संपादकीय
भारत के चुनाव आयोग के तौर-तरीकों को लेकर पिछले कई महीनों से लोगों में बेचैनी बनी हुई है। विपक्षी राजनीतिक दलों से परे भी योगेन्द्र यादव सरीखे गैरचुनावी राजनीतिक कार्यकर्ता या लेखक-विचारक भी बहुत परेशान हैं, और सुप्रीम कोर्ट में खुद खड़े रहकर जिरह करने की जरूरत योगेन्द्र यादव को लगी है। दरअसल चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के तौर-तरीकों से लेकर इन कुर्सियों पर बैठे हुए लोगों के बर्ताव, उनके फैसले, और उनकी विपक्षविरोधी हमलावर सोच हैरान करती है कि क्या यह भारत सरकार का एक विभाग ही बन गया है? हमारे पाठकों को याद होगा कि सुप्रीम कोर्ट के बिहार चुनाव को लेकर चुनाव आयोग को दिए गए आदेश के कुछ दिन पहले ही हमने इस अखबार के यूट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल पर उन्हीं बातों को उठाया था जिन पर सुप्रीम कोर्ट ने भी चुनाव आयोग को साफ-साफ निर्देश दिए। 65 लाख लोगों के नाम बिना वजह बताए वोटर लिस्ट से हटा दिए गए थे, और वह लिस्ट भी डिजिटल फॉर्मेट में मुहैया कराने से चुनाव आयोग ने इंकार कर दिया था। हमने इस बारे में कहा था कि इस देश में जो आरटीआई कानून लागू है, वह नाम के लिए तो राईट टू इंफर्मेशन (सूचना का अधिकार) है, लेकिन संविधान की भावना के मुताबिक, लोकतंत्र की भावना के मुताबिक वह रिस्पांसबिलिटी टू इंफॉर्म (सूचना देने की जिम्मेदारी) है। चुनाव आयोग जाने किन वजहों से 65 लाख वोटरों के नाम हटाकर भी उस बारे में जानकारी देना नहीं चाहता था, सुप्रीम कोर्ट ने उसे यह देने पर मजबूर किया है।
कल चुनाव आयोग की प्रेस कांफ्रेंस के बाद एक वीडियो में योगेन्द्र यादव ने जिस तरह अपने सदमे को बखान किया है, उसे हर जिम्मेदार लोकतांत्रिक नागरिक को सुनना और समझना चाहिए। चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट के बाहर, और सुप्रीम कोर्ट के भीतर भी, दोनों जगह एक पेशेवर गवाह की तरह धूर्तता की बातें करते आया है, और वह सुप्रीम कोर्ट में तकनीकी आड़ ले रहा था कि उसे हटाए गए नाम बताने की कोई कानूनी बंदिश नहीं है। लोकतंत्र में जनता के पैसों पर पलने वाली संवैधानिक संस्था जब जनता के बुनियादी हकों के खिलाफ इस तरह की लुका-छिपी खेलने पर उतारू हो जाती है, तो लोकतंत्र के बच पाने की संभावना घटती चलती है। राहुल गांधी के बयानों पर इस चुनाव आयोग के पल भर के भीतर ही जारी किए जाने वाले बयानों को देखें, तो लगता है कि वह कोई अतिसक्रिय राजनीतिक विरोधी है जो कि व्यापक महत्व के कुछ चुनावी-लोकतांत्रिक मुद्दों पर विचार करने के पहले भी उन्हें खारिज कर रहा है, और लोकसभा में विपक्ष के नेता की कही गई सार्वजनिक बातों पर विचार भी करने के पहले उन्हें माफी मांगने की चेतावनी दे रहा है।
हम केन्द्रीय चुनाव आयोग, या केन्द्रीय चुनाव आयुक्त के लिए देश में पिछले कुछ बरसों से इस्तेमाल किए जा रहे संक्षिप्त नाम, केंचुआ के इस्तेमाल से अपने को बचाकर चल रहे थे क्योंकि रेंगने इस प्राणी के लिए रीढ़ की हड्डी कहीं जरूरी नहीं है, और जानवरों की दुनिया में भी केंचुआ को कोई संवैधानिक विशेषाधिकार, सहूलियत, और सुरक्षा हासिल नहीं है। इसलिए प्रकृति ने जिसे अपनी व्यापक डिजाइन के तहत बिना रीढ़ का बनाया है, उसका इस्तेमाल कुछ इंसानों को कोसने के लिए करना ठीक नहीं है। इसलिए हमने केन्द्रीय चुनाव आयुक्त को कभी केंचुआ कहकर नहीं बुलाया है। लेकिन कल जिस तरह चुनावी राज्य बिहार में राहुल गांधी और तेजस्वी यादव सहित वहां के गठबंधन-दलों की मतदाता अधिकार यात्रा शुरू होने के मौके पर चुनाव आयोग ने एक बेमौसमी प्रेस कांफ्रेंस की, वह पूरी तरह से एक राजनीतिक हरकत लग रही थी। और ऐसा भी नहीं कि लोग दो और दो चार की गिनती जानते नहीं हैं, लोगों ने पूरी तरह से यह समझ लिया कि प्रेस कांफ्रेंस के यह दिन और वक्त क्यों छांटे गए। फिर इस प्रेस कांफ्रेंस में आयोग से जितने सवाल किए गए, उनमें से किसी भी संवेदनशील सवाल का जवाब देने से चुनाव आयुक्त बचते रहे। कुछ सवालों को सीधे-सीधे छोडक़र आगे किसी और को सवाल करने कह दिया गया, और यह एक अनोखी प्रेस कांफ्रेंस रही जिसमें दिए तो जाने थे सवालों के जवाब, लेकिन अपने वक्तव्य से परे चुनाव आयोग सारे सवाल तैरते छोड़ गया। अगर जवाब ही नहीं देने थे, तो यह प्रेस कांफ्रेंस की क्यों गई थी? यह साफ जाहिर होता है कि बिहार में विपक्षी राजनीतिक यात्रा को देखते हुए विपक्ष के उठाए मुद्दों का वजन घटाने की एक कोशिश ही यह प्रेस कांफ्रेंस थी, और इसके अंत में कुल एक बात साबित हुई कि विपक्ष और कुछ पत्रकारों के सवाल इतने लाजवाब थे कि आयोग के पास उनका जवाब देने की कोशिश की गुंजाइश भी नहीं थी।
योगेन्द्र यादव ने अपने ताजा वीडियो में कहा है कि वे 40 बरस से चुनाव आयोग को देखते आ रहे हैं, और उन्होंने आज तक कभी भी इस आयोग को इतना कमजोर नहीं पाया था, और कल की प्रेस कांफ्रेंस में तो आयोग साफ-साफ झूठ बोल रहा था। उन्होंने बहुत लंबे बयान में झूठ के इस आरोप का खुलासा भी किया है, और हम इस कॉलम में उनकी पूरी बात लिख नहीं सकते, वह खासी लंबी है, और जिन लोगों को लोकतंत्र से सरोकार है, वे सोशल मीडिया पर उसे ढूंढ सकते हैं। फिलहाल तो चुनाव आयोग के अपने इस दशकों से चले आ रहे नीतिगत फैसले के बारे में सोचने की जरूरत है कि जिस राज्य में जिस बरस चुनाव होने वाले हैं, उस बरस मतदाता-सूची का व्यापक रिवीजन नहीं किया जाएगा। अभी बिहार में ऐसी कौन सी आग लगी हुई थी कि चुनाव आयोग को 65 लाख लोगों के नाम हटाने पड़े, और किनके नाम हटाए, यह डिजिटल फॉर्मेट से छुपाने भी पड़े! सुप्रीम कोर्ट के भीतर और बाहर, हर जगह चुनाव आयोग अपनी विश्वसनीयता खो चुका है। ऐसे में लोगों को याद पड़ता है कि इस देश में टी.एन.शेषन नाम का एक चुनाव आयुक्त हुआ करता था जिसने एक इंटरव्यू में मजाकिया लहजे में कहा था कि वह सुबह के नाश्ते में राजनेताओं को खाता है। जहां तक हमारी जानकारी है, दुनिया के किसी भी देश में, किसी भी तबके में, केंचुओं को खाने का कोई चलन नहीं है। आखिर में चुनाव आयोग ने मुश्किल सवालों से बचने के लिए दौडक़र भारतमाता के पल्लू के पीछे छिपने की कोशिश की। पोलिंग बूथ के आखिरी के घंटों के वीडियो सार्वजनिक करने की मांग पर उसने कहा कि मां-बहन-बेटी के वीडियो देना क्या सही रहेगा?
जिन महिला वोटरों के वीडियो-फोटो खुद चुनाव आयोग जारी करता है, आयोग की इजाजत से मीडिया रात-दिन दिखाता है, उनसे भला महिलाओं की इज्जत को जोडऩा एक संवैधानिक संस्था को शोभा देता है?


