विचार/लेख
-संजना
08 अप्रैल को लगने वाले सूर्य ग्रहण को लेकर खगोलशास्त्रियों में जहां उत्साह है तो वहीं परंपरा और मान्यताओं को प्राथमिकता देने वालों में बेचैनी भी है। हालांकि वैज्ञानिकों ने स्पष्ट कर दिया है कि करीब 50 साल बाद लंबी अवधि के लिए लगने वाला यह सूर्य ग्रहण भारत में नजर नहीं आएगा, इसके बावजूद विज्ञान से अधिक रीति रिवाजों को मानने वाले इसे लेकर आशंकित हैं। जो पूरी तरह से तर्कहीन और अंधविश्वास पर आधारित होता है। शिक्षा और जागरूकता के अभाव में ऐसी तर्कों पर विश्वास करने वालों की एक बड़ी संख्या है। अधिकतर ऐसी मान्यताओं का पालन करने वाले देश के दूरदराज के गांवों में मिल जायेंगे। जहां न केवल चंद्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण के मुद्दे पर बल्कि महिलाओं और किशोरियों के माहवारी के मुद्दे पर भी कई प्रकार के अंधविश्वास देखने को मिलते हैं। इतना ही नहीं, इन क्षेत्रों में लोग बीमार पडऩे पर अपने परिजनों को डॉक्टर से इलाज कराने की जगह झाड़ फूंक करने वालों के पास ले जाते हैं लेकिन जब उस मरीज की हालत गंभीर हो जाती है तो फिर उसे अस्पताल ले जाते हैं।
देश का दूर दराज ऐसा ही एक गाँव है पिंगलों। पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के बागेश्वर जिला स्थित गरुड़ ब्लॉक से करीब 20 किमी की दूरी पर बसा यह गांव आज भी अंधविश्वास की चपेट में है। पंचायत के आंकड़ों के अनुसार इस गांव की आबादी लगभग 1950 है। गांव में 85 प्रतिशत उच्च जातियों की संख्या है और 15 प्रतिशत निम्न जाति के लोग रहते हैं। वहीं साक्षरता की बात करें तो इस गाँव में महिला और पुरुष साक्षरता दर 50 प्रतिशत है। वह इसलिए है क्योंकि अब इस गाँव की किशोरियां पढ़ रही हैं। लेकिन इसके बावजूद गाँव में अंधविश्वास गहराई से अपनी जड़े जमाये हुए है। कक्षा 11 की छात्रा गुंजन बिष्ट कहती है कि ‘हम अपने घर में जब भी बीमार होते हैं तो हमारे घर में दादी सबसे पहले हमें देवी देवताओं के नाम की भभूति लगाती है। यह किस हद तक सही है मुझे भी नहीं पता, लेकिन हमें स्कूल में पढ़ाया जाता है कि जब भी हम बीमार हों तो हमें सबसे पहले डॉक्टर के पास जाकर इलाज करानी चाहिए।’
गांव की एक 36 वर्षीय महिला उषा देवी कहती हैं कि ‘पिंगलों गांव में लोग झाड़-फूंक करने वाले बाबाओं और तांत्रिकों को ज्यादा मानते हैं। अगर कोई बीमार होता है तो लोग झाड़-फूंक कराने उन्हीं के पास जाते हैं। अगर इसके बाद भी तबीयत ज्यादा बिगड़ जाए तब वह डॉक्टर के पास जाते हैं। ऐसे में कई बार बहुत देर भी हो चुकी होती है और मरीज की हालात और भी अधिक बिगड़ जाती है। जब डॉक्टरी इलाज की ज्यादा जरूरत होती है वह उन्हें समय पर नहीं मिल पाता है।’ गांव की एक अन्य महिला मंजू देवी कहती हैं कि ‘मैं जब भी बीमार होती हूं तो मेरे घर वाले मुझे बाबा के पास लेकर जाते हैं, जो मुझे पहले भभूति लगाता है और काला डोरा पहनाता है। लेकिन जब उससे कोई आराम नहीं मिलता है तो फिर मुझे डॉक्टर के पास लेकर जाते हैं। इस देरी के कारण मेरे अंदर इतना कमजोरी आ जाती है कि मैं उठकर चल भी नहीं पाती हूं।’
मंजू की बातों का समर्थन करते हुए 30 वर्षीय पूजा देवी कहती हैं कि ‘यह बात सत्य है कि हमारे गांव में यदि किसी भी परिवार में कोई बीमार होता है तो उसको सबसे पहले डॉक्टर के पास न ले जाकर घर पर ही पूजा करवाई जाती है या फिर बाबा के पास लेकर जाते हैं। जिसमें काफी पैसा खर्च हो जाता है। पहले ही घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होती है। जो पैसा होता है वह पूजा में लग जाता है। ऐसे में डॉक्टर के पास जाने के लिए फिर कुछ भी नहीं बच पाता है। आखिरकार परिवार कर्ज लेकर अस्पताल का चक्कर काटता है। यदि तांत्रिकों की जगह पहले ही अस्पताल ले जाया जाए तो जान और पैसा दोनों ही बच सकता है।’
अंधविश्वास पर गाँव की सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रैंडी अपना अनुभव साझा करते हुए कहती हैं कि ‘जब मैं पहली बार मां बनने जा रही थी और मेरा सातवां महीना चल रहा था। उस समय चंद्र ग्रहण लगा था। मेरे आस-पास के लोगों ने मेरी सास को बोला कि तुम्हारी बहू गर्भवती है, इसे चंद्र ग्रहण मत देखने देना, अन्यथा होने वाला बच्चा विकलांग पैदा होगा। परंतु मैं भी जिज्ञासा वश देखना चाहती थी कि आखिर इसके पीछे कारण क्या है? जब रात में सभी सो गए तो मैने खिडक़ी खोलकर पूरा चंद्र ग्रहण देखा। फिर अगली सुबह मैंने यह बात अपनी सास और अन्य को बताई, तो सभी मुझ पर बहुत गुस्सा हुए और आशंकित हुए कि पता नहीं अब होने वाले बच्चे पर क्या असर होगा? दो महीने बाद जब डिलीवरी हुई तो मैंने स्वस्थ बेटी को जन्म दिया। इस तरह अंधविश्वास करने वालों के मुंह पर ताले लग गये।’
नीलम कहती हैं कि ‘आज सब कुछ देखते हुए, समझते हुए और तर्क के आधार पर फैसला करने के बावजूद भी लोग अंधविश्वास के भयानक पिंजरे में कैद हैं। यह सदियों से चली आ रही एक भयानक बीमारी है। जिसका इलाज केवल जागरूकता और वैज्ञानिक कसौटी है। यह एक ऐसा रोग है, जिसने समाज की नींव खोखली कर दी है।’ वह कहती हैं कि ‘अंधविश्वास किसी जाति, समुदाय या वर्ग से संबंधित नहीं है बल्कि यह स्वयं के अंदर विद्यमान होता है। यह मनुष्य को आंतरिक स्तर पर कमजोर बनाता है। जिसके बाद इंसान ऐसी बातों पर विश्वास करने लगता है, जिनका कोई औचित्य नहीं होता है।
अंधविश्वास का सबसे नकारात्मक प्रभाव महिलाओं और किशोरियों के जीवन पर पड़ता है। जिन्हें सबसे पहले इसका निशाना बनाया जाता है। हमारा ग्रामीण समाज इस विकार से सबसे अधिक ग्रसित है। जिससे परिवर्तन और विकास संभव नहीं है। भारतीय समाज को इन्हीं अंधविश्वास ने कोसों पीछे छोड़ रखा है। आज भी कितने ही शिक्षित लोग हैं, जो किसी न किसी रूप में अंधविश्वास में जकड़े हुए हैं। यही कारण है कि हमारी विकास की गति इतनी धीमी है। चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण के पीछे वैज्ञानिक कारणों को अनदेखा करके हम अंदर से भयभीत रहते हैं। जबकि हमें इसके प्रति संकुचित दृष्टिकोण रखने की अपेक्षा इसमें छिपे रहस्यों को जानना चाहिए जिससे कि आने वाली पीढ़ी इसका लाभ उठा कर विकास के नए प्रतिमान गढ़ सके। दरअसल विज्ञान के युग में अंधविश्वास की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। (चरखा फीचर)
चुनाव से चंद हफ्ते पहले भ्रष्टाचार के आरोपों पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी ने विपक्ष में नई जान फूंक दी है. विपक्ष ने बीजेपी पर "सरकारी एजेंसियों का हथियार की तरह इस्तेमाल" करने का आरोप लगाया है.
डॉयचे वैले पर मुरली कृष्णन की रिपोर्ट-
विपक्षी दलों का इंडिया गठबंधन, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के समर्थन में खड़ा हो गया है. भ्रष्टाचार के मामले में अदालत ने उन्हें 15 अप्रैल तक न्यायिक हिरासत में भेजा है. दिल्ली की आबकारी नीति से जुड़े आरोपों को लेकर आम आदमी पार्टी (आप) के अन्य नेताओं के अलावा पार्टी प्रमुख केजरीवाल को मार्च में गिरफ्तार किया गया था.
भारत में आम चुनाव 19 अप्रैल से 1 जून तक चलेंगे. इसके लिए पार्टियों का चुनावी अभियान जोरों पर चल रहा था कि केजरीवाल गिरफ्तार कर लिए गए. आप का कहना है कि केजरीवाल पर लगे आरोप, बीजेपी के विरोधियों को कुचलने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राजनीति प्रेरित हथकंडा है.
मोदी के खिलाफ एकजुट विपक्ष
फरवरी में आप ने इंडिया गठबंधन में शामिल होने का फैसला किया था. इंडिया ब्लॉक की अगुवाई भारत की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस कर रही है, जो चुनावों में बीजेपी को एक विश्वसनीय चुनौती देने को तत्पर है.
गठबंधन में दर्जनों राजनीतिक दल शामिल हैं, लेकिन आप और कांग्रेस का दबदबा सबसे ज्यादा है. पिछले दिनों नई दिल्ली में हुई 'लोकतंत्र बचाओ' रैली में विपक्षी नेताओं ने नरेंद्र मोदी पर भारत की संघीय एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाया. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इल्जाम लगाया कि बीजेपी चुनावों को अपने पक्ष में फिक्स करने की कोशिश कर रही है.
राहुल गांधी ने कहा, "प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन चुनावों में मैच फिक्सिंग की कोशिश कर रहे हैं. इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों, मैच फिक्सिंग, सोशल मीडिया और प्रेस पर दबाव डाले बिना वो 180 से ज्यादा सीटें जीत ही नहीं सकते."
राजनीतिविज्ञानी जोया हसन के मुताबिक, रैली से पता चलता है कि केजरीवाल की गिरफ्तारी ने किस तरह विपक्षी पार्टियों में नई ऊर्जा भर दी है. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "सवाल उस आबकारी नीति की खासियतों या गुणों का नहीं है, जिसकी वजह से केजरीवाल गिरफ्तार किए गए. ऐन चुनावों के वक्त उनकी गिरफ्तारी की टाइमिंग राजनीतिक प्रक्रिया को नष्ट और समान भागीदारी के अवसर को ध्वस्त कर देती है."
विपक्ष कर पाएगा मतदाताओं को लामबंद ?
विपक्षी दलों के लिए बड़ा सवाल यह है कि केजरीवाल का मामला मतदाताओं में सहानुभूति जगाएगा या नहीं. केजरीवाल की भूमिका की तुलना अमेरिका में गर्वनर से की जा सकती है या जर्मनी में किसी प्रांत के प्रीमियर (प्रधानमंत्री) से. दिल्ली महानगर भारत के उन चुनिंदा हिस्सों में से है, जहां मोदी की हिंदू राष्ट्रवादी बीजेपी को बढ़त हासिल नहीं है.
पिछले दशक से मतदाताओं ने विधानसभा चुनावों में आप का समर्थन किया है. वे केजरीवाल की कल्याणकारी राजनीति पसंद करते हैं, जिसके तहत आप की सरकार ने अच्छी गुणवत्ता वाले सरकारी स्कूलों, परिष्कृत स्वास्थ्य सेवा प्रणाली और मुफ्त बिजली का वादा किया है. हालांकि, संसदीय चुनावों में आप का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा.
एक वरिष्ठ आप नेता ने डीडब्ल्यू से कहा, "ये हाई-प्रोफाइल गिरफ्तारी संसदीय चुनावों में हमें फायदा ही पहुंचाएगी. किसी कारणवश केजरीवाल चुनाव प्रचार न कर पाए, तो हम लोगों के बीच जाकर ये बताएंगे कि बीजेपी किस तरह राजनीतिक मैदान से विपक्ष को बाहर रखना चाहती है."
2019 के चुनावों में बीजेपी ने लोकसभा की 543 में से 303 सीटें जीती थीं. उसे यकीन है कि 2024 में भी उसी की सरकार बनेगी. 1 अप्रैल को राजस्थान की एक चुनावी रैली में मोदी ने कहा, "ये चुनाव भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने के लिए है. ये पहला चुनाव है, जिसमें तमाम भ्रष्ट व्यक्ति भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई को रोकने के लिए एक साथ आ गए हैं."
बीजेपी प्रवक्ता शाजिया इल्मी ने डीडब्ल्यू को बताया, "इंडिया ब्लॉक की इस दिखावटी एकजुटता में कोई जोर नहीं, खासतौर पर जबकि पश्चिम बंगाल, केरल और पंजाब जैसे राज्यों में उनके बीच एकता नहीं है. बीजेपी लोगों की पहली और विश्वसनीय पसंद है."
बीजेपी का गलत कार्रवाई से इंकार
दिल्ली स्थित पब्लिक पॉलिसी की जानकार यामिनी अय्यर ने डीडब्ल्यू को बताया कि "विपक्षी नेताओं को असंगत ढंग से निशाना बनाने और विरोध को आपराधिक बना देने के लिए" बीजेपी जांच एजेंसियो, टैक्स कानूनों, देशद्रोह कानूनों, आतंक निरोधी कानूनों और गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) की विदेशी फंडिंग को रेगुलेट करने वाले कानूनों को "व्यवस्थागत ढंग से हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही है." वह आगे कहती हैं, "इसकी सबसे खुल्लमखुल्ला मिसाल लोकप्रिय विपक्षी नेता केजरीवाल की गिरफ्तारी है."
इनमें से एक जांच संस्था प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) है, जो बड़े स्तर के आर्थिक अपराधों की जांच करने वाली संघीय एजेंसी है. सार्वजनिक रूप से बीजेपी इस मामले पर हमलावर है. केजरीवाल के खिलाफ किसी राजनीतिक एजेंडा से भी उसने इंकार किया है. पार्टी का मानना है कि ईडी पूरी तरह से स्वतंत्र है और ये एजेंसियां सरकार से अलग हैं और महज भ्रष्टाचार मिटाने का अपना काम कर रही है.
बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता टॉम वडक्कन ने डीडब्ल्यू को बताया, "ये मुद्दा प्रवर्तन निदेशालय और न्यायपालिका के बीच का है और कानून अपना काम करेगा. अदालत मामले की निगरानी कर रही है. और विपक्षी दलों के आरोप के बारे में टिप्पणी करना अनुचित होगा."
2014 में जबसे मोदी ने सत्ता संभाली, ईडी भारत की सबसे ज्यादा डराने वाली एजेंसियों में से एक बन गई है. मनी लॉन्ड्रिंग के 3,000 से ज्यादा मामलों में उसने छापा मारा, लेकिन सिर्फ 54 मामलों में सजा दिला पाई है. एजेंसी ने दर्जनों विपक्षी नेताओं को निशाना बनाया है. हालांकि, कुछ बीजेपी नेता खुद कानूनी जांच के घेरे में हैं.
विवादास्पद इलेक्टोरल बॉन्डों के जरिए पिछले महीने जो तथ्य सामने आए हैं, उसने परेशान-हाल इंडिया ब्लॉक को राजनीति का एक अप्रत्याशित और बहुत जरूरी चर्चा बिंदु सौंप दिया है. ज्यादातर बॉन्ड बीजेपी को हासिल हुए थे.
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के पूर्व प्रमुख आकार पटेल कहते हैं, "बीजेपी ने भारतीय लोकतंत्र और नागरिक समाज को नीचा दिखाने के लिए अपने नियंत्रण वाली एजेंसियों का दुरुपयोग किया है. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था." मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी को 2020 में भारत में जबरन अपना काम बंद करना पड़ा था. सरकार ने उसके बैंक खाते फ्रीज कर दिए थे, जिसे एमनेस्टी ने "भारत में सिविल सोसायटी का दमन" करार दिया था. (dw.com)
अपूर्व गर्ग
जबलपुर से भी राहुल सांकृत्यायन का गहरा सम्बन्ध रहा। वही संबंध जो एक घुमक्कड़ का अपनी प्रिय जगहों से होता है।
कोलंबस और वास्को द गामा से अलग किस्म की घुमक्कड़ी कर राहुल सांकृत्यायन ने देश ही नहीं दुनिया को भी नापा।
घुमक्कड़ महापंडित ने तिब्बत से लेकर श्रीलंका और लंदन से लेकर ईरान, जापान, रूस ही नहीं देश के चप्पे -चप्पे का भ्रमण कर बार-बार दोहराया-
‘सैर कर दुनिया की ग़ाफि़ल जि़ंदगानी फिर कहाँ
जि़ंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ ’
राहुल जी ने दुनिया-देश घुमते हुए जगह -जगह बसेरे बनाये ।
पन्दहा, आज़मगढ़ के बाद कोलकाता रहे , बनारस में रहे, आगरा-लाहौर में पढ़े ,बिहार उनकी कर्मभूमि रहा, ‘किन्नर प्रदेश मे’ जिए, कालिंपोंग में किराये पर रहे और अंकक महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं, मसूरी में बंग्ला खरीदा, कुछ साल रहे और ये लेखन की दृष्टि से उनका महत्वपूर्ण पड़ाव रहा, दार्जलिंग में रहे और यहीं अंतिम सांस ली।
राहुल सांकृत्यायन का घुमक्कड़ शास्त्र सिर्फ यात्रा वृत्तांत नहीं है बल्कि भूगोल के साथ साहित्य, इतिहास, दर्शन, संस्कृति के ग्रन्थ हैं ।
हर शहर और देश पर उनकी कृतियाँ कालजयी हैं ।
हर शहर उनके लिए एक अलग पड़ाव रहा। हर नए शहर के साथ उनकी यादें अलग रहीं।
इनमें जबलपुर का भी विशिष्ट स्थान है ।
जबलपुर सुभद्रा कुमारी चौहान, हरिशंकर परसाई, मुक्तिबोध रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ ज्ञानरंजन जैसे साहित्यकारों-कवियों का शहर रहा तो इस शहर में राहुल जी छात्र जीवन से महापंडित बनने तक बार-बार आये जिसका जिक्र नहीं होता ।
जबलपुर वो शहर है जहाँ से महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने 1917 के आस-पास वेद मध्यमा परीक्षा दी और प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की ।
राहुल जी के मित्र हरदत्त जिन्होंने जबलपुर में अपना और राहुल जी का फॉर्म भरा था, जिन्हें पढ़ाया भी राहुल जी करते ,वो भी प्रथम श्रेणी से पास हुए ।जबलपुर की परीक्षा के लिए राहुल जी ने मीठी पाव रोटी बनाने की कोशिश की थी जो बनाते -बनाते पराठा बन गया था ।
वैसे इससे पहले राहुल जी लम्बे वक्त के लिए जबलपुर आये थे जिसकी कहानी दिलचस्प है ।
1915 में आगरा के आर्यसमाजी विद्यालय पंडित भोजदत्त के मुसाफिर विद्यालय में संस्कृत की शिक्षा के लिए गए राहुल जी की
शिक्षा प्रगति और विद्वता देखते हुए विद्यालय की तरफ से दूसरे शहरों में संस्कार और व्याख्यान देने के लिए बाहर भेजा जाने लगा ।
सितम्बर 1915 में विद्यालय के डायरेक्टर डॉ लक्ष्मीदत्त और पंडित धर्मदत्त को जबलपुर से मुसलमानों के साथ शास्त्रार्थ करने का निमंत्रण मिला। छात्र होते हुए भी राहुल जी शास्त्रार्थियों में गिने जाते और संस्कृत के प्रमाणों को जुटाने में मदद करते इसलिए वो भी इनके साथ जबलपुर आये।
इन्हें जबलपुर के हितकारिणी हाई स्कूल के मकान में ठहराया गया था।
जबलपुर के इस दिलचस्प आर्यसमाज और मुस्लिम शास्त्रार्थ के मध्यस्थ थे वहां के किसी मिशनरी कॉलेज के प्रिंसिपल। राहुल जी ने आगे लिखा है ‘चारों तरफ खुली जगह में विराट हिन्दू-मुस्लिम जनता शास्त्रार्थ सुनने के लिए बैठी थी। रात के अँधेरे को दूर करने के लिए लालटेनों का काफी इंतजाम था। वक्ताओं को बारी-बारी से बोलना था। समय पूरा होते ही मध्यस्थ घंटी बजा देते। शास्त्रार्थ का प्रभाव सभी जनता पर एक सा कैसे पड़ता जबकि उनकी सहानुभूतियाँ पहले से ही बँटी हुई थीं।’
दो दिनों तक ये शास्त्रार्थ जबलपुर में चला। इसके बाद राहुल जी तांगे से भेड़ाघाट गए।
जबलपुर शास्त्रार्थ पर उन्होंने कहा था कि अब से उस समय के लोग ज़्यादा विचार सहिष्णु थे।
तीसरी बार राहुल जी आज़ादी के तुरंत बाद जबलपुर आये। 17 अगस्त 1947 को रूस से भारत लौटने के बाद उन्होंने ‘देश का चक्कर’ लगाया।
हावड़ा, कटक, बालासोर होते हुए वर्धा पहुंचे और वर्धा से गोंदिया फिर छोटी लाइन से 3 अक्टूबर 1947 को पहुंचे जबलपुर।
* 2 अक्टूबर 1947 को जबलपुर के किसी ठेकेदार मल्होत्राजी के नेपियर टाउन निवास में रुके थे ।
* 3 अक्टूबर 1947 को महाकोशल विद्यालय के छात्रों को सम्बोधित किया।
* 4 अक्टूबर को श्री कृष्णा दस जी ,आनंद जी साथी नकवी के साथ भेड़ाघाट गए और भेड़ाघाट और कलचुरी काल की मूर्तियों पर पर एक संक्षिप्त टिप्पणी भी उन्होंने दर्ज की।
शाम उन्होंने जबलपुर की सार्वजानिक सभा को संबोधित किया।
* 5 अक्टूबर 1947 को जबलपुर से जालों जाने के लिए स्टेशन पहुंचे और विभाजन के बाद उड़ रही अफवाहों से भागते लोगों को देखा और इसका पूरा विवरण उन्होंने लिखा ।
जबलपुर शहरनामा के लिए एक महत्वपूर्ण पन्ना होगा राहुल सांकृत्यायन का इस शहर में बार -बार प्रवास ।
विक्रांत दुबे
अजय राय की पहचान उत्तरप्रदेश के वैसे राजनेता की है, जिसने हर दल का दामन थामा, चुनाव भी जीते और एक दल से दूसरे दल में जिनकी आवाजाही होती रही है।
अजय राय इन दिनों उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से कांग्रेस के उम्मीदवार भी। इन दोनों भूमिकाओं में वे कितने कामयाब होते हैं, ये चुनावी नतीजों से तय होगा।
लेकिन इतना तय है कि कांग्रेस ने उन्हें उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष बनाकर उनकी राजनीतिक हैसियत काफी बढ़ा दी। ये पद उन्हें कुछ ही महीने पहले तब मिला, जब राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद विपक्षी दलों ने कांग्रेस की अगुवाई में बीजेपी के खिलाफ एक प्लेटफॉर्म तैयार किया और उसका नाम ‘इंडिया’ रखा था।
हालांकि उत्तर प्रदेश की राजनीति में कई लोग यह पूछते हैं कि आखिर अजय राय को कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य का अध्यक्ष क्यों बनाया?
वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेंद्र शुक्ला इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करते हैं। उनके अनुसार, ‘यूपी में अपनी खोई हुई सियासी ज़मीन पाने के लिए कांग्रेस लगातार प्रयोग करती रही है। इसी कड़ी में कांग्रेस को यूपी में प्रदेश अध्यक्ष के लिए एक ऐसे चेहरे की दरकार थी जो जुझारू हो और जनता से कांग्रेस को जोड़ सके।’
पीएम मोदी के खिलाफ
शुक्ला कहते हैं, ‘अजय राय की अपनी ख़ुद की एक अलग हैसियत है, एक अलग व्यक्तित्व है। उनकी छवि एक ताकतवर और आक्रामक नेता की है। जो राहुल गांधी की मौजूदा उग्र कार्य शैली में ज़्यादा सटीक बैठते हैं। ऐसे में कांग्रेसी रणनीतिकारों को लगा कि ऐसा चेहरा उनके लिए मुफ़ीद होगा।’
ज्ञानेंद्र शुक्ला के अनुसार, ‘कांग्रेस ने इस बात की भी परवाह नहीं की कि अजय राय के खिलाफ 16 मुकदमे दर्ज हैं और वो हिंदुत्व की प्रयोगशाला से निकले हुए हैं। उनका बैकग्राउंड संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, बीजेपी का रहा है।’
वे कहते हैं, ‘अजय राय ने पीएम मोदी के खिलाफ दो बार चुनाव लडऩे का साहस दिखाया इसलिए कांग्रेस को वो सारे गुण अजय राय में नजऱ आए जो मौजूदा वक़्त में उन्हें प्रदेश अध्यक्ष की कमान संभालने वाले शख़्स में चाहिए थे।’
कांग्रेस और सपा इस बार उत्तर प्रदेश में मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। कांग्रेस को 17 सीटें मिली हैं जो कुछ विश्लेषकों की राय में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की मौजूदा राजनीतिक शक्ति की तुलना में कहीं ज़्यादा है।
ऐसे में यह सवाल उठना लाजि़मी है कि आखिर कांग्रेस 17 सीटें पाने में कैसे कामयाब हो गई?
कांग्रेस-सपा गठबंधन
कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसका श्रेय यूपी कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय को देते हैं। हालांकि यह कहना मुश्किल है कि सीटों की बातचीत को लेकर किसकी क्या भूमिका रही होगी।
वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेंद्र शुक्ला कहते हैं कि ‘कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद कई मौक़ों पर अजय राय ने अखिलेश यादव पर निशाना साधा। उनके खिलाफ जब वो बयान दे रहे थे तो ऐसे बिगड़े बोल उस वक्त कांग्रेसी ख़ेमे को भी भा रहे थे, क्योंकि मध्य प्रदेश में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के दरम्यान तल्खी आ गई थी।’
ज्ञानेंद्र शुक्ला के अनुसार, यह कांग्रेस की पुरानी प्रेशर बिल्डअप तकनीक है। राज्य स्तर पर नेता को लड़ाते और ज़रूरत पडऩे पर शांत करा देते हैं। यहाँ भी यही हुआ।
वो कहते हैं, ‘कांग्रेस के आलाकमान ने इन बयानों का संज्ञान लिया। अखिलेश यादव से बातचीत करने के बाद अजय राय को दिल्ली बुलाकर उन्हें समझाया गया।’
कांग्रेस ने पूर्वांचल में दबंग छवि वाले इन्हीं अजय राय को पिछली बार की तरह नरेन्द्र मोदी के खिलाफ अपना प्रत्याशी घोषित किया है।
अजय राय का कद पिछले कुछ महीनों में बढ़ा है लेकिन पीएम मोदी के खिलाफ बनारस में वोट बटोरना आसान नहीं है।
पिछले दो लोकसभा चुनावों में तीसरे नंबर पर
बीते दो लोकसभा चुनावों में अजय राय मोदी के खिलाफ दूसरे नंबर पर भी नहीं पहुंच पाए थे। साल 2014 के लोकसभा चुनावों की बात करें तो अजय राय तीसरे नंबर पर रहे थे।
तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहली बार यहां चुनाव लडऩे आए थे, उन्हें पांच लाख 81 हज़ार से ज़्यादा वोट मिले थे, जबकि आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल ने दो लाख से ज़्यादा वोट हासिल किया था। अजय राय को 75 हजार के करीब वोट मिले थे।
साल 2019 में अजय राय ने अपने वोट तो बढ़ाए लेकिन तीसरे नंबर से आगे नहीं बढ़ सके। इस बार उन्हें एक लाख 52 हजार 548 वोट मिले थे। जबकि नरेंद्र मोदी छह लाख 75 हजार के करीब वोट हासिल करने में कामयाब हुए थे।
साल 2019 के वोटों के आधार पर आंकलन किया जाए तो अजय राय बनारस में ऐसे प्रत्याशी हैं जिन्हें उनकी बिरादरी यानि की भूमिहार वोटों का भी भरपूर लाभ मिलता है। यह उसी का परिणाम था कि 2009 में कोलअसला विधानसभा उपचुनाव में उन्हें निर्दलीय जीत हासिल हुई थी।
कांग्रेसियों में नाराजगी
साल 2024 में पिछले वोटों के समीकरण को देखा जाए तो इस बार हालात थोड़े बदल सकते हैं। इस बार यूपी में सपा और कांग्रेस एक साथ हैं। इन दोनों के पिछले बार के वोट प्रतिशत को अगर मिला लिया जाए तो यह 32.8 प्रतिशत होता है।
जबकि वहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को वोट प्रतिशत अकेले 63.6 है, पर इसमें भी एक पेच है। पिछली बार सपा और बसपा एक साथ लड़े थे, लेकिन इस बार बसपा इस गठबंधन से दूर है।
कांग्रेस के साथ एक दूसरी मुश्किल ये भी है कि अजय राय को जब उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष बनाया गया तो पुराने दिग्गज कांग्रेसियों में नाराजगी बढ़ी।
चुनाव से ठीक पहले बनारस से सांसद रहे राजेश मिश्रा कांग्रेस का दामन छोड़ कर बीजेपी में शामिल हो गए।
राजेश मिश्रा का कहना है कि, ‘अजय राय अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाएंगे। जीत-हार की बात तो दूर की है। वो यहां से लडऩा ही नहीं चाहते थे। आप सब लोग जानते हैं अजय राय गाजीपुर या बलिया से टिकट मांग रहे थे, लेकिन कांग्रेस के पास बनारस के लिए कोई नेता ही नहीं है।’
‘काशी का लाल हूँ, काशी मेरे लिए लड़ेगी’
दैनिक जागरण, वाराणसी के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार भारतीय बंसत का कहना है, ‘अजय राय मजबूती से चुनाव लड़ेंगे और कांग्रेस की उपस्थिति दर्ज कराएंगे। लेकिन मोदी की जीत पर कहीं कोई संदेह नहीं है। हां जीत-हार के अंतर पर बात की जा सकती है।’
हो सकता है कि अजय राय का वोट प्रतिशत थोड़ा बढ़ जाए क्योंकि वो जुझारू व्यक्ति हैं और इस बार सपा के साथ कांग्रेस का गठबंधन भी है।
बनारस के राजनैतिक परिदृश्य पर गंभीरता से नजऱ रखने वाले डीएवी डिग्री कालेज के पूर्व प्रिंसिपल डॉ सत्यदेव सिंह कहते हैं कि बीजेपी, ख़ासकर मोदी की बीजेपी अब कोई सामान्य पार्टी नहीं रही।
‘हर चुनाव में वो राष्ट्रीय से लेकर लोकल मुद्दों को वोट के आधार पर केन्द्रित करती है। नरेंद्र मोदी को सिफऱ् चुनाव नहीं जीतना है बल्कि उन्हें जीत का रिकॉर्ड भी बढ़ाना है। विश्वनाथ कॉरिडोर, अयोध्या के साथ ज्ञानवापी भी एक बड़ा मुद्दा है।’
इसीलिए बनारस में मोदी समर्थकों ने ‘मोदी निर्विरोध’ के होर्डिंग भी लगा दिए हैं।
अजय राय के आने से मोदी समर्थकों का यह सपना पूरा नहीं होता दिख रहा है। अजय राय पिछले 30 सालों में 10 से अधिक चुनाव लड़ चुके हैं।
अजय राय को कांग्रेस की मजबूरी माना जा रहा है क्योंकि पार्टी के पास मोदी के खिलाफ कोई ऐसा प्रत्याशी नहीं है जो ख़ुद को अजय राय से बेहतर साबित कर सके।
वाराणसी संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवारी घोषित होने के बाद अजय राय ने बीबीसी को बताया, ‘मैं इसी बनारस की पैदाइश हूँ, माँ गंगा की गोद में जन्मा हूँ, माँ गंगा की गोद में ही समा जाऊंगा। कांग्रेस के संगठन में सारी जिम्मेदारियां बँटी हुई हैं, ऐसे में ये सिर्फ मेरे ऊपर ही नहीं, बल्कि सबके ऊपर है और सभी लोग अपनी जि़म्मेदारियों को निभाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।’
भाई की हत्या के बाद शुरू हुआ राजनैतिक सफर
नब्बे के दशक में उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल, गैंगवार के लिए जाना जाता था। जिसका केन्द्र-बिंदु बनारस था।
गोरखपुर में हरिशंकर तिवारी और वीरेन्द्र प्रताप शाही हो या फिर गाजीपुर बनारस में नया-नया पनप रहा मुख़्तार अंसारी और बृजेश सिंह गैंग।
अजय राय के बड़े भाई अवधेश राय बृजेश सिंह और कृष्णानंद राय के साथ थे। ये लोग मुख्तार अंसारी के खिलाफ थे।
साल 1991 में वाराणसी के चेतगंज में दिनदहाड़े अवधेश राय की हत्?या कर दी गयी। इसका आरोप मुख़्तार अंसारी गैंग पर लगा था।
32 साल लंबी क़ानूनी लड़ाई के बाद जून, 2023 में मुख़्तार अंसारी को इस मामले में उम्रकै़द की सजा मिली थी। इस लंबी लड़ाई के चलते भी अजय राय सुर्खियों में रहे।
लेकिन बड़े भाई की हत्या के बाद छोटे भाई अजय राय पर परिवार की जिम्मेदारियों के साथ बड़े भाई के प्रभाव और दुश्मनियों का बोझ भी आ गया। गैंगवार चरम पर था। ऐसे में अजय राय ने राजनैतिक संरक्षण के लिए एबीवीपी से होते हुए बीजेपी में एंट्री ले ली।
इस बीच अलग-अलग मामलों में बनारस से लेकर लखनऊ तक अलग-अलग थानों में उनके खिलाफ 16 मुकदमे दर्ज हुए।
साल 2015 में अखिलेश यादव की सरकार के समय गंगा में मूर्ति विसर्जन पर रोक के आदेश के विरोध में प्रदर्शन करने पर इन पर रासुका (राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून) लगाकर इन्हें जेल भेज दिया गया, महीनों तक ये जेल में रहे।
नौ बार के विधायक को हराया
अजय राय के राजनैतिक सफर की औपचारिक और मजबूत शुरुआत 1996 में हुई।
तब उन्होंने पहली बार कोलअसला से चुनाव लड़ा और नौ बार के विधायक कॉमरेड उदल को हराने में कामयाब रहे।
कोलअसला को उदल का अभेद्य किला कहा जाता था। पर अजय राय ने कोलअसला में उदल के किले को जमींदोज कर दिया।
जीत का अंतर 488 वोटों का था, लेकिन इस जीत ने अजय को कोलअसला का हीरो बना दिया।
यहां से अजय राय तीन बार 1996 से 2007 तक बीजेपी के विधायक रहे। 2003 में बीजेपी और बसपा की गठबंधन सरकार में ये सहकारिता राज्य मंत्री भी बने।
टिकट नहीं मिला तो छोड़ दी बीजेपी
साल 2007 में विधानसभा की जीत के बाद अजय राय की महत्वाकांक्षा परवान चढ़ी और ये दिल्ली की ओर देखने लगे। ये कहीं से गैरवाजिब भी नहीं था, क्योंकि बनारस से लगातार तीन बार बीजेपी के सांसद रहे शंकर प्रसाद जायसवाल 2004 में चुनाव हार गये थे।
वाराणसी सीट पर कांग्रेस के राजेश मिश्रा ने जीत दर्ज की। लिहाज़ा 2009 में अजय राय ने वाराणसी संसदीय सीट पर अपनी दावेदारी मज़बूती से ठोकी।
लेकिन पार्टी ने अपने कद्दावर नेता मुरली मनोहर जोशी को यहां से टिकट दे दिया। बीजेपी के निर्णय का विरोध करते हुए अजय ने समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाया और चुनावी रिंग में आ गए। इस चुनाव में बीएसपी के मुख्तार अंसारी ने एंट्री मारकर चुनाव को त्रिकोणीय बना दिया। जोशी की जीत हुई और उन्हें मुख़्तार अंसारी ने कड़ी टक्कर दी। अजय राय तीसरे नंबर पर रहे।
पार्टी छोड़ देने के कारण अजय राय की सदस्?यता चली गयी लिहाज़ा 2009 में ही निर्दलीय चुनाव लड़े और जीते भी। इसके बाद 2012 में उन्?होंने कांग्रेस का हाथ थामा और विधानसभा चुनाव जीता। तब कोलअसला विधानसभा का नाम परिसीमन के बाद पिंडरा हो चुका था। लगातार पांच बार विधानसभा जीत का ये क्रम 2014 के बाद थम गया।
फिर शुरू हुआ हार का सिलसिला
अजय राय ने 2014 में मोदी के खिलाफ कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और मुंह की खायी।
यही नहीं, नौ बार के विधायक उदल से छीनी हुई पिंडरा विधानसभा सीट पर अजय राय 2017 में हार गए।
फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में वाराणसी सीट पर नरेन्द्र मोदी से हार गए।
साल 2022 विधानसभा चुनाव में उनकी परंपरागत पिंडरा सीट से भी मतदाताओं ने उन्हें बेदख़ल कर दिया और बीजेपी के अवधेश सिंह लगातार दूसरी बार विधायक बने।
अब देखना ये है कि 2024 में नरेंद्र मोदी के खिलाफ किस रणनीति के तहत अजय राय अपना और कांग्रेस का वोट बढ़ाएंगे। (bbc.com/hindi)
ककुंवरकोल्ली इंदे्रश, विवेक मिश्रा
भारत के तीसरे सबसे अधिक आबादी वाले शहर बेंगलुरु में गहराता जलसंकट वहां रहने वाले करीब 1.4 करोड़ लोगों में से कई लोगों को विभिन्न वैकल्पिक समाधान तलाशने के लिए मजबूर कर रहा है। इनमें से जो भी बेंगलुरु छोड़ सकते हैं वह इसपर विचार कर रहे हैं जबकि दूसरी ओर जो लोग घर-संपत्ति खरीदना चाहते थे वे अपना मन बदलने लगे हैं।
दक्षिणी बेंगलुरु के उत्तरहल्ली का एक निवासी पहले उसी क्षेत्र में संपत्ति खरीदने पर विचार कर रहा था लेकिन भीषण जलसंकट स्थितियों के कारण वह अब इस तरह के निवेश से बचने की कसम तक खाने लगा है।
इस भीषण जलसंकट ने उन किराएदारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है जिनके पास दूसरे घर में स्थानांतरित होने का विकल्प नहीं है। एक ऊंचे अपार्टमेंट परिसर के एक निवासी ने पानी की कमी के कारण बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के अपने संघर्ष को साझा किया। पर्याप्त किराया चुकाने के बावजूद निवासी पानी की कमी के कारण शौचालय का उपयोग करने में असमर्थ था।
वहीं, 15 वर्षों से अधिक समय से बोरवेल पर निर्भर रजनी श्रीवास्तव अब पानी की भारी कमी और वितरण पर सामुदायिक तनाव का सामना कर रही हैं। ये तनाव संकट की गंभीरता को उजागर करते हैं।
जलसंकट में प्रवासी तकनीकी विशेषज्ञों की दुर्दशा
इस भीषण जल संकट में सबसे बड़ी मुसीबत उन तकनीकी पेशेवरों की है जो दूसरे शहरों या राज्यों से बंग्लुरू में काम करने आए हैं। सभी तकनीकी पेशेवर अब घर से काम (वर्क फ्रॉम होम) की मांग कर रहे हैं। तकनीकी पेशेवरों का मानना है कि वर्क फ्रॉम होम जैसी व्यवस्था जल संरक्षण के प्रयासों में अहम योगदान दे सकता है।
वर्कफ्रॉम होम ऐसे प्रवासी कर्मचारियों को अपने घरों में लौटने की इजाजत देगा जिससे शहर के जल संसाधनों पर तनाव कुछ कम हो सकता है। ऐसा तब होता है जब गर्मी का चरम मौसम आने से पहले ही बेंगलुरु को सूखे बोरवेल और महंगे पानी के टैंकरों पर निर्भरता का सामना करना पड़ता है।
केंगेरी उपनगर के निवासी और शहर के पश्चिमी हिस्से में स्थित ग्लोबल विलेज में एक बहुराष्ट्रीय निगम के कर्मचारी राधा कृष्ण उन लोगों में शामिल हैं जो जलसंकट से उपजी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। उनके अपार्टमेंट भवन में पानी की गंभीर कमी के कारण उन्हें और उनकी पत्नी को अस्थायी रूप से मांड्या में अपने पैतृक घर में स्थानांतरित होने के लिए मजबूर होना पड़ा है। इस कदम के बावजूद वे अभी भी शहर में अपने लगभग अनुपयोगी फ्लैट के मासिक किराए के बोझ से दबे हुए हैं।
राधा कृष्ण ने कहा कि हालांकि उनका मूल शहर बेंगलुरु से सिर्फ 85 किमी दूर है, लेकिन अपार्टमेंट के अन्य निवासी अभी भी आजीविका के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि उनकी कंपनी अल्प अवधि के लिए वर्क फ्रॉम होम के लिए बाध्य है लेकिन दूसरी कंपनियों में कार्यरत उनके दोस्तों के पास ऐसा कोई विकल्प नहीं है।
राधाकृष्ण कहते हैं ‘मैंने घर बदलने की योजना बनाई लेकिन फ्लैट मालिक एडवांस रकम चुकाने को तैयार नहीं था। हमारे अपार्टमेंट के अधिकांश किरायेदार स्थानांतरित होने की योजना बना रहे।’
बेंगलुरु के पूर्वी उपनगर मराठाहल्ली में एक बहुराष्ट्रीय निगम (एमएनसी) के लिए काम करने वाले एक अन्य तकनीकी विशेषज्ञ दीपक राघव ने बताया कि वह कोलकाता के मूल निवासी हैं और उन्हें अस्थायी रूप से प्रवास करना मुश्किल लगता है। उन्होंने कहा कि उन्हें हर हफ्ते 6,000 लीटर पानी के लिए 1,500 रुपये का भारी भुगतान करना पड़ता है क्योंकि उनके किराए के घर में ट्यूबवेल सूख गया है।
व्हाइटफील्ड के पॉश पूर्वी इलाके में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के तकनीकी विशेषज्ञ दिगंत बंदोपाध्याय ने स्थिति की तात्कालिकता पर जोर दिया। वह कहते हैं ‘इस तरह के संकट में, कर्मचारियों को अपने गृहनगर से दूर काम करने की अनुमति देना सही समझ में आता है। पानी की कमी के दौरान कार्यालय के निरंतर आवागमन से केवल तनाव बढ़ेगा, जिससे उत्पादकता प्रभावित होगी।’ उन्होंने कहा कि जब स्नान जैसी बुनियादी जरूरतें लगातार चिंता का विषय हैं तो कार्यालय से काम करना ठीक नहीं है।
व्हाइटफील्ड के पास कडुगोडी के एक अन्य तकनीकी विशेषज्ञ मोहन कुमार ने भी वर्कफ्रॉम होम समाधानों की व्यवहारिकता पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा ‘हमने उत्पादकता से समझौता किए बिना महामारी के दौरान दूर से काम करने में सफलतापूर्वक बदलाव किया है। अब, स्थापित प्रणालियों के साथ, परिवर्तन पहले की तुलना में बहुत आसान हो जाएगा। ‘वह कहते हैं कि वर्कफ्रॉम होम एक अस्थायी समाधान है जबकि वर्तमान जल संकट को कम करने की क्षमता पर जोर दिया जाना चाहिए।
जागरुकता रैली
जल ससस्याओं से घिरे बंग्लुरू में लोग भावी पीढ़ी को पानी की बर्बादी से सचेत करने के लिए घरों से निकल रहे हैं। बेंगलुरु-होसुर रोड पर बेगुर में नोबल रेजीडेंसी के निवासियों ने 10 मार्च को ‘पानी का दुरुपयोग बंद करो, भावी पीढिय़ों के लिए जीवित पानी बचाओ’ नारे के साथ एक ‘वॉकथॉन’ का आयोजन किया।
जल प्रबंधन के महत्वपूर्ण महत्व के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए निवासियों ने बेगुर-कोप्पा रोड और बेगुर रोड की सडक़ों पर तख्तियां दिखाईं और नारे लगाए। यह कार्यक्रम ब्यूटीफुल बेगुर एसोसिएशन के तत्वावधान में आयोजित किया गया था, जिसमें विभिन्न पड़ोस के निवासियों के समूह शामिल थे। इस अभियान में बच्चे और बूढे सभी उम्र वर्ग के लोग शामिल हुए।
वॉक में भाग लेने वालों ने टिप्पणी की, ‘हमने पानी के विवेकपूर्ण और जिम्मेदार उपयोग के महत्व के बारे में नागरिकों के बीच जागरूकता बढ़ाने के लिए इस अभियान की शुरुआत की है।’
ब्यूटीफुल बेगुर एसोसिएशन के नेता प्रकाश ने पानी की कमी को दूर करने के लिए बोरवेल पर सरकार की निर्भरता के बारे में संदेह व्यक्त किया। उन्होंने आगाह किया, ‘केवल बोरवेल खोदने से भूजल स्तर में गिरावट के अंतर्निहित मुद्दे का समाधान नहीं हो सकता है।’ उन्होंने कहा, ‘अगर स्थिति ऐसी ही बनी रही, तो यह नागरिकों को विरोध में सडक़ों पर उतरने के लिए मजबूर कर सकती है।’
निवासियों ने पानी के पुन: उपयोग, वर्षा जल संचयन और विवेकपूर्ण उपभोग प्रथाओं के बारे में जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता पर भी बल दिया।
हाई कल्पा एजुकेशन इंस्टीट्यूट का प्रतिनिधित्व करने वाली शालिनी ने पानी की बर्बादी की आदतों को तोडऩे और जल संरक्षण की संस्कृति को बढ़ावा देने के महत्व पर जोर दिया। कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डी के शिव कुमार ने 11 मार्च को राज्य की राजधानी में पानी की कमी के गंभीर मुद्दे को संबोधित किया और संबंधित आंकड़ों पर प्रकाश डाला।
उन्होंने कहा कि शहर में 16,000 बोरवेलों में से 7,000 बिना काम के हैं। उन्होंने कहा, इसके जवाब में, इस संकट से निपटने और सभी निवासियों के लिए पानी की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए बेंगलुरु जल आपूर्ति और सीवरेज बोर्ड, ब्रुहट बेंगलुरु महानगर पालिका और नोडल अधिकारियों सहित विभिन्न प्राधिकरणों की ओर से ठोस प्रयास चल रहे हैं।
अनधिकृत जल टैंकर संचालन और मूल्य वृद्धि जैसी अवैध प्रथाओं से निपटने के लिए एक समर्पित बोर्ड की स्थापना की गई है। यह बोर्ड टैंकर गतिविधियों की परिश्रमपूर्वक निगरानी करेगा और किसी भी अवैध गतिविधियों के खिलाफ त्वरित कार्रवाई करेगा।
इसके अलावा, स्लम क्षेत्रों में मुफ्त पानी उपलब्ध कराने के प्रयास किए जा रहे हैं, जो इस महत्वपूर्ण संसाधन तक समान पहुंच की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
शिव कुमार ने कहा कि बेंगलुरु में पीने के पानी का व्यापार रोक दिया गया है, जो शोषणकारी प्रथाओं के खिलाफ कड़े रुख का संकेत है। उन्होंने कहा, विशेष रूप से, शहर में जल माफिया को खत्म करने के प्रयास सफल रहे हैं, जिससे यह सुनिश्चित हुआ है कि सभी निवासियों के लिए जल वितरण निष्पक्ष और पारदर्शी है। (डाऊन टू अर्थ)
शैलेंद्र शुक्ला
ऐसा अनुमान है कि शायद 2024 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद मोदी जी वास्तव में भ्रष्टाचार के विरूद्ध सख़्त कदम उठाते हुए 500 का नोट बंद ही कर दें! जैसा 2000 का नोट बंद करते समय एक्सचेंज की जगह सीधे बैंक खाते में जमा करने का प्रावधान था वैसा ही 500 रुपये का नोट बंद करने का फ़ैसला लिया जाय।
अधिकांश छोटे-बड़े ट्रांजेक्शन वैसे ही डिजीटल माध्यम से होने लगे हैं । बड़े शहरों, दुकानों, शोरूम, टैक्सी, होटलों आदि सभी क्षेत्रों में क्यू-आर कोड माध्यम से विनिमय हो रहा है । बैंकों के सभी बड़े लेनदेन आर-टी-जी-एस या एन-ई-एफ-टी माध्यम से हो रहे हैं। अरबों रुपये का व्यापार, व्यवसाय ऑनलाइन विनिमय से होने लगा है । बड़े कैश-लेनदेन व रियल स्टेट में दो नम्बर व भ्रष्टाचार के लेनदेन के लिए ही बड़े नोटों के बंडल की आवश्यकता होती है। लोहे व कोयले के दो-नम्बर व्यापार में भी बड़े नोट के बंडल लगते हैं । इसके अलावा हीरे-सोने का व्यवसाय जो अधिकांशत: बिना बिल का है, वो कैश में ही हो रहा है । हवाला द्वारा ट्रांसफर किया जाने वाला लेनदेन कैश में ही होता है । कैश लेनदेन में 500 रूपये नोट की अहं भूमिका/ महत्व है।
यदि 500 रुपये का नोट बंद हो जाये तो भ्रष्टाचार लगभग असंभव हो जायेगा । किसी ने दो-पांच करोड़ भी घूस के माँगे तो उसे देने के लिए दो-दो सौ रुपये के पचास हज़ार से लेकर एक लाख पचास हज़ार नोट लगेंगे जिसे किसी बड़े वाहन या लोडिंग ऑटो में ले जाना पड़ेगा । पचास-सौ करोड़ रुपये तो देना ही मुश्किल हो जायेगा । सोने-हीरों की दुकानों में नकद राशि का लेनदेन असंभव हो जायेगा । ज़ेवरों के प्रदर्शन रैक से ज़्यादा नकदी रखने की जगह लगेगी। रियल-स्टेट में रियल भाव पर सम्पत्ति बिकने लगेगी ।
मतदाताओं को कोई भी पार्टी पैसे नहीं बाँट पायेंगी । नक्सलियों व आतंकवादियों को पैसा पहुँचाना दुर्लभ हो जायेगा । छोटे या दूरदराज़ के क्षेत्रों में छोटे-मोटे व्यापार के लिए सौ-दो सौ के नोट तो रहेंगे ही । सीधे साधे व्यापार के लिये तो कैश विशेष कर पाँच सौ के नोट की कोई उपयोगिता है ही नहीं!
विचार करना चाहिए कि देश में भ्रष्टाचार रोकने के लिये यह उपाय कितना सार्थक हो सकता है?
‘मेरा शुरू से यह दृष्टिकोण रहा है कि भगवान श्री राम का मंदिर बने, न्योता मिले और कांग्रेस ने न्योते को अस्वीकार कर दिया, मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता। गठबंधन के नेताओं ने सनातन पर प्रश्न उठाए, कांग्रेस द्वारा उसका जवाब क्यों नहीं दिया गया? मैं आज भाजपा में शामिल हुआ और मुझे उम्मीद है कि मैं अपनी योग्यता, ज्ञान का प्रयोग भारत को आगे ले जाने में करूंगा।’
‘सत्य अकाट्य है। द्वेष इस पर हमला कर सकता है, अज्ञानता इसका उपहास उड़ा सकती है, लेकिन अंत में विजय सत्य की ही होती है। भ्रष्टाचारी देश का पैसा लूट कर विदेश भाग गए और भ्रष्टाचार के जो भी आरोपी देश में बचे हैं, वे भाजपा के ‘वॉशिंग पाउडर’ में धुल कर संस्कारी बन रहे हैं। लेकिन, याद रखना ये राहुल गांधी जी हैं। ना झुके थे, ना झुके हैं और ना झुकेंगे।’
कल तक कांग्रेस में रहे और अब भारतीय जनता पार्टी के हो चुके प्रोफ़ेसर गौरव वल्लभ ने ही ये दोनों बातें अलग-अलग देश, काल और परिस्थितियों में कही हैं। जाहिर है कि राजनीति में देश, काल और परिस्थितियां हमेशा एक जैसी नहीं रहती हैं।
पहला बयान उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता लेने के बाद अपनी नई पार्टी के मंच से गुरुवार को दिया है। दूसरा स्टेटमेंट थोड़ा पहले का है। पिछले साल जुलाई की सात तारीख को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर उन्होंने ये पोस्ट किया था।
प्रोफ़ेसर गौरव वल्लभ को कांग्रेस पार्टी के उभरते हुए तेज़तर्रार नेताओं में शुमार किया जाता था। पिछले दिनों वे राजस्थान विधानसभा की उदयपुर सीट से चुनाव भी लड़े थे जिसमें उन्होंने सफलता नहीं मिली थी।
इस्तीफ़ा और कांग्रेस पर आरोप
गुरुवार को कांग्रेस का हाथ छोडऩे के कुछ ही घंटों के भीतर गौरव वल्लभ ने भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया।
इस्तीफ़े का एलान करते हुए उन्होंने एक्स पर उन्होंने कांग्रेस पर कुछ आरोप लगाए और पार्टी छोडऩे की वजह बताई।
उन्होंने लिखा, ‘कांग्रेस पार्टी आज जिस प्रकार से दिशाहीन होकर आगे बढ़ रही है, उसमें मैं ख़ुद को सहज महसूस नहीं कर पा रहा। मैं ना तो सनातन विरोधी नारे लगा सकता हूं और ना ही सुबह-शाम देश के वेल्थ क्रिएटर्स को गाली दे सकता। इसलिए मैं कांग्रेस पार्टी के सभी पदों व प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा दे रहा हूं।’
उन्होंने पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े को दिए गए इस्तीफ़े में लिखा है, ‘पार्टी नए भारत की आकांक्षा को बिल्कुल नहीं समझ पा रही है। इससे मेरे जैसा कार्यकर्ता हतोत्साहित महसूस कर रहा है। मैं राम मंदिर पर पार्टी के स्टैंड से क्षुब्ध हूं। मैं कर्म से हिंदू हूं। मैं सनातन विरोधी नारे नहीं लगा सकता। पार्टी और गठबंधन के कई लोग सनातन विरोधी नारे लगाते हैं और पार्टी का उस पर चुप रहना उसे मौन स्वीकृति देने जैसा है।’
कौन हैं गौरव वल्लभ
गौरव वल्लभ का परिचय सिफऱ् इतना नहीं है कि वे प्रवक्ताओं की कमी से जूझ रही कांग्रेस के मुखर वक्ताओं में गिने जाते थे।
उन्हें अक़सर ही टेलीविजन चैनलों के न्यूज़रूम में कांग्रेस का पक्ष ज़ोरदार तरीके से रखते हुए देखा जाता था।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर उनका बायो उनके बारे में काफी कुछ कहता है।
राजनीति में आने से पहले पेशे से प्रोफ़ेसर रहे गौरव वल्लभ के रिज्यूमे में उनके नाम कई अकादमिक उपलब्धियां हैं।
फिनांस, चार्टर्ड एकाउंटेंट, कंपनी सेक्रेटरी, पीएचडी, एमकॉम, एलएलबी जैसी चीज़ों का कॉम्बिनेशन किसी राजनेता के रिज्यूमे में एक साथ मिले, कम देखा जाता है।
चुनावी राजनीति में जगह बनाने की कोशिश
लेकिन चुनावी राजनीति में गौरव वल्लभ और कामयाबी के बीच लंबे समय से दूरियां बनी हुई हैं।
उन्होंने झारखंड विधानसभा का पिछला चुनाव कांग्रेस के टिकट पर लड़ा था। उस वक़्त गौरव वल्लभ जमशेदपुर पूर्वी सीट से झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास के खिलाफ प्रत्याशी बने थे।
हालिया संपन्न हुए राजस्थान विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस ने उन्हें उदयपुर से उम्मीदवार बनाया था।
रांची में मौजूद बीबीसी के सहयोगी पत्रकार रवि प्रकाश बताते हैं कि वे मूलत: राजस्थान के जोधपुर के रहने वाले हैं और जमशेदपुर के जानेमाने मैनेजमेंट कॉलेज एक्सएलआरआई में प्रोफ़ेसर रहे हैं।
रवि प्रकाश का कहना है कि गौरव वल्लभ झारखंड से वैसा पॉलिटिकल कनेक्ट नहीं बना पाए जो चुनाव जीतने के लिए ज़रूरी था, इसी वजह से उन्हें कामयाबी नहीं मिल पाई जिसके बाद उन्होंने उदयपुर से हाथ आजमाया।
रवि प्रकाश ने एक और पहलू की ओर ध्यान दिलाया कि झारखंड से भारतीय जनता पार्टी अपने सभी प्रत्याशियों की घोषणा कर चुकी है और इस राज्य में किसी का टिकट काटकर उन्हें प्रत्याशी बनाए जाने की संभावना कम ही है।
बीजेपी में जाने के सवाल पर पहले क्या कहा था
साल 2019 के झारखंड विधानसभा चुनावों के दौरान बीबीसी हिंदी ने गौरव वल्लभ से बात की थी।
इंटरव्यू के दौरान बीबीसी संवाददाता रजनीश कुमार ने उनसे पूछा-क्या भविष्य में बीजेपी आपको अच्छी लग सकती है?
गौरव वल्लभ का जवाब था, ‘मुझे नहीं लगता। अगर ऐसा होता, तो मैं एक ऐसी पार्टी को नहीं चुनता जिसकी लोकसभा में सिफऱ् 44 सीटें हें।’
उनसे ये सवाल फिर दोहराया गया-‘आप पूरी कनविक्शन के साथ कह रहे हैं कि बीजेपी में नहीं जाएंगे?’
‘बिल्कुल। 100 पर्सेंट। बिल्कुल आपके कैमरे में देखकर भी बोलता हूँ। और आपकी आँखों में आँखें डालकर भी।’
‘विचारधारा के स्तर पर मेरे लिए चार चीज़ें महत्वपूर्ण हैं - लिबरल विचार, बौद्धिकता की ओर अग्रसर समाज, काम करने की आज़ादी और इन्क्लूसिवनेस।’ (bbc.com/hindi)
ललित मौर्य
संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी नवीनतम मानव विकास सूचकांक (ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स) में भारत को 193 देशों की सूची में 134वें पायदान पर रखा गया है। सूचकांक वर्ष 2022 के आंकड़ों पर आधारित है। इस सूचकांक में भारत को कुल 0.644 अंक दिए गए हैं। जो भारत को मध्यम मानव विकास वाले देशों की श्रेणी में रखता है। वहीं दूसरी तरफ स्विटजरलैंड को इस इंडेक्स में 0.967 अंकों के साथ पहले स्थान पर रखा गया है।
इससे पहले 2022 में जारी मानव विकास सूचकांक में भारत को 0.633 अंकों के साथ 132वें पायदान पर जगह दी गई थी। मतलब की इस बार भारत दो पायदान नीचे आ गया है। वहीं यदि अंकों के लिहाज से देखें तो भारत के स्कोर में 2021 के मुकाबले 0.011 अंकों का सुधार आया है। 2022 में, भारत का लैंगिक असमानता सूचकांक (जीआईआई) 0.437 रहा, इस इंडेक्स में भारत ने प्रगति दर्ज की है। यदि वैश्विक औसत 0.462 और दक्षिण एशियाई औसत 0.478 से तुलना करें तो भारत का प्रदर्शन बेहतर हुआ है। बता दें कि इस इंडेक्स का कम मान इस बात का सूचक है कि महिलाओं और पुरुषों के बीच असमानता कम है।
वहीं यदि 2019 की तुलना में देखें तो भारत ने मानव विकास में उल्लेखनीय प्रगति दर्ज की है। जहां 1990 के बाद से देश में जन्म के समय जीवन प्रत्याशा में 9.1 वर्षों का इजाफा हुआ है। इसी तरह स्कूली शिक्षा के अपेक्षित वर्षों में 4.6 वर्ष की वृद्धि हुई है। इतना ही नहीं इस दौरान स्कूली शिक्षा के औसत वर्षों में भी 3.8 वर्ष की वृद्धि दर्ज की गई है।
गौरतलब है कि इससे पहले 2019 के लिए जारी मानव विकास सूचकांक (ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स) में भारत को 189 देशों की लिस्ट में 131वें स्थान पर रखा गया था। वहीं पिछले वर्ष भारत इस लिस्ट में 130वें पायदान पर था। कहीं न कहीं यह इस बात को भी दर्शाता है कि भारत इस लिस्ट में लगातार नीचे आ रहा है।
यह मानव विकास सूचकांक, मानव विकास के तीन प्रमुख आयामों स्वस्थ लंबा जीवन, शिक्षा तक पहुंच और जीवन गुणवत्ता को मापता है। इनकी गणना चार प्रमुख संकेतकों जीवन प्रत्याशा, औसत स्कूली शिक्षा, स्कूली शिक्षा के अपेक्षित वर्ष और प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय पर आधारित है।
2019 की तुलना में जीवन प्रत्याशा में आई गिरावट
आंकड़ों के अनुसार जहां वैश्विक स्तर पर 2022 में जन्म के समय जीवन प्रत्याशा 67.7 वर्ष दर्ज की गई थी। वहीं 2019 में यह आंकड़ा 70.9 वर्ष जबकि 2021 में 67.2 वर्ष दर्ज की गई थी। ऐसे में यदि 2019 से तुलना करें तो देश में औसत जीवन प्रत्याशा में 3.2 वर्षों की गिरावट आई है।
देखा जाए तो जीवन प्रत्याशा के मामले में जो रुझान वैश्विक स्तर पर सामने आए थे उन्हें भारत से जुड़े आंकड़ों में भी स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। इसके लिए कहीं न कहीं कोरोना जिम्मेवार था, जिसने देश में जीवन प्रत्याशा पर गहरा आघात किया है।
आंकड़ों के मुताबिक देश में शिक्षा प्राप्ति के औसत वर्षों को देखें तो वो 2022 में 6.57 वर्ष दर्ज की गई थी। बता दें कि 2021 में यह आंकड़ा 6.7 वर्ष दर्ज किया गया था। हालांकि देश में स्कूली शिक्षा के अपेक्षित वर्षों में इजाफा दर्ज किया गया है जो 2021 में 11.9 वर्ष से बढक़र 2022 में 12.6 वर्षों पर पहुंच गया।
इसी तरह देश में प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय से जुड़े आंकड़ों को देखें तो वो 6,951 डॉलर दर्ज की गई है। वहीं 2021 में यह 6,590 डॉलर दर्ज की गई थी। मतलब की इसमें पिछले वर्ष की तुलना में इजाफा दर्ज किया गया है। आंकड़ों के मुताबिक यदि 1990 से 2022 के बीच, भारत के मानव विकास सूचकांक के मूल्यों को देखें तो वो 0.434 से बढक़र 0.644 पर पहुंच गया है। मतलब की इन तीन दशकों में इसमें 48.4 फीसदी का बदलाव आया है।
समृद्ध और वंचित समुदायों के बीच बढ़ रही असमानता की खाई
इस बारे में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूनीडीपी) ने जो नई रिपोर्ट ‘ब्रेकिंग द ग्रिडलॉक’ जारी की है, उसके मुताबिक यह सही है कि जहां 2020, 2021 में कोरोना महामारी के कारण मानव विकास की राह में बड़ी गिरावट दर्ज की गई थी, लेकिन अब 2023 में गाड़ी दोबारा पटरी पर लौट रही है। यही वजह है कि वैश्विक स्तर पर मानव विकास अपने रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है,
लेकिन साथ ही समृद्ध और वंचित समुदायों के बीच असमानता की खाई और गहरी हुई है।
एक तरफ जहां समृद्ध देशों में अभूतपूर्व विकास हुआ है, वहीं दुनिया के सबसे कमजोर देशों में से करीब आधे देश, विकास की राह में कोविड संकट से पहले के स्तर से भी नीचे चले गए हैं।
बता दें कि 2020 या 2021 में अपने मानव विकास सूचकांक में गिरावट दर्ज करने वाले 35 सबसे कमजोर देशों में से 18 अभी 2019 के स्तर पर नहीं लौट पाए हैं। रिपोर्ट के अनुसार विकास की राह में मौजूद इस विषमता के चलते सबसे कमजोर देश पीछे छूट रहे हैं। इससे असमानताएं बढ़ रही हैं और राजनैतिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिल रहा है।
रिपोर्ट के मुताबिक एक तरफ जहां स्विटजरलैंड , नॉर्वे और आइसलैंड जैसे देश राष्ट्रीय स्तर पर मानव विकास सूचकों में सबसे आगे हैं। वहीं सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक, दक्षिण सूडान, सोमालिया, नाइजर, चाड, माली, बुरुंडी, यमन, बुर्किना फासो जैसे देश अभी भी बेहद पीछे हैं। कुल मिलकर देखें तो अफ्रीकी देशों में स्थिति सबसे ज्यादा खराब है।
वहीं यदि ओईसीडी के सभी 38 देशों की बात करें तो इन सभी ने 2023 में 2019 की तुलना में मानव विकास सूचकांक में बेहतर प्रदर्शन किया है। मानव विकास को सबसे अधिक हानि अफगानिस्तान व यूक्रेन में हुई है। अफगानिस्तान में ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स 10 वर्ष पहले के स्तर पर पहुंच गया है, जबकि यूक्रेन में यह 2004 के बाद से अपने सबसे निचले स्तर पर है।
वहीं सभी विकासशील क्षेत्र 2019 से पहले के मानव विकास सूचकांक के रुझानों के अनुसार अपनी सम्भावनाओं को पूरा नहीं कर पाए हैं, और भविष्य में भी उनकी विकास प्रक्रिया को झटका लगने का खतरा है।
रिपोर्ट की मानें तो इसके लिए कोविड-19, यूक्रेन में जारी युद्ध और जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण से जुड़े कारक जिम्मेवार हैं। इन सबने मिलकर लोगों के जीवन पर व्यापक असर डाला है, राजनैतिक, वित्तीय और जलवायु से जुड़े संकटों ने कोरोना की मार झेल रही आबादी को संभलने का मौका ही नहीं दिया। (डाऊन टू अर्थ)
विश्व भर में हर वर्ष 10 करोड़ से अधिक मूत्र कैथेटर लगाए जाते हैं जिनके रास्ते होने वाले मूत्र मार्ग संक्रमणों (यूटीआई) को रोकना चिकित्सकों के लिए एक महत्वपूर्ण समस्या होती है। साइंस एडवांसेस में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन में कृत्रिम बुद्धि (एआई) की मदद से एक नवीन मूत्र कैथेटर डिज़ाइन प्रस्तुत हुई है। यह कैथेटर एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग किए बिना कैथेटर के रास्ते होने वाले मूत्रमार्ग संक्रमण (यूटीआई) के जोखिम को कम कर सकता है।
गौरतलब है कि पारंपरिक कैथेटर अंदर से चिकने होते हैं जिसके कारण बैक्टीरिया के लिए ऊपर की ओर बढऩा और आंतरिक सतह पर टिकना सहज हो जाता है। यही बैक्टीरिया यूटीआई का कारण बनते हैं।
नवीन कैथेटर में एक अनोखा इंटीरियर तैयार किया गया है। इसकी अंदरुनी संरचना से एक ऐसा बाधापूर्ण मार्ग तैयार होता है जो बैक्टीरिया को पकड़ प्राप्त करने और मूत्राशय तक पहुंचने से रोकता है।
पूर्व में चिकित्सक बैक्टीरिया को मारने के लिए कैथेटर की आंतरिक सतह पर एंटीबायोटिक दवाओं या चांदी जैसे धातु एजेंटों का लेप करते थे। ये तरीके महंगे होते हैं और बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी क्षमता विकसित होने की आशंका रहती है। नया उपकरण किसी विशेष अस्तर की बजाय सरल ज्यामिति पर काम करता है।
इस अध्ययन की सह-लेखक और कंप्यूटर वैज्ञानिक अनिमाश्री आनंदकुमार बताती हैं कि यह डिज़ाइन सरल ज्यामिति से प्रेरित है जिसमें नुकीले त्रिकोण के आकार की लकीरों की एक शृंखला है। इस प्रकार के कैथेटर में जब बैक्टीरिया ऊपर की ओर तैरने का प्रयास करते हैं तो इन कंटकों के कारण उनकी ऊपर की ओर बढऩे की गति बाधित होती है। इसको डिज़ाइन करते हुए शोधकर्ताओं ने सबसे प्रभावी बैक्टीरिया-विकर्षक रचना की पहचान करने के लिए एआई की मदद से हज़ारों डिज़ाइनों की डिजिटल अनुकृतियां तैयार कीं। सर्वोत्तम डिज़ाइन चुनने के बाद, उन्होंने कैथेटर का 3-डी प्रोटोटाइप तैयार किया और ई. कोली बैक्टीरिया पर इसका और सामान्य कैथेटर का परीक्षण किया। उन्होंने पाया कि 24 घंटों की अवधि में पारंपरिक कैथेटर की तुलना में नवनिर्मित प्रायोगिक कैथेटर में सौवें हिस्से से भी कम बैक्टीरिया जमा हुए थे।
फिलहाल वर्तमान डिज़ाइन यूटीआई से जुड़े एक सामान्य बैक्टीरिया ई. कोली के हिसाब से बनाई गई है लेकिन शोधकर्ता अन्य जीवाणु प्रजातियों को ध्यान में रखते हुए इस डिज़ाइन को और अधिक परिष्कृत करने का प्रयास कर रहे हैं ताकि इसे रोगाणुओं की एक विस्तृत शृंखला की रोकथाम के लिए तैयार किया जा सके।
देखा जाए तो उपकरण डिज़ाइन में एआई की क्षमता कैथेटर से कहीं आगे तक है। फिलहाल आनंदकुमार एआई का उपयोग दवाएं विकसित करने, ऊर्जा-कुशल हवाई जहाज़ प्रोपेलर डिज़ाइन करने और कई अन्य चीज़ों के लिए कर रही हैं।(स्रोतफीचर्स)
बरन अब्बासी
ईरान ने कहा है कि सीरिया की राजधानी दमिश्क में उसके वाणिज्यिक दूतावास पर इसराइल के कथित हमले का वह जवाब देगा।
सीरिया में ईरान के राजदूत ने कहा है कि उस हमले में इस्लामिक रिवॉल्युशनरी गार्ड्स कोर (आईआरजीसी) के सात और सीरिया के छह नागरिक सहित कुल 13 लोग मारे गए हैं।
मारे गए लोगों में ब्रिगेडियर जनरल मोहम्मद रजा जाहेदी भी थे। वे आईआरजीसी की विदेशी शाखा ‘कुद्स फोर्स’ के एक अहम व्यक्ति थे।
इसराइल ने अभी तक इस हमले पर कोई टिप्पणी नहीं की है, लेकिन ईरान और सीरिया ने उस हमले के लिए इसराइल को दोषी ठहराया है।
लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर फवाज गेर्जेस ने कहा, ‘यह न केवल ईरान बल्कि रिवॉल्युशनरी गार्ड्स कोर फोर्स के शीर्ष नेतृत्व पर भी हमला था।
इससे कुद्स फोर्स को बड़ा नुकसान हुआ, जो लेबनान में हिज़बुल्लाह और सीरिया के साथ समन्वय और हथियार और तकनीक ट्रांसफर के लिए बड़ा धक्का है।’
ईरान के वरिष्ठ अधिकारियों ने इस हमले की नाराजग़ी भरी आलोचना की और इसराइल के खिलाफ जवाबी कार्रवाई की धमकी दी।
ईरान के सर्वोच्च नेता आयातुल्लाह अली ख़ामेनेई ने चेतावनी देते हुए कहा, ‘हम उन्हें यह अपराध करने और ऐसी कार्रवाई करने पर पछताने को मजबूर करेंगे।’
ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने इस हमले को ‘अमानवीय, आक्रामक और घृणित काम’ बताया और कहा कि इसका जवाब दिया जाएगा।
साल 1979 में ईरान की इस्लामिक क्रांति ने पश्चिम को चुनौती देने वाले नेतृत्व को सत्ता में आने का मौका दिया और तभी से ईरानी नेता इसराइल को मिटाने की बात करते रहे हैं।
ईरान, इसराइल के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता है और उसका कहना है कि इसराइल ने मुसलमानों की ज़मीन पर अवैध कब्जा कर रखा है।
दूसरी तरफ, इसराइल भी ईरान को एक खतरे के तौर पर देखता है। उसने हमेशा ही ये कहा है कि ईरान के पास परमाणु हथियार नहीं होने चाहिए।
ईरान और इसराइल की सीमाएं एक-दूसरे से नहीं लगतीं। लेकिन इसराइल के पड़ोसी देशों जैसे लेबनान, सीरिया और फिलस्तीन में ईरान का प्रभाव साफ दिखता है।
सीरिया के विदेश मंत्री से फोन पर बात करते हुए ईरानी विदेश मंत्री हुसैन अमीर-अब्दुल्लाहियन ने इस हमले को सभी अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों और समझौतों का उल्लंघन करार दिया।
उन्होंने इसके लिए सीधे इसराइल पर उंगली उठाई। ईरान के विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर हुसैन अमीर-अब्दुल्लाहियान ने कहा कि इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ‘पूरी तरह से अपना मानसिक संतुलन खो चुके हैं’।
जानकारों ने बीबीसी को बताया है कि इन बयानों से जाहिर है कि गजा युद्ध के बीच इसराइल और ईरान के सहयोगियों के बीच हिंसा की आशंका और बढ़ गई है। हालांकि ईरान की जवाबी कार्रवाई का दायरा सीमित रह सकता है।
पश्चिम एशिया मामलों के जानकार अली सद्रजादेह कहते हैं, ‘ईरान अपनी सैन्य क्षमता और आर्थिक-राजनीतिक स्थिति को देखते हुए इसराइल के साथ बड़ा टकराव लेने में अक्षम है। लेकिन घरेलू राजनीति के लिए इसे जवाब देना होगा। अपने क्षेत्रीय सहयोगियों के बीच इसे अपनी प्रतिष्ठा की भी रक्षा करनी होगी।’
यही राय फवाज गेर्जेस की भी है। वे मानते हैं कि इसराइल के खिलाफ ईरान सीधा जवाबी कार्रवाई नहीं करेगा।
वे कहते हैं, ‘इसराइल ने भले ईरान को अपमानित किया और उसने ईरान की नाक में दम कर दिया।’
गेर्जेस का कहना है कि ईरान के ‘रणनीतिक धैर्य‘ रखने की संभावना है, क्योंकि वो इससे कहीं अधिक बड़े लक्ष्य ‘परमाणु बम बनाने’ को प्राथमिकता देगा।
वे कहते हैं, ‘वो ताकत इक_ा कर रहा है। वो यूरेनियम को संवर्धित कर रहा है और आगे बढ़ रहा है। ईरान के लिए बड़ा प्राइज 50 बैलिस्टिक मिसाइलें भेजकर 100 इसराइली लोगों को मारना नहीं, बल्कि इसराइल और अमेरिका के खिलाफ भी ‘स्ट्रैटिजिक डिटरेंस’ कायम करना है।’
गजा युद्ध के बाद से ही सीरिया, इराक, लेबनान और यमन में इसराइल के खिलाफ ईरान समर्थित लड़ाकों के मिसाइल और ड्रोन हमले बढ़ गए हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि वे अपने हमले सीमित रखना चाहते हैं, ताकि इसराइल से पूर्ण युद्ध न हो।
सद्रजादेह कहते हैं, ‘ईरान की प्रॉक्सी ताकतों द्वारा इसराइली राजनयिक मिशन के खिलाफ हमले की कल्पना करना भी मुश्किल है, लेकिन लाल सागर और अदन की खाड़ी में इसराइल या अमेरिका से जुड़े जहाजों के खिलाफ ईरान समर्थक हूती विद्रोहियों के मौजूदा हमलों के जारी रहने की बहुत संभावना है।’
लेकिन क्या ईरान समर्थित हिजबुल्लाह लड़ाके दमिश्क हमले का जवाब देंगे?
हिजबुल्लाह भारी हथियारों से लैस दुनिया के सबसे बड़े गैर-सरकारी सैन्य बलों में से एक है।
अनुमान के अनुसार, इस संगठन में 20 से 50 हज़ार लड़ाके कार्यरत हैं और सीरिया के गृह युद्ध में भागीदारी निभाने के कारण ये अच्छी तरह से प्रशिक्षित और मज़बूत हैं।
सेंटर फॉर स्ट्रैटिजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज थिंक-टैंक के अनुसार, इस संगठन के पास लगभग 1.30 लाख रॉकेट और मिसाइलों का विशाल भंडार है।
हालांकि बीबीसी ने जिन जानकारों से बात की, उनके अनुसार यह संगठन इसराइल के खिलाफ कोई बड़ा अभियान शुरू करेगा, इसकी संभावना कम ही है।
फवाज गेर्जेस कहते हैं, ‘हिजबुल्लाह वास्तव में इसराइल के जाल में नहीं फंसना चाहता, क्योंकि उन्हें अहसास है कि बिन्यामिन नेतन्याहू और उनकी युद्ध कैबिनेट लड़ाई का विस्तार करने की ख़ूब कोशिश कर रहे हैं। नेतन्याहू का राजनीतिक भविष्य गजा में युद्ध जारी रहने और उत्तरी मोर्चे पर हिजबुल्लाह और ईरान के साथ इसका विस्तार होने पर निर्भर करता है।’
अली सद्रजादेह का मानना है कि ईरान इसराइल केसाथ युद्ध का जोखिम उठाने के बजाय ‘प्रतीकात्मक’ जवाब ही देगा।
ईरान ने जनवरी 2020 में अमेरिकी ड्रोन हमले में आईआरजीसी के टॉप कमांडर क़ासिम सुलेमानी के मारे जाने के बाद उसके जवाब में बग़दाद के अल असद एयरपोर्ट को निशाना बनाया था।
सद्रजादेह ने आठ जनवरी, 2020 को इराक़ के अल असद हवाई अड्डे पर ईरान की ओर से हुए बैलिस्टिक मिसाइल हमले का जि़क्र करते हुए कहा, ‘ईरान ने अपने सबसे अहम सैन्य कमांडर क़ासिम सुलेमानी की हत्या के जवाब में प्रतीकात्मक हमले ही किए थे।’
ईरान ने उस हत्या का ‘गंभीर बदला’ लेने का वादा किया था। लेकिन ईरान के जवाबी हमले में हवाई पट्टी पर तैनात कोई भी अमेरिकी सैनिक नहीं मारा गया। ऐसी ख़बरें मिलीं कि उस हमले के बारे में अमेरिकी सेना को पहले से ही चेतावनी दे दी गई थी।
फवाज गेर्गेस का मानना है कि दमिश्क स्थित ईरानी वाणिज्यिक दूतावास पर हुआ हमला दुनिया के सामने ईरान की रक्षा ताकत को कमजोर दिखाने और ईरान के सुरक्षा तंत्र की कमर तोडऩे के लिए किया गया।
वर्जीनिया टेक स्कूल ऑफ पब्लिक एंड इंटरनेशनल अफेयर्स में पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के रिसर्चर यूसुफ अजीजी का मानना है कि ईरान की सत्ता में बैठे लोगों के बीच एक संघर्ष चल रहा है।
एक पक्ष कहता होगा कि इसराइल को रोकने के लिए ईरान को परमाणु शक्ति के रूप में स्थापित करना चाहिए। वहीं दूसरा पक्ष अधिक आक्रामक और उग्र होगा, जो इसराइल और उसके सैन्य प्रतिष्ठानों पर सीधे हमले का सुझाव देंगे।
लेकिन बीबीसी से उन्होंने कहा कि सरकारी मीडिया और सोशल मीडिया के विश्लेषण से पता चलता है कि ‘रणनीतिक धैर्य’ बनाए रखने के समर्थकों का पलड़ा भारी रहने की संभावना है।
ऐसे में सवाल उठता है कि ईरान के लोगों के लिए दूसरे कौन से रास्ते खुले हैं?
इसराइली इंस्टीट्यूट फॉर साइबर पॉलिसी स्टडीज के ताल पॉवेल ने बीबीसी को बताया, ‘हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि ईरान शायद इसराइल से बदला लेने के लिए साइबरस्पेस का उपयोग कर सकता है।’
उन्होंने कहा, ‘हम जानते हैं कि पिछले डेढ़ दशक के दौरान ईरान और इसराइल के बीच गुप्त साइबर युद्ध चल रहा है। इसलिए ये इसका केवल एक और स्टेज हो सकता है।’
यह ईरान पर निर्भर करेगा - और विशेष रूप से ईरान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नासिर कनानी कहते हैं कि होने वाली कार्रवाई ईरान पर ख़ासकर इसके सर्वोच्च नेता पर निर्भर करेगा।
उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा, ‘ईरान के पास जवाब देने का अधिकार सुरक्षित है। जवाब देने के तरीके और हमला करने वालों की सजा का फैसला ईरान ही करेगा।’
ईरान ने पिछले कुछ सालों में तकनीकी क्षेत्र में तरक्की की है, उसके पास अब एडवांस ड्रोन से लेकर लंबी दूरी वाली मिसाइलें तक हैं। उसके पास वो हथियार हैं, जिनके बलबूते वह इसराइल का सामना कर सकता है। लेकिन फिर भी वह इससे बचना चाहेगा।
हथियार इसराइल के पास भी हैं। लेकिन इसराइल के पास अमेरिका का साथ है। कहीं भी जंग छिड़ी तो इसराइल को अमेरिका का साथ मिलेगा और ये इसराइल के लिए बढ़त की तरह है। ऐसी स्थिति में मुझे नहीं लगता कि ईरान कभी भी इसराइल के साथ सीधी जंग में उतरना चाहेगा। (bbc.com/hindi)
सलमान रावी
बात साल 1984 की है। तब भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी।
पूरे देश में कांग्रेस के लिए और खास तौर पर राजीव गांधी के लिए सुहानुभूति की लहर थी। उसी साल हुए लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस को प्रचंड बहुमत मिला।
भोपाल की लोकसभा की सीट पर भी कांग्रेस के प्रत्याशी केएन प्रधान ने बड़ी जीत दर्ज की थी। भोपाल लोकसभा सीट पर ये कांग्रेस का सबसे बेहतर प्रदर्शन था।
कुल मतों का 61.73 प्रतिशत वोट प्रधान को मिला जो अब तक इस सीट पर कांग्रेस के किसी भी प्रत्याशी को मिलने वाले वोटों का रिकॉर्ड है।
लेकिन, अगले ही चुनावों में, यानी वर्ष 1989 में, प्रधान को भारतीय जनता पार्टी के सुशील चन्द्र वर्मा ने हरा दिया था। फिर इस सीट पर कांग्रेस कभी नहीं जीत पाई।
भोपाल की लोकसभा की सीट पर भारतीय जनता पार्टी ने अपनी जीत का सिलसिला जारी रखा। भोपाल को भाजपा के लिए सबसे सुरक्षित सपिछले लोकसभा के चुनावों में इस सीट पर तब रोचक मुकाबला देखने को मिला जब भारतीय जनता पार्टी ने मैदान में प्रज्ञा ठाकुर को उतारा था।
कांग्रेस ने भी, जिसे कहते हैं ‘पुटिंग बेस्ट फुट फॉरवर्ड’, यानी अपने सबसे मजबूत खिलाड़ी दिग्विजय सिंह को उनके खिलाफ मैदान में उतारा था।
दिग्विजय सिंह को पांच लाख से भी ज़्यादा वोट मिले थे। मगर उसके बावजूद प्रज्ञा ठाकुर ने उनको तीन लाख 64 हजार वोटों से हरा दिया था।
भोपाल की सीट पर पहले भी कई जाने-माने लोगों ने अपनी किस्मत आजमाई है।
भारत के पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी और उमा भारती ने भी इस सीट से जीत दर्ज की थी।
वहीं इस सीट पर 1991 में भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान मंसूर अली खान पटौदी को भी हार का सामना करना पड़ा था। वो कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ रहे थे।
साध्वी का टिकट कैसे कटा
इस बार भोपाल की लोकसभा की सीट के चुनावी रण में ना तो प्रज्ञा ठाकुर हैं और ना ही दिग्विजय सिंह।
प्रज्ञा को पार्टी ने दोबारा उम्मीदवार नहीं बनाया और दिग्विजय सिंह अपने राजनीतिक क्षेत्र, राजगढ़ से इस बार चुनावी मैदान में 33 सालों बाद उतरे हैं।
प्रज्ञा की जगह भारतीय जनता पार्टी ने भोपाल के महापौर रह चुके आलोक शर्मा को टिकट दिया है। हालाँकि शर्मा को हाल ही में संपन्न विधानसभा के चुनाव में भोपाल उत्तर विधानसभा की सीट से हार का सामना करना पड़ा था।
राजनीतिक हलकों में पहले से ही इस बार साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के दोबारा उम्मीदवार बनाए जाने की संभावना कम ही व्यक्त की जा रही थी।
उसके कई कारणों में से एक था, प्रधानमंत्री का ये कहना कि वो साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को ‘कभी दिल से माफ़ नहीं कर सकते।’
प्रधानमंत्री का बयान तब आया था, जब संसद में वर्ष 2019 में एक चर्चा के दौरान प्रज्ञा ठाकुर ने महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को ‘देशभक्त’ कहा था। इससे पहले भी वो मुंबई हमलों के दौरान मारे गए भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी हेमंत करकरे पर दिए गए बयान को लेकर विवादों में घिरी थीं।
समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार, जब टिकट कटने पर पत्रकार उनकी प्रतिक्रिया लेने पहुंचे तो उन्होंने कहा कि पिछले पांच सालों से मीडिया उन्हें बदनाम करने की हर कोशिश कर रहा है और वो अब मीडिया से बात करना नहीं चाहती हैं।
उनका कहना था कि उनके बयानों को मीडिया ने हमेशा तोड़ मरोड़ कर पेश किया है।
पीटीआई ने उनके हवाले से लिखा, ‘अब मुझे जो कहना होगा उसका वीडियो मैं अपने सोशल मीडिया पर डाल दूंगी। वहीं से आप लोग ले लीजियेगा। अब किसी से बात नहीं करूंगी।’
भारतीय जनता पार्टी के मध्य प्रदेश के प्रवक्ता पंकज चतुर्वेदी कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी में सबकी भूमिका निर्धारित रहती है।
वो कहते हैं कि प्रज्ञा को संगठन दूसरी जि़म्मेदारी देगा। वो ये भी कहते हैं कि इस बार लोकसभा के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने पूरे भारत में 34 प्रतिशत पुराने चेहरों को बदला है।
उनका कहना था, ‘बीजेपी में हर व्यक्ति मूलत: एक कार्यकर्ता है और हर कार्यकर्ता एक दायित्व को निभाने के भाव से बीजेपी में काम करता है। साध्वी प्रज्ञा भी भारतीय जनता पार्टी की ही कार्यकर्ता हैं।’
पंकज चतुर्वेदी कहते हैं, ‘वर्ष 1989 से आज तक भोपाल की जनता की कृपा भारतीय जनता पार्टी के कमल चुनाव चिह्न के साथ है। सांसद के रूप में साध्वी प्रज्ञा ने अद्भुत सेवा की है। उनके साथ किस प्रकार की प्रताडऩा की गई थी मालेगांव मामले में, वो किसी से छुपा नहीं है।’
लेकिन वरिष्ठ पत्रकार अनूप दत्ता को लगता है कि प्रज्ञा ठाकुर ने सांसद के रूप में उतना काम भी नहीं किया था, जिसकी वजह से पार्टी को भी उन्हें टिकट देने में कई बार सोचना पड़ा होगा।
वो कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी इसी तरह से टिकटों का बँटवारा करती है और चेहरे बदलती रहती है।
वो कहते हैं कि कई चेहरे ऐसे हैं, जिन्हें भाजपा ने ‘रिपीट’ नहीं किया है। इनमे कई बड़े नाम भी हैं। और, प्रज्ञा ठाकुर के बारे में तो पहले से ही समझ में आने लग गया था कि इनको भारतीय जनता पार्टी दोबारा टिकट नहीं देगी।
अनूप दत्ता कहते हैं, ‘जो पिछला चुनाव था, उसके जैसा ‘इंटरेस्ट’ इस बार के चुनावों में भोपाल की लोकसभा की सीट पर तो नहीं देखने को मिलेगा। पिछली बार एक तरीक़े से हिंदुत्व ‘आईकन’ प्रज्ञा ठाकुर एक तरफ़ थीं तो दूसरी तरफ़ दिग्विजय सिंह थे जो पूरे समय आरएसएस या बीजेपी पर ‘अटैक’ कर रहे थे और काफी ‘लाइमलाइट’ में थे। अब दोनों ही किरदार भोपाल सीट से नहीं लड़ रहे हैं तो पिछला जो चुनावी परिदृश्य था अब वो पूरा का पूरा पलट गया है।’
दिग्विजय सिंह ने लगाई थी ‘प्रतिष्ठा’ दांव पर
जानकारों को लगता है कि पिछले लोकसभा के चुनाव के दौरान भोपाल में बहुत ज़्यादा ध्रुवीकरण था लेकिन इसके बावजूद दिग्विजय सिंह ने पार्टी के कहने पर ‘अपनी प्रतिष्ठा को दांव’ पर लगा दिया था।
प्रदेश कांग्रेस कमिटी के प्रवक्ता अभिनव बरोलिया कहते हैं कि दिग्विजय सिंह ने कई वर्ष पहले ही घोषणा कर दी थी कि वो चुनाव नहीं लड़ेंगे।
बरोलिया कहते हैं, ‘इसके बावजूद, जब पार्टी ने उन्हें साध्वी प्रज्ञा के खिलाफ मैदान में उतारा तो उन्होंने बिना इनकार किए इस फैसले को स्वीकार किया और अपनी राजनीतिक प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी थी। समाज में इतने ध्रुवीकरण के बावजूद दिग्विजय सिंह को पांच लाख से भी ज़्यादा वोट मिले थे। ये इस बात का संकेत है कि वो सर्वमान्य नेता हैं जो प्रदेश में कहीं से भी चुनाव लडऩे की हैसियत रखते हैं।’
बरोलिया का कहना था कि इस बार भी कांग्रेस पार्टी ने तय किया कि उन्हें चुनाव लडऩा है और इस फ़ैसले को उन्होंने फिर स्वीकार कर लिया और वो इस बार राजगढ़ से चुनाव लड़ रहे हैं।
मध्य प्रदेश में लोकसभा की कुल 29 सीटें हैं, जिसमे से 28 सीटें भारतीय जनता पार्टी के पास हैं। छिन्दवाड़ा की एकमात्र ऐसी सीट है, जिस पर कांग्रेस लगातार जीत दर्ज करती आ रही है। ये पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ का सबसे मजबूत गढ़ है। पिछली बार उनके पुत्र, नकुलनाथ ने ये सीट जीती थी।
दिग्विजय सिंह के एक बार फिर चुनावी मैदान में उतरने से कांग्रेस की उम्मीदें जगी हैं कि वो इस बार लोकसभा के चुनावों में पहले से बेहतर प्रदर्शन करेगी।
इस बार कांग्रेस ने भोपाल जिले की ग्रामीण कमिटी के अध्यक्ष अरुण श्रीवास्तव को मैदान में उतारा है जो राजनीतिक परिवार से आते हैं।
प्रदेश कांग्रेस कमिटी के उपाध्यक्ष जेपी धनोपिया ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि अरुण श्रीवास्तव की माँ भी जि़ला परिषद् की अध्यक्ष रह चुकी हैं और इस सीट पर कायस्थ मतदाताओं की अच्छी खासी आबादी है।
वो कहते हैं, ‘पिछले तीन दशकों से जो सीट कांग्रेस जीत नहीं पाई है। इस बार इस सीट पर कड़ा मुकाबला होगा।’
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि राज्यसभा के सदस्य होने के बावजूद दिग्विजय सिंह का लोकसभा का चुनाव लडऩा इस बात की तरफ़ संकेत देता है कि वो कांग्रेस पार्टी के ‘एकमात्र’ जन नेता हैं, जो इस तरह के चुनौती को बार बार स्वीकार कर लेते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार अरुण दीक्षित कहते हैं, ‘यह संयोग है कि भोपाल की सीट पर पिछले लोकसभा के चुनावों में दिग्विजय सिंह को सबसे ज़्यादा वोट मिले थे और सबसे बड़ी हार भी उन्हीं की हुई। लेकिन मुझे लगता है कि दिग्विजय सिंह की हार का एक और कारण भी था और वो था कांग्रेस के भीतर चल रही गुटबाज़ी।’
‘अगर दिग्विजय सिंह राघोगढ़ से निकलकर और भोपाल आकर सांसद बन जाते, तो भोपाल के कई ऐसे कांग्रेसी थे, जिनकी दुकान बंद हो जाती। दिग्विजय सिंह ने अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि से कोई समझौता नहीं किया और आरएसएस, बीजेपी पर हमलावर रहे।’
उनका कहना था कि 2019 के लोकसभा के चुनावों में प्रज्ञा ठाकुर को ‘अंतिम क्षणों में लाया गया था।’ इसके अलावा दिग्विजय सिंह को हराने में संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों के अलावा कांग्रेस के कई दिग्गज नेताओं की भूमिका भी रही।
वो कहते हैं, ‘प्रज्ञा के साथ संघ के वो लोग जुड़े थे जो चाहते थे कि एक बार ‘अग्रेसिव हिंदुत्व’ को भी परखा जाना चाहिए। इस खांचे में प्रज्ञा फिट बैठती थीं।’
अलोक शर्मा से हमारी मुलाकात उनके चुनाव कार्यालय में हुई। वो तब एक बैठक को संबोधित कर रहे थे।
बैठक के बाद बीबीसी से बात करते हुए वो बताने लगे कि वो ‘धरती पुत्र’ हैं और टिकट मिलने से वो बहुत ख़ुश हैं।
उनका कहना था, ‘भोपाल की अपनी अलग संस्कृति है जो पूरे भारत से अलग है। यहाँ की भाषा का ‘फ्लेवर’ भी अलग है और लोगों का रहन सहन भी। यहाँ ‘कंपोजिट सोसाइटी’ है। यानी सब लोग आपस में मिलजुल कर रहते हैं। चूँकि मैं यहीं पला बढ़ा और यहीं राजनीति में आया तो मेरा लोगों के साथ एक अलग ही रिश्ता है। चाहे शादी-ब्याह या जनाजे में शामिल होना हो, मैं लोगों के बीच ही रहा हूँ। इसलिए शायद पार्टी ने टिकट दिया है।’
वो कहते हैं कि वो भोपाल की जनता के बीच ‘विकास के मुद्दों’ को ही लेकर जा रहे हैं। ‘मेरी यही कोशिश है कि भोपाल कैसे और बेहतर हो। चाहे वो शहरी क्षेत्र हों या ग्रामीण।’
जानकार कहते हैं कि अलोक शर्मा भले ही ‘कम्पोजिट कल्चर’ की बात कर रहे हों, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि 1992 के दंगों के बाद भोपाल का राजनीतिक परिदृश्य बिल्कुल बदल गया है और यहाँ समाज में तेजी से ध्रुवीकरण बढ़ता ही चला गया। कांग्रेस भी कमजोर पडऩे लगी।
कुछ जानकार ये भी कहते हैं कि कांग्रेस का कमजोर होना और किसी तीसरी राजनीतिक शक्ति के नहीं होने का पूरा चुनावी फायदा भारतीय जनता पार्टी को तीन दशकों से मिलता रहा है। (bbc.com/hindi)
सुनीता नारायण
कुछ वर्ष पहले जब हम बेंगलुरु में अपनी रिपोर्ट ‘एक्सरीटा मैटर्स’ का विमोचन कर रहे थे, उसी वक्त शहर के पानी और सीवेज प्रबंधकों से मेरी एक उत्साही चर्चा हुई। यह चर्चा शहर में जल प्रबंधन के बारे में थी, क्योंकि हमारे शोध से यह पता चला कि शहर में जल प्रबंधन अवहनीय और अस्थिर था।
हालांकि, इस बात से अभियंता असहमत थे। उनके अनुसार वे लगभग 100 किमी दूर कावेरी से पाइपलाइनों के माध्यम से पानी सुरक्षित करने में कामयाब रहे थे और इसलिए चिंता का कोई कारण नहीं था। अब जबकि यह हाई-टेक शहर गंभीर जल संकट की ओर बढ़ रहा है, तो हो सकता है, शायद वे बुद्धिमान लोग पुनर्विचार करेंगे और आगे बढऩे के लिए अपने विकल्पों पर फिर से काम करेंगे।
सच तो यह है कि बेंगलुरु एक ऐसा शहर है जिसे आईना दिखाया जा रहा है, जहां पर ऊंची लागत वाले इंजीनियरिंग समाधान के जरिए उत्तम जलापूर्ति के सपने चकनाचूर हो रहे हैं और ये सपने जलवायु जोखिम के उस युग में टूट रहे हैं जहां वर्षा अधिक चरम और अधिक परिवर्तनशील होती जाएगी।
यदि अतीत को देखें तो बेंगलुरु को झीलों के विशाल नेटवर्क से पानी मिलता था, जिसे बारिश इक_ा करने और बाढ़ को कम करने के लिए डिजाइन किया गया था। फिर इस खोज का विस्तार हुआ और पहली आधिकारिक जल आपूर्ति शहर से 18-20 किमी दूर अर्कावती नदी पर हेसरघट्टा झील से हुई और फिर 35-40 किमी दूर टीजी हल्ली जलाशय से जल आपूर्ति हुई। लेकिन यह सब पर्याप्त नहीं था और 1974 के आसपास, महत्वाकांक्षी कावेरी जल आपूर्ति योजना की कल्पना की गई, जहां पानी को 490 मीटर की ऊंचाई तक पंप करने और 100 किमी तक पहुंचाने की बात हुई।
शहर के अभियंताओं के साथ बातचीत के दौरान पता चला कि वे अपने इंजीनियरिंग चमत्कार के चौथे चरण में थे, और जैसा कि मैंने कहा, उन्हें चिंता का कोई कारण नहीं दिख रहा था। मैंने लंबी दूरी तक पानी पहुंचाने की लागत के बारे में बात की थी। लगभग एक दशक पहले शहर को पानी पंप करने के लिए भारी बिजली की आवश्यकता होती थी, जो इसके पानी और सीवेज बोर्ड की नाजुक अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं थी। इसके अलावा जैसे-जैसे दूरी बढ़ती गई, वैसे-वैसे पानी का नुकसान भी बढ़ा, जो आधिकारिक सूत्रों के अनुसार 40 प्रतिशत तक था। इसका मतलब यह हुआ कि जल आपूर्ति की लागत बढ़ रही थी।
मैंने यह भी बताया कि इंजीनियर अहम तथ्यों को नजरअंदाज कर रहे थे। पहला तथ्य था कि शहर और उसके आसपास के क्षेत्रों में भूजल का उपयोग बढ़ रहा था, जो यह बताता था कि पानी की आपूर्ति इतनी सही नहीं थी। दूसरा तथ्य था कि शहर का विस्तार हो रहा था और यह विस्तारित जल-सीवेज का बुनियादी ढांचा विकास के साथ गति नहीं बनाए रखेगा। तीसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी, जिसमें उनकी अपनी स्वीकारोक्ति भी थी कि शहर में पैदा होने वाले अधिकांश सीवेज का उपचार नहीं किया जा रहा था और इसके परिणामस्वरूप इसकी झीलों और जलधाराओं में प्रदूषण का भार बढ़ रहा था। इसके बावजूद इंजीनियर भविष्य को लेकर आशान्वित थे। उन्होंने दावा किया कि हर उपलब्ध तकनीक का उपयोग करते हुए लगभग 720 मिलियन लीटर प्रति दिन (एमएलडी) सीवेज उपचार क्षमता पहले ही बना ली है, जो उत्पन्न लगभग सभी सीवेज का तकनीकी रूप से उपचार करने में सक्षम होगी।
जब मैंने यह बिंदु अभियंताओं के सामने रखा कि आधी से भी कम क्षमता का उपयोग किया जा रहा है, तो उन्होंने मुझसे कहा, बहुत जल्द पाइपलाइन नेटवर्क का विस्तार होगा और सब कुछ ठीक हो जाएगा।
यदि वर्तमान की बात करें तो 2010 में, शहर की पानी की आवश्यकता 1,125 एमएलडी आंकी गई थी, जो अब दोगुनी से भी अधिक होकर 2,600 एमएलडी हो गई है। जबकि कावेरी से अभी भी आधी जल आपूर्ति होती है, बाकी भूजल से आती है। दूसरे शब्दों में, मांग पूरी नहीं हुई है और लोगों के पास पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए गहरी खुदाई करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। वर्षा की बढ़ती परिवर्तनशीलता के कारण, ये स्रोत तेजी से सूख रहे हैं। लेकिन पाइपड्रीम विक्रेताओं ने संकट को नहीं समझा है। शहर के मुख्य जल प्रबंधक अब कावेरी परियोजना के चरण 5 पर निर्भर हैं, उनका कहना है, यह बहुत जल्द चालू हो जाएगा।
सीवेज की कहानी भी ऐसी ही है। उपचार के लिए नया हार्डवेयर बनाया गया है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की 2021 इन्वेंटरी के अनुसार, शहर में अब 1,167.50 एमएलडी सीवेज उपचार क्षमता है। सीवेज की कहानी भी ऐसी ही है। क्षमता उपयोग भी कुछ हद तक सुधरकर 75 प्रतिशत हो गई है। हालांकि, सीवेज उत्पादन और उपचार क्षमता के बीच अंतर बढ़ गया है। वर्तमान में पानी की मांग के साथ, सीवेज उत्पादन 2,000 एमएलडी के करीब होगा और इसलिए अनुपचारित सीवेज आधे से अधिक होगा। शहर व्यर्थ में घूमता रहा लेकिन असल में उसने पाया कि वह अब भी वहीं खड़ा है, जहां एक दशक पहले था।
यह हमारी जल योजना का वास्तविक संकट है जो परिवर्तन की आवश्यकता और अवसर को समझने में असमर्थता को जाहिर करता है। सच तो यह है कि बेंगलुरु में पर्याप्त बारिश होती है। इसमें झीलें हैं जो इस बारिश के पानी का संचय कर सकती हैं और भूजल को रिचार्ज कर सकती हैं, ताकि अत्यधिक बारिश की घटनाओं के समय, अमीर और शक्तिशाली निवासियों को बाढ़ में डूबने से बचने के लिए तैरना न पड़े।
हर बूंद का इस्तेमाल आने वाले अभावग्रस्त समय के लिए किया जा सकता है। फिर वह अपने सीवेज का प्रबंधन अलग तरीके से कर सकता है। यह मानने के बजाय कि पाइपलाइनों के माध्यम से सीवेज का परिवहन किया जा सकता है, यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि मल की प्रत्येक बूंद को टैंकरों द्वारा एकत्र किया जाए और फिर उपचारित और दोबारा उपयोग किया जाए। लेकिन इसके लिए जल अभियंताओं को धरातल पर उतरना होगा, दोबारा काम करना होगा, पुनर्विचार करना होगा। अन्यथा यह आज बेंगलुरु की कहानी है और कल आपके शहर की कहानी होगी। (डाउन टू अर्थ)
कुमार सिद्धार्थ
साल 2024 में ‘मतदाता’ फिर केंद्र में आ गया है। देश में लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गई है। राजनीतिक दल अपने वादे, दावे और नये संकल्पों को बुनने में लगे है। राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र भी सामने आने लगे है। लेकिन आजादी के 76 साल बीत जाने के बाद भी चुनावी समर में कोई नयापन दिखाई नहीं दे रहा है। भारतीय सामाजिक व राजनीतिक परिदृश्य में ‘पर्यावरण’ मुद्दा नहीं होता है, क्योंकि राजनीतिक तंत्र को इसमें ‘वोट बैंक’ नजर नहीं आता है।
इस चुनाव में राजनीतिक दलों के तो वहीं मुद्दे होंगे, जिनसे उन्हें ‘वोट’ मिल सकें। जल, जंगल, जमीन, प्रदूषण जैसी समस्याओं से कोई सरोकार ही नहीं दिखता है। चुनावी वर्ष में यह सवाल फिर उभरने लगा है कि क्या चुनावी विमर्श और बहस में प्रकृति और पर्यावरण के मुद्दों को कोई स्थान मिल पाएंगा? क्या पर्यावरण के मुद्दे 2024 के चुनाव अभियान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होंगे? क्या पार्टियां जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए नई नीतियों को पेश करेंगी? अब तक के अनुभव बताते है कि वर्तमान परिस्थिति में बाजारवाद इतना हावी हो गया है कि पर्यावरण से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दे ‘गौण’ से हो गए हैं।
कई बड़े-छोटे राजनीतिक दलों ने पिछले चुनावों में अपने घोषणापत्रों में ‘जलवायु परिवर्तन’ को मुद्दा बनाया थी, इसमें टिकाऊ कृषि, पर्यावरण-पर्यटन और नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया गया था।
हम सब की चिंताओं में है कि दुनिया में जलवायु परिवर्तन का संकट लगातार गहराता जा रहा है और लोगों के जन-जीवन एवं आजीविका पर इसका बहुत ही मारक प्रभाव पड़ रहा है। आंकड़े देखें तो पता चलता हैं कि देश के 9 शहर प्रदूषण के मामले में दुनिया के शीर्ष 10 शहरों में शामिल हैं। वहीं विश्व के शीर्ष 50 प्रदूषित शहरों में से 43 शहर तो भारत के ही हैं। प्रदूषण की स्थिति को लेकर हम दुनिया में 9वें नंबर पर हैं।
देश में बढ़ती आबादी के साथ तेजी से जल संकट बढ़ रहा है। कई बड़ी नदियां मौजूदा समय में अबतक के सबसे खराब हालात से गुजर रही हैं। देश भर के प्रमुख शहरों और नदियों में प्रदूषण की बड़ी चिंताएं बनी हुई हैं। पानी की कमी जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहा है।
दूसरी ओर विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि अकेले प्रदूषण से भारत में हर साल लगभग 15 लाख लोगों की मौतें होती हैं। अकेले दिल्ली के 50 फीसदी बच्चों के फेफड़े प्रदूषण के कारण प्रभावित हो रहे हैं जिससे न सिर्फ उनकी पढऩे-लिखने की क्षमता प्रभावित हो रही है, बल्कि वे खतरनाक बीमारियों के शिकार भी हो रहे हैं। ऐसे तमात आंकड़े डराते हैं। आखिर हम किस प्रकार के ‘विकास’ की दिशा में बढ़ रहे हैं?
यह भी सही है कि प्रकृति और पर्यावरण के प्रति उदासीनता के लिए राजनीतिक दलों के साथ आम जन भी बराबर के भागीदार प्रतीत होते है। सच यह है कि समाज भी आज प्रकृति और पर्यावरण के मुद्दों से परे हटकर अन्य मुद्दों को ज्यादा महत्वपूर्ण मानता है। इसीलिए राजनैतिक दलों के घोषणापत्रों में पर्यावरण के मुद्दों को तवज्जो नहीं दी जाती है। जब तक आम जनता प्रदूषण, जंगल, बांध, विस्थापन आदि के प्रति जागरूक नहीं होगी, तब तक पर्यावरण के मुद्दे चुनावी मुद्दे नहीं बन सकते।
इसी संदर्भ में लोकसभा चुनाव 2024 से पहले कई राज्यों की सैकड़ों पर्यावरण संस्थाओं ने घोषणा पत्र बनाकर मांग पत्र (डिमांड चार्टर) जारी किया है। ताकि, हिमालय के पारिस्थिकी (इकोलॉजी) को बचाया जा सके। इसके लिए पीपल फॉर हिमालय अभियान शुरू किया गया है, जिसके तहत आपदा मुक्त हिमालय की दिशा में मांग पत्र जारी किया गया है।
हाल ही में लद्दाख में सोनम वांगचुक के 21 दिन की भूख हड़ताल ने पूरे देशभर के पर्यावरणविदों और पर्यावरण से जुड़ी समाज सेवी संस्थाओं का ध्यान खींचा है। उत्तराखंड में भी लगातार लंबे समय से जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति और यूथ फॉर हिमालय इस तरह के अभियान चलाते आ रहे हैं तो वहीं, अब अलग-अलग हिमालय राज्यों में एक तरह की समस्याओं का सामना कर रहे सभी लोग एकजुट होकर अपनी आवाज मजबूत कर रहे हैं। यह सभी संस्थाएं ‘पीपल फॉर हिमालय अभियान’ के तहत अपनी मांगों को लोकसभा चुनाव से पहले सभी राजनीतिक दलों के सामने रख रहे हैं।
यह सही है कि अब पर्यावरण के प्रति सजग होना समय की मांग है। जनता के बीच से गिने-चुने लोग ही पर्यावरण की बात उठाते हैं। सत्ता की धुंध ने आमजनों के मस्तिष्क को इतना प्रदूषित कर दिया है कि लोगों को अब वास्तविक बिगड़ते पर्यावरण के पहलु नजर ही नहीं आ रहे है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जल, जंगल, जमीन ही जीवन का आधार हैं। कहीं-कहीं चुनावों में राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्रों में पर्यावरण संरक्षण को शामिल तो करते हैं, लेकिन कोई चुनाव ऐसा नहीं रहा, जब पर्यावरण के मुद्दे पर वोट मांगे गए हों। असल में पर्यावरण से जुड़े तीन सबसे अहम बिंदु हवा, मिट्टी व पानी प्रकृति की देन हैं। इनकी बिगड़ती सेहत को लेकर मु_ीभर लोग आवाज तो उठाते हैं, आंदोलन करते है, लेकिन जनता की आवाज आज भी चुनावी मुद्दे का रूप नहीं ले पाती है।
वर्तमान में हम सभी पर्यावरणीय संकट का सामना कर रहे हैं। कभी भी हमारी हवा और पानी इतने खराब नहीं हुए, जितने आज हैं। पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रहे विशेषज्ञों का कहना था कि प्रदूषण की वजह से लोगों की जिंदगी को भारी नुकसान पहुंच रहा है। लोग बीमार पड़ते हैं, इससे न सिर्फ उनका स्वास्थ्य खराब होता है, बल्कि उन्हें भारी आर्थिक नुकसान भी होता है। ऐसे में राजनीतिक दलों के साथ साथ सिविल सोसायटी की भी जिम्मेदारी बनती है कि ‘पर्यावरण’ को एक राजनीतिक मुद्दा बनाने के लिए जमीनी स्तर पर पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के साथ विकास के संतुलन के संदेश को लेकर जाये। लोगों को अब स्वच्छ सांसों के लिए प्रदूषण के खिलाफ जागरूक होना होगा।
देश में राजनीतिक नेतृत्व को न केवल अपने घोषणापत्रों और कार्यों में सामान्य उपायों को मजबूत करने की जरूरत है, बल्कि लोगों के सामने आ रही दुशवारियों को भी को कम करने के लिए जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन और लचीलेपन पर भी निर्माण लेने की जरूरत है। शुद्ध हवा, पानी व भोजन की जरूरत इस समय हर किसी की जरूरत है। सभी राजनीतिक पार्टियों को मुफ्त सुविधाएं देने के बजाय पर्यावरण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर गंभीर होना चाहिए।
आमजन को चाहिए कि राजनीतिक दलों की पहल का इंतजार न कर स्थानीय स्तर पर पर्यावरण से जुडे पहलुओं को चुनावी मुद्दा बनाया जाए, तभी सभी में पर्यावरण संरक्षण के प्रति नई ऊर्जा का संचार होगा।
डॉयचे वैले पर यूलियन रयाल की रिपोर्ट-
उत्तर कोरिया अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का अनुपालन कर रहा है या नहीं, इसकी निगरानी के लिए गठित संयुक्त राष्ट्र पैनल की एक नई रिपोर्ट का दावा है कि उत्तर कोरिया के ‘दुर्भावनापूर्ण’ साइबर हमले जारी हैं जिनकी वजह से 2023 तक छह सालों में हुकूमत को करीब 3 अरब डॉलर की शुद्ध बचत हुई है।
बताया जाता है कि ये रकम सामूहिक विनाश के हथियारों (वेपंस ऑफ मास डिस्ट्रक्शन) की 40 फीसदी कीमत को भरने में काम आए।
विश्लेषकों ने डीडब्ल्यू को बताया कि क्रिप्टो इंडस्ट्री इस बारे में ‘अत्यधिक चिंतित’ है कि उत्तर कोरियाई निजाम असरदार ढंग से क्रिप्टो करेंसी की चोरी कर रहा है और सजा के दायरे से भी बाहर है। इस सेक्टर में विकास की गति इतनी तेज है कि अंतरराष्ट्रीय कानून भी पीछे रह जाते हैं।
उनके मुताबिक इसी तरह उत्तर कोरिया से किए जा रहे साइबर हमलों की सबसे ज्यादा चपेट में आ रहे देशों - दक्षिण कोरिया, जापान और अमेरिका - के नेता गंभीर राजनीतिक चुनौतियों में फंसे हुए हैं जिनकी वजह से उनका समय और ऊर्जा उन्हीं कामों में खर्च हो रही है।
20 मार्च को संयुक्त राष्ट्र पैनल ने उत्तर कोरिया की साइबर गतिविधियों का ताजा आकलन जारी किया। वह 2017 से 203 के बीच क्रिप्टो करंसी से जुड़ी कंपनियों के खिलाफ 58 साइबर हमलों की जांच कर रहा है। पैनल को लगता है कि वे हमले उत्तर कोरिया की ओर से किए गए थे।
रिपोर्ट का कहना है कि उत्तर कोरिया की ओर से दुनिया भर के वित्तीय संस्थानों पर हमले जारी हैं। उसकी कोशिश है कि संयुक्त राष्ट्र प्रतिबंधों से बचते हुए एटमी हथियार और लंबी दूरी की मिसाइलें तैयार करने में खर्च हो रहा पैसा इस तरीके से निकाल सके।
हथियार कार्यक्रम के लिए फंडिंग
आधिकारिक नाम से उत्तर कोरिया का उल्लेख करते हुए और एक संयुक्त राष्ट्र के एक अनाम सदस्य देश के हवाले से मिली जानकारी के आधार पर रिपोर्ट के मुताबिक, ‘डेमोक्रेटिक पीपल्स रिपब्लिक ऑफ कोरिया (डीपीआरके) अपनी हैकिंग साइबर गतिविधियों की बदौलत अंदाजन 50 फीसदी विदेशी मुद्रा आय पैदा कर लेता है। ये पैसा उसके हथियार कार्यक्रम में लगा दिया जाता है।’
रिपोर्ट का कहना है कि ‘दूसरे सदस्य देश ने बताया कि डीपीआरके के सामूहिक विनाश के 40 फीसदी हथियारों की फंडिंग अवैध साइबर तरीकों से मिली है।’
न्यूजीलैंड के ऑकलैंड में क्रिप्टोकरंसी में रिसर्च करने वाली कंपनी न्यू कॉइन में एनालिस्ट आदित्य दास कहते हैं कि उद्योग, लजारस समूह की क्रिप्टो हैकिंग कोशिशों की ‘पहुंच और पेचीदगी’ को देखते हुए खासा स्तब्ध है। माना जाता है कि यही लजारस समूह उत्तर कोरिया की सरकारी हैकिंग टीम का चेहरा है।
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, ‘लजारस समूह का नाम वर्चुअल करंसी की जिन चोरियों में आया है, उनका आकार और मात्रा अविश्वसनीय है- रोनिन नेटवर्क के साढ़े 61 करोड़ डॉलर (56 करोड़ 80 लाख यूरो), हॉराइजन के 10 करोड़ डॉलर, और एटॉमिक वॉलेट के 10 करोड़ डॉलर। लगता है बड़ी मात्रा में क्रिप्टो से जुड़ी जो भी बड़ी कंपनी रही होगी, वह उनके रेडार पर थी।’
दास कहते हैं कि इन बड़ी चोरियों के अलावा, अपने व्यापक नेट और लगातार हमला करते रहने के तरीकों के जरिए लगता है, लजारस ने अपेक्षाकृत छोटे समूहों और व्यक्तियों को भी नहीं बख्शा।
दास का कहना है कि ब्लॉकचेन में एप्लीकेशंस और टोकंस की तैनाती सुरक्षा संसाधनों तक बेहतर पहुंच मुहैया कराती है। और हाल के वर्षों में विकेंद्रीकृत एप्लीकेशन ऑडिट और स्टैंडर्ड की क्वॉलिटी भी काफी सुधर गई है। हालांकि कॉन्ट्रैक्ट सुरक्षा विशेषज्ञता अभी भी सीमित है और इसलिए महंगी भी।
दास ने जोर देते हुए कहा, ‘साइबर हमले का दूसरा प्रमुख वेक्टर है मानवीय चूक और फिशिंग, इस पर भी ध्यान देना होगा।’
‘लजारस अपनी सोशल इंजीनियरिंग और फिशिंग अभियानों के लिए जाना जाता है और वे बड़े संगठनों के कर्मचारियों को टार्गेट करते हैं, उन्हें ई-मेल भेजते हैं और ट्रैपडोर अटैचमेंट के साथ लिंक्डइन मेसेज भी।’
क्रिप्टो कंपनी से चुराए साढ़े 61 करोड़ डॉलर
अप्रैल 2022 में हैकरों ने रोनिन नेटवर्क को इसी तरह चूना लगाया। ब्लॉकचेन गेम एक्सी इंफिनिटी से जुड़ी एक साइडचेन के जरिए। कंपनी का अनुमान है कि फर्जी निकासी से उसे करीब साढ़े 61 करोड़ डॉलर की चपत लगी। और कर्मचारियों की कामकाज की सुरक्षा की अहमियत पर जोर देने के बावजूद क्रिप्टोकरेंसी कंपनियों पर हैकरों का हमला सफल रहा।
इस सेक्टर की सुरक्षा क्रिप्टो करंसी की विकेंद्रीकृत, फ्रीव्हीलिंग और वैश्विक प्रकृति की वजह से भी बाधित होती है, यूजर्स को ये सही तो लगता है लेकिन सरकारों के लिए इसे नियमित करना मुश्किल भी हो जाता है।
दास कहते हैं, ‘अगर संभव हो तो एप्लीकेशंस पर कार्रवाई करने के बजाय वास्तविक अपराधियों पर मुकदमा चलना चाहिए। लेकिन हम जानते हैं कि उत्तर कोरिया अपने निशान छिपाने और हैकिंग से इंकार करने में कितना माहिर है। इसलिए फिलहाल अगर अभियोजन संभव नहीं तो रोकथाम ही सबसे सही विकल्प है।’
दास को आशंका है इसी तरह के कामयाब हमले और होते रहेंगे। उत्तर कोरिया हैकिंग टीमों के लिए और संसाधन झोंकता रहेगा क्योंकि फंड जुटाने का एक अहम स्रोत उसके लिए वही हैं।
दक्षिण कोरिया की डानकूक यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय कानून के प्रोफेसर पार्क जुंग-वॉन कहते हैं कि हैकिंग, वित्तीय कंपनियों को बरबाद करने का सिर्फ खतरा ही नहीं है, खतरे के अलावा उससे और भी बातें जुड़ी हैं।
उत्तर कोरिया की साइबर टीमें नियमित रूप से दक्षिण कोरिया की सरकारी एजेंसियों के रक्षा उपायों, बैकिंग सिस्टम, रक्षा कॉन्ट्रैक्टर और बुनियादी ढांचे का टेस्ट भी करती हैं। इनमें देश का एटमी ऊर्जा सेक्टर भी शामिल है।
वह कहते हैं, ‘हम लोग उत्तर की गैरकानूनी गतविधियों से बखूबी वाकिफ हैं लिहाजा सरकार और सेना हाल के वर्षों में इस ओर ज्यादा ध्यान देने लगी हैं और राष्ट्र की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए अतिरिक्त संसाधन झोंक रही हैं।’
इस सेक्टर को वैश्विक स्तर पर नियमित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कोशिशें जारी हैं। हालांकि ऐसा होने से पहले कुछ गंभीर अवरोधों से निपटना जरूरी होगा।
साइबर हमले से जुड़े कानून
पार्क कहते हैं, ‘हम लोग ऐसा कानून लाने की कोशिश कर रहे हैं जो साइबर चोरी, साइबर आतंकवाद और इसी तरह के अन्य उल्लंघनों से निपट सके। लेकिन इस मामले में विशिष्ट मानक हासिल कर पाना मुश्किल है क्योंकि इसमें शामिल सभी राज्यों की सहमति जरूरी है। फिलहाल, बहुत सारी कमियां (लूपहोल) हैं, उत्तर कोरिया जैसे कुख्यात खिलाड़ी उनका फायदा उठा लेते हैं।’
कैसे होती है परमाणु हथियारों की निगरानी
वह कहते हैं कि देश के लिए खतरा बने साइबर हमलों से निपटने के लिए जरूरी कानूनों को लेकर दक्षिण कोरिया के साथ समझौता हो पाना कठिन है क्योंकि सत्तारूढ़ और विपक्षी पार्टियों की, चुनाव से करीब एक महीने पहले किसी भी मुद्दे पर सहमत दिखने में दिलचस्पी नहीं।
पार्क कहते हैं, ‘हम जानते हैं कि उत्तर कोरिया ने विशेष हैकिंग टीमें बनाई हैं और उन्हें प्रशिक्षित किया है। वे काफी परिष्कृत हैं और उन्हें एक ही काम सौंपा गया है- हम पर हमले का। हमें इन चुनौतियों का तत्काल जवाब देना होगा।’ (dw.com)
दिनेश श्रीनेत
समाज में रहते हुए हमें दूसरों से मदद की जरूरत भी पड़ती है। हम इतने सक्षम नहीं होते कि अकेले ही हर तरह की स्थिति से निपट लें। बहुत से मामले ऐसे होते हैं जिसमें बतौर नागरिक हमारी सीमाएं होती हैं। इसलिए किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में संस्थाओं की जरूरत पड़ती है। ये संस्थाएं हमारे उन अधिकारों की रक्षा करती हैं, जिन पर कभी न कभी संकट आ ही जाता है।
बतौर नागरिक हमारे कुछ अधिकार होते हैं, बतौर मनुष्य हमारे कुछ अधिकार होते हैं, एक खास समुदाय का हिस्सा होने की वजह से जो हमारी सामाजिक स्थिति बनती है, उसकी वजह से भी हमारे कुछ विशेषाधिकार सुरक्षित करने पड़ते हैं। इसलिए यह जरूरी होता है कि हम सब मिलकर लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत बनाएं।
जब हम किसी और के अधिकार का हनन करते हैं तो अप्रत्यक्ष रूप से हम इस एक्शन को को वैधता प्रदान कर रहे होते हैं। यानी अगर आपने खुद को यह छूट दे कि किसी की गलती की सजा आप बिना पुलिस कोर्ट का सहारा लिए सडक़ पर निपटाएंगे तो इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि हमारे साथ भी कभी भी ऐसा हो सकता है।
असल बात, जिस पर चिंता करनी चाहिए, यह है कि हम धीरे-धीरे अपनी लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर बनाते जा रहे हैं। यदि समाज में किसी के साथ अन्याय हो रहा है तो उसकी सुनवाई कहां पर है?
लेखक, कलाकार और बुद्धिजीवी लिट-फेस्ट में तालियां बटोर रहे हैं। सोशल मीडिया पर दांत निपोर रहे हैं। इन दिनों लेखकों के पास अपनी किताबों के प्रचार का जिम्मा है। वे रात-दिन उसी काम में लगे हुए हैं। कलाकार पैसे के लिए अमीर कारोबारियों के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रहे हैं। बुद्धिजीवी सुरक्षित तरीके से वक्तव्य दे रहे हैं।
मुख्यधारा की मीडिया और पत्रकारों की हालत ऐसी हो गई है कि वे कुछ भी लिख दें, कह दें - सिस्टम पर कोई असर नहीं होता है। इसके समानांतर खड़ा वैकल्पिक मीडिया विपक्ष की भूमिका तो निभा रहा है मगर उसका प्लेग्राउंड राजनीति है। उन्हें भी शोषण, विकास या किसी के साथ नाइंसाफी की खबरों से कोई लेना-देना नहीं है। उनकी भाषा भी असहनीय रूप से काव्यात्मक हो गई है। क्योंकि वे जमीनी मुद्दों से कट गए हैं।
वे इसी में खुश हैं कि वे सत्ता पक्ष की सातों दिन चौबीस घंटे आलोचना का स्पेस बचाए हुए हैं। इतनी काव्यात्मक आलोचना से सत्ता को भी कोई खास फर्क़ नहीं पड़ता और वह व्यवस्था से नाराज लोगों के लिए स्वांत: सुखाय जैसा बनकर रह गया है। मीडिया ही सत्ता पक्ष की भूमिका में हैं और मीडिया ही विपक्ष बनकर खुश है। न तो सत्ता की जनता से जवाबदेही है और न ही विपक्ष की। सभी अपने सुरक्षित खोलों में हैं।
एक्टिविस्ट पर शिकंजा है लिहाजा वे भी शांत होकर बैठ गए हैं। अगर आप किसी आम इंसान को न्याय दिलाने की कोशिश में लगे हैं, या बतौर एक बेहद साधारण नागरिक के रूप में अपने लिए न्याय चाहते हैं, तो बहुत हद तक आपको निराश होना पड़ेगा। आप पाएंगे कि कहीं कोई सुनवाई नहीं है।
जो मध्यवर्ग बदलाव का नेतृत्व करता था अब उसकी दिलचस्पी एक न्यायोचित व्यवस्था में नहीं है। वे चुटकुले देख रहे हैं, हँस रहे हैं, राजनीतिक झगड़े और वाद-विवाद सुन रहे हैं, भजन गा रहे हैं, ओबेसिटी का शिकार हो रहे हैं, ताली पीटकर हँस रहे हैं। और उन्हें लगता है कि वे सुरक्षित हैं और उनके पास ताकत है।
इस स्वार्थी मिडिल क्लास ने हर उस संस्था को कमजोर किया है या माखौल उड़ाया है जो किसी भी रूप में आखिरी आदमी के सपोर्ट में खड़ा था।
फैसल मोहम्मद अली
‘जब जब मोदी डर जाता है, ईडी को आगे लाता है।’
केंद्रीय एजेंसी ईडी के ख़िलाफ़ नारे भी लगे और आधा दर्जन से अधिक नेताओं के भाषणों में उसके कथित दुरुपयोग का जि़क्र भी बार-बार आया।
लेकिन रविवार को दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई लोकतंत्र बचाओ रैली में तृणमूल कांग्रेस नेता डेरेक ओ ब्रायन के बयान का जि़क्र ख़ासतौर पर ज़रूरी है।
अपने संक्षिप्त भाषण में तृणमूल कांग्रेस ने दावा किया कि ‘टीएमसी इंडिया गठबंधन का हिस्सा था, है और रहेगा।’
डेरक ओ ब्रायन के बयान को क्या अरविंद केजरीवाल की गिरफ़्तारी के बाद तृणमूल कांग्रेस के स्टैंड में बदलाव के तौर पर देखा जाना चाहिए या ये महज़ एक बयान है, अभी इसका सिफऱ् अंदाज़ा ही लगाया जा सकता है।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी ने पश्चिम बंगाल की कुल 42 लोकसभा सीटों पर अकेले ही चुनाव लडऩे का फै़सला किया है जबकि वो शुरु से ही इंडिया गठबंधन का हिस्सा रही है।
मल्लिकार्जुन खडग़े की सीख
मगर इस बयान को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े के भाषण से जोडऩे पर कई नई मायने सामने आते हैं।
कांग्रेस के इस वयोवृद्ध नेता ने अपनी स्पीच के लगभग अंत में कहा, ‘पहले एक होने की सीखो, एक दूसरे को तोडऩा मत सीखो।’
हालांकि अस्सी साल से अधिक उम्र के कांग्रेस नेता ने साथ में ये भी कहा कि गठबंधन में विविधता है मगर बड़े उद्देश्यों को लेकर विपक्षी दल साथ हैं। वामपंथी दलों के नेता डी राजा और सीताराम येचुरी की तरफ़ इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि केरल में हम लड़ते हैं पर बड़े उद्देश्यों के लिए साथ आते हैं।
यही बात उन्होंने पंजाब और आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के रिश्तों को लेकर भी कही।
तमाम कोशिशों के बावजूद पंजाब में दोनों दलों के बीच लोकसभा चुनावों को लेकर किसी तरह का समझौता नहीं हो सका।
रामलीला मैदान में भी रविवार को आप पार्टी और कांग्रेस कार्यकर्ता अलग-अलग समूहों में खड़े दिखे। आप कार्यकर्ताओं की पीली टी-शर्ट और टोपियां मैदान में ख़ूब दिखीं और उसके कार्यकर्ता और समर्थक पानी बांटने से लेकर लोगों को रास्ता दिखाते नजऱ आए।
हालांकि इन कार्यकर्ताओं में भी उनकी तादाद अधिक थी जो पंजाब से आए थे। काफ़ी तो बरनाला जि़ले के अलग-अलग गांवों से थे। छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु से आए इक्का-दुक्का कार्यकर्ताओं से हमारी मुलाक़ात हुई।
गिरफ़्तारी से नहीं बन सका विपक्ष पर दबाव
अगर नरेंद्र मोदी सरकार को ये लगा था कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की कथित शराब घोटाले में गिरफ्?तारी विपक्ष पर दबाव बना पाएगी तो वो असर रविवार को रामलीला मैदान में हुई रैली में नहीं दिखा।
‘लोकतंत्र बचाओ रैली' के नाम से हुई इस रैली में न सिफऱ् तमिलनाडु से लेकर कश्मीर और महाराष्ट्र तक के राजनीतिक दल झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमेंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल की गिरफ़्तारी के विरोध में एकजुट दिखे बल्कि कार्यक्रम शुरु होने तक रामलीला मैदान खचाखच भर गया था।
दिल्ली में विपक्षी एकजटुता का ये कार्यक्रम ठीक उसी दिन हुआ जिस दिन प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश के मेरठ से बीजेपी का चुनावी शंखनाद किया।
मल्लिकार्जुन खडऩे ने अपनी स्पीच में बीजेपी और आरएसएस को ज़हर के समान बताया और लोगों से उन्होंने कहा कि इसे चाटकर टेस्ट करने की कोशिश भी न करें क्योंकि वो भी जानलेवा हो सकता है।
राहुल गांधी के बाद वो उन चंद बड़े कांग्रेसी नेताओं में होंगे जिसने सीधे तौर पर आरएसएस का नाम इस रूप में लिया है।
फ़ारूक़ अब्दुल्लाह का चुनावी बॉन्ड की तरफ़ इशारा
जम्मू-कश्मीर के पू्र्व मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्ला और राहुल गांधी ने अपने-अपने ढंग से कहा कि संविधान पर ख़तरा मंडरा रहा है।
राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि चुनाव आयोग और दूसरी संस्थाओं से मिलकर मोदी सरकार इस पूरे चुनाव को फिक्स मैच की तरह करवाने की कोशिश कर रही है। उन्होंने कहा कि उनका मक़सद ये है कि वो संविधान को पूरी तरह से बदलना चाहते हैं।
हालांकि उन्होंने साफ़ किया कि उनकी ऐसी कोशिश कामयाब नहीं होगी क्योंकि इससे देश के टूटने का ख़तरा पैदा हो जाएगा।
वहीं फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने अपनी स्पीच में उस बात का जि़क्र किया जिसमें छह सौ से अधिक वकीलों ने मुख्य न्यायधीश को ख़त लिखकर न्यायपालिका पर धब्बा लगाये जाने के आरोप लगाये हैं।
ये चि_ी इन वकीलों ने देश की सबसे ऊंची अदालत के उस फ़ैसले के बाद भेजी है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड को ग़ैरक़ानूनी बताया था और बॉन्ड जारी करनेवाली कंपनी स्टेट बैंक को हुक्म दिया था कि वो बॉन्ड और उससे संबंधित सारी जानकारियां सार्वजनिक करे।
इसके बाद इस तरह की रिपोर्टें आईं हैं काफी कंपनियों ने छापों और गिरफ्तारियों के बाद बीजेपी को चंदा दिया है। विपक्ष का आरोप है कि ऐसा दबाव बनाने की वजह से हुआ है।
केजरीवाल की तरफ़ से सुनीता केजरीवाल के वादे
समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल की गिरफ़्तारी पर जर्मनी, अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र की प्रतिक्रिया की बात करते हुए कहा कि इससे दुनिया में भारत की बेइज्ज़ती हुई है।
महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और कभी बीजेपी के सहयोगी दल रहे शिव सेना के प्रमुख उद्धव ठाकरे ने मिली-जुली सरकार की बात कही।
हालांकि सुनीता केजरीवाल के भाषण की बात आखऱिी समय में सामने आई मगर उसमें उन्होंने अरविंद केजरीवाल के एक खत के ज़रिये गरीबों को मुफ्त बिजली से लेकर आप की सरकार बनने पर दिल्ली को पू्र्ण राज्य का दर्जा दिलाने जैसा वायदा किया था।
सुनीता केजरीवाल ने अरविंद केजरीवाल की तरफ़ से ये भी कहा कि उन्हें उम्मीद है कि दूसरे सहयोगी दल उनसे बिना विचार-विमर्श के किए गए इन वादों को लेकर बुरा नहीं मानेंगे।
सुनीता केजरीवाल का ये भी कहना था कि अरविंद केजरीवाल ने इन वादों पर आनेवाले ख़र्च का पैसा कहां से आएगा इसको लेकर पूरी रुपरेखा तैयार कर ली है।
रविवार को रामलीला मैदान में अपनी बातचीत में सुनीता केजरीवाल में पहले से अधिक आत्मविश्वास दिखा – पिछले हफ्तेभर में जनता से सीधे तौर पर उनका ये तीसरा संवाद है।
सपा के कार्यकर्ता नहीं, कांग्रेसी भीड़ तक सीमित
इसी रामलीला मैदान में 2010-2011 में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ अरविंद केजरीवाल और सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हज़ारे और अन्य लोगों ने धरना-प्रदर्शन और अनशन किया था जिसके निशाने पर उस वक्त की कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार थी।
कांग्रेस कार्यकर्ताओं से इस बाबत पूछने पर वो कहते रहे कि पूरे मामले में जिस तरह से चुनाव के बिल्कुल पहले कार्रवाई की जा रही है उन्हें उसको लेकर शिकायत है।
कांग्रेस कार्यकर्ताओं का ज़ोर भीड़ तक ही सीमित था, पानी पिलाने तक का काम आप पार्टी के कार्यकर्ता कर रहे थे। दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश से आने के बावजूद सपा का कोई भी वोलंटियर वहां नहीं दिखा।
और तमाम दावों के बावजूद विपक्षी एकजुटता और उसके चेहरे को लेकर अभी तक स्थिति साफ़ नहीं दिखती। चुनावी महीने की शुरुआत हो चुकी है और यही विपक्षी गठबंधन के सामने बड़ी चुनौती है। (bbc.com/hindi)
अपूर्व गर्ग
सोनम वांगचुक 21 दिनों तक लद्दाख और पर्यावरण के सवाल पर आमरण अनशन पर बैठे ।उनका संघर्ष अब भी जारी है । सोनम वांगचुक के बाद लेह में 70 महिलाएं अनशन पर बैठीं हैं ।
्रस्नस्क्क्र के विरोध में 16 साल तक भूख हड़ताल करने वाली आयरन लेडी इरोम शर्मिला का संघर्ष भी इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज है ।
इरोम की लड़ाई याद करते हुए जब मैं सोनम वांगचुक पर सोचता हूँ कि वो भी यदि चुनाव लड़ें तो क्या होगा?
क्या इरोम की तरह 90 वोट मिलेंगे?
नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर की तरह मुंबई चुनाव में मिली बुरी हार जैसा हश्र होगा ?
वैसे स्वामी अग्निवेश ने भी 2004 में प्रधानमंत्री वाजपेयी के खिलाफ चुनाव लडऩे का ऐलान किया था और बाद में सेक्युलर वोट न बँटे इसलिए नाम वापिस ले लिया था।
हमारे देश में अब तक एक्टिविस्ट जिन्होंने अपने आंदोलन से दुनिया में जगह बनाई, पर राजनीति में पिटते रहे और चुनावी मुकाबले में बिल्कुल टिक न पाए!
सबसे बुरा झटका इरोम शर्मिला को लगा, जिन्होंने मुख्यमंत्री बनने का सपना देखकर मणिपुर की सेवा करनी चाही थी पर जनता ने उनकी जमानत ही जब्त करवा दी थी।
आखिर क्यों सामाजिक कार्यकर्ता चुनावी लड़ाई में पिट जाते हैं?
सामाजिक कार्यकर्ता ही नहीं लाखों की रैली निकलने वाले ट्रेड यूनियन नेता भी कुछ सौ वोट्स में सिमटते रहे।
शराब बंदी के आंदोलन में जो समर्थन देगा वो उस आंदोलन के नेता को चुनाव में वोट नहीं देगा।
ट्रेड यूनियन आंदोलन में आर्थिक हितों की सुरक्षा जो चाहेंगे वो अपने ट्रेड यूनियन नेता को या उनकी पार्टी को चुनाव में कितना समर्थन दे रहे ये तस्वीर देश के सामने है, कहने की जरूरत नहीं। आर्थिक सुरक्षा चाहिए पर वोट डालते समय उन्हें अपनी जात, क्षेत्र, धर्म सब दिखता है पर मुद्दा गायब हो जाता है।
उन्नाव कि पीडि़ता के साथ उन्नाव खड़ा रहा पर जब उसकी माँ ने चुनाव लड़ा तो वो ज़मानत तक नहीं बचा पाई।
जब तक आप सामाजिक मुद्दों को लेकर लड़ते हैं मीडिया आप को कवरेज देता है पर जैसे ही चुनाव लडऩे की सोचकर इस व्यवस्था को बदलने का चुनाव करते हैं, एक-एक लाइन के कवरेज से वंचित हो जाते हैं ।
अपनी चुनावी बात, मुद्दों को रखने के लिए कौन सा प्लेटफार्म बचता है ?
एक्टिविस्ट के पास न वैसी चुनावी कार्यकर्ताओं की प्रोफेशनल टीम होती है न फण्ड और न प्रचार-प्रसार के साधन और न ही ऐसा विस्तृत नेटवर्क जिससे जनता के दिमाग के दरवाजे खोल सकें ।
दरअसल, जनता के दिमाग में सदियों से चुनाव को लेकर जो सोच बनी है जो विचार हैं और जो परंपरा है वो पूरी तरह से सदियों से
स्थापित नैरटिव के आधार पर चलती है। सीधे शब्दों में जनता के दिमाग पर पूंजीवादी सामंती मूल्यों के जाले छाए हुए हैं । इन धारणाओं को दूर करने के लिए और अपनी बात जन-जन तक पहुँचाने के लिए मजबूत संगठन चाहिए। चुनावी बात रखनी है तो चुनावी संगठन होना चाहिए जो अपनी पार्टी की बात जनता तक पहुंचा सके।
सिर्फ पर्यावरण आंदोलन या सामाजिक आंदोलन या ट्रेड यूनियन आंदोलन कर इस व्यवस्था में चुनाव जीतना तो दूर जमानत तक नहीं बचती यही इतिहास है।
एक्टिविस्ट हैं चुनाव लडऩा है तो अपने विचारों के अनुरूप पोलिटिकल पार्टी में शामिल होकर लड़ें तो बेहतर है या मजबूत संगठन है तो जनता के हर तबके को शामिल कर अपनी मजबूत पार्टी बनाने चाहि।
किसी एक आंदोलन में हीरो बनकर या तपकर निकलने के बाद चुनाव जीता जा सकता तो इरोम शर्मिला गुमनाम न होतीं।
ये बात इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि खबर है अंकिता भंडारी को न्याय दिलवाने की लड़ाई लडऩे वाले शायद पहली बार निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर लडऩे वाले हैं।
अंकिता को न्याय मिले ये सब दिल से चाहते हैं। सवाल है जो जनता अंकिता के मुद्दे पर पूरा समर्थन दे रही वो
वोट कितना देगी?
उन्नाव पीडि़ता की माँ का ताजा उदाहरण सामने है।
दो बातें हो सकती हैं या तो पूरी मजबूती के साथ व्यापक संगठन बनाते हुए पूरे संसाधनों का इस्तेमाल कर चुनाव लड़ें या स्वामी अग्निवेश की तरह वैचारिक आधार पर किसी को समर्थन दें।
आगे जो भी हो। हर ऐसा एक्टिविस्ट सफल रहे हमारी तो ऐसी शुभकामनाएं रहेंगी ही।
लता विष्णु
कुछ दवा कंपनियां हमेशा गलत वजहों से सुर्खियों में बनी रहती हैं। ऐसी ही एक कंपनी है फाइजर। यह खुद को दुनिया की प्रमुख बायोफार्मास्युटिकल कंपनियों की तरह से पेश करती है, जो जिम्मेदार तरीके से लोगों और इस प्लेनेट के स्वास्थ्य और कल्याण को प्राथमिकता देने की बात करती है। अगर वास्तव में यह सच है तो इस बात की भी संभावना नहीं है कि कंपनी को मरीजों और सरकारों की ओर से बहुत सारे मुकदमों का सामना करना पड़ेगा।
हाल के दिनों में अमेरिका के टेक्सास राज्य ने फाइजर के खिलाफ अपने कोविड-19 वैक्सीन की प्रभाव को जानबूझकर गलत तरीके से पेश करने का आरोप लगाते हुए मुकदमा दायर किया गया है। अटॉर्नी जनरल केन पैक्सटन ने कहा, ‘फाइजर का यह दावा कि उसका टीका 95 प्रतिशत प्रभावी है, पूरी तरह से भ्रामक है।’ क्योंकि इसने केवल दो महीने के क्लिनिकल टेस्ट डेटा के आधार पर सापेक्षिक जोखिम में कमी बताई। जबकि टीका (टीके का नाम कॉमिरनाटी है) हासिल करने वालों में पूर्ण जोखिम में कमी सिर्फ 0.85 प्रतिशत थी।
अमेरिका की इस बहुराष्ट्रीय कंपनी के खिलाफ सबसे गंभीर आरोप यह है कि उसने उन लोगों को सेंसर करने की धमकी दी, जो वैक्सीन के प्रभावी होने के सच से पर्दा उठाना चाहते थे। फाइजर को लगता था किसी तरह के अभियान से प्रोडक्ट को तेजी से अपनाने और इसके वाणिज्यिक विस्तार पर असर पड़ेगा।
रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक, मुकदमे में उपभोक्ताओं को भ्रामक विज्ञापन से बचाने वाले टेक्सास कानून का उल्लंघन करने के लिए 10 मिलियन डॉलर से अधिक के जुर्माने की मांग की गई है। इसके अलावा फाइजर पर कथित झूठे दावे और उसके टीके के बारे में सही बात बताने पर चुप्पी साधने का भी आरोप है। फाइजर ने 2021-22 में कॉमिरनाटी से 74 अरब डॉलर से अधिक का रेवेन्यू हासिल किया।
ऐसा प्रतीत होता है कि अपने खिलाफ गलत धारणा को झूठा साबित करने में फाइजर लगातार विफल हो रही है। अमेरिकी न्याय विभाग के मुताबिक, धोखाधड़ी या गुमराह करने के इरादे से दर्द निवारक बेक्सट्रा की गलत ब्रांडिंग करने के मामले में भी फाइजर को नुकसान हुआ। आपराधिक आरोपों के आंशिक निपटान में किए गए सबसे बड़े भुगतान में से एक 2.3 बिलियन डॉलर था।
2009 में फाइजर ने झूठे दावे अधिनियम के तहत लोगों को भरमाने या गलत कार्यों के आरोपों को हल करने के लिए एक बिलियन डॉलर का भुगतान किया। फाइजर पर यह भी आरोप लगा कि वह अवैध रूप से बेक्सट्रा और तीन अन्य दवाओं, एंटीसाइकोटिक जियोडॉन, एंटीबायोटिक जायवॉक्स और मिर्गी-रोधी दवा लिरिका का प्रचार कर रहा है। हालांकि कंपनी ने इनमें से किसी भी समझौते में गलत काम करने को स्वीकार नहीं किया है।
ऐसा नहीं है कि दवा बनाने की अन्य दिग्गज कंपनियां निर्दोष हैं। लगभग सभी बिग फार्मा पर कदाचार का आरोप और जुर्माना लगाया गया है। लेकिन फाइजर अपने खिलाफ लगाए गए कई आपराधिक आरोपों और बड़े पैमाने पर निपटान के लिए खड़ा है। यह वह बहुराष्ट्रीय कंपनी है जिसने आक्रामक अभियान के माध्यम से बौद्धिक संपदा अधिकारों (आईपीआरएस) को वैश्विक व्यापार व्यवस्था में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 20वीं सदी की शुरुआत तक अधिकांश यूरोपीय देश आईपीआरएस के पक्ष में नहीं थे और अपने आइडियाज की अवधारणा केवल अमेरिका और ब्रिटेन के पक्ष में रही थी।
यह बात और है कि अमेरिकी अपने पूर्व उपनिवेशक ब्रिटेन से ज्ञान और जानकारियों को चुराकर ही औद्योगिक रूप से फले-फूले। फोर्डहम विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर डोरोन बेन-अटार ने अपनी बुक ट्रेड सीक्रेट्स: इंटेलेक्चुअल पाइरेसी एंड द ओरिजिन्स ऑफ अमेरिकन इंडस्ट्रियल पावर में इस बात पर दिलचस्प जानकारी भी दी है। वह बताते हैं कि अमेरिका का पेटेंट कार्यालय उन उपकरणों के लिए उदारतापूर्वक पेटेंट दे रहा था, जो कहीं और इस्तेमाल में लाए जा रहे थे।
कुछ साल पहले इस स्तंभकार के साथ एक इंटरव्यू में बेन-अटार ने कहा था कि जब अमेरिका अपने नागरिकों, स्वैच्छिक संगठनों और सरकारी अधिकारियों को यूरोपीय आविष्कारों और कारीगरों को नई दुनिया में तस्करी के लिए प्रोत्साहित कर रहा था, तो वह उसी समय युवा गणतंत्र को भी रोक रहा था। कानून बनाकर नवाचार का एक अनुकरणीय रक्षक दूसरे मानकों से आगे निकल गया। यह बात अलग है कि यूरोप के ज्यादातर देश प्रभावित नहीं हुए।
उदाहरण के लिए, नीदरलैंड 20वीं सदी के शुरुआती दशकों तक आविष्कारों में मुक्त व्यापार को कायम रखने के लिए प्रतिबद्ध था। लेकिन हमारा ध्यान संकीर्ण है। कैसे चिकित्सा क्षेत्र में पेटेंट अपनी जड़ों को मजबूत कर चुका है, जिसे सार्वजनिक हित माना जाता है, लेकिन इसने हमारी नैतिक नींव को कमजोर कर दिया है। यही नहीं कैसे जीवन रक्षक दवाओं के उत्पादन के कानूनी अधिकार को पेटेंट सिस्टम द्वारा सीमित कर दिया गया है। खोजी पत्रकार और लेखक अलेक्जेंडर जैचिक ने बिग फार्मा के पावर गेम पर विस्तार से लिखा है।
उनके मुताबिक फाइजर के सीईओ एडमंड टी प्रैट जूनियर ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नियमों में आईपीआरएस को शामिल करने पर खास काम किया था। उनका मानना था कि वैश्विक स्तर पर दक्षिण-आधारित जेनेरिक उद्योग के उदय और 1970 के दशक से संयुक्त राष्ट्र में विकासशील देशों के समूह जी 77 (77 का समूह) द्वारा बढ़ती सक्रियता चिंताजनक है।
विकसित देशों से गरीब देशों में चिकित्सा प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण के लिए दबाव बनाना एक महत्वपूर्ण बिंदु था। इसमें उन्हें कामयाबी भी मिली जब वो डेनिश डॉक्टर हाफडेन महलर को विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक के रूप में नियुक्ति कराने में कामयाब हुए। महलर ने जी 77 के पीछे अपना जोर लगा दिया। 1978 में सोवियत शहर अल्माटा के सम्मेलन में उन्होंने गरीब देशों को अपने घरेलू दवा उद्योगों का निर्माण करके दवा खर्च को कम करने में मदद करने के लिए एक कार्यक्रम भी पेश किया।
सम्मेलन के अंत में की गई घोषणा में कहा गया कि स्वास्थ्य का समानता और सामाजिक न्याय पर मानव अधिकार है। जैचिक का कहना है कि इस की घोषणा से फाइजर चिंतित हुआ, क्योंकि इस तरह की घोषणा का अर्थ यह था कि बहुराष्ट्रीय कंपनी विशेष रूप से एशिया में दवाओं और कृषि उत्पादों के लिए वैश्विक बाजारों पर हावी होने की महत्वाकांक्षी योजनाओं खतरे के तौर पर देखा।
उन्होंने खुलासा किया कि प्रैट ने जी 77के प्रभाव और जेनेरिक उद्योग के उदय का मुकाबला करने की योजना पर चर्चा करने के लिए दवा उद्योग के अधिकारियों के एक समूह को इक_ा किया। स्वाभाविक तौर पर फाइजर जवाबी हमले का स्वाभाविक नेता था क्योंकि इसके वकील दुनिया भर में आत्मघाती संबंधी उल्लंघन के मुकदमे शुरू करने के लिए मशहूर थे।
इसका सबसे कुख्यात पेटेंट मुकदमा यूके सरकार के खिलाफ था जब राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा नेफाइजर-पेटेंट एंटीबायोटिक, टेट्रासाइक्लिन का एक इतालवी जेनेरिक संस्करण की खरीद की थी। इस बात पर ध्यान न दें कि फाइजर ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पेनिसिलिन के उत्पादन पर पूंजी लगाई थी जिसे ऑक्सफोर्ड में खोजा और विकसित किया गया था और सार्वजनिक डोमेन में छोड़ दिया गया था। हालांकि फाइजर मुकदमा हार गया। जैचिक के मुताबिक इसने पूरे यूरोप में आधुनिक ‘पोस्ट-एथिकल’ अमेरिकी दवा उद्योग के लिए गंभीर रूप सेकाम किया, जहां दवा पेटेंट अभी भी व्यापक रूप से प्रतिबंधित थे।
प्रैट ने विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (डब्ल्यूआईपीओ) जैसे अन्य मंचों पर आईपीआरएस पर एक बाध्यकारी समझौते के उद्योग के विचार को लगातार आगे बढ़ाया। यही बात जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ्स एंड ट्रेड पर उरुग्वे दौर की वार्ता में उठी जो बाद में, 1995 में विश्व व्यापार संगठन के रूप में सामने आया। गैट संयुक्त राष्ट्र की तरह लोकतांत्रिक नहीं था। इसके व्यापक समझौते जो सबसे अमीर देशों के पक्ष में थे वो सभी सदस्यों के लिए बाध्यकारी थे। यह डब्ल्यूटीओ था जहां आईपीआरएस की पकड़ को बनाए रखने के लिए बौद्धिक संपदा अधिकारों (यात्राओं) के व्यापार-संबंधित पहलुओं पर समझौते के रूप में औपचारिक रूप दिया गया था।
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जब 2019 में 100 वर्षों में सबसे खराब महामारी ने दुनिया को प्रभावित किया, उस वक्त विकसित देशों द्वारा समर्थित फाइजर और उसके सहयोगियों ने जीवन-रक्षक उपाय के रूप में भी यात्राओं की छूट देने से इनकार कर दिया था। (डाऊन टू अर्थ)
शुरैह नियाजी
मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिले के मोहाद गांव में रहने वाले मुस्लिम परिवारों के लोग बरसों बाद सुकून से रमजान मना रहे हैं।
इन्हीं में एक इमाम तड़वी भी हैं। चार बच्चों के पिता इमाम अपनी बच्ची को एक सुबह स्कूल छोडऩे जा रहे थे तभी पुलिस ने उन्हें रोक लिया था।
ये घटना जून, 2017 की है, जब इस गांव से हजारों किलोमीटर दूर लंदन में भारत और पाकिस्तान के बीच चैंपियंस ट्राफी का मैच खेला गया था और भारत वो मैच हार गया था।
लेकिन इस मैच से बेखबर 17 युवक और 2 नाबालिगों के लिए ये मैच उनकी जि़दगी में ऐसा पल बन गया जिसे वो याद करके सिहर उठते हैं।
30 वर्षीय इमाम ने बताया कि स्कूल के रास्ते में पुलिस ने उनके साथ बदतमीज़ी की और उनकी बच्ची को धक्का मार दिया गया जिसकी वजह से उसे नाक में चोट आई। वे कहते हैं कि उस दिन उनकी बेटी को लेकर कोई दूसरा व्यक्ति घर गया जबकि उन्हें पुलिस अपने साथ लेकर चली गई।
इमाम की आपबीती
इमाम कहते हैं, ‘मुझे क्रिकेट के बारे में कुछ भी नही मालूम है। लेकिन मैं उसकी वजह से जितना भुगता उसे में बयान नही कर सकता।’
उन्होंने बताया कि पुलिस घर वालों को कई दिन तक परेशान करती रही जिसकी वजह से वो लोग घर छोड़ कर भाग गए।
इमाम दावा करते हैं कि उनके परिजनों को गालियां दी जाती थी और बेइज्जत किया जाता था जिसकी वजह से परिवार ने कई दिन दूसरों के खेतों में सोकर गुजारे।
इमाम अब खेतों में काम करने जा रहे हैं और उन्हें रोज के ढाई सौ से लेकर तीन सौ रुपये तक मजदूरी मिलती है और केस से बरी होने के बाद उनका यह पहला रमज़ान है जब उन्हें अपने मुक़दमे के बारे में नही सोचना पड़ रहा है। उनका कहना है कि उन्हें आज भी नही पता है कि क्रिकेट में कौन-कौन से खिलाड़ी हैं लेकिन उसके बावजूद भी उन्हें उसके लिए परेशान होना पड़ा।
इमरान शाह की कहानी
इमाम तड़वी की तरह ही 32 वर्षीय इमरान शाह को भी पुलिस ने उस दिन गिरफ़्तार किया था। उस समय वो ट्रक में मक्का भर रहे थे। उन्हें पता ही नही था कि उन्हें किस वजह से गिरफ्तार किया जा रहा है।
इमरान ने बीबीसी को बताया, ‘उस समय को हम याद नही करना चाहते हैं। उस समय मेरे साथ पूरा परिवार इतना परेशान रहा कि बता नही सकते हैं। हमें तो गिरफ्तार कर लिया गया था लेकिन परिवार को भी भागना पड़ा था क्योंकि पुलिस कभी भी घर पर आ जाती थी और परिवार वालों से बदतमीजी करती था। घर वाले छुपकर जंगलों में सोते थे।’
इमरान के परिवार में उस समय उनकी मां, पिता, पत्नी और तीन बच्चें थे। इमरान ने इस मामले की वजह से डेढ़ लाख रुपये का उधार लिया है जिसका ब्याज ही वो किसी तरह से चुके पा रहे हैं।
उनका कहना है कि एक साल तक उन्हें हर हफ्ते थाने में जाना होता था जो उनके गांव से 12 किलोमीटर दूर था। इस दौरान वो मजदूरी भी नहीं कर पा रहे थे इसलिए परिवार चलाने के लिए उधारी लेनी पड़ी।
इमरान ने बताया, ‘जितना हमने उस दौरान भोगा उतना ही हमारे परिवार को भी भुगतना पड़ा। पुलिस वाले कभी भी घर पर आ जाते थे और परिवार वालों को गाली देते थे और बदतमीजी करते थे।’
क्या है मामला
मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिले के मोहाद गांव में रहने वाले 17 युवक और 2 नाबालिगों पर चैंपियंस ट्रॉफी के उस मैच के बाद ये आरोप लगा था कि वे पाकिस्तान की जीत का जश्न मना रहे थे।
उन पर पाकिस्तान की जीत को लेकर खुशियां मनाने, पटाखे फोडऩे और मिठाइयां बांटने का आरोप लगाया गया था।
लेकिन कोर्ट ने पिछले साल अक्टूबर में इन सब को सभी आरोपों से बरी कर दिया और पाया कि पुलिस ने इन पर फर्जी मामला दर्ज किया और गवाहों पर गलत बयान देने के लिये दबाव बनाया।
इस मामले में परेशान होकर एक अभियुक्त ने 2019 में आत्महत्या भी कर ली थी।
पहले इन लोगों पर राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया लेकिन बाद में उसे पुलिस ने बदलकर आईपीसी की धारा 153ए के तहत दर्ज किया जिसमें उन पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने जैसे आरोप लगाए गए।
गवाह का अपने बयान से पलटना
इस मामले में पुलिस ने जिन्हें गवाह बनाया था उनका भी कहना था कि इस तरह का कोई मामला हुआ ही नही है।
इस गांव में रहने वाले तड़वी मुसलमान हैं और ज्यादातर लोग मजदूरी करते हैं। आमतौर पर यह लोग खेतों पर काम करके अपना गुजर-बसर करते हैं।
इनका केस लड़ रहे वकील शोएब अहमद ने बीबीसी को बताया, ‘इस मामले में गवाह ही इस बात को नही मान रहे थे कि गांव में इस तरह की कोई चीज हुई है। गवाह अपनी बात पर अड़े रहे। इसके बाद कोर्ट ने फैसला हमारे हक में सुना दिया। ये लोग काफी गरीब हैं और मुश्किल से अपना गुजर बसर कर पाते हैं। खुशी मनाने के लिए न तो इनके पास पैसे हैं और न ही इन्हें क्रिकेट का कोई ज्ञान है।’
हालांकि कोर्ट ने इस मामले में पुलिस वालों के खिलाफ किसी किस्म की कारवाई का कोई आदेश नहीं दिया है जिनकी वजह से इन लोगों को बरसों परेशानी का सामना करना पड़ा।
शोएब अहमद ने बताया कि इन लोगों की पहली कोशिश यही थी कि वो किसी भी तरह से इस मामले से बरी हो जाएं। ये लोग इतने गरीब हैं कि पुलिस से वे लडऩा नहीं चाहते हैं।
इस मामलें में दो नाबालिगों को भी अभियुक्त बनाया गया था जिन्हें किशोर अदालत ने जून, 2022 में बरी कर दिया था।
हालांकि उसके बाद उन दोनों की जिंदगी कभी भी पटरी पर नही लौट पाई और दोनों ही कम उम्र में काम पर लग गए।
इस मामले में एक रुबाब नवाब ने फरवरी, 2019 में आत्महत्या करके अपना जीवन समाप्त कर लिया।
उनके परिवार के मुताबिक, उन पर लगे आरोप और रोज-रोज की बेइज्ज्जती की वजह से उन्होंने ऐसा किया।
नए सिरे से जिंदगी
बाकी बचे लोग भी अब अपनी जिंदगी को नये सिरे से आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं और मजदूरी कर रहे हैं। लेकिन बरसों के मिले जख्म अब भी उन्हें बैचेन करते रहते हैं।
इस मामले में एक मुख्य गवाह सुभाष कोली ने घटना के कुछ दिनों बाद ही मीडिया के सामने आकर कह दिया था कि इस तरह का कोई मामला नही हुआ है और पुलिस ने उन्हीं के मोबाइल फोन से डायल 100 नंबर पर कॉल करके ये मामला दर्ज किया था।
जबकि कोली उस समय अपने पड़ोसी अनीस मंसूरी को बचाने के लिए गए थे जिन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। कोली अब दुनिया में नही हैं। कुछ महीने पहले उनकी मौत कैंसर से हो गई।
इस पूरे मामले में पुलिस के अधिकारी अब बात नही करना चाहते हैं। इस मामले में भोपाल में अधिकारियों से संपर्क किया गया लेकिन उन्होंने जवाब नही दिया।(bbc.com/hindi)
कनुप्रिया
जब चारों ओर से निराशाजनक सुनने को मिलता हो तो कभी-कभी किसी से मिलना बहुत सुखद लगता है।
आज एक ऐसी ही लडक़ी से मुलाकात हुई जिससे मिलकर आश्चर्य भी हुआ और खुशी भी।
लडक़ी 23-24 साल की, माँ बचपन मे ही नही रहीं, 5 बहने हैं, 2 बहनों की शादी हो गई, दो दूसरे शहरों में जॉब कर रही हैं, और लडक़ी सबसे छोटी। (नाम नहीं लिख रही हूँ)। पिछले साल पिता की भी मृत्यु हो गई। पिता की एक छोटी खादी संस्था है, उनके जाने के बाद लडक़ी ने उसे संभाल लिया। वो एम ए इंग्लिश कर रही है, रात को समय मिलने पर govt jobs के लिये तैयारी करती है, दिन में संस्था का काम देखती है, संस्था का अकाउंट, ऑडिट, production ,sale, कर्मचारियों की तनख्वाह सभी कुछ। कहीं कुछ दिक्कत हो सरकारी दफ्तरों में तो उनके चक्कर भी लगाती है, दूसरे शहर जाकर भी। आदमियों से भरी मीटिंग्स अकेली female representative की तरह attend करती है। और ऐसा सब करते हुए बेहद सहज है, पता नहीं उसमें क्यों ये एहसास नजर ही नही आया कि वो कुछ खास है।
उससे मिली तो पाया न वो उदास थी न संघर्ष से चेहरा म्लान, न हतोत्साहित, न निराश। मेरे किसी सवाल पर उसने बेहद सहजता से कहा , ये तो मुझे करना ही होगा, इसके सिवा चारा क्या है। उसे पता है कि क्या करना है, कैसे करना है, ये अच्छी बात है। शायद परिवार का साथ है, बहनें बीच-बीच में आती जाती हैं, उसे संभालती हैं।
सोचती हूँ अकेली लडक़ी, क्या समाज उसे चैन से जीने देता होगा, अकेली कैसे रहती हो, शादी कब करोगी, कोई तो होना चाहिये न तुम्हें संभालने वाला ऐसे सवाल उसे सुनने को मिलते होंगे?
वो 5 बहने हैं, जाहिर है पेरेंट्स को लडक़ा चाहिए होगा, आज वो उसे देखते और उन सबको देखते तो क्या उन्हें लगता कि लड़कियाँ हुईं तो कुछ कमी रह गई? अगर समाजिक मानसिकता सुरक्षा लड़कियों के साथ हो तो वो भी वही सब सहजता से कर सकती हैं जो कोई लडक़ा कर सकता है, और फिर शायद आश्चर्य वाली कोई बात भी न रहे।
समाज की मानसिकता पर बात तो हमेशा होती ही है, मगर अब लड़कियों को भी यही कहना है, कोई आएगा लाएगा दिल का चैन, कोई प्रिंस चार्मिंग, कोई distress damsel को बचाने वाला, कोई आपके जीवन को संवारने वाला अगर ऐसी कोई खाम खयाली हो तो उससे बाहर निकलिए, दुनिया मे कोई आपकी जिम्मेदारी लेने के लिये पैदा नही हुआ है।
प्रेम और सहचर्य अलग बात है, वो सभी को चाहिये होता है, मगर अपनी जिंदगी की बागडोर अपने हाथ मे लेना जरूरी है, आपका जीवन आपका है और उसकी जिम्मेदारी आपकी है ये समझना जरूरी है। तब ये भी बेहतर समझ आएगा कि कभी किसी और के हाथ में देनी भी हो तो उसका पात्र कौन होना चाहिए और पात्र न मिले तो भी अपना जीवन है, किसी और के लिये पैदा नहीं हुए तो उसे किस तरह जीना चाहिए, ये जानना समझना जरूरी है।
आभा शुक्ला
एक वीडियो वायरल हो रहा है। एक बाईक सवार जा रहा है। पीछे बाईक पर दो हिजाब पहने खातून बैठी हैं। दोनों के बार-बार मना करने के बाद भी उनको रंग और पानी से नहलाया जा रहा है। एक लडक़ा डंडा लिए पास मे खड़ा है। सबसे पीछे बैठी खातून के गालो को छूकर गालों पर रंग लगाया गया है।
क्या कर लिया ये करके ?
एक समुदाय के कुछ लोगों की उद्दंडता पूरे देश ने देख ली। कुछ लोगों ने इसको पूरे समुदाय की उद्दंडता मानकर स्वीकार भी कर लिया। हमारे त्योहार पर उंगली उठ गई। पर इससे ऐसा करने वालो को क्या मिला।
कुछ नहीं मिला उनको पर जो मैसेज गया उससे नुकसान हम सबका हुआ। डंडे के दम पर अगर उनको रंगीन पानी से सराबोर कर भी दिया आपने तो भी देशहित, हिन्दूहित या धर्महित के क्या कर लिया आपने। कुछ नहीं कर लिया बस इन तीन लोगों के मन से अपने त्योहार का सम्मान समाप्त कर दिया।
वैसे इनसे पुछिये कि अगर तुम होली पर मुस्लिम महिलाओं को जबरदस्ती रंग लगाओ तो अगर वो ईद पर तुम्हारी महिलाओं से जबरदस्ती गले मिलें तो तुम्हे कोई आपत्ति तो नहीं होगी ना। पूछ कर देख लीजिये। दिवाली की चरखी जैसे उछल जायेंगे अभी।
हम ये क्यों भूल जाते हैं कि जन्मजात मिले दो हाथो को उठाकर हम किसी का दिल नहीं जीत सकते। पर उन्हीं दो हाथों को जोडक़र हम सैकड़ों का दिल जीत सकते हैं।
ये मु_ी भर लोग जो 2014 के बाद आजादी पाये हैं ये कभी किसी दुसरे धर्म वाले के यहां होली पर 250 ग्राम गुझिया लेकर नहीं जाते अपना त्योहार दिखाने। बस ये उद्दंडता करके अपनी संस्कृति और त्योहार पर हजारों सवाल उठवाने चल देते हैं।
इसी नस्ल ने पूरे देश का बंटाधार कर रखा है।
हम आप ये कर सकते हैं कि कम से कम इनकी ऐसी हरकत का विरोध कर सकते हैं। और अगर नहीं कर सकते हैं या वो हमारी नहीं सुनते हैं तो कम से कम हम डॉयल 112 बुलाकर इनका जोश ठंडा कर सकते हैं और वो हमको करना चाहिए अगर ये कहीं भी किसी महिला को जबरन छूते हुए दिखे तो।
समाजहित में इतना दायित्व आज जरूर निभाईयेगा।
-मयूरेश कोण्णूर
भारत के कई राज्यों में अनुसूचित जनजातियों के कुछ लोग धर्म के आधार पर आरक्षण के मुद्दे को लेकर एक दूसरे के सामने खड़े हो गए हैं।
आदिवासी या अनुसूचित जनजाति के लोग धार्मिक विश्वास के आधार पर तो बंटे हुए हैं ही लेकिन डीलिस्टिंग की मांग ने उनके बीच इस अविश्वास को और बढ़ा दिया है।
ये सवाल उठता है कि डीलिस्टिंग क्या है, यह कैसे आदिवासी समुदायों को प्रभावित कर रहा है और क्या इसका कोई राजनीतिक पहलू है, इन बातों को समझने के लिए हमने कुछ आदिवासी इलाकों का दौरा किया।
कुछ लोग मांग कर रहे हैं कि जिन आदिवासियों ने ईसाई या अन्य धर्म को स्वीकार कर लिया है उन्हें अनुसूचित जनजाति की सूची से बाहर किया जाए। इसे डीलिस्टिंग कहा जा रहा है। इस मांग से आदिवासी समुदाय में दरार पैदा हो रही है।
इस डीलिस्टिंग बहस के पीछे तो असल मुद्दा आरक्षण है लेकिन इसका एक धार्मिक पहलू भी है। यानी धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण। पिछले कुछ सालों में इस बहस के साथ धर्म परिवर्तन और घर वापसी जैसे मुद्दे भी जुड़ गए हैं।
धार्मिक पहचान
हमने झारखंड और छत्तीसगढ़ के उन इलाकों का दौरा किया जहां ये दरार साफ-साफ दिखती है। कोई भी ये महसूस कर सकता है कि आदिवासियों की सामूहिक पहचान पर हिंदू या ईसाई होने की धार्मिक पहचान हावी हो रही है जिससे उनके बीच धार्मिक ध्रुवीकरण हो रहा है और इसका असर राजनीति पर भी पड़ रहा है।
हमारी यात्रा झारखंड की राजधानी रांची से शुरू हुई। यहां भी कुछ सालों से डीलिस्टिंग के विरोध या पक्ष में कई आंदोलन हुए हैं। लेकिन जैसे-जैसे हम जंगल के अंदर बढ़ते हैं यह बहस और साफ दिखती है।
रांची से दो से तीन घंटे दूर, झारखंड और छत्तीसगढ़ की सीमा के पास गुमला तहसील में टोटो गांव की आबादी 100 है।
यहां घने जंगलों में पीढिय़ों से आदिवासी समुदाय रहते हैं और सदियों से अपनी परंपराओं और संस्कृति को संजोए हुए हैं।
यहां रहने वाले महेंद्र पुरव कहते हैं, ‘यह हमें बांटने की साजिश है। अगर ईसाई और सरना आदिवासी अलग कर दिए जाएं तो हम अल्पसंख्यक हो जाएंगे। वे हम पर सरना सनातन का लेबल लगाने की कोशिश करते हैं। मैं हिंदू नहीं हूं, मैं आदिवासी हूं। मैं प्रकृति पूजक हूं।’
डीलिस्टिंग की बहस?
इसी गांव के नारायण भगत कहते हैं, ‘जो लोग हमारे समुदाय से अलग हो गए वे हमारे रीति रिवाजों की इज़्जत नहीं करते। अगर वे हमारी संस्कृति की इज़्जत नहीं करते, हम उनका साथ कैसे दे सकते हैं?’
यहां हर कोई आदिवासी है लेकिन आजकल ‘स्थानीय’ और ‘बाहरी’ के बीच भेद किया जा रहा है। वे एक दूसरे के खिलाफ खड़े हैं और डीलिस्लिंग का मुद्दा उनके मतभेद को और बढ़ा रहा है।
आदिवासी इलाकों की रोजमर्रा की जिंदगी में डीलिस्टिंग का मुद्दा उनकी संस्कृति, सामाजिक पहचान और उनके आर्थिक-राजनैतिक अधिकारों से जुड़ा हुआ है।
संविधान के प्रावधानों के मुताबिक़ भारत में अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए अलग सूची है। अनुच्छेद 341 एससी और अनुच्छेद 342 एसटी से संबंधित है जो विभिन्न जनजातियों और जातियों को सूचीबद्ध करता है। हर समूह के लिए चयन का मापदंड बनाया गया है।
उनकी सांस्कृतिक विरासत, परंपराओं, जीवनशैली, रीति रिवाजों और प्रथाओं के आधार पर उन्हें विभिन्न राज्यों में वर्गीकृत और सूचीबद्ध किया गया है।
भारत का संविधान
आदिवासियों में धर्मांतरण और आरक्षण को लेकर कब खत्म होगी लड़ाई’, अवधि एसटी का आरक्षण कोटा 7.5 फ़ीसद है। पांचवीं अनुसूची के अनुसार, कुछ आदिवासी बहुल इलाकों को विशेष दर्जा (अनुसूचित क्षेत्र) दिया गया है और छठवीं अनुसूची के तहत पूर्वोत्तर के आदिवासी बहुल राज्यों को विशेष दर्जा और अधिकार दिया गया है।
इन राज्यों में एसटी समुदाय के लोगों के लिए राजनीतिक सीटें आरक्षित हैं।
हाल के सालों में उन आदिवासी समुदायों में ये मांग उठी है कि जिन लोगों ने ईसाई या इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया उन्हें एसटी की सूची से बाहर किया जाए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएस) से जुड़े वनवासी कल्याण आश्रम और नवजाति सुरक्षा मंच से डीलिस्टंग की जोरदार वकालत की जाती रही है।
सांस्कृतिक, धार्मिक, भाषाई और रीति रिवाजों के मद्देनजर आदिवासियों को कैसे शामिल किया जाए और उनका स्वतंत्र वजूद कैसे बनाए रखा जाए, यह अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा मुद्दा है। भारत के संविधान में इन समुदायों को स्वतंत्र अधिकार दिए गए हैं।
लेकिन देश के विभिन्न इलाक़ों में रहने वाले आदिवासी समुदाय के अंदर सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता ने अलग-अलग व्याख्याओं को जन्म दिया है। जंगल पर निर्भरता की वजह से अधिकांश आदिवासी प्रकृति पूजक के रूप में जाने जाते हैं।
विवाद का विषय
इसलिए वे आदि धर्म के अनुयायी कहे जाते हैं। इनमें कुछ ने सदियों तक अपने धर्म का पालन किया। भारत के पूर्वोत्तर से लेकर सुदूर दक्षिण तक हर आदिवासी समुदाय के अपने रीति रिवाज और पूजा पद्धतियां हैं। उदाहरण के लिए झारखंड में आदिवासी सरना धर्म की बात करते हैं।
कई आदिवासी समुदायों ने ख़ुद को हिंदू मानते हुए हिंदू परंपराओं को आत्मसात कर लिया। इसकी वजह से हिंदू राष्ट्रवादी संगठन उन्हें हिंदू मानते हैं।
छत्तीसगढ़ और झारखंड में ईसाई संगठन एक सदी से सक्रिय हैं और यहां कई लोग पीढिय़ों से ईसाई धर्म का पालन कर रहे हैं। धर्म परिवर्तन भारत में विवाद का विषय रहा है और खासकर हिंदू राष्ट्रवादी संगठन इसका विरोध करते रहे हैं।
1967 में पहली बार डीलिस्टिंग का मुद्दा तत्कालीन कांग्रेस नेता कार्तिक उरांव ने उठाया था। इस पर संसद में भी बहस हुई लेकिन फिर यह मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया।
डीलिस्टिंग की मांग का नया चेहरा ‘जनजाति सुरक्षा मंच’ है, जिसे 'वनवासी कल्याण आश्रम’ के तहत 2006 में स्थापित किया गया था।
क्या जन्म से जाति, जन्म से धर्म या आरक्षण का सवाल है?
डीलिस्टिंग की वकालत करने वाले लोग आदिवासियों को हिंदू मानते हैं। लेकिन इसके विरोधियों का तर्क है कि आदिवासियों का अपना स्वतंत्र धर्म, स्वतंत्र रीति रिवाज है और वे अपनी पसंद के किसी भी धर्म या पूजा पद्धति को मानने के लिए आजाद हैं। इसलिए अगर वे इस आजादी का इस्तेमाल करते हैं तो इससे उनका आरक्षण का अधिकार प्रभावित नहीं होना चाहिए।
डीलिस्टिंग के विरोधियों का दूसरा तर्क है कि आरक्षण किसी जाति या समुदाय के आधार पर दिया गया है, यानी यह जन्म से है। धर्म के आधार पर यह कैसे बदल सकता है? क्योंकि हमारा संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं देता।
ये सच है कि डीलिस्टिंग की मांग धर्मांतरण से प्रेरित है। लेकिन इन मुद्दों पर बात करते हुए हमें लगा कि डीलिस्टिंग की मांग में धार्मिक पहलू होने के साथ-साथ आर्थिक मुद्दा भी जुड़ा है।
आरक्षण का लाभ
आदिवासी ईसाई समुदाय अन्य के मुक़ाबले कहीं आगे हैं। डीलिस्टिंग की मांग करने वालों का कहना है कि ‘उन्हें’आरक्षण का लाभ मिलता है ‘हमें’ नहीं।
शैक्षणिक और आर्थिक असमानता को ईसाई आदिवासी नेता और समुदाय के सदस्य भी मानते हैं। लेकिन उनका तर्क है कि इसका कारण शिक्षा है। आरक्षण पाने के लिए शिक्षित होना ज़रूरी है और ईसाई आदिवासियों की कुछ पीढिय़ों को मिशनरी शिक्षण संस्थाओं से शिक्षा मिली। हालांकि ये शिक्षण संस्थाएं सभी के लिए हैं। उनका तर्क है, ‘हमारे आरक्षण के अधिकार पर उन्हें बेचौनी क्यों है?’
पढ़ाई-लिखाई और नौकरी-चाकरी में पिछड़ गए आदिवासियों का लगता है कि इसका हल आरक्षण है और उनके अनुसार सबसे पहले ईसाई आदिवासियों को आरक्षण के लाभ से वंचित किया जाए।
इसे डीलिस्टिंग से हासिल किया जा सकता है। इस तरह यह मुद्दा आदिवासी समुदाय में फैल रहा है और उन्हें आपस में बांट रहा है।
धर्मांतरण से एससी आरक्षण रद्द हो जाता है
तो एसटी आरक्षण का क्या होगा?
जनजाति सुरक्षा मंच का कहना है कि ईसाई या इस्लाम धर्म स्वीकार करने वाले आदिवासियों को दोहरा लाभ मिल रहा है।
आरएसएस से जुड़े वनवासी कल्याण आश्रम के नेशनल ज्वाइंट जनरल सेक्रेटरी रामेश्वर राम भगत कहते हैं, ‘आदिवासी लोगों को 10 प्रतिशत भी लाभ नहीं मिल रहा। लेकिन धर्मांतरण करने वाले दोहरा फायदा उठा रहे हैं। उन्हें एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यक दोनों का फायदा मिल रहा है।’
वो हमें संगठन के जशपुर मुख्यालय में मिले, जहां 1956 में इसकी स्थापना हुई थी।
ईसाई आदिवासी समुदाय के नेता इन आरोपों का खंडन करते हैं। जशपुर के कुंकुरी इलाके में स्थित चर्च एशिया के सबसे बड़े गिरिजघरों में से एक माना जाता है। यहां की अधिकांश आबादी ईसाई है। यहां डॉ। फूलचंद कुजूर एक बड़ा अस्पताल चलाते हैं।
वो कहते हैं, ‘अल्पसंख्यकों के लिए कोई सरकारी योजना या अलग आरक्षण नहीं है। केवल कुछ शिक्षण संस्थाओं में ही अलग से सुविधाएं हैं। लेकिन वहां सभी लोग पढ़ते हैं। ईसाई या मुस्लिम के लिए वहां कोई अलग योजना नहीं है। दोहरे फ़ायदे का तर्क सिर्फ भ्रम पैदा करने के लिए दिया जाता है। किसी को दोहरा फायदा नहीं मिल रहा।’
भारत में आरक्षण
धर्म के आधार पर भारत में आरक्षण नहीं दिया जाता लेकिन डीलिस्टिंग की मांग करने वाले संविधान में संशोधन की मांग करते हैं।
उनका तर्क है कि जब धर्मांतरण के बाद अनुसूचित जाति को आरक्षण नहीं मिलता तो यह आदिवासी जनजातियों पर क्यों नहीं लागू होता।
जनजाति सुरक्षा मंच के क्षेत्रीय संयोजक इंदर भगत कहते हैं, ‘डॉ. आम्बेडकर ने संविधान के अनुच्छेद 341 में एक प्रावधान बनाया था। हिंदू, जैन, बौद्ध आदि को छोड़ अगर कोई विदेश में पैदा हुए धर्म को स्वीकारता है तो उसे एससी आरक्षण छोडऩा होगा। यह 1956 से लागू है। हमारी मांग बिल्कुल यही है।’
इंदर भगत कहते हैं, ‘वो व्यक्ति अपनी परम्पराओं, रीति रिवाजों और जन्म से मिली पहचान को छोड़ देता है जो वास्तव में उसे आरक्षण का अधिकार देता है। जैसे ही वो धर्मांतरण करता है, जन्म से मिली उसकी पहचान भी छूट जाती है। अगर वो खुद ही अपनी पहचान छोड़ता है तो उसे आरक्षण क्यों मिलना चाहिए जोकि उसकी पुरानी पहचान के आधार पर मिलती है। हमारी मांग है कि एसटी के लिए बने अनुच्छेद 342 में संशोधन होना चाहिए और इसका आधार है अनुच्छेद 341।’
हिंदू धर्म का हिस्सा
लेकिन डॉ फूलचंद कुजूर कहते हैं, ‘यह सूची धर्म के बजाय जनजाति के आधार पर बनाई गई है। भारत सरकार का नियम है कि आदिवासी कोई भी धर्म अपना सकते हैं। यह सर्कुलर में भी है। जनजाति सुरक्षा मंच के लोग एससी आरक्षण का हवाला देते हैं लेकिन वो इसलिए है कि अनुसूचित जातियां हिंदू धर्म का हिस्सा हैं। जबकि आदिवासी हिंदू नहीं हैं।’
छत्तीसगढ़ और झारखंड में एक तरफ जनजाति सुरक्षा मंच डीलिस्टिंग का आंदोलन चला रहा है तो दूसरी तरफ क्रिश्चियन ट्राइबल फेडरेशन ने इसके खिलाफ सडक़ पर उतरनेे का फैसला किया है।
विरोधियों का कहना है कि अगर यह लागू हुआ तो इसकी जद में पूरा आदिवासी समुदाय आएगा। पांचवीं अनुसूची में मिली रियायतें खतरे में पड़ जाएंगी और कुल आदिवासी आबादी घटेगी तो आदिवासी डी-शेड्यूल (ग़ैर-अधिसूचित) हो जाएंगे।
क्रिश्चियन ट्राइबल फेडरेशन के प्रवक्ता डॉ. सीडी बखाला कहते हैं, ‘जल-जंगल-ज़मीन पर हमारे अधिकार हैं। अगर डीलिस्टिंग होती है तो हमें अपने ही जंगलों से बाहर कर दिया जएगा और हमारा वजूद खत्म हो जाएगा। इसीलिए हम विरोध कर रहे हैं। यह केवल ईसाइयों को ही नहीं बल्कि सभी आदिवासियों और आदिवासी इलाक़ों को प्रभावित करेगा।’
वो आगे कहते हैं, ‘अनुच्छेद 330 के तहत हमें लोकसभा में प्रतिनिधित्व मिलता है, अनुच्छेद 332 के तहत विधानसभा में। लेकिन अगर हमारा राज्य डी शेड्यूल हो जाता है तो सब कुछ छिन जाएगा। हम न तो गांव के मुखिया या सरपंच बन पाएंगे न विधायक न सांसद।’
अगर हमें बाहर किया जाएगा तो कहां जाएंगे?
हाल की पीढिय़ों में अच्छी ख़ासी संख्या में लोगों ने ईसाई धर्म अपनाया है। एक अनुमान के अनुसार जशपुर और इसके आसपास के इलाकों में 22 फीसदी आदिवासी आबादी ने ईसाई धर्म स्वीकार किया है। डीलिस्टिंग की मांग से पैदा हुए ‘अंदरूनी’ और ‘बाहरी’ के बंटवारे से इन गांवों में तनाव बढ़ा है।
जशपुर जिले में सोगदा गांव में अधिकांश लोग हिंदू रीति रिवाज मानते हैं। विभाजन इतना बढ़ गया है कि जो लोग सदियों से जंगलों में साथ रहते आए हैं, अब अलग होने की बात करते हैं।
मनीजर राम कहते हैं, ‘हम प्रकृति पूजक हैं और मूर्ति की भी पूजा करते हैं। जो ईसाई धर्म मानते हैं, वो उस तरीके से प्रार्थना नहीं करते हैं। तो हम एक साथ कैसे रह सकते हैं? उन्हें विदेशी धर्मों में फंसा लिया गया और वे ईसाई बन गए। इसीलिए वे हमसे अलग हैं।’
इस इलाक़े में मिलीजुली आबादी है। जनजातियां कई पीढिय़ों से जंगलों में रहती आई हैं और उनके बीच धर्म को लेकर कोई मुद्दा नहीं रहा। लेकिन गांव से अगर कोई धर्म के आधार पर डीलिस्टिंग का मुद्दा उठाता है तो इससे समस्या पैदा हो सकती है।
उसी गांव के सोहम राम कहते हैं, ‘हमें इसका दुख नहीं है। क्योंकि वे हमारी संस्कृति, हमारे धर्म से भटक गए। इसलिए हम किसी चीज से परेशान नहीं हैं। अगर वे लौटना चाहते हैं लौट सकते हैं, लेकिन जो भी गया वो लौटा नहीं।’
डीलिस्टिंग और धर्मांतरण
गांवों में ऐसी धारणा बहुत मजबूत है। जशपुर से हम छत्तीसगढ़ जाते हैं। इस इलाके में अम्बिकापुर एक बड़ा केंद्र है, जहां ग्रामीण और शहरी इलाके हैं। यहां नया पाड़ा में केवल ईसाई रहते हैं।
निवासी कुजूर ने करीब दस सालों तक सरगुजा जिला पंचायत अध्यक्ष की जिम्मेदारी निभाई है। पंचायती राज में आदिवासियों के लिए सीटें आरक्षित होने की वजह से वो इतने लंबे समय तक राजनीति में सक्रिय रहीं। उनके यहां हमारी मुलाकात कुछ ईसाई आदिवासी लोगों से हुई।
निवासी कुजूर ने कहा कि शहरों के मुक़ाबले ग्रामीण क्षेत्रों में डीलिस्टिंग और धर्मांतरण को लेकर भय का मौहाल है।
वो कहती हैं, ‘गांवों में ईसाई बनाम ग़ैर-ईसाई की बहस चल रही है। साफ कहें तो अगर आप आजाद हैं तो जो चाहें धर्म अपनाएं। हमारे संविधान ने अधिकार दिया है कि आप कोई धर्म अपनाएं। कोई भी दबाव नहीं डालता है।’
मुन्ना तापो इस बात से इनकार करते हैं कि धर्मांतरण करने वाले आदिवासी अपनी आदिवासी संस्कृति और परम्पराओं को छोड़ रहे हैं।
राजनीतिक ध्रुवीकरण और चुनावों पर इसका असर
तापो के अनुसार, ‘हम जन्म से मृत्यु तक आदिवासी समुदाय के रीति रिवाजों और प्रथाओं को पालन करते हैं। हम सिफऱ् आशीर्वाद लेने के लिए चर्च जाते हैं। जो लोग हम पर परम्पराओं को छोडऩे के आरोप लगाते हैं, मैं उन्हें चुनौती देता हूं कि वो बताएं की कौन सी परम्परा का हम पालन नहीं करते। मैं आपको सब कुछ बता सकता हूं।’
अनंत प्रकाश एक सीधा सवाल पूछते हैं, ‘अगर हमें एसटी श्रेणी से बाहर कर देंगे तो कहां रखेंगे? किस लिस्ट में? किस कैटेगरी में? हमारे लिए कहां जगह है। बताएं। हमें इन सवालों पर सोचने की जरूरत है।’
डीलिस्टिंग का मुद्दा अब राजनीतिक भी होता जा रहा है, जिसका चुनावी राजनीति पर सीधा असर है। झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और यहां तक कि पूर्वोत्तर के राज्यों में जहां अच्छी ख़ासी आबादी ईसाई है, ये आंदोलन और विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं। उत्तर महाराष्ट्र के नासिक और नंदुरबार जैसी जगहों पर ऐसे ही विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं।
अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम, मेघालय और नगालैंड जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में ईसाई धर्म अपनाने वाली जनजातियों की संख्या अधिक है। इसीलिए डीलिस्टिंग का मुद्दा इन राज्यों में मुखर है और यहां जनजातीय समुदायों में ध्रुवीकरण भी अधिक है।
आदिवासियों को आरक्षण मिलना एक संवैधानिक अधिकार है और इसमें बदलाव का मतलब संविधान संशोधन करना होगा। इसलिए इस बात को लेकर आशंका है कि ये सच में होगा या नहीं। लेकिन अगर ये होता है तो ये अनुमान लगा पाना मुश्किल है कि यह लंबी प्रक्रिया कब पूरी होगी और कब इसकी घोषणा होगी।
रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार आलोक पुतुल कहते हैं, ‘जिन आदिवासी समुदायों में लोगों ने ईसाई धर्म स्वीकार किया और जिन्होंने नहीं किया और जो लोग हिंदू धर्म का पालन करते हैं, उनके बीच रोजाना संघर्ष बढ़ता जा रहा है।’
आलोक पुतुल आगे कहते हैं, ‘इसका चुनावों पर साफ़ असर दिखता है। पिछले दो-तीन सालों में बस्तर जैसे क्षेत्रों में कई संघर्ष हुए हैं। हिंसा की कई ख़बरें सामने आई हैं। इसका चुनाव पर निश्चित असर होगा। और ओडिशा, मध्य प्रदेश और झारखंड में भी इस मुद्दे का असर पड़ेगा और आपको चुनावी नतीजों में इसका असर दिखेगा।’
वोटों में विभाजन हो चुका है। छत्तीसगढ़ के हालिया चुनावी नतीजों में डीलिस्टिंग, धर्मांतरण और घर वापसी जैसे मुद्दों का अच्छा खासा असर देखने को मिला था। और बीजेपी के नेता भी इस तथ्य को स्वीकार करने से नहीं हिचकते।
धर्म में वापसी की वकालत
प्रबल प्रताप सिंह जूदेव पूर्व जशपुर रियासत के शाही परिवार के वंशज हैं। उनके पिता दिलीप सिंह जूदेव बीजेपी के सांसद थे। वो कैबिनेट मंत्री भी रहे थे। प्रबल प्रताप सिंह भी बीजेपी में हैं और उन्होंने हालिया चुनाव भी लड़ा है।
हालाँकि, यह पूर्व शाही परिवार, पहले पिता और अब पुत्र, घर वापसी से संबंधित कार्यक्रमों से जुड़े हुए हैं, यानी वे ईसाई आदिवासियों की हिंदू धर्म में वापसी की वकालत करते हैं। इन हिंदू राष्ट्रवादी कार्यक्रमों को लेकर लगातार विवाद होता रहता है।
प्रबल साफ कहते हैं कि चाहे घर वापसी की बात हो या डीलिस्टिंग की, इससे चुनाव में बीजेपी को फायदा हुआ है।
प्रबल प्रताप ने बीबीसी को बताया, ‘चुनावी नतीजे साफ़ दिखाई दे रहे हैं। आदिवासी समुदायों ने बीजेपी को महत्वपूर्ण समर्थन दिया है। उनका मानना है कि उनके पूर्वज हिंदू थे। उनके पूजा के तौर तरीके, उनकी संस्कृति, उनके रिश्ते, राष्ट्रवादी विचारधाराओं से उनका संबंध- ये सभी जुड़े हुए हैं और वे जनजातीय मुद्दों का समर्थन करते हैं। आपने देखा होगा कि सरभुज और बस्तर जैसे इलाके जहां जनादेश अहम है। बिना इन इलाक़ों के समर्थन के कोई भी पार्टी सरकार नहीं बना सकती। इन दोनों जगहों पर बीजेपी ने बहुत कुछ हासिल किया।’
भाजपा स्पष्ट रूप से राजनीतिक फायदे पर अपना ध्यान केंद्रित किए हुए है। इसलिए उन्होंने ‘जनजाति सुरक्षा मंच’ के संयोजक भोजराज नाग को लोकसभा चुनाव के लिए बस्तर के कांकेर से अपना उम्मीदवार बनाया है।
इस बारे में कांग्रेस का आधिकारिक पक्ष अभी घोषित नहीं है, लेकिन उसके नेताओं का कहना है कि बीजेपी दोहरी बातें कर रही है और ध्रुवीकरण की साजिश रच रही है।
कांग्रेस नेता शैलेश नितिन त्रिवेदी के अनुसार, ‘नागालैंड और मिजोरम ऐसे राज्य हैं जहां ईसाई धर्म व्यापक रूप से माना जाता है। आजादी के पहले से ही। यहां तक कि बीजेपी समर्थक और कार्यकर्ता भी वहां ईसाई हैं। इसलिए, बीजेपी एकतरफा नजरिये की वकालत कर रही है। विभिन्न राज्यों में आदिवासी समुदायों में दरार डालकर वे राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कर रही है।’
राजनीति एक तरफ कर दें तो भी भारत के आदिवासियों को दो हिस्सों में बांटने वाले एक ऐतिहासिक मुद्दे के कारण उनमें गहरी दरार पैदा हो गई है।
परंपरा, संस्कृति, धर्म और विरासत के नाम पर भारत के आदिवासी दो खेमों में बंट गए हैं। (bbc.com/hindi)
-अमिता नीरव
पिछले दिनों अखबार में एक खबर छपी थी। गीर अभ्यारण्य में कुत्ते से लड़ाई में पीछे हटी शेरनी। इस तरह का एक वीडियो सामने आया था और फिर अखबार ने इस घटना के सिलसिले में विशेषज्ञों से बात की। विशेषज्ञों का कहना था कि गीर की उस सफारी में चूँकि वीआईपी को शेर दिखाए जाते हैं, इसलिए उन्हें तैयार खाना दिया जाता है। लगातार तैयार खाना खाते-खाते वे लडऩा भूल गए हैं और यदि यही सिलसिला जारी रहा तो ऐसे और भी वीडियो आते रहेंगे।
विज्ञान बताता है कि जैविक और शारीरिक संरचना में अंतर के अतिरिक्त स्त्री औऱ पुरुषों में मूलत: कोई फर्क नहीं है। न शारीरिक क्षमताओं में और न ही बौद्धिक, मानसिक क्षमताओं में। स्त्री को मिली प्रजनन की विशेषता ने उसकी सामाजिक, आर्थिक स्थितियों का निर्धारण किया।
कुछ वक्त पहले एक वेब सीरीज देखी थी 'कॉसमोस: ए स्पेसटाइम ओडिसी'। इस सीरीज में धरती औऱ अंतरिक्ष के बारे में बताया जा रहा था। सीरीज में बताया गया कि यदि हम धरती की उम्र एक साल मानें तो उस साल के आखिरी महीने मतलब दिसंबर में इस धरती पर जीवन आया। दिसंबर की 31 तारीख को इंसान आया और 31 दिसंबर को रात 11 बजे से सभ्यता अस्तित्व में आई।
इसका मतलब यह है करोड़ों साल के धरती के अस्तित्व के एक बहुत छोटे से हिस्से में इंसान आया और उसके भी हजारों साल बाद व्यवस्था ने आकार लिया। यही बात युवाल भी अपनी किताब 'सेपियंस' में कह चुके हैं। 'ह्युमन डिग्निटी एंड ह्युमिलिएशन' की फिलॉसफर औऱ फाउंडर एवलिन लिंडनर भी यही बात कहती है।
जीन जैक्स रूसो की एक प्रसिद्ध उक्ति है कि, 'वह व्यक्ति इस समाज का निर्माता होगा जिसने पहली बार एक जमीन के टुकड़े को घेरकर कहा कि यह मेरा है और दूसरे भोले लोगों ने उसे मान लिया।' रूसो की मानें तो प्राकृतिक जीवन में संघर्ष नहीं हुआ करते थे। जीवन शांत और सुंदर था। रूसो की तरह ही मार्क्स भी यह कहते हैं कि मानवीय सभ्यता के विकास में निजी संपत्ति के विचार के उदय ने महती भूमिका का निर्वहन किया है। निजी संपत्ति के उदय से ही हम सभ्यता की शुरुआत मान सकते हैं।
एवलिन लिंडनर कहती हैं कि स्त्री की जैविक-संरचना ने उसकी सामाजिक स्थिति का बहुत नुकसान किया है। जब इंसान ने हथियार ईजाद कर लिए थे और कबीलों में संघर्ष हुआ करते थे, तबसे ही स्त्रियों की समाज में भूमिका एकदम स्पष्ट हो गई थी। उन्हें संघर्ष के लिए बच्चों को जन्म देना था। जिस कबीले में जितने ज्यादा बच्चे उस कबीले की उतनी ज्यादा ताकत पुरुष है तो युद्ध के लिए और स्त्री है तो बच्चे जनने के लिए।
वे कहती हैं कि एक स्त्री के प्रजनन काल तक उसे बच्चों को जन्म देना होता था। इससे स्त्री निरंतर गर्भधारण और प्रसव के चक्र में ही फँसी रहती थी। मासिक-चक्र में होने वाली शारीरिक दिक्कत और लगातार गर्भधारण और फिर बच्चों के जन्म देने की क्रम में लगी स्त्री की दुनिया सीमित होती जाती है।
यही बात सिमोन भी कहती हैं कि प्रजनन औऱ मासिक-चक्र में स्त्री को अपनी शक्ति, मेधा, क्षमता और कौशल को निखारने का अवकाश ही नहीं मिल पाता था। दूसरी तरफ पुरुष लगातार खुद का परिष्कार औऱ परिवर्धन करता रहता है। यही वह क्रम है जहाँ से स्त्री की नियति निर्धारित होने लगती है।
सिमोन अपनी प्रसिद्ध किताब ह्लद्धद्ग ह्यद्गष्शठ्ठस्र ह्यद्ग& में लिखती हैं कि – ‘एक अस्तित्ववादी दृष्टिकोण हमें यह समझने में मदद करता है कि कैसे खानाबदोश मानव ने जैविक और आर्थिक स्थितियों को परिवर्तित कर पुरुष की श्रेष्ठता स्थापित की। पुरुष की अपेक्षा औरत ज्यादा घाटे में रही। वह अपनी जैविक नियति का शिकार हो गई। वह मादा पशु की तरह अपनी शारीरिक सीमाओं में प्रजनन-क्षमता के कारण सदा के लिए कैद कर दी गई। मनुष्य महज जीता नहीं, बल्कि अपने जीवन की सर्वोपरिता का औचित्य भी सिद्ध करना चाहता है। पुरुष ने वह सर्वोपरिता हासिल की, क्योंकि बच्चे पैदा करने का काम पुरुष का नहीं था, वह नर था और क्षणों का नियंत्रण कर भविष्य की रूपरेखा तैयार कर सकता था। यह उसका पौरुषीय क्रिया-कलाप था, जिसके जरिए उसने स्वयं के अस्तित्व को सर्वोपरि मूल्य में बदलकर रख दिया, उसने जीवन की जटिल ताकतों को सुलझाने का भार अपने हाथों में रखा औऱ स्त्री तथा प्रकृति को अधिकृत किया। हमें तो यह देखना है कि कैसे यह परिस्थिति सदियों से जारी रही और विकसित होती रही। मानवता का यह हिस्सा क्यों अन्या होकर रह गया और पुरुष ने इस अन्यता को कैसे परिभाषित किया?’
जैसे ही भूमि पर एकाधिकार की अवधारणा जन्मी, हर तरफ एकाधिकार की आकांक्षा ने जन्म लिया। स्त्री भी और बच्चे भी इसी एकाधिकार की आकांक्षा का हिस्सा रहे। याद रहे कि सभ्यता-पूर्व का समाज मातृसत्तात्मक रहा है। कृषि युग में ही जबकि व्यक्तिगत संपत्ति का उदय हुआ समाज का स्वरूप मातृसत्तात्मक से बदलकर पितृसत्तात्मक होता चला गया।
इस बात की तस्दीक एंगेल्स ने अपनी किताब ‘द ओरि़जिन ऑफ फैमिली, प्राइवेट प्रॉपर्टी ऐंड स्टेट’ में भी की है। संपत्ति के संरक्षण के लिए समूह बने, समूह से कबीले फिर संघर्ष के लिए लड़ाके। अब तक सब कुछ ठीक था। स्त्री औऱ पुरुषों के बीच भूमिकाओं का निर्धारण नहीं हुआ था, लेकिन निजी संपत्ति के संरक्षण की मजबूरी ने पुरुषों को संघर्ष की तरफ और लडऩे वाले पुरुषों की अधिक संख्या की जरूरत ने स्त्रियों को लगातार प्रजनन की तरफ धकेला।
मतलब युद्ध के लिए पुरुषों की आपूर्ति के चलते बच्चों को लगातार जन्म देना स्त्री की मजबूरी बन गया। इससे यह हुआ कि पुरुष बाहर जाने लगे औऱ स्त्रियाँ घर में कैद होने लगी। यहीं से स्त्री की दुर्दशा की शुरुआत हुई। तब से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक स्त्रियाँ लगातार घरों में रहीं औऱ प्रजनन की मशीन बनी रहीं। पश्चिम की औद्योगिक क्रांति और स्त्रीवाद की फर्स्ट वेव लगभग साथ-साथ ही आई।
औद्योगिक क्रांति के दिनों में जबकि उत्पादन के लिए अधिक श्रम-शक्ति की जरूरत लगी तो पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों से भी काम करवाया जाने लगा। तब तक पूरी दुनिया पुरुषों के लिए, पुरुषों के द्वारा औऱ पुरुषों की हो चुकी थी।
जिस तरह से गिर अभ्यारण्य में शेरनी शिकार करना भूल गई, उसी तरह स्त्री इतने सालों से लगातार घर में रहते हुए अपने कौशल, क्षमता, मेधा का विकास करना, लडऩा औऱ संघर्ष करना भूल गई। जब स्त्रियाँ अपनी स्थिति के प्रति जागरूक हुई तब तक वह बहुत पिछड़ चुकी थी। जागरूकता की वजह से अपने वजूद के लिए स्त्रियों के अंतहीन संघर्षों की शुरुआत हुई।
- पूजा मेघवाल
‘मेरी शादी कम उम्र में आटा साटा प्रथा द्वारा कर दी गई थी। मेरे बदले में मेरे चाचा के लिए लडक़ी ली गई। मेरी पहली शादी जब मैं 7वी कक्षा में पढ़ती थी तब कर दी गई थी, लेकिन कुछ कारणों से वह टूट गई। फिर दूसरी शादी जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ रही थी तब की गई थी। मैं ससुराल में 3 साल तक रही और फिर जब मैं गर्भवती हुई तो ससुराल वालों ने प्रसव के लिए मुझे मेरे घर छोड़ दिया था। लेकिन डिलीवरी होने पर जब मुझे लडक़ी हुई तो इससे नाराज़ ससुराल वाले न तो मुझे लेने आए और न ही कभी मुझसे बात की। अब मैं संस्था द्वारा ओपन स्कूल से 10वी की पढ़ाई कर रही हूं। अब मेरे अंदर पढ़ाई को लेकर और ज्यादा लगन जगी है। मुझे अपनी जिंदगी में कुछ करना है। पढ़ लिख कर नौकरी करनी है ताकि अपने पैरों पर खड़े होकर अपनी बेटी का भविष्या बना सकूं। यह कहना गांव की 27 वर्षीय सुनीता का, जो राजस्थान के बीकानेर स्थित लूणकरणसर ब्लॉक के कालू गांव की रहने वाली है।
यह गांव ब्लॉक मुख्यालय से लगभग 20 किमी और जिला मुख्यालय से 92 किमी की दूरी पर है। पंचायत से मिले आंकड़ों के अनुसार 10334 लोगों की जनसंख्या वाले इस गाँव में अनुसूचित जाति की संख्या करीब 14।5 प्रतिशत है। गांव में साक्षरता की दर 54।7 प्रतिशत है, जिसमें महिलाओं की साक्षरता दर मात्र 22।2 प्रतिशत है। इतनी कम साक्षरता दर से महिलाओं की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति का पता चलता है। हालांकि महिलाओं में शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से स्थानीय गैर सरकारी संस्था उर्मुल ट्रस्ट द्वारा उर्मुल सेतु अंतर्गत 'प्रगति प्रोजेक्ट' चलाया जा रहा है। इस के द्वारा गांव की उन महिला और किशोरियां, जिन्होंने किसी कारणवश पढ़ाई छोड़ दी थी उन्हें अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए प्रेरित करना है। इसमें 14 से 29 साल तक की महिला और किशोरियों को पढ़ाई के बाद रोजगार कर अपने पैरो पर खड़ा होने के लिए भी प्रेरित करना है।
इस संबंध में गांव की 17 वर्षीय किशोरी पूजा बाबरी का कहना है कि ‘मैं कक्षा 5 तक ही पढ़ाई कर पाई थी। आगे पढऩे का मन करता था। लेकिन हाई स्कूल गांव से दूर होने के कारण मुझे भेजा नहीं जाता था। मुझे नहीं लगता था कि मेरा पढ़ाई का सपना कभी पूरा होगा। लेकिन इस संस्था द्वारा मुझे पढऩे का मौका मिला जिससे मैं बहुत खुश हूं। अब मैं आगे की पढ़ाई के लिए सेंटर पर जाती हूं। वहां मेरी नई सहेलियां भी बनी हैं। पहले मैं फोन पर सिर्फ वीडियो ही देखा करती थी। मगर अब मैं अपनी पढ़ाई और अपने विषय के बारे में जानकारी प्राप्त करती हूं। अब मैं अपने छोटे भाई बहनों को भी पढ़ाती हूं।’ गांव की एक अन्य किशोरी नज़मा का कहना है कि ‘मेरे पिता नहीं हैं। जिस वजह से मां को बाहर जाकर काम करना पड़ता है और मेरे उपर पूरे घर के कामों की जिम्मेदारी रहती है। मैं पढऩे में बहुत होशियार थी। लेकिन 8वीं के बाद घर के कामों की वजह से पढ़ाई छोडऩी पड़ी। परन्तु मुझे पढ़ाई करने का बहुत शौक था। मैं अपने भाई की किताबों को पढ़ा करती थी। जब मुझे पता चला कि संस्था द्वारा हमारा दाखिला करवाया जाएगा और मैं फिर से पढ़ाई कर सकती हूं तो मुझे बहुत खुशी हुई। हमें इस संस्था द्वारा प्रतिदिन 2 से 3 घंटे पढ़ाया जाता है। मुझे ख़ुशी है कि अब मेरा उच्च शिक्षा प्राप्त करने का सपना पूरा हो सकता है।’
22 वर्षीय सीता का कहना है कि ‘जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ती थी तो मेरे दो बड़े भाइयो के साथ मेरी भी शादी करवा दी गई। सोचा था कि सुसराल जाकर अपनी पढ़ाई पूरी करूंगी, लेकिन लगातार बीमार रहने के कारण मैं पढ़ाई नहीं कर पाई। अब मुझे संस्था के माध्यम से एक बार फिर से पढऩे का अवसर मिला है। अब मैं ओपन स्कूल से 10वीं कक्षा की पढ़ाई कर रही हूं।
अब मुझे लगता है कि मैं भी अपनी जिंदगी में कुछ कर सकती हूं।’ वहीं 17 वर्षीय किशोरी कविता का कहना है कि ‘जब मेरी पढ़ाई छूटी तो मुझे लगता था कि मैं सिर्फ घर का काम काज ही करूंगी और शिक्षा प्राप्त करने का मेरा सपना कभी पूरा नहीं होगा। लेकिन अब मैं पढ़ रही हूं तो मुझे लगता है कि मैं भी अपनी जिंदगी में बहुत कुछ कर सकती हूं। अपना भविष्य उज्जवल बना सकती हूं और आत्मनिर्भर बन कर अपना ध्यान खुद रख सकती हूं।’ कविता कहती है कि पहले महिलाओं पर इसलिए अत्याचार होते थे, क्योंकि वह पढ़ी लिखी नहीं होती थी। जिससे वह अपने अधिकारों के प्रति जागरूक नहीं होती थीं। लेकिन अब शिक्षा प्राप्त कर महिलाएं और किशोरियां अपने अधिकारों के प्रति भी जागरूक हो रही हैं।
उर्मुल की पहल से न केवल महिलाएं और किशोरियां, बल्कि उनके अभिभावक भी खुश नजऱ आ रहे हैं। उनकी लड़कियों को पढऩे, आगे बढऩे और सशक्त होने का अवसर प्राप्त हो रही है। इस संबंध में एक अभिभावक 40 वर्षीय भीयाराम मेघवाल का कहना है कि 'संस्था की यह पहल अच्छी है। जो बालिकाएं किसी कारणवश स्कूल नहीं जा पाती थीं उनका प्रेरकों ने हौसला बढ़ाया। जिससे वह आगे पढऩे की हिम्मत जुटा सकीं।' भीयाराम का मानना है कि पढ़ी लिखी लड़कियां ही महिलाओं पर होने वाले अत्याचारो के विरुद्ध आवाज उठा सकती हैं और उसका विरोध करने का साहस दिखा सकती हैं। वह बताते हैं किसी कारणवश उनकी बेटी की शिक्षा बीच में ही छूट गई थी। लेकिन मुझे खुशी है कि अब वह संस्था के माध्यम से अपनी शिक्षा पूरी कर रही है।
इस संबंध में स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता हीरा का कहना है कि ‘इस प्रोजेक्ट को चलाने का उद्देश्य दूर दराज गांवों की उन महिलाओं और किशोरियों को शिक्षित करना है, जिनका किसी कारणवश बीच में ही पढ़ाई छूट गई है। इनमें ऐसी बहुत सी किशोरियां हैं जिनकी 8वीं के बाद शिक्षा सिर्फ इसलिए छूट गई क्योंकि आगे की पढ़ाई के लिए गाँव में हाई स्कूल नहीं था और उनके परिवार वाले उन्हें दूसरे गाँव पढऩे के लिए भेजने को तैयार नहीं थे। इसके अलावा कुछ अन्य कारण भी थे जैसे घर की आर्थिक स्थिति का खराब होना, उनकी जल्दी शादी हो जाना और कई लड़कियों के घर का काम ज्यादा होने की वजह से भी उनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई थी। ऐसी ही लड़कियों और महिलाओं को यह संस्था पढ़ाने का कार्य कर रही है। इससे उनकी शिक्षा का स्तर भी बढ़ा है। जो किशोरियां शिक्षा से वंचित रह गई थी और ड्रॉप आउट थी उनकी पढ़ाई फिर से जारी हो गई है। पढ़ाई को लेकर महिलाओं और किशोरियों में उत्साह बढ़ा है। वह अपने अधिकारों को लेकर भी जागरूक हो रही हैं और उनके परिवार वालो का भी उनके प्रति बदलाव देखने को मिल रहा है। अब उनके परिवार वालो को भी लगता है कि हमारी लड़कियां बहुत कुछ कर सकती हैं। पढ़ लिख कर सशक्त बन सकती हैं।
वास्तव में, महिलाओं और किशोरियों ने शिक्षा के जरिए अपने परिवार और समाज में बहुत बड़ा बदलाव किया है और करती रहेंगी। स्त्री शिक्षा का समाज और परिवार की सोच में परिवर्तन लाने में बहुत बड़ा योगदान होता है। जब एक स्त्री शिक्षित होती है तो सिर्फ एक स्त्री नहीं बल्कि पूरा परिवार शिक्षित होता है। इसके माध्यम से ही महिलाओं और किशोरियों को अपने अधिकारों की जानकारी प्राप्त होती है और जिससे समाज और परिवार के अंदर बेहतर योजनाओं को बनाया जा सकता है। (चरखा फीचर)
- अपूर्व गर्ग
टीवी घर -घर आया और धीरे -धीरे पत्र -पत्रिकाओं को ही नहीं पुस्तकें भी निगल गया । टीवी ने ये तय करना शुरू कर दिया लोग क्या खाएं, पहनें और कैसा जीवन जीयें ।
दिमाग अखरोट की गिरी सा दीखता है और इस अखरोट की दिमागी गिरी का आवरण बन गया टीवी ।
इसी टीवी के तार सत्ता के एंटीने से जुड़ गए और बरसाने लगीं प्रायोजित मंशाएं । भाषा बदल गई, तेवर बदल गए और सूख गए समाचार ।
इसका असर पूरे मीडिया पर आया और मीडिया जगत बन गया कठपुतली मीडिया ।
इस ‘डिहाइड्रेटेड’ मीडिया में खबर की एक बूँद भी न देखकर लोग सोशल मीडिया की ओर विमुख हो चुके और खबर पाने की प्यास वो ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर’ से लगाए हुए हैं ।
‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर’ को लोगों ने बेतहाशा समर्थन दिया , समय दिया , पैसा दिया, विश्वास दिया।
इसमें कोई दो राय नहीं कुछ पत्रकार और बुद्धिजीवी जनता के विश्वास की कसौटी पर खरे उतरे हैं और उनके पास विजन है,भाषा है, ज्ञान है, संस्कार है पर इनसे कहीं दुगनी-चौगुनी मात्रा में बहुत से नौजवान ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स’ उभरे हैं जो चालू भाषा में।
उत्तेजक पोस्ट निर्भीकता से डालकर सत्ता को चुनौती देते हैं। ये ऐसे नौजवान हैं जो शुरू -शुरू में हर उन खबरों पर बात करते हैं जो दबाई और छिपाई जाती हैं ।
जाहिर है इन युवा ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स’ की ओर उनकी ख़बरें ब्रेक करने की कला को देख लोग भागते हैं और एक दिन उन्हें लगता है ये जो कह रहे वही सही। लोग इन्हें कई मिलियन सब्सक्राइबर का बादशाह बनाते हैं इनके सोशल मीडिया के सभी माध्यमों फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब, इंस्टाग्राम में फॉलो करते हैं। कभी गौर करिये ज़्यादातर इन ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स’ के पास न सोच है न समझ न विचार न विचारधारा। भाषा की तमीज जानते नहीं बस एक के बाद एक उकसावे-उत्तेजक पोस्टों के गोले दागते हैं और उस ताली पीटते हैं लाखों लोग ।
ताली पीटने वाले ऐसे लोग हैं जिनका न किसी पत्र से कोई रिश्ता रहता है न किताबों से, दरअसल, ये लोग उस धरती पर खड़े हैं जो कभी पत्रकारिता और साहित्य के शब्दों से हरी-भरी थी और अब बंजर हो चुकी। अच्छे और बुरे का कोई ज्ञान नहीं, समझ नहीं। फिर भी जिन्हें अगर ये लग रहा है कि सोशल मीडिया पत्रकारिता का विकल्प बन चुका तो बहुत बड़े मुगालते में हैं। सनसनी फैलना खबरें पढ़ाना नहीं होता।
गौर से देखिये, ज़्यादातर इन ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स’ ने बची-खुची भाषाई तमीज छीन ली है, पाठकों को तमाशाई दर्शकों में बदल दिया, गंभीरता-चिंतन गायब।
पहले ही हिंसक हो चुकी आवारा और तमाशबीन भीड़ को ब्रेकिंग न्यूज़ के नाम पर कैसे मुर्ख, जाहिल और भाषाई असभ्य बना रहे हैं ये चंद ‘सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स’ इस पर पहल करिये।
चुनाव बीत जायेगा पर आवारा और असभ्य बनाई जा रही भीड़ का खतरा बना रहेगा ।