संपादकीय
अपने अस्तित्व में आने के बाद से छत्तीसगढ़ लगातार चावल और धान की अर्थव्यवस्था से लदा हुआ रहा है। कहने के लिए इसे प्रदेश के बाहर धान का कटोरा कहा जाता है, और खुद छत्तीसगढ़ इस बात में बड़ा फख्र हासिल करता है कि वो देश का धान का कटोरा है जहां से बाकी देश की भूख मिटती है, लेकिन जब छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था को देखें तो ऐसे दावे पर दोबारा सोचना पड़ता है कि क्या यह सचमुच सच है? एक वक्त था जब देश के दूसरे कुछ हिस्से की तरह पड़ोस के ओडिशा के कालाहांडी की तरह छत्तीसगढ़ भी भूख का शिकार रहता था, और यहां पर भूख से मौतें कभी-कभी सुनाई पड़ती थीं। लेकिन राज्य बनने के बाद इस राज्य के आय के स्त्रोत यहीं के लोगों के काम आने लगे, और भूखमरी खत्म होने लगी। भूख से मौतें तो बंद हुई ही, कुपोषण भी कम होने लगा। राज्य के दूसरे मुख्यमंत्री, भाजपा के डॉ. रमन सिंह ने कुछ जानकार सलाहकारों की बनाई हुई योजना पर अमल करते हुए प्रदेश में पीडीएस का जो ढांचा खड़ा किया, उसे सर्वोच्च न्यायालय से लेकर मनमोहन सिंह की सरकार तक चारों तरफ वाहवाही मिली, और राज्य में रमन सिंह को अगले दो चुनावों में चाउर वाले बाबा के नाम से ऐतिहासिक जीत भी मिली। छत्तीसगढ़ का पीडीएस बाकी राज्यों के सामने एक मिसाल भी बना, और चुनौती भी। लेकिन कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने किसानों से धान खरीदी के लिए जो अभूतपूर्व ऊंचा रेट तय किया, उसने उन्हें चुनावी घोषणा पत्र के स्तर पर वाहवाही दिला दी थी, और हाल के विधानसभा चुनाव में भूपेश का धान का रेट विपक्षी भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती था, और भाजपा को मानो मजबूरी में ही 3100 रुपए प्रति क्विंटल के रेट पर धान खरीदी का वायदा करना पड़ा, और प्रति एकड़ 21 क्विंटल धान खरीदने का भी। नतीजा यह निकला कि छत्तीसगढ़ी किसान का एक-एक दाना शानदार रेट पर बिक रहा है, और अड़ोस-पड़ोस के राज्यों के लोग भी तस्करी करके अपना धान छत्तीसगढ़ लाकर बेच रहे हैं। लेकिन चुनाव में जीत दिलाने वाला धान क्या सचमुच ही राज्य में धन बन पाया है, या कि यह सिर्फ कर्ज बनकर लोगों के सिर पर बोझ बन रहा है?
आज इन आंकड़ों पर बात करना जरुरी इसलिए है कि केंद्र और राज्य सरकार के बीच चावल लेने को लेकर तनातनी ठीक उसी तरह जारी है जिस तरह पिछली भूपेश सरकार के वक्त दिल्ली की मोदी सरकार के कडक़ रुख से चल रही थी। उस वक्त जब भूपेश ने धान के राष्ट्रीय समर्थन मूल्य से अधिक दाम देने की घोषणा की थी तो केंद्र सरकार ने कहा था कि एमएसपी से अधिक पर लिए गए धान का चावल केंद्र सरकार छत्तीसगढ़ से नहीं लेगी। नतीजा यह निकला था कि भूपेश सरकार को अलग-अलग कुछ नामों से, शायद राजीव न्याय योजना के नाम से किसानों को चार किश्तों में बोनस देना पड़ा था। इस बार छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार को केंद्र सरकार से ऐसा अड़ंगा तो नहीं झेलना पड़ा लेकिन करीब डेढ़ लाख टन धान खरीदी हो जाने के बाद अब राज्य को यह सदमा लग रहा है कि केंद्र सरकार 70 लाख टन से अधिक चावल राज्य से नहीं लेगी। अब छत्तीसगढ़ सरकार के सामने 35 लाख टन धान को ठिकाने लगाने की एक बड़ी चुनौती है जो कि महंगी खरीदी के धान को सस्ते में बेचने का एक बड़े घाटे का सौदा भी हो सकता है। छत्तीसगढ़ सरकार अभी जनकल्याण और व्यक्तिगत फायदा पहुंचाने वाली दूसरी योजनाओं के बोझ से कमर सीधी कर भी नहीं पाई है कि खुले आसमान तले धान के पहाड़ का यह बोझ उसके सीने पर और खड़ा हो गया है। आज जब हम यह संपादकीय लिख रहे हैं उस वक्त छत्तीसगढ़ विधानसभा में प्रश्नकाल में विपक्ष सरकार को इस बात के लिए घेर रहा है कि पिछले बरस राइस मिलर्स ने सरकारी धान की मिलिंग में जो घपला किया है, और सैकड़ों मिलर्स ने सरकारी धान लेकर न तो सरकार को चावल जमा किया, और न ही उनके मिलों की जांच में धान या चावल बरामद हुआ, ऐसा करीब पांच लाख टन चावल सरकार को मिलर्स से लेना है, और चूंकि केंद्र सरकार राज्य से चावल वैसे भी इस बरस की धान खरीदी के मुकाबले बहुत कम ले रहा है, इसलिए पिछले बरस का यह बकाया भी सरकार की छाती बर बोझ बनकर बैठे रहेगा। जानकार लोगों का कहना है कि जिन सैकड़ों राइस मिलर्स ने सरकार की अमानत पे खयानत की है जो कि सीधे-सीधे जुर्म है, और जिससे नुकसान न पाने के लिए सरकार बैंक गारंटी ले चुकी है, उस बैंक गारंटी को भुनाने के बजाए, मिलर्स के खिलाफ एफआईआर करने के बजाए सरकार जाने किस वजह से उनसे पुराना चावल ले रही है जो कि केंद्र सरकार को दिया भी नहीं जा सकेगा। पाठकों को याद होगा कि धान खरीदी, और उसकी मिलिंग का काम छत्तीसगढ़ में इतने भ्रष्टाचार से भरा हुआ रहा है कि अभी भी कुछ एक अखिल भारतीय सेवा के अफसर उसकी वजह से जेल में पड़े हैं, और अगर सरकार और जांच एजेंसियां ईमानदारी से कार्रवाई करें तो कई और नेता और अफसर जेल में रहेंगे।
अब हम मुद्दे की इस बात पर आना चाहते हैं कि जब केंद्र सरकार राज्य से सीमित मात्रा में ही चावल ले रही है, तब सरकार किसानों से असीमित मात्रा में असाधारण और असंभव किस्म के रेट पर धान खरीद रही है, तो इससे कुल नुकसान जितना बड़ा होगा, उसका हिसाब किसी एक विभाग के खाता-बही में नहीं मिल सकता। इसके लिए सरकार को कई विभागों और एजेंसियों के आंकड़ों को जोडक़र राज्य के लोगों के सामने एक श्वेत पत्र पेश करना चाहिए कि धान की यह खरीदी आखिर प्रदेश को किस रेट पर पड़ रही है। यह अर्थशास्त्र राशन के चावल की लागत से अलग है जो कि राज्य सरकार अपने लोगों को मिट्टी के मोल देती है। आज हालत यह है कि छत्तीसगढ़ में राइस मिलर्स राशन दुकानों के रास्ते से ही चावल की ऐसी ट्रकें खरीदकर उन्हें वापिस सरकार में जमा कर देते हैं, कई जगहों पर तो सिर्फ दो जगहों से ट्रकों के कागज ले लिए जाते हैं, गरीबों का राशन घूम-घूमकर सरकार में मिलर्स के मार्फत जमा हो जाता है, और ऐसे हर फेरे की अंधाधुंध बड़ी लागत सरकार चुकाती है। छत्तीसगढ़ में पिछली सरकार के समय का नान घोटाला अबतक हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के सैंकड़ों घंटे खराब कर चुका है और राज्य के हजारों करोड़ रुपए भी। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि पैसे वालों के सामान में भ्रष्टाचार की सजा तो नहीं मिली, लेकिन जो सबसे गरीब लोगों का भोजन है, उस चावल का घपला भूपेश सरकार को ले डूबा। अब आज की सरकार को बारीकी से यह गौर करना चाहिए कि उस सरकार के समय से सरकार और कारोबार के अब तक कायम जिन लोगों के मुंह खून लगा हुआ था, क्या आज भी वे अपने होठों पर जीभ फिराते हुए उसी अंदाज में कमाई करने के फेर में हैं? सबसे गरीब के हक में लूट-डकैती करने वाले लोग किस तरह अपने अरबपति परिवार को छोडक़र, परिवार की तीन-तीन पीढिय़ों को छोडक़र देश के बाहर कहीं फरारी काट रहे हैं, इसकी दर्दनाक दास्तान अगर सुनना हो तो छत्तीसगढ़ के प्रदेश कांग्रेस कार्यालय जाकर कोषाध्यक्ष रहे एक चावल व्यापारी के बारे में पूछताछ करनी चाहिए। हमारे कम लिखे को सरकार अधिक समझे, वरना चुनाव में बीमार को पार समझे।
ऑस्ट्रेलिया में लंबे समय से बसे हुए एक भारतवंशी बालेश धनखड़ को साजिश के साथ पांच महिलाओं को नौकरी के नाम पर फंसाकर, नशीली दवा देकर बलात्कार करने के जुर्म में 40 बरस की कैद सुनाई गई है। अदालत ने इस जुर्म को इतना गंभीर माना है कि इन 40 बरसों में से पहले 30 बरस तो कोई पैरोल भी नहीं मिलेगी। अदालत ने लिखा है- बालेश धनखड़ ने पहले से योजना बनाकर, बेहद हिंसा और चालाकी भरे इरादे के साथ हर पीडि़त महिला के प्रति बेरहमी के साथ अपनी यौन इच्छा पूरी करने के लिए यह हमले सरीखा बर्ताव किया गया। अदालत ने कहा कि ये पांच युवा और कमजोर महिलाओं के खिलाफ लंबे वक्त में बारीकी से योजना बनाकर किया गया हमला है। अदालत में पेश सुबूतों में इस आदमी के कम्प्यूटर रिकॉर्ड भी शामिल हैं जिनमें वह नौकरी के फर्जी विज्ञापन देकर आवेदन करने वाली हर महिला को उसकी खूबसूरती, और स्मार्टनेस के लिए पैमानों पर रखता था, अपनी योजना में उस महिला का इस्तेमाल लिखता था, महिला की कमजोरियां लिखता था। ऑस्ट्रेलियाई पुलिस को इस मामले में बलात्कार की खुद की गई वीडियो रिकॉर्डिंग भी मिली है, और नशे से बेहोश करने की दवाएं भी मिली हैं। भारत की समाचार एजेंसी पीटीआई ने लिखा है कि 2018 में जब धनखड़ को गिरफ्तार किया गया, वे भाजपा से गहराई से जुड़े हुए थे, और ऑस्ट्रेलिया के भारतवंशी समुदाय में उन्हें अच्छी पहचान मिली हुई थी। इसके साथ वे हिन्दू कौंसिल ऑफ ऑस्ट्रेलिया के अधिकृत प्रवक्ता भी थे। कांग्रेस ने बीजेपी का दुपट्टा पहने हुए धनखड़ की तस्वीरें पोस्ट की हैं जिनमें वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित भाजपा के कई नेताओं के साथ एकदम करीबी व्यक्ति दिख रहे हैं।
किसी दूसरे देश में बसे हुए, और भारत के अलग-अलग तबकों के प्रवक्ता या प्रतिनिधि बने हुए आदमी का यह जुर्म देश के ऊपर भी आंच लाता है, और इन संगठनों पर तो आंच लाता ही है। यह बात जरूर है कि बलात्कार जैसे जुर्म में पहली बार फंसने के पहले तक किसी के बारे में यह अंदाज लगाना मुश्किल रहता है कि वे बलात्कारी हो सकते हंै। लेकिन जब कोई व्यक्ति सिलसिलेवार तरीके से साजिश के तहत ऐसा भयानक जुर्म करे, तो उससे जुड़े हुए लोगों को भी बदनामी तो झेलनी ही पड़ती है। इसके पहले भी पश्चिम के देशों में भारत के कुछ योग गुरूओं के इसी तरह के बलात्कार-प्रकरण सामने आए थे जिसमें उन्होंने कई-कई शिष्याओं से बलात्कार किया था। अब भारत के भीतर ही अपने आपको संत और बापू कहने वाले पाखंडी धार्मिक पुरूषों की कैद जारी ही है, और बलात्कार उनके लिए लंबे सिलसिले की एक कड़ी जैसा ही रहा है। ऑस्ट्रेलिया में इस कामयाब भारतवंशी के जुर्म देखकर यह समझ आता है कि कोई बेरोजगार हो, नशेड़ी हो, या पैसे या ओहदे की ताकत का बाहुबली हो, सबके भीतर बलात्कारी होने का खतरा एक बराबर रहता है। कुछ लोग नशे में बलात्कार करते हैं, और बालेश धनखड़ जैसे लोग सारी कामयाबी और शोहरत मिलने के बाद भी दुनिया के उस हिस्से में लंबी साजिश करके बेकसूर महिलाओं को फंसाकर बलात्कार करते हैं, जिस हिस्से में वे अपने पैसों से आसानी से सेक्स खरीद सकते थे।
किसी भी राजनीतिक दल या संगठन के लिए, किसी देश के नागरिकों के एक तबके के लिए यह बड़ी दुविधा की नौबत रहती है कि वे किसी को अपना प्रतिनिधि, प्रवक्ता, या नेता बनाने के पहले उसे कितना ठोकें-बजाएं? और जब ऐसे जुर्म का सुबूतों सहित भांडाफोड़ होता है, तो जुड़े हुए तमाम लोगों को इसका नुकसान झेलना ही पड़ता है। ऐसे मामलों में पार्टियों और संगठनों से यह उम्मीद तो की जाती है कि ऐसी पहली शिकायत सामने आते ही इन सबको ऐसे आरोपी से दूरी बना लेनी चाहिए, लेकिन संगठन दुनिया में कहीं भी हों, वे आमतौर पर अपने सबसे बुरे सदस्यों को बचाने में लग जाते हैं। भारत में हमने कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष और भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर इस देश की महिला पहलवान खिलाडिय़ों के लगाए गए यौन शोषण के आरोपों पर सरकार और भाजपा का यही रूख देखा था। और भी बहुत सी पार्टियां, बहुत सी सरकारें अपने सबसे बुरे लोगों को बचाने में लग जाती है। और तो और हिन्दुस्तान के इतिहास का एक सबसे कलंकित अध्याय है सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का उन्हीं पर लगे यौन शोषण के आरोपों की सुनवाई में खुद ही अदालती बेंच का मुखिया बनकर बैठना। पाठकों को याद होगा कि हमने जस्टिस रंजन गोगोई की इस हरकत के खिलाफ खुलकर लिखा था, और दो बरस बाद जाकर राज्यसभा सदस्य की हैसियत से रंजन गोगोई ने जब अपनी किताब लिखी, तो अपने इस फैसले को गलत माना था। वरना वे खुद पर लगी यौन शोषण की तोहमतों को सुप्रीम कोर्ट को अस्थिर करने की साजिश ठीक उसी तरह करार देते रहे जिस तरह इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाते हुए उस दौर को देश को अस्थिर सा करने की साजिश करार दिया था।
यह तो ऑस्ट्रेलिया की न्याय व्यवस्था राजनीतिक दबावों और खरीद-बिक्री से परे है, इसलिए इस आदमी धनखड़ को इतनी लंबी सजा हो पाई। वरना इसके पहले भी कई देशों में प्रमुख भारतवंशी यौन शोषण के मामलों में फंसते आए हैं। अमरीका में विक्रम योग नाम से अपनी एक योग पद्धति फैलाने वाले विक्रम चौधरी पर यौन हमलों और यौन शोषण के कितने ही मामले दर्ज हुए, जिनमें शिष्याओं को ढूंढने और फांसने में इस योग गुरू के करीबी लोग उसकी मदद करते थे, और इसे अदालत से कई मिलियन डॉलर जुर्माना सुनाया गया था। किसी भी भारतवंशी की ऐसी हरकतें देश को बदनाम करती हैं, और देश के भीतर के, और बाहर बसे हुए भारतवंशियों को ऐसे लोगों से सावधान भी रहना चाहिए, और इन्हें बढ़ावा नहीं देना चाहिए। धर्म, आध्यात्म, या योग के गुरूओं के साथ दिक्कत यह भी रहती है कि उनके भक्त और अनुयायी उन पर अंधविश्वास करते हैं, और उन्हें यह सब करने का एक मौका देते हैं। लेकिन बालेश धनखड़ जैसे लोग तो भक्त पाने के किसी सहूलियत से लैस भी नहीं थे, और उनसे बचने-बचाने की कोई गुंजाइश भी नहीं थी, इसलिए उनसे बदनामी मिलनी ही मिलनी थी।
महाराष्ट्र की शरद पवार वाली एनसीपी के नेता एकनाथ खड़से की बेटी, और पार्टी की महिला विंग की अध्यक्ष रोहिणी खड़से ने राष्ट्रपति को एक चिट्ठी लिखकर मांग की है कि महिलाओं को एक हत्या करने की छूट दी जाए। उन्होंने भारत पर एक सर्वे रिपोर्ट का यह निष्कर्ष लिखा है कि महिलाओं के लिए यह देश सबसे असुरक्षित है, उनके खिलाफ रेप, अपहरण, और घरेलू हिंसा जैसे जुर्म लगातार होते हैं। रोहिणी की इस चिट्ठी पर महाराष्ट्र के एक मंत्री, गुलाब राव पाटिल ने पूछा है कि रोहिणी खड़से को यह बताना चाहिए कि वे किसकी हत्या करेंगी? अब एक महत्वपूर्ण पार्टी के नेता की बेटी, और अपने आपमें पार्टी की महिला शाखा की प्रदेश अध्यक्ष अगर यह मांग करती है, तो इससे महाराष्ट्र प्रदेश, और बाकी देश में महिलाओं की स्थिति को लेकर महिलाओं के बीच की सोच झलकती हो या न झलकती हो, कम से कम यह तो झलकता ही है कि राजनीति की एक सक्रिय और महत्वपूर्ण महिला पदाधिकारी हत्या करने का हक मांग रही है, फिर चाहे यह हक बलात्कारी के खिलाफ ही क्यों न हो?
हम इसे सिर्फ भावनाओं का विस्फोट नहीं कहते, क्योंकि कुछ राज्यों ने तो कुछ किस्म के बलात्कारियों को मौत की सजा देने का प्रावधान किया ही है, लेकिन यह सजा अदालत से मिलती है, और इस पर अमल जेल में सरकारी जल्लाद करते हैं, या हक आम लोगों को हिसाब चुकता करने के लिए नहीं मिलता। ऐसे में हत्या का हक मांगना एक बड़ी अटपटी और अलोकतांत्रिक बात है। इससे कुछ कम दर्जे की बात मध्यप्रदेश में भाजपा के मुख्यमंत्री डॉ.मोहन यादव ने दो-चार दिन के भीतर ही की है, और उन्होंने कहा है कि धर्मांतरण करने वालों के लिए मध्यप्रदेश में मौत की सजा का कानून बनाया जाएगा। अब धर्मांतरण के खिलाफ तो कई प्रदेशों में अलग-अलग कानून है, और पूरे देश में भी एक कानून है, लेकिन इसे मौत की सजा के लायक करार देने के पहले यह भी समझने की जरूरत है कि भारत में पुलिस और न्याय व्यवस्था में कितने किस्म की खामियां हैं, और किस तरह से लोग दस-बीस बरस बाद भी मिले नए सुबूतों से, या कि डीएनए जांच की वजह से छूट पाते हैं। और अगर ऐसे में धर्मांतरण के कथित मामलों में अगर पुलिस अपने आज के आम रूख के मुताबिक एक फर्जी केस बना लेगी, तो किसी बेगुनाह को भी फांसी की सजा दिलवा देना मुमकिन हो सकता है। पहली नजर में तो हमारा यह ख्याल है कि एमपी के सीएम की यह सोच देश की सबसे बड़ी अदालत में खड़ी नहीं हो पाएगी, और धर्मांतरण के मामले को मौत की सजा के लायक नहीं ठहराया जा सकेगा, फिर चाहे ऐसा कोई कानून मध्यप्रदेश की विधानसभा में क्यों न बना दिया जाए। ऐसा कानून एक दहशत पैदा करने के लिए, या राजनीतिक प्रचार के लिए तो शायद काम आ सकता है, लेकिन यह किसी को ऐसी सजा शायद ही दिलवा सके।
महाराष्ट्र में अभी एक बारह बरस की बच्ची से बलात्कार हुआ, और शायद उसी की वजह से वहां की एक महिला नेता ने बलात्कारी को मारने का हक मांगा है, लेकिन पूरा देश जिस तरह से मासूम बच्चियों पर, और कमजोर समाज की महिलाओं पर बलात्कार देख रहा है, वह अपने आपमें भयानक है, लेकिन फिर भी लोकतंत्र में इसे कत्ल करने लायक नहीं कहा जा सकता। दरअसल लोकतंत्र में किसी को भी कत्ल का हक नहीं मिल सकता, फिर चाहे वे बलात्कार की शिकार लडक़ी के परिवार के लोग ही क्यों न हों, या कि कत्ल के शिकार हुए किसी व्यक्ति के घर के लोग क्यों न हों। लोकतंत्र कभी भी आनन-फानन इंसाफ देने वाली व्यवस्था नहीं रही है, और लोगों को इससे फौजी या तानाशाही हुकूमत की तरह की तुरत-इंसाफ की उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए। लोकतंत्र एक बहुत महंगी, धीमी, और लचीली व्यवस्था रहती है जिसमें लोकतंत्र को कुचलने वाली ताकतों के लिए भी बने रहने की गुंजाइश रहती है। अलोकतांत्रिक ताकतों को भी लोकतंत्र में रहने की छूट उसी तरह रहती है जिस तरह कुछ धर्मों के भीतर नास्तिकों को भी रहने की छूट रहती है। इसलिए जुर्म के शिकार लोगों को कत्ल का अधिकार देने की सोच तालिबानी है। दुनिया के कुछ देशों में ऐेसे परिवारों को मुजरिम से मोटी रकम, ब्लड मनी लेकर उन्हें माफ कर देने की छूट रहती है, लेकिन लोकतंत्रों में ऐसा नहीं होता है।
लोकतंत्र के साथ एक दिक्कत यह रहती है कि वह सौ गुनहगारों के छूट जाने की कीमत पर भी एक बेगुनाह को सजा देने के खतरे से बचता है। न्याय व्यवस्था पूरी तरह से शक से परे साबित होने की शर्त पर चलती है। इसलिए हिन्दुस्तान में बहुत से लोगों को यहां की न्याय व्यवस्था बेइंसाफ लगती है, कुछ को लगता है कि राजनीतिक ताकतों के सामने अदालतें बेअसर रहती हैं, कुछ को लगता है कि अपार पैसा रहे तो देश के सबसे महंगे वकील पुलिस के सुबूत खरीद पाते हैं, गवाह तोड़ पाते हैं, सरकारी वकील को भी मैनेज कर पाते हैं, और उनका बस चले तो जज को भी खरीद लेते हैं। जब आम लोगों के बीच सोच इतनी निराशाजनक रहती है, तो उनको यह बात अच्छी लग सकती है कि बलात्कारी को चौराहे पर फांसी दी जाए, गुंडों की आंखें फोड़ दी जाएं, और अदालत का दस-बीस बरस तक इंतजार न किया जाए।
भारत जैसे लोकतंत्र में न्याय व्यवस्था की साख और उसका रूतबा दुबारा कायम करने की जरूरत है। आज तो अदालतों में जिस तरह आखिरी फैसले के इंतजार में एक पूरी पीढ़ी निकल जाती है, बेकसूर फैसले की राह तकते जेल में ही मर जाते हैं, या मुजरिम निचली अदालत से मिली सजा के बाद ऊपरी अदालतों में अपील के चलते जमानत पर ही छूटे हुए मर जाते हैं, उससे न्याय व्यवस्था के बेअसर होने की बात पुख्ता होती जाती है। और ऐसे में नेताओं और सरकारी अफसरों के भ्रष्टाचार, लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ हिंसक जुर्म के मामले इतने अधिक आ रहे हैं कि लोगों को सिर्फ जुर्म होते दिखते हैं, इंसाफ होते नहीं दिखता। यह नौबत बदली जानी चाहिए। जब लोगों का अदालतों पर भरोसा नहीं रहेगा, तो सरकारों पर भी भरोसा नहीं रहेगा, और संसद या विधानसभा पर से भी भरोसा उठ जाएगा। लोकतंत्र सौ फीसदी नियम-कानून से बांधकर चलाई जाने वाली व्यवस्था नहीं है। इसका बहुत सा हिस्सा अच्छी परंपराओं, और लोकतांत्रिक मूल्यों से भी चलता है, लोगों के खुद होकर कानून मानने से भी चलता है, लेकिन जब तक लोगों के मन में लोकतंत्र के प्रति आस्था नहीं होगी, तब तक वे अपने देश-प्रदेश के कानून को मानेंगे भी नहीं। भारतीय लोकतंत्र टुकड़े-टुकड़े में बहुत बुरी तरह खोखला हो गया है, और इस नौबत को सुधारने की बहुत जरूरत है।
जापान की एक रिपोर्ट है कि वहां 1916 में पैदा हुई एक महिला आज दुनिया की सबसे उम्रदराज कामकाजी नाई है। गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉड्र्स ने ठोक-बजाकर, सारे सुबूत देखकर उन्हें यह सर्टिफिकेट दिया है। शितसुई हाकोइशी नाम की यह महिला यह सर्टिफिकेट पाने के समारोह में अपनी 85 साल की बेटी, और 81 साल के बेटे के साथ पहुंची थी, और खुद चलती-फिरती, काम करने की हालत में थी। शितसुई का कहना है कि वे अभी दो बरस और काम करेंगी, उन्होंने कहा कि 110 बरस की उम्र तक कड़ी मेहनत से काम करना है। उनकी कहानी बड़ी दिलचस्प इसलिए है कि 14 बरस की उम्र में उन्होंने बाल काटना सीखना शुरू किया, 20 बरस की उम्र में पेशेवर नाई का सर्टिफिकेट मिल गया, और शादी हो गई। 1937 में जापान-चीन युद्ध में उनके पति की मौत हो गई, दूसरे विश्व युद्ध में टोक्यो पर अमरीकी बमबारी से उनका घर राख में तब्दील हो गया, लेकिन अपने बच्चों को लेकर जिंदा रहने के संघर्ष में वो काम करती चली गईं, और अभी 108 बरस की उम्र में बहुत अच्छी तरह अपना सलून चलाती हैं।
आज विश्व महिला दिवस है, और इस मौके पर एक महिला के संघर्ष की, उसकी कामयाबी की यह कहानी देखने लायक है। आज अधिकतर लोग सरकारी रिटायरमेंट की उम्र 58-60 साल आते-आते काम में दिलचस्पी खो बैठते हैं, उन्हें लगता है कि अब ईश्वर की साधना में, या नाती-पोतों के साथ बाकी की जिंदगी गुजार देना है। इस उम्र के बाद जो अधिक सक्रिय रहते हैं, वे भी अपने हमउम्र लोगों के साथ सुबह की सैर पर अगल-बगल के मैदान-बगीचे तक जाकर एक जगह डेरा डाल देते हैं, और आपस में इस चर्चा में जुट जाते हैं कि सुबह पेट कैसा साफ हुआ। इनमें से बहुतों के पास अपनी जिंदगी के कुछ संस्मरण सुनाने की हसरत रहती है, और आगे की जिंदगी मानो यादों के सफर में ही कटने के लिए बची रहती है। कुछ अधिक जिद्दी लोग योग, कसरत, या सुबह-शाम की सैर में लगते हैं, लेकिन कामकाजी जिंदगी को मानो गैरसरकारी काम किए हुए लोग भी रिटायरमेंट की उम्र तक छोड़ देने के चक्कर में रहते हैं, बल्कि बहुत से लोग तो इस उम्र के पहले भी वालंटरी रिटायरमेंट ले लेते हैं। ऐसे में 108 बरस की उम्र में दो बरस और काम करने का इरादा लोगों को दूसरी दुनिया का लग सकता है।
लेकिन एक बात पूरी दुनिया में एक सरीखी है कि महिलाएं पुरूषों के मुकाबले अधिक लंबी जिंदगी जीती हैं, और वे अधिक मेहनत भी करती हैं। शायद अधिक मेहनत करना, और कम खाना, और गम खाना भी वे वजहें रहती हैं जिनकी वजह से महिला अधिक उम्र तक न सिर्फ जीती है, बल्कि अधिक सेहतमंद भी रहती है। भारत जैसे देश में धार्मिक या आध्यात्मिक रुझान वाले अधिकतर लोग ऐसे दिखते हैं जो कि सरकारी रिटायरमेंट उम्र के बाद बाकी जिंदगी अपने-अपने धर्मों के, और पसंद के प्रवचनों में गुजार देना चाहते हैं। यही वजह है कि ऐसे एक-एक कार्यक्रम में लाखों लोग जुट जाते हैं। नतीजा यह होता है कि आमतौर पर जिंदगी से पलायन सिखाने वाले प्रवचनों को सुन-सुनकर लोग अपने आपको बुरा, पापी, अज्ञानी मानते रहते हैं, क्योंकि अगर वे अपने को ऐसा नहीं मानेंगे, तो फिर उन्हें प्रार्थना की जरूरत क्यों रह जाएगी? इसलिए बहुत से धर्मों में जिंदगी की जरूरी बातों को काम-वासना, पाप, लालच जैसे तमगे दे दिए जाते हैं, और लोगों को इनसे जूझते हुए, अपराधबोध और पाप की धारणा से मुक्ति पाने की कोशिश करते हुए बाकी जिंदगी भक्ति में गुजारना जरूरी लगता है। यह जिंदगी के असल संघर्ष से दूर धकेलने वाली एक धार्मिक-आध्यात्मिक साजिश रहती है जो कि लोगों के दिमाग में यह बात बैठा देती है कि वक्त से पहले, और किस्मत से अधिक कुछ नहीं मिलता। यह बात भी बैठा दी जाती है कि ऊपरवाला सब देख रहा है, और उसकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। नतीजा यह होता है कि ऐसी धार्मिक-आध्यात्मिक नसीहतों के बीच लोगों की काम करने की हसरत और मेहनत खत्म ही होने लगती है।
जापान की इस महिला की मिसाल देखने लायक है, और दुनिया भर में अलग-अलग बिखरी हुई ऐसी दूसरी मिसालें भी हैं। दुनिया के कुछ सबसे बड़े पूंजीनिवेशकों की मिसालें हैं कि उन्होंने अपनी अधिकतर दौलत 60 बरस की उम्र के बाद कमाई है। एक किसी दूसरी जगह आज ही किसी ने लिखा है कि 60 बरस की उम्र के बाद सबसे बड़ी कमाई अपनी सेहत को ठीक रखना है, और अच्छी सेहत से बड़ी बचत और कुछ नहीं हो सकती। जापान सबसे अधिक उम्रदराज लोगों का देश है, और आबादी के अनुपात में शतक पूरा करने वाले लोग शायद जापान में ही सबसे अधिक हैं। दुनिया भर में जिन लोगों को लगता है कि उनकी काम की उम्र निकल गई है, उन्हें अपने आपको किसी न किसी उत्पादक, रचनात्मक, और सकारात्मक काम में इसलिए व्यस्त रखना चाहिए कि इन दिनों बुढ़ापे में बढ़ चली कई तरह की कमजोर याददाश्त वाली बीमारियां दिमागी सक्रियता कम होने से भी उपजती हैं। इसलिए अपने आपको व्यस्त रखना लोगों को अपने परिवार और समाज में, आसपास के लोगों में अलग सम्मान तो दिलाता ही है, आत्मनिर्भर भी बनाए रखता है, और समाज में उनका योगदान भी याद रखा जाता है। इसलिए 60-65 की उम्र में जिन लोगों को परिवार की कई तरह की जिम्मेदारियां छोडक़र धर्म-आध्यात्म में जुट जाने का दिल करता है, उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि क्या वे रिटायर होने की उम्र पर कोई ऐसा नया काम भी शुरू कर सकते हैं जो उन्हें अगले कुछ दशकों तक, बाकी जिंदगी तक व्यस्त रखे? इस तरह के व्यस्त बुजुर्ग ही किसी परिवार को गैरजरूरी तनाव, परेशानी, और बोझ से बचा सकते हैं। एक बार जिन्होंने अपने आपको रिटायर मान लिया, वे आसपास के दायरे पर बोझ भी बनने लगते हैं, वरना 108 बरस की उम्र में अपना सलून चला रही जापानी नाई को देखें, जो दो बरस और काम करना चाहती है।
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मायावती के बारे में पिछले कुछ बरसों में जो सबसे महत्वपूर्ण खबरें आई हैं, उनमें से एक तो यह है कि वे पिछले कई चुनाव बीजेपी के दबाव में उसकी बी टीम की तरह लड़ रही है, न प्रचार करने जाती हैं, न किसी से गठबंधन करती हैं, और भाजपा के हाथ मजबूत करती हैं। उनके खिलाफ केन्द्रीय जांच एजेंसियों के इतने मामले चल रहे हैं कि उनकी ऐसी किसी बेबसी को समझा जा सकता है। उनके बारे में दूसरी खबरें यही आती है कि किस तरह उन्होंने अपनी पार्टी, बसपा, को विरासत में अपने भतीजे आकाश आनंद को दे दिया था, फिर उसे विरासत से अलग कर दिया, और फिर वारिस बना दिया, और फिर हटा दिया। अभी इसी हफ्ते उन्होंने सोशल मीडिया पोस्ट करके यह जानकारी दी कि उन्होंने भतीजे को बसपा से निष्कासित कर दिया है। इसके एक दिन पहले उन्होंने उसे पार्टी के सभी महत्वपूर्ण ओहदों से हटाया था। इसके साथ-साथ उन्होंने कहा है कि आकाश आनंद के ससुर को भी पार्टी के हित में निष्कासित कर दिया गया है। 2019 से 2025 तक भतीजे का कई बार ऐसा भीतर-बाहर, ऊपर-नीचे, आना-जाना हुआ है। उत्तर भारत सहित देश के बहुत से राजनीतिक दलों में कुनबापरस्ती बड़ी आम बात है, और मायावती उन्हीं में से एक मिसाल हैं।
भारतीय राजनीति में कुनबापरस्ती की सबसे बड़ी तोहमत कांग्रेस पार्टी पर लगती है, और इसकी शुरूआत नेहरू से की जाती है जिन्होंने अपने दामाद फिरोज गांधी को कांग्रेस के अखबार नेशनल हेरल्ड का मुखिया बनाया। हालांकि इसके पहले से वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय थे, और जेल काट चुके थे, लेकिन इंदिरा से शादी के बाद वे कांग्रेस के सांसद बने, और अपनी मृत्यु तक बने रहे। इसके अलावा भारत के पब्लिक सेक्टर के नेहरू काल के कई मामलों में उनका बड़ा दखल रहा। उनके बाद इंदिरा गांधी, उनके बेटों, बहुओं, और पोते-पोती का राजनीतिक-चुनावी इतिहास सबके सामने है। देश में कुनबापरस्ती की जब भी बात होती है कांग्रेस की मिसाल सबके काम आती है, और कांग्रेस से बाहर निकलकर भी इंदिरा की छोटी बहू मेनका, और उनके बेटे दोनों संसद में पहुंचे, और मेनका केन्द्रीय मंत्री भी रहीं। जिस उत्तर भारत में मायावती की मुख्य राजनीति चलती थी, वहां पर मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी के नाम पर अपने परिवार की पार्टी चलाई, और लंबे समय तक सत्ता में भागीदार रहे। बगल के बिहार में लालू यादव ने जिस तरह अपने जेल जाने पर अपनी घरेलू पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया था, और बेटा-बेटी सभी को सांसद-विधायक बनाया, वह मिसाल भी गैरभाजपाई दलों पर हमला करते वक्त काम आती है। आज मायावती की खबरों के बीच ही यह पढऩा भी बड़ा अजीब लगता है कि किस तरह भतीजे का ससुर पार्टी पर हावी था, और मायावती सार्वजनिक रूप से यह तोहमत लगा रही हैं कि ससुर के असर में भतीजे ने सब कुछ बर्बाद किया। मतलब तो साफ है कि भतीजा तो भतीजा, भतीजे का ससुर भी पार्टी के नेताओं का बाप बना बैठा था। ऐसी कुनबापरस्ती को लोकतंत्र के हित में विसर्जित ही कर दिया जाना चाहिए था, और अब भी बहुत देर नहीं हुई है।
दूसरी तरफ मैक्सिको से खबर आ रही है कि वहां की सरकार एक कानून लेकर आ रही है जिससे राजनीति में परिवारवाद खत्म किया जाएगा। यह कानून केन्द्र, राज्य, और स्थानीय स्तर पर एक ही परिवार के लोगों को राजनीति में आने से रोकने के लिए लाया जा रहा है, और यह 2030 तक लागू कर दिया जाएगा। इस कानून के तहत नेताओं के तुरंत दुबारा चुनाव लडऩे पर भी पाबंदी लगेगी। फिर भी वहां के लोगों का मानना है कि इसे 2030 तक लागू न करने के पीछे नेताओं की नीयत यह है कि वे तब तक अपने कुनबे के लोगों को अलग-अलग जगहों पर फिट कर चुके होंगे। लोगों को याद होगा कि हम पहले कई बार अमरीका की इस व्यवस्था की तारीफ कर चुके हैं कि वहां चार-चार बरस के दो कार्यकाल पूरे करने के बाद कोई राष्ट्रपति और कोई भी सरकारी काम नहीं संभाल सकते।
राजनीतिक दलों से लेकर सरकारों तक अगर नई पीढ़ी को आगे बढऩे देना है, तो वंशवाद को खत्म करना होगा, और लोगों के कार्यकाल भी सीमित करने होंगे। भारत सरीखे 140 करोड़ से अधिक आबादी के इस देश में संसद या विधानसभा के, और मंत्री पद के दो कार्यकाल पूरे करने में दस बरस निकल जाते हैं। इसके बाद उनकी जगह नए लोगों को मौका दिया जा सकता है। इसी तरह राजनीतिक दलों के संगठन के ढांचे में एक ही कुनबे के लोगों को काबिज बने रहने देने से पार्टी के भीतर लोकतंत्र खत्म होता है, और नए खून की कल्पनाशीलता का कोई फायदा मिल भी नहीं पाता। आज जब हम यह लिख रहे हैं, उस वक्त कांग्रेस के एक नेता रहे हुए, और एक वक्त राजीव गांधी के करीबी रहे मणिशंकर अय्यर की कही एक बात गूंज रही है कि राजीव गांधी प्रधानमंत्री बनने लायक नहीं थे क्योंकि वे कॉलेज में दो-दो बार फेल हो चुके थे। किसी के कॉलेज में फेल होने से उसके प्रधानमंत्री बनने की क्षमता कम नहीं होती है, लेकिन लोगों को याद रखना चाहिए कि राजीव गांधी इंदिरा की हत्या की अभूतपूर्व और असाधारण हिंसा के बीच जलते हुए देश को संभालने वाले प्रधानमंत्री बने थे, न कि अपनी क्षमता या चाहत के आधार पर। इसलिए मणिशंकर अय्यर की 40 बरस पहले की उस घटना का जिक्र करते हुए 50 बरस पहले के कॉलेज की याद ताजा करना एक घटिया बात है। फिर भी लोकतंत्र में घटिया बातों को भी करने की आजादी रहनी चाहिए। घटिया बातें खराब कही जा सकती हैं, लेकिन वे जुर्म तो नहीं रहतीं।
मायावती से परे आज ही की एक दूसरी खबर भी है कि किस तरह तृणमूल कांग्रेस की एक बड़ी बैठक में आज ममता बैनर्जी के भतीजे, और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बैनर्जी बैठक में नहीं पहुंचे। इस पार्टी में भी बुआ-भतीजे के बीच तनातनी की खबरें आती रहती हैं, और भतीजे को ही ममता का वारिस माना जाता है। देश की तकरीबन तमाम क्षेत्रीय पार्टियां इसी तरह कुनबापरस्ती पर चलती हैं, और तीन-तीन पीढ़ी से एक ही घर में लीडरशिप चली आ रही है। यह सिलसिला कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक अधिकतर प्रदेशों में देखने मिलता है, और पता नहीं भारतीय लोकतंत्र में मैक्सिको की तरह का कोई कानून मुमकिन है या नहीं जो कि वंशवाद को रोक सके।
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अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प के सुबह-शाम के अस्थिर दिमाग से निकले हुए दिखने वाले फैसलों से दुनिया भर के शेयर बाजार डूबे चले जा रहे हैं। किसी देश को यह समझ नहीं पड़ रहा है कि वे ट्रम्प से क्या बात करें, क्योंकि किसे डांट पड़ जाए, इसका कोई ठिकाना तो है नहीं। जिस तरह अभी व्हाईट हाऊस में यूक्रेन के राष्ट्रपति को ट्रम्प और उनके उपराष्ट्रपति ने फटकारा है, और बिना खाना खिलाए जाने के लिए कह दिया, उससे भी बाकी देश सहमे हुए हैं कि कौन ट्रम्प के मुंह लगे। हम भी इस जगह पर ट्रम्प की तानाशाही, गुंडागर्दी, और बददिमागी को लेकर कई बार लिख चुके हैं। लेकिन आज हम ट्रम्प के डेढ़ महीने के कार्यकाल को लेकर एक अलग नजरिए से देखना चाहते हैं, जो कि हमारे ही अभी तक लिखे हुए से अलग हटकर नजरिया रहेगा।
ट्रम्प के बारे में चारों तरफ यह कहा और लिखा जा रहा है कि वे अंतरराष्ट्रीय संबंधों, देश की विदेश नीति, और कूटनीतिक तौर-तरीकों से बिल्कुल अलग, मनमानी का बर्ताव करने वाले नेता हैं। उन्होंने जिस अंदाज में अपने मन से यह तय कर लिया कि इजराइल गाजा को अमरीका को सौंप देगा, और अमरीका वहां के 20 लाख से अधिक लोगों को फिलीस्तीनी के पड़ोस के देशों में बसा देगा, और गाजा की जगह वह मध्य-पूर्व की सबसे बड़ी सैरगाह बनाएगा, वह अंदाज सबके लिए भयानक था, उसका लोकतंत्र से कुछ भी लेना-देना नहीं था, मध्य-पूर्व के देशों से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक सभी ट्रम्प के इस बयान के खिलाफ थे। लेकिन इस बयान के बाद ही मध्य-पूर्व के देशों के सबसे बड़े संगठन अरब लीग की बैठक हुई, और आनन-फानन ऐसे प्रस्तावों पर चर्चा हुई कि अरब देश फिलीस्तीन के गाजा में क्या कर सकते हैं, उसे दुबारा बसाने के लिए कितनी मदद की जरूरत पड़ेगी। और ये प्रस्ताव अमरीका के सामने औपचारिक या अनौपचारिक रूप से रखे भी जाने वाले हैं, क्योंकि ट्रम्प के अपनी मनमानी के बयान के बाद अमरीकी सरकार की तरफ से यह भी कहा था कि मध्य-पूर्व से अगर गाजा के बारे में कोई प्रस्ताव नहीं आएगा, तो ट्रम्प के इस प्रस्ताव की बारी आएगी। और ट्रम्प की चेतावनी के बाद मध्य-पूर्व के कुछ अमरीकापरस्त, और कुछ अमरीकी दबदबे के बाहर से देशों ने मिलकर गाजा पर यह विचार-विमर्श किया है। ट्रम्प की चेतावनी के पहले इन रईस मुस्लिम, और इस्लामिक देशों के हाथ-पांव नहीं हिल रहे थे। ऐसा लग रहा था कि दुनिया का लोकतांत्रिक तौर-तरीका इन देशों से कोई हमदर्दी नहीं उपजा पा रहा था। तो क्या ट्रम्प के गुंडागर्दी के तेवर गाजा के किसी जल्द-समाधान का रास्ता तैयार कर रहे हैं? हम बिल्कुल भी ट्रम्प की किसी राय से इत्तेफाक नहीं रखते, लेकिन उनकी धमकी के असर की चर्चा कर रहे हैं।
ठीक इसी तरह रूस के हमले के बाद, और यूक्रेन के मोर्चे पर टिके रहने से जो जंग तीन बरस से चली आ रही है, और जिसमें अमरीका ने अपने फौजी इतिहास की एक सबसे बड़ी मदद यूक्रेन को की है, उसके खिलाफ डोनल्ड ट्रम्प ने सख्त तेवर दिखाए थे, और यूक्रेन की बांह मरोडक़र उसे रूस के साथ समझौता करने पर मजबूर किया था, उसका असर अब दिख रहा है। ट्रम्प के ये तेवर पूरी तरह अलोकतांत्रिक हैं, लेकिन इनका असर दिख रहा है। अमरीकी संसद में ट्रम्प ने यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलिंस्की की भेजी गई एक चिट्ठी का जिक्र किया कि वह रूस से शांतिवार्ता को भी तैयार है, और अपनी दुर्लभ खनिजों की खदानें अमरीका को देने पर भी तैयार है। अमरीका ने यूक्रेन को जारी फौजी सप्लाई, और जंग की खुफिया जानकारी देना बंद किया, और अगले ही दिन यूक्रेनी राष्ट्रपति ने समर्पण कर दिया। हम अभी सही और गलत के झगड़े में नहीं पड़ रहे, लेकिन ऐसा लग रहा है कि दुनिया का यह सबसे बड़ा मवाली अपने तौर-तरीकों से कुछ बातों को करवाने में कामयाब हो रहा है जिससे कि इजराइल-फिलीस्तीनी, और रूस-यूक्रेनी जंग थम जाए। अब आज की दुनिया में किसी जंग के जायज या नाजायज होने की बात मायने इसलिए नहीं रखती है कि संयुक्त राष्ट्र बेअसर संगठन हो चुका है, और पूरी दुनिया ‘जिधर बम, उधर हम’के सिद्धांत पर काम करती दिख रही है। जब अमरीका ने इराक पर फर्जी सुबूतों का हवाला देते हुए हमला किया था, तो संयुक्त राष्ट्र प्रसंगहीन साबित हुआ था, और बड़ी-बड़ी पश्चिमी ताकतें अमरीका के हमलावर गिरोह में शामिल थीं। इसलिए अंतरराष्ट्रीय बाहुबल के प्रदर्शन में जायज और नाजायज की चर्चा अब फिजूल सी हो चुकी है।
ट्रम्प ने दुनिया भर के देशों में अमरीकी मदद से चलने वाले सहायता-कार्यक्रमों को पल भर में खत्म कर दिया, योरप के देशों के साथ अपने पुराने सैनिक साझेदारी के संगठन नाटो पर से अपनी ताकत को पल भर में हटा दिया, और अपने सबसे कट्टर दुश्मन देश, रूस के साथ नई यारी की नुमाइश की, और पूरी दुनिया का शक्ति संतुलन तबाह कर दिया। ट्रम्प ने दुनिया के अलग-अलग देशों के साथ अमरीका के व्यापार संबंधों की परंपरा, और लंबे इतिहास को खारिज करते हुए, एक आम दुकानदार की तरह लेन-देन पर एक जैसे टैरिफ की घोषणा की, और अपने पड़ोसियों के तबाह हो जाने की कोई फिक्र नहीं की। ऐसी नौबत में यह लगता है कि क्या अंतरराष्ट्रीय संबंधों में कभी-कभी मोटी जम चुकी बर्फ की तह तोडऩे के लिए, और यथास्थिति को बदलने के लिए ट्रम्प सरीखे किसी तानाशाह की जरूरत पड़ती है? क्या ट्रम्प के तेवर और उनके फैसले, एक आत्मकेन्द्रित देश के रूप में अमरीका को ट्रम्प की जुबान में क्या सचमुच ही एक बार और महान बना सकते हैं, क्या वे दूसरे देशों की मदद की कीमत पर अमरीका को पहुंचने वाले आर्थिक नुकसान को रोक सकते हैं, क्या वे दुनिया में जंग के चल रहे कुछ मोर्चों को ठंडा कर सकते हैं? ऐसे कई सवाल ट्रम्प के फैसलों, और उसके असर से आज उठ रहे हैं। ट्रम्प की नीतियां जितने सवालों के जवाब दे सकती हैं, उससे अधिक सवाल खड़े कर रही हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि धरती के गोले पर अपने सबसे बड़े मवाली, ट्रम्प की बातों को बहुत से देशों को गंभीरता से लेना पड़ रहा है, और वह किसी अंडरवर्ल्ड डॉन की तरह, माफिया सरगना की तरह अपने फैसले लोगों पर लाद रहा है, लोगों को यह सोचने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि दुनिया में कुछ भी स्थाई मित्रता, और स्थाई शत्रुता नहीं होती। ट्रम्प एक अकेला इंसान है जो दुनिया की जमी-जमाई व्यवस्था को इस हद तक पलट रहा है, और हम इसके हिमायती न होते हुए भी, इसे इस नजरिए से देखना दिलचस्प पा रहे हैं कि ट्रम्प के इस कार्यकाल में दुनिया में दोस्ती और दुश्मनी के नए समीकरण किस तरह बनने जा रहे हैं।
छत्तीसगढ़ विधानसभा में सरकार तो भाजपा की है, लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक ही अनगिनत मामले उठा रहे हैं जिनमें सरकार के स्तर पर बड़ा भ्रष्टाचार हुआ है। इनमें से कुछ मामले पिछले सवा साल के भाजपा सरकार के कार्यकाल के हैं, लेकिन अधिकतर मामले पिछली कांग्रेस सरकार के समय के हैं, जिन्हें लेकर कांग्रेस विधायकों की बोलती बंद रहती है क्योंकि उन्हीं की सरकार के चलते यह सब भ्रष्टाचार हुआ था। लेकिन ऐसा एक सबसे बड़ा संगठित अपराध सरकार को सबसे बड़ा चूना लगाने वाला कल विधानसभा में खूब उठाया गया, और उसके बाद सरकार को अपने एक डिप्टी कलेक्टर को सस्पेंड करना पड़ा। रायपुर जिले के ही अभनपुर इलाके में केन्द्र सरकार के भारतमाला प्रोजेक्ट के तहत रायपुर-विशाखापट्टनम के बीच बन रहे इकॉनॉमिक कॉरीडोर के लिए किसानों की जमीन ली गई थी। 2019 में कांग्रेस सरकार के दौरान किसानों की जमीनों के सरकारी रिकॉर्ड में कई-कई टुकड़े कर दिए गए, और इन्हें अलग-अलग नामों से चढ़ा दिया गया। छोटे टुकड़ों का मुआवजा अधिक रेट पर मिलता है, और जिन जमीनों का कुल 35 करोड़ रूपए मुआवजा बनना था, उसे बढ़ाकर सवा तीन सौ करोड़ से ऊपर पहुंचा दिया गया। सरकारी अफसर ने बाकी अमले के साथ मिलकर संगठित रूप से यह भ्रष्टाचार किया था, और चर्चा यह भी थी कि इसमें दूसरे बहुत से नेता और अफसर शामिल थे। 32 टुकड़ों को 247 छोटे टुकड़ों में बांटकर केन्द्र सरकार को ढाई सौ करोड़ से अधिक का चूना लगाया गया था, और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष डॉ.चरणदास महंत ने इस मामले को उठाया था। विधानसभा में यह जानकारी आई कि केन्द्र सरकार के राष्ट्रीय सडक़ प्राधिकरण ने रायपुर कलेक्टर से इसकी रिपोर्ट मांगी थी जिसमें यह साजिश उजागर हुई। इसके आधार पर राज्य सरकार ने उस वक्त के प्रभारी डिप्टी कलेक्टर को सस्पेंड किया है। इसी के साथ-साथ कुछ और दूसरे भ्रष्टाचार भी सामने आए हैं, और इनमें से एक बस्तर के घोर नक्सल प्रभावित बीजापुर जिले का मामला है जहां पर बैंक सुविधा कम रहने से आदिवासियों को तेन्दूपत्ता का भुगतान नगद करने की खास छूट है, और वहां वन विभाग ने जिले के सबसे बड़े अफसर, डीएफओ की अगुवाई में करोड़ों की संगठित लूट की है। इस मामले में अखिल भारतीय वन सेवा के अफसर, डीएफओ को सस्पेंड किया गया है, जो कि इस स्तर के अधिकारी के साथ कभी-कभार ही होने वाली बात है। एक तीसरा मामला अभी विधानसभा में उठा ही है कि प्रदेश में जिस जशपुर जिले को नागलोक कहा जाता है, वहां से भी अधिक सांप काटने से मौत के मामले बिलासपुर में दर्ज किए गए हैं, और विधायकों का कहना है कि इनमें बड़ी संख्या में फर्जी मामले हैं।
भ्रष्टाचार छत्तीसगढ़ सरकार की रग-रग में समाया हुआ है। खासकर पिछले पांच बरस की कांग्रेस सरकार के दौरान जितना संगठित भ्रष्टाचार हुआ है, और जिनमें से बहुत से मामले जांच एजेंसियों के मार्फत अभी अदालतों में चल रहे हैं, उन्हें देखना भयानक है। बहुत पहले देश के एक सबसे चर्चित व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने लिखा था कि एक बार कोई व्यक्ति अदालत पहुंच जाए, तो उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने आपको अपने वकील से बचाने की रहती है। इसी तरह आज के हालात देखें तो सरकार को सबसे बड़ी चुनौती अपने आपको अपने ही भ्रष्ट अफसरों और कर्मचारियों से बचाने की रहती है। जिनको सरकार से एक सुरक्षित नौकरी मिलती है, काम की सहूलियतें मिलती हैं, समाज में दबदबा मिलता है, वे ही लोग सरकार की हर योजना में पलीता लगाने में लगे रहते हैं। सरकारी अमले का भ्रष्टाचार इस हद तक संगठित रहता है कि सत्तारूढ़ पार्टी चाहे बदल जाए, सत्ता के दलाल वही के वही बने रहते हैं, और अफसर नए सत्तारूढ़ नेताओं को रातोंरात कमाई की संभावना बताकर उनके शुभचिंतक बन जाते हैं। यह सिलसिला खत्म होते नहीं दिखता है, किसी सरकार में यह कम रहता है, किसी में ज्यादा रहता है, लेकिन सरकारी अमले की खुली भागीदारी से चलने वाली संगठित साजिशें खत्म तो कभी नहीं होतीं। ऐसे में कल ही हमने छत्तीसगढ़ के बजट पर इसी जगह लिखा था कि सरकार को अपने ढांचे में निरंतर चलने वाले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए एक निगरानी एजेंसी बनानी चाहिए जो कि संगठित भ्रष्टाचार और फिजूलखर्ची, बर्बादी और घटिया काम पर नजर रख सके, और बर्बादी होने के पहले ही सरकार को कार्रवाई सुझा सके।
अब केन्द्र सरकार की सडक़ योजना के लिए जमीन लेने की लागत को जिस अफसर और कर्मचारियों ने दस गुना पहुंचा दिया, उन्हें जरा सा भी डर नहीं लगा। करीब ढाई सौ करोड़ के घोटाले का यह मामला भूपेश सरकार के पहले ही साल का दिखाई पड़ रहा है। और ऐसा हो नहीं सकता कि सत्तारूढ़ नेताओं की भागीदारी के बिना इतना बड़ा भ्रष्टाचार कोई एक डिप्टी कलेक्टर अकेले कर ले। इसके पहले भी कई दूसरे जिलों में ऐसे मामले सामने आए हैं जब लोगों की निजी जमीन का अनिवार्य अधिग्रहण होना था, और उसके ठीक पहले उन जमीनों की कागजी खरीद-बिक्री दिखाकर, या पारिवारिक बंटवारा दिखाकर उनके छोटे-छोटे टुकड़े किए गए ताकि उनका कई गुना अधिक रेट से मुआवजा मिल सके। विधानसभा में तो अभी एक डिप्टी कलेक्टर को सस्पेंड किया है, लेकिन केन्द्र सरकार की जनसुविधा की इस महत्वाकांक्षी योजना को एक आपराधिक साजिश रचकर जिन लोगों ने भी फायदा उठाया है, वैसे दस-बीस और लोगों को भी जेल भेजना चाहिए, और उनकी जमीन-जायदाद की बिक्री करके एक ऐसी मिसाल कायम करना चाहिए कि आगे किसी और का ऐसा हौसला न हो। वैसे तो पिछले पांच बरस के भ्रष्टाचार के जितने मामले जांच एजेंसियों के रास्ते अदालतों में पहुंचे हुए हैं, उन्हें देखकर आज के सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों, नेताओं और सत्ता के दलालों का हौसला पस्त होना चाहिए क्योंकि दो-दो बरस से बड़े-बड़े आला अफसर और सत्ता की गोद में बैठे नेता-कारोबारी बिना जमानत जेल में पड़े हुए हैं, और उनकी सैकड़ों करोड़ की जमीन-जायदाद ईडी और आईटी में अटैच भी हो चुकी है। लेकिन जिनको इससे सबक न मिले, उन पर नजर रखने के लिए सरकार को आर्थिक अपराध और भ्रष्टाचार की एक नई निगरानी एजेंसी बनाना चाहिए क्योंकि आज की एसीबी-ईओडब्ल्यू यह काम करने में कामयाब नहीं हो पाई है। जो शिकायतें इन दो एजेंसियों के पास पहुंचती हैं उन्हीं पर कार्रवाई होती है, इसके साथ-साथ एक निगरानी एजेंसी भी चाहिए क्योंकि सरकार का पैसा लुट जाने के पहले ही उसका पता लगा सके। यह बात तो तय है कि सरकार में भ्रष्टाचार पानी पर तैरती जलकुंभी की तरह सबको दिखता है, सबको पता रहता है, और अगर इसे कोई अनदेखा करते हैं, तो वह सत्ता पर ऊपर बैठे लोग ही करते हैं। यह सिलसिला तोडऩा चाहिए, और जांच एजेंसी का काम शुरू होने के पहले ही निगरानी एजेंसी बनाकर उसे मजबूत करना चाहिए। आज लोगों का अंदाज यह है कि सरकारी खर्च का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार और घटिया सामान-निर्माण में बर्बाद होता है, एक मजबूत निगरानी एजेंसी बड़ा सस्ता सौदा होगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार का दूसरा बजट कल विधानसभा में पेश हुआ। एक सबसे नौजवान मंत्री, वित्त मंत्री ओपी चौधरी, शासन और प्रशासन दोनों की अच्छी जानकारी रखने वाले हैं, और मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने उन्हें बजट बनाने के लिए खुला हाथ भी दिया था। बजट में प्रदेश के तमाम वंचित, और जरूरतमंद तबकों के लिए बारीकी से कुछ न कुछ किया गया है, तो वह बजट पर एक आदिवासी मुख्यमंत्री की छाप भी दिखती है, जो ख़ुद वंचित बचपन से उठकर इस कुर्सी तक पहुँचा है। वित्त मंत्री ओपी चौधरी का पहला, और पिछला बजट तो कुल दो महीने की तैयारी का बजट था, लेकिन इस बार उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तर्ज पर शब्दों के प्रथमाक्षरों को लेकर एक ‘गति’ वाला बजट सामने रखा है, उनकी गति का मतलब सुशासन, तेज ढांचा विकास, टेक्नोलॉजी, और औद्योगिक विकास के अंग्रेजी शब्द हैं। इस बजट को एक नजर देखने से ऐसा लगता है कि राज्य के हर शहर-कस्बे, हर इलाके, हर तबके के लिए इसमें कुछ न कुछ दिया गया है।
हम अभी बजट की बारीकियों पर जाना नहीं चाहते क्योंकि वह लंबी लिस्ट कल से छपती चली जा रही है, लेकिन उसके एक खास पहलू पर खुलासे से चर्चा करना चाहते हैं। वित्त मंत्री ने रायपुर, नया रायपुर, दुर्ग-भिलाई, और राजनांदगांव के 800 से अधिक गांवों, और बीस शहर-कस्बों को मिलाकर स्टेट कैपिटल रीजन बनाने की बात कही है। हालांकि इस बार के बजट में इसके महज सर्वे और योजना के लिए कुल 5 करोड़ रुपए रखे हैं। यह देश की राजधानी के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की तर्ज पर छत्तीसगढ़ की राजधानी और उसके इर्द-गिर्द के एकमुश्त विकास की योजना है, जो बहुत महत्वाकांक्षी हो सकती है, और नया रायपुर योजना की तरह अनुपातहीन खर्चीली भी हो सकती है। प्रदेश की करीब एक तिहाई आबादी इस क्षेत्र में बसी हुई है, और इसके बाहर के भी दसियों लाख लोग हर दिन इस क्षेत्र में आते-जाते हैं। ऐसे में विधानसभा क्षेत्रों, संसदीय सीटों और म्युनिसिपल-पंचायतों के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के तंग नजरिए से ऊपर उठकर अगर विशुद्ध योजनाशास्त्री के नजरिए से इस योजना को नहीं बनाया जाएगा, तो यह सत्तारूढ़ नेताओं की तुष्टिकरण का एक निरर्थक और भारी फिजूलखर्ची का सामान बन जाएगा। ऐसे किसी भी विशाल इलाके के जटिल विकास की दीर्घकालीन योजनाएं आसान नहीं होती हैं, और इन्हें किसी चुनिंदा योजनाशास्त्री को उपकृत करने के लिए उसे देने के बजाय देश के सबसे अच्छे योजनाशास्त्रियों को देना चाहिए। इसके लिए देश में शहरी विकास के जानकारों का एक सम्मेलन भी किया जाना चाहिए। हमने नया रायपुर का बेहद खर्चीला विकास देखा हुआ है जो कि हजारों करोड़ की लागत के बाद भी आज भी पांच-दस फीसदी भी इस्तेमाल नहीं हो रहा है।
सरकार को किसी भी ऐसे खर्च के पहले यह याद रखना चाहिए कि इस प्रदेश की जनता सरकारी धान खरीदी की वजह से आज खुशहाल दिख रही है, वरना यहां प्रति व्यक्ति आय बहुत कम दिखती। गऱीबों के हक़ के पैसों से विकराल आकार की योजना बनाने के पहले उसकी उपयोगिता और उत्पादकता तौल लेनी चाहिए। राज्य राजधानी क्षेत्र का मतलब राजनांदगांव से लेकर नया रायपुर तक एक मेट्रो की योजना भी होगी, और हो सकता है कि इसके लिए राज्य सरकार को रायपुर शहर के बीच स्काईवॉक नाम की अपनी अधूरी पड़ी हुई योजना को पूरा करने की जिद छोडऩा भी पड़े, क्योंकि शहर के बीचों-बीच बहुत ही सीमित उपयोग वाले ऐसे स्कॉईवॉक के बाद शहर के बीच से किसी तरह की मेट्रो शायद निकल नहीं पाएगी।
दूसरी बात हम पहले भी कई बार बजट के तुरंत बाद लिख चुके हैं कि बजट का एक छोटा सा हिस्सा राज्य सरकार को सरकारी अमले के भ्रष्टाचार, और प्रदेश में आर्थिक अपराधों की रोकथाम के लिए रखना चाहिए। इस बजट में इसका जिक्र तो दिख रहा है, लेकिन एक ऐसी एजेंसी की जरूरत है जो भ्रष्टाचार हो जाने के पहले ही खुफिया तंत्र और निगरानी से सरकार और जनता दोनों को सचेत कर सके। इसके बिना 1 लाख 65 हजार करोड़ रुपए के इस बजट का कितना हिस्सा भ्रष्टाचार, फिजूलखर्ची, और घटिया निर्माण में बर्बाद होगा, यह अंदाज लगाना बहुत मुश्किल भी नहीं है। हम अभी बजट के एक-एक काम की तुलना पिछली सरकारों के अलग-अलग बजट से नहीं कर पा रहे हैं, लेकिन मुख्यमंत्री विष्णु देव साय की सरकार, और वित्त मंत्री ओपी चौधरी को ऐसी तरकीबें जरुर सोचना चाहिए कि जिस मद के लिए जितनी रकम रखी गई है, उस रकम का उस मद में अधिकतम इस्तेमाल हो सके, हम पिछले बरसों के सरकारी भ्रष्टाचार की कहानियां अखबारों में पढ़-पढक़र थक गए हैं। फिर यह बात भी सोचने लायक है कि जिस सरकारी अमले ने पिछले बरसों में परले दर्जे का यह भ्रष्टाचार किया था, वही अमला तो आज भी सरकार चला रहा है। भ्रष्टाचार की पुख्ता बिछी हुई पटरी पर ट्रेन दौड़ाना बहुत से लोगों के फायदे का काम हो सकता है, ऐसे लालच को रोककर इसी सरकारी अमले को, और राज्य की राजनीतिक संस्कृति को ईमानदार बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है, और इस लंबे-चौड़े बजट की कामयाबी इस चुनौती से पार पाए बिना नहीं हो सकेगी।
देश के एक सबसे बड़े हिन्दू तीर्थ, तिरुपति ट्रस्ट की तरफ से केन्द्र सरकार से अनुरोध किया गया है कि इस मंदिर की पहाड़ी, तिरुमाला के ऊपर से किसी भी तरह के विमानों का उडऩा बंद करवाया जाए, और इसे ‘नो फ्लाई जोन’ घोषित किया जाए। इस पर केन्द्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री राममोहन नायडू ने मीडिया से कहा है कि वे अधिकारियों से बात कर रहे हैं, ताकि विमानों के लिए कोई वैकल्पिक रास्ता तय किया जाए। उन्होंने कहा कि बहुत से तीर्थस्थानों की तरफ से ऐसे अनुरोध मिले हैं, और हम यह देखने की कोशिश कर रहे हैं कि इनमें क्या-क्या किया जा सकता है। मंदिर ट्रस्ट ने केन्द्र सरकार को लिखकर कहा है कि मंदिर की पवित्रता, सुरक्षा-चिंताएं, और भक्तों की भावनाएं देखते हुए इसके ऊपर से किसी भी तरह के विमान उडऩे पर रोक लगाई जाए। ट्रस्ट का कहना है कि इस मंदिर की पवित्रता, उसके सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व को देखते हुए तुरंत ही ऐसी कार्रवाई करनी चाहिए। मंदिर ट्रस्ट ने अपने अनुरोध के समर्थन में अगम शास्त्र का हवाला दिया है कि अगम नियमों के मुताबिक मंदिर की पवित्रता सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, और उसके आसपास किसी भी तरह का विघ्न पैदा होने से उसके आध्यात्मिक वातावरण पर फर्क पड़ता है। रिकॉर्ड बताता है कि 2016 में आन्ध्रप्रदेश सरकार ने भी केन्द्र सरकार से ऐसी ही अपील की थी जिसे केन्द्र ने यह कहते हुए खारिज किया था कि इससे तिरुपति एयरपोर्ट तक विमानों की आवाजाही सीमित हो जाएगी। उस वक्त विमानन मंत्री जयंत सिन्हा ने लिखा था कि तिरुपति एयरपोर्ट के आसपास की भौगोलिक स्थितियों को देखते हुए वैसे ही वहां पर केवल एक ही रनवे काम करता है, और किसी भी तरह के और प्रतिबंध लगाने से इस महत्वपूर्ण एयरपोर्ट तक आवाजाही प्रभावित होगी। अब केन्द्रीय विमानन मंत्री आन्ध्र की तेलुगु देशम पार्टी के हैं, उनकी पार्टी आन्ध्र पर सत्तारूढ़ है, और केन्द्र की मोदी सरकार इसी पार्टी के सहयोग से चल रही है।
अब जिस तरह की धार्मिक भावनाओं का जिक्र करते हुए यह मांग की जा रही है, उसके बारे में यह भी सोचने की जरूरत है कि क्या इसका कोई अंत होगा? आगे चलकर अमृतसर के स्वर्ण मंदिर को लेकर, बोधगया के बोधिवृक्ष को लेकर, कोलकाता के काली मंदिर को लेकर, अजमेर की दरगाह को लेकर, गुजरात के सोमनाथ मंदिर, ओडिशा के पुरी मंदिर को लेकर इसी तरह की मांग उठ सकती है। हर जगह धार्मिक भावनाएं जुड़ी हुई हैं, और अगर ऐसे हर तीर्थस्थान के ऊपर से विमानों की आवाजाही का रास्ता बदला जाएगा, तो वह हवाई यातायात के लिए एक अलग किस्म का खतरा बन जाएगा। आज तमाम विमान सबसे छोटे रास्ते पर सफर करते हैं, और जिन देशों के रिश्ते अच्छे नहीं रहते हैं, उन्हें छोडक़र दूसरे रास्ते से आने-जाने पर बहुत सारा अतिरिक्त खर्च होता है, अतिरिक्त समय लगता है। भारत तो कदम-कदम पर तीर्थों से भरा हुआ देश है, और यहां पर इस तरह की कोई भी रोक आगे चलकर हो सकता है कि कई तरह की हवाई दुर्घटनाओं की एक वजह बन जाए। आज शायद दिल्ली में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति निवास या कुछेक फौजी ठिकानों, परमाणु केन्द्रों को ही ऐसी उड़ानों से मुक्त रखा गया है। इसके बारे में बहुत जानकारी अभी हमारे पास नहीं है, लेकिन दुनिया भर में धार्मिक स्थलों के ऊपर से उड़ानों पर रोक का कोई ध्यान नहीं पड़ता है। फिर भारत के नक्शे को अगर देखें तो हर कुछ सौ किलोमीटर पर किसी न किसी धर्म के प्रमुख उपासना स्थल हैं, और फिर खजुराहो सरीखे पुरातत्व के महत्व के बहुत से केन्द्र भी देश भर में बिखरे हुए हैं।
जिस तरह तिरुपति ट्रस्ट ने किसी शास्त्र का हवाला देकर यह सब कहा है, वह अपने आपमें एक भयानक नौबत है। आज कोई भी ट्रस्ट आधुनिक सुविधाओं, और टेक्नॉलॉजी को मना नहीं करता है। बिजली, इंटरनेट, कम्प्यूटर, सीसीटीवी कैमरे, गैस-चूल्हे, से किसी को परहेज नहीं है। किसी ट्रस्ट को ऑनलाईन बुकिंग या दान से परहेज नहीं है, और हर प्रमुख तीर्थस्थान पर हर दिन लाख-लाख लोगों के लिए प्रसाद या भोजन तैयार करने में भी हर तरह की टेक्नॉलॉजी का इस्तेमाल होता है। धर्म हर तरह की टेक्नॉलॉजी का भरपूर इस्तेमाल भी करता है, और आस्था को जब चाहे तब विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के मुकाबले खड़ा भी कर देता है। अभी-अभी निपटे महाकुंभ में सरकार ने ही बताया कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल भीड़ के इंतजाम में किया गया था। जाहिर है कि यह मानवीय क्षमताओं से परे टेक्नॉलॉजी पर आधारित बात थी, और धर्म का उससे कोई टकराव भी नहीं था। पहाडिय़ों के बीच बसे हुए एयरपोर्ट पर एक हिस्से से प्लेन और हेलीकॉप्टर का उडऩा रोक देने से खतरे भी बढ़ेंगे, और शायद एयरपोर्ट की क्षमता भी घट जाएगी। आज जब पौन सदी से यह व्यवस्था चली आ रही है, तो अब आज उसमें यह नया बखेड़ा खड़ा करना धार्मिक आस्था की बात नहीं है, सत्तारूढ़ पार्टी और गठबंधन-भागीदार के बाहुबल का प्रदर्शन अधिक है कि वे ऐसा कुछ भी करवा सकते हैं। एक तरफ तो आन्ध्र के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू दुनिया भर की आधुनिक टेक्नॉलॉजी का केन्द्र आन्ध्र को बनाने में 25 बरस पहले अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते हुए भी लगे हुए थे। लेकिन आज लोकलुभावनी लोकप्रियता पाने के लिए इस तरह की मांग दुनिया के विकास और प्रगति के खिलाफ सोच है। हो सकता है कि मोदी सरकार को अपने दो मददगारों में से एक की ऐसी बेतुकी मांग को पूरा करने के लिए कुछ सोचना पड़े, लेकिन यह एक बहुत खराब परंपरा होगी, और धीरे-धीरे जब जिस राज्य के विधानसभा चुनाव होंगे, तब उस राज्य के सबसे बड़े तीर्थस्थान को नो फ्लाई जोन बनाने को चुनावी मुद्दा बना लिया जाएगा।
यह सब आधुनिक विकास को नकारने और खारिज करने की हरकत है, और इसे शुरूआत में ही खत्म करना चाहिए। धर्म ने हिन्दुस्तान की आम जिंदगी को एक बड़े बादल की तरह ढांक लिया है, और जिंदगी की बहुत सी बुनियादी जरूरतों, और जरूरी मुद्दों को पीछे धकेल दिया है। तिरुपति की यह मांग असल जिंदगी को धक्का देकर हाशिए पर फेंक देने जैसी होगी, इससे न तो ईश्वर का कोई भला हो सकता, न भक्तों का। बल्कि भक्तों के लिए खतरा खड़ा होगा, उनकी दिक्कतें बढ़ेंगी, और उस इलाके के हवाई सफर की संभावनाएं सीमित होंगी।
छत्तीसगढ़ विधानसभा के चल रहे इस सत्र में सत्तारूढ़ भाजपा विधायकों के उठाए गए सवालों से पल भर को तो ऐसा लगता है कि मानो वे अपनी ही पार्टी की सरकार के खिलाफ हैं, लेकिन फिर बारीकी से मुद्दे को समझें तो समझ आता है कि इसमें अधिकांश हमले पिछली कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में हुए, या अधूरे रह गए कामों को लेकर है। फिर भी इस मुद्दे पर चर्चा इसलिए जरूरी है कि लोकतंत्र में एक पार्टी या गठबंधन की सरकार का जाना, और दूसरी पार्टी या गठबंधन की सरकार का आना एक लगातार सिलसिला रहता है, और सरकार के कामकाज को इस फेरबदल के साथ सीखना जरूरी रहता है। अगर पिछली सरकार के कार्यकाल की चर्चा ही न की जाए, तो हर सरकार यह सोचकर लापरवाह हो जाएगी कि उसकी गलतियां, और उसके गलत काम उसके कार्यकाल के साथ ही दफन हो जाएंगे। हम तो अपने इस कॉलम में लगातार यह भी सुझाते रहे हैं कि हर सरकार के कार्यकाल के बाद एक जांच आयोग बैठना चाहिए जिसमें आम जनता जाकर उस कार्यकाल के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतें कर सके। जिस तरह सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट लगातार बनती है, उसी तरह एक जांच आयोग भी रहना चाहिए जिसके रिटायर्ड जज को निष्पक्ष रूप से नियुक्त करने की एक प्रक्रिया रहनी चाहिए, और उसे अगले एक या दो बरस में पिछले कार्यकाल के सारे भ्रष्टाचार पर एक श्वेत पत्र जैसा जारी करने का अधिकार रहना चाहिए। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट सरकार के हर विभाग के कामकाज पर नहीं आती, और कुछ चुनिंदा विभागों की चुनिंदा अनियमितताओं पर ही आती है। इसलिए आज छत्तीसगढ़ विधानसभा में सत्तापक्ष पिछली विपक्षी सरकार के कामकाज को जिस तरह कुरेद रहा है, उसे महज संसदीय चर्चा तक सीमित रखने के बजाय हम उसकी न्यायिक जांच की एक नियमित प्रक्रिया सुझा रहे हैं।
फिलहाल जो मुद्दे वहां उठे हैं उनमें एक विभाग के सैकड़ों मामले हैं जिनमें गांव-गांव तक शहर के वार्ड-वार्ड तक पानी सप्लाई के अधूरे पड़े प्रोजेक्ट हैं। कम शब्दों में अगर कहा जाए तो जहां न पानी का कोई स्रोत था, न पाईप लाईन डली थी, वहां टंकियां बना दी गईं। इस तरह के अधूरे काम सरकारों के अनगिनत विभागों में होते हैं। हमने पिछले हफ्तों में इसी जगह पर लिखा था कि स्वास्थ्य विभाग सरकारों का एक सबसे भ्रष्ट विभाग रहता है, और छत्तीसगढ़ के अस्तित्व की इस चौथाई सदी में हम लगातार यह देखते आ रहे हैं कि जिन जगहों पर विशेषज्ञ डॉक्टर और टेक्नीशियन नहीं हैं, वहां के लिए मशीनें खरीद ली गईं, जहां ऐसे लोग हैं, वहां मशीनें नहीं ली गईं, जहां मशीनें नहीं हैं, उनके लिए केमिकल खरीद लिए गए, इस तरह जहां भूत नहीं है, वहां पीपल खरीद लिया गया, और जहां पीपल है, वहां भूत नहीं खरीदे गए। यह सिलसिला दूसरे भी कई विभागों में चलते रहता है। कहीं पर फ्लाईओवर बनना है, तो उसमें आने वाली कुछ जमीन खरीदे बिना काम शुरू हो जाता है, कहीं पुल की सडक़ बनती है, तो पुल नहीं बनता, कहीं पुल बनता है, तो सडक़ नहीं बनती। इस तरह का बेमेल काम बहुत से विभागों में होता है। अभी एक-दो दिन पहले ही हमने इसी जगह लिखा है कि शहरों में पानी की सप्लाई बढऩे के आंकड़े सरकार के पास रहते हैं, लोगों के निजी ट्यूबवेल का अंदाज भी सरकार के पास रहता है, लेकिन नालियों के निकासी के पानी को साफ करने की क्षमता इस अनुपात विकसित नहीं की जाती। एक तरफ आने वाले कई बरसों के लिए पानी सप्लाई की योजना के आंकड़े रहते हैं, लेकिन घरों और दूसरी जगहों से निकलने वाले गंदे पानी के आंकड़ों में इस बढ़ी हुई सप्लाई के आंकड़े नहीं जोड़े जाते, मानो यह भाप बनकर उड़ जाने वाला पानी हो।
सिर्फ एक सरकार से दूसरी सरकार तक गलतियों और गलत कामों के आंकड़े ठीक नहीं है, इन्हें एक तर्कसंगत अंत तक ले जाना जरूरी है, और सच तो यह है कि सरकार एक स्थाई मशीनरी रहती है, जिसे राजनीतिक फेरबदल से परे भी लगातार अपना काम करना चाहिए, ऐसे में राजनीतिक-भ्रष्टाचार के अलावा और कौन सी वजह हो सकती है जिसकी वजह से सरकारी अफसर और बाकी अमला गलत तरीके से काम करें। हमारा ख्याल है कि जिम्मेदार अफसरों पर जब तक कड़ी कार्रवाई, और उनसे वसूली का स्थाई और नियमित इंतजाम नहीं होगा, जनता के खून-पसीने से आए हुए, उसकी हक के पैसों की ऐसी बर्बादी जारी रहेगी। चूंकि निर्वाचित विधायक बनकर मंत्री बनने वाले नेताओं के दस्तखत बहुत कम फाईलों पर रहते हैं, इसलिए अधिकतर वित्तीय जिम्मेदारी अफसरों की ही रहती है। सरकारों के साथ दिक्कत यह है कि अफसरों के भ्रष्टाचार पूरी तरह साबित होने लायक रहने पर भी सरकार जांच की इजाजत नहीं देती, इजाजत देती है तो जांच को उसी तरह भ्रष्ट कर दिया जाता है जिस तरह भूपेश सरकार में नान मामले में शुक्ला-टूटेजा को बचाने के लिए धरती से आसमान तक को एक कर दिया गया था, और जांच रिपोर्ट अगर पूरी तरह भ्रष्ट-अफसर के खिलाफ रहती है, तो भी सरकार मुकदमा चलाने की इजाजत नहीं देती। मुकदमा शुरू होता है, तो उसके बाद निचली अदालत से सजा पाकर भी ऊपर की अदालत में अपील का जो लंबा सिलसिला चलता है, उसके ऊपर भ्रष्ट और दुष्ट अफसरों को इतना भरोसा रहता है कि उनके जीते-जी उन्हें जेल नहीं जाना पड़ेगा। इस भरोसे को तोडऩे की जरूरत है। हर सरकार के अपने कुछ पसंदीदा भ्रष्ट हो सकते हैं, लेकिन दूसरी पार्टी के पसंदीदा भ्रष्ट लोगों को सजा दिलवाने और जेल भिजवाने का काम तो किया ही जा सकता है। इससे भी सरकार के भीतर गंदगी कुछ छंटेगी, और भ्रष्ट लोगों का हौसला कुछ पस्त होगा।
फिलहाल सरकार के हर विभाग में, हर प्रोजेक्ट में सीएजी के ऑडिट की तरह यह जांच होनी चाहिए कि बिना तैयारी के टुकड़े-टुकड़े में सरकार की रकम कैसे बर्बाद की जाती है। आज नई चमचमाती सडक़ बनती है, और दो दिन के भीतर पाईप या केबल डालने के लिए उसे खोद दिया जाता है। आज जहां डामर की सडक़ बनी है, उसके ऊपर साल-दो-साल में सीमेंट की सडक़ बनाई जाती है, और जहां सीमेंट की सडक़ रहती है उस पर डामर चढ़ाया जाता है। सडक़ किनारे की फुटपाथी जमीन पर कभी पेवर ब्लॉक लगाए जाते हैं, तो कभी उनके ऊपर सीमेंट या डामर चढ़ा दिया जाता है। जनता के पैसों की ऐसी बर्बादी को लेकर जनता की तरफ से भी एक ऑडिट होना चाहिए, सरकार के भीतर भी किसी भी खर्च की मंजूरी के पहले उसके पहले और बाद की कड़ी को जांचने की जिम्मेदारी तय होना चाहिए कि यह खर्च काम आ पाएगा या नहीं, या आगे-पीछे की कडिय़ों के बिना अधूरा पड़े रह जाएगा। दिक्कत यह है कि जो नेता और अफसर इस सरकार या पिछली सरकार में ऐसे तमाम घोटालों के लिए जिम्मेदार रहते हैं, वे शान से अपना हँसता हुआ नूरानी चेहरा कैमरों के सामने दिखाते हुए घूमते रहते हैं, और जनता के पैसे सरकार उसी अंदाज में डुबाती है जिस अंदाज में चिटफंड कंपनियां डुबाती हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी से कुछ घंटे पहले अमेरिका के राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की के बीच हुई मुलाकात एक बहस में बदलते हुए जिस तरह मीडिया के कैमरों के सामने आई है, और जिस तरह से उसका वीडियो चारों तरफ फैला है, वह हक्का-बक्का करता है। अमेरिकी राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति दोनों बैठकर जिस तरह से यूक्रेन के राष्ट्रपति पर दबाव डाल रहे थे, यूक्रेन के राष्ट्रपति को अमेरिका की मनमानी शर्तों को मानने के लिए तैयार करने की कोशिश कर रहे थे, वह भयानक था। अमेरिकी विदेश मंत्री भी लगातार यूक्रेन के राष्ट्रपति को अपमानित करने पर लगे हुए थे। इसके पहले ऐसा कोई नजारा दो देशों के प्रमुख लोगों के बीच खड़ा हुआ हो, ऐसा याद नहीं पड़ता। और खासकर जब किसी दूसरे देश का राष्ट्रपति आया हो तो उस मेजबान दफ्तर के मुखिया को मेहमान के साथ ऐसा बर्ताव कभी भी नहीं करना चाहिए। यह कूटनीति अगर तो छोड़ दें, तो भी यह तो सामान्य शिष्टाचार के भी खिलाफ है। जिस तरह से यूक्रेन के राष्ट्रपति को अपमानित करके वहां से तकरीबन निकाल ही दिया गया, उससे यह पता चलता है कि अमेरिका आज पूरी दुनिया के लिए किस-किस्म का हमलावर तेवर रखता है और किस तरह वह पूरी दुनिया को एकध्रुवीय बनाकर चलना चाहता है, ताकि सब कुछ उसकी मर्जी से हो।
यूक्रेन को नाटो के सदस्य यूरोपीय देशों ने फौजी मदद की थी जिसकी वजह से वह रूस के हमले के सामने खत्म हो जाने के बजाय उसे एक आत्मरक्षा की जंग में तब्दील कर पाया था। और पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने पूरी तरह से यूक्रेन के साथ खड़े रहने का वायदा किया था, और ऐसा ही वायदा नाटो के दूसरे यूरोपीय सदस्यों ने भी किया था। यही वजह है कि तीन दिनों में जंग को खत्म कर देने का रूसी राष्ट्रपति पुतिन का दावा तीन बरस बाद भी अभी तक पूरा नहीं हो पाया। लेकिन ट्रम्प ने इस बात को चुनाव के पहले ही एक बहुत बड़ा मुद्दा बनाया था कि वे यूक्रेन की जंग को 24 घंटे में खत्म करवा देंगे, अमेरिका का जो पैसा यूक्रेन को जा रहा है उसको खत्म कर देंगे, और उन्होंने ठीक वही किया है। उन्होंने चुनाव के पहले अमेरिकी जनता के सामने जो वायदा किया था वह उसी को पूरा कर रहे हैं। लेकिन इससे दुनिया का नक्शा जिस तरह से बदल रहा है, वह अभी किसी को समझ नहीं पड़ रहा है। आज हालात यह है कि दुनिया के इतिहास में सबसे लंबे समय से एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी या दुश्मन चले आ रहे रूस और अमेरिका, यूक्रेन जैसे सबसे बड़े मुद्दे पर एक साथ दिख रहे हैं। ट्रम्प सौ कदम आगे जाकर आज रुस का वकील बन बैठा है, और उसे उसके यूक्रेन पर अवैध कब्जे पर मालिकाना हक दिलाने का फैसला लिखने वाले जज भी बन गया है, और जल्लाद भी। और तो और, जो चीन और अमेरिका एक दूसरे के मुकाबले खड़े रहते हैं, वह चीन भी अमेरिका और रूस के साथ इस मामले पर खड़ा हो गया है कि अमेरिकी राष्ट्रपति की दखल से, गुंडागर्दी से यह शांति समझौता किया जाए। दरअसल यह कोई शांति समझौता है नहीं, यह यूक्रेन को रूस के हाथ बेच देने की एक रणनीति है और यूक्रेन की खदानों पर कब्जा करने के लिए जिस बेशर्म अंदाज से अमेरिकी राष्ट्रपति ने धमकी दी है, उसने तो अंतरराष्ट्रीय शिष्टाचार को पूरी तरह से खत्म कर दिया है।
कल की बैठक में भी ट्रम्प ने जेलेंस्की को जिस तरह से यह बार-बार कहा कि वहां की खदानों का आधा हिस्सा अमेरिका के हवाले किया जाए ऐसा तो दुनिया में किसी देश ने किसी देश से नहीं कहा था। फिर जो अमेरिका अपने देश के भीतर लोकतांत्रिक मूल्यों की बड़ी बात करता है जिसने बड़ी सी स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी लगाकर रखी है, वह यूक्रेन की लिबर्टी को, फिलिस्तीन की लिबर्टी को, और दुनिया में जो देश ट्रंप को नापसंद होगा उन तमाम देशों की लिबर्टी को जिस अंदाज में खत्म कर रहा है, बंदूक की नोंक पर, परमाणु बमों की नोंक पर, आर्थिक प्रतिबंधों की नोंक पर जिस तरह से खत्म कर रहा है, उससे ऐसा लगता है कि अमेरिका को अब किसी स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी की जरूरत नहीं है। आज तो खुद अमेरिकी जनता की कोई लिबर्टी देश के भीतर नहीं बची है। राष्ट्रपति ट्रंप का एक गैर सरकारी सलाहकार जो कि निर्वाचित संसद तक नहीं है, वह एलन मस्क अपनी सनक से यह तय कर रहा है कि किस तरह लाखों अमेरिकियों की नौकरी खत्म हो जानी चाहिए, और किस तरह दशकों से अमेरिका की मदद से दुनिया के दूसरे देशों में जिस तरह एड्स के मरीजों को दवाइयां मिल रही हैं, एड्स की जांच हो रही है, उन सबको यूएसएड नाम की संस्था की ग्रांट पूरी तरह खत्म कर दी गई है। एड्स के ऐसे तमाम मरीज के लिए जो मदद जाती थी उसको खत्म कर दिया गया है, आज उन दूसरे मरीजों के लिए रातों-रात कोई दूसरा इंतजाम भी नहीं हो सकता। यह समझ आता है कि अमेरिका ने लंबे समय से चली आ अपनी परंपरागत अंतरराष्ट्रीय जवाबदेही को पल भर में पहने हुए कपड़े की तरह उतारकर फेंक दिया है।
अभी इस मामले के एक दूसरे सकारात्मक और दिलचस्प पहलू की तरफ देखना चाहिए कि अमेरिकी राष्ट्रपति की ऐसी बदसलूकी के बाद राष्ट्रपति भवन छोडक़र बिना खाना खा निकल गए यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की का यूरोप के कई देशों ने, और वहाँ के बड़े-बड़े देशों ने जिस तरह से साथ दिया है, वह काबिले तारीफ है। दोस्तों को किसी कमजोर वक्त पर पटक नहीं दिया जाता है, यह बात यूरोप की यह देश साबित कर रहे हैं। दूसरी तरफ जो लोग अमेरिका से दोस्ती की वकालत करते हैं उनको यह समझना चाहिए कि ट्रंप के बाद भी अगर कोई इसी तरह का सनकी बददिमाग तानाशाह अगर आएगा, तो वह किसी भी पुरानी दोस्ती, किसी भी पुराने गठबंधन की अपनी भागीदारी को पल भर में खत्म करेगा। फिलहाल हमने बात शुरू की थी यूरोप की, तो यूरोप में जर्मनी और फ्रांस जैसे बड़े देशों ने यह कहा है कि वे यूक्रेन के साथ खड़े हुए हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति ने तथ्य की बात कही है, उन्होंने कहा कि हमला करने वाला रुस है, यूक्रेन नहीं। जर्मनी के चांसलर ने कहा है कि यूक्रेन जर्मनी और यूरोप पर भरोसा कर सकता है। जर्मनी के अगले संभावित चांसलर फ्रेडरिक मर्ज ने एक्स पर एक पोस्ट में जेलेंस्की का साथ देते हुए कहा है कि हमें इस युद्ध में कभी भी हमलावर और पीडि़त को लेकर भ्रमित नहीं होना चाहिए। पोलैंड ने यूक्रेन का साथ दिया है वहां के प्रधानमंत्री डोनाल्ड टास्क करने खुलकर कहा है कि यूक्रेन अकेला नहीं है, उन्होंने सोशल मीडिया पर यह लिखा- प्रिय जेलेंस्की, प्रिय यूक्रेनी दोस्तों, आप अकेले नहीं हैं। ऐसा ही समर्थन चेक गणराज्य ने भी किया है। फ्रांस के राष्ट्रपति ने कहा है कि रूस आक्रामक है, और यूक्रेन के लोग आक्रामकता के शिकार हैं। उन्होंने कहा कि हमें उन लोगों का सम्मान करना चाहिए जो शुरू से संघर्ष करते रहे। नीदरलैंड्स ने कहा है कि यूक्रेन के लिए उनके देश का समर्थन कम नहीं हुआ है और वह रूस द्वारा शुरू की गई आक्रामकता का अंत चाहते हैं। स्पेन के प्रधानमंत्री ने कहा है-यूक्रेन, स्पेन आपके साथ खड़ा हुआ है।
विश्व इतिहास में मवाली किस्म के किसी राष्ट्रपति, चाहे वह अमेरिका का ही राष्ट्रपति क्यों ना हो, उसका नाम सम्मान से दर्ज नहीं होता क्योंकि दुनिया का इतिहास सभ्यता का इतिहास है, और इस सभ्यता को एक हमलावर सभ्यता की तरफ ले जाने वाले लोगों का नाम कालिख से लिखा जाता है। ट्रम्प का नाम विश्व इतिहास में इस तरह लिखा जाएगा जिस तरह इजराइल के प्रधानमंत्री का नाम लिखा जाएगा, जिस तरह से हिटलर का नाम लिखा गया था, जिस तरह से अफ्रीका के कुछ देशों के तानाशाहों का नाम लिखा गया था, उनकी एक लंबी फेहरिस्त है। लेकिन अमेरिका जो कि अपने तथाकथित लोकतांत्रिक मूल्यों और परंपराओं को लेकर लंबे समय से एक अहंकारी की तरह जीता था, आज उसका अहंकार चूर-चूर हो गया है। उसके निर्वाचित राष्ट्रपति ने मानवता के खिलाफ, अंतरराष्ट्रीय संबंधों के खिलाफ, अमेरिका की अपनी लंबे समय से की गई प्रतिबद्धता के खिलाफ, जिस तरह की हरकत की है वह बहुत भयानक है। हम इस पूरे मामले की जटिलता पर अभी टिप्पणी नहीं कर रहे हैं कि आगे क्या होगा, लेकिन हम यूरोप की तारीफ करना चाहते हैं कि जिस तरह से वह एक कमजोर पड़ते हुए देश, यूक्रेन के साथ खड़ा हुआ है, सच के साथ खड़ा हुआ है, हमलावर रूस के खिलाफ खड़ा हुआ है, और बिना ट्रम्प की परवाह किए हुए ट्रम्प की मनमर्जी के खिलाफ भी यूरोप खड़ा हुआ है, यह काबिले तारीफ बात है। अब दुनिया के सामने एक नए तालमेल का मौका आकर खड़ा हुआ है कि रूस और अमेरिका अगर एक हो रहे हैं अगर वह मिलजुल कर एक नया शक्ति संतुलन बनाना चाहते हैं, तो इस गिरोहबंदी के खिलाफ दुनिया के बाकी देशों को अपना भला सोचना चाहिए। वह भला चीन यूरोप और बाकी देश यह किस तरह से कर सकते हैं यह सोचना अभी आसान नहीं है क्योंकि विश्व इतिहास में ऐसी कोई नौबत पहले आई नहीं थी। लेकिन रूस के साथ अपने रिश्ते मजबूत रखते हुए भी चीन अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक बड़ी ताकत की तरह उभरते चल रहा था, और आगे उसका उभरना जारी रहेगा, ऐसा लगता है। यह तस्वीर बहुत ही धुंध भरी हुई है अभी हमको भी समझ नहीं आ रहा है कि आज से साल 2 साल बाद कौन सा देश किसके साथ रहेगा, लेकिन फिलहाल यह बात तो तय है कि एक मवाली के अंदाज में यूक्रेन के राष्ट्रपति की बाँह मरोडक़र वहां की खदानों पर कब्जा करने की ट्रंप की खुली कोशिश को यूक्रेनी राष्ट्रपति ने खारिज कर दिया है और यह नौबत एक छोटे कमजोर और जंग झेल रहे देश की बहादुरी बताती है। देखते हैं आगे क्या होता है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट, सीएसई के एक कार्यकम में कल खुलासे से यह बताया गया कि राजधानी दिल्ली में यमुना के पानी में गंदगी मिलने के पीछे कौन सी वजहें हैं। इसका वैज्ञानिक अध्ययन और विश्लेषण देखकर यह हैरानी होती है कि जिन मामलों को दिल्ली में बैठी हुई राज्य और केंद्र सरकारें दोनों देखती हैं, स्थानीय म्युनिसिपलें भी जिसके लिए जिम्मेदार हैं, जहाँ का हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल लगातार जिसे देखता है, उस यमुना का यह हाल कर रखा है। यह विश्लेषण बताता है कि किस तरह गंदे पानी को साफ़ करने के लिए लगाए गए एसटीपी कितने नाकाफ़ी हैं, और बिना साफ़ किया हुआ पाख़ानों और कारख़ानों का पानी सीधे यमुना में जाता है। कमोबेश इसी तरह का हाल देश के अधिकांश शहरों में है जहाँ पर निकलने वाले गंदे पानी के मुक़ाबले एसटीपी की क्षमता बहुत ही कम है। फिर यह सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि किसी सरकारी प्लांट की घोषित क्षमता के मुक़ाबले उसका असली काम कितना कम होता होगा। दिल्ली जैसे शहर में यह भी हो रहा है कि इस तथाकथित साफ़ किए गए पानी को संयंत्र से निकालने के बाद फिर गंदे नालों से होते हुए यमुना में ले जाकर छोड़ दिया जाता है। साफ किया पानी फिर गंदे नालों में ! देश की सबसे बड़ी आँखें जिस शहर-राज्य और उसकी नदी पर टिकी हुई है जब उसका यह हाल है, तो छत्तीसगढ़ में अगर गंदे पानी को साफ़ करने की घोषित सरकारी क्षमता भी ज़रूरत से बहुत कम है तो इससे किसी को सदमा नहीं लगना चाहिए।
यह भी समझने की ज़रूरत है कि देश की आजादी के 75 साल का अमृत महोत्सव चल रहा है, और ऐसे में देश के शहरीकरण को शुरू हुए और आगे बढ़े भी पौन सदी हो चुकी है। ऐसे में अगर अब तक शहर की साफ़ पानी की ज़रूरत, और उसी अनुपात में गंदे पानी की निकासी का अंदाज़ लगाकर पानी को साफ़ करने की क्षमता विकसित नहीं की गई है तो यह महज कल्पनाशीलता और योजना की कमी नहीं कहीं जा सकती, यह परले दर्जे की नालायकी भी है। यह उन नदियों के प्रति हिंदुस्तानियों की घटिया दर्जे की लापरवाही भी है जो कहने के लिए नदियों को माँ मानते हैं, नदियों की पूजा करते हैं, और नदियों में डुबकी लगाकर अनगिनत त्योहार मनाते हैं। एक तरफ़ माँ कहना और दूसरी तरफ़ उसे गंदगी और जहर से पाट देना यह काम सबसे ग़ैर ज़िम्मेदार और अहसानफ़रामोश औलादें ही कर सकती हैं।
छत्तीसगढ़ में भी नदियों का प्रदूषण सिर चढ़कर बोलता है, कारखानों का प्रदूषण तो नदियों में मिल ही रहा है, शहर और गांव भी अपनी तमाम गंदगी तक़रीबन बिना साफ़ किए नदियों में छोड़ रहे हैं, जबकि सबसे आसान तरीका यह होता कि जिस दिन शहर-कस्बे की पानी की ज़रूरत का अंदाज़ लगाया जाता, उसके लिए योजना बनाई जाती, तो उसी योजना के एक दूसरे हिस्से की तरह गंदे पानी को साफ़ करने की क्षमता भी विकसित की जाती।
हिंदुस्तानियों ने निजी रूप से, और सार्वजनिक रूप से गंदगी में जीने की एक आदत डाल ली है। गंदगी के लिए जितना बर्दाश्त हमारे मिजाज में पनप चुका है, वह दुनिया के सभ्य देशों के लोगों को हैरान कर सकता है। जब गंदगी में रहने की नीयत हो, तब नियति भी वैसी हो जाना तय रहता है। हिंदुस्तान सड़कों पर, सरकारी इमारतों में, बाक़ी तमाम सार्वजनिक जगहों पर जितनी गंदगी करता है और उसमें जीता है, वह नदियों के साथ हमारे बर्ताव को भी तय करता है। इस देश में जिसको माँ माना जाता है उसको जिस तरह घूरों पर खाने के लिए छोड़ दिया जाता है, उससे गंगा-यमुना माँ सरीखी नदियों के साथ हमारा बर्ताव भी तय होता है। हाल ही में हुए कुंभ में सबसे पवित्र समझी जाने वाली गंगा, और उसके सबसे अधिक पवित्र समझे जाने वाले त्रिवेणी संगम में श्रद्धालुओं ने जिस दर्जे की गंदगी की है वह स्तब्ध कर देती है। लेकिन लोगों को अपनी श्रद्धा से अधिक महत्व किसी और चीज का नहीं लगता, श्रद्धा के केंद्र को साफ़ रखना भी महत्वपूर्ण नहीं लगता। बात सिर्फ़ जनता के सफ़ाई रखने की नहीं है क्योंकि शहरीकरण से जुड़ी गंदगी का इलाज निकालना सरकारों के ही बस का है, और जनता व्यक्तिगत हैसियत से इस बड़े काम को अपने स्तर पर पूरा नहीं कर सकती। शहरों में पानी की सरकारी सप्लाई से परे भी पानी की बहुत बड़ी तादात निजी ट्यूबवेल से निकले हुए पानी की रहती है जिसका अंदाज भी सरकार के पास नहीं रहता। इसलिए सरकार को गंदे पानी के निपटारे की अपनी क्षमता, पानी सप्लाई की अपनी क्षमता से बहुत अधिक आंकनी चाहिए, और एसटीपी का इंतज़ाम उस हिसाब से करना चाहिए।
जो देश, और पूर्वोत्तर भारत के जो प्रदेश नदियों को माँ नहीं मानते हैं महज़ नदी मानते हैं, वहाँ के पारदर्शी और साफ़ पानी को देखकर गंगा मैया की आँखों में आँसू आते होंगे, और उन्हीं आँसुओं से गंगा सहित दूसरी नदियों में बाढ़ आती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ बरसों में लगातार सायबर मुजरिमों ने जिस बड़े पैमाने पर संगठित जालसाजी और धोखाधड़ी की है, उसके शिकार आम लोग तो हैं ही दूसरी तरफ़ दर्जन भर से अधिक बैंक और हर मोबाइल कंपनी का भी ऐसे जुर्म का शिकार होना यह सवाल करता है कि यह संस्थाएं जुर्म की शिकार है या जुर्म में भागीदार है। चिटफंड कंपनियों से लेकर महादेव सट्टे तक और अब तरह-तरह की शेयर ट्रेडिंग के फ्रॉड और क्रिप्टोकरेंसी के नाम पर धोखाधड़ी के पैसों के लिए जिस तरह इस राज्य में राष्ट्रीयकृत और निजी बैंकों में दसियों हज़ार खाते खोले गए हैं और उनसे हजारों करोड़ रुपए बाहर भेजे गए हैं उससे हिंदुस्तान की बैंकिंग की साख बुरी तरह ख़त्म होती है। दूसरी तरफ़ मोबाइल कंपनियों से जिस तरह दसियों हज़ार सिम कार्ड जाली कागजातों या दूसरे बेक़सूर लोगों के कागजातों से हासिल किए गए उससे यह सवाल उठता है कि सिम कार्ड के लिए जिस तरह के पहचान पत्र जरूरी होने का दावा मोबाइल कंपनियों और सरकार की तरफ़ से किया जाता है क्या वह सिर्फ़ एक ढकोसला है?
देश में पिछले दस बरस में मोदी सरकार ने जिस बहुत बड़े पैमाने पर तमाम चीजों को डिजिटल और ऑनलाइन किया है उसके बाद इस तरह के सायबर फ्रॉड और जुर्म से लोगों को बचाने की जिम्मेदारी तो सरकार की ही होनी चाहिए थी। लेकिन झारखंड के एक छोटे से जामताड़ा में पूरी तरह से अनपढ़ नौजवान भी जिस बड़े पैमाने पर देश भर में ठगी और धोखाधड़ी करते हैं, जिसे लेकर नेटफ़्लिक्स को एक सीरिज बनाने का मौक़ा मिलता है, उससे यहाँ सवाल उठता है कि क्या कोई हिफ़ाज़त असरदार भी है?
देश में अलग-अलग किस्म के जुर्म का जो पैसा बैंकों के खच्चर-खातों में जमा किया जा रहा है, और जिसे क्रिप्टो करेंसी या हवाला नेटवर्क की शक्ल में देश के बाहर भेज दिया जा रहा है उसे बरसों तक जारी देखना सरकार की क्षमता पर सवाल उठाता है। आज जब पूरी की पूरी बैंकिंग सरकार एयर आरबीआई के पूरे नियंत्रण में है, जब दूरसंचार कंपनियों का दिया हुआ हर कनेक्शन पूरी तरह सरकार के नियमों के तहत होता है, तो फिर यह कैसे हो जाता है कि फर्जी नाम से सिम कार्ड लेकर गरीबों के बैंक खाते किराए पर लेकर उनके पहली नजर में ही संदिग्ध दिखने वाले करोड़ों रुपए की आवाजाही होने लगती है और न तो बैंकिंग की कोई सुरक्षा जांच इस पर अलर्ट खड़ा करतीं, और न ही कोई भी सरकारी एजेंसी समय रहते ऐसे खच्चर-खातों पर कोई कार्रवाई करती। यह आम जनता की ज़िंदगी में सबकुछ डिजिटल और सबकुछ ऑनलाइन कर देने के बाद उसे बिना हिफ़ाज़त खुले आसमान तले बेसहारा छोड़ देने सरीखा काम है। अब तो यह भी साफ़ होते चल रहा है कि सायबर जुर्म से परे भी दूसरे कई किस्म के बैंकिंग फ्रॉड में बैंकों के अफसर खुलकर शामिल मिले हैं, और इससे समझ पड़ता है कि बैंकों का अपना काम किस हद तक खोखला है? देश में अनपढ़ मजदूरों और ग़रीब लोगों के दसियों करोड़ बैंक खाते हैं और ऐसे खातों को भाड़े पर लेकर संगठित सायबर-मुजरिम जिस तरह जुर्म का पैसा इनमें इकट्ठा करते हैं वह बैंकों की मामूली सावधानी से भी पकड़ में आ जाना चाहिए था, लेकिन धीरे-धीरे अब यह समझ पड़ रहा है कि बैंक महज लापरवाह नहीं थे बल्कि जुर्म में भागीदार थे। भारत सरकार को अनाथ और बेसहारा से पड़े हुए दसियों करोड़ बैंक खातों की हिफ़ाज़त के बारे में सोचना चाहिए कि ये खच्चर-खातों की तरह भाड़े पर मुजरिमों का औजार बनने का ख़तरा उठा रहे हैं। इसके पहले कि एक-एक करके ऐसे दसियों लाख और बैंक खाते खच्चर-खातों में तब्दील हो जायें सरकार को जुर्म का यह सिलसिला रोकना चाहिए। कुछ दिन पहले ही केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने यह कहा था कि देश में 19 लाख खच्चर-खातों की शिनाख्त की जा चुकी है। अब छत्तीसगढ़ जैसे छोटे से राज्य में जिस बड़े पैमाने पर ऐसे म्यूल-अकाउंट पकड़ा रहे हैं, उससे यही समझ पड़ता है कि देश में आर्थिक अपराधों की हालत देखते हुए आर्थिक अपराधों पर निगरानी रखने के लिए एक अलग से एजेंसी बनाई जाए ताकि करोड़ों लोगों के हजारों रुपए लुट जाने के पहले ही इन्हें रोका जा सके। देश में डिजिटलीकरण और ऑनलाइन काम को जिस बड़े पैमाने पर बढ़ाया गया है उसी के अनुपात में हिफाजत बढ़ाने की भी जरूरत है वरना ग़रीब इसी तरह लुटते रहेंगे, मुजरिम दूसरे देशों में करोड़ों-अरबों रुपए भेजते रहेंगे। छत्तीसगढ़ का ही सौरभ चंद्राकर नाम का एक मामूली नौजवान जिस तरह महादेव सट्टा कारोबार खड़ा करके दसियों हज़ार करोड़ रुपए कमा चुका है, वह केंद्र सरकार को एक बहुत बड़ी चुनौती है। अभी तक कुछ मामूली लोगों को ही इसमें पकड़ा गया है और लूट का एक जरा सा हिस्सा ही बरामद हो पाया है। केंद्र सरकार को एक क्रांतिकारी कार्रवाई करने की जरूरत है।
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप से कल हुई मुलाक़ात में जो मतभेद सामने आए वे वैचारिक नहीं थे, तथ्यों को लेकर थे। यूक्रेन के मुद्दे पर ट्रंप उसी तरह आदतन झूठ बोलते रहे जिस तरह वे अमरीका के भीतर के अनगिनत मुद्दों पर बोलते रहे हैं, और बाक़ी दुनिया के बारे में भी झूठ बोलने का उनका लंबा इतिहास है। ट्रंप ने जब यह कहा कि यूरोपीय देशों ने यूक्रेन को फ़ौजी मदद दी थी और इसके बदले में वे यूक्रेन से अब पैसे वसूल रहे हैं तो मैक्रों ने मीडिया की मौजूदगी में ही ट्रम्प को दुरुस्त किया और कहा कि यूरोप यूक्रेन से उसे दी गई फौजी मदद को वापिस नहीं ले रहा है बल्कि उसने जो हिस्सा यूक्रेन को कर्ज की शक्ल में दिया था उसे ही वापस लेगा। यह सुनकर ट्रम्प चुप रहे और हामी भरते रहे। मतलब यह कि उनके पास मैक्रों के कहे हुए का कोई जवाब नहीं था। ट्रंप योरप से यूक्रेन-रूस मुद्दे पर और टैरिफ जैसे दूसरे कई मुद्दे पर भी ठीक उसी तरह दूर होते चले जा रहे हैं जिस तरह आज धरती के ध्रुवों पर बड़े-बड़े हिमखंड अलग होकर बह जा रहे हैं। योरप के एक सबसे बड़े देश फ्रांस के राष्ट्रपति की ट्रंप से मुलाकात योरप के साथ उनका पहला बड़ा औपचारिक संपर्क था और इसमें जिस तरह मीडिया के कैमरों के सामने यूक्रेन की खदानों पर कब्जे की अमरीकी खूनी नीयत उजागर हुई है उससे भी ट्रम्प जैसे बेशर्म को कोई फर्क पड़ता हो ऐसा नहीं लगता। ट्रम्प दशकों बाद एक बहुत ही प्यासे साम्राज्यवादी देश की तरह खुलकर सामने आए हैं और पूरी दुनिया में लोकतंत्र को बढ़ावा देने का अमरीका का पुराना नारा उन्होंने पैरों तले रौंद दिया है।
ट्रंप की शक्ल में अमरीकी वोटरों ने अपने ख़ुद के लिए चार बरसों की एक बहुत ही घटिया दर्जे की मुसीबत चुनी है, और दुनिया के लिए एक ऐसा तानाशाह चुना है जो एक ऐतिहासिक देश फ़िलिस्तीन की दसियों लाख जनता को उठाकर उसके पड़ोसी देशों में फेंक देने पर आमादा है, और जो फ़िलिस्तीन को एक रियल एस्टेट प्रोजेक्ट बनाना चाहता है, किसी भी दूसरे ट्रम्प टावर को तरह। दुनिया ने ऐसा कोई देश देखा नहीं था जो कि इस बेशर्मी के साथ किसी देश को मलबे का ढेर बताते हुए उसे वहाँ के नागरिकों के बिना, सैलानियों के लिए एक शानदार सैरगाह बनाने की बात इस बेशर्मी से करता हो जिस बेशर्मी से किसी देश के सबसे बड़े बाहुबलि दूसरों की जमीन पर अवैध कब्जा करके इमारत बनाते हैं। ट्रंप ने पिछले अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन के कार्यकाल में अमरीका से रूस को भेजी गई सैनिक मदद का बिल बनाकर यूक्रेन को थमा दिया है, और हिंदुस्तान को कोई हैरानी होनी नहीं चाहिए कि 1960 के दशक में अमरीका से भारत को मिले हुए अनाज की मदद के एवज में ट्रंप भारत के ताजमहल पर कब्जे का एक नोटिस भेज दें। भारत में उस वक्त भुखमरी की नौबत थी और अमरीका ने उसके पास का जरूरत से अधिक गेहूं भारत को रियायती दाम पर दिया था, ट्रंप हो सकता है कि पिछली एक सदी में अमरीका से जिस देश को जो मदद मिली हो उसके खाता बही देखकर बिल बनाने में रातों की नींद ख़राब कर रहा हो।
ट्रंप इक्कीसवीं सदी की सबसे बड़ी मिसाल है, कि कोई एक देश अपना नेता चुनते हुए किस तरह बाक़ी दुनिया पर एक तानाशाह थोप सकते हैं। अमरीकियों ने पूरी दुनिया के लिए बर्बादी लाने वाला यह जो चुनाव किया है इसके लिए अगले चार बरस वे ख़ुद भी अफ़सोस करेंगे ऐसा लगता है क्योंकि अमरीका के भीतर ट्रंप के फ़ैसले लोगों को जिस बड़े पैमाने पर बेरोज़गार कर रहे हैं वह भयानक है, इसके अलावा अमरीका का जो तबका लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करता है वह गहरे सदमे का शिकार है कि उनका देश आज देश के भीतर और देश के बाहर किस हद तक अलोकतांत्रिक, हमलावर, और दूसरे के खून का प्यासा फौजी तानाशाह बन चुका है।
ट्रंप ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दुनिया की तस्वीर को ऊन के बहुत उलझे हुए लच्छे के तरह करके रख दिया है जिसमें भविष्य का कोई सिरा किसी को न दिखायी पड़ रहा है, न समझ आ रहा है। ट्रंप की चुनावी जीत के बाद भी दुनिया में कौन यह सोच सकते थे कि महीने भर के भीतर ही ट्रंप अमरीका के परंपरागत और लंबे समय के साथियों, नाटो के सदस्यों को कचरे की टोकरी में फेंककर रूस के साथ हो जाएगा और चीन अमरीका के इस रुख की तारीफ़ करने लगेगा। यूक्रेन एक हैरतअंगेज मिसाल बन गया है कि दुनिया की तीनों महाशक्तियां किस तरह एक साथ आ गई है, और दुनिया में अब शक्ति संतुलन के पुराने तमाम गणित फेल हो गए हैं। यह कुछ वैसा ही हुआ है कि धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के चुंबक के दो सिरे मिलकर एक हो जाएं और दुनिया के अंतरराष्ट्रीय संबंध गाजा के मलबे में तब्दील हो जाएं। ट्रंप की मनमानी, बेदिमागी, और तानाशाही ने दुनिया को आज विश्व इतिहास के सबसे बड़े असमंजस के सामने खड़ा कर दिया है, दुनिया के कोई भी महत्वपूर्ण देश ऐसी नौबत की कल्पना भी नहीं कर पाए होंगे। ख़ुद इजराइल ने भी आज तक अपने सबसे सुखद सपने में भी यह नहीं सोचा था कि फ़िलिस्तीनियों को उनके गाजा से बाहर कर वहाँ पर कोई सैरगाह बनायी जा सकती है। ट्रंप अपने दोस्तों के सुखद सपनों से अधिक, और उनके दुःस्वप्नों से अधिक, दोनों किस्म की नौबत दुनिया पर उसी अंदाज़ में थोप रहा है जिस तरह उत्तर भारत में एक आम हिन्दुस्तानी सड़क पर तंबाकू की पीक उगल देता है। इस सनकी, बदजुबान वाले तानाशाह ने धरती को अपनी सनक का पीकदान बना छोड़ा है और वह धरती के ग्लोब को अपनी मेज पर घुमा-घुमाकर देख रहा है कि वह अगली पेशाब किस देश पर करे।
छत्तीसगढ़ में इन दिनों सब्जी उगाने वाले किसानों की एक मुसीबत आई हुई है कि टमाटर की फसल खेतों से तोडऩे में जो पैसा लगता है और बाजार तक पहुंचाने में उतना खर्च भी नहीं निकल पा रहा है। टमाटर इतने सस्ते हो गए हैं कि उनके खरीदार नहीं रह गए, और किसान उन्हें तोडक़र बाजार लाकर बेच नहीं पा रहे। यह नौबत हर बरस कुछ महीनों के लिए सुनाई देती है जब छत्तीसगढ़ के कई इलाक़े परंपरागत रूप से टमाटर की फसल सडऩे के लिए खेतों में छोड़ देते हैं, कई जगह विरोध करने के लिए और अपना तेवर दिखाने के लिए उन्हें सडक़ों पर फेंक देते हैं। हमारी पूरी जिंदगी यह देखते हुए गुजर गई कि फल-सब्जियों के लिए, प्रदेश की दूसरी वनोपज के लिए, ऐसी फूड इंडस्ट्री लगाई जाए जो कि लोगों को रोजगार भी दे सके और छत्तीसगढ़ में होने वाली, खेतों या जंगलों की फसल का बेहतर इस्तेमाल भी कर सके अभी जैसे बस्तर इमली के लिए जाना जाता है। इस प्रदेश के बहुत से इलाकों में महुआ बहुत अधिक होता है लेकिन इन सबका इस्तेमाल यहां से बाहर जाकर होता है। ग्रामीण स्तर पर महिलाओं के कुछ स्वसहायता समूह कुछ छोटे-मोटे सामान बनाते ज़रूर हैं, लेकिन उनकी मार्केटिंग का इंतज़ाम ठीक से नहीं होता और उनके ब्रांड की साख नहीं बन पाई है इसलिए भी उनके सामान को ग्राहक नहीं मिल पाते। अभी आईएस प्रदेश को अपनी सीमाएं मालूम हैं कि खेत क्या उगा सकते हैं और वनोपज से क्या-क्या मिल सकता है। लेकिन इन सीमाओं का अपार विस्तार हो सकता है, अगर प्रदेश में जगह-जगह अलग-अलग इलाक़ों में ऐसी फूड इंडस्ट्री लगे जो कि इमली के तरह-तरह के सामान बना सके मशरूम के सामान बना सके जो टमाटर के कैचअप बना सके या टमाटर प्यूरी बनाकर टमाटर केचप और सॉस बनाने वाले करखानों को बेच सके। महुआ में कई तरह का वैल्यू एडिशन किया जा सकता है। यह भी कुछ साल पहले पता लगा कि छत्तीसगढ़ का महुआ दूसरे कुछ देशों में जाकर वहाँ पर उससे शराब बनाई जा रही है जो कि महंगे दामों पर बिकती है। अभी सवाल यह भी उठता है कि महुआ के पेड़ के नीचे एक जाली लगा दी जाती है जिससे कि महुआ मिट्टी और कंकड़ से टकराकर खराब नहीं होता। तो इसमें कौन सी ऐसी हाईटेक की बात है या कौन सा बड़ा पूंजी निवेश इसमें लगता है कि यह काम नहीं किया जा सकता सरकार को यह बात सोचना चाहिए की प्रदेश की उपज जो है उसमें क्या-क्या वैल्यू एडिशन किया जा सकता है और ऐसा भी नहीं है कि इनसे जो सामान बनाया जा सकता है उनकी स्थानीय खपत नहीं है आज भी प्रदेश के बाहर से इमली की चटनी, टमाटर का सॉस कई तरह की चीजें मशरूम का पाउडर कई तरह की चीजें प्रदेश के बाहर से यहां आती ही है और इनकी यहां उपज भी बढऩे लगेगी अगर छत्तीसगढ़ में इन चीजों की प्रोसेसिंग इकाईयां लगने लगेंगी और हो सकता है कि यह प्रोसेसिंग इकाइयां अपने खुद के ब्रांड विकसित न कर सके, लेकिन देश के जो स्थापित ब्रांड हैं वे भी कच्चा माल अलग-अलग प्रदेशों से इसी तरह खरीदते हैं।
इन दिनों ना सिर्फ हिंदुस्तान में बल्कि पूरी दुनिया में मिलेट्स का चलन बहुत बढ़ा हुआ है और ऐसा माना जा रहा है की यह आम अनाज के मुक़ाबले अधिक सेहतमंद है। छत्तीसगढ़ में मिलेट्स की ढेरों संभावनाएं हैं, यहां पर कांकेर जैसी कुछ जगहों पर मिलेट्स की प्रोसेसिंग यूनिट लगी हैं। इसका स्थानीय बाजार है, ऑनलाइन बाजार भी बहुत विकसित हो चुका है। अब यह सरकार के ऊपर निर्भर करता है कि वह मिलेट्स की फसल को, उसकी प्रोसेसिंग को पैकिंग और मार्केटिंग को कामयाब कैसे करें। इससे असंगठित कृषक वर्ग जो है उसका रोजगार बढ़ेगा उसकी कमाई बढ़ेगी, वरना आज छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में पूरी की पूरी कृषि, सिर्फ धान की फसल पर टिक गई है क्योंकि सरकार बहुत महंगा दाम देकर उस धान को खरीद लेती है। अभी इसके साथ-साथ एक एक दो और बातों पर चर्चा जरूरी है। छत्तीसगढ़ से कोसे के कपड़ों का पूरी दुनिया में बाजार बना हुआ है। छत्तीसगढ़ में तो यह विख्यात है ही, यहां इसका घरेलू बाजार भी बहुत है, लेकिन महानगरों में जाकर भी यहाँ का कोसा बिकता है और दुनिया के बाकी देशों में भी इसके दाम बहुत अच्छे मिलते हैं। यह पूरा का पूरा काम बिना किसी हाईटेक के, बिना अधिक बिजली या रसायन के इस्तेमाल के, कोसे के, रेशम के, ककून पेड़ों पर कीड़ों को पालकर तैयार किए जाते हैं। रेशम के कीड़ों से और घरों में महिला, बच्चे, बूढ़े सब लोग मिलकर इन ककून से कोसा बनाने का काम करते हैं। बुनकर गांव गांव में हैं। प्रदेश के कुछ इलाक़े इसके लिए विख्यात हैं और परंपरागत, पारिवारिक बुनकरों की बहुत बस्तियाँ भी हैं। छत्तीसगढ़ के बने हुए कोसा टसर का बाजार बहुत बड़ा है पहनाने के कपड़ों के अलावा जो बहुत रईस तबका जिस तरह से सोफे के कपड़े, परदे के कपड़े, सिल्क, टसर, कोसे के लेने लगे हैं, उसका भी बाजार बहुत बड़ा है छत्तीसगढ़ को एक टेक्सटाइल प्रोड्यूसिंग स्टेट की तरह हैंडलूम के कपड़ों को बनाने वाले राज्य की तरह विकसित करने की अपार संभावना है यहां लोगों के पास परंपरागत रूप से यह होना रहे यहां का बाजार बाहर बना हुआ है यहां का ब्रांड भी बाहर छत्तीसगढ़ का कोसा चला हुआ है अभी यह सरकार पर निर्भर करता है और इन सबसे चाहे जो बात से हमने शुरू की है, वनोपज हो या सब्जियों की प्रोसेसिंग हो, वाहन से लेकर सिल्क और कोसे के कपड़ों तक, इन सबसे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को एक मदद मिलेगी और इन दिनों दुनिया भर में लगातार यह चलन बढ़ते चल रहा है कि किस तरह से रसायन फ्री कपड़ों का उत्पादन हो, किस तरह से लोग अभी ऑर्गेनिक सब्जिय़ाँ या ऑर्गेनिक फल खाने लगे हैं। छत्तीसगढ़ में धान से परे भी, सरकारी मदद से अनुदान से परे भी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बढ़ाने की बहुत जरूरत है।
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छत्तीसगढ़ उन राज्यों में से एक है जहां सवा साल में चार चुनाव होते हैं। पहले विधानसभा का चुनाव, फिर लोकसभा का चुनाव, फिर नगरीय निकाय, यानी म्युनिसिपलों का चुनाव, और आखिर में पंचायतों का चुनाव। सरकार के बहुत से जरूरी फैसले नई सरकार आने, नए मंत्रियों में विभाग बंटने, फिर सरकार की पसंद के सचिव और दूसरे अफसर बदलने, नीतियों और कार्यक्रमों के बदलने से सरकारी कामकाज को लेट करते हैं। लेकिन जो काम सबसे अधिक प्रभावित होता है, वह है स्कूली शिक्षा का। मतदाता सूची नवीकरण से लेकर मतदान करवाने तक स्कूली शिक्षक भी झोंक दिए जाते हैं, और प्रदेश की हर सरकारी स्कूल मतदान केन्द्र तो बन ही जाती है। सरकारी शिक्षक किसी भी जिम्मेदारी से मना नहीं कर सकते, और नतीजा यह होता है कि हर पांच बरस में चुनावी साल एक ऐसा आता है जब सबसे कम पढ़ाई होती है, और बच्चों से उसी तरह इम्तिहान देने की उम्मीद की जाती है। इसमें तब दिक्कत और अधिक बढ़ जाती है जब किसी दूसरी पार्टी की सरकार आती है, और वह पाठ्यक्रम बदलने लगती है, या स्कूली इम्तिहान के तरीकों में फेरबदल करती है। यह आखिरी खतरा भी पांच साल में एक बार रहता है, और अगर सत्तारूढ़ पार्टी की निरंतरता बनी रहती है, तो ये तमाम दिक्कतें कुछ कम हो जाती हैं।
अब इस समस्या का क्या समाधान हो सकता है? मतदातासूचियों से लेकर मतदान केन्द्र और मतदान तक, मतगणना तक, प्रदेश में शिक्षक ही सबसे अधिक संख्या में सरकारी कर्मचारी हैं, और स्कूली शिक्षा को एक ऐसा काम मान लिया जाता है जिसे जब चाहे तब रोक दिया जाए। कुछेक अदालती आदेशों के बावजूद स्कूली बच्चों को किसी जागरूकता रैली के बैनर थमाकर जब चाहे तब सडक़ों पर निकाल दिया जाता है। स्कूलों में इंतजाम, और स्कूली शिक्षा, यह किसी को ऐसी प्राथमिकता नहीं लगती कि उसमें बाधा रोकी जाए। सरकार के किसी भी काम के लिए जब जरूरत रहती है शिक्षकों से लेकर शाला भवनों तक, पढ़ाई के सारे इंतजाम को झोंक दिया जाता है। अभी म्युनिसिपल और पंचायत चुनावों में कई जगह हालत यह हो गई कि शाला भवनों में जहां मतदान केन्द्र बने थे, वहां पर एक-एक कमरे के बाहर पिछले तीन-तीन चुनावों के मतदान केन्द्रों के नंबर डले थे, और बोर्ड परीक्षा या किसी और इम्तिहान के लिए डाले गए कमरे के नंबर भी लिखे हुए थे। इन नंबरों से यह समझ नहीं पड़ रहा था कि इस चुनाव का बूथ क्रमांक कौन सा है। लेकिन यह नजारा यह भी बताता था कि इस चुनावी वर्ष में प्रदेश की स्कूलों में गैरशिक्षा कामों की कितनी दखल रही। हमेशा से शिक्षकों की यह शिकायत रही कि राज्य या केन्द्र सरकार के जितने तरह के सर्वे जैसे काम रहते हैं, उनमें शिक्षकों को गैरशिक्षकीय कामों में झोंक दिया जाता है, जिससे पढ़ाई प्रभावित होती है, और शिक्षकों का मनोबल भी टूटता है।
स्कूलों में पढ़ाई ठीक से हुए बिना अब इम्तिहान शुरू हो रहे हैं, और हालत यह है कि स्कूलों में 9वीं से 12वीं तक जो व्यवसायिक पाठ्यक्रम शुरू किए गए हैं, उनके शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए बाहरी लोगों को अनुबंध पर नियुक्त किया जाना ही अभी तक नहीं हो पाया है, और बच्चे बिना किसी शिक्षण-प्रशिक्षण के इस कोर्स का इम्तिहान देने जा रहे हैं। इसके अलावा इसी बरस नई सरकार ने 5वीं और 8वीं के इम्तिहान बोर्ड से लेना तय किया है। निजी स्कूलें इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट गई हुई हैं, और वहां पर अभी सुनवाई चल रही है। इसके पीछे एक तर्क यह दिया जा रहा है कि शिक्षण सत्र के बीच में यह फैसला लिया गया, और स्कूलों में पढ़ाई बोर्ड परीक्षा के हिसाब से हुई ही नहीं है। इस बार चूंकि सरकार भी नई पार्टी की है, इसलिए परीक्षा प्रणाली और स्कूलों से जुड़ी दूसरी चीजों में कई फेरबदल भी हुए हैं, और इसलिए चुनावी वर्ष का असर बड़ा अधिक देखने मिल रहा है।
दुनिया में जो विकसित देश हैं, वहां पर जिन दो चीजों को समाज में सबसे अधिक महत्व दिया जाता है, उनमें से एक स्कूली शिक्षा है, और दूसरी चिकित्सा व्यवस्था रहती है। राज्य सरकार को ऐसे दीर्घकालीन नीति बनानी चाहिए जिसमें स्कूलों की पढ़ाई-लिखाई को लेकर न तो कोई बाधा आए, न उनमें तरह-तरह के प्रयोग किए जाएं, और न ही पढ़ाई के दिनों में किसी तरह की कटौती की जाए। राज्य सरकार को यह भी तय करना चाहिए कि छुट्टियों की अंतहीन लंबी लिस्ट को किस तरह स्कूली शिक्षा के लिए कम किया जा सकता है। कॉलेजों में तो पढ़ाई का बुरा हाल रहता है, और वहां माना जाता है कि झंडे से झंडे तक पढ़ाई होती है, यानी 15 अगस्त से 26 जनवरी के बीच। इसके आगे-पीछे का वक्त इम्तिहान, छुट्टियों, रिजल्ट, और दाखिले में निकल जाता है।
न सिर्फ छत्तीसगढ़ बल्कि देश के हर प्रदेश में स्कूली शिक्षा को अधिक गंभीरता से लेने की जरूरत है, और दक्षिण के राज्य या महाराष्ट्र अपनी स्कूली शिक्षा को बेहतर बनाकर ही अपनी अगली पीढ़ी को अधिक काबिल बना पाए हैं। जिन राज्यों में नौजवान पीढ़ी की यह बुनियाद ही कमजोर रह जाती है, वहां पर आगे की पढ़ाई में भी उन राज्यों के लोग बेहतर राज्यों की नई पीढ़ी का मुकाबला नहीं कर पाते। स्कूली शिक्षा नीति को राजनीतिक फैसलों से परे, और बड़े जानकार शिक्षाविदों के हिसाब से लिया जाना चाहिए।
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में एक ईसाई स्कूल, सेंट विसेंट पलोटी स्कूल के बाथरूम में बुरी तरह धमाका हुआ। इसमें चौथी कक्षा की एक छात्रा गंभीर रूप से घायल हो गई। जैसे ही एक छोटी बच्ची वहां गई और उसने फ्लैश किया तो उसके साथ ही एक रासायनिक विस्फोट हुआ और धमाके के साथ बच्ची के घायल होने के साथ-साथ आसपास नुकसान भी हुआ। खबरें बताती हैं कि इस स्कूल में पहले भी छात्राएं ऐसी हरकत कर चुकी हैं और चार बार फटाकों से धमाके किए गए हैं। अब घटना बड़ी होने की वजह से मामला पुलिस तक पहुंचा, और जांच हुई, तो जिम्मेदार लड़कियों की शिनाख्त हुई है। इससे जुड़ी दो सनसनीखेज बातें सामने आई हंै, एक तो यह कि ऑनलाइन ऑर्डर करके रसायन बुलाए गए थे। और दूसरी बात यह कि शायद किसी टीचर को सबक सिखाने के लिए विस्फोट की यह साजिश की गई थी। अब बाकी बच्चों के मां-बाप स्कूल पहुंचे हुए हैं कि वहां यह कैसी हिफाजत है।
स्कूली बच्चों का एक हाल अभी छत्तीसगढ़ के ही सरगुजा में सामने आया था जहां सरकार की सबसे अच्छी समझी जाने वाली आत्मानंद स्कूल के छात्र-छात्राओं ने फेयरवेल पार्टी में शराब पी, और शराब की बोतलें लेकर कारों के काफिले में जुलूस निकाला, गाडिय़ों के बाहर टंगे रहकर हंगामा किया, और शहर के टै्रफिक जाम के साथ जब ऐसे वीडियो सामने आए तो कुछ छात्र-छात्राओं को निलंबित किया गया है।
इसके पहले भी छत्तीसगढ़ की सरकारी स्कूलों में जगह-जगह शिक्षकों के शराब पीकर पहुंचने, स्कूल पहुंचकर सबके सामने शराब पीने, शिक्षा विभाग की महिला अधिकारी से मारपीट करने, शिक्षकों के छात्राओं के यौन शोषण करने जैसे तरह-तरह के दर्जनों मामले सामने आ चुके हैं। अभी चार दिन पहले स्कूल की एक फेयरवेल पार्टी में छात्राओं के साथ किसी अश्लील भोजपुरी गाने पर नाचते हुए प्राचार्य को निलंबित किया गया है। छत्तीसगढ़ का बहुत बड़ा हिस्सा आदिवासी इलाका है, और बहुत सा हिस्सा ग्रामीण स्कूलों का है। यहां पर सरकारी निगरानी बहुत ही कम रहती है, और ऐसे में इस तरह की सामने आने वाली घटनाओं को पूरा नहीं माना जा सकता, और इनकी असल गिनती इनके मुकाबले कई गुना होना तय है।
लेकिन हम बिलासपुर की इस घटना पर लौटें तो आज छात्र-छात्राओं के लिए ऑनलाइन ऑर्डर करके ऐसे रसायन बुलाना आसान है जिससे वे विस्फोट कर सकते हैं। घायल बच्ची के पैर जिस तरह से रसायन से जख्मी हुए हैं, वह भयानक नौबत है। यहां पर दो अलग-अलग सवाल उठ खड़े होते हैं, एक तो यह कि ऐसे रसायनों की बिक्री कैसे रोकी जा सकती है, और दूसरा यह कि स्कूलों में ऐसे सहज खतरों को कैसे रोका जाए? अभी तक तो हम शहरा-कस्बों में चाकू लेकर घुमते मवालियों के हमलों को ही अधिक फिक्र का मानते आए थे, अब यह एक बिल्कुल ही नए दर्जे का बहुत बड़ा खतरा दिख रहा है। ईसाई मिशनरी स्कूलों में अनुशासन बेहतर माना जाता है, लेकिन वहां पर छात्राओं ने किसी टीचर को सबक सिखाने के लिए स्कूल में बार-बार ऐसी हरकत की है, तो उससे स्कूली बच्चों में अराजकता का अंदाज लगाया जा सकता है। दूसरी बात यह कि जब लडक़ों में ऐसी ही अराजकता बढ़ती है तो हम नाबालिगों के मिलकर किसी नाबालिग लडक़ी से गैंगरेप भी देखते हैं। जुर्म अलग-अलग किस्म के हो सकते हैं, लेकिन जुर्म करने का हौसला एक ही किस्म का रहता है। स्कूलों के भीतर इतनी निगरानी और नियम-कायदे के बाद अलग लड़कियां ऐसी हिंसक वारदात कर रही हैं, या सरगुजा में सडक़ों पर दारू पीकर दारू की बोतलों के साथ कारों से बाहर लटके हुए जुलूस निकाल रही हैं, तो ऐसे ही लडक़े-लड़कियां साल-दो-साल बाद नशे की हालत में सडक़ पर लोगों का कुचलते भी हैं।
ये गिनी-चुनी चर्चित घटनाएं उतनी अधिक फिक्र की बात नहीं है, जितनी फिक्र की बात इस पीढ़ी में पनप रही अराजकता है। यह आपराधिक हौसला और रूख इन किशोर-किशोरियों से कहीं-कहीं पर परिवार के लोगों का कत्ल भी करवा रहा है क्योंकि घरवाले उनको मनमानी करने से रोकते हैं। ऐसे सारे मामले तुरंत ही कड़ी कार्रवाई के लायक हैं, और ऐसे लडक़े-लड़कियों के माँ-बाप की भी जवाबदेही तय होना चाहिए। अगर यह पीढ़ी गाडिय़ों पर सडक़ों पर गुंडागर्दी करती हैं, तो उन्हें गाडिय़ां देने वाले माँ-बाप पर भी कार्रवाई होनी चाहिए, और ऐसी घटना एक से अधिक बार होने पर इन गाडिय़ों का रजिस्ट्रेशन साल-दो-साल के निलंबित करने का कानून भी बनाना चाहिए, या राज्य सरकार अपने अधिकार क्षेत्र में कोई और कानून ऐसे माँ-बाप को सजा देने के लिए, और अगर वे संपन्न हों तो उन पर मोटा जुर्माना लगाने के लिए बनाए। कम उम्र की अराजकता, गुंडागर्दी और जुर्म, इन सब पर अगर तुरंत लगाम नहीं लगाई गई, तो ये बेकाबू होकर और अधिक संगीन जुर्म में तब्दील होने लगेंगे। सरकार को बिना देर किए स्कूली बच्चों में पनप रही हिंसा, और मनमानी को रोकने के ठोस इंतजाम करने चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
नए अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प की अंतरराष्ट्रीय नीतियों से जो भूचाल आया है, उससे हिन्दुस्तान की जमीन भी हिली हुई है। मोदी सरकार के सामने अपने पहले दस बरसों में विदेश नीति, आर्थिक नीति, और सैन्य नीति की इतनी बड़ी कोई चुनौती नहीं थी जितनी कि इस ग्यारहवें बरस में सामने आई है। ट्रम्प ने दुनिया के अलग-अलग इतने मोर्चों पर एक साथ जंग छेड़ दी है कि हिन्दुस्तान जैसे दूर बसे हुए देश को भी यह समझने में दिक्कत हो रही होगी कि ट्रम्प की किस सनक का भारत पर क्या असर पड़ेगा। अब तक दुनिया में चीन और रूस ये दो अमरीका के अलग-अलग मोर्चों पर दुश्मन माने जाते थे। पिछले अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अमरीका की पूरी ताकत यूक्रेन के साथ लगाकर रूस को खोखला करने की एक जंग छेड़ रखी थी। जंग हालांकि शुरू रूस ने यूक्रेन पर हमले से की थी, और खुद यूक्रेन ने अपने आखिरी नागरिक तक को झोंककर भी इस जंग में टिके रहने का पुख्ता इरादा दिखाया था, इसलिए यूक्रेन को अमरीका, और योरप के देशों के साथ उसके फौजी संगठन, नैटो का प्रॉक्सी वॉर कहना ठीक नहीं होगा। फिर भी अमरीका और योरप की नीयत यही दिखती थी कि यूक्रेनी लहू की कीमत पर फौजी रसद दे-देकर रूस को खोखला किया जाए। ऐसे तीन बरस गुजर चुके थे कि अमरीकी जनता ने एक बार फिर ट्रम्प को चुन लिया, और अब दुनिया का सबसे बिफरा हुआ सांड परंपरागत बहुत नाजुक विदेश नीति के फैसलों को एक-एक फतवे में तय कर रहा है।
कौन ऐसी कल्पना कर सकते थे कि बाइडन के रहने तक जो अमरीका रूस के खिलाफ सैकड़ों बिलियन डॉलर झोंक चुका था, अब ट्रम्प आकर उसे शून्य तो कर ही देगा, साथ ही यूक्रेन के खनिजों का आधा हिस्सा मांगने लगेगा ताकि अमरीका से उसे मिली फौजी मदद का भुगतान हो सके! यह एक ऐसी अजीब नौबत आ गई है कि अमरीका के सबसे बड़े परमाणु-शत्रु देश रूस का आज अमरीका सबसे बड़ा हिमायती हो गया है, और चीन चूंकि रूस के साथ तालमेल करते हुए चल रहा था, उसे अमरीका के इस फैसले और हमलावर तेवर का साथ देने में कोई दिक्कत नहीं हो रही है। ऐसी नौबत की किसने कल्पना की थी कि अमरीका आज पूरे योरप और यूक्रेन की तरफ देखे बिना भी खुद रूस के साथ मिलकर यूक्रेन का भविष्य तय कर रहा है। उसका यह रूख फिलीस्तीन में भी दिखता है जहां वह फिलीस्तीनियों से बात किए बिना सिर्फ इजराइल के साथ मिलकर यह तय कर रहा है कि गाजा को फिलीस्तीनियों से, उसके मूल निवासियों से खाली करा दिया जाए, और उसे एक कारोबारी निर्माण की तरह विकसित किया जाए। हमलावरों को उनके कब्जे में आई जमीन दे देने की यह नई अंतरराष्ट्रीय गुंडागर्दी संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय तक, सभी के फैसलों के खिलाफ है, लेकिन ट्रम्प आज जिस बिफरे अंदाज में चल रहा है, उससे यह जाहिर है कि वह धरती का ही नहीं, ब्रम्हांड का भी निर्णायक अपने आपको मान रहा है। कल तक योरप के जिन देशों के साथ मिलकर अमरीका की वैश्विक सैनिक रणनीति चल रही थी, आज उसने एक पल में पूरे योरप को खारिज कर दिया है, बल्कि यूरोपीय समुदाय के एक सबसे बड़े देश, जर्मनी के घरेलू चुनावों में पूरी तरह खुलकर दखल दे रहा है, ब्रिटेन के घरेलू मामलों में बयानबाजी कर रहा है, इन सबसे योरप के साथ उसके रिश्ते और सारा शक्ति संतुलन पूरी तरह गड़बड़ा गया है। अमरीका इसके नतीजों से बेफिक्र दिख रहा है, और ऐसा लगता है कि ट्रम्प को अपने कार्यकाल के साथ ही धरती भी खत्म होते दिख रही है कि उसे चार बरस के बाद के अमरीका की कोई फिक्र नहीं है।
भारत को ट्रम्प ने कुछ फैसलों से इतने बेरहम तरीके से उसकी जगह दिखाई है कि भारत और उसके हिमायती देश हक्का-बक्का हैं। उसने जिस अंदाज में भारत के लोगों को वहां से निकालकर सौ-सौ के खेप में फौजी बंधकों की तरह लाकर हिन्दुस्तान में पटक दिया है, वह भयानक है। और अब तो खबर यह है कि वह अमरीका से दूसरे देशों में लोगों को भेजते हुए अमरीकी जमीन से उन्हें जल्द से जल्द हटा देने के लिए पड़ोसी देशों को वेटिंग हॉल की तरह इस्तेमाल कर रहा है, और पनामा की कैद में अपने-अपने देश लौटाए जा रहे वे लोग रहम और हिफाजत मांग रहे हैं। भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ट्रम्प से मिलने वाले शुरूआती तीन-चार विदेशी नेताओं में से रहे, लेकिन उनकी इस बातचीत से न तो भारत लौटाए जा रहे लोगों की हथकड़ी-बेड़ी हटी, और न ही भारत को किसी भी किस्म की टैक्स-छूट मिली। ट्रम्प ने बार-बार साफ-साफ शब्दों में कहा कि भारत को जवाबी टैरिफ से कोई रियायत नहीं मिलेगी। और उसका रूख महज भारत के लिए शत्रुता का नहीं है, उसका रूख हर किसी के लिए ऐसा ही है, दिक्कत यह है कि भारत के लोग मोदी और ट्रम्प की चर्चित गलबहियों से बड़ी उम्मीद लगाए हुए थे, लेकिन मोदी अमरीका से बिना कुछ पाए सिर्फ ग्राहक की तरह खरीददारी करके लौटे हैं, वहां के सबसे महंगे फौजी विमान की खरीददारी जो कि कई लोगों के मुताबिक बड़ी महंगी है, और जिन विमानों को अभी कुछ अरसा पहले एलन मस्क ने कबाड़ कहा था।
अमरीका की प्राथमिकता में फिलहाल भारत कहीं नहीं दिख रहा है, और उसने मोदी के अमरीका पहुंचने के पहले ही सबसे महंगी अमरीकी मोटरसाइकिलों, और अमरीकी दारू पर से भारत में लगने वाला टैरिफ घटवा दिया था। भारत सरकार का यह फैसला ट्रम्प-मोदी बातचीत के पहले एक नजराने की तरह था, लेकिन दुनिया भर के देशों से जबराना वसूलने के मूड में बैठे ट्रम्प से मोदी को इस नजराने के एवज में कोई शुकराना नहीं मिला। अब जब रूस-अमरीका, और चीन कम से कम एक बड़े मुद्दे, यूक्रेन पर एक साथ दिख रहे हैं, तो फिर इस साथ का असर कई और जगहों पर भी हो सकता है, और तीन महाशक्तियों का यह नया अघोषित गठबंधन ताइवान और भारत जैसे देशों के लिए फिक्र की बात भी हो सकता है, जिनका कि चीन से टकराव है। इस तरह ट्रम्प ने दुनिया में सारे समीकरण चौपट कर दिए हैं, तमाम गठबंधन प्रसंगहीन बनाकर हाशिए पर धकेल दिए हैं, और अपने आधी-पौन सदी पुराने साथियों को चिलचिलाती धूप में खुला छोडक़र अमरीकी छाता हटा लिया है। भारत के इतिहास में विदेश नीति के सामने भूचाल सरीखी इतनी बड़ी कोई चुनौती कभी नहीं आई थी, और आज बाकी दुनिया की हलचल के साथ-साथ भारत की सोच, पहल, और उसके फैसलों का अध्ययन बड़ा दिलचस्प होगा। अंतरराष्ट्रीय संबंध और विदेश नीति पढ़ाने वाले कामचोरी करने वाले प्राध्यापकों की चर्बी छंटेगी, और उन्हें नए सिरे से सब कुछ समझना, समझाना पड़ेगा।
सरकार और कारोबार के मुकाबले देखने लायक रहते हैं, एक-दूसरे से नहीं, आपस में, अपने ही भीतर। सरकार बनाने के लिए राजनीतिक दल जिस किस्म के गठबंधन बनाते हैं, वह देखने लायक रहते हैं। सांप और नेवले मिलकर बच्चे पैदा करने लगते हैं, और उनका रूप-रंग कैसा रहेगा, उम्र कितनी लंबी रहेगी, खूबियां और खामियां क्या रहेंगी, इसकी कोई परवाह नहीं की जाती। फिर भारतीय राजनीति में एक नीतीश कुमार हुए हैं जो जिंदगी में कई बार जिंदगी का आखिरी दलबदल कर चुके हैं, और जिनकी सेहत और आदतें ऐसी हैं कि उनकी जिंदगी अभी भी खासी लंबी बची हुई है। वे कई बार और जिंदगी का आखिरी दलबदल कर सकते हैं। सरकार बनाने के लिए, सरकार में बने रहने के लिए, और खासकर मुख्यमंत्री बने रहने के लिए भारतीय राजनीति के बाजार में जो मुकाबला करना पड़ता है, उसमें नीतीश का मुकाबला वहीं बिहार के रामविलास पासवान से रहा है। पासवान की हालत मौसम विभाग के टांगे गए पजामे सरीखी रही जो कि हवा का रूख बताता है, और पासवान जाने कितनी ही सरकारों में लगातार शामिल रहे। राजनीति में कामयाबी या उसके हाशिए पर चले जाना, यह एक बड़ा कड़ा मुकाबला रहता है। और आज जिस दूसरे मुद्दे पर हमने यह चर्चा शुरू की है, वह है कारोबार का, कारोबार में भी कब लोग किनारे लग जाते हैं, इसका कोई ठिकाना नहीं रहता। एक वक्त मोबाइल बाजार पर नोकिया का तकरीबन आधा कब्जा था, और अब वह एक फीसदी भी नहीं रह गया। एक वक्त ब्लैकबेरी मोबाइल बाजार का सबसे प्रतिष्ठित ब्राँड था, आज उसके फोन पेपरवेट की तरह पुरानी यादों को ताजा रखने के काम आते हैं। राजनीति और बाजार, इन दोनों में टिके रहने के लिए रात-दिन की न सिर्फ मेहनत लगती है, बल्कि बड़ी कल्पनाशीलता भी लगती है, और मुकाबले में टिके और डटे रहने के लिए एक हौसला भी लगता है।
वैसे तो राजनीति एक कारोबार भी है, और कारोबार मोटेतौर पर राजनीति से आगे बढऩे वाला धंधा है। आज दुनिया के सबसे बड़े कारोबार अपने देश, या किसी दूसरे देश की सरकार की मेहरबानी से ऐसा एकाधिकार पाते हैं, कि दूसरे कारोबारी उनके मुकाबले टिक नहीं पाते। खुद हिन्दुस्तान में देखें तो एयरपोर्ट और स्टेशनों जैसी सार्वजनिक संपत्तियां, या खदानों जैसे अंधाधुंध कमाई के प्राकृतिक स्रोत सरकार की मेहरबानी से ही मिल और चल पाते हैं। अब अमरीका में दुनिया के इतिहास का ऐसे घालमेल का सबसे बड़ा उदाहरण सामने आया है जब सरकार के साथ सबसे बड़ा कारोबार करने वाला एलन मस्क आज अघोषित रूप से अमरीका की सरकार चला रहा है। भारत में इंदिरा गांधी के वक्त उनके बेटे संजय गांधी की संविधानेत्तर सत्ता की मिसाल को छोड़ दें, तो कहीं और ऐसा नहीं हुआ था कि शासन प्रमुख की कुर्सी के बगल में खड़ा हुआ व्यक्ति, संसद और सरकार के प्रति किसी भी जवाबदेही के बिना सरकार चला रहा हो, और बाकी दुनिया को भी चलाने की भी हर कोशिश कर रहा हो। इसलिए एलन मस्क ने इस मुकाम पर पहुंचने के पहले कारोबार में जितने किस्म के मुकाबले किए हैं, और जीते हैं, उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के चुनाव पर हर दिन एक मिलियन डॉलर का ईनाम रखने वाले मस्क के पास उतना पैसा पहले से था, तभी ट्रंप की नजरों में भी उसकी कीमत थी। लोग कारोबारी मुकाबले से सरकार तक पहुंच रहे हैं, और सरकार अपने दोस्तों के मार्फत कारोबार तक विस्तार करती है। कुछ लोग इसे क्रोनी कैपिटलिज्म कहते हैं, लेकिन राजनीति और कारोबार इन दोनों के गलाकाट मुकाबले का मिजाज ही ऐसा है कि वहां जंगलराज की तरह सबसे कामयाब, सबसे ताकतवर का अस्तित्व ही बचे रहता है।
भारत की राजनीति पर लौटें तो यह दिखता है कि एक वक्त उत्तर भारत में चुनावी बाजार में नोकिया की तरह कामयाब रही हुईं मायावती का आज का हाल नोकिया के आज के मार्केट शेयर जैसा ही रह गया है। एक वक्त देश के तीन राज्यों में फौलादी पकड़ रखने वाले वामपंथियों के पास आज न हँसिया बचा है, और न हथौड़ा, धान की बाली इतनी ही बच गई है कि उसके कुछ नेता बची जिंदगी दो वक्त की रोटी शायद खा लें, और चूंकि इन नेताओं ने जीवनशैली खर्चीली नहीं रखी है, इसलिए जिंदा भी रह पा रहे हैं। किस तरह कम्युनिस्ट सोवियत संघ टुकड़ा-टुकड़ा हो गया, और किस तरह कम्युनिस्ट चीन आज दुनिया का सबसे बड़ा कारोबारी हो गया, यह देखते ही बनता है। इसलिए दुनिया के दूसरे देशों की हवा का झोंका हिन्दुस्तानी राजनीति में कई झंडे-डंडे उखाडक़र फेंक देता है। इसी तरह आज पूरी दुनिया के देशों में अप्रवासी लोग एक सबसे बड़ा मुद्दा बने हुए हैं, और भारत में भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से यह मुद्दा भाजपा को संसद की दो सीटों से उठाकर पूरी संसद पर काबिज कर चुका है। भाजपा की अपनी राजनीति उसे देश में जितनी भी काम आई हो, आज एक-एक करके दुनिया के बहुत से देश धर्म और अप्रवासियों को लेकर उसी किस्म की विचारधारा की तरफ बढ़ चुके हैं जैसी कि भारत में भाजपा की है। शायद सीधे-सीधे न सही, लेकिन हवा के रूख की तरह तो एक देश दूसरे देश को प्रभावित करता ही है, और इटली से लेकर फ्रांस तक, जर्मनी से लेकर हिन्दुस्तान तक धर्म और राजनीति का हर तरह का गठजोड़, और हर तरह का टकराव सरहदों के पार जाकर असर डालता ही है।
भाजपा की जो आज की कामयाबी है, वह भारत में 2014 के पहले पूरी तरह अकल्पनीय थी। राजनीति के गलाकाट मुकाबले में भाजपा ने जिस हिसाब से अपने आपको अधिक, और अधिक मजबूत बनाना जारी रखा है, वह देखने लायक है। उसकी कामयाबी के पीछे लोकतांत्रिक या अलोकतांत्रिक कई किस्म की बातों के तर्क दिए जा सकते हैं, लेकिन यह बात अपनी जगह अच्छी तरह स्थापित है कि देश और इसके प्रदेशों में इतनी बड़ी और इतनी मजबूत कोई पार्टी कभी आई नहीं। आजादी के वक्त से कांग्रेस को एक किस्म से स्वतंत्रता संग्राम की विरासत और उसके मुआवजे के रूप में देश भर में सत्ता मिली थी, लेकिन आज की भाजपा ने जो कुछ पाया है, वह ऐसी किसी विरासत के बिना अपने दम पर पाया हुआ है, और इसके पीछे की वजहों और कोशिशों को समझने की कोशिश वैसी ही करनी चाहिए जैसे कि बाजार के किसी सबसे कामयाब ब्राँड की कामयाबी को समझा जाता है।
कर्नाटक के एक जिला उपभोक्ता अदालत ने देश के सैकड़ों मॉल्स में सिनेमाघर चलाने वाली कंपनी, पीवीआर-आइनॉक्स पर बहुत देर तक विज्ञापन दिखाने की वजह से एक लाख रूपए का जुर्माना लगाया है। पिछले बरस राजधानी बेंगलुरू में एक परिवार शाम 4.05 बजे की फिल्म देखने पहुंचा, और फिल्म 4.30 बजे शुरू हुई। इस दौरान केवल विज्ञापन दिखाए जाते रहे। इस पर इस दर्शक ने उपभोक्ता अदालत में शिकायत की, वहां से शिकायतकर्ता के पक्ष में फैसला देते हुए उसे मानसिक परेशानी के लिए 20 हजार रूपए, और मुकदमे की लागत के लिए 8 हजार रूपए देने का आदेश हुआ। उपभोक्ता अदालत ने कहा कि लोगों का समय बहुत कीमती है, और किसी को भी दूसरे वक्त और पैसों का अनुचित लाभ उठाने का अधिकार नहीं है। फिल्म को निर्धारित समय से 30 मिनट देर से शुरू करना, और समय का जबर्दस्ती व्यापारिक इस्तेमाल करना गलत है, खासकर ऐसे लोगों के लिए जो व्यस्त रहते हैं। अदालत ने कहा कि लोग तनावमुक्त होने के लिए मनोरंजन चाहते हैं लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उनकी और कोई जिम्मेदारियां नहीं हैं।
आम लोगों को यह बात पता नहीं होगी कि एक समय भारत सरकार के विज्ञापन जारी करने वाले विभाग, डीएवीपी के नियम रहते थे कि किसी अखबार में विज्ञापनों, और संपादकीय सामग्री का अनुपात क्या रहना चाहिए। शायद 40 फीसदी विज्ञापनों की अधिकतम सीमा थी। अब तो सब कुछ इतना बाजारू हो गया है कि महानगरों के बड़े अखबारों में शुरू के कई पेज तो सिर्फ विज्ञापन निकल जाते हैं, तब लोग खबरों तक पहुंच पाते हैं। लेकिन फिर भी अखबारों में इश्तहारों के पन्ने पलटना आसान है, टीवी पर भी लोग चैनल बदल सकते हैं, लेकिन सिनेमाघरों में जाने के बाद लोगों के हाथ सिवाय बर्दाश्त करने के और कुछ नहीं रह जाता। और आजकल के महंगे सिनेमाघरों में इंटरवेल का वक्त खानपान के अंधाधुंध महंगे सामान बेचने में लगाया जाता है जो कि एक अलग मुद्दा है। बाहर से न खानपान सामान ले जाने की इजाजत मिलती, और न ही पानी की बोतल ले जाई जा सकती। मानो कोई विस्फोटक ले जाया जा रहा हो उस अंदाज में मल्टीप्लेक्स के गार्ड तलाशी लेते हैं। किसी जागरूक उपभोक्ता संगठन को ऐसी कारोबारी गुंडागर्दी के खिलाफ भी उपभोक्ता अदालत जाना चाहिए। आज मध्यमवर्गीय परिवार अगर किसी तरह हिम्मत जुटाकर परिवार सहित सिनेमाघर जाए, तो वहां पर वहीं का महंगा सामान खरीदकर खाना-पीना मजबूरी रहती है। यह पहली नजर में एक एकाधिकार के बेजा इस्तेमाल का धंधा दिखता है, और इसका विरोध कई स्तरों पर किया जा सकता है। कोई जागरूक राज्य सरकार भी इसके खिलाफ नियम बना सकती है, और ऐसे एकाधिकारी धंधे को सुधार सकती है।
ग्राहकों में जागरूकता न होने से, और संगठित कारोबार के खिलाफ अदालत तक न जाने से देश के लोगों का बड़ा नुकसान हो रहा है। भारत में खानपान की चीजों पर उनमें मिलाए गए शक्कर और नमक, फैट या दूसरे रसायनों की जानकारी पैकिंग पर साफ-साफ नहीं दी जाती, नतीजा यह होता है कि लोग उसी कंपनी का वही सामान हिन्दुस्तान में कई गुना अधिक शक्कर वाला पाते हैं, और वही सामान पश्चिमी देशों में वहीं कंपनियां कम शक्कर का बेचती हैं। यहां तक कि एक बहुराष्ट्रीय कंपनी भारत में बहुत छोटे दुधमुंहे बच्चों के खाने के लिए बनाए गए डिब्बाबंद बेबी-फूड में कई गुना अधिक शक्कर मिलाकर बेचती आई है, जो कि अभी भारत के कुछ संगठनों ने पकड़ी है। देश में सरकारों से तो ग्राहकों के हक की अधिक हिफाजत की उम्मीद इसलिए नहीं की जा सकती क्योंकि कारोबारी संगठनों की ताकत बहुत अधिक रहती है, और सरकार के भीतर उनकी आर्थिक घुसपैठ भी गहरी और मजबूत रहती है। यही वजह है कि सिगरेट और शराब जैसे सामानों के ब्राँड वाले दूसरे मासूम दिखते सामानों की बिक्री अभी कुछ अरसा पहले तक धड़ल्ले से चलती थी, और ऐसे सरोगेट-इश्तहार पर कोई रोक नहीं लगाई जाती थी। कई दारू कंपनियां अपने ब्राँड की ताश की गड्डियां बनाकर बेचने का दिखावा करती थीं, और सालाना उनका ताश का जो कारोबार रहता था उससे हजारों-लाखों गुना अधिक का वे इश्तहार करती थीं। यह सीधे-सीधे कानून, सरकार, और जनता-ग्राहक से धोखाधड़ी का मामला था, लेकिन हिन्दुस्तान में जिसके पास मोटा पैसा, जिनके धंधे की वकालत करने के लिए कोई कारोबारी संगठन हैं, वे गुटखा और पान मसाला बेचने के भी जरिए निकाल लेते हैं। यह वह देश है जहां सरकार की बार-बार की चेतावनी के बाद भी देश के कुछ सबसे बड़े अखबार लगातार ऑनलाइन सट्टे के इश्तहार छाप लेते हैं, और उन पर कोई कार्रवाई भी नहीं होती है।
हमारा तो यह मानना है कि जो अखबार या टीवी चैनल सोच-समझकर और योजनाबद्ध तरीके से झूठ और नफरत फैलाने का काम करते हैं, उनके खिलाफ भी उपभोक्ता अदालत से लेकर कानून की दूसरी नियमित अदालतों तक जाने का पर्याप्त कानूनी अधिकार रहता है कि लोग अखबार भी खरीदकर पढ़ते हैं, और टीवी चैनलों के लिए भी वे भुगतान करते हैं। एक ग्राहक का यह हक रहता है कि वह उसे मिले सामान में अगर झूठ दिया जा रहा है, तो उसके खिलाफ उपभोक्ता अदालत तक जाए, या कानून की अदालत तक जाए। जिन देशों में ग्राहकों के संगठन मजबूत रहते हैं, या ग्राहकों के हितों के लिए कोई जनसंगठन काम करते हैं, जहां बड़ी कंपनियों और बाजार की साजिशों पर नजर रखने, और प्रयोगशालाओं में उनके जांच करने की जागरूकता रहती है, वहां पर बाजार की गुंडागर्दी और जुर्म कम भी होते हैं। आज हिन्दुस्तान जैसे देश में बाजार के खानपान और फास्टफूड के लिए पैमाने नहीं बनाए गए हैं, जबकि दुनिया भर के सर्वे और शोधकार्य बताते हैं कि ये लोगों की सेहत को बिगाडऩे के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। यह सिलसिला थमना चाहिए। लोकतंत्र में पांच बरस में एक बार जनप्रतिनिधि को चुनना ही जनता की जिम्मेदारी नहीं है, जनता की जिम्मेदारी संविधान और कानून के तहत मिले हर किस्म के हक को लागू करवाने की जिद से ही पूरी हो सकती है। बात सिनेमाघर में लोगों पर इश्तहारों को जबरिया थोपने से शुरू हुई, और दूर तक चली गई। सच भी यही है कि हिन्दुस्तान में सामान या सेवा खरीदने पर कई किस्म का शोषण कदम-कदम पर होता है, और उसके खिलाफ आवाज उठाने की जरूरत है। स्कूल हो, अस्पताल हो, कपड़े-जूते हों, या खानपान हो, या जैसा कि हमने ऊपर जिक्र किया है, टीवी या अखबार हों, हर किसी पर ग्राहक को नजर रखनी चाहिए, और अपने हक के लिए उठ खड़ा होना चाहिए। वकीलों के भी एक तबके को चाहिए कि ग्राहक की जागरूकता से होने वाले फायदे की कुछ मिसालें उपभोक्ता अदालत, और दूसरी अदालतों तक में पेश करें, और इससे हो सकता है कि आगे उनको दूसरे भी कई मामले मिलें।
मुंबई में शिवसेना म्युनिसिपल पर राज कर रही है। राज्य में वह विपक्ष में है लेकिन महानगरपालिका पर उसके निर्वाचित लोग बहुमत से काबिज हैं। इसलिए जब शिवसेना के मुखिया उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे ने यह राय दी कि मुंबई को चौबीसों घंटे खुला रहने वाला शहर बनाया जाए, तो म्युनिसिपल ने इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी। आदित्य ठाकरे ने सुझाव दिया था कि मुंबई में कैफे, रेस्टोरेंट, लाइब्रेरी, दंत चिकित्सक और जरूरी सामानों एक स्टोर चौबीसों घंटे खुले रहे ताकि काम से लौटने के बाद लोग कुछ अच्छा वक्त बिता सके। दुनिया के बड़े-बड़े शहरों के मुकाबले मुंबई उबाऊ है, यहां पर पब और बार रात एक बजे बंद हो जाते है, जबकि अंतरराष्ट्रीय शहरों में पब, सुपर मार्केट, स्पा, और जिम चौबीसों घंटे सातों दिन खुले रहते हैं।
हमारे पाठकों को याद होगा कि हम बरसों से छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के बारे में यह बात लिखते आ रहे हैं कि यहां पर रात में बाजारों को जबरिया बंद करवाना बंद होना चाहिए, और अधिक से अधिक दुकानों और बाकी संस्थानों को रात में खुलने के लिए बढ़ावा देना चाहिए। एक बड़ी दकियानूसी और पुरानी सोच यहां पर चली आ रही है कि रात में लोगों के बाहर निकलने से, कारोबार से, जुर्म बढ़ेंगे। जबकि रात से जुर्म का रिश्ता इससे ठीक उलटा है। रात में जुर्म अधिक इसलिए होते हैं कि शहर के बाजारों से लेकर मोहल्लों तक सुनसान रहते हैं, और सन्नाटे में मुजरिमों को मौका मिलता है। आज शहरों में लोगों की निजी जरूरत यह है कि उन्हें रात-दिन हर वक्त बाजार और कारोबार की मनचाही सहूलियत मिलनी चाहिए। दूसरी तरफ शहरों की जरूरत यह है कि दिन के ट्रैफिक जाम वाले घंटों की भीड़ दिन-रात के खाली वक्त की तरफ खिसके, ताकि सड़कें सबसे अधिक भरे हुए वक्त पर कुछ खाली हो सकें।
इसे लेकर हमारी एक और सोच है कि आज पैसे वालों के लिए तो रात में कुछ खरीदना या खाना आसान है। वे शहर में कहीं से भी रेल्वे स्टेशन जा सकते हैं, जहां पर खाने को कुछ न कुछ मिल सकता है। दूसरी तरफ शहरों के सबसे महंगे जो सितारा होटल होते हैं, उनको अपने सितारा दर्जे के लिए चौबीसों घंटे कॉफी शॉप खुली रखनी पड़ती है। इसलिए पैसे वाला तबका तो अपनी गाडिय़ों से अपने घरों से दूर की ऐसी होटलों तक भी पहुंच सकता है। लेकिन दूसरी तरफ साइकिल पर चलने वाला, या मजदूरी करके देर रात लौटने वाला तबका रास्ते में एक कप चाय भी नहीं पी सकता। बेवकूफी का यह मौजूदा इंतजाम बदलना चाहिए, और सरकार को लोगों की, समाज की, और शहरों की जिंदगी में फिजूल का दखल खत्म करना चाहिए। कारोबार अपने हिसाब से रात-दिन कभी भी चले, सरकार का काम उनमें मजदूर कानूनों को लागू करवाने तक रहना चाहिए। यह सोच भी नासमझी की है कि रात में सड़कों पर जिंदगी बढऩे से पुलिस की जिम्मेदारी बढ़ जाएगी। सड़कों पर लोगों के अधिक रहने से जुर्म घटेगा, और पुलिस का बोझ भी घटेगा। दूसरी तरफ आज पूरे देश में इस बात को लेकर भारी फिक्र है कि महंगे और विदेशी पेट्रोल-डीजल की खपत को कैसे कम किया जाए। दिन में शहरी सड़़कों पर गाडिय़ों की लंबी कतारें लगी रहती हैं, जो विदेशी मुद्रा से आए हुए ईंधन को जलाती हैं। अगर बाजार में रात की जिंदगी बढ़ती है, तो दिन में लोग बिना जरूरत, मजबूरी में सड़कों पर निकलने से बचेंगे, और देर रात की खरीददारी करेंगे, देर रात दूसरे काम निपटाएंगे।
अब शहरों की जिंदगी सूरज को देखकर नहीं चलती। बहुत से लोगों के कारोबार शिफ्ट में चलते हैं, वे रात के किसी भी वक्त खाली समय पाते हैं, और दिन में काम करते हैं, या इसका ठीक उलटा भी होता है। आज सरकारों की सीमित समझ के चलते रात देर से खाली होने वाले लोगों को अपने परिवार सहित जाकर कुछ खाने-पीने तक का मौका नहीं मिलता क्योंकि सारा बाजार बंद करवा दिया जाता है। लोगों की जिंदगी में मनोरंजन, कामकाज, और तफरीह का वक्त कब होना चाहिए, इसे सरकार को काबू में नहीं करना चाहिए। मुंबई में बाजारों को लेकर जो सोच सामने आई है उस पर छत्तीसगढ़ जैसे दूसरे राज्यों को भी सोचना चाहिए जो कि छोटे राज्य माने जाते हैं, लेकिन जहां पर शहरों की जिंदगी दिनभर के ट्रैफिक जाम का शिकार है। हम बरसों से इस बात की वकालत करते आए हैं दिन के अधिक से अधिक कारोबार का विकल्प रात में भी होना चाहिए, और अब समय आ गया है कि जनता को मर्जी से जीने का हक दिया जाए, और सत्ता की कुर्सी पर बैठे लोग जिंदगी के तौर-तरीकों पर हावी होना बंद करें।
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नए साल के आने की खुशी में हर तबका अपने-अपने तरीके से जश्न या खुशियां मनाता है। इसमें सरकार या प्रशासन के नियम यह तय करते हैं कि कोई दावत कितने बजे तक चले। मुम्बई में ऐसी दावतों के लिए पुलिस ने रात डेढ़ बजे तक का वक्त तय किया हुआ है। इसके खिलाफ होटल वालों ने हाईकोर्ट में अपील की और वहां से यह आदेश हुआ है कि पार्टियां सुबह पांच बजे तक चल सकेंगी। इस पर देश के एक बड़े संविधान विशेषज्ञ वकील हरीश साल्वे ने ट्वीट किया है कि यह कैसी नौबत आ गई है कि शराबखानों और पार्टियों को बंद करने का वक्त अदालतों को तय करना पड़ रहा है, राजनीतिक व्यवस्था अलोकप्रिय फैसले लेने से बचते हुए जिम्मेदारी की जगह अदालतों के लिए खुद खाली कर रही है।
हिन्दुस्तान आजादी के बाद से एक ऐसी अजीब से तानाशाह सरकारी इंतजाम का शिकार रहा है जिसमें सरकार हर किस्म के हक अपने हाथ में रखते हुए लोगों की जिंदगी को, कारोबार को, जीने के तौर-तरीकों की लगाम अपने हाथों में रखने की शौकीन रही है। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम हर बरस एक-दो बार इस बारे में लिखते हैं कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ही पुलिस रात साढ़े दस बजे से लाठियां लहराकर, गालियां देकर, पानठेलों तक को बंद करवाने पर उतारू हो जाती है। आधी रात काम से लौटते किसी मजदूर को, किसी रिक्शेवाले को कहीं भी एक प्याली चाय भी नहीं मिल सकती। दूसरी तरफ जो महंगे होटल हैं, उनको अपने सितारा दर्जे के नियमों के मुताबिक चौबीसों घंटे चाय-कॉफी और नाश्ते का इंतजाम रखना पड़ता है, और उतना खर्च उठाने की ताकत रखने वाले कोई भी वहां जाकर खा-पी सकते हैं। बेदिमाग और बददिमाग शासन और प्रशासन को यह समझ नहीं आता कि बाजार में काम करने वाले न सिर्फ कारोबारी-कर्मचारी, बल्कि खुद कारोबारी ही रात नौ-दस बजे के पहले अपने खुद के घर नहीं लौट पाते, और फिर अगर वे चाहें कि परिवार के साथ कुछ देर बाहर निकलें, तो उनको एक चाय ठेला भी खुला नहीं मिल सकता।
बाम्बे हाईकोर्ट ने जो आदेश सिर्फ नए साल की दावत के लिए दिया है, उसे व्यापक संदर्भ में देखने की जरूरत है। यह सिर्फ एक दिन की दावत का हक नहीं है, यह रोज की बात है, और आज जब शहरीकरण की वजह से लोगों का रात-दिन काम करना होता है, तो फिर उनकी जरूरतों को भी रात-दिन पूरी होने से रोकने का हक किसी सरकार को नहीं है। जनता के हक के खिलाफ सरकारें अपनी बददिमागी दिखाती हैं, और चूंकि आम जनता संगठित नहीं है, इसलिए उसके रोज के हक को कुचलने के खिलाफ भी वह अदालत नहीं जा पाती। जिस कारोबार को सरकारी रोक से नुकसान हो रहा था, वह कारोबार मुम्बई में तो अदालत तक चले गया, बाकी जगहों पर भी देश का वही कानून लागू है, और देश के कानून में अमीर और गरीब ग्राहकों के बीच कोई फर्क भी नहीं है। इसलिए जब छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में सरकार यह तय करती है कि शराबखानों में किस रेट से अधिक सस्ती शराब नहीं बेची जाएगी, तो फिर ऐसा नियम सस्ती शराब पीने की ही ताकत रखने वाले तबके के हक के खिलाफ है। लेकिन जनता में जागरूकता न होने से पुलिस अपने अंदाज में रात साढ़े दस बजे से बाजार का कफ्र्यू लगा देती है, और आम लोग अपने परिवार सहित बाहर निकलकर जिंदगी जीने का हक भी खो बैठते हैं। ठेले-खोमेचे वालों को रात साढ़े दस बजे से लाठियों से भगा दिया जाता है, और बड़े होटलों में खाने को कुछ न कुछ तो चौबीसों घंटे मिलता है।
शहरीकरण और पर्यटन की मामूली समझ रखने वाले लोग भी यह समझ सकते हैं, कि जिस प्रदेश या शहर में रात कुछ खाने-पीने भी न मिले, वहां पर बाहर से आए हुए लोग उस जगह को किस तरह मरघटी सन्नाटे वाली पाते होंगे। अगर किसी देश-प्रदेश, शहर या इलाके को पर्यटकों को बढ़ावा देना है, कारोबार को बढ़ाना है, रोजगार के मौके बढ़ाने हैं, दिन के ट्रैफिक जाम के घंटों की भीड़ को रात तक फैलाना है, तो उसके लिए हर शहर में रात की जिंदगी को जीने का हक देना होगा। छत्तीसगढ़ सहित देश के बाकी जिस हिस्से में भी ऐसी रोक लगती है, उसके खिलाफ स्थानीय जनता या स्थानीय कारोबार अदालतों में जाकर सरकारी मनमानी के खिलाफ इंसाफ पा सकते हैं। यह बात लोकतंत्र में अतिसरकारीकरण, या अतिनियंत्रण है, और इसे खत्म किया जाना चाहिए।
छत्तीसगढ़ के बारे में हम यह सकते हैं कि यहां बाहर से आने वाले पर्यटक कुछ गिनी-चुनी जगहों को देखने के अलावा रात में सब-कुछ मुर्दा पाते हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। अगर रात में बाजार और मनोरंजन के घंटे बढ़ेंगे, तो उससे कर्मचारियों के नए रोजगार भी खड़े होंगे, और शाम की भीड़ देर रात तक खिसककर सड़कों से ट्रैफिक जाम भी कम करने में मदद करेगी। जो लोग यह सोचते हैं कि रात में बाजार जल्द बंद करवाने से जुर्म कम होते हैं, उनको यह रिकॉर्ड देख लेना चाहिए कि जब तक सड़कों पर चहल-पहल रहती है, कारोबार जारी रहता है, तब तक जुर्म कम होते हैं। जुर्म उस समय बढ़ते हैं, जब सड़कों और बाजारों में सन्नाटा छा जाता है। छत्तीसगढ़ में किसी को इस बात को समझना चाहिए, और यहां की जनता को देर रात तक अपने परिवार के साथ बाहर निकलकर कुछ खाने-पीने के लिए ठेले या रेस्तरां नसीब होने देना चाहिए।
-सुनील कुमार
छत्तीसगढ़ सरकार ने बाजार, कारोबार, और जनता के लिए एक बड़ा दोस्ताना फैसला लिया है। उसने दुकानों पर लागू होने वाले कानूनों को शहरी इलाकों के साथ-साथ अब बाकी प्रदेश पर भी लागू किया है, लेकिन यह नया कानून दस या अधिक कर्मचारियों वाली दुकानों और व्यापार पर ही लागू होगा, इससे छोटे कारोबार इससे मुक्त रहेंगे। कर्मचारियों के काम के दिनों को लेकर पहले से श्रम कानूनों में जो व्यवस्था है वह जारी रहेगी, लेकिन जो सबसे बड़ी चीज इस ताजा आदेश में हुई है वह दुकानों को सातों दिन चौबीसों घंटे खोलने की छूट है। कोई होटल, रेस्त्रां, खानपान की जगह, या मॉल और दुकान अब पूरे वक्त काम कर सकेंगे, शर्त बस यह रहेगी कि कर्मचारियों को साप्ताहिक अवकाश दिया जाए। इसके साथ-साथ कुछ सुरक्षा शर्तों के तहत महिला कर्मचारियों को भी रात में काम करने की छूट रहेगी।
हम अपने इस अखबार में इस कॉलम में, और संपादक के साप्ताहिक कॉलम आजकल में दस-बीस बरस में दर्जन भर से अधिक बार यह बात उठा चुके थे कि सरकार को बाजार बंद करने के धंधे में नहीं पडऩा चाहिए। रात 10 बजे पुलिस घूम-घूमकर लाठी बजाकर पानठेले तक बंद करवाती है, और रेस्त्रां भी इसी वक्त नए ग्राहकों का भीतर आना बंद करते हैं। हमने अजीत जोगी, और रमन सिंह सरकार के समय भी उनके करीबी महत्वपूर्ण अफसरों को लिखकर भी यह सुझाव दिया था, और अखबार में भी कई बार लिखा था कि सरकार को सुरक्षा और मजदूर कानून लागू करने चाहिए, बाजार को अपनी मर्जी से रात-दिन चलने देना चाहिए। आज हालत यह है कि बड़े-बड़े मॉल में करोड़पतियों के पब और बार तो देर रात तक चलते हैं, राजधानी में दर्जनों ऐसे दूसरे ठिकाने देर रात तक दारू और दूसरा नशा परोसते हैं, लेकिन चाय दुकानों को दस-ग्यारह बजे बंद करने का हुक्म दे दिया जाता है। दूसरी तरफ जो पांच सितारा होटल हैं, उन्हें सितारा दर्जा मिलने की शर्त यह रहती है कि वहां चौबीस घंटे कॉफी शॉप चलना चाहिए। गरीब और अमीर की जरूरतों के बीच सरकार की तरफ से यह इतना बड़ा फासला है कि दो-चार सौ रूपए की कॉफी चौबीसों घंटे मिलती है, और दस रूपए की चाय रात दस-ग्यारह बजे बंद हो जाती है। कारखाने, स्टेशन, या कहीं और से लौटते मजदूर या कर्मचारी सडक़ किनारे कुछ खा-पी भी नहीं सकते। हमने यह भी लिखा था कि रात-दिन बाजार खुला रखने की छूट किसी कारोबारी पर रात भर दुकान खोलने की बंदिश नहीं रहेगी, जिसे मर्जी होगी वे रात में कारोबार करेंगे। इससे बाहर से आने वाले सैलानियों और मुसाफिरों को भी सहूलियत मिलेगी, और शहर की सडक़ों पर दिन में पडऩे वाला ट्रैफिक का दबाव भी खत्म होगा, कई लोगों को रात में खानपान और खरीददारी अधिक माकूल रहेगी, और उससे दिन में उतनी गाडिय़ां सडक़ों पर कम रहेंगी। हमने यह बात भी लिखी थी कि खुद कारोबारी रात नौ-दस बजे तक घर पहुंचते हैं, और फिर परिवार को लेकर बाहर निकलने का वक्त मिलता है, तो उस वक्त तक बाजार बंद होने लगता है। चौबीसों घंटे दुकान खुली रखने की छूट होने से वे व्यापारी इसका फायदा उठा सकेंगे जिनके ग्राहक देर रात भी आना चाहते हैं। पहले भी कई शहरों में पेट्रोल पंपों में रात भर खुली रहने वाली छोटे-मोटे सामानों की दुकानें चलती ही थीं। हमारा यह भी मानना है कि रात में देर तक या पूरी रात बाजार में चहल-पहल रहने से गुंडागर्दी और जुर्म भी घटेंगे क्योंकि अंधेरी सूनी सडक़ों पर मुजरिमों का हौसला बढ़ता है।
देर आयद, दुरूस्त आयद। राज्य बनने के बाद से यह पहली सरकार है जिसे कारोबारी और जनता को यह बहुत जायज हक देना सूझा है, और इससे कारोबार भी बढ़ेगा, और सरकार को टैक्स भी अधिक मिलेगा। कर्मचारियों को जरूर यह लग सकता है कि इससे उन्हें अधिक घंटे काम करना पड़ेगा, लेकिन असल में यह भी हो सकता है कि अब कारोबार दो शिफ्ट चलने लगें, और दोनों शिफ्ट के लिए अलग-अलग कर्मचारियों को रोजगार मिलने लगे। पुलिस के ऊपर जरूर इससे कुछ दबाव बढ़ेगा क्योंकि रात में भी सडक़ों की कुछ चौकसी रखनी पड़ेगी, और बाजार को भी चाहिए कि वह पुलिस के साथ तालमेल बिठाकर अपने सुरक्षा कर्मचारियों का कुछ इंतजाम करे। इसके साथ-साथ शहरों में सीसीटीवी कैमरों जैसे निगरानी नेटवर्क को बढ़ाना चाहिए ताकि जुर्म या ट्रैफिक गड़बड़ी पर तुरंत कार्रवाई हो सके। जहां तक बाजार की बिजली की खपत का सवाल है, तो रात के घंटों में बिजली मांग से अधिक पैदा होती है, और छत्तीसगढ़ को दूसरे राज्यों को यह कम रेट पर बेचनी भी पड़ती है।
सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार बाजार और जनता की जरूरतों को जरूरत से अधिक नियंत्रित कर रही थी, और इसी में कई किस्म का भ्रष्टाचार भी पनपता है। कुछ चुनिंदा कारोबार बहुत देर रात तक चलने देने के लिए एक भ्रष्टाचार पनप जाता है। विष्णुदेव साय सरकार का यह फैसला प्रदेश में पर्यटकों और प्रवासियों के लिए दोस्ताना भी रहेगा जो बाहर से आने पर यहां के बाजार में बारह घंटे का मरघटी सन्नाटा देखते हैं। सरकार के भीतर जिस किसी ने भी ऐसी पहल की है, वे तारीफ के हकदार हैं, और प्रदेश के व्यापारी संगठनों को भी इस छूट का फायदा उठाना चाहिए, और रात के बाजार विकसित करने चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
(हम इस विषय पर कई बरस पहले लिखे गए और छपे अपने पिछले कुछ संपादकीय सिर्फ ऑनलाईन पढऩे के लिए पोस्ट कर रहे हैं। वेबसाईट पर देख सकते हैं।)
‘छत्तीसगढ़’31 दिसंबर 2013 का संपादकीय : जनता की जिंदगी पर सरकारी लगाम खत्म करने की जरूरत
उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लागू की गई है जिसमें राज्य के आदिवासियों को छोडक़र बाकी तमाम लोगों पर इसे धर्मों से परे एक सरीखा लागू किया गया है। इस कानून के मुताबिक शादी की उम्र 18 बरस की लडक़ी, और 21 बरस का लडक़ा है। हर शादी का रजिस्ट्रेशन जरूरी है, और तलाक कानून सम्मत आधार पर ही हो सकेगा। इसी तरह तलाक की हालत में गुजारा-भत्ता, और बाकी हिसाब-किताब सभी धर्मों से परे एक सरीखा होगा। संपत्ति और उत्तराधिकार एक सरीखा लागू होगा। लिव-इन-रिलेशनशिप का रजिस्ट्रेशन कराना जरूरी होगा ताकि इसके जोड़ीदारों की कानूनी सुरक्षा हो सके, और ऐसे रिश्तों से पैदा हुए बच्चों के अधिकार सुनिश्चित हो सकें। इस तरह के रिश्तों से अलग हुए लोगों की आर्थिक सुरक्षा के प्रावधान भी किए गए हैं। इस समान नागरिक संहिता में बहू विवाह पर रोक लगाई गई है, और दोनों जोड़ीदारों को लैंगिक समानता के अधिकार दिए गए हैं। बाल विवाहों पर प्रतिबंध लगाया गया है, और यूनीफॉर्म सिविल कोड के तहत फैसलों के लिए अदालतें तय की गई हैं। प्रदेश के आदिवासियों को उनकी परंपरा के हिसाब से रहने दिया गया है, और यह नया कानून उन पर लागू नहीं हो रहा है।
लेकिन 2024 में लागू इस कानून पर आज चर्चा की जरूरत इसलिए आन पड़ी है कि नैनीताल हाईकोर्ट ने इसके तहत लिव-इन-संबंधों के अनिवार्य पंजीकरण को एक चुनौती दी गई है, और इस मौखिक टिप्पणी करते हुए मुख्य न्यायाधीश, जस्टिस जी.नरेन्द्र ने कहा है कि जब आप बिना शादी के निर्लज्जता के साथ रह रहे हैं, तो इसके पंजीकरण से किस निजता का हनन हो रहा है? उन्होंने कहा कि राज्य सरकार बालिग लोगों के साथ रहने के रिश्तों पर रोक नहीं लगा रही है, बल्कि उसके रजिस्ट्रेशन को जरूरी बना रही है। रजिस्ट्रेशन के इस प्रावधान को निजता का हनन बताते हुए देहरादून निवासी 23 बरस के जय त्रिपाठी ने चुनौती दी थी। उनके वकील ने सुप्रीम कोर्ट के 2017 के एक फैसले का हवाला दिया, और कहा कि उनका मुवक्किल अपने साथी के नाम की घोषणा करना नहीं चाहता, और उसे इसके लिए मजबूर नहीं करना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश ने इस पर सवाल किया कि ऐसे रिश्ते में रहस्य क्या है? आप दोनों एक साथ रह रहे हैं, आपके पड़ोसी जानते हैं, समाज जानता है, दुनिया जानती है, फिर आप किस गोपनीयता की बात कर रहे हैं? क्या आप गुफा में रह रहे हैं? उन्होंने कहा आप बिना शादी किए बेशर्मी के साथ रह रहे हैं, रजिस्ट्रेशन से किस निजता का हनन होगा? याचिकाकर्ता के वकील ने राज्य की एक घटना का जिक्र किया जिसमें अलग-अलग धर्मों के दो जोड़ीदारों में से युवक की हत्या कर दी गई। ऐसे में रजिस्ट्रेशन से नाम उजागर होगा, और लोग खतरे में पड़ेंगे।
ऐसा लगता है कि लोग हाईकोर्ट के जज रहते हुए भी अपनी निजी सोच से अपनी टिप्पणियों को प्रभावित होने से नहीं बचा पाते। हम लिव-इन-रिलेशनशिप पर सुप्रीम कोर्ट के दिए हुए फैसले को देखते हैं तो अदालत ने साफ-साफ यह कहा कि यह न तो जुर्म है, और न ही कोई पाप है, फिर चाहे देश का समाज इसे नामंजूर क्यों न करता हो। अदालत ने यह भी लिखा कि ऐसे रिश्तों में महिला को घरेलू हिंसा से बचाने के लिए, और ऐसे रिश्तों में पैदा होने वाले बच्चों को संपत्ति का हक देने के लिए यह फैसला दिया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर ऐसे जोड़े अपने आपको ऐसे रिश्ते में बताते हैं तो उनके बच्चों का संपत्ति पर कानूनी हक रहेगा।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से यह साफ है कि लिव-इन-रिलेशनशिप को न तो जुर्म माना गया है, न पाप माना गया है, और अदालत ने बड़े साफ-साफ शब्दों में यह बात कही है। ऐसे में हमें नैनीताल हाईकोर्ट की टिप्पणी खटकती है जिसमें मुख्य न्यायाधीश ने इसे निर्लज्जता और बेशर्मी करार दिया है। ये विशेषण ऐसे रिश्तों को जुर्म या पाप की तरह ही साबित करते हैं जो कि सुप्रीम कोर्ट के साफ-साफ फैसले के ठीक खिलाफ है। उत्तराखंड का यह कानून भी इसे न जुर्म कहता है, न पाप कहता है, ऐसे में जज का इसे नीची नजरों से देखना खटकता है, क्योंकि मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी को बहुत से लोग एक कानूनी नजरिया मानेंगे, और जिस समाज में इस तरह के रिश्तों में साथ रहने वाले लोगों के खिलाफ जगह-जगह हिंसा देखने में आती है, वहां इससे हिंसक लोगों को इससे एक बढ़ावा मिल सकता है। हमारा ख्याल है कि अदालतों में जजों को अपनी टिप्पणियों और अपने विशेषणों को, अपने विचार को फैसलों तक सीमित रखना चाहिए। बहुत से मामलों में यह देखा जाता है कि जज जुबानी जो बातें कहते हैं, वे बातें औपचारिक फैसले का हिस्सा भी नहीं बनतीं, लेकिन वे जुबानी बातचीत की खबरों से एक धारणा बनने लगती है कि अदालत, यानी जज का इस बारे में क्या कहना है, और जनता जरूरत पडऩे पर अपनी पसंद से उन टिप्पणियों का चुनिंदा इस्तेमाल करने लगती है। वैसे भी जब सुप्रीम कोर्ट ने इसे पूरी तरह से कानूनी मान्यता दी है तो फिर इसे बेशर्मी और निर्लज्जता कहना जायज नहीं है। इस कानून से निजता का हनन होता है या नहीं, यह एक अलग मुद्दा है, और हाईकोर्ट के पास उस पर फैसला देने का पूरा हक है। इसके बाद जो पक्ष असंतुष्ट रहे, उसके पास सुप्रीम कोर्ट तक जाने का भी पूरा हक रहेगा। लेकिन जो समाज में लोगों का जीना या मरना मुश्किल करने वाली परंपराएं हैं, उस बारे में जजों को अपनी निजी पूर्वाग्रह अलग रखने चाहिए। हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले और उत्तराखंड सरकार के बनाए कानून में लिव-इन-रिलेशनशिप को किसी भी कोने से शर्म का सामान नहीं देखते। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
राजनीतिक ताकत से गुंडागर्दी आम बात है। जिन पार्टियों की कोई ताकत नहीं होती उनके लोग भी जमीन पर पांव रखना नहीं चाहते। पार्टियों के चिल्हर नेता भी सडक़ पर गाड़ी रोकने पर पुलिस को धौंसियाने लगते हैं कि वे जानते नहीं कि वे कौन हैं? अदना से नेता गाडिय़ों में काली फिल्म लगाए, सायरन और हूटर लगाए, ऊपर तरह-तरह की लाईटें लगवाए, और पदनाम की बड़ी सी तख्ती लगाकर घूमते हैं। इनका कुल जमा मकसद यही होता है कि पुलिस उन्हें न रोके। और पुलिस के रोकने की नौबत ही इसलिए आती है कि सडक़ों के नियम तोड़े जाते हैं। राजनीतिक बाहुबल का यह प्रदर्शन दारू न पीने वाले, नशा न करने वाले पौव्वा दर्जे के नेताओं को भी आत्ममुग्ध नशे में रखता है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में कल पुलिस को शहर युवक कांग्रेस अध्यक्ष को दस साथियों सहित गिरफ्तार करना पड़ा क्योंकि वे इस अध्यक्ष का जन्मदिन चौराहे पर मनाने पर आमादा थे। एक चौराहे से हटाया गया, तो दूसरे चौराहे पर जाकर केक काटा गया, और चारों तरफ अंधाधुंध आतिशबाजी की गई। जबकि अभी एक पखवाड़े पहले ही छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने इसी शहर में इसी इलाके में मनाए गए इसी तरह के जन्मदिन पर मामूली कार्रवाई करने पर एक अफसर को सस्पेंड करने, विभागीय जांच करने का आदेश दिया था, और हाईकोर्ट के सख्त रूख को देखकर पुलिस को उस जन्मदिन पर कार्रवाई करनी पड़ी थी। इसी शहर में उसी इलाके में फिर वही हरकत सीधे-सीधे हाईकोर्ट को चुनौती है, और कांग्रेस पार्टी को भी यह देखना चाहिए उसके मवाली किस्म के पदाधिकारी जनता के बीच अब और क्या खोना चाहते हैं? हर चुनाव हारने के बाद भी इस पार्टी के अदना से पदाधिकारी का गुरूर किनारे होने को तैयार नहीं है, और चौराहे पर केक काटना, आतिशबाजी से ट्रैफिक रोकना उन्हें अपनी नेतागिरी की पराकाष्ठा दिख रही है। ऐसे राजनीतिक दलों को धिक्कार है जो अपने पदाधिकारियों और नेताओं के कुकर्मों पर मुंह बंद करके बैठे रहते हैं। और यह हाल सिर्फ कांग्रेस का हो ऐसा भी नहीं है, इसी प्रदेश में बस्तर में भाजपा के एक सांसद अफसरों को मां-बहन की गालियां देते हुए इतने सारे वीडियो में कैद हो चुके हैं कि तैनाती पर बस्तर जाने वाले अफसर परिवार को बाहर के इलाकों में ही छोडक़र जाने लगे हैं। इस सांसद की ताजा गालियों का शिकार एक ऐसा पुलिस अफसर हुआ है जो दो-दो बार राष्ट्रपति पदक से सम्मानित है। अब राष्ट्रपति को यह वीडियो भेजना चाहिए कि वे अपने पदक पर फिर से विचार करें क्योंकि सांसद इस अफसर को गंदी गालियों के लायक ही मानते हैं।
सत्ता की ताकत किसी के साथ हमेशा नहीं रहती। सत्ता बड़ी बदचलन रहती है, और वह घर और यार दोनों बदलते रहती है। लेकिन पारे की तरह अस्थिर सत्ता पर भी लोग अपने अहंकार की ऊंची इमारतें खड़ी कर लेते हैं, और ऐसे लोगों को मुम्बई ट्रैफिक पुलिस के लिए अक्षय कुमार के पुलिस-किरदार वाला एक इश्तहार दिखाना चाहिए जिसमें वह ट्रैफिक नियम तोडऩे वालों को सडक़ के नाम की तख्ती दिखाकर पूछता है कि क्या वे उसी महान व्यक्ति के बेटे हैं, क्योंकि उनकी हरकत तो ऐसी ही है कि सडक़ उनके बाप की हो। इन दिनों कम से कम छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में जहां हम लोगों को करीब से देखते हैं, राजनीतिक बाहुबल का शक्ति प्रदर्शन सार्वजनिक जगहों पर अंधाधुंध पैमाने पर चलता है। और इन छुटभैये नेताओं के और नीचे के चमचे अपने युवा हृदय सम्राटों से प्रेरणा पाते हुए ट्रैफिक नियमों को तोडऩा अपनी शान दिखाने का पहला कदम मानते हैं। अखबारों को चाहिए कि वे ऐसे नेताओं की हरकतें सामने आने पर उनके प्रदेश अध्यक्षों से पूछें कि क्या यह हरकत उनकी पार्टी की रीति-नीति के मुताबिक है?
वैसे तो राजनीति को पूरी दुनिया में सबसे घटिया लोगों का डेरा माना जाता है, और अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प जैसे लोग मानो डॉक्टरी सलाह पर दिन में चार बार इस घटियापन का प्रदर्शन करते हैं। इसलिए अब बाकी दुनिया में उनसे कम ताकतवर तमाम नेताओं के लिए वे कामयाबी और कमीनगी दोनों का एक बड़ा आदर्श हैं। कम से कम उत्तर भारत की राजनीति में हम नौजवानों को इसीलिए आते देखते हैं कि वे गुंडागर्दी कर सकें, पुलिस से उलझकर भी बच सकें, और अपना आतंक कायम करके सरकारी अफसरों से गलत काम करवा सकें।
आज मीडिया से परे भी सोशल मीडिया के जमाने में जनता को चाहिए कि राजनीतिक गुंडागर्दी खत्म करवाए। लोगों को ऐसी घटनाओं को खुलकर धिक्कारना चाहिए, ऐसे नेताओं की पार्टियों को कटघरे में खड़ा करना चाहिए, उनसे सार्वजनिक रूप से जवाब-तलब करना चाहिए। इसके साथ-साथ जब कभी चुनाव का मौका आए, या किसी पार्टी के नेता सार्वजनिक रूप से किसी कार्यक्रम में पहुंचें, तो उनसे इन घटनाओं को गिनाकर इन पर उनकी राय पूछनी चाहिए। वैसे तो यह काम अपने आपको लोकतंत्र का चौथा स्तंभ का दंभ भरने वाले मीडिया का होना चाहिए था, लेकिन छोटे-छोटे पॉकेट साईज के नेता भी बड़े-बड़े इश्तहार देकर मीडिया को पिछवाड़े तले दबाकर बैठते हैं। जब मीडिया का अपना पापी पेट ऐसे ही लोगों से चलता है, तो वे पार्टियों के नेताओं से कुछ नहीं पूछ सकते, जनता को ही आज सोशल मीडिया पर जवाब-तलब करना चाहिए, और ऐसी घटनाओं को वॉट्सऐप जैसी मैसेंजर सर्विसों से चारों तरफ बांटना चाहिए। सार्वजनिक धिक्कार ही किसी पार्टी या उसके नेताओं को सुधार सकती है, वरना पार्टियों में ओहदे तो आजकल उस अंदाज में बिकते हैं जिस अंदाज में राज्यसभा की सदस्यता, या चुनावी उम्मीदवारी बेचने के लिए एक बहनजी बदनाम हैं। लोग अपनी नागरिक जिम्मेदारी पूरी करें, और किसी प्रेरणा के लिए मीडिया की तरफ न देखें।