संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नेता-अफसरों के भ्रष्टाचार से बनते हैं योजनाओं के टापू, बिना आगे-पीछे जुड़े
02-Mar-2025 6:13 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : नेता-अफसरों के भ्रष्टाचार से बनते हैं योजनाओं के टापू, बिना आगे-पीछे जुड़े

छत्तीसगढ़ विधानसभा के चल रहे इस सत्र में सत्तारूढ़ भाजपा विधायकों के उठाए गए सवालों से पल भर को तो ऐसा लगता है कि मानो वे अपनी ही पार्टी की सरकार के खिलाफ हैं, लेकिन फिर बारीकी से मुद्दे को समझें तो समझ आता है कि इसमें अधिकांश हमले पिछली कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में हुए, या अधूरे रह गए कामों को लेकर है। फिर भी इस मुद्दे पर चर्चा इसलिए जरूरी है कि लोकतंत्र में एक पार्टी या गठबंधन की सरकार का जाना, और दूसरी पार्टी या गठबंधन की सरकार का आना एक लगातार सिलसिला रहता है, और सरकार के कामकाज को इस फेरबदल के साथ सीखना जरूरी रहता है। अगर पिछली सरकार के कार्यकाल की चर्चा ही न की जाए, तो हर सरकार यह सोचकर लापरवाह हो जाएगी कि उसकी गलतियां, और उसके गलत काम उसके कार्यकाल के साथ ही दफन हो जाएंगे। हम तो अपने इस कॉलम में लगातार यह भी सुझाते रहे हैं कि हर सरकार के कार्यकाल के बाद एक जांच आयोग बैठना चाहिए जिसमें आम जनता जाकर उस कार्यकाल के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतें कर सके। जिस तरह सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट लगातार बनती है, उसी तरह एक जांच आयोग भी रहना चाहिए जिसके रिटायर्ड जज को निष्पक्ष रूप से नियुक्त करने की एक प्रक्रिया रहनी चाहिए, और उसे अगले एक या दो बरस में पिछले कार्यकाल के सारे भ्रष्टाचार पर एक श्वेत पत्र जैसा जारी करने का अधिकार रहना चाहिए। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट सरकार के हर विभाग के कामकाज पर नहीं आती, और कुछ चुनिंदा विभागों की चुनिंदा अनियमितताओं पर ही आती है। इसलिए आज छत्तीसगढ़ विधानसभा में सत्तापक्ष पिछली विपक्षी सरकार के कामकाज को जिस तरह कुरेद रहा है, उसे महज संसदीय चर्चा तक सीमित रखने के बजाय हम उसकी न्यायिक जांच की एक नियमित प्रक्रिया सुझा रहे हैं।

फिलहाल जो मुद्दे वहां उठे हैं उनमें एक विभाग के सैकड़ों मामले हैं जिनमें गांव-गांव तक शहर के वार्ड-वार्ड तक पानी सप्लाई के अधूरे पड़े प्रोजेक्ट हैं। कम शब्दों में अगर कहा जाए तो जहां न पानी का कोई स्रोत था, न पाईप लाईन डली थी, वहां टंकियां बना दी गईं। इस तरह के अधूरे काम सरकारों के अनगिनत विभागों में होते हैं। हमने पिछले हफ्तों में इसी जगह पर लिखा था कि स्वास्थ्य विभाग सरकारों का एक सबसे भ्रष्ट विभाग रहता है, और छत्तीसगढ़ के अस्तित्व की इस चौथाई सदी में हम लगातार यह देखते आ रहे हैं कि जिन जगहों पर विशेषज्ञ डॉक्टर और टेक्नीशियन नहीं हैं, वहां के लिए मशीनें खरीद ली गईं, जहां ऐसे लोग हैं, वहां मशीनें नहीं ली गईं, जहां मशीनें नहीं हैं, उनके लिए केमिकल खरीद लिए गए, इस तरह जहां भूत नहीं है, वहां पीपल खरीद लिया गया, और जहां पीपल है, वहां भूत नहीं खरीदे गए। यह सिलसिला दूसरे भी कई विभागों में चलते रहता है। कहीं पर फ्लाईओवर बनना है, तो उसमें आने वाली कुछ जमीन खरीदे बिना काम शुरू हो जाता है, कहीं पुल की सडक़ बनती है, तो पुल नहीं बनता, कहीं पुल बनता है, तो सडक़ नहीं बनती। इस तरह का बेमेल काम बहुत से विभागों में होता है। अभी एक-दो दिन पहले ही हमने इसी जगह लिखा है कि शहरों में पानी की सप्लाई बढऩे के आंकड़े सरकार के पास रहते हैं, लोगों के निजी ट्यूबवेल का अंदाज भी सरकार के पास रहता है, लेकिन नालियों के निकासी के पानी को साफ करने की क्षमता इस अनुपात विकसित नहीं की जाती। एक तरफ आने वाले कई बरसों के लिए पानी सप्लाई की योजना के आंकड़े रहते हैं, लेकिन घरों और दूसरी जगहों से निकलने वाले गंदे पानी के आंकड़ों में इस बढ़ी हुई सप्लाई के आंकड़े नहीं जोड़े जाते, मानो यह भाप बनकर उड़ जाने वाला पानी हो।

सिर्फ एक सरकार से दूसरी सरकार तक गलतियों और गलत कामों के आंकड़े ठीक नहीं है, इन्हें एक तर्कसंगत अंत तक ले जाना जरूरी है, और सच तो यह है कि सरकार एक स्थाई मशीनरी रहती है, जिसे राजनीतिक फेरबदल से परे भी लगातार अपना काम करना चाहिए, ऐसे में राजनीतिक-भ्रष्टाचार के अलावा और कौन सी वजह हो सकती है जिसकी वजह से सरकारी अफसर और बाकी अमला गलत तरीके से काम करें। हमारा ख्याल है कि जिम्मेदार अफसरों पर जब तक कड़ी कार्रवाई, और उनसे वसूली का स्थाई और नियमित इंतजाम नहीं होगा, जनता के खून-पसीने से आए हुए, उसकी हक के पैसों की ऐसी बर्बादी जारी रहेगी। चूंकि निर्वाचित विधायक बनकर मंत्री बनने वाले नेताओं के दस्तखत बहुत कम फाईलों पर रहते हैं, इसलिए अधिकतर वित्तीय जिम्मेदारी अफसरों की ही रहती है। सरकारों के साथ दिक्कत यह है कि अफसरों के भ्रष्टाचार पूरी तरह साबित होने लायक रहने पर भी सरकार जांच की इजाजत नहीं देती, इजाजत देती है तो जांच को उसी तरह भ्रष्ट कर दिया जाता है जिस तरह भूपेश सरकार में नान मामले में शुक्ला-टूटेजा को बचाने के लिए धरती से आसमान तक को एक कर दिया गया था, और जांच रिपोर्ट अगर पूरी तरह भ्रष्ट-अफसर के खिलाफ रहती है, तो भी सरकार मुकदमा चलाने की इजाजत नहीं देती। मुकदमा शुरू होता है, तो उसके बाद निचली अदालत से सजा पाकर भी ऊपर की अदालत में अपील का जो लंबा सिलसिला चलता है, उसके ऊपर भ्रष्ट और दुष्ट अफसरों को इतना भरोसा रहता है कि उनके जीते-जी उन्हें जेल नहीं जाना पड़ेगा। इस भरोसे को तोडऩे की जरूरत है। हर सरकार के अपने कुछ पसंदीदा भ्रष्ट हो सकते हैं, लेकिन दूसरी पार्टी के पसंदीदा भ्रष्ट लोगों को सजा दिलवाने और जेल भिजवाने का काम तो किया ही जा सकता है। इससे भी सरकार के भीतर गंदगी कुछ छंटेगी, और भ्रष्ट लोगों का हौसला कुछ पस्त होगा।

फिलहाल सरकार के हर विभाग में, हर प्रोजेक्ट में सीएजी के ऑडिट की तरह यह जांच होनी चाहिए कि बिना तैयारी के टुकड़े-टुकड़े में सरकार की रकम कैसे बर्बाद की जाती है। आज नई चमचमाती सडक़ बनती है, और दो दिन के भीतर पाईप या केबल डालने के लिए उसे खोद दिया जाता है। आज जहां डामर की सडक़ बनी है, उसके ऊपर साल-दो-साल में सीमेंट की सडक़ बनाई जाती है, और जहां सीमेंट की सडक़ रहती है उस पर डामर चढ़ाया जाता है। सडक़ किनारे की फुटपाथी जमीन पर कभी पेवर ब्लॉक लगाए जाते हैं, तो कभी उनके ऊपर सीमेंट या डामर चढ़ा दिया जाता है। जनता के पैसों की ऐसी बर्बादी को लेकर जनता की तरफ से भी एक ऑडिट होना चाहिए, सरकार के भीतर भी किसी भी खर्च की मंजूरी के पहले उसके पहले और बाद की कड़ी को जांचने की जिम्मेदारी तय होना चाहिए कि यह खर्च काम आ पाएगा या नहीं, या आगे-पीछे की कडिय़ों के बिना अधूरा पड़े रह जाएगा। दिक्कत यह है कि जो नेता और अफसर इस सरकार या पिछली सरकार में ऐसे तमाम घोटालों के लिए जिम्मेदार रहते हैं, वे शान से अपना हँसता हुआ नूरानी चेहरा कैमरों के सामने दिखाते हुए घूमते रहते हैं, और जनता के पैसे सरकार उसी अंदाज में डुबाती है जिस अंदाज में चिटफंड कंपनियां डुबाती हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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