संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : महिलाओं को कत्ल का हक मिले, यह मांग देश में किस किस्म की सोच बताती है?
09-Mar-2025 4:10 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : महिलाओं को कत्ल का हक मिले, यह मांग देश में किस किस्म की सोच बताती है?

महाराष्ट्र की शरद पवार वाली एनसीपी के नेता एकनाथ खड़से की बेटी, और पार्टी की महिला विंग की अध्यक्ष रोहिणी खड़से ने राष्ट्रपति को एक चिट्ठी लिखकर मांग की है कि महिलाओं को एक हत्या करने की छूट दी जाए। उन्होंने भारत पर एक सर्वे रिपोर्ट का यह निष्कर्ष लिखा है कि महिलाओं के लिए यह देश सबसे असुरक्षित है, उनके खिलाफ रेप, अपहरण, और घरेलू हिंसा जैसे जुर्म लगातार होते हैं। रोहिणी की इस चिट्ठी पर महाराष्ट्र के एक मंत्री, गुलाब राव पाटिल ने पूछा है कि रोहिणी खड़से को यह बताना चाहिए कि वे किसकी हत्या करेंगी? अब एक महत्वपूर्ण पार्टी के नेता की बेटी, और अपने आपमें पार्टी की महिला शाखा की प्रदेश अध्यक्ष अगर यह मांग करती है, तो इससे महाराष्ट्र प्रदेश, और बाकी देश में महिलाओं की स्थिति को लेकर महिलाओं के बीच की सोच झलकती हो या न झलकती हो, कम से कम यह तो झलकता ही है कि राजनीति की एक सक्रिय और महत्वपूर्ण महिला पदाधिकारी हत्या करने का हक मांग रही है, फिर चाहे यह हक बलात्कारी के खिलाफ ही क्यों न हो?

हम इसे सिर्फ भावनाओं का विस्फोट नहीं कहते, क्योंकि कुछ राज्यों ने तो कुछ किस्म के बलात्कारियों को मौत की सजा देने का प्रावधान किया ही है, लेकिन यह सजा अदालत से मिलती है, और इस पर अमल जेल में सरकारी जल्लाद करते हैं, या हक आम लोगों को हिसाब चुकता करने के लिए नहीं मिलता। ऐसे में हत्या का हक मांगना एक बड़ी अटपटी और अलोकतांत्रिक बात है। इससे कुछ कम दर्जे की बात मध्यप्रदेश में भाजपा के मुख्यमंत्री डॉ.मोहन यादव ने दो-चार दिन के भीतर ही की है, और उन्होंने कहा है कि धर्मांतरण करने वालों के लिए मध्यप्रदेश में मौत की सजा का कानून बनाया जाएगा। अब धर्मांतरण के खिलाफ तो कई प्रदेशों में अलग-अलग कानून है, और पूरे देश में भी एक कानून है, लेकिन इसे मौत की सजा के लायक करार देने के पहले यह भी समझने की जरूरत है कि भारत में पुलिस और न्याय व्यवस्था में कितने किस्म की खामियां हैं, और किस तरह से लोग दस-बीस बरस बाद भी मिले नए सुबूतों से, या कि डीएनए जांच की वजह से छूट पाते हैं। और अगर ऐसे में धर्मांतरण के कथित मामलों में अगर पुलिस अपने आज के आम रूख के मुताबिक एक फर्जी केस बना लेगी, तो किसी बेगुनाह को भी फांसी की सजा दिलवा देना मुमकिन हो सकता है। पहली नजर में तो हमारा यह ख्याल है कि एमपी के सीएम की यह सोच देश की सबसे बड़ी अदालत में खड़ी नहीं हो पाएगी, और धर्मांतरण के मामले को मौत की सजा के लायक नहीं ठहराया जा सकेगा, फिर चाहे ऐसा कोई कानून मध्यप्रदेश की विधानसभा में क्यों न बना दिया जाए। ऐसा कानून एक दहशत पैदा करने के लिए, या राजनीतिक प्रचार के लिए तो शायद काम आ सकता है, लेकिन यह किसी को ऐसी सजा शायद ही दिलवा सके।

महाराष्ट्र में अभी एक बारह बरस की बच्ची से बलात्कार हुआ, और शायद उसी की वजह से वहां की एक महिला नेता ने बलात्कारी को मारने का हक मांगा है, लेकिन पूरा देश जिस तरह से मासूम बच्चियों पर, और कमजोर समाज की महिलाओं पर बलात्कार देख रहा है, वह अपने आपमें भयानक है, लेकिन फिर भी लोकतंत्र में इसे कत्ल करने लायक नहीं कहा जा सकता। दरअसल लोकतंत्र में किसी को भी कत्ल का हक नहीं मिल सकता, फिर चाहे वे बलात्कार की शिकार लडक़ी के परिवार के लोग ही क्यों न हों, या कि कत्ल के शिकार हुए किसी व्यक्ति के घर के लोग क्यों न हों। लोकतंत्र कभी भी आनन-फानन इंसाफ देने वाली व्यवस्था नहीं रही है, और लोगों को इससे फौजी या तानाशाही हुकूमत की तरह की तुरत-इंसाफ की उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए। लोकतंत्र एक बहुत महंगी, धीमी, और लचीली व्यवस्था रहती है जिसमें लोकतंत्र को कुचलने वाली ताकतों के लिए भी बने रहने की गुंजाइश रहती है। अलोकतांत्रिक ताकतों को भी लोकतंत्र में रहने की छूट उसी तरह रहती है जिस तरह कुछ धर्मों के भीतर नास्तिकों को भी रहने की छूट रहती है। इसलिए जुर्म के शिकार लोगों को कत्ल का अधिकार देने की सोच तालिबानी है। दुनिया के कुछ देशों में ऐेसे परिवारों को मुजरिम से मोटी रकम, ब्लड मनी लेकर उन्हें माफ कर देने की छूट रहती है, लेकिन लोकतंत्रों में ऐसा नहीं होता है।

लोकतंत्र के साथ एक दिक्कत यह रहती है कि वह सौ गुनहगारों के छूट जाने की कीमत पर भी एक बेगुनाह को सजा देने के खतरे से बचता है। न्याय व्यवस्था पूरी तरह से शक से परे साबित होने की शर्त पर चलती है। इसलिए हिन्दुस्तान में बहुत से लोगों को यहां की न्याय व्यवस्था बेइंसाफ लगती है, कुछ को लगता है कि राजनीतिक ताकतों के सामने अदालतें बेअसर रहती हैं, कुछ को लगता है कि अपार पैसा रहे तो देश के सबसे महंगे वकील पुलिस के सुबूत खरीद पाते हैं, गवाह तोड़ पाते हैं, सरकारी वकील को भी मैनेज कर पाते हैं, और उनका बस चले तो जज को भी खरीद लेते हैं। जब आम लोगों के बीच सोच इतनी निराशाजनक रहती है, तो उनको यह बात अच्छी लग सकती है कि बलात्कारी को चौराहे पर फांसी दी जाए, गुंडों की आंखें फोड़ दी जाएं, और अदालत का दस-बीस बरस तक इंतजार न किया जाए।

भारत जैसे लोकतंत्र में न्याय व्यवस्था की साख और उसका रूतबा दुबारा कायम करने की जरूरत है। आज तो अदालतों में जिस तरह आखिरी फैसले के इंतजार में एक पूरी पीढ़ी निकल जाती है, बेकसूर फैसले की राह तकते जेल में ही मर जाते हैं, या मुजरिम निचली अदालत से मिली सजा के बाद ऊपरी अदालतों में अपील के चलते जमानत पर ही छूटे हुए मर जाते हैं, उससे न्याय व्यवस्था के बेअसर होने की बात पुख्ता होती जाती है। और ऐसे में नेताओं और सरकारी अफसरों के भ्रष्टाचार, लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ हिंसक जुर्म के मामले इतने अधिक आ रहे हैं कि लोगों को सिर्फ जुर्म होते दिखते हैं, इंसाफ होते नहीं दिखता। यह नौबत बदली जानी चाहिए। जब लोगों का अदालतों पर भरोसा नहीं रहेगा, तो सरकारों पर भी भरोसा नहीं रहेगा, और संसद या विधानसभा पर से भी भरोसा उठ जाएगा। लोकतंत्र सौ फीसदी नियम-कानून से बांधकर चलाई जाने वाली व्यवस्था नहीं है। इसका बहुत सा हिस्सा अच्छी परंपराओं, और लोकतांत्रिक मूल्यों से भी चलता है, लोगों के खुद होकर कानून मानने से भी चलता है, लेकिन जब तक लोगों के मन में लोकतंत्र के प्रति आस्था नहीं होगी, तब तक वे अपने देश-प्रदेश के कानून को मानेंगे भी नहीं। भारतीय लोकतंत्र टुकड़े-टुकड़े में बहुत बुरी तरह खोखला हो गया है, और इस नौबत को सुधारने की बहुत जरूरत है।

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