संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : माया की पार्टी पर कुनबे का साया, और बाकी पार्टियां भी बेहाल!
07-Mar-2025 4:19 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  माया की पार्टी पर कुनबे   का साया, और बाकी  पार्टियां भी बेहाल!

मायावती के बारे में पिछले कुछ बरसों में जो सबसे महत्वपूर्ण खबरें आई हैं, उनमें से एक तो यह है कि वे पिछले कई चुनाव बीजेपी के दबाव में उसकी बी टीम की तरह लड़ रही है, न प्रचार करने जाती हैं, न किसी से गठबंधन करती हैं, और भाजपा के हाथ मजबूत करती हैं। उनके खिलाफ केन्द्रीय जांच एजेंसियों के इतने मामले चल रहे हैं कि उनकी ऐसी किसी बेबसी को समझा जा सकता है। उनके बारे में दूसरी खबरें यही आती है कि किस तरह उन्होंने अपनी पार्टी, बसपा, को विरासत में अपने भतीजे आकाश आनंद को दे दिया था, फिर उसे विरासत से अलग कर दिया, और फिर वारिस बना दिया, और फिर हटा दिया। अभी इसी हफ्ते उन्होंने सोशल मीडिया पोस्ट करके यह जानकारी दी कि उन्होंने भतीजे को बसपा से निष्कासित कर दिया है। इसके एक दिन पहले उन्होंने उसे पार्टी के सभी महत्वपूर्ण ओहदों से हटाया था। इसके साथ-साथ उन्होंने कहा है कि आकाश आनंद के ससुर को भी पार्टी के हित में निष्कासित कर दिया गया है। 2019 से 2025 तक भतीजे का कई बार ऐसा भीतर-बाहर, ऊपर-नीचे, आना-जाना हुआ है। उत्तर भारत सहित देश के बहुत से राजनीतिक दलों में कुनबापरस्ती बड़ी आम बात है, और मायावती उन्हीं में से एक मिसाल हैं। 

भारतीय राजनीति में कुनबापरस्ती की सबसे बड़ी तोहमत कांग्रेस पार्टी पर लगती है, और इसकी शुरूआत नेहरू से की जाती है जिन्होंने अपने दामाद फिरोज गांधी को कांग्रेस के अखबार नेशनल हेरल्ड का मुखिया बनाया। हालांकि इसके पहले से वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय थे, और जेल काट चुके थे, लेकिन इंदिरा से शादी के बाद वे कांग्रेस के सांसद बने, और अपनी मृत्यु तक बने रहे। इसके अलावा भारत के पब्लिक सेक्टर के नेहरू काल के कई मामलों में उनका बड़ा दखल रहा। उनके बाद इंदिरा गांधी, उनके बेटों, बहुओं, और पोते-पोती का राजनीतिक-चुनावी इतिहास सबके सामने है। देश में कुनबापरस्ती की जब भी बात होती है कांग्रेस की मिसाल सबके काम आती है, और कांग्रेस से बाहर निकलकर भी इंदिरा की छोटी बहू मेनका, और उनके बेटे दोनों संसद में पहुंचे, और मेनका केन्द्रीय मंत्री भी रहीं। जिस उत्तर भारत में मायावती की मुख्य राजनीति चलती थी, वहां पर मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी के नाम पर अपने परिवार की पार्टी चलाई, और लंबे समय तक सत्ता में भागीदार रहे। बगल के बिहार में लालू यादव ने जिस तरह अपने जेल जाने पर अपनी घरेलू पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया था, और बेटा-बेटी सभी को सांसद-विधायक बनाया, वह मिसाल भी गैरभाजपाई दलों पर हमला करते वक्त काम आती है। आज मायावती की खबरों के बीच ही यह पढऩा भी बड़ा अजीब लगता है कि किस तरह भतीजे का ससुर पार्टी पर हावी था, और मायावती सार्वजनिक रूप से यह तोहमत लगा रही हैं कि ससुर के असर में भतीजे ने सब कुछ बर्बाद किया। मतलब तो साफ है कि भतीजा तो भतीजा, भतीजे का ससुर भी पार्टी के नेताओं का बाप बना बैठा था। ऐसी कुनबापरस्ती को लोकतंत्र के हित में विसर्जित ही कर दिया जाना चाहिए था, और अब भी बहुत देर नहीं हुई है। 

दूसरी तरफ मैक्सिको से खबर आ रही है कि वहां की सरकार एक कानून लेकर आ रही है जिससे राजनीति में परिवारवाद खत्म किया जाएगा। यह कानून केन्द्र, राज्य, और स्थानीय स्तर पर एक ही परिवार के लोगों को राजनीति में आने से रोकने के लिए लाया जा रहा है, और यह 2030 तक लागू कर दिया जाएगा। इस कानून के तहत नेताओं के तुरंत दुबारा चुनाव लडऩे पर भी पाबंदी लगेगी। फिर भी वहां के लोगों का मानना है कि इसे 2030 तक लागू न करने के पीछे नेताओं की नीयत यह है कि वे तब तक अपने कुनबे के लोगों को अलग-अलग जगहों पर फिट कर चुके होंगे। लोगों को याद होगा कि हम पहले कई बार अमरीका की इस व्यवस्था की तारीफ कर चुके हैं कि वहां चार-चार बरस के दो कार्यकाल पूरे करने के बाद कोई राष्ट्रपति और कोई भी सरकारी काम नहीं संभाल सकते। 

राजनीतिक दलों से लेकर सरकारों तक अगर नई पीढ़ी को आगे बढऩे देना है, तो वंशवाद को खत्म करना होगा, और लोगों के कार्यकाल भी सीमित करने होंगे। भारत सरीखे 140 करोड़ से अधिक आबादी के इस देश में संसद या विधानसभा के, और मंत्री पद के दो कार्यकाल पूरे करने में दस बरस निकल जाते हैं। इसके बाद उनकी जगह नए लोगों को मौका दिया जा सकता है। इसी तरह राजनीतिक दलों के संगठन के ढांचे में एक ही कुनबे के लोगों को काबिज बने रहने देने से पार्टी के भीतर लोकतंत्र खत्म होता है, और नए खून की कल्पनाशीलता का कोई फायदा मिल भी नहीं पाता। आज जब हम यह लिख रहे हैं, उस वक्त कांग्रेस के एक नेता रहे हुए, और एक वक्त राजीव गांधी के करीबी रहे मणिशंकर अय्यर की कही एक बात गूंज रही है कि राजीव गांधी प्रधानमंत्री बनने लायक नहीं थे क्योंकि वे कॉलेज में दो-दो बार फेल हो चुके थे। किसी के कॉलेज में फेल होने से उसके प्रधानमंत्री बनने की क्षमता कम नहीं होती है, लेकिन लोगों को याद रखना चाहिए कि राजीव गांधी इंदिरा की हत्या की अभूतपूर्व और असाधारण हिंसा के बीच जलते हुए देश को संभालने वाले प्रधानमंत्री बने थे, न कि अपनी क्षमता या चाहत के आधार पर। इसलिए मणिशंकर अय्यर की 40 बरस पहले की उस घटना का जिक्र करते हुए 50 बरस पहले के कॉलेज की याद ताजा करना एक घटिया बात है। फिर भी लोकतंत्र में घटिया बातों को भी करने की आजादी रहनी चाहिए। घटिया बातें खराब कही जा सकती हैं, लेकिन वे जुर्म तो नहीं रहतीं। 

मायावती से परे आज ही की एक दूसरी खबर भी है कि किस तरह तृणमूल कांग्रेस की एक बड़ी बैठक में आज ममता बैनर्जी के भतीजे, और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बैनर्जी बैठक में नहीं पहुंचे। इस पार्टी में भी बुआ-भतीजे के बीच तनातनी की खबरें आती रहती हैं, और भतीजे को ही ममता का वारिस माना जाता है। देश की तकरीबन तमाम क्षेत्रीय पार्टियां इसी तरह कुनबापरस्ती पर चलती हैं, और तीन-तीन पीढ़ी से एक ही घर में लीडरशिप चली आ रही है। यह सिलसिला कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक अधिकतर प्रदेशों में देखने मिलता है, और पता नहीं भारतीय लोकतंत्र में मैक्सिको की तरह का कोई कानून मुमकिन है या नहीं जो कि वंशवाद को रोक सके। 

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