संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : निर्वाचित को अवांछित मानते हैं अफसर, और सुप्रीम कोर्ट ने उनको दिखाई औकात...
13-Mar-2025 5:23 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : निर्वाचित को अवांछित मानते हैं अफसर, और सुप्रीम कोर्ट ने उनको दिखाई औकात...

जब कभी हमें लिखने के लिए किसी मुद्दे की कमी पड़ती है, तो सुप्रीम कोर्ट का मुंह ताकना हमेशा ही फायदे का रहता है। वहां कोई न कोई ऐसी बात रहती है जो कि हमारे मन की रहती है, या कभी-कभी मन के ठीक खिलाफ भी रहती है, और उस मुद्दे पर लिखने की गुंजाइश अच्छी-खासी रहती है जिसके बिना कम से कम हम अपने इस अखबार में इस कॉलम को नहीं देखते। अभी महाराष्ट्र के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों के साथ बड़े अफसरों के बर्ताव को लेकर नौकरशाही को फटकार लगाई है। एक महिला ग्राम प्रधान को अफसरों ने बर्खास्त कर दिया था, और उसके खिलाफ बॉम्बे हाईकोर्ट ने बहाली का फैसला दिया था। महाराष्ट्र सरकार को एक महिला ग्राम प्रधान के खिलाफ इतनी बड़ी लड़ाई जरूरी लगी कि वह सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। अब यह सोचने की बात है कि सरपंच स्तर की एक निर्वाचित महिला हाईकोर्ट में राज्य सरकार से जीत जाने के बाद अब किस ताकत से देश की सबसे बड़ी अदालत तक जाकर खड़ी हो सकती है? राज्य सरकार ने तो अपनी अथाह ताकत से हासिल महंगे वकीलों से सुप्रीम कोर्ट में हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दे दी, लेकिन वहां अपना पक्ष रखने और लडऩे के लिए तो इस महिला ग्राम प्रधान को भी जाना ही था। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में बड़ा सही फैसला दिया है और यह कहा है कि महाराष्ट्र में हाल ही में उसने ऐसे कई मामले देखे हैं जहां नौकरशाहों ने पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधियों के साथ बदसलूकी की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उसने दो-तीन दूसरे मामलों में फैसला सुनाया है जहां पर सरकारी अफसर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से बुरा बर्ताव करते पाए गए थे। अदालत ने साफ-साफ कहा कि सरकारी अमला निर्वाचित प्रतिनिधियों का मातहत होना चाहिए, और अफसरों को जमीनी स्तर का निर्वाचित लोकतंत्र बर्बाद करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। दो जजों की बेंच ने यह भी कहा कि अदालत के सामने ये जानकारियां आईं है कि अफसर निर्वाचित प्रतिनिधियों को अयोग्य ठहराने के लिए पुराने मामले खोलने की कोशिश करते हैं। अदालत ने मिसाल दी कि एक महिला सरपंच को अयोग्य ठहराने के लिए ऐसा मामला खोलकर निकाला जा रहा है कि उसके दादा ने सरकारी जमीन पर अतिक्रमण किया था इसलिए वह सरपंच बनने लायक नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ मामलों में कलेक्टरों के इस किस्म के आदेश अवैध पाए और उनको रद्द किया। अदालत ने यह शानदार बात भी कही कि खासकर जब ग्रामीण इलाकों के महिलाओं का मामला हो, तो उन्हें अफसरों के रहमोकरम पर नहीं छोड़ा जा सकता।

हम अदालत में इस मामले तक अपनी आज की इस बात को सीमित नहीं रखना चाहते, बल्कि उससे आगे ले जाना चाहते हैं। आज भी हम अपने आसपास छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में भी देखते हैं कि किस तरह सरकारी अफसर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को हिकारत की नजर से देखते हैं। अभी पिछले ही पखवाड़े छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले में निर्वाचित आधा दर्जन महिला पंचों की जगह सरकारी कर्मचारी पंचायत-सचिव ने उनके पतियों को शपथ दिला दी। इसके वीडियो और समाचार सामने आने के बाद सरकार को मानो मजबूरी में उस पंचायत-सचिव को निलंबित करना पड़ा, लेकिन मानो वह काफी नहीं था, दो दिन के भीतर ही एक दूसरे जिले जांजगीर में एक और महिला पंच के पति को सरकारी पंचायत-सचिव ने पद की शपथ दिलाई। एक तो महिलाओं के लिए भारत के समाज में हिकारत की जो नजर हमेशा से बनी हुई है, उसे पंचायती राज कानून और महिला आरक्षण कानून मिलकर भी दुरुस्त नहीं कर पा रहे हैं। फिर महिलाओं के बाद समाज में दूसरा बड़ा कमजोर तबका दलितों और आदिवासियों का होता है, और उनके साथ भी ऐसा ही सुलूक होता है। यह बात तो समाज के कमजोर तबकों की हुई, लेकिन इससे परे भी छोटे निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को लेकर सरकारी कामकाज में घाघ बन चुके कर्मचारी और अफसर बहुत ही घटिया सोच रखते हैं। वे यह मानते हैं कि लोकतंत्र की वजह से ऐसे अनपढ़, और नासमझ लोग भी पंच-सरपंच बन गए हैं। जबकि इन्हीं दोनों विशेषणों से युक्त विधायकों और सांसदों के मंत्री बनने पर कोई रोक नहीं है, और बड़ी से बड़ी नौकरशाही उन्हें एक मिनट में इतनी बार सर कहती हैं कि हवा में सरसराहट होने लगती है।

पंचायत व्यवस्था को बहुत से अफसर बुरी तरह भ्रष्ट मानकर चलते हैं। अब हमको तो यह समझ नहीं पड़ता है कि किसी राज्य की सरकार, या देश की सरकार में भ्रष्टाचार के मामले में पंचायतों के मुकाबले भला किस किस्म की कमी रहती है? वहां भी यही बड़े-बड़े नौकरशाह मंत्रियों के साथ मिलकर सरकारी फैसले लेते हैं, बैठकों में नीतियां तय करते हैं, जिनमें हजारों और लाखों करोड़ का घोटाला होता है। पंचायतों में शायद बहुत छोटा भ्रष्टाचार होता है, और राज्य सरकारों में उससे बड़ा, और केंद्र सरकार में उससे भी बड़ा। तो जिन लोगों को भ्रष्टाचार की वजह से पंचायती राज ही नहीं सुहाता है, उन्हें तो फिर राज्य सरकार की जगह राज्य के मुख्य सचिव को ही शासन का मुखिया देखना चाहिए, और देश चलाने की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री के बजाए कैबिनेट सचिव को दे देनी चाहिए। यह सोच शहरी, शिक्षित, सवर्ण, और संपन्न तबके की ऐसी सोच है जो सैनिक तानाशाही में दिखाई पड़ती है जहां लोग यह समझ लेते हैं कि वोट देने वालों का फैसला कमजोर रहता है, और अधिक समझदार लोगों को सरकार चलाने का सीधा हक होना चाहिए।

दरअसल पिछले कुछ दशकों में धीरे-धीरे कर मजबूत हुई पंचायती राज व्यवस्था में सरकार में बैठे अफसरों और बाबुओं के लंबे समय से चले आ रहे एकाधिकार को तोड़ा है, सरकारी कामकाज और फैसले में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की हिस्सेदारी नियमित सरकारी अमले को बहुत बुरी तरह खटकती है और वे मानकर चलते हैं कि वे ही स्थायी राजा हैं, और निर्वाचित लोग तो पांच-पांच बरस के लिए आने-जाने वाले लोग हैं। ऐसी सोच कुछ जनप्रतिनिधियों को बर्खास्त करके बाकी को दबाव में रखने के रास्ते निकालने लगती है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक नीति वाक्य की तरह देश के बाकी राज्यों में भी पंचायती व्यवस्था को अलग-अलग स्तर पर देखने वाले बाबुओं और अफसरों के बीच फ्रेम कराकर टांगना चाहिए ताकि उन्हें पूरे वक्त यह पता रहे कि देश की सबसे बड़ी अदालत उनके बारे में क्या सोचती है, और उन्हें क्या-क्या नहीं करना है। 

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