संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : राखी पर आई बहन का कत्ल कर दिया मोबाइल की लत में डूबे भाई ने
सुनील कुमार ने लिखा है
07-Aug-2025 6:03 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  राखी पर आई बहन का कत्ल कर दिया मोबाइल की लत में डूबे भाई ने

छत्तीसगढ़ के सरगुजा में राखी मनाने मायके आई बहन ने जब छोटे भाई को देर रात तक मोबाइल देखते पाया, तो इसकी लत में डूबे हुए भाई से उसने मोबाइल इतना न देखने को कहा। मोबाइल की लत भाईचारे के मुकाबले अधिक बड़ी साबित हुई, और सोती हुई बहन को भाई ने कुल्हाड़ी से मार-मारकर खत्म कर दिया। बहन के दो बच्चे पास में सोते रह गए, लेकिन उनकी मां को चीखने का भी मौका नहीं मिला, और उन्हें पता नहीं चला। बाद में घर के आंगन में कुल्हाड़ी लिए बैठे भाई को पुलिस ने गिरफ्तार किया है। मोबाइल फोन से उपजने वाली कई तरह की हिंसक घटनाओं में से यह एक है। कई मामलों में मोबाइल की तनातनी परिवार के भीतर कत्ल करवा चुकी है, और खुदकुशी तो उससे भी कई गुना अधिक आम बात है। अब यह घटना तो किसी छोटे बच्चे के साथ नहीं हुई है, और एक बालिग भाई ने अपनी बड़ी बहन को उसके बच्चों के साथ देखते हुए भी इस तरह से मार डाला है, यह इसका सबसे भयानक पहलू है। फिर भी आज समाज, सरकार, और टेक्नॉलॉजी कंपनियों को इस बारे में सोचना जरूर चाहिए कि बच्चों से लेकर बड़ों तक की मोबाइल फोन की लत का क्या किया जाए?

हर कुछ महीनों में हम बच्चों के स्क्रीन टाईम को घटाने के बारे में फिक्र जाहिर करते हैं, और मां-बाप को सुझाते हैं कि बच्चों को जितना हो सके, स्क्रीन, बैटरी से चलने वाले खिलौनों, और बाजार के बने हुए खानपान के सामान से दूर रखा जाए। पिछले कुछ महीनों में हमने सरकार को यह भी सुझाया है कि मोबाइल फोन, किसी भी तरह के कम्प्यूटर, और टीवी बनाने वाली कंपनियों के लिए यह अनिवार्य किया जाए कि वे बच्चों के स्क्रीन टाईम को नियंत्रित करने के लिए उसमें अलग से कंट्रोल लगाएं। आज जो बालिग मोबाइल की लत में इस तरह पड़ चुका है कि राखी पर घर आई बहन को मार डाला, तो उस बालिग उम्र के पहले जितने बच्चे आज स्क्रीन की लत के शिकार हैं, उनके बारे में भी सोचना चाहिए कि आगे जाकर उनका कैसा हिंसक अंत हो सकता है।

स्क्रीन टाईम को नियंत्रति करने के लिए हमारे जैसे साधारण समझ के व्यक्ति को जो सूझ रहा है, वह सरकार और टेक्नॉलॉजी कंपनियों को तो सूझ ही जाना चाहिए था। और कोई भी उद्योग-कारोबार अपने ग्राहक-परिवारों की तबाही की कीमत पर नहीं पनप सकते, इसलिए सरकार से परे उपकरण बनाने वाली, इंटरनेट कनेक्टिविटी बेचने वाली, और टीवी पर कई तरह से सिग्नल पहुंचाने वाली कंपनियों को अपने-अपने स्तर पर मां-बाप के नियंत्रण का इंतजाम करना चाहिए, ताकि उनके बच्चे ऐसे हिंसक अंत से बच सकें। आज भी आम परिवारों में छोटे-छोटे बच्चे हर दिन घंटों स्क्रीन से उलझे रहते हैं, बहुत से बच्चों का तो यह हाल है कि वे बिना स्क्रीन सामने रखे खाना तक नहीं खाते हैं, और हमने इन बच्चों को दुनिया का सबसे कमउम्र ब्लैकमेलर भी लिखा है क्योंकि वे इस बात को समझते हैं कि मां-बाप उन्हें हर कीमत पर खिलाना चाहेंगे, और वे खाने के साथ-साथ स्क्रीन की शक्ल में यह कीमत वसूलते हैं। अभी हमारे दिमाग में एक साधारण सा इंतजाम है, जिसे सरकार टेक्नॉलॉजी कंपनियों के साथ समझ सकती है। किसी भी तरह के स्क्रीन वाले उपकरण पर बच्चों की पहुंच का एक अलग पासवर्ड होना चाहिए, जो कि एक दिन में सीमित समय के लिए ही स्क्रीन खोल सके। इसके अलावा स्क्रीन पर किसी भी तरह से, किसी भी माध्यम से पहुंचने वाले सिग्नलों को लेकर भी यह सीमा रहनी चाहिए कि उनसे बच्चों की दिलचस्पी के कार्यक्रम कुल कितने मिनट काम कर सकें। भारत जैसे देश में प्रधानमंत्री के स्तर पर इस बात का फैसला होना चाहिए, और इससे जुड़ी हुई हर कंपनी को एक समय सीमा देनी चाहिए कि उनके फोन, कम्प्यूटर, लैपटॉप, टैबलेट में उस सीमा के भीतर ऐसा इंतजाम हो जाए, वरना उन पर कितना फीसदी अतिरिक्त टैक्स, या अतिरिक्त पेनाल्टी का इंतजाम किया जाएगा। इसी तरह इंटरनेट या कार्यक्रमों के सिग्नल बेचने वाली कंपनियों को भी ऐसे लॉक का इंतजाम करने को कहना चाहिए जिससे बच्चों की पहुंच को सीमित किया जा सके। ऐसी सीमा बांधना इसलिए भी जरूरी है कि आज बच्चों के हाथ जब फोन लगते हैं, तो वे उस पर तरह-तरह की पोर्नो फिल्में भी देखते हैं, और बहुत से नाबालिगों के किए हुए बलात्कार ऐसे पोर्नो से प्रभावित भी मिले हैं। बाजार के रास्ते बच्चों तक पहुंचने वाले उपकरण और सिग्नल मां-बाप के काबू में करके देने की जिम्मेदारी इन कंपनियों की होनी चाहिए, और अतिरिक्त टैक्स, पेनाल्टी, या टैरिफ लगाकर काम कैसे करवाया जा सकता है, यह ट्रम्प ने अभी पूरी दुनिया को सिखा ही दिया है। भारत सरकार को भी बिना देर किए हुए इन कंपनियों के सामने बच्चों पर स्क्रीन टाईम की ऐसी खतरनाक स्थिति बयां करके उनसे संभावित समाधान मांगने चाहिए, और फिर उनके आधार पर सरकार को सीमाएं तय करके बता देना चाहिए कि कितने महीनों में कंपनियों को क्या-क्या करना होगा। दुनिया के बहुत से विकसित देश इस तरह की तकनीकी संभावनाओं पर काम कर रहे हैं, या कि लागू कर चुके हैं। कई देशों ने सोशल मीडिया पर बच्चों के अकाऊंट खोलने की उम्र सीमा तय कर दी है, वरना कंपनियों पर बहुत ही भारी-भरकम जुर्माने का कानून बना दिया है। भारत को भी अपने बच्चों को बचाने के लिए बिना देर किए यह इंतजाम करना चाहिए। इस बीच समाज को भी चाहिए कि वह लोगों और बच्चों को अलग-अलग परामर्श के माध्यम से किस तरह स्क्रीन का जानलेवा-खतरा घटा सकता है। इस बारे में सामाजिक संगठनों और मंचों को चर्चा करनी चाहिए, और परामर्शदाताओं की मदद से तात्कालिक रास्ता निकालना चाहिए। आखिर में जिम्मेदारी की गेंद सरकार के ही पाले में है जिसे कुछ महीनों में यह इंतजाम करना चाहिए। 

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