संपादकीय
छत्तीसगढ़ सरकार ने सरकारी डॉक्टरों की निजी प्रैक्टिस को लेकर अपना बरसों पुराना एक ऑर्डर दुबारा जारी किया, तो बड़ी खलबली मच गई है। सरकारी सेवा शर्तों में जिन डॉक्टरों को नॉन प्रैक्टिसिंग अलाउंस मिलता है, वे भी धड़ल्ले से बाहर बाजार में प्रैक्टिस करते हैं। सेवा शर्तों में उन्हें महज अपने घर पर मरीज देखने की छूट रहती है, लेकिन अधिकतर सरकारी डॉक्टर बाजार में क्लिनिक खोलकर, या बड़े अस्पतालों से जुडक़र वहां नाम की तख्ती लगाकर प्रैक्टिस करते हैं। सरकारी नौकरी में जितने सर्जन और एनेस्थेटिस्ट हैं, वे या तो अपने नर्सिंग होम चलाते हैं, या किसी और निजी अस्पताल में हर दिन घंटों काम करते हैं। यह सब कुछ नियमों के खिलाफ है, लेकिन विधायक बनने के पहले से नेता ऐसे डॉक्टरों के मरीज रहते हैं, बड़े-बड़े अफसर अपने परिवारों को लेकर इन्हीं डॉक्टरों के क्लिनिक जाते हैं, और इसलिए आदेश निकालने से ज्यादा सरकार इनका कुछ नहीं बिगाड़ पाती।
अब अगर सरकारी मेडिकल कॉलेजों को देखें, तो वहां पढ़ाने वाले, और कॉलेज के अस्पताल के बाहर निजी प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टर सबसे अधिक ताकतवर होते हैं क्योंकि सत्ता के सर्वोच्च लोगों को जब जरूरत पड़ती है, तो ये सीनियर डॉक्टर ही सबसे पहले बुलाए जाते हैं, और इन्हीं की राजनीतिक पहुंच सबसे अधिक होती है। इसके साथ-साथ इस हकीकत को अनदेखा करना ठीक नहीं होगा कि सरकारी मेडिकल कॉलेजों को पढ़ाने के लिए डॉक्टर मिल नहीं रहे हैं, और खुद सरकार तरह-तरह का फर्जीवाड़ा करके राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग की टीम आने पर मेडिकल कॉलेजों में प्राध्यापक-चिकित्सकों की फर्जी हाजिरी दिखाती है, और किसी तरह मेडिकल सीटें रद्द होने के खतरे को टालती है। ऐसी हालत में जब चिकित्सा-प्राध्यापक मिल ही नहीं रहे हैं, तब निजी प्रैक्टिस के नियम को उन पर लागू करके उन पर कोई कार्रवाई करना भला कैसे मुमकिन हो सकेगा? इसलिए जहां डिमांड से बहुत कम सप्लाई है, वहां पर डॉक्टरों की कमी के बाद उन पर कोई नियम नहीं लादे जा सकते हैं। ऐसा तभी हो सकता है जब मेडिकल कॉलेज की हर कुर्सी भरी रहे, और सरकार मनमानी करने वाले चिकित्सक-प्राध्यापकों को हटाने की हालत में रहे। ऐसा तो पूरे देश में कहीं भी नहीं है क्योंकि उत्तर भारत के हिन्दीभाषी प्रदेशों में मेडिकल कॉलेजों की ही कमी है, और नए कॉलेज न खुल पाने की एक वजह प्राध्यापकों की कमी भी है। दूसरी तरफ दक्षिण भारत के राज्यों में राष्ट्रीय औसत से अधिक मेडिकल कॉलेज हैं, और वहां दक्षिण भारतीय प्राध्यापक पूरे के पूरे लग जाते हैं।
अब जहां पर जरूरत के मुकाबले डॉक्टरों की कमी है, वहां पर हाल यह है कि देश के बहुत से बड़े-बड़े अस्पतालों में काम करने वाले डॉक्टर भी उन अस्पतालों से परे अपने निजी क्लिनिक भी कुछ घंटे चलाते हैं, और प्राइवेट प्रैक्टिस करते हैं। हो सकता है कि उनके निजी क्लिनिक में आने वाले मरीजों में से जिनको अस्पताल में भर्ती करने की जरूरत पड़ती होगी, उन मरीजों से इन बड़े अस्पतालों को कारोबार मिलता होगा, और इसीलिए अस्पताल अपने इन विशेषज्ञ डॉक्टरों को निजी प्रैक्टिस की छूट भी देते होंगे। दरअसल डॉक्टरी का पेशा, और इलाज का कारोबार, इन दोनों की प्राथमिकताएं बिल्कुल अलग-अलग होती हैं, और इनमें जब सरकारी व्यवस्था त्रिकोण का तीसरा कोण बन जाती है, तो यह पूरा मामला बड़ा जटिल हो जाता है। देश में जब तक विशेषज्ञ चिकित्सकों की उपलब्धता नहीं बढ़ेगी, तब तक निजी और सरकारी अस्पतालों के बीच विशेषज्ञ डॉक्टरों की खींचतान इसी तरह बनी रहेगी। दूसरी तरफ यह भी समझने की जरूरत है कि कोई भी मेडिकल कॉलेज अस्पताल सीधे विशेषज्ञ चिकित्सक नहीं उगलते। वे पहले तो एमबीबीएस डॉक्टर बनाते हैं, और फिर उनके अनुपात में एक बहुत छोटा सा हिस्सा विशेषज्ञ डॉक्टर बनता है। इसलिए देश में जब तक एमबीबीएस की सीटें नहीं बढ़ेंगी, तब तक न तो विशेषज्ञ डॉक्टर बढ़ेंगे, और न ही मेडिकल कॉलेज बढ़ेंगे।
लोगों को याद होगा कि कुछ महीने पहले हमने राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के एक फैसले की आलोचना की थी जिसने दक्षिण भारत के राज्यों में एमबीबीएस की सीटें बढ़ाने से यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि वहां राष्ट्रीय औसत से अधिक मेडिकल सीटें हैं। आयोग पहले उत्तर भारत और हिन्दीभाषी राज्यों में मेडिकल सीटें बढ़ाना चाहता है, और इसलिए दक्षिण में चिकित्सा शिक्षा का विस्तार उसने हुक्म निकालकर रोक दिया है। अब यह एक राष्ट्रीय विसंगति है कि जिस दक्षिण भारत में चिकित्सा शिक्षा का (और बाकी उच्च शिक्षा का भी) एक बड़ा ढांचा तैयार किया है, उसे तो विस्तार से रोका जा रहा है, लेकिन उत्तर भारत के राज्य, और हिन्दी राज्य न तो ऐसा ढांचा बना पा रहे हैं, न बाहर के डॉक्टर जाकर इन राज्यों में काम करना चाहते हैं, और यहां आनन-फानन सीटों की बढ़ोत्तरी की गुंजाइश भी नहीं है। ऐसे में उत्तर भारत में भी पढ़ाने के लिए डॉक्टर तो दक्षिण भारत से ही आते दिखते हैं। दक्षिण के सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों में उत्तर भारत और हिन्दी राज्यों से भी हर बरस हजारों चिकित्सा छात्र जाते हैं, जिनमें से बहुत से डॉक्टर बनकर अपने राज्यों में लौटते हैं। ऐसे में दक्षिण में विस्तार को रोकना खुद राष्ट्रीय जरूरत के खिलाफ है, और परले दर्जे की अदूरदर्शिता होने के साथ-साथ यह दक्षिण के साथ बेइंसाफी भी है। चूंकि कुछ राज्य नालायक और निकम्मे रह गए हैं, इसलिए देश के मेहनती और विकसित राज्यों को भी विस्तार और विकास से रोका जाए ताकि उत्तर-दक्षिण सब राष्ट्रीय औसत के पास रहें।
हमने सरकारी डॉक्टरों की निजी प्रैक्टिस से निकली बात दूर तक ले जाकर उत्तर और दक्षिण को लेकर केन्द्र सरकार की एक निहायत, नाजायज सोच तक पहुंचा दी है, लेकिन जो लोग राष्ट्रीय हित को देखेंगे, वे सरकारी नीति की खामी बड़ी आसानी से देख सकेंगे। आज सरकारी मेडिकल कॉलेजों के डॉक्टर अपनी शर्तों पर काम करने की हालत में हैं, उनकी इस ताकत को कम तभी किया जा सकता है जब देश में सरकारी कुर्सियों से अधिक डॉक्टर इन कुर्सियों के लिए कतार में लगे हों। आज छत्तीसगढ़ और इस किस्म के दूसरे राज्यों के बस में कुछ भी नहीं है। निर्वाचित नेताओं से मंत्री-मुख्यमंत्री बने हुए लोग जनता में खपत के लिए चाहे जो भी बयान दे दें, उन पर कोई अमल नहीं हो सकता, खासकर मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों के मामले में। भारत सरकार को देश के किसी भी हिस्से से डॉक्टर तैयार होने को बढ़ावा देना चाहिए। आज तो हालत यह है कि रूस, चीन, और बांग्लादेश तक से डॉक्टरी पढक़र हिन्दुस्तानी नौजवान लौट रहे हैं, और यहां पर काम कर रहे हैं। जब विदेशों में पढ़े डॉक्टरों को यहां जगह मिल रही है, तो फिर दक्षिण भारत से परहेज करना, और उत्तर भारत को बराबरी पर लाने के नाम पर परहेज करना एक बेदिमाग फैसला लगता है। चूंकि यूपी-बिहार में उद्योग नहीं लगे हैं इसलिए तमिलनाडु और गुजरात में भी उद्योग बढऩा रोक दिया जाए, क्या यह किसी समझदारी की बात होगी?
पिछले कुछ बरसों में लगातार हिन्दुस्तान में साइबर-फ्रॉड बढ़ते चल रहा है। मोबाइल फोन पर लोगों को ठगना, जालसाजी में उलझाना, बदनामी का डर दिखाकर ब्लैकमेल करना तो बढ़ते चल ही रहा है, इतने किस्म की धोखेबाजी चल रही है कि जांच करने वाली एजेंसियां शायद किसी नई तरकीब से हजारों जुर्म हो जाने के बाद ही उसकी कल्पना कर पाती होंगी। झारखंड का जामताड़ा ऐसा बदनाम हुआ कि वहां के मानो हर बेरोजगार को मोबाइल फोन से धोखाधड़ी करने, और लोगों को ठगने में महारथ हासिल हो गई थी। इस पर किसी बड़ी मनोरंजन कंपनी ने फिल्म या सीरियल भी बनाया है। लेकिन मामला यहां से बहुत आगे बढ़ गया है, और अब देश में ऐसे बहुत से कस्बे और शहर हो गए हैं जहां पर लोग साइबर और ऑनलाईन धोखाधड़ी के एक्सपर्ट हो गए हैं। वॉट्सऐप पर शेयर में पूंजीनिवेश का झांसा देकर लोगों से करोड़ों रूपए ठग लिए जा रहे हैं, तो कहीं क्रिप्टोकरेंसी से कमाई का बड़ा लुभावना धोखा दिया जा रहा है, और लोग पूरी जिंदगी की कमाई इसमें झोंक दे रहे हैं। एक और बहुत लोकप्रिय तकनीक लोगों को अश्लील और नग्न वीडियो कॉल में उलझाकर उनको ब्लैकमेल करने की है।
अब अगर देखें तो ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान किसी को गोली मारकर, या बंदूक की नोंक पर लूटने से आगे निकल गया है। अब लुटेरे मुंह पर कपड़ा बांधकर, चाकू-छुरा दिखाकर लूटने से बहुत आगे बढ़ चुके हैं। और अब मोबाइल फोन और ऑनलाईन पर बैंकों या भुगतान के किसी और तरीके का इस्तेमाल करते हुए लोगों को ठगा और लूटा जा रहा है। हमने कुछ अरसा पहले इस बारे में रक्तहीन-अपराध बढ़ते जाने की बात कही थी। अब कल छत्तीसगढ़ के एक गांव में ठगों ने एसबीआई की एक नकली ब्रांच ही खोल दी। भारतीय स्टेट बैंक का बोर्ड लग गया, लोग भीतर बैठकर काम भी करने लगे। धोखेबाजी के मुखिया, और इस नकली ब्रांच के मैनेजर बनकर बैठे पंकज पांडेय नाम के आदमी के खिलाफ जुर्म भी दर्ज कर लिया गया, जिसने बाकी कर्मचारियों को नौकरी देकर ‘बैंक-कर्मचारी’ बना दिया था। हफ्ते भर से यह ब्रांच खुल रही थी, लोग बैठ रहे थे, और खुशी-खुशी वहां पहुंचने वाले लोगों को कहा जा रहा था कि सर्वर चालू होते ही काम शुरू हो जाएगा। देश में कुछ और जगहों पर हाल के बरसों में स्टेट बैंक की नकली ब्रांच खुल चुकी हैं, लेकिन यह छत्तीसगढ़ में ऐसा पहला कारनामा था। बाद में इसकी चर्चा सुनाई पडऩे पर एसबीआई के अफसरों ने आकर जांच-पड़ताल की, और पुलिस में रिपोर्ट की। इस मामले से एक बहुत पुरानी हिन्दी फिल्म याद पड़ती है जिसमें डकैतों के हमले में पुलिस मारी जाती है, और एक फरार मुजरिम धर्मेन्द्र किसी गांव-कस्बे में पहुंचकर एक फर्जी थाना खोल देता है। अब एसबीआई की नकली ब्रांच खुलने लगी हैं। इसे लेकर एक मजाक की बात यह हो सकती है कि लोगों को एसबीआई की इस ब्रांच के नकली होने का शक तब हुआ, जब नए-नए नियुक्त किए गए फर्जी कर्मचारियों ने लंच के घंटों में भी काम जारी रखा। यह तो भला हुआ कि इस धोखाधड़ी में लोगों के लुटने के पहले ही इसे पकड़ लिया गया, वरना आम लोग तो किसी बेहिसाब कमाई के झांसे में जिंदगी भर की मेहनत की कमाई को झोंक देने में पल भर भी नहीं लगाते।
हिन्दुस्तान के लोग तरह-तरह की चिटफंड कंपनियों में झोंक दी गई अपनी बचत के जख्मों से तो उबर नहीं पाए हैं, और दूसरी तरफ वे नए झांसों में फंसने के लिए उतावले बैठे रहते हैं। ऐसी धोखाधड़ी, और ठगी की खबरें तो आती हैं, लेकिन मोटी कमाई का सुनहरा झांसा लोगों को इन्हें अनदेखा करके दांव लगा देने का एक अजीब सा उत्साह और हौसला दे देता है। हमारा ख्याल है कि सरकार को बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियान चलाना चाहिए क्योंकि एक तो हर जुर्म की जांच सरकार के मत्थे आती है, दूसरी बात यह भी कि जालसाजों के हाथ बड़ी रकम पहुंच जाने पर वह जुर्म की दुनिया के हाथ मजबूत करती है। फिर इस सिलसिले से न तो सरकार को कोई टैक्स मिलता, और न ही जुर्म की रकम आसानी से देश की अर्थव्यवस्था में लौटती। देश के बेकसूर नागरिकों की बचत इस तरह लुट जाने से उनकी जिंदगी भी तबाह होती है। इसलिए सरकारों को बहुत बड़े पैमाने पर लोगों को जागरूक करने का अभियान छेडऩा चाहिए। अब तो वॉट्सऐप और सोशल मीडिया जैसे मुफ्त के माध्यम सरकार या हर किसी को हासिल हैं, और ऐसे हर जुर्म की खबरों का वहां प्रचार हो सकता है। अभी पुलिस अपने नजरिए से प्रेसनोट बनाकर जारी करती है, लेकिन आम लोगों को जिन तरीकों से खतरा समझ में आ सकता है, वह एक अलग पेशेवर तरीका होता है, और सरकारों को जागरूकता के वैसे वीडियो बनाकर फैलाने चाहिए।
दूसरी तरफ समाज के भीतर भी धर्म, जाति, इलाके, पेशे, या शौक से जुड़े हुए जितने किस्म के संगठन हैं, उन्हें भी अपने लोगों को बचाने के लिए जागरूकता के कार्यक्रम चलाने चाहिए। इसके बिना बचने का कोई जरिया नहीं है, क्योंकि जालसाज और ठग हर पल कोशिश में लगे रहते हैं, और अपनी हर कामयाबी के बाद उनका उत्साह भी बढ़ता है, और वे जुर्म को और अधिक बड़े पैमाने पर ले जाते हैं। भारत सरकार को भी इस बारे में सोचना चाहिए कि वह संचार साधनों पर अपने काबू का इस्तेमाल करके कैसे इन मुजरिमों पर रोक लगा सकती है, उसके स्तर पर रोकथाम और बचाव अधिक आसान है, और उसे ही इसके साथ-साथ जागरूकता की भी पहल करनी चाहिए।
दो दिन पहले की रिपोर्ट है कि भारत सरकार के दवा नियंत्रक ने 50 से अधिक दवाओं को घटिया मानते हुए एक रिपोर्ट दी है, और इस फेहरिस्त में बहुत आम प्रचलित दवाएं शामिल हैं जिनमें जीवन रक्षक डायबिटीज की दवा, हाई ब्लड प्रेशर की दवा भी है। अभी तक यह साफ नहीं हुआ है कि सरकार इस पर क्या करने जा रही है, और ये दवाएं देश की बड़ी दवा कंपनियों की बनाई हुई भी हैं। कुछ दवाओं के बारे में यह समाचार भी आया है कि उनके कैप्सूल के खोल में चेहरे पर लगाने वाला पावडर भरकर सरकारी अस्पतालों को सप्लाई कर दिया गया है। एक से बढक़र एक नामी-गिरामी कंपनियां घटिया दवाई बनाने की दोषी पाई गई हैं। और एक दिक्कत यह है कि आन्ध्र, अरूणाचल, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल, मणिपुर, राजस्थान, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, ओडिशा, पंजाब, सिक्किम, तमिलनाडु, पांडिचेरी, तेलंगाना, दिल्ली, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल, अंडमान-निकोबार, दादर-नगर हवेली, दमन-दीव, लक्षदीप ने भारत सरकार के दवा नियंत्रक को उनके राज्य में दवा की क्वालिटी पर कोई रिपोर्ट नहीं दी है। अब इस लंबी लिस्ट के बाहर क्या देश में कोई राज्य बच भी गया है? जितनी लंबी लिस्ट रिपोर्ट न देने वाले राज्यों की है, उतनी ही लंबी लिस्ट देश की प्रमुख दवा कंपनियों की भी है।
कल की एक दूसरी खबर है कि किस तरह देश के एक सबसे प्रमुख हिन्दू मंदिर, तिरुपति में लड्डुओं में मछली के तेल, गाय और सुअर की चर्बी मिले होने की जांच के लिए आन्ध्र सरकार ने एक विशेष जांच दल बनाया है। लड्डुओं से परे जो जीवन रक्षक दवाएं हैं, उनके घटिया क्वालिटी के होने को लेकर किसी जांच दल की अभी खबर नहीं है। इस देश में धर्म से जुड़ा प्रसाद जांच का सामान है, लेकिन सभी धर्मों के लोगों की जिंदगियां बचाने वाली दवाएं अगर घटिया बन रही हैं, मिलावटी हैं, उनमें दवा की जगह चेहरे का पावडर भर दिया गया है, तो भी उसकी किसी जांच की न तो मांग उठ रही है, और न ही मानो जनता को इसकी कोई परवाह रह गई है। यह गजब की हैरान करने वाली नौबत है कि लोगों को अपने परिवार की जिंदगी के लिए जरूरी दवाओं से अधिक मंदिर के प्रसाद की परवाह है। इससे यह भी पता चलता है कि जनता किस हद तक अंधभक्ति का शिकार हो चुकी है, और उसे विज्ञान की कोई परवाह नहीं रह गई है जो कि इन दवाओं को बनाता भी है, और इनमें घटिया क्वालिटी को पकड़ता भी है।
दरअसल देश में भावनात्मक मुद्दों का सैलाब इतना बड़ा हो गया है कि जिंदगी के असल मुद्दे किनारे हो गए हैं। यह एक अलग बात है कि तमाम किस्म के पाखंडी और देवदूत होने का दावा करने वाले लोग भी जब खुद बीमार पड़ते हैं, तो वे आधुनिक विज्ञान से चलने वाले अस्पतालों में ही जाते हैं। और बात-बात में अंधभक्ति और अंधविश्वास फैलाने वाले बड़े-बड़े लोग तो दूसरे देशों के अस्पतालों तक भी जाकर इलाज करवाते हैं, और देश की आम जनता को अलग-अलग धर्मों के प्रवचन करने वाले लोगों, चमत्कारी बाबाओं, चंगा करने वाले पादरियों, तांत्रिकों, और बैगा-गुनिया के हवाले कर देते हैं। कल की ही खबर है कि किस तरह उत्तरप्रदेश में एक स्कूल के संचालक ने स्कूल को कामयाब करने के लिए एक बच्चे की बलि दे दी, और इस स्कूल संचालक का पिता ही बलि देने वाला तांत्रिक था।
देश के लोगों में वैज्ञानिक चेतना टुकड़ों में नहीं आती, ऐसा नहीं हो सकता कि कोई व्यक्ति किसी एक मामले में तो तर्क और समझ से काम ले, और बाकी मामलों में वे अंधविश्वासी हो जाएं। लोगों का मिजाज एक साथ ही बनता और बिगड़ता है। आज देश की आबादी के एक बड़े हिस्से को गाय के नाम पर, धर्म के नाम पर, प्रसाद में चर्बी के नाम पर, हिजाब और बुर्के के नाम पर, किसी धर्म के प्रचार के नाम पर इस हद तक भडक़ाया जा सकता है कि वे हिंसक हो जाएं, और इंसानों का कत्ल करने को जायज मानने लगें। आज देश में जगह-जगह गौ-गुंडे अपने आपको गौरक्षक कहते हुए जब कानून अपने हाथ में लेते हैं, पांवोंतले कुचलते हैं, और दूसरे धर्म या दूसरी जाति के लोगों को गौ-हत्यारे कहते हुए मार डालते हैं, और सरकारें उन्हें बचाने का काम करती हैं, तो फिर यह हिंसक धर्मान्धता, और अंधविश्वास जंगल की आग की तरह चारों तरफ तेजी से फैलते हैं। यही अंधविश्वास है जो प्रसाद को राष्ट्रीय बहस का सामान मानता है, और जिसे घटिया और नकली दवाईयां पाना बुरा नहीं लगता, उसका विरोध जरूरी नहीं लगता।
हमारे पास की ही एक दूसरी खबर है कि एक स्कूल में क्लास चलते हुए बीच में एक बच्चे ने जयश्रीराम का नारा लगा दिया, और शिक्षिका ने उसे सजा देने के लिए क्लास के बाहर खड़ा कर दिया। यह बात बच्चे के मां-बाप से होकर जब एक हिन्दूवादी छात्र संगठन तक पहुंची, तो उसके कार्यकर्ता स्कूल पहुंचकर प्रदर्शन करने लगे, और उस शिक्षिका के खिलाफ कार्रवाई मांगने लगे। अब एक क्लास के भीतर पढ़ाई के दौरान एक धार्मिक नारा लगाने को जायज हक मानते हुए, उस पर मामूली सजा देने पर शिक्षिका के खिलाफ अगर आंदोलन हो रहा है, तो इसका यही मतलब है कि स्कूलों में अब पढ़ाई की नहीं, कीर्तन भर की जरूरत रह गई है। ऐसी सोच किसी राजनीतिक दल को वैज्ञानिक चेतनाविहीन लोगों के वोट जरूर दिलवा सकती है, लेकिन किसी देश को आगे नहीं बढ़ा सकती। देश को दवा, और दुआ में से अगर किसी एक को प्राथमिकता देनी है, तो यह याद रखें कि जो लोग सोते-जागते बात दुआ की करते हैं, वे भी अपनी तबियत खराब होते ही दौड़े-भागे दवा की शरण में पहुंच जाते हैं, और भगवा लंगोटी वाले बाबा को ऑक्सीजन मास्क लगाए आईसीयू में लोगों ने देखा हुआ ही है।
छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सलियों का आत्मसमर्पण बरसों से सरकार का एक बड़ा अभियान रहा है। और अधिकारी इसे अपनी एक उपलब्धि बताते हैं कि उन्होंने कितने नक्सलियों का समर्पण करवाया। अब छत्तीसगढ़ सरकार नक्सल पुनर्वास की एक नीति बना रही है जिससे आकर्षित होकर और अधिक नक्सली हथियार छोड़ सकें। बरसों से पुलिस पर यह आरोप भी लगता है कि वह किसी को भी नक्सली बताकर उनका आत्मसमर्पण करवा देती है, उन्हें कुछ हजार रूपए मिल जाते हैं, और पुलिस मानकर चलती है कि गांव में भूतपूर्व नक्सली कहलाने पर भी कोई नुकसान नहीं होता है, इसलिए यह पुलिस-नीति खराब नहीं है। सरकारों में कभी लोग आदिवासियों के अधिकारों को लेकर संवेदनशील नहीं रहते हैं, इसलिए वे आदिवासियों के किसी अपमान की सोचे बिना, उनका ऐसा समर्पण करवाते चलते हैं। लेकिन आज इस मुद्दे पर चर्चा की एक वजह सामने आई कि नक्सलियों की आवाजाही वाले एक जिले बालोद में एसपी के पास पहुंचकर तीन लोगों ने अपने को एक माओवादी संगठन का सदस्य बताया, और आत्मसमर्पण की इच्छा जाहिर की। नक्सलियों के आत्मसमर्पण पर कोई सजा होती नहीं है, और कुछ रकम मिल जाती है, इसलिए वे फर्जी नक्सली बनकर सरेंडर कर रहे थे। पुलिस ने असलियत पता लगने पर इनके खिलाफ भी जुर्म दर्ज कर लिया है।
सरकार की किसी योजना का फायदा उठाने के लिए लोग किस हद तक चले जाते हैं, यह देखते ही बनता है। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश दोनों जगहों पर सरकार की तरफ से लंबे समय से सामूहिक विवाह की योजना चल रही है जिसमें शादी करने वाले जोड़ों को सरकार की तरफ से बहुत सा घरेलू सामान भी तोहफे में मिलता है, और शायद कुछ रकम भी मिलती है। बहुत से ऐसे आयोजन रहते हैं जिनमें शामिल जोड़ों के बारे में पता लगता है कि वे पहले से शादीशुदा हैं, कुछ के तो बच्चे भी हैं, लेकिन सरकारी उपहार के चक्कर में वे एक बार फिर शादी के लिए खड़े हो जाते हैं। अभी कल-परसों ही किसी जगह की एक खबर थी कि एक जगह जमीन आबंटन में एक परिवार को एक भूखंड मिलना था। ऐसे में आठ शादीशुदा जोड़ों ने तुरंत तलाक की कार्रवाई पूरी की, और 16 भूखंड के हकदार बन गए। कुछ हफ्ते पहले राजस्थान का एक मामला सामने आया था कि वहां के एक इलाके में हजारों ऐसे नौजवान हैं जिन्होंने अपने आपको 70 या अधिक बरस का बताने वाले आधार कार्ड बनवा लिए हैं, और बरसों से वृद्धावस्था पेंशन ले रहे हैं। सरकार की किसी योजना का फायदा लेने के लिए हिन्दुस्तान के लोग किसी भी तरह का झूठा हलफनामा देने के लिए तैयार हो जाते हैं। ऐसे ही रंग-ढंग देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अभी दो दिन पहले ही यह कहा है कि मेडिकल कॉलेजों में देश के बाहर बसे हिन्दुस्तानियों के बच्चों के नाम पर शुरू किया गया एनआरआई कोटा खत्म किया जाए, क्योंकि इसका सिर्फ बेजा इस्तेमाल हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि किसी एनआरआई के दूर के रिश्तेदार को भी एनआरआई कोटे में दाखिला दिया जाना चाहिए जैसा कि पंजाब, हिमाचल, और यूपी करते आ रहे हैं।
अभी कुछ दिन पहले ही छत्तीसगढ़ की एक खबर छपी थी कि किस तरह एक गांव के बहुत सारे खानाबदोश परिवारों के लोगों से अपना अंतरंग संबंध बताते हुए किसी दूसरे प्रदेश के संपन्न लोग उनकी किडनी लेकर अपने मरीजों को लगवाने की कानूनी औपचारिकता पूरी कर रहे हैं। और उनसे अपना घरोबा जताने के लिए वे उनकी झोपडिय़ों में बैठकर, उनके साथ खाना खाते हुए फोटो भी खींचा रहे हैं ताकि उनसे किडनी लेने को जायज ठहराया जा सके। भारत में अंग प्रत्यारोपण को लेकर कानून बहुत कड़ा है, लेकिन उसे धोखा देने के तरीके उससे अधिक बड़े हैं। जब तक सरकार कानून बना पाती है, तब तक जुर्म करने वाले लोग उसमें छेद ढूंढकर उसे चौड़ा करना शुरू कर देते हैं ताकि बिना सांस खींचे उसमें से निकल सकें। हर दिन कितने ही मामले छपते हैं जिनमें लोग धोखाधड़ी करके किसी जमीन को खरीद-बेच लेते हैं, और यह धोखा सिर्फ निजी जमीन को लेकर नहीं होता, अच्छे-खासे धर्मालु और आस्थावान लोग रात-दिन इस फेर में रहते हैं कि कैसे किसी मठ-मंदिर की जमीन, कैसे किसी गौशाला की जमीन को हड़पा जाए। इसमें बड़े-बड़े तथाकथित और स्वघोषित समाजसेवी और दानदाता भी रहते हैं, जो साल में एक बार गाय को चारा देते हुए फोटो खिंचवाते हैं, और उसके बाद 364 दिन गाय या अनाथ बच्चों के हक को लूटने की साजिश में जुटे रहते हैं।
कुल मिलाकर हिन्दुस्तान के लोगों का चरित्र ऐसा है कि ट्रेन टिकट में रियायत पाने के लिए लोग एक वक्त किसी स्वतंत्रता सेनानी को लेकर चलते थे ताकि उसके सहयोगी बनकर मुफ्त में या बहुत रियायत में सफर कर सकें। कई लोगों ने ऐसे स्वतंत्रता सेनानियों को सफर के सामान की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। रियायती या मुफ्त राशन पाने के लिए, अस्पताल में मुफ्त इलाज के लिए, अधिकतर लोग फर्जी आय प्रमाणपत्र बनवाने को बुरा नहीं मानते। कई संपन्न परिवार गरीबों वाला राशन कार्ड बनवाकर उसका अनाज अपने घरेलू कामगारों को दिलवाकर उन्हें कम मजदूरी देने की योजना भी बनाकर चलते हैं। यह देश अपने लोगों की ऐसी नीयत की वजह से दुनिया भर में बदनाम है कि यहां के लोग, कम से कम इस देश में रहते हुए, बुनियादी तौर पर बेईमान हैं। और बहुत से लोग इसलिए अभी तक बेईमान साबित नहीं हुए हैं कि वे इतने गरीब और कमजोर हैं कि उनको बेईमानी करने का मौका भी नहीं मिलता है। अब जो लोग करोड़पति हैं, वे लोग भी किसी जमीन की खरीदी-बिक्री में पैसे बचाने के लिए रिहायशी जमीन का भूउपयोग कृषि करवा लेते हैं, और फिर कम रेट की रजिस्ट्री करवाकर उसका फिर रिहायशी या कारोबारी इस्तेमाल करते हैं।
जिस भारत को अपनी संस्कृति, और अपने इतिहास पर इतना गर्व है, जिसमें राष्ट्रवाद को एकदम धारदार और हमलावर बनाकर रखा गया है, उस भारत में लोगों की रोजाना की सोच इस कदर भ्रष्ट और बेईमान कैसे है, इसके बारे में सोचना चाहिए। यहां लोग महंगी होटल में ठहरते ही सबसे पहले यह देखने लगते हैं कि वहां से क्या-क्या सामान चुराकर घर ले जाया जा सकता है, इस खतरनाक लत से छुटकारा इसलिए पाना चाहिए कि बहुत से हिन्दुस्तानी दूसरे देशों में सैलानी बनकर जाते हैं, और किसी होटल या सुपर बाजार में चोर की तरह पकड़ाते हैं। न पकड़ाने वाले लोग अपने दोस्तों के बीच फख्र से बताते हैं कि वे कहां-कहां से क्या-क्या चुरा लाए, कहां-कहां बच्चों की उम्र कम बताकर कौन सी बचत कर ली, और किस-किस तरह से कोई दूसरी बेईमानी कर ली।
हिन्दुस्तानी लोगों को अपनी सोच के बारे में आत्ममंथन करना चाहिए कि उन्हें ईमानदारी छू क्यों नहीं गई है? यह भी समझना चाहिए कि छोटी-छोटी बातों में परले दर्जे की बेईमानी इस देश में तो चल सकती है, दुनिया के सभ्य देशों में जाने पर ऐसे लोग कैसे-कैसे खतरे में पड़ते हैं।
महाराष्ट्र के बदलापुर की एक स्कूल में जब कुछ हफ्ते पहले दो छोटी बच्चियों से यौन शोषण का मामला सामने आया, और अक्षय शिंदे नाम का एक नौजवान उसमें पकड़ाया, तो बड़ा बवाल हुआ। ट्रेनें रोकी गईं, और जगह-जगह प्रदर्शन हुए। महाराष्ट्र की शिंदेसेना-भाजपा गठबंधन सरकार के लिए यह खास शर्मिंदगी का मौका इसलिए भी था कि इसी वक्त बंगाल के कोलकाता में सरकारी मेडिकल कॉलेज में महिला डॉक्टर से बलात्कार और उसकी हत्या का मामला देश भर को विचलित कर रहा था, और वह वहां की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी के खिलाफ भाजपा के हाथ एक बड़ा मुद्दा लगा था। ऐसे में जब एक-एक करके कई भाजपा राज्यों में तरह-तरह से बलात्कार की घटनाएं आने लगीं तो भाजपा के हमलों की धार खत्म हो गई। अब महाराष्ट्र में बदलापुर की यह घटना एक नया नाटकीय मोड़ ले चुकी है क्योंकि बच्चियों के यौन शोषण के आरोपी अक्षय शिंदे की पुलिस हिरासत में हथकड़ी लगे-लगे पुलिस गोली से मौत हो गई, और इसे महाराष्ट्र के बाम्बे हाईकोर्ट ने बड़ी हैरानी और गंभीरता के साथ लिया है, और राज्य की पुलिस को कटघरे में खड़ा किया है। अदालत ने इस बात को मानने से इंकार कर दिया कि हथकड़ी लगे हुए मामूली कद-काठी के एक गिरफ्तार को चार-चार पुलिस अफसर नहीं संभाल सके, और उन्होंने आत्मरक्षा में इस आरोपी को गोली मारने की बात कही है जो कि पैरों पर मारने के बजाय सीधे सिर पर मारी गई है। अदालत ने पुलिस की कहानी को किसी भी तरह मानने से इंकार कर दिया है।
लेकिन हम पुलिस की फर्जी मुठभेड़ें बहुत से प्रदेशों में देखते रहते हैं, और आज की यह बात सिर्फ पुलिस मुठभेड़ तक सीमित नहीं है। दरअसल जैसे ही यह मुठभेड़ ‘मौत’ हुई, वैसे ही महाराष्ट्र में मुम्बई में कई जगहों पर गृहमंत्री देवेन्द्र फडऩवीस के होर्डिंग लग गए जो फडऩवीस को पिस्तौल और मशीनगन लिए हुए दिखा रहे हैं, और होर्डिंग पर बस दो शब्द लिखे हैं- बदला पूरा। अब सवाल यह उठता है कि संविधान की शपथ लेकर काम संभालने वाली सरकारें अगर संविधान के ठीक खिलाफ जाकर अंधाधुंध मुठभेड़-हत्याएं करती हैं, बुलडोजरी इंसाफ करती हैं, तो कम से कम संविधान की शपथ दिलवाना बंद कर देना चाहिए। अगर एक निहत्थे, और हथकड़ी से जकड़े हुए मामूली से नौजवान को चार-चार हथियारबंद पुलिसवाले काबू नहीं कर सकते, और सिर में गोली मारना ही उनके पास अकेला विकल्प है, तो यह जाहिर है कि यह उस आरोपी को काबू में रखने के लिए नहीं, गृहमंत्री को होर्डिंग पर अपनी कामयाबी दिखाने का मौका देने के लिए किया गया काम है।
यह सिलसिला बहुत ही भयानक है। यह वही मुम्बई है जहां पर पुलिस के कुछ अफसर रिवॉल्वर का ट्रिगर दबाने के ऐसे शौकीन हो गए थे कि एक-एक के नाम दर्जनों मुठभेड़-हत्याओं का रिकॉर्ड दर्ज है। यह एक अलग बात है कि ऐसे ही एक सबसे चर्चित अफसर प्रदीप शर्मा को अभी फर्जी मुठभेड़-हत्या में उम्रकैद भी हुई है। इसके बावजूद पुलिस में हमेशा ही कुछ ऐसे अफसर रहते हैं जो कि पहले तो एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की शोहरत हासिल करते हैं, और उसके बाद वे अंडरवल्र्ड के किसी एक गिरोह के साथ मिलकर दूसरे गिरोह के लोगों को मार गिराने की सुपारी उठाते हैं, तो कभी जमीनों के धंधे में माफिया बन जाते हैं। पुलिस को जब कभी किसी गैरकानूनी काम के लिए बढ़ावा दिया जाता है, तो पुलिस सिर्फ उसी काम को करके नहीं थमती है। पुलिस उसके आगे बढ़ते हुए अपनी मर्जी के भी कई काम करती है, और बहुत से मामलों में वह धंधेबाज होकर भाड़े के हत्यारे का काम भी करने लगती है, रिवॉल्वर का डर दिखाकर वह वसूली-उगाही में भी लग जाती है।
हमारा ख्याल है कि बाम्बे हाईकोर्ट ने इस ताजा मुठभेड़-हत्या की कमजोर नब्ज पर हाथ धर दिया है, और जनता के बीच वाहवाही पाने के लिए करवाई गई राजनीतिक हत्याओं की ऐसी तेज जांच ही होनी चाहिए। लोगों को याद होगा कि 2019 में हैदराबाद में एक 26 बरस की डॉक्टर से बलात्कार, और उसके कत्ल के मामले में गिरफ्तार चार लोगों को पुलिस ने जुर्म की जगह ले जाते हुए नेशनल हाईवे के किनारे एक पुल के नीचे मुठभेड़ बताकर मार डाला था। बाद में एक न्यायिक जांच आयोग ने इसमें शामिल पुलिस अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश की थी, लेकिन उसे तेलंगाना हाईकोर्ट ने मई 2024 में स्टे कर दिया था। और जनता के बीच इन चार मुठभेड़-हत्याओं को लेकर पुलिस की ऐसी वाहवाही हुई थी कि पुलिस पर फूल बरसाए गए थे।
पुलिस को इस हद तक हत्यारा बनाने का एक बड़ा नुकसान यह होता है कि उसका अनुशासन पूरी तरह खत्म हो जाता है, वह अराजक हो जाती है, और चूंकि वह खुद जुर्म करने लगती है इसलिए उसे बाकी मुजरिम उतने बुरे भी नहीं लगते। लेकिन मुजरिम बनने के बाद पुलिस दूसरे कई किस्म के जुर्म भी करने लगती हैं। पंजाब में आतंक के दिनों में केपीएस गिल की पुलिस ने मानवाधिकारों को जितना कुचला था, जितने बेकसूर लोगों का कत्ल किया था, उसमें आज बहुत सारे पुलिसवाले कैद भुगत रहे हैं। अब सीसीटीवी कैमरों, मोबाइल फोन लोकेशन जैसे बहुत से वैज्ञानिक सुबूतों का वक्त है, और ऐसे में पुलिस को भी जुर्म करने से बचना चाहिए, और नेताओं को पुलिस से कत्ल करवाने से परहेज करना चाहिए। कुछ ऐसी हिन्दी फिल्में बनी हैं जिनमें कोई पुलिस अफसर ही मंत्रियों और नेताओं का कत्ल करते दिखते हैं।
महाराष्ट्र में गृहमंत्री अगर बदलापुर के आरोपी की पुलिस हिरासत में इस तरह हुई हत्या के बाद बदला-पूरा के होर्डिंग लगवाते हैं, या उनकी ऐसी हथियारबंद तस्वीर के साथ ऐसे होर्डिंग लगते हैं, तो यह देश में कानून के राज की बहुत बड़ी हेठी है। अदालत को तो ऐसे होर्डिंग की जांच भी करवानी चाहिए कि वे कैसे लगे हैं, और कैसे यह माना जा रहा है कि गृहमंत्री ने यह बदलापुर का बदला पूरा किया है। लोकतंत्र में हिरासत के मुजरिम की हत्या अगर किसी नेता को अपने फख्र का सामान लगती है, तो यह शर्मनाक नौबत है। इसका मतलब है कि जनता के मन में भी कानून का सम्मान खत्म हो गया है, और वह बंदूक की नली से निकले इंसाफ पर तालियां बजाती है। फिर सरकार और नक्सलियों में फर्क क्या रह गया, वे भी तो अपने हत्यारे फैसलों को बंदूक की नली से निकली क्रांति बताते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
एक पेड़ या पौधे के फल के ऐसे रेशे रहते हैं जिन्हें किसी पर छिडक़ दिया जाए तो उन्हें लगातार खुजली आने लगती है। छत्तीसगढ़ के इलाके में उसे केंवाच कहा जाता है, और शरारत करने वाले लोग उसे होली के मौके पर गुलाल में मिलाकर, या वैसे ही किसी पर छिडक़ देते हैं, और वे घंटों तक इस खुजली से जूझते रहते हैं। कुछ लोगों के मुंह में कुदरत केंवाच डालकर भेजती है, और जब तक वे कोई नाजायज और निहायत गैरजरूरी बात बोल न लें, तब तक मुंह की खुजली जारी रहती है। पिछले एक महीने में पार्टी की जमकर झिडक़ी खाने के बाद भी ताजा-ताजा सांसद बनी हुई कंगना रनौत का हाल कुछ ऐसा ही है। जिन किसानों के बारे में कंगना के हिंसक बयानों पर पार्टी ने अपने आपको उनसे अलग कर लिया था, और सार्वजनिक रूप से कहा था कि कंगना पार्टी की तरफ से कोई भी बयान देने का हक नहीं रखती हैं, उसी कंगना ने अब फिर किसानों के बारे में एक नया बखेड़ा छेड़ा है। उन्होंने यह कहा है कि निरस्त किए गए किसान कानूनों को वापिस लाना चाहिए, और किसानों को खुद इसकी मांग करनी चाहिए। देश में महीनों तक चले किसान आंदोलन के बाद शायद सात सौ से अधिक आंदोलनकारियों की मौत के बाद मोदी सरकार को पहली बार पूरी शर्मिंदगी से अपने बाहुबल से संसद में पास करवाए गए किसान कानूनों को वापिस लेना पड़ा था। और तब से अब तक भाजपा और मोदी किसान कानूनों से जुड़ा यह अप्रिय सिलसिला याद भी करना नहीं चाहते हैं। लेकिन बिना किसी मौके के कंगना ने एक बार फिर अपनी औकात से बढक़र, बेवजह किसान कानूनों की याद दिला दी, और पार्टी के लिए एक बड़ी असुविधा पैदा कर दी। पार्टी के एक राष्ट्रीय प्रवक्ता को सार्वजनिक रूप से कंगना की सोच का खंडन करना पड़ा, और कहना पड़ा कि उनका यह बयान कहीं से भी पार्टी की नीति नहीं है, और पार्टी अपने को इससे अलग करती है। कंगना की समझ को लेकर लोगों के बीच कई तरह का शक हो सकता है, लेकिन उनका परिचय ही बताता है कि वे 38 बरस की हैं। राजनीतिक समझ शून्य व्यक्ति भी इस उम्र में आकर, और एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के सैकड़ों सांसदों में से एक बनकर बार-बार पार्टी की सार्वजनिक झिडक़ी, और एयरपोर्ट पर एक महिला किसान आंदोलनकारी बेटी की थप्पड़ खाने से बचने लायक समझ वाली तो होना चाहिए, लेकिन कंगना को यह सहज समझ शायद छू भी नहीं गई है। इसके अलावा ऐसा भी लगता है कि वे भाजपा के भीतर स्मृति ईरानी के छोड़े गए एक विशाल शून्य को भरने की हड़बड़ी में हैं, और इसीलिए बिना सोचे-विचारे पार्टी की फजीहत करने का शगल पाल बैठी हैं।
इस तरह के बयान देने वाले कुछ और भी लोग रहते हैं जो मुंह पहले खोलते हैं, और दिमाग का इस्तेमाल बाद में करते हैं, अगर दिमाग रहता है तो। सार्वजनिक जीवन में बहुत से लोग अश्लील, हिंसक, भडक़ाऊ, और विवादास्पद बयान देने के शौकीन रहते हैं। इनकी वजह से कहीं चुनाव आयोग उन्हें नोटिस देता है, तो कहीं सुप्रीम कोर्ट उन पर हेट-स्पीच की एफआईआर करने को कहता है। यह सिलसिला हाल के दशकों में कुछ तेज हो गया है। पहले तो इतना बुरा हाल नहीं था, लोग अधिक सोच-समझकर बोलते थे, लेकिन इन दिनों ऐसा लगता है कि कैमरों के सामने बोल लेने के बाद, सोशल मीडिया पर पोस्ट कर देने के बाद लोग अपनी कही बातों पर अगर सोचते होंगे, तो सोचते होंगे। ऐसा लगता है कि आज की टेक्नॉलॉजी ने लोगों की सोच को बहुत बुरी तरह प्रभावित किया है। पिछले कुछ दशकों में मोबाइल फोन पर एसएमएस भेजने की ऐसी तकनीक लोगों को हासिल हुई कि वे कुछ पलों में मैसेज टाईप करके भेज देते हैं, जो कि पल भर में पहुंच जाता है, और कुछ मिनटों में शायद उसका जवाब भी आ जाता है। बात और आगे बढ़ गई, और अभी कुछ बरस से तो वॉट्सऐप जैसे कई मैसेंजरों पर लोग वीडियो कॉल पर बात करते हैं, अपनी आवाज में संदेश रिकॉर्ड करके भेज देते हैं, कोई वीडियो, फोटो, या लिखित संदेश पल भर में किसी एक को या सैकड़ों लोगों को भेज देते हैं। नतीजा यह है कि एक वक्त पोस्टकार्ड की रफ्तार से जाने वाले संदेश अब पोस्टकार्ड पर पता लिखने जितनी देर में दुनिया के किसी भी कोने से जवाब भी ला देते हैं। लोग अपनी बात सोशल मीडिया पर पल भर में पोस्ट कर देते हैं, और जब तक उसके बारे में कोई सफाई देने की बात उन्हें सूझे, तब तक तो सैकड़ों लोग उसे आगे बढ़ा चुके रहते हैं, धिक्कार चुके रहते हैं। जब दुनिया में अपनी बात को फैलाना बिजली की रफ्तार से हो रहा है, तो लोगों को अपनी जुबान और उंगलियों को कुछ काबू में रखना चाहिए। खासकर उन लोगों को जो एक बड़े संगठन या संस्थान का हिस्सा हैं।
यह बात सिर्फ राजनीति के लोगों की नहीं है, जिंदगी के हर दायरे के लोगों पर यह लागू होती है। जो विकसित और सभ्य लोकतंत्र हैं, वहां किसी कंपनी के कर्मचारी अगर नफरती, हिंसक, नस्लभेदी बात पोस्ट करते मिलते हैं, तो कंपनियां पल भर में उन्हें निकाल बाहर करती हैं। यह एक अलग बात है कि हिन्दुस्तान जैसे देश में ऐसे लोग काफी लंबे समय तक खप जाते हैं, बच जाते हैं। कंगना रनौत को भाजपा में आने के बाद कई मौकों पर दिए गए ऊटपटांग बयानों के पहले यह सहूलियत हासिल थी कि वे पार्टी के किसी बड़े नेता या प्रवक्ता से अपनी सोच पर पार्टी का रूख समझ लेतीं। लेकिन उन्होंने इतनी जहमत नहीं उठाई। नतीजा यह हुआ कि एक महीने में शायद दूसरी-तीसरी बार पार्टी को यह सफाई देनी पड़ रही है कि कंगना की कही बातें उनकी अपनी शौच है, वह पार्टी की सोच नहीं है। सार्वजनिक जीवन के किसी भी व्यक्ति के लिए यह बड़ी शर्मिंदगी की बात रहनी चाहिए थी, और पहली सार्वजनिक झिडक़ी के बाद कंगना को यह काम अपने कमसमझ वाले दिल-दिमाग के भीतर ही करना था। लेकिन ऐसा लगता है कि वे किसी भी कीमत पर सार्वजनिक जीवन में एक अधिक बड़ी मौजूदगी दर्ज करवाना चाहती हैं। जिंदगी में टेक्नॉलॉजी के इस्तेमाल ने लोगों के फैसले लेने, काम करने, बात करने, इन सबकी रफ्तार सैकड़ों गुना तेज कर दी है, लेकिन टेक्नॉलॉजी की रफ्तार से इंसानी समझ का विकास नहीं हुआ है, उसमें कई और पीढिय़ां लग जाएंगी। ऐसे में बेवकूफी की बात अब मानो लाउडस्पीकरों पर गूंजती है, और फोन के मैसेंजरों से पल भर में दुनिया भर में पहुंच जाती है। लोगों को अपनी बेवकूफी की नुमाइश नहीं करना चाहिए, और बाकी लोगों में एक गलतफहमी बने रहने देना चाहिए।
अब यहां पर एक छोटी सी बात हमें परेशान करती है कि हरियाणा चुनाव के ठीक पहले जिस तरह से बृजभूषण शरण सिंह पहलवान लड़कियों को बदनाम करने और धमकाने में सार्वजनिक रूप से जुट गए थे, और भाजपा को उन्हें समझाईश देकर चुप कराना पड़ा था, कुछ वैसा ही कंगना भी बार-बार कर रही हैं। ऐसा लगता है कि सबसे बड़ी बन गई इस पार्टी को लीडरशिप-विकास की एक ट्रेनिंग अपने लोगों को देनी चाहिए, जिसमें कम से कम पार्टी की नीतियों को, और नेता-कार्यकर्ता को उसके अधिकार क्षेत्र को ठीक से समझाना चाहिए। अगर कंगना अगले कुछ महीनों में फिर अपने मुंह की खुजली दूर करते हुए कोई नाजायज और गैरजरूरी बयान देती हैं, तो इसमें उनकी गलती नहीं रहेगी, पार्टी की ही गलती रहेगी। किसी नेता के सिलसिलेवार गलत काम गलती नहीं रहते, वे गलत काम ही रहते हैं। और यह बात नेता के अलावा पार्टी पर भी लागू होती है।
कल एक बार फिर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट राज्य सरकार और नेशनल हाईवे अथॉरिटी पर खफा हुआ है क्योंकि राजमार्गों से जानवरों को हटाने में ये पूरी तरह नाकामयाब रहे हैं। एक जनहित याचिका पर सडक़ों पर जानवरों की वजह से होने वाले हादसों का मामला उठाया गया था, और मुख्य न्यायाधीश वाली एक दो जजों की बेंच इसकी सुनवाई कर रही है। वह साल भर से सरकार को बोलते आ रही है कि सडक़ों से जानवरों को हटाया जाए, और उनके मालिक उन्हें इस तरह सडक़ों पर छोड़ देते हैं, इसके लिए उन पर जुर्माना लगाया जाए। ऐसे जानवर न सिर्फ राष्ट्रीय और प्रादेशिक राजमार्गों पर डेरा डाले रहते हैं, बल्कि वे शहरों के भीतर की सडक़ों पर भी ट्रैफिक रोकते हुए पड़े या खड़े रहते हैं। इसके अलावा शहर की कॉलोनियों में भी लोगों से कुछ खाना मिलने की उम्मीद में गायों और सांडों का डेरा लगे ही रहता है। इस बीच कल सुबह ही बिलासपुर-कोरबा के बीच एक तेज रफ्तार मालवाहक की चपेट में 20 से अधिक जानवर आ गए, जिनमें 18 की मौके पर ही मौत हो गई। इसके ड्राइवर को गिरफ्तार किया गया है। जिस गौवंश को लेकर जनता तुरंत उत्तेजित हो जाती है, वह पूरे प्रदेश में सडक़ों पर डेरा डाले हुए है, लेकिन उसका कोई इंतजाम हो नहीं पा रहा है।
छत्तीसगढ़ के साथ एक दिक्कत यह है कि पिछले पूरे पांच बरस कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार गौशाला, गौठान, गौवंश, गोबर, गोमूत्र जैसे कई नारे लगाती रही, हजारों करोड़ रूपए सालाना इन पर खर्च भी किया गया, लेकिन जो असली जमीनी दिक्कत थी, वह ज्यों की त्यों बनी रही। न सडक़ों से जानवर हटे, और न ही किसानों के खेतों में अवारा जानवरों का फसलों का हमला ही थमा। अभी हालत यह है कि कुछ जगहों पर किसान अवारा मवेशियों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं कि वे फसल बर्बाद कर रहे हैं। जशपुर में सैकड़ों किसानों ने सडक़ जाम कर दी कि अवारा मवेशी उनकी साल भर की फसल को खा जा रहे हैं, और अगर यही सिलसिला चलते रहा तो किसानों के भूखे मरने की नौबत आ जाएगी। ऐसी नौबत उत्तरप्रदेश में भी हर जगह देखने मिल रही है जहां पर गौवंश को कसाईघर नहीं जाने दिया जाता, और उनकी आबादी बढ़ती जा रही है। लेकिन खेतों को बचाने के लिए जानवरों को कसाईघर भेजना जरूरी नहीं है, उनके लिए अलग से बाड़े बनाकर उन्हें वहां रखना एक समाधान हो सकता है, लेकिन न पिछली सरकार के कार्यकाल में यह हुआ, और न ही अभी होते दिख रहा है।
गाय को मां मानना बड़ी अच्छी बात है, लेकिन यह मां मोटेतौर पर घूरों पर गंदगी खाकर जिंदा है, और उसके पेट से 25-50 किलो पॉलीथीन सर्जरी में निकलता है। सरकारी अनुदान से चलने वाली गौशालाओं का भ्रष्टाचार इतना भयानक है कि भाजपा की रमन सिंह सरकार के वक्त ऐसी अनुदान प्राप्त गौशालाओं में दर्जनों गायों के भूख से मरने के मामले सामने आए थे। लोगों की सामान्य जानकारी भी यही है कि गौशाला चलाने के नाम पर ऐसी संस्थाओं के पदाधिकारी पैसों की अफरा-तफरी करके खुद तो हट्टे-कट्टे सांड सरीखे हो जाते हैं, और गाएं भूख से मरती रहती हैं। इसलिए सरकार गौशाला या गाय के लिए शरणस्थली तो बना सकती है, उसे चलाने का मतलब अंधाधुंध भ्रष्टाचार होगा। आज जब इंसानी मरीजों वाले सरकारी अस्पतालों में मनमाना भ्रष्टाचार चलता है, तो बेजुबान जानवरों के हिस्से की घास खाकर इंसान ही मोटे होते रहेंगे। लेकिन भ्रष्टाचार की वजह से किसी समाधान या इलाज पर काम न करने का मतलब तो देश-प्रदेश को बंद करना हो जाएगा क्योंकि यहां तो हर मामले में, हर काम में भ्रष्टाचार रहता ही है। इसलिए इस चर्चा से परे राज्य सरकार, पंचायत और म्युनिसिपल को जानवरों को रखने के बाड़े बनाने पड़ेंगे, ताकि सडक़ों से जानवर हटें।
आज जब सडक़ पर किसी जानवर को किसी गाड़ी से चोट लग जाने पर उस गाड़ी के मालक-चालक के खिलाफ जुर्म दर्ज होता है, तो उससे एक बुनियादी सवाल यह भी खड़ा होता है कि सडक़ पर किसका हक है, वह किस इस्तेमाल के लिए बनी है? सडक़ पर गाडिय़ों के सामने जानवरों के आने पर या तो उन जानवरों के मालिकों के खिलाफ जुर्म दर्ज होना चाहिए, या फिर सडक़ के रख-रखाव के जिम्मेदार विभाग या पंचायत-म्युनिसिपल पर कार्रवाई होनी चाहिए। छत्तीसगढ़ में किसी गाड़ी से किसी जानवर को बिना लापरवाही के भी ठोकर लग जाए तो पशुओं पर अत्याचार का मामला दर्ज होता है, और कई मामलों में मौके पर ही गौभक्त होने का दावा करने वाले लोग सडक़ पर इंसाफ कर देते हैं। यह नौबत कानून की बुनियादी समझ के खिलाफ है। सडक़ों पर चलने के लिए लोग टैक्स देते हैं, और इसके बाद सडक़ों को ठीक रखने, वहां से जानवरों की बाधा हटाने का जिम्मा सरकार का होता है। लेकिन सरकार अपना नियमित कामकाज नहीं करती है, जिम्मेदारी नहीं निभाती है, तब जाकर अदालत को दखल देनी पड़ती है।
छत्तीसगढ़ में बरसों के बाद यह गणेशोत्सव ऐसा निकला है जिसमें लाउडस्पीकरों का हमला कम हुआ है। हाईकोर्ट लगातार लाठी लेकर बैठा था, और अपने आदेशों पर अमल करवाने के लिए बार-बार चेतावनी जारी कर रहा था। जब अफसरों को अदालत की अवमानना में जेल जाने का खतरा नजर आया, तब जाकर लाउडस्पीकरों की गुंडागर्दी पर काबू किया गया। लेकिन सवाल यह है कि कानून पर अमल की अपनी बुनियादी जिम्मेदारी को सरकार कब तक अनदेखा करती रहेगी, और कब तक हाईकोर्ट उन्हीं मुद्दों को लेकर लगातार सरकार के पीछे पड़े रहेगा? राज्य सरकार और स्थानीय संस्थाओं को अपना जिम्मा पूरा करना चाहिए, सडक़ों पर जानवरों की मौजूदगी से बहुत से इंसानों की मौत भी होती है जिसके लिए इन सडक़ों के रख-रखाव के जिम्मेदार विभाग ही मुजरिम हैं। सरकार को अदालती कटघरे में एक ही मामले पर बार-बार इस तरह खड़े होने से बचना चाहिए। यह नौबत बड़ी शर्मिंदगी की है, और जानवरों के जिन मालिकों को अपनी कानूनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं है, उनकी गिरफ्तारी भी शुरू होनी चाहिए क्योंकि वे जनसुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा खड़ा करते हैं। अब चूंकि जानवरों का कसाईघर जाना बंद कर दिया गया है, इसलिए सरकार को ही इस बढ़ती हुई आबादी का इंतजाम करना होगा।
एक अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित एक शोधपत्र के मुताबिक खानपान के सामानों की पैकिंग से इंसान के शरीर में पहुंचने वाले रसायनों की जांच करने पर 36 सौ से अधिक ऐसे केमिकल मिले हैं। ये केमिकल इंसान के शरीर के हर हिस्से में पहुंच रहे हैं, और इनसे होने वाले नुकसान का पूरा अंदाज लगाना आसान नहीं है। लेकिन इनमें से कई रसायन बहुत ही चिंताजनक खतरनाक किस्म के हैं, और ये इंसान के खून, पेशाब, और मां के दूध में भी मिल रहे हैं। लोगों को याद होगा कि कुछ अरसा पहले हमने माइक्रो प्लास्टिक प्रदूषण के बारे में इसी जगह पर लिखा था, और लोगों के रोज के कपड़ों, पानी, और खानपान के बोतल और डिब्बों से निकलने वाले माइक्रो प्लास्टिक इंसान के बदन के हर हिस्से में पहुंच चुके हैं, और दुनिया के सबसे साफ-सुथरे, और प्रदूषण मुक्त देशों में भी एकदम स्वस्थ वालंटियरों में, 22 में से 17 के खून के नमूनों में माइक्रो प्लास्टिक निकले हैं। अब उसके बाद की यह ताजा खबर और अधिक फिक्र पैदा करती है कि खानपान की पैकिंग से 36 सौ से अधिक किस्म के रसायन बदन में पहुंचे हुए मिले हैं।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम बार-बार लोगों को इस बात के लिए सावधान करते हैं कि बाजार का खाना कम से कम खाना चाहिए। फैक्ट्रियों में बने खाने-पीने के सामान बहुत अलग-अलग किस्मों से नुकसानदेह होते हैं, उनमें नमक, शक्कर, स्वाद बढ़ाने वाले रसायन, तरह-तरह के तेल-घी-मक्खन, खराब होने से बचाने के लिए प्रिजरवेटिव, और भी न जाने क्या-क्या रहता है। हम खासकर बच्चों के संदर्भ में यह बात लिखते हैं कि घर के बने हुए खाने-पीने के सामान उनके लिए सबसे अच्छे रहते हैं, और बाहर के सामान नुकसानदेह होते हैं। अब अगर इतने किस्म के रसायन खून और दूध तक पहुंच जा रहे हैं, तो मां के शरीर से बच्चे के पैदा होने के पहले खून आते-जाते रहता है, और बच्चे के पैदा होने के बाद वे मां के दूध पर ही जिंदा रहते हैं। अब अगर इंसान के शरीर में खून के रास्ते दिल और दिमाग तक माइक्रो प्लास्टिक पहुंचते हैं, इतने किस्म के रसायन पहुंचते हैं, तो इसके खतरों को समझने की जरूरत है। ये खतरे हवा और पानी के प्रदूषण से, सामानों की पैकिंग से, फल-सब्जी, और खाए जाने वाले प्राणियों से लगातार बने रहते हैं। आज ही एक दूसरी खबर बताती है कि किस तरह सडक़ों पर चलने वाली गाडिय़ों के टायर घिसने से निकलने वाले बहुत बारीक कण सांसों के रास्ते सीधे बदन में पहुंचते हैं, और जब सडक़ों से बहता पानी नदी, तालाब, और खेतों में जाता है, तो यह घिसा हुआ रबर पानी और फल-सब्जियों के रास्ते भी कई दूसरे रसायनों से मिलकर इंसान के बदन में दाखिल होता है।
चूंकि जब तक किसी प्रदूषण की गंध न आए, या धुएं की शक्ल में वह न दिखे, उसका स्वाद न आए, या आंखें न जलें, हमें न प्रदूषण दिखता, न कोई खतरा दिखता। नतीजा यह होता है कि जब तक प्रदूषण हमारे दिल की धमनियों में जम चुका रहता है, दिमाग में पहुंच चुका रहता है, अजन्मे बच्चों में पहुंच जाता है, तब तक हमें इसका अहसास भी नहीं होता। अब ऐसे में लोगों के बीच प्रदूषण को लेकर निजी जागरूकता की न तो कोई संभावना है, और न ही उस जागरूकता का कोई इस्तेमाल है। यह तो सरकारों के देखने की बात है कि किस तरह के प्रदूषण को कैसे घटाया जा सकता है। लोगों की निजी जागरूकता इतने काम आ सकती है कि जिन चीजों से रसायन बदन में पहुंचते हैं, उन्हें खरीदना बंद करें, खाना-पीना बंद करें, और उनका इस्तेमाल कम से कम करें। एक तरफ लोगों में जागरूकता की कमी है, दूसरी तरफ बाजार का हमला इतना आक्रामक है कि वह लोगों को अंधाधुंध रसायनों, और खतरनाक पैकिंग के सामान खरीदने के लिए झोंक देता है। दुनिया के कई जिम्मेदार देशों ने जंक फूड कहे जाने वाले चीजों के इश्तहार बच्चों के कार्यक्रमों में दिखाना रोका जा रहा है। इसमें टीवी के इश्तहार भी हैं, और ऑनलाईन इश्तहार भी हैं, और बच्चे इन दोनों को देखकर नुकसानदेह खानपान की तरफ आकर्षित होते हैं। फिर हमें ऐसी मिसालों के लिए पश्चिम के संपन्न और उदार अर्थव्यवस्था के देशों की तरफ देखने की जरूरत नहीं है क्योंकि हिन्दुस्तान में भी अब घर बैठे मोबाइल ऐप से बच्चे भी खाना बुलाना सीख गए हैं, तो तरह-तरह के रसायनों वाला खान-पान, तरह-तरह की लापरवाह और खतरनाक पैकिंग में घर पहुंचने लगा है, और जागरूकता से परे के मां-बाप को यह सहूलियत का भी लगने लगा है कि कुछ पकाना नहीं पड़ता, और बच्चे बिना परेशान किए खा लेते हैं।
बाहरी खान-पान का यह सिलसिला बढ़ते ही जा रहा है। ऐसे में जागरूकता बढ़ाना कुछ हद तक मददगार हो सकता है, लेकिन इसके साथ-साथ सरकारों को भी पैकिंग-मटेरियल को लेकर कानून कड़े करने होंगे। आज भी बड़े-बड़े रेस्त्रां के खाने की पैकिंग का प्लास्टिक फूड ग्रेड का नहीं होता। जो बड़े-बड़े ब्रांड पुट्ठे के डिब्बों में फास्ट फूड भेजते हैं, वे भी खानपान के लायक नहीं रहते। जब घटिया प्लास्टिक में गर्म और खौलता खाना पहुंचता है, या उसी को दुबारा माइक्रोवेव में गर्म किया जाता है, तो उससे फिर कई तरह के रसायन पैदा होते हैं। भारत जैसे देश में न ग्राहक की जागरूकता है, न ग्राहक के बचाव के लिए कानून कड़े हैं, न किसी कानून पर अमल ईमानदारी से होता है। इसके बाद हर किस्म के संगठित उद्योग और कारोबार की लॉबी इतनी मजबूत रहती है कि वह सरकार से पैकिंग पर चेतावनी और जानकारी छापने से बच भी जाती है।
आज तरह-तरह के प्रदूषण के नुकसान लोगों को अपनी खुद की पीढ़ी में भी सांस की गंभीर बीमारियों की शक्ल में दिख रहे हैं, लेकिन खान-पान में पहुंचने वाले, या पानी के रास्ते मिलने वाले माइक्रो प्लास्टिक, और रसायन की शिनाख्त आसान नहीं है। इसलिए जब कई पीढिय़ां खतरे में पड़ चुकी होंगी, तब जाकर हो सकता है कि लोगों की नींद खुले। तब तक नुकसान इतना हो चुका रहेगा कि वह अगली कई पीढिय़ों को नुकसान पहुंचाना जारी रखेगा। आज जब हिन्दुस्तान जैसे देश में लोग आंखों से दिखते प्रदूषण को भी अनदेखा करके रहने में कोई दिक्कत महसूस नहीं करते, तो ऐसा समाज बड़े लंबे नुकसान को न्यौता दे चुका है। देखें यह बर्बादी कहां तक पहुंचती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान में त्यौहारों पर जो अराजकता सामने आती है उसका एक नमूना कुछ दिन पहले भिलाई में देखने मिला जब एक गणेश पंडाल के अराजक लाउडस्पीकर का पुलिस तक जाकर विरोध करने के बाद भी जब उसका कोई असर नहीं हुआ तो दिल के मरीज बुजुर्ग ने खुदकुशी कर ली। वह ध्वनि प्रदूषण और कोलाहल से उपजी शायद पहली खुदकुशी थी। अब उसी भिलाई की खबर है कि वहां एक डीजे संचालक ने इन त्यौहारों में अधिक कमाई के लिए 25 लाख रूपए कर्ज लेकर नया म्युजिक सिस्टम खरीदा था, और हाईकोर्ट द्वारा लगाई गई रोक की वजह से डीजे का कारोबार ठप्प होने से उसने खुदकुशी कर ली है। अगर यह खबर सच है, तो यह एक ऐसे कारोबार की खुदकुशी बताती है जो कि गैरकानूनी पैमानों पर चल रहा था। संगीत बजाने पर तो कोई रोक नहीं है, लेकिन बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में बड़े-बड़े स्पीकर लादकर, सैकड़ों रंग-बिरंगी दूर तक फेंकी जा रही रौशनी वाली लाईटों के साथ सडक़ों पर सबका जीना हराम करने वाले कारोबार पर तो दस बरस से अधिक से भी रोक चली आ रही है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने अनगिनत मामलों में ऐसे फैसले सुनाए हैं, और आदेश दिए हैं। छत्तीसगढ़ में हाईकोर्ट बरसों से लगातार सरकार को चेतावनी देते आ रहा है, और वह सरकार और जिले के अफसरों के खिलाफ जितनी कड़ी जुबान में बोलते आया है, उससे यह साफ था कि कानून क्या है। अब अगर किसी कारोबार ने यह मान लिया है कि बाकी तमाम लोगों का जीना हराम करके उसे अपनी कमाई करनी है, तो उसके लिए अदालत, सरकार, कानून, या चैन से जीने का हक रखने वाली जनता तो जवाबदेह है नहीं।
अब सवाल यह उठता है कि भिलाई में डीजे संचालक की यह कथित खुदकुशी अगर सचमुच ऐसे कारोबारी नुकसान की वजह से हुई है, तो इस नुकसान के लिए कौन जिम्मेदार है? जब यह बात साफ है कि कानून इसके खिलाफ है, जनता की मौत हो रही है, सभ्य समाज हिंसक होते चल रहा है, और निठल्लों की फौज सडक़ों पर नाचती है जिससे जनजीवन अस्त-व्यस्त होता है, लाखों लोगों का रोज का कामकाज प्रभावित होता है, और पुलिस एक निहायत ही गैरजरूरी दबाव में उलझ जाती है कि उसे अलग-अलग धर्मों के धर्मान्ध लोगों का विरोध झेलकर अदालत के आदेश पर अमल करना होता है, कानून का पालन करवाना होता है, या फिर मीडिया, सामाजिक कार्यकर्ता, और डॉक्टरों की आलोचना झेलनी पड़ती है। हमारा ख्याल है कि छत्तीसगढ़ सरकार को पिछले बरसों में हाईकोर्ट के दखल के बिना भी अपनी साधारण संवैधानिक जिम्मेदारी को पूरा करते हुए इस अराजकता को खत्म करना था। लेकिन न पिछली कांग्रेस सरकार ने यह किया, न ही मौजूदा भाजपा सरकार का ऐसा कोई इरादा दिखता है। हाईकोर्ट की रोजाना की दखल के बीच भी छत्तीसगढ़ में सिर्फ अफसरों के स्तर पर ऐसे गोलमोल आदेश जारी किए गए जिनका कोई मतलब नहीं था। ऐसे ढुलमुल रवैये का नतीजा यह हुआ कि नेताओं की शह पर गैरकानूनी शोरगुल करने वाले डीजे संचालकों के हौसले आसमान पर बने रहे, और हालत यह हो गई कि उन्होंने सोशल मीडिया पर कान खराब होने की चेतावनी देने वाले डॉक्टर को हिंसक धमकी देना शुरू कर दिया। यही अराजकता उनका हौसला इस गैरकानूनी धंधे में आगे पूंजीनिवेश तक ले गई, और कर्ज लेकर भी उन्होंने कानून तोडऩे वाला सामान खरीदना जारी रखा। अब इसके लिए अदालत या सरकार, या समाज के आम लोग तो जिम्मेदार हो नहीं सकते, अगर किसी को ऐसा खतरा उठाने का शौक है। कानून को तोडक़र किए जाने वाले कारोबार में किसी नुकसान की आशंका पर तो उस कारोबारी को ही सोचना पड़ता है। फिर यह कारोबार तो ऐसा है जो महज टैक्स चोरी का नहीं है, यह आम जनता की जिंदगी बर्बाद करने वाला कारोबार है, और इसमें घाटे को लेकर अगर किसी कारोबारी ने खुदकुशी की है तो वह बात तो तकलीफदेह है, लेकिन इस कारोबार के लोगों को आपस में ही यह सोचना होगा कि शोरगुल की गुंडागर्दी पर अब जब अदालत भारी पड़ रही है, और पिछले कुछ बरसों से लगातार पड़ रही है, तो इस धंधे से धीरे-धीरे हाथ समेट लेना बेहतर होता, न कि इसमें और पूंजीनिवेश करना।
सरकार और अदालत जिस बात को गैरकानूनी करार दे चुकी है, उसमें पैसा लगाना लोगों के अपने विवेक का मामला रहता है। आज अगर कोई खेती की जमीन खरीदकर उस पर गैरकानूनी प्लॉटिंग करके उस पर सडक़, नाली बनाकर, बिजली के खंभे तनवाकर प्लॉट बेच रहे हैं, तो प्रशासन उसे जब तहस-नहस करता है, तो वे अपनी पूंजीनिवेश का रोना नहीं रो सकते, यह काम शुरूआत से ही गैरकानूनी था। ऐसे बहुत से काम है। कहीं कोई बिजली चोरी करके उसे मुफ्त का सामान मानकर कारखाना चलाए, और उसे पकड़ लिए जाने पर खुदकुशी करे, तो इसे कोई जुर्म तो कहा नहीं जा सकता। बहुत से स्कूल-कॉलेज मान्यता मिलने के पहले दाखिला दे देते हैं, और बाद में मान्यता न मिलने पर बच्चों के भविष्य की दुहाई देते हैं।
लाउडस्पीकर का गैरकानूनी शोरगुल करने का कारोबार हो, या गैरकानूनी टैक्सी चलाने का, या अवैध प्लॉटिंग करने का, इन सब पर सरकार को समय रहते कार्रवाई करनी चाहिए, कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए, ताकि यह सिलसिला जड़ से ही मिटाया जा सके। जब अराजक धंधों का बड़ा सा पेड़ लहलहाने लगे, उसके बाद उसकी टहनियों को काटना भी भारी पड़ता है। लेकिन जब वह बीज से निकलकर जमीन फोड़ता ही है, तभी उसे निकालकर फेंकना आसान रहता है। सरकार को कानून तोडऩे वाले धंधों को बिना देर किए हुए खत्म करना चाहिए ताकि लोग उनमें अधिक पूंजीनिवेश का रोना न रोएं। डीजे संचालक की खुदकुशी तकलीफ की खबर है, लेकिन यह कानून तोडऩे की ताकत पर लोगों के भरोसे का नतीजा है कि यह धंधा अदालत को ठेंगा दिखाते हुए हमेशा ही जारी रहेगा। लोगों को यह समझना चाहिए कि गैरकानूनी काम किसी भी दिन बंद हो सकता है, और उसमें पैसा डालना, पैसे को अंधेरे गहरे कुएं में डालने सरीखा ही रहता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
इजराइल ने अपनी सरहद से लगे देश लेबनान की जमीन पर बसे हुए हथियारबंद संगठन, हिजबुल्ला, पर हमला करने के लिए मिसाइल और रॉकेट हमलों के साथ-साथ जो नया पेजर और वॉकीटॉकी हमला किया है, उसने पूरी दुनिया के सामने एक नया खतरा, और एक नई चुनौती पेश कर दी है। दो दिनों तक लगातार, पहले दिन पेजरों पर एक संदेश आया, और हजारों पेजरों में विस्फोट हुआ। दर्जन भर लोग मर गए, और हजारों लोग घायल हुए। देश भर में अलग-अलग जगह जहां-जहां पेजर इस्तेमाल हो रहे थे, उनमें हजारों की संख्या में विस्फोट हुआ। ये पेजर सिर्फ हिजबुल्ला के लड़ाके इस्तेमाल नहीं कर रहे थे, इन्हें आम लोग भी इस्तेमाल कर रहे थे, और कम से कम एक अस्पताल की एक नर्स अपने पेजर में हुए धमाके से मारी गई। अगले दिन हिजबुल्ला के इस्तेमाल किए जाने वाले वॉकीटॉकी में भी धमाके हुए, और करीब 30 लोग मारे गए। इन धमाकों से बेकसूर आम नागरिक भी मारे गए, और बच्चे भी। इनके आसपास आग भी लग गई, और कई दूसरे तरह की बर्बादी भी हुई। लेबनान की खबर कहती है कि वहां कई घरों और इमारतों के ऊपर सोलर पैनल में भी धमाके हुए, और उनसे जुड़ी बैटरियों में भी।
पेजर मोबाइल कंपनियों के नेटवर्क से जुड़े हुए नहीं थे, ये एक अलग रेडियो सर्विस से चलते थे, और ये मोबाइल फोन के मुकाबले अधिक सुरक्षित रहते थे, इसलिए हिजबुल्ला इनका इस्तेमाल करता था ताकि न इसकी लोकेशन इजराइल को दिख सके, न ही वह इसके टेक्स्ट-मैसेज में तांक-झांक कर सकें। लेकिन इजराइल ने इससे हजार कदम आगे बढक़र एक दूसरा हैरतअंगेज कारनामा कर दिखाया। उसने फौजी कार्रवाई करने के लिए आम जनता को भी बेधडक़ मारने से परहेज नहीं किया। अभी तक उसने अपनी परंपरा के मुताबिक इस खुफिया हमले की जिम्मेदारी नहीं ली है, लेकिन हर किसी को यह अंदाज है कि सिवाय इजराइल इस काम को किसी और ने नहीं किया है। योरप के बने हुए ये पेजर खाड़ी के किसी देश से किसी के भुगतान के बाद लेबनान पहुंचे थे, और ऐसा अंदाज है कि इन्हें हिजबुल्ला के लिए उसके समर्थक और प्रायोजक देश ईरान ने भिजवाया था। लेकिन इनमें से बहुत से पेजर आम लोग भी इस्तेमाल कर रहे थे। अभी तक की जांच से समझ यही आया है कि फैक्ट्री से निकलने के बाद और लेबनान पहुंचने के पहले किसी जगह इजराइल ने इसके स्टॉक में घुसपैठ की, और हर पेजर को खोलकर उसके भीतर आरडीएक्स जैसा बहुत खतरनाक विस्फोटक ऐसे चिप और प्रोग्राम के साथ डाला जिससे कि पेजर पर कोई एक खास संदेश पहुंचते ही उसमें विस्फोट हो जाए।
अब हम लेबनान और इजराइल के इस मुद्दे से ऊपर उठकर पूरी दुनिया के लिए इस तकनीकी खतरे और चुनौती पर बात करना चाहते हैं। मोबाइल फोन से भी छोटा पेजर अगर विस्फोटक बनाया जा सकता है, तो आज तो दुनिया की अधिकतर आबादी मोबाइल फोन, लैपटॉप, पॉवर बैंक, ब्लूटूथ, और कई तरह के इलेक्ट्रॉनिक सामान इस्तेमाल करती है जो कि वाईफाई या इंटरनेट से जुड़े भी रहते हैं। अब अगर किसी सामान में विस्फोटक डाल देना इतना ही आसान है, तो फिर हिजबुल्ला जैसे फौजी दर्जे के हथियारबंद संगठन की सारी सावधानी के बाद भी अगर इजराइल ऐसा कर पाया है, तो फिर कल किसी भी देश की किसी कंपनी में घुसपैठ करके वहां से किसी एक खास देश, या संगठन, या कारोबार के लिए जाने वाले कम्प्यूटर और इलेक्ट्रॉनिक सामान में भी ऐसा ही किया जा सकता है। एक किस्म से देखें तो जिस तरह छत्तीसगढ़ के बस्तर में नक्सली जंगल में जगह-जगह ऐसे विस्फोटक लगाकर रखते हैं कि जिन पर किसी का पैर पड़े, या वहां से कोई गाड़ी निकले तो बड़ा विस्फोट हो जाए, उसी तरह अब इजराइल इतनी ताकत रखता है कि दुनिया के किसी देश से दुनिया के किसी खरीददार तक जाने वाले सामानों को वह बम बना दे।
अब सवाल यह उठता है कि सबसे अधिक कड़ी हिफाजत में रहने वाले दुनिया के नेता या सबसे बड़े कारोबारी भी मोबाइल फोन, लैपटॉप, और कमरे में दर्जनों दूसरी वाईफाई-इंटरनेट से जुड़ी चीजों का इस्तेमाल करते हैं। अब अगर कारखानों से निकलने के बाद महत्वपूर्ण व्यक्तियों तक पहुंचते हुए ये सामान बम बना दिए जाएं, तो लोग कितने सामानों से कैसा परहेज कर सकते हैं? अभी फटे पेजरों में तीन-तीन ग्राम आरडीएक्स डालने का अंदाज लगाया जा रहा है, तीन ग्राम का तो कोई ऐसा पुर्जा जैसा दिखता विस्फोटक भी मोबाइल फोन या दूसरे उपकरण में लगाया जा सकता है जो कि उसे खोलने पर भी समझ न पड़े। ऐसे में अभी एक अमरीकी लेख में यह खतरा बताया गया है कि अधिकतर अंतरराष्ट्रीय उड़ानों में अब वाईफाई मुहैया रहता है, और लोग पूरे सफर में अपने फोन-लैपटॉप का इस्तेमाल करते ही हैं। अब अगर उन पर किसी संदेश को भेजकर उनमें विस्फोट करवाया जा सकता है, तो कोई भी अंतरराष्ट्रीय उड़ान या उसके मुसाफिर तभी तक महफूज हैं, जब तक इजराइल उन्हें मारना जरूरी नहीं समझता।
आज ऐसी कल्पना करना भी मुश्किल है कि दुनिया के कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति तमाम संचार उपकरणों, और इंटरनेट-वाईफाई जैसे सिग्नलों से दूर रह सकते हों। और फिर जब इजराइल ने एक राह दिखा ही दी है, तो फिर दुनिया के आतंकी संगठन बहुत अधिक पीछे भी नहीं रहेंगे। अगले कुछ वक्त में वे लोगों की गाडिय़ों में, जो कि अब इंटरनेट से जुड़ी रहती हैं, घर के फ्रिज, एसी, और दूसरे घरेलू उपकरण जो कि इंटरनेट से जुड़े रहते हैं, इन सबको बम बनाकर चुनिंदा लोगों के आसपास पहुंचाने का काम हो सकता है। और जब कोई निजी उपकरण लेकर लोग किसी विमान में उड़ेंगे, तो उन्हें उड़ाकर पूरे विमान को उड़ाना भी आसान बात हो सकती है। इजराइल वैसे भी दुनिया का सबसे बड़ा मुजरिम-देश है, जिसके खिलाफ प्रस्ताव पास कर-करके संयुक्त राष्ट्र संघ अपने को दुनिया का सबसे बेअसर संगठन साबित कर चुका है। उसकी खुफिया एजेंसी मोसाद दुनिया में सत्ता और बड़े कारोबार से जुड़े भयानक जुर्म करने के लिए बदनाम है। और जिस तरह से वह फिलीस्तीन में हमास के हथियारबंद लड़ाकों को मारने के लिए उनसे सौ-सौ गुना बेकसूर निहत्थे नागरिकों को मार रहा है, उससे जाहिर है कि वह किसी एक मुसाफिर को मारने के लिए पूरे के पूरे विमान को भी उड़ा सकता है, या किसी सभागृह में अगर इजराइल विरोधी लोग इकट्ठा हैं, और उनमें से कुछ के मोबाइल-लैपटॉप तक उसकी घुसपैठ हो चुकी है, तो वह सभागृह के सैकड़ों लोगों को भी उड़ा सकता है। इजराइल ने बेकसूर नागरिकों पर इस बार के ताजा हमले से यह साबित किया है कि बेकसूर मौतों से उसे कोई परहेज नहीं है। उसने दुनिया भर के आतंकियों को एक नई राह दिखाई है, और आज आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मेहरबानी से आतंकी संगठन भी अपने निशाने आसानी से छांट सकते हैं, और यह पता लगा सकते हैं कि उन्होंने कौन से इलेक्ट्रॉनिक उपकरण ऑर्डर किए हैं, और रास्ते में उन पार्सलों में घुसपैठ करके उनमें विस्फोटक और ऐसा प्रोग्राम डाल सकते हैं कि उन्हें जब चाहे तब बम की तरह उड़ा सकें। दुनिया पर यह एक बहुत बड़ा वास्तविक खतरा इस रफ्तार से आया है कि किसी भविष्यवाणी के बिना कोई उल्का पिंड धरती से आ टकराया है। इजराइल की आतंकी क्षमता और घुसपैठ की उसकी ताकत की यह नई नुमाइश उसके अमरीकी पितामह की फिक्र का सामान भी है क्योंकि इजराइल की राह पर चलकर कोई अमरीका विरोधी आतंकी अब कहीं भी, किसी भी विमान को गिराने की साजिश कर सकते हैं। दुनिया के आज के ओसामा-बिन-लादेनों को एक नई प्रेरणा देने, और एक नया हथियार देने के लिए इजराइल का नाम हमेशा ही इतिहास में काले अक्षरों में लिखा जाएगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया में हिन्दुओं की श्रद्धा के एक सबसे बड़े केन्द्र, आन्ध्रप्रदेश के तिरुपति मंदिर की ताजा खबर दिल दहलाने वाली है। वहां राज्य सरकार ने इस मंदिर में हर दिन बनने वाले तीन लाख लड्डुओं में इस्तेमाल होने वाले कई ट्रक घी को जांच के लिए प्रयोगशाला भेजा, तो पता लगा कि इसमें मछली का तेल, गाय की चर्बी, और सुअर की चर्बी मिली हुई थी। यह घी एक निजी सप्लायर से मंदिर लगातार ले रहा था, जिसके पहले कर्नाटक राज्य के दुग्ध संघ के एक प्रतिष्ठित ब्रांड, नंदिनी का घी मंदिर में इस्तेमाल किया जाता था। यह मंदिर दुनिया में सबसे अधिक कमाई वाला हिन्दू मंदिर है, और यहां रोज करीब पौन लाख दर्शनार्थी भक्त आते हैं। हर दिन करीब साढ़े तीन लाख लड्डू बनते हैं, और राज्य की पिछली जगन मोहन सरकार ने पांच निजी फर्मों को इसके लिए घी सप्लाई करने का ठेका दिया था। अब गुजरात स्थित राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड की प्रयोगशाला ने लड्डुओं और घी की जांच करके बताया है कि इसमें मछली-तेल, गाय और सुअर की चर्बी मिली है। घी के कारोबार में यह जानकारी आम है कि उसके दाम कम करने के लिए लोग उसमें जानवरों की चर्बी मिला देते हैं। कर्नाटक दुग्ध संघ ने मंदिर को दिए जा रहे दूध पर लंबे समय से दी जा रही रियायत जारी रखने से मना कर दिया था, और उसके बाद जगन सरकार के मनोनीत मंदिर ट्रस्ट ने खुले बाजार से घी सप्लाई करने के ठेके तय किए थे। खबरें बताती हैं कि मुख्यमंत्री रहते हुए जगन मोहन रेड्डी ने तिरुपति मंदिर के ट्रस्ट में अपने चाचा और दूसरे किसी रिश्तेदार को भी मनोनीत कर दिया था, और उन्हीं के कार्यकाल में यह घी-में-चर्बी कांड सामने आया है। अब जगन मोहन रेड्डी से बहुत खराब रिश्तों वाली चन्द्राबाबू नायडू की सरकार आन्ध्र में है, और गुजरात में भी भाजपा की सरकार है, और एनडीडीबी केन्द्र सरकार के मातहत सहकारी संघ है, जिसकी प्रतिष्ठित प्रयोगशाला ने यह रिपोर्ट दी है। आन्ध्र में पिछली जगन सरकार के रहते आज के मुख्यमंत्री चन्द्राबाबू नायडू से भयानक बदसलूकी की गई थी, और ऐसे में तमाम राजनीतिक समीकरणों को देखते हुए हो सकता है कि कुछ लोगों को घी की ऐसी जांच रिपोर्ट पर कुछ शक भी हो।
किसी धर्मस्थल पर कुछ सप्लाई करते हुए, या धर्मस्थल की सम्पत्ति में घपला करते हुए किसी को कोई परहेज रहता हो, ऐसा हमें बिल्कुल ही नहीं लगता। हम अपने चारों तरफ मठ-मंदिर, चर्च, मस्जिद, और दूसरे धर्मस्थानों की जमीनों का अवैध कारोबार देखते हैं। अधिकतर धार्मिक स्थानों के ट्रस्टी वहां की जमीनें बेच खाते हैं, प्रतिमाओं के गहने बेच देते हैं, संपत्ति की अफरा-तफरी करते हैं। अगर ईश्वर पर ही उनका भरोसा होता, तो ऐसा करते हुए वे अपने लिए नर्क की गारंटी मान लेते, और इससे दूर रहते। लेकिन उन्हें मालूम है कि ऊपर किसी तरह का कोई नर्क नहीं है, और स्वर्ग की धारणा इसी जमीन पर हकीकत है, अगर ईश्वर के नाम पर जमा पैसा चुराया जाए। फिर अभी तिरुपति में जो नया चर्बीकांड सामने आया है, वह मामूली भ्रष्टाचार से बहुत आगे बढक़र है। इससे तो उन शाकाहारियों की आस्था पर भी चोट लगी है जो कि अपनी धार्मिक या दूसरी किस्म की मान्यताओं के चलते मांसाहार से दूर रहते हैं, यहां तक कि बहुत से लोग अंडे भी नहीं खाते। अब अगर इन बरसों में ऐसे लोगों ने तिरुपति का प्रसाद खाया होगा, तो आज उनके दिल पर क्या गुजर रही होगी? लोग किसी के जन्मदिन के केक को भी यह मानकर छोड़ देते हैं कि उसमें शायद अंडा मिला होगा, अब ऐसे लोग आज अपने बदन के साथ आराम से रह नहीं पाएंगे क्योंकि उसमें गाय और सुअर की चर्बी घुस चुकी है। यह मामला सिर्फ ट्रस्ट को आर्थिक नुकसान पहुंचाने का भ्रष्टाचार नहीं है, यह करोड़ों लोगों की धार्मिक और शाकाहार की भावनाओं को जख्मी करने का भी है। अगर इस पूरे सिलसिले के पीछे कोई राजनीतिक साजिश नहीं है, और अगर ये सैम्पल किसी दूसरी प्रतिष्ठित प्रयोगशाला में भी चर्बी ही साबित करते हैं, तो ऐसे कारोबारियों, और भ्रष्ट ट्रस्टी-अधिकारियों पर बहुत कड़े कानूनों के तहत मुकदमा चलना चाहिए। लोग तो तिरुपति जाकर लौटते हैं, तो वहां का प्रसाद अधिक से अधिक लोगों में बांटते हैं कि इससे उन्हें और अधिक पुण्य मिलेगा। चर्बी का ऐसा कारोबार तो लोगों की आस्था को हिलाकर रख देगा, और इससे बाजार में प्रचलित घी के बहुत से ब्रांड भी नुकसान झेलेंगे। देश में एक चर्चित और विवादास्पद आयुर्वेद ब्रांड भी अपना घी इस दाम पर बेचता है जिस पर घी बनाने की लागत भी नहीं निकल सकती। कई लोगों का शक है कि यह ब्रांड भी इस दाम पर खालिस घी नहीं बेच सकता। तिरुपति से निकला हुआ संदेश तो यही है कि बाजार में मौजूद हर ब्रांड को ठीक से परखा जाए ताकि लोगों की धार्मिक और शाकाहारी भावनाओं की हत्या न हो। फिर इस बात को समझने की जरूरत है कि मांसाहारी लोगों में भी एक बड़ी आबादी ऐसी है जो गाय की चर्बी की कल्पना नहीं कर सकती, दूसरी तरफ एक दूसरे धर्म से जुड़ी हुई आबादी है जो कि सुअर को छूने की भी कल्पना नहीं कर सकती। इस तरह घी के कारोबार में चर्बी को बर्दाश्त करना मुमकिन नहीं है। यह भी समझने की जरूरत है कि जब दुनिया के सबसे बड़े हिन्दू मंदिर में प्रसाद बनाने के लिए चर्बी खपाई जा रही थी, तो फिर बाजार में घी की बड़ी खपत वाले बिस्किट और केक के कारखाने, खानपान की दूसरी चीजों के कारखाने, रेस्त्रां, और फास्ट फूड के कारोबारी पता नहीं क्या-क्या इस्तेमाल करते होंगे।
हम एक बार फिर तिरुपति पर लौटें, तो यह पूरा मामला धर्म के मामले में सरकार चला रहे नेताओं के मनोनीत ट्रस्टियों का मामला है। धर्म और राजनीति का घालमेल बड़ा खतरनाक होता है, और इन दोनों का मेल जानलेवा भी हो सकता है। इससे लोकतंत्र पर भी चोट पहुंचती है, और लोगों के खान पान की आस्था पर भी। धर्म और राजनीति का मेल बहुत किस्म के जुर्म करने की ताकत और मिसाल रखता है, हम अपने आसपास के धार्मिक ट्रस्टों पर काबिज राजनेताओं को देखते हैं, तो उनके लिए ईश्वर के नाम पर हर तरह का जुर्म बड़ा आसान लगता है। हम मंदिर के लड्डुओं में गाय और सुअर की चर्बी को धार्मिक मामले से अधिक शाकाहार का मामला मानना चाहते हैं। धार्मिक आस्था तो कई तरह के जुर्म के साथ-साथ भी चलती है, लेकिन शाकाहार की भावना किसी भी तरह के धार्मिक जुर्म से परे रहती है। तिरुपति के इस मामले में जिम्मेदार लोगों को बहुत कड़ी सजा मिलनी चाहिए, और शाकाहारियों की किसी संस्था को तिरुपति मंदिर ट्रस्ट की तरफ से उन तमाम लड्डुओं के दाम दान में देने चाहिए जो कि इन घी सप्लायरों से आए घी से बनकर बिके हुए लड्डुओं से कमाए गए थे। तिरुपति मंदिर लड्डुओं को बेचता भी है, उसकी रसीद कटती है, सप्लाई का ठेका शुरू होने से अब तक का हिसाब पल भर में निकल आएगा, और उस जुर्माने से शाकाहार की धारणा को बढ़ाया जा सकता है।
कांग्रेस के सबसे बड़े नेता, और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी अभी अमरीका प्रवास पर भारत में सिक्खों की स्थिति पर एक झूठा बयान देकर अभी-अभी पूरी तरह से अवांछित विवाद खड़ा कर चुके हैं, लेकिन राजनीतिक दलों की बखेड़े में फंसने की हसरत खत्म होने का नाम नहीं लेती है। अभी कांग्रेस के एक फैसले ने देश के करीब सौ भूतपूर्व बड़े अफसरों को इस पार्टी के खिलाफ खड़ा कर दिया है। दिलचस्प बात यह है कि जम्मू के चुनावों में जहां भाजपा और कांग्रेस भी दो प्रमुख पार्टियां रहेंगी, वहां पर भाजपा के कटु आलोचक, और कांग्रेस के अधिकतर मुद्दों पर समर्थक रहे हुए हर्षमंदर भी कांग्रेस के खिलाफ हो गए हैं। हर्षमंदर एक भूतपूर्व आईएएस हैं जो गुजरात दंगों के पहले से भाजपा और मोदी के खिलाफ रहते आए हैं, लेकिन अभी जिन 96 अफसरों ने कांग्रेस अध्यक्ष को एक कड़ा विरोधपत्र भेजा है, उस पर हर्षमंदर के भी दस्तखत हैं।
यह विरोधपत्र जम्मू के बसोहली विधानसभा क्षेत्र से चौधरी लाल सिंह नाम के एक आदमी को कांग्रेस का उम्मीदवार बनाने के खिलाफ है। यह आदमी 2018 में भाजपा का मेम्बर था, और जब जम्मू के कठुआ में एक मंदिर में एक गरीब मुस्लिम खानाबदोश बच्ची से पुजारी की अगुवाई में आधा दर्जन से अधिक लोगों ने बलात्कार करके उसे मार डाला था, तो इन तमाम हिन्दू बलात्कारियों को बचाने के लिए जम्मू में तिरंगे और हिन्दू झंडों के साथ जो जुलूस निकलते थे, उनकी अगुवाई चौधरी लाल सिंह करता था। इन भूतपूर्व अफसरों ने कांग्रेस अध्यक्ष को लिखा है कि कठुआ का यह गैंगरेप भारत के ताजा इतिहास का सबसे भयानक नफरती-जुर्म था, और उसके मुजरिमों (बाद में सबको सजा हुई) को बचाने के लिए यही चौधरी लाल सिंह जुलूस निकालता था। उस वक्त भाजपा में रहा हुआ यह आदमी अब इस चुनाव में कांग्रेस का उम्मीदवार बन गया है। इस चिट्ठी में कांग्रेस अध्यक्ष को याद दिलाई गई है कि इस एक घटना ने जनचेतना को ऐसा झकझोरा था जैसा कि बहुत कम साम्प्रदायिक नफरती-जुर्म कर पाते हैं। आज जब देश भर में बलात्कार के जुर्म के खिलाफ जनता बुरी तरह विचलित है उस वक्त इस आदमी को अपना उम्मीदवार बनाकर कांग्रेस पार्टी अपनी वह नैतिक ताकत खो चुकी है जिसे कि वह नफरत और हिंसा के खिलाफ रखने का दावा करती है। इस चिट्ठी पर सौ के करीब आईएएस, आईएफएस, और अखिल भारतीय सेवाओं के भूतपूर्व अफसरों के नाम हैं। इस पर हर्षमंदर के अलावा नजीब जंग, जॉय ओम्मेन, जैसे नाम भी हैं जो कि अलग-अलग समय पर छत्तीसगढ़-एमपी में काम कर चुके हैं। इस पर भूतपूर्व आईएएस अरूणा रॉय, और एन.सी.सक्सेना का नाम भी दिखता है जो कि हर्षमंदर के साथ-साथ यूपीए सरकार के वक्त सोनिया गांधी की अगुवाई वाली एन.ए.सी. (राष्ट्रीय सलाहकार परिषद) के सदस्य थे।
कांग्रेस के लिए यह नौबत एकदम ही भयानक है। हमारा ख्याल है इसके बाद महिलाओं पर हिंसा, और साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर बोलने का कांग्रेस का हक खत्म ही हो जाता है। इसके बाद कांग्रेस पार्टी किस मुंह से दूसरी पार्टियों के पसंदीदा बलात्कारियों की तरफ उंगली उठा सकेगी? एक बात तो यह भी समझ से परे है कि मुस्लिम खानाबदोश बच्ची के गैंगरेप के मुजरिमों को बचाने वाले को कांग्रेस में दाखिल कराना इस पार्टी की कौन सी मजबूरी थी? देश में यह लगातार तीन चुनाव हार ही चुकी है, जम्मू की एक विधानसभा सीट और हार जाने से इस पार्टी का भविष्य प्रभावित नहीं हो रहा था। न ही यह बलात्कार-समर्थक घोर साम्प्रदायिक-हिंसक नेता संसद में एक वोट से सरकार बचाने की हालत में था कि सरकार बचाने उसका साथ ले लिया जाता। यह तो कांग्रेस उम्मीदवार तय करने की बात थी, और पार्टी ने इस सीट पर अपने सारे स्वघोषित नीति-सिद्धांतों का पिंडदान कर दिया है। हमारा मानना है कि देश के रिटायर्ड अफसर इस पार्टी को इसकी नैतिकता याद दिला रहे हैं, और यह खुद उससे परे हो चुकी है। क्या कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी उम्मीदवार छांटते हुए उनके पुराने सार्वजनिक रिकॉर्ड भी नहीं देखती कि वे क्या-क्या करते आए हैं? क्या भाजपा से एक गंदगी कांग्रेस में लाते हुए भी इस पार्टी के भीतर किसी को गांधी-नेहरू की याद नहीं आई?
जम्मू के जानकार लोगों से बात करने पर यह भी पता लगता है कि कठुआ में बलात्कार की शिकार बच्ची की तरफ से अदालत में उसका केस लडऩे वाली एक हिन्दू महिला वकील, दीपिका को वकील तबके का बहिष्कार झेलना पड़ा था, धमकियां झेलनी पड़ी थीं, और इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू की अदालत से हटाकर पंजाब के पठानकोट की अदालत में भेजा था क्योंकि भारी सामाजिक दबाव और तनाव के चलते जम्मू में इसकी निष्पक्ष सुनवाई मुमकिन नहीं थी। बाद में अदालत ने सात में से छह लोगों को कैद सुनाई थी, तीन को 25-25 बरस और तीन को 5-5 बरस। और एक नाबालिग को अलग से जुवेनाइल कोर्ट में सजा सुनाई गई। कांग्रेस का पाखंड यह है कि जिस दिन कठुआ में इन बलात्कारियों को बचाने के लिए इसी चौधरी लाल सिंह की अगुवाई में जुलूस निकला था, उसके अगले दिन दिल्ली में इस बच्ची के बलात्कार-कत्ल के खिलाफ कैंडल मार्च निकल था जिसमें राहुल और प्रियंका दोनों शामिल हुए थे। अब बलात्कारी-बचाओ जुलूस का नेता कांग्रेस का उम्मीदवार है। यह भी याद रखने की बात है कि जम्मू-कश्मीर की उस वक्त की गठबंधन सरकार में यही चौधरी लाल सिंह भाजपा की तरफ से मंत्री था, उसे और भाजपा के एक और मंत्री को बलात्कारी-बचाओ जुलूस की वजह से पार्टी ने मंत्री पद से हटाया था। अब भाजपा की उस गंदगी को कांग्रेस अपने सीने पर मैडल की तरह टांगकर नैतिकता की शोभायात्रा निकाल रही है। जम्मू के लोगों को अच्छी तरह याद है कि जब भारत जोड़ो यात्रा के तहत राहुल गांधी जम्मू में दाखिल हुए थे, तो इसी चौधरी लाल सिंह ने चारों तरफ बड़े-बड़े होर्डिंग सहित राहुल के स्वागत का इंतजाम किया था। यह एक अलग बात है कि राहुल के मंच पर इस आदमी को नहीं आने दिया गया था।
कांग्रेस की यह बड़ी दुखभरी कहानी है जो कि पार्टी के एक बहुत बुरे पतन का सुबूत है। इस आदमी की विधानसभा सीट बसोहली पर वोट 1 अक्टूबर को डलने हैं। नाम वापिसी की तारीख दो दिन पहले निकल चुकी है, और उसके बाद ही इन भूतपूर्व अफसरों ने निराश होकर कांग्रेस अध्यक्ष को चिट्ठी लिखी है। हम राहुल गांधी को बस इतना याद दिलाना चाहते हैं कि 1952 के आम चुनाव में जब नेहरू अपनी पार्टी का चुनाव प्रचार करने गए, और उन्हें चुनावी आमसभा के मंच पर ही पता लगा कि उनका उम्मीदवार एक बुरा इंसान है तो उन्होंने वोटरों से अपील की थी कि कांग्रेस उम्मीदवार को वोट न दें। राहुल गांधी में, और कांग्रेस पार्टी में अगर जरा भी नैतिकता बाकी है, तो उन्हें जम्मू जाकर इस सीट पर अपनी पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ प्रचार करना चाहिए। राहुल को अगर नेहरू की मिसाल से कोई सबक नहीं मिल सकता, तो वे राजनीतिक-नैतिकता में पूरी तरह निरक्षर रह जाएंगे।
छत्तीसगढ़ ने कल एक अलग किस्म का रिकॉर्ड कायम किया है, अपने ही देश भारत सरकार की घोषित नीतियों के खिलाफ जाकर इसकी पुलिस ने मुस्लिमों के ईद मिलादुन्नबी जुलूस में फिलीस्तीन के झंडे लगाने को लेकर जुर्म कायम किया है, और पांच मुस्लिमों को गिरफ्तार भी कर लिया है। पुलिस ने इन लोगों को नए लागू किए गए भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम की धारा 197 (2) के तहत गिरफ्तार किया है। इस कानून को देखें तो यह राष्ट्रीय अखंडता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले, लांछन लगाने, बयान देने, लिखने, या कोई नजारा पेश करने पर लागू होता है। इसका सेक्शन-2 किसी उपासना स्थल में या धार्मिक उपासना या धार्मिक कर्म में लगे हुए किसी जमाव में यही सब काम करने पर लागू होता है, और इसमें पांच बरस तक कैद का प्रावधान है। बिलासपुर के कुछ धर्मान्ध लोगों ने पुलिस में जाकर ईद के मौके पर फिलीस्तीनी झंडे फहराने को देशद्रोह करार करते हुए शिकायत दर्ज कराई थी, और ऐसे वीडियो जारी किए थे कि आतंकियों के हिमायती ऐसे लोगों को बिलासपुर में रहने नहीं दिया जाएगा। पुलिस ने आनन-फानन कुछ मुस्लिम नौजवानों को गिरफ्तार किया, और देश की अखंडता को नुकसान पहुंचाने का यह जुर्म लगा दिया।
यह मौका मुस्लिमों के एक बड़े सालाना त्यौहार ईद मिलादुन्नबी का था, और इस मौके पर फिलीस्तीन के झंडे फहराने का एक संदर्भ भी था। मुस्लिम देश फिलीस्तीन इजराइल के हमलों तले मलबा बन गया है, और 40 हजार से अधिक लोगों को मार डाला गया है। यह बात संयुक्त राष्ट्र संघ पिछले 11 महीनों में सौ से अधिक बार बोल चुका है, और दुनिया के बहुत से देश फिलीस्तीन पर इस जुल्म के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय अदालतों में जा चुके हैं जहां से इजराइल के खिलाफ फैसले हुए हैं। खुद संयुक्त राष्ट्र संघ ने इतने प्रस्ताव इजराइल के खिलाफ पास किए हैं, इतने बार सार्वजनिक रूप से इन हमलों को रोकने की मांग की है कि उसकी गिनती मुमकिन नहीं है। दूरदर्शन की वेबसाइट बताती है कि 22 अक्टूबर 2023 को भारत ने फिलीस्तीनियों के लिए साढ़े 6 टन मेडिकल मदद, और 32 टन आपदा प्रबंधन सामान भारतीय वायुसेना के विमान से भेजा है। फिलीस्तीन घोषित रूप से भारत का एक मित्र देश है, और भारत सरकार की वेबसाइट कहती है कि फिलीस्तीनियों को भारत का समर्थन भारत की नीति का एक अविभाज्य हिस्सा है। 1974 में भारत पहला गैर अरब देश था जिसने फिलीस्तीनी मुक्ति संगठन को मान्यता दी थी, और 1988 में भारत फिलीस्तीनी राज्य को मान्यता देने वाले सबसे पहले देशों में से एक था। इस 15 जुलाई को भारत ने फिलीस्तीनी शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र राहत एजेंसी को 25 लाख डॉलर का योगदान दिया है, और 1974 में भारत ने फिलीस्तीनियों के अधिकारों का समर्थन करते हुए डाक टिकट जारी की थी।
हम यहां पर आज अगर फिलीस्तीन के बारे में गांधी ने क्या-क्या कहा था, उसका जिक्र करेंगे, तो आज देश और इसके कई प्रदेशों की सरकारों को वह बात नहीं सुहाएगी। लेकिन हम इनकी सहूलियत के लिए भारत के विदेश मंत्री बनने के पहले अटल बिहारी वाजपेयी का दिया गया एक ऐतिहासिक भाषण भारत सरकार की संस्था प्रसार भारती के संग्रहालय से लेकर यहां सुनाना चाहते हैं। 1977 के चुनाव की विजय रैली की आमसभा में अटलजी ने मंच और माईक से कहा था- ‘जनता पार्टी की सरकार के बारे में कहा जा रहा है कि वह अरबों का साथ नहीं देगी, इजराइल का साथ देगी, तो इस बारे में प्रधानमंत्री मोरारजी भाई स्थिति को स्पष्ट कर चुके हैं। गलतफहमी को दूर करने के लिए मैं कहना चाहता हूं कि मध्य-पूर्व के बारे में यह स्थिति साफ है कि अरबों की जिस जमीन पर इजराइल कब्जा करके बैठा है वह जमीन उसे खाली करना होगी। आक्रमणकारी आक्रमण के फलों का उपभोग करे, यह हमें अपने संबंध में स्वीकार नहीं है, तो जो नियम हम पर लागू है, वह औरों पर भी होगा। अरबों की जमीन खाली होना चाहिए, जो फिलीस्तीनी है उनके उचित अधिकारों की स्थापना होना चाहिए। इजराइल के अस्तित्व को तो हम भी स्वीकार कर चुके हैं, मध्य-पूर्व का एक ऐसा हल निकालना पड़ेगा जिसमें आक्रमण का परिमार्जन हो, और स्थाई शांति की स्थापना हो, गलतफहमी की गुंजाइश कहां है?’
छत्तीसगढ़ का हाईकोर्ट जिस बिलासपुर शहर में बसा हुआ है, और जहां बैठे जजों ने कल अपने शहर में यह बहुत बड़ा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जुर्म देखा है, अब उनसे इस पर प्रतिक्रिया की हम राह देख रहे हैं। एक छोटे से मुल्क फिलीस्तीन पर लगातार फौजी हमलों से इजराइल ने 40 हजार से अधिक लोगों को मार डाला है, और ये तकरीबन तमाम मुस्लिम लोग हैं। ऐसे फिलीस्तीनियों से एकजुटता दिखाने के लिए पश्चिमी दुनिया में जगह-जगह विश्वविद्यालयों के दीक्षांत समारोहों में लोगों ने फिलीस्तीन के झंडे निकालकर उन्हें लहराया, थामकर फोटो खिंचाई। अनगिनत अंतरराष्ट्रीय खेल मुकाबलों में चैम्पियन खिलाडिय़ों ने फिलीस्तीन के झंडे लहराए। सभ्य दुनिया के लोकतांत्रिक लोगों में से कोई भी ऐसे नहीं है जो कि फिलीस्तीनियों के हमदर्द न हों। ऐसे में छत्तीसगढ़ के हाईकोर्ट के शहर में अगर घोर धर्मान्ध ताकतें एक मुस्लिम त्यौहार पर फिलीस्तीनियों से एकजुटता और हमदर्दी दिखाने के लिए उनके झंडे लगाने को राष्ट्रीय अखंडता पर हमला करार देती हैं, तो हमारा मानना है कि ये सुप्रीम कोर्ट में हेट-स्पीच के खिलाफ चल रहे मामले के तहत गुनहगार ताकतें हैं, और बिलासपुर पुलिस को मुस्लिमों और इन झंडों के खिलाफ प्रदर्शन करने वाली साम्प्रदायिक ताकतों पर सुप्रीम कोर्ट के हुक्म के मुताबिक हेट-स्पीच का जुर्म दर्ज करना चाहिए था, लेकिन उसने एक मित्र राष्ट्र के झंडे लगाने पर जुर्म कायम करके गिरफ्तारियां करके खुद ही देश की अखंडता को नुकसान पहुंचाया है, और एक मित्र राष्ट्र के साथ भारत के संबंधों को नुकसान पहुंचाया है। इसलिए हमारा मानना है कि बिलासपुर पुलिस पर 197 (2) के तहत सोच-समझकर राष्ट्रीय अखंडता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने का जुर्म तुरंत ही दर्ज किया जाना चाहिए। कल जैसे ही यह खबर आई हमने बिलासपुर के एक बड़े पुलिस अफसर से बात करते हुए यह याद दिलाया कि फिलीस्तीन तो भारत का मित्र राष्ट्र है, उसके झंडे फहराना जुर्म कैसे हो गया, तो उनका कहना था कि यह अदालत को तय करने दीजिए। यह हैरान करने वाली बात है कि अब अदालत यह तय करेगी कि फिलीस्तीन भारत का मित्र राष्ट्र है या नहीं? बिलासपुर पुलिस को अगर धर्मान्ध और साम्प्रदायिक ताकतों की तरफ से कोई शिकायत मिली थी, तो अक्ल का इस्तेमाल करते हुए, कानून के मुताबिक उसे खारिज कर देना था, लेकिन पुलिस ने इस साम्प्रदायिकता के घोड़े पर सवार होकर मुस्लिमों को जिस तरह रौंदा है, वह सुप्रीम कोर्ट के हेट-स्पीच आदेश के तहत भी जुर्म है, और देश की अखंडता को नुकसान पहुंचाना तो है ही।
पिछले कुछ महीनों में मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तरप्रदेश, और जम्मू-कश्मीर में फिलीस्तीनी झंडे फहराने को लेकर तरह-तरह से लोगों को गिरफ्तार किया गया है, उन पर जुर्म दर्ज हुए हैं। हमें हैरानी इस बात की है कि सुप्रीम कोर्ट खुद होकर इन घटनाओं का नोटिस क्यों नहीं ले रहा है क्योंकि जाहिर तौर पर धर्मान्ध और साम्प्रदायिक ताकतें फिलीस्तीनी झंडे लहराने को इस अंदाज में पेश कर रही हैं कि मानो उन्हें भारतीय झंडे के विकल्प के रूप में पेश किया जा रहा है। दुनिया के 21वीं सदी के सबसे बड़े जुल्म के शिकार फिलीस्तीन के साथ हमदर्दी दिखाते हुए उनके झंडे को लहराना, टांगना अगर हिन्दुस्तान की अखंडता पर खतरा बताकर लोगों को गिरफ्तार किया जा रहा है, तो सुप्रीम कोर्ट को खुद होकर इस पर सुनवाई शुरू करनी थी। छत्तीसगढ़ सरकार के लिए आने वाले दिनों में अदालत की टिप्पणी एक बड़ी शर्मिंदगी लेकर आ सकती है। आज पूरी दुनिया में हिन्दुस्तान के छत्तीसगढ़ को लेकर यह शर्मनाक नौबत है कि 40 हजार लाशों से हमदर्दी दिखाना इस प्रदेश में एक राष्ट्रीय जुर्म माना जा रहा है। दुनिया के सभ्य लोकतांत्रिक देश इस पुलिस कार्रवाई को कैसे देखेंगे, इसका अंदाज प्रदेश सरकार को चाहे न हो, भारत सरकार को तो कम से कम यह अंदाज होना चाहिए जिसे कि दुनिया भर में सवालों का सामना करना पड़ेगा। भारत में फिलीस्तीन का दूतावास है, केन्द्र सरकार उसे एक भाजपा शासित प्रदेश की इस कार्रवाई के बारे में क्या कहेगी? फिलहाल आज की सुबह तो बिलासपुर हाईकोर्ट के लिए एक चुनौती लेकर आई है कि वह अपने साये में एक मित्र राष्ट्र के साथ ऐसा सुलूक बर्दाश्त करते हुए चुप बैठता है, या कुछ करता है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
राज्यों की अर्थव्यवस्था को लेकर देश में कई तरह की फिक्र चलती रहती है, और हम भी उस बारे में लिखते रहते हैं। छत्तीसगढ़ जैसे कई राज्य हैं जो कि खनिज से भरे-पूरे हैं, और लोहा, कोयला, सीमेंट पत्थर की मेहरबानी से राज्य को मोटी कमाई होती रहती है। कुछ राज्य पर्यटन की अर्थव्यवस्था पर चलते हैं, समंदर के किनारे के कुछ राज्य बंदरगाहों की वजह से माल के आयात-निर्यात का बड़ा फायदा पाते हैं, और तट पर ही कई तरह के उद्योग भी लग जाते हैं, गुजरात की संपन्नता की एक बड़ी वजह यह भी है। फिर बंदरगाह वाले राज्यों में ऐसे कारखाने भी अधिक लगते हैं, जो बाहर से आए हुए कच्चे माल से चलते हैं, या देश में ऐसे सामान बनाते हैं जो कि जहाजों से निर्यात हो जाते हैं। कश्मीर, राजस्थान, यूपी, और दक्षिण के कुछ राज्य बहुत समृद्ध हस्तशिल्प और हाथकरघा परंपराओं के कारोबार से भी संपन्न रहते हैं, और तीर्थ से लेकर दूसरे किस्म के पर्यटन तक का फायदा उन्हें देश-विदेश के सैलानियों की शक्ल में मिलता है। लेकिन ये तमाम चीजें कुदरत की वजह से मिली हुई हैं, किसी को खूबसूरत पहाडिय़ां मिली हैं, किसी को समुद्र तट मिले हैं, किसी को घने जंगलों में ऐसे वन्य प्राणी मिले हैं जिन्हें देखने दुनिया भर से लोग आते हैं।
लेकिन हम किसी राज्य की अर्थव्यवस्था, और उसमें किसी सरकार के योगदान का आंकलन इस हिसाब से भी करते हैं कि कुदरत की दी हुई चीजों से होने वाली कमाई से परे किस राज्य ने अपने इंसानों के हुनर और उनकी मेहनत से उनकी कमाई कितनी बढ़ाई है? खदानों से तो सरकार को कमाई होती ही है, लेकिन राज्य के नागरिकों की दक्षता और क्षमता को बढ़ाना, सिर्फ आम नागरिकों के बीच प्रति व्यक्ति आय को बढ़ाना, सरकार की रियायत, और मनरेगा जैसे रोजगारों से परे सिर्फ नागरिकों की औसत आय को बढ़ाने का एक हिसाब राज्य सरकारों को लगाना चाहिए। अब अगर किसी राज्य में सोने या हीरे की खदान से कमाई शुरू हो जाए, या चलती हुई कमाई बढ़ जाए, वह एक अलग बात है। लेकिन अगर राज्य के कामगारों की औसत कमाई दस-बीस फीसदी भी बढ़ती है, और वह बाजार में मजदूरी या तनख्वाह में औसत बढ़ोत्तरी से अधिक बढ़ती है, तब हम उसे सरकार का योगदान मानते हैं। हमारा यह पैमाना थोड़ा सा जटिल इसलिए है कि देश-प्रदेश की अर्थव्यवस्था के आंकड़े राज्य के पब्लिक सेक्टर उपक्रमों से लेकर राज्य के कारखानों तक की कमाई को आम मजदूरों की कमाई से जोडक़र औसत निकालने वाले रहते हैं। इन आंकड़ों से यह समझ नहीं पड़ता कि अपने नागरिकों को बेहतर रोजगार या कामकाज के लिए सरकार किस तरह तैयार कर रही है, या उनके लिए बेहतर मौके मुहैया करा रही है। किसी भी सरकार को अपनी उपलब्धि इस पैमाने पर अलग से आंकनी चाहिए कि उसने नागरिकों को कहां से कहां पहुंचाया है, और इसे आंकते हुए धान खरीदी जैसे काम पर भारी सरकारी अनुदान के आंकड़ों को बिल्कुल अलग रखना चाहिए। आज खनिज रायल्टी की कमाई को अगर सरकार धान-किसान को दे देती है, तो इसमें सरकार ने जनता की कमाई में कोई स्वतंत्र बढ़ोत्तरी का योगदान नहीं दिया है।
हमारे ऐसे अलग पैमाने के पीछे हमारा एक मकसद है। इस देश में दक्षिण के तमाम राज्यों ने अपने लोगों को अंग्रेजी पढ़ाकर, टेक्नॉलॉजी सिखाकर, दुनिया भर की मशीनों पर काम करने के लायक उन्हें बनाकर उन्हें अधिक कमाई के लायक बना दिया है। आन्ध्र-तेलंगाना के लोग अमरीका में दसियों लाख की संख्या में काम कर रहे हैं, और अमरीकी पैमानों पर भी वे अधिक कमाई का काम कर रहे हैं। केरल के लोग खाड़ी के देशों में बड़ी संख्या में काम कर रहे हैं, और वे केरल के अपने गांव-कस्बे या शहर में मुमकिन कमाई के मुकाबले कई गुना अधिक कमा रहे हैं। पंजाब के लोग कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन जैसे बहुत से देशों में कामयाबी से बसे हुए हैं। हम राज्य के लोगों की क्षमता में उसी तरह की बढ़ोत्तरी देखना चाहते हैं ताकि वे अपने प्रदेश में उनके लिए मुमकिन कमाई से काफी अधिक कमाई का कोई काम दूसरे प्रदेश में जाकर कर सकें, या दूसरे देश तक भी जा सकें। आज यह बात साफ है कि सरकार की राशन-मदद, मनरेगा जैसी रोजगार योजनाओं, मुफ्त बिजली, महतारी वंदन जैसी अलग-अलग राज्यों की योजनाओं के चलते हुए, लोगों का भूखा मरना बंद हो गया है। लेकिन अगर आबादी का एक बड़ा हिस्सा महज इतने से संतुष्ट होकर बैठे रह जाए, तो उसका मतलब तो यही होगा कि उसकी क्षमता और संभावनाओं को बढ़ाने में राज्य का योगदान नहीं रहा। और साथ-साथ हम यह भी कहना चाहते हैं कि अगर छत्तीसगढ़ जैसे राज्य से मजदूर बाहर जाकर निर्माण कार्य करते हैं, ईंट भट्ठों पर ठेका-मजदूरी में घर के मुकाबले कुछ अधिक कमा लेते हैं, तो इसे हम राज्य की मानव क्षमता में विकास नहीं मानते।
आज दुनिया के कई देश गिरती हुई आबादी की वजह से परेशान हैं, और वहां पर बहुत बड़ी संख्या में कामगारों की जरूरत आज भी है, जो कि इस बाकी सदी में बढ़ती ही चलेगी। खुद चीन जैसा दुनिया का सबसे बड़ा कारखानेदार देश कामगारों की कमी से जूझ रहा है, और महज कागज पर संभावनाओं को देखें तो ऐसी भी संभावना बनती है कि भारत के मजदूर हुनरमंद हों, तो उन्हें चीनी कारखानों में भी काम मिल सकता है। यह सिर्फ एक काल्पनिक स्थिति है, क्योंकि दोनों देशों के बीच न अभी ऐसे रिश्ते हैं, और न ही सांस्कृतिक वातावरण ऐसा है। फिर भी आज हिन्दुस्तान के भीतर चीन के विकल्प के रूप में दुनिया की बहुत सी बड़ी कंपनियां अपना एक-एक कारखाना डालते चल रही हैं। इन कारखानों के लिए भी ऐसे ही राज्यों को छांटा जा रहा है जहां पर हुनरमंद कामगार हैं, और जो बंदरगाहों के करीब हैं। अब छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में बंदरगाह तो लाया नहीं जा सकता, लेकिन सरकार अगर मेहनत करे तो यहां की नौजवान पीढ़ी को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के लायक ऐसा हुनरमंद बनाया जा सकता है कि वे सरकारी नौकरी के मोहताज न रहें। ऐसा किसी भी राज्य के लिए इसलिए अच्छा होता है क्योंकि वहां से बाहर गए लोग अगर अधिक कमाते हैं, तो उसका एक हिस्सा अपने खुद के गांव-शहर में खर्च करते हैं, और वहां पर संपत्ति बनाते हैं जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान मिलता है। इसलिए देश के हर राज्य को अपने नौजवानों को काम दिलवाने के लिए अपनी सरहद के भीतर का तंग नजरिया नहीं रखना चाहिए, सरकारों को चाहिए कि नौकरी और रोजगार की अंतरराष्ट्रीय संभावनाओं को देखते हुए ऐसे नए कोर्स बनाएं जिन्हें करने वाले लोग अलग-अलग भाषाएं सीखकर उनके देशों में जाकर काम पा सकें। अपने लोगों को अगर सिर्फ सरकारी नौकरियों के लिए तैयार किया जाएगा, तो उनमें से भी 95 फीसदी लोगों को तो ये नौकरियां मिलेंगी नहीं, और वे राज्य पर ही बोझ बने बैठे रहेंगे। किसी नौजवान के बोझ बन जाने, और कमाऊ बन जाने के बीच का फर्क सरकार ही दूर कर सकती है। देश के भीतर भी जो विकसित राज्य हैं, वहां पर तो अब लगातार कामयाबी की वजह से सरकार से परे भी आम लोग और निजी क्षेत्र के स्कूल-कॉलेज, ट्रेनिंग सेंटर ऐसे रहते हैं कि वे नौजवान पीढ़ी को अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों के लायक तैयार कर देते हैं। हिन्दुस्तान के राज्यों को अपनी प्रति कामगार, गैर सरकारी अनुदान प्राप्त औसत आय का हिसाब लगाना चाहिए कि पांच बरस के कार्यकाल में लोगों को वह कहां से कहां तक पहुंचा पाई है।
पिछले दो बरस में छत्तीसगढ़ में तीन रिकॉर्ड कायम हो गए। पिछले बरस हाईकोर्ट वाले शहर बिलासपुर, हाईकोर्ट के हुक्म के खिलाफ अंधाधुंध डीजे बजाते विसर्जन जुलूस के कानफाड़ू शोर में एक बच्चे की मौत हो गई थी। इस बरस सरगुजा में डीजे के शोर में एक आदमी के दिमाग की नस फट गई, और ब्रेन हेमरेज से वह मर गया। इस पर भी जिस प्रदेश की नींद नहीं खुली है, उसके लिए कल की ताजा खबर है कि भिलाई में एक गणेश पंडाल के अंधाधुंध तेज लाउडस्पीकर से थककर दिल के मरीज एक बुजुर्ग ने उसकी आवाज कम करने को कहा, लेकिन उसे धीमा नहीं किया गया। पुलिस भी आकर कुछ नहीं करवा पाई। और गणेश कमेटी के अध्यक्ष ने आकर एसडीएम की मंजूरी का लेटर दिखाकर धमकी दी। आधी रात बाद गणेश पंडाल से फिर से लाउडस्पीकर का हंगामा शुरू हुआ, और इस वजह से खुदकुशी करने की चिट्ठी लिखकर इस आदमी ने फांसी लगा ली। यह छत्तीसगढ़ की पहली ध्वनि प्रदूषण आत्महत्या है, और इन दिनों जिस तरह भारत की कोई एक औने-पौने रिकॉर्ड दर्ज करने वाली किताब छत्तीसगढ़ में घूम-घूमकर अफसरों की मुसाहिबी के रिकॉर्ड दर्ज कर रही है, उसे प्रदेश की पहली ध्वनि प्रदूषण आत्महत्या भी दर्ज करनी चाहिए। अभी सुबह-सुबह खबर मिली है कि राजनांदगांव के करीब छुरिया में गणेश के लाउडस्पीकर के शोर को लेकर झगड़ा हुआ, और चाकूबाजी में कुछ लोग जख्मी हुए, और यह सब तब हो रहा है जब हाईकोर्ट छत्तीसगढ़ में ध्वनि प्रदूषण को इतनी गंभीरता से ले रहा है कि उसने कहा है कि अब डीजे बजाने पर कोलाहल अधिनियम के तहत मामला दर्ज न करके अदालत की अवमानना का मामला बनाया जाए। अभी तक अफसर दो-चार हजार का जुर्माना करके लोगों का जीना हराम करने का सामान छोड़ देते हैं।
इस मुद्दे पर लिखने का हमारा दिल जरा भी नहीं है क्योंकि हमारे पास दर्जनों बार पहले लिखी जा चुकी बातों के अलावा लिखने को नया कुछ नहीं है। लेकिन फिर भी जब छत्तीसगढ़ के लाउडस्पीकर एक बुजुर्ग इंसान को खुदकुशी करने पर मजबूर कर चुके हैं, तो ऐसे लाउडस्पीकरों के सम्मान में कुछ लिखना तो बनता है। न लिखने का मतलब ऐसे जानलेवा और हत्यारे लाउडस्पीकरों का सम्मान न करना हो जाएगा। और लाशें तो हमेशा ही गिनती की रहेंगी, किसी भी धर्म या जाति, या शादी-ब्याह के लाउडस्पीकरों से जो जीना हराम होता है, उसे लाशों की तरह गिना नहीं जा सकता। और जब तक किसी बात से लोग मर नहीं जाते हैं, उसे गंभीरता से नहीं लिया जाता। छोटे-छोटे बच्चों के सुनने की ताकत घट जाए, बिस्तर पर पड़े हुए बूढ़े लेटे-लेटे मर जाएं, तो उन्हें कौन लाउडस्पीकरों से जोडक़र देखेंगे। ऐसा लगता है कि एक वक्त का कृषि प्रधान देश भारत अब धर्मप्रधान हो गया है, और जब धर्म का कोई कर्म नहीं बचता, तो थोड़े वक्त के लिए लोग खेती कर लेते हैं, या बेरोजगार न हुए तो कोई और काम कर लेते हैं। धर्म जिसे कि निजी आस्था की बात रहना था, वह अब एक आक्रामक सार्वजनिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। और सरकारें इस आक्रामक जीवनशैली का सम्मान कर रही हैं। यह सिलसिला जाएगा कहां तक?
अब जब हाईकोर्ट कह रहा है कि कोलाहल अधिनियम की जगह अदालत की अवमानना दर्ज की जाए, और पूरे प्रदेश में अफसर हर गली-मोहल्ले में ऐसी अवमानना का साथ दे रहे हैं, तो न्यायपालिका का हाल पेनिसिलिन सरीखा हो गया है जो कि दशकों पहले बेअसर साबित होकर चलन से बाहर हो चुकी इतिहास की दवाई है। हमने पहले भी लिखा है कि जिस तरह संपत्ति बच्चों के नाम कर चुके बूढ़े मां-बाप की बात घर में अनसुनी की जाती है, कुछ वैसी ही हालत छत्तीसगढ़ में हाईकोर्ट की है। बरसों हो गए हाईकोर्ट लाउडस्पीकरों की हैवानियत पर हैरान है, परेशान है, और सरकार के पीछे उसी तरह लगा हुआ है जिस तरह भिलाई का वह बुजुर्ग अपने मोहल्ले के गणेश पंडाल के पीछे लगा था, और आखिर में कल उसे खुदकुशी करनी पड़ी क्योंकि पुलिस की कोई भी ताकत शोरगुल की इस गुंडागर्दी को रोक नहीं पाई। थाने तक जाने, और पुलिस के आने के बाद भी जहां गुंडागर्दी जारी है, वहां हाईकोर्ट अवमानना के जुर्म में गणेश पंडाल के आयोजकों को जेल भेजेगा, या इस बुजुर्ग की खुदकुशी में बराबरी की जिम्मेदार पुलिस को भी साथ-साथ उसी कोठरी में रखेगा? ऐसा लगता है कि हाईकोर्ट को अपने पेनिसिलिन बन जाने की हकीकत को मान लेना चाहिए, और किसी नए एंटीबॉयोटिक के बारे में नए मेडिकल-लीगल जर्नल में कुछ पढऩा चाहिए। छत्तीसगढ़ सरीखे राज्य में सार्वजनिक जीवन की अराजकता सिर चढक़र बोल रही है, अमन-पसंद लोगों का जीना हराम है, और शासन-प्रशासन मानो इस खौफ में हैं कि धर्म के नाम पर किए जा रहे ऐसे हिंसक शोरगुल को रोकने से खुद ईश्वर ही खफा हो जाएंगे। जबकि हमारा मानना यह है कि ऐसे कानफाड़ू शोरगुल को बर्दाश्त करना ईश्वर के बस में भी नहीं होगा, और वह चाहे कहीं भी चले जाए, ऐसे लाउडस्पीकरों की पहुंच से तो बहुत दूर रहेगा।
अभी हम ठीक से याद नहीं कर पा रहे हैं कि धार्मिक और दीगर किस्म के नियमित, संगठित, हिंसक, और अराजक लाउडस्पीकरों के खिलाफ छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने अधिक बार कहा है, या हमने उससे अधिक बार इसी जगह संपादकीय लिखे हैं! लेकिन ऐसा लगता है कि हम दोनों के बीच मुकाबला कड़ा है, और हम दोनों को यह आदत हो गई है कि सरकार और धार्मिक संगठन हमारी बात को कूड़े की टोकरी में डालते रहेंगे, और हम इसके खिलाफ बोलते और लिखते रहेंगे। परिवार के गैरकमाऊ बूढ़े के बड़बड़ाने की तरह हम यह काम किए जा रहे हैं, और सत्ता और समाज मदमस्त जानवर की तरह सब कुछ अनसुना करके लोगों को खुदकुशी का सामान जुटाकर दे रहे हैं।
ऐसा लगता है कि इस देश में डॉक्टरों की राय, वैज्ञानिकों की राय की अब कोई जरूरत नहीं रह गई है। लोगों के कान बचे रहें, यह भी जरूरी नहीं है। लोग सुनने लायक नहीं रह जाएंगे, तो इशारों की जुबान बोलने वाले लोगों को कुछ काम मिल जाएगा। या फिर मोबाइल फोन के साथ ऐसे ईयरपीस आने लगेंगे जो तकरीबन खत्म हो चुके कानों को भी कुछ तो सुना ही सकेंगे। जिस तरह जमीन के नीचे पानी की सतह सैकड़ों फीट नीचे गिरती जा रही है, और अधिक ताकतवर पंप लगाकर पानी खींचना फिर भी जारी है, उसी तरह और अधिक ताकतवर ईयरफोन लगाकर लोगों के खराब कानों को भी कामचलाऊ बना दिया जाएगा, और इसके लिए सरकारी स्वास्थ्य बीमा में अलग से इंतजाम कर दिया जाएगा। कानों की परवाह करते हुए धार्मिक शोरगुल की हिंसा को रोकना ठीक नहीं है, यह आस्था का मामला है। इस देश-प्रदेश में डॉक्टर-वैज्ञानिक, और जज की भी जरूरत क्या है? जज गणेश पूजा का आयोजन कर लें, वही उनका सबसे असरदार काम हो सकता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दो अलग-अलग खबरें दुनिया के देशों, और उनके शहरों को लेकर आई हैं। एक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय अमरीकी विश्वविद्यालय द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट में दुनिया के सबसे अच्छे देशों पर सालाना रिपोर्ट आई है, जिसमें स्विटजरलैंड लगातार 7वें साल सबसे ऊपर रहा है। अमरीका पिछले बरस से दो सीढ़ी ऊपर चढ़ा है, और जापान चार सीढ़ी। भारत पिछले बरस 30वें नंबर पर था, और इस बार तीन सीढ़ी फिसलकर वह 33वें नंबर पर आ गया है। इस रिपोर्ट में जीवन की गुणवत्ता, देश की आर्थिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक सफलता जैसे कई पैमाने शामिल किए जाते हैं। भारत के आसपास के लगे हुए देश भारत के मुकाबले बहुत नीचे हैं, लेकिन साल भर में भारत तीन सीढ़ी नीचे खिसक गया है। आज की ही एक दूसरी खबर इस बात को लेकर है कि किस तरह दुनिया के कई देश खराब ट्रैफिक से जूझ रहे हैं, और इनमें योरप के बहुत से शहर हैं। ट्रैफिक की खराब हालत में ब्रिटेन की राजधानी लंदन सबसे खराब जगह मानी गई है। दूसरे नंबर पर आयरलैंड का डबलिन है, और वहां पर यह अंदाज है कि ट्रैफिक जाम की वजह से इतना बड़ा नुकसान हो रहा है कि वह 2040 तक बढक़र 14 हजार करोड़ रूपए सालाना से अधिक हो जाएगा।
हम केवल देशों और शहरों की इन दो रिपोर्ट को देखकर सोच रहे हैं कि क्या हिन्दुस्तान में ऐसी बातों पर कोई फिक्र करते हैं? इस देश में कोई भी त्यौहार सडक़ों पर ऐसी भयानक अराजकता लेकर आता है कि ऊपर लिखी गई दूसरी खबर जैसा ट्रैफिक जाम जानलेवा होने लगता है, और चारों तरफ डीजल और पेट्रोल के धुएं के बीच लोग घंटों फंसे रहते हैं। हर त्यौहार लोगों के लिए तकलीफ लेकर आता है, और और तो और, विघ्नहर्ता के त्यौहार में भी सडक़ों पर चारों तरफ विघ्न ही विघ्न दिखने लगते हैं। हिन्दुस्तान में लोगों को बेकार मान लिया जाता है, इसलिए हर तरह के सामान, और काम के लिए उन्हें कतारों में झोंक दिया जाता है। गैस एजेंसी का ताला नहीं खुलता, उसके पहले दर्जनों लोग एक-एक शटर के सामने सिलेंडर लिए खड़े रहते हैं, मानो उन्हें और कोई काम ही न हो। एक-एक सरकारी दफ्तर में लोगों के दर्जनों चक्कर लगते हैं, और उसके बाद वे थक-हारकर मुंह मांगी रिश्वत देने तैयार होते हैं, तब जाकर उनकी जरूरत का जायज कागज उनके हाथ लगता है। इस तरह की सैकड़ों दिक्कतें हिन्दुस्तान में है जिनकी वजह से दुनिया की पांच सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने के बावजूद हिन्दुस्तान अच्छे देशों की लिस्ट में 30 से 33वें नंबर पर आ गया, साल भर में ही। इन बरसों में जिस तरह रेलगाडिय़ां रद्द हुई हैं, आम लोगों के डिब्बे एकदम से घटा दिए गए हैं, और महंगे एसी डिब्बे बढ़ा दिए गए हैं, और कस्बों में ट्रेनों का रूकना बंद करवा दिया गया है, उसका भी असर होगा कि एक तरफ देश अच्छे देशों की लिस्ट में नीचे गिर रहा है, और शहरी सडक़ों पर ट्रैफिक जाम हो रहा है। एक तरफ तो दुनिया के देश सार्वजनिक परिवहन बढ़ाकर, रियायती बनाकर, और कई जगहों पर तो उसे मुफ्त बनाकर भी शहरी प्रदूषण और ट्रैफिक जाम को घटा रहे हैं, वैसे में हिन्दुस्तानी शहर एक किस्म से अपना काबू खो बैठे हैं।
शहर के इंतजाम में सडक़ की पूरी चौड़ाई मौजूद न रहने पर ट्रैफिक जाम होना ही होना है, और हम देखते हैं कि अधिकतर शहरों में वोटरों से डरे-सहमे नेताओं के मातहत काम करते अफसर सडक़ किनारे बड़े कारोबारियों के बिखरे हुए सामान हटाने का हौसला भी नहीं जुटा पाते, नतीजा यह होता है कि वहां ट्रैफिक जाम स्थाई संपत्ति की तरह जमे रहता है। आज देश के अधिकतर शहरों को सार्वजनिक परिवहन की परवाह नहीं दिखती है क्योंकि उसे कुछ या अधिक हद तक रियायती बनाना पड़ता है, और अगर सार्वजनिक परिवहन कामयाब हो जाए तो ऑटोमोबाइल कारोबार मार खाएगा, और सरकार को टैक्स कम मिलेगा। लेकिन सरकारों को इतना सोचने की फिक्र नहीं है कि ट्रैफिक जाम में घंटों फंसने वाले लोगों की कितनी उत्पादकता मार खाती है, उनकी सेहत कितनी बर्बाद होती है। कुछ लोगों का सोशल मीडिया पर यह भी कहना है कि भारतीय शहरों में अगर आप दस-बीस मिनट कोई गाड़ी या दुपहिया चलाएं, और आपके मुंह या मन में गंदी गाली न आए, तो आप अपने आपको छोटा-मोटा संत तो मान ही सकते हैं। किसी शहर के सभ्य होने की पहली निशानी हम यह मानते हैं कि वहां का ट्रैफिक कितने नियम-कायदे का है। ट्रैफिक के नियम सबसे सरल रहते हैं, और उन्हें मानना लोगों के लिए कोई चुनौती नहीं रहती है। इसके बावजूद अगर कोई शहर ट्रैफिक ठीक नहीं रख पाता, तो यह उसकी बहुत बड़ी नाकामयाबी रहती है, और वहां के लोगों के असभ्य रहने का एक मजबूत सुबूत भी रहता है।
दुनिया के देश कुदरत की दी हुई खूबसूरती से परे वहां के लोगों की कारोबारी कामयाबी से भी दुनिया के सबसे अच्छे देशों की फेहरिस्त में आते हैं। और यह कारोबारी कामयाबी बहुत भ्रष्ट, असभ्य, अलोकतांत्रिक, अराजक सरकार और समाज के चलते हुए नहीं मिल सकती। गिने-चुने कुछ हजार उद्योगों की कमाई को देश की राष्ट्रीय कमाई दिखाकर एक गलत तस्वीर जरूर बनाई जा सकती है, लेकिन उससे समाज खुशहाल भी नहीं रहता। इन्हीं दो रिपोर्ट की चर्चा करते हुए हमें याद पड़ता है कि कुछ महीने पहले वल्र्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट आई थी जिसमें भारत को 143 देशों में से 126वां देश पाया गया था। अब जिस हिन्दुस्तान में धर्म का इतना बोलबाला है, जहां पर ऋषि मुनियों के वक्त से अब तक आध्यात्म का माहौल बताया जाता है, जिस देश को अपने इतिहास और उससे भी पहले के वक्त पर इतना गर्व है, जो अपने धर्म को दुनिया का सबसे अच्छा धर्म बताता है, वहां के लोग खुश क्यों नहीं हैं?
कहने के लिए तो यह कहना बड़ा आसान हो सकता है कि पश्चिमी पैमानों पर इन रिपोर्ट को बनाकर भारत को नीचा दिखाने की एक साजिश है, लेकिन भारत की अपनी हकीकत यही है कि शहरी अराजकता से लेकर पिछड़े हुए गांवों तक, और दहशत में जीते हुए बहुत से तबकों तक से पूछा जाए, तो इतना सारा धर्म, इतना सारा राष्ट्रवाद मिलकर भी लोगों को खुश नहीं रख पा रहे हैं। पश्चिमी सर्वे और अध्ययन से परे भी सच यही है कि जिम्मेदार और समझदार भारतीय यह देखकर हैरान हैं कि लगातार चलता इतना सारा तनाव आखिर कहां जाकर थमेगा? आखिर में तनाव थमेगा, या देश की तरक्की थम जाएगी? लोगों को अपने भीतर ऐसे सवालों के जवाब ढूंढने चाहिए कि सतह पर तैरते उन्मादतले कितनी संभावनाएं खत्म हो रही हैं। वैसे इतना आत्ममंथन करने के बजाय पश्चिमी देशों की ऐसी रिपोर्ट खारिज करना अधिक सहूलियत की बात होगी।
कई अलग-अलग किस्म की घटनाओं को जोडक़र एक साथ देखा जाए, तो यह समझ पड़ता है कि देश का माहौल किस तरह का है। अभी चार दिन पहले मध्यप्रदेश के महू में सेना के बहुत बड़े प्रशिक्षण केन्द्र के दो नौजवान अफसर अपनी महिला मित्रों के साथ सेना की फायरिंग रेंज में खुले में कुछ वक्त गुजार रहे थे, और वहां पहुंचे कुछ बाहरी नौजवानों ने आकर इन सबको बंधक बना लिया, फौजी अफसरों को जमकर पीटा, और एक अफसर, और एक युवती को पकडक़र रखा, और दूसरे जोड़े को छोड़ा कि दस लाख रूपए लेकर आओ, तब इन्हें छोड़ेंगे। जब तक छोड़ा गया यह जोड़ा फौज के अफसरों और पुलिस को खबर कर पाया, और पुलिस आई, तब तक उस बंधक महिला से गैंगरेप करके बदमाश भाग निकले थे। लेफ्टिनेंट कर्नल रैंक के इन अफसरों के खिलाफ इस तरह महिलाओं के साथ बाहर रहने की जांच भी शुरू हुई है। लेकिन फिक्र की बात यह है कि फौज के इलाके में फौजी अफसरों और उनकी दोस्तों के साथ ऐसी घटना असाधारण है। अभी हिन्दुस्तान बंगाल में महिला डॉक्टर के साथ बलात्कार और उसके कत्ल की घटना से उबरा नहीं है, पूरा बंगाल मुख्यमंत्री के इस्तीफे तक पहुंची नौबत को झेल रहा है, और सरकारी डॉक्टरों ने सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी के बावजूद काम बंद कर रखा है। अब मध्यप्रदेश की यह घटना हम किसी सत्तारूढ़ पार्टी से जोडक़र देखना नहीं चाहते क्योंकि देश की सरहद के भीतर जहां-जहां तक हिन्दुस्तानी समाज का माहौल है, और हिन्दुस्तानी मर्द मौजूद हैं, वहां तक हर लडक़ी और महिला से लेकर गाय तक पर बलात्कार का खतरा मौजूद है ही। हम इस खतरे, और इस किस्म के कुछ और खतरों के बारे में सोच रहे हैं कि आज हिन्दुस्तान कितना सुरक्षित रह गया है?
आज इस मुद्दे पर लिखते वक्त उत्तरप्रदेश में एक चलती हुई ट्रेन में एक आदमी को पीट-पीटकर मार डालने की घटना भी खबरों में है। इस आरोप के मुताबिक रात में एक महिला मुसाफिर शौचालय गई, और उसकी बच्ची से पास की सीट के मुसाफिर ने छेडख़ानी की। डिब्बे के बाकी मुसाफिरों ने इस आरोप पर उसे पीट-पीटकर मार डाला। भारत में इंसाफ की यह रफ्तार तालिबानों की गोलियों, और उनके छुरों से बस थोड़ी ही धीमी है। पीट-पीटकर मारने में थोड़ा सा वक्त लगा होगा। अब हम देश की कहीं गाय की रक्षा के नाम पर, तो कहीं बच्चों की चोरी के शक में, कई जगह कानूनी पशु कारोबारियों की पीट-पीटकर हत्या देख रहे हैं, तो कहीं विचलित लोग बच्चा चोर होने के आरोप में भीड़ के हाथों मारे जा रहे हैं। यह देश में बलात्कारियों और दूसरे मुजरिमों का ही नहीं, यह एक आम मिजाज हो गया है कि पांच-दस लोगों की भीड़ जुट जाने के बाद वे अपनी मर्जी से जो चाहे कर सकते हैं, और मानो देश का कानून तीन या चार लोगों से कम की भीड़ पर ही लागू होता है, आधा दर्जन लोग अपने आपमें एक कानून होते हैं। लोगों को याद होगा कि अभी कुछ हफ्ते ही हुए महाराष्ट्र में ट्रेन में सफर कर रहे 72 बरस के एक बुजुर्ग को गाय का मांस लेकर जाने के शक में अगल-बगल के मुसाफिर नौजवानों ने जमकर पीटा, मां-बहन की गालियां बकीं, और उसके वीडियो भी बनाकर फैलाए। अब बंगाल तो तृणमूल कांग्रेस के ममता बैनर्जी के शासन, या कुशासन का प्रदेश है, लेकिन बाकी की ये तीन घटनाएं तो दूसरी पार्टियों के राज की हैं, और मोटेतौर पर पूरे देश में कानून का इतना ही सम्मान रह गया है।
जिस प्रदेश, या जिस शहर-कस्बे, या मोहल्ले में जिस धर्म या जाति के लोगों की अधिक बड़ी आबादी है, वहां उन्हीं की मर्जी कानून है। एक किस्म से देखें तो पिछले 75 बरस में संविधान लागू करके लोगों के बीच कानून का राज धीरे-धीरे कायम किया जा रहा था, वह बहुत रफ्तार से खत्म हो रहा है। लोकतांत्रिक समझ वैसे भी एक मुश्किल बात रहती है, और इंसान की आदिम सोच के खिलाफ भी रहती है। कानून के राज का खात्मा ऐसी आदिम सोच को एक बार फिर से राजपाट सम्हलवा दे रही है। इस बात पर भी गौर करने की जरूरत है कि सुप्रीम कोर्ट ने जिस तल्खी के साथ देश के कई राज्यों में बुलडोजरी इंसाफ नाम की तानाशाही के खिलाफ नाराजगी जाहिर की है, और आने वाले कुछ दिनों में पूरे देश के लिए एक दिशा-निर्देश अदालत से जारी होने वाले हैं। मतलब यह कि एक-एक करके कई प्रदेशों में सरकारों ने देखा-देखी बुलडोजरी इंसाफ लागू कर दिया था, और कानून के राज को धक्का देकर गिरा दिया था।
इन तमाम बातों को देखें तो ऐसा लगता है कि न केवल जनता की भीड़, बल्कि अलग-अलग दर्जे के मुजरिमों के छोटे-छोटे गिरोह भी कानून के राज को खत्म सा मान चुके हैं, और धड़ल्ले से संगीन जुर्म करने में लगे हुए हैं। दूसरी तरफ यूपी और एमपी की भाजपा सरकारों ने बुलडोजर-संस्कृति पर जैसा गर्व दिखाया है, वह एक तरफ है, और ममता बैनर्जी ने जैसा तानाशाह और अराजक रूप दिखाया है, वह दूसरी तरफ है। इन सबसे ऐसा लगता है कि किसी प्रदेश पर काबिज हो चुके नेता उसे अपनी जागीर की तरह देखते हैं, और किसी इलाके के मुजरिम अपने इलाके को अपनी जागीर की तरह। कोई मुसलमान ट्रेन में कौन सा मांस लेकर चल रहा है, इस पर मौके पर ही तालिबानी फैसला देने वाले नौजवान मौजूद हैं, और उसी तरह का फैसला अभी ट्रेन में बच्ची से छेडख़ानी के आरोप पर वहां के मुसाफिरों ने दिया है, आरोपी को पीट-पीटकर मार डालकर। देश में कानून का क्या हाल हो गया है, इस पर फिक्र करने की जरूरत है। हम उम्मीद करते हैं कि गणेशोत्सव खत्म होने के बाद, और अपने कुछ हफ्ते बाद के रिटायरमेंट के पहले देश के मुख्य न्यायाधीश इस बारे में भी कुछ सोचेंगे।
एक घरेलू पूजा का फोटो और उसका वीडियो भारत में खलबली मचा रहा है। देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ के घर गणेश पूजा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पहुंचे, और महाराष्ट्र के अंदाज में सफेद गांधी टोपी लगाकर उन्होंने आरती की। उनके दाएं-बाएं चन्द्रचूड़ दम्पत्ति के फोटो और वीडियो पर सोशल मीडिया से लेकर खबरों तक बहुत कुछ कहा जा रहा है। कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि चन्द्रचूड़ रिटायरमेंट के करीब हैं, और ऐसे में प्रधानमंत्री हो सकता है कि उनका कोई पुनर्वास कर सकें। दूसरी तरफ शिवसेना के संजय राउत ने कहा है कि उनके महाराष्ट्र वाले केस में मुख्य न्यायाधीश की बेंच ही सुनवाई कर रही है, और अब शिवसेना न्याय की उम्मीद कैसे कर सकती है। उन्होंने कहा कि कोर्ट के अंदर उनके मामले में केन्द्र सरकार भी एक पार्टी है, और मुख्य न्यायाधीश को अपने को इस मामले से अलग कर लेना चाहिए क्योंकि इसके दूसरे पक्ष के साथ उनके रिश्ते जगजाहिर हो गए हैं। कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर यह सवाल भी उठाया है कि अपने घर की गणेश पूजा में क्या जस्टिस चन्द्रचूड़ ने दूसरी पार्टियों के नेताओं को भी बुलाया था? क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कुछ दूसरे घरों में भी गणेश पूजा के लिए गए थे? क्या जस्टिस चन्द्रचूड़ को इस बात का अहसास नहीं था कि जिस महाराष्ट्र से वे आते हैं, उस महाराष्ट्र में चुनाव होने जा रहे हैं, और उस चुनाव के ठीक पहले महाराष्ट्रियन टोपी लगाकर महाराष्ट्र के इस सबसे प्रमुख धार्मिक उत्सव के ऐसे फोटो और वीडियो का प्रचार एक नाजायज पक्षपात नहीं है? कुछ लोगों ने यह भी सवाल किया है कि इस घरेलू पूजा में अकेले मोदी ही परिवार के साथ दिख रहे हैं, तो फिर ये तस्वीरें किसकी तरफ से बाहर आई हैं, ये चन्द्रचूड़ की तरफ से जारी फोटो-वीडियो हैं, या प्रधानमंत्री के प्रचार तंत्र की तरफ से? और राजनीतिक बयानों का जवाब देने के लिए भाजपा की तरफ से एक ऐसा फोटो जारी किया गया है जिसमें पिछले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बंगले की इफ्तार पार्टी पर उस वक्त के मुख्य न्यायाधीश के.जी.बालाकृष्णन पहुंचे थे। इस पर कांग्रेस ने यह जवाब दिया है कि भाजपा यह फर्क नहीं समझ पा रही कि मीडिया और जनता के सामने होने वाले इफ्तार जैसे सार्वजनिक आयोजन, और किसी के घर पर होने वाले निजी धार्मिक आयोजन में क्या फर्क होता है। कांग्रेस का कहना है कि इन दोनों को एक साथ जोडक़र दिखाना गुमराह करना है। भाजपा ने मुख्य न्यायाधीश के घर मोदी के जाने और पूजा करने पर कांग्रेस की आपत्ति को अदालत की अवमानना करार दिया है।
अब जस्टिस चन्द्रचूड़ के घर की गणेश पूजा में प्रधानमंत्री जाहिर है कि न्यौता मिलने पर ही गए होंगे। अब सवाल यह उठता है कि क्या न्यायपालिका और कार्यपालिका के बिल्कुल अलग-अलग दायरों के रहते हुए मुख्य न्यायाधीश का प्रधानमंत्री को बुलाना ठीक था? और यहां पर हम इसकी तुलना इफ्तार-दावत से करना ठीक नहीं मानेंगे, क्योंकि वह एक खुला हुआ, सार्वजनिक और बड़ा समारोह रहता है, घर का कोई निजी कार्यक्रम नहीं रहता। फिर भी हम अगर खुद के पैमानों पर बात करें, तो हमारा तो यह मानना है कि मनमोहन सिंह की इफ्तार-दावत में उस वक्त के सीजेआई का जाना भी गलत था, और आज सीजेआई का पीएम को बुलाना उससे अधिक गलत है। जस्टिस चन्द्रचूड़ की खुद की अलग-अलग कई तरह की बेंचों में केन्द्र सरकार के खिलाफ दर्जनों मामले चल रहे हैं। बहुत से मामले तो ऐसे हैं जिनमें केन्द्र सरकार सवालों के कटघरे में घिरी हुई है, और देश के बहुत से तबके सरकार के खिलाफ अदालती फैसले की उम्मीद कर रहे हैं। अब अगर कल को जस्टिस चन्द्रचूड़ की अगुवाई वाली कोई बेंच केन्द्र सरकार, या किसी प्रदेश की भाजपा सरकार के खिलाफ चल रहे किसी मुकदमे में पूरे ईमानदार तर्कोँ के साथ भी अगर सरकार के पक्ष में फैसला जायज मानेगी, तो भी उससे आम जनता की सोच असहमत रह सकती है, और लोग यह मान सकते हैं कि प्रधानमंत्री के साथ ऐसे धार्मिक और घरेलू घरोबे के चलते ये फैसले दिए गए हैं। फिर रिटायरमेंट के बाद अगर जस्टिस चन्द्रचूड़ को केन्द्र सरकार कहीं भी मनोनीत करती है, तो उससे भी न सिर्फ चन्द्रचूड़ की, बल्कि न्यायपालिका की साख पर बड़ी आंच आएगी। यह हमने सुप्रीम कोर्ट के कुछ पिछले जजों, और खासकर एक सीजेआई रहे रंजन गोगोई के मामले में देखा है कि उनके सरकार-हिमायती लगने वाले कुछ फैसलों के बाद रिटायर होते ही उन्हें जब राज्यसभा भेजा गया, तो लोगों की नजरों में अदालत की इज्जत एकदम गिर गई थी। हमारा मानना है कि भारत में न्यायपालिका को लोकतंत्र के बाकी संस्थानों, कारोबारों, और दीगर ताकतवर तबकों से साफ-साफ अलग रहना चाहिए। राष्ट्रीय महत्व के कई ऐसे सार्वजनिक कार्यक्रम रहते हैं, जिनमें सबकी नजरों के सामने मंच पर प्रधानमंत्री, और सीजेआई एक साथ रहते हैं, और इसे लेकर कभी कोई विवाद नहीं होता। लेकिन दिल्ली की देखादेखी अब अगर राज्यों में हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, या बाकी जज अपने राज्य के मुख्यमंत्री के निवास पर गणेश पूजा में, या इफ्तार-दावत में चले जाएं, तो सरकारों के खिलाफ चल रहे सैकड़ों मामलों में अदालती निष्पक्षता पर किसे भरोसा रहेगा?
हम सीजेआई और प्रधानमंत्री के बीच परस्पर लोकतांत्रिक सम्मान में कोई बुराई नहीं देखते। लेकिन जो अनिवार्य संवैधानिक मेलमिलाप है, वैसे सार्वजनिक कार्यक्रमों से परे ऐसे संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोगों को अलग-अलग दायरों में रहना चाहिए। लोकतंत्र की पूरी सोच इस पर टिकी हुई है कि न्यायपालिका, कार्यपालिका, और विधायिका, एक-दूसरे से स्वतंत्र रहते हुए काम करें। इस लक्ष्मण रेखा को लांघना निहायत गैरजरूरी भी है, और नाजायज भी है।
इसी सिलसिले में लोगों ने अभी याद दिलाया है कि 1980 में जब इंदिरा गांधी चुनाव जीतकर दुबारा सत्ता में आई थीं, तब उस वक्त सुप्रीम कोर्ट के एक जज पी.एन.भगवती ने एक लंबी चिट्ठी लिखकर इंदिरा को बधाई दी थी, और कहा था कि चुनावों में आपकी शानदार जीत, और भारत के प्रधानमंत्री के रूप में आपकी विजयी वापसी पर क्या मैं हार्दिक बधाई दे सकता हूं? उन्होंने आगे लिखा था यह एक बेहद उल्लेखनीय उपलब्धि है, जिस पर आप, आपके मित्र, और आपके शुभचिंतक जायज रूप से गर्व कर सकते हैं, भारत जैसे देश का प्रधानमंत्री बनना बड़े सम्मान की बात है। इस चिट्ठी के सामने आने पर बड़ा हंगामा हुआ था, और तमाम वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की बैठक बुलाकर इसके खिलाफ चर्चा की थी। उस वक्त के एक दूसरे सुप्रीम कोर्ट जज ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में जस्टिस भगवती की इस चिट्ठी का नाम लिए बिना इसकी निंदा की थी। अब अभी जस्टिस चन्द्रचूड़ की गणेश पूजा में मोदी के जाने पर सुप्रीम कोर्ट की एक बड़ी वकील इंदिरा जयसिंह ने अपने एक्स-अकाऊंट पर लिखा है- जस्टिस चन्द्रचूड़ ने कार्यपालिका, और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत से समझौता किया है, मुख्य न्यायाधीश की स्वतंत्रता पर से अब विश्वास उठ गया है। उन्होंने मांग की है कि सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन को इसकी आलोचना करनी चाहिए।
इस बारे में हमारी सोच कुछ कड़े नीति-सिद्धांतों की है, और हमारा मानना है कि अदालत और सरकार को एक-दूसरे से एकदम परे रहना चाहिए, और जनता के बीच किसी भी तरह के शक की नौबत ही नहीं आने देनी चाहिए। संदेह से परे रहने के बारे में दुनिया भर में एक पुरानी कहावत चली आ रही है कि एक रोमन शासक जूलियस सीजर ने एक विवाद के बाद अपनी पत्नी को तलाक देते हुए यह कहा था- मेरी पत्नी को संदेह से भी ऊपर रहना चाहिए। इसे सार्वजनिक जीवन में अक्सर इस्तेमाल किया जाता है कि अहमियत के ओहदों पर बैठे हुए लोगों का चाल-चलन ऐसा रहना चाहिए कि उसे लेकर किसी शक की गुंजाइश कभी न हो सके। हमें लगता है कि जस्टिस चन्द्रचूड़ जूलियस सीजर के पैमाने पर खोटे साबित हुए हैं, और इस एक फैसले से उनकी साख धूमिल हुई है। अब वे अपने पुनर्वास के वक्त क्या करते हैं, और उसके पहले केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री मोदी की पार्टी या गठबंधन से जुड़े हुए मामलों पर क्या करते हैं, यह सोचना उनकी अपनी जिम्मेदारी है, और हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि भगवान गणेश उन्हें सही राह दिखाएंगे। हमारा यह भी मानना है कि इस पूजा में जाकर प्रधानमंत्री मोदी ने एक ऐसे अप्रिय विवाद में हिस्सा ले लिया है जिसे टालने के लिए अधिक समझ-बूझ की जरूरत नहीं थी।
कर्नाटक हाईकोर्ट ने अभी एक ऐसी महिला पर नजर रखने के लिए पूरे राज्य की पुलिस को कहा है जिसने पिछले दस बरस में दस अलग-अलग मर्दों के खिलाफ मामले दर्ज करवाए जिनमें पांच पर बलात्कार, दो पर क्रूरता, और तीन पर देह-शोषण के आरोप लगाए। हाईकोर्ट ने इनमें से एक मामले को खारिज किया है, और इस महिला को सीरियल-शिकायतकर्ता करार दिया है। हाईकोर्ट जज ने लिखा है कि यह महिला आगे कानूनी प्रक्रिया का बेजा इस्तेमाल न कर सके इसके लिए पुलिस को सावधान रहना चाहिए। अभी जो मामला हाईकोर्ट ने खारिज किया है वह 498ए का है जो कि पति या ससुराल के लोगों द्वारा किसी महिला पर क्रूरता करने पर लगने वाली धारा है। अदालत ने पाया कि इस महिला की दसों शिकायतें एक ही किस्म से किसी मर्द या उसके परिवार के लोगों को परेशान करने के लिए लिखाई गई दिखती हैं। खारिज किए गए मामले में अदालत ने यह पाया कि जिसके खिलाफ शिकायत लिखाई गई थी उसके परिवार के बाकी सदस्यों को इसमें जबर्दस्ती घसीटा गया है। यह महिला बस रिपोर्ट लिखा देती है, और उसके बाद अदालती बुलावे पर भी नहीं आती। नतीजा यह होता है कि आरोपियों को हिरासत में पड़े-पड़े लंबा वक्त हो जाता है, और जमानत नहीं मिलती।
अब हम इससे परे सुप्रीम कोर्ट चलते हैं जहां पर तीन जजों की एक बेंच ने शादीशुदा जिंदगी के एक मामले की सुनवाई करते हुए अपनी तकलीफ जाहिर की है कि देश में आज बहुत से मामलों में महिलाएं उन कानूनों का बेजा इस्तेमाल करके पति और ससुराल के लोगों को फंसा रही हैं जिन्हें कि महिलाओं को विशेष सुरक्षा देने के लिए बनाया गया था। अदालत ने कहा कि आईपीसी की धारा 498ए के साथ-साथ घरेलू हिंसा के कुछ दूसरे कानूनों का सबसे ज्यादा बेजा इस्तेमाल हो रहा है। पिछले महीने ही एक मामले में बाम्बे हाईकोर्ट ने 498ए के दुरूपयोग पर फिक्र जाहिर की थी, और कहा था कि परिवार में दादा-दादी, या बिस्तर पर पड़े लाचार लोगों को भी इन कानूनों में फंसाया जा रहा है। अदालत ने यह हैरानी जाहिर की कि शादी के बाद किसी महिला को ससुराल के जुल्म से बचाने के लिए जो कानून बना उसका इस्तेमाल करके बहुत सी महिलाएं ससुराल के लोगों पर ही जुल्म ढाने लगी हैं।
इन दो अलग-अलग मामलों को एक ही दिन में अपने सामने देखने के बाद हमें यह भी याद पड़ रहा है कि किस तरह बलात्कार के मामलों में महिला की शिकायत को अदालत अनिवार्य रूप से सच और सही मानकर कार्रवाई शुरू करता है, और बहुत से ऐसे मामलों में लगातार गिरफ्तारियां हो रही हैं जिनमें लंबी पहचान, लंबे संबंध, और लंबे देह-संबंधों के बाद शादी न होने या करने पर कोई लडक़ी या महिला रिपोर्ट लिखाती हैं, और उसमें आनन-फानन गिरफ्तारी हो जाती है। बलात्कार के कानून को लेकर भी बहुत से लोगों का यह मानना है कि सहमति के प्रेम-संबंधों के बाद शादी न होने पर उसे बलात्कार करार देना नाजायज है, और अब देश की कई अदालतें भी इस तरह सोचने लगी हैं। हमने भी कई बार इस बात को लिखा है कि बालिग लड़कियों और महिलाओं को किसी से देह-संबंध बनाते हुए हमेशा यह याद रखना चाहिए कि शादी के वायदे हर बार पूरे नहीं हो सकते, और जिंदगी में कोई भी वायदा ऐसा नहीं होता जो हमेशा पूरा हो सके। इसलिए पुलिस रिपोर्ट और अदालत की नौबत आने के पहले महिलाओं को यह मानकर चलना चाहिए कि देह-संबंध अनिवार्य रूप से शादी में तब्दील नहीं हो जाते।
जब कभी किसी कमजोर तबके को हिफाजत देने के लिए अलग से कड़े कानून बनाए जाते हैं, तो उनके साथ ऐसे खतरे जुड़े ही रहते हैं। ऐसे कानून महिलाओं को बचाने के लिए, दलित और आदिवासी तबकों को बचाने के लिए, और नाबालिग आरोपियों को खास रियायत देने के लिए बनाए गए हैं, और इन सबका भरपूर बेजा इस्तेमाल होता है। ऐसे नाबालिग जो कि रात-दिन नशे के आदी रहते हैं, हर तरह के जुर्म में शामिल रहते हैं, कहीं कत्ल करते हैं, तो कहीं सामूहिक बलात्कार करते हैं, और उसके बाद पुलिस से लेकर अदालत तक नाबालिग होने की रियायत पाते हैं, और जेल की जगह सुधारगृह में कुछ वक्त गुजारकर निकल जाते हैं। यह सिलसिला भी आज देश में सुप्रीम कोर्ट में भी बहस का सामान बना हुआ है कि नाबालिग आरोपियों को भयानक हिंसक अपराधों के मामलों में शामिल रहने पर क्या बालिग की तरह सजा दी जाए? इस पर समाज के अलग-अलग जानकार और विशेषज्ञ तबकों में गंभीर मतभेद है, और हम भी यहां पर अपनी कोई राय नहीं रखते हैं।
अब पल भर के लिए हम कर्नाटक की उस महिला के मामले पर लौटते हैं जिसे हाईकोर्ट ने सीरियल-शिकायतकर्ता करार दिया है। हाईकोर्ट इस नतीजे पर दस अलग-अलग लोगों के खिलाफ उसकी लिखाई गई रिपोर्ट का विश्लेषण करने के बाद यह बोल पा रहा है। लेकिन पिछले दस-ग्यारह बरस में जो लोग अकेले या परिवार सहित गिरफ्तार हुए, और जेल में फंसे रहे, उन पर क्या गुजरी? उसके शुरू के दो-तीन मामलों में तो किसी अदालत को ऐसी सिलसिलेवार और योजनाबद्ध साजिश का अंदाज भी नहीं लगा होगा। अभी हमें ठीक से नहीं मालूम है कि शिकायत झूठी निकलने पर ऐसी शिकायतकर्ता पर कार्रवाई कितनी होती है, और कितने मामलों में नहीं होती। लेकिन न्याय तो यही होगा कि अगर कहीं झूठी शिकायत की साजिश साबित होती है, तो उसकी सजा मिलनी चाहिए। देश का जो कानून दूसरों के अधिकारों में कटौती करते हुए भी, दलित-आदिवासी, महिला-नाबालिग जैसे तबकों को खास रियायत और खास हिफाजत देता है, उसके बेजा इस्तेमाल को रोकने के लिए भी पुख्ता इंतजाम रहना चाहिए, वरना बेकसूरों की जिंदगी खराब करना इन कानूनों के साथ बड़ा आसान काम है।
केन्द्र की मोदी सरकार के दो विभाग, दोनों जनता से एक ही किस्म की बातों से जुड़े हुए हैं, लेकिन दोनों के कामकाज में जमीन-आसमान का फर्क दिख रहा है। एक तो रेलवे है, और दूसरा सडक़ परिवहन। रेलवे का काम देखने वाले अश्विनी वैष्णव आईएएस अधिकारी रहे हुए हैं, और रेलवे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की निजी प्रतिष्ठा से जुड़ी हुई कई योजनाओं को असाधारण तरीके से आगे भी बढ़ा रहा है। मोदी के नाम से जुड़ी वंदे भारत रेलगाडिय़ों को लगातार बढ़ाया जा रहा है, और दूसरी तरफ आम जनता के सफर की गाडिय़ां घटती चली जा रही हैं, छोटे और मामूली स्टेशनों पर रूकना घटते चले जा रहा है, रेलगाडिय़ों में डिब्बे कम होते चले जा रहे हैं, और इन कम होते डिब्बों में आम मुसाफिरों के बिना एसी वाले डिब्बे बहुत बुरी तरह कम कर दिए गए हैं, एसी वाले डिब्बे बढ़ते चले जा रहे हैं, और गरीबों को भी मजबूरी में महंगा सफर करना पड़ रहा है। इसके अलावा रेलवे ने स्टेशनों का निजीकरण शुरू किया है जिससे प्लेटफॉर्म टिकट से लेकर पार्किंग तक सब कुछ अंधाधुंध महंगा होते चल रहा है, वहां पर खानपान महंगा हो रहा है, और रेलवे ने बुजुर्गों की रियायत खत्म कर दी है, रिजर्वेशन की फीस बढ़ा दी है, टिकट कैंसल करने पर चार्ज बढ़ा दिए हैं, और हर दिन देश भर में दर्जनों रेलगाडिय़ों को अचानक रद्द कर दिया जा रहा है, क्योंकि सरकार का पूरा ध्यान कोयले की आवाजाही पर है। लोग सोशल मीडिया पर अपनी कहीं भी खड़ी कर दी गई रेलगाडिय़ों की तस्वीर पोस्ट कर रहे हैं, कि उनकी गाड़ी को वंदे भारत को रास्ता देने के लिए किस तरह रोक दिया गया है। जगह-जगह से खबरें आती हैं कि वंदे भारत ट्रेन खाली चल रही है, घाटे में चल रही है, उसकी लागत नहीं निकल रही। ये खबरें भी आती हैं कि वंदे भारत ट्रेन पर जगह-जगह पथराव हो रहे हैं, और शायद ऐसा इसलिए भी हो रहा होगा जिन छोटे कस्बों में रेलगाडिय़ों का रूकना बंद कर दिया गया है, वहां के लोग नाराज होकर शायद ऐसे पत्थर चलाते हों। रेलगाडिय़ों के गिने-चुने आम मुसाफिर डिब्बों के भीतर जैसी भयानक भीड़ है, उसके वीडियो देखते नहीं बनते हैं। इन सबसे ऊपर देश भर में हर दो-तीन दिनों में कोई न कोई रेल एक्सीडेंट भी देखने मिल रहा है। अगर बहुत से लोग ऐसा सोचते हैं कि रेल मंत्रालय उसी अंदाज में सिर्फ वंदे भारत गाडिय़ों पर ध्यान दे रहा है, जिस अंदाज में छत्तीसगढ़ में पिछली भूपेश बघेल सरकार स्कूल शिक्षा के नाम पर सिर्फ आत्मानंद स्कूलों पर ध्यान दे रही थी, तो ऐसा सोचना बहुत नाजायज भी नहीं लग रहा है।
हमने जिस दूसरे मुद्दे को उठाया है वह सडक़ परिवहन का है, और केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी इस विभाग के मंत्री हैं, और पिछले बरसों में लगातार देश में सडक़ परिवहन सुधरते चले गया। खूब नई सडक़ें बनी हैं, देश भर में फ्लाईओवर, और ओवरब्रिज बने हैं, ट्रैफिक तेज हुआ है, टोल टैक्स नाकों पर फास्टटैग की वजह से कतारें लगना कम हुआ है, और नितिन गडकरी एक समर्पित मंत्री माने जाते हैं जो कि सकारात्मक नजरिए से चीजों को सुधारते हैं, रफ्तार से प्रोजेक्ट पूरा करवाते हैं। उन्होंने अपने विभागों से जुड़ी टेक्नॉलॉजी पर तेजी से अमल करवाया है, फास्टटैग तो एक बात थी, अब वे गाडिय़ों को जीपीएस से लैस करवाकर एक नए किस्म से टोल टैक्स लेने का इंतजाम कर रहे हैं जो कि आज के इंतजाम के मुकाबले अधिक न्यायसंगत और तर्कसंगत भी रहेगा। उन्होंने ग्लोबल निविगेशन सेटेलाइट सिस्टम (जीएनएसएल) से लैस निजी वाहनों पर नेशनल हाईवे पर एक अलग फार्मूले से टोल टैक्स लेना शुरू किया है जो कि बिना किसी टोल टैक्स नाके के हाईवे के इस्तेमाल पर टैक्स का हिसाब करते चलेगा। इसके साथ-साथ मौजूदा इंतजाम भी अभी चलते रहेंगे क्योंकि अभी अधिक गाडिय़ों में यह प्रणाली लगी नहीं है।
नितिन गडकरी ने सडक़ परिवहन मंत्रालय के तहत एक-एक दिन में हाईवे निर्माण के कुछ विश्व रिकॉर्ड भी बनाए हैं कि कितने लेन की सडक़ें, कितने किलोमीटर एक दिन में बनाई गई हैं। मंत्री के रूप में उनका काम हमेशा चर्चा में रहा है, और वे सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी भविष्य की योजनाओं को लेकर सकारात्मक बातें करते हैं।
हम भारत में लोगों की आवाजाही से जुड़े, और माल परिवहन से जुड़े इन दो मंत्रालयों को जब एक साथ देखते हैं, तो रेलवे की हालत लगातार जनविरोधी होती चली जा रही है। ग्रामीण और गरीब मुसाफिरों की मुसीबत खड़ी करने में रेल मंत्रालय ने कोई कसर नहीं रखी है। इस अखबार ने अपने यूट्यूब चैनल ‘इंडिया-आजकल’ पर बिलासपुर हाईकोर्ट के एक वकील सुदीप श्रीवास्तव को इंटरव्यू किया था जिन्होंने रेल सेवा की तबाही के खिलाफ हाईकोर्ट में याचिका लगाई थी। उन्होंने खुलासे से बताया था कि गरीब और ग्रामीण जनता को किस तरह रेल मंत्रालय ने घूरे के ढेर पर फेंक दिया है, और कम से कम रेलगाडिय़ां चलाकर अधिक से अधिक मुनाफा कमाना सरकार ने मकसद बना लिया है, और जनता पर भारी-भरकम बोझ डालने, उनकी सहूलियतें छीन लेने की कीमत पर रेल मंत्रालय अपने घाटे कम कर रहा है। हिन्दुस्तान के इतिहास में अच्छी-भली चलती भारतीय रेल को इतना बर्बाद करने का काम कभी नहीं हुआ था। और देश भर में चुनिंदा वंदे भारत ट्रेन चलाना किसी भी तरह से जनता की तकलीफों की भरपाई नहीं हो सकती। जब देश के सैकड़ों, या शायद हजारों रेलवे स्टेशनों पर ट्रेन रूकना बंद कर दिया गया है, तो वहां की जनता की आर्थिक विकास की संभावनाओं को भी चौपट कर दिया गया है। न वहां के बच्चे पास के शहर तक रोज पढऩे आ-जा सकते, न गांव के मजदूर काम करने शहर आ सकते, और न ही गांव की अपनी छोटी सी उपज लेकर उसे रोज शहर बेचने जाया जा सकता। एक तरफ तो देश में आर्थिक विकास की बात कही जा रही है, और दूसरी तरफ एक-एक दिन में दर्जनों मुसाफिर रेलगाडिय़ों को अचानक रद्द कर देना जनता को एकदम ही गैरजरूरी मान लेने के अलावा कुछ नहीं है।
जो लोग दशकों से नितिन गडकरी को देखते आ रहे हैं, क्या वे यह कल्पना भी कर सकते हैं कि अगर वे रेलमंत्री होते तो क्या इस विभाग का हाल इतना खराब हुआ होता? हम लोकतंत्र में व्यक्तिवादी होना तो नहीं चाहते, लेकिन कुछ नेता, कुछ अफसर ऐसे रहते हैं कि उनके अकेले के रहने और न रहने से उनके विभाग के काम में जमीन-आसमान का फर्क पड़ जाता है।
उत्तरप्रदेश में करीब 70 हजार शिक्षकों की भर्ती का मामला चार बरस से अदालतों में चल रहा है, और अभी भी किसी अंत के करीब नहीं है। हाईकोर्ट ने इनकी चयन सूची को खारिज करते हुए तीन महीने में नई चयन सूची बनाने का हुक्म दिया था, और इस आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है। अदालत हाईकोर्ट के फैसले को अधिक बारीकी से पढऩा चाहता है, और इस बीच उसने सरकार और शिक्षकों के अलग-अलग तबकों को नोटिस भी दिया है। कुछ इसी तरह के मामले छत्तीसगढ़ में अलग-अलग कई तरह के स्कूल और कॉलेज शिक्षकों के चयन और उनके प्रमोशन को लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक चल रहे हैं, और सरकारों का कार्यकाल खत्म हो जाता है लेकिन अदालतों में फैसले नहीं हो पाते। छत्तीसगढ़ में बेरोजगारों को पिछले दो दशक में कई तरह के सदमे झेलने पड़े हैं। 2005 के पीएससी घोटाले के शिकार लोगों को अब तक सुप्रीम कोर्ट से इंसाफ नहीं मिल पाया है। जबकि गलत चुन लिए गए लोग राज्य सेवा से आगे बढ़ते हुए आईएएस बन चुके हैं, और उनकी जगह जिन लोगों को नौकरी मिलनी चाहिए थी, वे अब तक बेरोजगार घूम रहे हैं। बरसों से यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पड़ा हुआ है, और इसका कोई निपटारा नहीं हो रहा है। स्कूल और कॉलेज शिक्षकों के हजारों लोगों के मामले बरसों तक घिसटते हुए अदालतों से तय होते हैं, तो भी सरकार को उस पर अमल की कोई जल्दी नहीं रहती।
किसी भी राज्य की सरकार, उसके पास अपने नियमित वकीलों की एक फौज तो रहती ही है, देश के सबसे बड़े विशेषज्ञ वकीलों की मोटी फीस देकर भी सरकारें उनसे राय लेती हैं। ऐसे में इतने गलत फैसले होते कैसे हैं कि हजारों बेरोजगारों, या सरकारी कर्मचारियों की जिंदगी को प्रभावित करने में कानूनी चूक हो जाए? क्या बड़े-बड़े आईएएस अफसर, और सरकार के बड़े-बड़े वकील मिलकर भी कानूनी गलतियों को टाल नहीं सकते? कौन से ऐसे दबाव रहते हैं कि सरकार इतनी गलतियां, या गलत काम करती है? जब कभी हम अदालतों पर बोझ की बात करते हैं, तो यह बात भी उठती है कि बड़ी अदालतों का बहुत सारा वक्त तो गलत सरकारी फैसलों के खिलाफ लडऩे में ही चले जाता है। अदालतों में सरकारों का अडिय़ल रूख देखें तो ऐसा लगता है कि जज जज नहीं हैं, वे सरकारी वकील के खिलाफ बहस करने वाले वकील हैं। अभी उत्तराखंड के एक मामले में मुख्यमंत्री की तरफ से उनके वकील ने सुप्रीम कोर्ट के जज से कहा कि किसी भी तरह का तबादला करना मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार है, फिर चाहे राज्य के मंत्री और अफसर इसके खिलाफ ही फाइलों पर क्यों न लिख चुके हों। सुप्रीम कोर्ट जज को वकील को यह समझाना पड़ा कि राजशाही के दिन लद गए हैं, और मुख्यमंत्री अब बादशाह नहीं होते हैं कि उनकी मर्जी हुक्म हो जाए, अब कानून का राज चल रहा है। यह नौबत आम रहती है। आज अनगिनत राज्य सरकारों, विधानसभा अध्यक्षों, राज्यपालों का रूख संविधान और कानून के खिलाफ जाकर मनमानी करने का रहता है। हर कुछ हफ्तों में सुप्रीम कोर्ट के जज इन तबकों में से किसी न किसी के मुखिया की आलोचना करते हैं, और यह साबित होता है कि उन्होंने संविधान के खिलाफ काम किया है। जबकि इनमें से हर किसी को कानूनी सलाहकार हासिल रहते हैं।
लोकतंत्र में जहां गौरवशाली परंपराओं के आधार पर अलग-अलग संवैधानिक संस्थाओं को जनहित और जनकल्याण में फैसले लेना चाहिए, अब लगातार यह देखने मिलता है कि राज्य सरकार, विधानसभा, और राजभवन के मुखिया अपने पहले की कमजोर और खराब मिसालों को गिनाते हुए उनसे भी अधिक कमजोर और खराब फैसले लेने पर आमादा रहते हैं। छत्तीसगढ़ की पिछली भूपेश सरकार ने राज्य की कुछ सबसे भ्रष्ट अफसरों को बचाने के लिए राज्य की ही जांच एजेंसी को तबाह कर दिया, और जांच एजेंसी ने मुजरिमों के वकील की तरह काम किया। इसके अलावा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने ऐसे लोगों के रिटायर हो जाने के बाद तमाम नियमों के खिलाफ जाकर उन्हें दुबारा नौकरी दी, और राज्य के सबसे जरूरी महकमों का बाप बनाकर उन्हें बिठा दिया था। भूपेश सरकार के खिलाफ आज सुप्रीम कोर्ट से लेकर जांच एजेंसियों की विशेष अदालतों तक जितने मामले चल रहे हैं, वे जाहिर तौर पर सरकार ने जानते-समझते हुए गलत फैसले लिए थे, उनसे राज्य का हजारों करोड़ का नुकसान हुआ, सरकार ने एक मुजरिम गिरोह की तरह काम किया, और अब उसका एक-एक फैसला अलग-अलग अदालतों में नंगा हो रहा है।
सरकारों को यह समझना चाहिए कि वे सत्ता के बाहुबल से कई बहुत ही गैरकानूनी फैसले ले सकती हैं, और जब तक अदालतों से उनके खिलाफ आखिरी फैसला नहीं हो जाता, तब तक वे अपने फैसले को सही करार देते हुए राजनीतिक मोर्चे पर अड़े भी रह सकती हैं, लेकिन बरसों बाद जाकर सही, ऐसे फैसले गलत साबित होते ही हैं। इसमें बरसों तक जनता बेइंसाफी झेलती है, देश की सबसे व्यस्त और सबसे बड़ी अदालतें इन निहायत गैरजरूरी मामलों का बोझ झेलती हैं, और लोकतंत्र में सबसे खराब मिसालें स्थापित होती हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। हमारा तो यह साफ मानना है कि जो अफसर ऐसे गलत फैसलों की फाइलों पर दस्तखत करते हैं, उनके खिलाफ भी अदालतों को खुलकर फैसले देने चाहिए, ताकि बाकी अफसरों को भी पता लगे कि नाजायज राजनीतिक फैसलों को फाइलों पर सही ठहराने की कोशिश कैसी सजा दिलाती है। एक-एक गलत सरकारी फैसले से जब लाखों बेरोजगारों का दिल टूटता है, हजारों बेरोजगारों का हक छिनता है, तो फिर उसके खिलाफ अदालती फैसले में जिम्मेदार अफसरों पर भी टिप्पणी होनी चाहिए। ऐसी टिप्पणी इन अफसरों के रिकॉर्ड में भी दर्ज होनी चाहिए ताकि आगे उनके भविष्य को तय करते हुए इसे ध्यान में रखा जाए। केन्द्र सरकार को भी अपने भेजे हुए अखिल भारतीय सेवा के अफसरों पर नजर रखनी चाहिए कि राज्यों में वे किस तरह काम कर रहे हैं, और कैसे बर्ताव के हकदार हैं। आज हालत यह रहती है कि तीस साल की नौकरी करने के बाद ऐसे लोगों के बारे में केन्द्र कोई फैसला लेती है, और तब तक वे लोकतंत्र को बहुत दूर तक बर्बाद कर चुके रहते हैं। जितने भी व्यापक महत्व के सरकारी फैसले आखिरी अदालत से खारिज होते हैं, उन्हें लेकर अदालत, या सरकार की तरफ से यह भी खुलासा होना चाहिए कि किन मंत्रियों, और किन अफसरों ने ऐसा फैसला लेने में क्या भूमिका निभाई थी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
गणेशोत्सव को लेकर इस बरस तनातनी कुछ अधिक दिख रही है। पहले ही दिन छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के एक गांव में गणेश पंडाल में लाउडस्पीकर पर संगीत बजाने को लेकर खूब झगड़ा हुआ, और दो खेमों के बीच इतनी मारपीट हुई कि बांस से पीट-पीटकर एक खेमे के तीन लोगों को मार डाला गया। दस दिनों तक चलने वाला जो गणेशोत्सव खुशियां लेकर आना चाहिए, वह लाशें लेकर आया है। और इसमें गणेशजी की कोई गलती नहीं है, गलती उन लोगों की है जो गणेश-पूजा के साथ अनिवार्य रूप से लाउडस्पीकर जोड़ देते हैं, चंदा उगाही से लेकर सडक़ पर ट्रैफिक रोकने तक की मनमानी करते हैं। कल ही राजधानी रायपुर में बनाया गया एक बहुत बड़ा गणेश पंडाल हवा से गिर गया, और नीचे दबी एक कार चकनाचूर हो गई, लोग किसी तरह बच गए। इधर बिलासपुर में बसा हुआ छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट लगातार नोटिस पर नोटिस जारी करते जा रहा है, और पुलिस और प्रशासन शोरगुल के कारोबारियों को कागजी नोटिस थमाकर अपनी जिम्मेदारी पूरी मान ले रहे हैं। कई अफसरों का यह कहना है कि त्यौहार के बीच धार्मिक भावनाएं इतनी उभरी और भडक़ी हुई हैं कि भीड़ को हाईकोर्ट का आदेश समझाना खतरे से खाली नहीं है। दस दिन के गणेशोत्सव के पंडाल बनते और हटते मिला लें, तो सडक़ों पर बीस दिन का कब्जा हो जाता है, और आसपास का कारोबार तबाह होता है, सडक़ों पर आवाजाही घंटों तक फंसी रहती है। धर्म के नाम पर जो आक्रामक और हिंसक तेवर भीड़ के रहते हैं, उससे उलझना आसान और महफूज काम नहीं रहता, इसलिए पुलिस ऐसे जुलूसों को रोकने के बजाय उनके साथ-साथ उनकी हिफाजत करते चलती है।
आज ही अखबारों में खबरें हैं कि किस तरह बिजली के तारों से गणेश पंडालों के लिए सीधे बिजली ले ली गई है, और इसकी वजह से कई इलाकों में बत्ती गुल हो रही है। यह हाल प्रतिमाओं को लेकर जाने से लेकर प्रतिमाओं के विसर्जन तक चलते रहता है, और जब पुलिस-प्रशासन की हिम्मत ऐसी अराजकता को रोकने-टोकने की नहीं होती, तो मुश्किल में फंसने वाली त्रस्त जनता भला क्या कर लेगी। हमारा ख्याल है कि प्रदेश में लाउडस्पीकरों, और धार्मिक अराजकता के बाकी प्रदर्शन-प्रतीकों को देखते हुए हाईकोर्ट को अपना आदेश खुद ही वापिस ले लेना चाहिए, और शासन-प्रशासन से माफी भी मांग लेनी चाहिए कि उन्हें पिछली कुछ बरसों से अदालत से जो तकलीफ हुई है, उसके लिए आज जैन क्षमायाचना के दिन माफ किया जाए। जिन आदेशों पर अमल नहीं हो सकता, उनकी वजह से लोगों का भरोसा सरकारों, अदालतों, और जनता की किसी काल्पनिक ताकत, सब पर से उठ जाता है।
हम दुर्ग जिले में परसों रात मारपीट में हुए तीन कत्ल पर बात करें, तो पता लगा है कि वहां तमाम नौजवान नशे में भी थे। अब एक तरफ दारू का नशा, दूसरी तरफ धर्मान्धता का नशा, और इन सबके साथ जब बेरोजगार निठल्लों के पास ढेर सा खाली वक्त हो, आगे की जिंदगी के लिए कोई भी उम्मीद न हो, तो फिर लोग नशे में एक-दूसरे को निपटाते हुए कानून के बारे में नहीं सोचते। गांवों का हाल यह है कि शाम के बाद आबादी का एक बड़ा हिस्सा नशे में डूबा रहता है, और ऐसे में ही घर-परिवार में आपस में होती हिंसा भी लगातार बढ़ती चल रही है। पुलिस परिवारों के भीतर, दोस्तों के बीच होते कत्लों की लाशें उठाते हुए बुरी तरह थकी हुई है, और ऐसे में कानूनी और गैरकानूनी, दोनों तरह के नशे आगे में घी डाल रहे हैं। अब ऐसे माहौल में लाउडस्पीकरों की आवाज पर झगड़े, धार्मिक जुलूसों में चाकूबाजी से कत्ल, गणेश पंडालों में बैठकर शराब पीना, और जुआ खेलना, सभी तरह के काम चल रहे हैं। यह अराजकता लोगों में हिंसा बढ़ाती चल रही है, और पुलिस-प्रशासन इसे रोकने की सोचने के पहले यह सोचना शुरू कर देते हैं कि धार्मिक और धर्मान्ध भीड़ से टकराव लेना समझदारी तो होगी नहीं।
चुनाव जीतने के लिए तो किसी समुदाय में धार्मिक भावनाएं भडक़ाना समझ में आता है, लेकिन जब भडक़ने की यह आग चुनाव के बाद शांत नहीं होती, और पूरे पांच बरस भभकती रहती है, तो इससे न सिर्फ धर्मान्ध हिंसा, बल्कि कई मौकों पर साम्प्रदायिक हिंसा का भी खतरा बढ़ जाता है, सार्वजनिक जीवन में अराजकता तो स्थाई रूप से बढ़ ही चुकी है, और फिर एक धर्म के मुकाबले दूसरे धर्म या धर्मों का अराजक-प्रदर्शन भी बढ़ते चलता है। एक दूसरी बड़ी दिक्कत नौजवान पीढ़ी के सामने अपनी खुद की संभावनाओं को लेकर है। जिस पीढ़ी को किसी काम-धंधे से लगना चाहिए, नौकरी ढूंढनी चाहिए, या कोई रोजगार शुरू करना चाहिए, उसे एक के बाद एक अंतहीन धार्मिक और राजनीतिक आयोजनों में इस तरह जोतकर रखा जा रहा है कि मानो तांगे में किसी घोड़े को जोतकर रखा गया हो, और उसकी आंखों को कवर लगाकर ढांक भी दिया गया हो, ताकि उसे दाएं-बाएं का कुछ न दिखे, और वह विचलित न होकर सीधा दौड़ते जाए। आज नौजवान पीढ़ी को धर्म और राजनीति के कवर लगाकर उसकी असल संभावनाओं की तरफ उसका देखना रोक दिया गया है। और लोग जयकारों में, जिंदाबाद-मुर्दाबाद में, और अपने धर्म की रक्षा करने, और दूसरे धर्म के लोगों को सरहद के पार फेंकने के फतवों में डूबे हुए हैं। जिंदगी के लिए जिनके सामने कोई मकसद और मंजिल न हों, वैसे लोगों को किसी भीड़ और जुलूस का हिस्सा बनाना बड़ा आसान रहता है, और आज वही कुछ चल रहा है।
रोजमर्रा की जिंदगी पर धर्म का प्रदर्शन जिस बुरी तरह हावी हो चुका है, उस पर जनता तो कुछ भी रोकने-टोकने की हालत में नहीं है। सार्वजनिक जीवन में चैन से जीने के अपने हक का दावा करने वाले लोगों पर धर्मविरोधी होने की तोहमत लगाते हुए उनका जीना हराम कर दिया जाता है। इस सिलसिले को बदलने के लिए कानून के राज को फिर से कायम करना रहेगा, लेकिन सरकारों की दिलचस्पी इसमें कम है, और बड़ी अदालतों के जज अपने ही फैसलों पर अमल नहीं करवा पा रहे हैं। इस नौबत का कोई भी इलाज हमें तब तक नहीं दिखता, जब तक कि सरकारों में अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी पूरी करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति हो। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
लोकतंत्र में जनता के जानने का अधिकार, और उनके सामने अपने समाचार-विचार रखने का अधिकार भारत में मीडिया को, और खासकर अखबारों को बड़ा महत्वपूर्ण बनाता है। समाज के बाकी तबकों की तरह अखबारों में भी नीति-सिद्धांतों की कुछ गिरावट आई है, लेकिन वे मीडिया के बाकी हिस्सों से परे आज भी अधिक जिम्मेदार और अधिक जवाबदेह बने हुए हैं। और अखबारों की वजह से ही लोकतंत्र के बाकी तबके, विधानसभा और संसद, सरकार, और न्यायपालिका को भी अखबारों की वजह से सजग रहने, जानकारी पाने, और खुद भी जवाबदेह बने रहने का एक बेहतर मौका मिलता है। यह एक अलग बात है कि आज बहुत से अखबारों का बहुत सा हिस्सा सरकार और बाजार से प्रभावित और प्रायोजित रहता है, लेकिन छोटे-बड़े कई किस्म के अखबारों में से चूंकि हर किसी का मुंह एक साथ बंद नहीं किया जा सकता, उनकी चुप्पी को एक साथ नहीं खरीदा जा सकता, इसलिए अखबार आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं। जब राजनीतिक दलों और सरकारों को नीति और नीयत की अधिक फिक्र नहीं रह गई है, उनकी झिझक अधिकतर बातों के लिए खत्म हो चुकी है, तब भी अखबारों की वजह से उनके हर गलत काम छुप नहीं पाते, और अधिकतर काम कभी न कभी सतह पर आ ही जाते हैं।
हम अखबारों की चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि वे नेताओं, और उनके संगठनों, सरकारों, और उनके अलग-अलग हिस्सों के लिए आज भी समय रहते उनकी आंखें खोलने वाले हैं। अखबारों में अपने बारे में नकारात्मक समाचार पढक़र सरकारों का बौखलाना पहले के मुकाबले बढ़ते चल रहा है, क्योंकि अखबार खुद अपनी महंगी अर्थव्यवस्था के लिए सरकारी इश्तहारों और उससे दूसरे किस्म की मेहरबानियों के मोहताज हो गए हैं। इसलिए सरकार को यह शिकायत हो सकती है कि उसकी मदद से छपने वाले अखबार उसकी गलतियों और गलत कामों को छुपाने में मदद नहीं करते। लेकिन यह छुपाना किसी भी समझदार सरकार के लिए लंबे फायदे की बात नहीं होती है। अगर अखबारों में सरकारी भ्रष्टाचार, गड़बड़ी, मनमानी का सच न छपे, तो सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी खुशफहमी में जीने लगेंगे कि सब ठीक चल रहा है। हमने न सिर्फ इमरजेंसी के दौर में देखा है, बल्कि बाद में भी कुछ अलग-अलग सरकारों के राज में बिना इमरजेंसी के भी देखा है कि अपने बारे में हकीकत छपते देखना जिन्हें मंजूर नहीं होता, वे आगे किसी चुनाव में बहुत बुरी तरह शिकस्त पाते हैं। कई सरकारें अखबारों को कभी खरीदकर, तो कभी डराकर काबू में रखती हैं, और अपने बारे में सब कुछ अच्छा-अच्छा छपा देखना चाहती हैं। इससे कुछ पल के लिए तो जनधारणा प्रबंधन में मदद मिल सकती है, लेकिन जब हकीकत सचमुच ही खासी नकारात्मक रहती है, तो उसके ऊपर अखबारों की चुप्पी की चादर ढांककर लंबे समय के लिए इसे नहीं दबाया जा सकता।
लोकतंत्र में जहां पर जनता के हाथ वोट है, और जो जनता खासी लोकप्रिय, लुभावनी, कामयाब, और फायदे देने वाली सरकार को भी निपटा देती है, वहां पर जनता के बीच के मुद्दों और हालात को दिखाने वाले समाचारों को दबाना खुद सत्ता के लिए समझदारी नहीं होती। समाचार तो धीरे-धीरे करके जनता के विचार तैयार करते हैं, लेकिन यह बात नहीं भूलना चाहिए कि जमीनी हालात बिना अखबारों के भी जनता के खयालात बदलते चलते हैं। लोग जब सरकारी बदइंतजामी, भ्रष्टाचार, कुशासन से परेशान रहते हैं, उस वक्त अखबारों में तो खबरों को कुछ या अधिक हद तक दबाया जा सकता है, लेकिन जनता का असंतोष दबते-दबते चुनाव में विस्फोट की तरह सामने आता है। हमने बहुत से प्रदेशों में इस तरह के विस्फोट देखे हैं जब अच्छी-भली चलती हुई सरकार की सत्तारूढ़ पार्टी के हार का कोई आसार नजर नहीं आता था, और चुनावी सर्वे से लेकर ओपिनियन पोल और एक्जिट पोल तक सत्तारूढ़ पार्टी की एकतरफा जीत की भविष्यवाणियां चल रही थीं, और पार्टी निपट गई। छत्तीसगढ़ में ही पन्द्रह बरस की रमन सरकार जिस बुरी तरह खारिज हुई थी, उसके कोई आसार नहीं दिख रहे थे। ठीक इसी तरह पिछले पांच बरस की भूपेश सरकार दसियों हजार करोड़ के फायदे वोटरों को देते हुए भी जिस बुरी तरह हारी है, वह भी इस बात का सुबूत है कि मीडिया-मैनेजमेंट नाम के एक बदनाम शब्द का अंधाधुंध इस्तेमाल जनता को तो अंधेरे में नहीं रखता, सत्ता को जरूर अंधेरे में रखता है, अतिआत्मविश्वासी बना देता है, और इन दोनों का मिलाजुला असर अहंकार में तब्दील होता है।
किसी भी समझदार सत्ता के लिए अखबार में उसके बारे में छपी नकारात्मक खबरें रोजाना अपने को संभालने का सबसे अच्छा मौका रहती हैं। सत्ता के हर दर्जे के भागीदार अपने मातहत लोगों की गलतियों को, गलत कामों को खबरों में देखकर उनमें सुधार की कोशिश कर सकते हैं, और ईमानदार आत्मविश्लेषण लोगों को पांच बरसों में लगातार सुधार का एक मौका देता है। दिक्कत यह होती है कि नेताओं के इर्द-गिर्द के दायरे एक रणनीतिक धुंध बनाकर रखना चाहते हैं ताकि नेता को सब कुछ अच्छा दिखता रहे। नतीजा यह होता है कि नेता खुशफहमी में रहते हैं, और जनता तो तकलीफ पाई हुई रहती है, और पांच बरस बाद उसके सामने जब ईवीएम आती है, तो वह सरकार से अपने सारे हिसाब-किताब एक उंगली से तय करती है। लोकतंत्र में हर दिन अखबारों में छपने वाली असफलताओं को देख-देखकर अगर सत्ता अपने इंतजाम को सुधारते चले, तो उसे पांच बरस बाद नाजायज घोषणाओं, और नाजायज तौर-तरीकों की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। हम लोकतंत्र में उस सरकार को सफल मानते हैं जो लोकतंत्र के दूसरे औजारों पर भरोसा करती है। इनमें अखबार भी एक औजार हैं जिनमें रोज आईने की तरह अपना चेहरा देखकर सरकार संभल सकती है कि उसे कहां-कहां अपना काम सुधारना है।
यह लोकतंत्र में कोई बहुत बड़ी आदर्श व्यवस्था नहीं है, बल्कि यह एक सहज स्थिति रहनी चाहिए। यह एक अलग बात है कि कुछ लोग सत्ता को अंधेरे में रखने के लिए अखबारों का चुप रहना पसंद करते हैं, और पांच बरस जाकर सत्ता ऐसे अंधेरे में रहते हुए गड्ढे में गिर जाती है। समझदार सत्ता को लोकतंत्र का फायदा उठाना चाहिए, और हर दिन के अखबार से अपनी गड़बडिय़ां देखकर उन्हें सुधारना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मध्यप्रदेश के उज्जैन से निकला हुआ एक वीडियो देश में सनसनी फैला रहा है। उज्जैन का खास धार्मिक महत्व है, वहां महाकाल विराजमान हैं। फिर एमपी के मौजूदा मुख्यमंत्री मोहन यादव उज्जैन के ही बाशिंदे हैं, और वहीं के विधायक भी हैं। ऐसे में उनके शहर के व्यस्त इलाके में चहल-पहल वाली सडक़ के किनारे एक नौजवान और महिला के बीच दिनदहाड़े सेक्स चलते रहा, और लोग वीडियो बनाते रहे। बाद में इन दोनों लोगों को पुलिस थाने ले गई तो पता लगा कि दोनों ने साथ में शराब पी थी, और फिर यह सेक्स हुआ। फिलहाल पुलिस ने बलात्कार का मुकदमा दर्ज करके इस नौजवान को अदालत के रास्ते जेल भेजा है, और वीडियो बनाकर फैलाने वालों की पहचान की जा रही है। इस महिला का एक जवान बेटा भी है, और उसका कहना है कि उसके साथ सेक्स करने वाले नौजवान ने उससे शादी का वायदा किया था, फिर दोनों ने शराब पी, और फिर आते-जाते लोगों के बीच सडक़ किनारे यह सेक्स हुआ जिसमें बलात्कार की धारा लगने से नौजवान जेल चले गया। दोनों पहले से परिचित भी हैं।
इस घटना के कई पहलू हो सकते हैं। लेकिन हम इसके एक छोटे हिस्से को लेकर आज यहां लिखना चाहते हैं कि जैसा कि इस महिला का कहना है इस नौजवान ने उससे शादी का वायदा किया, और फिर नशे में सेक्स किया। हम छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्य में हर दिन एक से अधिक ऐसी खबरें देख रहे हैं जिनमें शादी का वायदा करके सेक्स करना, और फिर शादी न करने पर बलात्कार की तोहमत में जेल जाना हो रहा है। ऐसे कई मामलों में लड़कियां नाबालिग भी रहती हैं, और वादाखिलाफी करने वाले लोग बालिग रहते हैं। ऐसे मामलों में पॉक्सो कानून लागू होता है, जिसमें किसी वायदे का, या तोडऩे का कोई महत्व नहीं रहता है, और न ही लडक़ी की सहमति कोई मायने रखती है। लेकिन जहां पर दोनों ही बालिग रहते हैं, वहां पर एक सवाल यह खड़ा होता है कि क्या शादी का वायदा, जो कि दो पक्षों के बीच हो सकता है, किसी एक तरफ से तो नहीं हो सकता, सहमति के सेक्स-संबंध को बाद में बलात्कार भी साबित कर सकता है, क्या ऐसा होना चाहिए?
अभी देश की अदालतों में इसे लेकर कई तरह की बहस चल रही है। कुछ राज्यों में हाईकोर्ट ने इसे बलात्कार मानने से इंकार भी कर दिया है। हम भी पहले कई बार इस मुद्दे पर लिख चुके हैं कि दो बालिगों के बीच शादी का वायदा अगर सेक्स तक पहुंचता है, तो क्या उसे पूरी जिंदगी के लिए मजबूरी का एक रिश्ता मान लेना जायज होगा? वायदा तो हर सगाई के वक्त शादी का होता है, लेकिन बहुत सी सगाई टूट जाती हैं, और शादी नहीं हो पातीं। बहुत सी शादियां बाद में तलाक में बदल जाती हैं। ऐसे में किसे वायदा माना जाए, और वायदा पूरा न होने पर उसे सजा के लायक कैसे माना जाए? दो बालिगों के बीच होने वाले सेक्स-संबंध अगर सहमति से हैं, तो क्या बाद में इन दोनों में से किसी को भी अपना फैसला बदलने की आजादी नहीं रह जाती? क्या एक बार का वायदा जिंदगी भर के लिए, या शादी हो जाने तक के लिए एक बंधन रहना चाहिए? जिस समाज में, या जिन इंसानों के बीच शादी और बच्चे हो जाने के बाद भी कुछ स्थाई नहीं रहता है, उनके बीच देहसंबंधों के पहले के एक कथित जुबानी वायदे को कितना बंधनकारी मानना जायज होगा? ऐसी किसी भी शिकायत में अपने को बलात्कार की शिकार बताने वाली महिला का बयान ही उसके भूतपूर्व या मौजूदा साथी की गिरफ्तारी के लिए काफी होता है, और हर दिन ऐसी गिरफ्तारी हो रही हैं।
क्या बलात्कार की शिकायत पर अनिवार्य रूप से गिरफ्तारी, और जेल का मौजूदा सिलसिला लड़कियों और महिलाओं को लापरवाही की हद तक अतिआत्मविश्वासी बना रहा है कि वे किसी आदमी के कहे हुए, या न कहे हुए शब्दों को एक मजबूत वायदा मानकर अपने बदन को उसके हवाले कर दें? कानून तो अपनी जगह अपना काम कर देता है, लेकिन क्या इस पूरे सिलसिले को एक अधिक समझदारी के साथ शुरू में रोका नहीं जा सकता, ताकि बलात्कार की शिकायत लेकर उससे आहत लड़कियां या महिलाएं पुलिस तक जाने से बचें? जब रोज ऐसी कई खबरें आती हैं, तो किस तरह की सावधानी सामाजिक परेशानी, और अदालती चक्करों से बचा सकती है? बात महज कानूनी हक की नहीं है, कानूनी हक का दावा तो हर कोई कर सकते हैं, किसी पिता के गुजरने पर कल एक जगह उसकी लाश अंतिम संस्कार का इंतजार करती रही, और दो वारिस बेटों में संपत्ति के बंटवारे के लिए मारपीट चलती रही। संपत्ति का बंटवारा उनका हक है, लेकिन अगर पिता अपने जीते-जी वसीयत के कागज साफ-सुथरे बनाकर, कानूनी औपचारिकताएं पूरी करके छोड़ गया होता, तो ऐसा नहीं हुआ होता।
हम यह भी सोच रहे हैं कि क्या दो बालिगों के बीच देहसंबंधों के पहले ऐसी कुछ लिखा-पढ़ी हो जानी चाहिए कि वे आपसी सहमति से, और अपनी मर्जी से देहसंबंध बना रहे हैं, और यह बलात्कार या सेक्स-शोषण नहीं है? अब सवाल यह उठता है कि जब देश में एक तबका शादीशुदा जोड़ों के बीच भी असहमति के बाद हुए सेक्स को बलात्कार करार देने का कानूनी इंतजाम चाहता है, तो प्रेमसंबंधों में क्या हर बार के देहसंबंध के पहले अनुबंध को नया किया जाएगा? यह मामला उन दो बदनों को अटपटा लग सकता है जो किसी एक वक्त एक होने पर आमादा थे, और अब दोनों में असहमति हो गई है। लेकिन इसका इलाज क्या हो सकता है? आज जब देश के कम से कम एक राज्य में साथ रहने वाले गैरशादीशुदा जोड़ों के लिए लिव-इन-रिलेशनशिप का रजिस्ट्रेशन कराना जरूरी कर दिया गया है, तो क्या सहमति के देहसंबंधों का भी करार रजिस्टर हो सकता है? आखिर ऐसा हर विवाद पुलिस, अदालत, और जेल इन तीनों जगहों पर बोझ बनकर सरकार पर खर्च डालता है, उसके ढांचे और अमले का वक्त इस पर खर्च होता है।
हमारा ख्याल है कि बालिग होने वाले जोड़ों को दुनिया का इतना तजुर्बा रहता है कि वे समझ सकें कि हर वायदे पूरे नहीं होते हैं। और किसी जुबानी वायदे के आधार पर कोई लडक़ी अपना बदन किसी को दे दे, यह भी ठीक नहीं है। कानून में लडक़ी को यह विशेषाधिकार दिया है कि बलात्कार की उसकी शिकायत पर आमतौर पर शक नहीं किया जाएगा। लेकिन यह एक ऐसी खतरनाक नौबत भी है जिसमें किसी देहसंबंध में शामिल आदमी को पहली शिकायत पर ही बिना सुबूत गिरफ्तार किया जा सकता है। हम किसी लडक़ी की शिकायत पर शक किए बिना, सिर्फ यही सोच रहे हैं कि क्या ऐसे विवादों को खत्म करने का कोई जरिया हो सकता है? क्या देहसंबंध को देश का कोई जायज कानून अनिवार्य रूप से शादी में तब्दील करने का बोझ आदमी पर डाल सकता है? आज तो कानून कुछ ऐसा ही है, लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि क्या यह कानून तर्कसंगत और न्यायसंगत भी है?
गणेशोत्सव से त्यौहारों का मौसम शुरू हो रहा है, और आगे जाकर कुछ और देवी-देवताओं की प्रतिमा स्थापना का वक्त आएगा, और हर प्रतिमा की आवाजाही पर सडक़ों पर भयानक अराजकता का नजारा देखने मिलता है। देश के बहुत से हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट कई बार ऐसे मौकों पर सडक़ों पर धार्मिक जुलूसों के खिलाफ और लाउडस्पीकरों के जानलेवा शोर के खिलाफ बहुत सी चेतावनियां सरकारों को, और अफसरों को दे चुके हैं, लेकिन उनका कोई असर कम से कम हमें छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में तो देखने नहीं मिलता। यहां का हाईकोर्ट बहुत सक्रिय होकर प्रदेश के सबसे बड़े अफसरों से बड़े-बड़े हलफनामे लेते रहा है, और जिलों के अफसरों के खिलाफ बहुत कड़ी टिप्पणियां करते रहा है, लेकिन ऐसा लगता है कि राजनीतिक ताकतें समाज के सबसे उन्मादी, धार्मिक तबकों पर काबू करना चाहती ही नहीं है। यह बात सिर्फ सत्ता पर लागू नहीं होती है, विपक्षी राजनीतिक दलों पर भी उतनी ही लागू होती हैं, और कई बार तो यह लगता है कि अपने बड़े कड़े फैसलों और आदेशों की ऐसी बुरी अनदेखी देखकर हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और दूसरे जज रात में सोते कैसे होंगे?
इस बात को समझने की जरूरत है कि जब अराजकता बढ़ती है, तो वह जरूरी नहीं है कि सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी को पसंद आने वाले जुर्म पर जाकर रूक जाए। वह जंगल की आग की तरह बढ़ती है, और जिस तरह कुछ जंगली जानवरों के बारे में कहा जाता है कि उनके मुंह इंसानी लहू लगने के बाद वे किसी भी इंसान को मार सकते हैं, कुछ वैसा ही किसी भी धर्म के उन्माद को लेकर होता है। आज हालत यह है कि अफगानिस्तान में तालिबान किसी दूसरे मजहब के लोगों को नहीं मार रहे, वे सिर्फ अपनी औरतों और लड़कियों को कुचल रहे हैं। उनका धर्म आत्मघाती हो गया है, न वे उसका कोई विस्तार कर पा रहे, न ही अपने धर्म का कोई सम्मान बढ़ा पा रहे, बल्कि अपनी बिरादरी की लड़कियों और महिलाओं की क्षमताओं को कुचलकर वे अपने ही समाज को, अपने ही धर्म के लोगों को एक गहरे गड्ढे में गिराते जा रहे हैं। धर्म को लेकर जब धर्मान्धता, कट्टरता, और बढ़ते-बढ़ते साम्प्रदायिकता जब हावी होती हैं, तो फिर वे जरूरी नहीं है कि दूसरे धर्म के लोगों की जान लेती हों। एक बार हिंसा की उन्मादी ताकत का लहू मुंह लग जाए, तो लोग फिर कब परायों को मारते-मारते अपनों को मारने लगते हैं, यह पता ही नहीं लगता। अभी देश की राजधानी दिल्ली से लगे हुए हरियाणा के फरीदाबाद की एक रिपोर्ट हमारे सामने है। 23-24 अगस्त की मध्य रात्रि को 19 साल के एक नौजवान, आर्यन मिश्रा की हत्या कर दी गई थी, और पुलिस ने इसमें पांच स्वघोषित गौरक्षकों को गिरफ्तार किया है। बेटे का अंतिम संस्कार करके जब सियानंद मिश्रा लौटकर पुलिस थाने पहुंचे, तो उनके सामने लाए गए अनिल कौशिक ने माफी मांगते हुए कहा कि उसने उनके बेटे को गौ-तस्कर समझकर गोली चलाई थी जो उनके बेटे को लगी। उसने माफी मांगते हुए कहा कि उसने मुसलमान समझकर गोली मारी थी, मुसलमान मारा जाता तो कोई गम नहीं होता, लेकिन उससे ब्राम्हण मारा गया है, इसलिए अब फांसी भी हो जाए, तो कोई गम नहीं रहेगा।
पिता के मुताबिक उनका मारा गया बेटा 12वीं की तैयारी कर रहा था, और हाल में उसने कई हिन्दू धर्मस्थलों की तीर्थयात्रा भी की थी। उनके मुताबिक वह पिछले दो साल से डाक कांवर भी लेकर जाता था। बेटे को खोने वाले सिर मुंडाए पिता ने कहा कि क्या हिन्दू-मुसलमान भाई नहीं है, क्या मुसलमान का खून काला है? उनका भी लाल है, फिर इस दुनिया में ये भेदभाव क्यों है? मृत लडक़े की मां उमा मिश्रा ने सवाल किया कि खुद को गौरक्षक कहने वाले इन लोगों को गोली चलाने का हक किसने दिया? अगर कोई गाय लेकर भी जा रहा है तो ये गोली कैसे मार सकते हैं?
जिस अनिल कौशिक ने हत्यारी गोली चलाना कुबूल किया है, उसकी गाय से लिपटी हुई तस्वीरें उसके फेसबुक पेज पर हैं, और वह गौसेवक होने का दावा करता है। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम कानून को हाथ में लेने वालों, हिंसा करने वालों, और नफरत फैलाने वालों को लेकर सरकार और समाज को लगातार आगाह करते हैं कि साम्प्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देकर, उसे बचाकर समाज ऐसे हत्यारे तैयार कर रहा है जो आगे-पीछे दूसरे धर्म और दूसरी जातियों के बाद अपने धर्म और अपनी जाति के लोगों को भी मारेंगे। हरियाणा के इस मामले में ठीक यही हुआ है, और कई दूसरी जगहों पर भी ऐसा हो रहा है। जिनके सिर पर हत्या का उन्माद इस हद तक हावी रहता है कि वे गाय बचाने के नाम पर बिना किसी गाय की मौजूदगी के मुस्लिमों को मार डालना जायज कह रहे हैं, तो उनसे हिन्दू सुरक्षित रह जाएंगे, यह उम्मीद करना परले दर्जे की बेवकूफी होगी। यह सिलसिला देश को एक बहुत खतरनाक मंजिल की तरफ ले जा रहा है। आगे चलकर अगर दूसरे तबकों के लोग भी ऐसी हिंसा के जवाब में हिंसा करने लगेंगे, तो क्या यह देश सुरक्षित रह सकेगा? पूरी राजनीतिक बदनीयत से कुछ बड़े-बड़े नेता हाल में यह कहते सुनाई पड़े हैं कि अगले 25-30 बरस में यह देश गृहयुद्ध देखेगा। हमारा ख्याल है कि ऐसे नेताओं को देश की आबादी के उस वक्त के अनुपात का अंदाज शायद न हो, लेकिन अपनी खुद की लगातार बढ़ाई जा रही साम्प्रदायिक नफरत, और साम्प्रदायिक हिंसा का अंदाज शायद उन्हें जरूर होगा, इसीलिए वे ऐसी भविष्यवाणी कर पा रहे हैं।
हमने बात शुरू की थी धार्मिक त्यौहारों पर सडक़ों को घेरने की, ट्रैफिक बर्बाद करने की, और लाउडस्पीकरों को जानलेवा स्तर तक तेज बजाने की। यह बात समझने की जरूरत है कि जिस धर्म के त्यौहार होते हैं, उनके अधिकतर आयोजन उन्हीं धर्मों की बहुतायत वाले इलाकों में होते हैं, और जब हिन्दू इलाकों में दस-दस दिन तक गणेश के लाउडस्पीकर, और नौ-नौ दिनों तक नवरात्रि के लाउडस्पीकर जानलेवा शोरगुल करते हैं, तो उसका सबसे बड़ा नुकसान हिन्दू-बहुल आबादी पर ही होता है। मौतें तो अधिक नहीं होती हैं, लेकिन लोगों का सुख-चैन छिन जाता है, उनकी सेहत बर्बाद होती है, पढ़ाई और कामकाज बर्बाद होते हैं। और ऐसे शोरगुल से किसी को मिलता क्या है? कौन सा ऐसा धर्म है जो अपनी पैदाइश के वक्त लाउडस्पीकरों को देख रहा था? ये लाउडस्पीकर तो 1876 में एलेक्जेंडर ग्राह्म बेल ने टेलीफोन बनाते-बनाते बनाए थे, और इन्हें इस्तेमाल के लायक बनाने में कुछ दशक और लगे थे। लेकिन वह वक्त कम आबादी का था, कम प्रदूषण का था, और लाउडस्पीकर भी गिने-चुने रहते थे। आज जब हर इंसान की जिंदगी मोबाइल फोन से जुड़ी हुई है, लोगों को अधिक पढऩा-लिखना पड़ता है, अपनी जरूरत की खबरें देखनी-पढऩी पड़ती हैं, वीडियो कांफ्रेंस होती है, तब धर्म लाउडस्पीकरों की हिंसा का इस्तेमाल करके किसी का भला नहीं करता।
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को इस बारे में सोचना चाहिए कि सडक़ों से, और धार्मिक आयोजनों से लाउडस्पीकरों को पूरी तरह खत्म क्यों नहीं किया जाए? ऐसे छोटे-छोटे स्पीकर बनाने चाहिए जिनसे दस फीट से अधिक दूर आवाज जाए ही नहीं, और तमाम बड़े स्पीकरों, और डीजे को पूरी तरह खत्म कर देना चाहिए। लाउडस्पीकर अब लोकतंत्र का प्रतीक नहीं रह गए हैं, अब वे धर्मान्ध और साम्प्रदायिक हिंसा का एक धारदार हथियार हैं। हम उम्मीद करते हैं कि न सिर्फ छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट, बल्कि देश की तमाम बड़ी अदालतें इस हिंसा को मिलने वाली राजनीतिक मंजूरी का सिलसिला खत्म करें, और अधिकतम कड़ी कार्रवाई करके बेबस और बेसहारा जनता को इस जुल्म से बचाएं।