आजकल
क्या आप जानते है दुनिया के सबसे महंगे फलों के बारे में, 1 किलो फल की कीमत होती है लाखो में, जानिए इन फलों के बारे में और इनकी विशेषता दुनिया में अलग-अलग तरह के फल पाए जाते हैं। हमारे देश में भी कई तरह के फल पाए जाते हैं। महंगे से महंगा फल भी 2000 से ₹3000 किलो तक बिकता है। लेकिन आज हम आपको कुछ ऐसे फलों के नाम बताएंगे जिसकी कीमत 50 लख रुपए किलो से भी ऊपर है। तो आइये जानते हैं इन फलों के बारे में विस्तार से...फल की कीमत होती है लाखो में
Ruby Roman Grapes रूबी रोमन अंगूर
रूबी रोमन अंगूर दुनिया के सबसे महंगे अंगूरों में से एक है। इसकी एक थैली की कीमत 8400 डॉलर यानी की भारतीय रुपयों में 7 लाख रुपए से भी अधिक है। इस अंगूर का आकार बड़ा होता है और यह गहरी लाल रंग का होता है। यह बाजार में नहीं बिकता बल्कि इसकी नीलामी होती है।फल की कीमत होती है लाखो में
Hokkaido Melon होक्काईडो मेलन
यह जापान का एक मुख्य फल है जिसकी कीमत 22 लख रुपए प्रति किलो है।होक्काईडो मेलन स्वाद में बेहद मीठा होता है और इसकी खुशबू भी लाजवाब होती है। जापान में अमीर लोग इसे गिफ्ट के तौर पर देते हैं।फल की कीमत होती है लाखो में
क्या आप जानते है दुनिया के सबसे महंगे फलों के बारे में, 1 किलो फल की कीमत होती है लाखो में, जानिए इन फलों के बारे में और इनकी विशेषता
Denske Watermelon डेन्सके तरबूज
यह तरबूज काले रंग के छिलके वाला होता है। $6000 में एक तरबूज बिकता है। यह सामान्य तरबूज के तुलना में अलग होता है और सुगंधित भी होता है।फल की कीमत होती है लाखो में
Bigem Durian बिजेम ड्यूरियन
यह थाईलैंड का एक मशहूर फल है। यह खाने में मक्खन की तरह लगता है और बेहद खुशबूदार होता है। इस एक फल की कीमत 2500 डॉलर होती है।
Heligal Garden Pineapple हेलीगल गार्डन अनानास
यह इंग्लैंड का एक महत्वपूर्ण फल है। यह एक अनानास $1500 में बिकता है. इसे बेहद खास तरीके से उगाया जाता है और यह बहुत सुगंधित होता है।फल की कीमत होती है लाखो में
Hami Milan हामि मिलन
यह चीन में उगाया जाता है।एक खरबूजे की कीमत 200 से $300 तक होती है। यह स्वाद में मीठा होता है और खाने में कुरकुरा लगता है।
क्या आप जानते है दुनिया के सबसे महंगे फलों के बारे में, 1 किलो फल की कीमत होती है लाखो में, जानिए इन फलों के बारे में और इनकी विशेषता
Fuiyu Persimmon फुईयू पर्सीमन
फुईयू पर्सीमन यह जापान में बिकने वाला एक महंगा फल है। एक पल की कीमत $20 तक होती है। यह बेहद सुगंधित और मीठा होता है। जापान में इसे बेहद देखरेख में उगाया जाता है।फल की कीमत होती है लाखो में
CIBIL Score Update: क्या आप भी खराब CIBIL स्कोर से है परेशान? ये 5 आसान से टिप्स बढ़ा सकते है आपका सिबिल स्कोर, और पाये बैंक से बड़ी मात्रा में लोन अगर आपने कभी लोन के लिए अप्लाई किया है या क्रेडिट कार्ड लेने की सोची है, तो आपने “सिबिल स्कोर” (CIBIL Score) का नाम ज़रूर सुना होगा। यह स्कोर आपकी क्रेडिट हेल्थ को दिखाता है यानी आपने पहले जितने लोन या क्रेडिट कार्ड लिए हैं, वो आपने समय पर चुकाए या नहीं। और 2025 में बैंक और फाइनेंस कंपनियां इस स्कोर को देखकर ही तय करती हैं कि आपको लोन मिलना चाहिए या नहीं। CIBIL Score Update
अब अगर आपका स्कोर कम है, तो चिंता मत कीजिए – क्योंकि यहां हम आपको बताने जा रहे हैं कुछ आसान और भरोसेमंद तरीके जिससे आप अपना सिबिल स्कोर जल्दी और स्मार्ट तरीके से सुधार सकते हैं।
What is CIBIL score and why is it important?m the bank सिबिल स्कोर क्या है और यह महत्वपूर्ण क्यों है?
सबसे पहले जानिए कि सिबिल स्कोर होता क्या है। यह एक तीन अंकों की संख्या होती है जो 300 से 900 के बीच होती है। अगर आपका स्कोर 750 या उससे ऊपर है, तो बैंक तुरंत लोन देने के लिए तैयार हो जाते हैं। लेकिन अगर यह स्कोर 600 या उससे कम है, तो आपको लोन मिलने में दिक्कत आ सकती है।
अब ज़रा सोचिए – अगर आपको घर खरीदने के लिए होम लोन चाहिए, लेकिन बैंक आपका स्कोर देखकर मना कर दे, तो कैसा लगेगा? इसलिए अभी से तैयारी कीजिए और स्कोर सुधारने पर ध्यान दीजिए।CIBIL Score Update
Easiest Ways to Improve CIBIL Score in 2025 2025 में CIBIL स्कोर सुधारने के सबसे आसान तरीके
1. Pay bills and EMIs on time समय पर बिल और EMI का भुगतान करें
अगर आपने क्रेडिट कार्ड का बिल या किसी लोन की EMI ली है, तो उसे समय पर चुकाना सबसे जरूरी है। एक दिन की भी देरी आपके स्कोर को गिरा सकती है। इसलिए रिमाइंडर लगाइए, ऑटो डेबिट चालू कीजिए या कैलेंडर नोट बना लीजिए – पर पेमेंट में लेट न हों।CIBIL Score Update
2. Don't hit your credit card limit अपने क्रेडिट कार्ड की सीमा पूरी न करें
मान लीजिए आपके पास ₹1 लाख की कार्ड लिमिट है, तो कोशिश कीजिए कि आप 30% यानी ₹30,000 से ज्यादा खर्च न करें। इससे दिखेगा कि आप लिमिट को समझदारी से इस्तेमाल कर रहे हैं।CIBIL Score Update
3. reduce debt कर्ज कम करो
अगर आपके ऊपर पहले से ही कई लोन चल रहे हैं, तो नए लोन लेने से बचिए। पहले वाले लोन चुकाइए, ताकि आपकी साख मजबूत हो।
4.Check your score every month हर महीने अपना स्कोर जांचें
आप CIBIL की वेबसाइट या कई फ्री ऐप्स के जरिए हर महीने स्कोर चेक कर सकते हैं। इससे पता चलता है कि कहां कमी है और क्या सुधार करना है।
5. correct mistakes गलतियों को सुधारें
कई बार स्कोर कम इसलिए होता है क्योंकि रिपोर्ट में कोई पुराना या गलत डाटा होता है। जैसे कि आपने लोन चुका दिया है, फिर भी वो पेंडिंग दिख रहा है। ऐसे में तुरंत CIBIL से संपर्क कीजिए और उसे सुधारने की रिक्वेस्ट डालिए।
क्या आप भी खराब CIBIL स्कोर से है परेशान? ये 5 आसान से टिप्स बढ़ा सकते है आपका सिबिल स्कोर, और पाये बैंक से बड़ी मात्रा में लोन
Learn some additional smart tips too कुछ अतिरिक्त स्मार्ट टिप्स भी जानें
टिप्स | क्या करें |
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पुराना खाता न बंद करें | अगर आपका कोई पुराना क्रेडिट कार्ड है जिसे आप समय पर चुकाते रहे हैं, तो उसे बंद न करें। ये आपके अच्छे रिकॉर्ड को दर्शाता है। |
लोन का मिक्स रखें | सिर्फ क्रेडिट कार्ड ही नहीं, पर्सनल लोन या कार लोन जैसे इंस्टूमेंट्स का सही मिक्स आपकी स्कोरिंग में मदद करता है। |
बार-बार अप्लाई न करें | हर बार जब आप नया लोन या कार्ड के लिए अप्लाई करते हैं, आपका स्कोर थोड़ा गिरता है। इसलिए जरूरत हो तभी अप्लाई करें। |
गलतियों से बचें वरना आपका स्कोर ख़राब हो जाएगा Avoid mistakes or else your score will be affected
- पूरे कार्ड की लिमिट उड़ा देना
- बिना प्लानिंग के हर ऑफर पर अप्लाई करना
- EMI लेट करना
- क्रेडिट कार्ड का सिर्फ मिनिमम अमाउंट चुकाना
ये सब गलतियां स्कोर को नुकसान पहुंचाती हैं। कोशिश करें कि आप खर्चों पर कंट्रोल रखें और इनसे बचें।
क्या आपका स्कोर कम है? तो यह ट्रिक आजमाएं Is your score low? Then try this trick
अगर आपका स्कोर 600 से नीचे है, तो एक छोटा सा लोन (जैसे ₹20,000–₹30,000) लीजिए और उसे समय से चुकाइए। इससे बैंकों को लगेगा कि आप सुधार की ओर बढ़ रहे हैं, और आपका स्कोर धीरे-धीरे ऊपर जाएगा। 2025 में फाइनेंशियल मार्केट और भी टाइट हो गया है। अब सिर्फ लोन लेना ही नहीं, बल्कि अच्छा ब्याज दर, ज्यादा लिमिट और प्रीमियम क्रेडिट कार्ड के लिए भी अच्छा स्कोर ज़रूरी है। इसलिए अभी से थोड़ा समय निकालिए, ऊपर दिए गए टिप्स अपनाइए, और अपने स्कोर को धीरे-धीरे टॉप पर लाइए।CIBIL Score Update
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छत्तीसगढ़ में पिछली भूपेश बघेल की कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में हजारों करोड़ के तरह-तरह के भ्रष्टाचार होने के मामले कई जांच एजेंसियां अदालतों में चला रही हैं। इनमें सत्ता के एकदम करीबी, और चहेते अफसर, नेता, और कारोबारी दो-दो बरस से जेल में बंद चले आ रहे हैं, और कुछ तो बरसों से फरार ही चल रहे हैं। प्रदेश कांग्रेस के अरबपति कोषाध्यक्ष 52 करोड़ रूपए के अदालती आरोप के साथ गायब ही हैं, आसमान या जमीन में से किसने निगला है, वह भी हवा नहीं लग रही है। लेकिन इस बीच राज्य के दो आईएएस अफसर, और पूरी सरकार को अकेले हांकने वाली एक डिप्टी कलेक्टर को दो-ढाई बरस की जेल के बाद अभी दर्जनों कोशिशों से सुप्रीम कोर्ट से अंतरिम जमानत मिली है। इस पर भी इन्हें छत्तीसगढ़ के बाहर रहने कहा गया है, क्योंकि ये इतने ताकतवर रहे हैं कि गवाहों को प्रभावित कर सकते हैं।
कोई मामला आयकर छापे से निकली जानकारी से शुरू हुआ था, और फिर ईडी ने उसे उठा लिया था, कोई मामला सीबीआई जांच के बाद अदालत पहुंचा, और ऐसे बहुत से मामले अब राज्य सरकार के आर्थिक अपराध ब्यूरो की जांच के घेरे में भी हंै। एक-एक चर्चित अफसर कई-कई एजेंसियों के मुकदमों में कटघरे में है, और पता नहीं ये मामले कब तक किसी न्यायसंगत किनारे लगेंगे। फिर भारत की न्याय व्यवस्था ऐसी है कि जिला अदालतों से चाहे जो फैसले हों, हारा हुआ पक्ष उसके बाद हाईकोर्ट पहुंचेगा ही पहुंचेगा, और वहां जिसे निराशा मिलेगी, उसके लिए सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खुले रहेंगे। जिन लोगों को लगता है कि भ्रष्ट लोगों का हिसाब इस देश का इंसाफ चुकता करेगा, उनके लिए इसी छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की एक मिसाल है जहां एक सरकारी अधिकारी के रिटायर हो जाने के शायद 30 बरस बाद अनुपातहीन सम्पत्ति का मुकदमा अदालत में पहुंचा है। अब अगर देखें कि प्रदेश के सबसे बड़े भ्रष्टाचार के मामलों में आरोपी इसी तरह दशकों तक बचे रहेंगे, तो भला भ्रष्टाचार करने, और सजा पाने का कोई खौफ किसके मन में रह जाएगा?
केन्द्र और राज्य सरकार की जांच एजेंसियों पर बदले की भावना से, राजनीतिक एजेंडा से केस दर्ज करने, जांच करने, अदालत तक ले जाने, या इसके खिलाफ रियायत बरतने जैसे कई आरोप लगते रहते हैं। फिर एजेंसियों का भ्रष्टाचार भी कई मामलों में सामने आता है। हर सरकार पर अपने से पहले की विपक्षी सरकार पर राजनीतिक दुर्भावना और बदले की भावना से कार्रवाई करने का आरोप भी लगता है। ऐसे में क्या किया जाए कि भ्रष्टाचार पर तेज रफ्तार कार्रवाई हो, और दुर्भावना का कोई आरोप भी न लगे?
हमारा ख्याल है कि भारत सरकार, और प्रदेश सरकारों के लिए जिस तरह सीएजी के ऑडिट की अनिवार्य व्यवस्था है, उसी तरह सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर जांच करने की एक अनिवार्य व्यवस्था रहनी चाहिए। आज भी सरकारों की सीमा से परे लोकायुक्त, या लोकपाल जैसी व्यवस्था है तो सही, लेकिन वह खुद होकर जांच नहीं करती, और शिकायतों का इंतजार करती है। हमारा ख्याल है कि कोई एक संवैधानिक संस्था ऐसी बननी चाहिए जो कि सरकार का कार्यकाल पूरा होते ही अगली किसी भी सरकार के आने पर, या उसके पहले भी अनिवार्य रूप से तमाम खबरों पर सरकार से जवाब-तलब करे, और सार्वजनिक सुनवाई से भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करे। जिस तरह आपातकाल की ज्यादतियों की जांच के लिए न्यायिक जांच आयोग बने थे, उसी तरह देश और हर प्रदेश में ऐसे न्यायिक जांच आयोग रहने चाहिए जो कि किसी सरकार के पूरे कार्यकाल की जांच करे। अब हो सकता है कि मंै जो सुझा रहा हूं, वह इंतजाम अलग-अलग जांच एजेंसियों या संवैधानिक आयोगों के तहत मौजूद भी हो। ऐसा होने पर इमें से किसी एक या अधिक जांच आयोग के अधिकार और जिम्मेदारी अलग किस्म से तय करके यह इंतजाम करना चाहिए कि किसी भी सरकार के पूरे कार्यकाल की जांच की जाए, इसके लिए जनता से शिकायतें और जानकारी मंगाई जाएं, और एक समय सीमा के भीतर वह जांच-रिपोर्ट सार्वजनिक रूप से पेश कर दी जाए। इस तरह का थोड़ा सा काम प्रदेशों में सीएजी करती है, कुछ शिकायतों पर लोकायुक्त जांच करता है, और सरकार के बढ़ाए हुए कुछ मामलों की जांच एसीबी-ईओडब्ल्यू जैसी एजेंसी भी करती है। लेकिन हमने इन तमाम संस्थाओं की सीमाएं देखी हैं, और एसीबी-ईओडब्ल्यू को तो सत्ता के पैरोंतले रौंदे जाते किसी डबलरोटी कारखाने के आटे की तरह भी देखा है। इसलिए यह मौजूदा व्यवस्था तो काम नहीं आ रही है। देश और प्रदेशों में सरकारी दखल से परे, एक स्वतंत्र संवैधानिक जांच एजेंसी इसी मकसद से बनाई जानी चाहिए कि वह पूरी आजादी से एक सरकार के कार्यकाल की जांच करे, रिपोर्ट दे, और फिर इस रिपोर्ट के आधार पर अगर मुकदमा मुमकिन हो, तो वह भी सरकारी मंजूरी के बिना चलाया जा सके।
मध्यप्रदेश में अभी मंदसौर जिले के एक भाजपा नेता, मनोहरलाल धाकड़, सडक़ पर सेक्स करते टोल नाके, या हाईवे के किसी और सीसीटीवी पर इतनी अच्छी तरह रिकॉर्ड हो गए कि इस वीडियो के किसी खंडन-मुंडन की भी गुंजाइश नहीं रह गई। उनकी कार की नंबर प्लेट भी इस सेक्स के साथ-साथ पूरे वक्त स्क्रीन पर बनी रही।
उनके पक्ष में सिर्फ एक बात जाती है कि उनके साथ की महिला अपनी मर्जी से उनका साथ देते दिख रही थी, उसे सडक़ पर सेक्स से कोई परहेज नहीं दिख रहा था, बदन पर किसी ताबीज का डोरा भी नहीं था, और वह बड़े उत्साह से इस नेता का साथ दे रही थी। साथ ही वह बालिग दिख रही थी, इसलिए जबरिया सेक्स जैसा कोई आरोप कम से कम इस नेता पर नहीं दिख रहा है। लेकिन सोशल मीडिया पर चारों तरफ इसके फैल जाने से सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी अपने नेता की अधिक मदद करने की हालत में नहीं है, और मंदसौर के एसपी को सोशल मीडिया पर आकर कहना पड़ा कि यह वायरल वीडियो दिल्ली-मुम्बई 8-लेन एक्सप्रेस-वे पर थाना भानपुरा इलाके का पाया गया है, और इस बारे में जुर्म दर्ज कर जांच की जा रही है। इस भाजपा नेता की पत्नी जिला पंचायत सदस्य है, जो कि पार्टी के लिए एक और शर्मिंदगी की वजह बनती है।
भाजपा ने इस आदमी से अपना पल्लू छुड़ाते हुए कहा है कि यह ऑनलाईन सदस्य बना था, लेकिन पार्टी का प्राथमिक सदस्य नहीं है। दूसरी तरफ एक तलवारनुमा हथियार हवा में लहराते हुए मनोहरलाल धाकड़ का एक फोटो भी चारों तरफ फैल रहा है, जो कि उनके गौरव का सुबूत है।
अब जिस व्यक्ति के पास निजी कार है, जो हाईकोर्ट पर अपनी प्रेमिका या किसी धंधे वाली महिला के साथ कार में घूम रहा है, जो महिला इतनी दुस्साहसी है कि वह बिना कपड़े कार से उतरकर आराम से तरह-तरह से सेक्स करने में जुट जाती है, उस व्यक्ति के पास हजार-दो हजार में मिलने वाला होटल का कोई कमरा भी न हो, यह समझना थोड़ा अटपटा लगता है। फिर ऐसा भी लगता है कि क्या यह व्यक्ति एक दुस्साहसी रोमांच करते हुए सेक्स करना चाहता था, ताकि खुली सडक़ पर हाईवे के किनारे अपनी नंबर प्लेट के बगल में सेक्स करते हुए एक अलग किस्म का रोमांच पाए? क्या यह व्यक्ति मनोविज्ञान की भाषा में एक्जीभिशनिज्म का शिकार है जो कि अपने बदन का, अपनी हरकतों का प्रदर्शन करना चाहते हैं। दुनिया भर में ऐसे लोग रहते हैं जो कि अपनी पसंद का निशाना छांटकर उनके सामने अपने बदन को उघाड़ते हैं, और उससे उत्तेजना पाते हैं।
मनोविज्ञान में तरह-तरह की मानसिक विकृतियों, और मानसिक स्थितियों का जिक्र है। अभी दो-चार दिन पहले ही मेरे शहर में एक बुजुर्ग ऐसा पकड़ाया जो कि महिलाओं के सैंडल लेकर उसके साथ सेक्स कर रहा था। उसे वीडियो कैमरों पर भी दर्ज किया गया, और अपनी ही रिहायशी इमारत में वह किसी दूसरे घर के दरवाजे पर रखी महिलाओं के चप्पल-सैंडल उठाकर उनके साथ सेक्स करने लगता है।
चाहे मध्यप्रदेश में इस भाजपा सदस्य का मामला हो, चाहे रायपुर में चप्पल से सेक्स करने वाले इस बुजुर्ग का, मनोविज्ञान में ऐसी हर तरह की चीजों की व्याख्या है। पुलिस अपना काम करती है, लेकिन बहुत से लोग इस तरह के मनपसंद सेक्स के बिना तसल्ली नहीं पाते हैं। अब कार के मालिक को भी कहीं एक कोना नसीब न हो, अपनी कार की पीछे की सीट भी नसीब न हो, यह कल्पना कुछ मुश्किल है। हो सकता है कि उसको खुले आसमान तले ऐसे रोमांचक सेक्स बिना संतुष्टि न मिलती हो।
दरअसल इस देश के आम लोगों की जिंदगी में सेक्स की जितनी सीमित परिभाषाएं हैं, उनमें दुनिया में दूसरी जगहों पर दशकों या सदियों से दर्ज परिभाषाएं भी नहीं गिनी जातीं। दुनिया भर में लोगों की जो किस्में हैं, वे भारत में सिवाय मनोविज्ञान की किताबों के चर्चा में भी नहीं आतीं। सेक्स के बारे में किसी भी तरह की चर्चा से जो आम परहेज हिन्दुस्तान के अधिकतर लोगों में रहता है, वह भी न तो लोगों की यौन-इच्छाओं की विविधता को समझने देता, और न ही उन्हें लेकर कोई कानूनी आपत्ति होने तक जानने देता।
कभी-कभी मेरे सामने यह धर्मसंकट रहता है कि इतवार को एक ही वक्त पर, एक के बाद एक लिखे जाने वाले, संपादकीय, और इस साप्ताहिक स्तंभ ‘आजकल’ के विषय क्या हों? कभी-कभी यह भी होता है कि इनमें से किसी एक को लिखना शुरू करता हूं, और वह बगल की जगह के लायक अधिक बनने लगता है, तो फिर उस विषय का इस्तेमाल संपादकीय की जगह ‘आजकल’ में हो जाता है, या ‘आजकल’ की जगह संपादकीय में। लेकिन आज इस कॉलम में लिखने के लिए जो मुद्दा है, वह इसी के लायक है, और संपादकीय खत्म करने के बाद अब जब इस पर लिखना शुरू कर रहा हूं, तो तस्वीर बिल्कुल साफ है कि इसे अखबार की सोच की तरह लिखना जायज नहीं हो सकता, मेरी निजी सोच की तरह लिखना ही सही होगा।
भारत एक मामले में एक जीवंत लोकतंत्र है कि यहां अलग-अलग विचारधाराओं से लिखा जाना, कम से कम अब तक तो, जारी है। सहमति और असहमति का अनुपात कम-अधिक हो सकता है, लेकिन असहमति पूरी तरह से खत्म नहीं हो पाई है। सत्ता पर असहमति को कुचलने की तोहमतें बहुत लगती हैं, बहुत से मामलों में ऐसा लगता है कि असहमत लोगों को कुछ दिक्कत हो रही है, फिर भी मेरे सीने में नहीं तो, तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन, आग जलनी चाहिए। हिन्दुस्तान में आग इतनी तो जल ही रही है कि आग अभी बाकी है। पंजाब की बस्तियों में कहा जाता है कि चूल्हा सुलगाने के लिए पड़ोस से आग ले आओ, ठीक उसी तरह जैसे कि दही जमाने के लिए पड़ोस से जामन ले आओ। ऐसे ही असहमति की आग भी इस देश के मीडिया में, सोशल मीडिया में, राजनीतिक दलों में, राज्यों में, कहीं न कहीं, हर कहीं जलती-सुलगती रहती ही है। कोई भी सरकारी दमकल इतनी ताकतवर नहीं हो पाई है कि वह हर सुलगती आँच को बुझा दे।
अब ऐसे में कई लोगों को मुझसे यह शिकायत रहती है कि मैं किसी व्यक्ति या पार्टी के खिलाफ, किसी विचारधारा या किसी धर्म-संप्रदाय के खिलाफ ‘उतना’ हमलावर होकर नहीं लिखता, और यूट्यूब पर उतना आक्रामक नहीं रहता, जितने कि कुछ और लोग रहते हैं। और यह शिकायत किसी एक विचारधारा की नहीं रहती, अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग कई विचारधाराओं को यही शिकायत रहती है कि आप करीब रहकर भी उतने करीब नहीं हैं जितने कि फलां-फलां हैं।
लोगों की यह शिकायत एकदम सही इसलिए रहती है कि किसी के करीब रहना पहली बात तो यह कि मेरा मकसद नहीं है, दूसरी बात यह कि मेरे पेशे की ऐसी जरूरत भी नहीं है कि मैं किसी व्यक्ति, पार्टी, या विचारधारा के करीब रहूं, या उसके खिलाफ रहूं। मेरी विचारधारा अखबारनवीसी से परे की कुछ नहीं है, और अखबारनवीसी किसी एक विचारधारा पर नहीं चलती, वह मूल्यों पर चलती है। मैं कम से कम अपने लिखने और बोलने में विचारधारा, और मूल्यों में फर्क करके चलता हूं। विचारधारा तो अलग-अलग राजनीतिक दलों की अलग-अलग हो सकती है, और किसी समय किसी एक मुद्दे पर लिखते हुए हो सकता है कि वह लिखना किसी एक दल को ज्यादा माकूल बैठे, और किसी दूसरे वक्त किसी दूसरी पार्टी को। लेकिन पत्रकारिता, और लोकतंत्र के जो बुनियादी मूल्य हैं, वे तो पार्टियों की सरहदों से परे रहते हैं, और किसी समय वे किसी पार्टी को पसंद हो सकते हैं, किसी और वक्त किसी दूसरी पार्टी को नापसंद हो सकते हैं। सच, लोकतंत्र, और इंसाफ के बुनियादी मूल्यों पर अखबारनवीसी टिकी है, कम से कम मैं इनके बिना अखबारनवीसी की कल्पना नहीं करता।
यह एक अलग बात है कि अखबारनवीसी आज के वक्त में ग्रामोफोन रिकॉर्ड की तरह चलन से बाहर हो चुका शब्द बन गई है, और इसकी जगह अभी करीब चौथाई सदी में चलन में बढ़ा शब्द मीडिया इस्तेमाल होने लगा है। मैं अपनी पुरानी दकियानूसी सोच के चलते लुग्दी वाले सस्ते अखबारी कागज पर चलती अखबारनवीसी का हिमायती हूं, और बार-बार इस बात को लिखता भी हूं कि अखबारों को इस आधुनिक, मीडिया नाम की, छतरी से बाहर आना चाहिए, और अपने आपको अपने सदियों पुराने नाम, प्रेस से ही बुलाना चाहिए। प्रेस, और उस पर छपे अखबार मुझे जिन मूल्यों से बांधकर रखते हैं, वे मूल्य आज की डिजिटल-एज में धुंधले हो चले हैं। और भारतीय समाचार चैनलों के साथ अगर कुछ अखबार वाले अपने आपको मीडिया नाम की छतरी के नीचे रखना ठीक समझते हैं, तो उनकी वैसी समझ के साथ मैं किसी बहस में भी शामिल होना नहीं चाहता।
लेकिन इस डिजिटल-एज के योद्धाओं के साथ मेरी तरह के डायनासॉर युग के अखबारनवीस की तुलना ठीक नहीं है। मैं जर्नलिस्ट को कैम्पेनिस्ट (अभियानवादी), और प्रोपेगैंडिस्ट (ढिंढोरची) से परे की एक अलग नस्ल मानता हूं, फिर चाहे वह ग्रामोफोन रिकॉर्ड की तरह आज किसी इस्तेमाल और फायदे की न रह गई हो। किसी नेता, पार्टी, या पार्टी की विचारधारा, धर्म, या सम्प्रदाय की सोच के पक्ष या विपक्ष में मुहिम चलाने वालों, उनका जिंदाबाद-मुर्दाबाद किस्म का जर्नलिज्म करने वालों से अपनी कोई तुलना मुझे नाजायज ही लगती है। बहुत से लोग हैं जिनका काम एक एजेंडा के तहत है, उसका हिस्सा ही है। लेकिन मैंने अपने लिए अपने काम की सीमा को सच, लोकतंत्र, और इंसाफ तक सीमित रखा हुआ है। इन जेनेरिक दवाओं के बाद मुझे अलग-अलग ब्राँड की दवाओं की जरूरत नहीं पड़ती। और दवा कंपनियों के प्रतिनिधियों को जेनेरिक से कैसी चिढ़ रहती है, यह तो सबको मालूम ही है। लोगों को यह भी मालूम है कि ब्राँड दवाओं के कारोबार की कमाई कितनी और कैसी रहती है। कुछ वैसा ही हाल आज के वक्त अच्छे-बुरे कैसे भी अखबारों को छोडक़र बाकी किस्म के मीडिया का है, और वह ब्राँड प्रमोशन में लगा हुआ है।
इन दिनों जिन लोगों को बड़े डॉक्टरों से जांच कराने की सहूलियत रहती है, उनके घर के बुजुर्गों में कुछ तरह की दिमाग से जुड़ी हुई बीमारियां सुनाई पड़ती हैं, किसी को अल्जाइमर सुनाई पड़ता है, किसी को पार्किंसंस, और किसी को किसी किस्म का डिमेंशिया। अब इनके बारे में अधिक लिखने से आज का पूरा कॉलम इन बीमारियों के ब्यौरे में ही खत्म हो जाएगा, इसलिए इतना बता देना ठीक है कि ये उम्र के साथ-साथ याददाश्त खोने वाली बीमारियां हैं, जिनमें लोग अपने ही सबसे करीबी लोगों को पहचानना बंद कर देते हैं, या उन्हें किसी और किस्म की याद नहीं रह जाती।
अब ऐसी बीमारियों को पूरी तरह टाला जा सकता हो, ऐसा तो अभी सामने नहीं आया है, लेकिन इन्हें दूर जरूर धकेला जा सकता है। डॉक्टरों का यह मानना है कि जो लोग मानसिक रूप से सक्रिय रहते हैं, जो पढ़ते-लिखते हैं, पहेलियां सुलझाते हैं, कोई नई भाषा या कोई नया हुनर सीखते हैं जिससे कि दिमाग पर जोर पड़ता है, दिमाग को सक्रिय रहना पड़ता है, तो उससे ये बीमारियां कुछ पीछे धकेली जा सकती हैं। लोग यह भी कहते हैं कि सुडोकू किस्म की गणित वाली पहेली हल करने से ये बीमारियां कुछ दूर धकेली जा सकती हैं। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि अगर आप दो मोबाइल फोन इस्तेमाल करते हैं, तो उनमें से एक एंड्रॉइड पर काम करने वाला रखिए, और दूसरा किसी और किस्म के ऑपरेटिंग सॉफ्टवेयर वाला, ताकि आपके दिमाग पर अलग-अलग किस्म से फोन को कंट्रोल करने का दबाव बना रहे। कुछ लोग जो लैपटॉप और डेस्कटॉप दोनों पर काम करते हैं, वे भी इसी तरह माइक्रोसॉफ्ट-विंडोज, और मैक पर काम करते हैं, ताकि दिमाग पर जोर पड़ता रहे। जब तक दिमाग का इस्तेमाल अधिक होता है, तब तक दिमाग उम्र के साथ आने वाली बीमारियों को कुछ दूर धकेलते जाता है।
बात है तो मेडिकल साईंस की, लेकिन उसे सहज और सरल तरीके से समझाने की आजादी ली जाए, तो बुढ़ापे में मर्दों को होने वाली, प्रोस्टेट बढऩे की बीमारी से जुड़ी एक मिसाल है। चिकित्सा वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि प्रोस्टेट बढ़ जाने पर भी हर व्यक्ति को प्रोस्टेट का कैंसर नहीं हो जाता। कुछ को होता है, बहुत से लोगों को नहीं होता। वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि जो लोग प्रोस्टेट बढ़ जाने के बाद भी एक सक्रिय यौन जीवन जीते हैं, उन्हें प्रोस्टेट के कैंसर का खतरा कम रहता है। मतलब यह कि पौरूषग्रंथी बढ़ जाने की यह बीमारी कैंसर में तब्दील होने से बच सकती है, अगर पुरूष एक सक्रिय यौन जीवन जीता है। और इस सक्रियता के लिए जरूरी नहीं है कि उस पुरूष के किसी और से ही संबंध हों, वह अपने आपकी संतुष्टि करके भी कैंसर के खतरे को कम कर सकता है। दिमागी सक्रियता से बुढ़ापे के दिमाग की बीमारियों से जिस तरह से बचा जा सकता है, उसी तरह यौन सक्रियता से प्रोस्टेट के कैंसर का खतरा कम होता है।
अब आज इस मुद्दे पर लिखना इसलिए सूझा कि समाचार-विचार की एक प्रमुख जर्मन वेबसाइट, डीडब्ल्यू पर अभी एक लेख आया है जो कहता है कि नई भाषाएं सीखने से लोगों का दिमाग तेज चलता है, उसे सीखने में जो जोर पड़ता है, उससे दिमाग की संरचना, और कार्यप्रणाली में बदलाव आते हैं। नई भाषा सीखने से इंसान का दिमाग अधिक सेहतमंद रहता है, ठीक उसी तरह जिस तरह नियमित कसरत करने से लोगों की मांसपेशियां अधिक मजबूत होती हैं, और शरीर के अधिकतर अंग अधिक स्वस्थ रहते हैं।
भाषा की विविधता से अगर दिमाग तेज काम करता है, कसरत करने वालों से कहा जाता है कि वे हर दिन बिल्कुल एक ही किस्म की कसरत न दोहराएं, और उसमें कुछ फेरबदल भी करते रहें, साइकिल चलाने वालों से कहा जाता है कि वे कभी तेज, और कभी धीमी साइकिल चलाएं, और खानपान के बारे में भी लोगों से कहा जाता है कि रोजाना एक ही किस्म का खाना खाने के बजाय उसमें विविधता बेहतर रहती है। लोगों का यह भी मानना है कि इंसानों के लगाए हुए कितने भी बड़े वृक्षारोपण के मुकाबले प्राकृतिक जंगल अधिक अच्छे रहते हैं। जो लोग एक ही धर्म, जाति, राष्ट्रीयता, पेशे, और जेंडर के लोगों के बीच उठते-बैठते हैं, उनके मुकाबले विविधता के बीच जीने वाले लोगों का मानसिक विकास बेहतर होता है।
कुछ विज्ञान कथाओं में टाईम मशीन का जिक्र रहता है, जिसमें बैठकर लोग बीते हुए वक्त में जाते दिखते हैं। कुछ लोग सैकड़ों या हजारों बरस पहले चले जाते हैं, और उन्हें यह सावधानी बरतने कहा जाता है कि वे किसी चीज का न छुएं, न बर्बाद करें, क्योंकि उससे हो सकता है कि आज की बहुत सारी चीजें प्रभावित हो जाएं। ऐसे ही अगर कल्पना की जाए कि ये न होता तो क्या होता, वो न होता तो क्या होता?
मैंने कभी इतिहास पढ़ा नहीं है, इसलिए इतिहास को लेकर मेरे मन में जिज्ञासाएं अधिक हैं। मुझे लगता है कि अगर अंग्रेज हिन्दुस्तान न आए होते, तो क्या यहां के राज-पाट, और रजवाड़े कभी एक-दूसरे से लडऩा बंद करते, या साथ में जीना सीख पाते? अगर अंग्रेजों ने बहुत से राजाओं को काबू में न किया होता, और एक ढांचे में न बांधा होता, तो क्या आजादी के बाद सरदार पटेल के लिए इन्हें भारत के राज में विलीन कर पाना मुमकिन हो पाता, ऐसी बहुत सी कल्पनाएं मेरे दिमाग में आती रहती हैं, और ऐसी आऊट ऑफ बॉक्स थिंकिंग के लिए अनपढ़ होना भी जरूरी रहता है, जो कि इतिहास में मैं पर्याप्त रूप से हूं।
अब ऐसा ही एक मुद्दा अभी गुजरात हाईकोर्ट में आया है जिसमें रेलवे के 9 सिपाहियों की बर्खास्तगी के निचली अदालत के फैसले को हाईकोर्ट ने सही ठहराया है। यह मामला 27 फरवरी 2002 का है जब साबरमती एक्सप्रेस को गुजरात के गोधरा रेलवे स्टेशन पर जलाया गया था, और उसमें 59 हिन्दू कारसेवक जलकर मर गए थे। बाद में इसकी प्रतिक्रिया में गुजरात में दंगे हुए थे, या करवाए गए थे, और उसमें हजार-दो हजार मौतें हुई थीं। अब जिस ट्रेन के डिब्बे जलाए गए थे, उस साबरमती एक्सप्रेस में रेलवे पुलिस के 9 सिपाहियों की ड्यूटी लगी थी, लेकिन इस ट्रेन के लेट पहुंचने से ये पुलिस सिपाही इस ट्रेन में आने की फर्जी हाजिरी डालकर एक दूसरी ट्रेन से पहले ही गोधरा पहुंच गए, और गोधरा में इस ट्रेन के कारसेवकों वाले डिब्बे को आग लगाई गई, जिसने गुजरात और देश के इतिहास को बदल दिया।
गुजरात हाईकोर्ट ने यह माना है कि अगर ये 9 सिपाही अपनी ड्यूटी करते होते, तो हो सकता है कि ट्रेन में यह आगजनी न हुई होती (और न गोधरा होता, और न बाद के गुजरात दंगे)। अब यह तो एक काल्पनिक स्थिति ही है कि 8 हिन्दू और 1 मुस्लिम, ये 9 सिपाही उस ट्रेन में ड्यूटी करते, जहां इनकी ड्यूटी लगाई गई थी, तो शायद ऐसी नौबत न आती। लेकिन कल्पनाएं काल्पनिक कथाओं को लिखने के काम तो आती हैं, आज अमरीका में यह कल्पना किसी काम की तो रह नहीं गई है कि ट्रम्प हार जाते, और कमला हैरिस जीत जातीं, तो क्या होता?
इतिहास को लेकर ऐसे बहुत से सवाल हो सकते हैं कि अगर गांधी को दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन से नीचे प्लेटफॉर्म पर फेंक नहीं दिया गया होता, तो क्या वे महात्मा बने होते? अगर 1971 में बांग्लादेश नहीं बना होता, तो पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान की शक्ल में क्या पाकिस्तान भारत को दो तरफ से घेरकर रखता? ऐसी कल्पनाएं सिर्फ काल्पनिक कहानियां लिखने के लिए ठीक है, क्योंकि इतिहास को घड़ी की सुईयां उल्टी घुमाकर बदला नहीं जा सकता।
राजस्थान में चपरासी के 53 हजार पदों के लिए 24 लाख आवेदन आए हैं, मतलब हर पद के लिए साढ़े चार सौ से अधिक अर्जियां। अब आंकड़ों तक तो बात ठीक थी, इसके आगे की जानकारी हैरान करती है। एमबीए से लेकर पीएचडी किए हुए लोग भी इस कतार में लगे हैं। जो अर्जियां सरकार को मिली हैं, वह बताती हैं कि देश में बेरोजगारी का हाल क्या है, और इसके साथ-साथ एक सवाल भी खड़ा होता है कि क्या आज लोगों की उच्च शिक्षा का उनके कामकाज, नौकरी, या स्वरोजगार से कोई रिश्ता रह गया है? राजस्थान की एक खबर बताती है कि कुछ साल पहले वहां के एक विधायक का बेटा राज्य विधानसभा में चपरासी बना था। अब इस नई भर्ती की कतार में बीए, बीएड, एमए, एमएड, एलएलबी, और पीएचडी के अलावा बीटेक और एमबीए किए हुए लोग भी हैं।
एक सवाल यह उठता है कि इस किस्म की उच्च शिक्षा के ढांचे पर सरकार या कारोबार का जो निवेश होता है, और ऐसी पढ़ाई पर, आल-औलाद के पढऩे के इन बरसों पर मां-बाप जो खर्च करते हैं, उस पर कारोबारी जुबान में रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट क्या निकलता है? कहने के लिए देश में हर कुछ हफ्तों या महीनों में एक नया विश्वविद्यालय खुलता है, लेकिन उससे विश्व को क्या मिलता है? विश्व तो छोड़ दें, इस देश को, उसके अपने प्रदेश को, और वहां से डिग्री पाकर बेरोजगार बनने वाले लोगों को क्या मिलता है? मां-बाप जो पैसा लगाते हैं, उसकी क्या भरपाई हो पाती है?
मेरी मामूली सी पूछताछ बताती है कि सरकारी या निजी कॉलेजों से डेंटिस्ट बनकर निकलने वाले लोगों को आज पहले से स्थापित डेंटिस्ट अपने क्लिनिक में 15 हजार रूपए महीने से अधिक नहीं देते। अब निजी डेंटल कॉलेजों का हिसाब देखें, तो वहां चार-पांच बरस पढऩे, और शायद एक साल काम करके निकलने तक जितना खर्च हो चुका रहता है, उसका ब्याज भी 15 हजार रूपए महीने में नहीं निकलता। आज कम से कम मेरे शहर में यह हाल है कि पीजी किए हुए डेंटिस्ट 15-20 हजार रूपए महीने का काम ढूंढते फिरते हैं, और उन पर हुआ खर्च तो आसानी से निकलते दिखता नहीं है।
इस देश में किस तरह की शिक्षा के बाद रोजगार या स्वरोजगार की जरूरत है, इसके तो लाइव पोर्टल रहने चाहिए जिस पर सरकार के योजनाशास्त्री, बाजार में नौकरी देने वाले, और सरकारी विभागों में भर्ती के जानकार लोग मिलकर हर दिन विश्लेषण को अपडेट करते रहें कि अगले कितने बरस तक किस शिक्षण-प्रशिक्षण पाने का क्या भविष्य है? उस पर लागत कितनी आएगी, और उस लागत की भरपाई किस हद तक हो पाएगी? अब अगर चपरासी ही बनना है तो उसके लिए एमबीए, बीटेक, या पीएचडी की क्या जरूरत है? यह नौबत तो तभी आती है जब बाजार व्यवस्था को देखे बिना, और सरकारी संभावनाओं का अंदाज लगाए बिना लोग मां-बाप की छाती मूंग दलते हुए एक के बाद दूसरी डिग्री लिए चले जाते हैं। यह सिलसिला देश के ढांचे के लिए भी अच्छा नहीं है क्योंकि बिना संभावनाओं के एक अंधे कुएं में लोग शिक्षा का निवेश डालते चले जा रहे हैं, शिक्षा को कारोबार बनाकर चलने वाले लोग अपनी दुकानों और कारखानों को चलाने के लिए लोग उनकी पढ़ाई के बाद की बड़ी संभावनाओं का इश्तहार करते रहते हैं, जिनसे किसी को यह हकीकत पता नहीं चलती कि उस पढ़ाई को करने वाले गिने-चुने लोगों को ही उतना आगे बढऩे मिलता है, और बाकी तमाम लोग चपरासी की नौकरी के लिए एमबीए की डिग्री लेकर कतार में लगे रहते हैं।
हमने कल ही इसी पेज पर संपादकीय में लिखा था कि किस तरह पूरी दुनिया में नौकरी और कामकाज की संभावनाओं को देखते हुए भारत और इसके राज्यों को अपने-अपने स्तर पर नई पीढ़ी को उसके लिए तैयार करना चाहिए। आज का मुद्दा कल के लिखे हुए से कहीं-कहीं पर जुड़ भी रहा है। देश के भीतर बीटेक-पीएचडी के बेरोजगार बढ़ाने से देश की शान नहीं बढ़ती, इसकी बजाय यहां आने वाले कारखानों में काम करने की तकनीक और हुनर सीखने वाले लोग अपना, परिवार का, और देश का भी अधिक भला करेंगे।
लोगों को कुछ बरस पहले का याद होगा कि किस तरह छत्तीसगढ़ सहित कई राज्यों में बारिश के बाद उग आने वाले कुकुरमुत्तों की तरह शुरू हो गए इंजीनियरिंग कॉलेज थोक में बंद हुए थे, क्योंकि इंजीनियरों को कहीं कोई काम नहीं मिल रहा था। हर प्रदेश में गिने-चुने चुनिंदा कॉलेज तो जिंदा रह गए, लेकिन बाकी को ताले खरीदने के लिए भी लोन लेना पड़ा। एक देश की यह भी जिम्मेदारी रहती है कि वह आने वाले घरेलू भविष्य, या अंतरराष्ट्रीय संभावनाओं को देखते हुए ही उच्च शिक्षा या उच्च तकनीक को मान्यता दे, वरना गैरजरूरी पढ़ाई करके बेरोजगार बैठे लोगों की फौज सडक़ों पर नारे लगाने के अलावा किसी काम की नहीं रह जाती।
किसी व्यक्ति या संस्था के औपचारिक बयान को लेकर कई तरह की अटकलें लगाई जा सकती हैं। ऐसा क्यों कहा गया है? उसका मतलब क्या है? अभी क्यों कहा गया है? और इसके पहले कब-कब क्या-क्या कहा गया था? साथ-साथ एक सवाल और कई बार खड़ा होता है कि जब कुछ असरदार करने की जरूरत रहती है, तब बेअसर अंदाज में महज बयान देने का क्या मतलब रहता है? और कभी-कभी ऐसी नौबत भी रहती है कि किसी एक संस्था या संगठन के लोग एक ही वक्त के आसपास अलग-अलग बयान देते हैं, तो फिर उनका मतलब निकालना सचमुच ही कुछ मुश्किल होता है। हो सकता है कि कुछ दिनों में एआई यह मतलब निकाल सके कि किसी संस्था-संगठन, या राजनीतिक दल के बहुत सारे लोगों के दिए गए अलग-अलग बयानों में से कौन से बयान को सबसे ऊपर माना जाए, लेकिन जब तक एआई ऐसा नहीं करता, तब तक लोगों को खुद ही यह करना पड़ेगा।
मस्जिदों और दरगाहों के नीचे मंदिरों को तलाशने के कई आक्रामक हिन्दुत्व संगठनों की कोशिशों पर देश के सबसे बड़े हिन्दू संगठन आरएसएस के एक के बाद दूसरे बड़े नेता/पदाधिकारी के कहे हुए के क्या मायने निकाले जाएं, यह तय करना कुछ मुश्किल है। अभी कुछ महीने पहले आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने एक सार्वजनिक बयान में कहा था कि राम मंदिर निर्माण के बाद कुछ लोगों को लगता है कि वे नई जगहों पर इसी तरह के मुद्दों को उठाकर हिन्दुओं के नेता बन सकते हैं, लेकिन ये कोशिश मंजूर नहीं की जा सकती। उन्होंने हिन्दू सेवा महोत्सव के उद्घाटन पर देश के आज के माहौल पर फिक्र जाहिर करते हुए मंदिर-मस्जिद वाले चैप्टर को बंद करने की बात कही थी। उन्होंने कहा तिरस्कार और शत्रुता के लिए हर रोज नए प्रकरण निकालना ठीक नहीं है, और ऐसा नहीं चल सकता। उनके इस बयान को कई चर्चित और विवादास्पद तथाकथित हिन्दू धर्मगुरुओं ने खारिज कर दिया था, जिनमें ज्योर्तिमठ के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद भी शामिल थे। उन्होंने कहा- जो लोग आज कह रहे हैं कि हर जगह नहीं खोजना चाहिए, इन्हीं लोगों ने तो बात बढ़ाई है, और बढ़ाकर सत्ता हासिल कर ली, अब सत्ता में बैठने के बाद कठिनाई हो रही है। शंकराचार्य ने कहा अब कह रहे हैं ब्रेक लगाओ, जब आपको जरूरत हो तो आप गाड़ी का एक्सीलरेटर दबाओ, और जब जरूरत लगे तो ब्रेक दबा दो।
नागपुर में 2022 में भी मोहन भागवत ने कहा था कि इतिहास वो है जिसे हम बदल नहीं सकते। इसे न तो आज के हिन्दुओं ने बनाया है, और न ही आज के मुसलमानों ने। ये उस समय घटा, हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना? अब हमको कोई आंदोलन करना नहीं है।
संघ प्रमुख की इन बातों को लेकर देश के अलग-अलग राजनीतिक विश्लेषकों का अलग-अलग अनुमान है। कुछ लोग इसे भाजपा के साथ, या मोदी के साथ संघ और भागवत के एक अघोषित टकराव से जोडक़र देखते हैं क्योंकि आज देश भर में जितनी जगह मस्जिद या दरगाह को लेकर तनातनी चल रही है, उसमें शामिल हिन्दू लोगों में भाजपा के लोग खुलकर शामिल हैं, और ऐसे राज्यों में अगर भाजपा की सरकार है, तो वह सरकार भी खुलकर हिन्दू आंदोलनकारियों के साथ है, और वहां पर गैरहिन्दू सरकार के भी निशाने पर हैं। इसलिए मोहन भागवत की कही हुई बात क्या महज संघ की समकालीन विचारधारा है, भागवत की निजी राय है, यह भाजपा से अलग रीति-नीति रखने की मुनादी है, या कि यह मोदी की लीडरशिप में चल रही देश-प्रदेश की सरकारों, और भाजपा की आलोचना है? यह अंदाज लगाना बड़ा मुश्किल है।
संघ और भाजपा के रिश्ते संघ और जनसंघ के दिनों से कुछ रहस्यमय रहते आए हैं, और समय-समय पर किसका पलड़ा भारी रहता है, किसका किस पर कितना काबू रहता है, यह अंदाज लगाना भी मुश्किल रहता है। लोगों को याद होगा कि अभी कुछ महीने पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नड्डा ने जिस तरह से भाजपा की रणनीति में संघ की जरूरत अब खत्म हो जाने का सार्वजनिक बयान दिया था, उसे भी मोदी खेमे की तरफ से संघ को एक अघोषित चेतावनी सरीखा माना गया था क्योंकि नड्डा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते हुए भी इतने बड़े नेता नहीं थे कि वे आरएसएस को इस अंदाज में सार्वजनिक रूप से खारिज करें।
खैर, हम यहां पर संघ और भाजपा के रिश्तों को सिर्फ एक पृष्ठभूमि की तरह सामने रख रहे थे क्योंकि आगे की बात के लिए यह लंबा ब्यौरा देना जरूरी था। संघ में भागवत के बाद सबसे बड़े नेता माने जाने वाले, सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने अभी संघ की ही एक पत्रिका को दिए इंटरव्यू में कहा है कि अगर देश में 30 हजार मस्जिदों को खोदना शुरू कर दिया जाए, और यह दावा किया जाए कि वे मंदिरों को तोडक़र बनाई गई हैं, तो देश किस दिशा में जाएगा? उन्होंने इंटरव्यू के एक सवाल के जवाब में कहा- क्या इससे समाज में और अधिक शत्रुता और नाराजगी पैदा नहीं होगी? क्या हमें एक समाज के रूप में आगे बढऩा चाहिए, या अतीत में फंसे रहना चाहिए? कथित तौर पर नष्ट किए गए मंदिरों को फिर हासिल करने के लिए हमें इतिहास में कितना पीछे जाना चाहिए? उन्होंने कहा कि मस्जिदों के नीचे मंदिरों की खोज करने से हम (हिन्दू समाज में) छुआछूत को खत्म करने, युवाओं में जीवन-मूल्यों को स्थापित करने, संस्कृति की रक्षा करने, और भाषाओं को संरक्षित करने जैसे अधिक महत्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान देने से वंचित रह जाएंगे। उन्होंने कहा कि जब मंदिरों की बात आती है तो क्या किसी इमारत में जो अब एक मस्जिद है, कोई दिव्यता है? क्या हमें (ऐसी) इमारत में हिन्दू धर्म की तलाश करनी चाहिए, या हमें उन लोगों में हिन्दू धर्म जगाना चाहिए जो खुद को हिन्दू नहीं मानते? उन्होंने कहा इमारतों में हिन्दू धर्म के अवशेष ढूंढने के बजाय अगर हम समाज में हिन्दू धर्म की जड़ों को जगाते हैं, तो मस्जिद का मुद्दा अपने आप हल हो जाएगा। इस इंटरव्यू में उन्होंने मुस्लिमों और ईसाईयों के बारे में आक्रामकता से परे कुछ और बातें भी कही हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने अभी एक जनहित याचिका को सुनने से मना कर दिया जिसमें 13 बरस से कमउम्र के बच्चों को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर रोकने की मांग की गई थी। अदालत ने कहा कि यह नीतिगत मामला है, और इसे संसद के सामने उठाना चाहिए, न कि अदालत के सामने। अदालत ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता इन मामलों के लिए बनाए गए संबंधित प्राधिकरण में अगर अपनी बात रखें, तो प्राधिकरण 8 हफ्तों में इस पर विचार करे। याचिका में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर रोक लगाने की मांग की गई थी कि वे उम्र की पड़ताल किए बिना किसी को वहां पर दाखिला न दें। अदालत का कहना एक हिसाब से ठीक हो सकता है कि समाज को देखते हुए देश में जो नीतियां बननी चाहिए, उन्हें बंद अदालतों में काम करने वाले जजों के बजाय जनता से चुनकर आए हुए सांसदों के बीच चर्चा के बाद बनना चाहिए। लेकिन अगर इस गरिष्ठ परिभाषा से परे अदालत सोचती, तो बेहतर होता, और इस पर कम से कम केन्द्र सरकार से उसका पक्ष तो लिया ही जा सकता था। हो सकता है कि केन्द्र सरकार अदालत को जो जानकारी देती, उस पर याचिकाकर्ता के वकील कुछ और सवाल उठा सकते। आज तो अदालत ने जिस तरह इस मामले को संसद की तरफ रवाना कर दिया है, उसका मतलब उसने सब कुछ सरकार पर छोड़ दिया है। जबकि आज दुनिया में बहुत से विकसित देशों में इस बारे में ठोस पहल हो रही है।
ऑस्ट्रेलिया में पिछले बरस से ही एक कानून बनाया गया है जिसने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को इस बरस तक का समय दिया है कि वे 16 बरस से कमउम्र के बच्चों का वहां दाखिला रोकें। ऐसा ही कानून 15 बरस से छोटे बच्चों को बुरे असर से बचाने के लिए फ्रांस ने 2023 से बनाया हुआ है। और अमरीका में चूंकि अधिक अधिकार राज्यों को हैं, वहां कम से कम एक राज्य फ्लोरिडा में अभी पिछले ही महीने एक कानून बना है जिसमें 14 बरस से छोटे बच्चों को सोशल मीडिया पर रोका जा रहा है, यह एक अलग बात है कि वहां के हर कानून की तरह इसे भी अदालत में चुनौती दी गई है। योरप के जो देश सबसे उदार विचारों के माने जाते हैं, उनमें से एक नार्वे ने अभी यह योजना घोषित की है कि वह 13 बरस से कम उम्र के बच्चों पर सोशल मीडिया इस्तेमाल का अभी लागू प्रतिबंध 15 बरस उम्र तक के बच्चों के लिए बढ़ा रहा है। इन सबसे परे एक और बात को समझने की जरूरत है कि पश्चिम का एक सबसे विकसित देश, ब्रिटेन स्कूली बच्चों से स्मार्टफोन वापिस लेने के लिए जनता के साथ मिलकर एक अभियान चला रहा है। सरकार खुद सीधे-सीधे इस पर रोक नहीं लगा रही, लेकिन मां-बाप इस अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं। वहां की प्रमुख विपक्षी कंजरवेटिव पार्टी रोक लगाने के पक्ष में है, लेकिन वह सत्ता से बाहर हो गई है। फिर भी वहां यह सोच-विचार जोरों पर है। एक विपक्षी नेता ने वहां कहा है कि स्मार्टफोन, और सोशल मीडिया के अंधाधुंध इस्तेमाल से बच्चों को भी गर्दन और पीठ की ऐसी तकलीफें हो रही है जो कि अधेड़ लोगों को हुआ करती थी, इसके अलावा वे हिंसक पोर्नोग्राफी देखने के शिकार भी हो रहे हैं।
भारत सरकार के सूचना तकनीक विभाग के सचिव ने इसी बरस जनवरी में यह साफ किया था कि ऑस्ट्रेलिया की तरह की कोई प्रतिबंध भारत में बच्चों के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म इस्तेमाल पर नहीं लगाया जाएगा। मोदी सरकार का मानना है कि बच्चों के मां-बाप की सहमति की जांच करके सोशल मीडिया कंपनियां बच्चों को दाखिला दे सकती हैं। सरकार का मानना है कि ऑनलाईन ही बच्चे कई तरह की चीजें सीखते भी हैं, और उन पर पूरी तरह से रोक लगा देना ठीक नहीं होगा। भारत सरकार के इस सचिव ने यह भी कहा था कि अभी तक तो किसी ने प्रतिबंध का सुझाव नहीं दिया है, और न ही ऐसी कोई चर्चा ही हुई है।
अब सोचने-समझने की बात यह है कि ऑनलाईन और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म दो अलग-अलग चीजें हैं। हर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म तो ऑनलाईन हैं, लेकिन ऑनलाईन हर चीज सोशल मीडिया नहीं है। इसलिए अगर बच्चे ऑनलाईन कोई पढ़ाई करते हैं, या कोई क्रॉफ्ट सीखते हैं, तो वह सोशल मीडिया से अलग है, जहां पर वे जाने-अनजाने कई किस्म के लोगों के संपर्क में आते हैं, और कई तरह के शोषण के खतरों में पड़ जाते हैं। खुद आपस में भी बच्चे सोशल मीडिया पर एक-दूसरे के साथ बर्ताव करते हुए कई ऐसे फोटो-वीडियो का लेन-देन करते हैं जो कि बाद में खतरनाक हो सकते हैं। पश्चिम के देशों ने लगातार यह देखा है कि बच्चों को सेक्स-जाल में फंसाकर उनके फोटो-वीडियो हासिल करना, और फिर उन्हें ब्लैकमेल करके उनकी पाई-पाई चूस लेना एक बड़ा आम जुर्म हो गया है, और उसमें कुछ अफ्रीकी देशों के पेशेवर मुजरिम भी लगे हुए हैं, उनके शिकार कई बच्चे खुदकुशी कर चुके हैं।
भारत के सोशल मीडिया पर बदनीयत झूठ का सैलाब हर कुछ मिनटों में भिगाता रहता है। फेसबुक और एक्स पर, या वॉट्सऐप जैसे मैसेंजरों पर हजार किस्म के झूठ गढक़र लोग इतने समर्पित भाव से उसे फैलाते हैं कि यह समर्पण अगर समाज के भले के किसी काम में दिखाया गया होता, तो समाज सचमुच ही बहुत भला हो गया रहता। एक दिक्कत यह भी देखने में आती है कि जिन लोगों को आमतौर पर पढ़ा-लिखा, और समझदार भी माना जाता है, वे भी बिना बदनीयत के भी गढ़े हुए झूठ को आगे बढ़ाने के काम को बहुत समर्पित भाव से करते हैं। इसके पीछे उनका तर्क रहता है कि यह तो कई लोग सोशल मीडिया पर पोस्ट कर रहे हैं, इसलिए उन्होंने भी कर दिया, या उन्होंने भी इसे किसी ग्रुप में डाल दिया, या दोस्तों को अलग-अलग भेज दिया। चूंकि कई लोग कर रहे हैं इसलिए वैसा करने में बाकी लोगों को भी कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए, यह समझ का सुबूत कम रहता है, गैरजिम्मेदारी का अधिक रहता है। आज जब इंटरनेट पर झूठ को पकडऩे के हजार किस्म के मुफ्त तरीके मौजूद हैं, तब बदनीयत झूठ को कथित मासूमियत के साथ आगे बढ़ाते चलना अगर बदनीयत होने का सुबूत नहीं है, तो उसे मासूमियत का संदेह का लाभ भी नहीं दिया जा सकता।
भारत के सोशल मीडिया का यही हाल देखकर अभी कुछ हफ्ते पहले की फिनलैंड की एक खबर याद पड़ती है जिसमें वहां की स्कूलों में छह बरस के बच्चों को स्कूली शिक्षा के तहत ही यह पढ़ाया और सिखाया जा रहा है कि ऑनलाईन झूठी खबरों को कैसे पहचानें और पकड़ें। फिनलैंड को योरप का सबसे अधिक मीडिया-जागरूकता वाला देश माना जाता है। 2013 से इस देश में मीडिया की शिक्षा को राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है, जिससे कि बच्चे कमउम्र से ही झूठी खबरों को पहचानना सीख जाएं, किसी जानकारी या सामग्री के स्रोत का विश्लेषण करना सीख जाएं, और ऑनलाईन सामग्री को आलोचक की नजर से परख सकें। वहां की खबरें बताती हैं कि स्कूली बच्चे यह परख लेते हैं कि सोशल मीडिया पर कौन लोग झूठ फैलाते हैं। वहां के शिक्षामंत्री का कहना है कि चूंकि अब परंपरागत मीडिया पर लोग कम निर्भर करते हैं, इसलिए बाकी मीडिया में सच्चाई को परखने के लिए नई पीढ़ी को ही काबिल बनाना जरूरी है। यही खबर बताती है कि किस तरह फिनलैंड में सच की जांच करने वाली एजेंसियां लोगों की मदद के लिए मौजूद रहती हैं। अब वहां छोटे-छोटे स्कूली बच्चे भी सोशल मीडिया की सामग्री को देखकर सवाल करते हैं कि यह कहां से आई है, इसमें कितनी सच्चाई है?
सच तो यह है कि अंधभक्ति दर्जे का अंधविश्वास अगर लोगों में न रहे, तो उनके मन में यह स्वाभाविक जिज्ञासा रह सकती है कि कोई जानकारी कहां से आई, क्यों आई, किस मौके पर आई, और उसके पीछे कौन सी बदनीयत हो सकती है। लेकिन जब किसी धर्म, जाति, विचारधारा, व्यक्ति, या संगठन के प्रति अंधविश्वास हो, तो फिर उन्हें सुहाने वाली बातों को भला कौन परखे? मैं सुबह से यह देखकर थक जाता हूं कि कुछ लोग शायद अलार्म लगाकर उठते हैं, और नफरत को इस समर्पण से आगे बढ़ाने लगते हैं कि मानो उन्हें परिवार से इसी सूर्यनमस्कार की सीख मिली है। सूरज उगा नहीं रहता कि वे सोते हुए लोगों तक नफरत को फैलाने लगते हैं, जो कि तीन चौथाई से अधिक बार झूठी होती है, और बाकी एक चौथाई भी रंग-बिरंगे झूठ की आइसिंग से सजाए गए केक सरीखी होती है। इनमें अपने आपको खासा पढ़ा-लिखा मानने और कहने वाले लोग भी रहते हंै, और बहुत से लोग यह जहर फैलाते हुए भी अपने किसी प्रतिष्ठित पेशे का जिक्र भी अपने नाम के साथ करते हैं। शायद प्रतिष्ठित पेशे का जिक्र नफरत के जहर को एक अलग प्रतिष्ठा दिला देता है।
हिन्दुस्तान को फिनलैंड बनाना मुमकिन नहीं है क्योंकि बहुत से दशकों में धीरे-धीरे मिली सभ्यता हाल के बरसों में एकाएक साथ छोड़ गई है, और लोग अब फैक्ट-चेक जैसी बातों को अर्बन-बागी हरकत मानने लगे हैं। ऐसी जरा सी भी कोशिश दिखने पर लोग जागरूक लोगों को हमेशा के लिए सुला देने को भी तैयार रहते हैं, और पुणे से लेकर बेंगलुरू तक सामाजिक कार्यकर्ताओं को इस तरह सुलाया भी गया है।
आज हिन्दुस्तान में आम लोगों की सोच पर जिस किस्म के मुद्दे हावी हो गए हैं, उनके बीच से कोई छेद तलाशकर तथ्य और तर्क को भीतर घुसने का कोई रास्ता नहीं मिल सकता। इतिहास, विज्ञान, और जिंदगी के बाकी बहुत से दायरों की जानकारी को तोड़-मरोडक़र एक अलग शक्ल दे दी गई है, और हिन्दुस्तान कोई फिनलैंड तो है नहीं कि जहां बच्चे छह बरस की उम्र से ही स्कूल से फैक्ट-चेक सीखना शुरू कर चुके हैं। इसलिए यहां पर लोग दिमाग की चर्बी पर जोर डाले बिना पूरी बदनीयत से गढ़े हुए झूठ को खालिस सच की तरह आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं, फिर चाहे उनके बीच आखिर में बची हुई थोड़ी-बहुत सहज बुद्धि खुद के लिए उसे मानने से इंकार भी करती हो।
राजस्थान के नागौर जिले से आई एक ताजा खबर बताती है कि इस देश में लड़कियों और महिलाओं की क्या हालत है। वहां घर के एक नशेड़ी नौजवान ने अपनी सगी छोटी नाबालिग बहन से बलात्कार किया, और कई दिन तक करते रहा। लडक़ी ने मां को यह बताया तो परिवार के बेटे की बदनामी का हवाला देकर उसे चुप करा दिया गया। बाद में उस लडक़ी को अहसास हुआ कि बदनामी की ऐसी बात सोचकर परिवार उसके कत्ल की साजिश कर रहा है। तब उसने अपने बहन-जीजा को फोन पर पूरी जानकारी दी, और उन्होंने आकर पुलिस में पाक्सो एक्ट के तहत लडक़ी के भाई पर मामला दर्ज करवाया। हिन्दुस्तान में हर परिवार बेटी की हत्या तक चले जाए, यह तो जरूरी नहीं है, लेकिन इतना तो है कि बलात्कारी बेटे से परिवार अपनी इज्जत जोड़ लेता है, और ऐसे बहुत से दूसरे मामलों में परिवार घर की लड़कियों को चुप करने पर पिल पड़ते हैं। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, यूपी जैसे कई प्रदेश हैं जहां समय-समय पर परिवार द्वारा प्रेमविवाह करने वाली लडक़ी का कत्ल करवा दिया जाता है, और कई मामलों में उसके प्रेमी को भी खत्म कर दिया जाता है। जात-बिरादरी का, और मर्दाना अहंकार इतना भयानक और हिंसक रहता है कि वह अपनी जवान बेटी को खत्म करने के लिए बाप-भाई का जेल जाना भी बुरा नहीं समझता। ऐसे हत्यारे परिवार सीना ताने अदालत और जेल चले जाते हैं।
परिवार की इज्जत, ये तीन शब्द जुल्म और जुर्म बनकर आमतौर पर लड़कियों और महिलाओं पर ही टूट पड़ते हैं। लडक़ी या महिला से कोई बलात्कार करे तो इसमें बलात्कारी की इज्जत खराब होना नहीं माना जाता, लडक़ी की इज्जत लुट जाना कहा जाता है, मानो उसने अपने खुद पर कोई जुर्म कर दिया हो। यह सोच भारत में लड़कियों के आगे बढऩे की संभावनाओं को कमजोर करती है, क्योंकि उसकी ‘इज्जत लुट जाने’ की आशंका में उसके आगे बढऩे के मौकों को किनारे कर दिया जाता है, उसे रोक-टोक दिया जाता है। खुद लड़कियां परिवार के भीतर से लेकर पड़ोसियों, और शिक्षक-प्रशिक्षक के हाथों तक नुचती हुईं आत्मविश्वास खोने लगती हैं, और सहमी सी किनारे रह जाती हैं। हर लडक़ी विपरीत परिस्थितियों से इतना जूझकर, घर-बाहर की मर्दाना हिंसा का सामना करते हुए आगे बढऩे का हौसला नहीं जुटा पातीं। अभी हाथरस के एक प्रोफेसर का मामला लगातार खबरों में बना हुआ है कि किस तरह उसने अपने दर्जनों छात्राओं का यौन-शोषण किया, उनके वीडियो बनाए, ब्लैकमेल किया, और उनके मार्फत उनकी सहेलियों तक को बुलवाया। लोगों को याद होना चाहिए कि दशकों पहले अजमेर में भी इसी तरह का एक बहुत बड़ा सेक्स-कांड हुआ था जिसमें सैकड़ों लड़कियों का शोषण अजमेर की विख्यात दरगाह के खादिम परिवार से जुड़े हुए लोगें ने किया था। अब हाथरस में एक अकेला प्रोफेसर अपने दम पर यह करते मिला है। यह बात आसानी से सोची जा सकती है कि ऐसी एक-एक घटना के बाद जाने कितने ऐसे परिवार होंगे जो अपनी लड़कियों के आगे बढऩे की संभावनाओं को खुद ही रोकना बेहतर समझेंगे।
हिन्दुस्तान में लडक़े और लडक़ी के बीच का यह फर्क परिवार से ही शुरू होता है, और बड़ों के बर्ताव देख-देखकर परिवार ने लडक़े मर्द बनने पर जुल्म करना, और लड़कियां महिला बनने पर जुल्म सहना सीख जाते हैं। अपने परिवार के बड़े लोगों का बर्ताव उनके लिए सबसे बड़ी सीख बन जाता है। यह सिलसिला घर से शुरू होता है, तो कामकाज की जगहों पर भी चले जाता है, और वहां पर ऐसे घरों से निकले हुए मर्द सहकर्मी महिलाओं से बदसलूकी, और उनके शोषण को अपना हक मान लेते हैं। और समाज में यह व्यवस्था पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है।
ब्रिटेन में अभी 22 बरस की एक कॉलेज छात्रा ने खबरों में जगह बना ली जब उसने इंटरनेट पर अपने कौमार्य की नीलामी लगाई, और उसकी सबसे अधिक बोली लगाकर भारतीय मुद्रा में करीब 18 करोड़ रूपए में एक हॉलीवुड-सेलिब्रिटी ने खरीद लिया। लॉरा नाम की इस लडक़ी ने अपने इस फैसले को सही ठहराते हुए कहा कि वह अपने भविष्य की आर्थिक सुरक्षा के लिए ऐसा कर रही है। उसका कहना है कि बहुत सारी लड़कियां तो अपना कौमार्य यूं ही खो देती हैं, मैंने कम से कम एक आर्थिक सुरक्षा हासिल की है। खबरों में बताया गया है कि बहुत से धनपति, और नेता भी इस गोपनीय नीलामी में शामिल हुए थे। और खरीददार के लिए लॉरा ने उसके सामने ही डॉक्टरों से अपना कौमार्य परीक्षण कराकर नीलामी की एक शर्त पूरी की। खबर में यह दिलचस्प बात है कि लॉरा एक धार्मिक पृष्ठभूमि से आई हुई लडक़ी है, और उसका कहना है कि उसके लिए यह नैतिक मुद्दा नहीं था, यह आर्थिक आजादी पाने की बात थी।
सोशल मीडिया पर यह बहस चल रही है कि क्या इस तरह कौमार्य को बेचना, और खरीदना नैतिक, जायज, या कानूनी है? जहां तक कानून की बात है तो दुनिया के अलग-अलग देशों में देह बेचने को लेकर अलग-अलग कानून हैं। और अब तो हिन्दुस्तान में भी देह बेचना जुर्म नहीं रह गया है। फिर भी भारत के बहुत से लोग इस नीलामी को अनैतिक मान रहे हैं, जबकि पश्चिम में जहां पर कि ये खरीददार और बेचने वाली लडक़ी रहते हैं, वहां इसमें गैरकानूनी कुछ नहीं है। सच तो यह है कि बहुत मामूली तनख्वाह की नौकरी करने वाली लड़कियों को भी जगह-जगह और लगातार इतना देह शोषण झेलना पड़ता है कि उसके मुकाबले इस तरह एक बार कौमार्य खोने की नौबत बहुत कम नुकसानदेह, और बहुत अधिक फायदे की दिखाई दे रही है। जो आदमी एक बार के देहसंबंध के लिए इतनी मोटी रकम खर्च कर रहा है, वह अपनी और लडक़ी की सेहत की जांच के लिए भी सावधान तो रहेगा ही, जो कि रोजमर्रा की जिंदगी में हर कामकाजी लडक़ी के साथ उसके कामकाज की जगह पर मुमकिन नहीं होता है।
एक दिलचस्प बात यह भी है कि भारत में तवायफों के कोठों पर नई तवायफ के कौमार्य की नीलामी की बड़ी लंबी परंपरा रही है। इसे नथ उतारना कहा जाता था। कुंवारी लडक़ी के कौमार्य की सबसे अधिक बोली बोलने वाला व्यक्ति उस लडक़ी से पहली बार संबंध बनाता था, और उसके बाद वह लडक़ी कुंवारेपन में जो नथ पहनकर रहती थी, उसे फिर नहीं पहनती थी। एक बार नथ उतराई के बाद वह लडक़ी फिर रोजाना के कामकाज में बाकी ग्राहकों के लिए भी हासिल रहती थी। भारत में सदियों से यह परंपरा चली आ रही है, और तवायफों की जिंदगी पर लिखी गई कई कहानियों, और उन पर लिखे गए कई उपन्यासों में इसका खुलासे से जिक्र रहते आया है।
ब्रिटेन की इस लडक़ी को कोसने के पहले भारत के कई हिस्सों के गांवों में चलने वाली कुछ परंपराओं के बारे में भी सोचने की जरूरत है। कई गांवों में ऐसी परंपरा रहती थी कि वहां आने वाली कोई भी नई बहू पहली रात गांव के मुखिया के साथ गुजारती थी। ऐसी पहली रात के लिए ऊंची जात के मुखिया को भी नीची जात की दुल्हन से कोई परहेज नहीं रह जाता था। और यह बात सिर्फ किस्से-कहानी में नहीं थी, बहुत सी जगहों पर ऐसा चलता था। कहने में एक बार बुरी लगेगी, लेकिन भारतीय सेना में कुछ बड़े अफसरों पर अभी एक मुकदमा पूरा ही हुआ है जिसमें कुछ बड़े अफसर मातहत अफसरों की बीवियों का देह-शोषण करते थे। यह बात फौजी अदालत में साबित हो चुकी है, और ऐसे बड़े अफसरों को सजा भी सुनाई जा चुकी है।
हिन्दुस्तान के जिन लोगों को कौमार्य की नीलामी बहुत ही अनैतिक बात लग रही है, उन्हें अपने देश की हकीकत जानना चाहिए। स्कूली जिंदगी से ही लड़कियों का देह-शोषण, खिलाड़ी लड़कियों का प्रशिक्षकों के हाथ शोषण, अंतरराष्ट्रीय पहलवान लड़कियों का सांसद-खेल संघ पदाधिकारी के हाथों शोषण, रिसर्च स्कॉलरों का गाईड के हाथों शोषण कोई बहुत अनसुनी बात नहीं है। यह शोषण चलते ही रहता है, और जाने कितनी ही लड़कियां हर दिन इसी तरह कौमार्य खोती हैं। उनकी शिकायतें पुलिस और अदालत में अनसुनी रह जाती हैं, और बलात्कारी उनके परिवार के लोगों को कत्ल कर देते हैं, गवाहों को मार डालते हैं, और जमानत पर छूटकर आकर फिर बलात्कार या कत्ल कर देते हैं।
अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प किसी कारखाने के दिन में कम से कम दो बार बजने वाले सायरन की तरह कम से कम दो बार दुनिया को चौंकाने वाली मुनादियां कर रहे हैं, और दुनिया भर में उनका असर होते दिख रहा है, कम से कम जो देश ताकतवर हैं वहां ट्रम्प का विरोध भी हो रहा है। अपने पड़ोस में बसे कनाडा को लेकर ट्रम्प शुरू से हमलावर रहे हैं, और वे पूरी तरह असभ्य जुबान में वहां के राष्ट्रपति को एक राज्य का गवर्नर कहते आए हैं, और कनाडा से कहते आए हैं कि वह एक देश बने रहने के बजाय अमरीका का राज्य बन जाए, और उसमें वह अधिक सुखी रहेगा। उन्होंने कनाडा की पेट भर बेइज्जती करने के बाद जिस अंदाज में कनाडा से अमरीका आने वाले सामानों पर अंधाधुंध टैरिफ लगाने की धमकियां दी है, उनका नतीजा हुआ है कि कनाडा में लोग अमरीकी सामानों, और अमरीका जाने का भी बहिष्कार कर रहे हैं। कनाडा के बाजारों में तख्तियां लगी हैं कि अमरीकी सामान न खरीदें, और कनाडा की जनता ऐसा कर भी रही है।
लोग जब कभी जनता के स्तर पर ऐसा आर्थिक बहिष्कार करते हैं, तो उन्हें उसके दाम भी चुकाने पड़ते हैं। उन्हें कुछ सामान महंगे लेने पड़ते हैं, और कुछ सामानों के बिना काम चलाना पड़ता है। मैंने ट्रम्प के रूख को देखते हुए उसके चुनावी नतीजे आने के पहले ही फेसबुक पर लिखा था कि अगर अमरीकी जनता ट्रम्प को राष्ट्रपति बनाती है, तो मैं चार बरस कोई अमरीकी सामान नहीं खरीदूंगा। और अमरीकी जनता ने चार बरस के लिए मेरे सरीखा एक सबसे छोटा ग्राहक खो दिया।
आज जब अमरीका दुनिया के अलग-अलग देशों को, भारत को भी धमकाते हुए, हर देश के साथ बदसलूकी करते हुए उन पर नए-नए टैक्स लाद रहा है, तो इन देशों को भी यह सोचना चाहिए कि वे कौन सी गैरजरूरी अमरीकी चीजों की खपत कर रहे हैं? आज की दुनिया में कुछ अमरीकी चीजों का तो कोई विकल्प नहीं है, लेकिन कई अमरीकी सामान ऐसे हैं कि उनके बिना लोगों का काम चल सकता है। आज भला दुनिया में कौन से ऐसे इंसान हैं जो कोका कोला बिना जिंदा नहीं रह सकते, या अमरीकी चॉकलेट, शराब, या कपड़े-जूते लिए बिना जिनका जीना मुश्किल होगा? आज ट्रम्प एक डॉन के अंदाज में दुनिया की लोकतांत्रिक सरकारों को जिस तरह चाकू-पिस्तौल दिखा रहा है, उनसे उगाही कर रहा है, उसे देखते हुए उन देशों की जनता को भी कनाडा की तरह की जागरूकता दिखानी चाहिए। अपने नागरिकों की ताकत के बिना कोई देश बहुत ताकतवर नहीं रहते। और अगर जनता ही किसी देश और उसके सामानों का, उस देश में सैर-सपाटे पर जाने का बहिष्कार करने लगे, तो राष्ट्रपति के चार बरस का कार्यकाल पूरा होते न होते अमरीकी जनता को यह समझ आ जाएगा कि उसे अपने गलत वोट की कैसी कीमत चुकानी पड़ रही है। अमरीकी टैरिफ के शिकार देशों के लोग अगर ऐसा बहिष्कार करें, और अमरीका के बजाय योरप के किसी पश्चिमी देश में घूमने चले जाएं, अमरीकी सामानों के दूसरे देशों के विकल्प छांट लें, तो चार बरस बाद भी अमरीका की जनता किसी और बेदिमाग, बददिमाग मवाली को चुनने के पहले चार बार सोचेगी।
दिक्कत यह है कि जिन लोगों में लोकतंत्र की समझ कम रहती है, जो दिखावे के राष्ट्रवादी रहते हैं, जिनके लिए धर्म ही सबसे बड़ा फतवा रहता है, उन लोगों के लिए आर्थिक बहिष्कार एक सबसे बड़ा साम्प्रदायिक हथियार रहता है। भारत में ही किसी धर्म के लोग उन्हें नापसंद किसी दूसरे धर्म के लोगों का आर्थिक बहिष्कार करके खुश हो लेते हैं कि उनके पेट पर लात पड़ी। भारत और पाकिस्तान के साम्प्रदायिक लोग एक-दूसरे देश का आर्थिक बहिष्कार करके खुश हो लेते हैं कि दूसरे धर्म की बहुतायत वाले पड़ोसी देश का नुकसान हो गया। ऐसा करते हुए वे यह नहीं देखते कि उनका खुद का भी कितना नुकसान हुआ है।
आज अमरीका में कानूनी-गैरकानूनी रूप से गए हुए, और वहां के नियमों के खिलाफ बने हुए हिन्दुस्तानियों के साथ अमरीका जो सुलूक कर रहा है, उसे लेकर भारत में अमरीकी सामानों का बहिष्कार करने का कोई फतवा अभी तक नहीं गूंजा है। चीन के साथ सरहद पर जरा सा तनाव होता है, तो हिन्दुस्तानी बाजारों से मामूली चीनी सामानों को हटाने के लिए बहिष्कार और आगजनी होने लगते हैं। दूसरी तरफ इस बात को बड़ी हिकमत से छुपा लिया जाता है कि भारत का सबसे बड़ा आयात चीन से होता है, और कच्चे माल का होता है। अगर चीन का आर्थिक बहिष्कार किया जाएगा, तो उसकी सेहत पर तो जरा सा फर्क पड़ेगा, लेकिन भारत के कारखाने ठप्प हो जाएंगे, और भारत की अर्थव्यवस्था चौपट हो जाएगी। भारत के कारखाने अमरीकी कच्चे माल पर उस तरह से नहीं टिके हुए हैं, और भारत के ग्राहक तो कम्प्यूटर सरीखे एक-दो सामानों से परे किसी भी सामान के लिए अमरीका के मोहताज नहीं हैं, दूसरे देशों से उनके पर्याप्त विकल्प मिल रहे हैं।
अभी कुछ महीने पहले तक ट्रम्प के जख्मी होने पर इस हिन्दुस्तान के लोगों ने उसकी तस्वीरों के साथ हवन किए थे, और ट्रम्प की जीत के लिए तो हवन चल ही रहे थे। अब जब ट्रम्प अपने 45 दिनों के कार्यकाल में 45 से अधिक बार हिन्दुस्तान के खिलाफ बोल चुका है, और कार्रवाई कर चुका है, तो कम से कम भारत की जनता को प्रतीकात्मक रूप से ही सही, अमरीका का बहिष्कार करना चाहिए। ट्रम्प में इंसानियत चाहे धेले भर की न हो, उसके भीतर एक बेरहम कारोबारी ठूंस-ठूंसकर भरा हुआ है। जब अमरीकी कारोबार के पेट पर लात पड़ेगी, तो ट्रम्प को तुरंत ही वह जुबान समझ आ जाएगी। भारत की जनता को अपनी सरकार का मुंह देखने की जरूरत नहीं है, इंटरनेट पर मामूली सी सर्च बता देगी कि किस अमरीकी ब्राँड के कौन से गैरअमरीकी विकल्प मौजूद हैं। भारत को ऐसे हर ब्राँड को इस देश में बेरोजगार करना चाहिए। लेकिन ऐसी जागरूकता के लिए एक राजनीतिक और लोकतांत्रिक परिपक्वता भी जरूरी होती है, और हिन्दुस्तानियों के दिल-दिमाग से इसे निचोडक़र आखिरी बूंद तक निकाल फेंका गया है। चेतनाविहीन यह समाज अपने भीतर के लोगों से नफरत के लायक बच गया है, देश के जो आर्थिक दुश्मन हैं, उनके खिलाफ इसकी चेतना जाग नहीं रही है। आज भी अगर ट्रम्प के सिर पर बारिश होने लगेगी, तो हिन्दुस्तान में कई लाख लोग छतरी तान लेंगे। उधर ट्रम्प अगर बीफ खाकर बीमार हो जाएगा, तो हिन्दुस्तान में उसकी दस्त बंद करवाने के लिए हवन होने लगेंगे। आज का यह मौका बताता है कि एक समाज के रूप में हिन्दुस्तानियों की सोच किस हद तक जिम्मेदारी से मुक्त हो चुकी है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
तमिलनाडु के एक जिले के कलेक्टर ए.पी.महाभारती को तीन बरस की एक बच्ची पर हुए यौन हमले में उस बच्ची को ही जिम्मेदार ठहराने के बयान के बाद मौजूदा ओहदे से हटा दिया गया है। अभी एक कार्यक्रम में उन्होंने यौन उत्पीडऩ की शिकार तीन साल की एक बच्ची के बारे में सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा कि इस बच्ची ने 16 साल के लडक़े के मुंह पर थूका था जिसके बाद उन पर यौन हमला हुआ। यह कार्यक्रम बच्चों को यौन हमलों से बचाने के लिए पुलिस अफसरों की एक दिन की ट्रेनिंग का था, और इसमें कलेक्टर को भी बोलने का मौका दिया गया था। कलेक्टर ने अभी 24 फरवरी को ही एक आंगनबाड़ी में तीन बरस की बच्ची पर 16 साल के लडक़े के यौन हमले की घटना का जिक्र करते हुए कहा कि वह बच्ची भी गलती पर थी, उसने लडक़े के मुंह पर थूका था इसलिए ऐसी घटनाओं को दोनों तरफ से देखना चाहिए। जब चारों तरफ से नेताओं ने कलेक्टर के इस बयान पर हमले किए तो सरकार ने उसे हटाकर बिना कोई काम दिए बिठा दिया। भाजपा से लेकर सीपीएम तक तमाम पार्टियों ने इस अफसर की जमकर निंदा की थी।
इस देश में अफसरों से लेकर जजों तक में सामाजिक सरोकारों, न्याय और मानवीय मूल्यों की समझ बड़ी कमजोर है। इन्हें नौकरी के इम्तिहानों के रास्ते छांट लिया जाता है, और इनमें इंसानियत की किसी परख को नहीं आंका जाता। यही वजह है कि एक हाईकोर्ट का जज अदालत के परिसर में ही आयोजित एक धार्मिक संगठन के कार्यक्रम में अल्पसंख्यकों के खिलाफ गंदी जुबान में नफरती बयान देता है, और उसके बाद फिर अदालती फैसलों के लिए बैठ जाता है। अफसरों में अनगिनत ऐसे लोग हैं जिनमें समाज के विशेष सुरक्षा प्राप्त, कमजोर तबकों के लिए हिकारत है। महिलाओं के खिलाफ, दलितों या आदिवासियों के खिलाफ, विकलांगों या मानसिक कमजोर लोगों के खिलाफ ऊंची-ऊंची कुर्सी पर बैठे लोगों के मन नफरत से भरे हुए रहते हैं। ऐसे में सरकारी और अदालती कामकाज में इंसाफ होने की गुंजाइश बहुत कम बच जाती है।
हमारा ख्याल है कि किसी को अखिल भारतीय सेवा का अफसर, या राज्य सेवा का अफसर, या अदालती जज बनाने के पहले उनकी राजनीतिक (दलगत नहीं), सामाजिक, लैंगिक समझ को बारीकी से जांचना-परखना चाहिए, और जहां इंसाफ की उनकी समझ कमजोर दिखे, उन्हें शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए भेजना चाहिए। जिन अफसरों को अदालती, या सरकारी कामकाज के बीच में किसी एक धर्म की प्रतिष्ठा को बढ़ाने, और दूसरों को खारिज करने में कुछ गलत नहीं लगता है, उन्हें एक लंबी ट्रेनिंग के लिए भेज दिया जाना चाहिए। पता नहीं देश की प्रशासन और पुलिस अकादमियों में इन लोगों को क्या सिखाया जाता है कि ये राजनीतिक दलों की नफरती सोच का झंडा-डंडा लेकर चलने लगते हैं। मध्यप्रदेश में हाईकोर्ट को यह कहना पड़ता है कि पुलिस थानों में किसी धर्म के उपासना स्थल बनाना गलत है, और अदालत के कहे बिना सरकार के अफसरों को इसमें कुछ भी अटपटा नहीं लगता। इसी तरह जब किसी आदिवासी के चेहरे पर पेशाब की जाती है, तो अफसर सत्तारूढ़ पार्टी की इस पेशाब को बचाने में लग जाते हैं, उसकी धार को सहलाने लगते हैं कि कहीं सत्ता की भावनाओं को चोट न लग जाए। अफसरों में सामाजिक न्याय की इतनी कमजोर समझ उन्हें बर्खास्त कर देने लायक रहनी चाहिए, लेकिन आज की भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में अधिकतर लोगों को तो इसमें कुछ अटपटा भी नहीं लगता।
देश के एक प्रमुख और चर्चित आईएएस अफसर ने यूपीएससी के इम्तिहान में बैठने के पहले दो बरस तक गांधी शांति प्रतिष्ठान में काम किया था, और गांवों की जिंदगी को, सामाजिक हकीकत को करीब से देखा था। उनका कहना था कि एक संपन्न परिवार से आकर सीधे कलेक्टरी तक पहुंच जाने पर उन्हें गांव की जमीनी हकीकत से वाकिफ होने का मौका ही नहीं मिलता, और उनकी सोच विकसित नहीं हो पाती। लेकिन ऐसे कितने लोग हैं जो कि सरकारी नौकरी में आने के बाद सत्तारूढ़ सोच की चापलूसी से परे सामाजिक न्याय की बात भी सोचते हों? अपनी कमाऊ, या ताकतवर कुर्सी की फिक्र में वे जिस तरह सत्ता को नापसंद कमजोर तबकों को भी कुचलने के लिए एक पैर पर खड़े रहते हैं, वह देखना एक भयानक नजारा रहता है। सच तो यह है कि ऐसे समझौतापरस्त और आत्मजीवी, भ्रष्ट और संवेदनाशून्य अफसर अगर न रहें, तो सत्तारूढ़ नेता, पार्टी, या गठबंधन मनमानी कर ही न सकें। नेता की मर्जी को भांपकर जो अफसर बुलडोजर लेकर बेकसूर, मासूम, की तरफ दौड़ पड़ते हैं, उन्हीं अफसरों की वजह से यह सिलसिला चल पाता है।
तमिलनाडु के जिस आईएएस अफसर के इस अमानवीय बयान से आज की यह बात लिखना शुरू हुआ है, उसकी सोच को देखें, शायद उसकी शौच इसके मुकाबले कम बदबूदार होगी। ऐसे व्यक्ति को बंद कमरे के किसी ऐसे काम में ही लगाना चाहिए, जहां जिंदा इंसानों से उसका कोई वास्ता ही न पड़ता हो। उसे जमीनों के नक्शे, या सरकारी रिकॉर्ड रूम जैसी कोई जिम्मेदारी देकर किसी खस्ताहाल दफ्तर के पीछे के कमरे में अगले कई बरस रखना चाहिए, और मनोवैज्ञानिक परामर्शदाता के पास उसे उसकी तनख्वाह के पैसों से ही भेजना चाहिए। फिर जब मनोचिकित्सकों का बोर्ड यह प्रमाणित करे कि उसमें इंसानियत लौट आई है, तब उसे बच्चों और महिलाओं से दूर के किसी विभाग में रखना चाहिए।
मेरा ख्याल है कि अदालत के जज हों, या कि अफसर, या कि किसी विभाग को संभालने वाले मंत्री हों, उनके विभाग से जुड़े हुए इंसानों, दूसरे प्राणियों, और कुदरत के खिलाफ अगर उनके मन में कोई पूर्वाग्रह है, तो उन्हें वैसा कोई जिम्मा दिया ही नहीं जाना चाहिए, वरना उसके खिलाफ जनहित याचिका लेकर अदालत जाना चाहिए। अब पल भर को सोचें कि डोनल्ड ट्रम्प अगर हिन्दुस्तान का नेता, या अफसर होता, तो जिस तरह से वह पर्यावरण बचाने की कोशिशों को दुनिया का सबसे बड़ा ग्रीन-फ्रॉड कहता है, क्या उसे पर्यावरण मंत्री या सचिव बनाना जायज रहता? जो नेता, अफसर महिलाओं के खिलाफ गंदी जुबान में बात करते हैं, क्या उन्हें कभी भी महिलाओं से जुड़े हुए मामलों का मंत्री, सचिव बनाना जायज होगा? सरकारी अधिकारी या जज लोकतंत्र पर स्थाई बोझ रहते हैं, इसलिए उनकी नौकरी बात-बात पर खत्म तो नहीं की जा सकती, लेकिन इतना तो किया ही जा सकता है कि उनकी चरित्रावली में यह लिख दिया जाए कि वे किस तरह के काम करने के लायक नहीं हैं। निर्वाचित नेताओं को मंत्री या किसी आयोग का मुखिया बनाते समय भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उनके पूर्वाग्रह ऐसे विभागों की जिम्मेदारियों के खिलाफ तो नहीं हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका ने यूएस-एड नाम का एक बहुत बड़ा फंड ऐसा है जिससे पूरी दुनिया के देशों में कई तरह के कामों के लिए मदद दी जाती थी। कई देशों में एड्स की जांच, और उसके इलाज का काम इसी से हो रहा था, और ट्रम्प सरकार ने आते ही अपने प्रमुख सलाहकार-सहयोगी एलन मस्क की सलाह पर यूएस-एड को खत्म ही कर दिया है, नतीजा यह निकला है कि अफ्रीका के कई देशों में मरीजों को दवाई की अगली खुराक भी नहीं मिल पाएगी। लेकिन इससे परे इस फंड से दुनिया के कई देशों में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए आर्थिक मदद की जाती थी, जो कि अमरीकी सरकार का एक अंतरराष्ट्रीय सरोकार भी बताया जाता है। जब कोई सरकार संपन्न रहती है, तो उससे यह उम्मीद की जाती है कि वह दुनिया में धार्मिक स्वतंत्रता, न्याय, लोकतंत्र, मानवाधिकार, महिला अधिकार जैसे बहुत से मूल्यों को आगे बढ़ाने का काम भी करे। अमरीका अपनी वैश्विक जिम्मेदारी के तहत यह सब काम करते आया है, और वहां राष्ट्रपति रिपब्लिकन रहें, या डेमोक्रेट, यह सिलसिला कभी बंद नहीं हुआ। लेकिन अब ट्रम्प और मस्क की यह जोड़ी, ट्रम्पस्क यह तय कर चुकी है कि अमरीका का एक डॉलर भी फिजूलखर्च नहीं किया जाएगा, और तमाम वैश्विक सरोकारों को फिजूलखर्ची करार देकर उसकी जांच करने की घोषणा भी की गई है। इस बीच ट्रम्प की कही इस बात की भी जांच हो रही है कि पिछले राष्ट्रपति जो बाइडन की सरकार ने भारत में मतदाता-जागरण के लिए पौने दो सौ करोड़ रूपए से ज्यादा की रकम भेजी थी। अब इंडियन एक्सप्रेस ने एक जांच करके यह बताया है कि यह रकम भारत नहीं आई थी, और इसे बांग्लादेश भेजा गया था ताकि वहां की सरकार को पलटा जा सके। जहां तक ट्रम्पस्क की कही हुई बात है, उसका सच से अनिवार्य रूप से कोई रिश्ता हो यह जरूरी नहीं है। अभी मीडिया के कैमरों के सामने ही एलन मस्क ने यह बताए जाने पर कि उन्होंने बिल्कुल ही गलत और झूठी जानकारी दी थी, यह कहा कि यह जरूरी नहीं है कि उनकी कही हर जानकारी सही हो। खुद राष्ट्रपति ट्रम्प की कही बातों में से अनगिनत बातों को अमरीकी मीडिया उजागर करते रहा है कि उनमें से कौन-कौन सी बात झूठी थी। लेकिन ट्रम्प ने कल फिर यह बात दोहराई है कि अमरीका से 21 मिलियन डॉलर भारत भेजे गए और उन्होंने मोदी का नाम लेते हुए यह कहा कि मेरे दोस्त प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भारत को 21 मिलियन डॉलर भेजे गए ताकि अधिक मतदान करवाया जा सके। ट्रम्प यह बयान ऐसे हिसाब-किताब का एक पन्ना देखते हुए कैमरों के सामने दे रहे थे, और उन्होंने भारत में अब तक चल रही बहस को एक नया मोड़ दे दिया है जब उन्होंने यूएस-एड के ऐसे अनुदान के साथ मोदी का नाम जोड़ दिया। अब आदतन, पेशेवारना अंदाज में झूठ बोलने वाले ट्रम्पस्क के कोई क्या पूछ सकते हैं कि उनके बयान में सच क्या है?
फिर भी हम इस पर नहीं जा रहे कि यूएस-एड से भारत में कोई पैसा आया या नहीं आया, और आया तो किस संस्था के पास किस काम से आया। यह बात तो जाहिर है कि भारत जांच एजेंसियों के मजबूत ढांचे वाला एक देश है, और विदेशी दान-अनुदान पाने वाली हर संस्था अपने एक-एक रूपए के हिसाब के लिए भारत की कई जांच एजेंसियों के प्रति जवाबदेह रहती है। ऐसे में 182 करोड़ रूपए छोटी रकम नहीं होती जिसका हिसाब केन्द्र सरकार मांग न सके। इसी तरह का एक पूरा मंत्रालय ही ब्रिटिश सरकार में है जो कि दूसरे देशों में मदद का काम देखता है। खुद भारत सरकार दुनिया के कई देशों की अलग-अलग मदद करती है। भारत में केन्द्र और राज्य सरकारें, इन दोनों की ही बहुत सी एजेंसियां हैं, जो कि विदेशी दान पाने के लिए मिला हुआ रजिस्ट्रेशन खत्म करने लायक तथ्य सामने रखती हैं। और अमरीकी सरकार घोषित रूप से दुनिया के दूसरे देशों के कई किस्म के घरेलू मामलों पर अपने विचार सार्वजनिक रूप से रखते आई है जिनमें भारत में धार्मिक स्वतंत्रता में कथित कमी भी एक मुद्दा रहा है।
अमरीका जितना संपन्न और ताकतवर देश जिस तरह एक पल में दुनिया के सरोकारों से हाथ खींच बैठा है, वह मरीजों के नीचे से एकदम से पलंग खींच देने जैसा है। जरूरतमंद देशों के बहुत सारे काम अमरीकी मदद से ही होते थे, और अब खुद अमरीका के भीतर मदद के अधिकतर कामों को खत्म कर दिया गया है। एक-दो राज्यों की अदालतों ने ऐसे मनमाने फैसले के कुछ पहलुओं पर कुछ वक्त के लिए रोक लगाई है, और वहां पर यह बहस भी चल रही है कि क्या ट्रम्प के फैसले अमरीकी संविधान के खिलाफ हैं, और क्या इन फैसलों को अमरीकी अदालतें रोक भी सकती हैं? ऐसे माहौल में दुनिया की बहुत सी जरूरतें एकदम से अनाथ हो गई हैं, और विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर पेरिस जलवायु समझौते तक, और यूएस-एड तक, नए अमरीकी राष्ट्रपति ने एक सरोकारविहीन कारोबारी के जल्लादी रवैये से अपनी हर मानवीय और सामाजिक जिम्मेदारी खत्म कर ली है। सच तो यह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्थाओं से लेकर जलवायु परिवर्तन से जूझने, मानवाधिकार बचाने, लोकतंत्र मजबूत करने जैसे बहुत से काम करने वाली संस्थाएं अब जिंदगी खो बैठी हैं। किसी ने कल्पना नहीं की थी कि कोई अमरीकी राष्ट्रपति इस तरह मनमानी कर सकता है, और जरूरतमंदों को बेसहारा छोड़ सकता है।
दिक्कत यह भी है कि ट्रम्पस्क नाम की यह जोड़ी दौलत की ताकत, और कारोबारी-मनमानी से इतनी लैस है कि इसके सामने बाकी सबकी बोलती बंद है। कोई भी देश मुंह नहीं खोल सकते, खुद अमरीका के भीतर न सिर्फ विपक्ष की बोलती बंद है, बल्कि ट्रम्प की रिपब्लिकन पार्टी ने भी होंठ सिल रखे हैं, और एलन मस्क एक संविधानेत्तर सत्ता की तरह बर्ताव कर रहा है। दूसरे देशों के घरेलू मामलों में टांग अड़ाने वाले, और अंडरवल्र्ड के अंदाज में जुल्मनुमा फतवे देने वाले ट्रम्प और मस्क बुलडोजर की तरह अमरीकी लोकतंत्र और इंसानियत दोनों को कुचले चले जा रहे हैं, और दुनिया को बस यही सोचने का हक रह गया है कि इस जोड़ी को चार बरस पूरे करने में कितना वक्त रह गया है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अभी कुल एक महीना गुजरा है, और तीन साल ग्यारह महीने और गुजरते हुए हो सकता है कि यह दुनिया ही गुजर जाए। इस जोड़ी के रहते हुए अगर सब कुछ खत्म हो जाएगा, तो भी हैरानी की बात नहीं है।
दुनिया में अच्छी खबरें भी कम नहीं रहती हैं, लेकिन उनमें से चर्चा में वे ही खबरें आती हैं जिनमें बहुत सी नाटकीयता होती है, किसी फिल्म किस्म की कहानी रहती है, या जो बिल्कुल ही अविश्वसनीय दर्जे की रहती हैं। रोजाना की जिंदगी की छोटी-छोटी बुरी खबरें भी सतह पर तैरते दिखती हैं, लेकिन अच्छी खबरों का बहुत अधिक अच्छा रहना जरूरी रहता है। ऐसी ही एक अच्छी कहानी अभी योरप और अमरीका के बीच सामने आई है।
नीदरलैंड्स में रह रही एद्री पैंडलटन का अपने साथी से रिश्ता टूटा था, और उसे इसके बाद अपने बूढ़े पालतू कुत्ते को लेकर अमरीका के कैलिफोर्निया अपने घर लौटना था। उसने बहुत सी एयरलाईंस को देखा, लेकिन वे कुत्तों को पार्सल की तरह ढोती थीं, और अपने बूढ़े कुत्ते को एद्री उस तरह ले जाना नहीं चाहती थी। ऐसे में उसने लोगों से सलाह और मदद के लिए एक वीडियो बनाकर टिकटॉक पर डाला। उसमें कुत्ते का जिक्र था, फ्लाईट का जिक्र था, तो टिकटॉक पर मौजूद एक जर्मन पायलट, निकलस ने उसे देखा, और उसका जवाब लिखा। कुत्ते को लेकर कैलिफोर्निया जाने की बात तो शुरू हुई लेकिन वह जल्द ही इन दोनों के बीच दोस्ती में बदल गई, ऑनलाईन वीडियोकॉल बात होने लगीं, दोस्ती मोहब्बत में बदल गई, और दोनों ने शादी कर ली। अब कैलिफोर्निया जाना रह गया, और दोनों स्विटजरलैंड में बस गए हैं।
इस किस्म की बहुत सी दिलचस्प और सकारात्मक कहानियां जो असल जिंदगी से निकलीं असली भी हैं, वे बीच-बीच में सामने आती हैं, लेकिन बुरी और नकारात्मक खबरों के सैलाब के बीच वे किनारे बह जाती हैं। अभी कुछ ही दिन पहले भारत में सकारात्मक खबरों की एक वेबसाइट, बेटरइंडिया में एक कहानी आई कि किस तरह केरल में अपने घर में काली मिर्च तोड़ते हुए एक बुजुर्ग कुएं में गिर गया। 64 बरस के रमेशन को बचाने के लिए 56 बरस की उसकी पत्नी पद्मा रस्से से 40 फीट गहरे कुएं में तुरंत उतरी, और 20 मिनट बाद फायरब्रिगेड के पहुंचने तक उसने पति को पानी में उठाकर रखा था कि वह डूब न जाए। बाद में जाल डालकर इन्हें निकाला गया।
लोगों को चाहिए कि अपने बच्चों, परिवार के लोगों, और आसपास के दायरे में जिंदगी के प्रति एक सकारात्मक आस्था पैदा करने वाली ऐसी सच्ची घटनाओं को आगे बढ़ाएं, उन पर चर्चा करें। स्कूलों को भी चाहिए कि वे बच्चों का उत्साह बढ़ाएं कि वे बड़ों से पूछकर या कहीं ढूंढकर सकारात्मक खबरों की कतरनें लेकर आएं, और फिर उनमें से चुनिंदा कतरनों को स्कूल में बाकी लोगों के पढऩे के लिए किसी नोटिस बोर्ड पर लगाया जाए। इन दिनों सोशल मीडिया की मेहरबानी से यह आसान हो गया है कि लोग अपनी पसंद की बातों को, तस्वीर या वीडियो को भी मुफ्त में बहुत से लोगों तक पहुंचा सकते हैं, और जिंदगी और दुनिया के प्रति जमी हुई निराशा दूर हो सकती है।
मीडिया के अपने मिजाज के मुताबिक नकारात्मक खबरें अधिक जगह पाती हैं, और अधिक चर्चा में रहती हैं। लेकिन मुख्यधारा के मीडिया से परे सकारात्मक खबरों के अपने पेज और ग्रुप बने हुए हैं, बनते और बढ़ते भी जा रहे हैं, जिन्हें बड़ी संख्या में लोग देखते हैं। हमें भी कुत्ते और पायलट वाली यह खबर बीबीसी के एक साप्ताहिक पॉडकास्ट, हैप्पीपॉड पर सुनने मिली, और फिर मामूली सी तलाश पर इंटरनेट पर इनकी और जानकारी भी मिल गई।
आज तमाम लोगों को यह दिक्कत रहती है कि उनके बच्चे इंटरनेट और सोशल मीडिया का क्या इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें खबर नहीं रहती। ऐसे में लोगों को चाहिए कि सकारात्मक खबरों की जांच-पड़ताल करने के बाद उनके सही निकलने पर उनके लिंक अपने आसपास के लोगों को बढ़ाएं ताकि उनका देखना-पढऩा, सोचना, और आसपास बात करना सब कुछ में सकारात्मकता बढ़े।
अभी मैंने दो दिन पहले ही हमारे यूट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल के लिए छत्तीसगढ़ के एक आदिवासी पद्मश्री काष्ठशिल्पी और समाजसेवी अजय मंडावी से बातचीत की। वे बस्तर के कांकेर के पास दो गांवों में वहां के स्कूली बच्चों के साथ एक नया अभियान चला रहे हैं। जिन स्कूली बच्चों के घर पर कोई पेड़ लगाने की जगह है, वहां पर वे ऐसे बच्चे छांटकर स्कूल शिक्षक-शिक्षिका के साथ उनके घर जाते हैं, वहां पौधा लगाते हैं, और उन बच्चों को दस रूपए महीने देते हैं कि उन्हें पौधे का रखरखाव करना है। वे तीन बरस तक बच्चों को यह पैसा देने वाले हैं ताकि पौधा मजबूत हो जाए।
इस बातचीत में अजय मंडावी ने बताया कि ऐसे 45 बच्चों में से एक बच्चा टीचर के पास दस रूपए लेकर आया, और कहा कि पैसा वापिस ले लो, मेरा पौधा मर गया है। अब पौधा जिस किसी वजह से मर गया हो, बहुत मामूली कपड़ों में उस गरीब आदिवासी स्कूली बच्चे को यह जिम्मेदारी सूझ रही थी कि वह पैसा लौटाए क्योंकि अब पौधा ही नहीं रह गया है। एक गरीब बच्चे की यह नैतिकता और ईमानदारी, और उसकी जिम्मेदारी की भावना हिलाकर रख देती है, और अगर इसी एक सच्ची घटना को बाकी बच्चों के सामने रखा जाए, तो हो सकता है कि उनमें से बहुत से बच्चे भी किसी दुविधा में फंसने पर एक सही नैतिक फैसला ले सकें जो कि उनके तात्कालिक फायदे से परे का होगा, और समाज के सामने एक अच्छी मिसाल भी रहेगा।
अजय मंडावी अपने जेब के पैसों से अब तक 45 बच्चों को पौधा-परवरिश भत्ता दे रहे हैं, और अपनी क्षमता रहने तक इसे आगे भी बढ़ाने वाले हैं। अब नेक नीयत से उनके शुरू किए गए इस काम का भी शायद यह असर पड़ा होगा कि उनसे 10 रूपए पाने वाला बच्चा भी पौधा मर जाने पर रकम लौटाने आ गया। लोगों को असल जिंदगी की सच्ची कहानियां देखकर दूसरों तक बढ़ाना चाहिए ताकि यह समझ पड़े कि दुनिया में सिर्फ बलात्कारी और हत्यारे ही नहीं भरे हुए हैं, सिर्फ चोर और बेईमान ही नहीं भरे हुए हैं।
दुनिया में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की सबसे बड़ी चर्चा ओपनएआई नाम की कंपनी के बनाए हुए चैटजीपीटी से शुरू हुई, और लोगों को लगा कि यह एक चमत्कार सा हो गया है, और करिश्मे की तरह का यह एआई एप्लीकेशन पूरी दुनिया बदलकर रख देगा। उसने दुनिया बदलना शुरू भी कर दिया क्योंकि विश्वविद्यालयों से लेकर अलग-अलग मंचों तक कुछ भी तैयार करने के लिए चैटजीपीटी का इस्तेमाल होने लगा, और अमरीकी पूंजी बाजार ने सबसे अधिक रफ्तार से सबसे बड़ी रकम आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के विकास से जुड़ी कंपनियों पर लगाई। दूसरी तरफ लोगों को याद होगा कि दुनिया के कई जानकार लोगों ने यह खुली मांग की कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का अंधाधुंध विकास रोका जाए क्योंकि यह कब बेकाबू हो जाएगा, और इंसानों की पकड़ के बाहर हो जाएगा, यह भी तय नहीं है।
लेकिन इस बीच ओपनएआई कंपनी के मुखिया सैम एल्टमैन और उनसे जुड़ी कुछ दूसरी कंपनियां खूब चर्चा में रहीं, उन्हें ओपनएआई के मुखिया पद से कुछ महीनों के लिए हटा भी दिया गया, और उसके बाद उन्हें कंपनी में वापिस भी रख लिया गया। लेकिन वह सब एक अलग कहानी है जिसमें जाना आज का मकसद नहीं है। लेकिन हम आज आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के एक सबसे बड़े नाम की सोच के एक पहलू पर बात करना चाहते हैं। सैम ने कुछ बरस पहले एक इंटरव्यू में कहा था कि उनका भरोसा है कि एक दिन प्रलय आएगा, और सब कुछ खत्म हो जाएगा। और ऐसे दिन के लिए वे अपने लिए बंदूकों से लेकर दवाओं, गैसमास्क, और पानी तक का इंतजाम करके चलते हैं। उन्होंने किसी इंटरव्यू में भी ये बातें कही थीं। साथ-साथ उन्होंने यह भी कहा था कि प्रलय या तबाही किसी एक जानलेवा सिंथेटिक वायरस से भी आ सकती है, या किसी बेकाबू आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से भी आ सकती है जो इंसानों को तबाह करने पर उतारू हो जाए। उन्होंने तबाही के ऐसे किसी दिन की आशंका में हथियारों, बैटरियों, और सोने के साथ-साथ रेडियोधर्मिता को रोकने की तैयारी में पोटेशियम आयोडाइड का इंतजाम करके भी रखा था।
अब हम आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के दुनिया के इस सबसे बड़े नाम को देखें, और उसकी आशंकाओं को देखें तो समझ पड़ता है कि विज्ञान और टेक्नॉलॉजी की इतनी गहरी समझ रखने वाले व्यक्ति को भी ऐसी प्रलय की आशंका है जो किसी मानव निर्मित वायरस या बेकाबू आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से आ सकती है। हम ऐसे ही कुछ दूसरे लोगों के बारे में जब सोचते हैं, तो लगता है मानव प्रजाति और धरती को लेकर बहुत से लोगों का अलग-अलग सोचना रहता है, और ऐसा सोचने वाले लोग भी हैं कि इंसानों ने धरती को तबाह करके रखा है, और धरती की बाकी तमाम प्रजातियों के हक उन्होंने छीन लिए हैं, वे मौसम से लेकर जलवायु, पर्यावरण, और समूची धरती को तबाह कर रहे हैं। ऐसे लोगों में यह सोचने वाले लोग भी हो सकते हैं कि इंसानों को खत्म करना धरती के लिए एक अधिक लोकतांत्रिक बात होगी जिसमें बाकी प्रजातियों को इंसानों के न रहने पर उनके हक बेहतर तरीके से मिल सकेंगे। ऐसे लोग हो सकता है कि किसी सिंथेटिक वायरस तक पहुंच बना सकें जिससे कि कोरोना से भी कई गुना अधिक तबाही लाई जा सके, यह भी हो सकता है कि ऐसे लोग आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को इंसानों के काबू के बाहर कर सकें, जो कि कुछ उस किस्म का होगा कि किसी अंतरिक्षयान को अंतरिक्ष तक पहुंचाकर उसे किसी भी काबू से बाहर कर दिया जाए। कुछ लोग इसे एक दर्जा ऊपर ले जाकर एआई-आतंकी मॉडल बना सकते हैं, और किसी धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, या सामाजिक विचारधारा के मुताबिक किसी तबके के खिलाफ तबाही लाने का काम कर सकते हैं।
यह एक अलग किस्म का आतंक रहेगा जो कि किसी नस्ल को, किसी देश के या धर्म के लोगों को, या किसी पेशे के लोगों को खत्म करने के काम लाया जा सकता है।
पल भर के लिए किसी अपराधकथा की तरह कल्पना कर देखें कि धरती पर पर्यावरण को सबसे अधिक बर्बाद करने वाले, जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार, अधिक खपत वाले अमरीकियों को नुकसान पहुंचाकर कोई अगर धरती पर खपत घटाने की कल्पना करे, तो अमरीकी जनजीवन को ध्वस्त करके, या अमरीकी अर्थव्यवस्था को चौपट करके, अमरीकियों के खरीदने की ताकत सीमित करके धरती को बचाने की कल्पना भी कोई कर सकते हैं। हम कोई हिंसक तरीके सुझाना नहीं चाहते, लेकिन अनगिनत फिल्मों और उपन्यासों में ऐसी बात कही जा चुकी है कि व्यापक सार्वजनिक तबाही कैसे लाई जा सकती है। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से निबंध लिखने और रिसर्च पेपर तैयार करने, कोई प्रजेटेंशन बनाने की ताकत तो लोगों ने देखी है, लेकिन यही आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस किसी देश के सारे कम्प्यूटर सिस्टम को खत्म करके वहां की अर्थव्यवस्था और रोजाना की जिंदगी को घुटनों पर ला सकता है। जब आतंकियों का मकसद ऐसे किसी एआई से लैस हो जाए, तो वह सैकड़ों किस्म से तबाही ला सकता है।
आज दुनिया में धर्म के नाम पर बहुत से आतंकी संगठन खूनखराबा करते हैं, और ओसामा-बिन-लादेन जैसे आतंकी तो अमरीका की नाक की तरह तनी हुई इमारतों को मिट्टी में मिलाकर एक अभूतपूर्व मिसाल पेश करते हैं। यह समझना चाहिए कि आगे होने वाली नए किस्म की कई घटनाएं आने वाले उस वक्त अभूतपूर्व कहला सकती हैं। अब अगर पर्यावरण-आतंकी किसी देश के बिजलीघरों को, वहां के इंटरनेट को, वहां के सभी किस्म के कम्प्यूटर-रिकॉर्डों को खत्म करने का जरिया निकाल लें, तो वैसी तबाही से कोई देश आसानी से तो उबर नहीं सकता। कुछ लोगों को यह भी लग सकता है कि एक धर्म के लोग पूरी दुनिया में हिंसा कर रहे हैं, और इस धर्म के लोगों के आर्थिक हितों, उनकी रोजी-रोटी, और कमाई को खत्म करने की साजिश एआई से तैयार की जाए, तो वह भी हो सकती है।
मैं तो एक अपराधकथा लेखक की तरह, विज्ञान कथा लेखक की तरह कई किस्म की तबाही लाने वाली ऐसी कल्पनाएं आसानी से कर पा रहा हूं जो कि आतंकियों की कल्पनाओं में और अधिक आसानी से आती होंगी, आ सकती हैं। ऐसे में एआई से जुड़े किसी बड़े व्यक्ति का प्रलय पर भरोसा एक खतरनाक बात हो सकती है, अगर एआई के दिमाग में ही यह धारणा बैठ जाए कि प्रलय तो एक दिन आनी ही है, तो हो सकता है एआई उस प्रलय की गारंटी मानकर कई तरह के काम करने को तैयार हो जाए। एआई के बारे में आज भी लोगों का मानना है कि अगर वह आज भी इंसानी काबू से बाहर हो चुका हो, तो हैरान नहीं होना चाहिए। मुझे लगता है कि आने वाली दुनिया में आतंक का सबसे बड़ा हथियार एआई हो सकता है, किसी और के हाथों में भी, या एआई खुद हथियार की जगह हमलावर भी हो सकता है, एक आतंकी हमलावर, या अधिक बेहतर कहना होगा, सबसे बड़ा आतंकी हमलावर, और हो सकता है कि वह दुनिया का आखिरी आतंकी हमलावर भी साबित हो, क्योंकि लोग परमाणु हथियारों को तबाही का सबसे बड़ा सामान मानते हैं, जबकि बिना मिसाइलों पहुंचने वाले वायरस उनसे अधिक तबाही लाने वाला हथियार साबित हो सकते हैं। देखना यही है कि इंसान एआई का इस्तेमाल करेंगे, या फिर एआई खुद इंसानों का इस्तेमाल करेगा। ऐसा लगता है कि ऐसा दिन आने में विज्ञान कथा लेखकों की कल्पना से अधिक वक्त नहीं लगेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कर्नाटक देश का ऐसा दूसरा राज्य बनने जा रहा है जो कि सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले पर अमल करते हुए किसी लाइलाज मरीज को इज्जत के साथ मरने देने की एक कानूनी व्यवस्था कर रहा है। सबसे पहले केरल ने इसे लागू किया था। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ अरसा पहले यह कहा था कि जिन मरीजों की हालत में कोई सुधार मुमकिन नहीं है, उन्हें और अधिक लंबी तकलीफ देना, और उनके परिवारों पर एक अंतहीन बोझ डालना ठीक नहीं है, और उन्हें कानून और चिकित्सा विज्ञान की मिलीजुली राय से गुजर जाने देने का एक मौका मिलना चाहिए। कैंसर जैसी बीमारियों के बहुत से ऐसे मरीज रहते हैं जिसमें कोई सुधार मुमकिन नहीं है, और वे बिस्तर पर पड़े मौत का इंतजार करते हैं, और उनके परिवार भी खर्च और तकलीफ झेलते हुए देखते हैं कि किस तरह बिना दर्द के वे गुजर जाएं। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों को नियम बनाने कहा था, और कर्नाटक के स्वास्थ्य विभाग ने अदालत के दो बरस पहले के फैसले के मुताबिक खुलासे से नियम तय किए हैं ताकि इस व्यवस्था का बेजा इस्तेमाल न हो सके। इसके लिए विशेषज्ञ डॉक्टरों का एक मेडिकल बोर्ड बनेगा, जो तय करेगा कि क्या मरीज को सचमुच ही अब किसी इलाज से कोई फायदा नहीं होना है। इसे अदालती जुबान में पैसिव यूथेनेसिया (बिना मदद इच्छामृत्यु) कहा गया है। दुनिया के कुछ देशों में एक्टिव यूथेनेसिया की व्यवस्था भी है जिसमें मरीज कानूनी और मेडिकल औपचारिकताएं पूरी करके डॉक्टरी मदद से जान दे सकते हैं, लेकिन भारत की यह व्यवस्था सिर्फ इलाज बंद करके मरने देने का मौका देती है, न कि किसी जानलेवा डॉक्टरी इंजेक्शन से, या किसी और तरीके से मारने का।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस आधार पर आया था कि जिस तरह लोगों को गरिमा के साथ जीने का बुनियादी हक है, वैसे ही उन्हें नौबत आने पर गरिमा के साथ मरने का हक भी मिलना चाहिए। जब तकलीफ हद से बढ़ जाए, इलाज न रह जाए, जब सिर्फ एक साँस लेती देह रह जाए, जब ऐसी देह परिवार पर बोझ बन जाए, तो उसे जिंदा रखने के बजाय इलाज और दवाई बंद करके गुजर जाने देना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में मरीजों के लिए ऐसी वसीयत करने का प्रावधान भी किया है जिसमें वे दो लोगों को मनोनीत कर सकते हैं कि अगर वे खुद अपना इलाज बंद करने का फैसला न ले सकें, तो उनकी तरफ से ये दो लोग मेडिकल औपचारिकताओं के बाद यह फैसला ले सकें कि अब इलाज बंद करके उन्हें चले जाने देना चाहिए।
मुझे कुछ दशक पहले का अपने शहर का एक मामला याद पड़ता है जिसमें एक रिहायशी कॉलोनी के लोगों की शिकायत पर एक महिला को वेश्यावृत्ति के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उसका पति कैंसर मरीज था, और बिस्तर पर पड़े आखिरी वक्त का इंतजार कर रहा था। दो बच्चे थे, और महिला के पास कोई काम भी नहीं था। ऐसे में परिवार को जिंदा रखने के लिए उसके पास अपना बदन बेचने के अलावा और कोई जरिया नहीं था। ऐसी हालत कई परिवारों की हो सकती है जहां कोई लाइलाज मरीज हो, और कमाई का कोई जरिया न हो। कई बीमारियों के मरीज इलाज जारी रहने पर बिना ठीक हुए उसी हालत में बरसों तक पड़े रह सकते हैं, और आर्थिक रूप से, मानसिक रूप से भी उनका परिवार भी हर दिन मरते चलता है। ऐसे में यह भावनात्मक और नैतिक सवाल हर परिवार के सामने रहता है कि क्या किया जाए?
घर के भीतर भी लोग एक-दूसरे से अस्पताल के गलियारे में खड़े हुए यह चर्चा आसानी से नहीं कर पाते कि वहां भर्ती उनके परिजन को वेंटिलेटर पर कब तक रखा जाए? कब ऐसा जीवनरक्षक इलाज हटाकर गरिमापूर्ण तरीके से गुजर जाने का मौका दिया जाए। यह फैसला आसान नहीं रहता है, और ऐसे मरीज के कुछ परिजनों पर इलाज का बोझ रहता है, कुछ उससे मुक्त रहते हैं, और इन सबके हित भी अलग-अलग हो सकते हैं। कुछ को लग सकता है कि कोई चमत्कारिक इलाज शायद निकल आए, या कहीं कोई रिसर्च चल रहा हो जिसके नतीजे काम आ जाएं। दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने गरिमा के साथ मृत्यु के जिस अधिकार की बात की है, परिवार के कुछ लोग भी बिना ऐसे अदालती फैसले के भी ऐसा सोच सकते हैं कि जो जिंदगी भर अपने पैरों पर चले, उन्हें ऐसी असहाय मौत का कितना लंबा इंतजार करवाया जाए।
दक्षिण के इन दो राज्यों के बाद हो सकता है कि कुछ और राज्य भी ऐसी पहल करें, और इसके लिए एक राजनीतिक साहस की भी जरूरत पड़ेगी क्योंकि ऐसा सरकारी फैसला बड़ा अलोकप्रिय हो सकता है। जिन परिवारों ने बीमारी का ऐसा बोझ झेला नहीं है, उन्हें यह अमानवीय लग सकता है। इसलिए यह बात साफ-साफ समझ लेने की जरूरत है कि न तो अदालती फैसला, और न ही केरल और कर्नाटक के शासकीय आदेश मरीज को मरने में मदद कर रहे हैं। वे सिर्फ इलाज को रोककर मरीज को इतनी खराब हालत में बरसों तक और तकलीफ पाने से बचा रहे हैं।
लोगों को याद रखना चाहिए कि जैन धर्म में संथारा नाम की एक ऐसी परंपरा है जिसमें लोग अपनी मर्जी से प्राण त्यागने के लिए खाना-पीना छोड़ देते हैं, और कुछ दिनों या हफ्तों में वे गुजर जाते हैं। यह एक इच्छामृत्यु रहती है, लेकिन यह आत्महत्या किस्म हिंसक नहीं रहती है। यह एक ऐसी प्रथा है जो लोगों को खाना-पीना छोडक़र जान देने का अधिकार देती है, और सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मरीजों को बिना इलाज, या इलाज रोककर गुजर जाने की वैसी ही इजाजत देता है। अदालत और सरकारों ने इस बात का ख्याल रखा है कि ऐसा न हो कि जमीन-जायदाद के चक्कर में परिवार के ही कुछ लोग किसी मरीज को इस तरह रवाना कर दें, इसीलिए विशेषज्ञ डॉक्टरों के मेडिकल बोर्ड का प्रावधान किया गया है ताकि मरणासन्न और लाइलाज लोगों को ही इस दायरे में रखा जा सके।
यह एक समझदारी का फैसला है, और देश के बाकी राज्यों को भी इस पर गौर करना चाहिए। इस पर सार्वजनिक और संसदीय बहस भी होनी चाहिए, ताकि इससे जुड़े हुए कोई पहलू अनछुए हैं, तो वे भी सामने आ सकें, और उन पर भी चर्चा हो सके। फिलहाल इसे लोग निजी रूप से भी सोचने-विचारने का सामान मान सकते हैं, और अपने बारे में सोच सकते हैं कि जिंदा रहते हुए क्या वे ऐसी वसीयत करना चाहेंगे कि लाइलाज या मरणासन्न हो जाने पर इलाज रोककर उन्हें सम्मानजनक तरीके से गुजर जाने देने का फैसला करने वाले कौन दो लोग रहें? इससे कम से कम लोगों में एक वैराग्यभाव तो आएगा, उन्हें यह याद पड़ेगा कि एक दिन उन्हें भी जाना है, और हो सकता है कि ऐसी नौबत में जाना हो जब वे अपने खुद के बारे में कोई फैसला करने की हालत में नहीं रहेंगे। ऐसा अहसास भी लोगों से बाकी चीजों की कानूनी वसीयत करने, या बाकी जिम्मेदारियों को पूरा करने सरीखा काम करवा सकेगा। जब तक आपके प्रदेश की सरकार ऐसा कोई फैसला लागू न करे, तब तक खुद तो सोच ही सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी दो-चार दिन पहले ही एक कॉफी हाऊस में बैठे लोगों में से ठीकठाक कपड़े-जूते पहने एक आदमी के पैर कुछ अटपटे लगे, और फिर ध्यान से देखने पर समझ पड़ा कि उसने दो अलग-अलग किस्म के मोजे पहने हुए थे। लोगों की पोशाक से बहुत कुछ समझ आ जाता है, इसलिए इस आदमी को देखकर यह तो समझ आ ही गया था कि दो किस्म के मोजे किसी मजबूरी में पहने हुए नहीं हैं, बल्कि अपनी मर्जी से पहने हैं। इसे देखकर याद आया कि मैं कई बरस से इस बात की वकालत करते आ रहा हूं कि नामी-गिरामी लोगों को धरती पर सामानों का बोझ बचाने के लिए फैशन के पैमानों के खिलाफ जाकर कपड़े-जूते पहनने चाहिए ताकि उन्हें देखकर अपनी स्टाइल तय करने वाले लोग भी सामानों की गैरजरूरी बर्बादी पर न उतरें।
मर्दों की फैशन तो फिर भी कम बर्बादी की रहती है, लेकिन महिलाओं की फैशन में रंग-रूप, और पोशाक के अलावा दूसरी चीजों को लेकर इतने किस्म से चौकन्नापन रहता है कि उससे सामानों की बड़ी बर्बादी होती है। फिर पोशाकों से परे भी कई किस्म की बर्बादी देखने मिलती है। लोग खाने की मेज पर इस्तेमाल होने वाले डिनर सेट से लेकर घर के पर्दों तक, दीवार के रंगों तक, बहुत सी चीजों पर अपनी ताकत से आगे बढक़र भी खर्च करते हैं। आज फेसबुक पर एक ऐसी तस्वीर देखने मिली जिसमें अलग-अलग तरह की क्रॉकरी से भरा हुआ डायनिंग टेबिल दिख रहा था। जो संपन्न घर रहते हैं वहां कई तरह के डिनर सेट इस्तेमाल होते हैं, और टूटते-फूटते आखिर में ऐसा मिलाजुला टेबिल सज सकता है, लेकिन इसे अभिजात्य या कुलीन पैमानों पर खराब माना जाता है, इसलिए दिखावे के शौकीन लोग ऐसा दुस्साहस नहीं करते।
धरती पर किसी भी सामान को बनाने में ऊर्जा खर्च होती है, और कार्बन का बोझ बढ़ता है। इसलिए पर्यावरण शब्द का चलन होने के पहले से ही गांधी ने सादगी और किफायत की जो सोच सामने रखी थी, वह धरती पर किसी भी तरह का खतरा खड़े होने के पहले धरती को बचाने की पहल थी। गांधी ने वक्त के दशकों पहले से यह सोच-समझ लिया था कि कैसी जीवनशैली धरती को बचा सकेगी। इसके लिए उनका यह समझना भी जरूरी था कि एक दिन बढ़ती हुई खपत, और खपत की अंधी दौड़ के चलते धरती किस तरह बर्बाद होगी। आज जलवायु परिवर्तन को लेकर जितने किस्म की भी बातें होती हैं, अगर दुनिया गांधी सरीखी किफायत जरा सी भी अपना ले, तो जलवायु परिवर्तन थम सकता है, और धीरे-धीरे कम हो सकता है।
हम एक बार फिर आज की जिंदगी की छोटी-छोटी बातों को देखें, तो फैशन को लेकर, घर और गाडिय़ों को लेकर, मोबाइल फोन और लैपटॉप सरीखे उपकरणों को लेने और बदलने को लेकर किफायत सोच सकें, तो जलवायु परिवर्तन की वह मार हल्की हो सकती है जो धरती पर अरबों गरीबों पर सबसे अधिक पड़ रही है। और इंसानों से आगे बढक़र वह पशु-पक्षियों, और प्रकृति को तबाह कर रही है। ऐसे में अगर कोई घर पर दो किस्म के एक-एक बच गए मोजों को एक साथ पहनने का साहस दिखा सकते हैं तो उसकी तारीफ करनी चाहिए। अगर लोग अलग-अलग किस्म की बच गई क्रॉकरी या कप-प्लेट में परोसने का साहस दिखाते हैं, तो उसकी भी तारीफ की जानी चाहिए।
आज दुनिया में बहुत लोगों को यह याद नहीं होगा कि चीन की बहुत बुरी गरीबी के बीच वहां की सरकार ने यह नियम बना दिया था कि औरत-मर्द तमाम लोग एक ही रंग और एक ही किस्म के कपड़े पहनेंगे। एक जैसा माओ कोट पहने हुए हजारों लोग साइकिलों पर एक साथ जाते दिखते थे, और जीवनशैली में ऐसी किफायत लाकर चीन ने अपने लोगों से मेहनत करवाई थी, और चार दशक में गरीबी की रेखा के नीचे की आबादी आधे से भी कम कर ली थी।
आज हालत यह है कि हिन्दुस्तान में गरीब मां-बाप अपने बच्चों को उनकी पसंद का मोबाइल फोन नहीं दिला पा रहे हैं, तो बच्चे खुदकुशी कर ले रहे हैं। अब मां-बाप किस हिम्मत से बच्चों को फिजूलखर्ची के खिलाफ जिम्मेदार बनाने की सोच सकते हैं? लोग कर्ज लेकर भी बच्चों के शौक पूरा करते हैं कि कम से कम वे जिंदा तो रहें, और दूसरी तरफ दुनिया के विकसित देशों में यह बहुत आम बात है कि करोड़पति मां-बाप के औलाद भी अपने स्कूल-कॉलेज के दिनों में ही कहीं कार धोकर, तो कहीं रेस्त्रां में खाना परोसकर अपना खर्च निकालने लगती है। जिम्मेदार मां-बाप अपने बच्चों की जरूरतों को सीमित रखने की समझदारी दिखाते हैं, लेकिन जब पूरा समाज फिजूलखर्ची की शान-शौकत को ही विकास मान लेता है, तो फिर किसी भी तरह की सादगी का चलन मुश्किल होता है।
हमने एक तरफ गांधी की सादगी की चर्चा की है, दूसरी तरफ अमरीका के कुछ सबसे सफल कारोबारियों की बात करें, तो मार्क जुकरबर्ग से लेकर स्टीव जॉब्स तक, और एप्पल के मौजूदा मुखिया टिम कुक से लेकर सत्या नडेला तक बहुत से अरबपति-खरबपति लोगों को मामूली टी-शर्ट पहने भी देखा जा सकता है। मार्क जुकरबर्ग तो एक ही रंग की टी-शर्ट, और एक ही रंग की जींस को यूनिफॉर्म की तरह इस्तेमाल करते हैं।
धरती को बचाने के लिए दाओस जाने, और क्लाइमेट समिट में हिस्सा लेने की जरूरत भी नहीं है, अगर धरती के लोगों के बीच किफायत की सोच बढ़ाई जा सके, और इसके लिए किफायत की फैशन का चलन किया जा सके, तो पर्यावरण परिवर्तन जैसे खतरे टल सकते हैं। यहां लिखी बातें कतरा-कतरा कहानियां हैं, वे बेतरतीब और बेसिलसिलेवार भी लग सकती हैं, लेकिन ये कुल मिलाकर सादगी और किफायत की हिमायती बातें हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज के बच्चों की याद में भी कोरोना बैठा हुआ है जब महीनों तक उन्हें घर से निकलने नहीं मिला था, और उनके स्कूल-कॉलेज बंद थे, दोस्तों से मिलना-जुलना भी बंद था। बड़े लोगों को तो और अधिक याद होगा क्योंकि नशेडिय़ों को दारू-तम्बाकू मिलना बंद हो गया था, मजदूरों से लेकर कारोबारियों तक की मजदूरी-कमाई बंद हो गई थी, और जिंदगी की शक्ल बदल गई थी। अब ऐसे में चीन में एक नए वायरस, एचएमपीवी फैलने की खबर है जो कि खासकर 14 साल से कम के बच्चों को प्रभावित कर रहा है, सर्दी-जुकाम और कोरोना जैसे लक्षण पैदा कर रहा है, और तेजी से फैल रहा है। दुनिया के बाकी देशों ने भी चीन से इसका खतरा उठने और बाहर निकलने पर विचार शुरू कर दिया है, और भारत में भी केन्द्र सरकार के स्तर पर अभी कल ही इस पर एक बैठक हुई है।
कोविड-19 फैलने के वक्त चीन ने बाकी दुनिया के साथ इसकी शुरूआत की जानकारी साझा नहीं की थी, और अभी विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी चीन से समय रहते जानकारी साझा करने की अपील की है। चीन से निकलने वाले कई वीडियो वहां इस वायरस, एचएमपीवी का असर बता रहे हैं, और कुछ जागरूक देश चीन के इस हाल को देखकर अपने देश में लोगों से सफाई बरतने की अपील शुरू कर चुके हैं।
अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी और जानकारी आए, वह तो ठीक है, लेकिन उसके पहले भी किसी भी जिम्मेदार देश और समाज को ऐसे किसी संक्रमण के खतरे के प्रति सावधान रहने की तैयारी शुरू कर देना चाहिए। जो लोग वक्त रहते सावधान हो जाते हैं, उन्हें बाद में दहशत की नौबत कम आती है। हिन्दुस्तान को इस बारे में खासकर सोचना चाहिए क्योंकि कोरोना के दौर में लाखों या दसियों लाख, जितनी भी मौतें हुई हों, उन्होंने यह साबित किया कि भारतीय समाज ऐसे किसी संक्रमण को रोकने लायक नहीं है। सरकारों ने तरह-तरह की कोशिशें की थीं, लेकिन वे भी मौतों को रोक नहीं पाई थीं। और जैसा कि किसी भी संक्रामक रोग के साथ होता है, भारत भी नागरिकों के जागरूक रहने पर लाखों मौतों को टाल सकता था।
हम तो आज चीन से ऐसे नए वायरस के आने के खतरे की आशंका जब देखते हैं, तो यह लगता है कि कोरोना से मिले सबक को ध्यान में रखते हुए हिन्दुस्तानियों को अपनी हाल की तकलीफदेह यादों को ताजा करना चाहिए, और अगला खतरा सिर पर आ जाने के पहले उससे निपटने के लिए एक मिजाज बना लेना चाहिए।
हिन्दुस्तानियों की साफ-सफाई के लिए जो आम हिकारत है, वह संक्रमण से फैलने वाली किसी भी बीमारी को बहुत पसंद आती है। हिन्दुस्तानी लोग हर कुछ मिनटों में सार्वजनिक जगह पर थूककर इस बात की गारंटी कर लेना चाहते हैं कि शासकीय सम्पत्ति, सार्वजनिक सम्पत्ति उनकी अपनी है, और ऐसे नारों वाले पोस्टर झूठे नहीं हैं। यह एक अलग बात है कि ऐसे पोस्टर सार्वजनिक सम्पत्ति और जगहों के जिम्मेदार रख-रखाव के लिए लगाए जाते हैं, लेकिन हिन्दुस्तानी हैं कि वे इनका बेजा इस्तेमाल करके अपना आत्मविश्वास बढ़ाते हैं कि वे ही इसके मालिक हैं।
सडक़ों पर देखें तो जहां कोई गाड़ी कुछ देर खड़ी दिखती है, वहां उसकी खिड़कियों के बाहर सडक़ पर थूक और पीक के राष्ट्रीय निशान दिखते ही दिखते हैं। और तो और चौराहों पर लालबत्तियों पर जहां गाडिय़ों को रूकना रहता है, वहां भी 25-50 सेकेंड रूकने पर लोग अगले चौराहे तक के लिए फारिग हो जाना चाहते हैं, और तुरंत ही सडक़ पर थूकने लगते हैं। गुटखा-तम्बाकू की मेहरबानी से अब लोगों का थूक बेरंग नहीं रहता, बल्कि इनकी वजह से वह खूब सारा भी रहता है, बार-बार भी बनता है, और सडक़ को रंगते भी चलता है। कोरोना के दौर में लोगों को चाहे-अनचाहे मास्क लगाना पड़ता था, और अब जब किसी बड़े संक्रमण का कोई खतरा नहीं है, तो लोग बिजली की रफ्तार से अपनी पुरानी गौरवशाली भारतीय संस्कृति पर लौट आए हैं, और ताम्बूल की कई किस्म की शक्लों का इस्तेमाल करते हुए सडक़ों को रंगने लगे हैं।
सार्वजनिक जगहों से परे भी लोग अपने घर-दफ्तर में, अपनी गाडिय़ों में, खानपान और व्यवहार में परले दर्जे की गंदगी के साथ सुख से जीते रहते हैं। उन्हें किसी साफ-सफाई की अधिक परवाह नहीं रहती, और जिन हाथों से जूतों के तस्में खोलकर वे किसी के घर घुसते हैं, उसी हाथ से उठाकर नाश्ता भी करने लगते हैं, और बचा हुआ नाश्ता अगले मेहमान का रास्ता भी देखने लगता है। हिन्दुस्तानी बुनियादी रूप से गंदगी की जिंदगी जीने के आदी हैं, यह एक अलग बात है कि सुअर को यहां गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है, और लोग सुअर की तरह गंदा जीने को अपनी आजादी मानते हैं, अपना हक मानते हैं।
सफाई से परे की बातें करें, तो कोविड-19 के वक्त का इस देश का तजुर्बा है कि जिन लोगों ने अपनी सेहत ठीक रखी थी, जो खेलकूद, योग-ध्यान, कसरत और सैर से, सेहतमंद खानपान से फिट रहते थे, उन पर कोरोना का असर कुछ कम भी हुआ था, और उन्हें ऑक्सीजन या वेंटिलेटर की जरूरत कम पड़ी थी, या नहीं भी पड़ी थी। लेकिन कोरोना मौतें थमीं, और लोगों का श्मशान वैराग्य खत्म हो गया। उसके बाद सेहतमंद बने रहने के संकल्प फेसमास्क के साथ कचरे की टोकरी में डाल दिए गए, और कसरत-सैर के लिए सुबह का जो वक्त माकूल माना जाता है, उस वक्त लोग लात ताने अखबार पढऩे लगे, और वॉट्सऐप पर नफरत आगे बढ़ाने लगे। नतीजा यह हुआ कि देश में धूमकेतु की तरह जागरूकता की जो चर्चा आई थी, वह धरती पर कहीं गिरते हुए धूमकेतु की तरह खत्म भी हो गई।
दुनिया में किसी वैज्ञानिक साजिश के तहत, या किसी प्राकृतिक उपजे संक्रमण की तरह, जैसे भी कोई बीमारी फैलेगी, एक बार फिर दुनिया के देशों को हड़बड़ी में उससे बचाव की तैयारी करनी पड़ेगी, जो कि जीवनशैली का एक तरीका ही रहना चाहिए। यह सिलसिला ही खतरनाक है कि संक्रमण फैलने पर सावधानी जागे। आज हिन्दुस्तान में गुटखा-तम्बाकू और बीड़ी-सिगरेट से फैलने वाले कैंसर के खिलाफ जनता के बीच जागरूकता के अभियान बहुत कम हैं। कैंसर से खोखला बदन किसी भी किस्म के संक्रमण को कम झेल पाते हैं, इसी तरह डायबिटीज या दूसरी बीमारियां संक्रमण के खतरे को बहुत बढ़ा देती हैं, लेकिन भारत में राष्ट्रीय स्तर पर स्थाई रूप से न तो सफाई की जागरूकता का अभियान चलता, और न ही सेहत की जागरूकता के लिए सालाना जलसों से परे कुछ किया जाता।
आज की हमारी बातचीत खिचड़ी की तरह की कुछ बेस्वाद जरूर लग सकती है, लेकिन बदन के लिए कई बार खिचड़ी ही सबसे बेहतर होती है। आज हमें यह लगता है कि किसी भी संभावित संक्रमण के खिलाफ जागरूकता की सबसे बड़ी तैयारी राष्ट्रीय स्तर पर एक बारहमासी मुहिम की तरह चलना चाहिए, लेकिन उसका कोई ठिकाना नहीं है। अगर पूरा देश एक साथ नहीं जागता है, तो भी कोई प्रदेश इसकी मिसाल कायम कर सकता है, और बीमार पडऩे के बाद, संक्रमित होने के बाद इलाज की नौबत टाली जानी चाहिए। लोगों को साफ-सफाई से लेकर खानपान तक, फिट रहने से लेकर बीमारी के प्रति जागरूकता तक तैयार करने, और तैयार बनाए रखने की जिम्मेदारी हर सरकार को पूरी करनी चाहिए।
इस बरस फिजिक्स का नोबल पुरस्कार पाने वाले, और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के गॉडफॉदर कहे जाने वाले जेफ्री हिंटन की एक नई आशंका लोगों को चौंका, और हड़बड़ा सकती है कि दस-बीस फीसदी ऐसी आशंका है कि अगले तीस बरस में एआई इंसानों को पूरी तरह खत्म कर दे। बीबीसी के एक प्रोग्राम में पूछे गए कई सवालों के जवाब में इस कम्प्यूटर-वैज्ञानिक ने कहा कि इस टेक्नॉलॉजी में बदलाव की रफ्तार उम्मीद से बहुत अधिक है। प्रोफेसर जेफ्री को एआई पर उनके काम के लिए ही नोबल पुरस्कार मिला है, और उनकी बात को हलके में नहीं लिया जा सकता। उनका कहना है कि यह धरती पर पहला मौका है जब इंसान का अपने से अधिक बुद्धिमान से वास्ता पड़ रहा है। उनका कहना है कि इस बात की अब तक भला कौन सी ऐसी मिसाल थी जिसमें कम समझदार लोग अधिक समझदार से काम लेते हों, उस पर काबू रखते हों? उन्होंने कहा कि बहुत अधिक ताकत रखने वाले एआई के सामने इंसानों की हालत घुटनों पर चलने वाले बच्चों सरीखी रहेगी। उन्होंने कहा कि इंसानों को अपने आपको तीन बरस उम्र का मान लेना चाहिए, एआई के सामने उनका यही हाल रहेगा। पिछले बरस प्रोफेसर जेफ्री ने गूगल में अपना काम छोड़ दिया था ताकि वे एआई के बेकाबू विकास के खतरों के बारे में खुलकर बोल सकें, और यह बता सकें कि किस तरह बुरे हाथों में पडक़र यह टेक्नॉलॉजी तबाही ला सकती है। उन्होंने इस बात को मंजूर किया है कि जब उन्होंने एआई पर काम शुरू किया था तब उन्हें यह अंदाज नहीं था कि वह बढक़र यहां तक पहुंच जाएगी।
एआई के जनक कहे जाने वाले वैज्ञानिक की ये आशंकाएं बेबुनियाद नहीं हैं। कुछ अरसा पहले दुनिया के हजार से अधिक वैज्ञानिकों और टेक्नॉलॉजी-विशेषज्ञों ने एक सार्वजनिक अपील की थी कि एआई के विकास पर रोक लगाई जाए, वरना वह बेकाबू होकर तबाही का हथियार बन सकता है। लोगों को याद होगा कि बरसों पहले इंसान के क्लोन बनाने को लेकर भी ऐसी अपील हुई थी, और दुनिया भर की सरकारों ने मानव-क्लोन पर रोक लगा दी थी। अभी भी यह आशंका है कि दुनिया के लोकतांत्रिक ढांचे से बाहर रहने वाले कुछ बेकाबू देश ऐसा कर भी रहे हों। और बंद कमरों में या अस्पतालों में होने वाले प्रयोगों को बाहर की दुनिया न पूरी तरह जान पाती, और न उन्हें रोक पाती। इसलिए आज मानव-क्लोनिंग जैसी तकनीक से लेकर एआई तकनीक तक कहां पहुंची हुई हैं, इसका अंदाज लगाना बड़ा मुश्किल है। लोगों ने अभी कुछ अरसा पहले तक पेगासस जैसे फौजी-खुफिया-घुसपैठिया सॉफ्टवेयर के बारे में सोचा नहीं था कि ऐसा कोई सॉफ्टवेयर किसी के फोन में घुसकर उसे पूरी तरह काबू में कर सकता है। इसलिए विज्ञान हमेशा ही कल्पना की रफ्तार के साथ मुकाबला करते रहता है।
एआई को लेकर आज वैज्ञानिकों और टेक्नॉलॉजी-विशेषज्ञों की आशंकाओं से परे मेरी एक अलग आशंका है कि दुनिया में शोषण से असहमति रखने वाले लोग एआई को सामाजिक न्याय की उनकी सोच पूरी करने के लिए एक हथियार की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं। अभी तक एआई पर हुई चर्चा में एआई-टेररिज्म पर खबरें तो सामने नहीं आई हैं, लेकिन आज जिस तरह दुनिया के कई देशों में, और कई देशों की सरहदों के पार भी जिस तरह गुरिल्ला कार्रवाई चलती रहती है, जिस तरह अमरीका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर के टॉवरों पर विमानों से हमले किए गए थे, उस तरह के अकल्पनीय हमलों के लिए भी कोई आतंकी समूह एआई का असाधारण और जानलेवा इस्तेमाल कर सकते हैं।
मुझे इस बारे में अपनी थोड़ी-बहुत कल्पना लिखने में कोई हिचक नहीं हो रही है, कि इससे किसी विद्रोही या आतंकी समूह को कोई राह सूझेगी। जो समर्पित और आत्मघाती बागी होते हैं, उनकी कल्पनाओं का आसमान अधिक बड़ा होता है। ऐसे में लगता है कि सिर्फ आतंकी ही नहीं, धरती को बचाने की नीयत रखने वाले कुछ ऐसे पर्यावरणवादी बागी भी हो सकते हैं जो कि कुछ तबकों को खत्म करके बाकी धरती को बचाने, और एक सामाजिक न्याय लाने की सोच सकें। मिसाल के लिए कुछ लोगों को लग सकता है कि दुनिया के जो लोग अंधाधुंध हवाई-ईंधन खपत करते हैं, अंधाधुंध बिजली का इस्तेमाल करते हैं, जिनकी निजी जीवनशैली धरती पर बहुत बड़ा कार्बन फुटप्रिंट छोड़ रही है, ऐसे लोगों को हटा देने से धरती के बचने की संभावना बढ़ सकती है। कोई दूसरा समूह गैरजरूरी सामानों से धरती पर बढऩे वाले बोझ को कम करने के लिए उन्हें बनाने वाले कारखानों को निशाना बना सकता है। और अब इस तरह के किसी भी हमले के लिए हथियारों की जरूरत नहीं पडऩे वाली है। कम्प्यूटरों से ही ऐसे सभी हमले हो सकेंगे जिनके लिए एआई निशाने छांटेगा, और हमले के तरीके तय करेगा। धरती पर जंगल बचाने में दिलचस्पी रखने वाले कोई संगठन लकड़ी की खपत वाले कारखानों को ठप्प कर सकेंगे, ऐसे फर्नीचर के कारोबार खत्म कर सकेंगे। कोई और समूह प्रति व्यक्ति बिजली की सबसे अधिक खपत करने वाले लोगों की शिनाख्त करके उनके घर-दफ्तर के सामानों को ठप्प कर सकेगा। अब मान लें कि एक-एक परिवार के लिए चलने वाले बड़े-बड़े स्वीमिंग पूल ठप्प कर दिए जाएं ताकि पानी और बिजली दोनों बच सकें, तो क्या इससे धरती का कुछ औसत भला हो सकेगा?
ऐसा लगता है कि इंसान से अधिक समझदार होने के बाद एआई खुद भी ऐसे फैसले ले सके कि धरती के पर्यावरण को बचाने के लिए कौन से जहरीले सामानों को बनाना ठप्प किया जाए, किस तरह सबसे संपन्न और पूंजीवादी देशों में खपत को घटाया जाए, और फिर साइबर-हमलों से कैसे ऐसे कारोबार और उनकी खपत खत्म की जाए। एआई में जिस दिन कम्प्यूटरी-समझ से परे सरोकार भी आ जाएगा, और मानव सभ्यता को, धरती को बचाने के लिए, सबसे गरीबों को एक न्यूनतम हक दिलवाने के लिए, सामाजिक न्याय लाने के लिए जिस दिन एआई अपने फैसले लेने लगेगा, उस दिन इंसान उसे रोक भी नहीं पाएगा। आज यह बात किसी विज्ञान कथा की तरह लग सकती है, लेकिन यह बहुत दूर की बात भी नहीं है। आने वाले कुछ बरसों के भीतर ही यह नजारा देखने मिल सकता है कि दुनिया के सबसे बड़े शोषक शासकों, कारोबारियों, और समूहों के खिलाफ एआई खुद ही फैसले ले, खुद ही हमला तय करे, और खुद ही इन तबकों की ताकतों को खत्म कर दे।
एआई के साथ अगर सरोकार जुड़ जाएंगे, तो ऐसा नहीं लगता कि वह मानव सभ्यता को खत्म कर दे। लेकिन अगर एआई बिना किसी सरोकार के अगर बेहद और बेकाबू ताकत वाला हथियार बनकर किसी सरकार, कारोबार, या मुजरिम के हाथ लग जाए, तो फिर उनके गैंगवॉर में मानव सभ्यता उसी तरह खत्म हो सकती है जिस तरह कि आज परमाणु तृतीय विश्वयुद्ध हो जाने पर हो सकती है। मेरी कल्पना यह है कि एआई कुछ बुनियादी सरोकारों से बाहर नहीं जाएगी, और अगर कुछ दूसरे लोग सरोकार-विहीन एआई को हथियार की तरह विकसित करने में कामयाब हो जाएंगे, तो हो सकता है कि सरोकारसंपन्न एआई ऐसे हथियारी एआई को भी पहले निपटा दे।
आज की यह कल्पना किसी विज्ञान कथा और अपराध कथा के प्लॉट के लायक है, लेकिन लोगों को एआई के ऐसे खतरों को भी याद रखना चाहिए। दूसरी तरफ एआई से धरती पर बीमारियों की शिनाख्त, इलाज, दवाओं और टीकों के विकास, और पर्यावरण को बचाने जैसी जरूरतों में असीमित योगदान की संभावनाएं भी एकदम सामने दिख रही हैं। एआई नायक और खलनायक, दोनों ही किस्म के किरदारों में एक साथ आते दिख रहा है, और सरोकारसंपन्न एआई को ध्यान में रखकर इस वाक्य में नायिका और खलनायिका को जोड़ देना भी सही होगा, वरना हो सकता है कि एआई असमानता की भाषा को दुनिया के कम्प्यूटरों से मिटाने का काम भी करने लगे।