संपादकीय
गुजरात के जामनगर में दिल के ऑपरेशन के एक बड़े अस्पताल में एक डॉक्टर ने बिना जरूरत मरीजों के दिल में स्टेंट लगाकर सरकारी इलाज योजनाओं से करोड़ों रूपए का घपला कर लिया। यह जामनगर का एक बड़ा नामी-गिरामी निजी अस्पताल है, और वहां पहुंचे मरीजों का ईसीजी सामान्य होने पर भी डॉक्टर ने उन्हें डराया कि स्टेंट नहीं लगेगा, तो दिल रूक जाएगा। इसके बाद फर्जी रिपोर्ट बनाकर उनकी समस्या को अधिक दिखाया है, और स्टेंट लगाकर सरकारी योजनाओं से दो-दो लाख रूपए निकाल लिए गए। इसके लिए डॉक्टर ने मरीज भेजने वाले दूसरे छोटे डॉक्टरों को 20 फीसदी कमीशन भी दिया। सरकारी अफसरों ने अभी तीन दिन पहले छापा मारा, तो उसमें 100 से ऐसे अधिक फर्जी केस निकले, और गैरजरूरी सर्जरी का रिकॉर्ड भी निकला। डॉक्टर पाश्र्व वोरा इस अस्पताल का डायरेक्टर भी था, और इन गैरजरूरी मामलों से अस्पताल में छह करोड़ रूपए से अधिक सरकारी योजनाओं से ऐंठ लिए। डॉ.वोरा ने वहां 8 सौ से अधिक हार्ट-ऑपरेशन भी किए, और इनमें से अधिकतर सरकारी योजनाओं से भुगतान वाले थे। इसके लिए अस्पताल गरीब परिवारों को निशाना बनाता था जिनके पास पीएमजेएवाई कार्ड हैं, और उन्हें फ्री चेकअप कैम्प के नाम पर बुलाकर फर्जी रिपोर्ट बनाई जाती थी, स्वस्थ मरीजों की धमनियों को भी 80 फीसदी ब्लाक बताया जाता था, और स्टेंट लगाकर सरकार से पैसे ले लिए जाते थे।
लोगों को याद होगा कि कई साल पहले छत्तीसगढ़ में भी राजधानी रायपुर के कई अस्पतालों में गांव-गांव से महिला मरीजों को लाकर उनके गर्भाशय निकालने का एक संगठित जुर्म किया था। जिनके अभी और बच्चे पैदा होने थे, जिनके बदन में कोई तकलीफ नहीं थी, उनके भी गर्भाशय इसलिए निकाल दिए गए थे कि उनके इलाज के कार्ड में रकम बाकी थी। ऐसे कई अस्पतालों की मान्यता भांडाफोड़ होने के बाद खत्म की गई थी, और कई सर्जनों का लाइसेंस भी कई महीनों के लिए निलंबित किया गया था। सरकार की योजनाएं जहां रहती हैं, वहां उनमें छेद ढूंढकर, वहां से सरकारी भुगतान निकाल लेने का काम अधिकतर विभागों में किया जाता है। हमने छत्तीसगढ़ में ही बीज निगम, हार्टिकल्चर मिशन जैसे कई सरकारी दफ्तरों में परले दर्जे का संगठित अपराध देखा है। एक पार्टी की सरकार चली जाती है, दूसरी पार्टी की सरकार आ जाती है, लेकिन इन विभागों में लुटेरे सप्लायर और ठेकेदार वही के वही कायम रह जाते हैं। वे सरकारी योजनाओं में घोटालों की संभावना इतनी अच्छी तरह देख चुके रहते हैं कि नए मंत्री, और अफसर भी उन्हीं को उन्हीं के नाम से, या कुछ अलग नाम से जारी रखने को फायदे का सौदा पाते हैं।
अभी महाराष्ट्र के नागपुर की एक खबर है कि वहां सरकारी शिक्षक भर्ती की एक योजना, शालार्थ आईडी में एक बड़ा घोटाला हुआ है, और अपात्र लोगों को फर्जी तरीके से शिक्षक नियुक्त करके उनके नाम पर करीब सौ करोड़ रूपए वेतन निकाल लिया गया है। इस मामले में कुछ गिरफ्तारियां भी हो चुकी हैं, और अब साढ़े 5 सौ शिक्षकों को गिरफ्तार करने की तैयारी चल रही है जिससे खलबली मची हुई है। सरकार की कोई भी ऐसी योजना नहीं दिखती जिसमें घोटाला न होता हो। पूरी तरह से संगठित भ्रष्टाचार, पूरी तैयारी से की गई जालसाजी के कई मामले सामने आते रहते हैं। किसानों को खेती या बागवानी के उपकरण देने के नाम पर नकली उपकरण टिका दिए जाते हैं, और अफसर पैसा खा जाते हैं। जब अफसर पैसा खाते हैं, तो जाहिर है कि पैसा नेताओं तक भी पहुंचता ही होगा। देश में शायद ही ऐसा कोई प्रदेश हो जहां पर सरकारी कामकाज में संगठित भ्रष्टाचार न होता हो।
बिहार चुनाव के नतीजे आते जा रहे हैं, लेकिन किसी को इन नतीजों को देखने की जरूरत अब रह नहीं गई है। भाजपा-जेडीयू गठबंधन वहां जरूरत से खासी अधिक सीटों पर लीड लेकर एक किस्म से सरकार बना चुका है, और आरजेडी-कांग्रेस वहां गठबंधन औंधेमुंह जमीन पर पड़ा हुआ है। इस पल, दोपहर एक बजे के आंकड़े बता रहे हैं कि एनडीए पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले 72 सीटें अधिक पाते दिख रहा है, और वह 197 सीटों पर आगे है। तकरीबन इतनी ही सीटें, 70 सीटें खोकर महागठबंधन 40 सीटों पर सिमटते दिख रहा है। कुछ घंटों में आंकड़ों में कुछ फेरबदल हो सकता है, लेकिन इन दोनों गठबंधनों का यह अनुपात बदलने का अब कोई आसार नहीं है। एनडीए को महागठबंधन से करीब 5 गुना अधिक सीटें मिलना, यह उन राजनीतिक विश्लेषकों, और मीडिया का मुखौटा लगाकर काम करने वाले भाड़े के भोंपुओं के मुंह पर एक तमाचा है। धर्मेंद्र की मौत की झूठी खबर जितना पड़ा तमाचा थी, उससे अधिक बड़ा तमाचा बिहार के नतीजे उन चेहरों पर हैं। किसी भी एक्जिट पोल ने ऐसे नतीजों की भविष्यवाणी नहीं की थी जो इस पल आते दिख रहे हैं।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने बिहार के चुनाव प्रचार में चुनाव आयोग के खिलाफ जो हल्ला बोला था, उससे अधिक ऊंची आवाज का कोई चुनाव प्रचार वहां हो नहीं सकता था, दूसरी तरफ एनडीए ने वहां महिलाओं को सीधे आर्थिक राहत देने का जो काम किया था, उसकी कोई काट राहुल-तेजस्वी के प्रचार में आखिरी तक आ नहीं पाई। चुनाव आयोग के खिलाफ राहुल का अभियान सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचकर वहां जितने किस्म की सुनवाई करवा सकता था, उसने करवा दी थी। इससे अधिक कुछ इन लोगों के हाथ में था नहीं। दूसरी तरफ नीतीश कुमार की अगुवाई में बिहार की एनडीए सरकार वहां इतने लंबे समय से काम कर रही है कि मुख्यमंत्री के खिलाफ, या उनके इस मौजूदा गठबंधन, एनडीए के खिलाफ जितने तरह का जनअसंतोष हो सकता था, वह जनसमर्थन में बदला हुआ दिख रहा है। नीतीश कुमार अभी तक 9 बार मुख्यमंत्री बन चुके हैं, जो कि देश में एक रिकॉर्ड है। दूसरी तरफ मुख्यमंत्री के पद पर वे 20 बरस से ज्यादा काम कर चुके हैं, जो सबसे लंबे कार्यकाल का रिकॉर्ड तो नहीं है, लेकिन यह कार्यकाल अगर वे पूरा कर पाते हैं, तो वे सिक्किम के चामलिंग का 24 साल 7 महीने का रिकॉर्ड तोड़ देंगे। फिलहाल उन्हीं के मुख्यमंत्री बनने का आसार है, जबकि भाजपा की सीटें उनसे अधिक हैं। भाजपा के सारे दिग्गज नेता बार-बार यह कह चुके हैं कि गठबंधन के मुख्यमंत्री नीतीश ही रहेंगे। आंकड़ों को अगर देखें तो भाजपा अपनी पिछले संख्या से 16 सीटें अधिक पाकर अभी 90 पर आती दिख रही है, और जेडीयू अपनी पिछली सीटों से 38 सीटें अधिक पाकर 81 पर आगे है।
ये आंकड़े बिल्कुल ही असाधारण हैं, और बिहार में एनडीए के किसी भी संभावित विकल्प की संभावना को मटियामेट करते हैं। सबसे ऐतिहासिक कांग्रेस की दुर्गति है, जो कि 19 सीटों से गिरकर चार सीटों पर आती दिख रही है। यूपीए के बाद बिहार, देश के दो सबसे बड़े राज्यों में कांग्रेस पूरी तरह हाशिए पर चली गई है, और इतनी बड़ी-बड़ी विधानसभाओं में वह आधा दर्जन तक भी नहीं पहुंच रही। अभी बिहार का रूख जारी रहता है, तो यूपी बिहार मिलाकर कांग्रेस जरूर आधा दर्जन हो जाएगी। कांग्रेस के साथ लालू-पार्टी, आरजेडी की भी दुर्गति हो गई है, और वह 46 सीटें खोकर कुल 29 पर आ टिकी है। इससे देश में भाजपा विरोधी गठबंधन के इन दो सबसे पुराने, सबसे बड़े, और सबसे महत्वपूर्ण भागीदारों के भविष्य पर भी एक बड़ा सवालिया निशान लगता है।
पिछले एक हफ्ते में कश्मीर से शुरू हुई खबरें राजस्थान, उत्तरप्रदेश, और हरियाणा तक बिखर गई हैं, और तरह-तरह के हथियार, विस्फोटक, आतंकी हमलों की साजिशों की खबरें छाई हुई हैं। कल की खबर है कि तीन राज्यों में एक दिन में 507 जगहों पर पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियों के छापे पड़े हैं। इनमें कई तो मुस्लिम डॉक्टर हैं जो कि जम्मू-कश्मीर से निकले हुए हैं और दूसरे राज्यों में काम कर रहे हैं। दिल्ली के लाल किले के पास अभी जो धमाका हुआ उसके पीछे भी इन्हीं डॉक्टरों में से कुछ का हाथ बताया जा रहा है। जांच एजेंसियों का काम अभी किसी किनारे पहुंचा नहीं है, लेकिन किसी भी दूसरे जुर्म या हादसे की तरह इस धमाके की जानकारी भी जनता के सामने रखी जा रही है। मोदी सरकार के विरोधी इसे बिहार के मतदान को प्रभावित करने की एक कोशिश कह सकते हैं, लेकिन यह भी देखने की जरूरत है कि जितने राज्यों तक बिखरा हुआ यह मामला जितने किस्म के साइबर और डिजिटल सुबूतों वाला है, जितने तरह के विस्फोटक और हथियार मिल रहे हैं, उन सबको गढ़कर सिर्फ जनधारणा प्रबंधन के लिए ऐसी साजिश करना किसी सरकार के बस का नहीं दिखता है। जब तक सरकार की किसी बदनीयत को साबित करने के सुबूत न हों, तब तक हम पहली नजर में सरकार के हाथ लगे इतने सारे सुबूतों को किसी गढ़ी हुई साजिश का हिस्सा नहीं मान सकते। इसलिए हम पहली नजर में ऐसी किसी आशंका को खारिज करते हुए ही इस मुद्दे पर आगे बात कर रहे हैं।
अभी तक की जानकारी के मुताबिक कुछ दर्जन मुस्लिम, डॉक्टरों और दीगर लोगों के नाम सामने आए हैं कि वे कुछ हमलों की तैयारी कर रहे थे। अगर ऐसे कुछ लोग ऐसा कर रहे थे, तो उसमें हमें कोई हैरानी नहीं होती क्योंकि भारत में मुस्लिमों के मन में अगर एक बड़ा रंज चल रहा है, उनके साथ एक बड़ा भेदभाव हो रहा है, उन्हें अपने आपको लेकर एक हीनभावना हो रही है, तो यह स्वाभाविक ही है कि उनमें से कुछ गिने-चुने लोग लोकतंत्र पर भरोसा छोड़कर हथियार उठा लें। भारत में धर्म से परे भी बहुत से मुद्दों को लेकर लोगों ने हथियार उठाए हैं। उत्तर-पूर्व के जितने राज्यों के आंदोलन चले, उनका धर्म से कोई लेना-देना नहीं था, कश्मीर के अलगाववादी आंदोलन का धर्म से लेना-देना नहीं था, और पंजाब का खालिस्तानी आंदोलन भी किसी धर्म के खिलाफ न होकर एक स्वतंत्र खालिस्तान के लिए था। इसलिए भारत में सांप्रदायिकता या धर्मांधता से परे भी हथियारबंद आंदोलनों का लंबा इतिहास रहा है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में जो नक्सल आंदोलन पिछले 25 बरस में पांच हजार से अधिक जिंदगियां ले चुका है, उसका किसी धर्म से लेना-देना नहीं था। इसलिए आज अगर मुस्लिम समाज के कुछ दर्जन या कुछ सौ लोग भारतीय लोकतंत्र पर भरोसा खोकर हथियार उठाकर आत्मघाती हमले करने की सोचते हैं, तो यह नाजायज चाहे जितना हो, अस्वाभाविक जरा भी नहीं है। जब किसी तबके की कोई आशा नहीं रह जाती, उन्हें जब कोई संभावना नहीं दिखती, उन्हें जब सोते-जागते गद्दारी की तोहमत ही झेलनी है, तो फिर वे अपनी एक अलग राह तय कर लेते हैं। ऐसा दुनिया के बहुत से देशों में होता है। पाकिस्तान, और दर्जनभर ऐसे दूसरे मुस्लिम देश हैं जिनमें मुस्लिम ही मुस्लिमों पर हमले कर रहे हैं। फिर यह बात समझने की जरूरत है कि पिछले एक हफ्ते में हथियारों और आतंकी साजिशों की कश्मीर से उतरी हुई जितनी खबरें सामने आई हैं, वे किसी धर्म के खिलाफ नहीं हैं, वे सिर्फ देश की सरकार के खिलाफ हैं, या सार्वजनिक जीवन में एक हिंसक और हथियारबंद विरोध प्रदर्शन करने की हैं। लाल किले के पास जो विस्फोट दो दिन पहले हुआ है उसमें मरने वालों में मुस्लिम भी हैं जो कि देश में उनकी आबादी के मुकाबले मरने वालों में अधिक ही हैं। यह विस्फोट किसी धार्मिक जगह पर नहीं हुआ, किसी एक धर्म के जमावड़े पर नहीं हुआ, बल्कि सड़क पर हुआ, और लाल किले के आसपास के इलाके में सड़कों पर भी खासे मुस्लिम रहते हैं।
लेकिन इस बात को समझने की जरूरत है कि इस देश में 20 करोड़ से अधिक मुस्लिम आबादी का अनुमान है, और यह कुल आबादी का 14-15 फीसदी है। आबादी के इतने बड़े हिस्से को लगातार हीन भावना में रखना किसी देश के लिए अच्छी बात नहीं है। इस हिस्से को उसके धार्मिक रीति-रिवाजों के लिए, सामाजिक कानूनों के लिए लगातार आहत करने के अपने अलग खतरे रहते हैं। देशभर में जगह-जगह मुस्लिमों पर जिस तरह की कानूनी कार्रवाई हो रही है, उन पर जिस तरह बुलडोजर चल रहे हैं, जिस तरह उनके खिलाफ असम के मुख्यमंत्री की तरह कई नेता भड़काने और उकसाने वाली बातें कर रहे हैं, उन सबका अच्छा नतीजा नहीं हो रहा है। हमने साल दो साल पहले भी इस बारे में लिखा था कि अगर इस देश में कमजोर होते लोकतांत्रिक वातावरण से निराश होकर अगर कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी धर्मांधता में फंस जाते हैं, और देसी-परदेसी किसी तरह की आत्मघाती हिंसा में शामिल हो जाते हैं, तो गिने-चुने लोग भी बड़ा नुकसान पहुंचा सकते हैं। यह बात देश के किसी तबके की तरफ से देश के किसी दूसरे तबके को धमकी नहीं है, लेकिन यह लोकतंत्र के कमजोर होने को लेकर एक चेतावनी जरूर है, सबके लिए सावधान होने की जरूरत है कि कोई भी देश-प्रदेश इस तरह की पूरी तरह गैरजरूरी और अवांछित तनातनी को झेल नहीं सकते। लोकतंत्र में सबको साथ लेकर चलने की जो समझ रहती है, वही पूरे देश की तरक्की की गारंटी भी हो सकती है। 15 फीसदी आबादी की उपेक्षा से इस देश के आगे बढ़ने की संभावनाएं भी 15 फीसदी घट सकती हैं।
लोकतंत्र में किसी एक बहुसंख्यक तबके में पनपाई गई धर्मांधता का पेट भरने के लिए उसे, अल्पसंख्यकों को दी जा रही तकलीफें दिखाते चलना कोई समझदारी की बात नहीं है। इससे कोई चुनाव जीता जा सकता है, लेकिन इससे देश आगे नहीं बढ़ सकता। आज जिस तरह बहुसंख्यक हिंदू धर्म से जुड़े हुए अनगिनत सत्तारूढ़ लोग और धर्मप्रचारक, सनातन का झंडा लेकर चल रहे हैं, उसका हमला सिर्फ अल्पसंख्यक मुस्लिमों और ईसाईयों पर नहीं हो रहा, उसका हमला तो हिंदू धर्म के भीतर गिने जाने वाले दलितों और आदिवासियों पर भी हो रहा है। छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में जहां पर कि सारे के सारे अल्पसंख्यक लोग चार फीसदी से भी कम हैं, वहां पर अल्पसंख्यकों पर इतने अधिक हमलों की जरूरत भी नहीं है, जो कि हर इतवार कहीं न कहीं किसी घर-परिवार में हो रही ईसाई प्रार्थना सभा पर हमलों की शक्ल में दिख रहे हैं। फिर मानो वह भी काफी न हो तो कल इसी प्रदेश में किसी हिंदू कथावाचक ने सनातन की वकालत करते हुए अनुसूचित जाति के सतनामी समाज के खिलाफ घोर अपमानजक और आपत्तिजनक बातें कहीं। मतलब यह कि हिंदुओं के भीतर भी एक अधिक शुद्ध हिंदू के दुराग्रह के साथ जो सनातनी पैमाने लागू किए जा रहे हैं, वे तो हिंदू समाज के ही कुछ हिस्सों पर हमले हैं, कहीं दलितों पर, तो कहीं आदिवासियों पर।
देश में इंसान-जानवर टकराव अब तक जंगलों में चल रहा था, जहां कहीं पर जानवर इंसानों को मार रहे थे, तो कहीं पर इंसान करंट बिछाकर, पानी में जहर घोलकर, या किसी और तरीके से जानवरों को मार रहे थे। अब जानवर-मानव टकराव जंगलों से निकलकर शहरों तक आ गया है, और देश भर के शहरों में कुत्तों और इंसानों के बीच अस्तित्व का खतरा खड़ा हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस पूरे मुद्दे को अपने मनमाने आदेशों से ऐसा उलझा दिया है कि कोई राज्य सरकार, या कोई म्युनिसिपल समझदारी का कोई काम कर ही न सके। कुत्तों की आबादी शहरों में बेकाबू है, उन्हें खिलाने पर आमादा पशुप्रेमियों के उत्साह में कोई कमी नहीं है, और उनके काटे हुए इंसानों के लिए सरकारी अस्पतालों में वैक्सीन नहीं हैं। नतीजा यह है कि गरीबों को बाजार से महंगी वैक्सीन खरीदकर लगवाना पड़ता है, वरना कहावतों की जुबान में, कुत्तों की मौत करने के लिए तैयार रहना पड़ता है। काटने वाले कुत्तों में से कितने रैबीज से संक्रमित रहते हैं, इसका कुछ पता नहीं चल पाता क्योंकि सडक़ के कुत्तों का कोई रिकॉर्ड तो रहना नहीं है, और काट लेने के बाद ऐसे कुत्ते की कोई शिनाख्त भी नहीं हो पाती। मतलब यह कि वैक्सीन का पूरा कोर्स किए बिना रैबीज से मरने का पूरा खतरा रहता है, और कोई भी वैसी मौत की कल्पना भी नहीं कर सकते।
हजारों बरस पहले इंसानों ने जंगली जानवरों को पालतू बनाते हुए कुत्तों को पालना शुरू किया था, और पिछले कुछ सौ बरसों से तो कुत्ते इंसानों के परिवार की तरह जगह-जगह रहने लगे थे। वे इंसानों को जंगली जानवरों के हमले से आगाह भी करते थे, शिकार में मदद भी करते थे, और पहुंच से परे की जगहों से शिकार को उठाकर भी लाते थे। लेकिन इंसानी बसाहटों में धीरे-धीरे पालतू कुत्ते सार्वजनिक भी होने लगे, और गांव-कस्बे, शहरों की सडक़-गलियों में कुत्तों की आबादी पनपने लगी। जिन संपन्न और विकसित देशों में कुत्ते सिर्फ पालतू होते हैं, वहां पर तो उन्हें पालने वाले परिवार उनका टीकारण करवा पाते हैं, लेकिन बाकी जगहों पर पंचायत या म्युनिसिपल के बस में हर बेघर-आवारा कुत्ते की नसबंदी या टीकाकरण नहीं हैं। नतीजा यह होता है कि रैबीज के खतरे वाले कुत्तों की आबादी सडक़ों पर बढ़ती चलती है। जो लोग कुत्तों को पालते हैं वे भी शौक पूरा हो जाने पर, या किसी निजी वजह से उन्हें सडक़ों पर छोड़ देते हैं, अगर टीकाकरण किया भी रहा हो, तो भी उसका असर कुछ महीनों में खत्म हो जाता है, और वे खुद रैबीज संक्रमित होने का खतरा उठाते हुए इंसानों के लिए भी इस जानलेवा संक्रमण का खतरा बने रहते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दो-तीन महीनों में तीन अलग-अलग आदेशों में एक बदअमनी सी खड़ी कर दी है। पहले फैसले में दो जजों ने दिल्ली-एनसीआर के पूरे इलाके से हर कुत्ते को हटाकर बाड़े में रखने को कहा था। अगले फैसले में सुप्रीम कोर्ट एक बड़ी बेंच ने इस पर रोक लगा दी थी, और किसी भी इलाके से उठाए गए कुत्तों को टीकाकरण और नसबंदी के बाद उसी इलाके में वापिस छोडऩे का हुक्म दिया था। इसी बेंच ने अब तीसरे फैसले में यह कहा है कि स्कूल-कॉलेज, अस्पताल, स्टेशन-बसस्टैंड से कुत्तों को हर हाल में हटाकर बाड़ों में रखा जाए, और इन जगहों पर कुत्ते दुबारा न घुस सकें, उसका पुख्ता इंतजाम किया जाए। लेकिन इन सार्वजनिक जगहों से परे बाकी इलाकों से कुत्तों को हटाने पर रोक जारी है। ऐसे माहौल मेें देश भर के अधिकतर इलाकों में कुत्ते लोगों को काट रहे हैं, लोगों के लिए सरकारी इंतजाम में वैक्सीन नहीं है, और सुप्रीम कोर्ट के जज कारों में बंगले से कोर्ट आ-जा रहे हैं। अभी तक ऐसे कुत्ते बने नहीं हैं जो कि कारों के आरपार इंसानों को काट सकें।
राजधानी दिल्ली में बीती शाम ऐतिहासिक लालकिले के करीब एक कार में हुए विस्फोट में अब तक करीब दर्जनभर लोगों के मारे जाने की खबर है, और दर्जनों लोग जख्मी हैं। सडक़ पर व्यस्त टै्रफिक के बीच इस धमाके में उस कार के तो परखच्चे तो उड़ ही गए और आसपास की कई गाडिय़ां जलकर राख हो गईं। दिल्ली में बरसों बाद ऐसा विस्फोट हुआ है, और पिछले दो दिनों से दिल्ली के इलाके के फरीदाबाद में एक जगह 3 टन विस्फोटक मिला था, अटकलें इन दोनों बातों का रिश्ता जोड़ रही हैं। कश्मीर से रिश्ता रखने वाले दो अलग-अलग डॉक्टरों से राजस्थान और हरियाणा में जिस तरह हथियार और विस्फोटक मिले हैं, उनसे भी यह घटना जुड़ी हुई हो सकती है। लेकिन भारत में राजनीति ऐसी है कि लोग इसे बिहार चुनाव में मतदान के ठीक पहले विस्फोट भी समझ रहे हैं।
जिन लोगों ने दिल्ली में दर्जनभर से अधिक दाखिल होने वाली सडक़ों से आकर इस राजधानी-महानगर में गाडिय़ों का सैलाब देखा हुआ नहीं होगा, वे ही यह मानकर चल सकते हैं कि दूसरी जगहों पर विस्फोटक मिलने के बाद दिल्ली में सुरक्षा क्यों नहीं बढ़ाई गई, गाडिय़ों की जांच क्यों नहीं की गई। जिस शहर में बिना किसी जांच ही लगातार टै्रफिक जाम रहते हों, उस शहर में अगर गाडिय़ों की जांच की जाए, तो जिंदगी थम ही जाएगी। दूसरी बात यह भी है कि विस्फोटकों के जो बड़े-बड़े जखीरे मिलना बताया गया है, वे भी किसी जांच और खुफिया कार्रवाई की कामयाबी का ही सुबूत हैं। इस बात को समझना होगा कि देश के चारों तरफ के सरहदी मुल्कों से खराब रिश्तों के चलते हुए किसी तरफ से आतंकी किस तरह के विस्फोटक या हथियार लेकर घुस सकते हैं, यह अंदाज लगा पाना, और काबू करना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं है। समझदारी हमेशा इसी बात में रहती है कि पड़ोसियों के बीच रिश्ते अच्छे रहें। रिश्तेदारों से रिश्ते अच्छे न रहना एक बार चल सकता है, क्योंकि लोग उनसे कम मिलकर भी काम चला सकते हैं, और बिना मिले भी, लेकिन पड़ोसी तो सोते-जागते सामने पड़ते हैं, उनसे तो बचा भी नहीं जा सकता। इसलिए जब योरप के देश एक समुदाय बनाकर आपस में रिश्ते अच्छे रखते हैं, सरहदों को कई बातों के लिए मिटा देते हैं, तो वे चैन से भी जीते हैं।
यह चौदह बरस बाद दिल्ली का पहला बड़ा विस्फोट है। वर्ष 2011 में दिल्ली हाईकोर्ट के अहाते में एक विस्फोट में 15 मौतें हुई थीं, और 80 के करीब लोग घायल हुए थे, उसकी जिम्मेदारी एक इस्लामी-आतंकी संगठन ने ली थी, और इस केस में तीन लोगों को उम्रकैद हुई थी। इस रिकॉर्ड को देखते हुए दिल्ली में कल सुरक्षा एजेंसियों और खुफिया एजेंसियों की नाकामयाबी गिनना ठीक नहीं है। इन दोनों का काम जब कामयाबी से होता है, तो वह दिखता नहीं है, इमारत की नींव में दब जाता है, और जब असफल रहता तो वह छत पर चढक़र चीखता है। बीते बरसों में कश्मीर में जरूर बड़े-बड़े हमले हुए, लेकिन दिल्ली सुरक्षित रही। दिल्ली की हिफाजत भी केंद्र सरकार के जिम्मे है, और मणिपुर से लेकर कश्मीर तक तोहमत झेलने वाली इस केंद्र सरकार को दिल्ली की सुरक्षा के लिए एक तारीफ भी मिलनी चाहिए। कल शाम के धमाके से फिलहाल तारीफ की संभावनाएं खत्म हो गई हैं।
दुनिया के एक सबसे बड़े स्वतंत्र समाचार-संस्थान बीबीसी के डायरेक्टर जनरल, और हेड ऑफ न्यूज ने इस्तीफे दे दिए हैं। बीबीसी के एक कार्यक्रम पर यह आरोप लगा था कि उसमें अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प के भाषण के दो अलग-अलग वाक्यों को एक के बाद एक इस तरह रख दिया गया था कि वे एक सांस में कहे हुए लग रहे थे। ये दोनों वाक्य ट्रम्प के भाषण में 50 मिनट के फासले पर कहे गए थे, लेकिन उन्हें जब एक साथ रख दिया गया, तो उससे ऐसा आभास पैदा हुआ कि ट्रम्प लोगों को अमरीकी संसद पर हमला करने के लिए उकसा रहे थे। यह मामला 6 जनवरी 2021 का था, जब ट्रम्प राष्ट्रपति चुनाव की मतगणना में हार चुके थे, और उन्होंने हार मानने के बजाय अपने लोगों को संघर्ष करने के लिए भडक़ाया था। ट्रम्प की हरकतें अलग थीं, लेकिन बीबीसी के एक कार्यक्रम में भाषण के दो अलग-अलग हिस्सों को जोडक़र दिखाने का मामला इतना तूल पकड़ गया, और बीबीसी के भीतर उस पर इतनी चर्चा-बहस हुई कि दो सबसे वरिष्ठ लोगों को इस्तीफे देने पड़े। अभी अभी बीबीसी के चेयरमैन समीर शाह आज संसद की एक कमेटी के सामने इसी मामले में बयान देने वाले थे, और उम्मीद की जा रही थी कि वे ट्रम्प के भाषण को एडिट करने के तरीके के लिए माफी मांगेंगे, लेकिन उसके पहले ही ये इस्तीफे आ गए।
भारत में अखबार, टीवी, या डिजिटल मीडिया, पढऩे, देखने-सुनने वाले लोगों को बीबीसी का यह सिलसिला हैरान करेगा क्योंकि भारतीय मीडिया तो कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, संपादक ने कुनबा जोड़ा के अंदाज में काम करता है। आम अखबारों, और आम टीवी चैनलों पर कुछ भी सच रहना जरूरी नहीं रह गया है। और लाईनों या शब्दों को काट-काटकर, जोड़-जोडक़र, सही संदर्भ के ठीक उल्टे लगाकर कुछ भी किया जा सकता है, और उसे सोशल मीडिया की राजनीतिक फौज की मेहरबानी से हर हिन्दुस्तानी पर थोपा भी जा सकता है। ऐसे में जनता के पैसों से चलने वाले बीबीसी नाम के समाचार-संस्थान में एक किसी कार्यक्रम को लेकर दो सबसे बड़े लोगों को जिस तरह छोडऩा पड़ रहा है, नैतिकता और पेशे के, ईमानदारी और जवाबदेही के वैसे पैमाने अगर भारत में लागू किए जाएंगे, तो अखबारनवीसों, और बाकी मीडियाकर्मियों का एक बड़ा हिस्सा सडक़ पर आ जाएगा। फिर भी भारत के मीडिया टापू के बीच बैठे हुए धरती के गोले के दूसरी तरफ गोरों के टैक्स से चलने वाले बीबीसी के पेशेवर पैमानों को देखने में क्या हर्ज है? मेरे सीने में नहीं, तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन, आग जलनी चाहिए।
भारत में भी एक वक्त था, जब खालिस पत्रकारों का एक संगठन, श्रमजीवी पत्रकार संघ होता था, और वह पत्रकारों के कानूनी अधिकारों के लिए तो लड़ता और आंदोलन करता ही था, वह पत्रकारिता पर या पत्रकारों पर होने वाले हमलों पर भी आंदोलन करता था। लेकिन इसके साथ-साथ पत्रकारों की पेशेवर ईमानदारी और जिम्मेदारी पर भी इस संगठन में बात होती थी। अब सिर्फ कामगार-पत्रकारों के आंदोलन ठंडे पड़ चुके हैं, और जगह-जगह प्रेस क्लब नाम की संस्थाएं पत्रकार-गैरपत्रकार सभी के लिए हो गई हैं, और मीडिया नाम का नया छाता हर किस्म के मीडियाकर्मी के लिए रह गया है, जिसमें अखबारनवीसी की जगह बड़ी कम रह गई है। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम पहले भी अखबारों को मीडिया नाम की बड़ी सर्कस के तम्बू से बाहर निकलकर प्रेस नाम का अपना एक अलग अस्तित्व बनाने की बात सुझाते आए हैं। छपे हुए अखबारों के वक्त जो लोग पत्रकार बने हैं, उनकी ट्रेनिंग बिल्कुल अलग ही किस्म के पैमानों पर हुई, उनके नीति-सिद्धांत अलग किस्म और दर्जे के रहे, उनके प्रकाशन के साथ विश्वसनीयता, और उत्कृष्टता के कई पैमाने अनिवार्य रूप से लागू रहे। अखबारों को तैयार होने में कई घंटों का वक्त मिलता था, और वे खबर को जिम्मेदारी से बना पाते थे, जांच कर पाते थे, उसे उत्कृष्टता से लिख पाते थे, और कोई मामूली सी चूक होने पर भी अखबारनवीसों को बड़ी शर्मिंदगी होती थी। जिस पत्रकार के काम को लेकर कोई भूल सुधार, स्पष्टीकरण, या खंडन छापने की नौबत आती थी, वे कई दिनों तक शर्मिंदगी से उबर नहीं पाते थे। छपे हुए अखबार की पाठकों के बीच भी बड़ी ऊंची विश्वसनीयता रहती थी क्योंकि कागज पर स्याही से छपी बातों को एक बार छप जाने के बाद मिटाया नहीं जा सकता था।
आज डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विश्वसनीयता और उत्कृष्टता को काउंटरप्रोडक्टिव (प्रतिउत्पादक) मान लिया जाता है। अधिक से अधिक रफ्तार से सनसनी और तकरीबन झूठ का तडक़ा लगाकर क्या पेश किया जा सकता है जिसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें, सुनें, या देखें, यह गलाकाट मुकाबला आज के नीति-सिद्धांत, और नैतिकता को बदल चुका है। ऐसे में एक पूरी तरह डिजिटल-इलेक्ट्रॉनिक समाचार माध्यम बीबीसी में इन पैमानों को लेकर जिस तरह सिर कलम हुए हैं, वह उस संस्थान में पेशेवर-नैतिकता बताता है, और उसे दूर बैठे देखना भी सुहाता है। अभी हमने यह जानने की कोशिश की कि बीबीसी कितने समाचार-विचार रोज प्रसारित करता है, तो 2023 के आंकड़ों के मुताबिक वह हर दिन सौ घंटे से अधिक की नई और मौलिक सामग्री प्रसारित करता है। इनमें चौबीसों घंटे के समाचार चैनल भी शामिल हैं, और इनके अलावा हर दिन करीब एक लाख शब्द डिजिटल प्लेटफॉर्म पर जाते हैं। अलग-अलग 42 भाषाओं में इसके कार्यक्रम जाते हैं जिनमें आधा दर्जन भारतीय भाषाएं भी शामिल हैं। समाचार-विचार के इतने विशाल आकार में से एक कार्यक्रम में किसी एक वीडियो-संपादक ने एक भाषण की दो लाईनों को गलत तरीके से एक साथ रखने का जुर्म कर दिया, तो बड़े-बड़े सिर लुढक़ गए।
हरियाणा के डीजीपी ओपी सिंह का एक बयान कुछ लोगों को बड़ा अटपटा लग रहा है। उन्होंने भरी प्रेस कांफ्रेंस में कैमरों के सामने यह कहा कि थार और बुलेट से बदमाश चलते हैं। जिसके भी पास थार होगी, उसका दिमाग घूमा (हुआ) होगा। उन्होंने कहा कि ये जिस तरह की गाडिय़ां हैं, वो ऐसी ही दिमागी हालत उजागर करती हैं। थार गाड़ी वाले स्टंट करते हैं, हमारे एक एसीपी के बेटे ने थार से एक को कुचला, और बाद में वे (उसे बचाने के लिए) पैरवी करने आए। डीजीपी ने कहा कि हम लिस्ट निकाल लें कि हमारे कितने पुलिसवालों की, कितने पुलिसवालों के पास थार है। जिनके पास थार है उनका दिमाग घूमा (हुआ) होगा। थार गाड़ी नहीं है, एक बयान है कि हम ऐसे हैं, तो ठीक है भुगतो फिर। डीजीपी ने कहा दोनों मजे कैसे होंगे, दादागिरी भी करें, और फंसे भी नहीं, ऐसा कैसे होगा।
एक सरकारी अफसर का किसी ब्रांड को लेकर ऐसा कहना थोड़ा सा अटपटा लग सकता है, लेकिन सच तो यही है कि कुछ किस्म की गाडिय़ां दिमाग पर ऐसा असर डालती हैं कि गाड़ी के पहिए तो जमीन पर बने रहते हैं, दिमाग आसमान पर पहुंच जाता है।
इन दो गाडिय़ों के बारे में उनका कहना हमारी देखी जमीनी हकीकत के मुताबिक एकदम सही है, इन गाडिय़ों पर हो सकता है कि कुछ शरीफ लोग भी चलते हों, लेकिन इन गाडिय़ों को चलाना लोगों को एक ऐसी मशीनी ताकत, और अहंकार से भर देता है कि वे सडक़ पर अपने आपको एक अलग दर्जे का वीआईपी समझने लगते हैं। इन दो गाडिय़ों से परे भी आप जिन गाडिय़ों पर आगे-पीछे किसी राजनीतिक, सामाजिक, या धार्मिक संगठन की तख्तियां लगे देखें, गाड़ी पर झंडे-डंडे लगे देखें, गाड़ी की छत पर अतिरिक्त हेडलाईट, सायरन, या स्पीकर लगे देखें, उसका नंबर कोई खास नंबर हो, उनके शीशों पर काली फिल्म चढ़ी हुई हो, तो यह जाहिर है कि वह गाड़ी बददिमाग होगी ही। गाड़ी की अपनी कोई मानसिकता नहीं होती, लेकिन उसकी हैवानी ताकत इंसानों के दिमाग में घुस जाती है, वहां चढक़र बैठ जाती है। जो लोग इनसे और भी ऊपर दर्जे के ताकतवर होते हैं, वे गाड़ी के बोनट में सायरन या हूटर भी लगाकर चलते हैं, और आमतौर पर हॉर्न की जगह उसी का इस्तेमाल करते हैं, और कुछ बददिमाग तो हमने ऐसे भी देखे हैं जो गाड़ी पर नंबर प्लेट न लगाने को अपनी ताकत और इज्जत समझते हैं।
चौराहों, बैरियर, और टोल टैक्स नाकों पर ऐसे ताकतवर लोग पुलिस कर्मचारियों को धकियाते हैं, टोल जमा करवाते कर्मचारियों को पीटते हैं, और जगह-जगह लोगों से यह पूछते हैं- जानते हो मेरा बाप कौन है?
अब ऐसे बददिमाग सवाल का एक ही जवाब हो सकता है- तुम्हें खुद नहीं मालूम है क्या?
लेकिन आमतौर पर किसी न किसी किस्म की सत्ता से बददिमाग हुए ये लोग बाहुबलियों की फौज भी लिए चलते हैं, और उनके साथ कोई व्यंग्य करना खासा खतरनाक और आत्मघाती साबित हो सकता है। सडक़ों पर छिछोरे मवालियों के अंदाज में फौलादी इंजनों की ताकत पर गुंडागर्दी दिखाने वाले लोग जाहिर तौर पर दूसरे शांत लोगों के हक कुचलते हैं, लेकिन सत्ता को इससे कोई परहेज नहीं रहता। कई पार्टियों की सरकारें हमने आते-जाते देखी हैं, लेकिन कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों को अपने मवालियों की सडक़ों पर ऐसी गुंडागर्दी इसलिए नहीं खटकती कि उनके पदाधिकारी भी ऐसा ही काम करते हैं, और मंत्री-संतरी के आसपास के लोग भी सायरन और हूटर बजाए बिना चलना अपना अपमान समझते हैं।
हरियाणा के डीजीपी ने एक बड़ी अच्छी बात कही है जिसे कहने से कई लोग परहेज करते हैं। जानवरों को कुचलना हो, या इंसानों को, खबरें तो यही बताती हैं यूपी के लखीमपुर में चार बरस पहले केन्द्रीय मंत्री अजय मिश्र के बेटे आशीष मिश्र ने किसान आंदोलनकारियों को अपनी थार गाड़ी से कुचलते हुए अपने तेवर दिखाए थे, इसमें 8 लोग मारे गए थे। यह शायद थार गाड़ी का सबसे ही खूंखार इस्तेमाल था। हालांकि इसके ढाई साल बाद लखीमपुर से भाजपा ने अजय मिश्र को तीसरी बार भी अपना उम्मीदवार बनाया था। जितनी ताकत थार के इंजन की थी, उतनी ही ताकत बाप के केन्द्रीय मंत्री रहने की थी। ऐसा जगह-जगह हो रहा है। डीजीपी की गिनाई दूसरी गाड़ी, बुलेट का देखें, तो वह देश की अकेली ऐसी मोटरसाइकिल है जिसमें बड़ी संख्या में छेडख़ानी किए हुए, शोर और फायरिंग की आवाज करने वाले साइलेंसर लगाकर लोग घूमते हैं। निरीह पुलिस कुछ जगहों पर ऐसे कुछ लोगों का चालान जरूर कर लेती है, लेकिन बुलेट चलाने वालों के तेवर, जानता है मेरा बाप कौन है, वाले ही रहते हैं। फिर भले उनके बाप ने जिंदगी में साइकिल या मोपेड ही क्यों न चलाई हुई हो।
उत्तरप्रदेश में अभी प्रमोशन से डीएसपी बना एक पुलिस अधिकारी ऋषिकांत शुक्ला पकड़ाया, जिसने पिछले दस बरस में सौ करोड़ से अधिक की दौलत जुटा ली है। खुद यूपी पुलिस की जांच रिपोर्ट में इतनी दौलत का हिसाब-किताब अभी तक मिला है, और इसके अलावा कुछ दूसरी जमीन-जायदाद का भी पता लगा है। इस अफसर पर नजर तब पड़ी, जब कानपुर में एक बड़े चर्चित माफियानुमा वकील अखिलेश दुबे को एक पूरा गिरोह चलाने के जुर्म में अभी कुछ समय पहले ही गिरफ्तार किया गया, क्योंकि यह पता लगा था कि इस वकील ने कई पुलिस अफसरों के साथ मिलकर जुर्म का एक साम्राज्य स्थापित कर लिया था, और लोगों को फर्जी मुकदमे दर्ज करने की धमकी देकर जबरन वसूली करना, उनकी जमीन-जायदाद पर कब्जा करना, बड़े पैमाने पर किया जा रहा था। इस वकील के जुर्म की लिस्ट इतनी लंबी है कि यह कई पुलिसवालों को साथ रखकर लोगों को पॉक्सो जैसे गंभीर मामलों में फंसाने की धमकी देता था, और वसूली-उगाही करता था। ऐसी रंगदारी और ब्लैकमेलिंग में अखिलेश दुबे का साथ देने वाले चार इंस्पेक्टर, और दो दारोगा अब तक निलंबित हो चुके हैं, इनमें इंस्पेक्टर मानवेन्द्र सिंह, इंस्पेक्टर आशीष द्विवेदी, इंस्पेक्टर अमान सिंह, इंस्पेक्टर नीरज ओझा, सबइंस्पेक्टर सनोज पटेल, और सबइंस्पेक्टर आदेश यादव हैं।
उत्तरप्रदेश को अभी हाल में ही भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने एक इंटरव्यू में देश में सबसे अच्छी कानूनी व्यवस्था वाला प्रदेश कहा था। यहां पर 2017 से लगातार भाजपा के योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री हैं, और वे भाजपा के भीतर भी एक स्वायत्तशासी नेता की तरह काम करते हैं। वे एक बहुत कडक़ मिजाज प्रशासक के अंदाज में बातें करते हैं, और जुर्म के आरोप झेलने वाले लोगों की मुठभेड़-हत्या, या मुठभेड़ में उन्हें जख्मी करना, ऐसे आरोप उत्तरप्रदेश में बड़े आम हैं। उत्तरप्रदेश से ही बुलडोजर इंसाफ शुरू हुआ है, और सुप्रीम कोर्ट कई बार उत्तरप्रदेश पुलिस के तौर-तरीकों पर नाराजगी जाहिर कर चुका है। ऐसे शासन वाले प्रदेश में अगर प्रदेश के एक सबसे बड़े शहर में वकील और दर्जनों पुलिसवालों का इतना संगठित माफिया अंदाज का गिरोह चल रहा है, और सैकड़ों बेकसूर लोगों को लुटा जा रहा है, तो वह इतने बरस तक सरकार की नजरों से बचा रहे यह मुमकिन नहीं लगता। यह भी मुमकिन नहीं लगता कि ऐसे परले दर्जे के मुजरिम पुलिस अधिकारी सरकार में लगातार कमाऊ जगहों पर तैनात होते रहें, और सरकार को उसकी खबर न हो। खबरें बताती हैं कि पुलिस महकमा दुबे-सिंडीकेट नाम के इस माफिया गिरोह को भीतरी जानकारी देते रहता था, और अखिलेश दुबे उनके आधार पर लोगों से भारी वसूली-उगाही की साजिश बनाते रहता था। न सिर्फ यूपी, बल्कि किसी भी प्रदेश में पुलिस के ऐसे संगठित जुर्म सत्ता की नजरों से छुप नहीं सकते हैं।
अब हम कुछ देर के लिए यूपी की मिसाल छोडक़र पूरे देश की बात करें, तो आज बहुत से ऐसे प्रदेश हैं जहां पर पुलिस सत्ता की मनमर्जी, मनमानी, और उसके गैरकानूनी कामों को ही अपनी ड्यूटी मानती है। पुलिस के हाथ झूठे जुर्म दर्ज करने की जो असीमित ताकत रहती है, वह उसे उगाही का एक बड़ा जरिया बना देती है। बहुत से प्रदेशों में नेता इसी उगाही-तंत्र का इस्तेमाल करके अपनी राजनीति करते हैं, स्थाई और नियमित रूप से करोड़ों रूपए कमाते हैं, और अपने मुजरिम साथियों को बचाते भी हैं। आज सिर्फ जुर्म की कमाई वाले मुजरिम नहीं हैं, आज जाति और धर्म के नाम पर, साम्प्रदायिकता और नफरत के नाम पर रात-दिन जुर्म होते हैं, और ऐसे मुजरिमों को बचाना कई जगहों पर सत्ता पर काबिज उनके संरक्षकों की प्राथमिकता होती है। भारत के अधिकतर प्रदेशों में पुलिस का इस हद तक राजनीतिकरण हो चुका है कि इस राजनीतिक पसंद वाले मुजरिमों के माध्यम से कई पुलिसवाले कमाऊ कुर्सी तक पहुंचते हैं। मुजरिम ही अपने इलाकों में जब अपनी पसंद के पुलिस अफसर ले जाते हैं, तो जुर्म का और अधिक संगठित हो जाना महज वक्त की बात रहती है। उत्तरप्रदेश में जिस तरह के नाम बड़े-बड़े संगठित जुर्म के सिलसिले में सामने आते हैं, वे हैरान करते हैं। अपने आपको धर्म का सबसे बड़ा केन्द्र बताने वाला यह प्रदेश धर्म से सबसे गहराई से जुड़ी हुई जाति के पुलिस अफसरों और माफिया-सरगनाओं के जुर्म का केन्द्र बन गया है, वह सरकार से परे भी समाज की फिक्र की बात भी है।
छत्तीसगढ़ के बस्तर के पखांजूर की बड़ी दिलचस्प खबर आई है। वहां पखांजूर नगर पंचायत के अध्यक्ष ने अपने आपको लंबी छुट्टी पर जाना बताया है, और यह जानकारी देते हुए एक चिट्ठी लिखी है कि एक वार्ड की पार्षद उनकी पत्नी उनके न रहने पर उनकी जगह नगर पंचायत का पूरा कामकाज देखेगी। नारायण चन्द्र शाहा ने अपने सरकारी लेटरहेड पर नगर पंचायत के सभी अफसरों को निर्देश दिया है कि वे उनकी पत्नी मोनिका शाहा को पूरा सहयोग दें। वे समस्त प्रशासनिक, वित्तीय, एवं कार्यपालिक दायित्वों का निर्वहन करेंगी। भाजपा के इस नेता ने इस आदेश की एक कॉपी जिला भाजपा अध्यक्ष को भी भेजी है। उनकी पत्नी भी पहले नगर पंचायत अध्यक्ष रह चुकी हैं।
भाजपा के नगर पंचायत को इतना तो मालूम होगा कि उनकी पार्टी देश भर में परिवारवाद के खिलाफ एक आंदोलन चलाती रहती है। आज तो बिहार में चुनाव होने जा रहा है, और वहां भाजपा दो वंशवादी पार्टियों, कांग्रेस, और आरजेडी के गठबंधन के खिलाफ यह एक बड़ा मुद्दा इस्तेमाल करती है कि दोनों कुनबापरस्त पार्टियों को खारिज करना है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक आदर्श के रूप में पेश किया जाता है कि उनका परिवार राजनीति और सार्वजनिक जीवन में उनसे परे रहता है, और वे अपने परिवार के लिए कुछ भी नहीं करते हैं। हम अभी इस उदाहरण पर अधिक चर्चा नहीं कर रहे, लेकिन भाजपा के एक नगर पंचायत अध्यक्ष ने यह जो नया बखेड़ा खड़ा किया है, वह पार्टी की असुविधा से परे भी सरकारी कामकाज में एक बड़ी दखल है। लेकिन बस्तर के पखांजूर के एक नगर पंचायत अध्यक्ष को क्या कहा जाए जब दिल्ली में भाजपा की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता की सरकारी बैठकों में उनके पति उनके ठीक बगल की कुर्सी पर विराजमान रहते हैं। सोशल मीडिया पर फैली हुई तस्वीरों में 7 सितंबर की मुख्यमंत्री की बैठक में उनके पति, कारोबारी मनीष गुप्ता उनके बगल में बैठे थे। और ये तस्वीरें सीएम के सोशल मीडिया अकाऊंट पर खुद ही पोस्ट की गईं। इस पर विपक्षी पार्टियों ने इसे दिल्ली में दो सरकारें चलना करार दिया। इसके पहले अप्रैल में भी मुख्यमंत्री की एक बैठक में मनीष गुप्ता बैठे थे। मुख्यमंत्री के पति की कुछ और बैठकों का भी रिकॉर्ड सामने आया है, उन्होंने दिल्ली जल बोर्ड की बैठक लेकर निर्देश दिए कि यमुना की सफाई में तेजी लाएं। पीडब्ल्यूडी की सडक़ योजनाओं का रिव्यू किया, और फाईल पर दस्तखत भी किए। शिक्षा विभाग की बजट बैठक की अध्यक्षता की क्योंकि मुख्यमंत्री उसमें देर से पहुंची थीं। ऐसी चर्चा है कि सीएम के पति का कार्यालय नाम से एक कार्यालय मुख्यमंत्री सचिवालय में ऊपर बना हुआ है, जहां वे बैठकर फाईलें बुलवाते हैं।
अब छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ महीनों में कहीं-कहीं पर यह भी हुआ था कि ग्राम पंचायत या जनपद पंचायत की बैठकों में महिला पंच-सरपंच की जगह उनके पति पहुंचे थे, और कम से कम दो जगहों पर तो निर्वाचित महिलाओं की जगह उनके पतियों ने ही शपथ ली थी। शपथ दिलवाने वाले सरकारी अधिकारी का कहना था कि एक भी निर्वाचित महिला पहुंची नहीं थी, और उनकी जगह सिर्फ उनके पति आए थे, और उन्होंने ही शपथ ली। अब पखांजूर का यह मामला सामने आया है। जिस बिहार में मुख्यमंत्री लालू यादव ने जेल जाते हुए अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया था, उसी बिहार में अभी चुनाव हो रहा है, और भाजपा शुरू से ही राबड़ी देवी वाले मुद्दे को लेकर हमलावर रही है, वैसे में दिल्ली की मुख्यमंत्री का यह मामला पता नहीं कोई पार्टी वहां उठा सकेगी या नहीं, क्योंकि एनडीए में तो कोई भाजपा के खिलाफ बोल नहीं सकता, और एनडीए विरोधी महागठबंधन में दो-दो पार्टियां परिवारवाद से लदी हुई हैं।
छत्तीसगढ़ के कवर्धा से निकलकर रायपुर में फिजियोथैरेपी में मास्टर्स की डिग्री हासिल करने वाली आकांक्षा सत्यवंशी आज भारत की उस महिला क्रिकेट टीम की फिजियोथैरेपिस्ट हैं जिसने वल्र्ड कप जीता है। इस तरह वे विश्व विजेता महिला क्रिकेट टीम की फिजियोथैरेपिस्ट होने के साथ-साथ खेल विज्ञान विशेषज्ञ भी हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने भी खुले दिल से उनका स्वागत किया है, और मुख्यमंत्री ने 10 लाख रूपए की एक सम्मान राशि की घोषणा की है। यह खेल और फिजियोथैरेपी की दुनिया में छत्तीसगढ़ में एक अलग किस्म की उपलब्धि है क्योंकि आमतौर पर राष्ट्रीय टीम के लिए इस तरह की जरूरतें बड़े शहरों, या बड़े खेल केन्द्रों से ही पूरी हो जाती है। लेकिन इस एक खबर से यह संभावना पता लगती है कि छत्तीसगढ़ में पढ़े हुए लोग किस तरह बाकी दुनिया में जाकर काम करने की संभावना रख सकते हैं।
अब अगर हम एक पल के लिए फिजियोथैरेपी की ही बात करें, तो आज न सिर्फ खेल टीमों के लिए बढ़ती हुई सुविधाओं के तहत इस तरह के हुनर की जरूरत भी जुड़ती चली जा रही है। टीम में जहां पर फिजियोथैरेपिस्ट नहीं रहते थे, वहां भी अब रहने लगे हैं। लेकिन हम खेलकूद और टीम से परे भी देखें, तो बढ़ती हुई शहरी जिंदगी में भी फिजियोथैरेपी की जरूरत बढ़ रही है, लोगों की जीवनशैली की वजह से उन्हें कुछ या कई किस्म की शारीरिक दिक्कतें बढ़ती हैं, और इस चिकित्सकीय हुनर की बड़ी जरूरत लोगों को समझ आ रही है। फिर हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम दुनिया के बहुत से दूसरे देशों में घटती हुई नौजवान आबादी, और वहां पर बढ़ती हुई बूढ़ी आबादी की चर्चा कर चुके हैं कि किस तरह लोगों की देखरेख के काम पैदा हो रहे हैं। बूढ़े लोगों और मरीजों की देखरेख में फिजियोथैरेपी एक अनिवार्य हुनर रहेगा, और इसके साथ-साथ अगर नौजवानों को कुछ देशों की भाषाएं और संस्कृतियां भी सिखाई जा सकेंगी, साथ-साथ चिकित्सकीय देखरेख के दूसरे पहलू सिखाए जा सकेंगे, तो वे हिन्दुस्तान की बहुत मामूली तनख्वाह के बजाय दूसरे देशों में बहुत बेहतर कामकाज पा सकेंगे, और अपने पूरे परिवार की जिंदगी बदल सकेंगे। छत्तीसगढ़ की इस युवती की मिसाल से ही राज्य सरकार यह प्रेरणा ले सकती है कि वह बाकी युवा पीढ़ी को किस-किस तरह के कामों के शिक्षण-प्रशिक्षण देकर, भाषाएं सिखाकर, अलग-अलग देश-प्रदेश की कुछ संस्कृतियां बताकर उन्हें बेहतर संभावनाओं के लिए तैयार किया जा सकता है।
आज भारत में जिसे गरीबों के लिए रोजगार गारंटी योजना कहा जाता है, उसमें दिन भर मजदूरी करने पर भी महीने में 10 हजार रूपए भी नहीं मिल सकते, और साल भर में सौ-पचास दिन से अधिक का तो काम भी नहीं रहता। फिर ऐसी योजनाएं देश के लिए अधिक उत्पादक नहीं रहती हैं, और वे रोजगार योजनाएं ही रहती हैं, लोगों को किसी तरह काम देने के लिए। ऐसी योजनाएं सरकारों को यह साफ तस्वीर देती हैं कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा मनरेगा जैसी योजना का मोहताज रहता है। अब आज नौजवान होने जा रही पीढ़ी को अगर बेहतर उत्पादकता के हिसाब से तैयार किया जा सकता है, तो उससे देश की उत्पादकता भी बढ़ेगी, और समाज में ऐसे नौजवानों के परिवार भी बेहतर तरीके से जी सकेंगे। इन दोनों ही बातों से देश की अर्थव्यव्सथा का पहिया भी घूमेगा।
केरल हाईकोर्ट का एक दिलचस्प और महत्वपूर्ण फैसला सामने आया है जिसमें जस्टिस पी.वी. कुन्हीकृष्णन ने कहा कि केरल विवाह पंजीकरण नियम 2008 के तहत मुस्लिम पुरूष पहली पत्नी के जीवित रहते और विवाह कायम रहते किसी और महिला से शादी के रजिस्ट्रेशन की इजाजत नहीं देता। उन्होंने कहा कि उसके सामने पेश एक मामले में राज्य सरकार को ऐसी दूसरी शादी रजिस्टर करने का निर्देश देने की अपील की गई थी, लेकिन अदालत ऐसा इसलिए नहीं करेगी कि उसकी पहली पत्नी को इस मामले में पक्षकार नहीं बनाया गया था। उन्होंने कहा कि मुस्लिम कानून के तहत विशेष परिस्थितियों में दूसरी शादी की अनुमति है, और उसे देखते हुए कोई मुस्लिम पत्नी अपने पति की दूसरी शादी के पंजीकरण के दौरान मूकदर्शक बनी नहीं रहती। उन्होंने कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ दूसरी शादी की इजाजत देता है, तो पुरूष दूसरी शादी कर सकता है, लेकिन दूसरी शादी को रजिस्टर कराने के मामले में देश का कानून लागू होगा। उन्होंने अपना यह विचार भी सामने रखा कि 99.99 फीसदी मुस्लिम महिलाएं अपने पति के साथ शादी के बंधन में रहते हुए उसकी दूसरी शादी के खिलाफ होंगी। उनका यह भी कहना है कि पहली पत्नी अगर मौजूद है, और उसका पति अपनी दूसरी शादी को देश के कानून के मुताबिक रजिस्टर कराता है, अदालत पहली पत्नी की भावनाओं को नजरअंदाज नहीं कर सकती। जज ने लिखा है कि धर्म बाद में आता है, संवैधानिक अधिकार सबसे पहले है। उन्होंने कहा कि जब दूसरी शादी के पंजीकरण की बात आती है, तो धार्मिक-रस्मी कानून लागू नहीं होते।
यह कानून मुस्लिम महिला के हक की एक स्पष्ट व्याख्या करता है कि अगर उसका पति उसके रहते हुए और शादी कायम रहते हुए कोई दूसरी शादी करता है, तो पहली बीवी की सहमति के बिना दूसरी शादी का रजिस्ट्रेशन नहीं हो सकता। यहां पर दो कानून एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े होते हैं, एक मुस्लिम विवाह कानून है जो कि मुस्लिम पुरूष को कुछ नियम और शर्तों के साथ चार शादियां समानांतर करने और रखने की छूट देता है। दूसरा कानून विवाह पंजीयन का है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पूरे देश के लिए अनिवार्य किया है, और किसी भी तरह की शादी का रजिस्ट्रेशन जरूरी है। केरल हाईकोर्ट के इस अकेले जज के फैसले ने मुस्लिम पुरूष की दूसरी शादी को नहीं रोका गया है, क्योंकि वह उस समुदाय के विवाह कानून के तहत मुमकिन है, लेकिन उसका रजिस्ट्रेशन करने से अदालत ने इंकार कर दिया है।
कई बड़े-बड़े चर्चित जुर्म के बाद आरोपी फरार रहते हैं, और पुलिस या दूसरी जांच एजेंसियां उनकी तलाश में लगी रहती हैं। अगर ऐसे लोग किसी भी किस्म की ताकत वाले रहते हैं, तो उनकी तरफ से बड़े-बड़े वकील निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अग्रिम जमानत की अर्जी लगाते रहते हैं, और जांच एजेंसी के हत्थे चढऩे के पहले ही वे फरार रहते हुए यह कोशिश करते रहते हैं कि गिरफ्तार होने के पहले उनके हाथ में अग्रिम जमानत का कागज रहे जिसे दिखाकर वे पुलिस का मुंह चिढ़ा सकें। भारत के कानून में जमानत या अग्रिम जमानत को लेकर जज-मजिस्ट्रेट को बहुत सारे विवेकाधिकार दिए गए हैं, और एक ही किस्म के मिलते-जुलते दो मामलों में एक में एक अदालत से जमानत मिल जाती है, दूसरी से नहीं मिलती, और दोनों को ही सही मान लिया जाता है। ऊपर की अदालत अगर इन फैसलों को पलटती भी है, तो भी आमतौर पर निचली अदालत के जज के खिलाफ कोई टिप्पणी आमतौर पर नहीं होती। जमानत या अग्रिम जमानत के ये सारे फैसले भारत के कानून के जिस लचीलेपन पर टिके रहते हैं, वह लचीलापन कितना लोकतांत्रिक है, और कितना अलोकतांत्रिक, यह भी सोचने की जरूरत है।
भारत में नीचे से ऊपर तक अदालतों के अधिकतर फैसले कुछ या अधिक हद तक उसके सामने खड़े वकीलों की काबिलीयत और तैयारी से भी प्रभावित होते हैं। और वकीलों का यह हुनर, और उनकी जिरह इस बात से तय होते हैं कि वे कितनी फीस पाने वाले हैं। इससे परे जैसा कि भारत के किसी भी दूसरे दायरे में होता है, न्यायप्रक्रिया किस हद तक भ्रष्ट है, वकील की उसे प्रभावित करने की कितनी क्षमता है, ये बातें भी कुछ या अधिक हद तक फैसलों को प्रभावित करती हैं। गरीब लोग, कमजोर तबके के लोग किसी ताकतवर के सामने इंसाफ पाने की बड़ी कम संभावना रखते हैं, क्योंकि जांच एजेंसियों की बांहें भी ताकत मोड़ लेती है। कई लोग ऐसी राजनीतिक या सरकारी ताकत वाले रहते हैं कि जांच एजेंसियों के वकील भी कुछ शांत रह जाते हैं, जमानत या अग्रिम जमानत का जमकर विरोध नहीं करते।
हम आज पूरी की पूरी न्यायप्रक्रिया को लेकर बात करना नहीं चाहते, लेकिन हम सिर्फ जमानत और अग्रिम जमानत के बहुत ही अस्पष्ट और धुंध भरे दायरे की बात करना चाहते हैं, जिसका मजा ऐसे आरोपी और अभियुक्त सबसे अधिक लेते हैं जो कि पहली नजर में मुजरिम लगते हैं, बड़े-बड़े वकील खड़े कर पाने की जिनकी ताकत रहती है, और जो लंबे समय तक फरार रहने का इंतजाम भी रखते हैं। हम कानून के जानकार नहीं हैं, और महज सामान्य समझबूझ से यह बात कर रहे हैं, इसलिए दिमाग पर कानूनी जानकारियों का कोई दबाव भी नहीं है। अग्रिम जमानत के प्रावधान चाहे जिस वजह से बनाए गए हों, जब लोग महीनों तक फरार रहते हैं, पुलिस या दूसरी जांच एजेंसियां उन्हें पकडऩे के लिए ईनाम की मुनादी भी कर चुकी रहती हैं, तब उन्हें अग्रिम जमानत क्यों दी जानी चाहिए? अगर जांच एजेंसियों पर ऐसा शक है कि वे गिरफ्तारी के बाद उस व्यक्ति को मार सकती हैं, तो अदालत जांच एजेंसियों को कुछ अतिरिक्त सावधानी बरतने को कह सकती है। लेकिन लगातार फरार चलने वाले लोगों को अग्रिम जमानत क्यों दी जाए? क्या महज इसलिए कि वे महंगे वकील कर सकते हैं? या इसलिए कि वे इतने माहिर हैं, इतने ताकतवर हैं कि महीनों तक जांच एजेंसियों से छुपकर भी वकील कर सकते हैं? जब कभी बहुत ताकतवर और बहुत चर्चित, बहुत पैसेवाले, और बड़े ओहदे वाले लोगों को अग्रिम जमानत मिलती है, आम लोगों को यही लगता है कि जुर्म करने में कोई बुराई नहीं है, पकड़ में आने में बुराई है। अगर अग्रिम जमानत मिल जाती है, तो फिर और कोई सजा मानो बचती ही नहीं है। यह सिलसिला लोकतांत्रिक भावना के एकदम खिलाफ है क्योंकि गरीब लोग तो न इस तरह एजेंसियों से लुकाछिपी खेल सकते, और न ही ऐसे वकील करके नीचे से ऊपर की अदालत तक लड़ाई लड़ सकते। अग्रिम जमानत का आज का आम सिलसिला बड़ा ही अश्लील और हिंसक है, यह पूरी तरह अलोकतांत्रिक भी है जो कि समाज में असमानता को सामने रखता है। अग्रिम जमानत आमतौर पर संपन्न या ताकतवर को मिलती है, विपन्न या कमजोर को तो आनन-फानन गिरफ्तार हो जाने के बाद भी जमानत नहीं मिलती।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के नगर निगम ने बिजली के खम्भों और दूसरी सरकारी जगहों पर लगाए गए बैनर-पोस्टर, या होर्डिंग हटाने के लिए ठेका देना तय किया है। शहर के हर चौराहे पर, डिवाइडर पर, हर खम्भे पर ऐसे पोस्टर-बैनर टंगे रहते हैं जिनसे निगम को कोई कमाई नहीं होती। और बात सिर्फ कमाई की नहीं है, सडक़ों पर ये ट्रैफिक लाईटों को ढांक लेते हैं, हवा में लहराते रहते हैं जो कि जान के लिए खतरा रहते हैं, डिवाइडरों पर रास्ता रोकने जितने चौड़े रहते हैं। और इन सबसे परे यह भी है कि किसी भी तरह के होर्डिंग या पोस्टर-बैनर इन दिनों इस्तेमाल होने वाले सिंथेटिक फ्लैक्स का इस्तेमाल तो 4-6 दिनों का रहता है, लेकिन उसकी जिंदगी सैकड़ों-हजारों बरस की रहती है। फ्लैक्स की शीट एक बार इस्तेमाल के बाद सफाई कर्मचारियों के कचरा ढोने के काम की रह जाती है, और उसका कोई भी संगठित उपयोग सरकार या म्युनिसिपल ने सोचा नहीं है। प्रदेश के आज के पर्यावरण मंत्री ओ.पी.चौधरी इसी राजधानी में म्युनिसिपल कमिश्नर भी रहे हैं, और कलेक्टर भी। उन्हें हर दिन लगने वाले दसियों हजार फ्लैक्स का पर्यावरण पर नुकसान अच्छी तरह मालूम है, लेकिन मोटेतौर पर राजनीतिक और धार्मिक उपयोग वाले ऐसे फ्लैक्स पर रोक लगाना पर्यावरण को बचाने के लिए भी उन्हें जरूरी नहीं लग रहा है।
प्रशासन और म्युनिसिपल कई बार यह तय करते हैं कि अनाधिकृत पोस्टर-बैनर और होर्डिंग नहीं लगने दिए जाएंगे, लेकिन जनता अराजक है, बेकाबू है, और सार्वजनिक जगहों पर मानो हर किसी का निजी कब्जा है। इस मुद्दे पर आज लिखना जरूरी इसलिए है कि जिन पोस्टर-बैनर और होर्डिंग से म्युनिसिपल को जुर्माना लगाकर मोटी कमाई करनी चाहिए, उसे वह भुगतान करके हटाने का ठेका दे रही है। किसी भी शहर या प्रदेश की जनता में अराजकता को बढ़ाने का इससे अधिक असरदार और कोई तरीका नहीं हो सकता कि उसकी की गई मनमानी और बर्बादी को सुधारने पर जनता का पैसा खर्च किया जाए। इसके बाद जो दुकानदार सडक़ों पर दूर तक अपने पुतले खड़े रखते हैं, और ट्रैफिक जाम करते हैं, उनके पुतलों को हटाने का भी ठेका देना चाहिए, और उसके लिए भी म्युनिसिपल को भुगतान करना चाहिए। सरकार और म्युनिसिपल जनता के पैसों को बर्बाद करने के और भी कुछ तरीके ढूंढ सकते हैं, सरकारी दीवारों पर निजी इश्तहार मिटाने के लिए ठेका दिया जा सकता है, बजाय ऐसे इश्तहार वालों के खिलाफ रिपोर्ट लिखाने, और उन पर जुर्माने लगाने के। छत्तीसगढ़ के शहरों के बाजार नियमित रूप से थोक में कचरा उगलते हैं, बहुत से कारोबार ऐसे हैं जहां से पैकिंग का कचरा बड़ी मात्रा में निकलता है, किसी भी रात या सुबह शहर का चक्कर लगाने पर बहुत ही कमजोर नजर वालों को भी ऐसे ढेर साफ-साफ दिख सकते हैं। लेकिन इन पर जुर्माना लगाने के बजाय म्युनिसिपल कचरा इकट्ठा करने के ठेकों पर खर्च बढ़ाती चलती है। हर दुकानदार से कचरा फैलाने पर जुर्माना लेकर जो कमाई हो सकती थी, उसे कचरा उठाने पर खर्च बढ़ाकर जनता को ही चूना लगाया जा रहा है।
सरकार का हाल गजब का रहता है। छत्तीसगढ़ में एक-एक करके करीब दर्जन भर जिलों में अलग-अलग वक्त पर ऐसे एसपी रहे जिन्होंने बिना हेलमेट दुपहिया चलाने वाले लोगों को हेलमेट भेंट किए। जिन्हें जुर्माने की पर्ची मिलनी थी, उन्हें मुफ्त में हेलमेट मिल गया, और जुर्माना तो कहीं किया नहीं जाता, लापरवाह लोग उस हेलमेट को भी औने-पौने मेें बेचकर पांच लीटर पेट्रोल डलवा सकते हैं, और अगले किसी रहमदिल एसपी का इंतजार कर सकते हैं जो कि फिर हेलमेट भेंट करे। ये हेलमेट सरकारी टैक्स से जनता की जेब से आते हैं, या किसी कारखाने के सीएसआर फंड से, ये अराजकता को बढ़ावा देते हैं। पूरी दुनिया में पुरस्कार और सजा को एक सुधार के लिए इस्तेमाल करने की सोच रहती है, इधर छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में जिस बात पर सजा मिलनी चाहिए, उस बात पर पुरस्कार दिया जाता है। होर्डिंग और बैनर-पोस्टर की सिर्फ वीडियोग्राफी करके अगर किसी एक दिन की रिकॉर्डिंग पर जुर्माना लगाया जाए, तो राजधानी रायपुर में एक दिन में दस करोड़ रूपए की कमाई म्युनिसिपल की हो सकती है, लेकिन यह करने के बजाय म्युनिसिपल अपने पैसे खर्च करके ये पोस्टर-बैनर हटाने जा रही है, और राजनीतिक भावनाएं विचलित न हो जाएं, इसलिए इनसे निकलने वाले फ्लैक्स के झोले भी नहीं बनाए जा सकेंगे। यह अपने आपमें एक रहस्य है कि ऐसे फ्लैक्स का आखिर होता क्या है? क्या यह अघोषित कमाई का एक और जरिया बन गया है?
भारत के ताजा इतिहास में पिछले दो सौ बरसों में कई तरह के आंदोलन हुए। दलितों से छुआछूत खत्म करने का आंदोलन, विधवाओं की दुबारा शादी करवाने का आंदोलन, सतीप्रथा खत्म करने का आंदोलन, बालविवाह रोकने का आंदोलन, महिला शिक्षा, दलितों के मंदिर प्रवेश के आंदोलन, पर्दा प्रथा का विरोध जैसे बहुत से आंदोलन समय-समय पर हुए। नतीजा यह निकला कि इनमें से कई चीजों को सुधारने के लिए कानून बने, और बाकी के लिए सामाजिक वातावरण में बदलाव आया। इनसे परे कन्या भ्रूण हत्या जैसी हिंसक सामाजिक परंपरा को खत्म करने के लिए, दहेज प्रताडऩा को खत्म करने के लिए बहुत ही कड़ी सजा रखी गई, और नतीजा यह हुआ कि इनमें भी कमी आई। लेकिन इतनी हिंसक सामाजिक परंपराओं से परे बहुत सी कम हिंसक सामाजिक परंपराएं अब भी चल रही हैं, जिनमें सुधार की जरूरत है।
आज की यह चर्चा हम उत्तराखंड की एक पंचायत के एक फैसले को देखते हुए छेड़ रहे हैं। देहरादून जिले के दो गांवों में पंचायत ने यह नियम लागू किया है कि किसी भी शादी-ब्याह या सामाजिक समारोह में महिलाएं सोने के कुल तीन गहने ही पहन सकेंगी। वे मंगलसूत्र, नाक की बाली, और कान की बाली, इन्हीं को पहनेंगी। इससे ज्यादा गहने पहनने पर पंचायत को 50 हजार रूपए का जुर्माना देना होगा। इस फैसले के पीछे का तर्क यह बताया गया है कि सोने की बढ़ती कीमतों और दिखावे की होड़ को रोकने के लिए इसे लागू किया जा रहा है। पंचायत का मानना है कि शादी-ब्याह के मौके पर गहने खरीदने का दबाव रहता है, और समाज में बराबरी भी इससे खत्म होती है। दूसरी तरफ कुछ महिलाओं ने इस फैसले का विरोध करते हुए कहा है कि खर्चे में कमी लानी हो तो मर्द दारू पीना छोड़ें, और बड़ी दावतें न करें, दारू और मांसाहार पर भी रोक लगाई जाए।
हम अभी उत्तराखंड की पंचायत के इस फैसले के गुण-दोष पर नहीं जा रहे, लेकिन समाज में किसी भी तरह की फिजूलखर्ची को लेकर एक जागरूकता की जरूरत पर जरूर बात करना चाहते हैं। अलग-अलग धर्मों और जातियों के लोगों ने अलग-अलग प्रदेशों में समय-समय पर ऐसे फैसले भी लिए हैं कि शादियां दिन में की जाएं, ताकि रात में रौशनी का खर्च बचे। कुछ जगहों पर शादी की दावत में सीमित पकवान रखने के सामाजिक फैसले भी लागू किए गए हैं। कुछ जगहों पर बारातियों की संख्या सीमित करने की रोक लगी है। अभी-अभी कुछ समाजों ने इन दिनों अधिक लोकप्रिय हो गई शादी के पहले की फोटोग्राफी-वीडियोग्राफी को रोकने की बात भी की है। कुछ लोग बैंड पार्टी और डीजे के खिलाफ फैसले ले चुके हैं। ऐसे फैसले दशकों से हम देखते आ रहे हैं, और वे तभी तक लागू हो पाते हैं, जब तक कोई संपन्न या ताकतवर व्यक्ति इनको तोडऩा न चाहे। कोई सत्तारूढ़ नेता, या कोई अतिसंपन्न व्यक्ति जब चाहे तब ऐसे नियमों को तोड़ लेते हैं, और समाज में उनके खिलाफ कोई कार्रवाई भी नहीं होती।
छत्तीसगढ़ में इस वक्त नए विधानसभा भवन का उद्घाटन चल रहा है, और टीवी स्क्रीन पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी फीता काटते दिख रहे हैं। महलों सरीखी नई इमारत भीतर से, और आसमान से खूबसूरती की एक मिसाल दिख रही है। अभी 90 सदस्यों वाले सदन में अगले कुछ बरस में डी-लिमिटेशन, और महिला आरक्षण के बाद 120 सदस्य हो जाने की उम्मीद है, लेकिन इस सदन में 200 लोगों के बैठने का इंतजाम रखा गया है जो कि अगली आधी सदी भी शायद कम न पड़े। छत्तीसगढ़ एक संपन्न राज्य बनते चल रहा है, देश में इसकी नई राजधानी, नया रायपुर एक सबसे अच्छी राजधानी बनी है, और उसका विकास चल रहा है। पुराने व्यस्त शहर से निकलकर मंत्री-मुख्यमंत्रियों के बंगले, राजभवन, विधानसभा, विधायक विश्रामगृह, और अफसरों के बंगले, ये सब नई राजधानी में चले जाएंगे, वहां बसाहट होगी, और पुराने शहर में सांस लेने को थोड़ी सी जगह बढ़ेगी।
आज हम विधानसभा पर केन्द्रित कुछ बातें लिखना चाहते हैं क्योंकि यह 25 बरस पूरे कर रही है, राज्य नया बना तो राजकुमार कॉलेज में एक शामियाने में विधानसभा शुरू हुई, जो बाद में केन्द्र सरकार के एक प्रशिक्षण केन्द्र की इमारत में गई, और अभी तक वहीं चल रही थी। अब इस नए विधानसभा भवन में सत्ता की सभी बांहों ने अपनी-अपनी मर्जी से सुख-सहूलियतें जुटा ली हैं, और खूबसूरती और भव्यता तो ऐसे किसी भी नए ढांचे में कल्पना से परे रहती ही है। अब 52 एकड़ जगह पर बनी इस विधानसभा और उसके कैम्पस को नीचे-ऊपर, भीतर-बाहर सभी तरफ से देख लेने के बाद मन में यह सवाल उठता है कि इंजीनियर-आर्किटेक्ट और सरकार-विधानसभा का सपना तो पूरा हो गया, विधानसभा से जनता के सपने पूरे होने में इस नई भव्यता से कोई बढ़ोत्तरी होगी, या यह सिर्फ सदन के सदस्यों के सुख की बढ़ोत्तरी रह जाएगी?
प्रदेश में विधानसभा, और देश में संसद ऐसी जगह रहती हैं जहां न सिर्फ विपक्ष, बल्कि सत्ता पक्ष के निर्वाचित सदस्य भी सरकार को कटघरे में रखते हैं, और वहां जानकारी देना सरकार की मजबूरी रहती है। सरकारें आमतौर पर विधानसभा में घिरने से बचती हैं, वे चाहती हैं कि सदन के सत्र कम से कम दिन रहें, और उन दिनों में भी कम से कम घंटे काम चले। सरकारें अपना जो सरकारी कामकाज विधानसभा में करवाना चाहती है, वह तो सदस्यों का बाहुबल पर्याप्त होने पर बिना किसी बहस के हो जाता है, और अब विस्तृत बहस की परंपरा धीरे-धीरे घटती भी चल रही है। जब कभी सत्ता और विपक्ष के बीच, या सदस्यों के बीच आपस में किसी बात खुलकर चर्चा नहीं होती है, तो प्रस्तावित कानून में कई ऐसी बातें रह जाती हैं जो कि बाद में लोगों को तकलीफ देती हैं। दूसरी तरफ चर्चा न होने से देश की जनता को अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से अपनी बात रखने का कोई मौका भी नहीं मिलता। इसलिए जब कभी देश या किसी प्रदेश में सदन में हंगामा चलते रहता है, तो हम यह मानते हैं कि इसका सबसे बड़ा नुकसान उस आम जनता को रहता है जो ऐसे सदनों में अपने मुद्दों पर चर्चा की उम्मीद करती है, क्योंकि वह खुद तो सदन में जा नहीं सकती।

पिछले बरसों में हम लगातार यह देखते आ रहे हैं कि एक बरस में लोकसभा और राज्यसभा औसतन कितने दिन काम करती हैं, और काम के उन दिनों में वे कितने घंटे काम करती हैं। पहली नजर में जो आंकड़े मिले हैं, वे बताते हैं कि लोकसभा और राज्यसभा सालभर में कुल 50-60 दिन काम कर रही हैं, जबकि संसदीय सिफारिश साल में सौ से अधिक दिन काम करने की है। इस पर भी तरह-तरह के हंगामों से प्रभावित काम को देखें, तो काम के घंटे और घट जाते हैं। 2024 में संसद में कुल 285 घंटे काम किया। और जिस ब्रिटिश संसद के मॉडल पर भारतीय संसदीय व्यवस्था बनी है, वह इससे दो-तीन गुना अधिक घंटे काम करती है। 2024 में ही ब्रिटिश संसद ने 6 सौ से 7 सौ घंटे काम किया। हम संसद की मिसाल इसलिए दे रहे हैं कि प्रदेशों की विधानसभाएं मिसाल के लिए संसद की तरफ देखती हैं।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद इतना छोटा हो गया है कि किसी भी कोने से आधे दिन में सफर करके राजधानी पहुंचा जा सकता है। विधायकों के लिए राजधानी में सहूलियतें बहुत हैं, और नई विधानसभा के साथ-साथ नई राजधानी में सहूलियतें भी बढ़ जाएंगी, और सारे सरकारी दफ्तर भी वहीं रहेंगे। ऐसे में विधायकों के लिए सब कुछ एक साथ और सुविधाजनक हो जाएगा। चाहे सत्ता के लिए असुविधा की बात हो, हम यही चाहेंगे कि विधानसभा में काम के दिन बढऩे चाहिए, और काम के दिनों में घंटे बढऩे चाहिए। यह तो हम हमेशा से लिखते आए हैं कि विपक्ष को बहिष्कार और बहिर्गमन से बचना चाहिए, और जनता के हक की बात अधिक से अधिक सामने रखनी चाहिए, सरकार से सवाल पूछने चाहिए। सदन की कार्रवाई छोडक़र जाना विरोध करने का एक नकारात्मक तरीका है जिससे जनता के हक का मौका घटता है।
किसी के भी अस्तित्व में 25 बरस पूरे होना एक ऐतिहासिक मौका रहता है। शादी की सिल्वर जुबली होती है, तो लोग बड़ी दावत देते हैं। उम्र के 25 बरस पूरे होते हैं, तो लोग उम्मीद करते हैं कि अब लोग कामकाज करने लगेंगे। ऐसे में जब छत्तीसगढ़ राज्य के रूप में 25 बरस पूरे कर रहा है, तो यह एक बड़ा ऐतिहासिक मौका है, और इसका जलसा भी इस बार कुछ अधिक बड़ा इसलिए हो रहा है कि राज्य की विधानसभा का नया भवन बनकर तैयार हो गया है, और उसका भी उद्घाटन है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कल अपने दूसरे कार्यक्रमों के साथ-साथ इसके उद्घाटन में भी शामिल होंगे। यह विधानसभा भवन राज्य की नई बनी राजधानी में बना है, और भविष्य की सारी संभावनाओं को पूरा करने की गुंजाइश इसमें रखी गई है। लेकिन हम कल के कार्यक्रम तक अपनी बात सीमित रखना नहीं चाहते, इस मौके पर पूरे प्रदेश को लेकर बात होनी चाहिए।
छत्तीसगढ़ ने अविभाजित मध्यप्रदेश से बाहर आकर लगातार आर्थिक विकास देखा है। भोपाल से जब छत्तीसगढ़ का शासन चलाया जाता था, तो वह कमोबेश लंदन से चलने वाले भारत के अंग्रेजी राज जैसा रहता था। छत्तीसगढ़ कोयला उगलता था, बिजली पैदा करता था, और मध्यप्रदेश उस बिजली को पीता था। छत्तीसगढ़ में बिजली पहुंचाने का ढांचा तक बाकी मध्यप्रदेश के मुकाबले बड़ा कमजोर था। छत्तीसगढ़ ने इन 25 वर्षों में असाधारण आर्थिक विकास देखा है, और इस दौर में कांग्रेस और बीजेपी दोनों की सरकारें आई-गई हैं। इस दौर में केन्द्र में भी यूपीए और एनडीए की सरकारें आती-जाती रही हैं। छत्तीसगढ़ ने रमन सिंह सरकार के यूपीए सरकार से दस बरस के मधुर संबंध भी देखे, और भूपेश सरकार के एनडीए सरकार से पांच बरस के लड़ाकू संबंध भी देखे। छत्तीसगढ़ के विकास का एक बड़ा हिस्सा खदानों से निकलकर आया, कुछ कमाई जंगलों से हुई, और राज्य की अर्थव्यवस्था खेतों के माध्यम से चलती रही। यह राज्य इस पूरे दौर में देश के बहुत से दूसरे राज्यों के मुकाबले बेहतर आर्थिक अनुशासन का राज्य रहा, और रिजर्व बैंक से लेकर योजना आयोग, नीति आयोग के आंकड़े भी इसे एक बेहतर राज्य साबित करते रहे। आज भी देश भर के लिए छत्तीसगढ़ अपने जंगलों को खोकर, अपनी छाती पर गड्ढा झेलकर कोयला भेजता है, लोहा निकालकर फौलादी कारखाने चलाता है, और देश भर के लिए सीमेंट भी बनाता है।
लेकिन जो बात खटकती है, वह मानव संसाधन की है। छत्तीसगढ़ के लोग राज्य के बाहर जाकर काम करने के मामले में जब भी खबरों में आते हैं, तो वे बंधुआ मजदूरी से छुड़ाकर वापिस लाए जाते रहते हैं, या फिर वे उत्तर भारत के ईंट भट्ठों पर कैद करके मजदूरी कराए जाते दिखते हैं। ऐसी खबरें बहुत कम आती हैं कि छत्तीसगढ़ से लोग बाहर जाकर कोई बड़ा काम कर रहे हों, देश के बाहर पहुंच रहे हों। छत्तीसगढ़ के भीतर भिलाई नाम का एक छोटा सा शैक्षणिक टापू है जहां भिलाई इस्पात संयंत्र से जुड़े हुए स्कूल ही आईआईटी में पहुंचने वाले छात्र-छात्राओं को तैयार करते हैं, और उसमें राज्य सरकार का योगदान कुछ भी नहीं रहता। राज्य की नौजवान पीढ़ी को देश-विदेश के मुकाबले के लिए तैयार करने के लिए भी यह राज्य अभी तक कुछ नहीं कर पाया है। बीते बरसों में सरकार ने कुछ लाइब्रेरी शुरू की हैं, और प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए लोगों को तैयार किया जाता है, लेकिन यह सब मोटेतौर पर गिनी-चुनी सरकारी नौकरियों के लिए होने वाले मुकाबले तक सीमित रहता है। देश की सरकारी नौकरियों से परे किसी हुनर के लायक नौजवानों को तैयार करना अभी तक यह राज्य नहीं कर पाया है, और यह खुद 25 बरस का नौजवान हो चुका है।
किसी जिंदगी में कैसा-कैसा उतार-चढ़ाव हो सकता है, यह देखना हो तो 9 महीने की उम्र में भारत से अमरीका गए वेदम सुब्रमण्यम की जिंदगी को देखना चाहिए। 1962 में वे परिवार सहित अमरीका पहुंचे, अमरीकी संस्कृति के हिसाब से उन्हें उनके संक्षिप्त नाम सुबु से बुलाया जाने लगा, और कॉलेज छात्र रहते हुए उनके एक सहपाठी का कत्ल हो गया, बिना सुबूत, बिना हथियार, बिना हत्या के इरादे के, सिर्फ परिस्थितियों को देखते हुए सुबु को सजा सुना दी गई। 1983 में सुनाई गई उम्रकैद अभी 2025 में अमरीका की सबसे बड़ी जांच एजेंसी एफबीआई की इस रिपोर्ट पर खारिज की गई जिसमें कहा गया था कि जिस बंदूक से गोली चलना बताया गया है, उससे गोली चली ही नहीं थी। अब इसी महीने 3 तारीख को जब उनकी बहन उनकी रिहाई के लिए जेल पहुंची, तो अमरीका से प्रवासियों को बाहर निकालने वाली एजेंसी आईस ने उन्हें फिर गिरफ्तार करके एक हिरासत केन्द्र में रख दिया, क्योंकि उनके खिलाफ 1999 का एक और मामला दर्ज था। अब उन्हें विदेशी अपराधी कहकर भारत भेजने की तैयारी हो रही है जहां वे 9 महीने की उम्र के बाद कभी रहे नहीं, जहां उनके कोई रिश्तेदार भी नहीं रह गए। वेदम सुब्रमण्यम 64 बरस की उम्र में अमरीका और भारत के बीच हिरासत में अटके हुए हैं, और यह नौबत 43 बरसों की बेगुनाही वाली कैद के बाद अब एक छोटे से मामले को लेकर अचानक फिर सामने आई है। अमरीका में भारतवंशी लोग बरसों से सुबु की रिहाई के लिए लगे हुए थे, और रिहाई का दिन आकर, उन्हें एक दूसरी हिरासत में भेजकर चले गया।
किसी देश के कानून के बारे में हम कोई राय कायम करना नहीं चाहते, लेकिन जिंदगी कैसे खेल खेलती है, यह जरूर सोचने की जरूरत है। हर किसी को अपनी जिंदगी में कई तरह के नाटकीय मोड़ झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए। दो दिन पहले बीबीसी की एक रिपोर्ट बता रही थी कि किस तरह अमरीका में भारतीय सामानों पर 50 फीसदी टैरिफ लगने की वजह से भारत में अच्छे-खासे चलते कारोबार बंद हो रहे हैं, और उनमें काम करने वाले कामगार और मजदूर बेरोजगार हो रहे हैं। कालीन बनाने वाले बुनकरों के बच्चों की पढ़ाई छूटने की नौबत आ गई है क्योंकि अमरीकी कारोबारियों ने कालीन आयात करने के ऑर्डर रद्द कर दिए हैं। अब एक वक्त जो कारोबार डॉलर में कमाई करते थे, आज उनके पास रूपयों में देने के लिए भी मजदूरी नहीं है। जिंदगी की ऐसी कहानियों को हम अहमियत इसलिए देते हैं कि हममें से किसी का भी दिल-दिमाग यह मानने को तैयार नहीं रहता कि इतना बुरा कुछ उनके साथ हो सकेगा। अब दो दिन पहले की ही छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर की एक घटना है। एक नौजवान दुकान बंद करके घर जा रहा था, और दुपहिया रात में सामने खड़ी ट्रक से जा टकराया, उसकी मौके पर ही मौत हो गई। यह जानकारी फोन पर उसके भाई को मिली, और वह दुपहिए पर सवार होकर इस घटनास्थल की तरफ निकल पड़ा, रास्ते में उसकी टक्कर एक कार से हो गई, और सडक़ पर वह भी मर गया। एक ही रात, एक ही शहर में दो सगे भाई इस तरह गुजर जाएंगे, क्या उनकी बूढ़ी मां ने कभी ऐसी कल्पना की होगी? कौन यह सोच सकते थे कि दो अलग-अलग हादसों में दो सगे भाईयों की एक सरीखी मौत हो जाएगी? लेकिन जिंदगी कई तरह के खेल खेलती है।
कई ऐसे मामले सुनाई पड़ते हैं जिनमें पति-पत्नी किसी झगड़े की वजह से एक-दूसरे को मार देते हैं, और खुद भी मर जाते हैं। कुछ दूसरे मामलों में एक को मारकर दूसरे को जेल जाना भी मंजूर रहता है। पीछे उनके छोटे-छोटे से बच्चे रह जाते हैं। अभी एक मामला हमारे पास ही ऐसा हुआ जिसमें एक गरीब परिवार के तीन या चार छोटे-छोटे बच्चे मां के पास बैठे हुए ही थे, और पिता की किसी बात को लेकर मां से बहस हुई, और उसने बच्चों की मौजूदगी में अपनी पत्नी को काट डाला। वह तो मर गई, पति जेल चले गया, और तीन-चार बच्चे बेसहारा हो गए। गरीबों के बीच में आसपास के रिश्तेदारों की भी इतनी क्षमता तो रहती नहीं है कि बिना मां-बाप के तीन-चार बच्चों को और लोग पाल लें। अब इनका भविष्य, और उसके भी पहले उनका वर्तमान कैसा होगा, यह सोचने की बात है। अभी कल की ही खबर है कि एक परिवार में घर के मुखिया की शराबखोरी की आदत, और नशे में रोज झगड़ा झेल-झेलकर थके हुए मां-बेटे ने ही मिलकर बाप को मार डाला, और अब मां-बेटा दोनों गिरफ्तार भी हो गए। इस तरह की घटनाएं रोज हो रही हैं। इनके बाद परिवार की क्या हालत होती होगी, यह कल्पना बहुत मुश्किल नहीं है।
इन दिनों चलते हुए साइबर क्राईम की वजह से लोगों को ब्लैकमेल करना, उनकी पाई-पाई निचोड़ लेना, उन्हें खुदकुशी को मजबूर कर देना, यह चलते ही रहता है। अब सोचिए कि किसी की जिंदगी भर की कमाई अगर ऐसी एक अकेली जालसाजी और धोखाधड़ी में पूरी की पूरी चली जाए, तो जिंदगी क्या रह जाएगी? कैसे कटेगी? ऐसा कई जगह हो रहा है। लोगों को डिजिटल अरेस्ट करके रखा जा रहा है, उनके कुछ नग्न या अश्लील वीडियो भी बना लिए जा रहे हैं, और ब्लैकमेलर जोंक की तरह उनके बदन के खून की एक-एक बूंद चूस ले रहे हैं। दुनिया भर की साइबर-सुरक्षा एजेंसियां, और पुलिस मिलकर भी मुजरिमों का कोई मुकाबला नहीं कर पा रही हैं, जो कि हर दिन अपना जाल अधिक बड़ा करते चल रहे हैं।
दुनिया में आज आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के लिए सबसे अधिक खबरों में बना हुआ चैटजीपीटी बताता है कि उससे बातचीत करने वाले लोगों में से हर हफ्ते 10 लाख लोग खुदकुशी का इरादा जाहिर करते हैं। पूरी दुनिया में करोड़ों लोग इसका इस्तेमाल करते हैं, फिर भी 10 लाख का आंकड़ा बहुत बड़ा है। जिन लोगों ने आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से बातचीत नहीं की है, उन्हें अंदाज नहीं होगा कि वह एक दोस्त और शुभचिंतक की तरह बात करता है, कभी परामर्शदाता बन जाता है, तो कभी दुनिया भर के मुद्दों पर सलाह की जानकारी देने लगता है। हाल के महीनों में यह बात भी सामने आई है कि एआई कई लोगों को भावनात्मक रूप से ऐसा जोड़ लेता है कि पश्चिमी देशों में दसियों लाख किशोर-किशोरियां उसे ही अपने प्रेमी-प्रेमिका की तरह देखने लगते हैं, उसके साथ दिल का रिश्ता जोड़ लेते हैं। कुछ महीने पहले यह बात भी आई थी कि एआई चैटबॉट ने भावनात्मक रूप से अस्थिर लोगों को खुदकुशी की राह दिखाने की कोशिश भी की थी। और लोगों को लगता है कि वे दुनिया के सबसे उम्दा एआई से बात कर रहे हैं, जिसकी बात सही और सच होने की ही गुंजाइश अधिक है। अभी ताजा खबर बताती है कि दुनिया के मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ यह मानते हैं कि एआई चैटबॉट से भावनात्मक मदद लेने वालों में से जो कमजोर मानसिक स्थिति से गुजर रहे हैं, वे खतरे में पड़ सकते हैं।
अब हम कमजोर मानसिक स्थिति की एक दूसरी खबर देखें, तो छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक सरकारी साईंस कॉलेज में पढऩे वाली छात्रा अपने बीमार पिता से मिलकर आई थी, और किराए के मकान में जहां वह रहती थी, वहां उसने खुदकुशी कर ली। आज की ही एक दूसरी खबर है कि जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के परिवार में एक कमउम्र लडक़े ने खुदकुशी कर ली है। ऐसी खबरें चारों तरफ से आती हैं, और दिल दहलाती हैं कि प्रेम, कर्ज, इम्तिहान में नाकामयाबी, परिवार में डांट, मोबाइल फोन न मिलने, मोबाइल गेम न खेलने देने जैसे किसी भी बहुत छोटे मामले को लेकर लोग खुदकुशी करने लगे हैं। इसके लिए न तो कोई उम्र सीमा रह गई है, न आय सीमा। आदिवासी इलाकों में भी हॉस्टल में रह रही छात्राओं की खुदकुशी की खबर तकरीबन हर पखवाड़े या महीने देखने मिलती है। यह नौबत देश में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति बताती है।
हिन्दुस्तान की बात करें तो यहां पर दो पीढिय़ों के बीच खुलकर बात करने के रिश्ते नहीं रहते। नई पीढ़ी अगर अपनी मर्जी से प्रेम और विवाह करना चाहती है, तो उसके मां-बाप, चाचा-ताऊ मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं, और कभी भाड़े के हत्यारों से, तो कभी अपने सामाजिक अहंकार का पेट भरने के लिए अपने हाथों से तथाकथित ऑनरकिलिंग कर देते हैं। ऐसे समाज में नौजवान पीढ़ी अपनी हसरतों को खुलकर किसी के सामने रख भी नहीं पाती। देश में मनोचिकित्सक, मनोवैज्ञानिक परामर्शदाता, या किसी और किस्म के रिलेशनशिप-सलाहकार गिने-चुने हैं। भारत के अधिकतर नौजवानों को अपनी उलझन सुलझाने के लिए कोई जरिया हासिल नहीं है। ऐसे में हम हर दिन कहीं न कहीं एक प्रेमीजोड़े की खुदकुशी की खबर पढ़ते हैं, और अलग-अलग खुदकुशी करने वाले लोग तो एक साथ खबरों में आते भी नहीं हैं। शादीशुदा जिंदगी के रिश्ते इतने हिंसक हो चुके हैं कि पति-पत्नी के बीच शक आकर एक अलग किस्म का त्रिकोण बना देता है, और बात मरने-मारने पर आ जाती है, पहले मार देने, और फिर मर जाने पर। फिर यह भी है कि पति-पत्नी के बीच किसी एक प्रेमी या प्रेमिका के आ जाने से जो खूनी त्रिकोण बनता है, वह आमतौर पर एक या दो के कत्ल करवाता है, और बचे हुए को जेल भिजवाता है। भारत रिश्तों में शक से लेकर रिश्तों के टूटने तक किसी चीज को झेलने की दिमागी हालत में नहीं है, और आने वाले कुछ दशकों में देश की मानसिक स्वास्थ्य सेवा की इतनी क्षमता विकसित होते नहीं दिखती जो कि 140 करोड़ आबादी के बीच पनपती मानसिक कुंठाओं, और हिंसक भावनाओं का कोई इलाज कर सके।
भारत धर्मप्रधान देश है। एक समय यह कृषिप्रधान हुआ करता था, बाद में कृषि, सरकारी समर्थन मूल्य, कर्जमाफी, मुफ्त बिजली, और सरकार के आयात-निर्यात नियमों की मोहताज होकर रह गई। देश में हरितक्रांति जरूर आ गई, लेकिन खेतों में हरियाली लाने वाले किसान सरकार की योजनाओं, चुनावी घोषणाओं, और अंतरराष्ट्रीय व्यापार की नीतियों के सहारे ही रह गए। ऐसे देश में खेती के बाद दूसरे नंबर का सबसे महत्वपूर्ण काम धर्म का है। देश के अलग-अलग हिस्सों में, अलग-अलग धर्मों में, अलग-अलग जातियों में तरह-तरह के धर्म साल भर चलते ही रहते हैं। दुनिया के कुछ विकसित देशों की तरह भारत में अभी लोगों का अनास्थावादी, या नास्तिक होना लोकप्रिय नहीं हुआ है, इसलिए नास्तिकता मोटेतौर पर किताबों तक सीमित है, और असल जिंदगी में अधिकतर लोग धर्मालु हैं। लेकिन जिस तरह एक किताब या फिल्म का नाम है, फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे, भारत में भी लोगों के शंकालु से लेकर धर्मालु तक, और धर्मान्ध से लेकर साम्प्रदायिक होने तक, ऐसे 50 अलग-अलग शेड दिखते हैं।
धार्मिक त्यौहारों की सोचते हुए एक बात लगती है कि किस धर्म, या किस जाति के कौन से त्यौहार कितने उस समुदाय के भीतर के हैं, और कितने सचमुच ही सामाजिक हैं, दूसरे समुदायों के लिए भी हैं। त्यौहारों का ऐसा अनौपचारिक विश्लेषण सुझाता है कि त्यौहारों को कुछ पैमानों पर कसा जा सकता है कि उनका सामाजिक योगदान कितना है। अब जैसे किसी धर्म के किसी त्यौहार का मूल्यांकन करने के लिए यह सोचना चाहिए कि उसे मनाते हुए उस तबके के भीतर अमीर और गरीब का फर्क कितना झलकता है? क्या गरीब भी उस त्यौहार को मना सकते हैं, या फिर वह गरीबों पर महज बोझ रहता है? क्या लोगों के बीच इस त्यौहार पर अपने से कमजोर लोगों की मदद करने की कोई सोच रहती है, या फिर लोग अपने ही परिवार, दोस्तों, और अपने ही आय वर्ग के बीच मस्त रहते हैं? किसी त्यौहार का मूल्यांकन इस पर भी होना चाहिए कि मनाने वाले परिवारों में महिलाओं को कितने हक मिलते हैं? क्या उन्हें सिर्फ पकाने और सजाने का, पूजा और मनाने का अतिरिक्त बोझ ही मिलता है, और उपवास से खाली पेट मिलता है, या फिर खुशियां मनाने में बराबरी का मौका और हक भी मिलता है? यह भी देखा जाना चाहिए कि उस त्यौहार से जुड़ा हुआ उपवास सिर्फ महिलाओं के मत्थे पड़ता है, या फिर चर्बी से लदे हुए मर्द भी एकाध दिन अपने बदन को राहत देते हैं? मूल्यांकन इस बात को लेकर भी होना चाहिए कि त्यौहार मनाने के तौर-तरीके गरीबों पर अधिक भारी पड़ते हैं क्या? फिर यह भी देखना चाहिए कि कौन सा त्यौहार कितना प्रदूषण छोड़ जाता है, नदियों में, तालाबों पर, सडक़ों पर, शामियानों में, कहां-कहां पर वह ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण, धरती और जल प्रदूषण छोड़ जाता है? त्यौहारों को लेकर यह भी देखना चाहिए कि उनमें कट्टरता कितनी है? अंधविश्वास और पाखंड कितना है? वैज्ञानिक पैमानों पर त्यौहार कितने सकारात्मक, और कितने नकारात्मक होते हैं? इन सभी बातों को देखना चाहिए। यह भी देखना चाहिए कि आमतौर पर जो महिलाएं त्यौहार मनाती हैं, उनके परिवार के लडक़े या पुरूष उनका कितना हाथ बंटाते हैं? कुछ बरस पहले की एक तस्वीर याद पड़ती है जिसमें एक नामी-गिरामी टीवी जर्नलिस्ट रहे रवीश कुमार छठ पर सिर पर टोकरी रखे हुए शायद अपनी मां के साथ चलते हुए दिखते हैं। तो किस त्यौहार का बोझ पुरूष भी उठाते हैं?
हमें त्यौहारों का मूल्यांकन करते हुए यह भी सूझता है कि कौन सा त्यौहार दूसरी जाति, या दूसरे धर्म के लोगों के लिए कितना खुला रहता है? दूसरे समुदायों का उनमें कितना स्वागत होता है? बंगाल की याद पड़ती है कि वहां की विश्वविख्यात दुर्गा पूजा में हिन्दू जितने शामिल होते हैं, उतने ही मुस्लिम भी शामिल होते हैं, मूर्तिकार और साज-सज्जा करने वाले मुस्लिम ही अधिक रहते हैं, और वे पूजा के पूरे जलसों में शामिल रहते हैं। वहां पर यह त्यौहार धार्मिक न होकर सामाजिक अधिक रहता है। लोगों को अपने-अपने इलाकों में यह देखना चाहिए कि उनके त्यौहार कितने धार्मिक हैं, और कितने सामाजिक। एक वक्त गुजरात में गरबा पूरी तरह से सामाजिक था, कहीं से यह सुनाई भी नहीं पड़ता था कि उसमें गैरहिन्दू न पहुंचें। लेकिन बाद में माहौल बदलते चले गया, और अब तो ऐसी तख्तियां लगने लगी हैं, और एक सामाजिक त्यौहार पूरी तरह से एक धर्म का त्यौहार हो गया है। हर धर्म को यह हक है कि वह अपने त्यौहारों को अपने समुदाय का रखे, या सभी समाजों का उसमें स्वागत करे, इसमें बिना बुलाए दूसरे धर्म के लोगों को वहां जाकर बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना की तरह डांस नहीं करना चाहिए।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में दो रात पहले छत्तीसगढ़ महतारी की सडक़ किनारे चबूतरे पर स्थापित प्रतिमा किसी ने तोडक़र गिरा दी। इसे लेकर कुछ छत्तीसगढ़ी संगठनों ने बड़ा उग्र प्रदर्शन किया, कांग्रेस के पिछले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इस मुद्दे को लपककर मौजूदा भाजपा सरकार पर बड़ा हमला किया, और मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने कड़ी जांच और कार्रवाई का भरोसा दिलाया। आज सुबह से उस टूटी प्रतिमा की जगह दूसरी प्रतिमा स्थापित की गई, और पहली खबर यह आई है कि किसी मानसिक विक्षिप्त ने यह प्रतिमा तोड़ दी थी। और भी जगहों पर कई बार ऐसा होता है कि कोई विक्षिप्त, या नशेड़ी व्यक्ति किसी प्रतिमा को नुकसान पहुंचा दे। इन दिनों अधिक प्रचलित हो चले सीसीटीवी कैमरों की मेहरबानी से बहुत से मामले पकड़ में आ जाते हैं, और सुबूत की रिकॉर्डिंग भी मिल जाती है।
आज हम इसी एक मामले को लेकर नहीं लिख रहे हैं, बल्कि देश भर में चारों तरफ कहीं महान व्यक्तियों (महापुरूष लिखना लैंगिक असमानता की बात होगी), कहीं किसी धर्म के आराध्य लोगों की प्रतिमाएं लगी रहती हैं, कहीं सडक़ किनारे पेड़ के नीचे सिंदूर पुते पत्थर भी आस्था के प्रतीक रहते हैं, और इन सबकी कोई हिफाजत तो रहती नहीं है। छत्तीसगढ़ महतारी का प्रतीक अभी कुछ बरस पहले ही बना, और उसका उपयोग शुरू हुआ। लेकिन गांधी और अंबेडकर, इन दोनों की प्रतिमाएं देश भर में शायद देश के ताजा इतिहास के लोगों में सबसे अधिक लगी दिखती हैं। और इन दोनों की प्रतिमाओं पर ही जगह-जगह हमले होते हैं, इन्हें तोड़ा-फोड़ा जाता है, चूंकि गांधी को मानने वाले लोग कोई उग्र या आक्रामक समूह नहीं हैं, इसलिए उनकी प्रतिमा टूटने पर हल्ला नहीं मचता, उसे जोड़-जाडक़र खड़ा कर दिया जाता है। अंबेडकर को मानने वाले लोग अनुसूचित जाति में अधिक हैं, और वे इसे अपनी जाति का अपमान मानते हैं, जो कि रहता भी है, और वे लोग तुरंत ही विरोध करने को एकजुट हो जाते हैं। फिर सडक़ किनारे, पेड़तले कुछ किस्म के ईश्वर अधिक संख्या में चारों तरफ रहते हैं, और जब कभी कोई तनाव खड़ा करना रहता है, उस इलाके की ऐसी आस्था-शिलाएं बड़े काम की साबित होती हैं। और तो और कहीं-कहीं किसी थानेदार को हटाने के लिए भी इस तरह का तनाव खड़ा किया जाता है।
छत्तीसगढ़ में अभी इस बात को लेकर भी थोड़ी सी तनातनी चल रही थी कि रेलवे स्टेशनों और रेलगाडिय़ों में छठ के गीत बज रहे हैं, क्योंकि छठ त्यौहार का मौका है। खासकर कुछ ऐसे संगठन, और लिखने वाले, जो कि उग्र क्षेत्रवाद का झंडा उठाकर चलते हैं, उन्हें इस संगीत से याद पड़ा कि छत्तीसगढ़ी त्यौहारों पर तो ऐसा कुछ बजता नहीं है। फिर यह भी है कि दुनिया में कहीं भी उग्र क्षेत्रवाद दूसरे क्षेत्रों के विरोध पर पनपता है, पलता है, और बढ़ता है। इसलिए एक तरफ यह संगीत, और दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ महतारी की प्रतिमा को तोड़ा जाना, इन दोनों ने मिलकर इस मौके पर देसिया और परदेसिया का फर्क भी बयानों में और सोशल मीडिया पोस्ट पर ला दिया। हालांकि छत्तीसगढ़ महतारी इस राज्य का इस तरह का प्रतीक नहीं है कि जिससे कोई भी तबका, किसी भी प्रदेश के लोग, किसी भी जाति या धर्म के लोग चिढ़ सकें। यह प्रतीक जाति-धर्म से परे का है, और इसके साथ कोई परदेसिया-विरोधी जैसी आक्रामक सोच भी जुड़ी हुई नहीं है। इसलिए इस प्रतिमा को किसी वैचारिक विरोध की वजह से तोड़ा गया हो, ऐसा हमें बिल्कुल नहीं लगा था, और शायद ऐसा ही साबित भी होगा।
लेकिन लगे हाथों क्षेत्रवाद के बारे में सोच लेना जरूरी है। जिस देश में राष्ट्रवाद उग्र होता है, और पूरे देश पर एक साथ आक्रामक तरीके से लादा जाता है, वहां पर अलग-अलग इलाकों में मानो प्रतिक्रिया के रूप में क्षेत्रवाद सिर उठाने लगता है क्योंकि उसे अपने अस्तित्व को साबित करने का एक मौका मिल जाता है। फिर राष्ट्रवाद के नीचे जब अलग-अलग इलाकों में इस तरह स्थानीयतावाद, या क्षेत्रीयतावाद पनपने लगता है, तो वह अपने लिए उसी तरह काल्पनिक और अस्तित्वहीन दुश्मन ढूंढ लेने लगता है जैसा कि राष्ट्रवाद अपने लिए ढूंढ चुका रहता है। राष्ट्रवाद से लेकर क्षेत्रवाद तक ऐसे एक काल्पनिक दुश्मन की जरूरत जरूरी रहती है। इसमें थोड़ी दिक्कत तब आ जाती है जब किसी इलाके के घोर उग्रवादी स्थानीयतावादी लोग अड़ोस-पड़ोस के प्रदेशों से भी आए हुए लोगों के चेहरे काल्पनिक दुश्मन के पुतले पर चिपकाने लगते हैं, और फिर एक ही धर्म या एक ही जाति के भीतर भी अलग-अलग क्षेत्र का मुद्दा अधिक हमलावर होने लगता है। इस तरह किसी देश में राष्ट्रवाद की एक नकारात्मक, आक्रामक, और हिंसक प्रतिक्रिया जगह-जगह देखने मिलती है। दुनिया की बहुत सी संस्कृतियां राष्ट्रवाद के ऐसे नुकसान देख, और झेल चुकी हैं, और राष्ट्रवादी उन्माद के नतीजे में क्षेत्रवाद भी जगह-जगह हावी होता है। लोग बोली और पहरावे को लेकर, खानपान और दुकानों के नाम को लेकर, और सार्वजनिक जगहों पर सफाई और संगीत को लेकर छोटे बच्चों की तरह देखादेखी के मुकाबले में उतर आते हैं, और फिर बालिग लोगों की तरह हमलावर हो जाते हैं।
अमरीका में अभी कुछ हफ्तों के भीतर ही एक और सडक़ हादसा हुआ जिसमें भारत से वहां जाकर गैरकानूनी रूप से रह रहे सिक्ख नौजवान जशनप्रीत सिंह ने नशे और लापरवाही की हालत में एक हाईवे पर बुरा एक्सीडेंट किया, सडक़ पर ढेरों गाडिय़ां एक-दूसरे से टकराईं, और इसमें तीन लोग मारे गए। लोगों को याद होगा कुछ हफ्ते पहले भी भारत के ही एक सिक्ख नौजवान ने अमरीका में लापरवाही से बड़ी ट्रक मोड़ी थी, और इसी तरह का एक्सीडेंट हुआ था। आज की ट्रंप सरकार तो देश के बाहर से आए हुए और गैरकानूनी रूप से बसे हुए लोगों को बाहर निकाल रही है, लेकिन ऐसे लाखों लोग वहां पर बसे हुए हैं जो कि अवैध तरीके से घुसे हुए, या रूके हुए हैं, और इनमें से हर महीने हजारों लोग उनके देश भेज दिए जा रहे हैं। भारत में भी अमरीका से निकाले गए, और हथकड़ी-बेड़ी में जकडक़र लाकर यहां छोड़े गए लोगों के शुरू के कुछ विमान तो पंजाब में ही उतरे थे, क्योंकि इनमें वहीं के लोग ज्यादा थे।
जब कभी किसी देश की पहचान लेकर कहीं गए हुए, या वहां बसे हुए लोग कोई गलत काम करते हैं, तो उनके देश की बदनामी भी होती है, और अगर वे धर्म के प्रतीक चिन्ह पहने रहते हैं, तो उनके धर्म की साख पर भी आँच आती है। कोई भी धर्म अपने को मानने वाले लोगों के चाल-चलन से भी पहचाना जाता है, फिर चाहे उस धर्म की किताबें और नसीहतें कुछ और क्यों न कहती हों। भारत से गए हुए लोग ही अमरीका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया में सबसे अधिक संख्या में हैं, या सबसे अधिक खबरों में रहते हैं। वे भारत के खालिस्तानी आंदोलन को भी इन देशों में चलाते हैं, भारत के माफिया गिरोह भी इन देशों तक अपना विस्तार कर चुके हैं, और वहां भी गोलीबारी करवाते रहते हैं, या कत्ल भी। अभी तो कुछ देशों में भारत सरकार के कुछ अफसर भी घिरे हुए हैं कि उन्होंने वहां की जमीन पर भारत के दुश्मन माने जाने वाले लोगों का कत्ल करवाया, या कत्ल करने की सुपारी दी। इन सबसे एक मजबूत लोकतंत्र के रूप में भारत का नुकसान हुआ, जो कि जारी भी है, और इसके अलावा जो लोग इस तरह की हरकतों से जुड़े रहते हैं, उनके धर्म भी नुकसान पाते हैं।
ट्विटर, यानी एक्स के मालिक एलन मस्क ने कल ही एक समाचार की कतरन पोस्ट की है जिसमें फ्रांस में एक विदेशी आप्रवासी ने एक फ्रेंच बच्ची से बलात्कार करके उसका कत्ल कर दिया था, और जब तक मुजरिम को सजा होती, तब तक अपनी बेटी को खोने वाले पिता ने भी नशे में डूबकर जिंदगी खो दी। अब इस एक घटना ने आप्रवासियों के खिलाफ नफरत का एक नया सैलाब ला दिया है। इसी तरह ब्रिटेन में अभी बाहर से आकर बसे कुछ मुस्लिमों ने कुछ जुर्म किए, तो उससे मुस्लिमों के खिलाफ भी नाराजगी फैली, और विदेशी शरणार्थियों के खिलाफ भी। ऐसा दुनिया के कई देशों में हो रहा है, और कुछ देशों में तो वहां की सबसे दक्षिणपंथी पार्टियां ऐसे ही शरणार्थी-मुद्दों को लेकर सत्ता पर आ गईं। भारत में भी आज बांग्लादेश और म्यांमार से आए हुए शरणार्थियों का एक बड़ा मुद्दा चुनावी बहस का सामान बना हुआ है, और धर्म के साथ-साथ राष्ट्रीयता भी निशाने पर है।
लोग जब अपनी पहचान को लिए चलते हैं, तो उन्हें अपनी जड़ों के सम्मान के प्रति अधिक सावधान रहना चाहिए। जब धार्मिक कपड़े, प्रतीक चिन्ह, या झंडे लिए हुए लोग कोई हिंसा करते हैं, तो पहला नुकसान वे अपने ही धर्म की साख का करते हैं, दूसरे लोगों का नुकसान तो बाद में होता है। लोगों को सोशल मीडिया पर यह लिखने का मौका मिलता है कि अगर आपका धर्म आपको हिंसा के लिए उकसाता है, तो आपको एक नए धर्म की जरूरत है, या फिर सारे धर्मों को छोड़ देने की। इसी तरह जब लोग अपनी जमीन से दूर जाकर कहीं और बसकर या रहकर काम करते हैं, तो उनकी हरकतें उनके देश को भी नाम दिलाने या बदनाम करने का काम करती हैं। अब आज दुनिया के दर्जनभर से अधिक देशों से गृहयुद्ध या आतंक की वजह से जो बेदखली चल रही है, और लोग जान बचाकर पश्चिम के देशों में गैरकानूनी तरीके से भी घुसने की कोशिश में अपनी जान दे दे रहे हैं, उससे भी उन देशों में संस्कृतियों का एक टकराव खड़ा हो रहा है, और संकीर्णतावादी-राष्ट्रवादी लोगों को एक बड़ा चुनावी मुद्दा भी मिल रहा है। योरप के कई देशों ने इतनी संकीर्ण पार्टियों की इतनी सफलता कई दशकों में नहीं देखी थीं, जितनी कि आज शरणार्थियों और घुसपैठियों की वजह से, उनका खतरा गिनाते हुए मुमकिन हो पा रही है।
सर्वधर्म समभाव की सोच अच्छी है, लेकिन हर धर्म की सोच एक सरीखी है नहीं। खासकर लोकतंत्र को लेकर कुछ धर्म पश्चिमी लोकतंत्रों का अधिक सम्मान कर पाते हैं, और कुछ धर्म अपने को लोकतंत्रों से ऊपर साबित करने में ही लगे रह जाते हैं। पश्चिम में जहां भी उदार लोकतंत्र दुनिया के शरणार्थियों के प्रति अपनी वैश्विक जिम्मेदारी अधिक हद तक निभाने की कोशिश कर रहे हैं, वहां-वहां उन्हें कुछ देशों से आए हुए, और एक-दो धर्मों वाले ऐसे लोगों की चुनौती झेलनी पड़ रही है जो कि लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों को अपने धर्म के खिलाफ मानते हैं। योरप की संस्कृतियों में बसने के बाद भी कई मुस्लिम देशों से आए हुए लोग अपनी लड़कियों और महिलाओं के लिए अपने देश के घरेलू संस्कृति जारी रखना चाहते हैं, और लोकतंत्र से उनका एक टकराव खत्म होता ही नहीं है। बुर्का से लेकर हिजाब तक, और बाल विवाह से लेकर ऑनरकिलिंग तक बहुत से मामलों में शरणार्थी समुदाय स्थानीय सरकारों से टकराते हैं, और धीरे-धीरे उनके प्रति योरप के स्थानीय लोगों के बीच हमदर्दी खत्म होती जाती है।
दुनिया में वायु प्रदूषण पर आने वाली सालाना ग्लोबल रिपोर्ट के मुताबिक 2023 में वायु प्रदूषण से करीब 80 लाख लोग मारे गए। इनमें से आधे लोग तो भारत और चीन में मरे हैं, 20-20 लाख! दुनिया में होने वाली हर 8 में से एक मौत वायु प्रदूषण की वजह से हुई है। अमरीका और स्विटजरलैंड के प्रतिष्ठित संस्थानों की इस रिपोर्ट का हर बरस इंतजार रहता है, और भारत में जिस तरह किसी भी अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट को पढऩे के भी पहले कचरे की टोकरी में डाल दिया जाता है, वैसा ही कुछ इसके साथ भी होगा, और यह कहा जाएगा कि यह हिन्दू त्यौहार, दीवाली के फटाखों को बदनाम करने की एक और कोशिश है। लेकिन हम किसी धर्म या देश की फिक्र किए बिना वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित इस रिपोर्ट पर फिक्र करना चाहते हैं क्योंकि इन करीब 80 लाख में 90 फीसदी मौतें निम्न और मध्यम आय वाले देशों में हुई हैं। भारत के अलावा बांग्लादेश और पाकिस्तान में भी दो-दो लाख से अधिक मौतें वायु प्रदूषण से हुई हैं, और छोटे से म्यांमार में भी ऐसी एक लाख मौतें दर्ज हुई हैं। यह रिपोर्ट एक भयानक वैज्ञानिक पहलू भी सामने रखती है कि प्रदूषण का असर हवा साफ होने के बाद भी लंबे समय तक बने रहता है, और 2023 में दुनिया में 79 लाख मौतें तो हुई ही हैं, 23 करोड़ से अधिक स्वस्थ जीवन वर्ष भी बर्बाद हुए हैं, यानी लोगों की जिंदगी में इतने बरसों के बराबर की उम्र घट गई है।
भारत धार्मिक प्रदूषण को धार्मिक स्वतंत्रता मानकर चलता है। सडक़ों पर फटाखे और आतिशबाजी, वायु प्रदूषण से परे के ध्वनि प्रदूषण और अब रौशनी के प्रदूषण भी शहरों का जीना हलाकान कर रहे हैं। लोग धर्मोन्माद में डूबे हुए न अपने फेंफड़ों की फिक्र करते, और न ही अपने जाने वाले बुजुर्गों की, और अभी-अभी आए हुए बच्चों की। हालांकि राम के लौटने पर अयोध्या में जो पहली दीवाली मनाई गई थी, उस वक्त बारूद या फटाखे नहीं थे, और घी-तेल के दीयों ने अयोध्या को बहुत अच्छी तरह रौनक किया होगा, आज तो हाल यह कि किसी मोहल्ले या कॉलोनी में लोग घंटे भर की मेहनत के बाद अपने घर के चारों तरफ दीये जलाते हैं, और पड़ोस में कोई एक बड़े धमाके वाला बम पल भर में सारे दीये बुझा देता है। अब अगर चीनी झालरों की रौशनी है तब तो ठीक है, वरना अयोध्या की शैली के दीयों का जलना अब मुश्किल है क्योंकि जिनके पास जितना दम है, उनके पास उतना बड़ा बम है। सुप्रीम कोर्ट इस कदर बेफिक्र और बेअसर हो चुका है कि उसकी लगाई रोक को दिल्ली की गली-गली में पैरोंतले कुचला जाता है, और कोर्ट के बदन पर, उसके आत्मसम्मान और स्वाभिमान पर कोई खरोंच भी नहीं आती, क्योंकि उसे मालूम है कि खरोंचों के जख्म दिखाना धर्म के खिलाफ मान लिया जाएगा। इस बार के दिल्ली के आंकड़े बताते हैं कि बीते कई बरसों में कभी दीवाली पर इतना वायु प्रदूषण नहीं था।
कुछ लोगों को यह लगता है कि दीवाली के आसपास की बारूदी हवा एक-दो दिन फेंफड़ों को परेशान करती है, और उसके बाद उसका असर खत्म हो जाता है। ऐसे लापरवाह लोगों को चिकित्सा विज्ञान बताता है कि वायु प्रदूषण सिर्फ सांस की बीमारी तक सीमित नहीं है, बल्कि उससे डायबिटीज, हृदय रोग, और डिमेंशिया जैसी दिमागी बीमारी भी जुड़ी हुई हैं। 2023 की इस रिपोर्ट से पता लगता है कि दुनिया में इस बरस वायु प्रदूषण से हुए डिमेंशिया से ही सवा 6 लाख से अधिक लोग मरे, और एक करोड़ 16 लाख स्वस्थ जीवन-वर्ष खत्म हो गए। अब ऐसी बीमारियों की लिस्ट को कितना गिनाएं कि वायु प्रदूषण से सेहत का कैसा-कैसा नुकसान हो रहा है। हृदय रोग से होने वाली हर चौथी मौत वायु प्रदूषण की वजह से हो रही है, और डायबिटीज की हर छह में से एक मौत भी इसी वजह से।
मोदी सरकार के नीति आयोग के मुखिया रहे अमिताभ कान्त ने अभी दीवाली पर दिल्ली के प्रदूषण को देखते हुए एक बड़ी तल्ख टिप्पणी की थी, और अपनी निराशा जाहिर की थी कि सुप्रीम कोर्ट ने सांस लेने और जीने के हक के ऊपर लोगों के फटाखे फोडऩे के हक को रखा। अब हालत यह है कि दिल्ली में वायु प्रदूषण को कम करने के लिए सरकार कृत्रिम वर्षा की तैयारी कर रही है, जिसके बारे में वैज्ञानिकों को गंभीर संदेह है कि इससे कोई भी फायदा होगा। यही दिल्ली सरकार, और यही केन्द्र सरकार फटाखों के हक के लिए सुप्रीम कोर्ट में लड़ती रहीं, और यह कैसी लोकतांत्रिक विसंगति है कि फेंफड़ों और फटाखों में से किसी एक को छांटने की नौबत आने पर इन सरकारों ने फटाखों को छांटा! और इन दिनों सुप्रीम कोर्ट के जज और मुख्य न्यायाधीशों में ईश्वरीय-दैवीय प्रेरणा से फैसले लिखने का चलन मान्यता पा चुका है, तो जज फेंफड़ों को भगवान भरोसे छोड़ देते हैं, और ग्रीन फटाखों के नाम पर रईसों और कारोबारियों को मनमानी करने देते हैं। जजों को उनके बंद एसी-बंगलों से निकालकर दीवाली की रात दिल्ली की अलग-अलग संपन्न हिन्दू बस्तियों में सडक़ किनारे बैठाना चाहिए, तभी उन्हें हकीकत का अहसास होगा, और उनके फैसले दैवीय या अलौकिक होने के बजाय हकीकत पर टिके होंगे।
अमरीका में रक्षामंत्री को अब युद्धमंत्री का पदनाम दिया गया है। राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप नोबल शांति पुरस्कार के लिए ओवरटाईम कर रहे हैं, दुनिया को धमका रहे हैं, बांह मरोड़ रहे हैं, और इसके साथ-साथ वे रक्षामंत्री को अब युद्धमंत्री का पदनाम दे चुके हैं। दुनिया के अलग-अलग बहुत से मोर्चों पर अमरीकी हितों की रक्षा करने के बजाय अब अमरीकी सेना का प्रभारी मंत्री युद्धमंत्री कहला रहा है, जाहिर है कि इस सरकार और इस फौज का क्या नया रूख रहेगा। ऐसे में अभी कुछ दिन पहले युद्धमंत्री पीटर हेगसेथ ने यह कहा कि अमरीका अपने फौजियों के बाल कटवाने जा रहा है, और दाढ़ी मुंडवाने जा रहा है। उन्होंने कहा कि गैरपेशेवर दिखने का युग खत्म हो गया है, और अब फौज में दाढ़ी वाले लोग नहीं रहेंगे। इसका विरोध करते हुए अमरीका के एक सांसद थामस आर.सुओजी ने रक्षामंत्री को लिखा है कि यह सिक्खों और मुस्लिमों को फौज के बाहर का रास्ता दिखाने का काम होगा। पिछले महीने ही यह निर्देश जारी हो चुका है, और धार्मिक आधार पर सिक्खों, मुस्लिमों, यहूदियों, और दूसरे धार्मिक अल्पसंख्यकों को दाढ़ी और बाल या पगड़ी बनाए रखने की इजाजत खत्म की जाती है।
अमरीका और भारत में सिक्खों ने इस फौजी फैसले का बहुत विरोध किया है, और मुस्लिम संगठनों ने भी ऐसी ही प्रतिक्रिया दर्ज की है। अगर अमरीकी सरकार इस फैसले पर अड़ी रहती है, तो अपनी धार्मिक मान्यताओं को कड़ाई से मानने वाले सैनिकों के पास फौज छोडऩे के अलावा और कोई विकल्प नहीं रहेगा, और फौज में इन धर्मों के नए लोग जा भी नहीं पाएंगे। यह फैसला ट्रंप के चुनावी नारों से लेकर राष्ट्रपति बनने के बाद के उनके फैसलों तक कई बातों में दिखते रहा है। अमरीका में देश के बाहर से आए हुए लोग कैसे घटाए जा सकते हैं, इस पर ट्रंप रात-दिन मेहनत कर रहे हैं। फौज से इन धर्मों के लोगों को अगर हटना पड़ता है, तो जाहिर है कि उनमें से कई लोग देश छोडक़र जाने की भी सोचेंगे, और वह ट्रंप की गोरी नीतियों को माकूल भी बैठेगा। दिलचस्प बात यह है कि अभी जब जर्मन चांसलर ट्रंप से मिले, तो उन्होंने ट्रंप को उनके पिता का जर्मनी का जन्म प्रमाणपत्र तोहफे में दिया। बहुत से लोगों का यह मानना है कि यह तोहफा एक किस्म का व्यंग्य था कि ट्रंप खुद अमरीका में बहुत पुराना नहीं है, और उसके पिता तो जर्मनी में पैदा हुए थे। ट्रंप लगातार धर्म, नस्ल, रंग, और राष्ट्रीयता के आधार पर जो भेदभाव करते चल रहा है, फौज को लेकर उसका यह फैसला उसी की एक कड़ी है। लेकिन अमरीका में जो लोकतंत्रवादी हैं, वे इस बात को अच्छी तरह समझ रहे हैं कि ट्रंप किस तरह, और किस हद तक अमरीकी जनजीवन में विविधता को खत्म करते चल रहा है, और वह इस देश को पूरी तरह से एक गोरा और ईसाई देश बनाने पर आमादा है।
अमरीका के लोकतंत्र और वहां की जिंदगी के हर दायरे में विविधता का ही एक सबसे बड़ा योगदान रहा। दुनिया भर से वहां पहुंचने वाले प्रतिभाशाली लोगों ने मिलकर ही अमरीका को कामयाब बनाया। हर प्रतिभा को बढ़ावा देते हुए उसका इस्तेमाल करके अमरीकी अर्थव्यवस्था आसमान पर पहुंची। ऐसे मेल्टिंग पॉट कहे जाने वाले देश को आज जिस तरह से एक धर्म, एक रंग, और कुल दो जेंडर तक सीमित किया जा रहा है, उसका बड़ा नुकसान अमरीका को आने वाले बरसों में होगा, और कुछ अर्थशास्त्री इस खतरे के बारे में लिख भी रहे हैं। आज अमरीका को ट्रंप के विविधता-विरोधी रूख के नुकसान का ठीक-ठीक अंदाज इसलिए नहीं लग रहा है कि आज पूरी दुनिया में ट्रंप एक बिफरे हुए सांड की तरह (सांड से माफी के साथ) तबाही कर रहा है, और दुनिया भर पर टैरिफ, दुनिया भर से रिश्तों में उठा-पटक की वजह से खुद अमरीका की जिंदगी और वहां के कारोबार में एक ऐसा रेतीला -धूलभरा अंधड़ आया हुआ है कि लोगों को आज नुकसान और खतरा दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। लेकिन अमरीकी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने, और अमरीकी लोगों के लिए रोजगार को अधिक बचाकर रखने के नाम पर ट्रंप जो कुछ कर रहा है, उससे अमरीका का ही बड़ा नुकसान हो रहा है। दुनिया भर से वहां पहुंचे हुए लोग जितने मेहनतकश रहते हैं, जितनी कम तनख्वाह या मजदूरी पर काम करते हैं, अपने देशों से हुनर सीखकर वहां आए रहते हैं, वह सब अमरीका में आज आसानी से हासिल नहीं है। कोई अमरीकी उतना हुनर सीखकर, उतने कम पैसों पर उतनी मेहनत करने के लिए शायद ही तैयार होंगे। लेकिन इससे ट्रंप अपनी एक नफरती जिद तो पूरी कर ही रहा है कि अमरीका में दूसरी राष्ट्रीयता, दूसरी नस्ल से आए हुए लोगों की गिनती घटानी है। अमरीकी फौज से ट्रंप ने ट्रांसजेडरों को पहले ही बाहर कर दिया है, और अमरीका में कुल दो ही सेक्स को मान्यता दी है। लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ जाकर इस पुरातनपंथी फैसले से ट्रंप अमरीका में सदियों से धीरे-धीरे स्थापित मूल्यों को खत्म कर रहा है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर कई बार किसी एक देश का मीडिया सच से ऊपर अपने देश के रणनीतिक हितों को रखते हुए झूठी खबरें भी फैलाने में लग जाता है, और यह पत्रकारिता के प्रति ईमानदारी के बजाय राष्ट्रवाद या राष्ट्रप्रेम को महत्व देना मान लिया जाता है। ऐसे में आज जब झूठी खबरें, या वीडियो गढक़र फैलाना आम हो चला है, और एआई का इस्तेमाल ऐसी चुनिंदा खबरों को चारों तरफ फैलाने में किया जा रहा है, तो सच और झूठ का फर्क कर पाना थोड़ा मुश्किल रहता है। सोशल मीडिया पर आई खबरें यह पता नहीं लगने देतीं कि उनमें खबर क्या है, और झूठ क्या है। फिर सोशल मीडिया एक अलग सिद्धांत पर काम करता है कि जब तक कोई झूठ का भांडफोड़ करे, तब तक उसे इतनी जगह, इतने दूर तक फैला दो कि भांडाफोड़ वहां तक पहुंच ही न सके। हम खबरों के धंधे में होने की वजह से सोशल मीडिया पर जाने-माने लोगों के फैलाए हुए ऐसे झूठ लगातार देखते हैं, जो कि सोच-समझकर फैलाए जाते हैं। उनका यह मकसद होता है कि बाद में चाहे भांडाफोड़ हो जाए, लेकिन तब तक वे जंगल की आग की तरह दूर-दूर तक फैल चुके रहें।
ऐसे में अभी बांग्लादेश की एक खबर आई है, जिसे हम किसी भरोसेमंद समाचार स्रोत पर नहीं ढूंढ पा रहे हैं। इसलिए इस खबर पर शक के साथ ही इस पर चर्चा कर रहे हैं। इसके मुताबिक आज की बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के वरिष्ठ सलाहकार आसिफ महमूद शोजिब भुयान ने अभी सोशल मीडिया पर कहा है कि बांग्लादेश में इस्लामिक रिवोल्यूशनरी आर्मी (आईआरए) की स्थापना चल रही है। इसके लिए कुछ पाकिस्तान समर्थक अधिकारियों के साथ-साथ पाकिस्तान की मिलिट्री इंटेलीजेंस (आईएसआई), और तुर्की की एक एजेंसी (एमआईटी) के प्रतिनिधि बांग्लादेश के चुनिंदा सैनिकों को ट्रेनिंग दे रहे हैं। इस खबर में भारतीय अफसरों के नाम बिना लिखा गया है कि भारत इसे बांग्लादेश को इस्लामी राज्य में बदलने के एक कदम की तरह देख रहा है। खुफिया एजेंसियों और सुरक्षा एजेंसियों के कामकाज की खबरों में दिलचस्प यही रहता है कि किसी स्रोत का जिक्र नहीं रहता। फिर भी हम यह मानकर चल रहे हैं कि यह खबर सच हो सकती है क्योंकि बांग्लादेश आज जितनी उथल-पुथल से गुजर रहा है, और हाल के महीनों में पाकिस्तान के साथ उसके रिश्ते जितने सुधरे हैं, और गाढ़े हुए हैं, उनमें यह बिल्कुल मुमकिन है। दूसरी तरफ तुर्की आज के वक्त में मुस्लिम देशों का एक बड़ा हिमायती होकर खड़ा है, और भारत-पाकिस्तान के किसी भी संघर्ष और तनाव में वह पाकिस्तान के साथ खुलकर है। ऐसे में अगर तुर्की एक नया बांग्लादेश बनाने में ढाका के साथ है, तो उसमें भी कोई हैरानी नहीं होगी।
अब भारत के लिए ऐसी नौबत में फिक्र की बात यह है कि बांग्लादेश पिछले उथल-पुथल के बाद से जिस तरह अस्थिर चल रहा है, और वहां पर भारतविरोधी माहौल जितना आक्रामक है, वह भारत के लिए अच्छा नहीं है। एक तरफ श्रीलंका अलग किस्म की अस्थिरता से गुजर रहा है, और पाकिस्तान का भी कई मायनों में ऐसा ही हाल है, बल्कि वह तो अपने कुछ हिस्सों में गृहयुद्ध सा झेल रहा है। भारत का एक और पड़ोसी म्यांमार फौजी और अलग किस्म के आतंकी गृहयुद्ध को झेल रहा है, और उसका दबाव भारत पर है। फिर एक बात यह भी ध्यान रखने की है कि भारत के ये सारे ही पड़ोसी देश चीन के प्रभाव में हैं, और भारत के मुकाबले चीन की दखल वहां पर बहुत अधिक है। सबसे ताजा अस्थिर देश नेपाल वहां पर भारतविरोधी भावनाओं को देख रहा है, और वहां की नई नौजवान पीढ़ी भारत के सख्त खिलाफ दिख रही है जो कि हाल के इस सत्ता पलट की जिम्मेदार रही है। इस तरह भारत के अड़ोस-पड़ोस का एक भी देश ऐसा नहीं रह जाता जिसका कोई भी वजन हो, और जो भारत के साथ हो। भूटान किसी रणनीतिक महत्व का नहीं है, और वह चीन और भारत के बीच एक संतुलन बनाकर चलता है।
लोग जिंदगी के बारे में कहते हैं कि वह हमेशा इंसाफपसंद नहीं रहती, लाईफ इज नॉट ऑलवेज फेयर। होता भी यही है, बहुत से लोगों को जिंदगी में तकलीफें इतनी अधिक झेलनी पड़ती हैं कि लगता है कि जिंदगी उनसे कोई बदला निकाल रही है। अब यह मामला इंसानी जिंदगी से बढक़र आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस तक पहुंच गया है। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक रिसर्च से एआई मॉडल्स की एक कमजोरी पता लगी है कि जब इन्हें सिर्फ जीतने, अधिक लोकप्रिय बनाने, या अधिक टिप्पणी, लाईक्स, शेयर हासिल करने के मुकाबले में उतारा जाता है, तो ये सच को छोडक़र आगे बढ़ जाते हैं। इनमें से कोई भी काम करने के लिए, या किसी सामान को किसी भी तरह बेचने के लिए, किसी चुनाव में वोट बंटरोने के लिए, या सोशल मीडिया पर किसी इश्तहार की तरफ लोगों का ध्यान खींचने के लिए जब आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को झोंका जाता है, तो वह नैतिक-अनैतिक में फर्क छोड़ देता है, झूठ बोलने से उसे कोई परहेज नहीं रहता, वह चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर बताने लगता है, और गलत जानकारी देने में भी उसे कोई बुराई नहीं लगती क्योंकि उसे मुकाबला करना है। एआई इस तरह के मुकाबलों में जितना कामयाब होता है, उतने ही अधिक अनैतिक तौर-तरीके उसने इस्तेमाल किए होते हैं। ऐसा लगता है कि मानो कोई बाजारू कारोबारी धंधे के मुकाबले में कुछ भी नैतिक-अनैतिक नहीं मान रहा, और सही-गलत कुछ भी करके आगे बढ़ रहा है।
बच्चों से लेकर बड़ों तक खेला जाने वाला भारत में हिन्दीभाषियों के बीच जिसे व्यापार कहा जाता है, वह अंग्रेजी में मोनोपोली कहलाता है, यानी एकाधिकार। बचपन में खेले गए व्यापार की कुछ याद अभी तक ताजा है, और वह बताती है कि किस तरह रेलवे के साथ-साथ एयरलाईंस भी खरीद लेने वाले कारोबारी के सामने से निकलने के लिए अधिक भुगतान करना होता है, और इसके साथ-साथ बस सर्विस और शिप भी किसी ने खरीद ली है, तो उसका एकाधिकार उसे कई गुना अधिक कमाई दिलाता है। आज से 50 बरस पहले हमने व्यापार खेलते हुए जिन बातों को देखा था, वह आज हिन्दुस्तान में अडानी जैसी कंपनियां सचमुच ही कर रही हैं, एयरपोर्ट, बंदरगाह, रेलवे स्टेशन, खदान, बिजलीघर, और भी जाने क्या-क्या। अभी अमरीका में ट्रंप के एक सबसे पसंदीदा कारोबारी का नाम चीनी कंपनी टिकटॉक के संभावित अमरीकी भागीदार का नाम सामने आया जो कि एक-एक करके अमरीका के तमाम महत्वपूर्ण और संवेदनशील कारोबारों में दखल दे चुका है, और अब वह टिकटॉक को कंट्रोल करने वाला भी होने जा रहा है। उसने अभी एक इंटरव्यू में यह कहा कि जिस व्यापार में एकाधिकार न किया जा सके, वह कोई व्यापार ही नहीं होता।
अब आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को कोई तोहमत क्यों दी जाए, क्योंकि यह तो आज की ताकतवर ह्यूमन इंटेलीजेंस भी कह रही है। और ट्रंप के पसंदीदा लोगों से यह उम्मीद तो उन लोगों के परिवार, या ट्रंप, किसी को भी नहीं होगी, कि वे सच ही बोलेंगे, और नैतिक काम ही करेंगे। खुद ट्रंप ऐसी नैतिक सोच से कोसों दूर है, और नैतिकता कहीं दिख जाए तो ट्रंप अपनी बुलेटप्रूफ कार से उतरने को तैयार नहीं होता। ऐसे में एआई ने अगर चुनाव के लिए वोट जुटाने, सामान के लिए ग्राहक जुटाने, सोशल मीडिया पोस्ट के लिए वाहवाही जुटाने के लिए अनैतिक काम किया, तो वह तो साफ-साफ ट्रंप का असर दिख रहा है। यह एक अलग बात है कि ट्रंप ने आज अमरीकी विश्वविद्यालयों पर जो आतंक फैलाने की कोशिश की है, तो कई जगहों पर शोधकर्ता एआई की नैतिकता को ट्रंप की अनैतिकता से जोडक़र देखने की हिम्मत नहीं कर पाएंगे।


