संपादकीय
बिहार की एक रिपोर्ट अगर सिर्फ किसी अखबार या टीवी चैनल की रहती, तो उसे सनसनीखेज कहकर खारिज किया जा सकता था। लेकिन यह रिपोर्ट कुछ वैज्ञानिक संस्थानों की शोध रिपोर्ट पर आधारित है, और देश की एक सबसे प्रतिष्ठित पर्यावरण संस्था, सीएसई की पत्रिका डाऊन टू अर्थ की अपनी स्वतंत्र रिपोर्ट पर आधारित है, इसलिए इसे खारिज करना आसान नहीं है। बिहार के अलग-अलग कई जिलों में माताओं के दूध के नमूनों की जांच की गई, और उनमें यूरेनियम का प्रदूषण पाया गया। यह बहुत खतरनाक बात इसलिए है कि दुधमुंहे शिशु पूरी तरह मां की दूध पर निर्भर रहते हैं, और उसमें अगर यूरेनियम आकर उन बच्चों के लिए खतरा खड़ा कर रहा है, तो उन बच्चों के लिए इसका कोई विकल्प भी तो नहीं है।
इस मामले में किए गए सर्वे, अध्ययन, और शोध से यह पता लगा है कि जितनी भी माताओं के दूध की जांच की गई, उनमें सभी में यूरेनियम मिला है। यह जमीन के नीचे से आने वाले पानी में आने वाला प्रदूषण है, और ये सारी माताएं ऐसे ही पानी पर निर्भर हैं। छोटे बच्चे अपनी माताओं के मुकाबले भी ऐसे प्रदूषण के लिए अधिक संवेदनशील होते हैं, क्योंकि उनके शरीर का वजन कम होता है, उनके अंग, और उनका मस्तिष्क विकसित नहीं हुआ रहता, और उनकी पाचन शक्ति पेट में गई भारी धातुओं को आसानी से बाहर नहीं निकाल सकती। यूरेनियम के प्रदूषण से बच्चों की किडनी पर असर होता है, उन पर स्नायुसंबंधी (न्यूरोलॉजिकल) असर होता है, कैंसर का खतरा रहता है, और भी कई किस्म की गंभीर बीमारियां उनको हो सकती हैं। सीएसई के एक शोध के मुताबिक बिहार के 11 जिलों में भूजल में यूरेनियम की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन की सुझाई गई सीमा से बहुत ऊपर है, कई जिलों में तो यह दो-ढाई गुना से भी अधिक है। रिपोर्ट बताती हैं कि बिहार में गंगा तट के इलाके ऐसे प्रदूषण के लिए अधिक जाने जाते हैं। फिर भी डॉक्टरों का कहना है कि खतरे के बावजूद इन बच्चों से मां का दूध छुड़ाना नहीं चाहिए, क्योंकि उसका कोई बेहतर विकल्प इन बच्चों के लिए अभी उपलब्ध नहीं है। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट कहती है कि भूजल में प्रति लीटर में 30 माइक्रोग्राम से अधिक यूरेनियम मां के दूध में पहुंच सकता है। बिहार के जिलों में यह 66, 77, और 82 माइक्रोग्राम/लीटर तक मिला है।
अब देश के अलग-अलग हिस्सों में जमीन के भीतर के पानी में कई किस्म के खतरनाक प्रदूषण बने हुए हैं। छत्तीसगढ़ के ही गरियाबंद जिले के सुपेबेड़ा में प्रदूषित पानी की वजह से किडनी खराब होने से लगातार मौतें होती हैं, और करोड़ों खर्च करने के बाद भी वहां पानी से इस प्रदूषण को खत्म करने, या साफ पानी पहुंचाने का काम नहीं हो पाया है। देश के बहुत से हिस्सों में भूजल में फ्लोराइड, आर्सेनिक, ऐसे बहुत से नुकसानदेह रसायन मिले हुए हैं, और अलग-अलग इलाकों से भयानक तस्वीरें आती हैं जिनमें कहीं लोगों के दांत खराब हो गए हैं, कहीं उनकी हड्डियां कमजोर हो गई हैं, और बदन में पानी से जूझने वाली किडनी तो कई मामलों में खराब हो जाती है जो कि चेहरे से दिखती नहीं है। सरकार के ही कुछ आंकड़े बताते हैं कि देश में 16 करोड़ से अधिक लोगों को सुरक्षित पानी नहीं मिल रहा है। भयानक रसायनों के जमीन के नीचे के भंडारों से परे कई जगहों पर खेती में इस्तेमाल होने वाले, कारखानों में काम में लाए जाने वाले रसायनों को बह-बहकर भूजल में जाते पाया गया है, और उससे कैंसर जैसे खतरनाक रोग भी लोगों को हो रहे हैं।
जिन लोगों को यह लगता है कि वे अपने लिए घरों में तरह-तरह के महंगे फिल्टर लगाकर अपने पीने के पानी को साफ कर लेंगे, उन्हें यह समझना चाहिए कि उनके खाए जाने वाले फल और सब्जी भी प्रदूषित पानी से उगते हैं, और रासायनिक प्रदूषण उनमें से होते हुए बदन के भीतर पहुंचता रहता है। फल-सब्जी, या फसल में छिडक़ा जाने वाला, खेतों में जमीन में डाला जाने वाला रसायन और जहर भी घूम-फिरकर पानी तक भी पहुंचता है, और फसलों के रास्ते तो इंसानों के बदन में आता ही है। जहर से परे माइक्रोप्लास्टिक भी हर तरह के पानी में घुसकर लोगों के बदन में आता है, और अब वह इंसानों के खून में घूम रहा है, उनके दिमाग के भीतर भी पहुंच रहा है।
प्रदूषण जब तक लोगों की जिंदगियां खत्म नहीं करता, तब तक लोग उसकी परवाह नहीं करते। लेकिन आज हालत यह है कि दिल्ली में हवा जितनी जहरीली हो गई है, सिर्फ उसी की वजह से दस-बीस लाख लोग दिल्ली में मर रहे हैं, और लोगों की उम्र 8 बरस तक घट जा रही है। ये बातें हम किसी पार्टी के नेता के आरोपों से निकालकर नहीं कह रहे हैं, बल्कि ये वैज्ञानिक रिपोर्ट कहती हैं। यह नौबत किसी एक पार्टी के देश-प्रदेश में राज होने पर अचानक रातोंरात नहीं आ गई है, यह धीरे-धीरे बढ़ते हुए जहर का नतीजा है। यह सिलसिला हिन्दुस्तान में बहुत अधिक खतरनाक इसलिए है कि यहां औद्योगिक प्रदूषण पर किसी तरह का सरकारी, या अदालती काबू नहीं है। पर्यावरण के नियमों पर अमल इतना कमजोर है कि हर फैक्ट्रियां, जहर बनाने वाली हर कंपनी अपनी मर्जी का काम कर पाती हैं, और उन पर कोई रोक-टोक नहीं है। छत्तीसगढ़ में ही शराब बनाने वाले कुछ कारखाने अपना भयानक प्रदूषण सीधे नदी में डाल रहे हैं, उनसे मरी हुई लाखों मछलियां तैरती हुई मिली हैं, हाईकोर्ट उस पर खफा भी हुआ है, लेकिन कारखाने और कारोबार की सेहत पर कोई आंच नहीं आई है।
मां के दूध में यूरेनियम मिलने पर भी अगर यह देश नहीं जागता है, तो इसे अगले सैकड़ों-हजारों बरस के लिए प्रदूषण की शिकार पीढिय़ां मिलना तय है। आज तो ऐसी भी पूरी वैज्ञानिक जानकारी नहीं है कि ऐसे प्रदूषण के शिकार लोगों की अगली कितनी पीढिय़ां प्रभावित रहेंगी। यह सिलसिला सरकार के भरोसे इसलिए नहीं छोड़ा जा सकता कि रोकथाम के सरकारी इंतजाम परले दर्जे के भ्रष्टाचार से लदे रहते हैं। अदालत के भरोसे इसलिए नहीं छोड़ा जा सकता कि जहर के कारोबारियों के महंगे वकील अदालत में जो चाहे साबित करते रहते हैं। जनता में जागरूकता की इतनी कमी है कि जहर का असर उसे आंखों से जब दिखने भी लगता है, तब भी वह शांत बैठी रहती है। इस देश के दुधमुंहे बच्चों का कोई वोट तो है नहीं कि उनकी सीधी फिक्र की जाए। फिर भी दुनिया का इतिहास जब लिखा जाएगा, तब बेजुबान बच्चों के साथ ऐसा जुल्म करने वाली पीढ़ी का नाम बड़े-बड़े काले अक्षरों में दर्ज होगा। क्या किसी को सचमुच इसकी फिक्र रह गई है?


