संपादकीय
अभी एक बड़ी नामी-गिरामी हिन्दी साहित्य पत्रिका का एक जलसा हो रहा है जिसमें मंच पर कई तरह के लोगों को बुलाया गया है। एक बार कार्यक्रम की जानकारी उजागर हुई, तो पत्रिका के आयोजकों से लोगों ने शिकायत की कि आमंत्रित वक्ताओं में कम से कम एक नाम तो ऐसा भी है जिस पर महिलाओं के शोषण की शिकायतें हैं, और मामला भी चल रहा है। महिलाओं के हक की इस नवजागरूकता के चलते हुए अभी कुछ हफ्ते पहले ही एक और आयोजन में एक महिला से बदसलूकी करने वाले बड़े नामी-गिरामी साहित्यकार को शायद एक माफीनामा लिखवाकर वहां से चलता किया गया था। कार्यक्रम से तो बिदा कर दिया गया था, लेकिन बाद में बहुत से लोगों ने यह सवाल उठाया कि यह आदमी तो पहले से ही महिलाओं के बारे में बड़ी बुरी बदजुबानी करने के लिए सार्वजनिक रूप से जाना जाता था, उसके बाद किस तरह इस साहित्य आयोजन में कुछ हफ्ते रहकर साहित्य रचना करने के लिए इसे छांटा गया था? पहले की शोहरत तो सोशल मीडिया पर सामने थी ही, उसके बावजूद निर्णायकों ने इस, और ऐसे व्यक्ति को भला कैसे छांटा? फेसबुक पर इस पिछली घटना को लेकर काफी लाठियां चलीं, और साहित्यकार जब एक-दूसरे को काटने दौड़ते हैं, तो उनके पेन की जंग लगी और सूखी निब भी चलने लगती है, उंगलियों के जोड़ों में गठिया का दर्द हो, तो भी की-बोर्ड खटखटाने लगता है। लेकिन उस आयोजन से इतना तो हुआ था कि लोगों को समझ आ गया कि महिलाओं के मामले में किसी भी तरह से बदनाम मर्द को कुछ दूर ही रखने में सर्फ की खरीददारी की तरह समझदारी है।
अब इस साहित्यिक पत्रिका का यह मामला फिर एक सवाल को उठा रहा है कि क्या अपने आपको एक संवेदनशील विधा कहने वाले साहित्य को भी अपने अतिथियों के महिलाविरोधी, या कि महिलाओं के खिलाफ हिंसक होने जैसी बातों को अनदेखा करना चाहिए? जिस महिला को इस बार के आमंत्रित एक वक्ता ने प्रताडि़त किया बताया जाता है, उसने तो अदालत में इसके खिलाफ मुकदमा कर रखा है, और भी दूसरी लड़कियों या महिलाओं की इस तरह की शिकायतें हैं। कहने के लिए लोग यह भी कह सकते हैं कि प्राकृतिक न्याय तो यही होगा कि जब तक किसी के खिलाफ आरोप साबित न हो जाएं तब तक उन्हें बेकसूर माना जाए। लेकिन हमारा मानना है कि इस तर्क का विस्तार यहां तक हो सकता है कि जिला अदालत से सजा को आखिरी सजा कैसे मान लिया जाए, जबकि अभी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट बाकी ही हैं? कहने का मतलब यह कि हम किसी के वोट देने के हक को छीनने की बात नहीं कर रहे, हम महज यह कह रहे हैं कि किसी कार्यक्रम में किसे अतिथि बनाया जाए, किसे वक्ता बनाया जाए, यह तो किसी संस्था या निर्णायक मंडल के विवेक की बात रहती है, और वहां पर वे इस तरह के बदनाम लोगों को छोड़ सकते हैं। 140 करोड़ आबादी वाले इस देश में वैसे तो हर नागरिक का हक बराबरी का है, लेकिन कितने लोगों को मंच पर जगह दी जा सकती है? इसलिए जो लोग निर्विवाद रहते हैं, सिर्फ उन्हीं को सम्मान की जगह पर बिठाना चाहिए, वरना उनकी बदनामी की वजह, उनके जुर्म की शिकार जो महिलाएं हैं, या दूसरे लोग हैं, उन लोगों के साथ यह सामाजिक नाइंसाफी होगी।
इन दोनों विवादों से अब यह बात तो साफ होती है कि आने वाले वक्त में कार्यक्रमों के आयोजकों को यह ध्यान रखना पड़ेगा कि उनके किसी अतिथि या वक्ता की वजह से कार्यक्रम के बीच में नारेबाजी शुरू हो सकती है। एक वक्त टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साईसेंज के एक कार्यक्रम में एक बड़े नामी-गिरामी फिल्मी गीतकार को बुलाया गया था। जैसे ही छात्रों को यह पता लगा, उन्होंने क्लासरूम के ब्लैकबोर्ड इस बात से भर दिए कि इस गीतकार पर तो महिलाओं के शोषण के मी-टू के आरोप लगे थे, और इसे किस नैतिक आधार पर यहां बुलाया जा रहा है? विरोध इतना हुआ कि उसे बुलाना रद्द कर दिया गया, कार्यक्रम ही रद्द हो गया। वह कार्यक्रम भी तय तारीख के एक दिन पहले ही रद्द किया गया था, और इस बार इस प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका के कार्यक्रम के पहले भी ऐसा ही मुद्दा बन रहा है। आयोजकों में कुछ महिलाएं भी हैं, और यह उनके विवेक पर, और नैतिकता के उनके पैमानों पर भी निर्भर करता है कि वे इन शिकायतों के आधार पर अपने एक मेहमान को मना करने को ठीक मानते हैं या नहीं, और अगर ठीक मानते हैं तो ऐसा करने का हौसला दिखाते हैं या नहीं।
ऐसी एक शिकायतकर्ता महिला से आज सुबह बात करने के बाद इस संपादक को यह बात समझ में आई कि हाल की ही इन दो घटनाओं के विरोध से अब इतनी जागरूकता तो फैलेगी कि लोग अपने कार्यक्रमों में किसी को बुलाने के पहले उनके बारे में चार बार सोचेंगे कि कहीं उनके नाम पर कोई बखेड़ा तो नहीं होगा? वैसे भी यह सावधानी हर आयोजक को बरतनी भी चाहिए। आज तो अखबार और टीवी चैनल, पत्रिकाएं और तरह-तरह की संस्थाएं ऐसे कार्यक्रम करती हैं जिनमें सत्ता के बड़े-बड़े लोगों को बुलाया जाता है, और अपने हर किस्म के बदनाम, या बहुत बदनाम विज्ञापनदाताओं का प्रदेश के गौरव की तरह सम्मान करवाया जाता है। बाद में पता लगता है कि चार दिन पहले मुख्यमंत्री के हाथों जिसे प्रदेश का गौरव बताया गया था, वह किसी स्पा सेंटर में चकलाघर चलाते हुए गिरफ्तार हुआ, या कि किसी पत्रकार के कत्ल में कुनबे सहित जेल गया। आज कार्यक्रमों का, और उनमें भागीदारों का यही स्तर रह गया है। यह तो भला हो साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े हुए कुछ ऐसे कार्यक्रमों का जिनमें लोग कुछ आपत्तियां दर्ज कराने लगे हैं। यह बात तो कार्यक्रमों में जाने वाले मुख्य अतिथियों और बाकी अतिथियों को भी समझना चाहिए कि आयोजक उनका किस तरह का नाजायज और बाजारू इस्तेमाल करते हैं। हर व्यक्ति जो कुछ रकम खर्च करने के लिए तैयार हो, वह प्रदेश का, देश का, दुनिया का, या कि आकाशगंगा का गौरव बन सकता है। सामाजिक प्रतिष्ठा का यह धंधा साहित्यिक प्रतिष्ठा से थोड़ा अलग तो है, लेकिन हम इन दोनों का जिक्र एक साथ इसलिए कर रहे हैं कि इन दोनों में एक ही किस्म की सावधानी बरतने की जरूरत है, आयोजकों को भी, और जहां पर आयोजक ही कमाई की बदनीयत से लबालब हैं, वहां पर आमंत्रित मुख्य अतिथियों को सावधानी बरतनी चाहिए। कुछ लोगों ने ऐसे आयोजनों को इतना नियमित धंधा बना लिया है कि वे इवेंट मैनेजमेंट कंपनी अधिक लगते हैं, मीडिया कारोबारी कम लगते हैं। इनमें शामिल होने वाले लोगों को अपनी इज्जत की भी परवाह करनी चाहिए कि कल जिस अस्पताल मालिक का सम्मान किया है, आज उसे नाजायज कमाई के मामले में जेल भेजा जा रहा है।


