संपादकीय
आज ही के अखबारों की कुछ अलग-अलग खबरें हैं, एक खबर ओडिशा से आए एक बच्चा चोर की है जो कि छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के एक सोए हुए परिवार के घर में घुसकर मां-बाप के बीच से छोटे से बच्चे को उठाकर भाग रहा था, और बच्चे के रोने से वह पकड़ में आया तो पता लगा कि वह उसे ले जाकर ओडिशा में बेचने वाला था। तीन लाख से अधिक में वहां कोई बच्चा खरीदने वाला एक पैर पर खड़ा था। एक दूसरी खबर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की है कि दो साल के एक बेटे को खड़ी हुई मालवाहक गाड़ी में एक चिट्ठी के साथ छोडक़र मां या बाप चले गए, और उसमें कुछ बेबसी की बातें लिखी थीं कि लिखने वाले को खुदकुशी करनी है, और इस बच्चे को कोई अपना ले। इन दो घटनाओं को जोडक़र देखें तो हैरानी होती है कि एक तरफ बच्चे की हसरत ऐसी है कि लोग चोरी के बच्चे के लिए लाखों रूपए दे रहे हैं, और दूसरी तरफ इस तरह बच्चे को छोडक़र मां-बाप चले गए। इससे परे की कई और घटनाएं आए दिन सामने आती हैं जिनमें कहीं तालाबों और नालों में नवजात बच्चे फेंके गए मिलते हैं, तो कहीं अपनी औलाद की चाह में लोग दूसरों के बच्चों की बलि चढ़ा देते हैं। इंसानी मिजाज की इतनी किस्में दुनिया में देखने मिलती हैं जितनी कि कुदरत की पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों की विविधता रहती है। आज की एक और खबर है जिसे देखकर भी इस इंसानी पहलू पर लिखना तय किया है। छत्तीसगढ़ के ही सरगुजा में एक फास्ट ट्रैक कोर्ट ने एक दृष्टिहीन नाबालिग लडक़ी से बार-बार बलात्कार करने वाले उसके सौतेले पिता, और रिश्ते के नाना को आखिरी सांस तक उम्रकैद सुनाई है। दो बरस तक सौतेला पिता इस नेत्रहीन नाबालिग लडक़ी से बलात्कार करते रहा, और इसकी जानकारी मिलने पर उसके रिश्ते के नाना ने भी यही काम किया।
अब लोगों को लग सकता है कि ये लोग इंसान नहीं, हैवान हैं। भला कोई इंसान कैसे ऐसी हरकत कर सकते हैं? कैसे कोई इंसान बच्चे चुरा सकते हैं, या अपना बच्चा पाने के लिए, या अपने बच्चे की बीमारी दूर करने के लिए किसी दूसरे बच्चे की बलि दे सकते हैं? कैसे परिवार की ही असहाय और नाबालिग बच्ची से ऐसे वर्जित रिश्तों वाले दो-दो लोग दो-दो बरस तक बलात्कार कर सकते हैं? लोग इसे हैवानियत कहेंगे, और यह मानेंगे कि इनके भीतर कोई मानसिक रोग होगा, ये विकृत सोच के होंगे। लेकिन ऐसे सैकड़ों मामलों को देखकर, और दर्जनों लोगों से होने वाली बातचीत के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि यह सब कुछ इंसानी मिजाज का एक हिस्सा ही है। लोगों के भीतर ऐसी हिंसक भावनाएं भरी रहती हैं, और कई लोग सामाजिक दबाव में, कई लोग पारिवारिक रिश्तों की वर्जनाओं में, और कुछ लोग अदालती सजा के डर से भले बने रहने का मुखौटा ओढ़े रहते हैं। लोगों को जब तक ऐसी हिंसा, और ऐसे जुर्म करने का पहला मौका न मिले, बिना खतरे के न मिले, तब तक तो हर कोई सज्जन बने ही रहते हैं।
परिवार और समाज की व्यवस्था बहुत पुरानी नहीं है, इंसान बहुत पुराने हैं। जब इंसानों में परिवार का ढांचा विकसित होने लगा, जब समाज की एक व्यवस्था कायम हुई, तो इन नियमों को मानना लोगों के लिए बड़ा मुश्किल था क्योंकि इसके पहले तक वे बिना नियमों के अकेले इंसान की तरह रहते थे। आज के आधुनिक मानव का इतिहास करीब तीन लाख साल पुराना है, और परिवार की धारणा वैसे तो इससे भी पुरानी है, लेकिन आज की परिभाषा में देखें तो ये परिवार और समाज उतने पुराने नहीं हैं। इसके भीतर के रिश्ते, वर्जित संबंध, ये इंसान के विकसित होने के बहुत बाद में विकसित हुई व्यवस्थाएं हैं। आज भी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में, अलग-अलग समाजों में ये व्यवस्थाएं अलग-अलग किस्म से विकसित हुई हैं। ऐसे में इंसान, खासकर पुरूष की आदिम भावनाएं कब उस पर हावी हो जाती हैं, यह अंदाज लगा पाना मुश्किल होता है। यही वजह है कि बलात्कार जैसे मामलों में से शायद 99 फीसदी मामले महिला पर पुरूष की हिंसा के रहते हैं, गिने-चुने मामले ही किसी महिला की ज्यादती के रहते हैं, जो कि आमतौर पर किसी नाबालिग लडक़े के शोषण तक सीमित रहते हैं, और उसमें हिंसा की बहुत विविधता नहीं रहती है।
हमको लगता है कि मानवीयता शब्द का न सिर्फ अतिसरलीकरण कर लिया जाता है, बल्कि उसे जरूरत से अधिक गंभीरता से भी लिया जाता है। इंसान के मिजाज की जितनी अच्छी खूबियां हैं उनको मानवीयता या इंसानियत कह दिया जाता है, और जितने किस्म की खामियां हैं, बुराईयां हैं, उन्हें हैवानियत कह दिया जाता है। किसी के हिंसक होने पर कहा जाता है कि उस पर हैवान सवार हो गया था, मानो वह कहीं बाहर से आकर उसके कंधों पर बैठकर उसके दिमाग में हिंसा ठूंस रहा था। ये दोनों किस्म की खूबियां और खामियां इंसान के आम मिजाज का हिस्सा हैं। लोगों को यह मानकर चलना चाहिए कि जो जाहिर तौर पर अच्छे-भले लोग लगते हैं, वे एक सुरक्षित मौका मिलते ही किसी भी हद तक बुरे भी हो सकते हैं। इसलिए बड़े बुजुर्ग समझदारी की यह बात कहते आए थे कि लोगों को खुद ही सावधानी बरतना चाहिए, और वर्जित संबंधों पर आंच न आए, इसलिए लोगों को किसी नाजुक नौबत से भी बचना चाहिए। ऐसी तमाम खबरों का सबक यही है कि किसी इंसान की हिंसक और जुर्म सरीखी सोच के खतरे को नकार नहीं देना चाहिए, लोग पहली नजर में भले लग सकते हैं, और पहला मौका मिलते ही वे बुरे बन सकते हैं। इसलिए हर परिवार, समाज, और संगठन को मानवीय स्वभाव के विकराल खतरों को देखते हुए ही अपने नियम बनाने चाहिए, और उन पर अमल की बड़ी सावधानी बरतनी चाहिए।


