संपादकीय
कहानी कुछ फिल्मी है, और भारतीय समाज के कई अलग-अलग पहलुओं को बताती है। उत्तरप्रदेश में एक परिवार में बेटे का किसी से प्रेमसंबंध था, जो कि मां को पसंद नहीं था। मां ने बेटे की कहीं और शादी करवा दी ताकि सुंदर बहू के आने से बेटा पटरी पर आ जाएगा, लेकिन बहू आई तो पता लगा कि उसका भी किसी और से संबंध है। शादी के बाद भी बेटा-बहू दोनों बाहर दीगर लोगों से अपने रिश्ते बनाए चल रहे थे। मां के दिमाग में यह बात बैठी हुई थी कि यह बात समाज में फैलेगी तो वह कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाएगी। उसने अपने भाई को यह जिम्मा दिया कि वह बेटा-बहू दोनों को खत्म करवा दे ताकि सामाजिक बदनामी का खतरा ही खत्म हो जाए। भाई ने एक भाड़े के हत्यारे का जुगाड़ किया, और फिर कई किस्म के मौके तलाशे, आखिर में एक तीर्थयात्रा से लौटते हुए राजस्थान में अपनी कार में उसने इस भाड़े के मददगार की मौजूदगी में खुद भांजे और उसकी बीवी को गोलियां मार दी। पुलिस ने सीसीटीवी कैमरों की रिकॉर्डिंग से इन दोनों की मौजूदगी की रिकॉर्डिंग हासिल कर ली, और गिरफ्तारी के बाद जब पूरी बात खुली, मां, मामा, और भाड़े का मददगार जब गिरफ्तार हुए, तब भी मां को मलाल सिर्फ यही था कि यह भांडाफोड़ हो गया, वरना उसे बेटे-बहू का कत्ल करवाने का कोई मलाल नहीं था।
हिन्दुस्तान का एक बड़ा हिस्सा स्थाई रूप से एक मानसिक तनाव में जीता है। सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग। इस कत्ल से परे बहुत से ऐसे कत्ल होते हैं जिनमें ऑनरकिलिंग के नाम पर अपने परिवार के ऑनर (सम्मान) की रक्षा के लिए लोग मर्जी से शादी करने वाले अपने बच्चों का कत्ल करवा देते हैं। आमतौर पर पारिवारिक सम्मान की यह फिक्र बेटी को लेकर होती है जिसे परिवार अपनी संपत्ति मानकर चलता है, और इस संपत्ति को कन्यादान के रास्ते ठीक से ठिकाने न लगा पाने की नाकामयाबी की वजह से नाराज परिवार समाज के यह सामने यह साबित करना चाहता है कि बेटी ने परिवार की ‘इज्जत’ का ख्याल नहीं रखा, तो उन्होंने बेटी को उसके प्रेमी या पति के साथ मरवा डाला। लोगों को अपनी आल-औलाद की जिंदगी की फिक्र नहीं रहती, उनकी मर्जी, खुशी, और उनकी सुखी जिंदगी की परवाह नहीं रहती, लोग महज यह सोचते हैं कि समाज में अपनी इज्जत कैसे बनाए रखी जाए, फिर चाहे इसके लिए उन्हें पूरी जिंदगी जेल में ही क्यों न काटनी पड़े। यह बड़ी अजीब बात है कि बच्चे मर्जी से शादी कर लें तो यह परिवार का अपमान है, और अगर वे मार दिए जाएं, तो उसमें परिवार का सम्मान है। यह बात सिर्फ हिन्दुस्तान के हिन्दुओं तक सीमित नहीं है, ब्रिटेन में बसे हुए पाकिस्तानी मां-बाप भी वहां पर अपनी ऐसी बेकाबू समझी जाने वाली संतानों की ऑनरकिलिंग के मामलों में सजा पाए हुए हैं।
ऐसा लगता है कि समाज का ढांचा मजबूत होने के पहले जब लोग व्यक्ति के रूप में अधिक आजादी रखते थे, और वे समाज नाम की एक बड़ी मशीन का छोटा पुर्जा नहीं बने थे, तब समाज के हिंसक नियमों का सम्मान कम था, और व्यक्ति के रूप में लोगों की आजादी अधिक थी। जैसे-जैसे धर्म और जाति के आधार पर समाज व्यवस्था अधिक फौलादी होती चली गई, वैसे-वैसे व्यक्ति का महत्व घटते चले गया, और सामाजिक ढांचे के प्रति अपने को अधिक जवाबदेह मानने वाले परिवार अपने सदस्यों के खिलाफ हिंसक हो जाने की हद तक जाकर भी मोहब्बत के खिलाफ होने लगे। जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ा, नौजवान पीढ़ी संयुक्त परिवारों से बाहर निकलकर पढऩे के लिए, या काम करने के लिए शहरों तक जाने लगीं, लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई भी अधिक होने लगी, वे आर्थिक आत्मनिर्भर होने लगीं, काम करने लगीं, वैसे-वैसे उनके परिवार के गांव-कस्बों की फौलादी पकड़ कुछ कमजोर होने लगी। भारत में यह रफ्तार बड़ी धीमी है, लेकिन सामाजिक बदलाव का यह सिलसिला जारी है। और जैसे-जैसे लोग अपने गांव-कस्बे से दूर होने लगे, वैसे-वैसे वे अपने समाज के रीति-रिवाजों के चंगुल से बाहर भी निकलने लगे। बदलाव की यह रफ्तार धीमी है, और नई पीढ़ी के बीच बढ़ती उनकी निजी महत्वाकांक्षाएं, और अपने अधिकारों का उनका अहसास तेज रफ्तार है। इन दोनों के बीच कोई मेल नहीं बैठ रहा है, और नतीजा इस तरह के कत्ल में भी सामने आता है, और प्रेमीजोड़ों की खुदकुशी में भी। सामाजिक दबाव में मां-बाप की हालत ऐसी हो जाती है कि बड़ी हसरतों से पाए हुए, और मेहनत से बड़े किए हुए बच्चों का कत्ल करते, या करवाते हुए उन्हें समाज के भीतर मुंह दिखाने लायक बने रहने की हसरत अधिक रहती है।
भारतीय समाज में यह हिंसक व्यवस्था कमजोर हो रही है, और कानून कहीं-कहीं इसे कमजोर करने में मददगार भी हो रहा है, लेकिन जब राजनीति, पुलिस, और अदालतों तक एक धर्म और जाति की व्यवस्था हावी रहती है, तो फिर प्रेमीजोड़ों को कहीं से हिफाजत नहीं मिल पाती। और साथ न जी पाने के मलाल में साथ मर जाने को वे आखिरी रास्ता मानकर जान दे देते हैं। तकरीबन हर दिन कहीं न कहीं से प्रेमीजोड़ों की ऐसी खुदकुशी की खबर आती है, और पता नहीं उनके परिवार अपनी शहंशाह अकबर दर्जे की जिद के साथ अपने बच्चों की लाशें सीने पर रखे हुए आगे किस तरह जी पाते होंगे। इस बात को अच्छी तरह समझने की जरूरत है कि समाज व्यवस्था हमेशा से ही एक बहुत ही पाखंडी, दकियानूसी, और विरोधाभासों या विसंगतियों से भरी हुई रहती है। वह अपने सबसे ताकतवर लोगों की हर अराजकता को मंजूर कर लेती है, और कमजोर लोगों को कुचलते चलती हैं।
छत्तीसगढ़ जैसे राज्य को यह भी समझना चाहिए कि यहां जात बाहर प्रेमविवाह करने पर समाज से निकाल दिए जाने वाले लोगों की गिनती खतरे की सीमा तक बढ़ चुकी है। इस राज्य की जिस जाति की सबसे मजबूत पंचायतों में रिकॉर्ड संख्या में सामाजिक बहिष्कार किए हैं, उसी जाति के लोगों का धर्म परिवर्तन आज सबसे अधिक हो रहा है। अभी तक यह बात इस शक्ल में दो और दो जोडक़र चार की तरह सामने नहीं रखी गई है, लेकिन हमें जो कतरा-कतरा जानकारी मिली है वह सुझाती है कि जिस जाति में जात बाहर करना जितना अधिक है, वहां पर लोगों का दूसरे धर्म में जाना उतना अधिक है। ऐसा लगता है कि लोगों को लगता होगा कि इस धर्म और जाति में रहने से जिंदगी भर अपने मां-बाप के परिवार से भी अगर रिश्ता नहीं रह जाना है, तो फिर इस धर्म में ही क्यों रहना? जातियों के नेताओं, राजनेताओं, और धार्मिक नेताओं को इस बारे में सोचना चाहिए कि क्या वे अपनी ही नई पीढ़ी को जात बाहर करने की ताकत का हिंसक इस्तेमाल करते हुए उसे धर्म से बाहर का रास्ता नहीं दिखा रहे हैं? वैसे भी जिस जाति और धर्म के लोग अपने लोगों के बहिष्कार में अधिक सक्रिय रहते हैं, वे लोग अगली पीढ़ी को खोने का खतरा भी झेलते चलते हैं। कोई भी जात, धरम, समाज, या गांव-कस्बा अपने सदस्यों के साथ हिंसा करते हुए उनका सम्मान तो बिल्कुल ही नहीं पा सकते, देश के कानून के तहत कत्ल पर उम्रकैद या फांसी जरूर पा सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैय्या ने एक नवंबर को कर्नाटक राज्य के स्थापना दिवस समारोह में यह घोषणा की कि राज्य में बनने वाले हर सामान पर लेबल में अब कन्नड़ में भी सूचना रहेगी। अभी तक वहां अंग्रेजी में ही लेबल का चलन था, और सरकार के इस नए आदेश के बाद अंग्रेजी न जानने वाले कन्नड़भाषियों को भी सारी जानकारी समझ आ सकेगी। उन्होंने इस मौके पर कन्नड़ भाषा के गौरव के लिए कुछ और बातें भी कहीं। उन्होंने भाषा के दो हजार बरस से अधिक पुराने इतिहास पर गर्व करने का आव्हान किया, और कहा कि बातचीत में भी कन्नड़ भाषा का उपयोग करना चाहिए। उन्होंने कहा कि हमें गैरकन्नड़ लोगों को कन्नड़ सिखाने की कोशिश करनी चाहिए। सीएम ने कहा कि वे अन्य भाषाओं को सीखने का विरोध नहीं करते, लेकिन यह कन्नड़ भाषा की कीमत पर नहीं होना चाहिए।
लोगों को याद होगा कि दक्षिण के कुछ राज्यों में भाषा विवाद का बड़ा लंबा इतिहास है। जब कभी उत्तर भारत की लीडरशिप वाली केन्द्र सरकार दक्षिण भारत या खासकर तमिलनाडु को हिन्दी भाषा को लेकर किसी भी तरह परेशान करती है, तो वहां इसका जमकर विरोध होता है। हिन्दी अपने वर्तमान रूप में दक्षिण की कई भाषाओं के मुकाबले नई भाषा है, और दक्षिण के तमाम राज्य अपनी क्षेत्रीय भाषाओं, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम को इतना समृद्ध बना चुके हैं कि उनकी स्कूल-कॉलेज की अधिकतर पढ़ाई अगर वे चाहें तो अपनी क्षेत्रीय भाषा में कर सकते हैं। ऐसा ही हाल महाराष्ट्र, बंगाल, और कुछ दूसरे अहिन्दीभाषी प्रदेशों का भी है जिन्होंने अपनी भाषा की किताबों को इतना समृद्ध और संपन्न बना दिया है कि वे हिन्दी के बिना अपना पूरा ही काम चला लेते हैं, और जरूरत के मुताबिक अंग्रेजी का इस्तेमाल इस हद तक करते हैं कि यहां के नौजवान बाकी दुनिया में भी जाकर काम करने लायक हो जाते हैं। यही वजह है कि अपनी क्षेत्रीय भाषा, और अंग्रेजी से परे उन्हें हिन्दी की जरूरत नहीं रहती है, और जब कभी केन्द्र सरकार की कोशिशों से हिन्दी थोपी जाती है तो इन राज्यों में बड़ा विरोध होता है।
लेकिन अभी सवाल यह उठता है कि कर्नाटक में राज्य सरकार को अचानक यह क्यों सूझा? इसके पीछे की वजह समझने के लिए हमें भारत के प्रदेशों, पूरे देश, और बाकी दुनिया के इतिहास को समझने की जरूरत है जिनमें जगह-जगह पर राजनीतिक ताकतें किसी तात्कालिक समस्या से जूझने के लिए धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, और कुछ अन्य किस्म के भावनात्मक मुद्दों का झंडा उठा लेती हैं। कुछ संगठन या नेता अपने अस्तित्व को बचाने के लिए, या कि किसी चुनाव को जीतने के लिए, या पार्टी के भीतर प्रतिद्वंद्वी से निपटने के लिए राष्ट्रवाद या स्थानीय संस्कृति, या धर्म के खतरे में होने जैसा नारा लगाने लगते हैं। कुछ नेता या संगठन ऐसी किसी समस्या से परे अपना समर्थन बढ़ाने के लिए भी ऐसा करते हैं। लोगों का मानना है कि इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू भ्रष्टाचार के जितने मामलों से घिरे हुए हैं, और उनका राजनीतिक कॅरियर जिस गहरे खतरे में है, उसे देखते हुए उन्हें आज देश का ध्यान फिलीस्तीन, लेबनान, और ईरान की तरफ भटकाना जरूरी लग रहा है क्योंकि जब देश को जंग में झोंक दिया जाता है, तो जनता शासक के साथ खड़ी हो जाती है, और शासक पर मंडराते खतरे के बादल कुछ वक्त के लिए छंट जाते हैं। अब कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धारमैय्या पर भ्रष्टाचार के कुछ मामले चल रहे हैं जिनमें जाहिर तौर पर राज्यपाल की मंजूरी तो मिल ही जानी थी, हाईकोर्ट ने भी राज्यपाल के फैसले को जायज ठहरा दिया है। इस मामले में दम कितना है यह तो आगे जाकर अदालत में साबित होगा, लेकिन वे तब तक के लिए एक राजनीतिक विवाद में तो घिर ही गए हैं। फिर अभी उनके जो उपमुख्यमंत्री डी.के.शिवकुमार कई वजहों से शांत बैठे हैं, उनकी महत्वाकांक्षाएं भी ऐसे में खुलकर सामने आ सकती हैं। इसलिए आज अगर ऐसे में सीएम सिद्धारमैय्या कर्नाटक की क्षेत्रीय कन्नड़ अस्मिता को हवा देने के लिए सामानों पर लेबल कन्नड़ में भी अनिवार्य कर रहे हैं, तो यह बात समझ आती है। वैसे ऐसी किसी नीयत से परे भी यह कोई बुरा फैसला नहीं है कि सामानों पर जानकारी क्षेत्रीय भाषा में भी हो। दक्षिण भारत के कई राज्यों से उत्तर भारत में भी आकर बिकने वाली आयुर्वेदिक दवाइयों पर तीन-तीन भाषाओं में लेबल रहते हैं जो कि ग्राहकों की सहूलियत के लिए रहते हैं।
अब हम कर्नाटक से बाहर निकलें, और दूसरे प्रदेशों की बात करें, तो जो राज्य समझदार हैं, वे स्थानीय लोगों को समझ आने वाली भाषा के अलावा बाहर से आने वाले लोगों को समझ आने वाली भाषा में भी सार्वजनिक सूचनाओं को लिखते हैं। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में यह देखकर हैरानी होती है कि यहां जगहों के नाम वाले बोर्ड सिर्फ हिन्दी में रहते हैं, और बोर्ड की खाली जगह पर, सारे जहां से अच्छा, किस्म की लाईनें लिखी रहती हैं। देश की गौरवगाथा को उन जगहों पर लिखा जा रहा है जहां उनकी जगह पर जगहों के नाम हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी में भी लिखे जा सकते थे, और गैरहिन्दीभाषी लोगों को सहूलियत हो सकती थी। जो सरकारें पर्यटन को बढ़ावा देने की बात करती हैं, उनमें से भी कुछ सरकारों को सार्वजनिक सूचनाओं और जगहों के नाम को अंग्रेजी में भी लिखना नहीं सूझता, जो कि भारत के भीतर भी एक संपर्क भाषा है, और भारत के बाहर भी।
हम कर्नाटक की राजनीतिक मजबूरियों से परे सिर्फ भाषा की बात करें, तो देश भर में सामानों के नाम और उन पर जरूरी सूचनाएं अंग्रेजी के अलावा कम से कम एक क्षेत्रीय भाषा, या संपर्क भाषा हिन्दी में भी होनी चाहिए। भाषा को राजनीतिक हथियार और आत्मरक्षा की ढाल बनाए बिना भी भाषा को आम सहूलियत का औजार बनाए रखना चाहिए, और किसी भी इलाके को भाषाओं को लेकर लचीला रहना चाहिए, जब, जहां, जैसी जरूरत हो, वैसा इस्तेमाल खुले दिल से करना चाहिए। न किसी भाषा से परहेज करना चाहिए, और न किसी भाषा को थोपना चाहिए। जिन लोगों को अपनी भाषा से मोहब्बत की नुमाइश करनी होती है, उन्हें यह बात समझ लेना चाहिए कि भाषा अपने आपमें सिर्फ एक औजार है, और जनता में जब तक फतवेबाजी से उसे लेकर मोहब्बत या नफरत नहीं फैलाई जाती, तब तक हर भाषा महफूज भी रहती है। यह तो उसके राजनीतिक हथियारीकरण से वह खतरनाक बनती है। किसी भाषा को हथियार बनाने के पहले उस भाषा में साहित्य और ज्ञान, तकनीकी जानकारी और शिक्षा, साथ ही उस भाषा से रोजगार और कारोबार की बढ़ती संभावनाओं की गारंटी भी करना चाहिए, वरना भाषाई फतवे अपने ही लोगों को गड्ढे में डालने वाले भी साबित होते हैं। आज यह खबर तो कर्नाटक की है, लेकिन देश के बाकी राज्यों को भी अपनी भाषा नीति, और अपनी भाषा की हकीकत इन दोनों के बारे में सोचना-विचारना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज जब उत्तर भारत पूरा का पूरा दीवाली मनाने की तैयारी कर रहा है, तब कुछ घर ऐसे होंगे जहां अंधेरा छाया होगा। परिवार के भीतर तरह-तरह की हिंसा और जुर्म के शिकार होने वाले लोग भला क्या त्यौहार मनाएंगे। लेकिन ऐसे में ही यह सोचने की जरूरत है कि बाकी जगहों पर दियों और दीगर किस्म की रौशनी पहुंच रही है, तो कई जगहों पर छाए अंधेरे को दूर करने की क्या कोशिश हो सकती है? और फिर जिन परिवारों में एक बार हिंसा का अंधेरा छा चुका है, उन्हें तो रंग-बिरंगी चीनी लडिय़ों से भी रौशन नहीं किया जा सकता। सरकार और समाज को सोचना यही है कि अंधेरा होने से कैसे रोका जा सकता है। आज की ही दो खबरें हमारे बिल्कुल आसपास की हैं जिनमें से एक में रायपुर रेलवे स्टेशन पर नशे में धुत्त सौतेले बेटे ने नशे में धुत्त बाप को चाकू से मार डाला। शाम को भीड़भरे रेलवे स्टेशन पर लाश पड़ी हुई थी, और अब ऐसे परिवार में भला क्या दीवाली हो सकती है? एक दूसरी वारदात छत्तीसगढ़ के ही कोरबा जिले की है जहां पर रोज शराब पीकर घर आकर मारपीट करने वाले बेटे से थककर बाप ने धुत्त बेटे को मार डाला। अब ये बूढ़े मां-बाप कमाने-खाने के लिए छत्तीसगढ़ से हर बरस जम्मू-कश्मीर चले जाते हैं, और अभी दीवाली मनाने के लिए वहां से लौटे ही थे कि नशेड़ी बेटे ने इतना प्रताडि़त किया, इतनी हिंसा करने लगा कि हजारों किलोमीटर के सफर से आए बूढ़े बाप ने उसे मार डालना ठीक समझा।
यह कोई आम नौबत नहीं रहती है कि औलाद बाप को मार दे, या मां-बाप औलाद को मार दें। लोगों को याद होगा कि कुछ हफ्ते पहले की ही बात है कि एक नशेड़ी बेटे की हिंसा से थककर बूढ़े मां-बाप ने मिलकर उसे पकड़ा, और मार डाला था। हर हफ्ते परिवार के भीतर नशे की हालत में कत्ल के एक से अधिक मामले आते हैं। अब छत्तीसगढ़ जैसे राज्य को यह समझने की जरूरत है कि सरकार की अलग-अलग योजनाओं से आम जनता को जितने पैसे मिलते हैं, उनकी मेहरबानी से बहुत से लोगों में शराब की खपत खासी बढ़ गई है। शराब से सरकार को टैक्स की कमाई तो होती है, लेकिन शराब की वजह से सेहत की जितनी बर्बादी होती है उसके इलाज का खर्च तो कुल मिलाकर सरकारी स्वास्थ्य-बीमा योजनाओं पर ही आता है। इसके साथ-साथ दो बातें और जुड़ी रहती हैं, एक तो जितने किस्म की हिंसा होती है, उसके निपटारे का जिम्मा सरकार की पुलिस, सरकारी खर्च पर चलने वाली अदालतों, और जेलों पर आता है। परिवार के भीतर के हिंसा का आर्थिक बोझ सरकार पर भी भारी पड़ता है। तीसरी बात, हिंसा के शिकार परिवारों की आर्थिक उत्पादकता बहुत बुरी तरह प्रभावित होती है, और देश को उसकी भरपाई किसी तरह नहीं हो पाती। ऐसे परिवार हिंसा का शिकार होकर अपने बच्चों को इसके असर से नहीं बचा पाते, और उनके बड़े होने पर उनके भी हिंसक हो जाने का एक खतरा बढ़ जाता है, और उनके बेहतर नागरिक बनने की संभावना घट जाती है। शराब या किसी दूसरे किस्म के नशे से शुरू होने वाली हिंसा का सिलसिला बहुत दूर तक नुकसान पहुंचाता है, और इसे सिर्फ नशेड़ी की सेहत तक सीमित मान लेना नासमझी होगी।
हम इस बारे में जरूरत से कुछ अधिक बार लिखते और बोलते हैं क्योंकि कानूनी शराब से परे गैरकानूनी शराब का चलन भी बढ़ते चल रहा है, जिसके कोई आंकड़े न सेहत के हिसाब से, और न ही टैक्स के हिसाब से सामने आते। फिर केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह छत्तीसगढ़ आकर यह बोल गए हैं कि इस राज्य में गांजे की खपत पूरे देश के औसत से बहुत अधिक है। और छत्तीसगढ़ की पुलिस हर दिन दर्जन भर से अधिक जिलों में गैरकानूनी दर्जे के नशे का कारोबार पकड़ती है, लोगों को गिरफ्तार करती है। आम तजुर्बा यह रहता है कि किसी अवैध कारोबार का बहुत छोटा सा हिस्सा ही सरकार पकड़ पाती है क्योंकि पूरे देश में कदम-कदम पर फौजी दर्जे की चौकसी तो हो नहीं सकती। नशे की यह बढ़ती हुई नौबत एक खतरनाक तस्वीर पेश कर रही है, और जब हम इसे परले दर्जे की पारिवारिक हिंसा से जोडक़र देखते हैं तो लगता है कि घर के भीतर की एक-एक हिंसा के पीछे शायद नशे में बर्बाद होते लाखों परिवार रहते होंगे। नशे में डूबे लोग सडक़ों पर चाकूबाजी कर रहे हैं, अपने ही बच्चों को पटककर मार डाल रहे हैं, अपने बच्चों से बलात्कार कर रहे हैं।
यह नौबत मामूली मानना गलत होगा। सरकार को पुलिस के आंकड़ों से परे इस बात का गंभीर सामाजिक अध्ययन करवाना चाहिए कि नशे के पीछे की कौन सी वजहें हैं, और नशे के बाद किस-किस किस्म की हिंसा कहां तक पहुंच रही है। यह भी सोचना चाहिए कि सरकार को नशे से कमाई कितनी होती है, और उस पर नशे से होने वाली बर्बादी का प्रत्यक्ष और परोक्ष बोझ कितना पड़ता है। हम नशे की समस्या और खतरे का कोई आसान इलाज नहीं देखते, लेकिन किसी भी जनकल्याणकारी सरकार को ऐसा गंभीर सामाजिक अध्ययन करवाना चाहिए कि नशे को घटाने का क्या कोई रास्ता निकल सकता है? या जनता में ऐसी जागरूकता लाई जा सकती है कि वे नशे के बजाय जिम्मेदार मां-बाप बनकर अपने बच्चों पर अधिक खर्च करें? सामाजिक अध्ययन को चुनावी फतवों, और सरकारी योजनाओं से परे रखना चाहिए, उसे एक स्वतंत्र रिपोर्ट की तरह हासिल करना चाहिए, फिर चाहे सरकार उसके किसी हिस्से पर अमल करे या न करे। इसके लिए सरकार को देश के विख्यात संस्थानों का इस्तेमाल करना चाहिए जिनके लिए खुद भी ऐसा अध्ययन अकादमिक महत्व का होगा।
ऐसा नहीं है कि दुनिया के किसी देश में समाज भारत से अधिक जिम्मेदार न हों। बहुत से देश हैं जहां शराबी भी अधिक जिम्मेदारी से पीते हैं, और जहां परिवार के भीतर पीने की एक परंपरा है, लेकिन जहां लोग नशे में इस तरह धुत्त नहीं होते हैं। भारत में सामाजिक बदलाव लाने, और परिवारों को अधिक सेहतमंद माहौल वाला बनाने का काम सरकार की किसी योजना से रातों-रात नहीं हो सकता, लेकिन ऐसी किसी कोशिश में समाजशास्त्रियों की भूमिका को कम नहीं आंकना चाहिए, और सरकार को लीक से हटकर काम करने का हौसला भी दिखाना चाहिए। पिछली सरकारों ने जो काम नहीं किया है, या दूसरे प्रदेशों की सरकारें जो काम नहीं कर रही हैं, उसे क्यों किया जाए, यह सोच कल्पनाशीलता की कमी बताती है। हमारा मानना है कि लोकतांत्रिक ढांचे में समाज के अलग-अलग किस्म के विशेषज्ञों का योगदान कुछ अधिक होना चाहिए। हमने आबादी के हर तबके को सामाजिक और मनोवैज्ञानिक परामर्श देने के लिए बड़े पैमाने पर परामर्शदाताओं के शिक्षण-प्रशिक्षण की बात भी बार-बार सुझाई है। हमारा मानना है कि जिस तरह स्कूलों में पढ़ाने के लिए शिक्षकों को बीएड जैसे कोर्स अनिवार्य किए गए हैं, वैसे ही, शिक्षकों के लिए एक अतिरिक्त योग्यता वाले पारिवारिक-परामर्श या मनोवैज्ञानिक परामर्श के कोर्स शुरू करने चाहिए, और जब हर गांव-कस्बे तक ऐसे परामर्शदाता मौजूद रहेंगे, तो वे समाज में एक बदलाव ला भी सकते हैं। और ऐसा ही कोई बदलाव समाज में वह रौशनी फैला सकता है जैसी रौशनी आज दीवाली के दियों से फैल रही है।
छत्तीसगढ़ के सरगुजा में कल एक हत्याकांड के मुख्य आरोपी और उसके परिवार के अवैध निर्माण को बुलडोजर से गिरा दिया गया। अफसरों ने बताया है कि यह सरकारी जमीन पर किया गया अवैध कब्जा और अवैध निर्माण था, और चार अलग-अलग जगहों पर बड़ी कड़ी चौकसी के बीच यह तोडफ़ोड़ की गई है। जिस नौजवान मुजरिम ने पुलिस कार्रवाई से नाराज होकर एक प्रधान आरक्षक के घर घुसकर उसकी पत्नी और बेटी का कत्ल किया था, उसके ठिकानों पर बुलडोजर चलाने की मांग जनता कर रही थी। स्थानीय म्युनिसिपल ने पुराने नोटिस का हवाला देते हुए अवैध कब्जे और अवैध निर्माण को नया नोटिस दिया, और कुछ दिनों की मियाद पूरी होने पर उसे कल गिरा दिया।
कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई से जुड़े हुए, और पेशेवर मुजरिम इस नौजवान के साथ किसी की हमदर्दी नहीं है क्योंकि अपनी ड्यूटी करने के एवज में एक पुलिस कर्मचारी की बीवी और बेटी का कत्ल इसने जितने वीभत्स तरीके से किया, उसकी कल्पना करना भी मुश्किल था। इसी सरगुजा के सबसे बड़े कांग्रेस नेता टी.एस.सिंहदेव ने इसे फांसी देने की मांग की थी। इसके साथ-साथ कत्ल में मददगार, सुबूत खत्म करने में भागीदार, और फरार होने में साथ देने वाले एनएसयूआई से जुड़े कुछ और नौजवान भी गिरफ्तार हुए हैं, इसलिए कांग्रेस का कुछ अधिक कहने का मुंह नहीं बचा है। लेकिन इन्हें फांसी की मांग करने वाले सिंहदेव ने भी इस अंदाज में आरोपी के परिवार के ठिकानों पर बुलडोजर चलाने का विरोध किया है। कहने के लिए स्थानीय अफसर यह कह रहे हैं कि इसका कत्ल की वारदात से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन यह तो पहली ही नजर में जाहिर तौर पर दिख रहा है कि किसी एक व्यक्ति के अवैध कब्जों, और अवैध निर्माणों पर अगर अचानक कार्रवाई हो रही है, तो उसके पीछे वही एक वजह है।
हमने खुद ने ऐसे भयानक मुजरिम के खिलाफ पिछले दिनों बहुत कुछ कहा और लिखा था, लेकिन हम बुलडोजरी-इंसाफ के खिलाफ हैं। हम उस वक्त से इसके खिलाफ हैं जब सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर सोया हुआ था, और उसने सुनवाई भी शुरू नहीं की थी। यूपी में योगी आदित्यनाथ की सरकार ने इंसाफ का यह नया तरीका ईजाद किया था, और बरसों बाद जाकर अब सुप्रीम कोर्ट में कुछ जज जागे हैं, और उन्होंने देश के किसी भी राज्य में आरोपियों के परिवारों की संपत्ति पर बुलडोजर चलाने पर कुछ किस्म की रोक लगाई है। सुप्रीम कोर्ट के शब्द और उसकी भावना दोनों को समझने की जरूरत है। उसकी भावना को समझने से तो देश की राज्य सरकारें नासमझी जाहिर कर सकती हैं, लेकिन उसके शब्द बड़े साफ-साफ हैं जिन्हें बड़े छोटे से सरकारी वकील भी समझ सकेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में आदेश दिया है कि केवल इसीलिए कि कोई व्यक्ति आरोपी है या दोषी है, यह उसकी संपत्ति को ध्वस्त करने का आधार नहीं हो सकता। अदालत ने यह भी कहा कि ऐसी तोडफ़ोड़ की वीडियोग्राफी कराई जानी चाहिए ताकि बाद में अदालत को पता चल सके कि क्या यह कार्रवाई अवैध कब्जे या निर्माण के अनुपात में थी? उन्होंने यह भी कहा कि अदालत के इस आदेश के खिलाफ की गई कार्रवाई उसकी अवमानना होगी, और अवमानना की कार्रवाई के बाद इस पर मुआवजा भी दिलवाया जाएगा। अदालत पहुंचे हुए एक वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े ने जजों से कहा था कि जिस तरह बंदूक की नली से शक्ति प्रदर्शन किया जाता है, उसी तरह यह बुलडोजर के जरिए शक्ति प्रदर्शन है, और इस तमाशे में जाने-माने टीवी एंकर बुलडोजर के केबिन से कैमरे पर बोलते हैं। उन्होंने कहा था कि इस तरह के प्रतिशोध की बात कानून में नहीं है। एक दूसरे वकील ने कहा था कि अपराधों से निपटने के लिए म्युनिसिपल के कानूनों का बेजा इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। ऐसा करना आज एक चुनावी प्रचार का हथियार बना लिया गया है। उन्होंने अदालत में यह भी कहा था कि म्युनिसिपल के कानून स्थानीय उद्देश्यों के लिए हैं, अपराधों से लडऩे के लिए नहीं। अदालत ने अफसरों को यह एक छूट दी है कि वह सार्वजनिक भूमि, गलियों, सडक़ों, फुटपाथों पर किए गए अवैध कब्जों को बचाने का काम नहीं करेगी। लेकिन अदालत ने यह कहा कि अनाधिकृत निर्माण में भी रहने वालों को वैकल्पिक घर खोजने के लिए दस-पन्द्रह दिन का समय दिया जाना चाहिए। अदालत ने यह भी साफ किया था कि अगर दो अवैध इमारतें हैं, लेकिन उनमें से किसी आरोपी के इमारत को ही गिराया जाता है, तो भेदभाव का मुद्दा उठेगा। अदालत ने एक अक्टूबर को ही यह कहा था कि राज्य बुलडोजर से इस तरह किसी निर्माण को ध्वस्त करने के स्थानीय अधिकार को सजा की तरह इस्तेमाल करने के खिलाफ दिशा-निर्देश तैयार करें।
हमारा ख्याल है कि सरगुजा में हत्या के जुर्म में गिरफ्तार, एक पुराने और पेशेवर मुजरिम के अवैध निर्माण भी जिस तरह कुछ दिनों के भीतर छांटकर गिराए गए हैं, वह अदालत की सोच के खिलाफ है, और कम से कम हमारी सोच के खिलाफ तो है ही कि किसी आरोपी, या साबित मुजरिम के अवैध कब्जे या अवैध निर्माण को भी बाकी को छोडक़र अकेले तोडऩा गलत है। न्याय की भावना बड़ी साफ है कि एक ही किस्म के गलत काम करने वाले कई लोगों में से किसी एक को छांटकर सिर्फ उसके खिलाफ कार्रवाई करना भेदभावपूर्ण होगा क्योंकि ये दो अलग-अलग किस्म के जुर्म हैं, एक आपराधिक मामला है, और दूसरा अवैध कब्जे या अवैध निर्माण का। अदालत ने जितने खुलासे से अपनी भावना जाहिर की है, उसे देखते हुए सरगुजा में अफसरों की कार्रवाई पहली नजर में गलत लगती है क्योंकि उसने उस शहर में और तो अवैध कब्जों पर ऐसी कार्रवाई की नहीं है। जनता के बीच से किसी आरोपी के खिलाफ होने वाली फरमाईश पर कार्रवाई करना जायज नहीं लगता। अदालती कार्रवाई के बाद ऐसे आरोपियों को फांसी हो जाए वह भी ठीक है, लेकिन बड़े खुलासे से अपनी बात कहने वाले सुप्रीम कोर्ट जजों की चेतावनी को ऐसा लगता है कि सरगुजा में अनदेखा किया गया है। जैसा कि अदालती कार्रवाई में ही बहस में सामने आया था कि बुलडोजरों को चुनाव प्रचार का एक हथियार बना लिया गया है, तो क्या सूरजपुर में हत्या के आरोपी, उसके पिता, और उसके चाचा के अलग-अलग अवैध कब्जे या अवैध निर्माण को म्युनिसिपल ने गिरा दिया है। सरकार को बड़ी कानूनी राय हमेशा ही हासिल रहती है, और अभी तो प्रदेश के म्युनिसिपल-मंत्री पहले प्रदेश के डिप्टी एडवोकेट जनरल भी रह चुके हैं, इसलिए यह बुलडोजरी-कार्रवाई पूरी कानूनी व्याख्या के साथ हुई होगी। अब इस व्याख्या में कोई चूक है या नहीं, यह आने वाले दिनों में अदालत में साबित होगा।
हिन्दुस्तान में राज्य सरकारों के कई तरह की योजनाओं के ढांचे खड़े हो जाते हैं जिन्हें बनाने में नेता, अफसर, और ठेकेदार तीनों की अपार दिलचस्पी रहती है। लेकिन इसके बाद उन्हें चलाने में कमाई रहने के बावजूद भी दिलचस्पी खत्म होने लगती है, और ये ढांचे कई जगह सरकारी भ्रष्टाचार के स्मारक बने सरकारों का ही मुंह चिढ़ाते रहते हैं। शहरों में जगह-जगह स्मार्ट सिटी के नाम पर अंधाधुंध खर्च होता है, कम से कम छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में यह साफ देखने मिलता है कि तकनीकी विशेषज्ञता की कोई जगह नहीं रहती है, स्थानीय जरूरतों की परवाह नहीं रहती, और एक बार फिर नेता-अफसर, और ठेकेदार-सप्लायर मिलकर यह तय कर लेते हैं कि पैसा कैसे डुबोया जाए, और अगर वह डीएमएफ, कैम्पा, या सीएसआर जैसे किसी मद का है, तो फिर उसे अधिक तेजी से डुबाया जाता है।
छत्तीसगढ़ के दूसरे सबसे बड़े शहर, बिलासपुर में दो सौ करोड़ की लागत से एक सुपर स्पेशिलिटी अस्पताल बनकर तैयार हुआ है जिसमें बहुत किस्म की आधुनिक चिकित्सा का इंतजाम होने की बात सरकार ने की है। प्रधानमंत्री इस अस्पताल का ऑनलाईन लोकार्पण करने जा रहे हैं। ऐन इसी समय पिछले कई महीनों से लगातार छत्तीसगढ़ के अखबार इन खबरों से पटे हुए हैं कि किस तरह राज्य के सरकारी अस्पतालों की हजारों मशीनों पर मरीजों की जांच इसलिए नहीं हो रही है कि इन मशीनों में लगने वाले रसायन नहीं खरीदे गए हैं। कई जगहों पर मशीनें बक्सों में बंद हैं, और करोड़ों की लागत आ जाने के बाद भी उन्हें शुरू नहीं किया गया है। कहीं मशीन है तो चलाने वाले तकनीकी कर्मचारी नहीं है, कहीं कर्मचारी हैं तो डॉक्टर नहीं है। अखबारी खबरों में अफसरों के बयान छपते हैं कि दवाई खरीदने की प्रक्रिया शुरू की गई है, रसायन के लिए टेंडर किया गया है, मशीनों के रख-रखाव के लिए कंपनियों से अनुबंध किया जाएगा। सरकार का पूरा का पूरा सिलसिला ऐसा लगता है कि जैसे किसी पुल के निर्माण को छह महीने रोकने से कोई फर्क नहीं पड़ता, मरीज की जांच, इलाज, उसकी दवा छह महीने बाद आने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। सरकार की नजर में मरीज और ईंट की जिंदगी में कोई अधिक फर्क नहीं दिखता। सरकारी अस्पतालों की हर मशीन में रसायनों की खपत के आंकड़े विभाग के पास रहते हैं, और खत्म होने के पहले ही अगली सप्लाई का इंतजाम आसानी से किया जा सकता है, लेकिन तड़पते और भटकते मरीजों की तकलीफ से सरकार के माथे पर कोई शिकन नहीं दिखती।
सरकारी मेडिकल कॉलेजों में चिकित्सा-शिक्षकों की कुर्सियां खाली हैं, और इन्हें भरने का कोई ठिकाना नहीं है। फॉर्मेसी और नर्सिंग कॉलेजों की गड़बडिय़ां खबरों में बनी हुई हैं, जाहिर है कि राज्य का स्वास्थ्य का ढांचा कमजोर पड़ा हुआ है, और अधिक कमजोर होने जा रहा है। सरकारी डॉक्टरों की प्राइवेट प्रेक्टिस पर लगी रोक का कोई असर नहीं है, और डॉक्टरों के संगठन अपने सदस्यों की मोटी कमाई के इस धंधे को बचाने के लिए सरकार के खिलाफ खड़े हो रहे हैं। चिकित्सा-शिक्षा चाहे वह सरकारी मेडिकल कॉलेजों की हो, चाहे निजी चिकित्सा महाविद्यालयों की, विवादों से घिरी हुई हैं, और अभी निजी कॉलेजों में एनआरआई कोटे से फर्जी दाखिले देने का एक बहुत बड़ा भ्रष्टाचार सामने आया है जिसमें सरकार के कुछ लोगों की भागीदारी भी जाहिर तौर पर दिख रही है। सरकार के अपने स्वास्थ्य ढांचे के चरमराने के अलावा दूसरी दिक्कत यह है कि निजी अस्पतालों को सरकारी बीमा योजना के तहत होने वाला भुगतान बढक़र सैकड़ों करोड़ पार कर चुका है, और अब बहुत से निजी अस्पताल इस सरकारी योजना के तहत पहुंचने वाले गरीब मरीजों को वापिस भेजने लगे हैं। मरीजों के बदन की सांसों को स्कूलों में छात्राओं में बंटने वाली साइकिलों की तरह कबाड़ में धर दिया गया है, और इन साइकिलों की तरह ही गरीब मरीजों के बदन में टूट-फूट चल ही रही है।
हमारा ख्याल है कि किसी भी सत्तारूढ़ पार्टी के दुबारा जीतकर आने में सबसे बड़ा योगदान, या इसमें सबसे बड़ा अड़ंगा पटवारी-तहसील के स्तर पर जनता को होने वाली दिक्कत का रहता है, और सरकारी इलाज का रहता है। जब गरीब बीमार होकर सरकारी इंतजाम तक पहुंचते हैं, या सरकारी बीमा कार्ड लेकर निजी अस्पताल पहुंचते हैं, और उन्हें वहां इलाज नहीं मिलता, तो अगले चुनाव का उनका वोट तय हो जाता है। उसके हाथ में और तो कुछ नहीं रहता, अगला चुनाव ही रहता है। यही वजह है कि हम एक के बाद दूसरे स्वास्थ्य मंत्री को चुनाव हारते देखते हैं। जोगी सरकार के समय स्वास्थ्य मंत्री रहे के.के.गुप्ता चुनाव हारे, कृष्णमूर्ति बांधी चुनाव हारे, अमर अग्रवाल, टी.एस.सिंहदेव जैसे कई लोग स्वास्थ्य मंत्री रहने के बाद चुनाव हारे। इसकी एक वजह हमें यह लगती है कि इनमें से कोई भी इस विभाग को ठीक से नहीं चला पाए, गरीब मरीजों की आह के असर पर चुनाव हार जाने तक इन नेताओं को भी भरोसा नहीं रहा होगा। हो सकता है कुछ स्वास्थ्य मंत्री इस मंत्रालय को संभालने के बाद जीत गए हों, और गरीब-कमजोर मरीजों की आह ने हिसाब कुछ देर से चुकता किया हो।
छत्तीसगढ़ में जिस दंतेवाड़ा जिले को डीएमएफ में प्रदेश का सबसे अधिक पैसा मिलता है, उन सैकड़ों करोड़ रूपए सालाना से बनाए, सुधारे, और संवारे गए सरकारी अस्पतालों का हाल यह है कि कल से यह अस्पताल खबरों में है कि वहां ऑपरेशन थियेटर की सफाई किए बिना आपराधिक लापरवाही से गरीब आदिवासी मरीजों की आंखों का थोक में ऑपरेशन कर दिया गया, और संक्रमण से दस लोगों की आंखें खतरे में आ गई हैं। अब मुख्यमंत्री के कहने पर स्वास्थ्य मंत्री राजधानी के अस्पताल जाकर इन मरीजों को देख जरूर आए हैं, और डॉक्टर को निलंबित कर दिया है, लेकिन सवाल यह उठता है कि जिन अस्पतालों को करोड़ों रूपए अतिरिक्त पाने की डीएमएफ-सहूलियत हासिल है, वहां भी अगर इस दर्जे की लापरवाही है, तो फिर प्रधानमंत्री के हाथों दो सौ करोड़ के अस्पताल का उद्घाटन हो, या चार सौ करोड़ के अस्पताल का, उसे चलाना तो इसी सरकार के लोगों को है। लोगों को याद होगा कि जिस बिलासपुर में इस अस्पताल का उद्घाटन कल होगा, उसी बिलासपुर में एक सरकारी नसबंदी शिविर में दर्जन भर गरीब महिलाओं की एक साथ मौत हुई थीं, और उन मरीज महिलाओं के बीच खड़े हँसते हुए स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल की तस्वीरों ने लोगों को स्तब्ध कर दिया था। नए चिकित्सा ढांचे की शुरूआत अच्छी बात है, लेकिन राज्य में मौजूद हजारों चिकित्सा ढांचों को सरकार जिस तरह चला रही है, उन्हीं हाथों में एक और नई गाड़ी का स्टीयरिंग दे देने से मरीजों की जिंदगी का सफर सुहाना नहीं होने जा रहा है। छत्तीसगढ़ सरकार को अगर प्रदेश में कानून-व्यवस्था के बाद किसी एक मामले में युद्धस्तर पर सुधार और मरम्मत करने की जरूरत है, तो वह सरकारी चिकित्सा व्यवस्था है।
हिन्दुस्तान में राज्य सरकारों के कई तरह की योजनाओं के ढांचे खड़े हो जाते हैं जिन्हें बनाने में नेता, अफसर, और ठेकेदार तीनों की अपार दिलचस्पी रहती है। लेकिन इसके बाद उन्हें चलाने में कमाई रहने के बावजूद भी दिलचस्पी खत्म होने लगती है, और ये ढांचे कई जगह सरकारी भ्रष्टाचार के स्मारक बने सरकारों का ही मुंह चिढ़ाते रहते हैं। शहरों में जगह-जगह स्मार्ट सिटी के नाम पर अंधाधुंध खर्च होता है, कम से कम छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में यह साफ देखने मिलता है कि तकनीकी विशेषज्ञता की कोई जगह नहीं रहती है, स्थानीय जरूरतों की परवाह नहीं रहती, और एक बार फिर नेता-अफसर, और ठेकेदार-सप्लायर मिलकर यह तय कर लेते हैं कि पैसा कैसे डुबोया जाए, और अगर वह डीएमएफ, कैम्पा, या सीएसआर जैसे किसी मद का है, तो फिर उसे अधिक तेजी से डुबाया जाता है।
छत्तीसगढ़ के दूसरे सबसे बड़े शहर, बिलासपुर में दो सौ करोड़ की लागत से एक सुपर स्पेशिलिटी अस्पताल बनकर तैयार हुआ है जिसमें बहुत किस्म की आधुनिक चिकित्सा का इंतजाम होने की बात सरकार ने की है। प्रधानमंत्री इस अस्पताल का ऑनलाईन लोकार्पण करने जा रहे हैं। ऐन इसी समय पिछले कई महीनों से लगातार छत्तीसगढ़ के अखबार इन खबरों से पटे हुए हैं कि किस तरह राज्य के सरकारी अस्पतालों की हजारों मशीनों पर मरीजों की जांच इसलिए नहीं हो रही है कि इन मशीनों में लगने वाले रसायन नहीं खरीदे गए हैं। कई जगहों पर मशीनें बक्सों में बंद हैं, और करोड़ों की लागत आ जाने के बाद भी उन्हें शुरू नहीं किया गया है। कहीं मशीन है तो चलाने वाले तकनीकी कर्मचारी नहीं है, कहीं कर्मचारी हैं तो डॉक्टर नहीं है। अखबारी खबरों में अफसरों के बयान छपते हैं कि दवाई खरीदने की प्रक्रिया शुरू की गई है, रसायन के लिए टेंडर किया गया है, मशीनों के रख-रखाव के लिए कंपनियों से अनुबंध किया जाएगा। सरकार का पूरा का पूरा सिलसिला ऐसा लगता है कि जैसे किसी पुल के निर्माण को छह महीने रोकने से कोई फर्क नहीं पड़ता, मरीज की जांच, इलाज, उसकी दवा छह महीने बाद आने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। सरकार की नजर में मरीज और ईंट की जिंदगी में कोई अधिक फर्क नहीं दिखता। सरकारी अस्पतालों की हर मशीन में रसायनों की खपत के आंकड़े विभाग के पास रहते हैं, और खत्म होने के पहले ही अगली सप्लाई का इंतजाम आसानी से किया जा सकता है, लेकिन तड़पते और भटकते मरीजों की तकलीफ से सरकार के माथे पर कोई शिकन नहीं दिखती।
सरकारी मेडिकल कॉलेजों में चिकित्सा-शिक्षकों की कुर्सियां खाली हैं, और इन्हें भरने का कोई ठिकाना नहीं है। फॉर्मेसी और नर्सिंग कॉलेजों की गड़बडिय़ां खबरों में बनी हुई हैं, जाहिर है कि राज्य का स्वास्थ्य का ढांचा कमजोर पड़ा हुआ है, और अधिक कमजोर होने जा रहा है। सरकारी डॉक्टरों की प्राइवेट प्रेक्टिस पर लगी रोक का कोई असर नहीं है, और डॉक्टरों के संगठन अपने सदस्यों की मोटी कमाई के इस धंधे को बचाने के लिए सरकार के खिलाफ खड़े हो रहे हैं। चिकित्सा-शिक्षा चाहे वह सरकारी मेडिकल कॉलेजों की हो, चाहे निजी चिकित्सा महाविद्यालयों की, विवादों से घिरी हुई हैं, और अभी निजी कॉलेजों में एनआरआई कोटे से फर्जी दाखिले देने का एक बहुत बड़ा भ्रष्टाचार सामने आया है जिसमें सरकार के कुछ लोगों की भागीदारी भी जाहिर तौर पर दिख रही है। सरकार के अपने स्वास्थ्य ढांचे के चरमराने के अलावा दूसरी दिक्कत यह है कि निजी अस्पतालों को सरकारी बीमा योजना के तहत होने वाला भुगतान बढक़र सैकड़ों करोड़ पार कर चुका है, और अब बहुत से निजी अस्पताल इस सरकारी योजना के तहत पहुंचने वाले गरीब मरीजों को वापिस भेजने लगे हैं। मरीजों के बदन की सांसों को स्कूलों में छात्राओं में बंटने वाली साइकिलों की तरह कबाड़ में धर दिया गया है, और इन साइकिलों की तरह ही गरीब मरीजों के बदन में टूट-फूट चल ही रही है।
हमारा ख्याल है कि किसी भी सत्तारूढ़ पार्टी के दुबारा जीतकर आने में सबसे बड़ा योगदान, या इसमें सबसे बड़ा अड़ंगा पटवारी-तहसील के स्तर पर जनता को होने वाली दिक्कत का रहता है, और सरकारी इलाज का रहता है। जब गरीब बीमार होकर सरकारी इंतजाम तक पहुंचते हैं, या सरकारी बीमा कार्ड लेकर निजी अस्पताल पहुंचते हैं, और उन्हें वहां इलाज नहीं मिलता, तो अगले चुनाव का उनका वोट तय हो जाता है। उसके हाथ में और तो कुछ नहीं रहता, अगला चुनाव ही रहता है। यही वजह है कि हम एक के बाद दूसरे स्वास्थ्य मंत्री को चुनाव हारते देखते हैं। जोगी सरकार के समय स्वास्थ्य मंत्री रहे के.के.गुप्ता चुनाव हारे, कृष्णमूर्ति बांधी चुनाव हारे, अमर अग्रवाल, टी.एस.सिंहदेव जैसे कई लोग स्वास्थ्य मंत्री रहने के बाद चुनाव हारे। इसकी एक वजह हमें यह लगती है कि इनमें से कोई भी इस विभाग को ठीक से नहीं चला पाए, गरीब मरीजों की आह के असर पर चुनाव हार जाने तक इन नेताओं को भी भरोसा नहीं रहा होगा। हो सकता है कुछ स्वास्थ्य मंत्री इस मंत्रालय को संभालने के बाद जीत गए हों, और गरीब-कमजोर मरीजों की आह ने हिसाब कुछ देर से चुकता किया हो।
छत्तीसगढ़ में जिस दंतेवाड़ा जिले को डीएमएफ में प्रदेश का सबसे अधिक पैसा मिलता है, उन सैकड़ों करोड़ रूपए सालाना से बनाए, सुधारे, और संवारे गए सरकारी अस्पतालों का हाल यह है कि कल से यह अस्पताल खबरों में है कि वहां ऑपरेशन थियेटर की सफाई किए बिना आपराधिक लापरवाही से गरीब आदिवासी मरीजों की आंखों का थोक में ऑपरेशन कर दिया गया, और संक्रमण से दस लोगों की आंखें खतरे में आ गई हैं। अब मुख्यमंत्री के कहने पर स्वास्थ्य मंत्री राजधानी के अस्पताल जाकर इन मरीजों को देख जरूर आए हैं, और डॉक्टर को निलंबित कर दिया है, लेकिन सवाल यह उठता है कि जिन अस्पतालों को करोड़ों रूपए अतिरिक्त पाने की डीएमएफ-सहूलियत हासिल है, वहां भी अगर इस दर्जे की लापरवाही है, तो फिर प्रधानमंत्री के हाथों दो सौ करोड़ के अस्पताल का उद्घाटन हो, या चार सौ करोड़ के अस्पताल का, उसे चलाना तो इसी सरकार के लोगों को है। लोगों को याद होगा कि जिस बिलासपुर में इस अस्पताल का उद्घाटन कल होगा, उसी बिलासपुर में एक सरकारी नसबंदी शिविर में दर्जन भर गरीब महिलाओं की एक साथ मौत हुई थीं, और उन मरीज महिलाओं के बीच खड़े हँसते हुए स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल की तस्वीरों ने लोगों को स्तब्ध कर दिया था। नए चिकित्सा ढांचे की शुरूआत अच्छी बात है, लेकिन राज्य में मौजूद हजारों चिकित्सा ढांचों को सरकार जिस तरह चला रही है, उन्हीं हाथों में एक और नई गाड़ी का स्टीयरिंग दे देने से मरीजों की जिंदगी का सफर सुहाना नहीं होने जा रहा है। छत्तीसगढ़ सरकार को अगर प्रदेश में कानून-व्यवस्था के बाद किसी एक मामले में युद्धस्तर पर सुधार और मरम्मत करने की जरूरत है, तो वह सरकारी चिकित्सा व्यवस्था है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कनाडा से दो ही दिन पहले खबर आई थी कि वहां चार भारतवंशी एक कार हादसे में मारे गए। वे बैटरी से चलने वाली सबसे मशहूर कार, टेस्ला, से जा रहे थे, गाड़ी फुटपाथ से टकराई, और उसमें आग लग गई। इस कार के दरवाजे इस हादसे के बाद लॉक हो गए जिन्हें भीतर बैठे लोग खोल नहीं पाए, और किसी तरह पास से गुजरते एक दूसरे कार वाले ने इस कार से एक लडक़ी को खींचकर निकाला, और बचाया। यह तो जख्मी हालत में अस्पताल में है लेकिन बाकी चार लोग बंद कार में जलकर मर गए। डिवाइडर से टक्कर के तुरंत बाद कार की बैटरी ने आग पकड़ ली थी, जिसकी आग को बुझाना कुछ मुश्किल होता है। मरने वाले चारों गुजरात के थे, और इनमें दो भाई-बहन भी थे। ऐसा कई जगह पर होता है कि जहां कारों में कोई ऑटोमेटिक लॉक रहते हैं, या सेंट्रल लॉक रहते हैं, तो वे किसी दुर्घटना के बाद नहीं खुल पाते, और पानी में गिरी हुई गाड़ी हो, या आग की लपटों में घिरी हुई, भीतर बैठे लोग संघर्ष करते हुए खत्म हो जाते हैं। इस मुद्दे पर लिखने की जरूरत नहीं लगी होती, अगर कल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में इलेक्ट्रॉनिक ऑटोमेशन करने वाली एक शॉप में एसी फटने से भरे धुएं में दो लोग मारे नहीं जाते, और ऐसा इसलिए हुआ कि इस धमाके से इस दुकान के दरवाजे में लगे ऑटोमेटिक लॉक बंद हो गए, और फिर खुल ही नहीं पाए। लोगों को बचाने के लिए पुलिस को भीतर जाने को ये दरवाजे तोडऩे पड़े जिसके पीछे दुकान का मालिक भी धुएं में मर चुका था। यह कारोबार लोगों के घरों में ऑटोमेटिक लॉक वाले खिडक़ी-दरवाजे लगाने का ही था, और उसका एक बड़ा खतरा खुद इसके मालिक की मौत की शक्ल में सामने आया।
आज दुनिया का बाजार अपने प्रोडक्ट को दूसरों से बेहतर बताने के लिए, मुकाबले में आगे रहने के लिए उनमें बहुत सारी गैरजरूरी खूबियां जोड़ते चलता है। जिस तरह ऑटोमेटिक तालों से ये दो हादसे हुए, ऐसा ही कोई हादसा तब भी हो सकता है जब स्क्रीन लॉक लगा हुआ फोन हो, और उसके साथ किसी का एक्सीडेंट हो जाए। वैसे में लोगों को यह भी नहीं दिखेगा कि फोन किसका है, आखिर में कौन से नंबर लगाए गए थे, या इन केस ऑफ इमरजेंसी नाम से कोई फोन नंबर दर्ज हैं क्या। स्क्रीन लॉक के सौ अलग फायदे हो सकते हैं, लेकिन यह एक बड़ा नुकसान भी है कि किसी जख्मी के फोन से एम्बुलेंस को भी नहीं बुलाया जा सकता। स्क्रीन लॉक बनाने वालों को इमरजेंसी के लिए कुछ नंबरों और जानकारी को ताले के बाहर भी रखने का इंतजाम करना चाहिए था। आज घर और बाहर इस्तेमाल होने वाले छोटे-बड़े सभी किस्म के उपकरणों में बहुत सारी गैरजरूरी बातें जोड़ दी जाती हैं, जो कि उनके इस्तेमाल को जटिल बना देती हैं, और उससे कई बार तो सहूलियत कम और नुकसान अधिक होने लगता है। फिर ऐसी गैरजरूरी ‘खूबियों’ की वजह से सामानों के दाम भी बढ़ते हैं, और उनकी मरम्मत भी मुश्किल और महंगी हो जाती है। आज हालत यह है कि बहुत सी जटिल खूबियों वाले स्मार्टफोन की उलझनों से अपने बुजुर्ग मां-बाप को बचाने के लिए लोग बाजार में बहुत साधारण किस्म से बनाए गए ऐसे फोन लेने लगे हैं जो कि सिर्फ बात करा सकते हैं।
आज नई-नई कारों को देखें, तो उनमें खूबियों के नाम पर इस तरह का ऑटोमेशन जोड़ा गया है जो कि निहायत गैरजरूरी भी लगता है, और अगर उसमें गड़बड़ी आए तो उस कार को शुरू करना भी मुमकिन नहीं रहता। किसी मुसीबत के वक्त आई ऐसी गड़बड़ी जानलेवा हो सकती है। ऐसे में कभी-कभी लगता है कि पुराने वक्त की कारें जिनमें हर दरवाजे अलग-अलग लॉक होते थे, और खुलते थे, खिड़कियों के शीशे हैंडल से चढ़ाने पड़ते थे, और कार तक पहुंचने के पहले उसका इंजन शुरू करके एसी चालू करने की सहूलियत नहीं होती थी, उनमें क्या कमी थी? हम किसी टीवी या कम्प्यूटर की जटिलता की बात नहीं करते, लेकिन सडक़ पर अपने मुसाफिरों, और दूसरे लोगों की जिंदगी को खतरे में डालने का खतरा रखने वाली कारों की जटिलता की बात जरूर करना चाहते हैं कि क्या छोटी-छोटी सी खूबियां इस लायक होनी चाहिए कि किसी हादसे की हालत में वे जानलेवा खामी में तब्दील हो जाएं?
जिन दो घटनाओं से हमने यह बात शुरू की है वो दोनों ही बिल्कुल ही गैरजरूरी जटिलता की वजह से जानलेवा साबित हुईं। हादसे में अपने आप दरवाजों को लॉक कर देने वाली कारों के मामले बहुत बड़ी संख्या में हो चुके हैं, और यह सिलसिला खत्म किया जाना चाहिए। अगर तकनीक में सुधार नहीं हो सकता, तो ऐसी मामूली खूबी को हटा देना चाहिए। और घर-दफ्तर के खिडक़ी-दरवाजों को ऑटोमेटिक लॉक करने के कारोबार के लिए इससे अधिक बदनामी का प्रचार क्या हो सकता है कि हादसे की नौबत में इसके मालिक के दफ्तर का दरवाजा ऐसा लॉक हुआ कि लाश ही बाहर निकल पाई!
गैरजरूरी ऑटोमेशन के कई किस्म के खतरे होते हैं। लोग अपने घर पर ऐसे उपकरण रखने लगे हैं जिन्हें जुबानी हुक्म देकर वो कई किस्म के काम करवाते हैं, कोई फोन नंबर लगवा लेते हैं, कोई सामान ऑर्डर कर देते हैं, या टीवी का चैनल बदलवा लेते हैं। लेकिन हुक्म मानने वाले ऐसे ही एक उपकरण ने अमरीका में कुछ अरसा पहले पति-पत्नी के बीच किसी बहस को सुनकर खुद ही पुलिस को बुला लिया था। लोगों का यह भी मानना है कि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की ऐसी लगातार जिंदा मौजूदगी लोगों की जिंदगी की निजता खत्म करती है। लोग यह आशंका भी रखते हैं कि उनके फोन, लैपटॉप, या इन दिनों कैमरे और माइक्रोफोन वाले टीवी लोगों की बातों को रिकॉर्ड करने लायक हैक किए जा सकते हैं। सडक़ हादसे से लेकर निजता खत्म होने तक, लोगों को यह सोच-विचार करना चाहिए कि उन्हें रोज की जिंदगी में कितने ऑटोमेशन की जरूरत है? और आज के वक्त में यह बात एक बड़ी समस्या भी हो सकती है कि बिना भयानक ऑटोमेशन वाले उपकरण बाजार में ढूंढे जाएं। आज बहुत से सामान तो ऐसी खूबियों/खामियों के बिना बाजार में हैं ही नहीं। फिर भी ये दो हादसे हमें कम से कम रोजमर्रा के इस्तेमाल के सामानों के बारे में सोचने-विचारने का मौका तो दे रहे हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
झारखंड और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों को लेकर एक बार फिर राजनीतिक दलों की लिस्टें आ रही हैं। दोनों ही राज्यों में कांग्रेस और भाजपा के अलावा क्षेत्रीय पार्टियां भी मैदान में हैं, और कहीं सीटों का बंटवारा है, तो कहीं गठबंधन। इसलिए उम्मीदवारों के नाम किस पार्टी के कितने हैं, यह थोड़ा जटिल मुद्दा है। लेकिन जो मुद्दा एकदम साफ है वह यह कि किसी पार्टी को महिलाओं को उनका हक देने की कोई फिक्र नहीं है। अलग-अलग खबरें बताती हैं कि किसने महिलाओं को कितनी टिकटें दी है। झारखंड में अब तक घोषित डेढ़ सौ नामों में से कुल 17 फीसदी महिलाएं हैं, और इनमें ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) के झारखंड में अब तक कुल 8 उम्मीदवार हैं, और इनमें एक चौथाई महिलाएं हैं। बड़ी पार्टियों में 66 नामों वाली भाजपा ने कुल 18 फीसदी महिलाओं को टिकट दी है। झारखंड मुक्ति मोर्चा ने 12 फीसदी, और कांग्रेस ने सीटें कम रहते हुए भी करीब एक चौथाई, 24 फीसदी महिलाओं को टिकटें दी हैं। लेकिन तमाम महिला उम्मीदवारों को देखें तो आधे से अधिक ऐसी हैं जो कि किसी न किसी नेता के परिवार की हैं, यानी उन्हें अपने दम पर, महज अपनी वजह से टिकट का हकदार नहीं माना गया है, और परिवार के पुरूषों का दम-खम लगने के बाद उन्हें टिकट मिली है। अब महाराष्ट्र पर एक नजर डालें तो वहां विदर्भ के इलाके का चुनावी रिकॉर्ड बताता है कि 1962 के चुनाव से लेकर अब तक वहां कुल चार फीसदी महिला उम्मीदवार रही हैं। ये आंकड़े विदर्भ की 13 विधानसभा सीटों के हैं। दूसरी जगहों पर भी कमोबेश इसी तरह का हाल है।
लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले जब 2022 में उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए तब कांग्रेस पार्टी ने वहां की चुनाव प्रभारी प्रियंका गांधी की अगुवाई में 40 फीसदी सीटों पर महिलाओं को टिकटें देने की घोषणा की थीं, और दी भी थीं। लेकिन बाद के चुनावों में किसी भी राज्य में इस आंकड़े को नहीं दोहराया गया, मानो उन प्रदेशों में लडक़ी हूं, लड़ सकती हूं, का नारा लागू नहीं होता था। उत्तरप्रदेश, जहां पर कि यह जाहिर था कि कांग्रेस का कोई भविष्य नहीं है, वहां पर तो कांग्रेस ने महिलाओं को बड़ी संख्या में टिकटें दे दीं। उसे अंदाज था कि वह आधा दर्जन का आंकड़ा पार नहीं कर सकेगी, और ऐसे में उसने महिलाओं के लिए दरियादिली दिखाई थी। लेकिन हम अलग-अलग राज्यों के आंकड़ों पर बात न करें, तो भी एक बात साफ है कि लोकसभा के आम चुनावों के पहले पिछली संसद में ही मोदी सरकार ने लंबे समय से पड़ा हुआ महिला आरक्षण विधेयक पास करवाया था। उसके साथ दिक्कत यह थी कि उस पर अमल के पहले जनगणना, और सीटों के डी-लिमिटेशन की शर्तें जोड़ दी गई थीं। इसलिए यह माना जा रहा था कि यह जल्द से जल्द भी 2029 के आम चुनाव में लागू हो पाएगा। हालांकि इस विधेयक पर चर्चा करते हुए कांग्रेस के राहुल गांधी ने सरकार से अपील की थी कि इसे अगले ही दिन से लागू कर दिया जाए, ताकि आने वाले आम चुनाव में महिलाओं को उनका हक मिल सके। लेकिन सरकार ने वह राय नहीं सुनी, और अब महिला आरक्षण लागू भी है, लेकिन उस पर बरसों तक अमल नहीं हो सकता।
हम इसी जगह बार-बार लिखते आ रहे थे कि राजनीतिक दलों के सामने बिना महिला आरक्षण कानून के भी यह विकल्प तो मौजूद था ही कि वे अपनी मर्जी से एक तिहाई या उससे अधिक सीटों पर महिला उम्मीदवार खड़ी करें। लेकिन किसी पार्टी ने यह नहीं किया। और जो पार्टियां इस पर कुछ हद तक अमल कर भी रही हैं, वे भी नेताओं के परिवारों की महिलाओं को आगे बढ़ाकर उसी को महिलाओं को आगे बढ़ाना साबित कर रही हैं। यह बात याद रखने की है कि छत्तीसगढ़ में पंचायतों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है, और यह 33 फीसदी शुरू होकर 50 फीसदी किया जा चुका है। जब पंचायत स्तर पर भी अलग-अलग जातियों की महिला उम्मीदवार मिल जाती हैं, तब यह बात अटपटी है कि विधानसभा और लोकसभा के स्तर पर पार्टियां महिला उम्मीदवार न मिलने का रोना रोया जाए। जब ओबीसी, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, जैसे तबकों की महिला उम्मीदवार मिल जाती हैं, तो विधायक और सांसद बनने के लिए तो महिलाएं इनके बीच से भी मिल सकती हैं। लेकिन राजनीतिक दलों पर ठीक भारतीय समाज की तरह मर्दों का दबदबा इतना अधिक है कि वे महिलाओं को आगे बढऩे नहीं देते, बराबरी का हक नहीं देते, न संगठन के पदों पर, और न ही चुनाव-उम्मीदवारी में।
लेकिन इसी माहौल के बीच अब यह एक बड़ी अजीब सी नौबत है कि पंजाब, दिल्ली, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, जैसे तकरीबन तमाम राज्यों में जहां-जहां अब चुनाव हो रहे हैं, वहां-वहां महिलाओं के खातों में पैसे सीधे भेजने की योजनाएं अनिवार्य रूप से लागू हो रही हैं, और हर पार्टी के घोषणा पत्र में यह सबसे बड़ा मुद्दा भी है। महिला एक वोटर की शक्ल में राजनीतिक दलों को अच्छी लगती है, लेकिन एक सांसद और विधायक के रूप में उसे इज्जत देना पार्टियों को नहीं सुहाता है। यह नौबत देखकर भारतीय समाज की एक दूसरी स्थिति याद पड़ती है कि महिला पत्थर या मिट्टी की मूरत के रूप में तो पूजा के लायक मानी जाती है, साल में दो-दो बार नौ-नौ दिन उसकी पूजा होती है, लेकिन असल जिंदगी में वह लात-घूंसे, प्रताडऩा, और टोनही करार देकर मार डालने के लायक मानी जाती है, कदम-कदम पर तीन-चार बरस की बच्चियों से लेकर 60-70 बरस की बुजुर्ग महिलाओं को बलात्कार का सामान मान लिया जाता है। जो समाज देवी की पूजा का पाखंड करता है, वह जीती-जागती देवियों के साथ सबसे परले दर्जे का जुल्म करता है, हर किस्म की हिंसा करता है। मिजाज का यह पाखंड चुनावों में भी काम आता है जहां राजनीतिक दलों को महिला, वोटर की शक्ल में नोट देने लायक लगती है, लेकिन उम्मीदवार की शक्ल में वह टिकट देने लायक नहीं लगतीं।
भारतीय समाज के पुरूषों, और खासकर राजनीतिक दलों से यह पूछा जाना चाहिए कि वे महिला आरक्षण विधेयक पास हो जाने के बाद भी खुद होकर उस पैमाने पर महिलाओं को टिकट क्यों नहीं देते हैं? क्यों वे इंतजार करते हैं कि जिस दिन यह कानून लागू होगा उसी दिन से महिला को उसका हक दिया जाएगा? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में अभी पुलिस ने केमिस्ट्री और इंजीनियरिंग के सात ऐसे छात्रों को गिरफ्तार किया है जो बाजार से रसायन खरीदकर घर पर प्रयोगशाला बनाकर दुनिया का एक घातक रासायनिक नशा तैयार कर रहे थे। उन्होंने मेथ कहा जाने वाला (मेथाम्फेटामाईन) 250 ग्राम तैयार भी कर लिया था। 20-22 बरस के ये सात छात्र इनमें से जिसके घर पर यह काम कर रहे थे वहां उन्होंने घर के लोगों को बताया था कि वे कॉलेज का प्रयोग कर रहे हैं। इसकी खबरों में इस घटना को एक वेबसिरीज, ब्रेकिंग बैड, को याद दिलाने वाली कहा गया है जिसमें इसी तरह से नशा तैयार किया जाता है। अब पुलिस यह पता लगा रही है कि क्या इन नौजवान छात्रों ने कुछ और जगहों पर इसकी मार्केटिंग भी की है? इन्होंने ये रसायन और इसके लिए जरूरी उपकरण आसानी से जुटा लिए थे। अब अगर दुनिया के सबसे खतरनाक नशों में से एक, मेथ, साधारण छात्र इतनी आसानी से बना रहे हैं, तो सीधे दिमाग पर असर करने वाले ऐसे नशे के भविष्य के बारे में आसानी से सोचा जा सकता है।
इसके साथ-साथ हम दो और घटनाओं को जोडक़र देखना चाहते हैं कि किस तरह कल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक नाबालिग लडक़े से दस किलो गांजा पकड़ाया है, और यह अपने आपमें कोई नई घटना नहीं है क्योंकि गांजे का गलियारा बन गए इस प्रदेश में लगातार नाबालिगों को इसकी तस्करी में शामिल पाया जा रहा है। एक तरफ तो शराब, गांजे, और दूसरे हर किस्म के नशे के कारोबार में, तस्करी में, नाबालिगों को जोड़ा जा रहा है क्योंकि कानून में नाबालिगों के लिए अधिक कड़ी सजा नहीं है। दूसरी तरफ नाबालिगों को बड़े पैमाने पर नशा करते देखा जा रहा है। और शायद इस नशे का भी कुछ असर है कि नाबालिगों का भयानक हिंसक दर्जे के जुर्मों में शामिल होना भी लगातार बढ़ते चल रहा है। वे कत्ल कर रहे हैं, गैंगरेप कर रहे हैं, और सडक़ों पर चाकू तो चला ही रहे हैं। इसके साथ-साथ एक दूसरी चीज को जोडक़र देखना भी जरूरी है कि जिस तरह रेलवे स्टेशनों से लेकर ट्रेनों तक, और फुटपाथों तक बेघर हो चुके छोटे बच्चे बढ़ते चल रहे हैं, और वे बहुत लंबे समय से पंक्चर बनाने में काम आने वाले एक रासायनिक गोंद को सूंघने का नशा करते हैं, उनके हाथ अब नशे से कमाई का एक नया जरिया भी अगर लग रहा है, तो उस नशे का खुद इस्तेमाल तो उनके लिए एक आसान और स्वाभाविक बात रहेगी। नशे के आदी लोगों का दायरा रफ्तार से बढ़ते चलता है, और खासकर ऐसे समाज में जहां पर कि उन पीढिय़ों के लोगों के पास कोई प्रेरणा नहीं रहती है। जिनको अपना कोई भविष्य नहीं दिखता है, जिनके लिए आज की जिंदगी में कोई खुशी नहीं है, घर-परिवार या मोहब्बत करने वाले नहीं हैं, वे लोग आने वाले कल की फिक्र से बेफिक्र रहकर नशे में आसानी से डूब जाते हैं।
भारत में प्रदेशों की सरकारें शराब के कारोबार को काबू में रखने में ही अपनी पूरी ताकत झोंक देती हैं क्योंकि इसी से सरकार को सबसे बड़ी कमाई होती है, और राजनीतिक दलों को भी इसी धंधे से मोटी उगाही होती है। लेकिन ऐसा लगता है कि नशे के धंधे पर से शराब का एकाधिकार खासा पहले खत्म हो गया है, और उसका शुरूआती सुबूत पंजाब जैसे राज्य में सामने आया जहां पर शराबेतर नशों में पूरी नौजवान पीढ़ी डूब जाने की भयानक तस्वीर दिखने लगी। अब जिस तरह से शराबेतर नशे गली-गली पकड़ा रहे हैं, उससे साफ है कि मुंह से शराब की बदबू छोड़ते हुए बदनाम होने के बजाय अब अधिक सहूलियत वाले नशे लोकप्रिय होते चल रहे हैं। इनकी तस्करी भी शराब के मुकाबले आसान है क्योंकि पैदल चलता हुआ व्यक्ति भी हजारों लोगों के लायक महीने भर का नशा जेबों में भरकर ले जा सकता है। छत्तीसगढ़ में पुलिस सरकारी शराब से परे के नशों को पकडऩे में जुटी हुई है, और कोई ऐसा दिन नहीं जाता जब दवा कारखानों में बनने वाली और बहुत प्रतिबंधित इस्तेमाल वाली नशे के असर की दवाईयां न पकड़ाती हों।
किसी भी दूसरे नशे के मुकाबले रसायनों से बनने वाले नशे अधिक खतरनाक माने जाते हैं। दुनिया की सबसे बड़ी ताकत अमरीका भी रासायनिक-नशों से हर बरस सैकड़ों मौतें झेल रहा है, और इसका चलन बढ़ते चल रहा है, अमरीकी सरहदों में घुसपैठ करके चारों तरफ से ड्रग-माफिया तरह-तरह की घातक गोलियों को अमरीकी नशेडिय़ों तक पहुंचा रहे हैं। अपनी परले दर्जे की निगरानी के बावजूद अमरीका इस धंधे पर काबू नहीं पा सक रहा है। भारत में कम से कम दो पड़ोसी देशों, पाकिस्तान, और म्यांमार से तो बड़े पैमाने पर नशे की तस्करी हो रही है, और इन दोनों देशों में आर्थिक स्थिति बहुत खराब है, लोकतंत्र बहुत कमजोर है या नहीं है, और इन वजहों से वहां पर नशे का कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है। इनके अलावा जिस अफगानिस्तान में अफीम की खेती अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा है, उस अफगानिस्तान की एक सरहद सीधे भारत से भी जुड़ी हुई है, जो कि सौ किलोमीटर से अधिक लंबी है। तस्करों के लिए इतनी लंबाई घुसपैठ को कम नहीं होती है। फिर भारत को इस खतरे को भी समझना चाहिए कि जिस तरह पाकिस्तान की तरफ से भारत में लगातार नशे की तस्करी होते हुए पकड़ाती भी है, उसी तरह चीन की तरफ से भी भारत में नशा आ सकता है क्योंकि दुश्मन देश को कमजोर करने में नशा एक बड़ा हथियार माना जाता है। भारत के बाकी पड़ोसी देश भी किसी अच्छी आर्थिक हालत में नहीं हैं, और अस्थिर लोकतंत्र, और फटेहाली मिलकर कब किस देश को नशे के धंधे में धकेल दे, इसका कोई ठिकाना नहीं रहता।
लेकिन चेन्नई का यह ताजा मामला एक बिल्कुल नया खतरा सामने रखता है कि बाजार में मौजूद रसायन और उपकरण से नौजवान विज्ञान-छात्र घर पर खतरनाक रासायनिक नशा बना सकते हैं। हो सकता है कि इस नशे की क्वालिटी अंतरराष्ट्रीय बाजार की उम्मीदों पर खरी न उतरे, लेकिन यह घरेलू नशेडिय़ों के लिए सस्ते में मिलने वाला अधकचरा नशा तो बन ही सकता है। फिर छात्रों के इस मेन्युफेक्चरिंग में उतर आने से यह भी है कि उनके आसपास छात्रों के दायरों में उन्हें सीधे-सीधे ग्राहक मिल सकते हैं। अब बाजार के रसायन, उपकरण, जब यूट्यूब पर मौजूद हर किस्म के वीडियो के साथ जोड़े जाएं, तो बहुत से उत्साही और लापरवाह-गैरजिम्मेदार नौजवान छात्र ड्रग माफिया बन सकते हंै। पता नहीं केन्द्र और राज्य सरकारें इस भयानक खतरे से कैसे निपट सकती हैं, लेकिन यह हर किसी के लिए जागने का वक्त तो हो ही गया है।
देश के मौजूदा वक्फ कानून में संशोधन के लिए जो नया विधेयक लाया गया है, उस पर चर्चा के लिए सांसदों की एक संयुक्त समिति बनी है। दो दिन पहले जब इसकी सुनवाई चल रही थी, और वर्तमान और प्रस्तावित कानूनों की बारीकियों पर एक गंभीर बातचीत या बहस होनी थी तभी समिति के एक सदस्य तृणमूल कांग्रेस के सांसद कल्याण बैनर्जी ने कांच की एक बोतल तोड़ दी, और उसे समिति के अध्यक्ष जगदम्बिका पाल पर फेंक दिया। अध्यक्ष तो बच गए लेकिन यह हरकत करने वाले कल्याण बैनर्जी का ही हाथ कुछ जगह नुकीले कांच से कट गया जिसकी मलहम पट्टी करनी पड़ी। इस बर्ताव के लिए इस सांसद को इस समिति की सुनवाई से एक दिन के लिए निलंबित कर दिया गया है जो कि तृणमूल सांसदों के लिए कोई नई बात नहीं है। वे लोकसभा और राज्यसभा की कार्रवाई से भी कई बार निलंबित होते रहते हैं, और अगर लोगों को कल्याण बैनर्जी नाम से याद न पड़ता हो, तो हम संसद भवन के अहाते में इस सांसद की एक मिमिक्री याद दिलाना चाहेंगे जिसमें वे मौजूदा सांसदों के बीच उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की सदन की कार्रवाई की नकल करके दिखा रहे थे। बाद में जब इस पर बड़ा बवाल हुआ तो उन्होंने सफाई दी कि मिमिक्री एक किस्म की कला है, और वे मिमिक्री ही कर रहे थे। साथ ही कल्याण बैनर्जी और उनके समर्थकों ने संसद के भीतर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के किसी भाषण का कुछ हिस्सा निकालकर उसका वीडियो जारी किया था कि मोदी ने तो सदन के भीतर मिमिक्री की थी। मोदी इस वीडियो में राहुल गांधी की मिमिक्री कर रहे थे। हालांकि मोदी ने कल्याण बैनर्जी की इस ‘कला’ पर बड़ी आपत्ति की थी, और भाजपा ने संसद-परिसर की इस मिमिक्री का वीडियो अपने फोन पर बनाने के लिए राहुल गांधी को भी घेरा था। इस मिमिक्री पर देश की राष्ट्रपति ने भी उपराष्ट्रपति के साथ हमदर्दी जताते हुए टीएमसी सांसद के इस बर्ताव पर अफसोस जाहिर किया था, और ट्विटर पर अपने उपराष्ट्रपति का साथ दिया था।
खैर, उस पुरानी घटना पर अभी बहुत अधिक समय बर्बाद करने की जरूरत नहीं है, लेकिन यह याद रखने की जरूरत है कि तृणमूल कांग्रेस सांसद कल्याण बैनर्जी का नाटक का पुराना इतिहास रहा है, जो कि अब बढ़ते-बढ़ते संसदीय समिति की बैठक में कांच की बोतल फोडक़र अध्यक्ष पर फेंकने तक पहुंच गया, यह अलग बात है कि अध्यक्ष बच गए, और हमलावर बैनर्जी जख्मी हो गए। इस ताजा घटना के एक और पहलू पर चर्चा की जरूरत है। वक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक पर चर्चा के दौरान यह बहस मोटेतौर पर कल्याण बैनर्जी और भाजपा सांसद अभिजीत गंगोपाध्याय के बीच हुई थी। अब जिन लोगों को इस नए सांसद के नाम से कुछ याद नहीं पड़ता है, उन्हें यह बताना जरूरी है कि वे कलकत्ता हाईकोर्ट से रिटायरमेंट लेने वाले एक ऐसे जज हैं जिन्होंने तुरंत ही भाजपा में दाखिल होकर लोकसभा चुनाव लड़ा, और कोर्ट की अपनी कुर्सी के कुछ महीनों के भीतर ही वे लोकसभा की कुर्सी पर नजर आने लगे। जब तक अभिजीत गंगोपाध्याय जज रहे, उनके बहुत से फैसले और आदेश ऐसे रहे जो कि राज्य की तृणमूल सरकार के हितों के खिलाफ रहे, उसे परेशान और नुकसान करने वाले रहे। एक वक्त तो ऐसा भी आया था जब कलकत्ता हाईकोर्ट के बार एसोसिएशन ने गंगोपाध्याय की अदालत के बहिष्कार का प्रस्ताव पारित किया था, और तृणमूल समर्थक वकीलों के एक संगठन ने उनकी अदालत के बाहर प्रदर्शन किया था। कलकत्ता का यह टकराव दिल्ली पहुंचकर संसदीय समिति में कांच की टूटी बोतल के टुकड़ों की शक्ल में सामने आया है। तृणमूल सांसद के लिए यह भूलना आसान नहीं था कि जस्टिस गंगोपाध्याय ने इस्तीफे के दो दिन बाद ही भाजपा की सदस्यता ले ली थी, और फिर कुछ महीनों के भीतर ही लोकसभा का चुनाव भाजपा टिकट पर लड़ा। इस अभियान के दौरान गंगोपाध्याय ने ममता बैनर्जी के खिलाफ कुछ अपमानजनक बातें भी कही थीं, और हालत यह थी कि चार दिन पहले के हाईकोर्ट जज को चुनाव आयोग का नोटिस मिला, आयोग ने उनके बयान रोके, और घटिया-निजी आरोप लगाने की वजह से चौबीस घंटे चुनाव प्रचार पर रोक लगाई। गंगोपाध्याय की इसी बयान की वजह से चुनाव आयोग ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नड्डा को यह सलाह जारी की थी कि वे चुनाव प्रचार में इस तरह की हरकत से बचने के लिए अपने नेताओं को कहें। हाईकोर्ट जज रहे गंगोपाध्याय के बयान पर चुनाव आयोग को यह लिखना पड़ा था कि यह गरिमा की किसी भी परिभाषा के खिलाफ बयान था, और बहुत ही निचले दर्जे का निजी हमला था। चुनाव आयोग ने अफसोस भी जाहिर किया था कि गंगोपाध्याय के हाईकोर्ट के पिछले ओहदे को देखते हुए वे किसी संदेह के लाभ के हकदार भी नहीं है।
बंगाल की राजनीति इन दो सांसदों की संसदीय समिति की बहस से परे भी लगातार हमलावर रहती है। देश में दो ऐसे राज्य हैं जहां राजनीतिक हमले बड़ी आसानी से हत्या में तब्दील हो जाते हैं। बंगाल, और केरल, इन दोनों जगह राजनीतिक-हिंसा का कोई अंत नहीं दिखता है। और जहां पर हथियारों की हिंसा आम बात हो, विरोधी होने पर मार डालना बहुत बड़ा मुद्दा न हो, वहां से आए दो सांसदों के बीच राज्य की कड़वाहट संसद और उसकी समिति तक पहुंच जाना बड़ी बात नहीं है। हमारा मानना है कि पार्टियों का टकराव, या व्यक्तियों का टकराव इतना धारदार नहीं होना चाहिए कि वह संसद को बनाने के कुल जमा मकसद को ही हरा दे। वक्फ कानून में फेरबदल एक गंभीर मसला था, और उसमें इस तरह के टकराव की गुंजाइश होनी नहीं चाहिए थी, लेकिन राज्य की स्थानीय राजनीति बाकी तमाम चीजों पर बुरी तरह हावी हो जाती है। बंगाल के संदर्भ में तो हम इस बात को कुछ अधिक ही देखते हैं। देश की बहुत सी पार्टियों का एक-दूसरे के प्रति हिकारत और नफरत का ऐसा नजरिया है कि वे एक नाव पर सवार रहते हुए भी दूसरे के डूब मरने की कामना कर सकते हैं। ऐसी नौबत देश में संसदीय जरूरत और महत्व को हरा दे रही है। एक बार संसद में कानूनों में खामियां रह जाती हैं, या बेइंसाफी को बढ़ाने वाले कानून बन जाते हैं, तो फिर देश कभी-कभी तो पीढिय़ों तक उनके नुकसान झेलता है। संसदीय प्रक्रिया और संसदीय प्रणाली ओछे टकरावों में उलझे, और पूर्वाग्रहों से लदे हुए लोगों के भरोसे नहीं चल सकती। लोकतंत्र का एक बड़ा नुकसान करते हुए ही पार्टियां और सांसद एक-दूसरे से नफरत की ऐसी नुमाइश कर सकती हैं। हमारा मानना है कि जनता के बीच से ऐसा दबाव सामने आना चाहिए कि वह पार्टियों और नेताओं को अपने आपको काबू में रखने पर मजबूर करे।
देश में कई तरह की नकली चीजें चलती हैं, लेकिन गुजरात के इस ताजा मामले में सबको पीछे छोड़ दिया है। राजधानी गांधीनगर में एक व्यक्ति ने एक फर्जी अदालत खोल ली, और वह लोगों के कानूनी मामले निपटाने लगा, पूरा अदालत का ढांचा खड़ा कर लिया, उसके अपने गिरोह के लोग वकील बनकर बहस करने लगते थे ताकि लोगों को भरोसा हो जाए, और वह लोगों के मामलों को निपटाने का यह कानूनी ट्रिब्यूनल पांच बरस से चलाते हुए अब तक अरबों की दौलत बना चुका था। जज के पोशाक में बैठकर वह फैसले देता था, और दूसरी अदालतों में चल रहे जमीनों के मामलों को निपटाने के ट्रिब्यूनल का जज बनकर वह हजारों लोगों को धोखा देते रहा, और दिलचस्प बात यह है कि यह नकली अदालत अहमदाबाद की अदालत के ठीक सामने एक वकील ही चला रहा था। यह पकड़ में तब आया जब इसका एक मामला असली अदालत तक पहुंचा।
यह समाचार चौंकाता है कि देश किस हद तक धोखा खाने पर आमादा है। अभी कुछ हफ्ते पहले ही छत्तीसगढ़ में स्टेट बैंक की एक नकली ब्रांच खोलकर उसे चलाया जा रहा था, लेकिन कुछ लोगों को शक होने से वह पकड़ में आ गई। बाद में पता लगा कि इसके पहले भी तमिलनाडु और दूसरी जगहों पर स्टेट बैंक की नकली शाखाएं खुल चुकी हैं। खुद गुजरात की बात करें तो वहां पर अभी कुछ हफ्ते पहले ही गांधी की जगह अनुपम खेर की तस्वीर छपे हुए नोट देकर किसी ने सोना खरीदी की थी। यह मामला भी राजधानी अहमदाबाद का ही था, और सोना खरीदकर एक व्यक्ति ने एक करोड़ साठ लाख रूपए के नोट देकर नकली नोट दे दिए थे। अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग चीजों की नकल बनाने के इतने मौलिक और अनोखे तरीके हिन्दुस्तान में इस्तेमाल हो रहे हैं कि नकल बनाने के लिए बदनाम चीन को भी शर्म आ जाए, वह भी हीनभावना में पहुंच जाए। यहां लोग अलग-अलग कंपनियों के फर्जी कस्टमर केयर वेबसाइट बनाकर शिकायत करने वाले ग्राहकों को वहां से फंसा रहे हैं, तो कहीं नकली सीबीआई अफसर बनकर कोई अदना सा आदमी असली पासपोर्ट ऑफिस जाकर गिरफ्तारी का डर दिखाकर लाखों रूपए वसूल कर निकल जाता है। यह नौबत देश के लिए बहुत भयानक है कि नकल का कारोबार इतनी दूर तक चले जाता है, और जिन निगरानी या जांच एजेंसियों से इनको रोकने की उम्मीद की जाती है, उन्हें हवा भी नहीं लगती। हम इस सिलसिले में कामयाब कारोबारी ब्रांड की नकल के बारे में नहीं कह रहे जो कि दुनिया के कई देशों में एक समस्या है, लेकिन जब किसी देश के लोग किसी टेलीफोन कॉल पर अपने को नार्कोटिक्स ब्यूरो का बताकर धमकाते हैं, और उसके बाद वीडियो कॉल शुरू करवाकर थाने का नकली नजारा पेश करते हैं, तो जालसाजों की कल्पनाशीलता, और जनता की झांसा खाने की क्षमता इन दोनों के बीच एक कड़ा मुकाबला चलता है।
अब साइबर-धोखाधड़ी या जालसाजी के बारे में तो जांच एजेंसियां लोगों को सावधान करने का अभियान चला रही हैं लेकिन जब पूरा का पूरा बैंक, या पूरा का पूरा कोर्ट नकली बना दिया जाए, तो उस इलाके की पुलिस पर भी यह सवाल उठता है कि क्या उसे अपने आसपास की इतनी बड़ी जालसाजी की भी हवा नहीं लगती? इसी अहमदाबाद की एक दूसरी खबर कल की ही है कि एक रिटायर्ड बैंक अधिकारी ने किसी महिला की नकली बलात्कार की रिपोर्ट लिखाने की धमकी में जिंदगी के आखिरी तीस बरस में उसे एक करोड़ रूपए दिए, और आखिर में ब्लैकमेलिंग से थककर एक चिट्ठी में इस महिला और उसके परिवार के पांच लोगों के बारे में सब लिखा, और जहर पीकर खुदकुशी कर ली। अब नकली बलात्कार की असली धमकी देकर किसी को इस तरह लूटा जा सकता है, दशकों तक लूटा जा सकता है, और खुदकुशी पर मजबूर किया जा सकता है, तो इस तरकीब को आजमाने में कई और लोगों की लार टपक सकती है, आखिर तीस बरस तक तो यह औरत और उसके परिवार के लोग किसी मुसीबत में नहीं फंसे थे।
नकली का कारोबार देश को अभी कुछ समय पहले ही दहला चुका है जब यह सामने आया कि देश के एक सबसे प्रमुख हिन्दू मंदिर, तिरुपति में प्रसाद के विख्यात लड्डुओं को बनाने के लिए जानवरों की, गाय और सुअर की चर्बी से बना हुआ घी इस्तेमाल हो रहा था। यह मामला अब सुप्रीम कोर्ट के रास्ते जांच एजेंसियों तक पहुंचा हुआ है, और नकली सामान से लोगों की आस्था को चोट पहुंचाने का यह देश का सबसे भयानक मामला इसलिए है कि इस मंदिर में रोजाना छह सौ लोग लड्डू बनाने में जुटते हैं, और करीब तीन लाख लड्डू रोज प्रसाद में बांटे या बेचे जाते हैं। अब अगर इसमें राज्य सरकार के बताए मुताबिक चर्बी वाला नकली घी इस्तेमाल होता था, तो घर जाकर दर्जनों लोगों में बंटने वाले एक-एक लड्डू के मार्फत कितने लोगों तक क्या-क्या नहीं पहुंचा होगा?
ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान में नकली के खिलाफ समाज में बर्दाश्त बहुत हो गया है। ऑटोमोबाइल पुर्जों के बाजार में जाएं तो वहां किसी भी बड़ी कंपनी के किसी भी पुर्जे की अलग-अलग तीन-चार नकली क्वालिटी मौजूद रहती है। और देश की राजधानी दिल्ली का ऑटोपाटर््स का बाजार इसी भाषा से भरा रहता है कि किस क्वालिटी का डुप्लीकेट चाहिए? यह नौबत बताती है कि सरकार और अदालतें मिलकर नकली पर लगाम लगाने के लिए काफी नहीं हैं, और लोग हैं कि वे नकली को उतना बुरा भी नहीं मानते। भारत से चीन जाने-आने वाले लोग, या चीन से बनकर भारत आने वाला सामान दुनिया के तमाम बड़े ब्रांड के महंगे फैशनेबुल की नकल रहता है, और बड़े ब्रांड की मिट्टी के मोल मिलने वाली नकल से गरीब हिन्दुस्तानियों की हसरतें भी पूरी होती हैं। दिल्ली का किताबों का बाजार पाइरेटेड किताबों से पटा हुआ है, और जिस महंगी किताब की कॉपी चाहिए वह घंटे भर में तैयार कर दी जाती है। इस देश के नेताओं की राजनीतिक प्रतिबद्धता जितनी नकली है, उसी के अनुपात में यहां पर नकली काम भी बर्दाश्त होता है, बल्कि उसका स्वागत होता है। इम्तिहानों में मुन्नाभाई बनकर नकली लोग पर्चे लिखने जाते हैं, और अब तक लोगों ने मेहरबानी यह की है कि नकली यूपीएससी रिजल्ट निकालकर लोगों को कलेक्टर-एसपी नहीं बनाया है।
फिलहाल जिस राज्य में जिस तरह का नकली धंधा पकड़ा रहा है, वहां की सरकार और पुलिस को अपने कामकाज के बारे में आत्ममंथन करना चाहिए कि यह नौबत कैसे आई है, और इसमें सरकार की क्या जवाबदेही बनती है। दूसरी बात, भारत जैसा संघीय गणराज्य है, उसमें केन्द्र और राज्यों के बीच जुर्म के तौर-तरीकों की जानकारी पलक झपकते फैलनी चाहिए ताकि ठोकर किसी एक को लगे, तो संभल सभी सकें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ कई लोगों को चौंका रहे हैं, और कई लोग उनके ताजा बयानों, और कुछ हरकतों को देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं। सिलसिले की शुरूआत शायद गणेश पूजा के वक्त से हुई जब चन्द्रचूड़ के सरकारी घर पर उनके अपने गृहप्रवेश की परंपरा के मुताबिक गणेश स्थापित थे, और ऐसे में घर पर आने वाले संबंधियों और मित्रों के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी महाराष्ट्रीयन गांधी टोपी लगाकर पूजा करने पहुंचे थे, और उनकी चन्द्रचूड़ दम्पत्ति के बीच खड़े होकर गणेशजी की आरती करने के वीडियो चारों तरफ फैले थे। महाराष्ट्र चुनाव की हवा चलने के ठीक पहले का यह प्रधानमंत्री-प्रवास खूब चर्चा में रहा क्योंकि यह पिछले एक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की इफ्तार-दावत सरीखा नहीं था जिसमें आमंत्रित बहुत से लोगों के बीच उस वक्त के सीजेआई भी पहुंचे थे। हमने उस वक्त भी इसी जगह पर लिखा था कि ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों को संदेह से परे रहना चाहिए। भारत में कार्यपालिका, यानी सरकार, और न्यायपालिका, यानी अदालत के बीच एक सुरक्षित फासला रहना चाहिए। सुरक्षित इस हिसाब से भी कि दूर से देखती जनता को भी यह भरोसा हो कि ये दोनों एक-दूसरे के किसी असर में काम नहीं कर रहे हैं, और यह भरोसा भी हो कि ये गिरोहबंदी करके काम नहीं कर रहे हैं। लोकतंत्र की तिपाई में अगर उसके तीन पायों में से दो पाये एक-दूसरे से गलबहियां करने लगें, तो उसका संतुलन ही खत्म हो जाएगा। तिपाई के तीनों पायों का एक-दूसरे से भी अलग रहना जरूरी रहता है, और अपने टॉप को ढोने के लिए तीनों को अपने-अपने हिस्से का जिम्मा निभाना पड़ता है, बिना गलबहियों के।
जस्टिस चन्द्रचूड़ ने गणेशोत्सव के दौरान देश, और भारतीय न्यायपालिका को देखने वाली बाकी दुनिया को भी चौंकाया, और अब उन्होंने एक अनोखी बात कही। वे अपने पैतृक गांव में एक सम्मान समारोह में गए थे, वहां उन्होंने गांव के लोगों से बात करते हुए बताया कि जब रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर केस चल रहा था, और महीनों तक चला, वह बेहद नाजुक मामला था, उन्होंने कहा कि वे भगवान के सामने बैठे, और उनसे प्रार्थना की कि वे इस विवाद का कोई समाधान खोजे, उन्होंने कहा कि यदि आपमें आस्था है तो भगवान हमेशा कोई रास्ता निकालेंगे। लोगों को याद होगा कि रामजन्म भूमि मामले में गिराई गई मस्जिद वाले जगह हिन्दू समाज को मंदिर के लिए फैसला देने वाले पांच जजों के मुखिया, उस वक्त के सीजेआई रंजन गोगोई रिटायर होते ही तुरंत भाजपा की तरफ से राज्यसभा भेजे गए थे, दो और जज अपनी बारी आने पर मुख्य न्यायाधीश बने, और एक जज को गवर्नर बनाया गया, और एक को एनसीएलटी का मुखिया।
अब सवाल यह उठता है कि सीजेआई हो, या कोई और, उनकी निजी आस्था अपनी जगह बड़ी अच्छी बात है, लेकिन रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद का तो पूरा मामला ही निजी आस्था के विवाद का था। यह मामला हिन्दू और मुस्लिम तबकों के बीच का विवाद था, और इसमें अगर इस बेंच के जज अपने ईश्वर (चन्द्रचूड़ के मामले में जैसा कि उन्होंने गांव में कहा, भगवान) के सामने बैठकर समाधान देने, या सही रास्ता सुझाने की प्रार्थना करें, तो क्या भारत का संविधान निजी आस्था पर आधारित प्रार्थना से मिले समाधान की वकालत करता है? या फिर किसी भी निजी आस्था, और किसी भी धार्मिक प्रतिबद्धता से परे पूरी तरह से कानूनी और संवैधानिक फैसले की बात सुझाता है? जब देश की सबसे बड़ी अदालत की संविधानपीठ देश का एक सबसे नाजुक फैसला सुना रही है, तब क्या जजों का अपनी आस्था के मुताबिक अपने ईश्वर से प्रार्थना करना, और समाधान मांगना जायज है? होना तो यह चाहिए था कि इस फैसले के लिख दिए जाने तक लोग, कम से कम हिन्दू और मुस्लिम जज, अपनी आस्था को अलग रखते। और अगर अलग रखना मुमकिन नहीं होता, तो उसे अपने मन के भीतर रखते। लोगों के बीच इस बात की नुमाइश करना, और खासकर रिटायरमेंट के कुछ दिन पहले इस खास चर्चा को छेडऩा जो कि कई लोगों को ठकुरसुहाती लग सकती है, बड़ी ही अटपटी बात है। अब बाकी वक्त में तो जस्टिस चन्द्रचूड़ पता नहीं केन्द्र सरकार को प्रभावित करने वाले और कोई फैसले देने की हालत में है या नहीं, कम से कम अपने गांव का उनका यह ताजा भाषण ठीक उसी तरह टालने लायक था, जिस तरह प्रधानमंत्री को अपने घर की गणपति पूजा में बुलाना टालने लायक था। लोकतंत्र में जनता के सामने उसकी भावनाओं की संतुष्टि के लिए भी निष्पक्षता का एक मुखौटा बनाए रखना जरूरी होता है, लेकिन जस्टिस चन्द्रचूड़ ने उसकी परवाह नहीं की।
लोकतंत्र एक बहुत ही लचीली व्यवस्था है। इसमें हर बात का इलाज कानून में नहीं है। कार्यपालिका और न्यायपालिका के एक-दूसरे से संबंध कैसे रहे, इस पर हजार पेज की किताब भी लिखी जा सकती है, और उससे बच निकलने की दो हजार पेज की कुंजी भी लिखी जा सकती है। लोकतंत्र नियमों से परे की भी गौरवशाली परंपराओं से चलता है। प्रधानमंत्री और सीजेआई का सार्वजनिक समारोहों में जहां पर उनके ओहदों के हिसाब से साथ रहना जरूरी होता है, वहां तो साथ रहना होता ही है, लेकिन इससे परे इन दोनों के बीच इतना सुरक्षित फासला भी होना चाहिए कि ये शिष्टाचार में न उलझें, एक-दूसरे के प्रभाव में न आएं। इसी तरह किसी एक धर्म को अधिक पसंद आने वाला दो धर्मों के बीच का मुकदमा जब तय हो चुका है, तो जीतने वाले धर्म के ईश्वर को इस समाधान का श्रेय देना निष्पक्षता से परे जाने की बात है। हम जिस आदर्श की बात कर रहे हैं, वह बिल्कुल असंभव भी नहीं है। भारत की किसी भी संवैधानिक कुर्सी पर बैठे हुए व्यक्ति से आस्थाहीन होने की उम्मीद कोई नहीं करते, उनमें से कुछ लोग आस्था का प्रदर्शन भी करते रहे हैं, जैसे कि मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टी.एन.शेषन सार्वजनिक रूप से मंदिरों में आते-जाते रहे। लेकिन अपने विवेक के किसी फैसले को अपने ईश्वर के सहयोग से सुलझाने की बात कहना उनके संवैधानिक विवेक के इस्तेमाल से परे की बात है। हमारा ख्याल है कि जस्टिस चन्द्रचूड़ इतने समझदार हैं कि वे अपनी निजी आस्था के ऐसे अदालती इस्तेमाल की नुमाइश से बचने की बात सोच सकते थे, और अगर उन्होंने यह प्रदर्शन किया ही है, तो हमारा मानना है कि उन्होंने सोच-समझकर यह कहा होगा। वे रिटायर होने के बाद प्रवचन के पेशे में आए हुए व्यक्ति नहीं है जो कि इस तरह की बात कहें। यह सिलसिला कुछ बदमजा रहा, यह जाते-जाते लोगों के मुंह का स्वाद खराब करके जाने जैसा रहा। उन्होंने अपने निजी जीवन के सार्वजनिक तथ्यों की वजह से कुछ बातों के लिए समाज की वाहवाही भी पाई है, लेकिन अब आखिरी वक्त में उनकी बातें, और उनके काम उनके अदालती इतिहास पर हावी हो रहे हैं। गणेशोत्सव से शुरू सिलसिला गांव में भगवान से समाधान तक पहुंचा, जस्टिस चन्द्रचूड़ को नौकरी के बकाया गिने-चुने दिनों चुप रहने की सलाह उनके कोई दोस्त दे सकते हैं? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आंध्र के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू का कल का एक बयान बहुत से लोगों को हैरान कर सकता है और कई लोगों को निराश कर सकता है। आम हिंदुस्तानी देश में बढ़ती हुई आबादी को लेकर फिक्र में डूबे हुए दिखते हैं। आपातकाल के संजय गांधी आबादी पर काबू के नाम पर देश में खलनायक बन गए थे, लेकिन बाद में कई लोगों ने उनके बाकी जुर्म अलग रखकर सिर्फ जनसंख्या नियंत्रण वाले हिस्से की तारीफ भी की थी। अभी चंद्रबाबू नायडू का ये बयान इस तर्क के साथ है कि आंध्र के कई जिलों में गांवों में सिर्फ बुजुर्ग बचे हैं क्योंकि नौजवान पीढ़ी विदेश में, या दूसरे राज्यों में काम करने चली गई है। उनका तर्क यह है कि दो से कम बच्चे होने से युवा आबादी तेजी से घटी है, इसलिए दो से अधिक बच्चे होने पर नौजवान कामकाजी आबादी बढ़ेगी।
जिन लोगों को नायडू की यह बात अटपटी लगती है उन्हें दक्षिण और उत्तर भारत के फर्क को समझना होगा। आज हालत यह है कि देश में प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े अगर राज्यवार देखें तो दक्षिण के सारे राज्य ऊपर के पंद्रह राज्यों में आ जाते हैं, और सारे ही हिंदी भाषी राज्य नीचे के पंद्रह राज्यों में। जब प्रति व्यक्ति उत्पादकता और आय में उत्तर और दक्षिण में इतना बड़ा फर्क है, तो यह बात जाहिर है कि दक्षिण के राज्यों में आबादी बोझ नहीं है, वह उत्पादक संपत्ति है। दूसरी तरफ अशिक्षा, बेरोजगारी और गरीबी से भरे हुए उत्तर भारत और हिंदी राज्यों में बढ़ती आबादी बहुत बड़ा बोझ है। हम जब देश के राज्यों की फेहरिस्त देखते हैं तो यूपी और बिहार 32वें और 33वें, सबसे आखिर में हैं। आंध्र और तेलंगाना का हाल यह है कि वहां के अधिकतर परिवारों के लोग प्रदेश या देश के बाहर जाकर कामयाबी से काम कर रहे हैं। देश के बाहर से जिन राज्यों को कमाई आती है, उनमें आंध्र और तेलंगाना सहित दक्षिण के सारे ही राज्य हैं बल्कि केंद्र सरकार को अलग-अलग राज्यों से मिलने वाले केंद्रीय टैक्स के आंकड़े देखें तो दक्षिण से प्रति व्यक्ति टैक्स अधिक मिलता है, और केंद्र सरकार से उत्तर भारत को मदद अधिक मिलती है क्योंकि उत्तर के राज्य पिछड़े हुए हैं, उनकी आर्थिक स्थिति खराब है।
हालत यह है कि भारत के राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने दक्षिण के राज्यों पर यह रोक लगा दी है कि वे मेडिकल कॉलेजों में सीटें नहीं बढ़ा सकते। इसके पीछे तर्क यह दिया गया है कि दक्षिण में वैसे भी आबादी के अनुपात में मेडिकल सीटें राष्ट्रीय औसत से बहुत अधिक है और यूपी-बिहार जैसे उत्तर के राज्यों में मेडिकल कॉलेज और मेडिकल सीटें आबादी के अनुपात में बहुत कम हैं। राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग का यह तर्क इतना खोखला और बेहूदा है कि यह दक्षिण के राज्यों से अधिक डॉक्टर निकलने की संभावनाओं को खत्म करता है जबकि हिंदुस्तान में आज रूस, यूक्रेन, चीन, और बांग्लादेश से भी मेडिकल पढ़ाई करके आए हुए डॉक्टरों को काम करने की इजाजत मिल रही है। यह हैरानी की बात है कि भारत के चिकित्सा छात्रों को दूसरे देशों में पढऩे की छूट है लेकिन दक्षिण भारत को मेडिकल सीटें बढ़ाने की इजाजत नहीं दी जा रही है। ख़ुद उत्तर भारत में अगर मेडिकल सीटें बढ़ाना है, तो उसके लिए भी मेडिकल-शिक्षक दक्षिण से ही मिल सकेंगे। उत्तर भारत के हिंदी राज्यों की नालायकी का दाम दक्षिण चुका रहा है। यह सिलसिला देश में उत्तर-दक्षिण के बीच विभाजन की खाई को और गहरा, और चौड़ा करते चले जाएगा। इस सिलसिले में यह भी याद दिलाना जरूरी है कि दक्षिण ने आबादी को घटाकर देश की जनसंख्या नियंत्रण की नीति में बड़ा योगदान दिया था और इसके बदले उसे डिलिमिटेशन में कम संख्या में लोकसभा सीटें मिलने जा रही हैं यानी जिन राज्यों ने देश की जनसंख्या-नीति में अधिक योगदान दिया, उन्हें सजा दी जा रही है।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हमने देश के अलग-अलग राज्यों के संदर्भ में यह बात कई बार लिखी है कि आबादी को बोझ समझने की नौबत देश और प्रदेश की सरकारों की नालायकी के अलावा और कुछ नहीं रहती। जब सरकारें जनता को काम मुहैया नहीं करा पाती हैं तभी आबादी बोझ लगती है। दुनिया के बहुत से विकसित देश आज अधिक आबादी की तरफ बढ़ रहे हैं क्योंकि उन्हें कामगारों की कमी पड़ रही है। भारत जैसा देश और इसके अधिकतर प्रदेश अगर अपने लोगों को उत्पादक काम दे पाएंगे, तो यहां पर आबादी कमाई का बहुत बड़ा जरिया हो सकती है। दुनिया की कंपनियां चीन से परे भारत को भी एक बड़ा मैन्युफैक्चरिंग हब मानकर चल रही हैं, और चीन प्लस वन अंतरराष्ट्रीय कारोबार में भारत के ही संदर्भ में अधिक इस्तेमाल हो रहा है। चंद्रबाबू नायडू ने जो कहा है उसे आंध्र-तेलंगाना के लोगों की पढ़ाई-लिखाई, उनके हुनर, और प्रदेश और देश के बाहर जाकर काम करने की उनकी भाषा के आधार पर कहा है। कोई काबिल प्रदेश और जिम्मेदार नेता ही भारत में ऐसी बात कहने का हौसला दिखा सकता था। हम पूरी तरह से चंद्रबाबू नायडू की बात के हिमायती हैं कि आंध्र में पंचायत और म्युनिसिपल चुनाव लडऩे के लिए दो या इससे ज्यादा बच्चे होना जरूरी किया जा रहा है। जब आंध्र के इस कानून की तैयारी को देखें तो छत्तीसगढ़ जैसे कई राज्यों के कानून वहां की हालत बताते हैं कि दो से अधिक बच्चे होने पर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के चुनाव भी रद्द हो जाएंगे।
हमने राज्यों के बारे में यह बार-बार कहा है कि छत्तीसगढ़ जैसे राज्य की खनिज संपदा की वजह से उसकी जो प्रति व्यक्ति आय है उससे संतुष्ट होकर बैठ जाना सरकार के लिए समझदारी की बात नहीं है। राज्यों को अपने लोगों के हुनर, उनकी शिक्षा, और दुनिया भर में जाकर काम करने की उनकी क्षमता-महत्वाकांक्षा को इस हद तक बढ़ा देना चाहिए कि राज्य अधिक से अधिक आबादी पर अधिक से अधिक कमाई कर सके। जो प्रदेश अपने लोगों को धर्म के आयोजनों जैसे अनुत्पादक कामों में झोंककर रखते हैं, पढ़ाई-लिखाई, महत्वाकांक्षा और संभावना से दूर रखते हैं, उन प्रदेशों में बड़ी आबादी बड़ी समस्या हो सकती है। उत्तर भारत को देश के अधिक प्रधानमंत्री बनाने के अहंकार से मुक्ति पानी चाहिए, और उसे अपने आम लोगों की क्षमता बढ़ाने की ठोस कोशिशें करनी चाहिए। आज दक्षिण के टैक्स से उत्तर में राशन बंटता है तो यह अच्छी नौबत नहीं है। राज्यों को अपने लोगों को पूरी दुनिया के प्रतियोगी माहौल में जाकर काम करने के लायक तैयार करने को अपनी जिम्मेदारी मानना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
इन दिनों लगातार बढ़ते चले जा रहे साइबर और डिजिटल जुर्म एक तरफ तो यह साबित करते हैं कि मुजरिम जांच एजेंसियों के मुकाबले बहुत अधिक रफ्तार से आगे बढ़ रहे हैं। पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियां जब तक मुजरिमों के किसी एक तौर-तरीके को पकड़ पाती हैं, तब तक वे कई दूसरे तौर-तरीके तलाश लेते हैं, और उन पर अमल करने लगते हैं। बहुत मामूली पढ़े-लिखे या कि अनपढ़ सरीखे मुजरिमों को देखकर एक बात की हैरानी जरूर होती है कि बिना किसी विशेषज्ञता के जिस तरह वे न सिर्फ मानव स्वभाव को जान-समझकर लोगों को ठगने लगते हैं, बल्कि लोगों के डिजिटल उपकरणों और ऑनलाईन एप्लीकेशनों में घुसपैठ की नई-नई संभावनाएं भी रोज ढूंढते रहते हैं। लेकिन इसके साथ-साथ एक दूसरी हैरानी इस बात पर होती है कि ऐसे होशियार मुजरिम भी यह अंदाज नहीं लगा पाते कि जुर्म के कुछ दिनों के बाद पुलिस उन तक पहुंच ही जाएगी। दरअसल डिजिटल और इंटरनेट टेक्नॉलॉजी में जुर्म की संभावनाओं के साथ-साथ उनके पकड़े जाने की संभावनाएं भी जुड़ी रहती हैं, और अधिकतर साइबर-अपराधी जांच एजेंसियों की गिरफ्त में आ ही जाते हैं। पूरी दुनिया में जो सबसे बड़े साइबर मुजरिम इंटरनेट के एक सबसे बदनाम हिस्से, डार्क वेब, पर काम करते हैं, उनके अंतरराष्ट्रीय गिरोह भी आगे-पीछे पकड़ में आ जाते हैं। अब कई देशों की जांच एजेंसियां मिलकर काम करती हैं, और पिछले कुछ बड़े भांडाफोड़ कई देशों में एक साथ छापे मारकर किए गए थे।
अब जिस तरह हिन्दुस्तान में कुछ कानूनों का असर लोगों को सजा दिलवाने में बहुत ही कम होता है, और उन्हें बिना जमानत बरसों तक जेल में रखने में अधिक होता है, इसी तरह साइबर-जुर्म, और मुजरिमों की गिरफ्तारी के बीच कुछ महीनों का ही एक औसत फासला होता है, और ऐसे मुजरिम पकड़ में आ जाते हैं, यह एक अलग बात है कि उनके जुर्म की कमाई तक एजेंसियां हर बार नहीं पहुंच पातीं, लोगों से ठगा और लूटा गया पैसा हर बार वापिस नहीं मिलता। ऐसे में सरकार और कारोबार को मिलकर लोगों को एक ऐसा साइबर-बीमा मुहैया कराना चाहिए जो कि लोगों की डूबी गई रकम की भरपाई कर सके। लोगों के जिंदगी के कामकाज सरकार के नियमों की वजह से, और बाजार की सहूलियत की वजह से अधिक से अधिक डिजिटल और ऑनलाईन होते चल रहे हैं। आज हालत यह है कि अगर आपके पास एक स्मार्टफोन नहीं है, तो आप भारत जैसे देश में जिंदगी के बहुत सारे काम नहीं कर सकते। सच तो यह है कि अगर आपके पास स्मार्टफोन नहीं है, तो आप अपने आपको शायद जिंदा भी साबित न कर सकें। ऐसे में साइबर-जुर्म और फ्रॉड से लोगों को हिफाजत दिलाना, उनके घाटे की भरपाई कर पाना सरकार और कारोबार की मिलीजुली जिम्मेदारी होनी चाहिए। सरकार को बैंकों के साथ मिलकर, या जिस मोबाइल एप्लीकेशन के माध्यम से जालसाजी हुई है उन्हें जोडक़र एक बीमा योजना सामने रखनी चाहिए। इसमें फोन और कम्प्यूटर जैसे उपकरण बनाने वाली कंपनियों का भी हौसला बढ़ाया जा सकता है कि वे बिक्री के साथ ही जालसाजी के खिलाफ बीमा पॉलिसी भी उपलब्ध कराएं। इसके अलावा इंटरनेट और मोबाइल सेवा उपलब्ध कराने वाली कंपनियों को भी फ्रॉड के खिलाफ बीमे से जोड़ा जा सकता है। आज जब आगजनी, बाढ़, भूकम्प, चोरी, और बीमारी जैसी चीजों से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए बीमा मौजूद है, तब साइबर-फ्रॉड के खिलाफ बीमा भी रहना चाहिए।
दुनिया के बहुत से विकसित देशों में बीमे का चलन इतना आम है कि लोग उसके बिना अपने खर्च से तो दांतों का इलाज भी नहीं करा सकते। अब जलवायु परिवर्तन से मौसम की जो मार इलाकों पर पड़ रही है, उसने लोगों और बीमा कंपनियों, सबके सामने एक नई चुनौती खड़ी कर दी है। जिस तरह बाढ़, और सूखे का खतरा बढ़ रहा है, उससे फसल से परे भी शहर और पूरे-पूरे इलाके डूब जा रहे हैं। अब समुद्री तूफान और बाढ़ के नुकसान के लिए अलग से बीमा योजनाएं बन रही हैं। कुछ दशक पहले तक हिन्दुस्तान में भी फसल-बीमा नहीं होता था, लेकिन अब फसल बीमा एक आम बात है क्योंकि खेती का पूरा कारोबार कर्ज पर टिका हुआ है, और साहूकार-बैंकों को अपने कर्ज की रिकवरी की फिक्र रहती है, जो कि फसल खराब होने पर फसल-बीमा से पूरी हो पाती है।
वक्त के साथ-साथ सरकार और बाजार दोनों को लोगों के लिए साइबर-सुरक्षा का बीमा मुहैया कराना चाहिए। अगर देश की सरकार अपने स्तर पर इसे पूरे देश के लिए लागू करेगी, तो उसका प्रीमियम भी बहुत कम आएगा। अभी इस बारे में कोई चर्चा सुनाई नहीं दी है, लेकिन लोगों को अपने सांसदों को यह लिखना चाहिए कि साइबर-बीमा के बारे में संसद में चर्चा की जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने बाल विवाह के मामले में यह फैसला दिया है कि अलग-अलग धर्मों के लोगों के लिए बनाए गए कोई भी पर्सनल कानून बाल विवाह जारी नहीं रख सकते। अदालत ने साफ किया कि पर्सनल कानून जो कि शादी, तलाक, विरासत जैसे मुद्दों के लिए अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग हैं, वे किसी भी तरह बाल विवाह का बचाव करने के लिए इस्तेमाल नहीं किए जा सकते। अदालत ने केन्द्र और राज्य सरकारों के लिए कई किस्म की सलाह भी दी है कि बाल विवाह रोकने के लिए उन्हें क्या-क्या करना चाहिए, और जरूरी हो तो एक कानून बनाकर बाल विवाह को गैरकानूनी करार देना चाहिए। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हमने पिछले महीनों में लगातार इस बारे में अखबार या हमारे अखबार के यूट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल, पर लगातार इस बात को उठाया था, और लिखा था कि बच्चों के मानवाधिकार किसी भी धर्म के लिए बनाए गए कानून से ऊपर हैं। अब सुप्रीम कोर्ट ने कल यही फैसला दिया है, और हमारी लिखी और कही गई बात सही साबित हुई है। अभी एक बिल्कुल ताजा खबर यह थी कि भारत में 14 लाख से अधिक बच्चों पर बाल विवाह का खतरा मंडरा रहा है। यह आंकड़ा ऐसे समाजों के सर्वे पर आधारित था जो कि बाल विवाह के लिए जाने जाते हैं। देश भर में जगह-जगह सरकार के लोग बाल विवाह की खबर मिलते ही जाकर उसे रोकने की कोशिश करते हैं, और परिवारों के सहमत न होने पर पुलिस कार्रवाई भी होती है। दो दिन पहले ही हमने यूट्यूब पर इस मुद्दे को उठाया था कि किस तरह पश्चिमी यूपी के बागपत में बड़ी संख्या में बाल विवाह होते हैं, और वहां पर दो अलग-अलग मामलों में 15-15 बरस की बच्चियों ने सहायता केन्द्र फोन करके अफसरों को बुलाया, और अपनी शादी रूकवाई। एक लडक़ी के घर तो बारात भी पहुंच गई थी, और उसके बाद भी वह अड़ी रही। ये दोनों ही लड़कियां पढ़ाई करना चाहती थीं, और इसीलिए वे वक्त के पहले शादी के खिलाफ थीं।
सुप्रीम कोर्ट का इस मामले पर क्या रूख रहेगा, इसका अंदाज लगाना हमारे लिए अधिक मुश्किल नहीं था। सबसे बड़ी अदालत का रूख आमतौर पर प्राकृतिक न्याय के अनुकूल ही रहता है। समाज में प्राकृतिक न्याय अगर देखें तो लोगों के बुनियादी मानवाधिकार धार्मिक नियम-कायदों से ऊपर रहते हैं। इंसान तो धर्मों के बनने के दसियों हजार बरस पहले से चले आ रहे हैं जिस वक्त न कोई धर्म थे, न सामाजिक ढांचा था। उस वक्त भी अलग-अलग इंसानों के अलग-अलग अधिकार रहना ही प्राकृतिक न्याय था, यह एक अलग बात है कि उस वक्त न्याय की धारणा पनपी नहीं थी, और बाहुबल ही अकेला इंसाफ था। लेकिन तब से अब तक समाज व्यवस्था विकसित हुई है, और लोकतंत्र आने के बाद संविधान में लोगों के अधिकारों की अच्छी तरह व्याख्या हुई है। ऐसे में अलग-अलग धर्म या जातियों के लिए जो रीति-रिवाज को संरक्षण दिया गया है, उसे कभी भी लोगों के बुनियादी मानवाधिकार के ऊपर नहीं लादा जा सकता। इसलिए सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मानवाधिकार की एक बड़ी बुनियादी समझ पर टिका हुआ है, और हमें यही उम्मीद भी थी कि यह अलग-अलग विवाह कानूनों के तकनीकी जाल में नहीं उलझेगा।
भारत में इसका सबसे बड़ा असर मुस्लिम समाज पर पड़ेगा जहां लड़कियों की माहवारी शुरू होते ही उन्हें शादी के लायक मान लिया जाता है। और 12-13 बरस की लडक़ी खुद तो कोई फैसला लेने लायक रहती नहीं है इसलिए मां-बाप उसे जिस खूंटे से चाहें, उससे बांध देते हैं। हैदराबाद जैसे शहर से भयानक खबरें आती हैं कि छोटी-छोटी बच्चियों को मरणासन्न बुजुर्गों के हाथों किस तरह निकाह के नाम पर बेच दिया जाता है, और ऐसे बूढ़े मर्द कुछ महीने एक नए बदन से खेलने के बाद उसे तलाक दे देते हैं, और ऐसी लड़कियां फिर अगली शादी के लिए कतार में खड़ी कर दी जाती हैं। हैदराबाद में ऐसे बाल विवाह रोकने के काम में लगे हुए एक संगठन ने एक मामला सामने रखा था जिसमें किशोरावस्था के पहले से शादी और तलाक झेलती हुई एक लडक़ी युवती बनने तक 18वीं शादी के लिए खड़ी कर दी गई थी। धर्म पर आधारित कोई भी समाज खुद होकर सुधरने को तैयार नहीं होता है, इसीलिए हिन्दू समाज में भी सतीप्रथा से लेकर देवदासी प्रथा तक कई चीजें बंद करवानी पड़ी थीं, और विधवा विवाह पर लगा हुआ सामाजिक प्रतिबंध खत्म करवाना पड़ा था। तकलीफ की बात यह भी है कि जितनी भी समाजों में इस किस्म की बुरी प्रथाएं चल रही हैं, वे अनिवार्य रूप से महिलाओं पर ही लादी जाती हैं, और मुस्लिम महिलाएं तो तीन तलाक का वार भी झेलती थीं जिन्हें मोदी सरकार ने एक कानून बनाकर गैरकानूनी करार दिया है, और अब ऐसे तलाकों पर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज होने लगी हैं।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से ग्रामीण इलाकों में गरीब मजदूर परिवारों पर एक दबाव पड़ेगा जो कि पति-पत्नी दोनों के काम पर निकल जाने पर घर में अकेली लडक़ी छोडऩा नहीं चाहते। यह बात तो जाहिर है कि भारत में कहीं भी लडक़ी या महिला सुरक्षित नहीं हैं, ऐसे में गरीब परिवार लडक़ी की जल्द शादी करके उसकी जिम्मेदारी ससुराल पर डाल देते हैं। समाज के इस तबके को बाल विवाह के खिलाफ सहमत कराने में यह बात भी आड़े आएगी कि लडक़ी की हिफाजत की गारंटी कौन लेंगे? देश-प्रदेश की सरकारें तो इसमें पूरी तरह नाकामयाब साबित हो चुकी हैं, और जब बालिग हो चुकी लड़कियां और महिलाएं भी महफूज नहीं रह गई हैं, तब गरीब मजदूर परिवारों की बच्चियां किसके भरोसे सूने घरों में छोड़ी जा सकेंगी? इसके साथ-साथ आदिवासी समाज के बारे में भी सोचना पड़ेगा, जिसके लिए अलग से कोई पर्सनल लॉ तो नहीं बना है, लेकिन समाज के रीति-रिवाज के मुताबिक इन्हें कई किस्म की छूट दी गई है। उत्तर-पूर्वी राज्यों में बहुपति प्रथा जैसी बात को भी कानूनी माना गया है। इस आदिवासी समाज में कमउम्र में होने वाली शादियों का क्या होगा, इस बारे में भी केन्द्र और राज्य सरकारों को सुप्रीम कोर्ट के बाल विवाह के खिलाफ इस ताजा फैसले की रौशनी में कोई रास्ता निकालना होगा। कुल मिलाकर इस फैसले के बाद ही अब सरकारों पर, संसद और विधानसभाओं पर, और समाज पर भी दबाव पड़ेगा कि गैरकानूनी करार दिए गए बाल विवाह को पूरी तरह जड़ से कैसे मिटाया जाए।
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न सिर्फ हिन्दुस्तान में बल्कि दुनिया के सबसे विकसित देशों में भी अंधविश्वास में जान देने वाले लोगों के मामले सामने आते ही रहते हैं। 2019 की एक घटना लोगों को याद होगी जब भारत की राजधानी दिल्ली के बुराड़ी के इलाके में एक परिवार के 11 लोगों ने पूजा-पाठ के बाद फांसी लगाकर जान दे दी थी। यह पूरा काम एक परिवार ने आपस में तय करके किया था, और 15 बरस से लेकर 80 बरस तक के 11 लोग बिना किसी संघर्ष के एक मत होकर मौत को ऐसे गले लगाया था। अब छत्तीसगढ़ के सक्ती में कल एक परिवार किसी तरह की तांत्रिक या आध्यात्मिक साधना करते हुए, जय गुरूदेव-जय गुरूदेव कहते हुए जान देने पर उतारू मिला। परिवार के दो जवान भाई मरे पड़े मिले, और परिवार की ही दो महिलाएं साधना सरीखा कुछ करते हुए मिलीं जो कि यह कह रही थीं कि वे मृत नौजवानों को जिंदा कर देंगी। उनकी दिमागी हालत असामान्य दिख रही थी, और पहली नजर में ऐसा लग रहा था कि ये कई दिनों के भूखे-प्यासे कोई तांत्रिक साधना कर रहे थे, और दोनों मौतें भूख-प्यास से हुई लग रही हैं। ऐसा पता लगा है कि उज्जैन के एक किसी तांत्रिक या गुरू के अनुयायी बनकर ये लोग इस तरह जान दे रहे थे। घर को बंद कर लिया था, और जय गुरूदेव-जय गुरूदेव का जाप कर रहे थे। जब घर से आवाज आना कम हो गई, तो पड़ोसियों ने दरयाफ्त की, और पुलिस को खबर की। कुछ लोगों का कहना है कि यह साधना स्वर्ग प्राप्ति के लिए या ब्रम्हलीन होने के लिए की जा रही थी।
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भारत तरह-तरह के पाखंडों से भरा हुआ देश है। यहां पर ईसाई-पादरी चंगाई सभा करते थे, जो कि अब कानून कड़े होने से कुछ कम हो रही हैं, या बंद सरीखी हो गई हैं। दूसरे कई धर्मों के लोग अलग-अलग किस्म से इलाज, भूत और चुड़ैल उतारने, किस्मत जगाने, गड़ा खजाना दिलवाने, दुश्मन को मारने, प्रेमिका को फंसाने जैसे कामों के लिए तरह-तरह की साधनाओं का पाखंड करते हैं। हर कुछ दिनों में खबर आती है कि किस तरह किसी तांत्रिक या मौलवी ने, बैगा-गुनिया ने संतान दिलवाने के नाम पर या किसी और तरह का झांसा देकर किसी लडक़ी या महिला से बलात्कार किया। खबरें आती रहती हैं, और लोग ऐसे झांसों में फंसते भी रहते हैं। देश के लोगों में अंधविश्वास रीढ़ की हड्डी के भीतर बोन मैरो तक में धंसा हुआ है, और उनसे हर तरह के काम करवाते रहता है।
हम बार-बार इस बात को लिखते हुए थक चुके हैं कि आध्यात्म, धर्म, अंधविश्वास, धर्मान्धता, और साम्प्रदायिकता के बीच कोई लकीरें खींची हुई नहीं हैं, इनके बीच कोई सरहद नहीं है। लोग एक बार आस्था के दायरे में घुसते हैं, तो उनके दिल-दिमाग जितने कमजोर होते हैं, उतनी ही मजबूत गिरफ्त में वे आ जाते हैं। आस्थावान कब भक्त बन जाते हैं, कब अंधभक्त, और कब वे पूरी तरह धर्मान्ध-अंधविश्वासी होकर पूरी जिंदगी झोंक देते हैं, यह उनको पता ही नहीं लगता। लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले हरियाणा में रामपाल नाम का एक स्वघोषित ‘भगवान’ पुलिस से लंबे टकराव के बाद अपने आश्रम से भक्तों सहित गिरफ्तार किया गया था। गिरफ्तारी के पहले रामपाल और उसके भक्तों ने पुलिस के सामने समर्पण से मना कर दिया था, और हथियारों से पुलिस पर हमला भी किया था। करीब 20 हजार सुरक्षा जवानों ने रामपाल के सतलोक आश्रम को घेरने के बाद किसी तरह इस गुरू को गिरफ्तार किया था जिसे बाद में अदालत से उम्रकैद हुई। दस दिनों तक पुलिस और आश्रम के बीच यह मोर्चा चल रहा था, और इस दौरान पांच मौतें भी हुई थीं। एक खबर के मुताबिक रामपाल की गिरफ्तारी पर राज्य पुलिस के 50 करोड़ रूपए खर्च हुए थे, और यह सब कुछ एक अदालती आदेश पर अमल के लिए हुआ था।
किसी गुरू पर आस्था जब परले दर्जे की अंधश्रद्धा में बदल जाती है, तो वह किसी भी दर्जे की जानलेवा हिंसा में बदल जाती है। अंधविश्वासी दूसरों को मार भी सकते हैं, और खुद भी जान दे सकते हैं। अभी छत्तीसगढ़ के सक्ती जिले में जिस तरह यह परिवार जय गुरूदेव का जाप करते हुए दो नौजवान खो बैठा है, उसमें कुछ हैरानी इसलिए हो रही है कि यह एक आदिवासी परिवार बताया जा रहा है, और आदिवासी लोग आमतौर पर इस तरह की भक्ति से दूर रहते हैं। उनके बीच जादू-टोना, बैगा-गुनिया जैसी बातों का चलन तो रहता है, लेकिन वे ब्रम्हलीन होने के लिए इस तरह किसी गुरू का जाप करते भूख से मर जाएं, ऐसा तो सुनाई नहीं पड़ता था।
ऐसे अंधविश्वास के पीछे कई किस्म की वजहें हो सकती हैं। सबसे आम वजह हिन्दुस्तान में धर्म का पाखंड फैलाकर लोगों की तर्कशक्ति, और न्यायशक्ति को खोखला कर देना है। और धर्म का पाखंड तब तक स्थापित नहीं हो सकता, जब तक लोगों में सोचने की ताकत बची रहे। इसलिए तर्कोँ को खत्म करके जिस तरह से भारत में धर्म को मजबूत किया गया है, वह एक सबसे बड़ी वजह है। फिर धर्म के ही एजेंटों की तरह आसाराम से लेकर राम-रहीम तक, और रामपाल से लेकर दर्जनों दूसरे गुरूओं तक की दुकानें अंधविश्वास के बिना नहीं चल सकती। इसलिए गुरू के नाम पर ऐसा अंधविश्वास और मजबूत किया जाता है। फिर जब देश में सरकारों का काम कमजोर रहता है, अदालतें पीढिय़ों तक फैसला नहीं देतीं, जब चारों तरफ भ्रष्टाचार का साम्राज्य कायम हो जाता है, तब लोग अपने काम के लिए टोटकों पर जा टिकते हैं। वे कहीं मत्था टेककर, कहीं मनौती मानकर, कहीं कुछ चढ़ाकर अपना काम पूरा होने की उम्मीद करते हैं। और फिर इनमें जो परले दर्जे के अंधविश्वासी हो जाते हैं, वे कहीं अपनी जीभ काटकर चढ़ा देते हैं, कहीं गला काट देते हैं। और कुछ लोग तो अपने ही बच्चों की बलि चढ़ाते भी पकड़ाते हैं। यह पूरा सिलसिला देश और समाज में वैज्ञानिक चेतना खोखली हो जाने का एक सुबूत रहता है। भारत में पौराणिक कहानियों को प्रमाणित इतिहास बताने का जो सिलसिला चल रहा है, उसकी वजह से विज्ञान की साख अब किसी के लिए जरूरी नहीं रह गई है। यह सोच समाज में कोरोना-संक्रमण की तरह फैलती चली गई है, और कुदरत के करीब रहने वाला यह आदिवासी परिवार शहरी अंदाज के अंधविश्वासी-पाखंड का शिकार होकर जय गुरूदेव जपते हुए दो जिंदगियां खो बैठा।
पाखंड से छुटकारा पाने का कोई शॉर्टकट नहीं है। एक पीढ़ी अंधविश्वासी रहती है, तो इस सोच का डीएनए अगली कई पीढिय़ों तक चले जाता है। भारत आज बहुत बुरी तरह इसकी गिरफ्त में है, और मौतों के तो आंकड़े फिर भी सामने आ जाते हैं, मरने के पहले तक के जितने मामले रहते हैं, वे तो दिखते भी नहीं हैं। इस देश की सोच का पता नहीं क्या होगा, लोग अपने अंधविश्वास के चलते अपने परिवार की महिला, लडक़ी, और बच्चों को भी बलात्कारियों के पास झोंक देते हैं। वैज्ञानिक चेतना की अहमियत अभी भी लोगों को ठीक से समझ नहीं आ रही है, लेकिन दस-बीस बरस बाद जब हिन्दुस्तानी-चेतना की नींद खुलेगी, तब तक बड़ी देर हो चुकी होगी।
हिंसा की बहुत बड़ी-बड़ी घटनाओं से घिरे हुए छत्तीसगढ़ में चारों तरफ बड़े मुजरिमों की सहूलियत की अराजकता तो छाई हुई है, ढेर सारी ऐसी अलग-अलग घटनाएं हो रही हैं जो बताती हैं कि गैरमुजरिम, आम जनता के मन में भी नियम-कायदों के लिए, और दूसरों के हक के लिए एक हिकारत बैठ गई है। जो लोग पेशेवर मुजरिम नहीं हैं, वे लोग भी सडक़ों पर एक-दूसरे से इस तरह हिंसा के साथ निपट रहे हैं, कि मानो प्रदेश में कोई कानून लागू नहीं है। कहीं लोग खून-खराबा कर रहे हैं, कहीं गाडिय़ां तोड़ रहे हैं, और अंधाधुंध रफ्तार से गाडिय़ां चलाते हुए इंसानों और जानवरों को कुचलना तो आए दिन की बात हो गई है। अभी घर के बाहर खेल रहे एक बच्चे को कुचलती हुई अंधाधुंध कार ने उसकी जिंदगी ही छीन ली। लोगों के मन में अपने गैरकानूनी अधिकारों को लेकर एक अहंकार भर गया है, और दूसरों की जिम्मेदारियां लोग तय करने लगे हैं। सरकार और समाज दोनों को यह सोचना चाहिए कि अपराधियों से परे जब आम जनता की सोच इतनी अराजक हो जाए, तो उसके कैसे खतरनाक नतीजे हो सकते हैं।
हम अपने लंबे तजुर्बे से यह देखते हैं कि भारत जैसे देश में लोग अपनी जिंदगी में पहली बार सडक़ पर ट्रैफिक के नियम तोड़ते हुए ही लोग कानून के खिलाफ कुछ करते हैं। और जिन प्रदेशों में ट्रैफिक के नियम कड़ाई से लागू नहीं होते, वहां पर कानून तोडऩे का सिलसिला अगले स्टेज तक पहुंच जाता है। जहां पर सडक़ों पर कड़ाई बरती जाती है, वहां पर लोगों को अधिक बड़े जुर्म करने में वक्त लगता है। हम बार-बार सडक़ों पर ट्रैफिक सुधारने की बात इसीलिए करते हैं कि कमउम्र से ही लोगों के मन में यह न बैठ जाए कि कानून तोडऩे से कुछ नहीं बिगड़ता है। आज हम देखते हैं कि जो लोग मोटरसाइकिल का साइलेंसर फाडक़र चलते हैं, वे अंधाधुंध रफ्तार से भी गाडिय़ां दौड़ाते हैं, सडक़ों पर स्टंट दिखाते हैं, और फिर नियम तोडऩे का यह सिलसिला बढ़ते चले जाता है। यह बात हैरान करती है कि देश में ट्रैफिक के जो कड़े नियम बनाए गए हैं, उन पर अमल करने से छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश की सरकार मुंह चुराती है। कई जिलों से यह पता लगा है कि जैसे ही बिना हेलमेट वालों का चालान शुरू होता है, या बिना नंबर प्लेट गाडिय़ां, तेज आवाज करने वाले साइलेंसर पर रोकथाम शुरू होती है, सत्ता की तरफ से कुछ घंटों में ही दखल शुरू हो जाती है कि लोगों को नाराज क्यों किया जा रहा है? नतीजा यह होता है कि जब लोग पहले कुछ नियम तोड़ चुके रहते हैं, तो फिर मारपीट और हिंसा न करने के नियम तोडऩे की बारी आ जाती है।
राजनीतिक, धार्मिक, या सामाजिक, किसी भी तरह की भीड़ की गुंडागर्दी को जब सत्ता बर्दाश्त करती है, और बढ़ावा देती है, तो ऐसी भीड़ के तमाम लोग भीड़ में न रहने पर भी अकेले-अकेले भी कानून के खिलाफ काम करने को अपना हक मान लेते हैं। पुलिस के रोजमर्रा के कामकाज में राजनीतिक दखल छत्तीसगढ़ को एक ऐसी कगार पर पहुंचा चुकी है कि अब जनता का मिजाज अधिक, और अधिक अराजक होते चल रहा है। एक नतीजा यह भी निकल रहा है कि नाबालिग मुजरिम बढ़ते चल रहे हैं। इसे सीधे-सीधे गाडिय़ां दौड़ाने वाले नाबालिगों की सोच से जोडक़र देखा जाना चाहिए कि नियम-कायदे से हिकारत कभी थमती नहीं है, वह और अधिक बड़ा जुर्म करवाती है। सरकार और समाज दोनों के लिए सबसे आसान और सहूलियत का काम सडक़ और ट्रैफिक के नियम लागू करना है जिससे लोगों की सोच भी नियमों के सम्मान की होती चलेगी। लेकिन हम सरकार में यह सबसे मामूली इच्छाशक्ति भी नहीं देख रहे हैं। हमने बीते बरसों में कुछ ऐसे पुलिस अफसरों को देखा है जिन्होंने अपने जिलों में पूरी कामयाबी के साथ हेलमेट जैसे नियम लागू करवा दिए थे। उनको न अधिक पुलिस की जरूरत पड़ी, और न ही पुलिस का दूसरा काम रूका, सिर्फ राजनीतिक दखल से जिले की पुलिस को आजादी मिली, तो बड़ी आसानी से सब कुछ सुधर गया। सरकार को तो यह भी चाहिए कि नमूने के तौर पर कुछ चुनिंदा जिलों में ट्रैफिक के नियम सौ फीसदी लागू करवाकर देखे कि उसके बाद इन जिलों में गुंडागर्दी जैसे जुर्म अपने-आप घट जाते हैं या नहीं। इसे पायलट प्रोजेक्ट की तरह चलाया जा सकता है, या जानकार मनोवैज्ञानिकों से भी समझा जा सकता है कि सार्वजनिक जीवन के सबसे बुनियादी नियम-कानून लागू करने, और न करने का क्या फर्क पड़ता है।
जब सत्तारूढ़ पार्टी या नेताओं की तरफ से पुलिस को ट्रैफिक नियम तोडऩे पर भी कार्रवाई न करने को कहा जाता है, तो पुलिस को इससे कोई निजी नुकसान नहीं होता। वह कारोबारी ट्रांसपोर्टरों से चालान न करने की गारंटी बेचकर और पैसा कमाने लगती है, लेकिन इससे एक्सीडेंट बहुत बुरी तरह बढ़ते हैं, मौतें बढ़ती हैं, और कुल मिलाकर सरकार और समाज का बड़ा नुकसान होता है। सत्ता को चाहिए कि अपने हाथ नियम-कायदे लागू करने वाली पुलिस से दूर रखे। ऐसा न करने पर इसका नुकसान भी हम देखते हैं। इसी प्रदेश में किसी कोने में एक पार्टी, और किसी दूसरे कोने में किसी दूसरी पार्टी के मुजरिम बड़े-बड़े जुर्म करते हुए अब पुलिस परिवारों के कत्ल तक पहुंच गए हैं, और इससे बड़ा जुर्म और क्या हो सकता है? सत्ता और जनता को यह समझना होगा कि छोटे नियम तोडऩे की छूट उसी जगह नहीं थमती है, वह बढ़ते-बढ़ते सबसे वीभत्स और भयानक जुर्मों तक पहुंच जाती है। यह बात लोगों को कुछ जरूरत से ज्यादा आसान विश्लेषण लग सकती है, लेकिन हम आज की इस बात के एक-एक शब्द पर पूरी गंभीरता से कायम हैं कि जिंदगी में सबसे कमउम्र से ट्रैफिक के नियमों पर अमल करने का मिजाज अगर बनने लगता है, तो लोग आगे चलकर बाकी नियम-कानून का भी सम्मान कुछ अधिक हद तक कर सकते हैं, वरना तो हम हर दिन सडक़ों पर लोगों को चाकू चलाते देख ही रहे हैं।
नमूने के तौर पर हम राज्य के गृहमंत्री के अपने जिले और अपने विधानसभा क्षेत्र कवर्धा की बात करना चाहेंगे जहां के खूनी मंजर की शुरूआत जिस मौत से हुई थी, उसके बारे में कल मध्यप्रदेश की पुलिस ने खुलासा किया है। इस जिले से लगे हुए मध्यप्रदेश में कवर्धा के एक आदमी की लाश मिली थी जिसे खुदकुशी की शक्ल दी गई थी। लेकिन गांव के लोगों का शक था कि गांव के एक उपसरपंच ने यह कत्ल करवाया है। भीड़ ने जाकर इस उपसरपंच को उसके घर के भीतर ही मकान सहित जलाकर मार डाला था। इसके बाद हमलावर गिरफ्तार लोगों में से एक नौजवान को पुलिस ने पीट-पीटकर मार डाला था। अब पता लग रहा है कि उपसरपंच के परिवार ने ही वह पहला कत्ल करके खुदकुशी दिखाने की कोशिश की थी। लोगों के बीच कत्ल करने का ऐसा हौसला रातों-रात पैदा नहीं हो जाता है, और छत्तीसगढ़ जैसे शांत रहने वाले प्रदेश में यह हौसला एक बहुत खतरनाक नौबत है। इसे सुधारने की कोशिश सडक़ और ट्रैफिक से हो सकती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
किसी सरकारी दफ्तर में अगर भ्रष्टाचार नहीं है, तो वहां काम करने वाले लोग किसी की धमकी से कितना डरेंगे? अगर कोई धमकाकर उगाही करना चाहे, तो किसी भी मोटेतौर पर ईमानदार दफ्तर के लोग ऐसे व्यक्ति को पुलिस के हवाले करेंगे। लेकिन छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में केन्द्र सरकार के एक प्रमुख दफ्तर, पासपोर्ट ऑफिस में अभी जो हुआ है उससे एक मुजरिम तो उजागर हुआ है, खुद पासपोर्ट ऑफिस का भांडा फूट गया है कि उसके पास छुपाने को इतना कुछ है कि राह चलता कोई ब्लैकमेलर आकर उसे धमका सकता है, और पांच लाख रूपए नगद ऐंठकर ले जा सकता है। भला कौन सा सरकारी दफ्तर होगा जो पहली बार आए किसी परले दर्जे के धोखेबाज के झांसे में आकर, डर-सहमकर उसे पांच लाख नगद दे दे? लेकिन इस पासपोर्ट ऑफिस में ठीक वही हुआ। एक बड़ा सा आम सा दिखने वाला आदमी अपने आपको नागपुर से आया हुआ एंटी करप्शन ब्यूरो का अफसर बताते हुए पासपोर्ट ऑफिस में भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए गिरफ्तारी की धमकी देने लगा, और छोडऩे के लिए दस लाख रूपए मांगने लगा। पासपोर्ट ऑफिस ने पांच लाख देकर छुटकारा पाया, फिर जब पता लगा कि वे ठगे जा चुके हैं, तो पुलिस में शिकायत की, और पुलिस ने उस आदमी को पड़ोस के एक शहर से गिरफ्तार किया।
हिन्दुस्तान से बाहर जाने वाले हर व्यक्ति को पासपोर्ट की जरूरत पड़ती है, और विदेश मंत्रालय के तहत आने वाला पासपोर्ट ऑफिस अखिल भारतीय सेवा के किसी अफसर के तहत काम करता है। पासपोर्ट जारी करते हुए यह ऑफिस सौ किस्म की जांच करता है, पुलिस से रिपोर्ट मंगवाता है, तब पासपोर्ट देता है। पूरा दफ्तर एक बड़ी हिफाजत के घेरे में काम करता है, और यहां पहुंचने वाले आम लोग नियमों के जाल में आतंकित रहते हैं। पासपोर्ट ऑफिस में अपनी बारी पहले लाने के लिए, कुछ नियमों की अनदेखी के लिए लोगों को बड़ी-बड़ी पहुंच लगानी पड़ती है, और हो सकता है कि इन्हीं सबमें भ्रष्टाचार इतना पनपता हो कि राह चलता धमकीबाज भी यहां से पांच लाख लेकर निकलता है। इस बार तो यह धोखेबाज पकड़ा गया, लेकिन बहुत से लोगों को इस दफ्तर की कमजोरी समझ आ गई है।
हम छत्तीसगढ़ राज्य सरकार के अलग-अलग दफ्तरों का हाल देखते हैं, तो हक्का-बक्का रह जाते हैं। सरकार का सबसे निचले स्तर का पटवारी ऑफिस किराए के भवन में चलता है, पटवारी कई लोगों को निजी तनख्वाह पर वहां रखता है, और मानो इसकी भरपाई के लिए लोगों से वसूली की जाती है, और एक-एक पटवारी करोड़पति हो जाते हैं। ऐसा ही हाल तहसील में भी रहता है जहां पर तहसीलदार के तहत बहुत से निजी कर्मचारी काम करते हैं, जिनका पैसा सरकार से नहीं आता, बल्कि उसी दफ्तर के भ्रष्टाचार से निकलता है, मजे की बात यह है कि पटवारी, तहसीलदार, आरटीओ जैसे बहुत से कमाऊ अमले हैं जहां पर गैरसरकारी लोग, अघोषित-निजी कर्मचारी कागज तैयार करते हैं, फाईलें बनाते हैं, और वे ही उन सरकारों को चलाते हैं। किसी भी प्रदेश के सरहद पर आरटीओ के लोग बाहर से आने वाली गाडिय़ों से वसूली के लिए लाठियां लिए हुए गिरोह की तरह खड़े रहते हैं, और ये सरकारी कर्मचारी नहीं रहते, बल्कि तनख्वाह या ठेके पर रखे गए गुंडे रहते हैं। ऐसा ही हाल जमीन-भवन की खरीदी-बिक्री वाले रजिस्ट्री ऑफिस का रहता है जहां पर एजेंट ही पूरा काम करवाते हैं, और इन एजेंटों के बिना कोई काम करवाना चाहे, तो उसका कभी काम ही न हो।
सरकार के पूरे ढांचे को ऐसे अदृश्य और अघोषित कर्मचारियों की जानकारी रहती है, लेकिन कोई भी सरकार इस व्यवस्था में छेड़छाड़ नहीं करती। संगठित भ्रष्टाचार चलाने वाले लोग आने वाली सरकार को यह बात अच्छी तरह समझा देते हैं कि व्यवस्था इसी तरह चलती है, और अगर कमाई जारी रखनी है, तो उनकी अघोषित सेवाएं जारी रखना ही सबसे अच्छा तरीका होगा। जेल से जिनका जरा सा भी वास्ता पड़ता है, उन्हें मालूम है कि वहां हर कैदी को हर किस्म की सहूलियतें खरीदने की पूरी आजादी रहती है। पीने-खाने से लेकर बदन दबवाने, और मालिश करवाने तक, अस्पताल में भर्ती होने तक, मर्जी से अदालत जाने या न जाने के लिए, अदालत आते-जाते किसी होटल में अपने परिवार के साथ घंटों रहने के लिए, रात अपने घर सोने चले जाने के लिए, अपने खास मुलाकातियों से अकेले में मिलने के लिए, और अपने परिवार-कारोबार की फाईलों पर दस्तखत के लिए अलग-अलग किस्म से भुगतान करना पड़ता है, और जानकार बताते हैं कि किस तरह जेलों के भीतर हर सहूलियत, हर काम का ठेका दिया जाता है, और अफसरों की कमाई का एक मोटा इंतजाम वहां रहता है। कैदियों से ओवरफ्लो होतीं जेलों के लिए हर किस्म के सामान की खरीदी एक बहुत बड़ा भ्रष्टाचार रहता है, और इसके बारे में विभाग को जानने वाले सभी लोगों को पूरी खबर रहती है।
प्रदेशों में पार्टियों सरकारों में आती-जाती रहती हैं। जब लोग विपक्ष में रहते हैं, तो वे सरकार के भ्रष्टाचार का भांडाफोड़ करते हुए आरोप लगाते हैं, और कभी-कभी सुबूत भी सामने रखते हैं। दूसरी तरफ जब विपक्ष के ऐसे लोग सत्ता पर आते हैं, तो विभागों के संगठित भ्रष्टाचार की अपनी जानकारी का इस्तेमाल खुद भी वैसा ही भ्रष्टाचार करने में करने लगते हैं। यह सिलसिला उन अफसरों की मेहरबानी से और बढऩे लगता है, जो कि हर सत्तारूढ़ पार्टी के लिए जरूरी रहते हैं। हमने रमन सिंह सरकार के कुछ सबसे भ्रष्ट अफसरों को देखा था जो कि उस वक्त के विपक्षी भूपेश बघेल की तोप के निशाने पर थे। लेकिन जैसे ही भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बने, बड़े पैमाने का संगठित भ्रष्टाचार करने वाले ये अफसर उनके इतने चहेते बन गए, कि उनके रथ के सारथी बन गए, और अपने से कई दर्जा ऊपर के अफसरों को चाबुक मारकर चलाने लगे थे। अभी सुप्रीम कोर्ट इसी दौर पर गौर कर रहा है कि किस तरह रमन सिंह के कार्यकाल के सबसे भ्रष्ट अफसरों को बचाने के लिए अगले कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने हाईकोर्ट के जज से भी बात-मुलाकात की, और अपने नियुक्त किए गए महाधिवक्ता को भी कानून के इस कत्ल में जोत दिया था।
हमने बात शुरू तो की थी पासपोर्ट ऑफिस से, जिसने एक धमकी से हड़बड़ाकर सडक़ छाप दिख रहे एक धोखेबाज को पांच लाख रूपए दे दिए। लेकिन सरकारें अगर गौर करें, तो उनके बहुत से दफ्तर संगठित अपराध और भ्रष्टाचार का अड्डा बने रहते हैं, जिनके बारे में ऐसे दफ्तरों के बाहर के चायठेले और पानठेले वालों को भी सब पता रहता है, और अगर किसी को पता नहीं रहता है, तो वह बस सरकारों में बैठे बड़े-बड़े लोगों को पता नहीं रहता है। दरअसल भ्रष्टाचार की कमाई पलकों को बोझिल कर देती है, और अपने कमाऊ-कपूतों के कुकर्म दिखना बंद हो जाते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के सरगुजा के सूरजपुर जिले में जो हुआ है, वैसा हिन्दुस्तान के किसी भी दूसरे राज्य में सुनाई नहीं पड़ा। एक पेशेवर मुजरिम-गुंडे नौजवान को जिलाबदर किया गया था, लेकिन वह दौलत और राजनीतिक पहुंच की अपनी ताकत के साथ कानून के खिलाफ काम करते रहा। उसके जुर्म के धंधे पर कार्रवाई करती पुलिस को पिछले दो-तीन दिनों में ही उसने कड़ाही में खौलता तेल फेंककर जलाया, गाड़ी से कुचलने की कोशिश की, और एक हेडकांस्टेबल के घर पहुंचकर उसकी बीवी और बेटी को तलवार से मार डाला, और लाशों को ले जाकर बाहर खेतों में फेंक दिया। अब तक हिन्दुस्तान में कई जगहों पर यह तो सुनाई पड़ा था कि कार्रवाई करने वाली पुलिस, या दूसरे अफसर को मार दिया, लेकिन यह कहीं सुनाई नहीं पड़ा था कि पुलिस के परिवार के साथ ऐसा भयानक और खूंखार जुर्म किया गया हो। इसी छत्तीसगढ़ के दूसरे सिरे पर बस्तर के इलाके में नक्सली भी कई किस्म की हिंसा करते हैं, पुलिस-मुखबिरी की तोहमत लगाकर वे अपनी फर्जी जनसुनवाई करके कुछ लोगों को मार भी डालते हैं, लेकिन किसी पुलिस परिवार के साथ नक्सलियों ने भी आज तक ऐसा नहीं किया है जो कि एक राजनीतिक दल, कांग्रेस से रिश्ते का सार्वजनिक दावा करते हुए कबाड़ और दूसरे किस्म के धंधे करने वाले इस नौजवान ने किया है। इस एक घटना से छत्तीसगढ़ में चले आ रहे जुर्म के लंबे सिलसिले की फिल्म आंखों में कौंध जाती है, और ऐसा लगता है कि प्रदेश में कानून-व्यवस्था खत्म सी हो गई है।
प्रदेश के बहुत ताकतवर गृहमंत्री विजय शर्मा उपमुख्यमंत्री भी हैं, उनका अपना गृहजिला कवर्धा पिछले महीने भर में जितने किस्म की हिंसक अराजकता देख चुका है, वैसा शायद ही कभी उस जिले में, या किसी एक जिले में हुआ हो। अभी कुछ महीनों के भीतर छत्तीसगढ़ के एक दूसरे जिले, बलौदाबाजार-भाटापारा में जिस तरह सतनामी समाज के एक प्रदर्शन के बाद वहां के कलेक्टर और एसपी के दफ्तरों को जलाया गया, वैसा भी देश में कभी किसी और जगह पर नहीं हुआ था। इन बड़ी घटनाओं के बीच, और आगे-पीछे छत्तीसगढ़ में हिंसक और जानलेवा जुर्म, बलात्कार और गैंगरेप जैसे मामले इस हद तक बढ़े हुए दिख रहे हैं कि जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। जादू-टोने की तोहमत लगाकर लोगों को थोक में मार डालने के मामले हो रहे हैं, और पशु व्यापारियों को गाय तस्कर बताकर खुलेआम मार डाला जा रहा है, और पुलिस ऐसे मामले को हल्का बनाने में जुटी हुई दिखती है। यह भी पहली बार ही हुआ है कि त्यौहारों पर जब पुलिस को अधिक चौकस रहना चाहिए, उसे कांवडिय़ों की आरती उतारने, और उन पर फूल बरसाने का हुक्म दिया गया, और फिर इस भक्तिभाव के वीडियो बनाकर उसे पुलिस के सबसे महान काम की तरह प्रचारित किया गया।
अचानक ही पूरे प्रदेश में जिस तरह बड़े पैमाने पर चाकूबाजी की वारदातें हो रही हैं, तरह-तरह के गैंगवॉर हो रहे हैं, उससे भी आम जनता दहशत में है। हालत यह है कि हर किस्म के हिंसक जुर्म में अब नाबालिग भी शामिल मिल रहे हैं, इससे लगता है कि मुजरिम बनने की औसत उम्र अब घटती चली जा रही है, और लोग बालिग बाद में बनते हैं, संगीन जुर्म पहले करते हैं। महिलाओं, नाबालिग बच्चियों, और छोटे बच्चों के खिलाफ, बूढ़े मां-बाप के खिलाफ हिंसक और जानलेवा जुर्म अंधाधुंध हो रहे हैं। हम यह तो नहीं कहते कि हर किस्म की निजी हिंसा पुलिस के रोकने लायक रहती है, लेकिन जिस तरह प्रदेश में सरकारी नशे के कारोबार के अलावा अवैध शराब, गैरकानूनी गांजा, और बहुत खतरनाक गैरकानूनी दूसरा सूखा नशा बढ़ते चल रहा है, उससे भी निजी हिंसा बढ़ती जा रही है।
राज्य के बड़े शहरों में करोड़पति कारोबारियों के जो महंगे ठिकाने तकरीबन पूरी रात गैरकानूनी धंधा करते हुए नशा बेच रहे हैं, वह पुलिस की भागीदारी के बिना तो मुमकिन नहीं दिखता। दूसरी तरफ कबाड़ के जैसे कारोबार से मिली आर्थिक और राजनीतिक ताकत से कल सूरजपुर में जो अभूतपूर्व और असाधारण हिंसा हुई है, वैसा कारोबार भी पुलिस की भागीदारी के बिना नहीं चल सकता। इस प्रदेश में महादेव ऑनलाईन सट्टे का जो रिकॉर्डतोड़ आकार का माफिया साम्राज्य चल रहा था, उसमें भी प्रदेश के दर्जनों नेताओं, और अफसरों के करोड़पति और अरबपति बनने की चर्चा है। कोयले के कानूनी धंधे पर एक गैरकानूनी रंगदारी टैक्स, शराब का पूरी तरह से अवैध कारोबार, और कई दूसरे किस्म के माफिया अंदाज के काम, इन सबने छत्तीसगढ़ को देश का एक सबसे बड़ा मुजरिम और भ्रष्ट राज्य बनाकर रख दिया है। जुर्म के धंधे में कमाई इतनी बड़ी है कि उसकी हिस्सेदारी बड़े-बड़े नेताओं, और अफसरों की नीयत खराब कर देती है। आज जब हम यह बात लिख रहे हैं, उसी वक्त छत्तीसगढ़ में कई जगहों पर रेत की अवैध खुदाई का संगठित माफिया काम कर रहा है, और करोड़ों की मशीनों और गाडिय़ों को जोतकर चलने वाला यह धंधा नेताओं और अफसरों से सेटिंग के बिना चलना मुमकिन नहीं रहता।
लेकिन इन तमाम बातों के बीच भी सूरजपुर की कल की घटना एक बहुत बड़े माफिया अंदाज की हिंसा है जो कि पुलिस की पूरी ताकत को एक चुनौती है, और पुलिस के बेकसूर परिवार के साथ सबसे भयानक दर्जे की हिंसा है। आधी-पौन सदी पहले इटली और अमरीका में माफिया की जो खबरें बाहर आती थीं, उनमें ऐसा होता था कि अदालत में मुजरिम को सजा दिलाने की कोशिश कर रहे सरकारी वकील, या जांच कर रहे पुलिस अफसर, या गवाह के परिवार का ऐसा कत्ल किया जाए। लेकिन हिन्दुस्तान में ऐसी दूसरी घटना याद नहीं पड़ती कि एक पुलिस कर्मचारी के ड्यूटी करने से खफा होकर एक संगठित अपराधी उसके परिवार को इतने वीभत्स और हिंसक तरीके से मार डाले। फिलहाल तो यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि जिस पर इन हत्याओं का शक है, और जो फरार है, वह कांग्रेस के छात्र संगठन से जुड़ा हुआ है या नहीं। अभी तो सबसे जरूरी यह है कि इसे जल्दी से जल्दी पकड़ा जाए, और कड़ी से कड़ी सजा दिलाई जाए। राज्य सरकार को, और खासकर पुलिस महकमे को यह देखना चाहिए कि किस तरह प्रदेश के पुलिस परिवारों के एक संगठन के संयोजक उज्जवल दीवान ने एक वीडियो बनाकर यह घोषणा की है पुलिस-परिवार का कत्ल करने वाले को पकडऩे वाले को 50 हजार रूपए नगद, और अगर उसे मुठभेड़ में मारा जाता है तो उस पर एक लाख रूपए नगद ईनाम संगठन देगा। यह राज्य सरकार के लिए आत्ममंथन का एक बड़ा मौका है कि कार्यकाल का एक साल पूरा होने के पहले ही पूरे प्रदेश में कानून-व्यवस्था जिस तरह खत्म हो जाने का अहसास प्रदेश के लोगों को हो रहा है, उसमें सरकार की कैसे सुधार की जिम्मेदारी बनती है। इसी सूरजपुर से एक दूसरी खबर आई है कि एक स्कूली छात्रा के साथ गैंगरेप की रिपोर्ट भी दर्ज नहीं की जा रही थी, और सरगुजा के सबसे बड़े कांग्रेस नेता, और पूर्व उपमुख्यमंत्री टी.एस. सिंहदेव की दखल के बाद दो दिन बाद रिपोर्ट दर्ज की गई। अगर यह नौबत सचमुच है, तो सरकार को बाकी तमाम काम छोडक़र प्रदेश में कानून-व्यवस्था पर लंबा विचार करना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मुम्बई में कांग्रेस और एनसीपी के नेता रहे भूतपूर्व मंत्री बाबा सिद्दीकी के कत्ल को लेकर मीडिया में खबरें पटी पड़ी हैं, इसलिए भी कि फिल्म इंडस्ट्री के इलाके के पार्षद, विधायक, और मंत्री रहे इस नेता के इर्द-गिर्द फिल्मी सितारों के चेहरे दिखते रहते थे। इस बार जेल में बंद भारत के एक सबसे चर्चित गैंगस्टर लॉरेंस बिश्नोई गिरोह की तरफ से दावा किया गया है कि बाबा सिद्दीकी को उसके शूटरों ने मारा है क्योंकि वह सलमान खान का साथ देता है जिसे मारने की घोषणा इस गिरोह ने पहले से की हुई है। कुछ महीने पहले सलमान खान के घर पर गोलियां भी चलाई गई थीं, और तब से सलमान खान और उसके घर की हिफाजत पुलिस की तरफ से बढ़ा दी गई है। लेकिन पुलिस की हिफाजत अधिक मायने इसलिए नहीं रखती कि वाई केटेगरी की सुरक्षा बाबा सिद्दीकी को जान से मारने की धमकी के बाद दी गई थी, लेकिन मामूली नौजवान शूटरों ने आकर बाबा सिद्दीकी को खत्म कर ही दिया। अखबारी खबरें बताती हैं कि लगातार जेल में बंद रहकर लॉरेंस बिश्नोई अपने को तो दुश्मनों के हमले से बचा ही रहा है, वह जेल अफसरों की मेहरबानी से वहां से फोन पर दुनिया भर में बिखरे अपने गिरोह को चलाता है, और कत्ल करवाता है। कई भरोसेमंद खबरें बताती हैं कि दुनिया के दूसरे देशों में भी वह जुर्म करवाता है। जैसा कि उसके नाम से जाहिर है, लॉरेंस बिश्नोई बिश्नोई समुदाय से आता है, और इसी से लेकर सलमान खान से दुश्मनी की एक वजह सामने आई है।
लोगों को याद होगा कि 1998 में एक फिल्म की शूटिंग के दौरान राजस्थान के जोधपुर में सलमान खान वहां गए हुए थे, और वहां काले हिरण के शिकार का एक मामला उन पर दर्ज हुआ जो कि बरसों तक खबरों में बने रहा। बिश्नोई समुदाय काले हिरण को अपने आध्यात्मिक मुखिया भगवान जम्बेश्वर का अवतार मानता है, और इस घटना के बाद से पूरा समुदाय सलमान के खिलाफ रहा। लोगों ने ऐसी तस्वीरें देखी होंगी जिनमें बिश्नोई समुदाय की महिलाएं अपने बच्चे को दूध पिलाने के साथ-साथ काले हिरण के बच्चे को भी अपने स्तन से दूध पिलाते दिखती हैं। शिकार के मामले के बाद अखिल भारतीय बिश्नोई समाज के अध्यक्ष देवेन्द्र बुधिया ने सार्वजनिक रूप से यह सुझाया था कि सलमान खान को समाज के मंदिर में आकर अफसोस जाहिर करना चाहिए, और यह शपथ लेनी चाहिए कि वे वन्य जीवन और पर्यावरण को बचाने का काम करेंगे, उन्हें समुदाय से माफी मांगनी चाहिए, और समाज इस पर विचार करेगा। अब इसी तरह की कुछ बात भाजपा के एक नेता, पूर्व राज्यसभा सांसद हरनाथ सिंह यादव ने भी की है। उन्होंने कहा है कि काले हिरण को बिश्नोई समाज देवता की तरह पूजता है। आपने उसका शिकार किया जिसके कारण बिश्नोई समाज की भावनाएं बहुत आहत हुईं। इन भावनाओं का सम्मान करते हुए अपनी बड़ी गलती के लिए सलमान को समाज से माफी मांगना चाहिए।
इतने बरस पहले से काले हिरण के शिकार का मामला सलमान पर चले आ रहा था, और इस शिकार की घटना से आहत बिश्नोई समाज यह देखकर हैरान था कि एक अरबपति फिल्मी सितारा होने की वजह से सलमान के खिलाफ मामला किसी किनारे पहुंच ही नहीं रहा था। लेकिन भारत की न्याय व्यवस्था तो सभी लोगों के लिए मौजूद है, और पैसेवाले-ताकतवर लोगों में सलमान अकेले तो हैं नहीं जिन्हें न्याय व्यवस्था में रियायतें मिल रही हों। जिसके भी पास पैसा या ताकत है, उन सभी को न्याय व्यवस्था को तरह-तरह से प्रभावित करने का हक हासिल रहता है। लेकिन धार्मिक भावनाओं के चलते बिश्नोई समाज अधिक विचलित था, और फिर उसे लॉरेंस बिश्नोई की शक्ल में एक ऐसा गैंगस्टर हासिल है जो कि इस मुद्दे को किसी भी हद तक बढ़ाने की ताकत रखता है।
अब सवाल यह उठता है कि अलग-अलग धर्मों या सम्प्रदायों की भावनाओं को लेकर अगर भारत की न्याय व्यवस्था से परे इस तरह की एक समानांतर व्यवस्था लागू की जाए, और एक किस्म से बंदूक की नोंक पर किसी को आकर माफी मांगने को मजबूर किया जाए, तो भारत का कौन सा कानून ऐसी जिद का समर्थन करता है? और फिर किसी की जान लेने की धमकी के बाद उसे बचने के लिए ऐसी सलाह देना कहां तक जायज है? ऐसे सिलसिले का अंत कहां जाकर होगा? हमने भारत के पड़ोस के पाकिस्तान में ईशनिंदा के नाम पर किसी को भी पुलिस हिरासत से छीनकर उसकी भीड़त्या कर देने के कितने ही मामले देखे हैं। दुनिया में जिन और देशों में धर्मान्ध भीड़ का राज चलता है, वहां यही होता है। हिन्दुस्तान में भी गौरक्षा के नाम पर ऐसे कई कत्ल हुए हैं जिनमें भीड़ अपने आपको गौप्रेमी बताते हुए किसी भी पशु व्यापारी का कत्ल करने पर आमादा रहती है, और कई प्रदेशों में सरकारें भी ऐसे हत्यारों को बचाने के लिए ओवरटाइम मेहनत करने लगती हैं। अगर कत्ल की धमकी देकर किसी से ऐसी माफी मंगवाने का सिलसिला शुरू हो गया, तो फिर हमने पंजाब में भी कुछ गुरुद्वारों में मानसिक विचलित लोगों को गुरुद्वारे की बेअदबी करने का आरोप लगाती हुई भीड़ के हाथों मारे जाते देखा है। लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था में यह सिलसिला बहुत खतरनाक है।
भारत को सोचना चाहिए कि आज गुजरात की जेल में बंद गैंगस्टर लॉरेंस बिश्नोई यह किस तरह का माफिया राज देश में चला रहा है? उसे यह भी सोचना चाहिए कि महाराष्ट्र में एक पखवाड़े पहले कत्ल की धमकी देने के बाद वाई केटेगरी सुरक्षा के बीच कांग्रेस-एनसीपी नेता का किस तरह कत्ल कर दिया जाता है, और सरकार देखती रह जाती है। इन दो राज्यों से परे देश में भी आज भाजपा की अगुवाई वाली सरकार है, और केन्द्र सरकार को यह सोचना चाहिए कि देश-विदेश तक फैले हुए जुर्म और आतंक के ऐसे साम्राज्य को खत्म करने के लिए उस पर कैसी जिम्मेदारी बनती है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी तीन बरस के एक बच्चे के कत्ल का मामला जब पुलिस ने सुलझाया तो पता लगा कि उसी का 19 बरस का चचेरा भाई हत्यारा था। परिवार के भीतर यह तनातनी थी कि इस बच्चे के पिता ने कुछ अरसा पहले अपने भतीजे के खिलाफ चोरी की रिपोर्ट लिखाई थी, और इसके बाद से आसपास के दूसरे लोग भी चाचा की देखादेखी इस नौजवान को चोर कहते थे। यह सुनकर थका हुआ यह नौजवान लगातार तनाव में रहता था, और उसने रिश्ते के चाचा से बदला लेने के लिए उसके छोटे बच्चे को मार डाला। इस घटना से कुछ बरस पहले की एक केन्द्रीय सुरक्षा बल के कैम्प की गोलीबारी याद आती है जिसमें साथी जवान किसी एक को नामर्द कहते हुए तरह-तरह के ताने देते थे, और उसने इसी तनाव में एक दिन कई साथियों को एक साथ गोली चलाकर मार डाला था। अमरीका में स्कूल-कॉलेज में गोलीबारी करके सामूहिक हत्या के कई मामले हर बरस सामने आते हैं, और उनमें एक वजह यह सामने आती है कि उस जगह पढ़ते हुए हत्यारे को लोगों के फिकरों का सामना करना पड़ता था, और उसी का बदला निकालने के लिए बाद में हथियारबंद होकर, जाकर हत्यारे ने बहुत से लोगों को मार डाला था। हिन्दुस्तान में हत्याओं के और भी बहुत से मामले ऐसे रहते हैं जिनमें लोगों के तानों से, या उनके खिल्ली उड़ाए जाने से थककर लोग किसी को मार डालते हैं। दूसरी तरफ यह हिंसा आत्मघाती भी हो जाती है, और स्कूल-कॉलेज के हॉस्टलों में कई ऐसी खुदकुशी होती हैं जिनमें सहपाठियों और साथियों के तानों और खिल्ली उड़ाने से थके हुए छात्र-छात्राओं ने खुदकुशी की होती है।
दरअसल लोगों में मानवीय कहे जाने वाले मूल्यों की बुनियाद ही कमजोर होती चल रही है। लोगों को अब आसपास के किसी तकलीफ से गुजर रहे इंसान के साथ हमदर्दी की बात नहीं सूझती। लोगों को किसी कमजोर को घेरकर परेशान करते हुए भी कुछ नहीं लगता। और अगर हम बोलचाल की भाषा को देखें, तो लोगों के मन में किसी कमजोर, बीमार, विकलांग, गरीब, और कुरूप समझे जाने वाले लोगों के लिए परले दर्जे की हिकारत रहती है। बहुत से कहावत और मुहावरे ऐसे तमाम लोगों की खिल्ली उड़ाने वाले रहते हैं, और इनके रूप-रंग को गाली की तरह इस्तेमाल भी करते हैं। कहीं मोटापा मखौल का सामान बन जाता है, तो कहीं गोरे रंग की चाह वाले हिन्दुस्तानियों के बीच काला रंग। ये बातें भारतीय फिल्मों में कई दशकों से चले आ रहे किरदारों से और मजबूत होती चलती हैं। किसी का काला रंग या उसका मोटापा कॉमेडी का सामान फिल्मों में भी माना जाता था, और अब कपिल शर्मा जैसे मशहूर कॉमेडी शो में भी वैसी ही गैरजिम्मेदारी दिखाई जाती है। अगर सही और गलत का फर्क करके फिल्म और ऐसे टीवी शो देखे जाएं, तो इनमें से अधिकतर को देखना मुमकिन नहीं रहता। पूरी तरह से गैरजिम्मेदार होकर ही इनका आनंद उठाया जा सकता है।
जो समाज अपने भीतर के किसी नाबालिग लडक़े पर चोरी का आरोप लगने पर उसे चोर कहते हुए उसे हिकारत से देखता है, वह समाज एक और मुजरिम पाने का ही हकदार रहता है। लेकिन हम मरने और मारने के जो आंकड़े सामने आते हैं उनसे परे जब देखते हैं, तो समझ पड़ता है कि साथियों और समाज के ओछे शब्दों की वजह से जाने कितने ही बच्चे और बड़े, महिलाएं या गरीब, बीमार या विकलांग हीनभावना का शिकार होकर जीते होंगे। चूंकि यह हीनभावना पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक हत्या-आत्महत्या जैसी नौबत में तब्दील नहीं होती है, इसलिए उससे परेशान लोगों की गिनती नहीं लगाई जा सकती। लेकिन सच तो यह है कि जो समाज अपने ही लोगों को परेशान और प्रताडि़त करने का शौक रखता है, वह समाज अपनी पूरी संभावनाओं तक कभी नहीं पहुंच पाता। अवसाद के शिकार लोग समाज के अच्छे, और उत्पादक सदस्य नहीं बन पाते। और किसी देश का कानून लोगों में मानवीय मूल्यों को नहीं जगा पाता, इसके लिए समाज के लोगों के बीच एक सकारात्मक सोच जरूरी रहती है जो कि किसी स्कूल-कॉलेज के कोर्स का हिस्सा नहीं हो सकती। इसे परिवार, पड़ोस, समाज, और स्कूल, इन सभी जगहों पर सकारात्मकता के लिए सक्रिय लोग ही पैदा कर सकते हैं, और बढ़ावा दे सकते हैं। लोगों को इसकी शुरूआत अपने घर से, खुद से, अपने बच्चों से, और परिवार के बाकी लोगों से करनी चाहिए। इसके लिए लोगों के मन में लोकतंत्र और मानवाधिकार के प्रति सम्मान होना चाहिए, प्राकृतिक न्याय की एक समझ विकसित की जानी चाहिए, और कमजोर की मदद करने जितनी रहम दिल में रहनी चाहिए। आज परिवार और उसके सदस्य जितने आत्मकेन्द्रित हो गए हैं, जितने मतलबपरस्त हो गए हैं, और जिंदगी में कामयाबी की परिभाषा इम्तिहानों के नंबर, और नौकरी की तनख्वाह तक जिस तरह सीमित रह गई है, उसमें लोगों का रहमदिल होना कोई खूबी नहीं गिनी जाती। समाज में जब तक महीन मानवीय मूल्यों का महत्व दुबारा कायम नहीं होगा, तब तक ऐसी नौबत आती रहेगी कि औरों के तानों से तनाव में आए लोग दूसरों के खिलाफ हिंसा करते रहेंगे, या आत्मघाती काम करेंगे, या मानसिक रूप से बीमार इंसान की तरह जिएंगे। हम जिस समाधान को सुझा रहे हैं, उसके लिए पूरे समाज का संवेदनशील होना जरूरी है, उसके लिए हर तरह से लोगों का बेहतर इंसान होना जरूरी है, उसका कोई शॉर्टकट नहीं हो सकता।
देश में खदानों और खनिजों की आवाजाही से पर्यावरण को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए खनिज रायल्टी का एक हिस्सा संबंधित जिलों को देने की एक नीति देश में चल रही है। इसके तहत खदान वाले जिले, और आसपास के प्रभावित होने वाले दूसरे जिलों के बीच खनिज रायल्टी का जिला खनिज निधि के तहत निर्धारित हिस्सा बंटता है, और इसका मुख्य मकसद यह रहा है कि पर्यावरण, इंसानों और पशुओं को होने वाले नुकसान की भरपाई की जा सके। इसे स्थानीय स्तर पर तय करने के लिए कलेक्टरों को अधिकृत किया गया, और राज्यों ने अपने हिसाब से इसमें थोड़े-बहुत फेरबदल भी किए। जिला खनिज निधि के तहत क्या-क्या काम हो सकते हैं, यह केन्द्र सरकार ने भी तय किया, और राज्य संबंधित जिलों की स्थानीय जरूरतों को देखते हुए उसमें कुछ छूट भी लेते रहे। यहां तक तो बात बड़ी सुहावनी लगती है, लेकिन जब बारीकियों में जाएं तो समझ पड़ता है कि कुछ खनिज-जिलों में सैकड़ों करोड़ रूपए सालाना का डीएमएफ बजट कलेक्टरों की मर्जी पर उनके पॉकेटमनी की तरह खर्च होता रहा, और जिन प्रदेशों में मुख्यमंत्री की पकड़ असंवैधानिक हद तक मजबूत रही, वहां पर डीएमएफ का पैसा मुख्यमंत्री की मनमर्जी से खर्च होते रहा।
अभी छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार के जाने के बाद भाजपा की सरकार पहले से ईडी और आईटी के बनाए हुए मामलों की जांच खुद भी कर रही है। इसे सीधे-सीधे पिछली सरकार के खिलाफ मौजूदा सरकार की दुर्भावना मान लेने से पहले यह समझ लेना जरूरी है कि ईडी और आईटी द्वारा किसी जुर्म का मामला बनाने पर भी उनके अधिकार उनके विभागों से संबंधित कानूनों तक सीमित रहते हैं। दूसरी तरफ राज्यों में जब इन जुर्मों से संबंधित मामलों में सरकारी अधिकारी भी जुड़े रहते हैं, तो उन पर राज्य के अलग-अलग कानून भी लागू होते हैं। छत्तीसगढ़ में आज यही हो रहा है। बीते बरसों से ईडी और आईटी के जो मामले चल रहे थे, वे अब राज्य सरकार की एजेंसियों के दायरे में भी जांच का सामना कर रहे हैं। इसी में डीएमएफ की जांच भी हो रही है, और खनिज संपन्न जिलों में ईडी ने छापे मारकर डीएमएफ के घोटाले पकड़े थे, और अब राज्य की जांच एजेंसी खुद भी केस दर्ज करके उस मामले को आगे बढ़ा रही है। शुरूआती जांच में ही यह पता लग रहा है कि डीएमएफ की रकम की बड़े पैमाने पर बंदरबांट हुई है। राज्य में पिछली कांग्रेस सरकार के रहते हुए भी यह जानकारी बड़ी आम थी कि जिलों में डीएमएफ की रकम से मनमाने काम करवाने, उन्हें मनमाने ठेकेदारों और सप्लायरों को दिलवाने का काम राज्य के कुछ चुनिंदा अफसर करते थे, जो कि राज्य को एक मुजरिम गिरोह की तरह चलाते-चलाते आज कई-कई मामलों में जेल में पड़े हुए हैं। जिन अफसरों की पेशाब से पिछली सरकार में चिराग जला करते थे, आज वे जेल में दूसरे कैदियों के साथ एक ही पखाना इस्तेमाल करने पर मजबूर हैं (अगर उन्हें जेल में सहूलियतें खरीदने की आम परंपरा का फायदा न मिल रहा हो तो)।
राज्य में कुछेक ऐसी योजनाएं रहती हैं जो प्रदेश के बजट से परे की रहती हैं, और जिनमें आने वाला पैसा जेब खर्च जैसा मान लिया जाता है। राज्य में किसी भी योजना के लिए अगर पेड़ काटे जाते हैं, तो सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के तहत उसकी भरपाई के लिए नए वृक्षारोपण को ऐसे राज्यों को कटाई के अनुपात में भरपाई मिलती है। छत्तीसगढ़ को ऐसे हजारों करोड़ रूपए मिलते हैं, और वन विभाग के कुख्यात अफसर राज्य शासन हांकने वाले अपनी टक्कर के कुख्यात अफसरों के साथ मिलकर पूरे कैम्पा-मद को पॉकेटमनी की तरह खर्च करते आए हैं। अगर पिछली कांग्रेस सरकार के दौर के कैम्पा-मद के खर्च की बारीकी से जांच की जाए, तो सैकड़ों या हजारों करोड़ का भ्रष्टाचार उजागर होगा। सरकार में यह जानकारी आम रहती थी कि कैम्पा-फंड से क्या-क्या गलत काम हो रहा है, लेकिन जब शासन गले-गले तक ऐसे ही धंधों में डूबा हुआ था, तो कैम्पा वन विभाग का डीएमएफ सरीखा हो गया था। हजारों करोड़ रूपए सालाना के ऐसे मनमर्जी से खर्चने वाले फंड ने ऐसा भयानक भ्रष्टाचार खड़ा किया हुआ था कि उससे राज्य सरकार में घटिया सामान सप्लाई करने, घटिया काम करने, और गैरजरूरी खर्च करने का खून सरकारी मशीनरी के मुंह लग गया था। आज जांच एजेंसियां जितने किस्म के मामले उजागर कर चुकी हैं, वे सब एक किस्म से मौजूदा सरकार, भावी सरकारों, और दूसरे प्रदेशों की सरकारों, सबके लिए सबक की तरह भी हैं कि सरकार में रहते हुए क्या-क्या करने से जेल जाने की नौबत आती है। पता नहीं जेल में बैठे हुए अफसरों के कमाए हुए सैकड़ों करोड़ उनको जमानत के इंतजार में बरसों गुजारने, और फिर शायद बरसों की कैद काटने से अधिक महत्वपूर्ण लगते हैं या नहीं। फिलहाल यह बात तो साफ है कि जब शासन-प्रशासन के अच्छी तरह स्थापित, और संवैधानिक ढांचे से परे जब कुछ गिने-चुने अफसर और सत्ता के दलाल पूरे राज्य को खच्चर की तरह हांकते हैं, तो वे राज्य को तो बर्बाद करते ही हैं, वे खुद की बर्बादी की भी गारंटी करते हैं। इसमें कुछ देर हो सकती है, लेकिन अंधेर नहीं, कुल मिलाकर जेल में चक्की तो पीसना ही पड़ता है।
केन्द्र और राज्य की जांच एजेंसियां छत्तीसगढ़ को लेकर जितने तरह के मामले सामने रख चुकी हैं, उससे इस प्रदेश के राजनीतिक और सरकारी अमलों को जुर्म से दूर रहने की एक नसीहत मिलती है। ऐसा भी नहीं है कि ये अमले पूरी तरह भ्रष्ट और मुजरिम रहते हों, इनमें भी कुछ लोग तो हमेशा ही भले रहते हैं। ऐसा लगता है कि पीएससी, और यूपीएससी को अपने छांटे हुए लोगों के लिए छत्तीसगढ़ में रिफ्रेशर कोर्स चलाने चाहिए कि सरकार कैसे-कैसे नहीं चलानी चाहिए। जिस डीएमएफ और कैम्पा जैसे फंड का इस्तेमाल पर्यावरण को हो चुके नुकसान की भरपाई के लिए किया जाना चाहिए था, उन्हें नेताओं और अफसरों ने अपने पॉकेटमनी की तरह इस्तेमाल किया। डीएमएफ की तो जांच छत्तीसगढ़ की नई सरकार को ईडी की तरफ से विरासत में मिली है, लेकिन वन विभाग के कैम्पा फंड में तो अभी झांका भी नहीं गया है। सरकार को तुरंत ही कैम्पा के हजारों करोड़ का स्पेशल ऑडिट करवाना चाहिए ताकि अब आगे सत्ता के सभी भागीदार सावधान हो सकें, और जेल के बाहर अपने परिवारों सहित सुख से रह सकें।
देश के एक सबसे प्रतिष्ठित उद्योगपति रतन टाटा के गुजरने से एक बार फिर भारत की कार्पोरेट दुनिया और उसके सामाजिक सरोकारों पर चर्चा शुरू हुई है। कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखा है कि देश में समाज सेवा करने में सबसे आगे दो कारोबारी रहे, एक पारसी रतन टाटा, और एक मुस्लिम अजीम प्रेमजी। कहने को कुछ दूसरे बड़े उद्योगपति भी जेब की चिल्हर सरीखी रकम दान में देते हैं, लेकिन अपनी दौलत का एक बड़ा हिस्सा, कमाई का एक बड़ा हिस्सा समाज सेवा में देने का काम गिने-चुने हिन्दुस्तानी कारोबारी करते हैं, और उनमें ये दो नाम सबसे ऊपर हैं। रतन टाटा और अजीम प्रेमजी दोनों की निजी जिंदगी की सादगी की चर्चा भी देखने लायक है। और अपनी बेतहाशा कमाई, कुबेर सरीखी दौलत का समाज के लिए इस्तेमाल उनके लिए सबसे बड़ी बात है। दूसरों के लिए कुछ करने को अपनी जिंदगी का मकसद बना लेना, दुनिया में कई और कारोबारियों ने भी किया है, और कुछ सबसे बड़े कारोबारियों ने यह अभियान भी चलाया है कि दूसरे अतिसंपन्न लोग अपनी आधी दौलत समाज के लिए दें। भारत में यह अभियान इक्का-दुक्का लोगों को ही छू पाया।
लेकिन इस चर्चा से थोड़ा सा परे एक दूसरी खबर भी आज की है कि महीने भर बाद रिटायर होने वाले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ कुछ बेचैन हैं। उनका कहना है कि कार्यकाल खत्म हो रहा है इसलिए मेरा मन भविष्य और अतीत के बारे में आशंकाओं और चिंताओं से ग्रस्त है। उन्होंने अभी कानून के छात्रों के बीच कहा कि वे अपने को ऐसे सवालों से घिरे पा रहे हैं कि क्या उन्होंने वह सब हासिल किया जो करने का लक्ष्य रखा था? इतिहास उनके कार्यकाल का कैसा आंकलन करेगा? क्या वे चीजों को कुछ अलग तरीके से कर सकते थे? और क्या वे जजों और कानून के पेशेवरों की भावी पीढिय़ों के लिए कोई अच्छी विरासत छोडक़र जा रहे हैं? उन्होंने खुद ही इन सवालों का एक जवाब पेश किया है कि अधिकांश सवालों के जवाब उनके काबू से बाहर है, लेकिन उन्हें बस इतनी तसल्ली है कि पिछले दो बरस से सीजेआई रहते हुए वे हर दिन देश की सेवा पूरी लगन से करते रहे।
रतन टाटा और डी.वाई.चन्द्रचूड़ के कामकाज और व्यक्तित्व में कुछ भी एक सरीखा नहीं है लेकिन दोनों में एक चीज है कि अपने काम को उन्होंने बड़ी मेहनत से किया, और अपने काम को लेकर उनके मन में सवाल भी उठते रहे, जो कि किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति के मन में कभी बंद नहीं होने चाहिए। हमारा मानना है कि जिंदगी के किसी भी दायरे में ऊपर पहुंचने वाले लोगों की अपनी सोच और मेहनत उनकी कामयाबी में एक बड़ा योगदान देती है। मेहनत तो मजदूर सबसे अधिक करते हैं, लेकिन ऊपर पहुंचने की जगहों पर पहुंचने वाले लोग जब एक मौलिक सोच के साथ, दूरदर्शिता और अनुशासन से मेहनत करते हैं, तो वह कुछ अलग रंग लाती है। इस मेहनत का एक हिस्सा लोगों को अपने सहयोगी तय करने में लगाना पड़ता है क्योंकि पिकासो या मकबूल फिदा हुसैन तो बिना सहयोगी के अकेले अपनी पेंटिंग बना सकते हैं, लेकिन कोई कारोबारी, समाजसेवी, या नेता ऐसा नहीं कर सकते। जहां कहीं एक टीम की जरूरत पड़ती है, वहां मुखिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती काबिल सहयोगी छांटने की रहती है। हमारा एक मोटा अंदाज यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने सबसे करीबी आधा दर्जन लोगों की औसत प्रतिभा से अधिक आगे नहीं बढ़ पाते। सबसे काबिल नेता या कारोबारी भी गलत सहयोगी छांटकर गहरे गड्ढे की तरफ बढ़ सकते हैं। देश के आज के सबसे बड़े कारोबारी भी अपनी कंपनियों में बहुत काबिल सहयोगियों की वजह से ही कंपनी को कामयाब कर पाते हैं। यही हाल राजनीति में रहता है। आज देश या किसी प्रदेश में कोई नेता बहुत कामयाब होते हैं, तो वे अपने राजनीतिक सहयोगियों, प्रशासनिक और दूसरे रणनीतिक सहयोगियों को छांटने की कामयाबी के बाद ही बाकी दायरे में कामयाबी की तरफ बढ़ सकते हैं।
इस बातचीत को हम जिंदगी के कुछ दूसरे दायरों की तरफ ले चलें, तो एक फिल्म निर्देशक अपने इर्द-गिर्द के आधा दर्जन सबसे करीबी लोगों को छांटकर ही सफल या असफल होते हैं। लेखक, संगीतकार, गीतकार, फोटोग्राफर, और कलाकार, ऐसे लोगों को छांटने में चूक करने वाले लोग कभी भी शानदार फिल्म नहीं बना पाते। ऐसा ही किसी टीवी चैनल, या अखबार के साथ भी होता है। कोई भी संपादक उतना ही अच्छा काम कर पाते हैं जितना कि उनके आसपास के आधा दर्जन लोगों के कामकाज का औसत रहता है। एक गलत सहयोगी को छांटना कुछ उसी तरह का रहता है जैसा कि कल एक मालवाहक गाड़ी में लदे हुए 20-25 लोगों का नहर में गिरना रहा क्योंकि ड्राइवर नशे में था। किसी सफर की कामयाबी इस पर टिकी रहती है कि गाड़ी कैसी है, और ड्राइवर कैसा है, साथ ही इस पर भी कि रास्ता कौन सा छांटा गया है। रतन टाटा उस पारसी समुदाय के थे जो कि अपने लोगों को आगे बढ़ाने के लिए जाना जाता है। लेकिन हमें टाटा की सबसे कामयाब इंडस्ट्री टाटा स्टील में उसके मुखिया एक दक्षिण भारतीय लंबे समय से दिखते चले आ रहे हैं। बड़ा उद्योग समूह अपनी अलग-अलग यूनिट के लिए कैसे लोगों को छांटता है, इस पर भी उसकी कामयाबी टिकी रहती है। लेकिन इसके साथ-साथ जो सवाल जस्टिस चन्द्रचूड़ के दिमाग में उठ रहा है कि इतिहास उनका मूल्यांकन कैसे करेगा, यह सवाल ऊंचाई पर पहुंचे हुए हर व्यक्ति के दिमाग में रहना चाहिए। इतिहास सिर्फ बड़े व्यक्तियों का लिखा जाता है, इसलिए बड़े व्यक्ति इतिहास लेखकों की अधिक खुर्दबीनी नजरों तले भी रहते हैं। और ऐसे में उन्हें अपने सामाजिक सरोकारों की बात भी सोचनी चाहिए, लोगों से अपने व्यवहार में इंसानियत के बेहतर मूल्यों को जिंदा रखना चाहिए, और बेहतर सहयोगी छांटने चाहिए। राजनीति, समाज, या कारोबार के अगुवा और मुखिया लोग सहयोगियों की अपनी पसंद की वजह से ही इतिहास में अच्छे या बुरे व्यक्ति की तरह दर्ज होते हैं। ऊंचे ओहदे पर पहुंचे हुए हर व्यक्ति को इस बारे में सबसे अधिक सावधान रहना चाहिए। दुनिया में लगातार ऐसी मिसालें सामने आती रहती हैं कि किन और कैसे सहयोगियों की वजह से कोई व्यक्ति अपनी संभावनाओं से बहुत पीछे रह गए।
हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनावी नतीजे बड़े दिलचस्प हैं। जम्मू-कश्मीर में 2014 के बाद अभी विधानसभा चुनाव हुए हैं, और वहां इस बीच संवैधानिक और राजनीतिक स्थितियां पूरी तरह से बदल चुकी हैं। इस बार वहां की स्थानीय पार्टी नेशनल कांफ्रेंस के साथ कांग्रेस के गठबंधन में 48 सीटें पाकर 90 सीटों की विधानसभा में बहुमत हासिल किया है, दूसरी तरफ 2014 के मुकाबले भाजपा ने भी चार सीटें अधिक जीती हैं। नेशनल कांफ्रेंस को पिछले 2014 के चुनावों के मुकाबले 27 सीटें अधिक मिली हैं जो कि सीधे-सीधे महबूबा मुफ्ती की पीडीपी के नुकसान से हासिल हुई हैं। महबूबा की पार्टी पिछले चुनाव के मुकाबले 25 सीटें खो चुकी हैं, और उसे कुल तीन सीटें मिली हैं। दिलचस्प बात यह भी है कि भाजपा ने अपनी पिछली 25 सीटों की गिनती बढ़ाकर 29 सीटें हासिल की हैं, और कांग्रेस ने पिछली 12 सीटों में से 6 सीटें खो दी हैं। एक दिलचस्प बात यह भी है कि कश्मीर में जितने अलगाववादी और पिछले आतंकी या उग्रवादी चुनाव लड़ रहे थे, सारे के सारे चुनाव हार गए। लोगों को याद रखना चाहिए कि जब कश्मीर से धारा 370 खत्म की गई थी, तो महबूबा मुफ्ती का बयान था कि इससे कश्मीर में आग लग जाएगी, लेकिन कश्मीर में एक पत्थर भी नहीं चला था। और न सिर्फ आतंक की घटनाएं, बल्कि पथराव की लंबी परंपरा भी खत्म हो गई थी। फौजी की मौजूदगी कश्मीर में हमेशा से रहती आई है, और उसके मौजूद रहते हुए भी आतंकी घटनाएं होती थीं, जो कि अब कम से कम कश्मीर-घाटी में न के बराबर हो गई हैं, शहरों में नागरिकों का पथराव खत्म हो गया। यह एक अलग बात है कि जम्मू का इलाका जो कि आतंकियों के असर के बाहर था, वहां आतंकियों के हमले बढ़े हैं। लेकिन धारा 370 खत्म करने के बाद से अब तक, और इस चुनाव के मतदान तक यह एक बड़ी कामयाबी दिख रही है। चाहे सरकार नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस की बन रही हो, भाजपा ने सीटें बढ़ाई हैं, और पहले के मुकाबले वोट भी बहुत अधिक गिरे हैं। इस तरह चुनाव में पार्टियों, अलगाववादियों, भूतपूर्व आतंकियों, और जनता की बढ़ी हुई भागीदारी लोकतंत्र, और केन्द्र की मोदी सरकार की एक बड़ी कामयाबी रही। भाजपा किसी पार्टी से मिलकर सरकार चाहे न बना पा रही हो, लेकिन लोकतांत्रिक चुनावों का इतनी कामयाबी से होना छोटी बात नहीं है। जब पूरी दुनिया से मोदी सरकार ने पर्यवेक्षकों को इस चुनाव को देखने के लिए न्यौता दिया था, और कई देशों के पर्यवेक्षक कश्मीर चुनाव में पहुंचे भी थे, तो इससे कश्मीर के लोकतांत्रिक स्वरूप को एक नई अंतरराष्ट्रीय विश्वसनीयता भी मिली है।
अब उस हरियाणा की बात की जाए जो कि देश के बाकी हिस्से के कुछ अधिक करीब है, और जिस पर लोगों की नजरें लगी हुई थीं क्योंकि वहां भाजपा का राज चले आ रहा था, और इस बार तमाम एक्जिट पोल वहां कांग्रेस की भारी-भरकम जीत की भविष्यवाणी कर चुके थे, और भाजपा को साफ-साफ हरा चुके थे। ऐसे हरियाणा में भाजपा ने अकेले अपने दम पर, बिना किसी सहयोगी दल के, सरकार बनाने की जरूरत से दो सीटें ज्यादा पाकर भाजपा की एक बड़ी जीत साबित की है। जिस सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ जनता की नाराजगी की चर्चा थी, वह भाजपा हरियाणा में तीसरी बार सरकार बना रही है, और सत्तारूढ़ रहते हुए भी उसने 8 सीटें अधिक हासिल की हैं, और उसे किसी सहयोगी दल की जरूरत भी नहीं है। यह एक अलग बात है कि पिछले कार्यकाल में उसके गठबंधन के साथी दल जेजेपी ने अपनी तमाम 10 सीटें खो दी हैं, और 8 सीटें भाजपा की बढ़ गई हैं। कांग्रेस पार्टी ने हालांकि 6 सीटें अधिक हासिल की हैं, लेकिन वह सरकार बनाने से कोसों दूर है। और अब देश में चर्चा यह हो रही है कि कांग्रेस के पक्ष में एक्जिट पोल एकतरफा क्यों जा रहे थे, और वह जीत से इतने पीछे क्यों धकेल दी गई?
चुनाव से 6 महीने पहले भाजपा ने अपना मुख्यमंत्री बदल दिया था, और मनोहरलाल के खिलाफ जितनी भी नाराजगी रही होगी, वह अगले मुख्यमंत्री नायब सैनी के हिस्से कम आई है। वोटरों को साढ़े चार बरस के, और उसके पहले के कार्यकाल के भी मुख्यमंत्री रहे मनोहरलाल को बेदर्दी से हटाए जाते देखकर एक तसल्ली मिली होगी, और सत्ता से वोटरों की नाराजगी इन 6 महीनों में घट गई दिखती है। दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी मतदान के दिन तक पार्टी के दो नेताओं, भूतपूर्व मुख्यमंत्री भूपिन्दर सिंह हुड्डा, और सांसद कुमारी सैलजा के बीच कुकुरहाव चलते रहा। इन दोनों के बीच बातचीत के रिश्ते भी नहीं रह गए थे, और चुनावी मंच पर राहुल गांधी को इन दोनों के हाथ एक साथ पकडक़र एकता का एक दिखावा भी करना पड़ा था। चर्चा यह रही कि सैलजा कांग्रेस छोडक़र भाजपा जा सकती हैं, वे जाहिर तौर पर चुनाव प्रचार से दूर रहीं, और हुड्डा बिना विधानसभा जीते मुख्यमंत्री बनने की हड़बड़ी में थे। हरियाणा में और भी बहुत सारे मुद्दे रहे, कुछ किसानों के, कुछ जातीय समीकरण के, और कुछ परिवारवाद और मौजूदा विधायकों की टिकट काटने के। हम बहुत बारीक विश्लेषण में जाना नहीं चाहते, लेकिन यह बात साफ है कि भाजपा की रणनीति इनमें से अधिकतर मुद्दों पर कामयाब रही, और उसका यह तीसरा कार्यकाल पिछली बार से 20 फीसदी अधिक विधायकों के साथ शुरू हो रहा है जो कि किसी भी पार्टी के लिए बहुत बड़ा सर्टिफिकेट है।
अब हरियाणा में कांग्रेस के हाथ आती दिख रही सरकार इस तरह फिसलकर निकल जाना कांग्रेस के लिए आत्ममंथन का एक बड़ा मौका है। दोनों पार्टियों के बीच एक बड़ा फर्क यह है कि भाजपा तकरीबन पूरे देश में अपने प्रदेश के नेताओं पर एक फौलादी पकड़ रखती है, मोदी और शाह की लीडरशिप के मुकाबले किसी नेता का कोई वजन नहीं है। नतीजा यह होता है कि भाजपा जब जिसे चाहे उसे नेता बना सकती है, जब जिसे चाहे उसे किसी ओहदे से हटा सकती है। उसने राजस्थान में पहली बार के विधायक को मुख्यमंत्री बना दिया, और देश के अपने एक सबसे वरिष्ठ विधायक, और एक सबसे वरिष्ठ मंत्री, बृजमोहन अग्रवाल को छत्तीसगढ़ मंत्रिमंडल से हटाकर महज सांसद बनाकर रख छोड़ा है। कांग्रेस के पास ऐसी कोई सहूलियत नहीं है। उसने छत्तीसगढ़ में अपने घरेलू वायदे को पूरा करके टी.एस.सिंहदेव को ढाई बरस के बाद मुख्यमंत्री बनाने की हिम्मत भी नहीं दिखाई, क्योंकि वह भूपेश बघेल के असाधारण दबाव तले दबी हुई थी। हो सकता है कि कांग्रेस इतने कम राज्यों में सत्ता पर रह गई है कि उसकी लीडरशिप का वजन खत्म हो चुका है, और उसके क्षेत्रीय जागीरदार जरूरत से अधिक मजबूत हो गए हैं। हरियाणा में भी कुछ ऐसा ही दिखता है जहां पर उसके पिछले मुख्यमंत्री भूपिन्दर सिंह हुड्डा कांग्रेस के दामाद रॉबर्ट वाड्रा के साथ जमीनों के कथित घोटालों में फंसे हुए हैं, और ईडी की जांच के घेरे में भी हैं, और ऐसा लगता है कि ऐसे में पार्टी के लिए हुड्डा को खफा करना मुमकिन भी नहीं था। कांग्रेस जब तक अपना खुद का घर नहीं सुधार लेती, तब तक वह वोटरों के बीच अधिक विश्वसनीयता नहीं पा सकती। पिछले आम चुनाव में उसकी सीटें जरूर बढ़ गई हैं, एनडीए और भाजपा की सीटें घट गई हैं, लेकिन कांग्रेस सत्ता से कोसों दूर भी रह गई है। सीट और वोट में चढ़ाव-उतार तब तक अधिक मायने नहीं रखते जब तक कि पार्टी सरकार बनाने के लायक न हो जाए। कांग्रेस को पहले तो अपने आपको एक मजबूत पार्टी बनकर दिखाना होगा, तभी जाकर वोटरों के बीच उसे मजबूत सरकार बनाने की संभावना वाली माना जाएगा।
अभी छत्तीसगढ़ के एक कस्बे में एक आदतन बदमाश ने शराब के नशे में हंगामा शुरू किया तो बर्दाश्त खो बैठे गांव के लोगों ने उसे पीट-पीटकर मार डाला। इस बदमाश के खिलाफ 15-20 मामले पुलिस में पहले से दर्ज थे, और वह अभी-अभी जेल से छूटकर बाहर आया था। आने के बाद अपनी बस्ती में वह लोगों को मारपीट कर शराब के लिए पैसे वसूल रहा था, इसी पर बात बढ़ी, और लोगों ने एकजुट होकर उसे मार डाला। मारने वालों में कुछ महिलाएं भी हैं जिन्होंने अपने पतियों के साथ मिलकर यह हत्या की। अब यह घटना तो एक कत्ल की तरह दर्ज है, लेकिन इससे कई किस्म के सवाल खड़े होते हैं।
अगर किसी आदतन बदमाश मुजरिम का आतंक किसी जगह बरसों से चले आ रहा है, और लगातार उसके जुर्म चल ही रहे हैं, सरकार की जिलाबदर करने जैसे कानूनी प्रावधान का भी इस्तेमाल इस आदमी पर होते नहीं दिखा है, और जेल से छूटकर आते ही वह फिर आतंक फैलाने लगा है, तो ऐसे में बस्ती के लोगों ने कानून अपने हाथ में लिया, और सामूहिक हमला करके इस बदमाश को मार डाला। पिछले बरसों के इसके छोटे-बड़े जुर्म अगर वक्त रहते इसे सजा दिला पाते, तो शायद यह नौबत नहीं आई होती। राह चलते लोगों को रोक-रोककर शराब के लिए पैसे मांगना, और न मिलने पर उन पर हमले करना लोग कब तक बर्दाश्त करते? और जब महिलाओं ने भी इस आदमी को खत्म करने के लिए हमले में बराबरी की हिस्सेदारी निभाई, तो बस्ती के लोग कितने थके हुए थे, यह जाहिर होता है। एक दूसरा मामला अभी कुछ हफ्ते पहले छत्तीसगढ़ के ही कवर्धा जिले में हुआ था जहां एक खुदकुशी के बाद उसकी हत्या होने के शक में गांव की भीड़ ने वहां के एक भूतपूर्व उपसरपंच के घर को घेरा, और मकान तो जला ही दिया, अपने ही समाज के इस नेता को पकडक़र मकान के भीतर जिंदा जलाया। इस गांव में भी इस उपसरपंच को दबंग माना जाता था, और लोगों ने एक शक के आधार पर ही उसकी ऐसी जान ले ली, परिवार के बाकी लोग किसी तरह बचे।
हम देश भर से अधिकतर प्रदेशों की ऐसी खबरें पढ़ते हैं कि कहां बलात्कार या छेडख़ानी के आरोपी जमानत पर छूटकर आते ही एक बार फिर शिकायतकर्ता लडक़ी या महिला के परिवार को प्रताडि़त करना शुरू करते हैं। पुलिस की कार्रवाई समय रहते नहीं होती, और गुंडों की दहशत में शिकायतकर्ता लडक़ी या महिला ही खुदकुशी को मजबूर हो जाती हैं। बहुत से मामलों में बलात्कारी या मवाली शिकायतकर्ता परिवार का जीना इस हद तक हराम कर देते हैं कि उनकी दुर्गति देखकर आगे लोग ऐसे मुजरिमों के खिलाफ रिपोर्ट भी लिखाने की हिम्मत नहीं करते। समाज में जब आदतन या पेशेवर हो चुके गुंडे-मवाली इस हद तक दबदबा कायम कर लेते हैं, तो फिर किसी दिन भीड़ हिसाब चुकता करते हुए भीड़त्या कर देती है।
ऐसी नौबत इसलिए भी आती है कि जिसका पुलिस थानों में रोज आना-जाना होता है, वे पुलिस के साथ कई तरह के गठजोड़ कर लेते हैं। पुलिस को भी इनसे एक संगठित फायदा होने लगता है, और पहली बार शिकायत करने आने वाले लोगों से पुलिस को उतना बंधा-बंधाया फायदा नहीं होता। इसलिए पुलिस की एक स्वाभाविक हमदर्दी पेशेवर मुजरिमों के लिए रहती है, जो कि परस्पर लाभ और परस्पर सद्भावना तक विकसित हो जाती है। अदालतों में मामलों की सुनवाई का हाल यह रहता है कि वे किसी किनारे पहुंचने का नाम नहीं लेते, और हर अदालती पेशी पर शरीफ शर्मसार होते हैं, और मवालियों से अदालती व्यवस्था मालामाल होती है। यह बात बहुत साफ है कि जब तक कानूनों पर ईमानदारी से असरदार अमल नहीं होगा, तब तक लोगों के मन में न्याय प्रक्रिया के लिए सम्मान नहीं रहेगा, फिर चाहे लोग किसी मुजरिम के कत्ल की सामूहिक हिम्मत जुटा पाएं, या नहीं। पुलिस और अदालत को अपनी इस जिम्मेदारी को समझना चाहिए जिसके पूरे न होने से भीड़ कानून अपने हाथ में लेती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


