आजकल

आन्ध्र के मुख्यमंत्री चन्द्राबाबू नायडू ने एक योजना शुरू की है जिसके तहत स्कूल जाने वाले हर बच्चे के लिए उसके परिवार को 13 हजार रूपए साल मिलेंगे, और ऐसे हर बच्चे के लिए स्कूल को भी दो हजार रूपए महीने अतिरिक्त मिलेंगे। मतलब यह कि राज्य सरकार की इस तल्लीकी वंदनम (मां को प्रणाम) योजना से सरकारी या निजी स्कूल के हर बच्चे की मां के खाते में हर साल 13 हजार रूपए जाएंगे। नायडू का मानना है कि इससे लोग अधिक बच्चे पैदा करने का हौसला जुटा पाएंगे, और राज्य को अधिक कामकाजी लोगों की जरूरत है। यह सोच नायडू के पहले के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ने भी अम्मा-वोडी नाम से शुरू की थी, और उस वक्त देश के चर्चित राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने जगन मोहन को ऐसी 9 योजनाओं का नवरत्नालु नाम का एक पैकेज सुझाया था। अब चन्द्रबाबू नायडू अपने इस कार्यकाल में कुछ पुरानी और कुछ नई योजनाओं को लेकर 6 योजनाओं का जनकल्याणकारी पैकेज, सुपर सिक्स सामने रख रहे हैं, और यह ताल्लीकी वंदनम उसी का एक हिस्सा है।
अब आन्ध्र की नई-पुरानी, जैसी भी यह योजना है, इसके बारे में सोचने की जरूरत इसलिए है कि नायडू पिछले कुछ समय से लगातार लोगों को अधिक बच्चे पैदा करने के लिए समझाते आ रहे हैं। एक तरफ तो भारत आबादी, बेरोजगारी जैसी दिक्कतों को झेल रहा है, और ऐसे में कोई एक प्रदेश अगर लोगों को पैसा दे रहा है कि वे अधिक बच्चे पैदा करें, उनके बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और उनके घरेलू खर्च भी सरकार उठाएगी, तो इस सोच पर सोचने की जरूरत है। बाकी देश की तरह आन्ध्र में भी स्कूलों में दोपहर का भोजन मुफ्त है, स्कूली किताबें, और यूनिफॉर्म भी शायद मुफ्त होंगे, वहां कहीं-कहीं पर सुबह के नाश्ते की योजना भी जांची जा रही है। इन सबके चलते हुए अगर आन्ध्र में स्कूली बच्चों की पढ़ाई छोडऩा घटता है, तो वह भी एक उपलब्धि होगी, और अगर वे पढ़-लिखकर कारखानों और कंपनियों में काम करने लायक, या अपने स्टार्टअप के लायक तैयार होते हैं, तो वह भी राज्य की उत्पादकता को बढ़ाने का काम होगा।
आन्ध्र-तेलंगाना उन प्रदेशों में से हैं जहां से निकलकर तकनीकी शिक्षा प्राप्त नौजवान अमरीका जैसे देश में सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर के काम में लगे हुए हैं। चन्द्राबाबू नायडू के साथ एक बात यह भी है कि वे अटल सरकार के समय भी सरकार को बनाने और चलाने के एक प्रमुख स्तंभ थे, और आज की मोदी सरकार भी चन्द्राबाबू पर टिकी हुई है। ऐसे में मुख्यमंत्री की महत्वाकांक्षाएं केन्द्र सरकार की मदद से कुछ अधिक हद तक पूरी हो सकती हैं। लेकिन क्या बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, और उनके लालन-पोषण का खर्च सरकार की तरफ से मिलने से आन्ध्र के लोगों को अधिक बच्चे पैदा करने का प्रोत्साहन असर डालेगा? यह नीति अगले पांच-दस बरस में शायद अपना असर न दिखाए, लेकिन 20-25 बरस के बाद ऐसे प्रदेश को यह समझ में आ सकता है कि आबादी बढ़ाने के बाद उस आबादी का कितना उत्पादक उपयोग सरकार कर सकती है।
आज देश की सरकार, या प्रदेशों की सरकारों के लिए तो यह आसान है कि जनकल्याणकारी योजनाओं में अलग-अलग नामों से जनता के खातों में पैसे डाले जाएं। लेकिन अधिक बच्चे पैदा करने से तो सरकारों पर यह जिम्मेदारी भी आएगी कि उनको इस लायक तैयार किया जाए कि वे देश की अर्थव्यवस्था में योगदान दे सकें, चाहे देश के भीतर काम करके, चाहे देश के बाहर जाकर। अभी देश के किसी और प्रदेश ने ऐसा हौसला नहीं दिखाया है, और आन्ध्र में पहले से चल रही इस योजना के नए रूप-रंग के साथ नायडू ने आबादी बढ़ाने की सोच भी जोड़ दी है।
मैं अपने अखबार में लंबे समय से यह बात लिखते आया हूं कि जब किसी प्रदेश से मजदूर काम करने बाहर जाते हैं, तो उसे किसी भी तरह से उनका पलायन नहीं लिखना चाहिए। वे पलायन नहीं करते हैं, बल्कि उनके प्रदेशों की सरकारें अपनी जिम्मेदारियों से पलायन करती हैं कि उनकी जनता जिंदा रहने के लिए, काम तलाशने के लिए दूसरे प्रदेशों में जाती हैं। अगर यह जनता बाहर किसी बहुत ही अधिक उत्पादक काम के लिए जाती, तो भी ठीक रहता। लेकिन अगर बाहर जाकर भी वह मजदूरी ही कर रही है, तो यह जाहिर है कि उनके अपने राज्य की सरकार उन्हें अपनी जमीन पर मजदूरी भी नहीं दे पा रही है। इसलिए राज्य सरकारों को अपने आपको इस लायक तैयार करना चाहिए कि उनकी जनता मामूली मजदूरी से ऊपर के लायक तैयार हो, वैसा काम अपनी जमीन पर मिले, या वह इस लायक तैयार हो कि बाकी देश या बाकी दुनिया में जाकर वह काम तलाश सके, अच्छा काम पा सके।
जब नायडू अधिक बच्चे पैदा करने की बात कर रहे हैं, तो जाहिर है कि वे अधिक मजदूर पैदा करने की बात नहीं कर रहे हैं, वे अधिक उत्पादक नागरिक तैयार करने की बात कर रहे हैं। उनकी सोच के इस पहलू पर बाकी प्रदेशों को भी सोचना चाहिए कि वे अपने लोगों को किस लायक तैयार कर रहे हैं? कई राज्य मनरेगा जैसी योजना में लोगों को मजदूरी देकर उसके बड़े-बड़े आंकड़ों पर गर्व करते हैं। यह गर्व की नहीं, शर्म की बात है कि उसके लोगों के पास इस न्यूनतम मजदूरी से बेहतर कोई काम नहीं है, और वे सरकार की मदद की नीयत से शुरू की गई इस मजदूरी-योजना में दिन भर जमीन पर काम करते हैं। हर सरकार को चाहिए कि वे आज वैश्विक हो चुके कामगार-मुकाबले के लिए अपने लोगों को अधिक से अधिक हुनरमंद बनाकर उन्हें बाकी दुनिया में काम करने के लिए हौसला देकर आगे बढ़ाए। आन्ध्र की इस सोच और ऐसी पहल से बाकी प्रदेशों को भी जागकर बैठना चाहिए, और यह सोचना चाहिए कि उसकी अपनी आबादी का कितना हिस्सा किस आय वर्ग का है? हर किसी को मजदूरी हासिल होना, न्यूनतम मजदूरी पाना बड़ी बात नहीं है। जब आबादी का अधिक से अधिक हिस्सा इस न्यूनतम से काफी ज्यादा पाने लगे, वह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पैमानों पर मेहनताना पाने लगे, तो ही किसी प्रदेश को तसल्ली पाने का हक है।
आज दुनिया भर में हुनर का मुकाबला है। और यह हुनर तकनीकी ज्ञान, भाषा, या दूसरे देशों की संस्कृति से परे का भी हुनर है। इससे लैस किए बिना आबादी बढ़ाना बोझ हो सकता है। और सरकारों को यह भी सोचना होगा कि एआई की वजह से, या मशीन मानवों की वजह से दुनिया में कामकाज घटने वाले हैं। वैसी बदलने जा रही तस्वीर के साथ लोग अपनी जनता को किस तरह काम दे सकेंगे, यह भी सोचकर रखना चाहिए। फिलहाल बच्चों की पढ़ाई के लिए अगर गरीब परिवारों को मदद मिलती है, तो यह अच्छी बात है, अब सोचना यह है कि गृहिणी के खाते में बच्चों की रकम हर महीने जाएगी, तो उसका कोई बेजा इस्तेमाल न हो। और इसकी गारंटी करना नामुमकिन सरीखा है। फिलहाल हर राज्य को अपनी अर्थव्यवस्था में जनकल्याण अनुदान, और उसकी उत्पादकता तौलने और तय करने का हक है। हम तो किसी एक जगह की सोच को बाकी जगहों पर परखने की बात सुझा रहे हैं, अपनी जनता को बेहतर हुनरमंद बनाने का तो कोई नुकसान कभी हो नहीं सकता। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)