संपादकीय
ओडिशा की एक दिल दहलाने वाली खबर है कि 65 बरस की एक विधवा दादी ने अपने 7 बरस के पोते को भुखमरी से बचाने के लिए दो सौ रूपए में बेच दिया। बरसों पहले ओडिशा का कालाहांडी का इलाका बहुत सी भूख-मौतों को देखता था, और वह भुखमरी की रिपोर्टिंग करने वाले देश-विदेश के अखबारों के लिए पसंदीदा जगह रहती थी। अब हाल के बरसों में सरकारी राशन के इंतजाम की वजह से देश में भुखमरी खत्म सरीखी हो चुकी है, और ऐसी कोई घटनाएं सामने आती नहीं हैं, लेकिन कई भरोसेमंद समाचार माध्यमों में इस घटना की जानकारी बड़े खुलासे से आई है, और उन्हें सच मानकर ही हम यह बात लिख रहे हैं। ओडिशा के बल्दिया में 65 बरस की महिला, मांद सोरेन के पति का निधन हो गया था, बेटा लापता हो गया था, और बहू की कोरोना-मौत हो गई थी। ऐसे में 7 बरस का पोता इस बुजुर्ग महिला की जिम्मेदारी हो गया, और वह भीख मांगकर इस बच्चे को बड़ा कर रही थी। लेकिन अब बुढ़ापा और कमजोर सेहत परेशान करने लगे, बच्चे की देखभाल मुश्किल होने लगी, तो उसने एक व्यक्ति को दो सौ रूपए में उस बच्चे को बेच दिया, यह सोचकर कि वह कम से कम उसे ठीक से खिलाएगा, और पढ़ाएगा। इस बारे में जब अफसरों को पता लगा, तो पुलिस तुरंत हरकत में आई, और बाल संरक्षण विभाग में दखल दी, और दादी और बच्चे दोनों को लाकर सरकारी हिफाजत और इंतजाम में रखा गया है।
आज ओडिशा में भाजपा की डबल इंजन की सरकार है, और पिछले कुछ बरसों से अगले कई बरस तक केन्द्र सरकार की तरफ से देश के 80 करोड़ लोगों को पांच किलो राशन हर महीने दिया जा रहा है, जिससे भुखमरी की गुंजाइश बच नहीं जाती है। फिर भी इतने बड़े सरकारी इंतजाम में कई जगहों पर कमजोरियां रह जाती हैं, और हमारे ही नंबरों पर पड़ोसी राज्य एमपी के राशन या खाद के संदेश आते रहते हैं। जाहिर है कि कहीं कोई नंबर गलत चढ़ गया है। और आज तो सरकार की किसी भी योजना का फायदा लेने के लिए आधार कार्ड से लेकर दूसरी कुछ औपचारिकताएं पूरी करनी होती हैं, और देश में बुजुर्गों के बीच अशिक्षा इतनी अधिक है कि वे कई तरह के काम कर नहीं पाते हैं। लोगों को याद होगा कि इसी ओडिशा की एक रिपोर्ट कुछ अरसा पहले ऐसी आई थी कि एक विकलांग महिला 70 बरस की उम्र में वृद्धावस्था पेंशन के कुछ सौ रूपए महीने लेने के लिए हाथ-पैर चारों से चलते हुए दो किलोमीटर दूर पंचायत तक जाती-आती थी। ऐसे दूसरे भी बहुत से मामले देश भर में बिखरे हुए रहते हैं जहां सरकारी योजनाओं के लागू होने पर भी लोग उनका फायदा पाने की हालत में नहीं रहते, इनमें से अधिकतर लोगों के कागजात पूरे नहीं रहते, और वे कागजी कार्रवाई नहीं कर पाते। दूसरी तरफ सरकार की बहुत सी ऐसी योजनाएं रहती हैं जिनमें अपात्र और संपन्न लोग भी अपनी चतुराई से कम कमाई के कागजात बनवाकर फायदा पाने लगते हैं, और उनकी रोक-टोक करने का भी सरकार के पास कोई इंतजाम नहीं रहता।
हम इसे सरकार के हिस्से की बहुत बड़ी कमजोरी इसलिए नहीं मानते कि जब आबादी के आधे से अधिक लोगों को राशन का फायदा मिलना है, दसियों करोड़ लोगों को सरकार की दर्जनों और योजनाओं का फायदा मिलना है, इनमें केन्द्र और राज्य सरकारों की कई औपचारिकताएं पूरी करनी रहती हैं, कई जगहों पर आजकल चोरी को रोकने के लिए कई तरह की जांच ऑनलाईन होने लगी है, और नेटवर्क की दिक्कत रहती है। इन सबके बीच अगर जरूरतमंद लोगों का एक बहुत बड़ा तबका फायदा पाता है, तो वह भी समाज के लिए छोटी बात नहीं है। अब जरूरत दो बातों की बराबरी से है, पहली तो यह कि छूट गए जरूरतमंद लोगों को सरकार और समाज सब मिलकर फायदे तक पहुंचाने का काम करें, और दूसरी बात यह कि जो सक्षम और अपात्र लोग सरकार की रियायत और मदद की योजनाओं का नाजायज फायदा उठा रहे हैं, उन्हें पकड़ा जाए, और उनसे वसूली की जाए। हम शहरों में देखते हैं कि सडक़ किनारे खुलेआम ठेले-खोमचे वाले रियायती-घरेलू गैस सिलेंडर का इस्तेमाल करते हैं, न उन्हें किसी कार्रवाई का खौफ रहता, और न ही कोई कार्रवाई होती ही है। दरअसल यह रियायत केन्द्र सरकार के पैसों से मिलती है, और राज्य सरकार पर न उसका बोझ रहता, और न ही राज्य सरकार को उसकी कोई परवाह रहती। रियायतों की ऐसी ही चोरी कहीं बिजली को लेकर होती है, तो कहीं किसी और सरकारी योजना की। भारत के लोगों में नाजायज फायदा पाने की सोच इतनी मजबूत हो चुकी है कि अधिकतर लोग इस ताक में रहते हैं कि नियमों के बीच कोई छेद ढूंढकर उसमें से हाथ डाला जाए, और फायदा निकाल लिया जाए।
एक विकलांग-अधिकार कार्यकर्ता, सम्यक ललित, ने अभी विकलांगताडॉटकॉम नाम की अपनी वेबसाइट पर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव का एक बयान पोस्ट किया है जो उन्होंने न्यूज-18 टीवी चैनल पर लिए जा रहे एक इंटरव्यू के साथ दिया था। उन्होंने कांग्रेस के चुनाव चिन्ह, हाथ को कटा हुआ पंजा बताया, और कहा- देखो माफ करना, हमारे यहां ये कटे-फटे शरीर वाले को अच्छा मानते ही नहीं हैं, अब क्या करें, हमारी भी दिक्कत है। हमारे यहां तो पूरे शरीर के साथ हो तो राजा बनेगा, नहीं तो नीचे ही कर देते हैं कि चल जा यहां से। भगवान की कोई मूर्ति खंडित हो जाए, तो भगवान की दया से उसका विसर्जन करना पड़ता है। यह पोस्ट करने वाले सम्यक ललित खुद भी एक विकलांग हैं, और उन्होंने इस बयान से खुद को पहुंची तकलीफ के साथ ये तमाम बातें लिखी हैं।
भारत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2015 में मन की बात के प्रसारण में यह सुझाव दिया था कि विकलांग शब्द की जगह दिव्यांग शब्द का इस्तेमाल करना चाहिए। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय विकलांग व्यक्ति दिवस, 3 दिसंबर के कार्यक्रम में इस पर अमल की अपील की थी, और कहा था कि उनके मन में विचार आया कि क्यों न हम देश में विकलांग की जगह दिव्यांग शब्द का प्रयोग करें। उन्होंने कहा ऐसे अंगों में दिव्यता है। इसके बाद से केन्द्र सरकार और शायद अधिकतर राज्य सरकारों के कामकाज में विकलांग की जगह दिव्यांग शब्द इस्तेमाल होने लगा, और केन्द्र ने दीनदयाल विकलांगजन पुनर्वास योजना जैसी कुछ योजनाएं भी लागू की, और धीरे-धीरे विकलांग शब्द के इस्तेमाल को ही आपत्तिजनक मान लिया गया।
अब मन की भावनाएं चाहे जैसी हों, हिकारत चाहे कितनी भरी हो, विकलांग कहने के बजाय दिव्यांग कहकर लोग यह जाहिर करते हैं कि वे बहुत संवेदनशील हैं। लेकिन नाम बदल देने से सोच बदल जाती तो सब कुछ कितना आसान रहता, धर्मान्ध और साम्प्रदायिक लोग, नफरतजीवी लोग अपने आपका नाम इंसान रख लेते, और इंसान जैसे लगने लगते, किसी और अतिरिक्त तथाकथित इंसानियत की जरूरत नहीं रहती। लेकिन ऐसा होता नहीं है। आमतौर पर तो यह होता है कि किसी किस्म के प्रतीकात्मक सम्मान को लागू करके, या प्रचलित अपमान को प्रतीकात्मक रूप से बंद करके लोग अपराधबोध से उबर जाते हैं। उसके बाद उन्हें लगता है कि वे जब दिव्यांग कह रहे हैं, तो विकलांग लोगों को किसी और अतिरिक्त सम्मान की, बराबरी का दर्जा देने की जरूरत नहीं है। शब्दों का मनोवैज्ञानिक उपयोग लोगों को अपने ही कुकर्मों से उबरने में मदद करता है, और उन्हें अपनी हिंसक सोच को छुपाने के लिए यह खाल मिल जाती है।
छत्तीसगढ़ में आज सुबह बस्तर में एक बड़े नक्सल ऑपरेशन में 16 या उससे अधिक नक्सली मारे गए हैं, और सुरक्षाबलों की जिंदगी को कोई नुकसान नहीं हुआ है जो कि ऐसे मोर्चे पर एक बड़ी सुरक्षा-कामयाबी है। आज के इन आंकड़ों के साथ करीब साढ़े तीन सौ नक्सली प्रदेश में भाजपा सरकार आने के बाद मारे गए हैं, और इससे कुछ गुना अधिक का आत्मसमर्पण पुलिस ने बताया है। यह भी याद रखने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने मार्च 2026 तक देश से नक्सलियों को खत्म कर देने का इरादा जाहिर किया है, और ऐसे बिखरे हुए खतरे को लेकर ऐसी भविष्यवाणी चाहे बहुत आसान न हो, लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार उस तरफ तेजी से बढ़ती दिख रही है। आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के लिए राज्य सरकार ने एक पुनर्वास नीति भी बनाई है, हालांकि उस पर अभी तक अलग-अलग तबकों से कोई विश्लेषण सामने नहीं आया है, लेकिन सरकार मुठभेड़ के मोर्चे से परे भी समर्पण और पुनर्वास पर काम कर रही है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में नक्सल मौजूदगी सन् 2000 में राज्य बनने के पहले से चली आ रही है, और अभी पिछले करीब सवा साल का यह पहला दौर ऐसा है जब सुरक्षाबलों को इतनी बड़ी कामयाबी मिली है। इसे जब पिछली कांग्रेस सरकार के पांच बरस के साथ रखकर देखा जाए, तो साफ समझ आता है कि उस दौर में नक्सल हिंसा को खत्म करना राज्य सरकार की प्राथमिकता में नहीं था। मौतों के आंकड़ों को हम लोकतंत्र में बहुत बड़ी कामयाबी नहीं मानते, लेकिन जब देश-प्रदेश के सबसे सीधे-सरल आदिवासियों की जिंदगी पर दशकों से मंडराती हुई हिंसा की बात करें, तो नक्सल हिंसा को खत्म करने के दो ही तरीके हो सकते थे, बातचीत से उसे सुलझाना, और सुरक्षाबलों के हाथों नक्सलियों को ही खत्म करना। छत्तीसगढ़ में आज की भाजपा सरकार ने शुरुआत से ही नक्सलियों से शांतिवार्ता की पेशकश की थी, लेकिन वह किन्हीं वजहों से शुरू नहीं हो पाई, या अगर किसी स्तर पर बातचीत शुरू भी हुई, तो उसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं हुई है।
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बस्तर में पिछले सवा साल में सुरक्षा मोर्चे पर बहुत बड़ा बदलाव नहीं आया है। केन्द्रीय गृहमंत्री की घोषणा के बाद शायद कुछ हजार सुरक्षाकर्मी वहां बढ़े हैं, लेकिन कमोबेश वहां की स्थिति वैसी ही है जैसी कि पिछली कांग्रेस सरकार के पांच बरस में थी। और तो और, आज बस्तर के दो सबसे बड़े पुलिस अफसर, एडीजी और आईजी, दोनों ही कांग्रेस सरकार के समय से वहां पर काम कर रहे हैं, और ऐसा लगता है कि उन्हें बस्तर से जोड़तोड़ करके निकल भागने की कोई हड़बड़ी भी नहीं है। बहुत से पुलिस अफसर बस्तर की तैनाती से बचने के लिए अपना दायां हाथ भी कुर्बान करने को तैयार रहते हैं, ऐसे में आज अगर बड़े-बड़े ये दो अफसर वहां लगातार बने हुए हैं, दोनों की साख बहुत अच्छी है, न बेईमानी उनके साथ चस्पा है, न ही वे मानवाधिकार हनन के लिए जाने जाते हैं, तो उनकी मौजूदगी और लीडरशिप का भी असर पिछले सवा साल में दिख रहा है। अब अगर भाजपा सरकार आने के पहले तक यही अफसर इस तरह काम नहीं कर पा रहे थे, तो यह एक सहज-अटकल लगाई जा सकती है कि सरकार की तरफ से उन्हें इसकी खुली छूट नहीं मिली थी।
पिछले डेढ़ बरस में इजराइल और हथियारबंद फिलीस्तीनी संगठन, हमास के बीच चल रही जंग में फिलीस्तीन का गाजा शहर दुनिया का सबसे बड़ा मलबा बन चुका है, और हाल के बरसों में सबसे तेज रफ्तार से बना हुआ इतना बड़ा कब्रिस्तान भी। इस दौर में गाजा में करीब 40 हजार जिंदगियां खत्म हुई हैं, और उस शहर का हाल ऐसा हो गया है कि अब अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प उस पर कब्जा करके उसकी पूरी तरह पुनर्निर्माण करके उसे एक सैरगाह बनाना चाहता है, गाजा के 20 लाख से अधिक फिलीस्तीनियों को दुनिया के दूसरे देशों में धकेलकर। अब जब पिछले महीनों से चले आ रहा युद्धविराम खत्म हो गया है, और एक बार फिर गाजा पर इजराइली हमले तेज हो गए हैं, पिछले 8-10 दिनों में ही हजार से अधिक लोग और मार दिए गए हैं, तो गाजा के मूल निवासी फिलीस्तीनियों के बीच से हमास के खिलाफ भी एक आवाज उठी है।
अभी गाजा में एक ऐसे प्रदर्शन की खबर आई है, तस्वीरें और वीडियो आए हैं जो चाहते हैं कि हमास इस शहर पर कब्जा छोड़ दे। आज वहां पर उसी का राज है, और अभी प्रदर्शन करने वाले लोगों का यह कहना है कि उन्होंने बहुत तबाही देखी है, और दुनिया में उनका साथ देने वाले लोग नहीं दिख रहे हैं, अपने दम पर फिलीस्तीनी अमरीका और इजराइल का मुकाबला नहीं कर सकते हैं, इसलिए हमास को यह हथियारबंद संघर्ष खत्म करके गाजा के प्रशासन से हट जाना चाहिए ताकि लोग कम से कम जिंदा रह सकें। डेढ़ बरस में 23 लाख आबादी में से 40 हजार से अधिक बेकसूर लोगों की मौतें कम नहीं होती हैं, आज इस शहर के अधिकतर लोगों के सिर पर कोई छत नहीं है, पांवतले को फर्श नहीं है, जख्मों के लिए मरहम नहीं है, कोई वर्तमान नहीं है, और कोई भविष्य नहीं है। ऐसे में आज एकध्रुवीय हो चुकी दुनिया में अमरीका और इजराइल की गिरोहबंदी का कोई मुकाबला मुमकिन नहीं है, दुनिया के बाकी कोई देश, यहां तक कि मुस्लिम अरब देश भी फिलीस्तीन का साथ देते नहीं दिख रहे हैं, किसी की औकात नहीं रह गई है कि अमरीकी गुंडागर्दी का मुकाबला कर सके, ऐसे में जिंदा रहना जरूरी है। और गाजा में अगर वहां की आजादी के लिए लड़ रहे हमास के खिलाफ लोग प्रदर्शन कर रहे हैं, तो इस पर गौर करना जरूरी है।
यह भी हो सकता है कि वहां मौजूद अमरीकी और इजराइली ताकतें इस तरह का कोई प्रदर्शन प्रायोजित करवा रही हों जिनसे कि हमास की पकड़ ढीली होती साबित हो। लेकिन कुछ पर्यवेक्षकों का यह भी मानना है कि ये प्रदर्शन जनता की तरफ से खुद की मर्जी से हो रहे हैं क्योंकि वे लगातार हमलों से थक गए हैं, और सब कुछ खो बैठे हैं। आज जब संयुक्त राष्ट्र संघ, अंतरराष्ट्रीय अदालतें, मुस्लिम देशों के संगठन, यूरोपीय समुदाय, इनमें से किसी का भी कोई बस अमरीका-इजराइल गिरोह पर नहीं चल रहा है, और आज दुनिया जिसकी लाठी, उसकी भैंस दर्जे के लोकतंत्र पर उतर आई है, तो फिलीस्तीनी जनता को अपने जिंदा रहने की फिक्र करने का हक है। और जब अमरीका गाजा को फिलीस्तीनियों को हटाकर एक कारोबारी प्रोजेक्ट बनाने पर आमादा है, तो भूखे-प्यासे, निहत्थे फिलीस्तीनी कब तक अपने बच्चों की जिंदगी गंवा सकते हैं? इसलिए आज अगर वे हमास के शासन को खत्म करना चाहते हैं, तो वह उनके जिंदा रहने की एक जरूरत सरीखी है। इजराइल के भीतर यह सोच बहुत मजबूत है कि फिलीस्तीन में जो भी अगला शासन-प्रशासन हो, उसमें हमास की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। अब हमास को भी यह तय करना होगा कि क्या आबादी का एक इतना बड़ा हिस्सा खोकर, और आगे का हर दिन दर्जनों या सैकड़ों मौतों वाला वह कब तक जारी रखना चाहता है? जब किसी एक संगठन की जिंदगी वहां के नागरिकों की हर दिन सैकड़ों मौतों से जुड़ जाए, तो इस पर सोचना तो जरूरी है कि उस संगठन को कब तक जारी रखा जाए। और दुनिया की इस ताजा हकीकत को अनदेखा करना भी ठीक नहीं होगा कि ईरान पिछले साल भर में बहुत कमजोर हो गया है, मुस्लिम देशों के संगठन गाजा के पुनर्निर्माण पर तब तक खर्च करना नहीं चाहेंगे जब तक आगे जंग का खतरा टल न जाए, और हमास के रहते हुए इजराइल के साथ यह खतरा खत्म नहीं हो सकता।
गुजरात के अमरेली में एक स्कूल के पांचवीं से सातवीं के दो दर्जन बच्चों ने अपने को एक डेयर-गेम के तहत खुद को ब्लेड से घायल कर लिया। इन छात्रों ने एक-दूसरे को चुनौती दी कि या तो वो खुद को जख्मी करें, या दस रूपए जुर्माना दें, इसके बाद करीब दो दर्जन छात्रों ने ब्लेड से अपने हाथ जख्मी कर लिए। फिर मां-बाप ने स्कूल और पुलिस के साथ मिलकर बैठक की, और यह विचार किया कि बच्चों के दिमाग से इस तरह की बातें कैसे हटाई जाएं। लोगों को याद होगा कि समय-समय पर अलग-अलग जगहों पर बच्चे किसी खतरनाक ऑनलाईन गेम की ऐसी ही चुनौती मंजूर करके कई खतरनाक काम करते हैं, और उनमें से कुछ की जान भी चली जाती है। कुछ खेल रहते ही ऐसे हैं जो लोगों को जान पर खेलने के लिए उकसाते हैं। भारत में ऐसा एक खेल सरकार ने कुछ अरसा पहले बंद भी करवाया था, पबजी नाम के इस खेल को खेलते हुए कई लोगों की जान भी गई थी। इसके अलावा दुनिया में कई तरह की चुनौतियां सोशल मीडिया पर दी जाती हैं, और जो किशोर-किशोरियां या नौजवान सोशल मीडिया पर खासा वक्त गुजारते हैं, या जो वहां एक-दूसरे से आगे बढऩा चाहते हैं, या जो किसी और से पीछे न छूट जाने के तनाव में रहते हैं, वैसे लोग इन चुनौतियों को धार्मिक भावना सरीखी गंभीरता से लेते हैं, और अपने को कुछ साबित कर दिखाना चाहते हैं।
सोशल मीडिया ने लोगों के बीच संबंधों का, एक ऐसा अजीब सा ऑनलाईन समाज खड़ा कर दिया है जो कि अभी दो-तीन दशक पहले कहीं नहीं था। अब स्मार्टफोन, इंटरनेट, और सोशल मीडिया ने मिलकर लोगों की जिंदगी के हर दिन के बहुत से घंटे एक ऐसी आभासी दुनिया में लगवाना शुरू कर दिया है जिसके सामने, जिसके मुकाबले असल दुनिया भी फीकी लगती है। फेसबुक और इंस्टाग्राम सरीखे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के खास एल्गोरिद्म लोगों की पसंद को भांपकर उन्हें उसी तरह के लोग दिखाते हैं, उसी तरह की सामग्री दिखाते हैं, और उन्हें रेशम के ककून की तरह की एक सीमित दुनिया में कैद कर देते हैं, इंसान रेशम की कीड़ों की तरह अपने ही उस ककून के भीतर कैद रह जाते हैं। गुजरात की जिस स्कूल से हमने चर्चा शुरू की है, वह तो सिर्फ चर्चा शुरू करने के लिए है, असलियत तो चारों तरफ इतनी बिखरी हुई है कि उसने दसियों हजार साल पुराने मानव समाज के सारे तौर-तरीकों, रीति-रिवाजों को पलटकर रख दिया है। लोग धरती के दूसरे तरफ जी रहे लोगों से ऑनलाईन मोहब्बत करने लगते हैं, और अपने आसपास के लोग उन्हें उतने अच्छे नहीं लगते, क्योंकि आभासी दुनिया में हर कोई अपनी एक ऐसी चमकदार तस्वीर पेश करते हैं, जिसका कि हकीकत से अनिवार्य रूप से कुछ लेना-देना नहीं रहता।
आज पुलिस की खबरों से पता लगता है कि हर दिन चाकू-पिस्तौल के साथ जाने कितने ही बालिग-नाबालिग नौजवान गिरफ्तार हो रहे हैं, और पुलिस को उनका सुराग उनके इंस्टाग्राम अकाऊंट से मिलता है, जहां पर वे चाकू-पिस्तौल के साथ अपने वीडियो पोस्ट करते हैं। अभी हफ्ते भर पहले ही एक नौजवान ने दिनदहाड़े, खुली सडक़ पर, लोगों की आवाजाही के बीच चाकू के दर्जनों वार से एक किसी को मार डाला, और फिर खून से सने चाकू के साथ अपना वीडियो पोस्ट किया, और यह चुनौती दी कि वह जेल में जाकर भी वहां राज करेगा। आज अगर लॉरेंस बिश्नोई जैसे देश के एक सबसे खतरनाक समझे जाने वाले अंतरराष्ट्रीय हत्यारे के गिरोह के लोग अपने वीडियो पोस्ट करते हैं, वीडियो पर धमकियां पोस्ट करते हैं, तो यही फैशन चल निकला है। हिंसा का शौक रखने वाले, या दूसरे किस्म के जुर्म करने वाले, या कि सिर्फ अपना दबदबा बनाने के लिए आतंक फैलाने वाले लोग हथियारों के साथ अपने फोटो-वीडियो इसी तरह पोस्ट कर रहे हैं। और दूसरे कई किस्म के लोग दूसरे किस्म के वीडियो से अपनी हसरतें पूरी कर रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में मुख्य सूचना आयुक्त की तीन बरस से खाली पड़ी कुर्सी को छांटने के लिए आज राज्य में बैठक होने जा रही है, जिसमें प्रदेश के मुख्य सचिव और डीजीपी रह चुके लोगों के नाम तो हैं ही, मौजूदा मुख्य सचिव अमिताभ जैन भी बड़ी सहूलियतों और मोटी तनख्वाह वाली इस कुर्सी के लिए बाकी लोगों के साथ कतार में हैं। और दिलचस्प बात यह है कि आज इन तमाम लोगों से इंटरव्यू लेकर जो पैनल बनाकर सरकार को दिया जाएगा, उसके चारों सदस्य अमिताभ जैन के मातहत काम कर रहे हैं, उनकी सीआर अमिताभ जैन को ही लिखनी है, आज अपने कामकाज के लिए वे अमिताभ जैन के लिए ही जवाबदेह हैं। हमारी नजर में यह एक विचित्र स्थिति इसलिए है कि इंटरव्यू बोर्ड के सारे ही सदस्य मुख्य सचिव के मातहत हैं। अब बोलचाल की जुबान में कहा जाए, तो उनको अपनी अगली सीआर भी अमिताभ जैन से लिखवानी है, और हितों का यह टकराव छोटा नहीं है। इसके पहले भी कई ऐसे मौके आए हैं जिसमें इसी राज्य के भूतपूर्व नौकरशाह, या भूतपूर्व जज अलग-अलग संवैधानिक पदों के लिए दिलचस्पी दिखाते मिले हैं, और उन्हीं में से सरकार ने छांटकर चुनिंदा लोगों को उपकृत किया है। लेकिन अर्जी देने वाले, या मनोनीत होने वाले ऐसे लोग कुर्सियों पर बैठे-बैठे मनोनीत नहीं हुए थे। हम मौजूदा सीएस अमिताभ जैन के नाम के खिलाफ नहीं हैं, वे कुछ दूसरे लोगों के मुकाबले बेहतर भी हैं, लेकिन इस मौके पर हम हितों के टकराव के एक व्यापक मुद्दे को एक बार फिर लिख रहे हैं।
इसके पहले भी हम कई बार यह बात उठा चुके हैं कि जज या अफसर, ये जिस राज्य में काम कर चुके हैं, वहां के किसी भी संवैधानिक, या दूसरे किस्म के पद के लिए उनके नाम पर विचार नहीं होना चाहिए। और तो और कुछ पत्रकारों के नाम भी सूचना आयोग सहित दूसरी जगह के लिए चलते हैं, उन्हें बीच-बीच में नियुक्त भी किया जाता है, और वह भी इसी तरह के हितों के टकराव का एक मामला है जिसे बारीकी से समझना जरूरी है। जब किसी राज्य में रिटायर होने के बाद संवैधानिक या दूसरी सरकारी कुर्सियों पर मनोनीत होने की एक संभावना रहती है, और वृद्धावस्था पुनर्वास बड़े महत्व, और मोटी तनख्वाह, भत्ते, और ओहदे से जुड़ी ढेरों सहूलियतों से जुड़ा रहता है, तो फिर बड़े-बड़े जजों और अफसरों की लार टपकने लगती है। ऐसे में अपने कार्यकाल के आखिरी बरसों में उनका रूख उस सरकार के मुखिया, या सत्तारूढ़ पार्टी को खुश करने का भी हो सकता है, या कि आमतौर पर रहता है, जो कि उन्हें वृद्धावस्था पुनर्वास दे सकते हैं। उनके आखिरी बरसों के फैसले, कामकाज, रूख और रूझान अपने इस निजी स्वार्थ से प्रभावित हो सकते हैं, इसलिए हम बार-बार उसी राज्य में किसी के भी मनोनयन के खिलाफ लगातार लिखते आ रहे हैं, और यह बात आज हम एक बार फिर उठा रहे हैं क्योंकि इस बार की राज्य सरकार की चयन समिति तो हितों के एक बहुत ही बेहूदा टकराव की मिसाल है। यह भी समझना कुछ मुश्किल है कि बड़े-बड़े आईएएस अफसरों की इस कमेटी में ऐसे व्यक्ति के आवेदन पर विचार करने की जिम्मेदारी कैसे ली है जो कि उनसे वरिष्ठ है, और उनकी अगली सीआर भी लिखने वाला है?
कुछ महीनों के बाद स्टैंडअप कॉमेडियन कुणाल कामरा एक बार फिर खबरों में है। उनके तेजाबी हास्य-व्यंग्य से घायल होने वाले सत्तारूढ़ लोग अपने-अपने प्रदेशों में उनके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करते रहते हैं, और कुणाल कामरा उससे एक किस्म से बेपरवाह रहकर उसी तल्ख जुबान में तंज कसते हैं। अब ताजा मामला मुम्बई में उनके एक कार्यक्रम का है जिसकी रिकॉर्डिंग यूट्यूब पर पोस्ट की गई है। इसमें कहा जाता है कि उन्होंने इशारों में महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री, और शिवसेना के एकनाथ शिंदे पर कुछ तंज कसे थे। इसे लेकर शिवसैनिकों ने जिस रिकॉर्डिंग स्टूडियो में जाकर खूब तोडफ़ोड़ की, और मुम्बई म्युनिसिपल कार्पोरेशन ने बुलडोजर भेजकर बड़े होटल के इस स्टूडियो को ध्वस्त कर दिया। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस ने कहा कि कुणाल कामरा ने महाराष्ट्र की जनता के चुने हुए लोगों का अपमान किया है, और शिवसेना अब कुणाल कामरा से माफी मांगने की मांग कर रही है, वरना सडक़ पर उससे निपटने की खुली धमकी दी है। शिवसेना के सांसद नरेश म्हस्के ने कहा है कि कुणाल कामरा को महाराष्ट्र ही नहीं हिन्दुस्तान में भी नहीं घूमने देंगे, शिवसैनिक पीछे लगेंगे, तो भारत छोडक़र भागना पड़ेगा, जहां भी वह दिखेगा, उसके मुंह पर कालिख पोती जाएगी।
दो दिनों से सोशल मीडिया पर कुणाल कामरा छाए हुए हैं। उन्होंने अपनी रिकॉर्डिंग में शायद कुछ और नेताओं के बारे में भी टिप्पणी की है। वे पेशेवर कॉमेडियन हैं, और हास्य-व्यंग्य का उनका अपना एक अलग स्तर है जो बहुत से लोगों को कुछ अधिक चुभ सकता है, चुभता है। इसके पहले भी भारत में कुछ और स्टैंडअप कॉमेडियन तरह-तरह से हमले झेल चुके हैं, और उनके कार्यक्रम हो पाना अब मुमकिन नहीं रह गया है। कुछ कॉमेडियन देश के कई प्रदेशों में एफआईआर झेल रहे हैं, जो कि सत्ता की नापसंदगी के किसी भी निशाने के खिलाफ आसानी से दर्ज हो जाती है। पुलिस चूंकि राज्य का मामला रहता है, इसलिए राज्य सरकार के मातहत उसकी मर्जी पर पुलिस तेजी से ऐसी कार्रवाई करती है। मुम्बई में जिस रफ्तार से इस रिकॉर्डिंग स्टूडियो पर बुलडोजर चलाया गया है, वह भी बताता है कि भारतीय लोकतंत्र में राज्य सरकार को नाराज करना, या सत्तारूढ़ ताकतों और विचारधारा के खिलाफ कुछ बोलना या लिखना कितना भारी पड़ सकता है। अभी नागपुर के दंगों को लेकर, और कुछ दूसरे मामलों में आरोपियों पर बुलडोजर चलाने को लेकर महाराष्ट्र हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के खिलाफ नाराजगी दिखाई ही है, और उस पर रोक लगाई है, इस बीच कल शायद जिस वक्त हाईकोर्ट यह रोक लगा रहा था, उसी वक्त मुम्बई का यह रिकॉर्डिंग स्टूडियो गिराया जा रहा था।
अब एक बुनियादी सवाल यह खड़ा होता है कि भारत जैसे लोकतंत्र में अगर जिंदा और सक्रिय नेताओं पर तंज कसना इतना खतरनाक हो चुका है, तो क्या यह लोकतंत्र की बुनियादी समझ और जरूरत के ठीक खिलाफ नहीं हैं? हम स्टैंडअप कॉमेडियनों की कई बातों से सहमत नहीं रहते। अभी कुणाल कामरा ने भी अपनी इस रिकॉर्डिंग में महिलाओं पर केन्द्रित गालियां दी हैं, किसी महिला पर निशाना भी साधा है, और उनके उस हिस्से को लेकर लोग आलोचना भी कर रहे हैं। लेकिन पेशेवर राजनेताओं को लेकर, उनका नाम लेकर या नाम लिए बिना अगर कोई व्यंग्य किया जाता है, तो उसे भी बर्दाश्त न करना लोकतंत्र के अंत की शुरूआत सरीखी है। महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे ने शिवसेना के साथ, खासकर उसके उस वक्त के मुखिया उद्धव ठाकरे के साथ जो किया था, उसे लेकर उन्हें महाराष्ट्र की राजनीति के बाहर भी गद्दार कहा गया था। यह एक अलग बात है कि विधायकों का बहुमत सत्ता में भागीदार होने के लिए उनके साथ चले गया, और आखिर में उन्हें ही असली शिवसेना होने की मान्यता मिल गई, लेकिन उन्हें गद्दार तो माना ही गया था। अब अगर उनका नाम लिए बिना एक व्यंग्यात्मक गाने में गद्दार शब्द का इस्तेमाल किया गया है, तो इसे लेकर उनकी पार्टी शिवसेना अगर कुणाल कामरा को मुम्बई में रहने न देने की बात कह रही है, जहां दिखें वहां मुंह काला करने की बात कह रही है, और ऐसी हिंसा कर रही है जो कि किसी सत्तारूढ़ पार्टी को शोभा नहीं देती, तो क्या यह लोकतंत्र रह गया है?
पिछले बरस सत्तापलट के बाद बांग्लादेश की नई अंतरिम सरकार वहां की अर्थव्यवस्था को संभाल नहीं पा रही है, जबकि एक अर्थशास्त्री मो.युनूस सरकार के मुखिया हैं, और बिना ओहदे के वे प्रधानमंत्री की तरह सब कुछ देख रहे हैं। जो टेक्सटाइल उद्योग बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी बना हुआ था, वह एकदम से चरमरा गया है, पूरी दुनिया की दर्जनों बड़े-बड़े ब्रांड के कपड़ों, जूतों, और खेल के सामानों की सिलाई बांग्लादेश में होती थी, और अब वह सिलसिला खतरे में पड़ गया है। यह उद्योग अकेला इस छोटे से देश में 40 लाख से अधिक कामगारों को रोजगार दे रहा था, और करीब 2 करोड़ लोग इससे जुड़े हुए दूसरे रोजगारों में लगे हुए थे। अब हालत यह है कि वहां लाखों लोगों का काम छूट रहा है, क्योंकि शेख हसीना सरकार के हटा दिए जाने के बाद 7 महीने में ही करीब डेढ़ सौ सिलाई कारखाने बंद हो चुके हैं, और मजदूर रमजान और ईद के इस मौके पर भी बिना मजदूरी पाए हुए बेरोजगार हो चुका हैं, या बेरोजगारी का खतरा झेल रहे हैं। देश बड़ी आर्थिक मंदी से गुजर रहा है, राजनीतिक अस्थिरता का शिकार है, धर्मान्ध और साम्प्रदायिक संगठन देश के राज-काज पर हावी हैं, और राजनीतिक ब दले की भावना इतनी अधिक है कि शेख हसीना के समर्थकों और सहयोगियों के कारखानों को घोषित-अघोषित रूप से बंद करवा दिया गया है। बांग्लादेश का सिलाई उद्योग ऐसा था जिसमें काम सीखी हुई महिलाओं का अनुपात सबसे बड़ा था, लेकिन झंझावात से गुजर रहे इस देश में आज सब कुछ चौपट हो गया दिख रहा है। प्रधानमंत्री शेख हसीना की सरकार को हटाते समय लोगों को बड़े सुनहरे सपने दिख रहे थे, वो तमाम अब धूल-मिट्टी में मिल गए हैं।
एक तो पूरी दुनिया ट्रम्प नाम के बवंडर को झेल रही है, लोगों की आंखों में धूल भर गई है, और किसी को भविष्य दिखाई नहीं पड़ रहा है। ऐसे में कोई देश अगर इस वैश्विक अस्थिरता से परे अपनी घरेलू अस्थिरता को भी झेल रहा है, तो उस पर दोहरी मार पड़ रही है। दुनिया का दर्जी बना हुआ बांग्लादेश अभी दो-चार बरस पहले ही प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत से आगे निकल गया था, उसे सर्विस सेक्टर की कामयाबी की एक बड़ी शानदार मिसाल माना जा रहा था, और आज सब कुछ चौपट हो गया है। इस नौबत से न सिर्फ वहां की सरकार को, बल्कि पूरी दुनिया को बहुत कुछ सीखने का एक मौका मिल रहा है।
शेख हसीना की सरकार एक निर्वाचित सरकार थी, उसमें चाहे दर्जनों खामियां रही हों, वह एक चुनाव प्रक्रिया से गुजरकर सत्ता पर पहुंची थी। लेकिन उन्हें हटाना सडक़ के एक आंदोलन के रास्ते हुआ, बांग्लादेश की बहुत सी ताकतें मिल गई थीं, जो कि किसी भी कीमत पर हसीना को हटाना चाहती थीं, और उन्हें जान बचाकर फौजी हेलीकॉप्टर में भारत आकर शरण लेनी पड़ी थी। किसी भी देश के लिए वे नजारे अच्छे नहीं थे जब वहां के आंदोलनकारी प्रधानमंत्री आवास में घुसकर उनके अंत:वस्त्र हवा में लहराते हुए घूम रहे थे। बांग्लादेश शेख हसीना के पहले भी फौजी हुकूमत भी झेल चुका है, और नेताओं पर तरह-तरह के मुकदमे भी झेल चुका है। इसलिए शेख हसीना को अगर किसी चुनाव में हटाया जाता, या किसी अदालती फैसले से उनके खिलाफ कोई कार्रवाई होती, तो भी ठीक था। उन्हें सडक़ के एक आंदोलन के रास्ते हटाया गया, और वहां न किसी विकल्प का कोई इंतजाम था, और न ही किसी और तरह के शासनतंत्र की तैयारी थी। ऐसे में नोबल शांति पुरस्कार प्राप्त मो.युनूस एक बड़ी अप्रिय स्थिति और कड़ी चुनौती में फंस गए हैं।
दिल्ली हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के बंगले में लगी आग, और वहां से बोरियां भर-भरकर मिले अधजले नोटों से न सिर्फ देश की न्यायपालिका हिल गई है, बल्कि लोकतंत्र के ढांचे में दरारें नजर आ रही हैं। अब कहने के लिए जस्टिस वर्मा कई तरह की सफाई दे रहे हैं कि ये नोट उनके नहीं हैं, लेकिन हाल के बरसों का उनका इतिहास भी इन नोटों को लेकर कई तरह के सवाल खड़े कर रहा है। वे जिस तरह के मामलों में उलझे हुए थे, उनसे सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने उन्हें बचाया था, लेकिन अब अधजले नोटों के ढेर के बाद वह विवाद फिर से खड़ा हो रहा है। अब सुप्रीम कोर्ट ने इस नोटकांड की प्रारंभिक जांच रिपोर्ट के बाद दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस से कहा है कि जस्टिस वर्मा को कोई काम न दिया जाए, और तीन अलग-अलग हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों की एक जांच कमेटी इस मामले में बनाई है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने यह भी कहा है कि जस्टिस वर्मा अपना मोबाइल फोन इधर-उधर न करें, उसमें कुछ डिलिट न करें, और कोई न्यायिक काम न करें।
इस मौके पर एक पुराना विवाद कफन फाडक़र आ खड़ा हुआ है कि किस तरह यह जज सीबीआई के एक दूसरे मामले में जांच के घेरे में था, और उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने दखल देकर यशवंत वर्मा को बचाया था। यह मामला एक शक्कर कारखाने की बैंक जालसाजी को लेकर था, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सीबीआई जांच का आदेश दिया था, और यशवंत वर्मा उस समय उस शक्कर कारखाने के एक गैरकार्यकारी डायरेक्टर थे, और एफआईआर में उनका भी नाम था। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को पलटा, और सीबीआई जांच बंद कर दी गई। इस डिफाल्टर कंपनी को बैंक लोन क्यों देते रहे, इसकी जांच होनी थी, लेकिन वह भी नहीं हो पाई थी। जस्टिस वर्मा दिल्ली हाईकोर्ट में दिल्ली सरकार के शराब घोटाले जैसे कई नाजुक मामलों की सुनवाई कर रहे थे, और अब सुप्रीम कोर्ट उनके पिछले फैसलों को भी देखने जा रहा है। पहले यह खबर आई थी कि नोट जलने के इस कांड के बाद सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने जस्टिस वर्मा को इलाहाबाद हाईकोर्ट भेज दिया है, जहां से वे दिल्ली हाईकोर्ट आए थे, लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ किया कि इलाहाबाद भेजने के फैसले का इस नोटकांड से लेना-देना नहीं है, और वह फैसला पहले लिया गया था। उधर इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकीलों के संगठन जस्टिस वर्मा को दागी मानते हुए उन्हें इलाहाबाद भेजने का सार्वजनिक तौर पर विरोध कर रहे हैं।
इलाहाबाद हाईकोर्ट से जुड़ा हुआ यह तीसरा विवाद पिछले तीन महीनों में सामने आया है। दिसंबर के महीने में हाईकोर्ट परिसर में ही विश्व हिन्दू परिषद के एक कार्यक्रम में वहां के जस्टिस यादव ने मंच और माईक से यह कहा था कि यह देश बहुसंख्यक समुदाय के मुताबिक चलेगा, और इसी भाषण में उन्होंने मुस्लिमों को गंदी और नफरती गालियां दी थीं। बाद में यह कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने उन्हें बुलाकर समझाईश दी थी, और अपना बयान वापिस लेने को कहा था। दूसरा मामला अभी तीन दिन पहले ही सामने आया जब सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों के खिलाफ जाकर इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज, जस्टिस मिश्रा ने यह फैसला दिया कि दो बालिग लोग एक नाबालिग बच्ची को पुल के नीचे घसीटकर ले गए, उसका सीना भींचते रहे, और उसके पजामे का नाड़ा तोड़ दिया, लेकिन उसे बलात्कार का प्रयास नहीं माना जा सकता। इस फैसले के खिलाफ हमने अगले ही दिन अपने अखबार के यूट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल, पर जमकर कहा था, और देश में कई बड़े वकीलों ने, केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री ने, और भी बहुत से तबकों ने इस फैसले के खिलाफ आवाज उठाई है, और सुप्रीम कोर्ट से इसे तुरंत खारिज करने को कहा है।
अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प को काम संभाले दो महीने हुए हैं, लेकिन इस बीच ज्वालामुखी से निकलते पिघले और जलते लावे की तरह उनके बयान उनके मुंह से निकलते हैं, जो कि धरती के अधिकतर हिस्से को भूकम्प की तरह हिला रहे हैं। न सिर्फ अमरीका, बल्कि दुनिया के इतिहास में किसी और निर्वाचित नेता या तानाशाह ने दो महीनों में ऐसी उथल-पुथल नहीं मचाई थी। दुनिया के शेयर बाजार उन घंटों का इंतजार करते हैं जिन घंटों में आमतौर पर ट्रम्प मीनार पर चढक़र फतवे जारी करते हैं। ट्रम्प के उठने के वक्त के साथ ही दुनिया की बेचैनी शुरू हो जाती है, जो कि ट्रम्प के सोने के बाद कुछ घंटों के लिए थमती है। अभी ऐसा कोई सर्वे तो सामने नहीं आया है, लेकिन हमारा ऐसा मानना है कि ट्रम्प को चुनने वाली अमरीकी जनता कुछ उसी तरह हक्का-बक्का होगी जिस तरह ब्रेक्जिट के पक्ष में वोट देने के बाद अगले ही दिन से ब्रिटिश जनता हो गई थी कि उसने यह क्या कर दिया। अमरीका, और बाकी दुनिया के लिए इस मवाली के राष्ट्रपति बनने के बाद राहत की एक ही बात है कि अब उसका कार्यकाल दो महीने कम बचा है, लेकिन तीन साल दस महीने तो बचा ही है।
डोनल्ड ट्रम्प वैसे तो पहले भी अमरीका का राष्ट्रपति रह चुका है, लेकिन उस कार्यकाल में उसने तानाशाही का यह मिजाज नहीं दिखाया था, जो वह इस दूसरे, और आखिरी कार्यकाल में दिखा रहा है। उसमें एक लोकतांत्रिक होने का दंभ भरने वाले देश का राष्ट्रपति होने का कोई शऊर तो है नहीं, उसमें गुंडागर्दी इस तरह कूट-कूटकर भरी है कि दुनिया इस मिसाल को आसानी से नहीं भूलेगी। बाकी दुनिया से अलग-थलग रहने वाले किसी देश में तानाशाह का ऐसा मिजाज रहा होगा, लेकिन पूरी दुनिया को प्रभावित करने वाली ऐसी तानाशाही हिटलर के बाद पहली बार सामने आई है जिसने पूरी दुनिया को अपनी-अपनी हिफाजत के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया है। इस अमरीका के सबसे करीबी फौजी और कारोबारी साथी, नाटो के दूसरे सदस्य, और तमाम यूरोपीय देश इस बात को लेकर हक्का-बक्का हैं कि उनकी पीठ में इतने गहरे छुरा भोंकने वाले ट्रम्प की खड़ी की हुई नौबत से वे कैसे उबरेंगे? योरप के सबसे बड़े दुश्मन रूस से अमरीका की परंपरागत दुश्मनी को ट्रम्प ने जिस तरह पल भर में यारी में बदल दिया है, और पीढिय़ों के यार योरप को जिस तरह खड्ड में धक्का दे दिया है, उससे एक असाधारण और अभूतपूर्व स्थिति पैदा हुई है। इससे उबरना आसान नहीं है, और शायद अगले कई बरस तक मुमकिन भी नहीं है। योरप जिसे अपनी हिफाजत मानकर चल रहा था, वह अब योरप के ही एक देश ग्रीनलैंड पर फौजी कब्जे की खुली धमकी दे रहा है। नाटो के नियमों के मुताबिक उसके किसी भी सदस्य देश पर कोई हमला होने पर सारे नाटो देश एक साथ मिलकर उसका मुकाबला करेंगे, ग्रीनलैंड पर फौजी कब्जा करने की ट्रम्प की घोषणा के बाद यह समझना मुश्किल है कि जब अमरीकी फौजें ग्रीनलैंड पर कब्जा करेंगी, तो नाटो की सामूहिक जिम्मेदारी के चलते क्या अमरीकी फौजें वहां ग्रीनलैंड को बचाने का काम भी करेंगी? क्या ग्रीनलैंड को लेकर अमरीका मोर्चे के दोनों तरफ अपनी फौजें भेजेगा?
लेकिन हम एक ताजा बात को लेकर आज ट्रम्प जैसे घटिया इंसान पर एक बार फिर लिख रहे हैं। उसने चुनाव प्रचार के दौरान कहा था कि वह रूस और यूक्रेन की जंग 24 घंटों में रूकवा देगा। अब कई तरह के तेवर दिखाने के बाद, और यूक्रेन को लगातार धमकाने के बाद, उससे उसके दुर्लभ खनिजों की खदानें बंदूक की नोंक पर मांगने के बाद अब ट्रम्प ने यूक्रेन से कहा है कि अगर उसे अपने बिजलीघरों को रूसी हमलों से बचाना है, तो उसे ये बिजलीघर अमरीका को दे देना चाहिए! एक तरफ अमरीका बिना यूक्रेन के सीधे रूस से युद्धविराम की बात कर रहा है कि इस जंग को कैसे रोका जाए, और इस तानाशाही के बीच वह यूक्रेन को तरह-तरह से धमका रहा है। अब तक अमरीका से उसे मिली फौजी और दूसरी मदद के एवज में वह यूक्रेन के खनिजों के भंडार अमरीका को देने के लिए उसकी बांह मरोड़ रहा है। अब यह कहना कि उसे रूसी हमलों से अपने बिजलीघरों को बचाने के लिए उन्हें अमरीका को दे देना चाहिए, और इससे उसे बेहतर सुरक्षा मिल सकेगी, यह बात एक गुंडे की जुबान ही है जो कि पहले किसी जमीन पर अवैध कब्जा करता है, और फिर उसके मालिक को कहता है कि जमीन उसे बेच दे।
कर्नाटक विधानसभा में कल यह मामला उठा कि कई दलों के नेताओं को हनी ट्रैप में फंसाया गया है। अंग्रेजी के इस शब्द का मतलब हिन्दी में रूपजाल हो सकता है जिसमें कोई सुंदरी साजिश के तहत किसी मर्द को फंसाए, और उसके साथ सेक्स का वीडियो बना ले। ऐसा काम कोई एक अकेली महिला भी कर सकती है, या उसके पीछे कोई एक गिरोह भी हो सकता है। यह भी हो सकता है कि इन औरत-मर्द को ऐसे किसी जाल की खबर न हो, और कोई खुफिया कैमरा लगाकर ऐसी रिकॉर्डिंग कर ली जाए। फिलहाल कर्नाटक में राजनीति उबल रही है कि तरह-तरह से नेताओं को फंसाया गया है, जिसमें राज्य के मंत्रियों से लेकर केन्द्र सरकार में कर्नाटक से गए मंत्रियों तक, दर्जनों के नाम हैं। लोगों को याद होगा कि लोकसभा चुनाव के पहले भी कर्नाटक में सेक्स-पेनड्राइव का मामला सामने आया था जिसमें देश के एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री एच.डी.देवेगौड़ा के विधायक बेटे, और सांसद पोते की सेक्स फिल्में थीं। सैकड़ों महिलाओं के साथ ऐसे वीडियो क्लिप वाले पेनड्राइव राजधानी बेंगलुरू में जगह-जगह सार्वजनिक रूप से छोड़ दिए गए थे, और इनमें से बहुत से सेक्स वीडियो ऐसे थे जिनमें महिलाएं उनके साथ जबर्दस्ती सेक्स न करने के लिए गिड़गिड़ा रही हैं, और उन पर बलपूर्वक यौन हमला किया गया। उस वक्त यह बात भी सामने आई थी कि देवेगौड़ा की जानकारी में महीनों पहले से उनके बेटे और पोते की करतूतें पार्टी के नेता लाते जा रहे थे, लेकिन देश का भूतपूर्व प्रधानमंत्री इस मामले में बेपरवाह था, बेशर्म था, और पुत्रमोह और पोतामोह में उसे दिखाई देना बंद हो चुका था। अभी उस मामले की जांच चल ही रही है, लेकिन जैसा कि राजनीति में होता है, जांच एजेंसियां यह देखकर काम करती हैं कि कौन सी पार्टी और नेता सत्ता के कितने काम के हैं, कर्नाटक में भी सैकड़ों महिलाओं की इज्जत मटियामेट करने वाले बाप-बेटे का अभी तक कुछ बिगड़ा हुआ तो नहीं दिख रहा है।
एक बार फिर हम ताजा घटना पर लौटें, तो कर्नाटक में तमाम पार्टियों के नेता इस बात को लेकर विचलित हैं कि उन्हें तरह-तरह से हनी ट्रैप में फंसाया गया है, और शायद 48 नेताओं के सेक्स-वीडियो बाजार में आ चुके हैं। विधानसभा में सहकारिता मंत्री ने यह कहा कि उनके पास सुबूत है कि उनके साथ भी ऐसा हुआ है, और वे शिकायत दर्ज कराने वाले हैं ताकि पता लग सके कि ऐसे वीडियो के निर्माता-निर्देशक कौन हैं। सरकार के एक मंत्री रहते हुए भी उन्होंने यह दावा किया कि कर्नाटक में सेक्स-सीडी और पेनड्राइव की फैक्ट्री चल रही है जिसमें 48 लोगों के अश्लील वीडियो मौजूद हैं। उन्होंने कहा कि ये अलग-अलग पार्टियों के हैं, और कुछ ने कोर्ट से ऐसे वीडियो प्रचारित करने के खिलाफ स्टे भी लिया हुआ है। दिलचस्प बात यह है कि विधानसभा के भीतर यह कहा गया कि केन्द्रीय मंत्रियों सहित कई जजों को भी इसका शिकार बनाया गया है। कुछ दूसरे नेताओं ने यह कहा कि राज्य में बीस साल से यही चल रहा है, और कुछ लोग इसे धंधा बना चुके हैं।
सार्वजनिक जीवन में सेक्स-फिल्मों से लोगों पर दबाव डालने का काम नया नहीं है। जब वीडियो-कैमरे आसान नहीं थे, उस वक्त भी आपातकाल के दौर में इंदिरा गांधी की बहू, और संजय गांधी की बीवी मेनका गांधी की पत्रिका, सूर्या में बाबू जगजीवनराम के बेटे सुरेश राम की बहुत सी नग्न सेक्स-तस्वीरें प्रकाशित की गई थीं। एक प्रमुख महिला पत्रकार नीरजा चौधरी ने हाल ही में प्रकाशित अपनी एक किताब में इस घटना का जिक्र किया है कि किस तरह जगजीवनराम को इंदिरा गांधी से परे जाने से रोकने के लिए इन तस्वीरों का इस्तेमाल किया गया था जिनमें जगजीवनराम के बेटे सुरेश राम को अपनी एक महिला मित्र के साथ बिना कपड़ों के सेक्स-मुद्राओं में कैमरे में कैद किया गया था। सूर्या पत्रिका का एक पूरा अंक इन्हीं तस्वीरों को समर्पित कर दिया गया था, और इनका साफ-साफ मकसद देश के सबसे प्रमुख दलित राजनेता जगजीवनराम को ब्लैकमेल करना था। यह एक अलग बात है कि राजनीति में कोई स्थाई शत्रु होते, और न ही स्थाई मित्र, इसलिए जगजीवनराम की बेटी मीरा कुमार तमाम कड़वाहट को छोडक़र कांग्रेस पार्टी की बड़ी नेता बनीं, और बाद में वे लोकसभा अध्यक्ष तक हुईं। लेकिन इस देश में सेक्स-तस्वीरों से ब्लैकमेल करने का सबसे ऊंचे स्तर का (या सबसे नीचा स्तर कहा जाए?) मामला इंदिरा गांधी के नाम लिखाएगा जिनके कपूत संजय गांधी ने लोकतंत्र की और कई किस्म की हत्याओं के साथ-साथ सेक्स-तस्वीरों से ब्लैकमेलिंग भी की थी।
फिर एक बार कर्नाटक पर लौटें, तो लोगों को याद होगा कि वहां विधानसभा में कुछ बरस पहले मोबाइल फोन पर पोर्नो देखते हुए कुछ विधायकों को विधानसभा के कैमरों ने ही कैद किया था, उसके बाद याद नहीं पड़ता कि उस मामले में क्या हुआ था। लेकिन कर्नाटक की राजनीति में सेक्स-सक्रियता बड़ी आम बात कही जाती है, और दर्जनों मंत्रियों, नेताओं, और जजों के सेक्स-सीडी मौजूद रहने से अब पता नहीं वहां इन लोगों की सार्वजनिक, सरकारी, और अदालती जिम्मेदारियों पर कैसा फर्क पड़ता होगा। बहुत से मामलों में तो ब्लैकमेल करने की जरूरत भी नहीं पड़ती होगी, और एक मामूली सा संदेश भेज देना भी असरदार होता होगा कि उनका कोई सेक्स-वीडियो फलाने के पास मौजूद है। उतने में ही सरकारी या अदालती फैसले उसके पक्ष में होने की एक संभावना खड़ी हो जाती है। लेकिन हम फिर भी छोटे-छोटे हनी ट्रैप से देवेगौड़ा कुनबे के बाप-बेटे के मामले की तुलना करना नहीं चाहते जिन्होंने अपने घर पर ही अनगिनत महिलाओं के साथ हरम जैसा चला रखा था, और खुद ही वीडियो भी बनाते थे। इस कुनबे की करतूतों को हिन्दुस्तान के इतिहास का सबसे बड़ा सेक्स-वीडियो कांड कहा गया है। राजनीतिक बेशर्मी का हाल यह है कि इसके भांडाफोड़ के बाद भी इस देश के भूतपूर्व प्रधानमंत्री को इतनी भी शर्मिंदगी नहीं हुई कि अपने बेटे-पोते, और अपनी पार्टी के दो नेता बनाए गए खानदानी चिरागों के जुर्म देखकर देवेगौड़ा सार्वजनिक जीवन से बाहर हो जाते। वह तो गनीमत कि वीडियो-सुबूत मौजूद हैं, इस वजह से इन कुकर्मियों की गिरफ्तारी भी हुई, लेकिन उसके बाद भी देवेगौड़ा पूरी बेशर्मी से राजनीति में बने हुए हैं।
हम कर्नाटक जैसी नौबत को लोकतंत्र के लिए बहुत ही खतरनाक मानते हैं, क्योंकि किसी कारोबारी के सेक्स-स्कैंडल में फंसने से परे, जब सरकार या अदालत के किसी बड़े ओहदे पर बैठे हुए लोग हनी ट्रैप में फंसते हैं, तो वे अपनी शपथ के खिलाफ जाकर गलत काम करने को मजबूर भी हो सकते हैं। हमारा तो ख्याल यह है कि सार्वजनिक जीवन के लोगों को उनका ऐसा स्कैंडल सामने आने के बाद किसी भी सरकारी, राजकीय, या संवैधानिक ओहदे से हट जाना चाहिए। लोगों को याद होगा कि एक वक्त अविभाजित आन्ध्र के राज्यपाल रहे नारायण दत्त तिवारी का राजभवन का जीवन ऐसे ही कुछ सेक्स-वीडियो बाहर आने की वजह से खत्म हुआ था। जिन पार्टियों के नेता भी इस किस्म के सुबूतों के साथ पकड़ाते हैं, उन्हें पार्टियों को कम से कम सार्वजनिक पदों से अलग कर देना चाहिए, फिर चाहे वे अपने संगठन में ऐसे लोगों को सिर पर बिठाकर रखें। सार्वजनिक जीवन के लोगों को हनी ट्रैप से बचना भी आना चाहिए क्योंकि सेक्स की अपनी जरूरत को वो दुनिया के कुछ सेक्स-पर्यटन केन्द्रों पर जाकर भी पूरा कर सकते हैं, कम से कम देश में अपनी पार्टी को शर्मिंदगी से बचाएं। एक दूसरी बात यह भी है कि जिस पार्टी के नेता ऐसी हरकतों में फंसते हैं, उनके आसपास की महिलाओं का सम्मान भी खतरे में पड़ता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
एक किसी औरंगजेब के नाम को लेकर 21वीं सदी के 25वें बरस में हिन्दुस्तान के सबसे कारोबारी प्रदेश महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में लपटें उठ रही हैं, कफ्र्यू लग चुका है, और उस बारे में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से लेकर देश के कई हिंसाप्रेमी तक तरह-तरह के बयान दे रहे हैं। लेकिन इस बारे में सबसे वजनदार बयान आरएसएस के प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर का है जिन्होंने कहा है कि आज औरंगजेब की कोई प्रासंगिकता नहीं है, और उसे लेकर कोई भी हिंसा गलत है। उनसे पूछा गया था कि क्या आज औरंगजेब प्रासंगिक है, और क्या उनकी कब्र किसी दूसरी जगह स्थापित करनी चाहिए? जो लोग महाराष्ट्र में औरंगजेब की कब्र को तोडऩे और हटाने पर आमादा हैं, उन हिन्दू संगठनों को पता नहीं देश के सबसे प्रमुख हिन्दू संगठन आरएसएस की यह बात कैसी लगेगी। लेकिन हम आरएसएस प्रचार प्रमुख के रूख और उनकी भाषा से पूरी तरह सहमत हैं कि औरंगजेब की आज कोई प्रासंगिकता नहीं है।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की अपनी व्याख्या अलग हो सकती है कि एक कोई फिल्म आई है जिसे देखकर लोग औरंगजेब के खिलाफ भडक़े हुए हैं, और मुख्यमंत्री रहते हुए देवेन्द्र फडनवीस ने यह बात कही है कि उन्हें शर्मिंदगी है कि उन्हें औरंगजेब की कब्र को हिफाजत मुहैया करानी पड़ रही है। जब भाजपा के मुख्यमंत्री यह भाषा बोलते हैं, तो यह जाहिर है कि बवाल खड़ा कर रहे हिंसक आंदोलनकारियों को उनका संदेश क्या है। लेकिन देश-विदेश में बिखरे हुए बहुत से हिन्दुस्तानियों ने सोशल मीडिया पर यह सवाल उठाया है कि इतिहास के किसी एक तथाकथित, काल्पनिक, गढ़े हुए, या खालिस झूठे पन्ने को लेकर हर कुछ महीनों में एक नया बवाल खड़ा किया जाता है, हर साल अपने को इतिहास साबित करती हुई कोई फिल्म आ जाती है, जो कहने के लिए यह वैधानिक चेतावनी दे देती है कि वह काल्पनिक है, और फिर उसे पूरे देश में एक विचारधारा के लोग बढ़ावा देने लगते हैं, सरकारें टैक्स में छूट देने लगती हैं, और कमसमझ, इतिहास से अनपढ़ लोग उसे ही इतिहास मान लेते हैं। आज हिन्दुस्तान की आबादी के अधिकतर लोगों का इतिहास का ज्ञान पिछले दस बरस की फिल्मों पर टिका हुआ है, और इस इतिहास से उनकी बांहें फडक़ती रहती हैं, आंखें सुर्ख लाल रहती हैं, और जो हवा में एक दुश्मन को तलाश कर उसे लाठियों से पीटना चाहते हैं। जब तक ऐसी एक फिल्म के बवाल की पहली सालगिरह आती है, तब तक ऐसी कोई नई फिल्म पेश हो जाती है, और वह इतिहास का एक नया चैप्टर लोगों को पढ़ाने लगती है। दिक्कत यह है कि कानूनी खतरे से बचने के लिए फिल्म में कुछ सेकेंड तक उसके काल्पनिक होने का जो नोटिस दिखाया जाता है, उसे पूरी तरह अनदेखा करते हुए उसे इतिहास का सच मानकर लाठियां उठा ली जाती हैं।
सोशल मीडिया पर बहुत से लोगों ने लिखा है कि जिस सुनीता विलियम्स पर फख्र करने का कोई मौका यह हिन्दुस्तान नहीं छोड़ता, वह अंतरिक्ष में नौ महीने रहकर लौट भी आई है, लेकिन हिन्दुस्तानी किसी मस्जिद की नींव में उलझे हुए हैं, और अब औरंगजेब की कब्र में। यह सिलसिला एकदम भयानक इसलिए है कि इतिहास में हुए किसी जुल्म की कहानी सुनाकर लोग आज उस इतिहास को मिटाने को ही अपना भविष्य मान बैठे हैं। लोगों को आज न अपने वर्तमान की फिक्र रह गई है, और न ही अपनी अगली पीढ़ी के लिए उन्हें कोई भविष्य चाहिए। इतिहास में नामौजूद कुछ बातों के लिए गर्व करते हुए वे बाकी दुनिया की कामयाबी को खारिज करते चलते हैं, यह मानकर चलते हैं कि दुनिया में जो कुछ तरक्की हुई है, जितने भी आविष्कार हुए हैं, उन सबके पीछे हिन्दुस्तान से चुराया हुआ ज्ञान रहा है। ऐसे मनगढ़ंत दावों के बाद आज किसी नई कामयाबी, और किसी नए आविष्कार की जरूरत भी नहीं रह जाती है क्योंकि गौरवशाली इतिहास का दंभ किसी नई सफलता की जरूरत ही नहीं सुझाता। इतिहास की काल्पनिक सफलता, और इतिहास के सच्चे या झूठे जुल्म, इन्हीं में डूबा हुआ यह देश न्यौता तो दे रहा है सुनीता विलियम्स को, लेकिन अंतरिक्ष की सफलता को बुलाते हुए भी वह इतिहास के पाताल में घुसने में लगा हुआ है। पता नहीं सुनीता विलियम्स जब हिन्दुस्तान आएगी, उनके स्वागत के लिए लोग दरगाह, मस्जिद, और कब्र के नीचे से निकलकर आ पाएंगे या नहीं।
आरएसएस ने जो रूख सामने रखा है, उसे शब्दों से परे ले जाने की जरूरत है। जब संघ अपने आपको दुनिया का सबसे प्रमुख हिन्दू संगठन मानता है, तब उसे महज एक सवाल के जवाब में इतना कहने से अधिक कुछ करना चाहिए। आरएसएस को मानने वाले दसियों लाख लोग हैं, और उनमें से भी कई लोग कब्र की नींव खोदने का इरादा रखते होंगे। संघ को अधिक शब्दों में, अधिक खुलासे से अपने ऐसे हिन्दू स्वयंसेवकों, समर्थकों, और बाकी हिन्दुओं को राह दिखानी चाहिए, अगर वह सचमुच ही औरंगजेब के विवाद को अप्रासंगिक मान रहा है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री जैसे लोग तो अपने सार्वजनिक बयानों से आज इस देश को निराश ही कर रहे हैं। संवैधानिक शपथ लेने के बाद सत्ता पर बैठे लोगों के बयान अधिक जिम्मेदारी के होने चाहिए। लेकिन आरएसएस मुख्यालय और देवेन्द्र फडनवीस का घर दोनों नागपुर में आसपास ही हैं, और आज देश को अप्रासंगिक मुद्दों से उबरकर जिंदगी के असल और अहम मुद्दों से रूबरू होने की जरूरत है। हम पहले भी कई बार इस बात को लिख चुके हैं कि कब्रों में घुसकर दफन लाशों को खाने वाले एक प्राणी, कबरबिज्जू पर सवारी नहीं की जाती, उस पर चढक़र कोई आगे नहीं बढ़ सकते। आजादी की स्वर्ण जयंती, 2047 तक देश को जहां पहुंचाने की मंजिल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तय की है, वह लंबा सफर कबरबिज्जू की पीठ पर सवार होकर तय नहीं हो सकता। प्रधानमंत्री को भी इस देश में इतिहास का बवाल बनाने वाले लोगों को कुछ नसीहत देनी चाहिए।
दिल्ली की खबर है कि केन्द्रीय विद्यालय की एक शिक्षिका, अन्विता शर्मा ने खुदकुशी कर ली। इसके पहले उसने परिवार को भेजे गए आखिरी वॉट्सऐप मैसेज में लिखा कि उसका पति किस तरह उसे बरसों से परेशान कर रहा है। उसने लिखा कि पति ने उससे नहीं, उसकी नौकरी से शादी की थी, और वे बाहर कामकाज करने वाली एक घरेलू नौकरानी भी चाहते थे। उसने लिखा कि किस तरह एक बंधुआ मजदूर की तरह रह गई थी, और पति उसके हर काम में खामियां निकालते रहता था। उसने एक आखिरी संदेश अपने पति को भी लिखा कि उसके लिए खाना पका दिया है, खा लेना। और उसने अपने मां-बाप को लिखा है कि उसके चार बरस के बेटे को वे ही पालकर बड़ा करे, क्योंकि वह नहीं चाहती कि वह अपने बाप की तरह बने।
खुदकुशी चाहे कहीं भी हो, किसी की भी हो, वह बहुत तकलीफदेह रहती हैं, क्योंकि उससे अधिक निराशा का दौर और कुछ नहीं रहता। लोगों के पास जब जिंदा रहने की कोई वजह नहीं रह जाती, और मौत जिंदगी के मुकाबले आसान लगती है, तो वे खुदकुशी की तरफ बढ़ते हैं। हम इस महिला की आत्महत्या को देखकर सोचते हैं कि केन्द्रीय विद्यालय की ठीकठाक तनख्वाह वाली नौकरी के बाद भी उसे घर पर नौकरानी की तरह काम करना पड़ता था, और बदसलूकी भी झेलनी पड़ती थी। क्या यह हालत कमोबेश हिन्दुस्तान की अधिकतर महिलाओं की नहीं है जो कि घर के बाहर भी काम करती हैं, और घर पर तो काम करना ही है। जो महिलाएं बाहर कोई काम नहीं करतीं, उन पर भी परिवार का इतना बोझ रहता है कि अगर भुगतान करके उतनी मजदूरी करवानी होती, तो परिवार का दीवाला ही निकल जाता। दिन भर घरेलू मजदूरी, और रात को पति की हसरतों को पूरा करने के लिए बदन को पेश कर देने की मजबूरी। हिन्दुस्तानी महिला की जिंदगी तब तक आसान नहीं है, जब तक वह अच्छा-खासा नहीं कमाती है, और वह घर छोडक़र बाहर निकलने का हौसला नहीं रखती है। ये दो बातें अगर रहें, तो ही पति और ससुराल के बाकी लोग उसके अस्तित्व को मानते हैं, इससे कम में उसे इंसान की तरह कोई-कोई परिवार मान भी सकते हैं, और अधिकतर परिवार उसे एक बंधुआ मजदूर की तरह देखना चाहते हैं।
भारत में जिस तरह से लड़कियां शादी के झांसे में आकर किसी के भी हाथ अपना बदन दे देती हैं, वह भी एक बड़ा खतरनाक सिलसिला है, और उनके बीच भी इस बात की जागरूकता जरूरी है कि शादी ही सब कुछ नहीं होती। दुनिया में बहुत सारे ऐसे देश हैं जहां पर महिलाएं बिना शादी किए भी पूरी जिंदगी गुजार लेती हैं, और अपनी जिंदगी की वे खुद मालकिन रहती हैं। यह बात भारत के उन बहुत से लोगों को खतरनाक लग सकती है जो कि शादी नाम की संस्था को अनिवार्य मानते हुए यह कोशिश करते हैं कि परिवार में एक बंधुआ मजदूर बढ़ जाना सहूलियत की बात होगी। यह सिलसिला टूटना जरूरी है। भारत में लड़कियों के मन में यह आत्मविश्वास लाना जरूरी है कि शादी कुछ भी नहीं है, पढ़ाई-लिखाई, और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना, आत्मविश्वास की ताकत हासिल करना, सब कुछ है। लड़कियों को यह बात अच्छी तरह समझ आना चाहिए कि बिना आर्थिक आत्मनिर्भरता के ससुराल में उनके साथ जुल्म का बहुत बड़ा खतरा हमेशा ही बने रहेगा। और जब कोई लडक़ी कमाने वाली रहती है, तो उसके साथ पति और ससुरालियों का बर्ताव भी बदल जाता है।
यह सिलसिला मां-बाप के सिरे से शुरू होना चाहिए कि वे लडक़ी के दहेज के लिए रकम इकट्ठा करने के बजाय उसे पढ़ा-लिखाकर, हुनरमंद बनाकर किसी भी किस्म के रोजगार या स्वरोजगार से लगाएं, और उसे पूरी तरह आत्मनिर्भर बनाएं। यह आत्मनिर्भरता मां-बाप को भी बेटी के भविष्य के बोझ से मुक्त करेगी, और लडक़ी अपने मायके की मोहताज भी नहीं रह जाएगी। यह नौबत इसलिए जरूरी है कि मां-बाप के गुजर जाने के बाद भी किसी लडक़ी के मायके लौटने की नौबत आने पर भाई-भाभी का रूख भी उसके लिए बदल चुका रहता है। आर्थिक आत्मनिर्भरता खुद महिला के लिए, दोनों तरफ के परिवारों के लिए, समाज और देश की अर्थव्यवस्था के लिए, हर बात के लिए जरूरी है।
अब हमने आज की यह बात जिस घटना से शुरू की है, उसे अगर देखें तो हमारी आगे की बातचीत कुछ फिजूल लगेगी। केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षिका एक अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी रही होगी, और वहां रहते हुए भी अगर उस महिला को पति और ससुराल से कोई सम्मान और महत्व नहीं मिला, तो ऐसी नौकरी तो देश की अधिकतर महिलाओं को मिल भी नहीं सकती। लेकिन हम ऐसे परिवार को बहुत अपवाद सरीखा दुष्ट मानते हैं, और यह मानते हैं कि देश के आम और औसत परिवार इतने दुष्ट शायद नहीं होंगे। परिवार और उसके सदस्य कारखाने में ढले हुए एक सरीखे नहीं रहते, इसलिए दिल्ली की इस मिसाल को देखकर किसी को निराश नहीं होना चाहिए, और यह मानकर चलना चाहिए कि आम मामलों में कामकाजी और कमाऊ महिला अपने ससुराल में बेहतर स्थिति में रहती है, और अगर तमाम लोग जुल्मी हों, तो वह अलग होकर भी अच्छी तरह अपनी जिंदगी गुजार सकती है। दिल्ली की इस शिक्षिका ने जिस तरह से हौसला छोड़ा है, वैसी नौबत न आती तो बेहतर होता। वह इतनी आत्मनिर्भर थी कि अपने बेटे के साथ वह अलग भी रह सकती थी। हमने संघर्ष करने वाली ऐसी बहुत सी महिलाओं को देखा है जो जुल्मी और बर्बाद हो चुके पतियों को छोडक़र अपने पैरों पर खड़ी होती हैं, और कामयाबी भी हासिल करती हैं, लेकिन इसके लिए उनका आत्मनिर्भर होना एक बड़ी जरूरत रहती है।
कुल मिलाकर परिवार और समाज को, सरकार को, देश के उत्पादक कामकाज में महिलाओं की भूमिका लगातार बढ़ाना चाहिए, उनकी शिक्षा, प्रशिक्षण, और कामकाज के उनके अवसर बढऩे चाहिए, उनके रहने के सार्वजनिक इंतजाम लगातार बढऩे चाहिए ताकि वे आत्मनिर्भर हो सकें। कोई भी देश अपनी आधी आबादी की चौथाई उत्पादकता से आगे नहीं बढ़ सकता, उसे अपनी सौ फीसदी आबादी की सौ फीसदी की उत्पादकता की जरूरत पड़ती है, तभी जाकर आबादी बोझ नहीं, बल्कि संपत्ति लगने लगती है। हिन्दुस्तान के पड़ोस का चीन एक ऐसी मिसाल है जहां सरकार आज एक-एक नागरिक बढ़ाने के लिए तरस रही है, और ऐसा तभी हो पाया है जब वहां की हर महिला आत्मनिर्भर बनती ही है।
महाराष्ट्र की उप-राजधानी नागपुर हिंसा की लपटों में झुलस रही है। कल वहां औरंगजेब की कब्र के खिलाफ, महाराष्ट्र के एक दूसरे हिस्से में उसे तोडऩे के लिए जुलूस निकाला जा रहा था, और हिंदू संगठनों के उस जुलूस पर कुछ पथराव होने की खबरें हैं। इसके तुरंत बाद नागपुर में यह अफवाह फैली कि एक धार्मिक किताब को जलाया गया है। दंगा करवाने के लिए हिंदुस्तान में और लगता क्या है? चारों तरफ पथराव होने लगा, गाडिय़ों में आग लगाई गई, और आंसू गैस, लाठीचार्ज के बाद वहां कर्फ्यू लगाया गया है। दरअसल पिछले कुछ हफ्तों से महाराष्ट्र में औरंगजेब के नाम पर एक विवाद चल रहा है, और वहां के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कल ही यह बयान दिया था कि औरंगजेब को महिमामंडित करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा। उनकी यह बात इस तनाव के बीच भडक़ाने वाली लग रही थी कि औरंगजेब की कब्र को हटाया जाए। यह मांग चल ही रही थी, और मुख्यमंत्री ने ऐसा बयान दिया, तो उससे भी लोगों का उत्तेजित होना स्वाभाविक था। सीएम ने यह बयान दिया कि उन्हें अप्रिय जिम्मेदारी को निभाने का बड़ा अफसोस है कि सरकार को ऐसे औरंगजेब की कब्र की भी हिफाजत करनी पड़ रही है। जाहिर है कि हिंदू संगठनों को सरकार का रुख साफ दिखाई दे गया, और उन्होंने जगह-जगह औरंगजेब की कब्र हटाने के लिए प्रदर्शन शुरू कर दिए। फडणवीस के अपने गृहनगर नागपुर में महाराष्ट्र की सबसे बड़ी ताजा हिंसा हुई, और ये जख्म लंबे समय तक रिसते रहेंगे।
यह देश एक अजीब से दौर से गुजर रहा है, यह चांद और मंगल पर जाने की बातें करता है, पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने की हसरत रखता है, लेकिन दूसरी तरफ यह इतिहास में पीछे, और इतना पीछे जाकर हिसाब चुकता करना चाहता है कि कल के दिन इस देश में किसी शहर में दो चकमक पत्थरों को लेकर दो समुदायों के बीच जानलेवा दंगे हो जाएं कि वे पत्थर किसके पुरखों के थे, तो हैरान नहीं होना चाहिए। लोग अभी कुछ सौ बरस पहले के इतिहास को लेकर झगड़ा कर रहे थे, अब वे हजार बरस पहले तक जा रहे हैं। बाबरी मस्जिद से और पीछे जाकर मामला सोमनाथ मंदिर तक पहुंच गया है, यह देश और कितना पीछे जाएगा? और कितना पुराना हिसाब चुकता करेगा? हम पहले भी कई बार इस बात को लिख चुके हैं कि जिनको आगे बढऩा होता है वे लगातार गाड़ी के बैक व्यू मिरर में पीछे का नजारा देखते हुए रफ्तार से आगे नहीं बढ़ सकते। और गाडिय़ों में बैक व्यू मिरर कुछ सौ मीटर तक पीछे का ही दिखा पाता है, आज हिंदुस्तानी तो हजार बरस पहले झांकते हुए चौथाई सदी बाद कहां पहुंचेंगे इसका दंभ भर रहे हैं। आज आजादी की पौन सदी का अमृत महोत्सव निपटा है, और 2047 में आजादी की स्वर्ण जयंती का लक्ष्य तय किया जा रहा है। यह करते हुए भी लोगों को इतिहास की अपनी दीवानगी पर वक्त खर्च करना जरुरी लग रहा है, अपना भी और पूरे देश का भी।
आज दुनिया के विकसित देश जिस तरह किसी भी इतिहास से उबरकर आगे बढ़ते चले जा रहे हैं, उन्हें देखकर भी हिंदुस्तान कुछ नहीं सीख पा रहा है। हिटलर की जर्मनी ने अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के दाएं हाथ एलन मस्क की नाजी सलामी को देखकर उसकी टेस्ला कारों का बहिष्कार कर दिया है। आज सुबह ही हमने एलन मस्क के पेश किए हुए ग्रोक नाम के एआई औजार से पूछा कि जर्मन लोग टेस्ला कार के बारे में क्या सोच रहे हैं, तो उसने एक सर्वे के हवाले से कहा कि एक लाख जर्मन लोगों से पूछा गया तो उनमें से 94त्न ने कहा कि वे कभी टेस्ला कार नहीं खरीदेंगे। जर्मन खुद हिटलर के वक्त के अपने इतिहास से उबर जाना चाहते हैं। ठीक वैसे ही जैसे गांधी हत्या के बाद उसके शक में घिरे हुए लोगों से इस देश को उबरना पड़ा, बाबरी मस्जिद गिराने वालों से, चौरासी के सिक्ख दंगों को करने वाले लोगों से, 2002 के गुजरात दंगों वाले लोगों से देश को उबरना पड़ा। लोकतंत्र में यह लचीलापन रहता है कि वह कई चीजों को माफ चाहे न करें उनसे उबरकर आगे बढऩा जानता है। अब ऐसे में इतिहास को खोदकर औरंगजेब को निकालना, और आज उसके नाम पर अपने शहरों को जलाना, क्या यह मंगल पर पहुंचने का रास्ता है, या यह पांच ट्रिलियन डॉलर की इकॉनॉमी बनने की राह है?
इतिहास की जो बहुत पुरानी किताबें रहती हैं, जिनके पन्ने पीले पड़-पडक़र टूटने लगते हैं, उन पन्नों से दुबारा लुग्दी भी नहीं बन पाती, उनसे दुबारा कागज भी नहीं बनाया जा सकता, उनसे न तो आज का वर्तमान लिखा जा सकता, और न ही उनसे भविष्य की कोई कहानी लिखी जा सकती। दुनिया में जिन पीले पड़े हुए पन्नों को इतिहास के दस्तावेज की तरह अकादमिक महत्व का माना जाता है, न कि इक्कीसवीं सदी को सुलगाने वाला चकमक पत्थर, उन पीले पन्नों को धार लगाकर आज हिंदुस्तान में हथियार बनाए जा रहे हैं, और उनसे हिंसा की जा रही है। यह सिलसिला बताता है कि आजादी की पौन सदी बाद भी यह देश किस तरह असभ्य बना हुआ है, और इसे न तो अपने आज की फिक्र है, और न ही अपनी अगली पीढ़ी के कल की कोई फिक्र है, इसे महज इतिहास को लेकर एक बखेड़ा करने की फिक्र है। इससे चुनावी रिकॉर्ड तो बनाया जा सकता है, किसी देश को महान नहीं बनाया जा सकता, किसी लोकतंत्र को कामयाब नहीं बनाया जा सकता, और ऐसे स्पीड ब्रेकरों को बना-बनाकर यह देश आजादी की स्वर्ण जयंती तक के अपने सफर को खुद ही बुरी तरह धीमा कर रहा है। हो सकता है कि औरंगजेब की कब्र खोदने से उसकी लाश के साथ दफ्न कोई ऐसा खजाना मिल जाए कि देश पांच ट्रिलियन डॉलर तक पलभर में पहुंच जाए! लाशों को खाकर जिंदा रहने वाला एक जानवर, कबरबिज्जू किसी सवारी करने के लायक नहीं रहता। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पुलिस ने अभी चार दिन पहले एक कार रोकी, और उसमें बनाए हुए एक खुफिया बक्से में से एक करोड़ छैसठ लाख रूपए नगद बरामद किए। इसके बाद कार सवार ड्राइवर और उसके साथी से पूछताछ चल रही थी कि उनके मोबाइल पर 4.52 केजी लिखा हुआ मैसेज आया। इसे देखकर पुलिस को शक हुआ, और कार की और बारीकी से जांच की गई, तो उसमें से एक दूसरी जगह छुपाए गए 2.65 करोड़ रूपए के नोट और बरामद हुए। इसके पहले भी तकरीबन हर महीने किसी न किसी कार से ऐसी नगदी बरामद होती है। और यह तो जाहिर है ही कि हजारों कारों में से किसी एक कार की ही पुलिस जांच कर सकती है, और अलग-अलग किस्म से बनाए गए खुफिया बक्सों को पकड़ पाना भी हर बार मुमकिन नहीं रहता। देश में मोदी सरकार ने 2016 में नोटबंदी की थी, और देश में चलन में हजार-पांच सौ के जो नोट थे, उन सभी को रद्द कर दिया गया था। बाद में पांच सौ और दो हजार के नए नोट निकाले गए थे, और लोगों की हैरानी तब तक जारी रही जब तक अभी 2023 में दो हजार रूपए के नोट बंद नहीं किए गए। कालेधन को रोकने के लिए हजार रूपए का नोट बंद करके दो हजार रूपए का नोट जारी करना बड़ी ही अटपटी बात थी, क्योंकि इससे तो कालेधन की आवाजाही और भी आसान हो गई थी। इन 6-7 बरसों में दो हजार रूपए के नोट कालेधन का कारोबार करने वालों के पसंदीदा थे। नोटबंदी के समय एक तर्क यह भी दिया गया था कि इससे बाजार में हजार-पांच सौ के जितने नकली नोट चलन में होंगे, वे सब भी चलन के बाहर हो जाएंगे। लेकिन न सिर्फ वे नकली नोट बैंकों में जमा हो गए, बल्कि नए छापे गए नोटों की नकल भी चालू हो गई। अब जिस बड़े पैमाने पर देश में रोजाना हवाला कारोबार से एक समानांतर अर्थव्यवस्था चलने की खबर मिलती है, उससे लगता है कि न ही नोटबंदी किसी काम की निकली, और न ही भारत के बैंक और टैक्स के कड़े किए गए जाल में कोई फंस रहे हैं। सामानों पर जीएसटी की वसूली जरूर बढ़ गई है, लेकिन नगदी कारोबार में कोई कमी आई हो ऐसा बाजार से भी सुनाई नहीं पड़ता है।
कालेधन पर रोक लगाने के लिए सरकार और क्या कर सकती है? एक तो 2014 में मोदी सरकार आने के पहले से कई किस्म के बाबा यह कीर्तन कर रहे थे कि मोदी सरकार आते ही विदेशों में जमा देश का कालाधन वापिस आ जाएगा, और हर जनता के खाते में लाखों रूपए डल जाएंगे। खैर, वह तो जुमलों की बात थी, और 40 रूपए लीटर पेट्रोल, और 40 रूपए में डॉलर की बात भी उसकी ठीक उल्टी साबित हुई, और इन दोनों चीजों के दाम आसमान पर पहुंच गए। अब ऐसे में अगर देश में दोनंबरी नगदी कारोबार भी धड़ल्ले से चल रहा है, तो उसे क्या कहा जाए? क्या टैक्स चोरी और दोनंबर के धंधे पर जुर्माना बढ़ाया जाए, सजा बढ़ाई जाए, या ऐसे लोगों के कारोबार करने पर ही रोक लगाई जाए? दरअसल रोक लगाने की भावना तो ठीक है, लेकिन लोगों का कारोबार करने का हक एक बुनियादी हक है, और किसी को काम-धंधे से रोकना उतना आसान नहीं रहता है। रोकने की नौबत भी नहीं आनी चाहिए, और न सिर्फ केन्द्र सरकार को, बल्कि राज्य सरकारों को भी सभी तरह की तस्करी को रोकने के लिए निगरानी भी बढ़ानी चाहिए, और खुफिया जानकारी भी जुटाने का काम बढ़ाना चाहिए।
अभी-अभी दक्षिण भारत में एक बड़े आईपीएस की अभिनेत्री बेटी दुबई से एक-एक बार में 14-15 करोड़ का सोना अपने कपड़ों में छुपाकर लाते हुए पकड़ाई, और वह पिछले कुछ महीनों में दर्जन भर से ज्यादा बार दुबई के फेरे लगा चुकी थी, और इसी वजह से वह निगरानी में भी आई थी। लेकिन अगर एक-एक व्यक्ति अपने कपड़ों में छुपाकर इतना सोना ला सकते हैं, तो सरकार की कस्टम ड्यूटी की वसूली तो बहुत ही बुरी तरह मार खाते दिख रही है। यह तो बार-बार के फेरे, और दुबई जैसी जगह बार-बार जाने-आने से शक हुआ, और यह मामला पकड़ में आया। लेकिन नशीले पदार्थों से लेकर बदन के भीतर सोने का पेस्ट तक भरकर लाने वाले लोग बीच-बीच में पकड़ाते ही हैं। छत्तीसगढ़ में हम देखते हैं कि ओडिशा और पड़ोसी राज्यों से छत्तीसगढ़ होते हुए बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में भरकर गांजा रोज जाता है, और दूसरे किस्म के नशे भी चारों तरफ आते-जाते हैं, बिकते हैं। इन सबसे अर्थव्यवस्था, और लोगों की सेहत दोनों की बड़ी बर्बादी हो रही है।
केन्द्र सरकार के स्तर पर तो तस्करी और दूसरे किस्म के अपराधों पर खुफिया निगरानी के लिए एजेंसी बनी हुई है। लेकिन भारत की बैंकिंग व्यवस्था में आज भी आर्थिक अपराधियों और दोनंबरी कारोबारियों को इतने छेद मिल जाते हैं कि वे नगदी का कारोबार करते रहते हैं, और वह सरकार के जाल में नहीं फंसता। अब चूंकि देश में 12 लाख रूपए तक की आय पर टैक्स नहीं रहेगा, इसलिए हो सकता है कि गरीबों के नाम पर 12 लाख रूपए तक की आय दिखाकर, और फिर उनके खातों से चेक लेकर दोनंबर की रकम को एकनंबर करने का एक बड़ा संगठित कारोबार चलने लगेगा। अभी भी सट्टेबाजी, क्रिप्टोकरेंसी, और शेयर घोटाला जैसे धंधों में गरीबों के बैंक खातों का धड़ल्ले से इस्तेमाल मुजरिम कर रहे हैं। अब जब 12 लाख रूपए तक की आय पर कोई आयकर नहीं लगेगा, तो लोगों के लिए इन खातों से कारोबारी जुबान में एंट्री लेना आसान हो जाएगा, और बाजार में कई एजेंट यही काम करने लगेंगे।
केन्द्र और राज्य सरकारों को मिलकर दोनंबरी से लेकर दसनंबरी कारोबार तक को रोकने के लिए उसकी खुफिया निगरानी मजबूत करनी चाहिए। देश मेें हवाला का काम जैसा पहले चलता था, अभी भी वैसा ही चल रहा है। आज भी किसी कारोबारी शहर से किसी भी दूसरे कारोबारी शहर तक हर दिन सैकड़ों-हजारों करोड़ का कालाधन हवाला से चले जाता है। नोटबंदी से लेकर आज तक सरकार हवाला कारोबार पर वार नहीं कर पाई है। भारत में केन्द्र और राज्य सरकारों की टैक्स-कमाई को बढ़ाने का एक बड़ा जरिया भी इससे निकल सकता है, अगर तस्करी, टैक्सचोरी, और कालेधन की आवाजाही को रोका जा सके। इंकम टैक्स में छूट की सीमा को एकदम बढ़ा देना इसी बरस से चालू होने जा रहा है, इसका बड़े पैमाने पर बेजा इस्तेमाल न हो, इसकी तैयारी केन्द्र सरकार को करनी चाहिए, वरना यह समानांतर अर्थव्यवस्था बन जाएगी, और लोगों का कालाधन छोटे-छोटे गरीब लोगों के खातों से होकर देश की मुख्य अर्थव्यवस्था में पहुंच जाएगा, बिना कोई टैक्स दिए हुए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
होली की दो दिन की छुट्टी के बाद आज निकलने जा रहे अखबार के लिए संपादकीय के मुद्दों की भरमार है, लेकिन हम एक कम दिलचस्प लगने वाले मुद्दे पर लिखना चाहते हैं जिससे कि किसी भी प्रदेश में लोगों की जिंदगियां बच सकती हैं। पिछले दो-तीन दिनों में छत्तीसगढ़ में जितने किस्म के सडक़ हादसे देखने मिले हैं, उनसे दिल दहल जाता है। सडक़ पर मरने वाले हर कोई कुसूरवार रहे हों यह जरूरी नहीं है, दो गाडिय़ों के एक्सीडेंट में किसी एक गाड़ी की गलती भी हो सकती है, और दूसरी गाड़ी चलाने, या उस पर चलने वाले लोग बेकसूर हो सकते हैं। खासकर जब सडक़ों की हालत लगातार सुधरती चली गई है, गाडिय़ां अंधाधुंध तेज रफ्तार हो गई हैं, लोग सत्ता या ताकत के अहंकार में गाड़ी के इंजन के हॉर्सपॉवर की ताकत अपनी बददिमागी में जोडक़र गाडिय़ां चलाने लगे हैं, तो सडक़ें सुरक्षित नहीं रह गई हैं। जिसके पास राजनीति, सरकार, न्यायपालिका, या मीडिया का बाहुबल है, या पैसों की ताकत है जिससे कि ऊपर की चारों चीजों पर असर डाला जा सकता है, तो फिर हॉर्सपॉवर पर सवार ऐसे लोगों पर उनका अपना ही कोई काबू नहीं रह जाता।
जिस अंदाज में छत्तीसगढ़ में लोग सडक़ों पर लापरवाह हैं, या बदमिजाजी से सडक़ों को रौंदते हुए गाडिय़ां दौड़ाते हैं, उनमें कोई भी सुरक्षित नहीं हैं। लोग सत्ता और ताकत से परे भी नशे में डूबे हुए गाडिय़ां चला रहे हैं, और उनकी अंधाधुंध रफ्तार पर लगाम लगाने को मानो कोई नहीं है। राजधानी रायपुर में ही रोज दसियों हजार लोग नशा करके गाड़ी चलाते होंगे, और उनमें से कुछ दर्जन के चालान होते हैं। जिनके पास चालान पटाने को अंधाधुंध पैसा है, या चालान फाडक़र फेंक देने की राजनीतिक ताकत है, उन्हें कौन सुधार सकते हैं? नतीजा यह होता है कि सडक़ों पर जो मामूली लोग नियम-कायदे से चलते हैं, उनकी भी जिंदगी पूरी की पूरी खतरे में रहती है। इस खतरे के अनुपात में सरकार का उसे रोकने का कोई इंतजाम नहीं है। गाडिय़ों पर नजर रखने के लिए जो सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने चाहिए, उतना सस्ता इंतजाम भी सरकार समय रहते नहीं कर रही है। और गाडिय़ों की रफ्तार नापने के जो आसान उपकरण पूरी दुनिया में इस्तेमाल हो रहे हैं, उनको भी इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। नतीजा यह हो रहा है कि लोगों की आदत ही ट्रैफिक नियम तोडऩे की होती चल रही है, और वक्त के साथ वह मजबूत भी होती जाती है।
जिस प्रदेश में मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव, और डीजीपी बैठकें लेकर बार-बार सडक़ सुरक्षा की बात कहते हैं, उसके बाद भी उस पर अमल न होने की भला क्या वजह हो सकती है? अब तो जिस विधानसभा चुनाव के बाद सरकार बनी है, उस सरकार के आने के बाद लोकसभा और पंचायत-म्युनिसिपल चुनाव भी हो चुके हैं, और अब तो अगले करीब साढ़े तीन बरस वोटरों से दहशत खाने की कोई वजह भी सरकार के पास नहीं रह गई है। सरकार खुद केन्द्र सरकार के बनाए हुए सडक़ सुरक्षा नियमों पर अमल नहीं कर रही, सुप्रीम कोर्ट के कड़े फैसले और हाईकोर्ट की बार-बार की चेतावनी को भी अनदेखा कर रही है, और बिना किसी वजह से लोगों में अराजकता बढऩे दे रही है। यह हाल छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से हर सरकार का रहा, किसी सरकार ने अपने अफसरों को ट्रैफिक सुधारने का मौका ही नहीं दिया। नतीजा यह है कि गाडिय़ां चलाने वालों की एक पूरी पीढ़ी ऐसी आ गई है जिसने अपने बड़े लोगों को सडक़ों पर अराजकता से चलते देखा हुआ है, और वही सीखा हुआ है।
सडक़ों पर अराजकता बढऩे देने का कोई हक किसी सरकार को नहीं हो सकता क्योंकि इससे नियम-कायदा मानकर चलने वाले आम नागरिकों के हक मारे जाते हैं, और उनकी जिंदगी भी खतरे में पड़ती है। किसी सरकार को भला यह हक कैसे हो सकता है कि वह नियम मानने वाले लोगों की जिंदगी पर नियम तोडऩे वालों को खतरा बनने दे? सडक़ों पर ट्रैफिक को सुरक्षित कैसे बनाया जाए, इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ने बहुत लंबे-चौड़े निर्देश दिए हुए हैं, जिन्हें मानना हर राज्य के लिए जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट को यह जिम्मेदारी भी दी है कि वे अदालती फैसले पर अमल करवाएं। लेकिन बार-बार की नोटिस के बाद भी सरकार जिस बेफिक्री के साथ सडक़-नियम तोडऩे वालों के साथ दिखती है, वह हक्का-बक्का करता है। सिर्फ दिखावे के लिए, प्रतीकात्मक, और हांडी के चावल के एक दाने को निकालकर बाकी चावल पके होने का सुबूत पेश करने की तरह दस-बीस हजार लोगों में से किसी एक का चालान कार्रवाई के सुबूत की तरह पेश किया जाता है। यह आज की अराजक नौबत में जरूरी हो चुके इंजेक्शन लगाने की जगह उसकी दवाई को पूरे शहर की पानी सप्लाई में डाल देने जैसा है जिसका कि असर किसी पर कुछ भी नहीं पड़ेगा। यह किसी के मुंह में ड्रॉपर से एक ड्रॉप चाय डाल देने सरीखा है जिसका कि कोई स्वाद भी नहीं आएगा।
आज जब बहुत अच्छी रिकॉर्डिंग करने वाले कैमरों का इस्तेमाल हो रहा है, गाडिय़ों की रफ्तार पकडऩे और उनके चालान बनाने के उपकरण मौजूद हैं, तब सरकार की ढीली-ढाली नीयत जनता की जिंदगी खत्म कर रही है। यह भी याद रखने की जरूरत है कि जब अराजकता आसमान तक पहुंच जाती है, तो उसे धरती पर लाना बहुत आसान भी नहीं रहता। नशे में धुत्त जो लोग एक्सीडेंट करते हैं, उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई, उनकी गाडिय़ां जब्त करने, ड्राइविंग लाइसेंस खत्म करने के बजाय मामूली चालान और जुर्माने से काम कैसे चल जाता है, यह भी लोगों को समझ आता है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय को चाहिए कि राज्य में सडक़ों पर रोज हो रही मौतों को रोकने के लिए नियम तोडऩे वाले सौ फीसदी लोगों पर सबसे कड़ी कार्रवाई करने का हुक्म दें। प्रदेश की आम जनता का इतना तो हक है ही।
इन्फोसिस के एक संस्थापक नारायण मूर्ति ने हाल ही में कुछ दूसरी अलोकप्रिय बातें भी कहीं जब उन्होंने हफ्ते में 50-60 घंटे काम करने की नसीहत दी। जैसा कि हिंदुस्तानियों के आम मिजाज में होता है, उनकी बात का सही मतलब निकालकर उससे प्रेरणा लेने के बजाय, हर किस्म के लोग यह कहते हुए उन पर टूट पड़े कि वे कामगारों का शोषण करना चाहते हैं। जबकि उन्होंने कुल यही कहा था कि जिन्हें आगे बढ़ना है उन्हें अतिरिक्त मेहनत करनी चाहिए। उनके उस मासूम बयान के खिलाफ देश के बेरोजगारों ने सोशल मीडिया पर ओवरटाइम करते हुए उनकी खूब लानत-मलानत की थी। लेकिन ऐसा करने वालों ने यह नहीं सोचा कि अभी तो वे हफ्ते में दस घंटे भी काम नहीं कर रहे हैं तो चालीस की जगह पचास या पचास की जगह साठ घंटे काम करने को लेकर उन्हें क्यों शिकायत होनी चाहिए? मानो अब नारायण मूर्ति की आलोचना कुछ ठंडी पड़ रही हो, उन्होंने अब देश में राजनीतिक दलों के चुनावी वायदों को लेकर यह बात कही है कि फ्रीबीज से दुनिया का कोई भी देश गरीबी नहीं मिटा सका है। एक बड़े सफल कारोबारी होने के नाते नारायण मूर्ति को विश्व की अर्थव्यवस्था की भी कुछ समझ तो है ही, यह एक अलग बात है कि उन्हें एक पूंजीपति मानते हुए लोग यह कह सकते हैं कि गरीबों को फायदा देने के लिए बनायी जाने वाली जनकल्याणकारी योजनाओं को लेकर उनकी समझ सिर्फ अपमानजक फ्रीबीज शब्द तक सीमित हो सकती है। नारायण मूर्ति ने अभी यह कहा है कि अगर गरीबी मिटानी हो तो लाखों नौकरियां पैदा करनी होंगी, जाहिर है कि वे सरकारी नौकरियों की बात नहीं कर रहे हैं। और इस देश के बेरोजगार हैं जो कि अपने आपको निजी नौकरियों के लायक, या किसी स्वरोजगार के लायक तैयार करने के बजाय सरकारी नौकरियों के इंतजार में उम्मीदवारी की उम्र खो बैठते हैं।
नारायण मूर्ति ने फ्रीबीज की आलोचना का खुलासा करते हुए कहा कि सरकार और समाज को यह आकलन करना चाहिए कि क्या फ्रीबीज देने का लोगों की जिंदगी पर कोई असर हो रहा है? उन्होंने कहा कि मुफ्त बिजली दी जाती है तो क्या उसका इस्तेमाल बच्चों की पढ़ाई के लिए किया गया है? उनकी इस बात से लोगों को याद रखने की जरूरत है कि सुप्रीम कोर्ट में इस तथाकथित फ्रीबीज के खिलाफ एक सुनवाई चल ही रही है। भाजपा से जुड़े एक वरिष्ठ वकील ने दूसरी बहुत सी जनहित याचिकाओं के साथ-साथ यह जनहित याचिका भी दायर की है कि फ्रीबीज बंद की जाएं। राजनीतिक दल चुनावी घोषणा की शक्ल में बहुत सी चीजें और सहूलियत मुफ्त देने का वायदा करते हैं और उसके बाद उन पर यह नैतिक दबाव भी रहता है कि सत्ता में आने पर वे उन्हें पूरा करें। लेकिन एक-एक कर बहुत से राज्यों की अर्थव्यवस्था यह बतला रही है कि राज्य चुनावी वायदों को पूरा करते हुए ही चुक जाते हैं, और ढांचागत विकास या दूसरे विकास कार्यक्रमों के लिए उनके पास रकम ही नहीं बचती है। कई राज्यों में तो हालत पहले से यह थी कि उनके पास तनख्वाह देने को भी पैसा नहीं था, लेकिन चौराहे पर चल रही नीलामी में बोली बोलने के अंदाज में जब राजनीतिक दल दूसरी पार्टी के घोषणा पत्र की सफेदी की चमकार से अधिक सफेद पेश करने की हड़बड़ी में रहते हैं, तो फिर वे इस बात की परवाह नहीं करते कि ऐसे वायदों के लिए पांच बरस तक रकम कहां से आएगी। उन्हें लगता है कि किसी भी तिकड़म से एक बार सत्ता पर आ जाए, तो उसके बाद या तो इंतजाम हो जाएगा या कुछ वायदों को छोड़ दिया जाएगा। देश में ऐसे माहौल में इस गलाकाट मुकाबले पर रोक कैसे लगाई जाए इसमें सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग दोनों दखल देना नहीं चाहते, क्योंकि यह सरकारों की अपनी नीतियों पर निर्भर करता है कि वे किस चीज पर कितना खर्च करें। लेकिन हमारा मानना है कि सरकार बनने के पहले तक राजनीतिक दलों के लिए लागू की गई आचार संहिता का विस्तार किया जा सकता है, और जिस तरह पिछले कुछ चुनावों में उनमें अपराधियों पर रोक लगायी गई है, सरकारी कर्ज खा जाने वालों पर रोक लगायी गई है, उसी तरह बेहिसाब वायदे करने वाले राजनीतिक दलों पर भी रोक लगाई जा सकती है। अब इस हिसाब का आंकड़ा कहां पर आकर रुके यह तय करना बड़ा मुश्किल काम है, और सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों और चुनाव आयोग को जो नोटिस दिए हैं उनका कम से कम एक मकसद तो यह है कि चुनावी वायदों पर एक नकेल कसी जा सके।
वोटरों को सीधा फायदा पहुंचाने वाले बहुत से कार्यक्रमों को लेकर हमारा अपना तजुर्बा यह है कि वे अपात्र लोगों से भरे हुए हैं, जहां महिलाओं को सीधे रकम भेजना भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बना हुआ है वहां यह भी धड़ल्ले से देखने मिल रहा है कि गैरगरीब महिलाएं ऐसा फायदा पाने में बड़ी संख्या में बड़े उत्साह से आगे हैं। जनकल्याण की जो भी योजनाएं बहुत बड़े तबके के लिए लागू होती हैं उन पर यह खतरा रहता ही है कि अपात्र लोग उनका खून तक चूस डालते हैं। हमने छत्तीसगढ़ के सबसे सफल पीडीएस कार्यक्रम को भी देखा था, उसमें भी जब अपात्र लोगों के नाम काटे गए थे तो वे शायद दस-पंद्रह फीसदी तक पहुंच गए थे। इसलिए जब कभी कोई पार्टी चुनावी घोषणा पत्र तैयार करती है, तो उसे गैर जिम्मेदारी से बढ़ावा देने के बजाय यह भी साफ करना चाहिए कि कौन लोग उसके अपात्र रहेंगे। चुनावी प्रचार के बीच इस तरह का अनुशासन किसी को नहीं सुहाता, और जैसा कि बाजार में झांसा देने वाले शेयर फॉर्म पर नियम और शर्तों को अपठनीय छोटे अक्षरों में छापा जाता है, वैसी ही राजनीतिक दल चुनावी घोषणाएं करते हुए करते हैं।
हम नारायण मूर्ति की इस बात से सहमत हैं कि जनता को सरकारी खजाने से जो पैसा मिलता है उसकी उपयोगिता और उत्पादकता आंकी जानी चाहिए, ऐसा न करने पर हम, बिना काम किए बड़ी सहूलियत से सब कुछ पाने वाले अलाल लोगों की एक ऐसी पीढ़ी खड़ी करते हैं जो देश की अर्थव्यवस्था का दिवाला निकालकर भी कुछ और सहूलियतों की हसरत बाकी रखेगी। करोड़पतियों को स्वास्थ्य बीमा का फायदा क्यों दिया जाए? उन्हें दौ सौ यूनिट तक की बिजली मुफ्त क्यों दी जाए? उन्हें ऑटो एक्सपो नाम का मेला लगाकर एक-एक करोड़ रुपए की कार में 50 फीसदी की टैक्स छूट क्यों दी जाए? जब किसी भी तरह की रियायत जनता के खून-पसीने से बने खजाने से दी जाती है तो उसका फैसला बहुत जिम्मेदारी के साथ होना चाहिए, वह किसी तबके की जरूरत और समाज के तमाम तबकों के बीच उसकी प्राथमिकता के आधार पर तय होना चाहिए। हम सबसे जरूरतमंद तबके को बाकी समाज के साथ-साथ चलने लायक मदद करने के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन मेहनत करने के बजाय अगर जनता अपने को सरकार की बारात में आए बाराती की तरह जनवासे में ठहरा हुआ मान ले, तो यह उस जनता के लिए खुद भी आत्मघाती है और देश के भी खिलाफ है। रियायती चावल देना, और धान के भरपूर दाम देना, इसका मतलब अगर जनता का जमकर दारु पीने का रिकॉर्ड बनाना है, तो ऐसी रियायतों पर सरकारों को सोचना चाहिए।
जब कभी हमें लिखने के लिए किसी मुद्दे की कमी पड़ती है, तो सुप्रीम कोर्ट का मुंह ताकना हमेशा ही फायदे का रहता है। वहां कोई न कोई ऐसी बात रहती है जो कि हमारे मन की रहती है, या कभी-कभी मन के ठीक खिलाफ भी रहती है, और उस मुद्दे पर लिखने की गुंजाइश अच्छी-खासी रहती है जिसके बिना कम से कम हम अपने इस अखबार में इस कॉलम को नहीं देखते। अभी महाराष्ट्र के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों के साथ बड़े अफसरों के बर्ताव को लेकर नौकरशाही को फटकार लगाई है। एक महिला ग्राम प्रधान को अफसरों ने बर्खास्त कर दिया था, और उसके खिलाफ बॉम्बे हाईकोर्ट ने बहाली का फैसला दिया था। महाराष्ट्र सरकार को एक महिला ग्राम प्रधान के खिलाफ इतनी बड़ी लड़ाई जरूरी लगी कि वह सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। अब यह सोचने की बात है कि सरपंच स्तर की एक निर्वाचित महिला हाईकोर्ट में राज्य सरकार से जीत जाने के बाद अब किस ताकत से देश की सबसे बड़ी अदालत तक जाकर खड़ी हो सकती है? राज्य सरकार ने तो अपनी अथाह ताकत से हासिल महंगे वकीलों से सुप्रीम कोर्ट में हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दे दी, लेकिन वहां अपना पक्ष रखने और लडऩे के लिए तो इस महिला ग्राम प्रधान को भी जाना ही था। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में बड़ा सही फैसला दिया है और यह कहा है कि महाराष्ट्र में हाल ही में उसने ऐसे कई मामले देखे हैं जहां नौकरशाहों ने पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधियों के साथ बदसलूकी की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उसने दो-तीन दूसरे मामलों में फैसला सुनाया है जहां पर सरकारी अफसर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से बुरा बर्ताव करते पाए गए थे। अदालत ने साफ-साफ कहा कि सरकारी अमला निर्वाचित प्रतिनिधियों का मातहत होना चाहिए, और अफसरों को जमीनी स्तर का निर्वाचित लोकतंत्र बर्बाद करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। दो जजों की बेंच ने यह भी कहा कि अदालत के सामने ये जानकारियां आईं है कि अफसर निर्वाचित प्रतिनिधियों को अयोग्य ठहराने के लिए पुराने मामले खोलने की कोशिश करते हैं। अदालत ने मिसाल दी कि एक महिला सरपंच को अयोग्य ठहराने के लिए ऐसा मामला खोलकर निकाला जा रहा है कि उसके दादा ने सरकारी जमीन पर अतिक्रमण किया था इसलिए वह सरपंच बनने लायक नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ मामलों में कलेक्टरों के इस किस्म के आदेश अवैध पाए और उनको रद्द किया। अदालत ने यह शानदार बात भी कही कि खासकर जब ग्रामीण इलाकों के महिलाओं का मामला हो, तो उन्हें अफसरों के रहमोकरम पर नहीं छोड़ा जा सकता।
हम अदालत में इस मामले तक अपनी आज की इस बात को सीमित नहीं रखना चाहते, बल्कि उससे आगे ले जाना चाहते हैं। आज भी हम अपने आसपास छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में भी देखते हैं कि किस तरह सरकारी अफसर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को हिकारत की नजर से देखते हैं। अभी पिछले ही पखवाड़े छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले में निर्वाचित आधा दर्जन महिला पंचों की जगह सरकारी कर्मचारी पंचायत-सचिव ने उनके पतियों को शपथ दिला दी। इसके वीडियो और समाचार सामने आने के बाद सरकार को मानो मजबूरी में उस पंचायत-सचिव को निलंबित करना पड़ा, लेकिन मानो वह काफी नहीं था, दो दिन के भीतर ही एक दूसरे जिले जांजगीर में एक और महिला पंच के पति को सरकारी पंचायत-सचिव ने पद की शपथ दिलाई। एक तो महिलाओं के लिए भारत के समाज में हिकारत की जो नजर हमेशा से बनी हुई है, उसे पंचायती राज कानून और महिला आरक्षण कानून मिलकर भी दुरुस्त नहीं कर पा रहे हैं। फिर महिलाओं के बाद समाज में दूसरा बड़ा कमजोर तबका दलितों और आदिवासियों का होता है, और उनके साथ भी ऐसा ही सुलूक होता है। यह बात तो समाज के कमजोर तबकों की हुई, लेकिन इससे परे भी छोटे निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को लेकर सरकारी कामकाज में घाघ बन चुके कर्मचारी और अफसर बहुत ही घटिया सोच रखते हैं। वे यह मानते हैं कि लोकतंत्र की वजह से ऐसे अनपढ़, और नासमझ लोग भी पंच-सरपंच बन गए हैं। जबकि इन्हीं दोनों विशेषणों से युक्त विधायकों और सांसदों के मंत्री बनने पर कोई रोक नहीं है, और बड़ी से बड़ी नौकरशाही उन्हें एक मिनट में इतनी बार सर कहती हैं कि हवा में सरसराहट होने लगती है।
पंचायत व्यवस्था को बहुत से अफसर बुरी तरह भ्रष्ट मानकर चलते हैं। अब हमको तो यह समझ नहीं पड़ता है कि किसी राज्य की सरकार, या देश की सरकार में भ्रष्टाचार के मामले में पंचायतों के मुकाबले भला किस किस्म की कमी रहती है? वहां भी यही बड़े-बड़े नौकरशाह मंत्रियों के साथ मिलकर सरकारी फैसले लेते हैं, बैठकों में नीतियां तय करते हैं, जिनमें हजारों और लाखों करोड़ का घोटाला होता है। पंचायतों में शायद बहुत छोटा भ्रष्टाचार होता है, और राज्य सरकारों में उससे बड़ा, और केंद्र सरकार में उससे भी बड़ा। तो जिन लोगों को भ्रष्टाचार की वजह से पंचायती राज ही नहीं सुहाता है, उन्हें तो फिर राज्य सरकार की जगह राज्य के मुख्य सचिव को ही शासन का मुखिया देखना चाहिए, और देश चलाने की जिम्मेदारी प्रधानमंत्री के बजाए कैबिनेट सचिव को दे देनी चाहिए। यह सोच शहरी, शिक्षित, सवर्ण, और संपन्न तबके की ऐसी सोच है जो सैनिक तानाशाही में दिखाई पड़ती है जहां लोग यह समझ लेते हैं कि वोट देने वालों का फैसला कमजोर रहता है, और अधिक समझदार लोगों को सरकार चलाने का सीधा हक होना चाहिए।
दरअसल पिछले कुछ दशकों में धीरे-धीरे कर मजबूत हुई पंचायती राज व्यवस्था में सरकार में बैठे अफसरों और बाबुओं के लंबे समय से चले आ रहे एकाधिकार को तोड़ा है, सरकारी कामकाज और फैसले में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की हिस्सेदारी नियमित सरकारी अमले को बहुत बुरी तरह खटकती है और वे मानकर चलते हैं कि वे ही स्थायी राजा हैं, और निर्वाचित लोग तो पांच-पांच बरस के लिए आने-जाने वाले लोग हैं। ऐसी सोच कुछ जनप्रतिनिधियों को बर्खास्त करके बाकी को दबाव में रखने के रास्ते निकालने लगती है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक नीति वाक्य की तरह देश के बाकी राज्यों में भी पंचायती व्यवस्था को अलग-अलग स्तर पर देखने वाले बाबुओं और अफसरों के बीच फ्रेम कराकर टांगना चाहिए ताकि उन्हें पूरे वक्त यह पता रहे कि देश की सबसे बड़ी अदालत उनके बारे में क्या सोचती है, और उन्हें क्या-क्या नहीं करना है।
पाकिस्तान के बलूचिस्तान में एक मुसाफिर ट्रेन पर कब्जा करके फौजियों सहित आम मुसाफिरों को बंधक बनाने वाले विद्रोही संगठन बलोच लिबरेशन आर्मी ने कई लोगों को मार भी डाला है। ट्रेन के एक सुरंग से निकलते ही फिल्मी अंदाज में बीएलए के हथियारबंद लोगों ने ट्रेन पर कब्जा कर लिया, और जेलों से अपने लोगों की रिहाई की मांग करते हुए सरकार को अल्टीमेटम दिया है कि 48 घंटों में रिहाई न हुई तो फौजी बंधकों को मार डाला जाएगा। दूसरी तरफ सरकार भी लोगों को बचाने की कार्रवाई में कामयाबी का दावा कर रही है, और कह रही है कि 16 उग्रवादी मारे गए हैं, और सौ मुसाफिरों को छुड़वा लिया गया है। पाकिस्तानी फौज ने यह माना है कि इस ट्रेन से सौ फौजी भी सफर कर रहे थे। इस पूरे इलाके में न इंटरनेट है, न मोबाइल-नेटवर्क है, इसलिए वहां की पुख्ता जानकारी बाहर कम निकल पा रही है। फिर भी यह बात तो जाहिर है कि जिस बलूचिस्तान में स्थानीय हथियारबंद लोग वहां पर चीन और पाक सरकार के प्रोजेक्ट के खिलाफ हैं, वहां पर पाकिस्तान की राष्ट्रीय सरकार का काबू बड़ा कमजोर रह गया है। पाकिस्तान में बलूचिस्तान के अलावा खैबरपख्तूनख्वाह एक और ऐसा राज्य है जहां स्थानीय संगठनों का केन्द्र सरकार से टकराव चल रहा है। इसके अलावा भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद की जड़ बना हुआ पाक अधिकृत कश्मीर तो है ही जहां बेचैनी बढ़ती चल रही है। भारत के कश्मीर में केन्द्र सरकार के संवैधानिक फैसले के बाद जो शांति कायम हुई है, उससे भी पाकिस्तान की तरफ वाले कश्मीर के हिस्से के लोगों को उस देश की सरकार से निराशा बढ़ रही है। ऐसे माहौल में बलूचिस्तान में हथियारबंद उग्रवादियों का यह बड़ा हमला बताता है कि देश वहां की सरकार के हाथों से किस तरह फिसलते चल रहा है। इस ट्रेन और इसके मुसाफिरों को छुड़ाने के लिए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने वहां के सेना प्रमुख को जिम्मेदारी दी है, जाहिर है कि फौज से नीचे अब कोई एजेंसी किसी काम की नहीं दिख रही है।
पाकिस्तान की कुल जमा हालत अगर देखें तो कर्ज में डूबा हुआ वह एक ऐसा देश है जो कि पड़ोस के अफगानिस्तान के साथ एक हथियारबंद संघर्ष में लगा हुआ है, जो दशकों से भारत के साथ तरह-तरह के टकराव लेते आया है, और हर जंग में पाकिस्तान ने बड़ा नुकसान झेलकर शिकस्त पाई है। आज वह हर बात के लिए चीन पर मोहताज है, और चीन की दिलचस्पी उसमें जाहिर तौर पर दो वजहों से है, एक तो पड़ोसी देश भारत से चल रही तनातनी के बीच वह भारत को एक और फौजी मोर्चे पर उलझाकर रखने की ताकत चाहता है, जो कि उसे पाकिस्तान की शक्ल में हासिल है, और बाकी किनारों के लिए वह श्रीलंका से लेकर बांग्लादेश तक, और म्यांमार से लेकर भूटान-नेपाल तक अपने प्रभाव को फैलाने की हर कोशिश करता है। ऐसे में पाकिस्तान को बनाए रखने की चीनी मजबूरी को अगर हटा दिया जाए, तो पाकिस्तान आज एक पूरी तरह, और बुरी तरह असफल-लोकतंत्र हो चुका है, असफल अर्थव्यवस्था भी। जिस देश में लोकतंत्र को बार-बार निलंबित कर फौजी तानाशाही की परंपरा रही, जहां पर पार्टियां सत्ता पर आते ही बहुत भ्रष्ट हो गईं, और अधिकतर पार्टियां फौज के हाथों कठपुतली बनी रहीं, तो वहां लोकतंत्र की जड़ें लगातार कमजोर होती चली गई। दूसरी तरफ धार्मिक कट्टरपंथियों ने जिस अंदाज में देश में साम्प्रदायिकता फैलाई, और बहुसंख्यक धर्म का एकाधिकार लाद दिया, उससे भी पाकिस्तानी आवाम में वैज्ञानिक सोच खत्म हुई, और लोग लोकतंत्र को गैरजरूरी समझने लगे।
किसी संघीय ढांचे वाले देश को केन्द्र और राज्यों के बीच जिस तरह शक्ति संतुलन बनाकर रखना चाहिए, किसी प्रांत के बागी या नाकामयाब हो जाने पर वहां पर केन्द्र की ताकत से लोकतंत्र और सत्ता की निरंतरता बनाए रखने की ताकत रखनी चाहिए, वह सब पाकिस्तान में नहीं हो पाया। हमने अपने अखबार के यूट्यूब चैनल ‘इंडिया-आजकल’ के लिए कुछ महीने पहले पाक अधिकृत कश्मीर के एक राजनीतिक कार्यकर्ता का इंटरव्यू किया था कि पीओके सहित तमाम पाकिस्तान की जनता किस तरह निराश है, बदहाल है। पाकिस्तान अपनी घरेलू दिक्कतों में इस बुरी तरह उलझा हुआ है कि उसने हिन्दुस्तान से छेडख़ानी अगर पूरी तरह बंद भी नहीं की है, तो भी उसे रोक रखा है। इसके साथ-साथ यह भी समझना जरूरी है कि पाकिस्तान में निर्वाचित लोकतांत्रिक सरकार के रहते हुए भी फौज का दबदबा इतना अधिक रहता है कि कभी-कभी भारत के खिलाफ किसी छोटे-मोटे हमले, या किसी आतंकी कार्रवाई का फैसला वहां की सरकार के नेताओं से परे फौजी अफसर खुद भी ले लेते हैं। फौज के मुंह फौजी हुकूमत का खून लगा हुआ है, और पाकिस्तानी फौज देश में बहुत सारे गैरफौजी सामानों के उद्योग भी चलाती है, जिसके चलते बड़े अफसरों के बीच भ्रष्टाचार राजनेताओं की टक्कर का रहता है। इन सब बातों को देखते हुए कई बार फौज की दिलचस्पी भी इसमें रहती है कि वहां की सरकार ऐसी मुसीबतों में उलझी रहे जहां उसे फौजी अफसर ही मुक्तिदाता लगें।
पाकिस्तान एक अजीब सा देश हो गया है जो कि रोज की जिंदगी को चलाने के लिए अंतरराष्ट्रीय साहूकार संस्थाओं का मोहताज है, और ऐसी संस्थाएं जिन बड़े देशों की मर्जी से चलती हैं, पाकिस्तान को उन देशों का ख्याल भी रखना पड़ता है। इसके साथ-साथ वह चीन के हाथों पूरी तरह गिरवी रख दिए गए देश जैसा हो गया है, और चीन से परे उसका कुछ सोचना नामुमकिन सा है। अपने सबसे बड़े और सबसे लोकतांत्रिक पड़ोसी देश भारत के साथ पाकिस्तान ने निहायत गैरजरूरी टकराव का एक लंबा इतिहास कायम किया है, और अपना न सिर्फ फौजी खर्च बढ़ाया है, बल्कि कारोबारी फायदे की संभावनाएं भी खो दी हैं। यह सब कुछ उसने अपने देश की आर्थिक परेशानियां खड़ी करने की कीमत पर किया है। एक तरफ पूरा देश खोखला होते चले गया, लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर होती चली गईं, और कुछ राज्य केन्द्र सरकार के काबू से बाहर सरीखे हो गए। बलूचिस्तान का यह ताजा हमला बताता है कि पूरे देश की हिफाजत कर पाना पाकिस्तानी सरकार के बस में नहीं रह गया है। इतना बदहाल और नाकामयाब हो चुका लोकतंत्र भारत के लिए भी एक समस्या की बात है, उसके लिए किसी संभावना की बात नहीं है। भारत के लिए यह बात हमेशा एक सिरदर्द बनी रहेगी कि फौजी तानाशाही, और धार्मिक आतंकियों के असर वाला यह देश परमाणु हथियार से लैस भी है, और इन दोनों तबकों में से कौन सा तबका कब कौन सा आत्मघाती फैसला ले ले, उसका कोई ठिकाना तो है नहीं। पड़ोस के घर में लगी हुई आग से दूसरे भी महफूज नहीं रह जाते।
अपने अस्तित्व में आने के बाद से छत्तीसगढ़ लगातार चावल और धान की अर्थव्यवस्था से लदा हुआ रहा है। कहने के लिए इसे प्रदेश के बाहर धान का कटोरा कहा जाता है, और खुद छत्तीसगढ़ इस बात में बड़ा फख्र हासिल करता है कि वो देश का धान का कटोरा है जहां से बाकी देश की भूख मिटती है, लेकिन जब छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था को देखें तो ऐसे दावे पर दोबारा सोचना पड़ता है कि क्या यह सचमुच सच है? एक वक्त था जब देश के दूसरे कुछ हिस्से की तरह पड़ोस के ओडिशा के कालाहांडी की तरह छत्तीसगढ़ भी भूख का शिकार रहता था, और यहां पर भूख से मौतें कभी-कभी सुनाई पड़ती थीं। लेकिन राज्य बनने के बाद इस राज्य के आय के स्त्रोत यहीं के लोगों के काम आने लगे, और भूखमरी खत्म होने लगी। भूख से मौतें तो बंद हुई ही, कुपोषण भी कम होने लगा। राज्य के दूसरे मुख्यमंत्री, भाजपा के डॉ. रमन सिंह ने कुछ जानकार सलाहकारों की बनाई हुई योजना पर अमल करते हुए प्रदेश में पीडीएस का जो ढांचा खड़ा किया, उसे सर्वोच्च न्यायालय से लेकर मनमोहन सिंह की सरकार तक चारों तरफ वाहवाही मिली, और राज्य में रमन सिंह को अगले दो चुनावों में चाउर वाले बाबा के नाम से ऐतिहासिक जीत भी मिली। छत्तीसगढ़ का पीडीएस बाकी राज्यों के सामने एक मिसाल भी बना, और चुनौती भी। लेकिन कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने किसानों से धान खरीदी के लिए जो अभूतपूर्व ऊंचा रेट तय किया, उसने उन्हें चुनावी घोषणा पत्र के स्तर पर वाहवाही दिला दी थी, और हाल के विधानसभा चुनाव में भूपेश का धान का रेट विपक्षी भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती था, और भाजपा को मानो मजबूरी में ही 3100 रुपए प्रति क्विंटल के रेट पर धान खरीदी का वायदा करना पड़ा, और प्रति एकड़ 21 क्विंटल धान खरीदने का भी। नतीजा यह निकला कि छत्तीसगढ़ी किसान का एक-एक दाना शानदार रेट पर बिक रहा है, और अड़ोस-पड़ोस के राज्यों के लोग भी तस्करी करके अपना धान छत्तीसगढ़ लाकर बेच रहे हैं। लेकिन चुनाव में जीत दिलाने वाला धान क्या सचमुच ही राज्य में धन बन पाया है, या कि यह सिर्फ कर्ज बनकर लोगों के सिर पर बोझ बन रहा है?
आज इन आंकड़ों पर बात करना जरुरी इसलिए है कि केंद्र और राज्य सरकार के बीच चावल लेने को लेकर तनातनी ठीक उसी तरह जारी है जिस तरह पिछली भूपेश सरकार के वक्त दिल्ली की मोदी सरकार के कडक़ रुख से चल रही थी। उस वक्त जब भूपेश ने धान के राष्ट्रीय समर्थन मूल्य से अधिक दाम देने की घोषणा की थी तो केंद्र सरकार ने कहा था कि एमएसपी से अधिक पर लिए गए धान का चावल केंद्र सरकार छत्तीसगढ़ से नहीं लेगी। नतीजा यह निकला था कि भूपेश सरकार को अलग-अलग कुछ नामों से, शायद राजीव न्याय योजना के नाम से किसानों को चार किश्तों में बोनस देना पड़ा था। इस बार छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार को केंद्र सरकार से ऐसा अड़ंगा तो नहीं झेलना पड़ा लेकिन करीब डेढ़ लाख टन धान खरीदी हो जाने के बाद अब राज्य को यह सदमा लग रहा है कि केंद्र सरकार 70 लाख टन से अधिक चावल राज्य से नहीं लेगी। अब छत्तीसगढ़ सरकार के सामने 35 लाख टन धान को ठिकाने लगाने की एक बड़ी चुनौती है जो कि महंगी खरीदी के धान को सस्ते में बेचने का एक बड़े घाटे का सौदा भी हो सकता है। छत्तीसगढ़ सरकार अभी जनकल्याण और व्यक्तिगत फायदा पहुंचाने वाली दूसरी योजनाओं के बोझ से कमर सीधी कर भी नहीं पाई है कि खुले आसमान तले धान के पहाड़ का यह बोझ उसके सीने पर और खड़ा हो गया है। आज जब हम यह संपादकीय लिख रहे हैं उस वक्त छत्तीसगढ़ विधानसभा में प्रश्नकाल में विपक्ष सरकार को इस बात के लिए घेर रहा है कि पिछले बरस राइस मिलर्स ने सरकारी धान की मिलिंग में जो घपला किया है, और सैकड़ों मिलर्स ने सरकारी धान लेकर न तो सरकार को चावल जमा किया, और न ही उनके मिलों की जांच में धान या चावल बरामद हुआ, ऐसा करीब पांच लाख टन चावल सरकार को मिलर्स से लेना है, और चूंकि केंद्र सरकार राज्य से चावल वैसे भी इस बरस की धान खरीदी के मुकाबले बहुत कम ले रहा है, इसलिए पिछले बरस का यह बकाया भी सरकार की छाती बर बोझ बनकर बैठे रहेगा। जानकार लोगों का कहना है कि जिन सैकड़ों राइस मिलर्स ने सरकार की अमानत पे खयानत की है जो कि सीधे-सीधे जुर्म है, और जिससे नुकसान न पाने के लिए सरकार बैंक गारंटी ले चुकी है, उस बैंक गारंटी को भुनाने के बजाए, मिलर्स के खिलाफ एफआईआर करने के बजाए सरकार जाने किस वजह से उनसे पुराना चावल ले रही है जो कि केंद्र सरकार को दिया भी नहीं जा सकेगा। पाठकों को याद होगा कि धान खरीदी, और उसकी मिलिंग का काम छत्तीसगढ़ में इतने भ्रष्टाचार से भरा हुआ रहा है कि अभी भी कुछ एक अखिल भारतीय सेवा के अफसर उसकी वजह से जेल में पड़े हैं, और अगर सरकार और जांच एजेंसियां ईमानदारी से कार्रवाई करें तो कई और नेता और अफसर जेल में रहेंगे।
अब हम मुद्दे की इस बात पर आना चाहते हैं कि जब केंद्र सरकार राज्य से सीमित मात्रा में ही चावल ले रही है, तब सरकार किसानों से असीमित मात्रा में असाधारण और असंभव किस्म के रेट पर धान खरीद रही है, तो इससे कुल नुकसान जितना बड़ा होगा, उसका हिसाब किसी एक विभाग के खाता-बही में नहीं मिल सकता। इसके लिए सरकार को कई विभागों और एजेंसियों के आंकड़ों को जोडक़र राज्य के लोगों के सामने एक श्वेत पत्र पेश करना चाहिए कि धान की यह खरीदी आखिर प्रदेश को किस रेट पर पड़ रही है। यह अर्थशास्त्र राशन के चावल की लागत से अलग है जो कि राज्य सरकार अपने लोगों को मिट्टी के मोल देती है। आज हालत यह है कि छत्तीसगढ़ में राइस मिलर्स राशन दुकानों के रास्ते से ही चावल की ऐसी ट्रकें खरीदकर उन्हें वापिस सरकार में जमा कर देते हैं, कई जगहों पर तो सिर्फ दो जगहों से ट्रकों के कागज ले लिए जाते हैं, गरीबों का राशन घूम-घूमकर सरकार में मिलर्स के मार्फत जमा हो जाता है, और ऐसे हर फेरे की अंधाधुंध बड़ी लागत सरकार चुकाती है। छत्तीसगढ़ में पिछली सरकार के समय का नान घोटाला अबतक हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के सैंकड़ों घंटे खराब कर चुका है और राज्य के हजारों करोड़ रुपए भी। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि पैसे वालों के सामान में भ्रष्टाचार की सजा तो नहीं मिली, लेकिन जो सबसे गरीब लोगों का भोजन है, उस चावल का घपला भूपेश सरकार को ले डूबा। अब आज की सरकार को बारीकी से यह गौर करना चाहिए कि उस सरकार के समय से सरकार और कारोबार के अब तक कायम जिन लोगों के मुंह खून लगा हुआ था, क्या आज भी वे अपने होठों पर जीभ फिराते हुए उसी अंदाज में कमाई करने के फेर में हैं? सबसे गरीब के हक में लूट-डकैती करने वाले लोग किस तरह अपने अरबपति परिवार को छोडक़र, परिवार की तीन-तीन पीढिय़ों को छोडक़र देश के बाहर कहीं फरारी काट रहे हैं, इसकी दर्दनाक दास्तान अगर सुनना हो तो छत्तीसगढ़ के प्रदेश कांग्रेस कार्यालय जाकर कोषाध्यक्ष रहे एक चावल व्यापारी के बारे में पूछताछ करनी चाहिए। हमारे कम लिखे को सरकार अधिक समझे, वरना चुनाव में बीमार को पार समझे।
ऑस्ट्रेलिया में लंबे समय से बसे हुए एक भारतवंशी बालेश धनखड़ को साजिश के साथ पांच महिलाओं को नौकरी के नाम पर फंसाकर, नशीली दवा देकर बलात्कार करने के जुर्म में 40 बरस की कैद सुनाई गई है। अदालत ने इस जुर्म को इतना गंभीर माना है कि इन 40 बरसों में से पहले 30 बरस तो कोई पैरोल भी नहीं मिलेगी। अदालत ने लिखा है- बालेश धनखड़ ने पहले से योजना बनाकर, बेहद हिंसा और चालाकी भरे इरादे के साथ हर पीडि़त महिला के प्रति बेरहमी के साथ अपनी यौन इच्छा पूरी करने के लिए यह हमले सरीखा बर्ताव किया गया। अदालत ने कहा कि ये पांच युवा और कमजोर महिलाओं के खिलाफ लंबे वक्त में बारीकी से योजना बनाकर किया गया हमला है। अदालत में पेश सुबूतों में इस आदमी के कम्प्यूटर रिकॉर्ड भी शामिल हैं जिनमें वह नौकरी के फर्जी विज्ञापन देकर आवेदन करने वाली हर महिला को उसकी खूबसूरती, और स्मार्टनेस के लिए पैमानों पर रखता था, अपनी योजना में उस महिला का इस्तेमाल लिखता था, महिला की कमजोरियां लिखता था। ऑस्ट्रेलियाई पुलिस को इस मामले में बलात्कार की खुद की गई वीडियो रिकॉर्डिंग भी मिली है, और नशे से बेहोश करने की दवाएं भी मिली हैं। भारत की समाचार एजेंसी पीटीआई ने लिखा है कि 2018 में जब धनखड़ को गिरफ्तार किया गया, वे भाजपा से गहराई से जुड़े हुए थे, और ऑस्ट्रेलिया के भारतवंशी समुदाय में उन्हें अच्छी पहचान मिली हुई थी। इसके साथ वे हिन्दू कौंसिल ऑफ ऑस्ट्रेलिया के अधिकृत प्रवक्ता भी थे। कांग्रेस ने बीजेपी का दुपट्टा पहने हुए धनखड़ की तस्वीरें पोस्ट की हैं जिनमें वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित भाजपा के कई नेताओं के साथ एकदम करीबी व्यक्ति दिख रहे हैं।
किसी दूसरे देश में बसे हुए, और भारत के अलग-अलग तबकों के प्रवक्ता या प्रतिनिधि बने हुए आदमी का यह जुर्म देश के ऊपर भी आंच लाता है, और इन संगठनों पर तो आंच लाता ही है। यह बात जरूर है कि बलात्कार जैसे जुर्म में पहली बार फंसने के पहले तक किसी के बारे में यह अंदाज लगाना मुश्किल रहता है कि वे बलात्कारी हो सकते हंै। लेकिन जब कोई व्यक्ति सिलसिलेवार तरीके से साजिश के तहत ऐसा भयानक जुर्म करे, तो उससे जुड़े हुए लोगों को भी बदनामी तो झेलनी ही पड़ती है। इसके पहले भी पश्चिम के देशों में भारत के कुछ योग गुरूओं के इसी तरह के बलात्कार-प्रकरण सामने आए थे जिसमें उन्होंने कई-कई शिष्याओं से बलात्कार किया था। अब भारत के भीतर ही अपने आपको संत और बापू कहने वाले पाखंडी धार्मिक पुरूषों की कैद जारी ही है, और बलात्कार उनके लिए लंबे सिलसिले की एक कड़ी जैसा ही रहा है। ऑस्ट्रेलिया में इस कामयाब भारतवंशी के जुर्म देखकर यह समझ आता है कि कोई बेरोजगार हो, नशेड़ी हो, या पैसे या ओहदे की ताकत का बाहुबली हो, सबके भीतर बलात्कारी होने का खतरा एक बराबर रहता है। कुछ लोग नशे में बलात्कार करते हैं, और बालेश धनखड़ जैसे लोग सारी कामयाबी और शोहरत मिलने के बाद भी दुनिया के उस हिस्से में लंबी साजिश करके बेकसूर महिलाओं को फंसाकर बलात्कार करते हैं, जिस हिस्से में वे अपने पैसों से आसानी से सेक्स खरीद सकते थे।
किसी भी राजनीतिक दल या संगठन के लिए, किसी देश के नागरिकों के एक तबके के लिए यह बड़ी दुविधा की नौबत रहती है कि वे किसी को अपना प्रतिनिधि, प्रवक्ता, या नेता बनाने के पहले उसे कितना ठोकें-बजाएं? और जब ऐसे जुर्म का सुबूतों सहित भांडाफोड़ होता है, तो जुड़े हुए तमाम लोगों को इसका नुकसान झेलना ही पड़ता है। ऐसे मामलों में पार्टियों और संगठनों से यह उम्मीद तो की जाती है कि ऐसी पहली शिकायत सामने आते ही इन सबको ऐसे आरोपी से दूरी बना लेनी चाहिए, लेकिन संगठन दुनिया में कहीं भी हों, वे आमतौर पर अपने सबसे बुरे सदस्यों को बचाने में लग जाते हैं। भारत में हमने कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष और भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर इस देश की महिला पहलवान खिलाडिय़ों के लगाए गए यौन शोषण के आरोपों पर सरकार और भाजपा का यही रूख देखा था। और भी बहुत सी पार्टियां, बहुत सी सरकारें अपने सबसे बुरे लोगों को बचाने में लग जाती है। और तो और हिन्दुस्तान के इतिहास का एक सबसे कलंकित अध्याय है सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का उन्हीं पर लगे यौन शोषण के आरोपों की सुनवाई में खुद ही अदालती बेंच का मुखिया बनकर बैठना। पाठकों को याद होगा कि हमने जस्टिस रंजन गोगोई की इस हरकत के खिलाफ खुलकर लिखा था, और दो बरस बाद जाकर राज्यसभा सदस्य की हैसियत से रंजन गोगोई ने जब अपनी किताब लिखी, तो अपने इस फैसले को गलत माना था। वरना वे खुद पर लगी यौन शोषण की तोहमतों को सुप्रीम कोर्ट को अस्थिर करने की साजिश ठीक उसी तरह करार देते रहे जिस तरह इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाते हुए उस दौर को देश को अस्थिर सा करने की साजिश करार दिया था।
यह तो ऑस्ट्रेलिया की न्याय व्यवस्था राजनीतिक दबावों और खरीद-बिक्री से परे है, इसलिए इस आदमी धनखड़ को इतनी लंबी सजा हो पाई। वरना इसके पहले भी कई देशों में प्रमुख भारतवंशी यौन शोषण के मामलों में फंसते आए हैं। अमरीका में विक्रम योग नाम से अपनी एक योग पद्धति फैलाने वाले विक्रम चौधरी पर यौन हमलों और यौन शोषण के कितने ही मामले दर्ज हुए, जिनमें शिष्याओं को ढूंढने और फांसने में इस योग गुरू के करीबी लोग उसकी मदद करते थे, और इसे अदालत से कई मिलियन डॉलर जुर्माना सुनाया गया था। किसी भी भारतवंशी की ऐसी हरकतें देश को बदनाम करती हैं, और देश के भीतर के, और बाहर बसे हुए भारतवंशियों को ऐसे लोगों से सावधान भी रहना चाहिए, और इन्हें बढ़ावा नहीं देना चाहिए। धर्म, आध्यात्म, या योग के गुरूओं के साथ दिक्कत यह भी रहती है कि उनके भक्त और अनुयायी उन पर अंधविश्वास करते हैं, और उन्हें यह सब करने का एक मौका देते हैं। लेकिन बालेश धनखड़ जैसे लोग तो भक्त पाने के किसी सहूलियत से लैस भी नहीं थे, और उनसे बचने-बचाने की कोई गुंजाइश भी नहीं थी, इसलिए उनसे बदनामी मिलनी ही मिलनी थी।
महाराष्ट्र की शरद पवार वाली एनसीपी के नेता एकनाथ खड़से की बेटी, और पार्टी की महिला विंग की अध्यक्ष रोहिणी खड़से ने राष्ट्रपति को एक चिट्ठी लिखकर मांग की है कि महिलाओं को एक हत्या करने की छूट दी जाए। उन्होंने भारत पर एक सर्वे रिपोर्ट का यह निष्कर्ष लिखा है कि महिलाओं के लिए यह देश सबसे असुरक्षित है, उनके खिलाफ रेप, अपहरण, और घरेलू हिंसा जैसे जुर्म लगातार होते हैं। रोहिणी की इस चिट्ठी पर महाराष्ट्र के एक मंत्री, गुलाब राव पाटिल ने पूछा है कि रोहिणी खड़से को यह बताना चाहिए कि वे किसकी हत्या करेंगी? अब एक महत्वपूर्ण पार्टी के नेता की बेटी, और अपने आपमें पार्टी की महिला शाखा की प्रदेश अध्यक्ष अगर यह मांग करती है, तो इससे महाराष्ट्र प्रदेश, और बाकी देश में महिलाओं की स्थिति को लेकर महिलाओं के बीच की सोच झलकती हो या न झलकती हो, कम से कम यह तो झलकता ही है कि राजनीति की एक सक्रिय और महत्वपूर्ण महिला पदाधिकारी हत्या करने का हक मांग रही है, फिर चाहे यह हक बलात्कारी के खिलाफ ही क्यों न हो?
हम इसे सिर्फ भावनाओं का विस्फोट नहीं कहते, क्योंकि कुछ राज्यों ने तो कुछ किस्म के बलात्कारियों को मौत की सजा देने का प्रावधान किया ही है, लेकिन यह सजा अदालत से मिलती है, और इस पर अमल जेल में सरकारी जल्लाद करते हैं, या हक आम लोगों को हिसाब चुकता करने के लिए नहीं मिलता। ऐसे में हत्या का हक मांगना एक बड़ी अटपटी और अलोकतांत्रिक बात है। इससे कुछ कम दर्जे की बात मध्यप्रदेश में भाजपा के मुख्यमंत्री डॉ.मोहन यादव ने दो-चार दिन के भीतर ही की है, और उन्होंने कहा है कि धर्मांतरण करने वालों के लिए मध्यप्रदेश में मौत की सजा का कानून बनाया जाएगा। अब धर्मांतरण के खिलाफ तो कई प्रदेशों में अलग-अलग कानून है, और पूरे देश में भी एक कानून है, लेकिन इसे मौत की सजा के लायक करार देने के पहले यह भी समझने की जरूरत है कि भारत में पुलिस और न्याय व्यवस्था में कितने किस्म की खामियां हैं, और किस तरह से लोग दस-बीस बरस बाद भी मिले नए सुबूतों से, या कि डीएनए जांच की वजह से छूट पाते हैं। और अगर ऐसे में धर्मांतरण के कथित मामलों में अगर पुलिस अपने आज के आम रूख के मुताबिक एक फर्जी केस बना लेगी, तो किसी बेगुनाह को भी फांसी की सजा दिलवा देना मुमकिन हो सकता है। पहली नजर में तो हमारा यह ख्याल है कि एमपी के सीएम की यह सोच देश की सबसे बड़ी अदालत में खड़ी नहीं हो पाएगी, और धर्मांतरण के मामले को मौत की सजा के लायक नहीं ठहराया जा सकेगा, फिर चाहे ऐसा कोई कानून मध्यप्रदेश की विधानसभा में क्यों न बना दिया जाए। ऐसा कानून एक दहशत पैदा करने के लिए, या राजनीतिक प्रचार के लिए तो शायद काम आ सकता है, लेकिन यह किसी को ऐसी सजा शायद ही दिलवा सके।
महाराष्ट्र में अभी एक बारह बरस की बच्ची से बलात्कार हुआ, और शायद उसी की वजह से वहां की एक महिला नेता ने बलात्कारी को मारने का हक मांगा है, लेकिन पूरा देश जिस तरह से मासूम बच्चियों पर, और कमजोर समाज की महिलाओं पर बलात्कार देख रहा है, वह अपने आपमें भयानक है, लेकिन फिर भी लोकतंत्र में इसे कत्ल करने लायक नहीं कहा जा सकता। दरअसल लोकतंत्र में किसी को भी कत्ल का हक नहीं मिल सकता, फिर चाहे वे बलात्कार की शिकार लडक़ी के परिवार के लोग ही क्यों न हों, या कि कत्ल के शिकार हुए किसी व्यक्ति के घर के लोग क्यों न हों। लोकतंत्र कभी भी आनन-फानन इंसाफ देने वाली व्यवस्था नहीं रही है, और लोगों को इससे फौजी या तानाशाही हुकूमत की तरह की तुरत-इंसाफ की उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए। लोकतंत्र एक बहुत महंगी, धीमी, और लचीली व्यवस्था रहती है जिसमें लोकतंत्र को कुचलने वाली ताकतों के लिए भी बने रहने की गुंजाइश रहती है। अलोकतांत्रिक ताकतों को भी लोकतंत्र में रहने की छूट उसी तरह रहती है जिस तरह कुछ धर्मों के भीतर नास्तिकों को भी रहने की छूट रहती है। इसलिए जुर्म के शिकार लोगों को कत्ल का अधिकार देने की सोच तालिबानी है। दुनिया के कुछ देशों में ऐेसे परिवारों को मुजरिम से मोटी रकम, ब्लड मनी लेकर उन्हें माफ कर देने की छूट रहती है, लेकिन लोकतंत्रों में ऐसा नहीं होता है।
लोकतंत्र के साथ एक दिक्कत यह रहती है कि वह सौ गुनहगारों के छूट जाने की कीमत पर भी एक बेगुनाह को सजा देने के खतरे से बचता है। न्याय व्यवस्था पूरी तरह से शक से परे साबित होने की शर्त पर चलती है। इसलिए हिन्दुस्तान में बहुत से लोगों को यहां की न्याय व्यवस्था बेइंसाफ लगती है, कुछ को लगता है कि राजनीतिक ताकतों के सामने अदालतें बेअसर रहती हैं, कुछ को लगता है कि अपार पैसा रहे तो देश के सबसे महंगे वकील पुलिस के सुबूत खरीद पाते हैं, गवाह तोड़ पाते हैं, सरकारी वकील को भी मैनेज कर पाते हैं, और उनका बस चले तो जज को भी खरीद लेते हैं। जब आम लोगों के बीच सोच इतनी निराशाजनक रहती है, तो उनको यह बात अच्छी लग सकती है कि बलात्कारी को चौराहे पर फांसी दी जाए, गुंडों की आंखें फोड़ दी जाएं, और अदालत का दस-बीस बरस तक इंतजार न किया जाए।
भारत जैसे लोकतंत्र में न्याय व्यवस्था की साख और उसका रूतबा दुबारा कायम करने की जरूरत है। आज तो अदालतों में जिस तरह आखिरी फैसले के इंतजार में एक पूरी पीढ़ी निकल जाती है, बेकसूर फैसले की राह तकते जेल में ही मर जाते हैं, या मुजरिम निचली अदालत से मिली सजा के बाद ऊपरी अदालतों में अपील के चलते जमानत पर ही छूटे हुए मर जाते हैं, उससे न्याय व्यवस्था के बेअसर होने की बात पुख्ता होती जाती है। और ऐसे में नेताओं और सरकारी अफसरों के भ्रष्टाचार, लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ हिंसक जुर्म के मामले इतने अधिक आ रहे हैं कि लोगों को सिर्फ जुर्म होते दिखते हैं, इंसाफ होते नहीं दिखता। यह नौबत बदली जानी चाहिए। जब लोगों का अदालतों पर भरोसा नहीं रहेगा, तो सरकारों पर भी भरोसा नहीं रहेगा, और संसद या विधानसभा पर से भी भरोसा उठ जाएगा। लोकतंत्र सौ फीसदी नियम-कानून से बांधकर चलाई जाने वाली व्यवस्था नहीं है। इसका बहुत सा हिस्सा अच्छी परंपराओं, और लोकतांत्रिक मूल्यों से भी चलता है, लोगों के खुद होकर कानून मानने से भी चलता है, लेकिन जब तक लोगों के मन में लोकतंत्र के प्रति आस्था नहीं होगी, तब तक वे अपने देश-प्रदेश के कानून को मानेंगे भी नहीं। भारतीय लोकतंत्र टुकड़े-टुकड़े में बहुत बुरी तरह खोखला हो गया है, और इस नौबत को सुधारने की बहुत जरूरत है।
जापान की एक रिपोर्ट है कि वहां 1916 में पैदा हुई एक महिला आज दुनिया की सबसे उम्रदराज कामकाजी नाई है। गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉड्र्स ने ठोक-बजाकर, सारे सुबूत देखकर उन्हें यह सर्टिफिकेट दिया है। शितसुई हाकोइशी नाम की यह महिला यह सर्टिफिकेट पाने के समारोह में अपनी 85 साल की बेटी, और 81 साल के बेटे के साथ पहुंची थी, और खुद चलती-फिरती, काम करने की हालत में थी। शितसुई का कहना है कि वे अभी दो बरस और काम करेंगी, उन्होंने कहा कि 110 बरस की उम्र तक कड़ी मेहनत से काम करना है। उनकी कहानी बड़ी दिलचस्प इसलिए है कि 14 बरस की उम्र में उन्होंने बाल काटना सीखना शुरू किया, 20 बरस की उम्र में पेशेवर नाई का सर्टिफिकेट मिल गया, और शादी हो गई। 1937 में जापान-चीन युद्ध में उनके पति की मौत हो गई, दूसरे विश्व युद्ध में टोक्यो पर अमरीकी बमबारी से उनका घर राख में तब्दील हो गया, लेकिन अपने बच्चों को लेकर जिंदा रहने के संघर्ष में वो काम करती चली गईं, और अभी 108 बरस की उम्र में बहुत अच्छी तरह अपना सलून चलाती हैं।
आज विश्व महिला दिवस है, और इस मौके पर एक महिला के संघर्ष की, उसकी कामयाबी की यह कहानी देखने लायक है। आज अधिकतर लोग सरकारी रिटायरमेंट की उम्र 58-60 साल आते-आते काम में दिलचस्पी खो बैठते हैं, उन्हें लगता है कि अब ईश्वर की साधना में, या नाती-पोतों के साथ बाकी की जिंदगी गुजार देना है। इस उम्र के बाद जो अधिक सक्रिय रहते हैं, वे भी अपने हमउम्र लोगों के साथ सुबह की सैर पर अगल-बगल के मैदान-बगीचे तक जाकर एक जगह डेरा डाल देते हैं, और आपस में इस चर्चा में जुट जाते हैं कि सुबह पेट कैसा साफ हुआ। इनमें से बहुतों के पास अपनी जिंदगी के कुछ संस्मरण सुनाने की हसरत रहती है, और आगे की जिंदगी मानो यादों के सफर में ही कटने के लिए बची रहती है। कुछ अधिक जिद्दी लोग योग, कसरत, या सुबह-शाम की सैर में लगते हैं, लेकिन कामकाजी जिंदगी को मानो गैरसरकारी काम किए हुए लोग भी रिटायरमेंट की उम्र तक छोड़ देने के चक्कर में रहते हैं, बल्कि बहुत से लोग तो इस उम्र के पहले भी वालंटरी रिटायरमेंट ले लेते हैं। ऐसे में 108 बरस की उम्र में दो बरस और काम करने का इरादा लोगों को दूसरी दुनिया का लग सकता है।
लेकिन एक बात पूरी दुनिया में एक सरीखी है कि महिलाएं पुरूषों के मुकाबले अधिक लंबी जिंदगी जीती हैं, और वे अधिक मेहनत भी करती हैं। शायद अधिक मेहनत करना, और कम खाना, और गम खाना भी वे वजहें रहती हैं जिनकी वजह से महिला अधिक उम्र तक न सिर्फ जीती है, बल्कि अधिक सेहतमंद भी रहती है। भारत जैसे देश में धार्मिक या आध्यात्मिक रुझान वाले अधिकतर लोग ऐसे दिखते हैं जो कि सरकारी रिटायरमेंट उम्र के बाद बाकी जिंदगी अपने-अपने धर्मों के, और पसंद के प्रवचनों में गुजार देना चाहते हैं। यही वजह है कि ऐसे एक-एक कार्यक्रम में लाखों लोग जुट जाते हैं। नतीजा यह होता है कि आमतौर पर जिंदगी से पलायन सिखाने वाले प्रवचनों को सुन-सुनकर लोग अपने आपको बुरा, पापी, अज्ञानी मानते रहते हैं, क्योंकि अगर वे अपने को ऐसा नहीं मानेंगे, तो फिर उन्हें प्रार्थना की जरूरत क्यों रह जाएगी? इसलिए बहुत से धर्मों में जिंदगी की जरूरी बातों को काम-वासना, पाप, लालच जैसे तमगे दे दिए जाते हैं, और लोगों को इनसे जूझते हुए, अपराधबोध और पाप की धारणा से मुक्ति पाने की कोशिश करते हुए बाकी जिंदगी भक्ति में गुजारना जरूरी लगता है। यह जिंदगी के असल संघर्ष से दूर धकेलने वाली एक धार्मिक-आध्यात्मिक साजिश रहती है जो कि लोगों के दिमाग में यह बात बैठा देती है कि वक्त से पहले, और किस्मत से अधिक कुछ नहीं मिलता। यह बात भी बैठा दी जाती है कि ऊपरवाला सब देख रहा है, और उसकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। नतीजा यह होता है कि ऐसी धार्मिक-आध्यात्मिक नसीहतों के बीच लोगों की काम करने की हसरत और मेहनत खत्म ही होने लगती है।
जापान की इस महिला की मिसाल देखने लायक है, और दुनिया भर में अलग-अलग बिखरी हुई ऐसी दूसरी मिसालें भी हैं। दुनिया के कुछ सबसे बड़े पूंजीनिवेशकों की मिसालें हैं कि उन्होंने अपनी अधिकतर दौलत 60 बरस की उम्र के बाद कमाई है। एक किसी दूसरी जगह आज ही किसी ने लिखा है कि 60 बरस की उम्र के बाद सबसे बड़ी कमाई अपनी सेहत को ठीक रखना है, और अच्छी सेहत से बड़ी बचत और कुछ नहीं हो सकती। जापान सबसे अधिक उम्रदराज लोगों का देश है, और आबादी के अनुपात में शतक पूरा करने वाले लोग शायद जापान में ही सबसे अधिक हैं। दुनिया भर में जिन लोगों को लगता है कि उनकी काम की उम्र निकल गई है, उन्हें अपने आपको किसी न किसी उत्पादक, रचनात्मक, और सकारात्मक काम में इसलिए व्यस्त रखना चाहिए कि इन दिनों बुढ़ापे में बढ़ चली कई तरह की कमजोर याददाश्त वाली बीमारियां दिमागी सक्रियता कम होने से भी उपजती हैं। इसलिए अपने आपको व्यस्त रखना लोगों को अपने परिवार और समाज में, आसपास के लोगों में अलग सम्मान तो दिलाता ही है, आत्मनिर्भर भी बनाए रखता है, और समाज में उनका योगदान भी याद रखा जाता है। इसलिए 60-65 की उम्र में जिन लोगों को परिवार की कई तरह की जिम्मेदारियां छोडक़र धर्म-आध्यात्म में जुट जाने का दिल करता है, उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि क्या वे रिटायर होने की उम्र पर कोई ऐसा नया काम भी शुरू कर सकते हैं जो उन्हें अगले कुछ दशकों तक, बाकी जिंदगी तक व्यस्त रखे? इस तरह के व्यस्त बुजुर्ग ही किसी परिवार को गैरजरूरी तनाव, परेशानी, और बोझ से बचा सकते हैं। एक बार जिन्होंने अपने आपको रिटायर मान लिया, वे आसपास के दायरे पर बोझ भी बनने लगते हैं, वरना 108 बरस की उम्र में अपना सलून चला रही जापानी नाई को देखें, जो दो बरस और काम करना चाहती है।
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मायावती के बारे में पिछले कुछ बरसों में जो सबसे महत्वपूर्ण खबरें आई हैं, उनमें से एक तो यह है कि वे पिछले कई चुनाव बीजेपी के दबाव में उसकी बी टीम की तरह लड़ रही है, न प्रचार करने जाती हैं, न किसी से गठबंधन करती हैं, और भाजपा के हाथ मजबूत करती हैं। उनके खिलाफ केन्द्रीय जांच एजेंसियों के इतने मामले चल रहे हैं कि उनकी ऐसी किसी बेबसी को समझा जा सकता है। उनके बारे में दूसरी खबरें यही आती है कि किस तरह उन्होंने अपनी पार्टी, बसपा, को विरासत में अपने भतीजे आकाश आनंद को दे दिया था, फिर उसे विरासत से अलग कर दिया, और फिर वारिस बना दिया, और फिर हटा दिया। अभी इसी हफ्ते उन्होंने सोशल मीडिया पोस्ट करके यह जानकारी दी कि उन्होंने भतीजे को बसपा से निष्कासित कर दिया है। इसके एक दिन पहले उन्होंने उसे पार्टी के सभी महत्वपूर्ण ओहदों से हटाया था। इसके साथ-साथ उन्होंने कहा है कि आकाश आनंद के ससुर को भी पार्टी के हित में निष्कासित कर दिया गया है। 2019 से 2025 तक भतीजे का कई बार ऐसा भीतर-बाहर, ऊपर-नीचे, आना-जाना हुआ है। उत्तर भारत सहित देश के बहुत से राजनीतिक दलों में कुनबापरस्ती बड़ी आम बात है, और मायावती उन्हीं में से एक मिसाल हैं।
भारतीय राजनीति में कुनबापरस्ती की सबसे बड़ी तोहमत कांग्रेस पार्टी पर लगती है, और इसकी शुरूआत नेहरू से की जाती है जिन्होंने अपने दामाद फिरोज गांधी को कांग्रेस के अखबार नेशनल हेरल्ड का मुखिया बनाया। हालांकि इसके पहले से वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय थे, और जेल काट चुके थे, लेकिन इंदिरा से शादी के बाद वे कांग्रेस के सांसद बने, और अपनी मृत्यु तक बने रहे। इसके अलावा भारत के पब्लिक सेक्टर के नेहरू काल के कई मामलों में उनका बड़ा दखल रहा। उनके बाद इंदिरा गांधी, उनके बेटों, बहुओं, और पोते-पोती का राजनीतिक-चुनावी इतिहास सबके सामने है। देश में कुनबापरस्ती की जब भी बात होती है कांग्रेस की मिसाल सबके काम आती है, और कांग्रेस से बाहर निकलकर भी इंदिरा की छोटी बहू मेनका, और उनके बेटे दोनों संसद में पहुंचे, और मेनका केन्द्रीय मंत्री भी रहीं। जिस उत्तर भारत में मायावती की मुख्य राजनीति चलती थी, वहां पर मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी के नाम पर अपने परिवार की पार्टी चलाई, और लंबे समय तक सत्ता में भागीदार रहे। बगल के बिहार में लालू यादव ने जिस तरह अपने जेल जाने पर अपनी घरेलू पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया था, और बेटा-बेटी सभी को सांसद-विधायक बनाया, वह मिसाल भी गैरभाजपाई दलों पर हमला करते वक्त काम आती है। आज मायावती की खबरों के बीच ही यह पढऩा भी बड़ा अजीब लगता है कि किस तरह भतीजे का ससुर पार्टी पर हावी था, और मायावती सार्वजनिक रूप से यह तोहमत लगा रही हैं कि ससुर के असर में भतीजे ने सब कुछ बर्बाद किया। मतलब तो साफ है कि भतीजा तो भतीजा, भतीजे का ससुर भी पार्टी के नेताओं का बाप बना बैठा था। ऐसी कुनबापरस्ती को लोकतंत्र के हित में विसर्जित ही कर दिया जाना चाहिए था, और अब भी बहुत देर नहीं हुई है।
दूसरी तरफ मैक्सिको से खबर आ रही है कि वहां की सरकार एक कानून लेकर आ रही है जिससे राजनीति में परिवारवाद खत्म किया जाएगा। यह कानून केन्द्र, राज्य, और स्थानीय स्तर पर एक ही परिवार के लोगों को राजनीति में आने से रोकने के लिए लाया जा रहा है, और यह 2030 तक लागू कर दिया जाएगा। इस कानून के तहत नेताओं के तुरंत दुबारा चुनाव लडऩे पर भी पाबंदी लगेगी। फिर भी वहां के लोगों का मानना है कि इसे 2030 तक लागू न करने के पीछे नेताओं की नीयत यह है कि वे तब तक अपने कुनबे के लोगों को अलग-अलग जगहों पर फिट कर चुके होंगे। लोगों को याद होगा कि हम पहले कई बार अमरीका की इस व्यवस्था की तारीफ कर चुके हैं कि वहां चार-चार बरस के दो कार्यकाल पूरे करने के बाद कोई राष्ट्रपति और कोई भी सरकारी काम नहीं संभाल सकते।
राजनीतिक दलों से लेकर सरकारों तक अगर नई पीढ़ी को आगे बढऩे देना है, तो वंशवाद को खत्म करना होगा, और लोगों के कार्यकाल भी सीमित करने होंगे। भारत सरीखे 140 करोड़ से अधिक आबादी के इस देश में संसद या विधानसभा के, और मंत्री पद के दो कार्यकाल पूरे करने में दस बरस निकल जाते हैं। इसके बाद उनकी जगह नए लोगों को मौका दिया जा सकता है। इसी तरह राजनीतिक दलों के संगठन के ढांचे में एक ही कुनबे के लोगों को काबिज बने रहने देने से पार्टी के भीतर लोकतंत्र खत्म होता है, और नए खून की कल्पनाशीलता का कोई फायदा मिल भी नहीं पाता। आज जब हम यह लिख रहे हैं, उस वक्त कांग्रेस के एक नेता रहे हुए, और एक वक्त राजीव गांधी के करीबी रहे मणिशंकर अय्यर की कही एक बात गूंज रही है कि राजीव गांधी प्रधानमंत्री बनने लायक नहीं थे क्योंकि वे कॉलेज में दो-दो बार फेल हो चुके थे। किसी के कॉलेज में फेल होने से उसके प्रधानमंत्री बनने की क्षमता कम नहीं होती है, लेकिन लोगों को याद रखना चाहिए कि राजीव गांधी इंदिरा की हत्या की अभूतपूर्व और असाधारण हिंसा के बीच जलते हुए देश को संभालने वाले प्रधानमंत्री बने थे, न कि अपनी क्षमता या चाहत के आधार पर। इसलिए मणिशंकर अय्यर की 40 बरस पहले की उस घटना का जिक्र करते हुए 50 बरस पहले के कॉलेज की याद ताजा करना एक घटिया बात है। फिर भी लोकतंत्र में घटिया बातों को भी करने की आजादी रहनी चाहिए। घटिया बातें खराब कही जा सकती हैं, लेकिन वे जुर्म तो नहीं रहतीं।
मायावती से परे आज ही की एक दूसरी खबर भी है कि किस तरह तृणमूल कांग्रेस की एक बड़ी बैठक में आज ममता बैनर्जी के भतीजे, और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बैनर्जी बैठक में नहीं पहुंचे। इस पार्टी में भी बुआ-भतीजे के बीच तनातनी की खबरें आती रहती हैं, और भतीजे को ही ममता का वारिस माना जाता है। देश की तकरीबन तमाम क्षेत्रीय पार्टियां इसी तरह कुनबापरस्ती पर चलती हैं, और तीन-तीन पीढ़ी से एक ही घर में लीडरशिप चली आ रही है। यह सिलसिला कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक अधिकतर प्रदेशों में देखने मिलता है, और पता नहीं भारतीय लोकतंत्र में मैक्सिको की तरह का कोई कानून मुमकिन है या नहीं जो कि वंशवाद को रोक सके।
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अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प के सुबह-शाम के अस्थिर दिमाग से निकले हुए दिखने वाले फैसलों से दुनिया भर के शेयर बाजार डूबे चले जा रहे हैं। किसी देश को यह समझ नहीं पड़ रहा है कि वे ट्रम्प से क्या बात करें, क्योंकि किसे डांट पड़ जाए, इसका कोई ठिकाना तो है नहीं। जिस तरह अभी व्हाईट हाऊस में यूक्रेन के राष्ट्रपति को ट्रम्प और उनके उपराष्ट्रपति ने फटकारा है, और बिना खाना खिलाए जाने के लिए कह दिया, उससे भी बाकी देश सहमे हुए हैं कि कौन ट्रम्प के मुंह लगे। हम भी इस जगह पर ट्रम्प की तानाशाही, गुंडागर्दी, और बददिमागी को लेकर कई बार लिख चुके हैं। लेकिन आज हम ट्रम्प के डेढ़ महीने के कार्यकाल को लेकर एक अलग नजरिए से देखना चाहते हैं, जो कि हमारे ही अभी तक लिखे हुए से अलग हटकर नजरिया रहेगा।
ट्रम्प के बारे में चारों तरफ यह कहा और लिखा जा रहा है कि वे अंतरराष्ट्रीय संबंधों, देश की विदेश नीति, और कूटनीतिक तौर-तरीकों से बिल्कुल अलग, मनमानी का बर्ताव करने वाले नेता हैं। उन्होंने जिस अंदाज में अपने मन से यह तय कर लिया कि इजराइल गाजा को अमरीका को सौंप देगा, और अमरीका वहां के 20 लाख से अधिक लोगों को फिलीस्तीनी के पड़ोस के देशों में बसा देगा, और गाजा की जगह वह मध्य-पूर्व की सबसे बड़ी सैरगाह बनाएगा, वह अंदाज सबके लिए भयानक था, उसका लोकतंत्र से कुछ भी लेना-देना नहीं था, मध्य-पूर्व के देशों से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक सभी ट्रम्प के इस बयान के खिलाफ थे। लेकिन इस बयान के बाद ही मध्य-पूर्व के देशों के सबसे बड़े संगठन अरब लीग की बैठक हुई, और आनन-फानन ऐसे प्रस्तावों पर चर्चा हुई कि अरब देश फिलीस्तीन के गाजा में क्या कर सकते हैं, उसे दुबारा बसाने के लिए कितनी मदद की जरूरत पड़ेगी। और ये प्रस्ताव अमरीका के सामने औपचारिक या अनौपचारिक रूप से रखे भी जाने वाले हैं, क्योंकि ट्रम्प के अपनी मनमानी के बयान के बाद अमरीकी सरकार की तरफ से यह भी कहा था कि मध्य-पूर्व से अगर गाजा के बारे में कोई प्रस्ताव नहीं आएगा, तो ट्रम्प के इस प्रस्ताव की बारी आएगी। और ट्रम्प की चेतावनी के बाद मध्य-पूर्व के कुछ अमरीकापरस्त, और कुछ अमरीकी दबदबे के बाहर से देशों ने मिलकर गाजा पर यह विचार-विमर्श किया है। ट्रम्प की चेतावनी के पहले इन रईस मुस्लिम, और इस्लामिक देशों के हाथ-पांव नहीं हिल रहे थे। ऐसा लग रहा था कि दुनिया का लोकतांत्रिक तौर-तरीका इन देशों से कोई हमदर्दी नहीं उपजा पा रहा था। तो क्या ट्रम्प के गुंडागर्दी के तेवर गाजा के किसी जल्द-समाधान का रास्ता तैयार कर रहे हैं? हम बिल्कुल भी ट्रम्प की किसी राय से इत्तेफाक नहीं रखते, लेकिन उनकी धमकी के असर की चर्चा कर रहे हैं।
ठीक इसी तरह रूस के हमले के बाद, और यूक्रेन के मोर्चे पर टिके रहने से जो जंग तीन बरस से चली आ रही है, और जिसमें अमरीका ने अपने फौजी इतिहास की एक सबसे बड़ी मदद यूक्रेन को की है, उसके खिलाफ डोनल्ड ट्रम्प ने सख्त तेवर दिखाए थे, और यूक्रेन की बांह मरोडक़र उसे रूस के साथ समझौता करने पर मजबूर किया था, उसका असर अब दिख रहा है। ट्रम्प के ये तेवर पूरी तरह अलोकतांत्रिक हैं, लेकिन इनका असर दिख रहा है। अमरीकी संसद में ट्रम्प ने यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलिंस्की की भेजी गई एक चिट्ठी का जिक्र किया कि वह रूस से शांतिवार्ता को भी तैयार है, और अपनी दुर्लभ खनिजों की खदानें अमरीका को देने पर भी तैयार है। अमरीका ने यूक्रेन को जारी फौजी सप्लाई, और जंग की खुफिया जानकारी देना बंद किया, और अगले ही दिन यूक्रेनी राष्ट्रपति ने समर्पण कर दिया। हम अभी सही और गलत के झगड़े में नहीं पड़ रहे, लेकिन ऐसा लग रहा है कि दुनिया का यह सबसे बड़ा मवाली अपने तौर-तरीकों से कुछ बातों को करवाने में कामयाब हो रहा है जिससे कि इजराइल-फिलीस्तीनी, और रूस-यूक्रेनी जंग थम जाए। अब आज की दुनिया में किसी जंग के जायज या नाजायज होने की बात मायने इसलिए नहीं रखती है कि संयुक्त राष्ट्र बेअसर संगठन हो चुका है, और पूरी दुनिया ‘जिधर बम, उधर हम’के सिद्धांत पर काम करती दिख रही है। जब अमरीका ने इराक पर फर्जी सुबूतों का हवाला देते हुए हमला किया था, तो संयुक्त राष्ट्र प्रसंगहीन साबित हुआ था, और बड़ी-बड़ी पश्चिमी ताकतें अमरीका के हमलावर गिरोह में शामिल थीं। इसलिए अंतरराष्ट्रीय बाहुबल के प्रदर्शन में जायज और नाजायज की चर्चा अब फिजूल सी हो चुकी है।
ट्रम्प ने दुनिया भर के देशों में अमरीकी मदद से चलने वाले सहायता-कार्यक्रमों को पल भर में खत्म कर दिया, योरप के देशों के साथ अपने पुराने सैनिक साझेदारी के संगठन नाटो पर से अपनी ताकत को पल भर में हटा दिया, और अपने सबसे कट्टर दुश्मन देश, रूस के साथ नई यारी की नुमाइश की, और पूरी दुनिया का शक्ति संतुलन तबाह कर दिया। ट्रम्प ने दुनिया के अलग-अलग देशों के साथ अमरीका के व्यापार संबंधों की परंपरा, और लंबे इतिहास को खारिज करते हुए, एक आम दुकानदार की तरह लेन-देन पर एक जैसे टैरिफ की घोषणा की, और अपने पड़ोसियों के तबाह हो जाने की कोई फिक्र नहीं की। ऐसी नौबत में यह लगता है कि क्या अंतरराष्ट्रीय संबंधों में कभी-कभी मोटी जम चुकी बर्फ की तह तोडऩे के लिए, और यथास्थिति को बदलने के लिए ट्रम्प सरीखे किसी तानाशाह की जरूरत पड़ती है? क्या ट्रम्प के तेवर और उनके फैसले, एक आत्मकेन्द्रित देश के रूप में अमरीका को ट्रम्प की जुबान में क्या सचमुच ही एक बार और महान बना सकते हैं, क्या वे दूसरे देशों की मदद की कीमत पर अमरीका को पहुंचने वाले आर्थिक नुकसान को रोक सकते हैं, क्या वे दुनिया में जंग के चल रहे कुछ मोर्चों को ठंडा कर सकते हैं? ऐसे कई सवाल ट्रम्प के फैसलों, और उसके असर से आज उठ रहे हैं। ट्रम्प की नीतियां जितने सवालों के जवाब दे सकती हैं, उससे अधिक सवाल खड़े कर रही हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि धरती के गोले पर अपने सबसे बड़े मवाली, ट्रम्प की बातों को बहुत से देशों को गंभीरता से लेना पड़ रहा है, और वह किसी अंडरवर्ल्ड डॉन की तरह, माफिया सरगना की तरह अपने फैसले लोगों पर लाद रहा है, लोगों को यह सोचने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि दुनिया में कुछ भी स्थाई मित्रता, और स्थाई शत्रुता नहीं होती। ट्रम्प एक अकेला इंसान है जो दुनिया की जमी-जमाई व्यवस्था को इस हद तक पलट रहा है, और हम इसके हिमायती न होते हुए भी, इसे इस नजरिए से देखना दिलचस्प पा रहे हैं कि ट्रम्प के इस कार्यकाल में दुनिया में दोस्ती और दुश्मनी के नए समीकरण किस तरह बनने जा रहे हैं।


