संपादकीय
अमरीका के वॉशिन्गटन में दो दिन पहले एक अफगान नागरिक ने जिस तरह वहां के दो सैनिकों को गोली मार दी, उससे अमरीका में बाहर से आकर शरण पाए हुए, या कामकाज कर रहे लोगों पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है। राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप वैसे भी आप्रवासियों के खासे विरोधी रहते आए हैं, और अब उन्हें अपने को नापसंद देशों पर और अधिक कड़े प्रतिबंध लगाने का एक अभूतपूर्व मौका मिला है। किसी भी देश को अपनी हिफाजत की कीमत पर दूसरे देशों के लोगों को जगह देने की कोई मजबूरी तो रहती नहीं है। ट्रंप ने अपनी चुनावी घोषणाओं के वक्त से ही जिन देशों के नागरिकों पर रोक लगाने की बात कही थी, उन्हीं देशों के लोग अगर अमरीका में सैनिकों को मार डालने जैसी हरकत करेंगे, तो उसका नुकसान अमरीका की जमीन पर ठहरे हुए उनके दूसरे देशवासियों को, उनके धर्म के लोगों को झेलना पड़ेगा। आज एक अफगान की वजह से अमरीका में सारे अफगानों की दाखिला अजऱ्ी पर रोक लग गई है।
जब किसी मुस्लिम या अफ्रीकी देश से योरप पहुंचे हुए शरणार्थियों में से कोई हिंसा करते हैं, तो उसका नुकसान बाकी सारे ही मुस्लिम लोगों को झेलना पड़ता है। योरप में एक-एक करके कई देशों में ऐसे ही शरणार्थियों की वजह से राजनीतिक उथल-पुथल हुई है, और कुछ जगहों पर कट्टरपंथी पार्टियों को अभूतपूर्व जनसमर्थन भी मिला है। जब एक बार कट्टरपंथी पार्टियां सत्ता पर भागीदार बन जाती हैं, तो फिर उन देशों में दूसरे देशों से आए हुए लोगों पर रोक-टोक और भी बढ़ जाती है। इसलिए जिस देश या जिस धर्म के लोगों को दूसरी जगह जगह चाहिए, उन्हें अधिक सावधान रहना होता है क्योंकि उन जगहों के मूलनिवासी अगर बागी हो जाते हैं, तो फिर उनमें से किसी को भी उस जमीन पर जगह नहीं मिलती। भारत की ही बात करें, तो आज यहां पर बांग्लादेशी, या म्यांमारी लोगों के आने और बसने का मुद्दा एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा हो चुका है। अब इनमें से अगर कोई भारत की जमीन पर किसी जुर्म में शामिल रहते हैं, तो उसका नुकसान इन देशों से यहां आए हुए दसियों लाख लोगों को उठाना पड़ता है। फिर धीरे-धीरे यह धर्म के आधार पर भी एक चुनावी नारा बनने लगता है, जैसाकि अमरीका और योरप के देशों में वहां की ईसाई-बहुल आबादी के बीच मुस्लिम शरणार्थियों का मुद्दा बना हुआ है।
यह भी समझने की जरूरत है कि सिर्फ विदेशी शरणार्थी होने से स्थानीय लोगों की नाराजगी नहीं हो जाती, नाराजगी के पीछे कामकाज के अवसर घटना भी रहता है, और संस्कृतियों का टकराव भी रहता है। पश्चिम के देशों में जाकर बसे हुए मुस्लिम शरणार्थी जब वहां की स्थानीय लोकतांत्रिक परंपराओं के साथ घुल-मिल नहीं पाते, तब भी एक टकराव खड़ा होता है, और स्थानीय लोग यह पाते हैं कि विदेशी शरणार्थी अपनी खुद की महिलाओं के साथ बुरा सुलूक करते हैं जो कि वे अपने बच्चों की नजरों में आने देना नहीं चाहते। ऑस्ट्रेलिया में अभी दो-चार दिन पहले ही एक दक्षिणपंथी महिला सांसद ने संसद में सनसनी फैला दी जब वे वहां बुरका पहनकर चली गईं। उनकी अपनी पोशाक के मुताबिक उनकी टांगें खुली हुई थीं, और उस पर बुरका अटपटा भी लग रहा था, लेकिन वे देश में बुरके पर रोक लगाने के मुद्दे को एक बार फिर उठाना चाहती थीं। संसद ने उनके इस व्यवहार को नामंजूर करते हुए उन्हें पूरे सत्र से निलंबित कर दिया, लेकिन इससे ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देश में भी मुस्लिम रीति-रिवाजों के खिलाफ एक राजनीतिक माहौल का संकेत तो मिलता ही है। लोगों को याद होगा कि योरप के कुछ देशों में भी बुरके पर रोक लगाने के खिलाफ मुस्लिम समुदाय यूरोपीय संसद तक पहुंचा, अदालतों तक के दरवाजे खटखटाए, लेकिन सरकारों का फैसला सही माना गया, और यह रोक जारी रही। संस्कृतियों के ऐसे टकराव के बीच जब बाहर से आए हुए लोग किसी तरह की हिंसा में शामिल होते हैं, तो उससे नौबत बहुत खराब हो जाती है। ट्रंप ने आज अमरीका में आने की अर्जी लगाने वाले तमाम अफगान लोगों की अर्जियों पर रोक लगी दी है। दूसरी तरफ ब्रिटेन में सरकार कानून बनाकर वहां पहुंचने वाले अवैध शरणार्थियों पर आज तक की सबसे कड़ी रोक लगा रही है क्योंकि उन शरणार्थियों को होटलों में ठहराना ब्रिटिश नागरिकों पर बहुत बड़ा बोझ बन रहा था, और सरकारें लगातार अपने नागरिकों को नाखुश बनाकर नहीं चल सकती हैं।
पश्चिम के देशों की जो उदार सरकारें हैं, उनकी उदारता भी शरणार्थियों की हिंसा के सामने लंबे नहीं टिक सकतीं। और जिन मुस्लिम देशों से ऐसे शरणार्थी आए हैं, उन मुस्लिम देशों में लोकतांत्रिक मूल्यों और उदारता का कोई माहौल उन्होंने देखा हुआ नहीं है। अपने गृहयुद्ध से, भुखमरी या, किसी और वजह से उन्हें अपना देश छोडऩा पड़ा, लेकिन शायद उनकी अपनी मातृभाषा में, जैसा देश, वैसा भेष, यह नसीहत उन्हें मिली हुई नहीं थी, इसलिए वे शरण देने वाले देश की परंपराओं का सम्मान नहीं कर पा रहे। दुनिया के विकसित और सभ्य देश अपनी उदार लोकतांत्रिक परंपराओं के तहत अपनी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश तो कर सकते हैं, लेकिन सत्तारूढ़ लोग इसी मुद्दे पर अपनी सरकार खोने का खतरा नहीं उठा सकते। आज एक-एक करके कई देशों में मतदाताओं का बहुमत बाहरी लोगों के खिलाफ होते जा रहा है, और ऐसा स्थानीय तनाव कोई राजनीतिक पार्टी नहीं झेल सकती। फिर यह भी है कि बाहर से आने वाले शरणार्थियों का कोई एक संगठन तो होता नहीं है कि उनसे किसी अनुशासन की उम्मीद की जा सके। जिनका धर्म और जिनकी संस्कृति उन्हें हिंसा की तरफ आसानी से धकेल देते हैं, उनकी आत्मघाती हरकतों को भला कौन रोक सकते हैं? अब अफगानिस्तान छोड़ते हुए अमरीकी सरकार वहां से अपने मददगार हजारों लोगों को ढोकर ले आई थी, उन्हीं में से एक ने अभी वहां के दो सैनिकों को मार डाला। ऐसे तनाव को कोई भी देश बर्दाश्त नहीं कर सकता, और ऐसे इक्का-दुक्का हिंसक लोग अपनी पूरी बिरादरी की संभावनाओं को तबाह करते हैं, चाहे वे अमरीका में रहें, चाहे हिंदुस्तान में।
आंकड़े बड़े दिलचस्प होते हैं। खासकर तब जब वे किसी चुनावी-राजनीति की योजना के हों, और उन्हें अर्थव्यवस्था के मुकाबले खड़ा कर दिया जाए। चुनावी समीकरण और अंकगणित का समीकरण बिल्कुल अलग-अलग हो सकते हैं, और हो सकता है कि जमीनी हकीकत इन दोनों के बीच कहीं हो। अभी एक संस्था की रिपोर्ट भारत के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पार्टियों की सरकारों द्वारा महिलाओं के बैंक खातों में सीधे नगदी ट्रांसफर करने पर आई है। इस रिपोर्ट के मुताबिक राज्यों के बजट का एक खासा बड़ा हिस्सा इस कैश ट्रांसफर पर खर्च हो रहा है। इनमें हिमाचल की इंदिरा सम्मान निधि पर सबसे ही कम पैसा जा रहा है जो कि दशमलव में भी नहीं गिना जा सकता। इसके बाद असम, और फिर उसके ऊपर के राज्य हरियाणा, तमिलाडु, छत्तीसगढ़ हैं। छत्तीसगढ़ में बजट का 3.33 फीसदी महतारी वंदन योजना में जा रहा है। लेकिन इसके ऊपर के राज्य देखें, तो बढ़ते-बढ़ते एमपी में करीब 5 फीसदी, महाराष्ट्र और दिल्ली में 5 फीसदी से अधिक, बंगाल और कर्नाटक में साढ़े 7 फीसदी या उससे अधिक, और झारखंड में बजट का करीब 10 फीसदी महिलाओं को कैश ट्रांसफर में जा रहा है। एक-एक करके चुनावों में ऐसी योजना जीत और हार को तय करने वाली होती चली गई, और जिन पार्टियों के जीत के आसार कम थे, उन्होंने तो बढ़-चढक़र इससे भी अधिक आंकड़े घोषणापत्र में रखे थे।
बजट के तीन फीसदी से लेकर दस फीसदी तक का हिस्सा अगर महिलाओं को सीधे कैश देने की योजनाओं पर जा रहा है, तो यह समझने की जरूरत है कि राज्य का बजट सौ फीसदी तो किसी भी सरकार को उपलब्ध नहीं रहता। जिसे सरकारी अमले की तनख्वाह, बिजली-पेट्रोल, सरकारी इमारतों का रखरखाव, सफर का खर्च कहा जाता है, वह स्थापना व्यय ही अधिकतर सरकारों को बड़ा भारी पड़ता है। एक तिहाई से लेकर 40 फीसदी तक का स्थापना व्यय अलग-अलग राज्यों के बजट आंकड़े बताते हैं, जबकि हकीकत में ये आंकड़े और ऊपर भी जा सकते हैं। एक तिहाई या अधिक स्थापना व्यय के बाद सरकार के पास बजट राशि सीमित ही बचती है, और उसमें से महिलाओं के लिए, या किसी भी और दूसरी योजना के लिए एक बड़ी रकम जाने का मतलब बजट के लचीलेपन को खत्म करना भी रहता है। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में धान खरीदी पर सरकारी रियायत बजट का बहुत बड़ा हिस्सा रहती है, इसी तरह गरीबों को राशन देने पर भी केन्द्र और राज्य सरकारों का खासा पैसा जाता है। ऐसे में महिलाओं को उनके खातों में मिलने वाली राशि को लेकर अर्थशास्त्रियों, और पुरूषों के बीच खासी बेचैनी रहती है। ऐसी योजना भारत में तो अभी पिछले कुछ बरसों में ही शुरू हुई हैं, लेकिन दुनिया के अलग-अलग कई देशों में महिलाओं की गरीब आबादी को लेकर डायरेक्ट कैश ट्रांसफर योजना का जो फायदा मिला है, उस पर भी एक नजर डालना चाहिए।
कुछ सबसे सफल उदाहरण ऐसे देशों के हैं जहां पर गरीबी हावी रहती है, या थी। मैक्सिको में 1997 से अब तक परिवार ने मां के खाते में पैसे जाते थे, और उसके साथ बच्चों के स्कूल जाने, और अस्पताल में जांच करवाने की शर्त जोड़ी गई थी। इससे वहां लड़कियों का स्कूल जाना 15 फीसदी बढ़ा, बच्चों का कुपोषण 20 फीसदी तक घटा, और परिवार में महिला की स्थिति मजबूत हुई। ब्राजील में 2003 से बिना किसी शर्त के गरीब माताओं को हर महीने उनके खाते में पैसे मिलते हैं, और इससे गरीबी 25 फीसदी तक घटी, घरों में मारपीट और झगड़े 10 फीसदी तक कम हुए, और महिलाएं अपना छोटा-मोटा कोई काम शुरू करके आर्थिक रूप से कुछ या अधिक हद तक आत्मनिर्भर बनीं। दक्षिण अफ्रीका में शिशु संरक्षण अनुदान के नाम से सवा करोड़ से अधिक महिलाओं को हर महीने पैसे मिलते हैं, और इससे उनके बच्चों के कद छोटे रह जाने (स्टंटिंग) में 8 फीसदी तक कमी आई, और परिवार में महिला की आवाज अधिक बुलंद हुई। केन्या में महिलाओं को बिना किसी शर्त के सीधे पैसे देना 2018 में ही शुरू हुआ। इससे वहां महिलाओं की कमाई एक तिहाई से अधिक बढ़ गई, उनके किए जाने वाले छोटे-छोटे कारोबार डेढ़ गुना हो गए, घर में पति द्वारा की जाने वाली हिंसा में 16 फीसदी कमी दर्ज की गई।
पिछले कुछ दिनों से मध्यप्रदेश के एक ऐसे नौजवान के बारे में खबरें आ रही थीं जिसने अनारक्षित-आर्थिक-कमजोर की हैसियत से यूपीएससी का इम्तिहान दिया था, और आईएएस बनने के बाद जब उसका स्वागत हुआ, तो टीवी चैनलों के इंटरव्यू में ही पता लगा कि उसकी पत्नी बेंगलुरू में आईटी सेक्टर में काम करती है, जिसकी तनख्वाह इस नौजवान के कोचिंग सेंटर की कमाई से पांच गुना है, मां-बाप अलग कमाते हैं। ऐसे संपन्न परिवार का लडक़ा अपने को आर्थिक रूप से कमजोर बताकर आईएएस बन गया। वह खबर अभी चक्कर लगाना बंद कर भी नहीं पाई थी कि एक नई खबर आ गई कि आर्थिक रूप से कमजोर अनारक्षित तबके से मेडिकल कॉलेज पहुंचने वाले और ग्रेजुएट होने वाले लोगों ने चिकित्सा-पीजी के लिए एनआरआई, या मैनेजमेंट कोटे की सीटों पर दाखिला लिया है जिसकी फीस आधा-एक करोड़ रूपए बताई जाती है। अपने आपको ईडब्ल्यूएस बताकर मेडिकल-दाखिला लिया, एमबीबीएस किसी तरह किया, पीजी दाखिले में फ्लॉप शो रहा, तो उसके बाद मैनेजमेंट सीट या एनआरआई कोटे से पीजी दाखिला ले लिया। ईडब्ल्यूएस बनने के लिए परिवार की आय 8 लाख रूपए साल से अधिक नहीं होनी चाहिए, दूसरी तरफ अब आधा-एक करोड़ देकर वे आगे दाखिला ले रहे हैं।
जब अनारक्षित वर्ग के लिए ईडब्ल्यूएस सीमा तय की गई थी, और उनके लिए आरक्षण रखा गया था, तब ही यह आशंका होने लगी थी कि इसका बेजा इस्तेमाल कैसे किया जाएगा। यह ठीक वैसा ही है जैसा कि आज ओबीसी तबकों के भीतर क्रीमीलेयर के ऊपर वाले लोग भी झूठा आय प्रमाणपत्र बनवाकर आरक्षण का फायदा ले लेते हैं। बहुत से लोग तो बैंक खातों में मिलने वाली तनख्वाह को भी छुपा लेते हैं, और धड़ल्ले से फर्जी सर्टिफिकेट बनवा लेते हैं। फिर इनकी आर्थिक क्षमता की वजह से इनके बच्चे अधिक सक्षम रहते हैं, इम्तिहान में बेहतर तैयारी कर पाते हैं, और वे ही आरक्षण का अधिकतम फायदा झपट लेते हैं। अभी भारत के मुख्य न्यायाधीश ने दलितों के बारे में कहा था कि उनके आरक्षण से क्रीमीलेयर को बाहर करना जरूरी है, वरना सच में कमजोर लोगों को आरक्षण का फायदा नहीं मिल पाएगा। हम भी दशकों से यही तर्क लिखते आ रहे हैं कि सभी आरक्षित वर्गों से क्रीमीलेयर को बाहर किया जाए। लेकिन अभी अनारक्षित वर्ग का ईडब्ल्यूएस सर्टिफिकेट पाने के लिए सक्षम लोगों ने जैसी जालसाजी और धोखाधड़ी की है, उसका क्या किया जाए? जब कॉलेजों में दाखिला गलत तरीके से हो जाए, लोग डॉक्टर भी बन जाएं, तब अदालतें भी इस दुविधा में पड़ जाती हैं कि वे क्या करें? कैसे गलत दाखिले वाले इन लोगों की जिंदगी की घड़ी वापिस घुमाएं?
हमने कुछ दिन पहले ही मुख्य न्यायाधीश की बातों के संदर्भ में अपनी पुरानी बातें गिनाई थीं, लेकिन अब अनारक्षित ईडब्ल्यूएस के संदर्भ में इस पूरे मुद्दे पर एक बार और गौर करने की जरूरत है। जब कभी आरक्षण का लाभ पाने वालों में अपात्र लोग खड़े हो जाते हैं, तो उसका नुकसान बाकी तमाम लोगों को उठाना पड़ता है। एसटी, एससी, और ओबीसी तबकों के ताकतवर लोग जब आरक्षण पाकर समाज के अनारक्षित वर्गों के कमजोर लोगों से आगे निकल जाते हैं, तो सामाजिक न्याय के लिए स्थापित आरक्षण पर से लोगों का भरोसा उठने लगता है। वे देखते हैं कि उनके आसपास के बंगला-गाड़ी वाले, महंगी कोचिंग वाले एसटी-एससी, और ओबीसी बच्चे किस तरह आरक्षित वर्गों में आगे बढ़ते हैं। और अब तो अनारक्षित वर्ग के गरीब होने का झूठा सर्टिफिकेट जुटाकर संपन्न सवर्ण भी बाकी तमाम लोगों को पीछे छोडक़र आसमान पर पहुंच रहे हैं।
बिहार की एक रिपोर्ट अगर सिर्फ किसी अखबार या टीवी चैनल की रहती, तो उसे सनसनीखेज कहकर खारिज किया जा सकता था। लेकिन यह रिपोर्ट कुछ वैज्ञानिक संस्थानों की शोध रिपोर्ट पर आधारित है, और देश की एक सबसे प्रतिष्ठित पर्यावरण संस्था, सीएसई की पत्रिका डाऊन टू अर्थ की अपनी स्वतंत्र रिपोर्ट पर आधारित है, इसलिए इसे खारिज करना आसान नहीं है। बिहार के अलग-अलग कई जिलों में माताओं के दूध के नमूनों की जांच की गई, और उनमें यूरेनियम का प्रदूषण पाया गया। यह बहुत खतरनाक बात इसलिए है कि दुधमुंहे शिशु पूरी तरह मां की दूध पर निर्भर रहते हैं, और उसमें अगर यूरेनियम आकर उन बच्चों के लिए खतरा खड़ा कर रहा है, तो उन बच्चों के लिए इसका कोई विकल्प भी तो नहीं है।
इस मामले में किए गए सर्वे, अध्ययन, और शोध से यह पता लगा है कि जितनी भी माताओं के दूध की जांच की गई, उनमें सभी में यूरेनियम मिला है। यह जमीन के नीचे से आने वाले पानी में आने वाला प्रदूषण है, और ये सारी माताएं ऐसे ही पानी पर निर्भर हैं। छोटे बच्चे अपनी माताओं के मुकाबले भी ऐसे प्रदूषण के लिए अधिक संवेदनशील होते हैं, क्योंकि उनके शरीर का वजन कम होता है, उनके अंग, और उनका मस्तिष्क विकसित नहीं हुआ रहता, और उनकी पाचन शक्ति पेट में गई भारी धातुओं को आसानी से बाहर नहीं निकाल सकती। यूरेनियम के प्रदूषण से बच्चों की किडनी पर असर होता है, उन पर स्नायुसंबंधी (न्यूरोलॉजिकल) असर होता है, कैंसर का खतरा रहता है, और भी कई किस्म की गंभीर बीमारियां उनको हो सकती हैं। सीएसई के एक शोध के मुताबिक बिहार के 11 जिलों में भूजल में यूरेनियम की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन की सुझाई गई सीमा से बहुत ऊपर है, कई जिलों में तो यह दो-ढाई गुना से भी अधिक है। रिपोर्ट बताती हैं कि बिहार में गंगा तट के इलाके ऐसे प्रदूषण के लिए अधिक जाने जाते हैं। फिर भी डॉक्टरों का कहना है कि खतरे के बावजूद इन बच्चों से मां का दूध छुड़ाना नहीं चाहिए, क्योंकि उसका कोई बेहतर विकल्प इन बच्चों के लिए अभी उपलब्ध नहीं है। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट कहती है कि भूजल में प्रति लीटर में 30 माइक्रोग्राम से अधिक यूरेनियम मां के दूध में पहुंच सकता है। बिहार के जिलों में यह 66, 77, और 82 माइक्रोग्राम/लीटर तक मिला है।
अब देश के अलग-अलग हिस्सों में जमीन के भीतर के पानी में कई किस्म के खतरनाक प्रदूषण बने हुए हैं। छत्तीसगढ़ के ही गरियाबंद जिले के सुपेबेड़ा में प्रदूषित पानी की वजह से किडनी खराब होने से लगातार मौतें होती हैं, और करोड़ों खर्च करने के बाद भी वहां पानी से इस प्रदूषण को खत्म करने, या साफ पानी पहुंचाने का काम नहीं हो पाया है। देश के बहुत से हिस्सों में भूजल में फ्लोराइड, आर्सेनिक, ऐसे बहुत से नुकसानदेह रसायन मिले हुए हैं, और अलग-अलग इलाकों से भयानक तस्वीरें आती हैं जिनमें कहीं लोगों के दांत खराब हो गए हैं, कहीं उनकी हड्डियां कमजोर हो गई हैं, और बदन में पानी से जूझने वाली किडनी तो कई मामलों में खराब हो जाती है जो कि चेहरे से दिखती नहीं है। सरकार के ही कुछ आंकड़े बताते हैं कि देश में 16 करोड़ से अधिक लोगों को सुरक्षित पानी नहीं मिल रहा है। भयानक रसायनों के जमीन के नीचे के भंडारों से परे कई जगहों पर खेती में इस्तेमाल होने वाले, कारखानों में काम में लाए जाने वाले रसायनों को बह-बहकर भूजल में जाते पाया गया है, और उससे कैंसर जैसे खतरनाक रोग भी लोगों को हो रहे हैं।
जिन लोगों को यह लगता है कि वे अपने लिए घरों में तरह-तरह के महंगे फिल्टर लगाकर अपने पीने के पानी को साफ कर लेंगे, उन्हें यह समझना चाहिए कि उनके खाए जाने वाले फल और सब्जी भी प्रदूषित पानी से उगते हैं, और रासायनिक प्रदूषण उनमें से होते हुए बदन के भीतर पहुंचता रहता है। फल-सब्जी, या फसल में छिडक़ा जाने वाला, खेतों में जमीन में डाला जाने वाला रसायन और जहर भी घूम-फिरकर पानी तक भी पहुंचता है, और फसलों के रास्ते तो इंसानों के बदन में आता ही है। जहर से परे माइक्रोप्लास्टिक भी हर तरह के पानी में घुसकर लोगों के बदन में आता है, और अब वह इंसानों के खून में घूम रहा है, उनके दिमाग के भीतर भी पहुंच रहा है।
भोपाल के फैमिली कोर्ट में तलाक के लिए एक ऐसा मामला पहुंचा है जिसमें महिला को यह शिकायत है कि बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करने वाला उसका पति सिर के बालों में पीछे चुटैया रखता है, जो कि उसे सामाजिक प्रतिष्ठा के खिलाफ लगती है, और इसलिए वह तलाक चाहती है। उसका कहना है कि शादी के पहले उसे उम्मीद थी कि शादी के बाद इसे कटाने को मान जाएगा, लेकिन उसके न मानने पर अब पत्नी अपने मां-बाप के पास रहती है, और तलाक चाहती है। एक दूसरे मामले में पति ने तलाक की अर्जी लगाई है कि पत्नी रात-दिन पूजा में लगी रहती है। इस तरह के मामले देश की अलग-अलग फैमिली कोर्ट में आते ही रहते हैं। एक पति ने आरोप लगाया कि पत्नी ने किसी अनजान नंबर पर हाय लिखकर एक स्माइली भेजी, इसलिए अब उसे तलाक चाहिए। घर में खाना पकाने को लेकर तनातनी बहुत से तलाक-प्रकरणों की आम वजह है। मुम्बई का एक मामला ऐसा है जिसमें शादी के पहले पति-पत्नी दोनों मांसाहारी थे, और शादी के बाद अब पत्नी शाकाहारी हो गई है, और पति को भी मांस खाने से रोक रही है। तलाक चाहने वाले एक पति का आरोप है कि पत्नी ने उसके मां-बाप और बहन को फोन पर ब्लॉक कर रखा है, और मिलने भी नहीं देती। कुत्ता पालने या न पालने को लेकर कई जोड़ों के बीच तनातनी तलाक तक पहुंचती है। बरसों तक देहसंबंध न बनाना तलाक के लिए पर्याप्त आधार माना जाता है। दिल्ली की लडक़ी की शादी राजस्थान में हुई, और गर्मियों में भी वहां एसी नहीं था, इस आधार पर अदालत ने तलाक मंजूर कर दिया कि जीवनशैली का यह एक बड़ा फर्क है। लखनऊ के एक मामले में पत्नी ने शादी के बाद सोशल मीडिया से पति का सरनेम हटा दिया, और अपना शादी के पहले का सरनेम इस्तेमाल करने लगी, इस पर पति ने तलाक मांग लिया।
इस तरह की सैकड़ों किस्में हैं जो कि पति-पत्नी के बीच कलह की वजह रहती हैं, और बहुत से मामलों में ये तलाक तक पहुंचती हैं। तलाक तो फिर भी ठीक है, बहुत से मामलों में ये वजहें विवाहेत्तर संबंधों तक पहुंच जाती है, और उसके बाद तरह-तरह की हिंसा की वजह भी बनती हैं। इन्हें देखकर ऐसा लगता है कि अगर शादी के पहले जोड़े के दोनों लोगों को किसी पेशेवर विवाह-परामर्शदाता के साथ बिठा दिया जाता, तो शायद एक-दो घंटे में यह समझ आ जाता कि एक-दूसरे की कौन-कौन सी बातें नापसंद हैं, और कौन-कौन सी बातों पर जोड़ीदार को कोई भी समझौता मंजूर नहीं होगा। अगर टेबिल पर ये तमाम बातें साफ-साफ हो जाएं, तो न केवल बहुत सारे तलाक की नौबत टल सकती है, बल्कि गृहकलह कम हो सकता है, हिंसा तो कम हो ही सकती है। लेकिन भारत में या तो लडक़ा-लडक़ी खुद एक-दूसरे के साथ उठते-बैठते एक-दूसरे को पसंद कर लेते हैं, और फिर बात परिवार की मर्जी से, या मर्जी के खिलाफ शादी तक पहुंच जाती है। लेकिन डेटिंग या दोस्ती के इस दौर में ताजा-ताजा प्यार की आंखें कुत्ते के नवजात पिल्लों की आंखों की तरह खुली नहीं रहती हैं, और एक-दूसरे की खामियां दिखती नहीं हैं, और लोग अपनी-अपनी खामियां छुपाते भी चलते हैं। फिर यह भी है कि दोस्ती या मोहब्बत के इस दौर में दोनों परिवारों की जटिलताएं, कमाई के साधन, बुरी आदतों की कोई अधिक चर्चा होती नहीं। और शादी के बाद जोड़ों के बीच जब बदन से निकलने वाली हर किस्म की गंध, और हर किस्म की आवाज के साथ जीना रोज की जरूरत बन जाता है, तब असली दिक्कतें सामने आने लगती हैं, और या तो बर्दाश्त करते हुए लोगों के मन भड़ास से भरे रहते हैं, या फिर वे अलग होने तक पहुंच जाते हैं।
इस बारे में लिखते हुए अभी हमें मालूम नहीं है कि शादी के पहले ऐसे जोड़ों के सुखी साथ की संभावनाओं को आंकने के लिए कोई मोबाइल ऐप या कोई वेबसाइट मुफ्त में हासिल है या नहीं। आज कोई परामर्शदाता भी कम्प्यूटर पर ऐसे प्रोग्राम को देखकर ही दोनों को सामने बिठाकर सवाल करेंगे, या अलग-अलग बात करके। कुल मिलाकर शादी के बाद आने वाले तमाम किस्म के संभावित टकराव को पहले ही सुलझा लेने में समझदारी हो सकती है। एक बार शादी हो जाए, बच्चे हो जाएं, कोई संयुक्त संपत्ति लेना हो जाए, उसके बाद तलाक में कई किस्म की दिक्कतें आती हैं। लोगों का मिजाज शादी के पहले जो रहता है, वह भी बाद में बदल सकता है, और अभी तक हमने बेवफाई या बदचलनी का जिक्र नहीं किया है, जो कि बहुत से जोड़ों के बीच तनाव की एक बड़ी वजह रहती है। आज के जमाने में लडक़े-लड़कियां दोनों ही बाहर रहते हैं, पढ़ते हैं, काम करते हैं, और मिलते-जुलते हैं। ऐसा शादी के पहले से शुरू होता है, और शादी के बाद भी चलते रहता है। इसलिए कब किसी की पिछली जिंदगी की कोई दफन मोहब्बत कब्र फाडक़र निकल आए, और भूतपूर्व पर वर्तमान में कब्जा करने की हसरत दिखाए, यह भी अंदाज लगाना पहले से मुमकिन नहीं रहता। फिर भी ऐसे तमाम असुविधाजनक सवाल कोई भी पेशेवर परामर्शदाता शादी के पहले तो कर ही सकते हैं, और यह अंदाज लगा सकते हैं कि जोड़ों के बीच सामंजस्य किन मुद्दों पर कितना हो सकेगा, और कहां पर कोई समझौता नहीं होगा।
अभी-अभी बिहार के चुनाव निपटे तो जातियों की चर्चा इस प्रदेश की राजनीति को लेकर, और समाज के बाकी दायरों को लेकर भी खूब बढ़-चढक़र हुई। इस बीच एक रिपोर्ट बिहार के जातिवाद पर इस चुनाव के पहले की भी सामने आई। देश के एक प्रतिष्ठित मैनेजमेंट संस्थान, आईआईएम बेंगलोर के एक अध्ययन में यह पाया गया है कि बिहार के सरकारी स्कूलों में अलग-अलग जातियों के छात्र परीक्षाओं में जो नंबर पाते हैं, उन बच्चों के शिक्षकों की धारणाएं उनसे अलग रहती हैं, और वह जातियों से प्रभावित रहती हैं। पिछड़ी जातियों के छात्र-छात्राओं की क्षमता को उनके परीक्षा-परिणामों के मुकाबले भी कम आंका जाता है, और आईआईएम का यह अध्ययन कहता है कि यह शिक्षकों के ‘मूल्यांकन पक्षपात’ की वजह से होता है। तथाकथित शिक्षकों से जब परीक्षा परिणामों से परे छात्रों का अपने अंदाज से मूल्यांकन करने कहा गया, अगड़ी जातियों के शिक्षकों का अंदाज पिछड़ी जातियों के बच्चों के प्रतिकूल ही रहा। पिछड़ी जातियों के जिन बच्चों के अंक सवर्ण छात्रों के बराबर थे, उन्हें भी शिक्षक के गैरइम्तिहानी मूल्यांकन में सवर्ण बच्चों से कमजोर बताया गया। आईआईएम के इस शोध को करने वाले दो वरिष्ठ प्राध्यापक सोहम साहू, और ऋत्विक बनर्जी थे, जिन्होंने बिहार के 105 सरकारी स्कूलों के आंकड़ों का विश्लेषण किया, और छात्रों, शिक्षक, परिवारों, और स्कूलों का विस्तृत सर्वेक्षण भी किया। शोधकर्ताओं का यह निष्कर्ष है कि ऐसा पूर्वाग्रही आंकलन लंबे समय में पिछड़ी जातियों, जिसमें ओबीसी से परे एसटी-एससी भी शामिल हैं, छात्र-छात्राओं का आत्मविश्वास तोड़ता है और धीरे-धीरे जाकर एक असली शैक्षणिक अंतर पैदा होने लगता है। उन्होंने इसे पिग्मेलियन इफेक्ट कहा है जिसमें टीचर की अपेक्षाएं ही छात्रों के नतीजे तय करने लगती हैं।
अभी हम एक जिम्मेदार संस्थान के दो वरिष्ठ शोधकर्ताओं की इस रिपोर्ट की अधिक बारीकियों पर जाना नहीं चाहते, लेकिन इससे जुड़ी हुई, और इससे बिल्कुल अलग भी, एक दूसरी खबर पर जाना चाहते हैं, जो कि मध्यप्रदेश से आई है। यह खबर वहां पर सिविल जज-2022 की परीक्षा के बारे में है जिसमें आदिवासियों के लिए 121 पद आरक्षित थे, लेकिन चयन एक का भी नहीं हुआ। मध्यप्रदेश में आदिवासी आबादी 20 फीसदी है, और संख्या डेढ़ करोड़ से अधिक है। यह भी 15 बरस पहले की 2011 की जनगणना का कहना है। अब अगर डेढ़-दो करोड़ आबादी में सिविल जज बनने के लिए 121 आदिवासी भी तैयार नहीं हो पाए, या उन्हें छांटा नहीं गया, तो यह बहुत ही शर्मनाक नौबत है। दो दिन पहले ही मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने इस नौबत को देखकर बड़ा सख्त रूख दिखाया, और अदालत ने दिसंबर तक नई चयन सूची पेश करने के लिए कहा है। इस मामले में सामाजिक न्याय के लिए बने वकीलों के एक संगठन ने अदालत में अपील की थी, और कहा था कि आदिवासी वर्ग के प्रतियोगियों पर सामान्य वर्ग के बराबर कटऑफ लागू कर दिया गया था। न्यूनतम योग्यता में छूट नहीं दी, और साक्षात्कार में कम अंक देकर भेदभाव दिखाया गया। इस इम्तिहान में सरकार की अपनी बनाई हुई शर्तों के खिलाफ जाकर एसटी-एससी प्रतियोगियों पर गलत शर्तें लागू की गईं।
बिहार के स्कूलों और मध्यप्रदेश के इस इम्तिहान का आपस में कोई सीधा संबंध नहीं है, सिवाय इसके कि इससे यह साबित होता है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है। जिन लोगों को यह लगता है कि जाति व्यवस्था टूट चुकी है, आरक्षण खत्म कर देना चाहिए, उनकी इस सोच से ही उनके जाति-वर्ग का अंदाज लगाया जा सकता है। एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आज से करीब 35 साल पहले एक इंटरव्यू में जाति व्यवस्था खत्म हो जाने के बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में कहा था कि जिन लोगों के पांव में बूट है, उन्हें जिनके पांव कुचले जाते हैं, उनका दर्द पता नहीं चलता। आज जाति की हालत वैसी ही है। जिन्हें अगड़ी जातियां कहा जाता है, उन्हें अपनी जातियों पर बात-बात पर अहंकार होने लगता है, वे बात-बात में एसटी-एससी, और आरक्षण पाने वाली ओबीसी को सरकारी दामाद कहने लगते हैं, उनकी जुबान, चेहरे के भाव, और आवाज से हिंसक हिकारत टपकने लगती है। उन्हें कुछ मिनट सुन लें तो यह समझ आ जाता है कि आरक्षित वर्गों के वकीलों और उनके तर्कों को सुनने की जरूरत ही नहीं है, अनारक्षित वर्ग के लोगों की हिंसक बातें ही उनके खिलाफ वकील की तरह खड़ी रहती है। देश में यह नौबत जाने कब सुधरेगी, जल्द तो सुधरने का कोई आसार नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट के दो जजों के एक फैसले को पलटते हुए अभी एक बड़ी बेंच ने राष्ट्रपति के भेजे हुए एक संदर्भ पर अपनी राय सुनाई कि राष्ट्रपति और राज्यपालों के पास गए हुए विधेयकों पर उनके लिए कोई समय सीमा तय नहीं की जा सकती। इसके पहले दो जजों की एक बेंच ने यह फैसला दिया था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधेयक उनके पास पहुंचने के बाद तीन महीने के भीतर उस पर अपना फैसला देना चाहिए। केन्द्र सरकार इस फैसले के बहुत खिलाफ थी, और उसने जजों को याद दिलाया था कि संविधान में इन दो संवैधानिक पदों के लिए समय सीमा तय करना अदालत के अधिकार क्षेत्र के बाहर है। ऐसे मामले अलग-अलग वक्त पर अलग-अलग राज्यों में उठते ही रहते हैं जहां सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन से केन्द्र की सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन के राजनीतिक विरोध रहते हैं। ऐसी नौबत रहने पर राज्यपाल या राष्ट्रपति केन्द्र सरकार की मर्जी से राज्य विधानसभाओं से पास किए गए विधेयकों को मंजूरी देने के बजाय उन्हें गद्दे के नीचे दबाकर उस पर सो जाते हैं। कुछ राज्यों में तो कई साल पहले से विधेयक राज्यपाल या राष्ट्रपति के पास पड़े हुए हैं, और जनता द्वारा निर्वाचित विधायकों वाली विधानसभा सिवाय इंतजार करने के और कुछ नहीं कर सकती है। ऐसे में जब कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समय सीमा तय की थी, तब हमने उस फैसले की तारीफ करते हुए यह लिखा था कि यह इन दो संवैधानिक पदों की जनता के प्रति जवाबदेही भी तय करने वाला फैसला है, और इन पदों को सरकार के असर से परे का मानना इसलिए ठीक नहीं है कि राज्यपाल तो केन्द्र सरकार के मनोनीत किए हुए होते हैं, और राष्ट्रपति भी केन्द्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिशों के मुताबिक काम करने को मजबूर रहते हैं। ऐसे में केन्द्र का गठबंधन उसे नापसंद किसी भी राज्य सरकार द्वारा विधानसभा में पास करवाए गए विधेयक को अंतहीन रोक सकता है, और सामने ही दिख रहा है कि रोकते आया है।
सुप्रीम कोर्ट का यह ताजा फैसला मुख्य न्यायाधीश बी.आर.गवई की अगुवाई वाली पांच जजों की बेंच का है, और उसने साफ कर दिया है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल को बिलों को मंजूरी देने के लिए कोई निश्चित समय सीमा तय नहीं की जा सकती। 111 पेज का यह बहुत ही निराशाजनक फैसला घोर अलोकतांत्रिक है, और केन्द्र सरकार को तानाशाही के सारे अधिकार देता है। ये दोनों ही पद पूरी तरह से केन्द्र सरकार के काबू के, और उसके मातहत सरीखे पद हैं। राज्यपाल और राष्ट्रपति को बेमुद्दत हक देना केन्द्र सरकार के हाथ में केन्द्र सरकार को तानाशाह बना देने के अलावा और कुछ भी नहीं है। आज की बात आज केन्द्र पर सवार गठबंधन को लेकर नहीं है, यह बात जनता द्वारा निर्वाचित विधानसभाओं के पारित विधेयकों के कानून बनने के जनता के परोक्ष अधिकार की बात है। जनता किसी विधेयक के लिए सीधे वोट नहीं देती, लेकिन उसके निर्वाचित विधायकों का एक बहुमत ऐसे विधेयक के साथ जब होता है, तभी वह पास होकर मंजूरी के लिए राज्यपाल या राष्ट्रपति के पास जाता है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला संविधान के लिखे हुए शब्दों की व्याख्या हो सकता है, लेकिन यह लोकतंत्र की भावना के ठीक खिलाफ है। जस्टिस गवई रिटायर होते-होते ऐसा फैसला क्यों कर गए हैं, इसे वे ही जाने। इस बेंच में उनके ठीक बाद जस्टिस बनने वाले जज भी हैं। सुप्रीम कोर्ट तो देश की सबसे बड़ी संवैधानिक अदालत है, और इसका हक संविधान की व्याख्या करना भी रहता है। कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट अगर संविधान के प्रावधानों को छू नहीं पाता, तो भी फैसले में उनके खिलाफ टिप्पणी जरूर करता है। ऐसा करने के लिए जजों में कुछ हौसले की भी जरूरत पड़ती है, और उन्हें रिटायर होने के बाद के लिए मोह-माया से मुक्त भी रहना पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट का दो दिन पहले का यह फैसला बहुत ही निराश करता है। संविधान एक मुर्दा दस्तावेज नहीं रहता, वह शब्दों के साथ-साथ भावनाओं का पुलिंदा भी रहता है, और इसीलिए उस पर आधारित बातों के लिए कहा भी जाता है कि इन लैटर, एंड स्पिरिट। ऐसा लगता है कि पांच जजों की इस बेंच ने राष्ट्रपति और केन्द्र सरकार के वकीलों के संविधान के दिए गए संदर्भों के शब्द ही पढ़े हैं, लोकतंत्र की भावना का इस्तेमाल नहीं किया है।
सुप्रीम कोर्ट की इस बेंच की यह व्याख्या हक्का-बक्का करती है कि राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की जा सकती। अपने फैसले की इज्जत बचाने के लिए इस फैसले में लिखा गया है कि राज्यपाल विधेयक को रोक सकते हैं, लेकिन अनावश्यक देरी का कारण स्पष्ट न हो, तो कोर्ट हस्तक्षेप कर सकता है। राष्ट्रपति के उठाए गए सवालों में से अधिकांश पर कोर्ट ने कहा है कि न्यायपालिका विधायी प्रक्रिया में दखल नहीं दे सकती। लोकतंत्र में किस तरह एक राजनीतिक सरकार के तहत काम करने वाले दो लोगों को ऐसे असीमित अधिकार दिए जा सकते हैं? आगे चलकर सुप्रीम कोर्ट की कोई और बड़ी बेंच इस फैसले पर पुनर्विचार करेगी, और उसमें जज कड़ा और खरा बोलने और लिखने वाले रहेंगे, तो यह फैसला पलट दिया जाएगा। हम कानून और संविधान की बारीकियों में उलझे बिना यह सोचते हैं कि किसी राज्यपाल या राष्ट्रपति के पास विधानसभा से पारित विधेयक पहुंचने के बाद उन्हें तीन महीने से अधिक का वक्त क्यों लगना चाहिए? राज्यपाल के पास कानूनी सलाहकार रहते हैं, वे केन्द्र सरकार के वकीलों से भी सलाह ले सकते हैं। जनता की निर्वाचित विधानसभा के पारित विधेयक पर अगर राज्यपाल 90 दिन में भी फैसला नहीं ले सकते, तो वे जनता के पैसों की बर्बादी करते हुए इस कुर्सी पर क्यों बैठे हैं? कानूनी और संवैधानिक सलाह-मशविरा तो कुछ दिनों के भीतर ही हो सकता है, तीन महीने के और बाद जाकर तो महज राजनीति हो सकती है, जो कि हो रही है। एक आदिवासी समुदाय से आई हुई राष्ट्रपति ने जब यह संदर्भ सुप्रीम कोर्ट को भेजा, और उससे संवैधानिक राय मांगी, तो भी यह बड़ी हैरानी की बात इसलिए थी कि क्या वे निर्वाचित विधानसभा के अधिकारों को केन्द्र सरकार के इशारे पर नीचा दिखाने की हिमायती हो गई हैं? जनता के पैसों पर जो राज्यपाल और राष्ट्रपति राजसी ठाठ से जीते हैं, उस जनता के जीवन को प्रभावित करने वाले विधेयकों को क्या ये सामंती सहूलियतों वाले लोग बिस्तर की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं?
सुप्रीम कोर्ट में अभी मुस्लिम समाज में महिला के हक के खिलाफ प्रचलित एक प्रथा पर सुनवाई हो रही है। अदालत ने एक मुस्लिम मर्द के वकील से यह पूछा है कि तलाक-ए-हसन नाम की प्रथा क्या सभ्य समाज में जारी रहनी चाहिए? यह मामला एक पत्रकार बेनजीर हिना का दायर किया हुआ है जिसमें कहा गया है कि मुस्लिम महिला को तलाक देने का यह तरीका तर्कहीन, मनमानी, और असंवैधानिक है जो कि महिलाओं के सम्मान, और समानता के अधिकार के खिलाफ है। बीते बरसों में भारत में मुस्लिम महिलाओं से जुड़े हुए कई मामले अदालतों में आए, इनमें से एक, तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) को 2017 में अदालत ने असंवैधानिक करार दिया था। इसके बाद मोदी सरकार ने तीन तलाक को गैरकानूनी करार देने वाला एक कानून बनाया जो 1 अगस्त 2019 से लागू हो गया। इसके बारे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कई चुनावी रैलियों में कहा था कि मुस्लिम मां-बहनों को तीन तलाक के जुल्म से आजादी दिलानी है। इस कानून में ऐसा करने वाले मुस्लिम मर्द को तीन साल तक की कैद, और जुर्माने का प्रावधान किया गया था। इसके लागू होने के बाद से देश में तीन तलाक देने वाले हजारों मर्दों के खिलाफ उनकी बीवियों की तरफ से पुलिस रिपोर्ट हुई है, और मुकदमे चल रहे हैं। अब सुप्रीम कोर्ट में तलाक की एक दूसरी किस्म के खिलाफ मामला पहुंचा है।
भारत में 1937 के मुस्लिम पर्सनल लॉ के प्रावधान चले आ रहे हैं। इनमें से बहुत से प्रावधान महिलाओं के हक के खिलाफ हैं। देश में कुछ अलग-अलग प्रदेशों ने मुस्लिमों को इस कानून के तहत नाबालिग लड़कियों की शादी करने की मिली हुई छूट को खत्म करना शुरू किया है, और हमने अपने अखबार में तीन तलाक को सजा के लायक बनाने का भी समर्थन किया था, और नाबालिग लड़कियों की इस्लामिक कानून के हवाले से शादी करने के खिलाफ भी बार-बार लिखा है, अपने यूट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल पर इसके खिलाफ कई बार कहा है। आज भी सुप्रीम कोर्ट ने तलाक के इस दूसरे तरीके के खिलाफ कड़ा रूख दिखाया है, और कहा है कि पति की तरफ से उसका वकील ही महिला को तलाक के तीन नोटिस एक-एक महीने के फासले से भेजकर शादी को खत्म कर सकता है, यह आज के वक्त पर सही कैसे माना जा सकता है? अदालत ने यह भी कहा है कि हर महिला के पास कानूनी लड़ाई लडऩे की ताकत नहीं होती है।
मुस्लिम महिला के तलाक के बाद उसका वही पति अगर दुबारा उससे शादी करना चाहे, तो उसके लिए हलाला नाम का एक रिवाज है जिसके तहत उस औरत को पहले किसी और मर्द से शादी करनी पड़ती है, फिर उससे तलाक लेना पड़ता है, तब जाकर वह अपने पिछले पति से दुबारा निकाह कर सकती है। इस प्रथा के नाम पर मुस्लिम महिलाओं का कई जगह बहुत बुरा शोषण होता है। मुस्लिम मर्द को चार बीवियां रखने का हक है, और यह बात भी मुस्लिम महिला के हक मारने वाली रहती है। मुस्लिम लड़कियों को अपने भाईयों के मुकाबले आधा हक ही मिलता है, और मुस्लिम विधवा को भी कानून के तहत बहुत कम हक मिलता है। तलाक के बाद मुस्लिम महिला को कोई स्थाई गुजारा-भत्ता नहीं मिलता। रूपए-पैसे के कुछ मामलों में मुस्लिम कानून में दो औरतों की गवाही एक मर्द की गवाही मानी जाती है। ऐसे कई बेइंसाफ कानूनों को बदलने की मांग मुस्लिम महिला संगठन लंबे समय से करते आ रहे हैं, और मुस्लिम समाज के बाहर हमारे सरीखे लोग भी इन बातों को बार-बार उठाते हैं।
कर्नाटक की स्कूल-कॉलेज की छात्राओं पर वहां की पिछली भाजपा सरकार के वक्त हिजाब पहनने पर यह कहते हुए रोक लगाई गई थी कि यह स्कूली पोशाक का हिस्सा नहीं है। सरकार की इस रोक के खिलाफ मुस्लिम समुदाय सुप्रीम कोर्ट तक गया, लेकिन उसे कोई राहत नहीं मिली। हमने इस मुद्दे पर शुरू से अंत तक यही लिखा था कि कोई समुदाय हिजाब की शर्त पर अडक़र अपनी लड़कियों को स्कूल-कॉलेज से निकाल देने का काम करता है, तो वह परले दर्जे की मर्दाना बेअक्ली है। दुनिया में बहुत से ऐसे इस्लामिक या मुस्लिम देश हैं जहां पर हिजाब की कोई बंदिश नहीं है, बुर्के की कोई बंदिश नहीं है। इस पर भी अगर मुस्लिम मर्द अपने समाज की महिलाओं को यह समझाने में कामयाब हो जाते हैं कि यह उनका हक है, तो यह एक मर्दानी कामयाबी है, और सदियों से उसकी गुलाम चली आ रही महिलाओं की नासमझी भी है। जिस बोझ को मुस्लिम महिला का हक करार देने में मर्द कामयाब हो गए हैं, उस साजिश को भी समझना चाहिए, और समाज सुधार के रास्ते, या कानून के रास्ते, सिर्फ महिलाओं पर लादे जाने वाले ऐसे रिवाज खत्म किए ही जाने चाहिए। यह कोई हक नहीं है एक बोझ है। एक वक्त राजस्थान में हिन्दू महिला के पति के गुजर जाने पर उसे भी साथ-साथ सती कर देने की घटना होती थी, और उसे हिन्दू महिला का हक करार दिया जाता था। बाद में कानून बनाकर उसके इस तथाकथित हक को खत्म किया गया है।
उत्तरप्रदेश में 2015 में एक मुस्लिम अखलाक के गांव में यह अफवाह फैली कि उसने अपने घर में गोमांस रखा है। इस बात की घोषणा गांव के मंदिर से लाउडस्पीकर पर हुई, और बात की बात में एक बड़ी भीड़ जुट गई, और अखलाक को उसके घर से निकालकर पीट-पीटकर मार डाला गया। उसे बचाते हुए उसके बेटे को भी गंभीर चोटें आईं। 2015 में ही पुलिस ने इस मामले में चार्जशीट फाइल की जिसमें 15 लोगों को अभियुक्त बनाया गया था, और इनमें एक नाबालिग लडक़ा भी था, और एक स्थानीय भाजपा नेता का बेटा भी। 2017 में योगी आदित्यनाथ उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री बने, और उसके बाद 2021 से अखलाक-मॉबलिंचिंग मामले की सुनवाई शुरू हुई। देश में अपने किस्म की यह पहली भीड़त्या थी जिसे खबरों में मॉबलिंचिंग कहा गया था। अब उत्तरप्रदेश सरकार ने अदालत में अर्जी दाखिल की है कि वह सारे ही अभियुक्तों के खिलाफ हत्या के आरोप सहित तमाम आरोप वापिस लेना चाहती है।
क्या लोकतंत्र में इससे भयानक और कुछ हो सकता है कि एक मांसाहारी परिवार के व्यक्ति को उसके घर पर रखे गए मांस के गौमांस होने का आरोप लगाकर घर से निकालकर पीट-पीटकर मार डाला जाए? क्या देश में प्रशासन और पुलिस नहीं रह गए हैं कि जगह-जगह ऐसी गौ-गुंडई की जाए? कहीं राजस्थान में, कहीं हरियाणा में, अक्सर ही उत्तरप्रदेश में, और अब छत्तीसगढ़ में भी गौहत्या या गौमांस, या गौ-कारोबार, गौ-परिवहन का आरोप लगाकर किसी को भी पीट-पीटकर मार डाला जाता है। छत्तीसगढ़ में पिछले साल राजधानी रायपुर की सरहद पर एक पुल के ऊपर पशु व्यापारियों को पीट-पीटकर मार डाला गया, और फिर उन्हें पुल से कूदकर जान देना बता दिया गया। अपने आपको गौरक्षक कहने वाले लोगों ने 50-60 किलोमीटर तक पशु व्यापारियों की गाड़ी का पीछा किया, उस पर हमला करके उसे रोका, और उसमें कोई गाय नहीं थी, लेकिन तीन मुस्लिम पशु व्यापारी मार डाले गए। ये तीनों अपनी गाड़ी में भैंस ले जा रहे थे। उनमें से एक ने अपने परिवार को फोन लगाया था, और परिवार 47 मिनट तक इन लोगों के मार खाने की चीखें सुनते रहा। लेकिन जैसा कि अभी यूपी सरकार कर रही है, उस वक्त छत्तीसगढ़ की पुलिस ने इस घटना में किसी मारपीट का जिक्र नहीं किया, और यह दिखाया कि ये पशु व्यापारी पुल से नीचे कूदे, और पत्थरों पर गिरकर मर गए। जिन लोगों ने पीछा किया, हमला किया, उन पर हत्या का जुर्म भी दर्ज नहीं किया गया।
आज अखलाक को दिल्ली से 50 किलोमीटर के भीतर ही गादरी नाम के गांव में दफन हुए 10 बरस गुजर चुके हैं, और अब हत्या के सारे ही आरोपियों के खिलाफ सरकार मामला वापिस लेने की अर्जी लगा चुकी है। खबर बताती है कि इसमें राज्यपाल की अनुमति भी साथ में लगाई गई है। गौतम बुद्ध नगर जिले की अदालत में लगी इस अर्जी को लेकर बुद्ध क्या सोच रहे होंगे, इसका अंदाज सहज ही लगाया जा सकता है। अब तक तो पुलिस या दूसरी जांच एजेंसियां, सरकारी या दूसरे वकील, और न्याय प्रक्रिया में शामिल दूसरे लोग धर्म के नाम पर रियायत करते हुए सुने जाते थे। लेकिन अब तो संविधान की शपथ लेकर काम करने वाली एक सरकार ने एक औपचारिक अर्जी ऐसी लगाई है, जो कि बुरी तरह हक्का-बक्का करती है।
लोगों को याद होगा कि गुजरात में दो-तीन बरस पहले 2002 के दंगों के दौरान एक गर्भवती मुस्लिम महिला से बलात्कार करने वाले, और उसके छोटे से बच्चे को मार डालने वाले 11 लोगों को राज्य और केन्द्र सरकार ने अच्छे चाल-चलन की फाइल बनाकर समय से पहले जेल से रिहा कर दिया था। जेल के बाहर इन्हें माला पहनाकर, मिठाइयां खिलाकर इनका सार्वजनिक अभिनंदन किया गया था। जब इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई, तो अदालत ने इन सारे लोगों को दुबारा जेल भेजा। हमारा ख्याल है कि यूपी की जिला अदालत में यूपी सरकार की लगाई हुई अर्जी का सुप्रीम कोर्ट को खुद ही संज्ञान लेना चाहिए, और इस सरकारी अर्जी को खारिज करते हुए सरकार को कटघरे में खड़ा करना चाहिए, और उससे पूछना चाहिए कि संविधान की शपथ का क्या हुआ? देश में आज जगह-जगह अल्पसंख्यकों पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं, और ऐसे में अल्पसंख्यकों की खुली भीड़त्या करने वाले लोगों को अगर इसी तरह माफी मिलती रही, तो वे क्या-क्या नहीं करेंगे, और देश में बाकी जगहों पर गाय के नाम पर इंसानों को काटने की घटनाएं कहां-कहां पर नहीं होंगी?
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में राज्य सरकार ने एक अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम बनाया था जिसकी निर्माण लागत ही सौ करोड़ रूपए तक पहुंच गई थी, और जमीन के दाम जोड़ें, तो शायद हजार-दो हजार करोड़ का स्टेडियम था। अब सफेद हाथी खाने में तो काले हाथी जितना ही खाता है, लेकिन उसे नहलाने में साबुन अलग से लगता है, जो कि खासा महंगा रहता है। यह स्टेडियम भी भूले-भटके यहां होने वाले किसी क्रिकेट मुकाबले की शकल कभी देख पाता था, और इसके अलावा तो इतने बड़े ढांचे का और तो इस्तेमाल था नहीं। अब सरकार ने पांच साल के लिए यह स्टेडियम छत्तीसगढ़ क्रिकेट एसोसिएशन को दिया है, जिससे सालाना कुछ रकम भी मिलेगी, रखरखाव भी होगा, और हो सकता है कि मैच कुछ अधिक हो जाएं, या कुछ रकम भी सरकार को मिल जाए। हम अभी सरकार के इस फैसले पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहे, लेकिन इससे जुड़े हुए एक मुद्दे पर बात करना जरूरी है।
प्रदेश में दसियों हजार स्कूल-कॉलेज के खेल मैदान हैं, कुछ छोटे हैं, कुछ बड़े हैं, लेकिन खेल गतिविधियां ठप्प सरीखी रहती हैं। चूंकि सरकार चाहती है इसलिए खेल मुकाबले तो हो जाती है, स्कूलों से लेकर दूसरी टीमें बन जाती हैं, प्रतियोगिताएं हो जाती हैं, लेकिन अधिकतर मामलों में राज्य के खिलाड़ी राज्य के भीतर ही रह जाते हैं, और गिने-चुने खिलाड़ी ही राष्ट्रीय स्तर पर किसी किनारे पहुंच पाते हैं। भारतीय महिला क्रिकेट टीम की एक फिजियोथैरेपिस्ट युवती छत्तीसगढ़ की है, और टीम विश्वकप जीतकर लौटी, तो यह प्रदेश इस फिजियोथैरेपिस्ट का सम्मान-अभिनंदन करने का मौका पा सका, पूरा प्रदेश इसी बात को लेकर गौरवान्वित रहा। कहने के लिए प्रदेश में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम के अलावा, अंतरराष्ट्रीय हॉकी स्टेडियम भी है, लेकिन इनका प्रदेश के खिलाडिय़ों से कुछ लेना-देना नहीं है। नेता-अफसर-ठेकेदार बड़े-बड़े निर्माण से खुश रहते हैं, और बड़े-बड़े स्टेडियम बनने से तो सरदार खुश हुआ किस्म के फिल्मी डायलॉग भी याद आते हैं। लेकिन प्रदेश के खिलाड़ी इन स्टेडियमों में खेलने लायक बन सकें, वह बात किनारे धरी हुई है। स्कूल और गांव के स्तर के खिलाडिय़ों को आगे बढ़ाने, उन्हें मैदान मुहैया कराने, खेल के सामान और खेल शिक्षक-प्रशिक्षक देने का काम स्टेडियम बनाने जितना आकर्षक नहीं रहता, इसलिए सरकार में किसी की दिलचस्पी ऐसे बिखरे हुए काम में नहीं रहती, जहां स्कूल की स्पोटर््स किट खरीदी से छोटे-छोटे से कमीशन ही मिलें। फिर स्कूलों में खेल के अभ्यास से तो किसी को कुछ नहीं मिलना है, सिर्फ बच्चों को खेलने का मौका मिलेगा, आगे बढऩे का मौका मिलेगा। इसलिए प्रदेश भर में स्कूल-कॉलेज के, और बाकी सार्वजनिक खेल मैदानों पर गैरखेल काम ही चलते रहते हैं। सरकार, राजनीति, बाजार, धर्म, और आध्यात्म, इन सब के तम्बू लगने और उखडऩे के बीच एक-दो दिन खेल मैदानों पर बच्चे पहुंच पाते हैं, तो हाथ-हाथ भर गहरे गड्ढे पड़े रहते हैं, कोई मैदान खेल के लायक नहीं बचते।
इस प्रदेश में हर खेल के लिए कोई न कोई खेल संघ है। हरेक पर कोई न कोई बड़ा नेता, बड़ा अफसर, या बहुत बड़ा कारोबारी काबिज है। सत्ता बदलने के साथ-साथ कुछ खेल संघों के मुखिया के नाम बदल जाते हैं, लेकिन वे रहते नेता-अफसर, और कारोबारी ही हैं। खेल मैदानों की बात कुछ अरसा पहले छत्तीसगढ़ बाल संरक्षण आयोग की अध्यक्षा ने भी उठाई थी। लेकिन प्रदेश के एक भी खेल संघ ने यह बात नहीं उठाई कि खेल मैदानों पर दूसरे काम नहीं होने चाहिए, उन्हें सिर्फ बच्चों और खिलाडिय़ों के खेलने के लिए रखना चाहिए, ताकि वे स्टेडियम में पहुंचने लायक टीम के लायक भी बन सकें, और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ साबित कर सकें। खेल संघ सत्ता से इतने जुड़े रहते हैं, सत्ता का हिस्सा रहते हैं कि वे सरकारी या राजनीतिक हितों से परे कुछ सोच भी नहीं पाते। खेल आयोजनों और खेल संघों के मंच देखें, तो उन पर सत्ता, सत्तारूढ़ पार्टी, और प्रदेश का खेल माफिया हावी रहता है, जिनका खेलों से कुछ लेना-देना नहीं रहता, लेकिन वे इन संघों के नाम पर एक सामाजिक प्रतिष्ठा, और एक ताकत पाते रहते हैं। तमाम खेल एक तरफ तो खेल मैदानों को लेकर सरकारी लापरवाही और उदासीनता के शिकार हैं, और दूसरी तरफ वे खेल संघों के शिकार हैं। आज जितने खिलाड़ी थोड़े-बहुत भी आगे बढ़ पाते हैं, वे खेल संघों की वजह से नहीं, खेल संघों के बावजूद आगे बढ़ जाते हैं।
छत्तीसगढ़ के बस्तर में अनगिनत नक्सल हमलों के पीछे जिम्मेदार रहा एक बड़ा नक्सल नेता हिड़मा आज सुबह आंध्रप्रदेश में एक पुलिस मुठभेड़ में अपनी बीवी और कुछ दूसरे नक्सल साथियों के साथ मारा गया। पुलिस रिकॉर्ड बताते हैं कि वह दो दर्जन से अधिक हमलों के पीछे था, और आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, और तेलंगाना की सरहदों पर वह लगातार सक्रिय रहता था। आंध्र पुलिस ने इस मुठभेड़ के बाद प्रेस को बताया कि छत्तीसगढ़ पुलिस के दबाव के चलते नक्सली आंध्र में भीतर तक आए थे, और आंध्र पुलिस निगरानी रख रही थी। माड़वी हिड़मा नाम के इस नक्सल नेता पर 50 लाख रूपए का ईनाम था, वह नक्सल सेंट्रल कमेटी का शायद नौजवान सदस्य था, और इस कमेटी में बस्तर इलाके का अकेला आदिवासी भी। वह बस्तर के सुकमा में ही पैदा हुआ था, और अभी हफ्ते भर पहले ही छत्तीसगढ़ के उपमुख्यमंत्री, और गृहमंत्री विजय शर्मा उसके गांव होकर आए थे, जहां उन्होंने हिड़मा की माँ और गांव के दूसरे लोगों के साथ खाना खाया था, और हिड़मा की माँ से अपील की थी कि वह अपने बेटे को पुनर्वास के लिए कहे। यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि बीते कुछ महीनों में छत्तीसगढ़ पुलिस ने बड़े-बड़े नक्सल नेताओं सहित उनके हथियारबंद साथियों के हिंसा छोडऩे को आत्मसमर्पण कहना छोड़ दिया है, और अब इसे हथियार डालना कहा जा रहा है। हाल ही में ऐसे नक्सल नेताओं ने यह भी कहा कि आदिवासी हक के लिए उनकी लड़ाई अब बिना हथियारों के चलती रहेगी। यह सरकार के हिस्से की एक समझदारी है कि भाषा की जटिलता में उलझे बिना उसने शायद नक्सल नेताओं के आत्मसम्मान के लिए आत्मसमर्पण शब्द छोड़ दिया, और हथियार डालना कहा।
नक्सल मोर्चे से परे आज ही छत्तीसगढ़ विधानसभा का एक विशेष सत्र चल रहा है जो कि इस सदन का रजत जयंती वर्ष समारोह भी है, और विधानसभा के मौजूदा भवन को बिदाई भी है। आज के इस सत्र के बाद विधानसभा का अगला सत्र नया रायपुर के नए भवन में होगा, और 25 बरस तक संसदीय कार्य के बाद अब विधायक इस भवन का धन्यवाद करते हुए आज यहां से आखिरी बार रवाना होंगे। भारत और मध्यप्रदेश के साथ-साथ छत्तीसगढ़ का मजबूत संसदीय इतिहास रहा है, और आज नक्सल मोर्चे पर सुरक्षाबलों की एक और कामयाबी के बाद इन दो बातों को जोडक़र देखने की जरूरत लग रही है। जैसा कि किसी भी देश की संसदीय व्यवस्था रहती है, वह जनता के हित के लिए काम करती है, या कम से कम उससे यह उम्मीद तो की ही जाती है। दूसरी तरफ बस्तर जैसे नक्सल इलाके में नक्सली भी अपने आपको आदिवासी जनता के हित के लिए लडऩे वाला कहते आए हैं, और उनके घोषित एजेंडा को देखें, तो उसमें कई बातें सचमुच ही आदिवासी हितों की दिखती हैं। नक्सलवाद के साथ दिक्कत यह है कि वह जनता के हक लोकतंत्र में मिलना मुमकिन नहीं मानता, और इसीलिए वह हथियारों के दम पर हक की यह लड़ाई लड़ता है। लोकतंत्र में चाहे मुद्दा कितना ही जायज क्यों न हो, उसके लिए हथियारबंद लड़ाई का हक किसी को नहीं मिलता। जिन लोगों को लगता है कि भारत की मौजूदा व्यवस्था आदिवासियों को उनका हक नहीं दे पा रही है, तो उन्हें देश के कुछ दूसरे तबकों को देखना होगा जिन्हें लगता है कि यह व्यवस्था अल्पसंख्यकों को, दलितों को, महिलाओं को, गरीबों को उनका हक नहीं दिला पा रही है। अब हक नहीं मिल रहा, इसलिए हथियार उठा लेना, यह लोकतंत्र में कोई विकल्प नहीं हो सकता। इसलिए छत्तीसगढ़ की मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय की मौजूदा भाजपा सरकार ने जब एक तरफ नक्सलियों को खत्म करने की ऐतिहासिक कामयाबी वाली मुहिम छेड़ी, तो दूसरी तरफ उसने पुनर्वास के लिए नक्सलियों का हौसला बढ़ाया, उनसे अपील की। केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भी लगातार नक्सलियों से मूलधारा में लौटने की अपील की, और यह तक कहा कि अगर वे बिना हथियारों और हिंसा के अपनी विचारधारा पर कायम रहते हैं, तो उससे सरकार को कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि लोकतंत्र में हर विचारधारा के सहअस्तित्व की गुंजाइश है। इस तरह केन्द्र और राज्य के इस लचीले रूख से नक्सल मोर्चे पर वह कामयाबी मिली जो कि देश के किसी भी दूसरे राज्य में नहीं मिली थी, और छत्तीसगढ़ में तो इन दो बरसों के पहले किसी ने इसकी कल्पना भी नहीं की थी।
आज छत्तीसगढ़ की संसदीय रजत जयंती के मौके पर अगर हिड़मा और उनके साथी हथियार डालकर लोकतंत्र की मूलधारा में लौटते, और हथियारविहीन संघर्ष जारी रखते, तो बेहतर होता। लेकिन जब कोई भी विचारधारा या आंदोलन हथियारबंद होकर, लगातार हिंसा करते हुए सक्रिय रहे, तो ऐसे लोकतंत्र में सरकारों के पास उन्हें काबू में करने, या मजबूरी हो जाने पर खत्म करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। हिड़मा उन नक्सल हमलावर दलों का मुखिया रहा है जिसने दर्जनों लोगों को मारा था। सरकार के बार-बार के प्रस्ताव के बाद भी वह उन नक्सल नेताओं में था जो हथियार डालने तैयार नहीं थे। इसलिए हथियारबंद संघर्ष के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था। छत्तीसगढ़ और बस्तर के सरहदी राज्यों में नक्सली सरहद के आरपार आते-जाते रहते हैं, और केन्द्रीय सुरक्षाबलों के साथ मिलकर इन राज्यों की पुलिस कार्रवाई करती रहती है। आज सुबह आंध्र की इस कार्रवाई में इस पति-पत्नी जोड़े के अलावा भी चार और लोगों के मारे जाने की खबर है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश बी.आर.गवई ने कल अपने इस विचार को दुहराया कि अनुसूचित जाति के आरक्षण से उस वर्ग के मलाईदार तबके को बाहर करना चाहिए। वे एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बोल रहे थे, और उन्होंने कहा कि जब रिजर्वेशन की बात आती है तो एक गरीब खेतिहर मजदूर के बच्चे का मुकाबला एक आईएएस अफसर के बच्चे से भला कैसे हो सकता है? उन्होंने कहा कि जो ओबीसी आरक्षण में लागू होता है, वही अनुसूचित जाति के आरक्षण में भी लागू होना चाहिए। उन्होंने खुद ही यह भी कहा कि जब उन्होंने इस बारे में फैसला लिखा था, तो उसकी व्यापक आलोचना हुई थी। उल्लेखनीय है कि 2024 में उन्होंने दविन्दर सिंह प्रकरण में अपनी यही सोच फैसले में लिखी थी।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम बीते दशकों से लगातार यह बात लिखते आ रहे हैं कि दलित और आदिवासी दोनों ही तबकों में आरक्षण का फायदा पाने वाले लोगों पर क्रीमीलेयर की सीमा लागू करनी चाहिए ताकि एक बार इसका फायदा पाकर सामाजिक रूप से सक्षम हो चुके परिवारों को उनकी संपन्नता या परिवार के लोगों के ओहदों की ताकत से पीढ़ी-दर-पीढ़ी वह फायदा न मिलता रहे। एक बार जो परिवार आरक्षण के फायदे से ताकतवर हो जाते हैं, वे अपने ही तबके के कमजोर लोगों को कभी बराबरी तक नहीं आने दे सकते। इसलिए एक बार कमाई जा चुकी ताकत की ऐसी विरासत को जारी रखने का मतलब सामाजिक अन्याय को जारी रखना है। पहले तो दूसरे वर्गों के मुकाबले इस अन्याय को खत्म करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई थी, अब इन तबकों के भीतर असमानता को देखते हुए क्रीमीलेयर की धारणा लागू करना बहुत जरूरी है क्योंकि उसके बिना सबसे कमजोर तबके कभी भी फायदा पाने लायक नहीं बन पाएंगे, और ताकतवर हो चुके लोग ही आरक्षण का सारा फायदा पीढ़ी-दर-पीढ़ी पाते रह जाएंगे।
मुख्य न्यायाधीश गवई खुद दलित तबके के हैं, और उनका परिवार क्रीमीलेयर में गिनाएगा, लेकिन अपने निजी नुकसान की कीमत पर भी उन्होंने यह सोच सामने रखी है। हमारा भी तर्क यही रहते आया है कि जिस संसद या विधानसभा को आरक्षण की व्यवस्थाओं में किसी भी तरह का फेरबदल करने का अधिकार हो सकता है, उसके सारे ही सांसद और विधायक सदस्य क्रीमीलेयर के गिनाएंगे, और क्रीमीलेयर लागू करने उनके लिए ठीक वैसे ही निजी नुकसान का होगा जिस तरह सरकार के बड़े अफसरों, या अदालत के बड़े जजों के लिए होगा। हितों के ऐसे टकराव के चलते हुए दलित और आदिवासी तबकों के आरक्षण पर क्रीमीलेयर लागू नहीं हो पाई है। इसका नुकसान यह है कि इन तबकों के भीतर एक बार ताकतवर हो चुके लोग अपने बच्चों को आगे के सभी फायदों पर काबिज होने के लिए मजबूत बनाते चलते हैं, और एक काल्पनिक क्रीमीलेयर के ठीक नीचे के लोग भी उनका मुकाबला नहीं कर पाते। सामाजिक न्याय के आरक्षण के भीतर यह एक बड़ा सामाजिक अन्याय धड़ल्ले से चल रहा है।
अब इस मुद्दे पर बात करते हुए हमारा यह साफ मानना है कि जिन एसटी-एससी परिवारों की आय 10 लाख रूपए से ऊपर है, जिनके परिवारों में कोई भी सांसद या विधायक हैं, या किसी भी सरकार संस्थान में प्रथम या द्वितीय वर्ग के अधिकारी हैं, उनके बच्चों को आरक्षण की पात्रता से बाहर करना चाहिए। इसके अलावा जिन लोगों को एक या दो पीढ़ी आरक्षण मिल चुका है, उनकी तीसरी पीढ़ी को आरक्षण के फायदे से बाहर करना चाहिए। यह बात स्कूल-कॉलेज के दाखिलों और नौकरियों पर सीधे-सीधे लागू हो सकती है, होनी चाहिए, लेकिन दूसरी तरफ इन तबकों के लिए आरक्षित चुनावी सीटों पर क्रीमीलेयर लागू करना शायद व्यवहारिक और सही नहीं होगा, इसलिए हम उस पर अभी कोई विचार नहीं रख रहे हैं। इस बात को समझना जरूरी है कि पढ़ाई और नौकरी के अवसर गिने-चुने रहते हैं, और एसटी-एससी तबकों के क्रीमीलेयर में वे सारे ही खत्म हो जाते हैं। इनको हटा देने पर भी इन तबकों के शायद 90 फीसदी लोग मुकाबलों में फिर भी बचे रहेंगे। और वे ही लोग सामाजिक अन्याय के इतिहास की रौशनी में आज आरक्षण के असली हकदार हैं।
एक वक्त था जब आज के मीडिया के तहत सिर्फ अखबार ही आया करते थे। उन दिनों अखबारों का वजन रद्दी से तय नहीं होता था, बल्कि उसकी प्रसार संख्या से तय होता था, और उसकी साख से भी। कुछ अखबार कम छपते-बिकते थे, लेकिन उनकी बात का वजन अधिक रहता था। बाद में टीवी चैनल आए, और उनकी दर्शक संख्या गिनने के सच्चे-झूठे जैसे भी हो, कुछ पैमाने बनाए गए। इस दौर में भी यह कुछ हद तक कायम रहा कि सबसे अधिक देखे जाने वाले चैनलों की साख भी सबसे अधिक हो, यह जरूरी नहीं था। दर्शक संख्या की लिस्ट में नीचे आने वाले कुछ चैनलों का नाम भी साख की लिस्ट में ऊपर रहता था, ठीक वैसे ही जैसे कुछ अखबार बिकते-दिखते तो कम थे, लेकिन उनकी बात को अधिक गंभीरता से लिया जाता था।
अखबार के बिकने को उसके अलग-अलग पन्नों से नहीं तौला जा सकता था। पूरे का पूरा अखबार एक ही रहता था, उसकी सामग्री किसी वेबसाईट पर भी नहीं रहती थी जिससे कि यह देखा जा सके कि उसके अलग-अलग पन्नों पर छपी सामग्री में से किसे कम देखा जा रहा है, और किसे अधिक। लेकिन टीवी के आने के साथ ही यह भी हिसाब-किताब लगने लगा कि किस चैनल के कितने बजे के कार्यक्रम में दर्शक संख्या कितनी है, और दर्शक कितनी देर वहां पर रूकते हैं। फिर धीरे-धीरे अखबारों और टीवी चैनलों की वेबसाइटें बननी लगीं, और बहुत सी समाचार वेबसाइटें खुद की भी थीं। इनमें किस लेख या समाचार, किस वीडियो या ऑडियो को कितने लोगों ने देखा, यह अलग-अलग दिखने लगा, और इसी से यह तय होने लगा कि वेबसाइट पर, या उसके पीछे के अखबार में क्या छापा जाए, और क्या नहीं।
अब जब सोशल मीडिया पर फॉलोअर, लाईक्स, रीपोस्ट, और कमेंट जैसे कई पैमाने लोकप्रियता को तय करने लगे, तो उत्कृष्टता सौतेले बच्चे सरीखी हो गई। उसी घर में उसे ऐसे कोने पर रखा गया कि वह मेहमानों को न दिखे। आज पल-पल यह तय होता है कि किसी रिपोर्टर, स्तंभकार, या संपादक के लिखे हुए पर कितने दर्शक, श्रोता, या पाठक जुटे। यूट्यूब पर यह दिखने लगा कि किस उम्र के औरत या मर्द, देश और दुनिया के किन इलाकों से कितनी देर देख रहे हैं, उनकी उम्र क्या है, और कितने फीसदी लोग कितने सेकेंड के बाद देखना बंद कर देते हैं।
किसी देश में लोकतांत्रिक चुनावों में चुनी गईं सरकारें जिस तरह उत्कृष्टता की कोई गारंटी नहीं होतीं, ठीक उसी तरह आज के मीडिया पर किसी सामग्री को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने से उसकी उत्कृष्टता का कुछ भी लेना-देना नहीं रहता, इससे जरूर लेना-देना रहता है कि उसे कितने लोग देखने वाले हैं। अब किसी भी तरह के मीडिया संस्थान में महत्व का यही एक पैमाना रह गया है कि उसे कितने लोग देखेंगे, सुनेंगे, या पढ़ेंगे। नतीजा यह हुआ है कि आज के मीडिया में काम करने वाले लोग, चाहे वे वहां के कर्मचारी हों, या बाहर बैठे हुए लेखक हों, उनके ऊपर विश्लेषकों का लगातार यह दबाव रहता है कि उन्हें किस विषय पर लिखना है, क्या लिखना है, क्या बोलना है, और कितनी देर यह काम करना है।
हमारा अपना तजुर्बा यह है कि हम अपने अखबार के यूट्यूब चैनल पर अगर रूस और यूक्रेन के बारे में कुछ कहते हैं, या गाजा पर इजराइली ज्यादतियों के बारे में कुछ कहते हैं, तो उसे बड़ी सीमित संख्या में लोग देखते हैं। दूसरी तरफ हम किसी बहुत ही सतही राजनीतिक विवाद के बारे में कोई गंभीर टिप्पणी करते हैं, तो उसके सतही पहलू की वजह से उसे देखने वालों की कतार लग जाती है। अब अगर हमारी अर्थव्यवस्था यूट्यूब से मिलने वाली कमाई की मोहताज रहती, तो दुनिया के जरूरी मुद्दों पर कुछ कहना बड़ा मुश्किल हो जाता, और ओछी बातों को बोलने के बाद किसी और बात पर बोलने को समय ही नहीं रहता। गनीमत यही है कि हम अभी तक इस अंधी दौड़ में शामिल हुए बिना काम कर रहे हैं। अखबार की वेबसाइट पर भी अगर हमने अलग-अलग सामग्री को देखने वाले लोगों की गिनती देखना शुरू किया होता, तो कोई गंभीर और ईमानदार बात लिखना मुश्किल हो गया रहता।
गुजरात के जामनगर में दिल के ऑपरेशन के एक बड़े अस्पताल में एक डॉक्टर ने बिना जरूरत मरीजों के दिल में स्टेंट लगाकर सरकारी इलाज योजनाओं से करोड़ों रूपए का घपला कर लिया। यह जामनगर का एक बड़ा नामी-गिरामी निजी अस्पताल है, और वहां पहुंचे मरीजों का ईसीजी सामान्य होने पर भी डॉक्टर ने उन्हें डराया कि स्टेंट नहीं लगेगा, तो दिल रूक जाएगा। इसके बाद फर्जी रिपोर्ट बनाकर उनकी समस्या को अधिक दिखाया है, और स्टेंट लगाकर सरकारी योजनाओं से दो-दो लाख रूपए निकाल लिए गए। इसके लिए डॉक्टर ने मरीज भेजने वाले दूसरे छोटे डॉक्टरों को 20 फीसदी कमीशन भी दिया। सरकारी अफसरों ने अभी तीन दिन पहले छापा मारा, तो उसमें 100 से ऐसे अधिक फर्जी केस निकले, और गैरजरूरी सर्जरी का रिकॉर्ड भी निकला। डॉक्टर पाश्र्व वोरा इस अस्पताल का डायरेक्टर भी था, और इन गैरजरूरी मामलों से अस्पताल में छह करोड़ रूपए से अधिक सरकारी योजनाओं से ऐंठ लिए। डॉ.वोरा ने वहां 8 सौ से अधिक हार्ट-ऑपरेशन भी किए, और इनमें से अधिकतर सरकारी योजनाओं से भुगतान वाले थे। इसके लिए अस्पताल गरीब परिवारों को निशाना बनाता था जिनके पास पीएमजेएवाई कार्ड हैं, और उन्हें फ्री चेकअप कैम्प के नाम पर बुलाकर फर्जी रिपोर्ट बनाई जाती थी, स्वस्थ मरीजों की धमनियों को भी 80 फीसदी ब्लाक बताया जाता था, और स्टेंट लगाकर सरकार से पैसे ले लिए जाते थे।
लोगों को याद होगा कि कई साल पहले छत्तीसगढ़ में भी राजधानी रायपुर के कई अस्पतालों में गांव-गांव से महिला मरीजों को लाकर उनके गर्भाशय निकालने का एक संगठित जुर्म किया था। जिनके अभी और बच्चे पैदा होने थे, जिनके बदन में कोई तकलीफ नहीं थी, उनके भी गर्भाशय इसलिए निकाल दिए गए थे कि उनके इलाज के कार्ड में रकम बाकी थी। ऐसे कई अस्पतालों की मान्यता भांडाफोड़ होने के बाद खत्म की गई थी, और कई सर्जनों का लाइसेंस भी कई महीनों के लिए निलंबित किया गया था। सरकार की योजनाएं जहां रहती हैं, वहां उनमें छेद ढूंढकर, वहां से सरकारी भुगतान निकाल लेने का काम अधिकतर विभागों में किया जाता है। हमने छत्तीसगढ़ में ही बीज निगम, हार्टिकल्चर मिशन जैसे कई सरकारी दफ्तरों में परले दर्जे का संगठित अपराध देखा है। एक पार्टी की सरकार चली जाती है, दूसरी पार्टी की सरकार आ जाती है, लेकिन इन विभागों में लुटेरे सप्लायर और ठेकेदार वही के वही कायम रह जाते हैं। वे सरकारी योजनाओं में घोटालों की संभावना इतनी अच्छी तरह देख चुके रहते हैं कि नए मंत्री, और अफसर भी उन्हीं को उन्हीं के नाम से, या कुछ अलग नाम से जारी रखने को फायदे का सौदा पाते हैं।
अभी महाराष्ट्र के नागपुर की एक खबर है कि वहां सरकारी शिक्षक भर्ती की एक योजना, शालार्थ आईडी में एक बड़ा घोटाला हुआ है, और अपात्र लोगों को फर्जी तरीके से शिक्षक नियुक्त करके उनके नाम पर करीब सौ करोड़ रूपए वेतन निकाल लिया गया है। इस मामले में कुछ गिरफ्तारियां भी हो चुकी हैं, और अब साढ़े 5 सौ शिक्षकों को गिरफ्तार करने की तैयारी चल रही है जिससे खलबली मची हुई है। सरकार की कोई भी ऐसी योजना नहीं दिखती जिसमें घोटाला न होता हो। पूरी तरह से संगठित भ्रष्टाचार, पूरी तैयारी से की गई जालसाजी के कई मामले सामने आते रहते हैं। किसानों को खेती या बागवानी के उपकरण देने के नाम पर नकली उपकरण टिका दिए जाते हैं, और अफसर पैसा खा जाते हैं। जब अफसर पैसा खाते हैं, तो जाहिर है कि पैसा नेताओं तक भी पहुंचता ही होगा। देश में शायद ही ऐसा कोई प्रदेश हो जहां पर सरकारी कामकाज में संगठित भ्रष्टाचार न होता हो।
बिहार चुनाव के नतीजे आते जा रहे हैं, लेकिन किसी को इन नतीजों को देखने की जरूरत अब रह नहीं गई है। भाजपा-जेडीयू गठबंधन वहां जरूरत से खासी अधिक सीटों पर लीड लेकर एक किस्म से सरकार बना चुका है, और आरजेडी-कांग्रेस वहां गठबंधन औंधेमुंह जमीन पर पड़ा हुआ है। इस पल, दोपहर एक बजे के आंकड़े बता रहे हैं कि एनडीए पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले 72 सीटें अधिक पाते दिख रहा है, और वह 197 सीटों पर आगे है। तकरीबन इतनी ही सीटें, 70 सीटें खोकर महागठबंधन 40 सीटों पर सिमटते दिख रहा है। कुछ घंटों में आंकड़ों में कुछ फेरबदल हो सकता है, लेकिन इन दोनों गठबंधनों का यह अनुपात बदलने का अब कोई आसार नहीं है। एनडीए को महागठबंधन से करीब 5 गुना अधिक सीटें मिलना, यह उन राजनीतिक विश्लेषकों, और मीडिया का मुखौटा लगाकर काम करने वाले भाड़े के भोंपुओं के मुंह पर एक तमाचा है। धर्मेंद्र की मौत की झूठी खबर जितना पड़ा तमाचा थी, उससे अधिक बड़ा तमाचा बिहार के नतीजे उन चेहरों पर हैं। किसी भी एक्जिट पोल ने ऐसे नतीजों की भविष्यवाणी नहीं की थी जो इस पल आते दिख रहे हैं।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने बिहार के चुनाव प्रचार में चुनाव आयोग के खिलाफ जो हल्ला बोला था, उससे अधिक ऊंची आवाज का कोई चुनाव प्रचार वहां हो नहीं सकता था, दूसरी तरफ एनडीए ने वहां महिलाओं को सीधे आर्थिक राहत देने का जो काम किया था, उसकी कोई काट राहुल-तेजस्वी के प्रचार में आखिरी तक आ नहीं पाई। चुनाव आयोग के खिलाफ राहुल का अभियान सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचकर वहां जितने किस्म की सुनवाई करवा सकता था, उसने करवा दी थी। इससे अधिक कुछ इन लोगों के हाथ में था नहीं। दूसरी तरफ नीतीश कुमार की अगुवाई में बिहार की एनडीए सरकार वहां इतने लंबे समय से काम कर रही है कि मुख्यमंत्री के खिलाफ, या उनके इस मौजूदा गठबंधन, एनडीए के खिलाफ जितने तरह का जनअसंतोष हो सकता था, वह जनसमर्थन में बदला हुआ दिख रहा है। नीतीश कुमार अभी तक 9 बार मुख्यमंत्री बन चुके हैं, जो कि देश में एक रिकॉर्ड है। दूसरी तरफ मुख्यमंत्री के पद पर वे 20 बरस से ज्यादा काम कर चुके हैं, जो सबसे लंबे कार्यकाल का रिकॉर्ड तो नहीं है, लेकिन यह कार्यकाल अगर वे पूरा कर पाते हैं, तो वे सिक्किम के चामलिंग का 24 साल 7 महीने का रिकॉर्ड तोड़ देंगे। फिलहाल उन्हीं के मुख्यमंत्री बनने का आसार है, जबकि भाजपा की सीटें उनसे अधिक हैं। भाजपा के सारे दिग्गज नेता बार-बार यह कह चुके हैं कि गठबंधन के मुख्यमंत्री नीतीश ही रहेंगे। आंकड़ों को अगर देखें तो भाजपा अपनी पिछले संख्या से 16 सीटें अधिक पाकर अभी 90 पर आती दिख रही है, और जेडीयू अपनी पिछली सीटों से 38 सीटें अधिक पाकर 81 पर आगे है।
ये आंकड़े बिल्कुल ही असाधारण हैं, और बिहार में एनडीए के किसी भी संभावित विकल्प की संभावना को मटियामेट करते हैं। सबसे ऐतिहासिक कांग्रेस की दुर्गति है, जो कि 19 सीटों से गिरकर चार सीटों पर आती दिख रही है। यूपीए के बाद बिहार, देश के दो सबसे बड़े राज्यों में कांग्रेस पूरी तरह हाशिए पर चली गई है, और इतनी बड़ी-बड़ी विधानसभाओं में वह आधा दर्जन तक भी नहीं पहुंच रही। अभी बिहार का रूख जारी रहता है, तो यूपी बिहार मिलाकर कांग्रेस जरूर आधा दर्जन हो जाएगी। कांग्रेस के साथ लालू-पार्टी, आरजेडी की भी दुर्गति हो गई है, और वह 46 सीटें खोकर कुल 29 पर आ टिकी है। इससे देश में भाजपा विरोधी गठबंधन के इन दो सबसे पुराने, सबसे बड़े, और सबसे महत्वपूर्ण भागीदारों के भविष्य पर भी एक बड़ा सवालिया निशान लगता है।
पिछले एक हफ्ते में कश्मीर से शुरू हुई खबरें राजस्थान, उत्तरप्रदेश, और हरियाणा तक बिखर गई हैं, और तरह-तरह के हथियार, विस्फोटक, आतंकी हमलों की साजिशों की खबरें छाई हुई हैं। कल की खबर है कि तीन राज्यों में एक दिन में 507 जगहों पर पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियों के छापे पड़े हैं। इनमें कई तो मुस्लिम डॉक्टर हैं जो कि जम्मू-कश्मीर से निकले हुए हैं और दूसरे राज्यों में काम कर रहे हैं। दिल्ली के लाल किले के पास अभी जो धमाका हुआ उसके पीछे भी इन्हीं डॉक्टरों में से कुछ का हाथ बताया जा रहा है। जांच एजेंसियों का काम अभी किसी किनारे पहुंचा नहीं है, लेकिन किसी भी दूसरे जुर्म या हादसे की तरह इस धमाके की जानकारी भी जनता के सामने रखी जा रही है। मोदी सरकार के विरोधी इसे बिहार के मतदान को प्रभावित करने की एक कोशिश कह सकते हैं, लेकिन यह भी देखने की जरूरत है कि जितने राज्यों तक बिखरा हुआ यह मामला जितने किस्म के साइबर और डिजिटल सुबूतों वाला है, जितने तरह के विस्फोटक और हथियार मिल रहे हैं, उन सबको गढ़कर सिर्फ जनधारणा प्रबंधन के लिए ऐसी साजिश करना किसी सरकार के बस का नहीं दिखता है। जब तक सरकार की किसी बदनीयत को साबित करने के सुबूत न हों, तब तक हम पहली नजर में सरकार के हाथ लगे इतने सारे सुबूतों को किसी गढ़ी हुई साजिश का हिस्सा नहीं मान सकते। इसलिए हम पहली नजर में ऐसी किसी आशंका को खारिज करते हुए ही इस मुद्दे पर आगे बात कर रहे हैं।
अभी तक की जानकारी के मुताबिक कुछ दर्जन मुस्लिम, डॉक्टरों और दीगर लोगों के नाम सामने आए हैं कि वे कुछ हमलों की तैयारी कर रहे थे। अगर ऐसे कुछ लोग ऐसा कर रहे थे, तो उसमें हमें कोई हैरानी नहीं होती क्योंकि भारत में मुस्लिमों के मन में अगर एक बड़ा रंज चल रहा है, उनके साथ एक बड़ा भेदभाव हो रहा है, उन्हें अपने आपको लेकर एक हीनभावना हो रही है, तो यह स्वाभाविक ही है कि उनमें से कुछ गिने-चुने लोग लोकतंत्र पर भरोसा छोड़कर हथियार उठा लें। भारत में धर्म से परे भी बहुत से मुद्दों को लेकर लोगों ने हथियार उठाए हैं। उत्तर-पूर्व के जितने राज्यों के आंदोलन चले, उनका धर्म से कोई लेना-देना नहीं था, कश्मीर के अलगाववादी आंदोलन का धर्म से लेना-देना नहीं था, और पंजाब का खालिस्तानी आंदोलन भी किसी धर्म के खिलाफ न होकर एक स्वतंत्र खालिस्तान के लिए था। इसलिए भारत में सांप्रदायिकता या धर्मांधता से परे भी हथियारबंद आंदोलनों का लंबा इतिहास रहा है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में जो नक्सल आंदोलन पिछले 25 बरस में पांच हजार से अधिक जिंदगियां ले चुका है, उसका किसी धर्म से लेना-देना नहीं था। इसलिए आज अगर मुस्लिम समाज के कुछ दर्जन या कुछ सौ लोग भारतीय लोकतंत्र पर भरोसा खोकर हथियार उठाकर आत्मघाती हमले करने की सोचते हैं, तो यह नाजायज चाहे जितना हो, अस्वाभाविक जरा भी नहीं है। जब किसी तबके की कोई आशा नहीं रह जाती, उन्हें जब कोई संभावना नहीं दिखती, उन्हें जब सोते-जागते गद्दारी की तोहमत ही झेलनी है, तो फिर वे अपनी एक अलग राह तय कर लेते हैं। ऐसा दुनिया के बहुत से देशों में होता है। पाकिस्तान, और दर्जनभर ऐसे दूसरे मुस्लिम देश हैं जिनमें मुस्लिम ही मुस्लिमों पर हमले कर रहे हैं। फिर यह बात समझने की जरूरत है कि पिछले एक हफ्ते में हथियारों और आतंकी साजिशों की कश्मीर से उतरी हुई जितनी खबरें सामने आई हैं, वे किसी धर्म के खिलाफ नहीं हैं, वे सिर्फ देश की सरकार के खिलाफ हैं, या सार्वजनिक जीवन में एक हिंसक और हथियारबंद विरोध प्रदर्शन करने की हैं। लाल किले के पास जो विस्फोट दो दिन पहले हुआ है उसमें मरने वालों में मुस्लिम भी हैं जो कि देश में उनकी आबादी के मुकाबले मरने वालों में अधिक ही हैं। यह विस्फोट किसी धार्मिक जगह पर नहीं हुआ, किसी एक धर्म के जमावड़े पर नहीं हुआ, बल्कि सड़क पर हुआ, और लाल किले के आसपास के इलाके में सड़कों पर भी खासे मुस्लिम रहते हैं।
लेकिन इस बात को समझने की जरूरत है कि इस देश में 20 करोड़ से अधिक मुस्लिम आबादी का अनुमान है, और यह कुल आबादी का 14-15 फीसदी है। आबादी के इतने बड़े हिस्से को लगातार हीन भावना में रखना किसी देश के लिए अच्छी बात नहीं है। इस हिस्से को उसके धार्मिक रीति-रिवाजों के लिए, सामाजिक कानूनों के लिए लगातार आहत करने के अपने अलग खतरे रहते हैं। देशभर में जगह-जगह मुस्लिमों पर जिस तरह की कानूनी कार्रवाई हो रही है, उन पर जिस तरह बुलडोजर चल रहे हैं, जिस तरह उनके खिलाफ असम के मुख्यमंत्री की तरह कई नेता भड़काने और उकसाने वाली बातें कर रहे हैं, उन सबका अच्छा नतीजा नहीं हो रहा है। हमने साल दो साल पहले भी इस बारे में लिखा था कि अगर इस देश में कमजोर होते लोकतांत्रिक वातावरण से निराश होकर अगर कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी धर्मांधता में फंस जाते हैं, और देसी-परदेसी किसी तरह की आत्मघाती हिंसा में शामिल हो जाते हैं, तो गिने-चुने लोग भी बड़ा नुकसान पहुंचा सकते हैं। यह बात देश के किसी तबके की तरफ से देश के किसी दूसरे तबके को धमकी नहीं है, लेकिन यह लोकतंत्र के कमजोर होने को लेकर एक चेतावनी जरूर है, सबके लिए सावधान होने की जरूरत है कि कोई भी देश-प्रदेश इस तरह की पूरी तरह गैरजरूरी और अवांछित तनातनी को झेल नहीं सकते। लोकतंत्र में सबको साथ लेकर चलने की जो समझ रहती है, वही पूरे देश की तरक्की की गारंटी भी हो सकती है। 15 फीसदी आबादी की उपेक्षा से इस देश के आगे बढ़ने की संभावनाएं भी 15 फीसदी घट सकती हैं।
लोकतंत्र में किसी एक बहुसंख्यक तबके में पनपाई गई धर्मांधता का पेट भरने के लिए उसे, अल्पसंख्यकों को दी जा रही तकलीफें दिखाते चलना कोई समझदारी की बात नहीं है। इससे कोई चुनाव जीता जा सकता है, लेकिन इससे देश आगे नहीं बढ़ सकता। आज जिस तरह बहुसंख्यक हिंदू धर्म से जुड़े हुए अनगिनत सत्तारूढ़ लोग और धर्मप्रचारक, सनातन का झंडा लेकर चल रहे हैं, उसका हमला सिर्फ अल्पसंख्यक मुस्लिमों और ईसाईयों पर नहीं हो रहा, उसका हमला तो हिंदू धर्म के भीतर गिने जाने वाले दलितों और आदिवासियों पर भी हो रहा है। छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में जहां पर कि सारे के सारे अल्पसंख्यक लोग चार फीसदी से भी कम हैं, वहां पर अल्पसंख्यकों पर इतने अधिक हमलों की जरूरत भी नहीं है, जो कि हर इतवार कहीं न कहीं किसी घर-परिवार में हो रही ईसाई प्रार्थना सभा पर हमलों की शक्ल में दिख रहे हैं। फिर मानो वह भी काफी न हो तो कल इसी प्रदेश में किसी हिंदू कथावाचक ने सनातन की वकालत करते हुए अनुसूचित जाति के सतनामी समाज के खिलाफ घोर अपमानजक और आपत्तिजनक बातें कहीं। मतलब यह कि हिंदुओं के भीतर भी एक अधिक शुद्ध हिंदू के दुराग्रह के साथ जो सनातनी पैमाने लागू किए जा रहे हैं, वे तो हिंदू समाज के ही कुछ हिस्सों पर हमले हैं, कहीं दलितों पर, तो कहीं आदिवासियों पर।
देश में इंसान-जानवर टकराव अब तक जंगलों में चल रहा था, जहां कहीं पर जानवर इंसानों को मार रहे थे, तो कहीं पर इंसान करंट बिछाकर, पानी में जहर घोलकर, या किसी और तरीके से जानवरों को मार रहे थे। अब जानवर-मानव टकराव जंगलों से निकलकर शहरों तक आ गया है, और देश भर के शहरों में कुत्तों और इंसानों के बीच अस्तित्व का खतरा खड़ा हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस पूरे मुद्दे को अपने मनमाने आदेशों से ऐसा उलझा दिया है कि कोई राज्य सरकार, या कोई म्युनिसिपल समझदारी का कोई काम कर ही न सके। कुत्तों की आबादी शहरों में बेकाबू है, उन्हें खिलाने पर आमादा पशुप्रेमियों के उत्साह में कोई कमी नहीं है, और उनके काटे हुए इंसानों के लिए सरकारी अस्पतालों में वैक्सीन नहीं हैं। नतीजा यह है कि गरीबों को बाजार से महंगी वैक्सीन खरीदकर लगवाना पड़ता है, वरना कहावतों की जुबान में, कुत्तों की मौत करने के लिए तैयार रहना पड़ता है। काटने वाले कुत्तों में से कितने रैबीज से संक्रमित रहते हैं, इसका कुछ पता नहीं चल पाता क्योंकि सडक़ के कुत्तों का कोई रिकॉर्ड तो रहना नहीं है, और काट लेने के बाद ऐसे कुत्ते की कोई शिनाख्त भी नहीं हो पाती। मतलब यह कि वैक्सीन का पूरा कोर्स किए बिना रैबीज से मरने का पूरा खतरा रहता है, और कोई भी वैसी मौत की कल्पना भी नहीं कर सकते।
हजारों बरस पहले इंसानों ने जंगली जानवरों को पालतू बनाते हुए कुत्तों को पालना शुरू किया था, और पिछले कुछ सौ बरसों से तो कुत्ते इंसानों के परिवार की तरह जगह-जगह रहने लगे थे। वे इंसानों को जंगली जानवरों के हमले से आगाह भी करते थे, शिकार में मदद भी करते थे, और पहुंच से परे की जगहों से शिकार को उठाकर भी लाते थे। लेकिन इंसानी बसाहटों में धीरे-धीरे पालतू कुत्ते सार्वजनिक भी होने लगे, और गांव-कस्बे, शहरों की सडक़-गलियों में कुत्तों की आबादी पनपने लगी। जिन संपन्न और विकसित देशों में कुत्ते सिर्फ पालतू होते हैं, वहां पर तो उन्हें पालने वाले परिवार उनका टीकारण करवा पाते हैं, लेकिन बाकी जगहों पर पंचायत या म्युनिसिपल के बस में हर बेघर-आवारा कुत्ते की नसबंदी या टीकाकरण नहीं हैं। नतीजा यह होता है कि रैबीज के खतरे वाले कुत्तों की आबादी सडक़ों पर बढ़ती चलती है। जो लोग कुत्तों को पालते हैं वे भी शौक पूरा हो जाने पर, या किसी निजी वजह से उन्हें सडक़ों पर छोड़ देते हैं, अगर टीकाकरण किया भी रहा हो, तो भी उसका असर कुछ महीनों में खत्म हो जाता है, और वे खुद रैबीज संक्रमित होने का खतरा उठाते हुए इंसानों के लिए भी इस जानलेवा संक्रमण का खतरा बने रहते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दो-तीन महीनों में तीन अलग-अलग आदेशों में एक बदअमनी सी खड़ी कर दी है। पहले फैसले में दो जजों ने दिल्ली-एनसीआर के पूरे इलाके से हर कुत्ते को हटाकर बाड़े में रखने को कहा था। अगले फैसले में सुप्रीम कोर्ट एक बड़ी बेंच ने इस पर रोक लगा दी थी, और किसी भी इलाके से उठाए गए कुत्तों को टीकाकरण और नसबंदी के बाद उसी इलाके में वापिस छोडऩे का हुक्म दिया था। इसी बेंच ने अब तीसरे फैसले में यह कहा है कि स्कूल-कॉलेज, अस्पताल, स्टेशन-बसस्टैंड से कुत्तों को हर हाल में हटाकर बाड़ों में रखा जाए, और इन जगहों पर कुत्ते दुबारा न घुस सकें, उसका पुख्ता इंतजाम किया जाए। लेकिन इन सार्वजनिक जगहों से परे बाकी इलाकों से कुत्तों को हटाने पर रोक जारी है। ऐसे माहौल मेें देश भर के अधिकतर इलाकों में कुत्ते लोगों को काट रहे हैं, लोगों के लिए सरकारी इंतजाम में वैक्सीन नहीं है, और सुप्रीम कोर्ट के जज कारों में बंगले से कोर्ट आ-जा रहे हैं। अभी तक ऐसे कुत्ते बने नहीं हैं जो कि कारों के आरपार इंसानों को काट सकें।
राजधानी दिल्ली में बीती शाम ऐतिहासिक लालकिले के करीब एक कार में हुए विस्फोट में अब तक करीब दर्जनभर लोगों के मारे जाने की खबर है, और दर्जनों लोग जख्मी हैं। सडक़ पर व्यस्त टै्रफिक के बीच इस धमाके में उस कार के तो परखच्चे तो उड़ ही गए और आसपास की कई गाडिय़ां जलकर राख हो गईं। दिल्ली में बरसों बाद ऐसा विस्फोट हुआ है, और पिछले दो दिनों से दिल्ली के इलाके के फरीदाबाद में एक जगह 3 टन विस्फोटक मिला था, अटकलें इन दोनों बातों का रिश्ता जोड़ रही हैं। कश्मीर से रिश्ता रखने वाले दो अलग-अलग डॉक्टरों से राजस्थान और हरियाणा में जिस तरह हथियार और विस्फोटक मिले हैं, उनसे भी यह घटना जुड़ी हुई हो सकती है। लेकिन भारत में राजनीति ऐसी है कि लोग इसे बिहार चुनाव में मतदान के ठीक पहले विस्फोट भी समझ रहे हैं।
जिन लोगों ने दिल्ली में दर्जनभर से अधिक दाखिल होने वाली सडक़ों से आकर इस राजधानी-महानगर में गाडिय़ों का सैलाब देखा हुआ नहीं होगा, वे ही यह मानकर चल सकते हैं कि दूसरी जगहों पर विस्फोटक मिलने के बाद दिल्ली में सुरक्षा क्यों नहीं बढ़ाई गई, गाडिय़ों की जांच क्यों नहीं की गई। जिस शहर में बिना किसी जांच ही लगातार टै्रफिक जाम रहते हों, उस शहर में अगर गाडिय़ों की जांच की जाए, तो जिंदगी थम ही जाएगी। दूसरी बात यह भी है कि विस्फोटकों के जो बड़े-बड़े जखीरे मिलना बताया गया है, वे भी किसी जांच और खुफिया कार्रवाई की कामयाबी का ही सुबूत हैं। इस बात को समझना होगा कि देश के चारों तरफ के सरहदी मुल्कों से खराब रिश्तों के चलते हुए किसी तरफ से आतंकी किस तरह के विस्फोटक या हथियार लेकर घुस सकते हैं, यह अंदाज लगा पाना, और काबू करना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं है। समझदारी हमेशा इसी बात में रहती है कि पड़ोसियों के बीच रिश्ते अच्छे रहें। रिश्तेदारों से रिश्ते अच्छे न रहना एक बार चल सकता है, क्योंकि लोग उनसे कम मिलकर भी काम चला सकते हैं, और बिना मिले भी, लेकिन पड़ोसी तो सोते-जागते सामने पड़ते हैं, उनसे तो बचा भी नहीं जा सकता। इसलिए जब योरप के देश एक समुदाय बनाकर आपस में रिश्ते अच्छे रखते हैं, सरहदों को कई बातों के लिए मिटा देते हैं, तो वे चैन से भी जीते हैं।
यह चौदह बरस बाद दिल्ली का पहला बड़ा विस्फोट है। वर्ष 2011 में दिल्ली हाईकोर्ट के अहाते में एक विस्फोट में 15 मौतें हुई थीं, और 80 के करीब लोग घायल हुए थे, उसकी जिम्मेदारी एक इस्लामी-आतंकी संगठन ने ली थी, और इस केस में तीन लोगों को उम्रकैद हुई थी। इस रिकॉर्ड को देखते हुए दिल्ली में कल सुरक्षा एजेंसियों और खुफिया एजेंसियों की नाकामयाबी गिनना ठीक नहीं है। इन दोनों का काम जब कामयाबी से होता है, तो वह दिखता नहीं है, इमारत की नींव में दब जाता है, और जब असफल रहता तो वह छत पर चढक़र चीखता है। बीते बरसों में कश्मीर में जरूर बड़े-बड़े हमले हुए, लेकिन दिल्ली सुरक्षित रही। दिल्ली की हिफाजत भी केंद्र सरकार के जिम्मे है, और मणिपुर से लेकर कश्मीर तक तोहमत झेलने वाली इस केंद्र सरकार को दिल्ली की सुरक्षा के लिए एक तारीफ भी मिलनी चाहिए। कल शाम के धमाके से फिलहाल तारीफ की संभावनाएं खत्म हो गई हैं।
दुनिया के एक सबसे बड़े स्वतंत्र समाचार-संस्थान बीबीसी के डायरेक्टर जनरल, और हेड ऑफ न्यूज ने इस्तीफे दे दिए हैं। बीबीसी के एक कार्यक्रम पर यह आरोप लगा था कि उसमें अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प के भाषण के दो अलग-अलग वाक्यों को एक के बाद एक इस तरह रख दिया गया था कि वे एक सांस में कहे हुए लग रहे थे। ये दोनों वाक्य ट्रम्प के भाषण में 50 मिनट के फासले पर कहे गए थे, लेकिन उन्हें जब एक साथ रख दिया गया, तो उससे ऐसा आभास पैदा हुआ कि ट्रम्प लोगों को अमरीकी संसद पर हमला करने के लिए उकसा रहे थे। यह मामला 6 जनवरी 2021 का था, जब ट्रम्प राष्ट्रपति चुनाव की मतगणना में हार चुके थे, और उन्होंने हार मानने के बजाय अपने लोगों को संघर्ष करने के लिए भडक़ाया था। ट्रम्प की हरकतें अलग थीं, लेकिन बीबीसी के एक कार्यक्रम में भाषण के दो अलग-अलग हिस्सों को जोडक़र दिखाने का मामला इतना तूल पकड़ गया, और बीबीसी के भीतर उस पर इतनी चर्चा-बहस हुई कि दो सबसे वरिष्ठ लोगों को इस्तीफे देने पड़े। अभी अभी बीबीसी के चेयरमैन समीर शाह आज संसद की एक कमेटी के सामने इसी मामले में बयान देने वाले थे, और उम्मीद की जा रही थी कि वे ट्रम्प के भाषण को एडिट करने के तरीके के लिए माफी मांगेंगे, लेकिन उसके पहले ही ये इस्तीफे आ गए।
भारत में अखबार, टीवी, या डिजिटल मीडिया, पढऩे, देखने-सुनने वाले लोगों को बीबीसी का यह सिलसिला हैरान करेगा क्योंकि भारतीय मीडिया तो कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, संपादक ने कुनबा जोड़ा के अंदाज में काम करता है। आम अखबारों, और आम टीवी चैनलों पर कुछ भी सच रहना जरूरी नहीं रह गया है। और लाईनों या शब्दों को काट-काटकर, जोड़-जोडक़र, सही संदर्भ के ठीक उल्टे लगाकर कुछ भी किया जा सकता है, और उसे सोशल मीडिया की राजनीतिक फौज की मेहरबानी से हर हिन्दुस्तानी पर थोपा भी जा सकता है। ऐसे में जनता के पैसों से चलने वाले बीबीसी नाम के समाचार-संस्थान में एक किसी कार्यक्रम को लेकर दो सबसे बड़े लोगों को जिस तरह छोडऩा पड़ रहा है, नैतिकता और पेशे के, ईमानदारी और जवाबदेही के वैसे पैमाने अगर भारत में लागू किए जाएंगे, तो अखबारनवीसों, और बाकी मीडियाकर्मियों का एक बड़ा हिस्सा सडक़ पर आ जाएगा। फिर भी भारत के मीडिया टापू के बीच बैठे हुए धरती के गोले के दूसरी तरफ गोरों के टैक्स से चलने वाले बीबीसी के पेशेवर पैमानों को देखने में क्या हर्ज है? मेरे सीने में नहीं, तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन, आग जलनी चाहिए।
भारत में भी एक वक्त था, जब खालिस पत्रकारों का एक संगठन, श्रमजीवी पत्रकार संघ होता था, और वह पत्रकारों के कानूनी अधिकारों के लिए तो लड़ता और आंदोलन करता ही था, वह पत्रकारिता पर या पत्रकारों पर होने वाले हमलों पर भी आंदोलन करता था। लेकिन इसके साथ-साथ पत्रकारों की पेशेवर ईमानदारी और जिम्मेदारी पर भी इस संगठन में बात होती थी। अब सिर्फ कामगार-पत्रकारों के आंदोलन ठंडे पड़ चुके हैं, और जगह-जगह प्रेस क्लब नाम की संस्थाएं पत्रकार-गैरपत्रकार सभी के लिए हो गई हैं, और मीडिया नाम का नया छाता हर किस्म के मीडियाकर्मी के लिए रह गया है, जिसमें अखबारनवीसी की जगह बड़ी कम रह गई है। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम पहले भी अखबारों को मीडिया नाम की बड़ी सर्कस के तम्बू से बाहर निकलकर प्रेस नाम का अपना एक अलग अस्तित्व बनाने की बात सुझाते आए हैं। छपे हुए अखबारों के वक्त जो लोग पत्रकार बने हैं, उनकी ट्रेनिंग बिल्कुल अलग ही किस्म के पैमानों पर हुई, उनके नीति-सिद्धांत अलग किस्म और दर्जे के रहे, उनके प्रकाशन के साथ विश्वसनीयता, और उत्कृष्टता के कई पैमाने अनिवार्य रूप से लागू रहे। अखबारों को तैयार होने में कई घंटों का वक्त मिलता था, और वे खबर को जिम्मेदारी से बना पाते थे, जांच कर पाते थे, उसे उत्कृष्टता से लिख पाते थे, और कोई मामूली सी चूक होने पर भी अखबारनवीसों को बड़ी शर्मिंदगी होती थी। जिस पत्रकार के काम को लेकर कोई भूल सुधार, स्पष्टीकरण, या खंडन छापने की नौबत आती थी, वे कई दिनों तक शर्मिंदगी से उबर नहीं पाते थे। छपे हुए अखबार की पाठकों के बीच भी बड़ी ऊंची विश्वसनीयता रहती थी क्योंकि कागज पर स्याही से छपी बातों को एक बार छप जाने के बाद मिटाया नहीं जा सकता था।
आज डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विश्वसनीयता और उत्कृष्टता को काउंटरप्रोडक्टिव (प्रतिउत्पादक) मान लिया जाता है। अधिक से अधिक रफ्तार से सनसनी और तकरीबन झूठ का तडक़ा लगाकर क्या पेश किया जा सकता है जिसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें, सुनें, या देखें, यह गलाकाट मुकाबला आज के नीति-सिद्धांत, और नैतिकता को बदल चुका है। ऐसे में एक पूरी तरह डिजिटल-इलेक्ट्रॉनिक समाचार माध्यम बीबीसी में इन पैमानों को लेकर जिस तरह सिर कलम हुए हैं, वह उस संस्थान में पेशेवर-नैतिकता बताता है, और उसे दूर बैठे देखना भी सुहाता है। अभी हमने यह जानने की कोशिश की कि बीबीसी कितने समाचार-विचार रोज प्रसारित करता है, तो 2023 के आंकड़ों के मुताबिक वह हर दिन सौ घंटे से अधिक की नई और मौलिक सामग्री प्रसारित करता है। इनमें चौबीसों घंटे के समाचार चैनल भी शामिल हैं, और इनके अलावा हर दिन करीब एक लाख शब्द डिजिटल प्लेटफॉर्म पर जाते हैं। अलग-अलग 42 भाषाओं में इसके कार्यक्रम जाते हैं जिनमें आधा दर्जन भारतीय भाषाएं भी शामिल हैं। समाचार-विचार के इतने विशाल आकार में से एक कार्यक्रम में किसी एक वीडियो-संपादक ने एक भाषण की दो लाईनों को गलत तरीके से एक साथ रखने का जुर्म कर दिया, तो बड़े-बड़े सिर लुढक़ गए।
हरियाणा के डीजीपी ओपी सिंह का एक बयान कुछ लोगों को बड़ा अटपटा लग रहा है। उन्होंने भरी प्रेस कांफ्रेंस में कैमरों के सामने यह कहा कि थार और बुलेट से बदमाश चलते हैं। जिसके भी पास थार होगी, उसका दिमाग घूमा (हुआ) होगा। उन्होंने कहा कि ये जिस तरह की गाडिय़ां हैं, वो ऐसी ही दिमागी हालत उजागर करती हैं। थार गाड़ी वाले स्टंट करते हैं, हमारे एक एसीपी के बेटे ने थार से एक को कुचला, और बाद में वे (उसे बचाने के लिए) पैरवी करने आए। डीजीपी ने कहा कि हम लिस्ट निकाल लें कि हमारे कितने पुलिसवालों की, कितने पुलिसवालों के पास थार है। जिनके पास थार है उनका दिमाग घूमा (हुआ) होगा। थार गाड़ी नहीं है, एक बयान है कि हम ऐसे हैं, तो ठीक है भुगतो फिर। डीजीपी ने कहा दोनों मजे कैसे होंगे, दादागिरी भी करें, और फंसे भी नहीं, ऐसा कैसे होगा।
एक सरकारी अफसर का किसी ब्रांड को लेकर ऐसा कहना थोड़ा सा अटपटा लग सकता है, लेकिन सच तो यही है कि कुछ किस्म की गाडिय़ां दिमाग पर ऐसा असर डालती हैं कि गाड़ी के पहिए तो जमीन पर बने रहते हैं, दिमाग आसमान पर पहुंच जाता है।
इन दो गाडिय़ों के बारे में उनका कहना हमारी देखी जमीनी हकीकत के मुताबिक एकदम सही है, इन गाडिय़ों पर हो सकता है कि कुछ शरीफ लोग भी चलते हों, लेकिन इन गाडिय़ों को चलाना लोगों को एक ऐसी मशीनी ताकत, और अहंकार से भर देता है कि वे सडक़ पर अपने आपको एक अलग दर्जे का वीआईपी समझने लगते हैं। इन दो गाडिय़ों से परे भी आप जिन गाडिय़ों पर आगे-पीछे किसी राजनीतिक, सामाजिक, या धार्मिक संगठन की तख्तियां लगे देखें, गाड़ी पर झंडे-डंडे लगे देखें, गाड़ी की छत पर अतिरिक्त हेडलाईट, सायरन, या स्पीकर लगे देखें, उसका नंबर कोई खास नंबर हो, उनके शीशों पर काली फिल्म चढ़ी हुई हो, तो यह जाहिर है कि वह गाड़ी बददिमाग होगी ही। गाड़ी की अपनी कोई मानसिकता नहीं होती, लेकिन उसकी हैवानी ताकत इंसानों के दिमाग में घुस जाती है, वहां चढक़र बैठ जाती है। जो लोग इनसे और भी ऊपर दर्जे के ताकतवर होते हैं, वे गाड़ी के बोनट में सायरन या हूटर भी लगाकर चलते हैं, और आमतौर पर हॉर्न की जगह उसी का इस्तेमाल करते हैं, और कुछ बददिमाग तो हमने ऐसे भी देखे हैं जो गाड़ी पर नंबर प्लेट न लगाने को अपनी ताकत और इज्जत समझते हैं।
चौराहों, बैरियर, और टोल टैक्स नाकों पर ऐसे ताकतवर लोग पुलिस कर्मचारियों को धकियाते हैं, टोल जमा करवाते कर्मचारियों को पीटते हैं, और जगह-जगह लोगों से यह पूछते हैं- जानते हो मेरा बाप कौन है?
अब ऐसे बददिमाग सवाल का एक ही जवाब हो सकता है- तुम्हें खुद नहीं मालूम है क्या?
लेकिन आमतौर पर किसी न किसी किस्म की सत्ता से बददिमाग हुए ये लोग बाहुबलियों की फौज भी लिए चलते हैं, और उनके साथ कोई व्यंग्य करना खासा खतरनाक और आत्मघाती साबित हो सकता है। सडक़ों पर छिछोरे मवालियों के अंदाज में फौलादी इंजनों की ताकत पर गुंडागर्दी दिखाने वाले लोग जाहिर तौर पर दूसरे शांत लोगों के हक कुचलते हैं, लेकिन सत्ता को इससे कोई परहेज नहीं रहता। कई पार्टियों की सरकारें हमने आते-जाते देखी हैं, लेकिन कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों को अपने मवालियों की सडक़ों पर ऐसी गुंडागर्दी इसलिए नहीं खटकती कि उनके पदाधिकारी भी ऐसा ही काम करते हैं, और मंत्री-संतरी के आसपास के लोग भी सायरन और हूटर बजाए बिना चलना अपना अपमान समझते हैं।
हरियाणा के डीजीपी ने एक बड़ी अच्छी बात कही है जिसे कहने से कई लोग परहेज करते हैं। जानवरों को कुचलना हो, या इंसानों को, खबरें तो यही बताती हैं यूपी के लखीमपुर में चार बरस पहले केन्द्रीय मंत्री अजय मिश्र के बेटे आशीष मिश्र ने किसान आंदोलनकारियों को अपनी थार गाड़ी से कुचलते हुए अपने तेवर दिखाए थे, इसमें 8 लोग मारे गए थे। यह शायद थार गाड़ी का सबसे ही खूंखार इस्तेमाल था। हालांकि इसके ढाई साल बाद लखीमपुर से भाजपा ने अजय मिश्र को तीसरी बार भी अपना उम्मीदवार बनाया था। जितनी ताकत थार के इंजन की थी, उतनी ही ताकत बाप के केन्द्रीय मंत्री रहने की थी। ऐसा जगह-जगह हो रहा है। डीजीपी की गिनाई दूसरी गाड़ी, बुलेट का देखें, तो वह देश की अकेली ऐसी मोटरसाइकिल है जिसमें बड़ी संख्या में छेडख़ानी किए हुए, शोर और फायरिंग की आवाज करने वाले साइलेंसर लगाकर लोग घूमते हैं। निरीह पुलिस कुछ जगहों पर ऐसे कुछ लोगों का चालान जरूर कर लेती है, लेकिन बुलेट चलाने वालों के तेवर, जानता है मेरा बाप कौन है, वाले ही रहते हैं। फिर भले उनके बाप ने जिंदगी में साइकिल या मोपेड ही क्यों न चलाई हुई हो।
उत्तरप्रदेश में अभी प्रमोशन से डीएसपी बना एक पुलिस अधिकारी ऋषिकांत शुक्ला पकड़ाया, जिसने पिछले दस बरस में सौ करोड़ से अधिक की दौलत जुटा ली है। खुद यूपी पुलिस की जांच रिपोर्ट में इतनी दौलत का हिसाब-किताब अभी तक मिला है, और इसके अलावा कुछ दूसरी जमीन-जायदाद का भी पता लगा है। इस अफसर पर नजर तब पड़ी, जब कानपुर में एक बड़े चर्चित माफियानुमा वकील अखिलेश दुबे को एक पूरा गिरोह चलाने के जुर्म में अभी कुछ समय पहले ही गिरफ्तार किया गया, क्योंकि यह पता लगा था कि इस वकील ने कई पुलिस अफसरों के साथ मिलकर जुर्म का एक साम्राज्य स्थापित कर लिया था, और लोगों को फर्जी मुकदमे दर्ज करने की धमकी देकर जबरन वसूली करना, उनकी जमीन-जायदाद पर कब्जा करना, बड़े पैमाने पर किया जा रहा था। इस वकील के जुर्म की लिस्ट इतनी लंबी है कि यह कई पुलिसवालों को साथ रखकर लोगों को पॉक्सो जैसे गंभीर मामलों में फंसाने की धमकी देता था, और वसूली-उगाही करता था। ऐसी रंगदारी और ब्लैकमेलिंग में अखिलेश दुबे का साथ देने वाले चार इंस्पेक्टर, और दो दारोगा अब तक निलंबित हो चुके हैं, इनमें इंस्पेक्टर मानवेन्द्र सिंह, इंस्पेक्टर आशीष द्विवेदी, इंस्पेक्टर अमान सिंह, इंस्पेक्टर नीरज ओझा, सबइंस्पेक्टर सनोज पटेल, और सबइंस्पेक्टर आदेश यादव हैं।
उत्तरप्रदेश को अभी हाल में ही भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने एक इंटरव्यू में देश में सबसे अच्छी कानूनी व्यवस्था वाला प्रदेश कहा था। यहां पर 2017 से लगातार भाजपा के योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री हैं, और वे भाजपा के भीतर भी एक स्वायत्तशासी नेता की तरह काम करते हैं। वे एक बहुत कडक़ मिजाज प्रशासक के अंदाज में बातें करते हैं, और जुर्म के आरोप झेलने वाले लोगों की मुठभेड़-हत्या, या मुठभेड़ में उन्हें जख्मी करना, ऐसे आरोप उत्तरप्रदेश में बड़े आम हैं। उत्तरप्रदेश से ही बुलडोजर इंसाफ शुरू हुआ है, और सुप्रीम कोर्ट कई बार उत्तरप्रदेश पुलिस के तौर-तरीकों पर नाराजगी जाहिर कर चुका है। ऐसे शासन वाले प्रदेश में अगर प्रदेश के एक सबसे बड़े शहर में वकील और दर्जनों पुलिसवालों का इतना संगठित माफिया अंदाज का गिरोह चल रहा है, और सैकड़ों बेकसूर लोगों को लुटा जा रहा है, तो वह इतने बरस तक सरकार की नजरों से बचा रहे यह मुमकिन नहीं लगता। यह भी मुमकिन नहीं लगता कि ऐसे परले दर्जे के मुजरिम पुलिस अधिकारी सरकार में लगातार कमाऊ जगहों पर तैनात होते रहें, और सरकार को उसकी खबर न हो। खबरें बताती हैं कि पुलिस महकमा दुबे-सिंडीकेट नाम के इस माफिया गिरोह को भीतरी जानकारी देते रहता था, और अखिलेश दुबे उनके आधार पर लोगों से भारी वसूली-उगाही की साजिश बनाते रहता था। न सिर्फ यूपी, बल्कि किसी भी प्रदेश में पुलिस के ऐसे संगठित जुर्म सत्ता की नजरों से छुप नहीं सकते हैं।
अब हम कुछ देर के लिए यूपी की मिसाल छोडक़र पूरे देश की बात करें, तो आज बहुत से ऐसे प्रदेश हैं जहां पर पुलिस सत्ता की मनमर्जी, मनमानी, और उसके गैरकानूनी कामों को ही अपनी ड्यूटी मानती है। पुलिस के हाथ झूठे जुर्म दर्ज करने की जो असीमित ताकत रहती है, वह उसे उगाही का एक बड़ा जरिया बना देती है। बहुत से प्रदेशों में नेता इसी उगाही-तंत्र का इस्तेमाल करके अपनी राजनीति करते हैं, स्थाई और नियमित रूप से करोड़ों रूपए कमाते हैं, और अपने मुजरिम साथियों को बचाते भी हैं। आज सिर्फ जुर्म की कमाई वाले मुजरिम नहीं हैं, आज जाति और धर्म के नाम पर, साम्प्रदायिकता और नफरत के नाम पर रात-दिन जुर्म होते हैं, और ऐसे मुजरिमों को बचाना कई जगहों पर सत्ता पर काबिज उनके संरक्षकों की प्राथमिकता होती है। भारत के अधिकतर प्रदेशों में पुलिस का इस हद तक राजनीतिकरण हो चुका है कि इस राजनीतिक पसंद वाले मुजरिमों के माध्यम से कई पुलिसवाले कमाऊ कुर्सी तक पहुंचते हैं। मुजरिम ही अपने इलाकों में जब अपनी पसंद के पुलिस अफसर ले जाते हैं, तो जुर्म का और अधिक संगठित हो जाना महज वक्त की बात रहती है। उत्तरप्रदेश में जिस तरह के नाम बड़े-बड़े संगठित जुर्म के सिलसिले में सामने आते हैं, वे हैरान करते हैं। अपने आपको धर्म का सबसे बड़ा केन्द्र बताने वाला यह प्रदेश धर्म से सबसे गहराई से जुड़ी हुई जाति के पुलिस अफसरों और माफिया-सरगनाओं के जुर्म का केन्द्र बन गया है, वह सरकार से परे भी समाज की फिक्र की बात भी है।
छत्तीसगढ़ के बस्तर के पखांजूर की बड़ी दिलचस्प खबर आई है। वहां पखांजूर नगर पंचायत के अध्यक्ष ने अपने आपको लंबी छुट्टी पर जाना बताया है, और यह जानकारी देते हुए एक चिट्ठी लिखी है कि एक वार्ड की पार्षद उनकी पत्नी उनके न रहने पर उनकी जगह नगर पंचायत का पूरा कामकाज देखेगी। नारायण चन्द्र शाहा ने अपने सरकारी लेटरहेड पर नगर पंचायत के सभी अफसरों को निर्देश दिया है कि वे उनकी पत्नी मोनिका शाहा को पूरा सहयोग दें। वे समस्त प्रशासनिक, वित्तीय, एवं कार्यपालिक दायित्वों का निर्वहन करेंगी। भाजपा के इस नेता ने इस आदेश की एक कॉपी जिला भाजपा अध्यक्ष को भी भेजी है। उनकी पत्नी भी पहले नगर पंचायत अध्यक्ष रह चुकी हैं।
भाजपा के नगर पंचायत को इतना तो मालूम होगा कि उनकी पार्टी देश भर में परिवारवाद के खिलाफ एक आंदोलन चलाती रहती है। आज तो बिहार में चुनाव होने जा रहा है, और वहां भाजपा दो वंशवादी पार्टियों, कांग्रेस, और आरजेडी के गठबंधन के खिलाफ यह एक बड़ा मुद्दा इस्तेमाल करती है कि दोनों कुनबापरस्त पार्टियों को खारिज करना है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक आदर्श के रूप में पेश किया जाता है कि उनका परिवार राजनीति और सार्वजनिक जीवन में उनसे परे रहता है, और वे अपने परिवार के लिए कुछ भी नहीं करते हैं। हम अभी इस उदाहरण पर अधिक चर्चा नहीं कर रहे, लेकिन भाजपा के एक नगर पंचायत अध्यक्ष ने यह जो नया बखेड़ा खड़ा किया है, वह पार्टी की असुविधा से परे भी सरकारी कामकाज में एक बड़ी दखल है। लेकिन बस्तर के पखांजूर के एक नगर पंचायत अध्यक्ष को क्या कहा जाए जब दिल्ली में भाजपा की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता की सरकारी बैठकों में उनके पति उनके ठीक बगल की कुर्सी पर विराजमान रहते हैं। सोशल मीडिया पर फैली हुई तस्वीरों में 7 सितंबर की मुख्यमंत्री की बैठक में उनके पति, कारोबारी मनीष गुप्ता उनके बगल में बैठे थे। और ये तस्वीरें सीएम के सोशल मीडिया अकाऊंट पर खुद ही पोस्ट की गईं। इस पर विपक्षी पार्टियों ने इसे दिल्ली में दो सरकारें चलना करार दिया। इसके पहले अप्रैल में भी मुख्यमंत्री की एक बैठक में मनीष गुप्ता बैठे थे। मुख्यमंत्री के पति की कुछ और बैठकों का भी रिकॉर्ड सामने आया है, उन्होंने दिल्ली जल बोर्ड की बैठक लेकर निर्देश दिए कि यमुना की सफाई में तेजी लाएं। पीडब्ल्यूडी की सडक़ योजनाओं का रिव्यू किया, और फाईल पर दस्तखत भी किए। शिक्षा विभाग की बजट बैठक की अध्यक्षता की क्योंकि मुख्यमंत्री उसमें देर से पहुंची थीं। ऐसी चर्चा है कि सीएम के पति का कार्यालय नाम से एक कार्यालय मुख्यमंत्री सचिवालय में ऊपर बना हुआ है, जहां वे बैठकर फाईलें बुलवाते हैं।
अब छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ महीनों में कहीं-कहीं पर यह भी हुआ था कि ग्राम पंचायत या जनपद पंचायत की बैठकों में महिला पंच-सरपंच की जगह उनके पति पहुंचे थे, और कम से कम दो जगहों पर तो निर्वाचित महिलाओं की जगह उनके पतियों ने ही शपथ ली थी। शपथ दिलवाने वाले सरकारी अधिकारी का कहना था कि एक भी निर्वाचित महिला पहुंची नहीं थी, और उनकी जगह सिर्फ उनके पति आए थे, और उन्होंने ही शपथ ली। अब पखांजूर का यह मामला सामने आया है। जिस बिहार में मुख्यमंत्री लालू यादव ने जेल जाते हुए अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया था, उसी बिहार में अभी चुनाव हो रहा है, और भाजपा शुरू से ही राबड़ी देवी वाले मुद्दे को लेकर हमलावर रही है, वैसे में दिल्ली की मुख्यमंत्री का यह मामला पता नहीं कोई पार्टी वहां उठा सकेगी या नहीं, क्योंकि एनडीए में तो कोई भाजपा के खिलाफ बोल नहीं सकता, और एनडीए विरोधी महागठबंधन में दो-दो पार्टियां परिवारवाद से लदी हुई हैं।
छत्तीसगढ़ के कवर्धा से निकलकर रायपुर में फिजियोथैरेपी में मास्टर्स की डिग्री हासिल करने वाली आकांक्षा सत्यवंशी आज भारत की उस महिला क्रिकेट टीम की फिजियोथैरेपिस्ट हैं जिसने वल्र्ड कप जीता है। इस तरह वे विश्व विजेता महिला क्रिकेट टीम की फिजियोथैरेपिस्ट होने के साथ-साथ खेल विज्ञान विशेषज्ञ भी हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने भी खुले दिल से उनका स्वागत किया है, और मुख्यमंत्री ने 10 लाख रूपए की एक सम्मान राशि की घोषणा की है। यह खेल और फिजियोथैरेपी की दुनिया में छत्तीसगढ़ में एक अलग किस्म की उपलब्धि है क्योंकि आमतौर पर राष्ट्रीय टीम के लिए इस तरह की जरूरतें बड़े शहरों, या बड़े खेल केन्द्रों से ही पूरी हो जाती है। लेकिन इस एक खबर से यह संभावना पता लगती है कि छत्तीसगढ़ में पढ़े हुए लोग किस तरह बाकी दुनिया में जाकर काम करने की संभावना रख सकते हैं।
अब अगर हम एक पल के लिए फिजियोथैरेपी की ही बात करें, तो आज न सिर्फ खेल टीमों के लिए बढ़ती हुई सुविधाओं के तहत इस तरह के हुनर की जरूरत भी जुड़ती चली जा रही है। टीम में जहां पर फिजियोथैरेपिस्ट नहीं रहते थे, वहां भी अब रहने लगे हैं। लेकिन हम खेलकूद और टीम से परे भी देखें, तो बढ़ती हुई शहरी जिंदगी में भी फिजियोथैरेपी की जरूरत बढ़ रही है, लोगों की जीवनशैली की वजह से उन्हें कुछ या कई किस्म की शारीरिक दिक्कतें बढ़ती हैं, और इस चिकित्सकीय हुनर की बड़ी जरूरत लोगों को समझ आ रही है। फिर हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम दुनिया के बहुत से दूसरे देशों में घटती हुई नौजवान आबादी, और वहां पर बढ़ती हुई बूढ़ी आबादी की चर्चा कर चुके हैं कि किस तरह लोगों की देखरेख के काम पैदा हो रहे हैं। बूढ़े लोगों और मरीजों की देखरेख में फिजियोथैरेपी एक अनिवार्य हुनर रहेगा, और इसके साथ-साथ अगर नौजवानों को कुछ देशों की भाषाएं और संस्कृतियां भी सिखाई जा सकेंगी, साथ-साथ चिकित्सकीय देखरेख के दूसरे पहलू सिखाए जा सकेंगे, तो वे हिन्दुस्तान की बहुत मामूली तनख्वाह के बजाय दूसरे देशों में बहुत बेहतर कामकाज पा सकेंगे, और अपने पूरे परिवार की जिंदगी बदल सकेंगे। छत्तीसगढ़ की इस युवती की मिसाल से ही राज्य सरकार यह प्रेरणा ले सकती है कि वह बाकी युवा पीढ़ी को किस-किस तरह के कामों के शिक्षण-प्रशिक्षण देकर, भाषाएं सिखाकर, अलग-अलग देश-प्रदेश की कुछ संस्कृतियां बताकर उन्हें बेहतर संभावनाओं के लिए तैयार किया जा सकता है।
आज भारत में जिसे गरीबों के लिए रोजगार गारंटी योजना कहा जाता है, उसमें दिन भर मजदूरी करने पर भी महीने में 10 हजार रूपए भी नहीं मिल सकते, और साल भर में सौ-पचास दिन से अधिक का तो काम भी नहीं रहता। फिर ऐसी योजनाएं देश के लिए अधिक उत्पादक नहीं रहती हैं, और वे रोजगार योजनाएं ही रहती हैं, लोगों को किसी तरह काम देने के लिए। ऐसी योजनाएं सरकारों को यह साफ तस्वीर देती हैं कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा मनरेगा जैसी योजना का मोहताज रहता है। अब आज नौजवान होने जा रही पीढ़ी को अगर बेहतर उत्पादकता के हिसाब से तैयार किया जा सकता है, तो उससे देश की उत्पादकता भी बढ़ेगी, और समाज में ऐसे नौजवानों के परिवार भी बेहतर तरीके से जी सकेंगे। इन दोनों ही बातों से देश की अर्थव्यव्सथा का पहिया भी घूमेगा।
केरल हाईकोर्ट का एक दिलचस्प और महत्वपूर्ण फैसला सामने आया है जिसमें जस्टिस पी.वी. कुन्हीकृष्णन ने कहा कि केरल विवाह पंजीकरण नियम 2008 के तहत मुस्लिम पुरूष पहली पत्नी के जीवित रहते और विवाह कायम रहते किसी और महिला से शादी के रजिस्ट्रेशन की इजाजत नहीं देता। उन्होंने कहा कि उसके सामने पेश एक मामले में राज्य सरकार को ऐसी दूसरी शादी रजिस्टर करने का निर्देश देने की अपील की गई थी, लेकिन अदालत ऐसा इसलिए नहीं करेगी कि उसकी पहली पत्नी को इस मामले में पक्षकार नहीं बनाया गया था। उन्होंने कहा कि मुस्लिम कानून के तहत विशेष परिस्थितियों में दूसरी शादी की अनुमति है, और उसे देखते हुए कोई मुस्लिम पत्नी अपने पति की दूसरी शादी के पंजीकरण के दौरान मूकदर्शक बनी नहीं रहती। उन्होंने कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ दूसरी शादी की इजाजत देता है, तो पुरूष दूसरी शादी कर सकता है, लेकिन दूसरी शादी को रजिस्टर कराने के मामले में देश का कानून लागू होगा। उन्होंने अपना यह विचार भी सामने रखा कि 99.99 फीसदी मुस्लिम महिलाएं अपने पति के साथ शादी के बंधन में रहते हुए उसकी दूसरी शादी के खिलाफ होंगी। उनका यह भी कहना है कि पहली पत्नी अगर मौजूद है, और उसका पति अपनी दूसरी शादी को देश के कानून के मुताबिक रजिस्टर कराता है, अदालत पहली पत्नी की भावनाओं को नजरअंदाज नहीं कर सकती। जज ने लिखा है कि धर्म बाद में आता है, संवैधानिक अधिकार सबसे पहले है। उन्होंने कहा कि जब दूसरी शादी के पंजीकरण की बात आती है, तो धार्मिक-रस्मी कानून लागू नहीं होते।
यह कानून मुस्लिम महिला के हक की एक स्पष्ट व्याख्या करता है कि अगर उसका पति उसके रहते हुए और शादी कायम रहते हुए कोई दूसरी शादी करता है, तो पहली बीवी की सहमति के बिना दूसरी शादी का रजिस्ट्रेशन नहीं हो सकता। यहां पर दो कानून एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े होते हैं, एक मुस्लिम विवाह कानून है जो कि मुस्लिम पुरूष को कुछ नियम और शर्तों के साथ चार शादियां समानांतर करने और रखने की छूट देता है। दूसरा कानून विवाह पंजीयन का है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पूरे देश के लिए अनिवार्य किया है, और किसी भी तरह की शादी का रजिस्ट्रेशन जरूरी है। केरल हाईकोर्ट के इस अकेले जज के फैसले ने मुस्लिम पुरूष की दूसरी शादी को नहीं रोका गया है, क्योंकि वह उस समुदाय के विवाह कानून के तहत मुमकिन है, लेकिन उसका रजिस्ट्रेशन करने से अदालत ने इंकार कर दिया है।
कई बड़े-बड़े चर्चित जुर्म के बाद आरोपी फरार रहते हैं, और पुलिस या दूसरी जांच एजेंसियां उनकी तलाश में लगी रहती हैं। अगर ऐसे लोग किसी भी किस्म की ताकत वाले रहते हैं, तो उनकी तरफ से बड़े-बड़े वकील निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अग्रिम जमानत की अर्जी लगाते रहते हैं, और जांच एजेंसी के हत्थे चढऩे के पहले ही वे फरार रहते हुए यह कोशिश करते रहते हैं कि गिरफ्तार होने के पहले उनके हाथ में अग्रिम जमानत का कागज रहे जिसे दिखाकर वे पुलिस का मुंह चिढ़ा सकें। भारत के कानून में जमानत या अग्रिम जमानत को लेकर जज-मजिस्ट्रेट को बहुत सारे विवेकाधिकार दिए गए हैं, और एक ही किस्म के मिलते-जुलते दो मामलों में एक में एक अदालत से जमानत मिल जाती है, दूसरी से नहीं मिलती, और दोनों को ही सही मान लिया जाता है। ऊपर की अदालत अगर इन फैसलों को पलटती भी है, तो भी आमतौर पर निचली अदालत के जज के खिलाफ कोई टिप्पणी आमतौर पर नहीं होती। जमानत या अग्रिम जमानत के ये सारे फैसले भारत के कानून के जिस लचीलेपन पर टिके रहते हैं, वह लचीलापन कितना लोकतांत्रिक है, और कितना अलोकतांत्रिक, यह भी सोचने की जरूरत है।
भारत में नीचे से ऊपर तक अदालतों के अधिकतर फैसले कुछ या अधिक हद तक उसके सामने खड़े वकीलों की काबिलीयत और तैयारी से भी प्रभावित होते हैं। और वकीलों का यह हुनर, और उनकी जिरह इस बात से तय होते हैं कि वे कितनी फीस पाने वाले हैं। इससे परे जैसा कि भारत के किसी भी दूसरे दायरे में होता है, न्यायप्रक्रिया किस हद तक भ्रष्ट है, वकील की उसे प्रभावित करने की कितनी क्षमता है, ये बातें भी कुछ या अधिक हद तक फैसलों को प्रभावित करती हैं। गरीब लोग, कमजोर तबके के लोग किसी ताकतवर के सामने इंसाफ पाने की बड़ी कम संभावना रखते हैं, क्योंकि जांच एजेंसियों की बांहें भी ताकत मोड़ लेती है। कई लोग ऐसी राजनीतिक या सरकारी ताकत वाले रहते हैं कि जांच एजेंसियों के वकील भी कुछ शांत रह जाते हैं, जमानत या अग्रिम जमानत का जमकर विरोध नहीं करते।
हम आज पूरी की पूरी न्यायप्रक्रिया को लेकर बात करना नहीं चाहते, लेकिन हम सिर्फ जमानत और अग्रिम जमानत के बहुत ही अस्पष्ट और धुंध भरे दायरे की बात करना चाहते हैं, जिसका मजा ऐसे आरोपी और अभियुक्त सबसे अधिक लेते हैं जो कि पहली नजर में मुजरिम लगते हैं, बड़े-बड़े वकील खड़े कर पाने की जिनकी ताकत रहती है, और जो लंबे समय तक फरार रहने का इंतजाम भी रखते हैं। हम कानून के जानकार नहीं हैं, और महज सामान्य समझबूझ से यह बात कर रहे हैं, इसलिए दिमाग पर कानूनी जानकारियों का कोई दबाव भी नहीं है। अग्रिम जमानत के प्रावधान चाहे जिस वजह से बनाए गए हों, जब लोग महीनों तक फरार रहते हैं, पुलिस या दूसरी जांच एजेंसियां उन्हें पकडऩे के लिए ईनाम की मुनादी भी कर चुकी रहती हैं, तब उन्हें अग्रिम जमानत क्यों दी जानी चाहिए? अगर जांच एजेंसियों पर ऐसा शक है कि वे गिरफ्तारी के बाद उस व्यक्ति को मार सकती हैं, तो अदालत जांच एजेंसियों को कुछ अतिरिक्त सावधानी बरतने को कह सकती है। लेकिन लगातार फरार चलने वाले लोगों को अग्रिम जमानत क्यों दी जाए? क्या महज इसलिए कि वे महंगे वकील कर सकते हैं? या इसलिए कि वे इतने माहिर हैं, इतने ताकतवर हैं कि महीनों तक जांच एजेंसियों से छुपकर भी वकील कर सकते हैं? जब कभी बहुत ताकतवर और बहुत चर्चित, बहुत पैसेवाले, और बड़े ओहदे वाले लोगों को अग्रिम जमानत मिलती है, आम लोगों को यही लगता है कि जुर्म करने में कोई बुराई नहीं है, पकड़ में आने में बुराई है। अगर अग्रिम जमानत मिल जाती है, तो फिर और कोई सजा मानो बचती ही नहीं है। यह सिलसिला लोकतांत्रिक भावना के एकदम खिलाफ है क्योंकि गरीब लोग तो न इस तरह एजेंसियों से लुकाछिपी खेल सकते, और न ही ऐसे वकील करके नीचे से ऊपर की अदालत तक लड़ाई लड़ सकते। अग्रिम जमानत का आज का आम सिलसिला बड़ा ही अश्लील और हिंसक है, यह पूरी तरह अलोकतांत्रिक भी है जो कि समाज में असमानता को सामने रखता है। अग्रिम जमानत आमतौर पर संपन्न या ताकतवर को मिलती है, विपन्न या कमजोर को तो आनन-फानन गिरफ्तार हो जाने के बाद भी जमानत नहीं मिलती।


