संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अग्रिम जमानत के बेहद विवेकाधिकार से उठते सवालों पर कुछ चर्चा...
04-Nov-2025 6:51 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : अग्रिम जमानत के बेहद विवेकाधिकार से उठते सवालों पर कुछ चर्चा...

कई बड़े-बड़े चर्चित जुर्म के बाद आरोपी फरार रहते हैं, और पुलिस या दूसरी जांच एजेंसियां उनकी तलाश में लगी रहती हैं। अगर ऐसे लोग किसी भी किस्म की ताकत वाले रहते हैं, तो उनकी तरफ से बड़े-बड़े वकील निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अग्रिम जमानत की अर्जी लगाते रहते हैं, और जांच एजेंसी के हत्थे चढऩे के पहले ही वे फरार रहते हुए यह कोशिश करते रहते हैं कि गिरफ्तार होने के पहले उनके हाथ में अग्रिम जमानत का कागज रहे जिसे दिखाकर वे पुलिस का मुंह चिढ़ा सकें। भारत के कानून में जमानत या अग्रिम जमानत को लेकर जज-मजिस्ट्रेट को बहुत सारे विवेकाधिकार दिए गए हैं, और एक ही किस्म के मिलते-जुलते दो मामलों में एक में एक अदालत से जमानत मिल जाती है, दूसरी से नहीं मिलती, और दोनों को ही सही मान लिया जाता है। ऊपर की अदालत अगर इन फैसलों को पलटती भी है, तो भी आमतौर पर निचली अदालत के जज के खिलाफ कोई टिप्पणी आमतौर पर नहीं होती। जमानत या अग्रिम जमानत के ये सारे फैसले भारत के कानून के जिस लचीलेपन पर टिके रहते हैं, वह लचीलापन कितना लोकतांत्रिक है, और कितना अलोकतांत्रिक, यह भी सोचने की जरूरत है।

 
भारत में नीचे से ऊपर तक अदालतों के अधिकतर फैसले कुछ या अधिक हद तक उसके सामने खड़े वकीलों की काबिलीयत और तैयारी से भी प्रभावित होते हैं। और वकीलों का यह हुनर, और उनकी जिरह इस बात से तय होते हैं कि वे कितनी फीस पाने वाले हैं। इससे परे जैसा कि भारत के किसी भी दूसरे दायरे में होता है, न्यायप्रक्रिया किस हद तक भ्रष्ट है, वकील की उसे प्रभावित करने की कितनी क्षमता है, ये बातें भी कुछ या अधिक हद तक फैसलों को प्रभावित करती हैं। गरीब लोग, कमजोर तबके के लोग किसी ताकतवर के सामने इंसाफ पाने की बड़ी कम संभावना रखते हैं, क्योंकि जांच एजेंसियों की बांहें भी ताकत मोड़ लेती है। कई लोग ऐसी राजनीतिक या सरकारी ताकत वाले रहते हैं कि जांच एजेंसियों के वकील भी कुछ शांत रह जाते हैं, जमानत या अग्रिम जमानत का जमकर विरोध नहीं करते।
 
हम आज पूरी की पूरी न्यायप्रक्रिया को लेकर बात करना नहीं चाहते, लेकिन हम सिर्फ जमानत और अग्रिम जमानत के बहुत ही अस्पष्ट और धुंध भरे दायरे की बात करना चाहते हैं, जिसका मजा ऐसे आरोपी और अभियुक्त सबसे अधिक लेते हैं जो कि पहली नजर में मुजरिम लगते हैं, बड़े-बड़े वकील खड़े कर पाने की जिनकी ताकत रहती है, और जो लंबे समय तक फरार रहने का इंतजाम भी रखते हैं। हम कानून के जानकार नहीं हैं, और महज सामान्य समझबूझ से यह बात कर रहे हैं, इसलिए दिमाग पर कानूनी जानकारियों का कोई दबाव भी नहीं है। अग्रिम जमानत के प्रावधान चाहे जिस वजह से बनाए गए हों, जब लोग महीनों तक फरार रहते हैं, पुलिस या दूसरी जांच एजेंसियां उन्हें पकडऩे के लिए ईनाम की मुनादी भी कर चुकी रहती हैं, तब उन्हें अग्रिम जमानत क्यों दी जानी चाहिए? अगर जांच एजेंसियों पर ऐसा शक है कि वे गिरफ्तारी के बाद उस व्यक्ति को मार सकती हैं, तो अदालत जांच एजेंसियों को कुछ अतिरिक्त सावधानी बरतने को कह सकती है। लेकिन लगातार फरार चलने वाले लोगों को अग्रिम जमानत क्यों दी जाए? क्या महज इसलिए कि वे महंगे वकील कर सकते हैं? या इसलिए कि वे इतने माहिर हैं, इतने ताकतवर हैं कि महीनों तक जांच एजेंसियों से छुपकर भी वकील कर सकते हैं? जब कभी बहुत ताकतवर और बहुत चर्चित, बहुत पैसेवाले, और बड़े ओहदे वाले लोगों को अग्रिम जमानत मिलती है, आम लोगों को यही लगता है कि जुर्म करने में कोई बुराई नहीं है, पकड़ में आने में बुराई है। अगर अग्रिम जमानत मिल जाती है, तो फिर और कोई सजा मानो बचती ही नहीं है। यह सिलसिला लोकतांत्रिक भावना के एकदम खिलाफ है क्योंकि गरीब लोग तो न इस तरह एजेंसियों से लुकाछिपी खेल सकते, और न ही ऐसे वकील करके नीचे से ऊपर की अदालत तक लड़ाई लड़ सकते। अग्रिम जमानत का आज का आम सिलसिला बड़ा ही अश्लील और हिंसक है, यह पूरी तरह अलोकतांत्रिक भी है जो कि समाज में असमानता को सामने रखता है। अग्रिम जमानत आमतौर पर संपन्न या ताकतवर को मिलती है, विपन्न या कमजोर को तो आनन-फानन गिरफ्तार हो जाने के बाद भी जमानत नहीं मिलती।
 

 
भारत चूंकि अपने आपको लोकतांत्रिक कहने में बड़े गर्व महसूस करता है, इसलिए भी उसके लिए यह जरूरी है कि वह एक लोकतांत्रिक वातावरण बनाने में भी भरोसा रखे। अब छत्तीसगढ़ में आज राजधानी रायपुर के दो बड़े मवाली सूदखोर भाईयों की फरारी के पांच महीने पूरे हो चुके हैं, वे पहली नजर में अरबपति दिखते हैं, और बिना सोने से लदे हुए उनकी एक भी तस्वीर नहीं है। अब फरारी के इन पांच महीनों में उनके वकील अग्रिम जमानत की अर्जियां लगाए जा रहे हैं, जो अब तक खारिज होती रही हैं, लेकिन वे पुलिस के घोषित ईनाम के बाद भी फरार चल रहे हैं। अब हमारे जैसी छोटी और साधारण समझ के लोगों को यह देखकर हैरानी होती है कि पुलिस तलाश के पांच महीने बाद भी जो लोग फरार चल रहे हैं, उनकी अग्रिम जमानत की अर्जी पर किसी अदालत को सुनवाई भी क्यों करनी चाहिए? हाईकोर्ट जैसी बड़ी अदालत को तो यह कहने का अधिकार रहना चाहिए कि पहले वे जांच एजेंसी के सामने पेश हों, और गिरफ्तारी के बाद जमानत की अर्जी दें। पुलिस महीनों तक ढूंढती रहे, और जिस दिन उन्हें अग्रिम जमानत मिले, उस दिन वे किसी दिव्य शक्ति की तरह पुलिस के सामने अवतरित हो जाएं, और पुलिस के मुंह पर अग्रिम जमानत फेंककर मारें, यह कहां का इंसाफ हो सकता है?
 
भारत की न्याय व्यवस्था में अगर आम जनता का विश्वास जगाना है, या  बनाए रखना है, तो संपन्न और विपन्न की कटघरे की ताकत में जमीन-आसमान का फर्क खत्म करना होगा। आज भारत में ताकतवर को सजा मिलने, या गरीब को इंसाफ मिलने की संभावनाएं बड़ी कम हैं। अब अदालत तो इसे समाज के भीतर की आर्थिक असमानता से जोडक़र जिम्मेदारी से अपने हाथ धो सकती हैं, लेकिन यह लोकतंत्र अदालत से ज्यादा बड़ा है, अदालत की सीमित सीमाओं से परे भी लोकतंत्र ऐसे रास्ते निकाल सकता है जिससे अदालतों में इंसाफ की संभावना कुछ बढ़े। इस बारे में गंभीरता से काम करना चाहिए, वरना अभी तो अदालतें साफ-साफ ताकतवर को कटघरे में बैठने के लिए कुर्सी देने वाली, और कमजोर-गरीब को कटघरे में घुटनों पर खड़ी करने वाली सरीखी दिखती हैं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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