था। उस बम से लगभग 15 किलो टन टीएनटी के बराबर ऊर्जा निकली थी। विस्फोट के बाद 1।3 किलोमीटर के दायरे में आने वाली लगभग हर इमारत नष्ट हो गई थी और हर व्यक्ति मारा गया था। अनुमान है कि शुरुआती विस्फोट में या उसके बाद के महीनों में गंभीर रूप से जलने या रेडिएशन के संपर्क में आने से लगभग 1,40,000 लोग मारे गए।
सासाकी ने बताया, ‘बहुत से लोग मुझे बताते हैं कि वे हिरोशिमा यह सोचकर आए थे कि उन्हें पूरी कहानी पता है और सिर्फ शहर को बुरी तरह नुकसान पहुंचा था। लेकिन फिर वे कहते हैं कि उन्हें नहीं पता था कि असल में क्या हुआ था।’
-दिनेश उप्रेती
चीन की सीमा से लगे उत्तराखंड के उत्तरकाशी जि़ले में मंगलवार को भूस्खलन और अचानक आई बाढ़ में बड़ी जनहानि होने की आशंका जताई जा रही है।
सोशल मीडिया पर घटना के जो वीडियो वायरल हैं, उनमें स्थानीय लोग चिल्लाकर एक-दूसरे को आपदा की चेतावनी और जान बचाकर भागने की अपील करते हुए सुने जा सकते हैं।
वीडियो में देखा जा सकता है कि कैसे घर और कई मंजि़ला इमारतें पानी और इसके साथ आए मलबे के तेज बहाव में ताश के पत्तों की तरह ढह गई।
उत्तराखंड सरकार का दावा है कि राहत और बचाव कार्य ज़ोर-शोर से चलाए जा रहे हैं और इसमें आपदा प्रबंधन बलों के अलावा, सेना और अर्धसैनिक बलों की मदद भी ली जा रही है।
इन सबके बीच जो सबसे ज़्यादा चर्चा में है वो है खीर गंगा नदी जो भागीरथी में जाकर मिलती है।
धराली उत्तरकाशी जि़ले का एक कस्बा है और गंगोत्री की ओर बढ़ते हुए हर्षिल घाटी का हिस्सा है। ये घाटी चारधामों में से एक गंगोत्री धाम की यात्रा पर जाने वाले लोगों के लिए एक अहम पड़ाव भी है।
यहां से गंगोत्री तकरीबन 20 किलोमीटर दूर है। भौगोलिक स्थिति की बात करें तो यह समुद्र तल से लगभग 3100 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, और अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए मशहूर है।
धाराली कस्बे में हिमालय की ऊंची चोटियों में उतरकर आती है खीर गंगा। यूँ तो यह तकरीबन पूरे साल शांत और धीमे प्रवाह में बहती है, लेकिन बरसात में अपना उग्र रूप दिखा देती है।
मंगलवार को खीर गंगा ने जैसा रौद्र रूप दिखाया, इतिहास के जानकार और भूगर्भ विज्ञानी भी मानते हैं कि पहले भी खीर गंगा में भीषण बाढ़ आ चुकी है।
भूगर्भ विज्ञानी प्रोफेसर एसपी सती बताते हैं कि 1835 में खीर गंगा में सबसे भीषण बाढ़ आई थी। तब नदी ने सारे धराली कस्बे को पाट दिया था। बाढ़ से यहां भारी मात्रा में मलबा (गाद) जमा हो गया था। उनका दावा है कि अभी जो भी बसावट है वह उस समय नदी के साथ आई गाद पर स्थित है।
पिछले कुछ सालों में भी खीर गंगा में पानी का तेज बहाव आने की घटनाएं हुई हैं, कई घर इस बाढ़ में बहे भी हैं, लेकिन कोई जनहानि नहीं हुई थी।
खीर गंगा नाम की कहानी
हिमालयी इतिहास और पर्यावरण के विशेषज्ञ माने जाने वाले इतिहासकार डॉ शेखर पाठक भी मानते हैं कि ये इलाका बेहद संवेदनशील है और भूस्खलन और एवलांच जैसे हादसों की संभावना यहां बनी रहती है।
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘हिमालय की चौखंभा वेस्टर्न रेंज का ये इलाका है। साल 1700 में जब गढ़वाल में परमार राजवंश का शासन था। तब भी बड़ा भूस्खलन होने से झाला में 14 किलोमीटर लंबी झील बन गई थी और इसका प्रमाण आज भी देखा जा सकता है, क्योंकि यहां भागीरथी ठहरी हुई लगती है।’
डॉक्टर पाठक बताते हैं कि 1978 में धराली से नीचे उत्तरकाशी की तरफ आते हुए 35 किलोमीटर दूर डबराणी में एक डैम टूट गया था, इससे भागीरथी में बाढ़ आ गई थी और कई गांव बह गए थे।
इसके बाद धराली और आसपास के इलाकों में कई बार बादल फटने, भूस्खलन की घटनाएं हुई, लेकिन कोई बड़ी जनहानि नहीं हुई थी।
रही बात, खीर गंगा के नाम को लेकर सोशल मीडिया पर चल रही कई कहानियों की तो शेखर पाठक इन्हें बस ‘सुनी-सुनाई बातें’ ही मानते हैं।
उन्होंने कहा, ‘ये नदी पहले ग्लेशियर और फिर घने जंगलों से होकर बहती है इसलिए इसका पानी शुद्ध रहता है। मतलब कई दूसरी नदियों की तरह इसमें चूने का पानी मिला हुआ नहीं है। इसलिए इसे खीर नदी कहा जाता है।’
भारत में रिफाइनरियों ने सस्ते रूसी कच्चे तेल से मोटा मुनाफा बनाया है. हालांकि, यही सस्ता रूसी कच्चा तेल अब वैश्विक व्यापार में भारत के लिए चुनौती बन चुका है.
डॉयचे वैले पर अविनाश द्विवेदी का लिखा-
डॉनल्ड ट्रंप भारत पर रूस से कच्चे तेल की खरीद कम करने के लिए लगातार दबाव बढ़ाते जा रहे हैं। फिलहाल भारत, रूस के कच्चे तेल का सबसे बड़ा आयातक है। ऐसे में कई लोगों को डर था कि कभी-ना-कभी पश्चिम के देशों और रूस के बीच भारत के बैलेंसिंग एक्ट का ये हश्र जरूर होगा। अब ट्रंप ने आरोप लगाया है कि भारत के जरिए रूस को जो विदेशी मुद्रा मिलती है, वो रूस को यूक्रेन में युद्ध लडऩे में मदद करती है। ट्रंप ने यह भी कहा कि भारत को फर्क नहीं पड़ता कि यूक्रेन में रूस का युद्ध कितने लोगों को मार रहा है।
हालांकि, ट्रंप की ओर से लगातार किए जा रहे जबानी हमलों का जमीन पर अभी कोई खास असर नहीं दिखा है। रूस पर कार्रवाई के ट्रंप के बयान को लेकर मॉस्को ने कहा है कि व्लादिमीर पुतिन को संदेह है कि ट्रंप अपनी धमकी को सच्चाई में बदलेंगे। वहीं, ब्लूमबर्ग का डेटा दिखा रहा है कि ट्रंप की धमकी के बावजूद रूस से होने वाले कच्चे तेल के निर्यात पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ा है। भारत ने ना सिर्फ रूसी तेल खरीदना जारी रखा है, बल्कि अमेरिका के साथ यूरोपीय संघ को भी अपने बयानों में निशाना बनाना शुरू किया है।
रूसी तेल के सबसे बड़े खरीदार
रूसी तेल के तीन सबसे बड़े खरीदार देश हैं: चीन, भारत और तुर्की। रूसी कच्चा तेल ना सिर्फ इन देशों की आंतरिक ऊर्जा जरूरतों को फायदा पहुंचा रहा है, बल्कि इनके रिफाइनर भी फायदा कमा रहे हैं। तमाम धमकियों के बाद भी ये सभी पीछे हटने की कोई मंशा नहीं दिखा रहे हैं।
जब जनवरी 2023 में यूरोपीय संघ ने रूस से समुद्र के जरिए आने वाले तेल का बायकॉट किया था, तब से इसकी ज्यादा बिक्री यूरोप के बजाए एशिया में होने लगी। तब से अब तक रूस से कुल ऊर्जा खरीद की बात करें, तो चीन इस मामले में नंबर एक पर है।
चीन ने रूस से करीब 220 अरब डॉलर का रूसी तेल, गैस और कोयला खरीदा है। इसके बाद नंबर है भारत का, जिसने रूस से अब तक करीब 135 अरब डॉलर के ऊर्जा उत्पाद खरीदे हैं। इसके बाद 90 अरब डॉलर के आंकड़े के साथ तुर्की है। हालांकि, यूक्रेन पर रूसी हमले से पहले भारत, रूस से लगभग ना के बराबर कच्चा तेल खरीदता था।
तेल कारोबार में भारत के हाथ जले
दुर्लभ खनिजों के मामले में अभी अमेरिका की निर्भरता चीन पर काफी ज्यादा है। कुछ हफ्तों पहले ही ट्रंप की शी जिनपिंग से फोन पर हुई बातचीत के बाद अमेरिका को ये दुर्लभ खनिज फिर से मिलने शुरू हुए हैं। विश्लेषकों के अनुसार, इसीलिए ट्रंप चीन पर बहुत आक्रामक नहीं हो रहे हैं, लेकिन भारत को आड़े हाथों लेने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं।
जाहिर है फिलहाल भारत के खिलाफ अमेरिका का रुख देखकर तुर्की की सांसें भी ऊपर-नीचे जरूर हो रही होंगी। फिर भारत ने रूसी तेल खरीदते हुए रूस और पश्चिमी ताकतों के बीच अपने बैलेंसिंग एक्ट का काफी शोर मचाया था। दूसरी ओर तुर्की, रूसी कच्चा तेल खरीदते हुए भी चुप साधकर बैठा हुआ था।
इन बड़े खरीदारों के अलावा कुछ छोटे खरीदार भी हैं। मसलन हंगरी, जो पाइपलाइन के जरिए थोड़ा रूसी कच्चा तेल खरीदता है। हंगरी तो यूरोपीय संघ का सदस्य भी है। हालांकि, इसके राष्ट्रपति विक्टर ओरबान रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों के मुखर आलोचक रहे हैं।
-प्रमोद भार्गव
भगवान भोले नाथ का गुस्सा, प्रतीक रूप में मौत के तांडव नृत्य में फूटता है। देवभूमी उत्तराखंड में शिव के इस तांडव नृत्य का सिलसिला केदारनाथ में 2013 में आई प्राकृतिक आपदा के बाद अभी भी जारी है। उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले की खीर गंगा नदी और धराली में बादल फटने और हर्शिल के तेल गाड़ नाले में बाढ़ आने से बड़ी तबाही हुई है। इन प्राकृतिक आपदाओं को हमें इसी गुस्से के प्रतीक रूप में देखने की जरूरत है। धराली में तो 50 से ज्यादा घर, 30 होटल और 30 होमस्टे मलबे में बदल गए। जो खीर नदी 10 मी. चौड़ी थी, वह जल प्रवाह से 39 मी. चौड़ी हो गई। अतएव जो भी सामने पड़ा उसे लीलती चली गई। प्रशासन चार लोगों की मौत और 100 से अधिक लोगों के लापता होना बता रहा है। लेकिन हिमालय के बीचोंबीच बसा खूबसूरत धराली गांव में सैलाब नीचे उतरते हुए दिखा, उससे लगता है, मौतें कहीं अधिक हुई हैं। प्रलय इतनी तीव्रता से आया की उसकी कान के पर्दे फाड़ देने वाली गर्जना सुनने के बाद लोगों को बचने का समय ही नहीं मिल पाया। अब धराली मलबे में दफन हैं।
इस भूक्षेत्र के गर्भ में समाई प्राकृतिक संपदा के दोहन से उत्तराखंड विकास की अग्रिम पांत में आ खड़ा हुआ था, वह विकास भीतर से कितना खोखला था, यह इस क्षेत्र में निरंतर आ रही इस आपदाओं से पता चलता है। बरिश, बाढ़, भूस्खलन, बर्फ की चट्टानों का टूटना और बदलों का फटना, अनायास या संयोग नहीं है,बल्कि विकास के बहाने पर्यावरण विनास की जो पृश्ठभूमि रची गई, उसका परिणाम है। तबाही के इस कहर से यह भी साफ हो गया है कि आजादी के 78 साल बाद भी हमारा न तो प्राकृतिक आपदा प्रबंधन प्राधिकरण आपदा से निपटने में सक्षम है और न ही मौसम विभाग आपदा की सटीक भविश्यवाणी करने में समर्थ हो पाया है। यह विभाग केरल और बंगाल की खाड़ी के मौसम का अनुमान लगाने का दावा तो करता है, किंतु भारत के सबसे ज्यादा संवेदनशील क्षेत्र हिमालय में बादल फटने की भी सटीक जानकारी नहीं दे पाता है। जबकि धराली क्षेत्र में एक साथ दो जगह बादल फटे और कुछ मिनटों में हुई तेज बारिश ने श्रीखंड पर्वत से निकली खीरगंगा नदी को प्रलय में बदलकर 90 प्रतिशत गांव को हिमालय के गर्भ में समा दिया।
बादल फटना अनायास जरूर है, लेकिन ये करीब 10 किमी व्यास की परिधि में फटने के बाद अतिवृष्टि का कारण बनते हैं। 10 सेंटीमीटर या उससे अधिक बारिश को बादल फटने की घटना के रूप में पारिभाषित किया जाता है। बादल फटने की घटना के दौरान किसी एक स्थान पर एक घंटे के भीतर, उस क्षेत्र में होने वाली औसत, वार्षिक वर्षा की 10 प्रतिशत से अधिक बारिश हो जाती है। मौसम विभाग वर्षा का पूर्वानुमान कई दिन या माह पहले लगा लेते हैं। लेकिन मौसम विज्ञानी बादल फटने जैसी बारिश का अनुमान नहीं लगा पाते। इस कारण बादल फटने की घटनाओं की भविष्यवाणी भी नहीं करते हैं।
समृद्धि, उन्नति और वैज्ञानिक उपलब्धियों का चरम छू लेने के बावजूद प्रकृति का प्रकोप धरा के किस हिस्से के गर्भ से फूट पड़ेगा या आसमान से टूट पड़ेगा, यह जानने में हम बौने ही हैं। भूकंप की तो भनक भी नहीं लगती। जाहिर है, इसे रोकने का एक ही उपाय है कि विकास की जल्दबाजी में पर्यावरण की अनदेखी न करें। लेकिन विडंबना है कि घरेलू विकास दर को बढ़ावा देने के मद्देनजर अधोसंरचना विकास के बहाने देशी-विदेशी पूंजी निवेश को बढ़वा दिया जा रहा है। पर्यावरण संबधी स्वीकृतियों राज्य सरकारें अब अनदेखा करने लगी हैं। इससे साबित होता है कि अंतत: हमारी वर्तमान अर्थव्यस्था का मजबूत आधार अटूट प्राकृतिक संपदा और खेती ही हैं। लेकिन उत्तराखंड हो या प्राकृतिक संपदा से भरपूर अन्य प्रदेश उद्योगपतियों की लॉबी जीडीपी और विकास दर के नाम पर पर्यावरण सबंधी कठोर नीतियों को लचीला बनाकर अपने हित साधने में लगी हैं। विकास का लॉलीपॉप प्रकृति से खिलवाड़ का करण बना हुआ है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में आई इन तबाहियों का आकलन इसी परिप्रेक्ष्य में करने की जरूरत है।
उत्तराखंड, उप्र से विभाजित होकर 9 नवंबर 2000 को अस्तिव में आया था। 13 जिलों में बंटे इस छोटे राज्य की जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 1 करोड़ 11 लाख है। 80 फीसदी साक्षरता वाला यह प्रांत 53,566 वर्ग किलोमीटर में फैला है। उत्तराखंड में भागीरथी, अलकनंदा, गंगा और यमुना जैसी बड़ी और पवित्र मानी जाने वाली नादियों का उद्गम स्थल है। इन नादियों के उद्गम स्थलों और किनारों पर पुराणों में दर्ज अनेक धार्मिक व सास्ंकृतिक स्थल हैं। इसलिए इसे धर्म-ग्रंथों में देवभूमि कहा गया है। यहां के वनाच्छादित पहाड़ अनूठी जैव विविधता के पर्याय हैं। तय है,उत्तराखंड प्राकृतिक संपदाओं का खजाना है। इसी बेशकीमती भंडार को सत्ताधारियों और उद्योगपतियों की नजर लग गई है, जिसकी वजह से प्रलय जैसे प्रकोप बार-बार इस देवभूमि में बर्बादी की आपदा वर्शा रहे हैं।
उत्तराखंड की तबाही की इबारत टिहरी में गंगा नदी पर बने बड़े बांध के निर्माण के साथ ही लिख दी गई थी। नतीजतन बड़ी संख्या में लोगों का पुश्तैनी ग्राम-कस्बों से विस्थापन तो हुआ ही, लाखों हेक्टेयर जंगल भी तबाह हो गए। बांध के निर्माण में विस्फोटकों के इस्तेमाल ने धरती के अंदरूनी पारिस्थिकी तंत्र के ताने-बाने को खंडित कर दिया। विद्युत परियोजनाओं और सडक़ों का जाल बिछाने के लिए भी धमाकों का अनवरत सिलसिला जारी रहा। अब यही काम रेल पथ के लिए सुरंगे बनाने में सामने आ रहा है। विस्फोटों से फैले मलबे को भी नदियों और हिमालयी झीलों में ढहा दिया जाता है। नतीजतन नदियों का तल मलबे से भर गए हैं। दुश्परिणाम स्वरूप इनकी जलग्रहण क्षमता नश्ट हुई और जल प्रवाह बाधित हुआ। अतएव जब भी तेज बारिश आती है तो तुरंत बाढ़ में बदलकर विनाशलीला में तब्दील हो जाती है। बादल फटने के तो केदारनाथ और अब धराली जैसे परिणाम निकलते है। उत्तरकाशी, जोशीमठ में तो निरंतर बाढ़ और भू-स्खलन देखने में आ रहे हैं, इस क्षेत्र के सैंकड़ों मकानों में भूमि घसंकने से बड़ी-बड़ी दरारें आ गई हैं। भू-स्खलन के अलावा इन दरारों की वजह कालिंदी और असिगंगा नदियों पर निर्माणाधीन जलविद्युत और रेल परियोजनाएं भी रही हैं।
भारत के कुल कामगारों में से करीब आधे आज भी कृषि क्षेत्र में काम करते हैं। 140 करोड़ की आबादी का भरण-पोषण करने वाली खेती देश की राजनीति को प्रभावित करने में अहम रोल निभाती है।
डॉयचे वैले पर अविनाश द्विवेदी का लिखा-
पिछले हफ्ते अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने भारत से होने वाले आयात पर 25 फीसदी टैरिफ लगा दिया। सामने आया कि भारत और अमेरिका के बीच तय समयसीमा में समझौता ना हो पाने की सबसे अहम वजह रहे, कृषि उत्पाद। अमेरिका के साथ लंबी चली व्यापार बातचीत के अंत में भारत अपने कृषि उत्पादों के बाजार में उसे उतना हिस्सा देने को तैयार नहीं हुआ, जितना अमेरिका चाहता था।
भारत की जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी करीब 16 फीसदी है। फिर भी भारत के कुल कामगारों में से करीब आधे आज भी इसी क्षेत्र में काम करते हैं। ऐसे में बहुत कमाई वाला क्षेत्र ना होने के बाद भी कृषि भारत में सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार देता है और इस वजह से ये राजनीतिक रूप से बहुत संवेदनशील भी होता है। केंद्र की मजबूत मोदी सरकार को चार साल पहले जिस तरह से विवादित कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा था, वह इस क्षेत्र की राजनीतिक ताकत को दिखाता है।
डॉनल्ड ट्रंप बहुत सारे कृषि उत्पादों के लिए भारतीय बाजार को खोलने का दबाव बना रहे थे, मसलन अमेरिकी डेयरी उत्पाद, पोल्ट्री, मक्का, सोयाबीन, चावल, गेहूं, इथेनॉल, फल और ड्राई फ्रूट्स। भारत अमेरिकी ड्राई फ्रूट्स और सेबों के लिए अपने बाजार को खोलने को तैयार था लेकिन मक्के, सोयाबीन, गेहूं और डेयरी उत्पादों पर बात अटकी हुई थी और इन पर आखिरी वक्त तक सहमति नहीं बन सकी।
जीएम फसलों पर मतभेद
इस बातचीत में सबसे अहम कड़ी ये थी कि अमेरिका से आने वाला ज्यादातर मक्का और सोयाबीन, जेनेटिकली मोडिफाइड यानी जीएम कैटेगरी का होता है। भारत जीएम फसलों को बेचे जाने की अनुमति नहीं देता है।
भारत में आमतौर पर जीएम फसलों को इंसानी सेहत और पर्यावरण के लिए खतरनाक माना जाता है। भारत के सत्ताधारी दल बीजेपी से जुड़े कई कृषि संगठन जीएम फसलों का विरोध करते रहे हैं। यहां तक कि खुद भारत में ही विकसित की गई, ज्यादा उपज देने वाली जीएम सरसों की एक किस्म की व्यापारिक खेती की अनुमति नहीं है क्योंकि इस पर अभी कानूनी लड़ाई चल रही है।
जीएम फसलों की तरह ही डेयरी उत्पाद भी भारत में एक बहुत संवेदनशील मसला हैं। दरअसल भारत के लाखों किसानों की आजीविका डेयरी से आती है। डेयरी बिजनेस से जुड़े बहुत से किसान ऐसे भी हैं, जिनके पास पर्याप्त खेती लायक जमीन नहीं है, या ऐसी बहुत कम जमीन है। भारत में कृषि आज भी बहुत हद तक मानसून पर निर्भर रहती है। ऐसे में खराब मानसून वाले वर्षों में, डेयरी उद्योग ही बहुत से किसानों का आखिरी सहारा होता है।
डेयरी में सांस्कृतिक असहमतियां
भारत, जहां आबादी का बड़ा हिस्सा मांस नहीं खाता। यहां कुछ सांस्कृतिक और सामाजिक स्थितियां भी अमेरिका के लिए डेयरी उद्योग को खोलने में रोड़ा बनीं। भारतीय उपभोक्ताओं की एक चिंता यह भी रही कि अमेरिका में अक्सर जानवरों को मांस आधारित खाना दिया जाता है। यह बात भारतीयों की खाने की आदतों से अलग है।
ज्यादातर खाद्य उत्पादों के मामले में भारत आत्मनिर्भर देश है। बड़े खाद्य उत्पादों में सिर्फ खाद्य तेल है, फिलहाल जिसका बड़ी मात्रा में भारत को आयात करना पड़ता है। तीन दशक पहले खाद्य तेल के आयात में उदारीकरण के बाद, अभी भारत में इस्तेमाल होने वाले कुल खाद्य तेल का दो-तिहाई हिस्सा विदेशों से आयात किया जाता है। भारत ऐसी गलती, अन्य सामान्य कृषि उत्पादों के लिए नहीं करना चाहता है। जबकि भारत के कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स में इन कृषि उत्पादों की हिस्सेदारी करीब आधी है।
अमेरिकी किसानों के सामने नहीं टिकेंगे भारतीय किसान
कुछ जानकारों को डर है कि अमेरिका की ओर से सस्ते कृषि उत्पादों का आयात, स्थानीय कृषि उत्पादों का दाम गिरा देगा और इसके साथ ही विपक्षी पार्टी को सत्ताधारी दल पर हमला करने का अवसर मिल जाएगा। भारत सरकार को यह डर भी है कि जिस तरह की छूट वो अमेरिका को देगी, शायद भारत के साथ व्यापार कर रहे, यूरोपीय संघ, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे ब्लॉक भी वैसी ही छूट अपने लिए भी मांगना शुरू कर देंगे।
भारत और अमेरिका में खेती के तरीकों में भी बहुत अंतर है। इसके चलते भी भारतीय किसान, अमेरिकी किसानों के सामने नहीं ठहर सकते। दरअसल भारत में डेयरी किसानों के लिए काम में आने वाली किसी आम जमीन का इलाका 1।08 हेक्टेयर का है। जबकि अमेरिकी किसान के लिए यह 187 हेक्टेयर का है। वहीं एक आम भारतीय डेयरी किसान के पास दो से तीन मवेशी होते हैं, वहीं एक आम अमेरिकी डेयरी किसान के पास सैकड़ों। इसके अलावा ज्यादातर भारतीय किसान बिना मशीनों वाली पारंपरिक तकनीकों के हिसाब से अपना काम धंधा चलाते हैं। जबकि अमेरिकी किसान टेक्नोलॉजी का बहुत ज्यादा उपयोग करते हैं और उनका डेयरी उद्योग बहुत ज्यादा कुशल है। जानकार मानते हैं कि भारतीय डेयरी किसान उनका मुकाबला नहीं कर पाएंगे।
-ध्रुव गुप्त
यह सर्वमान्य तथ्य है कि किसी व्यक्ति के जीवन में मानसिक शांति, स्थिरता और संतुलन बनाए रखने में उसके सहज और खुले हुए दोस्तों की बहुत बड़ी भूमिका होती है। माता-पिता के आगे हम बचपन में अपने भीतर के बच्चे को और जवानी में दायित्व बोध को ही अभिव्यक्ति देते हैं। भाई-बहनों के साथ हमारा स्नेह और फि़क्र का एकहरा रिश्ता होता है। एक दूसरे के आंतरिक या भावनात्मक मसलों से यहां कोई सरोकार नहीं होता। बच्चों के साथ हमारा संबंध वात्सल्य और जि़म्मेदारी का होता है।
प्रेमी-प्रेमिका के रिश्ते को आमतौर पर सबसे असहज रिश्ता कहा जाता है जहां दोनों पर एक दूसरे के आगे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शित करने का दबाव होता है। इस नाटक में दोनों एक दूसरे को पूरी तरह से जान ही नहीं पाते। प्रेम विवाहों के ज्यादातर असफल होने की यह बड़ी वजह है। पति और पत्नी के रिश्ते में व्यावहारिकता, जि़म्मेदारी और समझौते ज्यादा, खुलापन बहुत कम होता है। दांपत्य के ऐसे मामले दुर्लभ ही हैं जहां पति और पत्नी एक दूसरे को स्पेस देने को तैयार हों। इसी वजह से इस रिश्ते में वक़्त के साथ एकरसता आ जाती है जिसका अंत दुनियादार लोगों के लिए बोझिल समझौतो में और भावुक लोगों के लिए विवाहेतर संबंधों में होता है।
एक दोस्ती का रिश्ता ही ऐसा है जिसमें दो लोगों के भीतर और बाहर, दुख और सुख, अच्छा और बुरा सब एक दूसरे के आगे पूरी तरह खुले होते हैं। कोई बनावट नहीं। कोई दुराव नहीं। औपचारिकता नही। प्यार करने का मन किया तो प्यार कर लिया। लडऩे का मन किया तो लड़ लिया। एक दूसरे का संपूर्ण स्वीकार। ऐसे दोस्त मुश्किल से मिलते हैं लेकिन यदि मिल गए तो जीवन में मानसिक अशांति और तनाव की कोई जगह भी नहीं। दोस्ती के रिश्ते को ऐसे ही संपूर्ण रिश्ता नहीं कहा जाता है। आप सबको मित्रता दिवस की शुभकामनाएं !
-ओंकारेश्वर पांडेय
दिशोम गुरु शिबू सोरेन चले गए। 10 बार सांसद, 3 बार मुख्यमंत्री, और उससे भी बढ़कर—वो शख्स जिसने तीर-कमान से नहीं, बल्कि संघर्ष और अपनी सियासी चालों से बिहार के आदिवासियों को उनका हक दिलाया। अलग झारखंड का सपना उठाने वाले कई थे, पर उसे सच करने वाला सिर्फ एक नाम था—दिशोम गुरु।
लोग कहते हैं, “गुरुजी सिर्फ नेता नहीं थे, आंदोलन की आत्मा थे।” उनके समर्थकों के लिए वे एक विचार थे, एक प्रतिरोध की पहचान।
नेमरा से उठी हुंकार, जिसने पूरा बिहार हिला दिया
भारतीय राजनीति में झारखंड आंदोलन दरअसल आदिवासी पहचान की वह कहानी है, जिसे दिशोम गुरु ने खून-पसीने से लिखा।
11 जनवरी 1944 को रामगढ़ के नेमरा गांव में जन्मे शिबू सोरेन ने बचपन में साहूकारों की लूट देखी, खनन कंपनियों का लालच देखा। 1969 का अकाल, जब सरकारी गोदामों में अनाज सड़ रहा था और आदिवासी भूख से मर रहे थे, ने उनके भीतर ज्वाला भर दी। उन्होंने कसम खाई—“जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ी जाएगी।”
नेमरा (रामगढ़) की गलियों से उठी उनकी आवाज़ ने 1960–70 के दशक में आवाम को झकझोरा। जब धनकटनी आंदोलन शुरू हुआ, तब आदिवासी महिलाएँ खेतों से धान काटकर ले जाती थीं, पुरुष तीर-कमान लिए पहरे पर खड़े रहते थे। पर सिस्टम भी था—सरेंडर, गिरफ्तारी, गिरफ्तारी वारंट तक जारी।
उनकी शुरुआत छोटी थी, पर असर बड़ा। धान जब्ती आंदोलन से शिबू सुर्खियों में आए। साहूकारों के गोदामों से अनाज निकालना, तीर-कमान लिए आदिवासी पहरेदारों का पहरा—यह केवल विरोध नहीं था, यह सिस्टम को सीधी चुनौती थी।
एक दिन शिबू सोरेन पारसनाथ के जंगलों में छिप गए, वहीं से आंदोलन चला—“बाहरी” लोगों को निकालो, “झारखंड को शोषण से मुक्त करो”—सपनों के इस आंदोलन ने उन्हें ‘दिशोम गुरु’ की पहचान दी।
1973 में उन्होंने ए.के. रॉय और बिनोद बिहारी महतो के साथ झारखंड मुक्ति मोर्चा बनाई। उस समय उनके नारे गूंजते थे—“हमारी जमीन हमारी है, कोई दीकु (बाहरी) नहीं छीन सकता।”
इसके साथ ही झारखंड आंदोलन तेज होने लगा।
उस समय JMM का बनना कोई आसान बात नहीं थी—राजनीतिक विरोध, विभाजन और मानसिक खींचतान के बीच उन्होंने पार्टी को जीवंत रखा। तब लालू यादव ने 1998 में कहा था, “झारखंड मेरी लाश पर ही बनेगा,”।
लेकिन शिबू सोरेन ने सभी विरोधों को पार करते हुए, कांग्रेस, RJD और BJP से गठबंधन बनाया और बातचीत से राज्य का मामला संसद तक पहुँचाया।
राजनीति के शतरंज में माहिर खिलाड़ी
शिबू सोरेन ने समझ लिया था कि झारखंड का सपना सिर्फ जंगलों में धरना देकर पूरा नहीं होगा, इसके लिए दिल्ली की सत्ता के दरवाजे खोलने होंगे। और यही उन्होंने किया।
1989 में वी.पी. सिंह की सरकार को समर्थन, 1993 में नरसिम्हा राव को अविश्वास मत से बचाना, फिर 1999 में वाजपेयी की NDA सरकार से डील—शिबू हर बार सही मोड़ पर सही दांव खेलते रहे। कहते हैं, “गुरुजी का भरोसा सिर्फ लिखित वादों पर था, शब्दों पर नहीं।”
और हुआ भी वही।
15 नवंबर 2000 को बिहार से अलग होकर झारखंड बना। जयपाल सिंह मुंडा ने आंदोलन की शुरुआत की थी, लेकिन उसे मंज़िल तक पहुंचाने वाला नाम था शिबू सोरेन।
कॉरपोरेट से जंग, जीती भी, हारी भी
शिबू सोरेन की राजनीति का मूल था—आदिवासी पहचान और जल-जंगल-जमीन की रक्षा। उन्होंने सरहुल जैसे त्योहारों को विरोध का मंच बनाया। खदान मजदूरों को संगठित किया और खनन कंपनियों की नाक में दम किया। उनकी पहल पर PESA कानून आया, जिसने ग्राम सभाओं को जमीन पर फैसला लेने का अधिकार दिया। 2006 का वन अधिकार कानून भी उनकी जिद का नतीजा था।
सरहुल जैसे त्योहारों को विरोध-अवसर में बदला, कंपनियों की चौकी को बाधित किया। लेकिन फिर भी व्यापार-शक्ति रास्ते में आई— कॉरपोरेट का कॉकस नहीं टूटा। खनिज संपदा पर कंपनियों की पकड़ कायम रही। झारखंड से अरबों का कोयला और लौह अयस्क दिल्ली तक गया, पर गांवों तक सिर्फ गरीबी पहुंची।
यही विडंबना है—राज्य तो बना, पहचान मिली, पर आर्थिक न्याय अब भी अधूरा है।
झारखंड देश के सबसे समृद्ध खनिज राज्यों में है। कोयले, लौह अयस्क और अन्य खनिजों से केंद्र को सालाना 40-45 हजार करोड़ से ज्यादा का हिस्सा मिलता है, जबकि राज्य को खुद के टैक्स से करीब 34 हजार करोड़ की आमदनी होती है। केंद्र से टैक्स शेयर और ग्रांट्स मिलाकर राज्य को कुल राजस्व का लगभग आधा हिस्सा ही मिलता है।
— स्थानीय कर-रकम 34 हजार करोड़
— टैक्स शेयर एवं ग्रांट 45–50 हजार करोड़
आसान शब्दों में—खनिज निकलता है झारखंड से, फायदा जाता है दिल्ली को। यही सबसे बड़ी लड़ाई रही है। और यह लड़ाई आज भी जारी है।
मुकदमे, सज़ा और जनता का अटूट विश्वास
दिशोम गुरु का सफर सियासत और मुकदमों की सफेद-स्याह परछाइयों और विवादों से भरा रहा।
1975 में ‘बाहरी-विरोधी अभियान’, जिसमें 11 मौतें हुईं, उन पर हत्या का आरोप लगा। 1993 के अविश्वास मत में रिश्वत का आरोप, 1994 में उनके निजी सचिव शशिनाथ झा की हत्या का मामला—2006 में सजा हुई, फिर 2007 में बरी हुए।
“आरोप जितने भी लगे, शिबू सोरेन बरी हो गए।”
फिर भी जनता ने उनका साथ नहीं छोड़ा। जेल से निकलकर भी चुनाव जीते। तीन बार मुख्यमंत्री बने। दस बार सांसद रहे। पार्टी के एक नेता कहते हैं—“एक आदिवासी जब खड़ा होता है, तो उसे राजनीति में फंसाया भी जाता है। हेमंत सोरेन को भी जेल में डाला गया। पर क्या साबित हुआ? जनता अब इन चालों को अच्छी तरह समझने लगी है।”
शिबू सोरेन के उपर मुकदमे, सज़ा और विवादों का बोझ था, पर जनता ने उनका साथ नहीं छोड़ा।
उनके योगदान को लोग याद करते हैं— उन्होंने झारखंड का सपना रखा, आदिवासी पहचान को राष्ट्रीय विमर्श में रखा, और सबसे बड़ी बात— कारपोरेट पावर को चुनौती दी।
आज के दौर में विकास की जो रफ़्तार है, वह आर्थिक अधिकारों के सवाल को और गहरा कर देती है—क्या राज्य की खनिज संपदा उसी जनता को लाभान्वित कर पाएगी जिसने इसे जन्म दिया?
गुरुजी चले गए, पर सवाल वहीं हैं।
-मयूरेश कोण्णूर
‘महाराष्ट्र विशेष जनसुरक्षा विधेयक 2024’ पर राज्य में विवाद गहराता जा रहा है। विपक्ष ने इस कानून को ‘अर्बन नक्सल’ के नाम पर विरोध की आवाज को दबाने की कोशिश बताया है।
10 जुलाई को महाराष्ट्र विधानसभा में एक ऐसा विधेयक पारित हुआ जिसे हालिया समय के सबसे विवादास्पद कानूनों में गिना जा रहा है।
यह विधेयक ‘वामपंथी उग्रवाद’ से निपटने के नाम पर लाया गया है। इसे ‘शहरी नक्सलवाद’ के खिलाफ कदम बताकर सरकार ने प्रचारित किया है, लेकिन विधानसभा से लेकर सडक़ों तक इसे लेकर विरोध हो रहा है।
मुख्यमंत्री और गृह मंत्री देवेंद्र फडणवीस का पेश किया गया ‘महाराष्ट्र विशेष जनसुरक्षा विधेयक 2024’ विधानसभा में बहुमत से पारित हुआ। अगले ही दिन यह विधान परिषद में भी पास हो गया।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने बिल का बचाव करते हुए कहा है कि विशेष जनसुरक्षा बिल का मकसद सरकार की आलोचना करने वालों पर कार्रवाई करना नहीं है। लेकिन उन्होंने चेतावनी दी कि जो लोग अर्बन नक्सल जैसी गतिविधियों में शामिल होंगे, उन्हें इस क़ानून के तहत गिरफ़्तार किया जाएगा।
विपक्ष ने सदन से वॉकआउट कर इसका विरोध किया। यह विधेयक अब क़ानून बनने के लिए राज्यपाल की मंज़ूरी का इंतज़ार कर रहा है।
राज्य सरकार का कहना है कि यह विधेयक ‘वामपंथी चरमपंथ’ या उनसे जुड़े समान संगठनों की ‘अवैध गतिविधियों’ पर लगाम लगाने के लिए लाया गया है।
महाराष्ट्र ऐसा कानून बनाने वाला पहला राज्य नहीं है। इससे पहले तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा इस तरह के विशेष सुरक्षा कानून लागू कर चुके हैं।
इस विधेयक पर इतना विवाद क्यों?
बीजेपी के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने इसे लागू करने को लेकर सख्त रुख अपना रखा है।
वहीं विपक्षी दलों, सामाजिक और राजनीतिक संगठनों, आंदोलनकारियों और कई क़ानूनी विशेषज्ञ इसके प्रावधानों, इसकी मंशा और ज़रूरत पर सवाल उठा रहे हैं।
सत्तापक्ष पहले से यह कहता रहा है कि ‘शहरी नक्सलियों’ के खिलाफ कार्रवाई के लिए अलग कानून की जरूरत है। ‘यह शब्दावली’ पुणे के भीमा कोरेगांव और एल्गार परिषद मामले के बाद ज्यादा उभरकर सामने आई, जिसमें कई वामपंथी विचारों से जुड़े लेखक, पत्रकार और कार्यकर्ता गिरफ्तार हुए।
हालांकि कानून की मुख्य धारा में ‘शहरी नक्सल’ या ‘नक्सलवाद’ जैसे शब्द नहीं हैं, लेकिन विधेयक के स्टेटमेंट ऑफ ऑब्जेक्टिव में इसका जिक्र है।
इसमें कहा गया है, ‘नक्सलवाद का ख़तरा केवल नक्सल प्रभावित दूरदराज़ के इलाकों तक सीमित नहीं है, बल्कि शहरी इलाक़ों में भी नक्सली फ्रंटल संगठनों के जरिए इसकी मौजूदगी बढ़ रही है।’
सीएम देवेंद्र फडणवीस ने विधानसभा में कहा कि मौजूदा कानून अपर्याप्त थे, इसलिए नया कानून लाना जरूरी था।
उन्होंने कहा, ‘छत्तीसगढ़, आंधप्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा जैसे चार राज्यों ने ऐसे कानूनों के तहत 48 संगठनों पर बैन लगाया है। महाराष्ट्र में ऐसे 64 संगठन हैं, जो देश में सबसे ज़्यादा हैं। एक भी वामपंथी उग्रवादी संगठन पर अब तक प्रतिबंध नहीं लगा है। राज्य उनके लिए सुरक्षित शरणस्थल बन गया है।’ इन अपराधों के लिए दो से सात साल तक की सज़ा और दो से पांच लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है। इसमें बिना वारंट गिरफ़्तारी संभव है जो गैऱ-जमानती है।
उद्धव ठाकरे ने भी इस क़ानून का विरोध किया है
इस विधेयक के तहत ‘अवैध गतिविधि’ की परिभाषा है-‘जो गतिविधि सार्वजनिक व्यवस्था, शांति और सौहार्द को खतरे में डाले; क़ानून व्यवस्था या प्रशासनिक ढांचे में बाधा डाले; या आपराधिक ताक़त से किसी सरकारी कर्मचारी को भयभीत करने के इरादे से हो, वो ‘अवैध’ की श्रेणी में मानी जाएगी, भले ही वह लिखे गए या बोले गए शब्दों के रूप में हो।’
फडणवीस ने कहा, ‘कोई व्यक्ति केवल तब गिरफ़्तार हो सकता है जब वह प्रतिबंधित संगठन से जुड़ा हो। अकेले व्यक्ति के खिलाफ यह क़ानून लागू नहीं होगा। इसके तहत सरकार मनमर्जी से कार्रवाई नहीं कर सकती।’
साथ ही इस क़ानून के तहत अगर किसी संगठन को ‘अवैध’ घोषित किया जाता है, तो उसे एक सलाहकार बोर्ड की मंज़ूरी लेनी होगी, जिसकी अध्यक्षता हाई कोर्ट के वर्तमान या पूर्व न्यायाधीश करेंगे।
इस विधेयक पर क्या हैं आपत्तियां?
कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि इस कानून में कई परिभाषाएँ अस्पष्ट हैं और उनके दायरे को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है। ‘अवैध गतिविधि’ की व्याख्या इतनी व्यापक है कि इसका मनमाने ढंग से इस्तेमाल किया जा सकता है।
शिवसेना (उद्धव गुट) प्रमुख उद्धव ठाकरे ने कहा, ‘इस कानून में ‘नक्सलवाद’ या ‘आतंकवाद’ जैसे शब्दों का जिक्र किए बिना ‘अवैध गतिविधियों’ की एक बेहद अस्पष्ट श्रेणी बना दी गई है। किसी की भी गतिविधि को अवैध बताकर व्यक्ति को गिरफ़्तार किया जा सकता है।’
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित लेख में राजनीतिक विश्लेषक सुहास पलशीकर लिखते हैं,’ नए क़ानून में ’अवैध’ गतिविधियों की परिभाषा है-‘किसी कार्य या शब्द या संकेत या दृश्य प्रस्तुति के माध्यम से किया गया कोई कृत्य’। यानी बोलने की आजादी को भी अपराध की श्रेणी में लाने की मंशा है।’
उनके साथ कई शिक्षाविदों और विशेषज्ञों ने भी इस कानून पर गंभीर सवाल उठाए हैं।
पलशीकर आगे लिखते हैं, ‘पहला खतरा यह है कि किसी भी विचारधारा या राजनीतिक विरोधी की ओर से की गई मामूली शिकायत पर भी पुलिस सक्रिय हो सकती है। दूसरा, किसी भी बौद्धिक गतिविधि को इस कानून की परिभाषा में लाया जा सकता है।’
जब यूएपीए पहले से है, तो नए कानून की जरूरत क्यों?
‘गैर-कानूनी गतिविधियाँ रोकथाम अधिनियम’ (यूएपीए) कानून पहले से मौजूद है और इसे कई संवेदनशील मामलों और कथित वामपंथी उग्रवाद की घटनाओं में लागू किया गया है।
कई कार्यकर्ताओं पर इस कठोर कानून के तहत मुकदमा चल रहा है, जिसके तहत अपराध गैर-जमानती होता है।
मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के मुताबिक़, ‘यूएपीए में किसी संगठन पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार नहीं है, यह सिर्फ व्यक्ति पर लागू होता है।’
‘जब कुछ मामलों में यूएपीए लागू किया गया, तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इसे तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक कोई आतंकी घटना न हुई हो। जब यह स्पष्ट हो गया कि यूएपीए पर्याप्त नहीं है, तब केंद्र ने राज्यों को ऐसा अलग क़ानून बनाने का सुझाव दिया।’
हालांकि, कई क़ानूनी विशेषज्ञ इस तर्क से सहमत नहीं हैं।
दूसरे राज्यों के अनुभव और उठे सवाल
बॉम्बे हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश सत्यरंजन धर्माधिकारी ने ‘लोकसत्ता’ में एक लेख में कहा है कि इस नए क़ानून के प्रावधान पहले से ही ‘गैर-कानूनी गतिविधियाँ रोकथाम अधिनियम’ (यूएपीए), 1967 में मौजूद हैं, जिसे बाद में कई बार संशोधित किया गया और आतंकवाद से जुड़े मामलों को भी इसमें शामिल किया गया।
धर्माधिकारी सवाल उठाते हैं कि जब यूएपीए पहले से लागू है, तो ऐसे ही उद्देश्य वाला एक और नया क़ानून बनाना कितना तर्कसंगत है?
उनका कहना है, ‘अगर यूएपीए पहले से मौजूद था, तो फिर नक्सलवाद राज्यभर में कैसे फैल गया? अगर यूएपीए के तहत कार्रवाई की गई, तो फिर उन्हें मदद कैसे मिलती रही? कई गिरफ़्तार हुए, लेकिन मुकदमा नहीं चला, इसलिए जमानत पर छूट गए। फिर भी सरकार को लगता है कि नया कानून जरूरी है।’
धर्माधिकारी यह भी चेतावनी देते हैं कि ‘अवैध गतिविधि’ की व्याख्या को लेकर न्यायपालिका का रुख़ स्पष्ट है। वो कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट ने साल 1967 के कानून की कुछ धाराओं की व्याख्या करते हुए कहा है कि केवल किसी संगठन के प्रति सहानुभूति या सदस्यता को ‘भागीदारी’ नहीं माना जा सकता।’
उनके मुताबिक, ‘अगर किसी व्यक्ति और संगठन के बीच वैचारिक संबंध है, तो उससे उसकी गतिविधियां अवैध नहीं हो जातीं। ‘अवैध गतिविधि’ कुछ और ठोस रूप में सिद्ध होनी चाहिए। वरना कानून लागू नहीं हो सकता।’