आजकल
बिहार चुनाव के, पहले सस्पेंस, और फिर जश्न में डूबे हिन्दुस्तान में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह शायद अकेले ही रहे जिन्होंने पड़ोसी पाकिस्तान में सत्ता-संतुलन में आए एक भूचाल पर फिक्र जाहिर की। बाकी लोगों को अभी तक इस बदली हुई नौबत का खतरा समझने का वक्त शायद नहीं मिला। पिछले चार दिनों में पाकिस्तान दुनिया का अकेला ऐसा परमाणु हथियार संपन्न देश बन गया है जहां पर परमाणु हथियारों का इस्तेमाल पूरी तरह से फौज के मुखिया का एकाधिकार हो गया है। निर्वाचित प्रधानमंत्री, या मनोनीत राष्ट्रपति भी इस परमाणु-कमान से बाहर हो गए हैं, और सेना प्रमुख फील्ड मार्शल का दर्जा प्राप्त जनरल असीम मुनीर अब इस एक मामले में राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री से भी ऊपर बिठा दिए गए हैं। इसके लिए 12 नवंबर को संसद के निचले सदन में संविधान संशोधन 234-4 वोटों से पास हुआ, और 14 नवंबर को राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने इस पर दस्तखत करके इसे कानून का दर्जा दे दिया।
फिर मानो यह काफी नहीं था, तो पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट के पर कतर दिए गए, और अब वह सिर्फ सिविल और क्रिमिनल मामलों की अपील का कोर्ट रह गया है। संवैधानिक विवादों पर विचार के लिए एक नया फेडरल कांस्टीट्यूटशनल कोर्ट बना दिया गया। इससे अब मौजूदा सुप्रीम कोर्ट का खुद होकर किसी मामले की सुनवाई करना खत्म हो गया है। इसका विरोध करते हुए वहां के दो सबसे बड़े जजों ने इस्तीफे भी दे दिए हैं।
हमने पहले ही दिन इस परमाणु खतरे की चर्चा अपने यूट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल पर की थी, और अब जैसे-जैसे इसकी जानकारी सामने आ रही है, इसके खतरे बढ़ते हुए नजर आ रहे हैं। दुनिया में आज जिन देशों के पास परमाणु हथियार हैं, उन 9 देशों में से कहीं भी बिना निर्वाचित या लोकतांत्रिक-राजनीतिक नेता के, अकेले फौजी को परमाणु फैसले लेने का हक नहीं है। अमरीका में राष्ट्रपति को परमाणु हथियार इस्तेमाल करने का आखिरी हक है। रूस में राष्ट्रपति को मुख्य अधिकार है लेकिन रक्षामंत्री और फौजी जनरल की मंजूरी से वे यह फैसला लेते हैं। चीन में राष्ट्रपति को अधिकार है, और उनकी मंजूरी से ही सेना यह कर सकती है। भारत में प्रधानमंत्री परमाणु कमान के अध्यक्ष हैं, और कैबिनेट की कमेटी की मंजूरी जरूरी है। ब्रिटेन में प्रधानमंत्री को अधिकार है लेकिन संसद की एक किस्म की मंजूरी लगती है। फ्रांस में राष्ट्रपति को अधिकार है लेकिन वे सेना की सलाह से ऐसा कर सकते हैं। इजराइल में प्रधानमंत्री और मंत्री मिलकर यह तय करते हैं। उत्तर कोरिया में वहां के शासक किम जोंग-ऊन को नागरिक-मिलिट्री कमांडर के रूप में यह अधिकार है। पाकिस्तान में अभी जनरल मुनीर को जो अधिकार दिया गया है, उस पर कोई नागरिक-नेता निगरानी नहीं रख सकते, सवाल नहीं पूछ सकते।
भारत पर पाकिस्तान के जितने भी हमले पिछले पौन सदी में हुए हैं, उनमें से कुछ हमले फौजी पहल पर हुए, या फौजी तानाशाह ने भी किए। दुनिया में किसी भी फौज का रूख लोकतांत्रिक नहीं रहता, क्योंकि उसकी पूरी सोच ही दुश्मन को हराने, तबाह करने, और जंग को जीतने के लिए बनाई गई रहती है। पाकिस्तान की फौज कई बार की फौजी तानाशाही का खून चखने के बाद लोकतंत्र से वैसे भी दूर हो गई है, और वहां फौजियों का राज निर्वाचित नेताओं के ऊपर रहते आया है। निर्वाचित नेताओं को कभी जेल डालना, कभी प्रधानमंत्री बनाना, कभी ओहदे से हटा देना उनका पसंदीदा शगल रहते आया है। पाकिस्तानी फौजी जनरलों का रूख देश के इस्लामिक ढांचे के मुताबिक धर्म से लदा हुआ भी रहते आया है, और धर्म लोकतंत्र में नाजुक मौकों पर कभी लोकतांत्रिक फैसला नहीं लेने देते।
फिर पाकिस्तानी फौज के मौजूदा जनरल असीम मुनीर की ताकत को देखें, तो हाल की भारत-पाकिस्तान फौजी लड़ाई के बाद उन्हें फील्ड मार्शल की उपाधि दी गई है, जो कि दुनिया में फौज की परंपराओं के खिलाफ है। फील्ड मार्शल ऐसे फौजी मुखिया को ही बनाया जाता है जिसने दो अलग-अलग मोर्चों पर देश की फौज की अगुवाई की हो। पाकिस्तान और भारत के गिने-चुने दिनों के टकराव में ऐसी कोई नौबत नहीं आई थी, न ही इस लड़ाई में पाकिस्तान की कोई जीत हुई थी कि जिसके एवज में असीम मुनीर को यह सम्मान दिया जाए। दुनिया में फौजों की सदियों पुरानी इस परंपरा को तोडक़र इस फौजी अफसर को जिंदगी भर के लिए फील्ड मार्शल का ओहदा दिया गया है। अब ऐसी अलोकतांत्रिक और बेतहाशा ताकत से लैस एक धर्मालु फौजी के हाथ भारत की ताकत के आसपास के ही परमाणु हथियार दे दिए गए हैं। दोनों देशों के पास डेढ़-डेढ़ सौ के आसपास परमाणु हथियारों का अंदाज है।
बिहार की राजनीति वैसे भी जातिवाद से लेकर कुनबापरस्ती तक, और मुख्यमंत्री बने रहने के लिए मतलबपरस्ती तक, कई किस्म की खराब बातों से घिरी रहती है। बाहुबलियों का बोलबाला रहता है, और आमतौर पर किसी पार्टी को उन्हें टिकट देने से परहेज नहीं रहता। ऐसे में बिहार में चल रहे चुनाव के बीच अलग-अलग पार्टियों के भाड़े के भोंपू, या समर्पित सैनिक, जो भी हों, वे झूठ की लड़ाई लडऩे में जुटे हुए हैं। अब मुफ्त के एआई औजारों की मदद से कोई भी पोस्टर बनाना आसान हो गया है, इसलिए नेताओं के, या किसी और के भी, पहली नजर में अविश्वसनीय लगने वाले बयान पोस्ट किए जा रहे हैं। इस बार झूठ और फरेब एक कदम आगे बढ़ गया है, ऐसे बयानों वाले पोस्टरों के किसी कोने में किसी प्रमुख अखबार, टीवी चैनल, या डिजिटल मीडिया का ब्राँड भी लगा दिया जाता है। मीडिया के नाम से धोखाधड़ी, और जालसाजी करना, अफवाहों को विश्वसनीय बनाना नया नहीं है, आधी सदी से ज्यादा हो चुका है जब भारत में किसी अफवाह को फैलाने और विश्वसनीय बनाने के लिए उसके साथ कहा जाता था कि यह बीबीसी रेडियो पर आई है।
आज सोशल मीडिया पर जिस तरह के झूठ पोस्ट किए जा रहे हैं, झूठे पोस्टर पोस्ट किए जा रहे हैं, उनकी जांच-पड़ताल करने, और उन्हें रोकने के लिए ये प्लेटफॉर्म कुछ करते नहीं दिख रहे हैं, जबकि वे भारत में रिकॉर्ड संख्या में अपने इस्तेमाल से इश्तहारों की मोटी कमाई करते हैं। केन्द्र या जिस राज्य सरकार को झूठ और अफवाह पर कार्रवाई करनी चाहिए, वहां पर सत्तारूढ़ पार्टियों के अपने चुनावी-राजनीतिक हित रहते हैं, और राज किसी भी पार्टी का रहे, फैलाए गए, और जा रहे झूठ में एक हिस्सा तो सत्ता के पसंदीदा झूठ का भी रहता है। जब राजनीतिक दलों के बीच परस्पर सहमति से झूठ का मुकाबला चलता है, तो जख्म तो आम जनता की समझ को झेलने पड़ते हैं, क्योंकि वह हर झूठ की शिनाख्त नहीं कर पाती।
झूठ के ऐसे मुकाबले में भाड़े के भोंपुओं, और समर्पित कार्यकर्ताओं से परे कई दूसरे लोग भी अपनी पसंद के चुनिंदा झूठ को फैलाने में लग जाते हैं। मैंने फेसबुक पर कई बार यह लिखा भी है कि आप अपनी विश्वसनीयता खोकर किसी और की विश्वसनीयता स्थापित करने में कामयाबी नहीं पा सकते। लेकिन लोग इस हड़बड़ी में रहते हैं कि सबसे ताजा वाला झूठ कोई और उनसे पहले पोस्ट न कर दे। लोगों को यह भी अंदाज रहता है कि आज के वक्त देश का कानून इतना कड़ा है कि किसी प्रदेश की सत्ता को आपका झूठ पसंद न हो, तो आप तुरंत एक एफआईआर का खतरा झेल सकते हैं। फिर भी लोग जुटे रहते हैं झूठ फैलाने में, और अपने पसंदीदा को आगे बढ़ाने में, और खुद को नापसंद को नीचा दिखाने में।
आज जब एआई किसी भी तस्वीर में लिखी गई बातों को पढ़ सकती है, उसकी भाषा बदलकर भी देख सकती है, किसी फोटो को पोस्ट करने पर वह उसकी लिखी बातों को अलग-अलग समाचार माध्यमों पर जाकर परख सकती है कि वे सच हैं या झूठ हैं, तो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म इनका इस्तेमाल क्यों नहीं करते? आज किसी बड़े अखबार, या बड़े समाचार चैनल के नाम से एक पोस्टर बनाकर एक झूठ को फैलाया जा रहा है, जिसे हम ही एक मिनट या उससे भी कम में परख लेते हैं कि यह सच है, या झूठ है, तो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अपनी जांच-पड़ताल की असीमित क्षमता के रहते हुए भी ऐसा क्यों नहीं करते हैं?
कुछ चर्चा आज किताबों की की जाए। मेरे अपने ज्ञान, और उसकी जमीन पर उपजी और विकसित मामूली समझ में किताबों का बड़ा हाथ रहा। किताबें मुझे हमेशा हैरान करती रहीं कि लेखक कितना कुछ सोच लेते हैं, कितना अच्छा लिखते हैं, और उनसे अच्छा लिखना भला कितना मुश्किल काम होगा। एक किस्म से किताबों से मालिकाना हक के बजाय पाठक का रिश्ता हमेशा मुझे बेहतर लगते रहा। अपनी खरीदी किताबों को कभी पढ़ पाया, और कभी महीनों या बरसों तक वे अनछुई रह गईं। लेकिन एक वक्त लाइब्रेरी से सीमित समय के लिए लाई गई किताब का पढऩा तेज रफ्तार हड़बड़ी से होता था, और दूसरों से मांगकर ली गई किताब की रफ्तार भी ठीकठाक रहती थी, क्योंकि पहली किताब लौटाने पर दूसरी के मिलने की भी गुंजाइश रहती थी। लेकिन धीरे-धीरे किताबें कुछ महंगी होती चली गईं, कुछ दूसरे खर्च हावी होते चले गए, और अब पहले के मुकाबले किताबें खरीदना कम हो गया। लाइब्रेरी जाना तो बंद ही हो गया।
लेकिन जब कभी किताबों की दुकान पर जाता हूं, उनके दाम देखकर हैरान रहता हूं। साहित्य की किताबों का हर पन्ना एक-एक रूपए से ज्यादा दाम का रहता है। जिल्द मजबूत रहती है, और उसे खरीदने के लिए जेब और दिल का और अधिक मजबूत होना जरूरी रहता है। आज की चारों तरफ की आपाधापी के बीच किताबें बहुत से लोगों की खरीदी की लिस्ट में प्राथमिकता नहीं पातीं। टीवी, मोबाइल फोन, और इंटरनेट का री-चार्ज ही कोई लोगों पर भारी पड़ता है। अभी चौथाई सदी पहले तक तो इनमें से एक का भी खर्च नहीं था। इन तीनों से जुड़े हुए कई और तरह के खर्च अब लोगों पर आ गए हैं, साइकिल से लोग अब पेट्रोल-गाडिय़ों पर आ गए हैं, और जेब तेजी से खाली होने लगी है। फिर यह भी है कि पढऩे का एक विकल्प टीवी, मोबाइल फोन, सोशल मीडिया, और कम्प्यूटर बन गए हैं। इसके बाद अब किताबें पढऩे की जरूरत सीमित रह गई है, खरीदने की ताकत और भी अधिक सीमित रह गई है।
मेरी साहित्य में दिलचस्पी स्कूली जिंदगी के बाद खत्म हो गई, तब तक चुनिंदा साहित्य पूरा पढ़ लिया था, और बाद में गैरसाहित्यिक सामाजिक विषयों पर पढऩा शुरू हुआ, तो साहित्य कम जरूरी लगने लगा। आज इनमें से किसी भी तरह की किताबें जिस दाम पर बिकती हैं, वे दाम मुझे कुछ हैरान करते हैं। छपाई और जिल्द की 50 रूपए लागत वाली किताब सौ रूपए में बिके, तो उसे काफी लोग खरीद सकते हैं, और ग्राहक अधिक होने से लेखक, प्रकाशक, और दुकानदार, इन सबको कुल मिलाकर फायदा उतना ही हो सकता है जितना कि दाम चार गुना रखकर ग्राहक एक चौथाई पाकर होता होगा। लेकिन आंकड़ों से परे भी एक बड़ा नुकसान किताबों के महंगे होने की वजह से हो रहा है, कि किताब खरीदना और पढऩा, यह चलन के बाहर हो चला है। मैं यह बात आंकड़ों के आधार पर नहीं कह रहा हूं, लेकिन लेखकों, प्रकाशकों, ग्राहकों, और पाठकों से सुनी हुई बातों के आधार पर कह रहा हूं।
यह बात मेरी समझ से परे है कि किसी किताब का जिल्द मजबूत करके उसे महंगे दाम पर बेचा जाए, फिर चाहे गिने-चुने ग्राहक उसे खरीदें। मैंने बरसों पहले एक प्रयोग किया था, 1998 के पहले तक के मेरे अखबारी-लेखन के चुनिंदा हिस्से को लेकर उसका एक संकलन छापा था। इसमें हमने टायपिंग और प्रूफ रीडिंग का खर्च नहीं जोड़ा था, ऑफसेट की छपाई के लिए जो बटर पेपर प्रिंट निकलता था, उसकी लागत भी नहीं जोड़ी थी। मेरे एक दोस्त प्रिंटर, विमल प्रिंटर्स के विजय बांठिया ने अपना समय निकालकर इस पूरी किताब की योजना में मेरी एक-एक फरमाईश पूरी की। इसके लिए बहुत ही कम चलने वाला गैरसफेद, हल्का पीला कागज कहीं से ढूंढकर बुलवाया गया, टाईप फेस से लेकर फॉण्ट, कॉलम, स्पेसिंग जैसी चीजों पर खूब बारीकी से मेहनत की गई। मेरे दो परिचित, भाषा-विज्ञान के प्रोफेसर रमेश चन्द्र मेहरोत्रा, और सुलझी हुई सोच वाले एक नौजवान अपूर्व गर्ग ने मेरे दिए हुए कॉलम, संपादकीय, इंटरव्यू में से अपनी-अपनी पसंद छांटकर बताई। उन्हें भी कोई मेहनताना नहीं दिया गया। पांच हजार कॉपियां छापी गईं, और हर कॉपी पर मेरी जिद पर एकदम साधारण और सस्ते बोरे वाले जुट-कपड़े का कवर चढ़ाया गया। असाधारण बड़े आकार की यह किताब पांच सौ पेज की थी, क्योंकि मुझे छोटे आकार का कोई काम करना अच्छा नहीं लगता था।
पांच सौ पेज पर इतना कुछ था कि सौ रूपए में ऐसी सजिल्द किताब को खरीदना लोगों को 1998 में भी सस्ता लगता था। लेकिन यह एक प्रयोग था, जो कि कोई संभव कारोबारी मॉडल नहीं था। इसमें किसी दुकानदार का कमीशन शामिल नहीं था, मेरे दोस्तों की दुकानों से यह किताब बिकी जो कि पेट्रोल पम्प से लेकर जूतों की दुकान तक थी। और शायद किसी दूसरे लेखक को यह बात अच्छी भी नहीं लगती कि शो-केस में जूतों के बीच उसकी किताब बेचने के लिए रखी जाए। फिर भी हमने 90 फीसदी किताबें अपने अखबार के अलग-अलग शहरों के दफ्तर से, दोस्तों के कारोबार से बेच डालीं। यह कोई कारोबारी तरीका नहीं था, सिर्फ एक प्रयोग था, लेकिन इससे एक बात जरूर समझ में आई कि किताब की लागत काफी कम रहती है, और वह ग्राहक के हाथों तक पहुंचने में चार गुना से अधिक महंगी हो जाती है, कुछ मामलों में शायद उससे भी अधिक।
मैंने अपने एक परिचित और दोस्त प्रकाशक, रायपुर के सुधीर शर्मा से भी यह समझने की कोशिश की कि किताबों को सस्ता क्यों नहीं किया जा सकता? जिल्द जरूरी क्यों है, कागज और छपाई महंगी क्यों जरूरी हैं? उनका कहना है कि लेखक खुद भी चाहते हैं कि किताब उम्दा छपे। मैंने कई लेखकों को भडक़ाने की कोशिश की कि बहुत कम दाम पर किताब छापकर कम दाम में बेचने से खरीददार इतने अधिक हो सकते हैं कि कमाई उतनी ही हो जाए, या उससे भी अधिक बढ़ जाए। लेकिन कई लोगों का यह मानना है कि किताबों के खरीददार सीमित हैं, और किताब महंगी रहे या सस्ती, बिकेगी उतनी ही।
मैंने केरल जैसे राज्य में देखा है जहां एक वक्त तरह-तरह की बहुत सस्ती पत्रिकाएं बिना किसी महंगी छपाई, महंगे कवर के सस्ते में बिकती थीं, और एक-एक ग्राहक वैसी कई पत्रिकाएं खरीदते थे। अब किसी चर्चा में मिसाल देना ही सबसे खतरनाक रहता है, ज्ञानी लोग मलयालम भाषा और हिन्दी के फर्क को तुरंत बता सकते हैं, केरल और हिन्दी प्रदेशों के ग्राहक-पाठक की जागरूकता का फर्क तुरंत बता सकते हैं। लेकिन केरल की मिसाल देना मेरा मकसद नहीं है। उसके बिना भी मैं अपनी इस बात पर कायम हूं कि कमाई कम रखकर और संख्या बढ़ाकर चलाया गया कारोबार अधिक स्थिर और स्थाई रहता है। चीनी कंपनियां एकदम ही कम मुनाफे पर इतना अधिक उत्पादन करके बेच देती हैं कि दुनिया की कोई भी दूसरी कंपनी उनका मुकाबला नहीं कर सकतीं। मेरा मानना है कि किताबों को एकदम सस्ता करके अगर बेचा जाए तो शुरू में प्रकाशक और दुकानदार को अटपटा लग सकता है, लेकिन धीरे-धीरे इन दोनों को भी यह समझ आ सकता है कि एक-एक किताब पर सौ-सौ रूपए कमाने के बजाय उससे चार गुना किताबों पर 25-25 रूपए कमाना अधिक फायदे का इसलिए होगा कि ग्राहक-पाठक नाम के जंतु की नस्ल भी आगे बढ़ेगी। आज गिनी-चुनी मुर्गियों का गला काटकर लोग खुश हैं, बजाय इसके कि रोज उसके अंडे का फायदा पाएं। ग्राहक अगर बनेंगे, बढ़ेंगे, तो वे किताबों के कारोबार को भी आगे बढ़ाएंगे।
भारत में सूचना का अधिकार आए 20 बरस हो रहे हैं, और देश के साथ-साथ हर प्रदेशों में ये आयोग जनता को सूचना के अधिकार के तहत सरकारों से न मिलने वाली जानकारी को दिलाने के लिए बनाए गए हैं। जिस सोच के साथ यह अधिकार बना था, और यूपीए सरकार के समय कांग्रेस पार्टी के काबू के बाहर के कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं का यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी पर सीधा प्रभाव था, और उसी के चलते यह कानून बना था। बाद में हर पार्टी की सरकारों को यह समझ में आया कि यह तो सरकारों का भांडाफोड़ कर देने वाला कानून है, तो उसे कमजोर करने की तरह-तरह की राजनीतिक साजिशें शुरू हो गईं। अभी आई एक रिपोर्ट बताती है कि प्रदेशों के 29 आयोगों में लाखों शिकायतें पड़ी हुई हैं, और वहां सदस्यों की कुर्सियां खाली हैं, सरकारी विभागों से सूचना न मिलने के खिलाफ की गई अपीलें धूल खा रही हैं, और इस कानून का मकसद ही शिकस्त पा चुका है। इस क्षेत्र में काम करने वाले एक एनजीओ, सतर्क नागरिक संगठन ने आंकड़े सामने रखे हैं कि आज कुछ राज्यों में प्रदेश सूचना आयोग जिस रफ्तार से वहां आई अपीलों को निपटा रहा है, उस हिसाब से वहां आज की अपील पर फैसले में 29 बरस लग सकते हैं। तेलंगाना में 29, त्रिपुरा में 23, छत्तीसगढ़ में 11, एमपी और पंजाब में 7-7 साल लग सकते हैं।
छत्तीसगढ़ में सूचना आयोग में मुख्य सूचना आयुक्त और दो आयुक्तों के खाली पद अदालती स्थगन से नहीं भरे जा सके हैं, और इस स्थगन के पहले भी यहां की कुर्सियां खाली पड़ी थीं। आज इस छोटे से राज्य में 43 हजार मामले सूचना आयोग में पड़े हैं। अब तक आयोग ने जो आदेश दिए थे उनमें से बहुत से ऐसे हैं जिन पर आयोग ने सरकारी अधिकारियों पर जुर्माना लगाया है, और ऐसी साढ़े 5 करोड़ की जुर्माना राशि भी आयोग तक अभी नहीं आई है। हैरानी की बात यह है कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में अभी जून के महीने तक कुल साढ़े 18 हजार आवेदन ही सूचना आयोग में थे, जो कि छत्तीसगढ़ के आधे से भी कम हैं।
जिन लोगों को सूचना आयोग की जरूरत और उसके असर का अंदाज नहीं है, उनके लिए यह बताना काम का होगा कि सरकारी विभागों से आमतौर पर भ्रष्टाचार और गड़बड़ी से जुड़ी जानकारी लोग आरटीआई में मांगते हैं, और विभाग की पूरी दिलचस्पी इसमें रहती है कि कोई जानकारी किसी तरह न दी जाए। कहावत-मुहावरे में सांप के किसी खजाने पर कुंडली मारकर बैठने की जो बात कही जाती है, वह सांप पर तो लागू नहीं होती, लेकिन सरकारी विभागों पर जरूर लागू होती है, जहां अधिकारियों का निजी, और वर्गहित इससे जुड़ा रहता है कि कोई जानकारी बाहर न चली जाए। सरकार में नीचे से लेकर ऊपर तक यही सोच रहती है कि आरटीआई को बेअसर कैसे किया जाए। यही वजह है कि कई-कई साल सूचना आयुक्तों की कुर्सियां खाली रखी जाती हैं। झारखंड में अभी पिछले बरस तक पांच साल से सूचना आयोग ठप्प पड़ा हुआ था। केन्द्रीय सूचना आयोग में भी नियुक्तियां सुप्रीम कोर्ट के कई बार के आदेश के बाद हो पाईं।
लेकिन यह गिरावट सिर्फ सूचना के अधिकार के मामले में नहीं है, देश में और प्रदेशों में जितने तरह के संवैधानिक आयोग बनाए गए हैं, उन सबमें नियुक्तियां सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी की मर्जी से होती हैं, और फिर वहां मनोनीत लोग अपने को नियुक्त करने वाले लोगों के हित बचाने में लग जाते हैं। राज्य और केन्द्र के स्तर पर मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग, अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग, बाल संरक्षण परिषद या आयोग, पर्यावरण से जुड़ी हुई संवैधानिक संस्थाएं, कॉलोनी और निर्माण से जुड़े हुए रेरा जैसे संवैधानिक संगठन, ऐसे बहुत से दफ्तर हैं जिन्हें बनाया तो इसलिए गया था कि वे सरकार में, या सरकार द्वारा किए गए गलत कामों पर नजर रखें, कार्रवाई करें, सरकारों को रोकें। लेकिन इनमें उन्हीं राज्यों की अदालतों या सरकारी विभागों से रिटायर होने वाले लोगों को भर दिया जाता है, या फिर सत्तारूढ़ पार्टी के पसंदीदा लोगों को। मतलब यह कि सरकार के बिठाए पिट्ठू मिट्ठू की तरह हाँ में हाँ मिलाते हैं, और जनता को मिलने वाला एक संवैधानिक हक मिलना शुरू होने के पहले ही खत्म होना शुरू हो जाता है।
मैं बरसों से इस बात को उठाते आ रहा हूं कि किसी भी राज्य के ऐसे किसी भी संवैधानिक आयोग में, या किसी नियामक संस्था में उस राज्य के लोगों को मनोनीत नहीं करना चाहिए। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक टैलेंट-पूल बनाना चाहिए, और कोई राज्य अपने संवैधानिक ओहदों के लिए उस पूल में से ही लोगों को छांट सके, या फिर केन्द्रीय स्तर पर बनाई गई एक संवैधानिक संस्था उसी तरह लोगों को किसी राज्य भेज सके, जिस तरह अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को केन्द्रीय स्तर से ही तय करके राज्यों में भेजा जाता है।
शहरों में गाड़ियां तोहफों से लदी हुई दिख रही हैं, पीछे की सीटें तरह-तरह के बक्सों से भरी हुई हैं और सरकारी कॉलोनियों, संपन्न बस्तियों, (बड़े पत्रकारों के घरों पर भी) तोहफे पहुंच रहे हैं। जो लोग ताकत की कुर्सियों पर बैठे हुए हैं उनके पड़ोसी भारी मन के साथ देखते ही रह जाते हैं कि चुनिंदा पड़ोसियों के घर किस तरह आवाजाही लगी हुई है। यह तो दुनिया का रीति-रिवाज है कि जब तक जो लोग किसी प्रभाव के पद पर रहें, उन्हें उगते, और उगे हुए सूरज की तरह सलामी मिलती रहती है, रिटायर होते ही, या ताकत के किसी ओहदे से हटते ही जिस तरह लोगों के यहां आना-जाना खत्म हो जाता है, उससे भी शायद रिटायर्ड लोग अधिक रफ्तार से बूढ़े होने लगते हैं। ताकत की अधिक चर्चा का कोई मतलब नहीं है, लेकिन तोहफों की चर्चा जरूर की जा सकती है।
कई लोगों के तोहफे ऐसे रहते हैं कि जिनमें पैकिंग ही सबकुछ रहती है। बड़े-बड़े बक्से, भीतर मखमली कपड़ों से बने हुए खांचे में रखी हुई कांच की बोतलों में मानो नमूने के लिए थोड़ा-थोड़ा सा मेवा रखा रहता है। मेवे और पैकिंग के अनुपात को देखें तो छाती बैठने लगती है और लगता है कि इस पैकिंग की जगह सिर्फ मेवा ही भेज दिया जाता तो वह दस गुना हो सकता था। जितने अधिक संपन्न लोगों की तरफ से, और जितने ताकतवर लोगों को तोहफे जाते हैं, उनमें पैकिंग का अनुपात उतना ही अधिक होता है। बड़ी सी डोली के भीतर छोटी सी नाजुक और छरहरी दुल्हन जिस तरह एक कोने में सिमटी रहती है, कुछ उसी तरह काजू-किशमिश बड़ी सी पैकिंग में किनारे बैठे रहते हैं। बच्चों की छीना-झपटी में कुछ मेवा, कुछ चॉकलेट और कुछ मिठाई जिस रफ्तार से खत्म होते हैं, उतने ही लंबे वक्त तक ये पैकिंग छाती पर बैठकर मूंग दलती रहती है। महंगी और खूबसूरत पैकिंग को फेंकते बनता नहीं, किसी को तोहफे में दी नहीं जा सकती, और वह घर के एक कोने में सहेजी हुई, और साथ-साथ उपेक्षित भी पड़ी रह जाती है। उसकी जिंदगी दीवाली की रौशनी में कुछ मिनट मंडराकर जलकर गिर जाने और फिर मर जाने वाले पतंगों सरीखी ही रहती है। कुछ मिनटों में मेवा पेट में और पैकिंग छाती पर।
त्यौहारों के दिखावे से परे अगर पर्यावरण के हिसाब से देखा जाए तो सारे ही महंगे तोहफे धरती पर बड़ा महंगा बोझ बढ़ाते हैं, और छोड़ जाते हैं। इतनी पैकिंग को बनाने में जितने सामान लगते हैं, और जितनी बिजली खर्च होती है, उससे धरती पर कार्बन फुटप्रिंट खासा बढ़ता है। कम से कम उसके भीतर के खाने-पीने के माल-मत्ते के अनुपात में। सौ ग्राम खाओ और पांच सौ ग्राम छाती पर ढोते रह जाओ।
मुझे सबसे अच्छे तोहफे वे लगते हैं जो किसी जूट की, या रेशमी कपड़े की मामूली सी थैली में रखे हुए मेवे के मामूली से पैकेट रहते हैं। सौ ग्राम पैकिंग और नौ सौ ग्राम मेवा। यह जरूर हो सकता है कि अभी-अभी एक अंबाइन की एक फोटो आई थी जिसमें वह एक ऐसा बटुआ थामे हुए थी जिसमें मेवा तो सौ ग्राम भी नहीं आया रहता, लेकिन जिसका दाम 15 करोड़ रुपए बताया जा रहा है। 18 कैरेट वाइट गोल्ड से बना हुआ यह बटुआ ताश की एक गड्डी भी नहीं समा सकेगा, लेकिन जिसके ऊपर हीरे ही हीरे जड़े हैं, और जिसे दुनिया का सबसे महंगा बटुआ बताया जा रहा है। मुझे आने वाले तोहफों में से कई इसी दर्जे के लगते हैं। हो सकता है कि अंबाइन को अपने दो-चार क्रेडिट कार्ड और एक मोबाइल फोन के लिए 15 करोड़ की यह पैकिंग अच्छी लगती हो, लेकिन मेरे लिए तो दीवाली के बाद ये खाली बक्से काजू-किशमिश के गिने-चुने दानों की याद दिलाते हुए मुंह चिढ़ाते बैठे रहते हैं।
आज 12 अक्टूबर को राम मनोहर लोहिया की पुण्यतिथि है, आज ही के दिन वे 1967 में 57 बरस की उम्र में गुजर गए थे। वे भारत की कुछ सबसे प्रमुख यूनिवर्सिटी, बीएचयू, और कलकत्ता में पढ़े थे, और उसके बाद तीन-चार बरस जर्मनी में भी। वे अंग्रेजी और दूसरी भारतीय भाषाओं से अनजान व्यक्ति नहीं थे, लेकिन गांधीवादी परिवार के होने के नाते वे शुरू से ही गांधी के आंदोलन से जुड़ गए, और कांग्रेस से भी। वे जर्मनी में रहते हुए भी उस वक्त के अविभाजित भारत के लाहौर में भगत सिंह को फांसी दिए जाने के खिलाफ वहां पर प्रदर्शन करते रहे, और बर्लिन विश्वविद्यालय से पीएचडी हासिल करने के बाद भारत आकर राजनीतिक आंदोलनों, और स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े रहे। नेहरू-गांधी और सुभाषचन्द्र बोस जैसे अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों के साथ उनका लगातार जीवंत राजनीतिक संपर्क रहा, इन लोगों से लोहिया की सहमति-असहमति के दौर भी चलते रहे, वे नेपाल से लेकर गोवा तक के आंदोलनों में उनकी ऐतिहासिक भागीदारी रही।
और एक वक्त ऐसा भी आया जब आजाद भारत में लोहिया जनसंघ के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे थे।
लेकिन किसी की जन्मतिथि, या पुण्यतिथि पर लिखने की मेरी कोई नीयत रहती नहीं है। लोहिया का अंग्रेजी भाषा के बारे में लिखा गया एक बयान आज सामने आया जिससे यह लिखने का सूझा। उनका कहना था- ‘अंग्रेजी हिन्दुस्तान को ज्यादा नुकसान इसलिए नहीं पहुंचा रही है कि वह विदेशी है, बल्कि इसलिए कि भारतीय प्रसंग वह सामंती है। आबादी का सिर्फ एक प्रतिशत छोटा सा अल्पमत ही अंग्रेजी में ऐसी योग्यता हासिल कर पाता है कि वह इसे सत्ता या स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करता है। इस छोटे से अल्पमत के हाथ में विशाल जनसमुदाय पर अधिकार कर शोषण करने का अधिकार है अंग्रेजी।’
अंग्रेजी भाषा के बारे में लोहिया के कहे हुए को उनके नाम से परे भी एक तथ्य और तर्क के रूप में सोचने की जरूरत है। फिलहाल तो चूंकि उनके नाम के साथ यह किताबों में अच्छी तरह दर्ज है कि उन्होंने इस विदेशी भाषा के बारे में क्या कहा था, इसलिए मैं उनके नाम के साथ ही कुछ और बातें यहां पर दे रहा हूं। उनका मानना था- अंग्रेजी सिर्फ एक भाषा नहीं, बल्कि सत्ता का औजार बन चुकी है, जिसने भारत के लोकतंत्र, और समानता दोनों को कमजोर किया। उन्होंने कहा था कि अंग्रेजों के जाने के बाद भी अंग्रेजी शासन की भाषा बनी रही, इसलिए सत्ता उन्हीं लोगों के हाथ में रही, जो अंग्रेजी जानते थे। उन्होंने लिखा था भारत में अंग्रेजी जानने वाले लोग नए गोरे बन गए हैं। उनका कहना था अंग्रेजी से समाज में एक भाषाई वर्ण व्यवस्था बन गई है जिसमें ऊपर अंग्रेजी बोलने वाले सत्ता और नौकरशाही से जुड़े वर्ग हैं, और नीचे हिन्दी, उर्दू, तमिल, बंगला आदि बोलने वाले लोग। लोहिया ने कहा था कि अगर सरकार की भाषा जनता की भाषा न हो, तो लोकतंत्र एक मजाक बन जाता है, जिस लोकतंत्र की भाषा जनता न समझे, वह लोकशाही नहीं, अफसरशाही है।
वे चाहते थे कि संसद, अदालत, विश्वविद्यालय, और प्रशासन सभी जनभाषाओं में चलें ताकि जनता खुद निर्णय प्रक्रिया में भाग ले सके। उनका कहना था कि अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा में गरीबों को हमेशा नीचे, और अमीरों को ऊपर रखा क्योंकि जो बच्चे अंग्रेजी नहीं जानते, उनकी योग्यता कभी साबित ही नहीं हो सकती। लोहिया का कहना था कि अंग्रेजी से न सिर्फ आर्थिक बल्कि मानसिक गुलामी भी पनपी है जिससे एक वर्ग खुद को दूसरों से ज्यादा समझदार समझने लगा। उन्होंने इसे मानसिक स्वतंत्रता से जोडक़र कहा- जो अपनी भाषा छोड़ देते हैं वे सोचने की आजादी खो देते हैं। अंग्रेजी में सोचने वाले भारतीय, भारतीय नहीं रह जाते, वे अंग्रेज मानसिकता वाले बन जाते हैं। अदालतों में अंग्रेजी देखकर लोहिया ने नाराजगी से कहा था- जहां न्याय की भाषा जनता की नहीं, वहां न्याय जनता का नहीं। उन्होंने कहा कि अदालतों की अंग्रेजी भाषा में गरीबों को न्याय पाने से वंचित रखा, क्योंकि वे न मुकदमा समझ सकते थे, न दलीलें।
1950-60 के दशक में लोहिया ने अंग्रेजी हटाओ आंदोलन चलाया। वे मानते थे कि अंग्रेजी हटाना सिर्फ भाषा का नहीं, बल्कि समानता और आत्मसम्मान की लड़ाई है। उनका अंग्रेजी विरोध कोई संकीर्ण राष्ट्रवाद नहीं था, बल्कि समानता का आंदोलन था।
दरअसल, 1967 में लोहिया के जाने के बाद से अब तक गंगा में बहुत सा गंदा पानी बह चुका है, इसलिए उनके सारे तर्कों को आज तथ्यों की तरह नहीं सोचा जा सकता। जब उन्होंने अंग्रेजी हटाओ आंदोलन चलाया, तो भारत में तीन चौथाई से अधिक लोग पूरी तरह निरक्षर थे, और अंग्रेजी पढऩे-लिखने वाले लोग एक फीसदी से भी कम थे। आज तीन चौथाई से अधिक लोग साक्षर हैं, और दस-बारह फीसदी लोग अंग्रेजी को अलग-अलग स्तर तक जानते-समझते हैं। फिर यह भी कि 1951 में अंग्रेजी जानने वाली आधा फीसदी आबादी अब 20-25 गुना बढक़र 10-12 फीसदी हो चुकी है। लेकिन एक बात जो उस वक्त से आज तक नहीं बदली है, वह यह है कि बड़ी अदालतों, और सरकार के ऊंचे स्तर के सारे कामकाज आज भी अंग्रेजी में होते हैं।
भारत के बहुत से राष्ट्रवादी नेता समय-समय पर इस देश के विश्वगुरू बनने के बारे में काफी कुछ कहते हैं, और कई नेता तो भारत के विश्वगुरू बन चुकने की बात भी कहते हैं। भारत की संस्कृति, और उसके इतिहास पर गर्व करने वाले नेताओं के नाम की लंबी फेहरिस्त बन सकती है जो कि इसे विश्वगुरू की कुर्सी पर बैठे देखना चाहते हैं। बिना लोगों के नाम के अगर सिर्फ उनकी टिप्पणियां मैं यहां लिखूं, तो किसी ने कहा है कि महत्व इस बात में है कि भारत विश्वगुरू बने, और अब दुनिया के प्रति भारत के योगदान देने की घड़ी आ गई है। एक और बयान में कहा गया कि भारत को एक ऐसी भूमिका निभाने की ओर बढऩा चाहिए, जहां वह ज्ञान, नैतिकता, संस्कृति आदि में विश्वगुरू की मिसाल बन सके। एक बयान में कहा गया कि भारत के विश्वगुरू बनने से रोकने के लिए वैश्विक और आंतरिक स्तर पर गलत धारणाएं फैलाई जा रही है। देश के कुछ बड़े-बड़े चर्चित मंत्री यह कहते हैं कि भारत को विश्व नेतृत्व के लिए तैयार रहना चाहिए, कुछ यह भी कहते हैं कि भारत विश्व नेतृत्व बन चुका है।
ये बयान किसके हैं, और कब दिए गए हैं, यह अहमियत नहीं रखता। फिर हमें इस देश के विश्वगुरू बनने से भी कोई दिक्कत नहीं है, क्योंकि दुनिया में गुरू शिष्य प्रणाली हमेशा से रहती आई है, और आज भी किसी न किसी रूप में यह जारी है। अब ऐसे में हर कोई गुरू बनना चाहेंगे, और अगर भारत के लोग यह चाहते हैं कि उनका देश बाकी देशों के शिष्य बनने की कीमत पर खुद गुरू बने, तो इस चाहत में कुछ भी अटपटा नहीं है। बस यही सोचने की जरूरत है कि क्या इस चाहत को पूरा करने के लिए यह देश तैयार है? क्योंकि अधूरी चाहत के चलते राहत नहीं मिल पाती है।
अब हम थोड़ा सा गुरू शिष्य प्रणाली को देखें, तो हर गुरू कभी न कभी शिष्य रहते हैं, और जब वे एक ईमानदार और गंभीर शिष्यभावना से सीखते हैं, तो ही वे आगे चलकर कभी गुरू बनने के लायक हो सकते हैं। गुरू बनने के लिए कोई परमाणु रहस्य नहीं लगता, लेकिन अपने आपको शिष्य मानकर खासा अरसा सीखना जरूर पड़ता है, तभी कोई गुरू बन सकते हैं। भारत में पहली-दूसरी के बच्चों को पढ़ाने के लिए भी लोगों को खुद बारह बरस स्कूल, और कम से कम छह बरस कॉलेज की पढ़ाई करनी पड़ती है, तब कहीं जाकर वे प्रायमरी के गुरू बन सकते हैं। अब ऐसे में दुनिया का गुरू बनने के लिए दुनिया से थोड़ा सा अधिक समझदार, अधिक जानकार, और अधिक सरोकार वाला होना तो चाहिए ही।
किसी को भी शिष्य बनने के लिए यह जरूरी है कि उनके दिमाग में यह बड़ा साफ रहे कि उनका क्या-क्या सीखना बाकी है। अब मिसाल के तौर पर हम एक सभ्य, और गुरू बनने के अभिमान से ग्रस्त इंसान को देखें, तो उन्हें साफ-सुथरा रहना, और आसपास को साफ-सुथरा रखना आना चाहिए। जिस कुदरत के बनाए हुए कुत्ते-बिल्ली भी अपने बैठने की जगह को साफ करके बैठते हैं, उसी कुदरत के बनाए हुए इंसान योरप जैसे सभ्य इलाकों में तो हर जगह को साफ-सुथरा रखते हैं, लेकिन इस विश्वगुरू को अपनी दीवारों पर जगह-जगह लिखना पड़ता है कि देखो गधा पेशाब कर रहा है। चारों तरफ जब तक गंदगी फैलाने का हक न मिल जाए, उसका इस्तेमाल न हो जाए, तब तक लोगों को यह भरोसा ही नहीं होता कि सार्वजनिक सम्पत्ति उनकी अपनी है। अपने आपको यह आत्मविश्वास दिलाने के लिए लोगों को हर साफ-सुथरी जगह को गंदी करने का हक लगता है, ऐसा गंदा विश्वगुरू दुनिया के साफ-सुथरे हिस्सों को गुरू मानने के लिए कुछ अटपटा लगेगा।
दुनिया का एक बड़ा हिस्सा बड़ा सभ्य है, और जहां पर लोगों को बारी-बारी से कुछ लेना या देना रहता है, वहां लोग कतार में लगते हैं। जापान की ट्रेनों की तस्वीरें आती हैं कि किस तरह ट्रेन के बाहर लोग कतार लगाए खड़े रहते हैं, और आखिरी मुसाफिर के उतर जाने के बाद चढऩे वाले चढऩा शुरू करते हैं। देश के दर्जनों सभ्य देशों में यही हाल है। भारत में राशन से लेकर सिनेमा टिकट तक, और ट्रेन से लेकर बस तक जिस तरह की धक्का-मुक्की चलती है, वह विश्व गुरू में थोड़ी सी अटपटी लगेगी, और विश्वगुरू का नियुक्ति-पोस्टिंग ऑर्डर लेकर काम संभालने के पहले कतारों के बारे में थोड़ा सोचना पड़ेगा।
जिस देश की 99 फीसदी गंभीर और वजनदार गालियां माँ और बहन पर केन्द्रित हैं, और उनके भी बदन के कुछ खास हिस्सों तक, और बची एक फीसदी गालियां देश के एक खास प्रदेश में बेटी पर केन्द्रित हैं, तो विश्वगुरू के मुंह से यह सब शिष्यों को थोड़ा सा अटपटा लगेगा। शिष्यों के सामने अच्छी मिसाल पेश करनी पड़ेगी, और 2047 में विश्वगुरू बनने के पहले तक इस आदत को छोडऩे के लिए नई पीढ़ी के सामने अभी से बेहतर मिसाल रखनी होगी। महिलाओं के साथ इस देश में जो सुलूक होता है, उसे योरप और पश्चिम के बाकी देश थोड़ा सा अटपटा पाएंगे, और उम्मीद करेंगे कि गुरूजी जिंदा महिलाओं की उतनी इज्जत तो करें, जितनी कि वे मिट्टी-पत्थर की प्रतिमाओं की करते हैं। हालांकि शिष्यों की विश्वगुरू से ऐसी उम्मीद कुछ ज्यादती होगी, फिर भी पश्चिम की सोच में कुछ खोट है, और वहां के छात्र-देश विश्वगुरू की क्लास में पीछे से चॉक वगैरह फेंक भी सकते हैं, इसलिए लैंगिक समानता के बारे में कुछ सोचना चाहिए।
जिन देशों में ईमानदारी से टैक्स पटाने, बिना किसी के देखे टिकट खरीदने की बुरी आदत पड़ी हुई है, उन्हें भी यह विश्व गुरू शुरू में कुछ निराश कर सकता है, जब तक कि विश्व गुरू उन देशों को भी टैक्स चोरी न सिखा दे, और बारह बरस के बच्चे को दूध पीता बताकर बिना टिकट सफर करना न सिखा दे। विश्वगुरू और शिष्य देशों के बीच रिश्तों की एक बुनियाद बनाना जरूरी रहेगा, और उसके लिए विश्वगुरू को दूसरे देशों को अपने टक्कर का भ्रष्ट बनाने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ेगी, यह काम आसान नहीं रहेगा।
नेपाल में हुए बड़े जनआंदोलन के बाद के सत्तापलट को लेकर भारत में भी यह सुगबुगाहट चल रही थी कि श्रीलंका के बाद बांग्लादेश, और बांग्लादेश के बाद नेपाल, इन सत्तापलटों के बाद क्या भारत में भी उसका कुछ असर हो सकता है? भारतीय संसद के नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने संविधान बचाने, और चुनाव आयोग का भांडाफोड़ करने के अभियान के तहत भारत में भी नौजवानों के बारे में यह कहा कि वे लोग संविधान बचाएंगे। नेपाल के जनआंदोलन से शुरू शब्दावली, जेन-जी, यानी 25-30 बरस उम्र के नौजवान, जेन-जी का इस्तेमाल राहुल गांधी ने किया, तो उस पर बड़ी जलती-सुलगती प्रतिक्रिया आई कि वे इस देश में लोगों को बगावत के लिए उकसा रहे हैं। लेकिन अभी उस राजनीतिक विवाद पर मैं बात नहीं कर रहा। मैं लद्दाख में चल रहे जनआंदोलन में अचानक हिंसा आने, और आगजनी करने के बाद वहां के अहिंसक आंदोलनकारी सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी से उपजे माहौल की बात कर रहा हूं। सोनम को लेह के 15 डिग्री तापमान से गिरफ्तार करके राजस्थान के जोधपुर में 36 डिग्री तापमान पर ले जाकर वहां की जेल में रखा गया है, और इसे लोग आंदोलन को तोडऩे की एक सरकारी हरकत बता रहे हैं।
अब फेसबुक पर एक पत्रकार-साहित्यकार दोस्त, दिनेश श्रीनेत ने आज ही यह लिखा है कि सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने अलग-अलग हिन्दी साहित्यकारों के फेसबुक पेज पर जाकर देखा कि इस ताजा जलते-सुलगते मुद्दे पर कौन क्या लिख रहे हैं, तो उन्हें बड़ी निराशा हुई कि हिन्दी साहित्यकार अपने आपमें मगन पड़े हुए हैं, अपनी किताबों, आयोजनों, और मंच की बात कर रहे हैं, रॉयल्टी और पुरस्कार की बात कर रहे हैं, लेकिन वे देश के सबसे ज्वलंत मुद्दों, और उनके पीछे के आंदोलनों पर कुछ भी नहीं लिख रहे हैं। उनकी निराशा हम आज इसी पेज पर इस कॉलम के नीचे देने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन उससे परे कुछ और बातों पर सोचने की जरूरत है।
हिन्दी साहित्य में कई बड़े-बड़े साहित्यकारों को लेकर यह चर्चा उठती है कि जिंदगी के असल मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं होती, और लोग अपनी-अपनी पसंदीदा विधा में गुलमोहर के सुर्ख रंग से लेकर बादलों तक पर लिखते रहते हैं, और बस्तियों को जलाने से उठे काले बादल उन्हें नहीं दिखते, और न ही बिखरा हुआ सुर्ख लहू उनकी कोई टिप्पणी पाता। बहुत से लोग नामी-गिरामी साहित्यकारों की वकालत करते हैं कि वे अखबारों के लिए रिपोर्टिंग तो कर नहीं रहे हैं कि हर ताजा घटना पर उन्हें लिखना ही है। वे अपनी विधा में लिखी गई कविताओं और कहानियों में भी अपने ‘किस्म से, अपनी शैली में’ प्रतिरोध दर्ज करते हैं।
मैं इन दोनों बातों के बीच एक अलग ही शून्य में देखकर यह सोचता हूं कि किसी कवि या साहित्यकार को, या उपन्यासकार को आसपास हो रही घटनाओं पर साहित्य की रचना करना जरूरी न लगे, वहां तक तो बात ठीक है, लेकिन सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हुए भी जो लोग आज की दुनिया के जुल्म और ज्यादती पर कुछ भी नहीं लिखते, क्या वे किसी भी किस्म का लेखक होने का हक रखते हैं? मैं कविता पढ़ता नहीं, समझता भी नहीं, लेकिन इतना समझता हूं कि जिस कवि के पास कविता लिखने को शब्द हैं, भाव हैं, उसके पास फिलीस्तीन के बारे में, नेपाल के बारे में, किसी भीड़त्या के बारे में, अफगानिस्तान की महिलाओं के बारे में कुछ भी, एक टिप्पणी भी लिखने लायक शब्द तो रहते होंगे? जो लेखक, कवि, साहित्यकार ऐसे ऐतिहासिक जुल्म के बारे में, बेइंसाफी के बारे में अगर कोई टिप्पणी लिखना भी जरूरी नहीं समझते, तो यह समाज को उनसे मिलने वाली एक आम निराशा है, इसका उनकी साहित्यिक विधा से कुछ भी लेना-देना नहीं है।
मैं कुछ और अधिक खुलासे से अपनी बात रखूं, तो वह यह है कि कोई कवि कवि होने के अलावा साक्षर भी तो है, और कवि होने के अलावा इंसान भी तो है, उसके लिए कविता से परे भी कुछ शब्द लिखना मुमकिन है। इसके बावजूद अगर गाजा को लेकर, अपने देश की साम्प्रदायिक हिंसा को लेकर कुछ वाक्यों की कोई छोटी सी टिप्पणी लिखने के बजाय अगर वे अपने ही सम्मान, अलंकरण, पुरस्कार, और काव्यपाठ में मगन हैं, तो फिर वे कवि हो सकते हैं, मेरी नजर में इंसान नहीं हो सकते। मेरा तो यही मानना है कि इंसान और जानवरों में शायद सामाजिक समझ और सरोकार का ही एक बड़ा फर्क है जो कि इंसानों को अधिक अहंकार का हकदार बनाता है। लोग अगर आसपास बिखरे लहू के लालरंग के बजाय किसी सुहागन के सिंदूर के लालरंग पर कविता लिखते हैं, तो यह उनका बुनियादी हक तो है, लेकिन यह मुझे हक्का-बक्का भी करता है।
जिनके पास आंखें हैं, और जो देख सकते हैं, जिनके पास कान हैं, और जो सुन सकते हैं, जिनके पास नाक है, और जो आसपास जलती हुई चीजों को सूंघ सकते हैं, जिनके पास दिमाग है, और वे आसपास की हिंसा और बेइंसाफी को समझ सकते हैं, वे अगर अपने होठों और जुबान का इस्तेमाल इन मुद्दों पर न करें, अपनी की-बोर्ड पर दौड़ती उंगलियों से दुनिया के जख्मों के लिए म र ह म टाईप न कर सकें, तो इसमें उनके भीतर के कवि की कोई कमी नहीं है, उनके भीतर की तथाकथित इंसानियत की ही कमी है। मैंने दिनेश श्रीनेत के जिस लेख के कुछ हिस्से पढक़र ही इस मुद्दे पर लिखना तय किया, हो सकता है कि मैं उससे कहीं पर प्रभावित रहूं, और कहीं मैं उससे अलग भी सोच और लिख रहा होऊंगा। लेकिन मेरा यह मानना है कि जिन लोगों के पास अक्षर हैं, वे दुनिया के कुछ सबसे गहरे जख्मों के हिज्जे भी न लिख सकें, तो उन्हें साक्षर क्यों माना जाए? साक्षर होना तो पढऩे-लिखने की एक बड़ी छोटी सी तकनीकी क्षमता है, जिसे कोशिश करके तोते को भी सिखाया जा सकता है। लेकिन तोते को सामाजिक-सरोकारी शायद नहीं बनाया जा सकता।
हॉलैंड की संसद में कल एक महिला सांसद ने खलबली मचा दी जब वे फिलीस्तीन के झंडे के रंगों का ब्लाऊज पहनकर वहां पहुंची। जाहिर तौर पर यह टॉप फिलीस्तीन के साथ हमदर्दी और एकजुटता दिखाने के लिए था। सदन के भीतर स्पीकर वहां की धुर दक्षिणपंथी पार्टी के थे, और उन्होंने इस पर आपत्ति की, और कहा कि सांसदों के कपड़े निष्पक्ष रहने चाहिए। लेकिन यह महिला सांसद सदन से बाहर जाने के पहले कुछ वक्त अपने अधिकार और जिम्मेदारी पर अड़ी रही। उसने स्पीकर को चुनौती भी दी कि अगर वह नियम तोड़ रही है तो उसे शारीरिक रूप से सदन से निकाल दिया जाए, लेकिन फिर वह वहां से बाहर चली गई।
फिर जब वह सदन में लौटी तो उसने तरबूज की तस्वीर वाला टॉप पहन रखा था जो कि फिलीस्तीन का ही प्रतीक माना जाता है। तरबूज का छिलका हरे रंग का होता है, भीतर गूदा लाल होता है, बीज काले होते हैं, और छिलके और गूदे के बीच का रंग सफेद होता है। इस तरह तरबूज फिलीस्तीनी झंडे के हर रंगों वाला होता है। अब इस पर विरोध करने का हक सदन में किसी को नहीं था, और सदन की कार्रवाई का यह पूरा हिस्सा सोशल मीडिया पर उसे पूरी दुनिया की तारीफ दिला रहा है, लगभग पूरी दुनिया की, मुझे यह उम्मीद नहीं करना चाहिए कि फिलीस्तीनियों की मौत का जश्न मनाते हुए लोगों को भी इस महिला का यह हौसला सुहा रहा होगा।
हॉलैंड की डच-पॉलिटिक्स इन दिनों दक्षिणपंथियों के उभार की शिकार है, और सदन में जब कुछ लोगों ने फिलीस्तीनी झंडे वाले पिन अपने कोट या टाई पर लगा रखे थे, दक्षिणपंथी सांसदों ने गाजा में इजराइली बंधकों के समर्थन में पीली रिबीन बांध रखे थे। हॉलैंड में आज सरकार ने गाजा में इजराइली फौजी कार्रवाई को जनसंहार मानने से इंकार कर दिया है, और वहां के कई सांसद इसका विरोध कर रहे हैं। इस सांसद, एस्थर आउवहांड, ने अपने देश की सरकार की नैतिक मुर्दानगी का विरोध करने के लिए फिलीस्तीनियों के साथ ऐसी एकजुटता दिखाई थी।
अपने देश की सरकार की नीतियों के खिलाफ जाकर, देश के बहुसंख्यक ईसाई तबके की नाराजगी का खतरा उठाकर भी एक महिला सांसद ने यह हौसला दिखाया है। अभी मेरे पास यह लिखने की कोई वजह नहीं है कि हॉलैंड की ईसाई बहुसंख्यक जनता इस महिला सांसद के साथ रहेगी, या उसके विरोध करेगी, फिर भी राजनीतिक रूप से मैंने इसे खतरा उठाना लिखा है। अब लिखते-लिखते जब मैं इस बारे में पढ़ रहा हूं तो भरोसेमंद अंतरराष्ट्रीय मीडिया के आंकड़े बता रहे हैं कि हॉलैंड की 65 फीसदी आबादी अपनी सरकार की इजराइल-गाजा नीति के खिलाफ है। हॉलैंड का मीडिया बताता है कि कुल 18 फीसदी लोग सरकारी नीति का समर्थन कर रहे हैं। 60 फीसदी वोटर चाहते हैं कि वहां का मंत्रिमंडल इजराइल के खिलाफ अधिक कड़ा प्रस्ताव पारित करे। 59 फीसदी लोग यह मानते हैं कि इजराइली कार्रवाई अनुपातहीन है। आधे से ज्यादा डच आबादी यह मानती है कि हॉलैंड को, इजराइल को हथियारों की सप्लाई बंद कर देना चाहिए, और इजराइली सामानों का बहिष्कार भी करना चाहिए। 33 फीसदी लोग तुरंत ही एक फिलीस्तीनी राज्य को मान्यता देने के पक्ष में हैं, और इससे भी अधिक लोग वहां पर मानवाधिकार कुचले जाने को लेकर फिक्रमंद हैं। आधी से ज्यादा आबादी यह मानती है कि इजराइल नस्लभेद कर रहा है। आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा, 64 फीसदी यह मानता है कि गाजा में तुरंत युद्धविराम होना चाहिए, और यह भी कि गाजा में जितनी मानवीय मदद की जरूरत है उतनी जाने देने की इजाजत इजराइल दे।
हॉलैंड के आंकड़े बताते हैं कि वहां पर 6 फीसदी आबादी मुस्लिम है, जाहिर है कि मतदाताओं में इससे अधिक अनुपात तो मुस्लिम वोटरों का हो नहीं सकता। फिर भी वहां के बहुत से सांसद और कुछ पार्टियां इजराइली हिंसा और जुल्म के खिलाफ अपने ईसाई, या नास्तिक हो चुके वोटरों के बीच एक तकरीबन सौ फीसदी मुस्लिम गाजा के साथ खड़ी हुई है। जिन पार्टियों ने सार्वजनिक रूप से इजराइल का जमकर विरोध किया है, उनमें आधा दर्जन राजनीतिक दल हैं, और संसद की डेढ़ सौ सीटों में से करीब 45 सांसद इन पार्टियों के हैं।
मैं फिलीस्तीन के मुद्दे पर इतनी बारीकी से इसलिए पढ़ और लिख रहा हूं कि गाजा पर इजराइली जुल्म, अवैध कब्जे, और फौजी हमलों के खिलाफ जख्मी फिलीस्तीनियों से एकजुटता दिखाने के लिए एशिया से गाजा गए हुए एक अमन-कारवां में कोई 15 बरस पहले मैं भी शामिल था। मैं उस वक्त बीबीसी-लंदन, और कुछ दूसरे मीडिया संस्थानों के लिए साथ-साथ रिपोर्टिंग भी कर रहा था, और अपने हुनर से फोटोग्राफी भी कर रहा था। मैंने इजराइलियों के जुल्म के शिकार लोगों को रूबरू देखा हुआ है, उनकी बातें सुनी हुई हैं। हमारे ठीक पहले एक दूसरा शांति-कारवां वहां गया था, और उस पर इजराइली हमले में करीब 12 लोग मारे गए थे। हमारे कारवां पर भी फौजी हमले, या किसी और किस्म के हमले की आशंका बनी हुई थी, लेकिन इजराइल ने ऐसा कोई हमला इसलिए नहीं किया कि हममें 50 से अधिक हिन्दुस्तानी थे, और भारत इजराइली निर्यात का आधे से अधिक का अकेला खरीददार है। दुनिया का कोई समझदार कारोबारी इतने बड़े ग्राहक देश के बहिष्कार का खतरा नहीं उठाता।
लेकिन हॉलैंड की इस बहादुर महिला सांसद, और हमारे सरीखे कारवां की याद से परे आज की हिन्दुस्तान की एक और वजह है जिससे इस बारे में यहां लिखना हो रहा है। आज इस देश में मुस्लिमों से नफरत करने वाले बहुत से ऐसे लोग हैं जो कि इस बात पर खुश हैं कि गाजा में हो, या कहीं और, मुस्लिम जहां भी मारे जा रहे हैं, वे धरती पर से घट तो रहे हैं। यह एक अलग बात है कि ऐसी हिंसक और नफरती सोच रखने वाले लोग आज एक अखंड भारत की कल्पना भी करते हैं जिससे बांग्लादेश, पाकिस्तान सब आज के भारत में मिल जाएंगे। उन्हें यह समझ नहीं पड़ता कि इन दोनों मुस्लिम-बहुल देशों को मिलाकर बने अखंड भारत में मुस्लिमों का अनुपात तो बहुत अधिक बढ़ जाएगा, और इसके साथ-साथ न तो नफरतियों को नापसंद लोगों को पाकिस्तान धकेला जा सकेगा, और न ही आज जिन्हें बांग्लादेशी घुसपैठिया कहा जाता है, उन्हें कहीं निकाला जा सकेगा।
राजस्थान में एक एससी-एसटी अदालत की जज ने दो अभियुक्तों को उम्रकैद सुनाई है। इनमें से एक मरने वाले की पत्नी का प्रेमी था, जिसने अपना छिन गया प्रेम पाने के लिए, या हिसाब चुकता करने के लिए प्रेमिका के पति को मार डाला। यह पति 19 साल का था, पत्नी 16 साल की थी, और शादी हुए कुछ साल हो चुके थे। मतलब यह कि इस लडक़े-लडक़ी का यह बाल विवाह सरीखा हुआ था, और जाहिर है कि उस उम्र में न तो वो कोई पसंद बनाने के लायक थे, और न ही नापसंद को खारिज करने की पारिवारिक और सामाजिक ताकत उनमें रही होगी। ढाई साल से तो यह मामला ही चल रहा था। और जब यह कत्ल हुआ था, उस वक्त यह पत्नी कुल 16 साल की थी, इसलिए उसे किशोर न्याय बोर्ड के सामने पेश किया गया था।
मतलब यह कि यह असफल प्रेम-प्रसंग के बाद हुआ कत्ल बनने के पहले ही यह बाल विवाह का एक जुर्म बन चुका था। कमउम्र लडक़े-लड़कियों की शादी के बाद जब वे बालिग होते हैं, तो आगे की जिंदगी में ऐसे जोड़ों में कई तरह के तनाव खड़े होते हैं। देश के कुछ राज्यों से ऐसे बाल विवाह के बाद जो लोग ऊंची सरकारी नौकरियों मेें पहुंचते हैं, तो उनमें से कई लोग बचपन की शादी को भूलकर नए मिले सरकारी ओहदे की शान-शौकत के मुताबिक दूसरी बीवी ढूंढ लेते हैं। राजस्थान में ऐसे कई बाल विवाह के बाद कई दूसरी शादियों के मामले सामने आते हैं।
कमउम्र के प्रेमसंबंध से लेकर बाल विवाह तक हर किसी में कई तरह के खतरे रहते हैं। अभी छत्तीसगढ़ में 16 बरस की एक लडक़ी ने खुदकुशी कर ली। परिवार ने बताया कि वह तीन बरस से एक मुस्लिम लडक़े के साथ प्रेमसंबंध में थी, और वह उस पर बुर्का पहनने का दबाव डालता था। लडक़ी के परिवार की शिकायत में पूजा-पाठ के विरोध करने जैसा भी कुछ जिक्र है। लेकिन जो बात कुछ हैरान करती है, वह यह है कि 16 बरस की लडक़ी 3 बरस से प्रेमसंबंध में थी, उसी गांव-कस्बे में प्रेमी के साथ अलग रहती थी, और अब खुदकुशी के बाद परिवार उस लडक़े के खिलाफ यह शिकायत कर रहा है। तीन बरस पहले जब लडक़ी 13 बरस की रही होगी, उस वक्त भी यह शिकायत हो सकती थी, या बाद में जब वह अलग रहने लगी, तब भी एक नाबालिग लडक़ी को परिवार से दूर करने की शिकायत हो सकती थी। लेकिन अब यह मौत हो जाने के बाद बुर्के की बात आ रही है, जो कि परिवार की जिम्मेदारियों के पैमाने पर कुछ हैरान करने वाली बात है।
अलग-अलग इन दोनों घटनाओं का एक-दूसरे से अधिक लेना-देना नहीं है, सिवाय इसके कि दोनों ही मामलों में नाबालिग लड़कियों का जिक्र आता है। एक में परिवार ने मर्जी से बाल विवाह कर दिया था, और दूसरे मामले में परिवार अपनी नाबालिग बेटी को दूसरे धर्म के प्रेमी के साथ अलग रहते देखते आ रहा था। नाबालिग बच्चों के प्रति मां-बाप और समाज की जो जिम्मेदारी बनती है, उसे कुछ अधिक दूर तक समझने की जरूरत है।
दुनिया के कई देशों में किशोरावस्था में पहुंचे हुए लडक़े-लड़कियों के आजादी से साथ घूमने का सामाजिक माहौल रहता है। पश्चिम के अधिकतर देशों में भारतीय बालिग उम्र से कमउम्र के भी लडक़े-लड़कियां परिवार से अलग भी रहने लगते हैं, या एक-दूसरे के घरों में भी जाकर ठहरने लगते हैं। परिवार यह मानकर चलते हैं कि किशोरावस्था के कुछ साल गुजर जाने के बाद इस पीढ़ी के लोग अब अपनी मर्जी से जिएंगे, और बालिग हो जाने के बाद भी जो लोग घर छोडक़र नहीं निकलते हैं, उन्हें कुछ अटपटा समझा जाता है, और ऐसे लोगों पर कुछ-कुछ लतीफे और कार्टून भी बनते हैं।
भारत में हाल यह है कि शादी के लिए लडक़ा-लडक़ी छांटना मां-बाप अपना विशेषाधिकार समझते हैं, बल्कि काफी हद तक इसे बुनियादी हक समझते हैं। इसके बाद बेटा-बहू कितने समय में बच्चे पैदा करें, कितने बच्चे पैदा करें, यह सब तय करना भी मां-बाप अपना हक मानते हैं। बेटे की मां जिंदगी का सबसे बड़ा त्याग तब करती है, जब वह बेटे-बहू के साथ हनीमून पर जाने के बजाय घर पर ही रूकने का फैसला दिल बड़ा कड़ा करके लेती है। इस देश में आल-औलाद का बचपन अधेड़ हो जाने पर भी पूरा नहीं गुजरता, और इसलिए बाल विवाह से लेकर बाकी सारे फैसले मां-बाप अपने मरने तक करना पसंद करते हैं। ऐसे में लडक़े-लड़कियों में किसी भी तरह हुए प्रेमप्रसंग से लेकर लिव-इन रिश्ते तक, या शादी तक वह परिपक्वता नहीं आ पाती, जो कि एक उन्मुक्त समाज में आसानी और सहजता से आ जाती है। नतीजा यह हो रहा है कि भारत में लडक़े-लड़कियां वक्त आने के पहले ही सेक्स और शादी के रिश्तों में पड़ जाते हैं, क्योंकि आगे के बारे में उन्हें अंदाज रहता है कि शादी की इजाजत मांगने पर मां-बाप शहंशाह अकबर बनकर दीवार में चुनवा देने को खड़े हो जाएंगे।
कहीं मां-बाप बाल विवाह कर देते हैं, कहीं नाबालिग लडक़ी किसी प्रेम और देहसंबंध में बिना जिम्मेदारी समझे उलझ जाती है, और उसे सुलझे तरीके से लेने की समझ यहां नहीं रहती। यह सिलसिला नई पीढ़ी के बच्चों, और उनके मां-बाप, दोनों के लिए ही खतरनाक है। कहीं हसरतों को मां-बाप कुचल देते हैं, तो कहीं जिंदगी की हिफाजत को बच्चे खुद कुचल देते हैं। आज नई पीढ़ी की हसरतों को सुरक्षित तरीके से पूरा होने देने का सामाजिक माहौल भारत में नहीं है, और उसकी वजह से बहुत तरह की हिंसा हो रही है, कई तरह के रिवेंज-पोर्न, और ब्लैकमेलिंग की नौबत आ रही है। यह पूरे समाज को सोचना होगा कि नौजवान पीढ़ी को किस तरह कुछ अधिक हद तक मिलने-जुलने की छूट दी जाए, और उसके पहले पेशेवर परामर्शदाताओं की नसीहतें भी उनको दिलवा दी जाएं।
छत्तीसगढ़ के समाचार वेबसाइटों, और अखबारों में दिल को छू लेने वाली एक तस्वीर छपी है। मुख्यमंत्री के अपने जशपुर जिले में गणेश विसर्जन के दौरान पत्थलगांव थाने में तैनात एक महिला सिपाही अपने एक बरस के बेटे को गले और गोद से टांगे हुए सडक़ पर ट्रैफिक काबू कर रही है। जैसी कि उम्मीद की जा सकती है, लोग इस महिला सिपाही की स्तुति करने में जुट गए हैं। भारत में जब कभी किसी महिला को लोग बढ़-चढक़र त्याग करते देखते हैं, तो वह माँ हो, बेटी, बहू हो, जो भी हो, उसकी तारीफ होने लगती है। ऐसी तारीफ करके उसे आगे और अधिक त्याग करने के लिए तैयार किया जाता है।
इस तरह के कुछ वीडियो कोरोना के बीच भी सामने आए थे जब कई महीनों की गर्भवती एक महिला पुलिस अफसर लाठी लिए हुए सडक़ों पर लोगों को रोकती दिख रही थी। उसकी भी इसी तरह तारीफ हुई थी, और उस वक्त भी हमने अपने अखबार के संपादकीय में इस बात की आलोचना की थी कि कोरोना जैसे खतरनाक संक्रमण के बीच एक गर्भवती महिला अधिकारी को इस तरह सडक़ों पर आने की इजाजत क्यों दी गई है? पल भर के लिए हमने संदेह का लाभ भी दे दिया कि बड़े अफसरों ने उसकी ड्यूटी नहीं लगाई होगी, और यह महिला खुद ही उत्साह में सडक़ों पर आ गई होगी, लेकिन ऐसा होने पर भी यह तो बड़े अफसरों की ही जिम्मेदारी बनती थी कि वह अपने मातहत को यह गलती करने से रोकें। एक अजन्मे बच्चे के प्रति यह सरकार और समाज दोनों की जिम्मेदारी थी।
परंपरागत रूप से भारत जैसे देश में बहुत से काम एक वक्त सिर्फ पुरूषों के करने के रहते थे। इन कामों में जब महिलाओं का जाना शुरू हुआ, तो पुरूषों के बीच बड़ी असुविधा हुई, उनके अहंकार को चोट लगी, और उन्होंने तरह-तरह से विरोध भी किया। कामकाज की जगहों पर महिलाओं के शोषण के पीछे भी यही पुरूषवादी सोच थी कि कोई महिला पुरूषों के एकाधिकार को तोडऩे की कोशिश करेगी, हौसला दिखाएगी, तो उसका यही हाल होगा। भारत की महिला पहलवानों से लेकर, यहां के विश्वविद्यालयों में शोध करने वाली छात्राओं तक शोषण का जो अंतहीन सिलसिला चलता है, वह महिलाओं को लगातार इस दबाव में भी रखता है कि वे पुरूषों से अधिक काबिल बनकर दिखाएं। और यही आत्मचुनौती महिलाओं को अधिक मेहनत, अधिक त्याग करने, और अधिक खतरे उठाने की तरफ धकेलती है।ऐसे में ही पुलिस में कई जगह महिलाएं साल-छह महीने के बच्चे को लिए रात में पुलिस थाने में ड्यूटी करते दिखती हैं, या अभी छत्तीसगढ़ में जशपुर जिले में सडक़ पर ड्यूटी करते हुए। डीजल की गाडिय़ों के बीच खड़े हुए ड्यूटी कर रही महिला की गोद में साल भर के बच्चे का धुएं में क्या हाल होगा, क्या इसे समझने के लिए भी इस जिले के अफसरों को फेंफड़ों के डॉक्टरों की जरूरत पड़ेगी, या वे खुद भी इसे समझ सकते हैं? मेरा तो ख्याल यह है कि जिस प्रदेश में बाल कल्याण परिषद, महिला आयोग, या मानवाधिकार आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाएं सत्ता के प्रभाव और दबाव से मुक्त होकर काम करती होंगी, वे तो ऐसा नजारा देखकर तुरंत ही अफसरों को नोटिस जारी करेंगी कि इसकी इजाजत कैसे दी जा रही है? लेकिन कोई भी तो ऐसा प्रदेश नहीं रह गया जहां इन ओहदों पर सत्ता के पसंदीदा लोग न बैठे हों। वे अपने अन्नदाताओं के लिए परेशानी कैसे खड़ी कर सकते हैं? इसीलिए मैं कई बार यह भी लिखता हूं कि किसी प्रदेश से रिटायर होने वाले जजों, और अफसरों को उस प्रदेश की किसी भी संवैधानिक संस्था में नहीं रखना चाहिए क्योंकि वे हितों के साफ-साफ टकराव से गुजरेंगे, इन पदों पर मनोनीत होने के पहले भी, और बाद में भी।
भारत में सार्वजनिक जीवन, या सरकार के किसी भी पहलू में काम करते हुए महिलाओं को नाजायज हद तक जाकर भी अपना दम-खम साबित करना पड़ता है। पुलिस में जाने के बाद छोटे या बड़े ओहदों पर पहुंची हुई महिलाओं को माँ-बहन की गालियां देते सुनना यही अहसास कराता है। जब बलप्रयोग की नौबत आती है, तब भी महिला कर्मचारी-अधिकारी पुरूषों के मुकाबले अधिक सख्ती बरतकर अपना दम-खम साबित करती हैं। महिला प्रशासनिक अधिकारियों को भी मैंने अधिक सख्ती बरतते देखा है।
इस किस्म के सामाजिक दबाव, और उसकी वजह से बेहतर कामकाज के बावजूद महिलाओं से भेदभाव के अंत का कोई आरंभ भी अभी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट अभी लगातार भारतीय सेना को लैंगिक समानता की प्राथमिक शिक्षा दे रहा है कि वह महिलाओं से भेदभाव न करे। और सेना के वकील, जजों के सामने महिलाओं की सीमाओं को बखान करने में लगे हुए हैं। जब देश की सबसे बड़ी अदालत को देश की सबसे बड़ी सरकार के सामने ही महिला-अधिकार के लिए इतना संघर्ष करना पड़ रहा है, तो हमें कोई हैरानी नहीं होती जब पुलिस या प्रशासन के अफसर महिला कर्मचारियों-अधिकारियों, या उनके बच्चों के बुनियादी हक समझ नहीं पाते। सैकड़ों-बरसों के लैंगिक भेदभाव ने लोगों की समझ पर धुंध बिखराकर रखी है, और महिलाओं के बारे में सरकारी बैठकों में भी एक आम हिकारत की जुबान में बात होती है।
एक टीवी समाचार चैनल पर प्रस्तुतकर्ता-एंकर ने जब मेहमान-पैनलिस्ट से सवाल-जवाब किए, तो एक खास विचारधारा से आए हुए उस मेहमान ने अपनी विचारधारा के मुखिया के बारे में एंकर को कहा कि वे तो आपके भी अभिभावक हैं। इस पर एंकर ने साफ-साफ शब्दों में मना कर दिया, तो भी मेहमान अपने वैचारिक-मुखिया को एंकर का अभिभावक साबित करने में लगे रहे। मैंने यह पूरी बातचीत, या बहस देखी नहीं है, लेकिन कई गंभीर पत्रकारों की इस बहस पर पोस्ट देखी है, जो कि इस वैचारिक-असहमति को समझने के लिए काफी है। इस बात पर जाने का भी कोई अधिक मतलब नहीं रहता कि ऐसी बातचीत या बहस में आखिर में जीत किसकी हुई। यह कोई पंजा-कुश्ती, या सूमो-कुश्ती तो है नहीं जिसमें कि आखिर में किसी की जीत होना जरूरी हो, बल्कि कुछ मामलों में तो ऐसे मुकाबलों में भी टक्कर बराबरी पर छूट जाती है। वैचारिक विचार-विमर्श या बहस का बड़ा मकसद तो अलग-अलग विचारधाराओं और तर्कों को एक साथ सामने रखना होता है, ताकि देखने-सुनने वाले आगे उन पर अपना दिल-दिमाग लगा सकें। हर बातचीत किसी निष्कर्ष पर खत्म होने की उम्मीद करना एक बड़ा तंगनजरिया रहता है।
अब अगर बहस में शामिल कोई एक व्यक्ति अगर किसी को अपना अभिभावक मानना न चाहे, तो उसके धर्मांतरण की कोशिश क्यों करनी चाहिए? मैं अपने फेसबुक पेज पर लगातार अपने नास्तिक होने की बात लिखता हूं, और जहां-जहां मुझे नकारात्मक मिसालें मिलती हैं, मैं ईश्वर की धारणा, और धर्म के पाखंड के खिलाफ भी लिखता हूं। मेरे कुछ बहुत ही अच्छे और धर्मालु दोस्त ऐसे हैं जो मुझे अपने धर्म में ले जाने, या मुझे आस्तिक बनाने की कोशिश के बिना भी धर्म की अपनी समझ को लिखते हैं, और वह पढऩे लायक रहती है। दूसरी तरफ कई लोग इस जिद पर अड़ जाते हैं कि चूंकि मेरे माता-पिता आस्तिक थे, इसलिए मैं आस्तिक हूं, चूंकि मैं कुछ अच्छे काम भी करता हूं, इसलिए भी मैं धर्मालु भी हूं, और आस्तिक भी हूं। इस पर मुझे साफ करना पड़ता है कि मैं ईश्वर और धर्म नाम के झांसों से दूर हूं, और हाल-फिलहाल में किसी मौलाना या पादरी से मुलाकात का यह नतीजा नहीं है, स्कूली जिंदगी में ही अपने धर्मालु माता-पिता के बीच रहते हुए भी मैं ईश्वर और धर्म की हकीकत जान-समझकर अच्छा मजबूत नास्तिक बन गया था।
लेकिन मेरे नास्तिक रहने से परिवार के कुछ दूसरे लोगों के आस्तिक रहने का कोई टकराव नहीं है। जब तक पोप शंकराचार्य के धर्मांतरण की कोशिश न करें, और जब तक शंकराचार्य किसी बिशप को फिर से हिन्दू बनाने की कोशिश न करें, जब तक हिन्दूवादी लोग भारत की मुस्लिम आबादी को इस्लाम से परे करने पर न अड़े रहें, तब तक सहअस्तित्व में कोई दिक्कत नहीं है। अभी दो दिन पहले तो आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने साफ-साफ शब्दों में यह कहा है कि जो लोग भारत से इस्लाम खत्म करने की सोचते हैं, वे लोग हिन्दू नहीं हैं। उन्होंने साफ-साफ कहा कि भारत में इस्लाम पुरातन काल से रहा है, आज भी है, और भविष्य में भी रहेगा। यह विचार कि इस्लाम नहीं रहेगा, हिन्दू दर्शन नहीं है। उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत में इस्लाम का हमेशा एक स्थान रहेगा।
भागवत की कही बातें पिछले बरसों से लगातार जलेबी की तरह सीधी रहती हैं, और उनके अगले बयान तक वे मीठी भी लगती रहती हैं। लेकिन आगे जाकर वे अपने ही बयानों से किनारा करने लगते हैं, और अभी-अभी वे 75 बरस की उम्र में रिटायर होने की चर्चा को खारिज कर चुके हैं, जो कि उनके ही एक बयान से अभी कुछ हफ्ते पहले जोर पकड़ रही थी। फिर भी हम अपने अखबार में भागवत के कहे हुए शब्दों को तब तक गंभीरता से लेते हैं, जब तक वे उसके उल्टे कोई बात नहीं करते। उनकी सबसे ताजा बात को हम उनकी सोच मानते हैं। बहुत से लोग हैं जिनका यह मानना है कि भागवत जो कहते हैं, और उस बात को साबित करने के लिए, या लागू करने के लिए उन्हें जो करना चाहिए, उसे वे करते नहीं हैं, महज कहते रहते हैं। ऐसे में अगर एक टीवी एंकर ने भागवत को अपना अभिभावक मानने से इंकार कर दिया, तो भागवत की विचारधारा के एक गंभीर और सीनियर आदमी को यह वल्दियत उस एंकर पर क्यों लादनी चाहिए? आज आल-औलाद ऐसी भी हैं जो अभिभावक का अपमान करती रहती हैं। दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं, जो किसी के अभिभावक न रहने पर भी उसका सम्मान करते हैं। वैचारिक असहमति किसी अपमान की वजह क्यों बने? और वैचारिक सहमति के लिए जिद क्यों करनी चाहिए?
कुछ हफ्ते पहले देश के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों की एसटी-एससी, और ओबीसी के लिए आरक्षित कुर्सियों की खबर आई थी कि इनमें से 80 फीसदी से अधिक खाली पड़ी हैं। अनुसूचित जनजाति के प्रोफेसर पद तो 83 फीसदी खाली हैं। इससे यह भी जाहिर होता है कि सरकार इन तबकों के लिए आरक्षित जितने पदों का यह मतलब निकालती है कि उन पर काम करने वाले लोग अपने बच्चों को भी आगे बढ़ा पा रहे होंगे, वह मतलब जायज नहीं है। दो बिल्कुल ही अलग-अलग खबरें और हैं जिन पर गौर करना चाहिए। एक खबर में कल ही राहुल गांधी ने यह कहा है कि देश की सबसे बड़ी निजी यूनिवर्सिटियों में दलित छात्रों का अनुपात एक फीसदी से कम है, आदिवासी छात्रों का अनुपात आधे फीसदी से भी कम है, और ओबीसी छात्रों का अनुपात 11 फीसदी है। उन्होंने कहा कि ये आंकड़े उनके नहीं है, बल्कि शिक्षा पर संसदीय स्थाई समिति के रिपोर्ट के हैं जिसने देश के चार निजी ‘इंस्टीट्यूट ऑफ इमिनेंस’ का सर्वे किया है। उन्होंने कहा कि संसदीय समिति ने यह साफ कहा है कि निजी शिक्षा में भी आरक्षण का कानून जरूरी है। इस बात से परे राहुल गांधी ने राजनीतिक बयान भी दिया है, लेकिन वह हमारी आज की इस चर्चा का मुद्दा नहीं है। एक अलग खबर और है, जिसे मैक्सेसे सम्मान प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता संदीप पांडेय ने आज फेसबुक पर पोस्ट किया है। इस पोस्टर में सोशलिस्ट छात्रसंघ, और सोशलिस्ट युवजन सभा ने आंबेडकर, लोहिया, गांधी, जयप्रकाश, कर्पूरी ठाकुर, ज्योतिबा फूले, जैसे लोगों की तस्वीरों के साथ यह मांग की है कि सिर्फ सरकारी विद्यालय में पढऩे वाले को ही सरकारी नौकरी मिले। समान शिक्षा प्रणाली लागू की जाए।
अब इन तीन बिल्कुल अलग-अलग बातों का आपस में कोई सीधा रिश्ता नहीं है, लेकिन इन तीनों का भारत की सामाजिक हकीकत से लेना-देना है जो कि इन तीनों बातों को बहुत तल्खी के साथ बताती है। मोदी सरकार ने जिन चार निजी विश्वविद्यालयों को ‘इंस्टीट्यूट ऑफ इमिनेंस’ का दर्जा दिया था, उसके पीछे बड़े-बड़े औद्योगिक घराने हैं। वहां दाखिला कितनी फीस पर होता है, वह एक अलग मुद्दा है, लेकिन उनके आंकड़ों को देखने के बाद अगर संसद की कमेटी निजी शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण के महत्व को दुहरा रही है, तो इस संसदीय समिति की सोच और भावना के साथ इन संस्थानों, और ऐसे दूसरे संस्थानों में दलित-आदिवासी, और ओबीसी छात्र-छात्राओं के अनुपात को देखना जरूरी है। ठीक उसी तरह जिस तरह कि केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों की कुर्सियों पर एसटी-एससी और ओबीसी की गैरमौजूदगी समाज की बहुत ही कड़वी हकीकत बताती है। फिर ऊपर के पैराग्राफ में आखिरी बात समाजवादी-लोकतांत्रित सोच के छात्र और नौजवान संगठनों की उठाई हुई है कि सरकारी नौकरियां सिर्फ उन्हें मिलें जो सरकारी स्कूलों में पढक़र निकले हैं। जाहिर है कि निजी स्कूलों में महंगी शिक्षा पाकर निकलने वाले छात्र, बाद में महंगी कोचिंग पाकर हर किस्म की नौकरी पाने में आगे बढ़ जाते हैं, और गरीब बच्चे इन मुकाबलों में बराबरी के मैदान पर भी नहीं आ पाते। लोगों को याद होगा कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज ने बरसों पहले यह फैसला भी दिया था कि सत्तारूढ़ नेताओं और अफसरों के बच्चों के लिए यह अनिवार्य किया जाए कि वे सरकारी स्कूलों में ही पढ़ें। जज की सोच यह थी कि सरकारी स्कूलों की खराब हालत सुधारने में ऐसा नियम मददगार हो सकता है कि सत्ता हांकने वाले लोगों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ेंगे, तो उनके मां-बाप की यह मजबूरी भी रहेगी कि वे इन स्कूलों को सुधारें। यह एक किस्म की समाजवादी सोच का फैसला था, जो कि लोकतांत्रिक-मानवीयता के हिसाब से अच्छा था, हालांकि हमने अपने अखबार में उसी समय यह लिखा था कि यह फैसला संवैधानिक रूप से सही नहीं है, और इस पर अमल नहीं हो सकेगा। वही हुआ भी।
आज देश में अधिकतर सत्तारूढ़ लोगों के बच्चे महंगे स्कूल-कॉलेज में पढ़ते हैं, और जो सचमुच ही अधिक तनख्वाह, या अधिक ऊपरी कमाई वाले लोग हैं, उनके बच्चे विदेशी विश्वविद्यालयों में पढऩे चले जाते हैं। ऐसे सत्तारूढ़ तबकों के बहुत से लोग देश के गरीब लडक़ों और नौजवानों को धार्मिक पाखंड में झोंककर और जोतकर रखते हैं क्योंकि उनके पास अच्छी तालीम पाने की कोई प्रेरणा नहीं रहती, और किसी तरह पढ़-लिखकर बेरोजगार बनने से उन्हें कुछ हासिल भी नहीं होता। धर्म और जाति के नाम पर इस पीढ़ी को सडक़ों पर उन्माद में झोंक दिया जाता है, और ऐसी भीड़ में अधिकतर लडक़े-युवक दलित-आदिवासी, और ओबीसी तबकों के ही रहते हैं। जिन तबकों को पढ़ाई में हर कदम पर आरक्षण का फायदा मिलना चाहिए, वे धर्मान्धता में उलझा दिए गए हैं, जाहिर है कि ऊपर जाकर केन्द्रीय विश्वविद्यालयों से लेकर ऊंची पढ़ाई तक में उनकी कुर्सियां खाली हैं। कांवर से केन्द्रीय विश्वविद्यालय की प्रोफेसरी तक का सफर आसान तो हो नहीं सकता है। और अब ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग को चुनावी घोषणापत्र में इस सामाजिक सच्चाई की जानकारी भी उम्मीदवारों से मांगकर मतदाताओं को देना चाहिए कि उम्मीदवार के बच्चे किन स्कूल-कॉलेजों में पढक़र किन विश्वविद्यालयों तक पहुंचे हैं, और अब क्या कर रहे हैं। इस जानकारी को पाकर हो सकता है कि ऐसे नेताओं के फतवों पर अपनी जवानी उन्मादी-कुर्बानी में झोंकने के बजाय लोग यह सोच सकेंगे कि नेताओं के बच्चे क्यों कांवड़ यात्रा में नहीं हैं, क्यों फौज में नहीं हैं।
धर्म और जाति ये दो ऐसे बड़े मुद्दे हैं जिन्हें छेडक़र पूरी की पूरी नौजवान पीढ़ी को सडक़ों पर लाया जा सकता है, उनके हाथों को किताबों और कम्प्यूटर से दूर करके, उनमें धार्मिक झंडे-डंडे थमाए जा सकते हैं, और उन्हें इस अफसोस या मलाल से स्थाई रूप से मुक्त रखा जा सकता है कि वे अच्छी पढ़ाई और अच्छी नौकरी क्यों नहीं पा सकते। आज की यह बात कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है, यह विशुद्ध रूप से, और पूरी तरह एक सामाजिक मुद्दा है, और समाज के अलग-अलग तबकों को अपनी हकीकत, और अपनी जगह समझनी होगी। देश में जाति जनगणना के बाद यह सवाल और तल्खी से उठेगा, और इस जनगणना के सवालों में आदिवासियों को किधर गिना जाएगा, उन्हें अलग-अलग धर्मों में, या अलग-अलग जातियों में गिना जाएगा, या जैसा कि आदिवासियों के बीच से लंबे समय से यह मांग हो रही है कि उनके लिए एक सरना कोड लागू किया जाए, वैसा कुछ होगा?
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अभी चार दिन पहले बहुमंजिली इमारतों में सांसदों के लिए बने हुए 184 फ्लैट्स का उद्घाटन किया है, और इनके वीडियो देखकर लोगों की आंखें फटी की फटी रह गई हैं। दिल्ली जैसे एक सबसे महंगे महानगर के, एक सबसे महंगे रिहायशी इलाके में पांच-पांच हजार वर्गफीट के ऐसे एक-एक फ्लैट के फोटो-वीडियो देश की जनता को हक्का-बक्का कर रहे हैं। देश की एक फीसदी आबादी भी पांच हजार वर्गफीट के फ्लैट, या मकान में कभी पांव भी नहीं रख पाती। पांच-पांच बेडरूम, दो-दो दफ्तर, और इसी दर्जे की बाकी सहूलियतों वाली ऐसी ऑलीशान बसाहट में रहकर सांसद अपने इलाकों की समस्याओं के बारे में अधिक शांतचित्त से सोच पाएंगे। अब सांसद के अपने धर्मसंकट, और मानसिक विरोधाभास के बारे में भी सोचना चाहिए जिनके इलाकों में गांव-गांव में स्कूलों की कहीं छत गिर रही है, तो कहीं इमारत। कहीं पुल गिर रहे हैं, तो कहीं सडक़ बह जा रही है। कहीं तो बादल फटने से पूरे गांव बह गए हैं, तो कहीं सरकारी योजनाओं में आधा-आधा दर्जन आईएएस अफसरों की गिरफ्तारी से दहशत में आए बाकी अफसर काम ही करना नहीं चाहते हैं। ऐसे विकराल संसदीय क्षेत्रों से आए हुए सांसदों से भला यह उम्मीद तो नहीं की जाती कि वे नई दिल्ली स्टेशन के भीड़भरे प्लेटफॉर्म पर धक्के खाते हुए शांतचित्त से सोच-विचार कर पाएंगे। इसके लिए पांच हजार वर्गफीट का एकदम ही आलीशान दर्जे का फ्लैट जरूरी है जिसके भीतर भी हो सकता है कि चक्कों वाले पहिए वाले स्केट्स पर आवाजाही होती होगी।
कुछ सांसदों से पूछने पर पता लगा कि दिल्ली में सांसदों के लिए विशेष आवास योजनाएं दशकों से चली आ रही हैं, पहले दो या तीन बेडरूम वाले फ्लैट बने थे, फिर तीन या चार बेडरूम वाले, और अब ताजा उद्घाटन पांच बेडरूम वाले फ्लैट्स की इमारतों का हुआ है जिनके नाम देश की नदियों के नाम पर कृष्णा, गोदावरी, कोसी, और हुगली रखे गए हैं। करीब 45 बरस पहले दिल्ली में रायपुर के गांधीवादी-सर्वोदयी सांसद केयूर भूषण के मकान में रहने का मौका कुछ हफ्तों के लिए मुझे भी मिला था। उस वक्त वे मकान साधारण थे, लेकिन करीब आधी सदी पहले का तो वह सभी कुछ साधारण था। अब देश के अलग-अलग हिस्सों में जिस तरह गर्भवती महिलाओं को कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ रहा है, तब वे सडक़ और एम्बुलेंस तक पहुंच पा रही हैं, अधिकतर हिस्सों में इलाज की कमी है, और पढ़ाई के साधन सीमित या कमजोर हैं। आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने अभी हफ्ते भर पहले ही एक सार्वजनिक कार्यक्रम में इस बात पर बड़ा अफसोस जाहिर किया है, कि लोगों को जिन दो चीजों की सबसे अधिक जरूरत रहती है, वह पढ़ाई और इलाज दोनों ही लोगों की पहुंच के बाहर हैं। ऐसे में सांसदों के ये नए फ्लैट, उनके मतदाताओं को कैसे लगेंगे, इसका अंदाज लगा पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं है।
दुनिया के कुछ दूसरे देशों के बारे में पढऩे की कोशिश की, तो पता लगा कि ब्रिटेन में सांसदों को संसद के पास बड़े छोटे-छोटे फ्लैट दिए जाते हैं, या किराया भत्ता दिया जाता है। दुनिया के सबसे संपन्न माने जाने वाले महादेश अमरीका की राजधानी वाशिंगटन डी सी में सांसदों के लिए कोई फ्लैट नहीं है, और न ही उन्हें कोई किराया भत्ता मिलता। वे दूसरे सांसदों के साथ किराए के कुछ साझा कमरों में रह लेते हैं, या अपने दफ्तर में ही सो जाते हैं। कुछ के बारे में कहा जाता है कि वे कार में भी रात गुजार लेते हैं। फ्रांस में सांसदों को पेरिस में रहने के लिए भत्ता दिया जाता है, लेकिन कोई सरकारी मकान नहीं मिलता। जर्मनी में सांसदों को सिर्फ किराया भत्ता मिलता है, और वे खुद मकान ढूंढते हैं। इन तमाम देशों के मुकाबले भारत की प्रति व्यक्ति आय मूंगफली के छिलकों सरीखी है। अमरीका में प्रति व्यक्ति आय करीब 80 हजार डॉलर सालाना है, और सांसद की तनख्वाह इससे करीब दोगुना है। ब्रिटेन में प्रति व्यक्ति आय करीब 52 हजार डॉलर है, और सांसद का सालाना वेतन सवा लाख डॉलर से कुछ कम, यानी करीब 2.3 गुना। अब भारत को एक नजर देखें? यहां प्रति व्यक्ति आय 27 सौ डॉलर है, और सांसद के सालाना वेतन-भत्ते, और सहूलियतें करीब 50-60 हजार डॉलर! आम जनता के मुकाबले सांसद पर 20 गुना से अधिक औसत खर्च! चैटजीपीटी की मदद से अलग-अलग देशों में प्रति व्यक्ति आय, और वहां के सांसदों के वेतन-भत्तों के अनुपात को देखने पर बड़ी दिलचस्प तस्वीर बन रही है। ब्रिटेन में नेता जनता से 2.3 गुना अधिक पाते हैं, अमरीका में भी ठीक यही अनुपात है। कनाडा में 3.4 गुना, और जापान में भी 4 गुना तक ही सीमित है। यूक्रेन में 1.5 गुना, तुर्की में 3.7 गुना, और पाकिस्तान में करीब 15 गुना। भारत में जनता की औसत आय के मुकाबले सांसद की तनख्वाह 17-18 गुना, भत्तों सहित मिलाने पर 20 गुना, और सारी सहूलियतों को गिनने पर भारतीय सांसद भारत की जनता की औसत कमाई से 68 गुना अधिक महंगे पड़ रहे हैं।
ओडिशा के केन्द्रपाड़ा जिले में अपने प्रेमी की ब्लैकमेलिंग से परेशान होकर एक छात्रा ने घर पर आत्मदाह कर लिया है। महीने भर में प्रदेश में यह ऐसी तीसरी घटना है। पहले एक लडक़ी प्रोफेसर के यौन शोषण से परेशान होकर कॉलेज परिसर में ही आत्मदाह कर चुकी है, एक दूसरी लडक़ी को राह रोककर दो लडक़ों ने जिंदा जला दिया था, और अब यह तीसरी घटना है जिसमें खुदकुशी दिख रही है। एक ही पीढ़ी की लड़कियां, एक ही प्रदेश में, एक के बाद एक महीने भर में इस तरह खत्म हो जाएं, यह किसी भी समाज के लिए बहुत ही शर्मिंदगी की बात होनी चाहिए। यह एक अलग बात है कि भारत के अधिकतर राज्यों में ऐसी घटनाओं को पुलिस जांच, अदालती सुनवाई, और जेल के लायक मान लिया जाता है। इससे परे महज राजनीतिक बयानबाजी हो जाए, तो वह काफी रहता है।
देश के अधिकतर राज्यों में आज प्रेम या देह-संबंधों की वजह से, यौन-शोषण की वजह से, आते-जाते छेडख़ानी से थककर मरने वाली लड़कियां ही रहती हैं। चारों तरफ से खबरें आती हैं कि किस तरह कोई नाबालिग लडक़ी किसी बालिग के साथ प्रेम-संबंध के चलते, या शादी के फेर में घर छोडक़र चली गई, या उसके किसी वीडियो के आधार पर उसे ब्लैकमेल किया गया। स्कूल-कॉलेज की लड़कियां बड़ी संख्या में ऐसे धोखे, या ऐसे जुर्म की शिकार हो रही हैं। कई जगहों पर तो धमकाने वाले, ब्लैकमेल करने वाले, सार्वजनिक रूप से छेडऩे वाले लोगों का हौसला पुलिस की मेहरबानी से इतना बढ़ा हुआ रहता है कि उसे देखते हुए किसी लडक़ी को खुदकुशी ही एक सुरक्षित रास्ता दिखता है। अभी एक समाचार में ऐसा वीडियो आया है जिसमें एक लडक़ी से छेडख़ानी करने वाले गुंडे ने जमानत पर जेल से छूटकर आने पर जुलूस निकाला, और उस लडक़ी के घर के सामने पहुंचकर अंधाधुंध नाच-गाना किया। जाहिर है कि इससे कानून तक जाने का लडक़ी का हौसला पस्त होता है। ओडिशा में एक के बाद एक लड़कियों की इस तरह की मौत के पीछे यह भी एक वजह रही है।
हिन्दुस्तान के अधिकतर प्रदेशों में कानून पर अमल इतना कमजोर है कि पुलिस से वास्ता पडऩे पर मुजरिम ही आत्मविश्वास से भरे रहते हैं, और उनके जुर्म के खिलाफ शिकायत करने वाले लोग डर से कांपते रहते हैं। शिकायतकर्ता लडक़ी-महिला हो, या कि आदमी, वे थाने और अदालत जाते ही कांपने लगते हैं, क्योंकि उन्हें कानून का एक खौफनाक पहलू दिखाया जाता है, दिखाई पड़ता है। दूसरी तरफ आए दिन इन जगहों पर आने-जाने वाले गुंडे-मवालियों से, मुजरिमों से पुलिसवालों और अदालतकर्मियों के अच्छे रिश्ते रहते हैं, और उनका आत्मविश्वास भी शिकायतकर्ता का हौसला तोड़ता है।
देश के ऐसे माहौल में दो और चीजों को जोडक़र देखने की जरूरत है। एक तो यह कि अधिकतर राजनीतिक दलों को गुंडे-मवालियों की मौजूदगी सुहाती है कि चुनाव लडऩे के लिए, दारू बांटने के लिए, हिंसा करने के लिए, वोटरों को रोकने के लिए ऐसा बाहुबल बड़े काम का रहता है। दूसरी बात यह कि राज्यों की पुलिस राज्यों की निर्वाचित सत्ता के राजनीतिक प्रभाव में लुंज-पुंज हो चुकी हैं, और अपने राजनीतिक मुखियाओं के कहे हुए वे किसी भी गुंडे को अनदेखा करने, या किसी भी बेकसूर-गरीब को किसी फर्जी मामले में उलझाने देने के लिए एक पैर पर खड़ी रहती हैं। इन दोनों बातों को जब जोडक़र देखें, तो समझ पड़ता है कि आज के समाज में कोई बेकसूर तभी तक सुरक्षित रह सकते हैं, जब तक किसी गुंडे की उन पर नजर नहीं पड़ी है, जब तक ऐसे किसी गुंडे की किसी सत्तारूढ़ नेता से दुश्मनी नहीं हो गई है। बेकसूर इंसान के बचने का अकेला जरिया यही हो सकता है कि कोई गुंडा उसके खिलाफ जुर्म करे, और दूसरी तरफ कहीं सत्ता से दुश्मनी भी पाल बैठे। लेकिन ऐसा आमतौर पर होता नहीं है क्योंकि मुजरिमों को अपनी सीमाएं अच्छी तरह मालूम रहती हैं, उन्हें पता रहता है कि वे किन लोगों को लात से मार सकते हैं, और कौन से तलुए उन्हें चांटने हैं।
समाज में जब लड़कियों और महिलाओं को झांसे से या डरा-धमकाकर, चाकू की नोंक पर भगाकर, या उनकी किसी कमजोर नब्ज को पकडक़र उन्हें ब्लैकमेल करके जुर्म का शिकार बनाया जाता है, तो कागजी कानूनों में उनकी हिफाजत के बड़े-बड़े दावे होने के बावजूद उनका बच पाना नामुमकिन सा रहता है। बल्कि बहुत से मामलों में, जिनमें से अधिकतर पुलिस तक पहुंचते भी नहीं हैं, एक-एक लडक़ी को ब्लैकमेल करके कब देह के धंधे में धकेल दिया जाता है, यह पता भी नहीं लगता। लोगों को याद होगा कि दशकों पहले अजमेर सेक्सकांड हुआ था जिसमें सैकड़ों लड़कियों और महिलाओं का ऐसा ही शोषण हुआ था, बाद में कई दूसरे शहरों में भी ऐसा हुआ, हाल के महीनों में भोपाल और इंदौर से ऐसी घटनाएं आईं, और कई जगहों पर कोई नाबालिग लडक़ी अपने प्रेमी के झांसे में फंसकर उसके कई साथियों के बलात्कार की शिकार हुई।
अब ऐसी नौबत का क्या इलाज हो सकता है? कानून तो कड़ा करते-करते इतना कड़ा कर दिया है कि अब नट को और टाईट करने से बोल्ट की चूड़ी ही खत्म हो जाएगी, और नट फिसलने लगेगा। इसलिए अब कानून पर अमल को अधिक कड़ा करने की जरूरत है जिसमें पुलिस जैसी जांच एजेंसी से लेकर विशेष महिला-फास्ट ट्रैक अदालतों तक के बारे में सोचना चाहिए। महिलाओं के खिलाफ होने वाले जुर्म की जांच के लिए पुलिस में अलग से एक जांच शाखा बननी चाहिए, और अलग से फास्ट टै्रक कोर्ट होना चाहिए ताकि कुछ महीनों में ही अधिकतर मामलों में सजा हो सके, और इस किस्म के मवाली-बलात्कारी जल्द जेल जा सकें। जमानत पर बाहर निकलकर फिर से धमकाने या बाहुबल दिखाने वाले लोगों की जमानत रद्द करने, और दुबारा जमानत न देने का भी इंतजाम होना चाहिए। इसके लिए अलग से किसी कानून की जरूरत नहीं है, क्योंकि जमानत का अधिकार मजिस्ट्रेट या जज के विवेकाधिकार पर छोड़ दिया जाता है।
उत्तरप्रदेश में अभी एक पुलिस सबइंस्पेक्टर चन्द्रदीप निषाद के प्रयागराज स्थित मकान पर गंगा का पानी दरवाजे तक पहुंचा, तो इस अफसर ने वर्दी में पानी पर फूल छिडक़कर, दूध चढ़ाकर पूजा-अर्चना की। गंगा का उत्तर भारत से परे भी बहुत महत्व है, और इस अफसर का खुद का बनवाया हुआ यह वीडियो चारों तरफ फैल रहा है। मानो यह काफी नहीं था, तो दरोगाजी के घर में पानी जब सीने तक भर गया, तो वे अगले वीडियो में गंगामैया का अहसान मानते दिख रहे हैं कि वे चलकर उनके घर तक आई हैं, और इसके बाद वे डुबकी लगा-लगाकर प्रार्थना करते दिखते हैं। यह वीडियो कुछ आगे बढ़ता है तो वे घर के बाहर निकलकर पूरे मोहल्ले या इलाके में तैराकी करते भी दिखते हैं। जाहिर है कि जब पानी घर के भीतर छाती तक भर गया था, तो बाहर तो इससे ऊंचा ही रहा होगा, और तैराकी में मजा आ रहा होगा। जहां तक नाले-नाली की गंदगी की बात है, तो वह आस्था के फिल्टर प्लांट से दूर हो जाती है।
लेकिन प्रयागराज और गंगा से परे भी देश में आज जगह-जगह कई प्रदेशों के सैकड़ों शहरों में पानी इसी तरह भरा हुआ दिख रहा है, और हर जगह न तो गंगा है, और न ही लोग घर के भीतर चार-पांच फीट भर चुके पानी की बर्बादी को झेलने की हालत में हैं। कोई सरकारी अधिकारी ही ऐसे हो सकते हैं जो घर के हर सामान को डुबा चुकी गंगा का इस तरह आनंद ले रहे हों। अभी जब दिल्ली के दिल, कनॉटप्लेस की सडक़ों पर नदी की तरह लहरें दिख रही थीं, तो वह वीडियो देखकर मुझ जैसे दूर बैठे व्यक्ति को यही लग रहा था कि शटर के नीचे से घुस चुके पानी से बर्बादी कितनी होती होगी, और क्या उसकी कोई भरपाई हो सकेगी? गुजरात के सूरत जैसे शहर में इसी तरह पानी भरने से जो बर्बादी हुई वह भी लोगों ने अभी देखी है, और वह किसी नदी की बाढ़ से नहीं आई थी, वह कम समय में अधिक बारिश होने से शहर में भरा हुआ पानी था।
अब यहां एक दिलचस्प बात सूझती है कि लोग नदियों के किनारे अवैध कब्जे, अवैध निर्माण करते चल रहे हैं, लोगों की बसाहट नदियों के किनारों पर कब्जे कर रही हैं, नदियों के किनारे के जंगलों पर इंसान काबिज हो चुके हैं। यह कुछ उसी किस्म का है जिस तरह जंगलों में इंसान घुसते चले जा रहे हैं, और जंगली-जानवर मानो मजबूरी में गांव-कस्बे, और शहरों तक आ रहे हैं। इसी तरह इंसान तालाबों को पाट रहा है, जमीन के नीचे का पूरा पानी खींच ले रहा है, नालों को कचरे से भर रहा है, नदियों के किनारों पर कब्जा कर रहा है, नदियों के किनारे के जंगलों को काट रहा है जिससे नदियों में गाद भर रही है, और उनकी जलभराव क्षमता कम हो रही है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि जंगलों में जानवरों के गुजारे की क्षमता कम हो रही है। क्या यह सोचकर देखना ठीक नहीं होगा कि इंसान जंगलों पर कब्जा कर रहा है, तो जंगली-जानवर बसाहट में आ रहे हैं, खेत और झोपड़े तबाह कर रहे हैं, ठीक इसी तरह इंसान जलस्रोतों पर कब्जा कर रहा है, तो जल इंसान के शहरों में भरकर बदला चुका रहा है!
इसके पीछे के जटिल विज्ञान का मैं यहां अतिसरलीकरण करना नहीं चाहता, लेकिन यह सब कुदरत का हिसाब चुकता करने का अपना एक तरीका और मिजाज है। इंसान ने अपनी नाजायज हरकतों से प्रकृति को इतना नुकसान पहुंचाया है कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है, और उसकी वजह से मौसम की सबसे बुरी और सबसे कड़ी मार अब हो रही है बार-बार, और इस बेकाबू मार से कुदरत बिना कुछ कहे हिसाब को ब्याज सहित चुकता कर रही है। अब यह सोचने की जरूरत है कि शहर आसमान की तरफ ऊपर बढ़ रहे हैं, एक-एक फीट पर पहले के मुकाबले अब अधिक इंसानों की बसाहट हो रही है, जिनका पैदा किया हुआ कचरा पहले के मुकाबले अब प्रति वर्ग किलोमीटर पर बहुत अधिक पैदा हो रहा है, जमीन की पानी सोखने की क्षमता कांक्रीट से सील कर दी जा रही है। ऐसे में पुराने बने हुए नाले-नालियों की क्षमता अब बढ़े हुए कचरे से पट जा रही है, और जमीन से तेजी से निकालकर खपत किए गए पानी को बाहर ले जाने की क्षमता भी जमीन की रह नहीं गई है। फिर बड़ा खतरा यह है कि ये दोनों-तीनों चीजें खूनी रफ्तार से आगे बढ़ रही हैं। शहरों में प्रति वर्ग किलोमीटर आबादी अब कई गुना बढऩे जा रही है, इमारतों में जुड़तीं हर मंजिल आबादी को दुगुना कर देती है। इंसानों के अनुपात में पानी की खपत, और निकासी, और कचरे की पैदाइश दोनों ही बढ़ते चलते हैं। शहरों में इनके लिए कोई क्षमता नहीं रह गई है। म्युनिसिपलों जैसी स्थानीय संस्थाएं गले-गले तक भ्रष्टाचार और निकम्मेपन में डूबी रहती हैं, और वे सत्तारूढ़ नेताओं की मनमानी और उनके शक्ति-प्रदर्शन का औजार अधिक रहती हैं। ऐसे में शहरों का नियोजित विकास शहरी विकास योजना का एक शब्द भर रह गया है।
इन दिनों इंसानों की जिंदगी में सोशल मीडिया की बहार आई हुई है। वहां पर पहुंचते ही लोग अपने दिल-दिमाग के तौलिए तुरंत निकाल फेंकते हैं, और मोहब्बत से लेकर नफरत तक की नुमाइश शुरू कर देते हैं। कुछ बरस पहले हम लोग फिलीस्तीन की यात्रा पर थे, और रास्ते में एक किसी ने फेसबुक को लेकर यह किस्सा सुनाया कि अब अमरीकी सरकार ने सीआईए का बजट आधा कर दिया है कि जब पूरी दुनिया अपने दिल-दिमाग की बातें खुद होकर फेसबुक पर लिख रही है, तो फिर जासूसी करने के लिए इतने काम की क्या जरूरत है। वह बात थी तो मजाक, लेकिन बहुत हद तक वह सही भी है। आज कोई मामूली सी कंपनी भी किसी को काम पर रखने के पहले उसके सोशल मीडिया अकाऊंट खंगाल डालती है कि वहां कौन-कौन से कुकर्म फख्र के साथ पोस्ट किए गए हैं। हमें अपने अखबार में कुछ महीनों के लिए प्रशिक्षण पर पत्रकारिता के छात्रों को रखने के अनुरोध मिलते रहते हैं, और उनके एप्लीकेशन आते ही पहला काम हम यही करते हैं कि उनके सोशल मीडिया अकाऊंट देखते हैं कि वे ट्रेनिंग देने लायक हैं या नहीं।
कुछ तो सोशल मीडिया में, और कुछ कम्प्यूटर टेक्नॉलॉजी ने, ऐसी सहूलियत मुहैया करा दी है कि लोग कॉपी-पेस्ट कर सकते हैं, या कट-पेस्ट कर सकते हैं। मौलिक होना अब कोई अनिवार्यता नहीं रह गई है। मेरे ही सोशल मीडिया पेज पर एक से अधिक लोग ठीक एक ही टिप्पणी को पोस्ट कर देते हैं, और मैं पढक़र हैरान रहता हूं कि इन सबको किस बोधिवृक्ष की ये पत्तियां मिली हैं?
जब किसी पर हमला करना होता है, तो फेसबुक और एक्स जैसी जगहों पर एक ही पोस्ट को सैकड़ों लोग अपने-अपने नाम से डालने लगते हैं जो कि उनके अपने लिए लिखी गई रहती है। अब अलग-अलग जात-धरम, राष्ट्रीयता, और पेशे वाले लोग एक ही वक्त दुबई, लाहौर, बलूचिस्तान, और सुल्तानपुर के गल्ला मंडी के पांडेय भोजनालय में एक ही किस्म की थाली, और साथ में कोकाकोला की वही बोतल, और खाली गिलास। 50 रूपए में 6 चपाती, पनीर, लबाबदार दाल के साथ पा सकते हैं! दुबई के होटल से लेकर गल्ला मंडी के पांडेय भोजनालय तक एक ही रेट, एक ही तस्वीर, और अलग-अलग लोग इन जगहों पर ठहरे हुए हैं। अब इन तस्वीरों से न तो मोहब्बत साबित हो रही है, और न ही नफरत। लेकिन लोगों में कुछ भी पोस्ट कर देने की हड़बड़ी ऐसी भयानक है कि वे चाहे जिंदगी में दुबई न गए हों, और बलूचिस्तान को तो नक्शे पर भी न पहचान पाएं, लेकिन वहां की हिन्दुस्तानी-पाकिस्तानी थाली पोस्ट करने की हड़बड़ी उन्हें बहुत है।
यहां तक तो बात ठीक थी, लेकिन हिन्दुस्तान के बड़े-बड़े मशहूर तथाकथित पत्रकार, नेता, पार्टियों के आईटी मुखिया, और सांसद-विधायक, प्रवक्ता भी जिस हड़बड़ी में गढ़ी हुई झूठी बातों को पोस्ट करते हैं, वह तो भयानक ही है। गढ़ी हुई तस्वीरें, संदर्भ से परे चिपका दिए गए वीडियो पोस्ट करके लोग अपने आपको बेवकूफ, और/या बदनीयत साबित करने का नुकसान झेलते हुए भी हड़बड़ी में रहते हैं कि कहीं सनसनी फैलाने में वे पीछे न रह जाएं। अंग्रेजी में इसके लिए एक बड़ा अच्छा सा छोटा शब्द इस्तेमाल होता है, फोमो, जिसका मतलब है फियर ऑफ मिसिंग आऊट, यानी कहीं पीछे न रह जाएं, यह डर।
लोग सोशल मीडिया पर औरों से आगे बढऩे की हड़बड़ी में भी तरह-तरह के सनसनीखेज झूठ पोस्ट करते रहते हैं, या एकदम मौलिक बनने के चक्कर में भी। यह सिलसिला खतरनाक इतना रहता है कि जब तक किसी पोस्ट के नीचे कमेंट में कोई एक जिम्मेदार व्यक्ति झूठ का पर्दाफाश करे, तब तक वह झूठ हजारों दूसरे लोग शेयर कर चुके रहते हैं। और दिलचस्प बात यह है कि उनमें से अधिकतर लोग ऐसे झूठ में से अपने तजुर्बे वाले पहले झूठ को अपना भी तजुर्बा बताते हुए पोस्ट करते चलते हैं। वे थाली को 50 का 60 रूपए भी नहीं करते, चिकन को पनीर भी नहीं करते, या कोफ्ता को दालमाखनी भी नहीं बताते।
एक वक्त था जब टीवी को इडियट बॉक्स कहा जाता था, यानी बुद्धू-बक्सा। अब वक्त बदल गया है, अब सोशल मीडिया ने लोगों को झूठा, मक्कार, बेवकूफ, बदनीयत, और नफरतजीवी-हिंसक सब कुछ बना दिया है। इन दिनों सोशल मीडिया पर जिम्मेदार बने रहना खासा मुश्किल हो गया है। फिर यह भी है कि सोशल मीडिया पर आपको नफरत की कुश्ती में घसीटने के लिए भी लोग लगे रहते हैं, और उस कीचड़ से बचकर चलना भी थोड़ा मुश्किल होता है। टीवी नाम के बुद्धू बक्से के साथ इकतरफा बातचीत रहती थी, और वह आपको बातचीत में नहीं उलझाता था। सोशल मीडिया तो किसी टैक्सी या ऑटो स्टैंड के ड्राइवरों की तरह आपको बांह पकडक़र अपनी गाड़ी की तरफ खींचते चलता है, और किसकी गाड़ी अच्छी है, वह कितनी और सवारियां बिठाएगी, कब तक मंजिल पर पहुंचाएगी, इसका कोई ठिकाना नहीं रहता है।
न सिर्फ सोशल मीडिया, बल्कि खबरों वाला मीडिया भी पिछले चार दिनों से एक मानवीय गलती, या कि गलत काम पर बहस में डूबा हुआ है। अमरीका की एक बड़ी टेक कंपनी एस्ट्रोनॉमर, के सीईओ एंडी बायरन एक बड़े संगीत कार्यक्रम में मौजूद थे। वहां पर कार्यक्रम का प्रसारण कर रहे कैमरों में से कुछ कैमरे दर्शकों पर फोकस हो जाते हैं, और अचानक ही जीवंत प्रसारण में वे तस्वीरें जाने लगती हैं, या कि स्टेडियम या सभागृह में लगे बड़े पर्दों पर ऐसे किसी भी दिलचस्प दिख रहे दर्शक के क्लोजप दिखने लगते हैं। यह मामला ठीक वैसा ही जैसा कि क्रिकेट मैच के प्रसारण में जब मैदान पर कुछ पल के लिए कोई एक्शन नहीं रहता, तो कैमरा पर्सन किसी सुंदरी के गालों पर बने हुए किसी देश के झंडे को दिखाने लगते हैं, या किसी सुंदरी के कानों के झुमकों पर फोकस करते हैं। यह अंदाज ऐसे बड़े आयोजनों में एकदम आम है। और ऐसे ही किस-कैम कहे जाने वाले वीडियो-कैमरे ने इस कंपनी मुखिया एंडी बायरन को कंपनी की ही एचआर प्रमुख महिला क्रिस्टिन कैबॉट के साथ कैद किया। यह पुरूष पीछे खड़े हुए अपनी मातहत सहयोगी के इर्द-गिर्द बांहें लपेटे हुए था, और मानो इसकी सहमति देते हुए यह महिला भी उसकी बांहों को थामे हुई थी। अचानक ही जब इस संगीत समारोह की सभी बड़ी स्क्रीनों पर इस जोड़े का वीडियो अचानक छा गया, तो खूब आवाजें होने लगीं, और यह जोड़ा खुद हक्का-बक्का होकर शर्मिंदगी में डूब गया, और उसी जगह बैठकर कैमरे की नजरों से दूर होने की कोशिश की। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी, और यह वीडियो क्लिप अमरीका की तमाम वेबसाइटों पर छा गया, सोशल मीडिया पर नैतिकता की बहस छिड़ गई, और एंडी बायरन की पत्नी ने अपने सोशल मीडिया अकाऊंट पर से अपने नाम के साथ पति का, बायरन, सरनेम हटा दिया, और बाद में अकाऊंट डिलीट भी कर दिया। साथ में वीडियो में दिख रही मातहत अफसर ने भी अपना सोशल मीडिया अकाऊंट डिलीट कर दिया। लिपटे हुए ये दोनों लोग निजी जिंदगी में अलग-अलग लोगों से शादीशुदा हैं, और कुछ सेकेंड का यह वीडियो उनके लिए बड़ी तबाही लेकर आया।
अब इन दोनों परिवारों का जो भी होता हो, और इन दोनों, शायद, प्रेमियों का जो भी होता हो, इसकी आंच कंपनी तक भी आई है, और इनकी कंपनी में यह सवाल उठने लगा है कि सीईओ, और उसकी मातहत एचआर प्रमुख के बीच इतना करीबी रिश्ता होना कंपनी के नैतिक मापदंडों, और वहां के कामकाज के माहौल के खिलाफ है।
लेकिन इस मुद्दे को देखकर भी मैं अनदेखा कर देता, अगर एक दोस्त ने मुझे इस मामले पर कुछ जानकारी भेजकर यह न पूछा होता कि यह किसी की निजी जिंदगी में नाजायज दखल नहीं है कि उन्हें इस तरह कैमरों पर कैद करके दिखा दिया गया हो, उनकी मर्जी के खिलाफ?
निजता और नैतिकता के तमाम पहलू हमेशा ही मेरा ध्यान खींचते हैं। मुझे लगता है कि अलग-अलग देश, काल, और परिस्थितियों के मुताबिक इन दोनों चीजों की परिभाषाएं, और पैमाने अलग-अलग तय होते हैं। मैं अमरीका से आधी धरती दूर, गोले के दूसरे तरफ मौजूद हूं, और यहां की संस्कृति भी अमरीका से बिल्कुल ही अलग है। अमरीका में किसी भी धर्मग्रंथ को फाडक़र फेंक देना, आग लगा देना, वहां के नागरिकों का अधिकार है, और मेरे देश में अभी पंजाब में धार्मिक ग्रंथों की बेअदबी करने पर उम्रकैद जोडऩे की कोशिश हो रही है। यहां धर्म का हाल यह है कि कल एक रेलवे स्टेशन पर एक धर्म की शिनाख्त बताने वाले लोगों की एक टोली के दर्जन भर लोगों ने एक अकेले वर्दीधारी सीआरपीएफ जवान को मार-मारकर गिराया, और लातों से कूट डाला। ऐसे देश में बैठे मैं धरती के दूसरे ओर के अमरीका की नैतिकता पर बात कर रहा हूं।
भारत के लोगों को पल भर के लिए यह अटपटा लग सकता है कि किस-कैम कहे जाने वाले ऐसे कैमरों से किसी एक जोड़े को अचानक ही तमाम स्क्रीन पर दिखा दिया गया, और यह उनकी निजता के खिलाफ रहा। लेकिन इस जोड़े को यह अच्छी तरह मालूम था कि वहां के ऐसे संगीत समारोहों में ऐसे किस-कैम आम हैं, और जब स्टेज को ही देखते-देखते लोग थोड़े से थक या ऊब जाते हैं, तो कैमरापर्सन, या वीडियो एडिटर दर्शकों के बीच की कोई भी फोटो दिखाते हैं। चूंकि यह एकदम ही आम प्रचलन की बात है, इसलिए वहां जाने वाले लोग ऐसे कैमरों के फोकस हो जाने को निजता का हनन नहीं कह सकते। दुनिया में कहीं भी क्रिकेट हो रहा हो, तो मुस्कुराती सुंदरियों की तस्वीरें, या बॉडी पेंट करके पहुंचने वाले खेल के दीवानों की तस्वीरें दिखती ही हैं, स्टेडियम में पहुंचने का मतलब ही निजता के एक हिस्से को बाहर घर पर छोडक़र आना होता है। इसलिए एक-दूसरे के प्रेम में डूबे, नाग-नागिन के जोड़े की तरह लिपटे हुए इस सीईओ, और उसकी मातहत अफसर की निजता का कोई उल्लंघन यहां नहीं हुआ है। अब सवाल केवल एक कंपनी में काम करने वाले सीनियर और जूनियर के बीच, या बराबरी के दो लोगों के बीच रिश्तों का है कि उनमें क्या जायज है, और क्या नाजायज? कल इस सीईओ एंडी बायरन ने इस्तीफा भी दे दिया है, और कंपनी-बोर्ड ने दूसरे को नियुक्त करके, इस प्रेमीजोड़े की जांच शुरू करवा दी है।
मैंने अभी सोशल मीडिया पर आस्तिकों के नाम से यह लिखा कि किसी ईश्वर को मानने वाले लोगों की हरकतें ही इस बात का सुबूत होती हैं कि उनके ईश्वर कैसे हैं, तो इस पर धर्मालु लोगों ने तुरंत ही अपने-अपने ब्रांड जोड़ दिए, और बुरा मानना शुरू कर दिया। मैंने तो एक जेनेरिक दवाई का पर्चा लिखा था, बल्कि दवा का पर्चा भी नहीं लिखा था, मर्ज भर लिखा था, लेकिन लोगों को अपने-अपने धर्म के बारे में अच्छी तरह मालूम रहता है, और यह भी समझ पड़ता है कि किस पल बुरा मानना शुरू करना है। अब किसी डॉक्टर की लिखी जेनेरिक दवा पर कोई मरीज या दवा दुकानदार किसी ब्रांड की दवा छांटें, और फिर उसके खराब निकल जाने पर ब्रांड की तोहमत डॉक्टर पर चिपका दें, यह तो जायज नहीं है। लेकिन धर्म का मुद्दा तो रहता ही ऐसा है, मैंने धार्मिक भावनाओं को हमेशा एक पैर पर तैयार खड़े देखा है, आहत होने के लिए। धार्मिक भावनाओं से नाजुक और कुछ नहीं होता, वे छुईमुई के पत्ते से भी अधिक नाजुक होती हैं, और छूने की जरूरत भी नहीं पड़ती।
इन दिनों मीडिया, और सोशल मीडिया, दोनों की मेहरबानी से अनगिनत वीडियो मिलते रहते हैं जो कि किसी धार्मिक आयोजन में शामिल धर्मालुओं की हिंसा के रहते हैं। किसी धर्म का नाम भी लेने की जरूरत नहीं है, और लोग अपनी-अपनी पसंद, या नापसंद के मुताबिक अच्छे और बुरे धर्म, या कि हमलावर धर्म, और जख्मी धर्म के नाम मेरी बातों में भर सकते हैं। कई वीडियो देखकर दिल दहल रहा है कि धार्मिक उत्तेजना के नशे में झूमते और डोलते लोग लाठियां लिए हुए सडक़ किनारे के किसी फेरीवाले, या कि किसी ऑटो चलाने वाले को घेर रहे हैं, उसे उसके धर्म के बारे में गंदी गालियां दे रहे हैं, और अपने ईश्वर का नाम लेने के लिए, और अधिक जोर से नारा लगाने के लिए उस पर लाठियां तान रहे हैं, उसकी रोजी-रोटी को लाठियां मार रहे हैं। यह सब दिनदहाड़े और खुली सडक़ पर हो रहा है। लोग अपनी पसंद और नापसंद से हमलावर और जख्मी के धर्म के नाम भर सकते हैं, और फिलहाल तो यह जिक्र हिन्दुस्तान का है, लेकिन इसकी तुलना वे अफगानिस्तान के तालिबानों से कर सकते हैं कि वे उनसे कितने कदम पीछे हैं।
मैं यह सोचकर भी कुछ हैरान होता हूं कि जो ईश्वर सर्वत्र, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान माने जाते हैं, वे दस-दस लाठियों से घिरे एक इंसान को अपने धर्म से परे, दूसरे धर्म के ईश्वर के नारे लगवाते देखकर क्या सोचते होंगे? यह बरस कई बार सामने आने वाले नजारे हैं, और ऐसे हर वीडियो पर दहलते दिल से देखते हुए मुझे लगता है कि कभी ईश्वरों को इंटरव्यू करने का मौका मिलेगा, तो पूछूंगा कि लाठी मार-मारकर, जूते मार-मारकर तुम्हारे नारे लगवाया जाना तुम्हें कैसा लगता है? क्या मजा बहुत अधिक आता है, या कुछ तथाकथित इंसानियत बची हुई है कि शर्म भी आती है?
मैं एक तरफ तो देखता हूं कि अलग-अलग धर्मों में अपने खराब होने, पापी और अपराधी होने को लेकर भक्तों में अपराधबोध और आत्मग्लानि को ठूंस-ठूंसकर भरा गया है। मैंने भारत में प्रचलित धर्मों में से अधिक चर्चित तीन धर्मों की कुछ ऐसी मिसालें देकर चैटजीपीटी से कुछ और मिसालें मांगीं, तो उसने पूरा लेख ही लिख देने का प्रस्ताव रखा। मैं हां कहता, तो दस-बीस सेकेंड में ही यह कॉलम पूरा हो जाता, लेकिन मैंने उसे याद दिलाया कि मेरी रोजी-रोटी तो लिखने से ही चलती है, और उसके इतनी मदद करने से तो मेरी कल्पनाशीलता और रचनात्मकता खत्म ही हो जाएगी, फिर मेरे अपने तर्क हैं, वे कहां जाएंगे? इसलिए मैंने चैटजीपीटी से सिर्फ कुछ मिसालें देने को कहा।
मेरे सवाल को उसने बड़ा विचारोत्तेजक माना, और हिन्दू, ईसाई, और मुस्लिम तीनों के बीच प्रचलित पाप, आत्मग्लानि, या अफसोस की मिसालें सामने रखीं। हिन्दू भजनों और आरतियों को मैं बचपन से अपने घर पर, और इलाके के लाउडस्पीकरों पर सुनते आया हूं। किसी देवी-देवता की आरती करने के लिए अपने को खुद को पापी, खलकामी, अधम, पतित अपने कामों को पातक (यानी पाप) कहने का कोई अंत ही नहीं है। शायद ही कोई आरती और भजन अपने आपको कोसे बिना पूरे होते हों। दूसरी तरफ ईसाई धर्म को देखें तो उनमें भी पाप और आत्मग्लानि को औंटाकर, रबड़ी सरीखा बनाकर ठूंस-ठूंसकर भरा गया है। चर्च में एक कन्फेशन चेम्बर ही बना दिया जाता है जो कि डरे-सहमे धर्मालुओं की पाप की स्वीकारोक्ति के लिए रहता है। अपने आपको पापी कहना, मुजरिम कहना, पतित कहना ईसाईयों के बीच एक बड़ी प्रचलित धार्मिक शब्दावली है।
अब भारत में मुसलमानों को देखें, तो इस्लाम में पाप और तौबा (यानी पश्चाताप) की सोच जगह-जगह है। और यह भी माना जाता है कि अगर दिल से तौबा की जाए, तो हर पाप माफी के लायक है। यहां तक कहा गया है कि अगर तुम्हारे पाप आसमान तक पहुंच जाएं, और तुम दिल से तौबा करो, तो अल्लाह माफ कर देगा। अपने पाप मंजूर करने और अल्लाह से माफी की उम्मीद करने की सोच भरी हुई है।
एआई है कि हमारी सोच पर से हटने का नाम ही नहीं लेता। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आज दुनिया में सबसे अधिक चर्चित औजार बन गया है, और लोग किसी कैंसर मरीज के लिए सिर्फ उसी के इस्तेमाल की दवा विकसित करने से लेकर स्कूलों में 5वीं के निबंध लिखने तक के लिए एआई-औजारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। खुद हमारा काम, इस अखबार के लिए कोई तस्वीर बनाना, किसी मुद्दे पर रिसर्च करना, कुछ हद तक एआई के सबसे प्रचलित आम और मुफ्त औजारों से हो रहे हैं। आज ही हमने इस अखबार के लिए चैटजीपीटी से एक लेख लिखवाया। देश में आबादी के अलग-अलग मुद्दों को लेकर जर्मनी का एक लेख देखने मिला, और हमने उस लेख को चैटजीपीटी को देकर उससे अनुरोध किया कि इस किस्म का लेख भारत पर भी तैयार करके दिखाए। जर्मन लेख में सारे आंकड़े जर्मनी के थे, बहुत सारे पहलू उसी देश के लायक थे जो कि भारत पर लागू भी नहीं होते। और चैटजीपीटी को बताया कि यह जर्मनी और भारत की तुलना का लेख नहीं बनाना है, यह पूरी तरह अकेले भारत पर बनाना है। उसने शायद एक मिनट लिया, इस लेख को तैयार करने में क्योंकि इसमें दर्जनों आंकड़ों को निकालकर उनका विश्लेषण भी करना था। यही काम अगर बिना एआई-औजार के अगर हमारे संपादकीय विभाग के किसी व्यक्ति से करवाया जाता, तो उन्हें आंकड़े निकालकर, विश्लेषण करके, और फिर निष्कर्ष तक पहुंचने में कम से कम कुछ घंटे लगे होते। यहां मुफ्त में एक मिनट में यह लेख बन गया। और यह बहुत से चोर-लेखक अपने नाम से भी छपवा सकते हैं क्योंकि चैटजीपीटी तो विरोध दर्ज कराने पहुंचेगा नहीं।
लेकिन जैसे पिछले 25-30 बरसों में लगातार अधिक, और अधिक लोकप्रिय होते चले गए इंटरनेट सर्च इंजिनों ने, और विकिपीडिया जैसी सामान्य ज्ञान की वेबसाइटों ने लोगों की तथ्यों को याद रखने की मजबूरी को खत्म कर दिया। लोग अब तथ्यों को रटने के बजाय पल भर में गूगल करने पर भरोसा रखने लगे थे, और फिर चैटजीपीटी जैसे कई एआई टूल्स एक-एक करके आ गए, और अब इंसानी दिमाग को न तथ्य उस तरह ढूंढने पड़ते, न विश्लेषण उस तरह करना पड़ता, और न ही किसी नतीजे पर पहुंचने का सफर तय करना पड़ा। अब ये तमाम पहलू अकेले एआई-औजार पूरे कर ले रहे हैं।
अब इस बीच अमरीका में हुई एक ताजा रिसर्च में यह निष्कर्ष सामने रखा गया है कि चैटजीपीटी जैसे एआई-टूल्स लोगों के दिमाग को कुंद कर रहे हैं। वहां की एक सबसे प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी, एमआईटी की रिसर्च टीम ने लोगों को तीन समूह में बांटकर उनसे निबंध लिखवाए। एक समूह ने चैटजीपीटी का इस्तेमाल करके निबंध लिखे, दूसरे ने गूगल सर्च से जानकारी लेकर लिखा, और तीसरे समूह ने बिना किसी सहायता अपने मन से निबंध लिखा। एमआईटी शोधकर्ताओं ने इन तमाम लोगों के सिर पर ईईजी हेटसेट का इस्तेमाल किया था। चैटजीपीटी वाले लोगों ने मस्तिष्क उत्तेजना का सबसे नीचे का स्तर दिखाया, और उनके लिखने में गहराई और भावना की कमी भी थी। दूसरी तरफ सिर्फ गूगल सर्च का इस्तेमाल करके जिन लोगों ने निबंध लिखा उन्होंने चैटजीपीटी के मुकाबले अधिक रचनात्मकता दिखाई। शोधकर्ताओं का अंदाज है कि चैटजीपीटी के इस्तेमाल से दिमाग की याद रखने की, और रचनात्मक सोच भी सीमित हो सकती है। तीसरे समूह ने निबंध लिखने में किसी डिजिटल-टूल का सहारा नहीं लिया, और उनकी ईईजी रिपोर्ट ने बताया कि उनके दिमाग के भीतर सबसे अधिक मानसिक हलचल होती रही, खासकर दिमाग के रचनात्मकता, एकाग्रता, और याददाश्त से जुड़े हिस्सों में। उनके मन से लिखे गए निबंध में मौलिकता, और संतुष्टि अधिक थे।
अब हम पल भर के लिए एक दूसरी खबर पर आ जाते हैं, जो कि चीन से आई है। पिछले कुछ महीनों से वहां पर अलग-अलग हिस्सों में सडक़ निर्माण के काम को पूरी तरह से मशीनों, ड्रोन कैमरों, और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से करके देखा गया। हालांकि अभी ऐसे प्रोजेक्ट पायलट प्रोजेक्ट की तरह ही हैं, लेकिन इनमें डेढ़ सौ किलोमीटर से अधिक की ऐसी सडक़ भी बनाई गई, जिसमें इंसानों का कोई काम नहीं रहा। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, ड्रोन, और रोबो ने ही सारा काम संभाला, और मशीनों से यह पूरी सडक़ बनवाई। शुरूआत से लेकर अंत तक एआई नियंत्रित ड्रोन सडक़ का निरीक्षण करते थे, ऑटोमेटिक मशीनें सडक़ ढालती थीं, और रोबोटिक रोलर एकदम शानदार बारीकी से सडक़ निर्माण करते थे।
आन्ध्र के मुख्यमंत्री चन्द्राबाबू नायडू ने एक योजना शुरू की है जिसके तहत स्कूल जाने वाले हर बच्चे के लिए उसके परिवार को 13 हजार रूपए साल मिलेंगे, और ऐसे हर बच्चे के लिए स्कूल को भी दो हजार रूपए महीने अतिरिक्त मिलेंगे। मतलब यह कि राज्य सरकार की इस तल्लीकी वंदनम (मां को प्रणाम) योजना से सरकारी या निजी स्कूल के हर बच्चे की मां के खाते में हर साल 13 हजार रूपए जाएंगे। नायडू का मानना है कि इससे लोग अधिक बच्चे पैदा करने का हौसला जुटा पाएंगे, और राज्य को अधिक कामकाजी लोगों की जरूरत है। यह सोच नायडू के पहले के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ने भी अम्मा-वोडी नाम से शुरू की थी, और उस वक्त देश के चर्चित राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने जगन मोहन को ऐसी 9 योजनाओं का नवरत्नालु नाम का एक पैकेज सुझाया था। अब चन्द्रबाबू नायडू अपने इस कार्यकाल में कुछ पुरानी और कुछ नई योजनाओं को लेकर 6 योजनाओं का जनकल्याणकारी पैकेज, सुपर सिक्स सामने रख रहे हैं, और यह ताल्लीकी वंदनम उसी का एक हिस्सा है।
अब आन्ध्र की नई-पुरानी, जैसी भी यह योजना है, इसके बारे में सोचने की जरूरत इसलिए है कि नायडू पिछले कुछ समय से लगातार लोगों को अधिक बच्चे पैदा करने के लिए समझाते आ रहे हैं। एक तरफ तो भारत आबादी, बेरोजगारी जैसी दिक्कतों को झेल रहा है, और ऐसे में कोई एक प्रदेश अगर लोगों को पैसा दे रहा है कि वे अधिक बच्चे पैदा करें, उनके बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और उनके घरेलू खर्च भी सरकार उठाएगी, तो इस सोच पर सोचने की जरूरत है। बाकी देश की तरह आन्ध्र में भी स्कूलों में दोपहर का भोजन मुफ्त है, स्कूली किताबें, और यूनिफॉर्म भी शायद मुफ्त होंगे, वहां कहीं-कहीं पर सुबह के नाश्ते की योजना भी जांची जा रही है। इन सबके चलते हुए अगर आन्ध्र में स्कूली बच्चों की पढ़ाई छोडऩा घटता है, तो वह भी एक उपलब्धि होगी, और अगर वे पढ़-लिखकर कारखानों और कंपनियों में काम करने लायक, या अपने स्टार्टअप के लायक तैयार होते हैं, तो वह भी राज्य की उत्पादकता को बढ़ाने का काम होगा।
आन्ध्र-तेलंगाना उन प्रदेशों में से हैं जहां से निकलकर तकनीकी शिक्षा प्राप्त नौजवान अमरीका जैसे देश में सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर के काम में लगे हुए हैं। चन्द्राबाबू नायडू के साथ एक बात यह भी है कि वे अटल सरकार के समय भी सरकार को बनाने और चलाने के एक प्रमुख स्तंभ थे, और आज की मोदी सरकार भी चन्द्राबाबू पर टिकी हुई है। ऐसे में मुख्यमंत्री की महत्वाकांक्षाएं केन्द्र सरकार की मदद से कुछ अधिक हद तक पूरी हो सकती हैं। लेकिन क्या बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, और उनके लालन-पोषण का खर्च सरकार की तरफ से मिलने से आन्ध्र के लोगों को अधिक बच्चे पैदा करने का प्रोत्साहन असर डालेगा? यह नीति अगले पांच-दस बरस में शायद अपना असर न दिखाए, लेकिन 20-25 बरस के बाद ऐसे प्रदेश को यह समझ में आ सकता है कि आबादी बढ़ाने के बाद उस आबादी का कितना उत्पादक उपयोग सरकार कर सकती है।
आज देश की सरकार, या प्रदेशों की सरकारों के लिए तो यह आसान है कि जनकल्याणकारी योजनाओं में अलग-अलग नामों से जनता के खातों में पैसे डाले जाएं। लेकिन अधिक बच्चे पैदा करने से तो सरकारों पर यह जिम्मेदारी भी आएगी कि उनको इस लायक तैयार किया जाए कि वे देश की अर्थव्यवस्था में योगदान दे सकें, चाहे देश के भीतर काम करके, चाहे देश के बाहर जाकर। अभी देश के किसी और प्रदेश ने ऐसा हौसला नहीं दिखाया है, और आन्ध्र में पहले से चल रही इस योजना के नए रूप-रंग के साथ नायडू ने आबादी बढ़ाने की सोच भी जोड़ दी है।
मैं अपने अखबार में लंबे समय से यह बात लिखते आया हूं कि जब किसी प्रदेश से मजदूर काम करने बाहर जाते हैं, तो उसे किसी भी तरह से उनका पलायन नहीं लिखना चाहिए। वे पलायन नहीं करते हैं, बल्कि उनके प्रदेशों की सरकारें अपनी जिम्मेदारियों से पलायन करती हैं कि उनकी जनता जिंदा रहने के लिए, काम तलाशने के लिए दूसरे प्रदेशों में जाती हैं। अगर यह जनता बाहर किसी बहुत ही अधिक उत्पादक काम के लिए जाती, तो भी ठीक रहता। लेकिन अगर बाहर जाकर भी वह मजदूरी ही कर रही है, तो यह जाहिर है कि उनके अपने राज्य की सरकार उन्हें अपनी जमीन पर मजदूरी भी नहीं दे पा रही है। इसलिए राज्य सरकारों को अपने आपको इस लायक तैयार करना चाहिए कि उनकी जनता मामूली मजदूरी से ऊपर के लायक तैयार हो, वैसा काम अपनी जमीन पर मिले, या वह इस लायक तैयार हो कि बाकी देश या बाकी दुनिया में जाकर वह काम तलाश सके, अच्छा काम पा सके।
आज दुनिया में चारों तरफ जीवनशैली से उपजने वाली गैरसंक्रामक बीमारियों का खतरा बढ़ते चल रहा है। बहुत संपन्न देशों में तो खानपान, और अतिरिक्त आराम की वजह से मोटापा बढ़ते जा रहा है, लेकिन भारत जैसा देश भी बड़ा खतरा झेल रहा है। यहां खानपान और रहन-सहन की वजह से डायबिटीज, हाईब्ल्ड प्रेशर, दिल की बीमारियां, मोटापा, कैंसर, और कई तरह की मानसिक समस्याएं बढ़ रही हैं। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक भारत में अब 60 फीसदी से अधिक मौतें गैरसंक्रामक बीमारियों से हो रही हैं, जिनमें से अधिकतर जीवनशैली की गड़बड़ी से हैं। देश में अभी 10 फीसदी से थोड़े से कम, 13 करोड़ से अधिक लोग डायबिटीज के खतरे में हंै। और इसकी बड़ी वजहों में से एक, खराब किस्म का खानपान, बैठे रहना, तम्बाकू और शराब जैसी चीजें हैं।
अब हम खराब किस्म के खानपान को देखें तो इसमें शक्कर, नमक, और घी-तेल का सबसे बड़ा हाथ दिखता है। लोग परिवार के भीतर अपनी रईसी दिखाने को, किसी मेहमान के आने पर, या किसी के घर जाने पर चॉकलेट या मिठाई लेकर जाना अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा की बात मानते हैं। खुशी का कोई भी मौका रहे, लोग मिठाई बांटने को एक परंपरा मानते हैं। इसके साथ-साथ घर आने वालों के लिए, या अपनी खुद की जुबान की वजह से लोग घरों में कोल्डड्रिंक रखने लगे हैं, या बाहर जाने पर पीने लगे हैं, जो कि शक्कर से लबालब रहते हैं। कोल्डड्रिंक में शक्कर, मिठाई, आइस्क्रीम, केक, पेस्ट्री, इन सबमें शक्कर, और अब तो मध्यम वर्ग या उससे ऊपर के बच्चों की तमाम पार्टियों में यही सब चीजें चलती हैं। लोग एक-दूसरे के घर आते-जाते बच्चों के लिए यही सब लाते ले जाते हैं, आने वालों को खिलाते हैं। आज बचपन से ही शक्कर का इतना अधिक खानपान हो रहा है कि उससे होने वाला नुकसान बहुत से लोगों को सीधे डायबिटीज तक पहुंचा रहा है।
देश की संस्कृति में एक मामूली से फेरबदल की जरूरत है। शक्कर वाले सारे सामानों को घटाकर उनकी जगह फलों को बढ़ावा दिया जाए, तो शक्कर का यह खतरा एकदम से कम हो सकता है। दूसरी तरफ फलों से जो फायदा हो सकता है, वह चॉकलेट-बेकरी, या मिठाई जैसे किसी सामान से नहीं हो सकता। और इन दोनों में खर्च में भी बहुत बड़ा फर्क नहीं रहेगा। आज भी सौ-दो सौ रूपए से कम की कोई मिठाई नहीं आती, और इतने ही दाम में उससे चार-छह गुना वजन के फल ले जाए जा सकते हैं।
यह सिलसिला कछ लोग अगर एक संकल्प की तरह शुरू करें, तो यह धीरे-धीरे जोर पकड़ सकता है। आज भी बहुत से लोग कई किस्म के धार्मिक, या खानपान के संकल्प लेते ही हैं। कई लोग धार्मिक कारणों से जमीन के नीचे उगी चीजों को नहीं खाते। कई लोग रात का अंधेरा होने के पहले खाना खा लेते हैं। कुछ लोग हफ्ते में किसी दिन नहीं खाते। ऐसे में लोग अगर यह तय कर लें कि वे मेहमानों को सिर्फ फल खिलाएंगे, और किसी के घर जाते हुए सिर्फ फल लेकर ही जाएंगे, तो यह चलन धीरे-धीरे बढ़ सकता है।
आज लोग जब अपने घर का फ्रिज खोलते हैं, और उसमें मिठाई रखती दिखती है, तो किसी का अपने पर काबू नहीं रह पाता। लोग इच्छा न रहते हुए भी आंखों के रास्ते दिमाग तक पहुंची हुई इच्छा पूरी करने के लिए मीठा खाने बैठ जाते हैं। और घर आए मेहमानों को भी जिद करके मीठा खिलाया जाता है, जो कि मध्यमवर्गीय और उसके ऊपर के आय वर्ग के लोगों की सेहत के लिए ठीक नहीं रहता। कमाई जितनी अधिक रहती है, वैसे परिवारों के लोगों की देह उतना ही कम खाने के लायक बच जाती है। सामाजिक व्यवहार में यह फेरबदल एकदम तुरंत जरूरी है कि त्यौहारों से लेकर, खुशियों के दूसरे मौकों तक मिठाई की जगह फलों को बढ़ावा दिया जाए, बहुत ही गरिष्ठ सब्जियों की जगह, या कम से कम उनके साथ-साथ सलाद को बढ़ावा दिया जाए। लोगों को मेजबानी, और खातिरदारी के साथ-साथ मेहमानों की सेहत को भी ठीक रखने की अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए, और अतिथि सत्कार के लिए बदनाम कुछ समाजों में तो जब तक मेहमान अघा न जाए, तब तक उसका मनुहार करते रहना ही न्यूनतम शिष्टाचार माना जाता है। इस सिलसिले को भी तोडऩा चाहिए।
छत्तीसगढ़ में पिछली भूपेश बघेल की कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में हजारों करोड़ के तरह-तरह के भ्रष्टाचार होने के मामले कई जांच एजेंसियां अदालतों में चला रही हैं। इनमें सत्ता के एकदम करीबी, और चहेते अफसर, नेता, और कारोबारी दो-दो बरस से जेल में बंद चले आ रहे हैं, और कुछ तो बरसों से फरार ही चल रहे हैं। प्रदेश कांग्रेस के अरबपति कोषाध्यक्ष 52 करोड़ रूपए के अदालती आरोप के साथ गायब ही हैं, आसमान या जमीन में से किसने निगला है, वह भी हवा नहीं लग रही है। लेकिन इस बीच राज्य के दो आईएएस अफसर, और पूरी सरकार को अकेले हांकने वाली एक डिप्टी कलेक्टर को दो-ढाई बरस की जेल के बाद अभी दर्जनों कोशिशों से सुप्रीम कोर्ट से अंतरिम जमानत मिली है। इस पर भी इन्हें छत्तीसगढ़ के बाहर रहने कहा गया है, क्योंकि ये इतने ताकतवर रहे हैं कि गवाहों को प्रभावित कर सकते हैं।
कोई मामला आयकर छापे से निकली जानकारी से शुरू हुआ था, और फिर ईडी ने उसे उठा लिया था, कोई मामला सीबीआई जांच के बाद अदालत पहुंचा, और ऐसे बहुत से मामले अब राज्य सरकार के आर्थिक अपराध ब्यूरो की जांच के घेरे में भी हंै। एक-एक चर्चित अफसर कई-कई एजेंसियों के मुकदमों में कटघरे में है, और पता नहीं ये मामले कब तक किसी न्यायसंगत किनारे लगेंगे। फिर भारत की न्याय व्यवस्था ऐसी है कि जिला अदालतों से चाहे जो फैसले हों, हारा हुआ पक्ष उसके बाद हाईकोर्ट पहुंचेगा ही पहुंचेगा, और वहां जिसे निराशा मिलेगी, उसके लिए सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खुले रहेंगे। जिन लोगों को लगता है कि भ्रष्ट लोगों का हिसाब इस देश का इंसाफ चुकता करेगा, उनके लिए इसी छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की एक मिसाल है जहां एक सरकारी अधिकारी के रिटायर हो जाने के शायद 30 बरस बाद अनुपातहीन सम्पत्ति का मुकदमा अदालत में पहुंचा है। अब अगर देखें कि प्रदेश के सबसे बड़े भ्रष्टाचार के मामलों में आरोपी इसी तरह दशकों तक बचे रहेंगे, तो भला भ्रष्टाचार करने, और सजा पाने का कोई खौफ किसके मन में रह जाएगा?
केन्द्र और राज्य सरकार की जांच एजेंसियों पर बदले की भावना से, राजनीतिक एजेंडा से केस दर्ज करने, जांच करने, अदालत तक ले जाने, या इसके खिलाफ रियायत बरतने जैसे कई आरोप लगते रहते हैं। फिर एजेंसियों का भ्रष्टाचार भी कई मामलों में सामने आता है। हर सरकार पर अपने से पहले की विपक्षी सरकार पर राजनीतिक दुर्भावना और बदले की भावना से कार्रवाई करने का आरोप भी लगता है। ऐसे में क्या किया जाए कि भ्रष्टाचार पर तेज रफ्तार कार्रवाई हो, और दुर्भावना का कोई आरोप भी न लगे?
हमारा ख्याल है कि भारत सरकार, और प्रदेश सरकारों के लिए जिस तरह सीएजी के ऑडिट की अनिवार्य व्यवस्था है, उसी तरह सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर जांच करने की एक अनिवार्य व्यवस्था रहनी चाहिए। आज भी सरकारों की सीमा से परे लोकायुक्त, या लोकपाल जैसी व्यवस्था है तो सही, लेकिन वह खुद होकर जांच नहीं करती, और शिकायतों का इंतजार करती है। हमारा ख्याल है कि कोई एक संवैधानिक संस्था ऐसी बननी चाहिए जो कि सरकार का कार्यकाल पूरा होते ही अगली किसी भी सरकार के आने पर, या उसके पहले भी अनिवार्य रूप से तमाम खबरों पर सरकार से जवाब-तलब करे, और सार्वजनिक सुनवाई से भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करे। जिस तरह आपातकाल की ज्यादतियों की जांच के लिए न्यायिक जांच आयोग बने थे, उसी तरह देश और हर प्रदेश में ऐसे न्यायिक जांच आयोग रहने चाहिए जो कि किसी सरकार के पूरे कार्यकाल की जांच करे। अब हो सकता है कि मंै जो सुझा रहा हूं, वह इंतजाम अलग-अलग जांच एजेंसियों या संवैधानिक आयोगों के तहत मौजूद भी हो। ऐसा होने पर इमें से किसी एक या अधिक जांच आयोग के अधिकार और जिम्मेदारी अलग किस्म से तय करके यह इंतजाम करना चाहिए कि किसी भी सरकार के पूरे कार्यकाल की जांच की जाए, इसके लिए जनता से शिकायतें और जानकारी मंगाई जाएं, और एक समय सीमा के भीतर वह जांच-रिपोर्ट सार्वजनिक रूप से पेश कर दी जाए। इस तरह का थोड़ा सा काम प्रदेशों में सीएजी करती है, कुछ शिकायतों पर लोकायुक्त जांच करता है, और सरकार के बढ़ाए हुए कुछ मामलों की जांच एसीबी-ईओडब्ल्यू जैसी एजेंसी भी करती है। लेकिन हमने इन तमाम संस्थाओं की सीमाएं देखी हैं, और एसीबी-ईओडब्ल्यू को तो सत्ता के पैरोंतले रौंदे जाते किसी डबलरोटी कारखाने के आटे की तरह भी देखा है। इसलिए यह मौजूदा व्यवस्था तो काम नहीं आ रही है। देश और प्रदेशों में सरकारी दखल से परे, एक स्वतंत्र संवैधानिक जांच एजेंसी इसी मकसद से बनाई जानी चाहिए कि वह पूरी आजादी से एक सरकार के कार्यकाल की जांच करे, रिपोर्ट दे, और फिर इस रिपोर्ट के आधार पर अगर मुकदमा मुमकिन हो, तो वह भी सरकारी मंजूरी के बिना चलाया जा सके।
मध्यप्रदेश में अभी मंदसौर जिले के एक भाजपा नेता, मनोहरलाल धाकड़, सडक़ पर सेक्स करते टोल नाके, या हाईवे के किसी और सीसीटीवी पर इतनी अच्छी तरह रिकॉर्ड हो गए कि इस वीडियो के किसी खंडन-मुंडन की भी गुंजाइश नहीं रह गई। उनकी कार की नंबर प्लेट भी इस सेक्स के साथ-साथ पूरे वक्त स्क्रीन पर बनी रही।
उनके पक्ष में सिर्फ एक बात जाती है कि उनके साथ की महिला अपनी मर्जी से उनका साथ देते दिख रही थी, उसे सडक़ पर सेक्स से कोई परहेज नहीं दिख रहा था, बदन पर किसी ताबीज का डोरा भी नहीं था, और वह बड़े उत्साह से इस नेता का साथ दे रही थी। साथ ही वह बालिग दिख रही थी, इसलिए जबरिया सेक्स जैसा कोई आरोप कम से कम इस नेता पर नहीं दिख रहा है। लेकिन सोशल मीडिया पर चारों तरफ इसके फैल जाने से सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी अपने नेता की अधिक मदद करने की हालत में नहीं है, और मंदसौर के एसपी को सोशल मीडिया पर आकर कहना पड़ा कि यह वायरल वीडियो दिल्ली-मुम्बई 8-लेन एक्सप्रेस-वे पर थाना भानपुरा इलाके का पाया गया है, और इस बारे में जुर्म दर्ज कर जांच की जा रही है। इस भाजपा नेता की पत्नी जिला पंचायत सदस्य है, जो कि पार्टी के लिए एक और शर्मिंदगी की वजह बनती है।
भाजपा ने इस आदमी से अपना पल्लू छुड़ाते हुए कहा है कि यह ऑनलाईन सदस्य बना था, लेकिन पार्टी का प्राथमिक सदस्य नहीं है। दूसरी तरफ एक तलवारनुमा हथियार हवा में लहराते हुए मनोहरलाल धाकड़ का एक फोटो भी चारों तरफ फैल रहा है, जो कि उनके गौरव का सुबूत है।
अब जिस व्यक्ति के पास निजी कार है, जो हाईकोर्ट पर अपनी प्रेमिका या किसी धंधे वाली महिला के साथ कार में घूम रहा है, जो महिला इतनी दुस्साहसी है कि वह बिना कपड़े कार से उतरकर आराम से तरह-तरह से सेक्स करने में जुट जाती है, उस व्यक्ति के पास हजार-दो हजार में मिलने वाला होटल का कोई कमरा भी न हो, यह समझना थोड़ा अटपटा लगता है। फिर ऐसा भी लगता है कि क्या यह व्यक्ति एक दुस्साहसी रोमांच करते हुए सेक्स करना चाहता था, ताकि खुली सडक़ पर हाईवे के किनारे अपनी नंबर प्लेट के बगल में सेक्स करते हुए एक अलग किस्म का रोमांच पाए? क्या यह व्यक्ति मनोविज्ञान की भाषा में एक्जीभिशनिज्म का शिकार है जो कि अपने बदन का, अपनी हरकतों का प्रदर्शन करना चाहते हैं। दुनिया भर में ऐसे लोग रहते हैं जो कि अपनी पसंद का निशाना छांटकर उनके सामने अपने बदन को उघाड़ते हैं, और उससे उत्तेजना पाते हैं।
मनोविज्ञान में तरह-तरह की मानसिक विकृतियों, और मानसिक स्थितियों का जिक्र है। अभी दो-चार दिन पहले ही मेरे शहर में एक बुजुर्ग ऐसा पकड़ाया जो कि महिलाओं के सैंडल लेकर उसके साथ सेक्स कर रहा था। उसे वीडियो कैमरों पर भी दर्ज किया गया, और अपनी ही रिहायशी इमारत में वह किसी दूसरे घर के दरवाजे पर रखी महिलाओं के चप्पल-सैंडल उठाकर उनके साथ सेक्स करने लगता है।
चाहे मध्यप्रदेश में इस भाजपा सदस्य का मामला हो, चाहे रायपुर में चप्पल से सेक्स करने वाले इस बुजुर्ग का, मनोविज्ञान में ऐसी हर तरह की चीजों की व्याख्या है। पुलिस अपना काम करती है, लेकिन बहुत से लोग इस तरह के मनपसंद सेक्स के बिना तसल्ली नहीं पाते हैं। अब कार के मालिक को भी कहीं एक कोना नसीब न हो, अपनी कार की पीछे की सीट भी नसीब न हो, यह कल्पना कुछ मुश्किल है। हो सकता है कि उसको खुले आसमान तले ऐसे रोमांचक सेक्स बिना संतुष्टि न मिलती हो।
दरअसल इस देश के आम लोगों की जिंदगी में सेक्स की जितनी सीमित परिभाषाएं हैं, उनमें दुनिया में दूसरी जगहों पर दशकों या सदियों से दर्ज परिभाषाएं भी नहीं गिनी जातीं। दुनिया भर में लोगों की जो किस्में हैं, वे भारत में सिवाय मनोविज्ञान की किताबों के चर्चा में भी नहीं आतीं। सेक्स के बारे में किसी भी तरह की चर्चा से जो आम परहेज हिन्दुस्तान के अधिकतर लोगों में रहता है, वह भी न तो लोगों की यौन-इच्छाओं की विविधता को समझने देता, और न ही उन्हें लेकर कोई कानूनी आपत्ति होने तक जानने देता।
कभी-कभी मेरे सामने यह धर्मसंकट रहता है कि इतवार को एक ही वक्त पर, एक के बाद एक लिखे जाने वाले, संपादकीय, और इस साप्ताहिक स्तंभ ‘आजकल’ के विषय क्या हों? कभी-कभी यह भी होता है कि इनमें से किसी एक को लिखना शुरू करता हूं, और वह बगल की जगह के लायक अधिक बनने लगता है, तो फिर उस विषय का इस्तेमाल संपादकीय की जगह ‘आजकल’ में हो जाता है, या ‘आजकल’ की जगह संपादकीय में। लेकिन आज इस कॉलम में लिखने के लिए जो मुद्दा है, वह इसी के लायक है, और संपादकीय खत्म करने के बाद अब जब इस पर लिखना शुरू कर रहा हूं, तो तस्वीर बिल्कुल साफ है कि इसे अखबार की सोच की तरह लिखना जायज नहीं हो सकता, मेरी निजी सोच की तरह लिखना ही सही होगा।
भारत एक मामले में एक जीवंत लोकतंत्र है कि यहां अलग-अलग विचारधाराओं से लिखा जाना, कम से कम अब तक तो, जारी है। सहमति और असहमति का अनुपात कम-अधिक हो सकता है, लेकिन असहमति पूरी तरह से खत्म नहीं हो पाई है। सत्ता पर असहमति को कुचलने की तोहमतें बहुत लगती हैं, बहुत से मामलों में ऐसा लगता है कि असहमत लोगों को कुछ दिक्कत हो रही है, फिर भी मेरे सीने में नहीं तो, तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन, आग जलनी चाहिए। हिन्दुस्तान में आग इतनी तो जल ही रही है कि आग अभी बाकी है। पंजाब की बस्तियों में कहा जाता है कि चूल्हा सुलगाने के लिए पड़ोस से आग ले आओ, ठीक उसी तरह जैसे कि दही जमाने के लिए पड़ोस से जामन ले आओ। ऐसे ही असहमति की आग भी इस देश के मीडिया में, सोशल मीडिया में, राजनीतिक दलों में, राज्यों में, कहीं न कहीं, हर कहीं जलती-सुलगती रहती ही है। कोई भी सरकारी दमकल इतनी ताकतवर नहीं हो पाई है कि वह हर सुलगती आँच को बुझा दे।
अब ऐसे में कई लोगों को मुझसे यह शिकायत रहती है कि मैं किसी व्यक्ति या पार्टी के खिलाफ, किसी विचारधारा या किसी धर्म-संप्रदाय के खिलाफ ‘उतना’ हमलावर होकर नहीं लिखता, और यूट्यूब पर उतना आक्रामक नहीं रहता, जितने कि कुछ और लोग रहते हैं। और यह शिकायत किसी एक विचारधारा की नहीं रहती, अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग कई विचारधाराओं को यही शिकायत रहती है कि आप करीब रहकर भी उतने करीब नहीं हैं जितने कि फलां-फलां हैं।
लोगों की यह शिकायत एकदम सही इसलिए रहती है कि किसी के करीब रहना पहली बात तो यह कि मेरा मकसद नहीं है, दूसरी बात यह कि मेरे पेशे की ऐसी जरूरत भी नहीं है कि मैं किसी व्यक्ति, पार्टी, या विचारधारा के करीब रहूं, या उसके खिलाफ रहूं। मेरी विचारधारा अखबारनवीसी से परे की कुछ नहीं है, और अखबारनवीसी किसी एक विचारधारा पर नहीं चलती, वह मूल्यों पर चलती है। मैं कम से कम अपने लिखने और बोलने में विचारधारा, और मूल्यों में फर्क करके चलता हूं। विचारधारा तो अलग-अलग राजनीतिक दलों की अलग-अलग हो सकती है, और किसी समय किसी एक मुद्दे पर लिखते हुए हो सकता है कि वह लिखना किसी एक दल को ज्यादा माकूल बैठे, और किसी दूसरे वक्त किसी दूसरी पार्टी को। लेकिन पत्रकारिता, और लोकतंत्र के जो बुनियादी मूल्य हैं, वे तो पार्टियों की सरहदों से परे रहते हैं, और किसी समय वे किसी पार्टी को पसंद हो सकते हैं, किसी और वक्त किसी दूसरी पार्टी को नापसंद हो सकते हैं। सच, लोकतंत्र, और इंसाफ के बुनियादी मूल्यों पर अखबारनवीसी टिकी है, कम से कम मैं इनके बिना अखबारनवीसी की कल्पना नहीं करता।
यह एक अलग बात है कि अखबारनवीसी आज के वक्त में ग्रामोफोन रिकॉर्ड की तरह चलन से बाहर हो चुका शब्द बन गई है, और इसकी जगह अभी करीब चौथाई सदी में चलन में बढ़ा शब्द मीडिया इस्तेमाल होने लगा है। मैं अपनी पुरानी दकियानूसी सोच के चलते लुग्दी वाले सस्ते अखबारी कागज पर चलती अखबारनवीसी का हिमायती हूं, और बार-बार इस बात को लिखता भी हूं कि अखबारों को इस आधुनिक, मीडिया नाम की, छतरी से बाहर आना चाहिए, और अपने आपको अपने सदियों पुराने नाम, प्रेस से ही बुलाना चाहिए। प्रेस, और उस पर छपे अखबार मुझे जिन मूल्यों से बांधकर रखते हैं, वे मूल्य आज की डिजिटल-एज में धुंधले हो चले हैं। और भारतीय समाचार चैनलों के साथ अगर कुछ अखबार वाले अपने आपको मीडिया नाम की छतरी के नीचे रखना ठीक समझते हैं, तो उनकी वैसी समझ के साथ मैं किसी बहस में भी शामिल होना नहीं चाहता।
लेकिन इस डिजिटल-एज के योद्धाओं के साथ मेरी तरह के डायनासॉर युग के अखबारनवीस की तुलना ठीक नहीं है। मैं जर्नलिस्ट को कैम्पेनिस्ट (अभियानवादी), और प्रोपेगैंडिस्ट (ढिंढोरची) से परे की एक अलग नस्ल मानता हूं, फिर चाहे वह ग्रामोफोन रिकॉर्ड की तरह आज किसी इस्तेमाल और फायदे की न रह गई हो। किसी नेता, पार्टी, या पार्टी की विचारधारा, धर्म, या सम्प्रदाय की सोच के पक्ष या विपक्ष में मुहिम चलाने वालों, उनका जिंदाबाद-मुर्दाबाद किस्म का जर्नलिज्म करने वालों से अपनी कोई तुलना मुझे नाजायज ही लगती है। बहुत से लोग हैं जिनका काम एक एजेंडा के तहत है, उसका हिस्सा ही है। लेकिन मैंने अपने लिए अपने काम की सीमा को सच, लोकतंत्र, और इंसाफ तक सीमित रखा हुआ है। इन जेनेरिक दवाओं के बाद मुझे अलग-अलग ब्राँड की दवाओं की जरूरत नहीं पड़ती। और दवा कंपनियों के प्रतिनिधियों को जेनेरिक से कैसी चिढ़ रहती है, यह तो सबको मालूम ही है। लोगों को यह भी मालूम है कि ब्राँड दवाओं के कारोबार की कमाई कितनी और कैसी रहती है। कुछ वैसा ही हाल आज के वक्त अच्छे-बुरे कैसे भी अखबारों को छोडक़र बाकी किस्म के मीडिया का है, और वह ब्राँड प्रमोशन में लगा हुआ है।


