संपादकीय
पंजाब में एक डीआईजी ने जब एक कारोबारी से रिश्वत उगाही की कोशिश की, तो उसने सीबीआई को शिकायत की, और कुछ लाख रूपए लेते हुए यह डीआईजी गिरफ्तार तो हुआ ही, इसके साथ-साथ जब उसके ठिकानों पर छापा पड़ा, तो साढ़े 7 करोड़ की नगद नोट, 5 करोड़ का सोना मिला, और इसके अलावा भारत, दुबई, और कनाडा में 71 प्रॉपर्टियों के सुबूत भी मिले। इस डीआईजी अर्चना सिंह भुल्लर ने अपने इलाके के कारोबारियों और सट्टेबाजों सरीखे मुजरिमों से महीना बांध रखा था। एक पुलिस अफसर ने लोगों से रकम निचोडऩे के लिए कई एजेंट तैनात कर रखे थे, और वे उसके लिए बैग और लिफाफे लेकर आने के एवज में कमीशन पाते थे। इस देश में बरसों पहले एक नोटबंदी हुई थी, और यह माना जा रहा था कि उसके बाद कालाधन खत्म हो जाएगा। अभी किसी पीडब्ल्यूडी अफसर के घर, तो किसी आबकारी अफसर के घर के छापों में करोड़ों की नगदी मिली है, और अब पंजाब में इस डीआईजी से। फिर यह भी है कि यह राज्य सरकार ने अपनी निगरानी से की हुई कार्रवाई की हो, ऐसा भी नहीं है। शिकायतकर्ता सीबीआई तक पहुंचा, और सीबीआई ने रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़ा। क्या कोई यह सोच सकते हैं कि किसी राज्य की सरकार को उसके ऐसे अरबपति बन चुके अफसर की खबर न हो कि वह परले दर्जे का भ्रष्ट है? शायद ऐसे ही नजारे के लिए किसी ने एक गाना लिखा था- पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा, हाल हमारा जाने है, जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग तो सारा जाने है...।
आज जब हिन्दुस्तान का तकरीबन पूरा हिस्सा लक्ष्मी पूजा की तैयारी में लगा हुआ है, और गैरहिन्दू कारोबारी भी अपने व्यापार की जगह पर बराबरी के उत्साह से लक्ष्मी पूजा करते हैं, तब कुबेर सरीखा यह खजाना कई लोगों के मुंह चिढ़ाता है। पंजाब पुलिस में दर्जनों डीआईजी होंगे, और उनमें से एक डीआईजी अगर 71 प्रॉपर्टी का मालिक मिल रहा है, जिसने घर पर साढ़े 7 करोड़ की नगदी रखी हुई है, सोना जिसके पास किलो के हिसाब से है, तो फिर देश में इस स्तर के हजारों अफसर हैं। इस स्तर से परे भी सरकार के कई ऐसे कमाऊ विभाग हैं जिसमें अखिल भारतीय सेवाओं के अफसरों की जरूरत नहीं पड़ती, और मझले दर्जे के विभागीय अफसर ही छापे में सैकड़ों के आसामी मिलते हैं। हमारा अपना अंदाज यह है कि किसी भी भ्रष्ट अफसर पर छापे में उसकी काली कमाई के पांच-दस फीसदी से अधिक की बरामदगी नहीं होती। इसके कोई सुबूत दर्जे के आंकड़े हमारे पास नहीं है, लेकिन हम आसपास पर्याप्त संख्या में भ्रष्ट लोगों को देख चुके हैं, और उनके पैसे खपाने की क्षमता भी जाहिर रहती है।
लक्ष्मी पूजा की चर्चा हमने इसलिए की है कि लोग मानते हैं कि पूजा करने से लक्ष्मी मिलती है। और पूजा करने के साथ-साथ धर्म की जो दूसरी मान्यताएं रहती हैं, उन्हें भी कई लोग मानते हैं कि दान-धरम करना चाहिए। लेकिन जब भ्रष्ट अफसरों और नेताओं को देखें, तो लगता है कि ऐसी कौन सी देवी हो सकती है जो ऐसे लोगों के भ्रष्टाचार का साथ देती होगी? अभी दो-चार साल के भीतर ही बंगाल में एक कोई ऐसे मंत्री पकड़ाए थे जिनकी प्रेमिका का एक खाली फ्लैट फर्श से छत तक नोटों से भरा हुआ था। भला धर्म की कौन सी धारणा इस तरह की कमाई का साथ दे सकती है? लक्ष्मी पूजा के ठीक पहले पंजाब के डीआईजी का कुबेर का ऐसा खजाना मिलना, दो दिन पहले गोहाटी में नेशनल हाईवे के एक बाबू के घर से 2 करोड़ 62 लाख रूपए नगद मिलना, ऐसी अंतहीन खबरों से हर हफ्ते यह समझ आता है कि नोटबंदी के बावजूद बैंक की किसी छोटी ब्रांच जितनी नगदी एक-एक अफसर के घर से निकलना देश की हकीकत है। सरकार किसी भी पार्टी की रहे, बहुत से नेता और अफसर इसी तरह कुबेर रहते हैं। काली कमाई का ऐसा जखीरा धर्म के असर से कायदे से तो भस्म हो जाना चाहिए था, लेकिन वह बढ़ते ही चलता है। सौ-पचास में से कोई एक मामला भांडाफोड़ होने से पकड़ाता है, वरना वह दुनिया भर में पूंजीनिवेश में खप जाता है।
दीवाली का मौका यह भी याद दिलाता है कि भारत में कारोबार करने के लिए व्यापारियों को सरकार में किस तरह, और किस हद तक रिश्वत देनी पड़ती है। अब लक्ष्मी पाने के लिए अगर उसकी इस तरह की पूजा अनिवार्य हो जाती है, तो फिर कौन सी सरकार ईज ऑफ डूइंग बिजनेस का दावा कर सकती है? भारत में यह सिलसिला भयानक है। इसका एक और बड़ा बुरा नुकसान होता है, कि मोटी रिश्वत, कमीशन, या रंगदारी देने की लागत व्यापार के खर्च में ही जुड़ जाती है, और इससे बाजार में एक गैरबराबरी का मुकाबला भी खड़ा हो जाता है। रिश्वत देने वाले लोग सरकारी खजाने को चूना लगाने के लिए कई तरह की छूट पाने लगते हैं, और उन्हीं के व्यापार में उन्हीं के मुकाबले जो दूसरे लोग रिश्वत नहीं देते, रियायत नहीं पाते, वे धीरे-धीरे मुकाबले से बाहर होने लगते हैं। यह कहा जाता है कि नकली नोट धीरे-धीरे असली नोटों को चलन से बाहर करने की क्षमता रखते हैं, ठीक उसी तरह खराब और भ्रष्ट व्यापारी धीरे-धीरे बाजार से अच्छे और ईमानदार व्यापारियों को बाहर करने की क्षमता रखते हैं।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभाग के एक प्रोफेसर, विनय पांडेय ने एक रिसर्च-नतीजे का दावा किया है कि 37 फीसदी शादियां इसलिए टूट रही हैं क्योंकि वर-वधू की कुंडलियां नहीं मिलाई जा रही हैं। उनका कहना है कि ग्रहदोष होने के बावजूद शादियां की जा रही हैं, और कुंडली की वजह से ही ऐसे पति-पत्नी शादी के बाद प्रेम-प्रसंगों में पड़कर नए जीवनसाथी ढूंढ रहे हैं, या एक-दूसरे का कत्ल करवा रहे हैं। प्रोफेसर पांडेय का कहना है कि उन्होंने अपने रिसर्च स्कॉलरों के साथ मिलकर छह महीने में इस शोध को पूरा किया है। उनका कहना है कि आजकल लड़के-लड़की की कुंडली में गुण मिलाए नहीं जाते, और आधुनिक बनने के चक्कर में लोग सनातन रस्में नहीं निभाते हैं। उनका कहना है कि मंत्रों के उच्चारण की जरूरत भी आजकल नहीं समझी जाती, और नतीजा यह है कि पति-पत्नी एक-दूसरे का कत्ल कर रहे हैं।
इस देश को सबसे पहले तो अमरीका से कभी-कभार हिंदुस्तान आने वाली सुनीता विलियम्स का सम्मान करना बंद कर देना चाहिए क्योंकि वह तो अंतरिक्ष में जाकर उन ग्रहों को अधिक करीब से देखती हैं जो कि पंडित विनय पांडेय, आशुतोष त्रिपाठी, और अमित कुमार मिश्रा की इस रिसर्च की भावना को चोट पहुंचाती है। जब भारत के कुछ विश्वविद्यालयों में अब ज्योतिष के तहत ग्रहों को पढ़ाया जा रहा है, तो नासा जैसी फ्रॉड अंतरिक्ष एजेंसी को ऐसे भारतीय विश्वविद्यालयों का अमरीकी अध्ययन केंद्र खोलना चाहिए ताकि एलन मस्क सरीखों पर अधिक पैसा बर्बाद न हो, और नासा ज्योतिष विज्ञान से ही सबकुछ सीख ले। भारत का इसरो मंगल पर अंतरिक्ष यान भेजने की तैयारी कर रहा है, उसमें एक-दो ज्योतिषी भी भेजने चाहिए जो मंगल से पूछ सकें कि वह शादी के वक़्त लड़के-लड़कियों की कुंडली में कुंडली मारकर क्यों बैठ जाता है, और रिश्ते नहीं होने देता? यह सिलसिला देश के लिए इतना खतरनाक हो चुका है कि बड़े-बड़े अखबार, टीवी चैनल, और करोड़ों हिट्स पाने वाली वेबसाइटें भी तथाकथित ज्योतिष पर आधारित कॉलम या कार्यक्रम दिखाने में लगे रहते हैं। यह पूरा सिलसिला देश में दहशत पैदा करके दुहने का है। ऐसे सारे ज्योतिषी चुनावों के समय बिल से निकलकर आते हैं, तरह-तरह की घोषणाएं करते हैं, और चुनावी नतीजे आने पर उनमें से अधिकतर पांच बरस के लिए फिर बिल में चले जाते हैं। भारत में कई चीजों को विज्ञान कहने का शौक है, इसमें ज्योतिष भी एक है। इसे न सिर्फ पेशेवर लोग विज्ञान कहते हैं, बल्कि सरकारों के धार्मिक और राजनीतिक रुझान के चलते कई विश्वविद्यालयों में इसके कोर्स शुरू कर दिए गए हैं। नतीजा यह है कि इस पूरी तरह अवैज्ञानिक विषय को एक वैज्ञानिक मान्यता दिलवा दी गई है। अब इसका अगला कदम यही हो सकता है कि चुनाव आयोग अपने अधिकृत ज्योतिषी रखे, और बिना मतदान के उनसे नतीजे निकलवा ले। चूंकि ये ज्योतिषी वैज्ञानिक का दर्जा भी प्राप्त होंगे, इसलिए उन पर ईवीएम जैसा शक भी विपक्षी पार्टियां नहीं कर सकेंगी।
इस मुद्दे से थोड़ा सा ऊपर उठकर अगर देखें, तो यह दिखता है कि जितनी अवैज्ञानिक बातें रहती हैं, वे अपने आपको विज्ञान का दर्जा दिलाने के लिए लगी रहती हैं। कुछ लोग तरह-तरह की धार्मिक बातों को विज्ञान का दर्जा दिलवाना चाहते हैं। अभी-अभी एक साध्वी का बयान आया कि गाय का पचास ग्राम घी जलाने से चालीस टन ऑक्सीजन पैदा होती है। अब विज्ञान की समझ रखने वाले लोग ऐसे दावों के झांसे में नहीं आएंगे, लेकिन धर्म पर अंधभक्ति रखने वाले लोग यह मान लेंगे कि साध्वी कह रही हैं तो सच ही होगा। ऐसा होने पर धर्म के लोग कोरोना के दौरान ऑक्सीजन के लिए गिरते-पड़ते अस्पतालों में क्यों पहुंचे थे? लोगों को वह तस्वीर भी याद होगी कि रामदेव नाम का एक भगवा लंगोटीधारी तबीयत खराब होने पर भागे-भागे जाकर एम्स में भर्ती हुआ था, और तुरंत ऑक्सीजन लेने लगा था। कायदे से तो उसे गाय के घी का दीया जलाकर उसके धुएं को सूंघना चाहिए था, या किसी गौशाला में बैठकर गाय की छोड़ी हुई सांस सूंघना चाहिए था जिसके बारे में दावा किया जाता है कि गाय ऑक्सीजन ही लेती है और ऑक्सीजन ही छोड़ती है। यह बड़े ही मजे की बात है कि धर्म बार-बार विज्ञान के बेजा इस्तेमाल की कोशिश में लगे रहता है, जबकि विज्ञान है कि वह धर्म की दुकान के सामने से निकल जाता है, उस तरफ झांकता भी नहीं है। इसी से पता चलता है कि दोनों में से अधिक अहमियत किसकी है। अंधभक्तों की बहुतायत धर्म के साथ हो सकती है, लेकिन उनमें से किसी को भी अगर कहकर देखें कि विज्ञान की दी हुई चीजों का इस्तेमाल न करें, बिजली, फोन, पेट्रोल, और पंप से आया हुआ पानी इस्तेमाल न करें, तो उनकी आस्था का वजन समझ में आ जाएगा, वह गैस के गुब्बारे से भी हल्की साबित होगी।
छत्तीसगढ़ के बस्तर के मुख्यालय जगदलपुर में इस पल नक्सलियों के हथियार डालने का एक समारोह चल रहा है जिसमें प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने दोनों उपमुख्यमंत्रियों सहित मौजूद हैं, और 210 नक्सली भी संविधान की कॉपी हाथ में लिए हुए खड़े हैं। उनके डाले गए डेढ़ सौ से अधिक हथियार भी इस मौके पर नुमाइश में हैं, और सरकार ने इसे किसी रणनीति के तहत आत्मसमर्पण कहने के बजाय इसे पुनर्वास के लिए हथियार छोडऩे की बात कही है। साथ ही बस्तर के आदिवासी समुदाय के बुजुर्गों के हाथों से इन नक्सलियों का स्वागत फूल देकर करवाया गया है, जिससे यह प्रतीकात्मक माहौल बना है कि नक्सली जंगल और बंदूक छोडक़र आदिवासी समुदाय में लौट रहे हैं। आज के इन नक्सलियों में एक करोड़ के ईनाम वाला एक माओवादी रूपेश भी शामिल है। कल से अबूझमाड़ के अलग-अलग इलाकों से निकलकर ये नक्सली बसों तक पहुंच रहे थे, और वहां से जगदलपुर रवाना हो रहे थे। उनके साथ छत्तीसगढ़ के कुछ उत्साही पत्रकार भी चल रहे थे, और आज के इस हथियार डालने का कल से इंतजार चल रहा था।
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यह हथियारबंद नक्सलियों का सबसे बड़ा आत्मसमर्पण है जिसे सरकार और नक्सली दोनों ही हथियार डालकर पुनर्वास की तरफ आगे बढऩा कह रहे हैं। हम अभी इस रणनीतिक शब्दावली की बारीकी और उसके पीछे की वजह पर जाना नहीं चाहते, क्योंकि यह पल लोकतंत्र की जीत का है, केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय, गृहमंत्री विजय शर्मा की कामयाबी का है। यह एक बड़ी खबर इसलिए भी है कि पिछले 22 महीने में छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार आने के बाद जिस बड़े पैमाने पर मुठभेड़ों में नक्सलियों को मारा गया था, वह सिलसिला आज जारी रह सकता था क्योंकि नक्सल आंदोलन कमजोर हो गया है, और सुरक्षा बल आगे बढ़ते चले गए हैं, उन्होंने नक्सल कब्जे से कई इलाकों को छुड़ा लिया है। लेकिन लोकतंत्र में सरकार और संविधान के खिलाफ हथियारबंद आंदोलनकारियों को भी मारने के बजाय उन्हें लोकतंत्र की मूलधारा में लाना एक अधिक बड़ी कामयाबी रहती है। हम बीते दशकों में कई बार शांतिवार्ता से नक्सल हिंसा को खत्म करने की वकालत करते आए हैं, और अभी छत्तीसगढ़ सरकार ने पर्दे के पीछे की बातचीत से यह माहौल बनाया कि हथियारबंद नक्सलियों ने इतनी बड़ी संख्या में हथियार छोड़े। इस कार्यक्रम में अभी सरकार की तरफ से यह भी साफ किया गया है कि पुनर्वास के लिए आए इन नक्सलियों के सामने ऐसी कोई शर्त नहीं है कि उन्हें जिला पुलिस बल में शामिल होना है। गृहमंत्री विजय शर्मा ने यह साफ किया कि जिला पुलिस बल में कुल 10 फीसदी ही पूर्व नक्सली हैं, बाकी दूसरे लोग हैं। इस पुलिस बल में शामिल होने की शर्त किसी नक्सली के सामने नहीं रखी गई है।
छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बनने के बाद से 22 महीनों में नक्सल मोर्चे पर पौने पांच सौ से अधिक नक्सली मारे गए हैं, दो हजार से अधिक ने आत्मसमर्पण किया, और करीब 19 सौ लोग नक्सल आरोपों में गिरफ्तार हुए। हमने पहले भी इसी जगह कई बार इस बात को लिखा कि इतनी बड़ी संख्या में नक्सलियों के मारे जाने पर भी गिनती की कुछ मौतों को लेकर ही यह बात उठी कि मरने वाले नक्सली न होकर आम ग्रामीण थे। जबकि इसके पहले फर्जी मुठभेड़ों की शिकायतों से राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, और सुप्रीम कोर्ट में मामले खड़े ही रहते थे, न्यायिक जांच में भी करीब डेढ़ दर्जन बेकसूर लोगों को मारने की बात साबित हो चुकी थी। इस बार मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय की सरकार ने नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई तो जमकर की, लेकिन ऐसे आरोप नहीं लग पाए, जो कि एक बड़ी कामयाबी की बात है। अब आज जो हथियार डाले गए हैं, वे बतलाते हैं कि सरकार के किसी न किसी स्तर से नक्सल लीडरशिप, और आम नक्सलियों की बातचीत चल रही थी, और उसी के चलते हुए आज से आत्मसमर्पण नहीं कहा गया, और आदिवासी समुदाय को बीच में रखा गया कि नक्सलियों ने उनके सामने हथियार डाले, और समुदाय ने पुनर्वास के लिए उनका स्वागत किया। हमें शब्दावली की ऐसी चतुराई में कुछ भी खराब नहीं लग रहा है क्योंकि इससे जो नतीजा निकल रहा है, वह लोकतंत्र की मजबूती का है। आज ये डेढ़ सौ से अधिक बंदूकें बस्तर में कभी सुरक्षाबलों को मार रही थीं, तो कभी बेकसूर ग्रामीणों को। इन बंदूकों से परे बस्तर के नक्सल इलाकों में चारों तरफ जमीनी सुरंगें भी लगी हुई थीं, और यह माना जाना चाहिए कि इन नक्सलियों से मिली जानकारी से अबूझमाड़ के इलाके में यह खतरा कुछ कम हो सकेगा।
गुजरात के जूनागढ़ जिले में गिरनार पहाड़ी पर गोरखनाथ मंदिर में तोडफ़ोड़ की खबर 5 अक्टूबर को आई। मंदिर की प्रतिमा को तोडक़र पहाड़ी से फेंक दिया गया था, और भक्तजनों में भारी नाराजगी फैली थी। पुलिस की पहली खबर में अज्ञात लोगों द्वारा की गई तोडफ़ोड़ बताया गया था। अब 14 तारीख को पुलिस ने इस मामले का खुलासा किया, और बताया कि यह तोडफ़ोड़ करने वाले कोई बाहरी लोग नहीं थे, बल्कि मंदिर के ही एक कर्मचारी, और एक स्थानीय फोटोग्राफर ने यह काम किया था, दोनों गिरफ्तार हो गए हैं, और उन्हें अपना जुर्म कुबूल कर लिया है। इस भांडाफोड़ के पहले तक लोग बहुत विचलित थे कि एक हिन्दू मंदिर में ऐसी तोडफ़ोड़ की गई है, और पुलिस ने डेढ़ सौ से अधिक जगहों पर लगे सीसीटीवी कैमरों की रिकॉर्डिंग की जांच की, मंदिर के आसपास के इलाकों में धर्मशालाओं को भी जांचा, आने-जाने वाले पांच सौ भक्तों की आवाजाही परखी, और दो सौ लोगों से बयान लिए। इतनी मेहनत के बाद जो दो लोग पकड़ाए, वे 42 बरस का किशोर कुकरेजा, और 50 बरस का रमेश भट्ट, ये दो लोग थे। इनमें कुकरेजा मंदिर का ही कर्मचारी था जो कि चाहता था कि मंदिर में भीड़ बढ़े, दान अधिक आए, उसकी शोहरत अधिक हो, इसलिए उसने यह साजिश की कि मंदिर खबरों में आ जाए। उसने मंदिर आने-जाने वाले स्थानीय फोटोग्राफर रमेश भट्ट के साथ मिलकर एक रात पुजारी का कमरा बाहर से बंद किया, और प्रतिमा को तोडक़र पहाड़ से नीचे फेंक दिया। और पुलिस में रिपोर्ट लिखाई की चार अज्ञात लोगों ने मंदिर में आकर सब तोड़ दिया।
अब देखा जाए कि मंदिर की इस तोडफ़ोड़ से अगर तनाव खड़ा हुआ रहता, तो वह कहीं तक भी जा सकता था। रिकॉर्डिंग में कोई ऐसी चीज सामने आ जाती जिससे किसी दूसरे धर्म के लोगों की उसी वक्त के आसपास मंदिर तक की आवाजाही दिखती, तो गुजरात तो वैसे भी लंबे समय से साम्प्रदायिक तनाव से गुजरा हुआ प्रदेश है। दूसरी तरफ देश में जगह-जगह, कई जगह धार्मिक तनाव खड़ा करने के लिए इस तरह की साजिश की गई है। यूपी में तो देश के सबसे प्रखर हिन्दुत्ववादी, योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री हैं, और उनकी पुलिस के एक हिन्दू आईजी ने एक साम्प्रदायिक साजिश का भांडाफोड़ किया था। उन्होंने अपने इलाके की एक घटना बताई थी कि एक जगह गाय को काटकर फेंक दिया गया था, और उसके पास एक मुस्लिम नौजवान का आधार कार्ड पड़ा मिला था। बाद में हिन्दू एसपी, हिन्दू थानेदार, और बाकी तमाम हिन्दू पुलिस कर्मचारियों की जांच में पता लगा था कि उस इलाके के एक हिन्दू संगठन का मुखिया इस साजिश के पीछे था। उसने दो-तीन दूसरे हिन्दुओं को पैसा देकर गाय कटवाकर फिंकवा दी थी ताकि उस इलाके में साम्प्रदायिक तनाव फैले, और वहां के थानेदार का तबादला हो जाए जो कि इस हिन्दू नेता को मनमाने जुर्म नहीं करने दे रहा था। सारे सुबूतों के आधार पर, गाय काटने वाले लोगों के बयानों के आधार पर यूपी पुलिस ने इस हिन्दू नेता को गिरफ्तार किया, और इलाके में साम्प्रदायिक दंगा होने का खतरा खत्म हुआ।
महाराष्ट्र की राजधानी मुम्बई में सडक़ों की बदहाली को लेकर अभी बाम्बे हाईकोर्ट ने सख्त तेवर दिखाए हैं, और यह कहा है कि सडक़ों के गड्ढों की वजह से अगर किसी की मौत होती है, तो उसे सडक़ ठेकेदार और म्युनिसिपल के पैसों से मुआवजा दिया जाएगा। ऐसी मौत पर परिवार को 6 लाख रूपए मुआवजा दिया जाए, और जख्मी होने पर 50 हजार रूपए से लेकर ढाई लाख रूपए तक का। हाईकोर्ट के दों जजों की बेंच ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि बिना गड्ढों वाली अच्छी हालत की सडक़ पाना नागरिकों का अधिकार है, और ऐसा मुहैया न करा पाना संविधान में दिए गए जीवन के अधिकार का उल्लंघन होगा। इस फैसले के साथ छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के पिछले बरसों के रूख को देखें तो यह समझ पड़ता है कि देश में जगह-जगह इसी तरह की हालत चल रही है। बहुत से राज्यों में सडक़ें नामौजूद सरीखी हैं। अब बाम्बे हाईकोर्ट का यह ताजा आदेश वैसे तो मुम्बई महानगरपालिका के इलाके को लेकर है, लेकिन इससे परे गैरशहरी इलाकों में भी सडक़ों की बहुत खराब हालत है। छत्तीसगढ़ में जगह-जगह ट्रकों और बसों के मिट्टी और दलदल के बीच से किसी तरह रेंगते हुए निकलने के वीडियो देखकर लगता है कि इन ड्राइवरों के हौसले, और ट्रकों के इंजन में ऐसी कितनी ताकत रहती है कि वे यह जगह पार कर पा रहे हैं, जो कि सडक़ है, और मौके पर नहीं है!
आज देश में केन्द्र सरकार की तरफ से बड़ी-बड़ी सडक़ परियोजनाओं का खूब प्रचार होता है, कहीं उसे कोई स्वर्णिम नाम दिया जाता है, तो कहीं भारतमाला नाम, और बहुत भारी बजट से बहुत अच्छे किस्म की ये सडक़ें महानगरों को जोडऩे वाली रहती हैं, जिनके आसपास रहने वाले लोग भी तरह-तरह के टोलटैक्स की वजह से उसके इस्तेमाल से बचते हैं। लेकिन केन्द्र की ऐसी नामी-गिरामी परियोजनाओं से परे जब बात राज्यों के भीतर की दूसरी सडक़ों की आती है, तो राष्ट्रीय राजमार्ग हो, या प्रादेशिक राजमार्ग, उनकी हालत खराब दिखती है। सिर्फ टोल सडक़ों की हालत जरा बेहतर रहती है क्योंकि निजी ठेकेदार उन्हें बनाते हैं, और बाद में 25-30 बरस तक वहां वसूली करते हैं। छत्तीसगढ़ में हाईकोर्ट ने केन्द्र और राज्य दोनों के अफसरों को कटघरे में खड़ा कर रखा है, क्योंकि टोल सडक़ों की हालत भी बहुत खराब है, ठेकेदार रखरखाव की शर्त को पूरा नहीं करते, और सिर्फ वसूली-उगाही करते रहते हैं। देश में कई बड़ी अदालतें ऐसी टोल वसूली के खिलाफ आदेश कर चुकी हैं, जिनमें सुप्रीम कोर्ट भी शामिल है।
अब टोल सडक़ों से परे राज्यों के भीतर की सडक़ों को देखें, तो अधिकतर राज्यों के पास उन्हें बेहतर तरीके से बनाने के बजट नहीं रह गए हैं। अभी बिहार चुनाव ताजा मिसाल है जहां पर ताजा चुनावी वायदों में ही राज्य का 60 फीसदी बजट चले जाने का अंदाज है। मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनके साथ के भाजपा वाले गठबंधन ने जितने चुनावी वायदे किए हैं, उसे लेकर यह फिक्र जाहिर की जा रही है कि बहुत बुरी तरह कमजोर अर्थव्यवस्था किस तरह यह बोझ उठा सकेगी? इसके बाद वहां पर तनख्वाह भी बंट पाएगी या नहीं, और ऐसे में सडक़ सुधारने की फिक्र भला कौन पूरी कर पाएंगे? और बात सिर्फ बिहार की नहीं है, आगे-पीछे बहुत से राज्यों का यही हाल है। मतदाताओं तक सीधा फायदा पहुंचाने की चुनावी रणनीति अगले पांच बरस तक सरकारों के पास विकास कार्य और ढांचागत विकास के लिए बहुत कम गुंजाइश छोड़ती है। ऐसा लगता है कि सत्तारूढ़ पार्टियां सरकार चलाने के बजाय चुनाव लडऩे को ही पांच बरस की अपनी जिम्मेदारी मान लेती हैं, और जिस तरह दाखिला इम्तिहानों में कामयाबी को ही पढ़ाई मान लिया जाता है, स्कूल-कॉलेज के कोर्स को कोई महत्व नहीं दिया जाता है, उसी तरह वोटरों को रिझाने पर ही पूरी मेहनत लगा दी जाती है, और राज्यों का विकास थम जाता है, या बहुत धीमा हो जाता है।
पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर में अभी एक मेडिकल छात्रा के साथ कॉलेज के पास ही गैंगरेप हुआ, जिस पर बेहद दुख जाहिर करते हुए मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने इसे स्तब्ध कर देने वाला भी कहा। उन्होंने कहा कि कोई भी आरोपी बख्शा नहीं जाएगा, और कॉलेजों में सुरक्षा के लिए सरकार कड़ी हिदायत जारी करेगी। लेकिन इसके साथ-साथ ममता बैनर्जी के बयान के एक दूसरे हिस्से को लेकर भारी नाराजगी फैली है। ममता ने यह कहा था कि बलात्कार की शिकार लडक़ी रात साढ़े 12 बजे हॉस्टल-कॉलेज से बाहर कैसे आई थी, इस पर भी गौर करना चाहिए। उन्होंने कहा कि लड़कियों को देर रात बाहर नहीं निकलने देना चाहिए, खासकर सुनसान इलाकों में सतर्क रहना चाहिए, कॉलेजों को छात्राओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। इसके बाद राज्य में प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा ने ममता की जमकर आलोचना की, और इस गैंगरेप पीडि़त छात्रा के पिता ने ममता के बयान को गैरजिम्मेदार बताया। उन्होंने कहा कि क्या महिलाओं को अपनी नौकरी छोडक़र घर बैठ जाना चाहिए? ऐसा लगता है कि बंगाल औरंगजेब के शासन में है। उन्होंने कहा कि वह अपनी बेटी को वापिस ओडिशा ले जाएंगे। यह छात्रा आधी रात के बाद कॉलेज कैम्पस के बाहर किसी दोस्त से मिलने, या उसके साथ निकली थी, और वहां से कुछ लोगों ने उसे पास में किसी सुनसान जगह पर ले जाकर उससे गैंगरेप किया था।
ममता बैनर्जी का इतिहास बलात्कार के मामलों में बड़े गैरजिम्मेदार बयानों का रहा है। वे जैसे ही मुख्यमंत्री बनी थी, एक बच्ची से बलात्कार हुआ था, और उसकी रिपोर्ट होने पर ममता ने उसे अपनी सरकार को बदनाम करने की राजनीतिक साजिश कहा था, हमने इसी संपादकीय की जगह पर कई बार उस घटना का जिक्र किया है, और ममता की गैरजिम्मेदारी को याद किया है। अपने राज में होने वाले किसी भी तरह के जुर्म को लेकर ममता तुरंत ही मुजरिमों के वकील की तरह बहस करने लगती हैं, और हर बात को राजनीतिक साजिश करार देने लगती हैं, जिससे कि उनकी साख महिलाओं के खिलाफ जुर्म के मामले में पूरी तरह चौपट हो चुकी है। लोगों को याद होगा कि बंगाल में संदेश खाली नाम की जगह पर ममता की तृणमूल कांग्रेस के एक नेता, शेख शाहजहां, और उनके साथियों पर बहुत से हिन्दू महिलाओं से बलात्कार, और उनके यौन शोषण के आरोप लगे थे। इस पर पूरे देश में बंगाल सरकार और टीएमसी के खिलाफ नाराजगी फैली थी, लेकिन उन्होंने एक रैली में कहा था कि संदेश खाली में बलात्कार की कोई घटना नहीं हुई, और भाजपा माहौल खराब करने की कोशिश कर रही है। इसके बाद लोकसभा चुनाव प्रचार में ममता ने संदेश खाली को भुला देने की अपील की थी, और कहा था कि भाजपा ने महिलाओं को पैसे देकर झूठे बयान दिलवाए हैं। इसके बाद कोलकाता के आर.जी.कर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में एक जूनियर डॉक्टर से बलात्कार और उसके कत्ल पर ममता ने कहा था कि लड़कियां रात में ड्यूटी न करें। जब कोई मुख्यमंत्री अपने प्रदेश के सबसे भयानक जुर्म पर हर बार या तो राजनीतिक साजिश की आड़ ले, या जुर्म के शिकार लोगों को ही सावधान रहने की जिम्मेदारी सिखाए, तो ऐसी मुख्यमंत्री की कोई साख नहीं रह जाती। 2011 से लेकर अब तक ममता बैनर्जी का यही ट्रैक रिकॉर्ड है, और राष्ट्रीय महिला आयोग के अलावा सुप्रीम कोर्ट की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि ममता को अपने गैरजिम्मेदार बयान और झूठे आरोपों के लिए कटघरे में खड़ा करे।
अब जब ममता बैनर्जी के बारे में हम अपनी सोच साफ कर चुके हैं, तो बंगाल की इस ताजा घटना को लेकर कुछ सोचने की जरूरत है। सरकार और कॉलेज इन दोनों ने सुरक्षा के पर्याप्त इंतजाम नहीं किए, वह तो है ही, लेकिन क्या इस छात्रा ने अपनी हिफाजत की पर्याप्त फिक्र की थी? एमबीबीएस दूसरे साल की पढ़ाई में आधी रात के बाद कॉलेज के बाहर आने-जाने की कोई शैक्षणिक जरूरत हमें नहीं मालूम है। और अगर ऊंची क्लास में पहुंचने के बाद भी रात-बिरात छात्राओं की ड्यूटी मरीजों के लिए लगती है, तो भी वह कॉलेज-कैम्पस के भीतर-भीतर होती है। हमने योरप के ऐसे कई विश्वविद्यालय और शहर देखे हैं जहां पूरी रात सडक़ों पर छात्राओं का अकेले आना-जाना होते रहता है, लेकिन बलात्कार की कोई घटना वहां नहीं होती। समाज में लड़कियों के देर रात अकेले आने-जाने को लेकर जहां भी एक सहनशीलता है, वहां लड़कियां सुरक्षित हैं। लेकिन भारत में अधिकतर शहरों में, या यह कहना बेहतर होगा कि तकरीबन तमाम शहरों में आधी रात के काफी पहले से किसी लडक़ी का अकेले आना-जाना लोगों के लिए सनसनी की बात रहती है। लोग अपनी गाडिय़ों से उसका पीछा करने लगते हैं, उसके करीब जाने लगते हैं, और उसे ले जाने की कोशिशें करते हैं। इतनी देर रात अकेले आने-जाने वाली लडक़ी या महिला को आम लोग आसानी से हासिल हो जाने वाली, धंधे वाली लडक़ी समझ लेते हैं। जब समाज की हकीकत यह है, तो फिर आधी रात को अकेली लडक़ी के महिला अधिकारों की एक हसरत तो की जा सकती है, लेकिन हकीकत में इस हसरत के सांस लेने की गुंजाइश बड़ी कम है। भारत के सामाजिक वातावरण को समझने की जरूरत है क्योंकि यहां पर परंपरागत रूप से, ऐतिहासिक रूप से लडक़ी या महिला को उपभोग का सामान ही अधिक माना जाता है, उसके नागरिक अधिकार कहीं भी बराबर नहीं गिने जाते।
आज 13 अक्टूबर की सुबह जब हम यह लिख रहे हैं, उसी पल इजराइल के एयरपोर्ट पर अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प का विमान उतरा है, और दूसरी तरफ फिलीस्तीन के हमास के कब्जे से इजराइली बंधकों का एक जत्था रिहा होकर रेडक्रॉस के मार्फत इजराइल की जमीन पर पहुंच गया है। दो बरस एक हफ्ते बाद की यह रिहाई करीब दो दर्जन जिंदा, और दो दर्जन गुजर चुके बंधकों की रिहाई वाली रहेगी, और इसके एवज में इजराइल सैकड़ों फिलीस्तनी कैदियों को रिहा करने जा रहा है जिसमें कुछ दर्जन ऐसे स्वास्थ्य कर्मचारी भी हैं जो कि इजराइली हमले में घायल हुए फिलीस्तीनियों के इलाज में लगे हुए थे। यह मौका दुनिया के इस हिस्से के लिए बड़ी अहमियत इसलिए रखता है कि पूरे मध्य-पूर्व में, खाड़ी के देशों में, अकेला इजराइल परमाणु हथियार संपन्न देश है, और मुस्लिम देशों में से कुछ के साथ उसके फौजी तनातनी के रिश्तों का बड़ा लंबा इतिहास रहा है। इजराइल और गाजा के बीच के हथियारबंद टकराव में इजराइली फौजी हमलों में अब तक 67 हजार से अधिक फिलीस्तीनी मारे गए हैं, जिनमें से अधिकतर तो निहत्थे नागरिक थे, महिला-बच्चे थे।
दुनिया के इतिहास के इस पल को देखें, तो यह लगता है कि ट्रम्प ने जिस अंदाज में इजराइल और गाजा के हथियारबंद संगठन हमास के बीच यह समझौता कराया है, वह ट्रम्प ही करवा सकता था, और शायद इसी अंदाज में करवा सकता था। इसके पहले उसने परदे के पीछे से शायद निहत्थे फिलीस्तीनियों पर फौजी हमले बढ़ाने की छूट भी दी होगी, और माहौल में जब तनाव बहुत अधिक बढ़ गया, तब उसे सुलझाने का शायद नाटक भी किया होगा। उसने नोबल शांति पुरस्कार कमेटी की बैठक के ठीक पहले इस समझौते की घोषणा की, और यह उम्मीद भी की कि इस बरस का यह पुरस्कार उसे मिले, यह एक अलग बात है कि यह उसे न मिलकर उसकी एक कट्टर समर्थक महिला को वेनेजुएला में अपने आंदोलनों की वजह से मिला है।
हम एक बार फिर आज के गाजा के मुद्दे पर लौटें, तो लगता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ सहित दुनिया की बहुत सी दूसरी ताकतें फिलीस्तीन को बचाने में बेअसर साबित हुईं। जिन देशों ने अभी कुछ हफ्ते पहले फिलीस्तीन को एक देश के रूप में मान्यता दी, उनमें से भी ब्रिटेन और जर्मनी तो ऐसे थे जो कि इजराइल को हथियार बेच ही रहे थे, उन्होंने हथियार बेचना बंद नहीं किया था, इजराइल के खिलाफ कोई फैसला नहीं लिया था। ऐसे में अमरीका, जो कि पूरी तरह से इजराइल का सरपरस्त बना हुआ है, उसे एक के बाद एक अमरीकी राष्ट्रपति फिलीस्तीन पर बरसाने के लिए हथियार और बम देते आ रहे थे, उस अमरीका ने इजराइल और हमास दोनों की बांहें मरोडऩे का दिखावा करते हुए वह करवाया है, जो कि इजराइल चाहता था, और इसे एक समझौते की तरह पेश किया गया। लेकिन इससे भी हमें कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि पश्चिम के बड़े-बड़े देशों ने इस समझौते से सहमति जताई है, और मध्य-पूर्व के अधिकतर मुस्लिम देशों ने हामी भरी है। भारत जैसा दूर बैठा देश भी इस समझौते की तारीफ कर रहा है, और इसके खिलाफ कोई आवाज उठी नहीं है। मतलब यह कि बाहुबली ट्रम्प ने लोगों की बांह मरोडक़र अपनी मर्जी का यह समाधान लागू करवा दिया है। हम हर दिन फिलीस्तीन में होती दर्जनों मौतों को किसी भी तरह रोकने के हिमायती थे, और फिलहाल वहां के दसियों लाख लोगों को सांस लेने, पेट में दो कौर डालने, और शायद मरहम लगाने का एक मौका मिला है। इसके साथ-साथ ट्रम्प के प्लान में गाजा के पुनर्निर्माण की जो बात है, उस सच को अनदेखा नहीं किया जा सकता क्योंकि मजहब के गद्दार मुस्लिम देशों ने दुनिया के इस सबसे गरीब और जुल्म के शिकार, जख्मी और बेघर हो चुके देश के लिए कुछ भी नहीं किया, जबकि यह भी उन्हीं के मुस्लिम ब्रदरहुड वाला देश है। यह बताता है कि मजहब के दावे करने वाले लोग किस हद तक बेरहम और बेइंसाफ हो सकते हैं। आज यही मुस्लिम देश ट्रम्प के हाथों बांह मरोड़ी जाने पर फिलीस्तीन का साथ देने के लिए खड़े हुए हैं, लेकिन 67 हजार लोगों के मारे जाने पर इन लोगों ने कफन-दफन के मौके पर कहे जाने वाले दो शब्द भी नहीं कहे थे।
हिमाचल की एक खबर आई है कि वहां के एक बुजुर्ग वैद्य रामकुमार बिंदल ने एक नौजवान मरीज महिला के साथ इलाज के नाम पर छेडख़ानी की, और यौन हमला किया। किसी तरह वह युवती बचकर निकली, और जाकर महिला थाने में रिपोर्ट की। 81 बरस का यह वैद्य हिमाचल प्रदेश भाजपा अध्यक्ष राजीव कुमार बिंदल का बड़ा भाई भी है। अब इस उम्र में उसने 25 बरस की एक मरीज का यौन शोषण करने की कोशिश की। इस मामले में भाजपा ने कुछ नहीं कहा है, और महिलाओं के संगठनों ने कड़ी कार्रवाई की मांग की है। कल-परसों की ही खबर है कि पश्चिम बंगाल में एक बार फिर एक मेडिकल छात्रा के साथ गैंगरेप हुआ है, और वह गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती है, यह सबको याद होगा कि किस तरह कोलकाता के एक मेडिकल कॉलेज में 2024 में एक जूनियर डॉक्टर के साथ बलात्कार करके उसका कत्ल कर दिया गया था, और उसके खिलाफ बंगाल में एक बहुत बड़ा जनआंदोलन खड़ा हुआ था। एक अलग खबर मध्यप्रदेश से आई है जहां बुरहानपुर के सरकारी स्वास्थ्य केन्द्र में चीरघर में रखी गई एक महिला की लाश को स्ट्रेचर पर से एक आदमी घसीटकर ले जाता है, और उसके साथ बलात्कार करता है। 2024 का यह वीडियो अभी सामने आया, और पुलिस ने सीसीटीवी रिकॉर्डिंग से इस आदमी, भाईलाल को गिरफ्तार भी कर लिया है। उसके खिलाफ शव के साथ यौन छेड़छाड़ का जुर्म दर्ज किया गया है। रिकॉर्डिंग बताती है कि यह घटना सुबह पौने 7 बजे हुई जिस वक्त चारों तरफ रौशनी हो चुकी थी। इस आदमी ने अपना जुर्म कुबूल कर लिया है। ट्विटर पर एक पत्रकार ने जब अस्पताल का यह वीडियो पोस्ट किया, और लिखा कि भारतीय समाज बीमार है, और महिला मरने के बाद भी ऐसे भयानक बर्ताव से बच नहीं सकती, तो उसके नीचे एक आदमी ने टिप्पणी की है- आंटी तेरा शोषित वंचित है यह। इन लोगों को मुजरिम जनजाति के दर्जे में रखने की एक वजह थी।
हिमाचल की इस खबर को देखें, तो रामकुमार बिंदल जो कि बलात्कार करते हुए पकड़ाया है, वह तो शोषित वंचित और मुजरिम जनजाति का नहीं है। वह तो वहां की सबसे ऊंची कही जाने वाली जाति का है, और जिसका नाम भी माँ-बाप ने भगवान के नाम पर रखा था। उम्र भी वानप्रस्थ आश्रम में जाने की हो गई थी, और पेशा भी मरीजों को ठीक करने का था। लेकिन कोई भी बात काम नहीं आई। बलात्कारी हर धर्म, हर जाति, हर उम्र, हर पेशे के होते हैं। और बलात्कार की शिकार आमतौर पर उनसे कमजोर धर्म, कमजोर जाति, आर्थिक रूप से कमजोर होती हैं। फिर सामूहिक बलात्कार के मामलों में तो सर्वधर्म, समभाव काम आता है, और बलात्कारी सारे धार्मिक भेदभाव छोडक़र, जातियों का फर्क छोडक़र किसी लडक़ी या महिला को घेरकर उससे बलात्कार करने के लिए एक हो जाते हैं। लोगों को जम्मू के कठुआ का सामूहिक बलात्कार याद होगा जिसमें 8 बरस की मुस्लिम खानाबदोश लडक़ी आसिफा बानो के साथ 6 मर्दों और एक नाबालिग ने बलात्कार किया था, और इसका एक मकसद जम्मू-कश्मीर की इस बंजारा जाति के लोगों को आतंकित करना भी था, ताकि वे लोग यह हिन्दू-बहुल इलाका छोडक़र चले जाएं। बलात्कार करने वाले 8 लोगों में अपहरण, बलात्कार, और कत्ल की साजिश बनाने वाला सांजीराम नाम का आदमी था जो कि एक मंदिर का पुजारी था, उसका बेटा और भतीजा भी इसी बलात्कार में शामिल थे, और उन्होंने फोन कर-करके दूसरे लोगों को बलात्कार के लिए बुलाया था। 8 बरस की बच्ची पर 7 लोगों का यह बलात्कार जम्मू के कठुआ के रसना गांव में देवस्थान मंदिर में हुआ था।
बलात्कार के मामलों में मर्द का गुफाकाल का बाहुबल काम आता है, या फिर उसकी संपन्नता, और जाति-धर्म का बाहुबल। और दूसरे धर्म या जाति से जितना भी परहेज रहता है, वह बलात्कार के मामलों में खत्म हो जाता है। जब किसी लडक़ी या महिला से बलात्कार करना होता है, तो वह अछूत भी नहीं रह जाती। उसके बदन के सबसे अंतरंग हिस्से जिन्हें कि कुछ मायनों में गंदा भी माना जा सकता है, वे भी, और वे ही, मर्द की सबसे बड़ी दिलचस्पी की जगह बन जाते हैं, और किसी जात-धरम की लडक़ी-महिला के गुप्तांगों में दाखिले से भी किसी ऊंची कही जाने वाली जाति या अहंकारी धर्म को छुआछूत नहीं लगता। यह बात जिंदा पर भी लागू होती है, और लाश के साथ बलात्कार करने वालों पर भी।
नवंबर का महीना छत्तीसगढ़ के लिए बड़ी गहमागहमी का रहेगा, पहला हफ्ता राज्य के स्थापना के जलसे का रहता है, और इस बार रजत जयंती वर्ष होने से उत्साह कुछ अधिक रहेगा। इसमें प्रधानमंत्री और उपराष्ट्रपति के आने की खबर है, और नवंबर के आखिरी हफ्ते में ही छत्तीसगढ़ में देश के सभी पुलिस महानिदेशकों की एक कांफ्रेंस होना तय है, उसमें फिर प्रधानमंत्री और केन्द्रीय गृहमंत्री जैसे देश के कुछ सबसे बड़े लोग पहुंचेंगे। सरकार में इस बात को लेकर कुछ खलबली है कि प्रधानमंत्री कार्यालय से यह खबर भेजी गई है कि किफायत बरतने के लिए आने वाले सभी लोगों के ठहरने का इंतजाम सरकारी भवनों में ही किया जाए, और कार्यक्रम का आयोजन भी सरकारी भवनों में हो। डीजी कांफ्रेंस तो राज्य में पहली बार हो रही है, लेकिन वह हर बरस किसी न किसी राज्य में होती ही है। अधिक महत्वपूर्ण यह है कि इतने बड़े सरकारी आयोजन में किफायत बरतने के लिए सिर्फ सरकारी इंतजाम इस्तेमाल करने को कहा गया है।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम राज्य बनने के बाद से लगातार यह बात उठाते चले आ रहे हैं कि सरकारी आयोजनों को महंगे होटलों में नहीं करना चाहिए, और न ही महंगे होटलों को खाने-पीने का काम देना चाहिए। यह सब कुछ उसी गरीब जनता की जेब से जाता है जो कि केन्द्र सरकार से हर महीने पांच किलो अनाज पाती है, और जिसे एक रूपए किलो चावल देकर तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह चाऊंर वाले बाबा बन गए थे। हम उस समय से ही यह लिखते आ रहे थे कि प्रदेश में जो बहुत से फिजूल के महज नाम के लिए बनाए गए निगम-मंडल हैं, जिन्हें किसी नेता की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए, उसे सहूलियत देने के लिए बनाया जाता है। ऐसे में इस राज्य को एक अतिथि सत्कार मंडल की जरूरत है जो कि हर किस्म के सरकारी आयोजनों के लिए एक स्थाई सम्मेलन स्थल विकसित करे, और सस्ते सरकारी इंतजाम में जनता के पैसों के सारे ही बड़े आयोजन हो सकें। आज दर्जनों बड़ी-बड़ी होटलों का कारोबार सरकार पर टिका रहता है, और बड़े से बड़े सरकारी आयोजन में होटल मालिक इस अंदाज में घूमते हैं कि मानो वे ही मेजबान हैं।
अगर प्रधानमंत्री की तरफ से सचमुच यह पहल की गई है, तो यह एक बहुत अच्छी बात है, और सरकारों को किफायत के बारे में सोचना चाहिए। छत्तीसगढ़ को राज्य बने 25 बरस हो गए हैं, लेकिन आज तक यहां सरकार के पास राष्ट्रीय स्तर का एक सम्मेलन स्थल भी नहीं है। हर बरस दर्जनों ऐसे सरकारी और राजनीतिक आयोजन होते हैं जिनमें एक-एक करोड़ रूपए तो शामियानों पर ही खर्च हो जाते हैं। आज छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में शहर के बीच दर्जनों एकड़ जमीन सरकारी कॉलोनियां तोडक़र खाली हुई है, और सरकार अगर चाहे तो यहां पर भी एक सम्मेलन स्थल बन सकता है, और नया रायपुर नाम की राजधानी तो आज खाली ही पड़ी हुई है, वहां एक बड़ा अंतरराष्ट्रीय स्तर का सम्मेलन स्थल बन सकता है। सरकार के पास जमीन अपनी है, और उसे अपना ढांचा तैयार करके कारोबारियों पर पैसा बर्बाद करना बंद भी करना चाहिए। आज बिखरे हुए होटलों के बीच किसी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के लायक कोई इंतजाम यहां नहीं हैं। नया रायपुर अपने आपमें हजारों लोगों के किसी सम्मेलन की मेजबानी करने जितनी जगह वाला देश का एक शानदार नियोजित बना हुआ शहर है। उससे लगा हुआ ही एयरपोर्ट है, और यहां आसानी से एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन स्थल कामयाब किया जा सकता है।
मध्यप्रदेश में अभी साढ़े 7 हजार पुलिस सिपाहियों की भर्ती के लिए लोगों से अर्जियां बुलाई गई। न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता 10वीं पास होना चाहिए। सिपाही बनने के लिए 9 लाख 76 हजार लोगों ने अर्जियां भरी। इतने लोग आवेदन कर रहे थे कि इस तारीख को बढ़ाना पड़ गया। 10वीं पास की जगह ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट लोग भी कतार में लगे हुए हैं। 12 हजार इंजीनियरों ने अर्जी डाली है, और करीब 42 पीएचडी प्राप्त लोग हैं। पिछले ही बरस हरियाणा में सफाई कर्मचारियों की ठेका-मजदूरी के काम के लिए 46 हजार से अधिक ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट लोगों ने आवेदन किया था। एक अखबार में छपे एक लेख में कल ही बताया गया है कि किस तरह राजस्थान में 2017 में 18 चपरासियों की भर्ती में 12 हजार से अधिक लोग इंटरव्यू में पहुंचे थे जिनमें इंजीनियर, वकील, और सीए भी थे। एक दूसरा आंकड़ा बताता है कि 2024 में आईआईटी से निकले हुए 5 छात्र-छात्राओं में से 2 को काम नहीं मिला, और यह देश का सबसे बड़ा तकनीकी शिक्षा संस्थान है। इसी तरह एनआईटी, और आईआईआईटी से निकले हुए लोग भी सरकारी आंकड़ों के मुकाबले पूरी तरह नौकरी नहीं पा रहे हैं। इस तरह देश में पढ़े-लिखे लोगों के बीच बेरोजगारी का बड़ा ही खराब हाल है।
उत्तरप्रदेश में 2021-22 में स्कूली शैक्षणिक योग्यता वाले चपरासी के काम के लिए 3 लाख 70 हजार लोगों ने आवेदन किया था जिनमें 28 हजार ग्रेजुएट थे, 37 सौ एमए थे, और साढ़े 4 सौ पीएचडी प्राप्त थे। 2022 में बिहार में रेलवे चपरासी और ट्रैकमैन जैसे ग्रुप डी के कर्मचारियों की भर्ती में 35 हजार पद थे, जिनके लिए सवा करोड़ लोगों ने अर्जियां डाली थीं। इनमें बी-टेक, एम-टेक, और एमबीए भी शामिल थे। 2023 में मध्यप्रदेश में सिपाही भर्ती में 10वीं पास की जरूरत पर 75 सौ पदों के लिए 11 लाख 80 हजार लोगों ने आवेदन किया था जिनमें 65 फीसदी ग्रेजुएट थे, 18 फीसदी पोस्ट ग्रेजुेएट थे, और बहुत से इंजीनियर, और कम्प्यूटर ग्रेजुएट भी सिपाही बनने के लिए कतार में लगे हुए थे। 2022-24 में छत्तीसगढ़ में सिपाही और शिक्षक भर्ती में सिर्फ 30 फीसदी उम्मीदवार न्यूनतम योग्यता वाले थे, और 70 फीसदी आवेदक जरूरत से बहुत अधिक पढ़ाई किए हुए थे। 2023 में तमिलनाडु में सफाई कर्मचारियों की भर्ती में प्राथमिक शिक्षा की ही शैक्षणिक योग्यता रखी गई थी, और 7 हजार पदों के लिए आवेदन करने वालों में 12 सौ ग्रेजुएट भी थे, और 180 पोस्ट ग्रेजुएट।
ऐसे आंकड़े हर बरस कई बार देश के अलग-अलग हिस्सों से आते हैं, और लोगों के मन में यह निराशा भी पैदा करते हैं कि इतना पढ़-लिखकर क्या होना है, चपरासी की नौकरी भी नहीं मिलेगी, और हकीकत भी यही है। अब यह सोचा जाए कि 10वीं पास लोगों के सिपाही बनने की जगह अगर पीएचडी प्राप्त लोग सिपाही बनते हैं, तो 10वीं के बाद उनके कम से कम 10-12 बरस इस पीएचडी में लगे होंगे। इतने ही बरस प्राथमिक शिक्षा के बाद ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट बनने में तमिलनाडु के बेरोजगारों को लगे होंगे। मतलब यह कि लोग अपनी पढ़ाई-लिखाई के मुकाबले बहुत ही कम शैक्षणिक योग्यता वाले काम पाने को भी बड़ी किस्मत मान रहे हैं। लेकिन लोगों के पढऩे-लिखने में उनका वक्त लगता है, मां-बाप पर बोझ पड़ता है, और सरकार पर तो बोझ पड़ता ही है। भारतीय सेना के लिए अग्निवीर बनने की शैक्षणिक योग्यता किसी भी तरह से स्कूली पढ़ाई से अधिक नहीं है, लेकिन जिन लोगों ने आवेदन किया उनमें यूपी-बिहार में 35-40 फीसदी उम्मीदवार ग्रेजुएट या उससे अधिक पढ़े हुए थे, जो कि कुछ साल रोजगार मिल जाने के लिए यहां पहुंचे थे। एमपी और राजस्थान में एमबीए, बीसीए, और इंजीनियर अग्निवीर बनने पहुंचे थे, जो कि कुल चार साल की नौकरी है। रक्षा मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक आधा लाख से कम नियुक्तियों के लिए 30 लाख से अधिक अर्जियां 2023 में आई थीं, और इनमें 25 फीसदी से अधिक ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट थे।
हरियाणा के एक सीनियर आईपीएस अफसर ने दर्जनभर आईएएस-आईपीएस अफसरों पर प्रताडऩा का आरोप लगाते हुए खुदकुशी कर ली। उनकी पत्नी भी आईएएस हैं, और इस वक्त वे मुख्यमंत्री के साथ विदेश दौरे पर गई हुई थीं, और लौटकर उन्होंने भी कई अफसरों के खिलाफ उनके पति को प्रताडि़त करने, और आत्महत्या के लिए उकसाने की रिपोर्ट दर्ज कराई है। वाई.पूरन कुमार नाम का यह एडीजी किसी भी राज्य के पुलिस ढांचे में सबसे ऊपर से ठीक नीचे रहता है, और वे पिछले कई बरस से उनके साथ जाति आधारित भेदभाव की शिकायत करते आए थे। उन्हें सरकारी मकान, गाड़ी, पोस्टिंग में भी भेदभाव झेलना पड़ता था, ऐसा उनका आरोप था। वे लगातार सरकार के भीतर इन बातों को उठाते रहते थे, लेकिन यह वही हरियाणा है जहां अशोक खेमका नाम के एक आईएएस अफसर को इसी राज्य में नौकरी करते-करते तकरीबन हर बरस दो बार ट्रांसफर किया गया था। तीस साल में 55 से ज्यादा ट्रांसफर। अब आईएएस-आईपीएस की नौकरियां केन्द्र सरकार के मातहत रहती हैं, और इन्हें अलग-अलग राज्यों में भेजा जाता है, जहां से असंतुष्ट रहने पर ये केन्द्र सरकार को भी लिख सकते हैं। अशोक खेमका को सौ फीसदी ईमानदार अफसर माना जाता था, और देश में सबसे भ्रष्ट प्रदेशों में से एक हरियाणा में उन्होंने अपने इन्हीं ईमानदार तेवरों की वजह से सत्ता की नाराजगी झेली। हर छह-सात महीने में उनका तबादला कर दिया जाता था, और इसमें कांग्रेस और भाजपा दोनों की सरकारें बराबरी से शामिल रही। 2012 में उन्होंने रॉबर्ट वाड्रा-डीएलएफ जमीन सौदे को रद्द कर दिया था, और फिर उन्हें इतना प्रताडि़त किया गया कि वे कई बार सार्वजनिक रूप से बोल चुके थे कि ईमानदारी भारत की शासन व्यवस्था में जुर्म बन चुकी है। लेकिन अशोक खेमका लगातार लड़ते रहे, और उन्होंने कभी खुदकुशी सरीखी बात भी नहीं की।
हम खुदकुशी जैसे नाजुक मामले पर बात करते हुए किन्हीं भी दो इंसानों की तुलना नहीं करते, लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि आईएएस-आईपीएस जैसी बड़ी सेवाओं के लोग भी खुदकुशी करते हैं, इसलिए इस पर चर्चा जरूरी है। एक दलित अफसर, कर्मचारी, या इंसान को हिन्दुस्तान में कई तरह के सामाजिक भेदभाव झेलने पड़ते हैं, अभी दो दिन पहले ही हमने इसी जगह पर लिखा है कि किस तरह यूपी के रायबरेली में एक दलित को भीड़ ने चोरी के आरोप में पीट-पीटकर मार डाला, और योगी की पुलिस इस भीड़ का चक्कर लगाकर उस अकेले कमजोर गरीब दलित को उसी हिंसक भीड़ के बीच छोडक़र चली गई थी। नतीजा साफ था कि यह भीड़ क्या करने वाली थी, और पुलिस का भी नजरिया साफ था कि उसे इस भीड़त्या को रोकने के लिए कुछ नहीं करना है। उसी दिन सुप्रीम कोर्ट में एक दलित मुख्य न्यायाधीश को जूता फेंककर मारा गया, और उसके पीछे सनातनी, और हिन्दू धार्मिक तर्क के नारे लगाए गए, इंटरव्यू दिए गए। दलितों की प्रताडऩा कोई नई बात नहीं है, यह एक सामाजिक हकीकत है कि जाति व्यवस्था की नफरत आरक्षण से किसी जगह पर पहुंचे हुए लोगों के लिए खत्म नहीं होती है, बढ़ जाती है। लेकिन हम कुछ बुनियादी बातों पर चर्चा जरूरी समझते हैं।
भारत में शायद ही किसी शहर का एक दिन बिना किसी साइबर क्राइम के निकलता होगा, और औसत तो शायद लाखों साइबर क्राइम हर दिन होते हैं, जिनमें से हो सकता है कि आधे या चौथाई ही पुलिस तक पहुंचते हों। हिन्दुस्तान के लोग तरह-तरह की दर्जनभर तरकीबों से लूटे जा रहे हैं, लेकिन आज इस मुद्दे पर लिखने का एक दूसरा ही मकसद है कि अब भारत के साइबर लुटेरे अमरीका और योरप के लोगों को भारत से फोन करके न सिर्फ ठग रहे हैं, बल्कि उन्हें डिजिटल गिरफ्तारी का डर दिखाकर, अपने आपको अमरीकी या यूरोपीय जांच एजेंसी का अफसर बताकर उनसे उगाही कर रहे हैं। उनसे अलग-अलग खातों में पैसा लेते हैं, और फिर उसे कई रास्तों से घुमाकर भारत ले आते हैं। अभी भारत में ईडी ने कुछ कॉल सेंटरों पर छापे मारे, तो पता लगा कि हिन्दुस्तानियों को पश्चिमी अंदाज में अंग्रेजी बोलना सिखाकर उन्हें कई अलग-अलग तरकीबों से पश्चिमी देशों के लोगों को लूटने में लगाया गया है। यह पूरी तरह से अहिंसक अपराध भारत में तो बहुत ही लोकप्रिय है, और अब भारत से यह अमरीका और योरप के देशों में भी पहुंच चुका है। दिलचस्प बात यह भी है कि ट्रम्प का 50 फीसदी टैरिफ इस भारतीय सेवा पर नहीं लग रहा है, बल्कि भारत का जितना आर्थिक नुकसान अमरीकी राष्ट्रपति से हो रहा है उसे भारत के ठग कुछ हद तक वापिस ला रहे हैं, यह अलग बात है कि यह पैसा सरकार या जनता के काम नहीं आ रहा है, जुर्म के हाथ मजबूत कर रहा है।
पश्चिम के देशों के कामकाज के घंटों में भारत के कॉल सेंटरों से कई तरह की सेवाएं दी जाती हैं। यहां महानगरों, और उपमहानगरों में अंतरराष्ट्रीय कॉल सेंटर का बड़ा कारोबार है जिनमें काम करने के लिए युवक-युवतियां उन देशों के अंदाज में अंग्रेजी बोलना सीखे हुए रहते हैं, और वहां की कंपनियों के लिए यहां पर सस्ते में काम करते हैं। अभी जो साइबर मुजरिम भारत में पकड़ाए हैं, उनमें पुणे का एक ऐसा कॉल सेंटर है जो कि वहां पर गुजरात के अहमदाबाद के दो लोग चला रहे हैं, और पुलिस ने यहां 32 लोगों को गिरफ्तार किया है जो कि अमरीकियों के कम्प्यूटरों, और मोबाइल पर भारत में बैठे हुए तरह-तरह के खुफिया-घुसपैठिया सॉफ्टवेयर डाल देते हैं, और फिर उनके सिस्टम को धीमा कर देते हैं। इसके बाद वे अपने आपको माइक्रोसॉफ्ट या एप्पल जैसी टेक कंपनी का प्रतिनिधि बताकर उन्हें फोन करते हैं, और उनसे सिस्टम ठीक करने के नाम पर भुगतान लेते हैं। ऐसे भुगतान के साथ-साथ वे उन्हें डिजिटल गिरफ्तारी की धमकी भी देते हैं, और उनसे लगातार उगाही करते हैं। इस छापे में पुलिस को बड़ी संख्या में लैपटॉप और मोबाइल के साथ-साथ फंसाने, ठगने, और धमकाने की स्क्रिप्ट भी लिखी हुई मिली है।
आज कुछ अफ्रीकी देशों में बैठे हुए लोग अमरीका और ब्रिटेन के किशोर-किशोरियों को मोबाइल के जरिए सेक्स-वीडियो में फंसाते हैं, और उनका इतना सेक्सटॉर्शन करते हैं कि कई टीन-एजर खुदकुशी कर रहे हैं। भारत में भी साइबर-जुर्म में नाइजीरिया के कई लोग पकड़ाए हैं। भारत के भीतर भी धमकाने, ठगने, मोबाइल के जरिए बैंक खातों पर कब्जा करने, और उन्हें खाली कर देने के जुर्म रोज की बात हो गए हैं। एक वक्त था कि लुटेरों को चेहरे पर कपड़ा बांधकर, चाकू-पिस्तौल लेकर लूटना पड़ता था, लेकिन अब बिल्कुल अहिंसक तरीके से घर बैठे मोबाइल फोन, या ऑनलाईन पर और अधिक बड़ा काम हो जाता है, रकम लेकर या गहने लूटकर फरार भी नहीं होना पड़ता, मेहनत से लूटे गए सामान वापिस जाने का खतरा भी नहीं रहता, क्योंकि आज के साइबर-मुजरिम जालसाजी, ठगी, और लूट से हासिल रकम को तेजी से बाहर निकाल देने का इंतजाम पहले से रखते हैं।
यूपी के रायबरेली, दिल्ली के सुप्रीम कोर्ट, और छत्तीसगढ़ के मगरलोड में दो दिनों के भीतर की तीन घटनाओं का भला आपस में क्या रिश्ता हो सकता है? इसे समझने के लिए इन तीनों की कुछ जानकारी देखनी होगी। रायबरेली में एक दलित नौजवान को भीड़ ने चोर समझकर घेर लिया। इसकी खबर मिलने पर पुलिस गाड़ी वहां पहुंची, और गाड़ी में बैठे-बैठे पुलिसवालों ने कहा उसे जाने दो, और चले गए। भीड़ ने पीट-पीटकर उसे मार डाला। जाहिर है कि इतनी मारपीट के दौरान उसका नाम तो किसी ने पूछा ही होगा, क्योंकि वह अपनी ससुराल आया हुआ था। यह नौजवान कमजोर और मानसिक बीमार भी लग रहा था, लेकिन पुलिस उसे भीड़ के बीच से ले जाने तैयार नहीं हुई, और भीड़ तो भीड़ होती है, उसने इस कमजोर गरीब को बहुत बुरी तरह पीट-पीटकर मार डाला, और उसके वीडियो भी बनाए। कानून अपने हाथ में लेने में लोगों को अब कुछ नहीं लगता, यह उन्हें अपना कानूनी हक लगता है। उधर दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की अदालत में पहुंचकर एक हिन्दू-सनातनी बुजुर्ग वकील ने अपना जूता उतारकर चीफ जस्टिस पर फेका, और रोकने-पकडऩे पर वह यह कहते हुए गया कि सनातन का अपमान नहीं सहेगा हिन्दुस्तान। उसने बाद में यह भी कहा है कि उससे भगवान ने यह काम करवाया है, और वे मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणियों से नाराज था, और जेल में रहने में उसे कोई दिक्कत नहीं है। उसे कोई पछतावा नहीं है, दूसरी तरफ चीफ जस्टिस बी.आर.गवई ने इस सनातनी वकील की हरकत पर किसी कार्रवाई से इंकार कर दिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनसे फोन पर बात करके अफसोस जाहिर किया है, लेकिन सनातन के नाम पर देश भर में दीवानगी का जो माहौल बना हुआ है, उसका सिर्फ एक नमूना ही सुप्रीम कोर्ट के दलित मुख्य न्यायाधीश को झेलना पड़ा है। अब हम तीसरी घटना पर आते हैं जो कि छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में मगरलोड नाम की जगह पर हुई है। इस कस्बे में एक पुराने झगड़े को लेकर एक नाबालिग मुस्लिम लडक़े को कई हिन्दू लडक़ों ने पीटा, और पीछा करते हुए उसके घर गए। वह अपने घर में घुसकर छुप गया, तो इस भीड़ ने घर को घेरकर हंगामा किया, उस मुस्लिम परिवार की लड़कियों से बदसलूकी-छेडख़ानी की। सत्रह बरस के इस लडक़े को बचाने के लिए परिवार ने उसे घर के भीतर एक कमरे में बंद कर दिया, और बाहर पुलिस पहुंचने के बाद भी हंगामा चलते रहा। इस बीच पता लगा कि दहशत में इस लडक़े ने फांसी लगाकर खुदकुशी कर ली। अब कई हिन्दू लडक़े गिरफ्तार हुए हैं, और कई और की शिनाख्त के आधार पर उनके खिलाफ शिकायत दर्ज हुई है।
भारत दानदाताओं से भरा हुआ देश है। तिरुपति के मंदिर की कहानी ही साल में कई बार बड़े-बड़े अखबारों की खबर बनती है कि किस तरह वहां पर कोई दानदाता सौ-पचास किलो सोना चढ़ा गया, या किसी एक दानदाता ने वहां कितने करोड़ रूपए नगद दान कर दिए। वहां के अधिकतर दानदाता अपना नाम उजागर किए बिना दान भेज देते हैं, या सोना, नगदी वहां की पोटली में डालकर चले जाते हैं। देश के प्रमुख तीर्थों पर और भी जगहों पर ऐसा होता होगा क्योंकि अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में हर दिन करीब एक लाख लोग लंगर में खाना पाकर जाते हैं, और इसका खर्च कोई न कोई तो उठाते ही होंगे, इस धार्मिक खाने के लिए किसी से कोई पैसा नहीं लिया जाता। फिर तीर्थस्थानों से परे बहुत से धर्मों के बाबाओं और प्रवचनकर्ताओं को भी ढेरों दान मिलता है, और लोग धर्म के तुरंत बाद धार्मिक कपड़े हुए, धर्म की बातें करने वाले लोगों को दान देते हैं।
एक और किस्म का दान देश में देखने मिलता है जिसमें किसी संस्था या संगठन के लोग उसका बिल्ला लगाए, उसके गमछे-दुपट्टे या टोपी से लैस होकर, कैमरे और वीडियो रिकॉर्डिंग का इंतजाम करके दान करने जाते हैं। ठंड में सडक़ किनारे पड़े गरीबों को एक कंबल ओढ़ाते हुए कई लोग तस्वीर खिंचवाते हैं, और फिर उसे हर सोशल मीडिया खातों में डालते हैं। कई ऐसे फोटो देखने मिलते हैं जिसमें अस्पताल के बिस्तर पर पड़े मरीज को एक केला थमाते हुए एक दर्जन लोग उसमें हाथ लगाए रहते हैं, और मरीज हक्का-बक्का सा इस भीड़ को देखते हुए एक केला पाकर धन्य हो जाता है। अब मामला यहां तक रहता तब भी ठीक था, अभी एक सरकारी अस्पताल के मरीजों के बीच भाजपा के कई कार्यकर्ता पार्टी के दुपट्टे डाले हुए दिख रहे हैं, और इस वीडियो में साफ-साफ दिख रहा है कि बड़ा सा मोबाइल थामी हुई संपन्न से परिवार की दिखती हुई एक महिला पांच-पांच रूपए वाले बिस्किट के पैकेट लेकर चल रही है, अस्पताल की गरीब महिला मरीज को एक पैकेट थमाते हुए वह तस्वीर खिंचवाती है, और फिर पैकेट को लेकर अगले मरीज की तरफ आगे बढ़ जाती है। इस महिला मरीज को बस कुछ पल के लिए वह पैकेट छूने मिलता है। वार्ड में एक साथ भाजपा के दुपट्टों वाले बहुत सारे लोग मरीजों को कुछ देते, या महज थमाते, और फोटो खिंचाते दिख रहे हैं। वीडियो पोस्ट करने वाले व्यक्ति ने इसे राजस्थान का बताया है, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है कि यह कहां का है, देश में कहीं भी यह हाल हो सकता है। कुछ लोगों ने इस वीडियो पर यह भी कहा है कि मरीज महिला के हाथ में पहले से बिस्किट का पैकेट था, यानी उसे बिस्किट पहले मिल चुका था, और यह दूसरा पैकेट देते हुए पार्टी की महिला बोल-बोलकर फोटो खिंचवा रही है, और फोटो के बाद पैकेट लेकर चली जा रही है। इस वार्ड में जितने मरीज हैं, उससे अधिक संख्या में दानदाता दिख रहे हैं, किसी के हाथ में एक केला है, तो किसी के हाथ में बिस्किट का छोटा सा पैकेट, फोटो खिंचाने का उत्साह सबमें लबालब है।
सच जो भी हो, हम तो वीडियो पर जो देख रहे हैं उसी से आज की बात शुरू कर रहे हैं कि दान की हमारी भावना किस हद तक खुदगर्ज हो गई है कि पांच रूपए की मदद करते हुए भी कैमरे पर उसे दर्ज करवाना जरूरी लगता है ताकि बाद में उससे शोहरत पाई जा सके। क्या दान और शोहरत का कोई अनुपात होना चाहिए? साठ रूपए का कंबल देकर हजारों लोगों के बीच अपना प्रचार करना कहां तक जायज है? इसमें गैरकानूनी तो कुछ नहीं है, लेकिन क्या लोगों की नैतिकता उन्हें सुझाती कि वे प्रचार के अनुपात में दान भी करें? हम कई जगहों पर कॉलेज और विश्वविद्यालयों के एनएसएस के छात्र-छात्राओं को देखते हैं जो घास-फूस या झाडिय़ों को आधा-एक घंटा साफ करते हैं, अपना बैनर टांगते हैं, उसके सामने खड़े होकर फोटो खिंचाते हैं, और रिकॉर्ड के लिए सामान जुटाकर आगे बढ़ निकलते हैं। जितनी समाजसेवा, उससे अधिक खुद की प्रचारसेवा! दूसरी तरफ इसी देश में, या दुनिया के दर्जनों दूसरे देशों में किसी भी प्राकृतिक आपदा के समय सबसे पहले, सबसे आगे बढक़र, पानी में डूब-डूबकर घरों तक खाना पहुंचाने, वहां से फंसे हुए लोगों को उठा-उठाकर नाव से बाहर निकालने वाले सिक्खों में ऐसा आत्मप्रचार नहीं दिखता। कुछ कार्यकर्ता खालसा एड नाम की संस्था के टी-शर्ट पहने हुए जरूर दिखते हैं, लेकिन यह प्रचार के लिए कम, पहचान के लिए अधिक रहता है। भारत की अनगिनत प्राकृतिक विपदाओं में हमने देखा है कि अगर कोई एक समाज सबसे आगे बढक़र नि:स्वार्थ भावना से बचाव और सेवा में लगता है, तो वह सिक्ख समाज है। हमने आज तक सिक्खों को अस्पताल में, या सडक़ पर एक केला देकर फोटो खिंचाते नहीं देखा है। बल्कि दिल्ली जैसे शहर में सडक़ किनारे कई सिक्ख बैठकर लोगों के पैरों के जख्म धोते हुए दिखते हैं, मरहम-पट्टी करते हुए दिखते हैं। स्वर्ण मंदिर में भी दुनिया भर से पहुंचे हुए अरबपति सिक्ख भी रसोई में काम करते हैं, लंगर में खाना परोसते हैं, जूठे बर्तन मांजते हैं, और जूते-चप्पल भी साफ करते हैं।
पटना से दिल्ली का सफर कर रहे केन्द्रीय कृषिमंत्री शिवराज सिंह चौहान यह देखकर कुछ हैरान रह गए कि उनके प्लेन के को-पायलट बिहार भाजपा के वरिष्ठ नेता और सांसद राजीव प्रताप रूड़ी थे। आज शिवराज जिस मोदी सरकार में मंत्री हैं, उसी मोदी सरकार में राजीव प्रताप रूड़ी तीन बरस मंत्री रह चुके हैं। अब वे मंत्री नहीं हैं लेकिन एक कमर्शियल पायलट होने के नाते वे नियमित मुसाफिर उड़ानों को भी उड़ाते हैं। हाल ही में उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि इस देश के तमाम नेताओं में कुल दो ही ऐसे हैं जो मुसाफिर उड़ान उड़ाने वाले पायलट रहे, पहले राजीव गांधी, और अब राजीव प्रताप रूड़ी। उन्होंने यह बात तब कही थी जब संसद परिसर में राह चलते राहुल गांधी ने रूककर उनसे बात की थी, क्योंकि उन्हीं दिनों वे कांस्टीट्यूटशन क्लब का चुनाव भी लड़ रहे थे, जिसमें दलगत राजनीति से परे सभी सांसद एक-दूसरे से वोट मांग लेते हैं। अब चूंकि इस देश में राजनीतिक दलों के बीच कड़वाहट ने कुनैन को शक्कर की तरह मीठा दर्जा दे दिया है, इसलिए भाजपा और कांग्रेस के नेताओं के बीच के चलते-चलते नमस्कार-चमत्कार को भी शक की नजरों से देखा गया था। ऐसी चर्चा के बीच ही रूड़ी ने यह साफ किया था कि वे मुसाफिर उड़ान भी उड़ाते हैं।
इस देश की राजनीति में किसी नेता को कोई पेशेवर काम करते देखना कुछ अटपटा लगता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि नेता बनने के बाद न सिर्फ नेताजी को, बल्कि उनकी आने वाली कई पीढिय़ों को भी किसी काम की कोई जरूरत क्यों होनी चाहिए? देश का माहौल कुछ ऐसा ही है कि लोग राजनीति में एक ऊंचाई पर पहुंचने के बाद उसी अनुपात में संपन्नता की ऊंचाई पर भी पहुंच जाते हैं, और दिखावे के लिए भी किसी काम करने की जरूरत महसूस नहीं करते। वैसे तो भूतपूर्व सांसद और विधायक की पेंशन भी अब जिंदा रहने जितनी हो गई है, लेकिन विधायक, सांसद, या मंत्री बनने के बाद लोग अपने पेशे या हुनर के काम को करते रहें, ऐसा कम ही सुनाई पड़ता है। आमतौर पर नेताजी और उनके बच्चे, बेटी-दामाद जमीन-जायदाद और कंस्ट्रक्शन के काम में लगते हैं क्योंकि उसी जगह पर कालेधन को बड़े अनुपात में खपाने की गुंजाइश रहती है। कुछ लोगों के आल-औलाद कारखाने खोल लेते हैं, और ये कारखाने सिर्फ मशीनों वाले नहीं रहते, कमाई करने वाले कई किस्म के धंधों वाले भी रहते हैं। इसलिए इस माहौल के बीच कुछ काम करने वाले नेता थोड़े से खटकते हैं मानो वे अपने साथी दूसरे नेताओं पर तंज कस रहे हों। तंज कसने के लिए हर बार शब्द ही नहीं लगते, कई बार बिना किसी को कहे हुए अपना खुद का कोई काम भी दूसरों पर तंज सरीखा लगता है। अब किसी बैठक में, या मंच पर जहां हर किसी के सामने महंगे ब्रांड की पानी की बोतलें रखी जाएं, वहां कोई घर से खुद उठाकर लाया गया पानी का फ्लास्क निकालकर पानी पीने लगे, तो वह औरों पर तंज ही रहता है। हो सकता है कि रूड़ी ने रोजी-रोटी के लिए यह उड़ान न उड़ाई हो, और कमर्शियल पैसेंजर प्लेन के पायलट का अपना लाइसेंस जिंदा रखने के लिए वे बीच-बीच में ऐसा करते हों, लेकिन जब एक साथी मंत्री बनकर सफर कर रहा हो, तब दूसरा साथी पायलट की वर्दी में प्लेन उड़ा रहा हो, तो यह भी कोई निजी पेशा या व्यवसाय न करने वाले महज मंत्री-नेता पर तंज सरीखा लग सकता है।
राहुल गांधी विदेश गए हुए हैं, और वहां उन्होंने भारत की कुछ मोटरसाइकिलों के साथ अपनी एक फोटो पोस्ट की है, और लिखा है कि भारत के बहुत से ब्रांड देश के भीतर किसी सरकारी मेहरबानी के बिना भी दुनिया भर में कामयाब हैं। उन्होंने कुछ और राजनीतिक बातें कही होंगी, लेकिन हम उनके बयान से परे इस मुद्दे पर आना चाहते हैं कि भारत के कौन से ब्रांड दुनिया के दर्जनों देशों में अपनी मजबूत जगह बना चुके हैं, और देश के भीतर उन पर किसी सरकारी मेहरबानी की कोई तोहमत भी आज तक नहीं लगी है। टाटा के अलग-अलग बहुत से सामान, और उसकी सेवाएं दुनिया के हर उपमहाद्वीप में पहुंची हुई हैं, और इसे एक बड़ी साख वाला ब्रांड माना जाता है। इसके कारोबार पर कभी किसी पार्टी की सरकार की खास रियायत नहीं रही। दूसरी तरफ सरकारी जमीन, खदान, नदी का पानी, या जंगल पाए बिना भी जो कंपनियां दुनिया भर में पहुंची हुई हैं, उनमें कम्प्यूटर सेवा देने वाली इंफोसिस और विप्रो जैसी कंपनियां हैं जो कि टाटा के साथ-साथ ही देश में सबसे अधिक सामाजिक सरोकार निभाने वाली भी हैं। सहकारिता की देश की सबसे बड़ी ईकाई, अमूल के मिल्क प्रोडक्ट दुनिया के दर्जनों देशों में कामयाब हैं, और वे बड़ी-बड़ी स्विस कंपनियों को टक्कर देते हैं। गुजरात में 1946 में आनंद जिले में सरदार वल्लभ भाई पटेल के प्रोत्साहन से कारोबारियों और ठेकेदारों के शोषण के खिलाफ यह सहकारी समिति शुरू हुई। और फिर आनंद मिल्क यूनियन लिमिटेड (अमूल) को डॉ.वर्गीज कुरियन ने आगे बढ़ाया। उन्होंने ही देश में श्वेत क्रांति लाई, और अमूल को एक ग्लोबल ब्रांड बनाया। आज भारत को दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश बनाने में केरल के वर्गीज कुरियन का ऐतिहासिक और असाधारण योगदान था। वे केरल में पैदा हुए थे, मद्रास और अमरीका में पढ़े थे, और उन्होंने अमूल को गोबर से लेकर आसमान के सितारे तक पहुंचा दिया था। यह पूरी तरह से बिना किसी सरकारी रहमो-करम के बढ़ा हुआ सहकारी आंदोलन था, जो कि सरकार के परोक्ष नियंत्रण में रहने के बावजूद जिंदा रहने दिया गया, और नेहरू के वक्त से जो खुला हाथ डॉ.कुरियन को मिला, उससे उन्होंने देश के इस सबसे बड़े और सबसे कामयाब सहकारी आंदोलन को खड़ा किया। यह इस बात की मिसाल रहा कि कई सरकारें आई-गईं, आज भी अमूल देश का सबसे कामयाब मॉडल बना हुआ है।
लेकिन हम बिना सरकारी मदद वाली और दूसरी कंपनियों, या उनके ब्रांड को देखें, जो कि दुनिया भर में अपने दम पर कामयाब हैं, तो हल्दीराम के मीठे-नमकीन, रॉयल इनफील्ड की बुलेट मोटरसाइकिलें, महेन्द्रा एंड महेन्द्रा की हर तरह की गाडिय़ां, फैब इंडिया के कपड़े, पारले के बिस्किट लिस्ट में सबसे ऊपर हैं। इस देश में बिस्किट खाने वाले लोगों को शायद यह पता नहीं होगा कि पारले-जी दुनिया में सबसे अधिक बिकने वाला बिस्किट ब्रांड है, और इसे किसी देश-प्रदेश की सरकार की मेहरबानी नहीं लगी। ब्रांड की यह लिस्ट बहुत लंबी है, और कई ब्रांड तकनीकी सामानों के हैं, जिनसे कि आम लोग बहुत परिचित नहीं होंगे। लेकिन हम जो बात कहना चाहते हैं, वह यही है कि सफल कारोबारी जब कोई बहुत अच्छा सामान बनाते हैं, तो उसके लिए उन्हें सरकार की मेहरबानी नहीं लगती, सरकारी रियायतें नहीं लगतीं। यह संपादकीय लिखने वाले संपादक ने कम से कम एक दर्जन देशों में पारले-जी बिस्किट खरीदकर खाया है।
देश के भीतर कौन से कारोबारी सबसे अधिक सफल हैं, कोई एक हुरुन लिस्ट है जिसमें दुनिया के सबसे रईस लोगों का नाम है, और इसमें हिन्दुस्तान के लोगों का भी जिक्र है। हो सकता है कि सरकारी मेहरबानियों वाले लोग ऐसी लिस्टों में बहुत ऊपर हों, और ऐसी लिस्ट से बहुत नीचे के लोग दुनिया में अपने दम पर सबसे कामयाब ब्रांड बनाकर उसे चला रहे हों। अभी हमने जितने भी ब्रांड यहां गिनाए हैं, उनमें से किसी पर किसी भी पार्टी की सरकार की अलग से किसी मेहरबानी का कोई जिक्र नहीं होता। इसलिए कारोबार को भी सरकार की रियायत के बिना, मेहरबानी के बिना चलाया जा सकता है, अगर उस कारोबार का प्रोडक्ट बहुत अच्छा हो। यह एक अलग बात है कि प्रोडक्ट अच्छा न होने पर भी कंपनी बहुत अधिक मुनाफे में रह सकती है, अगर उसे सरकार की तरफ से टैक्स की, आयात-निर्यात नीति की, लाइसेंस या जमीन की, खदान और पानी की खास मदद मिलती हो। ऐसी कंपनियां कमाई बहुत अधिक कर सकती हैं, और हुरुन लिस्ट में वे छत पर बैठ सकती हैं, लेकिन असली कामयाबी तो अपने दम पर दुनिया के बाजारों में राज करने की है।
दिलचस्प बात यह है कि जिस अमरीका को दुनिया का सबसे मुक्त बाजार कहा जाता है, वहां सरकारी मदद का हाल यह है कि अभी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प, और उनके एक भूतपूर्व लंगोटिया एलन मस्क के बीच जब रायता फैला, तो ट्रम्प ने धमकाया कि मस्क को बैटरी कारों के लिए कितनी सरकारी रियायत मिल रही है, और अंतरिक्ष योजनाओं के कितने सरकारी ठेके मस्क की कंपनी को मिले हुए हैं। ट्रम्प ने खुलकर कैमरों के सामने कहा कि मस्क के ये सब ठेके खत्म करने का समय आ गया है। लेकिन अभी जब एक चीनी कंपनी के अमरीका के सबसे लोकप्रिय प्रोडक्ट, टिक-टॉक को चीनी नियंत्रण से बाहर लाकर किसी अमरीकी कंपनी को उसका मुख्य भागीदार बनाने की बात आई, तो ट्रम्प ने यह साफ कर दिया कि अमरीकी कंपनी को वे ही छांटेंगे, और वही हुआ भी है। उन्होंने एक कंपनी को छांटा है जिसे टिक-टॉक को अपने शेयर बेचने होंगे। तो सबसे मुक्त बाजार वाले देश में भी सरकारी मेहरबानियां इस अश्लील और हिंसक तरीके से चल रही हैं।
भारत में इंदिरा गांधी के समय से यह चर्चा रहती थी कि रिलायंस कंपनी के धीरूभाई अंबानी को सरकारी नीतियों में आयात-निर्यात की शर्तों की ऐसी मेहरबानियां मिलती थीं कि वे जमीन से आसमान पर पहुंचे। बाद में अटल सरकार में भाजपा के एक सबसे ताकतवर नेता प्रमोद महाजन अंबानी और दूसरे कारोबारियों से अपने बहुत करीबी रिश्तों को लेकर जाने जाते थे, और 2002 में संचार मंत्री रहते हुए जब प्रमोद महाजन ने धीरूभाई पर टिकट जारी की थी, तो मंच पर उनका अंबानी के पोस्टर को सिर पर उठाया हुआ फोटो भी सबको याद है। ऐसा माना जाता था कि प्रमोद महाजन भाजपा के देश के एक सबसे बड़े फंड रेजर थे। ऐसा ही एक वक्त प्रणब मुखर्जी के बारे में इंदिरा और राजीव सरकार के समय माना जाता था। और भी सरकारों के अपने-अपने एजेंट, दलाल, फंड रेजर या कोषाध्यक्ष रहते आए हैं। मनमोहन सरकार के दस बरस में यह माना जाता था कि अहमद पटेल बड़े फंड का काम देखते थे, और कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा चिल्हर काम के लिए थे। अटल सरकार के वक्त उनके दत्तक-दामाद रंजन भट्टाचार्य का नाम आता था जो कि प्रधानमंत्री निवास से ही कारोबारी सौदों का काम करते थे। अब मोदी सरकार के समय संगठन की चर्चा इस बारे में नहीं होती, लेकिन अडानी और अंबानी पर खास मेहरबानियों की चर्चा जरूर होती है। देश में पिछले कई दशकों में क्रोनी कैपिटलिज्म की बात होती है, यानी पसंदीदा कारोबारी।
बुराई पर अच्छाई का त्यौहार दशहरा कल आकर चला गया। दो-तीन दिनों से बारिश चल रही थी, और रावण के बन रहे पुतले जगह-जगह भीग गए थे, कई जगहों पर वे जल नहीं पाए, और उसे एक साल की लीज और मिल गई। लेकिन रावण से परे उन इंसानों को देखें जो कि रावण दहन के लिए हर बरस दशहरा मैदान जाते हैं, और अपने को राम की तरह समझते हैं, उनका हाल देखें, तो लगता है कि रावण के टुकड़े तो इन तमाम लोगों के भीतर भरे हुए हैं। अब आज एक अखबार के आधे पेज पर ही छत्तीसगढ़ की जो खबरें छपी हैं, उन्हें देखकर लगता है कि क्या सचमुच ही रावण को जलाने का कोई मतलब रहता है, या फिर इस फर्जीवाड़े के बाद भी लोगों के भीतर का रावण उनसे कई तरह की हिंसा करवाते रहता है। अब ऐसी चार बड़ी खबरों में से पहले किसे बताएं, और बाद में किसे, यह तय करना खासा मुश्किल लग रहा है।
छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर की खबर है कि पेट्रोल पंप पर काम करने वाली एक युवती को कल उसके ही एक पिछले प्रेमी ने आकर खुलेआम, दिनदहाड़े, चाकू से गोदकर मार डाला। वह उसके किसी और युवक से बात करने को लेकर खफा था। प्रेमसंबंधों के बीच चाकू चलने और कत्ल करने की घटनाएं इतनी हो रही हैं कि प्रेम के प्रतीक के रूप में दिल के लाल निशान की जगह चाकू का ही निशान बना देना चाहिए, उससे कुछ लोग सावधान तो होंगे। एक दूसरी घटना जांजगीर-चाम्पा की है जहां एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के बाद एक महिला देर रात घर अकेले लौट रही थी, और तीन मोटरसाइकिलों पर वहां से निकलते नौजवानों ने उसे घर छोडऩे के बहाने बिठा लिया, और बाजार में एक जगह ले जाकर 7 लोगों ने बलात्कार किया। सारे के सारे गिरफ्तार हो गए हैं, और बलात्कार के मामलों में जिस तरह के सुबूत जुट जाते हैं, उससे इन्हें सजा होने की काफी गुंजाइश भी रहती है। रोज ऐसी खबरें अखबारों में आती हैं, लेकिन इन 7 नौजवानों का या तो खबरों को पढऩे से लेना-देना नहीं था, या फिर उन्हें सजा की कोई परवाह नहीं थी। तीसरी घटना दुर्ग जिले की है जहां दो सगे भाईयों ने उनके पिता से अलग रह रही अपनी माँ के लिव-इन-पार्टनर को पीट-पीटकर मार डाला। उनका माँ से इस संबंध को लेकर तनाव बने रहता था, और अब गिरफ्तार दोनों भाई बरसों के लिए जेल जाएंगे, यह तय है। चौथी घटना बिलासपुर जिले की है जहां भाई के मर जाने के बाद भाभी को पेंशन मिल रही थी, और भतीजी को एसईसीएल में अनुकम्पा नियुक्ति मिलने की प्रक्रिया चल रही थी। ऐसे में मृतक के भाई ने भाभी-भतीजी को मारने के लिए पांच लाख रूपए में दो लोगों को ठेका दिया, और 70 हजार रूपए एडवांस भी दिए। भाड़े के हत्यारों ने उनके घर में छुपकर ही माँ-बेटी पर हमला बोला, माँ मारी गई, भतीजी बुरी तरह जख्मी अस्पताल में है, और उनकी जगह अनुकम्पा नियुक्ति पाने के बजाय सुपारी देने वाला देवर भी हत्यारों सहित गिरफ्तार हो चुका है।
अब तो हत्या और बलात्कार सरीखे गंभीर अपराधों में मुजरिमों का बच निकलना कम होते जा रहा है, और अखबारों में हर दिन ऐसे कई जुर्म की खबरों के साथ-साथ कुछ दूसरे ताजा-ताजा जुर्मों में गिरफ्तारियों की खबरें भी छपती हैं। इसके बावजूद अगर लोग कई बरस की कैद लायक जुर्म करने से परहेज नहीं करते हैं, कतराते नहीं हैं, तो यह समझने की जरूरत है कि उनकी जिंदगी में इतनी तकलीफ का खतरा उठाने लायक कौन सी बात है? इसे कुछ दूसरे तरह से भी समझा जा सकता है कि क्या उनकी जिंदगी में ऐसा कोई सुख नहीं है, ऐसी किसी खुशी की संभावना नहीं है कि वे उसकी चाहत में कैद और जेल से दूर रहना चाहें? जिन लोगों की जिंदगी में उम्मीदें रहती हैं, संभावनाएं रहती हैं, वे अपने आपको बचाकर रखना चाहते हैं। लेकिन जिनकी जिंदगी अभावों से भरी रहती है, आगे भी जिन्हें कोई रौशनी नहीं दिखती, वैसे लोग कैद जैसे खतरों की परवाह नहीं करते। आज सभी तरह के गंभीर अपराधों के मुजरिमों को देखें, तो वे जिंदगी में अच्छे-भले बसे हुए लोग नहीं रहते, वे आमतौर पर बेरोजगार, नशेड़ी, गरीबी से गुजरते हुए लोग अधिक रहते हैं। जिस देश में जुर्म जितना अधिक है, वह देश संपन्नता, सफलता, और खुशहाली से उतनी ही दूरी वाला देश रहता है। किसी भी देश-प्रदेश को जुर्म के आंकड़ों से यह सबक भी लेना चाहिए कि उनकी आबादी का कौन सा तबका कैद से डर नहीं रहा है। जब आपके बीच के लोग कैद से न डरते हों, तो आपको उनसे डरना चाहिए, वे खतरनाक होते हैं, क्योंकि वे बेधडक़ हो चुके रहते हैं, कानून का उन्हें कोई खौफ नहीं रहता। कोई भी समाज तभी तक सुरक्षित रह सकता है जब तक उसके लोग परिवार को छोडक़र जेल जाने से डरते हों, जिन्हें जिंदगी में सुख की चीजों की या तो चाहत रहती है, या जिन्हें सुख हासिल रहता है। सुख अपने आपमें जुर्म से दूर रहने की एक बड़ी वजह रहती है क्योंकि लोग सुख की आजाद जिंदगी को छोडक़र कैद की तकलीफों में जाना नहीं चाहते। यही वजह है कि संपन्न तबकों के लोग जेलों में गिने-चुने दिखते हैं, और अधिकतर मुजरिम ऐसे रहते हैं जिनकी जेल की जिंदगी बाहर की जिंदगी के मुकाबले बहुत अधिक खराब नहीं रहती है।
जैसे किसी बहुत मामूली सी साहित्यिक पुरस्कार के लिए कई बहुत ही औसत लेखक-कवि कोशिश करने लग जाते हैं, गुटबाजी करते हैं, लॉबिंग करते हैं, उससे भी बहुत घटिया दर्जे पर उतरकर अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प नोबल शांति पुरस्कार के लिए दावा करते चल रहा है। शायद पूरी रात उसे सपने में नोबल शांति पुरस्कार का मैडल ही दिखते रहता है। अभी वह 50वीं बार भारत और पाकिस्तान के बीच का युद्ध रूकवाने का दावा कर रहा है, और भारत तकरीबन हर बार इसे गलत बतलाते आया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद में साफ कहा था कि किसी भी देश के नेता ने भारत से ऑपरेशन सिंदूर रोकने को नहीं कहा था। जिस तरह एक राजनयिक और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के शिष्टाचार का तकाजा रहता है, भारत ने साफ शब्दों में ट्रम्प के दावों को सच से परे कहा है, लेकिन भारत के बहुत से हित अमरीका से जुड़े हुए हैं, इसलिए वह भारत के चुनाव आयोग की तरह राहुल गांधी के हर बयान का हमलावर जवाब मिनटों के भीतर नहीं दे रहा है। फिर भी भारत ने दर्जन भर से अधिक बार यह साफ किया है कि पाकिस्तान के साथ इसके रिश्तों में किसी तीसरे पक्ष की कोई गुंजाइश नहीं है, और ट्रम्प ने भारत से ऑपरेशन सिंदूर रोकने की कोई बात नहीं कही थी। भारत ने कहा है कि दोनों देशों फौजी अफसरों के बीच बातचीत के बाद इसे रोका गया था।
अब ट्रम्प ने एक बार फिर अपना पुराना राग दुहराया है कि उन्होंने दोनों देशों को कारोबार रोक देने की धमकी देकर यह युद्ध रोका है जो कि परमाणु युद्ध में बदलने का खतरा रखता था। उन्होंने कहा कि अभी पाकिस्तान के सैन्य प्रमुख आसिम मुनीर ने उनकी तारीफ करते हुए कहा है कि उन्होंने (ट्रम्प ने) लाखों जिंदगियां बचा ली। ट्रम्प ने कहा है कि 9 महीनों में उन्होंने इतने सारे जंग खत्म करवाए हैं, सात फौजी संघर्ष खत्म करवाए हैं, और अब वे इजराइल-हमास के बीच चल रहा जंग खत्म करवाने के करीब हैं। उन्होंने तो अपने दावे में यही कहा है कि कल उन्होंने (इजराइली प्रधानमंत्री के साथ बैठक के बाद) यह जंग भी करीब-करीब खत्म करवा दी है। उन्होंने इस बैठक के बाद जिस अंदाज में अपना गाजा शांति प्लान सामने रखा है, और इसे पश्चिम के इजराइल के आलोचक देशों के साथ-साथ अरब देशों ने भी अच्छा माना है, और तकरीबन तमाम पहलू ट्रम्प के इस योजना के साथ हैं।
फिर भी नोबल शांति पुरस्कार के लिए ट्रम्प की यह हड़बड़ी बड़ी घटिया किस्म की हरकत है। पूरी दुनिया में सबसे अधिक सम्मान वाला माना जाने वाला यह नोबल शांति पुरस्कार अपने खुद को दिलवाने के लिए इस तरह बेसब्र ट्रम्प दुनिया का पहला इंसान है। कल उसने जिस तरह इजराइल और फिलीस्तीन के बीच संघर्ष रोकने के लिए एक योजना की घोषणा की, उसके शब्दों से इजराइली प्रधानमंत्री भी पूरी तरह सहमत नहीं थे, और राजनीतिक विश्लेषकों ने ट्रम्प की हड़बड़ी, और उसके दावे को लेकर यह कहा कि वे हमास को कोई संदेश नहीं दे रहे थे, बल्कि नोबल पुरस्कार कमेटी को संदेश दे रहे थे कि शांति पुरस्कार वाले मैडल को पॉलिश करवाना शुरू कर दे। पिछली करीब आधी सदी में हमें और कोई भी सामाजिक आंदोलनकारी, मानवाधिकार कार्यकर्ता, या शासन प्रमुख ऐसे याद नहीं पड़ते जिन्होंने ऐसी बेशर्मी के साथ अपने आपको नोबल पुरस्कार कमेटी के सामने पेश किया हो। एक बड़ा खतरा दुनिया के सामने आज यह है कि अगर किसी और को इस बरस यह पुरस्कार मिल गया, तो हो सकता है कि दुनिया से बदला लेने के लिए ट्रम्प दस-बीस जगह खुद ही जंग शुरू करवा दे। वैसे अब तक का रिकॉर्ड तो यही कहता है कि 24 घंटे में रूस-यूक्रेन जंग को रूकवाने का दावा करने वाला ट्रम्प आज महीनों बाद भी खाली हाथ बैठा हुआ है, और उसने इस चक्कर में नाटो के देशों के साथ अपने रिश्ते बर्बाद कर डाले हैं। पाकिस्तान से एक ताजा मोहब्बत के चलते उसने भारत के साथ चौथाई सदी में अच्छे हुए रिश्तों को तबाह कर दिया है। दिखावे के लिए यारी-दोस्ती की बातें फिजूल हैं क्योंकि ट्रम्प के फैसलों से भारत का उद्योग-व्यापार, यहां के कामगार, यहां से अमरीका जाकर काम कर रहे लाखों लोग, सब पर अनिश्चितता की एक तलवार टंग गई है।
आज लोगों को फोन पर तरह-तरह के फर्जी संदेश और ऑफर भेजकर ठगने का धंधा जोरों पर है। न सिर्फ हिंदुस्तान में, बल्कि दुनिया के दर्जनों देशों में साइबर ठगी, सेक्सटॉर्शन खूब चल रहा है। आज ही सुबह की रिपोर्ट है कि चीन म्यांमार में चल रहे फर्जी कॉल सेंटरों पर कार्रवाई करके चीनियों को गिरफ्तार कर रहा है, लेकिन जिस कंबोडिया के साथ चीन के अच्छे रिश्ते हैं, वहां भी फर्जी कॉल सेंटरों में दसियों हजार लोग काम कर रहे हैं, जो दुनिया भर के देशों में फोन करके उन्हें ब्लैकमेल करते हैं, ठगते हैं। भारत सरकार की रोक के बावजूद आज भी दूसरे देशों से चलाए जा रहे दर्जनों लोन एप्लीकेशन भारत में काम कर रहे हैं, और एक बार उनसे कर्ज ले लेने वालों का वे पूरा खून निचोड़ लेते हैं। डिजिटल अरेस्ट नाम की एक दहशत पैदा करके लोगों को एक-एक महीने तक फोन से ही अपने कब्जे में रखते हैं, और उनके बैंक खाते खाली करवा लेते हैं। इन तौर-तरीकों के बारे में हम हर कुछ महीनों में लिखते हैं कि कैसे सरकार को ऐसे साइबर-अपराधों की रोकथाम के लिए खुफिया एजेंसियां बनानी चाहिए।
लेकिन कल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक महिला डॉक्टर के साथ हुई ठगी का तरीका बड़ा अटपटा है। अगर पुलिस में लिखाई गई रिपोर्ट, और सुबूत के तौर पर दी गई सीसीटीवी रिकॉर्डिंग सब सही हैं, तो फिर यह एक नया खतरनाक सिलसिला शुरू होते दिख रहा है। इस ताजा घटना में एक महिला डॉक्टर के क्लीनिक में पहुंचे दो साधुओं ने डॉक्टर से बात करते हुए उसे हिप्नोटाईज कर लिया, और उससे एक यूपीआई खाते में हजारों रुपये ट्रांसफर करवा लिए और उसे देवी-देवताओं की फोटो और रूद्राक्ष की माला देकर चले गए। डॉक्टर का कहना है कि जब अगले दिन उसने अपने फोन पर रकम जाने की जानकारी देखी, और सीसीटीवी रिकॉर्डिंग देखी, तो उसे ठगी का अहसास हुआ, और उसने पुलिस रिपोर्ट की। पुराने लोगों को याद होगा कि कुछ दशक पहले इस प्रदेश में सडक़ पर भगवान दिखाने के नाम पर जमकर ठगी होती थी, लोगों से उनके गहने उतरावाकर पोटली बनाकर ठग उन्हें कोई दूसरी पोटली थमा देते थे, और सौ कदम चलने कहते थे कि उसे बाद भगवान के दर्शन होंगे। इसमें आए दिन लोग ठगाते थे, लेकिन उस वक्त कोई सीसीटीवी कैमरे नहीं थे, इसलिए ठग पकड़ाते नहीं थे। अब मोबाइल फोन, लोकेशन, बैंक खातों में लेनदेन, और सीसीटीवी रिकॉर्डिंग की मेहरबानी से लोग न सिर्फ पकड़ाते हैं, बल्कि उनके खिलाफ सुबूत भी पुख्ता मिल जाते हैं।
अब अगर साधुओं के हुलिए में आकर ठग किसी को हिप्नोटाईज कर रहे हैं, तो यह तो एक बहुत ही खतरनाक नौबत है। आज भारत की हवा में धर्म जितना घुला हुआ है, किसी धार्मिक पोशाक में पहुंचे लोगों को तो बेरोकटोक महिलाएं घरों में आ जाने देंगी, और उनका सत्कार भी करने लगेंगी। अब अपनी क्लीनिक में काम करती हुई डॉक्टर, वहां पर दूसरे कर्मचारी के रहते हुए भी इस तरह की ठगी की शिकार हो गई है, तो घरेलू महिलाएं तो और अधिक खतरे में रहेंगी। सुबह होती नहीं है कि रिहायशी बस्तियों में धर्म के नाम पर, गाय या किसी अनाथाश्रम के नाम पर चंदा मांगने के लिए, या किसी यज्ञ हवन के नाम पर दान मांगते हुए धार्मिक चोलों में लोग पहुंचने लगते हैं। उन्हें कड़ाई से मना कर दिया जाए, तो उनके आशीर्वचन पलभर में श्राप में बदल जाते हैं। अगर डॉक्टर से ठगी की यह घटना सही है, तो पुलिस को इसे तेजी से हल करना चाहिए, साथ-साथ एक साधारण सावधानी भी चारों तरफ फैलानी चाहिए कि सम्मोहन करके ठगी करने वाले लोग घूम रहे हैं, लोग अनजाने लोगों से कुछ दूर ही रहें।
अब इस एक घटना से परे आम बात यह है कि चारों तरफ लोग जुर्म से मोटी कमाई करने को एक आसान रास्ता मानकर चल रहे हैं। वे सट्टेबाजी की बुकिंग कर रहे हैं, नशे की तस्करी और बिक्री कर रहे हैं, वैध-अवैध शराब की गैरकानूनी बिक्री कर रहे हैं, हर किस्म का साइबर क्राइम तो कर रही रहे हैं। इन सबको मिलाकर देखें तो लगता है कि लोगों को जेल जाने के खतरे का या तो पूरा अहसास नहीं है, या वे उस खतरे की कीमत पर भी जुर्म से कमाई करके आलीशान जिंदगी जीना चाहते हैं। इसी छत्तीसगढ़ के महादेव सट्टा नाम का दसियों हजार करोड़ का ऐसा साम्राज्य खड़ा हुआ कि उसका सरगना दुबई में बैठकर आज तक धंधा चल रहा है, और उसकी गिरफ्तारी की बस अफवाहें ही बीच-बीच में आती हैं। इस बीच जांच एजेंसियों का कहना है कि महादेव सट्टा की काली कमाई में नेताओं और अफसरों को सैकड़ों करोड़ रुपये मिले। अब जुर्म की कमाई अगर इतनी आसान और इतनी आलीशान है, तो बहुत हैरानी की बात नहीं है कि गांव-गांव तक लोग शेयर बाजार में पूंजी निवेश, और क्रिप्टोकरेंसी के धंधे का झांसा देकर लोगों को ठग रहे हैं।
कुछ हफ्ते पहले नेपाल में एक जनआंदोलन के बाद सत्तापलट हुआ, तो हमने लिखा था कि बाकी देशों को भी इससे सबक लेना चाहिए। अलग-अलग कई किस्म के देशों में जनता का आंदोलन सरकार को पलट चुका है, या सरकार को अपना रूख बदलने पर मजबूर कर चुका है। अरब स्प्रिंग कहे जाने वाले जनआंदोलन की शुरूआत 2010-11 में ट्यूनिशिया से हुई थी, बाद में यह मिस्र, लीबिया, यमन, बहरीन, और सीरिया जैसे देशों में फैल गया। कुछ देशों में इसने सत्ता प्रमुख को हटने या गिरने पर मजबूर किया, तो कुछ जगहों पर यह गृहयुद्ध बन गया। इसे जनजागरूकता का एक बड़ा आंदोलन कहा जाता है। फिर हाल के बरसों में हमने श्रीलंका, बांग्लादेश में जनता की बगावत, या जनक्रांति से सत्ता बदलते देखी है, और सबसे ताजा मिसाल तो नेपाल की अभी सामने है।
भारत एक बहुत बड़ा देश है, और ऊपर जिन देशों का हमने जिक्र किया है उन सबसे अलग यह एक बड़ा मजबूत लोकतंत्र है। यहां पर किसी जनआंदोलन से सत्तापलट जैसा कोई खतरा नहीं है, लेकिन जनआंदोलनों के सत्ता के लिए अपने खतरे रहते हैं, और लोगों को याद होगा कि 2014 में यूपीए सरकार के जाने की वजह दिल्ली में केजरीवाल, और उनके भागीदारों के चलाए जनआंदोलन भी थे। अन्ना हजारे, रामदेव, किरण बेदी, केजरीवाल, और श्रीश्री रविशंकर ने मिलकर जो माहौल बनाया था, और रामदेव 35 रूपए में डीजल-पेट्रोल, 40 रूपए में डॉलर, हर खाते में विदेशों से लौटे कालेधन के 15-15 लाख, देश के हर गांव को स्विटजरलैंड जैसा बनाना, ये सारे हसीन सपने भगवा लंगोटी के साथ देश को पेश कर रहे थे, और लोगों ने इस आंदोलन के बाद यूपीए सरकार को चुनाव में हटा दिया था। इस तरह भारत में जनआंदोलन कोई बगावत या क्रांति नहीं बनते, लेकिन वे एक सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बन सकते हैं, कभी-कभी बने हैं।
अब हम लद्दाख की बात करना चाहते हैं जहां पर राज्य में छठी अनुसूची लागू करने की भाजपा के ही घोषणापत्र की बात दुहराते हुए एक गांधीवादी आंदोलनकारी सोनम वांगचुक आंदोलन कर रहे थे। उनका अनशन और आंदोलन अहिंसक चल रहा था, लेकिन लद्दाख में कुछ दूसरे आंदोलनकारी बेकाबू हो गए, पुलिस गाडिय़ों, और भाजपा दफ्तर को आग लगा दी। इस हिंसा का विरोध करते हुए सोनम वांगचुक ने अपना अनशन खत्म कर दिया, लेकिन इस केन्द्रशासित प्रदेश पर काबिज केन्द्र सरकार ने उन्हें गिरफ्तार करके राजस्थान की जोधपुर जेल भेज दिया है। लोगों को अच्छी तरह याद है कि जब मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर को तोडक़र तीन अलग-अलग इलाके बनाए थे, तो लद्दाख के सोनम वांगचुक ने मोदी सरकार की तारीफ की थी, उन्हें धन्यवाद दिया था। वे बुनियादी तौर पर एक पर्यावरणवादी हैं, और पूरी दुनिया में उन्हें उनके इस पहलू की वजह से बड़े सम्मान से देखा जाता है। वे मोदी सरकार की कुछ पर्यावरण पहल की तारीफ कर चुके हैं, सार्वजनिक रूप से भी, और केन्द्र सरकार को चिट्ठी लिखकर भी। ऐसे में लद्दाख में हुई आगजनी की हिंसा की तोहमत उन पर थोपते हुए उनको गिरफ्तार करके जिस तरह एक गर्म प्रदेश जोधपुर की जेल में भेजा गया है, उससे केन्द्र सरकार ने बातचीत की एक संभावना को खत्म कर दिया है। देश के सरहदी राज्यों को लेकर भारत सरकार पर अलग-अलग समय पर अलग-अलग दबाव बने रहते आए हैं, लेकिन केन्द्र सरकार और देश के हित में यही रहता है कि इन राज्यों में शांतिपूर्ण बातचीत के लिए कोई स्थानीय नेता रह सकें। कश्मीर के मामले में तो अभी-अभी यह तथ्य सामने आया है कि वहां के कुछ अलगाववादी नेताओं को भी भारत के अलग-अलग कुछ प्रधानमंत्रियों, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान में बसे नेताओं से बातचीत का जिम्मा दिया था। जब कभी किसी तनावग्रस्त इलाके में बातचीत के लिए नेता उपलब्ध हों, तो सरकार का काम आसान होता है। लेकिन आज लद्दाख में सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी से न सिर्फ वहां से दिल्ली को जोडऩे वाला एक पुल गिरा दिया गया है, बल्कि पूरी दुनिया में इस पर्यावरणवादी आंदोलनकारी की वजह से लद्दाख का मुद्दा खबरों में आ गया है, और दुनिया की नजरें लद्दाख पर टिक गई है। एक बहुत अच्छी अंतरराष्ट्रीय साख वाले शांतिप्रिय आंदोलनकारी को लद्दाख जैसे नाजुक इलाके से हटाना सरकार की एक बड़ी चूक है। हम देख रहे थे कि लद्दाख में चीन के साथ साढ़े 8 सौ किलोमीटर लंबी सरहद है, और लद्दाख के कई हिस्सों पर चीनी कब्जे को लेकर विवाद भी है। पाकिस्तान के गिलगित-बाल्टिस्तान इलाके से भी लद्दाख जुड़ा हुआ है, और अफगानिस्तान से भी। लद्दाख से बड़ी संख्या में पहाड़ी स्थितियों में काम करने के काबिल नौजवान भारतीय फौज में जाते हैं, और एक सरहदी राज्य को इस तरह उलझाना समझदारी नहीं है। कुछ रिटायर्ड फौजी अफसर कल ही यह याद दिला रहे थे कि लद्दाख ऐसी खिलवाड़ के लायक प्रदेश नहीं है।
लेकिन लगे हाथों हम असम की बात करना चाहते हैं जहां पर राज्य की आबादी के करीब 12 फीसदी आदिवासी समुदाय आंदोलन करते हुए सडक़ों पर हैं जिन्हें आरक्षण के तबके में शामिल नहीं किया गया है। पिछले कुछ महीनों में ये समुदाय लगातार बेचैन हैं, और अभी-अभी इनके बहुत बड़े-बड़े जुलूस निकले हैं, बड़े-बड़े प्रदर्शन हुए हैं। लद्दाख और असम दोनों जगहों पर स्थानीय जनता को यह आशंका है कि उनकी जमीन बाहरी कारखानेदारों को, या खदान मालिकों को दी जा सकती है। असम में अभी एक स्वायत्तशासी परिषद, बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल के चुनाव में केन्द्र और राज्य दोनों जगह सत्तारूढ़ भाजपा की करारी शिकस्त हुई है। वहां भाजपा की सीटें आधी रह गईं, और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट ने बहुमत पा लिया है। अब एक बड़े स्थानीय चुनाव में शिकस्त, राज्य में भाजपा के देश के सबसे हमलावर मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा के खिलाफ जनआक्रोश के साथ-साथ जब वहां के आदिवासी आंदोलन को देखें, तो लगता है कि इस एक और सरहदी राज्य में बेचैनी कुछ अधिक फिक्र की बात होनी चाहिए। असम का भूटान के साथ बॉर्डर तो ढाई सौ किलोमीटर से कुछ अधिक है, लेकिन वह अधिक फिक्र की बात नहीं है। बांग्लादेश के साथ ठीक इतना ही लंबा बॉर्डर है, और यह देश की एक बहुत संवेदनशील सरहद है।
तमिलनाडु के करूर नाम की जगह पर लोकप्रिय फिल्म अभिनेता विजय थलापथि की राजनीतिक रैली कल शाम जानलेवा हो गई, जब वे घंटों देर से वहां पहुंचे, और इंतजार करते हुए थके हुए लोग उनके करीब आने को बेकाबू होने लगे। मंच तक पहुंचने के लिए उनके लिए जो रास्ता रखा गया था, उसे छोडक़र वे भीड़ के बीच से मंच तक जाने लगे, और उनके करीब आने को टूट पड़े लोग भगदड़ में कुचले गए। अभी दोपहर तक 39 लोग मारे जा चुके हैं जिनमें आधे से अधिक महिलाएं और बच्चे हैं। 50 से अधिक लोग बुरी तरह जख्मी हैं, और अलग-अलग अस्पतालों में हैं। अभिनेता विजय की पार्टी तमिलगा वेत्री कझगम तमिल राजनीति में सत्तारूढ़ डीएमके के खिलाफ अगले बरस का विधानसभा चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे हैं, और इसके चलते ही कल जिन दो जगहों पर उनकी आमसभा हुई, दोनों जगह पर वे घंटों लेट पहुंचे, और पहली जगह की भगदड़ में तो मौतें नहीं हुईं, लेकिन दूसरी आमसभा में हुई मौतों के बाद इस बड़े फिल्म अभिनेता ने श्रद्धांजलि के दो शब्द भी नहीं कहे, और विशेष विमान से चेन्नई चले गया। शासन-प्रशासन का कहना है कि इस रैली के लिए पुलिस ने जो सावधानियां बरतने के लिए कहा था, इस अभिनेता की पार्टी ने उनमें से कोई बात नहीं मानी, और उसके घंटों लेट पहुंचने की वजह से लोग चक्कर खाकर गिर रहे थे, और करीब आने के लिए भगदड़ भी हो रही थी। मुख्यमंत्री ने इसे तमिलनाडु में किसी भी राजनीतिक कार्यक्रम में अब तक हुई सबसे अधिक मौतों का हादसा कहा है। उल्लेखनीय है कि तमिल राजनीति में बड़ी संख्या में फिल्मी सितारों का इतिहास रहा है, और उनमें से कुछ मुख्यमंत्री भी बने हैं। वहां पर फिल्मी सितारों के लिए भी एक ऐसी दीवानगी रहती है जो कि देश में और कहीं भी नहीं दिखती, और यही दीवानगी लोगों को राजनीतिक सफलता के आसमान पर पहुंचा देती है। तमिल फिल्मों से जुड़े सीएन अन्नादुराई फिल्म स्क्रिप्ट लिखते थे, और फिल्मों के रास्ते उन्होंने द्रविड़ आंदोलन को भी लोकप्रिय किया था। एम.जी.रामचन्द्रन तमिल फिल्मों के सुपरस्टार थे, और वे दस बरस मुख्यमंत्री रहे, उनके बाद उनकी राजनीतिक वारिस कही जाने वाली जे.जयललिता तो छह बार मुख्यमंत्री बनीं, जो कि एनजीआर के साथ ही लोकप्रिय अभिनेत्री की जोड़ी थीं। एम.करूणानिधि ने 75 से अधिक तमिल फिल्में लिखीं, और वे पांच बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने। विजयकांत, और कमल हासन जैसे कुछ लोग भी राजनीति में आए, लेकिन बहुत आगे नहीं बढ़े। अब ताजा दाखिला विजय थलपथि का है, वे 2024 में राजनीतिक दल बनाकर 2026 के चुनावों की तैयारी में लगे हुए हैं। लेकिन तमिल फिल्म और राजनीति के रिश्ते पर आज की बात खत्म करने का हमारा कोई इरादा नहीं है, हम लोगों की भीड़ में भगदड़ से होने वाली मौतों की बात करना चाहते हैं। अभी कुछ अरसा पहले ही कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू में क्रिकेट टीम के जीत के आने के बाद निकाले गए विजय जुलूस में भगदड़ हुई, और 11 प्रशंसक कुचलकर मारे गए, 50 से अधिक जख्मी हुए। कुछ गलत जानकारियों के चलते हुए ढाई लाख से अधिक लोग एक जगह जुट गए थे, और आयोजकों ने भीड़ काबू करने की कोई तैयारी नहीं की थी।
क्रिकेट और सिनेमा, सी से शुरू होने वाले ये दो शब्द हिन्दुस्तान में धर्म के तुरंत बाद का दर्जा रखते हैं। खबरों से लेकर वोटों तक ये दोनों चीजें लोगों को बुरी तरह प्रभावित करने की ताकत रखती हैं। इसीलिए किसी भी दूसरे खेल के मुकाबले क्रिकेट खिलाड़ी राजनीति से लेकर राज्यसभा और लोकसभा के मनोनयन तक सबसे अधिक जगह पाते हैं। इन्हीं को टक्कर देकर इनसे अधिक संख्या फिल्म से जुड़े लोगों की रहती है, जो कि राजनीतिक दलों में शामिल होते हैं, चुनाव भी लड़ते हैं, और संसद में मनोनीत भी किए जाते हैं। राजनीतिक दल भीड़ को जुटाने, और रुझाने की इनकी क्षमता अच्छी तरह जानते हैं, और इसीलिए इन्हें अपनी पार्टी में लेकर आने को एक किस्म से चुनावी जीत ही मान लिया जाता है। यहां तक कि चुनावी इस्तेमाल से परे भी बड़े-बड़े दिग्गज फिल्मकारों को संसद में मनोनीत करके राजनीतिक दल इस मनोनयन से मिली शोहरत को भी वोटरों के बीच भुना लेती है, फिर चाहे ये फिल्मकार संसद में पांच बरस में मुंह भी न खोलें। ऐसे लोग दक्षिण भारत में जब राजनीतिक दल बनाकर चुनावी मैदान में उतरते हैं, तो राजनीतिक संतुलन बदलने की एक बड़ी संभावना भी पैदा हो जाती है। आज तमिलनाडु में सत्तारूढ़ डीएमके के खिलाफ विजय थलपथि के उतरने से उन तमाम राजनीतिक दलों को खुशी हुई होगी जो कि अगले चुनाव में डीएमके की शिकस्त देखना चाहते हैं। जनता में दीवानगी का हाल दक्षिण भारत में चुनाव और फिल्म दोनों में देखने मिलता है, और फिल्म स्टार नेता की बेमौसम की इस राजनीतिक रैली में लोगों की बेतहाशा भीड़ बताती है कि फिल्म से राजनीति में आकर शोहरत और कामयाबी की उम्मीद लगाना गलत नहीं है। लेकिन जिस तरह फिल्म सितारे शूटिंग पर घंटों लेट पहुंचते हैं, उसी तरह कल यह फिल्म कलाकार 6 घंटे देर से पहुंचा, और दक्षिण की तेज धूप में सुबह से भूखे-प्यासे बैठे हुए लोग चक्कर खाकर गिरने लगे थे, और बाद में भीड़ बेकाबू हुई, भगदड़ में कई महिलाओं के पैर टूट गए, और रिकॉर्ड संख्या में 39 मौतें हुई हैं।
छत्तीसगढ़ के बेमेतरा के एक गांव में परसों शाम एक सतनामी नौजवान की चाकू मारकर हत्या कर दी गई। इस युवक ने सतनामी समाज के खिलाफ दूसरी जाति के एक युवक की सोशल मीडिया पोस्ट हटाने को लिखा था, और हिन्दू धर्म के किसी नारे को लेकर स्कूल से किसी शिक्षक को हटाने का मामला था जिस पर सोशल मीडिया पर हुई असहमति कत्ल तक पहुंच गई। अब सतनामी समाज में समाज के एक लडक़े के कत्ल को लेकर बड़ा आक्रोश है, और शव को चौक पर रखकर चक्काजाम किया गया है। पीडि़त परिवार को एक करोड़ का मुआवजा, और परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने की मांग भी की जा रही है। अभी हम सोशल मीडिया पोस्ट के बाद पैदा हुए, और बढ़े जातिवादी तनाव की बारीकियों पर जाना नहीं चाहते, लेकिन समाज की हवा में धर्म और जाति को लेकर जो तनातनी फैली हुई है, उसके बारे में हर जिम्मेदार तबके को फिक्र करने की जरूरत है। अभी दो-तीन दिन पहले ही इस जिले से लगे हुए कवर्धा में एक आदिवासी युवती के साथ तीन नौजवानों ने सामूहिक बलात्कार किया, और गृहमंत्री का अपना जिला, अपना चुनाव क्षेत्र होने से पुलिस ने तेजी से उन्हें गिरफ्तार भी किया है। अब वहां पर आदिवासी समाज आंदोलन कर रहा है, और 50 लाख मुआवजा मांग रहा है। लोगों को याद होगा कि पिछले बरस बलौदाबाजार जिले में सतनामी समाज के एक आंदोलन के बाद वहां तनाव इतना खड़ा हुआ कि कलेक्टर और एसपी के दफ्तर जला दिए गए थे। सरकार, और राजनीति, न तो मिलकर, और न ही अलग-अलग इस तनाव को निपटा पाए हैं।
छत्तीसगढ़ आज अलग-अलग धर्मों के बीच तनाव भी झेल रहा है, और हिन्दू धर्म के भीतर की अलग-अलग जातियां भी समय-समय पर एक-दूसरे से टकरा रही हैं। ओबीसी के भीतर भी अलग-अलग जातियों के बीच राजनीतिक खींचतान, और तनातनी बड़ी आम बात है। ऐसे में हिन्दू समाज जैसी कोई चीज नहीं है, और हिन्दुओं के बीच कई तरह की जातियां, और उनके भीतर की उपजातियों में टकराव की नौबत कई जगह आती है। आदिवासी से ईसाई बनने का बवाल खासकर बस्तर में अधिक चल रहा है, लेकिन अब तो पूरे प्रदेश के शहरी इलाकों में भी हर इतवार किसी न किसी जगह ईसाई परिवार में चल रही प्रार्थना को लेकर धर्मांतरण के आरोप लगाकर बजरंग दल जैसे संगठन वहां पहुंचकर कानून अपने हाथ में ले रहे हैं, और फिर पुलिस मानो उनकी मदद के लिए वहां पहुंच रही हैं। इससे परे एक नया घटनाक्रम अगर लोगों के ध्यान में नहीं आया है, तो उसे भी देखने की जरूरत है। भीम आर्मी नाम का संगठन जो कि हिन्दुत्ववादी संगठनों से परे मोटेतौर पर दलितों के बीच काम करता है, उसने अभी सामने आकर कुछ जगहों पर ईसाईयों पर हमलों का विरोध किया है, और ईसाईयों के साथ एकजुटता दिखाई है। पिछले ही इतवार को एक जगह भीम आर्मी के लोग लाठियां लेकर ईसाई परिवार के घर के बाहर और छत पर हिफाजत देने के लिए खुद तैनात हो गए थे कि ईसाई प्रार्थना का विरोध करने आने वाले लोगों से वे निपटेंगे। इस नौबत को समझने की जरूरत है कि धर्मांतरण के आरोप लगाते हुए कुछ संगठन कानून अपने हाथ में ले रहे हैं, और पुलिस की मौजूदगी में भी ईसाई प्रार्थना सभा के लोगों को मार रहे हैं। इसके साथ-साथ पुलिस उस ईसाई परिवार के, और उस घर में मौजूद लोगों के खिलाफ हिन्दू धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के जुर्म दर्ज कर रही है, और धर्मांतरण के भी। अगर आमतौर पर अनुसूचित जाति समाज के लोगों के बीच से आने वाले भीम आर्मी के लोग अगर ईसाई लोगों के साथ खुद होकर इस तरह खड़े हो रहे हैं, तो ऐसे सामाजिक नवध्रुवीकरण के खतरों को भी राज्य की राजनीतिक ताकतों को समझना चाहिए। एक-एक जानवर और लाउडस्पीकर पर खुद होकर संज्ञान लेने वाला छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट पता नहीं हर इतवार अब नियमित हो चली इस हिंसा को क्यों नहीं देख पा रहा है। आज जब प्रदेश में कुछ संगठन कानून को हाथ में लेने के अधिकारप्राप्त हैं, कुछ दूसरे संगठन इसके खिलाफ लाठियां लेकर मौके पर तैनात हो रहे हैं, तो ऐसे में अगर सरकार और राज्य की पुलिस अपनी न्यूनतम संवैधानिक जिम्मेदारी पूरी नहीं करेंगी, तो कानून व्यवस्था की रस्सी जब हाथ से फिसलना तेज हो जाती है, तो फिर उसे थामना किसी के बस में नहीं रहता।
दुनिया के गोले पर अलग-अलग इलाकों की संस्कृतियां अलग-अलग हैं। संस्कृतियों के अलावा कुदरत के मुताबिक इन इलाकों की संपन्नता, विपन्नता, या इनकी जिंदगी के दूसरे हाल-बेहाल भी अलग-अलग हैं। योरप जैसे इलाके में आने वाले दर्जनों देशों की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि वे हमेशा से अफ्रीका जैसे सूखे और अकाल के शिकार देशों के मुकाबले बेहतर हालत में रहते हैं। अभी हम दुनिया के इतिहास में अधिक गहराई और खुलासे से जाना नहीं चाहते, लेकिन जिन इलाकों में विज्ञान और टेक्नॉलॉजी ने अधिक तरक्की की, औद्योगीकरण यहां बढ़ा, और यहां आर्थिक सफलता भी अधिक रही। दूसरी तरफ खाड़ी के कुछ ऐसे देश रहे जो जमीन के नीचे पेट्रोलियम भंडारों की वजह से दुनिया में अनुपातहीन तरीके से अधिक संपन्न रहे। अब इसके अलावा धर्म भी एक बड़ा मुद्दा रहा, खाड़ी के देशों सहित कुछ अफ्रीकी देशों में इस्लाम का बड़ा प्रचार रहा, और योरप सहित बहुत से इलाके ईसाइयत के प्रभाव वाले रहे। भारत और नेपाल दो ही देश हिन्दू धर्म के प्रभाव में रहे, और संख्या में इनसे कई गुना अधिक देश बौद्ध धर्मावलंबी रहे।
इस लंबी पृष्ठभूमि के बाद हम असल मुद्दे पर आना चाहते हैं कि मध्य-पूर्व और खाड़ी के देशों से गृहयुद्ध और जंग की वजह से बड़ी संख्या में शरणार्थी योरप के देशों में पहुंचे। इनके अलावा अफ्रीकी देशों से भी शरणार्थी योरप में घुसते ही हैं क्योंकि जान की बाजी लगाकर भी वे एक बेहतर जिंदगी चाहते हैं। योरप के कई देश बांहें फैलाकर बाहर से आने वाले शरणार्थियों को अपने यहां बसाते रहे हैं, लेकिन हाल के बरसों में वहां माहौल कुछ बदल गया है। एक तो मुस्लिम शरणार्थियों के धार्मिक रीति-रिवाजों को लेकर, उनके पोशाक जैसे सामाजिक मुद्दों को लेकर योरप के बहुत से देशों के स्थानीय लोगों में एक बेचैनी चली आ रही थी। और उसका नतीजा फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड्स, और इटली जैसे कई देशों में शरणार्थी, और प्रवासी विरोधी दक्षिणपंथी पार्टियों के उभार के रूप में सामने आया है। अब शरणार्थियों, जो कि मोटेतौर पर मुस्लिम हैं, उनके खिलाफ स्थानीयता का दावा करने वाले तबकों में एक प्रतिरोध विकसित होते चले गया, और यह महज रोजगार और आर्थिक अवसरों के टकराव तक सीमित नहीं रहा, यह बढ़ते-बढ़ते संस्कृतियों और सभ्यता के टकराव तक चले गया है। ये टकराव बहुत से देशों के चुनावों को इस तरह प्रभावित कर रहे हैं, जैसा कि इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था। योरप से परे इजराइल तक में आज वहां की सरकार में एक ऐसी संकीर्णतावादी पार्टी गठबंधन की भागीदार है, जितनी संकीर्णता इजराइल की सरकार में पहले कभी नहीं थी। जब राष्ट्रीयता का उभार उन्माद तक पहुंच जाता है, तब अपने देश के बहुसंख्यक धर्म से परे के धर्मों को दुश्मन के पुतले की तरह खड़ा कर देना बड़ा आसान रहता है, और योरप के कई देशों में अभी लगातार यही चल रहा है। फिर मानो स्थानीय लोगों का प्रतिरोध काफी नहीं था, बाहर से पहुंचे हुए लोगों ने अपनी संस्कृति को लेकर जो कट्टरता जारी रखी, और योरप के उदार, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष माहौल में घुलने-मिलने से परहेज किया, उसने भी स्थानीयता के समर्थकों को प्रवासियों और शरणार्थियों के खिलाफ कर दिया। आज योरप के आधा दर्जन ऐसे देशों में वहां की उदारवादी पार्टियों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो रहा है क्योंकि वे नस्लवादी, दक्षिणपंथी, और प्रवासी विरोधी पार्टियों के धार्मिक उन्माद की धार का मुकाबला नहीं कर पा रही हैं।
भारत में भी कई तरह के चुनावी-राजनीतिक कारणों से, धार्मिक और साम्प्रदायिक वजहों से अड़ोस-पड़ोस के देशों से आकर वैध-अवैध तरीके से बसे हुए बांग्लादेशी मुस्लिमों, और म्यांमार के मुस्लिम रोहिंग्या लोगों के खिलाफ भावना एक बड़ा चुनावी-राजनीतिक मुद्दा बन चुका है। विदेशी और घुसपैठिया होना उसका एक पहलू है, और उसका दूसरा पहलू स्थानीय बहुसंख्यक हिन्दू समाज के मुकाबले इन दोनों देशों से आए घुसपैठिया या शरणार्थियों का मुस्लिम होना भी है। जिस तरह योरप के देशों में दक्षिणपंथी पार्टियों का इस मुद्दे पर बड़ा उभार हुआ है, और करीब आधा दर्जन देशों में चुनावी नतीजों में उन्हें बड़ी कामयाबी मिली है, कुछ उसी किस्म का माहौल हिन्दुस्तान में भी बना हुआ है, और भाजपा की असाधारण चुनावी कामयाबी के पीछे ऐसे ध्रुवीकरण का योगदान भी गिना जाता है।
पिछले पखवाड़े जबसे यह घोषणा हुई थी कि बहुत से सामानों में जीएसटी घटेगा, तब से बाजार में सनसनी फैली हुई थी कि नवरात्रि के वक्त सरकार की तरफ से मिलने वाली यह रियायत बाजार को एक नया उत्साह देगी। ऐसा अंदाज है कि चीजों पर औसतन 7 फीसदी जीएसटी घटा है, और बाजार के जानकार बताते हैं कि लोग तो यह तय कर चुके रहते हैं कि किस त्यौहार पर उन्हें कितना खर्च करना है, इसलिए उतनी ही रकम से बाजार में खरीदी-बिक्री 7 फीसदी बढ़ जाने का भी एक अंदाज है। अर्थशास्त्री सोचते हैं कि इससे अर्थव्यवस्था का चक्का 7 फीसदी अतिरिक्त घूमेगा। फिर केंद्र और भाजपा की राज्य सरकारों ने इस रियायत को एक उत्सव की तरह मनाना तय किया है। भाजपा और उसके नेता औपचारिक रूप से इसे एक बचत उत्सव के रूप में मना रहे हैं।
आज बाजार में जब उत्साह का सैलाब आया हुआ दिख रहा है, और चर्चाएं इसे और आगे बढ़ा रही हैं, तो ग्राहक का अपनी क्षमता से बाहर जाकर खर्च करना एक स्वाभाविक बात होगी। सभी तरह के ऑटोमोबाइल पर बड़ी कटौती दिख रही है, और जो लोग अभी तक कोई दुपहिया या चौपहिया लेने के सपने महज इसलिए देखते रह जाते थे कि उनके पास दस-बीस फीसदी रकम कम पड़ती थी, वे अब एक बार कड़ा फैसला लेकर अपनी पसंद की कोई गाड़ी ले सकते हैं, क्योंकि घटी हुई जीएसटी से गाडिय़ों के दाम खासे कम हुए हैं। इसी तरह बाकी तमाम सामान के लिए भी बाजार रियायतें भी प्रचारित कर रहा है, और फाइनेंस कंपनियां भी लोगों को तथाकथित जीरो फाइनेंस पर लोन देने के लिए माला लेकर खड़ी हुई हैं। नवरात्रि के पहले दिन के कारों के उठाव के आंकड़े बताते हैं कि टाटा की 10 हजार, हुंडई की 11 हजार, और मारूति की 30 हजार गाडिय़ां एक दिन में उठी हैं। लोगों को याद होगा कि देश के हर शहर में कार डीलरों ने बड़े-बड़े मैदानों को किराए पर लेकर वहां कारों का खुला गोदाम बना रखा था क्योंकि कार फैक्ट्रियों के अहातों में कार रखने की जगह नहीं बची थी। अब ऐसा लगता है कि यह पूरा स्टॉक दीवाली तक लोगों के घरों में पहुंच जाएगा। शहरी सडक़ों पर त्यौहारी ट्रैफिक जाम में हजारों नई गाडिय़ों का जाम और जुड़ जाएगा।
उत्सव और उत्साह के इस माहौल में ग्राहक को अपना दिमाग, और अपना दिल भी, अपनी जगह पर मजबूती से जमाए रखना चाहिए। सपने तो पूरे परिवार के बहुत से होते हैं, लेकिन भारत के एक फीसदी से भी कम परिवार ऐसे हैं जो अपने हर सपने पूरे कर सकते हैं, या फिर यह भी हो सकता है कि उनके और बहुत से ऐसे सपने हों जिनका हमें अंदाज न लगता हो। ऐसे माहौल में लोग अपनी क्षमता से बाहर जाकर खरीददारी कर सकते हैं, और बाद में उसकी किस्तें पटाते हुए, उनकी क्षमता चुक सकती है। आज आसान फाइनेंस, और कुछ मध्यमवर्गीय लोगों के पास के क्रेडिट कार्ड की वजह से लोग अंधाधुंध खरीददारी की कगार पर खड़े हैं। सामान खरीदते हुए यह अंदाज नहीं लगता कि हर बरस गाडिय़ों के बीमे पर कितना पैसा लगता है, सर्विसिंग पर कितना पैसा लगता है, और पेट्रोल-डीजल पर तो लगता ही है जिसमें कि जीएसटी की कोई कटौती नहीं हुई है। मध्यम वर्ग के दिल-दिमाग में सपने उफनते रहते हैं, लेकिन उसके दिमाग की उंगलियां कैलकुलेटर पर नहीं चलतीं। नतीजा यह होता है कि एक बार की खरीदी के बाद के खर्च उसे नए चमचमाते सामानों की चमक में नहीं दिखते। वैसे भी हिन्दुस्तानी लोग मकान बनाते हुए, शादियां करते हुए, और साल के सबसे बड़े त्यौहार की खरीददारी करते हुए दिमाग का इस्तेमाल कम ही करते हैं। तर्क यह रहता है कि मकान तो जिंदगी में एक ही बार बनता है, शादी बार-बार तो होती नहीं, और त्यौहार तो साल का सबसे बड़ा त्यौहार है।
दुनिया में किसी को बेदिमाग कहना भी उसका एक किस्म से अपमान होता है, क्योंकि दिमाग तो सबके पास रहता है, फिर भी जिनमें बुद्धि की बड़ी कमी दिखती है, उन्हें बोलचाल में बेदिमाग कह दिया जाता है। फिर जो अपनी बुद्धि का बेजा इस्तेमाल ही करते हैं, उन्हें बददिमाग कह दिया जाता है। इससे परे कुछ लोग जो सनक में आकर कोई भी उटपटांग बात करते हैं, गलत-सलत फैसला ले लेते हैं, उन्हें सनकी कहा जाता है। ऐसे करीब डेढ़ सौ अलग-अलग विशेषणों को जोडक़र ही ट्रंप का परिचय दिया जा सकता है। कहने के लिए यह आदमी दुनिया के सबसे ताकतवर देश के सबसे ताकतवर ओहदे पर बैठा है, लेकिन यह पूरी तरह से तानाशाह हो चुका है, और इसने सबसे पहले तो अमरीकी लोकतंत्र को हरा दिया है। डोनल्ड ट्रंप ने पिछले राष्ट्रपति चुनाव को हारने के बाद जिस कबीलाई अंदाज में अपने समर्थकों को अमरीकी संसद पर हमला करने के लिए भडक़ाया था, उसके मामले-मुकदमे तो अमरीकी अदालतों में चल ही रहे हैं। इस आदमी की बदचलनी के मुकदमे भी अदालत में साबित हो चुके हैं, और यह बहुत ही उटपटांग किस्म का लोकतंत्र है कि ट्रंप के कुसूरवार साबित होने के बावजूद उसे कोई सजा नहीं हुई है। वह टैक्स चोरी के मामलों से घिरा हुआ है, बदजुबानी की उसकी मिसालें तरह-तरह की रिकॉर्डिंग में घूमती ही रहती हैं। आज की दुनिया में बद से शुरू होने वाले सबसे अधिक शब्द अगर किसी एक आदमी (इंसान लिखने से हम परहेज कर रहे हैं क्योंकि उसके साथ कुछ किस्म के मानवीय गुणों के जुड़े होने की उम्मीद जुड़ी रहती है) पर लागू होते हैं, तो वह डोनल्ड ट्रंप हैं। आप इंटरनेट, या एआई पर बद से शुरू होने वाले शब्दों को ढूंढें, तो उस फेहरिस्त से आपको ट्रंप की पूरी तस्वीर मिल पाएगी।
फिलहाल पिछले दो दिनों में इस कमीने इंसान ने कई किस्म की घटिया बातें कही हैं। अमरीका में नफरत फैलाने वाले एक संकीर्णतावादी प्रचारक, के कत्ल को उसने बिना किसी बुनियाद के अपने विरोधियों से जोडक़र उनको कातिल साबित करने की कोशिश की है। लेकिन यह तो कम घटिया हरकत थी, कल जब संयुक्त राष्ट्र महासभा में ट्रंप को 15 मिनट बोलने का मौका मिला, तो उसने 56 मिनट से अधिक बकवास की। पूरी तरह से बेमौके, बेबुनियाद आरोप लगाते हुए उसने दुनिया के तमाम देशों की मौजूदगी में ब्रिटेन की राजधानी लंदन के मुस्लिम मेयर सादिक खान पर हमला किया। एक ब्रिटिश शहर के मेयर से दुनिया के तमाम देशों का क्या लेना-देना था? लेकिन ट्रंप अपनी नफरत और अपनी हमलावर जुबान का यह कातिल मेल मानो डॉक्टरी सलाह पर दिन में चार बार अपने मुंह से निकालता है, और राजनीतिक विश्लेषक हर दिन यह सोचते रह जाते हैं कि इन चारों में से सबसे अधिक घटिया कौन सी बात थी। ट्रंप ने योरप में प्रवासियों के संकट पर कहा- मैं लंदन को देखता हूं जहां एक बेहद खराब मेयर है, एक बहुत ही खराब मेयर। वे लंदन को शरिया कानून की ओर ले जाना चाहता है और वह एक अलग देश बन गया है।
अभी पिछले हफ्ते ट्रंप ब्रिटेन के दौरे पर था, और उसने सार्वजनिक रूप से कहा था कि लंदन का मेयर सादिक खान दुनिया के सबसे खराब मेयर में से है, और मैंने उनसे वहां मेरे स्वागत में न आने के लिए कहा है। मुझे लगता है कि वे आना चाहते थे लेकिन मैं नहीं चाहता कि वे आएं। सादिक खान लंदन के पहले मुस्लिम मेयर हैं, और उनके ऑफिस में ट्रंप के शरिया कानून वाले बयान के जवाब में कहा है- हम उनके (ट्रंप के) नफरत से भरे और दकियानूसी सोच वाले बयानों को जवाब देकर अहमियत देना नहीं चाहते। लंदन दुनिया का सबसे बेहतरीन शहर है जो प्रमुख अमरीकी शहरों की तुलना में अधिक सुरक्षित है। हमें खुशी है कि अमरीकी नागरिक रिकॉर्ड संख्या में लंदन में बसने आ रहे हैं। ब्रिटेन के स्वास्थ्य मंत्री वेस स्ट्रीटिंग ने सोशल मीडिया पर लिखा- सादिक खान लंदन में शरिया कानून लागू करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। वे ऐसे मेयर हैं जो (समलैंगिकों, और एलजीबीटीक्यू की) प्राइड मार्च में शामिल होते हैं, जो अलग-अलग पृष्ठभूमि और विचारों के लिए खड़े होते हैं, जो हमारे शहर को बेहतर बना रहे हैं, और हमें गर्व है कि वे हमारे मेयर हैं।
किसी देश की राजधानी में पहुंचने वाला दूसरे देश का राष्ट्रपति उस राजधानी के मेयर को लेकर इस तरह की घटिया और गंदी, नफरती और हिंसक बातें करे, और खुलकर यह कहे कि वह नहीं चाहता कि (उस शहर का प्रथम नागरिक) मेयर उसके स्वागत भोज में आए। पिछली आधी सदी की हमारी अंतरराष्ट्रीय मामलों की समझ और याददाश्त में ऐसा घटिया और कोई बयान दुनिया के किसी तानाशाह ने भी नहीं दिया, लेकिन गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स को इस गंदे आदमी का कार्यकाल पूरा होने पर यह तय करने के लिए एआई की मदद लेनी होगी कि उसका सबसे घटिया बयान कौन सा था।
लेकिन दूसरे देशों के साथ ट्रंप जो कर रहा है, वह उसके अपने देश के साथ कुछ अधिक हद तक हो रहा है। हम किसी टोने-टोटके पर भरोसा नहीं करते, लेकिन यह मानते हैं कि लोगों के अच्छे और बुरे काम लौटकर उनके पास जरूर आते हैं, चक्रवृद्धि ब्याज सहित। अमरीकी वोटरों ने जिस तरह इस घटिया आदमी को चुना था, उसके दाम आज हर अमरीकी चुका रहे हैं। अमरीका में लोकतंत्र को तबाह करके ऐसा बना दिया गया है जैसाकि वह फिलिस्तीन के गाजा की इमारतें हों। लोकतंत्र के इस मलबे पर खड़े रहकर यह बददिमाग आदमी (इंसान लिखना ठीक नहीं है) जिस तरह अमरीका की हर परंपरा को खत्म कर रहा है, वहां की अर्थव्यवस्था को खत्म कर रहा है, दुनिया भर में अमरीका के पिछली आधी सदी में कमाए गए दोस्तों को खत्म कर रहा है, अमरीकी साख को खत्म कर चुका है, दुनिया में सामाजिक सरोकार की अपनी जिम्मेदारी को इस माफियानुमा कारोबारी ने गटर में बहा दिया है, इन सब बातों को देखकर लगता है कि गाजा में आधे लाख से अधिक जो बेकसूर औरत-बच्चे इजराइली हमलों में, अमरीकी बमों से मारे गए हैं, उन सबकी सामूहिक बद्दुआ अमरीका को लग रही है, और अमरीका आज अपने इतिहास के सबसे अस्थिर दौर से गुजर रहा है, तबाही की तरफ बढ़ रहा है। जहां तक भारत के लिए ट्रंप के रुख की बात है, तो यह आदमी अब तक 35-40 बार यह झूठ बोल चुका है कि उसने भारत और पाकिस्तान के बीच जंग रुकवाई है। ये दोनों ही देश इस बात का खंडन कर चुके हैं, लेकिन बेशर्म ट्रंप की जुबान बंद होने का नाम नहीं लेती है, और इस झूठ के सहारे वह नोबल शांति पुरस्कार की सीढ़ी चढऩे की कोशिश कर रहा है, खुलकर कई बार यह बोल चुका है कि वह यह पुरस्कार चाहता है। अमरीकी इतिहास का यह सबसे घटिया राष्ट्रपति जिस अंदाज में हर दिन हजार-पांच सौ बेकसूर फिलिस्तीनियों का कत्ल करवा रहा है, उसके बाद भी उसे नोबल शांति पुरस्कार पाने की हसरत है, यह बात हैरान करती है।


