संपादकीय

सरकार और कारोबार के मुकाबले देखने लायक रहते हैं, एक-दूसरे से नहीं, आपस में, अपने ही भीतर। सरकार बनाने के लिए राजनीतिक दल जिस किस्म के गठबंधन बनाते हैं, वह देखने लायक रहते हैं। सांप और नेवले मिलकर बच्चे पैदा करने लगते हैं, और उनका रूप-रंग कैसा रहेगा, उम्र कितनी लंबी रहेगी, खूबियां और खामियां क्या रहेंगी, इसकी कोई परवाह नहीं की जाती। फिर भारतीय राजनीति में एक नीतीश कुमार हुए हैं जो जिंदगी में कई बार जिंदगी का आखिरी दलबदल कर चुके हैं, और जिनकी सेहत और आदतें ऐसी हैं कि उनकी जिंदगी अभी भी खासी लंबी बची हुई है। वे कई बार और जिंदगी का आखिरी दलबदल कर सकते हैं। सरकार बनाने के लिए, सरकार में बने रहने के लिए, और खासकर मुख्यमंत्री बने रहने के लिए भारतीय राजनीति के बाजार में जो मुकाबला करना पड़ता है, उसमें नीतीश का मुकाबला वहीं बिहार के रामविलास पासवान से रहा है। पासवान की हालत मौसम विभाग के टांगे गए पजामे सरीखी रही जो कि हवा का रूख बताता है, और पासवान जाने कितनी ही सरकारों में लगातार शामिल रहे। राजनीति में कामयाबी या उसके हाशिए पर चले जाना, यह एक बड़ा कड़ा मुकाबला रहता है। और आज जिस दूसरे मुद्दे पर हमने यह चर्चा शुरू की है, वह है कारोबार का, कारोबार में भी कब लोग किनारे लग जाते हैं, इसका कोई ठिकाना नहीं रहता। एक वक्त मोबाइल बाजार पर नोकिया का तकरीबन आधा कब्जा था, और अब वह एक फीसदी भी नहीं रह गया। एक वक्त ब्लैकबेरी मोबाइल बाजार का सबसे प्रतिष्ठित ब्राँड था, आज उसके फोन पेपरवेट की तरह पुरानी यादों को ताजा रखने के काम आते हैं। राजनीति और बाजार, इन दोनों में टिके रहने के लिए रात-दिन की न सिर्फ मेहनत लगती है, बल्कि बड़ी कल्पनाशीलता भी लगती है, और मुकाबले में टिके और डटे रहने के लिए एक हौसला भी लगता है।
वैसे तो राजनीति एक कारोबार भी है, और कारोबार मोटेतौर पर राजनीति से आगे बढऩे वाला धंधा है। आज दुनिया के सबसे बड़े कारोबार अपने देश, या किसी दूसरे देश की सरकार की मेहरबानी से ऐसा एकाधिकार पाते हैं, कि दूसरे कारोबारी उनके मुकाबले टिक नहीं पाते। खुद हिन्दुस्तान में देखें तो एयरपोर्ट और स्टेशनों जैसी सार्वजनिक संपत्तियां, या खदानों जैसे अंधाधुंध कमाई के प्राकृतिक स्रोत सरकार की मेहरबानी से ही मिल और चल पाते हैं। अब अमरीका में दुनिया के इतिहास का ऐसे घालमेल का सबसे बड़ा उदाहरण सामने आया है जब सरकार के साथ सबसे बड़ा कारोबार करने वाला एलन मस्क आज अघोषित रूप से अमरीका की सरकार चला रहा है। भारत में इंदिरा गांधी के वक्त उनके बेटे संजय गांधी की संविधानेत्तर सत्ता की मिसाल को छोड़ दें, तो कहीं और ऐसा नहीं हुआ था कि शासन प्रमुख की कुर्सी के बगल में खड़ा हुआ व्यक्ति, संसद और सरकार के प्रति किसी भी जवाबदेही के बिना सरकार चला रहा हो, और बाकी दुनिया को भी चलाने की भी हर कोशिश कर रहा हो। इसलिए एलन मस्क ने इस मुकाम पर पहुंचने के पहले कारोबार में जितने किस्म के मुकाबले किए हैं, और जीते हैं, उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के चुनाव पर हर दिन एक मिलियन डॉलर का ईनाम रखने वाले मस्क के पास उतना पैसा पहले से था, तभी ट्रंप की नजरों में भी उसकी कीमत थी। लोग कारोबारी मुकाबले से सरकार तक पहुंच रहे हैं, और सरकार अपने दोस्तों के मार्फत कारोबार तक विस्तार करती है। कुछ लोग इसे क्रोनी कैपिटलिज्म कहते हैं, लेकिन राजनीति और कारोबार इन दोनों के गलाकाट मुकाबले का मिजाज ही ऐसा है कि वहां जंगलराज की तरह सबसे कामयाब, सबसे ताकतवर का अस्तित्व ही बचे रहता है।
भारत की राजनीति पर लौटें तो यह दिखता है कि एक वक्त उत्तर भारत में चुनावी बाजार में नोकिया की तरह कामयाब रही हुईं मायावती का आज का हाल नोकिया के आज के मार्केट शेयर जैसा ही रह गया है। एक वक्त देश के तीन राज्यों में फौलादी पकड़ रखने वाले वामपंथियों के पास आज न हँसिया बचा है, और न हथौड़ा, धान की बाली इतनी ही बच गई है कि उसके कुछ नेता बची जिंदगी दो वक्त की रोटी शायद खा लें, और चूंकि इन नेताओं ने जीवनशैली खर्चीली नहीं रखी है, इसलिए जिंदा भी रह पा रहे हैं। किस तरह कम्युनिस्ट सोवियत संघ टुकड़ा-टुकड़ा हो गया, और किस तरह कम्युनिस्ट चीन आज दुनिया का सबसे बड़ा कारोबारी हो गया, यह देखते ही बनता है। इसलिए दुनिया के दूसरे देशों की हवा का झोंका हिन्दुस्तानी राजनीति में कई झंडे-डंडे उखाडक़र फेंक देता है। इसी तरह आज पूरी दुनिया के देशों में अप्रवासी लोग एक सबसे बड़ा मुद्दा बने हुए हैं, और भारत में भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से यह मुद्दा भाजपा को संसद की दो सीटों से उठाकर पूरी संसद पर काबिज कर चुका है। भाजपा की अपनी राजनीति उसे देश में जितनी भी काम आई हो, आज एक-एक करके दुनिया के बहुत से देश धर्म और अप्रवासियों को लेकर उसी किस्म की विचारधारा की तरफ बढ़ चुके हैं जैसी कि भारत में भाजपा की है। शायद सीधे-सीधे न सही, लेकिन हवा के रूख की तरह तो एक देश दूसरे देश को प्रभावित करता ही है, और इटली से लेकर फ्रांस तक, जर्मनी से लेकर हिन्दुस्तान तक धर्म और राजनीति का हर तरह का गठजोड़, और हर तरह का टकराव सरहदों के पार जाकर असर डालता ही है।
भाजपा की जो आज की कामयाबी है, वह भारत में 2014 के पहले पूरी तरह अकल्पनीय थी। राजनीति के गलाकाट मुकाबले में भाजपा ने जिस हिसाब से अपने आपको अधिक, और अधिक मजबूत बनाना जारी रखा है, वह देखने लायक है। उसकी कामयाबी के पीछे लोकतांत्रिक या अलोकतांत्रिक कई किस्म की बातों के तर्क दिए जा सकते हैं, लेकिन यह बात अपनी जगह अच्छी तरह स्थापित है कि देश और इसके प्रदेशों में इतनी बड़ी और इतनी मजबूत कोई पार्टी कभी आई नहीं। आजादी के वक्त से कांग्रेस को एक किस्म से स्वतंत्रता संग्राम की विरासत और उसके मुआवजे के रूप में देश भर में सत्ता मिली थी, लेकिन आज की भाजपा ने जो कुछ पाया है, वह ऐसी किसी विरासत के बिना अपने दम पर पाया हुआ है, और इसके पीछे की वजहों और कोशिशों को समझने की कोशिश वैसी ही करनी चाहिए जैसे कि बाजार के किसी सबसे कामयाब ब्राँड की कामयाबी को समझा जाता है।