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छत्तीसगढ़ की हालत सुझाती है कि हर कार्यकाल की न्यायिक जांच हो
सुनील कुमार ने लिखा है
01-Jun-2025 3:59 PM
छत्तीसगढ़ की हालत सुझाती है कि हर कार्यकाल की न्यायिक जांच हो

छत्तीसगढ़ में पिछली भूपेश बघेल की कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में हजारों करोड़ के तरह-तरह के भ्रष्टाचार होने के मामले कई जांच एजेंसियां अदालतों में चला रही हैं। इनमें सत्ता के एकदम करीबी, और चहेते अफसर, नेता, और कारोबारी दो-दो बरस से जेल में बंद चले आ रहे हैं, और कुछ तो बरसों से फरार ही चल रहे हैं। प्रदेश कांग्रेस के अरबपति कोषाध्यक्ष 52 करोड़ रूपए के अदालती आरोप के साथ गायब ही हैं, आसमान या जमीन में से किसने निगला है, वह भी हवा नहीं लग रही है। लेकिन इस बीच राज्य के दो आईएएस अफसर, और पूरी सरकार को अकेले हांकने वाली एक डिप्टी कलेक्टर को दो-ढाई बरस की जेल के बाद अभी दर्जनों कोशिशों से सुप्रीम कोर्ट से अंतरिम जमानत मिली है। इस पर भी इन्हें छत्तीसगढ़ के बाहर रहने कहा गया है, क्योंकि ये इतने ताकतवर रहे हैं कि गवाहों को प्रभावित कर सकते हैं।

कोई मामला आयकर छापे से निकली जानकारी से शुरू हुआ था, और फिर ईडी ने उसे उठा लिया था, कोई मामला सीबीआई जांच के बाद अदालत पहुंचा, और ऐसे बहुत से मामले अब राज्य सरकार के आर्थिक अपराध ब्यूरो की जांच के घेरे में भी हंै। एक-एक चर्चित अफसर कई-कई एजेंसियों के मुकदमों में कटघरे में है, और पता नहीं ये मामले कब तक किसी न्यायसंगत किनारे लगेंगे। फिर भारत की न्याय व्यवस्था ऐसी है कि जिला अदालतों से चाहे जो फैसले हों, हारा हुआ पक्ष उसके बाद हाईकोर्ट पहुंचेगा ही पहुंचेगा, और वहां जिसे निराशा मिलेगी, उसके लिए सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खुले रहेंगे। जिन लोगों को लगता है कि भ्रष्ट लोगों का हिसाब इस देश का इंसाफ चुकता करेगा, उनके लिए इसी छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की एक मिसाल है जहां एक सरकारी अधिकारी के रिटायर हो जाने के शायद 30 बरस बाद अनुपातहीन सम्पत्ति का मुकदमा अदालत में पहुंचा है। अब अगर देखें कि प्रदेश के सबसे बड़े भ्रष्टाचार के मामलों में आरोपी इसी तरह दशकों तक बचे रहेंगे, तो भला भ्रष्टाचार करने, और सजा पाने का कोई खौफ किसके मन में रह जाएगा?

केन्द्र और राज्य सरकार की जांच एजेंसियों पर बदले की भावना से, राजनीतिक एजेंडा से केस दर्ज करने, जांच करने, अदालत तक ले जाने, या इसके खिलाफ रियायत बरतने जैसे कई आरोप लगते रहते हैं। फिर एजेंसियों का भ्रष्टाचार भी कई मामलों में सामने आता है। हर सरकार पर अपने से पहले की विपक्षी सरकार पर राजनीतिक दुर्भावना और बदले की भावना से कार्रवाई करने का आरोप भी लगता है। ऐसे में क्या किया जाए कि भ्रष्टाचार पर तेज रफ्तार कार्रवाई हो, और दुर्भावना का कोई आरोप भी न लगे?

हमारा ख्याल है कि भारत सरकार, और प्रदेश सरकारों के लिए जिस तरह सीएजी के ऑडिट की अनिवार्य व्यवस्था है, उसी तरह सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर जांच करने की एक अनिवार्य व्यवस्था रहनी चाहिए। आज भी सरकारों की सीमा से परे लोकायुक्त, या लोकपाल जैसी व्यवस्था है तो सही, लेकिन वह खुद होकर जांच नहीं करती, और शिकायतों का इंतजार करती है। हमारा ख्याल है कि कोई एक संवैधानिक संस्था ऐसी बननी चाहिए जो कि सरकार का कार्यकाल पूरा होते ही अगली किसी भी सरकार के आने पर, या उसके पहले भी अनिवार्य रूप से तमाम खबरों पर सरकार से जवाब-तलब करे, और सार्वजनिक सुनवाई से भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करे। जिस तरह आपातकाल की ज्यादतियों की जांच के लिए न्यायिक जांच आयोग बने थे, उसी तरह देश और हर प्रदेश में ऐसे न्यायिक जांच आयोग रहने चाहिए जो कि किसी सरकार के पूरे कार्यकाल की जांच करे। अब हो सकता है कि मंै जो सुझा रहा हूं, वह इंतजाम अलग-अलग जांच एजेंसियों या संवैधानिक आयोगों के तहत मौजूद भी हो। ऐसा होने पर इमें से किसी एक या अधिक जांच आयोग के अधिकार और जिम्मेदारी अलग किस्म से तय करके यह इंतजाम करना चाहिए कि किसी भी सरकार के पूरे कार्यकाल की जांच की जाए, इसके लिए जनता से शिकायतें और जानकारी मंगाई जाएं, और एक समय सीमा के भीतर वह जांच-रिपोर्ट सार्वजनिक रूप से पेश कर दी जाए। इस तरह का थोड़ा सा काम प्रदेशों में सीएजी करती है, कुछ शिकायतों पर लोकायुक्त जांच करता है, और सरकार के बढ़ाए हुए कुछ मामलों की जांच एसीबी-ईओडब्ल्यू जैसी एजेंसी भी करती है। लेकिन हमने इन तमाम संस्थाओं की सीमाएं देखी हैं, और एसीबी-ईओडब्ल्यू को तो सत्ता के पैरोंतले रौंदे जाते किसी डबलरोटी कारखाने के आटे की तरह भी देखा है। इसलिए यह मौजूदा व्यवस्था तो काम नहीं आ रही है। देश और प्रदेशों में सरकारी दखल से परे, एक स्वतंत्र संवैधानिक जांच एजेंसी इसी मकसद से बनाई जानी चाहिए कि वह पूरी आजादी से एक सरकार के कार्यकाल की जांच करे, रिपोर्ट दे, और फिर इस रिपोर्ट के आधार पर अगर मुकदमा मुमकिन हो, तो वह भी सरकारी मंजूरी के बिना चलाया जा सके।

आज हालत यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ बनी संवैधानिक संस्थाओं से लेकर जांच एजेंसियों तक में सरकारी पसंद से लोग बैठते हैं, और सत्ता को पसंद काम करते हैं। इससे देश में भ्रष्टाचार कभी भी खत्म नहीं होगा। इसके लिए राजनीतिक दलों और सरकारों के काबू से बाहर की एक संवैधानिक संस्था चाहिए, और वह किसी भी बेजा इस्तेमाल के खतरों से परे की चाहिए। किसी नेता या राजनीतिक दल को यह बात शायद ही पसंद आए, ठीक उसी तरह जिस तरह कि बड़ी अदालतों के बहुत से फैसले उन्हें पसंद नहीं आते। लेकिन लोकतंत्र में पारदर्शिता के लिए, और इंसाफ के लिए यह जरूरी है, और जनता के बीच से भी ऐसी मांग उठनी चाहिए।

छत्तीसगढ़ में सरकार के एक कार्यकाल में जितने किस्म के भ्रष्टाचार की खबरें आज हवा में हैं, उससे लगता है कि हर कार्यकाल पर एक अनिवार्य और स्वतंत्र जांच लोकतंत्र में मतदाताओं का भरोसा भी कायम कर सकेगी, आज तो लोग नेताओं, और अफसरों को बड़ी आसानी से चोर बोल देते हैं, यह नौबत तो ईमानदार नेताओं, और ईमानदार अफसरों के लिए शर्मिंदगी की है, पता नहीं लोग अवैध कमाई के सैलाब में इस बारे में कुछ सोचते भी हैं, या नहीं? फिलहाल तो आईएएस, और डिप्टी कलेक्टरों को प्रशासन सिखाने वाली अकादमियों को छत्तीसगढ़ मॉडल पढ़ाना चाहिए कि शासन-प्रशासन कैसा-कैसा नहीं रहना चाहिए, महज सही करना सिखाना काफी नहीं है, गलत नहीं करना सीखना भी जरूरी है।

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