संपादकीय
उत्तराखंड के उत्तर काशी जिले में बादल फटने की एक बड़ी घटना में पहाड़ी नदी में जिस तरह की बाढ़ आई, और उस विकराल जलसैलाब ने जिस तरह नदी के किनारे बनी इमारतों को कागज के खिलौनों की तरह बहा दिया, वह वीडियो देखना भी भयानक है। इसमें सेना का एक कैम्प भी पूरी तरह डूब गया, और करीब दस जवान गायब बताए जाते हैं, दूसरी तरफ गैरफौजी ग्रामीण भी बड़ी संख्या में इधर-उधर लापता हैं, इसलिए मौतों के आंकड़ों पर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी। फिलहाल हम खीर गंगा नाम की इस पहाड़ी नदी की विकरालता पर चर्चा करना चाहते हैं कि इसके सामने इंसान का कोई बस नहीं चलता, और एक बार बादल फट जाने, या बाढ़ आ जाने के बाद दौडक़र जान बचा पाना भी मुमकिन नहीं रहती। लोगों को ध्यान होगा कि दस बरस पहले केदारनाथ में जो बाढ़ आई थी, उसमें हजारों लोगों की मौत का अंदाज है, और यह माना जाता है कि अनगिनत लाशें इधर-उधर लुढक़ी चट्टानोंतले दबी होंगी। फिर खुद उत्तराखंड में, और हिमालय के इलाके के दूसरे प्रदेशों में कई बार जमीन धसकने, पहाड़ खिसककर सडक़ों पर आ जाने, चट्टानों के नदियों में पहुंच जाने जैसे हादसे होते रहे हैं। यह पूरा सिलसिला इन पर्वतीय प्रदेशों को एक खतरनाक जगह बना रहा है, लेकिन न तो स्थानीय राज्य सरकारें, और न ही केन्द्र सरकार इस खतरे का अहसास कर पा रही हैं।
इस उत्तराखंड को देवभूमि कहते हिन्दू, और स्थानीय सरकार थकते नहीं हैं। तीर्थयात्रा का हाल यह है कि पहाड़ी सडक़ें जितनी गाडिय़ां ढो सकती हैं, उससे कई गुना अधिक गाडिय़ां इन्हें रौंदती रहती हैं, चारों तरफ प्रदूषण की वजह से न सिर्फ हवा बर्बाद है, बल्कि इन सडक़ों को बनाने, चौड़ा करने, कहीं पुल और कहीं सुरंग बनाने के लिए इस कमजोर पहाड़ी इलाके को जिस तरह खोखला किया जा रहा है, उसके भयानक नतीजे सामने आ रहे हैं। यह पूरा इलाका अनगिनत हिन्दू तीर्थों से भरा हुआ है, और इसे देवभूमि साबित करने का आग्रह इतना आक्रामक है कि यहां से गैरहिन्दुओं को निकालने और भगाने का एक अलग अभियान चलते रहता है। वैसी साम्प्रदायिकता के बीच जब कभी ऐसी बाढ़ आती है, बादल फटते हैं, पहाड़ धसकते हैं, भूस्खलन होता है, तो मरने वाले अधिकतर लोग स्थानीय हिन्दू ग्रामीण, और हिन्दू तीर्थयात्री ही होते हैं। इतने तीर्थों के रहते हुए भी वहां के भक्तों के ऊपर कुदरत की यह मार कम नहीं होती है क्योंकि यह कुदरत धर्मों के आविष्कार से लाखों बरस पुरानी है, बुजुर्ग है। यह तो इंसानों ने इन जगहों पर अनगिनत तीर्थ बना दिए, धर्मों ने इनका महत्व स्थापित कर दिया, और लोगों की आर्थिक क्षमता ने इसे धार्मिक पर्यटन में बदल दिया। लेकिन क्या नाजुक पहाड़ी जमीन और प्रकृति इतनी ज्यादती के लायक हैं?
बहुत से पर्यावरणविद और पर्यावरण-आंदोलनकारी इन मुद्दों को हमेशा से उठाते रहे हैं कि इन इलाकों में सडक़ और पुलों का ऐसा जाल बढ़ाना जायजा नहीं है। पर्यटकों और तीर्थयात्रियों के लिए लगातार जगह-जगह इमारतें बनाना जायज नहीं है। फिर दिल्ली से ऊपर रवाना होती हुई गाडिय़ां बीच में तो कई-कई दिन तक ट्रैफिक जाम में फंसी हुई थीं, और इन पहाड़ी प्रदेशों में पर्यटन पर्यावरण का दुश्मन बन चुका है। तमाम जानकार लोगों का यह मानना है कि हर प्रदेश असीमित सैलानियों को झेलने के लायक नहीं रहते। पहाड़ों की अपनी एक क्षमता है, और उससे कई गुना अधिक पर्यटक-सहूलियतों को लगातार विकसित करते हुए, जगह-जगह बांध, पुल, और सुरंग बनाते हुए, पहाड़ों पर लगातार प्रदूषण बढ़ाते हुए बर्बादी का जो सिलसिला चल रहा है, वह कब कुदरती तबाही में तब्दील हो जाएगा इसका कोई ठिकाना नहीं रहता है।
इन पहाड़ी राज्यों में कुछ जगहों पर तो स्थानीय लोग कहने लगे हैं कि अब पर्यटक और न आएं। जिस तरह योरप के इटली में पानी की सडक़ों वाले शहर वेनिस ने पर्यटकों की सीमा तय कर दी है, उन पर एक बड़ा टैक्स लगा दिया है, उस तरह की जरूरत भारत के उत्तराखंड और अगल-बगल के पहाड़ी राज्यों में लंबे समय से बनी हुई है। आज यहां पहुंचने वाली गाडिय़ों पर कोई काबू नहीं है, पर्यटकों की खपत पर कोई काबू नहीं है, और जैसा कि देश के हर प्रदेश में स्थानीय सरकार या म्युनिसिपलों का होता है, अवैध निर्माणों पर भी यहां कोई काबू नहीं है। नतीजा यह है कि हर दिन पहाड़ खतरे की तरफ और दो फीट धकेल दिए जा रहे हैं। यहां रहने वाले पर्यटन-अर्थव्यवस्था पर काफी हद तक टिके रहते हैं, लेकिन जब इस दर्जे के हादसे होंगे, तो वह पर्यटन-व्यवसाय भी क्या रह जाएगा? ऐसे एक-एक वीडियो बहुत से लोगों को इस, और ऐसे पहाड़ी राज्यों पर जाने से रोकेंगे।
जिन लोगों का धर्म और ईश्वर पर भरोसा है, उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि उत्तराखंड को एक पूरी तरह हिन्दू राज्य बनाने के अभियान के बाद भी देवभूमि कहे जाने वाले इस राज्य की हिफाजत क्यों नहीं हो पा रही है? क्या इसे पूरी तरह मुस्लिममुक्त करने, और खालिस हिन्दू बनाने के अभियान से हिन्दू-ईश्वर ही खुश नहीं हैं? क्योंकि हिन्दू मान्यताओं के हिसाब से भी देखें, तो उस ईश्वर की मर्जी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता है, फिर ऐसे बड़े-बड़े हादसे क्यों होने चाहिए? क्या ईश्वर को ही अपने ऐसे ‘शुद्धतावादी’ भक्तों की हरकतें पसंद नहीं आ रही हैं? जिन लोगों की धर्म और ईश्वर पर आस्था हो, उन्हें ऐसे सवालों के जवाब भी ढूंढने की कोशिश करनी चाहिए। हमारे किस्म के लोग विज्ञान और प्रकृति के नियमों के आधार पर ऐसी तमाम बातों का विश्लेषण करते हैं, और साम्प्रदायिक और हिंसक आस्थावान लोगों से सवाल भी करते हैं। यह वही उत्तराखंड है जिसे इस देश में हिन्दुत्व की प्रयोगशाला कहा जा रहा है। ऐसे में अगर हिन्दुओं के ईश्वर इससे खुश होते, तो उन्हें तो इस प्रदेश को कोई वरदान देना था, न कि ऐसी कोई प्राकृतिक आपदा। इन सब पहलुओं पर लोगों को अपनी-अपनी सोच के मुताबिक विचार करना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


