संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : तमाम प्रदेश डूबे हुए हैं भ्रष्टाचार में, उबरें कैसे?
सुनील कुमार ने लिखा है
04-Aug-2025 3:54 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : तमाम प्रदेश डूबे हुए हैं भ्रष्टाचार में, उबरें कैसे?

तस्वीर / ‘छत्तीसगढ़’


हर दिन देश के अलग-अलग प्रदेश से भ्रष्टाचार की जितनी खबरें आती हैं, उन्हें देखकर लगता है कि ऊपर जरूर कोई न कोई ईश्वर है जिसकी वजह से इन सबके बावजूद यह देश चल रहा है। बड़े-बड़े अफसर, बड़े-बड़े नेता जिस किस्म के संगठित और योजनाबद्ध भ्रष्टाचार में जेल जाते हैं, उसे देखकर हैरानी होती है कि केन्द्र या राज्य सरकार की नौकरी क्या लोगों को कुछ भी नहीं सिखा पाती? क्या संविधान की शपथ लेकर काम करने वाले नेताओं पर न उस शपथ का कोई असर होता, और न ही उन्हें पिछले नेताओं को मिली सजा से कोई सबक मिलता? इससे यह भी लगता है कि क्या भारत में शासन प्रणाली असफल हो चुकी है, और महज चुनावी निरंतरता ही इसे एक सफल लोकतंत्र दिखाने का काम कर रही है?

छत्तीसगढ़ को राज्य बने 25 बरस हो रहे हैं, और पहली सरकार से लेकर अभी तक जिस-जिस सरकारी खरीदी की खबर आती है, उसमें भ्रष्टाचार सुनाई पड़ता है, और अगर कोई खुली आंखों से पढऩा चाहे, तो दिखता भी है। सामानों को कई गुना अधिक दाम पर खरीदा जाता है, घटिया सामान खरीदे जाते हैं, बिना जरूरत खरीदे जाते हैं, और बिना इस्तेमाल 10-20 करोड़ की मेडिकल मशीनें भी पड़े-पड़े अस्पताल के दीनहीन मरीज की तरह चल बसती हैं। बिना मशीन उसके रसायन खरीद लिए जाते हैं, कहीं पर मशीन रहती है तो रसायन नहीं, और कहीं ये दोनों रहते हैं तो चलाने वाले नहीं। बहुत पहले एक कहानी सुनी थी कि वन विभाग के वृक्षारोपण के लिए तीन अलग-अलग ठेकेदारों को काम दिया गया था। पहले के जिम्मे गड्ढा खोदना था, दूसरे के जिम्मे उसमें पौधा लगाकर कुछ खाद-मिट्टी डालना था, और तीसरे के जिम्मे उस बचे हुए गड्ढे को मिट्टी से पाटना था। जब यह काम चल रहा था, तो पहले ठेकेदार के मजदूर गड्ढे खोदते चले गए, दूसरे ठेकेदार के मजदूर पहुंचे नहीं थे, तीसरे ठेकेदार के मजदूर उन गड्ढों को भरते चले गए। हम सरकारी कामकाज का यह हाल हर सरकार में देखते आए हैं, पता नहीं सरकारें खुद इसे देख पाती हैं या नहीं। किसी शहर में अगर सडक़ बनती दिख रही है, तो आप मानकर चल सकते हैं कि अगले कुछ दिनों में वहां पर केबल या पाईप लाईन डलना तय है, और नई बनी सडक़ बस कुछ हफ्तों या दो-चार महीनों तक ही रहेगी, और उसके बाद कांक्रीट तोडऩे वाली मशीनें लगाकर उसे पूरा खोद दिया जाएगा। शहरों में हम देखते हैं कि तालाबों और बगीचों में करोड़ों की लागत से फौव्वारे लगते हैं, और उनसे आंसू भी नहीं निकलते। करोड़ों की लागत से शौचालय बनते हैं, लेकिन वहां पानी नहीं पहुंचता, या दरवाजे नहीं लगते। ऐसा लगता है कि सरकारी कामकाज लोगों के कहीं काम न आ जाए, इसकी बहुत फिक्र अफसरों की रहती है, और पानी की टंकी के बड़े-बड़े टॉवर बन जाते हैं, टंकी नहीं लगती, पाईप लाईन बिछ जाती है, और नलकूप नहीं खुदता। जनता के पैसों की बर्बादी पर जवाबदेही मानो किसी की नहीं रहती।

हम अपने शहर में मेडिकल कॉलेज के अहाते में एक कीले की तरह बने हुए सीमेंट-कांक्रीट के बड़े गेट को देखते हैं, अब उसके बगल में उतना ही बड़ा एक और गेट बन रहा है। अस्पताल के भीतर घायलों और बीमारों के पहुंचने पर, कुत्ते के काटे हुए मरीजों के पहुंचने पर जो दड़बे सरीखा एक कमरा है, उसकी जगह ऐसे चार कमरे एक गेट की लागत से बन सकते थे, लेकिन दिखावटी स्वागतद्वार की ज्यादा जरूरत समझी जाती है। कुछ बरस पहले इसी छत्तीसगढ़ में पर्यटन विभाग ने बहुत बड़ी रकम से एक ताकतवर विधायक के इलाके में स्वागतद्वार बनवाया था जिसके आगे पर्यटन की कोई जगह नहीं थी। एक तरफ बजट न होने से लड़कियों के स्कूल में शौचालय नहीं बन पा रहे, दूसरी तरफ शहरों में सडक़ किनारे सीमेंट तोडक़र कांक्रीट ब्लॉक लगाए जाते हैं, फिर उसके ऊपर डामर चढ़ा दिया जाता है, और फिर उसके ऊपर कांक्रीट ब्लॉक लग जाते हैं। जनता के पैसों की सरकारी बर्बादी का कोई अंत नहीं दिखता है, और उस जनता को सरकारी अस्पतालों में सर्जरी के लिए जंग लगी ब्लेड नसीब होती है, अस्पतालों में घटिया दवाएं मिलती हैं, और बाकी सरकारी विभागों का भी यही हाल रहता है।

देश के अधिकतर राज्यों का यही हाल है, कुछ का हाल दूसरों से अधिक खराब भी है। जिन राज्यों में जनता में अपने अधिकारों को लेकर राजनीतिक चेतना और जागरूकता अधिक है, वहां पर वह भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, फिजूलखर्ची, और बर्बादी के खिलाफ उठकर खड़ी भी होती है। लेकिन पूरे देश में आजादी के बाद से नौकरशाही का जो ढांचा बनाया गया था, उसे तो इस हिसाब से बनाया गया था कि वह राज्य की निर्वाचित ताकतों के नाजायज दबाव को झेल सके। इसे एक फौलादी ढांचा कहा गया था। अखिल भारतीय सेवाओं के अफसरों के लिए यह छूट भी थी कि कुछ बरस के बाद वे केन्द्र सरकार की सेवा में कुछ बरस जा सकते हैं, या कि किसी दूसरे राज्य में भी। इन सबके बावजूद आज यह नौबत कैसे आई है कि बहुत से राज्यों में अखिल भारतीय सेवाओं के कई अफसर भ्रष्टाचार में जेल में हैं? छत्तीसगढ़ शायद अपने आकार के हिसाब से इसमें सबसे आगे है जिसमें कई अफसर जेल में हैं, कई अदालती कटघरे में हैं, कई जांच में भ्रष्ट पाए गए हैं, और हैरान करते हुए आज भी आजाद घूम रहे हैं।

ऐसे में कभी-कभी लगता है कि क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून और कड़ा होना चाहिए? सजा और अधिक होनी चाहिए? भ्रष्ट लोगों की संपत्ति पूरी की पूरी जब्त कर लेनी चाहिए? कभी-कभी यह भी लगता है कि चीन जैसे देशों में भ्रष्टाचार पर जैसी सजा है, क्या वैसी सजा इस देश में भी लागू करनी चाहिए? देश में सरकारी नौकरियां गिनी-चुनी रहती हैं, और एक-एक नौकरी के लिए हजारों लोगों में मुकाबला होता है। इतनी मुश्किल से मिली नौकरी में पहुंचने के बाद जल्द ही लोग भ्रष्ट हो जाते हैं, तो उसे रोकने के लिए देश में कोई बेहतर इंतजाम चाहिए। हम भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के खिलाफ, और प्रदेश में होने वाले दूसरे आर्थिक अपराधों को जोडक़र एक खुफिया एजेंसी की जरूरत लिखते आए हैं। किसी भी सरकारी दफ्तर के अहाते में जाकर कुछ देर खड़े हो जाएं, तो वहां के भ्रष्टाचारियों के नाम, और उनके रेट, तौर-तरीके, और जमे हुए ठेकेदार-सप्लायर, सबकी जानकारी आसानी से मिल जाती है। अगर कोई अच्छी खुफिया एजेंसी रहे, तो वह भ्रष्टाचार का घड़ा भरने के पहले उसमें एक-दो लोटा पानी आने पर ही उसे रोक सकती है, उसकी जानकारी सरकार को दे सकती है। दूसरी तरफ सरकारों में बैठे हुए बाकी लोगों पर भी ऐसी एजेंसी नजर रख सकती है। आखिर इस देश की इतनी बड़ी जनता इतनी गरीब है कि वह सरकार से मिले हर महीने के कुछ किलो अनाज की वजह से पेट भर पा रही है। ऐसी जनता के हक के पैसों की खुली लूट करने वाले प्रदेशों की कहानियां हर दिन आती हैं। क्या इस देश में इतनी बड़ी नौकरशाही, मैनेजमेंट के अंतरराष्ट्रीय शोहरत पाने वाले प्रशिक्षण संस्थान मिलकर भी भ्रष्टाचार पर रोक का कोई रास्ता नहीं निकाल सकते? सरकार के कामकाज को जितना करीब से देखें, लोकतंत्र पर से भरोसा उतना ही उठते जाता है, यह एक अलग बात है कि हमने फौजी हुकूमतों को लोकतंत्र के मुकाबले बहुत अधिक भ्रष्ट भी देखा है। भारत को भ्रष्टाचार से उबरने का कोई रास्ता सोचना चाहिए।

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