संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : इनको मालूम है जातियों की हकीकत लेकिन...
सुनील कुमार ने लिखा है
23-Nov-2025 4:01 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : इनको मालूम है जातियों की हकीकत लेकिन...

अभी-अभी बिहार के चुनाव निपटे तो जातियों की चर्चा इस प्रदेश की राजनीति को लेकर, और समाज के बाकी दायरों को लेकर भी खूब बढ़-चढक़र हुई। इस बीच एक रिपोर्ट बिहार के जातिवाद पर इस चुनाव के पहले की भी सामने आई। देश के एक प्रतिष्ठित मैनेजमेंट संस्थान, आईआईएम बेंगलोर के एक अध्ययन में यह पाया गया है कि बिहार के सरकारी स्कूलों में अलग-अलग जातियों के छात्र परीक्षाओं में जो नंबर पाते हैं, उन बच्चों के शिक्षकों की धारणाएं उनसे अलग रहती हैं, और वह जातियों से प्रभावित रहती हैं। पिछड़ी जातियों के छात्र-छात्राओं की क्षमता को उनके परीक्षा-परिणामों के मुकाबले भी कम आंका जाता है, और आईआईएम का यह अध्ययन कहता है कि यह शिक्षकों के ‘मूल्यांकन पक्षपात’ की वजह से होता है। तथाकथित शिक्षकों से जब परीक्षा परिणामों से परे छात्रों का अपने अंदाज से मूल्यांकन करने कहा गया, अगड़ी जातियों के शिक्षकों का अंदाज पिछड़ी जातियों के बच्चों के प्रतिकूल ही रहा। पिछड़ी जातियों के जिन बच्चों के अंक सवर्ण छात्रों के बराबर थे, उन्हें भी शिक्षक के गैरइम्तिहानी मूल्यांकन में सवर्ण बच्चों से कमजोर बताया गया। आईआईएम के इस शोध को करने वाले दो वरिष्ठ प्राध्यापक सोहम साहू, और ऋत्विक बनर्जी थे, जिन्होंने बिहार के 105 सरकारी स्कूलों के आंकड़ों का विश्लेषण किया, और छात्रों, शिक्षक, परिवारों, और स्कूलों का विस्तृत सर्वेक्षण भी किया। शोधकर्ताओं का यह निष्कर्ष है कि ऐसा पूर्वाग्रही आंकलन लंबे समय में पिछड़ी जातियों, जिसमें ओबीसी से परे एसटी-एससी भी शामिल हैं, छात्र-छात्राओं का आत्मविश्वास तोड़ता है और धीरे-धीरे जाकर एक असली शैक्षणिक अंतर पैदा होने लगता है। उन्होंने इसे पिग्मेलियन इफेक्ट कहा है जिसमें टीचर की अपेक्षाएं ही छात्रों के नतीजे तय करने लगती हैं।

अभी हम एक जिम्मेदार संस्थान के दो वरिष्ठ शोधकर्ताओं की इस रिपोर्ट की अधिक बारीकियों पर जाना नहीं चाहते, लेकिन इससे जुड़ी हुई, और इससे बिल्कुल अलग भी, एक दूसरी खबर पर जाना चाहते हैं, जो कि मध्यप्रदेश से आई है। यह खबर वहां पर सिविल जज-2022 की परीक्षा के बारे में है जिसमें आदिवासियों के लिए 121 पद आरक्षित थे, लेकिन चयन एक का भी नहीं हुआ। मध्यप्रदेश में आदिवासी आबादी 20 फीसदी है, और संख्या डेढ़ करोड़ से अधिक है। यह भी 15 बरस पहले की 2011 की जनगणना का कहना है। अब अगर डेढ़-दो करोड़ आबादी में सिविल जज बनने के लिए 121 आदिवासी भी तैयार नहीं हो पाए, या उन्हें छांटा नहीं गया, तो यह बहुत ही शर्मनाक नौबत है। दो दिन पहले ही मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने इस नौबत को देखकर बड़ा सख्त रूख दिखाया, और अदालत ने दिसंबर तक नई चयन सूची पेश करने के लिए कहा है। इस मामले में सामाजिक न्याय के लिए बने वकीलों के एक संगठन ने अदालत में अपील की थी, और कहा था कि आदिवासी वर्ग के प्रतियोगियों पर सामान्य वर्ग के बराबर कटऑफ लागू कर दिया गया था। न्यूनतम योग्यता में छूट नहीं दी, और साक्षात्कार में कम अंक देकर भेदभाव दिखाया गया। इस इम्तिहान में सरकार की अपनी बनाई हुई शर्तों के खिलाफ जाकर एसटी-एससी प्रतियोगियों पर गलत शर्तें लागू की गईं।

बिहार के स्कूलों और मध्यप्रदेश के इस इम्तिहान का आपस में कोई सीधा संबंध नहीं है, सिवाय इसके कि इससे यह साबित होता है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है। जिन लोगों को यह लगता है कि जाति व्यवस्था टूट चुकी है, आरक्षण खत्म कर देना चाहिए, उनकी इस सोच से ही उनके जाति-वर्ग का अंदाज लगाया जा सकता है। एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आज से करीब 35 साल पहले एक इंटरव्यू में जाति व्यवस्था खत्म हो जाने के बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में कहा था कि जिन लोगों के पांव में बूट है, उन्हें जिनके पांव कुचले जाते हैं, उनका दर्द पता नहीं चलता। आज जाति की हालत वैसी ही है। जिन्हें अगड़ी जातियां कहा जाता है, उन्हें अपनी जातियों पर बात-बात पर अहंकार होने लगता है, वे बात-बात में एसटी-एससी, और आरक्षण पाने वाली ओबीसी को सरकारी दामाद कहने लगते हैं, उनकी जुबान, चेहरे के भाव, और आवाज से हिंसक हिकारत टपकने लगती है। उन्हें कुछ मिनट सुन लें तो यह समझ आ जाता है कि आरक्षित वर्गों के वकीलों और उनके तर्कों को सुनने की जरूरत ही नहीं है, अनारक्षित वर्ग के लोगों की हिंसक बातें ही उनके खिलाफ वकील की तरह खड़ी रहती है। देश में यह नौबत जाने कब सुधरेगी, जल्द तो सुधरने का कोई आसार नहीं है।

भारत में दलित प्रताडऩा की घटनाएं होती ही रहती हैं। अभी जून के महीने में ओडिशा के गंजाम जिले में दो दलितों के बाल काटे गए, उन्हें घास खाने और नाली का गंदा पानी पीने के लिए मजबूर किया गया। हिमाचल में 12 साल एक दलित लडक़े ने जातिगत प्रताडऩा की वजह से खुदकुशी कर ली। ऐसी घटनाएं कई जगह होती रहती है। जिस तमिलनाडु में दलितों की हिमायती राज्य सरकार है वहां अभी कुछ अरसा पहले 19 साल के दलित नौजवान को जातिगत गालियों के साथ पीटा गया, और उसकी मौत हो गई। बिहार के मुजफ्फरपुर में एक दलित नाबालिग लडक़ी के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ, और उसे झाडिय़ों में फेंक दिया गया। इसी के समानांतर एक दूसरा सुहाना सफर चलते रहता है दलित पर्यटन का। अलग-अलग जगह, अलग-अलग पार्टियों के नेता दलितों के घर जाकर वहां शायद बाहर से लाए गए बर्तन और पकवानों के भोज पर बैठकर दलित-उद्धार का दिखावा करते हैं। देश में ऐसे दलित पर्यटन की घटनाएं साल भर में अधिक होती हैं, या दलित प्रताडऩा की घटनाएं, यह मुकाबला देख पाना आसान नहीं है। और फिर नेताओं और पार्टियों की राजनीतिक नीयत को देखें, तो लगता है कि दलित के घर खाना भी एक किस्म से दलित शोषण और प्रताडऩा ही है, फिर चाहे वह किसी भी पार्टी के नेता क्यों न करते हों।

बिहार से लेकर मध्यप्रदेश होकर हम पूरे देश में जातिवाद के मुद्दे पर एक नजर डाल रहे हैं, और उन लोगों की सोच पर हैरान हो रहे हैं जिन्हें लगता है कि देश में जातिवाद खत्म हो चुका है, अब आरक्षण खत्म कर देना चाहिए। उनका ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि दे, क्योंकि वे नहीं जानते कि वे क्या कह रहे हैं।

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