संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : धर्मराज जितना मजबूत, महिलाएं उतनी कमजोर
सुनील कुमार ने लिखा है
26-Jul-2025 8:55 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : धर्मराज जितना मजबूत, महिलाएं उतनी कमजोर

अभी मथुरा की एक टीवी रिपोर्ट में वहां की महिला वकील पुलिस से जाकर मिली हैं, और एक स्वघोषित संत अनिरुद्धाचार्य के एक बयान पर उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग की है। इस बयान में कई तरह के तिलक, और कई तरह की कंठी से लैस यह प्रसिद्ध कथावाचक, स्वघोषित भागवताचार्य अनिरुद्धाचार्य ने मंच और माईक से एक धार्मिक कार्यक्रम के दौरान कैमरों के सामने कहा था कि लोग लड़कियां ले आते हैं 25 साल की, अब 25 साल की लडक़ी चार जगह मुंह मार चुकी रहती है। इस बयान को लेकर महिला वकीलों ने कई धाराओं में एफआईआर दर्ज करने की मांग की है, और मथुरा के बार एसोसिएशन के अध्यक्ष और सचिव ने भी महिला वकीलों के प्रदर्शन में हिस्सा लिया है, उनका समर्थन किया है। लोगों को याद होगा कि मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में कुछ अधिक सरकुलेशन में चल रहे बागेश्वर सरकार कहे जाने वाले धीरेन्द्र शास्त्री ने भी अभी कुछ महीने पहले अपने एक प्रवचन के दौरान महिलाओं के बारे में हिकारत के साथ कहा था कि जिस स्त्री की शादी हो गई है, उसकी दो पहचान होती है, पहला मांग का सिंदूर, दूसरा गले का मंगलसूत्र, जिस स्त्री की मांग में सिंदूर, और गले में मंगलसूत्र नहीं होता, उसे लोग खाली प्लाट मानते हैं, कि अभी उसकी रजिस्ट्री नहीं हुई है। अब इस नौजवान बाबा धीरेन्द्र शास्त्री की शोहरत का हाल यह है कि इसके एक कार्यक्रम में अभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तो पहुंचे ही, दो दिन के भीतर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू भी वहां उसी कार्यक्रम में पहुंचीं। महिलाओं के बारे में इसके उच्च विचार महिलाओं के बारे में धर्म के विचारों के अनुकूल ही हैं।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित देश के तमाम बड़े नेता जिस स्वामीनारायण सम्प्रदाय के मंदिरों में देश-विदेश में जाते हैं, और ब्रिटिश प्रधानमंत्री रहे ऋषि सुनक भी भारत आकर इस सम्प्रदाय के मंदिर में गए, वहां महिलाओं के बारे में यह नियम है कि उनके प्रमुख संत के सामने कोई महिला पड़ नहीं सकती। उन्हें अलग कमरों में बैठना होता है, और वे सिर्फ स्क्रीन पर दर्शन कर सकती हैं। देश-विदेश के उनके मंदिरों में स्त्री-पुरूषों के लिए अलग-अलग प्रवेश द्वार, अलग सभागृह, और दर्शनक्षेत्र रहते हैं। कई सार्वजनिक कार्यक्रमों में यह देखने में आया है कि अगर कोई महिला भूल से मंच के पास पहुंच गई, तो मुख्य स्वामी प्रवचन छोडक़र चले जाते हैं, या उनके सामने पर्दा डाल दिया जाता है। इस सम्प्रदाय के अमरीका के एक मंदिर में जब कर्मचारियों के शोषण के मुकदमे चल रहे थे, तब वहां कई भूतपूर्व महिला अनुयायियों ने कहा था कि उन्हें दोयम दर्जे के नागरिक की तरह रखा जाता है। लेकिन यह सम्प्रदाय तो छोटा है, इसके मुकाबले जो बड़े सम्प्रदाय हैं, उनमें भी इस्कॉन जैसे अंतरराष्ट्रीय धार्मिक संगठन, और कई दूसरे हिन्दू सम्प्रदायों में महिलाओं के लिए कोई भूमिका नहीं है। फिर महज हिन्दुओं के बारे में क्यों कहा जाए, पोप से लेकर नीचे मुहल्ले के चर्च तक, कहीं महिलाओं को पादरी, बिशप, या कुछ भी बनने की इजाजत नहीं है, वे सेविकाओं की तरह नन बन सकती हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह जैनियों में महिलाएं साध्वियां बन सकती हैं, लेकिन प्रवचन तो महाराज साहब के ही हो सकते हैं। और थोड़ा सा आगे बढक़र सिक्ख धर्म को देखें, तो गुरूनानक देव ने महिला को प्रथम पूजनीय कहा था, लेकिन व्यवहार यह हाल है कि अकाल तख्त और शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी ने आज तक किसी महिला को ग्रंथी या मुख्य ग्रंथी नहीं बनाया गया, या कि पंज प्यारे कहे जाने वाले अमृतधारी धर्मसेवकों के लिए भी महिलाओं को कभी नहीं चुना गया। बौद्धों में भी धर्म का अधिकतर नेतृत्व पुरूषों के हाथ में ही रहता है, और बौद्धभिक्षुणी बहुत नीचे के दर्जे पर ही जगह पाती है।

धर्म का नजरिया और मामलों में भी घनघोर महिलाविरोधी रहता है। देश-विदेश में जाने कितने धर्मों में बलात्कारी धर्मगुरू होते हैं जो कि महिला अनुयायियों सहित बाकी महिलाओं के बारे में न सिर्फ हिकारत की जुबान का इस्तेमाल करते हैं, बल्कि उनका शोषण भी करते हैं। एक शंकराचार्य, अब गुजर चुके स्वरूपानंद सरस्वती ने शनि शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के विवाद के दौरान 2016 में कहा था कि शनि एक क्रूर ग्रह है, और महिलाएं इससे दूर रहें, वरना बलात्कार की घटनाएं अधिक होंगी। अभी जिस अनिरुद्धाचार्य के खिलाफ महिला वकील एफआईआर लिखाने पहुंची हैं, उन्होंने अपने एक प्रवचन में कहा था कि सीता और द्रौपदी की त्रासदी उनकी अत्यधिक सुंदरता की वजह से हुई। मतलब यह कि महिला की सुंदरता एक जुर्म हो गया! स्वामीनारायण सम्प्रदाय के एक स्वामी ज्ञानवात्सल्य ने एक कॉलेज के कार्यक्रम में कहा कि महिलाएं सामने की पांच कतारों में न बैठें, वरना वे मंच छोडक़र चले जाएंगे। मुस्लिमों के एक बड़े धार्मिक संगठन दारूल उलूम ने कई बार महिलाओं के लिए फतवे जारी किए हैं, कभी कहा कि उनको मोबाइल फोन इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं होनी चाहिए, कभी कहा कि उन्हें बैंकों और मीडिया में नौकरी नहीं करनी चाहिए। मुस्लिमों के बरेलवी उलेमा कई बार कहते आए हैं कि औरतों का घर से निकलना परहेजगारी के खिलाफ है। भारत में ही कई कैथोलिक बिशपों पर ननों के यौन-शोषण के आरोप लगे हैं, और ननों के साथ उनका सुलूक देखकर दक्षिण भारत के मंदिरों की देवदासी प्रथा याद पड़ती है, जिसे बाद में गैरकानूनी करार देकर, उसके खिलाफ कानून बनाकर उसे बंद करवाया गया था।

धर्म का पूरा धंधा ही महिलाविरोधी है। जाने कितने ही ऐसे मंदिर हैं, ऐसी दरगाहें हैं जहां महिला को घुसने नहीं मिलता, और वामपंथी सरकारों से लेकर देश में सबसे ताकतवर अदालतों तक सबको ऐसे मुद्दों को अनदेखा करते देखा जाता है। एक बात बिल्कुल साफ समझ लेने की जरूरत है कि दुनिया में जहां भी धर्म जितना मजबूत होगा, उस धर्म के तहत, या कि उस धर्म की सोच वाली सरकारों के तहत, महिला उतनी ही कमजोर होती जाएगी। बोलने में यह बात किसी भी धर्म के व्यक्ति को, खासकर मर्द को बड़ी खटकेगी, और इस मुद्दे पर आज यहां लिखने का मकसद भी यही है कि हर धर्म के लोग कम से कम अपने खुद के धर्म के बारे में यह आत्मविश्लेषण और आत्ममंथन कर लें कि उन्होंने अपने धर्म की महिलाओं को कितनी बराबरी का दर्जा दिया है?

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