विचार/लेख
नए दौर के युवा राजनीति को अलग-अलग नजरिए से देख रहे हैं। लडक़े और लड़कियों की राय में फर्क है। यह अंतर ना केवल राजनीति बल्कि समाज पर भी असर डाल रहा है।
डॉयचे वैले पर सोनम मिश्रा का लिखा-
दूसरी पीढिय़ों के साथ तो जेन-जी (90 के दशक के मध्य के बाद जन्मे लोग) के मतभेद व्यापक है ही, हाल में हुए चुनावों में जेन-जी का आपसी मतभेद भी खुलकर सामने आ रहा है। अधिकतर युवकों का झुकाव दक्षिणपंथी विचारों की ओर है जबकि युवतियां वामपंथी विचारों का समर्थन करती नजर आ रही हैं।
यह अंतर ना केवल किसी एक देश में, बल्कि एशिया समेत पश्चिमी देशों में भी साफ देखा जा रहा है। पर्यवेक्षकों के अनुसार युवा पुरुष खुद को पिछड़ा हुआ महसूस करते हैं, जिसके लिए वह विविधता को जिम्मेदार मानते हैं। वहीं, युवा महिलाओं का मानना है कि अब नौकरी के अवसरों में समानता आ रही है।
दक्षिण कोरिया चुनाव में महिलाओं का आक्रोश
उम्मीद की जा रही है कि दक्षिण कोरिया के आगामी चुनावों में युवा महिलाएं मुख्य रूढि़वादी पार्टी के खिलाफ मतदान कर सकती हैं। महीनों से चल रहे उथल-पुथल का नतीजा 3 जून को होने वाले चुनाव के नतीजों में दिख सकता है।
फैशन : विंटेज खजाने की खोज में जेन जी
हालांकि युवा पुरुष इस विरोध में उनका साथ देंगे, ऐसे आसार बहुत कम हैं। कोविड महामारी से पहले तक आमतौर पर दोनों ही वर्ग प्रगतिशील विचारों के लिए वोट करते थे, लेकिन अब यह बदल गया है। हाल के चुनावों में, चाहे उत्तरी अमेरिका हो, यूरोप या एशिया, यह बदलाव साफ दिख रहा है। युवा पुरुष, खासतौर पर 20 साल की उम्र के आस-पास वाले, दक्षिणपंथ का रुख कर रहे हैं। जबकि, युवतियों का झुकाव वामपंथ की ओर है।
पहली बार वोट देने जा रहे दक्षिण कोरियाई युवा, ली जियोंग-मिन ने बताया कि वह 3 जून को राइट-विंग रिफॉर्म पार्टी के उम्मीदवार, ली जून-सिओक को वोट देने वाले हैं।
उम्मीदवार, ली जून-सिओक ने लैंगिक समानता मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ जेंडर इक्वालिटी) को बंद करने का वादा किया है। यह वादा ली जियोंग-मिन जैसे पुरुषों को आकर्षित कर रहा है। उनका मानना है कि केवल पुरुषों के लिए सैन्य सेवा अनिवार्य होना ठीक नहीं है।
उन्होंने कहा, ‘एक युवक होने के नाते मुझे कोरिया का यह नियम बहुत गलत लगता है। जब हम 21 या 22 साल के होते हैं, तब हमें समाज में हिस्सा लेने का पूर्ण मौका नहीं मिल पाता है, क्योंकि उस समय हमें 18 महीने की अनिवार्य सैन्य सेवा करनी पड़ती है।’
युवा पीढ़ी के आलसी होने के आरोप गलत
दक्षिण कोरिया में गैलप कोरिया के किये गए सर्वे में सामने आया कि 18 से 29 वर्ष के लगभग 30 फीसदी पुरुष और केवल 3 फीसदी महिलाएं रिफॉर्म पार्टी का समर्थन करते हैं।
किंग्स कॉलेज लंदन की राजनीतिक अर्थशास्त्री, सूह्युन ली बताती हैं कि बहुत से दक्षिण कोरियाई युवा पुरुषों को लगता है कि वह समाज की अच्छी नौकरी पाना, शादी करना, घर खरीदना और परिवार बसाना जैसी उम्मीदों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं।
उनमें से कई पुरुष इसके लिए नारीवाद को जिम्मेदार मानते हैं। उनका तर्क है कि महिलाओं को नौकरियों में प्राथमिकता दी जाती है। ली ने बताया कि दक्षिण कोरिया में प्रवास काफी कम है। इसलिए अपनी नाकामयाबी का दोष वह आराम से महिलाओं पर मढ़ देते है।’
लोकतंत्र से नाराज गुस्सैल युवा पुरुष
दक्षिण कोरिया समेत कई लोकतांत्रिक देशों में जेन-जी पुरुषों को लग रहा है कि अब उनके पास पहले जैसी सामाजिक ताकत नहीं रही। महामारी के बाद से यह स्थिति अधिक गंभीर हो गई है। कुछ देशों में तो 20 साल के आसपास के युवाओं में वेतन का अंतर भी महिलाओं के पक्ष में अधिक हो गया है।
यूरोपिय संघ के आंकड़ों के अनुसार, फ्रांस में 18-34 साल के पुरुषों ने पिछले साल के चुनावों में दक्षिणपंथी नेता, मरीन ले पेन की पार्टी को महिलाओं की तुलना में अधिक दिया। ब्रिटेन में भी युवा पुरुषों की तुलना में महिलाएं कंजर्वेटिव पार्टी को कम वोट करती हैं। सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि 16-24 वर्ष के पुरुष महिलाओं की तुलना में काम और पढ़ाई दोनों पीछे हैं।
पश्चिमी देशों में भी दक्षिण कोरिया जैसा ही चलन आमने आ रहा है। यहां युवक नौकरियों में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के लिए आप्रवासन और विविधता से जुड़े कार्यक्रमों को जिम्मेदार ठहराते हैं।
जर्मनी में फरवरी में हुए आम चुनाव में प्रवासी विरोधी पार्टी ‘अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी’ (एएफडी) ने रिकॉर्ड 20.8 फीसदी वोट हासिल किए। युवा पुरुषों के समर्थन ने उन्हें मजबूती दी। हालांकि इस पार्टी की नेता खुद एक महिला हैं। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 18-24 साल के पुरुषों में से 27 फीसदी ने एएफडी को वोट दिया। जबकि 35 फीसदी युवा महिलाओं ने वामपंथी पार्टी, ‘लिंके’ का समर्थन किया।
बर्लिन की 18 वर्षीय वोटर, मॉली लिंच, ने लिंके को जलवायु परिवर्तन और आर्थिक असमानता पर उसके रुख की वजह से वोट दिया। उन्होंने कहा, ‘बहुत से युवा पुरुष दक्षिणपंथी प्रचार के झांसे में आ रहे हैं क्योंकि वह परेशान हैं। उन्हें लगता है कि वह अपनी ताकत खो रहे हैं। जबकि असल में वह महिलाओं पर उस ताकत को खो रहे हैं, जो कभी बराबरी की थी ही नहीं।’
यह विभाजन केवल जेन-जी तक सीमित नहीं है। बल्कि, मिलेनियल्स, जो अब 30 से 40 की उम्र में हैं। वह भी इस बदलाव को काफी समय से महसूस कर रहे हैं।
कनाडा में पिछले महीने हुए चुनाव में 35-54 साल के पुरुषों में से 50 फीसदी ने विपक्षी कंजर्वेटिव पार्टी को वोट दिया। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के कनाडा पर लगाए गए टैरिफ के कारण यह चुनाव पूरी तरह से प्रभावित हुआ था। हालांकि, लिबरल पार्टी को हार का डर था लेकिन वह महिला मतदाताओं की बदौलत ट्रंप विरोधी लहर के जरिये फिर से सत्ता में लौट आए।
पोलिंग फर्म, इप्सोस के पब्लिक अफेयर्स के वैश्विक प्रमुख, डैरेल ब्रिकर ने कहा, ‘वह पुरुष जो जिंदगी में कुछ अनुभव ले चुके हैं। अब वह उस मोड़ पर खड़े हैं, जहां वह कहते हैं, ‘यह सब मेरे पक्ष में काम नहीं कर रहा, अब मुझे बदलाव चाहिए।’
कनाडा की पोलिंग कंपनी, नानोस रिसर्च की संस्थापक, निक नानोस सहमति जताते हुए बताती हैं कि सोशल मीडिया लोकतंत्र के गुस्सैल युवा पुरुष की मानसिकता को बढ़ावा दे रहा है। खासकर उन इलाकों में जहां ब्लू कॉलर नौकरियां यानी मजदूरी व कारखानों की नौकरियां खत्म हो चुकी हैं।
यौन रुझान कई तरह के हो सकते हैं। आप बड़े होकर किस लिंग के प्रति आकर्षित होंगे, यह किशोरावस्था में तय होता है। आपके शरीर और आसपास के माहौल का इस पर काफी ज्यादा असर होता है।
डॉयचे वैले पर अलेक्जांडर फ्रॉयंड का लिखा-
दुनिया भर में लाखों लोग 35 साल पहले अचानक ‘स्वस्थ’ हो गए। वह दिन था 17 मई, 1990। जब विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने समलैंगिकता को इंसानी रोगों की सूची से हटा दिया था। तब तक, समलैंगिक प्रेम को एक तरह की मानसिक बीमारी माना जाता था। प्रभावित लोगों को अक्सर सैनिटोरियम या जेलों में बंद कर दिया जाता था। बिजली के झटके देने वाली थेरेपी और दूसरी संदिग्ध मनोचिकित्सक पद्धति से ‘इलाज’ किया जाता था।
बर्लिन चैरिटी अस्पताल में सेक्सोलॉजी और यौन चिकित्सा संस्थान के निदेशक क्लाउस एम बायर ने कहा कि समलैंगिक, उभयलिंगी और ट्रांससेक्सुअल लोग बीमार नहीं हैं और कभी नहीं थे। बायर ने कहा कि इंसानों में यौन आकर्षण अलग-अलग तरह का होता है।
होमोसेक्शुएलिटी पर अब भी सवाल क्यों?
वह कहते हैं, ‘आजकल यह बात समझ में आ गई है कि कोई भी व्यक्ति अपनी पसंद से यह तय नहीं करता कि वह किस लिंग के व्यक्ति के प्रति आकर्षित होगा। यह किस्मत की बात है, अपनी मर्जी की नहीं। यौन रुझान, जिसे विशेषज्ञ ‘यौन पसंद की संरचना' कहते हैं, किशोरावस्था के दौरान विकसित होता है। यह व्यक्ति के सेक्स हार्मोन से प्रभावित होता है। इसी समय यह तय होता है कि उन्हें शारीरिक रूप से क्या आकर्षक लगता है और वे किस तरह का यौन संबंध चाहते हैं।’
बायर के मुताबिक, किशोरावस्था में इस बदलाव के बाद, जो यौन पसंद बनती है वह आमतौर पर बदलती नहीं है। उन्होंने कहा, ‘यौन रुझान किशोरावस्था में विकसित होता है और फिर जीवन भर के लिए स्थिर हो जाता है। भले ही, कुछ लोगों में यौन रुझान बदलने की इच्छा हो। उदाहरण के लिए, अगर सामान्य लोगों की तरह बनने का सामाजिक दबाव हो।’
समलैंगिकता कई जगहों पर समस्या बन गई है
सभी इंसानों के अधिकारों में अपनी यौन पसंद की स्वतंत्रता शामिल है। यौन आकर्षण हमेशा से अलग-अलग तरह का रहा है। यह ना तो कोई नया शौक है, और ना ही सिर्फ खुले विचारों वाले समाजों में ऐसा होता है।
बायर ने कहा, ‘हमारे पास मौजूद आंकड़ों के अनुसार, समलैंगिक रुझान लगभग 3 से 5 फीसदी आबादी में होता है और यह हर संस्कृति में ऐसा ही है। इंसानों में आकर्षण इसी तरह अलग-अलग होता है और इसे किसी और तरीके से नहीं देखा जा सकता है।’ इसलिए, किसी व्यक्ति के यौन रुझान की वजह से उसकी निंदा करना या उसका आकलन करना गलत है।
नेपाल में समलैंगिक शादी को मान्यता
इसके बावजूद, लोगों की यौन पसंद पूरे समाज को दो हिस्सों में बांट देती है। कई बार, इसकी वजह से उन्हें अलग-थलग किया जाता है, उनके साथ भेदभाव होता है और उन्हें सताया जाता है। उदाहरण के लिए, कम से कम 67 देशों में समलैंगिक होना जुर्म है और सात देशों में तो समलैंगिक यौन संबंधों के लिए मौत की सजा भी दी जा सकती है।
-बर्न्ड डेबुसमैन जूनियर
मस्क के जाने की घोषणा भी उसी दिन हुई जब अमेरिका में बीबीसी के सहयोगी सीबीएस ने मस्क के साथ एक साक्षात्कार का हिस्सा जारी किया। इसमें मस्क ने कहा था कि वह ट्रंप के ‘बिग ब्यूटीफुल ‘बजट बिल से ‘निराश’ हैं।
ट्रंप प्रशासन में एलन मस्क का उथल-पुथल भरा 129 दिनों का कार्यकाल समाप्त हो गया है। इस दौरान दुनिया के सबसे अमीर आदमी ने सरकारी खर्च में कटौती की, जिसे लेकर काफी विवाद भी हुआ था।
दक्षिण अफ्रीका में जन्मे अरबपति एलन मस्क ने इसी सप्ताह की शुरुआत में अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर राष्ट्रपति ट्रंप को डिपार्टमेंट ऑफ गवर्नमेंट एफिशिएंसी (डीओजीई) में उनके कार्यकाल के लिए धन्यवाद दिया था।
ट्रंप ने बताया कि वह शुक्रवार को मस्क के साथ ओवल ऑफिस में एक संवाददाता सम्मेलन आयोजित करेंगे।
उन्होंने लिखा, ‘यह उनका आखऱिी दिन होगा। वास्तव में ये आखिरी दिन नहीं होगा क्योंकि वह हमेशा हमारे साथ रहेंगे और हर तरह से हमारी मदद करेंगे।’
ट्रंप सरकार में मस्क का कार्यकाल चार महीने से कम था लेकिन सरकारी विभाग में उनके कार्यशैली ने अमेरिकी सरकार में उथल-पुथल मचा दी। इसका असर वॉशिंगटन में सत्ता के गलियारों से लेकर पूरी दुनिया में दिखा।
आइए कुछ ऐसे तरीकों पर नजर डालते हैं जिनसे मस्क ने अपनी छाप छोड़ी है।
डीओजीई के जरिये कटौतियों का सिलसिला
ट्रंप के व्हाइट हाउस में मस्क ने एक ही मिशन के साथ नौकरी स्वीकार की थी। वह थी सरकारी खर्च में यथासंभव कटौती करना।
उन्होंने ‘कम से कम दो ट्रिलियन डॉलर’ के लक्ष्य के साथ शुरुआत की जो बाद में एक ट्रिलियन डॉलर और अंत में 150 अरब डॉलर तक आ गई।
डीओजीई ने दावा किया है कि उसने आज तक संपत्तियों की बिक्री, पट्टे और अनुदान के रद्दीकरण, ‘धोखाधड़ी और अनुचित भुगतान में कमी’, नियामक बचत और 20 लाख 30 हजार केंद्रीय कार्यबल में से 2 लाख 60 हजार लोगों की कटौती कर 175 अरब डॉलर की बचत की है।
हालांकि आकंड़ों के विश्लेषण में बीबीसी ने पाया कि इस दावे के साक्ष्यों में कमी रही है।
इस मिशन के कारण कई बार विवाद भी पैदा हुआ। इसमें कुछ ऐसे उदाहरण भी शामिल हैं, जिसमें केंद्रीय न्यायाधीशों ने सामूहिक बर्ख़ास्तगी पर रोक लगा दी और कर्मचारियों को फिर से बहाल करने का आदेश जारी कर दिया।
अन्य मामलों में भी प्रशासन को बर्खास्तगी के फैसले से पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा।
फरवरी में हुए एक उल्लेखनीय घटनाक्रम में राष्ट्रीय परमाणु सुरक्षा प्रशासन ने सैकड़ों केंद्रीय कर्मचारियों की बर्खास्तगी पर रोक लगा दी।
इसमें से कुछ अमेरिकी परमाणु हथियार सुरक्षा की जिम्मेदारी संभाल रहे कर्मचारी संवेदनशील पदों पर काम कर रहे थे।
मस्क ने स्वयं कई बार दोहराया कि सामूहिक बर्खास्तगी में अनिवार्य रूप से गलतियां होंगी।
फरवरी में डीओजीई ने मोजाम्बिक के एक क्षेत्र को हमास नियंत्रित गज़़ा समझकर सहायता कार्यक्रम में कटौती कर दी थी।
इसके बाद उन्होंने कहा था, ‘हम गलतियां करेंगे लेकिन हम किसी भी गलती को सुधारने के लिए तुरंत कार्रवाई भी करेंगे।’
डीओजीई का डेटा तक पहुंच बनाने की कोशिश के कारण भी विवाद पैदा हुआ। विशेष तौर पर संवेदनशील ट्रेजरी विभाग तक पहुंच बनाने के लिए किया गया प्रयास, जो लाखों अमेरिकियों की निजी जानकारी नियंत्रित करता है।
सर्वेक्षण बताते हैं कि अमेरिकी नागरिकों के बीच सरकारी खर्च में कटौती लोकप्रिय बनी हुई है, लेकिन मस्क की लोकप्रियता में कमी आई है।
व्यवसाय और राजनीति के बीच धुंधली रेखाएं
ट्रंप के व्हाइट हाउस में एलन मस्क की उपस्थिति ने लोगों को चौंका दिया और संभावित हितों को लेकर सवाल भी उठे। मस्क एक गैर-निर्वाचित ‘स्पेशल गवर्नमेंट एम्पलॉय’ हैं और अमेरिकी सरकार उनकी कंपनियों की ग्राहक है।
उनके कारोबारी साम्राज्य में कई बड़ी कंपनियां शामिल हैं जो अमेरिका और विदेश की सरकारों के साथ व्यापार कर रही हैं।
कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के अनुसार, स्पेसएक्स का अमेरिकी सरकार के साथ 22 अरब डॉलर का अनुबंध है।
कुछ डेमोक्रेट्स ने मस्क पर अपनी सैटेलाइट इंटरनेट सेवा कंपनी स्टारलिंक के लिए विदेश में कारोबार बढ़ाने के लिए अपने पद का लाभ उठाने का भी आरोप लगाया। मार्च में व्हाइट हाउस पर आरोप लगाया गया था कि उसने व्हाइट हाउस के लॉन में उनकी संकट से जूझ रही कार कंपनी टेस्ला के निर्मित वाहनों का प्रदर्शन करके मस्क के व्यवसाय की मदद की। मस्क और ट्रंप दोनों ने ही इस बात को खारिज कर दिया है कि सरकार के साथ उनका काम? विरोधाभाषी या नैतिक रूप से समस्या पैदा करने वाला है।
क्या यह अलगाववाद को बढ़ावा देने वाला कदम है?
दुनिया भर में डीओजीई के साथ मस्क के काम की सबसे ज़्यादा चर्चा उस समय हुई जब विभाग ने छह सप्ताह की समीक्षा के बाद यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (यूएस एड) के 80 फीसदी से ज़्यादा कार्यक्रमों को खत्म कर दिया और बाकी को विदेश मंत्रालय ने अपने में मिला लिया।
मस्क और डीओजीई के नेतृत्व में की गई कटौती ट्रंप प्रशासन द्वारा विदेशों में खर्च को अपने ‘अमेरिका फस्र्ट’ दृष्टिकोण के मुताबिक लाने के लिए व्यापक प्रयास का हिस्सा थी।
यूएस एड में कटौती के कारण अकाल का पता लगाने, टीकाकरण और संघर्ष क्षेत्रों में खाद्य सहायता जैसे कार्य की परियोजनाओं पर शीघ्र ही प्रभाव पडऩे लगा।
इसमें युद्ध से जूझ रहे सूडान में सामुदायिक रसोईघर, तालिबान से बचकर भागी युवा अफगान महिलाओं के लिए छात्रवृत्ति और भारत में ट्रांसजेंडर लोगों के लिए क्लीनिक भी शामिल हैं।
यूएस एड को पूरी दुनिया में अमेरिकी ‘सॉफ्ट पावर’ का एक महत्वपूर्ण साधन माना जाता था। इसके कारण कुछ आलोचकों ने इस बंद किए जाने को वैश्विक मंच पर अमेरिका के घटते प्रभाव का संकेत करार दिया।
अमेरिका की पांच छोटी कंपनियों द्वारा दायर की गई याचिका पर फैसला देते हुए एक अमेरिकी अदालत ने डॉनल्ड ट्रंप के लगाए टैरिफों को अवैध करार दिया। कुछ लोगों ने ‘न्यायपालिका का तख्तापलट‘ बताया है।
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार का लिखा-
अमेरिका के वर्मोंट प्रांत में एक ऑनलाइन साइकिल स्टोर चलाने वाले एक छोटे व्यापारी, न्यूयॉर्क की वाइन आयातक कंपनी और वर्जीनिया की एक इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी समेत कुल पांच छोटे व्यापारियों ने अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की पूरी आर्थिक नीति की चूलें हिला दी हैं। इन कंपनियों की अपील पर अमेरिका की इंटरनेशनल ट्रेड कोर्ट ने ट्रंप के टैरिफ को अवैध बताते हुए रद्द कर दिया। हालांकि ट्रंप सरकार ने फैसले के खिलाफ अपील कर दी है, लेकिन अमेरिका में ट्रंप के टैरिफ के खिलाफ उठती आवाजों को इस फैसले से मजबूती मिली है।
वाइन इंपोर्टर कंपनी वीओएस सेलेक्शंस की अगुआई में अमेरिकी छोटे व्यापारियों ने राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की वैश्विक टैरिफ नीति को अदालत में चुनौती दी थी। कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रपति ने अपने संवैधानिक अधिकारों से आगे जाकर यह फैसला लिया, जिससे व्यापारियों को आर्थिक नुकसान हुआ।
एक छोटी कंपनी, एक बड़ी लड़ाई
न्यूयॉर्क स्थित पारिवारिक वाइन आयातक कंपनी वीओएस सेलेक्शंस ने अमेरिकी न्याय प्रणाली में एक ऐतिहासिक कदम उठाया। ट्रंप द्वारा लगाए गए व्यापक टैरिफों के खिलाफ उन्होंने अदालत में याचिका दायर की, जिसे वर्मोंट के एक ऑनलाइन साइकिल स्टोर और वर्जीनिया की एक इलेक्ट्रॉनिक्स निर्माता कंपनी का भी समर्थन मिला।
वीओएस सेलेक्शंस ने कहा, ‘ये टैरिफ न केवल हमारे व्यवसाय को खतरे में डालते हैं, बल्कि उन पारिवारिक किसानों की आजीविका पर भी असर डालते हैं, जिनकी वाइन हम अमेरिका में बेचते हैं।’ कंपनी ने अपने बयान में यह भी कहा कि इस नीति से छोटे और मंझोले आयातकों को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है, क्योंकि वे बड़े कॉर्पोरेशनों की तरह कीमतों में बदलाव नहीं झेल सकते।
राष्ट्रपति ट्रंप ने अप्रैल में आयात पर एकतरफा और वैश्विक टैरिफ लगाने का ऐलान किया था, जिनमें 10 फीसदी की सामान्य दर से लेकर चीन और यूरोपीय संघ जैसे भागीदारों पर 150 फीसदी तक शुल्क शामिल थे। इन टैरिफों को उन्होंने राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति बताते हुए लागू किया, और इसका आधार बनाया 1977 का अंतरराष्ट्रीय आपातकालीन आर्थिक शक्तियों अधिनियम को।
कोर्ट ने तय की राष्ट्रपति की सीमाएं
अमेरिकी अंतरराष्ट्रीय व्यापार अदालत ने बुधवार को दिए अपने फैसले में स्पष्ट रूप से कहा कि राष्ट्रपति ने इस कानून का दुरुपयोग किया। अदालत ने कहा कि 1977 का अधिनियम राष्ट्रपति को असीमित टैरिफ लगाने का अधिकार नहीं देता है।
तीन जजों की बेंच ने अपने फैसले में लिखा, ‘कोर्ट यह नहीं मानती कि अधिनियम राष्ट्रपति को इतनी असीमित शक्तियां देता है कि वह दुनिया के लगभग हर देश से आने वाले सामान पर मनमाने टैरिफ लगा सकें।’ अदालत ने ट्रंप द्वारा लगाए गए ज्यादातर टैरिफों को अवैध करार दिया और कहा कि यह कांग्रेस के ‘पावर ऑफ द पर्स’ यानी बजट नियंत्रित करने के अधिकारों का उल्लंघन है।
फैसले के अनुसार, व्हाइट हाउस को 10 दिनों में टैरिफ हटाने की प्रशासनिक प्रक्रिया पूरी करनी होगी। हालांकि इनमें से कई टैरिफ पहले ही अप्रैल की शुरुआत में 90 दिन के लिए स्थगित किए जा चुके हैं। अदालत के फैसले के बाद यदि अपील में भी यही निर्णय कायम रहता है, तो जिन व्यापारियों ने टैरिफ का भुगतान किया है, उन्हें ब्याज सहित उसका रिफंड मिल सकता है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) के हालिया आंकड़ों के मुताबिक़, भारत जापान को पीछे छोडक़र दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का दर्जा हासिल करने की ओर है। इस ख़बर के बाद देशभर में इसकी चर्चा तेज हो गई है।
एक ओर कुछ लोग इसे केंद्र सरकार की नीतियों- जैसे ‘डिजिटल इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’ और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर विशेष जोर का परिणाम मानते हैं। उनका कहना है कि इन पहलों ने भारत को वैश्विक मंच पर एक नई पहचान दिलाई है और साथ ही किसानों, मजदूरों और मध्यम वर्ग के लिए उम्मीदें जगाई हैं।
वहीं दूसरी ओर, कुछ आलोचक इस विकास को सतही मानते हैं। उनका तर्क है कि जब तक हर नागरिक को रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिलतीं, तब तक भारत विकसित देशों के बराबर नहीं हो सकता।
इन आंकड़ों पर कई सवाल उठते हैं, जैसे- भारत के इस मुकाम तक पहुंचने में मोदी सरकार की किन नीतियों की मुख्य भूमिका रही?
सवाल ये भी है कि अर्थव्यवस्था के तेजी से बढऩे के बावजूद बेरोजगारी दर अब भी ऊँची क्यों है? इस विकास का असली लाभ किन तबकों को मिल रहा है? डिजिटल क्रांति ने इस बदलाव में कैसी भूमिका निभाई?
अगर सब कुछ इतना बेहतर है, तो फिर अमीर-गरीब के बीच की खाई क्यों बढ़ रही है? और सबसे अहम सवाल- इस आर्थिक प्रगति का आम नागरिक की जिंदगी पर असल असर क्या पड़ा है?
इन सवालों पर चर्चा के लिए ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के वाइस प्रेसिडेंट गौतम चिकरमाने और आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर और अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा शामिल हुए।
आम लोगों की जिंदगी कितनी बदली?
पिछले शनिवार को नीति आयोग के सीईओ बीवीआर सुब्रह्मण्यम ने एक बयान जारी कर भारत के जापान को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने का दावा किया।
इस घोषणा के बाद जहां कुछ अर्थशास्त्रियों ने इसकी सराहना की, वहीं कई विशेषज्ञों ने इस दावे पर सवाल भी उठाए। हर बार जब इस तरह के आंकड़े सामने आते हैं, तो आम लोगों के मन में यह सवाल जरूर उठता है कि क्या इस आर्थिक तरक्की का असर उनकी रोजमर्रा की जिंदगी पर भी पड़ा है।
इस सवाल पर आईआईटी दिल्ली की प्रोफेसर और अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा ने कहा, ‘अगर एक परिवार में एक व्यक्ति पांच लाख रुपये कमा रहा है और दूसरे परिवार में चार लोग मिलकर पांच लाख कमा रहे हैं, तो सिफऱ् आमदनी देखकर यह कहना कि दोनों बराबर हैं, ग़लत होगा। क्योंकि एक परिवार में उस राशि से एक व्यक्ति का ख़र्च चल रहा है, जबकि दूसरे में चार लोगों का।’
‘इसी तरह, देशों की तुलना करते समय भी केवल जीडीपी के आंकड़ों से निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं है। जापान और जर्मनी जैसे देशों की जीडीपी की तुलना भारत से करना उचित नहीं है, क्योंकि भारत की जनसंख्या कहीं ज़्यादा है।’
उन्होंने बताया कि यह जरूर है कि अगर देश में आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ती हैं तो उम्मीद की जाती है कि इसका फायदा सभी वर्गों तक पहुंचेगा। लेकिन इसके दो अहम पहलू हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
उन्होंने पहलुओं को समझाते हुए कहा, ‘पहला सवाल यह है कि आर्थिक गतिविधि किस सेक्टर में हो रही है? अगर निर्माण क्षेत्र (कंस्ट्रक्शन) में विकास हो रहा है, तो निर्माण मजदूरों तक इसका सीधा लाभ पहुंच सकता है। लेकिन अगर यह वृद्धि फाइनेंशियल सेक्टर में हो रही है, तो इसका लाभ सीमित लोगों तक ही रहेगा- और वो पहले से ही ठीक वर्ग के लोग हैं।’
प्रोफेसर और अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा ने कहा कि यह समझना जरूरी है कि देश किन क्षेत्रों में निवेश और विकास पर जोर दे रहा है। कौन-से सेक्टर तेजी से बढ़ रहे हैं और उनका बाकी अर्थव्यवस्था के साथ कितना गहरा जुड़ाव है।
रीतिका खेड़ा ने कहा, ‘जब हम जीडीपी ग्रोथ रेट की बात करते हैं, तो हमें यह सेक्टर-वाइज देखना चाहिए- जैसे कृषि में कितनी वृद्धि हुई, मैन्युफैक्चरिंग में कितना विकास हुआ। इससे यह साफ होता है कि क्या यह आर्थिक प्रगति सभी तक समान रूप से पहुंच रही है या केवल कुछ सीमित क्षेत्रों में ही सिमट कर रह गई है।’
लेकिन ऑब्जर्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के वाइस प्रेसिडेंट गौतम चिकरमाने का मानना है कि हर अर्थव्यवस्था में कुछ वर्ग असंतुष्ट हो सकते हैं।
गौतम चिकरमाने ने कहा, ‘मुझे समझ नहीं आता कि ये आलोचना आ कहां से रही है। ऐसा कौन-सा कॉन्स्टिट्यूएंसी है जिसे आर्थिक विकास का लाभ नहीं मिला? मुझे एक भी ऐसा क्षेत्र नहीं दिख रहा जिसका इससे कोई फ़ायदा न हुआ हो- चाहे वो कृषि हो, मैन्युफैक्चरिंग, एंटरप्रेन्योरशिप या न्यूनतम वेतन। हर क्षेत्र में किसी न किसी रूप में फ़ायदा हुआ है।’
उन्होंने कहा, ‘हर अर्थव्यवस्था में कुछ वर्ग असंतुष्ट हो सकते हैं, और लोकतंत्र में तो ये आवाज़ें उठना स्वाभाविक भी है।’
आलोचना पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा, ‘मुझे ये भी समझ नहीं आता कि लोग किस डेटा के आधार पर कह रहे हैं कि असमानता बढ़ गई है, अमीर और अमीर हो गए हैं, और गऱीब वहीं के वहीं हैं।’
सरकारी आंकड़ों पर सवाल क्यों?
चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के इन दावों के बीच कुछ लोगों का कहना है कि भारत एक विशाल आबादी के साथ आर्थिक रूप से सही दिशा में प्रगति कर रहा है जबकि कुछ अर्थशास्त्रियों ने जीडीपी के बारे में दावा करने में जल्दबाजी करने की ओर इशारा किया है।
सरकार जब भी कोई आर्थिक आंकड़ा जारी करती है, तो उस पर अक्सर सवाल उठते हैं। लेकिन ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के वाइस प्रेसिडेंट गौतम चिकरमाने का मानना है कि इतने बड़े स्तर पर आंकड़े केवल सरकार ही जुटा सकती है, और उन्हीं पर भरोसा किया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा, ‘दुनिया भर में एक ही डेटा प्वाइंट होता है, और वो डेटा सरकारें ही इक_ा करती हैं। किसी और के पास इतनी क्षमता नहीं है। अगर आप कहें कि सरकार ग़लत है, वर्ल्ड बैंक ग़लत है, आईएमएफ़ ग़लत है, एडीबी (एशियन डेवलपमेंट बैंक) ग़लत है, यूनाइटेड नेशंस भी ग़लत है- तो फिर सही कौन है? ये मुझे बता दीजिए, मैं उन आंकड़ों से बहस करने को तैयार हूं।’
इस मुद्दे पर रीतिका खेड़ा ने कहा कि सरकारी आंकड़ों पर सवाल उठाना कोई नई या गलत बात नहीं है।
उन्होंने समझाया, ‘मान लीजिए किसी देश में केवल दो लोग हैं- एक की आय एक लाख है और दूसरे की चार लाख। ऐसे में कुल जीडीपी पांच लाख हो गई और औसतन प्रति व्यक्ति आय 2।5 लाख हो गई। लेकिन इससे असल आर्थिक स्थिति नहीं समझी जा सकती। अगर सरकार अमीर व्यक्ति से दो लाख लेकर गऱीब को दे दे, तो कुल जीडीपी तो वही रहेगी, लेकिन गऱीब की हालत बेहतर हो जाएगी।’
उन्होंने कहा कि यही वजह है कि ‘हमें आय के वितरण पर ध्यान देना चाहिए। अगर अमीरों से लेकर गऱीबों को दिया जाए, तो असमानता के मुद्दे काफ़ी हद तक सुलझ सकते हैं।’
सरकारी आंकड़ों को लेकर उन्होंने कहा, ‘जीडीपी के आंकड़े कैसे कैलकुलेट होते हैं, उस पर लंबे समय से विवाद होते आए हैं। मेरे हिसाब से हमें सरकारी आंकड़े जरूर देखने चाहिए, लेकिन उन पर सवाल उठाना भी जरूरी है और यह बिल्कुल जायज़ है।’
उन्होंने कहा, ‘जहां तक भारत के जीडीपी रैंक की बात है, मुझे फिलहाल उस आंकड़े पर कोई खास शक नहीं है, लेकिन मैं मानती हूं कि यह सही पैमाना नहीं है। अगर हमें किसी चीज़ से तुलना करनी है, तो वह प्रति व्यक्ति आय होनी चाहिए, न कि कुल जीडीपी।’
- नित्या पांडियन
‘दोपहर का समय था। मेरी मां, मैं और मेरी बहन पिता के आने का इंतजार कर रहे थे। उस दिन रविवार था और घर में नॉन वेज बना था। लेकिन पापा के आने में देर हो गई। मां ने मुझे और बहन को खाना खिला दिया और खुद उनके आने का इंतज़ार करती रहीं। उस दिन दोनों ने शाम के पाँच बजे दोपहर का खाना खाया।’
‘पिछले 30 सालों में, मेरी मां ने शायद हर दिन इसी तरह से अपना खाना खाया होगा। मुझे याद नहीं कि कभी उन्होंने हमारे साथ बैठकर खाना खाया हो।’
चेन्नई में रहने वाले प्रशांत बीबीसी से अपनी बात कुछ ऐसे कहते हैं।
मैंने घरों में महिलाओं के खाने के तौर-तरीकों पर जहां भी बात की, ज़्यादातर जगहों पर यही स्थिति देखने को मिली।
खाना, यानी महिलाएं जो खाती हैं, एक ऐसी गतिविधि है जिस पर बहुत कम बात होती है।
लेकिन बहु-सांस्कृतिक भारतीय समाज में महिलाओं के खाने को लेकर चर्चा आखऱि कब होती है?
क्या कभी महिलाओं के स्वास्थ्य को गंभीरता से लिया जाता है?
खाने की राजनीति में महिलाओं के हिस्से के खाने को किस नजऱ से देखा जाता है?
क्या हमारे खाने की संस्कृति में भी पितृसत्तात्मक सोच गहराई से शामिल है?
परंपरा के तौर पर अपनाना
बीबीसी से कई महिलाओं ने कहा, ‘महिला को अक्सर त्याग की देवी के तौर पर दर्शाया जाता है। कई मौकों पर महिलाओं से ये अपेक्षा की जाती है कि वह ख़ुद से ऊपर परिवार नामक संस्था को रखे। यह अपेक्षा महिलाओं से पीढिय़ों से रखी जा रही है।’
चेन्नई में रहने वाली आनंदी ने बीबीसी से बात करते हुए उस सलाह को याद किया जो उनकी मां ने उन्हें शादी के दौरान दी थी। उस समय आनंदी 21 साल की थीं।
आनंदी बताती हैं, ‘मां खुद के लिए कुछ नहीं पकाती हैं। सबके खाने के बाद जो कुछ खाना बचता था, वो वही खाना खा लेती थीं। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं चाहती हूं कि तुम भी ऐसी ही बनो।’
आनंदी ने कहा, ‘मुझे नहीं पता कि मेरी मां और दादी ने कभी अपनी पसंद का खाना पकाया या नहीं। लेकिन उन्होंने हमेशा सबके खाने के बाद ही खाना खाया होगा।’
सत्या एक किसान परिवार से आती हैं। उन्होंने बीबीसी को बताया, ‘जब मेरी शादी हुई तो एक दिन दोपहर में मुझे भूख लग रही थी, मैंने खुद के लिए खाना बनाकर खा लिया। इसके बाद जब शाम को मेरी सास आईं तो उन्होंने कहा कि क्या चार बजे किसान के घर खाना बना कर खाने से परिवार में समृद्धि आएगी।’
‘उसके बाद से मैंने शाम को खाना खाना पूरी तरह से बंद कर दिया। भले ही मुझे कितनी भी भूख क्यों न लगी हो।’
क्या ये चलन हर जगह है?
बीबीसी से कई महिलाओं ने अपने अनुभवों को साझा किया।
एक महिला ने कहा, ‘हमारे घर में पुरुषों को जब खाना दिया जाता है तो उन्हें खाना अच्छे तरीके से भरपूर सब्जियों के साथ परोसा जाता है जबकि महिलाओं की थाली में बचा हुआ खाना ही आता है।’
‘नॉन वेज खाने में से भी मीट का सबसे अच्छा हिस्सा हमेशा पुरुषों को ही परोसा जाता है।’
उन्होंने कहा, ‘अगर हमारे घर में पिता और भाई नहीं होते हैं तो हमारे घर में उस दिन नॉन वेज खाना नहीं बनता है।’
सुमैया मुस्तफा एक ऐसे तमिल मुस्लिम परिवार से आती हैं जहां समाज मातृ-सत्तात्मक व्यवस्था में जीता है।
वह कहती हैं, ‘अन्य समुदायों की तुलना में यहां भोजन की राजनीति थोड़ी अलग है। हमारे इलाके़ में शादी के बाद पुरुषों के अपनी पत्नी के घर आकर रहने की परंपरा है। चूंकि महिलाएं घर की मुखिया होती हैं, इसलिए उन्हें पुरुषों की तुलना में अधिक सुविधाएं और विशेषाधिकार मिलते हैं।’
सुमैया एक लेखिका हैं जो भारत के तटीय शहरों में रहने वाले छोटे जातीय समूहों की संस्कृति और भोजन पर रिसर्च कर रही हैं। वे थुथुकुडी जिले के कयालपट्टिनम की मूल निवासी हैं।
कभी सोचा है कि आपका पेंशन, निवेश और पैसे खर्च करने का तरीका भी जलवायु को प्रभावित करता है? और टिकाऊ तरीके असल में असरदार होते भी हैं या नहीं?
डॉयचे वैले पर हॉली यंग का लिखा-
कई लोग इस बात से अनजान होते हैं कि पैसे खर्च करने का उनका निजी फैसला, जलवायु परिवर्तन पर कितना असर डालता है। लोग अक्सर खाने-पीने, यात्रा और खरीदारी करने जैसे फैसलों में तो पर्यावरण का ध्यान रखते हैं, लेकिन पैसों से जुड़े फैसले लेते वक्त वह पर्यावरण को नजरअंदाज कर देते हैं। यूनाइटेड किंगडम की संस्था, माय मनी मैटर के एक विश्लेषण में सामने आया कि अगर लोग अपने पेंशन स्कीम के लिए एक सस्टेनेबल कंपनी को चुनते हैं तो उनका कार्बन फुटप्रिंट बाकी तरीकों जैसे शाकाहारी बनने और बिजली कंपनियां बदलने की तुलना में 20 फीसदी अधिक घटाया जा सकता है।
जीवाश्म ईंधन को बैंक कैसे बढ़ावा देते हैं?
अनुमानित तौर पर 2023 में दुनिया के 60 सबसे बड़े बैंकों ने जीवाश्म ईंधन उद्योग में लगभग 705 अरब डॉलर लगाए और 2015 में हुए पेरिस समझौते के बाद से लेकर अब तक कुल 6.9 ट्रिलियन डॉलर का निवेश किया जा चुका है। इस पैसे का ज्यादातर हिस्सा ऐसे प्रोजेक्टों में लगाया जा रहा है, जो तेल, कोयला और गैस के स्रोतों को बढ़ावा देने के लिए है। जबकि वैज्ञानिक पहले ही साफ कह चुके हैं कि ऐसा करना जलवायु संकट को और गंभीर बना देगा।
अमेरिकी रिसर्च संगठन, ऑइल चेंज इंटरनेशनल के रणनीतिकार, एडम मैकगिब्बन ने कहा कि हमारा पैसा कई बार जाने-अनजाने में इसके लिए जिम्मेदार बन जाता है। वह बैंक खाता, पेंशन फंड या बीमा किसी भी रूप में हो सकता है, जिसे कई बार हमारी जानकारी के बिना जीवाश्म ईंधनों में निवेश कर दिया जाता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि निजी पैसे से जीवाश्म ईंधनों को मिल रहे फंड का सटीक अनुमान लगाना मुश्किल है, क्योंकि इनकी वित्तीय प्रणाली काफी जटिल होती है और हर व्यक्ति का निवेश करने का तरीका भी अलग होता है।
कॉर्पोरेट बैंकों के फाइनेंस का लेखा-जोखा रखने वाले अंतरराष्ट्रीय एनजीओ, बैंकट्रैक के नीति विश्लेषक, क्वेंटिन ऑबिनो बताते हैं कि इस तरह की फंडिंग उनके रिटेल हिस्से के जरिये नहीं होती, जहां आम लोगों का पैसा रखा जाता है। बल्कि ज्यादातर बैंकों के कॉर्पोरेट होते हैं, जिसके जरिए जीवाश्म ईंधन से जुड़े प्रोजेक्टों के लिए कंपनियों को लोन देते हैं।
अगले कई सालों तक गर्मी से नहीं मिलने वाली राहत
मैकगिब्बन यह भी बताते हैं कि बैंक हमारे पैसे का इस्तेमाल अपने बिजनेस को बढ़ाने, ज्यादा मुनाफा कमाने और निवेशकों को आकर्षित करने के लिए भी करते हैं। उनके मुताबिक, बैंक हमारी बचत का इस्तेमाल’ अपनी बैलेंस शीट को बड़ा दिखाने के लिए करते हैं ताकि वह उन कॉर्पोरेट क्लाइंट को सेवाएं दे सकें,’ जो जीवाश्म ईंधन के व्यवसाय से जुड़े होते हैं।
हमारा पैसा और लगातार बढ़ता वैश्विक तापमान
यूके के ट्रांजिशन पाथवे इनिशिएटिव सेंटर की कार्यकारी निदेशक, कारमेन नूजो ने कहा कि जब निवेश की बात आती है, तो स्टॉक या बॉन्ड के जरिए कुछ व्यक्तिगत निवेश सीधे तौर पर जीवाश्म ईंधन उद्योग में चला जाता है।
उन्होंने कहा, ‘इसमें तेल और गैस कंपनियों में निवेश शामिल है, जो हाल के वर्षों में काफी आकर्षक और लाभकारी रहे हैं। इसके अलावा उन कंपनियों में भी भारी निवेश होता है, जो अपने उत्पादन और सेवाओं के लिए जीवाश्म ईंधन पर निर्भर हैं, जैसे स्टील उद्योग या विमानन क्षेत्र।’
इसके अलावा बहुत से लोग पेंशन फंडों के जरिए भी ‘ब्राउन कंपनियों’ में निवेश कर रहे होते हैं। ब्राउन कंपनियां यानी ऐसी कंपनियां जो सबसे ज्यादा ग्रीनहाउस गैसें और कार्बन उत्सर्जन करती हैं। पेंशन फंड आमतौर पर सरकार, नियोक्ता या निजी कंपनियों द्वारा नियंत्रित किए जाते हैं।
मैकगिब्बन ने कहा, ‘आप अपनी पेंशन के लिए पैसा जमा करते हैं। फिर वह पैसा आपके बदले निवेश किया जाता है, वह भी ऐसी कंपनियों में, जो यह करने में जुटी हैं कि आपकी रिटायरमेंट तक दुनिया अस्थिर और जीने के लिहाज से मुश्किल हो जाए।’
हाल ही में हुए अध्ययनों के मुताबिक, अगर दुनिया का तापमान 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है, तो एक आम व्यक्ति औसतन 40 फीसदी तक गरीब हो जाएगा। इसके अलावा, अमेरिका और कनाडा में पेंशन फंड से मिलने वाला लाभ भी 2040 तक 50 फीसदी घट सकता है, क्योंकि उनके निवेश जलवायु से जुड़ी गंभीर घटनाओं की चपेट में होंगे।
पेंशन फंड दुनिया के सबसे बड़े जीवाश्म ईंधन निवेशकों में से एक हैं। एक अमेरिकी-कनाडाई अभियान, क्लाइमेट सेफ पेंशन्स के अनुसार, पेंशन फंडों से इस उद्योग में करीब 46 ट्रिलियन डॉलर का निवेश किया गया है और वह इस क्षेत्र के 30 फीसदी शेयरों के मालिक हैं। इसके अलावा यह फंड अफ्रीका में जीवाश्म ईंधन विस्तार के सबसे बड़े फाइनेंसरों में से एक हैं। 2023 में जर्मनी की खोजी पत्रकारिता संस्था, करेक्टिव ने खुलासा किया कि जर्मनी के 16 में से 10 राज्यों ने अपने पेंशन फंड का निवेश जीवाश्म ईंधन क्षेत्र में किया हुआ है।
साफ निवेश के विकल्प कौन से हैं?
हालांकि, जरूरी नहीं कि सभी ग्रीन बैंक बेहतर विकल्प दें, लेकिन जर्मन गैर-सरकारी संगठन, उर्गेवाल्ड की वित्तीय शोधकर्ता, कातरीन गांसविंट ने कहा कि पर्यावरण को लेकर जागरूक लोगों में अब टिकाऊ और पर्यावरण-अनुकूल वित्तीय विकल्पों की मांग तेजी से बढ़ रही है।
आजकल ऐसे कई ग्रीन बैंक हैं, जो यह वादा करती हैं कि वे जीवाश्म ईंधन कंपनियों को कर्ज नहीं देंगी और केवल जलवायु-अनुकूल परियोजनाओं में ही निवेश करेंगी। इसके अलावा, जैसे-जैसे जागरूकता बढ़ रही है। वैसे-वैसे कई ऑनलाइन विकल्प भी सामने आ रहे हैं जैसे बैंक डॉट ग्रीन, जो उपभोक्ताओं को यह परखने में मदद करता है कि कौन सा बैंक पर्यावरण के प्रति कितना जिम्मेदार है।
नूजो बताती हैं कि वित्तीय जानकारी की कमी अब भी एक बड़ी चुनौती है। वह कहती हैं, ‘जिन देशों में ज्यादातर लोगों के पास पेंशन होती है। वहां लोग यह नहीं जानते कि उनकी पेंशन का निवेश कहां किया जा रहा है या फिर वह नियमित रूप से अपने विकल्पों को जांचते नहीं हैं।’
गांसविंट ने बताया कि पेंशन जैसी चीज, जो लंबी अवधि निवेश है, बदलाव लाने का एक प्रभावी जरिया हो सकती है। वह कहती हैं, ‘पेंशन फंड का असर बड़ा होता है, क्योंकि निवेश के तौर पर वह बहुत बड़ी रकम होती है।’ मेक माय मनी मैटर के अनुमान के अनुसार यूके की पेंशन इंडस्ट्री 2035 तक लगभग 1.2 ट्रिलियन यूरो का निवेश अक्षय ऊर्जा और जलवायु समाधान के क्षेत्र में कर सकती है। हालांकि, ग्रीन पेंशन का परिदृश्य अब बदल रहा है। उदाहरण के तौर पर नीदरलैंड के सरकारी कर्मचारियों, शिक्षकों और स्वास्थ्यकर्मियों के पेंशन फंडों ने जीवाश्म ईंधन कंपनियों से अपना निवेश वापस ले लिया है और यूके की बड़े पेंशन योजनाओं के लिए अब यह अनिवार्य कर दिया गया है कि वह अपने निवेश के जलवायु जोखिमों की रिपोर्ट दें।
-संदीप राय
भारत के वायुसेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह ने गुरुवार को महत्वपूर्ण डिफेंस सिस्टम की खरीद और उसकी डिलीवरी में हो रही देरी पर चिंता जाहिर करते हुए घरेलू रक्षा क्षेत्र पर कुछ गंभीर सवाल खड़े किए।
एक कार्यक्रम में उन्होंने किसी भी डिफ़ेंस प्रोजेक्ट के समय से पूरा न होने का जिक्र किया और घरेलू डिफेंस डील पर कुछ अहम बातें कहीं।
भारतीय वायुसेना सैन्य हार्डवेयर की कमी से लंबे समय से जूझ रही है और उसके पास अत्याधुनिक स्टेल्थ विमान नहीं हैं। भारतीय रक्षा मंत्रालय ने हाल ही में ‘पांचवीं पीढ़ी के स्टेल्थ’ लड़ाकू विमानों के घरेलू उत्पादन को मंजूरी दी है। लेकिन अभी इसके बनने और फिर तैनाती में काफी वक्त है।
वायुसेना प्रमुख के बयान का पूर्व वायुसेना प्रमुख एयर चीफ़ मार्शल वीआर चौधरी (रिटायर्ड) ने समर्थन किया है।
समाचार चैनल एनडीटीवी से बात करते हुए एयर चीफ मार्शल वीआर चौधरी (रिटायर्ड) ने कहा, ‘जिन लोगों को आप ऑर्डर देते हैं, उनसे ठोस आश्वासन लेने की जरूरत है कि वादे के मुताबिक तय सीमा के भीतर काम पूरा करेंगे। यदि वे काम पूरा करने में विफल रहते हैं, या अगर उन्होंने हमें कुछ साल पहले बताया होता कि हम समय-सीमा में काम पूरा नहीं कर पाएंगे, तो शायद वैकल्पिक रास्ते खोजे जा सकते थे।’
रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि रक्षा खरीद और डिलीवरी में एक लंबा गैप और तय समय से कई गुना ज़्यादा देरी के कारण हताशा बढ़ रही है और एयर चीफ मार्शल का बयान इसी को दर्शाता है।
पिछले महीने 22 अप्रैल को जम्मू और कश्मीर के पहलगाम में हुए चरमपंथी हमले और सात मई को पाकिस्तान के अंदर भारत के हवाई हमले के बाद दोनों देश आमने-सामने आ गए थे। 10 मई को संघर्ष विराम पर सहमति बनने से पहले चार दिनों तक दोनों ओर से ड्रोन, मिसाइल से हमले और सीमा पर भारी गोलाबारी हुई। चार दिन की इस सैन्य झड़प के बाद भारत में रक्षा तैयारियों को तेज़ करने पर चर्चा ने जोर पकड़ लिया है।
विशेषज्ञों का कहना है कि एयर चीफ मार्शल के बयान को भारत की तैयारियों में और अधिक फुर्ती लाने की जरूरत के संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
एयर चीफ़ मार्शल ने क्या कहा?
गुरुवार को कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआईआई) के सालाना बिजनेस सम्मेलन में बोलते हुए एयर चीफ मार्शल अमर प्रीत सिंह ने कहा कि ‘ऐसा एक भी प्रोजेक्ट नहीं है, जो समय पर पूरा हुआ हो।’
एयर मार्शल ने कहा, ‘हमें डील पर साइन करते वक़्त ही ये पता होता है कि वो चीजें समय पर कभी नहीं आएंगी। समय सीमा एक बड़ा मुद्दा है और मुझे तो ये लगता है कि एक भी परियोजना अपने तयशुदा समय पर पूरी नहीं हुई है। हम ऐसा वादा क्यों करें जो पूरा नहीं हो सकता?’
दिल्ली में हुए इस सम्मेलन के दौरान उन्होंने कहा, ‘हम सिर्फ ‘मेक इन इंडिया’ की बात नहीं कर सकते। अब वक़्त है ‘डिज़ाइन इन इंडिया’ का भी।’
भारत सरकार स्वदेशी हथियार विकसित करने की कोशिश में लगी है। लेकिन अभी भी भारत के हथियारों का बड़ा हिस्सा विदेश से आता है। कई बार इनकी खरीद के फैसले और डिलीवरी में देरी हो जाती है। एयर चीफ मार्शल इसी संदर्भ में बात कर रहे थे।
उन्होंने कहा, ‘कांट्रैक्ट पर हस्ताक्षर करते हुए, हमें यक़ीन होता है कि यह जल्द अमल में नहीं आने जा रहा लेकिन हम ये सोचकर इस पर हस्ताक्षर करते हैं कि आगे क्या करना है, बाद में देखेंगे। स्वाभाविक रूप से प्रक्रिया पटरी से उतर जाती है।’
एयर चीफ़ मार्शल के इस बयान को 83 हल्के लड़ाकू विमान तेजस एमके 1ए की डिलीवरी में देरी के संदर्भ में देखा जा रहा है जिसके लिए हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) से साल 2021 में करार हुआ था।
एचएएल से ही भारतीय वायुसेना ने 70 एचटीटी-40 बेसिक ट्रेनर विमान की खऱीद पर भी समझौता किया था, जिनकी तैनाती इसी साल सितंबर में तय है।
एयर चीफ मार्शल ने कहा, ‘जहां तक एयर पॉवर का सवाल है, हमारा फोकस इस बात पर है कि हमारे पास क्षमता और सामर्थ्य हो। हम सिर्फ भारत में उत्पादन के बारे में बात नहीं कर सकते, हमें भारत में ही डिज़ाइनिंग और डेवलपमेंट का काम शुरू करने ज़रूरत है।’
उन्होंने रक्षा बलों और उद्योग के बीच भरोसा और खुले संवाद की ज़रूरत पर बल देते हुए कहा, ‘जहां तक मेक इन इंडिया प्रोग्राम की बात है, आईएएफ अपनी पूरी कोशिश लगा रही है।’
उन्होंने कहा कि पहले आईएएफ बाहरी चुनौतियों पर अधिक ध्यान दे रही थी लेकिन मौजूदा हालात ने उसे यह बात महसूस कराई है कि आत्मनिर्भरता ही एकमात्र समाधान है।
उन्होंने कहा, ‘अब हमें भविष्य के लिए तैयार होने के लक्ष्य से तैयारी करने की जरूरत है। यही चिंता है। हो सकता है कि अगले 10 सालों में भारतीय उद्योग और रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) और अधिक उत्पादन करें लेकिन आज जिस चीज की जरूरत है, वह आज की जरूरत है।’
उनका कहना कि अभी तैयार हो रही चीजों के लिए थोड़ी तेजी वाले ‘मेक इन इंडिया’ प्रोग्राम की जरूरत है।
क्या कहते हैं एक्सपर्ट?
रक्षा मामलों के जानकार राहुल बेदी ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि ‘रक्षा मंत्रालय में जो सिस्टम चल रहा है, उससे सैन्य बलों में भी हताशा है क्योंकि समय की कोई पाबंदी नहीं है।’
राहुल बेदी कहते हैं, ‘किसी भी रक्षा समझौते की प्रक्रिया में ये स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कॉन्ट्रैक्ट शुरू होने के बाद प्रोजेक्ट को 36 से 40 महीने में पूरा हो जाना चाहिए। इस दौरान 12 चरण से होकर गुजऱना पड़ता है और हर चरण में कोई न कोई रुकावट और देरी होती है। इसीलिए इन प्रोजेक्ट्स में औसतन सात से दस साल लग जाते हैं।’
वह ताजा ‘एडवांस्ड मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट’ (एएमसीए) का उदाहरण देते हैं जिसको भले अभी मंज़ूरी दी गई हो लेकिन इसका पहला प्रोटोटाइप 2035 में आएगा और इसके उत्पादन में तीन साल और लगेंगे। यानी इसे वायुसेना में शामिल होने में लगभग 13 साल लग जाएंगे, वह भी तब जब सब कुछ ठीक से चले।
राहुल बेदी कहते हैं, ‘एफ़जीएफए यानी पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान को विकसित करने की बातचीत भारत ने साल 2007-08 में रूस के साथ शुरू की थी। 11 साल तक इस पर बातचीत होती रही और इस पर लगभग 24 करोड़ अमेरिकी डॉलर भी ख़र्च हुए लेकिन 2018 में इसे असफल मानकर छोड़ दिया गया। लेकिन रूस इस पर काम करता रहा और आज रूस का एफजीएफए सुखोई-57 के रूप में हमारे सामने है। अगर हम इसमें बने रहते तो हमारे पास एक स्टेल्थ फाइटर जेट होता।’
उन्होंने बताया कि ‘भारतीय वायुसेना में लड़ाकू विमानों के कऱीब 42 स्क्वाड्रन मंज़ूर हैं लेकिन अभी उसके पास 30 स्क्वाड्रन हैं। इनमें दो से तीन स्क्वाड्रन अगले एक से दो साल में रिटायर होने वाली हैं। इसका मतलब है कि वायुसेना के पास कऱीब 28 स्क्वाड्रन रह जाएंगी।’
राहुल बेदी का बयान
भारतीय वायुसेना ने 2018-19 में 114 लड़ाकू विमानों का प्रस्ताव दिया था जिस पर आज तक कोई प्रगति नहीं हुई है। राहुल बेदी कहते हैं कि एयर चीफ़ मार्शल का दर्द इससे समझा जा सकता है।
राहुल बेदी का कहना हैं, ‘ऑपरेशन सिंदूर और उसके बाद जो कुछ हुआ उसमें भारतीय वायुसेना की अहम भूमिका रही है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में ये दावा किया गया कि भारत के कुछ एयरक्राफ़्ट गिरे हैं जबकि भारत की तरफ़ से इस पर कुछ स्पष्ट नहीं कहा गया। निश्चित रूप से भारतीय वायुसेना अपनी तैयारी का आंकलन कर रही है।’
वह कहते हैं कि डिफेंस खरीद में देरी का एक और उदाहरण रफ़ाल है जिसके कॉन्ट्रैक्ट पर बात शुरू हुई 2007-08 में और उसे हरी झंडी मिली 2016 में जब पीएम मोदी फ्रांस के दौरे पर गए। फिर इसकी डिलीवरी 2018 से शुरू हुई।
वो कहते हैं, ‘तेजस के रूप में लाइट कॉम्बेट एयरक्राफ़्ट (एलसीए) जो आज हमारे सामने है, इस पर बातचीत 1981 में शुरू हुई थी। कैग की रिपोर्ट में बताया गया कि इसके 45 प्रतिशत हार्डवेयर इम्पोर्टेड हैं। दिलचस्प है कि किसी एयरक्राफ्ट का सबसे क्रिटिकल पार्ट है इंजन। जो हाल ही में स्टेल्थ फ़ाइटर जेट को मंज़ूरी मिली है उसका इंजन हम नहीं बना रहे। हम अपना इंजन विकसित ही नहीं कर पाए। किसी भी चीज का हम इंजन नहीं बना पाए।’
‘हेलीकॉप्टर के इंजन की तकनीक फ्रांस से ली है और उसके लाइसेंस से निर्माण हो रहा है। अर्जुन टैंक का इंजन जर्मन है, तेजस का इंजन अमेरिका से आता है। छोटे से छोटा इंजन भी इम्पोर्टेड है। स्वदेशी फाइटर जेट विकसित करने में यह भी एक बड़ी बाधा है।’
राहुल बेदी के अनुसार, ‘एयर चीफ मार्शल के बयान का मतलब ये भी है कि अगर घरेलू स्तर पर कोई उपकरण नहीं बन पाता है तो उसकी बाहर से खरीद की जाए ताकि आज की जरूरत को पूरा किया जा सके।’
-ध्रुव गुप्त
कुछ फिल्मी गीत जीवन की किसी न किसी दौर से ऐसे जुड़ते हैं कि याद रह जाते हैं। पुरानी फिल्म ’अलबेला’ का ’शाम ढले खिडक़ी तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो’ मेरे लिए ऐसा ही एक गीत रहा है। कल रात एक बार फिर से यह गीत सुनकर अपनी बेचारगी के दिन एक बार फिर याद आए। बचपन से लेकर जवानी तक मैंने मुंह से सीटी निकालने की बहुत कोशिशें की, लेकिन असफल रहा।
एक लंबी फुस्स के अलावा मुंह से कभी कुछ निकला ही नहीं। ये तमाम कोशिशें मैंने अकेले में की थी। किसी लडक़ी को देखकर सीटी मारने की हिम्मत तब नहीं थी। पहली बार यह दुस्साहस मुझसे पोस्टग्रेजुएट के दिनों में हो गया। तब बड़े रोमांटिक ख्याल मन में आते थे। एक खूबसूरत लडक़ी को सामने देखकर अपने को रोक नहीं सका और उंगलियां अपने आप होठों तक पहुंच गईं। नतीजे में फिर वही फुस्स की आवाज। लडक़ी मुझे हैरत से देखती हुई आगे बढ़ गई। कुछ दूर जाने के बाद वह पलटी और मेरे ठीक सामने आकर उसने इतनी जोरदार सीटी मारी कि मैं भीतर तक दहल गया।
-सुभोजित बागची
तेलंगाना के वारंगल जि़ले में स्थित कड़वेंदी गांव बाहर से देखने पर एक आम भारतीय गांव जैसा ही लगता है। लेकिन इसे अलग बनाते हैं, वहां सफेद रंग किए गए ईंट-पत्थर के घरों के बीच बने दर्जनों बड़े लाल रंग के समाधि-स्थल। गांव के बीचों-बीच डोड्डी कोमुरैय्या की एक समाधि है, जो कड़वेंदी में जन्मे एक किसान नेता थे।
4 जुलाई 1946 को उनकी हत्या इसी गांव में कर दी गई थी। गांव के बारे में निज़ाम कॉलेज, हैदराबाद में इतिहास विभाग के विभागाध्यक्ष और एसिस्टेंट प्रोफेसर रामेश पन्नीरू लिखते हैं, ‘कोमुरैय्या की शहादत ने ही तेलंगाना के सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत की।’
1946 से 1951 के बीच तेलंगाना में हुआ किसान विद्रोह, आगे चलकर भारत में माओवादी आंदोलन की प्रेरणा बना। कोमुरैय्या की शहादत के बाद कड़वेंदी के सैकड़ों लोगों ने इस आंदोलन में हिस्सा लिया और अपनी जान गंवाई। गांव की समाधियों पर खुदे उनके नाम आज भी उनकी ‘कुर्बानी’ की गवाही देते हैं।
अप्रैल की एक गर्म और उमस भरी दोपहर को, राजशेखर अपनी बहन गुमुदावेल्ली रेणुका की याद में बन रही एक नई समाधि का काम देख रहे थे।
रेणुका भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की मीडिया प्रभारी थीं और दक्षिणी छत्तीसगढ़ में इस प्रतिबंधित संगठन की दंडकारण्य विशेष जोनल कमिटी की सदस्य थीं। 31 मार्च को रेणुका की मौत सीपीआई (माओवादी) के खिलाफ चल रहे सुरक्षाबलों के एक ऑपरेशन के दौरान हुई थी।
सरकार ने एलान किया है कि वह मार्च 2026 तक माओवादी आंदोलन को पूरी तरह खत्म कर देगी।
राजशेखर कहते हैं, ‘कोमुरैय्या से लेकर रेणुका तक यह सफऱ 70 सालों का है, जिसमें हर साल कड़वेंदी में एक नई समाधि जुड़ती जाती है।’ लेकिन 21 मई को यह सफर एक नए मोड़ पर आकर रुक-सा गया, जब सीपीआई (माओवादी) के महासचिव नंबाल्ला केशव राव उर्फ बसवराजू छत्तीसगढ़ में सुरक्षाबलों से लड़ते हुए मारे गए।
कई लोगों को लगता है कि बसवराजू की मौत के साथ भारत में माओवादी आंदोलन खत्म हो सकता है। या हो सकता है कि यह आंदोलन बस कुछ समय के लिए रुका हो और फिर किसी और रास्ते से दोबारा शुरू हो जाए, जैसा पहले कई बार हुआ है।
भारत में माओवादी आंदोलन
1946 में तेलंगाना में जो सशस्त्र किसान आंदोलन शुरू हुआ था, उसके लगभग दो दशक बाद, 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी नाम के कस्बे में जमींदारों के खिलाफ एक किसान विद्रोह हुआ। यही आंदोलन धीरे-धीरे भारत में माओवादी विचारधारा की नींव बना।
1970 के दशक में यह माओवादी आंदोलन तेज़ी से फैला और बंगाल, बिहार, झारखंड, आंध्र प्रदेश और आज के छत्तीसगढ़ के कई हिस्सों तक पहुंच गया।
साल 2004 में सीपीआई (माओवादी) का गठन हुआ। यह पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माक्र्सवादी-लेनिनवादी), पीपुल्स वॉर ग्रुप (जिसे पीडब्ल्यूजी के नाम से जाना जाता था) और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर ऑफ़ इंडिया (एमसीसीआई) के विलय से बनी।
पिछले कई सालों से माओवादियों की मुख्य गतिविधियां छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके से संचालित हो रही थीं, जो क्षेत्रफल में लगभग केरल राज्य जितना बड़ा है। हाल ही में बस्तर के अंदरूनी हिस्से में माओवादी नेता बसवराजू की मौत हुई। इससे संकेत मिला कि माओवादियों की आखिरी मजबूत पकड़ भी अब टूट चुकी है और यह प्रतिबंधित संगठन अब पूरी तरह ख़त्म होने की कगार पर है।
हालांकि, हैदराबाद में मौजूद सामाजिक विश्लेषक और पत्रकार एन। वेणुगोपाल ऐसा नहीं मानते। माओवादी आंदोलन पर वे एक दर्जन से अधिक किताबें लिख चुके हैं।
वेणुगोपाल कहते हैं, ‘थोड़ी शांति जरूर आएगी, लेकिन पहले भी जब सत्तर के दशक में माओवादी नेताओं की हत्या हुई थी, तब भी आंदोलन नहीं रुका। आज भी हम नक्सलवाद पर बात कर रहे हैं।’
उनका मानना है कि माओवादियों ने दलितों और आदिवासियों के बीच आत्मविश्वास पैदा किया, जातिगत शोषण का विरोध किया और गरीबों में जमीन का बंटवारा सुनिश्चित किया।
वेणुगोपाल कहते हैं, ‘आज भी आप अक्सर टीवी पर लोगों को यह कहते सुनेंगे कि ‘अन्नालु’ (नक्सलियों के लिए प्रचलित शब्द, जिसका मतलब होता है ‘बड़ा भाई’) ने नेताओं की तुलना में ज़्यादा सामाजिक न्याय दिया।’
हैदराबाद के एक मुख्य कारोबारी, जो 1970 के दशक में नक्सलियों के छात्र संगठन रेडिकल स्टूडेंट्स यूनियन (आरएसयू) के नेता थे, वो भी इस सोच से सहमत हैं। नाम न छापने की शर्त पर उन्होंने बताया कि 70 और 80 के दशक में ‘तेलुगु भूमि’ (आंध्र प्रदेश और तेलंगाना) के कई शिक्षित लोग बड़ी संख्या में आरएसयू से जुड़े थे।
उन्होंने कहा, ‘हमारी पीढ़ी के लोग यह कभी नहीं भूलेंगे कि हम अपने बच्चों को यूनिवर्सिटी भेज पाए क्योंकि अन्नालु ने उस दौर में छुआछूत जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ संघर्ष किया, जब सरकार तीन दशकों तक नाकाम रही थी।’
हालांकि 1980 के दशक के मध्य तक तेलंगाना में माओवादी हिंसा को काफी हद तक रोक दिया गया। सरकार ने दोहरी रणनीति अपनाई, एक ओर सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत किया गया तो दूसरी ओर, पिछड़े इलाकों के लिए विशेष कल्याण योजनाएं शुरू कीं। इनमें स्वरोजगार के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण और आर्थिक सहायता जैसे कार्यक्रम शामिल थे।
साल 2016 में एक सेवानिवृत्त अधिकारी ने हमें बताया था कि आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के पुनर्वास की योजना ने विशेष रूप से अहम भूमिका निभाई। बाद में यही रणनीति छत्तीसगढ़ में भी अपनाई गई।
माओवाद : तेलंगाना से लेकर छत्तीसगढ़ तक
चंबला रविंदर पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के सैन्य कमांडर रह चुके हैं। साल 2010 में, जब वे बस्तर में पार्टी की उत्तरी इकाई के प्रमुख थे, तो उन्होंने बीबीसी को बताया था कि 70 और 80 के दशक में माओवादी गुट, पीडब्ल्यूजी ने कई अच्छे काम किए थे, ‘लेकिन जब सरकार की सख्त कार्रवाई शुरू हुई, तो वे उस काम को बचा नहीं पाए।’
उन्होंने बताया कि इस अनुभव से सबक लेते हुए माओवादियों ने छत्तीसगढ़ में अपनी रणनीति बदली।
15 साल पहले उन्होंने बीबीसी से कहा था, ‘बस्तर में हमने शुरुआत से ही सैन्य संगठन बनाने पर जोर दिया।’
रविंदर ने साल 2014 में आत्मसमर्पण कर दिया और अब हैदराबाद के एक कॉलेज में सुरक्षा प्रभारी के तौर पर काम कर रहे हैं।
पिछले हफ्ते उन्होंने अफसोस जताते हुए कहा, ‘न तो तेलंगाना में किया गया सामाजिक काम टिक पाया और न ही छत्तीसगढ़ में जंगलों के लोगों की सुरक्षा के लिए बनाई गई गुरिल्ला सेना कारगर साबित हुई।’
लेकिन एन। वेणुगोपाल बताते हैं कि कुछ वजहों से माओवादी बीते सालों में छत्तीसगढ़ में एक बड़ी ताकत बन गए।
छत्तीसगढ़ प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर राज्य है।
इंडियन ब्यूरो ऑफ माइन्स की साल 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक, यह राज्य टिन कंसन्ट्रेट और मोल्डिंग सैंड का इकलौता उत्पादक है। साथ ही ये कोयला, डोलोमाइट, बॉक्साइट और अच्छी गुणवत्ता वाले लौह अयस्क का भी प्रमुख उत्पादक है।
वेणुगोपाल का मानना है कि माओवादियों की सबसे बड़ी सफलता यह रही कि उन्होंने खनन कंपनियों को इन संसाधनों तक पहुंचने से रोके रखा।
वे कहते हैं, ‘माओवादियों ने ‘जल, जंगल, ज़मीन’ के सिद्धांत पर आंदोलन खड़ा किया। इस सोच के साथ कि जंगल और जमीन आदिवासियों की है, मल्टीनेशनल कंपनियों की नहीं। इसी वजह से अब तक कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां इन इलाकों में घुस नहीं सकीं।’
छत्तीसगढ़ में माओवादियों का पतन
हाल ही में माओवादियों के खिलाफ सुरक्षाबलों की कार्रवाई जिसमें बसवराजू की मौत सबसे अहम घटना रही, ऐसे वक्त में हुई है जब गृह मंत्रालय ने अपनी पिछली रिपोर्ट (2023-24) में बताया था कि ‘केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों की तैनाती, इंडिया रिजर्व बटालियन की मंजूरी, राज्य पुलिस बलों को बेहतर बनाने और आधुनिक सुविधाएं देने, सुरक्षा से जुड़ी लागत की भरपाई, राज्यों की विशेष खुफिया शाखाओं और विशेष दस्तों को मजबूत करने की कोशिश की गई।’
इसमें कहा गया है, ‘पुलिस थानों को बेहतर तरीके से तैयार करने , माओवादी इलाकों में ऑपरेशन के लिए हेलिकॉप्टर की सुविधा देने, राज्य पुलिस को प्रशिक्षण में मदद करने, खुफिया सूचनाएं साझा करने, राज्यों के बीच तालमेल बढ़ाने और स्थानीय लोगों से जुड़ाव बढ़ाने जैसे कदम उठाए गए थे।’
ये सारे कदम नेशनल पॉलिसी एंड एक्शन प्लान टू एड्रेस एलडब्ल्यूई के तहत उठाए गए थे, जिसे नरेंद्र मोदी सरकार ने 2015 में मंज़ूरी दी थी।
गृह मंत्रालय में एलडब्ल्यूई विभाग के पूर्व संयुक्त सचिव एम। ए। गणपति ने कहा, ‘इस नीति की वजह से छत्तीसगढ़ पुलिस ने ‘बहुत सटीक हमले करने’ की क्षमता विकसित कर ली है।’
गणपति, जिन्होंने नक्सलियों से निपटने के लिए राष्ट्रीय नीति का मसौदा तैयार किया था, बताते हैं, ‘केंद्रीय अर्धसैनिक बल पुलिस कैंप स्थापित करने, जमीन पर मौजूदगी बनाए रखने और राज्य पुलिस के लिए अनुकूल माहौल तैयार करने जैसे होल्डिंग ऑपरेशन करते रहे। इस दौरान राज्य पुलिस ने खुफिया सूचनाएं जुटाईं और विशेष बलों ने अभियान चलाए।’
उन्होंने कहा ‘ऑपरेशन के दौरान अर्धसैनिक बलों ने घेराबंदी की, ताकि माओवादी भाग न सकें। ये जिम्मेदारियों का साफ बंटवारा और अच्छा समन्वय था।’
दक्षिण छत्तीसगढ़ के पत्रकार कमल शुक्ला, जो कई वर्षों से इस संघर्ष को करीब से देख रहे हैं, बताते हैं कि राज्य पुलिस की नक्सल विरोधी इकाई, डिस्ट्रिक्ट रिजर्व फोर्स (डीआरएफ) में पूर्व नक्सलियों की भर्ती से पुलिस की लड़ाकू क्षमता में बढ़ोतरी हुई है।
उन्होंने कहा, ‘सरेंडर किए हुए नक्सली इलाके को अच्छी तरह जानते थे और छिपने की जगहों की पहचान कर सकते थे। साथ ही उन्हें विद्रोहियों की ताकत और कमजोरियों की भी बेहतर समझ थी, जिससे पुलिस को काफ़ी मदद मिली।’
माओवादियों ने भी 25 मई को जारी अपनी एक प्रेस विज्ञप्ति में माना कि जिन नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया था, उनमें से कुछ ने बसवराजू के मारे जाने में अहम भूमिका निभाई।
बयान में कहा गया, ‘पिछले छह महीनों में, माड़ (अबूझमाड़) क्षेत्र के कुछ सदस्य कमजोर पड़ गए और उन्होंने पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। वे गद्दार बन गए।’
हालांकि, अर्द्धसैनिक बलों ने भी मोर्चा संभाला और हेलिकॉप्टर से अभियान जारी रहा।
शुक्ला ने बताया, ‘हेलिकॉप्टरों का इस्तेमाल पहले भी होता रहा है, लेकिन इस बार बड़ी संख्या में ड्रोन तैनात किए गए, जो इस अभियान का एक नया पहलू था।’
माओवाद से निपटने की नेशनल पॉलिसी के तहत, केंद्र सरकार की एजेंसियों को हेलिकॉप्टर संचालन और नक्सल प्रभावित इलाकों में सुरक्षा कैंपों के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे को मजबूत करने के लिए 765 करोड़ रुपये दिए गए हैं।
केंद्रीय गृह मंत्रालय में पूर्व अधिकारी और नक्सल विरोधी अभियानों के विशेषज्ञ एम। ए। गणपति का कहना है कि अब माओवादी विचारधारा नई पीढ़ी को आकर्षित नहीं कर पा रही है, इसी वजह से उनके संगठन से जुडऩे वाले लोगों की संख्या लगातार घटती गई है।
उन्होंने बताया कि माओवादी जनता की बदलती सोच और जरूरतों को समझने में असफल रहे।
गणपति का कहना है, ‘जब मोबाइल फोन और सोशल मीडिया का दौर आया, तो लोग बाहरी दुनिया से जुडऩे लगे। ऐसे हालात में आप जंगल के किसी कोने में बैठकर, समाज से कटकर ज़्यादा समय तक सक्रिय नहीं रह सकते। माओवादी भी अब नई सामाजिक सच्चाइयों से कटे हुए रहकर, छिपकर काम नहीं कर सकते।’
इसके अलावा, केंद्र सरकार ने ‘सडक़ और टेलीकॉम कनेक्टिविटी जैसे बुनियादी ढांचे को सुधारने और स्थानीय लोगों के कौशल विकास के लिए विशेष योजनाएं शुरू कीं।’ यह बात 2023-24 की रिपोर्ट में दर्ज है।
एक पूर्व नक्सली नेता, जो 1980 के दशक में बिहार में सक्रिय थे, उन्होंने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि छत्तीसगढ़ में हिंसा कहीं ज़्यादा भीषण रही, क्योंकि वहां माओवादियों की सैन्य ताकत तेलंगाना की तुलना में कहीं अधिक थी।
उन्होंने कहा, ‘तेलंगाना में माओवादी कई स्क्वॉड, प्लाटून, कंपनी और बटालियन गठित करने में कामयाब रहे। जबकि बंगाल, बिहार और तेलंगाना के कुछ इलाकों में वो केवल स्क्वॉड तक ही सीमित रह गए। बिहार में कुछ गुरिल्ला प्लाटून जरूर बने थे, लेकिन वे भी पारंपरिक सेना के मुकाबले काफी छोटे थे।’
इन प्रयासों और रणनीतिक बदलावों का असर यह हुआ कि गृह मंत्रालय की सालाना रिपोर्ट के अनुसार, 2013 के मुकाबले 2023 में माओवादी हिंसा की घटनाओं में 48 फीसदी की गिरावट आई (1136 से घटकर 594 मामले), और इस हिंसा में नागरिकों और सुरक्षाबलों की मौतों की संख्या 65 फीसदी घटी (397 से घटकर 138 मौतें)।
जर्मन चांसलर फ्रीडरिष मैर्त्स का कहना है कि गाजा में इस्राएल की कार्रवाई को "हमास के आतंकवाद के खिलाफ जंग के तौर पर उचित नहीं ठहराया जा सकता." इस्राएल ने गाजा में हमले तेज किए हैं, जिनमें हर दिन लोगों की मौत हो रही है.
डॉयचे वैले पर निखिल रंजन का लिखा-
बर्लिन की एक कांफ्रेंस में मैत्र्स ने कहा कि इजराइल पर प्रतिक्रिया देने में जर्मनी को किसी और देश की तुलना में ज्यादा संयम रखना पड़ता है। मैर्त्स का कहना है, ‘हालांक, अगर सीमा पार की गई, जहां अंतरराष्ट्रीय मानवता कानूनों का उल्लंघन होता है, तो जर्मन चांसलर को भी इस पर जरूर कुछ कहना होगा।’
जर्मनी और इजराइल के करीबी संबंधों पर जोर देते हुए मैर्त्स ने कहा, ‘इस्राएली सरकार को ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिसे उसका बेहतरीन दोस्त स्वीकार करने के लिए तैयार ना हो।’
इजराइलने गाजा में बीते हफ्तों से हमले बढ़ा दिए हैं। जंग से बदहाल इलाके में हर दिन इन हमलों की वजह से दर्जनों मौत लोगों की हो रही हैं। इजराइली हमलों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निंदा हो रही है। यह चेतावनी भी दी जा रही है कि गाजा के करीब 20 लाख लोग भुखमरी की आशंका में जी रहे हैं क्योंकि इस्राएल ने राहत सामग्री की सप्लाई पर घेरा डाल दिया है।
सरकार या प्रधानमंत्री की आलोचना कर सकता है जर्मनी
चांसलर की प्रतिक्रिया विदेश नीति के विशेषज्ञ आर्मिन लाशेट के एक बयान के बाद आई है। लाशेट ने जर्मनी के एक टीवी चैनल से कहा कि इजराइल के सहयोगी देशों के संयुक्त बयान का फलस्तीनी लोगों की जिंदगी बचाने में कोई असर नहीं हुआ है। पिछले हफ्ते ब्रिटेन, फ्रांस और कनाडा ने संयुक्त बयान जारी कर गाजा में इस्राएल की सैन्य कार्रवाई को ‘अनुपयुक्त’ कहा था। लाशेट का कहना है कि गाजा में मानवीय सहायता का पहुंचना सुनिश्चित करने में इस बयान से कोई फर्क नहीं पड़ा।
लाशेट जर्मन संसद के निचले सदन में विदेश मामलों की समिति के प्रमुख हैं। उनका कहा है कि जर्मनी की नई सरकार की इजराइल के लिए ‘खामोश कूटनीति’ और ‘स्पष्ट शब्द’ बार-बार के प्रस्तावों और नारों से ज्यादा कारगर हैं।
यूरोपीय संघ के दूसरे देशों की तुलना में जर्मनी ने इस्राएल की आलोचना करने में ज्यादा सावधानी बरती है। गाजा में इस्राएल की कार्रवाई 7 अक्टूबर 2023 को हमास के चरमपंथियों के हमले के बाद शुरू हुई है। होलोकॉस्ट की ऐतिहासिक जिम्मेदारी की वजह से इस्राएल की सुरक्षा को वह ‘राज्य की सर्वोच्च नीति’ के तौर पर देखता है। हालांकि लाशेट का कहना है कि इसका मतलब यह नहीं कि ‘आप इजराइल की आलोचना नहीं कर सकते, सहायता पहुंचाने की मांग नहीं कर सकते, आप प्रधानमंत्री की आलोचना नहीं कर सकते।’ लाशेट का कहना है, ‘आप यह सब कह सकते हैं।’ लाशेट का कहना है, ‘आप यह भी कह सकते हैं कि सरकार में दक्षिणपंथी चरमपंथी मंत्री हैं, आप यह भी कह सकते हैं कि युद्ध का लक्ष्य गलत है।’
इजराइली सरकार और इजराइल अलग
जर्मन सरकार के एंटी सेमिटिज्म आयुक्त फेलिक्स क्लाइन ने भी सोमवार को इसी तरह के विचार रखे। आरबीबी रेडियो स्टेशन से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘हमें निश्चित तौर पर इस्राएली सरकार और पूरे इजराइल की कार्रवाई में अंतर करके देखना चाहिए। इनमें बड़ा फर्क है।’ हालांकि उन्होंने जर्मन संसद में मध्य वामपंथी सांसदों की इस मांग को खारिज किया कि जर्मनी इस्राएल को हथियार का निर्यात बंद कर दे।
-सिद्धार्थ ताबिश
मैं देखता हूँ कि मेरे दोस्तों और आस पड़ोस के लोगों के बच्चे, जो अभी पढ़ रहे हैं, आई फोन लेकर घूमते हैं। और उनके माता पिता इस बात पर हैरान होते हैं कि मेरे सत्तरह साल (17) के लडक़े के पास आई फोन तो दूर की बात, अभी साधारण मोबाइल तक नहीं है। घर में एक पुराना फोन पड़ा है जिसमे ठीक से आवाज भी नहीं आती है, वही बस रहता है। अगर मेरी पत्नी घर में नहीं हैं तो मुझे बच्चों का हाल लेने के लिए उसी पुराने फोन पर फोन करना होता है, जिसमें रुक-रुक कर आवाज आती है। और मेरे बच्चों को इस से कोई दिक्कत नहीं है। मेरे सत्रह साल के बेटे के पास कोई मोबाइल नहीं है।
मेरी पत्नी हैं नहीं आजकल, वो दस दिन के लिए विपस्सना ध्यान के लिए गईं हैं, तो न ही उनसे फ़ोन पर बात हो सकती हैं और न ही उनका कोई हाल मिल सकता है। घर में ज़्यादातर सारा काम हम और बच्चे कर रहे हैं। आज सुबह मेरे बड़े बेटे की स्कूल वैन नहीं आई थी तो मैं स्कूल छोडऩे गया था।
बेटा बारहवीं में है। वो खाना लेकर नहीं गया था क्यूंकि जल्दी जाना था उसे। खाना बन नहीं पाया था। जब मैंने उसे स्कूल छोड़ा तो पूछा कि तुम क्या खाओगे आज, तो कहने लगा कि पापा मेरे पास बहुत पैसे हैं मैं यहीं कैंटीन में कुछ ले लूंगा। मैंने पूछा कितने पैसे हैं तुम्हारे पास? तो उसने जेब से बीस रुपये निकाले। मैंने कहा बेटा इतने में शायद ठीक से न खा पाओ, तो कहने लगा नहीं पापा, इस से ज्यादा पैसे मुझे नहीं चाहिए होते हैं। मैंने जबरदस्ती उसे 100 रुपये दे दिए। वो किसी तरह से नहीं ले रहा था, कह रहा था कि मैं इतने सारे पैसे का क्या करूँगा। मुझे पता था कि वो उसमें से सारे पैसे बचा के घर ले आएगा। अभी मैने पूछा तो पता चला कि 80 रुपए बचा कर लाया है।
ये सब मैंने अपने बच्चों को कभी नहीं सिखाया है। ये सब वो खुद से देखकर सीख रहे हैं। मैं अपने बच्चों से सब कुछ शेयर करता हूँ। पैसों की समस्या उनको बताता हूँ, काम अच्छा चलता है तब बताता हूँ। एक एक बात अपने बच्चों से शेयर करता हूँ मैं। मेरा बेटा जब कभी मेरे साथ कहीं बाहर जाता है तो कुछ भी खरीदने से पहले मुझ से धीरे से पूछ्ता है ‘पापा आपके पास पैसे हैं क्या?’ भले उसे एक टी शर्ट ही क्यूँ न लेनी हो
मेरे बच्चों को पता है कि उनके पापा सैमसंग का फ़ोन इस्तेमाल करते हैं तो वो क्यूँ आई फ़ोन मांगें। और घर में जब सारी सुविधाएँ हैं तो किसलिए किस बात का उन्हें दिखावा करना है? मैं हर कुछ दिन पर अपने बच्चों से कहता रहता हूं कि बेटा तुम लोग बहुत किस्मतवाले हो। जो तुम्हें मिला है वो भारत में नब्बे प्रतिशत लोगों को नहीं मिलता है।। ये बात उनके दिल में घर कर गयी है। इसीलिए वो अब हर चीज में खुश रहते हैं।
-डेविड ग्रिटन
गाजा में भोजन बांटने का मामला उलझता जा रहा है। मंगलवार को मदद बांटने वाले एक विवादास्पद संगठन ने वहाँ काम करना शुरू किया लेकिन जल्द ही स्थिति बिगड़ गई।
हजारों फिलस्तीनियों ने दक्षिणी गाजा में खुले गाजा ह्यूमनेटेरियन फाउंडेशन (जीएचएफ) नाम के इस संगठन के अड्डे को तहस-नहस कर दिया है।
संगठन ने कहा कि भोजन लेने वालों की भारी संख्या के कारण उनकी टीम को पीछे हटना पड़ा है। इसराइली सेना ने कहा कि संगठन की सुरक्षा करने वालों ने चेतावनी के तौर पर गोलियाँ चलाईं।
इस संगठन को अमेरिका और इसराइल का समर्थन हासिल है और ये संयुक्त राष्ट्र को दरकिनार कर गाजा में मदद करने का इरादा रखता है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र ने इसे अनैतिक और अव्यवहारिक बताते हुए ख़ारिज कर दिया है।
इससे पहले जीएचएफ ने कहा था कि भोजन से लदे उसके ट्रक गाजा में सुरक्षित ठिकानों पर पहुंच गए हैं और लोगों को खाना बांटना भी शुरू कर दिया है। लेकिन ये नहीं बताया था कि अब तक कहां और कितनी मदद पहुंचाई गई है।
ये संगठन हथियारबंद सुरक्षा गार्डों का इस्तेमाल कर रहा है।
विशेषज्ञों को गाजा में पिछले 11 सप्ताह से चली आ रही नाकेबंदी की वजह से बड़े पैमाने पर अकाल की चिंता सता रही है। उन्होंने इसके बारे में चेतावनी दी है।
संगठन का विरोध क्यों?
संयुक्त राष्ट्र और गाजा में मदद पहुंचाने वाले दूसरे संगठनों ने जीएचएफ के साथ सहयोग करने से इनकार कर दिया है। इन संगठनों का कहना है कि जीएचएफ के काम करना का तरीका मानवता के सिद्धांतों के खिलाफ है और ऐसा लगता है कि ये संगठन ‘मदद को हथियार’ के तौर पर इस्तेमाल करना चाहता है।
जीएचएफ ने सोमवार को पत्रकारों को भेजे एक बयान में कहा है कि उसने ‘गाजा में अपना ऑपरेशन’ शुरू कर दिया है।
संगठन की ओर से जारी तस्वीरों में दिख रहा है कुछ लोग किसी अनाम जगह से पेटियां उठाए चले जा रहे हैं।
बीबीसी ने जीएचएफ से पूछा है कि अब तक गाजा में सहायता सामग्री की कितनी गाडिय़ां आई हैं और कितने लोगों ने ये मदद हासिल की है। लेकिन जीचएफ की ओर से जवाब मिलना बाकी है।
जीएचएफ के बयान में कहा गया है कि अब जॉन एक्री संगठन के अंतरिम कार्यकारी निदेशक हैं। जॉन एक्री यूएएसएड़ में सीनियर मैनेजर रह चुके हैं। यूएसएड विदेशों में मदद करने वाली अमेरिका की सरकारी एजेंसी है।
एक्री ने जेक वुड की जगह ली है। उन्होंने इस पद से रविवार को इस्तीफा दे दिया था।
वुड ने कहा था जीएचएफ का सहायता बांटने वाला सिस्टम ‘मानवता, तटस्थता, निष्पक्षता और स्वतंत्रता के सिद्धांतों पर बरकरार रहते हुए अपना मक़सद पूरा नहीं कर सकता।’
जीएचएफ ने इस आलोचना को खारिज करते हुए कहा, ‘कुछ लोग मदद को आने देने की तुलना में इस व्यवस्था को तोडऩे पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।’
गाजा ह्यूमेनेटेरियन फ़ाउंडेशन ने कहा है कि उसका सिस्टम पूरी तरह से मानवता के सिद्धांत पर काम करता है।
संगठन ने दावा किया वो इस सप्ताह के अंत तक 10 लाख लोगों तक राशन पहुंचा चुका होगा।
-इमरान कुरैशी
कांग्रेस सांसद शशि थरूर भले ही इस वक्त ऑपरेशन सिंदूर के बाद बने सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों में से एक की अगुवाई कर रहे हों लेकिन वे केरल में सियासी पारा गिरने नहीं दे रहे। केरल की वामपंथी सरकार पर उनका ताज़ा हमला तुर्की को लेकर है।
दरअसल साल 2023 में केरल ने तुर्की को भूकंप के दौरान 10 करोड़ रुपये की मानवीय मदद दी थी। थरूर ने इसी मदद पर सवाल उठाया है।
शशि थरूर ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, ‘मुझे उम्मीद है कि दो साल बाद तुर्की के व्यवहार को देखते हुए केरल सरकार अपनी अनुचित उदारता पर विचार करेगी। यह तो बताने की ज़रूरत ही नहीं है कि वायनाड के लोग उन दस करोड़ रुपयों का कहीं बेहतर इस्तेमाल कर सकते थे।’
संजय झा के नेतृत्व वाले एक अन्य प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा और सीपीएम के राज्यसभा सांसद जॉन ब्रिटास ने तुरंत इसका जवाब सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर दिया।
उन्होंने लिखा, ‘शशि थरूर के लिए मेरे मन में सम्मान है, लेकिन यह टिप्पणी एकतरफा याददाश्त का लक्षण है। यह हास्यास्पद और हैरान करने वाला है कि उन्होंने केरल को नीचा दिखाने की कोशिश की। वह अच्छी तरह जानते हैं कि मोदी सरकार ने खुद तुर्की की मदद के लिए ‘ऑपरेशन दोस्त’ शुरू किया था।’
सवाल उठ रहे हैं कि आखिर शशि थरूर करना क्या चाह रहे हैं? क्या बीजेपी से उनकी नज़दीकियां बढ़ रही हैं? हमने इन्हीं सवालों का जवाब जानने के लिए दो विश्लेषकों से बात की।
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक एमजी राधाकृष्णन बीबीसी हिंदी को बताया, ‘शशि थरूर के लिए बीजेपी में शामिल होना मुश्किल होगा। ऐसा इसलिए क्योंकि वो राजनीतिक रूप से बहुसंख्यकवादी हिंदू विचारधारा का विरोध करते हैं। वो कमलनाथ की तरह ‘सॉफ्ट हिंदू’ व्यक्ति हैं। वो हमास के आलोचक हैं और उनका इसराइल की ओर झुकाव है। थरूर आपातकाल के भी कट्टर आलोचक रहे हैं।’
राजनीतिक विश्लेषक और पूर्व कुलपति प्रोफ़ेसर जे प्रभाष इस मामले को अलग नजरिए से देखते हैं।
उन्होंने बीबीसी को बताया, ‘थरूर के मन में निश्चित रूप से कुछ चल रहा है। वह हिंदू वोट को साधने की कोशिश कर रहे हैं। यह हो सकता है कि वो अपनी पार्टी के नेतृत्व को कोई संदेश देना चाह रहे हों। यह तो सबको पता है कि वह केरल के मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं।’
थरूर की मंशा
शशि थरूर ने अंग्रेजी के 43 शब्दों में केरल में कम्युनिस्टों पर निशाना साधा और कांग्रेस नेतृत्व को संदेश दिया कि तुर्की को दिए गए दस करोड़ रुपये वायनाड में आई बाढ़ के पीडि़तों के लिए इस्तेमाल हो सकते थे।
वायनाड से प्रियंका गांधी सांसद हैं।
इस पोस्ट के ज़रिए उन्होंने भारत-पाकिस्तान संघर्ष के दौरान तुर्की के पाकिस्तान के साथ खड़े रहने की ओर भी ध्यान खींचा।
इस साल फरवरी में, थरूर अपनी ही पार्टी से नाराजग़ी का सामना कर रहे थे। केरल में वामपंथी सरकार और कांग्रेस दोनों आमने-सामने हैं लेकिन थरूर निवेश आकर्षित करने की केरल सरकार की कोशिशों में मदद करने को तैयार हो गए थे।
जाहिर है ये बात उनकी पार्टी को नागवार गुजऱी थी।
इसी महीने बीजेपी ने उन्हें ऑपरेशन सिंदूर के बाद बने प्रतिनिधिमंडल की अध्यक्षता के लिए चुना। थरूर ने पेशकश स्वीकार की लेकिन अपनी पार्टी के नेतृत्व को इस बारे में सूचना नहीं दी।
हाल के महीनों में उनके बयान और काम केरल के राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बने हुए हैं।
प्रधानमंत्री की ओर से डेलिगेशन की अगुवाई करने के उनके ताज़ा फ़ैसले के बाद कई कांग्रेस नेता सोच रहे हैं कि न जाने थरूर कब पार्टी छोड़ दें। लेकिन अब भी कांग्रेस में ऐसे बहुत से लोग हैं जो मानते हैं कि पूरे देश में युवाओं के बीच में उनकी बड़ी लोकप्रियता है।
लेकिन कई वरिष्ठ कांग्रेसी उनके रवैये की खुलेआम आलोचना कर रहे हैं।
राज्य सभा के पूर्व डिप्टी चेयरमैन पीजे कूरियन ने पिछले सप्ताह साफ़ कहा, ‘अगर कोई सोचता है कि शशि थरूर का झुकाव बीजेपी की ओर बढ़ रहा है, तो इसबात पर शक नहीं करना चाहिए। उनका पक्षपाती रवैया बहुत साफ़ है।’ आम तौर पर शांत रहने वाले केरल के वित्त मंत्री केएन बालागोपाल ने भी थरूर की आलोचना की।
एक बयान में उन्होंने कहा, ‘यह बेवजह की उदारता नहीं है। एक बड़ी आपदा के समय, हमें एक मानवीय नज़रिया अपनाना था। तुर्की को दी जाने वाली सहायता भारतीय विदेश मंत्रालय के ज़रिए दी गई थी। साल 2023 की घटना को 2025 के सीमा संकट से जोडऩा ग़लत है। साल 2023 में राज्य ने मानवीय आधार पर तुर्की का समर्थन किया था। दो साल बाद, तुर्की को दी गई मदद की गलत व्याख्या करना सही नज़रिया नहीं है।’
सीपीएम सांसद जॉन ब्रिटास की तरह विश्लेषक एमजी राधाकृष्णन भी मानते हैं कि थरूर को मोदी सरकार के ऑपरेशन दोस्त का भी जि़क्र करना चाहिए था।
-संजय श्रमण
23 मई को जॉन नेश ने दुनिया को अलविदा कहा था, उनके बहाने भारत मे ज्ञान की परम्परा पर बात करना उपयोगी है।
गेम्स थ्योरी के जनक जॉन नेश के होने और न हो जाने से बहुत बड़े सवाल भारत के लिए भी खड़े होते हैं। वैसे भारत से जॉन नेश का या स्टीफन हॉकिंग का कोई संबंध नहीं है लेकिन जब बात आती है डाक्टर वशिष्ठ नारायण सिंह और श्रीनिवास रामानुजन की तब भारत की चिंता होती है।
जॉन नेश के जीवन, उनकी बीमारी और उनके पूरे करियर को ध्यान से देखें तो ये सीखा जा सकता है कि ज्ञान और ज्ञानी का सम्मान करना किसे कहते हैं। भारत में ज्ञान की कोई सुसंगठित समृद्ध परम्परा कभी नहीं रही है। जो रही भी है वो बहुत खंडित और सिर्फ धर्म दर्शन या अध्यात्म को केन्द्रित रही है। कुछ छिटके हुए टुकड़ों में अच्छे उदाहरण मिलते हैं लेकिन वे ज्ञान की गौरव गाथा कम कहते हैं और टाट में मलमल के पैबंद की तरह मुंह चिढाते हुए ज्यादा नजर आते हैं।
कई देशभक्त दावा करेंगे कि तक्षशिला था और नालंदा था इत्यादी, यहाँ बताना उचित होगा कि ये बौद्ध विद्या केंद्र थे जो कि इस देश के मुख्यधारा के हिन्दू समाज का हिस्सा नहीं था। पूरे भारतीय इतिहास में टुकड़ों टुकड़ों में बहुत सारा काम हुआ है लेकिन एक संगठित और टिकाऊ धारा नहीं बन सकी। शायद भौतिकवादी ज्ञान और तकनीक के अभाव में ये उस समय संभव भी न था।
फिर भी बौद्धों में ज्ञान, विज्ञान सहित भेषज और धातुकर्म पर बहुत काम हुआ है, न केवल इतना बल्कि नागार्जुन और वसुबन्धु ने समय और शून्य की जो अवधारणा दी है वो अपने आपमें चमत्कार है। जैन आचार्यों में भी वर्धमान महावीर और आचार्य कुन्दकुन्द ने पुद्गल और स्यात-वाद की जैसी धारणाएं दी हैं वे इतनी एडवांस हैं कि आज का क्वांटम फिजिक्स भी उसी दिशा में जाता दिखाई देता है। हिन्दू मनीषियों में भी समय की चक्रीय धारणा और युगों और कल्पों का विज्ञान बहुत विकसित किया गया खासकर वराहमिहिर और आर्यभट्ट ने खगोल में जो काम किया है वो अभी भी लाखों को प्रेरित करता है।
हिन्दुओं के हठयोग में फिजिओलॉजी और नाडी तन्त्र के संबंध में जो विस्तार से लिखा गया है वो भी आश्चर्यचकित करता है। खासकर तब जबकि हिन्दुओं में शरीर को जलाने की परम्परा रही है और मृत शरीर का चिकित्सा या चीर फाड़ में उपयोग पाप माना गया है (सिवाय तांत्रिक अनुष्ठानों के)। तब भी इतनी बारीकी से हिन्दुओं ने शरीर का नक्शा बनाया है या बात अचंभित करती है। योग के साथ आयुर्वेद की युति ने चिकित्सा में बहुत बड़ा काम कर दिखाया है।
लेकिन इनके होने का क्या मतलब है? खासकर आज के भारत में ये बड़ी बहस का मुद्दा है।
भारत में संगठित रूप से ज्ञान-विज्ञान के बड़े प्रयास हुए ही नहीं हैं। असल में धर्म, दर्शन और अध्यात्म से इतर किसी भी विषय को हेय माना गया है। उपनिषदों में परा और अपरा विद्या की बात है। मुण्डक उपनिषद के अनुसार परा विद्या अध्यात्म विद्या है जो मोक्ष में ले जाती है शेष सब भौतिक या लौकिक विद्याएँ जो गणित, विज्ञान, साहित्य, कला आदि सिखाती हैं वे बचकानी और हेय मानी गयी हैं।
यह बहुत बुनियादी और जहरीली मानसिकता है जिसने इस समाज को भौतिक जगत की श्रेष्ठताओं के संधान से रोके रखा। ये औपनिषदिक मूर्खता अभी भी जारी है। हमारे यहाँ आज भी बड़े वैज्ञानिक या दार्शनिक को कोई नहीं पूछता लेकिन छुटभैया बाबा हो या कथा बांचने वाला मूर्ख पंडित या तोतेवाला ज्योतिषी हो उसके आगे पीछे भीड़ लगी रहती है।
जॉन नेश का उदाहरण गौर करने लायक है। एक बेहद प्रतिभाशाली युवा जो गणित का दीवाना है और एकदम उसी मस्ती में रहता है उसे उसकी बीमारी के बावजूद जीवन की सामान्य सुविधाओं सहित सम्मान और सुरक्षा मुहैया करवाने का काम जो उसके समाज ने किया है वो अद्भुत है। यही स्टीफेंन हाकिंग के साथ कैम्ब्रिज में हो रहा है इसीलिये वो जि़ंदा हैं और रोज नए चमत्कार की खोज कर रहे हैं।
अब उदाहरण लीजिये डाक्टर वशिष्ठ नारायण का। मैं जब स्कूल में पढता था तब दूरदर्शन पर विनोद गुहा का एक साप्ताहिक समाचार कार्यक्रम आता था ‘परख’ के नाम से। उसमे बरसों पहले इस वैज्ञानिक की चर्चा हुई थी और राष्ट्रीय स्तर के अन्य अखबारों ने भी इसका उल्लेख किया था।
लेकिन सरकार तो छोडिये हमारा तथाकथित बुद्धिजीवी समाज भी इनकी सुध लेने के लिए आगे नहीं आया। वो महानतम गणितज्ञ जिसने कई मायनों में आइन्स्टीन की गणितीय स्थापनाओं को चुनौती दी वो आज एक पागल समझा जाता है और एक फुटपाथ पर पड़े अपाहिज की तरह जि़ंदा है।
क्या इनका इलाज या सेवा नहीं हो सकती थी? शायद इनकी बीमारी ज्यादा गंभीर रही हो लेकिन एक वैज्ञानिक समुदाय क्या अपने एक सदस्य को बीमार मानकर ही अच्छी रहन सहन की सुविधा नहीं दे सकता ? और सबसे बड़ी बात ये कि वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी समुदाय को ये प्रेरणा क्यों नहीं होती कि अपने एक असहाय मित्र की मदद की जाए?
न सिर्फ ज्ञान का सम्मान करने में ये देश चूकता रहा है बल्कि अपने महानतम वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और नायकों को बचाने और उनकी देशना या शौर्यगाथा को सहेजने में भी जानबूझकर भूलें की जाती रही हैं। ये भूल नहीं असल में षड्यंत्र की परम्परा है।
अभी दो शताब्दी पहले तक अशोक को कोई नहीं जानता था, सिकंदर कब आया क्यों आया और उसका क्या हुआ ये भी कोई नहीं जानता था। ब्रिटिश पुरातत्वविदों ने गौतम बुद्ध का इतिहास खंगालने के लिए जो खुदाई और अन्वेषण किया उसमे अशोक और चन्द्रगुप्त की महिमा प्रगट हुई है।
-आर.के.जैन
अगर सवाल पूछना गलत था और युद्ध के बीच में सत्र करवाना अगर ग़लत था तो क्या बाजपेयी भी?
1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान जब देश गंभीर संकट में था, तब एक युवा सांसद अटल बिहारी वाजपेयी ने ऐसा कदम उठाया जो भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में मिसाल बन गया। उस समय वाजपेयी सिर्फ 36 साल के थे और जनसंघ (जो आगे चलकर भाजपा बना) के राज्यसभा सांसद के रूप में अपना पहला कार्यकाल पूरा कर रहे थे। युद्ध के बीच उन्होंने सरकार से जवाबदेही की मांग की और संसद का विशेष सत्र बुलाने की अपील की।
20 अक्टूबर 1962 को चीन ने भारत पर हमला किया। छह दिन बाद, 26 अक्टूबर को अटल बिहारी वाजपेयी ने जनसंघ के चार सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मुलाकात की। उन्होंने युद्ध और उससे जुड़ी परिस्थितियों पर संसद में चर्चा की मांग की। वाजपेयी की इस मांग पर नेहरू ने तुरंत सहमति जताई और इस बात को साबित किया कि लोकतंत्र में संवाद और पारदर्शिता कितनी महत्वपूर्ण होती है, चाहे हालात कितने भी गंभीर क्यों न हों।
8 नवंबर 1962 को संसद का विशेष सत्र बुलाया गया, जबकि युद्ध अब भी जारी था और चीनी सेनाएं भारतीय सीमा में घुसपैठ कर रही थीं। कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि यह सत्र बंद कमरे में गुप्त रूप से आयोजित किया जाए, लेकिन नेहरू ने साफ कहा कि यह विषय पूरे देश से जुड़ा है और संसद में खुलकर बहस होनी चाहिए।
इस विशेष सत्र के दौरान कुल सात दिन तक चर्चा चली और 165 सांसदों ने इसमें भाग लिया। 9 नवंबर को अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी बात रखी। उन्होंने सरकार की विदेश नीति और रक्षा तैयारियों की तीखी आलोचना की। उनकी इस बात को गंभीरता से सुना गया, जबकि युद्ध की स्थिति अब भी चिंताजनक बनी हुई थी।
पूर्वोत्तर भारतीय राज्य मेघालय अपने युवाओं को विदेशी भाषाओं में ट्रेनिंग देकर काम करने बाहर भेज रहा है. इससे युवाओं के लिए नए रास्ते खुल रहे हैं.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी का लिखा-
पूर्वोत्तर भारत के राज्य मेघालय ने अब अपने युवाओं को अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाने की गंभीर पहल की है। राज्य सरकार ने जर्मन संस्थाओं के सहयोग से एक विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किया है, जिसके तहत नर्सिंग और हेल्थ सेक्टर से जुड़े युवा अब जर्मनी में नौकरी कर सकेंगे।
शुरुआत के लिए 20 युवाओं का एक बैच चुना गया है जिन्हें छह महीने तक जर्मन भाषा का बी2 स्तर तक प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इसके बाद वीजा और इंटरव्यू की प्रक्रिया पूरी होने पर उनकी नियुक्ति जर्मनी के अस्पतालों में की जाएगी।
योजना नहीं, निवेश है
मुख्यमंत्री कोनराड संगमा इस कार्यक्रम को आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन की एक शुरुआत मानते हैं। उनके अनुसार, ‘अगर हम 30,000 पेशेवरों को विदेश भेजने में सफल होते हैं, तो वे हर महीने करीब 250 करोड़ रुपये राज्य में भेज सकते हैं। यह रकम सालाना 3,000 करोड़ रुपये तक पहुंच सकती है।’ मुख्यमंत्री का कहना है कि यह योजना केवल एक नौकरी कार्यक्रम नहीं है, बल्कि एक रणनीतिक निवेश है जो राज्य की युवा आबादी को वैश्विक ताकत में बदल सकता है।
कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत शिलॉन्ग में हुई जहां कोलकाता स्थित जर्मन वाणिज्य दूतावास की डिप्टी काउंसिल जनरल आंद्रेया येस्के और पीपल2हेल्प संस्था के कंट्री डायरेक्टर जनरल यान एबेन भी मौजूद थे। येस्के ने कहा, ‘जर्मन स्वास्थ्य प्रणाली को 2035 तक लाखों कुशल पेशेवरों की जरूरत होगी, और भारत जैसे देशों से सहयोग अनिवार्य है। मेघालय की यह पहल समय की मांग के अनुरूप है।’ उन्होंने आगे कहा, ‘हम इन युवाओं को सिर्फ स्वास्थ्य पेशेवर नहीं, बल्कि भारत और जर्मनी के बीच सांस्कृतिक समझ के दूत के रूप में देखते हैं।’
महिलाएं बढ़ा रही हैं भरोसा
इस योजना में भाग ले रही एक युवती ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘मेरी एक रिश्तेदार जापान में काम कर रही है। उसे देखकर ही मैंने इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने का फैसला किया। अब मैं विदेश में अपने परिवार का नाम रोशन करना चाहती हूं।’
यह बयान उन कई लड़कियों की भावनाओं को जाहिर करता है जो सीमित संसाधनों और अवसरों के बावजूद अपने जीवन को बदलने के लिए तैयार हैं।
सामाजिक संगठनों ने भी इस पहल का स्वागत किया है। एक स्थानीय संगठन के सचिव जोबी लिंगदोह ने कहा, ‘यह कार्यक्रम बाकी युवाओं को भी प्रेरित करेगा, लेकिन इसे केवल एक बार की पहल न बनाकर नियमित और स्थायी कार्यक्रम में बदला जाना चाहिए।’
वहीं एक महिला संगठन की प्रमुख ईके संगमा ने इसे महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक बड़ी पहल बताया। उन्होंने कहा, ‘युवतियों की भागीदारी दिखाती है कि वे अब पूर्वोत्तर की सीमाओं से निकलकर दुनिया में अपनी जगह बनाने को तैयार हैं।’
-सत्येन्द्र पी.एस
आज भिंडी और तरोई बनाया। एक किलो तरोई में 4 जन के खाने को कम लगा तो सोचा आधी किलो भिंडी भी बना लेते हैं। आधे किलो भिंडी काटी। एक भी भिंडी में कीड़ा नहीं निकला। इसी तरह से जब बैगन बनाता हूँ तो उसमें भी कोई कीड़ा नहीं मिलता है।
गांव में जब हमारे यहाँ खेती होती थी तो 10 भिंडी में से एक भिंडी में कीड़ा जरूर मिलता था। बैगन में तो 10 में से 6 बैगन में कीड़ा निकल जाता था। तो कीड़े वाले पोर्शन को काटकर निकाल दिया जाता था और शेष बैगन की सब्जी बन जाती थी।
अब कीड़े गायब हैं। बाजार में मिलने वाली किसी सब्जी में आपको कीड़े नहीं मिलेंगे।
कभी ध्यान में आता है कि इसमें से कीड़े कहां गायब हुए हैं?
कीड़े 2 तरीके से गायब किए गए हैं। पहला तो जेनेटिकली मोडिफाइड बीज और दूसरा कीड़ों को मारने वाले केमिकल्स। आज की तारीख में किसानों के पास भी नेनुआ, सरपुतिया, बैगन, तरोई, लौकी, कोहड़ा का बीज नहीं मिलेगा। इस समय बीज कम्पनियों और कीटनाशक की कम्पनियों का एक नेक्सस बन गया है। यह गिरोह किसानों को बीज और कीटनाशक बेचता है। और ये कम्पनियां इतने महंगे बीज और कीटनाशक बेचती हैं कि किसान ज्यादा पैसा इन्ही को दे देते हैं। उन्हें केवल यह लगता है कि उत्पादन बहुत हुआ, मुनाफा गायब है। खैर, किसान जाए भाड़ में, वह मेरा मसला नहीं है, क्योंकि किसान तो आपको आतंकवादी लगते हैं उनका दुख दर्द लिखा तो आप मुझे राष्ट्रविरोधी घोषित कर देंगे।
मसला यह है कि आप जो लौकी, नेनुआ, सरपुतिया, तरोई, बैगन, पालक खा रहे हैं न... उसे कीड़े भी खाने को तैयार नहीं हैं। उनको पता है कि उन्होंने ये सब्जियां खाई तो वह मर जाएंगे। आपको यह बात पता नहीं है, क्योंकि आप तत्काल नहीं मरते। पहलेपेट मे गैस बनती है, अपच होता है, डकार और पाद मारने की क्रिया बढ़ती है। फिर लिवर खराब होता है, फिर किडनी खराब होती है, फिर कैंसर होता है। फिर मेदांता, मैक्स, फोर्टिस, पारस, यथार्थ हॉस्पिटल जाकर अपनी पूरी जमा पूंजी दे देते हैं। और फिर 5-7 साल संघर्ष करके मर जाते हैं। इस तरह आपका चक्र पूरा हो जाता है।
लखनऊ में उमराव नेचुरोपैथी बगैर कीटनाशक, बगैर केमिकल्स, बगैर जीएम, बगैर यूरिया, डाई खाद के सब्जियां उगाने की कवायद कर रहा है। मैं नजदीक से जुड़ा हूँ, इसलिए जन्नत की हकीकत पता है। हर सब्जी में कीड़ों का हमला होता है। केवल सीजनल सब्जियां ही बच पाती हैं क्योंकि सीजन पर सब्जियों का प्रोडक्शन इतना ज्यादा होता है कि कीड़ों को खाने के लिए पर्याप्त होता है।
अभी इस साल उमराव नेचुरोपैथी ने एक एकड़ स्ट्रॉबेरी लगवाया। नवम्बर में मैं गया था तो शानदार फसल थी। ऐसा लगा कि यह लाभदायक सौदा होगा। शुरुआती फसल करीब एक लाख रुपये में बिक गई। उम्मीद थी कि जनवरी फरवरी में जब फसल पीक पर होगी तो ठीक ठाक सेल हो जाएगी। इतनी फसल में करीब 5 लाख रुपये लगे थे। लेकिन शीतलहर में ही कीड़ों का हमला हो गया। कृषि वैज्ञानिकों ने कहा कि केमिकल झोंकिए, केवल अपने खाने भर को बगैर केमिकल वाला रखिए। उन लोगों ने मना कर दिया कि नो केमिकल्स। और परिणाम यह हुआ कि उस कमर्शियल खेती में 6 महीने में विशुद्ध रूप से 4 लाख रुपये का घाटा हो गया! उसमें एक केयरटेकर रहते हैं, जिनको सालाना करीब 2 लाख रुपये देने पड़ते हैं, उसके अलावा जो निराई गोड़ाई, रोपाई बोआई का खर्च अलग से आता है। स्ट्रॉबेरी एक कोशिश थी, जिससे मामला नो प्रॉफिट नो लॉस में आ जाए।
-कलम रंगदार
‘ब्लैक शीप’ उस इंसान को कहते हैं जो अपने परिवार, समाज या ग्रुप से अलग सोचता है, अलग रास्ता चुनता है।
अक्सर लोग उसे गलत समझते हैं, या कहते हैं कि वो ‘अलग तरह का’ है।
लेकिन सच्चाई ये होती है — वो बस भीड़ में खोकर जीने वाला नहीं होता।
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उन्होंने तुम्हें ब्लैक शीप कहा —
इसलिए नहीं कि तुम ग़लत थे, बल्कि इसलिए क्योंकि तुम सबसे अलग थे।
जब बाकी सब बिना सोचे-समझे भीड़ के पीछे चलते रहे,
तुम रुकेज्
तुमने ऊपर देखा, हवा की आवाज़ सुनी
और दिल से कहा, ‘ज़रूर कोई और रास्ता होगा।’
ब्लैक शीप भीड़ में इसलिए नहीं घुलते
क्योंकि वो अपनी अलग सोच पर चलते हैं।
उन्होंने बहुत सी परंपराएं देखी हैं जो सिफऱ् दिखावे की थीं,
बहुत से ऐसे नियम देखे हैं जिन्हें ‘नॉर्मल’ कहा गया — पर वो पिंजरे थे।
इसलिए वो अकेले ही सही, पर अपने रास्ते पर चलते हैं।
जागे हुएज् सचेतज्
वो सवाल उठाते हैं,
खामोशी तोड़ते हैं,
और कई बार वो वो पुल बना देते हैं
जिसकी बाकियों को ज़रूरत तो थी, पर कभी समझ नहीं पाए।
हर उस इंसान के लिए जो ब्लैक शीप कहलाता है —
तुम ही हो असली बदलाव,
तुम ही हो नई सोच की शुरुआत,
तुम ही हो उस धुन का हिस्सा जो सबसे अलग है।
तुम्हें किसी में घुलने की ज़रूरत नहीं —
क्योंकि तुम बने ही हो अलग दिखने और रास्ता दिखाने के लिए।
-अंशुल सिंह
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय छात्र-छात्राओं को दाखिला देने का अधिकार रद्द कर दिया है।
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी ने ट्रंप प्रशासन के इस फैसले के खिलाफ मुकदमा दायर किया। बॉस्टन में दायर मुकदमे में यूनिवर्सिटी ने प्रशासन की कार्रवाई को कानून का ‘स्पष्ट उल्लंघन’ बताया।
इस मामले पर सुनवाई करते हुए अमेरिका के डिस्ट्रिक्ट जज एलिसन बॉरो ने फिलहाल ट्रंप प्रशासन के फैसले पर रोक लगा दी है।
इससे पहले अमेरिकी गृह सुरक्षा मंत्री क्रिस्टी नोएम ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा कि प्रशासन ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के ‘कानून का पालन नहीं कर पाने के कारण अंतरराष्ट्रीय स्टूडेंट्स एडमिशन प्रोग्राम को रद्द कर दिया है।’
क्रिस्टी नोएम ने इसे देश भर के सभी विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों के लिए एक ‘चेतावनी’ बताया। वहीं, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी ने इस कदम को ‘गैर-कानूनी’ बताया।
विश्वविद्यालय प्रशासन ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा है, ‘हम अपने अंतरराष्ट्रीय स्टूडेंट्स और स्कॉलर्स को दाखिला देने की क्षमता को बनाए रखने के अपने संकल्प पर कायम हैं। उन स्टूडेंट्स और स्कॉलर्स के लिए जो 140 से अधिक देशों से यहां आते हैं और विश्वविद्यालय और इस राष्ट्र को समृद्ध बनाते हैं।’
यूनिवर्सिटी का कहना है, ‘इस प्रतिशोधात्मक कार्रवाई से हार्वर्ड समुदाय और हमारे देश को गंभीर नुकसान पहुंचने का ख़तरा है। यह हार्वर्ड के शैक्षणिक और शोध मिशन को भी कमजोर करता है।’
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी अमेरिका की एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी है जिसमें भारत समेत दुनिया भर के हज़ारों स्टूडेंट्स पढ़ाई करते हैं।
ऐसे में सवाल है कि ट्रंप के इस फ़ैसले के बाद हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढऩे की चाह रखने वाले भारतीय छात्र-छात्राओं पर क्या असर होगा?
डोनाल्ड ट्रंप बनाम हार्वर्ड यूनिवर्सिटी
अप्रैल 2025 में हार्वर्ड को अमेरिकी राष्ट्रपति के कार्यालय ने मांगों की एक सूची भेजी थी। यूनिवर्सिटी ने उन मांगों को अस्वीकार कर दिया था।
ट्रंप प्रशासन जिन बदलावों की मांग कर रहा था, उनमें निम्नलिखित हैं-
अमेरिकी मूल्यों के मुखालफत करने वाले स्टूडेंट्स की सूचना सरकार की दी जाए
यह सुनिश्चित किया जाए कि हर शैक्षणिक विभाग का दृष्टिकोण विविधतापूर्ण हो
यूनिवर्सिटी के विभागों का ऑडिट करने के लिए सरकारी मान्यता प्राप्त बाहरी कंपनी को नियुक्त किया जाए
यहूदी विरोधी उत्पीडऩ को सबसे अधिक बढ़ावा देने वाले विभागों की सूचना दी जाए
पिछले दो वर्षों में परिसर में विरोध प्रदर्शनों के दौरान हुए ‘उल्लंघनों’ के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाए
विश्वविद्यालय की ‘विविधता, समानता और समावेशन’ की नीतियों और कार्यक्रमों को ख़त्म किया जाए
अमेरिकी राष्ट्रपति के कार्यालय ने कहा था कि यह सूची कैंपस में यहूदी विरोधी भावना से लडऩे के लिए बनाई गई थी। इस पत्र में मांग की गई थी कि यूनिवर्सिटी अपने प्रशासन, भर्ती और दाख़िले की प्रक्रियाओं में बदलाव करे।
हार्वर्ड ने इन मांगों को ख़ारिज करते हुए कहा था कि व्हाइट हाउस उस पर नियंत्रण की कोशिश कर रहा है।
इसके कुछ घंटों बाद ट्रंप प्रशासन ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की फंडिंग रोकने का फ़ैसला किया था। अमेरिकी शिक्षा विभाग ने कहा था कि वह हार्वर्ड को दिए जाने वाले 2.2 अरब डॉलर के अनुदान और 6 करोड़ डॉलर के अनुबंधों पर तत्काल रोक लगा रहा है।
इसके बाद हार्वर्ड के प्रोफेसरों ने एक मुकदमा दायर कर आरोप लगाया कि सरकार गैर-कानूनी तरीके से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शैक्षणिक स्वतंत्रता पर हमला कर रही है।
इससे पहले व्हाइट हाउस ने कोलंबिया विश्वविद्यालय से 40 करोड़ डॉलर की संघीय फंडिंग वापस ले ली थी।
ट्रंप प्रशासन ने कोलंबिया यूनिवर्सिटी पर यहूदी विरोधी भावना से लडऩे और अपने परिसर में यहूदी स्टूडेंट्स की सुरक्षा करने में विफल रहने का आरोप लगाया था।
इसके बाद, कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने ट्रंप प्रशासन की कई मांगों पर सहमति व्यक्त कर दी थी। विश्वविद्यालय के इस कदम की कुछ स्टूडेंट्स और शिक्षकों ने आलोचना की थी।
भारतीय छात्र-छात्राओं पर क्या असर होगा?
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी की वेबसाइट के मुताबिक़, हर साल 500 से 800 भारतीय हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करते हैं।
वर्तमान सत्र में 140 से ज़्यादा देशों के 10 हज़ार 158 अंतरराष्ट्रीय स्टूडेंट्स यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे हैं। इनमें भारतीय स्टूडेंट्स की संख्या 788 है।
आशीष दीक्षित बीबीसी वर्ल्ड सर्विस में सीनियर न्यूज एडिटर हैं और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में साल 2022-23 में फेलो थे।
-आर के जैन
दिल्ली से श्रीनगर जा रही इंडिगो की एक फ्लाइट 21 मई को ओलावृष्टि के कारण भीषण टर्बुलेंस (हवा में झटकों) की चपेट में आ गई थी। इस दौरान पायलट ने पाकिस्तान से उसका एयरस्पेस इस्तेमाल करने की इजाजत मांगी थी। लेकिन पाकिस्तान ने मना कर दिया।
न्यूज एजेंसी PTI ने 22 मई को सूत्रों के हवाले से बताया कि इंडिगो फ्लाइट जब अमृतसर के ऊपर से गुजर रही थी, तब पायलट ने हल्का टर्बुलेंस महसूस किया। उन्होंने लाहौर एयर ट्रैफिक कंट्रोल (ATC) से कॉन्टैक्ट किया और खराब मौसम से बचने के लिए पाकिस्तान के एयरस्पेस में घुसने की परमिशन मांगी। पर लाहौर ATC ने पायलट को साफ मना कर दिया, जिसके कारण फ्लाइट को अपने तय रूट पर आगे बढ़ना पड़ा। आगे जाकर फ्लाइट गंभीर टर्बुलेंस की चपेट में आ गई। फ्लाइट जोर से हिलने-डुलने लगी। फ्लाइट में 227 लोग सवार थे। तेज झटकों के कारण सभी चीखने-चिल्लाने लगे थे।
पायलट ने श्रीनगर ATC को जानकारी दी और फ्लाइट की इमरजेंसी लैंडिंग कराई। लैंडिंग के बाद देखा गया कि फ्लाइट का अगला हिस्सा (नोज कोन) टूट गया ।
डायरेक्टरेट जनरल ऑफ सिविल एविएशन (DGCA) ने एक बयान जारी करते हुए कहा कि, 21 मई को इंडियो की A321 फ्लाइट दिल्ली से श्रीनगर जा रही थी। पंजाब के पठानकोट के पास अचानक मौसम बिगड़ गया। ओले गिरने लगे। पायलट के मुताबिक, उसने इंडियन एयर फोर्स से बाईं तरफ यानी इंटरनेशनल बॉर्डर की तरफ मुड़ने की परमीशन मांगी।लेकिन पाकिस्तान ने साफ इनकार कर दिया बावजूद यह जानते हुए कि ये यात्री विमान है और यात्रियों की जिंदगी संकट में है ।
इसके बाद पायलट ने लाहौर एटीसी से संपर्क कर उनके हवाई क्षेत्र में इंट्री करने की परमीशन मांगी लेकिन लाहौर एटीसी ने इजाजत नहीं दी। इसके बाद पायलट ने फ्लाइट को वापस ले जाने का प्रयास किया लेकिन तब तक विमान तेज आंधी-बारिश में पहुंच गया। इसके बाद पायलट ने फ्लाइट को मौसम के बीच ले जाने का फैसला लिया। इस दौरान फ्लाइट की स्पीड तेज कर दी। आखिर में श्रीनगर एयरपोर्ट पर सेफ लैंडिंग की। हालांकि इससे विमान के नोज को नुकसान पहुंचा है। पूरे मामले की जांच DGCA की तरफ से की जा रही है ।
-आर.के.जैन
क्या कोई शख्स बीमार होने पर सीखी हुई भाषा ही पूरी तरह से भूल सकता है?
बीमारी में अंग्रेजी बोलना ही भूल गई महिला, फिर जांच में निकली दिमागी गड़बड़ी, चौंकाने वाला है पूरा मामला ।
दुनिया में कुछ ऐसे मामले भी सामने आए हैं जिनमें दिमाग की सर्जरी होने के बाद कोई शख्स भाषा बोलने का लहजा ही भूल गया था । ऐसा आमतौर पर दिमाग के किसी हिस्से में गड़बड़ी के कारण होता है। लेकिन बीमार होने पर कोई पूरी भाषा ही भूल जाए, जैसा देखने को पहले कभी नहीं मिला। पर चीन के ग्वांगझोउ में एक 24 साल की महिला ने डॉक्टरों को हैरान कर दिया। वह अंग्रेजी में पारंगत थी, लेकिन एक दिन क्लास के दौरान उसे अचानक बीमारी होने के बाद वह अंग्रेजी बोलना पूरी तरह भूल गई ।
हैरानी की बात ये है कि महिला अंग्रेज़ी तो भूल गई, लेकिन वह मंदारिन और कैंटोनीज़ तब भी बोल सकती थी । पाया गया कि वह अंग्रेजी का एक भी शब्द नहीं बोल पा रही थी। ग्वांगडोंग प्रोविंशियल पीपल्स हॉस्पिटल के न्यूरोसर्जरी विभाग के निदेशक वान फेंग ने इस मामले का वीडियो शेयर किया ।
उन्होंने बताया कि महिला एक साल से विदेश में पढ़ रही थी । उसकी अंग्रेजी बहुत अच्छी थी। अजीब बात ये है कि वह अंग्रेजी पढ़ और समझ सकती थी, लेकिन वह अंग्रेजी बोलने में असमर्थ हो गई। इस बात से महिला डर गई थी । उसने तुरंत चिकित्सा सहायता मांगी । उसे ग्वांगडोंग प्रोविंशियल पीपल्स हॉस्पिटल में भर्ती किया गया। डॉक्टरों को पहले शक था कि मस्तिष्क में ट्यूमर हो सकता है । लेकिन एमआरआई से पता चला कि उसके मस्तिष्क के बाएं मोटर क्षेत्र में खून बहा था। इस रिसाव ने उसकी अंग्रेजी बोलने की क्षमता पर असर डाल दिया था ।
बदलते विश्व में होगी भारत की बड़ी भूमिका, बशर्ते हम पिछलग्गू ना बनें
-ओंकारेश्वर पांडेय
बीते हफ्ते जब भारत-पाकिस्तान युद्ध विराम के बारूदी गुबार के बाद जीत हार के दावे और नुकसान के आकलन कर रहे थे और वाशिंगटन में बैठे राष्ट्रपति ट्रंप बार बार सीज फायर कराने का श्रेय लेने की कोशिश कर रहे थे, ठीक उसी समय ब्रुसेल्स में यूरोप और ब्रिटेन इतिहास के एक नये अध्याय पर हस्ताक्षर कर रहे थे। एक ऐसा इतिहास जो खामोशी से एक ध्रुवीय विश्व को बहुध्रुवीय दुनिया की तरफ ले जा रहा था। 19 मई 2025 को ब्रुसेल्स की सर्द हवाओं में यूरोपीय संघ और ब्रिटेन ने जो रणनीतिक समझौता किया, उसमें सुरक्षा, रक्षा, यूक्रेन समर्थन, प्रवास, जलवायु, शिक्षा और व्यापार तो शामिल था ही, इसमें अमेरिकी छत्रछाया से इतर एक नया यूरोप बनाने की दृढ़ इच्छा शक्ति की झलक भी थी।
यह समझौता महीनों की उस गोपनीय बातचीत का नतीजा था, जो जनवरी 2025 में राष्ट्रपति ट्रंप की दी हुई अपमानजनक उपेक्षा और अवहेलना से शुरू हुई थी। यह ब्रेक्सिट के पुराने जख्मों पर मरहम नहीं, बल्कि यूरोप की उस जिद का प्रतीक था, जो अब अमेरिका के तलाकनामे के बाद अपनी नई राह तलाश रही है।
इस साल की शुरुआत में जब राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने सुनहरे बालों को हिलाते हुए व्हाइट हाउस में दोबारा कदम रखा, तो शायद उन्हें अंदाजा भी नहीं था कि उनका तमाशा विश्व मंच पर एक नयी पटकथा लिख देगा। एक ऐसी पटकथा, जिसमें दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका खुद अकेला पड़ता जायेगा, तो वहीं इस राह पर कदम बढ़ाते यूरोप को रूस और चीन से अलग भारत की याद आएगी—उस भारत की जिसने नेहरु के जमाने से ही गुट निरपेक्षता की राह पकड़ी थी। आज यूरोप को लग रहा है कि नेहरु के रास्ते ठीक थे, उसने अमेरिका पर निर्भर रहकर कई दशक गंवा दिये।
ट्रम्प का तमाशा: तलाक की स्क्रिप्ट
शायद ट्रंप को अंदाज़ा भी नहीं होगा कि यूरोप के प्रति उनके जहरीले बयान विश्व राजनीति की दशा और दिशा ही बदल देंगे। 20 जनवरी 2025 को, वाशिंगटन डीसी में ट्रम्प ने अपने दूसरे कार्यकाल की शपथ ली। इसके बाद, 15 मार्च 2025 को पेन्सिलवेनिया की एक रैली में उन्होंने नाटो को ‘बेकार का बोझ’ ठहराया और यूरोप को ‘अमेरिकी खजाने पर पलने वाला मेहमान’ बताया। 10 अप्रैल 2025 को टेक्सास में रूढि़वादी दानदाताओं के सामने उन्होंने ईयू के ग्रीन डील को ‘आर्थिक हत्या’ करार दिया, यह कहते हुए कि ‘अमेरिकी मज़दूर यूरोप के जलवायु सपनों का बोझ क्यों उठाए?’
ट्रंप के ये तीखे बयान कोई तात्कालिक तुनकमिजाजी नहीं थे। राष्ट्रपति के रूप में उनका पहला कार्यकाल (2017-2021) भी इसी तरह के तानों से भरा था, जब उन्होंने नाटो को ‘पुराना ढाँचा’ कहा, जर्मनी को ‘रूस का गुलाम’ बताया, और ईयू को अमेरिका का ‘लाभ उठाने वाला’ करार दिया। उस वक़्त तो यूरोप आश्चर्य और सदमे में पड़ गया था, मगर अब, 2025 में, इससे मर्माहत और तिलमिलाये यूरोप की आँखों में रोष है, मु_ियाँ बँधी हैं, और इरादे पक्के। ट्रम्प का तलाकनामा यूरोप के लिए एक नई सुबह का न्योता बन गया है।
यूरोप की कलम-व्यंग्य में विद्रोह
ट्रम्प के अपमान भरे बयानों ने यूरोप के गौरव को ललकारा, तो यूरोप की कलम ने विद्रोह की स्याही से जवाब लिखा। 5 मई 2025 को, फ्रांस के अखबार ले मॉन्ड ने अपने संपादकीय में लिखा, ‘ट्रम्प ने साफ कर दिया कि यूरोप उनके लिए एक पुराना कोट है, जिसे वे कबाडख़ाने में फेंकने को तैयार हैं।’ 20 अप्रैल 2025 को, जर्मनी के डेर स्पीगल ने तंज कसा, ‘ट्रम्प हमें इसलिए नीचा दिखाते हैं, क्योंकि वे शक्ति को केवल बम-बारूद में देखते हैं। मगर यूरोप की ताकत उसकी कूटनीति, उसकी स्थिरता, उसका धैर्य है।’
15 अप्रैल 2025 को, ब्रुसेल्स में यूरोपियन काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशन्स (ईसीएफआर) ने अपने पेपर नो लॉन्गर पार्टनर्स: ए पोस्ट-अटलांटिक यूरोप में ऐलान किया कि ‘ट्रान्सअटलांटिक गठबंधन अब इतिहास की बात है। स्वायत्तता अब सपना नहीं, बल्कि ज़रूरत है।’ तथ्य यह है कि यूरोप और अमेरिका कभी विश्व मंच के दो जिगरी दोस्त थे। 1949 में दोनों ने मिलकर नाटो की नींव रखी, मार्शल प्लान (1948-1952) के ज़रिए यूरोप का पुनर्निर्माण किया। 11 सितंबर 2001 को, 9/11 हमलों के बाद नाटो ने पहली बार आर्टिकल 5 लागू किया, और यूरोप के सैनिक अफगानिस्तान में अमेरिका के साथ लड़े। 2008 के आर्थिक संकट में, यूरोपीय बैंकों ने अमेरिकी फेडरल रिजर्व के साथ मिलकर वैश्विक बाजारों को संभाला। मगर ट्रम्प के लिए ये सब पुरानी कहानियाँ हैं, जिन्हें वे लेन-देन के बहीखाते में बदलना चाहते हैं। ट्रम्प माने डील।
ईयू-यूके समझौता : नई राह, नया साथी
ट्रम्प के पहले कार्यकाल में तो उनके तेवर यूरोप ने सह लिए। पर दूसरी बार भी वाशिंगटन का यही रवैया रहा, तो आहत ब्रुसेल्स और लंदन ने एक नया गीत लिख डाला, जिसे 19 मई 2025 को गाया गया। हालांकि इसका अभ्यास जनवरी 2025 से ही गोपनीय रूप से चल रहा था। यह ब्रेक्सिट की कड़वाहट को भुलाने का प्रयास भर नहीं है, बल्कि एक नया रिश्ता है—जिसमें दो पुराने दोस्त नाराजग़ी भुलाकर बराबरी के साथ गले मिल रहे हैं।
याद रहे कि ब्रिटेन में कीर स्टार्मर की लेबर सरकार ने जुलाई 2024 में सत्ता संभालते ही यूरोप की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया था। 18 जुलाई 2024 को, ब्लेनहेम पैलेस में स्टार्मर ने यूरोपीय पॉलिटिकल कम्युनिटी समिट की मेजबानी की। 10 सितंबर 2024 को, विदेश सचिव डेविड लैमी ने ईयू फॉरेन अफेयर्स काउंसिल में भाग लिया। 15 अक्टूबर 2024 को, लंदन और बर्लिन ने ट्रिनिटी हाउस समझौते पर हस्ताक्षर किए, जो एक ऐतिहासिक रक्षा सहयोग था। 1 नवंबर 2024 को, पोलैंड के साथ ‘विशेष साझेदारी’ की योजना शुरू हुई। ट्रम्प के टेढ़े तेवरों से तिलमिलाये यूरोप ने आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ा दिये हैं।
नाटो का संकट
ट्रम्प ने जो कुछ कहा, उसने नाटो को हिलाकर रख दिया, जैसे कोई पुराना मकान हवा के झोंके से काँप उठे। 15 मार्च 2025 को, पेन्सिलवेनिया में ट्रम्प ने नाटो से निकलने की धमकी दी और 5त्न जीडीपी रक्षा खर्च की माँग की। नाटो के 32 सदस्यों में से 23 अभी तक 2त्न जीडीपी लक्ष्य को ही पूरा करते हैं, 5त्न का लक्ष्य तो दूर की कौड़ी है। तो नाटो का क्या होगा। हालांकि अक्टूबर 2024 में नियुक्त हुए नए महासचिव मार्क रुटे, यूरोपीय खर्च बढ़ाने की वकालत कर रहे हैं, ताकि अमेरिका का साथ बना रहे, लेकिन इस गठबंधन की एकजुटता का असली फैसला तो 10 जून 2025 को द हेग में होने वाले नाटो शिखर सम्मेलन में ही होगा।
अमेरिकी झटके के बाद ईयू का स्वाभिमान जोर मार रहा है। यूरोप किसी के भरोसे नहीं बैठना चाहता। जनवरी 2024 में ईयू ने यूरोपीय रक्षा संघ की योजना को गति दी, जिसमें क्7.5 बिलियन का रक्षा कोष और संयुक्त कमांड सेंटर शामिल हैं। 15 मार्च 2025 को, यूरोपीय रक्षा औद्योगिक रणनीति की घोषणा हुई, एक रक्षा आयुक्त नियुक्त हुआ। यूरोप का रक्षा उद्योग अभी बिखरा हुआ है, और अमेरिकी हथियारों पर निर्भरता एक चुनौती है। मगर, जैसा ईसीएफआर कहता है, ‘द्विपक्षीय समझौतों का जाल’ यूरोप की सामूहिक शक्ति को बढ़ा सकता है। ये सभी कोशिशें यूरोप की नई उड़ान का परिचय दे रही हैं। ट्रम्प ने यूरोप को न केवल जगा दिया, बल्कि उसे अपने पंखों पर उडऩे की हिम्मत भी दे दी है। ईयू अब एक स्वतंत्र खिलाड़ी बन गया है।
इंडिया की याद
यूरोपीय ब्रूगल थिंक टैंक ने अपने एक विश्लेषण में ठीक कहा कि, ‘ट्रम्प का पीछे हटना जोखिम के साथ अवसर लाता है।’ तो जब ट्रम्प ने तलाक का नोटिस थमाया, तो यूरोप ने नए दोस्त की तलाश में भारत की ओर देखा। 10 फरवरी 2025 को, नई दिल्ली में ईयू-भारत शिखर सम्मेलन हुआ, जिसमें ईयू अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन शामिल हुईं। इसमें 2021 के भारत-ईयू रणनीतिक रोडमैप को विस्तार देने का फैसला किया गया। व्यापार वार्ताएँ दिसंबर 2025 तक मुक्त व्यापार समझौते की ओर बढ़ रही हैं।
भारत और ईयू के बीच व्यापार 2024 में क्120 बिलियन तक पहुँचा, और 2025 में यह और बढऩे की उम्मीद है। भारत की जीडीपी वृद्धि 2024 में ठीक रही, और उसका रक्षा निर्यात 2025 में $5 बिलियन तक पहुँचने की राह पर है। टाटा और इन्फोसिस जैसी कंपनियाँ यूरोप में डेटा सेंटर और एआई परियोजनाओं में निवेश कर रही हैं। रक्षा में, भारत का तेजस लड़ाकू विमान और ब्रह्मोस मिसाइल यूरोप के रडार पर हैं। ईयू के साथ भारत की दोस्ती वैश्विक शक्ति संतुलन को नया आकार दे सकती है। भारत अगर नेहरू की पुरानी गुटनिरपेक्ष नीति पर चला तो यह उसे अमेरिका, ईयू और ग्लोबल साउथ के बीच संतुलन बनाने की ताकत दे सकता है।
विश्व मंच का नया रंगमंच
इसी साल जनवरी में ईयू ने रूस से गैस आयात को 2027 तक खत्म करने की योजना की घोषणा की। ईयू की जीडीपी ($18.8 ट्रिलियन, 2024) अमेरिका के बराबर है, इसकी आबादी (450 मिलियन) उससे अधिक है, और इसकी नियामक शक्ति (जैसे जीडीपीआर) वैश्विक बाजारों को आकार देती है। एआई और हरित प्रौद्योगिकी में ईयू के मानक अब वैश्विक बेंचमार्क हैं।
उधर चीन अपनी बेल्ट एंड रोड 2.0 और तकनीकी निर्यात के साथ अमेरिका के पीछे हटने का फायदा उठा रहा है। रूस, पश्चिम से अलग-थलग, नाटो की दरारों और वाशिंगटन-ब्रुसेल्स के अविश्वास से मजे ले रहा है। मगर भारत? वह विश्व मंच का नया नायक बनने की स्थिति में है। भारत का व्यापार, तकनीक और रक्षा में बढ़ता प्रभाव उसे यूरोप का पसंदीदा साझेदार बनाता है।
- शताली शेडमाके
उर्दू शायर फैज अहमद फैज की मशहूर कविता ‘हम देखेंगे’ का पाठ करने पर महाराष्ट्र में राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया है।
जाने-माने आंबेडकरवादी सामाजिक कार्यकर्ता वीरा साथीदार की याद में बीते 13 मई को महाराष्ट्र के नागपुर में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। इसी कार्यक्रम में फैज की कविता का पाठ किया गया था।
जन संघर्ष समिति नाम के एक स्थानीय संगठन के अध्यक्ष दत्तात्रेय शिर्के की शिकायत पर 16 मई को नागपुर के सीताबर्डी पुलिस स्टेशन में मामला दर्ज कराया गया।
इस कार्यक्रम का आयोजन वीरा साथीदार की पत्नी पुष्पा ने किया था। पुलिस ने शिकायत के आधार पर आयोजकों और अन्य लोगों पर जो मामला दर्ज किया उसमें राजद्रोह की धारा भी जोड़ दी।
क्या है पूरा मामला
नागपुर में वीरा साथीदार स्मृति समन्वय समिति और समता कला मंच ने विदर्भ हिंदी साहित्य संघ भवन में एक सभा का आयोजन किया था।
दत्तात्रेय शिर्के ने 16 मई को सीताबर्डी पुलिस थाने में कार्यक्रम की आयोजक वीरा साथीदार की पत्नी पुष्पा और वहां मौजूद कलाकारों के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कराई थी।
शिर्के ने शिकायत में कार्यक्रम के दौरान ‘भडक़ाऊ और आपत्तिजनक’ बयान देने के आरोप लगाए हैं।
इसमें कहा गया है कि वीरा साथीदार की याद में आयोजित एक कार्यक्रम में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की एक कविता पढ़ी गई। इसके बाद एक कलाकार ने ‘आपत्तिजनक बयान’ दिया।
शिकायत में शिर्के ने कहा कि कविता में ‘सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख़्त गिराए जाएंगे।’ जैसे बोल हैं। शिर्के ने कहा कि एक निजी समाचार चैनल एबीपी माझा पर उन्होंने इस कार्यक्रम का फुटेज देखा था। उन्होंने शिकायत में उस वीडियो का यूट्यूब लिंक भी दिया है।
शिकायतकर्ता शिर्के का क्या कहना है?
शिकायतकर्ता दत्तात्रेय शिर्के ने बीबीसी मराठी से कहा, ‘मैंने इस कार्यक्रम का फ़ुटेज एबीपी माझा पर देखा। फिर मैंने इसे यूट्यूब पर देखा और फिर शिकायत दर्ज कराई।’
उन्होंने कहा, ‘हम उनके विवादित बयान पर आपत्ति जताते हैं। हमारा कहना है कि ऐसा बयान नहीं दिया जाना चाहिए। मैंने आयोजकों खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए शिकायत दर्ज कराई।’
शिर्के ने आगे कहा, ‘वीडियो में एक व्यक्ति ने आपत्तिजनक बयान देते हुए कहा- जिस गाने से सरकार हिल गई थी, उसी से इस सिंहासन को हिलाने की ज़रूरत है। हम फासीवाद के युग में रह रहे हैं। यह युग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को छीन रहा है। यह युग तानाशाही का है।’
बीबीसी ने इस मामले पर आयोजकों से संपर्क किया और उनका पक्ष जानने की कोशिश की। उनका जवाब हमें फि़लहाल नहीं मिल सका है। जवाब मिलने पर उनका पक्ष जोड़ा दिया जाएगा।
पुलिस का क्या कहना है?
मामले की जांच कर रहीं पुलिस इंस्पेक्टर राखी गेडाम ने बीबीसी मराठी से कहा, ‘नागपुर के रहने वाले दत्तात्रेय शिर्के ने 16 मई को पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी। शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया है कि वीरा साथीदार की स्मृति में आयोजित एक कार्यक्रम में भडक़ाऊ बयान दिया गया था।’
पुलिस के मुताबिक शिकायत में कहा है कि इस तरह के कार्यक्रम आयोजित करके आयोजकों ने जानबूझकर जनता को गुमराह करने और देश की संप्रभुता को ख़तरे में डालने का असंवैधानिक काम किया है।
इंस्पेक्टर गेडाम ने कहा, ‘शिकायत के आधार पर कार्यक्रम की आयोजक पुष्पा वीरा साथीदार, एक अज्ञात व्यक्ति और एक अज्ञात महिला समेत अन्य लोगों के ख़िलाफ़ बीएनएस की धारा 152, 196, 353, 3(5) के तहत मामला दर्ज किया गया है।’
धारा 152 राजद्रोह से संबंधित है। धारा 196 धर्म, जाति, भाषा, जन्म स्थान, निवास आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता पैदा करने और शांति में बाधा पैदा करने से जुड़ी है।
धारा 353 शांति भंग करने और अफ़वाह फैलाने की संभावना या ऐसे किसी कार्य या टिप्पणी जिससे कानून व्यवस्था बाधित हो, से संबंधित है।
वीरा साथीदार कौन थे?
वीरा साथीदार महाराष्ट्र के जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता थे। कोविड से 2021 में उनका निधन हो गया था।
उन्होंने मराठी फिल्म 'कोर्ट' में नारायण कांबले की मुख्य भूमिका भी निभाई थी। इस फि़ल्म को समीक्षकों की ओर से काफ़ी सराहना मिली और इसने राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीता।
वर्धा जि़ले के जोगीनगर में अपना बचपन बिताने वाले वीरा साथीदार का असली नाम विजय वैरागड़े था। वह सत्तर के दशक से ही आंबेडकरवादी आंदोलन से जुड़ गए थे।
सामाजिक आंदोलनों में हिस्सा लेने की वजह से उन्होंने अपना सरनेम छोड़ दिया था और वीरा साथीदार कहलाने लगे।
वीरा साथीदार ने ‘विद्रोही’ नामक पत्रिका का संपादन किया था। उन्होंने पत्रकार के रूप में भी कार्य किया। वह ‘रिपब्लिकन पैंथर’ संगठन के माध्यम से दलितों के बीच काम कर रहे थे।
-रति सक्सेना
अधिकतर यह सोचा जाता है कि तुर्की शुरू से कट्टर इस्लामी रहा है, जबकि अततुर्क ने तुर्की को बहुत मॉडर्न देश के रूप में खड़ा किया था, इसलिए तुर्की की लिपी भी रोमन रखी, अरबी नहीं। वहाँ की जीवन शैली कट्टर कम थी। अटोल बरहामुगलू ने देश की कट्टरता से जीवन भर लड़ाई लड़ी। उन्हीं के बुलावे पर जब मैं 2011 में तुर्की पहुँची थी, तो यह देश बहुत कुछ यूरोपीय सा लग रहा था, सिवाय भाषा के। उस वक्त का अनुभव है, जो मेरे यात्रा वृत्तांत सफर के पड़ाव में वर्णित है। कुछ सारंश दे रही हूं, पुस्तक अमेजन में उपलब्ध है। इस पुस्तक में बहुत महत्वपूर्ण देशों के यात्रा वृतान्त हैं।
‘डेन्जिली के विश्वविद्यालय मे-ं’
वह लगभग ऐसे हाँफ रहा था, जैसे कि मीलों से दौडक़र चलता आया हो, जबकि हम जानते थे कि वह इसी ठसाठस भरे सभागार के किसी कोने में बैठा होगा, हो सकता है कि काफी वक्त से कुछ कहने की हिम्मत भी जुटा रहा होगा। हो सकता है कि वह मन ही मन उन सब बातों को दुहरा होगा, जिन्हें कहने की कोशिश में वह भागा चला आया था।
अतौल, तुर्की के लोकप्रिय कवि छात्रों की भीड़ से घिरे हुए थे। घनघोर राजतंत्रीय जीवन शैली वाले इस राज्य में, जो अपने उदारवादी विचारधारा के कारण पश्चिम में ही नहीं पूर्व में भी खासा लोकप्रिय है, अतौल वामपंथी विचारधारा के कवि हैं, जो राजनीतिज्ञों के आँख की किरकिरी होते हुए भी युवा वर्ग और जनता में बेहद लोकप्रिय हैं।
जब हम विश्वविद्यालय पहुँचे तो गेट पर छात्र संघ के अध्यक्ष और सांस्कृतिक प्रतिनिधि ने हम लोगों का स्वागत किया था। ये दोनों प्रतिनिधि बेहद चुस्त-दुरस्त और स्मार्ट लग रहे थे।
ये दोनों प्रतिनिधि हमें लेकर सभागार पहुँचे जहाँ हजारों की संख्या में छात्रों ने तालियों के साथ अतौल का स्वागत किया। हम लोगों के पहुँचते तालियों की गडग़ड़ाहट शुरू हो गई, इसके उपरान्त सभी छात्र त्वरित गति से उठे और राष्ट्रीय गीत गाने लगे। मैंने ऐसा दृश्य अपने देश में तो कभी नहीं देखा था। रकेल जो स्पेनिश कवि हैं, वे भी इस प्रथा से खासी प्रभावित लग रही थी। मंच पर अतुतुर्क का बड़ा सा चित्र लगा हुआ था। सभागार ठसाठस भरा था। निसन्देह वे सब भाषा के छात्र मात्र नहीं थे, इसका अर्थ तो यही था कि कविता विषय से अलग भी महत्व रखती है।
विश्वविद्यालय के कार्यक्रम के उपरान्त अतौल ने हमसे कहा कि हम दोनो होटल लौट जाएँ, जिससे शाम के कविता पाठ के लिए तैयार हो सकंे, वे वहीं रूककर छात्रों से संवाद करेंगे। छात्रों की एक बड़ी भीड़ अतौल के हस्ताक्षर लेने के लिए इंतजार कर रही है।
इसी वक्त वह छात्र दौड़ा-दौड़ा आया था, उसने आते ही कहना शुरू किया कि वह हमसे बहुत जरूरी बात करना चाह रहा है। उसकी अंग्रेजी बहुत अच्छी तो नहीं, लेकिन वह अपनी बात प्रस्तुत कर सकता है।
यूनिवर्सिटी से होटल का रास्ता ज्यादा नहीं था, इसलिए वह लगातार बोलने लगा।
‘देखिए, मैं आप लोगों के द्वारा दुनिया को संदेश देना चाहता हूँ। आपको शायद मालूम ही नहीं होगा कि हमारे हजारों छात्र आज जेल में हैं।’
जेल में, मैं आश्चर्यचकित थी। देखने में तुर्क एक बेहद सम्पन्न देश लगता है। इस्लाम धर्म होते हुए भी कट्टरता का नामोनिशान भी नहीं दिख रहा था। हालाँकि यूनिवर्सिटी का ऑडिटोरियम में दो तुर्क साफ-साफ दिखाई दीं। एक वह बेहद मॉडर्न और दूसरा परम्परावादी, लेकिन कट्टरवाद कहीं नहीं महसूस हुआ।
वह युवा अपने छात्रों के सघर्ष के बारे में लगातार कुछ बताता जा रहा था। वह कह रहा था कि हजारों छात्र जेल में है, बस पुलिस आती है और छात्रों को पकडक़र जेल में बंद कर देती है।
‘ऐसे कैसे? मैं आश्चर्यचकित थी, यहाँ तो सब कुछ इतना खुला-खुला लगता है, लगता ही नहीं कि हम किसी इस्लाम देश में रह रहे हैं।’ मैंने कहा
‘हाँ, बाहर से सब कुछ अच्छा है, हमारी सरकार बेहद आधुनिक लगती है। पूरी अमेरिकिन संस्कृति की अनुयायी, लेकिन भीतर ही भीतर बड़ा वबण्डर मच रहा है। कट्टर ताकतें सिर उठा रही हैं। सरकार उन्हें भी खुश रखना चाहती है, और ऐसे नियम बनाती है जो देखने में सामान्य लगते हैं लेकिन उनके भीतर कट्टरवाद है। उदाहरण के लिए पहले यहाँ आठ तक शिक्षा मुफ्त थी, लेकिन अब उसे घटाकर केवल चार तक कर दिया। इसका परिणाम शहरों पर तो नहीं , लेकिन गाँवों में पड़ेगा। ग्रामीण अभी भी शिक्षा पर ज्यादा धन खर्च नहीं करना चाहेंगे। जिससे वे मुफ्त में चलने वाले मदरसों में अपने बच्चों को भेजने लगेंगे। ये मदरसे सरकारी शह पर कट्टरता को बढ़ावा दे रहे हैं। यह अधिकतर पूर्वी तुर्क में ज्यादा हो रहा है। इसी तरह से सरकार एक अलग तरीके से कट्टरता को बढ़ावा दे रही है। पर्यटन के बहाने पुरातन विचारधारा को तश्तरी में परोसा जा रहा है। यह स्थिति तुर्क के लिए ठीक नहीं है। सूफी संगीत के नाम पर कट्टरता को बढ़ावा दिया जाता है। हम छात्र जानते हैं, और अपनी पीढ़ी को बचाना चाहते हैं, अतुतुर्क का सपना भंग नहीं होने देना चाहते हैं। सरकार हम पर नजर रखती है। और मौका देखकर अलग तरीके से हमारी आवाज बंद करना चाह रही है।