संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आदर्श भारतीय नारी कौन? पति को छोडक़र सास-ससुर की सेवा करने वाली?
सुनील कुमार ने लिखा है
10-Aug-2025 8:12 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : आदर्श भारतीय नारी कौन? पति को छोडक़र सास-ससुर की सेवा करने वाली?

मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने अभी एक सिपाही द्वारा अपनी पत्नी से मांगे गए तलाक की अपील खारिज कर दी, और अपने सास-ससुर के साथ रहने वाली इस पत्नी को आदर्श भारतीय महिला बताया कि पति से करीब दो दशक से अलग रहने के बाद भी इस महिला ने ससुराल वालों के साथ रहना जारी रखा, और सिंदूर-मंगलसूत्र जैसे शादी के प्रतीकों को नहीं छोड़ा। अदालत ने उसे एक हिन्दू आदर्श नारी बताया है, और इस मामले को इस हिसाब से अनोखा बताया है कि पति के त्याग के बावजूद पत्नी के अपने ससुराल में रहना असाधारण है, क्योंकि ऐसे अधिकांश विवादों में पत्नियां या तो अलग रहती हैं, या माता-पिता के पास चली जाती हैं। इस सिपाही ने तलाक की अर्जी लगाई थी कि उसकी पोस्टिंग अलग-अलग जगह होती है, 19 बरस से पत्नी उसके साथ नहीं रहती है, और अपने सास-ससुर के पास रहती है। उसका कहना था कि पत्नी अगर साथ नहीं रह रही है, तो यह तलाक मान्य किया जाना चाहिए। इस मामले में पति का तर्क यह था कि 2006 से उसकी पत्नी बिना किसी पर्याप्त कारण के उसे छोड़ चुकी है जो कि क्रूरता और परित्याग के समान है।

यह बात सही है कि इस महिला ने अपनी मर्जी से सास-ससुर के पास रहना तय किया, उनकी सेवा भी की, और अपने को शादीशुदा मानते हुए मंगलसूत्र और सिंदूर लगाना जारी रखा। इन्हीं सब वजहों से मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के दो जजों, जस्टिस विवेक रूसिया, और जस्टिस बिनोद कुमार द्विवेदी ने उसे आदर्श भारतीय महिला बताया, और कहा कि हिन्दू धारणा के अनुसार विवाह एक पवित्र, शाश्वत, और अटूट बंधन है, और एक आदर्श भारतीय पत्नी अपने पति द्वारा परित्यक्त होने पर भी शक्ति, गरिमा, और सदाचार का प्रतीक बनी रहती है। परित्याग के दर्द के बावजूद वह एक पत्नी के रूप में अपने धर्म का पालन करती है। वह न तो अपने पति की वापिसी की भीख मांगती है, न ही उसे बदनाम करती है, बल्कि शांत-धैर्य, और नेक आचरण को अपनी ताकत के लिए बोलने देती है। अदालत ने इस फैसले में एक जगह यह भी कहा कि एक आदर्श जोड़े को वैवाहिक न्यायालय जाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। इसके साथ ही अदालत ने तलाक की यह अर्जी खारिज कर दी।

यह फैसला कई सवाल खड़े करता है। जजों ने भारतीय संस्कृति, और हिन्दू विवाह से जुड़े हुए कुछ पहलुओं का खासा गुणगान किया है, और मंगलसूत्र-सिंदूर को एक महत्वपूर्ण प्रतीक माना है, और अलग रहने के 19 बरस बाद भी सिपाही की तलाक की अर्जी को खारिज कर दिया है। लेकिन इस मामले में कुछ बुनियादी सवाल उठ खड़े होते हैं। एक पत्नी की प्राथमिक जिम्मेदारी पति के प्रति है, या उसके मां-बाप के प्रति? मां-बाप से उसका रिश्ता तो पति के मार्फत ही बनता है। ऐसे में तबादले पर अलग-अलग जगह जाने वाले पति के साथ न जाकर, 19 बरस जैसा लंबा दौर अलग रहने वाली पत्नी अगर तलाक लेने को तैयार नहीं है, तो ऐसे पति के सामने क्या विकल्प बचता है? वह सरकारी नौकरी में सिपाही है, तबादला उसकी नौकरी का एक हिस्सा है, और न सिर्फ देह-सुख के लिए, बल्कि दाम्पत्य जीवन के लिए भी पत्नी का पति के साथ रहना, या दोनों का एक-दूसरे के साथ रहना एक किस्म से बेहतर नौबत है। इसीलिए जब पति-पत्नी दोनों ही सरकारी नौकरी में रहते हैं, तो सरकार यथासंभव उन्हें साथ-साथ तैनात करती है, एक ही शहर में। यह बात इस हिसाब से भी सही है कि बच्चों की देखरेख के लिए भी मां-बाप दोनों का एक साथ रहना, उनके साथ रहना बेहतर होता है। अब अगर सिपाही ड्यूटी करके घर लौटे, और पत्नी न रहे, तो दाम्पत्य जीवन का औचित्य क्या रह जाता है? ऐसी भारतीय महिला के गुणगान में और सौ पेज लिखे जा सकते हैं, जो पति का विकल्प मंगलसूत्र और सिंदूर को बना ले, और सास-ससुर की सेवा करते हुए जिंदगी गुजार दे। लेकिन क्या यह शादीशुदा जिंदगी के लिए काफी है? क्या पति 19 बरस पत्नी के बिना रह ले? तो फिर शादी की जरूरत भी क्या है? और अगर ऐसी जिंदगी के बाद भी अदालत पति को तलाक नहीं लेने दे रही, तो फिर पति क्या करे? सरकारी नौकरी में रहते हुए वह दूसरी शादी करे, तो उसकी नौकरी जाना तय है। और अगर पूरी जिंदगी इस तरह ब्रम्हचारी बनकर गुजारनी है, तो फिर शादी की जरूरत ही क्या है? देह-सुख से परे भी पारिवारिक जीवन के बहुत से दूसरे पहलू भी रहते हैं जो कि शादीशुदा व्यक्ति को मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ रखते हैं।

हाईकोर्ट के इन दो जजों ने भारतीय आदर्श महिला के जिन पैमानों को गिनाया है, वे पैमाने ससुराल के काम के तो हैं, और महिला के भी सुहागन होने की भावना के काम के हैं, लेकिन ये पैमाने शादी की पहली जरूरत, पति-पत्नी के साथ की, को पूरा नहीं करते। ऐसा लगता है कि इस महिला का त्याग जजों को इतना महत्वपूर्ण लगा है कि उन्होंने सास-ससुर की सेवा को दाम्पत्य-सुख का बेहतर विकल्प मान लिया है। सास-ससुर की बारी तो पति-पत्नी के साथ-साथ आ सकती है, उनसे पहले या उनसे ऊपर तो यह बारी नहीं आ सकती। कई मामलों में हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज एक ऐसा आदर्शवादी नजरिया अपना लेते हैं कि वह न्याय के खिलाफ जाते दिखता है। कल ही हमने राजस्थान हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ अपने यूट्यूब चैनल इंडिया-आजकल पर कहा था कि यह फैसला महिला के बुनियादी अधिकारों के खिलाफ था, और गनीमत कि सुप्रीम कोर्ट ने उस पर रोक लगा दी। राजस्थान हाईकोर्ट के जजों ने बलात्कार के आरोप से घिरे एक व्यक्ति को अग्रिम जमानत के बाद विदेश जाने की छूट इस शर्त पर दे दी थी कि उसकी पत्नी विदेश नहीं जाएगी। अब पत्नी को पति के एक सामान की तरह मान लिया गया था, और रेप-केस में आरोपी-पति के विदेश से लौटने की गारंटी के लिए मानो हाईकोर्ट ने महिला को रहन रख दिया था। गिरवी रखे गए सामान की तरह एक महिला को इस्तेमाल करना पहली नजर में ही बड़ा नाजायज था, और सुप्रीम कोर्ट ने तुरंत ही इस फैसले की आलोचना करते हुए इस पर रोक लगाई। अभी हम मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के जिस फैसले की बात कर रहे हैं, वह फैसला महिला अधिकारों के मामले में राजस्थान के फैसले के ठीक उल्टा है। एमपी हाईकोर्ट ने महिला की मर्जी को इतनी प्राथमिकता दी है, कि उसके पति के पास बाकी जिंदगी पत्नी की क्रूरता बर्दाश्त करने के अलावा कोई रास्ता नहीं छोड़ा है। हमारा ख्याल है कि यह फैसला भी सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचकर, अगर पहुंचा तो, पलट दिया जाएगा, क्योंकि आदर्श भारतीय नारी की गरिमा का गुणगान तो ठीक है, सामान्य भारतीय पुरूष के बुनियादी अधिकारों को भी इस तरह कुचला नहीं जा सकता। देखते हैं आगे क्या होता है? और 19 बरस के अलगाव के बाद अब तलाक के लिए क्या एक सिपाही के पास सुप्रीम कोर्ट तक जाने का हौसला और साधन बचे रहेंगे? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  


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