संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पशुप्रेमी अब बाड़ों में जाकर करें उनकी सेवा
सुनील कुमार ने लिखा है
12-Aug-2025 4:57 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : पशुप्रेमी अब बाड़ों में जाकर करें उनकी सेवा

सुप्रीम कोर्ट ने एक तल्ख फैसला देते हुए दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के सभी म्युनिसिपलों को कहा है कि आठ हफ्ते के भीतर सडक़ों से हर आवारा कुत्ते को हटा दिया जाए, उनके लिए अलग से शेल्टर बनाए जाएं, और एक बार शेल्टर भेजने के बाद वे सडक़ों पर वापिस न आ सकें। दो जजों की बेंच बच्चों पर आवारा कुत्तों के हमलों की खबरों को देखकर खुद होकर इस मामले पर सुनवाई कर रही थी, और अदालत ने पशुप्रेमी संगठनों से भी कहा कि कोई व्यक्ति इस आदेश पर अमल के बीच में न आए, वरना उसे अदालत की अवमानना माना जाएगा। पेटा-इंडिया नाम के पशु-अधिकार संगठन ने इस पर कहा है कि यह कार्रवाई कहीं कामयाब नहीं होती, और कुत्ते अपने इलाकों में लौट आते हैं। भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री मेनका गांधी ने भी सुप्रीम कोर्ट के रूख को गुस्से में दिया गया अजीब फैसला करार दिया है, और कहा है कि ऐसे शेल्टर बनाने में 15 हजार करोड़ रूपए लगेंगे। अदालत के सामने आए आंकड़ों में बताया कि दिल्ली में 10 लाख कुत्ते हैं, और पिछले बरस 68 हजार लोगों को कुत्तों ने काटा था। इस मामले में अभी तक देश में जहां भी स्थानीय प्रशासन या म्युनिसिपल आवारा कुत्तों पर कार्रवाई करते हैं, पशुप्रेमी संगठन उनके खिलाफ उतर आते हैं, और कुत्तों को किसी बाड़े में रखने को गैरकानूनी बताते हुए अदालती-कार्रवाई की धमकी देते हैं। अब सुप्रीम कोर्ट के इस रूख के बाद पूरे देश भर में म्युनिसिपलों के सामने यह रास्ता खुल गया है कि वे इस आदेश के मुताबिक अपने-अपने शहर में कुत्तों को बाड़ों में बंद कर सकें।

यह मामला जानवरों और इंसानों के सहअस्तित्व का है। दसियों हजार बरस पहले इंसानों ने शायद एक जंगली नस्ल को पालकर उसे घरेलू और पालतू बनाया, और वह इंसान के सबसे वफादार प्राणी बन गए। लेकिन यह बात इंसानों के पाले हुए कुत्तों तक तो सीमित थी, जब सडक़ों पर बिना किसी घरवाले कुत्ते बढऩे लगे, तो जाहिर है कि न तो उनका टीकाकरण हो सका, और न ही बधियाकरण। नतीजा यह निकला कि कुत्तों में पैदाइश के हर मौसम में आबादी बढ़ जाती है, और म्युनिसिपल किसी भी तरह उन पर काबू नहीं पा सकता। स्थानीय संस्थाओं के कामकाज का वैसे भी ऊपरवाला मालिक होता है, और ऐसे में सडक़ों के कुत्तों को पकडक़र उनकी नसबंदी करके फिर उसी इलाके में ले जाकर छोडऩे का कोई हिसाब-किताब तो हो नहीं सकता। नतीजा यह होता है कि कुत्तों की आबादी शहरों सडक़ों पर बेकाबू बढ़ रही है, और लोग अपनी धार्मिक भावनाओं से, या कि पशुप्रेम से उन्हें खाने को भी देते हैं, और वे सडक़ों पर पलते रहते हैं, और बहुत से मामलों में राह चलते लोगों को काटते भी रहते हैं। कारों के पीछे दौड़ते कुत्ते उनका तो कुछ नहीं बिगाड़ पाते, लेकिन दुपहियों पर चलने वाले लोगों पर जब वे झपटते हैं, तो उनके कहीं गिरने या टकराने का खतरा भी रहता है, और कुत्तों के काटने पर लगने वाले पांच इंजेक्शन यह संपादक भी अभी-अभी लगवा चुका है। फिर भी हम बिना किसी पूर्वाग्रह के इस मुद्दे पर यह लिखना चाहते हैं कि सडक़ों से कुत्तों को हटाए बिना कोई चारा नहीं है। जिन लोगों को उनकी फिक्र हो रही है, वे उन्हें अपने घर ले जाकर पाल सकते हैं, उन्हें टीका लगवा सकते हैं, और इलाके के बाकी लोगों को, वहां से गुजरने वाले लोगों को खतरे से दूर रख सकते हैं। जिन लोगों को इन कुत्तों को सडक़ों पर ही रखने की जिद है, उनके सामने इन्हें पालने का विकल्प रखना चाहिए, वरना म्युनिसिपल एक या अधिक बाड़े बनाकर इन कुत्तों को वहां रखे, और धीरे-धीरे प्राकृतिक रफ्तार से इनकी आबादी घटती जाए। अभी तीन-चार दिन पहले ही छत्तीसगढ़ के धमतरी में एक छोटी बच्ची को कई फुटपाथी कुत्तों ने जिस तरह से नोंचा, और काटा है, वह देखना भी भयानक है। उसके सिर और चेहरे पर ढेरों टांके लगाने पड़े हैं, और बच्चों-बड़ों पर ऐसे खतरे को देखते हुए सडक़ों पर पशुप्रेम का खतरा नहीं उठाया जा सकता है। जब इंसानों ने पालतू कुत्तों की नस्ल तैयार की थी, उस वक्त आवारा कुत्तों की नस्ल तैयार नहीं की थी। लोगों ने जब पालना बंद कर दिया, तो उनमें से अधिकतर कुत्ते सडक़ों पर पलने लगे, जूठन और दान पर जिंदा रहने लगे, और अब लगातार उनका काटने के मामले बढ़ते जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पशुप्रेमियों की जिद के मुकाबले इंसानों के सुरक्षित जिंदा रहने के हक को अधिक महत्व दिया है, जो कि आज की नौबत में एक जरूरी बात थी। पशुप्रेमियों और दानदाताओं के लिए कुत्तों के बाड़ों तक पहुंच रहना चाहिए, जहां वे कोई खाना पहुंचा सकें, और अपनी हसरत पूरी कर सकें। कुछ लोगों की भावनाओं और हसरत के लिए दूसरे लोगों के पांच-पांच इंजेक्शन लगवाने, और जख्मों का इलाज करवाने की नौबत ठीक नहीं है।

लगे हाथों यह चर्चा भी हो जानी चाहिए कि शहर-गांव की सडक़ों पर, दूसरी सार्वजनिक जगहों पर, और रिहायशी इलाकों के हर हिस्से में गाय, बछड़े-बछिया, और सांड जिस तरह से भरते और बढ़ते चले जा रहे हैं, वे भी आवाजाही में भारी रूकावट बन चुके हैं, और खतरा भी। हाईवे पर ऐसे जानवरों से गाडिय़ां बिना किसी लापरवाही के भी आकर टकरा रही हैं, बड़ी संख्या में जानवर मर रहे हैं, और कई मामलों में इंसानी जिंदगियां भी जा रही हैं। जानवरों में कोई फर्क नहीं है, और इनके लिए कुत्तों से अलग बाड़े चाहिए, लेकिन इन्हें भी सडक़ों से, गांव-शहरों से हटाकर उन बाड़ों में रखने की जरूरत है, और फिर जो लोग गाय को मां मानते हैं, वे वहां जाकर उनकी सेवा कर सकते हैं, उनके लिए खाना या चंदा देकर आ सकते हैं। एक अलग मामले में मुम्बई जैसे शहर में कबूतरों को दाना डालने के खिलाफ बाम्बे हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने भी सही माना है कि पंछियों से फैलने वाली बीमारियों को देखते हुए लोगों का यह शौक, और दान की उनकी भावना बंद होनी चाहिए। इसके खिलाफ एक जैनमुनि ने 13 अगस्त से अनशन करने की भी घोषणा की है।  छत्तीसगढ़ में हाईकोर्ट लगातार सरकार के पीछे लाठी लेकर पड़ा हुआ है कि सडक़ों से जानवरों को हटाया जाए। पिछले कुछ सालों के ऐसे कड़े अदालती रूख का असर अभी तक तो देखने नहीं मिला है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कुत्तों के बारे में जो कहा है, वह मामला भी गायों के बाड़े बनाने की तरह का है, और राज्यों के हाईकोर्ट को इस बारे में देखना होगा। म्युनिसिपल और पंचायत पर ही अपने इलाकों के आवारा जानवरों के इंतजाम की जिम्मेदारी है, और बेहतर यही होगा कि राज्य सरकार के इनसे संबंधित विभाग जुटकर इस इंतजाम को करें, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का आदेश सीधे-सीधे तो दिल्ली-एनसीआर इलाके के लिए लिया हुआ है, लेकिन वह पूरे देश पर लागू होता है। हर राज्य और हर म्युनिसिपल-पंचायत अपना-अपना घर संभाल लें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  


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