विचार / लेख

-ध्रुव गुप्त
कुछ फिल्मी गीत जीवन की किसी न किसी दौर से ऐसे जुड़ते हैं कि याद रह जाते हैं। पुरानी फिल्म ’अलबेला’ का ’शाम ढले खिडक़ी तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो’ मेरे लिए ऐसा ही एक गीत रहा है। कल रात एक बार फिर से यह गीत सुनकर अपनी बेचारगी के दिन एक बार फिर याद आए। बचपन से लेकर जवानी तक मैंने मुंह से सीटी निकालने की बहुत कोशिशें की, लेकिन असफल रहा।
एक लंबी फुस्स के अलावा मुंह से कभी कुछ निकला ही नहीं। ये तमाम कोशिशें मैंने अकेले में की थी। किसी लडक़ी को देखकर सीटी मारने की हिम्मत तब नहीं थी। पहली बार यह दुस्साहस मुझसे पोस्टग्रेजुएट के दिनों में हो गया। तब बड़े रोमांटिक ख्याल मन में आते थे। एक खूबसूरत लडक़ी को सामने देखकर अपने को रोक नहीं सका और उंगलियां अपने आप होठों तक पहुंच गईं। नतीजे में फिर वही फुस्स की आवाज। लडक़ी मुझे हैरत से देखती हुई आगे बढ़ गई। कुछ दूर जाने के बाद वह पलटी और मेरे ठीक सामने आकर उसने इतनी जोरदार सीटी मारी कि मैं भीतर तक दहल गया।
नारी शक्ति का विस्फोट था वह।फिर दुपट्टे में मुंह दबाकर वह हंसी और चलती बनी। उसकी हंसी का मतलब यह कतई नहीं था कि वह फंस गई। हुआ इतना ही कि उसने फिर कभी पलटकर मुझे नहीं देखा। पढ़ाई खत्म होने तक मै भी उसके सामने जाने का साहस नहीं जुटा पाया। अपमान की टीस इतनी गहरी थी कि उस दिन के बाद किसी लडक़ी को देखकर तो जाने दीजिए, अकेले में भी कभी मुंह से सीटी निकालने की कोशिश नहीं की।
कल रात यह गीत सुनकर सोई हुई हसरत एक बार फिर जाग़ उठी है। इस उम्र में भी सीटी मारने का मन हो आया है। किसी को देखकर नहीं, आईने के सामने खड़े होकर खुद को ही। अब बस एक सिखाने वाले की तलाश है। कोई कायदे का गुरु मिल जाय तो जीवन की यह अधूरी साध भी पूरी कर लूं !