संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बीवी को नगर पंचायत अध्यक्ष का काम देकर छुट्टी पर गया अध्यक्ष!
सुनील कुमार ने लिखा है
07-Nov-2025 4:11 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : बीवी को नगर पंचायत अध्यक्ष का काम देकर छुट्टी पर गया अध्यक्ष!

छत्तीसगढ़ के बस्तर के पखांजूर की बड़ी दिलचस्प खबर आई है। वहां पखांजूर नगर पंचायत के अध्यक्ष ने अपने आपको लंबी छुट्टी पर जाना बताया है, और यह जानकारी देते हुए एक चिट्ठी लिखी है कि एक वार्ड की पार्षद उनकी पत्नी उनके न रहने पर उनकी जगह नगर पंचायत का पूरा कामकाज देखेगी। नारायण चन्द्र शाहा ने अपने सरकारी लेटरहेड पर नगर पंचायत के सभी अफसरों को निर्देश दिया है कि वे उनकी पत्नी मोनिका शाहा को पूरा सहयोग दें। वे समस्त प्रशासनिक, वित्तीय, एवं कार्यपालिक दायित्वों का निर्वहन करेंगी। भाजपा के इस नेता ने इस आदेश की एक कॉपी जिला भाजपा अध्यक्ष को भी भेजी है। उनकी पत्नी भी पहले नगर पंचायत अध्यक्ष रह चुकी हैं।

भाजपा के नगर पंचायत को इतना तो मालूम होगा कि उनकी पार्टी देश भर में परिवारवाद के खिलाफ एक आंदोलन चलाती रहती है। आज तो बिहार में चुनाव होने जा रहा है, और वहां भाजपा दो वंशवादी पार्टियों, कांग्रेस, और आरजेडी के गठबंधन के खिलाफ यह एक बड़ा मुद्दा इस्तेमाल करती है कि दोनों कुनबापरस्त पार्टियों को खारिज करना है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक आदर्श के रूप में पेश किया जाता है कि उनका परिवार राजनीति और सार्वजनिक जीवन में उनसे परे रहता है, और वे अपने परिवार के लिए कुछ भी नहीं करते हैं। हम अभी इस उदाहरण पर अधिक चर्चा नहीं कर रहे, लेकिन भाजपा के एक नगर पंचायत अध्यक्ष ने यह जो नया बखेड़ा खड़ा किया है, वह पार्टी की असुविधा से परे भी सरकारी कामकाज में एक बड़ी दखल है। लेकिन बस्तर के पखांजूर के एक नगर पंचायत अध्यक्ष को क्या कहा जाए जब दिल्ली में भाजपा की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता की सरकारी बैठकों में उनके पति उनके ठीक बगल की कुर्सी पर विराजमान रहते हैं। सोशल मीडिया पर फैली हुई तस्वीरों में 7 सितंबर की मुख्यमंत्री की बैठक में उनके पति, कारोबारी मनीष गुप्ता उनके बगल में बैठे थे। और ये तस्वीरें सीएम के सोशल मीडिया अकाऊंट पर खुद ही पोस्ट की गईं। इस पर विपक्षी पार्टियों ने इसे दिल्ली में दो सरकारें चलना करार दिया। इसके पहले अप्रैल में भी मुख्यमंत्री की एक बैठक में मनीष गुप्ता बैठे थे। मुख्यमंत्री के पति की कुछ और बैठकों का भी रिकॉर्ड सामने आया है, उन्होंने दिल्ली जल बोर्ड की बैठक लेकर निर्देश दिए कि यमुना की सफाई में तेजी लाएं। पीडब्ल्यूडी की सडक़ योजनाओं का रिव्यू किया, और फाईल पर दस्तखत भी किए। शिक्षा विभाग की बजट बैठक की अध्यक्षता की क्योंकि मुख्यमंत्री उसमें देर से पहुंची थीं। ऐसी चर्चा है कि सीएम के पति का कार्यालय नाम से एक कार्यालय मुख्यमंत्री सचिवालय में ऊपर बना हुआ है, जहां वे बैठकर फाईलें बुलवाते हैं।

अब छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ महीनों में कहीं-कहीं पर यह भी हुआ था कि ग्राम पंचायत या जनपद पंचायत की बैठकों में महिला पंच-सरपंच की जगह उनके पति पहुंचे थे, और कम से कम दो जगहों पर तो निर्वाचित महिलाओं की जगह उनके पतियों ने ही शपथ ली थी। शपथ दिलवाने वाले सरकारी अधिकारी का कहना था कि एक भी निर्वाचित महिला पहुंची नहीं थी, और उनकी जगह सिर्फ उनके पति आए थे, और उन्होंने ही शपथ ली। अब पखांजूर का यह मामला सामने आया है। जिस बिहार में मुख्यमंत्री लालू यादव ने जेल जाते हुए अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया था, उसी बिहार में अभी चुनाव हो रहा है, और भाजपा शुरू से ही राबड़ी देवी वाले मुद्दे को लेकर हमलावर रही है, वैसे में दिल्ली की मुख्यमंत्री का यह मामला पता नहीं कोई पार्टी वहां उठा सकेगी या नहीं, क्योंकि एनडीए में तो कोई भाजपा के खिलाफ बोल नहीं सकता, और एनडीए विरोधी महागठबंधन में दो-दो पार्टियां परिवारवाद से लदी हुई हैं।

 

यह तो ठीक है कि राजीव गांधी के समय से भारत में जो पंचायती व्यवस्था लागू हुई है, उसके चलते सभी प्रदेशों में महिला आरक्षण लागू हो गया है, और पंचायतों या म्युनिसिपलों में महिलाओं को कम या अधिक आजादी के साथ काम करने का मौका मिल रहा है। गिनी-चुनी जगहें ऐसी हैं जहां पर महिलाओं पर उनके पति बुरी तरह हावी हैं, और सरपंच पति को सांप, पार्षद पति को पाप, और विधायक पति को विपत्ति कहा जा सकता है। वे अधिकारियों पर एक दबाव बनाते हैं, और अपने आपको ही निर्वाचित साबित करने की कोशिश करते हैं। कुछ अधिकारी उनके दबाव में आ जाते हैं, और कुछ दूसरे अधिकारी ऐसे भी रहते हैं जो उनसे मिलने से इंकार कर देते हैं।

निर्वाचित, और सरकारी ओहदों पर बैठे हुए लोगों का परिवारप्रेम उन्हें ले डूबता है। हमने नीचे से ऊपर तक कई दर्जे के नेताओं को देखा है जिन्हें परिवार ने खत्म कर दिया। यह एक अलग बात है कि करीब-करीब हर नेता अपने परिवार के किसी व्यक्ति को कुर्सी देकर जाना चाहते हैं, मानो वह उनके अपने घर की खाने की मेज पर लगी हुई एक कुर्सी हो। सार्वजनिक जीवन में किसी भी दर्जे की कुनबापरस्ती का भरपूर विरोध होना चाहिए। भारत में परिवारों में पुरूषप्रधान व्यवस्था भी ऐसी नौबत लाती है कि महिला निर्वाचित होने पर उसके पति या बेटे कई किस्म के घोषित और अघोषित काम संभाल लेते हैं, और मोटी कमाई के चक्कर में रहते हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, क्योंकि इसके खत्म हुए बिना महिलाओं का आगे बढऩा भी प्रभावित होगा, हो ही रहा है। परिवार के किसी सदस्य को प्रतिनिधि बनाना भी खत्म होना चाहिए क्योंकि इससे यह साबित होता है कि पार्टियों और नेताओं के पास दूसरे कोई कार्यकर्ता काम करने वाले हैं ही नहीं। दिल्ली से लेकर बस्तर के पखांजूर तक भाजपा के कई नेता कुनबापरस्ती में लगे हैं, और सभी पार्टियों को ऐसी कमजोरी के बारे में सोचना चाहिए।

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