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मजदूरों के पेट पर जोरों की लात मारी एआई ने!
सुनील कुमार ने लिखा है
22-Jun-2025 1:26 PM
मजदूरों के पेट पर जोरों की लात मारी एआई ने!

एआई है कि हमारी सोच पर से हटने का नाम ही नहीं लेता। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आज दुनिया में सबसे अधिक चर्चित औजार बन गया है, और लोग किसी कैंसर मरीज के लिए सिर्फ उसी के इस्तेमाल की दवा विकसित करने से लेकर स्कूलों में 5वीं के निबंध लिखने तक के लिए एआई-औजारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। खुद हमारा काम, इस अखबार के लिए कोई तस्वीर बनाना, किसी मुद्दे पर रिसर्च करना, कुछ हद तक एआई के सबसे प्रचलित आम और मुफ्त औजारों से हो रहे हैं। आज ही हमने इस अखबार के लिए चैटजीपीटी से एक लेख लिखवाया। देश में आबादी के अलग-अलग मुद्दों को लेकर जर्मनी का एक लेख देखने मिला, और हमने उस लेख को चैटजीपीटी को देकर उससे अनुरोध किया कि इस किस्म का लेख भारत पर भी तैयार करके दिखाए। जर्मन लेख में सारे आंकड़े जर्मनी के थे, बहुत सारे पहलू उसी देश के लायक थे जो कि भारत पर लागू भी नहीं होते। और चैटजीपीटी को बताया कि यह जर्मनी और भारत की तुलना का लेख नहीं बनाना है, यह पूरी तरह अकेले भारत पर बनाना है। उसने शायद एक मिनट लिया, इस लेख को तैयार करने में क्योंकि इसमें दर्जनों आंकड़ों को निकालकर उनका विश्लेषण भी करना था। यही काम अगर बिना एआई-औजार के अगर हमारे संपादकीय विभाग के किसी व्यक्ति से करवाया जाता, तो उन्हें आंकड़े निकालकर, विश्लेषण करके, और फिर निष्कर्ष तक पहुंचने में कम से कम कुछ घंटे लगे होते। यहां मुफ्त में एक मिनट में यह लेख बन गया। और यह बहुत से चोर-लेखक अपने नाम से भी छपवा सकते हैं क्योंकि चैटजीपीटी तो विरोध दर्ज कराने पहुंचेगा नहीं।

लेकिन जैसे पिछले 25-30 बरसों में लगातार अधिक, और अधिक लोकप्रिय होते चले गए इंटरनेट सर्च इंजिनों ने, और विकिपीडिया जैसी सामान्य ज्ञान की वेबसाइटों ने लोगों की तथ्यों को याद रखने की मजबूरी को खत्म कर दिया। लोग अब तथ्यों को रटने के बजाय पल भर में गूगल करने पर भरोसा रखने लगे थे, और फिर चैटजीपीटी जैसे कई एआई टूल्स एक-एक करके आ गए, और अब इंसानी दिमाग को न तथ्य उस तरह ढूंढने पड़ते, न विश्लेषण उस तरह करना पड़ता, और न ही किसी नतीजे पर पहुंचने का सफर तय करना पड़ा। अब ये तमाम पहलू अकेले एआई-औजार पूरे कर ले रहे हैं।

अब इस बीच अमरीका में हुई एक ताजा रिसर्च में यह निष्कर्ष सामने रखा गया है कि चैटजीपीटी जैसे एआई-टूल्स लोगों के दिमाग को कुंद कर रहे हैं। वहां की एक सबसे प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी, एमआईटी की रिसर्च टीम ने लोगों को तीन समूह में बांटकर उनसे निबंध लिखवाए। एक समूह ने चैटजीपीटी का इस्तेमाल करके निबंध लिखे, दूसरे ने गूगल सर्च से जानकारी लेकर लिखा, और तीसरे समूह ने बिना किसी सहायता अपने मन से निबंध लिखा। एमआईटी शोधकर्ताओं ने इन तमाम लोगों के सिर पर ईईजी हेटसेट का इस्तेमाल किया था। चैटजीपीटी वाले लोगों ने मस्तिष्क उत्तेजना का सबसे नीचे का स्तर दिखाया, और उनके लिखने में गहराई और भावना की कमी भी थी। दूसरी तरफ सिर्फ गूगल सर्च का इस्तेमाल करके जिन लोगों ने निबंध लिखा उन्होंने चैटजीपीटी के मुकाबले अधिक रचनात्मकता दिखाई। शोधकर्ताओं का अंदाज है कि चैटजीपीटी के इस्तेमाल से दिमाग की याद रखने की, और रचनात्मक सोच भी सीमित हो सकती है। तीसरे समूह ने निबंध लिखने में किसी डिजिटल-टूल का सहारा नहीं लिया, और उनकी ईईजी रिपोर्ट ने बताया कि उनके दिमाग के भीतर सबसे अधिक मानसिक हलचल होती रही, खासकर दिमाग के रचनात्मकता, एकाग्रता, और याददाश्त से जुड़े हिस्सों में। उनके मन से लिखे गए निबंध में मौलिकता, और संतुष्टि अधिक थे।

अब हम पल भर के लिए एक दूसरी खबर पर आ जाते हैं, जो कि चीन से आई है। पिछले कुछ महीनों से वहां पर अलग-अलग हिस्सों में सडक़ निर्माण के काम को पूरी तरह से मशीनों, ड्रोन कैमरों, और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से करके देखा गया। हालांकि अभी ऐसे प्रोजेक्ट पायलट प्रोजेक्ट की तरह ही हैं, लेकिन इनमें डेढ़ सौ किलोमीटर से अधिक की ऐसी सडक़ भी बनाई गई, जिसमें इंसानों का कोई काम नहीं रहा। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, ड्रोन, और रोबो ने ही सारा काम संभाला, और मशीनों से यह पूरी सडक़ बनवाई। शुरूआत से लेकर अंत तक एआई नियंत्रित ड्रोन सडक़ का निरीक्षण करते थे, ऑटोमेटिक मशीनें सडक़ ढालती थीं, और रोबोटिक रोलर एकदम शानदार बारीकी से सडक़ निर्माण करते थे।

अब हम अपने ही अखबार के दफ्तर से लेकर अमरीका की एमआईटी पहुंचकर वहां का रिसर्च देखने के बाद चीन के सडक़ निर्माण को जब देख रहे हैं, तो लगता है कि अब तक की यह धारणा, कि एआई से मजदूरी के काम प्रभावित नहीं होंगे, और मजदूर अधिक बेरोजगार नहीं होंगे, बहुत सही नहीं लगती है, ऐसा लगता है कि एआई आज की कल्पनाओं से बहुत आगे बढक़र मजदूरों के पेट पर भी लात मार सकता है, और वह इंसानों के बजाय रोबो के साथ, और ऑटोमेटिक मशीनों के साथ अपना अधिक तालमेल बिठा सकता है। और चूंकि पिछले बरस से ही चीन में ऐसी कई सडक़ें बनाई जा चुकी हैं, इसलिए इसे भविष्य की बात सोचना भी गलत होगा। यह तो अब इतिहास की बात हो गई है कि बिना इंसानों के पूरी की पूरी सडक़ बना दी गई, और छोटी-मोटी नहीं, एक सडक़ तो 158 किलोमीटर लंबी बनी।

एआई से दुनिया में बेरोजगारी बढऩे के खतरों में अब ऐसे रोजगार जुड़ते हुए देखना मन में दहशत पैदा करता है। अभी तक लग रहा था कि जहां इंसानी बदन की जरूरत हो, वहां एआई की दखल जल्दी नहीं हो पाएगी। लेकिन वह दखल तो अब खालिस इंसानी-मजदूरी वाले काम भी कर रही है, और यह एक भयानक नौबत है।

लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि एआई के जो विनाशकारी असर हो सकते हैं, उनकी यहां पर हमने चर्चा भी नहीं की है। खुद एआई विकसित करने वाले कम्प्यूटर-वैज्ञानिक इस बात को लेकर विचलित हैं कि यह इतनी जल्दी बेकाबू हो जाने का खतरा रखता है। अभी यहां पर इन सारे पहलुओं को जोडक़र हम कोई निष्कर्ष नहीं निकाल रहे, लेकिन लोगों के पेट पर आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की लात बहुत जोरों से, और बहुत जल्द पडऩा तय दिख रहा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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