संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पत्रकारिता की एक गलती, और दो बड़े सिर कलम!
सुनील कुमार ने लिखा है
10-Nov-2025 5:03 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  पत्रकारिता की एक गलती, और दो बड़े सिर कलम!

दुनिया के एक सबसे बड़े स्वतंत्र समाचार-संस्थान बीबीसी के डायरेक्टर जनरल, और हेड ऑफ न्यूज ने इस्तीफे दे दिए हैं। बीबीसी के एक कार्यक्रम पर यह आरोप लगा था कि उसमें अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प के भाषण के दो अलग-अलग वाक्यों को एक के बाद एक इस तरह रख दिया गया था कि वे एक सांस में कहे हुए लग रहे थे। ये दोनों वाक्य ट्रम्प के भाषण में 50 मिनट के फासले पर कहे गए थे, लेकिन उन्हें जब एक साथ रख दिया गया, तो उससे ऐसा आभास पैदा हुआ कि ट्रम्प लोगों को अमरीकी संसद पर हमला करने के लिए उकसा रहे थे। यह मामला 6 जनवरी 2021 का था, जब ट्रम्प राष्ट्रपति चुनाव की मतगणना में हार चुके थे, और उन्होंने हार मानने के बजाय अपने लोगों को संघर्ष करने के लिए भडक़ाया था। ट्रम्प की हरकतें अलग थीं, लेकिन बीबीसी के एक कार्यक्रम में भाषण के दो अलग-अलग हिस्सों को जोडक़र दिखाने का मामला इतना तूल पकड़ गया, और बीबीसी के भीतर उस पर इतनी चर्चा-बहस हुई कि दो सबसे वरिष्ठ लोगों को इस्तीफे देने पड़े। अभी अभी बीबीसी के चेयरमैन समीर शाह आज संसद की एक कमेटी के सामने इसी मामले में बयान देने वाले थे, और उम्मीद की जा रही थी कि वे ट्रम्प के भाषण को एडिट करने के तरीके के लिए माफी मांगेंगे, लेकिन उसके पहले ही ये इस्तीफे आ गए।

भारत में अखबार, टीवी, या डिजिटल मीडिया, पढऩे, देखने-सुनने वाले लोगों को बीबीसी का यह सिलसिला हैरान करेगा क्योंकि भारतीय मीडिया तो कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, संपादक ने कुनबा जोड़ा के अंदाज में काम करता है। आम अखबारों, और आम टीवी चैनलों पर कुछ भी सच रहना जरूरी नहीं रह गया है। और लाईनों या शब्दों को काट-काटकर, जोड़-जोडक़र, सही संदर्भ के ठीक उल्टे लगाकर कुछ भी किया जा सकता है, और उसे सोशल मीडिया की राजनीतिक फौज की मेहरबानी से हर हिन्दुस्तानी पर थोपा भी जा सकता है। ऐसे में जनता के पैसों से चलने वाले बीबीसी नाम के समाचार-संस्थान में एक किसी कार्यक्रम को लेकर दो सबसे बड़े लोगों को जिस तरह छोडऩा पड़ रहा है, नैतिकता और पेशे के, ईमानदारी और जवाबदेही के वैसे पैमाने अगर भारत में लागू किए जाएंगे, तो अखबारनवीसों, और बाकी मीडियाकर्मियों का एक बड़ा हिस्सा सडक़ पर आ जाएगा। फिर भी भारत के मीडिया टापू के बीच बैठे हुए धरती के गोले के दूसरी तरफ गोरों के टैक्स से चलने वाले बीबीसी के पेशेवर पैमानों को देखने में क्या हर्ज है? मेरे सीने में नहीं, तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन, आग जलनी चाहिए।

भारत में भी एक वक्त था, जब खालिस पत्रकारों का एक संगठन, श्रमजीवी पत्रकार संघ होता था, और वह पत्रकारों के कानूनी अधिकारों के लिए तो लड़ता और आंदोलन करता ही था, वह पत्रकारिता पर या पत्रकारों पर होने वाले हमलों पर भी आंदोलन करता था। लेकिन इसके साथ-साथ पत्रकारों की पेशेवर ईमानदारी और जिम्मेदारी पर भी इस संगठन में बात होती थी। अब सिर्फ कामगार-पत्रकारों के आंदोलन ठंडे पड़ चुके हैं, और जगह-जगह प्रेस क्लब नाम की संस्थाएं पत्रकार-गैरपत्रकार सभी के लिए हो गई हैं, और मीडिया नाम का नया छाता हर किस्म के मीडियाकर्मी के लिए रह गया है, जिसमें अखबारनवीसी की जगह बड़ी कम रह गई है। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम पहले भी अखबारों को मीडिया नाम की बड़ी सर्कस के तम्बू से बाहर निकलकर प्रेस नाम का अपना एक अलग अस्तित्व बनाने की बात सुझाते आए हैं। छपे हुए अखबारों के वक्त जो लोग पत्रकार बने हैं, उनकी ट्रेनिंग बिल्कुल अलग ही किस्म के पैमानों पर हुई, उनके नीति-सिद्धांत अलग किस्म और दर्जे के रहे, उनके प्रकाशन के साथ विश्वसनीयता, और उत्कृष्टता के कई पैमाने अनिवार्य रूप से लागू रहे। अखबारों को तैयार होने में कई घंटों का वक्त मिलता था, और वे खबर को जिम्मेदारी से बना पाते थे, जांच कर पाते थे, उसे उत्कृष्टता से लिख पाते थे, और कोई मामूली सी चूक होने पर भी अखबारनवीसों को बड़ी शर्मिंदगी होती थी। जिस पत्रकार के काम को लेकर कोई भूल सुधार, स्पष्टीकरण, या खंडन छापने की नौबत आती थी, वे कई दिनों तक शर्मिंदगी से उबर नहीं पाते थे। छपे हुए अखबार की पाठकों के बीच भी बड़ी ऊंची विश्वसनीयता रहती थी क्योंकि कागज पर स्याही से छपी बातों को एक बार छप जाने के बाद मिटाया नहीं जा सकता था।

आज डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विश्वसनीयता और उत्कृष्टता को काउंटरप्रोडक्टिव (प्रतिउत्पादक) मान लिया जाता है। अधिक से अधिक रफ्तार से सनसनी और तकरीबन झूठ का तडक़ा लगाकर क्या पेश किया जा सकता है जिसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें, सुनें, या देखें, यह गलाकाट मुकाबला आज के नीति-सिद्धांत, और नैतिकता को बदल चुका है। ऐसे में एक पूरी तरह डिजिटल-इलेक्ट्रॉनिक समाचार माध्यम बीबीसी में इन पैमानों को लेकर जिस तरह सिर कलम हुए हैं, वह उस संस्थान में पेशेवर-नैतिकता बताता है, और उसे दूर बैठे देखना भी सुहाता है। अभी हमने यह जानने की कोशिश की कि बीबीसी कितने समाचार-विचार रोज प्रसारित करता है, तो 2023 के आंकड़ों के मुताबिक वह हर दिन सौ घंटे से अधिक की नई और मौलिक सामग्री प्रसारित करता है। इनमें चौबीसों घंटे के समाचार चैनल भी शामिल हैं, और इनके अलावा हर दिन करीब एक लाख शब्द डिजिटल प्लेटफॉर्म पर जाते हैं। अलग-अलग 42 भाषाओं में इसके कार्यक्रम जाते हैं जिनमें आधा दर्जन भारतीय भाषाएं भी शामिल हैं। समाचार-विचार के इतने विशाल आकार में से एक कार्यक्रम में किसी एक वीडियो-संपादक ने एक भाषण की दो लाईनों को गलत तरीके से एक साथ रखने का जुर्म कर दिया, तो बड़े-बड़े सिर लुढक़ गए।

कुछ लोगों को भारत में इस तरह की चर्चा खटक सकती है। लग सकता है कि ऐसी मिसालें यहां पर क्यों दी जा रही हैं? जो भी हो, हम इस देश में मीडिया के ऐसे पैमानों की कोई उम्मीद भी नहीं करते, लेकिन अपनी उम्मीद से परे की बातों की चर्चा करने में क्या हर्ज है? हम आखिर समंदर की तलहटी की चीजों की चर्चा करते हैं जहां हम रहते नहीं हैं, हम अंतरिक्ष की चर्चा करते हैं, जहां पर छूकर आ जाते हैं, हम दूसरे ग्रहों की चर्चा करते हैं, जहां हम अभी तक कोई यान भी नहीं भेज पाए हैं, इसलिए एक दूसरी दुनिया की चर्चा करने में कोई बुराई नहीं है। किसी को यह नहीं मानना चाहिए कि हम इस चर्चा से भारत के लोगों को कोई आईना दिखा रहे हैं। भारत के अखबारों को आज अपने आपको मीडिया में गिनाने का खतरा समझ नहीं पड़ रहा है, या वे अपने को अलग गिनकर एक अलग निशाने पर आना भी नहीं चाहते। जो भी हो, समाचार संस्थानों के लिए न सही, पत्रकारिता के छात्र-छात्राओं के लिए बीबीसी का यह ताजा मामला पढऩे के लिए दिलचस्प हो सकता है, हालांकि इसे कोर्स में पढ़ाने की हिम्मत कम ही संस्थानों में होगी। जब हम दूसरे ग्रहों के आसपास के घेरों या छल्लों की तस्वीरें देखने की कोशिश करते हैं, तो भारत के मीडिया में काम करते हुए बीबीसी की इस ताजा घटना को भी इसी दूरबीन से देख लेना चाहिए, वहां से इसका संक्रमण कोरोना की तरह यहां आ जाएगा, ऐसा कोई भी खतरा नहीं है।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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