संपादकीय
दुनिया में हिन्दुओं की श्रद्धा के एक सबसे बड़े केन्द्र, आन्ध्रप्रदेश के तिरुपति मंदिर की ताजा खबर दिल दहलाने वाली है। वहां राज्य सरकार ने इस मंदिर में हर दिन बनने वाले तीन लाख लड्डुओं में इस्तेमाल होने वाले कई ट्रक घी को जांच के लिए प्रयोगशाला भेजा, तो पता लगा कि इसमें मछली का तेल, गाय की चर्बी, और सुअर की चर्बी मिली हुई थी। यह घी एक निजी सप्लायर से मंदिर लगातार ले रहा था, जिसके पहले कर्नाटक राज्य के दुग्ध संघ के एक प्रतिष्ठित ब्रांड, नंदिनी का घी मंदिर में इस्तेमाल किया जाता था। यह मंदिर दुनिया में सबसे अधिक कमाई वाला हिन्दू मंदिर है, और यहां रोज करीब पौन लाख दर्शनार्थी भक्त आते हैं। हर दिन करीब साढ़े तीन लाख लड्डू बनते हैं, और राज्य की पिछली जगन मोहन सरकार ने पांच निजी फर्मों को इसके लिए घी सप्लाई करने का ठेका दिया था। अब गुजरात स्थित राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड की प्रयोगशाला ने लड्डुओं और घी की जांच करके बताया है कि इसमें मछली-तेल, गाय और सुअर की चर्बी मिली है। घी के कारोबार में यह जानकारी आम है कि उसके दाम कम करने के लिए लोग उसमें जानवरों की चर्बी मिला देते हैं। कर्नाटक दुग्ध संघ ने मंदिर को दिए जा रहे दूध पर लंबे समय से दी जा रही रियायत जारी रखने से मना कर दिया था, और उसके बाद जगन सरकार के मनोनीत मंदिर ट्रस्ट ने खुले बाजार से घी सप्लाई करने के ठेके तय किए थे। खबरें बताती हैं कि मुख्यमंत्री रहते हुए जगन मोहन रेड्डी ने तिरुपति मंदिर के ट्रस्ट में अपने चाचा और दूसरे किसी रिश्तेदार को भी मनोनीत कर दिया था, और उन्हीं के कार्यकाल में यह घी-में-चर्बी कांड सामने आया है। अब जगन मोहन रेड्डी से बहुत खराब रिश्तों वाली चन्द्राबाबू नायडू की सरकार आन्ध्र में है, और गुजरात में भी भाजपा की सरकार है, और एनडीडीबी केन्द्र सरकार के मातहत सहकारी संघ है, जिसकी प्रतिष्ठित प्रयोगशाला ने यह रिपोर्ट दी है। आन्ध्र में पिछली जगन सरकार के रहते आज के मुख्यमंत्री चन्द्राबाबू नायडू से भयानक बदसलूकी की गई थी, और ऐसे में तमाम राजनीतिक समीकरणों को देखते हुए हो सकता है कि कुछ लोगों को घी की ऐसी जांच रिपोर्ट पर कुछ शक भी हो।
किसी धर्मस्थल पर कुछ सप्लाई करते हुए, या धर्मस्थल की सम्पत्ति में घपला करते हुए किसी को कोई परहेज रहता हो, ऐसा हमें बिल्कुल ही नहीं लगता। हम अपने चारों तरफ मठ-मंदिर, चर्च, मस्जिद, और दूसरे धर्मस्थानों की जमीनों का अवैध कारोबार देखते हैं। अधिकतर धार्मिक स्थानों के ट्रस्टी वहां की जमीनें बेच खाते हैं, प्रतिमाओं के गहने बेच देते हैं, संपत्ति की अफरा-तफरी करते हैं। अगर ईश्वर पर ही उनका भरोसा होता, तो ऐसा करते हुए वे अपने लिए नर्क की गारंटी मान लेते, और इससे दूर रहते। लेकिन उन्हें मालूम है कि ऊपर किसी तरह का कोई नर्क नहीं है, और स्वर्ग की धारणा इसी जमीन पर हकीकत है, अगर ईश्वर के नाम पर जमा पैसा चुराया जाए। फिर अभी तिरुपति में जो नया चर्बीकांड सामने आया है, वह मामूली भ्रष्टाचार से बहुत आगे बढक़र है। इससे तो उन शाकाहारियों की आस्था पर भी चोट लगी है जो कि अपनी धार्मिक या दूसरी किस्म की मान्यताओं के चलते मांसाहार से दूर रहते हैं, यहां तक कि बहुत से लोग अंडे भी नहीं खाते। अब अगर इन बरसों में ऐसे लोगों ने तिरुपति का प्रसाद खाया होगा, तो आज उनके दिल पर क्या गुजर रही होगी? लोग किसी के जन्मदिन के केक को भी यह मानकर छोड़ देते हैं कि उसमें शायद अंडा मिला होगा, अब ऐसे लोग आज अपने बदन के साथ आराम से रह नहीं पाएंगे क्योंकि उसमें गाय और सुअर की चर्बी घुस चुकी है। यह मामला सिर्फ ट्रस्ट को आर्थिक नुकसान पहुंचाने का भ्रष्टाचार नहीं है, यह करोड़ों लोगों की धार्मिक और शाकाहार की भावनाओं को जख्मी करने का भी है। अगर इस पूरे सिलसिले के पीछे कोई राजनीतिक साजिश नहीं है, और अगर ये सैम्पल किसी दूसरी प्रतिष्ठित प्रयोगशाला में भी चर्बी ही साबित करते हैं, तो ऐसे कारोबारियों, और भ्रष्ट ट्रस्टी-अधिकारियों पर बहुत कड़े कानूनों के तहत मुकदमा चलना चाहिए। लोग तो तिरुपति जाकर लौटते हैं, तो वहां का प्रसाद अधिक से अधिक लोगों में बांटते हैं कि इससे उन्हें और अधिक पुण्य मिलेगा। चर्बी का ऐसा कारोबार तो लोगों की आस्था को हिलाकर रख देगा, और इससे बाजार में प्रचलित घी के बहुत से ब्रांड भी नुकसान झेलेंगे। देश में एक चर्चित और विवादास्पद आयुर्वेद ब्रांड भी अपना घी इस दाम पर बेचता है जिस पर घी बनाने की लागत भी नहीं निकल सकती। कई लोगों का शक है कि यह ब्रांड भी इस दाम पर खालिस घी नहीं बेच सकता। तिरुपति से निकला हुआ संदेश तो यही है कि बाजार में मौजूद हर ब्रांड को ठीक से परखा जाए ताकि लोगों की धार्मिक और शाकाहारी भावनाओं की हत्या न हो। फिर इस बात को समझने की जरूरत है कि मांसाहारी लोगों में भी एक बड़ी आबादी ऐसी है जो गाय की चर्बी की कल्पना नहीं कर सकती, दूसरी तरफ एक दूसरे धर्म से जुड़ी हुई आबादी है जो कि सुअर को छूने की भी कल्पना नहीं कर सकती। इस तरह घी के कारोबार में चर्बी को बर्दाश्त करना मुमकिन नहीं है। यह भी समझने की जरूरत है कि जब दुनिया के सबसे बड़े हिन्दू मंदिर में प्रसाद बनाने के लिए चर्बी खपाई जा रही थी, तो फिर बाजार में घी की बड़ी खपत वाले बिस्किट और केक के कारखाने, खानपान की दूसरी चीजों के कारखाने, रेस्त्रां, और फास्ट फूड के कारोबारी पता नहीं क्या-क्या इस्तेमाल करते होंगे।
हम एक बार फिर तिरुपति पर लौटें, तो यह पूरा मामला धर्म के मामले में सरकार चला रहे नेताओं के मनोनीत ट्रस्टियों का मामला है। धर्म और राजनीति का घालमेल बड़ा खतरनाक होता है, और इन दोनों का मेल जानलेवा भी हो सकता है। इससे लोकतंत्र पर भी चोट पहुंचती है, और लोगों के खान पान की आस्था पर भी। धर्म और राजनीति का मेल बहुत किस्म के जुर्म करने की ताकत और मिसाल रखता है, हम अपने आसपास के धार्मिक ट्रस्टों पर काबिज राजनेताओं को देखते हैं, तो उनके लिए ईश्वर के नाम पर हर तरह का जुर्म बड़ा आसान लगता है। हम मंदिर के लड्डुओं में गाय और सुअर की चर्बी को धार्मिक मामले से अधिक शाकाहार का मामला मानना चाहते हैं। धार्मिक आस्था तो कई तरह के जुर्म के साथ-साथ भी चलती है, लेकिन शाकाहार की भावना किसी भी तरह के धार्मिक जुर्म से परे रहती है। तिरुपति के इस मामले में जिम्मेदार लोगों को बहुत कड़ी सजा मिलनी चाहिए, और शाकाहारियों की किसी संस्था को तिरुपति मंदिर ट्रस्ट की तरफ से उन तमाम लड्डुओं के दाम दान में देने चाहिए जो कि इन घी सप्लायरों से आए घी से बनकर बिके हुए लड्डुओं से कमाए गए थे। तिरुपति मंदिर लड्डुओं को बेचता भी है, उसकी रसीद कटती है, सप्लाई का ठेका शुरू होने से अब तक का हिसाब पल भर में निकल आएगा, और उस जुर्माने से शाकाहार की धारणा को बढ़ाया जा सकता है।
कांग्रेस के सबसे बड़े नेता, और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी अभी अमरीका प्रवास पर भारत में सिक्खों की स्थिति पर एक झूठा बयान देकर अभी-अभी पूरी तरह से अवांछित विवाद खड़ा कर चुके हैं, लेकिन राजनीतिक दलों की बखेड़े में फंसने की हसरत खत्म होने का नाम नहीं लेती है। अभी कांग्रेस के एक फैसले ने देश के करीब सौ भूतपूर्व बड़े अफसरों को इस पार्टी के खिलाफ खड़ा कर दिया है। दिलचस्प बात यह है कि जम्मू के चुनावों में जहां भाजपा और कांग्रेस भी दो प्रमुख पार्टियां रहेंगी, वहां पर भाजपा के कटु आलोचक, और कांग्रेस के अधिकतर मुद्दों पर समर्थक रहे हुए हर्षमंदर भी कांग्रेस के खिलाफ हो गए हैं। हर्षमंदर एक भूतपूर्व आईएएस हैं जो गुजरात दंगों के पहले से भाजपा और मोदी के खिलाफ रहते आए हैं, लेकिन अभी जिन 96 अफसरों ने कांग्रेस अध्यक्ष को एक कड़ा विरोधपत्र भेजा है, उस पर हर्षमंदर के भी दस्तखत हैं।
यह विरोधपत्र जम्मू के बसोहली विधानसभा क्षेत्र से चौधरी लाल सिंह नाम के एक आदमी को कांग्रेस का उम्मीदवार बनाने के खिलाफ है। यह आदमी 2018 में भाजपा का मेम्बर था, और जब जम्मू के कठुआ में एक मंदिर में एक गरीब मुस्लिम खानाबदोश बच्ची से पुजारी की अगुवाई में आधा दर्जन से अधिक लोगों ने बलात्कार करके उसे मार डाला था, तो इन तमाम हिन्दू बलात्कारियों को बचाने के लिए जम्मू में तिरंगे और हिन्दू झंडों के साथ जो जुलूस निकलते थे, उनकी अगुवाई चौधरी लाल सिंह करता था। इन भूतपूर्व अफसरों ने कांग्रेस अध्यक्ष को लिखा है कि कठुआ का यह गैंगरेप भारत के ताजा इतिहास का सबसे भयानक नफरती-जुर्म था, और उसके मुजरिमों (बाद में सबको सजा हुई) को बचाने के लिए यही चौधरी लाल सिंह जुलूस निकालता था। उस वक्त भाजपा में रहा हुआ यह आदमी अब इस चुनाव में कांग्रेस का उम्मीदवार बन गया है। इस चिट्ठी में कांग्रेस अध्यक्ष को याद दिलाई गई है कि इस एक घटना ने जनचेतना को ऐसा झकझोरा था जैसा कि बहुत कम साम्प्रदायिक नफरती-जुर्म कर पाते हैं। आज जब देश भर में बलात्कार के जुर्म के खिलाफ जनता बुरी तरह विचलित है उस वक्त इस आदमी को अपना उम्मीदवार बनाकर कांग्रेस पार्टी अपनी वह नैतिक ताकत खो चुकी है जिसे कि वह नफरत और हिंसा के खिलाफ रखने का दावा करती है। इस चिट्ठी पर सौ के करीब आईएएस, आईएफएस, और अखिल भारतीय सेवाओं के भूतपूर्व अफसरों के नाम हैं। इस पर हर्षमंदर के अलावा नजीब जंग, जॉय ओम्मेन, जैसे नाम भी हैं जो कि अलग-अलग समय पर छत्तीसगढ़-एमपी में काम कर चुके हैं। इस पर भूतपूर्व आईएएस अरूणा रॉय, और एन.सी.सक्सेना का नाम भी दिखता है जो कि हर्षमंदर के साथ-साथ यूपीए सरकार के वक्त सोनिया गांधी की अगुवाई वाली एन.ए.सी. (राष्ट्रीय सलाहकार परिषद) के सदस्य थे।
कांग्रेस के लिए यह नौबत एकदम ही भयानक है। हमारा ख्याल है इसके बाद महिलाओं पर हिंसा, और साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर बोलने का कांग्रेस का हक खत्म ही हो जाता है। इसके बाद कांग्रेस पार्टी किस मुंह से दूसरी पार्टियों के पसंदीदा बलात्कारियों की तरफ उंगली उठा सकेगी? एक बात तो यह भी समझ से परे है कि मुस्लिम खानाबदोश बच्ची के गैंगरेप के मुजरिमों को बचाने वाले को कांग्रेस में दाखिल कराना इस पार्टी की कौन सी मजबूरी थी? देश में यह लगातार तीन चुनाव हार ही चुकी है, जम्मू की एक विधानसभा सीट और हार जाने से इस पार्टी का भविष्य प्रभावित नहीं हो रहा था। न ही यह बलात्कार-समर्थक घोर साम्प्रदायिक-हिंसक नेता संसद में एक वोट से सरकार बचाने की हालत में था कि सरकार बचाने उसका साथ ले लिया जाता। यह तो कांग्रेस उम्मीदवार तय करने की बात थी, और पार्टी ने इस सीट पर अपने सारे स्वघोषित नीति-सिद्धांतों का पिंडदान कर दिया है। हमारा मानना है कि देश के रिटायर्ड अफसर इस पार्टी को इसकी नैतिकता याद दिला रहे हैं, और यह खुद उससे परे हो चुकी है। क्या कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी उम्मीदवार छांटते हुए उनके पुराने सार्वजनिक रिकॉर्ड भी नहीं देखती कि वे क्या-क्या करते आए हैं? क्या भाजपा से एक गंदगी कांग्रेस में लाते हुए भी इस पार्टी के भीतर किसी को गांधी-नेहरू की याद नहीं आई?
जम्मू के जानकार लोगों से बात करने पर यह भी पता लगता है कि कठुआ में बलात्कार की शिकार बच्ची की तरफ से अदालत में उसका केस लडऩे वाली एक हिन्दू महिला वकील, दीपिका को वकील तबके का बहिष्कार झेलना पड़ा था, धमकियां झेलनी पड़ी थीं, और इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू की अदालत से हटाकर पंजाब के पठानकोट की अदालत में भेजा था क्योंकि भारी सामाजिक दबाव और तनाव के चलते जम्मू में इसकी निष्पक्ष सुनवाई मुमकिन नहीं थी। बाद में अदालत ने सात में से छह लोगों को कैद सुनाई थी, तीन को 25-25 बरस और तीन को 5-5 बरस। और एक नाबालिग को अलग से जुवेनाइल कोर्ट में सजा सुनाई गई। कांग्रेस का पाखंड यह है कि जिस दिन कठुआ में इन बलात्कारियों को बचाने के लिए इसी चौधरी लाल सिंह की अगुवाई में जुलूस निकला था, उसके अगले दिन दिल्ली में इस बच्ची के बलात्कार-कत्ल के खिलाफ कैंडल मार्च निकल था जिसमें राहुल और प्रियंका दोनों शामिल हुए थे। अब बलात्कारी-बचाओ जुलूस का नेता कांग्रेस का उम्मीदवार है। यह भी याद रखने की बात है कि जम्मू-कश्मीर की उस वक्त की गठबंधन सरकार में यही चौधरी लाल सिंह भाजपा की तरफ से मंत्री था, उसे और भाजपा के एक और मंत्री को बलात्कारी-बचाओ जुलूस की वजह से पार्टी ने मंत्री पद से हटाया था। अब भाजपा की उस गंदगी को कांग्रेस अपने सीने पर मैडल की तरह टांगकर नैतिकता की शोभायात्रा निकाल रही है। जम्मू के लोगों को अच्छी तरह याद है कि जब भारत जोड़ो यात्रा के तहत राहुल गांधी जम्मू में दाखिल हुए थे, तो इसी चौधरी लाल सिंह ने चारों तरफ बड़े-बड़े होर्डिंग सहित राहुल के स्वागत का इंतजाम किया था। यह एक अलग बात है कि राहुल के मंच पर इस आदमी को नहीं आने दिया गया था।
कांग्रेस की यह बड़ी दुखभरी कहानी है जो कि पार्टी के एक बहुत बुरे पतन का सुबूत है। इस आदमी की विधानसभा सीट बसोहली पर वोट 1 अक्टूबर को डलने हैं। नाम वापिसी की तारीख दो दिन पहले निकल चुकी है, और उसके बाद ही इन भूतपूर्व अफसरों ने निराश होकर कांग्रेस अध्यक्ष को चिट्ठी लिखी है। हम राहुल गांधी को बस इतना याद दिलाना चाहते हैं कि 1952 के आम चुनाव में जब नेहरू अपनी पार्टी का चुनाव प्रचार करने गए, और उन्हें चुनावी आमसभा के मंच पर ही पता लगा कि उनका उम्मीदवार एक बुरा इंसान है तो उन्होंने वोटरों से अपील की थी कि कांग्रेस उम्मीदवार को वोट न दें। राहुल गांधी में, और कांग्रेस पार्टी में अगर जरा भी नैतिकता बाकी है, तो उन्हें जम्मू जाकर इस सीट पर अपनी पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ प्रचार करना चाहिए। राहुल को अगर नेहरू की मिसाल से कोई सबक नहीं मिल सकता, तो वे राजनीतिक-नैतिकता में पूरी तरह निरक्षर रह जाएंगे।
छत्तीसगढ़ ने कल एक अलग किस्म का रिकॉर्ड कायम किया है, अपने ही देश भारत सरकार की घोषित नीतियों के खिलाफ जाकर इसकी पुलिस ने मुस्लिमों के ईद मिलादुन्नबी जुलूस में फिलीस्तीन के झंडे लगाने को लेकर जुर्म कायम किया है, और पांच मुस्लिमों को गिरफ्तार भी कर लिया है। पुलिस ने इन लोगों को नए लागू किए गए भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम की धारा 197 (2) के तहत गिरफ्तार किया है। इस कानून को देखें तो यह राष्ट्रीय अखंडता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले, लांछन लगाने, बयान देने, लिखने, या कोई नजारा पेश करने पर लागू होता है। इसका सेक्शन-2 किसी उपासना स्थल में या धार्मिक उपासना या धार्मिक कर्म में लगे हुए किसी जमाव में यही सब काम करने पर लागू होता है, और इसमें पांच बरस तक कैद का प्रावधान है। बिलासपुर के कुछ धर्मान्ध लोगों ने पुलिस में जाकर ईद के मौके पर फिलीस्तीनी झंडे फहराने को देशद्रोह करार करते हुए शिकायत दर्ज कराई थी, और ऐसे वीडियो जारी किए थे कि आतंकियों के हिमायती ऐसे लोगों को बिलासपुर में रहने नहीं दिया जाएगा। पुलिस ने आनन-फानन कुछ मुस्लिम नौजवानों को गिरफ्तार किया, और देश की अखंडता को नुकसान पहुंचाने का यह जुर्म लगा दिया।
यह मौका मुस्लिमों के एक बड़े सालाना त्यौहार ईद मिलादुन्नबी का था, और इस मौके पर फिलीस्तीन के झंडे फहराने का एक संदर्भ भी था। मुस्लिम देश फिलीस्तीन इजराइल के हमलों तले मलबा बन गया है, और 40 हजार से अधिक लोगों को मार डाला गया है। यह बात संयुक्त राष्ट्र संघ पिछले 11 महीनों में सौ से अधिक बार बोल चुका है, और दुनिया के बहुत से देश फिलीस्तीन पर इस जुल्म के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय अदालतों में जा चुके हैं जहां से इजराइल के खिलाफ फैसले हुए हैं। खुद संयुक्त राष्ट्र संघ ने इतने प्रस्ताव इजराइल के खिलाफ पास किए हैं, इतने बार सार्वजनिक रूप से इन हमलों को रोकने की मांग की है कि उसकी गिनती मुमकिन नहीं है। दूरदर्शन की वेबसाइट बताती है कि 22 अक्टूबर 2023 को भारत ने फिलीस्तीनियों के लिए साढ़े 6 टन मेडिकल मदद, और 32 टन आपदा प्रबंधन सामान भारतीय वायुसेना के विमान से भेजा है। फिलीस्तीन घोषित रूप से भारत का एक मित्र देश है, और भारत सरकार की वेबसाइट कहती है कि फिलीस्तीनियों को भारत का समर्थन भारत की नीति का एक अविभाज्य हिस्सा है। 1974 में भारत पहला गैर अरब देश था जिसने फिलीस्तीनी मुक्ति संगठन को मान्यता दी थी, और 1988 में भारत फिलीस्तीनी राज्य को मान्यता देने वाले सबसे पहले देशों में से एक था। इस 15 जुलाई को भारत ने फिलीस्तीनी शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र राहत एजेंसी को 25 लाख डॉलर का योगदान दिया है, और 1974 में भारत ने फिलीस्तीनियों के अधिकारों का समर्थन करते हुए डाक टिकट जारी की थी।
हम यहां पर आज अगर फिलीस्तीन के बारे में गांधी ने क्या-क्या कहा था, उसका जिक्र करेंगे, तो आज देश और इसके कई प्रदेशों की सरकारों को वह बात नहीं सुहाएगी। लेकिन हम इनकी सहूलियत के लिए भारत के विदेश मंत्री बनने के पहले अटल बिहारी वाजपेयी का दिया गया एक ऐतिहासिक भाषण भारत सरकार की संस्था प्रसार भारती के संग्रहालय से लेकर यहां सुनाना चाहते हैं। 1977 के चुनाव की विजय रैली की आमसभा में अटलजी ने मंच और माईक से कहा था- ‘जनता पार्टी की सरकार के बारे में कहा जा रहा है कि वह अरबों का साथ नहीं देगी, इजराइल का साथ देगी, तो इस बारे में प्रधानमंत्री मोरारजी भाई स्थिति को स्पष्ट कर चुके हैं। गलतफहमी को दूर करने के लिए मैं कहना चाहता हूं कि मध्य-पूर्व के बारे में यह स्थिति साफ है कि अरबों की जिस जमीन पर इजराइल कब्जा करके बैठा है वह जमीन उसे खाली करना होगी। आक्रमणकारी आक्रमण के फलों का उपभोग करे, यह हमें अपने संबंध में स्वीकार नहीं है, तो जो नियम हम पर लागू है, वह औरों पर भी होगा। अरबों की जमीन खाली होना चाहिए, जो फिलीस्तीनी है उनके उचित अधिकारों की स्थापना होना चाहिए। इजराइल के अस्तित्व को तो हम भी स्वीकार कर चुके हैं, मध्य-पूर्व का एक ऐसा हल निकालना पड़ेगा जिसमें आक्रमण का परिमार्जन हो, और स्थाई शांति की स्थापना हो, गलतफहमी की गुंजाइश कहां है?’
छत्तीसगढ़ का हाईकोर्ट जिस बिलासपुर शहर में बसा हुआ है, और जहां बैठे जजों ने कल अपने शहर में यह बहुत बड़ा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जुर्म देखा है, अब उनसे इस पर प्रतिक्रिया की हम राह देख रहे हैं। एक छोटे से मुल्क फिलीस्तीन पर लगातार फौजी हमलों से इजराइल ने 40 हजार से अधिक लोगों को मार डाला है, और ये तकरीबन तमाम मुस्लिम लोग हैं। ऐसे फिलीस्तीनियों से एकजुटता दिखाने के लिए पश्चिमी दुनिया में जगह-जगह विश्वविद्यालयों के दीक्षांत समारोहों में लोगों ने फिलीस्तीन के झंडे निकालकर उन्हें लहराया, थामकर फोटो खिंचाई। अनगिनत अंतरराष्ट्रीय खेल मुकाबलों में चैम्पियन खिलाडिय़ों ने फिलीस्तीन के झंडे लहराए। सभ्य दुनिया के लोकतांत्रिक लोगों में से कोई भी ऐसे नहीं है जो कि फिलीस्तीनियों के हमदर्द न हों। ऐसे में छत्तीसगढ़ के हाईकोर्ट के शहर में अगर घोर धर्मान्ध ताकतें एक मुस्लिम त्यौहार पर फिलीस्तीनियों से एकजुटता और हमदर्दी दिखाने के लिए उनके झंडे लगाने को राष्ट्रीय अखंडता पर हमला करार देती हैं, तो हमारा मानना है कि ये सुप्रीम कोर्ट में हेट-स्पीच के खिलाफ चल रहे मामले के तहत गुनहगार ताकतें हैं, और बिलासपुर पुलिस को मुस्लिमों और इन झंडों के खिलाफ प्रदर्शन करने वाली साम्प्रदायिक ताकतों पर सुप्रीम कोर्ट के हुक्म के मुताबिक हेट-स्पीच का जुर्म दर्ज करना चाहिए था, लेकिन उसने एक मित्र राष्ट्र के झंडे लगाने पर जुर्म कायम करके गिरफ्तारियां करके खुद ही देश की अखंडता को नुकसान पहुंचाया है, और एक मित्र राष्ट्र के साथ भारत के संबंधों को नुकसान पहुंचाया है। इसलिए हमारा मानना है कि बिलासपुर पुलिस पर 197 (2) के तहत सोच-समझकर राष्ट्रीय अखंडता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने का जुर्म तुरंत ही दर्ज किया जाना चाहिए। कल जैसे ही यह खबर आई हमने बिलासपुर के एक बड़े पुलिस अफसर से बात करते हुए यह याद दिलाया कि फिलीस्तीन तो भारत का मित्र राष्ट्र है, उसके झंडे फहराना जुर्म कैसे हो गया, तो उनका कहना था कि यह अदालत को तय करने दीजिए। यह हैरान करने वाली बात है कि अब अदालत यह तय करेगी कि फिलीस्तीन भारत का मित्र राष्ट्र है या नहीं? बिलासपुर पुलिस को अगर धर्मान्ध और साम्प्रदायिक ताकतों की तरफ से कोई शिकायत मिली थी, तो अक्ल का इस्तेमाल करते हुए, कानून के मुताबिक उसे खारिज कर देना था, लेकिन पुलिस ने इस साम्प्रदायिकता के घोड़े पर सवार होकर मुस्लिमों को जिस तरह रौंदा है, वह सुप्रीम कोर्ट के हेट-स्पीच आदेश के तहत भी जुर्म है, और देश की अखंडता को नुकसान पहुंचाना तो है ही।
पिछले कुछ महीनों में मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तरप्रदेश, और जम्मू-कश्मीर में फिलीस्तीनी झंडे फहराने को लेकर तरह-तरह से लोगों को गिरफ्तार किया गया है, उन पर जुर्म दर्ज हुए हैं। हमें हैरानी इस बात की है कि सुप्रीम कोर्ट खुद होकर इन घटनाओं का नोटिस क्यों नहीं ले रहा है क्योंकि जाहिर तौर पर धर्मान्ध और साम्प्रदायिक ताकतें फिलीस्तीनी झंडे लहराने को इस अंदाज में पेश कर रही हैं कि मानो उन्हें भारतीय झंडे के विकल्प के रूप में पेश किया जा रहा है। दुनिया के 21वीं सदी के सबसे बड़े जुल्म के शिकार फिलीस्तीन के साथ हमदर्दी दिखाते हुए उनके झंडे को लहराना, टांगना अगर हिन्दुस्तान की अखंडता पर खतरा बताकर लोगों को गिरफ्तार किया जा रहा है, तो सुप्रीम कोर्ट को खुद होकर इस पर सुनवाई शुरू करनी थी। छत्तीसगढ़ सरकार के लिए आने वाले दिनों में अदालत की टिप्पणी एक बड़ी शर्मिंदगी लेकर आ सकती है। आज पूरी दुनिया में हिन्दुस्तान के छत्तीसगढ़ को लेकर यह शर्मनाक नौबत है कि 40 हजार लाशों से हमदर्दी दिखाना इस प्रदेश में एक राष्ट्रीय जुर्म माना जा रहा है। दुनिया के सभ्य लोकतांत्रिक देश इस पुलिस कार्रवाई को कैसे देखेंगे, इसका अंदाज प्रदेश सरकार को चाहे न हो, भारत सरकार को तो कम से कम यह अंदाज होना चाहिए जिसे कि दुनिया भर में सवालों का सामना करना पड़ेगा। भारत में फिलीस्तीन का दूतावास है, केन्द्र सरकार उसे एक भाजपा शासित प्रदेश की इस कार्रवाई के बारे में क्या कहेगी? फिलहाल आज की सुबह तो बिलासपुर हाईकोर्ट के लिए एक चुनौती लेकर आई है कि वह अपने साये में एक मित्र राष्ट्र के साथ ऐसा सुलूक बर्दाश्त करते हुए चुप बैठता है, या कुछ करता है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
राज्यों की अर्थव्यवस्था को लेकर देश में कई तरह की फिक्र चलती रहती है, और हम भी उस बारे में लिखते रहते हैं। छत्तीसगढ़ जैसे कई राज्य हैं जो कि खनिज से भरे-पूरे हैं, और लोहा, कोयला, सीमेंट पत्थर की मेहरबानी से राज्य को मोटी कमाई होती रहती है। कुछ राज्य पर्यटन की अर्थव्यवस्था पर चलते हैं, समंदर के किनारे के कुछ राज्य बंदरगाहों की वजह से माल के आयात-निर्यात का बड़ा फायदा पाते हैं, और तट पर ही कई तरह के उद्योग भी लग जाते हैं, गुजरात की संपन्नता की एक बड़ी वजह यह भी है। फिर बंदरगाह वाले राज्यों में ऐसे कारखाने भी अधिक लगते हैं, जो बाहर से आए हुए कच्चे माल से चलते हैं, या देश में ऐसे सामान बनाते हैं जो कि जहाजों से निर्यात हो जाते हैं। कश्मीर, राजस्थान, यूपी, और दक्षिण के कुछ राज्य बहुत समृद्ध हस्तशिल्प और हाथकरघा परंपराओं के कारोबार से भी संपन्न रहते हैं, और तीर्थ से लेकर दूसरे किस्म के पर्यटन तक का फायदा उन्हें देश-विदेश के सैलानियों की शक्ल में मिलता है। लेकिन ये तमाम चीजें कुदरत की वजह से मिली हुई हैं, किसी को खूबसूरत पहाडिय़ां मिली हैं, किसी को समुद्र तट मिले हैं, किसी को घने जंगलों में ऐसे वन्य प्राणी मिले हैं जिन्हें देखने दुनिया भर से लोग आते हैं।
लेकिन हम किसी राज्य की अर्थव्यवस्था, और उसमें किसी सरकार के योगदान का आंकलन इस हिसाब से भी करते हैं कि कुदरत की दी हुई चीजों से होने वाली कमाई से परे किस राज्य ने अपने इंसानों के हुनर और उनकी मेहनत से उनकी कमाई कितनी बढ़ाई है? खदानों से तो सरकार को कमाई होती ही है, लेकिन राज्य के नागरिकों की दक्षता और क्षमता को बढ़ाना, सिर्फ आम नागरिकों के बीच प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाना, सरकार की रियायत, और मनरेगा जैसे रोजगारों से परे सिर्फ नागरिकों की औसत आय को बढ़ाने का एक हिसाब राज्य सरकारों को लगाना चाहिए। अब अगर किसी राज्य में सोने या हीरे की खदान से कमाई शुरू हो जाए, या चलती हुई कमाई बढ़ जाए, वह एक अलग बात है। लेकिन अगर राज्य के कामगारों की औसत कमाई दस-बीस फीसदी भी बढ़ती है, और वह बाजार में मजदूरी या तनख्वाह में औसत बढ़ोत्तरी से अधिक बढ़ती है, तब हम उसे सरकार का योगदान मानते हैं। हमारा यह पैमाना थोड़ा सा जटिल इसलिए है कि देश-प्रदेश की अर्थव्यवस्था के आंकड़े राज्य के पब्लिक सेक्टर उपक्रमों से लेकर राज्य के कारखानों तक की कमाई को आम मजदूरों की कमाई से जोडक़र औसत निकालने वाले रहते हैं। इन आंकड़ों से यह समझ नहीं पड़ता कि अपने नागरिकों को बेहतर रोजगार या कामकाज के लिए सरकार किस तरह तैयार कर रही है, या उनके लिए बेहतर मौके मुहैया करा रही है। किसी भी सरकार को अपनी उपलब्धि इस पैमाने पर अलग से आंकनी चाहिए कि उसने नागरिकों को कहां से कहां पहुंचाया है, और इसे आंकते हुए धान खरीदी जैसे काम पर भारी सरकारी अनुदान के आंकड़ों को बिल्कुल अलग रखना चाहिए। आज खनिज रायल्टी की कमाई को अगर सरकार धान-किसान को दे देती है, तो इसमें सरकार ने जनता की कमाई में कोई स्वतंत्र बढ़ोत्तरी का योगदान नहीं दिया है।
हमारे ऐसे अलग पैमाने के पीछे हमारा एक मकसद है। इस देश में दक्षिण के तमाम राज्यों ने अपने लोगों को अंग्रेजी पढ़ाकर, टेक्नॉलॉजी सिखाकर, दुनिया भर की मशीनों पर काम करने के लायक उन्हें बनाकर उन्हें अधिक कमाई के लायक बना दिया है। आन्ध्र-तेलंगाना के लोग अमरीका में दसियों लाख की संख्या में काम कर रहे हैं, और अमरीकी पैमानों पर भी वे अधिक कमाई का काम कर रहे हैं। केरल के लोग खाड़ी के देशों में बड़ी संख्या में काम कर रहे हैं, और वे केरल के अपने गांव-कस्बे या शहर में मुमकिन कमाई के मुकाबले कई गुना अधिक कमा रहे हैं। पंजाब के लोग कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन जैसे बहुत से देशों में कामयाबी से बसे हुए हैं। हम राज्य के लोगों की क्षमता में उसी तरह की बढ़ोत्तरी देखना चाहते हैं ताकि वे अपने प्रदेश में उनके लिए मुमकिन कमाई से काफी अधिक कमाई का कोई काम दूसरे प्रदेश में जाकर कर सकें, या दूसरे देश तक भी जा सकें। आज यह बात साफ है कि सरकार की राशन-मदद, मनरेगा जैसी रोजगार योजनाओं, मुफ्त बिजली, महतारी वंदन जैसी अलग-अलग राज्यों की योजनाओं के चलते हुए, लोगों का भूखा मरना बंद हो गया है। लेकिन अगर आबादी का एक बड़ा हिस्सा महज इतने से संतुष्ट होकर बैठे रह जाए, तो उसका मतलब तो यही होगा कि उसकी क्षमता और संभावनाओं को बढ़ाने में राज्य का योगदान नहीं रहा। और साथ-साथ हम यह भी कहना चाहते हैं कि अगर छत्तीसगढ़ जैसे राज्य से मजदूर बाहर जाकर निर्माण कार्य करते हैं, ईंट भट्ठों पर ठेका-मजदूरी में घर के मुकाबले कुछ अधिक कमा लेते हैं, तो इसे हम राज्य की मानव क्षमता में विकास नहीं मानते।
आज दुनिया के कई देश गिरती हुई आबादी की वजह से परेशान हैं, और वहां पर बहुत बड़ी संख्या में कामगारों की जरूरत आज भी है, जो कि इस बाकी सदी में बढ़ती ही चलेगी। खुद चीन जैसा दुनिया का सबसे बड़ा कारखानेदार देश कामगारों की कमी से जूझ रहा है, और महज कागज पर संभावनाओं को देखें तो ऐसी भी संभावना बनती है कि भारत के मजदूर हुनरमंद हों, तो उन्हें चीनी कारखानों में भी काम मिल सकता है। यह सिर्फ एक काल्पनिक स्थिति है, क्योंकि दोनों देशों के बीच न अभी ऐसे रिश्ते हैं, और न ही सांस्कृतिक वातावरण ऐसा है। फिर भी आज हिन्दुस्तान के भीतर चीन के विकल्प के रूप में दुनिया की बहुत सी बड़ी कंपनियां अपना एक-एक कारखाना डालते चल रही हैं। इन कारखानों के लिए भी ऐसे ही राज्यों को छांटा जा रहा है जहां पर हुनरमंद कामगार हैं, और जो बंदरगाहों के करीब हैं। अब छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में बंदरगाह तो लाया नहीं जा सकता, लेकिन सरकार अगर मेहनत करे तो यहां की नौजवान पीढ़ी को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के लायक ऐसा हुनरमंद बनाया जा सकता है कि वे सरकारी नौकरी के मोहताज न रहें। ऐसा किसी भी राज्य के लिए इसलिए अच्छा होता है क्योंकि वहां से बाहर गए लोग अगर अधिक कमाते हैं, तो उसका एक हिस्सा अपने खुद के गांव-शहर में खर्च करते हैं, और वहां पर संपत्ति बनाते हैं जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान मिलता है। इसलिए देश के हर राज्य को अपने नौजवानों को काम दिलवाने के लिए अपनी सरहद के भीतर का तंग नजरिया नहीं रखना चाहिए, सरकारों को चाहिए कि नौकरी और रोजगार की अंतरराष्ट्रीय संभावनाओं को देखते हुए ऐसे नए कोर्स बनाएं जिन्हें करने वाले लोग अलग-अलग भाषाएं सीखकर उनके देशों में जाकर काम पा सकें। अपने लोगों को अगर सिर्फ सरकारी नौकरियों के लिए तैयार किया जाएगा, तो उनमें से भी 95 फीसदी लोगों को तो ये नौकरियां मिलेंगी नहीं, और वे राज्य पर ही बोझ बने बैठे रहेंगे। किसी नौजवान के बोझ बन जाने, और कमाऊ बन जाने के बीच का फर्क सरकार ही दूर कर सकती है। देश के भीतर भी जो विकसित राज्य हैं, वहां पर तो अब लगातार कामयाबी की वजह से सरकार से परे भी आम लोग और निजी क्षेत्र के स्कूल-कॉलेज, ट्रेनिंग सेंटर ऐसे रहते हैं कि वे नौजवान पीढ़ी को अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों के लायक तैयार कर देते हैं। हिन्दुस्तान के राज्यों को अपनी प्रति कामगार, गैर सरकारी अनुदान प्राप्त औसत आय का हिसाब लगाना चाहिए कि पांच बरस के कार्यकाल में लोगों को वह कहां से कहां तक पहुंचा पाई है।
पिछले दो बरस में छत्तीसगढ़ में तीन रिकॉर्ड कायम हो गए। पिछले बरस हाईकोर्ट वाले शहर बिलासपुर, हाईकोर्ट के हुक्म के खिलाफ अंधाधुंध डीजे बजाते विसर्जन जुलूस के कानफाड़ू शोर में एक बच्चे की मौत हो गई थी। इस बरस सरगुजा में डीजे के शोर में एक आदमी के दिमाग की नस फट गई, और ब्रेन हेमरेज से वह मर गया। इस पर भी जिस प्रदेश की नींद नहीं खुली है, उसके लिए कल की ताजा खबर है कि भिलाई में एक गणेश पंडाल के अंधाधुंध तेज लाउडस्पीकर से थककर दिल के मरीज एक बुजुर्ग ने उसकी आवाज कम करने को कहा, लेकिन उसे धीमा नहीं किया गया। पुलिस भी आकर कुछ नहीं करवा पाई। और गणेश कमेटी के अध्यक्ष ने आकर एसडीएम की मंजूरी का लेटर दिखाकर धमकी दी। आधी रात बाद गणेश पंडाल से फिर से लाउडस्पीकर का हंगामा शुरू हुआ, और इस वजह से खुदकुशी करने की चिट्ठी लिखकर इस आदमी ने फांसी लगा ली। यह छत्तीसगढ़ की पहली ध्वनि प्रदूषण आत्महत्या है, और इन दिनों जिस तरह भारत की कोई एक औने-पौने रिकॉर्ड दर्ज करने वाली किताब छत्तीसगढ़ में घूम-घूमकर अफसरों की मुसाहिबी के रिकॉर्ड दर्ज कर रही है, उसे प्रदेश की पहली ध्वनि प्रदूषण आत्महत्या भी दर्ज करनी चाहिए। अभी सुबह-सुबह खबर मिली है कि राजनांदगांव के करीब छुरिया में गणेश के लाउडस्पीकर के शोर को लेकर झगड़ा हुआ, और चाकूबाजी में कुछ लोग जख्मी हुए, और यह सब तब हो रहा है जब हाईकोर्ट छत्तीसगढ़ में ध्वनि प्रदूषण को इतनी गंभीरता से ले रहा है कि उसने कहा है कि अब डीजे बजाने पर कोलाहल अधिनियम के तहत मामला दर्ज न करके अदालत की अवमानना का मामला बनाया जाए। अभी तक अफसर दो-चार हजार का जुर्माना करके लोगों का जीना हराम करने का सामान छोड़ देते हैं।
इस मुद्दे पर लिखने का हमारा दिल जरा भी नहीं है क्योंकि हमारे पास दर्जनों बार पहले लिखी जा चुकी बातों के अलावा लिखने को नया कुछ नहीं है। लेकिन फिर भी जब छत्तीसगढ़ के लाउडस्पीकर एक बुजुर्ग इंसान को खुदकुशी करने पर मजबूर कर चुके हैं, तो ऐसे लाउडस्पीकरों के सम्मान में कुछ लिखना तो बनता है। न लिखने का मतलब ऐसे जानलेवा और हत्यारे लाउडस्पीकरों का सम्मान न करना हो जाएगा। और लाशें तो हमेशा ही गिनती की रहेंगी, किसी भी धर्म या जाति, या शादी-ब्याह के लाउडस्पीकरों से जो जीना हराम होता है, उसे लाशों की तरह गिना नहीं जा सकता। और जब तक किसी बात से लोग मर नहीं जाते हैं, उसे गंभीरता से नहीं लिया जाता। छोटे-छोटे बच्चों के सुनने की ताकत घट जाए, बिस्तर पर पड़े हुए बूढ़े लेटे-लेटे मर जाएं, तो उन्हें कौन लाउडस्पीकरों से जोडक़र देखेंगे। ऐसा लगता है कि एक वक्त का कृषि प्रधान देश भारत अब धर्मप्रधान हो गया है, और जब धर्म का कोई कर्म नहीं बचता, तो थोड़े वक्त के लिए लोग खेती कर लेते हैं, या बेरोजगार न हुए तो कोई और काम कर लेते हैं। धर्म जिसे कि निजी आस्था की बात रहना था, वह अब एक आक्रामक सार्वजनिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। और सरकारें इस आक्रामक जीवनशैली का सम्मान कर रही हैं। यह सिलसिला जाएगा कहां तक?
अब जब हाईकोर्ट कह रहा है कि कोलाहल अधिनियम की जगह अदालत की अवमानना दर्ज की जाए, और पूरे प्रदेश में अफसर हर गली-मोहल्ले में ऐसी अवमानना का साथ दे रहे हैं, तो न्यायपालिका का हाल पेनिसिलिन सरीखा हो गया है जो कि दशकों पहले बेअसर साबित होकर चलन से बाहर हो चुकी इतिहास की दवाई है। हमने पहले भी लिखा है कि जिस तरह संपत्ति बच्चों के नाम कर चुके बूढ़े मां-बाप की बात घर में अनसुनी की जाती है, कुछ वैसी ही हालत छत्तीसगढ़ में हाईकोर्ट की है। बरसों हो गए हाईकोर्ट लाउडस्पीकरों की हैवानियत पर हैरान है, परेशान है, और सरकार के पीछे उसी तरह लगा हुआ है जिस तरह भिलाई का वह बुजुर्ग अपने मोहल्ले के गणेश पंडाल के पीछे लगा था, और आखिर में कल उसे खुदकुशी करनी पड़ी क्योंकि पुलिस की कोई भी ताकत शोरगुल की इस गुंडागर्दी को रोक नहीं पाई। थाने तक जाने, और पुलिस के आने के बाद भी जहां गुंडागर्दी जारी है, वहां हाईकोर्ट अवमानना के जुर्म में गणेश पंडाल के आयोजकों को जेल भेजेगा, या इस बुजुर्ग की खुदकुशी में बराबरी की जिम्मेदार पुलिस को भी साथ-साथ उसी कोठरी में रखेगा? ऐसा लगता है कि हाईकोर्ट को अपने पेनिसिलिन बन जाने की हकीकत को मान लेना चाहिए, और किसी नए एंटीबॉयोटिक के बारे में नए मेडिकल-लीगल जर्नल में कुछ पढऩा चाहिए। छत्तीसगढ़ सरीखे राज्य में सार्वजनिक जीवन की अराजकता सिर चढक़र बोल रही है, अमन-पसंद लोगों का जीना हराम है, और शासन-प्रशासन मानो इस खौफ में हैं कि धर्म के नाम पर किए जा रहे ऐसे हिंसक शोरगुल को रोकने से खुद ईश्वर ही खफा हो जाएंगे। जबकि हमारा मानना यह है कि ऐसे कानफाड़ू शोरगुल को बर्दाश्त करना ईश्वर के बस में भी नहीं होगा, और वह चाहे कहीं भी चले जाए, ऐसे लाउडस्पीकरों की पहुंच से तो बहुत दूर रहेगा।
अभी हम ठीक से याद नहीं कर पा रहे हैं कि धार्मिक और दीगर किस्म के नियमित, संगठित, हिंसक, और अराजक लाउडस्पीकरों के खिलाफ छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने अधिक बार कहा है, या हमने उससे अधिक बार इसी जगह संपादकीय लिखे हैं! लेकिन ऐसा लगता है कि हम दोनों के बीच मुकाबला कड़ा है, और हम दोनों को यह आदत हो गई है कि सरकार और धार्मिक संगठन हमारी बात को कूड़े की टोकरी में डालते रहेंगे, और हम इसके खिलाफ बोलते और लिखते रहेंगे। परिवार के गैरकमाऊ बूढ़े के बड़बड़ाने की तरह हम यह काम किए जा रहे हैं, और सत्ता और समाज मदमस्त जानवर की तरह सब कुछ अनसुना करके लोगों को खुदकुशी का सामान जुटाकर दे रहे हैं।
ऐसा लगता है कि इस देश में डॉक्टरों की राय, वैज्ञानिकों की राय की अब कोई जरूरत नहीं रह गई है। लोगों के कान बचे रहें, यह भी जरूरी नहीं है। लोग सुनने लायक नहीं रह जाएंगे, तो इशारों की जुबान बोलने वाले लोगों को कुछ काम मिल जाएगा। या फिर मोबाइल फोन के साथ ऐसे ईयरपीस आने लगेंगे जो तकरीबन खत्म हो चुके कानों को भी कुछ तो सुना ही सकेंगे। जिस तरह जमीन के नीचे पानी की सतह सैकड़ों फीट नीचे गिरती जा रही है, और अधिक ताकतवर पंप लगाकर पानी खींचना फिर भी जारी है, उसी तरह और अधिक ताकतवर ईयरफोन लगाकर लोगों के खराब कानों को भी कामचलाऊ बना दिया जाएगा, और इसके लिए सरकारी स्वास्थ्य बीमा में अलग से इंतजाम कर दिया जाएगा। कानों की परवाह करते हुए धार्मिक शोरगुल की हिंसा को रोकना ठीक नहीं है, यह आस्था का मामला है। इस देश-प्रदेश में डॉक्टर-वैज्ञानिक, और जज की भी जरूरत क्या है? जज गणेश पूजा का आयोजन कर लें, वही उनका सबसे असरदार काम हो सकता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दो अलग-अलग खबरें दुनिया के देशों, और उनके शहरों को लेकर आई हैं। एक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय अमरीकी विश्वविद्यालय द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट में दुनिया के सबसे अच्छे देशों पर सालाना रिपोर्ट आई है, जिसमें स्विटजरलैंड लगातार 7वें साल सबसे ऊपर रहा है। अमरीका पिछले बरस से दो सीढ़ी ऊपर चढ़ा है, और जापान चार सीढ़ी। भारत पिछले बरस 30वें नंबर पर था, और इस बार तीन सीढ़ी फिसलकर वह 33वें नंबर पर आ गया है। इस रिपोर्ट में जीवन की गुणवत्ता, देश की आर्थिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक सफलता जैसे कई पैमाने शामिल किए जाते हैं। भारत के आसपास के लगे हुए देश भारत के मुकाबले बहुत नीचे हैं, लेकिन साल भर में भारत तीन सीढ़ी नीचे खिसक गया है। आज की ही एक दूसरी खबर इस बात को लेकर है कि किस तरह दुनिया के कई देश खराब ट्रैफिक से जूझ रहे हैं, और इनमें योरप के बहुत से शहर हैं। ट्रैफिक की खराब हालत में ब्रिटेन की राजधानी लंदन सबसे खराब जगह मानी गई है। दूसरे नंबर पर आयरलैंड का डबलिन है, और वहां पर यह अंदाज है कि ट्रैफिक जाम की वजह से इतना बड़ा नुकसान हो रहा है कि वह 2040 तक बढक़र 14 हजार करोड़ रूपए सालाना से अधिक हो जाएगा।
हम केवल देशों और शहरों की इन दो रिपोर्ट को देखकर सोच रहे हैं कि क्या हिन्दुस्तान में ऐसी बातों पर कोई फिक्र करते हैं? इस देश में कोई भी त्यौहार सडक़ों पर ऐसी भयानक अराजकता लेकर आता है कि ऊपर लिखी गई दूसरी खबर जैसा ट्रैफिक जाम जानलेवा होने लगता है, और चारों तरफ डीजल और पेट्रोल के धुएं के बीच लोग घंटों फंसे रहते हैं। हर त्यौहार लोगों के लिए तकलीफ लेकर आता है, और और तो और, विघ्नहर्ता के त्यौहार में भी सडक़ों पर चारों तरफ विघ्न ही विघ्न दिखने लगते हैं। हिन्दुस्तान में लोगों को बेकार मान लिया जाता है, इसलिए हर तरह के सामान, और काम के लिए उन्हें कतारों में झोंक दिया जाता है। गैस एजेंसी का ताला नहीं खुलता, उसके पहले दर्जनों लोग एक-एक शटर के सामने सिलेंडर लिए खड़े रहते हैं, मानो उन्हें और कोई काम ही न हो। एक-एक सरकारी दफ्तर में लोगों के दर्जनों चक्कर लगते हैं, और उसके बाद वे थक-हारकर मुंह मांगी रिश्वत देने तैयार होते हैं, तब जाकर उनकी जरूरत का जायज कागज उनके हाथ लगता है। इस तरह की सैकड़ों दिक्कतें हिन्दुस्तान में है जिनकी वजह से दुनिया की पांच सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने के बावजूद हिन्दुस्तान अच्छे देशों की लिस्ट में 30 से 33वें नंबर पर आ गया, साल भर में ही। इन बरसों में जिस तरह रेलगाडिय़ां रद्द हुई हैं, आम लोगों के डिब्बे एकदम से घटा दिए गए हैं, और महंगे एसी डिब्बे बढ़ा दिए गए हैं, और कस्बों में ट्रेनों का रूकना बंद करवा दिया गया है, उसका भी असर होगा कि एक तरफ देश अच्छे देशों की लिस्ट में नीचे गिर रहा है, और शहरी सडक़ों पर ट्रैफिक जाम हो रहा है। एक तरफ तो दुनिया के देश सार्वजनिक परिवहन बढ़ाकर, रियायती बनाकर, और कई जगहों पर तो उसे मुफ्त बनाकर भी शहरी प्रदूषण और ट्रैफिक जाम को घटा रहे हैं, वैसे में हिन्दुस्तानी शहर एक किस्म से अपना काबू खो बैठे हैं।
शहर के इंतजाम में सडक़ की पूरी चौड़ाई मौजूद न रहने पर ट्रैफिक जाम होना ही होना है, और हम देखते हैं कि अधिकतर शहरों में वोटरों से डरे-सहमे नेताओं के मातहत काम करते अफसर सडक़ किनारे बड़े कारोबारियों के बिखरे हुए सामान हटाने का हौसला भी नहीं जुटा पाते, नतीजा यह होता है कि वहां ट्रैफिक जाम स्थाई संपत्ति की तरह जमे रहता है। आज देश के अधिकतर शहरों को सार्वजनिक परिवहन की परवाह नहीं दिखती है क्योंकि उसे कुछ या अधिक हद तक रियायती बनाना पड़ता है, और अगर सार्वजनिक परिवहन कामयाब हो जाए तो ऑटोमोबाइल कारोबार मार खाएगा, और सरकार को टैक्स कम मिलेगा। लेकिन सरकारों को इतना सोचने की फिक्र नहीं है कि ट्रैफिक जाम में घंटों फंसने वाले लोगों की कितनी उत्पादकता मार खाती है, उनकी सेहत कितनी बर्बाद होती है। कुछ लोगों का सोशल मीडिया पर यह भी कहना है कि भारतीय शहरों में अगर आप दस-बीस मिनट कोई गाड़ी या दुपहिया चलाएं, और आपके मुंह या मन में गंदी गाली न आए, तो आप अपने आपको छोटा-मोटा संत तो मान ही सकते हैं। किसी शहर के सभ्य होने की पहली निशानी हम यह मानते हैं कि वहां का ट्रैफिक कितने नियम-कायदे का है। ट्रैफिक के नियम सबसे सरल रहते हैं, और उन्हें मानना लोगों के लिए कोई चुनौती नहीं रहती है। इसके बावजूद अगर कोई शहर ट्रैफिक ठीक नहीं रख पाता, तो यह उसकी बहुत बड़ी नाकामयाबी रहती है, और वहां के लोगों के असभ्य रहने का एक मजबूत सुबूत भी रहता है।
दुनिया के देश कुदरत की दी हुई खूबसूरती से परे वहां के लोगों की कारोबारी कामयाबी से भी दुनिया के सबसे अच्छे देशों की फेहरिस्त में आते हैं। और यह कारोबारी कामयाबी बहुत भ्रष्ट, असभ्य, अलोकतांत्रिक, अराजक सरकार और समाज के चलते हुए नहीं मिल सकती। गिने-चुने कुछ हजार उद्योगों की कमाई को देश की राष्ट्रीय कमाई दिखाकर एक गलत तस्वीर जरूर बनाई जा सकती है, लेकिन उससे समाज खुशहाल भी नहीं रहता। इन्हीं दो रिपोर्ट की चर्चा करते हुए हमें याद पड़ता है कि कुछ महीने पहले वल्र्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट आई थी जिसमें भारत को 143 देशों में से 126वां देश पाया गया था। अब जिस हिन्दुस्तान में धर्म का इतना बोलबाला है, जहां पर ऋषि मुनियों के वक्त से अब तक आध्यात्म का माहौल बताया जाता है, जिस देश को अपने इतिहास और उससे भी पहले के वक्त पर इतना गर्व है, जो अपने धर्म को दुनिया का सबसे अच्छा धर्म बताता है, वहां के लोग खुश क्यों नहीं हैं?
कहने के लिए तो यह कहना बड़ा आसान हो सकता है कि पश्चिमी पैमानों पर इन रिपोर्ट को बनाकर भारत को नीचा दिखाने की एक साजिश है, लेकिन भारत की अपनी हकीकत यही है कि शहरी अराजकता से लेकर पिछड़े हुए गांवों तक, और दहशत में जीते हुए बहुत से तबकों तक से पूछा जाए, तो इतना सारा धर्म, इतना सारा राष्ट्रवाद मिलकर भी लोगों को खुश नहीं रख पा रहे हैं। पश्चिमी सर्वे और अध्ययन से परे भी सच यही है कि जिम्मेदार और समझदार भारतीय यह देखकर हैरान हैं कि लगातार चलता इतना सारा तनाव आखिर कहां जाकर थमेगा? आखिर में तनाव थमेगा, या देश की तरक्की थम जाएगी? लोगों को अपने भीतर ऐसे सवालों के जवाब ढूंढने चाहिए कि सतह पर तैरते उन्मादतले कितनी संभावनाएं खत्म हो रही हैं। वैसे इतना आत्ममंथन करने के बजाय पश्चिमी देशों की ऐसी रिपोर्ट खारिज करना अधिक सहूलियत की बात होगी।
कई अलग-अलग किस्म की घटनाओं को जोडक़र एक साथ देखा जाए, तो यह समझ पड़ता है कि देश का माहौल किस तरह का है। अभी चार दिन पहले मध्यप्रदेश के महू में सेना के बहुत बड़े प्रशिक्षण केन्द्र के दो नौजवान अफसर अपनी महिला मित्रों के साथ सेना की फायरिंग रेंज में खुले में कुछ वक्त गुजार रहे थे, और वहां पहुंचे कुछ बाहरी नौजवानों ने आकर इन सबको बंधक बना लिया, फौजी अफसरों को जमकर पीटा, और एक अफसर, और एक युवती को पकडक़र रखा, और दूसरे जोड़े को छोड़ा कि दस लाख रूपए लेकर आओ, तब इन्हें छोड़ेंगे। जब तक छोड़ा गया यह जोड़ा फौज के अफसरों और पुलिस को खबर कर पाया, और पुलिस आई, तब तक उस बंधक महिला से गैंगरेप करके बदमाश भाग निकले थे। लेफ्टिनेंट कर्नल रैंक के इन अफसरों के खिलाफ इस तरह महिलाओं के साथ बाहर रहने की जांच भी शुरू हुई है। लेकिन फिक्र की बात यह है कि फौज के इलाके में फौजी अफसरों और उनकी दोस्तों के साथ ऐसी घटना असाधारण है। अभी हिन्दुस्तान बंगाल में महिला डॉक्टर के साथ बलात्कार और उसके कत्ल की घटना से उबरा नहीं है, पूरा बंगाल मुख्यमंत्री के इस्तीफे तक पहुंची नौबत को झेल रहा है, और सरकारी डॉक्टरों ने सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी के बावजूद काम बंद कर रखा है। अब मध्यप्रदेश की यह घटना हम किसी सत्तारूढ़ पार्टी से जोडक़र देखना नहीं चाहते क्योंकि देश की सरहद के भीतर जहां-जहां तक हिन्दुस्तानी समाज का माहौल है, और हिन्दुस्तानी मर्द मौजूद हैं, वहां तक हर लडक़ी और महिला से लेकर गाय तक पर बलात्कार का खतरा मौजूद है ही। हम इस खतरे, और इस किस्म के कुछ और खतरों के बारे में सोच रहे हैं कि आज हिन्दुस्तान कितना सुरक्षित रह गया है?
आज इस मुद्दे पर लिखते वक्त उत्तरप्रदेश में एक चलती हुई ट्रेन में एक आदमी को पीट-पीटकर मार डालने की घटना भी खबरों में है। इस आरोप के मुताबिक रात में एक महिला मुसाफिर शौचालय गई, और उसकी बच्ची से पास की सीट के मुसाफिर ने छेडख़ानी की। डिब्बे के बाकी मुसाफिरों ने इस आरोप पर उसे पीट-पीटकर मार डाला। भारत में इंसाफ की यह रफ्तार तालिबानों की गोलियों, और उनके छुरों से बस थोड़ी ही धीमी है। पीट-पीटकर मारने में थोड़ा सा वक्त लगा होगा। अब हम देश की कहीं गाय की रक्षा के नाम पर, तो कहीं बच्चों की चोरी के शक में, कई जगह कानूनी पशु कारोबारियों की पीट-पीटकर हत्या देख रहे हैं, तो कहीं विचलित लोग बच्चा चोर होने के आरोप में भीड़ के हाथों मारे जा रहे हैं। यह देश में बलात्कारियों और दूसरे मुजरिमों का ही नहीं, यह एक आम मिजाज हो गया है कि पांच-दस लोगों की भीड़ जुट जाने के बाद वे अपनी मर्जी से जो चाहे कर सकते हैं, और मानो देश का कानून तीन या चार लोगों से कम की भीड़ पर ही लागू होता है, आधा दर्जन लोग अपने आपमें एक कानून होते हैं। लोगों को याद होगा कि अभी कुछ हफ्ते ही हुए महाराष्ट्र में ट्रेन में सफर कर रहे 72 बरस के एक बुजुर्ग को गाय का मांस लेकर जाने के शक में अगल-बगल के मुसाफिर नौजवानों ने जमकर पीटा, मां-बहन की गालियां बकीं, और उसके वीडियो भी बनाकर फैलाए। अब बंगाल तो तृणमूल कांग्रेस के ममता बैनर्जी के शासन, या कुशासन का प्रदेश है, लेकिन बाकी की ये तीन घटनाएं तो दूसरी पार्टियों के राज की हैं, और मोटेतौर पर पूरे देश में कानून का इतना ही सम्मान रह गया है।
जिस प्रदेश, या जिस शहर-कस्बे, या मोहल्ले में जिस धर्म या जाति के लोगों की अधिक बड़ी आबादी है, वहां उन्हीं की मर्जी कानून है। एक किस्म से देखें तो पिछले 75 बरस में संविधान लागू करके लोगों के बीच कानून का राज धीरे-धीरे कायम किया जा रहा था, वह बहुत रफ्तार से खत्म हो रहा है। लोकतांत्रिक समझ वैसे भी एक मुश्किल बात रहती है, और इंसान की आदिम सोच के खिलाफ भी रहती है। कानून के राज का खात्मा ऐसी आदिम सोच को एक बार फिर से राजपाट सम्हलवा दे रही है। इस बात पर भी गौर करने की जरूरत है कि सुप्रीम कोर्ट ने जिस तल्खी के साथ देश के कई राज्यों में बुलडोजरी इंसाफ नाम की तानाशाही के खिलाफ नाराजगी जाहिर की है, और आने वाले कुछ दिनों में पूरे देश के लिए एक दिशा-निर्देश अदालत से जारी होने वाले हैं। मतलब यह कि एक-एक करके कई प्रदेशों में सरकारों ने देखा-देखी बुलडोजरी इंसाफ लागू कर दिया था, और कानून के राज को धक्का देकर गिरा दिया था।
इन तमाम बातों को देखें तो ऐसा लगता है कि न केवल जनता की भीड़, बल्कि अलग-अलग दर्जे के मुजरिमों के छोटे-छोटे गिरोह भी कानून के राज को खत्म सा मान चुके हैं, और धड़ल्ले से संगीन जुर्म करने में लगे हुए हैं। दूसरी तरफ यूपी और एमपी की भाजपा सरकारों ने बुलडोजर-संस्कृति पर जैसा गर्व दिखाया है, वह एक तरफ है, और ममता बैनर्जी ने जैसा तानाशाह और अराजक रूप दिखाया है, वह दूसरी तरफ है। इन सबसे ऐसा लगता है कि किसी प्रदेश पर काबिज हो चुके नेता उसे अपनी जागीर की तरह देखते हैं, और किसी इलाके के मुजरिम अपने इलाके को अपनी जागीर की तरह। कोई मुसलमान ट्रेन में कौन सा मांस लेकर चल रहा है, इस पर मौके पर ही तालिबानी फैसला देने वाले नौजवान मौजूद हैं, और उसी तरह का फैसला अभी ट्रेन में बच्ची से छेडख़ानी के आरोप पर वहां के मुसाफिरों ने दिया है, आरोपी को पीट-पीटकर मार डालकर। देश में कानून का क्या हाल हो गया है, इस पर फिक्र करने की जरूरत है। हम उम्मीद करते हैं कि गणेशोत्सव खत्म होने के बाद, और अपने कुछ हफ्ते बाद के रिटायरमेंट के पहले देश के मुख्य न्यायाधीश इस बारे में भी कुछ सोचेंगे।
एक घरेलू पूजा का फोटो और उसका वीडियो भारत में खलबली मचा रहा है। देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ के घर गणेश पूजा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पहुंचे, और महाराष्ट्र के अंदाज में सफेद गांधी टोपी लगाकर उन्होंने आरती की। उनके दाएं-बाएं चन्द्रचूड़ दम्पत्ति के फोटो और वीडियो पर सोशल मीडिया से लेकर खबरों तक बहुत कुछ कहा जा रहा है। कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि चन्द्रचूड़ रिटायरमेंट के करीब हैं, और ऐसे में प्रधानमंत्री हो सकता है कि उनका कोई पुनर्वास कर सकें। दूसरी तरफ शिवसेना के संजय राउत ने कहा है कि उनके महाराष्ट्र वाले केस में मुख्य न्यायाधीश की बेंच ही सुनवाई कर रही है, और अब शिवसेना न्याय की उम्मीद कैसे कर सकती है। उन्होंने कहा कि कोर्ट के अंदर उनके मामले में केन्द्र सरकार भी एक पार्टी है, और मुख्य न्यायाधीश को अपने को इस मामले से अलग कर लेना चाहिए क्योंकि इसके दूसरे पक्ष के साथ उनके रिश्ते जगजाहिर हो गए हैं। कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर यह सवाल भी उठाया है कि अपने घर की गणेश पूजा में क्या जस्टिस चन्द्रचूड़ ने दूसरी पार्टियों के नेताओं को भी बुलाया था? क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कुछ दूसरे घरों में भी गणेश पूजा के लिए गए थे? क्या जस्टिस चन्द्रचूड़ को इस बात का अहसास नहीं था कि जिस महाराष्ट्र से वे आते हैं, उस महाराष्ट्र में चुनाव होने जा रहे हैं, और उस चुनाव के ठीक पहले महाराष्ट्रियन टोपी लगाकर महाराष्ट्र के इस सबसे प्रमुख धार्मिक उत्सव के ऐसे फोटो और वीडियो का प्रचार एक नाजायज पक्षपात नहीं है? कुछ लोगों ने यह भी सवाल किया है कि इस घरेलू पूजा में अकेले मोदी ही परिवार के साथ दिख रहे हैं, तो फिर ये तस्वीरें किसकी तरफ से बाहर आई हैं, ये चन्द्रचूड़ की तरफ से जारी फोटो-वीडियो हैं, या प्रधानमंत्री के प्रचार तंत्र की तरफ से? और राजनीतिक बयानों का जवाब देने के लिए भाजपा की तरफ से एक ऐसा फोटो जारी किया गया है जिसमें पिछले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बंगले की इफ्तार पार्टी पर उस वक्त के मुख्य न्यायाधीश के.जी.बालाकृष्णन पहुंचे थे। इस पर कांग्रेस ने यह जवाब दिया है कि भाजपा यह फर्क नहीं समझ पा रही कि मीडिया और जनता के सामने होने वाले इफ्तार जैसे सार्वजनिक आयोजन, और किसी के घर पर होने वाले निजी धार्मिक आयोजन में क्या फर्क होता है। कांग्रेस का कहना है कि इन दोनों को एक साथ जोडक़र दिखाना गुमराह करना है। भाजपा ने मुख्य न्यायाधीश के घर मोदी के जाने और पूजा करने पर कांग्रेस की आपत्ति को अदालत की अवमानना करार दिया है।
अब जस्टिस चन्द्रचूड़ के घर की गणेश पूजा में प्रधानमंत्री जाहिर है कि न्यौता मिलने पर ही गए होंगे। अब सवाल यह उठता है कि क्या न्यायपालिका और कार्यपालिका के बिल्कुल अलग-अलग दायरों के रहते हुए मुख्य न्यायाधीश का प्रधानमंत्री को बुलाना ठीक था? और यहां पर हम इसकी तुलना इफ्तार-दावत से करना ठीक नहीं मानेंगे, क्योंकि वह एक खुला हुआ, सार्वजनिक और बड़ा समारोह रहता है, घर का कोई निजी कार्यक्रम नहीं रहता। फिर भी हम अगर खुद के पैमानों पर बात करें, तो हमारा तो यह मानना है कि मनमोहन सिंह की इफ्तार-दावत में उस वक्त के सीजेआई का जाना भी गलत था, और आज सीजेआई का पीएम को बुलाना उससे अधिक गलत है। जस्टिस चन्द्रचूड़ की खुद की अलग-अलग कई तरह की बेंचों में केन्द्र सरकार के खिलाफ दर्जनों मामले चल रहे हैं। बहुत से मामले तो ऐसे हैं जिनमें केन्द्र सरकार सवालों के कटघरे में घिरी हुई है, और देश के बहुत से तबके सरकार के खिलाफ अदालती फैसले की उम्मीद कर रहे हैं। अब अगर कल को जस्टिस चन्द्रचूड़ की अगुवाई वाली कोई बेंच केन्द्र सरकार, या किसी प्रदेश की भाजपा सरकार के खिलाफ चल रहे किसी मुकदमे में पूरे ईमानदार तर्कोँ के साथ भी अगर सरकार के पक्ष में फैसला जायज मानेगी, तो भी उससे आम जनता की सोच असहमत रह सकती है, और लोग यह मान सकते हैं कि प्रधानमंत्री के साथ ऐसे धार्मिक और घरेलू घरोबे के चलते ये फैसले दिए गए हैं। फिर रिटायरमेंट के बाद अगर जस्टिस चन्द्रचूड़ को केन्द्र सरकार कहीं भी मनोनीत करती है, तो उससे भी न सिर्फ चन्द्रचूड़ की, बल्कि न्यायपालिका की साख पर बड़ी आंच आएगी। यह हमने सुप्रीम कोर्ट के कुछ पिछले जजों, और खासकर एक सीजेआई रहे रंजन गोगोई के मामले में देखा है कि उनके सरकार-हिमायती लगने वाले कुछ फैसलों के बाद रिटायर होते ही उन्हें जब राज्यसभा भेजा गया, तो लोगों की नजरों में अदालत की इज्जत एकदम गिर गई थी। हमारा मानना है कि भारत में न्यायपालिका को लोकतंत्र के बाकी संस्थानों, कारोबारों, और दीगर ताकतवर तबकों से साफ-साफ अलग रहना चाहिए। राष्ट्रीय महत्व के कई ऐसे सार्वजनिक कार्यक्रम रहते हैं, जिनमें सबकी नजरों के सामने मंच पर प्रधानमंत्री, और सीजेआई एक साथ रहते हैं, और इसे लेकर कभी कोई विवाद नहीं होता। लेकिन दिल्ली की देखादेखी अब अगर राज्यों में हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, या बाकी जज अपने राज्य के मुख्यमंत्री के निवास पर गणेश पूजा में, या इफ्तार-दावत में चले जाएं, तो सरकारों के खिलाफ चल रहे सैकड़ों मामलों में अदालती निष्पक्षता पर किसे भरोसा रहेगा?
हम सीजेआई और प्रधानमंत्री के बीच परस्पर लोकतांत्रिक सम्मान में कोई बुराई नहीं देखते। लेकिन जो अनिवार्य संवैधानिक मेलमिलाप है, वैसे सार्वजनिक कार्यक्रमों से परे ऐसे संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोगों को अलग-अलग दायरों में रहना चाहिए। लोकतंत्र की पूरी सोच इस पर टिकी हुई है कि न्यायपालिका, कार्यपालिका, और विधायिका, एक-दूसरे से स्वतंत्र रहते हुए काम करें। इस लक्ष्मण रेखा को लांघना निहायत गैरजरूरी भी है, और नाजायज भी है।
इसी सिलसिले में लोगों ने अभी याद दिलाया है कि 1980 में जब इंदिरा गांधी चुनाव जीतकर दुबारा सत्ता में आई थीं, तब उस वक्त सुप्रीम कोर्ट के एक जज पी.एन.भगवती ने एक लंबी चिट्ठी लिखकर इंदिरा को बधाई दी थी, और कहा था कि चुनावों में आपकी शानदार जीत, और भारत के प्रधानमंत्री के रूप में आपकी विजयी वापसी पर क्या मैं हार्दिक बधाई दे सकता हूं? उन्होंने आगे लिखा था यह एक बेहद उल्लेखनीय उपलब्धि है, जिस पर आप, आपके मित्र, और आपके शुभचिंतक जायज रूप से गर्व कर सकते हैं, भारत जैसे देश का प्रधानमंत्री बनना बड़े सम्मान की बात है। इस चिट्ठी के सामने आने पर बड़ा हंगामा हुआ था, और तमाम वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की बैठक बुलाकर इसके खिलाफ चर्चा की थी। उस वक्त के एक दूसरे सुप्रीम कोर्ट जज ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में जस्टिस भगवती की इस चिट्ठी का नाम लिए बिना इसकी निंदा की थी। अब अभी जस्टिस चन्द्रचूड़ की गणेश पूजा में मोदी के जाने पर सुप्रीम कोर्ट की एक बड़ी वकील इंदिरा जयसिंह ने अपने एक्स-अकाऊंट पर लिखा है- जस्टिस चन्द्रचूड़ ने कार्यपालिका, और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत से समझौता किया है, मुख्य न्यायाधीश की स्वतंत्रता पर से अब विश्वास उठ गया है। उन्होंने मांग की है कि सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन को इसकी आलोचना करनी चाहिए।
इस बारे में हमारी सोच कुछ कड़े नीति-सिद्धांतों की है, और हमारा मानना है कि अदालत और सरकार को एक-दूसरे से एकदम परे रहना चाहिए, और जनता के बीच किसी भी तरह के शक की नौबत ही नहीं आने देनी चाहिए। संदेह से परे रहने के बारे में दुनिया भर में एक पुरानी कहावत चली आ रही है कि एक रोमन शासक जूलियस सीजर ने एक विवाद के बाद अपनी पत्नी को तलाक देते हुए यह कहा था- मेरी पत्नी को संदेह से भी ऊपर रहना चाहिए। इसे सार्वजनिक जीवन में अक्सर इस्तेमाल किया जाता है कि अहमियत के ओहदों पर बैठे हुए लोगों का चाल-चलन ऐसा रहना चाहिए कि उसे लेकर किसी शक की गुंजाइश कभी न हो सके। हमें लगता है कि जस्टिस चन्द्रचूड़ जूलियस सीजर के पैमाने पर खोटे साबित हुए हैं, और इस एक फैसले से उनकी साख धूमिल हुई है। अब वे अपने पुनर्वास के वक्त क्या करते हैं, और उसके पहले केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री मोदी की पार्टी या गठबंधन से जुड़े हुए मामलों पर क्या करते हैं, यह सोचना उनकी अपनी जिम्मेदारी है, और हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि भगवान गणेश उन्हें सही राह दिखाएंगे। हमारा यह भी मानना है कि इस पूजा में जाकर प्रधानमंत्री मोदी ने एक ऐसे अप्रिय विवाद में हिस्सा ले लिया है जिसे टालने के लिए अधिक समझ-बूझ की जरूरत नहीं थी।
कर्नाटक हाईकोर्ट ने अभी एक ऐसी महिला पर नजर रखने के लिए पूरे राज्य की पुलिस को कहा है जिसने पिछले दस बरस में दस अलग-अलग मर्दों के खिलाफ मामले दर्ज करवाए जिनमें पांच पर बलात्कार, दो पर क्रूरता, और तीन पर देह-शोषण के आरोप लगाए। हाईकोर्ट ने इनमें से एक मामले को खारिज किया है, और इस महिला को सीरियल-शिकायतकर्ता करार दिया है। हाईकोर्ट जज ने लिखा है कि यह महिला आगे कानूनी प्रक्रिया का बेजा इस्तेमाल न कर सके इसके लिए पुलिस को सावधान रहना चाहिए। अभी जो मामला हाईकोर्ट ने खारिज किया है वह 498ए का है जो कि पति या ससुराल के लोगों द्वारा किसी महिला पर क्रूरता करने पर लगने वाली धारा है। अदालत ने पाया कि इस महिला की दसों शिकायतें एक ही किस्म से किसी मर्द या उसके परिवार के लोगों को परेशान करने के लिए लिखाई गई दिखती हैं। खारिज किए गए मामले में अदालत ने यह पाया कि जिसके खिलाफ शिकायत लिखाई गई थी उसके परिवार के बाकी सदस्यों को इसमें जबर्दस्ती घसीटा गया है। यह महिला बस रिपोर्ट लिखा देती है, और उसके बाद अदालती बुलावे पर भी नहीं आती। नतीजा यह होता है कि आरोपियों को हिरासत में पड़े-पड़े लंबा वक्त हो जाता है, और जमानत नहीं मिलती।
अब हम इससे परे सुप्रीम कोर्ट चलते हैं जहां पर तीन जजों की एक बेंच ने शादीशुदा जिंदगी के एक मामले की सुनवाई करते हुए अपनी तकलीफ जाहिर की है कि देश में आज बहुत से मामलों में महिलाएं उन कानूनों का बेजा इस्तेमाल करके पति और ससुराल के लोगों को फंसा रही हैं जिन्हें कि महिलाओं को विशेष सुरक्षा देने के लिए बनाया गया था। अदालत ने कहा कि आईपीसी की धारा 498ए के साथ-साथ घरेलू हिंसा के कुछ दूसरे कानूनों का सबसे ज्यादा बेजा इस्तेमाल हो रहा है। पिछले महीने ही एक मामले में बाम्बे हाईकोर्ट ने 498ए के दुरूपयोग पर फिक्र जाहिर की थी, और कहा था कि परिवार में दादा-दादी, या बिस्तर पर पड़े लाचार लोगों को भी इन कानूनों में फंसाया जा रहा है। अदालत ने यह हैरानी जाहिर की कि शादी के बाद किसी महिला को ससुराल के जुल्म से बचाने के लिए जो कानून बना उसका इस्तेमाल करके बहुत सी महिलाएं ससुराल के लोगों पर ही जुल्म ढाने लगी हैं।
इन दो अलग-अलग मामलों को एक ही दिन में अपने सामने देखने के बाद हमें यह भी याद पड़ रहा है कि किस तरह बलात्कार के मामलों में महिला की शिकायत को अदालत अनिवार्य रूप से सच और सही मानकर कार्रवाई शुरू करता है, और बहुत से ऐसे मामलों में लगातार गिरफ्तारियां हो रही हैं जिनमें लंबी पहचान, लंबे संबंध, और लंबे देह-संबंधों के बाद शादी न होने या करने पर कोई लडक़ी या महिला रिपोर्ट लिखाती हैं, और उसमें आनन-फानन गिरफ्तारी हो जाती है। बलात्कार के कानून को लेकर भी बहुत से लोगों का यह मानना है कि सहमति के प्रेम-संबंधों के बाद शादी न होने पर उसे बलात्कार करार देना नाजायज है, और अब देश की कई अदालतें भी इस तरह सोचने लगी हैं। हमने भी कई बार इस बात को लिखा है कि बालिग लड़कियों और महिलाओं को किसी से देह-संबंध बनाते हुए हमेशा यह याद रखना चाहिए कि शादी के वायदे हर बार पूरे नहीं हो सकते, और जिंदगी में कोई भी वायदा ऐसा नहीं होता जो हमेशा पूरा हो सके। इसलिए पुलिस रिपोर्ट और अदालत की नौबत आने के पहले महिलाओं को यह मानकर चलना चाहिए कि देह-संबंध अनिवार्य रूप से शादी में तब्दील नहीं हो जाते।
जब कभी किसी कमजोर तबके को हिफाजत देने के लिए अलग से कड़े कानून बनाए जाते हैं, तो उनके साथ ऐसे खतरे जुड़े ही रहते हैं। ऐसे कानून महिलाओं को बचाने के लिए, दलित और आदिवासी तबकों को बचाने के लिए, और नाबालिग आरोपियों को खास रियायत देने के लिए बनाए गए हैं, और इन सबका भरपूर बेजा इस्तेमाल होता है। ऐसे नाबालिग जो कि रात-दिन नशे के आदी रहते हैं, हर तरह के जुर्म में शामिल रहते हैं, कहीं कत्ल करते हैं, तो कहीं सामूहिक बलात्कार करते हैं, और उसके बाद पुलिस से लेकर अदालत तक नाबालिग होने की रियायत पाते हैं, और जेल की जगह सुधारगृह में कुछ वक्त गुजारकर निकल जाते हैं। यह सिलसिला भी आज देश में सुप्रीम कोर्ट में भी बहस का सामान बना हुआ है कि नाबालिग आरोपियों को भयानक हिंसक अपराधों के मामलों में शामिल रहने पर क्या बालिग की तरह सजा दी जाए? इस पर समाज के अलग-अलग जानकार और विशेषज्ञ तबकों में गंभीर मतभेद है, और हम भी यहां पर अपनी कोई राय नहीं रखते हैं।
अब पल भर के लिए हम कर्नाटक की उस महिला के मामले पर लौटते हैं जिसे हाईकोर्ट ने सीरियल-शिकायतकर्ता करार दिया है। हाईकोर्ट इस नतीजे पर दस अलग-अलग लोगों के खिलाफ उसकी लिखाई गई रिपोर्ट का विश्लेषण करने के बाद यह बोल पा रहा है। लेकिन पिछले दस-ग्यारह बरस में जो लोग अकेले या परिवार सहित गिरफ्तार हुए, और जेल में फंसे रहे, उन पर क्या गुजरी? उसके शुरू के दो-तीन मामलों में तो किसी अदालत को ऐसी सिलसिलेवार और योजनाबद्ध साजिश का अंदाज भी नहीं लगा होगा। अभी हमें ठीक से नहीं मालूम है कि शिकायत झूठी निकलने पर ऐसी शिकायतकर्ता पर कार्रवाई कितनी होती है, और कितने मामलों में नहीं होती। लेकिन न्याय तो यही होगा कि अगर कहीं झूठी शिकायत की साजिश साबित होती है, तो उसकी सजा मिलनी चाहिए। देश का जो कानून दूसरों के अधिकारों में कटौती करते हुए भी, दलित-आदिवासी, महिला-नाबालिग जैसे तबकों को खास रियायत और खास हिफाजत देता है, उसके बेजा इस्तेमाल को रोकने के लिए भी पुख्ता इंतजाम रहना चाहिए, वरना बेकसूरों की जिंदगी खराब करना इन कानूनों के साथ बड़ा आसान काम है।
केन्द्र की मोदी सरकार के दो विभाग, दोनों जनता से एक ही किस्म की बातों से जुड़े हुए हैं, लेकिन दोनों के कामकाज में जमीन-आसमान का फर्क दिख रहा है। एक तो रेलवे है, और दूसरा सडक़ परिवहन। रेलवे का काम देखने वाले अश्विनी वैष्णव आईएएस अधिकारी रहे हुए हैं, और रेलवे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की निजी प्रतिष्ठा से जुड़ी हुई कई योजनाओं को असाधारण तरीके से आगे भी बढ़ा रहा है। मोदी के नाम से जुड़ी वंदे भारत रेलगाडिय़ों को लगातार बढ़ाया जा रहा है, और दूसरी तरफ आम जनता के सफर की गाडिय़ां घटती चली जा रही हैं, छोटे और मामूली स्टेशनों पर रूकना घटते चले जा रहा है, रेलगाडिय़ों में डिब्बे कम होते चले जा रहे हैं, और इन कम होते डिब्बों में आम मुसाफिरों के बिना एसी वाले डिब्बे बहुत बुरी तरह कम कर दिए गए हैं, एसी वाले डिब्बे बढ़ते चले जा रहे हैं, और गरीबों को भी मजबूरी में महंगा सफर करना पड़ रहा है। इसके अलावा रेलवे ने स्टेशनों का निजीकरण शुरू किया है जिससे प्लेटफॉर्म टिकट से लेकर पार्किंग तक सब कुछ अंधाधुंध महंगा होते चल रहा है, वहां पर खानपान महंगा हो रहा है, और रेलवे ने बुजुर्गों की रियायत खत्म कर दी है, रिजर्वेशन की फीस बढ़ा दी है, टिकट कैंसल करने पर चार्ज बढ़ा दिए हैं, और हर दिन देश भर में दर्जनों रेलगाडिय़ों को अचानक रद्द कर दिया जा रहा है, क्योंकि सरकार का पूरा ध्यान कोयले की आवाजाही पर है। लोग सोशल मीडिया पर अपनी कहीं भी खड़ी कर दी गई रेलगाडिय़ों की तस्वीर पोस्ट कर रहे हैं, कि उनकी गाड़ी को वंदे भारत को रास्ता देने के लिए किस तरह रोक दिया गया है। जगह-जगह से खबरें आती हैं कि वंदे भारत ट्रेन खाली चल रही है, घाटे में चल रही है, उसकी लागत नहीं निकल रही। ये खबरें भी आती हैं कि वंदे भारत ट्रेन पर जगह-जगह पथराव हो रहे हैं, और शायद ऐसा इसलिए भी हो रहा होगा जिन छोटे कस्बों में रेलगाडिय़ों का रूकना बंद कर दिया गया है, वहां के लोग नाराज होकर शायद ऐसे पत्थर चलाते हों। रेलगाडिय़ों के गिने-चुने आम मुसाफिर डिब्बों के भीतर जैसी भयानक भीड़ है, उसके वीडियो देखते नहीं बनते हैं। इन सबसे ऊपर देश भर में हर दो-तीन दिनों में कोई न कोई रेल एक्सीडेंट भी देखने मिल रहा है। अगर बहुत से लोग ऐसा सोचते हैं कि रेल मंत्रालय उसी अंदाज में सिर्फ वंदे भारत गाडिय़ों पर ध्यान दे रहा है, जिस अंदाज में छत्तीसगढ़ में पिछली भूपेश बघेल सरकार स्कूल शिक्षा के नाम पर सिर्फ आत्मानंद स्कूलों पर ध्यान दे रही थी, तो ऐसा सोचना बहुत नाजायज भी नहीं लग रहा है।
हमने जिस दूसरे मुद्दे को उठाया है वह सडक़ परिवहन का है, और केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी इस विभाग के मंत्री हैं, और पिछले बरसों में लगातार देश में सडक़ परिवहन सुधरते चले गया। खूब नई सडक़ें बनी हैं, देश भर में फ्लाईओवर, और ओवरब्रिज बने हैं, ट्रैफिक तेज हुआ है, टोल टैक्स नाकों पर फास्टटैग की वजह से कतारें लगना कम हुआ है, और नितिन गडकरी एक समर्पित मंत्री माने जाते हैं जो कि सकारात्मक नजरिए से चीजों को सुधारते हैं, रफ्तार से प्रोजेक्ट पूरा करवाते हैं। उन्होंने अपने विभागों से जुड़ी टेक्नॉलॉजी पर तेजी से अमल करवाया है, फास्टटैग तो एक बात थी, अब वे गाडिय़ों को जीपीएस से लैस करवाकर एक नए किस्म से टोल टैक्स लेने का इंतजाम कर रहे हैं जो कि आज के इंतजाम के मुकाबले अधिक न्यायसंगत और तर्कसंगत भी रहेगा। उन्होंने ग्लोबल निविगेशन सेटेलाइट सिस्टम (जीएनएसएल) से लैस निजी वाहनों पर नेशनल हाईवे पर एक अलग फार्मूले से टोल टैक्स लेना शुरू किया है जो कि बिना किसी टोल टैक्स नाके के हाईवे के इस्तेमाल पर टैक्स का हिसाब करते चलेगा। इसके साथ-साथ मौजूदा इंतजाम भी अभी चलते रहेंगे क्योंकि अभी अधिक गाडिय़ों में यह प्रणाली लगी नहीं है।
नितिन गडकरी ने सडक़ परिवहन मंत्रालय के तहत एक-एक दिन में हाईवे निर्माण के कुछ विश्व रिकॉर्ड भी बनाए हैं कि कितने लेन की सडक़ें, कितने किलोमीटर एक दिन में बनाई गई हैं। मंत्री के रूप में उनका काम हमेशा चर्चा में रहा है, और वे सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी भविष्य की योजनाओं को लेकर सकारात्मक बातें करते हैं।
हम भारत में लोगों की आवाजाही से जुड़े, और माल परिवहन से जुड़े इन दो मंत्रालयों को जब एक साथ देखते हैं, तो रेलवे की हालत लगातार जनविरोधी होती चली जा रही है। ग्रामीण और गरीब मुसाफिरों की मुसीबत खड़ी करने में रेल मंत्रालय ने कोई कसर नहीं रखी है। इस अखबार ने अपने यूट्यूब चैनल ‘इंडिया-आजकल’ पर बिलासपुर हाईकोर्ट के एक वकील सुदीप श्रीवास्तव को इंटरव्यू किया था जिन्होंने रेल सेवा की तबाही के खिलाफ हाईकोर्ट में याचिका लगाई थी। उन्होंने खुलासे से बताया था कि गरीब और ग्रामीण जनता को किस तरह रेल मंत्रालय ने घूरे के ढेर पर फेंक दिया है, और कम से कम रेलगाडिय़ां चलाकर अधिक से अधिक मुनाफा कमाना सरकार ने मकसद बना लिया है, और जनता पर भारी-भरकम बोझ डालने, उनकी सहूलियतें छीन लेने की कीमत पर रेल मंत्रालय अपने घाटे कम कर रहा है। हिन्दुस्तान के इतिहास में अच्छी-भली चलती भारतीय रेल को इतना बर्बाद करने का काम कभी नहीं हुआ था। और देश भर में चुनिंदा वंदे भारत ट्रेन चलाना किसी भी तरह से जनता की तकलीफों की भरपाई नहीं हो सकती। जब देश के सैकड़ों, या शायद हजारों रेलवे स्टेशनों पर ट्रेन रूकना बंद कर दिया गया है, तो वहां की जनता की आर्थिक विकास की संभावनाओं को भी चौपट कर दिया गया है। न वहां के बच्चे पास के शहर तक रोज पढऩे आ-जा सकते, न गांव के मजदूर काम करने शहर आ सकते, और न ही गांव की अपनी छोटी सी उपज लेकर उसे रोज शहर बेचने जाया जा सकता। एक तरफ तो देश में आर्थिक विकास की बात कही जा रही है, और दूसरी तरफ एक-एक दिन में दर्जनों मुसाफिर रेलगाडिय़ों को अचानक रद्द कर देना जनता को एकदम ही गैरजरूरी मान लेने के अलावा कुछ नहीं है।
जो लोग दशकों से नितिन गडकरी को देखते आ रहे हैं, क्या वे यह कल्पना भी कर सकते हैं कि अगर वे रेलमंत्री होते तो क्या इस विभाग का हाल इतना खराब हुआ होता? हम लोकतंत्र में व्यक्तिवादी होना तो नहीं चाहते, लेकिन कुछ नेता, कुछ अफसर ऐसे रहते हैं कि उनके अकेले के रहने और न रहने से उनके विभाग के काम में जमीन-आसमान का फर्क पड़ जाता है।
उत्तरप्रदेश में करीब 70 हजार शिक्षकों की भर्ती का मामला चार बरस से अदालतों में चल रहा है, और अभी भी किसी अंत के करीब नहीं है। हाईकोर्ट ने इनकी चयन सूची को खारिज करते हुए तीन महीने में नई चयन सूची बनाने का हुक्म दिया था, और इस आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है। अदालत हाईकोर्ट के फैसले को अधिक बारीकी से पढऩा चाहता है, और इस बीच उसने सरकार और शिक्षकों के अलग-अलग तबकों को नोटिस भी दिया है। कुछ इसी तरह के मामले छत्तीसगढ़ में अलग-अलग कई तरह के स्कूल और कॉलेज शिक्षकों के चयन और उनके प्रमोशन को लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक चल रहे हैं, और सरकारों का कार्यकाल खत्म हो जाता है लेकिन अदालतों में फैसले नहीं हो पाते। छत्तीसगढ़ में बेरोजगारों को पिछले दो दशक में कई तरह के सदमे झेलने पड़े हैं। 2005 के पीएससी घोटाले के शिकार लोगों को अब तक सुप्रीम कोर्ट से इंसाफ नहीं मिल पाया है। जबकि गलत चुन लिए गए लोग राज्य सेवा से आगे बढ़ते हुए आईएएस बन चुके हैं, और उनकी जगह जिन लोगों को नौकरी मिलनी चाहिए थी, वे अब तक बेरोजगार घूम रहे हैं। बरसों से यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पड़ा हुआ है, और इसका कोई निपटारा नहीं हो रहा है। स्कूल और कॉलेज शिक्षकों के हजारों लोगों के मामले बरसों तक घिसटते हुए अदालतों से तय होते हैं, तो भी सरकार को उस पर अमल की कोई जल्दी नहीं रहती।
किसी भी राज्य की सरकार, उसके पास अपने नियमित वकीलों की एक फौज तो रहती ही है, देश के सबसे बड़े विशेषज्ञ वकीलों की मोटी फीस देकर भी सरकारें उनसे राय लेती हैं। ऐसे में इतने गलत फैसले होते कैसे हैं कि हजारों बेरोजगारों, या सरकारी कर्मचारियों की जिंदगी को प्रभावित करने में कानूनी चूक हो जाए? क्या बड़े-बड़े आईएएस अफसर, और सरकार के बड़े-बड़े वकील मिलकर भी कानूनी गलतियों को टाल नहीं सकते? कौन से ऐसे दबाव रहते हैं कि सरकार इतनी गलतियां, या गलत काम करती है? जब कभी हम अदालतों पर बोझ की बात करते हैं, तो यह बात भी उठती है कि बड़ी अदालतों का बहुत सारा वक्त तो गलत सरकारी फैसलों के खिलाफ लडऩे में ही चले जाता है। अदालतों में सरकारों का अडिय़ल रूख देखें तो ऐसा लगता है कि जज जज नहीं हैं, वे सरकारी वकील के खिलाफ बहस करने वाले वकील हैं। अभी उत्तराखंड के एक मामले में मुख्यमंत्री की तरफ से उनके वकील ने सुप्रीम कोर्ट के जज से कहा कि किसी भी तरह का तबादला करना मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार है, फिर चाहे राज्य के मंत्री और अफसर इसके खिलाफ ही फाइलों पर क्यों न लिख चुके हों। सुप्रीम कोर्ट जज को वकील को यह समझाना पड़ा कि राजशाही के दिन लद गए हैं, और मुख्यमंत्री अब बादशाह नहीं होते हैं कि उनकी मर्जी हुक्म हो जाए, अब कानून का राज चल रहा है। यह नौबत आम रहती है। आज अनगिनत राज्य सरकारों, विधानसभा अध्यक्षों, राज्यपालों का रूख संविधान और कानून के खिलाफ जाकर मनमानी करने का रहता है। हर कुछ हफ्तों में सुप्रीम कोर्ट के जज इन तबकों में से किसी न किसी के मुखिया की आलोचना करते हैं, और यह साबित होता है कि उन्होंने संविधान के खिलाफ काम किया है। जबकि इनमें से हर किसी को कानूनी सलाहकार हासिल रहते हैं।
लोकतंत्र में जहां गौरवशाली परंपराओं के आधार पर अलग-अलग संवैधानिक संस्थाओं को जनहित और जनकल्याण में फैसले लेना चाहिए, अब लगातार यह देखने मिलता है कि राज्य सरकार, विधानसभा, और राजभवन के मुखिया अपने पहले की कमजोर और खराब मिसालों को गिनाते हुए उनसे भी अधिक कमजोर और खराब फैसले लेने पर आमादा रहते हैं। छत्तीसगढ़ की पिछली भूपेश सरकार ने राज्य की कुछ सबसे भ्रष्ट अफसरों को बचाने के लिए राज्य की ही जांच एजेंसी को तबाह कर दिया, और जांच एजेंसी ने मुजरिमों के वकील की तरह काम किया। इसके अलावा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने ऐसे लोगों के रिटायर हो जाने के बाद तमाम नियमों के खिलाफ जाकर उन्हें दुबारा नौकरी दी, और राज्य के सबसे जरूरी महकमों का बाप बनाकर उन्हें बिठा दिया था। भूपेश सरकार के खिलाफ आज सुप्रीम कोर्ट से लेकर जांच एजेंसियों की विशेष अदालतों तक जितने मामले चल रहे हैं, वे जाहिर तौर पर सरकार ने जानते-समझते हुए गलत फैसले लिए थे, उनसे राज्य का हजारों करोड़ का नुकसान हुआ, सरकार ने एक मुजरिम गिरोह की तरह काम किया, और अब उसका एक-एक फैसला अलग-अलग अदालतों में नंगा हो रहा है।
सरकारों को यह समझना चाहिए कि वे सत्ता के बाहुबल से कई बहुत ही गैरकानूनी फैसले ले सकती हैं, और जब तक अदालतों से उनके खिलाफ आखिरी फैसला नहीं हो जाता, तब तक वे अपने फैसले को सही करार देते हुए राजनीतिक मोर्चे पर अड़े भी रह सकती हैं, लेकिन बरसों बाद जाकर सही, ऐसे फैसले गलत साबित होते ही हैं। इसमें बरसों तक जनता बेइंसाफी झेलती है, देश की सबसे व्यस्त और सबसे बड़ी अदालतें इन निहायत गैरजरूरी मामलों का बोझ झेलती हैं, और लोकतंत्र में सबसे खराब मिसालें स्थापित होती हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। हमारा तो यह साफ मानना है कि जो अफसर ऐसे गलत फैसलों की फाइलों पर दस्तखत करते हैं, उनके खिलाफ भी अदालतों को खुलकर फैसले देने चाहिए, ताकि बाकी अफसरों को भी पता लगे कि नाजायज राजनीतिक फैसलों को फाइलों पर सही ठहराने की कोशिश कैसी सजा दिलाती है। एक-एक गलत सरकारी फैसले से जब लाखों बेरोजगारों का दिल टूटता है, हजारों बेरोजगारों का हक छिनता है, तो फिर उसके खिलाफ अदालती फैसले में जिम्मेदार अफसरों पर भी टिप्पणी होनी चाहिए। ऐसी टिप्पणी इन अफसरों के रिकॉर्ड में भी दर्ज होनी चाहिए ताकि आगे उनके भविष्य को तय करते हुए इसे ध्यान में रखा जाए। केन्द्र सरकार को भी अपने भेजे हुए अखिल भारतीय सेवा के अफसरों पर नजर रखनी चाहिए कि राज्यों में वे किस तरह काम कर रहे हैं, और कैसे बर्ताव के हकदार हैं। आज हालत यह रहती है कि तीस साल की नौकरी करने के बाद ऐसे लोगों के बारे में केन्द्र कोई फैसला लेती है, और तब तक वे लोकतंत्र को बहुत दूर तक बर्बाद कर चुके रहते हैं। जितने भी व्यापक महत्व के सरकारी फैसले आखिरी अदालत से खारिज होते हैं, उन्हें लेकर अदालत, या सरकार की तरफ से यह भी खुलासा होना चाहिए कि किन मंत्रियों, और किन अफसरों ने ऐसा फैसला लेने में क्या भूमिका निभाई थी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
गणेशोत्सव को लेकर इस बरस तनातनी कुछ अधिक दिख रही है। पहले ही दिन छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के एक गांव में गणेश पंडाल में लाउडस्पीकर पर संगीत बजाने को लेकर खूब झगड़ा हुआ, और दो खेमों के बीच इतनी मारपीट हुई कि बांस से पीट-पीटकर एक खेमे के तीन लोगों को मार डाला गया। दस दिनों तक चलने वाला जो गणेशोत्सव खुशियां लेकर आना चाहिए, वह लाशें लेकर आया है। और इसमें गणेशजी की कोई गलती नहीं है, गलती उन लोगों की है जो गणेश-पूजा के साथ अनिवार्य रूप से लाउडस्पीकर जोड़ देते हैं, चंदा उगाही से लेकर सडक़ पर ट्रैफिक रोकने तक की मनमानी करते हैं। कल ही राजधानी रायपुर में बनाया गया एक बहुत बड़ा गणेश पंडाल हवा से गिर गया, और नीचे दबी एक कार चकनाचूर हो गई, लोग किसी तरह बच गए। इधर बिलासपुर में बसा हुआ छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट लगातार नोटिस पर नोटिस जारी करते जा रहा है, और पुलिस और प्रशासन शोरगुल के कारोबारियों को कागजी नोटिस थमाकर अपनी जिम्मेदारी पूरी मान ले रहे हैं। कई अफसरों का यह कहना है कि त्यौहार के बीच धार्मिक भावनाएं इतनी उभरी और भडक़ी हुई हैं कि भीड़ को हाईकोर्ट का आदेश समझाना खतरे से खाली नहीं है। दस दिन के गणेशोत्सव के पंडाल बनते और हटते मिला लें, तो सडक़ों पर बीस दिन का कब्जा हो जाता है, और आसपास का कारोबार तबाह होता है, सडक़ों पर आवाजाही घंटों तक फंसी रहती है। धर्म के नाम पर जो आक्रामक और हिंसक तेवर भीड़ के रहते हैं, उससे उलझना आसान और महफूज काम नहीं रहता, इसलिए पुलिस ऐसे जुलूसों को रोकने के बजाय उनके साथ-साथ उनकी हिफाजत करते चलती है।
आज ही अखबारों में खबरें हैं कि किस तरह बिजली के तारों से गणेश पंडालों के लिए सीधे बिजली ले ली गई है, और इसकी वजह से कई इलाकों में बत्ती गुल हो रही है। यह हाल प्रतिमाओं को लेकर जाने से लेकर प्रतिमाओं के विसर्जन तक चलते रहता है, और जब पुलिस-प्रशासन की हिम्मत ऐसी अराजकता को रोकने-टोकने की नहीं होती, तो मुश्किल में फंसने वाली त्रस्त जनता भला क्या कर लेगी। हमारा ख्याल है कि प्रदेश में लाउडस्पीकरों, और धार्मिक अराजकता के बाकी प्रदर्शन-प्रतीकों को देखते हुए हाईकोर्ट को अपना आदेश खुद ही वापिस ले लेना चाहिए, और शासन-प्रशासन से माफी भी मांग लेनी चाहिए कि उन्हें पिछली कुछ बरसों से अदालत से जो तकलीफ हुई है, उसके लिए आज जैन क्षमायाचना के दिन माफ किया जाए। जिन आदेशों पर अमल नहीं हो सकता, उनकी वजह से लोगों का भरोसा सरकारों, अदालतों, और जनता की किसी काल्पनिक ताकत, सब पर से उठ जाता है।
हम दुर्ग जिले में परसों रात मारपीट में हुए तीन कत्ल पर बात करें, तो पता लगा है कि वहां तमाम नौजवान नशे में भी थे। अब एक तरफ दारू का नशा, दूसरी तरफ धर्मान्धता का नशा, और इन सबके साथ जब बेरोजगार निठल्लों के पास ढेर सा खाली वक्त हो, आगे की जिंदगी के लिए कोई भी उम्मीद न हो, तो फिर लोग नशे में एक-दूसरे को निपटाते हुए कानून के बारे में नहीं सोचते। गांवों का हाल यह है कि शाम के बाद आबादी का एक बड़ा हिस्सा नशे में डूबा रहता है, और ऐसे में ही घर-परिवार में आपस में होती हिंसा भी लगातार बढ़ती चल रही है। पुलिस परिवारों के भीतर, दोस्तों के बीच होते कत्लों की लाशें उठाते हुए बुरी तरह थकी हुई है, और ऐसे में कानूनी और गैरकानूनी, दोनों तरह के नशे आगे में घी डाल रहे हैं। अब ऐसे माहौल में लाउडस्पीकरों की आवाज पर झगड़े, धार्मिक जुलूसों में चाकूबाजी से कत्ल, गणेश पंडालों में बैठकर शराब पीना, और जुआ खेलना, सभी तरह के काम चल रहे हैं। यह अराजकता लोगों में हिंसा बढ़ाती चल रही है, और पुलिस-प्रशासन इसे रोकने की सोचने के पहले यह सोचना शुरू कर देते हैं कि धार्मिक और धर्मान्ध भीड़ से टकराव लेना समझदारी तो होगी नहीं।
चुनाव जीतने के लिए तो किसी समुदाय में धार्मिक भावनाएं भडक़ाना समझ में आता है, लेकिन जब भडक़ने की यह आग चुनाव के बाद शांत नहीं होती, और पूरे पांच बरस भभकती रहती है, तो इससे न सिर्फ धर्मान्ध हिंसा, बल्कि कई मौकों पर साम्प्रदायिक हिंसा का भी खतरा बढ़ जाता है, सार्वजनिक जीवन में अराजकता तो स्थाई रूप से बढ़ ही चुकी है, और फिर एक धर्म के मुकाबले दूसरे धर्म या धर्मों का अराजक-प्रदर्शन भी बढ़ते चलता है। एक दूसरी बड़ी दिक्कत नौजवान पीढ़ी के सामने अपनी खुद की संभावनाओं को लेकर है। जिस पीढ़ी को किसी काम-धंधे से लगना चाहिए, नौकरी ढूंढनी चाहिए, या कोई रोजगार शुरू करना चाहिए, उसे एक के बाद एक अंतहीन धार्मिक और राजनीतिक आयोजनों में इस तरह जोतकर रखा जा रहा है कि मानो तांगे में किसी घोड़े को जोतकर रखा गया हो, और उसकी आंखों को कवर लगाकर ढांक भी दिया गया हो, ताकि उसे दाएं-बाएं का कुछ न दिखे, और वह विचलित न होकर सीधा दौड़ते जाए। आज नौजवान पीढ़ी को धर्म और राजनीति के कवर लगाकर उसकी असल संभावनाओं की तरफ उसका देखना रोक दिया गया है। और लोग जयकारों में, जिंदाबाद-मुर्दाबाद में, और अपने धर्म की रक्षा करने, और दूसरे धर्म के लोगों को सरहद के पार फेंकने के फतवों में डूबे हुए हैं। जिंदगी के लिए जिनके सामने कोई मकसद और मंजिल न हों, वैसे लोगों को किसी भीड़ और जुलूस का हिस्सा बनाना बड़ा आसान रहता है, और आज वही कुछ चल रहा है।
रोजमर्रा की जिंदगी पर धर्म का प्रदर्शन जिस बुरी तरह हावी हो चुका है, उस पर जनता तो कुछ भी रोकने-टोकने की हालत में नहीं है। सार्वजनिक जीवन में चैन से जीने के अपने हक का दावा करने वाले लोगों पर धर्मविरोधी होने की तोहमत लगाते हुए उनका जीना हराम कर दिया जाता है। इस सिलसिले को बदलने के लिए कानून के राज को फिर से कायम करना रहेगा, लेकिन सरकारों की दिलचस्पी इसमें कम है, और बड़ी अदालतों के जज अपने ही फैसलों पर अमल नहीं करवा पा रहे हैं। इस नौबत का कोई भी इलाज हमें तब तक नहीं दिखता, जब तक कि सरकारों में अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी पूरी करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति हो। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
लोकतंत्र में जनता के जानने का अधिकार, और उनके सामने अपने समाचार-विचार रखने का अधिकार भारत में मीडिया को, और खासकर अखबारों को बड़ा महत्वपूर्ण बनाता है। समाज के बाकी तबकों की तरह अखबारों में भी नीति-सिद्धांतों की कुछ गिरावट आई है, लेकिन वे मीडिया के बाकी हिस्सों से परे आज भी अधिक जिम्मेदार और अधिक जवाबदेह बने हुए हैं। और अखबारों की वजह से ही लोकतंत्र के बाकी तबके, विधानसभा और संसद, सरकार, और न्यायपालिका को भी अखबारों की वजह से सजग रहने, जानकारी पाने, और खुद भी जवाबदेह बने रहने का एक बेहतर मौका मिलता है। यह एक अलग बात है कि आज बहुत से अखबारों का बहुत सा हिस्सा सरकार और बाजार से प्रभावित और प्रायोजित रहता है, लेकिन छोटे-बड़े कई किस्म के अखबारों में से चूंकि हर किसी का मुंह एक साथ बंद नहीं किया जा सकता, उनकी चुप्पी को एक साथ नहीं खरीदा जा सकता, इसलिए अखबार आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं। जब राजनीतिक दलों और सरकारों को नीति और नीयत की अधिक फिक्र नहीं रह गई है, उनकी झिझक अधिकतर बातों के लिए खत्म हो चुकी है, तब भी अखबारों की वजह से उनके हर गलत काम छुप नहीं पाते, और अधिकतर काम कभी न कभी सतह पर आ ही जाते हैं।
हम अखबारों की चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि वे नेताओं, और उनके संगठनों, सरकारों, और उनके अलग-अलग हिस्सों के लिए आज भी समय रहते उनकी आंखें खोलने वाले हैं। अखबारों में अपने बारे में नकारात्मक समाचार पढक़र सरकारों का बौखलाना पहले के मुकाबले बढ़ते चल रहा है, क्योंकि अखबार खुद अपनी महंगी अर्थव्यवस्था के लिए सरकारी इश्तहारों और उससे दूसरे किस्म की मेहरबानियों के मोहताज हो गए हैं। इसलिए सरकार को यह शिकायत हो सकती है कि उसकी मदद से छपने वाले अखबार उसकी गलतियों और गलत कामों को छुपाने में मदद नहीं करते। लेकिन यह छुपाना किसी भी समझदार सरकार के लिए लंबे फायदे की बात नहीं होती है। अगर अखबारों में सरकारी भ्रष्टाचार, गड़बड़ी, मनमानी का सच न छपे, तो सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी खुशफहमी में जीने लगेंगे कि सब ठीक चल रहा है। हमने न सिर्फ इमरजेंसी के दौर में देखा है, बल्कि बाद में भी कुछ अलग-अलग सरकारों के राज में बिना इमरजेंसी के भी देखा है कि अपने बारे में हकीकत छपते देखना जिन्हें मंजूर नहीं होता, वे आगे किसी चुनाव में बहुत बुरी तरह शिकस्त पाते हैं। कई सरकारें अखबारों को कभी खरीदकर, तो कभी डराकर काबू में रखती हैं, और अपने बारे में सब कुछ अच्छा-अच्छा छपा देखना चाहती हैं। इससे कुछ पल के लिए तो जनधारणा प्रबंधन में मदद मिल सकती है, लेकिन जब हकीकत सचमुच ही खासी नकारात्मक रहती है, तो उसके ऊपर अखबारों की चुप्पी की चादर ढांककर लंबे समय के लिए इसे नहीं दबाया जा सकता।
लोकतंत्र में जहां पर जनता के हाथ वोट है, और जो जनता खासी लोकप्रिय, लुभावनी, कामयाब, और फायदे देने वाली सरकार को भी निपटा देती है, वहां पर जनता के बीच के मुद्दों और हालात को दिखाने वाले समाचारों को दबाना खुद सत्ता के लिए समझदारी नहीं होती। समाचार तो धीरे-धीरे करके जनता के विचार तैयार करते हैं, लेकिन यह बात नहीं भूलना चाहिए कि जमीनी हालात बिना अखबारों के भी जनता के खयालात बदलते चलते हैं। लोग जब सरकारी बदइंतजामी, भ्रष्टाचार, कुशासन से परेशान रहते हैं, उस वक्त अखबारों में तो खबरों को कुछ या अधिक हद तक दबाया जा सकता है, लेकिन जनता का असंतोष दबते-दबते चुनाव में विस्फोट की तरह सामने आता है। हमने बहुत से प्रदेशों में इस तरह के विस्फोट देखे हैं जब अच्छी-भली चलती हुई सरकार की सत्तारूढ़ पार्टी के हार का कोई आसार नजर नहीं आता था, और चुनावी सर्वे से लेकर ओपिनियन पोल और एक्जिट पोल तक सत्तारूढ़ पार्टी की एकतरफा जीत की भविष्यवाणियां चल रही थीं, और पार्टी निपट गई। छत्तीसगढ़ में ही पन्द्रह बरस की रमन सरकार जिस बुरी तरह खारिज हुई थी, उसके कोई आसार नहीं दिख रहे थे। ठीक इसी तरह पिछले पांच बरस की भूपेश सरकार दसियों हजार करोड़ के फायदे वोटरों को देते हुए भी जिस बुरी तरह हारी है, वह भी इस बात का सुबूत है कि मीडिया-मैनेजमेंट नाम के एक बदनाम शब्द का अंधाधुंध इस्तेमाल जनता को तो अंधेरे में नहीं रखता, सत्ता को जरूर अंधेरे में रखता है, अतिआत्मविश्वासी बना देता है, और इन दोनों का मिलाजुला असर अहंकार में तब्दील होता है।
किसी भी समझदार सत्ता के लिए अखबार में उसके बारे में छपी नकारात्मक खबरें रोजाना अपने को संभालने का सबसे अच्छा मौका रहती हैं। सत्ता के हर दर्जे के भागीदार अपने मातहत लोगों की गलतियों को, गलत कामों को खबरों में देखकर उनमें सुधार की कोशिश कर सकते हैं, और ईमानदार आत्मविश्लेषण लोगों को पांच बरसों में लगातार सुधार का एक मौका देता है। दिक्कत यह होती है कि नेताओं के इर्द-गिर्द के दायरे एक रणनीतिक धुंध बनाकर रखना चाहते हैं ताकि नेता को सब कुछ अच्छा दिखता रहे। नतीजा यह होता है कि नेता खुशफहमी में रहते हैं, और जनता तो तकलीफ पाई हुई रहती है, और पांच बरस बाद उसके सामने जब ईवीएम आती है, तो वह सरकार से अपने सारे हिसाब-किताब एक उंगली से तय करती है। लोकतंत्र में हर दिन अखबारों में छपने वाली असफलताओं को देख-देखकर अगर सत्ता अपने इंतजाम को सुधारते चले, तो उसे पांच बरस बाद नाजायज घोषणाओं, और नाजायज तौर-तरीकों की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। हम लोकतंत्र में उस सरकार को सफल मानते हैं जो लोकतंत्र के दूसरे औजारों पर भरोसा करती है। इनमें अखबार भी एक औजार हैं जिनमें रोज आईने की तरह अपना चेहरा देखकर सरकार संभल सकती है कि उसे कहां-कहां अपना काम सुधारना है।
यह लोकतंत्र में कोई बहुत बड़ी आदर्श व्यवस्था नहीं है, बल्कि यह एक सहज स्थिति रहनी चाहिए। यह एक अलग बात है कि कुछ लोग सत्ता को अंधेरे में रखने के लिए अखबारों का चुप रहना पसंद करते हैं, और पांच बरस जाकर सत्ता ऐसे अंधेरे में रहते हुए गड्ढे में गिर जाती है। समझदार सत्ता को लोकतंत्र का फायदा उठाना चाहिए, और हर दिन के अखबार से अपनी गड़बडिय़ां देखकर उन्हें सुधारना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मध्यप्रदेश के उज्जैन से निकला हुआ एक वीडियो देश में सनसनी फैला रहा है। उज्जैन का खास धार्मिक महत्व है, वहां महाकाल विराजमान हैं। फिर एमपी के मौजूदा मुख्यमंत्री मोहन यादव उज्जैन के ही बाशिंदे हैं, और वहीं के विधायक भी हैं। ऐसे में उनके शहर के व्यस्त इलाके में चहल-पहल वाली सडक़ के किनारे एक नौजवान और महिला के बीच दिनदहाड़े सेक्स चलते रहा, और लोग वीडियो बनाते रहे। बाद में इन दोनों लोगों को पुलिस थाने ले गई तो पता लगा कि दोनों ने साथ में शराब पी थी, और फिर यह सेक्स हुआ। फिलहाल पुलिस ने बलात्कार का मुकदमा दर्ज करके इस नौजवान को अदालत के रास्ते जेल भेजा है, और वीडियो बनाकर फैलाने वालों की पहचान की जा रही है। इस महिला का एक जवान बेटा भी है, और उसका कहना है कि उसके साथ सेक्स करने वाले नौजवान ने उससे शादी का वायदा किया था, फिर दोनों ने शराब पी, और फिर आते-जाते लोगों के बीच सडक़ किनारे यह सेक्स हुआ जिसमें बलात्कार की धारा लगने से नौजवान जेल चले गया। दोनों पहले से परिचित भी हैं।
इस घटना के कई पहलू हो सकते हैं। लेकिन हम इसके एक छोटे हिस्से को लेकर आज यहां लिखना चाहते हैं कि जैसा कि इस महिला का कहना है इस नौजवान ने उससे शादी का वायदा किया, और फिर नशे में सेक्स किया। हम छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्य में हर दिन एक से अधिक ऐसी खबरें देख रहे हैं जिनमें शादी का वायदा करके सेक्स करना, और फिर शादी न करने पर बलात्कार की तोहमत में जेल जाना हो रहा है। ऐसे कई मामलों में लड़कियां नाबालिग भी रहती हैं, और वादाखिलाफी करने वाले लोग बालिग रहते हैं। ऐसे मामलों में पॉक्सो कानून लागू होता है, जिसमें किसी वायदे का, या तोडऩे का कोई महत्व नहीं रहता है, और न ही लडक़ी की सहमति कोई मायने रखती है। लेकिन जहां पर दोनों ही बालिग रहते हैं, वहां पर एक सवाल यह खड़ा होता है कि क्या शादी का वायदा, जो कि दो पक्षों के बीच हो सकता है, किसी एक तरफ से तो नहीं हो सकता, सहमति के सेक्स-संबंध को बाद में बलात्कार भी साबित कर सकता है, क्या ऐसा होना चाहिए?
अभी देश की अदालतों में इसे लेकर कई तरह की बहस चल रही है। कुछ राज्यों में हाईकोर्ट ने इसे बलात्कार मानने से इंकार भी कर दिया है। हम भी पहले कई बार इस मुद्दे पर लिख चुके हैं कि दो बालिगों के बीच शादी का वायदा अगर सेक्स तक पहुंचता है, तो क्या उसे पूरी जिंदगी के लिए मजबूरी का एक रिश्ता मान लेना जायज होगा? वायदा तो हर सगाई के वक्त शादी का होता है, लेकिन बहुत सी सगाई टूट जाती हैं, और शादी नहीं हो पातीं। बहुत सी शादियां बाद में तलाक में बदल जाती हैं। ऐसे में किसे वायदा माना जाए, और वायदा पूरा न होने पर उसे सजा के लायक कैसे माना जाए? दो बालिगों के बीच होने वाले सेक्स-संबंध अगर सहमति से हैं, तो क्या बाद में इन दोनों में से किसी को भी अपना फैसला बदलने की आजादी नहीं रह जाती? क्या एक बार का वायदा जिंदगी भर के लिए, या शादी हो जाने तक के लिए एक बंधन रहना चाहिए? जिस समाज में, या जिन इंसानों के बीच शादी और बच्चे हो जाने के बाद भी कुछ स्थाई नहीं रहता है, उनके बीच देहसंबंधों के पहले के एक कथित जुबानी वायदे को कितना बंधनकारी मानना जायज होगा? ऐसी किसी भी शिकायत में अपने को बलात्कार की शिकार बताने वाली महिला का बयान ही उसके भूतपूर्व या मौजूदा साथी की गिरफ्तारी के लिए काफी होता है, और हर दिन ऐसी गिरफ्तारी हो रही हैं।
क्या बलात्कार की शिकायत पर अनिवार्य रूप से गिरफ्तारी, और जेल का मौजूदा सिलसिला लड़कियों और महिलाओं को लापरवाही की हद तक अतिआत्मविश्वासी बना रहा है कि वे किसी आदमी के कहे हुए, या न कहे हुए शब्दों को एक मजबूत वायदा मानकर अपने बदन को उसके हवाले कर दें? कानून तो अपनी जगह अपना काम कर देता है, लेकिन क्या इस पूरे सिलसिले को एक अधिक समझदारी के साथ शुरू में रोका नहीं जा सकता, ताकि बलात्कार की शिकायत लेकर उससे आहत लड़कियां या महिलाएं पुलिस तक जाने से बचें? जब रोज ऐसी कई खबरें आती हैं, तो किस तरह की सावधानी सामाजिक परेशानी, और अदालती चक्करों से बचा सकती है? बात महज कानूनी हक की नहीं है, कानूनी हक का दावा तो हर कोई कर सकते हैं, किसी पिता के गुजरने पर कल एक जगह उसकी लाश अंतिम संस्कार का इंतजार करती रही, और दो वारिस बेटों में संपत्ति के बंटवारे के लिए मारपीट चलती रही। संपत्ति का बंटवारा उनका हक है, लेकिन अगर पिता अपने जीते-जी वसीयत के कागज साफ-सुथरे बनाकर, कानूनी औपचारिकताएं पूरी करके छोड़ गया होता, तो ऐसा नहीं हुआ होता।
हम यह भी सोच रहे हैं कि क्या दो बालिगों के बीच देहसंबंधों के पहले ऐसी कुछ लिखा-पढ़ी हो जानी चाहिए कि वे आपसी सहमति से, और अपनी मर्जी से देहसंबंध बना रहे हैं, और यह बलात्कार या सेक्स-शोषण नहीं है? अब सवाल यह उठता है कि जब देश में एक तबका शादीशुदा जोड़ों के बीच भी असहमति के बाद हुए सेक्स को बलात्कार करार देने का कानूनी इंतजाम चाहता है, तो प्रेमसंबंधों में क्या हर बार के देहसंबंध के पहले अनुबंध को नया किया जाएगा? यह मामला उन दो बदनों को अटपटा लग सकता है जो किसी एक वक्त एक होने पर आमादा थे, और अब दोनों में असहमति हो गई है। लेकिन इसका इलाज क्या हो सकता है? आज जब देश के कम से कम एक राज्य में साथ रहने वाले गैरशादीशुदा जोड़ों के लिए लिव-इन-रिलेशनशिप का रजिस्ट्रेशन कराना जरूरी कर दिया गया है, तो क्या सहमति के देहसंबंधों का भी करार रजिस्टर हो सकता है? आखिर ऐसा हर विवाद पुलिस, अदालत, और जेल इन तीनों जगहों पर बोझ बनकर सरकार पर खर्च डालता है, उसके ढांचे और अमले का वक्त इस पर खर्च होता है।
हमारा ख्याल है कि बालिग होने वाले जोड़ों को दुनिया का इतना तजुर्बा रहता है कि वे समझ सकें कि हर वायदे पूरे नहीं होते हैं। और किसी जुबानी वायदे के आधार पर कोई लडक़ी अपना बदन किसी को दे दे, यह भी ठीक नहीं है। कानून में लडक़ी को यह विशेषाधिकार दिया है कि बलात्कार की उसकी शिकायत पर आमतौर पर शक नहीं किया जाएगा। लेकिन यह एक ऐसी खतरनाक नौबत भी है जिसमें किसी देहसंबंध में शामिल आदमी को पहली शिकायत पर ही बिना सुबूत गिरफ्तार किया जा सकता है। हम किसी लडक़ी की शिकायत पर शक किए बिना, सिर्फ यही सोच रहे हैं कि क्या ऐसे विवादों को खत्म करने का कोई जरिया हो सकता है? क्या देहसंबंध को देश का कोई जायज कानून अनिवार्य रूप से शादी में तब्दील करने का बोझ आदमी पर डाल सकता है? आज तो कानून कुछ ऐसा ही है, लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि क्या यह कानून तर्कसंगत और न्यायसंगत भी है?
गणेशोत्सव से त्यौहारों का मौसम शुरू हो रहा है, और आगे जाकर कुछ और देवी-देवताओं की प्रतिमा स्थापना का वक्त आएगा, और हर प्रतिमा की आवाजाही पर सडक़ों पर भयानक अराजकता का नजारा देखने मिलता है। देश के बहुत से हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट कई बार ऐसे मौकों पर सडक़ों पर धार्मिक जुलूसों के खिलाफ और लाउडस्पीकरों के जानलेवा शोर के खिलाफ बहुत सी चेतावनियां सरकारों को, और अफसरों को दे चुके हैं, लेकिन उनका कोई असर कम से कम हमें छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में तो देखने नहीं मिलता। यहां का हाईकोर्ट बहुत सक्रिय होकर प्रदेश के सबसे बड़े अफसरों से बड़े-बड़े हलफनामे लेते रहा है, और जिलों के अफसरों के खिलाफ बहुत कड़ी टिप्पणियां करते रहा है, लेकिन ऐसा लगता है कि राजनीतिक ताकतें समाज के सबसे उन्मादी, धार्मिक तबकों पर काबू करना चाहती ही नहीं है। यह बात सिर्फ सत्ता पर लागू नहीं होती है, विपक्षी राजनीतिक दलों पर भी उतनी ही लागू होती हैं, और कई बार तो यह लगता है कि अपने बड़े कड़े फैसलों और आदेशों की ऐसी बुरी अनदेखी देखकर हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और दूसरे जज रात में सोते कैसे होंगे?
इस बात को समझने की जरूरत है कि जब अराजकता बढ़ती है, तो वह जरूरी नहीं है कि सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी को पसंद आने वाले जुर्म पर जाकर रूक जाए। वह जंगल की आग की तरह बढ़ती है, और जिस तरह कुछ जंगली जानवरों के बारे में कहा जाता है कि उनके मुंह इंसानी लहू लगने के बाद वे किसी भी इंसान को मार सकते हैं, कुछ वैसा ही किसी भी धर्म के उन्माद को लेकर होता है। आज हालत यह है कि अफगानिस्तान में तालिबान किसी दूसरे मजहब के लोगों को नहीं मार रहे, वे सिर्फ अपनी औरतों और लड़कियों को कुचल रहे हैं। उनका धर्म आत्मघाती हो गया है, न वे उसका कोई विस्तार कर पा रहे, न ही अपने धर्म का कोई सम्मान बढ़ा पा रहे, बल्कि अपनी बिरादरी की लड़कियों और महिलाओं की क्षमताओं को कुचलकर वे अपने ही समाज को, अपने ही धर्म के लोगों को एक गहरे गड्ढे में गिराते जा रहे हैं। धर्म को लेकर जब धर्मान्धता, कट्टरता, और बढ़ते-बढ़ते साम्प्रदायिकता जब हावी होती हैं, तो फिर वे जरूरी नहीं है कि दूसरे धर्म के लोगों की जान लेती हों। एक बार हिंसा की उन्मादी ताकत का लहू मुंह लग जाए, तो लोग फिर कब परायों को मारते-मारते अपनों को मारने लगते हैं, यह पता ही नहीं लगता। अभी देश की राजधानी दिल्ली से लगे हुए हरियाणा के फरीदाबाद की एक रिपोर्ट हमारे सामने है। 23-24 अगस्त की मध्य रात्रि को 19 साल के एक नौजवान, आर्यन मिश्रा की हत्या कर दी गई थी, और पुलिस ने इसमें पांच स्वघोषित गौरक्षकों को गिरफ्तार किया है। बेटे का अंतिम संस्कार करके जब सियानंद मिश्रा लौटकर पुलिस थाने पहुंचे, तो उनके सामने लाए गए अनिल कौशिक ने माफी मांगते हुए कहा कि उसने उनके बेटे को गौ-तस्कर समझकर गोली चलाई थी जो उनके बेटे को लगी। उसने माफी मांगते हुए कहा कि उसने मुसलमान समझकर गोली मारी थी, मुसलमान मारा जाता तो कोई गम नहीं होता, लेकिन उससे ब्राम्हण मारा गया है, इसलिए अब फांसी भी हो जाए, तो कोई गम नहीं रहेगा।
पिता के मुताबिक उनका मारा गया बेटा 12वीं की तैयारी कर रहा था, और हाल में उसने कई हिन्दू धर्मस्थलों की तीर्थयात्रा भी की थी। उनके मुताबिक वह पिछले दो साल से डाक कांवर भी लेकर जाता था। बेटे को खोने वाले सिर मुंडाए पिता ने कहा कि क्या हिन्दू-मुसलमान भाई नहीं है, क्या मुसलमान का खून काला है? उनका भी लाल है, फिर इस दुनिया में ये भेदभाव क्यों है? मृत लडक़े की मां उमा मिश्रा ने सवाल किया कि खुद को गौरक्षक कहने वाले इन लोगों को गोली चलाने का हक किसने दिया? अगर कोई गाय लेकर भी जा रहा है तो ये गोली कैसे मार सकते हैं?
जिस अनिल कौशिक ने हत्यारी गोली चलाना कुबूल किया है, उसकी गाय से लिपटी हुई तस्वीरें उसके फेसबुक पेज पर हैं, और वह गौसेवक होने का दावा करता है। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम कानून को हाथ में लेने वालों, हिंसा करने वालों, और नफरत फैलाने वालों को लेकर सरकार और समाज को लगातार आगाह करते हैं कि साम्प्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देकर, उसे बचाकर समाज ऐसे हत्यारे तैयार कर रहा है जो आगे-पीछे दूसरे धर्म और दूसरी जातियों के बाद अपने धर्म और अपनी जाति के लोगों को भी मारेंगे। हरियाणा के इस मामले में ठीक यही हुआ है, और कई दूसरी जगहों पर भी ऐसा हो रहा है। जिनके सिर पर हत्या का उन्माद इस हद तक हावी रहता है कि वे गाय बचाने के नाम पर बिना किसी गाय की मौजूदगी के मुस्लिमों को मार डालना जायज कह रहे हैं, तो उनसे हिन्दू सुरक्षित रह जाएंगे, यह उम्मीद करना परले दर्जे की बेवकूफी होगी। यह सिलसिला देश को एक बहुत खतरनाक मंजिल की तरफ ले जा रहा है। आगे चलकर अगर दूसरे तबकों के लोग भी ऐसी हिंसा के जवाब में हिंसा करने लगेंगे, तो क्या यह देश सुरक्षित रह सकेगा? पूरी राजनीतिक बदनीयत से कुछ बड़े-बड़े नेता हाल में यह कहते सुनाई पड़े हैं कि अगले 25-30 बरस में यह देश गृहयुद्ध देखेगा। हमारा ख्याल है कि ऐसे नेताओं को देश की आबादी के उस वक्त के अनुपात का अंदाज शायद न हो, लेकिन अपनी खुद की लगातार बढ़ाई जा रही साम्प्रदायिक नफरत, और साम्प्रदायिक हिंसा का अंदाज शायद उन्हें जरूर होगा, इसीलिए वे ऐसी भविष्यवाणी कर पा रहे हैं।
हमने बात शुरू की थी धार्मिक त्यौहारों पर सडक़ों को घेरने की, ट्रैफिक बर्बाद करने की, और लाउडस्पीकरों को जानलेवा स्तर तक तेज बजाने की। यह बात समझने की जरूरत है कि जिस धर्म के त्यौहार होते हैं, उनके अधिकतर आयोजन उन्हीं धर्मों की बहुतायत वाले इलाकों में होते हैं, और जब हिन्दू इलाकों में दस-दस दिन तक गणेश के लाउडस्पीकर, और नौ-नौ दिनों तक नवरात्रि के लाउडस्पीकर जानलेवा शोरगुल करते हैं, तो उसका सबसे बड़ा नुकसान हिन्दू-बहुल आबादी पर ही होता है। मौतें तो अधिक नहीं होती हैं, लेकिन लोगों का सुख-चैन छिन जाता है, उनकी सेहत बर्बाद होती है, पढ़ाई और कामकाज बर्बाद होते हैं। और ऐसे शोरगुल से किसी को मिलता क्या है? कौन सा ऐसा धर्म है जो अपनी पैदाइश के वक्त लाउडस्पीकरों को देख रहा था? ये लाउडस्पीकर तो 1876 में एलेक्जेंडर ग्राह्म बेल ने टेलीफोन बनाते-बनाते बनाए थे, और इन्हें इस्तेमाल के लायक बनाने में कुछ दशक और लगे थे। लेकिन वह वक्त कम आबादी का था, कम प्रदूषण का था, और लाउडस्पीकर भी गिने-चुने रहते थे। आज जब हर इंसान की जिंदगी मोबाइल फोन से जुड़ी हुई है, लोगों को अधिक पढऩा-लिखना पड़ता है, अपनी जरूरत की खबरें देखनी-पढऩी पड़ती हैं, वीडियो कांफ्रेंस होती है, तब धर्म लाउडस्पीकरों की हिंसा का इस्तेमाल करके किसी का भला नहीं करता।
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को इस बारे में सोचना चाहिए कि सडक़ों से, और धार्मिक आयोजनों से लाउडस्पीकरों को पूरी तरह खत्म क्यों नहीं किया जाए? ऐसे छोटे-छोटे स्पीकर बनाने चाहिए जिनसे दस फीट से अधिक दूर आवाज जाए ही नहीं, और तमाम बड़े स्पीकरों, और डीजे को पूरी तरह खत्म कर देना चाहिए। लाउडस्पीकर अब लोकतंत्र का प्रतीक नहीं रह गए हैं, अब वे धर्मान्ध और साम्प्रदायिक हिंसा का एक धारदार हथियार हैं। हम उम्मीद करते हैं कि न सिर्फ छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट, बल्कि देश की तमाम बड़ी अदालतें इस हिंसा को मिलने वाली राजनीतिक मंजूरी का सिलसिला खत्म करें, और अधिकतम कड़ी कार्रवाई करके बेबस और बेसहारा जनता को इस जुल्म से बचाएं।
हिन्दुस्तान में अदालतों पर बढ़ते हुए, और बहुत बुरी तरह बढ़ चुके मामलों के बोझ की एक बड़ी वजह यह भी लगती है कि देश की सरकारें बदनीयत से भरे हुए अहंकार के फैसले लेती हैं, और फिर जब कोई प्रभावित पक्ष या जनहित याचिका इनके खिलाफ अदालत तक पहुंचती हैं, तो ऐसा लगता है कि एक ही संविधान की शपथ लेकर काम करने वाले दो पहलू, सरकार और अदालत आपस में लड़ रहे हैं। यह भी लगता है कि बड़ी अदालतों का आज का सबसे बड़ा काम देश की सरकारों से संविधान को बचाने का काम रह गया है। यह बात कुछ अटपटी लग सकती है, लेकिन सच यही है। सरकार के मनमाने फैसलों में से अधिकतर तो इसलिए खप जाते हैं कि विपक्ष ने भी कई बार वैसे ही फैसले लिए रहते हैं, और विरोध करने का उसका मुंह नहीं रहता। दूसरी बात यह भी रहती है कि मीडिया का एक खासा बड़ा हिस्सा या तो सरकार, या उससे फायदा पाने वाले कारोबार के साथ तालमेल बनाकर चलता है, और लोकतंत्र में यह एक गुंजाइश भी खत्म हो जाती है। ऐसे में कई मामलों में कोई आरटीआई एक्टिविस्ट कारगर साबित होते हैं, और उनकी महीनों या बरसों की मेहनत से हासिल जानकारी से मीडिया समाचार बना लेता है, विपक्ष विधानसभा और लोकसभा में सवाल उठा लेता है, और कोई जनसंगठन अदालत में पीआईएल लेकर पहुंच जाते हैं। इसलिए आज लोकतंत्र के तीन घोषित स्तंभों के बाद चौथा स्वघोषित स्तंभ, मीडिया भी पहले के तीन की तरह बहुत से मामलों में बेअसर हो जाता है, और ऐसे में इस सदी के दो नए सक्रिय तबके, आरटीआई एक्टिविस्ट, और जनसंगठन काम आते हैं।
आज की यह बात हम उत्तराखंड सरकार के एक बददिमाग फैसले को लेकर लिख रहे हैं जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने कल भयानक नाराजगी जाहिर करते हुए कहा है कि यह कोई सामंती युग नहीं है कि जो भी राजाजी बोलें, वही होगा। यह मामला उत्तराखंड में जिम कार्बेट टाइगर रिजर्व से गंभीर आरोपों में हटाए गए एक अफसर को राजाजी टाइगर रिजर्व में नियुक्त करने का है जिसमें कि उत्तराखंड विभागीय मंत्री, और राज्य के मुख्य सचिव इस नियुक्ति से सहमत नहीं थे, फाइलों पर उनकी असहमति दर्ज है, लेकिन इसे दरकिनार करके मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने यह नियुक्ति की। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर कड़ी आपत्ति की है कि अगर अपने ही मंत्री, और मुख्य सचिव से असहमति के बाद भी सीएम ऐसा करना चाहते थे तो उन्हें फाइल पर इसके ठोस कारण दर्ज करने चाहिए थे। अदालत ने सरकारी वकील के इस तर्क को खारिज कर दिया कि मुख्यमंत्री के पास किसी को भी नियुक्त करने का विशेषाधिकार होता है। अदालत ने कहा कि वे मुख्यमंत्री हैं तो क्या कुछ भी कर सकते हैं? उन्होंने सार्वजनिक विश्वास के सिद्धांत को कूड़ेदान में फेंक दिया। अदालत ने कहा कि सरकार एक अफसर को संत साबित करने पर तूली है।
हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में इसे अमृतकाल कहा जा रहा है क्योंकि आजादी के 75 साल पूरे हुए हैं। दूसरी तरफ इस देश के निर्वाचित नेताओं का यह हाल है कि वे अंग्रेजों के भी पहले के राजाओं के युग के विशेषाधिकार चाहते हैं कि वे जो चाहें वह करें। देश भर में निर्वाचित नेताओं की अगुवाई में चलने वाली सरकारों के अनगिनत फैसले सरकार का वक्त जाया कर रहे हैं। अपने पसंदीदा अफसरों के जुर्म दबाने के लिए, उन्हें बचाने के लिए सरकारें क्या-क्या करती हैं, इसे देश के तकरीबन हर राज्य में देखा जा सकता है। यह मामला जरूर उत्तराखंड से जुड़ा हुआ है, लेकिन अधिकतर राज्य इसी तरह के मामलों के गवाह हैं। छत्तीसगढ़ में तो हम ऐसे मामलों की भरमार देखते हैं जिनमें किसी एक पार्टी की तोप के निशाने पर जो अफसर रहते हैं, वे उस पार्टी की सरकार बनते ही उसके सबसे पसंदीदा बन जाते हैं, और लोकतंत्र के सिर पर चढक़र पांच बरस पेशाब करते हैं। आज ऐसा लगता है कि आईएएस अफसरों को चुने जाने के बाद मसूरी की जिस राष्ट्रीय अकादमी में प्रशासनिक और सरकारी कामकाज की ट्रेनिंग दी जाती है, वहां उन्हें साल दो साल लगातार मिसालें दे-देकर यह सिखाना अधिक काम का रहेगा कि कैसे-कैसे काम न किए जाएं। काम करना तो लोग खुद भी सीख सकते हैं, लेकिन संविधान की भावना और उसके शब्दों के खिलाफ जाकर काम न करना सीखना अधिक जरूरी है।
सरकार के फैसलों में से जितने गलत रहते हैं, उनमें से भी दो-चार फीसदी ही अदालतों तक जा पाते हैं, क्योंकि विरोध करने की ताकत सरकार जितनी तो किसी की रहती नहीं है। सरकार तो जब चाहे तब करोड़ों की फीस देकर महंगे से महंगे वकील ले आती है, और खुद के पास वकीलों की फौज तो रहती ही है। भारतीय शासन व्यवस्था को सत्तारूढ़ नेताओं, और अफसरों के बीच शक्ति संतुलन के हिसाब से बनाया गया था। खुद नेताओं के भीतर मुख्यमंत्री और उनके मंत्रियों के बीच अधिकारों और जिम्मेदारियों का एक संतुलन मंत्रिमंडल की व्यवस्था की शक्ल में रहता है। लेकिन जब अफसर बेईमान और सुविधाभोगी होने लगते हैं, तो वे सत्तारूढ़ नेताओं के गलत हुक्म पर भी सलामी बजाते रहते हैं। और यहीं से सत्ता के जुर्म शुरू होते हैं, जिनके चलते कई बार नेता और अफसर जेल जाते हैं। यह तो कभी हाईकोर्ट में, और कभी सुप्रीम कोर्ट में सरकारों के खिलाफ मामले ऐसे जजों के सामने चले जाते हैं जो सत्ता को खुश रखने के फेर में नहीं रहते, और कडक़ इंसाफ की बात करते हैं। हमारा मानना है कि देश के सभी प्रदेशों को उत्तराखंड के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के इस रूख से नसीहत लेना चाहिए कि अब लोकतंत्र का दौर है, और सरकारें मनमानी करने के विशेषाधिकार का दावा नहीं कर सकतीं। नेताओं और अफसरों को अपनी अलग-अलग सीमाओं, और जिम्मेदारियों को समझना चाहिए क्योंकि ऐसा कोई एक अदालती फैसला भी उनका भविष्य चौपट कर सकता है, या जैसा कि हम इन दिनों छत्तीसगढ़ में देख रहे हैं, जेल भेज सकता है।
एक-एक करके कई राज्यों के बाद अब बलात्कार की खबरों से घिरे हुए पश्चिम बंगाल ने भी बलात्कारियों को फांसी देने का अपना विधेयक पास कर दिया है। चूंकि यह मामला देश में बहुत अधिक संवेदनशील हो चुका है, बंगाल विधानसभा में सरकार के सख्त खिलाफ रहने वाली भाजपा ने भी इसका पूरा साथ दिया है। अभी विधानसभा से पारित यह विधेयक राज्यपाल और राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद कानून में बदल पाएगा। हर नया कानून पिछले कानूनों से, हर प्रदेश का कानून दूसरे प्रदेश के कानूनों से अधिक कड़ा बनाया जाता है ताकि सत्तारूढ़ पार्टी यह दावा कर सके कि उसने कुछ नया और अनोखा किया है। राज्यों में कई जगह बलात्कार के कुछ किस्म के मामलों पर फांसी की सजा इसलिए भी जोड़ी गई है कि जनता के बीच से यह मांग बड़े जोरों पर उठती है, और सत्तारूढ़ पार्टी हो, या विपक्ष, बलात्कार की अधिक चर्चित घटना के जवाब में यह उनका एक पसंदीदा शगल रहता है।
बंगाल का यह ‘अपराजिता महिला और बाल विधेयक’ ने पीडि़ता की मौत या उसके कोमा में चले जाने पर बलात्कारी को मौत की सजा, और दूसरे गुनहगारों को बिना पैरोल उम्रकैद सुनाता है, लेकिन इससे और अधिक बड़ी बात यह है कि इसमें जांच और सुनवाई के अधिकतम दिनों की सीमा तय कर दी गई है। पुलिस को 21 दिनों में जांच पूरी करनी होगी, और अदालत को 36 दिनों में फैसला सुनाना होगा। बलात्कार में सहयोगी लोगों के लिए अलग-अलग किस्म की सजाओं में भी बढ़ोत्तरी की गई है। लेकिन हम फिलहाल जांच और सुनवाई के लिए तय किए गए अधिकतम दिनों पर बात करना चाहते हैं। चाहे इसके लिए बंगाल में फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए जाएं, इस रफ्तार से जांच और सुनवाई को तय करना जमीनी हकीकत को अनदेखा करना होगा। आज जांच करने वाली पुलिस का काम कई हिसाब से कमजोर रहता है। और उसमें अगर अब बंगाल में यह जोड़ दिया जा रहा है कि यह जांच तीन हफ्ते में पूरी करनी होगी तो यह जाहिर है कि पुलिस को यह काम हड़बड़ी में करना होगा, फोरेंसिक लैब या डीएनए जांच जैसे बहुत से मामले रहते हैं जो बहुत समय लेते हैं क्योंकि वहां अधिक काम करने, या काम अधिक रफ्तार से करने की क्षमता नहीं रहती। ऐसे में अगर पुलिस पर तीन हफ्ते का दबाव रहेगा, और अगर बलात्कारी की शिनाख्त आसान नहीं रहेगी, तो हो सकता है कि पुलिस किसी बेकसूर को पकडक़र बंद कर दे, या दुश्मनी के चलते लोग दूसरों को फंसवा दें। इसके बाद जिस रफ्तार से अदालती कार्रवाई की उम्मीद की गई है, उसमें शक इसलिए होता है कि आरोपियों के वकील कई तरह से तारीखें आगे बढ़वाते हैं, और अगर सुनवाई हड़बड़ी में हुई, तो ऊपर की अदालत से राहत पाने की आशंका बनी रहेगी। इसलिए हम जनता को खुश करने के लिए इतनी तंग समय सीमा बनाने के खिलाफ हैं। अभी तक हमें किसी राज्य का समय सीमा का ऐसा अनुभव याद भी नहीं पड़ रहा है। अदालतों को किसी को सजा सुनाते हुए संदेह से परे साबित हो जाना जरूरी रहता है, पता नहीं वह काम सीमित समय में कितने पुख्ता तरीके से हो पाएगा।
फिर हम इस बात को भी बोगस मानते हैं कि विचलित जनता को संतुष्ट करने के लिए किसी भी जुर्म पर सजा अधिक कर दी जानी चाहिए। एक-एक करके कई राज्यों ने ऐसा ही किया है, और अब तक कि सात से दस बरस तक की कैद भी कम नहीं थी, और उससे भी बलात्कारियों के हौसले तो पस्त नहीं ही हुए। समाज में जब तक लड़कियों के लिए सुरक्षित और सम्मानजनक माहौल नहीं रहेगा, तब तक कड़ी सजा से भी बलात्कारी नहीं डरेंगे। आज बहुत से बलात्कारी तो यही मानकर चलते हैं कि बदनामी के डर से लडक़ी या महिला के परिवार शांत रहेंगे, और वे बच निकलेंगे। सजा का पुख्ता खतरा अगर सिर पर मंडराते रहता, तो शायद लोगों की बलात्कार की हिम्मत कम पड़ती। इसलिए कानूनों पर कमजोर अमल, समाज में ताकतवर और सत्ता के पसंदीदा लोगों को गैरकानूनी हिफाजत मिलना अधिक बड़ी वजह है। कोई सरकार या राजनीतिक दल अपने से जुड़े हुए बलात्कारियों को बचाने के लिए जमीन-आसमान एक कर देते हैं। अभी केरल के मलयालम फिल्म उद्योग में सेक्स-शोषण की जो कहानियां सामने आ रही हैं, वे बताती हैं कि शोहरत भी अपने आपमें बददिमाग कर देने वाली एक ताकत होती है, और अमरीका का भूतपूर्व राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप भी अपने चुनाव के दौरान यह कहते हुए कैमरे पर रिकॉर्ड हो गया था कि जो लोग कामयाब रहते हैं, वे किसी भी महिला को उसके गुप्तांगों से दबोच सकते हैं, अगर वे मशहूर आदमी हैं। उन्होंने कहा कि अगर आप स्टार हैं, तो महिलाएं आपको ऐसा करने देती हैं। हिन्दुस्तान के अलग-अलग फिल्मी शहरों में ऐसी चर्चा कई बार कई लोगों के खिलाफ उठती हैं।
बलात्कार से जुड़ा हुआ एक दूसरा बड़ा कानूनी पहलू नाबालिग-बलात्कारियों का है। कल ही छत्तीसगढ़ में 13 बरस की एक लडक़ी से गैंगरेप हुआ तो गिरफ्तार सात लोगों में से छह नाबालिग हैं। अब देश का आज का कानून नाबालिग बलात्कारियों को बलात्कारी मानने से पहले नाबालिग मानता है, और उनकी सुनवाई या सजा उसी हिसाब से होती है। जेल न जाकर वे सुधारगृह जाते हैं, और जल्द ही वहां से घर लौट आते हैं। हो सकता है कि यह संसद के कानून बनाने का मामला हो कि हत्या या बलात्कार जैसे मामलों में क्या नाबालिग मुजरिम को भी बालिग मान लिया जाए? इस सवाल को अभी बंगाल के इस ताजा विधेयक के साथ जोडक़र देखना ठीक नहीं है, लेकिन देश में न्यायपालिका में यह चर्चा तो चल ही रही है कि क्या 18 बरस की उम्र को रेप-मर्डर जैसे जुर्म में घटाया जाए?
जब सडक़ों पर जुलूस निकल रहे हों, और सरकारें डांवाडोल हो रही हों, तो इस किस्म के कानून हड़बड़ी में बनाए जाते हैं, लेकिन इनसे किसी की हिफाजत होती हो ऐसा लगता नहीं है, कानून कड़ा होने के बजाय नर्म कानून पर भी कड़ी अमल अधिक असरदार होती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश के कई प्रदेशों ने उत्तरप्रदेश की योगी सरकार की शुरू की गई बुलडोजर-संस्कृति को तेजी से अपना लिया था। इसमें आमतौर पर भाजपा की सरकारें थीं, लेकिन मध्यप्रदेश में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार ने भी कुछ मामलों में इसकी नकल की थी। अब सुप्रीम कोर्ट ने बहुत साफ-साफ कह दिया है कि किसी मामले में कोई आरोपी हो, या अदालत में साबित हो चुका गुनहगार, सरकार किसी का घर नहीं ढहा सकती। पिछले 6-8 बरस से बलात्कार या हत्या, या किसी साम्प्रदायिक तनाव का हवाला देते हुए योगी सरकार ने यह सिलसिला चला रखा है कि जिस पर शक हो, या जिस पर आरोप लगा हो, उसके मकान-दुकान को म्युनिसिपल द्वारा किसी वक्त दी गई नोटिस को धूल झड़ाकर निकाला जाए, और बुलडोजर भेजकर उसे अवैध कब्जा करार देकर गिरा दिया जाए। सरकार ने अपनी यह संवैधानिक जिम्मेदारी भी छोड़ दी थी कि म्युनिसिपलों के ऐसे नोटिस तो आधे शहर को जारी हो चुके रहते हैं, शाम किसी पर किसी धार्मिक जुलूस पर पथराव का आरोप लगे, और अगली सुबह उसका मकान गिरा दिया जाए, और कहा जाए कि यह तो पहले से जारी नोटिस पर कार्रवाई है, तो यह तो लोकतंत्र नहीं था। हमें अफसोस इस बात का है कि बरसों से प्रचारित की जा रही यह अनोखी बुलडोजरी संस्कृति योगी से जुड़े हुए लोगों को तो गर्व का अनुभव करा रही थी, लेकिन एक-एक करके कई राज्यों तक इसके फैल जाने पर भी सुप्रीम कोर्ट को इसमें कोई खामी नहीं दिखी थी। अब जाकर जस्टिस बी.आर.गवई, और जस्टिस के.वी. विश्वनाथन ने कहा कि अदालत के पहले के रूख के बावजूद सरकार के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया। अब अदालत इस पर आम दिशा-निर्देश बनाएगी, जो सभी राज्यों पर लागू होंगे।
इस बारे में अदालत में जजों ने सरकारों की तरफ से मौजूद वकील से सवाल करते हुए अपना रूख साफ किया है, और यह वही रूख है जो हम बरसों से अपने इसी कॉलम में लिखते आ रहे हैं। हमने बार-बार बुलडोजरी कार्रवाई को अलोकतांत्रिक कहा था, और अदालत से दखल की उम्मीद की थी। वह दखल बरसों देर से आई है, इससे आमतौर पर अल्पसंख्यक, मुस्लिम समुदाय के लोगों पर बुलडोजर चले हैं, लेकिन ऐसी कार्रवाई का खून सरकारी अमले के मुंह लग गया है जो कि अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए साम्प्रदायिकता की हद तक जाकर किसी एक खास धर्म के लोगों को निशाना बनाने का रिकॉर्ड कायम कर चुका है। अदालत के फैसले के पहले का उसका यह जुबानी रूख इतनी देर से आया है कि इतने वक्त में बुलडोजरों का निशाना बना हुआ अल्पसंख्यक समुदाय एक दहशत में जीते रहा है कि उस पर कहीं कोई तोहमत लग गई, तो सौ-पचास बरस पुराना मकान भी ढहा दिया जाएगा। हमारा ख्याल यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को नसीहत देने में अंधाधुंध देर की है, और देश का एक समुदाय जब इतनी आशंकाओं में जीते आ रहा है, तो लोकतंत्र पर से उसका भरोसा खत्म करने में सुप्रीम कोर्ट की इस देरी ने भी बड़ा योगदान दिया है।
राज्य सरकारों में सत्ता पर काबिज पार्टियों और नेताओं के ऐसे बुलडोजरी फैसले किसी भी जागरूक न्यायपालिका के रहते हुए उन्हीं राज्यों में रोक दिए जाने चाहिए थे। हालत यह हो गई है कि बुलडोजरों को एक गौरव का प्रतीक मान लिया गया है, और हाल के बरसों में देश के कई प्रदेशों में नेताओं के स्वागत में बुलडोजरों पर चढक़र लोग फूल बरसाते हैं, या बुलडोजर सरीखी दूसरी तोडफ़ोड़ करने की मशीनों से फूल गिराए जाते हैं। बुलडोजर को एक धर्मान्ध और साम्प्रदायिक, अलोकतांत्रिक और हिंसक ताकत का गौरवशाली प्रतीक बना दिया गया है, और अब तो कई जगहों पर उन्मादी जनता यह मांग करती है कि बलात्कार या हिंसा के किसी आरोपी के घर पर तुरंत बुलडोजर चलाया जाए। यह पौन सदी की लोकतांत्रिक समझ और सहनशीलता का एक दशक से कम में अंत है, क्योंकि जिस अंदाज में सत्ता को नापसंद लोगों के मकान-दुकान के खिलाफ पुराने नोटिस निकालकर छांट-छांटकर उन पर बुलडोजर चलाया जाता है, उससे लोगों की हिंसक भावनाओं को लोकतांत्रिक जिम्मेदारी से पूरी ही आजादी मिल जाती है। किसी अदालत को यह नहीं सूझा कि वह राज्य सरकार और म्युनिसिपल से पूछे कि जिन नोटिसों के आधार पर उन्होंने इन चुनिंदा नापसंद लोगों के निर्माण गिराए हैं, उस दर्जे के और कितने नोटिस उनके म्युनिसिपल इलाके में बिना कार्रवाई के पड़े हुए हैं, और उनमें से किसी धर्म के लोगों के कितने नोटिस बकाया हैं। अदालत का ऐसा एक सवाल सरकारों और म्युनिसिपलों की बदनीयत को उजागर कर देता कि उसके चुनिंदा निशाने किन पैमानों पर और किन वजहों से तय किए गए हैं।
लोकतंत्र में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जैसी बड़ी संवैधानिक अदालतों को इतनी सामान्य समझबूझ भी इस्तेमाल करनी चाहिए कि अगर सरकारें बदनीयत हो गई हैं, साम्प्रदायिक हो गई हैं, लोकतंत्र को कुचल रही हैं, तो उन्हें संदेह का अंधाधुंध लाभ देते जाने के बजाय, आम लोगों को एक हिफाजत दी जाए, ताकि उनकी जिंदगी भर की मेहनत से बने मकान-दुकान कुछ घंटों में खत्म न कर दिए जाएं। देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने पर जब भी कोई खतरा रहे, उसे रोकने का काम हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जैसी अदालतों को रहता है जो कि किसी मामले में फैसला देने के पहले भी कार्रवाई को रोककर जरूरतमंद लोगों को हिफाजत की राहत दे सकते हैं। अनगिनत दूसरे मामलों में अदालतें ऐसे स्थगन देती रहती हैं, लेकिन बुलडोजरी संस्कृति के उन्मादी नारों से भी सुप्रीम कोर्ट जजों की नींद पता नहीं क्यों नहीं खुलीं, क्योंकि इस संस्कृति से न सिर्फ अल्पसंख्यकों के पुराने मकान-दुकान गिर रहे थे, बल्कि भारत का धर्मनिरपेक्ष ढांचा भी गिर रहा था। हम उम्मीद करते हैं कि अब एक पखवाड़े बाद सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई और करेगा, और पूरे देश के लिए एक नीति तय करेगा। जब भी सरकार के किसी काम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट कोई फैसला देता है, उससे तमाम सरकारों को आत्मचिंतन और आत्मविश्लेषण करने का एक मौका भी मिलता है। हमारा ख्याल है कल सुप्रीम कोर्ट जजों ने जो रूख दिखाया है, उसके बाद ऐसी कार्रवाई फिलहाल थम जाएंगी, और अदालत को यह हिसाब तो साफ-साफ मांगना चाहिए कि जैसे नोटिसों के आधार पर चुनिंदा अल्पसंख्यकों के निर्माण गिराए गए हैं, वैसे नोटिस और कितने लोगों को कितने बरस से जारी पड़े हुए हैं, और उन पर कोई कार्रवाई न करके सिर्फ कुछ आरोपियों पर ही क्यों की गई है? यह भेदभाव लोकतंत्र पर एक गहरी चोट भी है, यह भी समझने की जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
रेलवे पटरी पर बैठकर मोबाइल गेम खेलते हुए 13-14 बरस के दो दोस्त कल छत्तीसगढ़ में ट्रेन से कटकर मर गए। पहली नजर में यह खेल में उनका इस हद तक डूब जाना दिखता है कि उन्हें ट्रेन का हॉर्न सुनाई नहीं दिया, जिस पटरी पर ये बैठे थे उसकी कंपकपाहट का पता नहीं चला, और ट्रेन रोकने की कोशिश करते-करते भी ड्राइवर उन्हें बचा नहीं पाया। इन मौतों के पीछे खुदकुशी जैसी कोई और बात हों, तो वह पहली नजर में तो नहीं दिख रही है, बस इतना पता लग रहा है कि ये दोनों दोस्त लगातार साथ बैठकर मोबाइल गेम खेलते थे। कल ही छत्तीसगढ़ के एक दूसरे हिस्से में एक स्कूली बच्चे ने गेम खेलने के लिए मां से मोबाइल मांगा, और मोबाइल न मिलने पर उसने खुदकुशी कर ली। मोबाइल को लेकर खुदकुशी कोई नई बात नहीं है, देश में हर दिन कहीं न कहीं कोई न कोई बच्चे मोबाइल की मांग करते हुए, या उसे उनसे ले लेने के खिलाफ खुदकुशी करते हैं। हम इसी जगह पिछले महीनों में कई बार इस बात को लिख चुके हैं कि मोबाइल फोन की लत बच्चों को किस तरह मौत तक ले जा रही है, और कई बच्चे खुदकुशी से परे कई किस्म के जुर्म में फंस रहे हैं, ताकि वे किसी तरह एक मोबाइल फोन पा सकें।
इसी तरह की दूसरी समस्या बच्चों के मोबाइल या कम्प्यूटर पर पोर्न देखने की है, और इसके चलते देश में नाबालिग बच्चे बड़ी संख्या में असल जिंदगी में सेक्स-अपराध में जुट रहे हैं, और उनके घर की लड़कियां भी उनसे सुरक्षित नहीं रह गई हैं। एक और दिक्कत बहुत छोटे बच्चों के परिवारों के सामने खड़ी है जहां पढ़ाई शुरू करने के पहले से ही बच्चे मोबाइल फोन या टीवी पर कार्टून फिल्म देखने में डूबे रहते हैं, और इस चक्कर में वे परिवार के बड़े लोगों के मोबाइल फोन का स्क्रीन लॉक खोलना भी जान जाते हैं। कई परिवारों में बच्चे उन्हीं बड़ों के कमरों में रहना चाहते हैं जो कि कुछ नर्मदिल हैं, और बच्चों को मोबाइल-टीवी की अधिक छूट देते हैं। बच्चों की सारी सोच स्क्रीन-केन्द्रित हो गई है, और उनकी कल्पनाशीलता, रचनात्मकता, सीखने की क्षमता, इन सब पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। मानव शरीर में विकास का क्रम हर उम्र में एक सरीखा नहीं रहता है। बचपन से किशोरावस्था तक जिन बातों को सीख लेने की उम्र रहती है, उन बातों को बाद में सीखा भी नहीं जा सकता। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि कई हफ्ते पहले हमने एक शोध रिपोर्ट का जिक्र करते हुए इसी जगह लिखा था कि जो माताएं अपने दुधमुंहे बच्चों को साथ लिए हुए उनसे बात करने के बजाय मोबाइल फोन पर लगी रहती हैं, उन बच्चों का शब्द सामथ्र्य कमजोर रहता है, वे कम शब्द सीख पाते हैं। इसी तरह जब घर के तमाम बड़े लोग अपने-अपने फोन और कम्प्यूटर पर व्यस्त रहते हैं, तो घर के बच्चे और किशोर-किशोरियां अपना या परिवार का कोई भी फोन लेकर अपनी मर्जी के काम करते हैं।
दुनिया के अलग-अलग देशों में इस बात पर बड़ी फिक्र चल रही है कि बच्चों का स्क्रीन टाईम कैसे घटाया जाए, और कैसे उन्हें सोशल मीडिया पर सुरक्षित रखा जाए, जिसका कि उन पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। अभी कुछ हफ्ते पहले ही हिन्दुस्तान के पुणे में एक वीडियो गेम खेलते हुए 14 बरस के लडक़े ने उस खेल की एक चुनौती पूरी करने के लिए 14वीं मंजिल से छलांग लगा दी थी, और वह तुरंत ही मर गया था। आज पश्चिम में सोशल मीडिया पर छात्र-छात्राओं को ब्लैकमेल करके उनके खून की बूंद तक चूस लेने वाले ब्लैकमेलरों का अंतरराष्ट्रीय गिरोह काम कर रहा है, और संपन्न और विकसित देशों की जांच एजेंसियां भी इसे नहीं रोक पा रही हैं। ऐसे में ब्रिटेन सहित कुछ जगहों पर सरकारें स्कूलों में फोन पूरी तरह बंद कर रही हैं। फिर अभी इसी हफ्ते ब्रिटेन में एक मशहूर गुडिय़ा बार्बी के नाम पर एक ऐसा छोटा मोबाइल फोन बाजार में आया है जिससे सिर्फ कॉल की जा सकती है, एसएमएस किया जा सकता है, उसमें सिर्फ एक सरल सा मोबाइल गेम है, और कुछ भी नहीं है। न कैमरा है, न इंटरनेट है, और न ही सोशल मीडिया किसी तरह से उस पर मौजूद है। अब वहां इस पर बहस चल रही है कि जो बच्चे स्मार्टफोन इस्तेमाल करने के आदी हो चुके हैं, उन्हें इस साधारण फोन पर वापिस कैसे लाया जाए? लत कैसे छुड़ाई जाए?
आज यहां इन मुद्दों पर लिखने का मकसद यह है कि हम भारत सरकार से चाहते हैं कि वह राष्ट्रीय स्तर की एक विशेषज्ञ कमेटी बनाकर बच्चों के टीवी, फोन और कम्प्यूटर के इस्तेमाल को सीमित और सुरक्षित रखने के लिए एक ऐसी तैयारी करे जिसे इन उपकरणों को बनाने वाली कंपनियों, और संचार कंपनियों के लिए अनिवार्य किया जाए। मां-बाप पर यह सामाजिक दबाव आए, उसके पहले सरकार को उपकरणों में ऐसे तकनीकी इंतजाम करने चाहिए कि नाबालिगों के मां-बाप उन पर निगरानी रख सकें, उनकी समय सीमा तय कर सकें। अब अगर वीडियो गेम खेलने का नशा किसी को बर्बाद कर रहा है, तो मां-बाप उसके फोन या कम्प्यूटर से यह मालूम कर सकें, ऐसा इंतजाम सरकार को तमाम उपकरणों पर करना चाहिए। इससे खुद सरकार का बोझ कम होगा क्योंकि आज तरह-तरह की जानलेवा हिंसा, आत्मघाती हिंसा, या मानसिक विकास का थम जाना, कुल मिलाकर तो देश का ही नुकसान है, और इसका सबसे बड़ा बोझ सरकार की एजेंसियों, अदालतों, और अस्पतालों पर पड़ता है।
बाजार में आने वाले हर फोन, कम्प्यूटर, और टीवी पर घर के बड़े लोगों के नियंत्रण का बिल्कुल साफ-साफ इंतजाम होना चाहिए, ताकि छोटे बच्चों को अगर कुल तीस मिनट टीवी देखने की छूट हो, तो उसके बाद वे उस पर कुछ भी न देख सकें। हमें यह भी लगता है कि फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया को खुद भी यह इंतजाम करना चाहिए कि नाबालिगों के मां-बाप उस पर बच्चों की समय सीमा तय कर सकें, और उनकी सारी हलचल को अपने फोन या कम्प्यूटर पर देख भी सकें। अभी भी शायद कुछ मोबाइल एप्लीकेशन ऐसे हैं जिससे कि लोग अपने बच्चों के मोबाइल फोन पर निगरानी रखने का काम कर सकते हैं, लेकिन ऐसे निगरानी एप्लीकेशन निजी कंपनियों के हैं, और उनके कई दूसरे तरह के खतरे हैं। भारत सरकार को अपनी जिम्मेदारी समझना चाहिए, और बिना देर किए हुए नाबालिगों के सभी किस्म के टीवी-मोबाइल-कम्प्यूटर इस्तेमाल पर निगरानी, और उन पर नियंत्रण की सहूलियत जुटाकर मां-बाप के हाथ देनी चाहिए। अभी लगातार बच्चे जितने खराब किस्म के जुर्म में फंस रहे हैं, उनमें इन उपकरणों और सोशल मीडिया का बड़ा हाथ है। इस मोर्चे पर तुरंत कार्रवाई की जरूरत है क्योंकि हर दिन हिन्दुस्तान के लाखों और बच्चे इस नशे में फंस रहे हैं।
कल जिस वक्त इस अखबार के संपादक यूट्यूब चैनल पर इस बात की रिकॉर्डिंग खत्म कर चुके थे कि 1984 के सिख विरोधी दंगों में हत्या के लिए उकसाने का एक मामला उस वक्त के कांग्रेस नेता जगदीश टाइटलर पर अब दिल्ली की सीबीआई अदालत में चलना शुरू हो रहा है, और एक पखवाड़े बाद अदालत उन पर आरोप तय करेगी, उसी वक्त दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट की पौन सदी पूरी होने के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री यह बोल रहे थे कि न्याय जितनी जल्दी मिलेगा, उतना ही उस पर जनता का भरोसा बढ़ेगा। उन्होंने यह बात खासकर महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के मामलों का जिक्र करते हुए कही है, लेकिन यह बात तमाम किस्म के मामलों की सुनवाई पर लागू होती हैं। हमारे जिन पाठकों को कल का यूट्यूब वीडियो देखा होगा, उन्होंने न्याय प्रक्रिया की ऐसी देर को लेकर हमारी फिक्र महसूस की होगी। 40 बरस बाद सबसे निचली अदालत में सुनवाई शुरू हो रही है, तो फिर इसके फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट, और फिर सुप्रीम कोर्ट तक जाने के रास्ते तो बाकी रहेंगे ही। क्या सिख विरोधी दंगों की आधी सदी पूरी होने तक इस मामले पर देश की आखिरी अदालत सुनवाई पूरी कर सकेगी? यह कार्यक्रम जिला अदालतों के दो दिनों के राष्ट्रीय सम्मेलन का था, और यह मौका सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के 75 बरस पूरे होने का भी था। इस मौके पर सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष, और राज्यसभा सदस्य, देश के एक नामी-गिरामी वकील, और भूतपूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि ट्रायल कोर्ट (जिला अदालतें, जहां कि सुनवाई शुरू होती है) को आदेश और फैसले देने के लिए आत्मविश्वास देना होगा ताकि वे बिना डर या उत्साह के अपनी राय दे सकें। उन्होंने कहा कि अभी ट्रायल कोर्ट चर्चित मामलों में जमानत देने से कतराते हैं। इस मौके पर यह भी बताया गया कि देश की जिला अदालतों में करीब साढ़े चार करोड़ मामले चल रहे हैं।
भारत के अदालती इंतजाम को देखें, तो उसे किसी टापू की तरह नहीं देखा जा सकता। जो नया कानून बना है, उसमें कुछ किस्म के मामलों की सुनवाई और फैसले के लिए वक्त तय किया गया है, लेकिन अदालत में सुनवाई तेज करने के लिए जांच एजेंसियों में जो तेजी रहनी चाहिए, वह अभी गायब है। हम पुलिस के परंपरागत अमले को देखें तो वह नए कानून के हिसाब से जांच करने के लायक तो है नहीं, और अभी देश की अदालतों ने जांच एजेंसियों को जिस तरह की वैज्ञानिक जांच करने कहा है, उस लायक तो बिल्कुल भी नहीं है। जांच और उसकी कानूनी औपचारिकताओं में ही अधिकतर मामले इतने कमजोर रह जाते हैं कि अभियुक्त अदालतों से छूट जाते हैं। अभी-अभी देश की सबसे ताकतवर एजेंसी, ईडी को सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में बुरी तरह घेरा है, और कहा है कि सिर्फ बयानों के आधार पर केस न बनाए, और वैज्ञानिक सुबूत जुटाए। सुप्रीम कोर्ट ने एजेंसी को यह भी याद दिलाया कि उसके गिरफ्तार किए गए लोगों में से कुल 4-5 फीसदी लोगों को ही सजा हो पाती है। जब देश की सबसे ताकतवर, और प्रमुख एजेंसियों में से एक की जांच को लेकर अदालत का यह नजरिया है, तो फिर राज्यों की पुलिस तो बहुत तरह के स्थानीय प्रभावों के दबाव में भी काम करती है, और जांच के नतीजे प्रदूषित होते रहते हैं।
आज जब देश में महिलाओं पर अंधाधुंध हमले हो रहे हैं, अनगिनत बलात्कार हो रहे हैं, तरह-तरह के यौन-शोषण के मामले सामने आ रहे हैं, तो सुप्रीम कोर्ट से लेकर प्रधानमंत्री तक हर किसी की हड़बड़ाहट दिखाई पड़ती है। यह हड़बड़ाहट किसी समस्या का समाधान नहीं है। देश में अगर महिलाओं को हिकारत से देखना जारी रहेगा, उनके शोषण को मर्दानगी का हक मान लिया जाएगा, तो फिर देश की तमाम पुलिस मिलकर भी महिलाओं के खिलाफ जुर्म को अदालत में साबित नहीं कर पाएगी। न्यायपालिका का काम देश की जनता की सोच में न्याय के सम्मान से शुरू हो सकता है, अदालत तक जाना तो एक आखिरी रास्ता रहता है। हम बहुत कागज और सैद्धांतिक बात नहीं कर रहे, महिलाओं के खिलाफ सामाजिक नजरिया बदलने के पहले तक अदालतों पर ऐसे जुर्म का बोझ नहीं घट सकता। एक बंगाल के बलात्कार को लेकर, या मणिपुर के बलात्कार को लेकर कैंडल मार्च निकालना कोई समाधान नहीं है, लोगों को अपने खुद के इलाकों में महिलाओं पर हो रहे जुल्म के खिलाफ उठकर खड़ा होना होगा। बंगाल या मणिपुर, या महाराष्ट्र के निशानों पर दूर अपने घरों में हिफाजत से बैठे हुए तीर चलाना एक महफूज काम रहता है। असली सुधार तो जुल्म की जड़ पर खड़े रहकर उसे उखाडऩे से ही हो सकता है। इसलिए देश में महिलाओं के साथ अदालती इंसाफ तभी हो सकेगा, जब महिलाओं के साथ सामाजिक इंसाफ होना शुरू होगा। आज महिलाओं के प्रति पुरूषप्रधान समाज का जो रूख है, वह न सिर्फ सरकारी वकील, पुलिस, गवाह, और जज तक में झलकता है, बल्कि वह कई अदालती फैसलों में साफ-साफ दिखता है, और कई मामलों में तो हमने हाईकोर्ट के फैसलों की धज्जियां उड़ाई थी, और बाद में जाकर सुप्रीम कोर्ट ने भी उन फैसलों को खारिज किया था। इसलिए जब तक समाज का नजरिया महिलाओं के प्रति सम्मान का नहीं होगा, हाईकोर्ट तक के बहुत से जजों के फैसलों से जुल्म और जुर्म की शिकार महिलाओं के साथ एक बार और जुल्म होते रहेगा।
हम अदालती कार्रवाई के तौर-तरीकों, और उसकी तकनीक को कम नहीं आंक रहे हैं, केन्द्र और राज्य सरकारों को, सुप्रीम कोर्ट और देश की बाकी अदालतों को अलग-अलग अपने स्तर पर भी, और मिलकर भी अदालती प्रक्रिया को मानवीय बनाना होगा। आज न्याय प्रक्रिया का हाल यह रह गया है कि देश में बहुत सारे मामलों में किसी को विचाराधीन कैदी की तरह जेल में बरसों तक बिना जमानत कैद रखने को ही सरकार सजा मान ले रही है। जहां अदालत से फैसले के पहले तक लोगों को राहत मिलनी चाहिए, वहां आज हाल यह है कि अगर किसी के पास सुप्रीम कोर्ट के महंगे वकीलों को फीस देने की ताकत नहीं है, तो वे बिना मुजरिम साबित हुए भी बरसों की कैद काट लेते हैं। इस सिलसिले को खत्म करना चाहिए, और जिन जिला अदालतों, ट्रायल कोर्ट को निचली अदालत कहा जाता है, उनमें यह आत्मविश्वास लाना चाहिए कि वे जमानत पर हौसले से फैसला दे सकें। अदालतों का ढेर सारा वक्त ऐसे मामलों में जमानत की सुनवाई में जाता है, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचकर जमानत मिल जाती है। मतलब यह कि कानून के तहत यह जमानत जिला अदालत से भी मिल सकती थी, लेकिन जिला अदालत के जज यह हौसला नहीं करते हैं। ऐसा शायद इसलिए भी है कि देश की अदालतों में भ्रष्टाचार की बड़ी चर्चा रहती है, और जिला अदालतों के जज पैसेवालों को, ताकतवर लोगों को जमानत देते हुए हिचकते हैं कि उनकी बदनामी न हो।
किसी जलसे में बड़ी-बड़ी बातें कहना हिन्दुस्तान का मिजाज हो गया है, लेकिन जनता के मन से अदालतों के लिए हिकारत और नफरत को अगर खत्म करना है, तो अदालत के कामकाज को विज्ञान और तकनीक की मदद से, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और कम्प्यूटरों, वीडियो कांफ्रेंस जैसे आम हो चुके औजारों की मदद से बेहतर बनाना होगा। यह देश एक बढ़ई और लुहार के काम में तो स्किल डेवलपमेंट की बात करता है, लेकिन अदालतों के कामकाज में बेहतर हुनर की बात नहीं करता। इसके बिना सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के सौ बरस के जलसे में भी उस वक्त के मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री इसी किस्म की कागजी बातें करते रहेंगे। जिन्हें सुधार करना है, वे कमर कसकर, कोट और टाई उतारकर, कमीज की बांहें चढ़ाकर मेहनत करने में जुटते हैं, जलसों के मंच पर कोई सुधार नहीं होते। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
यूपीए सरकार ने देश में जब आधार कार्ड शुरू किया, तो विपक्ष ने उसका जमकर विरोध किया था। लेकिन जब नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने, और उन्होंने आधार कार्ड के फायदों को सरकार में बैठकर देखा, तो हाल यह हो गया कि मोदी सरकार ने हर किस्म के सार्वजनिक और सरकारी काम में आधार कार्ड को अनिवार्य करने का ऐसा विस्तार किया कि सुप्रीम कोर्ट को दखल देकर उसे बहुत से दायरों में रोकना पड़ा। अदालत ने कई ऐसे काम गिनाए जहां आधार कार्ड की अनिवार्यता की जरूरत नहीं थी, और सरकार उसके बावजूद लोगों को प्रोत्साहित करती रही, और ऐसा माहौल बनाती रही कि आधार कार्ड अनिवार्य है। इस बीच बैंक खातों को लेकर, किसी भी तरह के सरकारी कामकाज को लेकर कहीं आधार कार्ड, कहीं आयकर विभाग का जारी किया गया पैनकार्ड, और कहीं इन दोनों को एक-दूसरे से जोडऩा जरूरी किया जाता रहा, और अब हाल यह है कि इनके बिना मोबाइल का सिमकार्ड खरीदना भी मुमकिन नहीं है, या ट्रेन-प्लेन के रिजर्वेशन में भी जो जरूरी दस्तावेज लगते हैं, वे एक-दूसरे से इस तरह जोड़ दिए गए हैं कि सरकार पल भर में पांच-दस किसी भी तरह के पहचान पत्र में से किसी एक से भी किसी नागरिक के बाकी पहचान पत्र निकाल सकती है, और एक किस्म से पूरा देश सरकार की स्थाई निगरानी में आ चुका है। हम इसे फिलहाल सरकार द्वारा खुफिया निगरानी न मानकर इन पहचान पत्रों के इस्तेमाल से होने वाले फायदों को देख रहे हैं। इनकी वजह से यह जरूर है कि लोगों की नीजता खत्म होती है, लेकिन अगर लोग किसी जुर्म में शामिल नहीं हैं तो 99 फीसदी लोगों के लिए निजी कामकाज का इन दस्तावेजों से उजागर होना नुकसानदेह नहीं होता।
अब आज एक रिपोर्ट है कि किस तरह राजस्थान के एक जिले की 15 ग्राम पंचायतों के 6-7 सौ लोग अपने आधार कार्ड में फर्जीवाड़ा करके जवानी में ही उम्र को बुजुर्ग जितना दर्ज करवा चुके हैं, और हर महीने वृद्धावस्था पेंशन ले रहे हैं। कुल 15 ग्राम पंचायतों में पांच साल में करीब साढ़े 4 करोड़ की बुजुर्ग पेंशन इन नौजवानों ने पाई है। और शुरूआती जांच में यह पता लगा है कि जवानी में बूढ़े बनकर पेंशन पाने की यह जालसाजी राजस्थान में 15 साल से चल रही है। इसमें नीचे से ऊपर तक के अफसर-कर्मचारी शामिल हैं। हर पांच बरस में सत्ता पलटने वाले राजस्थान के इन 15 बरसों को देखें तो यह बात साफ है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों पार्टियों की सरकारें इस दौरान रही हैं, और ऐसा लगता है कि मंत्री-मुख्यमंत्री के आने-जाने से भ्रष्ट सरकारी मशीनरी की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा, और इस तरह के हरामखोर नौजवान जनता के खजाने का पैसा धोखाधड़ी और जालसाजी से खाते रहे। जिस आधार कार्ड में उम्र की छेडख़ानी करके यह गबन किया गया, उसी आधार कार्ड की जांच से यह बड़ा व्यापक जुर्म पकड़ाया भी है। इसलिए ऐसा लगता है कि भारत में जहां पर सरकार को धोखा देना, नाजायज फायदे उठाना आम राष्ट्रीय संस्कृति है, वहां पर सभी तरह के दस्तावेजों की जांच से जुर्म पकड़े जाने चाहिए।
अभी मोदी सरकार देश भर में हर जमीन या संपत्ति का भी एक आधार कार्ड या ऐसा कोई परिचय पत्र बनाने की तरफ बढ़ रही है। आज भी जमीन-जायदाद की खरीदी-बिक्री में, कई दूसरे किस्म के सरकारी कामकाज में आधार कार्ड को शिनाख्त का मुखिया जरिया बनाया गया है, और इसकी वजह से कई किस्म की परंपरागत जालसाजी रूकी है, और लोगों ने जालसाजी की नई किस्मों को ढूंढा है। ऐसा लगता है कि राष्ट्रीय स्तर पर आधार कार्ड, पैनकार्ड, ड्राइविंग लाईसेंस, मतदाता कार्ड, राशन कार्ड, क्रेडिट और डेबिट कार्ड, मोबाइल और इंटरनेट कनेक्शन इन सबको जोडऩे से सरकार किसी के बारे में कोई भी जानकारी पल भर में निकाल सकेगी। किस व्यक्ति ने किस जगह, किस होटल में ठहरकर, वहां के वाई-फाई का इस्तेमाल करते हुए, किस शॉपिंग वेबसाइट से, कौन से सामान खरीदे, और किस खाते से उनका भुगतान किया, ऐसी बहुत सी बातें चुटकी बजाते ही सरकारी एजेंसियों को मिल सकती हैं। हमारा ख्याल है कि लोगों के गैरसरकारी कामकाज की जानकारी निकालना सरकारी एजेंसियों के हाथ में तभी होना चाहिए, जब लोग किसी जुर्म में शामिल हों। आम लोगों की आम जिंदगी की जानकारी निकालने के खिलाफ सरकार को कड़े नियम बनाने चाहिए। देश में वैसे तो डाटा-सुरक्षा कानून बड़ा कड़ा बनाया गया है, लेकिन उसमें लोगों की निजी जिंदगी से संबंधित जानकारी को आपराधिक जांच के अलावा सुरक्षित रखने के स्पष्ट प्रावधान रहने चाहिए। आज लोगों की सेहत, उनके इलाज, उनकी खरीददारी, उनके किसी भी किस्म के भुगतान, या लेन-देन की जानकारी, इतनी सारी जगहों पर दर्ज होती है कि उनका बेजा इस्तेमाल करके न सिर्फ सरकार, बल्कि साइबर-घुसपैठिए भी लोगों को लूट सकते हैं, या ब्लैकमेल कर सकते हैं। अभी आए दिन अखबारों में रहता है कि किस तरह लोगों की बहुत सारी निजी जानकारी, जिनमें उनके आधार-पैनकार्ड के नंबर भी रहते हैं, उन्हें जुटाकर लोगों को किस तरह डिजिटल-बंधक बना दिया जा रहा है, और धोखा देकर लूटा जा रहा है। राजस्थान का यह मामला इससे ठीक उल्टा है जहां आम ग्रामीण नौजवानों ने एक ही मुजरिम-तरीका इस्तेमाल करके सरकार को लूटा है।
यह पूरी नौबत बताती है कि न सिर्फ आम जनता, बल्कि सरकार भी किस तरह डिजिटल-नाजुक बन चुकी हैं, और इससे पैदा होने वाले नुकसान के खतरों को भांपना सरकार के खुफिया और निगरानी तंत्र की एक बड़ी चुनौती है। सरकार को मुजरिमों के नजरिए से देखकर यह समझना होगा कि वे सरकारी इंतजाम को धोखा देकर किस तरह जनता को जुर्म का शिकार बना सकते हैं। राजस्थान की इस ताजा धोखेबाजी में शामिल सरकारी अमले को बड़ी कड़ी सजा देनी चाहिए, और यह मामला सरकार को इतने संगठित तरीके से धोखा देने का है, आम जनता को मुजरिम बना देने का है कि इसके लिए सरकारी अमले पर तो कम से कम उम्रकैद जैसा प्रावधान करना चाहिए।
देश में जगह-जगह बीच-बीच में ऐसी खबरें आती हैं कि किसी नाबालिग लडक़ी, या बलात्कार की किसी बालिग शिकार को भी गर्भपात करवाने की जरूरत लगती हो, लेकिन गर्भ में भ्रूण की उम्र अधिक हो जाने से उसे भी जीवित माना जाता है, और इतने लंबे गर्भ के बाद गर्भपात को लडक़ी या महिला के लिए जान का खतरा भी मान लिया जाता है। ऐसे कई मामले अदालत, अस्पताल, और संबंधित लडक़ी या महिला के परिवार के बीच घूमते रहते हैं, और बलात्कार की शिकार को अनचाही संतान को जन्म देना होता है। ऐसा जन्म कोई छोटी जिम्मेदारी नहीं रहता है, वह उस बच्चे की पूरी परवरिश और उसके बालिग हो जाने के बाद तक की जिम्मेदारी रहता है, और बलात्कार की शिकार अमूमन गरीब परिवार की लडक़ी की क्षमता से परे के भी ऐसे मामले रहते हैं। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने अभी एक नाबालिग रेप-पीडि़ता का ऐसा ही मामला तय किया गया है जिसमें अदालत ने गर्भपात की इजाजत नहीं दी, और कहा कि बच्चे के जन्म के बाद परिवार चाहे तो सरकार को उसे गोद दे सकता है, और सरकार सभी किस्म के इंतजाम करेगी।
भारत में बलात्कार की शिकार लडक़ी या महिला के लिए वैसे भी सरकार की तरफ से एक सहायता राशि का कानूनी इंतजाम है, और कुछ वक्त की देर से सही, वह रकम उन्हें मिलती है। लेकिन ऐसी कोई भी रकम एक अनचाही संतान की गुजर-बसर और उसकी जिंदगी के लिए काफी नहीं हो सकती। इसके कुछ अलग-अलग समाधान हो सकते हैं। एक तो समाधान छत्तीसगढ़ के ही एक दूसरे इलाके से आज ही सामने आया है, वहां पर सरकारी कानूनों की औपचारिकता पूरी करते हुए अमरीका से आए एक परिवार ने एक बच्चे को गोद लिया है, और उसे अच्छी जिंदगी मुहैया कराने के वायदे के साथ वे यहां से लौट रहे हैं। ऐसा समाधान नालियों और नालों में फेंके गए नवजात बच्चों की जिंदगी भी बचा सकता है, और सरकार की संस्थाएं अलग-अलग शहरों में ऐसे केन्द्र चला सकती हैं जहां पर लोग लगाए गए झूले पर बच्चे को छोडक़र और घंटी बजाकर चले जाएं ताकि वे सुरक्षित तरीके से भीतर ले जाए जा सकें। ऐसे केन्द्रों तक बच्चों को पहुंचाने वालों से उनकी शिनाख्त के सवाल भी नहीं होने चाहिए क्योंकि भारत में बच्चे गोद लेने वालों की इतनी लंबी कतार है कि बिना संतान वाले जोड़ों को बरसों तक इंतजार करना पड़ता है। और अब तो नियम कुछ अधिक सरल कर दिए गए हैं जिनमें अकेली महिलाएं भी बच्चे गोद ले सकती हैं, और इससे भी बच्चे पाने के पात्र लोगों की संख्या एकदम से बढ़ सकती है। इसलिए इतने दिलचस्प लोगों के रहते हुए किसी भी तरह से एक नवजात की जिंदगी को खत्म करना ठीक नहीं है। अब बलात्कार की शिकार लडक़ी तो एक शारीरिक और मानसिक यातना से गुजरी हुई रहती ही है, और ऐसे में उसकी संतान बिना किसी पहचान के सरकार अगर किसी सक्षम परिवार को गोद दे सके, तो इससे सभी पक्षों को मदद मिलती है।
एक दूसरा इलाज हम बरसों से सुझाते आ रहे हैं। हमारा मानना है कि बलात्कारी को सिर्फ कैद मिल जाने से इंसाफ नहीं होता। जब बलात्कार पूरी तरह से साबित हो जाता है तो बलात्कारी की संपत्ति का एक हिस्सा उसके हिंसक सेक्स-हमले की शिकार लडक़ी या महिला को मिलना चाहिए। यह हिस्सा बलात्कारी की अपनी संतानों, या उसकी पत्नी के हिस्से आने वाली संपत्ति जितना होना चाहिए। अगर बलात्कारी शादीशुदा नहीं है, तो उसे अपने परिवार से मिलने वाली संपत्ति में से एक हिस्सा अदालत में जमा करवाने की शर्त रहनी चाहिए। यह तो बलात्कार की शिकार लडक़ी का मुआवजा हुआ, अगर इससे कोई संतान होती है, तो बलात्कारी पर यह कानूनी जिम्मेदारी भी आनी चाहिए कि वह अपने खुद के हो चुके, या होने वाले बच्चों के कानूनी हक के बराबर का हक उस संतान के लिए दे। यह होने पर बलात्कारी की संपत्ति के एक हिस्से का इस्तेमाल कानूनी जरिए से बलात्कार की शिकार के लिए हो सकेगा, वरना सिर्फ कैद तो कोई सजा होती नहीं। हम इस बारे में इसी कॉलम में पहले भी कई बार कह चुके हैं कि बलात्कार की सजा के कानून में संपत्ति के बंटवारे का प्रावधान जोड़ा जाना चाहिए। जब तक बलात्कारी को आर्थिक नुकसान नहीं पहुंचेगा, और उसकी हिंसा के शिकार को यह मिल नहीं सकेगा, तब तक इंसाफ पूरा नहीं हो सकेगा। ऐसा ही प्रावधान हत्या और कुछ दूसरे अपराधों में भी जोड़ा जाना चाहिए, ताकि अगर कातिल सक्षम रहे, तो मृतक परिवार को उसकी संपत्ति का एक हिस्सा मिल सके। भारत के कानून में यह मानवीय सोच जोडऩी होगी कि कैद से मुजरिम को तो सजा मिल जाती है, जुर्म के शिकार परिवार को कोई मुआवजा नहीं मिलता।
एक वक्त अनचाहे बच्चों को छोडऩे के लिए कुछ तरह के आश्रम चलते थे, और मदर टेरेसा की संस्था का भी एक ऐसा आश्रम देश के कई शहरों में था। लेकिन अभी सीसीटीवी कैमरों की निगरानी से लोग सहमे रहते हैं, और सरकार को कानून बनाकर यह गारंटी देनी चाहिए कि अनचाहे बच्चों को किसी सुरक्षित केन्द्र तक पहुंचाने वाले लोगों की न तो किसी तरह की रिकॉर्डिंग की जाए, न शिनाख्त पूछी जाएगी, और न ही इसे किसी तरह की कानूनी कार्रवाई में लिया जाएगा। इसे पूरी तरह एक नवजात जिंदगी को बचाने का काम माना जाएगा, और इस पर सजा नहीं, किसी पुरस्कार का प्रावधान हो सकता है। नवजात बच्चों की मां भी अगर उन्हें ऐसे केन्द्र पर ले जाकर छोड़े, तो उसके लिए भी एक सहायता राशि का प्रावधान करना चाहिए जो कि कानूनी रूप से शिनाख्त छुपाए रखने वाला हो, जैसे कि बलात्कार की शिकार महिलाओं के नाम उजागर नहीं हो सकते, कानून तोडऩे वाले नाबालिगों के नाम उजागर नहीं हो सकते। देश की नवजात संतानें नालों और घूरों पर जिंदा या मुर्दा मिलें, यह देश के लिए बड़ी शर्मिंदगी की बात है। दूसरी तरफ देश में बच्चे चाहने वाले लोगों की प्रतीक्षा सूची बहुत ही लंबी है। पिछले बरस के कुछ आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर बरस साढ़े 3-4 हजार बच्चे गोद जाने के लिए उपलब्ध रहते हैं, और करीब 30 हजार दंपत्तियां गोद लेने की कतार में हैं। इस तरह बच्चा पाने का औसत इंतजार तीन साल से ज्यादा का है। इस पर पिछले बरस देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ ने सेंट्रल एडॉप्शन रिसोर्स अथॉरिटी से पूछा था कि वह बच्चों के गोद लेने में इतने अड़ंगे क्यों लगाती है। अदालत इस बात पर हैरान थी कि इस कानूनी संस्था ने पूरी दत्तक प्रक्रिया को नियमों में उलझाकर रखा है, और दूसरी तरफ अनाथाश्रमों में बच्चे बिना परिवारों के पड़े हैं।
बलात्कार से गर्भवती होने, बच्चे पैदा होने की समस्या के कई पहलुओं में बच्चों को गोद देने की समस्या, या उसे समाधान कहें, भी शामिल है इसलिए हमने इस पूरे मामले से जुड़े हुए तमाम पहलुओं पर यहां बात की है। देखें अदालतें, और सरकारें, संसद, और जनता क्या करते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने कोलकाता में एक महिला चिकित्सा छात्रा के साथ बलात्कार और उसकी हत्या पर एक लेख में कहा है कि एक डॉक्टर के साथ बलात्कार, और उसकी हत्या ने देश को सकते में डाल दिया है। ‘जब मैंने यह खबर सुनी, तो मैं बुरी तरह स्तब्ध और व्यथित हो गई। सबसे अधिक हताश करने वाली बात यह है कि ये केवल एक अकेला मामला नहीं है, यह महिलाओं के खिलाफ अपराधों की कड़ी का एक हिस्सा है।’ इसके बाद द्रौपदी मुर्मू ने देश की राजधानी में निर्भया के साथ हुई त्रासदी का भी जिक्र किया है, और देश में जगह-जगह महिलाओं और छोटी-छोटी बच्चियों पर हो रहे बलात्कार के बारे में भी लिखा है। राष्ट्रपति बार-बार किसी मुद्दे पर लिखते हों ऐसा भी याद नहीं पड़ता है, और द्रौपदी मुर्मू ने इस खास लेख में देश में महिलाओं की खतरनाक हालत के बारे में बहुत कुछ लिखा है। राष्ट्रपति एक महिला होने के अलावा आदिवासी भी हैं, और ये दोनों ही तबके आज देश में खासे खतरे में हैं, इसलिए हम उनकी फिक्र को जायज समझते हैं, और जरूरी भी। हम उनके लिखे हुए से सहमत भी हैं। लेकिन मन में एक सवाल और उठ खड़ा होता है।
मणिपुर में 4 मई 2023 को भडक़े दंगों के बाद वहां आदिवासियों पर जुल्म की भयानक तस्वीरें सामने आई थीं। आदिवासियों और वहां के सवर्ण मैतेई समुदाय के बीच भयानक हिंसा हुई थी जिसमें शायद 60 हजार कुकी और दूसरे आदिवासियों को अपना घर-बार, गांव-कस्बा छोडक़र चले जाना पड़ा था। डेढ़-दो सौ लोगों की मौत हुई थी, बड़ी संख्या में आगजनी हुई थी, लेकिन जिस घटना ने पूरी दुनिया को हिला दिया था, वह दो आदिवासी महिलाओं को सारे कपड़े उतारकर एक जुलूस में नंगे बदन, बदन से खिलवाड़ करते हुए, और बाद में शायद उनसे गैंगरेप करना, और उनको मार डालना जैसी घटनाएं हुई थीं। जब इसका वीडियो सामने आया, और सुप्रीम कोर्ट ने खुद होकर उसका नोटिस लिया, तब जिस दिन सुप्रीम कोर्ट से इस पर आदेश होना था उसी सुबह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहली बार इस पर मुंह खोला था, और इसे पूरे देश की शर्मिंदगी का मौका बताया था। अब बाकी देश तो मणिपुर के हालात के लिए जवाबदेह नहीं था क्योंकि यह लड़ाई दूसरे प्रदेश के लोगों से नहीं थी, और सिर्फ वहां के भाजपा-मुख्यमंत्री बीरेन सिंह, और केन्द्र की भाजपा अगुवाई वाली मोदी सरकार ही मणिपुर के लिए जिम्मेदार थे। इसलिए बाकी देश की शर्मिंदगी की बात भी कुछ तर्कसंगत और न्यायसंगत नहीं थी। लेकिन उस वक्त तक भी ऐसी कोई खबर नहीं आई कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मणिपुर में महिलाओं के साथ ऐसे सुलूक और वहां के बाकी हालात को लेकर प्रधानमंत्री को बुलाकर कोई चर्चा किए हों, जो कि न सिर्फ अधिकार था, बल्कि उनकी जिम्मेदारी भी थी। इसी मणिपुर में अपने बुरी तरह से जख्मी बच्चे को लेकर अस्पताल जा रही महिला को मैतेई भीड़ ने एम्बुलेंस सहित जलाकर मार डाला था। इस पर भी राष्ट्रपति का कोई लेख हमें याद नहीं पड़ता, और न ही अफसोस का कोई बयान उन्होंने दिया हो ऐसा दिखता है। मणिपुर साल भर जलते रहा, देश के तमाम संविधान विशेषज्ञ यह कहते रहे कि वहां की सरकार भंग करने का मौका है, और उसकी जरूरत है, लेकिन एक आदिवासी महिला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का मुंह भी नहीं खुला था, और अभी जब उन्होंने कोलकाता के एक बलात्कार और कत्ल को संदर्भ बनाकर यह असाधारण लेख लिखा है, तो भी इसमें मणिपुर का दर्द नहीं छलक रहा है।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हमने मणिपुर पर लिखते हुए, और अपने यूट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल, पर बोलते हुए कई बार मोदी और द्रौपदी मुर्मू के मौन पर कई बार कहा था। अब ऐसे में यह लगता है कि मणिपुर जैसे जलते हुए मुद्दे पर, जहां पर दो समुदायों के बीच व्यापक हिंसा चल रही थी, जहां पर आदिवासी समुदाय पर ऐतिहासिक जुल्म हो रहा था, जहां पर आदिवासी महिलाओं की रेप-परेड निकाली जा रही थी, वहां पर द्रौपदी मुर्मू को निर्भयाकांड के दस-ग्यारह बरस हो जाने के बाद ऐसा कोई लेख लिखना नहीं सूझा। अब हम मणिपुर की व्यापक हिंसा के साथ अगर पश्चिम बंगाल की इस ताजा दर्दनाक और अमानवीय घटना की तुलना करें, तो कोलकाता के मेडिकल कॉलेज अस्पताल में एक चिकित्सा छात्रा के साथ एक या उससे अधिक कुछ लोगों ने बंद कमरे में बलात्कार किया, और उसे मार डाला। यह घटना भयानक थी, लेकिन क्या यह घटना मणिपुर से अधिक भयानक थी? यह सवाल इसलिए उठ रहा है कि हम एक बलात्कार की दूसरे बलात्कार से तुलना नहीं कर रहे, बल्कि हम देश के व्यापक हालात पर देश की राष्ट्रपति, एक महिला, एक आदिवासी की व्यापक फिक्र की जरूरत, और उसके वक्त का अंदाज लगाने की कोशिश कर रहे हैं। बंगाल की ममता सरकार इस ताजा रेप-हत्या पर बहुत बुरी तरह घिरी हुई है, और सरकार की अनदेखी, सत्ता की गिरोहबंदी, सरकार की लापरवाही, और नालायकी सबको लेकर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश खुद सवाल कर रहे हैं। यह सब कुछ कोलकाता की घटना के दो हफ्ते के भीतर हो चुका है, और तीन हफ्ते पूरे होने के पहले द्रौपदी मुर्मू का यह लेख भी सामने आ चुका है। हम सिर्फ यह याद करने की कोशिश कर रहे हैं कि मणिपुर की व्यापक हिंसा, वहां पर संवैधानिक असफलता, वहां निर्वाचित सरकार पर तोहमतें और जनता का अविश्वास सब देखते हुए क्या राष्ट्रपति की उस वक्त यह जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वे प्रधानमंत्री, केन्द्रीय गृहमंत्री, मणिपुर के मुख्यमंत्री को बुलाकर जवाब-तलब करतीं, जो कि उनका न सिर्फ अधिकार था, बल्कि उनकी जिम्मेदारी भी थी। इस पर लिखते हुए हमें याद पड़ता है कि उस वक्त मणिपुर की राज्यपाल रहीं अनुसुइया उइके ने राज्य सरकार और केन्द्र सरकार के रूख को लेकर अपनी गहरी निराशा औपचारिक रूप से जाहिर की थी, और यह भी जाहिर है कि उसके बाद उनका राज्यपाल का कार्यकाल बढ़ाया नहीं गया।
हमें यह समझने में दिक्कत हो रही है कि मणिपुर में असाधारण और ऐतिहासिक हिंसा के उस दौर के सवा साल बाद आज द्रौपदी मुर्मू को अचानक बंगाल के इस बलात्कार-हत्या मामले को लेकर लेख लिखने की कैसे सूझी, और इतने वक्त तक मणिपुर की उन महिलाओं के वीडियो देखते हुए उन्हें क्या लगा था? हमने पहले भी कई बार इस पर लिखा था कि जिस समुदाय से निकलकर लोग ऊपर पहुंचते हैं, उस समुदाय के हितों को वे भूल जाते हैं। कोलकाता के मामले को तो पूरा देश और पूरी दुनिया सभी उठा रहे हैं, कोलकाता हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जाने कितनी बार इसकी सुनवाई कर चुके हैं, लेकिन मणिपुर शायद भारतीय लोकतंत्र की मूलधारा से उसी तरह किनारे पड़े रहा, जिस तरह बाकी हिन्दुस्तान उत्तर-पूर्वी राज्यों को इस अंदाज में नार्थ-ईस्ट कहता है कि मानो वह कोई दूसरा देश हो।
हिन्दुस्तान के लोकतंत्र का इतिहास द्रौपदी मुर्मू के इस ताजा दर्द को अच्छी तरह दर्ज कर रहा है, लेकिन मणिपुर पर उनकी चुप्पी इतिहास के पन्नों से हमेशा ही चीख-चीखकर बोलती रहेगी। ऐसे में लगता है कि क्या द्रौपदी मुर्मू अपने को राष्ट्रपति बनाने वाली मोदी सरकार को नापसंद ममता सरकार को घेरने के लिए इस वक्त पर ऐसा लेख लिख रही हैं? यह सवाल किसी बुलबुले की तरह आसानी से बैठने वाला नहीं है, यह सीना तानकर खड़े रहेगा, और जब द्रौपदी मुर्मू का मुंह खुलेगा, उनकी कलम चलेगी, तब-तब वह उनकी चुप्पी के बारे में पूछेगा।
असम में बलात्कार की कुछ अलग-अलग घटनाओं में गैरअसमी मुसलमान या हिन्दीभाषी गैरअसमी कोई बाहरी व्यक्ति आरोपों से घिरे मिले हैं, और नतीजा यह है कि प्रदेश में जगह-जगह क्षेत्रवाद पर काम करने वाले संगठन बाहरी मुस्लिमों और हिन्दीभाषी दोनों के खिलाफ बड़ी मुहिम छेड़े हुए हैं कि उन्हें बाहर निकाला जाए। कई जिलों में उन्हें दो-चार दिनों का समय दिया गया है कि छोडक़र निकल जाएं। इनमें असम के स्थानीय मुस्लिम संगठन भी सक्रिय हो गए हैं। राज्य सरकार ऐसा सामुदायिक तनाव फैलाने वाले दो दर्जन से अधिक संगठनों को पहचान कर उन्हें नोटिस भेज रही है, लेकिन कुल मिलाकर प्रदेश एक नए तनाव का केन्द्र बन रहा है। यह समझने की जरूरत है कि यहां भाजपा के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा के कुछ बयानों के बाद यह ताजा तनाव खड़ा हुआ है। सरमा ने हाल ही में कहा था कि लोकसभा चुनाव में जहां-जहां कांग्रेस के वोट बढ़े, वहां एक विशेष समुदाय का हौसला इतना बढ़ गया है कि वो अपना दबदबा बढ़ाने के चक्कर में हैं, और हिन्दू महिलाओं पर अत्याचार इसी का नतीजा है। वे पहले भी कह चुके हैं कि असम को मियांभूमि नहीं बनने देंगे। असम में गैरअसमी मुसलमानों को मियां कहा जाता है, और भाजपा में आने के बाद से सीएम सरमा का इतिहास इसी तरह के बहुत ही भडक़ाऊ बयानों से भरा हुआ है।
अब हम असम की स्थानीय बारीकियों में गए बिना अगर यह देखें कि ऐसे तनाव का क्या नतीजा होगा, तो एक भयानक तस्वीर बनती है। अगर असम से हिन्दीभाषी लोगों को, जिनमें बहुतायत हिन्दुओं की है, उन्हें अगर भगाया जाता है, उनके खिलाफ सामाजिक तनाव खड़ा किया जाता है, तो उसकी प्रतिक्रिया तो बाकी देश में भी होगी। आज वहां पर मारवाड़ी समुदाय के एक-दो लोगों पर लड़कियों को छेडऩे का आरोप लगा तो कुछ जगहों पर इस समुदाय को बाहरी करार देते हुए पूरे मारवाड़ी समाज को घुटनों पर खड़ा करके माफी मंगवाई गई थी। उत्तर-पूर्व के कई राज्यों में उग्र स्थानीय क्षेत्रवाद कोई नई बात नहीं है, लेकिन बाहर से पहुंचकर असम में कारोबार करने वाले, या दूसरे काम करने वाले हिन्दीभाषी लोगों को अगर वहां से इस तरह बाहर निकाला जाएगा, तो ये जिन प्रदेशों के लोग हैं, वहां के गिने-चुने असमिया लोगों को कैसी प्रतिक्रिया झेलनी पड़ेगी?
हमने पिछले बरसों में मुम्बई में यूपी और बिहार के लोगों के खिलाफ शिवसेना और राज ठाकरे के आक्रामक तेवर देखे थे, और उनके हमले देखे थे। बाद में जब शिवसेना की राजनीतिक और चुनावी भागीदारी कांग्रेस और एनसीपी से हुई, तो शिवसेना का नजरिया व्यापक हुआ, और उसने संकीर्णता छोड़ी। अब शिवसेना के किसी आव्हान में यूपी-बिहार के खिलाफ हमलावर बात नहीं होती है। लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले कर्नाटक में भाजपा का शासन रहते हुए वहां से उत्तर-पूर्वी राज्यों के लोगों के खिलाफ इतना तनाव खड़ा किया गया था, कि पूरी ट्रेनें भर-भरकर उत्तर-पूर्व के लोग लौट गए थे। एक प्रदेश के लोगों के खिलाफ दूसरे प्रदेश में, या किसी एक धर्म या भाषा के लोगों के खिलाफ किसी प्रदेश में ऐसी आक्रामकता भारतीय संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है। जब देश में राष्ट्रवादी उन्माद की हवा फैलाई जाती है, तो वह लोगों की दिमागी हालत ऐसी कर देती है कि वे राष्ट्रवाद के साथ-साथ क्षेत्रवाद के उन्माद से भी भर जाते हैं। असम में आज ऐसा ही नजारा देखने मिल रहा है।
लेकिन क्षेत्रवाद के खतरे किस तरह के होते हैं इसकी एक भयानक मिसाल असम के इस चुनाव के साथ-साथ ही इन्हीं दिनों में पाकिस्तान में देखने मिल रही है, जहां पर बलूचिस्तान के इलाके में पहले तो वहां के स्थानीय लोगों ने बसों, और दूसरी गाडिय़ों को रोककर दूसरे प्रांत पंजाब के लोगों को नीचे उतारकर, उनके पहचान पत्र देख-देखकर, गोली मारी, और एक दिन में दर्जनों लोगों को मार डाला। इसके खिलाफ जब पाकिस्तान सरकार ने सैनिक कार्रवाई चालू की, तो बलूचिस्तान के हथियारबंद संगठनों ने बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सैनिकों को भी मार डाला। अगर आंकड़े सही हैं, तो पिछले बीस घंटों में 130 सैनिकों को मारने का दावा भी बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी ने किया है। बलूचिस्तान का यह पूरा का पूरा आंदोलन पाकिस्तान के राष्ट्रीय हितों के भीतर अपने क्षेत्रीय हित को अलग से ढूंढने का है, और कुछ लोगों का यह भी मानना है कि आज की तारीख में बलूचिस्तान का इलाका एक किस्म से पाकिस्तान की सरकार के काबू के बाहर हो चुका है।
कुछ लोगों को इन दो स्थितियों की हमारी तुलना अटपटी लग सकती है, लेकिन यह बात समझने की जरूरत है कि जब सामाजिक और राजनीतिक तनाव और टकराव बढ़ाया जाता है, तो उसे बाद में हर बार रोक पाना मुमकिन नहीं रहता है। असम में मुख्यमंत्री सरमा के बयान राज्य के भीतर एक बड़ा विभाजन करने वाले हैं। हो सकता है कि उन्हें और उनकी पार्टी बीजेपी को इसमें चुनावी फायदा दिखता हो, लेकिन समाज में इतनी गहरी खाई खोद देना ठीक नहीं है। भारत एक बड़ा देश है जिसमें विविधताओं का ताना-बाना देश को बांधकर रखता है। किसी एक धर्म, एक जाति, एक प्रादेशिकता के भरोसे यह ताना-बाना नहीं चल सकता। असम के आज के खतरे जल्द से जल्द काबू में लाए जाएं वही ठीक है, वरना अभी उत्तर-पूर्व का मणिपुर भारत के लिए एक बड़ी शर्मिंदगी की जगह बना हुआ है, और वहां पर साल भर से अधिक हो चुका है कि किसी भी तरह से लोकतंत्र दुबारा कायम करना मुमकिन नहीं हो पाया है। हमारे कम लिखे अधिक समझा जाए, और असम या किसी भी दूसरे राज्य में ऐसा नफरती विभाजन खड़ा न किया जाए। पता नहीं संविधान की शपथ लेने वाला एक मुख्यमंत्री ऐसा कर कैसे सकता है। या तो फिर इस देश में संविधान की शपथ बंद ही कर देना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीकी पार्लियामेंट की एक न्यायिक कमेटी फेसबुक के बहुत से मामलों की जांच कर रही है, इसमें यह भी शामिल है कि क्या यह कंपनी अपने कम्प्यूटरों से फेसबुक पर किसी सामग्री की पहुंच को कम या ज्यादा करती है। इस कमेटी को अभी फेसबुक, इंस्टाग्राम, और वॉट्सऐप की कंपनी, मेटा के मालिक मार्क जुकरबर्ग ने एक चिट्ठी लिखी है जिसमें उन्होंने अपनी कंपनी पर राष्ट्रपति जो बाइडन की सरकार की तरफ से आए हुए कुछ दबावों का जिक्र किया है, और कहा है कि उन्हें इस बात का अफसोस है कि इन दबावों के खिलाफ उन्हें जितना मुखर होना था, वे नहीं हो पाए थे। मार्क जुकरबर्ग ने यह खुलासा किया है कि 2021 में अमरीकी राष्ट्रपति भवन के अफसरों ने महीनों तक कोविड-19 से संबंधित सामग्री को सेंसर करने के लिए दबाव डाला जिसमें कटाक्ष और व्यंग्य से संबंधित सामग्री भी शामिल थी। चिट्ठी में लिखा गया है कि जब मेटा इस सेंसर पर सहमत नहीं हुई, तो अफसरों ने मेटा के रूख पर अफसोस जाहिर किया था। मार्क जुकरबर्ग ने लिखा कि ये फैसला उनकी कंपनी का ही था कि सामग्री को हटाना है या नहीं, हटाने का यह काम सरकार नहीं कर सकती थी, लेकिन कोरोना से संबंधित पोस्ट हटाने को लेकर कंपनी पर बार-बार दबाव आया। लेकिन मार्क जुकरबर्ग का यह भी कहना है कि कोरोना जैसी महामारी से संबंधित सेंसर या सुझाव से परे राष्ट्रपति बाइडन के बेटे के भ्रष्टाचार के एक मामले को लेकर भी अमरीका की केन्द्रीय जांच एजेंसी, एफबीआई ने 2020 के चुनाव के पहले मेटा को आगाह किया था। न्यूयॉर्क पोस्ट ने बाइडन के बेटे के भ्रष्टाचार के आरोपों पर एक रिपोर्ट तैयार की थी, और एफबीआई ने इसे रूसी दुष्प्रचार बताते हुए फेसबुक से कहा था कि इस समाचार पर फैक्ट चेक की नोटिस लगाई जानी चाहिए। चिट्ठी में आगे लिखा गया है कि इस समाचार को फेसबुक पर डिमोट कर दिया गया, और यह बहुत से लोगों तक नहीं पहुंच पाया था, जबकि यह रूसी दुष्प्रचार नहीं था। यह बात मार्क जुकरबर्ग 2022 में भी एक बार मान चुके हैं कि मेटा ने बाइडन से जुड़ी कुछ सामग्री फेसबुक पर दबा दी थी, और फेसबुक के कम्प्यूटर-प्रोग्राम के जरिए हंटर बाइडन की खबर को एक हफ्ते के लिए सेंसर कर दिया था। अब अमरीका की प्रमुख विपक्षी पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी ने मार्क जुकरबर्ग की इस चिट्ठी को लेकर राष्ट्रपति बाइडन को घेरा है, और कहा है कि राष्ट्रपति के परिवार के लिए एक सोशल मीडिया कंपनी पर दबाव डालकर खबरों को सेंसर करवाया गया।
अब हम इससे बिल्कुल अलग एक दूसरी खबर पर चलते हैं। दुनिया में एक सबसे लोकप्रिय मैसेंजर सर्विस, टेलीग्राम के संस्थापक और मुखिया पावेल डुरोव को दो दिन पहले फ्रांस में गिरफ्तार कर लिया गया, उन पर यह आरोप है कि टेलीग्राम पर लगातार नशे के कारोबारियों, और दूसरे किस्म के संगठित अपराध करने वाले गिरोहों को काम करने की छूट दी गई, और उनके संदेशों और पोस्ट पर किसी तरह की रोक नहीं लगाई गई। टेलीग्राम पर यह आरोप भी लगते रहे हैं कि उस पर नफरत फैलाने वाले समूहों का कारोबार चलते रहता है, बच्चों की पोर्नोग्राफी की सामग्री पोस्ट की जाती है, और कंपनी इन सबको रोकने के लिए कोई कोशिश नहीं करती है। टेलीग्राम का कहना है कि उसकी नीति है कि लोगों को अधिक से अधिक आजादी मिलनी चाहिए, और इसलिए वे अपनी मैसेंजर सर्विस पर संदेशों पर अधिक रोक-टोक नहीं लगाते।
अब ये दोनों मामले अलग-अलग कंपनियों के हैं, लेकिन इन दोनों में एक बात एक सरीखी है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्दा इन दोनों में उठा है। मेटा का पूरा कारोबार अमरीका से चलता है, इसलिए उसे अमरीकी सरकार के कुछ सुझाव मानना ठीक लगा होगा। वैसे भी कोरोना से संबंधित मामलों को लेकर दुनिया भर की सरकारों ने यह सावधानी बरती थी कि लोगों तक अवैज्ञानिक बातें न पहुंचे। ऐसी महामारी के मामले में कोई भी सरकार यह सोच सकती है कि व्यंग्य या कटाक्ष भी लोगों में गलतफहमी फैला सकते हैं, भारत में हमने ऐसा देखा हुआ भी है। इसलिए अगर अमरीकी सरकार ने कोरोना से संबंधित कुछ सामग्री को सेंसर करने के लिए मार्क जुकरबर्ग पर दबाव डाला था, तो उसे समझा जा सकता है। लेकिन कंपनी ने खुद ही साफ किया है कि इस दबाव पर क्या फैसला लेना है, यह कंपनी के हाथ में था। ऐसा भी नहीं है कि सरकार की बात न सुनने पर कंपनी पर छापे पड़ गए हों, टैक्स एजेंसियां कंपनी में घुस गई हों, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मार्क जुकरबर्ग की चिट्ठी का सबसे गंभीर हिस्सा यही है कि उसे कुछ खबरों को सेंसर करने की सलाह दी गई। 2020 के चुनाव में जो बाइडन राष्ट्रपति बने नहीं थे, और अगर उनके बेटे से जुड़ी कुछ खबरों को वहां की जांच एजेंसी एफबीआई ने रूसी प्रचार तंत्र का काम माना था, तो वह एफबीआई बाइडन के तहत काम नहीं कर रही थी, वह उस वक्त के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के तहत काम कर रही थी, और उस वक्त यह बड़ा मुद्दा उठा था कि रूसी दिलचस्पी बाइडन को हराने में थी, और अमरीकी चुनाव प्रचार में रूसी ताकतें ट्रंप के लिए काम कर रही थीं। इस तरह यह बात साफ है कि बाइडन सरकार के जिस दबाव की चर्चा मेटा कर रहा है, वह सिर्फ कोरोना से जुड़ी हुई बातें थीं।
फ्रांस ने अगर टेलीग्राम के संस्थापक को गिरफ्तार किया है, तो उसका यह आरोप है कि इस प्लेटफॉर्म पर लगातार संगठित अपराध का कारोबार चल रहा था, और कंपनी उसे रोकने के लिए लगभग कुछ भी नहीं कर रही थी। लेकिन अब हिन्दुस्तान में भी यह खलबली मची है कि क्या टेलीग्राम पर भारत में भी रोक लगाई जानी चाहिए? मेटा की मैसेंजर सर्विस वॉट्सऐप, और टेलीग्राम दोनों पर ही जो संदेश आते-जाते हैं, ग्रुप में जो बातें पोस्ट होती हैं, उन पर सरकार की कोई पहुंच नहीं रहती। मेटा ने तो कुछ अरसा पहले यह भी खुलासा कर दिया है कि अगर भारत सरकार वॉट्सऐप पर अपनी दखल चाहेगी, तो कंपनी भारत में काम ही बंद कर देगी। इसलिए फ्रांस और अमरीका की मिसालें भारत में टेलीग्राम पर रोक का आधार तो बता सकती हैं, लेकिन साथ-साथ फेसबुक, वॉट्सऐप, और इंस्टाग्राम पर भारत में रोक की कोई वजह अब तक नहीं बता रहीं। भारत में संगठित अपराध की ऐसी कोई तोहमत इन दोनों ही कंपनियों पर नहीं लगाई है, और सिर्फ समाचार-विचार की सेंसरशिप के लिए ऐसा करना एक अलग बवाल खड़ा करेगा। यहां इस बात को समझने की जरूरत है कि अमरीका में बसी हुई कंपनी जब राष्ट्रपति-कार्यालय के दखल के खिलाफ संसदीय कमेटी को चिट्ठी लिखकर सब बता सकती है, तो भारत में भी अगर सरकार की तरफ से कोई दबाव पड़ेगा, तो उसकी जानकारी भी आगे-पीछे यह कंपनी सार्वजनिक कर सकती है।
किसी देश में जनहित में, या राष्ट्र के हित में क्या सेंसर किया जा सकता है, क्या रोका जा सकता है, यह उस देश के कानून, और वहां की लोकतांत्रिक परंपराओं पर निर्भर करता है। भारत में आपातकाल में सेंसरशिप लगाना कांग्रेस को कितना भारी पड़ा था, यह भी इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है। आज के भारत में सरकार का ऐसा करना आसान भी नहीं होगा, और वह शायद अदालत में आसानी से खड़ा भी नहीं हो पाएगा। लेकिन फ्रांस और अमरीका की इन मिसालों को भारत में सरकार के लोग गौर से देख जरूर रहे होंगे, देखें आगे-आगे होता है क्या...