संपादकीय
मालेगांव ब्लास्ट नाम के बड़े चर्चित मामले में भाजपा सांसद रह चुकीं साध्वी प्रज्ञा सहित सभी अभियुक्त बरी कर दिए गए हैं। इसकी सुनवाई कर रहे विशेष एनआईए कोर्ट ने जिन सभी सात अभियुक्तों को बरी किया है उनमें थलसेना के लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित भी शामिल थे। इनके अलावा सारे के सारे आरोपी हिंदू होने की वजह से, और यह विस्फोट एक मस्जिद के पास होने से यह मामला हिंदू-मुस्लिम तनातनी और खींचतान का बना हुआ था। कोर्ट ने यह माना कि अभियुक्तों को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त कानूनी आधार नहीं है। सभी अभियुक्तों को संदेह का लाभ देते हुए बरी किया गया है। इस मामले में मारे गए लोगों में और मुस्लिमों के अलावा दस बरस की मुस्लिम बच्ची भी थी। और चर्चित बात यह थी कि महाराष्ट्र के प्रमुख और मशहूर पुलिस अफसर हेमंत करकरे ने इस मामले में कुछ महत्वपूर्ण सुबूत दिए थे। लोगों को शायद याद होगा कि इसे लेकर साध्वी प्रज्ञा ने करकरे को श्राप भी दिया था। हेमंत करकरे मुंबई एटीएस के प्रमुख थे और साल 2008 में मुंबई पर हुए हमलों के दौरान उनकी मौत हो गई थी। बहादुरी के लिए साल 2009 में उन्हें अशोक चक्र दिया गया था। मालेगांव ब्लास्ट की शुरूआती जांच महाराष्ट्र एटीएस ने की थी, और बाद में इस मामले की जांच एनआईए ने अपने हाथ में ले ली थी। इसके बाद कई आरोप वापिस ले लिए गए थे और एनआईए ने कहा था कि महाराष्ट्र एटीएस ने जांच में खामियां की थीं। इस घटना के बाद भाजपा ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को 2019 में भोपाल से लोकसभा का टिकट दिया था और वे जीत गईं थीं। इसके पहले 20 बरस से भाजपा यह सीट लगातार जीतते आ रही थी। आज भाजपा प्रवक्ताओं ने अदालत के इस फैसले पर खुशी जाहिर की और कहा कि कांग्रेस पार्टी इतने बरस तक इस मामले को भगवा आतंकवाद करार देती रही, आज कांग्रेस की साजिश उजागर हुई है, और सभी लोग इस मामले में बरी हुए हैं।
दिलचस्प बात यह है कि बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक दूसरे मामले में 2006 के मुंबई ट्रेन धमाकों के मामले में गिरफ्तार तमाम 12 अभियुक्तों को पिछले हफ्ते ही बरी किया है। इस मामले में सारे अभियुक्त मुस्लिम समाज के थे, और बॉम्बे हाईकोर्ट ने वहां की मकोका अदालत के उस फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें पांच लोगों को मौत की सजा सुनाई गई थी, और सात को उम्रकैद। 2006 के इस ट्रेन बम धमाकों में 187 लोग मारे गए थे, और करीब 824 जख्मी हुए थे। इनकी रिहाई के बाद महाराष्ट्र सरकार, हाईकोर्ट फैसले के खिलाफ तुरंत ही सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी, और इस फैसले को स्थगित करने की मांग की थी। सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्थगित करने से मना कर दिया और सिर्फ इतना कहा कि अभी इस फैसले की मिसाल आतंक के दूसरे मामलों में नहीं दी जा सकेगी। राज्य सरकार ने इस फैसले को स्थगित करने की मांग की थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे बस नजीर बनाने से फिलहाल रोका है। और कहा है कि हाईकोर्ट के रिहा किए गए लोगों को वापिस जेल जाने की जरूरत नहीं है।
इन दो बिल्कुल अलग-अलग मामलों से यह तस्वीर बनती है कि देश में आतंक के इतने बड़े-बड़े और इतने चर्चित मामलों में भी महाराष्ट्र जैसे विकसित राज्य की पुलिस, या केंद्र सरकार की एनआईए जैसी बड़ी जांच एजेंसी भी जुर्म साबित करने में कमजोर साबित होती है। भारत में ऐसे चर्चित मामलों को देखें तो बहुत से ऐसे सांप्रदायिक मामले हैं, या मुठभेड़-हत्याओं को मामले हैं, जिनमें सारे बड़े-बड़े लोग छूट गए। अब जिस मामले से, जिस राजनीतिक दल को खुशी होती है, या जिन्हें यह लगता है कि इंसाफ हुआ है उनमें तो उन्हें यह न्याय की जीत लगता है। लेकिन दूसरी तरफ जब किसी मामले में उन्हें निराशा होती है तो वे कहते हैं कि अभी ऊपर की अदालतें बाकी हैं। एक हफ्ते के भीतर ही सामने आए इन दो मामलों में प्रज्ञा ठाकुर का मामला तो अभी एनआईए अदालत का है, जिसके खिलाफ, अगर एनआईए चाहे तो, हाईकोर्ट में अपील की जा सकती है। और दूसरी तरफ मुंबई ट्रेन धमाकों के मामले में हाईकोर्ट से रिहाई के बाद अब सुप्रीम कोर्ट बाकी है। भारत में बहुत से मामलों में निचली अदालत या एनआईए जैसी विशेष अदालत के फैसले कई बार हाईकोर्ट में पलटते हैं, और कई बार हाईकोर्ट के फैसले सुप्रीम कोर्ट में पलटते हैं। इसलिए जब तक देश की आखिरी अदालत से कोई फैसला न हो जाए, तब तक अलग-अलग तबकों की खुशी और गम अस्थायी रहते हैं। यह भी समझने की जरूरत है कि राज्य और केंद्र की सरकारें अपने मातहत काम करने वाली एजेंसियों को प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं, और जब जिस पार्टी की चलती है, ऐसा माना जाता है कि जांच एजेंसियां उनके प्रभाव में काम करती हैं। कई बार अदालतों से जांच एजेंसियों को बहुत बुरी फटकार भी लगती है कि वे अभियुक्तों को मुजरिम साबित करने में पूरी तरह नाकाम रहीं।


